RAJJAB

Santo Magan Bhaya Man Mera 15

Fifteenth Discourse from the series of 20 discourses - Santo Magan Bhaya Man Mera by Osho. These discourses were given during MAY 12-31 1978.
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सिला संवारी राजनै, ताहि नवै सब कोइ।
रज्जब सिष-सिल गुरु गढ़ै, सोइ पूजि किन होइ।।
गुरु ज्ञाता परजापती, सेवक माटी रूप।
रज्जब रज सूं फेरकै, घरिले कुंभ अनूप।।
ज्यूं धोबी की धमस सहि, ऊजल होइ कुचीर।
त्यूं सिष तालिब निरमला, मार सहे गुरु पीर।।
बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।
जन रज्जब जलती रहै, जाग्या बिरह अपार।।
बिरहा-पावक उर बसै, नखसिख जालै देह।
रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसहु मोहन मेह।।
भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।
रज्जब तलफै तब लगै, मिलै न मारनहार।।
जैसे नारी नाह बिन, भूली सकल सिंगार।
त्यूं रज्जब भूला सकल, सुनि सनेह दिलदार।।
तन मन ओले ज्यूं गलहिं, बिरह-सूर की ताप।
रज्जब निपजै देखि तूं, यूं आपा गलि आप।।
रज्जब ज्वाला बिरह की, कबहूं प्रगटै माहिं।
तौ सींचनि घृत सों चहौं, करम-काठ जरि जाहिं।।
दरद नहीं दीदार का, तालिब नाहीं जीव।
रज्जब बिरह बियोग बिन, कहां मिलै सो पीव।।
समाअत जब खनकती है तरबखानों की राहों में
तो मंजिल के तसव्वुर से कदम ललचा ही जाते हैं
अगर जेबे-ओ-गिरेबां की हम-अहंगी सलामत हो
तो नग्मों की मुरव्वत के मुकामात आ ही जाते हैं

सुनहरी अंगुलियां रुकती हैं जब साजों की शहरग पर
तो नग्मों की चहकती सांस रुक जाती है सीने में
दरोगे-मस्लहत आमेज भी एक चीज है लेकिन
छलक जाता है जहराबे-अलम हर आबगीने में

तसव्वुर उम्र की उस हद पै जाके हांप जाता है
जहां अहले-हवस बेदाद-पर-बेदाद करते हैं
ब-मजबूरी थिरकती है जबानी बर-सरे-महफिल
बदन के मुस्कुराते जाविए फरियाद करते हैं

नजर की नग्मगी, जुल्फों के बल, ओंठों की शीरीनी
यहां हर चीज झूठे प्यार पर मजबूर होती है
यहां किरदार के उजले सनम ढाले नहीं जाते
यहां हर जिंदगी गुफ्तार पर मजबूर होती है

झरोखों से महकते हैं यहां हंसते हुए फाके
यहां चुकता है सौदा जिंदगी की इल्तिजाओं का
यहां दिन को बदन तुलते हैं मीजाने-हुकूमत में
यहां रातों को जमता है अखाड़ा रहनुमाओं का
खरीदारो! यहां हर रात जश्ने-आम होता है
यह वह मंडी है जिसमें प्यार का नीलाम होता है
संसार है प्रेम की भूल, प्रेम की भ्रांति। प्रेम तो ठीक है, लेकिन गलत से हो गया है। प्रेम तो सुंदर है, लेकिन व्यर्थ से हो गया है। प्रेम तो शाश्वत है, लेकिन क्षणभंगुर से हो गया है। और जब प्रेम झूठा हो जाए, तो सब झूठ हो जाता है; क्योंकि प्रेम हमारा प्राण है। प्रेम की ही ऊर्जा से निर्मित है सारा अस्तित्व।
नजर की नग्मगी, जुल्फों के बल, ओंठों की शीरीनी
यहां हर चीज झूठे प्यार पर मजबूर होती है
यहां किरदार के उजले सनम ढाले नहीं जाते
यहां हर जिंदगी गुफ्तार पर मजबूर होती है
मनुष्य जब भी प्रेम करता है, जिससे भी प्रेम करता है, तो वस्तुतः परमात्मा की तलाश में ही करता है। तुम जब किसी स्त्री के सौंदर्य से मोहित हुए हो, तो अनजाने ही सही, उस स्त्री के चेहरे के दर्पण में तुम्हें परमात्मा की कुछ छवि दिखाई पड़ी है। तुम्हें होश हो कि न हो। तुम जब किसी पुरुष के प्रेम में पड़े हो, तो तुम्हें कुछ भनक सुनाई पड़ी है। दूर की आवाज सही, साफ-साफ पकड़ में भी न आती हो, मुट्ठी भी न बंधती हो, लेकिन जब भी तुमने किसी को चाहा है तो मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुमने परमात्मा को ही चाहा है। लेकिन तुम अपनी चाहत के रंग को समझ नहीं पाए, चाहत के ढंग को समझ नहीं पाए। चाहा कुछ, उलझ गए कहीं और।
जैसे खिड़की से किसी ने सूरज को ऊगते देखा और खिड़की के चौखटे को पकड़ कर बैठ गया, और खिड़की की पूजा करने लगा। खिड़की में कुछ बुरा भी नहीं है, सूरज को दिखाया है खिड़की ने, तो धन्यवाद दो; मगर खिड़की की पूजा करने बैठ गए! फिर सूरज का क्या होगा? खिड़की लक्ष्य बन जाती है, माध्यम होती तो ठीक थी।
ऐसे ही हमने किसी मनुष्य के चेहरे में परमात्मा की झलक पाई, किन्हीं आंखों में उसकी शराब उतरती देखी, किसी युवा देह में उसकी बिजली चमकी, उसकी बिजली कौंधी, हम देह को पकड़ कर बैठ गए, हम आंख की पूजा करने लगे, हम रूप के पुजारी हो गए और हम यह भूल ही गए कि सब रूप में अरूप झलकता है, सब आकार में निराकार, सब गुणों में निर्गुण। इतनी भर याद आ जाए, तो जीवन में वह पड़ाव आ जाता है जहां से नई यात्रा शुरू होती है। वह मोड़ आ जाता है, जीवन धर्म का पहनावा पहन लेता है, जीवन धर्म का गीत गाने लगता है।
संसार है तो परमात्मा का ही प्रेम, लेकिन माध्यम से हो गया है। और माध्यम को हम इतने जोर से पकड़ लेते हैं कि माध्यम जिसे दिखाने के लिए है, वह चूक ही जाता है। ऐसा समझो कि किसी से तुम्हें प्रेम हो जाए और तुम उसके वस्त्रों को ही सब-कुछ समझ लो और उसकी देह की तलाश ही न करो, तो तुम्हें लोग पागल कहेंगे। संसार पागल है। तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए और तुम उसकी देह पकड़ लो और उसकी आत्मा की तलाश ही न करो, यह भी पहली ही जैसी भ्रांति है। क्योंकि देह वस्त्र से ज्यादा नहीं है। तुम्हें किसी से प्रेम हो जाए और तुम उसकी आत्मा को ही पकड़ लो और परमात्मा तक तुम्हारे प्राण न उठें, फिर भी भूल हो गई। खोदे चलो। खोजे चलो। हर जगह से तुम परमात्मा तक पहुंच सकते हो। क्योंकि हर जगह वही छिपा है। आवरण कितने ही हों, आवरण उघाड़े जा सकते हैं। न तो आवरणों को पकड़ना और न आवरणों से भयभीत होकर भाग जाना।
दुनिया में दो तरह के काम होते रहे हैं। कुछ लोग आवरण पकड़ लेते हैं--किन्हीं ने खिड़की की पूजा शुरू कर दी है। और इनकी मूढ़ता को देख कर कुछ लोग खिड़की को छोड़ कर भाग गए हैं। ऐसे भागे हैं कि खिड़की के पास नहीं आते। दोनों ने भूल कर दी है। क्योंकि सूरज खिड़की से ही देखा जा सकता है। न तो पूजने वाला देख पाएगा और न भगोड़ा देख पाएगा।
संसार परमात्मा की खिड़की है। भोगी भी नहीं देख पाता और जिसको तुम योगी कहते हो, वह भी चूक जाता है। भोगी ने जोर से पकड़ लिया है संसार, योगी इतना घबड़ा गया है भोगी की पकड़ देख कर कि उसने पीठ कर ली और भागा जंगल की तरफ। लेकिन संसार उसका ही है। वही यहां तरंगित है। यह गीत उसका है। इस बांसुरी पर उसी के स्वर उठ रहे हैं। बांसुरी को न तो पकड़ो, न बांसुरी से डरो, बांसुरी से आते हुए अज्ञात स्वरों को पहचानो। फिर बांसुरी का भी सम्मान होगा। सच्चे धार्मिक व्यक्ति के मन में संसार का अनादर नहीं होता, सम्मान होता है। क्योंकि यही तो परमात्मा से जोड़ने का उपाय है, यही तो सेतु है। सच्चा व्यक्ति संसार का भी अनुगृहीत होता है, क्योंकि इसी ने परमात्मा तक लाया। सच्चा व्यक्ति अपनी देह का भी अनुगृहीत होता है, क्योंकि यह देह वाहन है। सच्चा व्यक्ति किसी चीज के विरोध में ही नहीं होता। सब चीजों का उपयोग कर लेता है। समझदार वही है जो जहर का अमृत की तरह उपयोग कर ले। वही कुशल है, वही बुद्धिमान है।
जहर औषधि बन जाता है समझदार के हाथ में। और नासमझ के हाथ में अमृत भी जहर बन सकता है, यह याद रखना। धर्म भी किन्हीं लोगों के हाथ में जहर हो गया है और संसार भी किन्हीं लोगों के हाथ में परमात्मा का दर्शन बन गया है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि तुम कहां हो, सवाल यह नहीं है कि तुम संसार में हो कि पहाड़ पर हो, एकांत में हो कि भीड़ में हो, सवाल यह है तुम्हें कला आती है या नहीं? जीवन का माध्यम की तरह उपयोग करने की कला का नाम धर्म है। यहां हर चीज उसके ही मंदिर की सीढ़ी है। पत्थर मत समझो इन सीढ़ियों को, रुक मत जाओ, अटक मत जाओ, चढ़ो और पार उठो। तब तुम धन्यवाद करोगे इन सीढ़ियों का। लेकिन जब तक यह नहीं होता तब तक यहां हर चीज झूठी हो जाती है।
हर चीज झूठी क्यों हो जाती है? क्योंकि तुम साधन को साध्य समझ लेते हो। बस तभी सब झूठ हो जाता है। जहां प्रेम भ्रांत से अटका, वहीं प्रार्थना का जन्म असंभव हो जाता है और जहां प्रेम ने भ्रांति में अटकाव न पाया और भ्रांति के बीच से अपनी नाव को खे कर आगे निकल गया, वहीं प्रेम प्रार्थना बन जाता है। और जो लोग संसार की भ्रांति में नहीं पड़ते, वे ही सदगुरु की तलाश करते हैं। सदगुरु की तलाश कब शुरू होती है? कौन व्यक्ति सदगुरु के हाथ में अपने को छोड़ेगा? हर कोई नहीं छोड़ता। कौन छोड़ता है? कुछ शर्तें हैं, खयाल रखना।
