RAJJAB
Santo Magan Bhaya Man Mera 16
Sixteenth Discourse from the series of 20 discourses - Santo Magan Bhaya Man Mera by Osho. These discourses were given during MAY 12-31 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपके बिना इस जिंदगी से कोई शिकवा तो न था, लेकिन आपके बिना यह जिंदगी जिंदगी भी तो न थी। अब जी में आता है, तेरे दामन में सिर छिपा कर रोता रहूं, रोता रहूं!
अगेहानंद! धन मिलता है तभी निर्धनता का पता चलता है। स्वास्थ्य का अनुभव हो तो बीमारी की पहचान आती है। जो सदा बीमार ही रहा हो, उसे बीमारी भूल जाती है। जो जंजीरों में ही रहा हो और जिसने कभी स्वतंत्रता का स्वाद न चखा हो, उसे जंजीरें याद नहीं रह सकतीं। जंजीरों को जानने के लिए स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि चाहिए। नहीं तो जंजीरें आभूषण मालूम होने लगती हैं। आदमी अपनी जंजीरों को सजा लेता है, संवार लेता है, सुंदर बना लेता है। कारागृह में ही अगर पैदा हुए, वहीं पहली बार आंख खोली और खुला आकाश कभी देखा नहीं, तो कारागृह कारागृह है यह कैसे जानोगे? स्वतंत्रता का अनुभव ही, थोड़ा सा अनुभव, एक बूंद भर अनुभव भी बेचैन कर जाएगा। फिर कारागृह में एक क्षण रुकना कठिन है। फिर खुले आकाश की आकांक्षा पैदा होती है।
इसलिए धार्मिक व्यक्ति अधार्मिक व्यक्ति से ज्यादा अशांत हो जाता है। अधार्मिक व्यक्ति की तो कोई खास अशांति नहीं है, क्षुद्र की अशांति है। उसकी शिकायतें ही क्या हैं? थोड़ा पैसा और मिल जाए, थोड़ा बड़ा मकान हो, थोड़ी बड़ी दुकान हो। यह सब हो सकता है। हो ही रहा है। उसकी जगत से कोई बड़ी शिकायत नहीं, क्योंकि जगत से उसकी कोई बड़ी मांग नहीं। थोड़ा बैंक में उसका पैसा बढ़ जाएगा, उसकी अशांति शांत मालूम होती पड़ेगी।
असली अशांति तो धार्मिक व्यक्ति को पैदा होती है। क्योंकि उसकी अभीप्सा अनंत की है, असीम की है, विराट की है, अमृत की है। थोड़े से, छोटे से वह राजी नहीं है। उसका असंतोष बड़ा व्यापक है। उसकी अतृप्ति इस पृथ्वी पर पूरी हो सके, ऐसा संभव नहीं है। आकाश ही उसे तृप्ति दे सकता है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति अधार्मिक व्यक्ति से ज्यादा अड़चन में पड़ जाता है। और तब तुम्हें यह भी समझ में आ जाएगा कि लोग धर्म से डरे हुए क्यों हैं? उनके डरने के पीछे अचेतन कारण हैं। भय है। ऐसे ही जिंदगी मुश्किल मालूम पड़ती है, और इस जिंदगी में परमात्मा की आकांक्षा को भी अगर जन्मा लिया, फिर क्या होगा? क्षुद्र तो मिलता नहीं है, शाश्वत को कहां खोजने जाएंगे? क्षुद्र ही तो हाथ में नहीं आ रहा है, विराट को कैसे पा सकेंगे? इनकार ही कर दो कि विराट है ही नहीं।
नास्तिक ईश्वर को इनकार नहीं करता, सिर्फ इतना ही कहता है कि तुम न होओ तो अच्छा! मैं वैसे ही मुश्किल में हूं, मैं ऐसे ही मुश्किल में हूं और अगर तुम भी हो और तुम्हें भी पाने की अभीप्सा जग गई, फिर मेरा क्या होगा? अभी ही सोना मुश्किल है, अभी ही नींद नहीं आती, लेकिन तुम्हारी अगर खोज पैदा हो गई, तो फिर कहां पलकें लगा पाऊंगा? नास्तिक अपनी आत्म-रक्षा में ईश्वर को इनकार करता है। नास्तिकता का कोई संबंध ईश्वर से नहीं है, उसका संबंध सिर्फ अपनी रक्षा से है। नास्तिक यह कहता है कि न तुम हो, न मुझे तुम्हें खोजने की कोई जरूरत है। यह छोटा सा आंगन सब-कुछ है। बस इस छोटे से आंगन पर कब्जा हो जाए, मालकियत हो जाए, तो सब पा लिया। नास्तिक यह कह रहा है, इस आंगन के पार और कुछ भी नहीं है। वह यह कह रहा है कि न होगा बांस न बजेगी बांसुरी। वह पहले से ही अपनी रक्षा कर रहा है।
नास्तिक भयभीत आदमी है। आमतौर से लोग उलटा समझते हैं। आमतौर से लोग समझते हैं कि नास्तिक बड़ा निर्भीक है। देखो, ईश्वर तक को इनकार कर रहा है। मैं तुमसे कहता हूं, बात बिलकुल उलटी है। नास्तिक निर्भीक नहीं है। निर्भीक होता तो इस जगत को इनकार करता और ईश्वर की खोज पर निकलता। क्षुद्र की खोज में रखा क्या है? निर्भीक होता तो अनंत की तलाश करता, दुर्गम की तलाश करता; जो आसानी से नहीं मिलता है, उस शिखर को पाने की यात्रा पर निकलता, जिसे पाने में बड़ी चढ़ाई है और चढ़ाई कठिन है।
नहीं, नास्तिक निर्भीक नहीं है, भयभीत है। यद्यपि उसने अपने भय के लिए बड़ा तर्कजाल खोज रखा है। वह कहता है--ईश्वर है ही नहीं, खोज पर जाएं तो जाएं किसकी? पुकारें तो पुकारें किसे? होता तो जरूर पुकारते, है ही नहीं। ऐसे उसने आंख बंद कर ली। कारागृह में जो आदमी कहता है--आकाश है ही नहीं, आकाश में उड़ने वाले पंख हैं ही नहीं, आकाश में कोई कभी उड़ा नहीं, ये सब व्यर्थ की बातें हैं, वह सिर्फ इतना ही कह रहा है--मुझे चैन से सोने दो, मुझे मेरी जंजीरों में रहने दो, यह कारागृह नहीं है, यह मेरा घर है, मुझे कुछ और नहीं चाहिए, इससे ज्यादा की मेरी मांग नहीं है।
तुमने साधारणतः यह भी सुना है कि धार्मिक आदमी बड़ा संतुष्ट होता है, मैं तुमसे कहता हूं कि गलत है बात। धार्मिक आदमी संसार की दृष्टि से संतुष्ट मालूम होता है, क्योंकि उसका सारा असंतोष परमात्मा की तरफ लग गया है। उसके पास असंतोष बचा नहीं कि दुकान में लगा दे, इसलिए संतुष्ट मालूम होता है, इसलिए नहीं कि संतुष्ट हो गया है वह संसार से। संसार से कौन कब संतुष्ट हुआ है? लेकिन असंतोष की एक मात्रा है, एक सीमा है। उसने अपना सारा असंतोष सत्य की खोज में लगा दिया है। उसकी अतृप्ति आंतरिक है। सांसारिक की अतृप्ति बाह्य है। उसकी नजरें बाहर खोज रही हैं। धार्मिक की नजरें भीतर खोज रही हैं। और भीतर की खोज कठिन है। चांद-तारों पर पहुंच जाना आसान है, अपने भीतर पहुंचना कठिन है।
क्यों कठिन है?
क्योंकि चांद-तारों और हमारे बीच फासला है। फासला हो तो तय किया जा सकता है। स्वयं के और स्वयं के बीच कोई फासला नहीं है, तय कैसे करो? इसलिए तीर्थयात्रा बड़ी कठिन है। और जब मैं कहता हूं--तीर्थयात्रा, तो मेरा मतलब काबा और काशी से नहीं है, तुम्हारे अंतर्तम में विराजमान परमात्मा से है, तुम्हारे भीतर जलते हुए चैतन्य के दीये से है। दूरी ही नहीं है, यात्रा कैसे हो, यही अड़चन है। जो मिला ही हुआ है, उसे कैसे पाएं, यही अड़चन है। न मिला होता तो पाने की कोशिश कर लेते। जो हमारा ही है, उसे कैसे जानें? जो सदा से हमारा है, जैसे मछली सागर में है, कैसे सागर को जानें? ऐसी हमारी दशा है।
तुम्हारा प्रश्न सार्थक है। तुमने पूछा है: ‘आपके बिना इस जिंदगी से कोई शिकवा तो न था।’
हो भी नहीं सकता था। जब तक सदगुरु से मिलना न हो जाए, जिंदगी से कोई शिकवा होता ही नहीं। जिंदगी सब-कुछ मालूम होती है, खिलौने ही सब-कुछ मालूम होते हैं, कूड़ा-करकट ही धन मालूम होता है, शिकवा हो भी क्या सकता है? और तुम्हारे चारों तरफ तुम्हारे जैसे ही लोग होते हैं, तुम भी व्यर्थ को पाने में लगे हो, वे भी व्यर्थ को पाने में लगे हैं। सब तुम्हारे जैसे लोग, तुम्हारी ही दौड़, एक ही दिशा की खोज, भीड़ में आदमी चलता चला जाता है। याद कहां आती है कि हम अपनी जिंदगी का क्या उपयोग कर रहे हैं? क्या जिंदगी इसी के लिए है कि थोड़ा सा धन इकट्ठा करके मर जाएं? कि थोड़ा बड़ा मकान बना कर मर जाएं? कि दो-चार बच्चे पैदा करें और मर जाएं? जिंदगी इसीलिए है? प्रश्न ही नहीं उठ पाते। प्रश्नों की सुविधा ही नहीं है। ऐसे प्रश्न संगत भी नहीं मालूम पड़ते। जिंदगी के संगत प्रश्न दूसरे हैं। सफलता कैसे मिले? धन कैसे कमाया जाए? पद कैसे मिले? प्रतिष्ठा कैसे मिले?
नहीं, तुम्हें शिकवा हो भी नहीं सकता था। मेरे पास आए हो तो अब तुम्हें जिंदगी से असंतोष शुरू होगा। अब तुम्हें लगेगा, अब तक जो किया है, व्यर्थ; सब अब तक जो किया, मिट्टी हो गया। अगर पचास साल जीए हो, तो नाली में बह गए वे पचास साल। उनसे कोई उपलब्धि नहीं हई। घबड़ाहट होगी, बेचैनी होगी। इसलिए सदगुरु से लोग बचते हैं। पंडित-पुजारी के पास जाने से नहीं डरते, क्योंकि पंडित-पुजारी तो तुम्हारी ही दुनिया का हिस्सा है। उसमें और तुममें कोई भेद नहीं है। पंडित-पुजारी तुम्हारे भीतर अभीप्सा का दीया नहीं जला सकता है, असंतोष की आग पैदा नहीं कर सकता है। सदगुरु वही है जो तुम्हें ऐसा असंतुष्ट कर दे कि जब तक परमात्मा न मिले तब तक संतोष न मिले।
जीसस ने ठीक कहा है कि मैं शांति का संदेश लेकर नहीं आया, मैं तलवार लेकर आया हूं। कल सुनते थे रज्जब को, कि गुरु ने भाला छेद दिया मेरी छाती में। जहां भाला छिद जाए छाती में, वहीं समझना रूपांतरण की संभावना है। तुम्हें यहां आकर कुछ नये का आभास हुआ, भनक पड़ी कान में, जिंदगी ऐसी भी हो सकती है, जिंदगी यह रूप, यह रंग भी ले सकती है, जिंदगी ऐसा गीत भी गा सकती है, जिंदगी में ऐसे फूल भी खिल सकते हैं, तुम्हें थोड़ी सी सरसराहट मालूम हुई। तुम जिस जिंदगी को जी रहे थे, वही जिंदगी को जीने का एकमात्र विकल्प नहीं है, और भी विकल्प हैं। तुम जिसे धन मानते थे, वही धन नहीं है, और भी धन हैं। और तुम जिसे पद मानते थे, वही पद नहीं है, और भी पद हैं। नया आयाम खुला। आंख जरा ऊपर उठी। कारागृह की दीवाल के पार तुमने आकाश की तरफ देखा। चांद-तारों से भरा आकाश दिखाई पड़ा। तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगे। कारागृह से शिकायत शुरू हो गई।
सदगुरु से मिलने का अर्थ है, ऐसे व्यक्ति से मिल जाना, जिसे स्वतंत्रता का अनुभव हुआ है। स्वतंत्रता का अनुभव संक्रामक है। उसका उपदेश नहीं दिया जाता, उसका उपदेश दिया भी नहीं जा सकता, लेकिन अगर तुम स्वतंत्रता से भरे हुए व्यक्ति के पास बैठोगे, तो कुछ बूंदें छलक जाएंगी उसके भीतर से तुम्हारे भीतर। कब छलक जाएंगी, पता भी नहीं चलेगा। संक्रामक है इसलिए कहता हूं। प्रेम से भरे व्यक्ति के पास बैठोगे, कुछ प्रेम की बूंदें तुम्हारे कंठ से उतर जाएंगी, तुम्हारे बावजूद।
और तुमने यह अनुभव भी किया है कभी-कभी।
अगर उदास आदमी के पास बैठो तो अनायास तुम उदास हो जाते हो। और चिंतित आदमी के पास बैठो तो चिंताओं की तरंगें तुम्हारे चित्त को घेर लेती हैं। हंसते आदमी के पास बैठो तो चाहे तुम उदास भी क्यों न रहे होओ, एकबारगी भूल जाते हो उदासी और हंसने लगते हो। दस आदमी आनंदित बैठे हों, मस्त हों और तुम उनके पास बैठ जाओ तो उनकी मस्ती का प्रवाह तुम्हें भी बहा ले चलता है किसी नई दिशा में। थोड़ी देर को तुम किसी और लोक के यात्री हो जाते हो। यह तुम्हारे भी अनुभव में आता है कि हमें एक-दूसरे की तरंगें छू लेती हैं।
सत्य की तरंग तो बड़ी से बड़ी तरंग है, बाढ़ है। जिसको सत्य मिला हो, उसके पास बैठोगे तो तुम्हें पहले तो यही अड़चन आएगी कि तुम्हारी सारी जिंदगी असत्य मालूम होने लगेगी, उसकी तुलना में।
तुमने एक प्रसिद्ध कहानी सुनी है न, कि अकबर ने एक लकीर खींच दी अपने दरबार में एक दिन आकर और कहा, कोई इसे छुए न और छोटी कर दे। बिना छुए छोटी कर दे। अब लकीरें बिना छुए कैसे छोटी की जाएं? दरबारियों ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, जितना सोचा होगा उतनी ही उलझन बढ़ गई होगी, क्योंकि बिना छुए कैसे लकीर छोटी हो सकती है। छोटी करने का मतलब यह होता है--छूनी पड़ेगी, मिटानी पड़ेगी, पोंछनी पड़ेगी; इधर से, उधर से काटनी पड़ेगी। छूने की आज्ञा नहीं। और तब बीरबल हंसा, और उसने एक बड़ी लकीर उस छोटी लकीर के नीचे खींच दी। छोटी लकीर को छुआ नहीं और लकीर छोटी हो गई। बिना छुए छोटी हो गई। एक तुलना जगी। एक पृष्ठ भूमि खड़ी हो गई।
तुम जब मेरे पास आए, मैं तुम्हारी पृष्ठभूमि बना। शिकायत शुरू हुई। जिंदगी ऐसी ही जीनी जैसी तुम जी रहे थे, व्यर्थ है। और जब यह खयाल आता है कि जिंदगी ऐसा जीना व्यर्थ है, तभी दूसरा भी खयाल आता है कि फिर सार्थक क्या होगा? और एक बार असार असार की भांति दिख जाए, तो सार को खोजना कठिन नहीं है। असत्य असत्य की तरह अनुभव में आ जाए, तो सत्य तो हाथ के पास ही है--जब जरा गर्दन झुकाई देख ली। सत्य तो तुम्हारे भीतर है, असत्य में आंखें उलझी रहती हैं, इसलिए सत्य का अनुभव नहीं हो पाता। तो मेरे पास आओगे, असंतोष जन्मेगा, शिकायत भी पैदा होगी और आनंद के द्वार भी खुलेंगे। यह विरोधाभास एकसाथ घटित होगा। एक तरफ से तुम एकदम उदास हो जाओगे, अपनी जिंदगी को देखोगे तो उदास हो जाओगे, और जिंदगी की नई संभावना की थिरक देखोगे, यह नई पायल का बजना सुनोगे, तो परम आनंद से भर जाओगे। नये सपने तुम्हारे हृदय में नीड़ बना लेंगे।
धार्मिक होने का यही अर्थ है, यह पृथ्वी काफी नहीं। यह देह काफी नहीं। यह मन काफी नहीं। इस मन, इस देह, इस पृथ्वी का सीढ़ी की तरह उपयोग कर लेना है। अतिक्रमण करना है, पार जाना है, इसके ऊपर उठना है। इसके ऊपर उठने के ही भाव के कारण बड़ी भ्रांति हो गई, भ्रांति यह हो गई कि जब देखा महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को, मोहम्मद को ऊपर उठते, इस जिंदगी से पार जाते, एक नई जिंदगी का आविर्भाव करते, एक नये आकाश को आमंत्रित करते और उनका उत्फुल्ल भाव देखा, उनकी समाधि देखी, उनका उन्माद देखा, उनका हर्ष देखा, उनके चारों तरफ बहती हुई आनंद की शराब देखी, उनके पास बनती नई मधुशाला देखी--बहुत लोग दीवाने हुए और झूमे और मस्त हुए।
जो सदगुरु की जीवित अवस्था में जुड़ जाते हैं वे तो मस्त हो जाते हैं, लेकिन पीछे बड़ी अड़चन हो जाती है। पीछे संसार से ऊपर उठना है, यह बात ही लोग इस तरह अनुवादित करते हैं कि संसार दुश्मन है, देह दुश्मन है; ऊपर उठने की तो बात भूल जाती है, दुश्मनी की बात पकड़ जाती है। ऊपर कुछ है उसे पाना है, यह तो स्मरण में नहीं रहता, जो नीचे है उसे छोड़ना है, यह स्मरण में हो जाता है। विधायक नकारात्मक हो जाता है। जब बुद्ध जीवित होते हैं तो उनके साथ विधायक होता है धर्म। बुद्ध की मौजूदगी उसे विधायकता देती है, पाजिटिविटी देती है। बुद्ध की मौजूदगी में तुम चूक नहीं कर पाते। वह प्रकाश सामने है, कैसे भूल होगी? तुम उस प्रकाश में लीन होने लगते हो, तुम धीरे-धीरे उस प्रकाश से नाता जोड़ लेते हो, तुम अपने दीये को बुद्ध के दीये के पास सरकाते चलते हो--यही शिष्यत्व है--एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारा बुझा दीया बुद्ध के इतने करीब आ जाता है कि बुद्ध के दीये से लपट झपकती है, एक क्षण में क्रांति हो जाती है, तुम भी जल उठते हो। तुम पहली दफा जीवित होते हो। तुम्हारा असली जन्म होता है। तुम द्विज बनते हो।
बुद्ध के पास गए बिना कोई द्विज नहीं बनता। द्विज कोई पैदा नहीं होता। द्विज का अर्थ है, दुबारा जन्मा। एक जन्म मां से मिलता है, पिता से मिलता है, एक जन्म गुरु से मिलता है। गुरु के पास गए बिना कोई द्विज नहीं होता। जनेऊ इत्यादि पहन कर सोच मत लेना कि तुम द्विज हो गए, कि ब्राह्मण के घर में पैदा हुए तो द्विज हो गए। जब तक ब्रह्म को जानने वाले के पास पैदा न होओ फिर से, तब तक तुम द्विज नहीं हो सकते। वही ब्राह्मण है, ब्राह्मण यानी जिसने ब्रह्म को जाना। जब तक ब्राह्मण, ब्रह्म को जानने वाला तुम्हारी दाई न बन जाए और तुम्हें फिर से नया जन्म न दे दे, तब तक तुम शूद्र हो।
सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सभी को ब्राह्मण की तरह मरना चाहिए। सभी मरते नहीं ब्राह्मण की तरह। कभी-कभार। दुर्भाग्य की बात है। सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं और अधिकतर सभी शूद्र की तरह ही मरते हैं। ब्राह्मण तो कभी-कभी कोई होता है--कोई नानक, कोई रज्जब, कोई कबीर। मगर जब भी कभी कोई ब्राह्मण जीवित होता है, तो उसके पास धर्म की विधायकता होती है। तुम उसके पास सरकते-सरकते उसकी विधायक ज्योति से जुड़ जाते हो।
लेकिन जैसे ही दीया उड़ जाता है--उड़ियो पंख पसार--जैसे ही बुद्ध और कबीर चले जाते हैं, घना अंधकार छूट जाता है, पहले से भी ज्यादा घना अंधकार। तुमने कभी देखा, रात अंधेरी रात तुम राह से जा रहे हो, अंधेरा है, बहुत अंधेरा है, लेकिन फिर भी चल रहे हो तो कुछ-कुछ दिखाई पड़ता है, नहीं तो चलते कैसे! और तभी एक कार पूरा प्रकाश फैलाती हुई, तुम्हारी आंखों को जगमगाती हुई पास से निकल जाती है। फिर कार के बाद में एकदम डगमगा जाते हो। अंधेरा और अंधेरा हो जाता है। पैर लड़खड़ा जाते हैं। यह वही अंधेरा है, तुम भी वही हो, कुछ बदला नहीं है, मगर बीच में जो रोशनी चमक गई आंख में, वह अब और अंधेरा खड़ा कर गई। हर बुद्ध के मरने के बाद जगत में धर्म की विधायकता खो जाती है, नकारात्मकता पैदा हो जाती है।
नकारात्मक धर्म का अर्थ होता है, संसार गलत है, इसे छोड़ो। विधायक धर्म का अर्थ होता है, परमात्मा सही है, उसे पाओ। नकारात्मक धर्म का अर्थ होता है, यह छोड़ो, वह छोड़ो, यह त्यागो, वह त्यागो। विधायक धर्म का अर्थ होता है, हाथ फैलाओ, हृदय खोलो, रोशनी से भरो, परमात्मा का धन बरस रहा है, तुम वंचित न रह जाओ; द्वार-दरवाजे खोलो, उसे भीतर आने दो, अतिथि द्वार पर दस्तक दे रहा है।
फर्क समझ लेना।
इसी के कारण मनुष्य जाति बड़ी झंझट में पड़ गई है, क्योंकि हर बुद्ध के बाद नकारात्मकता फैल जाती है। यह कुछ अनिवार्य है। इससे बचा भी नहीं जा सकता। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, जब तक बन सके जीवित बुद्ध का साथ खोज लेना, नहीं तो बहुत संभावना है कि तुम नकारात्मक धर्म में ही उलझे रहोगे। और नकारात्मक धर्म तुम्हें परमात्मा को तो देगा ही नहीं, तुमसे संसार भी छीन लेगा। तुम धोबी के गधे हो जाओगे, न घर के, न घाट के। वही तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्माओं की जिंदगी है--धोबी के गधे, न घर के, न घाट के। परमात्मा मिला नहीं है और संसार छोड़ दिया है। स्वतंत्रता तो मिली ही नहीं, कारागृह भी गया। अब हाथ में कुछ भी नहीं है। पंख तो मिले ही नहीं, वह जो पिंजड़े की सुरक्षा थी वह भी गई।
तुमने कभी देखा, घर में अगर तुम्हारे तोता हो और बहुत दिन पिंजड़े में रह चुका हो तो उसे एकदम पिंजड़ा खोल कर मुक्त मत कर देना, वह मारा जाएगा। वह उड़ न सकेगा। क्योंकि पिंजड़े में बंद रहते-रहते उसकी पंख की क्षमता खो गई है, उसे अपने पंख पर भरोसा ही खो गया है। भरोसा तो प्रयोग से आता है। इतने दिनों से उड़ा नहीं, भूल ही गया है कि उड़ सकता है। पंख जरूर हैं, मगर अब सब दिखावे के हैं, औपचारिक हैं। अब पंखों के भीतर आस्था नहीं है। और आस्था के बिना हर चीज निर्जीव हो जाती है। अब तोते को अपने पंखों पर आस्था नहीं है--वर्षों से उसे याद ही नहीं है कि वह उड़ सकता है। हां, दूसरों को उड़ते देखा है, मगर मैं तो उड़ नहीं सकता। यह सम्मोहन उसमें गहरा हो गया है--कि मैं उड़ नहीं सकता, मैं उड़ नहीं सकता। यह सोच-सोच कर धीरे-धीरे अपने पंखों से अपना संबंध खो दिया है। आज उसे अचानक निकाल दोगे पिंजड़े के बाहर, मारा जाएगा। स्वतंत्रता तो मिलेगी नहीं, खुले आकाश का आनंद भी न मिलेगा, चांद-तारों से बात करने का मजा भी नहीं, वह जो पिंजड़े की सुरक्षा थी और जीवन था, वह भी गया।
ऐसे तुम्हारे साधु-संन्यासी हैं। नकारात्मक। संसार में थोड़ी तरंग भी है, थोड़ी रसधार भी बहती है क्योंकि परमात्मा संसार में मौजूद है। कितने ही कीचड़ में पड़ा हो मगर हीरा हीरा है। और कितना ही देह में भटक गई हो आत्मा लेकिन आत्मा आत्मा है। परमात्मा संसार में मौजूद है--इन वृक्षों में, इस कोयल की आवाज में, इन सूरज की किरणों में, इन हवाओं के झोंकों में, मुझमें, तुम में, परमात्मा मौजूद है। गिर गया है हीरा, कीचड़ में गिर गया है, साफ कर लेना है, उठाना है, धो डालना है।
विधायक धर्म सदगुरु से संबंध जोड़ने से उपलब्ध होता है। शास्त्र से जो धर्म को खोजते हैं उनको नकारात्मक धर्म हाथ मिलता है।
यह दो शब्द खूब याद रखना--‘शास्ता’ और ‘शास्त्र।’ शास्ता का अर्थ होता है: सदगुरु, जहां अभी शास्त्र जन्म रहा है, जहां शास्त्र अभी श्वासें ले रहा है, जहां शास्त्र में अभी खून की धार बहती है, हृदय धड़कता है, जहां वेद का जन्म हो रहा है, जहां कुरान की आयतें उठ रही हैं। शास्ता ऐसा द्वार, जहां से परमात्मा फिर जगत में झांक रहा है--स्पष्ट, प्रगाढ़ होकर, पुंजीभूत होकर, समग्रीभूत। फिर एक दफा संसार में आदमी की तलाश कर रहा है। फिर आदमी को पुकार रहा है। फिर आवाहन दे रहा है कि आओ, मैं प्रतीक्षातुर हूं।
शास्त्र, जब शास्ता जा चुका। शब्द अब श्वास नहीं लेते, किताब में स्याही बन कर पड़ गए। कहां रोशनी थी उन शब्दों में--जब बुद्ध बोलते हैं तो शब्दों में प्रकाश होता है--फिर शास्त्र में स्याही रह जाती है। स्याही यानी अंधेरापन। कालापन रह जाता है। कहां उज्ज्वल शब्द थे, कहां धड़कते शब्द थे, कहां नाचते शब्द थे, कहां फिर किताबों में पड़े हुए मुर्दा शब्द! लाशें रह गईं। किताबों पर पड़े दाग, फिर तुम उसमें सत्य को खोजते रहना; तुम्हें जो मिलेगा वह नकारात्मक होगा। उस नकारात्मक में तुम फंसोगे, कहीं जाओगे नहीं। यह जिंदगी भी खराब होगी और वह जिंदगी भी न मिलेगी।
विधायक धर्म का अर्थ होता है: जो है, उससे ऊपर उठना है--उसके विपरीत नहीं, उसका उपयोग करना है।
तुम मेरे पास आए, तुम कहते हो: ‘लेकिन आपके बिना यह जिंदगी जिंदगी भी तो न थी।’
जिंदगी हो भी नहीं सकती बिना किसी जीवित व्यक्ति से जुड़े। और सब यहां जीवित नहीं हैं। रास्तों पर लाशें चल रही हैं, मुर्दे बाजारों में बैठे हैं। जिन्हें अपने जीवन का कुछ भी पता नहीं है, उनको जीवित कैसे कहोगे? ऐसा ही समझो कि तुम्हारी जेब में कोहनूर हीरा रखा है, लेकिन तुम्हें पता नहीं है। तो तुम्हें धनी कहा जा सकता है? कोहनूर हीरा जरूर तुम्हारी जेब में है, मगर तुम्हें पता नहीं है, तो तुम्हें धनी कहा जा सकता है? तुम तो राह पर खड़े भीख मांग रहे हो! और यह भी सच है कि कोहनूर हीरा तुम्हारी जेब में है। मगर उस कोहनूर हीरे का क्या करें? उसका होना न होना बराबर है।
पश्चिम का एक अदभुत सदगुरु जॉर्ज गुरजिएफ लोगों से कहता था--तुम्हारे भीतर आत्मा है ही नहीं। कोई आदमी आत्मा के साथ पैदा नहीं होता। उसने बड़ी अनूठी बात कही, क्योंकि सब शास्त्र तो यही कहते हैं कि आदमी आत्मा के साथ पैदा होता है--बिना आत्मा के पैदा ही कैसे होओगे? बिना आत्मा के जीओगे कैसे? लेकिन गुरजिएफ का प्रयोजन समझना। गुरजिएफ कोई सिद्धांतवादी नहीं है, वह कोई आत्मवादी नहीं है, उसकी दृष्टि बड़ी वैज्ञानिक है। वह यह कह रहा है कि आत्मा तुम्हारे पास नहीं है, तब तक हो भी कैसे सकती है जब तक तुम्हें उसका पता नहीं है? कोहनूर तुम्हारी जेब में पड़ा है लेकिन तुम भीख मांग रहे हो, हम कैसे कहें कि तुम्हारे पास कोहनूर है, कि तुम धनी हो। आत्मा सिर्फ संभावना है। तलाशो तो शायद पा लो।
मेरे पास आए हो तो मैं तुम्हें परमात्मा नहीं देना चाहता, मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूं। और जिसके पास भी जीवन हो, उसे परमात्मा मिल जाता है। जीवन परमात्मा का पहला अनुभव है। और चूंकि मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूं, इसलिए तुम्हें सिकोड़ना नहीं चाहता, तुम्हें फैलाना चाहता हूं। तुम्हें मर्यादाओं में बांध नहीं देना चाहता; तुम्हें अनुशासन के नाम पर गुलाम नहीं बनाना चाहता हूं; तुम्हें सब तरह की स्वतंत्रता देना चाहता हूं, ताकि तुम फैलो, विस्तीर्ण होओ। तुम्हें बोध देना चाहता हूं, आचरण नहीं। तुम्हें अंतसचेतना देना चाहता हूं, अंतःकरण नहीं। तुम्हें एक समझ देना चाहता हूं जीने की, जीने को हजार रंगों में जीने की, तुम्हें जिंदगी एक इंद्रधनुष कैसे बन जाए, इसकी कला देना चाहता हूं; तुम कैसे नाच सको और तुम्हारे ओंठों पर बांसुरी कैसे आ जाए, इसके इशारे देना चाहता हूं। और मेरी समझ और मेरा जानना ऐसा है, जो आदमी गीत गाना जान ले, उसके मुंह से गालियां निकलनी बंद हो जाती हैं। मैं तुम्हें गालियां छोड़ने पर जोर देना ही नहीं चाहता, गीत गाना सिखाना चाहता हूं। यह विधायकता है।
गीत जो गाता है, वह गाली कैसे देगा? जिसके जीवन में फूल खिलने लगे, जिसकी ऊर्जा फूल बनने लगी, उसकी ऊर्जा फिर कांटे नहीं बनेगी। नहीं बन सकती है। जिसके भीतर अमृत झरने लगा, उसके भीतर जहर झरना बंद हो जाता है क्योंकि एक ही ऊ
र्जा है। जब गलत हो जाती है तो जहर हो जाती है, जब ठीक हो जाती है तो अमृत हो जाती है। जब नीचे की तरफ बहती है, अधोगामी होती है, तो जहर हो जाती है। जब ऊपर की तरफ उठने लगती है, ऊर्ध्वगामी हो जाती है, तो अमृत हो जाती है। ऊर्जा तो एक ही है।
मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूं। और जीवन नृत्य करता हुआ, गीत गाता हुआ, जीवन उत्सवपूर्ण। एक बार तुम्हारे जीवन में उत्सव आ जाए, एक बार तुम्हें पंख पसारने की कला आ जाए, एक बार धीरे-धीरे तुम्हें फिर पंख फैलाने का आभास आ जाए, फिर आस्था आ जाए, फिर तुम थोड़े प्रयोग करके पंख उड़ाना सीख लो, फिर तुम्हें कौन रोक सकेगा? फिर यह सारा आकाश तुम्हारा है। परमात्मा तो तुम्हें मिल जाएगा, बस तुम जीवित हो जाओ। या इसे और दूसरी भाषा में कहें तो यूं--परमात्मा तो तुम्हें मिल जाएगा, तुम आत्मवान हो जाओ। असली बात आत्मा है। जो भी आत्मवान है, परमात्मा उसकी संपदा है। आत्मवान को पुरस्कार मिलता है परमात्मा का। तुम्हारे भीतर आत्मा नहीं है, जिंदगी कैसे हो सकती थी?
