RAJJAB
Santo Magan Bhaya Man Mera 11
Eleventh Discourse from the series of 20 discourses - Santo Magan Bhaya Man Mera by Osho. These discourses were given during MAY 12-31 1978.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।।
कनक-अवास-वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।
महाबिपत बेहाल लाल बिन, लागै बिरह-भुअंग।।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।।
सकल सिंगार भार ज्यूं लागैं, मन भावै कछु नाहीं।
रज्जब रंग कौन सू कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।।
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
चाहैं पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।
बाछै ऊरध अरध सूं लागै, भूले मुगध गंवार।
खाइ हलाहल जीयो चाहै, मरत न लागै बार।।
बैठे सिला समुद्र तिरन कूं, सो सब बूड़नहार।
नाम बिना नाहीं निसतारा, कबहूं न पहुंचै पार।।
सुख के काज धसे दीरघ दुख, बहे काल की धार।
जन रज्जब यूं जगत बिगूच्यो, इस माया की लार।।
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
मैंने देखा है इन आंखों से मुरव्वत का मयाल
मुझको अब मेहरो-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले
मैं तेरी नेक दुआओं का खरीदार नहीं
ऐ गदागर! मुझे ईमान की बख्शिश के एवज
ये दुआ क्यों नहीं देता कि मैं जरदार बनूं
बेच डालूं सरे-बाजार जमीरे-हस्ती
और एहसास की जिल्लत का अलमदार बनूं
आदमीयत का गला काटके इज्जत पाऊं
जुल्म के साये में राहत का तलबगार बनूं
राजे-रोशन में यतीमों के घरौंदे लूटूं
और बेवाओं की दौलत का परिस्तार बनूं
ऐ गदागर! मुझे हैरान निगाहों से न देख
मेरा कुचला हुआ एहसास यही कहता है
देख इन शिंगरफी चेहरों के शफक-रंग खतूत
जिनसे मजबूर घरानों का लहू बहता है
देख इन ऊंचे मकानात के तहखानों को
जिनकी हर सांस में जहराब घुला रहता है
देख ईमान की गिरती हई दीवारों को
जिनकी तामीर में इंसान सितम सहता है
ऐ गदागर! मुझे ईमान से क्या है लेना
इससे मुफ्लिस की कबा तक भी नहीं सिल सकती
ये जवां जिस्म, ये भरपूर निगाहें, ये सरूर--
फिक्रे-इंसान बजुज इनके नहीं खुल सकती
चार दिन ऐश से जीना है मुझे भी, लेकिन
हट के दौलत से कोई चीज नहीं मिल सकती
और दौलत वो शिकंजा है कि जिसमें फंस कर
हम तो क्या सिलवते-यजदां भी नहीं हिल सकती
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
जमाना बदला है। जिस हवा में रज्जब ने गीत गाया था, वह हवा अब नहीं। तो शायद गीत तुम्हारी समझ में आए, न आए। अब तो ऐसे गीत समझ में आते हैं--‘ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे।’ हे भिक्षु, मुझे धर्म की बख्शीश मत दे। मुझे धर्म का प्रसाद मत दे। मुझे धर्म की नसीहत मत दे। मुझे धर्म का उपहार मत दे।
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
आज धर्म से किसको क्या लेना-देना है?
मैंने देखा है इन आंखों से मुरव्वत का मयाल
मुझको अब मेहरो-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
लोगों ने प्यार को हारते देख लिया है। लोगों ने प्यार को पराजित होते देख लिया है। प्रेम की विजय की बात कल्पना हो गई। और जहां प्रेम कल्पना हो जाए, वहां प्रार्थना के जन्मने का सवाल कहां? प्रेम ही तो अपनी अंतिम उड़ान में प्रार्थना बनता है। प्रेम का ही सार-निचोड़ तो प्रार्थना है। झूठे क्रियाकांड रह गए हैं। उनके भीतर से प्राण निकल गए हैं। लोग प्रार्थनाएं अब भी कर रहे हैं, मगर प्रार्थना करने वाले हृदय कहां? लोग अब भी मंदिरों-मस्जिदों में जा रहे हैं। आदत हो गई है जाने की। रिवाज हो गया है जाने का। औपचारिकता है जाने की। सामाजिक व्यवहार है वहां जाना। जिंदगी के चलने में सुविधा मिलती है। उपयोगी है। लेकिन आदमी के हृदय से मंदिर मिट गया है। तो बाहर के मंदिर बहुत काम आ नहीं सकते। अब भी लोग राम और कृष्ण का नाम लेते हैं, मगर ओंठ, बस ओंठ तक ही यह बात होती है। हृदय तक इसकी पहुंच नहीं। अब कौन प्रभु के प्रेम में पागल होता है? अब तो प्रभु के प्रेम में जो पागल होता है, उसे लोग बस पागल ही मानते हैं। सिर्फ पागल ही मानते हैं।
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
मैंने देखा है इन आंखों से मुरब्बत का मयाल
मुझको अब मेहरो-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
और जब आदमी को चाह कर कुछ न मिलता हो, तो परमात्मा को भी कोई क्यों चाहे? जब चाहने से आदमी को कुछ नहीं मिलता, तो परमात्मा को चाहने से भी क्या मिल जाएगा? परमात्मा को चाहने का रस तो तभी जगता है जब आदमी को चाहने से कुछ मिलता है। जब छोटे-छोटे प्रेम से उसकी किरणें मिलती हैं, तो फिर सूरज की आकांक्षा पैदा होती है।
तुमने अगर किसी एक आदमी को चाहा और उसकी चाहत तुम्हारे जीवन में रंग भर गई और उसके प्रेम ने तुम्हारे जीवन को सुगंध दे दी, तो आज नहीं कल तुम परमात्मा के प्रेम में पड़ोगे। पड़ना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं बचने का। भागोगे कहां? जब क्षणभंगुर के प्रेम से ऐसा रस बहा, तो शाश्वत के प्रेम से कैसा रस न बहेगा? सीधा गणित है, साफ गणित है। बुद्धिहीन से बुद्धिहीन को भी समझ में आ जाएगा। जब एक फूल से इतनी सुगंध मिली, तो उस विराट के साथ संबंध जुड़ जाने से कैसा नृत्य नहीं होगा, कैसा उत्सव नहीं होगा? क्षणभंगुर ने भी नाच दे दिया था। क्षणभंगुर जो पानी के बबूले की तरह था, वह भी आंखों को नई रोशनी से भर गया था। सपने उठे थे आकाश के। तुम मिट्टी नहीं रह जाते जब तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो। जब तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, देह भूल ही जाती है। प्रेम के क्षणों में तुम आत्मा हो जाते हो। वही अनुभव परमात्मा के प्रेम की तरफ ले जाता है।
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले
मैं तेरी नेक दुआओं का खरीदार नहीं
आज की हवा ऐसी है। और मैं यह कहना चाहूंगा कि इस हवा में धार्मिकों का हाथ है। तथाकथित धार्मिकों के कारण ही यह हवा है। झूठे धर्म के कारण यह हवा है। थोथे धर्म के कारण यह हवा है। धर्म की लाशें पड़ी हैं, उनसे यह दुर्गंध उठ रही है। उनके कारण आदमी ईश्वर से विमुख हो रहा है। उनके कारण ईश्वर की तरफ मुंह करने की आकांक्षा भी नहीं जगती। देखो तुम्हारे पंडित-पुरोहितों-पुजारियों की तरफ, उन्हें देख कर तुम्हें कुछ ऐसा भाव उठता है कि नाचें और मग्न हो जाएं? उनके जीवन में भी तो नाच नहीं है। जन्म हो गए उनको घंटियां बजाते मंदिरों में, हृदय की वीणा अभी भी नहीं बजी। जन्म हो गए उन्हें फूल चढ़ाते मंदिरों में, पत्थरों के सामने झुकते-झुकते वे भी पत्थर हो गए हैं; उनकी प्रार्थनाएं नपुंसक, उनके क्रियाकांड थोथे, सब पाखंड है, सब धोखा है। आंखें हैं आदमी के पास, आदमी एकदम अंधा नहीं है। इतना दिखाई पड़ता है। जन्मों-जन्मों तक जो मंदिरों की पूजा और प्रार्थना से कुछ न पा सके हों, उनका परमात्मा भी झूठा ही होगा। कौन उनके परमात्मा की तरफ आतुर हो? कौन उनके परमात्मा को चाहे?
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं--जमीन आज नास्तिक है नास्तिकों के कारण नहीं, तथाकथित आस्तिकों के कारण। लोग ईश्वर के भी तलबगार नहीं हैं। देखते हैं ईश्वर के तलबगारों का झूठ, उस झूठ में अब कोई सम्मिलित नहीं होना चाहता।
इसलिए तुम्हें थोड़ी अड़चन होगी। ये गीत किसी और हवा में गाए गए थे। यह पौधा किसी और जमीन में उगा था। वह जमीन बदली है, लेकिन फिर भी अगर थोड़ी सहानुभूति से समझोगे, अगर थोड़े पंडित-पुरोहितों के जाल को छोड़ कर समझोगे, तो बात समझ में आ जाएगी। नहीं आए, ऐसा कुछ नहीं है। क्योंकि तुम्हारे भी गहन तल में, तुम्हारे हृदय की भी गहराइयों में, लाख उपाय करो परमात्मा की खोज छिपी पड़ी है। कोई आदमी बिना परमात्मा को पाए तृप्त होता नहीं। उसी को पाकर संतोष होता है। और कोई कितना ही उसकी तरफ पीठ कर ले, और कोई कितना ही नाराजगी में कह दे कि अब मैं तेरा तलबगार नहीं, नाराजगी एक बात है, यह तलब मिट जाने वाली तलब नहीं। यह प्यास ऐसी कोई प्यास नहीं है कि तुमने कह दी और मिट गई। यह तो परमात्मा बरसेगा तुम्हारे कंठ में तो ही मिटेगी।
यह प्यास मनुष्य की संपदा है। इसी प्यास के कारण तो आदमी... लाख धर्म के नाम से पाखंड चलता रहे, तो भी धर्म में थोड़ी न बहुत उत्सुकता बनी रहती है। लाख धर्म के नाम से शोषण चलता रहे, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे झूठे हो जाएं, तो भी आदमी कोई नई राह खोज लेता है, कोई नया मार्ग खोज लेता है। मंदिर-मस्जिदों को बचा कर निकल जाता है, लेकिन परमात्मा की तलाश जारी रहती है। प्यास कुछ ऐसी है कि बिना परमात्मा को पाए मिट नहीं सकती है।
इसलिए समझ तो सकोगे, स्वभावतः क्षमता भीतर समझने की है, मगर ये गीत और हवा में गाए गए थे, किसी और माहौल में गाए गए थे। ये किसी और तरह के लोगों ने गाए थे, किन्हीं और तरह के लोगों के सामने गाए थे। वे लोग धीरे-धीरे विदा हो गए हैं, वैसी मस्त मधुशालाएं अब नहीं रहीं, वैसे आनंद के सत्संग अब नहीं रहे। सुनो--
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
राम के बिना सावन सहा नहीं जाता। राम अर्थात परम प्यारा। नाम कुछ भी दो। अल्लाह कहो, राम कहो, रहीम कहो, जो भी नाम देना हो, वह परम प्यारा है। जिसके बिना सब फीका है, जिसके बिना हम हैं तो लेकिन नहीं जैसे हैं। जिसके बिना हम खाली-खाली हैं। जिसके बिना हमारा कोई मूल्य नहीं। जिसके बिना हम जीते जरूर हैं, मगर जीना नाममात्र का जीना है। सच कहो तो मरते ही हैं। जिसके बिना हम जीते नहीं। बस मौत ही करीब आती है और हाथ लगता क्या है? रोज-रोज थोड़ा-थोड़ा मरते जाते हैं। चल किस तरफ रहे हो? पहुंचोगे कहां? बस मौत में पहुंच जाते हो। यह भी कोई जिंदगी हुई?
जिंदगी की परिभाषा क्या है? जिंदगी की परिभाषा है कि जो महा जिंदगी में ले जाए। जीवन अगर सच्चा है, तो उसका अंतिम फल महा जीवन होगा। लेकिन इस जीवन का फल तो मृत्यु होती है, यह कैसा जीवन! यह जीवन होगा ही नहीं। कहीं कुछ भूल हो गई। कहीं कुछ चूक हो गई। कुछ का कुछ समझ बैठे हैं। परमात्मा के साथ के बिना कोई जीवन नहीं है। उसके साथ है जीवन। उसके विरोध में है मृत्यु। उससे जो अलग है, वह मरेगा। जो उसके साथ है, कभी नहीं मरेगा।
जीसस का एक प्यारा वचन है: आओ, मेरे साथ हो जाओ, क्योंकि जो मेरे साथ हैं वे कभी नहीं मरेंगे। जो मेरे साथ हैं, उनकी कोई मृत्यु नहीं है। जीसस क्या कह रहे हैं? जीसस यह कह रहे हैं, आदमी दो ढंग से जी सकता है। एक ढंग है अलग-थलग, अहंकार की भांति, मैं की भांति, परमात्मा के विरोध में, असहयोग में, परमात्मा से भिन्न। ऐसे ही अधिक लोग जीते हैं। उनके जीवन का केंद्र मैं है। मैं ऐसा कर लूं, मैं वैसा हो जाऊं, मैं वह पा लूं, उनकी अपनी कुछ मर्जी है, कोई आकांक्षा है जिसे वे पूरी करना चाहते हैं। वे दुनिया को दिखा देना चाहते हैं कि मैं कौन हूं। वे यहां हस्ताक्षर कर जाना चाहते हैं पत्थरों पर--खुद तो मिट जाएंगे लेकिन नाम रह जाएगा। समय की रेत पर वे चिह्न छोड़ जाना चाहते हैं। पागल हैं वे, क्योंकि रेत पर कहीं कोई चिह्न छूटे हैं? आएंगी हवाएं और चिह्न मिट जाएंगे। यहां पत्थर भी रेत हो जाते हैं। यहां नाम भी पत्थरों पर लिखोगे तो कितनी देर टिकेगा? और इस शाश्वत की विराट व्यवस्था में तुम्हारे नाम-धाम का छूट जाना सब फिजूल है, सब सपना है। मगर अहंकार ऐसे ही जीता है कि मैं कुछ कर जाऊं, मैं कुछ दिखा जाऊं, मैं कुछ हो जाऊं।
और अहंकार की अपनी मर्जी होती है कि ऐसा होना चाहिए, ऐसा होगा तो ही मैं तृप्त होऊंगा, ऐसा नहीं होगा तो मैं असंतुष्ट रहूंगा। इसीलिए तो इतने लोग असंतुष्ट हैं, क्योंकि जैसा तुम चाहते हो, वैसा नहीं होता। यह अस्तित्व तुम्हारी चाह से नहीं चल सकता। यह तुम्हारी चाह से चलता तो कभी का पागल हो जाता। क्योंकि तुम्हारी इतनी चाहें हैं। इन सारी चाहों को पूरा नहीं किया जा सकता। एक क्षण तुम एक बात चाहते हो, दूसरे क्षण दूसरी बात चाहते हो। यह तो एक आदमी की बात हुई। फिर यहां इतने आदमी हैं, इतने पशु हैं, इतने पक्षी हैं, इतने पौधे हैं, इतने जीवन हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कम से कम पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। इन सबकी चाहें कैसे पूरी हो सकती हैं! अस्तित्व की चाह पूरी होती है। आदमी की चाह पूरी नहीं होती। हां, कभी-कभी तुम्हारी चाह पूरी हो जाती है, तो यही समझना कि संयोगवशात तुम्हारी चाह अस्तित्व की चाह के साथ एक पड़ गई थी। तुमने कभी भूल-चूक से वही चाह लिया था जो परमात्मा चाह रहा था। इसलिए तुम सफल हो गए। तुम उसी धारा में बह गए जिस तरफ परमात्मा बह रहा था। कभी-कभी तुम सफल हो जाते हो, उसका कारण यही होता है।
तुम कभी सफल नहीं होते, परमात्मा सदा सफल होता है। तुम तो सदा हारते हो। सौ में निन्यानबे मौके पर तो तुम हारते हो। इस हार से कुछ सीखो। इससे एक बात सीखो कि मेरी मर्जी पूरी नहीं हो सकती। जिस आदमी को यह दिखाई पड़ गया कि मेरी मर्जी पूरी नहीं हो सकती, उस आदमी को दूसरी चीज दिखाई पड़ने में ज्यादा देर नहीं लगती कि परमात्मा की मर्जी ही पूरी होती है। तो मैं उसकी मर्जी के साथ एक हो जाऊं। तो वह जो करे वह ठीक। मेरा उससे कुछ विरोध न रहे। मेरा सहयोग संग हो जाए। अगर ठीक से समझो तो इसी का नाम सत्संग है। परमात्मा की मर्जी के साथ एक हो जाना। कह देना कि तू कर। मैं तेरे हाथ की बांसुरी हूं, तू बजा, तू गा। तेरा गीत मुझसे बहे, मैं बाधा न बनूं, बस इतना काफी है। फिर जीवन में कोई असफलता नहीं है; फिर कोई विफलता नहीं है। फिर कैसी विफलता! फिर जो होता है वही सफलता है। फिर तो बीच मझधार में भी डूब जाओ तो वही किनारा है। उसकी जो मर्जी! जिस आदमी ने अपनी मर्जी छोड़ दी, वही आदमी धार्मिक है। और जिसने अपनी मर्जी छोड़ दी, वही परमात्मा के साथ है।
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
और जिसको यह बात समझ में आ गई, उसे एक बात दिखाई पड़ेगी कि सारा अस्तित्व कितनी मस्ती और कितने आनंद से भरा है! सावन सदा ही आया हुआ है। सावन ही सावन है। यह प्रकृति सदा उत्सव में लीन है। यहां महोत्सव अखंड चल रहा है। एक क्षण को विराम नहीं है। यह महोत्सव की तरंगें उठती ही जाती हैं। यह लहरें सदा टकराती रहती हैं। यह नृत्य चलता ही रहता है चांद-तारों का। यह चारों तरफ जो विराट उत्सव चल रहा है, यही सावन है। और जिसको यह बात दिखाई पड़ गई, उसे एक बात दिखाई पड़ेगी कि परमात्मा के बिना इतना सौंदर्य कैसे सहूं! परमात्मा के बिना इतना रस कैसे सहूं! परमात्मा के बिना इतना उत्सव उन्माद ले आएगा, मैं पागल हो जाऊंगा। मैं सह न पाऊंगा, असह्य हो जाएगा।
ध्यान रखना, दुख ही असह्य नहीं होते, सुख भी असह्य हो जाते हैं। और अगर तुमने असह्य होने की प्रक्रिया के भीतर झांका हो तो तुम बहुत हैरान होओगे। वैज्ञानिक कहते हैं कि असह्य दुख, ऐसा शब्द बनाना ठीक नहीं; क्योंकि कोई दुख असह्य नहीं हो पाता। असह्य होने के पहले ही आदमी बेहोश हो जाता है। यह दुख की अंतरंग व्यवस्था है, जब तक सह सकता है तभी तक होश रहता है। जैसे ही सहने के बाहर होने लगता है दुख, आदमी बेहोश हो जाता है। यह प्रकृति की अंतरंग व्यवस्था है तुम्हें दुख से बचाने की। तो असह्य दुख होता ही नहीं। कहते हैं हम, लेकिन असह्य दुख होता नहीं। जब असह्य होता है तो बेहोश हो जाते हैं। उसका पता ही नहीं चलता। इसीलिए तो सिर में चोट लगती है, बेहोश हो गए। पीड़ा भयंकर है, प्रकृति तुम्हें बचा लेती है बेहोश करके। पीड़ा नहीं सहने देती।
दुख तो असह्य होता ही नहीं। लेकिन सुख हो सकता है असह्य। क्योंकि सुख को सहने के लिए प्रकृति की तरफ से बचाव की कोई व्यवस्था नहीं है। सुख ऊंचाइयों से ऊंचाइयों पर जा सकता है। ऐसी ऊंचाइयों पर, जहां तुम बिखरने लगो, जहां तुम टूटने लगो, जहां तुम टुकड़े-टुकड़े होने लगो, जहां तुम अपने को सम्हाल न सको, जहां नृत्य ऐसा हो जाए कि तुम खंड-खंड हो जाओगे। और अगर जीवन के उत्सव को देखोगे तो ऐसा ही रस तुम में पैदा होगा। परमात्मा के बिना उसे सहा नहीं जा सकता। इतना बड़ा सागर सम्हालना हो अपने भीतर, तो पात्र भी इतना ही बड़ा होना चाहिए। यह पात्र उसी का हो सकता है। यह पात्रता अपनी नहीं हो सकती।
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
राम के बिना यह जीवन का महोत्सव सहा नहीं जाता। शायद इसीलिए लोग जीवन के उत्सव को देखते भी नहीं। वे जीवन में दुख ही तलाशते रहते हैं, शिकायतें ही खोजते रहते हैं, कांटे बीनते रहते हैं, अंधेरी रातों की गिनती करते रहते हैं। उससे व्यवस्था ठीक बनी रहती है। अगर जीवन का सुख तुम देखोगे, तो अकेले कैसे सहोगे? सुख बांटना पड़ता है।
तुमने कभी सुख की यह महत्ता समझी? दुख आदमी अकेले सहना चाहता है, सुख बांटना चाहता है। जब कोई दुखी होता है, द्वार-दरवाजे बंद करके अपने कमरे में छिप जाता है, कहता है--न मुझे कोई छेड़ो, न मुझे कुछ कहो, न मुझे बाहर ले जाओ, मुझे मुझमें डूब जाने दो, मैं दुखी हूं। दुखी आदमी कभी-कभी शराब पी लेता है, सिर्फ इसीलिए ताकि सबसे संबंध टूट जाएं। और दुखी आदमी कभी-कभी आत्यंतिक घड़ियों में आत्मघात कर लेता है। वह इसीलिए कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। मैं ही नहीं होऊंगा, तो फिर किससे संबंध, किससे नाता?