पहली बात, जिसने सब तरफ से सिर मार-पटक कर देख लिया, जिसने सब तरफ से कोशिश करके देख ली, जो भी उससे हो सकता था कर चुका, और हर जगह हार पाई और हर जगह पराजय मिली, हर जगह दीवाल आ गई और द्वार न मिला, जिस दिशा में खोजा वहीं व्यर्थता हाथ लगी, जिसके भीतर अपनी असफलता का बोध प्रगाढ़ हो जाता है कि मैं मेरे ही कारण खोज न पाऊंगा--क्यों न खोज पाऊंगा? क्योंकि हर असफलता से यह बात दिखाई पड़ने लगती है कि मेरा यह मैं-भाव ही मेरी सारी असफलताओं का आधार है। तो मैं जो भी करता हूं, मेरा मैं-भाव और मजबूत होता है। मैं पूजा करता हूं, तो अहंकार बढ़ता है, मैं त्याग करता हूं तो अहंकार बढ़ता है, मैं दान करता हूं तो अहंकार बढ़ता है, मैं जो भी करता हूं, मेरा कृत्य मेरे अहंकार को और सजा जाता है, और मजबूत बना जाता है, और यही अहंकार मुझे तोड़ रहा है। अहंकार यानी मैं अलग हूं। निर-अहंकार अर्थात मैं इस विराट के साथ एक हूं। जब तक एक न हो जाएं इस विराट के साथ हम, हम इसे जान न पाएंगे। हम तरसते ही रहेंगे, हम भटकते ही रहेंगे, और अहंकार बाधा है। और जो भी मैं करता हूं उससे अहंकार मजबूत होता है। विनम्रता भी साध लो, तो भी अहंकार मजबूत होता है। विनम्र आदमी का भी बड़ा गहन अहंकार हो जाता है कि मुझसे ज्यादा विनम्र और कोई भी नहीं। मुझसे ज्यादा निर-अहंकारी और कोई नहीं। यह भी अकड़ वही है पुरानी, कुछ फर्क न पड़ा। तब धन की अकड़ थी, पद की अकड़ थी, अब भी अकड़ है। अकड़ ने नये रूप ले लिए, अकड़ नये द्वार से प्रवेश कर गई। सामने के दरवाजे से दिखाई भी पड़ती थी, अब पीछे के दरवाजे से आ गई। सामने थी तो बचने का उपाय भी था, अब उसने पीछे से गर्दन पकड़ी। अब पहचान मुश्किल हो जाएगी।
इसीलिए तुम्हारे तथाकथित महात्माओं में जितना अहंकार होता है, उतना किसी और में नहीं होता। ये ऐसे ही नहीं है, अकारण नहीं है, इसके पीछे पूरा विज्ञान है। महात्मा ने बड़ी कोशिश की है। सब त्यागा, सब सुख छोड़े, सुविधा छोड़ी, सुरक्षा छोड़ी, सब तरह से अपने को कष्ट दिए, तप किया, व्रत-उपवास किए, योग किया, साधन बिठाए, सब किया, इस करने में ही अहंकार मजबूत हुआ। तुम ऐसा समझो, कर्त्ता का जहां-जहां भाव उठता है, वहां-वहां अहंकार को भोजन मिलता है; अहंकार में नया खून पड़ता है--जब यह बात दिखाई पड़ती है कि मैं बाधा हूं और मैं जो भी करता हूं उससे मैं मजबूत होता है, इसलिए अब मेरे किए कुछ भी न होगा, तब आदमी सदगुरु की खोज में निकलता है। तब हम उसे खोजें जिसके किए कुछ हो सके। हम किसी के चरणों में अपने को गिरा दें। हम कह दें कि मैं तो हार गया, अब मैं समर्पित हूं। अब मुझे तोड़ो, मुझे मिटाओ, मुझे फिर से बनाओ।
पहली बात स्मरण रखना, जो अपने मैं की यात्रा से बुरी तरह पराजित हो गया है, वही व्यक्ति सदगुरु के चरणों में जाता है।
दूसरी बात, जो व्यक्ति संसार और जीवन के अनुभव से इतना ज्यादा व्याकुल हो गया है कि अब अगर यह पूरा संसार भी उसे मिलता हो, तो वह लेने को राजी नहीं है। जिसने देख लिया है कि यहां मिल जाएं चीजें तो भी दुख है, न मिलें तो भी दुख है; जीतो तो दुख है, हारो तो दुख है; जिसे हार ही नहीं पकड़ ली है बल्कि जिसे जीत में भी हार दिखाई पड़ गई है; जिसने सब आशाएं छोड़ दी हैं, जो आशा से शून्य हो गया है, वही व्यक्ति सदगुरु के चरणों में जा सकता है।
क्यों?
क्योंकि सदगुरु के चरणों में जाना मृत्यु के चरणों में जाना है। सदगुरु तो उठाएगा तलवार और टुकड़े-टुकड़े कर देगा। टुकड़े-टुकड़े करे तो ही तुम्हारा नया जन्म हो, पुनर्जन्म हो। टुकड़े-टुकड़े करे तो ही जन्मों-जन्मों का कचरा जो तुम्हारे ऊपर इकट्ठा हो गया है, जिसे तुम समझते हो कि मैं हूं, उससे तुम्हारा छुटकारा हो। लेकिन टुकड़े-टुकड़े होने को, मरने को वही राजी हो सकता है जिसे अब जीवन में कोई आशा नहीं रही। अगर जीवन में थोड़ी भी आशा रही, तो तुम कहोगे कि अभी थोड़ी और कोशिश कर लूं; शायद अब तक नहीं हुआ है, कल हो जाए; थोड़ा और दौड़ लूं, थोड़े और उपाय बिठा लूं, कौन जाने सफलता मिल ही जाए! तो तुम भाग जाओगे, फिर तुम मरने को राजी नहीं हो सकते, फिर तुम अपने को दांव पर नहीं लगा सकते।
पुराने शास्त्र कहते हैं: आचार्यो मृत्युः। गुरु तो मृत्यु है। गुरु के पास जाना तभी संभव है, जब जीवन तुम्हें मृत्यु जैसा मालूम पड़ने लगे। जब तुम्हें ऐसा लगे, अब अपने पास गंवाने को कुछ है ही नहीं; या जो भी है सब व्यर्थ है, यह तो कोई ले ले तो अच्छा, कोई लूट ले तो अच्छा, कोई छीन ले तो अच्छा। जब तुम्हें ऐसा दिखाई पड़ने लगे कि तथाकथित जीवन मृत्यु-जैसा है, तभी तुम्हें मृत्यु जीवन जैसी मालूम पड़ेगी। इतनी बड़ी क्रांति जब घटती है, तो कोई सदगुरु के चरणों में जाता है।
ये आज के वचन सदगुरु के चरणों में पहुंच कर जो घटनाएं घटती हैं उस संबंध में हैं। महत्वपूर्ण हैं, गहरे इशारे इनमें भरे हैं। एक-एक इशारे को पकड़ना।
सिला संवारी राजनै, ताहि नवै सब कोइ।
रज्जब सिष-सिल गुरु गढ़ै, सोइ पूजि किन होइ।।
राज पत्थर से एक मूर्ति बनाता है, एक मूर्तिकार मूर्ति गढ़ता है--राम की, कृष्ण की, बुद्ध की, महावीर की--हजारों लोग उसकी पूजा करते हैं। पत्थर की मूर्ति की पूजा करते हैं। जानते हैं भलीभांति--आदमी ने गढ़ी है; जानते हैं भलीभांति--पत्थर पत्थर है; चाहे कितने ही सुंदर रूप दो, प्राण नहीं डाले जा सकते। बुद्ध की मूर्ति में कितना ही खोजो, बुद्ध को न पा सकोगे। वहां कहां बुद्ध? वहां कहां चेतना? वहां कहां समाधि? पत्थर की मूर्ति में खोजने चलोगे तो पत्थर ही पत्थर पाओगे। धोखा है।
प्रसिद्ध झेन गुरु इक्कू एक मंदिर में ठहरा। रात थी सर्द, उसे सर्दी लग रही थी, उसने बुद्ध की एक मूर्ति उठा ली--लकड़ी की मूर्ति थी--और जला कर ताप ली। जब वह आग जला कर ताप रहा था, मंदिर के पुजारी ने मंदिर में अचानक आग जली देखी तो वह जागा, भागा हुआ आया, देखा तो भरोसा नहीं आया उसे! इस आदमी को साधु समझ कर ठहर जाने दिया था, यह ऐसा दुष्कृत्य करेगा कि भगवान की मूर्ति जला देगा, इसकी तो कल्पना भी न थी! और इक्कू जाहिर साधु था, सारा देश उसे जानता था। पुजारी भौचक्का खड़ा रह गया। इक्कू ने पूछा: इतने भौचक्के क्यों खड़े हो? बैठो। आंच ताप लो, सर्दी बहुत है। उस पुजारी ने कहा: तुम पागल तो नहीं हो गए हो? भगवान की मूर्ति जला दी, महापाप किया है, इससे बड़ा पातक नहीं हो सकता। उसकी बात सुन कर इक्कू ने पास में पड़ी अपनी लकड़ी उठाई, अपना डंडा उठाया--और अब मूर्ति जो जल चुकी थी, अब राख ही राख थी--राख में डंडा घुमाने लगा, जैसे कुछ खोजता हो। पूछा उस पुजारी ने: अब क्या कर रहे हो? अब क्या खोज रहे हो? उसने कहा: मैं बुद्ध की अस्थियां खोज रहा हूं। पुजारी को भी हंसी आ गई। उसने कहा: तुम निश्चित पागल हो। तुम्हारा कोई कसूर नहीं, मेरी ही गलती हो गई जो मैंने तुम्हें भीतर ठहराया। लकड़ी की मूर्ति में कहां बुद्ध की अस्थियां? अब इक्कू के हंसने की बारी थी। वह खिलखिला कर हंसा। उसने कहा: तो फिर दो मूर्तियां और हैं मंदिर में, उनको भी ले आओ, अभी रात बहुत बाकी है। तापेंगे, गपशप करेंगे।
जो मूर्ति बुद्ध की है, उसमें बुद्ध की अस्थियां भी नहीं हैं, बुद्ध की आत्मा तो कहां! उसमें तो कुछ भी नहीं है, पत्थर ही है। लेकिन हमारी आंखें रूप से अंधी हो गई हैं। आकृति से हम इस तरह से जुड़ गए हैं कि पत्थर में भी आकृति होती है तो धोखा हो जाता है। हमने आकृतियों से इतना प्रेम किया है--कभी स्त्री से, कभी पुरुष से, कभी बेटे से, पत्नी से, पति से, मां से, बाप से, भाई से, मित्र से--हमने आकृतियों से इतना प्रेम किया है, और धीरे-धीरे हमें आकृति की ऐसी पकड़ हो गई है कि हम पत्थर की मूर्ति को भी नमस्कार करने लगते हैं। क्योंकि आकृति वहां दिखाई पड़ती है। हम भूल ही गए कि आकृति के पीछे आत्मा से प्रेम किया जाता है। हमारी भ्रांति इतनी लंबी है, सदियों पुरानी है, जन्मों-जन्मों पुरानी है, भ्रांति ऐसी गहन होकर बैठ गई है कि कोई भगवान की मूर्ति बना कर रख देता है, आकृति दिखाई पड़ती है, हम झुके! कैसी हम मूढ़ता कर रहे हैं, इसका हमें बोध भी नहीं होता! होगा भी नहीं, क्योंकि और भी हजारों झुक रहे हैं। जब इतने लोग झुक रहे हैं तो हम सोचते हैं--ठीक ही होगा, इतने लोग गलत नहीं हो सकते।
जॉर्ज बर्नार्ड शॉ से किसी आदमी ने कहा--उसने कुछ वक्तव्य दिया था; वक्तव्य ऐसा था कि कोई राजी न हो। बर्नार्ड शॉ को ऐसे वक्तव्य देने की आदत थी। जैसे उसने घोषणा कर दी कि वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है यह बात गलत है। सूरज ही पृथ्वी का चक्कर लगाता है। अब बर्नार्ड शॉ कोई वैज्ञानिक नहीं है, उसे कहने का यह कोई हक नहीं है। किसी ने जाकर कहा कि यह आप क्या कहते हैं? सारी दुनिया अब मानती है, सारे वैज्ञानिक मानते हैं, कि पृथ्वी ही सूरज का चक्कर लगाती है। इतने लोग मानते हैं तो गलत न मानते होंगे। बर्नार्ड शॉ ने कहा: इतने लोग मानते हैं, तो बात सही हो ही नहीं सकती। इतने लोग मानते हैं तो गलत ही होगी। भीड़ गलत के साथ ही इकट्ठी होती है। सत्य के साथ भीड़ इकट्ठी हो नहीं पाती। सत्य को तो विरले चुनते हैं। रही मेरे वक्तव्य की बात, तो उसने कहा--मेरे वक्तव्य का कारण है। मैं यह मान ही नहीं सकता कि मैं जिस पृथ्वी पर रहता हूं, वह पृथ्वी किसी का चक्कर लगाए। जब मैं यहां रहता हूं, जब तक मैं यहां हूं कम से कम, तब तक सूरज ही इस पृथ्वी का चक्कर लगाएगा।
