RAJJAB
Santo Magan Bhaya Man Mera 18
Eighteenth Discourse from the series of 20 discourses - Santo Magan Bhaya Man Mera by Osho. These discourses were given during MAY 12-31 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, कल रात दर्शन के समय जब आपने एक संन्यासी को कहा कि मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं, और उसके मुख के सामने अपना हाथ फैलाया, उस पर दृष्टिपात किया, तो मेरे भीतर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। रोआं-रोआं कुछ कहने लगा, आंखें अश्रुकण बरसाने लगीं, भीतर एक वाक्य गूंजा--या इलाही, यह माजरा क्या है?
शुक्ला! मैं तुम्हारा भी स्वागत करता हूं। मैं सबका स्वागत करता हूं। मैं स्वागत हूं। मैं देने को राजी हूं, बस तुम्हारी लेने की तैयारी चाहिए। तुम देने में ही कृपण नहीं हो गए हो, तुम लेने में भी कृपण हो गए हो। कृपणता की आखिरी सीमा वही है जब आदमी लेने में भी कृपण हो जाता है।
मैं देना चाहता हूं। क्योंकि जो मुझे मिला है, वह बंटने को आतुर है। पर हर किसी को नहीं दिया जा सकता। किसी पर थोपा नहीं जा सकता। यह संपदा ऐसी नहीं है कि किसी को जबर्दस्ती दी जा सके। जो लेने को तत्पर हैं, आतुर हैं, प्यासे हैं, बस वे ही केवल इसके मालिक हो सकते हैं। लेकिन आदमी लेने में भी डरता है। कई कारण हैं डरने के।
पहला तो कारण यह है कि लेने में अहंकार को चोट लगती है। तो कई बार तो ऐसा हो जाता है, देने में आदमी राजी हो जाए, लेने में राजी नहीं होता। क्योंकि लेने में लगता है--मैं और लूं? सिकुड़ता है अहंकार, अहंकार हाथ खींच लेता है। अहंकार लेने में प्रतिरोध करता है। तो जिन्होंने अहंकार छोड़ा है, केवल वे ही ले सकेंगे।
मैं तो द्वार हूं लेकिन केवल वे ही पार हो सकेंगे जो अहंकार को द्वार पर ही छोड़ देने को राजी हों, द्वार के बाहर ही छोड़ देने को राजी हों।
दूसरा, लेने में भय लगता है, क्योंकि जो मैं तुम्हें दे रहा हूं वह अनजाना है, अपरिचित है। उसे तुमने कभी देखा नहीं, सुना नहीं। उससे तुम्हारा कोई संबंध कभी बना नहीं। यद्यपि जो मैं तुम्हें दे रहा हूं, वह तुम्हारा ही स्वभाव है। मैं तुम्हें कोई नई बात नहीं दे रहा हूं। जो तुम्हें मिला ही हुआ है, उसकी ही प्रत्यभिज्ञा दे रहा हूं, उसकी ही पहचान दे रहा हूं। मेरे हाथ से तुम्हारे हाथ में कुछ जाने वाला नहीं है। तुम्हारे प्राणों में जो पड़ा है, वही जाग जाने वाला है। यह देना देने जैसा नहीं है, जगाने जैसा है। बीज हो तुम। मुझे मौका दो तो अंकुरित हो जाओ।
जिस दिन तुम्हारे फूल खिलेंगे, उस दिन ऐसा नहीं होगा कि किसी ने कुछ दिया--तुमने लिया जरूर और किसी ने कुछ दिया नहीं; प्रत्यभिज्ञा आई, पहचान आई; जो पड़ा ही था हीरा तुम्हारे प्राणों में, वह दिखाई पड़ा। हीरा तो तुम्हारे पास है, आंख तुम्हारी बंद है। जो मैं दे रहा हूं, उससे तुम्हारी आंख खुलेगी लेकिन तुम्हारी बंद आंख के साथ बहुत से सपने जुड़ गए हैं और आंख खोलने में तुम्हें डर है कि कहीं सपने न टूट जाएं। सपने टूटेंगे। सत्य को जिसे लेना है, उसे सपनों को तोड़ने की क्षमता रखनी पड़ेगी। उतना साहस, उतना जोखम चाहिए। इससे भय होता है कि प्यारे-प्यारे सपने चल रहे हैं, कहीं ये टूट न जाएं, कहीं ये खंडित न हो जाएं, कहीं ये स्वप्न भंग न हो जाएं। मूंदे रहो आंखें, बंद रखो आंखें, जीते रहो अपने सपनों में। पर सपने कहां ले जाएंगे? सपने सपने हैं। आज नहीं कल जागना ही पड़ेगा।
और अच्छा हो कि किसी ऐसे व्यक्ति के पास जाग जाओ जहां से कोई धार तुम्हारी तरफ बहने को आतुर है। धार को अगर तुम अपने भीतर समा लो, तुम्हारा बीज अभी टूट जाए। जब मैं तुमसे कहता हूं तुम्हारा स्वागत है, तो मैं तुम्हें एक निमंत्रण दे रहा हूं, मेरे साथ यात्रा पर आने का। लंबी है यह यात्रा, क्योंकि परमात्मा की यात्रा है, तीर्थयात्रा है। और कठिन भी है। पहाड़ की चढ़ाई है, उतार नहीं। और तुम्हें सारा बोझ छोड़ना पड़ेगा। क्योंकि जैसे-जैसे पहाड़ पर कोई चढ़ता है, वैसे-वैसे बोझ कम करना पड़ता है। अपने को ही लेकर पहुंचा जा सकता है। और तो सब छोड़ देना होगा। भय लगता है--सब छोड़ देना! जिसको संपदा माना, जिसको अब तक सब-कुछ जाना--ज्ञान, धर्म, मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, सब छोड़ देना है! तो मैं तो स्वागत करता हूं, लेकिन तुम सिकुड़ जाते हो।
पूछा तुमने कि जब आपने कहा--‘मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं, तो मेरे भीतर तीव्र प्रतिक्रिया हुई।’
शुभ हुआ। होना ही चाहिए। जो जीवित है, उसे होगी ही। पुकार आएगी तो जो सुन सकता है उसके कान झनकार से भरेंगे ही। सिर्फ बहरे वंचित रह जाएंगे। सूरज निकेलगा तो जिसके पास आंखें हैं वह सुबह की किरणों से आह्लादित होगा ही। प्रतिसंवेदना होगी ही। सिर्फ तुमने शब्द गलत उपयोग किया है--अनजाने किया होगा, तुम्हें प्रतिक्रिया और प्रतिसंवेदना का शायद भेद समझ में नहीं है। प्रतिक्रिया नहीं है वह, प्रतिसंवेदना है। दोनों में फर्क है। भाषाकोश में तो दोनों का एक ही अर्थ लिखा है, इसीलिए शुक्ला से यह भूल हो गई। लेकिन जीवन के कोश में बड़ा भेद है।
प्रतिक्रिया का अर्थ होता है: बंधा-बंधाया। जैसा तुमने सदा किया था, जो तुम सदा से करने की आदत बना लिए हो, जब वही होता है तो वह प्रतिक्रिया। जैसे किसी ने पूछा कि ईश्वर है? और तुम सदा कहते रहे हो कि हां, है--क्योंकि आस्तिक घर में पैदा हुए, वही उत्तर तुम्हें सिखाया गया। उत्तर है कोरा, तुम्हें ईश्वर का कुछ पता नहीं है; झूठा है तुम्हारा उत्तर, लेकिन भरोसा रख कर चलते रहे हो, विश्वास करते रहे हो। झूठ को बहुत बार दोहरा लेने से सच जैसा मालूम होने लगता है। भूल ही जाता है कि शुरुआत में झूठ था। किसी ने कहा है--पिता ने कहा, मां ने कहा, गुरु ने कहा--किसी ने कहा है, कहीं से सुन लिया है कि ईश्वर है। आज किसी ने पूछा: ईश्वर है? और तुमने कहा: हां, ईश्वर है। यह प्रतिक्रिया। लेकिन किसी ने पूछा: ईश्वर है? और तुम अपने भीतर उतरे, और तुमने झांका, और तुमने टटोला, और तुमने पहचानने की कोशिश की कि मैं ईश्वर को जानता हूं? कोई दरस-परस हुआ है? मेरी कोई पहचान है? कभी मेरी आंख में उसकी रोशनी पड़ी? मैंने उसकी आभा देखी? उसका सौंदर्य देखा? उसकी गरिमा से कभी मैं आप्लावित हुआ हूं? कभी उसका नृत्य मेरे हृदय में उतरा है? कभी मैंने उस गीत को सुना है जिसका नाम ईश्वर है? और सब सन्नाटा हो गया, क्योंकि तुमने वह गीत सुना नहीं। और तुमने आंख खोली और कहा--मुझे पता नहीं। यह प्रतिसंवेदना है, प्रतिक्रिया नहीं। यह सजग उत्तर है। यह सहज उत्तर है।
प्रतिक्रिया का अर्थ होता है, एक बंधी हुई लकीर। प्रतिसंवेदना का अर्थ होता है, उस क्षण में ही चुनौती का स्वीकार और चुनौती का वैसा-वैसा उत्तर जैसा चेतना से उठे। प्रतिक्रिया आती है स्मृति से, प्रतिसंवेदना आती है चेतना से।
मैं कल शुक्ला को देख रहा था, कुछ जरूर हुआ है। प्रतिक्रिया नहीं थी वह, प्रतिसंवेदना थी। क्योंकि मैंने जब किसी के स्वागत के लिए कहा, तो उसी में तुम्हारा स्वागत भी सम्मिलित है। जो मैं एक से कह रहा हूं, वह एक से ही थोड़े कह रहा हूं, अनेक से कह रहा हूं। एक तो बहाना है। जिससे कहा वह तो बहाना मात्र था, निमित्त मात्र था। जिसके पास भी कान हैं सुनने के, वह सुन लेगा। और जिसके पास भी आंख है, वह देख लेगा। और जिसके पास भी हृदय है वहां संवेदना होगी। वैसी संवेदना हुई, तुम्हारा रोआं-रोआं कंपा, मैंने देखा तुम्हारे रोएं-रोएं को कंपते। मैं आह्लादित हुआ।
जब भी मैं किसी संन्यासी के रोएं-रोएं को कंपते देखता हूं तो खूब आह्लादित होता हूं। वसंत आ गया। अब फूल खिलने में ज्यादा देर न होगी। वीणा कस कर तैयार हो गई, अब चोट पड़ने की बात है और झंकार उठेगी।
शुक्ला ने कहा है: ‘रोआं-रोआं कुछ कहने लगा, आंखें अश्रुकण बरसाने लगीं, भीतर एक वाक्य गूंजा--या इलाही!’
यह प्रतिसंवेदना है, प्रतिक्रिया नहीं। ऐसा पहले तो कभी हुआ ही नहीं था तुम्हें, यह अनुभव अनूठा था, इसलिए प्रतिक्रिया तो हो नहीं सकती। प्रतिक्रिया तो अतीत के अनुभव से होती है। यह तो इतना नया था--यह रोमांच, यह रोएं-रोएं का कंपना, ये आंखों से आंसुओं का झर जाना, ये आंसू तुम्हारे पुराने परिचित आंसू नहीं हैं। यद्यपि यह सच है कि अगर तुम चिकित्सक के पास जाकर आंसुओं की जांच करवाओगे, कोई रासायनिक जांच करवाओगे तो पुराने आंसू और इन आंसुओं में कोई भेद न होगा। लेकिन अनुभवी से पूछो--एक दुख का भी आंसू होता है, एक सुख का भी आंसू होता है। मगर उस भेद को रसायनशास्त्र के द्वारा पकड़ा नहीं जा सकता। वह भेद आध्यात्मिक है। तुम जब दुख में रोते हो तब भी आंसुओं का स्वाद वही होता है रासायनिक तल पर--खारा। और जब तुम आनंद में रोते हो तब भी आंसुओं का स्वाद वही होता है--खारा। लेकिन भीतर एक और स्वाद है जो मीठा हो गया है। वह स्वाद तो भीतर से ही पकड़ में आता है। उसे बाहर से पकड़ने का कोई उपाय नहीं।
कल तेरी आंखों में शुक्ला जो आंसू आ गए वे भी नये थे। वे किसी दुख के कारण नहीं आए थे। वे किसी अपूर्व द्वार के खुल जाने के कारण आए। भीतर गहरी चोट लगी। तेरे तार-तार झनझना गए। कुछ सोया जगा। कुछ बंद आंख खुली। कोई कली चटकी। उस उत्सव में आंसू बहे। और जब उत्सव में आंसू बहते हैं तो उनसे सुंदर इस पृथ्वी पर और कुछ भी नहीं। जब उत्सव में आंसू बहते हैं तो आंसू इस पृथ्वी के होते हैं और नहीं होते। पारलौकिक होते हैं। उन आंसुओं की कीमत मोतियों से बहुत ज्यादा है। मोती कुछ भी नहीं हैं। क्योंकि उन आंसुओं में कहीं स्वाद परमात्मा का आना शुरू हो जाता है। इसीलिए तो भक्त खूब रोए हैं। जी भर कर रोए हैं। भक्तों ने रोने को प्रार्थना बना लिया है। क्योंकि भक्तों को एक बात समझ में आ गई--जहां शब्द नहीं पहुंचते, वहां आंसू पहुंच जाते हैं। जहां पुकार नहीं पहुंचती, चिल्लाना नहीं पहुंचता, वहां मौन आंसू पहुंच जाते हैं।
आंसुओं की गति बड़ी तीव्र है। आंसुओं की गति ऐसी है जैसी किसी और चीज की गति तुम्हारे भीतर नहीं है। आंसुओं पर सवार हो जाओ तो परमात्मा बहुत दूर नहीं है। विचारों पर सवार रहे तो अनंत दूर है। उपनिषद कहते हैं: वह परमात्मा दूर भी है और पास भी। यह बात तो विरोधाभासी मालूम पड़ती है--दूर भी और पास भी। दूर है, अगर विचारों पर चढ़ कर चले। पास है, अगर भाव पर चढ़ कर चले। आंसू यानी भाव।
अतर्क था जो हुआ। अतर्क था इसीलिए प्रश्न उठा है। क्योंकि शुक्ला बूझ नहीं पाई। सोच-विचार वाली स्त्री है। सोचा होगा, क्या हुआ? क्यों हुआ? ऊहापोह किया होगा और पकड़ में कुछ भी न आया, क्योंकि बुद्धि के बाहर कुछ हुआ, बुद्धि से गहरा कुछ हुआ, बुद्धि के पार कुछ हुआ। इसीलिए प्रश्न उठा।
अब ध्यान रखना जब बुद्धि के पार कुछ हो, बुद्धि से गहरा कुछ हो, तो उसे स्वीकार कर लेना। उसका विश्लेषण मत करना। उसे अंगीकार कर लेना। क्योंकि जीवन में कुछ चीजें हैं जो विश्लेषण करने से मर जाती हैं। जैसे फूल खिला बगीचे में--गुलाब का फूल खिला, प्यारा फूल खिला--और तुम्हारे मन में उठा इस सौंदर्य का विश्लेषण करें, यह सौंदर्य क्या है? तो क्या करोगे? पंखुड़ियां तोड़ लोगे फूल की, खोजने लगोगे सौंदर्य कहां है, सौंदर्य कहां छिपा बैठा है, उसके मूल उदगम को पकड़ लूं। या ले जाओगे वैज्ञानिक के पास और फूल की वह जांच-पड़ताल करके रख देगा। वह बता देगा कि कितना इसमें मिट्टी है, कितना इसमें पानी है, कितना सूरज, कितनी हवा, सब छांट कर पांचों तत्व रख देगा कि यह-यह इसमें है। और तुम उससे अगर पूछोगे--सौंदर्य कहां है? तो वह कहेगा--सौंदर्य तो इसमें कहीं पाया नहीं। ये-ये पांच तत्व इसमें थे, वे सामने रख दिए हैं। और इसके अतिरिक्त इसमें कुछ भी नहीं था। वजन चाहो तो तोल लो, इन पांचों तत्वों का वजन उतना ही है जितना फूल का था।
वैज्ञानिक सौंदर्य को इनकार करता है। क्यों? क्योंकि उसके विश्लेषण में सौंदर्य नहीं आता। यह ऐसा ही है जैसे एक नाचते-कूदते गीत गाते बच्चे को तुमने देखा और काट-पीट कर बच्चे का गीत खोजना चाहा कहां है, नाच कहां है, इसकी आत्मा कहां है? तोड़ दिए अंग, उखाड़ दिए हाथ, काट दी गर्दन, चीर-फाड़ की। सब खो जाएगा; हाथ में हड्डी-मांस-मज्जा रह जाएगी। वजन उतना ही होगा जितना नाचते, प्रफुल्लित होते, हंसते बच्चे का था--उतना ही वजन होगा। लेकिन कुछ कमी हो गई। अब न तो हंसी है, न नाच है। अब जीवन नहीं है, यह मुर्दा लाश है। विश्लेषण हर चीज को मार डालता है। विश्लेषण मरी चीजों पर बिलकुल काम करता है, ठीक काम करता है, लेकिन जिंदा चीजों को मार डालता है। इसलिए किसी जिंदा चीज का विश्लेषण मत करना।
आदमी ने विश्लेषण कर-कर के खूब तकलीफ पा ली है। परमात्मा का विश्लेषण किया, मार डाला। आत्मा का विश्लेषण किया, मार डाला। सौंदर्य का विश्लेषण किया, मार डाला। प्रेम का विश्लेषण किया, मार डाला। प्रार्थना गई, सब गया, जो भी बहुमूल्य था चला गया, आदमी के हाथ में कूड़ा-करकट रह गया, क्योंकि विज्ञान केवल कूड़े-करकट को ही सिद्ध कर सकता है। मुर्दा को सिद्ध कर सकता है। जीवन उसकी पकड़ के बाहर है। उसके जाल में जीवन नहीं आता। जीवन बड़ा सूक्ष्म है। मोटी-मोटी बातें पकड़ में आ जाती हैं विज्ञान के, सूक्ष्म बातें छूट जाती हैं। और सूक्ष्म बातें ही मूल्यवान हैं।
तो तेरे मन को ऐसा हुआ होगा--क्या हुआ? बाद में नहीं, उसी समय हो गया, इसलिए सवाल उठा--या इलाही, यह क्या माजरा है? क्योंकि मैं किसी और को कह रहा हूं कि तेरा स्वागत है और सुनाई तुझे पड़ गया। मैंने किसी और को कहा है और तेरे भीतर गूंज हो गई। तार मैंने किसी और के हृदय के छेड़ने चाहे थे और तेरे तार छिड़ गए। हाथ मेरे किसी और के हृदय पर फैले थे और तेरे हृदय पर चले गए। इसलिए उठा सवाल--या इलाही, यह क्या माजरा है? क्योंकि न मुझे कहा गया है, न मेरी तरफ इशारा है, न इंगित है, न मेरी तरफ आंख है, यह मुझे क्या हो रहा है? मैं क्यों रोमांचित हो उठी हूं? मेरा रोआं-रोआं क्यों आनंदमग्न हुआ? ये मेरी आंखें क्यों तर हो गयीं? ये आंसू मेरे क्यों बहे? उसी क्षण विचार आ गया। विचार से सवाल उठा--या इलाही, यह क्या माजरा है? तू थोड़ी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। आदमी जिस-जिस बात को समझ लेता है, उससे परेशान नहीं होता। क्योंकि जिसको हमने समझ लिया, उसके हम मालिक हो गए। उस पर हमारी मुट्ठी बंध गई। जिसको हम नहीं समझ पाते, उससे बेचैनी हो जाती है। क्योंकि वह हमसे बड़ा, और हमसे दूर और रहस्यमय। आदमी की जिज्ञासा यही है। आदमी की जिज्ञासा के पीछे मालकियत की दौड़ है।
तुम छोटे-छोटे बच्चों को देखते हो या बड़े-बूढ़ों को? सब बराबर एक जैसे हैं--छोटा बच्चा चला जा रहा है, देखता है एक चींटा जा रहा है, उसको जल्दी मार डालता है। वह क्या कर रहा है? बड़ा वैज्ञानिक है बच्चा। वह मार कर यह देख रहा है कि माजरा क्या है? या इलाही, यह चींटा चल रहा है! कौन चला रहा है इसे? कहां से यह गति आ रही है? तुम यह मत समझना कि बच्चा कोई हिंसा कर रहा है, कि चींटे से कोई दुश्मनी है।
तितली पकड़ ली। यह उड़ी जाती थी। यह उड़ती तितली बच्चे के लिए चुनौती है। उसे पकड़ेगा तो ही मान पाएगा। भागा, दौड़ा, पकड़ा; पकड़ कर बड़ा खुश होता है। फिर तोड़ डाले उसके पर। अब वह देखने चला--जिज्ञासा--देखने चला कि भीतर क्या छिपा है? बच्चा अकेला घर में छूट जाए, घड़ी खोल लेता है कि भीतर जो टिक-टिक हो रही है, वह क्या है? वैज्ञानिक में और इस बच्चे में कुछ भेद नहीं है। विज्ञान बड़ा बचकाना है। और हमारी सारी बुद्धि के व्यायाम बस जिज्ञासा के व्यायाम हैं।
कुछ हुआ था अपूर्व, तेरी बुद्धि नहीं समझ पाई। समझ नहीं सकती है। तेरी बुद्धि का वह काम नहीं। इसलिए प्रश्न उठ आया। इसलिए सोचा होगा कि पूछ लेना चाहिए।
खयाल रखो, मेरे पास हो तो ऐसा बहुत कुछ घटेगा, रोज-रोज घटेगा, उसको स्वीकार करना सीखो, अंगीकार करना सीखो। बुद्धि से व्याघात न करो। बुद्धि को बीच में मत लाओ। तर्क न करो, विश्लेषण न करो, खंडन मत करो, तोड़ो मत चीजों को। तोड़ने में सब बिखर जाता है। अहोभाव से आंख बंद करके स्वीकार कर लो। समा जाओ, उन घटनाओं को तुममें समा जाने दो। आत्मसात कर लो। बुद्धिसात करने की कोशिश मत करो, आत्मसात कर लो। रहस्य को रहस्य ही रहने दो। जरूरत नहीं है कि हम रहस्य को जानें ही। जानना आवश्यक नहीं है। सच तो यह है कि जानने ने ही आदमी को बड़ी मुश्किल में डाला। जितना आदमी जानने लगता है उतना ही उसके जीवन से धर्म तिरोहित हो जाता है।
तुम देखते नहीं, शिक्षित आदमी अधार्मिक होने लगता है। विश्वविद्यालय से लौटता है विद्यार्थी तो अधार्मिक होने लगता है। जितनी दुनिया शिक्षित होती जाती है उतनी अधार्मिक होती जाती है। क्या कारण होगा? शिक्षा एक तरह की विधि देती है, चिंतन की, मनन की, विचार की, विश्लेषण की। शिक्षा तर्क का शास्त्र देती है। और इतना बल देती है पच्चीस साल तक तर्क के शास्त्र पर कि पचहत्तर साल की जिंदगी में एक तिहाई तो तर्क के शास्त्र को समझने में बीत जाता है। फिर तर्क गहरा बैठ जाता है। फिर तुम हर चीज को तर्क से ही पकड़ने में लग जाते हो। और जब कोई चीज पकड़ में नहीं आती, तो तर्क के पास एक ही उपाय है कि जो पकड़ में नहीं आता, वह होगा नहीं। फिर अगर हो जाए, तो तर्क कहता है यह पागलपन है।
अगर तुम बुद्धि से पूछोगे, तो यह अचानक हो गया रोमांच, यह आंखों में भर आए आंसू, यह हृदय में दौड़ गई बिजली, यह कौंध गया अनुभव, बुद्धि कहेगी पागलपन है। और जिसको तुमने पागलपन कहा, उसको तुम दबाने में लग जाते हो। क्योंकि कोई पागल नहीं होना चाहता। हम उसको दबाते हैं, हम उसको झुठलाते हैं, हम अपने को बचाते हैं। धीरे-धीरे हमारे जीवन के जो मूल-स्रोत हैं, उनसे ही हम टूट जाते हैं। अपनी ही जड़ों से टूट जाते हैं।
खयाल रखना, यहां रोज-रोज ये घटनाएं बढ़ने वाली हैं। यहां तुमसे बड़ा तुम्हारे भीतर आमंत्रित किया जा रहा है। यहां तुम्हें एक द्वार पर खड़ा किया गया है जहां से खुला आकाश उपलब्ध है, जहां से चांद-तारे तुम्हारे भीतर झांकेंगे। और तुम्हारी बुद्धि यह सब समझ नहीं पाएगी। बुद्धि को हटा दो। बुद्धि को सरका दो। बुद्धि को कहना--यह तेरा काम नहीं; बाजार में तू ठीक है, मंदिर में तू ठीक नहीं। दुकान पर तू ठीक है, हिसाब-किताब में तू ठीक है, मगर कुछ ऐसी भी चीजें हैं जो हिसाब-किताब के बाहर हैं--और सच तो यह है, वे ही मूल्यवान हैं। उन्हीं के लिए जीआ जा सकता है, उन्हीं के लिए मरा जा सकता है। जो हिसाब-किताब में आ जाता है, उसके लिए कौन जीएगा, कौन मरेगा?
