PALTUDAS

Sapna Yeh Sansar 14

Fourteenth Discourse from the series of 20 discourses - Sapna Yeh Sansar by Osho. These discourses were given during JUL 11-30 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है। लोहा पारस हो जाए, क्या यह संभव है?
साधु शरण! लोहा न तो सोना होता और न पारस। पारस तो केवल एक प्रतीक है। प्रतीक की तरह बहुमूल्य है; यथार्थ की तरह तो झूठ है। पारस तथ्य नहीं है, एक सत्य है।
तथ्य और सत्य के भेद को ठीक से समझ लेना।
तथ्य तो उसे कहते हैं, जिसका अस्तित्व है। विज्ञान की पकड़ में जो आ सके, तराजू पर तौला जा सके, हाथ जिसे छू सकें, आंख जिसे देख सकें; जिसका रूप है, आकृति है, वजन है। तथ्य तो भौतिक होता, सत्य अभौतिक। न तराजू तौल सकता है, न हाथ छू सकते हैं, न आंख देख सकती हैं। सत्य का ही मूल्य है। सत्य की ही गरिमा है। और जब हम प्रतीकों का प्रयोग करते हैं, तो सदा स्मरण रखना, वे तथ्य नहीं हैं, सत्य हैं।
पारस एक सत्य है। सत्संग के लिए किया गया एक अनूठा काव्यात्मक प्रतीक। सदगुरु के साथ जुड़ जाए कोई, समग्ररूपेण, तो उस संस्पर्श में लोहा सोना हो जाता है। लोहा सोना हो जाता है, इसका अर्थ ही यह हुआ कि लोहा तो सोना था ही, सिर्फ सोया था। और उसे अपना बोध न था। जगाने वाले ने जगा दिया। तुम मुर्दा को नहीं जगा सकते हो, तुम सोए आदमी को जगा सकते हो।
मुर्दा और सोया हुआ आदमी दोनों एक से मालूम पड़ते हैं, एक से नहीं हैं। बड़ा भेद है। जमीन-आसमान का भेद है। मुर्दा जगाया नहीं जा सकता। सोया हुआ आदमी जगाया जा सकता है। सोया हुआ आदमी जागने में संपूर्ण रूप से कुशल है, क्षमतावान है। उसकी संभावना है जागना, इसीलिए सोया है। सोता वही है जो जाग सकता है। जागता वही है जो सो सकता है।
सोना और जागना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
लोहा सोना हो जाता है, इसका अर्थ इतना ही है कि लोहा सोना था ही। पारस ने झकझोर दिया, लोहे को याद आ गई कि मैं कौन हूं। नहीं कि लोहा था और सोना हो गया। बस इतना ही कि स्मरण न था और स्मरण आ गया। बेहोशी थी, बेहोशी टूट गई। अपने को ही भूला बैठा था, सुरति आ गई। सत्संग है सुरति को जगाने की प्रक्रिया। और निश्चित ही कोई जागा हुआ ही सोए हुए को जगा सकता है। सोया हुआ तो सोए हुए को कैसे जगाएगा? सोया हुआ तो हो सकता है जागे हुए को भी सुलाने लगे।
तुमने कभी खयाल किया होगा, तुम्हारे पास अगर कोई आदमी बैठा-बैठा ऊंघने लगे, जम्हाई लेने लगे, तो तुम्हें भी ऊंघ आने लगेगी, जम्हाई आने लगेगी। उसकी नींद तुम्हें भी पकड़ने लगेगी। उसकी नींद संक्रामक है। और यह तो साधारण नींद है, आध्यात्मिक नींद तो और भी गहरी जाती है। और तुम नींद से भरे हुए लोगों से ही मिलते हो। उनसे ही तुम्हारे संबंध हैं, नाते हैं, रिश्ते हैं। चारों तरफ सोए हुए लोगों की दुनिया है। इस सोए हुए लोगों के सागर में जागना बड़ा असंभव मालूम होता है। यहां तो सौभाग्यशाली है वह जो किसी जागे हुए के साथ हो ले!
जागे हुए के साथ हो लो, तो जैसे नींद संक्रामक है वैसे ही जागरण भी संक्रामक है।
सत्संग का अर्थ है: कोई जागा है, तुम सोए हो, तुमने जागे हुए का हाथ पकड़ लिया। तुमने जागे हुए से इतनी प्रार्थना की कि मैं तो सो-सो जाऊंगा, मुझे भूल मत जाना, मुझे जगाए जाना। मैं तो बार-बार बेहोश हो जाऊंगा, छोड़ मत देना आशा मुझ पर, चेष्टा जारी रखना।
लोहा सोना नहीं होता, सोना ही है लोहा। इसीलिए सोना हो जाता है। लोहा पारस भी नहीं होता। लेकिन लोहा जैसे सोना है सोया हुआ, जागने लगे तो सोना होने लगे; जिस दिन परिपूर्ण जागरण घटता है कि फिर लौट कर सोने की कोई संभावना न रही, उस दिन लोहा भी पारस हो गया। पारस का अर्थ है: अब वह दूसरों को भी जगाने में समर्थ हो गया।
जो सोया है, वह एक आदमी है; जो अधजागा है, वह; और फिर जो पूर्ण जागा, वह--ये तीन स्थितियां हैं जागरण की। बिलकुल सोया है जो, वह तो मानता ही नहीं कि मैं सोया हूं। यह नींद की पराकाष्ठा है कि जब सोया हुआ आदमी मानने को राजी नहीं होता कि मैं सोया हूं। इनकार करता है कि कौन कहता है कि मैं सोया हूं? मैं तो जागा हुआ हूं! मुझसे जागा हुआ और कौन है? यह नींद को बचाने की सबसे बड़ी व्यवस्था है। यह नींद की ईजाद है अपनी सुरक्षा के लिए; कि नींद तुम्हें धोखा देती है कि मैं तो जागा हुआ हूं। अब जागने का सवाल ही कहां है? बात ही न रही! सत्संग करूं क्यों? सत्य को उपलब्ध व्यक्तियों को खोजूं क्यों? कहीं झुकूं क्यों? मैं तो वहां हूं जहां होना चाहिए। इसी तरह प्रत्येक आदमी सोचता है। दुनिया में अधिक लोग इसी भांति सोचते हैं और इसी भांति जीवन को गंवा देते हैं।
सोचते हैं जागे हैं और गहरे सो रहे हैं। नींद में बड़बड़ा रहे हैं। बड़बड़ाने को ही सोचते हैं: ज्ञान। सपने चल रहे हैं, लेकिन सपनों को ही समझते हैं सत्य। जिंदगी ऐसे बीत जाती है। ऐसा अपूर्व अवसर इस भांति मिट्टी हो जाता है कि बहुत पछताओगे पीछे! लेकिन यह सामान्य दशा है आदमी की।
गुरजिएफ अपने कुछ शिष्यों को ले कर--तीस शिष्यों को ले कर--रूस के एक दूर एकांत कोने में, तिफलिस के पास ध्यान के प्रयोग करवा रहा था। जो प्रयोग था, कठिन था। जन्मों-जन्मों से सोए आदमी को जगाना आसान है भी नहीं! उसने जो प्रयोग दिया था, वह यह था--एक ही बंगले में तीस लोग थे गुरजिएफ के साथ और उसने तीसों को कहा हुआ था कि तुम इस तरह रहना इस बंगले में जैसे उनतीस हैं ही नहीं। तुम ऐसे ही रहना जैसे तुम अकेले हो। उनतीस को भूलने की कोशिश करना।
क्यों?
क्योंकि इन उनतीस को तुमने याद रखा, तो तुम अपनी याद न कर सकोगे। यह उनतीस ही तो भीड़ है। यही तो समाज है। यही तो सोए हुए लोगों का जगत है। इनको तुम बिलकुल भूल जाओ। इनके पास से भी निकलो तो नमस्कार भी मत करना, मुस्कुराना भी मत, इंगित-इशारा भी मत करना दूसरे का कि वह है। चलते वक्त दूसरे के शरीर को तुमसे ठोकर भी लग जाए तो रुक कर क्षमा भी नहीं मांगना। है ही नहीं दूसरा यहां कोई, तुम अकेले हो। और गुरजिएफ ने कहा, जिसने भी इस तरह का सबूत दिया कि वह दूसरे को भी स्वीकार करता है, उसे मैं निकाल बाहर कर दूंगा। और स्वभावतः जब कोई है ही नहीं, तो बात किससे करनी है! इसलिए पूर्ण मौन।
तीन दिन बीतते-बीतते सत्ताईस आदमी विदा कर दिए गए। बड़ा मुश्किल मामला था। छोटा सा बंगला, उसमें तीस आदमियों का रहना--एक-एक कमरे में सात-सात आठ-आठ आदमी बैठे हुए हैं--कैसे बचोगे यह सोचने से कि दूसरे नहीं हैं? तीन व्यक्ति बचे। और महीना पूरे होते-होते केवल एक व्यक्ति बचा। वही व्यक्ति था पी. डी. आस्पेंस्की, जिसने गुरजिएफ की विचारधारा को सारे जगत में फैलाया।
तीन महीने पूरे हो जाने पर गुरजिएफ उसे लेकर बाजार में गया, तिफलिस के बाजार में गया। घुमाया सारा बाजार। लौट कर तीन महीने के बाद पहली दफा पूछा कि बाजार में क्या देखा! ऑस्पेंस्की ने कहा कि हर आदमी को सोया हुआ देखा। सोए हुए लोग चल रहे हैं, सोए हुए लोग दुकान कर रहे हैं, सोए हुए लोग सामान खरीद रहे हैं; सोयों की बस्ती देखी! ऐसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था, क्योंकि मैं खुद ही सोया था। पागलों को देखा। ऐसा मैंने कभी नहीं देखा था, क्योंकि मैं खुद ही पागल था। विक्षिप्त, स्वप्नलीन, निद्रित भीड़-भाड़ देखी। व्यर्थ का शोरगुल देखा। जिसमें कुछ अर्थ नहीं है, जिसका कोई प्रयोजन नहीं है। लोग नाहक यहां से वहां भाग रहे हैं। अपने को व्यस्त किए हैं। मगर यह मैंने पहली दफा देखा। इन तीन महीनों में जो शांति उपलब्ध हुई, उसने यह क्षमता दी, यह आंख दी।
गुरजिएफ एक जागा हुआ आदमी। ऑस्पेंस्की एक सोया हुआ आदमी था, लेकिन जागा। जागने लगा, नींद टूटने लगी, सपने उखड़ने लगे। थोड़ा-थोड़ा होश आने लगा।
जागरण और निद्रा के बीच की अवस्था को योग में तंद्रा कहते हैं। थोड़े-थोड़े जागे, थोड़े-थोड़े सोए। साधारण आदमी बिलकुल सोया है, सत्संगी तंद्रा में होता है--थोड़ा जागा, थोड़ा सोया। सोना हो गया लोहा, यह अर्थ है इस प्रतीक का। फिर जब पूरा जाग जाएगा, जब शिष्य शिष्य ही नहीं रह जाएगा वरन सदगुरु होने की स्थिति पा लेगा--सदगुरु होने की स्थिति का अर्थ है: अब न केवल खुद जाग गया है बल्कि समर्थ हो गया कि औरों को भी जगा दे--तब पारस हो गया।
साधु शरण, लोहा तो लोहा ही रहता है, कैसे सोना होगा, कैसे पारस होगा? मगर यह लोहे की बात नहीं है, यह किसी और ही तल की बात हो रही है--लोहा तो प्रतीक है। यह सोए हुए आदमी का नाम लोहा, अधजगे आदमी का नाम सोना, पूर्णरूप से जागे हुए बुद्धपुरुष का नाम पारस। अगर प्रतीक समझ में आ जाए, तो तुमने सत्य समझा। और अगर प्रतीक को तुमने मुट्ठी में बांध लिया और उसी को समझे कि यही यथार्थ है, तो तुम मूढ़ता में पड़ जाओगे। बहुत से मूढ़ लोग इसी कोशिश में लगे रहे हैं--कई पारस की तलाश करते हैं, सदियों से, सारी दुनिया में, न मालूम कितने लोगों ने जीवन बरबाद किया, पारस पत्थर की तलाश कर रहे हैं! उनका खयाल है कि कहीं किसी झील में, किसी पहाड़ पर, किसी खदान में पारस पत्थर मिल जाएगा। फिर क्या कहने हैं! छुएंगे लोहा और सोना हो जाएगा! ऐसा पारस पत्थर कहीं भी नहीं है।
ऐसा पूरब में ही रहा, ऐसा नहीं, पश्चिम में भी। इसी के समानांतर पश्चिम में कीमियागर हुए, अल्केमिस्ट हुए। उन्होंने पूरी जिंदगी इसी बात में गंवाई कि किस तरह हम यह सूत्र खोज लें, तरकीब खोज लें, फार्मूला खोज लें, जिससे कि लोहे को सोना बनाया जा सके। वे जिंदगी भर बड़े-बड़े प्रयोग करते रहे। एक प्रतीक--काव्य-प्रतीक--जब मूढ़तापूर्ण ढंग से तथ्य की तरह पकड़ लिया जाता है, तो इसी तरह की अड़चनें होती हैं, इसी तरह के उपद्रव होते हैं।
और इस एक प्रतीक के संबंध में ऐसा नहीं हुआ, धर्मों के सारे प्रतीक ऐसे ही गलत हो गए हैं।
बुद्ध को ज्ञान हुआ, बौद्ध-शास्त्र कहते हैं: आकाश से फूलों की वर्षा शुरू हो गई। झर-झर-झर आकाश से फूल झरने लगे। अलौकिक फूल, अलौकिक उनकी गंध। वे पृथ्वी के नहीं थे, आकाश के फूल थे। बौद्ध कहते हैं, ऐसा सच में हुआ। यह ऐतिहासिक तथ्य है, वे कहते हैं। उन्हें कुछ पता नहीं कि इससे इतिहास का कोई संबंध नहीं है। आकाश को क्या पड़ी है फूल बरसाने की! ऐसे कहीं फूल गिरते हैं! फिर किसी और बुद्धपुरुष के जीवन में ऐसा उल्लेख नहीं है। महावीर भी बुद्धत्व को उपलब्ध हुए--नेमि और पार्श्व, कृष्ण और पतंजलि, जरथुस्त्र और जीसस--लेकिन फूल किसी पर बरसे नहीं। यह काव्य-प्रतीक है। यह इस बात की खबर है कि अस्तित्व आनंदमग्न हुआ। यह इस बात की खबर है कि अस्तित्व खिल गया बुद्ध के साथ। प्रमुदित हो गया। जैसे सुबह सूरज निकले और फूल खिल जाएं; जैसे वसंत आए और फूल झर-झर झरने लगें, ऐसा बुद्ध के भीतर बुद्धत्व क्या आया, सारे अस्तित्व में आनंद की लहर दौड़ गई। इस बात को कैसे कहें कि अस्तित्व उत्सवमय हो गया?
