QUESTION & ANSWER
Sanch Sanch So Sanch 07
Seventh Discourse from the series of 11 discourses - Sanch Sanch So Sanch by Osho. These discourses were given during JAN 21-31 1981.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपके कल के ओजस्वी प्रवचन से ऐसा स्पष्ट आभास हुआ कि आप भारत को उसकी अनंत क्षमताओं के प्रति जगा रहे हैं। भारत का यह परम सौभाग्य है कि उसे आप जैसा मार्गदर्शक उपलब्ध है, फिर भी वह आपकी बातों को अपनाता क्यों नहीं? और क्यों नहीं सर्वांगीण विकास के पथ पर अग्रसर होता? वरन आपका तिरस्कार और उपेक्षा क्यों करता है? भगवान, निवेदन है कि कुछ कहें।
भारत भूषण, भारत के दुर्भाग्य की कथा बहुत पुरानी है। भारत की जड़ें विषाक्त हो गई हैं। साधारण औषधियों से भारत की चिकित्सा नहीं हो सकती; शल्य-क्रिया करनी होगी। और मवाद जब भीतर गहरे पहुंच गया हो तो उसे निकालने में कष्ट भी होता है, पीड़ा भी होती है। इसीलिए मेरा तिरस्कार है, उपेक्षा है। मेरा सम्मान हो सकता है, समादर हो सकता है; लेकिन तब मुझे भारत की उन्हीं विषाक्त जड़ों को जल देना होगा, जो उसके दुर्भाग्य का कारण हैं। मेरे लिए तो आसान होगा यही कि उन्हीं जड़ों को जल दे दूं, लेकिन भारत के लिए उससे बड़ी और कोई बदकिस्मती नहीं हो सकती।
तो मैंने यही चुना कि अपमान मिले, तिरस्कार मिले, उपेक्षा मिले, लेकिन गलत जड़ों को काटना ही है। और मुझे फर्क नहीं पड़ता अपमान से, उपेक्षा से या तिरस्कार से। थोड़ी भी जड़ें काट सका, थोड़े भी संस्कार पोंछ सका, थोड़ी भी भारत के मन को स्वच्छता दे सका, स्वास्थ्य दे सका, तो सूर्योदय दूर नहीं।
माना कि अभी रात बहुत अंधेरी है और हम इस अंधेरी रात में इतने लंबे अर्से से रह रहे हैं कि हमने भरोसा भी खो दिया है कि सुबह होती है। हम तो रात के लिए राजी हो गए हैं। हमने तो रात को ही जीवन समझ लिया है। इसलिए जब कोई सुबह की बात करता है तो हमें बेचैनी होती है, क्योंकि वह फिर हमें परेशानी में डाल रहा है। हम किसी तरह बामुश्किल समझा-बुझा कर रात को ही अपना घर बना लिए हैं और फिर किसी ने टेर दे दी सुबह की और फिर किसी ने आह्वान किया और चुनौती दी। उससे हमारी नींद टूटती है। उससे हमारे सपने छिन्न-भिन्न होते हैं। हम नाराज न हों तो क्या करें? इसलिए लोगों की मेरे प्रति नाराजगी स्वाभाविक है। फिर भी मुझे जो करना है, वह मैं करूंगा।
न उनकी यह रीत नई, न अपनी यह प्रीत नई।
न उनकी यह हार नई, न अपनी यह जीत नई।।
मेरे तिरस्कार में, मेरे अपमान में, मुझे दी गई गालियों में सिर्फ वे अपनी हार की घोषणा कर रहे हैं। जब हम हार जाते हैं विचार से तो हम गालियों पर उतर आते हैं। जब हमें कुछ भी नहीं सूझता-बूझता, जब हम उत्तर देने में असमर्थ हो जाते हैं, तो हम पत्थर फेंकने लगते हैं। यह हार का सबूत है। यह अच्छा सबूत है। ये लक्षण बुरे नहीं। इससे लगता है कि मेरी बात से खलल पैदा हो रही है; कहीं न कहीं किसी न किसी की नींद में अड़चन आ रही है। वही मेरी जीत है। कुछ लोगों की भी नींद टूट जाए तो हम इस पूरे देश की नींद को तोड़ दे सकते हैं।
तुम पूछते हो, क्यों मेरा तिरस्कार, क्यों उपेक्षा? जब कि मैं जो कह रहा हूं वह सर्वांगीण विकास के लिए मार्ग बन सकता है।