एक ऐतिहासिक घटना तुमसे कहूं। सुकरात अपने सत्य के लिए मरा। क्योंकि सत्य इतना मूल्यवान था कि जीवन भी उसके लिए चुका देना कोई महंगा सौदा नहीं था। जीसस अपने सत्य के लिए सूली चढ़े। क्योंकि सत्य इतना मूल्यवान था कि एक जिंदगी क्या, हजार जिंदगियां सूली पर चढ़ जाएं तो भी सत्य को छोड़ा नहीं जा सकता। मंसूर ने अपने हाथ-पैर कटवा डाले, जब उसके हाथ-पैर काटे जा रहे थे तो वह आकाश की तरफ देख कर हंसा। भीड़ इकट्ठी थी, लोगों ने पूछा कि मंसूर, तुम क्यों हंसते हो? तो उसने कहा: मैं इसलिए हंस रहा हूं कि मैं परमात्मा को कहना चाहता हूं कि तू मुझे धोखा न दे पाएगा। तू जीवन चाहे जीवन ले ले, मगर मैंने तुझे देख लिया है, अब मैं तुझे भुला नहीं सकता। मैंने तुझे पहचान लिया, अब तू सब छीन ले तो भी मैं तुझे छोड़ नहीं सकता। मैं तुझे हर हालत में पकड़े रहूंगा। इसलिए हंस रहा हूं कि यह मेरी कसौटी हो रही है, परीक्षा ले रहा है वह। और परीक्षा में मैं जीत रहा हूं, वह हार रहा है। क्योंकि उसका उपाय व्यर्थ हुआ जा रहा है।
लेकिन गैलीलियो ऐसा नहीं कर सका। गैलीलियो ने कहा कि सूरज जमीन का चक्कर नहीं लगाता। गैलीलियो के पहले तक आदमी मानते रहे थे कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है--ऐसा दिखाई भी पड़ता है रोज हमें; सुबह उगता है, फिर आधा चक्कर लगा कर सांझ डूब जाता है; ऊगता पूरब में, डूब जाता पश्चिम में। चक्कर बिलकुल साफ लग रहा है, सीधा है। पृथ्वी ठहरी मालूम पड़ती है, सूरज चक्कर लगाता हुआ मालूम पड़ता है। यह हमारा सामान्य अनुभव है। इसी सामान्य अनुभव के आधार पर मनुष्य जाति सदा से सोचती रही थी कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगा रहा है।
गैलीलियो ने उलटा अनुभव पाया। वैज्ञानिक प्रयोग से पाया कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगा रही है। और चूंकि पृथ्वी इतनी बड़ी है और हम इतने छोटे हैं इसलिए हमें पृथ्वी की गति का पता नहीं चलता। और भ्रांति हमें पैदा हो रही है। कभी-कभी तुम्हें हो जाती है, तुम ट्रेन में बैठे हो, स्टेशन पर खड़ी है गाड़ी, बगल की गाड़ी चलती है और तुम्हें लगता है--अपनी गाड़ी चली। या अपनी गाड़ी चलती है और तुम्हें लगता है--बगल की गाड़ी चली। ऐसी भ्रांति अक्सर हो जाती है। चल तो रही है पृथ्वी, लग रहा है कि सूरज चल रहा है। गैलीलियो ने बड़े प्रमाणिक रूप से सिद्ध कर दिया कि सूरज नहीं चल रहा है, पृथ्वी चल रही है। मगर चर्च बर्दाश्त नहीं कर सका, क्योंकि बाइबिल कहती है--सूरज चल रहा है। गैलीलियो को अदालत में बुलाया गया और उससे कहा गया कि तुम क्षमा मांग लो। उसने क्षमा मांग ली।
उसकी क्षमा बड़ी विचारपूर्ण है।
यह सत्य कुछ ऐसा नहीं था जिसके लिए जीवन गंवाया जाए। गैलीलियो क्यों जीवन गंवाए? मेरे भी बात समझ में आती है--क्यों जीवन गंवाए? सूरज लगाए चक्कर कि पृथ्वी लगाए, इससे गैलीलियो का क्या बनता-बिगड़ता है? इस सत्य में गैलीलियो के प्राण नहीं समाए हुए हैं। यह सत्य जीसस जैसा सत्य नहीं है; न सुकरात जैसा, न मंसूर जैसा; जो अपने से भी मूल्यवान है। यह वैज्ञानिक सत्य है। वे धार्मिक सत्य थे।
फर्क समझना, यह गणित का सत्य है, वे हृदय के सत्य थे। गैलीलियो ने कहा: मैं क्षमा मांग लेता हूं। उसने घुटने टेक कर क्षमा मांग ली। क्षमा में उसने जो वचन कहे वे बड़ी होशियारी के हैं। गणित का आदमी था। उसने कहा: मैं क्षमा मांग लेता हूं कि मैंने जो वक्तव्य दिया वह ठीक नहीं है, यद्यपि मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि मेरे कहने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा, चक्कर तो पृथ्वी ही लगा रही है। मैं क्षमा मांगता हूं, इसमें मैं कोई एतराज नहीं करता कि मुझसे भूल हो गई जो मैंने यह कहा, मगर यह सिर्फ मेरी भूल है कि मैंने ये कहा, ये मेरे कहने की भूल है, अब मैं इसमें क्या कर सकता हूं, अगर पृथ्वी चक्कर लगा रही है तो यह तुम पृथ्वी से क्षमा मंगवा लो, मगर लगा तो रही है पृथ्वी ही चक्कर। लेकिन उसने बार-बार याद दिला दिया अदालत को कि याद रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैं क्षमा नहीं मांगता। मैं तो क्षमा मांगने को तैयार हूं, मेरा क्या लेना-देना, कोई लगाए चक्कर, क्या फर्क पड़ता है मुझे, मैं जिंदगी गंवाने को तैयार नहीं हूं। और मुझे लगता है कि बात ठीक है। गैलीलियो क्यों जिंदगी गंवाए?
यह कोई सत्य बड़ा सत्य नहीं है। इसको सत्य कहना भी ठीक नहीं है। मेरे हिसाब से तो सत्य तो वही है जिसके लिए तुम जीवन देने को तैयार हो जाओ। सत्य तो वही है जिसके लिए आदमी जीए और जरूरत पड़े तो मरे। शेष सब तथ्य हैं, सत्य नहीं।
और सत्य और तथ्य का भेद समझ लेना। तथ्य गणित के होते हैं, सत्य हृदय के होते हैं।
तो कल तुझे एक सत्य घटना शुरू हुआ। लेकिन बुद्धि कहती है--इसे जल्दी से तथ्य बनाओ। जल्दी इसको समझो; पकड़ो, पहचानो; अगर पकड़ में न आता हो तो बंद करो। अगर पहचान में आता हो तो इसको ठीक-ठीक कोटि में बांटो कि यह क्या है। इसीलिए तेरे मन में यह विस्मयजनक भाव उठा--या इलाही, यह माजरा क्या है? यही माजरा धर्म का आत्यंतिक रूप है। यही माजरा असली धर्म है। असली धर्म का अर्थ होता है, उस रहस्य में उतरना जो समझ के पार है।
अब दुबारा जब ऐसा हो, प्रश्न मत उठाना, निष्प्रश्न मन से स्वीकार कर लेना। इतना ही नहीं है कि स्वीकार कर लेना, सहयोग भी करना। क्योंकि अगर जरा भी असहयोग हो तो ये बड़ी सूक्ष्म संवेदनाएं हैं, जरा सा असहयोग हो कि समाप्त हो जाती हैं। रोमांचित हो रही थी देह, रोआं-रोआं जग रहा था और तुम अ
गर जरा सिकुड़ गए तो बंद हो जाएगा। ये बड़ी नाजुक बातें हैं। जरा सा भाव का परिवर्तन और रोमांच विदा हो जाएगा। आंख से आंसू बह रहे थे और तुम जरा कठोर हो गए, कि आंखें सूख जाएंगी। सहयोग भी करना। जब शरीर रोमांचित होने लगे, तो शिथिल, विराम में आ जाना। साथ दे देना, कहना मैं पूरा राजी। मैं तुम्हारे साथ। रोओ, नाचो, मैं समग्ररूपेण तुम्हारे साथ। मैं तुम्हारे पीछे। मेरी ऊर्जा लो। आंसुओ बहो, मैं तुमसे बहूंगी। और बुद्धि को कह देना--तू अभी चुप रह! यह तेरी घड़ी नहीं। जैसे हम मंदिर में जाते हैं, जूते उतार देते हैं, ऐसे ही बुद्धि को भी उतार देना चाहिए। बुद्धि भी बासी है और गंदी है, उधार है। मंदिर के बाहर जो बुद्धि को उतार कर रख आता है वही मंदिर में प्रवेश पाता है।
कल, शुक्ला, तू मंदिर के बिलकुल द्वार पर खड़ी थी। क्षण में कुछ का कुछ हो सकता था। लेकिन विचार जग गया। विचार जग गया, तोड़ गया धारा को। प्रश्न उठ गया, रहस्य को खंडित कर गया। सोच-विचार में पड़ गई, उसी में चूक गई। अब दुबारा मत चूकना--और यह बहुत बार होगा। पहली बार सभी चूक जाते हैं। क्योंकि पहली बार याद ही नहीं होता क्या करना है। पुरानी आदत, जो सदा करते रहे हैं वही कर देते हैं।
यह खयाल रखना, पहली बात जो उठी, रोएं रोमांचित हुए, आंख से आंसू बहे, वह तो प्रतिसंवेदना, रिस्पांस; और या इलाही, यह क्या माजरा है, यह प्रतिक्रिया, रिएक्शन। जब भी तेरी जिंदगी में कोई चीज तेरी समझ-बूझ में न आती होगी तभी यह सवाल उठता रहा होगा। जब भी तूने अपने को किंकर्तव्यविमूढ़ पाया होगा, तभी यह सवाल उठता रहा होगा। फिर मत चूकना। फिर होगा, बार-बार होगा।
और स्मरण रखना कि जब मैं दूसरों से भी बोल रहा हूं तब कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जिससे मैं बोल रहा हूं वह चूक जाता है, क्योंकि वह सुनने को इतना ज्यादा तनावग्रस्त होता है, इतना एकाग्र होता है, इतना उद्वेलित होता है--मेरे अनुभव में यह बात बार-बार आई है; और कई बार मुझे अ से जो बात कहनी हो वह मुझे ब से कहनी पड़ती है, क्योंकि ब से जब मैं कहता हूं तो ब तो तना हुआ रहता है, वह सुनने को रहता है कि कहीं चूक न जाए, क्या कहा जा रहा है और अ शांत बैठा होता है--उससे तो कुछ कहा नहीं जा रहा है, यह उसका सवाल नहीं है--कभी-कभी ब के सिर पर मारी चोट ब तो बचा जाता है, अ को लग जाती है। उनको खयाल ही नहीं था, बचाने का मौका ही नहीं मिला।
तो मैं तीर किस तरफ चलाता हूं, यह दिशा से ही मत सोच लेना। चिट्ठियां किसको लिखता हूं, यह पते से ही मत सोच लेना। कई बार तुमसे मुझे बात कहनी होती है, किसी और से कहता हूं। दूसरा तो निश्चिंत बैठा होता है, उसका कुछ लेना-देना नहीं इसलिए एक विराम की अवस्था होती है। इसलिए जिससे मैं यह कह रहा था कि मैं तेरा स्वागत करता हूं, उसे तो रोमांच नहीं हुआ कल, उसकी आंख से आंसू नहीं बहे और शुक्ला को रोमांच हुआ और आंख से आंसू बहे। चलो तीर किसी को तो लगा! कहीं तो लगा! कहीं तो झरना बहा! दुबारा जब ऐसा हो, तो सहयोग करना।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, अब बार-बार ऐसा लगने लगा है कि कुछ भी तो नहीं पाना है, कहीं भी तो नहीं जाना है; जीवन है, जीना है। हे सदगुरु, हे परमगुरु! यह मन का छलावा है या...? अपनी शिष्या की पग-पग पर रक्षा करना। आज जहां हूं, जैसी हूं, आपकी ही कृपा का फल है!
नहीं, मन का भुलावा नहीं है। मन का छलावा नहीं है। यह बात मन से नहीं आ रही है। यही तो मेरा संदेश है। यह बात मुझसे तुम्हारे पास तक पहुंच गई। यही तो मैं कह रहा हूं निरंतर। हजार-हजार ढंगों से और हजार-हजार शैलियों में और हजार-हजार उपाय से एक ही बात तो कह रहा हूं तुमसे कि कहीं जाना नहीं है, परमात्मा यहां है, यहीं है, अभी है, कल पर नहीं छोड़ना, आज है, इसी क्षण है। परमात्मा कोई लक्ष्य नहीं है, परमात्मा एक मौजूदगी है। अभी इन वृक्षों में, इन पक्षियों की आवाज में, इन हवाओं में मौजूद है।
लेकिन सदियों तक ऐसा समझाया गया है कि परमात्मा वहां आकाश में है, मरने के बाद मिलेगा। और मैं तुमसे कहता हूं, जो जीवन में नहीं मिल सकता, वह मरने के बाद नहीं मिलेगा। और जो मरने के बाद मिल सकता है, मिलने वाला है, वह जीवन में ही मिल जाए तो ही मिल सकता है; क्योंकि जीवन और मृत्यु में कोई विरोध नहीं है। एक ही सिलसिला है। मृत्यु जिंदगी का ही एक कदम है। मृत्यु जिंदगी का अंत नहीं है, जिंदगी का ही एक कदम है। मृत्यु जीवन की समाप्ति नहीं है, मृत्यु जीवन के मध्य में घटी एक घटना है। बहुत बार घटती है मृत्यु और जीवन बहता चला जाता है। मृत्यु एक मोड़ है ज्यादा से ज्यादा, इससे ज्यादा नहीं। एक पड़ाव है, इससे ज्यादा नहीं। लेकिन तुम्हें सदियों से समझाया गया है कि परमात्मा मिलेगा मृत्यु के बाद। टालने का उपाय है यह। कल पर टालने की व्यवस्था है यह। यह मन का छलावा है। कल पर छोड़ दो तो मन कहता है--अभी तो जो करना है वह कर लो, अभी संसार और परमात्मा कल। इससे तरकीब मिल जाती है, सुविधा मिल जाती है। अभी तो दुनिया में जी लो, फिर कल तो पड़ा है, अनंतकाल पड़ा है, फिर कभी परमात्मा में जी लेंगे। यह मन का छलावा है।
जिन्होंने कहा है परमात्मा कल है, उन्होंने तुम्हें धोखा दिया। उनकी बात तुम्हारा मन पकड़ कर बैठ गया है। तुम भी चाहते हो कि परमात्मा कल हो, आज नहीं।
मैंने सुना है, लंका का एक बौद्ध भिक्षु मरने के करीब आया--अस्सी साल का हो गया था, बूढ़ा हो गया था। उसके हजारों शिष्य थे और वह सदा एक ही बात करता रहा--निर्वाण, समाधि। अंतिम दिन भी उसने सारे शिष्यों को इकट्ठा किया, सारे शिष्य दूर-दूर से इकट्ठे हुए, उसने कहा कि अब मैं जा रहा हूं, मेरी घड़ी जाने की आ गई, मेरी नाव किनारे लग गई है और मैं तुम्हें जिंदगी भर समझाता रहा निर्वाण और मैंने जिंदगी भर तुम्हें समाधि की शिक्षा दी, मगर तुममें से कोई भी समाधिस्थ होने को तैयार नहीं है, तुम कहते हो--कल। अब मैं जा रहा हूं, कल नहीं होगा, क्योंकि कल मैं नहीं होऊंगा, जिसको भी मेरे साथ चलना हो, जो निर्वाण के लिए उत्सुक हो, खड़ा हो जाए। कोई खड़ा नहीं हुआ। सिर्फ एक आदमी ने जरा हाथ हिलाया--खड़ा वह भी नहीं हुआ, बैठे ही बैठे हाथ हिलाया। उस भिक्षु ने कहा कि क्या पूछना चाहते हो? उसने कहा कि मैं यही पूछना चाहता हूं कि आना तो मुझे जरूर है निर्वाण, लेकिन अभी नहीं। अभी तो लड़की की शादी करनी है और अभी तो दुकान नई खोली है और बेटा विश्वविद्यालय से पढ़ कर लौटा है, आऊंगा, जरूर आऊंगा, और आप जा रहे हैं इसलिए विधि बता दें। विधि याद रखूंगा और जब जरूरत होगी तब विधि का उपयोग कर लूंगा।
तुम कभी सोचे हो इस बात पर कि विधियों की तलाश कहीं मन का छलावा तो नहीं है? मन यह भी मानना नहीं चाहता कि मैं परमात्मा में उत्सुक नहीं हूं। मन कहता है, हमारी तो बड़ी उत्सुकता है; हम जैसा धार्मिक कौन, लेकिन अभी नहीं। जब भी तुम कहते हो अभी नहीं, तभी समझ लेना कि तुम अपने को धोखा दे रहे हो। या तो अभी या कभी नहीं।
और परमात्मा किसी दूसरे लोक में नहीं है। यह भी तुम्हें समझाया गया है कि परलोक में है। एक ही लोक है। यह और वह किसी दीवाल से विभाजित नहीं हैं। इन दोनों के बीच में कोई सीमा नहीं है। यहां बैठे-बैठे कोई उसमें हो सकता है। जमीन पर चलते हैं बुद्ध और जमीन पर उनके पैर नहीं पड़ते। भोजन करते हैं और भोजन नहीं करते। भीड़ में होते हैं और एकांत में होते हैं। बाजार में खड़े होते हैं और बाजार उनके भीतर नहीं होता। यहां होकर कोई वहां हो सकता है और यही होने की असली कला है। यहां और वहां में कोई विरोध नहीं है, कोई शत्रुता नहीं है।
बहुत सियाह है यह रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमां है
वह नहरे-खूं जो मेरी सदा है
इसी के साए में नूरगर है
वह मौजे-जर जो तेरी नजर है
वह गम जो इस वक्त तेरी बाहों--
के गुलसितां में सुलग रहा है
वह गम जो इस रात का समर है
कुछ और तप जाए अपनी आहों--
की आंच में तो यही सरर है
हर-इक सियह शाखकी कमांसे
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नोचे हैं और हर-इक--
का हमने तेशा बना लिया है
अलमनसीबों, जिगर फिगारों--
की सुबह अफलाक पर नहीं है
जहां पै हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रोशन उफक यहीं है
यहीं पै गम के शरार खिल कर
शफकका गुलजार बन गए हैं
यहीं पै कातिल दुखों के तेशे
कतार अंदर, कतार करनों--
के आतिशीं हार बन गए हैं
‘अलमनसीबों’... दुखियों का... ‘जिगर फिगारों की सुबह’... जिगर के जख्मियों की सुबह... ‘अफलाक पर नहीं है’... आकाश पर नहीं है।
जहां पै हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रोशन उफक यहीं है
इसी जमीन पर, यहीं, अभी सारे प्रकाश का स्रोत छिपा है।
यही पै गम के शरार खिल कर
यहीं दुख के अंगारे खिल जाते हैं; फूल बन जाते हैं।
शफक का गुलजार बन गए हैं
उद्यान बन जाते हैं। दुख के अंगारे ही सुख के फूल बन जाते हैं, यहीं पर। कीमिया आनी चाहिए, कला आनी चाहिए।
यहीं पै गम के शरार खिल कर
शफक का गुलजार बन गए हैं
यहीं पै कातिल दुखों के तेशे
कतार अंदर, कतार करनों--
के आतिशीं हार बन गए हैं
सब यहीं घटा है। सब यहीं घटता है।
तो ऐसा मत सोचो कि अब बार-बार ऐसा लगने लगा है कि कुछ भी तो नहीं पाना है, कहीं भी तो नहीं जाना है; जीवन है, जीना है; तो कहीं यह मन का छलावा तो नहीं? जरा भी नहीं। यही अंतरात्मा की आवाज है। कहीं नहीं जाना है। कुछ नहीं पाना है। जिसे हम पाने की सोचते हैं उसे हमने पाया हुआ है। वह हमारा अंतरंग है। जिसे हम बाहर देख रहे हैं, वह भीतर मौजूद है। जिसे हम पाने चले हैं, उसे हम पाकर ही चले हैं। प्रथम दिन से हमारे साथ है।
सूफियों ने ईश्वर को दो नाम दिए हैं। एक नाम ‘अव्वल’ और दूसरा नाम ‘आखिरी।’ जो पहला है वह भी ईश्वर और जो अंतिम है वह भी ईश्वर। दोनों ही ईश्वर हैं। तुम पहले ही दिन से ईश्वर हो। ऐसा नहीं है कि अंतिम दिन ईश्वर हो जाओगे। अगर पहले दिन से ईश्वर नहीं हो तो अंतिम दिन भी ईश्वर कैसे हो पाओगे? जो नहीं है, वह नहीं हो सकेगा। जो है, वही हो सकता है। खयाल रखना इस विरोधाभास को, तुम वही हो सकते हो जो तुम हो। तुम्हें वही होना है जो तुम हो। अन्यथा का कोई उपाय नहीं है। और जो अन्यथा हो जाओगे, वह झूठ होगा, स्वभाव नहीं होगा। ऊपर-ऊपर से थोपा हुआ होगा। बाहर-बाहर होगा, वस्त्रों की तरह होगा, आवरण होगा, तुम्हारा अंतस नहीं होगा।
मैं तुमसे फिर कहता हूं, तुम ईश्वर हो। जरा भी तुममें कमी नहीं है। सिर्फ आंख झपक गई है और सपने देखने लगे हो। तुम्हारी सारी कमियां तुम्हारे सपनों में देखी गई कमियां हैं। तुम्हारे सारे पाप और पुण्य तुम्हारे सपनों में किए गए कृत्य हैं। जागो और न तुमने कुछ बुरा किया है और न तुमने कुछ अच्छा किया है। जागो तो कृत्य से संबंध छूट जाता है। अस्तित्व से संबंध जुड़ जाता है।
सोने और जागने की यह परिभाषा समझ लेना।
सोने का अर्थ होता है, कृत्य से संबंध जुड़ गया। कर्ता हो गए। फिर कोई पापी हो गया, फिर कोई पुण्यात्मा हो गया, कोई साधु हो गया, कोई असाधु हो गया, फिर हजार ढंग हो गए कर्ता के। जागे, अकर्ता हो गए, साक्षी हो गए, सारा संबंध कर्म से छूट गया। जागते ही न कोई साधु है, न कोई असाधु है। जागते ही केवल परमात्मा है, और उस पर कोई आवरण नहीं है, नग्न परमात्मा है।