वह आदमी के अहंकार की मजाक उड़ा रहा है। उसने तो व्यंग्य में यह बात कही थी, लेकिन एक बात उसने बड़ी सार्थक कही कि इतने लोग मानते हैं, तो सही नहीं हो सकता। हमारा तर्क यही है कि इतने लोग मानते हैं तो सही होगा। इसलिए सारे दुनिया के धर्म इस कोशिश में लगे रहते हैं कि उनकी संख्या कैसे बढ़ जाए। क्योंकि संख्या के बल से ऐसा लगता है, उनकी मान्यता सच हो जाएगी। तुम भी इसी कोशिश में होते हो। तुम्हें डर होता है कि अगर अपनी बात को मानने वाले तुम अकेले हो तो तुम्हें खुद ही संदेह होता है कि जरूर कुछ गलती होगी। कोई और नहीं मानता, मैं अकेला मानता हूं। अकेला मैं ही ठीक! सारी दुनिया गलत! ऐसे कैसे हो सकता है? इतने लोग गलत नहीं हो सकते।
इसीलिए हर आदमी अपने विचार से दूसरे आदमी को राजी करने की कोशिश करता है। क्यों? अगर दूसरा राजी हो जाए तो भरोसा आता है कि मेरी बात जरूर ठीक होगी, देखो दूसरे ने भी मानी। तुम्हें अपनी बात पर खुद भरोसा नहीं है, दूसरे में भरोसा पैदा हो जाए तो तुम्हें अपनी बात पर भरोसा आ जाता है। फिर भीड़ बढ़ने लगे, तो भरोसा और बढ़ने लगता है। ईसाई चाहते हैं सारी दुनिया ईसाई हो जाए, मुसलमान चाहते हैं सारी दुनिया मुसलमान हो जाए, हिंदू चाहते हैं सारी दुनिया हिंदू हो जाए। मतलब क्या है? किसी को अपनी बात पर भरोसा नहीं है। भीड़ हो तो भरोसा आए। जितनी बड़ी भीड़ हो जाए उतना भरोसा आ जाए। इतने लोग मानते हैं तो ठीक ही मानते होंगे।
तुम जरा खयाल रखना, सावधान रहना, सत्य बहुत थोड़े लोगों के पल्ले पड़ता है। क्योंकि सत्य को अपने आंचल में लेने के लिए मिटने की तैयारी चाहिए। झूठ सभी के पल्ले पड़ जाता है, क्योंकि झूठ कोई तुमसे मांग ही नहीं करता। झूठ तो कहता है, मैं मुफ्त मिलने को तैयार हूं; मैं यह रहा, तुम बस मुझे ले लो। और झूठ सब तर्क देता है कि मैं सच क्यों? सत्य कोई तर्क ही नहीं देता। सत्य तो सिर्फ घोषणा करता है। और घोषणा महंगी है। जो भी उसे लेने जाता है, जल जाता है, राख हो जाता है। राख हो जाता है, तभी ले पाता है।
तुम देखते हो रोज, आदमी मूर्ति गढ़ रहा है, फिर मूर्ति एक दिन बन कर तैयार हो गई, फिर मंदिर में उसकी स्थापना हो गई, फिर चले तुम पूजा करने! तुम्हें कभी यह भी खयाल नहीं आता आदमी की बनाई हुई मूर्ति में कहां परमात्मा होगा? कैसे परमात्मा होगा? परमात्मा शायद मिल भी जाए वहां जो परमात्मा का बनाया हुआ है--किसी वृक्ष में मिल जाए भला, किसी पक्षी में मिल जाए भला, किसी आदमी में मिल जाए, किसी स्त्री में मिल जाए, मगर पत्थर की मूर्ति जो एक राज ने बनाई है, उसमें कैसे मिलेगा? राज में मिल भी जाता, मगर मूर्ति में नहीं मिल सकता। लेकिन तुम मूर्ति की ही पूजा करते हो। लाखों लोग कर रहे हैं, और लाखों जन्मों से तुम कर रहे हो, आदत हो गई है।
आदत का निचोड़ क्या है?
निचोड़ इतना है, हम आकृति से बंध गए हैं। आकृति के भीतर आत्मा है या नहीं, इसकी भी हमें चिंता नहीं रही। आकृति पूरी हो तो बस सब ठीक हो गया। और मजा यह है कि आकृति भी कहां कोई पूरी होती है! तुमने परमात्मा देखा नहीं, कैसे तुम उसकी मूर्ति बना रहे हो? तुम्हारी सब मूर्तियां सुंदर पुरुषों की मूर्तियां हैं; जिनमें कभी-कभी परमात्मा की झलक उतरी थी। मगर खिड़की को पकड़ लिया तुमने। राम की मूर्ति खिड़की का ढांचा है। राम जब जिंदा चलते थे इस जमीन पर, थोड़े से लोगों ने उनमें देख पाया होगा परमात्मा। बहुत थोड़े से लोगों ने। कुछ थोड़े से भक्तों ने, कुछ थोड़े से शिष्यों ने, जो झुक गए होंगे समग्र रूप से। इस खिड़की में से झांका होगा, परमात्मा का अनुभव हुआ होगा, उन्होंने घोषणा की कि राम प्रभु के अवतार हैं, राम भगवान हैं। तब से तुम खिड़की की पूजा कर रहे हो। तबसे धनुर्धारी राम की मूर्ति बना ली। यह खिड़की है। बांसुरी बजाते हुए कृष्ण की मूर्ति खिड़की है। समाधि में बैठे बुद्ध की मूर्ति खिड़की है। और कई बार ऐसा होता है कि बुद्ध सामने खड़े हों तो तुम न पहचानोगे और बुद्ध की मूर्ति रखी हो, तुम जल्दी झुक जाओगे, तत्क्षण झुक जाओगे।
कुछ और भी मनुष्य के मन की बात समझ लेनी जरूरी है।
मुर्दा चीज के सामने झुकने में कोई अड़चन नहीं होती। अहंकार को चोट नहीं लगती। जीवित व्यक्ति के सामने झुकने में अहंकार को चोट लगती है। अपने ही जैसे व्यक्ति के सामने झुकना! आखिर बुद्ध होंगे भगवान, हैं तो हमारे जैसे--हड्डी-मांस-मज्जा! हमारी जैसी देह, हमारी जैसी भूख लगती, प्यास लगती, रात थकते और सोते। बच्चे थे, जवान हुए, बूढ़े हुए, मरे--हमारे जैसे। बीमार भी होते थे। बुद्ध के साथ एक वैद्य हमेशा चलता था। वैद्य का नाम जीवक था। वह बुद्ध की देह की चिंता करता था। तुम अगर बुद्ध को देखने जाते और तुम जीवक को देखते, तुम कहते--यह कैसे भगवान? इनको भी बीमारी होती है! भगवान को कैसी बीमारी? यह भी थक जाते हैं! यह भी बूढ़े होने लगे! इनके भी हाथ-पैर कांपने लगे! यह तो फिर हम जैसे ही मनुष्य हैं।
हां, तुम्हारी पत्थर की मूर्ति में एक खूबी है--बीमार नहीं होती, भूख नहीं लगती, प्यास नहीं लगती; मूर्ति थकती नहीं, बैठी है सो बैठी है; दिन आ जाए, रात आ जाए, बैठी ही रहती है! हिंदू दया करके उसको लिटा कर सुला देते हैं। कि अब महाराज, सोओ! तुम्हारे बैठे-बैठे हम थके जा रहे हैं! अब आप विश्राम करो! झूले पर लिटा देते हैं, रजाई ओढ़ा देते हैं सर्दी हो तो, पट बंद कर देते हैं कि अब झंझट छूटे, नहीं तो यह बैठे ही हैं, यह अपनी बांसुरी बजाए ही चले जा रहे हैं! आखिर हमें घर भी जाना है, और भी हजार काम हैं, कोई यही काम थोड़े ही है! तो रात को पट इत्यादि बंद करके ताला इत्यादि लगा कर भगवान को लिटा कर वह अपने काम में गए। सुबह फिर मंदिर खुलेगा, फिर उनको उठाएंगे, दतौन करवा देंगे, हाथ-मुंह धुला देंगे, नहला देंगे, स्नान करवा के फिर बैठा देंगे।
एक बात तुमने देखी, पत्थर की मूर्ति में तुम्हें एक बात साफ हो जाती है--तुम जैसी नहीं है। जीवित आदमी तो तुम जैसा होता है। तुम जैसा और तुम जैसा नहीं। लेकिन वह जो दूसरा हिस्सा है, वह तो शिष्य को दिखाई पड़ता है। तुम जैसा सभी को दिखाई पड़ता है।
बुद्ध जब बुद्ध होकर अपने घर वापस लौटे तो बुद्ध के बाप को भी दिखाई नहीं पड़ा कि वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए हैं। कैसे दिखाई पड़े? अक्सर ऐसा हो जाता है, जिनसे हमारे बहुत लगाव हैं, आसक्तियां हैं, जिनको हमने सदा से जाना है, उनमें तो दिखाई पड़ना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। बुद्ध के बाप को कैसे दिखाई पड़े? जानते हैं सदा से इस छोकरे को! उनके ही घर में पैदा हुआ, उनसे ही पैदा हुआ, बचपन से जानते हैं। बुद्ध द्वार पर आकर खड़े हैं और बाप नाराज है। और बाप अपने गुस्से में बके जा रहे हैं--जैसे सब बाप बकते हैं। बाप यानी जो बके! वह बक रहे हैं, एकदम गुस्से में हैं कि तूने धोखा दिया, तूने गद्दारी की, मैं बूढ़ा हो गया हूं और मुझे छोड़ कर भाग गया, यह कोई बात है? एक ही तू मेरा बेटा है, इकलौता है, यह सारा राज्य तेरे लिए है, तेरे ही साथ मेरी सारी आशा जुड़ी है, मैं तुझे माफ कर दूंगा, तू अब भी लौट आ, अभी भी क्षमा मांग ले, मेरे पास बाप का दिल है, मैं तुझे प्रेम करता हूं, तेरी सब भूल-चूक माफ कर दूंगा, चल तू आ गया है, ठीक, घर लौट आया है, ठीक, यह क्या भिक्षापात्र इत्यादि लिए खड़ा है! हमारे परिवार में कभी किसी ने भिक्षा नहीं मांगी, हम सदा-सदा से सम्राट होते रहे हैं। क्यों हमारी बेइज्जती करवा रहा है? तू इस गांव में भीख मांगेगा! यह तेरी राजधानी है, यहां गांव के गरीब-गुरबे तुझे भीख देंगे!--जो हमसे पलते हैं। थोड़ी शर्म खा, थोड़ी हमारी प्रतिष्ठा का खयाल कर, थोड़ा मेरे बुढ़ापे की तरफ देख! बुद्धत्व दिखाई नहीं पड़ रहा, बेटा दिखाई पड़ रहा है। बाप नाराज है।
बुद्ध ने पता है क्या कहा? सब सुना और जब बाप थोड़े थक गए, तब बुद्ध ने कहा कि एक बार गौर से मुझे तो देखें! जो आपका घर छोड़ कर गया था, वही मैं वापस नहीं लौटा हूं। तब से गंगा का बहुत पानी बह गया। मैं कोई और ही होकर लौटा हूं। मैं आपसे कुछ मांगने नहीं आया हूं, कुछ देने आया हूं; ऋण चुकाने आया हूं। मुझे कोई संपदा मिल गई है। आपका साम्राज्य ठीक, मुझे कोई और बड़ा साम्राज्य मिल गया है, मैं उसमें आपको भागीदार बनाने आया हूं। लेकिन बाप तो बाप! बाप ने कहा: छोड़, मैं तुझे सदा से जानता हूं! क्या मैं तुझे पहचानता नहीं? तू किसी और को कहना कि तू दूसरा होकर आया है, तू वही है। मेरा बेटा।
तुम समझते हो, कठिनाई क्या हो रही है?