कुछ बातें समझनी होंगी। पहली बात: भारत की पूरी जीवन-दृष्टि नकारात्मक है। और मेरी मजबूरी है कि मुझे सच ही तुमसे कहना होगा। कितना ही सम्हल कर कहूं, लेकिन सच तो कहना ही होगा। यह नकारात्मक दृष्टि को निर्माण करने वालों में तुम्हारे महापुरुषों का हाथ है। छोटे-छोटे आदमी तो देशों की जीवन-दृष्टि निर्धारित कर भी नहीं सकते। जब भी कसूर होता है तो हम छोटे लोगों पर टाल देते हैं और जब भी कोई महत्वपूर्ण बात होती है तो हम महापुरुषों का गुणगान करते हैं। हमारा गणित बड़ा अजीब है! जब भी देश में कोई स्वर्ण-शिखर उठता है तो हम कहेंगे महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य का देश! और जब देश में सड़ांध पैदा होगी और जब देश में बीमारी फैलेगी और देश की आत्मा रुग्ण होगी, तब हम नहीं कहते कि बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य का देश! तब हम कहते हैं: महापुरुष तो ठीक ही कहते रहे, लोग सुने नहीं, समझे नहीं, माने नहीं।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि चाहे भला हो और चाहे बुरा हो, उस सबके नियंता तुम्हारे महापुरुष ही होते हैं। साधारणजन तो लकीर का फकीर होता है। वह तो चल पड़ता है पीछे। वह तो भरोसा कर लेता है।
भारत की नकारात्मक दृष्टि में बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य जैसे लोगों का हाथ है, क्योंकि ये सभी पलायनवादी हैं। और पलायनवाद जिस देश की छाती पर बैठ जाए उसकी आत्मा को कैंसर लग गया समझो। और शरीर के कैंसर का तो शायद कभी न कभी कोई इलाज खोज लिया जाएगा, लेकिन आत्मा के कैंसर का इलाज बहुत मुश्किल है।
नकारात्मक दृष्टि का अर्थ है जीवन-विरोधी दृष्टि--यह जीवन बुरा है, जंजाल है; इस जीवन को त्यागना है, इस जीवन से भागना है। और जब तुम जीवन को त्यागोगे और भागोगे तो कैसे उसे सुंदर बनाओगे? कौन उसे सुंदर बनाएगा? जब जीवन ही गर्हित है, कुत्सित है, निंदित है, तो क्या सजाना इसे, क्या श्र्ृंगार देना इसे, क्यों समृद्ध बनाना इसे? सड़ने दो! यह तो इसकी नियति है! यह तो होना ही है! इससे बचने का कोई उपाय ही नहीं है!
ऐसी निराशा, ऐसी हताशा सदियों से तुम्हें सिखाई गई है। यह तुम्हारे रक्त में, मांस में, मज्जा में प्रविष्ट कर गई है। यह बात स्वीकार ही कर ली गई, अब इस पर कोई संदेह ही नहीं उठाता। अब कोई जवां मर्द पुनर्विचार के लिए ललकारता भी नहीं कि हम फिर से एक बार तो सोच लें--क्यों हम गरीब हैं? क्यों हम गुलाम रहे? क्यों हम दीन हैं? इतनी समृद्ध भूमि, जिसके पास करीब-करीब दुनिया की सभी ऋतुएं हैं, जिसके पास सभी तरह के मौसम हैं, जिसके पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो न हो, फिर क्या हुआ? भूमि के साथ कुछ भूल नहीं है, न ऋतुओं के साथ कोई भूल है, न नदियों की कमी है, न पहाड़ों की, न जमीन की। मगर आदमी में कुछ गलत हो गया, कुछ तिरछा हो गया। इस पर पुनर्विचार की जरूरत है।
और पुनर्विचार में कष्ट तो होता है, क्योंकि हजारों साल की मानी हुई धारणा हमारा मंदिर बन गई है। वहीं हमने पूजा के फूल चढ़ाए, वहीं हमने आरती उतारी, वहीं हमने धूप-दीप जलाए। और आज अचानक मैं तुमसे कहूं कि फिर से सोचो, कि मनु ने, महावीर ने, बुद्ध ने, शंकराचार्य ने जो तुम्हें जीवन को देखने का ढंग दिया है, कहीं उसमें कुछ भूल-चूक तो नहीं? संसार को माया कहोगे तो कैसे विज्ञान का जन्म होगा? संसार को माया कहोगे और कामिनी-कांचन को गालियां दोगे...।
रामकृष्ण जीवन भर यही करते रहे। बस ये दो शब्दों पर ही उनका सारा उपदेश टिका हुआ है: कामिनी-कांचन का त्याग! अब इन दो शब्दों को ठीक से समझ लो। अगर सोना मिट्टी है तो क्यों पैदा करना? अगर सोना मिट्टी है तो क्यों निर्मित करना? और सोना निर्मित किया जाता है, पैदा किया जाता है। संपदा आकाश से नहीं बरसती; मनुष्य के श्रम और प्रतिभा से पैदा होती है। मनुष्य को उसकी कला ईजाद करनी होती है। विज्ञान वही है--संपदा को जन्म देने का एक सुनियोजित, श्र्ृंखलाबद्ध आयोजन है।
