RAJJAB
Santo Magan Bhaya Man Mera 13
Thirteenth Discourse from the series of 20 discourses - Santo Magan Bhaya Man Mera by Osho. These discourses were given during MAY 12-31 1978.
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मार भली जो सतगुरु देहि। फेरि बदल औरे करि लेहि।।
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार। त्यूं सतगुरु की मार विचार।।
भाव भिन्न कछु औरे होइ। ताते रे मन मार न जोइ।।
जैसा लोहा घड़ै लुहार। कूटि-काटि करि लैवै सार।।
मारै मारि मिहरि करि लेहि। तो निपजै फिरि मार न देहि।।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।
मन तोड़न का नाहीं भाव। जे तुछ तूटि जाय तौ जाव।।
ज्यूं कपड़ा दरजी के जाय। टूक-टूक करि लेहि बनाय।।
त्यूं रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब झेल।।
दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर।
जन रज्जब उनकी दया, पाई निहचल ठौर।।
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
दुख दरिद्र तब का गया, सुख संपत्ति अपार।।
रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।
गुरु बैन बिच रैन में, किया दुहूं घर फोड़।।
गुरु दीरघ गोबिंद सूं, सारै सिष्य सुकाज।
रज्जब मक्का बड़ा परि, पहुंचे बैठि जहाज।।
कामधेनु गुरु क्या कहै, जो सिष निःकामी होइ।
रज्जब मिलि रीता रह्या, मंदभागी सिष जोइ।।
उदास हैं आस्मां के तारे
बुझे-बुझे हैं सभी नजारे
हसीं बहारें भी रो रही हैं
लुटा है यूं मेरा आशियाना
यह अनुभव सभी का है। यह अनुभव संसार का है। यहां सिर्फ आदमी लुटता है, उजड़ता है, बसता नहीं। यहां बसने का कोई उपाय नहीं। यह बस्ती नहीं है, मरघट है। यहां सिर्फ मृत्यु के लिए प्रतीक्षा में खड़े हुए लोग हैं--पंक्तिबद्ध। आएगी जब घड़ी, उठ जाएंगे। कभी भी आ सकती है घड़ी। यूं तो उसी दिन आ गई जिस दिन जन्म हुआ। जन्म के साथ ही साथ मौत आ गई छाया की भांति। जिसका जन्म हुआ, अब मृत्यु से न बच सकेगा। जन्म में ही मृत्यु निश्चित हो गई, थिर हो गई।
जहां मृत्यु ही घटनी है, जहां उजड़ना ही है, वहां जो बसने का खयाल रखते हैं, वे नासमझ हैं। और जहां सिर्फ एक ही बात निश्चित है और सब अनिश्चित है, जहां सिर्फ मृत्यु निश्चित है, वहां जो घर बनाते हैं, वे व्यर्थ ही बनाते हैं। यह घर उजड़ेगा। और इस घर के बनाने में पीड़ा उठाई, फिर इस घर के उजड़ने में पीड़ा उठानी पड़ेगी। यहां पीड़ा ही पीड़ा है। यहां दुख ही दुख है। संसार दुख का सागर है। ऐसा जिसे अनुभव होता है, वही परमात्मा की तलाश में निकलता है। जिसने इस घर को ही असली घर समझ लिया, फिर उसकी खोज बंद हो गई।
जिसे दिखाई पड़ा कि यह नीड़ असली नीड़ नहीं है, असली नीड़ की तलाश करनी है अभी, ज्यादा से ज्यादा सराय है, रात भर को रुक गए हैं, सुबह हुए चलना पड़ेगा; पड़ाव है ज्यादा से ज्यादा, मंजिल नहीं है यह, उनके जीवन में अज्ञात की तलाश शुरू होती है। उस अज्ञात को हम जो भी नाम देना चाहें दें; परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, सत्य कहें, समाधि कहें, ये सिर्फ नामों के भेद हैं। लेकिन इनकी खोज के पहले यह अनिवार्य है अनुभव हो जाना कि यहां घर बन नहीं सकता। यहां घोसले बिगड़ने को ही बनते हैं। यहां सब आशियाने उजड़ जाते हैं। उजड़ना यहां का स्वभाव है। बसना धोखा है, उजड़ना सचाई है। बसना भ्रांति है। थोड़ी-बहुत देर कोई सपना देख सकता है बसने का, लेकिन सपने, सपने हैं। कितनी देर भुलाए रखोगे अपने को सपने में?
जो जितनी जल्दी सपने को सपने की भांति देख ले, उतना बुद्धिमान है। कोई युवावस्था में देख लेता है, कोई बुढ़ापे तक में नहीं देख पाता। तुम्हारी बद्धिमत्ता की एक ही कसौटी है--जितने जल्दी तुम यह देख लो कि यह कागज की नाव है जिसमें तुम बैठे हो, यह डूबेगी; अब डूबी, तब डूबी; और यह रेत पर बनाया गया घर है, यह गिरेगा; अब गिरा, तब गिरा। इसके पहले कि घर गिर जाए, जो इस घर से मुक्त हो जाता है, इस घर के लगाव से मुक्त हो जाता है, मोह से मुक्त हो जाता है, उसके जीवन में एक नई किरण उतरती है--परमात्मा की खोज शुरू होती है।
फूल पै धूल, बबूल पै शबनम, देखने वाले देखता जा
अब है यही इंसाफ का आलम, देखने वाले देखता जा
परवानों की राख उड़ा दी वादे-सहर के झोंकों ने
शमअ बनी है पैकरे-मातम देखने वाले देखता जा
एक पुराना मदफन जिसमें दफ्न हैं लाखों उम्मीदें
छलनी-छलनी सीनए-आदम देखने वाले देखता जा
एक तेरा ही दिल नहीं घायल दर्द के मारे और भी हैं
कुछ अपना कुछ दुनिया का गम देखने वाले देखता जा
जरा आंख खोलो और जरा देखो। तो क्या पाओगे यहां?
एक पुराना मदफन जिसमें दफ्न हैं लाखों उम्मीदें
खुद को क्या पाओगे? एक पुरानी कब्र, जिसमें हजारों-हजारों आकांक्षाओं की मृत्यु घट चुकी है; जिसमें हजारों अभीप्साएं मुर्दा होकर गिर गई हैं, सड़ गई हैं।
एक पुराना मदफन जिसमें दफ्न हैं लाखों उम्मीदें
छलनी-छलनी सीनए-आदम देखने वाले देखता जा
और यहां हर हृदय छलनी-छलनी हो गया है। किसी तरह सम्हाले हैं अपने को और चल रहे हैं, बात और है। मगर पैर सबके डगमगा गए हैं। हवाएं ऐसी हैं, आंधियां ऐसी हैं। नावें सब डांवाडोल हैं। लेकिन कुछ हैं जो नावों को किसी तरह सम्हालने में ही सारा जीवन, सारी ऊर्जा लगा देते हैं। पानी में बहा दी उन्होंने जीवन की बहुमूल्य संपदा। कुछ हैं जो यह देख कर कि यहां जीवन में शाश्वत कुछ भी नहीं है, सब क्षणभंगुर है, मुड़ जाते शाश्वत की ओर, उस मुड़ने में ही क्रांति घटित होती है। व्यक्ति के जीवन में धर्म का जन्म होता है।
न शास्त्र पढ़ने से होगा यह, न मंदिर-मस्जिद जाने से होगा यह, यह तो जिंदगी का दुख रूप देखोगे तो होगा। जीवन को ठीक-ठीक पहचानोगे तो होगा। राम-राम जपने से नहीं होगा। तुम ऊपर राम-राम जपते रहोगे, भीतर काम अपने सपने सजाता रहेगा। तुम मालाएं फेरते रहोगे, भीतर अंधेरा घर बसाए बैठा रहेगा, तुम बाहर के दीये जलाते रहोगे, भीतर गहन अंधेरी रात अमावस बनी रहेगी। जीवन को देखो!
और जीवन दिखाई न पड़े, इसके हमने बड़े उपाय कर रखे हैं। करने ही पड़ेंगे। अगर जीवन का दुख सभी को दिखाई पड़ने लगे, तो यह जो राग-रंग दिखाई पड़ता है, यह जो आशा-उमंग-उत्साह दिखाई पड़ता है, यह सब एकदम तिरोहित हो जाए। ये जो लोग दिखाई पड़ते हैं चले जा रहे हैं, बड़ी तीव्रता से, इनकी गति टूट जाए। इन्हें साफ हो जाए कि यहां कोई मंजिल कभी किसी को मिली नहीं। फिर कैसे दौड़ सकेंगे? फिर किसके लिए दौड़ना है? फिर ये जो सपने बना रहे हैं और योजनाएं बना रहे हैं और चिंताएं कर रहे हैं, और विचार और ऊहापोह कर रहे हैं--क्या करें, क्या न करें--सब एकदम भस्मीभूत हो जाएगा।
हमने एक दुनिया बना ली है, असली दुनिया से बचने के लिए हमने एक विचारों का जाल खड़ा कर लिया है, अपने चारों तरफ विचार की एक पर्त बना ली है, हम उसके माध्यम से ही दुनिया को देखते हैं। हम अपनी आशाओं के चश्मों से ही दुनिया को देखते हैं। फिर दुनिया हमें रंगीन दिखाई पड़ने लगती है। चश्मे का रंग दुनिया का रंग मालूम होने लगता है। और बचपन से हर बच्चे को उसके मां-बाप चश्मे देते हैं, महत्वाकांक्षा देते हैं, वासना देते हैं--कुछ हो जाना, कुछ बन कर बता देना, नाम रख लेना, यश कमा लेना, पद, प्रतिष्ठा, धन। हर एक को हम यही आशाओं का पाठ पढ़ाते हैं। और ये सब आशाएं एक दिन व्यर्थ हो जाती हैं। ये सब आशाएं झूठी सिद्ध होती हैं। यहां किसी की भी महत्वाकांक्षा कभी पूरी नहीं हुई। ऐसा जगत का स्वभाव नहीं किसी की महत्वाकांक्षा पूरी करे। तब परमात्मा की खोज शुरू होती है।
असार दिख जाए संसार में, तो फिर सार को बिना खोजे कैसे रहोगे? आंख मुड़ती है, और दिशाओं में गति शुरू होती है। बहिर्यात्रा बंद होती है, अंतर्यात्रा शुरू होती है। और ध्यान रखना, अंतर्यात्रा का ही दूसरा नाम तीर्थयात्रा है। अगर तुम्हारा तीर्थ बाहर है तो तुम्हारा तीर्थ संसार का हिस्सा है। जाओ काशी, जाओ काबा, ये तीर्थ नहीं हैं। तीर्थ तो एक ही है--भीतर जाओ; जहां राम मिले, वहां जाओ; जहां शाश्वत मिले, वहां जाओ। न तो काबा में मिलेगा, न काशी में, न कैलाश में। बाहर की यात्रा चाहे तुम धर्म के नाम पर करो और चाहे धन के नाम पर, बाहर की ही यात्रा है। और बाहर की यात्रा तुम्हें भीतर न लाएगी।
बाहर कुछ मिलता ही नहीं। इस बात को मानने में पीड़ा होती है, क्योंकि हमारा सब किया अनकिया हो जाता है। हमने अब तक जो भी जिंदगी में दांव लगाए हैं, वे सब व्यर्थ हो जाते हैं। हम देखना नहीं चाहते।
एक मेरे परिचित थे; उनकी पत्नी मेरे पास आई। उसने कहा कि शक है कि मेरे पति को कैंसर है, मगर वे डॉक्टर के पास नहीं जाते। वे कहते हैं--मुझे कोई बीमारी ही नहीं है, तो मैं जाऊं क्यों? मैंने उन मित्र को बुलाया। मैंने कहा: तुम्हारी पत्नी परेशान है। वे बोले व्यर्थ परेशान है। जब मैं बीमार ही नहीं हूं तो मैं डॉक्टर के पास जाऊंगा क्यों? मैंने उनसे कहा: जब तुम बीमार ही नहीं हो, तो डॉक्टर के पास जाने में इतना डर क्या है? पत्नी का मन रह जाएगा, मुझे भी दिख रहा है कि तुम बीमार नहीं हो, और डॉक्टर को भी दिख जाएगा, कोई डॉक्टर तुम्हारी पत्नी की मान कर बीमार थोड़े ही समझ लेगा। अब वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए। शक तो उन्हें भी है, भीतर डर तो उन्हें भी है। इसी डर के कारण डॉक्टर के पास नहीं जा रहे हैं कि कहीं शक सच्चा साबित न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि कैंसर हो ही। पर मेरे पास आ गए तो मुश्किल में पड़ गए, अब उनको उत्तर देते न सूझे। मैंने कहा, पत्नी परेशान है, यह बीमार हो जाएगी इस तरह परेशान होते-होते; रात सोती नहीं; यही फिकर लगी रहती है; इसका भ्रम मिटा दो: तुम बिलकुल ठीक मालूम हो रहे हो, डॉक्टर को भी ठीक मालूम होओगे, मगर इसका भ्रम टूट जाएगा, इसको शांति मिल जाएगी; इसकी खातिर तुम चले जाओ। अब मना करने का कोई उपाय न रहा।
मैं उन्हें डॉक्टर के पास ले गया। मैं साथ ही उनके गया, क्योंकि मुझे डर था रास्ते में वे पत्नी को कुछ न कुछ कह कर भाग खड़े होंगे। डॉक्टर से उन्हें डर लग रहा था। और वही हुआ, कैंसर उन्हें था। वे एकदम रोने लगे। मैंने उन्हें कभी रोते नहीं देखा था। और कहने लगे कि आपने ही मुझे मुसीबत में डाला। जैसे कि मैंने उनको कैंसर करवा दिया। सब ठीक-ठाक चल रहा था, अब मुझे मुश्किल में डाल दिया। मैंने कहा: मुश्किल में तुम थे। अब कुछ उपाय खोजा जा सकता है।
लेकिन उनकी तर्कसरणी समझते हो? उनकी तर्कसरणी इस संसार में अधिक लोगों की तर्कसरणी है। इसलिए लोग सदगुरुओं के पास नहीं जाते। डर है कि वहां रोग दिखाई न पड़ जाए। भय है कि कहीं जीवन की व्यर्थता समझ में न आ जाए। फिर क्या करेंगे? कहीं हाथ खाली हैं, ऐसा अनुभव में न आ जाए अभी तो मुट्ठी बांध रखी है और भरोसा कर रखा है कि हीरे-जवाहरात हाथ में हैं। उस भरोसे में मजा है। उस भरोसे से ही जीए जा रहे हैं। गर्मी है, उत्साह है। कहीं कोई सदगुरु हाथ खोल कर दिखा न दे कि सब मिट्टी है यहां, न कोई हीरे हैं, न कोई जवाहरात हैं। तो तुम एकदम गिर पड़ोगे स्वर्ग से। एकदम सिंहासन से उतर जाओगे। तुमने अपने टूटे-फूटे मकान को महल समझ रखा है। सदगुरु के पास जाओगे तो झकझोर कर दिखा देगा कि यह टूटा-फूटा झोपड़ा है; कहां का महल, किस सपने में पड़े हो?
क्रोध भी आएगा सदगुरु पर।
सदा से सदगुरुओं पर लोगों को क्रोध आया है। यह क्रोध आकस्मिक नहीं है। इस क्रोध के पीछे बड़ा मनोविज्ञान है। तुमने ऐसे ही थोड़े महावीर को गालियां दीं। तुमने ऐसे ही थोड़े बुद्ध को पत्थर मारे। तुमने ऐसे ही थोड़े सुकरात को जहर पिला दिया। कोई व्यर्थ झंझट करने जाता है? हर किसी को कोई पत्थर नहीं मारता। साधु-संतों की तो लोग पूजा करते हैं। उनके चरणों में फूल चढ़ाते हैं, उनसे आशीर्वाद लेने जाते हैं। तो इस दुनिया में दो तरह के साधु-संत हैं। एक साधु-संत, जो तुम्हें सांत्वना देते हैं। उनकी तुम पूजा करते हो। जो तुम्हें सांत्वना देता है, जो कहता है--आपको और कैंसर, कभी नहीं हो सकता। हाथ की रेखाओं में ही नहीं है। मैंने हाथ देख कर बता दिया। आपको और कैंसर! कभी नहीं हो सकता। आप जैसे सरलचित्त व्यक्ति, सेवाभावी, मंदिर-मस्जिद जाने वाले, गीता-कुरान पढ़ने वाले, आपको कैंसर! कभी नहीं। यह तो नास्तिकों को होता है। चित्त प्रसन्न हुआ। आप अपने घर आ गए। कोई सांत्वना दे तो तुम प्रसन्न होते हो।
तुम खयाल रखना, ये दो तरह के साधु-संत इस जमीन पर सदा रहे हैं। तुम्हें सांत्वना देने वाला, तुम्हारे घावों को छिपाने वाला, तुम्हारे घावों पर दो फूल रख देने वाला तुम्हें प्यारा लगता है, हालांकि वह तुम्हारा दुश्मन है। वह तुम्हारे संसार को उजड़ने न देगा। वह तुम्हें भटकाए रखेगा। मगर तुम भटकना चाहते हो। इसलिए भटकाने वाले तुम्हें प्यारे मालूम पड़ते हैं। कभी सौ में एक ऐसा साधु भी होता है, जो तुम्हें सांत्वना नहीं देता। वरन विपरीत तुम्हारी सारी सांत्वनाएं छीन लेता है। तुम्हारी सारी आशाएं छीन लेता है। तुम्हारी आंख से सारे सपने खींच लेता है। ऐसे संत को तुम पत्थर मारोगे ही। तुम हजार उपाय खोजोगे। इस व्यक्ति से तुम्हारे भीतर भय पैदा हो गया। इसने तुम्हें कंपा दिया। मगर यही सदगुरु है। निन्यानबे तो सब असदगुरु हैं, मिथ्या, झूठे। वे तो तुम्हारे संसार का ही श्रृंगार हैं। तुम्हारी दुकान, तुम्हारी बाजार, तुम्हारी वासनाओं-कामनाओं का ही हिस्सा हैं। तुम उनको जहर देने वाले नहीं हो। और न तुम उनको पत्थर मारोगे। तुम तो उनकी पूजा करोगे।
लेकिन बुद्ध को तुम पत्थर मारोगे। दादू को तुम सताओगे। कबीर को तुम परेशान करोगे। तुम परेशान करोगे इसलिए कि कबीर की मौजूदगी तुम्हें परेशान कर रही है। तुम्हारा जिम्मा नहीं; कसूर है तो कबीर का ही है। कबीर तुम्हारी पर्त-पर्त को उघाड़ कर रखे दे रहे हैं। तुम्हारे घाव उघाड़े दे रहे हैं, दबा-दबा कर तुम्हारी मवाद तुम्हें दिखाए दे रहे हैं। तुम्हारे भीतर के घाव और नासूर और तुम्हारे कैंसर तुम्हारी आंखों में उघाड़ कर ला रहे हैं। तुम नाराज हो जाओगे।
जिन मित्र की मैंने तुमसे बात की, वे जितने दिन जिंदा रहे, मुझसे नाराज रहे। फिर मेरे पास नहीं आए। उनकी नाराजगी का कारण साफ है। मैं उन्हें दुश्मन मालूम पड़ रहा हूं, क्योंकि सब ठीक चल रहा था, अब वे डगमगा गए, अब वे घबड़ा गए।
ईश्वर की तलाश तो तुम्हारा संसार बिलकुल डगमगा जाए तो ही शुरू हो सकती है। इससे कम में तलाश शुरू नहीं होती। अगर तुम्हारे पैर जरा भी संसार में जमे रहें तो तुम कहोगे, अभी क्या जल्दी है? अभी थोड़ी देर और रस ले लें। थोड़ी देर और मजा कर लें। थोड़ी देर यह उत्सव और चलता है चल लेने दें। जल्दी क्या है, परमात्मा प्रतीक्षा कर सकता है। वह तो शाश्वत है, सदा है, फिर खोज लेंगे। तुम परमात्मा को कल पर टालते जाओगे अगर तुम्हारे पैर जरा भी जमीन पर रुकें। सदगुरु वही है, जो तुम्हारे पैर के नीचे से सारी जमीन खींच ले। नाराज न होओगे तो क्या करोगे?