अगेहानंद, तुम सौभाग्यशाली हो! अब जिंदगी में शिकवा भी होगा, शिकायत भी होगी, यह जिंदगी पर्याप्त नहीं मालूम होगी, सब तरफ सीमा आ जाएगी। और एक नई जिंदगी का आविर्भाव हो रहा है, एक नई किरण तुम्हारे भीतर समा रही है, उस नई किरण को सम्हालो। जेल की दीवालों से लड़ने में मत लग जाना। तुम जेल के भीतर भी अगर नाचना सीख लो तो दीवालें गिर जाएंगी। मेरी मान्यता यह है कि जो ठीक से नाचता है, आंगन टेढ़ा भी हो तो सीधा हो जाता है। जो ठीक से प्रसन्न हो जाता है, उसकी दीवालें गिर जाती हैं। तुम्हारे विषाद ने तुम्हारी दीवालें खड़ी की हैं। जो उत्फुल्ल हो जाता है, जिसके भीतर एक उत्फुल्लता की बाढ़ आ जाती है, सब कारागृह बह जाते हैं, सब जंजीरें बह जाती हैं। मैं तुम्हें जंजीर तोड़ने पर जोर नहीं दे रहा हूं, मैं तुम्हें नाचना आ जाए इस पर जोर दे रहा हूं। जो नाचना सीख गया उसकी जंजीरें टूट जाती हैं। टूट ही जाती हैं। नाचते पैरों में कहीं जंजीरें टिक सकती हैं।
शिकायत आएगी अब जिंदगी से। और साथ ही साथ एक विरोधाभास भी घटित होगा, परम जिंदगी के प्रति एक श्रद्धा का भाव आएगा, अनुग्रह का भाव आएगा, कृतज्ञता का भाव आएगा।
धर्म जब नकारात्मक हो जाता है तो सिर्फ लोगों को नष्ट करता है, रुग्ण करता है।
कतील अहले-हरम हैं नजर झुकाए हुए
किस एहतराम से बेचा गया है यजदां को
जरा गौर से देखो मंदिर के पुजारियों और पुरोहितों को, मस्जिदों के रखवालों को--
कतील अहले-हरम हैं नजर झुकाए हुए
जरा काबे के पुजारियों को गौर से देखो, तुम उन्हें नजर झुकाए हुए पाओगे। तुम उन्हें शर्मिंदा पाओगे। उन्हें तुम अपराधी पाओगे।
कतील अहले-हरम हैं नजर झुकाए हुए
किस एहतराम से बेचा गया है यजदां को
कितने आदरपूर्वक और निष्ठा से और कुशलता से परमात्मा को बेच दिया है उन्होंने, अपराध का भाव न होगा तो क्या होगा? परमात्मा के नाम से न मालूम क्या चल रहा है! जो नहीं चलना चाहिए। मौत चल रही है परमात्मा के नाम से। जहर चल रहे परमात्मा के नाम से। परमात्मा के नाम से थोथे क्रियाकांड चल रहे। परमात्मा के नाम से सब तरह की मूढ़ताएं चल रहीं, अंधविश्वास चल रहे।
कुछ बे-रिया अगर है तो दरबाने-मैकदा
देरो-हरम में बे-सरो-सामान जाइए
यह कवि ने ठीक सूचन दिया है। मंदिर-मस्जिद में जाओ तो बिना सामान के जाना, वहां लुटेरे हैं।
कुछ बे-रिया अगर है तो दरबाने-मैकदा
और अगर कहीं थोड़ी बहुत ईमानदारी बची है, छलरहित, निष्कपटता बची है, तो वह सिर्फ मधुशाला में बची है। वहां तुम्हारी चीजें बच जाएंगी, तुम भी बच जाओगे। लेकिन मंदिर-मस्जिद में तुम बेच दिए गए हो, तुम बिक गए हो। वहां तुम्हारा सौदा कर लिया गया है। कोई हिंदू होकर बिक गया है, कोई मुसलमान होकर बिक गया है, कोई ईसाई होकर बिक गया है। विशेषण रह गए हैं लोगों के हाथों में। राख रह गई है लोगों के हाथों में। अब हिंदू होने से क्या होता है? मुसलमान होने से क्या होता है? आदमी होने से कुछ होता है जरूर। मगर मुसलमान जो है, वह आदमी नहीं हो पाता, क्योंकि मुसलमान है तो आदमी कैसे हो? और हिंदू जो है तो आदमी नहीं हो पाता। जो भारतीय है, वह कैसे आदमी हो? जो पाकिस्तानी है, वह कैसे आदमी हो?
आदमी के ऊपर पहले और दूसरी शर्तें लगी हैं। हजार बंधन लगे हैं। इन बंधनों में तुमने अपने को घेर लिया है, तुम बिक गए हो किन्हीं के हाथों में। तुम्हें पता भी नहीं तुम कब बिक गए हो। तुम उतने बचपन में बिक गए हो जब तुम्हें होश भी नहीं था। तब तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें बेच दिया है, तब तुम्हारे परिवार ने तुम्हें बेच दिया है--वे भी बिके हुए लोग थे। उनको उनके मां-बाप बेच गए थे। ऐसे पीढ़ी दर पीढ़ी लोग बेचते चले जाते हैं।
तुम्हें पता ही नहीं है कि तुमने अभी धर्म की तलाश नहीं की है, खोज ही नहीं की है और तुम धार्मिक बन बैठे। हिंदू बन सकते हो तुम बिना खोजे, धार्मिक नहीं बन सकते। धार्मिक बनने के लिए दुस्साहस चाहिए, खोज करने की हिम्मत चाहिए। अंधेरे में जाने की जोखिम उठानी पड़ती है। भटक भी सकते हो। वह खतरा भी मौजूद है। लेकिन जो भटकने का खतरा लेते हैं, वे ही पहुंच पाते हैं। और जो भटकने का खतरा लेते हैं, परमात्मा उन्हें नहीं भटकने देता, उनके सहारे को आ जाता है। असहाय जो है, उसे परमात्मा का सहारा सदा उपलब्ध है।
मगर तुम्हारे मंदिर-मस्जिदों ने तुम्हें बड़ा आश्वस्त कर दिया है कि तुम्हें सब मालूम है। इसलिए जिंदगी से भी कोई शिकवा पैदा नहीं होता, क्योंकि बड़ी जिंदगी का कोई अनुभव पैदा नहीं होता।
अब इस अवसर को चूकना मत। अब यह जो थोड़ी सी उत्फुल्लता तुम्हारे हृदय में जग रही है और थोड़ी गर्मी तुम्हारे प्राणों में आ रही है, इसको साथ दो, सहयोग दो।
जिंदगी की कद्र सीखी शुक्रिया तेगे-सितम!
हां हमीं थे कल तलक जीने से उकताए हुए
सैरे-साहिल कर चुके ऐ मौजे-साहिल सर न मार
तुझसे क्या बहलेंगे तूफानों के बहलाए हुए
साज उठाया जब तो गरमाते फिरे जर्रों के दिल
जाम हाथ आया तो महरो-महके हमसाए हुए
तुम्हारे हाथ में मैंने एक जाम दे दिया है, तुम्हारे हाथ में मैंने मधु से भरी हुई प्याली दे दी है, अगर पीने की हिम्मत की तो जल्दी ही तुम चांद-तारों के पड़ोसी हो जाओगे।
जाम हाथ आया तो महरो-महके हमसाए हुए
चांद-तारों के साथ तुम्हारी दोस्ती बन सके, इसका उपाय कर रहा हूं। बस तुममें थोड़ी सी हिम्मत होने की जरूरत है। और स्वभावतः चांद-तारों से दोस्ती करनी हो तो हिम्मत चाहिए पड़ेगी। इतना फैलने की हिम्मत चाहिए पड़ेगी। चांद-तारों को अपने भीतर लेने की हिम्मत चाहिए पड़ेगी। छोटे-छोटे होने से काम न चलेगा। सब क्षुद्रताएं, सब संस्कार छोड़ देने होंगे। असंस्कारित होकर ही तुम स्वतंत्र हो पाओेगे। संस्कार मुक्त होकर ही तुम स्वतंत्र हो पाओगे। मैं तुम्हें स्वतंत्रता ही नहीं देना चाहता, स्वच्छंदता देना चाहता हूं। ठीक-ठीक अर्थों में स्वच्छंदता। तुम्हारे भीतर के स्वयं के छंद को जगाना चाहता हूं।
स्वच्छंदता का अर्थ उच्छृंखलता मत कर लेना। तुम्हारे भीतर सोया हुआ है छंद। वह जग सकता है, वह जगने को आतुर है, बीज की तरह तड़प रहा है कि कब तुम उस पर ध्यान दो वह फूटे, अंकुरित हो, वृक्ष बने; कब उसमें फूल खिलें, आकाश को सुगंध से भर दे। और जब तक तुम आकाश को सुगंध से भरने के योग्य न हो जाओ, तब तक जानना कुछ कमी है, कुछ कमी है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, कृपया बताएं कि गुरु कब तक मारनहार रहता है और कब वह तारनहार बन जाता है? यह बात शिष्य पर निर्भर है या गुरु पर?
रज्जब ने गुरु को मारनहार कहा। कहा कि तब तक तलफ न मिटेगी जब तक मारनहार न मिल जाए। तब तक पीड़ा न मिटेगी जब तक मारनहार न मिल जाए। तब तक यह वेदना से छुटकारा नहीं है जब तक मारनहार न मिल जाए। मारनहार कहा गुरु को। बड़े गहरे अर्थों से कहा। गुरु वही, जहां तुम्हारा अहंकार मरे; जहां तुम्हारा आपा मिटे; जहां तुम राख हो जाओ जल कर; गुरु की अग्नि में, गुरु के प्रेम में तुम ना हो जाओ; इसलिए मारनहार कहा।
लेकिन वही जो एक तरफ से मृत्यु है, दूसरी तरफ से तर जाना है। अहंकार मरे तो आत्मा की उपलब्धि हो। जो एक तरफ से सूली है, वही दूसरी तरफ से सिंहासन है।
जब गुरु से पहली दफा मिलना होता है तब वह मारनहार होता है। और इसलिए लोग गुरु से मिलने से डरते हैं। गुरु से दूर-दूर रहते हैं। हजार तरह के तर्क खोज लेते हैं दूर-दूर रहने के। कि क्यों किसी के चरणों में झुकना? हम परमात्मा से सीधे-सीधे ही जुड़ लेंगे। क्या जरूरत है कि हम किसी से सीखने जाएं? इस जिंदगी में तुमने जो भी सीखा है, औरों से सीखा है। तब तुमने यह सवाल नहीं उठाया। लेकिन जब परमात्मा को सीखने की बात आती तो यह सवाल उठना शुरू हो जाता है। अहंकार जाल खड़े कर रहा है। अहंकार कह रहा है--यह उचित नहीं; तुम और झुको! तुम और शिष्य बनो! तुम और समर्पण करो! अहंकार अपने को बचाएगा। और अहंकार सदगुरुओं के खिलाफ हजार तरह के विचार खड़े करेगा। बड़े तर्कसंगत भी। और कठिनाई नहीं है विचार खड़े करने में। किसी भी चीज के विरोध में तुम्हें विचार करना हो, तुम कर सकते हो।
तुम जरा एक दिन प्रयोग करके देखना कि यह जो आदमी रास्ते पर जा रहा है, कोई भी आदमी, अ ब स--इसके खिलाफ मुझे सोचना है। फिर तुम उसके पीछे लग जाना। फिर दो-चार दिन उसका निरीक्षण करना। और एक जिद्द पर अड़े रहना कि इसके खिलाफ मुझे कुछ पता लगाना है। तुम्हें हजारों तथ्य मिल जाएंगे। और फिर अगर तुम यह तय कर लो कि इस आदमी की अच्छाइयों का पता लगाना है तो तुम उसी आदमी के पीछे पड़ जाना, दो-चार दिन कोशिश करते रहना, तुम हजारों अच्छाइयां पता लगा लोगे।
सूफी फकीर हुआ, जुन्नैद। एक रात उसने सपना देखा कि वह परमात्मा के सामने खड़ा है। परमात्मा ने उससे कहा, कुछ पूछना तो नहीं? उसने कहा, एक ही जिज्ञासा है, बस एक ही जिज्ञासा है। मेरे गांव में सबसे ज्यादा सात्विक आदमी कौन है? तो परमात्मा से आवाज आई उसे कि तेरा पड़ोसी। नींद खुल गई उसकी--उसे धक्का इतना लगा। पड़ोसी! पड़ोसी ही तो सबसे बुरा आदमी होता है दुनिया में। पड़ोसी से बुरा तो कोई होता ही नहीं। पड़ोसी में कभी कोई अच्छाई दिखाई पड़ती ही नहीं किसी को।
प्रसिद्ध वचन है जीसस का कि अपने पड़ोसी को अपने ही जैसा प्रेम करो। और एक दूसरा वचन कि अपने शत्रु से अपने ही जैसा प्रेम करो। एक ईसाई पुरोहित से मैं बात कर रहा था, मैंने कहा, इन दोनों का एक ही अर्थ है, क्योंकि पड़ोसी और दुश्मन दो नहीं होते। वह तो एक ही आदमी का नाम है। पड़ोसी ही तो दुश्मन होता है।
जुन्नैद की नींद खुल गई। पड़ोसी! यह तो कभी उसने सोचा ही नहीं था। वह तो सोच रहा था, उसके गुरु के संबंध में कहेगा परमात्मा। और भीतर कहीं यह भी आशा थी कि शायद मेरा ही नाम ले दे कि जुन्नैद, तेरे सिवा और कौन सात्विक आदमी तेरे गांव में? कहीं भीतर वह आकांक्षा थी। पड़ोसी! इस आदमी में तो इसने कभी कुछ अच्छा देखा ही नहीं था। मगर जब परमात्मा कहता है तो ठीक ही कहता होगा। लाख समझाने का उपाय किया, लेकिन नहीं समझा पाया कि पड़ोसी ही सबसे ज्यादा सात्विक है।
दूसरे दिन जब सोया, संयोग की बात फिर उसे सपना आया, फिर वह परमात्मा के सामने खड़ा है--शायद दिन भर सोचता रहा था कि अब अगर मिलना हो जाए तो फिर पूछ ही लूं ठीक से। तो उसने कहा कि वह तो ठीक है, आपने जो कहा: एक सवाल और है, मेरे गांव में सबसे बुरा आदमी कौन है? तो परमात्मा ने फिर कहा: तेरा पड़ोसी। अब तो और उलझन हो गई। पड़ोसी तो एक ही था। परमात्मा हंसा और उसने कहा: तू घबड़ा मत और बेचैन मत हो, सब देखने की बात है। तू चाहे तो बुरे से बुरे आदमी को पड़ोसी में देख सकता है, और तू चाहे तो भले से भले आदमी को पड़ोसी में देख सकता है।
यह दुनिया वैसी ही हो जाती है जैसा तुम देखते हो, देखना चाहते हो। जब कोई गुरु से बचना चाहता है तो सब तरह की बुराइयां खोज लेता है। आसान है। कोई अड़चन नहीं।
जुन्नैद के जीवन में एक और उल्लेख है। वह बगीचे में अपने काम कर रहा था, खुरपी लिए कुछ खोद रहा था कि बीच में ही कुछ काम से उसे अंदर जाना पड़ा, खुरपी वहीं छोड़ गया, लौट कर आया खुर्पी नदारद थी। तभी उसने चारों तरफ देखा, वही पड़ोसी जा रहा था। उसने कहा, हो न हो! उसने उसे गौर से देखा कि अगर चोरी इसने की होगी तो इसकी चाल से पता चलेगा। उसकी चाल बिलकुल पक्के चोर की मालूम पड़ी। उसने और गौर से देखा, जाकर और किनारे खड़ा हो गया दीवाल के, उसको बिलकुल आंखें गड़ा कर देखा, और उसे लगा कि पड़ोसी घबड़ा भी रहा है, आंखें झुकाए है, शर्मिंदा है, उसे बिलकुल पक्का हो गया। फिर दो-चार दिन वह देखता ही रहा, पड़ोसी जब भी निकले, यहां-वहां जाए; और हमेशा उसका भरोसा मजबूत होता चला गया कि इसी ने चुराई है। हर बात ने इसी की गवाही दी। उसका चलना, उसका उठना, उसका बैठना, उससे जयरामजी भी की तो जैसे उसने डर कर जयरामजी का उत्तर दिया, हर चीज से पता चला कि चोर यही है।
पांचवें दिन वह बगिया में फिर काम कर रहा था कि मिट्टी में ही गड़ी हुई उसे अपनी खुरपी मिल गई। अरे, उसने कहा कि मैंने भी नाहक बेचारे पड़ोसी को दोष दिया--तभी पड़ोसी जा रहा था, रास्ते से निकल रहा था, उसने उसे गौर से देखा, ऐसा भला और प्यारा आदमी! चाल तो देखो, बिलकुल साधुओं जैसी है! चेहरे का भाव तो देखो, कैसा प्रसादपूर्ण है!
तुम जो देखना चाहते हो, देख लोगे। तुम्हें आदमी में शैतान मिल सकता है, तुम्हें आदमी में भगवान मिल सकता है। फिर तुम्हें जिसके साथ रहना हो, उसे खोजो। कुछ लोग शैतानों में ही रहना पसंद करते हैं, वे सबमें शैतान खोजते रहते हैं। उनकी दुनिया नरक हो जाती है। उनको हर आदमी बुरा दिखाई पड़ता है, फिर उन्हीं बुरे आदमियों के बीच रहना पड़ता है--जाओगे कहां, यही तो आदमी हैं! इन्हीं आदमियों के बीच कोई-कोई स्वर्ग में रह लेता है, क्योंकि वह हर आदमी में भला देखता है। हर आदमी में भला देखा जा सकता है।
और सदगुरु तो बड़ी विरोधाभासी घटना है। सदगुरु में तो एक अतिक्रमण है--इस जगत का है सदगुरु और इस जगत के पार का भी। उसमें बड़ा विरोधाभास है। शरीर में है और शरीर के बाहर है। संसार में है और संसार उसके भीतर नहीं है। उसमें दो गणित का मेल हो रहा है। दो बिलकुल अलग गणित, दो अलग जीवन-नियम उसमें मिल रहे हैं, जो बिलकुल एक-दूसरे के विपरीत हैं। तुम जो भी देखना चाहो।
जो उसके विरोध में देखना चाहेगा, वह इस जगत के नियम को उसमें देख लेगा। जो उसके पक्ष में देखना चाहेगा, वह उस जगत के नियम को उसमें देख लेगा। अहंकार तर्क खोज लेता है। तुम बुद्ध के पास होते हो तो तुम तर्क खोज लेते हो। तुमने खोजे थे--शायद तुम में से कुछ रहे भी हों। क्योंकि तुम नये नहीं हो। यहां कोई नया नहीं। ये सब पुराने यात्री हैं। ये सब यहां चल ही रहे हैं, चलते ही रहे हैं। तुम्हारे सिर पर इतनी धूल है सदियों की, जन्मों-जन्मों की। तुम बुद्ध को भी बच कर आ गए हो, तुम महावीर को भी बच कर आ गए, तुम कृष्ण को भी बच कर आ गए, तुमने हर एक में कुछ न कुछ भूल निकाल ली।
जरा सोचो, अगर तुम्हें भूल निकालनी है, कृष्ण में कोई कमी है भूल निकालने की! कितनी भूलें न तुम निकाल लोगे! न निकालना चाहो, एक बात। मगर अगर निकालना चाहो तो कितनी भूलें न निकाल लोगे। भूल की दृष्टि से भी कृष्ण पूर्णावतार हैं। औरों ने भूलें की हैं तो छोटी-छोटी की हैं। राम ने भी की होंगी और बुद्ध ने भी की होंगी, मगर उनकी भूलों की मर्यादा है। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, भूल भी मर्यादा में करते हैं! कृष्ण ने तो ऐसी भूलें कीं कि अमर्याद हैं। कितनी भूलें तुम नहीं निकाल लेते कृष्ण की, जरा एक बार सोचना एकांत में बैठ कर और हो सकता है तुम कृष्ण के भक्त होओ और मंदिर में खड़ी मूर्ति की पूजा करते हो और घर में तुमने कृष्ण का झूला बना रखा हो और उनको झूला झुलाते हो--जरा एक बार बैठ कर, झूला रोक कर, आंख बंद करके सोचना, किसको झूला झुला रहे हो? सोलह हजार स्त्रियां थीं इनकी। ये सब स्त्रियां इनकी अपनी भी नहीं थीं, इनमें कई तो दूसरों की पत्नियां थीं जिनको वे भगा लाए थे। फिर झूला न हिलाओगे! फिर ऐसा होगा कि अब इस झूले-सहित इन सज्जन को घर के बाहर कैसे निकालें?