बुद्ध ने कहा है: जिस दिन मैं बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ, उस दिन मेरे साथ सारा अस्तित्व बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया। बुद्ध यह कह रहे हैं, उस दिन से मैंने फिर किसी को किसी और रूप में नहीं देखा। सोए हुए बुद्ध, भटके हुए बुद्ध--मगर बुद्ध तो बुद्ध हैं; चाहे सोए हों चाहे भटके हों; चाहे आंखों पर पट्टियां बांधे हों, चाहे कीचड़ में अपने को डुबा लिया हो; मगर बुद्ध तो बुद्ध हैं। हीरा तो हीरा है, कीचड़ में डाल दो तो भी हीरा है। कीचड़ हीरे को नष्ट नहीं कर पाएगी। तो बुद्ध यह कह रहे हैं: जब से मैं जागा और मैंने अपने भीतर देखा कौन है, तब से मुझे सबके भीतर वही ज्योति, वही प्रकाश, वही अमृत दिखाई पड़ने लगा है।
और जब एक व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, तो यह बिलकुल स्वाभाविक है कि सारे अस्तित्व में आनंद की, उल्लास की एक तरंग व्याप जाए। क्योंकि हम अस्तित्व से भिन्न नहीं हैं। अगर तुम्हारा हाथ बीमार था और स्वस्थ हो गया, तो क्या तुम्हारी पूरी देह को उसका स्वास्थ्य अनुभव नहीं होता? तुम्हारी आंख में एक कंकरी पड़ी थी और आंख दुखती थी, तो क्या पूरी देह को उसका दुख व्यापता नहीं था? और जब आंख से कंकड़ निकल जाएगा और आंख प्रसन्न होगी, स्वस्थ होगी, तो क्या पूरी देह में उसके स्वास्थ्य की छाप न पड़ेगी? प्रतिध्वनि नहीं होगी? हम इस अस्तित्व से भिन्न नहीं हैं, एक हैं। इसी बात की खबर देने के लिए यह प्रतीक है, यह काव्य-प्रतीक है कि झर-झर-झर फूल गिरने लगे आकाश से। आकाश ने उत्सव मनाया, दीवाली मनाई। दीये जल गए आकाश में। बे-मौसम के फूल खिल गए वृक्षों पर। सूखे वृक्षों में पत्ते आ गए। इनको तथ्य की तरह पकड़ोगे तो चूक जाओगे।
और दुनिया में दो ही तरह के मूढ़ हैं। एक हैं जो कहते हैं, ये तथ्य की तरह सत्य हैं। और फिर दूसरे हैं जो सिद्ध करने में लग जाते हैं कि ऐसा हो ही नहीं सकता; यह असंभव है। और दोनों सिरफोड़ी करते हैं। और दोनों गलत हैं। काव्यों को समझने का यह कोई ढंग नहीं।
जीसस के संबंध में उल्लेख है कि मरने के बाद वे पुनरुज्जीवित हो गए। यह प्रतीक है। यह काव्य-प्रतीक है। लेकिन ईसाई इसको जोर से पकड़े हुए हैं। उनका सारा धर्म इस पर टिका हुआ है। अगर यह सिद्ध हो जाए कि जीसस का पुनरुज्जीवन नहीं हुआ, तो ईसाइयत के प्राण निकल जाएंगे। रोम का चर्च तत्क्षण गिर जाएगा। बुनियाद का पत्थर खिसक जाएगा। पोप-पादरी विदा होने लगेंगे। उनका सारा का सारा अस्तित्व इस बात पर निर्भर है, इस झूठी बात पर कि जीसस पुनरुज्जीवित हुए।
इस जगत में मरने के बाद कोई पुनरुज्जीवित नहीं होता। इस जगत में कोई अपवाद नहीं होते। इस जगत में नियम सब के लिए समान हैं। यहां न कोई विशिष्ट है, न कोई हीन है। यह अस्तित्व सब के प्रति समभावी है। होना भी यही चाहिए। अगर अस्तित्व भी समभावी न हो, अगर यह भी पक्षपात करता हो--कि जीसस मरें तो पुनरुज्जीवित कर दे, और कोई दूसरा मरे--ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा--तो उसकी फिकर ही न करे, तो तो यह अस्तित्व भी फिर बड़े अन्याय से भरा हुआ हो गया। जीसस के साथ दो चोरों को भी सूली हुई थी। वे तो मरे ही रहे और जीसस पुनरुज्जीवित हो गए। नहीं, यह पुनरुज्जीवन की बात तथ्य नहीं है। सत्य जरूर है। प्रतीक है।
इस प्रतीक में यह बड़ी गहन बात छिपी है कि जीसस जैसे व्यक्ति मरते ही नहीं। तुम लाख मारो, नहीं मरते। मारे-मारे भी नहीं मरते। क्योंकि जीसस ने जान लिया जीवन की शाश्वतता को, उसकी अमरता को। उन्होंने जान लिया कि न तो जन्म में मेरा जन्म है और न मृत्यु में मेरी मृत्यु है। उन्होंने जान लिया कि मैं जन्म के पहले भी था और मृत्यु के बाद भी हूं। जिनको समाधि उपलब्ध हुई है, उनकी फिर मृत्यु कैसी! इस अनूठे सत्य को कहने के लिए यह पुनरुज्जीवन की कथा है। लेकिन तुम जिद करके अगर तथ्यों की तरह पकड़ लो तो मुश्किल हो जाती है।
मैंने सुना है, एक गणितज्ञ ने विवाह किया। पत्नी उसकी कवयित्री थी। पत्नी ने सुहागरात के दिन... और क्या करती, काव्य उसके हृदय में था; रसविभोर थी... एक गीत लिखा। गीत अपने पति को सुनाया। मगर वह यह भूल गई कि पति गणितज्ञ है। और गणित की भाषा अलग है, काव्य की भाषा अलग है। उनके लोक अलग, उनके आयाम अलग, उनके आकाश अलग। पति ने तो गीत ऐसे सुना कि जैसे पत्नी पागल हो। क्योंकि पत्नी ने गीत में कहा था कि मेरे प्रिय, आकाश में चांद को देख कर मुझे तुम ही दिखाई पड़ते हो चांद में। तुम्हें देखती हूं, तुम्हारे चेहरे में मुझे आकाश का चांद दिखाई पड़ता है। पति ने कहा: ठहरो। कहां चांद और कहां आदमी का चेहरा! चांद कितना वजनी, कितना बड़ा और कहां आदमी का चेहरा! मैं तो दब कर ही मर जाऊंगा अगर मेरे सिर पर कोई चांद रख दे। और चांद और मेरे चेहरे में क्या तालमेल है? चांद में गड्ढे हैं--बड़े-बड़े गड्ढे हैं; ऊंच-नीचे, ऊबड़-खाबड़--तुझे मेरा चेहरा ऐसा ऊबड़-खाबड़ दिखाई पड़ता है?
पत्नी तो चौंकी होगी! संवाद असंभव हो गया होगा। वे दोनों अलग भाषाएं बोल रहे हैं। वे दोनों एक-दूसरे की भाषा नहीं समझ सकते हैं।
और यही भ्रांति बढ़ती चली गई है। क्योंकि तुम्हें शिक्षा दी जाती है गणित की, विज्ञान की, भौतिकशास्त्र की, रसायनशास्त्र की। तुम्हारा सारा का सारा मस्तिष्क तैयार किया जाता है तथ्यों के लिए। इसलिए दुनिया में काव्य रोज-रोज मरता गया है। कविता रोज-रोज तिरोहित होती गई है। अब दुनिया में कालिदास, भवभूति, मिल्टन, शेली, रवींद्रनाथ के होने की संभावना रोज-रोज कम होती जाती है--रोज-रोज कम होती जाती है! अब तो कवि भी जो कविता लिखते हैं, वह कचरे जैसी होती है। अब तो कवि भी कविता लिखते हैं तो तथ्यों की ही बात होती है, सत्यों की नहीं। अब तो कवि भी हिम्मत नहीं जुटा पाते कि सत्यों की बात करें; क्योंकि लोग कहेंगे--पागल हो!