लेकिन कांचन तो छोड़ना है, धन तो व्यर्थ है, असार है! अगर धन असार है तो फिर दरिद्र रहोगे। फिर रोते क्यों हो? फिर परेशान क्यों होते हो? फिर झींकते क्यों हो? फिर क्यों भीख मांगते फिरते हो दुनिया भर में? फिर गरीबी के लिए प्रसन्न होओ, आनंदित होओ, कि प्रभु की बड़ी कृपा है कि उसने तुम्हें धन के जाल से पहले से ही बचा रखा है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: धन असार नहीं है। धन को पकड़ने में अधर्म है, लेकिन धन का उपयोग करने में कोई अधर्म नहीं। लोभ में अधर्म है, लेकिन धन में कोई अधर्म नहीं। लोभ में भी अधर्म का कारण मेरा है; वही नहीं है जो तुम परंपरा से सुनते रहे हो। मैं लोभ को इसलिए अधर्म कहता हूं कि लोभ के कारण धन की गति रुकती है।
हम यहां अगर दो हजार लोग मौजूद हैं और सब अपने-अपने धन को पकड़ कर बैठे रहें तो धन की गति नहीं होगी। लेकिन लोग धन को जीएं, भोगें, उसका व्यय करें, विनियोग करें, खरीदें चीजें, बेचें चीजें, तो धन जितना चलेगा उतना ज्यादा हो जाता है। पांच रुपए मेरे पास हों और जब मैं किसी दूसरे को देता हूं तो दस हो गए। क्योंकि मैंने पांच का उपयोग कर लिया और अब उसको मौका मिला पांच का उपयोग करने का। उसने जब तीसरे को दिए तो पंद्रह हो गए और जब चौथे को दिए तो बीस हो गए और जब पांचवें को दिए तो पच्चीस हो गए। क्योंकि प्रत्येक ने पांच का उपयोग किया और दूसरे के पास फिर पांच पहुंच गए।
अंग्रेजी में शब्द है धन के लिए: करेंसी। वह शब्द बड़ा ठीक है। जो चले वह धन, करेंसी यानी करेंट। जो धार की तरह बहे वह धन। लोभ अटकाता है, जैसे कि झरने पर कोई पत्थर को रख दे। झरना बुरा नहीं है, पत्थरों का रखना बुरा है। मगर तुम्हें सदियों से सिखाया गया है कि झरना बुरा है।
मैं तुमसे कहता हूं: पत्थर हटा दो। धन को भोगने की कला सीखो। जब तुम धन को भोगने की कला सीखोगे तो धन को पैदा करने की कला भी सीखनी पड़ेगी।
और न ही मैं कामिनी के विरोध में हूं। क्योंकि जो व्यक्ति पुरुष है और स्त्रियों के विरोध में है, उसकी जिंदगी में से सारा रस, सारा सौंदर्य, सारा प्रेम सूख जाएगा। सूख ही जाएगा। जो स्त्री पुरुषों के विरोध में है, उसके जीवन में कैसे काव्य के फूल लगेंगे? असंभव। जहां प्रेम सूख गया वहां आदमियत मर जाती है। फिर यह देश क्या है? मुर्दों का एक ढेर हो गया।
प्रेम के प्रति हमारे मन में घृणा है, क्योंकि प्रेम को हमने बंधन कहा। मैं तुमसे फिर कहना चाहता हूं: प्रेम बंधन नहीं है। मोह बंधन है। अपनी भाषा बदलो। पूरी वर्णमाला नई करनी है, तब कहीं इस देश में सूर्योदय हो सकता है। धन नहीं, लोभ। और प्रेम नहीं, मोह। हां, मोह गलत है। मगर मोह के लिए तो हम सब राजी हैं और प्रेम के हम विरोध में पड़ गए हैं।
मोह भी इसलिए गलत है कि वह प्रेम को नुकसान पहुंचाता है; जैसे लोभ धन को नुकसान पहुंचाता है। जैसे लोभ के पत्थर धन के झरने को रोक लेते हैं ऐसे ही मोह के पत्थर प्रेम के झरने को रोक लेते हैं। मोह का मतलब है: यह मेरा; यह मेरी पत्नी, यह किसी और के साथ बैठ कर हंसे भी तो मुझे बेचैनी, तो मुझे नजर रखनी है, मुझे चारों पहर ध्यान रखना है। और पत्नी को भी यही काम है कि पति पर नजर रखे। दफ्तर भी जाता है तो दिन में चार-छह दफे फोन कर लेती है कि कहां हैं, क्या कर रहे हैं। कहीं हंसी-बोल तो नहीं चल रहा है! कहीं किसी स्त्री से मैत्री तो नहीं चल रही है!