नहीं, लेकिन तुम सोचते नहीं, मुर्दा से क्या लेना-देना, मुर्दा को झूला झुलाते रहो। असली कृष्ण के पास होते तो तुम्हें दिक्कतें आ जातीं। बुद्ध के पास दिक्कतें आ गई थीं। कृष्ण में तो भूलें साफ-साफ दिखाई पड़ती हैं। कोई बहुत खोज-बीन की जरूरत नहीं है। कृष्ण तो बड़े प्रकट हैं, सीधे-साफ हैं। कृष्ण में तो जिसको श्रद्धा करने की जिद्द ही हो गई हो, वही कर सकता है। जिसने तय ही कर लिया हो कि करो जो तुम्हें करना हो मगर हम श्रद्धा करेंगे।
और यही कृष्ण की खूबी है। क्योंकि इतनी चुनौती देते हैं तुम्हारी श्रद्धा को, फिर भी अगर तुम श्रद्धा कर लोगे तो तर जाओगे। यह कृष्ण की खूबी है। इतना बड़ा सदगुरु कभी हुआ नहीं, क्योंकि श्रद्धा को इतनी चुनौती किसी ने कभी दी नहीं। जो कर सकें श्रद्धा, वे तर ही जाएंगे, अब और क्या बचा? कृष्ण पर श्रद्धा कर ली तो अब किस पर अश्रद्धा रह जाएगी? आखिरी कदम उठा लिया, आखिरी परीक्षा पार हो गए, उत्तीर्ण हो गए।
बुद्ध पर श्रद्धा करना ज्यादा आसान है। लेकिन बुद्ध पर भी अश्रद्धा करने वाले लोग हैं। छोटी-छोटी बात में भूल निकाल लेते हैं। जिनको अश्रद्धा करने की ही जिद है, वे बुद्ध में भी भूल निकाल लेते हैं। वे कहते हैं कि अगर बुद्ध परम ज्ञानी हैं तो बीमार क्यों होते हैं? बुद्ध की मृत्यु हुई विषाक्त भोजन करने से। जो विरोधी हैं वे कहते हैं, जिनको इतना भी पता न चला कि जो भोजन हम कर रहे हैं यह विषाक्त है, इनको त्रिकालज्ञ कैसे कहोगे? त्रिकालज्ञ का तो अर्थ होता है, जो तीनों काल जानता है। जो पहले हुआ है वह भी जानता है, जो अभी हो रहा है वह भी जानता है, जो आगे होगा वह भी जानता है। जैनों ने यही संदेह उठाया है बुद्ध पर कि बुद्ध सर्वज्ञ नहीं हैं। तीनों काल की तो छोड़ो, भोजन पर बैठे हैं थाली पर और जो भोजन है वह विषाक्त है, इसका भी पता नहीं चल रहा, विषाक्त भोजन कर गए और मारे गए उसी से। यह कैसी सर्वज्ञता है?
अब देखना यह घटना, तुम्हें भी लगेगी कि बात तो ठीक है, अगर सर्वज्ञता बुद्धत्व का लक्षण है, तो यह कैसी सर्वज्ञता है? लेकिन जिसको श्रद्धा है, वह क्या देखता है? वह देखता है बुद्ध की अनुकंपा। वह कहता है कि बुद्ध को दिख रहा है कि यहां जहर है, लेकिन जिस आदमी ने भोजन तैयार किया है उसने इतने प्यार से तैयार किया है कि अब उसके सामने यह कहना कि इसमें जहर है, उसके हृदय को आघात पहुंचाना होगा। इससे तो जहर को पी जाना ही बेहतर है। उसको आघात नहीं पहुंचाना चाहते।
वह एक गरीब आदमी था। वर्षों से बुद्ध को निमंत्रण दे रहा था। फिर जब बुद्ध उसके गांव आए, तब वह सुबह तीन बजे रात ही आकर बुद्ध के दरवाजे पर खड़ा हो गया--नहीं तो और लोग आ जाते थे, पहले निमंत्रण दे जाते थे--वह तीन बजे जब बुद्ध उठे, आंख खोली, तो पहले उसे ही खड़ा पाया। पूछा कि तू भई, इतनी रात? उसने कहा कि आज तो मैं निमंत्रण पहलामेरा है, अभी कोई दूसरा आया नहीं है--जब वह निमंत्रण दे ही रहा था तभी सम्राट प्रसेनजित भी आ गए, लेकिन बुद्ध ने कहा अब देर हो गई। पहला निमंत्रण तो उसका है। अब तो मैं उसके घर भोजन करूंगा ।
निमंत्रण तो दे आया, लेकिन उसके घर भोजन तो कुछ था नहीं। बिहार का गरीब आदमी!... बिहार कोई आज ही गरीब नहीं है, वह पहले ही से गरीब है। बिहार के लोग कुशल हैं गरीब होने में। सदियों से उन्होंने उसका अभ्यास कर रखा है।... उसके पास खिलाने को तो कुछ था नहीं। बिहार में गरीब आदमी उन दिनों--और शायद अब भी यह करते हों--बरसात में जो कुकुरमुत्ते पैदा हो जाते हैं, उनको इकट्ठा कर लेते हैं। उनको सुखा कर रख लेते हैं। फिर उनकी साल भर सब्जी बनाते हैं। अब कुकुरमुत्ता कोई खाने की चीज नहीं है, मगर पेट बिलकुल खाली हो तो कुछ भी खाने की चीज हो जाती है! कुकुरमुत्ते कभी-कभी विषाक्त होते हैं, क्योंकि कहीं भी ऊगते हैं, अक्सर तो गंदी जगह में ऊगते हैं--इसीलिए तो कुकुरमुत्ता उसका नाम है, कि कुत्ता वहां पेशाब कर गया है। लोग समझते हैं कुत्ते के पेशाब करने से उगता है। मगर अक्सर गंदी जगहों में ऊगते हैं--कूड़ा-करकट भरा हो, लकड़ी इत्यादि पड़ी हों पुरानी, सीली, उनमें ऊग आते हैं।
कुकुरमुत्ते की सब्जी बनाई उसने--और तो उसके पास सब्जी थी भी नहीं--वह विषाक्त थी। जिनको बुद्ध से प्रेम है, जिनको बुद्ध से श्रद्धा है, जो सदगुरु के साथ होना चाहते हैं, वे कहते हैं--बुद्ध ने देखा, लेकिन बिना कुछ कहे चुपचाप भोजन कर लिया। विषाक्त था, जहरीला था, कड़वा था। इतना ही नहीं कि भोजन कर लिया, उसे धन्यवाद दिया। उसके प्रेम को देखा, उसके भोजन को नहीं। भोजन कड़वा हो, लेकिन प्रेम ने उसे मधुर बनाया था। और कभी-कभी ऐसा होता है, सम्राटों के घर भोजन करो और मीठा नहीं होता, क्योंकि प्रेम का माधुर्य नहीं होता।
लौट कर जब अपने झोपड़े पर आ गए तो उन्होंने जो पहली बात कही अपने संन्यासियों से, वह यही कही कि जाकर गांव में खबर कर दो कि उस गरीब आदमी का बड़ा भाग्य है--दुनिया में दो सबसे बड़े भाग्यशाली हैं, वह मां जो सबसे पहला भोजन देती है बुद्धपुरुष को और वह व्यक्ति जो अंतिम भोजन देता है--यह बड़ा भाग्यशाली है, इसने अंतिम भोजन दे दिया। आनंद ने कहा: आप यह क्या कह रहे हैं? बुद्ध ने कहा: तू जा और गांव में डुंडी कर, नहीं तो मेरे मर जाने के बाद लोग उसे मार डालेंगे। उसे क्षमा नहीं कर सकेंगे। जाकर गांव में खबर कर दे कि वह धन्यभागी है।
अब जिसको श्रद्धा है, उसे यह दिखाई पड़ता है। यह जिसको श्रद्धा है, उसने यह कहानी लिखी। उसने यह बुद्ध का भीतरी भाव लिखा। जिसको श्रद्धा नहीं है, उसे लगता है यह अज्ञानी। इनको यह भी पता नहीं चल रहा है कि सामने रखा भोजन विषाक्त है, करने-योग्य नहीं है। ये सर्वज्ञ कैसे? ये त्रिकालज्ञ कैसे? इनका ज्ञान कैसा? अज्ञानी हैं, जैसे और सब अज्ञानी हैं वैसे ही अज्ञानी हैं। जिनको सामने खड़ी मौत नहीं दिखाई पड़ रही है, अपनी मौत नहीं दिखाई पड़ रही है, वे दूसरों को क्या अमृत के दर्शन करा सकेंगे?
अब तुम देखते हो, आदमी तरकीबें खोज ले सकता है! सदा से यह हुआ है। सदा यह होता रहेगा।
गुरु तो मारनहार है! उसके पास तो वे ही आ सकते हैं जिन्हें गर्दन कटाने की तैयारी है। जो कहते हैं, देख लिया अपनी तरह से जी कर, कुछ पाया नहीं, अब किसी के चरणों में सिर रख दें और उसके इशारे से जी कर देख लें, शायद कुछ मिल जाए। अपनी तरफ से जीए, दुख पाया, पीड़ा पाई, विषाद पाया। अब किसी और के इशारे से चल कर देख लें, हम तो हार गए हैं, शायद कोई और जीत जाए। किसी और के भाग्य से अपना भाग्य जोड़ कर देख लें, हमारा भाग्य तो अमावस बन गया है, शायद किसी और के भाग्य के साथ पूर्णिमा हो जाए। तो जो मरने को तैयार है, वही गुरु के पास आ पाता है। पहला अनुभव तो गुरु का मारनहार की तरह ही होता है। और गुरु चोट करना शुरू करता है। और गुरु सब तरफ से काटता है। तुम्हारे धर्म को काटेगा, तुम्हारे शास्त्र को काटेगा, तुम्हारी धारणा को काटेगा, तुम्हारे सिद्धांत को काटेगा, तुम्हें सब तरफ से मारेगा। वही तुम नहीं समझ पाओगे तो चूक जाओगे।
छोटी सी बात तुम्हारे धर्म के खिलाफ कह देगा--और तुम्हारा धर्म क्या है? तुम्हारे पास धर्म ही होता तो तुम्हें गुरु के पास आने की जरूरत न थी! थोड़ी सी बात तुम्हारे खिलाफ कह देगा कि बस तुम बेचैन हो गए, कि तुम चले, कि यह जगह अपने लिए नहीं है। तुम अपना सहारा खोजने आए थे? तुम अपने तर्कों के लिए और तर्क खोजने आए थे? तुम चाहते हो--गुरु तुम जैसे हो, उसको और मजबूत कर दे? गुरु तुम्हारा दुश्मन नहीं है। तुम वैसे ही काफी मजबूत हो, इसीलिए काफी दिन से भटक रहे हो। अब तुम्हें कमजोर करना है। अब तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींच लेनी है।
इसलिए खयाल रखना, गुरु अगर तुम मुसलमान हो और मुसलमान धर्म के खिलाफ कुछ कहे, तो उसे मुसलमान धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है, वह सिर्फ तुम पर चोट कर रहा है। उसका प्रयोजन कुछ और है। अगर गुरु हिंदू धर्म के खिलाफ कुछ कहे तो वह हिंदू धर्म के खिलाफ कुछ भी नहीं कह रहा है, उसे क्या लेना-देना हिंदू धर्म से, वह तो सदा ही धर्म के पक्ष में है, मगर तुम्हारे हिंदूपन के खिलाफ कुछ कह रहा है। वह यह कह रहा है, तुम्हारा यह हिंदूपन का जो आग्रह है, यह तुम्हें अटका रहा है, इसे जाने दो, इसे बह जाने दो, तुम इससे मुक्त हो जाओ, यह दीवाल गिरा दो। तो तुम्हारी बहुत-बहुत धारणाओं पर चोट करनी पड़ेगी।
कल ही मैंने तुमसे कहा कि महावीर को सांप ने काटा, जैन कहते हैं दूध निकला, तो मैंने कहा कि दूध तो निकल नहीं सकता क्योंकि जब सांप ने काटा तब उम्र महावीर की कम से कम पचास साल थी! तब तक तो दही जम गया होगा। बस, किसी जैनी को दुख हो गया। उसने पत्र लिख दिया। उनसे मैं कहता हूं कि मेरी बात गलत थी। असल में दही नहीं निकला, घी निकला था। पचास साल, दही तो कब का जम गया होगा, मेरी बात गलत है, जमा-जमा दही के ऊपर मक्खन की पर्त भी जम गई होगी। और महावीर नंग-धड़ंग धूप में खड़े रहते थे, घी बन गया होगा। मैं अपनी बात वापस लेता, कल जो मैंने कहा था वह गलत था, उसमें सुधार कर लो--घी निकला था। इससे दिल प्रसन्न होता है!
तुम पर चोट कर रहा हूं, महावीर से क्या लेना-देना है? जब महावीर पर चोट कर रहा हूं तब भी तुम्हारे महावीर पर चोट कर रहा हूं। मेरे भी महावीर हैं। वह प्रतिमा और है। उस प्रतिमा पर चोट नहीं कर रहा हूं। उस प्रतिमा को ही निखारने के लिए तुम्हारी प्रतिमा पर चोट कर रहा हूं। मेरे महावीर तुम्हें दिखाई पड़ सकें, इसलिए तुम्हारे महावीर को मुझे छीनना पड़ेगा। कठिन होगा, पीड़ादायी होगा, जैसे कोई चमड़ी उधेड़ रहा हो तुम्हारी ऐसा होगा। कितने-कितने प्रेम से तुमने अपनी प्रतिमा सजाई है और मैं उठा कर हथौड़ी उसे तोड़ने लगा! मैं मूर्तिभंजक हूं। लेकिन वस्तुतः जिनकी मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं उनकी मूतियां नहीं तोड़ी जा रही हैं, उनके बहाने तुम्हारी मूर्ति तोड़ी जा रही है। वे तुम्हारी मूर्तियां हैं, तुम ही उनके नियंता हो। तुम्हीं उनके केंद्र हो। तुम्हारी सब मूर्तियां तोड़ दी जाएं तो तुम्हारा अहंकार टूट जाएगा।
मैं तुम्हारे हाथ से पूजा के थाल छीन लूंगा, तुम्हारे ओंठों पर आई हुई प्रार्थनाएं छीन लूंगा। छीनना ही पड़ेगा। तभी तो उस सहज प्रार्थना को जन्म मिल सकता है जो तुम्हारे हृदय में दबी पड़ी है, जो मुझे दिखाई पड़ रही है कि दबी पड़ी है। मैं देख रहा हूं कि एक बीज पड़ा है और उसके ऊपर एक चट्टान रखी है, चट्टान को हटाना पड़ेगा तो बीज उमगे। तुम्हारे भीतर प्रार्थना पड़ी है, मगर तुम हो कि सीखी हुई प्रार्थना में अटके हो। हरे कृष्णा, हरे रामा कर रहे हो! उधर राम तुम्हारे भीतर पड़े हैं, वे कहते हैं--चट्टान तो हटाओ, तुम कहते हो--चुप भी रहो, हम अभी भजन कर रहे हैं, भजन में बाधा मत डालो!
मैं इस चट्टान को हटाऊं तो स्वभावतः जो मेरे पास आया है, उसे मैं पहले अगर मृत्यु जैसा मालूम पडूं तो आश्चर्य नहीं है। मृत्यु को जान कर भी जो टिक जाएगा, वही तारनहार रूप देख पाता है।
तुमने पूछा है: ‘कृपया बताएं कि गुरु कब तक मारनहार रहता है और कब वह तारनहार बन जाता है?’
जब शिष्य मरने को राजी हो जाता है, तभी गुरु तारनहार बन जाता है। जब तक शिष्य मरने से बचता है, तब तक मारनहार रहता है। तुम्हारे मरने से बचने के कारण ही मारनहार रहता है। जब तुम खुद ही राजी हो जाते हो मरने को, फिर कौन मारने की तुम्हें जरूरत रही! फिर कोई प्रयोजन न रहा। जब तक तुम लड़ते हो तब तक मारनहार रहता है। जब तुम सब प्रतिरोध छोड़ देते हो, समर्पित हो जाते हो, तुम कहते हो--यह रही गर्दन!
सैकड़ों वर्ष पहले भारत का एक अदभुत ज्ञानी बोधिधर्म चीन गया। उसने चीन में जाकर घोषणा कर दी कि मैं दीवाल की तरफ मुंह करके बैठा रहूंगा, जब तक कि असली शिष्य न आ जाएगा। वह नौ साल तक दीवाल की तरफ मुंह करके बैठा रहा। अपनी किस्म का आदमी था, झक्की था। दुनिया के सभी सदगुरु झक्की होते हैं। झक्की का मतलब यह कि वे अपने तरह के ही होते हैं। उन जैसा आदमी फिर दुबारा नहीं होता। अद्वितीय होते हैं, बेजोड़ होते हैं। फिर बोधिधर्म दुबारा नहीं होता। वैसा रंग और रूप परमात्मा एक ही बार लेता है।
वह नौ साल तक बैठा रहा दीवाल की तरफ मुंह करके! न मालूम कितने लोग आए, सम्राट आया देश का, उसने प्रार्थना की कि आप मेरी तरफ मुंह करें। आप दीवाल की तरफ मुंह क्यों किए हुए हैं? बोधिधर्म ने कहा कि मैंने सब चेहरों में सिर्फ दीवालें देखीं, थक गया, इससे यह दीवाल बेहतर। जब कोई चेहरा आएगा जिसमें मैं पाऊंगा दीवाल नहीं है, द्वार है, तो मैं मुंह फेरूंगा। तुम वह चेहरे नहीं हो, जाओ! रफा-दफा हो जाओ! बड़े-बड़े पंडित आए--होड़ लग गई, कौन बोधिधर्म का मुंह अपनी तरफ फिरवा लेगा? बड़े ज्ञानी आए, मगर बोधिधर्म था कि दीवाल की तरफ बैठा रहा सो बैठा रहा।
फिर एक आदमी आया नौ साल के बाद। उस आदमी का नाम था, हुई नेंग। बर्फ पड़ रही थी, सर्दी के दिन थे, बर्फ जमी थी, बोधिधर्म बैठा है, उसके चारों तरफ बर्फ जम गई है, और वह दीवाल की तरफ देख रहा है। हुई नेंग उसके पीछे आकर खड़ा हो गया, बोला भी नहीं। उसने यह भी नहीं कहा कि मेरी प्रार्थना है, मेरी तरफ देखिए। वह खड़ा ही रहा, खड़ा ही रहा, चौबीस घंटे खड़ा रहा। आखिर बोधिधर्म को ही पूछना पड़ा कि भाई, तुम यहां क्या कर रहे हो? पूछना ही पड़ेगा, चौबीस घंटे से यह आदमी खड़ा है, बोलता ही नहीं, बोधिधर्म भी डरा होगा कि मामला क्या है? कोई हमसे भी ज्यादा पागल आदमी आ गया! बर्फ जमी जा रही है, सर्द हुआ जा रहा है और यह खड़ा है। हुई नेंग ने कहा कि कुछ भेंट लेकर आया हूं आपके लिए। और तलवार निकाली और अपना हाथ काट कर भेंट कर दिया। कटा हुआ हाथ, लहू की धार और हुई नेंग ने कहा कि फिरो मेरी तरफ, अन्यथा गर्दन उतार दूंगा। और कहते हैं तत्क्षण बोधिधर्म फिरा और कहा कि रुक भाई, गर्दन मत उतार देना। तेरी मैं प्रतीक्षा कर रहा था। जो गर्दन देने को तैयार है, उसकी गर्दन लेने की कोई जरूरत नहीं है। जो गर्दन देने को तैयार नहीं है, उसकी गर्दन लेने की जरूरत है।
इस भेद को खयाल रखना, इस बात को ख्याल रखना। गुरु तब तक मारनहार है, जब तक तुम लड़ रहे हो, बचा रहे हो अपनी गर्दन। अपने हाथ में ढाल लिए हो, वह जहां से चोट करता है वहीं से बचा लेते हो। जब तक तुम बचाव कर रहे हो, गुरु मारनहार है। जब तुम ढाल फेंक दोगे, गर्दन सामने रख दोगे, कहोगे--उठाओ तलवार और काट दो मेरी गर्दन, उसी क्षण गुरु तारनहार हो जाता है।
पूछा तुमने: ‘यह बात शिष्य पर निर्भर है या गुरु पर?’
यह बात शिष्य पर निर्भर है। गुरु पर निर्भर नहीं है। गुरु तो सदा तारनहार है। गुरु का तो अर्थ ही होता है, जो तारनहार है। और क्या गुरु का अर्थ होता है? जो पार ले जाए, जो उतार दे पार। गुरु तो सदा ही तारनहार है। लेकिन चूंकि शिष्य अभी डरता है, नाव में बैठने से, डरता है क्योंकि नाव में बैठने की शर्तें पूरी नहीं कर पाता; गुरु कहता है--तुम तो नाव में बैठ जाओ लेकिन यह जो तुम झोली साथ में लिए हो, यह वहीं रख दो। झोली में वह अशर्फियां लिए हुए है। वह कहता है कि झोली के साथ ही नाव में आ जाने दो। गुरु कहता है--नाव में तुम तो आ जाओ, मगर यह शास्त्र जो तुम सिर पर रखे हो, इन्हें किनारे पर रख दो। यह नाव डुबानी नहीं है। शास्त्र वजनी हैं, ये नाव को डुबा देंगे। वह कहता है कि मैं कैसे शास्त्र को छोड़ कर आ सकता हूं? यह तो रामायण है! यह कोई साधारण किताब थोड़े ही है, यह कुरान है! यह कोई साधारण किताब थोड़े ही है, पवित्र बाइबिल है! मैं इसको कैसे छोड़ सकता हूं? मैं तो इसको साथ ही लेकर जाऊंगा। तो गुरु मारनहार लगता है। लेकिन जो राजी है, जो कहता है--यह छोड़ी किताब, यह छोड़ी मूर्ति, जो सब छोड़ने को राजी है, उसके लिए तत्क्षण गुरु तारनहार हो गया।
गुरु तो तारनहार था ही, सिर्फ शिष्य के देखने में परिवर्तन होते हैं। जब तक तुम गुरु से बच रहे हो, जब तक तुम गुरु के साथ चतुरता का व्यवहार कर रहे हो, तब तक मारनहार है। जब तक तुम गुरु के साथ चालबाजियां कर रहे हो, बचाव कर रहे हो, होशियारियां कर रहे हो; जब तक तुम गुरु के साथ राजनीतिज्ञ का व्यवहार कर रहे हो, कूटनीतिज्ञ का व्यवहार कर रहे हो, तब तक मारनहार है। जैसे ही तुम सरल हो जाते हो, निर्दोष हो जाते हो, तुम्हें उसका तारनहार रूप दिखाई पड़ जाता है।
और जिंदगी जिसको समझ में आ गई हो, जिंदगी के दुख जिसने देख लिए हों और जिंदगी की व्यर्थता पहचान ली हो, वह गुरु से लड़ेगा नहीं। लड़ने का यहां है क्या तुम्हारे पास?