मैं जानता हूं, जिन्होंने सुकरात को जहर दिया, तुम्हारे जैसे ही लोग थे। परेशान हो गए थे। अदालत में जिसने तय किया कि सुकरात को जहर दिया जाए, उसने सुकरात को दो विकल्प भी दिए थे। अदालत ने यह कहा था कि अगर तुम एथेंस छोड़ दो तो हमें तुम्हारी कोई चिंता नहीं है। फिर तुम जिंदा रहो, तुम्हें जो करना है करो। अगर एथेंस नहीं छोड़ते हो तो मृत्यु की सजा। क्योंकि एथेंस के नागरिक तुमसे परेशान हो गए हैं। दूसरा विकल्प, अगर तुम एथेंस में ही रहना पसंद करो तो अब तक तुम जो काम कर रहे थे, वह बंद कर दो। लोगों को जगाने का काम बंद करो। लोग नहीं जगना चाहते। तुम सत्य की बात करनी बंद करो। अगर लोगों को असत्य प्रिय है तो उनकी स्वतंत्रता है, उनको असत्य प्रिय रहने दो। तुम यह लोगों का पीछा मत करो। तुम लोगों को बेचैन मत करो। लोगों के घावों में अंगुलियां डाल कर उन्हें मत दिखाओ कि ये घाव हैं। दर्द होता है, पीड़ा होती है। तो तुम चुप हो जाओ। अगर तुम चुपचाप रहो, हमें कोई एतराज नहीं, जिंदा रह सकते हो।
लेकिन सुकरात ने कहा: एथेंस मैं छोड़ कर जाऊं कहां? जहां जाऊंगा वहीं यह मुसीबत फिर से पैदा हो जाएगी। क्योंकि वहां भी ऐसे ही लोग हैं। वे भी नाराज होंगे। रही मेरे चुप हो जाने की बात, वह संभव नहीं है। सत्य तो बोलेगा, कीमत कुछ भी चुकानी पड़े। सत्य अनबोला नहीं रहेगा। सत्य की तो घोषणा होगी। यह मेरे वश में नही है, सुकरात ने कहा कि मैं रोक लूं। मैं हूं कहां अब? सत्य ही है। और जो होना है, वही होगा। फिर तुम चिंता न करो। मरना तो मुझे है ही, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, मरूंगा तो ही। ऐसे मरा, वैसे मरा, क्या फर्क पड़ता है? तुम्हें जो सजा देनी है, तुम दे दो। तुम मुझे बचने के उपाय मत बताओ, क्योंकि इस जिंदगी में बचने का कोई उपाय ही नहीं। यह जिंदगी ही विकल्प नहीं देती, यहां मौत निर्णीत है। तो कब मरे--आज कि कल कि परसों; कैसे मरे--बीमारी से मरे, बिस्तर पर मरे, कि जहर देकर मारे गए, कि सूली पर लटका कर मारे गए, क्या फर्क पड़ता है? मौत आती ही है। किस ढांचे में आती है, किस शैली से आती है, इससे जरा भी भेद नहीं होता।
सुकरात पर लोग नाराज नहीं थे ऐसे ही, कारण था।
जिस आदमी के जीवन में, संसार में अभी लगाव है, वह सदगुरुओं से नाराज होगा। तुम तो गुरुओं के पास भी इसलिए जाते हो कि संसार की कुछ आकांक्षा पूरी हो जाए। ऐसे भूले-भटके लोग मेरे पास भी आ जाते हैं। एक ही बार आते हैं, क्योंकि दोबारा फिर उनके आने का कोई उपाय नहीं रह जाता। वे समझ जाते हैं कि यह स्थान नहीं है। मेरे पास आ जाते हैं कि चुनाव में खड़ा हुआ हूं, आशीर्वाद दे दें। तुम्हें चुनाव में जिताने का आशीर्वाद कोई सदगुरु देगा? सदगुरु आशीर्वाद देगा कि जितनी जल्दी हार जाओ, उतना अच्छा। हारे को हरिनाम। हारो तो हरि का नाम याद आए। जीतो तो कैसे याद आएगा? जीत में तो अकड़ बढ़ती चली जाएगी। मेरे पास भी लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, कि व्यवसाय शुरू कर रहा हूं, आपके आशीर्वाद से शुरू करना है। मैं कहता हूं, तुम कहीं और जाओ। मेरे आशीर्वाद से शुरू करोगे, व्यवसाय चलेगा ही नहीं। मेरा आशीर्वाद तो एक ही हो सकता है कि तुम्हारे सब व्यवसाय टूट जाएं। मगर तब तुम नाराज न होओ तो क्या होओ? तुम फिर मुझ से बदला न लो तो क्या करो? तुम फिर अपने रास्ते खोजोगे मुझसे बदला लेने के। तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। तुम्हारी तकलीफ भी स्वाभाविक है।
इसलिए एक बात खयाल रखना, तभी आज के सूत्र समझ में आ सकेंगे। संसार व्यर्थ है ऐसी तुम्हारी थोड़ी प्रतीति हो जाए तो सदगुरु से संबंध जुड़ सकता है। अन्यथा तुम्हारे संबंध असदगुरुओं से ही जुड़ेंगे, क्योंकि तुम उनके पास भी संसार की ही सुरक्षा के लिए जाओगे। तुम उनसे भी धन मांगोगे, पद मांगोगे, प्रतिष्ठा मांगोगे। पुत्र मांगोगे, पुत्री मांगोगे, व्यवसाय मांगोगे, धंधा, सफलता, बस तुम संसार ही मांगोगे। किसी न किसी बहाने तुम्हारे मन में संसार की ही आकांक्षा होगी। और जिसके मन में संसार की आकांक्षा है, वह असदगुरु के पास ही जा सकता है। उसका मेल असदगुरु से ही पड़ सकता है।
मुझसे लोग कभी-कभी आकर पूछते हैं कि निर्णय कैसे करें कि सदगुरु कौन है? मैं उनसे कहता हूं, तुम इसकी फिकर ही मत करो, तुम क्या निर्णय करोगे कि सदगुरु कौन है? तुम इतनी ही फिकर कर लो कि तुम्हारा संसार चुक गया? फिर तुम्हें असदगुरु से संबंध जुड़ ही नहीं सकता। क्योंकि असदगुरु दे सकता है संसार की ही वासनाएं, संसार के ही प्रलोभन, संसार की ही महत्वाकांक्षाएं। उसके आशीर्वाद सांसारिक हैं। तुम्हारा संबंध ही असदगुरु से नहीं जुड़ सकता। इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम सदगुरु को कैसे पहचानें, सवाल यह है कि हमारे भीतर अगर संसार की आकांक्षा क्षीण हो गई है, तो तुम्हारा जिससे संबंध बैठेगा, जिससे तुम्हारा प्रेम हो जाएगा, वह सदगुरु ही होगा। असदगुरु को तो तुम तत्क्षण देख लोगे। क्योंकि तुम ध्यान मांगोगे, वह धन का आशीर्वाद देगा। तुम परमात्मा मांगोगे, वह पद का आशीर्वाद देगा। तुम कुछ मांगोगे, वह कुछ देगा। तुम्हारी आंखें साफ-साफ देख लेंगी कि वह जो दे रहा है, यह वही संसार है जिसे तुम छोड़ आए; या जिसे तुम देख आए कि व्यर्थ है।
कोई निर्णय नहीं कर सकता कि सदगुरु कौन है, असदगुरु कौन है? लेकिन यह निर्णय तो तुम कर ही सकते हो कि तुम्हारे भीतर संसार का रस चुक गया है या शेष है? अगर चुक गया, तो तुम जिसे भी पा लोगे वह सदगुरु होगा।
और जिस व्यक्ति के जीवन में संसार का रस चुक गया है और परमात्मा की खोज शुरू हो गई है, उसे सदगुरु खोजना ही होगा। क्योंकि परमात्मा से सीधा-सीधा संबंध बनाना करीब-करीब असंभव है। मैं कहता हूं, करीब-करीब असंभव है; क्योंकि कभी-कभी बन जाता है। मगर निन्यानबे मौकों पर नहीं बनता। निन्यानबे मौकों पर बीच में एक सेतु की जरूरत पड़ती है। वही सेतु सदगुरु है।
हम तो समो चुके हैं तुझे सांस-सांस में
यह और बात है कि तुझे आग ही नहीं
क्या हो सकेगा इसका मदावा शराब से
यह जिंदगी का गम है, गमे-आशिकी नहीं
अहले-वफा में ऐसे भी कुछ नामुराद हैं
जिनको तेरी जफा भी मय्यसर हुई नहीं
ऐ ‘शाद’! क्या बात है कि बज्मे-हयात में
शमएं तो जल रही हैं, मगर रोशनी नहीं
यहां जल तो रहे हैं दीये सब तरफ, मगर रोशनी नहीं हो रही है, क्योंकि अभी तुम्हारे पास आंखें ही उन दीयों की रोशनी देखने के योग्य नहीं हैं। सूरज तो निकला हुआ है, मगर तुम अंधेरे में हो। तुम्हें आंख खोलने की याद ही भूल गई है। तुम आंख बंद किए खड़े हो और सूरज को देखना चाह रहे हो! सदगुरु का इतना ही अर्थ है, सदगुरु तुम्हें सूरज नहीं दे देगा, सदगुरु सिर्फ तुम्हें आंख खोलने की कला दे देगा, सूरज तो मौजूद है। सदगुरु तुम्हें परमात्मा नहीं दे देगा, परमात्मा तो मौजूद ही है, न देना है, न लेना है, लेकिन सदगुरु तुम्हारे भीतर सरगम बिठा देगा कि वह परम संगीत सुनाई पड़ने लगे। सदगुरु तुम्हें सुनने की कला दे देगा ताकि तुम्हारे कान उस मधुर रव को सुन लें, जो प्रतिपल मौजूद है। तुम्हारे कान अभी केवल शोरगुल सुनने में समर्थ हैं। बाजार का उपद्रव सुनने में समर्थ हैं। हंगामा होता हो तो सुन लेते हैं। भीड़-भाड़ की आवाज हो, शोरगुल हो, नारे हों, सुन लेते हैं। वह जो भीतर ओंकार का नाद हो रहा है, उसे नहीं सुन पाते। वह अति सूक्ष्म है।
कोई संगीतज्ञ से संबंध जोड़ना पड़ेगा, जो धीरे-धीरे एक-एक कदम सूक्ष्मता में तुम्हें उतारता जाए। किसी का हाथ पकड़ना होगा जिसे देखना आ गया है। अंधे आदमी को रास्ता पार करना हो तो किसी का हाथ पकड़ लेता है। और कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि जिसका हाथ पकड़ा है, हो सकता है वह भी अंधा हो, मगर यह भरोसा कि किसी का हाथ पकड़ा है बल दे देता है। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि जिन्होंने परमात्मा को नहीं जाना है, उनको भी जिन्होंने प्रेम और श्रद्धा से स्वीकार कर लिया है वे परमात्मा तक पहुंच गए हैं। गुरु तो निमित्त मात्र है।
ऐसी घटना भी घटती है।
मैंने सुना, एक अंधा आदमी राह के किनारे खड़ा रास्ता देख रहा है कि कोई आ जाए और उसे पार करा दे। तभी एक और आदमी भी आकर खड़ा हो गया पास में, वह भी अंधा है और किसी की राह देख रहा है। दोनों ने एक-दूसरे का हाथ टटोला, दोनों ने यह समझा कि चलो, आ गया कोई; दोनों रास्ता पार कर गए। उस पार जाकर दोनों ने एक-दूसरे को धन्यवाद दिया कि बड़ी कृपा की कि मुझे पार करवा दिया। दूसरे ने कहा कि आप क्या कहते हैं, कृपा आपने की कि मुझे पार करवा दिया। तब पता चला राज कि दोनों अंधे थे। मगर यह भरोसा आ गया कि कोई हाथ पकड़े है, यात्रा सुगम हो गई।
श्रद्धा आ जाए तो शक्ति आ जाती है। फिर अगर आंख वाले आदमी का हाथ मिल जाए तब तो कहना क्या? मैं तो सिर्फ यह उदाहरण के लिए कह रहा हूं कि कभी-कभी अंधों ने भी एक-दूसरे का साथ देकर पार करवा दिया है; तो आंख वाले का हाथ मिल जाए तब तो कहना क्या?
दीये जले हुए हैं, सूरज निकला हुआ है, फूल खिले हुए हैं, सिर्फ तुम्हें कला भूल गई है। तुम्हारी संवेदना क्षीण हो गई है। तुम जड़ हो गए हो। न तुम्हें सुनाई पड़ता, न तुम्हें दिखाई पड़ता, तुम्हारे हृदय में अब कोई धड़कन नहीं है। प्रेम बरस रहा है।
जीसस ने कहा है: ईश्वर प्रेम है। हम सुन भी लेते हैं, मगर समझ में नहीं आता। प्रेम बरस रहा है। इस क्षण भी बरस रहा है। ऐसी कोई घड़ी नहीं है जब तुम्हारे ऊपर प्रभु का प्रेम नहीं बरस रहा है। एक क्षण को भी उसका प्रेम का बरसना बंद हो जाए, तुम्हारे जीवन का सेतु टूट जाए। उसके प्रेम से ही तुम जी रहे हो। उसके प्रसाद से ही तुम श्वास ले रहे हो। उसके प्रसाद ही तुम्हारा अस्तित्व है। मगर पहचान नहीं रह गई है, बोध नहीं रह गया है। जिसे बोध हो, उसके साथ मैत्री बना लेने का नाम ही सदगुरु को खोजना है।
वो रिंदे पाकबाज हैं, छू लें अगर हमें
दोजख की आग को भी गुलिस्तां बनाएं हम
उन पियक्कड़ों से जरा दोस्ती हो जाए जो परमात्मा को पीकर बैठे हैं। जिन्होंने परमात्मा की शराब पी ली है, जिन्होंने वह पवित्र शराब पी ली है--
वो रिंदे पाकबाज हैं, छू लें अगर हमें
दोजख की आग को भी गुलिस्तां बनाएं हम
बस इतना हो जाए तो नरक की आग भी गुलिस्तां बन जाए, तो नरक की आग में भी फूल खिल जाएं, तो नरक का अंधेरा भी रोशनी हो जाए। नरक कहीं है ही नहीं सिवाय तुम्हारी आंख के बंद होने के। कहीं और नरक नहीं है। तुम्हारा अंधापन ही तुम्हारा नरक है। आंख खुल जाए तो स्वर्ग ही स्वर्ग है। स्वर्ग के अतिरिक्त यहां कुछ है ही नहीं। यह सारा का सारा स्वर्ग है। यह अस्तित्व सब रूपों का स्वर्ग है। लेकिन यह मैं जानता हूं कि लोग नरक में जी रहे हैं। यह बड़ी अड़चन की बात है, अस्तित्व पूरा का पूरा स्वर्ग है और मजा ऐसा है कि लोग नरक में जी रहे हैं अधिक लोग नरक में जी रहे हैं--कभी-कभी कोई स्वर्ग में जीता है।
कैसे संबंध जुड़े इस स्वर्ग से? कैसे घटना घटे? कैसे ये अंधेरी रात कटे? कैसे ये विरह के क्षण पूरे हों? किसी पियक्कड़ को खोज लो। किसी मतवाले को खोज लो। और मतवाले सदा हैं। तुम नहीं खोज पाते हो उसका कारण एक ही है सिर्फ कि तुम हमेशा पुराने मतवालों को खोज रहे हो, जो अब नहीं हैं। कोई बुद्ध को खोज रहा है, बुद्ध अब नहीं हैं। यह तो बात ऐसी साफ है कि अब बुद्ध नहीं हैं। कोई महावीर को खोज रहा है, महावीर अब नहीं हैं। और मजा यह है कि तुम जब महावीर मौजूद थे, तब तुम महावीर को नहीं खोज रहे थे, तब तुम कृष्ण को खोज रहे थे। और जब कृष्ण मौजूद थे, तब तुम किसी और को खोज रहे थे। तुम हमेशा मुर्दों को खोजते हो। और परमात्मा सदा जीवित रूप में मौजूद होता है। तुम्हारे मंदिरों में तुम मुर्दों की पूजा कर रहे हो और परमात्मा कहीं जिंदा है, चल रहा है, उठ रहा है, बैठ रहा है। अभी गीत कहीं गाया जा रहा है, तुम भगवदगीता पढ़ रहे हो। तुम कुरान की आयतें रट रहे हो, कहीं अभी आयतें उतर रही हैं। कहीं परमात्मा अभी फिर पुकार रहा है, लेकिन तुम वेद में उलझे हो, और कहीं वेद रचे जा रहे हैं, कहीं एक-एक शब्द ऋचा है।
मगर तुम्हारी कठिनाई यह है कि तुम सदा मुर्दे को पूजते हो। मुर्दे को पूजने के पीछे कारण है। मुर्दे की प्रतिष्ठा है, हजारों साल की प्रतिष्ठा है। तुम बाजार में जीने के आदी हो। बाजार में पुराने की क्रेडिट होती है। नाम बिकता है। नये को कौन खरीदता है? नये को बेचना मुश्किल है। नई चीज भी चलानी हो तो लोग पुराना नाम खरीद लेते हैं। पुराने नाम के खूब दाम मिलते हैं। तुम अगर नई साबुन बनाओ और लक्स टायलट साबुन का नाम खरीद लो, तो बिकेगी, बिक जाएगी, कोई फिकर न करेगा कि नई है कि पुरानी। लेकिन नई साबुन बनाओ तो बिकना आसान नहीं है। नाम चाहिए--लोग नाम खरीदते हैं। लोग नाम से परिचित हैं। लोग विज्ञापन खरीदते हैं--हजारों साल का विज्ञापन है।
मैंने सुना है, अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति एण्ड्रू कारनेगी विज्ञापनों के बड़े खिलाफ था। वह कभी एडवरटाइजमेंट देता नहीं था किसी अखबार में। लेकिन एक अखबार का मालिक उसके पीछे ही पड़ा था। वह कितना ही उसको भगाता, वह फिर लौट-लौट कर दो-चार दिन में आ जाता । उसको भरोसा था कि वह राजी कर लेगा। एक दिन सुबह ही सुबह पहुंचा, एण्ड्रू कारनेगी को उसने बगीचे में ही पकड़ लिया। एण्ड्रू कारनेगी ने कहा: भई, आ गए फिर तुम, मुझे विज्ञापन देने नहीं हैं। उसने पूछा: लेकिन क्यों नहीं देने हैं? आप मुझे एक दफे ठीक-ठीक समझा दें, मैं दुबारा न आऊं। क्यों नहीं देने हैं। तर्क क्या है? उसने कहा कि मेरी चीजें बिक ही रही हैं, मैं क्यों विज्ञापन दूं? लोग मेरी चीजों को खरीद ही रहे हैं, लोगों को पता ही है, विज्ञापन की मुझे कोई जरूरत नहीं है। तभी पहाड़ी के ऊपर बने हुए चर्च की घंटियां बजने लगीं। उस विज्ञापन मांगने वाले अखबार के मालिक ने कहा: आप सुनते हैं? यह चर्च कितने दिनों से वहां है? एण्ड्रू कारनेगी ने कहा कि यह सौ साल पुराना चर्च है। उस अखबार के मालिक ने कहा: अभी भी यह सुबह-शाम घंटियां बजाता है कि नहीं? नहीं तो लोग भूल जाएंगे। ये घंटियां विज्ञापन हैं कि मैं अभी हूं कि मुझे भूल मत जाना।
और कहते हैं एण्ड्रू कारनेगी थोड़ी देर चर्च की घंटियां सुनता रहा, और उसने विज्ञापन देना शुरू कर दिया। उसे बात समझ में आ गई। लोग विज्ञापन को अर्थ देते हैं, मूल्य देते हैं।
अब वेद का विज्ञापन पुराना है। इसीलिए तो सभी धर्मों के लोग यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं--हमारी किताब सबसे ज्यादा पुरानी है। वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि वेद पांच हजार साल से पुराने नहीं हैं। लेकिन लोकमान्य तिलक कहते हैं, नब्बे हजार साल पुराने हैं। हिंदू तो कहते हैं, सनातन हैं। हम कोई सालों में गिनती नहीं करना चाहते। क्योंकि सालों में गिनती करना खतरनाक है। कोई दूसरी किताब निकल आए जो ज्यादा पुरानी हो! सनातन हैं। सदा से हैं। ऐसा कभी था ही नहीं जब वेद नहीं थे। यह इतना आग्रह क्यों है?
जैनों से पूछो, जैन कहते हैं, जैन धर्म हिंदू धर्म से पुराना है। हमारे तीर्थंकर सबसे ज्यादा पुराने हैं। दलीलें खोजते हैं। वे कहते हैं, हमारे पहले तीर्थंकर का नाम ऋग्वेद में उपलब्ध है। और आदर से उपलब्ध है। तो उसका मतलब यह हुआ कि जब ऋग्वेद लिखा गया, तब भी हमारा धर्म था, हमारा पहला तीर्थंकर हो चुका था। और इतने आदर से उल्लेख किया गया है पहले तीर्थंकर का जैसा कि हम समसामयिक आदमी का कभी नहीं करते। समसामयिक की तो हम निंदा करते हैं। हम तो आदर ही पुराने का करते हैं। हमारी तो आदर की प्रक्रिया ही पुराने के लिए है। तो वे कहते हैं, इतने आदर से उल्लेख किया है पहले तीर्थंकर का, इससे सिद्ध होता है कि तीर्थंकर को मरे हजारों साल हो चुके होंगे। अगर समसामयिक होते तीर्थंकर तो एक तो आदर ही नहीं होता, नाम का उल्लेख भी नहीं हो सकता था। तो ऋग्वेद से ज्यादा पुराना जैन धर्म है।
सबकी चेष्टा यही है कि उनकी किताब, उनका धर्म सबसे ज्यादा पुराना हो। क्यों? पुराने की प्रतिष्ठा है। पुराने के साथ परंपरा जुड़ जाती है। हजारों साल का इतिहास, कहानियां, कथाएं, घटनाएं जुड़ जाती हैं। बल पैदा हो जाता है। जब नया पैदा होता है तो उसके साथ न कोई परंपरा होती है, न कोई कहानियां होती हैं, न कोई पुराण होते हैं। मगर परमात्मा सदा ही नया है। परमात्मा सदा नूतन है, नित-नूतन है। तुम्हारी अड़चन यही है कि तुम पुराने में खोजते हो और नहीं पाते। और पुराने में खोजने के कारण तुम पंडित के हाथ के शिकार हो जाते हो। क्योंकि पंडित पुराने का धंधा करता है। पंडित पुराने से जीता है। पंडित परंपरा का शोषण करता है। तुम्हारी परंपरा की आकांक्षा का पंडित ठीक-ठीक शोषण कर लेता है। फिर तुम्हें पंडित के हाथ पड़ जाना होता है।
और पंडित तुम्हें सांत्वना दे सकता है, सत्य नहीं। सत्य तो उसे खुद भी नहीं मिला है। उसके हाथ में भी मुर्दा शब्द हैं। वह मुर्दा शब्दों से ही तुम्हें भर देगा। तुम्हारे मस्तिष्क में भी मुर्दा शब्द डाल देगा।
सदगुरु की खोज तो तभी हो सकती है जब तुम एक बात समझ लो कि अब बुद्ध तो मिलेंगे नहीं, अब किसी जीवित बुद्ध को तलाशना है। अब महावीर तो मिलेंगे नहीं, अब किसी जीवित महावीर को तलाशना है। और यह भी खयाल रखना कि महावीर एक दफा ही एक ढंग के होते हैं। दूसरी दफा उसी ढंग के नहीं होते। इस जगत में पुनरुक्ति नहीं होती। यह भी एक अड़चन है खोजी के लिए। तुमने एक ढांचा बना लिया है। चलो, ठीक, आज के महावीर को खोज लेंगे, मगर आज का महावीर प्राकृत भाषा नहीं बोलेगा। कैसे बोलेगा? आज का महावीर हो सकता है हिंदी बोले, मराठी बोले, गुजराती बोले; और तुम प्राकृत बोलने वाले महावीर को खोजोगे, क्योंकि मूल महावीर ने प्राकृत बोली थी। नहीं पाओगे।
महावीर का एक ढंग था, एक जीवन-दृष्टि थी, एक शैली थी। अद्वितीय थी, अनूठी थी, मगर इस दुनिया में कार्बनकॉपी होती ही नहीं। और कार्बनकॉपी का खतरा है। अगर तुम महावीर को खोजने गए तो किसी कार्बनकॉपी के चक्कर में पड़ जाओगे। कहीं न कहीं लोग हैं जो कार्बनकॉपी कर रहे हैं, जो ठीक महावीर जैसे ही चल रहे हैं, उठ रहे हैं, बैठ रहे हैं, वैसे ही भोजन कर रहे हैं, उसी ढंग से नग्न हैं, उसी ढंग का उन्होंने आचरण बना लिया है, उनके चक्कर में तुम पड़ जाओगे।
और ध्यान रखना, परमात्मा कभी पुनरुक्त नहीं होता। परमात्मा सदा ही अद्वितीय है, बेजोड़ है। महावीर बस एक बार होते हैं, दुबारा नहीं होते--न तो महावीर के पहले कभी हुए थे, न महावीर के बाद कभी होंगे। मोहम्मद एक ही बार होते हैं, दुबारा नहीं होते हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि परमात्मा होना बंद हो जाता है। परमात्मा रोज नये रूप लेता है। परमात्मा सृजनात्मक है।
नये को पहचानने की क्षमता चाहिए, तो सदगुरु मिलेगा। अगर पुराने की पकड़ है तो तुम्हें नकलची मिलेंगे, अभिनेता मिलेंगे; कुशल अभिनेता मिल जाएंगे; पंडित मिलेंगे, पुजारी मिलेंगे, पुरोहित मिलेंगे, अनुयायी मिलेंगे, मगर मौलिक अनुभव को उपलब्ध व्यक्ति नहीं मिल पाएगा। इस सारी पक्षपात की धारणा को आंख से उतार कर जो खोजने निकलता है, उसे निश्चित सदगुरु मिल जाता है। सदगुरु सदा मौजूद है। इस पृथ्वी पर ऐसा कभी नहीं होता जब परमात्मा का दीया कहीं न कहीं प्रगाढ़ होकर न जलता हो। ऐसा हो ही नहीं सकता। उसकी अनुकंपा अपार है। उसकी अनुकंपा का ही तो यह प्रमाण होगा कि वह अब भी आदमी से निराश नहीं हुआ है, अब भी कहीं उतरता है, अब भी कहीं पुकारता है, वैसे ही जैसे पुराने दिनों में पुकारता था, अब भी पुकारता है। मगर तुम्हें उसकी नई भाषा समझनी होगी, नया रंग-ढंग समझना होगा। वह आज के अनुकूल होगा। और सदा ही चूंकि नया होगा, इसलिए जो लोग पुराने नक्शे लेकर चलेंगे, उन्हें वह कभी भी नहीं मिल पाएगा। वह किसी पुराने नक्शे के ढांचे में बैठेगा नहीं। इसलिए बड़ी खुली आंख चाहिए। लेकिन अगर तुम खोज में निकले हो, अगर सच में ही खोज तुम्हारे रोएं-रोएं को पकड़ ली, तो यह घटना घटेगी।
हंगामें उठ रहे हैं मेरी सांस-सांस में
सर से कदम तक इक दिले-बेकरार हूं
अगर तुम्हारे रोएं-रोएं में बेकरारी है, बेचैनी है, खोजना ही है सदगुरु को, प्यास है, सघन प्यास है, ज्वलंत प्यास है, तुम्हारा रोआं-रोआं जल रहा है--
हंगामें उठ रहे हैं मेरी सांस-सांस से
सर से कदम तक इक दिले-बेकरार हूं
--तो देर नहीं लगेगी।
जितनी प्रगाढ़ होगी अभीप्सा, उतने ही शीघ्र मिलन हो जाता है। और सदगुरु से पहली दफा आंख मिली कि बस बात हो गई। यह भी पहली आंख का प्रेम है। पहली दृष्टि। बस आंख तुम्हारी साफ होनी चाहिए, पुराने कूड़ा-करकट से भरी नहीं होनी चाहिए; आंख साफ हो, एक बार सदगुरु से मिली तो बात हो गई।
दुश्मनों ने तो दुश्मनी की है
दोस्तों ने भी क्या कमी की है
अक्ल से सिर्फ जहन रौशन था
इश्क ने दिल में रोशनी की है
यह प्रेम की घटना है। यह महा प्रेम की घटना है।
इश्क ने दिल में रोशनी की है
अक्ल से सिर्फ जहन रौशन था
शास्त्रों से ज्यादा से ज्यादा बुद्धि में थोड़ी रोशनी हो सकती है। मगर वह रोशनी बहुत काम की नहीं, उधार है, बासी है, पराई है। अपनी रोशनी तो हृदय में उठती है। अपनी लपट तो हृदय में जगती है।
अक्ल से सिर्फ जहन रौशन था
इश्क ने दिल में रोशनी की है
जब तुम्हारे भीतर प्रकाश धड़कता है हृदय में, तब तुम ठीक रास्ते पर आ गए। खोजो उन आंखों को जिनको देखते ही प्रेम जग जाए। खोजो उन हाथों को जिनके स्पर्श से ही प्रेम जग जाए। फिर सब सुगम हो जाता है।
ऐसी ही तो घटना रज्जब के जीवन में घटी। घोड़े पर सवार, बारात जाती थी कि दादू दयाल बीच में आकर खड़े हो गए, आंख से आंख मिली और बस बात हो गई। बात की बात हो गई। उतार कर फेंक दिया सिर से मौर, दादू के चरणों में सिर रख दिया--दादू को सिरमौर बना लिया।
मार भली जो सतगुरु देहि। फेरि बदल औरे करि लेहि।।
सस्ता नहीं है सदगुरु का साथ फिर। सदगुरु मारेगा, मिटाएगा, तोड़ेगा। हिम्मतवर ही उसके पास हो सकते हैं। जो सांत्वना की तलाश में गए थे वे तो दूर से ही भाग खड़े होंगे। तुम तो गए थे कि कोई तुम्हारे गले में फूलमाला पहनाएगा और वहां गर्दन काटी जाने लगी, तुम कैसे टिकोगे? गर्दन कटवाने की हिम्मत हो तो ही टिकोगे। सिर रख दिया चरणों में, इसका मतलब समझते हो? इसका मतलब सिर्फ औपचारिक नहीं होता, इसका मतलब सिर्फ यह कोई प्रणाम करने का कोई ढंग नहीं है, सिर रख दिया चरणों में इसका मतलब होता है--यह रही गर्दन, काटना हो काटो। मैं ना-नुच नहीं करूंगा। हटेगी नहीं यह गर्दन। उठा लो तलवार और काट दो, तो यहीं इसी मस्ती से कट जाऊंगा; शिकायत नहीं होगी; इसी आनंद-अहोभाव से मर जाऊंगा, मिट जाऊंगा। मुझे मिटा दो, मैं अपने ढंग से रह कर देख लिया हूं और पीड़ा के अतिरिक्त कुछ भी न पाया, अब मुझे मिटा दो, अब मुझे जला दो, मेरी मृत्यु बनो, मेरी सूली बन जाओ। यह अहंकार मुझे जन्मों-जन्मों तक सताया है। इस अहंकार से मैंने न मालूम कितने-कितने सपने देखे, कितने विषाद सहे, इस अहंकार ने मुझे कहां-कहां नहीं भटकाया है, इस अहंकार में बहुत भटक चुका हूं, अब तुम इसे मिटा दो। मुझमें मेरा-भाव न रह जाए, मेरी खुदी मिटा दो।
चरणों में सिर रखना सिर्फ नमस्कार नहीं है। इसलिए पश्चिम के लोग थोड़े हैरान होते हैं--यह भी कोई नमस्कार करने का ढंग है कि किसी के पैरों में सिर रखो! उन्हें पता नहीं यह नमस्कार का ढंग ही नहीं है। इसका नमस्कार से कुछ लेना-देना नहीं है। यह तो कुछ और ही बात है। यह तो समर्पण का भाव है। यह तो समर्पण की घोषणा है कि यह रहा सिर, अब जो मर्जी हो वैसा करो।
मार भली जो सतगुरु देहि।
रज्जब कहते हैं: उससे ज्यादा प्यारी दुनिया में और कोई चीज नहीं। सदगुरु की मार। और मारेगा सब तरफ से, क्योंकि न मालूम कितना कचरा है सदियों-सदियों पुराना जो छीनना है। और जिसे तुम संपत्ति समझ कर पकड़े बैठे हो। और तुम्हारे भीतर न मालूम कितने रोग हैं जिन रोगों को नष्ट करना है। उन रोगों को तुमने अब तक अपना जीवन जाना है। तुम्हारे भीतर न मालूम कितने न्यस्त स्वार्थ हैं--काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है। तुम्हारे भीतर न मालूम कितनी विषाक्त मनोदशाएं हैं, उन सबको मिटाना है। एक-एक करके काटना है। तुम्हें तैयार करना है।
मार भली जो सतगुरु देहि। फेरि बदल औरे करि लेहि।।
जो उस मार को झेलने को राजी हो जाता है स्वागत से, सम्मान से, श्रद्धा से--‘फेरि बदल औरे करि लेहि’--गुरु उसे बदल कर कुछ का कुछ कर लेता है--और ही बना देता है! रूपांतरण हो जाता है। इंच-इंच काटना पड़ता है। इसलिए थोड़े से हिम्मतवर योद्धा ही सदगुरुओं के पास रुकते हैं। कमजोर भाग जाते हैं। कमजोर भागने के लिए न मालूम कितने उपाय खोज लेते हैं, कितने तर्क खोज लेते हैं। न मालूम क्या-क्या उनके मन में विचार उठ आते हैं और भाग खड़े होते हैं। मगर ध्यान रखना, वे सब भागने के लिए व्यवस्थाएं हैं, पलायन की व्यवस्थाएं हैं।
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार। त्यूं सतगुरु की मार विचार।।
और जब सतगुरु मारे, उठे उसकी तलवार, काटने लगे तुम्हारी गर्दन, तो रज्जब कहते हैं: सोचना अपने मन में, क्योंकि मन तो भागने को होगा, और मन कहेगा इसलिए थोड़े ही आए थे; आए थे कि थोड़ा ज्ञान हो जाए, आए थे कि थोड़ी शांति हो जाए, आए थे कि थोड़ा सुख हो जाए, आए थे कि थोड़ी संपदा मिल जाए, आए थे कि थोड़ा सम्मान बढ़े, आए थे कि दुनिया में थोड़ा कुछ कर दिखाएं--नाम छोड़ जाएं, कुछ हस्ताक्षर बना जाएं--कोई गर्दन कटाने तो आए नहीं थे। यह क्या होने लगा?
