RAJJAB

Santo Magan Bhaya Man Mera 20

Twentieth Discourse from the series of 20 discourses - Santo Magan Bhaya Man Mera by Osho. These discourses were given during MAY 12-31 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, सत्संग क्या है? सत्संग की महिमा क्या है?
मैं यहां हूं, तुम यहां हो, दोनों के बीच कोई बाधा नहीं, अवरोध नहीं, यही सत्संग है। विवाद नहीं, संवाद है, यही सत्संग है। एक शून्य यहां, एक शून्य वहां, दो शून्यों का मिलन सत्संग है। एक दीया यहां, एक दीया वहां, दो दीयों का साथ-साथ जल उठना सत्संग है।
सत्संग भाव की एक दशा है, विचार की नहीं। सत्संग हृदय का खुला होना है, जैसे सुबह कमल खिल जाए सूरज के लिए। सूरज और कमल के बीच सत्संग है--सूरज दे रहा है बेशर्त, कमल ले रहा है बेशर्त। न देने में कोई संकोच है, न लेने में कोई संकोच है। न देने वाला कृपण है देने में, न लेने वाला कृपण है लेने में। न देने वाला है, न लेने वाला है, दोनों तरफ सन्नाटा है, निर-अहंकार भाव है, वही सत्संग है। ये सुबह के चुपचाप खड़े वृक्ष, ये सूरज की बरसती हुई किरणें, यह पक्षियों का कलरव, यह तुम्हारा चुपचाप यहां बैठे होना, जब भी तुम्हारे भीतर विचार की धारा बंद हो जाती है, तभी सत्संग हो जाता है।
मैं शून्य हूं, जब तुम विचार से भरे होते हो, तुम मुझसे दूर होते हो। शून्य के पास आने का उपाय शून्य होना ही है। समान ही समान के पास आ सकेगा। तुम जब विचार से भरे हो, तुम बहुत दूर हो। चांद-तारों पर कहीं, यहां नहीं। कहीं और, कहीं और। हजार स्थान होने के हो सकते हैं। मगर जरा सी विचार की तरंग उठी कि तुम यहां नहीं हो, एक बात सुनिश्चित है। कहीं और होओगे। सत्संग टूट गया। धागा टूट गया। सेतु न रहा। हम दो अलग दुनियाओं में हो गए। हमारे बीच कोई संबंध न रहा। विचार गया--एक क्षण को भी चला जाए--निर्विचार सघन हुआ, तुम सिर्फ मौन वहां बैठे रहे, खुले, उन्मुक्त, स्वागत करते, जरा भी तुमने अवरोध न दिया, जरा भी तुमने बाधा खड़ी न की, मैं-भाव निर्मित न हुआ--एक क्षण का अंतराल काफी है--वहीं सत्संग घट जाता है। और एक क्षण का सत्संग इतना दे जाता है, जितना विचार का एक पूरा जीवन भी न दे सकेगा। अनंत-अनंत जीवन न दे सकेंगे जो, एक क्षण का सत्संग दे जाता है।
पर सत्संग कभी-कभी घटता है। इसलिए मैं रोज बोले जाता हूं। आज नहीं घटेगा, कल घटेगा, कल नहीं परसों घटेगा; कौन जाने किस घड़ी में घट जाए? कौन जाने कौन सा शब्द चोट कर जाए? कौन जाने किस भाव-दशा में तुम खुल जाओ--तुम्हारा कमल खुले और तुम सूरज को पी लो? एक बार सत्संग लग जाए, एक बार जोड़ बैठ जाए, फिर तो बार-बार बैठने लगता है। एक बार समझ आ जाए, स्वाद आ जाए, फिर तो बार-बार लेने में अड़चन नहीं रह जाती, क्योंकि सूत्र तुम्हारे हाथ आ गया। गणित पर तुम्हारी पकड़ हो गई। फिर तो तुम चुपचाप अपने भीतर उस भाव-दशा को कभी भी बुला ले सकते हो। फिर यहां बैठने की भी जरूरत नहीं है, तुम दूर हो कहीं, तो भी सत्संग बन सकता है। ऐसा सत्संग बन सके इसीलिए संन्यास का आयोजन किया है। तुम दूर रह कर भी जुड़ सको, यही संन्यास के पीछे सूत्र है। तुम दूर रह कर भी मेरे पास हो सको।
खयाल रखना, पास होकर भी कोई दूर हो सकता है। यहां कोई बैठा हो हजार विचारों से भरा हुआ, सोचता हो, विवाद करता हो, तर्क करता हो, संदेह करता हो, अपने पक्षपात, अपनी धारणाएं बीच में लाता हो, तो दूर है। और कहीं दूर, हजारों कोसों दूर, सात समंदर पार तुम बैठे चुपचाप और तुम निर्विचार हुए और तुमने कोई तरंग न उठाई, तुम निस्तरंग हुए, तुम्हारी भीतर की अंतर-ज्योति कंपी नहीं, ठहर गई, उसी क्षण सत्संग हो जाएगा। दूरी मिटी, समय मिटा, काल मिटा, फासले मिटे, तत्क्षण तुम करीब आ गए। सत्संग करीब आने की कला है। दूर रह कर भी करीब आने की कला है। बिना छुए छूने की कला है। सत्संग एक बड़ी कीमिया है। इसलिए उसकी बहुत महिमा गाई गई है।
गुरु के पास तो हम पाठ सीखते हैं सत्संग का, फिर सत्संग तो परमात्मा से ही होना है। एक बार राज हाथ में आ जाए, फिर तो तुम कभी भी खुल जाओ, कहीं भी खुल जाओ--खुलने का साहस आ जाए और यह समझ में आ जाए कि खुलने से कुछ खोता नहीं, खुलने से मिलता है, बंद रहने से खोता है--यह महत्वपूर्ण नियम तुम्हारी सूझ-बूझ में प्रविष्ट हो जाए कि विचार से कुछ मिलता नहीं, विचार नपुंसक हैं, निर्विचार से मिलता है, निर्विचार संपदा है; विचार भिखारी हैं, निर्विचार सम्राट हैं, ऐसी तुम्हें प्रतीति हो जाए--गुरु के पास बैठना बस इस प्रतीति के लिए है--एक बार यह प्रतीति हो गई, तो जब गुरु के पास खुलने से इतना मिल जाता है, तो परम के लिए खुलना, सर्व के लिए खुलना, सारे आकाश के लिए खुलना, फिर कितना न मिलेगा! फिर संपदा ही संपदा है। फिर कभी कोई दीनता नहीं है। फिर कोई दुख नहीं है, फिर कोई दारिद्रय नहीं है। फिर तुम सम्राट हो, फिर तुम स्वामी हो।
यह तो सत्संग का अंतर्तम है।
इस सत्संग तक पहुंचने के लिए प्रभु की चर्चा, संतों के वचन, सदगुरुओं की अनुभूतिसिक्त वाणी, उस पर विचार, उसमें डोलना, उसके साथ नाचना, मस्त होना, वेद-कुरान-बाइबिल से थोड़े से मदिरा के घूंट पीना, वह भी औपचारिक अर्थों में सत्संग है। जैसे छोटे बच्चे को हम स्कूल में पाठ पढ़ाते हैं तो कहते हैं--‘ग’ गणेश का। ग का गणेश से कुछ लेना-देना नहीं है। ग तो गधे का भी है, कोई गणेश की बपौती नहीं है। कहते हैं आ आम का; आ तो आदमी का भी है, आम से कुछ अनिवार्यता नहीं है। लेकिन कुछ भी बहाना चाहिए बच्चे को समझाने के लिए। बच्चा आ को तो जानता नहीं, आम को जानता है, आम का स्वाद उसे मालूम है, आ का स्वाद उसे मालूम नहीं है। आम की तस्वीर देखी है, आम का रंग देखा है, आम उसकी प्रतीति में है, आम को बहाना बना रहे हैं ताकि आम के सहारे, आम की सीढ़ी पर चढ़ कर वह आ से परिचित हो जाए। फिर जिंदगी भर थोड़े ही ‘आ’ आम का, ऐसे ही करते रहना है! कि जब भी किताब पढ़ी, आ आया तो कहा ‘आ’ आम का। और ग आया तो ‘ग’ गधे का। फिर तो तुम गधों और आमों में डूब जाओगे, फिर कुछ पढ़ नहीं पाओगे। क्योंकि हर शब्द आएगा और वह किसका? तो जो लिखा गया है, वह तो पकड़ में ही नहीं आएगा।
फिर तो भूल जाता है बच्चा। एक बात समझ में आ गई, एक बात पहचान में आ गई, फिर उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। साधन की तरह उपयोग कर लिया, वह साध्य नहीं था। देखी हैं, छोटे बच्चों की किताबें? उनमें तस्वीरें बड़ी होती हैं; फिर जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, तस्वीरें छोटी होने लगती हैं। तस्वीरें बड़ी रंगीन होती हैं बच्चों की किताबों की। क्योंकि रंग उसे आकर्षित करता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, तस्वीरें बिना रंग की होने लगती हैं और छोटी होने लगती हैं। स्कूल में पहुंचते-पहुंचते तस्वीरें नदारद होने लगती हैं। युनिवर्सिटी में पहुंचते-पहुंचते तस्वीरों का कोई संबंध ही नहीं रह जाता। अब बच्चा सीधा-सीधा पढ़ने लगा।
तो औपचारिक रूप से, साधन रूप से, प्रभु-चर्चा सत्संग है। जहां भजन होता हो, भजन के भाव में लोग भीगते हों, वहां सत्संग है। लेकिन औपचारिक रूप से ही समझना। भजन के पार जाना है, क्योंकि भजन वैसे ही है जैसे ‘आ’ आम का। वैसे ही ‘भजन’ भगवान का। उसके पार जाना है। होना तो अंततः मौन है। लेकिन सत्संग की दृष्टि से सभी बच्चे हैं, बूढ़े भी बच्चे हैं।
शामे फिराक अब न पूछ, आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बदल गया, जां थी कि फिर सम्हल गई

बज्मे-खयाल में तेरे हुस्न की शम्मअ जल गई।
दर्द का चांद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गई।।
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक-महक उठी।
जब तेरा गम जगा लिया, रात मचल-मचल गई।।
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम।
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गई।।
आखिरे-शब के हमसफर ‘फैज’ न जाने क्या हुए।
रह गई किस जगह सबा, सुबह किधर निकल गई।।

बहुत मुकाम आते हैं, बहुत पड़ाव आते हैं।
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम।
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गई।।
भजन से शुरू करोगे, हजार-हजार रंगों में प्रार्थना करोगे, हजार तैयारियां करोगे, सोचोगे प्रभु का मिलन हो जाए तो ऐसा कहेंगे, ऐसा कहेंगे, यह कहेंगे, वह कहेंगे, लेकिन बात बदल-बदल जाने वाली है। और अखीर में बात बचेगी ही नहीं। जब प्रभु के सामने खड़े होओगे, सन्नाटा रह जाएगा। शून्य ही बचेगा।
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम।
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गई।।
न तो वेद की ऋचा का उल्लेख कर सकोगे, न कुरान की आयत गुनगुना सकोगे। नहीं, कुछ काम न आएगा; उसका काम पूरा हो चुका, वह वर्णमाला की शुरुआत थी। वर्णमाला की शुरुआत--विचार, शब्द, शास्त्र। अंत कहां है? अंत निर्विचार में है। अंत है ध्यान में। अंत है प्रेम में।
शामे फिराक अब न पूछ, आई और आके टल गई
मत पूछो विरह की रात! जब भी भक्त भगवान को याद कर लेता है, विरह की रात होती भी है और टल भी जाती है।
शामे फिराक अब न पूछ, आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बदल गया, जां थी कि फिर सम्हल गई