लेकिन जब सुख पैदा होता है, तो आदमी बांटना चाहता है। महावीर जब दुखी थे, जंगल चले गए। जैन-शास्त्रों में उसकी बड़ी-बड़ी कहानियां हैं। लेकिन वह असली कहानी नहीं है, वह महावीर का असली राज़ नहीं है, असली रा़ज तो तब है जब महावीर आनंदित हुए--तब क्या हुआ? तब वे जंगल से वापस बस्ती लौट आए। अब बांटना है। अकेले जंगल में क्या करोगे? हमने सदपुरुषों की जो कहानियां लिखी हैं, वे भी अधूरी हैं। उसमें हमने यह तो खूब चर्चा किया है कि वह कैसे छोड़ कर चले गए--बड़े-बड़े महल, सोने के महल, बड़े राज्य, हाथी-घोड़े, उनकी बड़ी संख्या, बड़ा धन, बड़ी दौलत कैसे छोड़ कर चले गए उसका हमने खूब रसपूर्ण विवेचन और वर्णन किया है, लेकिन दूसरी बात हम नहीं कहते कि वह वापस क्यों लौट आए? एक दिन सब वापस लौटे। बुद्ध भी छह साल के बाद वापस आ गए, महावीर बारह साल के बाद वापस आ गए--एक दिन सभी वापस आ गए। अब क्या हुआ था? जब चले ही गए थे तो चले ही जाना था। अब इसी दुनिया में वापस क्या आना था? लेकिन आना पड़ा। जब आनंद फला तो बांटना पड़ेगा। आनंद को सम्हाला नहीं जा सकता। और आनंद बांटने के लिए सबसे ज्यादा योग्य पात्र कौन हो सकता है?
परमात्मा सामने हो तो भक्त नाच ले मन भर कर। फिर बांध ले घूंघर पैरों में। फिर नाच ले। फिर चिंता न हो। फिर उस विराट में अपने सारे नृत्य को डुबा दे। नहीं तो सावन बड़ा भारी होने लगता है। तुमने अगर साधारण जीवन में प्रेम किया है, तो भी सावन भारी होने लगता है। उसी को प्रतीक मान कर रज्जब ने यह गीत लिखा है। प्रेयसी और मौसम गुजार लेती है, प्रतीक्षा कर लेती है, लेकिन जब सावन आ जाता है और आकाश में बादल घिरने लगते हैं और भूखी-प्यासी धरती के तृप्त होने का क्षण करीब आने लगता है, वृक्षों पर नये पत्ते आ जाते हैं, नई रिमझिम शुरू होती है, मोर नाचने लगते हैं, पपीहे गीत गाने लगते हैं, कोयल पुकारने लगती है, सब तरफ उत्सव होने लगता है, फूल खिलने लगते हैं, तब असह्य हो जाता है।
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
साधारण प्रेम में भी प्रीतम के बिना सावन को सहना मुश्किल हो जाता है। दुर्दिन तो गुजर जाते हैं, सुदिन नहीं गुजरते। दुख तो बिता लेता है आदमी अकेले भी--सच तो यह है, अगर तुमने किसी को प्रेम किया है, तो तुम उससे दुख की बात करना ही न चाहोगे। तुम चाहोगे कि दुख की क्या बात करनी? दुख अकेले सह लोगे। दुख चुपचाप घूंट की तरह पी लोगे। लेकिन जब सुख उमगेगा, तब तुम उसके गले में हाथ डालना चाहोगे, हाथ में हाथ लेकर नाचना चाहोगे।
जो साधारण प्रेम की प्रक्रिया है, वही प्रार्थना की भी है। उन दोनों में जो अंतर है, वह परिमाण का अंतर है। लेकिन गुण का अंतर नहीं है--गुणात्मक कोई भेद नहीं है। परिमाणात्मक भेद जरूर है। अनंत-अनंत गुना बड़ा है प्रार्थना का आनंद। लेकिन है वह प्रेम की ही बूंद जो सागर हो गई है।
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
अफसानए-निगाहे-मोहब्बत न पूछिए
कहते हैं किसको हस्रे मसर्रत न पूछिए
वह मस्त-मस्त रात वह बादः बदस्त रात
उस मस्त-मस्त रात की कीमत न पूछिए
होती है दिल में इक खलिशे-बेकरार सी
वल्लाह उस नजर की शरारत न पूछिए
आलम तमाम आंसुओं का एक शैल था
मुझसे फसानए-शबे-फुर्कत न पूछिए
रातों को कर रही हूं सितारों से गुफ्तुगू
मुझसे मेरे जुनूं की हिकायत न पूछिए
क्या हो गया है आपकी नज्मः को क्या कहूं
हालत न पूछिए, मेरी हालत न पूछिए
प्रेम दीवाना कर जाता है। और जब सावन द्वार पर दस्तक दे, तो प्रेम में फिर ऐसी बाढ़ आती है! उसी बाढ़ की चर्चा है। और फिर यह प्रेम भी परमात्मा का प्रेम! यह कोई छोटे-मोटे प्रेमी का प्रेम नहीं, जो आज है कल नहीं हो जाएगा, ऐसा प्रेम जो फिर सदा के लिए है, आता है तो जाता नहीं, जो शाश्वत है, जो समय की परिधियां नहीं मानता, जो आकाश से विराटतर है। भक्त का भाव समझो, भक्त के भीतर की दीवानगी समझो।
काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।
भीतर-भीतर आग जल रही है, बाहर सावन आ गया है, और प्रियतम का कोई पता नहीं। घटाएं घिर गईं--सुंदर घटाएं, प्यारी घटाएं--लेकिन प्रियतम के बिना ये प्यारी घटाएं, ये सुंदर घटाएं कैसे प्यारी लगें, कैसे सुंदर लगें?
खयाल करो, हमें प्रकृति में वही दिखाई पड़ता है जो हमारे भीतर घटता है। तुम्हारा प्यारा घर आया है, तो अमावस की रात भी पूर्णिमा हो जाती है। और तुम्हारा प्यारा घर नहीं आया, तो पूर्णिमा की रात भी तो अमावस ही रहती है। प्रियतम आ गया है तो चांद नाचता हुआ मालूम पड़ता है आकाश में। तुम्हारा हृदय नाच रहा है। चांद पर तुम्हारे हृदय का नाच प्रतिबिंबित होने लगता है। तुम्हारा प्यारा जा रहा है, चांद अब भी वैसा का वैसा है, लेकिन तुम्हारा हृदय रो रहा है, देखो चांद की तरफ और आंसू टपकते मालूम पड़ते हैं चांद से। हमें जो बाहर दिखाई पड़ता है, वह भीतर का प्रतिफलन है। जो हमारे भीतर होता है, वही हमें बाहर के पर्दे पर दिखाई देता है। तो जो तुम्हें बाहर दिखाई पड़े, उससे अपने भीतर का इशारा लेना। जो तुम्हें बाहर दिखाई पड़े, उससे समझ लेना कि तुम्हारे भीतर क्या है? दर्पण के सामने खड़े हो न, जो चेहरा दर्पण में दिखाई पड़ता है वह दर्पण में नहीं है, वह तुम्हारा चेहरा है। ऐसे ही हम प्रतिक्षण प्रकृति के दर्पण के सामने खड़े हैं। वहां जो भी दिखाई पड़ता है, वह अपना ही चेहरा है। उससे अपने ही चेहरे की पहचान लेनी है।
काली घटा काल होइ आई,...
यह मस्त काली घटा, यह जो नाचती हुई घटा चली जा रही है, यह ऐसे लगती है जैसे मौत आ रही है।
...कामनि दगधै माइ।
और भीतर-भीतर मिलन की आतुरता। एक हो जाने की आतुरता काम है।
काम का अर्थ समझो।
काम का अर्थ है: दो में पीड़ा है, एक में रस है। एक हो जाने में आनंद है। साधारण स्त्री-पुरुष भी जब प्रेम में गहन भर जाते हैं, तो एक हो जाना चाहते हैं, जुड़ जाना चाहते हैं। और वही तो प्रेम का दुर्भाग्य है कि एक नहीं हो पाते। इसलिए सभी प्रेम असफल होते हैं। क्योंकि प्रेम की आकांक्षा यही है कि एक हो जाएं और एक होना संभव नहीं है। दो देहें कैसे एक हो सकती हैं? क्षण भर को शायद हो भी जाएं, मगर फिर क्षण भर के बाद गहन अंधेरे गर्त, गहराई में गिर जाना पड़ता है। फिर अंधेरी खाई में भटक जाना पड़ता है। और भी पीड़ा होने लगती है। वह जो क्षण भर का मिलन हुआ था, उससे विरह और घना हो जाता है। उसके संदर्भ में विरह और भी प्रगाढ़ हो जाता है। संसार में प्रेम की आकांक्षा है कि एक हो जाएं और यह आकांक्षा पूरी नहीं होती, यह आकांक्षा तो सिर्फ परमात्मा के साथ पूरी हो सकती है। वह जो तुम्हारे भीतर काम का प्रबल वेग है, वह राम के साथ ही पूरा हो सकता है और कोई उपाय नहीं। क्योंकि उसके साथ देह का मिलन नहीं है, आत्मा का मिलन है। वहां सीमाएं सदा के लिए खो सकती हैं। वहां हम डुबकी मार सकते हैं। कभी लौटने की फिर जरूरत नहीं है।
काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।।
कनक-अवास-वास सब फीके,...
सोने का महल फीका पड़ गया। सुंदर वस्त्र फीके पड़ गए।
कनक-अवास-वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।
और जब प्यारे का प्रसंग न हो साथ, प्यारे का संदर्भ न हो साथ, सब फीका पड़ जाता है। जीवन के बड़े से बड़े सुख प्रेम के प्रसंग में घटते हैं। तुम अपने जीवन में भी थोड़ा अवलोकन करना। तुम्हारे जीवन के जो बड़े से बड़े सुख के क्षण आए हैं, वे अकेले में नहीं आए हैं, वे प्रेम के प्रसंग में आए हैं। जो तुम्हारे जीवन में कभी क्षण भर को झरोखा खुला है और अनंत की झलक मिली है, वह अकेले में नहीं मिली है, वह प्रेम के प्रसंग में मिली है। जहां भी प्रेम फलित हुआ है, जहां भी प्रेम पका है, वहीं जीवन को देखने का एक नया प्रसंग, एक नया संदर्भ मिल जाता है।
शब्दों में अर्थ नहीं होते--इसे ऐसा समझो--और न घटनाओं में अर्थ होते हैं। किसी शब्द में कोई अर्थ नहीं होता। अर्थ तो वाक्य में होता है। जब उस शब्द को तुम वाक्य के भीतर रखते हो, उसमें अर्थ आ जाता है। दूसरे वाक्य में उसी शब्द का दूसरा अर्थ हो जाएगा। तीसरे वाक्य में तीसरा अर्थ हो जाएगा। फिर वाक्य का भी अपने में अर्थ नहीं होता है, पूरे पृष्ठ के संदर्भ में अर्थ होता है। और पृष्ठ का पूरी पुस्तक के संदर्भ में अर्थ होता है। अगर तुम इस बात को ठीक से समझोगे तो इकहरी-इकहरी घटनाओं में कोई अर्थ नहीं होता, घटनाओं के प्रसंग और संदर्भ में अर्थ होता है। और जितना बड़ा संदर्भ हो, उतना ही अर्थ बड़ा होता जाता है।
बड़े से बड़ा अर्थ घटता है परमात्मा के प्रेम के प्रसंग में। क्योंकि वह बड़ा से बड़ा संदर्भ है। उससे बड़ा फिर कोई संदर्भ नहीं। वह महाकाव्य है। उसके साथ जुड़ कर क्षुद्र से शब्द स्वर्ण के हो जाते हैं। उसके साथ जुड़ कर कंकड़-पत्थर हीरे-मोती हो जाते हैं।
कनक-अवास-वास सब फीके,...
सब है, लेकिन सब फीका है। यही तो आज की दुनिया का सबसे बड़ा विचारणीय प्रश्न है। मनुष्य इतना समृद्ध कभी भी नहीं था जितना आज है, विज्ञान ने मनुष्य को बड़ी समृद्धि दी है, बड़ी सुविधा दी है। सब है, चांद पर जाने की क्षमता है, मगर परमात्मा से संदर्भ छूट गया है। इसीलिए सब होते भी आदमी बिलकुल फीका है। बिलकुल कोरा है, खाली है, रिक्त है। बाहर धन का ढेर लग गया है, स्वर्ण के महल निर्मित हो गए हैं--और भीतर? भीतर बड़ी कंगाली है। भीतर आदमी बिलकुल भिखारी है। यह आज के मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है कि क्या हो गया, क्यों ऐसा हुआ? भीतर आदमी को अर्थहीनता क्यों मालूम होती है?
दुनिया के बड़े से बड़े विचारक जिस प्रश्न पर सर्वाधिक चिंतातुर हैं, वह प्रश्न है--अर्थवत्ता का। आदमी की अर्थवत्ता क्यों खो गई है? लोग क्यों पूछ रहे हैं कि जीवन का अर्थ क्या है? जीवन में कोई अर्थ है भी नहीं, हो भी नहीं सकता। अर्थ तो किसी संदर्भ में होता है। परमात्मा के संदर्भ में अर्थ था, वह संदर्भ खो गया है। ऐसा ही समझो कि तुम्हें किसी किताब का एक पन्ना हवा में उड़ता हुआ मिल जाए, तुम उसे पढ़ जाओ, कुछ अर्थ समझ में न आएगा। अर्थ तो पूरी किताब में था। या तुम्हें कविता की एक पंक्ति मिल जाए और अर्थ समझ में न आए। अर्थ तो पूरी कविता में था। या तुम्हें एक शब्द मिल जाए और अर्थ समझ में न आए। ऐसी ही हालत आदमी की हो गई है, आदमी संदर्भ से टूट गया है। उसकी जड़ें आज परमात्मा के साथ जुड़ी हुई नहीं मालूम होतीं। अकेला खड़ा है, पृष्ठभूमि खो गई है, समझ में नहीं आता मैं कौन हूं।
कनक-अवास-वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।
मैं तलूए-सुबहे-नौसे अभी मुतमईन नहीं हूं
तेरा हुस्न भी तो होता किसी खुशनुमा किरन में
सरेबाम पुकारा, लबे-दार भी सदा दी
मैं कहां-कहां न पहुंचा तेरी दीद की लगन में
मैं लिए-लिए फिरा हूं गमे-जिंदगी की लाश
कभी अपनी खिलवतों में, कभी तेरी अंजुमन में
तेरे गम में बह गया है मेरा एक-एक आंसू
नहीं अब कोई सितारा जो चमक सके गगन में
एक बार उसकी जरा सी झलक मिल जाए कि सारे सितारे फीके हो जाते हैं। फिर कोई सितारा नहीं चमक सकता। फिर कोई धन धन नहीं। ध्यान की भनक पड़ जाए कि फिर कोई धन धन नहीं। प्रार्थना की जरा सी सुगबुगाहट भीतर हो जाए, फिर कोई प्रेम प्रेम नहीं। परमात्मा है, ऐसा आभास होने लगे कि फिर इस जीवन में जो भी अर्थ थे वे सब बदल गए। फिर एक नये अर्थ की यात्रा शुरू हुई। तीर्थयात्रा शुरू हुई। अब तुम ठीक-ठीक संदर्भ में आने शुरू हुए। अब तुम्हें अपनी जड़ें मिलीं।
महाबिपत बेहाल लाल बिन, लागै बिरह-भुअंग।
बड़ी विपत्ति है, बड़ी बेहाली है, उसके बिना--प्यारे के बिना।
महाबिपत बेहाल लाल बिन, लागै बिरह-भुअंग।
और विरह ने ऐसे पकड़ा है, जैसे भुजंग ने पकड़ लिया हो। जैसे किसी भयंकर सर्प की लपेट में पड़ गए हों। कोई भयंकर सर्प कुंडली मार कर चारों तरफ बैठ गया हो, ऐसा उसके विरह ने पकड़ा है। आज ऐसा विरह किसी को पकड़ता नहीं। दुर्भाग्य है। क्योंकि जितना बड़ा विरह तुम्हें पकड़े, उतने ही बड़े मिलन की आशा है। विरह ही हमारे छोटे-छोटे हैं तो मिलन भी हमारे छोटे-छोटे हैं। विरह और मिलन में अनुपात होता है। जब कोई परमात्मा के विरह से तड़फता है, तो उसके तड़फने में भी एक सौंदर्य है। और एक आदमी धन के लिए तड़प रहा है, उसके तड़फने में एक कुरूपता है। एक आदमी पद के लिए तड़प रहा है, उसकी तड़प अमानवीय है, जंगली है। उसकी तड़प में संस्कृति नहीं है। उसकी तड़प में मनुष्य के ऊंचे मूल्यों का कोई स्थान नहीं है।
तड़पो तो किसी बड़ी बात के लिए तड़पो। जब तड़प ही रहे हो तो क्षुद्र के लिए क्या तड़फना! जब खोजने ही चले हो, तो परमधन को खोजो। और जब यात्रा ही शुरू की है तो परमपद की करना।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
रज्जब कहते हैं: सेज सूनी है। सजी है और सूनी है। सावन द्वार पर खड़ा है और सब सूना है।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं,...
और यह मेरी व्यथा ऐसी है कि किससे कहूं? इसे तो जानने वाले ही समझेंगे। धन्यभागी हैं वे जिनके जीवन में ऐसी व्यथा है कि जिसको कहने के लिए भी पात्र खोजना पड़े! धन्यभागी हैं वे जिनकी व्यथा को साधारणतः कहा न जा सके! उसका अर्थ हुआ कि परम की व्यथा उनके भीतर पैदा हुई है।
परेशां रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ
सकूने-मर्ग तारी है सितारो तुम तो सो जाओ
हंसो और हंसते-हंसते डूबते जाओ खलाओं में
हमें यह रात भारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही किस्मत हमारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
तुम्हें क्या? आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
यह बाजी हमने हारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
कहे जाते हो रो-रो कर हमारा हाल दुनिया से
यह कैसी राजदारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
हमें भी नींद आ जाएगी, हम भी सो ही जाएंगे
अभी कुछ बेकरारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
शायद सितारे समझें, आदमी तो नहीं समझेगा। आदमी तो ऐसा नासमझ हो गया है, ऐसा पत्थर हो गया है, पाषाण हो गया है! किससे कहें?
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
कोई धीरज नहीं है। एक भयंकर अशांति का जन्म हुआ है।
जीसस का एक वचन तुम्हें याद दिलाता हूं--
किसी ने जीसस से पूछा है कि क्या आप वही हैं जिसके संबंध में शास्त्र कहते हैं कि उसके आगमन पर दुनिया में शांति हो जाएगी? जीसस ने उस आदमी को गौर से देखा और कहा, मैं शांति लेकर नहीं, तलवार लेकर आया हूं। मैं तुम्हें अशांत करने आया हूं। ईसाई विचारक दो हजार साल से इस वचन पर चिंतन करते रहे। यह वचन जीसस ने न कहा होता तो अच्छा था। क्योंकि जीसस तो शांति के दूत हैं और यह वचन कि मैं शांति लेकर नहीं तलवार लेकर आया हूं, मैं तुम्हें अशांत करने आया हूं! लेकिन यह वचन सार्थक है। और जीसस ने कहा तो ठीक ही किया। मैं इसके साथ पूरी तरह सहमत हूं। इस दुनिया में जो भी भगवान का प्यारा है, वह तुम्हें अशांत ही करेगा। तुम वैसे शांत हो--शांत मतलब चल रहे हो; सब ठीक-ठाक है। दुकान कर रहे, बाजार कर रहे, बच्चे पैदा कर रहे, सो रहे, उठ रहे, कमा रहे, जीत रहे, हार रहे, जिंदगी बीत रही है, सब ठीक-ठाक है--अगर तुम किसी परमात्मा के प्यारे के निकट पड़ गए तो यह सब ठीक-ठाक एक क्षण में बिखर जाएगा। क्योंकि पहली दफे तुम्हें दिखाई पड़ेगा तुमने जिंदगी यूं ही गंवाई, कूड़ा-करकट बीनने में गंवाई। गहरी अशांति पैदा होगी। बड़ी बेचैनी पैदा होगी। बड़ा अधैर्य पैदा होगा। एक आध्यात्मिक असंतोष पैदा होगा।
एक असंतोष है सांसारिक वस्तुओं के लिए। वह असंतोष अधार्मिक आदमी का लक्षण है। एक असंतोष है परमात्मा को पाने के लिए। वह असंतोष धार्मिक आदमी का लक्षण है। जो बाहर की चीजों से असंतुष्ट हैं, वे बाहर दौड़ते रहते हैं। जो भीतर की आकांक्षा से भर जाते हैं, भीतर के अनुभव के लिए लालायित हो जाते हैं, जिन्हें भीतर का असंतोष पकड़ लेता है, डिवाइन डिसकंटेंटमेंट, जिन्हें एक दिव्य असंतुष्टि पकड़ लेती है, वे भीतर की खोज पर निकल जाते हैं।
बाहर से संतुष्ट हो जाओ और भीतर असंतुष्ट हो जाओ! अभी हालत तुम्हारी उलटी है--भीतर से बिलकुल संतुष्ट हो, बाहर बड़े असंतुष्ट हो। कहते हैं--यह मकान छोटा है, यह दुकान छोटी है, थोड़ी बड़ी कर लें; यह धन का ढेर छोटा है, थोड़ा बड़ा कर लें; यह पद भी कोई पद है, थोड़ा बड़ा पद खोज लें; अभी थोड़ी शक्ति है, लगा लें; अभी थोड़ा मौका है, अवसर है। बाहर से तुम असंतुष्ट हो और भीतर तुम देखते भी नहीं कि भीतर कुछ भी नहीं है, तुम बिलकुल खाली हो, वहां अंधेरा है। वहां दीया भी नहीं जला कभी और बाहर दीवाली मना रहे हो! और भीतर दिवाला है।
थोड़ा भीतर भी देखो। ये बाहर के दीये बहुत दूर तक काम न आएंगे, जलेंगे और बुझ जाएंगे। इनसे कोई रोशनी न कभी किसी को मिली है, न मिल सकती है। मौत आएगी और उसका एक झोंका इन सबको मिटा जाएगा। कुछ ऐसा दीया जला लो जिसे मौत न बुझा सके।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
भक्त बड़ा बेचैन हो जाता है। इस बेचैनी के बाद ही चैन है। जितनी बड़ी बेचैनी उतना ही बड़ा चैन है। यह बेचैनी कीमत है जो चुकानी पड़ती है उस चैन के लिए। भक्त बड़ा दुखी हो जाता है। तुम क्या खाक दुखी हो! तुम्हारा दुख भी छोटा है, क्षुद्र है। भक्त बड़ा दुखी हो जाता है। भक्त की छाती में तो घाव ही घाव रह जाते हैं। उसकी आंखों में तो आंसू ही आंसू रह जाते हैं। रुदन के सिवा उसे कुछ नहीं सूझता। उसे चारों तरफ अंधेरा दिखाई पड़ता है और भीतर रिक्तता दिखाई पड़ती है। और एक बात कोई भीतर गहरे में कहे चला जाता है कि चाहो तो सब बदल सकता है, सावन द्वार पर खड़ा है, प्यारे से मिलना भी हो सकता है!
