QUESTION & ANSWER
Sanch Sanch So Sanch 10
Tenth Discourse from the series of 11 discourses - Sanch Sanch So Sanch by Osho. These discourses were given during JAN 21-31 1981.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपने उस दिन आद्य शंकराचार्य का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया था, उस पर विस्तार से प्रकाश डालें-- तत्वं किमेकं शिवमद्वितीयं, किमुत्तमं सच्चरितं यदस्ति। त्याज्यं सुखं किम् स्त्रियमेव, सम्यग देयं परमं किम् त्वभयं सदैव।। एक तत्व क्या है? अद्वितीय शिव-तत्व ही। सबसे उत्तम क्या है? सच्चरित्र। कौन सुख छोड़ना चाहिए? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही। परम दान क्या है? सर्वदा अभय ही।
सहजानंद, मैं तो इस सूत्र से किसी भी भांति राजी नहीं हो सकता हूं। इसमें बुनियादी भ्रांतियां हैं। जैसे: ‘सबसे उत्तम क्या है?’ शंकराचार्य कहते हैं: ‘सच्चरित्र।’
सबसे उत्तम है समाधि। सच्चरित्रता तो समाधि की सहज परिणति है, परिणाम है। समाधि है तो चरित्र अपने आप चला आता है, जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया चली आती है। अब कोई पूछे कि तुम दोनों में कौन महत्वपूर्ण है--छाया या तुम? तो आद्य शंकराचार्य कुछ भी कहें, मैं तो यही कहूंगा कि तुम महत्वपूर्ण हो। क्योंकि छाया तुम्हारे पीछे आती है। छाया अनुषंग है। छाया को तुम्हारे बिना लाया नहीं जा सकता। और तुम चाहो तो भी छाया को छोड़ कर नहीं आ सकते। छाया तुमसे संयुक्त है। लेकिन छाया की कोई आत्मा नहीं है। आत्मा तो तुम हो। तो आत्मा को श्रेष्ठ तत्व कहूं या छाया को? आद्य शंकराचार्य की भी सील लगी हो तो भी मैं क्या करूं?
लेकिन इस तरह के भ्रांतिपूर्ण वचनों ने मनुष्य को बहुत भरमाया, बहुत भटकाया है। जब सच्चरित्रता को हम श्रेष्ठ कह देते हैं तो लोग समाधि की चिंता छोड़ कर चरित्रवान बनने की चेष्टा में लग जाते हैं। और चरित्र तो बनेगा कैसे? चरित्र तो आएगा कहां से?
हां, यह तुम कर सकते हो कि जमीन पर चाहो तो स्याही फैला कर छाया बना लो। मगर वह छाया छाया नहीं होगी। न तो सूरज के साथ बढ़ेगी न घटेगी, न दिन और रात के कारण उसमें कोई भेद पड़ेगा। उसमें कोई जीवन ही न होगा। वह तो मुर्दा होगी। वह परिस्थिति के अनुकूल रूपांतरित नहीं हो सकेगी। उसमें लोच नहीं होगी। उसे छाया कहना भी ठीक नहीं। वह तो केवल छाया की भी तस्वीर है।
छाया का भी एक अपना जीवन होता है।
एक लोमड़ी सुबह-सुबह उठी। और उसने ऊगते सूरज में बनी अपनी छाया देखी, बहुत लंबी छाया। सोचा मन में...। लोमड़ी ही थी। जब आद्य शंकराचार्य ऐसा सोच सकते हैं तो लोमड़ी को तो तुम क्षमा कर देना। सोचा उसने कि जब मेरी छाया इतनी बड़ी है तो आज मुझे नाश्ते में अगर एक हाथी न मिला तो भूखी मर जाऊंगी। हाथी न मिले तो कम से कम ऊंट तो मिले ही मिले। नाश्ते के लिए। उसका तर्क ठीक है। लोमड़ियां बड़ी तर्कशास्त्री होती हैं। छाया जब इतनी बड़ी है तो मूल कितना बड़ा न होगा! सीधा गणित है। और लोमड़ी जब हाथी या ऊंट की तलाश में निकली तो कहां पाती? दोपहर हो गई। पेट पीठ से लगने लगा। भूख भारी। मगर जब तक ऊंट या हाथी न मिले, नाश्ता कैसे करे? भूखे हालात में थोड़ा बोध आया। भूख जगा सकती है। पीड़ा जगाती है। यह पीड़ा का उपकार है। दुख सोने नहीं देता। यह दुख की अनुकंपा है। सुख में आदमी भटक जाए, दुख में नहीं भटक सकता।
भूख ने थोड़ा बोध दिया। कहते हैं न, भूखे भजन न होंई गोपाला! भूखी इतनी थी कि क्या खाक हाथी और ऊंट की बातें सोचती। सोच उठा कि एक बार फिर से छाया को तो देख लूं। कहीं देखने में कुछ भूल तो नहीं हो गई! और जब छाया देखी तब सूरज सिर पर आ गया था। छाया सिकुड़ कर बहुत छोटी हो गई थी। बस लोमड़ी के नीचे ही बन रही थी। लोमड़ी खिलखिला कर हंसने लगी। और उसने कहा कि हद हो गई! भूल की भी हद हो गई! अब तो एक चींटी भी मिल जाए तो भी पेट भर जाए। जब इतनी छोटी छाया है तो मूल कितना छोटा न होगा!
लेकिन छाया से सोचोगे तो यह उपद्रव होने ही वाला है। चरित्र तुम्हारे जीवन की परिधि है, तुम्हारे जीवन का प्राण नहीं। अगर चरित्र को तुमने मूल्यवान माना, जैसे कि सदियों से आदमी मानता रहा है, तो इसके दो ही परिणाम होते हैं। जो चालबाज होते हैं वे पाखंडी हो जाते हैं। जो चालबाज होते हैं वे चेहरे ओढ़ लेते हैं, मुखौटे लगा लेते हैं। कहते कुछ हैं करते कुछ हैं, बताते कुछ हैं, जीते कुछ हैं। उनके बताने में और जीने में विपरीतता होती है। उनके कहने में और करने में विरोध होता है। स्वभावतः, उस विरोध को छिपाना पड़ता है।
इसलिए उनका एक जीवन में दरवाजा होता है जो सामने का दरवाजा है और एक दरवाजा होता है जो पीछे का दरवाजा है। पीछे के दरवाजे से जीते हैं, सामने के दरवाजे पर तो केवल मेहमानों का स्वागत करते हैं। वह जो मुस्कुराहट, वह जो बैठकखाने की सजावट, वह सब सामने के दरवाजे पर है। वे अच्छी-अच्छी बातें, वे प्यारे-प्यारे शब्द, वह शिष्टाचार, सभ्यता, वह सब बाहर के दरवाजे पर है, भीतर के दरवाजे पर तुम बिलकुल दूसरे ही आदमी को पाओगे--खूंखार, जंगली!
देखते हो तुम रोज यह होते। मस्जिदों में लोग प्रार्थना कर रहे हैं, नमाज पढ़ रहे हैं। मंदिरों में पूजा हो रही है। और पूजा के बाद निकलते हैं और मस्जिदों में आग लगा देते हैं। और मस्जिदों की नमाज के बाद निकलते हैं और मंदिरों को जला कर खाक कर देते हैं। मंदिरों में और मस्जिदों में नमाज करने के बाद एक-दूसरे की छाती में छुरे भोंक सकते हैं। न कोई शर्म है, न कोई लाज है, न कोई संकोच है। असली आदमी कौन है? वह जो नमाज में झुक रहा था, वह? या अब यह जो खून का प्यासा होकर तुम्हारे सामने खड़ा है, यह? असली कौन है? वह जो मंदिर में घंटे बजा रहा था, थाली में दीप सजा कर आरती उतार रहा था, फूल की मालाएं पत्थर की मूर्ति के चरणों में रख रहा था, वह? या जिसने अब तुम्हारी मस्जिद में आग लगा दी है, वह? कौन है सच्चा आदमी इन दोनों में? और यह एक ही आदमी कर रहा है दोनों काम।
चालबाज पाखंडी हो जाते हैं। पाखंड का केवल इतना ही अर्थ होता है: कहेंगे कुछ, करेंगे ठीक उससे उलटा। और जितना उलटा करेंगे उतना ही उन्हें शोरगुल मचाना पड़ेगा, ताकि जो किया है वह शोरगुल में छिप जाए, दब जाए। उन्हें नए से नए मुखौटे तैयार करने पड़ेंगे। उन्हें अपने चेहरे को हमेशा रंगे रहना होगा। उन्हें वस्त्रों के भीतर अपनी नग्नता को छिपाना होगा।
तो एक तो यह परिणाम हुआ--सच्चरित्र को श्रेष्ठ घोषित करने का--कि चालबाज पाखंडी हो गए। और जो सीधे-सादे लोग हैं, जिनमें इतनी राजनीति, इतनी कूटनीति नहीं कि पाखंडी हो जाएं, उनका जीवन अपराध-भाव से भर गया। क्योंकि करना तो उन्हें वही पड़ता है जो प्रकृति उनसे करवाती है। अभी इतना बोध कहां? अभी वह समाधि का दीया कहां कि जिसकी रोशनी में चलें? चलना तो अंधेरे में है। और समझाने वाले समझा गए कि टकराना मत दीवारों से, टकराना मत किसी और चीज से, सीधे दरवाजे से निकलना। दरवाजे से निकलना ही सच्चरित्रता है। जो दीवार से टकराए वह चरित्रहीन है।
मगर जिसके पास रोशनी नहीं, जिसके पास ध्यान का दीया नहीं, जिसके पास समाधि का जागरण नहीं, विवेक नहीं, वह टकराएगा न तो क्या करेगा? वह तो टकराएगा ही टकराएगा। यह टकराहट अपरिहार्य है, अनिवार्य है। दीवार से टकराएगा, फर्नीचर से टकराएगा। इधर गिरेगा, उधर गिरेगा। बेईमान होता, चालबाज होता तो अपने गिरने को छिपा लेता। लेकिन सीधा-सादा आदमी है तो अपने मन में ग्लानि अनुभव करता है, अपराध का भाव अनुभव करता है कि मैं पापी, महापापी, कि मैं ठीक से सम्हल कर चल भी नहीं पाता, गिर-गिर जाता हूं, दरवाजा भी नहीं खोज पाता हूं! कैसे जघन्य अपराध नहीं किए होंगे मैंने पिछले जन्मों में! कैसे महान पातकों से नहीं मेरी छाती दबी है! मेरा कैसे उद्धार होगा?
और जिस व्यक्ति के मन में अपराध-भाव पैदा हो जाता है उसकी आत्म-श्रद्धा खो जाती है। जिसे अपने पर भरोसा न रहा, उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। जिसके मन में अपने प्रति सम्मान न रहा, अब उसका किसके प्रति सम्मान हो सकता है? जिसने अपने गिरने को देखा, वह अब दूसरों के गिरने को भी बढ़ा-चढ़ा कर देखेगा।
और जिसने अपने गिरने को देखा और लाख वचन लिए, लाख कसमें खाईं, व्रत लिए, फिर भी गिरते देखा अपने को, वह एक बात तो पक्की ही समझ लेगा कि यह अपने वश के बाहर है यह क्रांति। यह तो कोई अवतारी पुरुष, कोई तीर्थंकर, कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई जरथुस्त्र, कोई जीसस--यह तो कुछ उन थोड़े-से लोगों का काम है जो आकाश से उतरते हैं। हम तो पृथ्वी पर पैदा हुए, मिट्टी के पुतले हैं।
आदमी शब्द का अर्थ होता है, मिट्टी का पुतला। आदमी शब्द बनता है हिब्रू अदम से। अदम का अर्थ होता है, लाल मिट्टी। जेरूसलम की मिट्टी लाल है। और ईश्वर ने जेरूसलम की मिट्टी से पहला आदमी बनाया, इसलिए उसका नाम अदम। और उससे ही फिर आदमी बना। तो हम तो मिट्टी हैं। फिर लाल हो कि काली हो कि भूरी हो, क्या फर्क पड़ता है! मिट्टी के पुतले हैं। चार दिन का खेल है। यह हमारी बिसात के बाहर है। यह क्रांति हमसे न हो सकेगी।
जब अपने प्रति अपराध का भाव पैदा हो जाए तो अपने प्रति निंदा और अपमान भी पैदा हो जाता है। और जब जीना ही है, गलत ही जीना है, तो फिर क्यों न जी भर कर जीएं? फिर क्या सार है कि रोएं? क्यों रोने में समय गंवाएं?
तो अपराध का भाव आत्म-सम्मान का विनाश कर देता है, जो कि समस्त धर्म की आधारशिला है। और अपराध का भाव जब अपने को सम्मान नहीं देता तो दूसरे को कैसे सम्मान देगा? जो अपने को प्रेम नहीं करता, वह किसी को भी प्रेम न कर सकेगा। जो अपने पर धोखा अनुभव करता है कि मैं धोखेबाज हूं, वह हरेक को धोखेबाज देखेगा। हम दूसरों को अपनी ही नजर से तो देखते हैं। और तो हमारे पास कोई मापदंड भी नहीं है, तराजू भी नहीं है, तौलने का कोई और उपाय भी नहीं है। और तो कोई परख भी नहीं। जौहरी की और कोई कसौटी भी तो नहीं। तो वह अपनी ही नजर से सबको देखेगा। वह सब तरफ देखेगा कि लोग अपराधी हैं, सब तरफ बेईमान हैं, सब तरफ चोर हैं।
इसलिए तो जब तुमसे कोई किसी की निंदा करता है तो तुम कभी संदेह नहीं करते; तुम तत्क्षण मान लेते हो। लेकिन कोई किसी का सम्मान करे, समादर करे, कोई किसी की प्रशंसा करे, तो तुम हजार तर्क उठाते हो कि नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? अरे, हमने बहुत देखे! आज नहीं कल सब ढोलों में पोल निकलती है। जब कोई किसी को कहता है संत तो तुम्हारे मन में तत्क्षण संदेह उठता है। और जब कोई कहता है फलां आदमी चोर है, बेईमान है, लफंगा है, लुच्चा है, तुम कहते हो हमें पहले से ही पता है। क्या तुम हमें बता रहे हो! अरे, हमें एक-एक आदमी की जड़ों का पता है।
असलियत यह है कि तुम्हें अपनी जड़ों का पता है। और अपने से तुम इतने बेचैन हो गए हो और अपने से तुम इतने परेशान हो गए हो, अपने से इस बुरी तरह हार गए हो कि तुम किसकी कसमों का भरोसा करो, तुम किसके आश्वासनों को मानो, तुम किसके व्रतों को स्वीकार करो? खुद का सम्मान गया, सबका सम्मान गया। और जब जीना ही है असम्मान में तो फिर क्या कमी करनी? जब जुआ खेलना ही है तो फिर जी भर कर खेलना। और जब शराब पीनी ही है तो फिर क्या छिपा कर पीनी। और जब चोरी करनी है तो ठीक है, चोरी ही करेंगे। यही हमारा भाग्य, यही हमारी विधि।
ये दो तरह के लोग तुम्हारे धर्मों ने पैदा किए हैं--पाखंडी और अपराधी। और सारी मनुष्यता करीब-करीब इन दो तरह के लोगों में बंट गई है। जो पाखंडी हैं, वे तुम्हारे संत हो जाते हैं, साधु हो जाते हैं, महात्मा हो जाते हैं। जो सीधे-सादे लोग हैं वे तुम्हारे पृथकजन, सामान्यज न, अपराधी; उनका काम है कि धर्मसभाओं में बैठें और पंडितों-पुरोहितों और महात्माओं की ऊंची-ऊंची बातें सुनें। हालांकि उन्हें भरोसा नहीं आता। हालांकि वे जानते हैं कि ये सब बातें हैं। लाख उपाय करते हैं तो भी वे जानते हैं ये सब बातें हैं, यह सब ऊपर का ढोंग है, भीतर कुछ और होगा। भीतर राज कुछ और होना ही चाहिए। सुन लेते हैं, क्योंकि और भी भीड़ सुन रही है। न सुनें तो अहित होता है। सुनें तो हित होता है। सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है, सम्मान मिलता है, सत्कार मिलता है। और पाखंडी भी भलीभांति जानते हैं कि वे लाख तुम्हें समझाएं, तुम समझोगे नहीं। अपने को नहीं समझा सके, तुम्हें क्या समझाएंगे।
ऐसा एक विराट धोखा पैदा हुआ है। और इस धोखे के पीछे आद्य शंकराचार्य जैसे लोगों के वक्तव्य हैं।
कहते हैं वे: ‘सबसे उत्तम क्या है? सच्चरित्र।’
नहीं, मैं स्पष्ट करना चाहता हूं, सबसे उत्तम है समाधि। हां, जहां समाधि है वहां सच्चरित्रता अपने आप है। सच्चरित्रता बिना समाधि के कागज का फूल है--न सुगंध, न प्राण; रंग झूठे, पोते हुए। न सूरज से नाता, न चांद-तारों से। न पृथ्वी से संबंध, न रस की कोई धार बहती। कागजी फूल, बस देखने में फूल मालूम हो सकते हैं।
लेकिन समाधि की जड़ें जिसको उपलब्ध हो गई हैं, जिसने अपने भीतर के शून्य को अनुभव किया; जिसने अपने भीतर के शून्य में अपने पूर्ण को पहचाना; जो अपने भीतर मौन हुआ, ऐसा मौन हुआ, ऐसा डूबा कि जब लौटा तो नया होकर लौटा, पुनर्जन्म लेकर लौटा; द्विज हुआ, दुबारा जन्म पाया।
समाधि का अर्थ है: मन के पार हो जाना। फिर लौट आओ मन में। लौट आओगे तो भी तुम पार ही रहोगे। कुछ फर्क न पड़ेगा। फिर लौट आओ संसार में, कुछ फर्क न पड़ेगा। संसार में भी रहोगे तो भी तुम संसार के बाहर रहोगे।
तेरे करीब तेरे आस्तां से दूर रहे
वहीं खयाल रहा, हम जहां से दूर रहे
करीब आए तो खुद जाने-एतिबार थे
वही जो मुद्दतों वहमो-गुमां से दूर रहे
किसे ये फिक्र कि अंजामे-इश्क क्या होगा
किसे ये होश कि राहे-जियां से दूर रहे
वो हर्फे-शौक जो तम्हीदे-आरजू ठहरे
खुदा करे कि मेरी दास्तां से दूर रहे
ये मयकदा है यहां मेहरो-माह पलते हैं
कहो कि खेमा-ए-जुल्मत यहां से दूर रहे
वो हमसफर भी निहायत अजीज है ‘ताबां’
चले जो साथ मगर कारवां से दूर रहे
यही संन्यास की परिभाषा है--
वो हमसफर भी निहायत अजीज है ‘ताबां’
चले जो साथ मगर कारवां से दूर रहे
यूं तो भीड़ में और फिर भी भीड़ के बाहर। जो चले तो साथ, मगर कारवां से दूर रहे।
तेरे करीब तेरे आस्तां से दूर रहे
वहीं खयाल रहा, हम जहां से दूर रहे
एक बार समाधि का स्वाद मिल जाता है तो फिर बाजार में भी वही मौन है, वही सन्नाटा है, वही शून्य है, जो हिमालय की गुफाओं में है। हिमालय की गुफाओं में भी थोड़ा शोर-शराबा होगा, लेकिन स्वयं के हृदय की गुफा में कोई तरंग नहीं है। वहां तो शून्य अपनी पूर्णता पर है। उसका जरा-सा स्वाद, और जीवन एकदम नया हो जाता है। उस जीवन की नई शैली का नाम सच्चरित्रता है।
यह मेरी परिभाषा है: समाधि से जो जीवन-व्यवहार निकलता है, वह सच्चरित्रता है; असमाधि से जो जीवन-व्यवहार निकलता है, वही दुश्चरित्रता है। इसलिए यूं भी समझ लो कि तुम लाख ऊपर से आरोपण कर लो चरित्र का, अगर तुम्हारे भीतर अभी समाधि का अनुभव नहीं जगा है तो तुम्हारा चरित्र जरा-सी खरोंच से उखड़ जाएगा। जरा-सी खरोंच! क्योंकि उसकी गहराई कितनी? कोई एक धक्का दे देगा, कोई एक गाली दे देगा, कोई अपमान के दो शब्द बोल देगा, और तुम सब भूल-भाल जाओगे, सब चरित्र एक तरफ रख दोगे। और यूं नहीं कि जिंदगी के बड़े-बड़े मसलों में, जिंदगी के छोटे-छोटे मसलों में तलवारें खिंच गई हैं। शतरंज के खिलाड़ियों ने तलवारें निकाल ली हैं। ताश के पत्तों के खिलाड़ी हत्या कर बैठे हैं। मजाक-मजाक में गर्दनें कट गई हैं। मजाक महंगे पड़ गए हैं। और यूं सब अच्छे लोग थे।
तुम भी जब किसी की खबर सुनते हो कि उस आदमी ने आत्महत्या कर ली, तो भरोसा नहीं आता। भला-चंगा आदमी, कल ही तो तुम्हें मिला था। रास्ते से चला जा रहा था, फिल्मी गाना गुनगुना रहा था, क्यों आत्महत्या करेगा? इत्र छिड़क रखा था, सुंदर कपड़े पहन रखे थे। क्यों आत्महत्या करेगा? कभी सोचा भी नहीं था कि यह आदमी आत्महत्या करेगा।
सोचते कैसे? इसके भीतर क्या इकट्ठा हो रहा था सिवाय इसके और किसी को पता नहीं। औरों ने तो बाहर से तस्वीर देखी थी, भीतर की गर्द-गुबार तो नहीं, भीतर का कूड़ा-कर्कट तो नहीं। और जब तुम सुनते हो फलां आदमी ने किसी की हत्या कर दी, भरोसा ही नहीं आता। कैसे? अच्छा आदमी था, मधुरभाषी था, किसी से कड़वे शब्द भी कहने में झिझकता था। कभी किसी को गाली भी देते नहीं देखा। एकदम हत्या कर दी!