जैसे ही याद परमात्मा की कर लेता है भक्त--वह सत्संग की शुरुआत--वैसे ही सब बदल जाता है। दिल था कि फिर बदल गया। एक दिल है जब परमात्मा की याद नहीं। यह अंधेरा दिल है। यह अमावस की रात है। और परमात्मा की याद उठी, रोमांच हुआ, आंख में आंसू भर आए, गदगद भाव हुआ, ‘दिल था कि फिर बदल गया,’ फिर अमावस की रात पूर्णिमा हो गई, ‘जां थी कि फिर संभल गई,’ वह जो दुख से ़जार-़जार हुए जाते थे, कुछ राह न सूझती थी, सब उलझा-उलझा दिखता था, सब सुलझ गया। जरा सी याद की किरण क्या आ गई! याद की किरण से भी यह हो जाता है, साक्षात से क्या होगा, उसका तो हिसाब लगाना मुश्किल है।
बज्मे-खयाल में तेरे हुस्न की शम्मअ जल गई।
बस ध्यान में, अभी प्रत्यक्ष नहीं हुआ है, ‘बज्मे-खयाल में’... सिर्फ ध्यान में... ‘तेरे हुस्न की शम्मअ जल गई’... तेरे सौंदर्य का दीया जला। सिर्फ खयाल में, सिर्फ विचार में।
दर्द का चांद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गई।
उसी क्षण विरह की रात ढल गई। दर्द का चांद भी समाप्त हो गया। तुम दूसरी दुनिया में रूपांतरित हो गए। तुम एक-दूसरे लोक में प्रवेश कर गए।
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक-महक उठी।
एक सुबह है, जो उन्होंने जानी है जिन्होंने परमात्मा को बिना याद किए सुबह को गुजारा है। एक और सुबह है, जो केवल वे ही भाग्यशाली जानते हैं जो सूरज के उगने के साथ परमात्मा की याद को भी अपने भीतर उगाते हैं। जो सुबह तुमने परमात्मा को बिना जाने जानी है, वह सुबह ऐसी है, जैसे अंधे आदमी ने सूरज की तरफ आंखें उठाई हैं। वह सुबह ऐसी है, जैसा बहरा आदमी शास्त्रीय संगीत सुनने चला गया हो। उपक्रम दिखाई पड़ेगा, बहरा आदमी जाएगा शास्त्रीय संगीत सुनने तो उसे भी दिखाई पड़ेगा साज है, संगीतज्ञ है, तारों को खींचता है, मरोड़ता है, कुछ हो रहा है, उसे दिखाई पड़ेगा, लेकिन संगीत देखने की चीज तो नहीं है, संगीत तो सुनने की चीज है, आंख वहां काम नहीं आती, दिखाई तो सब पड़ेगा, समझ में कुछ भी न आएगा कि हो क्या रहा है? शायद थोड़ी बेचैनी भी होगी कि लोग क्या बैठे हैं, क्या देख रहे हैं? एक आदमी तार खींचे जा रहा है, एक आदमी तबले को पीटे जा रहा है, कुछ और हो नहीं रहा है; एक आदमी मुंह में बांसुरी लगाए हुए फूंके जा रहा है, कुछ परिणाम नहीं आता दिखता, सब असंगत मालूम होगा, अर्थहीन मालूम होगा। अर्थ तो कान हो तो होगा। सुनाई पड़ जाए तो अर्थ समझ में आएगा।
जिन्होंने परमात्मा को बिना याद किए सुबह के उगते सूरज को देखा, वे बहरे आदमी की तरह हैं जिन्होंने किसी को बांसुरी बजाते देखा। उन्हें असली बात समझ में नहीं आएगी। उन्हें सूरज के पीछे छिपे हुए हाथों का कोई अनुभव नहीं होगा। उन्हें सूरज के पार भी कोई महासूर्य है, जहां से सूरज में रोशनी उतरती है, जिसके बिना सूरज चुक जाता कभी का, उसका उन्हें कोई अहसास नहीं होगा। वे आदमी को देखेंगे, हड्डी-मांस-मज्जा दिखाई पड़ेगी, भीतर आत्मा का अनुभव नहीं होगा। जिन्हें जगत में परमात्मा का अनुभव नहीं हो रहा है, उन्हें मनुष्य में आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता। उन्हें चीजें तो दिखाई पड़ेंगी, लेकिन चीजों के बीच कोई जोड़ नहीं दिखाई पड़ेगा। जीवन एक दुर्घटना मालूम होगी।
सत्संग जीवन को सार्थकता देता है। देखने का नया ढंग, सुनने का नया ढंग। ऐसा ढंग जो बिखरी-बिखरी चीजों को जोड़ देता है। सबके बीच तारतम्य बिठा देता है। एक प्रसंग और संदर्भ परमात्मा का आ जाता है, सब चीजों के अर्थ बदल जाते हैं। तुमने देखा? किसी से तुम्हारा प्रेम है, और वह तुम्हें एक चार आने का रूमाल भेंट कर दे, तो ऐसे बाजार में तुम किसी को दिखाओगे तो वह कहेगा--चार आने का रूमाल है, क्या इतना सम्हाल कर चल रहे हो, कोई कोहनूर हीरा समझ लिया है? लेकिन तुम्हारे लिए कोहनूर हीरा फीका है। तुम्हारे पास एक संदर्भ है प्रेम का, जो उस दूसरे आदमी के पास नहीं है, उसे सिर्फ चार आने की चीज दिखाई पड़ती है। तुम्हारे लिए चार आने का सवाल ही नहीं है, मूल्य की बात ही नहीं है, किसी ने प्रेम से दिया है--भेंट है--तुम्हारा प्यारा उस छोटे से रूमाल में समाया है। उसकी सुगंध कोई और न ले सकेगा, तुम्हीं ले सकोगे।
भक्त को यह जगत पदार्थ नहीं रह जाता। चार आने की चीज नहीं रह जाता। इसमें उसका प्यारा समाया हुआ है। यह उसके प्यारे की भेंट है। सत्संग उसी दिशा में कदम उठाना है।
बज्मे-खयाल में तेरे हुस्न की शम्मअ जल गई।
दर्द का चांद बुझ गया, हिज्र की रात ढल गई।।
जब तुझे याद कर लिया, सुबह महक-महक उठी।
जब तेरा गम जगा लिया, रात मचल-मचल गई।।
उसका मिलन तो दूर, उसका विरह भी बड़ा प्यारा है। उसके विरह में भी बड़ी मस्ती है। उसके मिलन का तो हिसाब लगाना मुश्किल है! गणित बिठाना मुश्किल है! लेकिन धन्यभागी हैं वे, जिन्हें उसकी याद भी आने लगी।
सत्संग का प्राथमिक अर्थ है, जहां चार दीवाने इकट्ठे होते हों, जहां चार दीवाने बैठ कर दीवानगी की बातें करते हों, जहां चार प्यारे बैठ कर उस प्रियतम का गुणगान गाते हों, उसकी याद जगाते हों, उसका रस बिखेरते हों--और कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि उनके रस बिखेरने में उस तक भी रस पहुंच जाता है जो खाली आया था। उनकी गागर से कुछ उसमें भी छलक जाता है।
दोस्तो, उस चश्म-ओ-लब की कुछ कहो, जिसके बगैर।
गुलिस्तां की बात रंगीं है न मयखाने का नाम।।
दोस्तो, उस चश्म-ओ-लब की कुछ कहो, जिसके बगैर।
गुलिस्तां की बात रंगीं है न मयखाने का नाम।।
फिर नजर में फूल महके, दिल में फिर शम्में जलीं।
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज्म में जाने का नाम।।
मोहतसिब की खैर, ऊंचा है उसीके फैज से।
रिंद का, साकी का, मय का, खुम का, पैमाने का नाम।।
दोस्तो, उस चश्म-ओ-लब की कुछ कहो,...
सत्संग का अर्थ होता है, जो जानता हो, जिसे कुछ खबर मिली हो, वह उसे खबर दे दे जिसे अभी खबर नहीं मिली। जो दो कदम आगे गया हो, वह उसे खबर दे दे जो दो कदम पीछे है। पुकार दे दे कि चले आना, कि बढ़े आना, कि आगे और रसधार है, कि आगे और सौंदर्य है। जिसे दिखा हो, वह उसके हृदय में देखने की प्यास जगा दे जिसे अभी दिखा नहीं। जिसने पाया हो, वह बांटे। तो सत्संग दोहरा है। गुरु की तरफ से बांटना है, शिष्य की तरफ से पीना है।
दोस्तो, उस चश्म-ओ-लब की कुछ कहो, जिसके बगैर।
गुलिस्तां की बात रंगीं है न मयखाने का नाम।।
परमात्मा के बगैर फूल फूल नहीं रह जाते। क्योंकि फूलने वाला ही नहीं बचा। वृक्ष हरे होते हैं और हरे नहीं होते, क्योंकि हरियाली तो सब उसकी है। उसके बिना तो सब सूखा-साखा है। उसके बिना भी चांद निकलता है, लेकिन मालिक के बिना होता है, उदास-उदास होता है। उसकी मौजूदगी में, उसके अनुभव के साथ चांद एक नया ही अर्थ ले लेता है, नई भावभंगिमा ले लेता है। छोटी-छोटी बातें सार्थक हो उठती हैं। जिंदगी के छोटे-छोटे अनुभव बहुमूल्य और गहरे हो जाते हैं।
दोस्तो, उस चश्म-ओ-लब की कुछ कहो, जिसके बगैर।
गुलिस्तां की बात रंगीं है न मयखाने का नाम।।
उसके बिना शराब में भी नशा नहीं। नशा तो वही है, असली नशा तो वही है। जिसने उसे पीआ, उसने ही जाना कि असली नशा क्या है। अंगूरों से ढलने वाली शराब में वह बात नहीं। यह तो केवल धोखा है। यह तो प्रवंचना है। यह तो झूठा सिक्का है। असली सिक्के की तलाश करो। तो सत्संग तो पियक्कड़ों की जमात है। एक मधुशाला है। वहां कोई है जिसकी सुराही भर गई है, बह रही है, जो भी पीने को आतुर हैं पी सकते हैं।
महिमा तो बड़ी है सत्संग की। सत्संग की महिमा तो परमात्मा से भी बड़ी है। क्योंकि सत्संग से ही परमात्मा मिलेगा। सत्संग के बिना कोई परमात्मा को अनुभव नहीं कर पाया है। यह यात्रा सत्संग में ही पूरी हो पाती है। संन्यास सत्संग का एक रूप है--एक ही रंग में रंग जाना। बाकी तो प्रतीक हैं। एक साथ किसी यात्रा पर निकल पड़ना, एक दिशा में उन्मुख हो जाना।
सत्संग ही घट रहा है यहां। तुम जीवंत अनुभव से गुजर रहे हो। तुम्हें शाब्दिक व्याख्या की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें शब्दकोश में सत्संग का अर्थ देखने की आवश्यकता नहीं है। आंख बंद करो, अपने भीतर देखो। चुप हो जाओ और समझो। चुप हो जाओ और सुनो।

दूसरा प्रश्न: भगवान,
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो न थी
ले गया छीन के कौन आज मेरा सब्रो-करार
बेकरारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
उनकी आंखों ने खुदा जाने क्या किया जादू
कि तबियत मेरी मायल कभी ऐसी तो न थी
चश्मे कातिल मेरी दुश्मनी थी हमेशा लेकिन
जैसे अब हो गई कातिल कभी ऐसी तो न थी
तरु! तू अब पागल होने लगी। सत्संग का यही परिणाम है। जहां पागल हो जाना बुद्धिमत्ता है, ऐसा विरोधाभास है सत्संग। बात करनी मुश्किल हो जाएगी।
‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’
इस बात को खयाल में लेना। जिनके पास बात करने को कुछ नहीं है, उन्हें बात करनी मुश्किल होती ही नहीं। वे बे-बात में से बात निकाले चले जाते हैं। जिनके पास बात करने को कुछ नहीं है, वे दिन भर बात करते रहते हैं। जब बात करने को कुछ होता है, तभी बात करनी मुश्किल होती है। क्योंकि जो बात करने को मिलता है जब, तब पता चलता है कि इसे शब्दों में कहना कठिन है; इसका निवेदन न हो सकेगा, इसे रूप न दिया जा सकेगा। जब कुछ कहने को होता है तो कहना मुश्किल हो जाता है। जब तक कहने को नहीं है, तब तक कह लो जो कहना है। बतिया लो। समझ लो, समझा लो। जब कुछ कहने को आएगा, तो गूंगे हो जाओगे, बोलते न बनेगा। फिर से बोलना सीखना पड़ता है। शब्दों पर नये अर्थों की कलमें बिठानी पड़ती हैं। सामान्य शब्दों को असामान्य अर्थ देने पड़ते हैं। भाषा का ऐसा उपयोग करना पड़ता है जिससे भाषाशास्त्री राजी नहीं होगा।