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार।
तो रज्जब कहते हैं, जाकर देखना, जैसे कुम्हार माटी को कूटता है, बिना कूटे माटी तैयार नहीं होती; तुम भी माटी हो, अभी माटी से ज्यादा नहीं हो, क्योंकि अभी मृत्यु ही तुम्हारे जीवन की लक्षणा है। हां, तुम्हारी माटी में कहीं अमृत भी छिपा है, मगर कूट-कूट कर उसे मुक्त करना होगा। तुम्हारी देह में आत्मा भी दबी पड़ी है, मगर उसके लिए राह बनानी होगी। अभी तो तुम देह ही देह हो। अभी तो तुम शरीर ही शरीर हो--माटी और कुछ भी नहीं, बस माटी।
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार।
तो गुरु उठाएगा अपने शस्त्र, कूटना शुरू करेगा; मृत्यु से अमृत को अलग करना है, जड़ से चेतन को अलग करना है, निद्रा से होश को अलग करना है।
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार। त्यूं सतगुरु की मार विचार।।
सदा ध्यान रखना, जब मार पड़े तो घबड़ा मत जाना। सोचना कि ठीक, कुम्हार के हाथ में पड़ गया हूं, अब माटी पिटती है, अब कुछ होगा।
फेरि बदल औरे करि लेहि।
निजामे-आलम बदल रहा है, खुदा भी शायद नया बनेगा
नये-नये से हैं सब मुजाविर, नई-नई सी हैं खानकाहें
रहे-तलब में जो थक के बैठें, मेरी नजर में वे बुलहविस हैं
रहे-तलब में कयाम कैसा? रहे-तलब में कहां पनाहें
जो खोजने चला है, सच में ही खोजने चला है, जो सत्य का खोजी है, सत्यार्थी है, ‘रहे-तलब में कयाम कैसा?’ फिर वह सोचता नहीं कि दांव पर क्या लगाना और क्या बचाना! ‘रहे-तलब में कहां पनाहें?’ फिर वह शरण भी नहीं लेता। अपनी गर्दन छिपाता भी नहीं। गुरु बरसता है तो वह छाता नहीं तान लेता। गुरु बरसता है, तो वह अपने चारों तरफ बचाव के लिए आयोजन नहीं कर लेता, रक्षा का इंतजाम नहीं करता। ‘रहे-तलब में कहां पनाहें?’
और, ‘रहे-तलब में जो थक के बैठें, मेरी नजर में वे बुलहविस हैं।’ और जो गुरु के पास आकर जल्दी ही थक जाएं, उसका मतलब इतना ही है कि अभी संसार से उनका मन मुक्त नहीं हुआ था, अभी संसार में कुछ लगाव बना था, अभी संसार में वासना बनी थी; यूं ही चले आए थे, कच्चे-कच्चे चले आए थे, अभी पके नहीं थे, अभी परिपक्व नहीं थे; सुन लिया होगा कि संसार व्यर्थ है, मगर जाना नहीं था; पढ़ लिया होगा कि सब संसार माया है, मगर यह अपनी अनुभूति नहीं थी। ‘रहे-तलब में जो थक के बैठें,’ और जो कहें कि बस थक गए, जरा में थक जाएं, ‘मेरी नजर में वे बुलहविस हैं।’ वे वासनाग्रस्त लोग हैं, भूल से आ गए।
‘रहे-तलब में कयाम कैसा?’ विश्राम कैसा? सत्य को खोजने जो चला है, वह सब दांव पर लगाता है, वह कुछ भी बचाता नहीं--‘रहे-तलब में कहां पनाहें?’ और वह कोई रक्षावरण अपने चारों तरफ खड़ा नहीं करता--न बुद्धि के, न विचार के, न देह के। सब तरह से अपने को खुला छोड़ देता है।
भाव भिन्न कछु औरे होइ।
और जब गुरु मारता है, तो यह मत सोचना कि नाराज है। गुरु और नाराज! असंभव। यह मत सोचना कि तुम्हारा अपमान कर रहा है। गुरु और किसी का अपमान करे! असंभव।
भाव भिन्न कछु औरे होइ।
उसका भाव कुछ और है। कोई कुम्हार मिट्टी को पीट रहा है तो अपमान थोड़े ही कर रहा है, सच में सम्मान कर रहा है। इस मिट्टी को चुना है, इस मिट्टी से कुछ मूर्ति बनानी है। और भी मिट्टियां थीं बहुत, उनको नहीं कूटा है, उनको नहीं पीटा है, उनको योग्य नहीं समझा है। जब मूर्तिकार एक पत्थर पर छेनी लेकर जुट जाता है तोड़ने, तो पत्थर का अपमान नहीं है, सम्मान है। पत्थर तो बहुत थे दुनिया में, इस पत्थर को चुना है, इस पत्थर से भगवत्ता निर्मित होगी, इस पत्थर में कुछ विशिष्टता है।
भाव भिन्न कछु औरे होइ। ताते रे मन मार न जोइ।।
इसलिए मार पर ध्यान मत देना, भाव पर ध्यान देना। गुरु क्या कर रहा है इसका ध्यान ही मत देना, सदा खोजना उसकी आकांक्षा क्या है? और वहां तुम सदा अनुकंपा पाओगे। और वहां तुम सदा करुणा पाओगे। और वहां तुम सदा प्रेम पाओगे। और जितना ज्यादा प्रेम होगा, गुरु उतना ही कठोर होगा।
जैसा लोहा घड़ै लुहार। कूटि-काटि करि लैवै सार।।
लोहे जैसे ही कठोर हो तुम, कठिन हो तुम, आग में तुम्हें गलाना होगा, तो ही तुम तरल हो पाओगे। आग में तुम्हें गलाना होगा, तो ही तुम नरम हो पाओगे।
जैसा लोहा घड़ै लुहार। कूट-काटि करि लैवै सार।।
और कूटेगा और काटेगा, तभी सार उत्पन्न हो सकेगा। जैसे तुम हो, ऐसे तो असार हो। अनगढ़ पत्थर हो, कि मिट्टी का ढेर हो, कि लोहा हो।
मारै मारि मिहरि करि लेहि।
एक हाथ से मारता है गुरु और जो मार को झेल लेता है उसकी, उसी क्षण पाएगा उसकी मेहर, उसकी अनुकंपा की वर्षा भी दूसरे हाथ से हो रही है। मगर उसको ही पता चलेगा जो मार झेल लेगा स्वागत से। जो भाग खड़ा होगा, वह उसकी मेहर से वंचित रह जाएगा, उसकी अनुकंपा से वंचित रह जाएगा।
मारै मारि मिहरि करि लेहि।
ऐसे मारता है, फिर पुचकार लेता है। चोट करता है, फिर सहलाता है। फिर-फिर चोट करेगा। और हर चोट पहली चोट से ज्यादा गहरी होती जाएगी। और हर चोट के बाद, हर गहरी चोट के बाद गहरी अनुकंपा तुम्हें उपलब्ध होने लगेगी। ऊपर से जो देखेगा, उसे कुछ समझ में न आएगा। ये भीतर के राज हैं; उन पर ही खुलते हैं जो भीतर प्रवेश करते हैं।
मारै मारि मिहरि करि लेहि। तो निपजै फिरि मार न देहि।।
यह मार तब तक चलती रहती है जब तक कि तुम्हारे भीतर का दीया न जल जाए, ज्ञान की दृष्टि पैदा न हो जाए, साक्षी का जन्म न हो जाए, सार का आविर्भाव न हो जाए।
तो निपजै फिरि मार न देहि।
और जब इस दृष्टि का जन्म हो जाता है, फिर कोई मार नहीं है। फिर गुरु तो मारता ही नहीं है। फिर मृत्यु भी नहीं मार सकती। फिर मार ही नहीं है, फिर मृत्यु ही नहीं है। फिर अमृत है। मगर उस अमृत के पहले बहुत बार मरना होता है। और धन्यभागी हैं वे जो गुरु के हाथ से बहुत बार मरने को तैयार होते हैं।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।
जैसे तीर बनाने वाला तीर को संड़सी से पकड़ता है, हथौड़ी से कूटता है, सीधा करता है।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि।
जैसे तीर को पकड़ लिया हो संड़सी से तीरगर ने, ऐसा गुरु शिष्य को पकड़ लेता है। छूटना मुश्किल हो जाता है। भागना मुश्किल हो जाता है। जो पहले ही भाग गए, पकड़ के पहले भाग गए वे भाग गए, जो पकड़ में आ गए, वे नहीं भाग पाते।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।
तुम्हारें तीर बड़े इरछे-तिरछे हैं। इनसे कोई लक्ष्य-भेद नहीं हो सकता। चलाओ कहीं, पहुंचेंगे कहीं। ये सीधे ही नहीं हैं। तीर को तो सीधा होना चाहिए तो ही लक्ष्य-भेद हो सकता है। तुम्हारी सब चाल इतनी तिरछी है, तुम इतने तिरछे चलते रहे हो जन्मों-जन्मों में कि तुम्हारा कुछ पक्का नहीं, कहो कुछ, करो कुछ, करना कुछ चाहते थे--तुम्हारा कुछ पक्का नहीं है।
अमरीका का प्रसिद्ध विचारक और लेखक मार्क ट्वेन एक सभा से व्याख्यान करके लौटा। उसकी पत्नी ने उसके घर आने पर पूछा: व्याख्यान कैसा रहा? मार्क ट्वेन ने पूछा: कौन सा व्याख्यान? जो मैं देना चाहता था, वह? या जो मैंने दिया, वह? या अब जो मैं सोचता हूं जो मुझे देना चाहिए था, वह? कौन सा व्याख्यान?
आदमी पर्त दर पर्त तिरछा है। तुम भी जानते हो। कहते कुछ--मुंह कुछ कहता, आंख कुछ कहती; मुंह से हां कहते हो, आंख न कहती है; मुंह से न कहते हो, आंख हां कहती; और भीतर कुछ और, भाव कुछ और; न तुम कहे की सुनोगे, न तुम भाव की सुनोगे, करोगे तुम जब तब न मालूम क्या करोगे? कुछ पक्का नहीं है। आदमी बिलकुल तिरछा-तिरछा है, सीधा नहीं है। गुरु को इस तीर को सीधा करना होगा। तुम्हारी वाणी, तुम्हारे विचार, तुम्हारे आचरण, तुम्हारे अस्तित्व को एक तारतम्यता देनी होगी, एक सुसंबद्धता देनी होगी, एक संगति देनी होगी। तुम अभी विवादग्रस्त हो। तुम्हारे भीतर बहुत दिशाएं चल रही हैं। तुम्हारा एक हाथ पश्चिम जा रहा है, एक हाथ पूर्व जा रहा है; एक पैर दक्षिण जा रहा है, एक पैर उत्तर जा रहा है; तुम चारों दिशाओं में चारों धामों की यात्रा पर एक साथ निकल पड़े हो। चारों धाम इकट्ठे कर लेने का इरादा है। तुम कहीं नहीं पहुंचोगे। क्योंकि तुम पहुंच सकते हो तभी जब तुम समग्रीभूत होकर एक दिशा में गति करो।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।
और कठिनाइयां तो होंगी--मिट्टी कूटी जाएगी, लोहा गलाया जाएगा, पत्थर तोड़ा जाएगा, तीर को कूटा जाएगा, पीटा जाएगा, सींकचों में पकड़ा जाएगा।
हमने भी इक सुबह की खातिर
जलते-बुझते रात गुजारी
दुख की धूप में सूख के अक्सर
फलती है जीवन की क्यारी
दुख की धूप में सूख के अक्सर, फलती है जीवन की क्यारी। इस दुख को आनंद भाव से स्वीकार कर लेने का नाम ही तप है। गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है, वही तपश्चर्या है।
मन तोड़न का नाहीं भाव।
तुम्हें तोड़ना नहीं चाहता गुरु, तुम्हें बनाना चाहता है। मगर बनाने के लिए तोड़ना पड़ता है।
मन तोड़न का नाहीं भाव। जे तुछ तूटि जाय तौ जाव।।
और जो टूट जाते हों, उनका जिम्मा उन्हीं पर है। वे तुच्छ हैं, निकम्मे हैं, समझे नहीं बात, गुरु का हथौड़ा देखा और भाग खड़े हुए, एकाध चोट खाई और भाग खड़े हुए, इतना भी मौका न दिया कि चोट के बाद मेहर बरस जाती।
ऐसा रोज यहां हो रहा है। क्योंकि यह तो प्रयोगशाला है। यहां लोग बनाए-मिटाए जा रहे हैं। यहां मिट्टियां कूटी जा रही हैं। यहां लोहे गलाए जा रहे हैं। यहां रोज यह होता है, कोई व्यक्ति जरा सी बात उसके विपरीत पड़ जाए, एक शब्द उसके विपरीत पड़ जाए, बस फिर दुबारा दिखाई नहीं पड़ता। फिर जो भागा सो भागा। फिर वह लौट कर नहीं देखता। वह यह भी मौका नहीं देता कि जो चोट की गई थी, उसको सहलाने का समय दे देता। वह इतना भी मौका नहीं देता कि जो मार की गई थी, उस मार के पीछे जो करुणा की वर्षा होने वाली थी, उसका भी थोड़ा स्वाद ले लेता। बस वह भाग ही जाता है। तुच्छ आदमी धैर्यवान नहीं होता। और ये रास्ते धीरज के रास्ते हैं। जीवन को रूपांतरण करना धीरज की बात है।
जे तुछ तूटि जाय तौ जाव।
और अगर कोई टूट जाता हो तो ध्यान रखना, वह अपने ही कारण टूट गया।
मन तोड़न का नाहीं भाव।
शिष्य को तो प्रतीक्षा में होना चाहिए, अनंत धैर्य में होना चाहिए।
इस कदर थे तेरी खातिर गोशबर आवाज हम
जब कली चटकी तेरे पैगाम का धोखा हुआ
शिष्य को तो ऐसा होना चाहिए कि कान ही कान हो जाए जब गुरु बोले, आंख ही आंख हो जाए जब गुरु को देखे, हाथ ही हाथ हो जाए जब गुरु का हाथ उसे छुए।
इस कदर थे तेरी खातिर गोशबर आवाज हम
ऐसी टकटकी लगा कर सुन रहे थे, ऐसा कान हो गए थे--
इस कदर थे तेरी खातिर गोशबर आवाज हम
जब कली चटकी तेरे पैगाम का धोखा हुआ
इधर फूल भी खिला हो, जरा सी आवाज हुई हो और फूल के खिलने में कोई बड़ी आवाज नहीं होती--कली चटकी तेरे पैगाम का धोखा हुआ, लगा तेरा कोई संदेश आया। ऐसे ही संदेश आते हैं। इतने धैर्य में, इतनी शांति में, इतने अहोभाव में; कली चटकने की तरह ही संदेश आते हैं। हथौड़ों की चोट है और कलियों का चटकना भी है। हथौड़ों की चोट को ही मत देखते रहना, क्योंकि पीछे कली भी चटकने वाली है। हथौड़े की चोट में ही खो गए, तो चूक गए। अवसर द्वार आया था, भर जाते तुम, सदा के लिए भर जाते, खाली के खाली रह गए।
ज्यूं कपड़ा दरजी के जाय। टूक-टूक करि लेहि बनाय।।
बनाने के पहले टुकड़े-टुकड़े करना जरूरी है। क्यों? क्योंकि तुम गलत ढंग से जुड़ गए हो। तुम्हारे सब अंग गलत ढंग से जुड़ गए हैं। तुम्हारा हाथ वहां है जहां पैर होना था, तुम्हारा पैर वहां है जहां सिर होना था, तुम्हारा सिर वहां है जहां पेट होना था। तुम कहोगे यह भी कोई बात हुई?
जॉर्ज गुरजिएफ ने इसका बहुत गहरा विश्लेषण किया है--इस सदी का एक सदगुरु। उसने लिखा है कि जब किसी आदमी के मस्तिष्क में कामवासना चलती है, तो उसका मतलब हुआ--यौन-केंद्र मस्तिष्क में चला गया। यौन-केंद्र पर कामवासना की ऊर्जा रहे, यह स्वाभाविक। लेकिन मस्तिष्क में चली जाए, यह विकृति। जब कोई आदमी भाव भी खोपड़ी से करने लगता है, तो गड़बड़ हो गई; भाव हृदय में होना चाहिए, हृदय उसका केंद्र है। तो हृदय और मस्तिष्क मिश्रित हो गए; गड्डमड्ड हो गए, खिचड़ी बन गई। तुम्हारे सब अंग-प्रत्यंग गलत जुड़ गए हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मेरा विचार है कि मेरे भीतर आपके प्रति श्रद्धा पैदा हो रही है। मैं पूछता हूं--विचार? श्रद्धा पैदा होती है तो विचार नहीं होता। श्रद्धा का विचार से कोई संबंध नहीं है। श्रद्धा तो विचारातीत है। श्रद्धा में विचार कहां? संदेह में विचार होता है, संदेह विचार है, श्रद्धा विचार से मुक्ति है। इसलिए तो विचार करने वाले आदमी को श्रद्धा करने वाला आदमी अंधा मालूम होता है। उसकी बात में बल है। वह कहता है--सब श्रद्धा अंधी होती है, क्योंकि विचार की जगह नहीं है उसमें, तर्क का उपाय नहीं है उसमें। जब कोई कहता है कि मेरा विचार है कि मेरे मन में आपके प्रति श्रद्धा पैदा हो रही है, तो वह सिर से श्रद्धा कर रहा है जो कि गलत बात है। श्रद्धा का केंद्र वहां नहीं है, श्रद्धा का केंद्र हृदय है।
जब तुम किसी के प्रेम में पड़ जाते हो और जब तुम प्रेम की बात करते हो, तुमने खयाल किया, अचानक ही तुम्हारा हाथ अपने हृदय पर चला जाता है जब तुम प्रेम की बात करते हो। कोई ऐसा नहीं करता कि अपने सिर पर हाथ रख कर कहे--मुझे तुमसे प्रेम हो गया है। अगर ऐसा कोई आदमी करे तो क्या होगा? इसका मतलब है कि सब गड़बड़ हो गया है। जब प्रेम होता है तो हाथ हृदय पर जाता है, हृदय प्रेम का केंद्र है। तर्क का केंद्र मस्तिष्क है। तुम भीतर बिलकुल गड्डमड्ड हो गए हो। तुम्हारे सब तार गलत-सही जुड़ गए हैं। कुछ का कुछ हो गया है। जैसे यंत्र के अंग-प्रत्यंग गलत जुड़ गए हों।
सब तुम्हारे भीतर है। ऐसा ही समझो कि कार है खड़ी द्वार पर, सब उसके भीतर है, लेकिन चीजें गलत-सलत जुड़ी हैं--जहां इंजन होना चाहिए, वहां इंजन नहीं है; जहां ब्रेक होनी चाहिए, वहां ब्रेक नहीं हैं, वे कहीं और जुड़े हैं; सब अस्त-व्यस्त हो गया है, यह गाड़ी चल नहीं सकती। तुम्हारी भी जीवन की गाड़ी कहां चल रही है? तुम्हारी जीवन की गाड़ी शाब्दिक अर्थों में गाड़ी है। यह शब्द सुनते हो? गाड़ी हम बनाए हुए हैं उस चीज के लिए जो चलती है, लेकिन गाड़ी का मतलब होता है--गड़ी; चलने वाली नहीं। तुम्हारी गाड़ी बिलकुल गड़ी है, सच में गाड़ी है, चलती-वलती नहीं, कहां चलना है, कहां जाना है, यहीं गड़े-गड़े मर जाना है। लोग वहीं पैदा होते हैं, वहीं मर जाते हैं, इंच भर जीवन में यात्रा नहीं होती--वही के वही मर जाते हैं जैसे आए थे। और सब लेकर आए थे।
तो गुरु तोड़ेगा।
ज्यूं कपड़ा दरजी के जाय। टूक-टूक करि लेहि बनाय।।
पहले काटेगा। जहां-जहां गलत अंग जुड़ गए हैं, सब काट देगा। कभी-कभी ऐसा हो जाता है न, तुम गिर पड़े, हड्डी टूट गई, फिर हड्डी गलत जुड़ गई । तो सर्जन को फिर से तोड़नी पड़ती है। फिर ठीक से जोड़नी पड़ती है।
सदगुरु सर्जन है। और तुम्हारी हड्डियां ही गलत नहीं जुड़ी हैं, तुम्हारा सब-कुछ गलत जुड़ गया है। क्योंकि तुमने अज्ञान में सब जोड़ लिया है। तुम्हें कुछ पता ही नहीं था क्या कहां होना चाहिए।
टूक-टूक करि लेहि बनाय।
तोड़ने में पीड़ा भी होगी लेकिन...