कठिनाई यह हो रही है--बाप सिर्फ आकृति को देख रहे हैं। भीतर जो घटना घट गई है, जो नया आकाश खुला है, जो प्राण ने नया निखार लिया है, जो भीतर नया नाच उठा है, ऊर्जा का, जो नया स्वरनाद उठ रहा है, जो भीतर ओंकार का जन्म हुआ है, यह जो भीतर आज परमात्मा विराजमान हुआ है--यह मंदिर अब खाली नहीं है, इस मंदिर का भगवान आ गया है--लेकिन इसको देखने के लिए तो शिष्यत्व चाहिए। देखा, बाप ने भी देखा, धीरे-धीरे झुके, धीरे-धीरे समझे, देखा, लेकिन पहले तो इतना ही दिखाई पड़ा कि यह मेरा बेटा वापस लौट आया। मेरा बेटा--इतना ही दिखाई पड़ा।
जिंदा आदमी के सामने झुकने में अड़चन है। पहली अड़चन, तुम्हारे ही जैसा। तुमसे भिन्न कहां? इसलिए सारे दुनिया के धर्म अपने शास्त्रों में अपने सदगुरुओं को भिन्न बताने की कोशिश में एक-दूसरे से बिलकुल होड़ करते हैं। ईसाई कहते हैं कि जीसस का जन्म कुंआरी कन्या से हुआ। अब यह मूढ़ता की बात है। निपट मूढ़ता की बात। मगर इसके पीछे कारण क्या है? कारण यही है कि सिद्ध करना चाहते हैं कि तुम्हारे कृष्ण, तुम्हारे बुद्ध, तुम्हारे महावीर कुछ खास नहीं! खास हैं जीसस, देखो कुंआरी कन्या से जन्म हुआ! हुआ कृष्ण का कुंआरी कन्या से जन्म? जैसे और आदमी जन्मते हैं, ऐसे ही कृष्ण जन्मे। अब बड़ा मुश्किल है, हिंदू एकदम अपनी कहानी बदल भी नहीं सकते! कृष्ण के संबंध में कहानी वे पहले ही लिख चुके। जीसस की कहानी नई है। महावीर की कहानी लिखी जा चुकी थी। अब बदलाहट की नहीं जा सकती। मगर उनने भी अपनी-अपनी जी-तोड़ कोशिश की है। यह बात उनको खयाल में नहीं आई थी। उनको दूसरी बातें खयाल में आई थीं। उनसे तुम पूछो तो वे अपनी दूसरी बातें बताते हैं।
जैन कहते हैं कि महावीर को सर्प ने काटा तो उनके शरीर से खून की जगह दूध बहा। जब जीसस को सूली लगी थी तो खून बहा था। आदमी जैसे आदमी! क्या खूबी! खूबी थी महावीर को, काटा सांप ने, दूध बहा! पागलपन की बात है। अगर शरीर में दूध भरा हो तो कभी का दही बन जाए। कोई सांप के काटने तक रुका रहता! कभी के सड़ गए होते महावीर। दही ही दही की बास आने लगती। भक्त भी दूर-दूर बैठते।
शरीर से कहीं दूध निकलते हैं? लेकिन विशिष्टता बतानी है। आदमी के मन की कमजोरी।
बुद्ध भी बौद्धों के हाथ में पड़ गए तो उन्होंने भी छोड़ा नहीं, उन्होंने भी कहानियां गढ़ लीं; विशिष्टता सिद्ध करनी ही होगी। बौद्धों ने लिखा है कि बुद्ध का जन्म हुआ, खड़े-खड़े मां के पेट से पैदा हुए। खड़े-खड़े! और एकदम--पैदा ही हुए खड़े-खड़े, इतना ही नहीं--सात कदम चले भी। और सात कदम चल कर अपने बुद्धत्व की धोषणा की। पागलपन की बातें हैं!
लेकिन ये कहानियां गढ़नी पड़ीं। ये कहानियां इसलिए गढ़नी पड़ीं ताकि तुम्हें यह बात समझ में आ जाए कि तुम्हारे जैसे नहीं हैं, तुमसे भिन्न हैं। तुमसे बिलकुल अनूठे हैं।
मोहम्मद अपने घोड़े पर चढ़े-चढ़े सीधे स्वर्ग चले गए। कम से कम घोड़ा तो छोड़ जाते! घोड़ा भी ले गए। कुछ न कुछ हमें बनाना पड़ेगा।
लेकिन जब आदमी जिंदा होता है, तब ये बातें नहीं बना सकते तुम। क्योंकि जिंदा आदमी तुम्हारी इन सारी कहानियों को खंडित कर देगा। अगर बुद्ध होते तो खुद ही हंसते, वे कहते--यह क्या पागलपन है? अगर जीसस होते तो खुद ही हंसते। अगर महावीर होते तो ये खुद ही हंसते--जैसा मैं हंस रहा हूं ऐसे ही महावीर हंसते, वे खुद ही कहते--मैं दही हो जाता।... यह मैं महावीर से पूछ कर ही कह रहा हूं। यही उन्होंने कहा होता।
लेकिन जब एक सदगुरु विदा हो जाता है, तो शिष्यों के हाथ में तूलिका होती है, फिर वे रंग देते हैं। फिर मूर्ति को गढ़ते हैं सब तरह से, ऐसा बनाते हैं कि वह भिन्न दिखाई पड़ने लगे, पृथक दिखाई पड़ने लगे, सामान्य न रह जाए, अद्वितीय हो जाए। भेद जितना हो जाए तुम में और मूर्ति में, उतना ही शुभ है, तुम्हें झुकने में उतनी ही आसानी हो जाती है। फिर, मुर्दा गुरु के सामने झुकने में बड़ा रस होता है क्योंकि मुर्दा गुरु तुम्हारा कुछ कर नहीं सकता। जिंदा गुरु तुम्हें मार डालेगा। मुर्दा गुरु तुम्हें क्या मारेगा! मुर्दा गुरु के तो मालिक तुम हो, जिंदा गुरु तुम्हारा मालिक हो जाएगा। जिंदा गुरु के सामने झुकना उसके हाथों में अपनी गर्दन देना है। मुर्दा गुरु के सामने झुकने में कुछ अड़चन नहीं है। मुर्दा गुरु तुम्हारे हाथ में है। जब सुलाओ, सोएगा; जब उठाओ, उठेगा; जब बिठाओ, बैठेगा; तुम जो करवाओगे वैसा करेगा। मुर्दा गुरु तुम्हारे पीछे चलेगा, जिंदा गुरु के पीछे तुम्हें चलना होगा। वहां अड़चन है। वहां कठिनाई है। इसीलिए लोग मूर्ति की पूजा करते हैं, अतीत की पूजा करते हैं, मुर्दों की पूजा करते हैं। जीवित सामने खड़ा रहे, तो निंदा करते हैं, विरोध करते हैं, इनकार करते हैं। जिंदा को नहीं मान सकते।
सिला संवारी राजनै, ताहि नवै सब कोइ।
रज्जब कह रहे हैं: यह मजा देखो! किसी मूर्तिकार ने मूर्ति बना दी है और सब उसके सामने झुक रहे हैं।
रज्जब सिष-सिल गुरु गढ़ै,...
और गुरु शिष्य को गढ़ता है, शिष्य की शिला को गढ़ता है; तोड़ता है, काटता है, नया रूप देता है--नई आत्मा!
...सोइ पूजि किन होइ।
मुश्किल से कोई इसको पूजने वाला मिलता है। मुश्किल से! देखने वाला मिलता है, पूजने वाले की तो बात ही छोड़ो! पहचानने वाला मुश्किल से मिलता है। तुमने अपने मन की यह वृत्ति देखी? अगर कोई किसी की निंदा करता हो तो तुम तत्क्षण स्वीकार कर लेते हो बिना विवाद के। निरीक्षण करना! कोई आकर कहता है कि फलां आदमी बड़ा बेईमान है, तो तुम यह नहीं कहते कि भई, पहले प्रमाण दो तब मानूंगा। कोई कहता है कि फलां आदमी बड़ा जालसाज है, चोर, लुच्चा; तुम बिलकुल मान लेते हो--तुम एकदम ऐसा सत्संग करने लगते हो इस आदमी का, एकदम कान ही कान हो जाते हो; तुम कहते हो, क्या बात कही! कुछ और सुनाओ! यह तो मुझे पता ही था कि यह आदमी ऐसा है, आज तुमने बिलकुल सिद्ध कर दिया। तुम प्रमाण नहीं मांगते। और तुम यही बात दूसरे से कहोगे, थोड़ा और मिर्च-मसाला मिलाओगे। लेकिन अगर कोई किसी की प्रशंसा करता हो, कोई आकर कहे कि फलां आदमी बड़ा साधु है; बड़ा सच्चरित्र; ध्यानी, प्रभु का प्यारा, तुम कहोगे--छोड़ो बकवास, देख लिए बहुत प्रभु के प्यारे, सब धोखाधड़ी है! सब पाखंड है! कहां के साधु? कहां की बातें कर रहे हो, सतयुग में होते थे साधु, अब यह कलियुग चल रहा है! यह पंचमकाल चल रहा है, अब कहां साधु! भ्रांति में मत पड़ो, सावधान रहना; सब छिपे लुटेरे हैं, जरा नींद लग गई, जेब कट जाएगी। तुम लाख प्रमाण पूछोगे कि प्रमाण क्या है?
और कठिनाई यह है कि साधुता के लिए क्या प्रमाण हो सकता है? कठिनाई यह है कि भीतर किसी के परमात्मा की छवि उतरी, इसका क्या प्रमाण हो सकता है? कोई प्रमाण नहीं हो सकता है और तुम प्रमाण पूछते हो। फिर प्रमाण दिया नहीं जा सकता, तो तुम हंसते हो, तुम कहते हो--हम पहले ही कहते थे!
अपने मन के इस खेल को समझना--निंदा तुम स्वीकार कर लेते हो, प्रशंसा तुम स्वीकार नहीं करते। क्यों? क्योंकि जब भी किसी की निंदा होती है, तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। तुम कहते हो, इससे तो हम ही भले! सारी दुनिया गंदी है। इसकी तुम जो घोषणा करते हो, उसका यह मतलब नहीं होता कि सारी दुनिया की गंदगी से तुम्हें कोई एतराज है, तुम यही कह रहे हो कि मेरे सिवाय यहां सब गड़बड़ है। इसलिए तुम रोज जल्दी से सुबह उठ कर अखबार पढ़ते हो। और जिस अखबार में जितनी ज्यादा हत्याओं की, चोरियों की, बेईमानियों की खबरें हों, उसको उतने ही रसविमुग्ध होकर पढ़ते हो। अखबार पढ़ कर तुम निश्चिंत हो जाते हो, चित्त हलका हो जाता है। तुम कहते हो, इनसे तो हम ही बेहतर! इससे तो हम ही ज्यादा सच्चरित्र! इतना बुरा तो हमने भी नहीं किया।
लेकिन अगर कोई किसी की प्रशंसा करता हो तो तुम्हारे मन में चोट पड़ती है। तो हमसे भी कोई बेहतर है इस दुनिया में! अहंकार को अड़चन आती है। तुम स्वीकार नहीं करना चाहते। तुम्हारे मन में सहज भाव अस्वीकार का उठता है।
रज्जब कह रहे हैं कि बड़ी अजीब बात है, कोई राज पत्थर की मूर्ति बना देता है, लोग पूजने चल पड़ते हैं; और कोई गुरु जीवंत परमात्मा को उतार देता है शिष्यों में, तो भी पूजा करने वाला मुश्किल है। पूजा करने वाला दूर, स्वीकार करने वाला मुश्किल, अंगीकार करने वाला मुश्किल। स्वीकार-अंगीकार करने वाला दूर, जो विपरीत न हो जाए, विरोध में न हो जाए, ऐसा आदमी मुश्किल। जो मिटाने को तैयार न हो जाए, ऐसा आदमी मुश्किल। कोई मानने को राजी नहीं होता कि तुम ध्यान को उपलब्ध हो गए। कोई मानने को राजी नहीं होता कि तुम प्रार्थना को उपलब्ध हो गए, कि तुम्हें समाधि उपलब्ध हुई।
गुरु ज्ञाता परजापती, सेवक माटी रूप।
शिष्य तो मिट्टी की तरह आता है गुरु के पास। तोड़ता गुरु, निर्माण करता, परमात्मा को आवाहन करता, स्थिति बनाता, परमात्मा को पुकारता, शिष्य की क्यारी को तैयार करता है, बीज बोता है, आकाश से बादलों को पुकारता है, सूरज को पुकारता है, सारे अस्तित्व को निमंत्रण देता है कि क्यारी तैयार हो गई है, बीज भी डाले जा चुके हैं, आओ मेघ, बरसो; आओ सूरज, फेंको अपनी किरणें! इधर शिष्य को तैयार करता है, उधर परमात्मा को आमंत्रित करता है। गुरु के यही दो काम हैं। इस तरफ शिष्य की तैयारी कि वह पात्र बन जाए और उधर परमात्मा को पुकार, कि जब शिष्य पात्र बन कर तैयार हो तो परमात्मा उसमें बरसे और परमात्मा उसमें भर जाए। पत्थरों की मूर्तियों में नहीं परमात्मा उतरता है। मृण्मय में परमात्मा नहीं उतरता, चिन्मय में परमात्मा उतरता है।
किसी में तेरे खदो-खाल का जमाल न था
बना बना के मिटाता रहा हूं तस्वीरें
तुम बनाते रहो तस्वीरें, तुम्हारी सब तस्वीरें तुम्हें गलत मालूम पड़ेंगी, क्योंकि किसी में भी उसका नक्श न उतरेगा, उसका रूप न उतरेगा, उसका सौंदर्य न उतरेगा।
किसी में तेरे खदो-खाल का जमाल न था
किसी में वह सौंदर्य नहीं है।
बना बना के मिटाता रहा हूं तस्वीरें
कितनी मूर्तियां आदमी ने परमात्मा की गढ़ी हैं, मिटाई हैं, फिर बनाई हैं? कितने चित्र रंगे हैं, फिर रंग भरे, फिर रंग भरे, सदियों से आदमी यही करता रहा।
गुरु कुछ और प्रक्रिया करता है। शिष्य को सिर्फ भूमिका बनाता है। शिष्य की मिट्टी से सिर्फ घड़ा तैयार करता है। परमात्मा भर जाता है, जब भी तुम्हारी पात्रता पूरी होती है। तत्क्षण घटना घट जाती है, एक क्षण का भी व्यवधान नहीं होता है।
गुरु ज्ञाता परजापती,...