तुम्हारा एक अनुभव है, उस अनुभव के अनुकूल तुम्हारी भाषा है। जब अनुभव बदलेगा, तब क्या करोगे? तब तुम्हें नई भाषा चाहिए। उस भाषा को कोई समझेगा नहीं। भाषा तो तुम्हें यही बोलनी पड़ेगी जो लोग बोलते हैं। फिर इस ढंग से बोलनी पड़ेगी कि लोग समझ भी लें। अड़चन आएगी।
अगर लोग बिलकुल समझ लेंगे तुम्हारी बात, तो तुम पाओगे तुम कुछ कह नहीं पाए। अगर लोग बिलकुल नहीं समझ पाएंगे, तो लोग कहेंगे, क्या बकवास लगा रखी है! तुम्हें कुछ बीच का रास्ता खोजना पड़ेगा। कुछ-कुछ समझ में आए, कुछ-कुछ समझ में न आए। यही सारे संतों को अनुभव करना पड़ा है। इसलिए संतों की भाषा को भाषाशास्त्री सधुक्कड़ी कहते हैं। सधुक्कड़ी का अर्थ होता है--कुछ-कुछ यहां की, कुछ-कुछ वहां की। थोड़ी-थोड़ी यहां की, थोड़ी-थोड़ी वहां की। एक कदम इस जमीन पर और एक कदम आकाश में। इसीलिए जो बहुत सहानुभूति से समझते हैं, वे ही समझ पाएंगे। जो सहानुभूति से समझने को राजी नहीं हैं, वे कहेंगे, बकवास है। वे कहेंगे, हमारी कुछ समझ में नहीं आता। ये रहस्य की बातें बंद करो। सीधी-साफ बात कहो। दो और दो चार होने चाहिए, ऐसी बात कहो।
मगर मुश्किल है संत की, दो और दो चार अब उसकी दुनिया में होते नहीं। यहां एक और एक मिल कर दो हो जाते हैं, संत की दुनिया में एक और एक मिल कर एक ही रहता है, दो होते ही नहीं। सच तो यह है--पहले दो थे, मिल कर एक हो जाते हैं। पुराना गणित काम नहीं आता। तुम्हारे पास जितने शब्द हैं, सब द्वंद्व से भरे हैं। अगर प्रेम कहो, तो उसके पीछे घृणा खड़ी है। क्योंकि तुम्हारे प्रेम में कोई अर्थ ही नहीं होता बिना घृणा के। घृणा प्रेम की सीमा बनाती है। जैसे पड़ोसी का मकान तुम्हारे घर की सीमा बनाता है। अगर तुम्हारा कोई पड़ोसी न हो, तो तुम कहां अपनी दीवाल उठाओगे? कैसे तय करोगे कि यह मेरा मकान? मुश्किल में पड़ जाओगे। पड़ोसी चाहिए। वह सीमा बना देता है। दोनों मिल कर बीच में एक रेखा खींच लेते हैं। प्रेम का अर्थ--बड़ा बेबूझ मालूम पड़ता है--घृणा से आता है। अगर कोई तुमसे पूछे, प्रेम क्या है? तो तुम कहोगे, जो घृणा नहीं। और क्या कहोगे? और फिर घृणा क्या है? जो प्रेम नहीं। यह तो बड़ी चक्करदार बात हो गई। न प्रेम का पता मालूम होता है, न घृणा का पता मालूम होता है। रात क्या है? दिन नहीं। और दिन क्या है? रात नहीं। फिर दिन क्या है और रात क्या है? दोनों साथ-साथ खड़े हैं। तुम्हारे जीवन का अर्थ तुम्हारी मृत्यु में छिपा है। और संत एक ऐसे जीवन को जानता है जिसकी कोई मृत्यु नहीं, अब वह कैसे कहे? अगर तुम्हारा शब्द उपयोग करे--‘जीवन,’ तो झंझट है, क्योंकि तुम्हारे शब्द में मौत अंतर्गर्भित है। तुम्हारे शब्द का मतलब ही यह होता है--जीवन, जो मौत में समाप्त होता है। मौत उसकी सीमा बनाती है। मौत उसको परिभाषा देती है। मौत में उसका अर्थ छिपा है।
संत कैसे कहे कि जो मैंने जाना है, वह जीवन है? क्योंकि वहां मौत है ही नहीं। संत कैसे कहे कि जो मैंने जाना है वह प्रेम है? क्योंकि वहां घृणा है ही नहीं। और संत कैसे कहे कि जो मैंने जाना है वह करुणा है? क्योंकि वहां क्रोध है ही नहीं। बड़ी अड़चन हो जाती है। तुम्हारे किसी भी शब्द का उपयोग करो, द्वंद्व खड़ा होता है। और संत का अनुभव निर्द्वंद्वता का है, अद्वैत का है। इसलिए वह चुप रह जाता है। या फिर उसे शब्दों का ऐसा उलटा-सीधा उपयोग करना पड़ता है, जिससे भाषाशास्त्री, दार्शनिक राजी नहीं होते।
‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी’
होती जाएगी रोज-रोज मुश्किल तरु, अब। यह मुश्किल बढ़ने वाली है। यहां जो मुझे ठीक-ठीक सुन रहे हैं, उनमें से अधिक गूंगे हो जाएंगे। बोल ही न पाएंगे। मुस्कुराएंगे, कुछ पूछोगे तो। हंसेंगे, कुछ पूछोगे तो। मगर कह न सकेंगे। हंसेंगे तुम पर, हंसेंगे अपने पर भी। तुम्हारा प्रश्न भी व्यर्थ मालूम होगा, कोई उत्तर देना भी सार्थक नहीं मालूम होगा। यह गूंगे का गुड़ है।
‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो न थी’
महफिल तो सदा से ही ऐसी है, सिर्फ तरु तू बदल गई। और जब आदमी बदलता है तो महफिल बदल जाती है। सब ऐसा ही है, मगर जब तुम्हारे पास देखने की नई आंख आती है, तब अचानक लगता है कि यह क्या हुआ? यह तो कुछ और का और है! ऐसा तो कभी दिखा नहीं था! ऐसी तो कभी पहचान न हुई थी! सोचो जरा, एक दिन अचानक तुम पाओ कि सारे वृक्ष जीवंत हैं। कल तक इनके पास से गुजरे थे, कभी सोचा भी न था कि इनको जयराम जी कर लें, इनका विचार भी न किया था। और एक दिन तुम्हें दिखाई पड़ा कि सब जीवंत हैं, आत्मवान हैं, तुम्हारी तरफ टकटकी लगा कर देख रहे हैं, संवेदनशील हैं, तुम जयराम जी कहो तो उत्तर देंगे--अपनी भाषा में देंगे, मगर अब तुम उस भाषा को समझ पाओगे। तुमने सुनी हैं ना संतों की बहुत सी कहानियां! वे कहानियां ही नहीं हैं, और जैसा तुमने उनको पकड़ा है वैसे वे कहानियां ही हो गई हैं।
तुमने सुना होगा, संत फ्रांसिस पक्षियों से बात करता, पौधों से बात करता, मछलियों से बात करता। इसका मतलब ठीक से समझ लेना। इसका मतलब यह नहीं है कि वह कुछ बात करता है, जैसे तुम एक-दूसरे से बात करते हो। इसका मतलब यह है कि अब पक्षी, पौधे, वृक्ष, सब जीवंत हैं। सबके पास व्यक्तित्व है। अब उनकी संवेदना उसे दिखाई पड़ने लगी है। अब वह पहचान लेता है कि वृक्ष उदास है, कि वृक्ष प्रसन्न है, कि आज वृक्ष को उदास देख कर फ्रांसिस वृक्ष के पास आ जाता है, उस पर हाथ रखता है, जैसे कोई उदास आदमी के कंधे पर हाथ रखे, कि कहता है कि भाई, उठो, जागो, कैसी उदासी में खो गए हो! क्यों इतने उदास बने हो? सुबह ज्यादा दूर नहीं है, रात सदा न रहेगी, इतने हताश न हो जाओ। सत्संग हो गया। वृक्ष से सत्संग हो गया। कभी पक्षियों से बात कर रहा है फ्रांसिस। ऐसा नहीं है कि पक्षी और फ्रांसिस एक ही भाषा बोलते हैं, अलग-अलग भाषा बोलते हैं, लेकिन फ्रांसिस अब जानता है कि व्यक्तित्व है।
तुमने कभी देखा, तुम अगर किसी ऐसे देश में चले जाओ जहां की तुम भाषा नहीं समझते और तुम्हें प्यास लग आए तो भी तुम कुछ मुद्रा तो प्रकट कर ही सकते हो। हाथ की चुल्लू बना लोगे, मुंह के पास ले जाओगे, कहोगे कि प्यास लगी है। और दूसरा आदमी समझ लेगा। बिना भाषा के समझ लेगा। आखिर गूंगे भी तो अपना काम चला लेते हैं। बिना बोले बोल लेते हैं। ऐसा ही अर्थ है संतों की इन कहानियों का।
‘जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो न थी’
ऐसी ही थी तरु, सदा से ऐसी थी, सदा से ऐसी ही है। यह सभा ऐसे ही जमी है। यह संसार ऐसी ही रंग-रलियों में डूबा है, ऐसी ही मस्ती में डूबा है। यहां होली-दीवाली चल ही रही है--रोज, रोज होली, रोज दीवाली। हमारे पास आंखें नहीं हैं, तो हम देख नहीं पाते कितने दीये जल रहे हैं, कितनी ज्योतियां जल रही हैं। हम देख नहीं पाते कितनी पिचकारियां चल रही हैं। कितनी गुलाल उड़ाई जा रही है। कितनी मस्ती है, कितना रास चल रहा है, हम नहीं देख पाते।
ऐसा ही समझो कि कृष्ण नाचते हैं, राधा नाचती है, गोपियां नाचती हैं, गोप नाचते हैं और कोई एक आदमी वहीं वृक्ष के नीचे सोया है। रास चल रहा है, उसी के पास चल रहा है, रास की मदमाती तरंगें उस पर भी पड़ रही हैं, मगर वह गहरी नींद में सोया है। न बांसुरी सुनाई पड़ती, न कृष्ण के नूपुर सुनाई पड़ते, न राधा का गीत सुनाई पड़ता, न गोपियों का नृत्य सुनाई पड़ता; न कुछ सुनाई पड़ता, न कुछ दिखाई पड़ता, वह आदमी गहरी निद्रा में सोया है। यह जग जाए तो यह जग कर कहेगा--
‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो न थी’
यह क्या हो रहा है? यह मुझे कुछ पता ही नहीं था कि ऐसा भी होता है! अगर अचानक एक रात तुम आंख खोलो और अपने कमरे में देखो कृष्ण को नाचता हुआ, तो तुम चौंकोगे। मगर नाच चल रहा है, मैं तुमसे कहता हूं। कृष्ण घर-घर में नाच रहे हैं। द्वार-द्वार पर नाच रहे हैं। अनंत-अनंत रूपों में नाच रहे हैं। मगर तुमने एक शकल बना रखी है, तुम कहते हो जब वे मोरमुकुट बांधे, इस रंग के, इस ढंग के खड़े होंगे, इस मुद्रा में, तब हम पहचानेंगे। जरा वृक्षों को गौर से देखो, मोरमुकुट बांधा हुआ है। जरा चांद-तारों को गौर से देखो, बांसुरी बज रही है। जरा पक्षियों को गौर से सुनो, यही घूंघर है, यही उनकी पायल। गौर से देखो। तुमने बहुत छोटी प्रतिमा बना ली है, प्रतिमा बहुत बड़ी है। प्रतिमा इतनी बड़ी है कि तुम पूरी प्रतिमा को एकसाथ न देख पाओगे, अंग-अंग को ही देख पाओगे। ऐसी प्रतिमाएं हैं, विशाल प्रतिमाएं। वे इसी कारण बनाई गई हैं।
बड़वानी में एक जैन प्रतिमा है, बावन गज ऊंची। बावन गज! बड़ी प्रतिमा है। छह फीट की तो छिंगली है पैर की--एक आदमी की लंबाई के बराबर। तुम जब नीचे से देखोगे तो पैर ही पैर दिखाई पड़ते हैं; सिर उठाते-उठाते जब तुम सिर तक पहुंचोगे, टोपी गिर जाएगी। सीढ़ी चढ़ कर जाना पड़ता है, ऊपर चेहरे को देखने, आंख को देखने। आंख भी उतनी बड़ी है! यह किन लोगों ने इतनी बड़ी प्रतिमा बनाई थी? किसलिए बनाई थी? यह प्रतीक है।