त्यूं रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब झेल।।
लेकिन इसको खेल की तरह लेना। सतगुरु का खेल समझना।
त्यूं रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब झेल।।
खेल ही समझ कर झेलो तो झेल पाओगे। अगर बहुत गंभीर हो गए, बहुत परेशान हो गए, बहुत बेचैन हो गए, तो भाग जाओगे। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई आदमी ऑपरेशन की टेबल से बीच में भाग जाए, तो जितनी हालत पहले खराब थी उससे ज्यादा खराब हालत अब हो जाएगी। पहले ही ठीक थे। इसलिए जो लोग अधकचरे धार्मिक हो जाते हैं, उनकी दुर्गति बहुत है, उनकी दुर्दशा बहुत है। या तो ऑपरेशन की टेबल पर ही मत जाना।
मैंने सुना है ऐसा हुआ था। एक नेताजी का ऑपरेशन हुआ। उनका मस्तिष्क निकाल कर चिकित्सक उसको साफ कर रहे थे--नेताओं का मस्तिष्क साफ करने की जरूरत पड़ती ही है। असल में हर साल नेताओं के मस्तिष्क को निकाल कर, साफ-सुथरा करके फिर से रखना चाहिए। वे साफ-सुथरा कर रहे थे, समय लग रहा था साफ-सुथरा करने में--नेताजी का मस्तिष्क, समय लगेगा ही--तभी एक आदमी भागा हुआ भीतर आया और उसने कहा: नेताजी, नेताजी, आप पड़े यहां क्या कर रहे हो? आप प्रधानमंत्री हो गए हो। वे नेताजी तो उठे और चलने लगे। डॉक्टरों ने कहा: रुको भाई, कहां जा रहे हो? आपका मस्तिष्क अभी खोपड़ी के बाहर है। उसने कहा: अब हमें मस्तिष्क की जरूरत ही क्या, प्रधानमंत्री हो गए! अब मस्तिष्क सम्हाल कर रखना, अब हमें कोई जरूरत नहीं है।
ऑपरेशन की टेबल से बीच में मत भाग जाना। नहीं तो और दुर्दशा हो जाती है। मेरा भी यह अनुभव है, जिन्होंने कभी ध्यान नहीं किया, वे ही ठीक हैं। लेकिन जो आधा-धूधा ध्यान कर लेते हैं, वे और मुश्किल में पड़ जाते हैं। जिन्होंने कभी योग नहीं किया, वे ही ठीक हैं। जिन्होंने कुछ आधा-धूधा योग कर लिया, वे और मुश्किल में पड़ जाते हैं। पुराना भी सब अस्त-व्यस्त हो जाता है, नया जम नहीं पाता, उनके भीतर एक तरह की अराजकता हो जाती है, एक तरह की विक्षिप्तता हो जाती है। और इस दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनकी हालत विक्षिप्त है। बीच से भाग गए हैं।
सदगुरु के चरणों में जाओ तो पीछे के सब सेतु तोड़ ही देना, लौटने का उपाय ही मत रखना, सीढ़ी गिरा देना; तो ही यह काम हो पाएगा। और तो ही यह काम अपने सर्वांग सुंदर रूप में हो पाएगा। लेकिन जाते भी हम हैं। और जाते भी हम कहां हैं? आधे-आधे जाते हैं, आधे-आधे जाते हैं तो भागने का खतरा है।
मेरे पास लोग आते हैं, परसों ही किसी ने पत्र लिख कर पूछा: संन्यस्त होना चाहता हूं, लेकिन अगर गैरिक वस्त्र और माला न पहनूं तो?
तो काहे के लिए संन्यस्त होना चाहते हो! इतना सा भी न कर सकोगे--यह भी कोई बड़ा काम है तुम समझ रहे हो? गेरुआ वस्त्र पहन लिया, माला पहन ली, तुम समझ रहे हो कोई बहुत बड़ा काम कर लिया? कोई सात समुद्र लांघ लिए? कोई गौरीशंकर का पहाड़ चढ़ गए? किसी रंग का कपड़ा तो पहनते ही होगे न! तो गैरिक का पहन लिया! और जरा सी माला गले में लटका ली, तुम समझे कि सिद्धपुरुष हो गए! मगर यह भी नहीं हो सकता है। इसमें भी शर्त लगा रहे हो कि ऐसे ही संन्यास मिल जाए, यह भी न करना पड़े। तो आगे फिर जो करना है, उसका क्या होगा? यह तुम्हारी हालत तो ऐसी है कि ऑपरेशन को आए और बोले कि अगर टेबल पर न लेटना पड़े तो चलेगा, हालांकि टेबल पर लेटना कोई ऑपरेशन नहीं है। टेबल पर लेटने से ही कोई सब-कुछ नहीं हो गया, मगर जो आदमी टेबल पर लेटने को ही राजी नहीं है, इसका ऑपरेशन कैसे करोगे?
ये तो केवल स्वीकृति की सूचनाएं हैं कि हम राजी हैं; हमें भरोसा है। यह सिर्फ इंगित हैं।
मगर आदमी अधूरा है। और अधूरेपन के भाव को छिपा भी नहीं पाता, वह प्रकट हो जाता है--किसी न किसी रूप में प्रकट हो जाता है। रोज मैं अनुभव करता हूं, लोग मेरे पास आते हैं, हजारों लोग मेरे संपर्क में आए हैं, देखता हूं उनको, कोई चरण में भी झुकता है तो दोनों बातें एक साथ दिखाई पड़ती हैं--एक हिस्सा झुकना चाह रहा है, एक नहीं झुकना चाह रहा है। झुकना भी चाहता है, नहीं भी झुकना चाहता । वह जो नहीं झुकना चाहता, वह भी प्रकट है, वह भी जाहिर है।
ऐसा हुआ कि एक नेताजी को किसी आदमी ने होटल में उल्लू का पट्ठा कह दिया। नाराज हो गए, मानहानि का मुकदमा चला दिया। मुल्ला नसरुद्दीन को अपनी गवाही में ले गए। जिस आदमी ने उनको उल्लू का पट्ठा कहा था, उसने कहा कि मैंने किसी का नाम नहीं लिया और वहां तो कम से कम पचास आदमी थे, तो यह कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि मैंने नेताजी को ही उल्लू का पट्ठा कहा? मैंने किसी का नाम लिया ही नहीं। मैंने तो सिर्फ इतना ही कहा था कि देखो, ये उल्लू के पट्ठे! वहां तो पचास आदमी थे।
मजिस्ट्रेट को भी बात जमी। उसने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि तुम गवाह हो, तुम कहते हो कि इस आदमी ने नेताजी को उल्लू का पट्ठा कहा था? नसरुद्दीन ने कहा: निश्चित इसने नेताजी को उल्लू का पट्ठा कहा था। लेकिन मजिस्ट्रेट ने कहा: यह आदमी कहता है वहां पचास आदमी थे और इसने नाम किसी का लिया नहीं, तुम्हें कैसे निश्चयपूर्वक यह भरोसा है कि इसने नेताजी को ही उल्लू का पट्ठा कहा? नसरुद्दीन ने कहा: वहां नेताजी को छोड़ कर उल्लू का पट्ठा कोई था ही नहीं। ये अकेले उल्लू के पट्ठे वहां थे। इसलिए हमें पक्का भरोसा है इसने नेताजी को ही कहा है।
छिपे भाव प्रकट हो जाते हैं। कहां तक बचाओगे? कैसे बचाओगे? तुम्हारे अंतरतम में जो पड़ा है, वह आज नहीं कल बाहर आ जाता है।
ध्यान रखना, सदगुरु से संबंध जोड़ो तो पूरा-पूरा जोड़ना, कहीं भीतर कुछ दबा मत लेना। कुछ दबाने की जरूरत हो तो अभी रुकना, अभी समय नहीं आया, अभी ऋतु नहीं आई, थोड़ी और प्रतीक्षा करना। प्रतीक्षा कर लेना बेहतर है, लेकिन बीच से भाग जाना खतरनाक है। क्योंकि बीच से जो भाग गया, उसकी जिंदगी फिर कभी सुव्यवस्थित न हो पाएगी। पहले की जिंदगी तो मिलेगी ही नहीं--वह तो गई--और जो मिलने वाली थी, जिसकी आशा में पहली को गंवा दिया, उसकी अब कोई संभावना न रही। क्योंकि वह सदगुरु के द्वारा ही मिल सकती थी। ऐसा ही समझो कि कपड़ा दर्जी ने काटा और तभी कपड़ा भाग गया। अब इस कपड़े की क्या गति होगी, तुम सोचो! इससे पहले ही ठीक थे, कम से कम थोक थान में तो थे, इकट्ठे तो थे। अब यह चिंदी-चिंदी हो गया। थोड़ा रुको। इसमें रूप आने दो, रंग आने दो, आकृति उभरने दो।
त्यूं रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब झेल।।
इसको खेल ही समझना। तो ही झेल पाओगे। गंभीरता से ले लिया, तो जरा सी बात चोट कर जाएगी। क्यों? क्योंकि गंभीरता वस्तुतः अहंकार की ही छाया है। यह मैं तुमसे कहूं, यह तुम ठीक से खयाल में पकड़ो--गंभीरता अहंकार का ही एक रूप है। निर-अहंकार सरल होता है, छोटे बच्चे जैसा होता है, सब चीज खेल-खेल में ले लेता है। और खेल-खेल में लो तो हलका है सब, सरलता से हो जाएगा।
दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर।
शाब्दिक अर्थों में भी यह सच है। दूल्हा अपना मौर उतार कर रख दिया था और चरण गह लिए थे दादू के, उनको सिरमौर बना लिया था; दुल्हन को लेने जा रहा था, दुल्हन की तो फिकर छोड़ दी थी और असली दुल्हन की तलाश में लग गया था; प्रेम की खोज थी, लेकिन गलत दिशा में बहा जाता था, दादू की आंख से आंख मिली और असली प्रेम फलित हो गया।
दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर।
यूं जुज्बे-जिंदगी हुई जाती है तेरी याद
जैसे कोई शराब मिला दे शराब में
ऐसा मिल जाना चाहिए शिष्य को गुरु से कि जरा फासला न रहे--‘जैसे कोई शराब मिला दे शराब में’--जरा सा भी फासला न रहे। जल और पानी में भी मिलाओ तो थोड़ा सा फासला रह जाता है।
यूं जुज्बे-जिंदगी हुई जाती है तेरी याद
गुरु की याद ऐसी बैठ जानी चाहिए--
जैसे कोई शराब मिला दे शराब में
फिर घटनाएं घटनी शुरू होती हैं--त्वरा से, तीव्रता से; छलांगें लगनी शुरू होती हैं; फिर इंच-इंच कदम नहीं उठते, मील-मील कदम उठ जाते हैं।
जन रज्जब उनकी दया, पाई निहचल ठौर।
और उनकी दया से वह जगह मिल गई, जहां से कोई भी नहीं डिगा सकता, मौत भी नहीं डिगा सकती। जिसको कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ की अवस्था कहा है--‘पाई निहचल ठौर।’ जैसे दीया जले और हवा का कोई झोंका उसे कंपा न सके, अकंप हो।
जन रज्जब उनकी दया, पाई निहचल ठौर।
और रज्जब कहते हैं: अपने कुछ सामर्थ्य से नहीं, उनकी कृपा से। सभी शिष्यों का यही अनुभव है, अपने प्रयास से नहीं होती क्रांति, उनके प्रसाद से।
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
याद करो दादू के वे वचन जो घोड़े पर सवार रज्जब से उन्होंने कहे थे--
रज्जब तैं गज्जब किया,...
घोड़े पर सवार रज्जब जा रहा है, बारात निकली है, दूल्हा बना है, बीच में रोक कर घोड़े को दादू ने कहा था--
रज्जब तैं गज्जब किया, सिर पर बांधा मौर।
आए थे हरिभजन कूं, चले नरक की ठौर।।
यह तूने क्या किया? उसका जवाब दे रहे हैं रज्जब--
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
अज्जब का अर्थ होता है: अलौकिक। यहां है और यहां का नहीं। संसार में है और संसार का नहीं। लोक में है और अलौकिक। कुछ पार का है। और जिसमें तुम्हें पार की झलक मिले, वही तो गुरु है। उसी के चरण में झुकना। जहां से तुम्हें कोई किरण दिखाई पड़े, जो बहुत दूर से आ रही है, जिसके स्रोत का भी तुम्हें अनुमान न हो सके, जिसकी आंख में झांको तो ऐसा सागर दिखाई पड़े कि जिसका कोई किनारा न मिले।
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
सदगुरु देता है, अकारण देता है, इसलिए उसको दातार कहा है। उसे उत्तर में कुछ भी मिलने वाला नहीं है। तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं जो तुम उसे दे सको। कोई कीमत भी नहीं है जो चुकाई जा सके। कोई मूल्य भी नहीं है जिससे तुम खरीद सको।
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
दुख दरिद्र तब का गया,...
तब का। उसी क्षण चला गया। तत छन चला गया। जिस क्षण आंख मिल गई गुरु से, दुख दरिद्र तब का गया, ऐसा नहीं कि फिर धीरे-धीरे गया, उसी क्षण चला गया।
...सुख संपत्ति अपार।
और सुख की संपत्ति मिली।
अब खयाल रखना, इसकी व्याख्या करने वालों ने यही अनुवाद कर दिया है संपत्ति का--धन। संपत्ति का मतलब धन नहीं होता। साधुओं की भाषा में नहीं होता। ये साधुओं के वचन हैं, यहां तुम सांसारिक अर्थ मत कर लेना।
‘संपत्ति’ बड़ा प्यारा शब्द है। इस शब्द को ठीक से समझना हो, तो तुम्हें बहुत से शब्दों का खयाल करना पड़ेगा। समाधि, समाधान, संबोधि, सम्यकत्व, संपत्ति, ये सब एक ही धातु से बने हैं--सम। सम का मतलब है: जो ठहर गया, जिसके लिए सब समान हो गया, सुख और दुख बराबर हो गए, सफलता-विफलता बराबर हो गई, जीवन और मृत्यु समतौल हो गए। संपत्ति का अर्थ--समाधि। संपत्ति का अर्थ--सम्यकत्व। संपत्ति का अर्थ--समाधान। संपत्ति का अर्थ--समता, संबोधि। संपत्ति का अर्थ--संपदा। पर सबके भीतर खयाल रखना एक ही शब्द है--सम। जिसको तुम संपत्ति कहते हो, वह तो विपत्ति है, उसको संपत्ति कहना ही नहीं चाहिए। वहां कहां समता है? वहां कहां सम्यक्त्व है? वहां कहां जीवन की शांति है? जिसको तुम संपदा कहते हो, उसको विपदा कहना चाहिए। तुम विपदा को संपदा कहते हो और विपत्ति को संपत्ति कहते हो। वही तुम्हारी भ्रांति है।
इसलिए इस वचन का ऐसा अर्थ मत कर लेना कि एकदम छप्पर टूट गए और वर्षा हो गई मोहरों की। छप्पर टूटे जरूर, मगर यह छप्पर नहीं, और छप्पर। और मोहरें भी बरसीं जरूर, मगर वे मोहरें नहीं जो सरकारी टकसालों में ढाली जाती हैं, मगर वे मोहरें जो अनंत से उतरती हैं, शाश्वत से उतरती हैं, जो परमात्मा की टकसाल में ढाली जाती हैं।
दुख दरिद्र तब का गया, सुख संपत्ति अपार।।
रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।
यह बड़ा प्यारा वचन है।
गुरु बैन बिच रैन में, किया दुहूं घर फोड़।
रज्जब कह रहे हैं कि ‘नर नारी सकल चकवा चकवी जोड़।’ सारी प्रकृति दो में बंटी है--स्त्री और पुरुष। स्त्री पुरुष में आकर्षित है, पुरुष स्त्री में आकर्षित है। इसी आकर्षण में परमात्मा चूका जा रहा है। इसी आकर्षण में वस्तुतः जिसे खोजना चाहिए, उसकी खोज नहीं हो पाती। और इस आकर्षण से कुछ मिलता नहीं है। स्त्री को पुरुष मिल जाता है, पुरुष को स्त्री मिल जाती है, लेकिन मिलता कुछ भी नहीं। हाथ कुछ नहीं आता। सब सपना है।
रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।
यह सारी की सारी संसार की जो व्यवस्था है, यह एक को दो में तोड़ कर की गई है। एक को दो हिस्सों में तोड़ दिया गया है। वे दोनों एक-दूसरे से मिलना चाहते हैं, मिलने को आतुर हैं, मिल नहीं पाते। मिलन हो भी जाता है तब भी मिलन नहीं होता। यही तो प्रेमियों का कष्ट है कि कितने ही पास आ जाएं फिर भी दूरी बनी रहती है। और कितने ही कितने मिल जाएं, फिर भी मिलन कहां होता है? मिल-मिल कर छूटना हो जाता है। पास आ-आ कर दूर हो जाते हैं। विवाह हो-हो कर तलाक हो जाते हैं। क्षण भर को सुख मिलता है और तत्क्षण दुख की वर्षा हो जाती है। जरा प्रेम और फिर घृणा। यह द्वंद्व चलता रहता है, क्योंकि इस द्वंद्व के नीचे मूल द्वंद्व है--नर नारी सकल चकवा चकवी जोड़--विपरीत का द्वंद्व है।
पुरुष-स्त्री, ये दो विपरीतताएं हैं। जैसे ऋण और धन विद्युत। दोनों एक-दूसरे से बंधे हैं और दोनों एक-दूसरे से आकर्षित हो रहे हैं, और विकर्षित भी। पास भी आना चाहते हैं और दूर भी हट रहे हैं। संसार द्वंद्व है। द्वंद्व को दो हिस्सों में तोड़ा जा सकता है--नर, नारी।
चीन में इस विचार को बहुत गहनता तक ले जाया गया है--यिन-यांग। ताओवादी परंपरा में इस विचार पर बहुत खोज की गई है कि सारा अस्तित्व द्वंद्व में बंटा है। और जब तक आदमी इस द्वंद्व में ही उलझा रहता है, तब तक कोई निस्तार नहीं है, कोई छुटकारा नहीं है। एक स्त्री से मन ऊब जाता है, फिर दूसरी स्त्री में अटक जाता है। एक पुरुष से मन ऊब जाता है, फिर दूसरे पुरुष में अटक जाता है। यह अंतहीन प्रक्रिया है। तुम्हें दुनिया के सारे पुरुष मिल जाएं और सारी स्त्रियां, तो भी तुम तृप्त न हो सकोगे।
ज्यां पाल सार्त्र का एक पात्र उसके एक नाटक में कहता है कि मुझे अगर दुनिया की सारी स्त्रियां मिल जाएं तो भी मैं तृप्त न हो सकूंगा। तुम भी जरा सोचना--तृप्त हो सकोगे सारी स्त्रियां मिल जाएं तो? तत्क्षण तुम पाओगे कि नहीं, कुछ फिर भी खाली रहेगा। यह पात्र भरता नहीं, जब तक परमात्मा से न भरा जाए। यह विपरीत से नहीं भरता, यह बाहर दूसरे से नहीं भरता, इसकी खोज तो अंतर्तम में करनी होती है।
रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।
गुरु बैन बिच रैन में,...
और बीच आधी रात में, जब कि मिलन होने ही होने को था, ऐसा लगता था अब हुआ, तब हुआ... और ठीक ही कह रहा है रज्जब, बारात जा रही थी, अभी मिलन हुआ, अभी हुआ, अभी सुख की वर्षा होने को है, और उस बीच गुरु आ गया।
गुरु बैन बिच रैन में,...
आधी रात में...
...किया दुहूं घर फोड़।
दोनों घर गिरा दिए। न स्त्री की तरह बचने दिया मुझे, न पुरुष की तरह बचने दिया मुझे। द्वंद्व गिरा दिया। दोनों घर गिरा दिए। मुझे निर्द्वंद्व में पहुंचा दिया। द्वैत मिटा दिया, मुझे अद्वैत में पहुंचा दिया। इसी की तलाश थी। स्त्री के माध्यम से इसी अद्वैत की तलाश हो रही है।
क्या खोजते हो तुम स्त्री के माध्यम से? किसी के साथ एक होना हो जाए। पुरुष के माध्यम से क्या खोजते हो? एक ऐसा क्षण मिल जाए जहां हम अस्तित्व के साथ लीन हो गए ।
यूं जुज्बे-जिंदगी हुई जाती है तेरी याद
जैसे कोई शराब मिला दे शराब में
यही खोज रहे हो। मगर यह होता नहीं। इस तरह तो नहीं होता। बड़ी उलटी प्रक्रिया से होता है। अपने भीतर जाने से मिलना होता है, अपने बाहर जाने से दूरी बढ़ती जाती है। क्योंकि तुम्हारे भीतर अंतर्तम में बैठा है परमात्मा। एक विराजमान है तुम्हारे भीतर। बाहर तो दो है। बाहर तो होने ही वाला दो--मैं और तू। भीतर सिर्फ एक है। और जितने तुम भीतर जाओगे, उतने ही तुम पाओगे उसका रूप मैं का रूप नहीं है, क्योंकि मैं के लिए तो तू की जरूरत है। जैसे-जैसे भीतर जाओगे वैसे-वैसे पाओगे न तू रहा, न मैं रहा। जहां मैं भी मिट गई, तू भी मिट गई; जहां मैं-तू मिट गई, वहां तत्क्षण उस एक का अनुभव हो जाता है जिसको हम खोज रहे हैं जन्मों-जन्मों से; जिसके लिए यात्रा चल रही है।
...किया दुहूं घर फोड़।
कौन से दो घर फोड़ दिए? मैं और तू के घर फोड़ दिए। मिटा दिया पुरुष-स्त्री का भाव।
गुरु दीरघ गोबिंद सूं, सारै सिष्य सुकाज।
शिष्य जो भी मांगता था, खोजता था, सब गुरु की छाया में पूरा हो जाता है।
...सारै सिष्य सुकाज।
सब हो जाता है। जो कर-कर के नहीं हुआ था, वह सिर्फ गुरु की मौजूदगी में हो जाता है।
गुरु दीरघ गोबिंद सूं,...
क्योंकि गुरु गोविंद से जुड़े हैं। तुम्हें गोविंद से तो जुड़ना मुश्किल है, क्योंकि तुम्हारी गोविंद से अभी कोई पहचान नहीं, लेकिन गुरु से जुड़ सकते हो। गुरु से जुड़ते ही तुम भी गोविंद से जुड़ गए।
रज्जब मक्का बड़ा परि, पहुंचे बैठि जहाज।
बहुत दूर है मक्का, मगर बैठ गए जहाज में तो पहुंच गए। परमात्मा बहुत दूर है, मगर बैठ गए गुरु की नाव में तो पहुंच गए।
...सारै सिष्य सुकाज।
कामधेनु गुरु क्या कहै, जो सिष निःकामी होइ।
रज्जब मिलि रीता रह्या, मंदभागी सिष जोइ।।
अगर तुम रीते रह जाओ गुरु को पाकर, तो तुम्हीं जिम्मेवार हो। तुम्हारी जिम्मेवारी कहां है? कि तुम निकम्मे थे। गुरु ने जो कहा, तुमने किया नहीं। गुरु ने जहां चलाया, तुम चले नहीं। तुम निकम्मे थे।
कामधेनु गुरु क्या कहै,...
गुरु तो कामधेनु है, तुम्हें जो चाहा था सब होनेवाला था, मगर तुम चले नहीं, उठे नहीं, सुना नहीं, गुना नहीं। तुम आलसी ही बने रहे। तुम अपनी तंद्रा में ही पड़े रहे।
कामधेनु गुरु क्या कहै, जो सिष निःकामी होइ।
तो गुरु कहता रहता है, कहता रहता है, कहता रहता है, और शिष्य अपनी अकर्मण्यता में, अपनी निद्रा में सुनता रहता, सुनता रहता--सुनता ही नहीं। जोड़ बनता नहीं, क्रांति घटती नहीं, आग जलती नहीं।
रज्जब मिलि रीता रह्या, मंदभागी सिष जोइ।
रज्जब कहते हैं: अगर कोई रीता रह जाए गुरु के पास जाकर, तो मंदभागी है, अभागा है। लेकिन बड़ा उलटा मामला है। अगर तुम गुरु के पास जाकर रीते रह जाओ, तो कहोगे यह गुरु किसी काम का नहीं। हम रीते रह गए। साफ है कि इस गुरु के पास कुछ है नहीं, नहीं तो हमको मिल जाता, तुम यह नहीं सोचते--जो कि सोचना चाहिए--कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरी मटकी ही उलटी रखी, गुरु बरस रहा है और मैं भर नहीं पाता। या मेरी मटकी फूटी है। भर भी जाता है तो सब बिखर जाता है। या मेरी मटकी गंदी है। मेघ से वर्षा होती है स्वच्छ और मेरी मटकी में आते-आते सब गंदगी हो जाती है, सब नाली का कीचड़ मच जाता है।
मटकी साफ करो। थोड़ा कृत्य तो करना पड़े मटकी साफ करने में। थोड़ी अकर्मण्यता छोड़ो। मटकी में छेद-छाद हों, उन्हें भरो। मटकी उलटी पड़ी हो, उसे सीधा करो। बस ये तीन काम तुम कर लो, भर जाओगे, निश्चित भर जाओगे।
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में
इस तरह आई रंगोनूर लिए
जैसे एक सीमपोश दोशीजा
मकबरे में जला रही हो दीये
तुम खुलो तो परमात्मा उतरे। तुम गुरु के लिए खुलो तो गुरु तो उतरे ही उतरे, उसके साथ परमात्मा उतर आए। उसके सहारे तुम परमात्मा तक पहुंच जाओ, परमात्मा तुम तक पहुंच जाए।
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में
इस तरह आई रंगोनूर लिए
तुम जरा खुलो, तो रंग भी बहुत है गुरु की याद में और नूर भी बहुत है। रोशनी भी बहुत, उत्सव भी बहुत। फूलों के सब रंग हैं वहां, प्रकाश के सब ढंग हैं वहां।
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में
और तुम्हारा दिल बिलकुल अंधकार है, अमावस है--
इस तरह आई रंगोनूर लिए
जैसे एक सीमपोश दोशीजा
जैसे कोई सफेद वस्त्र पहने हुए एक कुंआरी--
मकबरे में जला रही हो दीये
ऐसी पवित्र कुंआरी, सफेद कपड़ों में कोई स्त्री मकबरे में दीया जला रही हो, ऐसी ही तुम्हारे भीतर एक पवित्र गंगा बह जाती है। एक कुंआरी गंगा बह जाती है। एक अछूते जगत से स्पर्श होता है।
पर तैयारी दिखाओ। मिटने की तैयारी चाहिए। मिटे बिना न कोई कभी हुआ है, न हो सकता है। धन्यभागी हैं वे जो गुरु के पास मिटने को तैयार हैं, क्योंकि सारे जगत का आनंद उनका होगा। इस जगत के सारे उत्सव उनके होंगे। उनकी अमावस समाप्त हो जाएगी। और उनके जीवन में पूर्णिमा का उदय होगा। पूरा चांद तुम्हारा है, पूरा आकाश तुम्हारा है, लेकिन हकदार तुम तभी हो पाओगे जब तुम अपने अहंकार से बिलकुल खाली हो जाओ। उस अहंकार को चढ़ा देने का नाम ही शिष्यत्व है।
आज इतना ही।
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार। त्यूं सतगुरु की मार विचार।।
भाव भिन्न कछु औरे होइ। ताते रे मन मार न जोइ।।
जैसा लोहा घड़ै लुहार। कूटि-काटि करि लैवै सार।।
मारै मारि मिहरि करि लेहि। तो निपजै फिरि मार न देहि।।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।
मन तोड़न का नाहीं भाव। जे तुछ तूटि जाय तौ जाव।।
ज्यूं कपड़ा दरजी के जाय। टूक-टूक करि लेहि बनाय।।
त्यूं रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब झेल।।
दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर।
जन रज्जब उनकी दया, पाई निहचल ठौर।।
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
दुख दरिद्र तब का गया, सुख संपत्ति अपार।।
रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।
गुरु बैन बिच रैन में, किया दुहूं घर फोड़।।
गुरु दीरघ गोबिंद सूं, सारै सिष्य सुकाज।
रज्जब मक्का बड़ा परि, पहुंचे बैठि जहाज।।
कामधेनु गुरु क्या कहै, जो सिष निःकामी होइ।
रज्जब मिलि रीता रह्या, मंदभागी सिष जोइ।।
उदास हैं आस्मां के तारे
बुझे-बुझे हैं सभी नजारे
हसीं बहारें भी रो रही हैं
लुटा है यूं मेरा आशियाना
यह अनुभव सभी का है। यह अनुभव संसार का है। यहां सिर्फ आदमी लुटता है, उजड़ता है, बसता नहीं। यहां बसने का कोई उपाय नहीं। यह बस्ती नहीं है, मरघट है। यहां सिर्फ मृत्यु के लिए प्रतीक्षा में खड़े हुए लोग हैं--पंक्तिबद्ध। आएगी जब घड़ी, उठ जाएंगे। कभी भी आ सकती है घड़ी। यूं तो उसी दिन आ गई जिस दिन जन्म हुआ। जन्म के साथ ही साथ मौत आ गई छाया की भांति। जिसका जन्म हुआ, अब मृत्यु से न बच सकेगा। जन्म में ही मृत्यु निश्चित हो गई, थिर हो गई।
जहां मृत्यु ही घटनी है, जहां उजड़ना ही है, वहां जो बसने का खयाल रखते हैं, वे नासमझ हैं। और जहां सिर्फ एक ही बात निश्चित है और सब अनिश्चित है, जहां सिर्फ मृत्यु निश्चित है, वहां जो घर बनाते हैं, वे व्यर्थ ही बनाते हैं। यह घर उजड़ेगा। और इस घर के बनाने में पीड़ा उठाई, फिर इस घर के उजड़ने में पीड़ा उठानी पड़ेगी। यहां पीड़ा ही पीड़ा है। यहां दुख ही दुख है। संसार दुख का सागर है। ऐसा जिसे अनुभव होता है, वही परमात्मा की तलाश में निकलता है। जिसने इस घर को ही असली घर समझ लिया, फिर उसकी खोज बंद हो गई।
जिसे दिखाई पड़ा कि यह नीड़ असली नीड़ नहीं है, असली नीड़ की तलाश करनी है अभी, ज्यादा से ज्यादा सराय है, रात भर को रुक गए हैं, सुबह हुए चलना पड़ेगा; पड़ाव है ज्यादा से ज्यादा, मंजिल नहीं है यह, उनके जीवन में अज्ञात की तलाश शुरू होती है। उस अज्ञात को हम जो भी नाम देना चाहें दें; परमात्मा कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, सत्य कहें, समाधि कहें, ये सिर्फ नामों के भेद हैं। लेकिन इनकी खोज के पहले यह अनिवार्य है अनुभव हो जाना कि यहां घर बन नहीं सकता। यहां घोसले बिगड़ने को ही बनते हैं। यहां सब आशियाने उजड़ जाते हैं। उजड़ना यहां का स्वभाव है। बसना धोखा है, उजड़ना सचाई है। बसना भ्रांति है। थोड़ी-बहुत देर कोई सपना देख सकता है बसने का, लेकिन सपने, सपने हैं। कितनी देर भुलाए रखोगे अपने को सपने में?