नहीं, कहीं भी नहीं जाना है, अपने ही घर आना है। कहीं तलाशना नहीं, खोजना नहीं, खोजने वाले को ही पहचान लेना है। खोजने वाले में ही वह छिपा है जिसे हम खोज रहे हैं।
जीवन है और जीना है। ठीक भाव उठ रहा है। कुछ करने का नहीं है, बहने का है। जीवन है और जीना है, श्वास चल रही है और श्वास लेनी है। जब श्वास चले तो श्वास लो आनंद से मग्न भाव से और जब श्वास रुक जाए, तो आनंद और मग्न भाव से उसे रुक जाने दो। जब तक जीवन है, जीओ, जब मौत आए तो मरो।
झेन फकीर कहते हैं: जब भूख लगे तो भोजन कर लो और जब नींद आ जाए तो सो जाओ।
जब तक जीवन चले चलो और जब जीवन बिखरने लगे बिखर जाओ। जो घटे उसे सहज स्वीकार कर लो, उससे अन्यथा की चेष्टा न करो। अन्यथा की चेष्टा से तनाव पैदा होता है, अशांति पैदा होती है, चिंता पैदा होती है, दुख पैदा होता है, विषाद पैदा होता है। जो हो, जैसे हो उसमें ही मग्न हो जाओ। यही मेरा तुम्हारे लिए संदेश है प्रथम और अंतिम। इस एक छोटे से सूत्र को तुमने समझ लिया तो सब समझ लिया। फिर कुछ समझने को नहीं रह जाता, तुम्हारे हाथ में सारे शास्त्रों का सार लग गया।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कल तीसरी आजादी की बात कही। उस संबंध में कुछ और कहें।
आजादी तो पहली भी नहीं आई अभी। तो दूसरी और तीसरी का तो सवाल कहां है? आजादी कभी आई ही नहीं। बाहर से आजादी आती भी नहीं। आ भी नहीं सकती। बाहर से तो केवल गुलामियों के ढंग बदलते हैं, रंग बदलते हैं, बस आवरण बदलते हैं। कभी इस ढंग की गुलामी, कभी उस ढंग की गुलामी। आजादी तो आंतरिक घटना है।
तुम आजाद हो सकते हो, तुम्हें कोई आजाद नहीं कर सकता। और तुम आजाद हो सकते हो, कितनी ही बड़ी कारागृह हो वहीं आजाद हो सकते हो। बाहर जाने की भी जरूरत नहीं है। क्योंकि आंतरिक अनुभव है स्वतंत्रता। ध्यान है स्वतंत्रता, प्रेम है स्वतंत्रता। मगर आदमी बड़े धोखे का इंतजाम करता रहता है। भीतर की आजादी खोजने में तो हिम्मत नहीं है, तो बाहर की छोटी-मोटी आजादियां खोजता रहता है--राजनैतिक आजादी, आर्थिक आजादी।
जो आदमी धन कमा रहा है वह क्या कर रहा है, तुम्हें पता है? वह क्या खोज रहा है? आर्थिक आजादी खोज रहा है। वह यह कहता है--गरीबी में बड़ा बंधन है। यह कार खरीदनी है, नहीं खरीद सकते। पैसा होता, आजादी होती। जो खरीदना होता वह खरीद लेते। जिस मकान में रहना चाहते उस मकान में रहते। जो करना होता वही करते। आजादी में कमी है। इसलिए आदमी धन खोजता है। धन से सोचता है आजादी बढ़ेगी। बढ़ती नहीं, घटती है। जितना धन हो जाता है उतनी ही मुश्किल हो जाती है। क्योंकि जितना धन बढ़ने लगता है, उसकी रक्षा करनी पड़ती है, उसकी चिंता करनी पड़ती है। गरीब तो रात सो भी जाए, अमीर रात सो भी नहीं सकता। कैसी आजादी! अमीर रात भर सोचता ही रहता है। उसके पास सोचने को काफी है, चिंता करने को काफी है। फिर जितना धन आ जाता है, उतना ही अनुभव होता है कि सीमा थोड़ी तो बढ़ गई, अब जो कार खरीदनी है वह खरीद सकते हैं, जो मकान लेना हो वह ले सकते हैं, लेकिन जो हवाई जहाज लेना है वह नहीं ले सकते। तो नई गुलामी मालूम होने लगी। थोड़ा धन और हो तो फिर हवाई जहाज भी जो लेना है वह ले लें। फिर ऐसे बढ़ता जाता है।
इस संसार के फैलावे का कोई अंत नहीं, यह दुकान फैलती चली जाती है। रोज-रोज नई-नई गुलामी अनुभव होने लगती है। जो गुलामी गरीब ने कभी अनुभव नहीं की थी, वह अमीर अनुभव करता है। अमीर ही अनुभव कर सकता है। अब एक गरीब को इसमें कोई गुलामी नहीं मालूम होती, वह मजे से अपने झाड़ के नीचे बैठा टिका दोपहरी में विश्राम कर रहा है--कारें निकली जा रही हैं, वह यह भी फर्क नहीं करता कि कौन सी कार कौन सी? उसे मतलब? उसे यह सवाल ही नहीं है। उसे यह भी नहीं लगता कि कार खरीद लूं। ऐसा विचार भी उठेगा तो हंस कर झिड़क देगा कि कहां की बातें कर रहे हो? होश में हो? लेकिन कोई साइकिल निकलती है तो सोचता है कि फिलिप्स है कि रेले है, कौन सी साइकिल है? इसको यह साइकिल खरीदने जैसी है! उसके पास भी एक फटीचर है; किसी तरह उसको घसीटता है। उसमें घंटी वगैरह बजाने की जरूरत नहीं पड़ती, वह खुद ही इतनी बजती है कि जहां भी जाता है, दूर से ही लोगों को पता चल जाता है कि आ रहे हैं! थक गया है।
कार की बात नहीं सोच सकता है, लेकिन साइकिल की सोच सकता है। तो साइकिल नई-नई देख कर उसकी गुलामी का अनुभव होता है, लेकिन कार नई-नई देख कर उसे कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। कारें उसे दिखाई नहीं पड़तीं। हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम चाहते हैं। खयाल रखना, जो हम चाहते हैं वही हमारे अनुभव में आता है। हमारी चाह के प्रकाश में ही हमें चीजें दिखाई पड़ती हैं। जो मिल ही नहीं सकता, उसे हम देखते ही नहीं। उसके देखने की झंझट में भी नहीं पड़ते। तो जितनी-जितनी तुम्हारी अमीरी बढ़ती जाती है, उतनी-उतनी तुम्हारी गुलामी बढ़ती जाती है। सोचते थे आजादी बढ़ेगी, लेकिन अब और नई-नई बातें मालूम पड़ने लगती हैं कि यह भी खरीद सकता था अगर पैसा होता, वह भी खरीद सकता था अगर पैसा होता।
राजनैतिक आजादी भी एक भ्रम है, छलावा है। आदमी खुद तो आजाद नहीं हो सकता, क्योंकि वहां महंगा सौदा है, साधना है, उतरना पड़ेगा अपनी गहराइयों में, खाइयों में। तो छोटी-मोटी आजादियां खड़ी कर लेता है कि राजनैतिक रूप से आजाद हो गए। तो मैंने जो तुमसे कल तीसरी आजादी की बात कही, वह तो यूं ही मजाक में कही थी। एक कहानी पढ़ रहा था, उससे वह मुझे खयाल में आ गया।
कहानी एक पढ़ रहा था, ‘तीसरी आजादी।’ कहानी प्यारी है। तीसरी आजादी हो गई। ऐसी आजादियां होती ही रही हैं, होंगी, तीसरी भी होगी। अब यह दूसरी में बुड्ढे-ठुड्डे सब चढ़ कर बैठ गए, अब तीसरी में जवान उनको खींच कर नीचे लाएंगे। काम शुरू हो गया है। क्योंकि इन मुर्दों से कहीं आजादी आती है, मुर्दों से कहीं क्रांति होती है! जयप्रकाश ने ऐसी क्रांति की कि दुनिया में कभी किसी ने न की थी। बिलकुल मुर्दे मरघट से निकाल कर बिठा दिए। और उसको समग्र क्रांति! है, समग्र क्रांति है। मुर्दे को सत्ता में बिठाना कोई छोटा-मोटा काम नहीं है। और अब मुर्दे सत्ता के बल पर चल रहे हैं। सत्ता में बल होता है। सत्ता मिल जाए तो मुर्दा भी चलने लगता है, खयाल रखना। और जिंदा आदमी की भी सत्ता चली जाए तो एकदम मर जाता है। श्वास ही बंद हो जाती है। तीसरी आजादी ज्यादा दूर नहीं है, बस समझो रास्ते के किनारे पर ही, तैयारी हो रही है। तैयारी शुरू हो गई है, उपद्रव शुरू हो गए हैं। दूसरी से लोग थक गए, क्योंकि आई नहीं, अब तीसरी लाएंगे। और तीसरी से ही थोड़े चुक जाएगा मामला, चौथी आएगी, पांचवीं आएगी--आजादियां आती रहीं, आती रहेंगी।
तो यह कहानी मैं पढ़ रहा था कि तीसरी आजादी आ गई। फिर आजादी के बाद सबसे बड़ा जो काम होता है वह हुआ। कई कमीशन बिठाए गए। आजादी के बाद सबसे बड़ा काम यही होता है कि पहले जो सत्ता में थे, वे गलत थे। खुद को सही करने का और कोई उपाय नहीं सूझता, कुछ करके दिखाने की कुबत नहीं मालूम होती। दूसरा गलत था, यह सिद्ध करने का एक ही उपाय है कि तुम कुछ सही करके बताओ। वह जरा झंझट का मामला है। सही होता नहीं, तो कमीशन बिठाओ। दूसरा गलत था, कम से कम इतना तो सिद्ध करो।
दुनिया में दूसरे को गलत सिद्ध करने वाले लोग हमेशा नपुंसक होते हैं। सही सिद्ध करने का अपने को उपाय करना चाहिए कि मैं कुछ करके बताऊं कि यह मैंने किया। उसकी तुलना में अपने आप दूसरा गलत हो जाएगा। बड़ी लकीर खींच दूं, दूसरे की लकीर अपने आप छोटी हो जाएगी। साफ हो जाएगा कि किसने क्या किया? मगर वह जरा महंगा मामला है। उलझनें बड़ी हैं, समस्याएं बड़ी हैं। चुनाव में आश्वासन देना एक बात है और उनको पूरा करना बिलकुल दूसरी बात है--कोई कभी नहीं कर पाया। इसीलिए तो चुनाव में आश्वासन देने में लोग संकोच ही नहीं करते। संकोच ही क्या करना है, पूरा तो कोई आश्वासन कभी होता नहीं, पूरा किसी को करने का विचार भी नहीं है। आश्वासन की सीढ़ी पर चढ़ कर लोग सत्ता तक पहुंच जाते हैं। एक दफे पहुंच गए, फिर सब आश्वासन भूल जाते हैं। फिर उन्हें याद ही नहीं रहता, सीढ़ी को भी गिरा देते हैं, क्योंकि सीढ़ी को बचाना भी ठीक नहीं रहता, नहीं तो दूसरे उस पर से चढ़ कर आ जाएं। इसलिए होशियार आदमी सीढ़ी चढ़ कर गिरा देता है कि कोई और दूसरा न चढ़ आए।
तो तीसरी आजादी आई; कई कमीशन बैठे, मुकदमे शुरू हुए। क्योंकि अब जो सत्ता में आ गए, वे सिद्ध करेंगे कि तुमने कुछ भी नहीं किया। उसी कहानी को पढ़ रहा था, इससे तीसरी आजादी का खयाल आ गया। मोरार जी देसाई को पूछा जा रहा है--जस्टिस रे का कमीशन बैठा हुआ है--वह मोरार जी देसाई को पूछते हैं कि आपने क्या किया अपने कार्यकाल में? तो उन्होंने कहा: मैंने जनता की सेवा की। न्यायाधीश ने पूछा: आपने जनता की सेवा कैसे की? तो मोरार जी देसाई ने कहा: मैंने प्रधानमंत्री बन कर जनता की सेवा की। न्यायाधीश ने पूछा कि आप थोड़ा साफ करके बताइए कि आपने किस तरह सेवा की प्रधानमंत्री बन कर? आपने किया क्या? उन्होंने कहा: मैं प्रधानमंत्री बना और क्या करना है? जिंदगी भर मेहनत करके प्रधानमंत्री बना, अस्सी साल की उम्र में प्रधानमंत्री बना, जनता की सेवा की। न्यायाधीश ने कहा: यह सेवा हमारी कुछ समझ में नहीं आती, आप थोड़े विस्तार से कहें। तो उन्होंने कहा: विस्तार यह है कि साठ करोड़ आदमी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, मैंने उनको बचाया और मैं प्रधानमंत्री बना। फांसी अपने गले में लगवाई और क्या सेवा चाहिए? सिंहासन पर बैठा, सूली पर चढ़ा और क्या सेवा चाहिए? इतने लोगों को झंझट से बचाया।
ऐसा कमीशन प्रश्न पूछता है। कमीशन पूछता है कि और जयप्रकाश नारायण का क्या हाथ था इस क्रांति में? तो मोरार जी देसाई कहते हैं--कोई हाथ नहीं था। पर न्यायाधीश कहता है कि हमने तो सुना कि उन्होंने ही क्रांति की, कि वह महात्मा गांधी जैसे महात्मा हैं। और मोरार जी देसाई कहते हैं--हुस्ट! मेरे अतिरिक्त महात्मा गांधी जैसा और कोई महात्मा नहीं। तो फिर आप उनको लोकनेता क्यों कहते थे? तो मोरार जी देसाई कहते हैं कि उनको कुछ तो देना ही था। प्रधानमंत्री उनको बना नहीं सकते थे, राष्ट्रपति वे बनने को तैयार नहीं थे, उनको कुछ तो देना ही था। जेल तो वह गए ही थे, तो उनको हमने ‘लोकनेता’--इसमें कुछ देना भी नहीं पड़ा--‘लोकनेता’ का नाम दे दिया था। कई सवालों के जवाब में वह कहते--हुस्ट! हुस्ट! हुस्ट! और वह न्यायाधीश पूछता है कि आप यह क्या हुस्ट-हुस्ट लगा रखे हैं, मोरारजी भाई? आप ठीक जवाब क्यों नहीं देते? और वह कहते हैं--अब तो मैं कोई भी जवाब नहीं दे सकता, क्योंकि यह मेरी अंतरात्मा कह रही है कि अब छुहारे लेने और ‘जीवन-जल’ पीने का समय हो गया। तीस मिनट की मुझे सुविधा चाहिए। घबड़ा कर कि कहीं वहीं वे ‘जीवन-जल’ न पीने लगें, बगल के कमरे में उनको ले जाया जाता है और दरवाजा बंद कर दिया जाता है। ऐसी वह कहानी चलती है। वह मैं पढ़ रहा था, इसलिए तीसरी आजादी की याद आ गई।
मगर आजादी न कभी आई है, न कभी आती है, ये सपनों में मत पड़ो। अगर सच में चाहते हो स्वतंत्रता, तो उस शब्द में ही राज छिपा है। स्वतंत्रता का अर्थ होता है, ‘स्व’ जो है तुम्हारे भीतर, उसका तंत्र स्थापित हो जाए, उसका विस्तार स्थापित हो जाए।
हमने इस देश में जो शब्द चुने हैं, ऐसे ही नहीं चुन लिए हैं। आजादी में वह मजा नहीं है, जो स्वतंत्रता में है। क्योंकि उस ‘स्व’ में ही सारा राज है। स्वयं के भीतर मालकियत पैदा हो जाए। इसलिए हम संन्यासी को ‘स्वामी’ कहते हैं। जो स्वतंत्र है, वही स्वामी है। जो स्वतंत्रता की खोज पर चला है, वही स्वामी है। स्वामी का मतलब है, जो अपनी मालकियत घोषित कर रहा है। जो अब किसी चीज की गुलामी स्वीकार नहीं करता। और वह कौन है जो किसी चीज की गुलामी स्वीकार न करेगा? वह वही है जो अपने भीतर बैठे मालिक को पहचान ले।
मालिक तुम्हारे भीतर बैठा है और तुम बाहर हाथ फैलाए हो। और तुम कभी इधर, कभी उधर खोजते हो। और एक जगह तुम खोजते ही नहीं जहां सदा से उसे पाया जाता रहा है। आंख बंद करो, भीतर चलो, थोड़ी अंतर्यात्रा करो और तुम्हें आजादी मिलेगी--वही पहली आजादी है। वही दूसरी, वही तीसरी। सारी आजादियां वहां हैं। आजादी का मूल उदगम तुम्हारे भीतर है।
बुद्ध हुए स्वतंत्र, जीसस हुए स्वतंत्र, महावीर हुए स्वतंत्र, कृष्ण हुए स्वतंत्र। यह किसी बाहरी आजादी के कारण नहीं। बाहर तो सारा जैसा है वैसा ही चलता रहा है। बाहर का उपद्रव तो ऐसा ही चलता रहेगा। आजादियां होती रहेंगी और कुछ भी नहीं होगा। तुम इस उलझाव में न पड़ो। तुम बाहर के उपद्रव से अपनी व्यस्तता को मत जोड़ो। तुम धीरे-धीरे बाहर के जितने उपद्रवों से मुक्त हो सको, उतना अच्छा। जो जरूरी हो बाहर, उतना ही करो। गैर-जरूरी में जरा भी समय मत लगाना। और लोग गैर-जरूरी में बड़ा समय लगाते हैं। गैर-जरूरी से समय बचाओ और शक्ति बचाओ। तो वही बची हुई शक्ति तो भीतर की यात्रा कर सकती है।
भीतर लोग जाने में हार क्यों जाते हैं? इसीलिए हार जाते हैं कि जाने लायक ऊर्जा नहीं है। सब बाहर ही गंवा बैठते हैं। कुछ धन में गई, कुछ पद में गई, कुछ प्रतिष्ठा में गई, कुछ यहां, कुछ वहां, सब बंट जाता है। खाली रह जाते हैं भीतर, भीतर जाने योग्य कोई सामर्थ्य नहीं बचती।
थोड़ी सामर्थ्य बचाओ। बाहर तो उतना ही करो, न्यूनतम, जितना जरूरी है। दो रोटी चाहिए, कर लो। छप्पर चाहिए, काम कर लो। कपड़े चाहिए, काम कर लो। बच्चों के लिए इंतजाम चाहिए, काम कर लो। मगर बस उतना ही जितना जरूरी है। उससे शेष सारा समय अंतर की खोज में लगाओ। निखारो अपने को। अभी तुम एक अनगढ़ पत्थर हो। लेकिन पत्थर में परमात्मा छिपा है। जरा मूर्ति प्रकट होने लगेगी, तुम्हारे भीतर आनंद-उत्सव पैदा होगा। वही असली आजादी है।
चौथा सवाल:
भगवान, आपने कहा कि दुख है और दुख रहेगा, क्योंकि संसार के होने में ही दुख निहित है। यदि ऐसा ही है तो फिर किसी ऋषि की यह प्रार्थना-- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग् भवेत् --क्या मात्र शुभेच्छा है?
नहीं, मात्र शुभेच्छा नहीं। संसार दुख है, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हें दुखी रहना अनिवार्य है। संसार दुख है, तुम दुख नहीं हो। तुम दुख से मुक्त हो सकते हो। तुम दुख में फंसे हो, यही चमत्कार है। यही आश्चर्यजनक है कि तुमने संसार के दुख से अपने को कैसे जोड़ लिया है। ऐसा ही समझो कि एक आदमी कीचड़ के डबरे में पड़ा है और वह कहता है कि कीचड़ का डबरा है, अब मैं क्या करूं? हम उससे कहते हैं--तू तो बाहर निकल सकता है! तू कीचड़ नहीं है। तू तो कमल है, तू तो कीचड़ से ऊपर उठ सकता है। कीचड़ कीचड़ है, तू तू है।
असल में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’, सब लोग सुखी हों, इसका मतलब यह नहीं है कि संसार सुखी हो जाएगा। इसका मतलब इतना ही है कि संसार में सभी लोग जागें, पहचानें कि हमारा स्वभाव दुख नहीं है, हम सुखस्वरूप हैं, हम सच्चिदानंद हैं। लेकिन मैं जानता हूं कि इस तरह की व्याख्या इस सूत्र की की नहीं गई है। क्योंकि सूत्र की व्याख्या करने वाले सांसारिक लोग हैं। वे सूत्र की भी व्याख्या अपनी कामना के अनुकूल करते हैं। जब तुम ऋषियों को उदघोषित करते पाते हो कि--
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः’
--कि सब दुख के पार हो जाएं, कि सब सुख को उपलब्ध हों, कि सबको मंगल मिले, तो स्वभावतः तुम सोचते हो कि वे कह रहे हैं कि तुम्हें धन मिले, पद मिले, प्रतिष्ठा मिले, सबको मिले। बस तुम चूक गए वहां। ऋषि अपनी भाषा बोल रहा है, तुम अपनी भाषा समझ रहे हो।
मैंने सुना है, एक बिल्ली इंग्लैंड की यात्रा को गई। जब लौट कर आई तो बिल्लियों ने उसे घेर लिया और कहा: क्या देखा, इंग्लैंड में क्या-क्या देखा? रानी के दर्शन किए कि नहीं? उसका सिंहासन देखा कि नहीं? कोहनूर-जड़ा उसका मुकुट देखा कि नहीं? और उसने कहा: गई थी देखने, देख नहीं पाई, क्योंकि रानी सिंहासन पर बैठी थी, सिंहासन सुंदर था, मुकुट भी बड़ा प्यारा था, मुकुट में हीरा भी चमक रहा था, मगर मैं मुश्किल में पड़ गई, क्योंकि एक चूहा सिंहासन के नीचे बैठा था। उस चूहे को देखने के कारण मैं कुछ और देख नहीं पाई। मैं तो चूहे को ही देखती रही--बड़ा प्यारा चूहा था। बड़ा गजब का चूहा था! एकदम लार टपकने लगी थी। अब बिल्ली अगर इंग्लैंड जाए, तो और देखे भी क्या? कोहनूर भी पड़ा रहे और उसी के पास एक चूहा बैठा हो, तो बिल्ली क्या देखे? भाड़ में जाए कोहनूर! कोहनूर का करोगे क्या? खाओगे, पीओगे कि पहनोगे? जब चूहा मौजूद हो तो कौन कोहनूर की फिकर करता है!