यह प्रतीक है कि परमात्मा को छोटी-छोटी प्रतिमाओं में मत खोज करना, उसकी प्रतिमा बड़ी है। उसकी प्रतिमा इतनी बड़ी है कि सारा ब्रह्मांड उसकी प्रतिमा है। इसमें सीढ़ियां और सीढ़ियां चढ़ते रहोगे, चढ़ते रहोगे--इकट्ठा तो तुम इसे कभी न देख पाओगे; कभी छिंगली दिख गई तो बहुत, कभी पैर हाथ में आ गए तो बहुत धन्यभागी हो तुम। कभी एक आंख दिख गई तो बहुत है, क्योंकि वह एक आंख भी एक महासागर होगी। वह पैर भी हिमालय होंगे। यह पूरा ब्रह्मांड रास है। यहां नृत्य चल ही रहा है। यह महफिल जमी ही है। यह उखड़ती ही नहीं। यह शाश्वत है।
‘ले गया छीन के कौन आज मेरा सब्रो-करार
बेकरारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी’
इसकी जरा झलक पड़ेगी तो अड़चन तो आएगी, बेचैनी तो आएगी, सब्र और करार तो जाएगा। फिर कैसा चैन? जहां इतना मधुमय आनंद बरस रहा हो, वहां तुम इससे वंचित बैठे हो--फिर कैसे शांत बैठे रहोगे? एक ज्वाला धधकेगी, विरह का तूफान उठेगा। वही तूफान उठ रहा है। वही तूफान उठे, यह मेरा प्रयास चल रहा है। मैं तुम्हें शांति नहीं देना चाहता, मैं तुम्हें ऐसी अशांति देना चाहता हूं कि परमात्मा को पाए बिना तुम्हें शांति मिले ही नहीं। मैं तुम्हें चैन नहीं देना चाहता--अगर तुम चैन की तलाश में आए हो तो तुम गलत जगह आ गए--मैं तुम्हें बेचैन करना चाहता हूं। ऐसा बेचैन कि तुम्हारी नींद टूट जाए, तुम्हारी सब व्यवस्था उखड़ जाए; ऐसा बेचैन कि जब तक तुम परमात्मा को ही अनुभव न कर लो, दुबारा फिर विश्राम न कर सको, विराम न कर सको। एक दिव्य अतृप्ति तुममें जगाने की आयोजना चल रही है। यही है सत्संग।
‘उनकी आंखों ने खुदा जाने किया क्या जादू
कि तबियत मेरी मायल कभी ऐसी तो न थी’
तुम्हारी आंख खुले, तो तुम चकित होकर पाओगे कि परमात्मा की आंख तुम्हारी तरफ सदा से टकटकी लगाए देख ही रही थी। वह साक्षी है, वह परम साक्षी है, उसकी आंख तुम्हारा पीछा कर रही है। तुम कहीं भी हो, वह तुम्हें देख रहा है। एक क्षण को भी तुम उसकी आंख से ओझल नहीं हो। तुम चाहे उसकी तरफ पीठ करो, चाहे मुंह करो, चाहे उन्मुख, चाहे विमुख, मगर उसकी आंख सदा तुम्हारी तरफ है। इसलिए शास्त्र कहते हैं--उसके हजार हाथ हैं, उसकी हजार आंखें हैं।
क्यों?
जिन्हें इन प्रतीकों की सहानुभूतिपूर्ण परीक्षा में उतरने की आकांक्षा नहीं है, वे कपोल-कल्पना कह कर टाल देते हैं। हजार हाथ? हजार हाथ सिर्फ प्रतीक है। हजार का मतलब होता है--अनंत। वह तो प्रतीक है, अब इससे ज्यादा बनाना मुश्किल हो जाएगा पत्थर में, हजार ही मुश्किल से बनते हैं, वह तो प्रतीक है, मगर बात इतनी है कि उसके इतने हाथ हैं जितने यहां लोग हैं। ताकि हर आदमी को उसका हाथ मिल सके। तुम्हारे लिए भी उसका एक विशेष हाथ है, जो तुम्हें तलाश रहा है, जो तुम्हारे पीछे चल रहा है। तुम जिस दिन चाहोगे, उसी दिन हाथ उसका हाथ में आ जाएगा। तुम्हारे लिए भी उसकी एक आंख है, जो सिर्फ तुम्हारे लिए है और किसी के लिए नहीं। तुम अद्वितीय हो, तुम महिमावान हो, तुम्हारे लिए एक विशिष्ट आंख है, जो तुम्हारा ही पीछा कर रही है, जो तुम्हारा ही साक्षी बनी है, जो तुम्हें देखती जा रही है--तुम्हारे अच्छे कर्म, तुम्हारे बुरे कर्म, तुम्हारा विचार, तुम्हारा निर्विचार, सब देखा जा रहा है। जिस दिन तुम शांत होकर, निर्विचार होकर, मौन होकर ध्यान की आंख खोलोगे, उसी दिन तुम पाओगो--अरे, यह आंख मेरा पीछा कब से कर रही थी? और फिर तुम्हारी जिंदगी में एक जादू छाएगा, जो इसके पहले कभी भी नहीं था। तुम्हारी आंख में भी थोड़ी उसकी आंख का रंग आ जाएगा। तुम्हारी आंख में उसकी आंख झलक गई, तुम्हारी आंख की गहराई बढ़ जाएगी। तुम्हारी आंख आकाश जैसी हो जाएगी।
‘उनकी आंखों ने खुदा जाने किया क्या जादू
कि तबियत मेरी मायल कभी ऐसी तो न थी
चश्मे-कातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई कातिल कभी ऐसी तो न थी’
परमात्मा को जानने की यात्रा में वह घड़ी आती है--मिटने की घड़ी--जब उसकी तलवार गिरती है और वह कातिल की तरह तुम्हें काट कर दो टुकड़े कर देता है। जब तुम टूटते हो, तभी तुम उससे मिल पाते हो। तुम्हारा होना बाधा है।
तेरा जमाल निगाहों में ले के उठा हूं,
निखर गई है फजा तेरे पैहरन की सी।
नसीम तेरे शबिस्तां से होके आई है,
मेरी सहर में महक है तेरे बदन की सी।।
जरा अनुभव होने लगे, फिर सुबह की हवा में उसके बदन की महक होगी; झरते फूलों में उसकी मुस्कुराहट, रात के तारों में उसकी ही मस्ती का राग।
देर लगी आने में तुझको, शुक्र है फिर भी आए तो।
आस ने दिल का साथ न छोड़ा, वैसे हम घबड़ाए तो।।
शफक, धनक, महताब, घटाएं, तारे, नग्मे, बिजली, फूल।
उस दामन में क्या-क्या कुछ है वो दामन हाथ में आए तो।।
चाहत के बदले में हम तो बेच दें अपनी मर्जी तक।
कोई मिले तो दिल का गाहक कोई हमें अपनाए तो।।
सुनी सुनाई बात नहीं ये, अपने ऊपर बीती है।
फूल निकलते हैं शोलों से, चाहत आग लगाए तो।।
उसको पाने की अभीप्सा की आग जगे कि उस आग में ही फूल खिलते हैं।
सुनी सुनाई बात नहीं ये अपने ऊपर बीती है।
फूल निकलते हैं शोलों से, चाहत आग लगाए तो।।
बस, चाहने के लिए दीवानापन चाहिए। छोटी-मोटी चाहत से काम न चलेगा, पूरी-पूरी चाहत चाहिए। समग्रीभूत। सारी आकांक्षाएं एक ही आकांक्षा में बच जाएं, नियोजित हो जाएं; सारी आकांक्षाओं की सरिताएं, एक ही आकांक्षा का सागर बन जाएं कि परमात्मा को पाना है, कि पाना ही है। देर तो लगेगी।
देर लगी आने में तुझको, शुक्र है फिर भी आए तो।
देर तो लगेगी, क्योंकि सारी जीवन-सरिता को, सारे जीवन की सरिताओं को समग्रीभूत करना, सबको एक धारा में ले आना--अभी तो हम हजार धाराओं में बह रहे हैं। पश्चिम भी जा रहे हैं, पूरब भी जा रहे हैं, दक्षिण भी जा रहे हैं, उत्तर भी जा रहे हैं; ऊपर, नीचे, सब तरफ जा रहे हैं; अभी तो हम खंड-खंड हैं, एक पैर इस तरफ जा रहा है, एक पैर दूसरी तरफ जा रहा है; इसलिए तो हम कहीं नहीं पहुंच पाते हैं, जहां के तहां गिर जाते हैं और मर जाते हैं। फिर उठते हैं, फिर जन्मते हैं, फिर वहीं खड़े-खड़े मर जाते हैं।
जरा सोचो, एक बैलगाड़ी जिसमें चारों तरफ बैल जोत दिए हैं, सब बैल अपनी-अपनी दिशा में खींच रहे हैं। बैलगाड़ी कहीं भी न जाएगी, अस्थि-पंजर ढीला हो जाएगा बैलगाड़ी का, यात्रा हो ही नहीं सकती। यात्रा तो तभी होती है जब बैल एक दिशा में जाते हों। और कभी तुम ऐसी बैलगाड़ी में बैठे हो जिसमें दो बैल हों लेकिन आपस में जिनमें विरोध हो। एक चले तो दूसरा न चले। दूसरा चले तो पहला रुक जाए। जिनमें दुश्मनी हो। तो भी बड़ी मुश्किल हो जाती है। ऐसी ही तुम्हारी हालत है, एक मन करना चाहता है एक काम, मन का ही दूसरा हिस्सा नहीं करना चाहता। एक हाथ से मकान बनाते हो, एक हाथ से गिरा देते हो। पहुंचोगे कहां? और परमात्मा को पाने के लिए समग्रीभूत हो जाना जरूरी है। योग का यही अर्थ है, जुड़ जाना, इकट्ठे हो जाना।
देर लगी आने में तुझको, शुक्र है फिर भी आए तो।
आस ने दिल का साथ न छोड़ा, वैसे हम घबड़ाए तो।।
बड़ी घबड़ाहटें भी आएंगी। बीच-बीच में बहुत ऐसे स्थान भी आ जाएंगे जहां लगेगा, मैं भी किस पागलपन में पड़ गया? मैं भी किस रास्ते पर चल पड़ा? पता नहीं कुछ मिलने को है भी या नहीं? क्योंकि धीरे-धीरे अकेले हो जाओगे--वहां कुछ भीड़ तो जाती नहीं, वहां कोई लाखों-करोड़ों लोग तो जाते नहीं, विरले लोग जाते हैं। जल्दी ही तुम पाओगे कि दस-पांच जो साथ चले थे, वे भी धीरे-धीरे छूट गए। अकेले रह गए।
तिब्बत की एक प्राचीन कथा है। एक गुरु ने अपने शिष्य को दूर पहाड़ों में एक आश्रम खोलने भेजा। जब आश्रम बन गया, उस शिष्य ने खबर भेजी कि मुझे एक सहायक की जरूरत है। खबर आई, महीनों लगे खबर आने में क्योंकि पहाड़ बड़ा दूर था और पैदल ही यात्रा होती थी। जब खबर पहुंची तो गुरु ने कहा: ठीक। उसने अपने सारे शिष्य इकट्ठे किए और सौ शिष्य चुने। जो संदेशवाहक संदेश लेकर आया था, वह हैरान हुआ क्योंकि संदेश तो सिर्फ इतना था कि एक साथी और भेज दें। सौ भेज रहा है यह गुरु! उसने पूछा कि आप क्या कर रहे हैं, आपने पत्र ठीक से पढ़ा? एक मांगा है। गुरु ने कहा: सौ चलेंगे, तब एक पहुंचेगा। अगर एक को पहुंचाना हो तो सौ चुनने पड़ते हैं। बात उसे बिलकुल जंची नहीं, हद्द हो गई, जरूरत से ज्यादा हो गई! अगर इतना भी कहता कि दो चुन लेते हैं कि चलो एक तो कम से कम पहुंच जाए--कोई बीमार पड़ जाएगा, रास्ते में कोई शेर, सिंह खा जाएगा, कुछ झंझट हो जाए, न पहुंच पाए। सौ? यह जरा अतिशयोक्ति हो गई। लेकिन जब गुरु कह रहा है तो संदेशवाहक कुछ बोल नहीं सका। सौ आदमियों को लेकर चला।
और जल्दी ही गुरु की बात प्रमाणित होने लगी। पहले ही गांव में सम्राट मर गया था--जहां वे रुके पहली रात--उसके बेटे का सिंहासन-आरोहण होने को था। नब्बे भिक्षुओं की जरूरत थी आशीर्वाद देने के लिए। परंपरागत उनका नियम था। नब्बे भिक्षु खोजना बहुत मुश्किल था। मगर उस दिन धर्मशाला में जब पहुंचे तो देखा सौ भिक्षु रुके हैं। सम्राट ने खबर भेजी कि नब्बे भिक्षु तो रुक जाएं; जो भी तुम पुरस्कार मांगोगे, दूंगा। बड़ी मुश्किल पड़ी। कई डांवाडोल हो गए। पुरस्कार इतना बड़ा था--जो भी मांगोगे! तो उन्होंने सोचा, अब जाने में सार क्या? और फिर उन्होंने कहा: संदेश एक के लिए आया था, यह तो अतिशयोक्ति है सौ को भेजना, यह फिजूल, बेमानी बात है, इसमें कुछ अर्थ नहीं है, यह गुरु झक्की है। उन्होंने हजार बहाने खोज लिए; और उन्होंने कहा कि फिर पुरस्कार लेकर हम पहुंच जाएंगे, महीने-पंद्रह दिन की देर सही! देर से क्या बना-बिगड़ा जा रहा है? और फिर दस तो जा रहे हैं! तो नब्बे तो वहां रुक गए।