यह जो मोह है, यह मार डालता है। प्रेम भी प्रवाह मांगता है। जितना ज्यादा लोगों से तुम प्रेम कर सको उतना ही तुम्हारे जीवन में रसधार होगी। जितने तुम्हारी मैत्री के नए-नए आयाम होंगे, जितने तुम्हारे संबंधों में नई-नई शाखाएं निकलेंगी, नए पत्ते लगेंगे, उतना तुम्हारे जीवन में रस होगा। और इसे तुम अपने अनुभव से भी जानते हो, मगर तुम अनुभव की नहीं मानते, तुम शास्त्रों की मानते हो। तुम अपने अनुभव से जानते हो: जब तुम्हारे जीवन में प्रेम का पदार्पण होता है, एकदम फूल खिल जाते हैं, वसंत आ जाता है।
पतियों को और पत्नियों को साथ-साथ देखो, दोनों उदास चले जा रहे हैं। एक-दूसरे पर पहरा लगाए हुए। दोनों चोर हैं, दोनों पुलिस वाले हैं। पति यहां-वहां नहीं देख सकता।
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी के साथ एक लिफ्ट में सवार हुआ। साथ ही एक नवयौवना, बड़ी सुंदर स्त्री भी लिफ्ट में थी। मुल्ला की नजर स्वभावतः उस पर अटक गई। कुछ पाप नहीं। अगर सुबह के सुंदर सूरज को देख कर तुम्हारी आंखें ठिठक जाएं और अगर गुलाब का फूल खिले और तुम्हारी आंख एक पल को रुक जाए तो किसी स्त्री के सौंदर्य को देख कर न रुके, यह बात कैसे होगी? यह होनी ही चाहिए। न हो तो कुछ गलत है।
तो मुल्ला लाख उपाय करे यहां-वहां देखने का, लेकिन छोटा-सा तो लिफ्ट और जल्दी ही उसकी मंजिल भी आ जाएगी, तो ज्यादा समय भी नहीं है कि यहां-वहां देखे। सो घूर-घूर कर उसी युवती को देख रहा था। बचना भी चाहता था क्योंकि पत्नी साथ थी, इधर-उधर भी देखता था, मगर देखता उसी को था।
हमारे पास एक शब्द है: लुच्चा। लुच्चा का मतलब समझते हो? लोचन से बना है, आंख। लुच्चे का अर्थ होता है, जो किसी को घूर-घूर कर देखे। और इसमें कोई खराब बात नहीं है। इसी से आलोचक शब्द भी बना है। दोनों का मतलब एक ही होता है--आलोचक और लुच्चा--दोनों घूर-घूर कर देखते हैं।
उस युवती ने थोड़ी देर बाद उठाया हाथ और तड़ाक से मुल्ला के चेहरे पर मारा। झल्ला गया मुल्ला, लेकिन अब कुछ कर भी न सका। और वह स्त्री बोली, शर्म नहीं आती? इस उम्र में और चिकोटी काटते हो?
अब मुल्ला कुछ कहे भी तो क्या कहे! जब लिफ्ट से उतरा अपनी पत्नी के साथ तो उसने कहा कि फजलू की मां, मैं अल्लाह की कसम खाकर कहता हूं कि मैंने चिकोटी नहीं काटी थी।
फजलू की मां ने कहा, मुझे मालूम है। चिकोटी मैंने काटी थी। मगर घूर-घूर कर कौन देख रहा था? तुम्हें व्यर्थ अल्लाह की कसम खाने की कोई जरूरत नहीं, मुझे पक्का पता है कि चिकोटी किसने काटी थी। मैंने काटी थी। मगर काटनी पड़ी, नहीं तो चांटा कैसे पड़ता!