और ऐसा नहीं कि तुम्हें ही भरोसा नहीं आता; जिसने हत्या की है वह भी भरोसा नहीं कर पाता कि यह मैंने कैसे किया! यह मुझसे हुआ कैसे! इसलिए तो लोग कहते हैं: मैं अपने बावजूद कर बैठा। करना नहीं चाहता था और कर बैठा। लेकिन अगर तुम करना नहीं चाहते थे तो कौन कर बैठा! तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारे भीतर कोई और भी है!
निश्चित है; तुम्हारे भीतर तुमसे अतिरिक्त जो है वह निन्यानबे प्रतिशत है। तुम तो केवल एक प्रतिशत हो। तुम तो केवल एक बारीक सी सतह हो ऊपर-ऊपर! तुम्हें समझाया गया है: ऐसा करो। बचपन से बताया गया है: ऐसे उठो, ऐसे बैठो, यह खाओ, यह पीओ। बस तुम उसी ढंग से जी रहे हो। उसी को तुम सच्चरित्रता कहते हो।
मेरे गांव में एक बड़े मारवाड़ी थे। उनके पास मैं कभी-कभी जाकर बैठा करता था। वे कहते थे कि मारवाड़ियों में जब हम शादी करते हैं तो पहले पता लगाते हैं कि जिसके घर शादी कर रहे हैं उसने अब तक कितने दीवाले निकाले। अगर दो-चार दीवाले न निकाले हों तो क्या खाक मारवाड़ी! और अगर दो-चार दीवाले न निकाले हों तो गरीब आदमी है। कितने दीवाले निकाले, इससे हम हिसाब लगाते हैं।
खूब हिसाब हुआ! आदमी की हैसियत का पता इससे चलता है। अलग-अलग लोगों में अलग-अलग हिसाब हैं। अलग-अलग लोगों में अलग-अलग धारणाएं हैं। उनकी धारणाएं उनके लिए चरित्र मालूम होती हैं।
अफ्रीका में लोग कीड़े-मकोड़े खाते हैं--चींटियां, चींटे, तिलचट्टे। तुम कल्पना भी न कर सकोगे। अभी मैं खबर पढ़ रहा था कि अमरीका के एक विश्वविद्यालय में एक वैज्ञानिक दंपति अफ्रीकी लोगों के इसी तरह के भोजन पर शोधबीन कर रहा है। तो वैज्ञानिक को तो शोधबीन में पूरा उतरना पड़ता है। तो वे भी इसी तरह की चीजें...। पति-पत्नी दोनों शोधबीन में लगे हैं, दोनों वैज्ञानिक हैं। धीरे-धीरे उन्होंने भी इस तरह की चीजें खाना शुरू किया, क्योंकि तभी पता चले कि ये चीजें पौष्टिक भी हैं या नहीं? ये कितने दूर तक आदमी को पोषण दे सकती हैं?
तो पहले तो बहुत घबड़ाए। अब तिलचट्टों को कितना ही तल लो, हैं तो तिलचट्टे ही! सोच कर ही बात घबड़ाहट की मालूम होती है। सोच कर ही वमन हो जाएगा कि हद हो गई। और वे तिलचट्टों के सैंडविच बना-बना कर खा रहे हैं। उनके घर कोई नहीं आता। मित्रों ने आना बंद कर दिया, परिचितों ने आना बंद कर दिया, कि ये आदमी ढंग के नहीं हैं। इनके घर पता नहीं क्या खिला दें, किस चीज का रस पिला दें। उनके घर कोई नहीं आता; वे किसी को भोजन पर बुलाते हैं तो कोई स्वीकार ही नहीं करता। उनके घर से लोग बच कर निकलते हैं--जाने-पहचाने लोग, परिचित लोग, अपने लोग। औरों की तो बात छोड़ दो, उनके मां-बाप भी अब उनके घर नहीं आते, कि पहले तुम अपना शोधकार्य पूरा कर लो, फिर हम आएंगे।
और उन्होंने खोजबीन की है कि तिलचट्टों में प्रोटीन बहुत होता है। बड़ी मात्रा में प्रोटीन की कमी पूरी की जा सकती है। तिलचट्टे हैं भी बड़े होशियार लोग।
कहते हैं कि जितना आदमी पुराना है उतने ही तिलचट्टे पुराने हैं। तिलचट्टे और आदमी हमेशा साथ ही साथ पाए जाते हैं। जहां तिलचट्टा मिले समझ लो कि आस-पास आदमी भी होगा। और जहां आदमी हो समझ लो कि आस-पास तिलचट्टा भी होगा। न तिलचट्टे अलग रहते, न आदमी अलग रहते। बड़ा पुराना नाता है, सनातन संबंध है। सब संबंध टूट गया, मगर तिलचट्टे और आदमी का संबंध नहीं टूटता।
जिन अफ्रीकी कबीलों में कीड़े-मकोड़े खाए जाते हैं, उनमें कोई सोचता ही नहीं। झींगुर लोग इकट्ठे करते रहते हैं वर्षा के दिनों में, फिर सुखा कर रख लेते हैं। जैसे तुम सब्जियां सुखा कर रख लेते हो कि जब सब्जियां नहीं आएंगी तो सूखी हुई सब्जियों का उपयोग कर लोगे। या जैसे जैन पर्यूषण के दिनों में हरी सब्जी नहीं खा सकते। देखते हो होशियारी! उसको सुखा कर रख लेते हैं। सुखा ली तो हरी रही नहीं, फिर सुखा कर खाते हैं। और जो बहुत ही होशियार हैं...।
मैं एक श्वेतांबर जैन घर में मेहमान था, पर्यूषण के दिन, उनको मैंने केला खाते देखा। मैंने कहा, यह क्या कर रहे हो?
उन्होंने कहा, यह हरा थोड़े ही है। अरे साफ पीला है, बिलकुल पका हुआ है।
देखते हो, हरे का क्या मतलब निकाल लिया। हरे का मतलब हरा रंग। बेचारे महावीर को पता ही न था कि किन चालबाजों के हाथ में मैं पड़ जाऊंगा। हरे से कहा था--रसभरा। मगर हरे से मतलब निकाल लिया रंग का। आदमी अपने हिसाब से अर्थ करेगा, अपने ढंग से व्याख्याएं करेगा।
चीन में सांप को सदियों से खाया जाता है। सिर्फ मुंह को काट कर अलग कर देते हैं जहां जहर की गांठ होती है, बाकी पूरा सांप खाया जाता है। और कहते हैं कि सांप चीन के स्वादिष्टतम भोजनों में से एक है।
अभी अफ्रीका में बोकासो और ईदी अमीन दादा, ये दोनों आदमी आदमियों को खाते हुए पकड़े गए हैं! जब ये दोनों अपनी राजधानियां छोड़ कर भागे तो इनके घरों में इनके फ्रीज में बच्चों का मांस मिला। ईदी अमीन का कहना है कि बच्चों के मांस से स्वादिष्ट कोई चीज दुनिया में होती ही नहीं। ईदी अमीन की राजधानी में, कंपाला में रोज बच्चे नदारद हो जाते थे। और ईदी अमीन की पुलिस खोज करती थी कि बच्चों को चुराने वाला गिरोह कौन-सा है। और यह गिरोह किसी और का नहीं था। ये बच्चे सब ईदी अमीन के चौके में समाप्त हो रहे थे। लेकिन ईदी अमीन को कोई अड़चन न थी, क्योंकि ईदी अमीन जिस कबीले से आता है, वह आदमखोर कबीला है। वे आदमी को खाते ही रहे।
एक ईसाई पादरी को आदमखोर कबीले ने पकड़ लिया, अफ्रीका में। पादरी ने अपनी पुरानी तरकीब काम में लाना चाही। कहा कि पहले समझो भी तो कि मैं कौन हूं! तुम्हारे सौभाग्य कि मैं एक धर्मगुरु हूं। और तुम्हें मैं बाइबिल समझाऊंगा, धर्म समझाऊंगा। तुमने कभी धर्म का स्वाद लिया है?
उन लोगों ने कहा कि कई दफे लिया है। आज फिर लेंगे।
उस पादरी ने कहा, तुम्हारा मतलब?
उन्होंने कहा कि आपका हम भोजन करेंगे। यही धर्म का स्वाद है। और पादरियों को भी हम पहले खा चुके। और तो हम कोई स्वाद नहीं जानते। मगर स्वादिष्ट होते हैं धार्मिक लोग। तुम भी देखोगे, हम भी देखेंगे। अभी स्वाद लेने की तैयारी है, जरा बाहर तो आओ। बाहर बैंड-बाजा बज रहा है, कड़ाहा चढ़ाया हुआ है, कि अभी तुम्हारा स्वाद लेते हैं। धर्म का और क्या स्वाद? अरे, धार्मिक आदमी को पचा गए, धर्म का स्वाद हो गया!
चरित्र किसको तुम कहोगे?
मुसलमान दिन में उपवास करते हैं, रात में भोजन करते हैं। जब उनके धार्मिक दिन आते हैं, रमजान के दिन आते हैं, रोजे के दिन आते हैं, तो दिन में तो उपवास करते हैं, दिन भर तो भूखे रहते हैं, सूरज के ढलने पर भोजन करते हैं। और जैन दिन में तो भोजन करते हैं और सूरज के ढलने पर पानी भी नहीं पीते। किसको सच्चरित्र कहोगे? इसमें चरित्रवान कौन है?
रामकृष्ण भी मछली और भात खाते थे। किसी जैन से पूछो कि मछली खाने वाला आदमी चरित्रवान हो सकता है? कैसे होगा? असंभव। बुद्ध ने मारने की मनाही की है; लेकिन अपने आप जो जानवर मर गया हो उसको खाने की मनाही नहीं की।
डाक्टर अंबेदकर जब यह सिद्ध करने में लगे थे कि हिंदुस्तान के चमार बौद्ध ही हैं मूलतः, हिंदुओं ने जबर्दस्ती दबा कर इनको चमार बना दिया है, तो उन्होंने उसमें एक तरकीब और एक तर्क यह भी खोज निकाला था कि चमार ही एकमात्र कौम है भारत में जो मरे हुए जानवर का मांस खाती है। मरे हुए जानवर को चमार ही ढोकर ले जाते हैं। चमड़ी निकाल लेते हैं, वह जूते के काम आ जाती है, और सामान बनाने के काम आ जाती है। और मांस को खा जाते हैं। डाक्टर अंबेदकर ने इस बात को तर्क बना लिया था कि इससे सिद्ध होता है कि ये बुद्ध के मानने वाले हैं। क्योंकि बुद्ध ने कहा है: मारना मत। लेकिन अपने आप मर गया जो, उसको खाने में क्या हर्जा है? मारने में हिंसा है। बुद्ध कहते हैं, मारने में हिंसा है। लेकिन जो मर ही गया अब इसके मांस खाने में क्या हिंसा है?
और महावीर कहते हैं, मांस खाने के विचार में भी हिंसा है। मर गया, उसके मांस की तो बात छोड़ो; मांस खाने का विचार भी, सपना भी पाप है। उससे भी नरकों में सड़ोगे।
कौन-सी चीज चरित्र है? किस चीज को सच्चरित्रता कहोगे?
मोहम्मद ने नौ विवाह किए। यह चरित्र है? और मुसलमानों को आज्ञा दी कि प्रत्येक मुसलमान चार विवाह कर सकता है। यह चरित्र है? और जो लोग मानते हैं एक-पत्नी व्रत, जिनके लिए एक-पत्नी व्रत ही चरित्र है, उनको कैसे स्वीकार होगा मोहम्मद का नौ पत्नियों का पति होना?