विनसेंट वानगॉग पश्चिम का एक बहुत बड़ा चित्रकार हुआ। उसके चित्र उसकी जिंदगी में समझे नहीं जा सके। क्योंकि उसके चित्र तथ्यगत नहीं थे। उसके चित्रों में सत्य तो बहुत थे, लेकिन तथ्य बिलकुल नहीं थे। तथ्यों के विपरीत थे। जैसे उसने एक चित्र बनाया, जिसमें वृक्ष इतने ऊंचे हैं कि तारों के ऊपर निकल गए हैं। अब वृक्ष कहीं इतने ऊंचे होते हैं कि तारों के ऊपर निकल जाएं! तारे नीचे रह गए और वृक्ष ऊपर चले गए। किसी ने पूछा वानगॉग को कि यह तो बिलकुल कपोल-कल्पना है। इतने बड़े वृक्ष कहां होते हैं जो चांद-तारों के ऊपर निकल जाएं? वानगॉग ने कहा: मैं तो जब भी वृक्षों को देखता हूं, तो मुझे एक ही बात दिखाई पड़ती है कि वृक्ष हैं पृथ्वी की आत्मा की आकांक्षाएं चांद-तारों को पार करने की। आज नहीं पार हुए हैं तो कल हो जाएंगे। मैं भविष्य देख रहा हूं। पृथ्वी की आकांक्षा तारों को छू लेने की। जब भी मैं वृक्ष को देखता हूं तो बस मुझे ऐसा ही दिखाई पड़ता है--पृथ्वी के फैले हुए हाथ, भुजाएं आकाश में उठी हुईं, तारों को छूने की अभीप्सा, तारों के भी पार निकल जाने का प्रण। आज नहीं तो कल हो जाएगा, लेकिन मैं तो वैसा ही चित्रित करूंगा जैसा देखता हूं।
लेकिन यह देखना किसी द्रष्टा का होगा, ऋषि का होगा, कवि का होगा। यह देखना वैज्ञानिक का तो नहीं हो सकता। वैज्ञानिक तो कंधे बिचका कर अपने रास्ते पर हो जाएगा। कहेगा: दिमाग खराब है। होश की बातें करो!
इस बात को अगर तुम स्मरण रख सको, साधु शरण, तो फिर मैं तुमसे कहता हूं कि लोहा सोना हो जाता है; और, लोहा एक दिन पारस भी हो जाता है। मगर प्रतीक की तरह समझना। नहीं तो तुम तलाश करने लगो पारस पत्थर की।
कहानियां हैं कि लोगों ने पारस पत्थर की तलाश की। करीब-करीब इस देश के हर कोने में कहानियां हैं कि किसी झील में पारस पत्थर था।... मैं तो एक ऐसी झील पर गया, जहां मुझे यह कहानी बताई गई कि यहां पारस पत्थर है। और एक राजा ने बड़ी मेहनत की पारस पत्थर को खोजने की। झील में उसने हाथियों के पैरों में जंजीरें लोहे की बंधवा कर और चलवाया--क्योंकि झील गहरी है, हाथी ही चल सकते थे। हाथी चले। एक हाथी की जंजीर सोने की होकर वापस लौट आई। तो इतना तो पक्का हो गया कि पारस है, मगर उसको खोजें कैसे? बहुत हाथी चलाए, एक हाथी की जंजीर छू गई होगी--संयोगवशात। उस झील तक न मालूम कितने लोग पारस पत्थर की खोज में सदियों में आते रहे हैं।
इस तरह की मूढ़ता में मत पड़ जाना। ऐसा कोई पारस पत्थर नहीं है, ऐसी कोई झील नहीं है, ऐसा कोई लोहा नहीं है। तुम हो लोहा, जिसकी बात हो रही है। जागो तो सोना हो जाओ। और जगाने की क्षमता आ जाए तो तुम भी पारस हो?
कांटे क्या हैं? सुस्मृति हैं मधुभार धरे फूलों की।
आहें क्या हैं? विस्मृति हैं उन प्यार-भरी भूलों की।
पीड़ा क्या है? तड़पन है दुखियों के अंतस्तर की।
व्रीड़ा क्या है? क्रीड़ा है यौवन में अजर-अमर की।
वैभव क्या है? सपना है, इस छोटे से जीवन का।
अपना क्या है? खो देना, जीवन में अपनेपन का।
काव्य की भाषा समझना शुरू करो। क्योंकि धर्म की भाषा काव्य की भाषा के बहुत करीब है।
अपना क्या है? खो देना जीवन में अपनेपन का।
यह तो उलटबांसी हो गई!
अपना क्या है? खो देना जीवन में अपनेपन का।
जो स्वयं को खो देता है, वह स्वयं को पा लेता है। गणित ऐसी भाषा से राजी नहीं होगा। लेकिन काव्य जरूर राजी होगा। काव्य की दुनिया में तो कांटे भी फूल हो सकते हैं।
कांटे क्या हैं? सुस्मृति हैं मधुभार धरे फूलों की।
आहें क्या हैं? विस्मृति हैं उन प्यार-भरी भूलों की।
पीड़ा क्या है? तड़पन है दुखियों के अंतस्तर की।
व्रीड़ा क्या है? क्रीड़ा है यौवन में अजर-अमर की।
वैभव क्या है? सपना है, इस छोटे से जीवन का।
अपना क्या है? खो देना, जीवन में अपनेपन का।
धर्म काव्य के बहुत करीब है। गणित धर्म से बहुत दूर है। और तुम सब गणित की भाषा में रचे-पचे हो। बाजार में वही भाषा चलती है। काव्य की भाषा तो कहीं भी नहीं चलती। बाजार की तो छोड़ ही दो, प्रेमियों के बीच भी काव्य की भाषा नहीं चलती। मां और बेटे के बीच नहीं चलती, भाई-भाई के बीच नहीं चलती, मित्र-मित्र के बीच नहीं चलती। वहां भी गणित, वहां भी हिसाब, वहां भी दो-दो कौड़ी का मोल-तोल चलता है। हमने तो सारी जिंदगी बाजार बना दी है। हमने तो हर चीज दुकान बना दी है। और इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि काव्य को समझने में हम असमर्थ हो गए हैं। हमारी पहचान खो गई है। और जो काव्य को समझने में असमर्थ है, वह परमात्मा को न समझ पाएगा, क्योंकि परमात्मा परम काव्य है।
यह अस्तित्व है तथ्य और परमात्मा है इस अस्तित्व में छिपा हुआ परम काव्य। यह बदलियों से गिरती हुई बूंदों की टपटप, इसमें तुम्हें अगर सिर्फ पानी ही पानी मालूम पड़े--एच. टू. ओ. तो तुम्हें परमात्मा कहां मिलेगा? पानी का कितना ही विश्लेषण करो, एच. टू. ओ. तो मिलेगा, परमात्मा नहीं मिलेगा। लेकिन एक और ढंग है छप्पर पर गिरती इन बूंदों को सुनने का। एक और दृष्टि है, एक और भाव-दशा है--तल्लीन होने की, तन्मय होने की--तब इस बूंदाबांदी में एक संगीत पकड़ में आएगा। तब इस बूंदाबांदी में तुम अनुभव करोगे कुछ एच. टू. ओ. के पार, कुछ विज्ञान के पार। तब तुम्हें इसमें पृथ्वी की प्यास भी दिखाई पड़ेगी और आकाश की उत्कंठा भी पृथ्वी की प्यास को बुझा देने की। और तुम अगर आगे चलते रहे, बढ़ते रहे, इस भाषा को और-और गहराते रहे, तो एक दिन तुम्हें दिखाई पड़ेगा: ये पृथ्वी और आकाश अलग-अलग नहीं हैं; इंद्रधनुओं के सेतु से जुड़े हैं। यह सारा अस्तित्व इस भांति जुड़ा है कि एक ही है। एक ही स्पंदित हो रहा है, अनेक रूपों में, अनंत रूपों में। जानने वाले उसे बहुत-बहुत शब्दों में कहते हैं, मगर अनुभव उसका एक है।
विज्ञान से हटो काव्य पर, फिर काव्य से छलांग लो धर्म में--ये तीन सीढ़ियां हैं। मंदिर की तीन सीढ़ियां। और तब तुम मंदिर के अंतर्गृह में प्रवेश पा सकोगे।
तो मैं तुमसे कहता हूं कि सोना हो सकता है लोहा; लोहा पारस भी हो सकता है। मगर तुम हो वह लोहा। सत्संग करो तो सोना हो जाओ। सत्संग पूर्ण हो जाए तो पारस भी हो सकते हो। पारस होना तुम्हारी संभावना है। लेकिन नई भाषा सीखनी होगी, नई शैली सीखनी होगी, नये जीवन का ढंग, आचरण सीखना होगा। मैं उस जीवन शैली को ही संन्यास कहता हूं। वह यात्रा लोहे से पारस तक की, वही संन्यास है।
दीवानापन चाहिए इस यात्रा के लिए। बुद्धि तो दो कौड़ी की है, हृदय चाहिए इस यात्रा के लिए। बुद्धि यानी तथ्य की सीमा। हृदय यानी सत्य में प्रवेश।
मैं प्रिय का पथ अपनाता हूं
जो जी में आता गाता हूं
इतना कह सकता हूं, मुझको तो अपना ही होश नहीं है,
मेरा इसमें दोष नहीं है।

सुख-दुखमय चिर-चंचल मन है
मानव हूं, अपूर्ण जीवन है
इसलिए तो इस जीवन से आज मुझे संतोष नहीं है,
मेरा इसमें दोष नहीं है।

आशा अभिलाषा का धन है
सब कहते मुझमें यौवन है
तुम्हीं बता दो यौवन-मद में कौन हुआ मदहोश नहीं है,
मेरा इसमें दोष नहीं है।

इसका कहीं नहीं इति-अथ है
जीवन अमर साधना-पथ है
दुनिया जो कहना हो कह ले, मुझे किसी पर रोष नहीं है,
मेरा इसमें दोष नहीं है।

मैं प्रिय का पथ अपनाता हूं
जो जी में आता गाता हूं
इतना कह सकता हूं, मुझको तो अपना ही होश नहीं है,
मेरा इसमें दोष नहीं है।
प्रेम का मार्ग पकड़ो। तर्क का नहीं, प्रीति का। प्रीति से गांठ बांधो। प्रेम के फेरे जब तक नहीं लोगे तब तक परमात्मा से कोई संबंध न हो सकेगा। और दुनिया पागल कहेगी, यह पक्का मान लेना, पहले से ही मान लेना, जान कर चलना। कवियों को दुनिया ने सदा पागल कहा है। और ऋषियों को तो बिलकुल पागल कहा है। ऋषियों को कहा है: परम हंस। यह अच्छा शब्द है, बस; इसका अर्थ पागल होता है!
रामकृष्ण, रास्ते पर कोई जय रामजी कर लेता, वहीं खड़े होकर नाचने लगते थे। लोग कहते: परमहंस हैं। वैसे मतलब उनका यह था कि पागल हैं... अब पागल कहना ठीक नहीं मालूम पड़ता! रास्ते पर नाचना, यह कोई बात हुई। शिरडी के साईं बाबा अपने अंतिम क्षणों में गालियां बकते थे, पत्थर मारते थे। लोग प्रश्न पूछते, वे डंडा लेकर दौड़ते थे। लोग कहते: परमहंस हैं। लोग अच्छे-अच्छे शब्द उपयोग कर लेते हैं, लेकिन मतलब उनका यह है कि पागल हैं। अब इनको होश नहीं। अब ये अपने में नहीं। जो अपने में आ गया है, वह अपने में नहीं मालूम होता!