दूसरे गांव में पड़ाव पड़ा। उस गांव का पुजारी मर गया था। और बहुत दिन से वे तलाश में थे कि कोई योग्य व्यक्ति मिल जाए; दस भिक्षु! गांव के लोगों ने प्रार्थना की कि पुजारी की जरूरत है। नौकरी भी अच्छी थी, रहने की सुविधा भी अच्छी थी, एक वहां रुक गया।
और ऐसे ही यात्रा चलती रही, आदमी खोते गए। आश्रम के पहुंचने के पहले आखिरी पड़ाव पर दो ही आदमी बचे। संदेशवाहक अब आश्वस्त होने लगा कि गुरु झक्की नहीं है। दो ही बचे जितना उसने सोचा था कि दो ही भेजना काफी है। मगर उस रात उनमें से एक कट गया। गांव में एक नास्तिक था, उसने आकर दोनों को चुनौती दे दी कि मैं यह कुछ नहीं मानता। यह बुद्ध-धर्म, यह बुद्ध, यह सब बकवास है। मैं चुनौती देता हूं तुम्हें शास्त्रार्थ की। एक ने तो दूसरे से कहा कि इस झंझट में मत पड़ो, हमें पहुंचना है अपने गुरु तक, यह शास्त्रार्थ कितने दिन चलेगा, क्या पता? अट्ठानबे साथी तो छूट ही गए हैं, अब और तुम न छूट जाना मगर एक तो बोला कि चाहे अब कुछ भी हो जाए! बुद्ध को कोई लांछना लगाए, यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। यह जीवन-मरण का सवाल है। अगर यह पूरी जिंदगी भी लग गई इसी शास्त्रार्थ में तो भी कोई हर्जा नहीं है! तुम जा सकते हो। मैं तो इसको हरा कर ही आऊंगा। वह वहीं रुक गया। उसके साथी ने बहुत समझाया कि गुरु ने सौ भेजे हैं, कम से कम दो तो पहुंच जाओ। मगर उसने कहा अब कोई उपाय नहीं है, मैं चुनौती अंगीकार कर लिया हूं, यह हमारे धर्म पर हमला है, यह हमारी आत्मा पर चोट है, मैं नपुंसक नहीं हूं--वह बड़ी-बड़ी बातें करने लगा! उसने कहा कि मैं तो यहीं रुकूंगा। वह रुक ही गया।
जब संदेशवाहक पहुंचा, तो एक ही व्यक्ति पहुंचा था। लेकिन उस आश्रम को बनाने वाले गुरु ने कहा--तो एक साथी आ गया। यह तो बताओ गुरु ने भेजे कितने थे? संदेशवाहक ने कहा: क्या आपको भी यह खयाल था कि गुरु ज्यादा भेजेगा? उसने कहा कि निश्चित। क्योंकि सौ चलते हैं तब कहीं एक पहुंचता है। मैंने एक मांगा था, क्योंकि अगर मैं सौ मांगता तो वह हजार भेजता। इसलिए मैंने एक मांगा था कि सौ तो वह भेजने ही वाला है।
ऐसी ही यात्रा है। दुर्गम है। पहाड़ों की है। यहां अगर सौ साथी चलेंगे, तुम पाओगे एकाध बच जाए तो बहुत।
जॉर्ज गुरजिएफ के जीवन में उल्लेख है कि तीस मित्रों ने--जो बड़े खोजी थे सत्य के--यह तय किया कि हम सारी दुनिया की यात्रा करेंगे, अलग-अलग धर्मों में प्रवेश करेंगे--कोई तिब्बत जाएगा, कोई भारत, कोई ईरान, कोई मिस्र, कोई चीन, कोई जापान--और हम सारे धर्मों का सार लेकर फिर इकट्ठे होंगे बारह वर्ष बाद। और जो-जो एक आदमी सीख कर आएगा, वह हम तीसों मिल कर संगृहीत करेंगे। और उस संग्रह में से हम समन्वय निकालेंगे। हम सारे धर्मों का निचोड़ खोजना चाहते हैं।
तीस निकल तो गए, लेकिन कोई लौटा नहीं। जब गुरजिएफ लौटा बारह साल के बाद तो अकेला ही पहुंचा। वहां कोई आया ही नहीं। वे संगी-साथियों का कुछ पता ही नहीं चला कि वे कहां गए। कोई किसी के प्रेम में पड़ गया, खबर आई कि उसने तो विवाह कर लिया, उसके तो अब चार-पांच बच्चे भी हैं। कहां का सत्य? किसी ने दुकान कर ली, कमाई भी कर ली। कोई अच्छी नौकरी में लग गया है। कोई कुछ हो गया, कोई कुछ हो गया। तीस साथियों में से एक भी वापस नहीं आया। बारह साल लंबा मौका है।
यहां रोज ऐसा मौका होता है। कोई व्यक्ति मुझे वचन देकर जाता है कि मैं नार्वे जा रहा हूं, कि स्वीडन जा रहा हूं, बस पंद्रह दिन में आता हूं। तीन साल बाद लौटता है। तेरे पंद्रह दिन का क्या हुआ? आपसे क्या कहना, हवाई जहाज पर एक स्त्री मिल गई, उसके मैं प्रेम में पड़ गया। बड़ी झंझट हो गई, तीन साल लगे निकलने में।
किसी झंझट में उतरना तो आसान है, झंझट से निकलना उतना आसान नहीं है। कठिन मामला है। उलझाव से उलझाव आते हैं।
कोई जाता है, लौटता ही नहीं। पता ही नहीं चलता कहां गया? फिर किसी से खबर आती है कि वह तो जेल में है। क्या हो गया? आदमी आया था, भला था, ध्यान करने आया था, संन्यस्त हुआ था, जेल कैसे पहुंच गया? कि उसने कुछ जालसाजी करके पैसा कमाने की कोशिश की थी। अब वह तीन साल के लिए जेल में है। उसके बाद आएगा। आदमी करीब-करीब दुर्घटनाओं से जीता है। इसलिए बड़ा कठिन है अपने को समग्रीभूत रूप से एक दिशा में नियोजित कर देना। इसलिए देर लग जाती है।
देर लगी आने में तुझको, शुक्र है फिर भी आए तो।
आस ने दिल का साथ न छोड़ा, वैसे हम घबड़ाए तो।।
कई बार ऐसा लगने लगेगा--अब रुक जाएं। अब और आगे कहां जाना है? अब कोई संगी-साथी भी नहीं बचा। कई बार निराशा पकड़ेगी, कई बार विषाद आएगा, असफलता ऐसी लगेगी कि सफल होना संभव नहीं है, लेकिन अगर लगे ही रहे... जैसे तरु लगी ही रही है--आस ने दिल का साथ न छोड़ा, वैसे हम घबड़ाए तो--घबड़ाई भी खूब है, मगर लगी रही है, लगी रही तो घड़ी आने के करीब है।
‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो न थी’
शफक, धनक, महताब, घटाएं, तारे, नग्मे, बिजली, फूल।
उस दामन में क्या-क्या कुछ है वो दामन हाथ में आए तो।।
परमात्मा के दामन में सब है। उसका दामन हाथ में आ जाए तो सारा संसार हाथ में आ गया। और जो यहां दूसरी चीजों को तलाशने चल पड़े हैं, उनके हाथ में कुछ भी न आएगा। इक साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। तुम उसके दामन को पकड़ लो, तुम उसको पकड़ लो, शेष सब अपने आप आ जाता है।
चाहत के बदले में हम तो बेच दें अपनी मर्जी तक।
बस, इतनी तैयारी चाहिए। अपनी मर्जी। जीसस का अंतिम वचन था सूली पर कि प्रभु, तेरी मर्जी पूरी हो। उसी क्षण रूपांतरण हुआ। जीसस जीसस न रहे, क्राइस्ट हो गए। उसी क्षण बुद्धत्व फलित हुआ। उसके एक क्षण पहले उन्होंने कहा था--यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? यह तू क्या कर रहा है मेरे साथ? क्या तूने मुझे त्याग दिया? उसमें शिकायत थी। उसमें यह बात थी कि मेरी मर्जी के अनुकूल नहीं हो रहा है। यह जो हो रहा है, यह मेरे हिसाब से जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है। यह तो कुछ गलत हुआ जा रहा है, क्या तूने मेरा साथ छोड़ दिया? क्या तूने मुझे त्याग दिया? लेकिन तभी उन्हें होश आ गया कि यह मैं क्या कह रहा हूं? यह तो मेरी मर्जी आ गई। तत्क्षण उन्होंने बदल दिया--और उस बदलाहट के साथ ही क्रांति घट गई। कभी-कभी एक छोटा सा वचन। ये चार छोटे से शब्द--‘तेरी मर्जी पूरी हो,’ जीसस के जीवन को बदल गए; समाधि लग गई, समाधान हो गया।
चाहत के बदले में हम तो बेच दें अपनी मर्जी तक।
कोई मिले तो दिल का गाहक कोई हमें अपनाए तो।।
सुनी सुनाई बात नहीं यह अपने ऊपर बीती है।
फूल निकलते हैं शोलों से चाहत आग लगाए तो।।
चाहत की आग जहां लग जाए, वहीं सत्संग है। मैं आग लिए बैठा हूं। तुम जरा पास आओ, तुम डरो मत, तुम पास आते चले जाओ, यह भभक, यह लपट तुम्हें पकड़ लेगी। आग के रंग के कारण ही यह गैरिक रंग संन्यास का रंग रहा है। यह लपटों का रंग है। यह क्रांति का रंग है। तुम्हें पता नहीं तुम कौन हो। जलो तो पता चले। क्योंकि जलने में वही जल जाएगा जो तुम नहीं हो। और वह शेष रह जाएगा जो तुम हो। कचरा जल जाएगा, हीरा बच जाएगा। सोना कुंदन होकर निकल आएगा।
इक इक अंग उजाला नाचें किरनें चूमें गात
हम सूरजबंसी होते तो करते तुझसे बात
मैं तुमसे कहता हूं, तुम सूरजबंसी हो। सूरज से बातें करो, किरणों से दोस्ती बनाओ, रोशनी से विवाह करो, प्रकाश से विवाह रचाओ। भांवर ही डालनी हो तो परमात्मा से ही डालनी। उससे कम क्या भांवर डालनी। उससे कम पर तो तलाक पर तलाक होने वाले हैं। विवाह तो बस उसी से होता है।
हिम्मत चाहिए, जोखम उठाने का साहस चाहिए--दुस्साहस कहना चाहिए--और तब यह घड़ी आती है, जब कुछ कहने को होता है और कहने को शब्द नहीं मिलते। जब भीतर गीत उठता है और जबान लड़खड़ाती है। जब भीतर नाच उठता है और पैर यहां के वहां पड़ते हैं। कहीं धरो, कहीं पड़ते हैं।
शुभ घड़ी है। ऐसी घड़ी सभी को खोजनी है। मेरे पास यह हो सके, तो ही तुम मेरे पास थे। अन्यथा तुम आते रहे, जाते रहे, मगर पास नहीं थे।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, कब तक उलझना होगा मुझे इन कीचड़ों में? मुक्ति के द्वार तक ले जाने में मुझे आप सहायता नहीं करेंगे क्या? मेरा होश जगाओ, लो अब मैं तैयार हूं मिट जाने को। लो अब मैं सूखा पत्ता बन गई, जिधर जी चाहे उड़ा कर ले चलो मुझे। लो मैं पोंगरी बन गई, तुम्हीं उसमें से सुर निकालो। मेरी जीवन-नैया के पतवार तुम हो! अगर तुमसे आस न करूं तो किससे करूं? तुम कुछ न करो, बस मुझे दीवानी बना दो। अब इसके सिवा तुमसे कोई आशा नहीं। मर कर भी दिखाएंगे तेरे चाहने वाले तेरे प्यार में मरना कोई जिसे बड़ा काम नहीं
मीरा! कीचड़ कहोगी संसार को तो निकल न पाओगी। कीचड़ में निंदा छिपी है। निंदा के कारण तुम कीचड़ से जो कमल निकलते हैं उनसे वंचित रह जाओगी। कीचड़ कीचड़ ही होती, तो मामला बड़ा सीधा-साफ था, इतनी उलझन न होती। कीचड़ में कमल छिपे हैं। सो बड़ी उलझन है। जो कीचड़ से भागा, वह कमल से वंचित रह जाएगा। और कमल को ही पाने चला था, कमल को पाने के लिए कीचड़ छोड़ी थी! तो दुविधा में हो जाता है, बड़ी अड़चन में हो जाता है, बड़े द्वंद्व में पड़ जाता है।
तुम कहती हो: ‘कब तक उलझना होगा मुझे इन कीचड़ों में?’