और इससे उलटा भी होता रहा। पांच पांडवों ने एक ही पत्नी को मान रखा था। पांच पति थे। एक-पति व्रत भी नहीं था, पंचपति थे। फिर भी हिंदू द्रौपदी का नाम उन पांच महाकन्याओं में गिनते हैं जो प्रातः स्मरणीय हैं। इन्होंने किस तरह सात दिन बांटे थे द्रौपदी के, पता नहीं। घंटों से बांटे होंगे। दिनों से तो बंट नहीं सकते, नहीं तो दो दिन की छुट्टी हो जाएगी। शायद शनिवार, रविवार छुट्टी रखते हों।
चरित्र किसको कहोगे? और कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं, जिनमें अपनी ही नहीं औरों की स्त्रियां भी थीं, और भगाई हुई स्त्रियां थीं। सोलह हजार स्त्रियों का कुंभ मेला भर लिया होगा। इसमें पहचानना भी मुश्किल होगा कि कौन अपनी है, कौन किसकी है। सोलह हजार स्त्रियों के नाम भी याद रखने मुश्किल पड़ते होंगे, नंबर रखे होंगे। अ-एक, अ-दो, अ-तीन... या शायद गुदवा दिए होंगे नंबर खोपड़ी पर। क्योंकि पहचानोगे कैसे? किसी और की पत्नी घुस जाए तो फिर क्या करोगे? अपनी पत्नी निकल भागे, किसी और के बाड़े में चली जाए, फिर क्या करोगे? कोई निशान भी तो चाहिए। ये सोलह हजार को कैसे सम्हालते रहे? मगर कोई इसमें दुश्चरित्रता नहीं है। कोई हिंदू ने नहीं कहा कि कृष्ण ने कोई दुश्चरित्रता की है।
किस बात को चरित्र कहोगे? जितनी कौमें हैं दुनिया में, जितने कबीले हैं, उतने चरित्र हैं। मैं इसलिए चरित्र पर जोर नहीं देता।
अब इन्होंने, शंकराचार्य ने कह दिया कि सच्चरित्र ही सबसे उत्तम है। लेकिन क्या सच्चरित्र का अर्थ होगा? कौन है सच्चरित्र? कश्मीर के ब्राह्मण मांसाहार करते हैं। उत्तर भारत के ब्राह्मण मांसाहार नहीं करते। सच्चरित्र कौन है? और कश्मीरी ब्राह्मण श्रेष्ठ ब्राह्मण समझा जाता है और मांसाहार भी करता है। कोई अड़चन नहीं है उसे। इसलिए पंडित जवाहरलाल नेहरू को मांसाहार करने में कोई अड़चन नहीं थी--कश्मीरी ब्राह्मण।
जीसस शराब पीते थे। उस लिहाज से तो मोरारजी देसाई ज्यादा चरित्रवान हैं; बेचारे स्वमूत्र से ही काम चला लेते हैं। पीना ही है तो अब क्या शराब पीना! कौन चरित्रवान है? स्वमूत्र को पीने वाले लोग चरित्रवान हैं? शराब पीने वाले लोग चरित्रवान हैं? कौन चरित्रवान है? बहुत कठिन है। चरित्र से निर्णय नहीं हो सकता।
शंकराचार्य का वक्तव्य बिलकुल ही उथला है। फिर चरित्र ऊपर से थोपे जाते हैं। मां-बाप बच्चे पर थोप देते हैं। जो सिखा देते हैं वही चरित्र बन जाता है।
मैं जैन घर में पैदा हुआ, तो मैंने अठारह साल की उम्र तक रात्रि को भोजन नहीं किया था। क्योंकि रात्रि को भोजन करना मतलब नरक जाने का सीधा रास्ता है। जब अठारह वर्ष का था तो मित्रों के साथ एक पहाड़ पर एक किले को देखने गया। वह पहला मौका था मेरा। बाकी सब हिंदू थे। उनको फिक्र ही नहीं थी दिन में भोजन बनाने की। और दिन तो इतना घूमने-फिरने में लगा कि उनसे यह कहना कि मैं रात्रि को भोजन न कर सकूंगा, मुझे भी ठीक नहीं लगा। दिन तो काफी व्यस्त था, किला सुंदर था, उसको देखने में ही पूरा दिन बीत गया। पहाड़ बड़ा था। उसमें एक से एक सुंदर स्थल थे देखने योग्य। झरने थे और झीलें थीं। उन्होंने तो रात को नौ बजे भोजन बनाना शुरू किया।
अब मेरी तुम हालत समझ सकते हो। दिन भर का भूखा, पहाड़ की चढ़ाई, दिन भर का घूमना। ऐसी भूख कभी जीवन में लगी न थी। और वे मेरे सामने ही बाटियां पकाने लगे। मैंने अपने जीवन में कभी बाटियों से ऐसी सुगंध उठती है, यह भी अनुभव नहीं किया था। और जब उन्होंने बैंगन का भरता बनाया, तो मैं आज भी याद कर सकता हूं, ठीक उसकी सुगंध भी याद कर सकता हूं। और जब उन्होंने मुझे समझाया-बुझाया कि यहां कौन देखने वाला है! और तुम्हारे घर हम में से कोई भी नहीं कहेगा, हम वचन देते हैं, हम कसम खाते हैं। रात में कैसे सोओगे दिन भर के भूखे? हम समझ सकते हैं, हम भी भूखे हैं।
तो बाटियों की गंध, भरते का रंग, उनकी बातें। मैंने भी सोचा कि जब इतने लोग अठारह साल से भोजन रात करके अभी तक नरक नहीं गए तो मैं एक दफे कर लूंगा, इससे ही नरक जाऊंगा? तो ठीक है, फिर नरक ही ठीक है, कम से कम अपने संगी-साथी तो रहेंगे। अगर इन सबको नरक ही जाना है, यही मेरे दोस्त हैं, इनको छोड़ कर स्वर्ग जाकर भी क्या करूंगा?
ऐसा अपने मन को समझाने की भी कोशिश की। समझा-बुझा कर मैंने भोजन भी कर लिया। मगर सम्हाल न सका, सो न सका। ऐसी बेचैनी, ऐसी परेशानी कि यह क्या कर लिया! रात जब तक वमन न हो गया, जब तक सारा भोजन फिंक न गया मेरे शरीर से बाहर, तब तक मैं सो न सका।
उस रात मैंने यही सोचा कि यह चीज जरूर पाप है। पाप न होता तो क्यों मुझे वमन होता! मगर बाकी सारे मित्र मजे से सो रहे थे, घुर्राटे ले रहे थे। फिर मैंने अपने को समझाया कि सड़ोगे, सड़ोगे नरक में, मरोगे नरक में! लेना घुर्राटे वहां। हम स्वर्ग में बैठे मजा करेंगे और तुम, नरक के जलते हुए कड़ाहों में भरता बनाया जाएगा।
मगर यह मैं ही अपने को समझाता रहा। उनको तो पता भी नहीं चला। वे तो मजे से सोए ही रहे। उस दिन तो मुझे यही लगा कि यह पाप के कारण ही उलटी हो गई। लेकिन फिर धीरे-धीरे मैं बिगड़ा। फिर उलटी वगैरह होनी बंद हो गई।
सच्चरित्र क्या है, कौन निर्णायक है? शंकराचार्य के लिए सच्चरित्र क्या था? शूद्र की छाया भी न पड़ जाए, यह सच्चरित्र था। दक्षिण भारत में शूद्रों को घोषणा करके निकलना पड़ता था कि हम यहां से निकल रहे हैं, अगर कोई हो तो हट जाए। हर रास्ते से तो शूद्र निकल नहीं सकते थे। जिन रास्तों से निकलते भी थे, समय बंधे हुए थे। अगर उन समयों के अतिरिक्त किसी आवश्यक कार्य से निकलना ही पड़े तो उनको घोषणा करनी पड़ती थी कि भाइयो, दूर हट जाओ, मैं शूद्र हूं, मेरी छाया तुम पर न पड़ जाए। क्योंकि छाया भी पड़ जाए तो ब्राह्मण को स्नान करना पड़ता था। शूद्र तो शूद्र है ही, उसकी छाया भी शूद्र।
तुम जरा सोचते हो! और अगर शूद्र की छाया शूद्र हो गई तो शूद्र अगर नदी के पास से निकल जाए, उसकी छाया तो नदी में बन गई, नदी शूद्र हो गई। फिर उसमें नहाओ-धोओ, कितना ही कुछ करो, क्या फायदा? पवित्र रहे, और अपवित्र हो जाओगे।
शंकराचार्य स्नान करके काशी में घाट से ऊपर आ रहे थे। और एक शूद्र ने उन्हें छू लिया। सुबह का अंधेरा था। अभी सूरज निकला नहीं था। पूछा, तू कौन है? उसने कहा कि क्षमा करें, मैं शूद्र हूं और भूल से आपसे टक्कर लग गई। अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ा।
शंकराचार्य एकदम नाराज हो गए। जो व्यक्ति कहता था कि संसार माया है, है ही नहीं, वह भी शूद्र को सत्य मानता है। वह भी शूद्र के छूने को सत्य मानता है। संसार माया है तो शूद्र संसार के बाहर है? तो शूद्र तो बड़े वजनी मालूम होते हैं। मतलब ठीक-ठीक ब्रह्म के समकक्ष मालूम होते हैं। एक ब्रह्म सत्य और एक शूद्र सत्य। बस दो ही सत्य, जगन्मिथ्या, ब्रह्म सत्यम्, शूद्र सत्यम्। बस दो सत्य बचे दुनिया में।
वह शूद्र भी थोड़ा ज्ञानी था, तभी तो गंगास्नान करने गया था। उसने कहा कि शरीर को शरीर छू गया, इसमें क्या इतने नाराज होने की बात है? तुम भी मिट्टी मैं भी मिट्टी; अरे, यह शरीर तो मिट्टी में गिर जाएगा। और तुम्हीं तो समझाते हो। कल ही रात तो तुम समझा रहे थे कि संसार माया है; है ही नहीं, भ्रांति है, स्वप्नवत है। तो अगर स्वप्नवत शूद्र छू गया तो इसमें इतना चिल्लाने की क्या जरूरत है? इतने नाराज होने की क्या जरूरत है?
लेकिन शंकराचार्य तो भनभनाते हुए वापस गए। फिर से स्नान किया। तब कहीं पवित्र हुए। संसार असत्य है, गंगा सत्य है! संसार असत्य है, स्नान सत्य है!
सच्चरित्रता क्या है? किसको सच्चरित्र कहोगे?
नहीं, इन ऊपर के मापदंडों से कुछ भी तय न होगा। जो बात एक देश में चरित्र है, दूसरे देश में दुश्चरित्रता हो जाती है। जो बात एक जगह सही है, दूसरी जगह गलत हो जाती है। सिर्फ एक चीज कहीं गलत नहीं होती है, वह है समाधि। वह है चित्त का शून्य हो जाना, निर्विचार हो जाना, निर्विकल्प हो जाना।
मैं तो समाधि को ही उत्तम कहूंगा। फिर समाधि से जो भी निकले, वह उत्तम है। और समाधि से भिन्न-भिन्न बातें निकलेंगी, यह भी स्मरण रहे। क्योंकि समाधि के पास कोई बंधे-बंधाए उत्तर नहीं होते। समाधि तो एक दर्पण है। जैसी परिस्थिति होगी, उस परिस्थिति का प्रतिफलन समाधि में बनता है। और समाधि से उस परिस्थिति के अनुकूल उत्तर निकलता है।
तो समाधिस्थ व्यक्ति कभी तलवार भी हाथ में ले सकता है, कोई अड़चन नहीं। मोहम्मद तलवार हाथ में लिए रहे। कृष्ण ने सुदर्शन-चक्र हाथ में ले लिया। समाधिस्थ व्यक्ति नग्न भी खड़ा हो सकता है। महावीर नग्न खड़े हुए, डायोजनीज नग्न खड़ा हुआ। समाधिस्थ व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, जो उसकी अंतस-चेतना में उस घड़ी, उस क्षण, उस पल में सम्यक मालूम होता है।
और इसीलिए समाधिस्थ व्यक्तियों के चरित्रों में भेद होगा। महावीर और बुद्ध के चरित्र में भेद है। दोनों समसामयिक थे। दोनों समाधिस्थ थे। लेकिन दोनों के चरित्र में भेद है। भेद होगा, क्योंकि दोनों अलग ढंग के व्यक्ति थे। दो व्यक्ति एक जैसे होते ही नहीं, कभी नहीं हुए, कभी नहीं होंगे। कोई किसी की कार्बन कापी नहीं है।
मोहम्मद और जीसस के चरित्र में भेद है। जीसस और मूसा के चरित्र में भेद है। मूसा और जरथुस्त्र के चरित्र में भेद है। जरथुस्त्र और लाओत्सु के चरित्र में भेद है। सभी समाधिस्थ हैं। एक बात में अभेद है कि सभी परम मौन को उपलब्ध हुए हैं। सभी दर्पण बन गए हैं। वही उत्तम है। फिर उस दर्पण में जो दिखाई पड़ता है उसके अनुकूल व्यवहार करना पड़ेगा। समय बदलेगा, व्यवहार बदलेगा। परिस्थिति अलग होगी, व्यवहार बदलेगा। परिस्थिति के अनुकूल क्रिया होगी। इसलिए चरित्र से कुछ तौल नहीं होने वाली।
और उनसे पूछा गया, ‘एक तत्व क्या है?’ तो उन्होंने कहा, ‘अद्वितीय शिव-तत्व।’
एक तत्व का तो नाम नहीं दिया जा सकता। नाम दिया कि झंझट शुरू हुई। तुम कहोगे, शिव-तत्व; कोई कहेगा, ब्रह्मा-तत्व; कोई कहेगा, विष्णु-तत्व। फिर झगड़ा शुरू हुआ। नाम आया कि झगड़ा शुरू हुआ। नाम आया कि विवाद शुरू हुआ। उस एक को तो अनाम ही कहना होगा। उस एक को तो नाम नहीं दिया जा सकता। नाम दिया कि तुमने दो की शुरुआत कर दी। अगर उसको कहो प्रकाश तो फिर अंधकार क्या है? प्रकाश कहा कि अंधकार को स्वीकार कर लिया। अगर उसको कहो जीवन तो फिर मृत्यु क्या है? अगर उसको कहो शिव तो फिर अशिव क्या है? शब्द का तो हमेशा ही विपरीत शब्द होता है। हर शब्द का विपरीत शब्द होता है। दिन है तो रात है, गर्मी है तो सर्दी है, जवानी है तो बुढ़ापा है, हर शब्द दुई से भरा होता है, द्वैत से भरा होता है। शब्दों के अर्थ ही द्वैत में होते हैं। अगर द्वैत न हो तो अर्थ ही खो जाएं। इसलिए उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता।
तत्वं किमेकं शिवमद्वितीयं।
नहीं, मैं तो कहूंगा उसका कोई नाम नहीं। अगर कोई पूछे कि एक तत्व क्या है, तो अनाम। इसी अनाम की घोषणा करने के लिए लाओत्सु ने ताओ शब्द का उपयोग किया। ताओ शब्द का कोई अर्थ नहीं होता। लाओत्सु ने लिखा है कि उसका कोई नाम नहीं है। लेकिन तुम्हें समझाने के लिए, काम चलाने के लिए मैं ताओ शब्द का उपयोग कर रहा हूं; यह उसका नाम नहीं है, सिर्फ इशारा है, कामचलाऊ है।
इसलिए हमने इस देश में ओम को खोजा। ओम अकेला शब्द है हमारे पास जो वर्णमाला से नहीं बना है, जो वर्णमाला के बाहर है, जो बारहखड़ी के बाहर है। उसका तो सिर्फ प्रतीक है। जैसे चीन में ताओ प्रतीक है वैसा ओम हमारा प्रतीक है। इसलिए तुम जान कर हैरान होओगे कि ओम से न तो हिंदुओं को कोई विरोध है, न जैनों को कोई विरोध है, न बौद्धों को कोई विरोध है, न सिक्खों को कोई विरोध है। इस देश में ये चार धर्म पैदा हुए। इन चारों धर्मों में हर चीज पर मतभेद है। लेकिन एक चीज पर मतभेद नहीं है--ओम पर। क्या कारण होगा कि एक शब्द पर ये चारों राजी हैं? कारण यही है कि ओम किसी की बपौती नहीं, किसी भाषा का शब्द नहीं, सिर्फ ध्वनि मात्र है। सिर्फ संगीत का प्रतीक है।
क्या है वह एक तत्व? अनाम संगीत। अनाहत नाद। मैं उसे शिव-तत्व नहीं कहूंगा। क्योंकि शिव-तत्व तो उस त्रिमूर्ति का हिस्सा है, जहां ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों मिल कर एक परमात्मा की तीन छवियां बनाते हैं। और शिव-तत्व का अर्थ होता है: शुभ। फिर अशुभ कहां जाएगा? अशुभ भी उसी में समाविष्ट है।
शंकराचार्य कहते हैं, ‘कौन सुख छोड़ना चाहिए? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही।’
अब इसमें एक बात तो यह मान ही ली गई कि स्त्री में सुख होता है, जो कि निपट नासमझी की बात है। स्त्री में क्या खाक सुख होता है! शंकराचार्य यह मान कर ही चल रहे हैं कि स्त्री में सुख होता है, उसको छोड़ना ही सबसे बड़ा छोड़ना है; वही सुख छोड़ने योग्य है। सुख है, यह तो स्वीकार कर लिया। और अगर सुख है तो फिर छोड़ोगे कैसे? फिर तो तुमने द्वंद्व खड़ा किया। सुख को कोई भी नहीं छोड़ सकता। दुख ही छोड़ा जा सकता है। सुख को छोड़ने की कोई संभावना ही नहीं है। सुख तो हमारी स्वाभाविक आकांक्षा है। हम दुख को ही छोड़ सकते हैं। तो जो चीज भी हम जान लेते हैं दुख है, वह छूटने लगती है; और जिसको हम जानते रहते हैं सुख है, उसको हम पकड़े रहते हैं।
यह कहना: त्याज्यं सुखं किं स्त्रियमेव। कौन सुख छोड़ना चाहिए? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही। इसमें मान ही लिया गया कि स्त्री में सुख होता है। और यह तो पुरुषों को कहा। अब अगर स्त्री पूछे तो उनसे क्या कहोगे? उनसे कहना पड़ेगा, पुरुषों का सुख। लेकिन पुरुष में क्या सुख होता है? स्त्री में क्या सुख होता है? भ्रांति है, सुख तो नहीं। और भ्रांतियों को छोड़ना नहीं होता है, जानना होता है, पहचानना होता है। पहचानते ही से भ्रांति समाप्त हो जाती है। जैसे रस्सी में किसी को सांप दिखाई पड़ा। शंकराचार्य तो इसका बहुत उदाहरण लेते हैं।
मेरे गांव में एक कबीरपंथी महंत थे, स्वामी साहबदास जी। उनके व्याख्यानों में मुझे बहुत आनंद आता था। उनके व्याख्यान अदभुत थे; ऐसे अंट-संट कि कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा। उनको देख कर मुझे यह कहावत अचूक याद आती थी। उनसे कोई भी प्रश्न पूछ लो। और मैं उनसे ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछता था जिनमें अनिवार्यरूपेण उनको भानुमती का कुनबा जोड़ना पड़े।
जैसे मैं उनसे पूछूंगा कि साहबदास जी, यह समझाइए कि वेद में समाजवाद कहां है? और वे समझाना शुरू कर दें। वेद में समाजवाद! मगर वे इस तरह से उलटा-सीधा करना शुरू करें और इतनी मेहनत करें बेचारे, किसी की समझ में आए या न आए, मगर वे समझाने की कोशिश करें कि वेद में ही से समाजवाद का जन्म हुआ है। अरे, ये कार्ल मार्क्स जर्मन है। ये जर्मनी के लोग वेद ले भागे! उसी में से तो सब निकाला--हवाई जहाज, समाजवाद, रेलगाड़ी।
मैं उनसे कहता, लेकिन आपके पास तो वेद है, उसमें से आप जरा उल्लेख तो करके बताइए! वे कहें कि यह कोई असली वेद है! अरे, असली वेद तो जर्मन चुरा कर ले गए। यह तो नकली बचा, इसमें कहां मिलेगा!