ऋषि अपनी भाषा बोलते हैं, हम अपनी भाषा समझते हैं। वहीं चूक हो जाती है। जब ऋषि ने कहा--सब सुखी हों, तो ऋषि यह कह रहा है कि जैसा मैं सुखी हुआ, ऐसे सब हों। तुमने सुना, तुमने कहा कि ठीक है, तो ऋषि यह कह रहे हैं कि कार मिले, बड़ा मकान मिले, कि सुंदर स्त्री मिले--तुम अपना सुख सुनने लगे, तुम अपना सुख समझने लगे। ऋषि तो अपने सुख की बात कर रहा है।
ऋषियों का सुख क्या है? कि सबको परमात्मा मिले। वहीं तो पहुंच कर सारे लोग दुख के पार होते हैं। इस संसार में तो दुख ही दुख है। मगर तुम्हें दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं है, अनिवार्यता नहीं है, तुम सुखी हो सकते हो। मैं सुखी हूं और तुमसे कहता हूं कि तुम भी ऐसे हो सकते हो--मैं गवाह हूं। सारे ऋषि गवाह हैं। लेकिन तुम तो ऋषियों के पास भी जाते हो तो आशीर्वाद वही मांगते हो कि चूहा मिल जाए।
मेरे पास भी लोग आ जाते हैं और वे कहते हैं, आपके पास आशीर्वाद लेने आए हैं, चुनाव में खड़े हुए हैं। मुझसे भी पाप करवाएंगे वे, चुनाव में वे खड़े हुए हैं! आशीर्वाद लेने आ गए हैं कि चुनाव जीत जाएं! कि मुकदमा लड़ रहे हैं, आशीर्वाद लेने आ जाते हैं कि आशीर्वाद दें। मेरे पास जब लोग आते हैं कभी-कभी और कहने लगते हैं आशीर्वाद दें, तो मैं कहता हूं--पहले ठीक-ठीक बता दें कि तुम्हारी मंशा क्या है? आशीर्वाद किसलिए चाहते हो? क्योंकि जहां तक सौ में निन्यानबे मौके पर तुम गलत चीज के लिए ही आशीर्वाद मांगते होओगे। वह मैं नहीं दे सकता हूं।
संसार तो दुख है। और तुम जिसे सुख मान कर दौड़ रहे हो, उसमें और-और दुख बढ़ता जाएगा क्योंकि वहां सुख नहीं है, मृग-मरीचिका है।
खौफ के नाग हर-इक सिम्त हैं फन फैलाए
जुल्मतें बाल बखेरे हुए फिरती हैं यहां
कितनी मद्दूक तमन्नाओं के सूखे ढांचे
एक खामोश से लहजे में है फरियादकनां
वक्त इक भूख की मारी हुई डायन की तरह
चाटता जाता है एहसास के लाशेका लहू
और इन तीराफजाओं में घुली जाती है
जहर में लिपटी हुई इक सुबक रंग-सी बू
देख कर इतनी सियाह और भयानक राहें
कौन समझेगा भला किसको यह आएगा खयाल
जगमगाते हुए आरिज की शुआएं लेकर
इन पै गुजरे हैं कुछ माहवशो-बर्के-जमाल
अगर तुम गौर से देखोगे इस जिंदगी के दुख को, तो भरोसा ही नहीं आएगा कि यहां सौंदर्य हो सकता है! यहां सुख हो सकता है! इस मरुस्थल को देख कर खयाल भी आ सकता है कि यहां कहीं मरूद्यान होंगे? इन कांटों को देख कर सपना भी देखना मुश्किल हो जाएगा कि यहां फूल खिल सकते हैं। बाहर फूल खिलते भी नहीं। फूल भीतर खिलते हैं। बाहर दुख है, भीतर सुख है। बाहर अर्थात दुख, भीतर यानी सुख।
तो जब ऋषि कहते हैं--सबको सुख मिले, तो वे यह कह रहे हैं, सब अपने भीतर लीन हों, सब अपने भीतर जागें, सब अपने भीतर आएं, सब अपने घर में विराजें, सब अपने मालिक को पहचानें, सब अपने स्वभाव में जीएं। यह मेरी परिभाषा।
हालांकि मुझे पक्का खयाल है कि मैत्रेय ने प्रश्न पूछा है तो इसीलिए पूछा है कि अब तक इस सूत्र की जो भी परिभाषाएं की गई हैं वे गलत हैं। वे परिभाषाएं तुम्हारी परिभाषाएं हैं। और तुम्हारे पंडित ही इनके अर्थ करते रहते हैं। पंडितों के हाथ में शास्त्र पड़ गए हैं। और पंडितों के हाथ में पड़ कर ही शास्त्र कारागृह में पड़ गए हैं। उनके कुछ के कुछ अर्थ हो गए हैं। शास्त्र कुछ कहते हैं, पंडित कुछ समझाता है। पंडित तुम्हारी कामनाओं का दलाल है। पंडित तुम्हारा नौकर है। पंडित को तुमसे संबंध है, शास्त्रों से कोई संबंध नहीं, ऋषि से कोई संबंध नहीं।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक नवाब के घर नौकरी पर था। नौकरी पर क्या था, चमचा था। उसमें कुशल भी है। और नवाबों को तो जरूरत होती है।
दोनों साथ खाना खाने बैठे, नई-नई भिंडी बाजार में आई है, भिंडी बनी है। नवाब ने कहा कि बड़ी स्वादिष्ट बनी है। मुल्ला ने कहा: स्वादिष्ट होगी ही, भिंडी से ऊंची कोई सब्जी ही दुनिया में नहीं है। यह तो रानी है रानी! इसमें तो बड़े गुण हैं। वनस्पतिशास्त्री क्या-क्या कहते हैं, यह सब उसने बताया, कि भिंडी में कितने-कितने गुण हैं, और भिंडी कितनी अदभुत है, कितनी स्वास्थ्यदायी है--भिंडी अमृत है! जब आदमी अतिशयोक्ति करता है तो फिर कोई कंजूसी तो करता नहीं। सम्राट ने सुना। सम्राट के रसोइए ने भी सुना। फिर उसने दूसरे दिन भी भिंडी बनाई। फिर तीसरे दिन भी भिंडी बनाई। जब सातवें दिन फिर भिंडी बनाई तो सम्राट ने थाली फेंक दी कि भिंडी, भिंडी, भिंडी, क्या मेरी जान लेना है? मुल्ला ने कहा कि यह खतरनाक है आदमी, यह मार डालेगा आपको, भिंडी जहर है। इससे बदतर तो कोई चीज नहीं, यह तो जानवरों को भी नहीं खिलानी चाहिए। नवाब ने कहा: हद्द हो गई नसरुद्दीन, तुम तो कहते थे अमृत है; अब कहने लगे जहर है। नसरुद्दीन ने कहा: हुजूर, मैं भिंडी का नौकर नहीं, आपका नौकर हूं। जो आप कहें, मैं तो उसी की प्रशंसा के पुल बांधूंगा।
वह जो पंडित है, तुम्हारा नौकर है, उसका ऋषियों से कुछ लेना-देना नहीं है। ऋषियों से तो सिर्फ ऋषियों का ही लेना-देना हो सकता है। और किसी की लेन-देन हो भी नहीं सकती। जो उस चैतन्य की दशा में पहुंचे हैं, वही उसका ठीक अर्थ कर सकते हैं। क्योंकि वह अर्थ शब्दों में नहीं छिपा है, अनुभव में छिपा है। जिन्होंने प्रेम जाना है, वे प्रेम का अर्थ करेंगे। और जिन्होंने परमात्मा जाना है, वे परमात्मा का अर्थ करेंगे। लेकिन जिन्होंने केवल प्रेम शब्द पढ़ा है और परमात्मा शब्द सुना है, वे भी अर्थ कर सकते हैं; मगर वह अर्थ शब्द का ही होगा। इसलिए भूल हो रही है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आखिरी सवाल। सवाल भी आप, जवाब भी आप, पूछने वाले भी आप, उत्तर देने वाले भी आप; यह कैसी लीला? मैं तो यहां से भाग ही जाऊंगी। बहुत खुश होकर तीस तारीख को जा रही हूं। हमेशा आपके चरणों में मुझे रख लेना।
योगिनी! अब भाग न पाओगी। और भाग कर जाओगी कहां? मैं पीछा करूंगा। मैं पीछे-पीछे आऊंगा। मैं छाया की तरह। एक बार किसी ने मुझसे संबंध जोड़ा तो फिर भागने का उपाय नहीं है। फिर मैं तुम्हारे सपनों में उतरूंगा, तुम्हारी नींद को झकझोरूंगा, तुम्हारे भावों में तैरूंगा। मैं तुम्हारी स्मृति बन जाऊंगा। मैं तुम्हारी कल्पना बन जाऊंगा। बचने का कोई उपाय नहीं है, योगिनी! भागने का कोई उपाय नहीं है। भागने का मन भी होता है, यह भी मैं जानता हूं। घबड़ाहट भी लगती है। यह प्रेम बड़ा है। इसमें डूबे तो डूबे। यह मझधार में डूबना है।
लोग तो उतरने आए हैं और मैं उन्हें डुबाता हूं। लोग सोच कर आए थे उस पार जाना है और मैं कहता हूं--मझधार के अतिरिक्त और कोई पार नहीं है! मझधार तक समझा-बुझा कर ले आता हूं कि चल रहे हैं उस पार--वह केवल समझाना है, योगिनी--जब मझधार आ जाती है, तो मैं कहता हूं--आ गई जगह, अब लगाओ डुबकी, अब डूबो, अब मिटो! वह तो प्रलोभन है केवल। वे तो किनारे को पकड़े हुए लोग हैं, वे वह किनारा छोड़ नहीं सकते, उनको दूसरे किनारे की पूरी की पूरी आस्था दिलानी पड़ती है कि दूसरा किनारा है, इससे भी बड़ा सुंदर किनारा है, वहां सोने-चांदी के फूल खिलते हैं, वहां हीरे-जवाहरात कंकड़ों की तरह पड़े हैं, वहां हजार-हजार सूरज निकले हुए हैं, वहां अमृत की वर्षा हो रही है। वह तो दूसरे किनारे के सब्जबाग दिखाने पड़ते हैं, नहीं तो तुम इस किनारे को छोड़ने को राजी नहीं, तुम कहते हो--फिर हम जाएं क्यों? यहीं ठीक हैं, क्षणभंगुर फूल हैं मगर खिलते तो हैं; सोने-चांदी के नहीं, मगर क्या फिकर!
लेकिन एक बार तुम चल पड़े मेरे साथ, तो बीच मझधार में पहुंच कर मैं तुमसे कहता हूं--कोई किनारा नहीं। और लौट कर जाने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जो मझधार में आ गया, वह किनारा भी खत्म हो गया उसका जो छोड़ चुका है। वह भी सपने में था, वह तो टूट चुका। और दूसरा किनारा एक कांटे की तरह था। एक कांटा तुम्हारे पैर में लगा था, दूसरा कांटा हम लाए कि तुम्हारे पैर में लगे कांटे को निकाल लें। फिर दोनों को फेंक देना है। दोनों किनारे छूट जाते हैं, मझधार में आदमी डूबता है। और जो मझधार में डूब गए, वे धन्यभागी हैं। क्योंकि वही तरे, वही तिरे। जो डूबे, वही तिरे।
जीसस का अदभुत वचन है: मिटोगे तो पाओगे।
पूछा है: ‘आखिरी सवाल।’
आखिरी कोई सवाल हो नहीं सकता, लगता है बहुत बार कि आखिरी सवाल आ गया। एक सवाल से दूसरा सवाल पैदा हो जाता है। सवाल से न पैदा हो तो जवाब से पैदा हो जाएगा। मगर आखिरी नहीं हो पाता। तुमने कुछ पूछा, तुम्हें लग रहा था कि आखिरी है, अब और कुछ पूछने को नहीं बचा, लेकिन मैं कुछ कहूंगा उत्तर में, उसमें से दस सवाल उठ आएंगे। हर उत्तर नये प्रश्न जन्मा जाता है।
आखिरी सवाल तो उस दिन होगा जब तुम पूछोगे ही नहीं। जब तुम्हें समझ में आ जाएगा कि हर सवाल जवाब बनता है, हर जवाब नये सवाल बन जाता है। जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाएगा, पूछना छूट जाएगा; निष्प्रश्न मेरे पास बैठे होओगे; बस यहां मैं, वहां तुम; और धीरे-धीरे न मैं यहां, न तुम वहां, खो गए दोनों, एक लय बंधी, एक तार जुड़ा, एक संगीत उठा। उस उपस्थिति में सारी उपलब्धि है।
ये सवाल-जवाब तो सब बहाने हैं। यह तो तुम्हें यहां उलझाए रखने की व्यवस्था है। तुम शायद अभी तैयार नहीं हो कि खाली-खाली यहां बैठ सको रोज-रोज। एकाध दिन बैठ सको, रोज-रोज न बैठ सकोगे। चुपचाप मेरे पास बैठ सको, तो कहने की जरूरत नहीं है; क्योंकि जो कहना है मुझे, कहा नहीं जा सकता और जो मैं कह रहा हूं, उसे कहने की कोई जरूरत नहीं है। मगर तुम चुप न बैठ सकोगे। तुम्हारे चंचल मन के लिए कुछ चाहिए जिससे वह खेलता रहे। ये शब्द खिलौने हैं। जैसे छोटा बच्चा ऊधम करता है, उपद्रव मचाता है, उसको खिलौना दे देते हैं, वह खिलौने में लीन हो जाता है; ऐसा तुम्हारा मन है, चंचल है, उपद्रवी है, तुम्हें कुछ शब्द देता हूं, शब्द खिलौने हैं, तुम्हारा मन उनसे उलझ जाता है। इधर तुम्हारा मन उलझा रहता है, वहां असली काम किनारे-किनारे चल रहा है, परोक्ष में चल रहा है। मन उलझा है, तुम मेरे करीब सरक रहे हो, मैं तुम्हारे करीब आ रहा हूं। धीरे-धीरे यह राज तुम्हें समझ में आ जाएगा।
इसीलिए तो तुम देखते हो कि बहुत लोग जो हिंदी नहीं समझते, वे भी सुनने बैठे हैं। तुम सोचते भी हो कभी-कभी कि ये लोग क्या सुन रहे हैं? इनको राज समझ में आ गया है कि सवाल सुनने का नहीं है, सवाल गुनने का है; सवाल सुनने का नहीं है, सवाल साथ होने का है, सत्संग का है। तो मैं क्या कह रहा हूं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। किस भाषा में कह रहा हूं , इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता लेकिन कुछ मेरी मौजूदगी कह रही है, जो अभाष्य है, जो भाषातीत है, वे उस मौजूदगी को पी रहे हैं। उसी मौजूदगी को तुम जब पीने लगोगी, फिर सवाल आखिरी आया। नहीं तो सब सवाल नये जवाब, नये सवालों की श्रृंखला, सिलसिला शुरू करते हैं।
तुम पूछती हो: ‘आखिरी सवाल। सवाल भी आप, जवाब भी आप, पूछने वाले भी आप, उत्तर देने वाले भी आप; यह कैसी लीला?’
क्योंकि एक ही है, दो हैं नहीं, दो हमारी भ्रंाति है। और यहां तुम्हें इसकी प्रतीति हो जाए, इसीलिए रुका हूं, इसीलिए ठहरा हूं तुम्हारे पास कि तुम्हें इस बात की प्रतीति हो जाए कि सवाल और जवाब दो के नहीं हैं; बोलने वाला और सुनने वाला यहां दो नहीं हैं, यहां सुनने वाला और बोलने वाला एक ही है। धीरे-धीरे यह भाव उमगेगा, प्रगाढ़ होगा, गहरा जाएगा। और जैसे-जैसे यह भाव गहरा जाएगा, तुम चकित होकर जागोगे कि दो तो कभी भी न थे।
यहां मैं और तू नहीं हैं। जहां मैं-तू खो जाते हैं, फिर जो शेष रह जाता है--वह--वही है। रसो वै सः। वही रसधार है। उसी की तलाश है। उसी की खोज है।
यह कोई व्याख्यान नहीं हो रहा है यहां। यह सत्संग है। उसके रस को हम कैसे अपने में स्वीकार कर पाएं, इसकी आयोजना हो रही है। यह आयोजना वैसी है जैसे कभी तुम शास्त्रीय संगीत सुनने गए? तो घड़ी-आधा घड़ी तो संगीतज्ञ अपने वाद्य को ही बिठाने में समय लगा देता है। साज जमाता रहता है। इधर तार कसता, उधर ढीला करता, इधर तबले को ठोकता, उधर तबले को ठोकता। जो लोग शास्त्रीय संगीत नहीं जानते, उनको बड़ी हैरानी होती है कि घर से ही ठोक-पीट कर क्यों नहीं ले आते? यहीं बैठ कर यह खटर-पटर क्यों मचाते हो? लेकिन जिन्हें पता है वे जानते हैं कि तार ताजे-ताजे कसने होते हैं; बासे हो जाते हैं नहीं तो। बासे हो जाते हैं, फर्क पड़ जाता है। प्रतिपल ताजे होने चाहिए। वहीं तुम्हारे सामने बैठ कर--बड़ा बेहूदा लगता है, कि ठोकने लगे, तार कसने लगे, ढीले करने लगे; यह पर्दे के पीछे ही कर लेते, यह घर से ही कर लाते। नहीं, यह नहीं हो सकता। शास्त्रीय संगीत जीवंत संगीत है। जैसे जीवन प्रतिपल नया है और प्रतिपल तैयार करना होता है, प्रतिपल जीना होता है, ऐसे ही। घड़ी-आधा घड़ी इसी में लगा देता है संगीतज्ञ। कभी-कभी तो बड़ी भूल-चूक हो जाती है।
ऐसा हुआ लखनऊ में नवाब वाजिद अली के जमाने में।
एक अंग्रेज गवर्नर उसके यहां संगीत सुनने आया। वाजिद अली बड़ा प्रेमी था संगीत का। उसके पास बड़े-बड़े संगीतज्ञ थे। उसने अपने बड़े से बड़े संगीतज्ञों को निमंत्रित किया--गवर्नर आया था। बैठे संगीतज्ञ, बैठक जमी, महफिल बैठी। अब संगीतज्ञ लगे ठोकने--कोई अपना तबला ठोक रहा है, कोई अपनी सारंगी जमा रहा है, कोई अपना सितार कस रहा है! आधी घड़ी बीत गई, गवर्नर ने कहा कि मुझे बड़ा आनंद आ रहा है, यही संगीत जारी रहे। उसे कुछ पता तो है नहीं, वह तो इस ठोकने-पीटने को समझा कि संगीत है--यही संगीत जारी रहे! वाजिद अली तो पागल था, उसने कहा, फिर यही जारी रहे। उसने आज्ञा दे दी कि यही करते रहो। तीन घंटे तक यही जारी रहा। और गवर्नर बड़ा संतुष्ट गया।
तुम खयाल रखना कि जो मैं बोल रहा हूं, यह तो केवल तारों का कसा जाना है। तुम उस अंग्रेजी गवर्नर जैसी मूढ़ता मत कर लेना, इसी को संगीत मत समझ लेना; यह तो केवल साज बिठाया जा रहा है। और जब साज बैठ जाता है, तो फिर चुप्पी है। और वही चुप्पी संगीत है। शब्द ही मत सुनना, शब्दों के बीच में जो अंतराल है उन्हें सुनना। जो मैं कह रहा हूं, वही मत सुनना; जो मैं हूं, उसे सुनना। जो मैं नहीं हूं, उसे सुनना। शून्य को पकड़ना, मौन को पकड़ना। ये जो उत्तर मैं दे रहा हूं, यह तो केवल साज बिठाया जाना है।
रवींद्रनाथ मरते थे। तो उनके एक मित्र ने कहा कि तुम तो धन्यभागी हो! तुमने छह हजार गीत लिखे। इससे बड़ा महाकवि पृथ्वी पर कभी हुआ नहीं। इंग्लैंड में लोग शैली को महाकवि समझते हैं, उसने भी दो हजार गीत लिखे हैं, तुमने छह हजार लिखे। और ऐसे गीत लिखे कि सब संगीत में बंध जाते हैं। तुम्हें तो आनंद से जाना चाहिए। तुम्हारी आंख में आंसू क्यों हैं? रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा: आंसू इसलिए हैं कि मैं परमात्मा से शिकायत कर रहा हूं कि अभी तो मेरा साज ही बैठ पाया था, अभी असली गीत गाया कहां? अभी तो ठोक-पीट कर रहा था। ये छह हजार गीत तो बस साज बिठाने में लिखे हैं। अब जरा बैठ रहा था, बैठने के करीब आ रहा था और यह विदा का क्षण आ गया। अब ऐसा लगता था कि शायद गा पाऊंगा जो गाने आया था, करीब आ रही थी बात, जबान पर आ रही थी बात और जाने का वक्त आ गया; यह क्या मजाक है! अब तो तैयार हो रहा था, अब तो वीणा कस गई थी, संगीत उतरने ही उतरने को था।
जो मैं कह रहा हूं, वह तो केवल वीणा का कसना है। जो अनकहा छोड़ा जा रहा है, वही असली संगीत है। उसे सुनो। उसी में डूबो। वही रस है। वही परमात्मा है।
पूछा है: ‘बहुत खुश होकर तीस तारीख को जा रही हूं, हमेशा आपके चरणों में मुझे रख लेना।’
रख लिया। तेरा हृदय यहीं रखे ले रहे हैं। संन्यास का यही अर्थ है कि तुम्हारा हृदय ले लेता हूं और मेरा हृदय तुम्हें दे देता हूं। इस लेन-देन का नाम संन्यास है। इस संवाद का नाम संन्यास है।
आज इतना ही।
भगवान, कल रात दर्शन के समय जब आपने एक संन्यासी को कहा कि मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं, और उसके मुख के सामने अपना हाथ फैलाया, उस पर दृष्टिपात किया, तो मेरे भीतर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। रोआं-रोआं कुछ कहने लगा, आंखें अश्रुकण बरसाने लगीं, भीतर एक वाक्य गूंजा--या इलाही, यह माजरा क्या है?