तुम उस पीड़ा को थोड़ा सोचो, विचारो! जब सब हो सकता है और कुछ भी होता नहीं मालूम होता। घड़ियां बीतती जाती हैं प्रतीक्षा की और उसकी पगध्वनि सुनाई नहीं पड़ती। भक्त न मालूम कितनी भावदशाओं से ऐसी अवस्था में गुजरता है।
जी में हसरत है सुनाएं उन्हें अफसानए-गम
कभी मौका मिले सब-कुछ कहें उनकी ही कसम
लेकिन आते नहीं सुनते नहीं रूदादे-अलम
कितने मजबूर हैं बतलाएं यह है कैसा सितम
इस पै तुर्रा है कि उल्फत का भी इकरार करो
हम को पूजो, हमें चाहो, हमें तुम प्यार करो
ऐसे बेरहम हैं इंसाफ का भी पास नहीं
महर की जर्रा बराबर भी तो बू-बास नहीं
ऐसी बेमेहरी पै भी दिल कि मेरे पास नहीं
अब भी आ जाएं कि जीने की कोई आस नहीं
और खुद आके कहें इश्क का इजहार करो
हमको पूजो, हमें चाहो, हमें तुम प्यार करो
आवाज सुनाई पड़ती है--हमको पूजो, हमें चाहो, हमें तुम प्यार करो; मगर कहां से आवाज आती है, स्रोत का पता नहीं चलता। कोई पुकार आती है बहुत दूर से, या बहुत गहरे से, या बहुत भीतर से, मगर पता नहीं चलता। कौन पुकार दे रहा है, दिखाई नहीं पड़ता। और पुकार सघन होती चली जाती है। और पुकार की सघनता के साथ-साथ भक्त की पीड़ा सघन होती चली जाती है। एक आग जलने लगती है, एक विरह की अग्नि में भक्त जलता है। यही असली यज्ञ है।
बंद करो तुम्हारे यज्ञ जो तुम बाहर कर रहे हो। व्यर्थ न जलाओ उनमें गेहूं और घी, व्यर्थ न बहाओ इन चीजों को। जलाना हो, अपने अहंकार को अपने भीतर परमात्मा की विरह की आग में जलाओ। मिटाना है, अपने को वहां मिटाओ। वहीं बने वेदी हवन की। सच्चा यज्ञ वहीं है, जीवन-यज्ञ वहीं है। और जिस दिन तुम बिलकुल राख हो जाओगे, बिलकुल राख, उसी क्षण मिलन हो जाता है। तुम मिटे कि मिलन हुआ। तुम्हारे मिटने में ही मिलन है।
शबे-इंतजार की कश-म-कश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया
विरह की रात लंबी होती है। कैसे सुबह होती है, बड़ा मुश्किल है कहना।
शबे इंतजार की कश-म-कश में न पूछ कैसे सहर हुई
जिनकी हो गई सुबह, वे भी नहीं बता पाते कि कैसे हो गई है। बड़ी लंबी थी यात्रा, बड़ी लंबी थी रात।
कभी एक चिराग जला दिया, कभी एक चिराग बुझा दिया
किसी तरह कुछ करते रहे। प्रार्थना की, पूजा की, मंत्र किए, जाप किए, वह सब बस ऐसा ही था--कभी एक चिराग जला दिया, कभी एक चिराग बुझा दिया। मगर उस सबके पीछे एक विरह था, वही असली बात है। उस सबके पीछे एक तलाश थी, टटोलना था, वही असली बात है। खोज थी। क्या तुमने खोजने के लिया किया, उसका मूल्य नहीं है बहुत, बस खोज थी भीतर, इसी का मूल्य है। परमात्मा तुम क्या करते हो यह नहीं देखता, तुम क्या चाहते हो, यही देखता है। तुम्हारी अभीप्साएं जांची जाती हैं, तुम्हारी आकांक्षाएं पहचानी जाती हैं। तुम्हारे अंतर्भाव पढ़े जाते हैं।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।।
और सबके प्रेमी उन्हें मिले जा रहे हैं, भक्त का प्रेमी उसे कब मिलेगा? सावन आ गया। दूल्हनें सज गईं, दूल्हे सज गए, जिनकी प्रतीक्षा थी वे प्यारे आने लगे, प्रेयसियों को मिलने लगे, सावन आ गया।
दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।
पशु-पक्षी भी अपने प्रियतमों को मिलने लगे, सब तरफ मिलन की घड़ी आ गई--सावन यानी मिलन की घड़ी--प्यार सबका पकने लगा, और भक्त के भगवान का कोई पता नहीं। वहां बस अभी भी अंधेरी रात है। वहां अभी भी बस रेगिस्तान है। वहां अभी बस विरह का ही स्वाद है।
सिसकियां लेती हुई गमगीन हवाओ चुप रहो
अपनी हालत पर न फूलों को हंसाओ, चुप रहो
सुबह से पहले न बोलो हमनवाओ चुप रहो
सो रहे हैं दर्द उनको मत जगाओ चुप रहो
बंद हैं सब मैकदे साकी बने हैं महतसिब
ऐ गरजती गूंजती काली घटाओ चुप रहो
धड़कनें काफी हैं, इजहारे-तमन्ना के लिए
अपने ओंठों से कभी आगे न आ जाओ चुप रहो
तुमको है मालूम आखिर कौन सा मौसम है यह
फसले-गुल आने तलक ऐ खुशनवाओ चुप रहो
सोच की दीवार से लग कर हैं गम बैठे हुए
दिल में भी नग्मा न कोई गुनगुनाओ चुप रहो
बुझ गए हालात के शोले तो देखा जाएगा
वक्त से पहले अंधेरे में न जाओ, चुप रहो
देख लेना घर से निकलेगा न हमसाया कोई
ऐ मेरे यारो मेरे दर्द-आश्नाओ चुप रहो
क्यों शरीके-गम बनाते हो किसी को ऐ ‘कतील!’
अपनी सूली अपने कांधे पर उठाए चुप रहो
‘अपनी सूली अपने कांधे पर उठाए चुप रहो।’ यह भक्त की जीवन-व्यथा है। ‘क्यों शरीके-गम बनाते हो किसी को ऐ ‘कतील!’ दुख कहो भी तो किससे कहो? कहने का सार भी क्या है! समझेगा कौन? लोग हंसेंगे ज्यादा से ज्यादा। समझेंगे पागल हो तुम।
क्यों शरीके-गम बनाते हो किसी को ऐ ‘कतील!’
अपनी सूली अपने कांधे पर उठाए चुप रहो
भक्त को चुपचाप सहना पड़ता है, चुपचाप रोना पड़ता है। मैं उन भक्तों की बात नहीं कर रहा हूं जो अखंड पाठ करवा देते हैं। उन्हें तो भक्ति का कुछ पता ही नहीं है। चौबीस घंटे शोरगुल मचवा देते हैं। मोहल्ले-पड़ोस के लोगों की नींद खराब करवा देते हैं। भक्ति का तो बड़ा चुपचाप निवेदन है। रात के अंधेरे में, एकांत में। किससे कहना है अपना गम, कौन समझेगा यहां? लोग आंसू देखेंगे, हंसेगे। चुपचाप रो लेना, चुपचाप पुकार लेना। यह बात भीतर की भीतर रहे। यह किसी को पता भी चलाने की बात नहीं, क्योंकि आदमी बड़ा चालबाज है। कभी-कभी तो लोगों को पता चले, इसीलिए आयोजन करने लगता है। ये सब आयोजन झूठे हो जाते हैं। बस परमात्मा को पता चले इतना काफी है। तुम दूसरों को पता चलवाने की कोशिश मत करना।
तुमने देखा है, अगर कोई मंदिर में पूजा कर रहा हो, दो-चार-दस आदमी इकट्ठे हो जाएं, उसकी पूजा बड़े जोर-शोर से होने लगती है। उसके हाथ की आरती और जोर-शोर से उतरने लगती है। अगर फोटोग्राफर भी आ जाए, अखबारनवीस भी आ जाएं, फिर तो कहना क्या! वह ऐसा मस्त हो जाता है कि कबीरदास जी क्या हुए होंगे! कि बाबा नानक सिर ठोक लेते कि हम भी पीछे पड़ गए! कि मीरा भी सोचती कि अब यहां नाचना ठीक है कि नहीं! लेकिन जब देखता है कोई भी नहीं है देखने वाला, तो जल्दी से घंटी-वंटी बजा कर, पानी इत्यादि छिड़क कर भाग खड़ा होता है। भगवान से तो कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारे पूजा-पाठ भी तुम्हारे अहंकार की घोषणाएं बन जाते हैं।
क्यों शरीके-गम बनाते हो किसी को ऐ ‘कतील!’
अपनी सूली अपने कांधे पर उठाए चुप रहो
सकल सिंगार भार ज्यूं लागैं, मन भावै कछु नाहीं।
रज्जब कहते हैं: सारा श्रृंगार किए बैठा हूं। क्या श्रृंगार है भक्त का? अपने पात्र को मांजा है, शुद्ध किया है, अपने भीतर के विषाक्त भावों से मुक्ति पाई है--क्रोध छोड़ा है, लोभ छोड़ा है, मोह छोड़ा है, आसक्तियां छोड़ी हैं, ईर्ष्याएं-वैमनस्य छोड़े हैं, द्वैत छोड़ा है, द्वंद्व छोड़ा है, तर्क छोड़ा है, संदेह छोड़े हैं--सब तरफ से अपने को सजाया है। क्या है श्रृंगार भक्त का? श्रद्धा है श्रृंगार।
सकल सिंगार भार ज्यूं लागैं,...
लेकिन जब तक प्यारा न मिल जाए तब तक सब श्रृंगार भार हैं। प्यारा मिल जाए तब तो बात ही बदल जाती है। तब तो रंग ही बदल जाता है, तब तो ढंग ही बदल जाता है।
चांदनी रात फिक्रे-शेरो-सुखन
मैंने चांदी के बुत तराशे हैं
उनमें तुम रूह फूंक दो, वर्ना
मेरे अफ्कार सर्द लाशें हैं
फिर तुम गीत गाते रहो, उनमें प्राण नहीं। ‘मेरे अफ्कार सर्द लाशें हैं।’ मेरी अभिव्यक्तियों में कोई प्राण नहीं। ‘उनमें तुम रूह फूंक दो।’ तुम डालो प्राण तो पड़ें प्राण। ऐसे भी गीत हैं जब गायक नहीं गाता, सिर्फ गायक माध्यम होता है और परमात्मा गाता है। तब मजा और। तब आकाश पृथ्वी पर उतरता है। और ऐसे भी गीत हैं जो गायक ही गाता है; परमात्मा का उनमें कुछ पता नहीं होता। तब वे कितने ही शब्दों की दृष्टि से सुंदर हों, मगर निष्प्राण होते हैं।
कवि और ऋषि का यही भेद है।
कवि खुद ही गाता है, ऋषि परमात्मा को गाने देता है। दोनों गाते हैं, दोनों गायक हैं, ऊपर से देखने पर कोई भेद नहीं है, दोनों के ओंठ शब्दों को बनाते हैं, दोनों के कंठों से वाणी निकलती है, मगर एक की सिर्फ कंठ से ही आ रही है, और दूसरे की बैकुंठ से आ रही है--उसकी अपनी नहीं है, बांस की बांसुरी जैसा है, खाली है।
कबीर ने कहा: मैं बांस की पोंगरी, सब गीत तुम्हारे। कुछ भूल-चूक हो जाती हो, मेरी--बांस की पोंगरी हूं, स्वरों को बिगाड़ देती हूं, बेसुरा कर देती हूं, वह भूल-चूक मेरी। सब सुंदर तुम्हारा, सब असुंदर मेरा। चूक-चूक मेरी, ठीक-ठीक तुम्हारा। पुण्य हो तो तुमसे, पाप हो जाए--मुझसे। यह भक्त का भाव है।
चांदनी रात फिक्रे-शेरो-सुखन
मैंने चांदी के बुत तराशे हैं
उनमें तुम रूह फूंक दो, वर्ना
मेरे अफ्कार सर्द लाशें हैं
सकल सिंगार भार क्यूं लागैं, मन भावै कछु नाहीं।
मन को भाए भी क्या अब; जब मनभावन से मन लग गया तो मन को फिर कुछ नहीं भाता। जब मनमोहन से मन लग गया तो मन को फिर कुछ नहीं भाता। फिर सब फीका है। सब स्वाद बेस्वाद है। सब स्वर विसंगीत हैं। सब सौंदर्य सतही है, ऊपर-ऊपर है। उस प्यारे की मौजूदगी ही आए तो अस्तित्व श्वासें लेता है, धड़कता है।
रज्जब रंग कौन सूं कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।
आनंद कैसे करूं, रज्जब कहते हैं।
रज्जब रंग कौन सूं कीजै,...
कैसे रंग से भरूं, कैसे नाचूं, कैसे उत्सव मनाऊं, कैसे रास रचाऊं...
...जे पीव नाहीं माहीं।
अभी भीतर परमात्मा आकर मौजूद नहीं हुआ। वह आए तो फिर नाच ही नाच है, बिना आयोजन के। चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती है और नाच शुरू हो जाता है। और परमात्मा भीतर न हो, तो हम हजार आयोजन करें, हमारे आयोजन सब झूठे हैं, सब पाखंड हैं।
धर्म पाखंड हो गया है हमारे आयोजनों के कारण। जब तुम चेष्टा करके कुछ करते हो, तब पाखंड होता है। जब उसकी मौजूदगी के अनुभव से सहज तुम्हारे भीतर कुछ होता है, स्वस्फूर्त, तब धर्म सच्चा होता है। सिखाए धर्म व्यर्थ हैं। पढ़ लिया गीता में या कुरान में और किया, तो बस आयोजित है। परमात्मा को पुकारो भीतर। उसकी प्रतिमा वहां निर्मित होने दो।
और ध्यान रखना, प्यास हो तो जरूर बात हो जाती है। बस पूरी प्यास चाहिए; इसके अतिरिक्त आदमी के बस में कुछ भी नहीं है।
अलग बैठे थे, फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो परवाने भी आएंगे
तिश्नगी कामिल, बस पूर्ण प्यास चाहिए, साकी कब तक बचाएगा, कब तक बच-बच कर निकलेगा?
अलग बैठे थे, फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो परवाने भी आएंगे
जरूर आएंगे। जब दीया जलता है, तो परवाना आता है। और जब प्यास जलती है, तो प्यारा आता है। आना ही पड़ता है। तुमने शर्त पूरी कर दी--उतनी ही शर्त है, बस प्यास की शर्त है। तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी प्यास की अभिव्यक्ति होनी चाहिए और कुछ भी नहीं। मांगना मत कुछ और। कुछ और चाहना मत। चाहना तो उसको चाहना, मांगना तो उसको मांगना, और कुछ मत मांगना।
रज्जब रंग कौन सूं कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।
रज्जब कहते हैं: सावन तो आ गया, नाचना तो मुझे भी है, नाचना तो मुझे भी चाहिए, सावन का सम्मान तो मुझे भी करना है। पक्षी गीत गा उठे, बादल घिर गए, मोर नाच उठे।
दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।
तीर मुझे भी चुभ रहा है सावन का, यह सौंदर्य मुझे भी जगा रहा है। यह चारों तरफ हो रहा उत्सव और मैं कैसे अलग-थलग बैठा रहूं! मगर करूं क्या? मेरा प्राण प्यारा अभी आया नहीं, उसकी पगध्वनि भी मुझे सुनाई नहीं पड़ रही।
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
और यह हो क्यों गया? ऐसा हो कैसे गया कि प्यारा नहीं मिल रहा है?
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
हमने ही उसकी याद धीरे-धीरे गंवा दी है। भजन का अर्थ है: उसकी याद, उसकी स्मृति, सुरति। हमने ही धीरे-धीरे उसकी याद भुला दी। उसने हमें भुला दिया, ऐसा कोई भक्त नहीं कहेगा। ऐसा लांछन भक्त भगवान पर लगा नहीं सकता। हमने ही भुला दिया है। हम ही पीठ करके खड़े हो गए हैं। हमने ही कुछ ऐसा इंतजाम कर लिया है कि हम उससे दूर-दूर हो गए हैं। परमात्मा हम से दूर नहीं है, हम उससे दूर हैं।
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
भजन को भूल गए हैं--भजन यानी परमात्मा के स्मरण को। और जो परमात्मा के स्मरण को भूल जाता है, वह संसार के स्मरण से भर जाता है। स्मरण तो करना ही पड़ेगा। स्मृति में कोई चीज तो भरेगी ही। अगर अमृत न भरोगे तो जहर भरेगा। अगर शुभ न भरोगे तो अशुभ भरेगा। अगर प्रेम न भरोगे तो घृणा भरेगी। पात्र खाली तो रहेगा नहीं। वह तो पात्र का गुण नहीं है खाली रहना, पात्र तो भरेगा ही। अगर सुगंध न भरेगी तो दुर्गंध भरेगी।
ऊर्जा का नियम है कि वह कुछ करेगी; ऊर्जा कृत्य बनेगी। अगर तुमने सृजन न किया तो तुम विनाश करने में लग जाओगे। अगर तुमने निर्माण न किया तो तुम मिटाने में लग जाओगे। इसके पहले कि तुम्हारी ऊर्जा विध्वंस बने, सृजन बनाओ। और इसके पहले कि तुम्हारी ऊर्जा संसार की स्मृति में उलझ जाए, खो जाए... जरा देखते हो कभी, अपने को भी सोचते हो कभी? दिन भर भी संसार सोचते, रात बिस्तर पर पड़े भी संसार सोचते, नींद भी नहीं आती संसार की याद में ही, मन उलझा रहता है--सुबह से सांझ, सांझ से सुबह, दिन और रात, वर्ष आते और जाते और तुम संसार की ही चिंता में डूबे रहते हो। और पाओगे क्या इस चिंता से? थोड़ी तो बुद्धिमानी बरतो।
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
चाहैं पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।
और फिर तुम चाहे पश्चिम जाओ, चाहे पूरब जाओ; फिर चाहे हिंदु होओ, चाहे मुसलमान; चाहे इस दिशा में पूजो, चाहे उस दिशा में; चाहे तुम्हारी काशी इधर हो और तुम्हारा काबा वहां हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। जाओ तुम्हें जहां जाना है, अगर भजन नहीं किया है--भजन यानी अगर परमात्मा का स्मरण नहीं जगाया है, और संसार के स्मरण से भरे हो--तो तुम काशी भी जाकर कुछ भेद नहीं कर पाओगे। काशी में भी तुम संसार का ही स्मरण करोगे। और काबा में जाकर भी तुम संसार का ही स्मरण करोगे। तुम्हारी मांगें संसार की ही होंगी।
तुम जरा सोचो, अगर मैं तुम्हें ऐसी एक पहेली दूं कि कल सुबह तुम जब उठोगे, परमात्मा तुम्हारे सामने खड़ा होगा। और तुमसे पूछेगा--तीन वरदान मांग लो। तुम जरा सोचना कौन से तीन वरदान तुम मांगोगे? किसी को बताने की जरूरत नहीं है, इसलिए धोखा देने की भी कोई जरूरत नहीं है, खुद ही सोचना कौन से तीन वरदान मांगोगे? तुम बड़े हैरान होओगे अपने वरदानों की मांग को देख कर। तुम जरूर कुछ क्षुद्र मांगोगे। परमात्मा भी सामने खड़ा होगा, तो तुम उससे चूक जाओगे। तुम्हें शायद ही याद आए कि तुम कहो कि अब और वरदान की क्या जरूरत! आप मिल गए तो बस! तुम्हें शायद ही यह याद आए कि तुम कहो कि नहीं, अब कोई वरदान नहीं चाहिए। बस ये चरण अब सदा मेरे हाथ में रहें, इन चरणों से लगा रहूं, इन चरणों की लौ लगी रहे, बस पर्याप्त। मांग सकोगे ऐसा? अगर बहुत सोचोगे-समझोगे तो कहोगे कि नंबर तीन पर इसको मांग लेंगे, पहले नंबर दो तो निबटा लें।
तुम इस बात को ही न मांग सकोगे। तुम्हारा हृदय तो संसार की याद से भरा है। तुम कहोगे, यह मौका क्यों चूकें? तुम कहोगे कि राष्ट्रपति बना दो, कि प्रधानमंत्री बना दो; कि दुनिया का सबसे बड़ा धनपति बन जाऊं।
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
मैंने देखा है इन आंखों से मुरव्वत का मयाल
मुझको अब मेहरी-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले
मैं तेरी नेक दुआओं का खरीदार नहीं
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
चाहैं पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।
बस एक बात तुम्हारी पक्की हो गई कि तुम्हारे हृदय में परमात्मा का विचार नहीं उठता। और सब विचार उठते हैं, अनंत विचार उठते हैं, एक विचार चूक गया है--और वही सार्थक है। और जिसने उसे पा लिया, सब पा लिया। और जिसने उसे गंवा दिया, उसने सब गंवा दिया। और तुम जिसे समझ रहे हो संपत्ति, वह विपत्ति है।
दस्ते-पुरखूं को कफे-दस्ते-निगारां समझे
हत्यारे के हाथ को, खूनी के हाथ को चितेरे का हाथ समझे।
दस्ते-पुरखूं को कफे-दस्ते-निगारां समझे
कत्लगह थी जिसे हम महफिले-यारां समझे
और जहां मारा जाना था, जो कत्लगह थी, कत्लखाना था--कत्लगह थी जिसे हम महफिले-यारां समझे! ऐसा ही हुआ है संसार में। तुम कुछ का कुछ समझ रहे हो। यह कत्लगह है, यहां सभी मरने को तैयार खड़े हैं, यहां ‘क्यू’ लगा है मौत का, इसको तुम घर समझ रहे हो?