प्रेम में कुछ बुराई नहीं है। सौंदर्य के स्वीकार में कुछ बुराई नहीं है। हां, मोह में बुराई है। लेकिन हम मोह के भय से प्रेम को ही काट गए। अंग्रेजी में कहावत है न कि बच्चे को नहलाओ तो फिर गंदे पानी के साथ बच्चे को मत फेंक देना। लेकिन हमने गंदे पानी के साथ बच्चे को भी फेंक दिया। हमने प्रेम को फेंक दिया मोह के डर में, क्योंकि प्रेम रहेगा तो कहीं मोह पैदा न हो जाए। और हमने धन को फेंक दिया लोभ के डर में, कि कहीं धन हुआ तो लोभ न पैदा हो जाए। मगर तब फिर हम सूख गए। न प्रेम रहा, न संपदा रही। बाहर की संपदा भी गई और भीतर की संपदा भी गई। प्रेम भीतर की संपदा है और धन बाहर की संपदा है। दोनों गंवा कर हम बैठे हैं।
और इसलिए मैं अगर आज तुमसे कहूं कि रामकृष्ण के इन उपदेशों से मैं राजी नहीं, तो बेचैनी होती है, क्योंकि रामकृष्ण तुम्हारे लिए परमहंस हैं। वे जो कहें सो परम वाक्य है। अगर मैं आज तुमसे कहूं कि मैं राजी नहीं हूं महावीर का महल को छोड़ कर जाना या बुद्ध का राजपाट छोड़ना, इससे मैं राजी नहीं हूं।
मैं तो पसंद करता कि महावीर रुके होते महलों में और राज्य को रूपांतरित किया होता। क्षमता थी उनके पास, प्रतिभा थी उनके पास। चाहते तो उस राज्य को जिसकी मालकियत उन्हें मिली थी, संपदा से भर देते, विज्ञान से भर देते। मगर वह तो न किया, छोड़ कर भाग गए। इससे गरीबों की गरीबी न मिटी, दुखियों का दुख न मिटा। बुद्ध छोड़ कर चले गए।
इस देश में जिसके पास प्रतिभा थी वह छोड़ कर भाग गया। बुद्धू दुकानों पर बैठे हैं। बुद्धू राजनीति में बैठे हैं। बुद्धू संसार चला रहे हैं। बुद्धिमान हिमालय की गुफाओं में चले गए। दुनिया में इससे उलटा हुआ। बुद्धिमान दुनिया में रहे। और स्वभावतः इसका लाभ हुआ दुनिया को।
थोड़ी देर सोचो, आइंस्टीन अगर महावीर की तरह छोड़ कर जंगल में भाग जाए तो माना कि जरूर थोड़ी शांति अनुभव करेगा वहां। लेकिन संसार का कितना अहित हो जाएगा, इसका कुछ हिसाब है? अगर एडीसन भाग गया होता दुनिया से तो बिजली न होती, रेडियो न होता, टेलीफोन न होता। एक हजार आविष्कार किए एडीसन ने। लेकिन एडीसन को तुम उतना आदर नहीं दोगे जितना महावीर को दोगे, क्योंकि महावीर ने क्या किया--नग्न खड़े हो गए! जो नग्न खड़ा हुआ, उसने तुम सबको भी नग्न कर दिया। और जरूरत थी वस्त्रों की। जिसने छप्पर छोड़ दिया, उसने तुम्हारे छप्पर भी गिरा दिए। और जरूरत थी छप्परों की।
हमें अपने मूल्यांकन बदलने होंगे। और चूंकि मैं मूल्यांकन बदलने की बात करता हूं, इसलिए मुझे महावीर पर भी चोट करनी पड़ेगी, मनु पर भी चोट करनी पड़ेगी, शंकराचार्य पर भी चोट करनी पड़ेगी, रामकृष्ण पर भी चोट करनी पड़ेगी। और यह तुम्हारे समादृत पुरुषों की परंपरा है। तुम कैसे मुझे गालियां देने से अपने को रोक पाओगे? तुम मुझे जिंदा छोड़ रहे हो, यह भी आश्चर्य है। तुम तो अपने पुराने ढंग से ही सोचोगे।
एक आदमी पर
सरकारी वकील ने
आरोप लगाते हुए कहा--
मी लार्ड,
इसके पास नहीं है
राशन कार्ड!