शुक्ला! मैं तुम्हारा भी स्वागत करता हूं। मैं सबका स्वागत करता हूं। मैं स्वागत हूं। मैं देने को राजी हूं, बस तुम्हारी लेने की तैयारी चाहिए। तुम देने में ही कृपण नहीं हो गए हो, तुम लेने में भी कृपण हो गए हो। कृपणता की आखिरी सीमा वही है जब आदमी लेने में भी कृपण हो जाता है।
मैं देना चाहता हूं। क्योंकि जो मुझे मिला है, वह बंटने को आतुर है। पर हर किसी को नहीं दिया जा सकता। किसी पर थोपा नहीं जा सकता। यह संपदा ऐसी नहीं है कि किसी को जबर्दस्ती दी जा सके। जो लेने को तत्पर हैं, आतुर हैं, प्यासे हैं, बस वे ही केवल इसके मालिक हो सकते हैं। लेकिन आदमी लेने में भी डरता है। कई कारण हैं डरने के।
पहला तो कारण यह है कि लेने में अहंकार को चोट लगती है। तो कई बार तो ऐसा हो जाता है, देने में आदमी राजी हो जाए, लेने में राजी नहीं होता। क्योंकि लेने में लगता है--मैं और लूं? सिकुड़ता है अहंकार, अहंकार हाथ खींच लेता है। अहंकार लेने में प्रतिरोध करता है। तो जिन्होंने अहंकार छोड़ा है, केवल वे ही ले सकेंगे।
मैं तो द्वार हूं लेकिन केवल वे ही पार हो सकेंगे जो अहंकार को द्वार पर ही छोड़ देने को राजी हों, द्वार के बाहर ही छोड़ देने को राजी हों।
दूसरा, लेने में भय लगता है, क्योंकि जो मैं तुम्हें दे रहा हूं वह अनजाना है, अपरिचित है। उसे तुमने कभी देखा नहीं, सुना नहीं। उससे तुम्हारा कोई संबंध कभी बना नहीं। यद्यपि जो मैं तुम्हें दे रहा हूं, वह तुम्हारा ही स्वभाव है। मैं तुम्हें कोई नई बात नहीं दे रहा हूं। जो तुम्हें मिला ही हुआ है, उसकी ही प्रत्यभिज्ञा दे रहा हूं, उसकी ही पहचान दे रहा हूं। मेरे हाथ से तुम्हारे हाथ में कुछ जाने वाला नहीं है। तुम्हारे प्राणों में जो पड़ा है, वही जाग जाने वाला है। यह देना देने जैसा नहीं है, जगाने जैसा है। बीज हो तुम। मुझे मौका दो तो अंकुरित हो जाओ।
जिस दिन तुम्हारे फूल खिलेंगे, उस दिन ऐसा नहीं होगा कि किसी ने कुछ दिया--तुमने लिया जरूर और किसी ने कुछ दिया नहीं; प्रत्यभिज्ञा आई, पहचान आई; जो पड़ा ही था हीरा तुम्हारे प्राणों में, वह दिखाई पड़ा। हीरा तो तुम्हारे पास है, आंख तुम्हारी बंद है। जो मैं दे रहा हूं, उससे तुम्हारी आंख खुलेगी लेकिन तुम्हारी बंद आंख के साथ बहुत से सपने जुड़ गए हैं और आंख खोलने में तुम्हें डर है कि कहीं सपने न टूट जाएं। सपने टूटेंगे। सत्य को जिसे लेना है, उसे सपनों को तोड़ने की क्षमता रखनी पड़ेगी। उतना साहस, उतना जोखम चाहिए। इससे भय होता है कि प्यारे-प्यारे सपने चल रहे हैं, कहीं ये टूट न जाएं, कहीं ये खंडित न हो जाएं, कहीं ये स्वप्न भंग न हो जाएं। मूंदे रहो आंखें, बंद रखो आंखें, जीते रहो अपने सपनों में। पर सपने कहां ले जाएंगे? सपने सपने हैं। आज नहीं कल जागना ही पड़ेगा।
और अच्छा हो कि किसी ऐसे व्यक्ति के पास जाग जाओ जहां से कोई धार तुम्हारी तरफ बहने को आतुर है। धार को अगर तुम अपने भीतर समा लो, तुम्हारा बीज अभी टूट जाए। जब मैं तुमसे कहता हूं तुम्हारा स्वागत है, तो मैं तुम्हें एक निमंत्रण दे रहा हूं, मेरे साथ यात्रा पर आने का। लंबी है यह यात्रा, क्योंकि परमात्मा की यात्रा है, तीर्थयात्रा है। और कठिन भी है। पहाड़ की चढ़ाई है, उतार नहीं। और तुम्हें सारा बोझ छोड़ना पड़ेगा। क्योंकि जैसे-जैसे पहाड़ पर कोई चढ़ता है, वैसे-वैसे बोझ कम करना पड़ता है। अपने को ही लेकर पहुंचा जा सकता है। और तो सब छोड़ देना होगा। भय लगता है--सब छोड़ देना! जिसको संपदा माना, जिसको अब तक सब-कुछ जाना--ज्ञान, धर्म, मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान, सब छोड़ देना है! तो मैं तो स्वागत करता हूं, लेकिन तुम सिकुड़ जाते हो।
पूछा तुमने कि जब आपने कहा--‘मैं तुम्हारा स्वागत करता हूं, तो मेरे भीतर तीव्र प्रतिक्रिया हुई।’
शुभ हुआ। होना ही चाहिए। जो जीवित है, उसे होगी ही। पुकार आएगी तो जो सुन सकता है उसके कान झनकार से भरेंगे ही। सिर्फ बहरे वंचित रह जाएंगे। सूरज निकेलगा तो जिसके पास आंखें हैं वह सुबह की किरणों से आह्लादित होगा ही। प्रतिसंवेदना होगी ही। सिर्फ तुमने शब्द गलत उपयोग किया है--अनजाने किया होगा, तुम्हें प्रतिक्रिया और प्रतिसंवेदना का शायद भेद समझ में नहीं है। प्रतिक्रिया नहीं है वह, प्रतिसंवेदना है। दोनों में फर्क है। भाषाकोश में तो दोनों का एक ही अर्थ लिखा है, इसीलिए शुक्ला से यह भूल हो गई। लेकिन जीवन के कोश में बड़ा भेद है।
प्रतिक्रिया का अर्थ होता है: बंधा-बंधाया। जैसा तुमने सदा किया था, जो तुम सदा से करने की आदत बना लिए हो, जब वही होता है तो वह प्रतिक्रिया। जैसे किसी ने पूछा कि ईश्वर है? और तुम सदा कहते रहे हो कि हां, है--क्योंकि आस्तिक घर में पैदा हुए, वही उत्तर तुम्हें सिखाया गया। उत्तर है कोरा, तुम्हें ईश्वर का कुछ पता नहीं है; झूठा है तुम्हारा उत्तर, लेकिन भरोसा रख कर चलते रहे हो, विश्वास करते रहे हो। झूठ को बहुत बार दोहरा लेने से सच जैसा मालूम होने लगता है। भूल ही जाता है कि शुरुआत में झूठ था। किसी ने कहा है--पिता ने कहा, मां ने कहा, गुरु ने कहा--किसी ने कहा है, कहीं से सुन लिया है कि ईश्वर है। आज किसी ने पूछा: ईश्वर है? और तुमने कहा: हां, ईश्वर है। यह प्रतिक्रिया। लेकिन किसी ने पूछा: ईश्वर है? और तुम अपने भीतर उतरे, और तुमने झांका, और तुमने टटोला, और तुमने पहचानने की कोशिश की कि मैं ईश्वर को जानता हूं? कोई दरस-परस हुआ है? मेरी कोई पहचान है? कभी मेरी आंख में उसकी रोशनी पड़ी? मैंने उसकी आभा देखी? उसका सौंदर्य देखा? उसकी गरिमा से कभी मैं आप्लावित हुआ हूं? कभी उसका नृत्य मेरे हृदय में उतरा है? कभी मैंने उस गीत को सुना है जिसका नाम ईश्वर है? और सब सन्नाटा हो गया, क्योंकि तुमने वह गीत सुना नहीं। और तुमने आंख खोली और कहा--मुझे पता नहीं। यह प्रतिसंवेदना है, प्रतिक्रिया नहीं। यह सजग उत्तर है। यह सहज उत्तर है।
प्रतिक्रिया का अर्थ होता है, एक बंधी हुई लकीर। प्रतिसंवेदना का अर्थ होता है, उस क्षण में ही चुनौती का स्वीकार और चुनौती का वैसा-वैसा उत्तर जैसा चेतना से उठे। प्रतिक्रिया आती है स्मृति से, प्रतिसंवेदना आती है चेतना से।
मैं कल शुक्ला को देख रहा था, कुछ जरूर हुआ है। प्रतिक्रिया नहीं थी वह, प्रतिसंवेदना थी। क्योंकि मैंने जब किसी के स्वागत के लिए कहा, तो उसी में तुम्हारा स्वागत भी सम्मिलित है। जो मैं एक से कह रहा हूं, वह एक से ही थोड़े कह रहा हूं, अनेक से कह रहा हूं। एक तो बहाना है। जिससे कहा वह तो बहाना मात्र था, निमित्त मात्र था। जिसके पास भी कान हैं सुनने के, वह सुन लेगा। और जिसके पास भी आंख है, वह देख लेगा। और जिसके पास भी हृदय है वहां संवेदना होगी। वैसी संवेदना हुई, तुम्हारा रोआं-रोआं कंपा, मैंने देखा तुम्हारे रोएं-रोएं को कंपते। मैं आह्लादित हुआ।
जब भी मैं किसी संन्यासी के रोएं-रोएं को कंपते देखता हूं तो खूब आह्लादित होता हूं। वसंत आ गया। अब फूल खिलने में ज्यादा देर न होगी। वीणा कस कर तैयार हो गई, अब चोट पड़ने की बात है और झंकार उठेगी।
शुक्ला ने कहा है: ‘रोआं-रोआं कुछ कहने लगा, आंखें अश्रुकण बरसाने लगीं, भीतर एक वाक्य गूंजा--या इलाही!’
यह प्रतिसंवेदना है, प्रतिक्रिया नहीं। ऐसा पहले तो कभी हुआ ही नहीं था तुम्हें, यह अनुभव अनूठा था, इसलिए प्रतिक्रिया तो हो नहीं सकती। प्रतिक्रिया तो अतीत के अनुभव से होती है। यह तो इतना नया था--यह रोमांच, यह रोएं-रोएं का कंपना, ये आंखों से आंसुओं का झर जाना, ये आंसू तुम्हारे पुराने परिचित आंसू नहीं हैं। यद्यपि यह सच है कि अगर तुम चिकित्सक के पास जाकर आंसुओं की जांच करवाओगे, कोई रासायनिक जांच करवाओगे तो पुराने आंसू और इन आंसुओं में कोई भेद न होगा। लेकिन अनुभवी से पूछो--एक दुख का भी आंसू होता है, एक सुख का भी आंसू होता है। मगर उस भेद को रसायनशास्त्र के द्वारा पकड़ा नहीं जा सकता। वह भेद आध्यात्मिक है। तुम जब दुख में रोते हो तब भी आंसुओं का स्वाद वही होता है रासायनिक तल पर--खारा। और जब तुम आनंद में रोते हो तब भी आंसुओं का स्वाद वही होता है--खारा। लेकिन भीतर एक और स्वाद है जो मीठा हो गया है। वह स्वाद तो भीतर से ही पकड़ में आता है। उसे बाहर से पकड़ने का कोई उपाय नहीं।
कल तेरी आंखों में शुक्ला जो आंसू आ गए वे भी नये थे। वे किसी दुख के कारण नहीं आए थे। वे किसी अपूर्व द्वार के खुल जाने के कारण आए। भीतर गहरी चोट लगी। तेरे तार-तार झनझना गए। कुछ सोया जगा। कुछ बंद आंख खुली। कोई कली चटकी। उस उत्सव में आंसू बहे। और जब उत्सव में आंसू बहते हैं तो उनसे सुंदर इस पृथ्वी पर और कुछ भी नहीं। जब उत्सव में आंसू बहते हैं तो आंसू इस पृथ्वी के होते हैं और नहीं होते। पारलौकिक होते हैं। उन आंसुओं की कीमत मोतियों से बहुत ज्यादा है। मोती कुछ भी नहीं हैं। क्योंकि उन आंसुओं में कहीं स्वाद परमात्मा का आना शुरू हो जाता है। इसीलिए तो भक्त खूब रोए हैं। जी भर कर रोए हैं। भक्तों ने रोने को प्रार्थना बना लिया है। क्योंकि भक्तों को एक बात समझ में आ गई--जहां शब्द नहीं पहुंचते, वहां आंसू पहुंच जाते हैं। जहां पुकार नहीं पहुंचती, चिल्लाना नहीं पहुंचता, वहां मौन आंसू पहुंच जाते हैं।
आंसुओं की गति बड़ी तीव्र है। आंसुओं की गति ऐसी है जैसी किसी और चीज की गति तुम्हारे भीतर नहीं है। आंसुओं पर सवार हो जाओ तो परमात्मा बहुत दूर नहीं है। विचारों पर सवार रहे तो अनंत दूर है। उपनिषद कहते हैं: वह परमात्मा दूर भी है और पास भी। यह बात तो विरोधाभासी मालूम पड़ती है--दूर भी और पास भी। दूर है, अगर विचारों पर चढ़ कर चले। पास है, अगर भाव पर चढ़ कर चले। आंसू यानी भाव।
अतर्क था जो हुआ। अतर्क था इसीलिए प्रश्न उठा है। क्योंकि शुक्ला बूझ नहीं पाई। सोच-विचार वाली स्त्री है। सोचा होगा, क्या हुआ? क्यों हुआ? ऊहापोह किया होगा और पकड़ में कुछ भी न आया, क्योंकि बुद्धि के बाहर कुछ हुआ, बुद्धि से गहरा कुछ हुआ, बुद्धि के पार कुछ हुआ। इसीलिए प्रश्न उठा।
अब ध्यान रखना जब बुद्धि के पार कुछ हो, बुद्धि से गहरा कुछ हो, तो उसे स्वीकार कर लेना। उसका विश्लेषण मत करना। उसे अंगीकार कर लेना। क्योंकि जीवन में कुछ चीजें हैं जो विश्लेषण करने से मर जाती हैं। जैसे फूल खिला बगीचे में--गुलाब का फूल खिला, प्यारा फूल खिला--और तुम्हारे मन में उठा इस सौंदर्य का विश्लेषण करें, यह सौंदर्य क्या है? तो क्या करोगे? पंखुड़ियां तोड़ लोगे फूल की, खोजने लगोगे सौंदर्य कहां है, सौंदर्य कहां छिपा बैठा है, उसके मूल उदगम को पकड़ लूं। या ले जाओगे वैज्ञानिक के पास और फूल की वह जांच-पड़ताल करके रख देगा। वह बता देगा कि कितना इसमें मिट्टी है, कितना इसमें पानी है, कितना सूरज, कितनी हवा, सब छांट कर पांचों तत्व रख देगा कि यह-यह इसमें है। और तुम उससे अगर पूछोगे--सौंदर्य कहां है? तो वह कहेगा--सौंदर्य तो इसमें कहीं पाया नहीं। ये-ये पांच तत्व इसमें थे, वे सामने रख दिए हैं। और इसके अतिरिक्त इसमें कुछ भी नहीं था। वजन चाहो तो तोल लो, इन पांचों तत्वों का वजन उतना ही है जितना फूल का था।
वैज्ञानिक सौंदर्य को इनकार करता है। क्यों? क्योंकि उसके विश्लेषण में सौंदर्य नहीं आता। यह ऐसा ही है जैसे एक नाचते-कूदते गीत गाते बच्चे को तुमने देखा और काट-पीट कर बच्चे का गीत खोजना चाहा कहां है, नाच कहां है, इसकी आत्मा कहां है? तोड़ दिए अंग, उखाड़ दिए हाथ, काट दी गर्दन, चीर-फाड़ की। सब खो जाएगा; हाथ में हड्डी-मांस-मज्जा रह जाएगी। वजन उतना ही होगा जितना नाचते, प्रफुल्लित होते, हंसते बच्चे का था--उतना ही वजन होगा। लेकिन कुछ कमी हो गई। अब न तो हंसी है, न नाच है। अब जीवन नहीं है, यह मुर्दा लाश है। विश्लेषण हर चीज को मार डालता है। विश्लेषण मरी चीजों पर बिलकुल काम करता है, ठीक काम करता है, लेकिन जिंदा चीजों को मार डालता है। इसलिए किसी जिंदा चीज का विश्लेषण मत करना।
आदमी ने विश्लेषण कर-कर के खूब तकलीफ पा ली है। परमात्मा का विश्लेषण किया, मार डाला। आत्मा का विश्लेषण किया, मार डाला। सौंदर्य का विश्लेषण किया, मार डाला। प्रेम का विश्लेषण किया, मार डाला। प्रार्थना गई, सब गया, जो भी बहुमूल्य था चला गया, आदमी के हाथ में कूड़ा-करकट रह गया, क्योंकि विज्ञान केवल कूड़े-करकट को ही सिद्ध कर सकता है। मुर्दा को सिद्ध कर सकता है। जीवन उसकी पकड़ के बाहर है। उसके जाल में जीवन नहीं आता। जीवन बड़ा सूक्ष्म है। मोटी-मोटी बातें पकड़ में आ जाती हैं विज्ञान के, सूक्ष्म बातें छूट जाती हैं। और सूक्ष्म बातें ही मूल्यवान हैं।
तो तेरे मन को ऐसा हुआ होगा--क्या हुआ? बाद में नहीं, उसी समय हो गया, इसलिए सवाल उठा--या इलाही, यह क्या माजरा है? क्योंकि मैं किसी और को कह रहा हूं कि तेरा स्वागत है और सुनाई तुझे पड़ गया। मैंने किसी और को कहा है और तेरे भीतर गूंज हो गई। तार मैंने किसी और के हृदय के छेड़ने चाहे थे और तेरे तार छिड़ गए। हाथ मेरे किसी और के हृदय पर फैले थे और तेरे हृदय पर चले गए। इसलिए उठा सवाल--या इलाही, यह क्या माजरा है? क्योंकि न मुझे कहा गया है, न मेरी तरफ इशारा है, न इंगित है, न मेरी तरफ आंख है, यह मुझे क्या हो रहा है? मैं क्यों रोमांचित हो उठी हूं? मेरा रोआं-रोआं क्यों आनंदमग्न हुआ? ये मेरी आंखें क्यों तर हो गयीं? ये आंसू मेरे क्यों बहे? उसी क्षण विचार आ गया। विचार से सवाल उठा--या इलाही, यह क्या माजरा है? तू थोड़ी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। आदमी जिस-जिस बात को समझ लेता है, उससे परेशान नहीं होता। क्योंकि जिसको हमने समझ लिया, उसके हम मालिक हो गए। उस पर हमारी मुट्ठी बंध गई। जिसको हम नहीं समझ पाते, उससे बेचैनी हो जाती है। क्योंकि वह हमसे बड़ा, और हमसे दूर और रहस्यमय। आदमी की जिज्ञासा यही है। आदमी की जिज्ञासा के पीछे मालकियत की दौड़ है।
तुम छोटे-छोटे बच्चों को देखते हो या बड़े-बूढ़ों को? सब बराबर एक जैसे हैं--छोटा बच्चा चला जा रहा है, देखता है एक चींटा जा रहा है, उसको जल्दी मार डालता है। वह क्या कर रहा है? बड़ा वैज्ञानिक है बच्चा। वह मार कर यह देख रहा है कि माजरा क्या है? या इलाही, यह चींटा चल रहा है! कौन चला रहा है इसे? कहां से यह गति आ रही है? तुम यह मत समझना कि बच्चा कोई हिंसा कर रहा है, कि चींटे से कोई दुश्मनी है।
तितली पकड़ ली। यह उड़ी जाती थी। यह उड़ती तितली बच्चे के लिए चुनौती है। उसे पकड़ेगा तो ही मान पाएगा। भागा, दौड़ा, पकड़ा; पकड़ कर बड़ा खुश होता है। फिर तोड़ डाले उसके पर। अब वह देखने चला--जिज्ञासा--देखने चला कि भीतर क्या छिपा है? बच्चा अकेला घर में छूट जाए, घड़ी खोल लेता है कि भीतर जो टिक-टिक हो रही है, वह क्या है? वैज्ञानिक में और इस बच्चे में कुछ भेद नहीं है। विज्ञान बड़ा बचकाना है। और हमारी सारी बुद्धि के व्यायाम बस जिज्ञासा के व्यायाम हैं।
कुछ हुआ था अपूर्व, तेरी बुद्धि नहीं समझ पाई। समझ नहीं सकती है। तेरी बुद्धि का वह काम नहीं। इसलिए प्रश्न उठ आया। इसलिए सोचा होगा कि पूछ लेना चाहिए।
खयाल रखो, मेरे पास हो तो ऐसा बहुत कुछ घटेगा, रोज-रोज घटेगा, उसको स्वीकार करना सीखो, अंगीकार करना सीखो। बुद्धि से व्याघात न करो। बुद्धि को बीच में मत लाओ। तर्क न करो, विश्लेषण न करो, खंडन मत करो, तोड़ो मत चीजों को। तोड़ने में सब बिखर जाता है। अहोभाव से आंख बंद करके स्वीकार कर लो। समा जाओ, उन घटनाओं को तुममें समा जाने दो। आत्मसात कर लो। बुद्धिसात करने की कोशिश मत करो, आत्मसात कर लो। रहस्य को रहस्य ही रहने दो। जरूरत नहीं है कि हम रहस्य को जानें ही। जानना आवश्यक नहीं है। सच तो यह है कि जानने ने ही आदमी को बड़ी मुश्किल में डाला। जितना आदमी जानने लगता है उतना ही उसके जीवन से धर्म तिरोहित हो जाता है।
तुम देखते नहीं, शिक्षित आदमी अधार्मिक होने लगता है। विश्वविद्यालय से लौटता है विद्यार्थी तो अधार्मिक होने लगता है। जितनी दुनिया शिक्षित होती जाती है उतनी अधार्मिक होती जाती है। क्या कारण होगा? शिक्षा एक तरह की विधि देती है, चिंतन की, मनन की, विचार की, विश्लेषण की। शिक्षा तर्क का शास्त्र देती है। और इतना बल देती है पच्चीस साल तक तर्क के शास्त्र पर कि पचहत्तर साल की जिंदगी में एक तिहाई तो तर्क के शास्त्र को समझने में बीत जाता है। फिर तर्क गहरा बैठ जाता है। फिर तुम हर चीज को तर्क से ही पकड़ने में लग जाते हो। और जब कोई चीज पकड़ में नहीं आती, तो तर्क के पास एक ही उपाय है कि जो पकड़ में नहीं आता, वह होगा नहीं। फिर अगर हो जाए, तो तर्क कहता है यह पागलपन है।
अगर तुम बुद्धि से पूछोगे, तो यह अचानक हो गया रोमांच, यह आंखों में भर आए आंसू, यह हृदय में दौड़ गई बिजली, यह कौंध गया अनुभव, बुद्धि कहेगी पागलपन है। और जिसको तुमने पागलपन कहा, उसको तुम दबाने में लग जाते हो। क्योंकि कोई पागल नहीं होना चाहता। हम उसको दबाते हैं, हम उसको झुठलाते हैं, हम अपने को बचाते हैं। धीरे-धीरे हमारे जीवन के जो मूल-स्रोत हैं, उनसे ही हम टूट जाते हैं। अपनी ही जड़ों से टूट जाते हैं।
खयाल रखना, यहां रोज-रोज ये घटनाएं बढ़ने वाली हैं। यहां तुमसे बड़ा तुम्हारे भीतर आमंत्रित किया जा रहा है। यहां तुम्हें एक द्वार पर खड़ा किया गया है जहां से खुला आकाश उपलब्ध है, जहां से चांद-तारे तुम्हारे भीतर झांकेंगे। और तुम्हारी बुद्धि यह सब समझ नहीं पाएगी। बुद्धि को हटा दो। बुद्धि को सरका दो। बुद्धि को कहना--यह तेरा काम नहीं; बाजार में तू ठीक है, मंदिर में तू ठीक नहीं। दुकान पर तू ठीक है, हिसाब-किताब में तू ठीक है, मगर कुछ ऐसी भी चीजें हैं जो हिसाब-किताब के बाहर हैं--और सच तो यह है, वे ही मूल्यवान हैं। उन्हीं के लिए जीआ जा सकता है, उन्हीं के लिए मरा जा सकता है। जो हिसाब-किताब में आ जाता है, उसके लिए कौन जीएगा, कौन मरेगा?