इसलिए रज्जब कहते हैं कि गुरु न केवल ज्ञाता है, जानने वाला है, प्रजापति भी है, निर्माता भी है।
...सेवक माटी रूप।
रज्जब रज सूं फेरकै, घरिले कुंभ अनूप।।
मिट्टी को फेर-फेर कर, मिट्टी को निर्मित कर-कर के उस अदभुत कुंभ को बना लेता है, उस अदभुत घड़े को बना लेता है--‘घरिले कुंभ अनूप’--जिसमें निराकार उतर आता है, अरूप उतर आता है, उस अद्वितीय घड़े को भर लेता है। कुंभ का अर्थ यही होता है। जिस दिन शिष्य का घड़ा तैयार हो गया, जिस दिन शिष्य की पात्रता तैयार हो गई, जिस दिन शिष्य कुंभ हो गया, अब अपनी तरफ से कोई कमी न रही, अब सिर्फ उसकी प्रतीक्षा है, अपनी तरफ से कोई अड़चन-अटकाव नहीं है, अपनी तरफ से सब बाधाएं हटा दी हैं। कुंभ भीतर के पात्र का निर्माण है।
ज्यूं धोबी की धमस सहि, ऊजल होइ कुचीर।
और जैसे धोबी पीटता है कपड़ों को और गंदे कपड़े स्वच्छ होने लगते हैं--
त्यूं सिष तालिब निरमला, मार सहे गुरु पीर।
जो गुरु की मार सहने को तैयार हो जाता है, वही निर्मल हो पाता है। वही खोजी कुंभ बन पाता है।
त्यूं सिष तालिब निरमला, मार सहे गुरु पीर।
बड़ी तैयारी चाहिए, बड़ा साहस चाहिए, जोखिम उठाने की कूबत चाहिए। जोखम भारी है! कौन जाने कुंभ बनेगा कि नहीं बनेगा? बना-बनाया मिट जाए, हाथ की आधी रोटी छूट जाए और पूरी रोटी न मिले, क्या पता? दुनिया भी समझदारी कहती है--हाथ की आधी रोटी भी दूर की पूरी रोटी के लिए मत छोड़ना। हाथ की आधी भली।
लेकिन गुरु के पास जाकर तो गणित पूरा उलटना पड़ता है। वहां दूसरे गणित लागू होते हैं। अगर वहां पूरा-पूरा छोड़ोगे, तो ही पूरा-पूरा फिर पाने के हकदार बनोगे। वहां जरा सी कंजूसी की, उतनी ही कमी रह जाएगी। उतना ही घड़े में छेद रह जाएगा। निन्यानबे प्रतिशत गुरु के साथ रहे और एक प्रतिशत साथ न रहे, उतना ही छेद रह जाएगा। उतना ही छेद काफी है--घड़े में कोई हजार छेद थोड़े ही जरूरी हैं उसे खाली रखने को! एक छेद भी काफी है। नाव में हजार छेद थोड़े ही चाहिए डुबाने के लिए, एक छेद भी काफी है। अछिद्र होना पड़ेगा। सौ प्रतिशत गुरु के साथ होना पड़ेगा।
सौ प्रतिशत साथ होना कठिन मामला है। दुर्गम है। सौ प्रतिशत साथ वे ही हो सकते हैं, जो अपने अहंकार को पूरा झुकाने को राजी हों। अहंकार कहेगा--थोड़ा सम्हाल कर चलो, थोड़ा बचा कर चलो, थोड़े दूर-दूर रहो, अड़चन ज्यादा आ जाए तो निकल भागने का अवसर रहे, एकदम पास मत चले जाओ कि निकल न सको बाहर... यहां मैं जानता हूं ऐसे लोग भी संन्यस्त हो जाते हैं जो फासला रखते हैं, जो दूरी-दूरी रखते हैं, जो होशियारी से संन्यासी हैं, जो कहते हैं कुछ होता हो तो देख लें, कुछ न होता हो तो निकल भागेंगे; हमेशा वहां खड़े रहते हैं परिधि पर, केंद्र तक नहीं आते, क्योंकि केंद्र पर आ जाएंगे तो फिर नहीं भाग सकेंगे।
यहां कभी हो जाता है, ऐसा होता है, जिनको जाना है, या सोच कर आए हैं कि पता नहीं सत्संग जमे न जमे, वे दूर बैठ जाते हैं, किनारे पर बैठ जाते हैं, क्योंकि वहां से निकलने में सुविधा रहेगी। अगर जाना हो बीच सत्संग से उठ कर तो किनारे से निकल जाने में आसानी रहेगी। ऐसे ही लोग किनारे पर खड़े रहते हैं, इस खयाल में कि क्या पता? दोनों नाव पर पैर रखते हैं। एक पैर गुरु के हाथ में रख देते हैं, एक पैर अपना पुराना संसार में जमाए खड़े रहते हैं, कि अगर कहीं गड़बड़ हो जाए तो ऐसा न हो कि न घर के रहे न घाट के! कहीं ऐसा न हो कि दोनों गए, माया मिली न राम। राम मिलते हों तो ठीक, न मिलते हों तो कम से कम माया बची रहे।
इतनी होशियारी से जो गुरु के पास आएगा, वह नहीं आ पाएगा। होशियार और गुरु का संबंध नहीं बनता। चतुर चूक जाते हैं। गुरु से संबंध उनका बनता है, जो सरल हैं, भोले-भाले हैं। जो कहते हैं, बहुत से बहुत यही होगा न कि मिटेंगे, ऐसे रह कर भी क्या पाया है? चलो, अच्छे हाथों से मिटे, यह भी कोई कम सौभाग्य नहीं! ऐसे प्यारे हाथों से मिटे, यह भी कुछ कम सौभाग्य नहीं! मिटना तो था ही, मरना तो था ही, यमदूत आते, उनके हाथ से मिटते, सदगुरु के हाथ से मिट गए, यह अच्छा! कम से कम मरने में एक प्रसाद तो होगा, एक सौंदर्य तो होगा! कम से कम परमात्मा को खोजने की राह पर मिटे, यह तो आनंद होगा। धन को खोजते-खोजते भी मिटते हैं लोग, हम परमात्मा को खोजते-खोजते मिटे। अगर कहीं भी कोई परमात्मा है, अगर कहीं भी कोई संभावना है, तो यह भी क्या कम है कि हम उसे खोजते थे। यह भी क्या कम सौभाग्य है!
बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।
शिष्य तो रात-दिन गुरु के साथ हो जाता है। रात-दिन विरह में जीने लगता है। और गुरु सिखाएगा क्या? गुरु उसके मिलन की बातें करेगा, ताकि तुम्हारे भीतर विरह पैदा हो। इस कीमिया को समझ लेना।
मुझसे लोग पूछते हैं कि आप परमात्मा के मिलन की, मोक्ष की, निर्वाण की ऐसी बात करते हैं, इतनी बात करते हैं, क्यों? सिर्फ विधि की बात करें कि उस तक हम कैसे पहुंचे। पहुंचेंगे तब हम देख लेंगे कि क्या होगा? यह विधि ही है। तुम्हें पता भी नहीं चल रहा है। यह परमात्मा के मिलन की, निर्वाण की, मुक्ति की, यह जो रस की बात कर रहा हूं, यह तुम्हारे भीतर विरह जगे, इसलिए। मिलन में जब रस जगेगा, तो ही तो विरह में अग्नि पैदा होगी। जब तुम दीवाने होने लगोगे उसे पाने को, जितने तुम दीवाने होने लगोगे उतने ही तुम्हारे भीतर दिन-रात एक सतत अंतर-धारा बहने लगेगी, आंसू बहने लगेंगे।
बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।
खूब उसकी तस्वीर खींचता हूं, जानते हुए कि उसकी कोई तस्वीर नहीं बन सकती; खूब उसके रूप-रंग और सौंदर्य और आनंद का वर्णन करता हूं, जानते हुए कि कोई भी शब्द उसके साथ न्याय नहीं कर सकते, पर इसी कारण करता हूं--तुम्हारे भीतर उसके दीदार का भाव पैदा हो; तुम्हारे भीतर यह महत्वाकांक्षा पैदा हो, यह अभीप्सा जगे कि देखना है, कि सब भी दांव पर लगता हो तो भी देखना है; कि परमात्मा को बिना देखे इस संसार से नहीं जाना है; ये आंखें उसे देख कर ही बंद होंगी, ऐसी उत्कंठा जगे।
कुछ मोहब्बत के गम, कुछ जमाने के गम
यूं भी नाशाद हम, यूं भी नाशाद हम
जिंदगी का सफर है कि वादा तेरा
जिस जगह से उठे थे वहीं हैं कदम
कौन जाने मुलाकात फिर हो न हो
आज ही क्यों न खोलें फरेबे-करम
दिल की दूरी तो है खेल तकदीर का
फासले क्या नजर के भी होंगे न कम
चलो दूरी रहे परमात्मा से, अनंत दूरी रहे तो रहे, कम से कम नजर में तो परमात्मा आ जाए। रात दूर के तारे भी देख कर एक रसधार बह जाती है। तारों को कुछ हाथ में ही लेना तो जरूरी नहीं है।
दिल की दूरी तो है खेल तकदीर का
फासले क्या नजर के भी होंगे न कम
दीदार का अर्थ होता है: कम से कम नजर का फासला तो उठे, कम से कम नजर से नजर तो मिले। अनंत रहा आए फासला कोई बात नहीं, एक बार यह भरोसा तो आ जाए, यह अनुभव तो आ जाए कि परमात्मा है। परमात्मा शब्द ही न रह जाए, कहीं छोटी सी किरण कौंध जाए, अनुभव बन जाए।
आप दिल के करीब हैं फिर भी
आंख दीदार को तरसती है
याद गुजरे हुए जमाने की
एक नागिन है दिल को डसती है

आप दिल के करीब हैं फिर भी
आंख दीदार को तरसती है
और परमात्मा पास है, पास से भी पास, तुम भी अपने इतने पास नहीं हो जितना परमात्मा तुम्हारे पास है, लेकिन फिर भी आंख दीदार को तरसती है। देखना चाहते हैं, पहचानना चाहते हैं, छूना चाहते हैं, उसकी सुगंध लेना चाहते हैं, उसका स्वाद लेना चाहते हैं। यह स्वाद कैसे जगेगा? यह स्वाद की अभीप्सा कैसे पैदा होगी?