लेकिन जो समझ सकते थे, उन्हें कुछ और दिखाई पड़ा। शिरडी के साईं बाबा की गालियों में उन्हें दिखाई पड़ा कि वे हमें जगाने की आखिरी चेष्टा कर रहे हैं। जाने के पहले आखिरी उपाय, अथक चेष्टा। ऐसे नहीं जगे तो अब पत्थर मार कर जगा रहे हैं। ऐसे नहीं जगे तो अब डंडा मार कर जगा रहे हैं। बड़ी करुणा होगी! नहीं तो कौन इतनी झंझट मोल लेता है? एकाध दफा दे दी पुकार, बात खत्म हो गई। सुनी तो सुनी, नहीं सुनी तो तुम जानो। सुन ली तो ठीक, नहीं सुनी तो भाड़ में जाओ। लेकिन महा करुणा रही होगी इस मनुष्य में। कि छोड़ ही नहीं रहा है पीछा; कहता है कि जगा कर ही छोडूंगा। गाली देनी पड़ेगी तो गाली दूंगा।
कुछ लोग हैं जो सिर्फ गाली ही सुन कर जागेंगे। और किसी तरह जाग ही नहीं सकते। और तो हर चीज को वे लोरी समझते हैं। उनकी नींद और गहरा जाती है। वे और मस्ती के सपने देखने लगते हैं। इनको शायद गालियों की ही जरूरत है। शायद गालियां ही इन्हें चौकाएं, तिलमिलाएं। शायद कोई पत्थर मारे तो ही इन्हें थोड़ा होश आए। कोई डंडा लेकर इनके पीछे दौड़े तो उस घबड़ाहट में शायद इनकी नींद टूट जाए।
जो जानते थे, वे तो कहेंगे कि एक अथक चेष्टा हो रही है बुद्धपुरुष की। इस दृष्टि से बुद्ध से भी ज्यादा करुणा शिरडी के साईं बाबा ने दिखाई। मगर जो नहीं जानेंगे, भीतर तो समझेंगे पागल है, बाहर से कहेंगे: परमहंस है--क्योंकि डरते भी हैं कि पागल कहना ठीक नहीं, शिष्टाचार नहीं।
लोग तो तुम्हें पागल समझेंगे; लेकिन परमात्मा से तुम्हारे संबंध जुड़ने लगेंगे। और वही बात मूल्यवान है। वही बात निर्णायक है, लोग क्या समझते हैं इसका कोई मूल्य नहीं है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, नाम-जप करते-करते उम्र ढल गई। हाथ तो कभी कुछ लगा नहीं। लेकिन जब भी तथाकथित पंडित-पुजारियों, साधु-महात्माओं से पूछा तो उन्होंने कहा: बेटा, यह कार्य जन्मों की साधना से होता है। और जीवन के अंतिम पहर में अब आप मिले हैं तो लगता है कि मैं भी किन धोखेबाजों के चक्कर में पड़ा रहा! अब मैं क्या करूं?
गुरुदास! उनसे पूछोगे जिन्हें स्वयं नहीं मिला है, तो बेचारे वे भी क्या करें! तुम उनकी भी तो दुविधा समझो। जिन्हें स्वयं नहीं मिला है, अपनी अस्मिता को बचाने का उन्हें भी तो तुम कुछ उपाय दोगे या नहीं दोगे! वही उपाय है। वे तुमसे कहते हैं कि जन्मों-जन्मों की साधना से होता है, यह कोई एक दिन की बात नहीं है; कोई एक जन्म की बात नहीं है।
तिब्बत में एक बहुत प्रसिद्ध कथा है।
एक फकीर हुआ, उसकी बड़ी ख्याति फैलने लगी। ख्याति का कारण कि वह शिष्य नहीं बनाता था। लोग भी बड़े अजीब हैं! किस बात से ख्याति फैलाने लगेंगे, कुछ कहना कठिन है। शिष्य नहीं बनाता था, तो उन्होंने कहा: अहा! महात्मा हो तो ऐसा! अहंकार बिलकुल है ही नहीं। किसी को शिष्य बनाता ही नहीं। यह भाव ही नहीं है कि मैं जानता हूं और तुम नहीं जानते, तो शिष्य कैसे बनाए? शिष्य तो जो बनाते हैं, वे अहंकारी हैं। और यही बात वह फकीर लोगों से कहता भी था कि मुझे कोई अहंकार नहीं है, तो कैसे शिष्य बनाऊं? कौन शिष्य, कौन गुरु! बात जंचती। शिष्य जो बनने आते थे, उनको भी बड़ी प्रसन्नता होती यह बात जान कर कि हम में और गुरु में कोई भेद ही नहीं है। यही तो सुनना चाहते हैं लोग। झुकना कौन चाहता है! और यह आदमी बड़ा प्यारा है, झुकने की बात ही नहीं करता। कोई झुकना भी चाहे तो धक्के देकर निकाल देता था बाहर फकीर कि भाग जाओ, मैं किसी को शिष्य नहीं बनाता।
जितना भगाता उतने लोग और आते। लोग अजीब हैं, उनके अपने गणित हैं! भगाता है तो जरूर इसको हीरा मिल गया है। गांठ बांधे बैठा है, देना नहीं चाहता। भीड़ बढ़ती चली गई। लोग बहुत प्रार्थनाएं किए कि किसी को तो कान फूंक दो, किसी को तो ज्ञान दे दो। तुमने पा लिया, एक दिन चले जाओगे, कुंजी हमें सौंप जाओ। मगर वह था कि अड़ा ही रहा।
आखिर धीरे-धीरे लोग थक गए। एक सीमा होती है धैर्य की! लोग धीरे-धीरे आना बंद भी हो गए। सिर्फ एक आदमी रुका रहा। वह भी इसलिए रुका रहा कि उसे कोई और काम था भी नहीं कहीं, यहां फकीर की थोड़ी सेवा कर देता था, खाना-पीना मिल जाता था फकीर के पास, कपड़ा मिल जाता था, सुविधा थी।
एक दिन फकीर ने अचानक सुबह ही उससे कहा कि उठ-उठ, अब देर न कर, भाग कर नीचे जा मैदान में और जिनको भी शिष्य बनना हो, जल्दी ले आ! अब समय खोने को नहीं है। उसको तो भरोसा ही नहीं आया कि जिसने जीवन भर किसी को शिष्य नहीं बनाया, वह कह रहा है कि भाग, जा, किसी को भी ले आ! उसने पूछा कि आप क्या कह रहे हैं? होश में हैं? आपका दिमाग तो खराब नहीं हो गया? बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े बुद्धिमान आए और आपने धक्का देकर निकलवा दिए--मैंने ही धक्का दे-दे कर निकाले! अब आप कहते हैं, किसी को भी! पात्र-अपात्र का कोई हिसाब नहीं करना है! उसने कहा: अब तू समय खराब मत कर। जो भी आने को राजी हो, ले आ। पात्र-अपात्र की बात ही मत उठाना।
कहा फकीर ने तो वह गया। गांव में जाकर डुंडी पीट दी कि भाई, जिसको भी शिष्य होना हो...। बहुत लोग आते थे शिष्य होने--शायद इसी आशा में आते थे कि वह बनाएगा तो है ही नहीं, तो यह मौका भी क्यों चूको! कहने को रह जाएगा कि गए तो हम भी थे! उस दिन डुंडी पीटी शिष्य ने तो बामुश्किल शाम होते तक केवल दस-बारह आदमी इकट्ठे पर पाया--बामुश्किल। उसमें भी करीब-करीब सब बेकार थे। एक की पत्नी मर गई थी, वह खाली था, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था क्या करूं, क्या न करूं, उसने कहा: चलो यही ठीक, कुछ गोरखधंधा रहेगा! एक को नौकरी नहीं मिलती थी, वह बेकार था बहुत दिन से, उसने कहा: चलो भाई, मैं भी आता हूं। कोई सिर्फ जिज्ञासावश साथ हो लिया कि देखें! ऐसे दस-बारह आदमी इकट्ठा करके सांझ तक वह लौटा।
वह बड़ा चिंतित था मन में कि इनको देख कर गुरु क्या कहेगा? इनमें एक भी पात्र नहीं है। कोई की पत्नी मर गई, किसी का धंधा नहीं चल रहा है, किसी की नौकरी नहीं लग रही है; कोई जुए में हार गया है तो दुखी है; किसी का दीवाला निकल गया है तो वह आत्महत्या की सोच रहा था, उसने सोचा, चलो, आत्महत्या करने के पहले मंत्र ही ले लो, दीक्षा ही ले लो। मरना तो है ही। परमात्मा के सामने भी कुछ कहने को रह जाएगा। इस तरह के फिजूल के लोग। इनको गुरु क्या ज्ञान देगा? और गुरु ने बड़ी प्रसन्नता से उनका स्वागत किया, एक-एक को अंदर गुफा में ले जाकर, जो उसकी कुंजी थी, जिससे उसने पाया था, वह देने लगा। वे बारह ही आदमी बड़े चौंके। आखिर उन सब ने इकट्ठे होकर प्रार्थना की कि हम यह पूछना चाहते हैं कि हम में से पात्र कोई भी नहीं है--हम खुद ही जानते हैं अपनी अपात्रता; हम एक-दूसरे को भी भलीभांति जानते हैं! बड़े-बड़े पात्र आए, आपने इनकार कर दिए, आज हम अपात्रों को बुला कर आप बांट रहे हैं!
उस गुरु ने कहा: अब तुम नहीं मानते तो मैं सत्य बात तुमसे कह दूं। जब लोग मेरे पास शिष्य होने आते थे, तो मेरे पास कुछ देने को ही नहीं था। मुझे खुद ही नहीं मिला था। तो अपनी रक्षा करने का एक ही उपाय था कि मैं कहता था: मैं कोई शिष्य नहीं बनाता। मैं कोई अहंकारी नहीं हूं। शिष्य बनाता तो क्या खाक बनाता! मेरे पास देने को कुछ नहीं था। इसलिए मैं शिष्यों की पात्रता की बात करता था कि जब आएगा कोई पात्र, उसको बनाऊंगा। सचाई उलटी थी, पात्र मैं ही नहीं था। अब मैं पात्र हूं। मेरा पात्र लबालब भरा है। उसके रस से भर गया है। अब सवाल यह नहीं है कि तुम पात्र हो या नहीं? अंजुली में भर कर पी लो। मिट्टी के बर्तन लाओ कि सोने के बर्तन लाओ, तुम जैसे भी आओ, स्वीकृत हो। आज मेरे पास देने को है। आज मैं कोई शर्त नहीं लगाता। आज बेशर्त दूंगा। और मेरे पास समय भी कम है। बस तीन दिन मुझे जीना है और। मेरी नाव आ लगी किनारे, और जल्दी ही मुझे दूसरे किनारे की यात्रा पर निकल जाना है। इसके पहले कि मैं जाऊं, जितनों के पात्र भर सकूं, भर दूं। अब मैं यह क्या पूछूं कि तुम्हारा पात्र सोने का, कि पीतल का, कि लोहे का, कि मिट्टी का: कि गरीब का, कि अमीर का; कि सोना चढ़ा, हीरे जड़ा, कि दो कौड़ी का? कि तुम्हारे पास पात्र ही नहीं है तो तुम अपनी अंजुली ही बना लो; अगर अंजुली भी न बना सको तो अपना मुंह ही खोलो, मैं मुंह में ही सीधा ढाल दूंगा, मगर पी लो!