एक ऐतिहासिक घटना तुमसे कहूं। सुकरात अपने सत्य के लिए मरा। क्योंकि सत्य इतना मूल्यवान था कि जीवन भी उसके लिए चुका देना कोई महंगा सौदा नहीं था। जीसस अपने सत्य के लिए सूली चढ़े। क्योंकि सत्य इतना मूल्यवान था कि एक जिंदगी क्या, हजार जिंदगियां सूली पर चढ़ जाएं तो भी सत्य को छोड़ा नहीं जा सकता। मंसूर ने अपने हाथ-पैर कटवा डाले, जब उसके हाथ-पैर काटे जा रहे थे तो वह आकाश की तरफ देख कर हंसा। भीड़ इकट्ठी थी, लोगों ने पूछा कि मंसूर, तुम क्यों हंसते हो? तो उसने कहा: मैं इसलिए हंस रहा हूं कि मैं परमात्मा को कहना चाहता हूं कि तू मुझे धोखा न दे पाएगा। तू जीवन चाहे जीवन ले ले, मगर मैंने तुझे देख लिया है, अब मैं तुझे भुला नहीं सकता। मैंने तुझे पहचान लिया, अब तू सब छीन ले तो भी मैं तुझे छोड़ नहीं सकता। मैं तुझे हर हालत में पकड़े रहूंगा। इसलिए हंस रहा हूं कि यह मेरी कसौटी हो रही है, परीक्षा ले रहा है वह। और परीक्षा में मैं जीत रहा हूं, वह हार रहा है। क्योंकि उसका उपाय व्यर्थ हुआ जा रहा है।
लेकिन गैलीलियो ऐसा नहीं कर सका। गैलीलियो ने कहा कि सूरज जमीन का चक्कर नहीं लगाता। गैलीलियो के पहले तक आदमी मानते रहे थे कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है--ऐसा दिखाई भी पड़ता है रोज हमें; सुबह उगता है, फिर आधा चक्कर लगा कर सांझ डूब जाता है; ऊगता पूरब में, डूब जाता पश्चिम में। चक्कर बिलकुल साफ लग रहा है, सीधा है। पृथ्वी ठहरी मालूम पड़ती है, सूरज चक्कर लगाता हुआ मालूम पड़ता है। यह हमारा सामान्य अनुभव है। इसी सामान्य अनुभव के आधार पर मनुष्य जाति सदा से सोचती रही थी कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगा रहा है।
गैलीलियो ने उलटा अनुभव पाया। वैज्ञानिक प्रयोग से पाया कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगा रही है। और चूंकि पृथ्वी इतनी बड़ी है और हम इतने छोटे हैं इसलिए हमें पृथ्वी की गति का पता नहीं चलता। और भ्रांति हमें पैदा हो रही है। कभी-कभी तुम्हें हो जाती है, तुम ट्रेन में बैठे हो, स्टेशन पर खड़ी है गाड़ी, बगल की गाड़ी चलती है और तुम्हें लगता है--अपनी गाड़ी चली। या अपनी गाड़ी चलती है और तुम्हें लगता है--बगल की गाड़ी चली। ऐसी भ्रांति अक्सर हो जाती है। चल तो रही है पृथ्वी, लग रहा है कि सूरज चल रहा है। गैलीलियो ने बड़े प्रमाणिक रूप से सिद्ध कर दिया कि सूरज नहीं चल रहा है, पृथ्वी चल रही है। मगर चर्च बर्दाश्त नहीं कर सका, क्योंकि बाइबिल कहती है--सूरज चल रहा है। गैलीलियो को अदालत में बुलाया गया और उससे कहा गया कि तुम क्षमा मांग लो। उसने क्षमा मांग ली।
उसकी क्षमा बड़ी विचारपूर्ण है।
यह सत्य कुछ ऐसा नहीं था जिसके लिए जीवन गंवाया जाए। गैलीलियो क्यों जीवन गंवाए? मेरे भी बात समझ में आती है--क्यों जीवन गंवाए? सूरज लगाए चक्कर कि पृथ्वी लगाए, इससे गैलीलियो का क्या बनता-बिगड़ता है? इस सत्य में गैलीलियो के प्राण नहीं समाए हुए हैं। यह सत्य जीसस जैसा सत्य नहीं है; न सुकरात जैसा, न मंसूर जैसा; जो अपने से भी मूल्यवान है। यह वैज्ञानिक सत्य है। वे धार्मिक सत्य थे।
फर्क समझना, यह गणित का सत्य है, वे हृदय के सत्य थे। गैलीलियो ने कहा: मैं क्षमा मांग लेता हूं। उसने घुटने टेक कर क्षमा मांग ली। क्षमा में उसने जो वचन कहे वे बड़ी होशियारी के हैं। गणित का आदमी था। उसने कहा: मैं क्षमा मांग लेता हूं कि मैंने जो वक्तव्य दिया वह ठीक नहीं है, यद्यपि मैं यह निवेदन करना चाहता हूं कि मेरे कहने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा, चक्कर तो पृथ्वी ही लगा रही है। मैं क्षमा मांगता हूं, इसमें मैं कोई एतराज नहीं करता कि मुझसे भूल हो गई जो मैंने यह कहा, मगर यह सिर्फ मेरी भूल है कि मैंने ये कहा, ये मेरे कहने की भूल है, अब मैं इसमें क्या कर सकता हूं, अगर पृथ्वी चक्कर लगा रही है तो यह तुम पृथ्वी से क्षमा मंगवा लो, मगर लगा तो रही है पृथ्वी ही चक्कर। लेकिन उसने बार-बार याद दिला दिया अदालत को कि याद रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैं क्षमा नहीं मांगता। मैं तो क्षमा मांगने को तैयार हूं, मेरा क्या लेना-देना, कोई लगाए चक्कर, क्या फर्क पड़ता है मुझे, मैं जिंदगी गंवाने को तैयार नहीं हूं। और मुझे लगता है कि बात ठीक है। गैलीलियो क्यों जिंदगी गंवाए?
यह कोई सत्य बड़ा सत्य नहीं है। इसको सत्य कहना भी ठीक नहीं है। मेरे हिसाब से तो सत्य तो वही है जिसके लिए तुम जीवन देने को तैयार हो जाओ। सत्य तो वही है जिसके लिए आदमी जीए और जरूरत पड़े तो मरे। शेष सब तथ्य हैं, सत्य नहीं।
और सत्य और तथ्य का भेद समझ लेना। तथ्य गणित के होते हैं, सत्य हृदय के होते हैं।
तो कल तुझे एक सत्य घटना शुरू हुआ। लेकिन बुद्धि कहती है--इसे जल्दी से तथ्य बनाओ। जल्दी इसको समझो; पकड़ो, पहचानो; अगर पकड़ में न आता हो तो बंद करो। अगर पहचान में आता हो तो इसको ठीक-ठीक कोटि में बांटो कि यह क्या है। इसीलिए तेरे मन में यह विस्मयजनक भाव उठा--या इलाही, यह माजरा क्या है? यही माजरा धर्म का आत्यंतिक रूप है। यही माजरा असली धर्म है। असली धर्म का अर्थ होता है, उस रहस्य में उतरना जो समझ के पार है।
अब दुबारा जब ऐसा हो, प्रश्न मत उठाना, निष्प्रश्न मन से स्वीकार कर लेना। इतना ही नहीं है कि स्वीकार कर लेना, सहयोग भी करना। क्योंकि अगर जरा भी असहयोग हो तो ये बड़ी सूक्ष्म संवेदनाएं हैं, जरा सा असहयोग हो कि समाप्त हो जाती हैं। रोमांचित हो रही थी देह, रोआं-रोआं जग रहा था और तुम अ
गर जरा सिकुड़ गए तो बंद हो जाएगा। ये बड़ी नाजुक बातें हैं। जरा सा भाव का परिवर्तन और रोमांच विदा हो जाएगा। आंख से आंसू बह रहे थे और तुम जरा कठोर हो गए, कि आंखें सूख जाएंगी। सहयोग भी करना। जब शरीर रोमांचित होने लगे, तो शिथिल, विराम में आ जाना। साथ दे देना, कहना मैं पूरा राजी। मैं तुम्हारे साथ। रोओ, नाचो, मैं समग्ररूपेण तुम्हारे साथ। मैं तुम्हारे पीछे। मेरी ऊर्जा लो। आंसुओ बहो, मैं तुमसे बहूंगी। और बुद्धि को कह देना--तू अभी चुप रह! यह तेरी घड़ी नहीं। जैसे हम मंदिर में जाते हैं, जूते उतार देते हैं, ऐसे ही बुद्धि को भी उतार देना चाहिए। बुद्धि भी बासी है और गंदी है, उधार है। मंदिर के बाहर जो बुद्धि को उतार कर रख आता है वही मंदिर में प्रवेश पाता है।
कल, शुक्ला, तू मंदिर के बिलकुल द्वार पर खड़ी थी। क्षण में कुछ का कुछ हो सकता था। लेकिन विचार जग गया। विचार जग गया, तोड़ गया धारा को। प्रश्न उठ गया, रहस्य को खंडित कर गया। सोच-विचार में पड़ गई, उसी में चूक गई। अब दुबारा मत चूकना--और यह बहुत बार होगा। पहली बार सभी चूक जाते हैं। क्योंकि पहली बार याद ही नहीं होता क्या करना है। पुरानी आदत, जो सदा करते रहे हैं वही कर देते हैं।
यह खयाल रखना, पहली बात जो उठी, रोएं रोमांचित हुए, आंख से आंसू बहे, वह तो प्रतिसंवेदना, रिस्पांस; और या इलाही, यह क्या माजरा है, यह प्रतिक्रिया, रिएक्शन। जब भी तेरी जिंदगी में कोई चीज तेरी समझ-बूझ में न आती होगी तभी यह सवाल उठता रहा होगा। जब भी तूने अपने को किंकर्तव्यविमूढ़ पाया होगा, तभी यह सवाल उठता रहा होगा। फिर मत चूकना। फिर होगा, बार-बार होगा।
और स्मरण रखना कि जब मैं दूसरों से भी बोल रहा हूं तब कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि जिससे मैं बोल रहा हूं वह चूक जाता है, क्योंकि वह सुनने को इतना ज्यादा तनावग्रस्त होता है, इतना एकाग्र होता है, इतना उद्वेलित होता है--मेरे अनुभव में यह बात बार-बार आई है; और कई बार मुझे अ से जो बात कहनी हो वह मुझे ब से कहनी पड़ती है, क्योंकि ब से जब मैं कहता हूं तो ब तो तना हुआ रहता है, वह सुनने को रहता है कि कहीं चूक न जाए, क्या कहा जा रहा है और अ शांत बैठा होता है--उससे तो कुछ कहा नहीं जा रहा है, यह उसका सवाल नहीं है--कभी-कभी ब के सिर पर मारी चोट ब तो बचा जाता है, अ को लग जाती है। उनको खयाल ही नहीं था, बचाने का मौका ही नहीं मिला।
तो मैं तीर किस तरफ चलाता हूं, यह दिशा से ही मत सोच लेना। चिट्ठियां किसको लिखता हूं, यह पते से ही मत सोच लेना। कई बार तुमसे मुझे बात कहनी होती है, किसी और से कहता हूं। दूसरा तो निश्चिंत बैठा होता है, उसका कुछ लेना-देना नहीं इसलिए एक विराम की अवस्था होती है। इसलिए जिससे मैं यह कह रहा था कि मैं तेरा स्वागत करता हूं, उसे तो रोमांच नहीं हुआ कल, उसकी आंख से आंसू नहीं बहे और शुक्ला को रोमांच हुआ और आंख से आंसू बहे। चलो तीर किसी को तो लगा! कहीं तो लगा! कहीं तो झरना बहा! दुबारा जब ऐसा हो, तो सहयोग करना।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, अब बार-बार ऐसा लगने लगा है कि कुछ भी तो नहीं पाना है, कहीं भी तो नहीं जाना है; जीवन है, जीना है। हे सदगुरु, हे परमगुरु! यह मन का छलावा है या...? अपनी शिष्या की पग-पग पर रक्षा करना। आज जहां हूं, जैसी हूं, आपकी ही कृपा का फल है!
नहीं, मन का भुलावा नहीं है। मन का छलावा नहीं है। यह बात मन से नहीं आ रही है। यही तो मेरा संदेश है। यह बात मुझसे तुम्हारे पास तक पहुंच गई। यही तो मैं कह रहा हूं निरंतर। हजार-हजार ढंगों से और हजार-हजार शैलियों में और हजार-हजार उपाय से एक ही बात तो कह रहा हूं तुमसे कि कहीं जाना नहीं है, परमात्मा यहां है, यहीं है, अभी है, कल पर नहीं छोड़ना, आज है, इसी क्षण है। परमात्मा कोई लक्ष्य नहीं है, परमात्मा एक मौजूदगी है। अभी इन वृक्षों में, इन पक्षियों की आवाज में, इन हवाओं में मौजूद है।
लेकिन सदियों तक ऐसा समझाया गया है कि परमात्मा वहां आकाश में है, मरने के बाद मिलेगा। और मैं तुमसे कहता हूं, जो जीवन में नहीं मिल सकता, वह मरने के बाद नहीं मिलेगा। और जो मरने के बाद मिल सकता है, मिलने वाला है, वह जीवन में ही मिल जाए तो ही मिल सकता है; क्योंकि जीवन और मृत्यु में कोई विरोध नहीं है। एक ही सिलसिला है। मृत्यु जिंदगी का ही एक कदम है। मृत्यु जिंदगी का अंत नहीं है, जिंदगी का ही एक कदम है। मृत्यु जीवन की समाप्ति नहीं है, मृत्यु जीवन के मध्य में घटी एक घटना है। बहुत बार घटती है मृत्यु और जीवन बहता चला जाता है। मृत्यु एक मोड़ है ज्यादा से ज्यादा, इससे ज्यादा नहीं। एक पड़ाव है, इससे ज्यादा नहीं। लेकिन तुम्हें सदियों से समझाया गया है कि परमात्मा मिलेगा मृत्यु के बाद। टालने का उपाय है यह। कल पर टालने की व्यवस्था है यह। यह मन का छलावा है। कल पर छोड़ दो तो मन कहता है--अभी तो जो करना है वह कर लो, अभी संसार और परमात्मा कल। इससे तरकीब मिल जाती है, सुविधा मिल जाती है। अभी तो दुनिया में जी लो, फिर कल तो पड़ा है, अनंतकाल पड़ा है, फिर कभी परमात्मा में जी लेंगे। यह मन का छलावा है।
जिन्होंने कहा है परमात्मा कल है, उन्होंने तुम्हें धोखा दिया। उनकी बात तुम्हारा मन पकड़ कर बैठ गया है। तुम भी चाहते हो कि परमात्मा कल हो, आज नहीं।
मैंने सुना है, लंका का एक बौद्ध भिक्षु मरने के करीब आया--अस्सी साल का हो गया था, बूढ़ा हो गया था। उसके हजारों शिष्य थे और वह सदा एक ही बात करता रहा--निर्वाण, समाधि। अंतिम दिन भी उसने सारे शिष्यों को इकट्ठा किया, सारे शिष्य दूर-दूर से इकट्ठे हुए, उसने कहा कि अब मैं जा रहा हूं, मेरी घड़ी जाने की आ गई, मेरी नाव किनारे लग गई है और मैं तुम्हें जिंदगी भर समझाता रहा निर्वाण और मैंने जिंदगी भर तुम्हें समाधि की शिक्षा दी, मगर तुममें से कोई भी समाधिस्थ होने को तैयार नहीं है, तुम कहते हो--कल। अब मैं जा रहा हूं, कल नहीं होगा, क्योंकि कल मैं नहीं होऊंगा, जिसको भी मेरे साथ चलना हो, जो निर्वाण के लिए उत्सुक हो, खड़ा हो जाए। कोई खड़ा नहीं हुआ। सिर्फ एक आदमी ने जरा हाथ हिलाया--खड़ा वह भी नहीं हुआ, बैठे ही बैठे हाथ हिलाया। उस भिक्षु ने कहा कि क्या पूछना चाहते हो? उसने कहा कि मैं यही पूछना चाहता हूं कि आना तो मुझे जरूर है निर्वाण, लेकिन अभी नहीं। अभी तो लड़की की शादी करनी है और अभी तो दुकान नई खोली है और बेटा विश्वविद्यालय से पढ़ कर लौटा है, आऊंगा, जरूर आऊंगा, और आप जा रहे हैं इसलिए विधि बता दें। विधि याद रखूंगा और जब जरूरत होगी तब विधि का उपयोग कर लूंगा।
तुम कभी सोचे हो इस बात पर कि विधियों की तलाश कहीं मन का छलावा तो नहीं है? मन यह भी मानना नहीं चाहता कि मैं परमात्मा में उत्सुक नहीं हूं। मन कहता है, हमारी तो बड़ी उत्सुकता है; हम जैसा धार्मिक कौन, लेकिन अभी नहीं। जब भी तुम कहते हो अभी नहीं, तभी समझ लेना कि तुम अपने को धोखा दे रहे हो। या तो अभी या कभी नहीं।
और परमात्मा किसी दूसरे लोक में नहीं है। यह भी तुम्हें समझाया गया है कि परलोक में है। एक ही लोक है। यह और वह किसी दीवाल से विभाजित नहीं हैं। इन दोनों के बीच में कोई सीमा नहीं है। यहां बैठे-बैठे कोई उसमें हो सकता है। जमीन पर चलते हैं बुद्ध और जमीन पर उनके पैर नहीं पड़ते। भोजन करते हैं और भोजन नहीं करते। भीड़ में होते हैं और एकांत में होते हैं। बाजार में खड़े होते हैं और बाजार उनके भीतर नहीं होता। यहां होकर कोई वहां हो सकता है और यही होने की असली कला है। यहां और वहां में कोई विरोध नहीं है, कोई शत्रुता नहीं है।
बहुत सियाह है यह रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमां है
वह नहरे-खूं जो मेरी सदा है
इसी के साए में नूरगर है
वह मौजे-जर जो तेरी नजर है
वह गम जो इस वक्त तेरी बाहों--
के गुलसितां में सुलग रहा है
वह गम जो इस रात का समर है
कुछ और तप जाए अपनी आहों--
की आंच में तो यही सरर है
हर-इक सियह शाखकी कमांसे
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नोचे हैं और हर-इक--
का हमने तेशा बना लिया है
अलमनसीबों, जिगर फिगारों--
की सुबह अफलाक पर नहीं है
जहां पै हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रोशन उफक यहीं है
यहीं पै गम के शरार खिल कर
शफकका गुलजार बन गए हैं
यहीं पै कातिल दुखों के तेशे
कतार अंदर, कतार करनों--
के आतिशीं हार बन गए हैं
‘अलमनसीबों’... दुखियों का... ‘जिगर फिगारों की सुबह’... जिगर के जख्मियों की सुबह... ‘अफलाक पर नहीं है’... आकाश पर नहीं है।
जहां पै हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रोशन उफक यहीं है
इसी जमीन पर, यहीं, अभी सारे प्रकाश का स्रोत छिपा है।
यही पै गम के शरार खिल कर
यहीं दुख के अंगारे खिल जाते हैं; फूल बन जाते हैं।
शफक का गुलजार बन गए हैं
उद्यान बन जाते हैं। दुख के अंगारे ही सुख के फूल बन जाते हैं, यहीं पर। कीमिया आनी चाहिए, कला आनी चाहिए।
यहीं पै गम के शरार खिल कर
शफक का गुलजार बन गए हैं
यहीं पै कातिल दुखों के तेशे
कतार अंदर, कतार करनों--
के आतिशीं हार बन गए हैं
सब यहीं घटा है। सब यहीं घटता है।
तो ऐसा मत सोचो कि अब बार-बार ऐसा लगने लगा है कि कुछ भी तो नहीं पाना है, कहीं भी तो नहीं जाना है; जीवन है, जीना है; तो कहीं यह मन का छलावा तो नहीं? जरा भी नहीं। यही अंतरात्मा की आवाज है। कहीं नहीं जाना है। कुछ नहीं पाना है। जिसे हम पाने की सोचते हैं उसे हमने पाया हुआ है। वह हमारा अंतरंग है। जिसे हम बाहर देख रहे हैं, वह भीतर मौजूद है। जिसे हम पाने चले हैं, उसे हम पाकर ही चले हैं। प्रथम दिन से हमारे साथ है।
सूफियों ने ईश्वर को दो नाम दिए हैं। एक नाम ‘अव्वल’ और दूसरा नाम ‘आखिरी।’ जो पहला है वह भी ईश्वर और जो अंतिम है वह भी ईश्वर। दोनों ही ईश्वर हैं। तुम पहले ही दिन से ईश्वर हो। ऐसा नहीं है कि अंतिम दिन ईश्वर हो जाओगे। अगर पहले दिन से ईश्वर नहीं हो तो अंतिम दिन भी ईश्वर कैसे हो पाओगे? जो नहीं है, वह नहीं हो सकेगा। जो है, वही हो सकता है। खयाल रखना इस विरोधाभास को, तुम वही हो सकते हो जो तुम हो। तुम्हें वही होना है जो तुम हो। अन्यथा का कोई उपाय नहीं है। और जो अन्यथा हो जाओगे, वह झूठ होगा, स्वभाव नहीं होगा। ऊपर-ऊपर से थोपा हुआ होगा। बाहर-बाहर होगा, वस्त्रों की तरह होगा, आवरण होगा, तुम्हारा अंतस नहीं होगा।
मैं तुमसे फिर कहता हूं, तुम ईश्वर हो। जरा भी तुममें कमी नहीं है। सिर्फ आंख झपक गई है और सपने देखने लगे हो। तुम्हारी सारी कमियां तुम्हारे सपनों में देखी गई कमियां हैं। तुम्हारे सारे पाप और पुण्य तुम्हारे सपनों में किए गए कृत्य हैं। जागो और न तुमने कुछ बुरा किया है और न तुमने कुछ अच्छा किया है। जागो तो कृत्य से संबंध छूट जाता है। अस्तित्व से संबंध जुड़ जाता है।
सोने और जागने की यह परिभाषा समझ लेना।
सोने का अर्थ होता है, कृत्य से संबंध जुड़ गया। कर्ता हो गए। फिर कोई पापी हो गया, फिर कोई पुण्यात्मा हो गया, कोई साधु हो गया, कोई असाधु हो गया, फिर हजार ढंग हो गए कर्ता के। जागे, अकर्ता हो गए, साक्षी हो गए, सारा संबंध कर्म से छूट गया। जागते ही न कोई साधु है, न कोई असाधु है। जागते ही केवल परमात्मा है, और उस पर कोई आवरण नहीं है, नग्न परमात्मा है।