वे बड़ी ऊंची बातें कहते थे। और यह उनका खास उदाहरण था, जो कि ज्ञानियों का खास उदाहरण सदियों से रहा है। शंकराचार्य ने शुरू किया यह उदाहरण--सांप में रस्सी, रस्सी में सांप, दोनों की भ्रांति हो सकती है। कभी सांप रस्सी मालूम पड़ सकता है अगर अकड़ा पड़ा हो, सर्दी में सिकुड़ गया हो सुबह के अंधेरे में। या रस्सी सांप मालूम पड़ सकती है। रज्जु-सर्प भ्रम! साहबदास जी निरंतर इसका उल्लेख करते थे कि अरे, यह संसार क्या है, बस रस्सी में सांप। उनकी सुनते-सुनते एक दिन मुझे खयाल आया कि जांच तो कर ली जाए।
वे रोज रात नौ, साढ़े नौ बजे प्रवचन देकर मेरे मकान की बगल की गली से गुजरते थे। वहीं आगे चल कर उनका आश्रम था। गली में अंधेरा रहता था। उन दिनों वहां कोई बिजली भी न थी। सो मैंने एक रस्सी बनाई। बाजार से एक सांप खरीद कर लाया कागज का। कागज के सांप के मुंह को रस्सी में जोड़ा। रस्सी में पतला धागा बांधा और एक खाट खड़ी करके उसके पीछे छिप कर मैं बैठा रहा। जब साहबदास जी वहां से निकले तो मैंने धीरे से धागा खींचा। धागा तो दिख ही नहीं सकता था। अंधेरी रात, अंधेरे में धागा, काला धागा। रस्सी सरकी, सांप का मुंह हिला। साहबदास जी क्या भागे! गिर पड़े, पैर फिसल गया। मैं भी घबड़ाहट के मारे भागा, क्योंकि अब मैं फंसूंगा। सो वह खाट गिर पड़ी, मैं पकड़ा गया। साहबदास जी ने मुझे रंगे हाथों पकड़ लिया। और उनको तो काफी चोट आई थी। कोई छह सप्ताह तक पलस्तर बंधा रहा।
वे पकड़ कर मेरे पिता के पास मुझे ले गए। और कहा कि अब हद हो गई, यह लड़का क्या जान लेगा मेरी? एक तो मेरी सभाओं में अंट-संट सवाल उठाता है। अगर जवाब न दूं तो भद्द होती है; अगर जवाब दूं तो भद्द होती है। और आज तो इसने हद कर दी। वह तो मेरे जैसा मजबूत काठी का आदमी था कि जिंदा रह गया। अरे, अंधेरे में चलता हुआ सांप दिखाई पड़े तो कोई भी भाग खड़ा हो।
मैंने कहा, साहबदास जी, आप ही तो समझाते थे कि यह संसार जो है रस्सी में सांप जैसा, तो मैंने समझा आप तो ऐसे ज्ञानी! यह तो परीक्षा के लिए मैंने किया था।
कहा कि चुप! इस तरह की परीक्षाएं, किसी की जान लेना है?
और मैंने कहा, आप एक दफे तो सोच लेते--रज्जु-सर्प भ्रम। एक दफे भी न सोचा, एकदम भाग ही खड़े हुए! और मैंने कहा, मेरा इसमें कोई कसूर नहीं है। श्रोताओं को अधिकार है कि जो कहा जाए उसकी परीक्षा भी तो की जाए कि यह आदमी मानता भी है कि सिर्फ कहता ही है। और आपको मैं कम से कम पांच-सात साल से सुन रहा हूं, ऐसा कोई दिन नहीं गया जिस दिन यह रज्जु-सर्प भ्रम की चर्चा न उठती हो। सारा मायावाद ही इस पर खड़ा हुआ है। तो आपको इतना तो होश रखना था कि अरे, बहुत से बहुत असली भी सांप अगर होगा तो भी तो माया ही है। असली भी होगा समझ लो, तो भी कहां से असली होगा? है तो माया ही। नकली हुआ तब तो है ही नकली, असली हुआ तो भी नकली है। यह तो सीधा तर्क था।
उस दिन से उन्होंने रज्जु-सर्प भ्रम की बात करनी बंद कर दी। मैं उनकी सभा में जाऊं भी तो मेरी तरफ गुस्से से देखें। एक-दो दफा मैंने पूछा भी कि साहबदास जी बहुत दिन से रज्जु-सर्प की बात नहीं समझाई।
कि तू चुप रह भइया! अब ऐसी बातें समझा कर क्या और हड्डी-पसली तुड़वानी है।
और उस गली से भी उन्होंने निकलना बंद कर दिया। वे चक्कर लगा कर काफी दूर से जाने लगे।
एक तरफ चिल्लाते रहे ये लोग कि यह सारा संसार माया है, फिर भी इसमें स्त्री का सुख माया नहीं! इसमें स्त्री में सुख है। और यह सुख त्याज्य है। बस यही त्याग करने योग्य है, यहां कुछ और त्याग करने योग्य नहीं है।
मैं तुमसे कहता हूं, त्याग करने योग्य मन है, और कुछ भी नहीं। स्त्री हो, कि धन हो, कि पद हो, प्रतिष्ठा हो; सब मन के ही खेल हैं। स्त्री तो बस एक खेल है। स्त्री के लिए पुरुष एक खेल है। और स्त्री से मुक्त हो जाना कोई कठिन मामला नहीं है। सभी पति अपनी पत्नी से मुक्त हो जाते हैं। सभी पत्नियां अपने पतियों से मुक्त हो जाती हैं। वह तो दूसरों की रस्सियों में सांप दिखाई देते रहते हैं, करो क्या? अपनी रस्सी को तो सभी पहचान लेते हैं कि रस्सी ही है भइया, कुछ खास नहीं। कितना ही साड़ी वगैरह पहनाओ, है रस्सी। कितना ही रंग-रोगन पोतो, कितना ही कोट वगैरह पहनाओ, है रस्सी! पति-पत्नियां अच्छी तरह पहचान लेते हैं। तभी तो एक-दूसरे की तरफ देखते भी नहीं, ऐसे मुक्त हो जाते हैं।
हां, दूसरों की पत्नियों में अभी भी दिखता है कि पता नहीं, साड़ी के भीतर रस्सी न हो, कुछ और हो! कोट पहने चले जा रहे हैं एक सज्जन; अब पता नहीं कि कंधों के भीतर रुई भरी है कि सच में कंधे इतने मजबूत हैं! वृषभ देव हैं या सिर्फ रुई भरी है? छाती बड़ी फूली मालूम पड़ रही है। हालांकि खुद की छाती वे जानते हैं कि रुई भरी है। खुद भरवाई है। मगर दूसरों को भ्रम होता रहता है।
सवाल मन का है। और स्त्री से छूट जाओगे तो कहीं और दौड़ोगे। जो लोग धन के पीछे दीवाने हैं अक्सर स्त्रियों से छूट जाते हैं। उनका तो सारा मोह ही धन में लग जाता है। उनको स्त्री वगैरह नहीं सुहाती। वे तो नोट को जब देखते हैं तब उनको लैला की याद आती है। जब वे नोट को छूते हैं, ताजा करंसी का नोट, अभी-अभी निकला हुआ, चला आया अभी-अभी बैंक से। उसको छूते हुए देखो किसी धन के प्रेमी को। क्या तुमने किसी प्रेमी को किसी प्रेयसी को छूते देखा होगा! एकदम उसकी लार टपकती है, गदगद हो जाता है, छाती से लगा लेता है।
पद के लोभी, राजनीति के युद्ध में दौड़ने वाले योद्धा, उनको पत्नियां वगैरह छोड़ने में कोई अड़चन नहीं होती। फुर्सत ही कहां उनको पत्नियां वगैरह की। दिल्ली जाएं कि पत्नी को देखें? चुनाव लड़ें कि पत्नी को देखें? कभी-कभी मिलना-जुलना हो जाता है, बाकी कोई रस नहीं रहता। जिनको एक बार पद का, धन का, प्रतिष्ठा का मोह लग गया, वे इस मोह से बड़ी आसानी से मुक्त हो जाते हैं। ये तो सीधे-सादे लोग हैं जो स्त्री-पुरुषों में उलझे रहते हैं। जो छंटे हुए बदमाश हैं वे तो दूसरी चीजों में लग जाते हैं।
मैं नहीं कहूंगा कि स्त्री के सुख को छोड़ना सबसे बड़ा त्याग है। जब सुख को ही छोड़ने की बात उठी तो जड़ से ही काटो। मन को छोड़ना सबसे बड़ा त्याग है। और मन को छोड़ने का परिणाम समाधि है। मन छोड़ना है, समाधि पानी है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
फिर पूछते हैं, ‘परम दान क्या है? सर्वथा अभय ही।’
यह बात भी कुछ बहुत मतलब की नहीं। क्योंकि जिसको अभय देना हो, पहले तो उसको भयभीत करना पड़े। यह तो सीधी बात है। जब तक किसी को भयभीत न करो, उसको अभय का दान कैसे दोगे? पहले धमकाओ, छाती पर छुरा लगाओ। उसको बिलकुल ऐसी हालत में कर दो कि अब मरा तब मरा, और फिर उसको अभय दान दो।
लोग कहते हैं कि महावीर बड़े दयाशील थे, मैं कहता हूं: गलत! क्योंकि महावीर ने कभी क्रोध नहीं किया, इसलिए दया कैसे करेंगे? दया करने के लिए क्रोध अनिवार्य है। महावीर अक्रोधी थे, दयावान नहीं। बुद्ध को लोगों ने कहा महा-क्षमावान। गलत! क्योंकि क्षमा करने के लिए पहले तो क्रुद्ध हो जाना जरूरी है। या कि तुम सोचते हो कि बिना क्रुद्ध हुए भी क्षमा कर सकते हो?
मदर टेरेसा का मुझे पत्र मिला। उस पत्र में उन्होंने लिखा है कि मैं आपको क्षमा करती हूं।
क्षमा करने का मतलब? मतलब पहले तो भुनभुना गई होंगी। बाई बहुत उचकी-कूदी होगी। नहीं मूंछें कोई बात नहीं, ताव तो दिया ही होगा। दिल में बड़े-बड़े खयाल उठे होंगे कि यह करूं कि वह करूं। फिर खयाल आया होगा कि अरे, मैं ईसाई; कैथोलिक ईसाई। कोई साधारण नहीं--महात्यागी, व्रती। क्षमा कर दूं। मगर क्षमा के पहले तो क्रोध जरूरी है।
मुझसे कोई कहे कि आप मदर टेरेसा को क्षमा कर दो। नहीं कर सकता, कैसे करूं? क्रुद्ध ही नहीं हुआ, क्षमा कैसे कर दूं? क्षमा तो नंबर दो है, क्रोध नंबर एक है। मैं क्षमा नहीं कर सकता, असमर्थ हूं। न महावीर ने किसी को क्षमा किया, न बुद्ध ने किसी को क्षमा किया। हमने गलत समझा। हम उनके अक्रोध को क्षमा समझ लिए। वह हमारी भूल है।
शंकराचार्य कहते हैं, ‘अभय का दान।’
नहीं, यह बात ठीक नहीं है। फिर किस चीज का दान सबसे बड़ा दान है?
मैं तो समाधि से ही सारे सूत्र निकालना चाहता हूं। मन का त्याग--समाधि। और समाधि से जो बहता है--वह प्रेम। वही दान है। क्या अभय? मन को छोड़ो, समाधि मिलती है। समाधि मिले तो जैसे फूल खिल जाएं और सुगंध उड़े, ऐसा समाधि में सहस्रदल कमल खुलता है; तुम्हारी चेतना का कमल खुलता है। और उससे सुगंध उड़ती है। उसको दान कहना भी ठीक नहीं। जिसको लेना हो ले, जिसको न लेना हो न ले। कोई न हो तो भी सुगंध उड़ेगी।
झील में जब फूल खिलेगा तो कोई इसकी फिक्र नहीं करेगा कि कोई आए दर्शक कि नहीं, कि आज बस आई पर्यटकों की कि नहीं। सुगंध तो उड़ेगी ही उड़ेगी। हवाओं में उड़ेगी, चांद-तारों की तरफ उड़ेगी। सूरज की किरणों पर चढ़ेगी। कोई होगा तो ठीक, कोई नहीं होगा तो ठीक। कोयल गीत गाएगी ही गाएगी, कोई सुने कि न सुने। कोई इसकी फिक्र थोड़े ही करेगी कि पहले पता लगाएं कि कोई कवि वगैरह, कोई संगीतज्ञ वगैरह आस-पास हैं भी समझने वाले कि नहीं! कोयल तो गीत गाएगी।
वैसे ही जब भीतर समाधि जगती है तो जैसे दीया जले और रोशनी फैले, ऐसे समाधि से प्रेम फैलता है। मन से मुक्त होने पर समाधि मिलती है। समाधि मिलने पर प्रेम की सुगंध बंटती है। उसे दान कहना भी उचित नहीं है। दान जरा गंदा शब्द है।
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
पयामे-मौत भी मोजिजा है जिंदगी के लिए
चमन में फूल भी हर एक को नहीं मिलते
बहार आती है, लेकिन किसी-किसी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
हमारी खाक को दामन से झाड़ने वाले
सब इस मुकाम से गुजरेंगे जिंदगी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
उन्हीं के शीशा-ए-दिल चूर-चूर हो के रहे
तरस रहे थे वो दुनिया में दोस्ती के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
ये सोचता हूं जमाने को क्या हुआ या रब
किसी के दिल में मुहब्बत नहीं किसी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
हमारे बाद अंधेरा रहेगा महफिल में
बहुत चिराग जलाओगे रोशनी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
पयामे-मौत भी मोजिजा है जिंदगी के लिए
समझ चाहिए! तो मौत भी, मौत का संदेश भी, जिंदगी का जादू ही लाता है।
ये सोचता हूं जमाने को क्या हुआ या रब
किसी के दिल में मुहब्बत नहीं किसी के लिए
कुछ और नहीं हुआ है। कभी मुहब्बत नहीं रही किसी के लिए। यह कुछ आज नहीं हुआ है। मुहब्बत तो उन थोड़े-से लोगों ने जानी है जिन्होंने अपने समाधि के फूल को खिलाया है।
बहार आती है, लेकिन किसी-किसी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
बहार तो आती है, और मैं तुमसे कहता हूं सभी के लिए आती है, लेकिन सभी के लिए आ नहीं पाती। आती तो है किसी-किसी के लिए। बहार तो आ जाती है, मगर तुम्हारे फूल तो तुम्हें पता ही नहीं। तुम्हारे फूलों पर तो तुम्हारे मन के पत्थर चढ़े बैठे हैं। चट्टानों के नीचे दबे हैं तुम्हारे फूल, तुम्हारे बीज।
बहार आती है, लेकिन किसी-किसी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
चमन में फूल भी हर एक को नहीं मिलते
मिल तो सकते हैं, मिलते नहीं यह और बात है। जिम्मा हमारा है। कसूरवार हम हैं। सोचने के ढंग अगर गलत होंगे तो न फूल खिलेंगे, न गंध उड़ेगी।
इस पूरे शंकराचार्य के सूत्र को अगर मुझसे कोई पूछे तो मैं कहूंगा: मन से मुक्ति सबसे बड़ी मुक्ति। समाधि की उपलब्धि, सबसे बड़ी उपलब्धि। समाधि में जो जाना जाता है--अनाम, ओंकार, ताओ--वह सबसे बड़ा अनुभव। और समाधि से जो सहज गंध उठती है, रोशनी बिखरती है--प्रेम--वही सबसे श्रेष्ठ दान।
आज इतना ही।
भगवान, आपने उस दिन आद्य शंकराचार्य का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया था, उस पर विस्तार से प्रकाश डालें-- तत्वं किमेकं शिवमद्वितीयं, किमुत्तमं सच्चरितं यदस्ति। त्याज्यं सुखं किम् स्त्रियमेव, सम्यग देयं परमं किम् त्वभयं सदैव।। एक तत्व क्या है? अद्वितीय शिव-तत्व ही। सबसे उत्तम क्या है? सच्चरित्र। कौन सुख छोड़ना चाहिए? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही। परम दान क्या है? सर्वदा अभय ही।
सहजानंद, मैं तो इस सूत्र से किसी भी भांति राजी नहीं हो सकता हूं। इसमें बुनियादी भ्रांतियां हैं। जैसे: ‘सबसे उत्तम क्या है?’ शंकराचार्य कहते हैं: ‘सच्चरित्र।’
सबसे उत्तम है समाधि। सच्चरित्रता तो समाधि की सहज परिणति है, परिणाम है। समाधि है तो चरित्र अपने आप चला आता है, जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया चली आती है। अब कोई पूछे कि तुम दोनों में कौन महत्वपूर्ण है--छाया या तुम? तो आद्य शंकराचार्य कुछ भी कहें, मैं तो यही कहूंगा कि तुम महत्वपूर्ण हो। क्योंकि छाया तुम्हारे पीछे आती है। छाया अनुषंग है। छाया को तुम्हारे बिना लाया नहीं जा सकता। और तुम चाहो तो भी छाया को छोड़ कर नहीं आ सकते। छाया तुमसे संयुक्त है। लेकिन छाया की कोई आत्मा नहीं है। आत्मा तो तुम हो। तो आत्मा को श्रेष्ठ तत्व कहूं या छाया को? आद्य शंकराचार्य की भी सील लगी हो तो भी मैं क्या करूं?