जो जितनी जल्दी सपने को सपने की भांति देख ले, उतना बुद्धिमान है। कोई युवावस्था में देख लेता है, कोई बुढ़ापे तक में नहीं देख पाता। तुम्हारी बद्धिमत्ता की एक ही कसौटी है--जितने जल्दी तुम यह देख लो कि यह कागज की नाव है जिसमें तुम बैठे हो, यह डूबेगी; अब डूबी, तब डूबी; और यह रेत पर बनाया गया घर है, यह गिरेगा; अब गिरा, तब गिरा। इसके पहले कि घर गिर जाए, जो इस घर से मुक्त हो जाता है, इस घर के लगाव से मुक्त हो जाता है, मोह से मुक्त हो जाता है, उसके जीवन में एक नई किरण उतरती है--परमात्मा की खोज शुरू होती है।
फूल पै धूल, बबूल पै शबनम, देखने वाले देखता जा
अब है यही इंसाफ का आलम, देखने वाले देखता जा
परवानों की राख उड़ा दी वादे-सहर के झोंकों ने
शमअ बनी है पैकरे-मातम देखने वाले देखता जा
एक पुराना मदफन जिसमें दफ्न हैं लाखों उम्मीदें
छलनी-छलनी सीनए-आदम देखने वाले देखता जा
एक तेरा ही दिल नहीं घायल दर्द के मारे और भी हैं
कुछ अपना कुछ दुनिया का गम देखने वाले देखता जा
जरा आंख खोलो और जरा देखो। तो क्या पाओगे यहां?
एक पुराना मदफन जिसमें दफ्न हैं लाखों उम्मीदें
खुद को क्या पाओगे? एक पुरानी कब्र, जिसमें हजारों-हजारों आकांक्षाओं की मृत्यु घट चुकी है; जिसमें हजारों अभीप्साएं मुर्दा होकर गिर गई हैं, सड़ गई हैं।
एक पुराना मदफन जिसमें दफ्न हैं लाखों उम्मीदें
छलनी-छलनी सीनए-आदम देखने वाले देखता जा
और यहां हर हृदय छलनी-छलनी हो गया है। किसी तरह सम्हाले हैं अपने को और चल रहे हैं, बात और है। मगर पैर सबके डगमगा गए हैं। हवाएं ऐसी हैं, आंधियां ऐसी हैं। नावें सब डांवाडोल हैं। लेकिन कुछ हैं जो नावों को किसी तरह सम्हालने में ही सारा जीवन, सारी ऊर्जा लगा देते हैं। पानी में बहा दी उन्होंने जीवन की बहुमूल्य संपदा। कुछ हैं जो यह देख कर कि यहां जीवन में शाश्वत कुछ भी नहीं है, सब क्षणभंगुर है, मुड़ जाते शाश्वत की ओर, उस मुड़ने में ही क्रांति घटित होती है। व्यक्ति के जीवन में धर्म का जन्म होता है।
न शास्त्र पढ़ने से होगा यह, न मंदिर-मस्जिद जाने से होगा यह, यह तो जिंदगी का दुख रूप देखोगे तो होगा। जीवन को ठीक-ठीक पहचानोगे तो होगा। राम-राम जपने से नहीं होगा। तुम ऊपर राम-राम जपते रहोगे, भीतर काम अपने सपने सजाता रहेगा। तुम मालाएं फेरते रहोगे, भीतर अंधेरा घर बसाए बैठा रहेगा, तुम बाहर के दीये जलाते रहोगे, भीतर गहन अंधेरी रात अमावस बनी रहेगी। जीवन को देखो!
और जीवन दिखाई न पड़े, इसके हमने बड़े उपाय कर रखे हैं। करने ही पड़ेंगे। अगर जीवन का दुख सभी को दिखाई पड़ने लगे, तो यह जो राग-रंग दिखाई पड़ता है, यह जो आशा-उमंग-उत्साह दिखाई पड़ता है, यह सब एकदम तिरोहित हो जाए। ये जो लोग दिखाई पड़ते हैं चले जा रहे हैं, बड़ी तीव्रता से, इनकी गति टूट जाए। इन्हें साफ हो जाए कि यहां कोई मंजिल कभी किसी को मिली नहीं। फिर कैसे दौड़ सकेंगे? फिर किसके लिए दौड़ना है? फिर ये जो सपने बना रहे हैं और योजनाएं बना रहे हैं और चिंताएं कर रहे हैं, और विचार और ऊहापोह कर रहे हैं--क्या करें, क्या न करें--सब एकदम भस्मीभूत हो जाएगा।
हमने एक दुनिया बना ली है, असली दुनिया से बचने के लिए हमने एक विचारों का जाल खड़ा कर लिया है, अपने चारों तरफ विचार की एक पर्त बना ली है, हम उसके माध्यम से ही दुनिया को देखते हैं। हम अपनी आशाओं के चश्मों से ही दुनिया को देखते हैं। फिर दुनिया हमें रंगीन दिखाई पड़ने लगती है। चश्मे का रंग दुनिया का रंग मालूम होने लगता है। और बचपन से हर बच्चे को उसके मां-बाप चश्मे देते हैं, महत्वाकांक्षा देते हैं, वासना देते हैं--कुछ हो जाना, कुछ बन कर बता देना, नाम रख लेना, यश कमा लेना, पद, प्रतिष्ठा, धन। हर एक को हम यही आशाओं का पाठ पढ़ाते हैं। और ये सब आशाएं एक दिन व्यर्थ हो जाती हैं। ये सब आशाएं झूठी सिद्ध होती हैं। यहां किसी की भी महत्वाकांक्षा कभी पूरी नहीं हुई। ऐसा जगत का स्वभाव नहीं किसी की महत्वाकांक्षा पूरी करे। तब परमात्मा की खोज शुरू होती है।
असार दिख जाए संसार में, तो फिर सार को बिना खोजे कैसे रहोगे? आंख मुड़ती है, और दिशाओं में गति शुरू होती है। बहिर्यात्रा बंद होती है, अंतर्यात्रा शुरू होती है। और ध्यान रखना, अंतर्यात्रा का ही दूसरा नाम तीर्थयात्रा है। अगर तुम्हारा तीर्थ बाहर है तो तुम्हारा तीर्थ संसार का हिस्सा है। जाओ काशी, जाओ काबा, ये तीर्थ नहीं हैं। तीर्थ तो एक ही है--भीतर जाओ; जहां राम मिले, वहां जाओ; जहां शाश्वत मिले, वहां जाओ। न तो काबा में मिलेगा, न काशी में, न कैलाश में। बाहर की यात्रा चाहे तुम धर्म के नाम पर करो और चाहे धन के नाम पर, बाहर की ही यात्रा है। और बाहर की यात्रा तुम्हें भीतर न लाएगी।
बाहर कुछ मिलता ही नहीं। इस बात को मानने में पीड़ा होती है, क्योंकि हमारा सब किया अनकिया हो जाता है। हमने अब तक जो भी जिंदगी में दांव लगाए हैं, वे सब व्यर्थ हो जाते हैं। हम देखना नहीं चाहते।
एक मेरे परिचित थे; उनकी पत्नी मेरे पास आई। उसने कहा कि शक है कि मेरे पति को कैंसर है, मगर वे डॉक्टर के पास नहीं जाते। वे कहते हैं--मुझे कोई बीमारी ही नहीं है, तो मैं जाऊं क्यों? मैंने उन मित्र को बुलाया। मैंने कहा: तुम्हारी पत्नी परेशान है। वे बोले व्यर्थ परेशान है। जब मैं बीमार ही नहीं हूं तो मैं डॉक्टर के पास जाऊंगा क्यों? मैंने उनसे कहा: जब तुम बीमार ही नहीं हो, तो डॉक्टर के पास जाने में इतना डर क्या है? पत्नी का मन रह जाएगा, मुझे भी दिख रहा है कि तुम बीमार नहीं हो, और डॉक्टर को भी दिख जाएगा, कोई डॉक्टर तुम्हारी पत्नी की मान कर बीमार थोड़े ही समझ लेगा। अब वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए। शक तो उन्हें भी है, भीतर डर तो उन्हें भी है। इसी डर के कारण डॉक्टर के पास नहीं जा रहे हैं कि कहीं शक सच्चा साबित न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि कैंसर हो ही। पर मेरे पास आ गए तो मुश्किल में पड़ गए, अब उनको उत्तर देते न सूझे। मैंने कहा, पत्नी परेशान है, यह बीमार हो जाएगी इस तरह परेशान होते-होते; रात सोती नहीं; यही फिकर लगी रहती है; इसका भ्रम मिटा दो: तुम बिलकुल ठीक मालूम हो रहे हो, डॉक्टर को भी ठीक मालूम होओगे, मगर इसका भ्रम टूट जाएगा, इसको शांति मिल जाएगी; इसकी खातिर तुम चले जाओ। अब मना करने का कोई उपाय न रहा।
मैं उन्हें डॉक्टर के पास ले गया। मैं साथ ही उनके गया, क्योंकि मुझे डर था रास्ते में वे पत्नी को कुछ न कुछ कह कर भाग खड़े होंगे। डॉक्टर से उन्हें डर लग रहा था। और वही हुआ, कैंसर उन्हें था। वे एकदम रोने लगे। मैंने उन्हें कभी रोते नहीं देखा था। और कहने लगे कि आपने ही मुझे मुसीबत में डाला। जैसे कि मैंने उनको कैंसर करवा दिया। सब ठीक-ठाक चल रहा था, अब मुझे मुश्किल में डाल दिया। मैंने कहा: मुश्किल में तुम थे। अब कुछ उपाय खोजा जा सकता है।
लेकिन उनकी तर्कसरणी समझते हो? उनकी तर्कसरणी इस संसार में अधिक लोगों की तर्कसरणी है। इसलिए लोग सदगुरुओं के पास नहीं जाते। डर है कि वहां रोग दिखाई न पड़ जाए। भय है कि कहीं जीवन की व्यर्थता समझ में न आ जाए। फिर क्या करेंगे? कहीं हाथ खाली हैं, ऐसा अनुभव में न आ जाए अभी तो मुट्ठी बांध रखी है और भरोसा कर रखा है कि हीरे-जवाहरात हाथ में हैं। उस भरोसे में मजा है। उस भरोसे से ही जीए जा रहे हैं। गर्मी है, उत्साह है। कहीं कोई सदगुरु हाथ खोल कर दिखा न दे कि सब मिट्टी है यहां, न कोई हीरे हैं, न कोई जवाहरात हैं। तो तुम एकदम गिर पड़ोगे स्वर्ग से। एकदम सिंहासन से उतर जाओगे। तुमने अपने टूटे-फूटे मकान को महल समझ रखा है। सदगुरु के पास जाओगे तो झकझोर कर दिखा देगा कि यह टूटा-फूटा झोपड़ा है; कहां का महल, किस सपने में पड़े हो?
क्रोध भी आएगा सदगुरु पर।
सदा से सदगुरुओं पर लोगों को क्रोध आया है। यह क्रोध आकस्मिक नहीं है। इस क्रोध के पीछे बड़ा मनोविज्ञान है। तुमने ऐसे ही थोड़े महावीर को गालियां दीं। तुमने ऐसे ही थोड़े बुद्ध को पत्थर मारे। तुमने ऐसे ही थोड़े सुकरात को जहर पिला दिया। कोई व्यर्थ झंझट करने जाता है? हर किसी को कोई पत्थर नहीं मारता। साधु-संतों की तो लोग पूजा करते हैं। उनके चरणों में फूल चढ़ाते हैं, उनसे आशीर्वाद लेने जाते हैं। तो इस दुनिया में दो तरह के साधु-संत हैं। एक साधु-संत, जो तुम्हें सांत्वना देते हैं। उनकी तुम पूजा करते हो। जो तुम्हें सांत्वना देता है, जो कहता है--आपको और कैंसर, कभी नहीं हो सकता। हाथ की रेखाओं में ही नहीं है। मैंने हाथ देख कर बता दिया। आपको और कैंसर! कभी नहीं हो सकता। आप जैसे सरलचित्त व्यक्ति, सेवाभावी, मंदिर-मस्जिद जाने वाले, गीता-कुरान पढ़ने वाले, आपको कैंसर! कभी नहीं। यह तो नास्तिकों को होता है। चित्त प्रसन्न हुआ। आप अपने घर आ गए। कोई सांत्वना दे तो तुम प्रसन्न होते हो।
तुम खयाल रखना, ये दो तरह के साधु-संत इस जमीन पर सदा रहे हैं। तुम्हें सांत्वना देने वाला, तुम्हारे घावों को छिपाने वाला, तुम्हारे घावों पर दो फूल रख देने वाला तुम्हें प्यारा लगता है, हालांकि वह तुम्हारा दुश्मन है। वह तुम्हारे संसार को उजड़ने न देगा। वह तुम्हें भटकाए रखेगा। मगर तुम भटकना चाहते हो। इसलिए भटकाने वाले तुम्हें प्यारे मालूम पड़ते हैं। कभी सौ में एक ऐसा साधु भी होता है, जो तुम्हें सांत्वना नहीं देता। वरन विपरीत तुम्हारी सारी सांत्वनाएं छीन लेता है। तुम्हारी सारी आशाएं छीन लेता है। तुम्हारी आंख से सारे सपने खींच लेता है। ऐसे संत को तुम पत्थर मारोगे ही। तुम हजार उपाय खोजोगे। इस व्यक्ति से तुम्हारे भीतर भय पैदा हो गया। इसने तुम्हें कंपा दिया। मगर यही सदगुरु है। निन्यानबे तो सब असदगुरु हैं, मिथ्या, झूठे। वे तो तुम्हारे संसार का ही श्रृंगार हैं। तुम्हारी दुकान, तुम्हारी बाजार, तुम्हारी वासनाओं-कामनाओं का ही हिस्सा हैं। तुम उनको जहर देने वाले नहीं हो। और न तुम उनको पत्थर मारोगे। तुम तो उनकी पूजा करोगे।
लेकिन बुद्ध को तुम पत्थर मारोगे। दादू को तुम सताओगे। कबीर को तुम परेशान करोगे। तुम परेशान करोगे इसलिए कि कबीर की मौजूदगी तुम्हें परेशान कर रही है। तुम्हारा जिम्मा नहीं; कसूर है तो कबीर का ही है। कबीर तुम्हारी पर्त-पर्त को उघाड़ कर रखे दे रहे हैं। तुम्हारे घाव उघाड़े दे रहे हैं, दबा-दबा कर तुम्हारी मवाद तुम्हें दिखाए दे रहे हैं। तुम्हारे भीतर के घाव और नासूर और तुम्हारे कैंसर तुम्हारी आंखों में उघाड़ कर ला रहे हैं। तुम नाराज हो जाओगे।
जिन मित्र की मैंने तुमसे बात की, वे जितने दिन जिंदा रहे, मुझसे नाराज रहे। फिर मेरे पास नहीं आए। उनकी नाराजगी का कारण साफ है। मैं उन्हें दुश्मन मालूम पड़ रहा हूं, क्योंकि सब ठीक चल रहा था, अब वे डगमगा गए, अब वे घबड़ा गए।
ईश्वर की तलाश तो तुम्हारा संसार बिलकुल डगमगा जाए तो ही शुरू हो सकती है। इससे कम में तलाश शुरू नहीं होती। अगर तुम्हारे पैर जरा भी संसार में जमे रहें तो तुम कहोगे, अभी क्या जल्दी है? अभी थोड़ी देर और रस ले लें। थोड़ी देर और मजा कर लें। थोड़ी देर यह उत्सव और चलता है चल लेने दें। जल्दी क्या है, परमात्मा प्रतीक्षा कर सकता है। वह तो शाश्वत है, सदा है, फिर खोज लेंगे। तुम परमात्मा को कल पर टालते जाओगे अगर तुम्हारे पैर जरा भी जमीन पर रुकें। सदगुरु वही है, जो तुम्हारे पैर के नीचे से सारी जमीन खींच ले। नाराज न होओगे तो क्या करोगे?