नहीं, कहीं भी नहीं जाना है, अपने ही घर आना है। कहीं तलाशना नहीं, खोजना नहीं, खोजने वाले को ही पहचान लेना है। खोजने वाले में ही वह छिपा है जिसे हम खोज रहे हैं।
जीवन है और जीना है। ठीक भाव उठ रहा है। कुछ करने का नहीं है, बहने का है। जीवन है और जीना है, श्वास चल रही है और श्वास लेनी है। जब श्वास चले तो श्वास लो आनंद से मग्न भाव से और जब श्वास रुक जाए, तो आनंद और मग्न भाव से उसे रुक जाने दो। जब तक जीवन है, जीओ, जब मौत आए तो मरो।
झेन फकीर कहते हैं: जब भूख लगे तो भोजन कर लो और जब नींद आ जाए तो सो जाओ।
जब तक जीवन चले चलो और जब जीवन बिखरने लगे बिखर जाओ। जो घटे उसे सहज स्वीकार कर लो, उससे अन्यथा की चेष्टा न करो। अन्यथा की चेष्टा से तनाव पैदा होता है, अशांति पैदा होती है, चिंता पैदा होती है, दुख पैदा होता है, विषाद पैदा होता है। जो हो, जैसे हो उसमें ही मग्न हो जाओ। यही मेरा तुम्हारे लिए संदेश है प्रथम और अंतिम। इस एक छोटे से सूत्र को तुमने समझ लिया तो सब समझ लिया। फिर कुछ समझने को नहीं रह जाता, तुम्हारे हाथ में सारे शास्त्रों का सार लग गया।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कल तीसरी आजादी की बात कही। उस संबंध में कुछ और कहें।
आजादी तो पहली भी नहीं आई अभी। तो दूसरी और तीसरी का तो सवाल कहां है? आजादी कभी आई ही नहीं। बाहर से आजादी आती भी नहीं। आ भी नहीं सकती। बाहर से तो केवल गुलामियों के ढंग बदलते हैं, रंग बदलते हैं, बस आवरण बदलते हैं। कभी इस ढंग की गुलामी, कभी उस ढंग की गुलामी। आजादी तो आंतरिक घटना है।
तुम आजाद हो सकते हो, तुम्हें कोई आजाद नहीं कर सकता। और तुम आजाद हो सकते हो, कितनी ही बड़ी कारागृह हो वहीं आजाद हो सकते हो। बाहर जाने की भी जरूरत नहीं है। क्योंकि आंतरिक अनुभव है स्वतंत्रता। ध्यान है स्वतंत्रता, प्रेम है स्वतंत्रता। मगर आदमी बड़े धोखे का इंतजाम करता रहता है। भीतर की आजादी खोजने में तो हिम्मत नहीं है, तो बाहर की छोटी-मोटी आजादियां खोजता रहता है--राजनैतिक आजादी, आर्थिक आजादी।
जो आदमी धन कमा रहा है वह क्या कर रहा है, तुम्हें पता है? वह क्या खोज रहा है? आर्थिक आजादी खोज रहा है। वह यह कहता है--गरीबी में बड़ा बंधन है। यह कार खरीदनी है, नहीं खरीद सकते। पैसा होता, आजादी होती। जो खरीदना होता वह खरीद लेते। जिस मकान में रहना चाहते उस मकान में रहते। जो करना होता वही करते। आजादी में कमी है। इसलिए आदमी धन खोजता है। धन से सोचता है आजादी बढ़ेगी। बढ़ती नहीं, घटती है। जितना धन हो जाता है उतनी ही मुश्किल हो जाती है। क्योंकि जितना धन बढ़ने लगता है, उसकी रक्षा करनी पड़ती है, उसकी चिंता करनी पड़ती है। गरीब तो रात सो भी जाए, अमीर रात सो भी नहीं सकता। कैसी आजादी! अमीर रात भर सोचता ही रहता है। उसके पास सोचने को काफी है, चिंता करने को काफी है। फिर जितना धन आ जाता है, उतना ही अनुभव होता है कि सीमा थोड़ी तो बढ़ गई, अब जो कार खरीदनी है वह खरीद सकते हैं, जो मकान लेना हो वह ले सकते हैं, लेकिन जो हवाई जहाज लेना है वह नहीं ले सकते। तो नई गुलामी मालूम होने लगी। थोड़ा धन और हो तो फिर हवाई जहाज भी जो लेना है वह ले लें। फिर ऐसे बढ़ता जाता है।
इस संसार के फैलावे का कोई अंत नहीं, यह दुकान फैलती चली जाती है। रोज-रोज नई-नई गुलामी अनुभव होने लगती है। जो गुलामी गरीब ने कभी अनुभव नहीं की थी, वह अमीर अनुभव करता है। अमीर ही अनुभव कर सकता है। अब एक गरीब को इसमें कोई गुलामी नहीं मालूम होती, वह मजे से अपने झाड़ के नीचे बैठा टिका दोपहरी में विश्राम कर रहा है--कारें निकली जा रही हैं, वह यह भी फर्क नहीं करता कि कौन सी कार कौन सी? उसे मतलब? उसे यह सवाल ही नहीं है। उसे यह भी नहीं लगता कि कार खरीद लूं। ऐसा विचार भी उठेगा तो हंस कर झिड़क देगा कि कहां की बातें कर रहे हो? होश में हो? लेकिन कोई साइकिल निकलती है तो सोचता है कि फिलिप्स है कि रेले है, कौन सी साइकिल है? इसको यह साइकिल खरीदने जैसी है! उसके पास भी एक फटीचर है; किसी तरह उसको घसीटता है। उसमें घंटी वगैरह बजाने की जरूरत नहीं पड़ती, वह खुद ही इतनी बजती है कि जहां भी जाता है, दूर से ही लोगों को पता चल जाता है कि आ रहे हैं! थक गया है।
कार की बात नहीं सोच सकता है, लेकिन साइकिल की सोच सकता है। तो साइकिल नई-नई देख कर उसकी गुलामी का अनुभव होता है, लेकिन कार नई-नई देख कर उसे कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। कारें उसे दिखाई नहीं पड़तीं। हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम चाहते हैं। खयाल रखना, जो हम चाहते हैं वही हमारे अनुभव में आता है। हमारी चाह के प्रकाश में ही हमें चीजें दिखाई पड़ती हैं। जो मिल ही नहीं सकता, उसे हम देखते ही नहीं। उसके देखने की झंझट में भी नहीं पड़ते। तो जितनी-जितनी तुम्हारी अमीरी बढ़ती जाती है, उतनी-उतनी तुम्हारी गुलामी बढ़ती जाती है। सोचते थे आजादी बढ़ेगी, लेकिन अब और नई-नई बातें मालूम पड़ने लगती हैं कि यह भी खरीद सकता था अगर पैसा होता, वह भी खरीद सकता था अगर पैसा होता।
राजनैतिक आजादी भी एक भ्रम है, छलावा है। आदमी खुद तो आजाद नहीं हो सकता, क्योंकि वहां महंगा सौदा है, साधना है, उतरना पड़ेगा अपनी गहराइयों में, खाइयों में। तो छोटी-मोटी आजादियां खड़ी कर लेता है कि राजनैतिक रूप से आजाद हो गए। तो मैंने जो तुमसे कल तीसरी आजादी की बात कही, वह तो यूं ही मजाक में कही थी। एक कहानी पढ़ रहा था, उससे वह मुझे खयाल में आ गया।
कहानी एक पढ़ रहा था, ‘तीसरी आजादी।’ कहानी प्यारी है। तीसरी आजादी हो गई। ऐसी आजादियां होती ही रही हैं, होंगी, तीसरी भी होगी। अब यह दूसरी में बुड्ढे-ठुड्डे सब चढ़ कर बैठ गए, अब तीसरी में जवान उनको खींच कर नीचे लाएंगे। काम शुरू हो गया है। क्योंकि इन मुर्दों से कहीं आजादी आती है, मुर्दों से कहीं क्रांति होती है! जयप्रकाश ने ऐसी क्रांति की कि दुनिया में कभी किसी ने न की थी। बिलकुल मुर्दे मरघट से निकाल कर बिठा दिए। और उसको समग्र क्रांति! है, समग्र क्रांति है। मुर्दे को सत्ता में बिठाना कोई छोटा-मोटा काम नहीं है। और अब मुर्दे सत्ता के बल पर चल रहे हैं। सत्ता में बल होता है। सत्ता मिल जाए तो मुर्दा भी चलने लगता है, खयाल रखना। और जिंदा आदमी की भी सत्ता चली जाए तो एकदम मर जाता है। श्वास ही बंद हो जाती है। तीसरी आजादी ज्यादा दूर नहीं है, बस समझो रास्ते के किनारे पर ही, तैयारी हो रही है। तैयारी शुरू हो गई है, उपद्रव शुरू हो गए हैं। दूसरी से लोग थक गए, क्योंकि आई नहीं, अब तीसरी लाएंगे। और तीसरी से ही थोड़े चुक जाएगा मामला, चौथी आएगी, पांचवीं आएगी--आजादियां आती रहीं, आती रहेंगी।
तो यह कहानी मैं पढ़ रहा था कि तीसरी आजादी आ गई। फिर आजादी के बाद सबसे बड़ा जो काम होता है वह हुआ। कई कमीशन बिठाए गए। आजादी के बाद सबसे बड़ा काम यही होता है कि पहले जो सत्ता में थे, वे गलत थे। खुद को सही करने का और कोई उपाय नहीं सूझता, कुछ करके दिखाने की कुबत नहीं मालूम होती। दूसरा गलत था, यह सिद्ध करने का एक ही उपाय है कि तुम कुछ सही करके बताओ। वह जरा झंझट का मामला है। सही होता नहीं, तो कमीशन बिठाओ। दूसरा गलत था, कम से कम इतना तो सिद्ध करो।
दुनिया में दूसरे को गलत सिद्ध करने वाले लोग हमेशा नपुंसक होते हैं। सही सिद्ध करने का अपने को उपाय करना चाहिए कि मैं कुछ करके बताऊं कि यह मैंने किया। उसकी तुलना में अपने आप दूसरा गलत हो जाएगा। बड़ी लकीर खींच दूं, दूसरे की लकीर अपने आप छोटी हो जाएगी। साफ हो जाएगा कि किसने क्या किया? मगर वह जरा महंगा मामला है। उलझनें बड़ी हैं, समस्याएं बड़ी हैं। चुनाव में आश्वासन देना एक बात है और उनको पूरा करना बिलकुल दूसरी बात है--कोई कभी नहीं कर पाया। इसीलिए तो चुनाव में आश्वासन देने में लोग संकोच ही नहीं करते। संकोच ही क्या करना है, पूरा तो कोई आश्वासन कभी होता नहीं, पूरा किसी को करने का विचार भी नहीं है। आश्वासन की सीढ़ी पर चढ़ कर लोग सत्ता तक पहुंच जाते हैं। एक दफे पहुंच गए, फिर सब आश्वासन भूल जाते हैं। फिर उन्हें याद ही नहीं रहता, सीढ़ी को भी गिरा देते हैं, क्योंकि सीढ़ी को बचाना भी ठीक नहीं रहता, नहीं तो दूसरे उस पर से चढ़ कर आ जाएं। इसलिए होशियार आदमी सीढ़ी चढ़ कर गिरा देता है कि कोई और दूसरा न चढ़ आए।
तो तीसरी आजादी आई; कई कमीशन बैठे, मुकदमे शुरू हुए। क्योंकि अब जो सत्ता में आ गए, वे सिद्ध करेंगे कि तुमने कुछ भी नहीं किया। उसी कहानी को पढ़ रहा था, इससे तीसरी आजादी का खयाल आ गया। मोरार जी देसाई को पूछा जा रहा है--जस्टिस रे का कमीशन बैठा हुआ है--वह मोरार जी देसाई को पूछते हैं कि आपने क्या किया अपने कार्यकाल में? तो उन्होंने कहा: मैंने जनता की सेवा की। न्यायाधीश ने पूछा: आपने जनता की सेवा कैसे की? तो मोरार जी देसाई ने कहा: मैंने प्रधानमंत्री बन कर जनता की सेवा की। न्यायाधीश ने पूछा कि आप थोड़ा साफ करके बताइए कि आपने किस तरह सेवा की प्रधानमंत्री बन कर? आपने किया क्या? उन्होंने कहा: मैं प्रधानमंत्री बना और क्या करना है? जिंदगी भर मेहनत करके प्रधानमंत्री बना, अस्सी साल की उम्र में प्रधानमंत्री बना, जनता की सेवा की। न्यायाधीश ने कहा: यह सेवा हमारी कुछ समझ में नहीं आती, आप थोड़े विस्तार से कहें। तो उन्होंने कहा: विस्तार यह है कि साठ करोड़ आदमी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, मैंने उनको बचाया और मैं प्रधानमंत्री बना। फांसी अपने गले में लगवाई और क्या सेवा चाहिए? सिंहासन पर बैठा, सूली पर चढ़ा और क्या सेवा चाहिए? इतने लोगों को झंझट से बचाया।
ऐसा कमीशन प्रश्न पूछता है। कमीशन पूछता है कि और जयप्रकाश नारायण का क्या हाथ था इस क्रांति में? तो मोरार जी देसाई कहते हैं--कोई हाथ नहीं था। पर न्यायाधीश कहता है कि हमने तो सुना कि उन्होंने ही क्रांति की, कि वह महात्मा गांधी जैसे महात्मा हैं। और मोरार जी देसाई कहते हैं--हुस्ट! मेरे अतिरिक्त महात्मा गांधी जैसा और कोई महात्मा नहीं। तो फिर आप उनको लोकनेता क्यों कहते थे? तो मोरार जी देसाई कहते हैं कि उनको कुछ तो देना ही था। प्रधानमंत्री उनको बना नहीं सकते थे, राष्ट्रपति वे बनने को तैयार नहीं थे, उनको कुछ तो देना ही था। जेल तो वह गए ही थे, तो उनको हमने ‘लोकनेता’--इसमें कुछ देना भी नहीं पड़ा--‘लोकनेता’ का नाम दे दिया था। कई सवालों के जवाब में वह कहते--हुस्ट! हुस्ट! हुस्ट! और वह न्यायाधीश पूछता है कि आप यह क्या हुस्ट-हुस्ट लगा रखे हैं, मोरारजी भाई? आप ठीक जवाब क्यों नहीं देते? और वह कहते हैं--अब तो मैं कोई भी जवाब नहीं दे सकता, क्योंकि यह मेरी अंतरात्मा कह रही है कि अब छुहारे लेने और ‘जीवन-जल’ पीने का समय हो गया। तीस मिनट की मुझे सुविधा चाहिए। घबड़ा कर कि कहीं वहीं वे ‘जीवन-जल’ न पीने लगें, बगल के कमरे में उनको ले जाया जाता है और दरवाजा बंद कर दिया जाता है। ऐसी वह कहानी चलती है। वह मैं पढ़ रहा था, इसलिए तीसरी आजादी की याद आ गई।
मगर आजादी न कभी आई है, न कभी आती है, ये सपनों में मत पड़ो। अगर सच में चाहते हो स्वतंत्रता, तो उस शब्द में ही राज छिपा है। स्वतंत्रता का अर्थ होता है, ‘स्व’ जो है तुम्हारे भीतर, उसका तंत्र स्थापित हो जाए, उसका विस्तार स्थापित हो जाए।
हमने इस देश में जो शब्द चुने हैं, ऐसे ही नहीं चुन लिए हैं। आजादी में वह मजा नहीं है, जो स्वतंत्रता में है। क्योंकि उस ‘स्व’ में ही सारा राज है। स्वयं के भीतर मालकियत पैदा हो जाए। इसलिए हम संन्यासी को ‘स्वामी’ कहते हैं। जो स्वतंत्र है, वही स्वामी है। जो स्वतंत्रता की खोज पर चला है, वही स्वामी है। स्वामी का मतलब है, जो अपनी मालकियत घोषित कर रहा है। जो अब किसी चीज की गुलामी स्वीकार नहीं करता। और वह कौन है जो किसी चीज की गुलामी स्वीकार न करेगा? वह वही है जो अपने भीतर बैठे मालिक को पहचान ले।
मालिक तुम्हारे भीतर बैठा है और तुम बाहर हाथ फैलाए हो। और तुम कभी इधर, कभी उधर खोजते हो। और एक जगह तुम खोजते ही नहीं जहां सदा से उसे पाया जाता रहा है। आंख बंद करो, भीतर चलो, थोड़ी अंतर्यात्रा करो और तुम्हें आजादी मिलेगी--वही पहली आजादी है। वही दूसरी, वही तीसरी। सारी आजादियां वहां हैं। आजादी का मूल उदगम तुम्हारे भीतर है।
बुद्ध हुए स्वतंत्र, जीसस हुए स्वतंत्र, महावीर हुए स्वतंत्र, कृष्ण हुए स्वतंत्र। यह किसी बाहरी आजादी के कारण नहीं। बाहर तो सारा जैसा है वैसा ही चलता रहा है। बाहर का उपद्रव तो ऐसा ही चलता रहेगा। आजादियां होती रहेंगी और कुछ भी नहीं होगा। तुम इस उलझाव में न पड़ो। तुम बाहर के उपद्रव से अपनी व्यस्तता को मत जोड़ो। तुम धीरे-धीरे बाहर के जितने उपद्रवों से मुक्त हो सको, उतना अच्छा। जो जरूरी हो बाहर, उतना ही करो। गैर-जरूरी में जरा भी समय मत लगाना। और लोग गैर-जरूरी में बड़ा समय लगाते हैं। गैर-जरूरी से समय बचाओ और शक्ति बचाओ। तो वही बची हुई शक्ति तो भीतर की यात्रा कर सकती है।
भीतर लोग जाने में हार क्यों जाते हैं? इसीलिए हार जाते हैं कि जाने लायक ऊर्जा नहीं है। सब बाहर ही गंवा बैठते हैं। कुछ धन में गई, कुछ पद में गई, कुछ प्रतिष्ठा में गई, कुछ यहां, कुछ वहां, सब बंट जाता है। खाली रह जाते हैं भीतर, भीतर जाने योग्य कोई सामर्थ्य नहीं बचती।
थोड़ी सामर्थ्य बचाओ। बाहर तो उतना ही करो, न्यूनतम, जितना जरूरी है। दो रोटी चाहिए, कर लो। छप्पर चाहिए, काम कर लो। कपड़े चाहिए, काम कर लो। बच्चों के लिए इंतजाम चाहिए, काम कर लो। मगर बस उतना ही जितना जरूरी है। उससे शेष सारा समय अंतर की खोज में लगाओ। निखारो अपने को। अभी तुम एक अनगढ़ पत्थर हो। लेकिन पत्थर में परमात्मा छिपा है। जरा मूर्ति प्रकट होने लगेगी, तुम्हारे भीतर आनंद-उत्सव पैदा होगा। वही असली आजादी है।
चौथा सवाल:
भगवान, आपने कहा कि दुख है और दुख रहेगा, क्योंकि संसार के होने में ही दुख निहित है। यदि ऐसा ही है तो फिर किसी ऋषि की यह प्रार्थना-- सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग् भवेत् --क्या मात्र शुभेच्छा है?
नहीं, मात्र शुभेच्छा नहीं। संसार दुख है, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हें दुखी रहना अनिवार्य है। संसार दुख है, तुम दुख नहीं हो। तुम दुख से मुक्त हो सकते हो। तुम दुख में फंसे हो, यही चमत्कार है। यही आश्चर्यजनक है कि तुमने संसार के दुख से अपने को कैसे जोड़ लिया है। ऐसा ही समझो कि एक आदमी कीचड़ के डबरे में पड़ा है और वह कहता है कि कीचड़ का डबरा है, अब मैं क्या करूं? हम उससे कहते हैं--तू तो बाहर निकल सकता है! तू कीचड़ नहीं है। तू तो कमल है, तू तो कीचड़ से ऊपर उठ सकता है। कीचड़ कीचड़ है, तू तू है।
असल में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’, सब लोग सुखी हों, इसका मतलब यह नहीं है कि संसार सुखी हो जाएगा। इसका मतलब इतना ही है कि संसार में सभी लोग जागें, पहचानें कि हमारा स्वभाव दुख नहीं है, हम सुखस्वरूप हैं, हम सच्चिदानंद हैं। लेकिन मैं जानता हूं कि इस तरह की व्याख्या इस सूत्र की की नहीं गई है। क्योंकि सूत्र की व्याख्या करने वाले सांसारिक लोग हैं। वे सूत्र की भी व्याख्या अपनी कामना के अनुकूल करते हैं। जब तुम ऋषियों को उदघोषित करते पाते हो कि--
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः’
--कि सब दुख के पार हो जाएं, कि सब सुख को उपलब्ध हों, कि सबको मंगल मिले, तो स्वभावतः तुम सोचते हो कि वे कह रहे हैं कि तुम्हें धन मिले, पद मिले, प्रतिष्ठा मिले, सबको मिले। बस तुम चूक गए वहां। ऋषि अपनी भाषा बोल रहा है, तुम अपनी भाषा समझ रहे हो।
मैंने सुना है, एक बिल्ली इंग्लैंड की यात्रा को गई। जब लौट कर आई तो बिल्लियों ने उसे घेर लिया और कहा: क्या देखा, इंग्लैंड में क्या-क्या देखा? रानी के दर्शन किए कि नहीं? उसका सिंहासन देखा कि नहीं? कोहनूर-जड़ा उसका मुकुट देखा कि नहीं? और उसने कहा: गई थी देखने, देख नहीं पाई, क्योंकि रानी सिंहासन पर बैठी थी, सिंहासन सुंदर था, मुकुट भी बड़ा प्यारा था, मुकुट में हीरा भी चमक रहा था, मगर मैं मुश्किल में पड़ गई, क्योंकि एक चूहा सिंहासन के नीचे बैठा था। उस चूहे को देखने के कारण मैं कुछ और देख नहीं पाई। मैं तो चूहे को ही देखती रही--बड़ा प्यारा चूहा था। बड़ा गजब का चूहा था! एकदम लार टपकने लगी थी। अब बिल्ली अगर इंग्लैंड जाए, तो और देखे भी क्या? कोहनूर भी पड़ा रहे और उसी के पास एक चूहा बैठा हो, तो बिल्ली क्या देखे? भाड़ में जाए कोहनूर! कोहनूर का करोगे क्या? खाओगे, पीओगे कि पहनोगे? जब चूहा मौजूद हो तो कौन कोहनूर की फिकर करता है!