लेकिन इस तरह के भ्रांतिपूर्ण वचनों ने मनुष्य को बहुत भरमाया, बहुत भटकाया है। जब सच्चरित्रता को हम श्रेष्ठ कह देते हैं तो लोग समाधि की चिंता छोड़ कर चरित्रवान बनने की चेष्टा में लग जाते हैं। और चरित्र तो बनेगा कैसे? चरित्र तो आएगा कहां से?
हां, यह तुम कर सकते हो कि जमीन पर चाहो तो स्याही फैला कर छाया बना लो। मगर वह छाया छाया नहीं होगी। न तो सूरज के साथ बढ़ेगी न घटेगी, न दिन और रात के कारण उसमें कोई भेद पड़ेगा। उसमें कोई जीवन ही न होगा। वह तो मुर्दा होगी। वह परिस्थिति के अनुकूल रूपांतरित नहीं हो सकेगी। उसमें लोच नहीं होगी। उसे छाया कहना भी ठीक नहीं। वह तो केवल छाया की भी तस्वीर है।
छाया का भी एक अपना जीवन होता है।
एक लोमड़ी सुबह-सुबह उठी। और उसने ऊगते सूरज में बनी अपनी छाया देखी, बहुत लंबी छाया। सोचा मन में...। लोमड़ी ही थी। जब आद्य शंकराचार्य ऐसा सोच सकते हैं तो लोमड़ी को तो तुम क्षमा कर देना। सोचा उसने कि जब मेरी छाया इतनी बड़ी है तो आज मुझे नाश्ते में अगर एक हाथी न मिला तो भूखी मर जाऊंगी। हाथी न मिले तो कम से कम ऊंट तो मिले ही मिले। नाश्ते के लिए। उसका तर्क ठीक है। लोमड़ियां बड़ी तर्कशास्त्री होती हैं। छाया जब इतनी बड़ी है तो मूल कितना बड़ा न होगा! सीधा गणित है। और लोमड़ी जब हाथी या ऊंट की तलाश में निकली तो कहां पाती? दोपहर हो गई। पेट पीठ से लगने लगा। भूख भारी। मगर जब तक ऊंट या हाथी न मिले, नाश्ता कैसे करे? भूखे हालात में थोड़ा बोध आया। भूख जगा सकती है। पीड़ा जगाती है। यह पीड़ा का उपकार है। दुख सोने नहीं देता। यह दुख की अनुकंपा है। सुख में आदमी भटक जाए, दुख में नहीं भटक सकता।
भूख ने थोड़ा बोध दिया। कहते हैं न, भूखे भजन न होंई गोपाला! भूखी इतनी थी कि क्या खाक हाथी और ऊंट की बातें सोचती। सोच उठा कि एक बार फिर से छाया को तो देख लूं। कहीं देखने में कुछ भूल तो नहीं हो गई! और जब छाया देखी तब सूरज सिर पर आ गया था। छाया सिकुड़ कर बहुत छोटी हो गई थी। बस लोमड़ी के नीचे ही बन रही थी। लोमड़ी खिलखिला कर हंसने लगी। और उसने कहा कि हद हो गई! भूल की भी हद हो गई! अब तो एक चींटी भी मिल जाए तो भी पेट भर जाए। जब इतनी छोटी छाया है तो मूल कितना छोटा न होगा!
लेकिन छाया से सोचोगे तो यह उपद्रव होने ही वाला है। चरित्र तुम्हारे जीवन की परिधि है, तुम्हारे जीवन का प्राण नहीं। अगर चरित्र को तुमने मूल्यवान माना, जैसे कि सदियों से आदमी मानता रहा है, तो इसके दो ही परिणाम होते हैं। जो चालबाज होते हैं वे पाखंडी हो जाते हैं। जो चालबाज होते हैं वे चेहरे ओढ़ लेते हैं, मुखौटे लगा लेते हैं। कहते कुछ हैं करते कुछ हैं, बताते कुछ हैं, जीते कुछ हैं। उनके बताने में और जीने में विपरीतता होती है। उनके कहने में और करने में विरोध होता है। स्वभावतः, उस विरोध को छिपाना पड़ता है।
इसलिए उनका एक जीवन में दरवाजा होता है जो सामने का दरवाजा है और एक दरवाजा होता है जो पीछे का दरवाजा है। पीछे के दरवाजे से जीते हैं, सामने के दरवाजे पर तो केवल मेहमानों का स्वागत करते हैं। वह जो मुस्कुराहट, वह जो बैठकखाने की सजावट, वह सब सामने के दरवाजे पर है। वे अच्छी-अच्छी बातें, वे प्यारे-प्यारे शब्द, वह शिष्टाचार, सभ्यता, वह सब बाहर के दरवाजे पर है, भीतर के दरवाजे पर तुम बिलकुल दूसरे ही आदमी को पाओगे--खूंखार, जंगली!
देखते हो तुम रोज यह होते। मस्जिदों में लोग प्रार्थना कर रहे हैं, नमाज पढ़ रहे हैं। मंदिरों में पूजा हो रही है। और पूजा के बाद निकलते हैं और मस्जिदों में आग लगा देते हैं। और मस्जिदों की नमाज के बाद निकलते हैं और मंदिरों को जला कर खाक कर देते हैं। मंदिरों में और मस्जिदों में नमाज करने के बाद एक-दूसरे की छाती में छुरे भोंक सकते हैं। न कोई शर्म है, न कोई लाज है, न कोई संकोच है। असली आदमी कौन है? वह जो नमाज में झुक रहा था, वह? या अब यह जो खून का प्यासा होकर तुम्हारे सामने खड़ा है, यह? असली कौन है? वह जो मंदिर में घंटे बजा रहा था, थाली में दीप सजा कर आरती उतार रहा था, फूल की मालाएं पत्थर की मूर्ति के चरणों में रख रहा था, वह? या जिसने अब तुम्हारी मस्जिद में आग लगा दी है, वह? कौन है सच्चा आदमी इन दोनों में? और यह एक ही आदमी कर रहा है दोनों काम।
चालबाज पाखंडी हो जाते हैं। पाखंड का केवल इतना ही अर्थ होता है: कहेंगे कुछ, करेंगे ठीक उससे उलटा। और जितना उलटा करेंगे उतना ही उन्हें शोरगुल मचाना पड़ेगा, ताकि जो किया है वह शोरगुल में छिप जाए, दब जाए। उन्हें नए से नए मुखौटे तैयार करने पड़ेंगे। उन्हें अपने चेहरे को हमेशा रंगे रहना होगा। उन्हें वस्त्रों के भीतर अपनी नग्नता को छिपाना होगा।
तो एक तो यह परिणाम हुआ--सच्चरित्र को श्रेष्ठ घोषित करने का--कि चालबाज पाखंडी हो गए। और जो सीधे-सादे लोग हैं, जिनमें इतनी राजनीति, इतनी कूटनीति नहीं कि पाखंडी हो जाएं, उनका जीवन अपराध-भाव से भर गया। क्योंकि करना तो उन्हें वही पड़ता है जो प्रकृति उनसे करवाती है। अभी इतना बोध कहां? अभी वह समाधि का दीया कहां कि जिसकी रोशनी में चलें? चलना तो अंधेरे में है। और समझाने वाले समझा गए कि टकराना मत दीवारों से, टकराना मत किसी और चीज से, सीधे दरवाजे से निकलना। दरवाजे से निकलना ही सच्चरित्रता है। जो दीवार से टकराए वह चरित्रहीन है।
मगर जिसके पास रोशनी नहीं, जिसके पास ध्यान का दीया नहीं, जिसके पास समाधि का जागरण नहीं, विवेक नहीं, वह टकराएगा न तो क्या करेगा? वह तो टकराएगा ही टकराएगा। यह टकराहट अपरिहार्य है, अनिवार्य है। दीवार से टकराएगा, फर्नीचर से टकराएगा। इधर गिरेगा, उधर गिरेगा। बेईमान होता, चालबाज होता तो अपने गिरने को छिपा लेता। लेकिन सीधा-सादा आदमी है तो अपने मन में ग्लानि अनुभव करता है, अपराध का भाव अनुभव करता है कि मैं पापी, महापापी, कि मैं ठीक से सम्हल कर चल भी नहीं पाता, गिर-गिर जाता हूं, दरवाजा भी नहीं खोज पाता हूं! कैसे जघन्य अपराध नहीं किए होंगे मैंने पिछले जन्मों में! कैसे महान पातकों से नहीं मेरी छाती दबी है! मेरा कैसे उद्धार होगा?
और जिस व्यक्ति के मन में अपराध-भाव पैदा हो जाता है उसकी आत्म-श्रद्धा खो जाती है। जिसे अपने पर भरोसा न रहा, उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। जिसके मन में अपने प्रति सम्मान न रहा, अब उसका किसके प्रति सम्मान हो सकता है? जिसने अपने गिरने को देखा, वह अब दूसरों के गिरने को भी बढ़ा-चढ़ा कर देखेगा।
और जिसने अपने गिरने को देखा और लाख वचन लिए, लाख कसमें खाईं, व्रत लिए, फिर भी गिरते देखा अपने को, वह एक बात तो पक्की ही समझ लेगा कि यह अपने वश के बाहर है यह क्रांति। यह तो कोई अवतारी पुरुष, कोई तीर्थंकर, कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई जरथुस्त्र, कोई जीसस--यह तो कुछ उन थोड़े-से लोगों का काम है जो आकाश से उतरते हैं। हम तो पृथ्वी पर पैदा हुए, मिट्टी के पुतले हैं।
आदमी शब्द का अर्थ होता है, मिट्टी का पुतला। आदमी शब्द बनता है हिब्रू अदम से। अदम का अर्थ होता है, लाल मिट्टी। जेरूसलम की मिट्टी लाल है। और ईश्वर ने जेरूसलम की मिट्टी से पहला आदमी बनाया, इसलिए उसका नाम अदम। और उससे ही फिर आदमी बना। तो हम तो मिट्टी हैं। फिर लाल हो कि काली हो कि भूरी हो, क्या फर्क पड़ता है! मिट्टी के पुतले हैं। चार दिन का खेल है। यह हमारी बिसात के बाहर है। यह क्रांति हमसे न हो सकेगी।
जब अपने प्रति अपराध का भाव पैदा हो जाए तो अपने प्रति निंदा और अपमान भी पैदा हो जाता है। और जब जीना ही है, गलत ही जीना है, तो फिर क्यों न जी भर कर जीएं? फिर क्या सार है कि रोएं? क्यों रोने में समय गंवाएं?
तो अपराध का भाव आत्म-सम्मान का विनाश कर देता है, जो कि समस्त धर्म की आधारशिला है। और अपराध का भाव जब अपने को सम्मान नहीं देता तो दूसरे को कैसे सम्मान देगा? जो अपने को प्रेम नहीं करता, वह किसी को भी प्रेम न कर सकेगा। जो अपने पर धोखा अनुभव करता है कि मैं धोखेबाज हूं, वह हरेक को धोखेबाज देखेगा। हम दूसरों को अपनी ही नजर से तो देखते हैं। और तो हमारे पास कोई मापदंड भी नहीं है, तराजू भी नहीं है, तौलने का कोई और उपाय भी नहीं है। और तो कोई परख भी नहीं। जौहरी की और कोई कसौटी भी तो नहीं। तो वह अपनी ही नजर से सबको देखेगा। वह सब तरफ देखेगा कि लोग अपराधी हैं, सब तरफ बेईमान हैं, सब तरफ चोर हैं।
इसलिए तो जब तुमसे कोई किसी की निंदा करता है तो तुम कभी संदेह नहीं करते; तुम तत्क्षण मान लेते हो। लेकिन कोई किसी का सम्मान करे, समादर करे, कोई किसी की प्रशंसा करे, तो तुम हजार तर्क उठाते हो कि नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? अरे, हमने बहुत देखे! आज नहीं कल सब ढोलों में पोल निकलती है। जब कोई किसी को कहता है संत तो तुम्हारे मन में तत्क्षण संदेह उठता है। और जब कोई कहता है फलां आदमी चोर है, बेईमान है, लफंगा है, लुच्चा है, तुम कहते हो हमें पहले से ही पता है। क्या तुम हमें बता रहे हो! अरे, हमें एक-एक आदमी की जड़ों का पता है।
असलियत यह है कि तुम्हें अपनी जड़ों का पता है। और अपने से तुम इतने बेचैन हो गए हो और अपने से तुम इतने परेशान हो गए हो, अपने से इस बुरी तरह हार गए हो कि तुम किसकी कसमों का भरोसा करो, तुम किसके आश्वासनों को मानो, तुम किसके व्रतों को स्वीकार करो? खुद का सम्मान गया, सबका सम्मान गया। और जब जीना ही है असम्मान में तो फिर क्या कमी करनी? जब जुआ खेलना ही है तो फिर जी भर कर खेलना। और जब शराब पीनी ही है तो फिर क्या छिपा कर पीनी। और जब चोरी करनी है तो ठीक है, चोरी ही करेंगे। यही हमारा भाग्य, यही हमारी विधि।
ये दो तरह के लोग तुम्हारे धर्मों ने पैदा किए हैं--पाखंडी और अपराधी। और सारी मनुष्यता करीब-करीब इन दो तरह के लोगों में बंट गई है। जो पाखंडी हैं, वे तुम्हारे संत हो जाते हैं, साधु हो जाते हैं, महात्मा हो जाते हैं। जो सीधे-सादे लोग हैं वे तुम्हारे पृथकजन, सामान्यज न, अपराधी; उनका काम है कि धर्मसभाओं में बैठें और पंडितों-पुरोहितों और महात्माओं की ऊंची-ऊंची बातें सुनें। हालांकि उन्हें भरोसा नहीं आता। हालांकि वे जानते हैं कि ये सब बातें हैं। लाख उपाय करते हैं तो भी वे जानते हैं ये सब बातें हैं, यह सब ऊपर का ढोंग है, भीतर कुछ और होगा। भीतर राज कुछ और होना ही चाहिए। सुन लेते हैं, क्योंकि और भी भीड़ सुन रही है। न सुनें तो अहित होता है। सुनें तो हित होता है। सामाजिक प्रतिष्ठा मिलती है, सम्मान मिलता है, सत्कार मिलता है। और पाखंडी भी भलीभांति जानते हैं कि वे लाख तुम्हें समझाएं, तुम समझोगे नहीं। अपने को नहीं समझा सके, तुम्हें क्या समझाएंगे।
ऐसा एक विराट धोखा पैदा हुआ है। और इस धोखे के पीछे आद्य शंकराचार्य जैसे लोगों के वक्तव्य हैं।
कहते हैं वे: ‘सबसे उत्तम क्या है? सच्चरित्र।’
नहीं, मैं स्पष्ट करना चाहता हूं, सबसे उत्तम है समाधि। हां, जहां समाधि है वहां सच्चरित्रता अपने आप है। सच्चरित्रता बिना समाधि के कागज का फूल है--न सुगंध, न प्राण; रंग झूठे, पोते हुए। न सूरज से नाता, न चांद-तारों से। न पृथ्वी से संबंध, न रस की कोई धार बहती। कागजी फूल, बस देखने में फूल मालूम हो सकते हैं।
लेकिन समाधि की जड़ें जिसको उपलब्ध हो गई हैं, जिसने अपने भीतर के शून्य को अनुभव किया; जिसने अपने भीतर के शून्य में अपने पूर्ण को पहचाना; जो अपने भीतर मौन हुआ, ऐसा मौन हुआ, ऐसा डूबा कि जब लौटा तो नया होकर लौटा, पुनर्जन्म लेकर लौटा; द्विज हुआ, दुबारा जन्म पाया।
समाधि का अर्थ है: मन के पार हो जाना। फिर लौट आओ मन में। लौट आओगे तो भी तुम पार ही रहोगे। कुछ फर्क न पड़ेगा। फिर लौट आओ संसार में, कुछ फर्क न पड़ेगा। संसार में भी रहोगे तो भी तुम संसार के बाहर रहोगे।
तेरे करीब तेरे आस्तां से दूर रहे
वहीं खयाल रहा, हम जहां से दूर रहे
करीब आए तो खुद जाने-एतिबार थे
वही जो मुद्दतों वहमो-गुमां से दूर रहे
किसे ये फिक्र कि अंजामे-इश्क क्या होगा
किसे ये होश कि राहे-जियां से दूर रहे
वो हर्फे-शौक जो तम्हीदे-आरजू ठहरे
खुदा करे कि मेरी दास्तां से दूर रहे
ये मयकदा है यहां मेहरो-माह पलते हैं
कहो कि खेमा-ए-जुल्मत यहां से दूर रहे
वो हमसफर भी निहायत अजीज है ‘ताबां’
चले जो साथ मगर कारवां से दूर रहे
यही संन्यास की परिभाषा है--
वो हमसफर भी निहायत अजीज है ‘ताबां’
चले जो साथ मगर कारवां से दूर रहे
यूं तो भीड़ में और फिर भी भीड़ के बाहर। जो चले तो साथ, मगर कारवां से दूर रहे।
तेरे करीब तेरे आस्तां से दूर रहे
वहीं खयाल रहा, हम जहां से दूर रहे
एक बार समाधि का स्वाद मिल जाता है तो फिर बाजार में भी वही मौन है, वही सन्नाटा है, वही शून्य है, जो हिमालय की गुफाओं में है। हिमालय की गुफाओं में भी थोड़ा शोर-शराबा होगा, लेकिन स्वयं के हृदय की गुफा में कोई तरंग नहीं है। वहां तो शून्य अपनी पूर्णता पर है। उसका जरा-सा स्वाद, और जीवन एकदम नया हो जाता है। उस जीवन की नई शैली का नाम सच्चरित्रता है।
यह मेरी परिभाषा है: समाधि से जो जीवन-व्यवहार निकलता है, वह सच्चरित्रता है; असमाधि से जो जीवन-व्यवहार निकलता है, वही दुश्चरित्रता है। इसलिए यूं भी समझ लो कि तुम लाख ऊपर से आरोपण कर लो चरित्र का, अगर तुम्हारे भीतर अभी समाधि का अनुभव नहीं जगा है तो तुम्हारा चरित्र जरा-सी खरोंच से उखड़ जाएगा। जरा-सी खरोंच! क्योंकि उसकी गहराई कितनी? कोई एक धक्का दे देगा, कोई एक गाली दे देगा, कोई अपमान के दो शब्द बोल देगा, और तुम सब भूल-भाल जाओगे, सब चरित्र एक तरफ रख दोगे। और यूं नहीं कि जिंदगी के बड़े-बड़े मसलों में, जिंदगी के छोटे-छोटे मसलों में तलवारें खिंच गई हैं। शतरंज के खिलाड़ियों ने तलवारें निकाल ली हैं। ताश के पत्तों के खिलाड़ी हत्या कर बैठे हैं। मजाक-मजाक में गर्दनें कट गई हैं। मजाक महंगे पड़ गए हैं। और यूं सब अच्छे लोग थे।
तुम भी जब किसी की खबर सुनते हो कि उस आदमी ने आत्महत्या कर ली, तो भरोसा नहीं आता। भला-चंगा आदमी, कल ही तो तुम्हें मिला था। रास्ते से चला जा रहा था, फिल्मी गाना गुनगुना रहा था, क्यों आत्महत्या करेगा? इत्र छिड़क रखा था, सुंदर कपड़े पहन रखे थे। क्यों आत्महत्या करेगा? कभी सोचा भी नहीं था कि यह आदमी आत्महत्या करेगा।
सोचते कैसे? इसके भीतर क्या इकट्ठा हो रहा था सिवाय इसके और किसी को पता नहीं। औरों ने तो बाहर से तस्वीर देखी थी, भीतर की गर्द-गुबार तो नहीं, भीतर का कूड़ा-कर्कट तो नहीं। और जब तुम सुनते हो फलां आदमी ने किसी की हत्या कर दी, भरोसा ही नहीं आता। कैसे? अच्छा आदमी था, मधुरभाषी था, किसी से कड़वे शब्द भी कहने में झिझकता था। कभी किसी को गाली भी देते नहीं देखा। एकदम हत्या कर दी!