रात भर जब जहन में बोता हूं फनपारा कोई
काटता हूं सुबह दम टूटा हुआ तारा कोई
रोशनी किसको मिली है किरमके-शबताब में
किसने इत्मीनान पाया है फसूने-ख्वाब में
सुबह से जब शाम तक कंगाल हो जाता हूं मैं
आप अपने माल का दल्लाल हो जाता हूं मैं
कौड़ियों के मोल बिक जाते हैं फनपारे मेरे
बुझ गए हैं बारहा कीचड़ में अंगारे मेरे
जब तुम्हें जिंदगी दिखाई पड़ती है सपना ही सपना है, और जब तुम जिंदगी की कीचड़ में अपने सारे अंगारों को बुझते हुए देखते हो, अपनी सारी आशाओं को मरते हुए देखते हो, तो तुम फिर बचाव नहीं करोगे सदगुरु से। तुम्हारे पास बचाने को कुछ बचा ही नहीं। तुमने खुद ही देख लिया है कि तुम्हारे सिद्धांत तुम्हें पार नहीं कर पाए। तुम उन्हें तुम खुद ही छोड़ दोगे। गुरु को कहना भी नहीं पड़ेगा कि छोड़ दो। तुमने खुद ही देख लिया है कि तुम्हारे तिलक-चंदन तुम्हें बचा नहीं पाए, तुम खुद ही छोड़ दोगे। तुमने खुद ही देख लिया है तुम्हारा औपचारिक धर्म, क्रियाकांड, मंदिर-मस्जिद तुम्हें बचा नहीं पाए।
रोशनी किसको मिली है किरमके-शबताब में
किसने इत्मीनान पाया है फसूने-ख्वाब में
किसने सपने में शांति पाई है? किसने सपने में आनंद पाया है? और मिल भी जाए सपने में आनंद तो सुबह जाग कर पता चलता है कि हाथ में कुछ भी नहीं है, राख भी नहीं।
कौड़ियों के मोल बिक जाते हैं फनपारे मेरे
बुझ गए हैं बारहा कीचड़ में अंगारे मेरे
जरा देखो अपनी जिंदगी को, तुम्हारे सारे अंगारे कीचड़ में पड़े हैं और सब बुझ गए हैं, रोज बुझे जा रहे हैं, रोज तुम बुझे जा रहे हो, रोज मौत करीब आ रही है; जल्दी ही यह अंगारा जो जिंदगी है, बुझ जाएगी। जिसको यह बात दिखाई पड़ जाती है इस जिंदगी की व्यर्थता, वह लड़ता नहीं, वह बिना लड़े हथियार रख देता है। समर्पण का वही तो अर्थ है--हथियार रख देना। वह जाकर गुरु के चरणों में कहता है कि मैंने जी कर देख लिया, सब उपाय कर लिए, सब दौड़-धूप, आपा-धापी कर ली, कुछ हाथ लगता नहीं, अब आप जैसा कहें! आप जो कहें! अब आपकी आज्ञा ही मेरा जीवन होगा। अब मेरा मन मेरा मालिक नहीं होगा, आप मेरे मालिक हैं। अब मेरे मन को मैं नहीं सुनूंगा; मेरे मन की नहीं सुनूंगा, मेरा मन लाख कुछ कहे, मैं आपकी सुनूंगा। मेरा मन विरोध में रहे, रहा आए, मैं आपकी गुनूंगा। उसी क्षण गुरु तारनहार हो गया।
दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात
इसके दामन में मेरे अश्केरवां पलते हैं
हमसफर कोई नहीं है मेरी तन्हाई का
चंद साए हैं जो हमराह मेरे चलते हैं
डबडबाई हुई आंखों में है सावन की झड़ी
और दिल में मेरे यादों के शजर फलते हैं
देख मैंने भी मनाई है यहां दीवाली
मेरी पलकों पे भी अश्कों के दीये जलते हैं
और क्या है तुम्हारी दीवाली! तुम्हारी आंखों पर तुम्हारे आंसुओं के अतिरिक्त तुम्हारे पास और कोई दीये नहीं हैं।
दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात
इसके दामन में मेरे अश्केरवां पलते हैं
जिंदगी भर तुमने दामन में भरा क्या है? तुमने अपने आंचल में भरा क्या है? तुम जरा झोली तो खोलो! जिसमें तुम हीरे-जवाहरात समझे हो, सिवाय तुम्हारे आंसुओं के और कुछ भी नहीं हैं। जहां तुमने मोती समझे हैं, वहां बस तुम्हारे आंसू हैं और कुछ भी नहीं है।
दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात
इसके दामन में मेरे अश्केरवां पलते हैं
हमसफर कोई नहीं है मेरी तन्हाई का
चंद साए हैं जो हमराह मेरे चलते हैं
क्या है तुम्हारे पास? तुम्हारी छाया ही है, बस और कुछ भी नहीं।
चंद साए हैं जो हमराह मेरे चलते हैं
यहां कौन संगी है, कौन साथी है? यहां कौन मित्र है? यहां कौन अपना है? नहीं, तुम्हारी पत्नी भी तुम्हारी अपनी नहीं और तुम्हारा पति भी तुम्हारा अपना नहीं। तुम्हारा बेटा भी तुम्हारा अपना नहीं। तुम्हारा मित्र भी तुम्हारा अपना नहीं। जब तुम देखोगे कि जिंदगी के सब नाते झूठे हैं, तब एक नया नाता पैदा होता है, वही गुरु और शिष्य का नाता है। उसके पहले पैदा नहीं होता। जब तक तुम्हें लग रहा है कि और सब नाते ठीक हैं, उन्हीं में एक नाता यह भी है, तब तक गुरु मारनहार है। क्योंकि वह तुम्हारे नातों को तोड़ेगा। वह तुम्हारे झूठे नाते झूठे हैं, ऐसा तुम्हें जगाएगा और दिखाएगा। अड़चन होगी। पीड़ा होगी। वह तुम्हारे घाव उघाड़ेगा। वह तुम्हें ऐसे बच नहीं जाने देगा। गुरु यह मानने को राजी नहीं हो सकता कि तुम्हारी पत्नी है, भाई है, मां है, पिता है, ऐसे सब नातों में यह भी एक नया नाता है--यह गुरु और शिष्य का नाता। यह सब नातों में एक नाता नहीं है। सब नाते एक तरफ, यह नाता एक तरफ। अगर सब नाते भी गंवाना पड़ें, तो भी इस नाते के लिए गंवाए जा सकते हैं। तो ही गुरु तारनहार हो जाता है।
दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात
इसके दामन में मेरे अश्केरवां पलते हैं
हमसफर कोई नहीं है मेरी तन्हाई का
अकेले हो तुम बिलकुल, एकदम अकेले हो--तन्हा हो।
हमसफर कोई नहीं है मेरी तन्हाई का
चंद साए हैं जो हमराह मेरे चलते हैं
यहां छायाओं के अतिरिक्त तुम्हारा संगी-साथी कौन है? जिसको यह दिखाई पड़ता है, वह किसी रोशन व्यक्ति का हाथ पकड़ लेता है। वह कहता है--सायों के साथ, छायाओं के साथ बहुत चल लिए, अपनी ही परछाइयों के साथ बहुत चल लिए, अब किसी रोशनी का साथ करने की आकांक्षा जगी है। किसी रोशनी से मित्रता बना लेनी ही तो शिष्यत्व है।
डबडबाई हुई आंखों में है सावन की झड़ी
और दिल में मेरे यादों के शजर फलते हैं
देख मैंने भी मनाई है यहां दीवाली
मेरी पलकों में भी अश्कों के दीये जलते हैं
कुछ और तुम्हारे पास है भी नहीं, बस यादें हैं। अतीत की यादें हैं और भविष्य की कल्पनाएं हैं। और आंखें तुम्हारी आंसुओं से डबडबाई हैं। तुम्हारा जीवन एक लंबी मरुयात्रा है, जहां कहीं कोई मरूद्यान नहीं। जिस दिन यह दिखाई पड़ता है, उस दिन तुम समग्रभाव से झुकते हो। उसी झुकने में मारनहार गुरु तारनहार हो गया। वह तो तारनहार था, लेकिन तुम्हारे झुकने में तुम्हें दर्शन होता है।
गुरु तो एक दर्पण है। तुम जो शक्ल लेकर आते हो, वही शक्ल उस दर्पण में दिखाई पड़ती है। तुम डरे-डरे आते हो, गुरु मारनहार दिखाई पड़ता है। तुम निर्भय आते हो, अभय आते हो, गुरु तारनहार हो जाता है। गुरु तो एक दर्पण है। वह तो तुम्हारी ही तस्वीर को तुम्हारे पास वापस लौटा देता है। तुम अपने ही चेहरे उसमें देखते हो।
यूं झुका है नदी पै एक शहतूत
देखता हो वह जैसे आईना
पेड़ का अक्स है कि सब्ज आंचल
जिसमें लिपटा हो नुकरई सीना
डालियां लद गई हैं फूलों से
खुशबुओं से महक उठे साये
जैसे गिर कर दुल्हन के हाथों से
नागहां इत्रदां उलट जाए
गुरु को तो झील समझो। उसके किनारे खड़े हुए दरख्त हो जाओ। झुको, झांको। गुरु को दर्पण समझो। पास आओ, निकट आओ, अपने चेहरे को पहचानो। गुरु तो तुम जैसे हो वैसा ही तुम्हें दिखलाता है। इसलिए अगर तुम्हें गुरु में सिर्फ मारनहार दिखाई पड़े, तो समझना कि तुम्हारा भय प्रतिबिंबित हो रहा है। तुम्हें तारनहार दिखाई पड़े, तो समझना कि तुम्हारा अभय प्रतिबिंबित हो रहा है। मारनहार दिखाई पड़े तो समझना कि अभी इस मरने वाली जिंदगी में तुम्हारे कहीं मोह अटके हैं। तारनहार दिखाई पड़े तो समझना कि अमृत की झलक तुम्हें उसमें मिलनी शुरू हो गई, इस जिंदगी से तुम्हारे सब नाते-रिश्ते टूट गए हैं।
और खयाल रखना, फिर दोहरा दूं, मैं तुमसे यही नहीं कह रहा हूं कि जिंदगी से नाते-रिश्ते तोड़ लेना, सिर्फ इतना कह रहा हूं कि जान लेना इस जिंदगी के नाते-रिश्ते बस कामचलाऊ हैं। तोड़ने में भी क्या रखा है! तोड़ते तो वे ही हैं जो इनको बहुत मान लेते हैं कि बड़े महत्वपूर्ण हैं। एक आदमी कहता है पत्नी बड़ा महत्वपूर्ण नाता है; और एक आदमी पत्नी छोड़ कर भाग जाता है, वह कहता है कि पत्नी के रहते मैं परमात्मा को न पा सकूंगा--वह भी मान रहा है कि पत्नी का नाता बड़ा महत्वपूर्ण है, इतना महत्वपूर्ण कि परमात्मा से मिलने से रोक देगा। ये दोनों एक-से मूढ़ हैं। इनमें जरा भेद नहीं है। एक-दूसरे से उलटे चल रहे हैं, मगर इनकी मूढ़ता एक ही है। एक पैर के बल खड़ा है--गृहस्थ को मैं कहता हूं, पैर के बल खड़ा हुआ आदमी, प्राकृतिक आदमी। और जिसको तुम साधु-महात्मा कहते हो, वह शीर्षासन करता हुआ आदमी। मगर वही आदमी शीर्षासन कर रहा है। कुछ फर्क नहीं है, कुछ भेद नहीं है।
तो मैं तुमसे जिंदगी के नाते-रिश्ते छोड़ कर भाग जाने को नहीं कह रहा हूं। उनमें कुछ मूल्य ही नहीं है, छोड़ कर क्या भागोगे? सपनों का त्याग क्या करोगे? इतना जानना भर है कि खेल है, अभिनय है। अभिनय को बड़ी सरलता से निभाओ, आनंद से निभाओ। अभिनय ही है तो गंभीरता की कोई जरूरत नहीं है। मौज से निभाओ। जैसे आदमी ताश खेलता है और ताश में राजा होते, रानी होते, और सब होते। मगर वे सब राजा-रानी ऐसे ही होते जैसे इंग्लैंड की रानी। कोई खास उसका मतलब नहीं होता। लेकिन जब तुम ताश खेलते हो तो राजा-रानी बड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं। या शतरंज खेलते हो तुम--हाथी-घोड़े, वजीर, राजा बड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कुछ भी नहीं है वहां, गरीब की शतरंज हो तो लकड़ी के, अगर अमीर की हो तो समझो हाथीदांत के, या सोने-चांदी के, मगर वहां कुछ भी नहीं है। मगर खेलने वाले खूब डूब जाते हैं।
कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि शतरंज में तलवारें खिंच जाती हैं। ऐसे गंभीर हो जाते हैं। गर्दनें कट जाती हैं। वहां कुछ था ही नहीं, जरा सोचो। वह जो राजा और वजीर और हाथी और घोड़े, सब हंसते होंगे जब तुम तलवार खींच लेते होगे कि हद हो गई; हद हो गई, हमारे भीतर कुछ भी नहीं है, न कोई राजा है, न कोई वजीर है, न कोई घोड़ा है, न कोई हाथी है, यहां तलवारें खिंच गईं।
जिंदगी को गंभीरता से लो तो मैं तुम्हें सांसारिक कहता हूं। जिंदगी को गैर-गंभीरता से लो, मैं तुम्हें संन्यासी कहता हूं। मेरा संन्यास और संसार में बस यही बुनियादी भेद है। जिंदगी एक खेल है। न इस तरह मूल्यवान है, न उस तरह मूल्यवान है। न इसमें कुछ रखा है पकड़ने में, न रखा है कुछ छोड़ने में।
तो जहां हो, वहीं जाग जाओ। और जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ जाए कि यह सब खेल है--खेल तो है ही। और तुम जानते भी हो, ऐसा भी नहीं कि तुम जानते नहीं; छिपाते हो अपनी जानकारी क्योंकि तुम डरते हो इस जानकारी से, कहीं यह दिखाई न पड़ जाए कि यह खेल है। क्योंकि इस खेल में तुमने खूब जिंदगी गंवाई है। और इस खेल में तुमने काफी दांव लगा दिए हैं। अब यह दिखाई न पड़ जाए कि यह खेल है!
मेरे एक मित्र जापान में एक घर में मेहमान थे। बूढ़े आदमी, एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, वहां एक दर्शनशास्त्र के सम्मेलन में भाग लेने गए थे। घर में बड़ा शोरगुल था एक दिन, बड़ी तैयारियां हो रही थीं, तो उन्होंने पूछा: क्या मामला है? तो जिसके घर मेहमान थे उस मेजबान ने कहा कि आज शादी है। आप भी सम्मिलित हों। तो वे भी बेचारे नहाए-धोए, अच्छे कपड़े पहने, तैयार हुए--जब शादी है तो ढंग से तैयार हो जाना! और जब भीतर से बाहर आए और बारात देखी तो बड़े हैरान हुए! बारात गुड्डा-गुड्डियों की थी। इस घर के बच्चों ने अपने गुड्डे का विवाह पड़ोस की गुड्डी से किया हुआ था। मगर बड़े बैंड-बाजे बज रहे थे! और बड़ा उत्सव मनाया जा रहा था! और बारात भी चली और गांव के बड़े-बूढ़े भी सम्मिलित हुए। यह भी चले साथ, मगर बड़ी बेचैनी। और दूल्हे की जगह सिर्फ एक गुड्डा है--जापानी गुड्डा बनाने में कुशल होते हैं, बड़ा शानदार गुड्डा है--घोड़े पर सवार है। घोड़ा असली है, गुड्डा झूठा है। जब दूसरे पड़ोस में जहां बारात जानी थी पहुंच गई, वहां भी बड़ा साज-सामान है, वहां भी लोग इकट्ठे हैं, स्वागत बारात का किया गया--जैसे असली बारात चल रही हो!
बर्दाश्त के बाहर हो गया तो पूछा कि यह मामला क्या है, मेरी कुछ समझ में नहीं आता। और बच्चे अगर निकालते यह जुलूस तो ठीक भी था, मगर बड़े-बूढ़े भी इसमें सम्मिलित हुए हैं। तो जिस बूढ़े के घर वे मेहमान थे, उसने कहा कि सभी बारातें खेल हैं। यह भी खेल है। तुम जिन असली बारातों में सम्मिलित हुए हो, वे भी खेल हैं। इसमें हर्ज क्या है? इसमें इतने परेशान क्यों हुए जा रहे हो? बच्चों को मजा आ रहा है, हम सम्मिलित हो गए हैं तो उनको और भी मजा आ रहा है। हम सम्मिलित हो गए हैं तो उनके खेल को बड़ी गंभीरता आ गई है; खेल में बड़ा प्राण आ गया, बल आ गया। हम जान कर सम्मिलित हुए हैं कि खेल है। इसलिए हम सम्मिलित भी हैं और नहीं भी हैं। बच्चे अभी अनजाने हैं, उनको खेल नहीं है, असली बात हो रही है। वे भी बड़े हो जाएंगे तब समझ लेंगे कि खेल है।
इतना ही फर्क है। संसारी अभी बचकाना है, उसने खेल को असली समझ लिया है। संन्यासी जाग गया, थोड़ा होश से भरा, प्रौढ़ हुआ, उसने खेल को खेल की तरह पहचान लिया। अब भागना कहां है, अब जाना कहां है? और अभी बहुते बच्चे हैं जो खेल में उलझे हैं, तुम भी उनके साथ खड़े हो। पर फर्क हो गया।
मुझसे लोग पूछते हैं, आप अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को क्यों नहीं कहते? मैं क्यों कहूं छोड़ने को? परमात्मा ने ही नहीं छोड़ा है अभी तक संसार, संन्यासी क्यों छोड़े! कोई संन्यासी को परमात्मा से ऊपर जाना है! कोई परमात्मा से भी बड़े होने की आकांक्षा है! परमात्मा खेल खेल रहा है। इसलिए हम परमात्मा के खेल को लीला कहे हैं।
लीला का मतलब समझो।
लीला का मतलब समझ गए कि तुम सारे धर्मों का सार समझ गए। खेल है, बस गंभीरता से मत लो। जिस दिन तुम खेल को खेल की तरह जान लोगे, उस दिन इस जगत में गंभीरता से लेने की एक ही बात रह जाती है--वह गुरु और शिष्य का संबंध। वह भर खेल नहीं है।
क्यों?
वह भर खेल नहीं है, क्यों? क्योंकि उसके माध्यम से सत्य का अनुभव होगा। बाकी तो सारे माध्यम और-और असत्यों में ले जाएंगे। तो खेल की और गैर-खेल की मेरी परिभाषा भी समझ लो। खेल वह है जो और खेलों में ले जाए। वह खेल नहीं है जो खेलों के बाहर ले जाए। यहां एक ही द्वार है, गुरु-शिष्य का संबंध, जो संसार के पार ले जाता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आपसे इस दास का निवेदन है कि आप प्रवचन में जब भी कभी कहते हैं, ‘इस दुनिया से जाने के पहले’, या, ‘जब मैं नहीं रहूंगा,’ तब मेरे कलेजे को चीर देते हैं। बहुत वेदना होती है। कृपया इन शब्दों को मत कहें।
सतपाल! इसीलिए ये शब्द कहे जाते हैं कि कलेजे को चीरें। अभी कोई जा थोड़े ही रहा हूं! मगर ऐसा न हो कि मैं चला जाऊं और तुम्हारा कलेजा न चिर पाए। तुम्हारे कलेजे को चीर कर जा सकूं, इसीलिए बार-बार हर तरह से चोट करता हूं। यह भी चोट का एक हिस्सा है।
अब अगर महावीर पर चोट करता हूं, तो जैन पर चोट होती है। मगर तुममें यहां बहुत हैं जिनको अब महावीर से कुछ लेना नहीं, बुद्ध से कुछ लेना नहीं, मुझसे ही सब लेना है, तो मुझ पर भी चोट करता हूं। तो मैं कहता हूं कि अब जाता हूं, कि अब सम्हलो, कि अब यह दीया बुझा, कि अभी देखना हो तो देख लो, रोशनी मौजूद है, इस रोशनी में आंख खोल लो, तुम इसी मस्ती में मत पड़े रहना कि अब क्या करना है, गुरु तो मिल गए! गुरु मिले, तब कुछ करना है। अक्सर लोग सोचते हैं कि गुरु तो मिल गए, अब क्या करना है?
मेरे पास आकर कहते हैं कि अब आप मिल गए, अब क्या करना है? मैं उनसे कहता हूं, मेरे भाई, अब करना शुरू करना है। वे तो निश्चिंत हो जाते हैं, वे कहते हैं--बात खत्म हो गई, अब आप मिल गए, अब क्या करना है? आदमी बड़ा कुशल है। पहले भी कुछ नहीं कर रहे थे वे--ऐसा नहीं है कि पहले कुछ कर रहे थे--पहले भी परमात्मा की खोज के लिए कुछ नहीं कर रहे थे--अब उनकी तरकीब देखो, अब वे कहते हैं--अब आप मिल गए, अब क्या करना है? पहले भी नहीं कर रहे थे, अब भी नहीं करना है। फिर करोगे कब? फिर करोगे कैसे?
कुछ करना है। नींद नहीं तो टूटेगी नहीं। तुमने कभी एक अनुभव किया? जब सपना कभी-कभी बहुत दुख-स्वप्न हो जाता है तो नींद अपने आप टूट जाती है। तुम कोई सपना देख रहे हो कि तुम भागे जा रहे हो और तुम्हारे पीछे एक चीता लगा है--अब तुम कोई शिकारी भी नहीं हो, पता नहीं यह चीता तुम्हारे पीछे क्यों लगा है, मगर उसको शिकार करना है! अब तुम भागे जा रहे हो, बेतहाशा, पहाड़ी ऊंची होती जाती है और चीता करीब आता जाता है, चढ़ाव मुश्किल होता जाता है, हांफ रहे हो, पसीना-पसीना हो रहे हो, दोपहर है, भरी धूप है, और चीता पास आता जाता है, तुम उसकी श्वास भी अपनी पीठ पर अनुभव कर पा रहे हो, अब मारे गए, तब मारे गए, और चीता बढ़ा चला आ रहा है--और उसने एक पंजा दिया, और तुम्हारी नींद खुल गई। अभी भी दिल धड़कता रहता है थोड़ी देर, नींद खुल जाने के बाद भी। अपनी पीठ भी तुम देखते हो कि मामला क्या है। कहीं कोई चीता नहीं है। सिर्फ तुम्हारी पत्नी का हाथ तुम्हारी पीठ पर है। कुछ मामला नहीं है, यह तो सभी का मामला चल रहा है, जो रोज दिन में चलता है, वही रात में चल रहा है, शिकार किया जा रहा है, मगर छाती धड़क रही है, पसीने-पसीने हो रहे हो, हांफ रहे हो। थोड़ी देर में हंस कर शांत होकर सो जाते हो। जब सपना कभी बहुत दुख-स्वप्न जैसा हो जाता है, पीड़ा इतनी हो जाती है कि नींद नहीं बच सकती।
मनोवैज्ञानिक से अगर तुम पूछोगे, तो तुम चकित होओगे जान कर कि मनोविज्ञान की जो आधुनिकतम खोजे हैं, वे कहती हैं कि सपने के आने का प्रयोजन ही एक है--नींद को बचाना। यह तुम चकित होओगे जान कर, आमतौर से तुम सोचते हो कि सपने के कारण हम सो नहीं पाए। आमतौर से लोग कहते हैं कि रात भर सपने आते रहे, सो नहीं पाए। उनको पता नहीं वे उलटी बात कह रहे हैं। अगर सपने न आते तो वे बिलकुल नहीं सो सकते थे। सपना नींद को बचाने का उपाय है।
जैसे समझो उदाहरण के लिए, तुमने सपने में देखा कि तुम्हें खूब भूख लगी है। अब असलियत हो सकती है कि तुम्हें भूख लगी है। हो सकता है जैन हो, पर्यूषण के दिन चल रहे हों और व्रत कर लिया है--तुम्हें भरोसा न हो, तुम सोहन से पूछ सकते हो, वह व्रत करती रही है पहले--व्रत कर लिया, अब रात सो तो गए हैं--अब नींद में तो कोई व्रत-भ्रत भूल जाता है, भूख लगी है तो भूख याद रहती है, असली चीजें याद रहती हैं, नकली चीजें भूल जाती हैं; स्वाभाविक याद रहता है--पेट में तो कड़की है, पेट तो मांग रहा है कि कुछ मिल जाए। अब अगर पेट की भूख जारी रहे तो नींद नहीं आ सकती। तो नींद में तुम्हारा मन तुम्हें एक भुलावा देता है--चले, नींद में उठे, चले, खोल लिया फ्रिज, खड़े हैं फ्रिज के सामने, सब चीजें रखी हैं; आइस्क्रीम निकाल ली--उपवास इत्यादि के दिन ऊंची चीजें याद आती हैं, रूखी-सूखी रोटी कौन खाता है रात, उपवास के दिन बातें ही ऊंची चलती हैं--तुम मजे से आइस्क्रीम खा रहे हो, सपना चल रहा है, यह तुम्हारी नींद को बचा रहा है। आइस्क्रीम खा-पी कर तुम मजे से सोए रहोगे, क्योंकि तुम्हें एक भरोसा दिला दिया सपने ने कि अब तो आइस्क्रीम भी खा ली, अब क्या है? अब तो मामला खत्म हो गया, छूट गए पर्यूषण से, अब तो सो जाओ शांति से!
तुम्हें जोर से पेशाब लगी है और तुम चले सपने में कि तुम बाथरूम में चले गए हो, पेशाब कर आए, आकर सो गए। नींद में सपना देख रहे हो। वह जो तुम्हारे ब्लेडर पर जोर का दवाब पड़ रहा है, वह नींद तोड़ देगा; सपना सिर्फ तुम्हारे लिए भुलावा दे रहा है। एक कल्पना का जाल खड़ा कर रहा है। वह कह रहा है--ठीक है, हो तो आए, मामला खत्म हो गया, अब सो जाओ। वह जो तुम्हारे ब्लेडर पर दबाव पड़ रहा था, सपने ने उस दबाव को रोक दिया।
सपना इस तरह काम करता है जैसे कार में लगे स्ंिप्रग काम करते हैं। कार जा रही है, गड्ढा पड़ता है तो स्ंिप्रग गड्ढे को पी जाता है; तुम अंदर बैठे हो, चलते रहते हो। जितनी कीमती कार हो, उतने बहुमूल्य स्ंिप्रग होते हैं। रेलगाड़ियों के दो डिब्बों के बीच में बफर लगाए होते हैं। वे बफर इसलिए लगाए होते हैं कि अगर कोई टकराहट हो जाए, एकदम से रेलगाड़ी रोकनी पड़े, कुछ हो जाए, तो दो डिब्बे टकरा न जाएं। बफर धक्का पी जाते हैं।
सपना एक ‘बफर’ है। सपना तुम्हें रात भर बचाए रखता है, नहीं तो हजार उपद्रव आते हैं। एक मच्छर आकर कान के पास गुनगुनाने लगा, तुम सोचते हो कि लता मंगेशकर! सपने ने तुमको बचा दिया। लता मंगेशकर गा रही है! सपने ने एक तुमको तरकीब पकड़ा दी; सपने ने कहा, तुम कहां परेशान हो रहे हो, कोई मच्छर-वच्छर नहीं है, लता मंगेशकर गा रही है। जरा गौर से गीत सुनो! तुम एक फिल्मी धुन सुनने लगे। मच्छर की धुन फिल्मी धुन में दब गई। बफर आ गया। बीच में बफर ने आकर गड्ढे को पी लिया। रात भर सपना तुम्हें बचा रहा है। तुम्हारी नींद को बचा रहा है।
लेकिन, जब सपना ऐसा होता है कि जिसको नींद नहीं समा सकती, जिसको नींद नहीं अपने भीतर आत्मसात कर सकती, जब सपना इतना भयंकर हो जाता है, तो नींद टूट जाती है।
सदगुरु जो तुम्हें चोट करता है, वह इसीलिए कि तुम्हारी नींद टूट जाए, तुम्हारे ‘बफर’ टूट जाएं, तुम्हारे स्ंिप्रग टूट जाएं, तुम्हें जिंदगी के गड्ढे समझ में आ जाएं।
तुम पूछते हो: ‘आपसे इस दास का निवेदन है, आप प्रवचन में जब भी कभी कहते हैं, ‘इस दुनिया से जाने के पहले’, या ‘जब मैं नहीं रहूंगा,’ तब मेरे कलेजे को चीर देते हैं।’
मगर तुम चिरने कहां देते हो। मैं तो चीरता हूं, मगर तुम चिरने नहीं देते। तुम बचाव कर जाते हो। तुम इधर-उधर हो जाते हो। तुम किनारा काट जाते हो, तीर निकल जाता है, तुम बच जाते हो। थोड़ी-बहुत खरोंच लग रही है अभी, उस खरोंच को ही तुम हृदय का चीर देना कह रहे हो। हृदय चिर जाए तो काम हो जाए। नींद टूट जाए। सब सपने समाप्त हो जाएं। तुम जाग जाओ।
यह चोट तो मैं करता रहूंगा। यह चोट तो मुझे करनी ही होगी। यह चोट तो मेरा काम है। यह घाव तो मैं तुम्हारा उघाड़ता रहूंगा। घावों को सांत्वना नहीं देनी है, मलहम-पट्टी नहीं करनी है, उनको उघाड़ना है। चोट तुम्हारे सामने जितनी गहन और जितनी साफ हो जाए उतना अच्छा है।
वह चोट जो दिल पर खाई थी उस चोट का अब अहसास कहां
इक दाग-सा बाकी है जिसको, हम याद बनाए बैठे हैं
मैं तुम्हें याद नहीं बनाने दूंगा। मैं चोट-पर-चोट करता रहूंगा। मैं घाव को ताजा और हरा रखूंगा। यही सत्संग का अर्थ है कि तुम आओ रोज और चोट खाओ रोज। कब तक सोए रहोगे? एक दिन तो आएगा कि जागोगे! तुम्हारी नींद और मेरे बीच संघर्ष चल रहा है। यही तो सत्संग है।
हजारों माहताब आए, हजारों आफताब आए
मगर हमदम! वही है जुल्मते-गमखाना बरसों से
कितने चांद उतरे जमीन पर, कितने सूरज उतरे जमीन पर; कितने बुद्ध, कितने कृष्ण चले जमीन पर, मगर तुम बचते रहे। अंधेरा वैसा का वैसा बना है। चांद-तारे उतरते हैं, चले जाते हैं, तुम वैसे के वैसे रह जाते हो। चोट खाओ। मिटने की तैयारी दिखाओ। इस बार ऐसा न हो कि मैं चोट करता रहूं और तुम बचते रहो। इस बार तीर को कलेजे में लग ही जाने दो। किसी भी बहाने से हो, तुम्हें जगाना है।
मस्जिद की अजां हो कि शिवाले का गजर हो
अपनी तो यह हसरत है कि किसी तरह सहर हो
सुबह हो जाए, फिर किस बात से तुम जगे--
मस्जिद की अजां हो कि शिवाले का गजर हो
अपनी तो यह हसरत है कि किसी तरह सहर हो
सब उपाय किए जाएंगे। सब तरफ से तुम्हें छेदा जाएगा। जितने जल्दी तुम तीरों का स्वागत कर लो, सम्मानपूर्वक अपने भीतर ले लो, अपने हृदय को खुद ही खोल दो, उघाड़ दो, उतने ही जल्दी काम पूरा हो जाए।
सतपाल, मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। तुम भी मेरी तकलीफ समझो! तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं, चोट हो जाती है। तुम्हें मुझसे प्रेम है, तुम्हें मुझसे लगाव है, लेकिन अगर यह लगाव तुम्हें जगत के पार न ले जाए, तो यह लगाव भी फिर सांसारिक हो गया और व्यर्थ हो गया। फिर यह भी एक रिश्ता था, जैसे और रिश्ते थे--यह भी एक झूठा रिश्ता हो गया। यह लगाव तो तभी सच्चा लगाव होगा, यह रिश्ता तो तभी सच्चा रिश्ता होगा, जब तुम्हें जगाए, जब तुम्हें मिटाए। यहां तुम्हारी मृत्यु का आयोजन चल रहा है। सत्संग यानी मृत्यु का आयोजन। और धन्यभागी हैं वे जो मरने को राजी हो जाते हैं। क्योंकि अमृत की मालकियत उनकी ही है। मृत्यु का मूल्य चुका कर अमृत का पुरस्कार मिलता है।
आज इतना ही।
भगवान, आपके बिना इस जिंदगी से कोई शिकवा तो न था, लेकिन आपके बिना यह जिंदगी जिंदगी भी तो न थी। अब जी में आता है, तेरे दामन में सिर छिपा कर रोता रहूं, रोता रहूं!