जब तक तुम कीचड़ समझोगी तब तक उलझना होगा। मेरी सारी चेष्टा यहां यही है कि संसार को कीचड़ मत समझो, संसार में परमात्मा व्याप्त है; कीचड़ भी कीचड़ नहीं है, कीचड़ में भी वही छिपा है। जिस दिन तुम्हें यह प्रतीति गहन होने लगेगी, उस दिन कहां छूटना है, कहां जाना है, कहां भागना है! मुक्ति तुम्हें खोजती आए, तो मजा है! तुम मुक्ति को खोजने कहां जाओगे? हिमालय में कुछ कीचड़ कम है? किसी आश्रम में जाकर बैठ जाओगे वहां कुछ कीचड़ कम है? कीचड़ से ही बना है सब कुछ, यह देह भी कीचड़ से बनी है। भागो, कहां भागोगे? इसी कीचड़ के सहारे भागोगे न! यही पैर तुम्हें ले जाएंगे दूर-दूर तीर्थयात्राओं पर और यही कीचड़ से भरा हुआ सिर झुकेगा मंदिरों में, मस्जिदों में। जाओगे कहां, मंदिर-मस्जिद भी कीचड़ से बने हैं।
कीचड़ सिर्फ कीचड़ नहीं है, तुम्हारे देखने में अभी भ्रांति है। अभी तुमने ऊपर-ऊपर से देखा। जरा कीचड़ के भीतर गौर से झांको, छिपे हुए कमल हैं, पर्त दर पर्त कमल ही कमल हैं। जरा कीचड़ को अपना सुर गाने दो। कीचड़ को जरा अपने कमल निकालने में सहायता दो।
मैं तुम्हें कहीं और नहीं ले जाना चाहता, यहीं, जहां तुम हो, वहीं जगाना चाहता हूं। मैं संसार-विरोधी नहीं हूं। लेकिन मैं तुम्हारी अड़चन समझता हूं, धर्म ने तुम्हें सदा से संसार-विरोधी बातें सिखाई हैं। तो जब तुम मेरे पास आते हो, वे ही धार्मिक बातें तुम्हारे सिर में घूमती रहती हैं।
पूछा है: ‘कब तक उलझना होगा मुझे इन कीचड़ों में?’
और यही मैं समझा रहा हूं रोज सुबह-सांझ कि कीचड़ नहीं है यहां, कमल छिपे हैं। कमल में कोई उलझना होता है? कमल का रस लो। प्रभु ने जो भी दिया है, उसे प्रसाद की तरह स्वीकार करो, कीचड़ मत कहो, यह प्रभु का अपमान है, क्योंकि उसका दान है, उसकी भेंट है, तुम्हें। जीवन उसकी भेंट है। इतने बहुमूल्य जीवन को तुम कीचड़ कह रहे हो।
तुम्हारे महात्माओं ने तुम्हें विषाक्त कर दिया है। तुम्हारे तथाकथित साधु-संतों ने तुम्हारे मन को बुरे जहर से भर दिया है, निंदा से भर दिया है। हर चीज की निंदा कर दी है। तुम्हारे जीवन को विस्तार नहीं दिया है, सिकोड़ दिया है। तुम्हें सड़ा दिया है। और तुम्हारे देखने का ढंग ऐसा गलत हो गया है, ऐसा निषेधात्मक हो गया है, कि हर चीज में तुम्हें बुराई दिखाई पड़ने लगी है, तुम बस कांटे गिनते हो, फूल देखते ही नहीं। तुम रातें गिनते हो, दिन देखते ही नहीं।
मैंने सुनी है एक झेन कहानी--
एक झेन फकीर, किसी भूल-चूक में पकड़ लिया गया और जेल में डाल दिया गया। एक राजनेता भी जेल में बंद था। दोनों साथ-साथ ही जेल में पहुंचे। पूर्णिमा की रात थी, चांद निकला, दोनों सींकचों के पास खड़े हैं। राजनेता बोला: हद की गंदगी है यहां! क्योंकि सामने एक डबरा है और डबरे में कूड़ा-करकट है। स्वभावतः राजनेता नाराज था। राजनेता जीता ही नाराजी से है। जब उसके पास पद होता है, तब दूसरे उस पर नाराज होते हैं जो पद चाहते हैं; और जब उसका पद छिन जाता है तब वह नाराज होता है उन पर, जिनके पास पद है। वह एकदम नाराज था कि यह शासन गलत, यह व्यवस्था गलत, यह सरकार गलत; यह क्या मामला है, इतनी गंदगी मचा रखी है, यहां डबरा भरा हुआ है, इसकी सफाई भी नहीं है। डबरे में पड़े टीन के कनस्तर उसे दिखाई पड़े हैं।
और उस फकीर ने कहा: मेरे भाई, डबरा बहुत छोटा है, आकाश बहुत बड़ा है, आकाश की तरफ क्यों नहीं देखते? और चांद निकला है, पूरा चांद, और रात बड़ी प्यारी है! और तुम्हें डबरे में कनस्तर दिखाई पड़ रहा है टूटा-फूटा और वहां चांद का प्रतिबिंब बन रहा है वह नहीं दिखाई पड़ रहा है! कनस्तर से अपनी किस्मत क्यों बांधे हो? फकीर ने कहा: तुम मुझे याद न दिलाते तो मुझे डबरे का पता ही न चलता, मैं चांद से मोहित हो गया था। चांद को देखते, आकाश को देखते मुझे यह भी याद न रही थी कि सामने सींखचे हैं और मैं सींकचे पकड़े खड़ा हूं और मेरे हाथ में जंजीरें हैं। पूरे चांद को देखते समय किसको जंजीरें याद रह जाती हैं? और जिसको जंजीरें याद हों, वह पूरा चांद कैसे देख सकेगा? ये देखने के ढंग हैं। दोनों एक जगह खड़े हैं, दोनों के सामने डबरा है और दोनों के सामने चांद भी है।
कीचड़? मीरा कीचड़ मत कहो। कीचड़ कहोगी तो कीचड़ हो गई। तुम अपनी जिंदगी और अपनी दुनिया खुद बनाती हो। जरा गौर से देखो, कीचड़ में चांद का प्रतिबिंब बन रहा है। जरा गौर से देखो, कीचड़ में कमल फूलने के करीब है। जरा और गौर से देखो, और कीचड़ में तुम्हें परमात्मा मिलेगा। यहां सब-कुछ उसी से व्याप्त है। इस अनुभव को मैं मुक्ति कहता हूं। जिस दिन तुम्हें हर चीज परमात्मा का ही रंग मालूम पड़ने लगे, उस दिन मुक्ति।
और पूछा है: ‘मुक्ति के द्वार तक ले जाने में मुझे आप सहायता नहीं करोगे क्या?’
मैं दूसरी ही बात कह रहा हूं, मैं कह रहा हूं--मुक्ति को कैसे तुम्हारे द्वार तक ले आऊं? तुम्हें मुक्ति के द्वार तक जाने की कोई जरूरत नहीं। और मुक्ति का ऐसा कोई द्वार है कहां जहां तुम जाओ।
यहूदी फकीर ठीक कहते हैं--खास कर हसीद फकीर--कि परमात्मा को खोजना संभव नहीं है। तुम राजी हो जाओ, तो परमात्मा तुम्हें खोज लेता है। परमात्मा तुम्हें खोज रहा है। हसीद फकीर कहते हैं कि तब से खोज रहा है जब से अदम परमात्मा को छोड़ कर संसार में आ गया। कहानी प्यारी है!