और ऐसा नहीं कि तुम्हें ही भरोसा नहीं आता; जिसने हत्या की है वह भी भरोसा नहीं कर पाता कि यह मैंने कैसे किया! यह मुझसे हुआ कैसे! इसलिए तो लोग कहते हैं: मैं अपने बावजूद कर बैठा। करना नहीं चाहता था और कर बैठा। लेकिन अगर तुम करना नहीं चाहते थे तो कौन कर बैठा! तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारे भीतर कोई और भी है!
निश्चित है; तुम्हारे भीतर तुमसे अतिरिक्त जो है वह निन्यानबे प्रतिशत है। तुम तो केवल एक प्रतिशत हो। तुम तो केवल एक बारीक सी सतह हो ऊपर-ऊपर! तुम्हें समझाया गया है: ऐसा करो। बचपन से बताया गया है: ऐसे उठो, ऐसे बैठो, यह खाओ, यह पीओ। बस तुम उसी ढंग से जी रहे हो। उसी को तुम सच्चरित्रता कहते हो।
मेरे गांव में एक बड़े मारवाड़ी थे। उनके पास मैं कभी-कभी जाकर बैठा करता था। वे कहते थे कि मारवाड़ियों में जब हम शादी करते हैं तो पहले पता लगाते हैं कि जिसके घर शादी कर रहे हैं उसने अब तक कितने दीवाले निकाले। अगर दो-चार दीवाले न निकाले हों तो क्या खाक मारवाड़ी! और अगर दो-चार दीवाले न निकाले हों तो गरीब आदमी है। कितने दीवाले निकाले, इससे हम हिसाब लगाते हैं।
खूब हिसाब हुआ! आदमी की हैसियत का पता इससे चलता है। अलग-अलग लोगों में अलग-अलग हिसाब हैं। अलग-अलग लोगों में अलग-अलग धारणाएं हैं। उनकी धारणाएं उनके लिए चरित्र मालूम होती हैं।
अफ्रीका में लोग कीड़े-मकोड़े खाते हैं--चींटियां, चींटे, तिलचट्टे। तुम कल्पना भी न कर सकोगे। अभी मैं खबर पढ़ रहा था कि अमरीका के एक विश्वविद्यालय में एक वैज्ञानिक दंपति अफ्रीकी लोगों के इसी तरह के भोजन पर शोधबीन कर रहा है। तो वैज्ञानिक को तो शोधबीन में पूरा उतरना पड़ता है। तो वे भी इसी तरह की चीजें...। पति-पत्नी दोनों शोधबीन में लगे हैं, दोनों वैज्ञानिक हैं। धीरे-धीरे उन्होंने भी इस तरह की चीजें खाना शुरू किया, क्योंकि तभी पता चले कि ये चीजें पौष्टिक भी हैं या नहीं? ये कितने दूर तक आदमी को पोषण दे सकती हैं?
तो पहले तो बहुत घबड़ाए। अब तिलचट्टों को कितना ही तल लो, हैं तो तिलचट्टे ही! सोच कर ही बात घबड़ाहट की मालूम होती है। सोच कर ही वमन हो जाएगा कि हद हो गई। और वे तिलचट्टों के सैंडविच बना-बना कर खा रहे हैं। उनके घर कोई नहीं आता। मित्रों ने आना बंद कर दिया, परिचितों ने आना बंद कर दिया, कि ये आदमी ढंग के नहीं हैं। इनके घर पता नहीं क्या खिला दें, किस चीज का रस पिला दें। उनके घर कोई नहीं आता; वे किसी को भोजन पर बुलाते हैं तो कोई स्वीकार ही नहीं करता। उनके घर से लोग बच कर निकलते हैं--जाने-पहचाने लोग, परिचित लोग, अपने लोग। औरों की तो बात छोड़ दो, उनके मां-बाप भी अब उनके घर नहीं आते, कि पहले तुम अपना शोधकार्य पूरा कर लो, फिर हम आएंगे।
और उन्होंने खोजबीन की है कि तिलचट्टों में प्रोटीन बहुत होता है। बड़ी मात्रा में प्रोटीन की कमी पूरी की जा सकती है। तिलचट्टे हैं भी बड़े होशियार लोग।
कहते हैं कि जितना आदमी पुराना है उतने ही तिलचट्टे पुराने हैं। तिलचट्टे और आदमी हमेशा साथ ही साथ पाए जाते हैं। जहां तिलचट्टा मिले समझ लो कि आस-पास आदमी भी होगा। और जहां आदमी हो समझ लो कि आस-पास तिलचट्टा भी होगा। न तिलचट्टे अलग रहते, न आदमी अलग रहते। बड़ा पुराना नाता है, सनातन संबंध है। सब संबंध टूट गया, मगर तिलचट्टे और आदमी का संबंध नहीं टूटता।
जिन अफ्रीकी कबीलों में कीड़े-मकोड़े खाए जाते हैं, उनमें कोई सोचता ही नहीं। झींगुर लोग इकट्ठे करते रहते हैं वर्षा के दिनों में, फिर सुखा कर रख लेते हैं। जैसे तुम सब्जियां सुखा कर रख लेते हो कि जब सब्जियां नहीं आएंगी तो सूखी हुई सब्जियों का उपयोग कर लोगे। या जैसे जैन पर्यूषण के दिनों में हरी सब्जी नहीं खा सकते। देखते हो होशियारी! उसको सुखा कर रख लेते हैं। सुखा ली तो हरी रही नहीं, फिर सुखा कर खाते हैं। और जो बहुत ही होशियार हैं...।
मैं एक श्वेतांबर जैन घर में मेहमान था, पर्यूषण के दिन, उनको मैंने केला खाते देखा। मैंने कहा, यह क्या कर रहे हो?
उन्होंने कहा, यह हरा थोड़े ही है। अरे साफ पीला है, बिलकुल पका हुआ है।
देखते हो, हरे का क्या मतलब निकाल लिया। हरे का मतलब हरा रंग। बेचारे महावीर को पता ही न था कि किन चालबाजों के हाथ में मैं पड़ जाऊंगा। हरे से कहा था--रसभरा। मगर हरे से मतलब निकाल लिया रंग का। आदमी अपने हिसाब से अर्थ करेगा, अपने ढंग से व्याख्याएं करेगा।
चीन में सांप को सदियों से खाया जाता है। सिर्फ मुंह को काट कर अलग कर देते हैं जहां जहर की गांठ होती है, बाकी पूरा सांप खाया जाता है। और कहते हैं कि सांप चीन के स्वादिष्टतम भोजनों में से एक है।
अभी अफ्रीका में बोकासो और ईदी अमीन दादा, ये दोनों आदमी आदमियों को खाते हुए पकड़े गए हैं! जब ये दोनों अपनी राजधानियां छोड़ कर भागे तो इनके घरों में इनके फ्रीज में बच्चों का मांस मिला। ईदी अमीन का कहना है कि बच्चों के मांस से स्वादिष्ट कोई चीज दुनिया में होती ही नहीं। ईदी अमीन की राजधानी में, कंपाला में रोज बच्चे नदारद हो जाते थे। और ईदी अमीन की पुलिस खोज करती थी कि बच्चों को चुराने वाला गिरोह कौन-सा है। और यह गिरोह किसी और का नहीं था। ये बच्चे सब ईदी अमीन के चौके में समाप्त हो रहे थे। लेकिन ईदी अमीन को कोई अड़चन न थी, क्योंकि ईदी अमीन जिस कबीले से आता है, वह आदमखोर कबीला है। वे आदमी को खाते ही रहे।
एक ईसाई पादरी को आदमखोर कबीले ने पकड़ लिया, अफ्रीका में। पादरी ने अपनी पुरानी तरकीब काम में लाना चाही। कहा कि पहले समझो भी तो कि मैं कौन हूं! तुम्हारे सौभाग्य कि मैं एक धर्मगुरु हूं। और तुम्हें मैं बाइबिल समझाऊंगा, धर्म समझाऊंगा। तुमने कभी धर्म का स्वाद लिया है?
उन लोगों ने कहा कि कई दफे लिया है। आज फिर लेंगे।
उस पादरी ने कहा, तुम्हारा मतलब?
उन्होंने कहा कि आपका हम भोजन करेंगे। यही धर्म का स्वाद है। और पादरियों को भी हम पहले खा चुके। और तो हम कोई स्वाद नहीं जानते। मगर स्वादिष्ट होते हैं धार्मिक लोग। तुम भी देखोगे, हम भी देखेंगे। अभी स्वाद लेने की तैयारी है, जरा बाहर तो आओ। बाहर बैंड-बाजा बज रहा है, कड़ाहा चढ़ाया हुआ है, कि अभी तुम्हारा स्वाद लेते हैं। धर्म का और क्या स्वाद? अरे, धार्मिक आदमी को पचा गए, धर्म का स्वाद हो गया!
चरित्र किसको तुम कहोगे?
मुसलमान दिन में उपवास करते हैं, रात में भोजन करते हैं। जब उनके धार्मिक दिन आते हैं, रमजान के दिन आते हैं, रोजे के दिन आते हैं, तो दिन में तो उपवास करते हैं, दिन भर तो भूखे रहते हैं, सूरज के ढलने पर भोजन करते हैं। और जैन दिन में तो भोजन करते हैं और सूरज के ढलने पर पानी भी नहीं पीते। किसको सच्चरित्र कहोगे? इसमें चरित्रवान कौन है?
रामकृष्ण भी मछली और भात खाते थे। किसी जैन से पूछो कि मछली खाने वाला आदमी चरित्रवान हो सकता है? कैसे होगा? असंभव। बुद्ध ने मारने की मनाही की है; लेकिन अपने आप जो जानवर मर गया हो उसको खाने की मनाही नहीं की।
डाक्टर अंबेदकर जब यह सिद्ध करने में लगे थे कि हिंदुस्तान के चमार बौद्ध ही हैं मूलतः, हिंदुओं ने जबर्दस्ती दबा कर इनको चमार बना दिया है, तो उन्होंने उसमें एक तरकीब और एक तर्क यह भी खोज निकाला था कि चमार ही एकमात्र कौम है भारत में जो मरे हुए जानवर का मांस खाती है। मरे हुए जानवर को चमार ही ढोकर ले जाते हैं। चमड़ी निकाल लेते हैं, वह जूते के काम आ जाती है, और सामान बनाने के काम आ जाती है। और मांस को खा जाते हैं। डाक्टर अंबेदकर ने इस बात को तर्क बना लिया था कि इससे सिद्ध होता है कि ये बुद्ध के मानने वाले हैं। क्योंकि बुद्ध ने कहा है: मारना मत। लेकिन अपने आप मर गया जो, उसको खाने में क्या हर्जा है? मारने में हिंसा है। बुद्ध कहते हैं, मारने में हिंसा है। लेकिन जो मर ही गया अब इसके मांस खाने में क्या हिंसा है?
और महावीर कहते हैं, मांस खाने के विचार में भी हिंसा है। मर गया, उसके मांस की तो बात छोड़ो; मांस खाने का विचार भी, सपना भी पाप है। उससे भी नरकों में सड़ोगे।
कौन-सी चीज चरित्र है? किस चीज को सच्चरित्रता कहोगे?
मोहम्मद ने नौ विवाह किए। यह चरित्र है? और मुसलमानों को आज्ञा दी कि प्रत्येक मुसलमान चार विवाह कर सकता है। यह चरित्र है? और जो लोग मानते हैं एक-पत्नी व्रत, जिनके लिए एक-पत्नी व्रत ही चरित्र है, उनको कैसे स्वीकार होगा मोहम्मद का नौ पत्नियों का पति होना?