दस्ते-पुरखूं को कफे-दस्ते-निगारां समझे
कत्लगह थी जिसे हम महफिले-यारां समझे
कुछ भी दामन में नहीं खारे-मलामत के सिवा
ऐ जुनूं, हम भी किसे कूए-बहारां समझे
आखिर में पाओगे कि दामन में सिवाय कांटों के और कुछ भी नहीं।
कुछ भी दामन में नहीं खारे-मलामत के सिवा
कांटे ही कांटे इकट्ठे हो जाएंगे। हो ही रहे हैं। तुम वही इकट्ठे कर रहे हो। तुम कांटों को फूल समझ रहे हो।
कुछ भी दामन में नहीं खारे-मलामत के सिवा
ऐ जुनूं हम भी किसे कुए-बहारां समझे
और हमने जिसे बसंत की गली समझा--कूए-बहारां--हमने जहां समझा था आनंद घटित होगा, जहां हमने सोचा था अमृत की वर्षा होगी, वहां सिवाय कांटों के और कुछ भी नहीं मिला। इस दुनिया से लोग हार कर जाते हैं। जीत कर भी जा सकते हो। मगर जीत उसके साथ है--राम बिन सावन सह्यो न जाइ! जीत उसके साथ है, हार अकेले-अकेले। जो उसके साथ हो लेता है, जीत जाता है। उसे मिल गई कूए-बहारां, उसे मिल गए वसंत के क्षण। फिर उसके जीवन में बसंत के अतिरिक्त कभी और कुछ नहीं घटता। फिर सावन भी है, प्यारा भी है और मिलन शाश्वत है।
चाहैं पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।
बाछै ऊरध अरध सूं लागै, भूले मुगध गंवार।
हे मूढ़, हे गंवार, तू चाहता तो स्वर्ग है, लेकिन बना लेता नरक है। यही हमारा संसार है। सब सुख चाहते हैं, और सब दुख पाते हैं। सब प्रतिष्ठा चाहते हैं और सब अप्रतिष्ठा पाते हैं। सब सम्मान चाहते हैं और सब अपमान पाते हैं। स्तुति मांगते हो, गालियां मिलती हैं।
बाछै ऊरध अरध सूं लागै,...
मांगते तो ऊपर को हो, मिलता नीचे का है। आकांक्षा तो बड़ी ऊंची करते हो, मगर परिणाम बिलकुल नहीं देखते कि परिणाम क्या है?
बाछै ऊरध अरध सूं लागै,...
ऊर्ध्वयात्रा की तो आकांक्षा है, मगर अधोगामी हो जाते हो।
...भूले मुगध गंवार।
खाइ हलाहल जीयो चाहै,...
जहर तो पीते हो और सदा जीता रहूं, ऐसी मन में वासना है। यह कैसे होगा? यह असंभव हो नहीं सकता।
खाइ हलाहल जीयो चाहैं, मरत न लागै बार।
जीना चाहते हैं सदा और जो सदा है उसके साथ संबंध नहीं जोड़ते। संबंध जोड़ते उसके साथ जो क्षणभंगुर है। और जीना चाहते हैं सदा। देह के साथ संबंध जोड़ते हैं--जो आज है और कल नहीं हो जाएगी। आत्मा के साथ संबंध नहीं जोड़ते--जो कल भी थी, आज भी है, और कल भी होगी।
खाइ हलाहल जीयो चाहैं, मरत न लागै बार।
और देर कहां लगती है मरने में। और रोज तुम लोगों को मरते देखते हो, रोज अरथी उठाते हो, रोज लोगों को मरघट पहुंचा आते हो, मगर तुम्हें यह खयाल नहीं आता कि जल्दी ही तुम्हारी घड़ी भी पास आ रही है। और तुम्हारी जिंदगी में कोई फर्क नहीं आता।
मैं छोटा था, तो मुझे मरघट जाने का शौक था। मरघट से मुझे बहुत मिला। गांव में कोई भी मरे--इसका कोई मुझे सवाल ही नहीं था--मैं सभी की अरथी में जाता था। जब मैं स्कूल न पहुंचूं तो मेरे शिक्षक समझ लें कि कोई मर गया होगा गांव में। जब मैं घर खाने के वक्त न पहुंचूं तो घर के लोग समझ लें कि कोई मर गया होगा गांव में--जाओ, भेजो किसी को मरघट, पकड़ के लाए!
जब भी कोई मरता, मैं उसके साथ मरघट जाता। और मरघट पर जाकर दो हैरानी की बातें मुझे हमेशा दिखाई पड़तीं। उधर आदमी जल रहा है और लोग बैठे संसार की गपशप कर रहे हैं। इससे मैं हमेशा चमत्कृत हुआ। आदमी जल रहा है, कल तक इससे बातें करते थे, यह इनका दोस्त था, मित्र था, प्रियजन था, आज वह जल रहा है, उसकी अरथी में आग लगा दी है, अब बैठ कर वहीं आस-पास गपशप हो रही है--संसार की गपशप हो रही है कि फिल्म कौन सी लगी है? कैसी है? फलां आदमी का क्या हाल है? वही बाजार!
इनको याद भी नहीं आ रही कि यह मौत तुम्हारी भी मौत है। यह घड़ी तो ध्यान की थी। यह तो बैठ कर सोचने की थी। यह तो विचार की थी। यह आदमी मर गया, यह भी इन्हीं बातों को करते मर गया कि कौन सी फिल्म कहां लगी है, और हम भी इन्हीं बातों को करते मर जाएंगे। लेकिन मुझे धीरे-धीरे समझ में आना शुरू हुआ, वे अपने को बचाने के लिए बातों में उलझाए हुए हैं। यह आदमी मर गया, यह बात दिखाई नहीं पड़नी चाहिए। क्योंकि यह अस्त-व्यस्त कर देगी। यह उनकी जिंदगी के ढांचे को तोड़-मरोड़ देगी। उनको फिर परमात्मा की याद करने को मजबूर होना पड़ेगा। फिर संसार का स्मरण करने से काम न चलेगा। क्योंकि संसार का स्मरण करते-करते रोज लोग मर रहे हैं।
कब तुम्हें सुध आएगी कि हम उसका स्मरण करें कि फिर मरना न हो! और ऐसा सूत्र तुम्हारे भीतर है। और ऐसी तुम्हारी संभावना है। तुम अमरत्व के पुत्र हो! वेद कहते हैं: अमृतस्य पुत्रः। हे अमृत के पुत्रो, तुम क्यों मृत्यु में उलझ गए हो? जो संसार में उलझा, वह मृत्यु में उलझा। क्योंकि संसार मरणधर्मा है। जिसने प्रभु को स्मरण किया, वह अमृत हुआ। जैसा होना है, उससे ही साथ जोड़ लो। जैसा होना है, उससे ही दोस्ती कर लो। दोस्ती सोच-समझ कर करना।
खाइ हलाहल जीयो चाहैं, मरत न लागै बार।
बैठे सिला समुद्र तिरन कूं,...
और मजा देखते हो कि लोग चट्टान समुद्र में डाल कर उस पर बैठ कर पार होने के इरादे कर रहे हैं। चट्टान तो डूबेगी ही डूबेगी प्यारे, तुम भी डूबोगे! ऐसे तो बिना ही चट्टान के भी शायद चलते तो पहुंच जाते। धन की नाव बना रहे हैं लोग, पद की नाव बना रहे हैं लोग, ये चट्टानें हैं, ये तुम्हें डुबा देंगी। इनके साथ डूबना हो सकता है। इनके साथ पार होना नहीं हो सकता।
बैठे सिला समुद्र तिरन कूं,...
अहंकार की चट्टान लेकर चले हो, अकड़ लेकर चले हो?
बैठे सिला समुद्र तिरन कूं, सो सब बूड़नहार।
वे सब डूबने वाले हैं। उस पार ले जाने वाली तो एक ही नाव है--नानक नाम जहाज। उसका नाम ही बस एकमात्र नाव है। उसका स्मरण ही; भजन बिन भूलि पर्यो संसार!
नाम बिना नाहीं निसतारा,...
ये छोटे से शब्द, ये चार शब्द तुम्हारी समझ में आ जाएं तो तुम्हारी जिंदगी में जादू आ जाए।
नाम बिना नाहीं निसतारा,...
इतनी भर तुम्हारी पकड़ हो जाए तो सब मंदिरों व सब मस्जिदों के राज तुम्हारे हाथ में आ गए, सब शास्त्रों की संपदा तुम्हें मिल गई।
नाम बिना नाहीं निसतारा,...
उसके नाम के बिना न कोई कभी पार हुआ है न कभी कोई पार हो सकता है।
...कबहूं न पहुंचै पार।
और जो इस सत्य को देख ले कि उसका स्मरण पार ले जाने वाला है, उसकी जिंदगी में इसी क्षण नृत्य शुरू हो जाता है। यह बात ही इतनी आह्लादकारी है, उदासी मिट जाती है, आंखों में नई चमक आ जाती है।
देख जिंदां से परे रंगे-चमन जोशे-बहार
रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर न देख
जरा पार आंख उठ जाए, देख जिंदां से परे, कारागृह से जरा ऊपर देखो।
देख जिंदां से परे रंगे-चमन जोशे-बहार
जरा आकाश की तरफ देखो, जरा ऊपर उठो अपनी सीमाओं से--धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, नाम-धाम, इन सीमाओं के जरा ऊपर उठो।
देख जिंदां से परे रंगे-चमन जोशे-बहार
रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर न देख
और जिन्हें नाच करना है, वे फिर बैठे हुए पांव की जंजीर ही नहीं देखते रहते। और जिसने ऊपर की तरफ देखा और नाच शुरू हुआ, उसकी नाच में सारी जंजीरें अपने से टूट जाती हैं।
जंजीरों के लिए बैठे रहने की कोई जरूरत नहीं है। जंजीरों ने तुम्हें नहीं बांधा है, तुम नाच भूल गए हो इसलिए जंजीरें हैं। जंजीरें तुम्हारे नाच को नहीं रोक रही हैं, नाच के न होने के कारण जंजीरें निर्मित हो गई हैं।
नाम बिना नाहीं निसतारा, कबहूं न पहुंचै पार।।
सुख के काज धसे दीरघ दुख,...
देखते हो मूढ़ता?
...भूले मुगध गंवार।
क्या है मूढ़ता इस जगत की?
सुख के काज धसे दीरघ दुख,...
चाहते तो सुख हैं और घुसते जाते हैं दुख में। मांगते स्वर्ग हैं और खोदते जाते नरक। और तुम जानते हो कि यही हो रहा है। जितने दिन तुमने दुख उठाया है अब तक, खयाल करो, चाहा तो सदा सुख है और पाया सदा दुख, यह मामला क्या है? यह गणित कैसा है? तुम अब तक खोजते किसे रहे? सुख खोजते रहे। और पाते क्या रहे? दुख पाते रहे। जरूर कहीं भूल हो रही है। तुम्हारे भीतर कोई बुनियादी भ्रांति है।
सुख के काज धसे दीरघ दुख, बहे काल की धार।
और इसी में समय की धारा तुम्हें मृत्यु की तरफ बहाए ले जा रही है। यह बदलना होगा।
निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है
हजारो हैं सफे जिनमें, न मै आई, न जाम आया
कितने लोग हैं यहां जो जीवन का रस, जीवन का अमृत बिना पीए मर जाते हैं। जिनके हाथ में न कभी शराब लगी, न कभी प्याली पड़ी।
निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है
मधुशाला का नियम बदलने की जरूरत है। मधुशाला की व्यवस्था बदलने की जरूरत है। जीवन का ढंग बदलने की जरूरत है।
निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है
हजारों हैं सफे जिनमें, न मै आई, न जाम आया
कितने लोग हैं, जो जीवित तो हैं लेकिन जीवन को जाने बिना। जो परमात्मा में जी रहे हैं परमात्मा को पीए बिना। सागर में हैं और प्यासे हैं। इनका कोई परिचय ही नहीं हुआ अमृत से।
मैं तुम्हारी तरफ देखता हूं तो मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि तुम कैसे इंतजाम किए जा रहे हो, तुम कैसे दुख का आयोजन किए जा रहे हो? कब जागोगे? कब देखोगे? अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारे चले जा रहे हो।
...भूले मुगध गंवार।
सुख के काज धसे दीरघ दुख, बहे काल की धार।
जन रज्जब यूं जगत बिगूच्यो, इस माया की लार।।
इस तरह सारा जगत अड़चन में पड़ा है। और माया की बुनियादी भ्रांति क्या है? माया की भ्रांति यही है कि उसने नरक के दरवाजे पर स्वर्ग लिख दिया है। दुख के दरवाजे पर सुख लिख दिया है। विपत्ति के दरवाजे पर संपत्ति लिख दिया है। बस चले तुम! तुम यह देखते ही नहीं कि वहां हो क्या रहा है? चले धन की खोज में! जरा धनियों की तरफ तो देखो। उन्हें मिला है कुछ? चले पद की खोज में। जो पद पर हैं जरा उनकी अंतरात्मा में तो झांको! उन्हें मिला है कुछ? चले बने सिकंदर। सिकंदर को क्या मिला है? आज तक इस दुनिया में किसी धनी ने कहा है कि मुझे कुछ मिला? जरा मनुष्य का इतिहास पलटो, सदियों-सदियों के अनुभव में तलाशो।
हां, कभी-कभी किसी बुद्ध ने, किसी महावीर ने, किसी कृष्ण ने, क्राइस्ट ने, कबीर ने कहा है कि मुझे मिला है। लेकिन न तो ये धन के तलाशी थे, न पद के तलाशी थे। इनकी तलाश तो राम की थी। यह संसार के खोजी ही न थे। ये तो भजन में भीगे हुए लोग थे। इनने कहा है कि मिला है। इनकी तुम सुनते नहीं। इनकी न सुनने के तुमने कई उपाय कर लिए हैं। तुमने अपने को इनकी तरफ बज्र बहरा कर लिया है। तुम इनकी तरफ देखते नहीं। और कभी मजबूरी में अगर तुम्हें देखना भी पड़ता है तो तुम कहते हो--महाराज, ठीक ही कहते होओगे आप, यह रही पूजा, आपके चरण छूए लेते हैं, मगर मुझे बख्शो!
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
मैंने देखा है इन आंखों से मुरव्वत का मयाल,
मुझको अब मेहरो-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले
मैं तेरी नेक दुआओं का खरीदार नहीं
तुमने बुद्ध से यही कहा, तुमने महावीर से यही कहा, तुमने कृष्ण से यही कहा, क्राइस्ट से यही कहा, कबीर से यही कहा, यही तुम मुझसे कह रहे हो, यही तुम्हारे कहने की आदत पड़ गई है। यह आदत छोड़ो। इसी आदत में तुमने बहुत जन्म गंवाए हैं। इस जन्म को भी मत गंवा देना।
जन रज्जब यूं जगत बिगूच्यो, इस माया की लार।
इस माया के पीछे चल-चल कर, इस झूठे सूत्र के पीछे चल-चल कर, लोग बिगूचन में पड़े हैं, अड़चन में पड़े हैं, उलझन में पड़े हैं। और जब मैं लोगों की बात कर रहा हूं तो ख्याल रखना, तुम्हारी बात कर रहा हूं। नहीं तो लोग बड़े होशियार हैं, वे सोचते हैं--लोगों की बात हो रही है।
एक फकीर चर्च में हर रविवार को बोलता। और एक आदमी सदा सुनने आता, सामने ही बैठता। और जब भी प्रवचन पूरा होता तो उस फकीर के पास आता और कहता कि बिलकुल ठीक किया; जो बातें कहीं, इनकी लोगों को बड़ी जरूरत है। लोगों को! आखिर फकीर सुन-सुन कर परेशान होने लगा। हर बार यही होता। कुछ भी कहे वह और वह आदमी आता और कहता कि अच्छा फटकारा! अच्छी जूतियां लगाईं, लोगों को इसकी जरूरत है!
एक दिन संयोग की बात खूब वर्षा हो गई, कोई नहीं आया, अकेला वही आदमी आया। फकीर ने सोचा कि आज का मौका चूकना नहीं है। उसने खूब जूतियां चलाईं। उसने खूब फटकारें लगाईं। उसने इधर से मारा, उधर से मारा। मगर उस आदमी पर कुछ चोट ही न पड़े, वह बड़ा मस्त बैठा! फकीर भी थोड़ा हैरान होने लगा कि अब तो आज कोई है भी नहीं, अब यह मस्त क्या बैठा है! आज यह क्या कहेगा? लेकिन उस आदमी ने जो कहा सुन लेना ठीक से; जाते वक्त उसने कहा--गजब कर दिया, खूब मारा, हालांकि आज कोई आए नहीं थे। अगर आए होते, तो खूब फटकारा, बड़ी जरूरत थी। इन्हीं चीजों की जरूरत थी। कोई फिकर न करो, मैं गांव-गांव में जाकर, घर-घर जाकर लोगों को कह आऊंगा।
मगर अपनी तरफ कोई लेना नहीं चाहता। लोग सोचते हैं, ये दूसरों की बातें चल रही हैं।
मैं तुमसे कह रहा हूं। जब मैं कहता हूं, लोगों से कह रहा हूं, तो मैं तुमसे कह रहा हूं। और किसी की यहां बात नहीं हो रही है। और किसी की बात करने की जरूरत भी नहीं है। जो यहां हैं, उनकी बात हो रही है। मेरी और तुम्हारी बात हो रही है, यह बात सीधी-सीधी है। जो भी मैं तुमसे कह रहा हूं, ठीक तुमसे कह रहा हूं। तुम यह मत सोचना कि यह पड़ोसी के लिए लागू है। तो यह बच्चू जो बगल में बैठा है, यही धन के पीछे पागल है; अच्छी पड़ी! हम तो पहले ही इसको समझाते थे, मगर कभी समझा नहीं। यह जो बगल में बैठे हैं नेताजी; अच्छी पड़ी, पद के पीछे दीवाने हैं। चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, ठीक मारे गए। मैं तुमसे कह रहा हूं। और जब तक तुम सीधे-सीधे लेना शुरू न करोगे, ये अमृतदायी वचन व्यर्थ चले जाएंगे। वर्षा होगी और तुम्हारा घड़ा खाली का खाली रह जाएगा।
ये सूत्र अनूठे हैं, इन्हें गुनगुनाना। ये सूत्र तुम्हारी समझ में आने लगें तो जिंदगी बड़ी सहल होने लगे।
मुझे सहल हो गईं मजिलें, वो हवा के रुख भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गए
ये सूत्र तुम्हारी समझ में आ जाएं तो तुम्हारे हाथ में परमात्मा का हाथ आने लगे। वह तो तैयार ही खड़ा है, उसने तो हाथ तुम्हारी तरफ बढ़ाया ही हुआ है, कब से बढ़ाए-बढ़ाए थक गया है, मगर तुम हाथ हाथ में लेते नहीं।
मुझे सहल हो गईं मंजिलें, वो हवा के रुख भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गए
कठिन नहीं है कि चिराग राह में जल जाएं। कठिन नहीं है कि सावन में प्यारा भी आ जाए। सावन भी उसी का है, इसी में कहीं छिपा होगा। यहीं कहीं होगा पास-पड़ोस में। उसके बिना सावन भी कहां? यह सावन उसी की आभा है। यह सावन उसी की तरंग है। यह सावन उसी की छाया है। सावन आ गया, तो सावन का मालिक भी आ ही गया होगा। थोड़ा खोजें, थोड़ा तलाशें, थोड़ा पुकारें, थोड़े प्यास से भरें।
अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी कि पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो परवाने भी आएंगे
आज इतना ही।
काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।।
कनक-अवास-वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।
महाबिपत बेहाल लाल बिन, लागै बिरह-भुअंग।।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।।
सकल सिंगार भार ज्यूं लागैं, मन भावै कछु नाहीं।
रज्जब रंग कौन सू कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।।
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
चाहैं पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।
बाछै ऊरध अरध सूं लागै, भूले मुगध गंवार।
खाइ हलाहल जीयो चाहै, मरत न लागै बार।।
बैठे सिला समुद्र तिरन कूं, सो सब बूड़नहार।
नाम बिना नाहीं निसतारा, कबहूं न पहुंचै पार।।
सुख के काज धसे दीरघ दुख, बहे काल की धार।
जन रज्जब यूं जगत बिगूच्यो, इस माया की लार।।
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
मैंने देखा है इन आंखों से मुरव्वत का मयाल
मुझको अब मेहरो-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले
मैं तेरी नेक दुआओं का खरीदार नहीं
ऐ गदागर! मुझे ईमान की बख्शिश के एवज
ये दुआ क्यों नहीं देता कि मैं जरदार बनूं
बेच डालूं सरे-बाजार जमीरे-हस्ती
और एहसास की जिल्लत का अलमदार बनूं
आदमीयत का गला काटके इज्जत पाऊं
जुल्म के साये में राहत का तलबगार बनूं
राजे-रोशन में यतीमों के घरौंदे लूटूं
और बेवाओं की दौलत का परिस्तार बनूं
ऐ गदागर! मुझे हैरान निगाहों से न देख
मेरा कुचला हुआ एहसास यही कहता है
देख इन शिंगरफी चेहरों के शफक-रंग खतूत
जिनसे मजबूर घरानों का लहू बहता है
देख इन ऊंचे मकानात के तहखानों को
जिनकी हर सांस में जहराब घुला रहता है
देख ईमान की गिरती हई दीवारों को
जिनकी तामीर में इंसान सितम सहता है
ऐ गदागर! मुझे ईमान से क्या है लेना
इससे मुफ्लिस की कबा तक भी नहीं सिल सकती
ये जवां जिस्म, ये भरपूर निगाहें, ये सरूर--
फिक्रे-इंसान बजुज इनके नहीं खुल सकती
चार दिन ऐश से जीना है मुझे भी, लेकिन
हट के दौलत से कोई चीज नहीं मिल सकती
और दौलत वो शिकंजा है कि जिसमें फंस कर
हम तो क्या सिलवते-यजदां भी नहीं हिल सकती
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
जमाना बदला है। जिस हवा में रज्जब ने गीत गाया था, वह हवा अब नहीं। तो शायद गीत तुम्हारी समझ में आए, न आए। अब तो ऐसे गीत समझ में आते हैं--‘ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे।’ हे भिक्षु, मुझे धर्म की बख्शीश मत दे। मुझे धर्म का प्रसाद मत दे। मुझे धर्म की नसीहत मत दे। मुझे धर्म का उपहार मत दे।
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
आज धर्म से किसको क्या लेना-देना है?