परमात्मा ने कहा था अदम को, पहले आदमी को, कि तू इस वृक्ष के फल मत खाना। उस वृक्ष का नाम है, ज्ञान का वृक्ष। यह कहानी अदभुत है। इससे ज्यादा अदभुत और दूसरी कोई बोध कथा दुनिया के किसी शास्त्र में नहीं है। क्योंकि इसके अनूठे अर्थ हैं, और इसमें बड़े जीवन का सार-निचोड़ छिपा है। ज्ञान के वृक्ष के फल मत खाना, नहीं तो तू मुझसे वंचित हो जाएगा।
मगर उसने ज्ञान के वृक्ष के फल खाए। और जब उसने ज्ञान के वृक्ष के फल खाए तो पीड़ित हुआ, परेशान हुआ, अपराध अनुभव हुआ, डरा कि अब क्या होगा, मैंने आज्ञा का उल्लंघन किया है! और परमात्मा उसे खोजता आया--जैसे वह रोज आता था; जैसे रोज साथ चलते थे दोनों, गपशप भी करते थे, गीत भी गाते थे, पास बैठते थे, उठते थे--लेकिन आज अदम एक झाड़ी के पीछे छिप गया। और परमात्मा चिल्लाता फिरता है--अदम, तू कहां है? और अदम झाड़ों के पीछे छिपा फिर रहा है। वह परमात्मा से बच रहा है। आज परमात्मा के सामने निर्दोष भाव से खड़े होने की सामर्थ्य उसकी नहीं रही। आज उसने पाप किया है।
अब यह बड़े मजे की बात है, ज्ञान का फल पाप का कारण बना! मेरी भी प्रतीति यही है। जितना आदमी ज्ञानवान होता गया है उतना परमात्मा से दूर होता गया है। यह कहानी पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास की कहानी है। जितना आदमी ज्ञान से भर जाता है, जितना उसकी खोपड़ी में ज्ञान भर जाता है, उतना ही प्रेम कम हो जाता है। अब यह मीरा तू भी ज्ञान की बातें कर रही है--संसार कीचड़, और संसार बंधन; ये सब ज्ञान की बातें हैं। निर्दोष हो! और परमात्मा तब से ही खोजता फिर रहा कि अदम तू कहां है? मीरा तुझे भी खोज रहा है, क्योंकि सभी अदम हैं। और सब छिपे हैं। सबने आड़ें बना ली हैं--कोई मस्जिद में छिपा है, कोई मंदिर में, कोई शिवालय में; सब छिपे हैं, सब डरे हैं। और मजा यह है कि घंटे बजा रहे हैं, प्रार्थनाएं कर रहे हैं, अजान कर रहे हैं और पुकार रहे हैं कि हे परमात्मा, तुझसे मिलन कैसे हो? और परमात्मा तुम्हें खोज रहा है! और तुम सब तरह के उपाय कर रहे हो कि वह तुम्हें खोज न ले।
तुम्हें कहीं जाना नहीं है, तुम्हें सिर्फ प्यास जगानी है। तुम्हें सिर्फ प्रार्थना से भरना है। तुम्हारे भीतर प्रार्थना की अग्नि जल उठे, परमात्मा तुम्हें खोजता आ ही रहा है। उस अग्नि में बाधाएं जल जाएंगी, अवरोध जल जाएंगे, ज्ञान जल जाएगा। वह जो ज्ञान का फल खाया है, उसका वमन हो जाएगा। तुम पुनः निर्दोष हो जाओ छोटे बच्चे की भांति, मुक्ति तुम्हें खोजती आ जाए।
जोग-बिजोग की बातें झूठीं, सब जी का बहलाना हो।
फिर भी हमसे जाते-जाते, एक गजल सुन जाना हो।।
सारी दुनिया अक्ल की बैरी, कौन यहां पर सयाना हो।
नाहक नाम धरें सब हमको, दीवाना दीवाना हो।।
तुमने तो एक रीत बना ली, सुन लेना शरमाना हो।
सबका एक न एक ठिकाना, अपना कौन ठिकाना हो।।
नगरी-नगरी लाखों द्वारे, हर द्वारे पर लाख सखी।
लेकिन जब हम भूल चुके हैं, दामन का फैलाना हो।।
हम भी झूठे, तुम भी झूठे, एक उसी का सच्चा नाम।
जिससे दीपक जलना सीखा, परवाना मर जाना हो।।
बस उतना तुम सीख लो--दीपक का जलना, परवाने का मर जाना; आंचल फैलाना सीखो, वही प्रार्थना है।
नगरी-नगरी लाखों द्वारे, हर द्वारे पर लाख सखी।
लेकिन जब हम भूल चुके हैं, दामन का फैलाना हो।।
परमात्मा तो खड़ा है द्वार-द्वार पर, मगर हम झोली नहीं फैलाते। हमने हृदय बंद कर रखा है। हमने ताले जड़ रखे हैं हृदय पर। हम दामन का फैलाना भूल गए, हम झुकना भूल गए। झुकना प्रार्थना है, दामन का फैलाना प्रार्थना है। जरा झोली फैलाओ, जरा मांगो उससे, मिलेगा; मिला है, नियम बदले नहीं हैं। जीसस का वचन है: मांगो और मिलेगा, द्वार खटखटाओ और द्वार खुलेंगे, पूछो और उत्तर पाओगे।
नगरी-नगरी लाखों द्वारे, हर द्वारे पर लाख सखी।
लेकिन जब हम भूल चुके हैं, दामन का फैलाना हो।।
बस उतनी कमी है। मुक्ति के द्वार इत्यादि नहीं जाना है, दामन फैलाना सीखो। और जहां तुम दामन फैलाओगे, वहीं पाओगे संपदा बरस गई और दामन भर गया है।
हम भी झूठे, तुम भी झूठे, एक उसी का सच्चा नाम।
जिससे दीपक जलना सीखा, परवाना मर जाना हो।।
बस उतनी बात सीख लो, दीपक जैसे जलो, परवाने जैसे मरने की तैयारी रखो। तुम्हारी प्रार्थना पक जाए, परमात्मा अभी है, यहीं है। कठिनाइयां हैं, अड़चनें हैं, मुझे भी पता है। उलझनें हैं, मुझे भी पता है। मगर कीचड़ मत कहो। अपमान मत करो, निंदा मत करो। जो है, उसे स्वीकार करो; उसी स्वीकृति में से रास्ता मिलेगा। तूफान हैं, मगर उनको तूफान कह कर दुश्मनी मत बना लो, उन्हें चुनौती समझो।
सदमे झेलूं जान पे खेलूं इससे मुझे इनकार नहीं।
लेकिन तेरे पास वफा का कोई भी मेयार नहीं।।
ये भी कोई बात है आखिर दूर ही दूर रहें मतवाले।
हरजाई है चांद का जोबन या पंछी को प्यार नहीं।।
अगर प्यार है तो दूरी मिट जाएगी। अगर प्रेम है तो दूरी मिट ही गई, प्रेम के होने में ही मिट गई।
ये भी कोई बात है आखिर दूर ही दूर रहें मतवाले।
हरजाई है चांद का जोबन या पंछी को प्यार नहीं।।
लोग बातें करते हैं प्रार्थना की, प्रार्थना नहीं करते। लोग कहते परमात्मा को पाना है, लेकिन जरा गौर से छाती पर हाथ रख कर सोचना--सच में पाना है? और अगर परमात्मा खड़ा हो और एक तरफ सोने का ढेर लगा हो, और यह विकल्प तुम्हारे सामने हो कि चुन लो एक, तो जरा पूछना अपने हृदय से क्या चुनोगे? तुम कहोगे, परमात्मा को फिर देखेंगे, इतनी जल्दी क्या है, पहले सोना चुन लें। चार दिन की जिंदगी है जरा भोग लें फिर परमात्मा तो शाश्वत है, फिर मिल जाएगा। तुम चुन लोगे सोना। जरा सोचना, परमात्मा सामने खड़ा हो और पद रखा हो एक तरफ कि राष्ट्रपति बन जाओ, चुन लो कोई एक, और तुम परमात्मा को ठुकरा दोगे। यह कोई प्यास नहीं है।
एक जरा सा दिल है जिसको तोड़ के तुम जा सकते हो।
ये सोने का तौक नहीं ये चांदी की दीवार नहीं।।
मल्लाहों ने साहिल-साहिल मौजों की तौहीन तो कर दी।
लेकिन फिर भी कोई भंवर तक जाने को तैयार नहीं।।
और भंवर में जाए बिना कोई रास्ता नहीं है।
फिर से वही सेलाबे-हवादिस जाने दो ऐ साहिल वालो।
या इस बार सफीना डूबा या अबके मझधार नहीं।।
एक दफा तय करना होता है।
या इस बार सफीना डूबा या अबके मझधार नहीं।।
अब दो में से कुछ एक। या तो डूबेंगे, या पार उतरेंगे। या तो नाव नहीं बचेगी, या मझधार को नहीं बचने देंगे। आज दो में से कुछ एक। ऐसा संकल्प जब उठता है, ऐसी विराट ऊर्जा तुम्हारे भीतर जब सघनीभूत होकर उठती है, उसी क्षण परमात्मा से मिलन हो जाता है। तुम मांगो तो! मिलेगा। तुम खटखटाओ तो! द्वार खुलेगा।
सदमे झेलूं जान पे खेलूं इससे मुझे इनकार नहीं।
लेकिन तेरे पास वफा का कोई भी मेयार नहीं।।
ये भी कोई बात है आखिर दूर ही दूर रहें मतवाले।
हरजाई है चांद का जोबन या पंछी को प्यार नहीं।।
एक जरा सा दिल है जिसको तोड़ के तुम भी जा सकते हो।
ये सोने का तौक नहीं ये चांदी की दीवार नहीं।।
मल्लाहों ने साहिल-साहिल मौजों की तौहीन तो कर दी।
लेकिन फिर भी कोई भंवर तक जाने को तैयार नहीं।।
फिर से वही सेलाबे-हवादिस जाने दो ऐ साहिल वालो।
या इस बार सफीना डूबा या अबके मझधार नहीं।।
और मैं तो तैयार हूं साथ देने को। मेरी मौजूदगी और क्या है? इसलिए यह तो सोचो ही मत कि मैं तुम्हें साथ नहीं दे रहा हूं। मेरा तो हाथ फैला हुआ है, मगर मीरा, तू ही अपने हाथ को बचा रही है। और होशियारी से बचा रही है। और यह भी बचाने की एक तरकीब है कि हम तो जाने को राजी हैं, कोई ले जाने वाला नहीं। भूल वहीं हो रही है तेरी, जहां तूने संसार को कीचड़ कहा। संसार को कीचड़ जिसने कहा, उससे मेरा संबंध नहीं जुड़ पाएगा। क्योंकि मैं संसार को कीचड़ नहीं कह रहा हूं। मैं तो संसार को परमात्मा ही कह रहा हूं। अंधी आंखों से देखा गया परमात्मा संसार मालूम होता है, जब आंख मिल जाती है तो संसार ही परमात्मा मालूम होता है। संसार और निर्वाण दो नहीं हैं। यहां एक ही अस्तित्व है, उसको देखने के दो ढंग हैं। एक अंधे आदमी का ढंग है, आंख बंद किए आदमी का ढंग है और एक होश वाले आदमी का ढंग है।
मैंने यहीं, इसमें ही हजार-हजार कमल खिलते देखे हैं। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं--कीचड़ मत कहना। और जिसने इसे कीचड़ कहा, उसने परमात्मा के हाथ की निंदा कर दी। तुम पिकासो की तस्वीर की निंदा करोगे तो पिकासो की निंदा हो गई। तुम तानसेन के संगीत की निंदा करोगे तो तानसेन की निंदा हो गई। तुम बगीचे की निंदा करोगे तो माली की निंदा हो गई।
संसार की निंदा चल रही है धर्म के नाम पर। और लोग सोचते हैं, यह धार्मिक बात है। और संसार उसकी कृति है--और ये वही लोग कहे चले जा रहे हैं। लोगों का मस्तिष्क साफ-सुथरा नहीं है। ये वही लोग कहे चले जा रहे हैं कि संसार को परमात्मा ने बनाया और साथ ही यह भी कहे जा रहे हैं कि संसार कीचड़ है, इससे बचना, इससे सावधान रहना! जो परमात्मा ने बनाया है तो बचना, सावधान रहना! यह बात फिर शोभा नहीं देती। या तो परमात्मा ने नहीं बनाया, शैतान ने बनाया है, शैतान स्रष्टा है, तब बचने की बात समझ में आती है। और अगर परमात्मा ने बनाया है तो इसमें डूबो, उतरो, गहरे जाओ। उसकी कृति में उतर कर ही तुम कृतिकार को पा सकोगे। और कोई उपाय नहीं है।

चौथा प्रश्न:
भगवान, संन्यासी जीवन के लक्षण क्या हैं? कृपया समझाएं।
लक्षण नहीं हैं, बस लक्षण है। जल में कमलवत। बहुवचन में मत पूछो, बहुत लक्षण नहीं हैं संन्यासी के, बस एक ही लक्षण है, एकवचन में पूछो। जल में रहे और जल छूए न।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं प्रभु को पाना चाहता हूं, लेकिन मार्ग में हजार बाधाएं खड़ी हैं। एक बाधा पार करता हूं तो दूसरी आ खड़ी होती है। मुझे आदेश दें!