अगेहानंद! धन मिलता है तभी निर्धनता का पता चलता है। स्वास्थ्य का अनुभव हो तो बीमारी की पहचान आती है। जो सदा बीमार ही रहा हो, उसे बीमारी भूल जाती है। जो जंजीरों में ही रहा हो और जिसने कभी स्वतंत्रता का स्वाद न चखा हो, उसे जंजीरें याद नहीं रह सकतीं। जंजीरों को जानने के लिए स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि चाहिए। नहीं तो जंजीरें आभूषण मालूम होने लगती हैं। आदमी अपनी जंजीरों को सजा लेता है, संवार लेता है, सुंदर बना लेता है। कारागृह में ही अगर पैदा हुए, वहीं पहली बार आंख खोली और खुला आकाश कभी देखा नहीं, तो कारागृह कारागृह है यह कैसे जानोगे? स्वतंत्रता का अनुभव ही, थोड़ा सा अनुभव, एक बूंद भर अनुभव भी बेचैन कर जाएगा। फिर कारागृह में एक क्षण रुकना कठिन है। फिर खुले आकाश की आकांक्षा पैदा होती है।
इसलिए धार्मिक व्यक्ति अधार्मिक व्यक्ति से ज्यादा अशांत हो जाता है। अधार्मिक व्यक्ति की तो कोई खास अशांति नहीं है, क्षुद्र की अशांति है। उसकी शिकायतें ही क्या हैं? थोड़ा पैसा और मिल जाए, थोड़ा बड़ा मकान हो, थोड़ी बड़ी दुकान हो। यह सब हो सकता है। हो ही रहा है। उसकी जगत से कोई बड़ी शिकायत नहीं, क्योंकि जगत से उसकी कोई बड़ी मांग नहीं। थोड़ा बैंक में उसका पैसा बढ़ जाएगा, उसकी अशांति शांत मालूम होती पड़ेगी।
असली अशांति तो धार्मिक व्यक्ति को पैदा होती है। क्योंकि उसकी अभीप्सा अनंत की है, असीम की है, विराट की है, अमृत की है। थोड़े से, छोटे से वह राजी नहीं है। उसका असंतोष बड़ा व्यापक है। उसकी अतृप्ति इस पृथ्वी पर पूरी हो सके, ऐसा संभव नहीं है। आकाश ही उसे तृप्ति दे सकता है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति अधार्मिक व्यक्ति से ज्यादा अड़चन में पड़ जाता है। और तब तुम्हें यह भी समझ में आ जाएगा कि लोग धर्म से डरे हुए क्यों हैं? उनके डरने के पीछे अचेतन कारण हैं। भय है। ऐसे ही जिंदगी मुश्किल मालूम पड़ती है, और इस जिंदगी में परमात्मा की आकांक्षा को भी अगर जन्मा लिया, फिर क्या होगा? क्षुद्र तो मिलता नहीं है, शाश्वत को कहां खोजने जाएंगे? क्षुद्र ही तो हाथ में नहीं आ रहा है, विराट को कैसे पा सकेंगे? इनकार ही कर दो कि विराट है ही नहीं।
नास्तिक ईश्वर को इनकार नहीं करता, सिर्फ इतना ही कहता है कि तुम न होओ तो अच्छा! मैं वैसे ही मुश्किल में हूं, मैं ऐसे ही मुश्किल में हूं और अगर तुम भी हो और तुम्हें भी पाने की अभीप्सा जग गई, फिर मेरा क्या होगा? अभी ही सोना मुश्किल है, अभी ही नींद नहीं आती, लेकिन तुम्हारी अगर खोज पैदा हो गई, तो फिर कहां पलकें लगा पाऊंगा? नास्तिक अपनी आत्म-रक्षा में ईश्वर को इनकार करता है। नास्तिकता का कोई संबंध ईश्वर से नहीं है, उसका संबंध सिर्फ अपनी रक्षा से है। नास्तिक यह कहता है कि न तुम हो, न मुझे तुम्हें खोजने की कोई जरूरत है। यह छोटा सा आंगन सब-कुछ है। बस इस छोटे से आंगन पर कब्जा हो जाए, मालकियत हो जाए, तो सब पा लिया। नास्तिक यह कह रहा है, इस आंगन के पार और कुछ भी नहीं है। वह यह कह रहा है कि न होगा बांस न बजेगी बांसुरी। वह पहले से ही अपनी रक्षा कर रहा है।
नास्तिक भयभीत आदमी है। आमतौर से लोग उलटा समझते हैं। आमतौर से लोग समझते हैं कि नास्तिक बड़ा निर्भीक है। देखो, ईश्वर तक को इनकार कर रहा है। मैं तुमसे कहता हूं, बात बिलकुल उलटी है। नास्तिक निर्भीक नहीं है। निर्भीक होता तो इस जगत को इनकार करता और ईश्वर की खोज पर निकलता। क्षुद्र की खोज में रखा क्या है? निर्भीक होता तो अनंत की तलाश करता, दुर्गम की तलाश करता; जो आसानी से नहीं मिलता है, उस शिखर को पाने की यात्रा पर निकलता, जिसे पाने में बड़ी चढ़ाई है और चढ़ाई कठिन है।
नहीं, नास्तिक निर्भीक नहीं है, भयभीत है। यद्यपि उसने अपने भय के लिए बड़ा तर्कजाल खोज रखा है। वह कहता है--ईश्वर है ही नहीं, खोज पर जाएं तो जाएं किसकी? पुकारें तो पुकारें किसे? होता तो जरूर पुकारते, है ही नहीं। ऐसे उसने आंख बंद कर ली। कारागृह में जो आदमी कहता है--आकाश है ही नहीं, आकाश में उड़ने वाले पंख हैं ही नहीं, आकाश में कोई कभी उड़ा नहीं, ये सब व्यर्थ की बातें हैं, वह सिर्फ इतना ही कह रहा है--मुझे चैन से सोने दो, मुझे मेरी जंजीरों में रहने दो, यह कारागृह नहीं है, यह मेरा घर है, मुझे कुछ और नहीं चाहिए, इससे ज्यादा की मेरी मांग नहीं है।
तुमने साधारणतः यह भी सुना है कि धार्मिक आदमी बड़ा संतुष्ट होता है, मैं तुमसे कहता हूं कि गलत है बात। धार्मिक आदमी संसार की दृष्टि से संतुष्ट मालूम होता है, क्योंकि उसका सारा असंतोष परमात्मा की तरफ लग गया है। उसके पास असंतोष बचा नहीं कि दुकान में लगा दे, इसलिए संतुष्ट मालूम होता है, इसलिए नहीं कि संतुष्ट हो गया है वह संसार से। संसार से कौन कब संतुष्ट हुआ है? लेकिन असंतोष की एक मात्रा है, एक सीमा है। उसने अपना सारा असंतोष सत्य की खोज में लगा दिया है। उसकी अतृप्ति आंतरिक है। सांसारिक की अतृप्ति बाह्य है। उसकी नजरें बाहर खोज रही हैं। धार्मिक की नजरें भीतर खोज रही हैं। और भीतर की खोज कठिन है। चांद-तारों पर पहुंच जाना आसान है, अपने भीतर पहुंचना कठिन है।
क्यों कठिन है?
क्योंकि चांद-तारों और हमारे बीच फासला है। फासला हो तो तय किया जा सकता है। स्वयं के और स्वयं के बीच कोई फासला नहीं है, तय कैसे करो? इसलिए तीर्थयात्रा बड़ी कठिन है। और जब मैं कहता हूं--तीर्थयात्रा, तो मेरा मतलब काबा और काशी से नहीं है, तुम्हारे अंतर्तम में विराजमान परमात्मा से है, तुम्हारे भीतर जलते हुए चैतन्य के दीये से है। दूरी ही नहीं है, यात्रा कैसे हो, यही अड़चन है। जो मिला ही हुआ है, उसे कैसे पाएं, यही अड़चन है। न मिला होता तो पाने की कोशिश कर लेते। जो हमारा ही है, उसे कैसे जानें? जो सदा से हमारा है, जैसे मछली सागर में है, कैसे सागर को जानें? ऐसी हमारी दशा है।
तुम्हारा प्रश्न सार्थक है। तुमने पूछा है: ‘आपके बिना इस जिंदगी से कोई शिकवा तो न था।’
हो भी नहीं सकता था। जब तक सदगुरु से मिलना न हो जाए, जिंदगी से कोई शिकवा होता ही नहीं। जिंदगी सब-कुछ मालूम होती है, खिलौने ही सब-कुछ मालूम होते हैं, कूड़ा-करकट ही धन मालूम होता है, शिकवा हो भी क्या सकता है? और तुम्हारे चारों तरफ तुम्हारे जैसे ही लोग होते हैं, तुम भी व्यर्थ को पाने में लगे हो, वे भी व्यर्थ को पाने में लगे हैं। सब तुम्हारे जैसे लोग, तुम्हारी ही दौड़, एक ही दिशा की खोज, भीड़ में आदमी चलता चला जाता है। याद कहां आती है कि हम अपनी जिंदगी का क्या उपयोग कर रहे हैं? क्या जिंदगी इसी के लिए है कि थोड़ा सा धन इकट्ठा करके मर जाएं? कि थोड़ा बड़ा मकान बना कर मर जाएं? कि दो-चार बच्चे पैदा करें और मर जाएं? जिंदगी इसीलिए है? प्रश्न ही नहीं उठ पाते। प्रश्नों की सुविधा ही नहीं है। ऐसे प्रश्न संगत भी नहीं मालूम पड़ते। जिंदगी के संगत प्रश्न दूसरे हैं। सफलता कैसे मिले? धन कैसे कमाया जाए? पद कैसे मिले? प्रतिष्ठा कैसे मिले?
नहीं, तुम्हें शिकवा हो भी नहीं सकता था। मेरे पास आए हो तो अब तुम्हें जिंदगी से असंतोष शुरू होगा। अब तुम्हें लगेगा, अब तक जो किया है, व्यर्थ; सब अब तक जो किया, मिट्टी हो गया। अगर पचास साल जीए हो, तो नाली में बह गए वे पचास साल। उनसे कोई उपलब्धि नहीं हई। घबड़ाहट होगी, बेचैनी होगी। इसलिए सदगुरु से लोग बचते हैं। पंडित-पुजारी के पास जाने से नहीं डरते, क्योंकि पंडित-पुजारी तो तुम्हारी ही दुनिया का हिस्सा है। उसमें और तुममें कोई भेद नहीं है। पंडित-पुजारी तुम्हारे भीतर अभीप्सा का दीया नहीं जला सकता है, असंतोष की आग पैदा नहीं कर सकता है। सदगुरु वही है जो तुम्हें ऐसा असंतुष्ट कर दे कि जब तक परमात्मा न मिले तब तक संतोष न मिले।
जीसस ने ठीक कहा है कि मैं शांति का संदेश लेकर नहीं आया, मैं तलवार लेकर आया हूं। कल सुनते थे रज्जब को, कि गुरु ने भाला छेद दिया मेरी छाती में। जहां भाला छिद जाए छाती में, वहीं समझना रूपांतरण की संभावना है। तुम्हें यहां आकर कुछ नये का आभास हुआ, भनक पड़ी कान में, जिंदगी ऐसी भी हो सकती है, जिंदगी यह रूप, यह रंग भी ले सकती है, जिंदगी ऐसा गीत भी गा सकती है, जिंदगी में ऐसे फूल भी खिल सकते हैं, तुम्हें थोड़ी सी सरसराहट मालूम हुई। तुम जिस जिंदगी को जी रहे थे, वही जिंदगी को जीने का एकमात्र विकल्प नहीं है, और भी विकल्प हैं। तुम जिसे धन मानते थे, वही धन नहीं है, और भी धन हैं। और तुम जिसे पद मानते थे, वही पद नहीं है, और भी पद हैं। नया आयाम खुला। आंख जरा ऊपर उठी। कारागृह की दीवाल के पार तुमने आकाश की तरफ देखा। चांद-तारों से भरा आकाश दिखाई पड़ा। तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगे। कारागृह से शिकायत शुरू हो गई।
सदगुरु से मिलने का अर्थ है, ऐसे व्यक्ति से मिल जाना, जिसे स्वतंत्रता का अनुभव हुआ है। स्वतंत्रता का अनुभव संक्रामक है। उसका उपदेश नहीं दिया जाता, उसका उपदेश दिया भी नहीं जा सकता, लेकिन अगर तुम स्वतंत्रता से भरे हुए व्यक्ति के पास बैठोगे, तो कुछ बूंदें छलक जाएंगी उसके भीतर से तुम्हारे भीतर। कब छलक जाएंगी, पता भी नहीं चलेगा। संक्रामक है इसलिए कहता हूं। प्रेम से भरे व्यक्ति के पास बैठोगे, कुछ प्रेम की बूंदें तुम्हारे कंठ से उतर जाएंगी, तुम्हारे बावजूद।
और तुमने यह अनुभव भी किया है कभी-कभी।
अगर उदास आदमी के पास बैठो तो अनायास तुम उदास हो जाते हो। और चिंतित आदमी के पास बैठो तो चिंताओं की तरंगें तुम्हारे चित्त को घेर लेती हैं। हंसते आदमी के पास बैठो तो चाहे तुम उदास भी क्यों न रहे होओ, एकबारगी भूल जाते हो उदासी और हंसने लगते हो। दस आदमी आनंदित बैठे हों, मस्त हों और तुम उनके पास बैठ जाओ तो उनकी मस्ती का प्रवाह तुम्हें भी बहा ले चलता है किसी नई दिशा में। थोड़ी देर को तुम किसी और लोक के यात्री हो जाते हो। यह तुम्हारे भी अनुभव में आता है कि हमें एक-दूसरे की तरंगें छू लेती हैं।
सत्य की तरंग तो बड़ी से बड़ी तरंग है, बाढ़ है। जिसको सत्य मिला हो, उसके पास बैठोगे तो तुम्हें पहले तो यही अड़चन आएगी कि तुम्हारी सारी जिंदगी असत्य मालूम होने लगेगी, उसकी तुलना में।
तुमने एक प्रसिद्ध कहानी सुनी है न, कि अकबर ने एक लकीर खींच दी अपने दरबार में एक दिन आकर और कहा, कोई इसे छुए न और छोटी कर दे। बिना छुए छोटी कर दे। अब लकीरें बिना छुए कैसे छोटी की जाएं? दरबारियों ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, जितना सोचा होगा उतनी ही उलझन बढ़ गई होगी, क्योंकि बिना छुए कैसे लकीर छोटी हो सकती है। छोटी करने का मतलब यह होता है--छूनी पड़ेगी, मिटानी पड़ेगी, पोंछनी पड़ेगी; इधर से, उधर से काटनी पड़ेगी। छूने की आज्ञा नहीं। और तब बीरबल हंसा, और उसने एक बड़ी लकीर उस छोटी लकीर के नीचे खींच दी। छोटी लकीर को छुआ नहीं और लकीर छोटी हो गई। बिना छुए छोटी हो गई। एक तुलना जगी। एक पृष्ठ भूमि खड़ी हो गई।
तुम जब मेरे पास आए, मैं तुम्हारी पृष्ठभूमि बना। शिकायत शुरू हुई। जिंदगी ऐसी ही जीनी जैसी तुम जी रहे थे, व्यर्थ है। और जब यह खयाल आता है कि जिंदगी ऐसा जीना व्यर्थ है, तभी दूसरा भी खयाल आता है कि फिर सार्थक क्या होगा? और एक बार असार असार की भांति दिख जाए, तो सार को खोजना कठिन नहीं है। असत्य असत्य की तरह अनुभव में आ जाए, तो सत्य तो हाथ के पास ही है--जब जरा गर्दन झुकाई देख ली। सत्य तो तुम्हारे भीतर है, असत्य में आंखें उलझी रहती हैं, इसलिए सत्य का अनुभव नहीं हो पाता। तो मेरे पास आओगे, असंतोष जन्मेगा, शिकायत भी पैदा होगी और आनंद के द्वार भी खुलेंगे। यह विरोधाभास एकसाथ घटित होगा। एक तरफ से तुम एकदम उदास हो जाओगे, अपनी जिंदगी को देखोगे तो उदास हो जाओगे, और जिंदगी की नई संभावना की थिरक देखोगे, यह नई पायल का बजना सुनोगे, तो परम आनंद से भर जाओगे। नये सपने तुम्हारे हृदय में नीड़ बना लेंगे।
धार्मिक होने का यही अर्थ है, यह पृथ्वी काफी नहीं। यह देह काफी नहीं। यह मन काफी नहीं। इस मन, इस देह, इस पृथ्वी का सीढ़ी की तरह उपयोग कर लेना है। अतिक्रमण करना है, पार जाना है, इसके ऊपर उठना है। इसके ऊपर उठने के ही भाव के कारण बड़ी भ्रांति हो गई, भ्रांति यह हो गई कि जब देखा महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को, मोहम्मद को ऊपर उठते, इस जिंदगी से पार जाते, एक नई जिंदगी का आविर्भाव करते, एक नये आकाश को आमंत्रित करते और उनका उत्फुल्ल भाव देखा, उनकी समाधि देखी, उनका उन्माद देखा, उनका हर्ष देखा, उनके चारों तरफ बहती हुई आनंद की शराब देखी, उनके पास बनती नई मधुशाला देखी--बहुत लोग दीवाने हुए और झूमे और मस्त हुए।
जो सदगुरु की जीवित अवस्था में जुड़ जाते हैं वे तो मस्त हो जाते हैं, लेकिन पीछे बड़ी अड़चन हो जाती है। पीछे संसार से ऊपर उठना है, यह बात ही लोग इस तरह अनुवादित करते हैं कि संसार दुश्मन है, देह दुश्मन है; ऊपर उठने की तो बात भूल जाती है, दुश्मनी की बात पकड़ जाती है। ऊपर कुछ है उसे पाना है, यह तो स्मरण में नहीं रहता, जो नीचे है उसे छोड़ना है, यह स्मरण में हो जाता है। विधायक नकारात्मक हो जाता है। जब बुद्ध जीवित होते हैं तो उनके साथ विधायक होता है धर्म। बुद्ध की मौजूदगी उसे विधायकता देती है, पाजिटिविटी देती है। बुद्ध की मौजूदगी में तुम चूक नहीं कर पाते। वह प्रकाश सामने है, कैसे भूल होगी? तुम उस प्रकाश में लीन होने लगते हो, तुम धीरे-धीरे उस प्रकाश से नाता जोड़ लेते हो, तुम अपने दीये को बुद्ध के दीये के पास सरकाते चलते हो--यही शिष्यत्व है--एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारा बुझा दीया बुद्ध के इतने करीब आ जाता है कि बुद्ध के दीये से लपट झपकती है, एक क्षण में क्रांति हो जाती है, तुम भी जल उठते हो। तुम पहली दफा जीवित होते हो। तुम्हारा असली जन्म होता है। तुम द्विज बनते हो।
बुद्ध के पास गए बिना कोई द्विज नहीं बनता। द्विज कोई पैदा नहीं होता। द्विज का अर्थ है, दुबारा जन्मा। एक जन्म मां से मिलता है, पिता से मिलता है, एक जन्म गुरु से मिलता है। गुरु के पास गए बिना कोई द्विज नहीं होता। जनेऊ इत्यादि पहन कर सोच मत लेना कि तुम द्विज हो गए, कि ब्राह्मण के घर में पैदा हुए तो द्विज हो गए। जब तक ब्रह्म को जानने वाले के पास पैदा न होओ फिर से, तब तक तुम द्विज नहीं हो सकते। वही ब्राह्मण है, ब्राह्मण यानी जिसने ब्रह्म को जाना। जब तक ब्राह्मण, ब्रह्म को जानने वाला तुम्हारी दाई न बन जाए और तुम्हें फिर से नया जन्म न दे दे, तब तक तुम शूद्र हो।
सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं और सभी को ब्राह्मण की तरह मरना चाहिए। सभी मरते नहीं ब्राह्मण की तरह। कभी-कभार। दुर्भाग्य की बात है। सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं और अधिकतर सभी शूद्र की तरह ही मरते हैं। ब्राह्मण तो कभी-कभी कोई होता है--कोई नानक, कोई रज्जब, कोई कबीर। मगर जब भी कभी कोई ब्राह्मण जीवित होता है, तो उसके पास धर्म की विधायकता होती है। तुम उसके पास सरकते-सरकते उसकी विधायक ज्योति से जुड़ जाते हो।
लेकिन जैसे ही दीया उड़ जाता है--उड़ियो पंख पसार--जैसे ही बुद्ध और कबीर चले जाते हैं, घना अंधकार छूट जाता है, पहले से भी ज्यादा घना अंधकार। तुमने कभी देखा, रात अंधेरी रात तुम राह से जा रहे हो, अंधेरा है, बहुत अंधेरा है, लेकिन फिर भी चल रहे हो तो कुछ-कुछ दिखाई पड़ता है, नहीं तो चलते कैसे! और तभी एक कार पूरा प्रकाश फैलाती हुई, तुम्हारी आंखों को जगमगाती हुई पास से निकल जाती है। फिर कार के बाद में एकदम डगमगा जाते हो। अंधेरा और अंधेरा हो जाता है। पैर लड़खड़ा जाते हैं। यह वही अंधेरा है, तुम भी वही हो, कुछ बदला नहीं है, मगर बीच में जो रोशनी चमक गई आंख में, वह अब और अंधेरा खड़ा कर गई। हर बुद्ध के मरने के बाद जगत में धर्म की विधायकता खो जाती है, नकारात्मकता पैदा हो जाती है।
नकारात्मक धर्म का अर्थ होता है, संसार गलत है, इसे छोड़ो। विधायक धर्म का अर्थ होता है, परमात्मा सही है, उसे पाओ। नकारात्मक धर्म का अर्थ होता है, यह छोड़ो, वह छोड़ो, यह त्यागो, वह त्यागो। विधायक धर्म का अर्थ होता है, हाथ फैलाओ, हृदय खोलो, रोशनी से भरो, परमात्मा का धन बरस रहा है, तुम वंचित न रह जाओ; द्वार-दरवाजे खोलो, उसे भीतर आने दो, अतिथि द्वार पर दस्तक दे रहा है।
फर्क समझ लेना।
इसी के कारण मनुष्य जाति बड़ी झंझट में पड़ गई है, क्योंकि हर बुद्ध के बाद नकारात्मकता फैल जाती है। यह कुछ अनिवार्य है। इससे बचा भी नहीं जा सकता। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, जब तक बन सके जीवित बुद्ध का साथ खोज लेना, नहीं तो बहुत संभावना है कि तुम नकारात्मक धर्म में ही उलझे रहोगे। और नकारात्मक धर्म तुम्हें परमात्मा को तो देगा ही नहीं, तुमसे संसार भी छीन लेगा। तुम धोबी के गधे हो जाओगे, न घर के, न घाट के। वही तुम्हारे तथाकथित साधु-महात्माओं की जिंदगी है--धोबी के गधे, न घर के, न घाट के। परमात्मा मिला नहीं है और संसार छोड़ दिया है। स्वतंत्रता तो मिली ही नहीं, कारागृह भी गया। अब हाथ में कुछ भी नहीं है। पंख तो मिले ही नहीं, वह जो पिंजड़े की सुरक्षा थी वह भी गई।
तुमने कभी देखा, घर में अगर तुम्हारे तोता हो और बहुत दिन पिंजड़े में रह चुका हो तो उसे एकदम पिंजड़ा खोल कर मुक्त मत कर देना, वह मारा जाएगा। वह उड़ न सकेगा। क्योंकि पिंजड़े में बंद रहते-रहते उसकी पंख की क्षमता खो गई है, उसे अपने पंख पर भरोसा ही खो गया है। भरोसा तो प्रयोग से आता है। इतने दिनों से उड़ा नहीं, भूल ही गया है कि उड़ सकता है। पंख जरूर हैं, मगर अब सब दिखावे के हैं, औपचारिक हैं। अब पंखों के भीतर आस्था नहीं है। और आस्था के बिना हर चीज निर्जीव हो जाती है। अब तोते को अपने पंखों पर आस्था नहीं है--वर्षों से उसे याद ही नहीं है कि वह उड़ सकता है। हां, दूसरों को उड़ते देखा है, मगर मैं तो उड़ नहीं सकता। यह सम्मोहन उसमें गहरा हो गया है--कि मैं उड़ नहीं सकता, मैं उड़ नहीं सकता। यह सोच-सोच कर धीरे-धीरे अपने पंखों से अपना संबंध खो दिया है। आज उसे अचानक निकाल दोगे पिंजड़े के बाहर, मारा जाएगा। स्वतंत्रता तो मिलेगी नहीं, खुले आकाश का आनंद भी न मिलेगा, चांद-तारों से बात करने का मजा भी नहीं, वह जो पिंजड़े की सुरक्षा थी और जीवन था, वह भी गया।
ऐसे तुम्हारे साधु-संन्यासी हैं। नकारात्मक। संसार में थोड़ी तरंग भी है, थोड़ी रसधार भी बहती है क्योंकि परमात्मा संसार में मौजूद है। कितने ही कीचड़ में पड़ा हो मगर हीरा हीरा है। और कितना ही देह में भटक गई हो आत्मा लेकिन आत्मा आत्मा है। परमात्मा संसार में मौजूद है--इन वृक्षों में, इस कोयल की आवाज में, इन सूरज की किरणों में, इन हवाओं के झोंकों में, मुझमें, तुम में, परमात्मा मौजूद है। गिर गया है हीरा, कीचड़ में गिर गया है, साफ कर लेना है, उठाना है, धो डालना है।
विधायक धर्म सदगुरु से संबंध जोड़ने से उपलब्ध होता है। शास्त्र से जो धर्म को खोजते हैं उनको नकारात्मक धर्म हाथ मिलता है।
यह दो शब्द खूब याद रखना--‘शास्ता’ और ‘शास्त्र।’ शास्ता का अर्थ होता है: सदगुरु, जहां अभी शास्त्र जन्म रहा है, जहां शास्त्र अभी श्वासें ले रहा है, जहां शास्त्र में अभी खून की धार बहती है, हृदय धड़कता है, जहां वेद का जन्म हो रहा है, जहां कुरान की आयतें उठ रही हैं। शास्ता ऐसा द्वार, जहां से परमात्मा फिर जगत में झांक रहा है--स्पष्ट, प्रगाढ़ होकर, पुंजीभूत होकर, समग्रीभूत। फिर एक दफा संसार में आदमी की तलाश कर रहा है। फिर आदमी को पुकार रहा है। फिर आवाहन दे रहा है कि आओ, मैं प्रतीक्षातुर हूं।
शास्त्र, जब शास्ता जा चुका। शब्द अब श्वास नहीं लेते, किताब में स्याही बन कर पड़ गए। कहां रोशनी थी उन शब्दों में--जब बुद्ध बोलते हैं तो शब्दों में प्रकाश होता है--फिर शास्त्र में स्याही रह जाती है। स्याही यानी अंधेरापन। कालापन रह जाता है। कहां उज्ज्वल शब्द थे, कहां धड़कते शब्द थे, कहां नाचते शब्द थे, कहां फिर किताबों में पड़े हुए मुर्दा शब्द! लाशें रह गईं। किताबों पर पड़े दाग, फिर तुम उसमें सत्य को खोजते रहना; तुम्हें जो मिलेगा वह नकारात्मक होगा। उस नकारात्मक में तुम फंसोगे, कहीं जाओगे नहीं। यह जिंदगी भी खराब होगी और वह जिंदगी भी न मिलेगी।
विधायक धर्म का अर्थ होता है: जो है, उससे ऊपर उठना है--उसके विपरीत नहीं, उसका उपयोग करना है।
तुम मेरे पास आए, तुम कहते हो: ‘लेकिन आपके बिना यह जिंदगी जिंदगी भी तो न थी।’
जिंदगी हो भी नहीं सकती बिना किसी जीवित व्यक्ति से जुड़े। और सब यहां जीवित नहीं हैं। रास्तों पर लाशें चल रही हैं, मुर्दे बाजारों में बैठे हैं। जिन्हें अपने जीवन का कुछ भी पता नहीं है, उनको जीवित कैसे कहोगे? ऐसा ही समझो कि तुम्हारी जेब में कोहनूर हीरा रखा है, लेकिन तुम्हें पता नहीं है। तो तुम्हें धनी कहा जा सकता है? कोहनूर हीरा जरूर तुम्हारी जेब में है, मगर तुम्हें पता नहीं है, तो तुम्हें धनी कहा जा सकता है? तुम तो राह पर खड़े भीख मांग रहे हो! और यह भी सच है कि कोहनूर हीरा तुम्हारी जेब में है। मगर उस कोहनूर हीरे का क्या करें? उसका होना न होना बराबर है।
पश्चिम का एक अदभुत सदगुरु जॉर्ज गुरजिएफ लोगों से कहता था--तुम्हारे भीतर आत्मा है ही नहीं। कोई आदमी आत्मा के साथ पैदा नहीं होता। उसने बड़ी अनूठी बात कही, क्योंकि सब शास्त्र तो यही कहते हैं कि आदमी आत्मा के साथ पैदा होता है--बिना आत्मा के पैदा ही कैसे होओगे? बिना आत्मा के जीओगे कैसे? लेकिन गुरजिएफ का प्रयोजन समझना। गुरजिएफ कोई सिद्धांतवादी नहीं है, वह कोई आत्मवादी नहीं है, उसकी दृष्टि बड़ी वैज्ञानिक है। वह यह कह रहा है कि आत्मा तुम्हारे पास नहीं है, तब तक हो भी कैसे सकती है जब तक तुम्हें उसका पता नहीं है? कोहनूर तुम्हारी जेब में पड़ा है लेकिन तुम भीख मांग रहे हो, हम कैसे कहें कि तुम्हारे पास कोहनूर है, कि तुम धनी हो। आत्मा सिर्फ संभावना है। तलाशो तो शायद पा लो।
मेरे पास आए हो तो मैं तुम्हें परमात्मा नहीं देना चाहता, मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूं। और जिसके पास भी जीवन हो, उसे परमात्मा मिल जाता है। जीवन परमात्मा का पहला अनुभव है। और चूंकि मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूं, इसलिए तुम्हें सिकोड़ना नहीं चाहता, तुम्हें फैलाना चाहता हूं। तुम्हें मर्यादाओं में बांध नहीं देना चाहता; तुम्हें अनुशासन के नाम पर गुलाम नहीं बनाना चाहता हूं; तुम्हें सब तरह की स्वतंत्रता देना चाहता हूं, ताकि तुम फैलो, विस्तीर्ण होओ। तुम्हें बोध देना चाहता हूं, आचरण नहीं। तुम्हें अंतसचेतना देना चाहता हूं, अंतःकरण नहीं। तुम्हें एक समझ देना चाहता हूं जीने की, जीने को हजार रंगों में जीने की, तुम्हें जिंदगी एक इंद्रधनुष कैसे बन जाए, इसकी कला देना चाहता हूं; तुम कैसे नाच सको और तुम्हारे ओंठों पर बांसुरी कैसे आ जाए, इसके इशारे देना चाहता हूं। और मेरी समझ और मेरा जानना ऐसा है, जो आदमी गीत गाना जान ले, उसके मुंह से गालियां निकलनी बंद हो जाती हैं। मैं तुम्हें गालियां छोड़ने पर जोर देना ही नहीं चाहता, गीत गाना सिखाना चाहता हूं। यह विधायकता है।
गीत जो गाता है, वह गाली कैसे देगा? जिसके जीवन में फूल खिलने लगे, जिसकी ऊर्जा फूल बनने लगी, उसकी ऊर्जा फिर कांटे नहीं बनेगी। नहीं बन सकती है। जिसके भीतर अमृत झरने लगा, उसके भीतर जहर झरना बंद हो जाता है क्योंकि एक ही ऊ
र्जा है। जब गलत हो जाती है तो जहर हो जाती है, जब ठीक हो जाती है तो अमृत हो जाती है। जब नीचे की तरफ बहती है, अधोगामी होती है, तो जहर हो जाती है। जब ऊपर की तरफ उठने लगती है, ऊर्ध्वगामी हो जाती है, तो अमृत हो जाती है। ऊर्जा तो एक ही है।
मैं तुम्हें जीवन देना चाहता हूं। और जीवन नृत्य करता हुआ, गीत गाता हुआ, जीवन उत्सवपूर्ण। एक बार तुम्हारे जीवन में उत्सव आ जाए, एक बार तुम्हें पंख पसारने की कला आ जाए, एक बार धीरे-धीरे तुम्हें फिर पंख फैलाने का आभास आ जाए, फिर आस्था आ जाए, फिर तुम थोड़े प्रयोग करके पंख उड़ाना सीख लो, फिर तुम्हें कौन रोक सकेगा? फिर यह सारा आकाश तुम्हारा है। परमात्मा तो तुम्हें मिल जाएगा, बस तुम जीवित हो जाओ। या इसे और दूसरी भाषा में कहें तो यूं--परमात्मा तो तुम्हें मिल जाएगा, तुम आत्मवान हो जाओ। असली बात आत्मा है। जो भी आत्मवान है, परमात्मा उसकी संपदा है। आत्मवान को पुरस्कार मिलता है परमात्मा का। तुम्हारे भीतर आत्मा नहीं है, जिंदगी कैसे हो सकती थी?