गुरुदास, तुम जिनके पास गए और तुमने उनसे कहा कि इतना नाम जप कर रहा हूं, उम्र बीत गई, कुछ हो नहीं रहा है, तो तुम उनकी भी मुसीबत समझो! वे करें क्या? या तो वे कहें कि नाम-जप से कुछ होता नहीं। तो उनका सारा धंधा गिर जाए। नाम-जप पर ही उनका सारा धंधा टिका हुआ है। या वे कहें कि भाई, हमें पता नहीं, किसी जानने वाले जागे पुरुष से पूछो, तो भी उनका धंधा गिर जाए। क्योंकि तुम तभी तक उनके पास जाओगे जब तक वे दावा करते हैं कि वे जानने वाले हैं। दोनों बातें वे नहीं कर सकते। तो तीसरी ही बात बचती है कि तुम अभी पात्र नहीं हो; और पात्रता जन्मों-जन्मों में मिलती है। यह कोई एक दिन का काम नहीं है।
मछली मारने के शौकीन ढब्बू जी एक दिन चंदूलाल को भी अपने साथ नदी के किनारे ले गए। एक बंसी उन्हें भी पकड़ा दी। बेचारे चंदूलाल क्या जानें मछली मारना? तीन-चार घंटे खूब भाग-दौड़ की, पसीना-पसीना हो गए। जब शाम को बिलकुल अंधेरा हो गया, तब वे अपनी रोनी सूरत लिए ढब्बू जी के पास आकर हताश स्वर में बोले: यार, क्या बताऊं, एक भी मछली नहीं फंसी। मैं तो शर्म से पानी-पानी हुआ जा रहा हूं। ‘अरे, इसमें शर्म से पानी-पानी होने की क्या बात है’, ढब्बू जी ने आश्चर्य से आंखें फाड़ कर जवाब दिया, ‘मुझे देख कर कुछ शिक्षा लो। पिछले बीस वर्षों से मछली मार रहा हूं, मगर आज तक एक भी नहीं फंसी। तुम भी गजब के कायर हो, एक ही दिन में हार मान गए!’
तुमने जिनसे पूछा था, गुरुदास, उनकी आंखों में झांक कर तो देख लेते। मछली वहां फंसी? उनका हाथ तो हाथ में लेकर देख लेते। उसमें तरंग है ईश्वर-आनंद की? उनके पास बैठ कर चुपचाप, शून्य होकर, मौन होकर थोड़ा उनको पीते, स्वाद लेते। अमृत का वहां स्वाद है? आंख बंद करके जरा उनकी तरफ देखते। उस तरफ से आती रोशनी अनुभव होती है? प्रकाश की कोई धारा तुम्हारे हृदय में उतरती है? फिर पूछना था। तुम उनसे पूछ रहे थे जिनको खुद ही न मिला था। वे बहाने न खोजें तो क्या करें? वे तुम्हीं को जिम्मेवार न ठहराएं तो क्या करें?
और इसीलिए स्वभावतः जब तुम मेरे पास आए हो तो तुम्हें हैरानी लगती होगी, क्योंकि मैं कहता हूं: परमात्मा एक क्षण में मिल सकता है। क्योंकि परमात्मा कल मिले, यह बात ही फिजूल। परमात्मा तो सदा आज है। कल तो परमात्मा के लिए है ही नहीं। कल तो हमारे लिए है, उसके लिए नहीं। परमात्मा के लिए तो सिर्फ आज का ही अस्तित्व है, कल का कोई अस्तित्व नहीं है।
तुम कल परमात्मा से मिलना चाहो और उसके लिए कल का कोई अस्तित्व नहीं, तो मिलन होगा कैसे?
परमात्मा अभी है। आकाश से बरसती इस वर्षा में, वृक्षों की हरियाली में, इस सन्नाटे में, इस बूंदाबांदी में, इस तुम्हारी मौजूदगी में, मेरी मौजूदगी में; मेरे बोलने में, तुम्हारे सुनने में; यह हमारे हृदय की धड़कनों में, हमारी श्वासों में वही मौजूद है। कल की बात क्यों? परमात्मा कुछ दूर है कि उसे पाने के लिए चलना पड़ेगा? परमात्मा पास से भी पास है। तुम्हारे प्राणों से भी ज्यादा पास है। तुम्हारे हृदय की धड़कन भी थोड़ी दूर है, परमात्मा उससे भी ज्यादा पास है। क्योंकि परमात्मा है वह साक्षी जो तुम्हारे हृदय की धड़कन को देखता है। परमात्मा तुम्हारी श्वासों से भी तुम्हारे ज्यादा पास है, क्योंकि परमात्मा है वह साक्षी जो श्वास का भीतर आना, बाहर जाना देखता है।
इसीलिए तो बुद्ध ने विपस्सना ध्यान का आविष्कार किया। अपनी श्वास को देखते रहो; बस इतनी ही बुद्ध ने प्रक्रिया दी जगत को। बुद्ध का सारा सार विपस्सना है। विपस्सना का अर्थ होता है: श्वास को देखना; प्रश्वास को देखना। श्वास भीतर गई, देखना; श्वास बाहर गई, देखना। सिर्फ देखते रहना, कुछ करना नहीं। न राम-राम जपना, न ओंकार जपना, न गायत्री, न नमोकार, कुछ भी नहीं। सिर्फ श्वास भीतर गई, होशपूर्वक इसे देखना। साक्षी। फिर श्वास बाहर गई, इसे देखना। फिर जल्दी ही तुम्हें दो और बातें दिखाई पड़ेंगी। श्वास जब भीतर जाती है तो दिखाई पड़ेगी, बाहर जाती है तो दिखाई पड़ेगी--यह प्राथमिक चरण। दूसरे चरण में, जब गहराई देखने की बढ़ेगी, तो तुम्हें यह भी दिखाई पड़ेगा: श्वास भीतर जाती है और फिर क्षण भर को ठहर जाती है। श्वास बाहर जाती है और क्षण भर को ठहर जाती है। फिर तुम्हें दो चीजें दिखाई पड़ने लगेंगी और--श्वास का आना और जाना और श्वास का भीतर ठहरना और बाहर ठहरना। वह जो ठहराव है जब श्वास बाहर की बाहर रह गई और श्वास भीतर की भीतर रह गई, छोटा सा है, पल मात्र का है, लेकिन उसी पल में पलक खुलती है। उसी पल में द्वार खुलता है। उसी पल में साक्षी का अनुभव होता है। क्योंकि श्वास भी देखने को नहीं बचती, देखने वाला अकेला रह जाता है। और जब देखने को कुछ भी नहीं बचता तो देखने वाला स्वयं को देखता है। जब सब विषय-वस्तु खो जाते हैं, सब दृश्य विलीन हो जाते हैं, तो द्रष्टा अपने को ही अनुभव करता है। उस अनुभूति का नाम परमात्मा है।
तुम नाम-जप करते-करते उम्र बिता दिए, मैं तुमसे कहता हूं: तुम अनेक उम्र बिताओ तो भी कुछ न होगा। नाम का जप नहीं करना होता। क्या करोगे नाम-जप में? राम-राम, राम-राम, राम-राम दोहराते रहोगे। यंत्रवत हो जाएगा! जल्दी ही दोहराते-दोहराते आदत हो जाएगी। फिर लोग दुकान पर बैठ कर सामान तौलते रहते हैं, डांडी भी मारते रहते हैं और राम-राम भी जपते रहते हैं--‘मुख में राम बगल में छुरी।’ कुछ ऐसे ही थो़डे लोगों ने यह कहावत बना ली होगी। यह भारतीय कहावत है। इस धर्मप्राण देश में बहुत अनुभव के बाद यह कहावत बनी होगी--मुख में राम बगल में छुरी। छुरी पर धार भी देते रहते हैं और राम-राम, राम-राम भी जपते रहते हैं।
मैंने तो सुना है, एक जौहरी ने अपनी दुकान पर यह हिसाब बना लिया था--बड़ी दुकान थी--जैसे ही ग्राहक आता... दुकानदार की बड़ी प्रसिद्धि थी उस जौहरी की कि बड़ा भक्त है! भगत जी ही लोग उनको कहते थे। और भगत जी वे थे। मगर वैसे ही भगत जी जैसे बगुला भगत होते हैं। बगुला देखा है कैसा खड़ा होता है? शुद्ध खादी के वस्त्र पहने हुए बगुला खड़ा होता है। और एक टांग पर खड़ा होता है--बगुलासन! बड़े-बड़े योगी मुश्किल से साध पाते हैं। एक टांग पर खड़ा रहता है, बिलकुल थिर--हिलता ही नहीं, डुलता ही नहीं। हिले-डुले तो मछली फंसे कैसे! हिले-डुले तो पानी हिल-डुल जाए, पानी हिल-डुल जाए तो बगुले का बनता हुआ प्रतिबिंब हिल-डुल जाए, मछली संदिग्ध हो जाए कि मामला कुछ गड़बड़ है, भगत जी खड़े हैं! तो भगत जी ऐसे खड़े रहते हैं कि पानी हिलता ही नहीं। जब कुछ भी नहीं हिलता और गतिमान नहीं होता तो मछली निश्चिंत गुजरती रहती है। उसी में मछली फंसती है।... तो वे भगत जी बड़े जाहिर भगत जी थे। मछलियों को कुछ पता नहीं था। मछली यानी ग्राहक। वे ग्राहक को देख कर ही जपने लगते थे एकदम। कभी कहते, राम-राम, राम-राम, राम-राम...! राम-राम का अर्थ था: बेकाम; किसी मतलब का नहीं है, इसको जाने दो। वे अपने नौकर-चाकरों को कह रहे थे, बेकार मेहनत मत करो, मैं इसको भलीभांति जानता हूं। राम-राम करो! समय खराब मत करो। इससे कुछ निकलेगा नहीं। इस पर कुछ है भी नहीं। तो जब भगत जी राम-राम कहते, दुकान पर जो उनके नौकर-चाकर थे, टाल-टूल करके खिसका देते ग्राहक को।
किसी ग्राहक को देख कर भगत जी कहते: हरे-हरे! हरे-हरे! मतलब: लूटो! लूटो! हरि का मतलब होता है: लूटो। लुटेरा। हरण करो, छोड़ो मत। काटो इसको! ये उनके कोड शब्द थे।
राम-राम यानी बेकाम। जाने भी दो! छुटकारा पाओ, राम-राम करो। और हरि-हरि, जाने मत देना! अब आ ही गया है तो छूट न जाए, फांसो। ऐसे उन्होंने मंत्रों के भी अर्थ तय कर रखे थे। जब वे एकदम मंत्रजाप करने लगते, उनके नौकर-चाकर सब समझ जाते क्या करना है। कितना दाम बताना है, कितना नहीं बताना है। दुगुना बताना है कि तीन गुना बताना है। कम करना है कि नहीं करना है। इस सबके धार्मिक मंत्र तय कर रखे थे। कभी गायत्री जपने लगते... मगर ये सब प्रतीक थे।
तुम राम-राम जप सकते हो--यंत्र की भांति तुम्हारी जीभ दोहराए जाए, तुम्हारा कंठ दोहराए जाए, इससे कुछ भी न होगा, होश चाहिए। अगर राम-राम भी जपने में तुम्हें रस हो, तो खयाल रखना, राम-राम जपना और भीतर साक्षीभाव रखना कि मैं राम-राम जप रहा हूं। राम कहा, राम कहा, भीतर देखते जाना। जैसे बुद्ध ने कहा: श्वास देखना, ऐसे तुम राम-राम देखना। मगर उलटा राम-राम में कहां उलझना? यह तो ज्यादा आसान श्वास है। क्योंकि अपने आप चल रही है। राम-राम तो चलाना पड़ेगा। और राम-राम चलाने में थोड़ा खतरा भी है। जैसे कार ड्राइव कर रहे हो और राम-राम जपने लगे और मन राम-राम पर लगाया, तो एक्सीडेंट हो सकता है। सायकिल पर चले जा रहे हो और राम-राम कर रहे हो, तो एक्सीडेंट हो सकता है। तुम राम-राम जप रहे हो और ट्रक वाला हॉर्न बजा रहा है, तुम्हें सुनाई ही न पड़े।
जीवन में नुकसान हो सकता है।
इसलिए लोगों ने फिर राम-राम जपने के लिए अलग इंतजाम कर लिया। घड़ी आधा घड़ी निकाल ली, सुबह नहा-धो कर बैठ गए अपने एक कोने में, मंदिर बना लिया घर में, वहां राम-राम जप लिया। जिंदगी से राम-राम का कोई संबंध न रहा। एक खंड में बना लिया।