इसे गेहूं और शक्कर की फिक्र नहीं है
इसकी बातों में कहीं भी
महंगाई और सरकार का
जिक्र नहीं है
इतना ही नहीं,
यह हमेशा हंसता और मस्त रहता है
इस पर भी देखिए
अपने आप को हिंदुस्तानी कहता है
इसके चेहरे पर
चिंता की एक भी रेखा नहीं है
जरूर यह विदेशी जासूस मालूम होता है।
भारत में तो हमने आज तक ऐसा आदमी देखा ही नहीं है। यहां तो मस्त होना, आनंदित होना, प्रफुल्लित होना पाप हो गया है। यहां उदास होना, गंभीर होना संतत्व का लक्षण हो गया है। यहां जितना मुर्दा आदमी हो, जितना सड़ा-सड़ाया हो, उतने ही ज्यादा सम्मान का पात्र हो जाएगा।
तुम सम्मान भी किनको देते हो? कोई उपवास कर रहा है, इसलिए सम्मान देते हो। इसके उपवास से क्या हो जाएगा? ऐसे ही भारत में आधे लोग उपवास कर रहे हैं, भूखे मर रहे हैं। जो आदमी नग्न खड़ा हो जाता है, इसको सम्मान देते हो। यूं ही भारत में कितने लोगों के पास कपड़े हैं? लंगोटी भी तो न बची। कहते हैं--भागते भूत की लंगोटी भली। वह लंगोटी भी न बची, भूत को भागे भी न मालूम कितने हजार साल हो गए! ढूंढोगे भी तो लंगोटी पाना मुश्किल है। मगर कोई आदमी अगर नग्न खड़ा हो जाए तो तुम्हारे समादर का पात्र हो जाता है। तुम गदगद हो जाते हो। तुम फूल की मालाएं लेकर तत्काल स्वागत के लिए राजी हो जाते हो। तुम्हारे हृदय में एकदम सुस्वागतम लिख जाता है। तुम्हारे हृदय के पट एकदम से खुल जाते हैं, कि पधारो महाराज, अन्न-जल शुद्ध, पधारो, विराजो! तुम गलत जीवन-दृष्टि में इतने ज्यादा रंग गए हो कि आज मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह तुम कुछ का कुछ समझ लेते हो।
शिष्या को समझा रहे, त्रिगुणाचार्य त्रिशूल,
डैडी कहने की प्रथा, संस्कृति के प्रतिकूल।
संस्कृति के प्रतिकूल, लाड़ली लड़की भोली,
करके नीची नजर मंद्र सप्तक में बोली,
कहूं, पिताजी तो यह कठिनाई आती है,
टकराते हैं ओंठ, लिपिस्टिक हट जाती है।
उसके अपने सोचने का ढंग है!
मांटेसरी के छोटे छात्र
हाफ टाइम में नाश्ता करते-करते
बताने लगे अपने पापा की पोजीशन,
पहले ने कहा--हमारे पापा लखपति हैं,
दूसरा बोला--मेरे फादर करोड़पति हैं,
तीसरे ने मुंह खोला--हमारे डैडी तो मम्मी के पति हैं।
होली का गुलाल मलते हुए बोले
एक हीरो छाप देवर,
हम तुम इक कमरे में बंद हों
और खो जाए चाबी,
तो क्या होगा भाभी?
होगा क्या लाला,
तुड़वाना पड़ेगा तीन रुपए का ताला।
मैं कुछ कहूंगा, तुम कुछ सुनोगे। और कसूर तुम्हारा भी क्या! तुम्हारी भाषा निर्णीत हो गई है; तुम्हारे संस्कार सुस्थिर हो गए हैं, जड़ हो गए हैं। ये पानी पर खींची लकीरें न रहीं, पत्थर पर लिखावटें हो गई हैं।
प्रभु मेरे मैं नहिं रिश्वत खाई।
जबरन नोट भरे पाकिट में, करके हाथापाई।
मोहि फंसाइके, सफा निकसि गयौ, सेठ बड़ो हरजाई।
भोजन-भजन न कछू सुहावै, आई रही उबकाई।
देउ दबाय केस को भगवन, कर लेउ आध बटाई।
कहं काका तब बिहंसि प्रभु ने, लियो कंठ लिपटाई।
प्रभु मेरे मैं नहीं रिश्वत खाई।
तुम भजन भी करोगे तो भी तो तुम्हारी ही दृष्टि से निकलेगा। तुम गीत भी गुनगुनाओगे तो भी तो तुम्हारे ही प्राणों से उठेगा।