अगेहानंद, तुम सौभाग्यशाली हो! अब जिंदगी में शिकवा भी होगा, शिकायत भी होगी, यह जिंदगी पर्याप्त नहीं मालूम होगी, सब तरफ सीमा आ जाएगी। और एक नई जिंदगी का आविर्भाव हो रहा है, एक नई किरण तुम्हारे भीतर समा रही है, उस नई किरण को सम्हालो। जेल की दीवालों से लड़ने में मत लग जाना। तुम जेल के भीतर भी अगर नाचना सीख लो तो दीवालें गिर जाएंगी। मेरी मान्यता यह है कि जो ठीक से नाचता है, आंगन टेढ़ा भी हो तो सीधा हो जाता है। जो ठीक से प्रसन्न हो जाता है, उसकी दीवालें गिर जाती हैं। तुम्हारे विषाद ने तुम्हारी दीवालें खड़ी की हैं। जो उत्फुल्ल हो जाता है, जिसके भीतर एक उत्फुल्लता की बाढ़ आ जाती है, सब कारागृह बह जाते हैं, सब जंजीरें बह जाती हैं। मैं तुम्हें जंजीर तोड़ने पर जोर नहीं दे रहा हूं, मैं तुम्हें नाचना आ जाए इस पर जोर दे रहा हूं। जो नाचना सीख गया उसकी जंजीरें टूट जाती हैं। टूट ही जाती हैं। नाचते पैरों में कहीं जंजीरें टिक सकती हैं।
शिकायत आएगी अब जिंदगी से। और साथ ही साथ एक विरोधाभास भी घटित होगा, परम जिंदगी के प्रति एक श्रद्धा का भाव आएगा, अनुग्रह का भाव आएगा, कृतज्ञता का भाव आएगा।
धर्म जब नकारात्मक हो जाता है तो सिर्फ लोगों को नष्ट करता है, रुग्ण करता है।
कतील अहले-हरम हैं नजर झुकाए हुए
किस एहतराम से बेचा गया है यजदां को
जरा गौर से देखो मंदिर के पुजारियों और पुरोहितों को, मस्जिदों के रखवालों को--
कतील अहले-हरम हैं नजर झुकाए हुए
जरा काबे के पुजारियों को गौर से देखो, तुम उन्हें नजर झुकाए हुए पाओगे। तुम उन्हें शर्मिंदा पाओगे। उन्हें तुम अपराधी पाओगे।
कतील अहले-हरम हैं नजर झुकाए हुए
किस एहतराम से बेचा गया है यजदां को
कितने आदरपूर्वक और निष्ठा से और कुशलता से परमात्मा को बेच दिया है उन्होंने, अपराध का भाव न होगा तो क्या होगा? परमात्मा के नाम से न मालूम क्या चल रहा है! जो नहीं चलना चाहिए। मौत चल रही है परमात्मा के नाम से। जहर चल रहे परमात्मा के नाम से। परमात्मा के नाम से थोथे क्रियाकांड चल रहे। परमात्मा के नाम से सब तरह की मूढ़ताएं चल रहीं, अंधविश्वास चल रहे।
कुछ बे-रिया अगर है तो दरबाने-मैकदा
देरो-हरम में बे-सरो-सामान जाइए
यह कवि ने ठीक सूचन दिया है। मंदिर-मस्जिद में जाओ तो बिना सामान के जाना, वहां लुटेरे हैं।
कुछ बे-रिया अगर है तो दरबाने-मैकदा
और अगर कहीं थोड़ी बहुत ईमानदारी बची है, छलरहित, निष्कपटता बची है, तो वह सिर्फ मधुशाला में बची है। वहां तुम्हारी चीजें बच जाएंगी, तुम भी बच जाओगे। लेकिन मंदिर-मस्जिद में तुम बेच दिए गए हो, तुम बिक गए हो। वहां तुम्हारा सौदा कर लिया गया है। कोई हिंदू होकर बिक गया है, कोई मुसलमान होकर बिक गया है, कोई ईसाई होकर बिक गया है। विशेषण रह गए हैं लोगों के हाथों में। राख रह गई है लोगों के हाथों में। अब हिंदू होने से क्या होता है? मुसलमान होने से क्या होता है? आदमी होने से कुछ होता है जरूर। मगर मुसलमान जो है, वह आदमी नहीं हो पाता, क्योंकि मुसलमान है तो आदमी कैसे हो? और हिंदू जो है तो आदमी नहीं हो पाता। जो भारतीय है, वह कैसे आदमी हो? जो पाकिस्तानी है, वह कैसे आदमी हो?
आदमी के ऊपर पहले और दूसरी शर्तें लगी हैं। हजार बंधन लगे हैं। इन बंधनों में तुमने अपने को घेर लिया है, तुम बिक गए हो किन्हीं के हाथों में। तुम्हें पता भी नहीं तुम कब बिक गए हो। तुम उतने बचपन में बिक गए हो जब तुम्हें होश भी नहीं था। तब तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें बेच दिया है, तब तुम्हारे परिवार ने तुम्हें बेच दिया है--वे भी बिके हुए लोग थे। उनको उनके मां-बाप बेच गए थे। ऐसे पीढ़ी दर पीढ़ी लोग बेचते चले जाते हैं।
तुम्हें पता ही नहीं है कि तुमने अभी धर्म की तलाश नहीं की है, खोज ही नहीं की है और तुम धार्मिक बन बैठे। हिंदू बन सकते हो तुम बिना खोजे, धार्मिक नहीं बन सकते। धार्मिक बनने के लिए दुस्साहस चाहिए, खोज करने की हिम्मत चाहिए। अंधेरे में जाने की जोखिम उठानी पड़ती है। भटक भी सकते हो। वह खतरा भी मौजूद है। लेकिन जो भटकने का खतरा लेते हैं, वे ही पहुंच पाते हैं। और जो भटकने का खतरा लेते हैं, परमात्मा उन्हें नहीं भटकने देता, उनके सहारे को आ जाता है। असहाय जो है, उसे परमात्मा का सहारा सदा उपलब्ध है।
मगर तुम्हारे मंदिर-मस्जिदों ने तुम्हें बड़ा आश्वस्त कर दिया है कि तुम्हें सब मालूम है। इसलिए जिंदगी से भी कोई शिकवा पैदा नहीं होता, क्योंकि बड़ी जिंदगी का कोई अनुभव पैदा नहीं होता।
अब इस अवसर को चूकना मत। अब यह जो थोड़ी सी उत्फुल्लता तुम्हारे हृदय में जग रही है और थोड़ी गर्मी तुम्हारे प्राणों में आ रही है, इसको साथ दो, सहयोग दो।
जिंदगी की कद्र सीखी शुक्रिया तेगे-सितम!
हां हमीं थे कल तलक जीने से उकताए हुए
सैरे-साहिल कर चुके ऐ मौजे-साहिल सर न मार
तुझसे क्या बहलेंगे तूफानों के बहलाए हुए
साज उठाया जब तो गरमाते फिरे जर्रों के दिल
जाम हाथ आया तो महरो-महके हमसाए हुए
तुम्हारे हाथ में मैंने एक जाम दे दिया है, तुम्हारे हाथ में मैंने मधु से भरी हुई प्याली दे दी है, अगर पीने की हिम्मत की तो जल्दी ही तुम चांद-तारों के पड़ोसी हो जाओगे।
जाम हाथ आया तो महरो-महके हमसाए हुए
चांद-तारों के साथ तुम्हारी दोस्ती बन सके, इसका उपाय कर रहा हूं। बस तुममें थोड़ी सी हिम्मत होने की जरूरत है। और स्वभावतः चांद-तारों से दोस्ती करनी हो तो हिम्मत चाहिए पड़ेगी। इतना फैलने की हिम्मत चाहिए पड़ेगी। चांद-तारों को अपने भीतर लेने की हिम्मत चाहिए पड़ेगी। छोटे-छोटे होने से काम न चलेगा। सब क्षुद्रताएं, सब संस्कार छोड़ देने होंगे। असंस्कारित होकर ही तुम स्वतंत्र हो पाओेगे। संस्कार मुक्त होकर ही तुम स्वतंत्र हो पाओगे। मैं तुम्हें स्वतंत्रता ही नहीं देना चाहता, स्वच्छंदता देना चाहता हूं। ठीक-ठीक अर्थों में स्वच्छंदता। तुम्हारे भीतर के स्वयं के छंद को जगाना चाहता हूं।
स्वच्छंदता का अर्थ उच्छृंखलता मत कर लेना। तुम्हारे भीतर सोया हुआ है छंद। वह जग सकता है, वह जगने को आतुर है, बीज की तरह तड़प रहा है कि कब तुम उस पर ध्यान दो वह फूटे, अंकुरित हो, वृक्ष बने; कब उसमें फूल खिलें, आकाश को सुगंध से भर दे। और जब तक तुम आकाश को सुगंध से भरने के योग्य न हो जाओ, तब तक जानना कुछ कमी है, कुछ कमी है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, कृपया बताएं कि गुरु कब तक मारनहार रहता है और कब वह तारनहार बन जाता है? यह बात शिष्य पर निर्भर है या गुरु पर?
रज्जब ने गुरु को मारनहार कहा। कहा कि तब तक तलफ न मिटेगी जब तक मारनहार न मिल जाए। तब तक पीड़ा न मिटेगी जब तक मारनहार न मिल जाए। तब तक यह वेदना से छुटकारा नहीं है जब तक मारनहार न मिल जाए। मारनहार कहा गुरु को। बड़े गहरे अर्थों से कहा। गुरु वही, जहां तुम्हारा अहंकार मरे; जहां तुम्हारा आपा मिटे; जहां तुम राख हो जाओ जल कर; गुरु की अग्नि में, गुरु के प्रेम में तुम ना हो जाओ; इसलिए मारनहार कहा।
लेकिन वही जो एक तरफ से मृत्यु है, दूसरी तरफ से तर जाना है। अहंकार मरे तो आत्मा की उपलब्धि हो। जो एक तरफ से सूली है, वही दूसरी तरफ से सिंहासन है।
जब गुरु से पहली दफा मिलना होता है तब वह मारनहार होता है। और इसलिए लोग गुरु से मिलने से डरते हैं। गुरु से दूर-दूर रहते हैं। हजार तरह के तर्क खोज लेते हैं दूर-दूर रहने के। कि क्यों किसी के चरणों में झुकना? हम परमात्मा से सीधे-सीधे ही जुड़ लेंगे। क्या जरूरत है कि हम किसी से सीखने जाएं? इस जिंदगी में तुमने जो भी सीखा है, औरों से सीखा है। तब तुमने यह सवाल नहीं उठाया। लेकिन जब परमात्मा को सीखने की बात आती तो यह सवाल उठना शुरू हो जाता है। अहंकार जाल खड़े कर रहा है। अहंकार कह रहा है--यह उचित नहीं; तुम और झुको! तुम और शिष्य बनो! तुम और समर्पण करो! अहंकार अपने को बचाएगा। और अहंकार सदगुरुओं के खिलाफ हजार तरह के विचार खड़े करेगा। बड़े तर्कसंगत भी। और कठिनाई नहीं है विचार खड़े करने में। किसी भी चीज के विरोध में तुम्हें विचार करना हो, तुम कर सकते हो।
तुम जरा एक दिन प्रयोग करके देखना कि यह जो आदमी रास्ते पर जा रहा है, कोई भी आदमी, अ ब स--इसके खिलाफ मुझे सोचना है। फिर तुम उसके पीछे लग जाना। फिर दो-चार दिन उसका निरीक्षण करना। और एक जिद्द पर अड़े रहना कि इसके खिलाफ मुझे कुछ पता लगाना है। तुम्हें हजारों तथ्य मिल जाएंगे। और फिर अगर तुम यह तय कर लो कि इस आदमी की अच्छाइयों का पता लगाना है तो तुम उसी आदमी के पीछे पड़ जाना, दो-चार दिन कोशिश करते रहना, तुम हजारों अच्छाइयां पता लगा लोगे।
सूफी फकीर हुआ, जुन्नैद। एक रात उसने सपना देखा कि वह परमात्मा के सामने खड़ा है। परमात्मा ने उससे कहा, कुछ पूछना तो नहीं? उसने कहा, एक ही जिज्ञासा है, बस एक ही जिज्ञासा है। मेरे गांव में सबसे ज्यादा सात्विक आदमी कौन है? तो परमात्मा से आवाज आई उसे कि तेरा पड़ोसी। नींद खुल गई उसकी--उसे धक्का इतना लगा। पड़ोसी! पड़ोसी ही तो सबसे बुरा आदमी होता है दुनिया में। पड़ोसी से बुरा तो कोई होता ही नहीं। पड़ोसी में कभी कोई अच्छाई दिखाई पड़ती ही नहीं किसी को।
प्रसिद्ध वचन है जीसस का कि अपने पड़ोसी को अपने ही जैसा प्रेम करो। और एक दूसरा वचन कि अपने शत्रु से अपने ही जैसा प्रेम करो। एक ईसाई पुरोहित से मैं बात कर रहा था, मैंने कहा, इन दोनों का एक ही अर्थ है, क्योंकि पड़ोसी और दुश्मन दो नहीं होते। वह तो एक ही आदमी का नाम है। पड़ोसी ही तो दुश्मन होता है।
जुन्नैद की नींद खुल गई। पड़ोसी! यह तो कभी उसने सोचा ही नहीं था। वह तो सोच रहा था, उसके गुरु के संबंध में कहेगा परमात्मा। और भीतर कहीं यह भी आशा थी कि शायद मेरा ही नाम ले दे कि जुन्नैद, तेरे सिवा और कौन सात्विक आदमी तेरे गांव में? कहीं भीतर वह आकांक्षा थी। पड़ोसी! इस आदमी में तो इसने कभी कुछ अच्छा देखा ही नहीं था। मगर जब परमात्मा कहता है तो ठीक ही कहता होगा। लाख समझाने का उपाय किया, लेकिन नहीं समझा पाया कि पड़ोसी ही सबसे ज्यादा सात्विक है।
दूसरे दिन जब सोया, संयोग की बात फिर उसे सपना आया, फिर वह परमात्मा के सामने खड़ा है--शायद दिन भर सोचता रहा था कि अब अगर मिलना हो जाए तो फिर पूछ ही लूं ठीक से। तो उसने कहा कि वह तो ठीक है, आपने जो कहा: एक सवाल और है, मेरे गांव में सबसे बुरा आदमी कौन है? तो परमात्मा ने फिर कहा: तेरा पड़ोसी। अब तो और उलझन हो गई। पड़ोसी तो एक ही था। परमात्मा हंसा और उसने कहा: तू घबड़ा मत और बेचैन मत हो, सब देखने की बात है। तू चाहे तो बुरे से बुरे आदमी को पड़ोसी में देख सकता है, और तू चाहे तो भले से भले आदमी को पड़ोसी में देख सकता है।
यह दुनिया वैसी ही हो जाती है जैसा तुम देखते हो, देखना चाहते हो। जब कोई गुरु से बचना चाहता है तो सब तरह की बुराइयां खोज लेता है। आसान है। कोई अड़चन नहीं।
जुन्नैद के जीवन में एक और उल्लेख है। वह बगीचे में अपने काम कर रहा था, खुरपी लिए कुछ खोद रहा था कि बीच में ही कुछ काम से उसे अंदर जाना पड़ा, खुरपी वहीं छोड़ गया, लौट कर आया खुर्पी नदारद थी। तभी उसने चारों तरफ देखा, वही पड़ोसी जा रहा था। उसने कहा, हो न हो! उसने उसे गौर से देखा कि अगर चोरी इसने की होगी तो इसकी चाल से पता चलेगा। उसकी चाल बिलकुल पक्के चोर की मालूम पड़ी। उसने और गौर से देखा, जाकर और किनारे खड़ा हो गया दीवाल के, उसको बिलकुल आंखें गड़ा कर देखा, और उसे लगा कि पड़ोसी घबड़ा भी रहा है, आंखें झुकाए है, शर्मिंदा है, उसे बिलकुल पक्का हो गया। फिर दो-चार दिन वह देखता ही रहा, पड़ोसी जब भी निकले, यहां-वहां जाए; और हमेशा उसका भरोसा मजबूत होता चला गया कि इसी ने चुराई है। हर बात ने इसी की गवाही दी। उसका चलना, उसका उठना, उसका बैठना, उससे जयरामजी भी की तो जैसे उसने डर कर जयरामजी का उत्तर दिया, हर चीज से पता चला कि चोर यही है।
पांचवें दिन वह बगिया में फिर काम कर रहा था कि मिट्टी में ही गड़ी हुई उसे अपनी खुरपी मिल गई। अरे, उसने कहा कि मैंने भी नाहक बेचारे पड़ोसी को दोष दिया--तभी पड़ोसी जा रहा था, रास्ते से निकल रहा था, उसने उसे गौर से देखा, ऐसा भला और प्यारा आदमी! चाल तो देखो, बिलकुल साधुओं जैसी है! चेहरे का भाव तो देखो, कैसा प्रसादपूर्ण है!
तुम जो देखना चाहते हो, देख लोगे। तुम्हें आदमी में शैतान मिल सकता है, तुम्हें आदमी में भगवान मिल सकता है। फिर तुम्हें जिसके साथ रहना हो, उसे खोजो। कुछ लोग शैतानों में ही रहना पसंद करते हैं, वे सबमें शैतान खोजते रहते हैं। उनकी दुनिया नरक हो जाती है। उनको हर आदमी बुरा दिखाई पड़ता है, फिर उन्हीं बुरे आदमियों के बीच रहना पड़ता है--जाओगे कहां, यही तो आदमी हैं! इन्हीं आदमियों के बीच कोई-कोई स्वर्ग में रह लेता है, क्योंकि वह हर आदमी में भला देखता है। हर आदमी में भला देखा जा सकता है।
और सदगुरु तो बड़ी विरोधाभासी घटना है। सदगुरु में तो एक अतिक्रमण है--इस जगत का है सदगुरु और इस जगत के पार का भी। उसमें बड़ा विरोधाभास है। शरीर में है और शरीर के बाहर है। संसार में है और संसार उसके भीतर नहीं है। उसमें दो गणित का मेल हो रहा है। दो बिलकुल अलग गणित, दो अलग जीवन-नियम उसमें मिल रहे हैं, जो बिलकुल एक-दूसरे के विपरीत हैं। तुम जो भी देखना चाहो।
जो उसके विरोध में देखना चाहेगा, वह इस जगत के नियम को उसमें देख लेगा। जो उसके पक्ष में देखना चाहेगा, वह उस जगत के नियम को उसमें देख लेगा। अहंकार तर्क खोज लेता है। तुम बुद्ध के पास होते हो तो तुम तर्क खोज लेते हो। तुमने खोजे थे--शायद तुम में से कुछ रहे भी हों। क्योंकि तुम नये नहीं हो। यहां कोई नया नहीं। ये सब पुराने यात्री हैं। ये सब यहां चल ही रहे हैं, चलते ही रहे हैं। तुम्हारे सिर पर इतनी धूल है सदियों की, जन्मों-जन्मों की। तुम बुद्ध को भी बच कर आ गए हो, तुम महावीर को भी बच कर आ गए, तुम कृष्ण को भी बच कर आ गए, तुमने हर एक में कुछ न कुछ भूल निकाल ली।
जरा सोचो, अगर तुम्हें भूल निकालनी है, कृष्ण में कोई कमी है भूल निकालने की! कितनी भूलें न तुम निकाल लोगे! न निकालना चाहो, एक बात। मगर अगर निकालना चाहो तो कितनी भूलें न निकाल लोगे। भूल की दृष्टि से भी कृष्ण पूर्णावतार हैं। औरों ने भूलें की हैं तो छोटी-छोटी की हैं। राम ने भी की होंगी और बुद्ध ने भी की होंगी, मगर उनकी भूलों की मर्यादा है। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, भूल भी मर्यादा में करते हैं! कृष्ण ने तो ऐसी भूलें कीं कि अमर्याद हैं। कितनी भूलें तुम नहीं निकाल लेते कृष्ण की, जरा एक बार सोचना एकांत में बैठ कर और हो सकता है तुम कृष्ण के भक्त होओ और मंदिर में खड़ी मूर्ति की पूजा करते हो और घर में तुमने कृष्ण का झूला बना रखा हो और उनको झूला झुलाते हो--जरा एक बार बैठ कर, झूला रोक कर, आंख बंद करके सोचना, किसको झूला झुला रहे हो? सोलह हजार स्त्रियां थीं इनकी। ये सब स्त्रियां इनकी अपनी भी नहीं थीं, इनमें कई तो दूसरों की पत्नियां थीं जिनको वे भगा लाए थे। फिर झूला न हिलाओगे! फिर ऐसा होगा कि अब इस झूले-सहित इन सज्जन को घर के बाहर कैसे निकालें?