और इससे उलटा भी होता रहा। पांच पांडवों ने एक ही पत्नी को मान रखा था। पांच पति थे। एक-पति व्रत भी नहीं था, पंचपति थे। फिर भी हिंदू द्रौपदी का नाम उन पांच महाकन्याओं में गिनते हैं जो प्रातः स्मरणीय हैं। इन्होंने किस तरह सात दिन बांटे थे द्रौपदी के, पता नहीं। घंटों से बांटे होंगे। दिनों से तो बंट नहीं सकते, नहीं तो दो दिन की छुट्टी हो जाएगी। शायद शनिवार, रविवार छुट्टी रखते हों।
चरित्र किसको कहोगे? और कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं, जिनमें अपनी ही नहीं औरों की स्त्रियां भी थीं, और भगाई हुई स्त्रियां थीं। सोलह हजार स्त्रियों का कुंभ मेला भर लिया होगा। इसमें पहचानना भी मुश्किल होगा कि कौन अपनी है, कौन किसकी है। सोलह हजार स्त्रियों के नाम भी याद रखने मुश्किल पड़ते होंगे, नंबर रखे होंगे। अ-एक, अ-दो, अ-तीन... या शायद गुदवा दिए होंगे नंबर खोपड़ी पर। क्योंकि पहचानोगे कैसे? किसी और की पत्नी घुस जाए तो फिर क्या करोगे? अपनी पत्नी निकल भागे, किसी और के बाड़े में चली जाए, फिर क्या करोगे? कोई निशान भी तो चाहिए। ये सोलह हजार को कैसे सम्हालते रहे? मगर कोई इसमें दुश्चरित्रता नहीं है। कोई हिंदू ने नहीं कहा कि कृष्ण ने कोई दुश्चरित्रता की है।
किस बात को चरित्र कहोगे? जितनी कौमें हैं दुनिया में, जितने कबीले हैं, उतने चरित्र हैं। मैं इसलिए चरित्र पर जोर नहीं देता।
अब इन्होंने, शंकराचार्य ने कह दिया कि सच्चरित्र ही सबसे उत्तम है। लेकिन क्या सच्चरित्र का अर्थ होगा? कौन है सच्चरित्र? कश्मीर के ब्राह्मण मांसाहार करते हैं। उत्तर भारत के ब्राह्मण मांसाहार नहीं करते। सच्चरित्र कौन है? और कश्मीरी ब्राह्मण श्रेष्ठ ब्राह्मण समझा जाता है और मांसाहार भी करता है। कोई अड़चन नहीं है उसे। इसलिए पंडित जवाहरलाल नेहरू को मांसाहार करने में कोई अड़चन नहीं थी--कश्मीरी ब्राह्मण।
जीसस शराब पीते थे। उस लिहाज से तो मोरारजी देसाई ज्यादा चरित्रवान हैं; बेचारे स्वमूत्र से ही काम चला लेते हैं। पीना ही है तो अब क्या शराब पीना! कौन चरित्रवान है? स्वमूत्र को पीने वाले लोग चरित्रवान हैं? शराब पीने वाले लोग चरित्रवान हैं? कौन चरित्रवान है? बहुत कठिन है। चरित्र से निर्णय नहीं हो सकता।
शंकराचार्य का वक्तव्य बिलकुल ही उथला है। फिर चरित्र ऊपर से थोपे जाते हैं। मां-बाप बच्चे पर थोप देते हैं। जो सिखा देते हैं वही चरित्र बन जाता है।
मैं जैन घर में पैदा हुआ, तो मैंने अठारह साल की उम्र तक रात्रि को भोजन नहीं किया था। क्योंकि रात्रि को भोजन करना मतलब नरक जाने का सीधा रास्ता है। जब अठारह वर्ष का था तो मित्रों के साथ एक पहाड़ पर एक किले को देखने गया। वह पहला मौका था मेरा। बाकी सब हिंदू थे। उनको फिक्र ही नहीं थी दिन में भोजन बनाने की। और दिन तो इतना घूमने-फिरने में लगा कि उनसे यह कहना कि मैं रात्रि को भोजन न कर सकूंगा, मुझे भी ठीक नहीं लगा। दिन तो काफी व्यस्त था, किला सुंदर था, उसको देखने में ही पूरा दिन बीत गया। पहाड़ बड़ा था। उसमें एक से एक सुंदर स्थल थे देखने योग्य। झरने थे और झीलें थीं। उन्होंने तो रात को नौ बजे भोजन बनाना शुरू किया।
अब मेरी तुम हालत समझ सकते हो। दिन भर का भूखा, पहाड़ की चढ़ाई, दिन भर का घूमना। ऐसी भूख कभी जीवन में लगी न थी। और वे मेरे सामने ही बाटियां पकाने लगे। मैंने अपने जीवन में कभी बाटियों से ऐसी सुगंध उठती है, यह भी अनुभव नहीं किया था। और जब उन्होंने बैंगन का भरता बनाया, तो मैं आज भी याद कर सकता हूं, ठीक उसकी सुगंध भी याद कर सकता हूं। और जब उन्होंने मुझे समझाया-बुझाया कि यहां कौन देखने वाला है! और तुम्हारे घर हम में से कोई भी नहीं कहेगा, हम वचन देते हैं, हम कसम खाते हैं। रात में कैसे सोओगे दिन भर के भूखे? हम समझ सकते हैं, हम भी भूखे हैं।
तो बाटियों की गंध, भरते का रंग, उनकी बातें। मैंने भी सोचा कि जब इतने लोग अठारह साल से भोजन रात करके अभी तक नरक नहीं गए तो मैं एक दफे कर लूंगा, इससे ही नरक जाऊंगा? तो ठीक है, फिर नरक ही ठीक है, कम से कम अपने संगी-साथी तो रहेंगे। अगर इन सबको नरक ही जाना है, यही मेरे दोस्त हैं, इनको छोड़ कर स्वर्ग जाकर भी क्या करूंगा?
ऐसा अपने मन को समझाने की भी कोशिश की। समझा-बुझा कर मैंने भोजन भी कर लिया। मगर सम्हाल न सका, सो न सका। ऐसी बेचैनी, ऐसी परेशानी कि यह क्या कर लिया! रात जब तक वमन न हो गया, जब तक सारा भोजन फिंक न गया मेरे शरीर से बाहर, तब तक मैं सो न सका।
उस रात मैंने यही सोचा कि यह चीज जरूर पाप है। पाप न होता तो क्यों मुझे वमन होता! मगर बाकी सारे मित्र मजे से सो रहे थे, घुर्राटे ले रहे थे। फिर मैंने अपने को समझाया कि सड़ोगे, सड़ोगे नरक में, मरोगे नरक में! लेना घुर्राटे वहां। हम स्वर्ग में बैठे मजा करेंगे और तुम, नरक के जलते हुए कड़ाहों में भरता बनाया जाएगा।
मगर यह मैं ही अपने को समझाता रहा। उनको तो पता भी नहीं चला। वे तो मजे से सोए ही रहे। उस दिन तो मुझे यही लगा कि यह पाप के कारण ही उलटी हो गई। लेकिन फिर धीरे-धीरे मैं बिगड़ा। फिर उलटी वगैरह होनी बंद हो गई।
सच्चरित्र क्या है, कौन निर्णायक है? शंकराचार्य के लिए सच्चरित्र क्या था? शूद्र की छाया भी न पड़ जाए, यह सच्चरित्र था। दक्षिण भारत में शूद्रों को घोषणा करके निकलना पड़ता था कि हम यहां से निकल रहे हैं, अगर कोई हो तो हट जाए। हर रास्ते से तो शूद्र निकल नहीं सकते थे। जिन रास्तों से निकलते भी थे, समय बंधे हुए थे। अगर उन समयों के अतिरिक्त किसी आवश्यक कार्य से निकलना ही पड़े तो उनको घोषणा करनी पड़ती थी कि भाइयो, दूर हट जाओ, मैं शूद्र हूं, मेरी छाया तुम पर न पड़ जाए। क्योंकि छाया भी पड़ जाए तो ब्राह्मण को स्नान करना पड़ता था। शूद्र तो शूद्र है ही, उसकी छाया भी शूद्र।
तुम जरा सोचते हो! और अगर शूद्र की छाया शूद्र हो गई तो शूद्र अगर नदी के पास से निकल जाए, उसकी छाया तो नदी में बन गई, नदी शूद्र हो गई। फिर उसमें नहाओ-धोओ, कितना ही कुछ करो, क्या फायदा? पवित्र रहे, और अपवित्र हो जाओगे।
शंकराचार्य स्नान करके काशी में घाट से ऊपर आ रहे थे। और एक शूद्र ने उन्हें छू लिया। सुबह का अंधेरा था। अभी सूरज निकला नहीं था। पूछा, तू कौन है? उसने कहा कि क्षमा करें, मैं शूद्र हूं और भूल से आपसे टक्कर लग गई। अंधेरे में दिखाई नहीं पड़ा।
शंकराचार्य एकदम नाराज हो गए। जो व्यक्ति कहता था कि संसार माया है, है ही नहीं, वह भी शूद्र को सत्य मानता है। वह भी शूद्र के छूने को सत्य मानता है। संसार माया है तो शूद्र संसार के बाहर है? तो शूद्र तो बड़े वजनी मालूम होते हैं। मतलब ठीक-ठीक ब्रह्म के समकक्ष मालूम होते हैं। एक ब्रह्म सत्य और एक शूद्र सत्य। बस दो ही सत्य, जगन्मिथ्या, ब्रह्म सत्यम्, शूद्र सत्यम्। बस दो सत्य बचे दुनिया में।
वह शूद्र भी थोड़ा ज्ञानी था, तभी तो गंगास्नान करने गया था। उसने कहा कि शरीर को शरीर छू गया, इसमें क्या इतने नाराज होने की बात है? तुम भी मिट्टी मैं भी मिट्टी; अरे, यह शरीर तो मिट्टी में गिर जाएगा। और तुम्हीं तो समझाते हो। कल ही रात तो तुम समझा रहे थे कि संसार माया है; है ही नहीं, भ्रांति है, स्वप्नवत है। तो अगर स्वप्नवत शूद्र छू गया तो इसमें इतना चिल्लाने की क्या जरूरत है? इतने नाराज होने की क्या जरूरत है?
लेकिन शंकराचार्य तो भनभनाते हुए वापस गए। फिर से स्नान किया। तब कहीं पवित्र हुए। संसार असत्य है, गंगा सत्य है! संसार असत्य है, स्नान सत्य है!
सच्चरित्रता क्या है? किसको सच्चरित्र कहोगे?
नहीं, इन ऊपर के मापदंडों से कुछ भी तय न होगा। जो बात एक देश में चरित्र है, दूसरे देश में दुश्चरित्रता हो जाती है। जो बात एक जगह सही है, दूसरी जगह गलत हो जाती है। सिर्फ एक चीज कहीं गलत नहीं होती है, वह है समाधि। वह है चित्त का शून्य हो जाना, निर्विचार हो जाना, निर्विकल्प हो जाना।
मैं तो समाधि को ही उत्तम कहूंगा। फिर समाधि से जो भी निकले, वह उत्तम है। और समाधि से भिन्न-भिन्न बातें निकलेंगी, यह भी स्मरण रहे। क्योंकि समाधि के पास कोई बंधे-बंधाए उत्तर नहीं होते। समाधि तो एक दर्पण है। जैसी परिस्थिति होगी, उस परिस्थिति का प्रतिफलन समाधि में बनता है। और समाधि से उस परिस्थिति के अनुकूल उत्तर निकलता है।
तो समाधिस्थ व्यक्ति कभी तलवार भी हाथ में ले सकता है, कोई अड़चन नहीं। मोहम्मद तलवार हाथ में लिए रहे। कृष्ण ने सुदर्शन-चक्र हाथ में ले लिया। समाधिस्थ व्यक्ति नग्न भी खड़ा हो सकता है। महावीर नग्न खड़े हुए, डायोजनीज नग्न खड़ा हुआ। समाधिस्थ व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, जो उसकी अंतस-चेतना में उस घड़ी, उस क्षण, उस पल में सम्यक मालूम होता है।
और इसीलिए समाधिस्थ व्यक्तियों के चरित्रों में भेद होगा। महावीर और बुद्ध के चरित्र में भेद है। दोनों समसामयिक थे। दोनों समाधिस्थ थे। लेकिन दोनों के चरित्र में भेद है। भेद होगा, क्योंकि दोनों अलग ढंग के व्यक्ति थे। दो व्यक्ति एक जैसे होते ही नहीं, कभी नहीं हुए, कभी नहीं होंगे। कोई किसी की कार्बन कापी नहीं है।
मोहम्मद और जीसस के चरित्र में भेद है। जीसस और मूसा के चरित्र में भेद है। मूसा और जरथुस्त्र के चरित्र में भेद है। जरथुस्त्र और लाओत्सु के चरित्र में भेद है। सभी समाधिस्थ हैं। एक बात में अभेद है कि सभी परम मौन को उपलब्ध हुए हैं। सभी दर्पण बन गए हैं। वही उत्तम है। फिर उस दर्पण में जो दिखाई पड़ता है उसके अनुकूल व्यवहार करना पड़ेगा। समय बदलेगा, व्यवहार बदलेगा। परिस्थिति अलग होगी, व्यवहार बदलेगा। परिस्थिति के अनुकूल क्रिया होगी। इसलिए चरित्र से कुछ तौल नहीं होने वाली।
और उनसे पूछा गया, ‘एक तत्व क्या है?’ तो उन्होंने कहा, ‘अद्वितीय शिव-तत्व।’
एक तत्व का तो नाम नहीं दिया जा सकता। नाम दिया कि झंझट शुरू हुई। तुम कहोगे, शिव-तत्व; कोई कहेगा, ब्रह्मा-तत्व; कोई कहेगा, विष्णु-तत्व। फिर झगड़ा शुरू हुआ। नाम आया कि झगड़ा शुरू हुआ। नाम आया कि विवाद शुरू हुआ। उस एक को तो अनाम ही कहना होगा। उस एक को तो नाम नहीं दिया जा सकता। नाम दिया कि तुमने दो की शुरुआत कर दी। अगर उसको कहो प्रकाश तो फिर अंधकार क्या है? प्रकाश कहा कि अंधकार को स्वीकार कर लिया। अगर उसको कहो जीवन तो फिर मृत्यु क्या है? अगर उसको कहो शिव तो फिर अशिव क्या है? शब्द का तो हमेशा ही विपरीत शब्द होता है। हर शब्द का विपरीत शब्द होता है। दिन है तो रात है, गर्मी है तो सर्दी है, जवानी है तो बुढ़ापा है, हर शब्द दुई से भरा होता है, द्वैत से भरा होता है। शब्दों के अर्थ ही द्वैत में होते हैं। अगर द्वैत न हो तो अर्थ ही खो जाएं। इसलिए उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता।
तत्वं किमेकं शिवमद्वितीयं।
नहीं, मैं तो कहूंगा उसका कोई नाम नहीं। अगर कोई पूछे कि एक तत्व क्या है, तो अनाम। इसी अनाम की घोषणा करने के लिए लाओत्सु ने ताओ शब्द का उपयोग किया। ताओ शब्द का कोई अर्थ नहीं होता। लाओत्सु ने लिखा है कि उसका कोई नाम नहीं है। लेकिन तुम्हें समझाने के लिए, काम चलाने के लिए मैं ताओ शब्द का उपयोग कर रहा हूं; यह उसका नाम नहीं है, सिर्फ इशारा है, कामचलाऊ है।
इसलिए हमने इस देश में ओम को खोजा। ओम अकेला शब्द है हमारे पास जो वर्णमाला से नहीं बना है, जो वर्णमाला के बाहर है, जो बारहखड़ी के बाहर है। उसका तो सिर्फ प्रतीक है। जैसे चीन में ताओ प्रतीक है वैसा ओम हमारा प्रतीक है। इसलिए तुम जान कर हैरान होओगे कि ओम से न तो हिंदुओं को कोई विरोध है, न जैनों को कोई विरोध है, न बौद्धों को कोई विरोध है, न सिक्खों को कोई विरोध है। इस देश में ये चार धर्म पैदा हुए। इन चारों धर्मों में हर चीज पर मतभेद है। लेकिन एक चीज पर मतभेद नहीं है--ओम पर। क्या कारण होगा कि एक शब्द पर ये चारों राजी हैं? कारण यही है कि ओम किसी की बपौती नहीं, किसी भाषा का शब्द नहीं, सिर्फ ध्वनि मात्र है। सिर्फ संगीत का प्रतीक है।
क्या है वह एक तत्व? अनाम संगीत। अनाहत नाद। मैं उसे शिव-तत्व नहीं कहूंगा। क्योंकि शिव-तत्व तो उस त्रिमूर्ति का हिस्सा है, जहां ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों मिल कर एक परमात्मा की तीन छवियां बनाते हैं। और शिव-तत्व का अर्थ होता है: शुभ। फिर अशुभ कहां जाएगा? अशुभ भी उसी में समाविष्ट है।
शंकराचार्य कहते हैं, ‘कौन सुख छोड़ना चाहिए? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही।’
अब इसमें एक बात तो यह मान ही ली गई कि स्त्री में सुख होता है, जो कि निपट नासमझी की बात है। स्त्री में क्या खाक सुख होता है! शंकराचार्य यह मान कर ही चल रहे हैं कि स्त्री में सुख होता है, उसको छोड़ना ही सबसे बड़ा छोड़ना है; वही सुख छोड़ने योग्य है। सुख है, यह तो स्वीकार कर लिया। और अगर सुख है तो फिर छोड़ोगे कैसे? फिर तो तुमने द्वंद्व खड़ा किया। सुख को कोई भी नहीं छोड़ सकता। दुख ही छोड़ा जा सकता है। सुख को छोड़ने की कोई संभावना ही नहीं है। सुख तो हमारी स्वाभाविक आकांक्षा है। हम दुख को ही छोड़ सकते हैं। तो जो चीज भी हम जान लेते हैं दुख है, वह छूटने लगती है; और जिसको हम जानते रहते हैं सुख है, उसको हम पकड़े रहते हैं।
यह कहना: त्याज्यं सुखं किं स्त्रियमेव। कौन सुख छोड़ना चाहिए? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही। इसमें मान ही लिया गया कि स्त्री में सुख होता है। और यह तो पुरुषों को कहा। अब अगर स्त्री पूछे तो उनसे क्या कहोगे? उनसे कहना पड़ेगा, पुरुषों का सुख। लेकिन पुरुष में क्या सुख होता है? स्त्री में क्या सुख होता है? भ्रांति है, सुख तो नहीं। और भ्रांतियों को छोड़ना नहीं होता है, जानना होता है, पहचानना होता है। पहचानते ही से भ्रांति समाप्त हो जाती है। जैसे रस्सी में किसी को सांप दिखाई पड़ा। शंकराचार्य तो इसका बहुत उदाहरण लेते हैं।
मेरे गांव में एक कबीरपंथी महंत थे, स्वामी साहबदास जी। उनके व्याख्यानों में मुझे बहुत आनंद आता था। उनके व्याख्यान अदभुत थे; ऐसे अंट-संट कि कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा। उनको देख कर मुझे यह कहावत अचूक याद आती थी। उनसे कोई भी प्रश्न पूछ लो। और मैं उनसे ऐसे-ऐसे प्रश्न पूछता था जिनमें अनिवार्यरूपेण उनको भानुमती का कुनबा जोड़ना पड़े।
जैसे मैं उनसे पूछूंगा कि साहबदास जी, यह समझाइए कि वेद में समाजवाद कहां है? और वे समझाना शुरू कर दें। वेद में समाजवाद! मगर वे इस तरह से उलटा-सीधा करना शुरू करें और इतनी मेहनत करें बेचारे, किसी की समझ में आए या न आए, मगर वे समझाने की कोशिश करें कि वेद में ही से समाजवाद का जन्म हुआ है। अरे, ये कार्ल मार्क्स जर्मन है। ये जर्मनी के लोग वेद ले भागे! उसी में से तो सब निकाला--हवाई जहाज, समाजवाद, रेलगाड़ी।
मैं उनसे कहता, लेकिन आपके पास तो वेद है, उसमें से आप जरा उल्लेख तो करके बताइए! वे कहें कि यह कोई असली वेद है! अरे, असली वेद तो जर्मन चुरा कर ले गए। यह तो नकली बचा, इसमें कहां मिलेगा!