सत्संग का एक ही प्रयोजन है, जिसने पा लिया है उसे, वह कुछ-कुछ उसकी कहानी तुमसे कहे, उसका गुणगान करे; उसको पाकर जो उसे मिल गया और जो खोया है वह तुमसे कहे कि व्यर्थ खोया है, सार्थक पाया है, अपना दिल तुम्हारे सामने खोल कर रखे। मगर दिल तो उन्हीं के सामने खोल कर रखे जा सकते हैं जो झुक गए हों। शिष्य के अतिरिक्त सत्संग नहीं हो सकता। सुनने वालों से सत्संग नहीं होता, सत्संग कोई मनोरंजन नहीं है, सत्संग कोई सभा नहीं है, कोई व्याख्यान इत्यादि नहीं है, सत्संग तो जो खोज रहा है उसके बीच और जिसे मिल गया है उसके बीच एक नृत्य है ऊर्जा का। एक अंतर-मिलन है, एक भांति का अंतर-संभोग है--आत्मा से आत्मा का, अस्तित्व से अस्तित्व का।
बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।
जन रज्जब जलती रहै, जाग्या बिरह अपार।।
सत्संग में विरह जगना शुरू होता है। आग जलती है फिर, ऐसी आग जो फिर बुझाए नहीं बुझती, ऐसी आग फिर जिसे कोई और जल नहीं बुझा सकता जब तक कि परमात्मा का जल ही न बरसे। तो सदगुरु पर नाराजगी भी होती है। शिष्य क्रुद्ध भी होता है। कई बार लगता है, पहले ही अच्छे थे, चल तो रहे थे, अपनी जिंदगी एक ढांचे में बंधी जाती थी, न ज्यादा होश था, न ज्यादा फिकर थी, सब ठीक-ठाक था, औरों जैसे ही थे, यह नई अभीप्सा जगा दी, यह नई आग पैदा कर दी। और एक ऐसी प्यास जिसको बुझाने का इस संसार में कोई उपाय नहीं, कोई सरोवर नहीं जो इस प्यास को बुझा दे। सत्संग में तुम्हें याद दिलाई जाती है कि तुम हंस हो और मानसरोवर चलना है। उड़ चल हंसा वा देश! तुम मजे से रहने लगे थे बगुलों के साथ, भूल ही गए थे अपना हंस होना, सोचते थे मैं भी बगुला हूं, बगुलों के साथ बगुला भगत होकर खड़े हो गए थे, पूजा भी कर लेते थे, प्रार्थना भी कर लेते थे, मंदिर-मस्जिद भी हो आते थे, गुरुद्वारा भी हो आते थे, सब कर लेते थे, मगर थे बगुला भगत! ऊपर-ऊपर सब था, भीतर आकांक्षा मछली को पकड़ने की थी। ऊंची-ऊंची उड़ानें भी भरते थे, लेकिन नजर नीचे ही लगी रहती थी।
रामकृष्ण कहते थे, चील बड़ी ऊंची उड़ती है, मगर नजर नीचे लगी रहती है; कहीं कूड़ा-करकट के ढेर पर कोई चूहा मरा पड़ा हो, नजर वहां लगी रहती है। बड़ी ऊंची उड़ती है और नजर बड़ी नीची लगी रहती है। लोग मंदिरों में बैठे होते हैं, नजर दुकानों पर लगी होती है। हाथ में माला जपते रहते हैं, भीतर राम का कोई पता ही नहीं होता, सब तरह की कामनाएं उठती रहती हैं।
सत्संग का अर्थ है, तुम्हें झकझोर कर जगा देना कि तुम क्या कर रहे हो? यह तुम्हारे योग्य नहीं। तुम मानसरोवर के लिए बने हो। तुम हंस हो। मगर तब अड़चन शुरू होती है। अड़चन यह शुरू होती है, अगर हम हंस हैं, मानसरोवर कहां है? मानसरोवर तो बहुत दूर, लंबी यात्रा है, दुर्गम यात्रा है, पहुंच पाओ न पहुंच पाओ। मानसरोवर की प्यास जग गई, अब यह ताल-तलैयों के पास रस नहीं आता, हंसों की जमघट में बैठने का खयाल आ गया, अब ये बगुले जंचते नहीं, अब बड़ी मुश्किल हो गई। अब बड़ी फांसी लग गई। शिष्य की यही फांसी है। जीसस ने कहा है, जो अपनी सूली को अपने कंधे पर लेकर चलेंगे, वे ही पहुंच पाएंगे। इसी फांसी की चर्चा की है, इसी सूली की चर्चा की है।
जन रज्जब जलती रहै, जाग्या बिरह अपार।
ऐसा विरह जगता है जिसका कोई पार नहीं है। अपार को पाने चले तो अपार विरह से कीमत चुकानी पड़ती है।
तेरी उल्फत की चिंगारी ने जालिम! इक जहां फूंका
इधर चमकी, उधर सुलगी, यहां फूंका वहां फूंका
सब तरफ आग जल जाती है। फिर यहां कोई वसंत मालूम नहीं पड़ता, सब पतझड़ ही पतझड़ हो जाता है।
देखा तो खुशी के फूल खिले, सोचा तो गमों की धूल उड़ी
कहते हैं बहारां लोग जिसे, वह एक साया पतझड़ का है
जब समझ आनी शुरू होती है, जब गुरु की वाणी उतरनी शुरू होती है, जब गुरु वाणी के अर्थ भीतर खुलने शुरू होते हैं, जब उन शब्दों की बूंदें भीतर धीरे-धीरे, धीरे-धीरे हृदय तक पहुंचने लगती हैं, तो पता चलता है--यहां वसंत जिसको समझा था, वह पतझड़ का अंग था। वह केवल पतझड़ का ही एक ढंग था। उसके बिना पतझड़ नहीं हो सकता था, इसलिए था। वसंत भी इसीलिए था ताकि पतझड़ हो सके। यहां जिंदगी मरने का एक ढंग है। यहां जिंदगी एक लंबा मरण है, एक लंबी मौत का सिलसिला, धीमे-धीमे मरते जाना, रोज-रोज मरते जाना। यहां प्रेम प्रेम का धोखा है। यहां प्रकाश बस बाहर-बाहर है और भीतर गहन अंधेरा है। यहां की सब रोशनी दो कौड़ी की है।
बिरहिण बिहरे रैनदिन,...
जब यह समझ में आए, तो फिर न दिन है न रात है, फिर तो विरह ही विरह है। बड़ी कठिनाई होती है विरह के इन क्षणों में। बड़े अनूठे अनुभव होते हैं। पल भर, घड़ी भर नींद भी नहीं लग पाती कि विरह जगा जाता है।
आहटों के फरेब में मत आ
उनका क्या एतबार सोने दे
जरा सी आहट होती है, लगता है कि शायद आ गया जिसकी तलाश थी; जरा ध्यान में एक तरंग उठती है, लगता है आ गया जिसकी तलाश थी; जरा प्रार्थना में रस उमगता है, लगता है आ गया जिसकी तलाश थी।
आहटों के फरेब में मत आ
उनका क्या एतबार सोने दे
नींद लगती ही नहीं। नींद लग ही नहीं सकती। जब विरह जलता है, तो कैसी नींद? सबसे पहले नींद जल जाती है। कैसा विश्राम? सबसे पहले विश्राम जल जाता है। कहां विराम? मनुष्य एक धधकती आग हो जाता है।
बिरहा-पावक उर बसै,...
आग हृदय में बस जाती है।
बिरहा-पावक उर बसै, नखसिख जालै देह।
रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसहु मोहन मेह।।
आग लग गई हृदय में, एक ही स्वर गूंजता रहता है--
रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसहु मोहन मेह।।
हे प्रभु, अब बरसो। अब बरसो। और कब तक तड़फाओगे? और कब तक रुलाओगे?
लाते नहीं जो मुझको तसव्वुर में भी कभी
आते हैं किसलिए मेरे बज्में-ख्याल में?
और आते नहीं हो, तो फिर खयाल में क्यों आते हो? और जब मेरी तुम्हें याद नहीं, तो फिर मेरी याद में क्यों आते हो?
लाते नहीं जो मुझको तसव्वुर में भी कभी
तुम्हारे सपनों में तो तुम मुझे कभी नहीं आने देते, तुम्हारे विचारों की तरंगों में तुम मुझे कभी याद भी नहीं करते हो, तुम्हें तो मेरी सुध भी नहीं है--
लाते नहीं जो मुझको तसव्वुर में भी कभी
आते हैं किसलिए मेरे बज्में-ख्याल में?
--तो फिर मेरा क्यों पीछा कर रहे हो? फिर मेरे खयालों की दुनिया में क्यों आए चले जाते हो? रोता है भक्त, गिड़गिड़ाता है भक्त, जलता है, तड़फता है, जैसे कोई मछली को पानी से निकाल दे, भर दोपहरी में आग सी जलती रेत पर पटक दे, ऐसे भक्त की दशा हो जाती है। इतने विरह से जो गुजरता है, वही उस परम मिलन को उपलब्ध होता है। भक्ति सस्ती नहीं है।
तुमने सुना होगा, तुम्हारे तथाकथित महात्माओं को कहते हुए कि यह कलियुग चल रहा है और भक्ति का उपाय बड़ा सुगम है; इस जमाने के लिए, इस समय के लिए भक्ति का उपाय ही एकमात्र उपाय है। तुम भ्रांति में मत पड़ जाना। कौन नासमझ कह रहा है कि भक्ति का उपाय सुगम है? सिर्फ इसलिए सुगम है कि इसमें सिद्धासन मार कर नहीं बैठना पड़ता? इसलिए सुगम है कि शीर्षासन नहीं करना पड़ता? इसलिए सुगम है कि प्राणायाम इत्यादि नहीं करना पड़ता? प्राणायाम और शीर्षासन और सिद्धासन कौन से कठिन हैं! महीने, दो महीने के अभ्यास से आ जाएंगे। शरीर की कवायदें हैं, उनमें क्या कठिनाई हो सकती है! क्या इसीलिए कठिन है कि इसमें व्रत-उपवास इत्यादि का आग्रह नहीं है? करोड़ों लोग बिना व्रत-उपवास किए अधभूखे हैं और जी रहे हैं, कोई बहुत कठिन बात नहीं हो सकती। थोड़ा अभ्यास करोगे, यह भी हो जाएगा।
अफ्रीका में एक जाति सिर्फ एक ही बार भोजन करती है। जब तक वे सभ्यता के और दूसरे रूपों के संपर्क में नहीं आए थे, उन्हें पता ही नहीं था कि लोग दो दफे भोजन करते हैं। भारत में हम दो दफे भोजन करते थे, जब से पश्चिम के संपर्क में आए तब से पता चला कि कम से कम पांच बार किया जा सकता है। आस्ट्रेलिया में एक कबीला दो दिन में एक ही बार भोजन करता है। सदियों से यही उनकी आदत है। शरीर हर स्थिति में समायोजित कर लेता है अपने को। एक बार भोजन करो तो भी धीरे-धीरे अभ्यास हो जाता है--फिर एक ही बार भूख लगती है। और पांच बार करो तो पांच बार भूख लगती है। शरीर और मन आदतों से जीते हैं।
इसलिए तुम यह मत सोचना कि उपवास-व्रत इत्यादि में कोई बड़ी भारी दुर्गमता है। कोई भी कर ले सकता है। बड़ी बुद्धिमत्ता की भी जरूरत नहीं है। सच तो यह है, जिनमें जितनी बुद्धि कम है, उतनी आसानी से कर लेते हैं। बुद्धि है ही नहीं, सिर के बल खड़े भी हो गए तो तुम्हारा हर्जा क्या होने वाला है? क्योंकि जिसके पास बुद्धि है, अगर ज्यादा देर सिर के बल खड़ा होगा तो बुद्धि गंवा बैठेगा। तुमने कभी सिर के बल खड़े लोगों को बहुत बुद्धिमान देखा? कोई उनके जीवन में तुमने कोई प्रतिभा की चमक देखी?
वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर सिर की तरफ खून का प्रवाह बहुत ज्यादा हो जाए--जो कि शीर्षासन में हो जाता है, क्योंकि खून जमीन की तरफ बहता है, एकदम से तीव्र धार खून की सिर की तरफ बहती है, सारा खून सिर की तरफ जाने लगता है। साधारण स्थिति में तुम जब खड़े होते हो तो सिर में सबसे कम खून पहुंचता है, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण के विपरीत खून को चलना पड़ता है, उलटा जाना पड़ता है, कठिन चढ़ाई हो जाती है। चढ़ाई कठिन है। जब तुम सिर के बल खड़े होते हो, खून पूरा का पूरा सिर की तरफ जाता है। खून की अगर जोर से बाढ़ चली जाए सिर की तरफ तो सिर बड़े छोटे तंतुओं से मिल कर बना है--सात करोड़ तंतुओं से मिल कर बना है--बड़े छोटे तंतु! इतने बारीक हैं कि बाल भी तुम्हारा बहुत मोटा है। एक लाख तंतुओं को एक के ऊपर एक रखें तो एक बाल के बराबर होता है। जरा तुम सोचो! और उनसे तुम्हारी प्रतिभा है, जितने सूक्ष्म तंतु होते हैं जिस आदमी के पास उसकी प्रतिभा उतनी ही महान होती है। सिर के बल खड़े होकर वह तंतु टूट जाते हैं खून के प्रवाह में, वे तंतु नहीं बच सकते। इसलिए अक्सर तुम्हारे योगी जड़ और बुद्धिहीन दिखाई पड़ते हैं। कोई बहुत बुद्धिमत्ता की जरूरत भी नहीं है।
तुम यह तथाकथित साधुओं की बात में मत पड़ जाना, जो कहते हैं--कलयुग में भक्ति ही एकमात्र उपाय है क्योंकि सुगम है। सुगम तो नहीं है। प्रेम सुगम है? पागल हुए हो? होश की बातें कर रहे हो? कुछ प्रेम का पता है? प्रेम से दुर्गम और कुछ भी नहीं है। क्योंकि प्रेम जलाता है, तड़फाता है, आग में डाल देता है--मछली की तरह तड़फाता है।
बिरहा-पावक उर बसै, नखसिख जालै देह।
रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसहु मोहन मेह।।
कुफ्रो ईमां की कोई बात नहीं है इसमें
रास दुनिया न जिन्हें आई वह दीदार बने
जिनको पीने का सलीका है वे प्यासे हैं ‘कतील’
जितने कम-जर्फ थे इस दौर में मैख्वार बने
जो यहां की छोटी-मोटी चीजें पीने में लगे हैं--शराब इत्यादि--कम-जर्फ हैं। उनकी कोई पात्रता नहीं है, योग्यता नहीं है। जो असली पियक्कड़ हैं, वे तो परमात्मा को पीने के लिए आतुर हैं। और किसी प्यास को बुझाने की उनकी आकांक्षा नहीं, किसी और चीज से प्यास को बुझाने की उनकी आकांक्षा नहीं।
जिनको पीने का सलीका है वे प्यासे हैं ‘कतील’
जो पीना सच में जानते हैं, वे उसके मधु को तलाश कर रहे हैं, वे उसकी मधुशाला खोज रहे हैं; इस संसार की कोई मधुशाला उन्हें तृप्त नहीं कर सकती।
जिनको पीने का सलीका है वे प्यासे हैं ‘कतील’
जितने कम-जर्फ थे इस दौर में मैख्वार बने
जिनकी कोई पात्रता नहीं, योग्यता नहीं, बुद्धि नहीं, समझ नहीं, वे यहां छोटी-छोटी चीजें पी कर मैख्वार बन गए हैं, पियक्कड़ कहला रहे हैं। अगर पीना हो तो परमात्मा को पीओ। बहुत बैठे रह चुके गंदे नदी-तालाबों के किनारे, अब मानसरोवर चलो! उठो हंस, फैलाओ अपने पंख--उड़ चल वा देश! यह देश तुम्हारा देश नहीं है। यह घर तुम्हारा घर नहीं है। सराय को घर समझ लिया है। तलैयों को मानसरोवर समझ लिया है। मर्त्य को अमृत समझ लिया है। क्षुद्र को विराट समझ लिया है। फिर अगर दुखी हो रहे हो तो आश्चर्य कैसा?
जन रज्जब जलती रहै, जाग्या बिरह अपार।।
बिरहिण बिहरे रैनदिन, बिन देखे दीदार।
बिरहा-पावक उर बसै, नखसिख जालै देह।
रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसहु मोहन मेह।।
जरूर वर्षा होती है परमात्मा की, लेकिन तभी होती है जब तुम अपनी परिपूर्णता में तड़फते हो। जब तुम सब दांव पर लगा देते हो। जब तुम कुछ भी नहीं बचाते। सब चतुराई छोड़ देते हो। सब सौदेबाजी छोड़ देते हो।
गुनगुनाती हुई आती हैं फलक से बूंदें
कोई बदली तेरे पाजेब से टकराई है
फिर छनाछन! तुम्हारी तड़प पूरी हो जाए कि बस! यहां तुम्हारी तड़प अपनी पूर्णता पर पहुंचती है--सौ डिग्री--और वहां से वर्षा शुरू होती है।
गुनगुनाती हुई आती हैं फलक से बूंदें
आकाश से बूंदें उतरने लगती हैं--गुनगुनाती हुईं, गीत गाती हुईं, रक्स करती हुईं, नाचती हुईं।
कोई बदली तेरे पाजेब से टकराई है
परमात्मा के पाजेब से टकरा कर कोई बादल संगीत बरसा जाता है, अमृत बरसा जाता है। लेकिन पात्रता विरह से उत्पन्न होती है। कुंभ बनता है पहले तो, कुम्हार पीटता मिट्टी को, चक्के पर चढ़ाता, ठोकता--एक हाथ से चोट करता है बाहर से और भीतर एक हाथ से सम्हालता है; हर चोट को भीतर से सम्हालता है--ऐसे घड़ा निर्मित होता है। फिर निर्मित हुआ घड़ा भी कच्चा होता है जब तक आग में न डाला जाए। विरह की आग में शिष्य पकता है। विरह की आग में ही घड़ा पक्का होता है, मजबूत होता है।
भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।
यह वचन बड़ा प्यारा है।
रज्जब कहते हैं: जब से तुमने मेरी छाती में भाला भोंक दिया...
भलका लाग्या भाव का...
जब से तुमने भाव का भाला मेरी छाती में भोंक दिया...
...सेवक हुआ सुमार।
तब से हमारी भी गिनती हो गई। तब से हम भी कुछ हो गए। तब से हम भी हैं, उसके पहले हम नहीं थे। उसके पहले हमारी क्या सुमार थी। हमारी कौन गिनती थी! हमारी कहां गणना थी! उसके पहले होना न होने के जैसा था।
भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।
तब से हम भी कुछ हैं। मिट कर कुछ हुए। भाला लगा तब कुछ हुए। समर्पित हुए, तब से हम कुछ हैं। जब तक अकड़े थे, ना-कुछ थे। अहंकार छोड़ा तो कुछ हुए, अहंकार था तो कुछ भी नहीं थे।
भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।
शब्द बड़े प्यारे हैं। अब हमारी भी गिनती है। देर-अबेर होगी, मेघ हमारा कब आएगा पता नहीं, मगर गिनती है, कतार में हम भी खड़े हैं, अब हम यूं ही व्यर्थ नहीं हैं, कच्चे नहीं हैं कि मेघ बरसेगा तो मिट्टी बह जाएगी, अब हम पक गए हैं। तुमने भाला क्या मारा, पका दिया!
रज्जब तलफै तब लगै, मिलै न मारनहार।
बड़ा प्यारा वचन है। हीरों से तौलो तो भी कीमत न हो।
रज्जब तलफै तब लगै, मिलै न मारनहार।
जब तक मारने वाला नहीं मिला था, तभी तक तलफ थी। अब तो मिल गए मारने वाले! यह गुरु का अर्थ--मारनहार। तुमने मिटा दिया और बना दिया।
भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।
रज्जब तलफै तब लगै, मिलै न मारनहार।।
तब तक ही अड़चन थी जब तक मारने वाला न मिला था। अब तो राह से लग गए, अब तो गिनती अपनी भी हो गई। अब देर-अबेर हो सकती है, कौन चिंता करता है! प्रतीक्षा करनी होगी, कर लेंगे। कितना ही समय बीते अब, अब कोई घबड़ाहट नहीं है। भाला चुभ गया है--अहंकार मारा गया है, मारने वाला मिल गया है--गुरु को मारनहार कहा। लेकिन जो मारनहार है, वही जियावनहार भी है। इधर मारता है, उधर जिलाता है। एक हाथ से ठोकता है, दूसरे हाथ से सम्हालता है।
जैसे नारी नाह बिन, भूली सकल सिंगार।
त्यूं रज्जब भूला सकल, सुनि सनेह दिलदार।।
गुरु की आवाज सुन कर सब भूल गया, रज्जब कहते हैं, कि मैं सब भूल गया।
जैसे नारी नाह बिन, भूली सकल सिंगार।
जैसे कोई अपने प्यारे की प्रतीक्षा करती हो स्त्री, तो श्रृंगार करती है। लेकिन पति, प्यारा न आता हो, न आने वाला हो, तो सब श्रृंगार भूल जाता है। श्रृंगार के लिए तो कोई श्रृंगार नहीं करता, प्यारे के लिए श्रृंगार किया जाता है।
जैसे नारी नाह बिन, भूली सकल सिंगार।
जैसे प्रियतम नहीं आया, नहीं आता है, तो सारा श्रृंगार भूल जाता है, ऐसे ही--‘त्यों रज्जब भूला सकल।’ सारा संसार भूल गया उसी क्षण जब से गुरु की आवाज सुनी। क्योंकि तभी से एक बात पक्की हो गई कि जिस प्यारे को हम खोज रहे हैं, वह संसार में नहीं है। हम वहां खोज रहे हैं जहां वह नहीं है। और हमने वहां अब तक खोजा ही नहीं, जहां वह है।
त्यूं रज्जब भूला सकल, सुनि सनेह दिलदार।
यह स्नेह से भरे हुए गुरु के वचन सुने, यह भाला दिल में लगा, सेवक हुआ सुमार।
मुझको अब तक खुदा से है शर्मिंदगी
ऐ सनमखानए-दिल के पहले सनम
कुछ तो होंगी मोहब्बत की मजबूरियां
कौन सहता है वरना किसी के सितम
हम ‘कतील’ अपनी धुन में न कुछ सुन सके
रोकते रह गए हमको दैरो-हरम
सदगुरु जब तुम्हें पुकारेगा, तो मंदिर रोकेंगे, मस्जिद रोकेंगे, दुकान रोकेगी, बाजार रोकेगा, घर रोकेगा, परिवार रोकेगा, सब रोकेंगे, सारा संसार तुम्हें घेरा बांध कर खड़ा हो जाएगा। तुम बड़े चकित होओगे, इस संसार ने कभी तुम्हारी चिंता न की थी, लेकिन जिस दिन तुम गुरु की आवाज सुनोगे, सारा संसार तुम्हें रोकेगा। लेकिन फिर रुकना असंभव है।
हम ‘कतील’ अपनी धुन में न कुछ सुन सके
रोकते रह गए हमको दैरो-हरम
फिर कुछ नहीं रुकता, फिर कोई नहीं रोक सकता। एक बार आवाज पड़ जाए कान में। तो आते रहो जाते रहो, जहां सत्संग चलता हो बैठते रहो, आज, कल, परसों, कौन जाने कब शुभ घड़ी आ जाए, कब तुम्हारे कान खुले हों, कब तुम्हारा हृदय कान के करीब हो, बात पड़ जाए? एक बार भाला लग जाए, सेवक हुआ सुमार।
तन मन ओले ज्यूं गलहिं, बिरह-सूर की ताप।
और जैसे ओले गल जाते हैं सूरज के ताप में, ऐसे ही विरह की अग्नि जब जलती है--‘तन मन ओले ज्यूं गलहिं।’ तन भी गल जाता है, मन भी गल जाता है। जो नहीं गल सकता, बस वही शेष रह जाता है।
तन मन ओले ज्यूं गलहिं, बिरह-सूर की ताप।
रज्जब निपजै देखि तूं, यूं आपा गलि आप।।
रज्जब कहते हैं कि मैंने इस तरह अपने को गलते भी देखा और अपने को निकलते भी देखा। अपने को मिटते भी देखा और अपने को बनते भी देखा।
रज्जब निपजै देखि तूं, यूं आपा गलि आप।
यह चमत्कार देखा। एक तरफ अपने को मरते देखा और एक तरफ अपने को पुनरुज्जीवित होते देखा। एक तरफ देखा कि गल गया सब--देह गल गई, मन गल गया, जिसको कल तक माना था कि मैं हूं, वह सब गल गया और पहली दफे पहचान आई अपने असली आपा की। जिसकी अब तक पहचान ही न थी; अब तब तो यही जानते थे कि मन और देह का जोड़ मैं हूं। वे दोनों तो गल गए और वह भी गए विरह की अग्नि में, और तभी भीतर से कुछ तीसरा उठा। तीसरा जो अदृश्य है।
मनुष्य त्रिवेणी है। प्रयाग तीर्थ है, जहां गंगा, यमुना और सरस्वती का मिलन है। गंगा दिखाई पड़ती है, यमुना दिखाई पड़ती है, सरस्वती दिखाई नहीं पड़ती। यह सिर्फ प्रतीक है। यह प्यारा प्रतीक है। देह दिखाई पड़ती है, मन का भी अनुभव होता है, आत्मा का कहां पता चलता है? वह सरस्वती है। दोनों उड़ जाते हैं, देह और मन और तभी जो शेष रह जाता है, जिसके उड़ने का कोई उपाय नहीं, वही तुम हो--तत्वमसि श्वेतकेतु।
रज्जब निपजै देखि तूं, यूं आपा गलि आप।।
रज्जब ज्वाला बिरह की, कबहूं प्रगटै माहिं।
रज्जब कहते हैं: कभी-कभी सौभाग्य से विरह की ज्वाला तुम्हारे भीतर के मंदिर में प्रकट होती है। यह हवन की अग्नि जलती है।
रज्जब ज्वाला बिरह की, कबहूं प्रगटै माहिं।
कभी-कभी ऐसा सौभाग्य का क्षण आता है। और जब ऐसा क्षण आ जाए तो चूक मत जाना। उसे बुझ मत जाने देना। उसे बुझा मत देना। उसे भुला मत देना।
तौ सींचनि घृत सों चहौं,...