नहीं, लेकिन तुम सोचते नहीं, मुर्दा से क्या लेना-देना, मुर्दा को झूला झुलाते रहो। असली कृष्ण के पास होते तो तुम्हें दिक्कतें आ जातीं। बुद्ध के पास दिक्कतें आ गई थीं। कृष्ण में तो भूलें साफ-साफ दिखाई पड़ती हैं। कोई बहुत खोज-बीन की जरूरत नहीं है। कृष्ण तो बड़े प्रकट हैं, सीधे-साफ हैं। कृष्ण में तो जिसको श्रद्धा करने की जिद्द ही हो गई हो, वही कर सकता है। जिसने तय ही कर लिया हो कि करो जो तुम्हें करना हो मगर हम श्रद्धा करेंगे।
और यही कृष्ण की खूबी है। क्योंकि इतनी चुनौती देते हैं तुम्हारी श्रद्धा को, फिर भी अगर तुम श्रद्धा कर लोगे तो तर जाओगे। यह कृष्ण की खूबी है। इतना बड़ा सदगुरु कभी हुआ नहीं, क्योंकि श्रद्धा को इतनी चुनौती किसी ने कभी दी नहीं। जो कर सकें श्रद्धा, वे तर ही जाएंगे, अब और क्या बचा? कृष्ण पर श्रद्धा कर ली तो अब किस पर अश्रद्धा रह जाएगी? आखिरी कदम उठा लिया, आखिरी परीक्षा पार हो गए, उत्तीर्ण हो गए।
बुद्ध पर श्रद्धा करना ज्यादा आसान है। लेकिन बुद्ध पर भी अश्रद्धा करने वाले लोग हैं। छोटी-छोटी बात में भूल निकाल लेते हैं। जिनको अश्रद्धा करने की ही जिद है, वे बुद्ध में भी भूल निकाल लेते हैं। वे कहते हैं कि अगर बुद्ध परम ज्ञानी हैं तो बीमार क्यों होते हैं? बुद्ध की मृत्यु हुई विषाक्त भोजन करने से। जो विरोधी हैं वे कहते हैं, जिनको इतना भी पता न चला कि जो भोजन हम कर रहे हैं यह विषाक्त है, इनको त्रिकालज्ञ कैसे कहोगे? त्रिकालज्ञ का तो अर्थ होता है, जो तीनों काल जानता है। जो पहले हुआ है वह भी जानता है, जो अभी हो रहा है वह भी जानता है, जो आगे होगा वह भी जानता है। जैनों ने यही संदेह उठाया है बुद्ध पर कि बुद्ध सर्वज्ञ नहीं हैं। तीनों काल की तो छोड़ो, भोजन पर बैठे हैं थाली पर और जो भोजन है वह विषाक्त है, इसका भी पता नहीं चल रहा, विषाक्त भोजन कर गए और मारे गए उसी से। यह कैसी सर्वज्ञता है?
अब देखना यह घटना, तुम्हें भी लगेगी कि बात तो ठीक है, अगर सर्वज्ञता बुद्धत्व का लक्षण है, तो यह कैसी सर्वज्ञता है? लेकिन जिसको श्रद्धा है, वह क्या देखता है? वह देखता है बुद्ध की अनुकंपा। वह कहता है कि बुद्ध को दिख रहा है कि यहां जहर है, लेकिन जिस आदमी ने भोजन तैयार किया है उसने इतने प्यार से तैयार किया है कि अब उसके सामने यह कहना कि इसमें जहर है, उसके हृदय को आघात पहुंचाना होगा। इससे तो जहर को पी जाना ही बेहतर है। उसको आघात नहीं पहुंचाना चाहते।
वह एक गरीब आदमी था। वर्षों से बुद्ध को निमंत्रण दे रहा था। फिर जब बुद्ध उसके गांव आए, तब वह सुबह तीन बजे रात ही आकर बुद्ध के दरवाजे पर खड़ा हो गया--नहीं तो और लोग आ जाते थे, पहले निमंत्रण दे जाते थे--वह तीन बजे जब बुद्ध उठे, आंख खोली, तो पहले उसे ही खड़ा पाया। पूछा कि तू भई, इतनी रात? उसने कहा कि आज तो मैं निमंत्रण पहलामेरा है, अभी कोई दूसरा आया नहीं है--जब वह निमंत्रण दे ही रहा था तभी सम्राट प्रसेनजित भी आ गए, लेकिन बुद्ध ने कहा अब देर हो गई। पहला निमंत्रण तो उसका है। अब तो मैं उसके घर भोजन करूंगा ।
निमंत्रण तो दे आया, लेकिन उसके घर भोजन तो कुछ था नहीं। बिहार का गरीब आदमी!... बिहार कोई आज ही गरीब नहीं है, वह पहले ही से गरीब है। बिहार के लोग कुशल हैं गरीब होने में। सदियों से उन्होंने उसका अभ्यास कर रखा है।... उसके पास खिलाने को तो कुछ था नहीं। बिहार में गरीब आदमी उन दिनों--और शायद अब भी यह करते हों--बरसात में जो कुकुरमुत्ते पैदा हो जाते हैं, उनको इकट्ठा कर लेते हैं। उनको सुखा कर रख लेते हैं। फिर उनकी साल भर सब्जी बनाते हैं। अब कुकुरमुत्ता कोई खाने की चीज नहीं है, मगर पेट बिलकुल खाली हो तो कुछ भी खाने की चीज हो जाती है! कुकुरमुत्ते कभी-कभी विषाक्त होते हैं, क्योंकि कहीं भी ऊगते हैं, अक्सर तो गंदी जगह में ऊगते हैं--इसीलिए तो कुकुरमुत्ता उसका नाम है, कि कुत्ता वहां पेशाब कर गया है। लोग समझते हैं कुत्ते के पेशाब करने से उगता है। मगर अक्सर गंदी जगहों में ऊगते हैं--कूड़ा-करकट भरा हो, लकड़ी इत्यादि पड़ी हों पुरानी, सीली, उनमें ऊग आते हैं।
कुकुरमुत्ते की सब्जी बनाई उसने--और तो उसके पास सब्जी थी भी नहीं--वह विषाक्त थी। जिनको बुद्ध से प्रेम है, जिनको बुद्ध से श्रद्धा है, जो सदगुरु के साथ होना चाहते हैं, वे कहते हैं--बुद्ध ने देखा, लेकिन बिना कुछ कहे चुपचाप भोजन कर लिया। विषाक्त था, जहरीला था, कड़वा था। इतना ही नहीं कि भोजन कर लिया, उसे धन्यवाद दिया। उसके प्रेम को देखा, उसके भोजन को नहीं। भोजन कड़वा हो, लेकिन प्रेम ने उसे मधुर बनाया था। और कभी-कभी ऐसा होता है, सम्राटों के घर भोजन करो और मीठा नहीं होता, क्योंकि प्रेम का माधुर्य नहीं होता।
लौट कर जब अपने झोपड़े पर आ गए तो उन्होंने जो पहली बात कही अपने संन्यासियों से, वह यही कही कि जाकर गांव में खबर कर दो कि उस गरीब आदमी का बड़ा भाग्य है--दुनिया में दो सबसे बड़े भाग्यशाली हैं, वह मां जो सबसे पहला भोजन देती है बुद्धपुरुष को और वह व्यक्ति जो अंतिम भोजन देता है--यह बड़ा भाग्यशाली है, इसने अंतिम भोजन दे दिया। आनंद ने कहा: आप यह क्या कह रहे हैं? बुद्ध ने कहा: तू जा और गांव में डुंडी कर, नहीं तो मेरे मर जाने के बाद लोग उसे मार डालेंगे। उसे क्षमा नहीं कर सकेंगे। जाकर गांव में खबर कर दे कि वह धन्यभागी है।
अब जिसको श्रद्धा है, उसे यह दिखाई पड़ता है। यह जिसको श्रद्धा है, उसने यह कहानी लिखी। उसने यह बुद्ध का भीतरी भाव लिखा। जिसको श्रद्धा नहीं है, उसे लगता है यह अज्ञानी। इनको यह भी पता नहीं चल रहा है कि सामने रखा भोजन विषाक्त है, करने-योग्य नहीं है। ये सर्वज्ञ कैसे? ये त्रिकालज्ञ कैसे? इनका ज्ञान कैसा? अज्ञानी हैं, जैसे और सब अज्ञानी हैं वैसे ही अज्ञानी हैं। जिनको सामने खड़ी मौत नहीं दिखाई पड़ रही है, अपनी मौत नहीं दिखाई पड़ रही है, वे दूसरों को क्या अमृत के दर्शन करा सकेंगे?
अब तुम देखते हो, आदमी तरकीबें खोज ले सकता है! सदा से यह हुआ है। सदा यह होता रहेगा।
गुरु तो मारनहार है! उसके पास तो वे ही आ सकते हैं जिन्हें गर्दन कटाने की तैयारी है। जो कहते हैं, देख लिया अपनी तरह से जी कर, कुछ पाया नहीं, अब किसी के चरणों में सिर रख दें और उसके इशारे से जी कर देख लें, शायद कुछ मिल जाए। अपनी तरफ से जीए, दुख पाया, पीड़ा पाई, विषाद पाया। अब किसी और के इशारे से चल कर देख लें, हम तो हार गए हैं, शायद कोई और जीत जाए। किसी और के भाग्य से अपना भाग्य जोड़ कर देख लें, हमारा भाग्य तो अमावस बन गया है, शायद किसी और के भाग्य के साथ पूर्णिमा हो जाए। तो जो मरने को तैयार है, वही गुरु के पास आ पाता है। पहला अनुभव तो गुरु का मारनहार की तरह ही होता है। और गुरु चोट करना शुरू करता है। और गुरु सब तरफ से काटता है। तुम्हारे धर्म को काटेगा, तुम्हारे शास्त्र को काटेगा, तुम्हारी धारणा को काटेगा, तुम्हारे सिद्धांत को काटेगा, तुम्हें सब तरफ से मारेगा। वही तुम नहीं समझ पाओगे तो चूक जाओगे।
छोटी सी बात तुम्हारे धर्म के खिलाफ कह देगा--और तुम्हारा धर्म क्या है? तुम्हारे पास धर्म ही होता तो तुम्हें गुरु के पास आने की जरूरत न थी! थोड़ी सी बात तुम्हारे खिलाफ कह देगा कि बस तुम बेचैन हो गए, कि तुम चले, कि यह जगह अपने लिए नहीं है। तुम अपना सहारा खोजने आए थे? तुम अपने तर्कों के लिए और तर्क खोजने आए थे? तुम चाहते हो--गुरु तुम जैसे हो, उसको और मजबूत कर दे? गुरु तुम्हारा दुश्मन नहीं है। तुम वैसे ही काफी मजबूत हो, इसीलिए काफी दिन से भटक रहे हो। अब तुम्हें कमजोर करना है। अब तुम्हारे पैर के नीचे की जमीन खींच लेनी है।
इसलिए खयाल रखना, गुरु अगर तुम मुसलमान हो और मुसलमान धर्म के खिलाफ कुछ कहे, तो उसे मुसलमान धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है, वह सिर्फ तुम पर चोट कर रहा है। उसका प्रयोजन कुछ और है। अगर गुरु हिंदू धर्म के खिलाफ कुछ कहे तो वह हिंदू धर्म के खिलाफ कुछ भी नहीं कह रहा है, उसे क्या लेना-देना हिंदू धर्म से, वह तो सदा ही धर्म के पक्ष में है, मगर तुम्हारे हिंदूपन के खिलाफ कुछ कह रहा है। वह यह कह रहा है, तुम्हारा यह हिंदूपन का जो आग्रह है, यह तुम्हें अटका रहा है, इसे जाने दो, इसे बह जाने दो, तुम इससे मुक्त हो जाओ, यह दीवाल गिरा दो। तो तुम्हारी बहुत-बहुत धारणाओं पर चोट करनी पड़ेगी।
कल ही मैंने तुमसे कहा कि महावीर को सांप ने काटा, जैन कहते हैं दूध निकला, तो मैंने कहा कि दूध तो निकल नहीं सकता क्योंकि जब सांप ने काटा तब उम्र महावीर की कम से कम पचास साल थी! तब तक तो दही जम गया होगा। बस, किसी जैनी को दुख हो गया। उसने पत्र लिख दिया। उनसे मैं कहता हूं कि मेरी बात गलत थी। असल में दही नहीं निकला, घी निकला था। पचास साल, दही तो कब का जम गया होगा, मेरी बात गलत है, जमा-जमा दही के ऊपर मक्खन की पर्त भी जम गई होगी। और महावीर नंग-धड़ंग धूप में खड़े रहते थे, घी बन गया होगा। मैं अपनी बात वापस लेता, कल जो मैंने कहा था वह गलत था, उसमें सुधार कर लो--घी निकला था। इससे दिल प्रसन्न होता है!
तुम पर चोट कर रहा हूं, महावीर से क्या लेना-देना है? जब महावीर पर चोट कर रहा हूं तब भी तुम्हारे महावीर पर चोट कर रहा हूं। मेरे भी महावीर हैं। वह प्रतिमा और है। उस प्रतिमा पर चोट नहीं कर रहा हूं। उस प्रतिमा को ही निखारने के लिए तुम्हारी प्रतिमा पर चोट कर रहा हूं। मेरे महावीर तुम्हें दिखाई पड़ सकें, इसलिए तुम्हारे महावीर को मुझे छीनना पड़ेगा। कठिन होगा, पीड़ादायी होगा, जैसे कोई चमड़ी उधेड़ रहा हो तुम्हारी ऐसा होगा। कितने-कितने प्रेम से तुमने अपनी प्रतिमा सजाई है और मैं उठा कर हथौड़ी उसे तोड़ने लगा! मैं मूर्तिभंजक हूं। लेकिन वस्तुतः जिनकी मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं उनकी मूतियां नहीं तोड़ी जा रही हैं, उनके बहाने तुम्हारी मूर्ति तोड़ी जा रही है। वे तुम्हारी मूर्तियां हैं, तुम ही उनके नियंता हो। तुम्हीं उनके केंद्र हो। तुम्हारी सब मूर्तियां तोड़ दी जाएं तो तुम्हारा अहंकार टूट जाएगा।
मैं तुम्हारे हाथ से पूजा के थाल छीन लूंगा, तुम्हारे ओंठों पर आई हुई प्रार्थनाएं छीन लूंगा। छीनना ही पड़ेगा। तभी तो उस सहज प्रार्थना को जन्म मिल सकता है जो तुम्हारे हृदय में दबी पड़ी है, जो मुझे दिखाई पड़ रही है कि दबी पड़ी है। मैं देख रहा हूं कि एक बीज पड़ा है और उसके ऊपर एक चट्टान रखी है, चट्टान को हटाना पड़ेगा तो बीज उमगे। तुम्हारे भीतर प्रार्थना पड़ी है, मगर तुम हो कि सीखी हुई प्रार्थना में अटके हो। हरे कृष्णा, हरे रामा कर रहे हो! उधर राम तुम्हारे भीतर पड़े हैं, वे कहते हैं--चट्टान तो हटाओ, तुम कहते हो--चुप भी रहो, हम अभी भजन कर रहे हैं, भजन में बाधा मत डालो!
मैं इस चट्टान को हटाऊं तो स्वभावतः जो मेरे पास आया है, उसे मैं पहले अगर मृत्यु जैसा मालूम पडूं तो आश्चर्य नहीं है। मृत्यु को जान कर भी जो टिक जाएगा, वही तारनहार रूप देख पाता है।
तुमने पूछा है: ‘कृपया बताएं कि गुरु कब तक मारनहार रहता है और कब वह तारनहार बन जाता है?’
जब शिष्य मरने को राजी हो जाता है, तभी गुरु तारनहार बन जाता है। जब तक शिष्य मरने से बचता है, तब तक मारनहार रहता है। तुम्हारे मरने से बचने के कारण ही मारनहार रहता है। जब तुम खुद ही राजी हो जाते हो मरने को, फिर कौन मारने की तुम्हें जरूरत रही! फिर कोई प्रयोजन न रहा। जब तक तुम लड़ते हो तब तक मारनहार रहता है। जब तुम सब प्रतिरोध छोड़ देते हो, समर्पित हो जाते हो, तुम कहते हो--यह रही गर्दन!
सैकड़ों वर्ष पहले भारत का एक अदभुत ज्ञानी बोधिधर्म चीन गया। उसने चीन में जाकर घोषणा कर दी कि मैं दीवाल की तरफ मुंह करके बैठा रहूंगा, जब तक कि असली शिष्य न आ जाएगा। वह नौ साल तक दीवाल की तरफ मुंह करके बैठा रहा। अपनी किस्म का आदमी था, झक्की था। दुनिया के सभी सदगुरु झक्की होते हैं। झक्की का मतलब यह कि वे अपने तरह के ही होते हैं। उन जैसा आदमी फिर दुबारा नहीं होता। अद्वितीय होते हैं, बेजोड़ होते हैं। फिर बोधिधर्म दुबारा नहीं होता। वैसा रंग और रूप परमात्मा एक ही बार लेता है।
वह नौ साल तक बैठा रहा दीवाल की तरफ मुंह करके! न मालूम कितने लोग आए, सम्राट आया देश का, उसने प्रार्थना की कि आप मेरी तरफ मुंह करें। आप दीवाल की तरफ मुंह क्यों किए हुए हैं? बोधिधर्म ने कहा कि मैंने सब चेहरों में सिर्फ दीवालें देखीं, थक गया, इससे यह दीवाल बेहतर। जब कोई चेहरा आएगा जिसमें मैं पाऊंगा दीवाल नहीं है, द्वार है, तो मैं मुंह फेरूंगा। तुम वह चेहरे नहीं हो, जाओ! रफा-दफा हो जाओ! बड़े-बड़े पंडित आए--होड़ लग गई, कौन बोधिधर्म का मुंह अपनी तरफ फिरवा लेगा? बड़े ज्ञानी आए, मगर बोधिधर्म था कि दीवाल की तरफ बैठा रहा सो बैठा रहा।
फिर एक आदमी आया नौ साल के बाद। उस आदमी का नाम था, हुई नेंग। बर्फ पड़ रही थी, सर्दी के दिन थे, बर्फ जमी थी, बोधिधर्म बैठा है, उसके चारों तरफ बर्फ जम गई है, और वह दीवाल की तरफ देख रहा है। हुई नेंग उसके पीछे आकर खड़ा हो गया, बोला भी नहीं। उसने यह भी नहीं कहा कि मेरी प्रार्थना है, मेरी तरफ देखिए। वह खड़ा ही रहा, खड़ा ही रहा, चौबीस घंटे खड़ा रहा। आखिर बोधिधर्म को ही पूछना पड़ा कि भाई, तुम यहां क्या कर रहे हो? पूछना ही पड़ेगा, चौबीस घंटे से यह आदमी खड़ा है, बोलता ही नहीं, बोधिधर्म भी डरा होगा कि मामला क्या है? कोई हमसे भी ज्यादा पागल आदमी आ गया! बर्फ जमी जा रही है, सर्द हुआ जा रहा है और यह खड़ा है। हुई नेंग ने कहा कि कुछ भेंट लेकर आया हूं आपके लिए। और तलवार निकाली और अपना हाथ काट कर भेंट कर दिया। कटा हुआ हाथ, लहू की धार और हुई नेंग ने कहा कि फिरो मेरी तरफ, अन्यथा गर्दन उतार दूंगा। और कहते हैं तत्क्षण बोधिधर्म फिरा और कहा कि रुक भाई, गर्दन मत उतार देना। तेरी मैं प्रतीक्षा कर रहा था। जो गर्दन देने को तैयार है, उसकी गर्दन लेने की कोई जरूरत नहीं है। जो गर्दन देने को तैयार नहीं है, उसकी गर्दन लेने की जरूरत है।
इस भेद को खयाल रखना, इस बात को ख्याल रखना। गुरु तब तक मारनहार है, जब तक तुम लड़ रहे हो, बचा रहे हो अपनी गर्दन। अपने हाथ में ढाल लिए हो, वह जहां से चोट करता है वहीं से बचा लेते हो। जब तक तुम बचाव कर रहे हो, गुरु मारनहार है। जब तुम ढाल फेंक दोगे, गर्दन सामने रख दोगे, कहोगे--उठाओ तलवार और काट दो मेरी गर्दन, उसी क्षण गुरु तारनहार हो जाता है।
पूछा तुमने: ‘यह बात शिष्य पर निर्भर है या गुरु पर?’
यह बात शिष्य पर निर्भर है। गुरु पर निर्भर नहीं है। गुरु तो सदा तारनहार है। गुरु का तो अर्थ ही होता है, जो तारनहार है। और क्या गुरु का अर्थ होता है? जो पार ले जाए, जो उतार दे पार। गुरु तो सदा ही तारनहार है। लेकिन चूंकि शिष्य अभी डरता है, नाव में बैठने से, डरता है क्योंकि नाव में बैठने की शर्तें पूरी नहीं कर पाता; गुरु कहता है--तुम तो नाव में बैठ जाओ लेकिन यह जो तुम झोली साथ में लिए हो, यह वहीं रख दो। झोली में वह अशर्फियां लिए हुए है। वह कहता है कि झोली के साथ ही नाव में आ जाने दो। गुरु कहता है--नाव में तुम तो आ जाओ, मगर यह शास्त्र जो तुम सिर पर रखे हो, इन्हें किनारे पर रख दो। यह नाव डुबानी नहीं है। शास्त्र वजनी हैं, ये नाव को डुबा देंगे। वह कहता है कि मैं कैसे शास्त्र को छोड़ कर आ सकता हूं? यह तो रामायण है! यह कोई साधारण किताब थोड़े ही है, यह कुरान है! यह कोई साधारण किताब थोड़े ही है, पवित्र बाइबिल है! मैं इसको कैसे छोड़ सकता हूं? मैं तो इसको साथ ही लेकर जाऊंगा। तो गुरु मारनहार लगता है। लेकिन जो राजी है, जो कहता है--यह छोड़ी किताब, यह छोड़ी मूर्ति, जो सब छोड़ने को राजी है, उसके लिए तत्क्षण गुरु तारनहार हो गया।
गुरु तो तारनहार था ही, सिर्फ शिष्य के देखने में परिवर्तन होते हैं। जब तक तुम गुरु से बच रहे हो, जब तक तुम गुरु के साथ चतुरता का व्यवहार कर रहे हो, तब तक मारनहार है। जब तक तुम गुरु के साथ चालबाजियां कर रहे हो, बचाव कर रहे हो, होशियारियां कर रहे हो; जब तक तुम गुरु के साथ राजनीतिज्ञ का व्यवहार कर रहे हो, कूटनीतिज्ञ का व्यवहार कर रहे हो, तब तक मारनहार है। जैसे ही तुम सरल हो जाते हो, निर्दोष हो जाते हो, तुम्हें उसका तारनहार रूप दिखाई पड़ जाता है।
और जिंदगी जिसको समझ में आ गई हो, जिंदगी के दुख जिसने देख लिए हों और जिंदगी की व्यर्थता पहचान ली हो, वह गुरु से लड़ेगा नहीं। लड़ने का यहां है क्या तुम्हारे पास?