मैंने देखा है इन आंखों से मुरव्वत का मयाल
मुझको अब मेहरो-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
लोगों ने प्यार को हारते देख लिया है। लोगों ने प्यार को पराजित होते देख लिया है। प्रेम की विजय की बात कल्पना हो गई। और जहां प्रेम कल्पना हो जाए, वहां प्रार्थना के जन्मने का सवाल कहां? प्रेम ही तो अपनी अंतिम उड़ान में प्रार्थना बनता है। प्रेम का ही सार-निचोड़ तो प्रार्थना है। झूठे क्रियाकांड रह गए हैं। उनके भीतर से प्राण निकल गए हैं। लोग प्रार्थनाएं अब भी कर रहे हैं, मगर प्रार्थना करने वाले हृदय कहां? लोग अब भी मंदिरों-मस्जिदों में जा रहे हैं। आदत हो गई है जाने की। रिवाज हो गया है जाने का। औपचारिकता है जाने की। सामाजिक व्यवहार है वहां जाना। जिंदगी के चलने में सुविधा मिलती है। उपयोगी है। लेकिन आदमी के हृदय से मंदिर मिट गया है। तो बाहर के मंदिर बहुत काम आ नहीं सकते। अब भी लोग राम और कृष्ण का नाम लेते हैं, मगर ओंठ, बस ओंठ तक ही यह बात होती है। हृदय तक इसकी पहुंच नहीं। अब कौन प्रभु के प्रेम में पागल होता है? अब तो प्रभु के प्रेम में जो पागल होता है, उसे लोग बस पागल ही मानते हैं। सिर्फ पागल ही मानते हैं।
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
मैंने देखा है इन आंखों से मुरब्बत का मयाल
मुझको अब मेहरो-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
और जब आदमी को चाह कर कुछ न मिलता हो, तो परमात्मा को भी कोई क्यों चाहे? जब चाहने से आदमी को कुछ नहीं मिलता, तो परमात्मा को चाहने से भी क्या मिल जाएगा? परमात्मा को चाहने का रस तो तभी जगता है जब आदमी को चाहने से कुछ मिलता है। जब छोटे-छोटे प्रेम से उसकी किरणें मिलती हैं, तो फिर सूरज की आकांक्षा पैदा होती है।
तुमने अगर किसी एक आदमी को चाहा और उसकी चाहत तुम्हारे जीवन में रंग भर गई और उसके प्रेम ने तुम्हारे जीवन को सुगंध दे दी, तो आज नहीं कल तुम परमात्मा के प्रेम में पड़ोगे। पड़ना ही पड़ेगा। कोई उपाय नहीं बचने का। भागोगे कहां? जब क्षणभंगुर के प्रेम से ऐसा रस बहा, तो शाश्वत के प्रेम से कैसा रस न बहेगा? सीधा गणित है, साफ गणित है। बुद्धिहीन से बुद्धिहीन को भी समझ में आ जाएगा। जब एक फूल से इतनी सुगंध मिली, तो उस विराट के साथ संबंध जुड़ जाने से कैसा नृत्य नहीं होगा, कैसा उत्सव नहीं होगा? क्षणभंगुर ने भी नाच दे दिया था। क्षणभंगुर जो पानी के बबूले की तरह था, वह भी आंखों को नई रोशनी से भर गया था। सपने उठे थे आकाश के। तुम मिट्टी नहीं रह जाते जब तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो। जब तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, देह भूल ही जाती है। प्रेम के क्षणों में तुम आत्मा हो जाते हो। वही अनुभव परमात्मा के प्रेम की तरफ ले जाता है।
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले
मैं तेरी नेक दुआओं का खरीदार नहीं
आज की हवा ऐसी है। और मैं यह कहना चाहूंगा कि इस हवा में धार्मिकों का हाथ है। तथाकथित धार्मिकों के कारण ही यह हवा है। झूठे धर्म के कारण यह हवा है। थोथे धर्म के कारण यह हवा है। धर्म की लाशें पड़ी हैं, उनसे यह दुर्गंध उठ रही है। उनके कारण आदमी ईश्वर से विमुख हो रहा है। उनके कारण ईश्वर की तरफ मुंह करने की आकांक्षा भी नहीं जगती। देखो तुम्हारे पंडित-पुरोहितों-पुजारियों की तरफ, उन्हें देख कर तुम्हें कुछ ऐसा भाव उठता है कि नाचें और मग्न हो जाएं? उनके जीवन में भी तो नाच नहीं है। जन्म हो गए उनको घंटियां बजाते मंदिरों में, हृदय की वीणा अभी भी नहीं बजी। जन्म हो गए उन्हें फूल चढ़ाते मंदिरों में, पत्थरों के सामने झुकते-झुकते वे भी पत्थर हो गए हैं; उनकी प्रार्थनाएं नपुंसक, उनके क्रियाकांड थोथे, सब पाखंड है, सब धोखा है। आंखें हैं आदमी के पास, आदमी एकदम अंधा नहीं है। इतना दिखाई पड़ता है। जन्मों-जन्मों तक जो मंदिरों की पूजा और प्रार्थना से कुछ न पा सके हों, उनका परमात्मा भी झूठा ही होगा। कौन उनके परमात्मा की तरफ आतुर हो? कौन उनके परमात्मा को चाहे?
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं--जमीन आज नास्तिक है नास्तिकों के कारण नहीं, तथाकथित आस्तिकों के कारण। लोग ईश्वर के भी तलबगार नहीं हैं। देखते हैं ईश्वर के तलबगारों का झूठ, उस झूठ में अब कोई सम्मिलित नहीं होना चाहता।
इसलिए तुम्हें थोड़ी अड़चन होगी। ये गीत किसी और हवा में गाए गए थे। यह पौधा किसी और जमीन में उगा था। वह जमीन बदली है, लेकिन फिर भी अगर थोड़ी सहानुभूति से समझोगे, अगर थोड़े पंडित-पुरोहितों के जाल को छोड़ कर समझोगे, तो बात समझ में आ जाएगी। नहीं आए, ऐसा कुछ नहीं है। क्योंकि तुम्हारे भी गहन तल में, तुम्हारे हृदय की भी गहराइयों में, लाख उपाय करो परमात्मा की खोज छिपी पड़ी है। कोई आदमी बिना परमात्मा को पाए तृप्त होता नहीं। उसी को पाकर संतोष होता है। और कोई कितना ही उसकी तरफ पीठ कर ले, और कोई कितना ही नाराजगी में कह दे कि अब मैं तेरा तलबगार नहीं, नाराजगी एक बात है, यह तलब मिट जाने वाली तलब नहीं। यह प्यास ऐसी कोई प्यास नहीं है कि तुमने कह दी और मिट गई। यह तो परमात्मा बरसेगा तुम्हारे कंठ में तो ही मिटेगी।
यह प्यास मनुष्य की संपदा है। इसी प्यास के कारण तो आदमी... लाख धर्म के नाम से पाखंड चलता रहे, तो भी धर्म में थोड़ी न बहुत उत्सुकता बनी रहती है। लाख धर्म के नाम से शोषण चलता रहे, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे झूठे हो जाएं, तो भी आदमी कोई नई राह खोज लेता है, कोई नया मार्ग खोज लेता है। मंदिर-मस्जिदों को बचा कर निकल जाता है, लेकिन परमात्मा की तलाश जारी रहती है। प्यास कुछ ऐसी है कि बिना परमात्मा को पाए मिट नहीं सकती है।
इसलिए समझ तो सकोगे, स्वभावतः क्षमता भीतर समझने की है, मगर ये गीत और हवा में गाए गए थे, किसी और माहौल में गाए गए थे। ये किसी और तरह के लोगों ने गाए थे, किन्हीं और तरह के लोगों के सामने गाए थे। वे लोग धीरे-धीरे विदा हो गए हैं, वैसी मस्त मधुशालाएं अब नहीं रहीं, वैसे आनंद के सत्संग अब नहीं रहे। सुनो--
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
राम के बिना सावन सहा नहीं जाता। राम अर्थात परम प्यारा। नाम कुछ भी दो। अल्लाह कहो, राम कहो, रहीम कहो, जो भी नाम देना हो, वह परम प्यारा है। जिसके बिना सब फीका है, जिसके बिना हम हैं तो लेकिन नहीं जैसे हैं। जिसके बिना हम खाली-खाली हैं। जिसके बिना हमारा कोई मूल्य नहीं। जिसके बिना हम जीते जरूर हैं, मगर जीना नाममात्र का जीना है। सच कहो तो मरते ही हैं। जिसके बिना हम जीते नहीं। बस मौत ही करीब आती है और हाथ लगता क्या है? रोज-रोज थोड़ा-थोड़ा मरते जाते हैं। चल किस तरफ रहे हो? पहुंचोगे कहां? बस मौत में पहुंच जाते हो। यह भी कोई जिंदगी हुई?
जिंदगी की परिभाषा क्या है? जिंदगी की परिभाषा है कि जो महा जिंदगी में ले जाए। जीवन अगर सच्चा है, तो उसका अंतिम फल महा जीवन होगा। लेकिन इस जीवन का फल तो मृत्यु होती है, यह कैसा जीवन! यह जीवन होगा ही नहीं। कहीं कुछ भूल हो गई। कहीं कुछ चूक हो गई। कुछ का कुछ समझ बैठे हैं। परमात्मा के साथ के बिना कोई जीवन नहीं है। उसके साथ है जीवन। उसके विरोध में है मृत्यु। उससे जो अलग है, वह मरेगा। जो उसके साथ है, कभी नहीं मरेगा।
जीसस का एक प्यारा वचन है: आओ, मेरे साथ हो जाओ, क्योंकि जो मेरे साथ हैं वे कभी नहीं मरेंगे। जो मेरे साथ हैं, उनकी कोई मृत्यु नहीं है। जीसस क्या कह रहे हैं? जीसस यह कह रहे हैं, आदमी दो ढंग से जी सकता है। एक ढंग है अलग-थलग, अहंकार की भांति, मैं की भांति, परमात्मा के विरोध में, असहयोग में, परमात्मा से भिन्न। ऐसे ही अधिक लोग जीते हैं। उनके जीवन का केंद्र मैं है। मैं ऐसा कर लूं, मैं वैसा हो जाऊं, मैं वह पा लूं, उनकी अपनी कुछ मर्जी है, कोई आकांक्षा है जिसे वे पूरी करना चाहते हैं। वे दुनिया को दिखा देना चाहते हैं कि मैं कौन हूं। वे यहां हस्ताक्षर कर जाना चाहते हैं पत्थरों पर--खुद तो मिट जाएंगे लेकिन नाम रह जाएगा। समय की रेत पर वे चिह्न छोड़ जाना चाहते हैं। पागल हैं वे, क्योंकि रेत पर कहीं कोई चिह्न छूटे हैं? आएंगी हवाएं और चिह्न मिट जाएंगे। यहां पत्थर भी रेत हो जाते हैं। यहां नाम भी पत्थरों पर लिखोगे तो कितनी देर टिकेगा? और इस शाश्वत की विराट व्यवस्था में तुम्हारे नाम-धाम का छूट जाना सब फिजूल है, सब सपना है। मगर अहंकार ऐसे ही जीता है कि मैं कुछ कर जाऊं, मैं कुछ दिखा जाऊं, मैं कुछ हो जाऊं।
और अहंकार की अपनी मर्जी होती है कि ऐसा होना चाहिए, ऐसा होगा तो ही मैं तृप्त होऊंगा, ऐसा नहीं होगा तो मैं असंतुष्ट रहूंगा। इसीलिए तो इतने लोग असंतुष्ट हैं, क्योंकि जैसा तुम चाहते हो, वैसा नहीं होता। यह अस्तित्व तुम्हारी चाह से नहीं चल सकता। यह तुम्हारी चाह से चलता तो कभी का पागल हो जाता। क्योंकि तुम्हारी इतनी चाहें हैं। इन सारी चाहों को पूरा नहीं किया जा सकता। एक क्षण तुम एक बात चाहते हो, दूसरे क्षण दूसरी बात चाहते हो। यह तो एक आदमी की बात हुई। फिर यहां इतने आदमी हैं, इतने पशु हैं, इतने पक्षी हैं, इतने पौधे हैं, इतने जीवन हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कम से कम पचास हजार पृथ्वियों पर जीवन है। इन सबकी चाहें कैसे पूरी हो सकती हैं! अस्तित्व की चाह पूरी होती है। आदमी की चाह पूरी नहीं होती। हां, कभी-कभी तुम्हारी चाह पूरी हो जाती है, तो यही समझना कि संयोगवशात तुम्हारी चाह अस्तित्व की चाह के साथ एक पड़ गई थी। तुमने कभी भूल-चूक से वही चाह लिया था जो परमात्मा चाह रहा था। इसलिए तुम सफल हो गए। तुम उसी धारा में बह गए जिस तरफ परमात्मा बह रहा था। कभी-कभी तुम सफल हो जाते हो, उसका कारण यही होता है।
तुम कभी सफल नहीं होते, परमात्मा सदा सफल होता है। तुम तो सदा हारते हो। सौ में निन्यानबे मौके पर तो तुम हारते हो। इस हार से कुछ सीखो। इससे एक बात सीखो कि मेरी मर्जी पूरी नहीं हो सकती। जिस आदमी को यह दिखाई पड़ गया कि मेरी मर्जी पूरी नहीं हो सकती, उस आदमी को दूसरी चीज दिखाई पड़ने में ज्यादा देर नहीं लगती कि परमात्मा की मर्जी ही पूरी होती है। तो मैं उसकी मर्जी के साथ एक हो जाऊं। तो वह जो करे वह ठीक। मेरा उससे कुछ विरोध न रहे। मेरा सहयोग संग हो जाए। अगर ठीक से समझो तो इसी का नाम सत्संग है। परमात्मा की मर्जी के साथ एक हो जाना। कह देना कि तू कर। मैं तेरे हाथ की बांसुरी हूं, तू बजा, तू गा। तेरा गीत मुझसे बहे, मैं बाधा न बनूं, बस इतना काफी है। फिर जीवन में कोई असफलता नहीं है; फिर कोई विफलता नहीं है। फिर कैसी विफलता! फिर जो होता है वही सफलता है। फिर तो बीच मझधार में भी डूब जाओ तो वही किनारा है। उसकी जो मर्जी! जिस आदमी ने अपनी मर्जी छोड़ दी, वही आदमी धार्मिक है। और जिसने अपनी मर्जी छोड़ दी, वही परमात्मा के साथ है।
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
और जिसको यह बात समझ में आ गई, उसे एक बात दिखाई पड़ेगी कि सारा अस्तित्व कितनी मस्ती और कितने आनंद से भरा है! सावन सदा ही आया हुआ है। सावन ही सावन है। यह प्रकृति सदा उत्सव में लीन है। यहां महोत्सव अखंड चल रहा है। एक क्षण को विराम नहीं है। यह महोत्सव की तरंगें उठती ही जाती हैं। यह लहरें सदा टकराती रहती हैं। यह नृत्य चलता ही रहता है चांद-तारों का। यह चारों तरफ जो विराट उत्सव चल रहा है, यही सावन है। और जिसको यह बात दिखाई पड़ गई, उसे एक बात दिखाई पड़ेगी कि परमात्मा के बिना इतना सौंदर्य कैसे सहूं! परमात्मा के बिना इतना रस कैसे सहूं! परमात्मा के बिना इतना उत्सव उन्माद ले आएगा, मैं पागल हो जाऊंगा। मैं सह न पाऊंगा, असह्य हो जाएगा।
ध्यान रखना, दुख ही असह्य नहीं होते, सुख भी असह्य हो जाते हैं। और अगर तुमने असह्य होने की प्रक्रिया के भीतर झांका हो तो तुम बहुत हैरान होओगे। वैज्ञानिक कहते हैं कि असह्य दुख, ऐसा शब्द बनाना ठीक नहीं; क्योंकि कोई दुख असह्य नहीं हो पाता। असह्य होने के पहले ही आदमी बेहोश हो जाता है। यह दुख की अंतरंग व्यवस्था है, जब तक सह सकता है तभी तक होश रहता है। जैसे ही सहने के बाहर होने लगता है दुख, आदमी बेहोश हो जाता है। यह प्रकृति की अंतरंग व्यवस्था है तुम्हें दुख से बचाने की। तो असह्य दुख होता ही नहीं। कहते हैं हम, लेकिन असह्य दुख होता नहीं। जब असह्य होता है तो बेहोश हो जाते हैं। उसका पता ही नहीं चलता। इसीलिए तो सिर में चोट लगती है, बेहोश हो गए। पीड़ा भयंकर है, प्रकृति तुम्हें बचा लेती है बेहोश करके। पीड़ा नहीं सहने देती।
दुख तो असह्य होता ही नहीं। लेकिन सुख हो सकता है असह्य। क्योंकि सुख को सहने के लिए प्रकृति की तरफ से बचाव की कोई व्यवस्था नहीं है। सुख ऊंचाइयों से ऊंचाइयों पर जा सकता है। ऐसी ऊंचाइयों पर, जहां तुम बिखरने लगो, जहां तुम टूटने लगो, जहां तुम टुकड़े-टुकड़े होने लगो, जहां तुम अपने को सम्हाल न सको, जहां नृत्य ऐसा हो जाए कि तुम खंड-खंड हो जाओगे। और अगर जीवन के उत्सव को देखोगे तो ऐसा ही रस तुम में पैदा होगा। परमात्मा के बिना उसे सहा नहीं जा सकता। इतना बड़ा सागर सम्हालना हो अपने भीतर, तो पात्र भी इतना ही बड़ा होना चाहिए। यह पात्र उसी का हो सकता है। यह पात्रता अपनी नहीं हो सकती।
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
राम के बिना यह जीवन का महोत्सव सहा नहीं जाता। शायद इसीलिए लोग जीवन के उत्सव को देखते भी नहीं। वे जीवन में दुख ही तलाशते रहते हैं, शिकायतें ही खोजते रहते हैं, कांटे बीनते रहते हैं, अंधेरी रातों की गिनती करते रहते हैं। उससे व्यवस्था ठीक बनी रहती है। अगर जीवन का सुख तुम देखोगे, तो अकेले कैसे सहोगे? सुख बांटना पड़ता है।
तुमने कभी सुख की यह महत्ता समझी? दुख आदमी अकेले सहना चाहता है, सुख बांटना चाहता है। जब कोई दुखी होता है, द्वार-दरवाजे बंद करके अपने कमरे में छिप जाता है, कहता है--न मुझे कोई छेड़ो, न मुझे कुछ कहो, न मुझे बाहर ले जाओ, मुझे मुझमें डूब जाने दो, मैं दुखी हूं। दुखी आदमी कभी-कभी शराब पी लेता है, सिर्फ इसीलिए ताकि सबसे संबंध टूट जाएं। और दुखी आदमी कभी-कभी आत्यंतिक घड़ियों में आत्मघात कर लेता है। वह इसीलिए कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। मैं ही नहीं होऊंगा, तो फिर किससे संबंध, किससे नाता?