नहीं, बुद्ध की प्रक्रिया ज्यादा वैज्ञानिक है। श्वास का सहजभाव से बोध रहा आए। तुम चकित होओगे कि जैसे-जैसे तुम श्वास को देखोगे वैसे-वैसे विचार कम हो जाएंगे। श्वास और विचार में एक अनिवार्य संबंध है। अब तो इस बात से वैज्ञानिक भी राजी हैं कि अगर कोई व्यक्ति अपनी श्वास को देखे, तो उसके विचार कम हो जाते हैं। उसी मात्रा में। जिस व्यक्ति के भीतर बहुत विचारों का ऊहापोह होता है, उसे श्वास देखना बहुत कठिन पड़ती है, बहुत मुश्किल पड़ती है। वे दोनों विपरीत प्रक्रियाएं हैं। दोनों का कोई सह-अस्तित्व नहीं हो सकता।
इसलिए, गुरुदास, मैं तो तुमसे कहूंगा: नाम-जप छोड़ो; श्वास-प्रश्वास पर ध्यान को जमाओ। अब तुम उसी को राम-जप समझो। क्योंकि जो देख रहा है, वह राम है। वह जो साक्षी है, वही राम है। और तब यह घटना इसी जन्म में घटेगी। क्यों अगले जन्म में? क्यों आगे पर टालना? और यह घटना अभी घट सकती है। सब निर्भर करता है तुम्हारी त्वरा, तुम्हारी तीव्रता, तुम्हारी सघनता, तुम्हारी समग्रता पर।
तुम पूजा-पाठ में लगे रहे! पूजा-पाठ में करोगे क्या? मंत्र पढ़ोगे, मांग करोगे--यह मिल जाए, वह मिल जाए--कोई ऐसे मुफ्त तो नाम-जप करता नहीं! लोग प्रार्थना ऐसे ही तो नहीं करते अहेतुक, उसमें हेतु होते हैं। उनकी प्रार्थना में भी वासना भरी होती है।
मैंने सुना है, एक आदमी मरा। वह बहुत नाराज हुआ। क्योंकि उसके साथ ही उसका साझीदार भी मरा--दोनों एक कार एक्सीडेंट में मरे तो साथ ही मरे--देवदूत लेने आए तो इस आदमी को जो कि प्रार्थना, पूजा-पाठ में तल्लीन रहता था, कभी-कभी अखंड पाठ करवा देता था--मोहल्ले भर में शोरगुल मचवा देता था लाउड स्पीकर लगवा कर--सत्यनारायण की कथा करवा देता था, प्रसाद बंटवाता था, मंदिर नियम से जाता था, तिलक लगाता था, जनेऊ धारण करता था, सब तरह से जो धार्मिक आदमी को करना चाहिए सब करता था; और इसका जो साझीदार था, इससे बिलकुल उलटा था। महा नास्तिक। न कभी ईश्वर का नाम ले, न एक पैसा दान दे; न पूजा, न पाठ, कुछ भी नहीं। मंदिर के भीतर तो वह कभी देखा ही नहीं गया था। उसको देवदूत ले जाने लगे स्वर्ग की तरफ और इसको ले जाने लगे नरक की तरफ। इसने कहा: ठहरो भाई, कुछ भूल-चूक हो रही है! तुम्हारे दफ्तर की कुछ भूल है। लगता है तुम गलती कर रहे हो। मुझे ले जाना चाहिए स्वर्ग की तरफ, इसे नरक की तरफ, यह तुम क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा कि कोई भूल-चूक नहीं है। अभी परमात्मा का दफ्तर सरकारी दफ्तर नहीं हुआ। अभी वहां भूल-चूक नहीं होती। हालांकि जल्दी ही खतरा है! क्योंकि दिल्ली से मर-मर कर जितने लोग पहुंच रहे हैं, उन सबको भी नौकरी पर लगाना पड़ रहा है, कुछ न कुछ काम देना पड़ रहा है; अब वे सब गड़बड़झाला करेंगे, मगर अभी सब ठीक चल रहा है!
उसने कहा कि मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता। मुझे पहले परमात्मा के सामने मौजूद किया जाए। मुझे पूछना है। जिंदगी मैंने नाम-जप में बिताई, पूजा-पाठ में बिताई, और यह लफंगा, यह मेरा साझीदार है, यह मेरा मित्र है, यह एकदम नास्तिक, इसको स्वर्ग, मुझको नरक! पहले परमात्मा से पूछूंगा। आज दो-दो बातें हो जाएं! जिंदगी भर रोया, गिड़गिड़ाया, उसका यह फल! रात-दिन पुकारा, सोते-जागते पुकारा, उसका यह फल!
उसको परमात्मा के सामने ले जाना पड़ा--उसने शोरगुल इतना मचाया!
उसने पूछा परमात्मा से कि यह क्या मामला है? यह कैसी ज्यादती? मैंने तो सुना था, देर होती है अंधेर नहीं होता, अब तो दिखता है कि अंधेर भी होता है। यह मेरे जीवन भर के पुण्य कर्मों का फल मुझे मिल रहा है--नरक! और इसको किस चीज का फल मिल रहा है? मैंने तुम्हारी प्रार्थना नहीं की, पूजा नहीं की? व्रत-नियम-उपवास नहीं किए? परमात्मा ने कहा: सब किए; इसीलिए तुम्हें नरक भेज रहा हूं। तुमने जिंदगी भर मुझे चैन से न रहने दिया। मेरी खोपड़ी खाते रहे। रात-दिन बकवास लगा रखी थी, मेरी खोपड़ी में भनभनाते रहे। मैं तुमको यहां स्वर्ग में नहीं टिकने दूंगा। अगर तुमको यहां रहना है, तो मैं नरक चला! तुम रहो, करो तुम अखंड पाठ, लगाओ लाउडस्पीकर और जो तुम्हें करना हो करो! और उसके साझीदार से कहा कि भाई आ, तू भी मेरे साथ चल! अब इसी को रहने दे स्वर्ग में। या तो तुम रहोगे यहां या मैं रहूंगा।
मुझे बात में अर्थ समझ आता है। बात ठीक है।
तुम करते भी हो पूजा-पाठ, तो उसके पीछे कुछ वासना है, कुछ कामना है। उसी से चूकते हो। फिर जन्मों-जन्मों चूकोगे। फिर तुम्हारे पंडित-पुजारी ठीक ही कहते हैं कि बेटा, यह मामला कठिन है। वे तो जन्म-जन्म कहते हैं, मैं तुमसे कहता हूं: अगर वासना है तुम्हारी प्रार्थना में, तो अनंत जन्मों में भी उपलब्धि नहीं हो सकती। वासना-शून्य होनी चाहिए प्रार्थना। प्रार्थना अहोभाव होनी चाहिए, आनंद होना चाहिए; धन्यवाद, कृतज्ञता--मांग नहीं।
यत्न से कितने दबाए
था जिन्हें अब तक छिपाए
आज मेरे गान बरबस
कंठ में फिर उतर आए
आज मैंने रख दिया है हृदय अपना चीर
मेरे गान तुम मत सुनो।

देख मेरी चिर-विकलता
देख पग-पग पर विफलता
देख मेरे पलक भीगे
देख मेरा हृदय जलता
हा, कहीं तुम हो न जाओ आज स्नेह-अधीर
मेरे गान तुम मत सुनो।

मुख मलिन, निःशब्द, कातर
देख मेरा वेष जर्जर
देख मुरझे हृत्कमल-दल
देख यह सूखा हुआ सर
हा, छलक आए न नयनों में तुम्हारे नीर
मेरे गान तुम मत सुनो।

मन विरागी राग से भर
कर रहा प्रतिध्वनित अंबर
आज अधरों की हंसी में
व्यंग का आभास पा कर
हा, न हो उट्ठे तुम्हारे हृदय में फिर पीर
मेरे गान तुम मत सुनो
रोओ मत, गिड़गिड़ाओ मत, मांगो मत। अपनी पीड़ा को उछालो मत। अपने दुख-दर्द की बात क्या करनी? अपने कांटों की गिनती क्या करवानी? अपने फूल चढ़ाओ। तुम्हारे जीवन में जो आनंद के क्षण हों, वे समर्पित करो। और आनंद के क्षण कुछ कम हैं! चांदनी रातें कुछ कम हैं! सुबह ऊगते हुए सूरज का आनंद, सांझ डूबते हुए सूरज का आनंद, पहाड़ों-पर्वतों का सौंदर्य--यह सब-कुछ कम है! यह जीवन इतना अपूर्व अवसर, इतना अमोलक रत्न, इसके लिए धन्यवाद नहीं दोगे? रोते हो, गिड़गिड़ाते हो, छोटी-छोटी बातें उठाते हो, उसी में तुम्हारी प्रार्थना कलुषित हो जाती है। उसी में तुम्हारी प्रार्थना पत्थरों में दब जाती है, उसके पंख टूट जाते हैं। प्रार्थना में पंख होते हैं, जब वासनामुक्त होती है। जब तुम कुछ मांगते नहीं परमात्मा से, तब तुम पर वर्षा होगी उसके दानों की। मांगोगे, चूकोगे, नहीं मांगोगे, बहुत कुछ पाओगे।
गुरुदास, जरूर तुम मांगते रहे होओगे। नहीं तो नाम-जप किया किसलिए? और यह भी क्या पूछना कि कब हाथ लगेगा! क्या हाथ लगना है? क्या हाथ लगाने का इरादा रखते हो? कुछ जरूर भीतर तलाश चल रही है--छिपी, सूक्ष्म। यहां की न हो चाहे, परलोक की हो, मगर कुछ तलाश चल रही है, कुछ न कुछ पाना चाहते हो। और जब तक पाना चाहते हो तब तक मन सांसारिक है। जब तक पाना चाहते हो तब तक संसार के हिस्से हो। तब तक तुम्हें धर्म का स्वाद ही नहीं लगा। अब पाने की बात ही छोड़ो! पाना क्या है? मिला ही हुआ है। जो मिलना था, वह तुम्हें दिया ही गया है। जागो और देखो और भोगो और आनंदित होओ। नाचो, उत्सव मनाओ।
मैं तो प्रार्थना को तुम्हारे लिए उत्सव का रूप देना चाहता हूं। मग्न होकर नाचो। जितना दिया है इतना है कि हमारे सब धन्यवाद छोटे हैं। लेकिन लोग शिकायत करते हैं। लोग मंदिरों में जाकर शिकायत ही करते हैं। शायद ही कोई कभी आभार प्रकट करने जाता हो। और शिकायतें अधार्मिक आदमी का लक्षण हैं। आभार धर्म का सूचक है।
तुम पूछते हो: ‘नाम-जप करते-करते उम्र ढल गई। हाथ तो कभी कुछ लगा नहीं।’
हाथ कुछ लगना चाहिए था, वहीं चूक हो रही है।
और पूछते हो: ‘लेकिन जब भी तथाकथित पंडित-पुजारियों, साधु-महात्माओं से पूछा, तो उन्होंने कहा--बेटा, यह कार्य जन्मों की साधना से होता है।’
वे बेचारे भी क्या करें? सांत्वना दी तुम्हें। तुम्हारी पीठ थपथपाई, कहा कि किए जाओ, जरूर पाओगे, मगर इतनी जल्दी नहीं होता। धीरज रखो, मिलेगा, जन्मों-जन्मों की साधना से मिलता है। उन्हें भी कुछ पता नहीं कि वासना हो तो प्रार्थना कभी पूरी नहीं होती--जन्मों-जन्मों में भी पूरी नहीं होती। और वासना न हो तो इसी क्षण पूरी है। फिर प्रार्थना अधूरी होती ही नहीं। वासना हो तो सदा निष्फल, वासना न हो तो सदा सफल।
इस उलटे गणित को खयाल में ले लो, इस विरोधाभास को खयाल में ले लो।
परमात्मा के द्वार पर भिखमंगे की तरह मत जाना। वहां सम्राटों का स्वागत है। भिखमंगे तो सब जगह दुरदुराए जाते हैं: आगे हटो, आगे बढ़ो! और तुम परमात्मा के सामने भिखारी की तरह जाते हो। उसे धन्यवाद देने जाओ! यह कहने जाओ कि कितना दिया तूने--अपार, अकूत; मेरी सामर्थ्य से बहुत ज्यादा; मेरी पात्रता से बहुत ज्यादा। फिर तुम देखो कि कैसा सोना बरसता है तुम्हारे ऊपर, कि कैसी झड़ी लग जाती है हीरे-जवाहरातों की!