सींच देना अपने जीवनघृत से कि भभक उठे, कि जल उठे, कि समग्ररूपेण तुम्हें घेर ले।
तौ सींचनि घृत सों चहौं, करम-काठ जरि जाहिं।
अगर ठीक से विरह की अग्नि को जल जाने दिया, तो यह भक्ति का सूत्र समझ लेना--
ज्ञानी कहते हैं, ध्यान से, बड़े गहरे ध्यान से व्यक्ति कर्म के जाल से मुक्त होगा। कर्म को मानने वाले कहते हैं, शुभ कर्मों को कर-कर के अशुभ कर्मों को काट-काट कर व्यक्ति कर्म के जाल से मुक्त होगा। भक्त कहते हैं, विरह की अग्नि, ऐसे कर्म जल जाते हैं जैसे लकड़ी जल जाती है आग में। विरह शुद्ध कर जाता है, जैसे अग्नि शुद्ध करती है स्वर्ण को, कुंदन बना देती है।
तौ सींचनि घृत सों चहौं, करम-काठ जरि जाहिं।।
दरद नहीं दीदार का, तालिब नाहीं जीव।
रज्जब बिरह बियोग बिन, कहां मिलै सो पीव।।
और अगर तुम्हारे भीतर उसे देखने की आकांक्षा नहीं है, तो तुम क्या हो! फिर तुम्हारी कोई गिनती नहीं। तुम थे, नहीं थे, बराबर हो। परमात्मा को देखने की आकांक्षा से ही तुम्हारा वास्तविक जन्म शुरू होता है। इसके पहले तो तुम यूं ही जीए, नाममात्र को, सपने में जीए। जब भी कोई बुद्ध से संन्यास लेता था तो वह कहते थे, आज से अब अपनी उम्र गिनना। ‘सेवक हुआ सुमार।’
एक बार सम्राट बिंबिसार उनसे मिलने आया। और एक भिक्षु दर्शन करने आया था। सम्राट बैठा था। बुद्ध ने भिक्षु से पूछा: तेरी उम्र कितनी है? उसने कहा: चार वर्ष। वह था कोई सत्तर वर्ष का। बिंबिसार बड़ा चौंका। सोचा, यह क्या हो रहा है? या तो मैंने गलत सुना। उसने पूछा बुद्ध को: मैंने गलत तो नहीं सुना, यह आदमी कहता है चार वर्ष? चालीस भी कहता तो भी मैं भरोसा नहीं करता, क्योंकि यह निश्चित सत्तर से कम का नहीं है, ज्यादा भले हो; चार वर्ष? बुद्ध ने कहा: आपको पता नहीं, हम गणना इसी तरह करते। यह चार वर्ष पहले संन्यस्त हुआ। उसके पहले तो जीया कि नहीं जीया, उसकी कौन गिनती? उसकी हम गिनती ही नहीं करते। वे तो रात में बीत गए, सपनों में बीत गए।
तुम रात के सपनों की गिनती तो नहीं करते। अगर कोई तुमसे पूछेगा, कितना धन तुम्हारे पास है? तो तुम उतना ही बताओगे जितना बैंक में है। तुम उतना नहीं गिनोगे जितना तुमने सपनों में भी देखा है। वह उसमें तुम गिनती नहीं करोगे। कोई पूछेगा, तुम्हारे पास क्या है? तो तुम सपनों को छोड़ देते हो। जब कोई व्यक्ति जागता है, तो उसे पता चलता है कि अब तक जो जीवन था वह नींद ही था। सोए थे, सपने देखे थे, उनकी कोई गिनती नहीं करता।
दरद नहीं दीदार का, तालिब नाहीं जीव।
जब तक उस परमात्मा को पाने की आकांक्षा नहीं जगी है, जब तक उसकी खोज ने तुम्हें आतुर नहीं किया है, जब तक तुमने उसकी पुकार नहीं सुनी है और तुम उसकी खोज पर नहीं निकल पड़े हो, तब तक तुम क्या हो! तब तक अपनी गिनती मत कर लेना। तब तक हो सकता है तुम्हारे पास बहुत धन हो, बड़ा पद हो, मगर तुम कुछ भी नहीं। दो कौड़ी तुम्हारा मूल्य नहीं है। हां, जब तुम उसकी खोज से भरते हो, तभी तुम्हारे भीतर जीवन की शुरुआत है।
रज्जब बिरह बियोग बिन, कहां मिलै सो पीव।
और जो विरह के वियोग से भर गया है, जो देखता है कि मैं हकदार हूं परमात्मा को पाने का, यह सागर मेरा है और मैं किनारे पर तड़प रहा हूं, जो देखता है कि मानसरोवर मेरा है और मैं गंदी तलैया के किनारे क्यों बैठा हूं, जिसे यह दिखाई पड़ती है अवस्था कि मेरी आत्यंतिक संभावना परमात्मा होने की है, उससे कम पर मैं राजी नहीं होऊंगा, उसको वियोग पैदा होगा।
अब फर्क समझना।
एक शास्त्र है हमारे पास, जिसको हम योग कहते हैं--कैसे परमात्मा से जुड़ें? मगर योग के पहले वियोग पैदा होना चाहिए। अगर वियोग ही पैदा न हो तो जुड़ने का सवाल ही कहां उठता है? जो आदमी बिना वियोगी बने योगी बन गया है, उस आदमी ने गलत कदम उठा लिया। पहले वियोग, फिर योग। और जितनी तुम्हारे वियोग की गहराई होगी, उतनी ही तुम्हारे योग की गहराई होगी। अक्सर लोग योगी बन बैठे हैं और वियोग ने उनको जलाया ही नहीं था, दग्ध ही नहीं किया था, वियोग के कांटे अभी चुभे ही नहीं थे और योग के फूल खिलाने में लग गए हैं, ये फूल कभी नहीं खिलेंगे। ये फूल खिलने असंभव हैं। वियोग से बचना मत। और वियोग बड़ी पीड़ा है, सच है, बड़ी आग है, लेकिन आग के बिना कौन निखरा है?
रज्जब बिरह बियोग बिन, कहां मिलै सो पीव।
किसको कब मिला है प्यारा बिना विरह के, वियोग के? अग्नि में जले बिना वह प्यारा किसी को मिला नहीं, क्योंकि हम उस प्यारे के योग्य नहीं हो पाते। वह तो मिलने को उत्सुक है प्रतिपल, पर हमारी पात्रता नहीं है। उसका मेघ तो घिरा ही हुआ है, आकाश पर तना ही हुआ है, राजी है बरसने को, मगर कुंभ तैयार नहीं है।
करो तैयार अपने को! जागो विरह में! वियोग को पकड़ने दो तुम्हें एक आंधी और झंझावात की तरह! उसी से तो वास्तविक योग का जन्म होगा। तड़फोगे तो जरूर पाओगे। जो भी तड़पे हैं, उन्होंने पाया है। और जिस दिन तुम्हारी गिनती हो जाए, उसी दिन तुम संन्यासी हुए। जिस दिन संन्यासी हुए, उसी दिन गिनती हई--सेवक हुआ सुमार। धन्यभागी हैं वे जो सुमार हो जाते हैं! धन्यभागी हैं वे जो कह सकें कि मिल गया मारनहार!
सदगुरु के बिना कौन तुम्हें मिटाएगा? और तुम जब तक मिट ही न जाओ, तब तक बाधा है। तुम बाधा हो। तुम्हारी दीवाल हट जाए, तो आकाश अभी प्रवेश कर जाए। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।
मेरे पास लोग आते हैं, पूछते हैं कि परमात्मा और हमारे बीच बाधा क्या है? मैं उनसे कहता हूं: तुम ही बाधा हो। मैं-भाव बाधा है। वे कुछ और सुनना चाहते हैं। वे सुनना चाहते हैं कि पाप बाधा है; तो पुण्य करें। वे सुनना चाहते हैं कि अज्ञान बाधा है; तो ज्ञानी हो जाएं, पंडित हो जाएं। और जब मैं उनसे कहता हूं तुम ही बाधा हो, तो उन्हें भला नहीं लगता। इतनी दूर जाने की उनकी तैयारी नहीं थी। मैं पापी था तो मैं को पुण्यात्मा बनाने को तैयार थे वे, लेकिन मैं को छोड़ने को नहीं। मैं काला था तो उसे सफेद रंगने को तैयार थे वे, लेकिन मैं को छोड़ने को नहीं। मैं अज्ञानी था तो ज्ञान से थोप देने को तैयार थे वे, मैं भोगी था तो मैं को योगी बना देने को तैयार थे वे, लेकिन मैं को छोड़ देने को नहीं।
भक्ति का सार-सूत्र स्मरण रखो--‘मैं’ बाधा है। न तो पाप बाधा है, न अज्ञान बाधा है, ‘मैं’ बाधा है। ‘मैं’ ही पाप है और ‘मैं’ ही अज्ञान है। इस द्वार से ‘मैं’ गया, उस द्वार से परमात्मा प्रविष्ट हो जाता है।
तुम हटो, राह दो। तुम भी एक दिन कह सकोगे--
भलका लाग्या भाव का, सेवक हुआ सुमार।
रज्जब तलफै तब लगै, मिलै न मारनहार।।

आज इतना ही।

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