मैं जानता हूं, जिन्होंने सुकरात को जहर दिया, तुम्हारे जैसे ही लोग थे। परेशान हो गए थे। अदालत में जिसने तय किया कि सुकरात को जहर दिया जाए, उसने सुकरात को दो विकल्प भी दिए थे। अदालत ने यह कहा था कि अगर तुम एथेंस छोड़ दो तो हमें तुम्हारी कोई चिंता नहीं है। फिर तुम जिंदा रहो, तुम्हें जो करना है करो। अगर एथेंस नहीं छोड़ते हो तो मृत्यु की सजा। क्योंकि एथेंस के नागरिक तुमसे परेशान हो गए हैं। दूसरा विकल्प, अगर तुम एथेंस में ही रहना पसंद करो तो अब तक तुम जो काम कर रहे थे, वह बंद कर दो। लोगों को जगाने का काम बंद करो। लोग नहीं जगना चाहते। तुम सत्य की बात करनी बंद करो। अगर लोगों को असत्य प्रिय है तो उनकी स्वतंत्रता है, उनको असत्य प्रिय रहने दो। तुम यह लोगों का पीछा मत करो। तुम लोगों को बेचैन मत करो। लोगों के घावों में अंगुलियां डाल कर उन्हें मत दिखाओ कि ये घाव हैं। दर्द होता है, पीड़ा होती है। तो तुम चुप हो जाओ। अगर तुम चुपचाप रहो, हमें कोई एतराज नहीं, जिंदा रह सकते हो।
लेकिन सुकरात ने कहा: एथेंस मैं छोड़ कर जाऊं कहां? जहां जाऊंगा वहीं यह मुसीबत फिर से पैदा हो जाएगी। क्योंकि वहां भी ऐसे ही लोग हैं। वे भी नाराज होंगे। रही मेरे चुप हो जाने की बात, वह संभव नहीं है। सत्य तो बोलेगा, कीमत कुछ भी चुकानी पड़े। सत्य अनबोला नहीं रहेगा। सत्य की तो घोषणा होगी। यह मेरे वश में नही है, सुकरात ने कहा कि मैं रोक लूं। मैं हूं कहां अब? सत्य ही है। और जो होना है, वही होगा। फिर तुम चिंता न करो। मरना तो मुझे है ही, आज नहीं कल, कल नहीं परसों, मरूंगा तो ही। ऐसे मरा, वैसे मरा, क्या फर्क पड़ता है? तुम्हें जो सजा देनी है, तुम दे दो। तुम मुझे बचने के उपाय मत बताओ, क्योंकि इस जिंदगी में बचने का कोई उपाय ही नहीं। यह जिंदगी ही विकल्प नहीं देती, यहां मौत निर्णीत है। तो कब मरे--आज कि कल कि परसों; कैसे मरे--बीमारी से मरे, बिस्तर पर मरे, कि जहर देकर मारे गए, कि सूली पर लटका कर मारे गए, क्या फर्क पड़ता है? मौत आती ही है। किस ढांचे में आती है, किस शैली से आती है, इससे जरा भी भेद नहीं होता।
सुकरात पर लोग नाराज नहीं थे ऐसे ही, कारण था।
जिस आदमी के जीवन में, संसार में अभी लगाव है, वह सदगुरुओं से नाराज होगा। तुम तो गुरुओं के पास भी इसलिए जाते हो कि संसार की कुछ आकांक्षा पूरी हो जाए। ऐसे भूले-भटके लोग मेरे पास भी आ जाते हैं। एक ही बार आते हैं, क्योंकि दोबारा फिर उनके आने का कोई उपाय नहीं रह जाता। वे समझ जाते हैं कि यह स्थान नहीं है। मेरे पास आ जाते हैं कि चुनाव में खड़ा हुआ हूं, आशीर्वाद दे दें। तुम्हें चुनाव में जिताने का आशीर्वाद कोई सदगुरु देगा? सदगुरु आशीर्वाद देगा कि जितनी जल्दी हार जाओ, उतना अच्छा। हारे को हरिनाम। हारो तो हरि का नाम याद आए। जीतो तो कैसे याद आएगा? जीत में तो अकड़ बढ़ती चली जाएगी। मेरे पास भी लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं, कि व्यवसाय शुरू कर रहा हूं, आपके आशीर्वाद से शुरू करना है। मैं कहता हूं, तुम कहीं और जाओ। मेरे आशीर्वाद से शुरू करोगे, व्यवसाय चलेगा ही नहीं। मेरा आशीर्वाद तो एक ही हो सकता है कि तुम्हारे सब व्यवसाय टूट जाएं। मगर तब तुम नाराज न होओ तो क्या होओ? तुम फिर मुझ से बदला न लो तो क्या करो? तुम फिर अपने रास्ते खोजोगे मुझसे बदला लेने के। तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। तुम्हारी तकलीफ भी स्वाभाविक है।
इसलिए एक बात खयाल रखना, तभी आज के सूत्र समझ में आ सकेंगे। संसार व्यर्थ है ऐसी तुम्हारी थोड़ी प्रतीति हो जाए तो सदगुरु से संबंध जुड़ सकता है। अन्यथा तुम्हारे संबंध असदगुरुओं से ही जुड़ेंगे, क्योंकि तुम उनके पास भी संसार की ही सुरक्षा के लिए जाओगे। तुम उनसे भी धन मांगोगे, पद मांगोगे, प्रतिष्ठा मांगोगे। पुत्र मांगोगे, पुत्री मांगोगे, व्यवसाय मांगोगे, धंधा, सफलता, बस तुम संसार ही मांगोगे। किसी न किसी बहाने तुम्हारे मन में संसार की ही आकांक्षा होगी। और जिसके मन में संसार की आकांक्षा है, वह असदगुरु के पास ही जा सकता है। उसका मेल असदगुरु से ही पड़ सकता है।
मुझसे लोग कभी-कभी आकर पूछते हैं कि निर्णय कैसे करें कि सदगुरु कौन है? मैं उनसे कहता हूं, तुम इसकी फिकर ही मत करो, तुम क्या निर्णय करोगे कि सदगुरु कौन है? तुम इतनी ही फिकर कर लो कि तुम्हारा संसार चुक गया? फिर तुम्हें असदगुरु से संबंध जुड़ ही नहीं सकता। क्योंकि असदगुरु दे सकता है संसार की ही वासनाएं, संसार के ही प्रलोभन, संसार की ही महत्वाकांक्षाएं। उसके आशीर्वाद सांसारिक हैं। तुम्हारा संबंध ही असदगुरु से नहीं जुड़ सकता। इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम सदगुरु को कैसे पहचानें, सवाल यह है कि हमारे भीतर अगर संसार की आकांक्षा क्षीण हो गई है, तो तुम्हारा जिससे संबंध बैठेगा, जिससे तुम्हारा प्रेम हो जाएगा, वह सदगुरु ही होगा। असदगुरु को तो तुम तत्क्षण देख लोगे। क्योंकि तुम ध्यान मांगोगे, वह धन का आशीर्वाद देगा। तुम परमात्मा मांगोगे, वह पद का आशीर्वाद देगा। तुम कुछ मांगोगे, वह कुछ देगा। तुम्हारी आंखें साफ-साफ देख लेंगी कि वह जो दे रहा है, यह वही संसार है जिसे तुम छोड़ आए; या जिसे तुम देख आए कि व्यर्थ है।
कोई निर्णय नहीं कर सकता कि सदगुरु कौन है, असदगुरु कौन है? लेकिन यह निर्णय तो तुम कर ही सकते हो कि तुम्हारे भीतर संसार का रस चुक गया है या शेष है? अगर चुक गया, तो तुम जिसे भी पा लोगे वह सदगुरु होगा।
और जिस व्यक्ति के जीवन में संसार का रस चुक गया है और परमात्मा की खोज शुरू हो गई है, उसे सदगुरु खोजना ही होगा। क्योंकि परमात्मा से सीधा-सीधा संबंध बनाना करीब-करीब असंभव है। मैं कहता हूं, करीब-करीब असंभव है; क्योंकि कभी-कभी बन जाता है। मगर निन्यानबे मौकों पर नहीं बनता। निन्यानबे मौकों पर बीच में एक सेतु की जरूरत पड़ती है। वही सेतु सदगुरु है।
हम तो समो चुके हैं तुझे सांस-सांस में
यह और बात है कि तुझे आग ही नहीं
क्या हो सकेगा इसका मदावा शराब से
यह जिंदगी का गम है, गमे-आशिकी नहीं
अहले-वफा में ऐसे भी कुछ नामुराद हैं
जिनको तेरी जफा भी मय्यसर हुई नहीं
ऐ ‘शाद’! क्या बात है कि बज्मे-हयात में
शमएं तो जल रही हैं, मगर रोशनी नहीं
यहां जल तो रहे हैं दीये सब तरफ, मगर रोशनी नहीं हो रही है, क्योंकि अभी तुम्हारे पास आंखें ही उन दीयों की रोशनी देखने के योग्य नहीं हैं। सूरज तो निकला हुआ है, मगर तुम अंधेरे में हो। तुम्हें आंख खोलने की याद ही भूल गई है। तुम आंख बंद किए खड़े हो और सूरज को देखना चाह रहे हो! सदगुरु का इतना ही अर्थ है, सदगुरु तुम्हें सूरज नहीं दे देगा, सदगुरु सिर्फ तुम्हें आंख खोलने की कला दे देगा, सूरज तो मौजूद है। सदगुरु तुम्हें परमात्मा नहीं दे देगा, परमात्मा तो मौजूद ही है, न देना है, न लेना है, लेकिन सदगुरु तुम्हारे भीतर सरगम बिठा देगा कि वह परम संगीत सुनाई पड़ने लगे। सदगुरु तुम्हें सुनने की कला दे देगा ताकि तुम्हारे कान उस मधुर रव को सुन लें, जो प्रतिपल मौजूद है। तुम्हारे कान अभी केवल शोरगुल सुनने में समर्थ हैं। बाजार का उपद्रव सुनने में समर्थ हैं। हंगामा होता हो तो सुन लेते हैं। भीड़-भाड़ की आवाज हो, शोरगुल हो, नारे हों, सुन लेते हैं। वह जो भीतर ओंकार का नाद हो रहा है, उसे नहीं सुन पाते। वह अति सूक्ष्म है।
कोई संगीतज्ञ से संबंध जोड़ना पड़ेगा, जो धीरे-धीरे एक-एक कदम सूक्ष्मता में तुम्हें उतारता जाए। किसी का हाथ पकड़ना होगा जिसे देखना आ गया है। अंधे आदमी को रास्ता पार करना हो तो किसी का हाथ पकड़ लेता है। और कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि जिसका हाथ पकड़ा है, हो सकता है वह भी अंधा हो, मगर यह भरोसा कि किसी का हाथ पकड़ा है बल दे देता है। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि जिन्होंने परमात्मा को नहीं जाना है, उनको भी जिन्होंने प्रेम और श्रद्धा से स्वीकार कर लिया है वे परमात्मा तक पहुंच गए हैं। गुरु तो निमित्त मात्र है।
ऐसी घटना भी घटती है।
मैंने सुना, एक अंधा आदमी राह के किनारे खड़ा रास्ता देख रहा है कि कोई आ जाए और उसे पार करा दे। तभी एक और आदमी भी आकर खड़ा हो गया पास में, वह भी अंधा है और किसी की राह देख रहा है। दोनों ने एक-दूसरे का हाथ टटोला, दोनों ने यह समझा कि चलो, आ गया कोई; दोनों रास्ता पार कर गए। उस पार जाकर दोनों ने एक-दूसरे को धन्यवाद दिया कि बड़ी कृपा की कि मुझे पार करवा दिया। दूसरे ने कहा कि आप क्या कहते हैं, कृपा आपने की कि मुझे पार करवा दिया। तब पता चला राज कि दोनों अंधे थे। मगर यह भरोसा आ गया कि कोई हाथ पकड़े है, यात्रा सुगम हो गई।
श्रद्धा आ जाए तो शक्ति आ जाती है। फिर अगर आंख वाले आदमी का हाथ मिल जाए तब तो कहना क्या? मैं तो सिर्फ यह उदाहरण के लिए कह रहा हूं कि कभी-कभी अंधों ने भी एक-दूसरे का साथ देकर पार करवा दिया है; तो आंख वाले का हाथ मिल जाए तब तो कहना क्या?
दीये जले हुए हैं, सूरज निकला हुआ है, फूल खिले हुए हैं, सिर्फ तुम्हें कला भूल गई है। तुम्हारी संवेदना क्षीण हो गई है। तुम जड़ हो गए हो। न तुम्हें सुनाई पड़ता, न तुम्हें दिखाई पड़ता, तुम्हारे हृदय में अब कोई धड़कन नहीं है। प्रेम बरस रहा है।
जीसस ने कहा है: ईश्वर प्रेम है। हम सुन भी लेते हैं, मगर समझ में नहीं आता। प्रेम बरस रहा है। इस क्षण भी बरस रहा है। ऐसी कोई घड़ी नहीं है जब तुम्हारे ऊपर प्रभु का प्रेम नहीं बरस रहा है। एक क्षण को भी उसका प्रेम का बरसना बंद हो जाए, तुम्हारे जीवन का सेतु टूट जाए। उसके प्रेम से ही तुम जी रहे हो। उसके प्रसाद से ही तुम श्वास ले रहे हो। उसके प्रसाद ही तुम्हारा अस्तित्व है। मगर पहचान नहीं रह गई है, बोध नहीं रह गया है। जिसे बोध हो, उसके साथ मैत्री बना लेने का नाम ही सदगुरु को खोजना है।
वो रिंदे पाकबाज हैं, छू लें अगर हमें
दोजख की आग को भी गुलिस्तां बनाएं हम
उन पियक्कड़ों से जरा दोस्ती हो जाए जो परमात्मा को पीकर बैठे हैं। जिन्होंने परमात्मा की शराब पी ली है, जिन्होंने वह पवित्र शराब पी ली है--
वो रिंदे पाकबाज हैं, छू लें अगर हमें
दोजख की आग को भी गुलिस्तां बनाएं हम
बस इतना हो जाए तो नरक की आग भी गुलिस्तां बन जाए, तो नरक की आग में भी फूल खिल जाएं, तो नरक का अंधेरा भी रोशनी हो जाए। नरक कहीं है ही नहीं सिवाय तुम्हारी आंख के बंद होने के। कहीं और नरक नहीं है। तुम्हारा अंधापन ही तुम्हारा नरक है। आंख खुल जाए तो स्वर्ग ही स्वर्ग है। स्वर्ग के अतिरिक्त यहां कुछ है ही नहीं। यह सारा का सारा स्वर्ग है। यह अस्तित्व सब रूपों का स्वर्ग है। लेकिन यह मैं जानता हूं कि लोग नरक में जी रहे हैं। यह बड़ी अड़चन की बात है, अस्तित्व पूरा का पूरा स्वर्ग है और मजा ऐसा है कि लोग नरक में जी रहे हैं अधिक लोग नरक में जी रहे हैं--कभी-कभी कोई स्वर्ग में जीता है।
कैसे संबंध जुड़े इस स्वर्ग से? कैसे घटना घटे? कैसे ये अंधेरी रात कटे? कैसे ये विरह के क्षण पूरे हों? किसी पियक्कड़ को खोज लो। किसी मतवाले को खोज लो। और मतवाले सदा हैं। तुम नहीं खोज पाते हो उसका कारण एक ही है सिर्फ कि तुम हमेशा पुराने मतवालों को खोज रहे हो, जो अब नहीं हैं। कोई बुद्ध को खोज रहा है, बुद्ध अब नहीं हैं। यह तो बात ऐसी साफ है कि अब बुद्ध नहीं हैं। कोई महावीर को खोज रहा है, महावीर अब नहीं हैं। और मजा यह है कि तुम जब महावीर मौजूद थे, तब तुम महावीर को नहीं खोज रहे थे, तब तुम कृष्ण को खोज रहे थे। और जब कृष्ण मौजूद थे, तब तुम किसी और को खोज रहे थे। तुम हमेशा मुर्दों को खोजते हो। और परमात्मा सदा जीवित रूप में मौजूद होता है। तुम्हारे मंदिरों में तुम मुर्दों की पूजा कर रहे हो और परमात्मा कहीं जिंदा है, चल रहा है, उठ रहा है, बैठ रहा है। अभी गीत कहीं गाया जा रहा है, तुम भगवदगीता पढ़ रहे हो। तुम कुरान की आयतें रट रहे हो, कहीं अभी आयतें उतर रही हैं। कहीं परमात्मा अभी फिर पुकार रहा है, लेकिन तुम वेद में उलझे हो, और कहीं वेद रचे जा रहे हैं, कहीं एक-एक शब्द ऋचा है।
मगर तुम्हारी कठिनाई यह है कि तुम सदा मुर्दे को पूजते हो। मुर्दे को पूजने के पीछे कारण है। मुर्दे की प्रतिष्ठा है, हजारों साल की प्रतिष्ठा है। तुम बाजार में जीने के आदी हो। बाजार में पुराने की क्रेडिट होती है। नाम बिकता है। नये को कौन खरीदता है? नये को बेचना मुश्किल है। नई चीज भी चलानी हो तो लोग पुराना नाम खरीद लेते हैं। पुराने नाम के खूब दाम मिलते हैं। तुम अगर नई साबुन बनाओ और लक्स टायलट साबुन का नाम खरीद लो, तो बिकेगी, बिक जाएगी, कोई फिकर न करेगा कि नई है कि पुरानी। लेकिन नई साबुन बनाओ तो बिकना आसान नहीं है। नाम चाहिए--लोग नाम खरीदते हैं। लोग नाम से परिचित हैं। लोग विज्ञापन खरीदते हैं--हजारों साल का विज्ञापन है।
मैंने सुना है, अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति एण्ड्रू कारनेगी विज्ञापनों के बड़े खिलाफ था। वह कभी एडवरटाइजमेंट देता नहीं था किसी अखबार में। लेकिन एक अखबार का मालिक उसके पीछे ही पड़ा था। वह कितना ही उसको भगाता, वह फिर लौट-लौट कर दो-चार दिन में आ जाता । उसको भरोसा था कि वह राजी कर लेगा। एक दिन सुबह ही सुबह पहुंचा, एण्ड्रू कारनेगी को उसने बगीचे में ही पकड़ लिया। एण्ड्रू कारनेगी ने कहा: भई, आ गए फिर तुम, मुझे विज्ञापन देने नहीं हैं। उसने पूछा: लेकिन क्यों नहीं देने हैं? आप मुझे एक दफे ठीक-ठीक समझा दें, मैं दुबारा न आऊं। क्यों नहीं देने हैं। तर्क क्या है? उसने कहा कि मेरी चीजें बिक ही रही हैं, मैं क्यों विज्ञापन दूं? लोग मेरी चीजों को खरीद ही रहे हैं, लोगों को पता ही है, विज्ञापन की मुझे कोई जरूरत नहीं है। तभी पहाड़ी के ऊपर बने हुए चर्च की घंटियां बजने लगीं। उस विज्ञापन मांगने वाले अखबार के मालिक ने कहा: आप सुनते हैं? यह चर्च कितने दिनों से वहां है? एण्ड्रू कारनेगी ने कहा कि यह सौ साल पुराना चर्च है। उस अखबार के मालिक ने कहा: अभी भी यह सुबह-शाम घंटियां बजाता है कि नहीं? नहीं तो लोग भूल जाएंगे। ये घंटियां विज्ञापन हैं कि मैं अभी हूं कि मुझे भूल मत जाना।
और कहते हैं एण्ड्रू कारनेगी थोड़ी देर चर्च की घंटियां सुनता रहा, और उसने विज्ञापन देना शुरू कर दिया। उसे बात समझ में आ गई। लोग विज्ञापन को अर्थ देते हैं, मूल्य देते हैं।
अब वेद का विज्ञापन पुराना है। इसीलिए तो सभी धर्मों के लोग यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं--हमारी किताब सबसे ज्यादा पुरानी है। वैज्ञानिक शोध से पता चलता है कि वेद पांच हजार साल से पुराने नहीं हैं। लेकिन लोकमान्य तिलक कहते हैं, नब्बे हजार साल पुराने हैं। हिंदू तो कहते हैं, सनातन हैं। हम कोई सालों में गिनती नहीं करना चाहते। क्योंकि सालों में गिनती करना खतरनाक है। कोई दूसरी किताब निकल आए जो ज्यादा पुरानी हो! सनातन हैं। सदा से हैं। ऐसा कभी था ही नहीं जब वेद नहीं थे। यह इतना आग्रह क्यों है?
जैनों से पूछो, जैन कहते हैं, जैन धर्म हिंदू धर्म से पुराना है। हमारे तीर्थंकर सबसे ज्यादा पुराने हैं। दलीलें खोजते हैं। वे कहते हैं, हमारे पहले तीर्थंकर का नाम ऋग्वेद में उपलब्ध है। और आदर से उपलब्ध है। तो उसका मतलब यह हुआ कि जब ऋग्वेद लिखा गया, तब भी हमारा धर्म था, हमारा पहला तीर्थंकर हो चुका था। और इतने आदर से उल्लेख किया गया है पहले तीर्थंकर का जैसा कि हम समसामयिक आदमी का कभी नहीं करते। समसामयिक की तो हम निंदा करते हैं। हम तो आदर ही पुराने का करते हैं। हमारी तो आदर की प्रक्रिया ही पुराने के लिए है। तो वे कहते हैं, इतने आदर से उल्लेख किया है पहले तीर्थंकर का, इससे सिद्ध होता है कि तीर्थंकर को मरे हजारों साल हो चुके होंगे। अगर समसामयिक होते तीर्थंकर तो एक तो आदर ही नहीं होता, नाम का उल्लेख भी नहीं हो सकता था। तो ऋग्वेद से ज्यादा पुराना जैन धर्म है।
सबकी चेष्टा यही है कि उनकी किताब, उनका धर्म सबसे ज्यादा पुराना हो। क्यों? पुराने की प्रतिष्ठा है। पुराने के साथ परंपरा जुड़ जाती है। हजारों साल का इतिहास, कहानियां, कथाएं, घटनाएं जुड़ जाती हैं। बल पैदा हो जाता है। जब नया पैदा होता है तो उसके साथ न कोई परंपरा होती है, न कोई कहानियां होती हैं, न कोई पुराण होते हैं। मगर परमात्मा सदा ही नया है। परमात्मा सदा नूतन है, नित-नूतन है। तुम्हारी अड़चन यही है कि तुम पुराने में खोजते हो और नहीं पाते। और पुराने में खोजने के कारण तुम पंडित के हाथ के शिकार हो जाते हो। क्योंकि पंडित पुराने का धंधा करता है। पंडित पुराने से जीता है। पंडित परंपरा का शोषण करता है। तुम्हारी परंपरा की आकांक्षा का पंडित ठीक-ठीक शोषण कर लेता है। फिर तुम्हें पंडित के हाथ पड़ जाना होता है।
और पंडित तुम्हें सांत्वना दे सकता है, सत्य नहीं। सत्य तो उसे खुद भी नहीं मिला है। उसके हाथ में भी मुर्दा शब्द हैं। वह मुर्दा शब्दों से ही तुम्हें भर देगा। तुम्हारे मस्तिष्क में भी मुर्दा शब्द डाल देगा।
सदगुरु की खोज तो तभी हो सकती है जब तुम एक बात समझ लो कि अब बुद्ध तो मिलेंगे नहीं, अब किसी जीवित बुद्ध को तलाशना है। अब महावीर तो मिलेंगे नहीं, अब किसी जीवित महावीर को तलाशना है। और यह भी खयाल रखना कि महावीर एक दफा ही एक ढंग के होते हैं। दूसरी दफा उसी ढंग के नहीं होते। इस जगत में पुनरुक्ति नहीं होती। यह भी एक अड़चन है खोजी के लिए। तुमने एक ढांचा बना लिया है। चलो, ठीक, आज के महावीर को खोज लेंगे, मगर आज का महावीर प्राकृत भाषा नहीं बोलेगा। कैसे बोलेगा? आज का महावीर हो सकता है हिंदी बोले, मराठी बोले, गुजराती बोले; और तुम प्राकृत बोलने वाले महावीर को खोजोगे, क्योंकि मूल महावीर ने प्राकृत बोली थी। नहीं पाओगे।
महावीर का एक ढंग था, एक जीवन-दृष्टि थी, एक शैली थी। अद्वितीय थी, अनूठी थी, मगर इस दुनिया में कार्बनकॉपी होती ही नहीं। और कार्बनकॉपी का खतरा है। अगर तुम महावीर को खोजने गए तो किसी कार्बनकॉपी के चक्कर में पड़ जाओगे। कहीं न कहीं लोग हैं जो कार्बनकॉपी कर रहे हैं, जो ठीक महावीर जैसे ही चल रहे हैं, उठ रहे हैं, बैठ रहे हैं, वैसे ही भोजन कर रहे हैं, उसी ढंग से नग्न हैं, उसी ढंग का उन्होंने आचरण बना लिया है, उनके चक्कर में तुम पड़ जाओगे।
और ध्यान रखना, परमात्मा कभी पुनरुक्त नहीं होता। परमात्मा सदा ही अद्वितीय है, बेजोड़ है। महावीर बस एक बार होते हैं, दुबारा नहीं होते--न तो महावीर के पहले कभी हुए थे, न महावीर के बाद कभी होंगे। मोहम्मद एक ही बार होते हैं, दुबारा नहीं होते हैं। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि परमात्मा होना बंद हो जाता है। परमात्मा रोज नये रूप लेता है। परमात्मा सृजनात्मक है।
नये को पहचानने की क्षमता चाहिए, तो सदगुरु मिलेगा। अगर पुराने की पकड़ है तो तुम्हें नकलची मिलेंगे, अभिनेता मिलेंगे; कुशल अभिनेता मिल जाएंगे; पंडित मिलेंगे, पुजारी मिलेंगे, पुरोहित मिलेंगे, अनुयायी मिलेंगे, मगर मौलिक अनुभव को उपलब्ध व्यक्ति नहीं मिल पाएगा। इस सारी पक्षपात की धारणा को आंख से उतार कर जो खोजने निकलता है, उसे निश्चित सदगुरु मिल जाता है। सदगुरु सदा मौजूद है। इस पृथ्वी पर ऐसा कभी नहीं होता जब परमात्मा का दीया कहीं न कहीं प्रगाढ़ होकर न जलता हो। ऐसा हो ही नहीं सकता। उसकी अनुकंपा अपार है। उसकी अनुकंपा का ही तो यह प्रमाण होगा कि वह अब भी आदमी से निराश नहीं हुआ है, अब भी कहीं उतरता है, अब भी कहीं पुकारता है, वैसे ही जैसे पुराने दिनों में पुकारता था, अब भी पुकारता है। मगर तुम्हें उसकी नई भाषा समझनी होगी, नया रंग-ढंग समझना होगा। वह आज के अनुकूल होगा। और सदा ही चूंकि नया होगा, इसलिए जो लोग पुराने नक्शे लेकर चलेंगे, उन्हें वह कभी भी नहीं मिल पाएगा। वह किसी पुराने नक्शे के ढांचे में बैठेगा नहीं। इसलिए बड़ी खुली आंख चाहिए। लेकिन अगर तुम खोज में निकले हो, अगर सच में ही खोज तुम्हारे रोएं-रोएं को पकड़ ली, तो यह घटना घटेगी।
हंगामें उठ रहे हैं मेरी सांस-सांस में
सर से कदम तक इक दिले-बेकरार हूं
अगर तुम्हारे रोएं-रोएं में बेकरारी है, बेचैनी है, खोजना ही है सदगुरु को, प्यास है, सघन प्यास है, ज्वलंत प्यास है, तुम्हारा रोआं-रोआं जल रहा है--
हंगामें उठ रहे हैं मेरी सांस-सांस से
सर से कदम तक इक दिले-बेकरार हूं
--तो देर नहीं लगेगी।
जितनी प्रगाढ़ होगी अभीप्सा, उतने ही शीघ्र मिलन हो जाता है। और सदगुरु से पहली दफा आंख मिली कि बस बात हो गई। यह भी पहली आंख का प्रेम है। पहली दृष्टि। बस आंख तुम्हारी साफ होनी चाहिए, पुराने कूड़ा-करकट से भरी नहीं होनी चाहिए; आंख साफ हो, एक बार सदगुरु से मिली तो बात हो गई।
दुश्मनों ने तो दुश्मनी की है
दोस्तों ने भी क्या कमी की है
अक्ल से सिर्फ जहन रौशन था
इश्क ने दिल में रोशनी की है
यह प्रेम की घटना है। यह महा प्रेम की घटना है।
इश्क ने दिल में रोशनी की है
अक्ल से सिर्फ जहन रौशन था
शास्त्रों से ज्यादा से ज्यादा बुद्धि में थोड़ी रोशनी हो सकती है। मगर वह रोशनी बहुत काम की नहीं, उधार है, बासी है, पराई है। अपनी रोशनी तो हृदय में उठती है। अपनी लपट तो हृदय में जगती है।
अक्ल से सिर्फ जहन रौशन था
इश्क ने दिल में रोशनी की है
जब तुम्हारे भीतर प्रकाश धड़कता है हृदय में, तब तुम ठीक रास्ते पर आ गए। खोजो उन आंखों को जिनको देखते ही प्रेम जग जाए। खोजो उन हाथों को जिनके स्पर्श से ही प्रेम जग जाए। फिर सब सुगम हो जाता है।
ऐसी ही तो घटना रज्जब के जीवन में घटी। घोड़े पर सवार, बारात जाती थी कि दादू दयाल बीच में आकर खड़े हो गए, आंख से आंख मिली और बस बात हो गई। बात की बात हो गई। उतार कर फेंक दिया सिर से मौर, दादू के चरणों में सिर रख दिया--दादू को सिरमौर बना लिया।
मार भली जो सतगुरु देहि। फेरि बदल औरे करि लेहि।।
सस्ता नहीं है सदगुरु का साथ फिर। सदगुरु मारेगा, मिटाएगा, तोड़ेगा। हिम्मतवर ही उसके पास हो सकते हैं। जो सांत्वना की तलाश में गए थे वे तो दूर से ही भाग खड़े होंगे। तुम तो गए थे कि कोई तुम्हारे गले में फूलमाला पहनाएगा और वहां गर्दन काटी जाने लगी, तुम कैसे टिकोगे? गर्दन कटवाने की हिम्मत हो तो ही टिकोगे। सिर रख दिया चरणों में, इसका मतलब समझते हो? इसका मतलब सिर्फ औपचारिक नहीं होता, इसका मतलब सिर्फ यह कोई प्रणाम करने का कोई ढंग नहीं है, सिर रख दिया चरणों में इसका मतलब होता है--यह रही गर्दन, काटना हो काटो। मैं ना-नुच नहीं करूंगा। हटेगी नहीं यह गर्दन। उठा लो तलवार और काट दो, तो यहीं इसी मस्ती से कट जाऊंगा; शिकायत नहीं होगी; इसी आनंद-अहोभाव से मर जाऊंगा, मिट जाऊंगा। मुझे मिटा दो, मैं अपने ढंग से रह कर देख लिया हूं और पीड़ा के अतिरिक्त कुछ भी न पाया, अब मुझे मिटा दो, अब मुझे जला दो, मेरी मृत्यु बनो, मेरी सूली बन जाओ। यह अहंकार मुझे जन्मों-जन्मों तक सताया है। इस अहंकार से मैंने न मालूम कितने-कितने सपने देखे, कितने विषाद सहे, इस अहंकार ने मुझे कहां-कहां नहीं भटकाया है, इस अहंकार में बहुत भटक चुका हूं, अब तुम इसे मिटा दो। मुझमें मेरा-भाव न रह जाए, मेरी खुदी मिटा दो।
चरणों में सिर रखना सिर्फ नमस्कार नहीं है। इसलिए पश्चिम के लोग थोड़े हैरान होते हैं--यह भी कोई नमस्कार करने का ढंग है कि किसी के पैरों में सिर रखो! उन्हें पता नहीं यह नमस्कार का ढंग ही नहीं है। इसका नमस्कार से कुछ लेना-देना नहीं है। यह तो कुछ और ही बात है। यह तो समर्पण का भाव है। यह तो समर्पण की घोषणा है कि यह रहा सिर, अब जो मर्जी हो वैसा करो।
मार भली जो सतगुरु देहि।
रज्जब कहते हैं: उससे ज्यादा प्यारी दुनिया में और कोई चीज नहीं। सदगुरु की मार। और मारेगा सब तरफ से, क्योंकि न मालूम कितना कचरा है सदियों-सदियों पुराना जो छीनना है। और जिसे तुम संपत्ति समझ कर पकड़े बैठे हो। और तुम्हारे भीतर न मालूम कितने रोग हैं जिन रोगों को नष्ट करना है। उन रोगों को तुमने अब तक अपना जीवन जाना है। तुम्हारे भीतर न मालूम कितने न्यस्त स्वार्थ हैं--काम है, क्रोध है, लोभ है, मोह है। तुम्हारे भीतर न मालूम कितनी विषाक्त मनोदशाएं हैं, उन सबको मिटाना है। एक-एक करके काटना है। तुम्हें तैयार करना है।
मार भली जो सतगुरु देहि। फेरि बदल औरे करि लेहि।।
जो उस मार को झेलने को राजी हो जाता है स्वागत से, सम्मान से, श्रद्धा से--‘फेरि बदल औरे करि लेहि’--गुरु उसे बदल कर कुछ का कुछ कर लेता है--और ही बना देता है! रूपांतरण हो जाता है। इंच-इंच काटना पड़ता है। इसलिए थोड़े से हिम्मतवर योद्धा ही सदगुरुओं के पास रुकते हैं। कमजोर भाग जाते हैं। कमजोर भागने के लिए न मालूम कितने उपाय खोज लेते हैं, कितने तर्क खोज लेते हैं। न मालूम क्या-क्या उनके मन में विचार उठ आते हैं और भाग खड़े होते हैं। मगर ध्यान रखना, वे सब भागने के लिए व्यवस्थाएं हैं, पलायन की व्यवस्थाएं हैं।
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार। त्यूं सतगुरु की मार विचार।।
और जब सतगुरु मारे, उठे उसकी तलवार, काटने लगे तुम्हारी गर्दन, तो रज्जब कहते हैं: सोचना अपने मन में, क्योंकि मन तो भागने को होगा, और मन कहेगा इसलिए थोड़े ही आए थे; आए थे कि थोड़ा ज्ञान हो जाए, आए थे कि थोड़ी शांति हो जाए, आए थे कि थोड़ा सुख हो जाए, आए थे कि थोड़ी संपदा मिल जाए, आए थे कि थोड़ा सम्मान बढ़े, आए थे कि दुनिया में थोड़ा कुछ कर दिखाएं--नाम छोड़ जाएं, कुछ हस्ताक्षर बना जाएं--कोई गर्दन कटाने तो आए नहीं थे। यह क्या होने लगा?