इसलिए भारत भूषण, मैं जो कह रहा हूं वह तो सर्वांगीण विकास का पथ है। लेकिन तुम जो सुन रहे हो, तुम तो समझोगे अपनी ही शैली से। तुम्हारी तो बंधी हुई धारणाएं हो गई हैं। यह भारत की नकारात्मक दृष्टि बदलनी होगी, इसे विधायकता देनी जरूरी है। जीवन को निराशा से हटाना है और आशा देनी जरूरी है। कहो कि संसार उतना ही सत्य है जितनी आत्मा, देह उतनी ही सत्य है जितनी चेतना। तब विज्ञान और धर्म दोनों साथ-साथ चल सकते हैं; साथ-साथ ही चलने चाहिए। जैसे पक्षी उड़े तो दो पंख चाहिए। दो पंखों के बिना पक्षी न उड़ सकेगा। दो पंख होंगे तो ही उड़ेगा। एक पंख होगा तो कैसे उड़ेगा? लाख तड़फे, उड़ना चाहे, मगर गिरेगा।
पश्चिम के पास भी एक पंख है--विज्ञान का। वह भी बुरी तरह परेशान है। और हमारे पास भी एक पंख है--धर्म का। हम भी बुरी तरह परेशान हैं। यह समय है जब हम एक-दूसरे से सीख लें। पूर्व और पश्चिम मिल जाने चाहिए। विज्ञान और धर्म जुड़ जाने चाहिए। भविष्य इस पर ही निर्भर होगा--इसी योग पर। इसको मैं महायोग कहता हूं--विज्ञान और धर्म का मिल जाना। और तभी तुम भीतर भी आनंद को उपलब्ध होओगे और बाहर भी। दोनों आनंदों में विरोध नहीं है। सच पूछो तो दोनों आनंदों में सामंजस्य है। बाहर का आनंद भीतर के आनंद के लिए भूमिका बनता है।
इसलिए मैं तुम्हें संसार छोड़ने को नहीं कहता; संसार को जीने की कला सीखने को कहता हूं। मेरा संन्यास त्याग नहीं है, भोग की कला है। चौंकोगे तुम, क्योंकि सदियों से तुमने सुना संन्यास यानी त्याग। और मैं कहता हूं संन्यास यानी भोग की कला। हां, अगर बिना कला के भोगो तो पशु जैसे हो जाते हो। और बिना कला के भागो तो सिर्फ कायर हो। जिसको कला आती है उसको भागना भी नहीं पड़ता और पशु भी नहीं होना पड़ता; उसके जीवन में महाक्रांति घटित होती है। वह जल में कमलवत। यहीं संसार में, इसकी पूरी समृद्धि में यूं जीता है जैसे कुछ भी न छूता हो। माना कि यह काजल की कोठरी है, लेकिन इससे गुजरने का ढंग भी है। कबीर गुजरे तो तुम भी गुजर सकते हो। मैं गुजर रहा हूं तो तुम भी गुजर सकते हो।
कबीर ने कहा: ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया, खूब जतन से ओढ़ी रे कबीरा।
जरा भी मैली न होने दी। काजल लग ही न पाया। इसमें क्या खूबी है कि भाग गए, काजल की कोठरी से ही न निकले और वस्त्र सफेद रहे? इसमें क्या कला है? इसमें क्या प्रतिभा है? और काजल की कोठरी से निकले, कपड़े ही काले न हुए, खुद भी काले हो गए--इसमें भी कोई कला नहीं। कला तो इसमें है कि काजल की कोठरी से निकलो और जरा-सा भी दाग न लग पाए, बेदाग निकल आओ। और तभी मैं कहता हूं कि तुम इस योग्य होओगे कि परमात्मा ने तुम्हें जो जीवन दिया था उसको धन्यवादपूर्वक वापस कर सको; कह सको कि धन्यवादी हूं कि तुमने एक अपूर्व अवसर दिया--जागने का, होश सम्हालने का, ध्यान का।
तुमने पूछा कि आप भारत को उसकी अनंत क्षमताओं के प्रति जगा रहे हैं।
जगाने में ही तो अड़चन है। किसी सोए आदमी को जगाओ, और वह नाराज होगा। यह भी हो सकता है कि कह कर सोया हो कि सुबह मुझे उठा देना, कि मुझे जल्दी टे्रन पकड़नी है। मगर वही सुबह उठाने में अड़चन डालेगा। वही कंबल खींच-खींच कर कहेगा, जरा पांच मिनट और। जरा एक करवट और ले लूं। अभी क्या जल्दी पड़ी है? और भारतीय गाड़ियां हैं, कोई समय पर आने वाली हैं! क्यों मेरे पीछे पड़े हो? और अगर वह कोई सुंदर सपना देख रहा हो कि किसी राजमहल में निवास कर रहा हो सपने में, तब तो और भी नाराज हो जाएगा।