लेकिन जब सुख पैदा होता है, तो आदमी बांटना चाहता है। महावीर जब दुखी थे, जंगल चले गए। जैन-शास्त्रों में उसकी बड़ी-बड़ी कहानियां हैं। लेकिन वह असली कहानी नहीं है, वह महावीर का असली राज़ नहीं है, असली रा़ज तो तब है जब महावीर आनंदित हुए--तब क्या हुआ? तब वे जंगल से वापस बस्ती लौट आए। अब बांटना है। अकेले जंगल में क्या करोगे? हमने सदपुरुषों की जो कहानियां लिखी हैं, वे भी अधूरी हैं। उसमें हमने यह तो खूब चर्चा किया है कि वह कैसे छोड़ कर चले गए--बड़े-बड़े महल, सोने के महल, बड़े राज्य, हाथी-घोड़े, उनकी बड़ी संख्या, बड़ा धन, बड़ी दौलत कैसे छोड़ कर चले गए उसका हमने खूब रसपूर्ण विवेचन और वर्णन किया है, लेकिन दूसरी बात हम नहीं कहते कि वह वापस क्यों लौट आए? एक दिन सब वापस लौटे। बुद्ध भी छह साल के बाद वापस आ गए, महावीर बारह साल के बाद वापस आ गए--एक दिन सभी वापस आ गए। अब क्या हुआ था? जब चले ही गए थे तो चले ही जाना था। अब इसी दुनिया में वापस क्या आना था? लेकिन आना पड़ा। जब आनंद फला तो बांटना पड़ेगा। आनंद को सम्हाला नहीं जा सकता। और आनंद बांटने के लिए सबसे ज्यादा योग्य पात्र कौन हो सकता है?
परमात्मा सामने हो तो भक्त नाच ले मन भर कर। फिर बांध ले घूंघर पैरों में। फिर नाच ले। फिर चिंता न हो। फिर उस विराट में अपने सारे नृत्य को डुबा दे। नहीं तो सावन बड़ा भारी होने लगता है। तुमने अगर साधारण जीवन में प्रेम किया है, तो भी सावन भारी होने लगता है। उसी को प्रतीक मान कर रज्जब ने यह गीत लिखा है। प्रेयसी और मौसम गुजार लेती है, प्रतीक्षा कर लेती है, लेकिन जब सावन आ जाता है और आकाश में बादल घिरने लगते हैं और भूखी-प्यासी धरती के तृप्त होने का क्षण करीब आने लगता है, वृक्षों पर नये पत्ते आ जाते हैं, नई रिमझिम शुरू होती है, मोर नाचने लगते हैं, पपीहे गीत गाने लगते हैं, कोयल पुकारने लगती है, सब तरफ उत्सव होने लगता है, फूल खिलने लगते हैं, तब असह्य हो जाता है।
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
साधारण प्रेम में भी प्रीतम के बिना सावन को सहना मुश्किल हो जाता है। दुर्दिन तो गुजर जाते हैं, सुदिन नहीं गुजरते। दुख तो बिता लेता है आदमी अकेले भी--सच तो यह है, अगर तुमने किसी को प्रेम किया है, तो तुम उससे दुख की बात करना ही न चाहोगे। तुम चाहोगे कि दुख की क्या बात करनी? दुख अकेले सह लोगे। दुख चुपचाप घूंट की तरह पी लोगे। लेकिन जब सुख उमगेगा, तब तुम उसके गले में हाथ डालना चाहोगे, हाथ में हाथ लेकर नाचना चाहोगे।
जो साधारण प्रेम की प्रक्रिया है, वही प्रार्थना की भी है। उन दोनों में जो अंतर है, वह परिमाण का अंतर है। लेकिन गुण का अंतर नहीं है--गुणात्मक कोई भेद नहीं है। परिमाणात्मक भेद जरूर है। अनंत-अनंत गुना बड़ा है प्रार्थना का आनंद। लेकिन है वह प्रेम की ही बूंद जो सागर हो गई है।
राम बिन सावन सह्यो न जाइ।
अफसानए-निगाहे-मोहब्बत न पूछिए
कहते हैं किसको हस्रे मसर्रत न पूछिए
वह मस्त-मस्त रात वह बादः बदस्त रात
उस मस्त-मस्त रात की कीमत न पूछिए
होती है दिल में इक खलिशे-बेकरार सी
वल्लाह उस नजर की शरारत न पूछिए
आलम तमाम आंसुओं का एक शैल था
मुझसे फसानए-शबे-फुर्कत न पूछिए
रातों को कर रही हूं सितारों से गुफ्तुगू
मुझसे मेरे जुनूं की हिकायत न पूछिए
क्या हो गया है आपकी नज्मः को क्या कहूं
हालत न पूछिए, मेरी हालत न पूछिए
प्रेम दीवाना कर जाता है। और जब सावन द्वार पर दस्तक दे, तो प्रेम में फिर ऐसी बाढ़ आती है! उसी बाढ़ की चर्चा है। और फिर यह प्रेम भी परमात्मा का प्रेम! यह कोई छोटे-मोटे प्रेमी का प्रेम नहीं, जो आज है कल नहीं हो जाएगा, ऐसा प्रेम जो फिर सदा के लिए है, आता है तो जाता नहीं, जो शाश्वत है, जो समय की परिधियां नहीं मानता, जो आकाश से विराटतर है। भक्त का भाव समझो, भक्त के भीतर की दीवानगी समझो।
काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।
भीतर-भीतर आग जल रही है, बाहर सावन आ गया है, और प्रियतम का कोई पता नहीं। घटाएं घिर गईं--सुंदर घटाएं, प्यारी घटाएं--लेकिन प्रियतम के बिना ये प्यारी घटाएं, ये सुंदर घटाएं कैसे प्यारी लगें, कैसे सुंदर लगें?
खयाल करो, हमें प्रकृति में वही दिखाई पड़ता है जो हमारे भीतर घटता है। तुम्हारा प्यारा घर आया है, तो अमावस की रात भी पूर्णिमा हो जाती है। और तुम्हारा प्यारा घर नहीं आया, तो पूर्णिमा की रात भी तो अमावस ही रहती है। प्रियतम आ गया है तो चांद नाचता हुआ मालूम पड़ता है आकाश में। तुम्हारा हृदय नाच रहा है। चांद पर तुम्हारे हृदय का नाच प्रतिबिंबित होने लगता है। तुम्हारा प्यारा जा रहा है, चांद अब भी वैसा का वैसा है, लेकिन तुम्हारा हृदय रो रहा है, देखो चांद की तरफ और आंसू टपकते मालूम पड़ते हैं चांद से। हमें जो बाहर दिखाई पड़ता है, वह भीतर का प्रतिफलन है। जो हमारे भीतर होता है, वही हमें बाहर के पर्दे पर दिखाई देता है। तो जो तुम्हें बाहर दिखाई पड़े, उससे अपने भीतर का इशारा लेना। जो तुम्हें बाहर दिखाई पड़े, उससे समझ लेना कि तुम्हारे भीतर क्या है? दर्पण के सामने खड़े हो न, जो चेहरा दर्पण में दिखाई पड़ता है वह दर्पण में नहीं है, वह तुम्हारा चेहरा है। ऐसे ही हम प्रतिक्षण प्रकृति के दर्पण के सामने खड़े हैं। वहां जो भी दिखाई पड़ता है, वह अपना ही चेहरा है। उससे अपने ही चेहरे की पहचान लेनी है।
काली घटा काल होइ आई,...
यह मस्त काली घटा, यह जो नाचती हुई घटा चली जा रही है, यह ऐसे लगती है जैसे मौत आ रही है।
...कामनि दगधै माइ।
और भीतर-भीतर मिलन की आतुरता। एक हो जाने की आतुरता काम है।
काम का अर्थ समझो।
काम का अर्थ है: दो में पीड़ा है, एक में रस है। एक हो जाने में आनंद है। साधारण स्त्री-पुरुष भी जब प्रेम में गहन भर जाते हैं, तो एक हो जाना चाहते हैं, जुड़ जाना चाहते हैं। और वही तो प्रेम का दुर्भाग्य है कि एक नहीं हो पाते। इसलिए सभी प्रेम असफल होते हैं। क्योंकि प्रेम की आकांक्षा यही है कि एक हो जाएं और एक होना संभव नहीं है। दो देहें कैसे एक हो सकती हैं? क्षण भर को शायद हो भी जाएं, मगर फिर क्षण भर के बाद गहन अंधेरे गर्त, गहराई में गिर जाना पड़ता है। फिर अंधेरी खाई में भटक जाना पड़ता है। और भी पीड़ा होने लगती है। वह जो क्षण भर का मिलन हुआ था, उससे विरह और घना हो जाता है। उसके संदर्भ में विरह और भी प्रगाढ़ हो जाता है। संसार में प्रेम की आकांक्षा है कि एक हो जाएं और यह आकांक्षा पूरी नहीं होती, यह आकांक्षा तो सिर्फ परमात्मा के साथ पूरी हो सकती है। वह जो तुम्हारे भीतर काम का प्रबल वेग है, वह राम के साथ ही पूरा हो सकता है और कोई उपाय नहीं। क्योंकि उसके साथ देह का मिलन नहीं है, आत्मा का मिलन है। वहां सीमाएं सदा के लिए खो सकती हैं। वहां हम डुबकी मार सकते हैं। कभी लौटने की फिर जरूरत नहीं है।
काली घटा काल होइ आई, कामनि दगधै माइ।।
कनक-अवास-वास सब फीके,...
सोने का महल फीका पड़ गया। सुंदर वस्त्र फीके पड़ गए।
कनक-अवास-वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।
और जब प्यारे का प्रसंग न हो साथ, प्यारे का संदर्भ न हो साथ, सब फीका पड़ जाता है। जीवन के बड़े से बड़े सुख प्रेम के प्रसंग में घटते हैं। तुम अपने जीवन में भी थोड़ा अवलोकन करना। तुम्हारे जीवन के जो बड़े से बड़े सुख के क्षण आए हैं, वे अकेले में नहीं आए हैं, वे प्रेम के प्रसंग में आए हैं। जो तुम्हारे जीवन में कभी क्षण भर को झरोखा खुला है और अनंत की झलक मिली है, वह अकेले में नहीं मिली है, वह प्रेम के प्रसंग में मिली है। जहां भी प्रेम फलित हुआ है, जहां भी प्रेम पका है, वहीं जीवन को देखने का एक नया प्रसंग, एक नया संदर्भ मिल जाता है।
शब्दों में अर्थ नहीं होते--इसे ऐसा समझो--और न घटनाओं में अर्थ होते हैं। किसी शब्द में कोई अर्थ नहीं होता। अर्थ तो वाक्य में होता है। जब उस शब्द को तुम वाक्य के भीतर रखते हो, उसमें अर्थ आ जाता है। दूसरे वाक्य में उसी शब्द का दूसरा अर्थ हो जाएगा। तीसरे वाक्य में तीसरा अर्थ हो जाएगा। फिर वाक्य का भी अपने में अर्थ नहीं होता है, पूरे पृष्ठ के संदर्भ में अर्थ होता है। और पृष्ठ का पूरी पुस्तक के संदर्भ में अर्थ होता है। अगर तुम इस बात को ठीक से समझोगे तो इकहरी-इकहरी घटनाओं में कोई अर्थ नहीं होता, घटनाओं के प्रसंग और संदर्भ में अर्थ होता है। और जितना बड़ा संदर्भ हो, उतना ही अर्थ बड़ा होता जाता है।
बड़े से बड़ा अर्थ घटता है परमात्मा के प्रेम के प्रसंग में। क्योंकि वह बड़ा से बड़ा संदर्भ है। उससे बड़ा फिर कोई संदर्भ नहीं। वह महाकाव्य है। उसके साथ जुड़ कर क्षुद्र से शब्द स्वर्ण के हो जाते हैं। उसके साथ जुड़ कर कंकड़-पत्थर हीरे-मोती हो जाते हैं।
कनक-अवास-वास सब फीके,...
सब है, लेकिन सब फीका है। यही तो आज की दुनिया का सबसे बड़ा विचारणीय प्रश्न है। मनुष्य इतना समृद्ध कभी भी नहीं था जितना आज है, विज्ञान ने मनुष्य को बड़ी समृद्धि दी है, बड़ी सुविधा दी है। सब है, चांद पर जाने की क्षमता है, मगर परमात्मा से संदर्भ छूट गया है। इसीलिए सब होते भी आदमी बिलकुल फीका है। बिलकुल कोरा है, खाली है, रिक्त है। बाहर धन का ढेर लग गया है, स्वर्ण के महल निर्मित हो गए हैं--और भीतर? भीतर बड़ी कंगाली है। भीतर आदमी बिलकुल भिखारी है। यह आज के मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है कि क्या हो गया, क्यों ऐसा हुआ? भीतर आदमी को अर्थहीनता क्यों मालूम होती है?
दुनिया के बड़े से बड़े विचारक जिस प्रश्न पर सर्वाधिक चिंतातुर हैं, वह प्रश्न है--अर्थवत्ता का। आदमी की अर्थवत्ता क्यों खो गई है? लोग क्यों पूछ रहे हैं कि जीवन का अर्थ क्या है? जीवन में कोई अर्थ है भी नहीं, हो भी नहीं सकता। अर्थ तो किसी संदर्भ में होता है। परमात्मा के संदर्भ में अर्थ था, वह संदर्भ खो गया है। ऐसा ही समझो कि तुम्हें किसी किताब का एक पन्ना हवा में उड़ता हुआ मिल जाए, तुम उसे पढ़ जाओ, कुछ अर्थ समझ में न आएगा। अर्थ तो पूरी किताब में था। या तुम्हें कविता की एक पंक्ति मिल जाए और अर्थ समझ में न आए। अर्थ तो पूरी कविता में था। या तुम्हें एक शब्द मिल जाए और अर्थ समझ में न आए। ऐसी ही हालत आदमी की हो गई है, आदमी संदर्भ से टूट गया है। उसकी जड़ें आज परमात्मा के साथ जुड़ी हुई नहीं मालूम होतीं। अकेला खड़ा है, पृष्ठभूमि खो गई है, समझ में नहीं आता मैं कौन हूं।
कनक-अवास-वास सब फीके, बिन पिय के परसंग।
मैं तलूए-सुबहे-नौसे अभी मुतमईन नहीं हूं
तेरा हुस्न भी तो होता किसी खुशनुमा किरन में
सरेबाम पुकारा, लबे-दार भी सदा दी
मैं कहां-कहां न पहुंचा तेरी दीद की लगन में
मैं लिए-लिए फिरा हूं गमे-जिंदगी की लाश
कभी अपनी खिलवतों में, कभी तेरी अंजुमन में
तेरे गम में बह गया है मेरा एक-एक आंसू
नहीं अब कोई सितारा जो चमक सके गगन में
एक बार उसकी जरा सी झलक मिल जाए कि सारे सितारे फीके हो जाते हैं। फिर कोई सितारा नहीं चमक सकता। फिर कोई धन धन नहीं। ध्यान की भनक पड़ जाए कि फिर कोई धन धन नहीं। प्रार्थना की जरा सी सुगबुगाहट भीतर हो जाए, फिर कोई प्रेम प्रेम नहीं। परमात्मा है, ऐसा आभास होने लगे कि फिर इस जीवन में जो भी अर्थ थे वे सब बदल गए। फिर एक नये अर्थ की यात्रा शुरू हुई। तीर्थयात्रा शुरू हुई। अब तुम ठीक-ठीक संदर्भ में आने शुरू हुए। अब तुम्हें अपनी जड़ें मिलीं।
महाबिपत बेहाल लाल बिन, लागै बिरह-भुअंग।
बड़ी विपत्ति है, बड़ी बेहाली है, उसके बिना--प्यारे के बिना।
महाबिपत बेहाल लाल बिन, लागै बिरह-भुअंग।
और विरह ने ऐसे पकड़ा है, जैसे भुजंग ने पकड़ लिया हो। जैसे किसी भयंकर सर्प की लपेट में पड़ गए हों। कोई भयंकर सर्प कुंडली मार कर चारों तरफ बैठ गया हो, ऐसा उसके विरह ने पकड़ा है। आज ऐसा विरह किसी को पकड़ता नहीं। दुर्भाग्य है। क्योंकि जितना बड़ा विरह तुम्हें पकड़े, उतने ही बड़े मिलन की आशा है। विरह ही हमारे छोटे-छोटे हैं तो मिलन भी हमारे छोटे-छोटे हैं। विरह और मिलन में अनुपात होता है। जब कोई परमात्मा के विरह से तड़फता है, तो उसके तड़फने में भी एक सौंदर्य है। और एक आदमी धन के लिए तड़प रहा है, उसके तड़फने में एक कुरूपता है। एक आदमी पद के लिए तड़प रहा है, उसकी तड़प अमानवीय है, जंगली है। उसकी तड़प में संस्कृति नहीं है। उसकी तड़प में मनुष्य के ऊंचे मूल्यों का कोई स्थान नहीं है।
तड़पो तो किसी बड़ी बात के लिए तड़पो। जब तड़प ही रहे हो तो क्षुद्र के लिए क्या तड़फना! जब खोजने ही चले हो, तो परमधन को खोजो। और जब यात्रा ही शुरू की है तो परमपद की करना।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
रज्जब कहते हैं: सेज सूनी है। सजी है और सूनी है। सावन द्वार पर खड़ा है और सब सूना है।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं,...
और यह मेरी व्यथा ऐसी है कि किससे कहूं? इसे तो जानने वाले ही समझेंगे। धन्यभागी हैं वे जिनके जीवन में ऐसी व्यथा है कि जिसको कहने के लिए भी पात्र खोजना पड़े! धन्यभागी हैं वे जिनकी व्यथा को साधारणतः कहा न जा सके! उसका अर्थ हुआ कि परम की व्यथा उनके भीतर पैदा हुई है।
परेशां रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ
सकूने-मर्ग तारी है सितारो तुम तो सो जाओ
हंसो और हंसते-हंसते डूबते जाओ खलाओं में
हमें यह रात भारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
हमें तो आज की शब पौ फटे तक जागना होगा
यही किस्मत हमारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
तुम्हें क्या? आज भी कोई अगर मिलने नहीं आया
यह बाजी हमने हारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
कहे जाते हो रो-रो कर हमारा हाल दुनिया से
यह कैसी राजदारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
हमें भी नींद आ जाएगी, हम भी सो ही जाएंगे
अभी कुछ बेकरारी है, सितारो तुम तो सो जाओ
शायद सितारे समझें, आदमी तो नहीं समझेगा। आदमी तो ऐसा नासमझ हो गया है, ऐसा पत्थर हो गया है, पाषाण हो गया है! किससे कहें?
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
कोई धीरज नहीं है। एक भयंकर अशांति का जन्म हुआ है।
जीसस का एक वचन तुम्हें याद दिलाता हूं--
किसी ने जीसस से पूछा है कि क्या आप वही हैं जिसके संबंध में शास्त्र कहते हैं कि उसके आगमन पर दुनिया में शांति हो जाएगी? जीसस ने उस आदमी को गौर से देखा और कहा, मैं शांति लेकर नहीं, तलवार लेकर आया हूं। मैं तुम्हें अशांत करने आया हूं। ईसाई विचारक दो हजार साल से इस वचन पर चिंतन करते रहे। यह वचन जीसस ने न कहा होता तो अच्छा था। क्योंकि जीसस तो शांति के दूत हैं और यह वचन कि मैं शांति लेकर नहीं तलवार लेकर आया हूं, मैं तुम्हें अशांत करने आया हूं! लेकिन यह वचन सार्थक है। और जीसस ने कहा तो ठीक ही किया। मैं इसके साथ पूरी तरह सहमत हूं। इस दुनिया में जो भी भगवान का प्यारा है, वह तुम्हें अशांत ही करेगा। तुम वैसे शांत हो--शांत मतलब चल रहे हो; सब ठीक-ठाक है। दुकान कर रहे, बाजार कर रहे, बच्चे पैदा कर रहे, सो रहे, उठ रहे, कमा रहे, जीत रहे, हार रहे, जिंदगी बीत रही है, सब ठीक-ठाक है--अगर तुम किसी परमात्मा के प्यारे के निकट पड़ गए तो यह सब ठीक-ठाक एक क्षण में बिखर जाएगा। क्योंकि पहली दफे तुम्हें दिखाई पड़ेगा तुमने जिंदगी यूं ही गंवाई, कूड़ा-करकट बीनने में गंवाई। गहरी अशांति पैदा होगी। बड़ी बेचैनी पैदा होगी। बड़ा अधैर्य पैदा होगा। एक आध्यात्मिक असंतोष पैदा होगा।
एक असंतोष है सांसारिक वस्तुओं के लिए। वह असंतोष अधार्मिक आदमी का लक्षण है। एक असंतोष है परमात्मा को पाने के लिए। वह असंतोष धार्मिक आदमी का लक्षण है। जो बाहर की चीजों से असंतुष्ट हैं, वे बाहर दौड़ते रहते हैं। जो भीतर की आकांक्षा से भर जाते हैं, भीतर के अनुभव के लिए लालायित हो जाते हैं, जिन्हें भीतर का असंतोष पकड़ लेता है, डिवाइन डिसकंटेंटमेंट, जिन्हें एक दिव्य असंतुष्टि पकड़ लेती है, वे भीतर की खोज पर निकल जाते हैं।
बाहर से संतुष्ट हो जाओ और भीतर असंतुष्ट हो जाओ! अभी हालत तुम्हारी उलटी है--भीतर से बिलकुल संतुष्ट हो, बाहर बड़े असंतुष्ट हो। कहते हैं--यह मकान छोटा है, यह दुकान छोटी है, थोड़ी बड़ी कर लें; यह धन का ढेर छोटा है, थोड़ा बड़ा कर लें; यह पद भी कोई पद है, थोड़ा बड़ा पद खोज लें; अभी थोड़ी शक्ति है, लगा लें; अभी थोड़ा मौका है, अवसर है। बाहर से तुम असंतुष्ट हो और भीतर तुम देखते भी नहीं कि भीतर कुछ भी नहीं है, तुम बिलकुल खाली हो, वहां अंधेरा है। वहां दीया भी नहीं जला कभी और बाहर दीवाली मना रहे हो! और भीतर दिवाला है।
थोड़ा भीतर भी देखो। ये बाहर के दीये बहुत दूर तक काम न आएंगे, जलेंगे और बुझ जाएंगे। इनसे कोई रोशनी न कभी किसी को मिली है, न मिल सकती है। मौत आएगी और उसका एक झोंका इन सबको मिटा जाएगा। कुछ ऐसा दीया जला लो जिसे मौत न बुझा सके।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
भक्त बड़ा बेचैन हो जाता है। इस बेचैनी के बाद ही चैन है। जितनी बड़ी बेचैनी उतना ही बड़ा चैन है। यह बेचैनी कीमत है जो चुकानी पड़ती है उस चैन के लिए। भक्त बड़ा दुखी हो जाता है। तुम क्या खाक दुखी हो! तुम्हारा दुख भी छोटा है, क्षुद्र है। भक्त बड़ा दुखी हो जाता है। भक्त की छाती में तो घाव ही घाव रह जाते हैं। उसकी आंखों में तो आंसू ही आंसू रह जाते हैं। रुदन के सिवा उसे कुछ नहीं सूझता। उसे चारों तरफ अंधेरा दिखाई पड़ता है और भीतर रिक्तता दिखाई पड़ती है। और एक बात कोई भीतर गहरे में कहे चला जाता है कि चाहो तो सब बदल सकता है, सावन द्वार पर खड़ा है, प्यारे से मिलना भी हो सकता है!