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार।
तो रज्जब कहते हैं, जाकर देखना, जैसे कुम्हार माटी को कूटता है, बिना कूटे माटी तैयार नहीं होती; तुम भी माटी हो, अभी माटी से ज्यादा नहीं हो, क्योंकि अभी मृत्यु ही तुम्हारे जीवन की लक्षणा है। हां, तुम्हारी माटी में कहीं अमृत भी छिपा है, मगर कूट-कूट कर उसे मुक्त करना होगा। तुम्हारी देह में आत्मा भी दबी पड़ी है, मगर उसके लिए राह बनानी होगी। अभी तो तुम देह ही देह हो। अभी तो तुम शरीर ही शरीर हो--माटी और कुछ भी नहीं, बस माटी।
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार।
तो गुरु उठाएगा अपने शस्त्र, कूटना शुरू करेगा; मृत्यु से अमृत को अलग करना है, जड़ से चेतन को अलग करना है, निद्रा से होश को अलग करना है।
ज्यूं माटी कूं कुटै कुंभार। त्यूं सतगुरु की मार विचार।।
सदा ध्यान रखना, जब मार पड़े तो घबड़ा मत जाना। सोचना कि ठीक, कुम्हार के हाथ में पड़ गया हूं, अब माटी पिटती है, अब कुछ होगा।
फेरि बदल औरे करि लेहि।
निजामे-आलम बदल रहा है, खुदा भी शायद नया बनेगा
नये-नये से हैं सब मुजाविर, नई-नई सी हैं खानकाहें
रहे-तलब में जो थक के बैठें, मेरी नजर में वे बुलहविस हैं
रहे-तलब में कयाम कैसा? रहे-तलब में कहां पनाहें
जो खोजने चला है, सच में ही खोजने चला है, जो सत्य का खोजी है, सत्यार्थी है, ‘रहे-तलब में कयाम कैसा?’ फिर वह सोचता नहीं कि दांव पर क्या लगाना और क्या बचाना! ‘रहे-तलब में कहां पनाहें?’ फिर वह शरण भी नहीं लेता। अपनी गर्दन छिपाता भी नहीं। गुरु बरसता है तो वह छाता नहीं तान लेता। गुरु बरसता है, तो वह अपने चारों तरफ बचाव के लिए आयोजन नहीं कर लेता, रक्षा का इंतजाम नहीं करता। ‘रहे-तलब में कहां पनाहें?’
और, ‘रहे-तलब में जो थक के बैठें, मेरी नजर में वे बुलहविस हैं।’ और जो गुरु के पास आकर जल्दी ही थक जाएं, उसका मतलब इतना ही है कि अभी संसार से उनका मन मुक्त नहीं हुआ था, अभी संसार में कुछ लगाव बना था, अभी संसार में वासना बनी थी; यूं ही चले आए थे, कच्चे-कच्चे चले आए थे, अभी पके नहीं थे, अभी परिपक्व नहीं थे; सुन लिया होगा कि संसार व्यर्थ है, मगर जाना नहीं था; पढ़ लिया होगा कि सब संसार माया है, मगर यह अपनी अनुभूति नहीं थी। ‘रहे-तलब में जो थक के बैठें,’ और जो कहें कि बस थक गए, जरा में थक जाएं, ‘मेरी नजर में वे बुलहविस हैं।’ वे वासनाग्रस्त लोग हैं, भूल से आ गए।
‘रहे-तलब में कयाम कैसा?’ विश्राम कैसा? सत्य को खोजने जो चला है, वह सब दांव पर लगाता है, वह कुछ भी बचाता नहीं--‘रहे-तलब में कहां पनाहें?’ और वह कोई रक्षावरण अपने चारों तरफ खड़ा नहीं करता--न बुद्धि के, न विचार के, न देह के। सब तरह से अपने को खुला छोड़ देता है।
भाव भिन्न कछु औरे होइ।
और जब गुरु मारता है, तो यह मत सोचना कि नाराज है। गुरु और नाराज! असंभव। यह मत सोचना कि तुम्हारा अपमान कर रहा है। गुरु और किसी का अपमान करे! असंभव।
भाव भिन्न कछु औरे होइ।
उसका भाव कुछ और है। कोई कुम्हार मिट्टी को पीट रहा है तो अपमान थोड़े ही कर रहा है, सच में सम्मान कर रहा है। इस मिट्टी को चुना है, इस मिट्टी से कुछ मूर्ति बनानी है। और भी मिट्टियां थीं बहुत, उनको नहीं कूटा है, उनको नहीं पीटा है, उनको योग्य नहीं समझा है। जब मूर्तिकार एक पत्थर पर छेनी लेकर जुट जाता है तोड़ने, तो पत्थर का अपमान नहीं है, सम्मान है। पत्थर तो बहुत थे दुनिया में, इस पत्थर को चुना है, इस पत्थर से भगवत्ता निर्मित होगी, इस पत्थर में कुछ विशिष्टता है।
भाव भिन्न कछु औरे होइ। ताते रे मन मार न जोइ।।
इसलिए मार पर ध्यान मत देना, भाव पर ध्यान देना। गुरु क्या कर रहा है इसका ध्यान ही मत देना, सदा खोजना उसकी आकांक्षा क्या है? और वहां तुम सदा अनुकंपा पाओगे। और वहां तुम सदा करुणा पाओगे। और वहां तुम सदा प्रेम पाओगे। और जितना ज्यादा प्रेम होगा, गुरु उतना ही कठोर होगा।
जैसा लोहा घड़ै लुहार। कूटि-काटि करि लैवै सार।।
लोहे जैसे ही कठोर हो तुम, कठिन हो तुम, आग में तुम्हें गलाना होगा, तो ही तुम तरल हो पाओगे। आग में तुम्हें गलाना होगा, तो ही तुम नरम हो पाओगे।
जैसा लोहा घड़ै लुहार। कूट-काटि करि लैवै सार।।
और कूटेगा और काटेगा, तभी सार उत्पन्न हो सकेगा। जैसे तुम हो, ऐसे तो असार हो। अनगढ़ पत्थर हो, कि मिट्टी का ढेर हो, कि लोहा हो।
मारै मारि मिहरि करि लेहि।
एक हाथ से मारता है गुरु और जो मार को झेल लेता है उसकी, उसी क्षण पाएगा उसकी मेहर, उसकी अनुकंपा की वर्षा भी दूसरे हाथ से हो रही है। मगर उसको ही पता चलेगा जो मार झेल लेगा स्वागत से। जो भाग खड़ा होगा, वह उसकी मेहर से वंचित रह जाएगा, उसकी अनुकंपा से वंचित रह जाएगा।
मारै मारि मिहरि करि लेहि।
ऐसे मारता है, फिर पुचकार लेता है। चोट करता है, फिर सहलाता है। फिर-फिर चोट करेगा। और हर चोट पहली चोट से ज्यादा गहरी होती जाएगी। और हर चोट के बाद, हर गहरी चोट के बाद गहरी अनुकंपा तुम्हें उपलब्ध होने लगेगी। ऊपर से जो देखेगा, उसे कुछ समझ में न आएगा। ये भीतर के राज हैं; उन पर ही खुलते हैं जो भीतर प्रवेश करते हैं।
मारै मारि मिहरि करि लेहि। तो निपजै फिरि मार न देहि।।
यह मार तब तक चलती रहती है जब तक कि तुम्हारे भीतर का दीया न जल जाए, ज्ञान की दृष्टि पैदा न हो जाए, साक्षी का जन्म न हो जाए, सार का आविर्भाव न हो जाए।
तो निपजै फिरि मार न देहि।
और जब इस दृष्टि का जन्म हो जाता है, फिर कोई मार नहीं है। फिर गुरु तो मारता ही नहीं है। फिर मृत्यु भी नहीं मार सकती। फिर मार ही नहीं है, फिर मृत्यु ही नहीं है। फिर अमृत है। मगर उस अमृत के पहले बहुत बार मरना होता है। और धन्यभागी हैं वे जो गुरु के हाथ से बहुत बार मरने को तैयार होते हैं।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।
जैसे तीर बनाने वाला तीर को संड़सी से पकड़ता है, हथौड़ी से कूटता है, सीधा करता है।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि।
जैसे तीर को पकड़ लिया हो संड़सी से तीरगर ने, ऐसा गुरु शिष्य को पकड़ लेता है। छूटना मुश्किल हो जाता है। भागना मुश्किल हो जाता है। जो पहले ही भाग गए, पकड़ के पहले भाग गए वे भाग गए, जो पकड़ में आ गए, वे नहीं भाग पाते।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।
तुम्हारें तीर बड़े इरछे-तिरछे हैं। इनसे कोई लक्ष्य-भेद नहीं हो सकता। चलाओ कहीं, पहुंचेंगे कहीं। ये सीधे ही नहीं हैं। तीर को तो सीधा होना चाहिए तो ही लक्ष्य-भेद हो सकता है। तुम्हारी सब चाल इतनी तिरछी है, तुम इतने तिरछे चलते रहे हो जन्मों-जन्मों में कि तुम्हारा कुछ पक्का नहीं, कहो कुछ, करो कुछ, करना कुछ चाहते थे--तुम्हारा कुछ पक्का नहीं है।
अमरीका का प्रसिद्ध विचारक और लेखक मार्क ट्वेन एक सभा से व्याख्यान करके लौटा। उसकी पत्नी ने उसके घर आने पर पूछा: व्याख्यान कैसा रहा? मार्क ट्वेन ने पूछा: कौन सा व्याख्यान? जो मैं देना चाहता था, वह? या जो मैंने दिया, वह? या अब जो मैं सोचता हूं जो मुझे देना चाहिए था, वह? कौन सा व्याख्यान?
आदमी पर्त दर पर्त तिरछा है। तुम भी जानते हो। कहते कुछ--मुंह कुछ कहता, आंख कुछ कहती; मुंह से हां कहते हो, आंख न कहती है; मुंह से न कहते हो, आंख हां कहती; और भीतर कुछ और, भाव कुछ और; न तुम कहे की सुनोगे, न तुम भाव की सुनोगे, करोगे तुम जब तब न मालूम क्या करोगे? कुछ पक्का नहीं है। आदमी बिलकुल तिरछा-तिरछा है, सीधा नहीं है। गुरु को इस तीर को सीधा करना होगा। तुम्हारी वाणी, तुम्हारे विचार, तुम्हारे आचरण, तुम्हारे अस्तित्व को एक तारतम्यता देनी होगी, एक सुसंबद्धता देनी होगी, एक संगति देनी होगी। तुम अभी विवादग्रस्त हो। तुम्हारे भीतर बहुत दिशाएं चल रही हैं। तुम्हारा एक हाथ पश्चिम जा रहा है, एक हाथ पूर्व जा रहा है; एक पैर दक्षिण जा रहा है, एक पैर उत्तर जा रहा है; तुम चारों दिशाओं में चारों धामों की यात्रा पर एक साथ निकल पड़े हो। चारों धाम इकट्ठे कर लेने का इरादा है। तुम कहीं नहीं पहुंचोगे। क्योंकि तुम पहुंच सकते हो तभी जब तुम समग्रीभूत होकर एक दिशा में गति करो।
ज्यूं सांटी संपुट में आनि। सूधी करै तीरगर पानि।।
और कठिनाइयां तो होंगी--मिट्टी कूटी जाएगी, लोहा गलाया जाएगा, पत्थर तोड़ा जाएगा, तीर को कूटा जाएगा, पीटा जाएगा, सींकचों में पकड़ा जाएगा।
हमने भी इक सुबह की खातिर
जलते-बुझते रात गुजारी
दुख की धूप में सूख के अक्सर
फलती है जीवन की क्यारी
दुख की धूप में सूख के अक्सर, फलती है जीवन की क्यारी। इस दुख को आनंद भाव से स्वीकार कर लेने का नाम ही तप है। गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है, वही तपश्चर्या है।
मन तोड़न का नाहीं भाव।
तुम्हें तोड़ना नहीं चाहता गुरु, तुम्हें बनाना चाहता है। मगर बनाने के लिए तोड़ना पड़ता है।
मन तोड़न का नाहीं भाव। जे तुछ तूटि जाय तौ जाव।।
और जो टूट जाते हों, उनका जिम्मा उन्हीं पर है। वे तुच्छ हैं, निकम्मे हैं, समझे नहीं बात, गुरु का हथौड़ा देखा और भाग खड़े हुए, एकाध चोट खाई और भाग खड़े हुए, इतना भी मौका न दिया कि चोट के बाद मेहर बरस जाती।
ऐसा रोज यहां हो रहा है। क्योंकि यह तो प्रयोगशाला है। यहां लोग बनाए-मिटाए जा रहे हैं। यहां मिट्टियां कूटी जा रही हैं। यहां लोहे गलाए जा रहे हैं। यहां रोज यह होता है, कोई व्यक्ति जरा सी बात उसके विपरीत पड़ जाए, एक शब्द उसके विपरीत पड़ जाए, बस फिर दुबारा दिखाई नहीं पड़ता। फिर जो भागा सो भागा। फिर वह लौट कर नहीं देखता। वह यह भी मौका नहीं देता कि जो चोट की गई थी, उसको सहलाने का समय दे देता। वह इतना भी मौका नहीं देता कि जो मार की गई थी, उस मार के पीछे जो करुणा की वर्षा होने वाली थी, उसका भी थोड़ा स्वाद ले लेता। बस वह भाग ही जाता है। तुच्छ आदमी धैर्यवान नहीं होता। और ये रास्ते धीरज के रास्ते हैं। जीवन को रूपांतरण करना धीरज की बात है।
जे तुछ तूटि जाय तौ जाव।
और अगर कोई टूट जाता हो तो ध्यान रखना, वह अपने ही कारण टूट गया।
मन तोड़न का नाहीं भाव।
शिष्य को तो प्रतीक्षा में होना चाहिए, अनंत धैर्य में होना चाहिए।
इस कदर थे तेरी खातिर गोशबर आवाज हम
जब कली चटकी तेरे पैगाम का धोखा हुआ
शिष्य को तो ऐसा होना चाहिए कि कान ही कान हो जाए जब गुरु बोले, आंख ही आंख हो जाए जब गुरु को देखे, हाथ ही हाथ हो जाए जब गुरु का हाथ उसे छुए।
इस कदर थे तेरी खातिर गोशबर आवाज हम
ऐसी टकटकी लगा कर सुन रहे थे, ऐसा कान हो गए थे--
इस कदर थे तेरी खातिर गोशबर आवाज हम
जब कली चटकी तेरे पैगाम का धोखा हुआ
इधर फूल भी खिला हो, जरा सी आवाज हुई हो और फूल के खिलने में कोई बड़ी आवाज नहीं होती--कली चटकी तेरे पैगाम का धोखा हुआ, लगा तेरा कोई संदेश आया। ऐसे ही संदेश आते हैं। इतने धैर्य में, इतनी शांति में, इतने अहोभाव में; कली चटकने की तरह ही संदेश आते हैं। हथौड़ों की चोट है और कलियों का चटकना भी है। हथौड़ों की चोट को ही मत देखते रहना, क्योंकि पीछे कली भी चटकने वाली है। हथौड़े की चोट में ही खो गए, तो चूक गए। अवसर द्वार आया था, भर जाते तुम, सदा के लिए भर जाते, खाली के खाली रह गए।
ज्यूं कपड़ा दरजी के जाय। टूक-टूक करि लेहि बनाय।।
बनाने के पहले टुकड़े-टुकड़े करना जरूरी है। क्यों? क्योंकि तुम गलत ढंग से जुड़ गए हो। तुम्हारे सब अंग गलत ढंग से जुड़ गए हैं। तुम्हारा हाथ वहां है जहां पैर होना था, तुम्हारा पैर वहां है जहां सिर होना था, तुम्हारा सिर वहां है जहां पेट होना था। तुम कहोगे यह भी कोई बात हुई?
जॉर्ज गुरजिएफ ने इसका बहुत गहरा विश्लेषण किया है--इस सदी का एक सदगुरु। उसने लिखा है कि जब किसी आदमी के मस्तिष्क में कामवासना चलती है, तो उसका मतलब हुआ--यौन-केंद्र मस्तिष्क में चला गया। यौन-केंद्र पर कामवासना की ऊर्जा रहे, यह स्वाभाविक। लेकिन मस्तिष्क में चली जाए, यह विकृति। जब कोई आदमी भाव भी खोपड़ी से करने लगता है, तो गड़बड़ हो गई; भाव हृदय में होना चाहिए, हृदय उसका केंद्र है। तो हृदय और मस्तिष्क मिश्रित हो गए; गड्डमड्ड हो गए, खिचड़ी बन गई। तुम्हारे सब अंग-प्रत्यंग गलत जुड़ गए हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि मेरा विचार है कि मेरे भीतर आपके प्रति श्रद्धा पैदा हो रही है। मैं पूछता हूं--विचार? श्रद्धा पैदा होती है तो विचार नहीं होता। श्रद्धा का विचार से कोई संबंध नहीं है। श्रद्धा तो विचारातीत है। श्रद्धा में विचार कहां? संदेह में विचार होता है, संदेह विचार है, श्रद्धा विचार से मुक्ति है। इसलिए तो विचार करने वाले आदमी को श्रद्धा करने वाला आदमी अंधा मालूम होता है। उसकी बात में बल है। वह कहता है--सब श्रद्धा अंधी होती है, क्योंकि विचार की जगह नहीं है उसमें, तर्क का उपाय नहीं है उसमें। जब कोई कहता है कि मेरा विचार है कि मेरे मन में आपके प्रति श्रद्धा पैदा हो रही है, तो वह सिर से श्रद्धा कर रहा है जो कि गलत बात है। श्रद्धा का केंद्र वहां नहीं है, श्रद्धा का केंद्र हृदय है।
जब तुम किसी के प्रेम में पड़ जाते हो और जब तुम प्रेम की बात करते हो, तुमने खयाल किया, अचानक ही तुम्हारा हाथ अपने हृदय पर चला जाता है जब तुम प्रेम की बात करते हो। कोई ऐसा नहीं करता कि अपने सिर पर हाथ रख कर कहे--मुझे तुमसे प्रेम हो गया है। अगर ऐसा कोई आदमी करे तो क्या होगा? इसका मतलब है कि सब गड़बड़ हो गया है। जब प्रेम होता है तो हाथ हृदय पर जाता है, हृदय प्रेम का केंद्र है। तर्क का केंद्र मस्तिष्क है। तुम भीतर बिलकुल गड्डमड्ड हो गए हो। तुम्हारे सब तार गलत-सही जुड़ गए हैं। कुछ का कुछ हो गया है। जैसे यंत्र के अंग-प्रत्यंग गलत जुड़ गए हों।
सब तुम्हारे भीतर है। ऐसा ही समझो कि कार है खड़ी द्वार पर, सब उसके भीतर है, लेकिन चीजें गलत-सलत जुड़ी हैं--जहां इंजन होना चाहिए, वहां इंजन नहीं है; जहां ब्रेक होनी चाहिए, वहां ब्रेक नहीं हैं, वे कहीं और जुड़े हैं; सब अस्त-व्यस्त हो गया है, यह गाड़ी चल नहीं सकती। तुम्हारी भी जीवन की गाड़ी कहां चल रही है? तुम्हारी जीवन की गाड़ी शाब्दिक अर्थों में गाड़ी है। यह शब्द सुनते हो? गाड़ी हम बनाए हुए हैं उस चीज के लिए जो चलती है, लेकिन गाड़ी का मतलब होता है--गड़ी; चलने वाली नहीं। तुम्हारी गाड़ी बिलकुल गड़ी है, सच में गाड़ी है, चलती-वलती नहीं, कहां चलना है, कहां जाना है, यहीं गड़े-गड़े मर जाना है। लोग वहीं पैदा होते हैं, वहीं मर जाते हैं, इंच भर जीवन में यात्रा नहीं होती--वही के वही मर जाते हैं जैसे आए थे। और सब लेकर आए थे।
तो गुरु तोड़ेगा।
ज्यूं कपड़ा दरजी के जाय। टूक-टूक करि लेहि बनाय।।
पहले काटेगा। जहां-जहां गलत अंग जुड़ गए हैं, सब काट देगा। कभी-कभी ऐसा हो जाता है न, तुम गिर पड़े, हड्डी टूट गई, फिर हड्डी गलत जुड़ गई । तो सर्जन को फिर से तोड़नी पड़ती है। फिर ठीक से जोड़नी पड़ती है।
सदगुरु सर्जन है। और तुम्हारी हड्डियां ही गलत नहीं जुड़ी हैं, तुम्हारा सब-कुछ गलत जुड़ गया है। क्योंकि तुमने अज्ञान में सब जोड़ लिया है। तुम्हें कुछ पता ही नहीं था क्या कहां होना चाहिए।
टूक-टूक करि लेहि बनाय।
तोड़ने में पीड़ा भी होगी लेकिन...
त्यूं रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब झेल।।
लेकिन इसको खेल की तरह लेना। सतगुरु का खेल समझना।
त्यूं रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब झेल।।
खेल ही समझ कर झेलो तो झेल पाओगे। अगर बहुत गंभीर हो गए, बहुत परेशान हो गए, बहुत बेचैन हो गए, तो भाग जाओगे। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर कोई आदमी ऑपरेशन की टेबल से बीच में भाग जाए, तो जितनी हालत पहले खराब थी उससे ज्यादा खराब हालत अब हो जाएगी। पहले ही ठीक थे। इसलिए जो लोग अधकचरे धार्मिक हो जाते हैं, उनकी दुर्गति बहुत है, उनकी दुर्दशा बहुत है। या तो ऑपरेशन की टेबल पर ही मत जाना।
मैंने सुना है ऐसा हुआ था। एक नेताजी का ऑपरेशन हुआ। उनका मस्तिष्क निकाल कर चिकित्सक उसको साफ कर रहे थे--नेताओं का मस्तिष्क साफ करने की जरूरत पड़ती ही है। असल में हर साल नेताओं के मस्तिष्क को निकाल कर, साफ-सुथरा करके फिर से रखना चाहिए। वे साफ-सुथरा कर रहे थे, समय लग रहा था साफ-सुथरा करने में--नेताजी का मस्तिष्क, समय लगेगा ही--तभी एक आदमी भागा हुआ भीतर आया और उसने कहा: नेताजी, नेताजी, आप पड़े यहां क्या कर रहे हो? आप प्रधानमंत्री हो गए हो। वे नेताजी तो उठे और चलने लगे। डॉक्टरों ने कहा: रुको भाई, कहां जा रहे हो? आपका मस्तिष्क अभी खोपड़ी के बाहर है। उसने कहा: अब हमें मस्तिष्क की जरूरत ही क्या, प्रधानमंत्री हो गए! अब मस्तिष्क सम्हाल कर रखना, अब हमें कोई जरूरत नहीं है।
ऑपरेशन की टेबल से बीच में मत भाग जाना। नहीं तो और दुर्दशा हो जाती है। मेरा भी यह अनुभव है, जिन्होंने कभी ध्यान नहीं किया, वे ही ठीक हैं। लेकिन जो आधा-धूधा ध्यान कर लेते हैं, वे और मुश्किल में पड़ जाते हैं। जिन्होंने कभी योग नहीं किया, वे ही ठीक हैं। जिन्होंने कुछ आधा-धूधा योग कर लिया, वे और मुश्किल में पड़ जाते हैं। पुराना भी सब अस्त-व्यस्त हो जाता है, नया जम नहीं पाता, उनके भीतर एक तरह की अराजकता हो जाती है, एक तरह की विक्षिप्तता हो जाती है। और इस दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनकी हालत विक्षिप्त है। बीच से भाग गए हैं।
सदगुरु के चरणों में जाओ तो पीछे के सब सेतु तोड़ ही देना, लौटने का उपाय ही मत रखना, सीढ़ी गिरा देना; तो ही यह काम हो पाएगा। और तो ही यह काम अपने सर्वांग सुंदर रूप में हो पाएगा। लेकिन जाते भी हम हैं। और जाते भी हम कहां हैं? आधे-आधे जाते हैं, आधे-आधे जाते हैं तो भागने का खतरा है।
मेरे पास लोग आते हैं, परसों ही किसी ने पत्र लिख कर पूछा: संन्यस्त होना चाहता हूं, लेकिन अगर गैरिक वस्त्र और माला न पहनूं तो?