ऋषि अपनी भाषा बोलते हैं, हम अपनी भाषा समझते हैं। वहीं चूक हो जाती है। जब ऋषि ने कहा--सब सुखी हों, तो ऋषि यह कह रहा है कि जैसा मैं सुखी हुआ, ऐसे सब हों। तुमने सुना, तुमने कहा कि ठीक है, तो ऋषि यह कह रहे हैं कि कार मिले, बड़ा मकान मिले, कि सुंदर स्त्री मिले--तुम अपना सुख सुनने लगे, तुम अपना सुख समझने लगे। ऋषि तो अपने सुख की बात कर रहा है।
ऋषियों का सुख क्या है? कि सबको परमात्मा मिले। वहीं तो पहुंच कर सारे लोग दुख के पार होते हैं। इस संसार में तो दुख ही दुख है। मगर तुम्हें दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं है, अनिवार्यता नहीं है, तुम सुखी हो सकते हो। मैं सुखी हूं और तुमसे कहता हूं कि तुम भी ऐसे हो सकते हो--मैं गवाह हूं। सारे ऋषि गवाह हैं। लेकिन तुम तो ऋषियों के पास भी जाते हो तो आशीर्वाद वही मांगते हो कि चूहा मिल जाए।
मेरे पास भी लोग आ जाते हैं और वे कहते हैं, आपके पास आशीर्वाद लेने आए हैं, चुनाव में खड़े हुए हैं। मुझसे भी पाप करवाएंगे वे, चुनाव में वे खड़े हुए हैं! आशीर्वाद लेने आ गए हैं कि चुनाव जीत जाएं! कि मुकदमा लड़ रहे हैं, आशीर्वाद लेने आ जाते हैं कि आशीर्वाद दें। मेरे पास जब लोग आते हैं कभी-कभी और कहने लगते हैं आशीर्वाद दें, तो मैं कहता हूं--पहले ठीक-ठीक बता दें कि तुम्हारी मंशा क्या है? आशीर्वाद किसलिए चाहते हो? क्योंकि जहां तक सौ में निन्यानबे मौके पर तुम गलत चीज के लिए ही आशीर्वाद मांगते होओगे। वह मैं नहीं दे सकता हूं।
संसार तो दुख है। और तुम जिसे सुख मान कर दौड़ रहे हो, उसमें और-और दुख बढ़ता जाएगा क्योंकि वहां सुख नहीं है, मृग-मरीचिका है।
खौफ के नाग हर-इक सिम्त हैं फन फैलाए
जुल्मतें बाल बखेरे हुए फिरती हैं यहां
कितनी मद्दूक तमन्नाओं के सूखे ढांचे
एक खामोश से लहजे में है फरियादकनां
वक्त इक भूख की मारी हुई डायन की तरह
चाटता जाता है एहसास के लाशेका लहू
और इन तीराफजाओं में घुली जाती है
जहर में लिपटी हुई इक सुबक रंग-सी बू
देख कर इतनी सियाह और भयानक राहें
कौन समझेगा भला किसको यह आएगा खयाल
जगमगाते हुए आरिज की शुआएं लेकर
इन पै गुजरे हैं कुछ माहवशो-बर्के-जमाल
अगर तुम गौर से देखोगे इस जिंदगी के दुख को, तो भरोसा ही नहीं आएगा कि यहां सौंदर्य हो सकता है! यहां सुख हो सकता है! इस मरुस्थल को देख कर खयाल भी आ सकता है कि यहां कहीं मरूद्यान होंगे? इन कांटों को देख कर सपना भी देखना मुश्किल हो जाएगा कि यहां फूल खिल सकते हैं। बाहर फूल खिलते भी नहीं। फूल भीतर खिलते हैं। बाहर दुख है, भीतर सुख है। बाहर अर्थात दुख, भीतर यानी सुख।
तो जब ऋषि कहते हैं--सबको सुख मिले, तो वे यह कह रहे हैं, सब अपने भीतर लीन हों, सब अपने भीतर जागें, सब अपने भीतर आएं, सब अपने घर में विराजें, सब अपने मालिक को पहचानें, सब अपने स्वभाव में जीएं। यह मेरी परिभाषा।
हालांकि मुझे पक्का खयाल है कि मैत्रेय ने प्रश्न पूछा है तो इसीलिए पूछा है कि अब तक इस सूत्र की जो भी परिभाषाएं की गई हैं वे गलत हैं। वे परिभाषाएं तुम्हारी परिभाषाएं हैं। और तुम्हारे पंडित ही इनके अर्थ करते रहते हैं। पंडितों के हाथ में शास्त्र पड़ गए हैं। और पंडितों के हाथ में पड़ कर ही शास्त्र कारागृह में पड़ गए हैं। उनके कुछ के कुछ अर्थ हो गए हैं। शास्त्र कुछ कहते हैं, पंडित कुछ समझाता है। पंडित तुम्हारी कामनाओं का दलाल है। पंडित तुम्हारा नौकर है। पंडित को तुमसे संबंध है, शास्त्रों से कोई संबंध नहीं, ऋषि से कोई संबंध नहीं।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक नवाब के घर नौकरी पर था। नौकरी पर क्या था, चमचा था। उसमें कुशल भी है। और नवाबों को तो जरूरत होती है।
दोनों साथ खाना खाने बैठे, नई-नई भिंडी बाजार में आई है, भिंडी बनी है। नवाब ने कहा कि बड़ी स्वादिष्ट बनी है। मुल्ला ने कहा: स्वादिष्ट होगी ही, भिंडी से ऊंची कोई सब्जी ही दुनिया में नहीं है। यह तो रानी है रानी! इसमें तो बड़े गुण हैं। वनस्पतिशास्त्री क्या-क्या कहते हैं, यह सब उसने बताया, कि भिंडी में कितने-कितने गुण हैं, और भिंडी कितनी अदभुत है, कितनी स्वास्थ्यदायी है--भिंडी अमृत है! जब आदमी अतिशयोक्ति करता है तो फिर कोई कंजूसी तो करता नहीं। सम्राट ने सुना। सम्राट के रसोइए ने भी सुना। फिर उसने दूसरे दिन भी भिंडी बनाई। फिर तीसरे दिन भी भिंडी बनाई। जब सातवें दिन फिर भिंडी बनाई तो सम्राट ने थाली फेंक दी कि भिंडी, भिंडी, भिंडी, क्या मेरी जान लेना है? मुल्ला ने कहा कि यह खतरनाक है आदमी, यह मार डालेगा आपको, भिंडी जहर है। इससे बदतर तो कोई चीज नहीं, यह तो जानवरों को भी नहीं खिलानी चाहिए। नवाब ने कहा: हद्द हो गई नसरुद्दीन, तुम तो कहते थे अमृत है; अब कहने लगे जहर है। नसरुद्दीन ने कहा: हुजूर, मैं भिंडी का नौकर नहीं, आपका नौकर हूं। जो आप कहें, मैं तो उसी की प्रशंसा के पुल बांधूंगा।
वह जो पंडित है, तुम्हारा नौकर है, उसका ऋषियों से कुछ लेना-देना नहीं है। ऋषियों से तो सिर्फ ऋषियों का ही लेना-देना हो सकता है। और किसी की लेन-देन हो भी नहीं सकती। जो उस चैतन्य की दशा में पहुंचे हैं, वही उसका ठीक अर्थ कर सकते हैं। क्योंकि वह अर्थ शब्दों में नहीं छिपा है, अनुभव में छिपा है। जिन्होंने प्रेम जाना है, वे प्रेम का अर्थ करेंगे। और जिन्होंने परमात्मा जाना है, वे परमात्मा का अर्थ करेंगे। लेकिन जिन्होंने केवल प्रेम शब्द पढ़ा है और परमात्मा शब्द सुना है, वे भी अर्थ कर सकते हैं; मगर वह अर्थ शब्द का ही होगा। इसलिए भूल हो रही है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आखिरी सवाल। सवाल भी आप, जवाब भी आप, पूछने वाले भी आप, उत्तर देने वाले भी आप; यह कैसी लीला? मैं तो यहां से भाग ही जाऊंगी। बहुत खुश होकर तीस तारीख को जा रही हूं। हमेशा आपके चरणों में मुझे रख लेना।
योगिनी! अब भाग न पाओगी। और भाग कर जाओगी कहां? मैं पीछा करूंगा। मैं पीछे-पीछे आऊंगा। मैं छाया की तरह। एक बार किसी ने मुझसे संबंध जोड़ा तो फिर भागने का उपाय नहीं है। फिर मैं तुम्हारे सपनों में उतरूंगा, तुम्हारी नींद को झकझोरूंगा, तुम्हारे भावों में तैरूंगा। मैं तुम्हारी स्मृति बन जाऊंगा। मैं तुम्हारी कल्पना बन जाऊंगा। बचने का कोई उपाय नहीं है, योगिनी! भागने का कोई उपाय नहीं है। भागने का मन भी होता है, यह भी मैं जानता हूं। घबड़ाहट भी लगती है। यह प्रेम बड़ा है। इसमें डूबे तो डूबे। यह मझधार में डूबना है।
लोग तो उतरने आए हैं और मैं उन्हें डुबाता हूं। लोग सोच कर आए थे उस पार जाना है और मैं कहता हूं--मझधार के अतिरिक्त और कोई पार नहीं है! मझधार तक समझा-बुझा कर ले आता हूं कि चल रहे हैं उस पार--वह केवल समझाना है, योगिनी--जब मझधार आ जाती है, तो मैं कहता हूं--आ गई जगह, अब लगाओ डुबकी, अब डूबो, अब मिटो! वह तो प्रलोभन है केवल। वे तो किनारे को पकड़े हुए लोग हैं, वे वह किनारा छोड़ नहीं सकते, उनको दूसरे किनारे की पूरी की पूरी आस्था दिलानी पड़ती है कि दूसरा किनारा है, इससे भी बड़ा सुंदर किनारा है, वहां सोने-चांदी के फूल खिलते हैं, वहां हीरे-जवाहरात कंकड़ों की तरह पड़े हैं, वहां हजार-हजार सूरज निकले हुए हैं, वहां अमृत की वर्षा हो रही है। वह तो दूसरे किनारे के सब्जबाग दिखाने पड़ते हैं, नहीं तो तुम इस किनारे को छोड़ने को राजी नहीं, तुम कहते हो--फिर हम जाएं क्यों? यहीं ठीक हैं, क्षणभंगुर फूल हैं मगर खिलते तो हैं; सोने-चांदी के नहीं, मगर क्या फिकर!
लेकिन एक बार तुम चल पड़े मेरे साथ, तो बीच मझधार में पहुंच कर मैं तुमसे कहता हूं--कोई किनारा नहीं। और लौट कर जाने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जो मझधार में आ गया, वह किनारा भी खत्म हो गया उसका जो छोड़ चुका है। वह भी सपने में था, वह तो टूट चुका। और दूसरा किनारा एक कांटे की तरह था। एक कांटा तुम्हारे पैर में लगा था, दूसरा कांटा हम लाए कि तुम्हारे पैर में लगे कांटे को निकाल लें। फिर दोनों को फेंक देना है। दोनों किनारे छूट जाते हैं, मझधार में आदमी डूबता है। और जो मझधार में डूब गए, वे धन्यभागी हैं। क्योंकि वही तरे, वही तिरे। जो डूबे, वही तिरे।
जीसस का अदभुत वचन है: मिटोगे तो पाओगे।
पूछा है: ‘आखिरी सवाल।’
आखिरी कोई सवाल हो नहीं सकता, लगता है बहुत बार कि आखिरी सवाल आ गया। एक सवाल से दूसरा सवाल पैदा हो जाता है। सवाल से न पैदा हो तो जवाब से पैदा हो जाएगा। मगर आखिरी नहीं हो पाता। तुमने कुछ पूछा, तुम्हें लग रहा था कि आखिरी है, अब और कुछ पूछने को नहीं बचा, लेकिन मैं कुछ कहूंगा उत्तर में, उसमें से दस सवाल उठ आएंगे। हर उत्तर नये प्रश्न जन्मा जाता है।
आखिरी सवाल तो उस दिन होगा जब तुम पूछोगे ही नहीं। जब तुम्हें समझ में आ जाएगा कि हर सवाल जवाब बनता है, हर जवाब नये सवाल बन जाता है। जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाएगा, पूछना छूट जाएगा; निष्प्रश्न मेरे पास बैठे होओगे; बस यहां मैं, वहां तुम; और धीरे-धीरे न मैं यहां, न तुम वहां, खो गए दोनों, एक लय बंधी, एक तार जुड़ा, एक संगीत उठा। उस उपस्थिति में सारी उपलब्धि है।
ये सवाल-जवाब तो सब बहाने हैं। यह तो तुम्हें यहां उलझाए रखने की व्यवस्था है। तुम शायद अभी तैयार नहीं हो कि खाली-खाली यहां बैठ सको रोज-रोज। एकाध दिन बैठ सको, रोज-रोज न बैठ सकोगे। चुपचाप मेरे पास बैठ सको, तो कहने की जरूरत नहीं है; क्योंकि जो कहना है मुझे, कहा नहीं जा सकता और जो मैं कह रहा हूं, उसे कहने की कोई जरूरत नहीं है। मगर तुम चुप न बैठ सकोगे। तुम्हारे चंचल मन के लिए कुछ चाहिए जिससे वह खेलता रहे। ये शब्द खिलौने हैं। जैसे छोटा बच्चा ऊधम करता है, उपद्रव मचाता है, उसको खिलौना दे देते हैं, वह खिलौने में लीन हो जाता है; ऐसा तुम्हारा मन है, चंचल है, उपद्रवी है, तुम्हें कुछ शब्द देता हूं, शब्द खिलौने हैं, तुम्हारा मन उनसे उलझ जाता है। इधर तुम्हारा मन उलझा रहता है, वहां असली काम किनारे-किनारे चल रहा है, परोक्ष में चल रहा है। मन उलझा है, तुम मेरे करीब सरक रहे हो, मैं तुम्हारे करीब आ रहा हूं। धीरे-धीरे यह राज तुम्हें समझ में आ जाएगा।
इसीलिए तो तुम देखते हो कि बहुत लोग जो हिंदी नहीं समझते, वे भी सुनने बैठे हैं। तुम सोचते भी हो कभी-कभी कि ये लोग क्या सुन रहे हैं? इनको राज समझ में आ गया है कि सवाल सुनने का नहीं है, सवाल गुनने का है; सवाल सुनने का नहीं है, सवाल साथ होने का है, सत्संग का है। तो मैं क्या कह रहा हूं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। किस भाषा में कह रहा हूं , इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता लेकिन कुछ मेरी मौजूदगी कह रही है, जो अभाष्य है, जो भाषातीत है, वे उस मौजूदगी को पी रहे हैं। उसी मौजूदगी को तुम जब पीने लगोगी, फिर सवाल आखिरी आया। नहीं तो सब सवाल नये जवाब, नये सवालों की श्रृंखला, सिलसिला शुरू करते हैं।
तुम पूछती हो: ‘आखिरी सवाल। सवाल भी आप, जवाब भी आप, पूछने वाले भी आप, उत्तर देने वाले भी आप; यह कैसी लीला?’
क्योंकि एक ही है, दो हैं नहीं, दो हमारी भ्रंाति है। और यहां तुम्हें इसकी प्रतीति हो जाए, इसीलिए रुका हूं, इसीलिए ठहरा हूं तुम्हारे पास कि तुम्हें इस बात की प्रतीति हो जाए कि सवाल और जवाब दो के नहीं हैं; बोलने वाला और सुनने वाला यहां दो नहीं हैं, यहां सुनने वाला और बोलने वाला एक ही है। धीरे-धीरे यह भाव उमगेगा, प्रगाढ़ होगा, गहरा जाएगा। और जैसे-जैसे यह भाव गहरा जाएगा, तुम चकित होकर जागोगे कि दो तो कभी भी न थे।
यहां मैं और तू नहीं हैं। जहां मैं-तू खो जाते हैं, फिर जो शेष रह जाता है--वह--वही है। रसो वै सः। वही रसधार है। उसी की तलाश है। उसी की खोज है।
यह कोई व्याख्यान नहीं हो रहा है यहां। यह सत्संग है। उसके रस को हम कैसे अपने में स्वीकार कर पाएं, इसकी आयोजना हो रही है। यह आयोजना वैसी है जैसे कभी तुम शास्त्रीय संगीत सुनने गए? तो घड़ी-आधा घड़ी तो संगीतज्ञ अपने वाद्य को ही बिठाने में समय लगा देता है। साज जमाता रहता है। इधर तार कसता, उधर ढीला करता, इधर तबले को ठोकता, उधर तबले को ठोकता। जो लोग शास्त्रीय संगीत नहीं जानते, उनको बड़ी हैरानी होती है कि घर से ही ठोक-पीट कर क्यों नहीं ले आते? यहीं बैठ कर यह खटर-पटर क्यों मचाते हो? लेकिन जिन्हें पता है वे जानते हैं कि तार ताजे-ताजे कसने होते हैं; बासे हो जाते हैं नहीं तो। बासे हो जाते हैं, फर्क पड़ जाता है। प्रतिपल ताजे होने चाहिए। वहीं तुम्हारे सामने बैठ कर--बड़ा बेहूदा लगता है, कि ठोकने लगे, तार कसने लगे, ढीले करने लगे; यह पर्दे के पीछे ही कर लेते, यह घर से ही कर लाते। नहीं, यह नहीं हो सकता। शास्त्रीय संगीत जीवंत संगीत है। जैसे जीवन प्रतिपल नया है और प्रतिपल तैयार करना होता है, प्रतिपल जीना होता है, ऐसे ही। घड़ी-आधा घड़ी इसी में लगा देता है संगीतज्ञ। कभी-कभी तो बड़ी भूल-चूक हो जाती है।
ऐसा हुआ लखनऊ में नवाब वाजिद अली के जमाने में।
एक अंग्रेज गवर्नर उसके यहां संगीत सुनने आया। वाजिद अली बड़ा प्रेमी था संगीत का। उसके पास बड़े-बड़े संगीतज्ञ थे। उसने अपने बड़े से बड़े संगीतज्ञों को निमंत्रित किया--गवर्नर आया था। बैठे संगीतज्ञ, बैठक जमी, महफिल बैठी। अब संगीतज्ञ लगे ठोकने--कोई अपना तबला ठोक रहा है, कोई अपनी सारंगी जमा रहा है, कोई अपना सितार कस रहा है! आधी घड़ी बीत गई, गवर्नर ने कहा कि मुझे बड़ा आनंद आ रहा है, यही संगीत जारी रहे। उसे कुछ पता तो है नहीं, वह तो इस ठोकने-पीटने को समझा कि संगीत है--यही संगीत जारी रहे! वाजिद अली तो पागल था, उसने कहा, फिर यही जारी रहे। उसने आज्ञा दे दी कि यही करते रहो। तीन घंटे तक यही जारी रहा। और गवर्नर बड़ा संतुष्ट गया।
तुम खयाल रखना कि जो मैं बोल रहा हूं, यह तो केवल तारों का कसा जाना है। तुम उस अंग्रेजी गवर्नर जैसी मूढ़ता मत कर लेना, इसी को संगीत मत समझ लेना; यह तो केवल साज बिठाया जा रहा है। और जब साज बैठ जाता है, तो फिर चुप्पी है। और वही चुप्पी संगीत है। शब्द ही मत सुनना, शब्दों के बीच में जो अंतराल है उन्हें सुनना। जो मैं कह रहा हूं, वही मत सुनना; जो मैं हूं, उसे सुनना। जो मैं नहीं हूं, उसे सुनना। शून्य को पकड़ना, मौन को पकड़ना। ये जो उत्तर मैं दे रहा हूं, यह तो केवल साज बिठाया जाना है।
रवींद्रनाथ मरते थे। तो उनके एक मित्र ने कहा कि तुम तो धन्यभागी हो! तुमने छह हजार गीत लिखे। इससे बड़ा महाकवि पृथ्वी पर कभी हुआ नहीं। इंग्लैंड में लोग शैली को महाकवि समझते हैं, उसने भी दो हजार गीत लिखे हैं, तुमने छह हजार लिखे। और ऐसे गीत लिखे कि सब संगीत में बंध जाते हैं। तुम्हें तो आनंद से जाना चाहिए। तुम्हारी आंख में आंसू क्यों हैं? रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा: आंसू इसलिए हैं कि मैं परमात्मा से शिकायत कर रहा हूं कि अभी तो मेरा साज ही बैठ पाया था, अभी असली गीत गाया कहां? अभी तो ठोक-पीट कर रहा था। ये छह हजार गीत तो बस साज बिठाने में लिखे हैं। अब जरा बैठ रहा था, बैठने के करीब आ रहा था और यह विदा का क्षण आ गया। अब ऐसा लगता था कि शायद गा पाऊंगा जो गाने आया था, करीब आ रही थी बात, जबान पर आ रही थी बात और जाने का वक्त आ गया; यह क्या मजाक है! अब तो तैयार हो रहा था, अब तो वीणा कस गई थी, संगीत उतरने ही उतरने को था।
जो मैं कह रहा हूं, वह तो केवल वीणा का कसना है। जो अनकहा छोड़ा जा रहा है, वही असली संगीत है। उसे सुनो। उसी में डूबो। वही रस है। वही परमात्मा है।
पूछा है: ‘बहुत खुश होकर तीस तारीख को जा रही हूं, हमेशा आपके चरणों में मुझे रख लेना।’
रख लिया। तेरा हृदय यहीं रखे ले रहे हैं। संन्यास का यही अर्थ है कि तुम्हारा हृदय ले लेता हूं और मेरा हृदय तुम्हें दे देता हूं। इस लेन-देन का नाम संन्यास है। इस संवाद का नाम संन्यास है।
आज इतना ही।