और खयाल रखना, सोना, हीरे-जवाहरात मैं प्रतीक की तरह उपयोग कर रहा हूं। नहीं तो बीच-बीच में आंख खोल कर देखोगे कि अभी तक झड़ी नहीं लगी? कंकड़-पत्थर भी नहीं दिखाई पड़ रहे हैं, हीरे-जवाहरात कहां! लोहा तक नहीं गिर रहा है, सोना कहां!
और ऐसा भी मत सोचना कि चलो यही सही, अगर वासना छोड़ने से प्राप्ति होती है तो वासना भी छोड़ देंगे। तो वासना तुमने छोड़ी ही नहीं। अभी प्राप्ति के लिए ही वासना छोड़ी तो क्या खाक वासना छोड़ी!
मेरी बात ठीक से समझ लेना, चूकने की बहुत संभावना है।
विवेकानंद अमरीका में बोलते थे तो उन्होंने बाइबिल का प्रसिद्ध वचन उदधृत किया कि धन्य हैं वे जो श्रद्धालु हैं, क्योंकि श्रद्धा की सामर्थ्य अपार है। श्रद्धा तो पहाड़ों को भी आज्ञा दे तो पहाड़ चल पड़ें। एक बुढ़िया ने सुना। उसके घर के पीछे ही पहाड़ था। वह उस पहाड़ से परेशान थी। क्योंकि पहाड़ के कारण हवा भी नहीं आती थी, पहाड़ की चट्टानें तपती थीं तो गर्मी भी दिन-रात बनी रहती थी। और उसने कहा: यह, बाइबिल तो मैं बहुत पढ़ती थी, यह वाक्य भी कई दफे आया--फेथ कैन मूव माउंटेंस, मगर मैंने कभी इसका उपयोग ही नहीं किया! मैं भी मूढ़ हूं! इस आदमी ने अच्छा याद दिला दिया, आज ही जाकर निपटारा कर देती हूं!
गई। खिड़की से आखिरी बार खोल कर पहाड़ देखा कि अब तो आखिरी बार है, एक बार और देख लो! फिर तो गया सो गया! खिड़की बंद की, आंख बंद करके बैठी और कहा: हे पहाड़, श्रद्धापूर्वक कहती हूं, परिपूर्ण श्रद्धा से कहती हूं कि हट जा, यहां से सदा के लिए हट जा! हजारों कोस दूर हट जा कि तेरी खोज-खबर भी करना चाहूं तो तेरा पता न चले! फिर एक दो-एक मिनट बैठी रही--ज्यादा देर तो बैठ भी नहीं सकती थी--फिर उत्सुकता पकड़ने लगी कि हटा कि नहीं? फिर खिड़की खोली। पहाड़ वहां का वहां था। और उस बुढ़िया ने क्या कहा, मालूम है? उसने कहा, मुझे पहले ही से पता था, कि कुछ हटने वाला नहीं है। अरे, पहाड़ क्या, एक पत्थर भी हटने वाला नहीं है। सब बकवास है।
पहले से पता था! तो फिर श्रद्धा कैसी? श्रद्धा का तो अर्थ ही होता है कि कहीं कोई संदेह की कोर भी न थी। यह श्रद्धा नहीं है। यह श्रद्धा का शोषण है।
मेरे पास लोग आते हैं, मैं उनसे कहता हूं कि प्रार्थना पूरी होगी मगर तुम वासना छोड़ो। तो वे कहते हैं: वासना छोड़ दें तो फिर सच में पूरी होगी? वासना तक छोड़ने को राजी हैं--अगर प्रार्थना फिर पूर्ण हो जाए। मैं उनसे पूछता हूं, पूर्ण... फिर तुम क्या चाहते हो? फिर क्या बचा? जब वासना छोड़ दी तो पूर्ण होने में तुम्हारी क्या अभिलाषा है? वही की वही वासना।
एक सज्जन हैं, उनको बेटा नहीं होता। वे कहने लगे: बहुत दिन हो गए प्रार्थना करते; पूजा, यज्ञ-हवन, सब करवा डाले; जब सबसे थक गया तब आपके पास आया हूं। मेरे पास तो मरीज आते ही तब हैं जब कहीं और कोई चिकित्सा उनकी नहीं कर पाता। असाध्य रोगी ही यहां पहुंचते हैं। क्योंकि जब तक कोई और चिकित्सक मिल जाए तब तक तो वहीं निपट लेना चाहते हैं, क्योंकि यहां झंझट का मामला है! यहां मामला इतना झंझट का है कि शायद बीमारी तो छूट जाए, लेकिन औषधि पकड़ जाए। तो फिर औषधि छोड़ना बहुत मुश्किल है। तो वे बहुत जगह हो-हुवा कर, सब जगह हार कर, उन्होंने कहा, फिर सोचा कि अब आखिरी आपके पास भी जाकर देख लूं। तो मैंने कहा: अगर यह वासना छोड़ दो, तो ही प्रार्थना पूरी हो। एकदम खुश हो गए। बाग-बाग हो गए। चेहरा मुस्कुरा गया। कहा कि आपने भी ठीक बताया। तो यही वासना बाधा बन रही! जब तो मैं कहूं, जिंदगी भर हो गई, प्रार्थना करता, पूजा करता, हवन, पाठ, एक बेटा पैदा नहीं होता। और दूसरी तरफ लोग हैं कि संतति-नियमन करते हैं तो भी बच्चे पैदा हो रहे हैं! गोलियां ले रहे हैं बच्चों को रोकने की, गोलियों को धोखा देकर बच्चे पैदा हो रहे हैं! और एक मैं हूं कि मरा जा रहा हूं...। आपने बताया, किसी ने नहीं बताया कि यह वासना छोड़ दो। तो ठीक है, अब यह वासना छोड़ देता हूं। फिर जाते-जाते बोले कि फिर तो बच्चा होगा न!
आदमी का मन ऐसा धोखेबाज है कि किस-किस तरह से अपने को धोखा दे ले, कहना कठिन है। क्या पाना चाहते हो? जो पाना है, वह मिला हुआ है। तुमने मांगा, उसके पहले दिया हुआ है। धन्यवाद दो अब! अब प्रार्थना का पूरा का पूरा रंग बदलो! अब प्रार्थना को अनुग्रह का भाव बनाओ! अब झुको! लेकिन धन्यवाद देने के लिए, कि तेरी अनुकंपा अपार है!
गुरुदास, बात घटेगी। मगर तुम क्या चाहते हो, उसके संबंध में मैं कुछ नहीं कह रहा हूं। जब मैं कहता हूं बात घटेगी, तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम्हारे भीतर से यह सब जाल विचार का, वासना का, आकांक्षा का--यह सारा अंधकार टूट जाएगा। रोशनी होगी। शून्य उतरेगा। शून्य में पूर्ण भी उतरेगा। तुम अमृत को जान सकोगे। मगर तुम क्षुद्र मांगते हो! तुम व्यर्थ की चीजें मांगते हो! वे नहीं मिलतीं। फिर पंडित-पुजारियों के चक्कर में पड़ते हो। एक पंडित से नहीं मिलती हैं तो दूसरे पंडित के पास जाते हो। और ऐसे भटकते हो धक्के खाते हुए, दीन-हीन, जब कि तुम सम्राट हो और परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है। न किसी मंदिर में जाना है, न काबा, न कैलाश, न काशी, जरा अपने भीतर झांक कर देखना; घूंघट के पट खोल, तोहे पिया मिलेंगे।
जिनके पास तुम जाते रहे, उन्होंने बहुत सा कचरा तुम्हें दिया होगा। क्योंकि जो सत्य नहीं दे सकते, वे असत्य दिए बिना नहीं रह सकते। कुछ तो वे देंगे ही। अगर हीरे-जवाहरात नहीं दे सकते, तो कंकड़-पत्थर देंगे। तो झाड़ लो अपनी झोली अब बिलकुल! जो-जो तुम्हें पंडित-पुरोहितों ने दिया हो, बड़ी कृपा होगी तुम्हारी तुम पर, उस सबसे अपनी झोली खाली कर लो! उनके पास ही होता तो वे पंडित-पुरोहित न होते; वे बुद्ध होते, महावीर होते, कृष्ण होते, क्राइस्ट होते।
पंडित-पुरोहित तो कृष्ण, क्राइस्ट और बुद्ध के वचनों पर जीते हैं। उनकी संपदा पर, उनकी प्रतिष्ठा पर धंधा करते हैं। उनका अपना कोई अधिकार नहीं है, अपना कोई अनुभव नहीं है। काश, उनके पास कुछ होता तो वे ये दो कौड़ी के धंधे नहीं करते रहते। वे तुम्हारे लिए ताबीज और गंडे नहीं बांधते रहते। कौन बुद्ध तुम्हारे लिए गंडे-ताबीज बांधेगा! वे तुम्हारी जन्म-कुंडलियां नहीं देखते रहते। कौन बुद्ध तुम्हारी जन्म-कुंडलियां देखेगा!