वे बड़ी ऊंची बातें कहते थे। और यह उनका खास उदाहरण था, जो कि ज्ञानियों का खास उदाहरण सदियों से रहा है। शंकराचार्य ने शुरू किया यह उदाहरण--सांप में रस्सी, रस्सी में सांप, दोनों की भ्रांति हो सकती है। कभी सांप रस्सी मालूम पड़ सकता है अगर अकड़ा पड़ा हो, सर्दी में सिकुड़ गया हो सुबह के अंधेरे में। या रस्सी सांप मालूम पड़ सकती है। रज्जु-सर्प भ्रम! साहबदास जी निरंतर इसका उल्लेख करते थे कि अरे, यह संसार क्या है, बस रस्सी में सांप। उनकी सुनते-सुनते एक दिन मुझे खयाल आया कि जांच तो कर ली जाए।
वे रोज रात नौ, साढ़े नौ बजे प्रवचन देकर मेरे मकान की बगल की गली से गुजरते थे। वहीं आगे चल कर उनका आश्रम था। गली में अंधेरा रहता था। उन दिनों वहां कोई बिजली भी न थी। सो मैंने एक रस्सी बनाई। बाजार से एक सांप खरीद कर लाया कागज का। कागज के सांप के मुंह को रस्सी में जोड़ा। रस्सी में पतला धागा बांधा और एक खाट खड़ी करके उसके पीछे छिप कर मैं बैठा रहा। जब साहबदास जी वहां से निकले तो मैंने धीरे से धागा खींचा। धागा तो दिख ही नहीं सकता था। अंधेरी रात, अंधेरे में धागा, काला धागा। रस्सी सरकी, सांप का मुंह हिला। साहबदास जी क्या भागे! गिर पड़े, पैर फिसल गया। मैं भी घबड़ाहट के मारे भागा, क्योंकि अब मैं फंसूंगा। सो वह खाट गिर पड़ी, मैं पकड़ा गया। साहबदास जी ने मुझे रंगे हाथों पकड़ लिया। और उनको तो काफी चोट आई थी। कोई छह सप्ताह तक पलस्तर बंधा रहा।
वे पकड़ कर मेरे पिता के पास मुझे ले गए। और कहा कि अब हद हो गई, यह लड़का क्या जान लेगा मेरी? एक तो मेरी सभाओं में अंट-संट सवाल उठाता है। अगर जवाब न दूं तो भद्द होती है; अगर जवाब दूं तो भद्द होती है। और आज तो इसने हद कर दी। वह तो मेरे जैसा मजबूत काठी का आदमी था कि जिंदा रह गया। अरे, अंधेरे में चलता हुआ सांप दिखाई पड़े तो कोई भी भाग खड़ा हो।
मैंने कहा, साहबदास जी, आप ही तो समझाते थे कि यह संसार जो है रस्सी में सांप जैसा, तो मैंने समझा आप तो ऐसे ज्ञानी! यह तो परीक्षा के लिए मैंने किया था।
कहा कि चुप! इस तरह की परीक्षाएं, किसी की जान लेना है?
और मैंने कहा, आप एक दफे तो सोच लेते--रज्जु-सर्प भ्रम। एक दफे भी न सोचा, एकदम भाग ही खड़े हुए! और मैंने कहा, मेरा इसमें कोई कसूर नहीं है। श्रोताओं को अधिकार है कि जो कहा जाए उसकी परीक्षा भी तो की जाए कि यह आदमी मानता भी है कि सिर्फ कहता ही है। और आपको मैं कम से कम पांच-सात साल से सुन रहा हूं, ऐसा कोई दिन नहीं गया जिस दिन यह रज्जु-सर्प भ्रम की चर्चा न उठती हो। सारा मायावाद ही इस पर खड़ा हुआ है। तो आपको इतना तो होश रखना था कि अरे, बहुत से बहुत असली भी सांप अगर होगा तो भी तो माया ही है। असली भी होगा समझ लो, तो भी कहां से असली होगा? है तो माया ही। नकली हुआ तब तो है ही नकली, असली हुआ तो भी नकली है। यह तो सीधा तर्क था।
उस दिन से उन्होंने रज्जु-सर्प भ्रम की बात करनी बंद कर दी। मैं उनकी सभा में जाऊं भी तो मेरी तरफ गुस्से से देखें। एक-दो दफा मैंने पूछा भी कि साहबदास जी बहुत दिन से रज्जु-सर्प की बात नहीं समझाई।
कि तू चुप रह भइया! अब ऐसी बातें समझा कर क्या और हड्डी-पसली तुड़वानी है।
और उस गली से भी उन्होंने निकलना बंद कर दिया। वे चक्कर लगा कर काफी दूर से जाने लगे।
एक तरफ चिल्लाते रहे ये लोग कि यह सारा संसार माया है, फिर भी इसमें स्त्री का सुख माया नहीं! इसमें स्त्री में सुख है। और यह सुख त्याज्य है। बस यही त्याग करने योग्य है, यहां कुछ और त्याग करने योग्य नहीं है।
मैं तुमसे कहता हूं, त्याग करने योग्य मन है, और कुछ भी नहीं। स्त्री हो, कि धन हो, कि पद हो, प्रतिष्ठा हो; सब मन के ही खेल हैं। स्त्री तो बस एक खेल है। स्त्री के लिए पुरुष एक खेल है। और स्त्री से मुक्त हो जाना कोई कठिन मामला नहीं है। सभी पति अपनी पत्नी से मुक्त हो जाते हैं। सभी पत्नियां अपने पतियों से मुक्त हो जाती हैं। वह तो दूसरों की रस्सियों में सांप दिखाई देते रहते हैं, करो क्या? अपनी रस्सी को तो सभी पहचान लेते हैं कि रस्सी ही है भइया, कुछ खास नहीं। कितना ही साड़ी वगैरह पहनाओ, है रस्सी। कितना ही रंग-रोगन पोतो, कितना ही कोट वगैरह पहनाओ, है रस्सी! पति-पत्नियां अच्छी तरह पहचान लेते हैं। तभी तो एक-दूसरे की तरफ देखते भी नहीं, ऐसे मुक्त हो जाते हैं।
हां, दूसरों की पत्नियों में अभी भी दिखता है कि पता नहीं, साड़ी के भीतर रस्सी न हो, कुछ और हो! कोट पहने चले जा रहे हैं एक सज्जन; अब पता नहीं कि कंधों के भीतर रुई भरी है कि सच में कंधे इतने मजबूत हैं! वृषभ देव हैं या सिर्फ रुई भरी है? छाती बड़ी फूली मालूम पड़ रही है। हालांकि खुद की छाती वे जानते हैं कि रुई भरी है। खुद भरवाई है। मगर दूसरों को भ्रम होता रहता है।
सवाल मन का है। और स्त्री से छूट जाओगे तो कहीं और दौड़ोगे। जो लोग धन के पीछे दीवाने हैं अक्सर स्त्रियों से छूट जाते हैं। उनका तो सारा मोह ही धन में लग जाता है। उनको स्त्री वगैरह नहीं सुहाती। वे तो नोट को जब देखते हैं तब उनको लैला की याद आती है। जब वे नोट को छूते हैं, ताजा करंसी का नोट, अभी-अभी निकला हुआ, चला आया अभी-अभी बैंक से। उसको छूते हुए देखो किसी धन के प्रेमी को। क्या तुमने किसी प्रेमी को किसी प्रेयसी को छूते देखा होगा! एकदम उसकी लार टपकती है, गदगद हो जाता है, छाती से लगा लेता है।
पद के लोभी, राजनीति के युद्ध में दौड़ने वाले योद्धा, उनको पत्नियां वगैरह छोड़ने में कोई अड़चन नहीं होती। फुर्सत ही कहां उनको पत्नियां वगैरह की। दिल्ली जाएं कि पत्नी को देखें? चुनाव लड़ें कि पत्नी को देखें? कभी-कभी मिलना-जुलना हो जाता है, बाकी कोई रस नहीं रहता। जिनको एक बार पद का, धन का, प्रतिष्ठा का मोह लग गया, वे इस मोह से बड़ी आसानी से मुक्त हो जाते हैं। ये तो सीधे-सादे लोग हैं जो स्त्री-पुरुषों में उलझे रहते हैं। जो छंटे हुए बदमाश हैं वे तो दूसरी चीजों में लग जाते हैं।
मैं नहीं कहूंगा कि स्त्री के सुख को छोड़ना सबसे बड़ा त्याग है। जब सुख को ही छोड़ने की बात उठी तो जड़ से ही काटो। मन को छोड़ना सबसे बड़ा त्याग है। और मन को छोड़ने का परिणाम समाधि है। मन छोड़ना है, समाधि पानी है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
फिर पूछते हैं, ‘परम दान क्या है? सर्वथा अभय ही।’
यह बात भी कुछ बहुत मतलब की नहीं। क्योंकि जिसको अभय देना हो, पहले तो उसको भयभीत करना पड़े। यह तो सीधी बात है। जब तक किसी को भयभीत न करो, उसको अभय का दान कैसे दोगे? पहले धमकाओ, छाती पर छुरा लगाओ। उसको बिलकुल ऐसी हालत में कर दो कि अब मरा तब मरा, और फिर उसको अभय दान दो।
लोग कहते हैं कि महावीर बड़े दयाशील थे, मैं कहता हूं: गलत! क्योंकि महावीर ने कभी क्रोध नहीं किया, इसलिए दया कैसे करेंगे? दया करने के लिए क्रोध अनिवार्य है। महावीर अक्रोधी थे, दयावान नहीं। बुद्ध को लोगों ने कहा महा-क्षमावान। गलत! क्योंकि क्षमा करने के लिए पहले तो क्रुद्ध हो जाना जरूरी है। या कि तुम सोचते हो कि बिना क्रुद्ध हुए भी क्षमा कर सकते हो?
मदर टेरेसा का मुझे पत्र मिला। उस पत्र में उन्होंने लिखा है कि मैं आपको क्षमा करती हूं।
क्षमा करने का मतलब? मतलब पहले तो भुनभुना गई होंगी। बाई बहुत उचकी-कूदी होगी। नहीं मूंछें कोई बात नहीं, ताव तो दिया ही होगा। दिल में बड़े-बड़े खयाल उठे होंगे कि यह करूं कि वह करूं। फिर खयाल आया होगा कि अरे, मैं ईसाई; कैथोलिक ईसाई। कोई साधारण नहीं--महात्यागी, व्रती। क्षमा कर दूं। मगर क्षमा के पहले तो क्रोध जरूरी है।
मुझसे कोई कहे कि आप मदर टेरेसा को क्षमा कर दो। नहीं कर सकता, कैसे करूं? क्रुद्ध ही नहीं हुआ, क्षमा कैसे कर दूं? क्षमा तो नंबर दो है, क्रोध नंबर एक है। मैं क्षमा नहीं कर सकता, असमर्थ हूं। न महावीर ने किसी को क्षमा किया, न बुद्ध ने किसी को क्षमा किया। हमने गलत समझा। हम उनके अक्रोध को क्षमा समझ लिए। वह हमारी भूल है।
शंकराचार्य कहते हैं, ‘अभय का दान।’
नहीं, यह बात ठीक नहीं है। फिर किस चीज का दान सबसे बड़ा दान है?
मैं तो समाधि से ही सारे सूत्र निकालना चाहता हूं। मन का त्याग--समाधि। और समाधि से जो बहता है--वह प्रेम। वही दान है। क्या अभय? मन को छोड़ो, समाधि मिलती है। समाधि मिले तो जैसे फूल खिल जाएं और सुगंध उड़े, ऐसा समाधि में सहस्रदल कमल खुलता है; तुम्हारी चेतना का कमल खुलता है। और उससे सुगंध उड़ती है। उसको दान कहना भी ठीक नहीं। जिसको लेना हो ले, जिसको न लेना हो न ले। कोई न हो तो भी सुगंध उड़ेगी।
झील में जब फूल खिलेगा तो कोई इसकी फिक्र नहीं करेगा कि कोई आए दर्शक कि नहीं, कि आज बस आई पर्यटकों की कि नहीं। सुगंध तो उड़ेगी ही उड़ेगी। हवाओं में उड़ेगी, चांद-तारों की तरफ उड़ेगी। सूरज की किरणों पर चढ़ेगी। कोई होगा तो ठीक, कोई नहीं होगा तो ठीक। कोयल गीत गाएगी ही गाएगी, कोई सुने कि न सुने। कोई इसकी फिक्र थोड़े ही करेगी कि पहले पता लगाएं कि कोई कवि वगैरह, कोई संगीतज्ञ वगैरह आस-पास हैं भी समझने वाले कि नहीं! कोयल तो गीत गाएगी।
वैसे ही जब भीतर समाधि जगती है तो जैसे दीया जले और रोशनी फैले, ऐसे समाधि से प्रेम फैलता है। मन से मुक्त होने पर समाधि मिलती है। समाधि मिलने पर प्रेम की सुगंध बंटती है। उसे दान कहना भी उचित नहीं है। दान जरा गंदा शब्द है।
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
पयामे-मौत भी मोजिजा है जिंदगी के लिए
चमन में फूल भी हर एक को नहीं मिलते
बहार आती है, लेकिन किसी-किसी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
हमारी खाक को दामन से झाड़ने वाले
सब इस मुकाम से गुजरेंगे जिंदगी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
उन्हीं के शीशा-ए-दिल चूर-चूर हो के रहे
तरस रहे थे वो दुनिया में दोस्ती के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
ये सोचता हूं जमाने को क्या हुआ या रब
किसी के दिल में मुहब्बत नहीं किसी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
हमारे बाद अंधेरा रहेगा महफिल में
बहुत चिराग जलाओगे रोशनी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
पयामे-मौत भी मोजिजा है जिंदगी के लिए
समझ चाहिए! तो मौत भी, मौत का संदेश भी, जिंदगी का जादू ही लाता है।
ये सोचता हूं जमाने को क्या हुआ या रब
किसी के दिल में मुहब्बत नहीं किसी के लिए
कुछ और नहीं हुआ है। कभी मुहब्बत नहीं रही किसी के लिए। यह कुछ आज नहीं हुआ है। मुहब्बत तो उन थोड़े-से लोगों ने जानी है जिन्होंने अपने समाधि के फूल को खिलाया है।
बहार आती है, लेकिन किसी-किसी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
बहार तो आती है, और मैं तुमसे कहता हूं सभी के लिए आती है, लेकिन सभी के लिए आ नहीं पाती। आती तो है किसी-किसी के लिए। बहार तो आ जाती है, मगर तुम्हारे फूल तो तुम्हें पता ही नहीं। तुम्हारे फूलों पर तो तुम्हारे मन के पत्थर चढ़े बैठे हैं। चट्टानों के नीचे दबे हैं तुम्हारे फूल, तुम्हारे बीज।
बहार आती है, लेकिन किसी-किसी के लिए
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिए
चमन में फूल भी हर एक को नहीं मिलते
मिल तो सकते हैं, मिलते नहीं यह और बात है। जिम्मा हमारा है। कसूरवार हम हैं। सोचने के ढंग अगर गलत होंगे तो न फूल खिलेंगे, न गंध उड़ेगी।
इस पूरे शंकराचार्य के सूत्र को अगर मुझसे कोई पूछे तो मैं कहूंगा: मन से मुक्ति सबसे बड़ी मुक्ति। समाधि की उपलब्धि, सबसे बड़ी उपलब्धि। समाधि में जो जाना जाता है--अनाम, ओंकार, ताओ--वह सबसे बड़ा अनुभव। और समाधि से जो सहज गंध उठती है, रोशनी बिखरती है--प्रेम--वही सबसे श्रेष्ठ दान।
आज इतना ही।