तुम उस पीड़ा को थोड़ा सोचो, विचारो! जब सब हो सकता है और कुछ भी होता नहीं मालूम होता। घड़ियां बीतती जाती हैं प्रतीक्षा की और उसकी पगध्वनि सुनाई नहीं पड़ती। भक्त न मालूम कितनी भावदशाओं से ऐसी अवस्था में गुजरता है।
जी में हसरत है सुनाएं उन्हें अफसानए-गम
कभी मौका मिले सब-कुछ कहें उनकी ही कसम
लेकिन आते नहीं सुनते नहीं रूदादे-अलम
कितने मजबूर हैं बतलाएं यह है कैसा सितम
इस पै तुर्रा है कि उल्फत का भी इकरार करो
हम को पूजो, हमें चाहो, हमें तुम प्यार करो
ऐसे बेरहम हैं इंसाफ का भी पास नहीं
महर की जर्रा बराबर भी तो बू-बास नहीं
ऐसी बेमेहरी पै भी दिल कि मेरे पास नहीं
अब भी आ जाएं कि जीने की कोई आस नहीं
और खुद आके कहें इश्क का इजहार करो
हमको पूजो, हमें चाहो, हमें तुम प्यार करो
आवाज सुनाई पड़ती है--हमको पूजो, हमें चाहो, हमें तुम प्यार करो; मगर कहां से आवाज आती है, स्रोत का पता नहीं चलता। कोई पुकार आती है बहुत दूर से, या बहुत गहरे से, या बहुत भीतर से, मगर पता नहीं चलता। कौन पुकार दे रहा है, दिखाई नहीं पड़ता। और पुकार सघन होती चली जाती है। और पुकार की सघनता के साथ-साथ भक्त की पीड़ा सघन होती चली जाती है। एक आग जलने लगती है, एक विरह की अग्नि में भक्त जलता है। यही असली यज्ञ है।
बंद करो तुम्हारे यज्ञ जो तुम बाहर कर रहे हो। व्यर्थ न जलाओ उनमें गेहूं और घी, व्यर्थ न बहाओ इन चीजों को। जलाना हो, अपने अहंकार को अपने भीतर परमात्मा की विरह की आग में जलाओ। मिटाना है, अपने को वहां मिटाओ। वहीं बने वेदी हवन की। सच्चा यज्ञ वहीं है, जीवन-यज्ञ वहीं है। और जिस दिन तुम बिलकुल राख हो जाओगे, बिलकुल राख, उसी क्षण मिलन हो जाता है। तुम मिटे कि मिलन हुआ। तुम्हारे मिटने में ही मिलन है।
शबे-इंतजार की कश-म-कश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया
विरह की रात लंबी होती है। कैसे सुबह होती है, बड़ा मुश्किल है कहना।
शबे इंतजार की कश-म-कश में न पूछ कैसे सहर हुई
जिनकी हो गई सुबह, वे भी नहीं बता पाते कि कैसे हो गई है। बड़ी लंबी थी यात्रा, बड़ी लंबी थी रात।
कभी एक चिराग जला दिया, कभी एक चिराग बुझा दिया
किसी तरह कुछ करते रहे। प्रार्थना की, पूजा की, मंत्र किए, जाप किए, वह सब बस ऐसा ही था--कभी एक चिराग जला दिया, कभी एक चिराग बुझा दिया। मगर उस सबके पीछे एक विरह था, वही असली बात है। उस सबके पीछे एक तलाश थी, टटोलना था, वही असली बात है। खोज थी। क्या तुमने खोजने के लिया किया, उसका मूल्य नहीं है बहुत, बस खोज थी भीतर, इसी का मूल्य है। परमात्मा तुम क्या करते हो यह नहीं देखता, तुम क्या चाहते हो, यही देखता है। तुम्हारी अभीप्साएं जांची जाती हैं, तुम्हारी आकांक्षाएं पहचानी जाती हैं। तुम्हारे अंतर्भाव पढ़े जाते हैं।
सूनी सेज बिथा कहूं कासूं, अबला धरै न धीर।
दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।।
और सबके प्रेमी उन्हें मिले जा रहे हैं, भक्त का प्रेमी उसे कब मिलेगा? सावन आ गया। दूल्हनें सज गईं, दूल्हे सज गए, जिनकी प्रतीक्षा थी वे प्यारे आने लगे, प्रेयसियों को मिलने लगे, सावन आ गया।
दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।
पशु-पक्षी भी अपने प्रियतमों को मिलने लगे, सब तरफ मिलन की घड़ी आ गई--सावन यानी मिलन की घड़ी--प्यार सबका पकने लगा, और भक्त के भगवान का कोई पता नहीं। वहां बस अभी भी अंधेरी रात है। वहां अभी भी बस रेगिस्तान है। वहां अभी बस विरह का ही स्वाद है।
सिसकियां लेती हुई गमगीन हवाओ चुप रहो
अपनी हालत पर न फूलों को हंसाओ, चुप रहो
सुबह से पहले न बोलो हमनवाओ चुप रहो
सो रहे हैं दर्द उनको मत जगाओ चुप रहो
बंद हैं सब मैकदे साकी बने हैं महतसिब
ऐ गरजती गूंजती काली घटाओ चुप रहो
धड़कनें काफी हैं, इजहारे-तमन्ना के लिए
अपने ओंठों से कभी आगे न आ जाओ चुप रहो
तुमको है मालूम आखिर कौन सा मौसम है यह
फसले-गुल आने तलक ऐ खुशनवाओ चुप रहो
सोच की दीवार से लग कर हैं गम बैठे हुए
दिल में भी नग्मा न कोई गुनगुनाओ चुप रहो
बुझ गए हालात के शोले तो देखा जाएगा
वक्त से पहले अंधेरे में न जाओ, चुप रहो
देख लेना घर से निकलेगा न हमसाया कोई
ऐ मेरे यारो मेरे दर्द-आश्नाओ चुप रहो
क्यों शरीके-गम बनाते हो किसी को ऐ ‘कतील!’
अपनी सूली अपने कांधे पर उठाए चुप रहो
‘अपनी सूली अपने कांधे पर उठाए चुप रहो।’ यह भक्त की जीवन-व्यथा है। ‘क्यों शरीके-गम बनाते हो किसी को ऐ ‘कतील!’ दुख कहो भी तो किससे कहो? कहने का सार भी क्या है! समझेगा कौन? लोग हंसेंगे ज्यादा से ज्यादा। समझेंगे पागल हो तुम।
क्यों शरीके-गम बनाते हो किसी को ऐ ‘कतील!’
अपनी सूली अपने कांधे पर उठाए चुप रहो
भक्त को चुपचाप सहना पड़ता है, चुपचाप रोना पड़ता है। मैं उन भक्तों की बात नहीं कर रहा हूं जो अखंड पाठ करवा देते हैं। उन्हें तो भक्ति का कुछ पता ही नहीं है। चौबीस घंटे शोरगुल मचवा देते हैं। मोहल्ले-पड़ोस के लोगों की नींद खराब करवा देते हैं। भक्ति का तो बड़ा चुपचाप निवेदन है। रात के अंधेरे में, एकांत में। किससे कहना है अपना गम, कौन समझेगा यहां? लोग आंसू देखेंगे, हंसेगे। चुपचाप रो लेना, चुपचाप पुकार लेना। यह बात भीतर की भीतर रहे। यह किसी को पता भी चलाने की बात नहीं, क्योंकि आदमी बड़ा चालबाज है। कभी-कभी तो लोगों को पता चले, इसीलिए आयोजन करने लगता है। ये सब आयोजन झूठे हो जाते हैं। बस परमात्मा को पता चले इतना काफी है। तुम दूसरों को पता चलवाने की कोशिश मत करना।
तुमने देखा है, अगर कोई मंदिर में पूजा कर रहा हो, दो-चार-दस आदमी इकट्ठे हो जाएं, उसकी पूजा बड़े जोर-शोर से होने लगती है। उसके हाथ की आरती और जोर-शोर से उतरने लगती है। अगर फोटोग्राफर भी आ जाए, अखबारनवीस भी आ जाएं, फिर तो कहना क्या! वह ऐसा मस्त हो जाता है कि कबीरदास जी क्या हुए होंगे! कि बाबा नानक सिर ठोक लेते कि हम भी पीछे पड़ गए! कि मीरा भी सोचती कि अब यहां नाचना ठीक है कि नहीं! लेकिन जब देखता है कोई भी नहीं है देखने वाला, तो जल्दी से घंटी-वंटी बजा कर, पानी इत्यादि छिड़क कर भाग खड़ा होता है। भगवान से तो कुछ लेना-देना नहीं है। तुम्हारे पूजा-पाठ भी तुम्हारे अहंकार की घोषणाएं बन जाते हैं।
क्यों शरीके-गम बनाते हो किसी को ऐ ‘कतील!’
अपनी सूली अपने कांधे पर उठाए चुप रहो
सकल सिंगार भार ज्यूं लागैं, मन भावै कछु नाहीं।
रज्जब कहते हैं: सारा श्रृंगार किए बैठा हूं। क्या श्रृंगार है भक्त का? अपने पात्र को मांजा है, शुद्ध किया है, अपने भीतर के विषाक्त भावों से मुक्ति पाई है--क्रोध छोड़ा है, लोभ छोड़ा है, मोह छोड़ा है, आसक्तियां छोड़ी हैं, ईर्ष्याएं-वैमनस्य छोड़े हैं, द्वैत छोड़ा है, द्वंद्व छोड़ा है, तर्क छोड़ा है, संदेह छोड़े हैं--सब तरफ से अपने को सजाया है। क्या है श्रृंगार भक्त का? श्रद्धा है श्रृंगार।
सकल सिंगार भार ज्यूं लागैं,...
लेकिन जब तक प्यारा न मिल जाए तब तक सब श्रृंगार भार हैं। प्यारा मिल जाए तब तो बात ही बदल जाती है। तब तो रंग ही बदल जाता है, तब तो ढंग ही बदल जाता है।
चांदनी रात फिक्रे-शेरो-सुखन
मैंने चांदी के बुत तराशे हैं
उनमें तुम रूह फूंक दो, वर्ना
मेरे अफ्कार सर्द लाशें हैं
फिर तुम गीत गाते रहो, उनमें प्राण नहीं। ‘मेरे अफ्कार सर्द लाशें हैं।’ मेरी अभिव्यक्तियों में कोई प्राण नहीं। ‘उनमें तुम रूह फूंक दो।’ तुम डालो प्राण तो पड़ें प्राण। ऐसे भी गीत हैं जब गायक नहीं गाता, सिर्फ गायक माध्यम होता है और परमात्मा गाता है। तब मजा और। तब आकाश पृथ्वी पर उतरता है। और ऐसे भी गीत हैं जो गायक ही गाता है; परमात्मा का उनमें कुछ पता नहीं होता। तब वे कितने ही शब्दों की दृष्टि से सुंदर हों, मगर निष्प्राण होते हैं।
कवि और ऋषि का यही भेद है।
कवि खुद ही गाता है, ऋषि परमात्मा को गाने देता है। दोनों गाते हैं, दोनों गायक हैं, ऊपर से देखने पर कोई भेद नहीं है, दोनों के ओंठ शब्दों को बनाते हैं, दोनों के कंठों से वाणी निकलती है, मगर एक की सिर्फ कंठ से ही आ रही है, और दूसरे की बैकुंठ से आ रही है--उसकी अपनी नहीं है, बांस की बांसुरी जैसा है, खाली है।
कबीर ने कहा: मैं बांस की पोंगरी, सब गीत तुम्हारे। कुछ भूल-चूक हो जाती हो, मेरी--बांस की पोंगरी हूं, स्वरों को बिगाड़ देती हूं, बेसुरा कर देती हूं, वह भूल-चूक मेरी। सब सुंदर तुम्हारा, सब असुंदर मेरा। चूक-चूक मेरी, ठीक-ठीक तुम्हारा। पुण्य हो तो तुमसे, पाप हो जाए--मुझसे। यह भक्त का भाव है।
चांदनी रात फिक्रे-शेरो-सुखन
मैंने चांदी के बुत तराशे हैं
उनमें तुम रूह फूंक दो, वर्ना
मेरे अफ्कार सर्द लाशें हैं
सकल सिंगार भार क्यूं लागैं, मन भावै कछु नाहीं।
मन को भाए भी क्या अब; जब मनभावन से मन लग गया तो मन को फिर कुछ नहीं भाता। जब मनमोहन से मन लग गया तो मन को फिर कुछ नहीं भाता। फिर सब फीका है। सब स्वाद बेस्वाद है। सब स्वर विसंगीत हैं। सब सौंदर्य सतही है, ऊपर-ऊपर है। उस प्यारे की मौजूदगी ही आए तो अस्तित्व श्वासें लेता है, धड़कता है।
रज्जब रंग कौन सूं कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।
आनंद कैसे करूं, रज्जब कहते हैं।
रज्जब रंग कौन सूं कीजै,...
कैसे रंग से भरूं, कैसे नाचूं, कैसे उत्सव मनाऊं, कैसे रास रचाऊं...
...जे पीव नाहीं माहीं।
अभी भीतर परमात्मा आकर मौजूद नहीं हुआ। वह आए तो फिर नाच ही नाच है, बिना आयोजन के। चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती है और नाच शुरू हो जाता है। और परमात्मा भीतर न हो, तो हम हजार आयोजन करें, हमारे आयोजन सब झूठे हैं, सब पाखंड हैं।
धर्म पाखंड हो गया है हमारे आयोजनों के कारण। जब तुम चेष्टा करके कुछ करते हो, तब पाखंड होता है। जब उसकी मौजूदगी के अनुभव से सहज तुम्हारे भीतर कुछ होता है, स्वस्फूर्त, तब धर्म सच्चा होता है। सिखाए धर्म व्यर्थ हैं। पढ़ लिया गीता में या कुरान में और किया, तो बस आयोजित है। परमात्मा को पुकारो भीतर। उसकी प्रतिमा वहां निर्मित होने दो।
और ध्यान रखना, प्यास हो तो जरूर बात हो जाती है। बस पूरी प्यास चाहिए; इसके अतिरिक्त आदमी के बस में कुछ भी नहीं है।
अलग बैठे थे, फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो परवाने भी आएंगे
तिश्नगी कामिल, बस पूर्ण प्यास चाहिए, साकी कब तक बचाएगा, कब तक बच-बच कर निकलेगा?
अलग बैठे थे, फिर भी आंख साकी की पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो परवाने भी आएंगे
जरूर आएंगे। जब दीया जलता है, तो परवाना आता है। और जब प्यास जलती है, तो प्यारा आता है। आना ही पड़ता है। तुमने शर्त पूरी कर दी--उतनी ही शर्त है, बस प्यास की शर्त है। तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी प्यास की अभिव्यक्ति होनी चाहिए और कुछ भी नहीं। मांगना मत कुछ और। कुछ और चाहना मत। चाहना तो उसको चाहना, मांगना तो उसको मांगना, और कुछ मत मांगना।
रज्जब रंग कौन सूं कीजै, जे पीव नाहीं माहीं।
रज्जब कहते हैं: सावन तो आ गया, नाचना तो मुझे भी है, नाचना तो मुझे भी चाहिए, सावन का सम्मान तो मुझे भी करना है। पक्षी गीत गा उठे, बादल घिर गए, मोर नाच उठे।
दादुर मोर पपीहा बोलैं, ते मारत तन तीर।
तीर मुझे भी चुभ रहा है सावन का, यह सौंदर्य मुझे भी जगा रहा है। यह चारों तरफ हो रहा उत्सव और मैं कैसे अलग-थलग बैठा रहूं! मगर करूं क्या? मेरा प्राण प्यारा अभी आया नहीं, उसकी पगध्वनि भी मुझे सुनाई नहीं पड़ रही।
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
और यह हो क्यों गया? ऐसा हो कैसे गया कि प्यारा नहीं मिल रहा है?
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
हमने ही उसकी याद धीरे-धीरे गंवा दी है। भजन का अर्थ है: उसकी याद, उसकी स्मृति, सुरति। हमने ही धीरे-धीरे उसकी याद भुला दी। उसने हमें भुला दिया, ऐसा कोई भक्त नहीं कहेगा। ऐसा लांछन भक्त भगवान पर लगा नहीं सकता। हमने ही भुला दिया है। हम ही पीठ करके खड़े हो गए हैं। हमने ही कुछ ऐसा इंतजाम कर लिया है कि हम उससे दूर-दूर हो गए हैं। परमात्मा हम से दूर नहीं है, हम उससे दूर हैं।
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
भजन को भूल गए हैं--भजन यानी परमात्मा के स्मरण को। और जो परमात्मा के स्मरण को भूल जाता है, वह संसार के स्मरण से भर जाता है। स्मरण तो करना ही पड़ेगा। स्मृति में कोई चीज तो भरेगी ही। अगर अमृत न भरोगे तो जहर भरेगा। अगर शुभ न भरोगे तो अशुभ भरेगा। अगर प्रेम न भरोगे तो घृणा भरेगी। पात्र खाली तो रहेगा नहीं। वह तो पात्र का गुण नहीं है खाली रहना, पात्र तो भरेगा ही। अगर सुगंध न भरेगी तो दुर्गंध भरेगी।
ऊर्जा का नियम है कि वह कुछ करेगी; ऊर्जा कृत्य बनेगी। अगर तुमने सृजन न किया तो तुम विनाश करने में लग जाओगे। अगर तुमने निर्माण न किया तो तुम मिटाने में लग जाओगे। इसके पहले कि तुम्हारी ऊर्जा विध्वंस बने, सृजन बनाओ। और इसके पहले कि तुम्हारी ऊर्जा संसार की स्मृति में उलझ जाए, खो जाए... जरा देखते हो कभी, अपने को भी सोचते हो कभी? दिन भर भी संसार सोचते, रात बिस्तर पर पड़े भी संसार सोचते, नींद भी नहीं आती संसार की याद में ही, मन उलझा रहता है--सुबह से सांझ, सांझ से सुबह, दिन और रात, वर्ष आते और जाते और तुम संसार की ही चिंता में डूबे रहते हो। और पाओगे क्या इस चिंता से? थोड़ी तो बुद्धिमानी बरतो।
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
चाहैं पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।
और फिर तुम चाहे पश्चिम जाओ, चाहे पूरब जाओ; फिर चाहे हिंदु होओ, चाहे मुसलमान; चाहे इस दिशा में पूजो, चाहे उस दिशा में; चाहे तुम्हारी काशी इधर हो और तुम्हारा काबा वहां हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। जाओ तुम्हें जहां जाना है, अगर भजन नहीं किया है--भजन यानी अगर परमात्मा का स्मरण नहीं जगाया है, और संसार के स्मरण से भरे हो--तो तुम काशी भी जाकर कुछ भेद नहीं कर पाओगे। काशी में भी तुम संसार का ही स्मरण करोगे। और काबा में जाकर भी तुम संसार का ही स्मरण करोगे। तुम्हारी मांगें संसार की ही होंगी।
तुम जरा सोचो, अगर मैं तुम्हें ऐसी एक पहेली दूं कि कल सुबह तुम जब उठोगे, परमात्मा तुम्हारे सामने खड़ा होगा। और तुमसे पूछेगा--तीन वरदान मांग लो। तुम जरा सोचना कौन से तीन वरदान तुम मांगोगे? किसी को बताने की जरूरत नहीं है, इसलिए धोखा देने की भी कोई जरूरत नहीं है, खुद ही सोचना कौन से तीन वरदान मांगोगे? तुम बड़े हैरान होओगे अपने वरदानों की मांग को देख कर। तुम जरूर कुछ क्षुद्र मांगोगे। परमात्मा भी सामने खड़ा होगा, तो तुम उससे चूक जाओगे। तुम्हें शायद ही याद आए कि तुम कहो कि अब और वरदान की क्या जरूरत! आप मिल गए तो बस! तुम्हें शायद ही यह याद आए कि तुम कहो कि नहीं, अब कोई वरदान नहीं चाहिए। बस ये चरण अब सदा मेरे हाथ में रहें, इन चरणों से लगा रहूं, इन चरणों की लौ लगी रहे, बस पर्याप्त। मांग सकोगे ऐसा? अगर बहुत सोचोगे-समझोगे तो कहोगे कि नंबर तीन पर इसको मांग लेंगे, पहले नंबर दो तो निबटा लें।
तुम इस बात को ही न मांग सकोगे। तुम्हारा हृदय तो संसार की याद से भरा है। तुम कहोगे, यह मौका क्यों चूकें? तुम कहोगे कि राष्ट्रपति बना दो, कि प्रधानमंत्री बना दो; कि दुनिया का सबसे बड़ा धनपति बन जाऊं।
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
मैंने देखा है इन आंखों से मुरव्वत का मयाल
मुझको अब मेहरी-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले
मैं तेरी नेक दुआओं का खरीदार नहीं
भजन बिन भूलि पर्यो संसार।
चाहैं पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।
बस एक बात तुम्हारी पक्की हो गई कि तुम्हारे हृदय में परमात्मा का विचार नहीं उठता। और सब विचार उठते हैं, अनंत विचार उठते हैं, एक विचार चूक गया है--और वही सार्थक है। और जिसने उसे पा लिया, सब पा लिया। और जिसने उसे गंवा दिया, उसने सब गंवा दिया। और तुम जिसे समझ रहे हो संपत्ति, वह विपत्ति है।
दस्ते-पुरखूं को कफे-दस्ते-निगारां समझे
हत्यारे के हाथ को, खूनी के हाथ को चितेरे का हाथ समझे।
दस्ते-पुरखूं को कफे-दस्ते-निगारां समझे
कत्लगह थी जिसे हम महफिले-यारां समझे
और जहां मारा जाना था, जो कत्लगह थी, कत्लखाना था--कत्लगह थी जिसे हम महफिले-यारां समझे! ऐसा ही हुआ है संसार में। तुम कुछ का कुछ समझ रहे हो। यह कत्लगह है, यहां सभी मरने को तैयार खड़े हैं, यहां ‘क्यू’ लगा है मौत का, इसको तुम घर समझ रहे हो?