मैं एक नगर में बहुत वर्षों तक रहा। मेरे पड़ोस में एक पंडित जी रहते थे। उनकी बड़ी प्रसिद्धि थी। उनकी प्रसिद्धि यह थी कि जिन युवक-युवतियों के विवाह दूसरे पंडित कह देते कि नहीं हो सकते--क्योंकि इसमें अड़चन है, तालमेल नहीं है, लक्षण नहीं मेल खाते; खतरा है; मंगल आता है; और न मालूम क्या-क्या बातें जिनमें दूसरे पंडित-पुरोहित बता देते थे, उनकी प्रसिद्धि यह थी कि वे हर किसी का मेल बिठा देते थे। मैंने उनसे पूछा, एक दिन ऐसे ही उनके बगीचे में घूम रहा था, मैंने उनसे कहा कि आपकी बड़ी प्रसिद्धि है, लोग मुझसे कहते हैं आकर कि बड़े-बड़े पंडित... काशी भी हम हो आते हैं, वहां के पंडित भी कह देते हैं कि नहीं भाई, यह विवाह नहीं होगा, लड़की को मंगल है, मगर आप जमा देते हैं! उन्होंने कहा कि जमाना अपने हाथ का काम है। कोई कुंडली में सत्य है क्या? सब खेल है। अगर कुंडली में कुछ सत्य होता, तो दुनिया में आनंद ही आनंद न होता! सब ने तो अपनी कुंडली मिलवा कर शादी-विवाह किए हैं; और फिर फांसी लग गई! जब कुंडली मिल कर फांसी लग गई, तब और ज्यादा क्या होगा? नहीं मिलेगी तो भी चलेगा। तो मैं तो बिठा देता हूं, मिला देता हूं, किसी भी तरह से, जमा देता हूं। मेरी फीस जरा ज्यादा है। जो भी चुकाने को राजी है, मैं उसकी मिला देता हूं। दूसरे पंडित-पुजारी किताब के हिसाब से ही चलते रहते हैं, मेरा ढंग और है।
मैंने उनसे एक कहानी कही। मैंने उनसे कहा, आपने मुझे याद दिलाया--
एक सम्राट एक गांव से गुजर रहा था। चकित हुआ बहुत। उसका एक ही शौक था जीवन में--निशानेबाजी। और उस जैसा निशानेबाज नहीं था। और वह निशानेबाजों की बड़ी कद्र करता था। उसने सारे देश के अच्छे से अच्छे निशानेबाज अपने दरबार में इकट्ठे कर रखे थे। मगर उस गांव में आकर उसे थोड़ी सी निराशा हुई, थोड़ा सा हीनता का भी भाव हुआ। उसने जगह-जगह देखा, वृक्षों पर तीर लगे हैं। ठीक गोला जो खींचा गया है, उसके बिलकुल मध्य में तीर लगे हैं। न रत्ती भर इधर, न रत्ती भर उधर। खलिहानों के दरवाजों पर तीर लगे हैं, ठीक गोले के मध्य में। उसने इतनी जगह तीर लगे देखे गोले के मध्य में कि उसने कहा कि ऐसा तीरंदाज मैंने देखा नहीं जो एक तीर नहीं चूका! उसने कहा: रोको रथ मेरा, पता करो कौन है यह आदमी? इसकी हमें खबर भी नहीं है।
गांव में पूछताछ की गई। लोग हंसने लगे; लोग कहने लगे कि आप उसकी फिकर ही न करो; वह गांव का पगला है। उसका दिमाग खराब है। सम्राट ने कहा: दिमाग खराब हो या ठीक, इसका सवाल नहीं है; हमारे सब के दिमाग ठीक हैं मगर हम से भी कभी चूक हो जाती है, इस आदमी का तो निशाना गजब का है! हो पागल तो हो, मगर मेरी, सम्राट की आज्ञा है, उसे लाया जाए, हम उसे सम्मानित करेंगे, वह हमारे राजदरबार का रत्न होगा। वे लोग कहने लगे: आप उसकी तरकीब नहीं जानते। उसकी तरकीब यह है कि वह तीर पहले मारता है। और फिर बाद में गोला खींचता है। अब तीर बीच में न लगे तो करे भी क्या? कहीं भी तीर मार देता है, फिर जाकर चाक से गोला खींच देता है। उसका दिमाग खराब है! आप उससे परेशान न हों।
तो मैंने उन पंडित जी से कहा कि आपकी बात से मेरी बात मेल खाती है, मैं समझा। उन्होंने कहा कि यही मेरा राज है। मैं पहले मिला देता हूं जन्म-कुंडली, फिर उसी हिसाब से जन्म-कुंडली जमा देता हूं। जिससे मेल खा जाए; न मेल से कोई मूल्य है, न बेमेल से कोई मूल्य है; लोग मूढ़ हैं, वे कहने लगे। मेरा धंधा चलता है, उनका काम निपट जाता है--दोनों की बन जाती है, बिगड़ता क्या है? न अपना कुछ गया, न उनका कुछ गया। न हल्दी लगी न फिटकरी, रंग चोखा हो जाए।
तुम जिनसे पूछने गए थे, तुमने यह भी देखा, उनको रामनाम मिला?
बुढ़ापे में ढब्बू जी को मानसिक रोग हो गया। वे कुछ उदास से रहने लगे। कारण यह था कि उन्हें रोज रात को एक बहुत ही बेहूदा सपना दिखाई देता था कि वे कड़ाही में गोबर तल रहे हैं। रोज-रोज यही सपना आता। एक रात में तीन-तीन, चार-चार बार आता। रात भर गोबर तलते रहते! हालत बिगड़ गई। बिगड़ ही जाए! आखिर रात भर गोबर तलो, तो सुबह से सिर दुखे और दिन भर चिंता बनी रहे कि फिर रात आ रही है! अंततः एक मनोचिकित्सक के पास गए। उससे सपने का पूरा ब्यौरा बतलाया। मनोवैज्ञानिक बोला: रोग जरा कठिन है, ढब्बू जी! उपचार के लिए पांच सौ रुपये फीस देनी पड़ेगी। क्या कहा, ढब्बू जी ने नाराज होकर कहा: पांच सौ रुपये? होश की बात कर! अरे मूर्ख, उल्लू के पट्ठे, यदि मेरे पास इतने रुपये ही होते तो क्या मैं गोबर तलता? अरे, बाजार से मछलियां खरीद कर न लाता!
वे जो तुमको सलाह दे रहे हैं नाम की, वे जो तुमको सलाह दे रहे हैं कि जन्मों-जन्मों में मिलेगा, जरा गौर से उनकी आंखों में तो देखते गुरुदास, उनको मिला? उनसे तो पूछते कि आप कितने जन्मों से तलाश कर रहे हैं? अभी तक आपको नहीं मिला? कब तक आप तलाश करेंगे? और तुम यह भी तो सोचते कि तुम भी कुछ नये थोड़े ही हो, तुम भी तो बहुत जन्मों से तलाश कर रहे हो! अनंत-अनंत जन्मों से तलाश कर रहे हो, अब और अभी जन्म लेने पड़ेंगे? कुछ कमी रह गई है तलाश करने में?
तुम उतने ही प्राचीन हो जितना यह अस्तित्व। अगर कभी कोई प्रारंभ था तो तुम प्रारंभ से यहां हो। कितने तुमने पाठ नहीं किए होंगे और कितनी गीताएं नहीं पढ़ी होंगी; कितने धर्मों में तुमने जन्म न लिया होगा; कितने पंडितों की कितनी मूढ़ताओं को तुमने पालन न किया होगा; कितने व्रत-उपवास न किए होंगे--अनंत यात्रा है--हाथ क्या लगा है? और अभी भी यही सवाल कि आगे कुछ होगा।
बंबई में एक नई-नई होटल खुली थी, जिसके बाहर ही एक बड़ा साइनबोर्ड लगा था कि चिंता न करें, इस होटल में आपका बिल आपके नाती चुकाएंगे। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने मित्रों के साथ उस होटल के सामने से गुजर रहा था, उसकी नजर साइनबोर्ड पर गई, उसने कहा: अरे, यह होटल कब खुल गई? क्या पते की बात लिखी है: ‘आपका बिल आपके नाती चुकाएंगे!’ चलो, हो जाए कुछ! इस तख्ती को देख कर तो भूख भी जग गई है। सभी पहुंच गए होटल के भीतर और भरपेट भोजन किया और जो कुछ भी वे खा-पी सकते थे उन्होंने खाया-पीआ, जब हाथ-मुंह धोकर चलने लगे तो बैरे ने एक सौ बीस रुपये का बिल ला कर सामने रख दिया। बिल देख कर मुल्ला तो बहुत नाराज हुआ। उसने कहा: यह क्या अंधेर है! बाहर इतना बड़ा बोर्ड लगा रखा है कि आपका बिल आपके नाती चुकाएंगे, फिर यह बिल देते हुए शर्म नहीं आती? बैरा बोला: हुजूर, यह आपका नहीं, आपके दादाजी का बिल है।
तुम कितने दिन से यहां हो! कितनी बार तुम जीए हो! कितने बार तुम मरे हो! जन्म और मरण की इस अनंत श्रृंखला में अब तक कुछ उपलब्धि नहीं हुई? और पंडित-पुरोहित कह रहे हैं कि और थोड़े जन्म! अब क्या जोड़ लोगे और जो तुमने अब तक नहीं किया है? नहीं, यह भाषा गलत है। भविष्य की भाषा गलत है। धर्म की भाषा है: वर्तमान।
मैं तुमसे कहता हूं: अभी और यहीं, इसी क्षण परमात्मा उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि परमात्मा उपलब्ध ही है। तुमने उसे कभी खोया ही नहीं था। सिर्फ तुम पीठ करके खड़े हो गए हो। जैसे कोई सूरज की तरफ पीठ करके खड़ा हो जाए। तो कोई सूरज खो थोड़े ही जाता है! जरा सा घूमना है और सूरज सामने है। या यह भी हो सकता है कि सूरज सामने हो और तुम आंख बंद किए खड़े हो। जरा सी आंख खोलनी है और सूरज सामने है। ऐसा ही परमात्मा है। ऐसा ही जीवन का परम अर्थ है। ऐसा ही निर्वाण है। निर्वाण तुम्हारा स्वभाव है। परमात्मा तुम्हारा अस्तित्व है।
इसलिए जो तुमसे कहे कि बहुत जन्म लगेंगे, समझ लेना चालबाजी है। मैं तुमसे कहता हूं: जन्म की तो बात छोड़ो, दिनों की भी बात व्यर्थ है, क्षणों की भी बात व्यर्थ है। प्रश्न समय का ही नहीं है। प्रश्न तो अभी जागने का है। जब जागे तब सवेरा। क्योंकि सवेरा तो है ही, बस तुम सोए हुए हो।
गुरुदास, जागो!
और जागने के लिए मैं तुमसे कहूंगा कि अब नाम-जप तुम काफी कर चुके, माला तुम काफी फेर चुके, अब उसी उपद्रव से कुछ न होगा। अब तो उचित होगा कि तुम शांत बैठो, श्वास को देखो, साक्षी बनो। और श्वास को देखने से सुंदर साक्षी बनने का दूसरा कोई उपाय न कभी था और न कभी होगा। क्योंकि श्वास सहज चल रही है, साधनी नहीं पड़ती, अपने आप चल रही है--आ रही है, जा रही है--तुम्हें कुछ करना नहीं है। कृत्य का सवाल ही नहीं है। राम-राम तो करना पड़ेगा। कभी भूल भी जाओगे। कभी पड़ोसी खुसुर-पुसुर बातें करने लगेगा तो सुनने की इच्छा जग जाएगी, राम-वाम सब भूल जाएगा। सड़क पर कुत्ते लड़ने लगेंगे, शोरगुल हो जाएगा, विघ्न-बाधा पड़ जाएगी--हजार उपद्रव आ जाएंगे, क्योंकि राम-राम तुम्हें करना पड़ेगा। लेकिन श्वास तो चल ही रही है। तुम चाहे देखो, चाहे न देखो, उसकी तो अनवरत धारा बह रही है।
श्वास माला है। असली माला है। श्वास के मनके ही असली मनके हैं। और साक्षीभाव असली भजन है, असली कीर्तन है।
तुम देखो श्वास को चलते, आते-जाते। फिर धीरे-धीरे जब अंतराल दिखाई पड़ने लगें, श्वास ठहर गई क्षण भर को भीतर, क्षण भर बाहर, उन अंतरालों में खूब सजग हो कर, खूब चौकन्ने होकर देखना क्या दिखाई पड़ता है? जो तुम देखोगे वह परम धन है। परम ऐश्वर्य है। वही परमात्मा है। उसे देखते ही जीवन के सब दुख गल जाते हैं। उसे देखते ही फिर सब सत्य है, सब चैतन्य है, सब आनंद है। उसे देखते ही सच्चिदानंद है।

आखिरी प्रश्न: भगवान,
ये युगल बावरे नैन और तू दूर देश का वासी चिर से तव दर्शन की उत्कट अभिलाषा है तेरे इस मधुर मिलन की इनको आशा है दर्शन से पहले भी ये कुछ-कुछ गीले हैं बात मिलन की करें, सजन उनमीले हैं तुम बने क्षितिज हम धूल सभी से हैं ये धारावाही ये युगल बावरे नैन और तू दूर देश का वासी तेर कटाक्ष की ऊषा किरण इक पहली थी और तभी हृदय-मकरंद पंखुड़ी फैली थी रह गया अधखिला क्या केवल मुरझाने को पहले वसंत ही में क्या पतझड़ बन जाने को मैं इस वियोग वेला में हूं अब व्यथासिंधु अवगाही ये युगल बावरे नैन और तू दूर देश का वासी
रवींद्र सत्यार्थी! नहीं, वह दूर देश का वासी नहीं है! वह अंतरवासी है! तुम ही हो वह। तत्वमसि, श्वेतकेतु!

आज इतना ही।

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