बाधाएं नहीं हैं, चुनौतियां हैं। तुम्हारे भीतर सोए हुए परमात्मा को जगाने के लिए मौके हैं, अवसर हैं। तुम कब विधायक ढंग से सोचना सीखोगे? तुम कब तक नकारात्मक में ही उलझे रहोगे? इधर मैं रोज चेष्टा करता हूं कि किसी तरह नकार से तुम मुक्त हो जाओ और विधेय तुम्हारी जीवन-दशा बन जाए, लेकिन तुम खिसक-खिसक कर नकार में फंस जाते हो। ‘नहीं’ तुम्हारे जीवन की शैली बन गई है। और मैं चाहता हूं, ‘हां’ तुम्हारे जीवन की शैली बने। राह पर पत्थर पड़ा है, इसको बाधा क्यों कहते हो, सीढ़ी क्यों नहीं मानते? इस पर चढ़ो, इस पर चढ़ कर तुम ऊंचाई पर पहुंच जाओगे। हर तूफान मौका है छाती को बड़ा करने का। हर कठिनाई अवसर है जीत के लिए, जागने के लिए! बाधाएं कहीं भी नहीं हैं। जरा देखो, जरा मेरे ढंग से देखो, जरा मेरी आंख से झांको, बाधाएं कहीं भी नहीं हैं।
किसी ने तुम्हें गाली दी, बाधा आ गई। क्योंकि इससे ध्यान में बाधा पड़ती है, चित्त डांवाडोल हो जाता है। बाधा मान ली तो बाधा। किसी ने गाली दी, खुश हो जाओ कि आज गाली दी, अब देखें कि ध्यान में बाधा पड़ती है कि नहीं? आज तो तय ही करना है कि बाधा नहीं पड़ने देंगे। गाली दी गई है, मगर हम गाली नहीं लेंगे। गाली दी गई है, मगर हम अछूते रहेंगे। गाली आए और घूमे चारों तरफ और धुएं की तरह उठे और घेर ले, मगर भीतर हम अस्पर्शित रहेंगे। आज इस अवसर को न जाने देंगे, इस आदमी ने बड़ी कृपा की सुबह-सुबह गाली दे दी, अब तो बैठ ही जाओ ध्यान में, आज ध्यान और गाली के बीच तय कर लो कि कौन तुम्हारा मालिक है? यह अवसर हो गया। और अगर ध्यान तुम्हारा मालिक है और गाली का कोई परिणाम न हुआ, तो तुम अनुग्रह अनुभव नहीं करोगे उस आदमी के प्रति जिसने गाली दी थी? सुबह-सुबह एक मौका दे गया, बिन मांगे मौका दे गया, बड़ी कृपा की, जाकर धन्यवाद कर आना।
सुना नहीं कबीर ने कहा है: ‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय।’ समझ गए होंगे राज कि अगर निंदक पास ही रख लो--और आंगन कुटी भी छवा देना, कहीं चला न जाए; ठीक से सेवा-सत्कार करना उसका कि भाई, यहीं रह, और रोज सुबह-सुबह गाली दिया कर, और रोज सुबह-सुबह हम ध्यान करेंगे। तू रोज जितनी मजबूत गाली दे सके उतनी देना, जितनी वजनी दे सके उतनी देना, तू कंजूसी मत करना, तू दिल खोल कर देना, तू बरस पड़ना एकदम सुबह ही सुबह और उसी वक्त हम ध्यान करेंगे, उसी वक्त हम भजन में लगेंगे। देखेंगे गाली जीतती कि भजन जीतता? जिताएंगे भजन को, हराएंगे गाली को। यह बल चाहिए।
तुम बैठ गए रोने, कहने लगे कि बाधा हो गई। और तुम्हें तो ऐसी छोटी-छोटी बातों से बाधा पड़ जाती है! तुम ध्यान करने बैठे, उधर बच्चे ने खिलौना गिरा कर आवाज कर दी, बाधा हो गई। निकल आए, हो गए दुर्वासा ऋषि एकदम, देने लगे अभिशाप पूरे घर को! मुझे लोग कहते हैं कि घर में एकाध आदमी धार्मिक हो जाए तो सारा घर संकट में पड़ जाता है। बुड्ढे-ठुड्ढे अक्सर हो जाते हैं। माला-वाला फेरने लगे, किसी ने कुछ गड़बड़ कर दी--कोई बोल दिया जोर से, कोई चीज गिर गई, कहीं कुछ हो गया कि बस, उनका पारा चढ़ गया। वह सारा घर सिर पर उठा लिया, उपद्रव मचाने लगे। धार्मिक आदमी बड़े क्रोधी हो जाते हैं। यह तो बड़ी उलटी बात हो गई। धार्मिक आदमी और क्रोधी हो, तो फिर करुणावान कौन होगा? नहीं, चूक वहां हो रही है कि तुम चीजों को बाधा समझ रहे हो। और देखने के ढंग पर सब निर्भर है, देखने का ढंग तुम्हारी दुनिया का निर्माता है।
मैं एक विश्रामगृह में मेहमान था। एक राजनेता, एक मिनिस्टर भी उस रात वहां रुके थे। कुछ बात थी कि सारे गांव के कुत्ते उस विश्रामगृह के आस-पास लड़ रहे, झगड़ रहे। नेता को नींद न आए। मैं सो गया तो वे उठ कर मेरे कमरे में आए और उन्होंने कहा कि आप--मुझे हिलाया--कहा, आप सो रहे हैं! मैं तो सो ही नहीं पा रहा, एक बज गया और कुत्ते हैं कि शोरगुल मचाए जा रहे हैं। कई दफे जाकर इनको बाहर आदमी को जगा कर भगवा भी आया, लेकिन वे फिर वापस लौट आते हैं। आज की रात नींद संभव नहीं है। आप किस भांति सो रहे हैं?
मैंने उनसे कहा: आप क्या समझते हैं कुत्ते अखबार पढ़ते हैं कि उनको पता है कि आज राजनेता यहां रुके हैं, चलो घेराव करें, कि हड़ताल करें, कि नारेबाजी करें, कि फलाने जी मुर्दाबाद? उनको कुछ पता नहीं है, वे अपने काम में लगे हैं, तुम्हारे लिए विशेष कोई उन्होंने आयोजन नहीं किया है यह, कल भी मैं इसी विश्रामगृह में था तब भी वे यहां थे, तुम नहीं थे तब भी यहां थे, तुम नहीं रहोगे तो भी यहां ही रहेंगे, तुम चिंता न करो, उन्हें तुम्हारी कोई चिंता नहीं है, उन्हें पता भी नहीं है। तुम ये जो भाव लिए बैठे हो कि कुत्ते तुम्हें बाधा डाल रहे हैं, इससे तुम्हें अड़चन आ रही है। तुम स्वीकार कर लो, अंगीकार कर लो, तुम मौज से सुनने लगो उनकी आवाज जैसे संगीत को कोई सुनता है। उन्होंने कहा: संगीत? ये कुत्तों की आवाज और संगीत? मैंने कहा: सुनने-सुनने की बात है। जो शास्त्रीय संगीत नहीं समझता और जब संगीतज्ञ करता है--आऽऽऽ, तो वह भी सोचता है यह क्या मामला हो रहा है?
मैंने उनसे कहा: मुल्ला नसरुद्दीन एक दफा गया था और जब संगीतज्ञ बहुत आऽऽऽ करने लगा, तो उसकी आंख से एकदम आंसू गिरने लगे! उसके पड़ोसी ने पूछा कि मैंने कभी मुल्ला सोचा नहीं था कि तुम संगीत के इतने प्रेमी हो। आंख से आंसू? उसने कहा: संगीत जाए भाड़ में, मैं तुम्हें कहे दे रहा हूं कि यह आदमी मरेगा। क्योंकि ऐसे ही मेरा बकरा मरा था--आऽऽऽआऽऽऽ। मुझे आंसू अपने बकरे की याद से आ रहे हैं, संगीत से मुझे क्या लेना-देना?
अगर शास्त्रीय संगीत किसी को बकरे का आऽऽऽऽ मालूम पड़ सकता है, तो कुत्ते की आवाज में शास्त्रीय संगीत सुनने में कौन सी अड़चन है? मैंने कहा: तुम कोशिश तो करो, हर्जा भी क्या है? ऐसे भी नहीं सो रहे, वैसे भी नहीं सो पाओगे और क्या होगा? तुम जरा कोशिश करो। तुम स्वीकार कर लो, शिथिल भाव से, शांत भाव से लेट जाओ, कहो कि ठीक है, कुत्तो, भौंको। तुम लोरी गा रहे हो, गाओ, बड़ा आनंद दे रहे हो।
मजबूरी थी--उनका दिल तो मेरी बात मानने का नहीं हो रहा था, लेकिन और कोई उपाय भी नहीं था--कहा, अच्छा करके देखते हैं।
सुबह जब उठे, मैंने पूछा: क्या हुआ? उन्होंने कहा कि आश्चर्य की बात है, हालांकि मैंने आधे ही मन से किया, मगर जैसे ही मैंने किया कुछ फर्क पड़ गया। थोड़ी देर तो मुझे आवाज सुनाई पड़ती रही, फिर मैं कब सो गया मुझे पता नहीं। वह जो विरोध का भाव था, उसके गिरते ही अंतर पड़ जाता है। तब भरे बाजार में भी ध्यान हो सकता है।
ये गाते जलजले, ये नाचते तूफान के धारे
हवा की नियतों से बेखबर मल्लाह बेचारे
वो तूफानों के हल चलने लगे सय्याल खेती में
वो किश्ती आके डूबी गौहरी कतरों की रेती में
वो टूटीं मौज की शफ्फाक दीवारें सफीनों पर
वो फिर लहरें उभर आईं इरादों की जबीनों पर
वो टकराने लगी आवाज नीले आसमानों से
वो खत्ते-रहगुजर पर जल उठीं शमाएं तरानों से
हवाएं थम नहीं सकतीं, तलातुम रुक नहीं सकते
मगर मौजोहवा के सामने सर झुक नहीं सकते
सफीने हैं कि तूफां के थपेड़े खाए जाते हैं
मगर मल्लाह गीत अपने बराबर गाए जाते हैं
हैं कितने गम कि जिनकी मय सरूर-अंगेज होती है
हैं कितने गीत जिनकी लौ हवा से तेज होती है
खिंचा हो जिनका खत्ते-रहगुजर तूफां के धारों पर
बड़ी मुश्किल से उनको नींद आती है किनारों पर
तूफानों में सोना सीखो! तूफानों में जीना सीखो!
हवाएं थम नहीं सकतीं,...
और यह तुम खयाल रखना कि तुम्हारे लिए हवाएं रुकेंगी नहीं, तुम्हें मौका नहीं देंगे कि सब तूफान रुक जाएं, सब हवाएं रुक जाएं, सब उपद्रव मिट जाएं दुनिया से, कि आप ध्यान करने बैठे हैं! कुछ नहीं रुकेगा, दुनिया अपने ढंग से चलती रहेगी।
हवाएं थम नहीं सकतीं, तलातुम रुक नहीं सकते
और न आंधियां रुकेंगी। तुमने दीया जलाया है ध्यान का, इसलिए आंधियां नहीं रुक जाएंगी। सच तो यह है कि दीया जला देख कर आंधियां और आकर्षित होती हैं।
हवाएं थम नहीं सकतीं, तलातुम रुक नहीं सकते
मगर मौजो-हवा के सामने सर झुक नहीं सकते
लेकिन जरा हिम्मत करो, ऐसे जल्दी-जल्दी क्या झुक जाना।
सफीने हैं कि तूफां के थपेड़े खाए जाते हैं
नावें थपेड़े खाएंगी तूफान के। इससे कुछ बाधा नहीं आ रही है। इसको आनंद-उत्सव समझो। नाचते हुए आगे बढ़ो।
सफीने हैं कि तूफां के थपेड़े खाए जाते हैं
मगर मल्लाह गीत अपने बराबर गाए जाते हैं
तुम अपना गीत गाओ, दुनिया जो कर रही है उसे करने दो। तुम अपने गीत को दुनिया की सारी अव्यवस्था के बीच गा सको, तो ही गाया जानना।
हैं कितने गम कि जिनकी मय सरूर-अंगेज होती है
हैं कितने गीत जिनकी लौ हवा से तेज होती है
छोटे-छोटे दीये बुझ जाते हैं, बड़ी-बड़ी लपटें आग की हवा से और तेज हो जाती हैं। तुम परमात्मा को खोजना चाहते हो, इसे लपट बनाओ।
हैं कितने गीत जिनकी लौ हवा से तेज़ होती है
खिंचा हो जिनका खत्ते-रहगुजर तूफां के धारों पर
और एक बार तुम्हें जब यह पता चल जाएगा कि जिंदगी का असली आनंद तूफानों के बीच निर्द्वंद्व होने का आनंद है, तब तुम चकित होओगे, हैरान होओगे कि असली शांति किनारों पर नहीं है, मझधारों में है, जहां तूफान हैं। असली ध्यान बाजार में है। असली संन्यास संसार में है।

आज इतना ही।

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