तो काहे के लिए संन्यस्त होना चाहते हो! इतना सा भी न कर सकोगे--यह भी कोई बड़ा काम है तुम समझ रहे हो? गेरुआ वस्त्र पहन लिया, माला पहन ली, तुम समझ रहे हो कोई बहुत बड़ा काम कर लिया? कोई सात समुद्र लांघ लिए? कोई गौरीशंकर का पहाड़ चढ़ गए? किसी रंग का कपड़ा तो पहनते ही होगे न! तो गैरिक का पहन लिया! और जरा सी माला गले में लटका ली, तुम समझे कि सिद्धपुरुष हो गए! मगर यह भी नहीं हो सकता है। इसमें भी शर्त लगा रहे हो कि ऐसे ही संन्यास मिल जाए, यह भी न करना पड़े। तो आगे फिर जो करना है, उसका क्या होगा? यह तुम्हारी हालत तो ऐसी है कि ऑपरेशन को आए और बोले कि अगर टेबल पर न लेटना पड़े तो चलेगा, हालांकि टेबल पर लेटना कोई ऑपरेशन नहीं है। टेबल पर लेटने से ही कोई सब-कुछ नहीं हो गया, मगर जो आदमी टेबल पर लेटने को ही राजी नहीं है, इसका ऑपरेशन कैसे करोगे?
ये तो केवल स्वीकृति की सूचनाएं हैं कि हम राजी हैं; हमें भरोसा है। यह सिर्फ इंगित हैं।
मगर आदमी अधूरा है। और अधूरेपन के भाव को छिपा भी नहीं पाता, वह प्रकट हो जाता है--किसी न किसी रूप में प्रकट हो जाता है। रोज मैं अनुभव करता हूं, लोग मेरे पास आते हैं, हजारों लोग मेरे संपर्क में आए हैं, देखता हूं उनको, कोई चरण में भी झुकता है तो दोनों बातें एक साथ दिखाई पड़ती हैं--एक हिस्सा झुकना चाह रहा है, एक नहीं झुकना चाह रहा है। झुकना भी चाहता है, नहीं भी झुकना चाहता । वह जो नहीं झुकना चाहता, वह भी प्रकट है, वह भी जाहिर है।
ऐसा हुआ कि एक नेताजी को किसी आदमी ने होटल में उल्लू का पट्ठा कह दिया। नाराज हो गए, मानहानि का मुकदमा चला दिया। मुल्ला नसरुद्दीन को अपनी गवाही में ले गए। जिस आदमी ने उनको उल्लू का पट्ठा कहा था, उसने कहा कि मैंने किसी का नाम नहीं लिया और वहां तो कम से कम पचास आदमी थे, तो यह कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि मैंने नेताजी को ही उल्लू का पट्ठा कहा? मैंने किसी का नाम लिया ही नहीं। मैंने तो सिर्फ इतना ही कहा था कि देखो, ये उल्लू के पट्ठे! वहां तो पचास आदमी थे।
मजिस्ट्रेट को भी बात जमी। उसने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि तुम गवाह हो, तुम कहते हो कि इस आदमी ने नेताजी को उल्लू का पट्ठा कहा था? नसरुद्दीन ने कहा: निश्चित इसने नेताजी को उल्लू का पट्ठा कहा था। लेकिन मजिस्ट्रेट ने कहा: यह आदमी कहता है वहां पचास आदमी थे और इसने नाम किसी का लिया नहीं, तुम्हें कैसे निश्चयपूर्वक यह भरोसा है कि इसने नेताजी को ही उल्लू का पट्ठा कहा? नसरुद्दीन ने कहा: वहां नेताजी को छोड़ कर उल्लू का पट्ठा कोई था ही नहीं। ये अकेले उल्लू के पट्ठे वहां थे। इसलिए हमें पक्का भरोसा है इसने नेताजी को ही कहा है।
छिपे भाव प्रकट हो जाते हैं। कहां तक बचाओगे? कैसे बचाओगे? तुम्हारे अंतरतम में जो पड़ा है, वह आज नहीं कल बाहर आ जाता है।
ध्यान रखना, सदगुरु से संबंध जोड़ो तो पूरा-पूरा जोड़ना, कहीं भीतर कुछ दबा मत लेना। कुछ दबाने की जरूरत हो तो अभी रुकना, अभी समय नहीं आया, अभी ऋतु नहीं आई, थोड़ी और प्रतीक्षा करना। प्रतीक्षा कर लेना बेहतर है, लेकिन बीच से भाग जाना खतरनाक है। क्योंकि बीच से जो भाग गया, उसकी जिंदगी फिर कभी सुव्यवस्थित न हो पाएगी। पहले की जिंदगी तो मिलेगी ही नहीं--वह तो गई--और जो मिलने वाली थी, जिसकी आशा में पहली को गंवा दिया, उसकी अब कोई संभावना न रही। क्योंकि वह सदगुरु के द्वारा ही मिल सकती थी। ऐसा ही समझो कि कपड़ा दर्जी ने काटा और तभी कपड़ा भाग गया। अब इस कपड़े की क्या गति होगी, तुम सोचो! इससे पहले ही ठीक थे, कम से कम थोक थान में तो थे, इकट्ठे तो थे। अब यह चिंदी-चिंदी हो गया। थोड़ा रुको। इसमें रूप आने दो, रंग आने दो, आकृति उभरने दो।
त्यूं रज्जब सतगुरु का खेल। ताते समझि मार सब झेल।।
इसको खेल ही समझना। तो ही झेल पाओगे। गंभीरता से ले लिया, तो जरा सी बात चोट कर जाएगी। क्यों? क्योंकि गंभीरता वस्तुतः अहंकार की ही छाया है। यह मैं तुमसे कहूं, यह तुम ठीक से खयाल में पकड़ो--गंभीरता अहंकार का ही एक रूप है। निर-अहंकार सरल होता है, छोटे बच्चे जैसा होता है, सब चीज खेल-खेल में ले लेता है। और खेल-खेल में लो तो हलका है सब, सरलता से हो जाएगा।
दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर।
शाब्दिक अर्थों में भी यह सच है। दूल्हा अपना मौर उतार कर रख दिया था और चरण गह लिए थे दादू के, उनको सिरमौर बना लिया था; दुल्हन को लेने जा रहा था, दुल्हन की तो फिकर छोड़ दी थी और असली दुल्हन की तलाश में लग गया था; प्रेम की खोज थी, लेकिन गलत दिशा में बहा जाता था, दादू की आंख से आंख मिली और असली प्रेम फलित हो गया।
दादू दीनदयाल गुरु, सो मेरे सिरमौर।
यूं जुज्बे-जिंदगी हुई जाती है तेरी याद
जैसे कोई शराब मिला दे शराब में
ऐसा मिल जाना चाहिए शिष्य को गुरु से कि जरा फासला न रहे--‘जैसे कोई शराब मिला दे शराब में’--जरा सा भी फासला न रहे। जल और पानी में भी मिलाओ तो थोड़ा सा फासला रह जाता है।
यूं जुज्बे-जिंदगी हुई जाती है तेरी याद
गुरु की याद ऐसी बैठ जानी चाहिए--
जैसे कोई शराब मिला दे शराब में
फिर घटनाएं घटनी शुरू होती हैं--त्वरा से, तीव्रता से; छलांगें लगनी शुरू होती हैं; फिर इंच-इंच कदम नहीं उठते, मील-मील कदम उठ जाते हैं।
जन रज्जब उनकी दया, पाई निहचल ठौर।
और उनकी दया से वह जगह मिल गई, जहां से कोई भी नहीं डिगा सकता, मौत भी नहीं डिगा सकती। जिसको कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ की अवस्था कहा है--‘पाई निहचल ठौर।’ जैसे दीया जले और हवा का कोई झोंका उसे कंपा न सके, अकंप हो।
जन रज्जब उनकी दया, पाई निहचल ठौर।
और रज्जब कहते हैं: अपने कुछ सामर्थ्य से नहीं, उनकी कृपा से। सभी शिष्यों का यही अनुभव है, अपने प्रयास से नहीं होती क्रांति, उनके प्रसाद से।
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
याद करो दादू के वे वचन जो घोड़े पर सवार रज्जब से उन्होंने कहे थे--
रज्जब तैं गज्जब किया,...
घोड़े पर सवार रज्जब जा रहा है, बारात निकली है, दूल्हा बना है, बीच में रोक कर घोड़े को दादू ने कहा था--
रज्जब तैं गज्जब किया, सिर पर बांधा मौर।
आए थे हरिभजन कूं, चले नरक की ठौर।।
यह तूने क्या किया? उसका जवाब दे रहे हैं रज्जब--
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
अज्जब का अर्थ होता है: अलौकिक। यहां है और यहां का नहीं। संसार में है और संसार का नहीं। लोक में है और अलौकिक। कुछ पार का है। और जिसमें तुम्हें पार की झलक मिले, वही तो गुरु है। उसी के चरण में झुकना। जहां से तुम्हें कोई किरण दिखाई पड़े, जो बहुत दूर से आ रही है, जिसके स्रोत का भी तुम्हें अनुमान न हो सके, जिसकी आंख में झांको तो ऐसा सागर दिखाई पड़े कि जिसका कोई किनारा न मिले।
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
सदगुरु देता है, अकारण देता है, इसलिए उसको दातार कहा है। उसे उत्तर में कुछ भी मिलने वाला नहीं है। तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं जो तुम उसे दे सको। कोई कीमत भी नहीं है जो चुकाई जा सके। कोई मूल्य भी नहीं है जिससे तुम खरीद सको।
रज्जब कूं अज्जब मिल्या, गुरु दादू दातार।
दुख दरिद्र तब का गया,...
तब का। उसी क्षण चला गया। तत छन चला गया। जिस क्षण आंख मिल गई गुरु से, दुख दरिद्र तब का गया, ऐसा नहीं कि फिर धीरे-धीरे गया, उसी क्षण चला गया।
...सुख संपत्ति अपार।
और सुख की संपत्ति मिली।
अब खयाल रखना, इसकी व्याख्या करने वालों ने यही अनुवाद कर दिया है संपत्ति का--धन। संपत्ति का मतलब धन नहीं होता। साधुओं की भाषा में नहीं होता। ये साधुओं के वचन हैं, यहां तुम सांसारिक अर्थ मत कर लेना।
‘संपत्ति’ बड़ा प्यारा शब्द है। इस शब्द को ठीक से समझना हो, तो तुम्हें बहुत से शब्दों का खयाल करना पड़ेगा। समाधि, समाधान, संबोधि, सम्यकत्व, संपत्ति, ये सब एक ही धातु से बने हैं--सम। सम का मतलब है: जो ठहर गया, जिसके लिए सब समान हो गया, सुख और दुख बराबर हो गए, सफलता-विफलता बराबर हो गई, जीवन और मृत्यु समतौल हो गए। संपत्ति का अर्थ--समाधि। संपत्ति का अर्थ--सम्यकत्व। संपत्ति का अर्थ--समाधान। संपत्ति का अर्थ--समता, संबोधि। संपत्ति का अर्थ--संपदा। पर सबके भीतर खयाल रखना एक ही शब्द है--सम। जिसको तुम संपत्ति कहते हो, वह तो विपत्ति है, उसको संपत्ति कहना ही नहीं चाहिए। वहां कहां समता है? वहां कहां सम्यक्त्व है? वहां कहां जीवन की शांति है? जिसको तुम संपदा कहते हो, उसको विपदा कहना चाहिए। तुम विपदा को संपदा कहते हो और विपत्ति को संपत्ति कहते हो। वही तुम्हारी भ्रांति है।
इसलिए इस वचन का ऐसा अर्थ मत कर लेना कि एकदम छप्पर टूट गए और वर्षा हो गई मोहरों की। छप्पर टूटे जरूर, मगर यह छप्पर नहीं, और छप्पर। और मोहरें भी बरसीं जरूर, मगर वे मोहरें नहीं जो सरकारी टकसालों में ढाली जाती हैं, मगर वे मोहरें जो अनंत से उतरती हैं, शाश्वत से उतरती हैं, जो परमात्मा की टकसाल में ढाली जाती हैं।
दुख दरिद्र तब का गया, सुख संपत्ति अपार।।
रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।
यह बड़ा प्यारा वचन है।
गुरु बैन बिच रैन में, किया दुहूं घर फोड़।
रज्जब कह रहे हैं कि ‘नर नारी सकल चकवा चकवी जोड़।’ सारी प्रकृति दो में बंटी है--स्त्री और पुरुष। स्त्री पुरुष में आकर्षित है, पुरुष स्त्री में आकर्षित है। इसी आकर्षण में परमात्मा चूका जा रहा है। इसी आकर्षण में वस्तुतः जिसे खोजना चाहिए, उसकी खोज नहीं हो पाती। और इस आकर्षण से कुछ मिलता नहीं है। स्त्री को पुरुष मिल जाता है, पुरुष को स्त्री मिल जाती है, लेकिन मिलता कुछ भी नहीं। हाथ कुछ नहीं आता। सब सपना है।
रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।
यह सारी की सारी संसार की जो व्यवस्था है, यह एक को दो में तोड़ कर की गई है। एक को दो हिस्सों में तोड़ दिया गया है। वे दोनों एक-दूसरे से मिलना चाहते हैं, मिलने को आतुर हैं, मिल नहीं पाते। मिलन हो भी जाता है तब भी मिलन नहीं होता। यही तो प्रेमियों का कष्ट है कि कितने ही पास आ जाएं फिर भी दूरी बनी रहती है। और कितने ही कितने मिल जाएं, फिर भी मिलन कहां होता है? मिल-मिल कर छूटना हो जाता है। पास आ-आ कर दूर हो जाते हैं। विवाह हो-हो कर तलाक हो जाते हैं। क्षण भर को सुख मिलता है और तत्क्षण दुख की वर्षा हो जाती है। जरा प्रेम और फिर घृणा। यह द्वंद्व चलता रहता है, क्योंकि इस द्वंद्व के नीचे मूल द्वंद्व है--नर नारी सकल चकवा चकवी जोड़--विपरीत का द्वंद्व है।
पुरुष-स्त्री, ये दो विपरीतताएं हैं। जैसे ऋण और धन विद्युत। दोनों एक-दूसरे से बंधे हैं और दोनों एक-दूसरे से आकर्षित हो रहे हैं, और विकर्षित भी। पास भी आना चाहते हैं और दूर भी हट रहे हैं। संसार द्वंद्व है। द्वंद्व को दो हिस्सों में तोड़ा जा सकता है--नर, नारी।
चीन में इस विचार को बहुत गहनता तक ले जाया गया है--यिन-यांग। ताओवादी परंपरा में इस विचार पर बहुत खोज की गई है कि सारा अस्तित्व द्वंद्व में बंटा है। और जब तक आदमी इस द्वंद्व में ही उलझा रहता है, तब तक कोई निस्तार नहीं है, कोई छुटकारा नहीं है। एक स्त्री से मन ऊब जाता है, फिर दूसरी स्त्री में अटक जाता है। एक पुरुष से मन ऊब जाता है, फिर दूसरे पुरुष में अटक जाता है। यह अंतहीन प्रक्रिया है। तुम्हें दुनिया के सारे पुरुष मिल जाएं और सारी स्त्रियां, तो भी तुम तृप्त न हो सकोगे।
ज्यां पाल सार्त्र का एक पात्र उसके एक नाटक में कहता है कि मुझे अगर दुनिया की सारी स्त्रियां मिल जाएं तो भी मैं तृप्त न हो सकूंगा। तुम भी जरा सोचना--तृप्त हो सकोगे सारी स्त्रियां मिल जाएं तो? तत्क्षण तुम पाओगे कि नहीं, कुछ फिर भी खाली रहेगा। यह पात्र भरता नहीं, जब तक परमात्मा से न भरा जाए। यह विपरीत से नहीं भरता, यह बाहर दूसरे से नहीं भरता, इसकी खोज तो अंतर्तम में करनी होती है।
रज्जब नर नारी सकल, चकवा चकवी जोड़।
गुरु बैन बिच रैन में,...
और बीच आधी रात में, जब कि मिलन होने ही होने को था, ऐसा लगता था अब हुआ, तब हुआ... और ठीक ही कह रहा है रज्जब, बारात जा रही थी, अभी मिलन हुआ, अभी हुआ, अभी सुख की वर्षा होने को है, और उस बीच गुरु आ गया।
गुरु बैन बिच रैन में,...
आधी रात में...
...किया दुहूं घर फोड़।
दोनों घर गिरा दिए। न स्त्री की तरह बचने दिया मुझे, न पुरुष की तरह बचने दिया मुझे। द्वंद्व गिरा दिया। दोनों घर गिरा दिए। मुझे निर्द्वंद्व में पहुंचा दिया। द्वैत मिटा दिया, मुझे अद्वैत में पहुंचा दिया। इसी की तलाश थी। स्त्री के माध्यम से इसी अद्वैत की तलाश हो रही है।
क्या खोजते हो तुम स्त्री के माध्यम से? किसी के साथ एक होना हो जाए। पुरुष के माध्यम से क्या खोजते हो? एक ऐसा क्षण मिल जाए जहां हम अस्तित्व के साथ लीन हो गए ।
यूं जुज्बे-जिंदगी हुई जाती है तेरी याद
जैसे कोई शराब मिला दे शराब में
यही खोज रहे हो। मगर यह होता नहीं। इस तरह तो नहीं होता। बड़ी उलटी प्रक्रिया से होता है। अपने भीतर जाने से मिलना होता है, अपने बाहर जाने से दूरी बढ़ती जाती है। क्योंकि तुम्हारे भीतर अंतर्तम में बैठा है परमात्मा। एक विराजमान है तुम्हारे भीतर। बाहर तो दो है। बाहर तो होने ही वाला दो--मैं और तू। भीतर सिर्फ एक है। और जितने तुम भीतर जाओगे, उतने ही तुम पाओगे उसका रूप मैं का रूप नहीं है, क्योंकि मैं के लिए तो तू की जरूरत है। जैसे-जैसे भीतर जाओगे वैसे-वैसे पाओगे न तू रहा, न मैं रहा। जहां मैं भी मिट गई, तू भी मिट गई; जहां मैं-तू मिट गई, वहां तत्क्षण उस एक का अनुभव हो जाता है जिसको हम खोज रहे हैं जन्मों-जन्मों से; जिसके लिए यात्रा चल रही है।
...किया दुहूं घर फोड़।
कौन से दो घर फोड़ दिए? मैं और तू के घर फोड़ दिए। मिटा दिया पुरुष-स्त्री का भाव।
गुरु दीरघ गोबिंद सूं, सारै सिष्य सुकाज।
शिष्य जो भी मांगता था, खोजता था, सब गुरु की छाया में पूरा हो जाता है।
...सारै सिष्य सुकाज।
सब हो जाता है। जो कर-कर के नहीं हुआ था, वह सिर्फ गुरु की मौजूदगी में हो जाता है।
गुरु दीरघ गोबिंद सूं,...
क्योंकि गुरु गोविंद से जुड़े हैं। तुम्हें गोविंद से तो जुड़ना मुश्किल है, क्योंकि तुम्हारी गोविंद से अभी कोई पहचान नहीं, लेकिन गुरु से जुड़ सकते हो। गुरु से जुड़ते ही तुम भी गोविंद से जुड़ गए।
रज्जब मक्का बड़ा परि, पहुंचे बैठि जहाज।
बहुत दूर है मक्का, मगर बैठ गए जहाज में तो पहुंच गए। परमात्मा बहुत दूर है, मगर बैठ गए गुरु की नाव में तो पहुंच गए।
...सारै सिष्य सुकाज।
कामधेनु गुरु क्या कहै, जो सिष निःकामी होइ।
रज्जब मिलि रीता रह्या, मंदभागी सिष जोइ।।
अगर तुम रीते रह जाओ गुरु को पाकर, तो तुम्हीं जिम्मेवार हो। तुम्हारी जिम्मेवारी कहां है? कि तुम निकम्मे थे। गुरु ने जो कहा, तुमने किया नहीं। गुरु ने जहां चलाया, तुम चले नहीं। तुम निकम्मे थे।
कामधेनु गुरु क्या कहै,...
गुरु तो कामधेनु है, तुम्हें जो चाहा था सब होनेवाला था, मगर तुम चले नहीं, उठे नहीं, सुना नहीं, गुना नहीं। तुम आलसी ही बने रहे। तुम अपनी तंद्रा में ही पड़े रहे।
कामधेनु गुरु क्या कहै, जो सिष निःकामी होइ।
तो गुरु कहता रहता है, कहता रहता है, कहता रहता है, और शिष्य अपनी अकर्मण्यता में, अपनी निद्रा में सुनता रहता, सुनता रहता--सुनता ही नहीं। जोड़ बनता नहीं, क्रांति घटती नहीं, आग जलती नहीं।
रज्जब मिलि रीता रह्या, मंदभागी सिष जोइ।
रज्जब कहते हैं: अगर कोई रीता रह जाए गुरु के पास जाकर, तो मंदभागी है, अभागा है। लेकिन बड़ा उलटा मामला है। अगर तुम गुरु के पास जाकर रीते रह जाओ, तो कहोगे यह गुरु किसी काम का नहीं। हम रीते रह गए। साफ है कि इस गुरु के पास कुछ है नहीं, नहीं तो हमको मिल जाता, तुम यह नहीं सोचते--जो कि सोचना चाहिए--कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि मेरी मटकी ही उलटी रखी, गुरु बरस रहा है और मैं भर नहीं पाता। या मेरी मटकी फूटी है। भर भी जाता है तो सब बिखर जाता है। या मेरी मटकी गंदी है। मेघ से वर्षा होती है स्वच्छ और मेरी मटकी में आते-आते सब गंदगी हो जाती है, सब नाली का कीचड़ मच जाता है।
मटकी साफ करो। थोड़ा कृत्य तो करना पड़े मटकी साफ करने में। थोड़ी अकर्मण्यता छोड़ो। मटकी में छेद-छाद हों, उन्हें भरो। मटकी उलटी पड़ी हो, उसे सीधा करो। बस ये तीन काम तुम कर लो, भर जाओगे, निश्चित भर जाओगे।
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में
इस तरह आई रंगोनूर लिए
जैसे एक सीमपोश दोशीजा
मकबरे में जला रही हो दीये
तुम खुलो तो परमात्मा उतरे। तुम गुरु के लिए खुलो तो गुरु तो उतरे ही उतरे, उसके साथ परमात्मा उतर आए। उसके सहारे तुम परमात्मा तक पहुंच जाओ, परमात्मा तुम तक पहुंच जाए।
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में
इस तरह आई रंगोनूर लिए
तुम जरा खुलो, तो रंग भी बहुत है गुरु की याद में और नूर भी बहुत है। रोशनी भी बहुत, उत्सव भी बहुत। फूलों के सब रंग हैं वहां, प्रकाश के सब ढंग हैं वहां।
फिर तेरी याद दिल की जुल्मत में
और तुम्हारा दिल बिलकुल अंधकार है, अमावस है--
इस तरह आई रंगोनूर लिए
जैसे एक सीमपोश दोशीजा
जैसे कोई सफेद वस्त्र पहने हुए एक कुंआरी--
मकबरे में जला रही हो दीये
ऐसी पवित्र कुंआरी, सफेद कपड़ों में कोई स्त्री मकबरे में दीया जला रही हो, ऐसी ही तुम्हारे भीतर एक पवित्र गंगा बह जाती है। एक कुंआरी गंगा बह जाती है। एक अछूते जगत से स्पर्श होता है।
पर तैयारी दिखाओ। मिटने की तैयारी चाहिए। मिटे बिना न कोई कभी हुआ है, न हो सकता है। धन्यभागी हैं वे जो गुरु के पास मिटने को तैयार हैं, क्योंकि सारे जगत का आनंद उनका होगा। इस जगत के सारे उत्सव उनके होंगे। उनकी अमावस समाप्त हो जाएगी। और उनके जीवन में पूर्णिमा का उदय होगा। पूरा चांद तुम्हारा है, पूरा आकाश तुम्हारा है, लेकिन हकदार तुम तभी हो पाओगे जब तुम अपने अहंकार से बिलकुल खाली हो जाओ। उस अहंकार को चढ़ा देने का नाम ही शिष्यत्व है।
आज इतना ही।