दस्ते-पुरखूं को कफे-दस्ते-निगारां समझे
कत्लगह थी जिसे हम महफिले-यारां समझे
कुछ भी दामन में नहीं खारे-मलामत के सिवा
ऐ जुनूं, हम भी किसे कूए-बहारां समझे
आखिर में पाओगे कि दामन में सिवाय कांटों के और कुछ भी नहीं।
कुछ भी दामन में नहीं खारे-मलामत के सिवा
कांटे ही कांटे इकट्ठे हो जाएंगे। हो ही रहे हैं। तुम वही इकट्ठे कर रहे हो। तुम कांटों को फूल समझ रहे हो।
कुछ भी दामन में नहीं खारे-मलामत के सिवा
ऐ जुनूं हम भी किसे कुए-बहारां समझे
और हमने जिसे बसंत की गली समझा--कूए-बहारां--हमने जहां समझा था आनंद घटित होगा, जहां हमने सोचा था अमृत की वर्षा होगी, वहां सिवाय कांटों के और कुछ भी नहीं मिला। इस दुनिया से लोग हार कर जाते हैं। जीत कर भी जा सकते हो। मगर जीत उसके साथ है--राम बिन सावन सह्यो न जाइ! जीत उसके साथ है, हार अकेले-अकेले। जो उसके साथ हो लेता है, जीत जाता है। उसे मिल गई कूए-बहारां, उसे मिल गए वसंत के क्षण। फिर उसके जीवन में बसंत के अतिरिक्त कभी और कुछ नहीं घटता। फिर सावन भी है, प्यारा भी है और मिलन शाश्वत है।
चाहैं पछिम जात पूरब दिस, हिरदै नहीं बिचार।।
बाछै ऊरध अरध सूं लागै, भूले मुगध गंवार।
हे मूढ़, हे गंवार, तू चाहता तो स्वर्ग है, लेकिन बना लेता नरक है। यही हमारा संसार है। सब सुख चाहते हैं, और सब दुख पाते हैं। सब प्रतिष्ठा चाहते हैं और सब अप्रतिष्ठा पाते हैं। सब सम्मान चाहते हैं और सब अपमान पाते हैं। स्तुति मांगते हो, गालियां मिलती हैं।
बाछै ऊरध अरध सूं लागै,...
मांगते तो ऊपर को हो, मिलता नीचे का है। आकांक्षा तो बड़ी ऊंची करते हो, मगर परिणाम बिलकुल नहीं देखते कि परिणाम क्या है?
बाछै ऊरध अरध सूं लागै,...
ऊर्ध्वयात्रा की तो आकांक्षा है, मगर अधोगामी हो जाते हो।
...भूले मुगध गंवार।
खाइ हलाहल जीयो चाहै,...
जहर तो पीते हो और सदा जीता रहूं, ऐसी मन में वासना है। यह कैसे होगा? यह असंभव हो नहीं सकता।
खाइ हलाहल जीयो चाहैं, मरत न लागै बार।
जीना चाहते हैं सदा और जो सदा है उसके साथ संबंध नहीं जोड़ते। संबंध जोड़ते उसके साथ जो क्षणभंगुर है। और जीना चाहते हैं सदा। देह के साथ संबंध जोड़ते हैं--जो आज है और कल नहीं हो जाएगी। आत्मा के साथ संबंध नहीं जोड़ते--जो कल भी थी, आज भी है, और कल भी होगी।
खाइ हलाहल जीयो चाहैं, मरत न लागै बार।
और देर कहां लगती है मरने में। और रोज तुम लोगों को मरते देखते हो, रोज अरथी उठाते हो, रोज लोगों को मरघट पहुंचा आते हो, मगर तुम्हें यह खयाल नहीं आता कि जल्दी ही तुम्हारी घड़ी भी पास आ रही है। और तुम्हारी जिंदगी में कोई फर्क नहीं आता।
मैं छोटा था, तो मुझे मरघट जाने का शौक था। मरघट से मुझे बहुत मिला। गांव में कोई भी मरे--इसका कोई मुझे सवाल ही नहीं था--मैं सभी की अरथी में जाता था। जब मैं स्कूल न पहुंचूं तो मेरे शिक्षक समझ लें कि कोई मर गया होगा गांव में। जब मैं घर खाने के वक्त न पहुंचूं तो घर के लोग समझ लें कि कोई मर गया होगा गांव में--जाओ, भेजो किसी को मरघट, पकड़ के लाए!
जब भी कोई मरता, मैं उसके साथ मरघट जाता। और मरघट पर जाकर दो हैरानी की बातें मुझे हमेशा दिखाई पड़तीं। उधर आदमी जल रहा है और लोग बैठे संसार की गपशप कर रहे हैं। इससे मैं हमेशा चमत्कृत हुआ। आदमी जल रहा है, कल तक इससे बातें करते थे, यह इनका दोस्त था, मित्र था, प्रियजन था, आज वह जल रहा है, उसकी अरथी में आग लगा दी है, अब बैठ कर वहीं आस-पास गपशप हो रही है--संसार की गपशप हो रही है कि फिल्म कौन सी लगी है? कैसी है? फलां आदमी का क्या हाल है? वही बाजार!
इनको याद भी नहीं आ रही कि यह मौत तुम्हारी भी मौत है। यह घड़ी तो ध्यान की थी। यह तो बैठ कर सोचने की थी। यह तो विचार की थी। यह आदमी मर गया, यह भी इन्हीं बातों को करते मर गया कि कौन सी फिल्म कहां लगी है, और हम भी इन्हीं बातों को करते मर जाएंगे। लेकिन मुझे धीरे-धीरे समझ में आना शुरू हुआ, वे अपने को बचाने के लिए बातों में उलझाए हुए हैं। यह आदमी मर गया, यह बात दिखाई नहीं पड़नी चाहिए। क्योंकि यह अस्त-व्यस्त कर देगी। यह उनकी जिंदगी के ढांचे को तोड़-मरोड़ देगी। उनको फिर परमात्मा की याद करने को मजबूर होना पड़ेगा। फिर संसार का स्मरण करने से काम न चलेगा। क्योंकि संसार का स्मरण करते-करते रोज लोग मर रहे हैं।
कब तुम्हें सुध आएगी कि हम उसका स्मरण करें कि फिर मरना न हो! और ऐसा सूत्र तुम्हारे भीतर है। और ऐसी तुम्हारी संभावना है। तुम अमरत्व के पुत्र हो! वेद कहते हैं: अमृतस्य पुत्रः। हे अमृत के पुत्रो, तुम क्यों मृत्यु में उलझ गए हो? जो संसार में उलझा, वह मृत्यु में उलझा। क्योंकि संसार मरणधर्मा है। जिसने प्रभु को स्मरण किया, वह अमृत हुआ। जैसा होना है, उससे ही साथ जोड़ लो। जैसा होना है, उससे ही दोस्ती कर लो। दोस्ती सोच-समझ कर करना।
खाइ हलाहल जीयो चाहैं, मरत न लागै बार।
बैठे सिला समुद्र तिरन कूं,...
और मजा देखते हो कि लोग चट्टान समुद्र में डाल कर उस पर बैठ कर पार होने के इरादे कर रहे हैं। चट्टान तो डूबेगी ही डूबेगी प्यारे, तुम भी डूबोगे! ऐसे तो बिना ही चट्टान के भी शायद चलते तो पहुंच जाते। धन की नाव बना रहे हैं लोग, पद की नाव बना रहे हैं लोग, ये चट्टानें हैं, ये तुम्हें डुबा देंगी। इनके साथ डूबना हो सकता है। इनके साथ पार होना नहीं हो सकता।
बैठे सिला समुद्र तिरन कूं,...
अहंकार की चट्टान लेकर चले हो, अकड़ लेकर चले हो?
बैठे सिला समुद्र तिरन कूं, सो सब बूड़नहार।
वे सब डूबने वाले हैं। उस पार ले जाने वाली तो एक ही नाव है--नानक नाम जहाज। उसका नाम ही बस एकमात्र नाव है। उसका स्मरण ही; भजन बिन भूलि पर्यो संसार!
नाम बिना नाहीं निसतारा,...
ये छोटे से शब्द, ये चार शब्द तुम्हारी समझ में आ जाएं तो तुम्हारी जिंदगी में जादू आ जाए।
नाम बिना नाहीं निसतारा,...
इतनी भर तुम्हारी पकड़ हो जाए तो सब मंदिरों व सब मस्जिदों के राज तुम्हारे हाथ में आ गए, सब शास्त्रों की संपदा तुम्हें मिल गई।
नाम बिना नाहीं निसतारा,...
उसके नाम के बिना न कोई कभी पार हुआ है न कभी कोई पार हो सकता है।
...कबहूं न पहुंचै पार।
और जो इस सत्य को देख ले कि उसका स्मरण पार ले जाने वाला है, उसकी जिंदगी में इसी क्षण नृत्य शुरू हो जाता है। यह बात ही इतनी आह्लादकारी है, उदासी मिट जाती है, आंखों में नई चमक आ जाती है।
देख जिंदां से परे रंगे-चमन जोशे-बहार
रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर न देख
जरा पार आंख उठ जाए, देख जिंदां से परे, कारागृह से जरा ऊपर देखो।
देख जिंदां से परे रंगे-चमन जोशे-बहार
जरा आकाश की तरफ देखो, जरा ऊपर उठो अपनी सीमाओं से--धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, नाम-धाम, इन सीमाओं के जरा ऊपर उठो।
देख जिंदां से परे रंगे-चमन जोशे-बहार
रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर न देख
और जिन्हें नाच करना है, वे फिर बैठे हुए पांव की जंजीर ही नहीं देखते रहते। और जिसने ऊपर की तरफ देखा और नाच शुरू हुआ, उसकी नाच में सारी जंजीरें अपने से टूट जाती हैं।
जंजीरों के लिए बैठे रहने की कोई जरूरत नहीं है। जंजीरों ने तुम्हें नहीं बांधा है, तुम नाच भूल गए हो इसलिए जंजीरें हैं। जंजीरें तुम्हारे नाच को नहीं रोक रही हैं, नाच के न होने के कारण जंजीरें निर्मित हो गई हैं।
नाम बिना नाहीं निसतारा, कबहूं न पहुंचै पार।।
सुख के काज धसे दीरघ दुख,...
देखते हो मूढ़ता?
...भूले मुगध गंवार।
क्या है मूढ़ता इस जगत की?
सुख के काज धसे दीरघ दुख,...
चाहते तो सुख हैं और घुसते जाते हैं दुख में। मांगते स्वर्ग हैं और खोदते जाते नरक। और तुम जानते हो कि यही हो रहा है। जितने दिन तुमने दुख उठाया है अब तक, खयाल करो, चाहा तो सदा सुख है और पाया सदा दुख, यह मामला क्या है? यह गणित कैसा है? तुम अब तक खोजते किसे रहे? सुख खोजते रहे। और पाते क्या रहे? दुख पाते रहे। जरूर कहीं भूल हो रही है। तुम्हारे भीतर कोई बुनियादी भ्रांति है।
सुख के काज धसे दीरघ दुख, बहे काल की धार।
और इसी में समय की धारा तुम्हें मृत्यु की तरफ बहाए ले जा रही है। यह बदलना होगा।
निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है
हजारो हैं सफे जिनमें, न मै आई, न जाम आया
कितने लोग हैं यहां जो जीवन का रस, जीवन का अमृत बिना पीए मर जाते हैं। जिनके हाथ में न कभी शराब लगी, न कभी प्याली पड़ी।
निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है
मधुशाला का नियम बदलने की जरूरत है। मधुशाला की व्यवस्था बदलने की जरूरत है। जीवन का ढंग बदलने की जरूरत है।
निजामे-मैकदा साकी! बदलने की जरूरत है
हजारों हैं सफे जिनमें, न मै आई, न जाम आया
कितने लोग हैं, जो जीवित तो हैं लेकिन जीवन को जाने बिना। जो परमात्मा में जी रहे हैं परमात्मा को पीए बिना। सागर में हैं और प्यासे हैं। इनका कोई परिचय ही नहीं हुआ अमृत से।
मैं तुम्हारी तरफ देखता हूं तो मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि तुम कैसे इंतजाम किए जा रहे हो, तुम कैसे दुख का आयोजन किए जा रहे हो? कब जागोगे? कब देखोगे? अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारे चले जा रहे हो।
...भूले मुगध गंवार।
सुख के काज धसे दीरघ दुख, बहे काल की धार।
जन रज्जब यूं जगत बिगूच्यो, इस माया की लार।।
इस तरह सारा जगत अड़चन में पड़ा है। और माया की बुनियादी भ्रांति क्या है? माया की भ्रांति यही है कि उसने नरक के दरवाजे पर स्वर्ग लिख दिया है। दुख के दरवाजे पर सुख लिख दिया है। विपत्ति के दरवाजे पर संपत्ति लिख दिया है। बस चले तुम! तुम यह देखते ही नहीं कि वहां हो क्या रहा है? चले धन की खोज में! जरा धनियों की तरफ तो देखो। उन्हें मिला है कुछ? चले पद की खोज में। जो पद पर हैं जरा उनकी अंतरात्मा में तो झांको! उन्हें मिला है कुछ? चले बने सिकंदर। सिकंदर को क्या मिला है? आज तक इस दुनिया में किसी धनी ने कहा है कि मुझे कुछ मिला? जरा मनुष्य का इतिहास पलटो, सदियों-सदियों के अनुभव में तलाशो।
हां, कभी-कभी किसी बुद्ध ने, किसी महावीर ने, किसी कृष्ण ने, क्राइस्ट ने, कबीर ने कहा है कि मुझे मिला है। लेकिन न तो ये धन के तलाशी थे, न पद के तलाशी थे। इनकी तलाश तो राम की थी। यह संसार के खोजी ही न थे। ये तो भजन में भीगे हुए लोग थे। इनने कहा है कि मिला है। इनकी तुम सुनते नहीं। इनकी न सुनने के तुमने कई उपाय कर लिए हैं। तुमने अपने को इनकी तरफ बज्र बहरा कर लिया है। तुम इनकी तरफ देखते नहीं। और कभी मजबूरी में अगर तुम्हें देखना भी पड़ता है तो तुम कहते हो--महाराज, ठीक ही कहते होओगे आप, यह रही पूजा, आपके चरण छूए लेते हैं, मगर मुझे बख्शो!
ऐ गदागर! मुझे ईमान की सौगात न दे
मुझको ईमान से अब कोई सरोकार नहीं
मैंने देखा है इन आंखों से मुरव्वत का मयाल,
मुझको अब मेहरो-मोहब्बत से कोई प्यार नहीं
मैंने इंसान को चाहा भी तो क्या पाया है
अब मेरा कुफ्र खुदा का भी तलबगार नहीं
जा किसी और से ईमान का सौदा कर ले
मैं तेरी नेक दुआओं का खरीदार नहीं
तुमने बुद्ध से यही कहा, तुमने महावीर से यही कहा, तुमने कृष्ण से यही कहा, क्राइस्ट से यही कहा, कबीर से यही कहा, यही तुम मुझसे कह रहे हो, यही तुम्हारे कहने की आदत पड़ गई है। यह आदत छोड़ो। इसी आदत में तुमने बहुत जन्म गंवाए हैं। इस जन्म को भी मत गंवा देना।
जन रज्जब यूं जगत बिगूच्यो, इस माया की लार।
इस माया के पीछे चल-चल कर, इस झूठे सूत्र के पीछे चल-चल कर, लोग बिगूचन में पड़े हैं, अड़चन में पड़े हैं, उलझन में पड़े हैं। और जब मैं लोगों की बात कर रहा हूं तो ख्याल रखना, तुम्हारी बात कर रहा हूं। नहीं तो लोग बड़े होशियार हैं, वे सोचते हैं--लोगों की बात हो रही है।
एक फकीर चर्च में हर रविवार को बोलता। और एक आदमी सदा सुनने आता, सामने ही बैठता। और जब भी प्रवचन पूरा होता तो उस फकीर के पास आता और कहता कि बिलकुल ठीक किया; जो बातें कहीं, इनकी लोगों को बड़ी जरूरत है। लोगों को! आखिर फकीर सुन-सुन कर परेशान होने लगा। हर बार यही होता। कुछ भी कहे वह और वह आदमी आता और कहता कि अच्छा फटकारा! अच्छी जूतियां लगाईं, लोगों को इसकी जरूरत है!
एक दिन संयोग की बात खूब वर्षा हो गई, कोई नहीं आया, अकेला वही आदमी आया। फकीर ने सोचा कि आज का मौका चूकना नहीं है। उसने खूब जूतियां चलाईं। उसने खूब फटकारें लगाईं। उसने इधर से मारा, उधर से मारा। मगर उस आदमी पर कुछ चोट ही न पड़े, वह बड़ा मस्त बैठा! फकीर भी थोड़ा हैरान होने लगा कि अब तो आज कोई है भी नहीं, अब यह मस्त क्या बैठा है! आज यह क्या कहेगा? लेकिन उस आदमी ने जो कहा सुन लेना ठीक से; जाते वक्त उसने कहा--गजब कर दिया, खूब मारा, हालांकि आज कोई आए नहीं थे। अगर आए होते, तो खूब फटकारा, बड़ी जरूरत थी। इन्हीं चीजों की जरूरत थी। कोई फिकर न करो, मैं गांव-गांव में जाकर, घर-घर जाकर लोगों को कह आऊंगा।
मगर अपनी तरफ कोई लेना नहीं चाहता। लोग सोचते हैं, ये दूसरों की बातें चल रही हैं।
मैं तुमसे कह रहा हूं। जब मैं कहता हूं, लोगों से कह रहा हूं, तो मैं तुमसे कह रहा हूं। और किसी की यहां बात नहीं हो रही है। और किसी की बात करने की जरूरत भी नहीं है। जो यहां हैं, उनकी बात हो रही है। मेरी और तुम्हारी बात हो रही है, यह बात सीधी-सीधी है। जो भी मैं तुमसे कह रहा हूं, ठीक तुमसे कह रहा हूं। तुम यह मत सोचना कि यह पड़ोसी के लिए लागू है। तो यह बच्चू जो बगल में बैठा है, यही धन के पीछे पागल है; अच्छी पड़ी! हम तो पहले ही इसको समझाते थे, मगर कभी समझा नहीं। यह जो बगल में बैठे हैं नेताजी; अच्छी पड़ी, पद के पीछे दीवाने हैं। चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, ठीक मारे गए। मैं तुमसे कह रहा हूं। और जब तक तुम सीधे-सीधे लेना शुरू न करोगे, ये अमृतदायी वचन व्यर्थ चले जाएंगे। वर्षा होगी और तुम्हारा घड़ा खाली का खाली रह जाएगा।
ये सूत्र अनूठे हैं, इन्हें गुनगुनाना। ये सूत्र तुम्हारी समझ में आने लगें तो जिंदगी बड़ी सहल होने लगे।
मुझे सहल हो गईं मजिलें, वो हवा के रुख भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गए
ये सूत्र तुम्हारी समझ में आ जाएं तो तुम्हारे हाथ में परमात्मा का हाथ आने लगे। वह तो तैयार ही खड़ा है, उसने तो हाथ तुम्हारी तरफ बढ़ाया ही हुआ है, कब से बढ़ाए-बढ़ाए थक गया है, मगर तुम हाथ हाथ में लेते नहीं।
मुझे सहल हो गईं मंजिलें, वो हवा के रुख भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गए
कठिन नहीं है कि चिराग राह में जल जाएं। कठिन नहीं है कि सावन में प्यारा भी आ जाए। सावन भी उसी का है, इसी में कहीं छिपा होगा। यहीं कहीं होगा पास-पड़ोस में। उसके बिना सावन भी कहां? यह सावन उसी की आभा है। यह सावन उसी की तरंग है। यह सावन उसी की छाया है। सावन आ गया, तो सावन का मालिक भी आ ही गया होगा। थोड़ा खोजें, थोड़ा तलाशें, थोड़ा पुकारें, थोड़े प्यास से भरें।
अलग बैठे थे फिर भी आंख साकी कि पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो परवाने भी आएंगे
आज इतना ही।