रात भर जब जहन में बोता हूं फनपारा कोई
काटता हूं सुबह दम टूटा हुआ तारा कोई
रोशनी किसको मिली है किरमके-शबताब में
किसने इत्मीनान पाया है फसूने-ख्वाब में
सुबह से जब शाम तक कंगाल हो जाता हूं मैं
आप अपने माल का दल्लाल हो जाता हूं मैं
कौड़ियों के मोल बिक जाते हैं फनपारे मेरे
बुझ गए हैं बारहा कीचड़ में अंगारे मेरे
जब तुम्हें जिंदगी दिखाई पड़ती है सपना ही सपना है, और जब तुम जिंदगी की कीचड़ में अपने सारे अंगारों को बुझते हुए देखते हो, अपनी सारी आशाओं को मरते हुए देखते हो, तो तुम फिर बचाव नहीं करोगे सदगुरु से। तुम्हारे पास बचाने को कुछ बचा ही नहीं। तुमने खुद ही देख लिया है कि तुम्हारे सिद्धांत तुम्हें पार नहीं कर पाए। तुम उन्हें तुम खुद ही छोड़ दोगे। गुरु को कहना भी नहीं पड़ेगा कि छोड़ दो। तुमने खुद ही देख लिया है कि तुम्हारे तिलक-चंदन तुम्हें बचा नहीं पाए, तुम खुद ही छोड़ दोगे। तुमने खुद ही देख लिया है तुम्हारा औपचारिक धर्म, क्रियाकांड, मंदिर-मस्जिद तुम्हें बचा नहीं पाए।
रोशनी किसको मिली है किरमके-शबताब में
किसने इत्मीनान पाया है फसूने-ख्वाब में
किसने सपने में शांति पाई है? किसने सपने में आनंद पाया है? और मिल भी जाए सपने में आनंद तो सुबह जाग कर पता चलता है कि हाथ में कुछ भी नहीं है, राख भी नहीं।
कौड़ियों के मोल बिक जाते हैं फनपारे मेरे
बुझ गए हैं बारहा कीचड़ में अंगारे मेरे
जरा देखो अपनी जिंदगी को, तुम्हारे सारे अंगारे कीचड़ में पड़े हैं और सब बुझ गए हैं, रोज बुझे जा रहे हैं, रोज तुम बुझे जा रहे हो, रोज मौत करीब आ रही है; जल्दी ही यह अंगारा जो जिंदगी है, बुझ जाएगी। जिसको यह बात दिखाई पड़ जाती है इस जिंदगी की व्यर्थता, वह लड़ता नहीं, वह बिना लड़े हथियार रख देता है। समर्पण का वही तो अर्थ है--हथियार रख देना। वह जाकर गुरु के चरणों में कहता है कि मैंने जी कर देख लिया, सब उपाय कर लिए, सब दौड़-धूप, आपा-धापी कर ली, कुछ हाथ लगता नहीं, अब आप जैसा कहें! आप जो कहें! अब आपकी आज्ञा ही मेरा जीवन होगा। अब मेरा मन मेरा मालिक नहीं होगा, आप मेरे मालिक हैं। अब मेरे मन को मैं नहीं सुनूंगा; मेरे मन की नहीं सुनूंगा, मेरा मन लाख कुछ कहे, मैं आपकी सुनूंगा। मेरा मन विरोध में रहे, रहा आए, मैं आपकी गुनूंगा। उसी क्षण गुरु तारनहार हो गया।
दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात
इसके दामन में मेरे अश्केरवां पलते हैं
हमसफर कोई नहीं है मेरी तन्हाई का
चंद साए हैं जो हमराह मेरे चलते हैं
डबडबाई हुई आंखों में है सावन की झड़ी
और दिल में मेरे यादों के शजर फलते हैं
देख मैंने भी मनाई है यहां दीवाली
मेरी पलकों पे भी अश्कों के दीये जलते हैं
और क्या है तुम्हारी दीवाली! तुम्हारी आंखों पर तुम्हारे आंसुओं के अतिरिक्त तुम्हारे पास और कोई दीये नहीं हैं।
दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात
इसके दामन में मेरे अश्केरवां पलते हैं
जिंदगी भर तुमने दामन में भरा क्या है? तुमने अपने आंचल में भरा क्या है? तुम जरा झोली तो खोलो! जिसमें तुम हीरे-जवाहरात समझे हो, सिवाय तुम्हारे आंसुओं के और कुछ भी नहीं हैं। जहां तुमने मोती समझे हैं, वहां बस तुम्हारे आंसू हैं और कुछ भी नहीं है।
दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात
इसके दामन में मेरे अश्केरवां पलते हैं
हमसफर कोई नहीं है मेरी तन्हाई का
चंद साए हैं जो हमराह मेरे चलते हैं
क्या है तुम्हारे पास? तुम्हारी छाया ही है, बस और कुछ भी नहीं।
चंद साए हैं जो हमराह मेरे चलते हैं
यहां कौन संगी है, कौन साथी है? यहां कौन मित्र है? यहां कौन अपना है? नहीं, तुम्हारी पत्नी भी तुम्हारी अपनी नहीं और तुम्हारा पति भी तुम्हारा अपना नहीं। तुम्हारा बेटा भी तुम्हारा अपना नहीं। तुम्हारा मित्र भी तुम्हारा अपना नहीं। जब तुम देखोगे कि जिंदगी के सब नाते झूठे हैं, तब एक नया नाता पैदा होता है, वही गुरु और शिष्य का नाता है। उसके पहले पैदा नहीं होता। जब तक तुम्हें लग रहा है कि और सब नाते ठीक हैं, उन्हीं में एक नाता यह भी है, तब तक गुरु मारनहार है। क्योंकि वह तुम्हारे नातों को तोड़ेगा। वह तुम्हारे झूठे नाते झूठे हैं, ऐसा तुम्हें जगाएगा और दिखाएगा। अड़चन होगी। पीड़ा होगी। वह तुम्हारे घाव उघाड़ेगा। वह तुम्हें ऐसे बच नहीं जाने देगा। गुरु यह मानने को राजी नहीं हो सकता कि तुम्हारी पत्नी है, भाई है, मां है, पिता है, ऐसे सब नातों में यह भी एक नया नाता है--यह गुरु और शिष्य का नाता। यह सब नातों में एक नाता नहीं है। सब नाते एक तरफ, यह नाता एक तरफ। अगर सब नाते भी गंवाना पड़ें, तो भी इस नाते के लिए गंवाए जा सकते हैं। तो ही गुरु तारनहार हो जाता है।
दीपमाला की यह बेचैन बिलगती हुई रात
इसके दामन में मेरे अश्केरवां पलते हैं
हमसफर कोई नहीं है मेरी तन्हाई का
अकेले हो तुम बिलकुल, एकदम अकेले हो--तन्हा हो।
हमसफर कोई नहीं है मेरी तन्हाई का
चंद साए हैं जो हमराह मेरे चलते हैं
यहां छायाओं के अतिरिक्त तुम्हारा संगी-साथी कौन है? जिसको यह दिखाई पड़ता है, वह किसी रोशन व्यक्ति का हाथ पकड़ लेता है। वह कहता है--सायों के साथ, छायाओं के साथ बहुत चल लिए, अपनी ही परछाइयों के साथ बहुत चल लिए, अब किसी रोशनी का साथ करने की आकांक्षा जगी है। किसी रोशनी से मित्रता बना लेनी ही तो शिष्यत्व है।
डबडबाई हुई आंखों में है सावन की झड़ी
और दिल में मेरे यादों के शजर फलते हैं
देख मैंने भी मनाई है यहां दीवाली
मेरी पलकों में भी अश्कों के दीये जलते हैं
कुछ और तुम्हारे पास है भी नहीं, बस यादें हैं। अतीत की यादें हैं और भविष्य की कल्पनाएं हैं। और आंखें तुम्हारी आंसुओं से डबडबाई हैं। तुम्हारा जीवन एक लंबी मरुयात्रा है, जहां कहीं कोई मरूद्यान नहीं। जिस दिन यह दिखाई पड़ता है, उस दिन तुम समग्रभाव से झुकते हो। उसी झुकने में मारनहार गुरु तारनहार हो गया। वह तो तारनहार था, लेकिन तुम्हारे झुकने में तुम्हें दर्शन होता है।
गुरु तो एक दर्पण है। तुम जो शक्ल लेकर आते हो, वही शक्ल उस दर्पण में दिखाई पड़ती है। तुम डरे-डरे आते हो, गुरु मारनहार दिखाई पड़ता है। तुम निर्भय आते हो, अभय आते हो, गुरु तारनहार हो जाता है। गुरु तो एक दर्पण है। वह तो तुम्हारी ही तस्वीर को तुम्हारे पास वापस लौटा देता है। तुम अपने ही चेहरे उसमें देखते हो।
यूं झुका है नदी पै एक शहतूत
देखता हो वह जैसे आईना
पेड़ का अक्स है कि सब्ज आंचल
जिसमें लिपटा हो नुकरई सीना
डालियां लद गई हैं फूलों से
खुशबुओं से महक उठे साये
जैसे गिर कर दुल्हन के हाथों से
नागहां इत्रदां उलट जाए
गुरु को तो झील समझो। उसके किनारे खड़े हुए दरख्त हो जाओ। झुको, झांको। गुरु को दर्पण समझो। पास आओ, निकट आओ, अपने चेहरे को पहचानो। गुरु तो तुम जैसे हो वैसा ही तुम्हें दिखलाता है। इसलिए अगर तुम्हें गुरु में सिर्फ मारनहार दिखाई पड़े, तो समझना कि तुम्हारा भय प्रतिबिंबित हो रहा है। तुम्हें तारनहार दिखाई पड़े, तो समझना कि तुम्हारा अभय प्रतिबिंबित हो रहा है। मारनहार दिखाई पड़े तो समझना कि अभी इस मरने वाली जिंदगी में तुम्हारे कहीं मोह अटके हैं। तारनहार दिखाई पड़े तो समझना कि अमृत की झलक तुम्हें उसमें मिलनी शुरू हो गई, इस जिंदगी से तुम्हारे सब नाते-रिश्ते टूट गए हैं।
और खयाल रखना, फिर दोहरा दूं, मैं तुमसे यही नहीं कह रहा हूं कि जिंदगी से नाते-रिश्ते तोड़ लेना, सिर्फ इतना कह रहा हूं कि जान लेना इस जिंदगी के नाते-रिश्ते बस कामचलाऊ हैं। तोड़ने में भी क्या रखा है! तोड़ते तो वे ही हैं जो इनको बहुत मान लेते हैं कि बड़े महत्वपूर्ण हैं। एक आदमी कहता है पत्नी बड़ा महत्वपूर्ण नाता है; और एक आदमी पत्नी छोड़ कर भाग जाता है, वह कहता है कि पत्नी के रहते मैं परमात्मा को न पा सकूंगा--वह भी मान रहा है कि पत्नी का नाता बड़ा महत्वपूर्ण है, इतना महत्वपूर्ण कि परमात्मा से मिलने से रोक देगा। ये दोनों एक-से मूढ़ हैं। इनमें जरा भेद नहीं है। एक-दूसरे से उलटे चल रहे हैं, मगर इनकी मूढ़ता एक ही है। एक पैर के बल खड़ा है--गृहस्थ को मैं कहता हूं, पैर के बल खड़ा हुआ आदमी, प्राकृतिक आदमी। और जिसको तुम साधु-महात्मा कहते हो, वह शीर्षासन करता हुआ आदमी। मगर वही आदमी शीर्षासन कर रहा है। कुछ फर्क नहीं है, कुछ भेद नहीं है।
तो मैं तुमसे जिंदगी के नाते-रिश्ते छोड़ कर भाग जाने को नहीं कह रहा हूं। उनमें कुछ मूल्य ही नहीं है, छोड़ कर क्या भागोगे? सपनों का त्याग क्या करोगे? इतना जानना भर है कि खेल है, अभिनय है। अभिनय को बड़ी सरलता से निभाओ, आनंद से निभाओ। अभिनय ही है तो गंभीरता की कोई जरूरत नहीं है। मौज से निभाओ। जैसे आदमी ताश खेलता है और ताश में राजा होते, रानी होते, और सब होते। मगर वे सब राजा-रानी ऐसे ही होते जैसे इंग्लैंड की रानी। कोई खास उसका मतलब नहीं होता। लेकिन जब तुम ताश खेलते हो तो राजा-रानी बड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं। या शतरंज खेलते हो तुम--हाथी-घोड़े, वजीर, राजा बड़े महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कुछ भी नहीं है वहां, गरीब की शतरंज हो तो लकड़ी के, अगर अमीर की हो तो समझो हाथीदांत के, या सोने-चांदी के, मगर वहां कुछ भी नहीं है। मगर खेलने वाले खूब डूब जाते हैं।
कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि शतरंज में तलवारें खिंच जाती हैं। ऐसे गंभीर हो जाते हैं। गर्दनें कट जाती हैं। वहां कुछ था ही नहीं, जरा सोचो। वह जो राजा और वजीर और हाथी और घोड़े, सब हंसते होंगे जब तुम तलवार खींच लेते होगे कि हद हो गई; हद हो गई, हमारे भीतर कुछ भी नहीं है, न कोई राजा है, न कोई वजीर है, न कोई घोड़ा है, न कोई हाथी है, यहां तलवारें खिंच गईं।
जिंदगी को गंभीरता से लो तो मैं तुम्हें सांसारिक कहता हूं। जिंदगी को गैर-गंभीरता से लो, मैं तुम्हें संन्यासी कहता हूं। मेरा संन्यास और संसार में बस यही बुनियादी भेद है। जिंदगी एक खेल है। न इस तरह मूल्यवान है, न उस तरह मूल्यवान है। न इसमें कुछ रखा है पकड़ने में, न रखा है कुछ छोड़ने में।
तो जहां हो, वहीं जाग जाओ। और जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ जाए कि यह सब खेल है--खेल तो है ही। और तुम जानते भी हो, ऐसा भी नहीं कि तुम जानते नहीं; छिपाते हो अपनी जानकारी क्योंकि तुम डरते हो इस जानकारी से, कहीं यह दिखाई न पड़ जाए कि यह खेल है। क्योंकि इस खेल में तुमने खूब जिंदगी गंवाई है। और इस खेल में तुमने काफी दांव लगा दिए हैं। अब यह दिखाई न पड़ जाए कि यह खेल है!
मेरे एक मित्र जापान में एक घर में मेहमान थे। बूढ़े आदमी, एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, वहां एक दर्शनशास्त्र के सम्मेलन में भाग लेने गए थे। घर में बड़ा शोरगुल था एक दिन, बड़ी तैयारियां हो रही थीं, तो उन्होंने पूछा: क्या मामला है? तो जिसके घर मेहमान थे उस मेजबान ने कहा कि आज शादी है। आप भी सम्मिलित हों। तो वे भी बेचारे नहाए-धोए, अच्छे कपड़े पहने, तैयार हुए--जब शादी है तो ढंग से तैयार हो जाना! और जब भीतर से बाहर आए और बारात देखी तो बड़े हैरान हुए! बारात गुड्डा-गुड्डियों की थी। इस घर के बच्चों ने अपने गुड्डे का विवाह पड़ोस की गुड्डी से किया हुआ था। मगर बड़े बैंड-बाजे बज रहे थे! और बड़ा उत्सव मनाया जा रहा था! और बारात भी चली और गांव के बड़े-बूढ़े भी सम्मिलित हुए। यह भी चले साथ, मगर बड़ी बेचैनी। और दूल्हे की जगह सिर्फ एक गुड्डा है--जापानी गुड्डा बनाने में कुशल होते हैं, बड़ा शानदार गुड्डा है--घोड़े पर सवार है। घोड़ा असली है, गुड्डा झूठा है। जब दूसरे पड़ोस में जहां बारात जानी थी पहुंच गई, वहां भी बड़ा साज-सामान है, वहां भी लोग इकट्ठे हैं, स्वागत बारात का किया गया--जैसे असली बारात चल रही हो!
बर्दाश्त के बाहर हो गया तो पूछा कि यह मामला क्या है, मेरी कुछ समझ में नहीं आता। और बच्चे अगर निकालते यह जुलूस तो ठीक भी था, मगर बड़े-बूढ़े भी इसमें सम्मिलित हुए हैं। तो जिस बूढ़े के घर वे मेहमान थे, उसने कहा कि सभी बारातें खेल हैं। यह भी खेल है। तुम जिन असली बारातों में सम्मिलित हुए हो, वे भी खेल हैं। इसमें हर्ज क्या है? इसमें इतने परेशान क्यों हुए जा रहे हो? बच्चों को मजा आ रहा है, हम सम्मिलित हो गए हैं तो उनको और भी मजा आ रहा है। हम सम्मिलित हो गए हैं तो उनके खेल को बड़ी गंभीरता आ गई है; खेल में बड़ा प्राण आ गया, बल आ गया। हम जान कर सम्मिलित हुए हैं कि खेल है। इसलिए हम सम्मिलित भी हैं और नहीं भी हैं। बच्चे अभी अनजाने हैं, उनको खेल नहीं है, असली बात हो रही है। वे भी बड़े हो जाएंगे तब समझ लेंगे कि खेल है।
इतना ही फर्क है। संसारी अभी बचकाना है, उसने खेल को असली समझ लिया है। संन्यासी जाग गया, थोड़ा होश से भरा, प्रौढ़ हुआ, उसने खेल को खेल की तरह पहचान लिया। अब भागना कहां है, अब जाना कहां है? और अभी बहुते बच्चे हैं जो खेल में उलझे हैं, तुम भी उनके साथ खड़े हो। पर फर्क हो गया।
मुझसे लोग पूछते हैं, आप अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को क्यों नहीं कहते? मैं क्यों कहूं छोड़ने को? परमात्मा ने ही नहीं छोड़ा है अभी तक संसार, संन्यासी क्यों छोड़े! कोई संन्यासी को परमात्मा से ऊपर जाना है! कोई परमात्मा से भी बड़े होने की आकांक्षा है! परमात्मा खेल खेल रहा है। इसलिए हम परमात्मा के खेल को लीला कहे हैं।
लीला का मतलब समझो।
लीला का मतलब समझ गए कि तुम सारे धर्मों का सार समझ गए। खेल है, बस गंभीरता से मत लो। जिस दिन तुम खेल को खेल की तरह जान लोगे, उस दिन इस जगत में गंभीरता से लेने की एक ही बात रह जाती है--वह गुरु और शिष्य का संबंध। वह भर खेल नहीं है।
क्यों?
वह भर खेल नहीं है, क्यों? क्योंकि उसके माध्यम से सत्य का अनुभव होगा। बाकी तो सारे माध्यम और-और असत्यों में ले जाएंगे। तो खेल की और गैर-खेल की मेरी परिभाषा भी समझ लो। खेल वह है जो और खेलों में ले जाए। वह खेल नहीं है जो खेलों के बाहर ले जाए। यहां एक ही द्वार है, गुरु-शिष्य का संबंध, जो संसार के पार ले जाता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आपसे इस दास का निवेदन है कि आप प्रवचन में जब भी कभी कहते हैं, ‘इस दुनिया से जाने के पहले’, या, ‘जब मैं नहीं रहूंगा,’ तब मेरे कलेजे को चीर देते हैं। बहुत वेदना होती है। कृपया इन शब्दों को मत कहें।
सतपाल! इसीलिए ये शब्द कहे जाते हैं कि कलेजे को चीरें। अभी कोई जा थोड़े ही रहा हूं! मगर ऐसा न हो कि मैं चला जाऊं और तुम्हारा कलेजा न चिर पाए। तुम्हारे कलेजे को चीर कर जा सकूं, इसीलिए बार-बार हर तरह से चोट करता हूं। यह भी चोट का एक हिस्सा है।
अब अगर महावीर पर चोट करता हूं, तो जैन पर चोट होती है। मगर तुममें यहां बहुत हैं जिनको अब महावीर से कुछ लेना नहीं, बुद्ध से कुछ लेना नहीं, मुझसे ही सब लेना है, तो मुझ पर भी चोट करता हूं। तो मैं कहता हूं कि अब जाता हूं, कि अब सम्हलो, कि अब यह दीया बुझा, कि अभी देखना हो तो देख लो, रोशनी मौजूद है, इस रोशनी में आंख खोल लो, तुम इसी मस्ती में मत पड़े रहना कि अब क्या करना है, गुरु तो मिल गए! गुरु मिले, तब कुछ करना है। अक्सर लोग सोचते हैं कि गुरु तो मिल गए, अब क्या करना है?
मेरे पास आकर कहते हैं कि अब आप मिल गए, अब क्या करना है? मैं उनसे कहता हूं, मेरे भाई, अब करना शुरू करना है। वे तो निश्चिंत हो जाते हैं, वे कहते हैं--बात खत्म हो गई, अब आप मिल गए, अब क्या करना है? आदमी बड़ा कुशल है। पहले भी कुछ नहीं कर रहे थे वे--ऐसा नहीं है कि पहले कुछ कर रहे थे--पहले भी परमात्मा की खोज के लिए कुछ नहीं कर रहे थे--अब उनकी तरकीब देखो, अब वे कहते हैं--अब आप मिल गए, अब क्या करना है? पहले भी नहीं कर रहे थे, अब भी नहीं करना है। फिर करोगे कब? फिर करोगे कैसे?
कुछ करना है। नींद नहीं तो टूटेगी नहीं। तुमने कभी एक अनुभव किया? जब सपना कभी-कभी बहुत दुख-स्वप्न हो जाता है तो नींद अपने आप टूट जाती है। तुम कोई सपना देख रहे हो कि तुम भागे जा रहे हो और तुम्हारे पीछे एक चीता लगा है--अब तुम कोई शिकारी भी नहीं हो, पता नहीं यह चीता तुम्हारे पीछे क्यों लगा है, मगर उसको शिकार करना है! अब तुम भागे जा रहे हो, बेतहाशा, पहाड़ी ऊंची होती जाती है और चीता करीब आता जाता है, चढ़ाव मुश्किल होता जाता है, हांफ रहे हो, पसीना-पसीना हो रहे हो, दोपहर है, भरी धूप है, और चीता पास आता जाता है, तुम उसकी श्वास भी अपनी पीठ पर अनुभव कर पा रहे हो, अब मारे गए, तब मारे गए, और चीता बढ़ा चला आ रहा है--और उसने एक पंजा दिया, और तुम्हारी नींद खुल गई। अभी भी दिल धड़कता रहता है थोड़ी देर, नींद खुल जाने के बाद भी। अपनी पीठ भी तुम देखते हो कि मामला क्या है। कहीं कोई चीता नहीं है। सिर्फ तुम्हारी पत्नी का हाथ तुम्हारी पीठ पर है। कुछ मामला नहीं है, यह तो सभी का मामला चल रहा है, जो रोज दिन में चलता है, वही रात में चल रहा है, शिकार किया जा रहा है, मगर छाती धड़क रही है, पसीने-पसीने हो रहे हो, हांफ रहे हो। थोड़ी देर में हंस कर शांत होकर सो जाते हो। जब सपना कभी बहुत दुख-स्वप्न जैसा हो जाता है, पीड़ा इतनी हो जाती है कि नींद नहीं बच सकती।
मनोवैज्ञानिक से अगर तुम पूछोगे, तो तुम चकित होओगे जान कर कि मनोविज्ञान की जो आधुनिकतम खोजे हैं, वे कहती हैं कि सपने के आने का प्रयोजन ही एक है--नींद को बचाना। यह तुम चकित होओगे जान कर, आमतौर से तुम सोचते हो कि सपने के कारण हम सो नहीं पाए। आमतौर से लोग कहते हैं कि रात भर सपने आते रहे, सो नहीं पाए। उनको पता नहीं वे उलटी बात कह रहे हैं। अगर सपने न आते तो वे बिलकुल नहीं सो सकते थे। सपना नींद को बचाने का उपाय है।
जैसे समझो उदाहरण के लिए, तुमने सपने में देखा कि तुम्हें खूब भूख लगी है। अब असलियत हो सकती है कि तुम्हें भूख लगी है। हो सकता है जैन हो, पर्यूषण के दिन चल रहे हों और व्रत कर लिया है--तुम्हें भरोसा न हो, तुम सोहन से पूछ सकते हो, वह व्रत करती रही है पहले--व्रत कर लिया, अब रात सो तो गए हैं--अब नींद में तो कोई व्रत-भ्रत भूल जाता है, भूख लगी है तो भूख याद रहती है, असली चीजें याद रहती हैं, नकली चीजें भूल जाती हैं; स्वाभाविक याद रहता है--पेट में तो कड़की है, पेट तो मांग रहा है कि कुछ मिल जाए। अब अगर पेट की भूख जारी रहे तो नींद नहीं आ सकती। तो नींद में तुम्हारा मन तुम्हें एक भुलावा देता है--चले, नींद में उठे, चले, खोल लिया फ्रिज, खड़े हैं फ्रिज के सामने, सब चीजें रखी हैं; आइस्क्रीम निकाल ली--उपवास इत्यादि के दिन ऊंची चीजें याद आती हैं, रूखी-सूखी रोटी कौन खाता है रात, उपवास के दिन बातें ही ऊंची चलती हैं--तुम मजे से आइस्क्रीम खा रहे हो, सपना चल रहा है, यह तुम्हारी नींद को बचा रहा है। आइस्क्रीम खा-पी कर तुम मजे से सोए रहोगे, क्योंकि तुम्हें एक भरोसा दिला दिया सपने ने कि अब तो आइस्क्रीम भी खा ली, अब क्या है? अब तो मामला खत्म हो गया, छूट गए पर्यूषण से, अब तो सो जाओ शांति से!
तुम्हें जोर से पेशाब लगी है और तुम चले सपने में कि तुम बाथरूम में चले गए हो, पेशाब कर आए, आकर सो गए। नींद में सपना देख रहे हो। वह जो तुम्हारे ब्लेडर पर जोर का दवाब पड़ रहा है, वह नींद तोड़ देगा; सपना सिर्फ तुम्हारे लिए भुलावा दे रहा है। एक कल्पना का जाल खड़ा कर रहा है। वह कह रहा है--ठीक है, हो तो आए, मामला खत्म हो गया, अब सो जाओ। वह जो तुम्हारे ब्लेडर पर दबाव पड़ रहा था, सपने ने उस दबाव को रोक दिया।
सपना इस तरह काम करता है जैसे कार में लगे स्ंिप्रग काम करते हैं। कार जा रही है, गड्ढा पड़ता है तो स्ंिप्रग गड्ढे को पी जाता है; तुम अंदर बैठे हो, चलते रहते हो। जितनी कीमती कार हो, उतने बहुमूल्य स्ंिप्रग होते हैं। रेलगाड़ियों के दो डिब्बों के बीच में बफर लगाए होते हैं। वे बफर इसलिए लगाए होते हैं कि अगर कोई टकराहट हो जाए, एकदम से रेलगाड़ी रोकनी पड़े, कुछ हो जाए, तो दो डिब्बे टकरा न जाएं। बफर धक्का पी जाते हैं।
सपना एक ‘बफर’ है। सपना तुम्हें रात भर बचाए रखता है, नहीं तो हजार उपद्रव आते हैं। एक मच्छर आकर कान के पास गुनगुनाने लगा, तुम सोचते हो कि लता मंगेशकर! सपने ने तुमको बचा दिया। लता मंगेशकर गा रही है! सपने ने एक तुमको तरकीब पकड़ा दी; सपने ने कहा, तुम कहां परेशान हो रहे हो, कोई मच्छर-वच्छर नहीं है, लता मंगेशकर गा रही है। जरा गौर से गीत सुनो! तुम एक फिल्मी धुन सुनने लगे। मच्छर की धुन फिल्मी धुन में दब गई। बफर आ गया। बीच में बफर ने आकर गड्ढे को पी लिया। रात भर सपना तुम्हें बचा रहा है। तुम्हारी नींद को बचा रहा है।
लेकिन, जब सपना ऐसा होता है कि जिसको नींद नहीं समा सकती, जिसको नींद नहीं अपने भीतर आत्मसात कर सकती, जब सपना इतना भयंकर हो जाता है, तो नींद टूट जाती है।
सदगुरु जो तुम्हें चोट करता है, वह इसीलिए कि तुम्हारी नींद टूट जाए, तुम्हारे ‘बफर’ टूट जाएं, तुम्हारे स्ंिप्रग टूट जाएं, तुम्हें जिंदगी के गड्ढे समझ में आ जाएं।
तुम पूछते हो: ‘आपसे इस दास का निवेदन है, आप प्रवचन में जब भी कभी कहते हैं, ‘इस दुनिया से जाने के पहले’, या ‘जब मैं नहीं रहूंगा,’ तब मेरे कलेजे को चीर देते हैं।’
मगर तुम चिरने कहां देते हो। मैं तो चीरता हूं, मगर तुम चिरने नहीं देते। तुम बचाव कर जाते हो। तुम इधर-उधर हो जाते हो। तुम किनारा काट जाते हो, तीर निकल जाता है, तुम बच जाते हो। थोड़ी-बहुत खरोंच लग रही है अभी, उस खरोंच को ही तुम हृदय का चीर देना कह रहे हो। हृदय चिर जाए तो काम हो जाए। नींद टूट जाए। सब सपने समाप्त हो जाएं। तुम जाग जाओ।
यह चोट तो मैं करता रहूंगा। यह चोट तो मुझे करनी ही होगी। यह चोट तो मेरा काम है। यह घाव तो मैं तुम्हारा उघाड़ता रहूंगा। घावों को सांत्वना नहीं देनी है, मलहम-पट्टी नहीं करनी है, उनको उघाड़ना है। चोट तुम्हारे सामने जितनी गहन और जितनी साफ हो जाए उतना अच्छा है।
वह चोट जो दिल पर खाई थी उस चोट का अब अहसास कहां
इक दाग-सा बाकी है जिसको, हम याद बनाए बैठे हैं
मैं तुम्हें याद नहीं बनाने दूंगा। मैं चोट-पर-चोट करता रहूंगा। मैं घाव को ताजा और हरा रखूंगा। यही सत्संग का अर्थ है कि तुम आओ रोज और चोट खाओ रोज। कब तक सोए रहोगे? एक दिन तो आएगा कि जागोगे! तुम्हारी नींद और मेरे बीच संघर्ष चल रहा है। यही तो सत्संग है।
हजारों माहताब आए, हजारों आफताब आए
मगर हमदम! वही है जुल्मते-गमखाना बरसों से
कितने चांद उतरे जमीन पर, कितने सूरज उतरे जमीन पर; कितने बुद्ध, कितने कृष्ण चले जमीन पर, मगर तुम बचते रहे। अंधेरा वैसा का वैसा बना है। चांद-तारे उतरते हैं, चले जाते हैं, तुम वैसे के वैसे रह जाते हो। चोट खाओ। मिटने की तैयारी दिखाओ। इस बार ऐसा न हो कि मैं चोट करता रहूं और तुम बचते रहो। इस बार तीर को कलेजे में लग ही जाने दो। किसी भी बहाने से हो, तुम्हें जगाना है।
मस्जिद की अजां हो कि शिवाले का गजर हो
अपनी तो यह हसरत है कि किसी तरह सहर हो
सुबह हो जाए, फिर किस बात से तुम जगे--
मस्जिद की अजां हो कि शिवाले का गजर हो
अपनी तो यह हसरत है कि किसी तरह सहर हो
सब उपाय किए जाएंगे। सब तरफ से तुम्हें छेदा जाएगा। जितने जल्दी तुम तीरों का स्वागत कर लो, सम्मानपूर्वक अपने भीतर ले लो, अपने हृदय को खुद ही खोल दो, उघाड़ दो, उतने ही जल्दी काम पूरा हो जाए।
सतपाल, मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। तुम भी मेरी तकलीफ समझो! तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं, चोट हो जाती है। तुम्हें मुझसे प्रेम है, तुम्हें मुझसे लगाव है, लेकिन अगर यह लगाव तुम्हें जगत के पार न ले जाए, तो यह लगाव भी फिर सांसारिक हो गया और व्यर्थ हो गया। फिर यह भी एक रिश्ता था, जैसे और रिश्ते थे--यह भी एक झूठा रिश्ता हो गया। यह लगाव तो तभी सच्चा लगाव होगा, यह रिश्ता तो तभी सच्चा रिश्ता होगा, जब तुम्हें जगाए, जब तुम्हें मिटाए। यहां तुम्हारी मृत्यु का आयोजन चल रहा है। सत्संग यानी मृत्यु का आयोजन। और धन्यभागी हैं वे जो मरने को राजी हो जाते हैं। क्योंकि अमृत की मालकियत उनकी ही है। मृत्यु का मूल्य चुका कर अमृत का पुरस्कार मिलता है।
आज इतना ही।