तुम सपने देख रहे हो स्वर्गों के, जो कहीं भी नहीं हैं; बैकुंठ के, जो कहीं भी नहीं हैं; गोलोक, जो कहीं भी नहीं हैं। तुम सपने देख रहे हो सुंदर। और तुम्हारे ऋषि-मुनि तो और भी सुंदर सपने देख रहे हैं, क्योंकि उनको खयाल है चूंकि वे उपवास करते हैं, धूनी रमा कर बैठे हैं, वस्त्र त्याग कर दिया है, जंगल में आ गए हैं--तो स्वर्ग के पाने के अधिकारी हो गए हैं।
अब धूनी रमाए बैठे हो, इस अभ्यास से तो इतना ही तय होता है कि तुम्हें नरक भेजा जाना चाहिए। क्योंकि नरक में धूनी लगी हुई है, धू-धू करके जल रही है अग्नि, कड़ाहे चढ़े हुए हैं। स्वभावतः जो लोग ठीक गहरे अभ्यासी हैं, उनको ही भेजा जाएगा। गैर-अभ्यासियों को वहां भेज कर क्या करोगे? यह तो सीधा गणित है कि अगर तुम इंजीनियर हो तो इंजीनियर का काम मिलेगा, अगर डाक्टर हो तो डाक्टर का काम मिलेगा। पढ़ो तो इंजीनियरी और हो जाओ डाक्टर, तो जान लोगे लोगों की। खुद भी मुसीबत में पड़ोगे, लोगों को भी मुसीबत में डालोगे।
जो धूनी रमाए बैठे हैं, धूप में अपने को सता रहे हैं, कांटे बिछा कर लेटे हैं, अगर कहीं कोई नरक होगा तो उसी का तो अभ्यास कर रहे हैं। इनको स्वर्ग भेजने की कोई जरूरत भी नहीं है। ये स्वर्ग में करेंगे क्या?
मैंने सुना है, एक आदमी सरकस में काम करता था। उसका काम ही यही था कि खीलों के बिस्तर पर सोता था। नुकीले खीले कि हाथ को छू जाएं तो लहूलुहान कर दें। वह उस पर सोता था। उसकी भी कला है, क्योंकि तुम्हारी पीठ में इस तरह के बिंदु हैं जहां कोई संवेदना नहीं होती। अगर भरोसा न हो तो घर में किसी को भी, अपनी पत्नी को कहना--उसको भी थोड़ा मजा आएगा--कि सुई लेकर तुम्हारी पीठ में चुभाए। जहां-जहां तुम्हें पीड़ा मालूम हो, कहना राम-राम! और जहां-जहां पीड़ा तुम्हें पता ही न चले कि सुई चुभाई गई है, वहां वह निशान लगाती जाए। तुम्हारी पीठ पर ऐसे बहुत-से बिंदु हैं जहां तुम्हें अनुभव ही नहीं होगा कि सुई चुभाई गई। वहां कोई संवेदनशीलता नहीं है। बस उन्हीं बिंदुओं को सम्हालने की बात होती है। कांटे उन्हीं बिंदुओं को छूते हैं। बिस्तर ऐसा बनाना पड़ता है कि कांटे उन्हीं बिंदुओं को छुएं।
अब यह आदमी रोज यही धंधा करता था सरकस में। एक दिन छुट्टी पर आराम कर रहा था घर। उसकी पत्नी देख कर हैरान हुई, क्योंकि वह कांटों का बिस्तर लगा रहा था--वही खीले का बिस्तर। पत्नी ने कहा, क्या कर रहे हो? आज तो छुट्टी है।
उसने कहा, छुट्टी तो है, मगर मैं सोऊं कैसे? अभ्यास जो हो गया है। जब तक इस खीलियों वाले बिस्तर पर लेटूंगा नहीं, मैं सो नहीं पाऊंगा।
अभ्यास बड़ी चीज है।
तुम्हारे ऋषि-मुनियों को तो नरक भेजा ही जाना चाहिए। अगर कहीं कोई नरक है तो निश्चित ही ऋषि-मुनियों के लिए बनाया गया है। इतना बेचारे अभ्यास कर रहे हैं! यह सब बेकार ही अभ्यास जाएगा पानी में? स्वर्ग में ये करेंगे क्या, वहां जाकर कांटे बिछाएंगे। स्वर्ग में जाकर धूनी रमाएंगे। स्वर्ग में जाकर नंगे घूमेंगे। स्वर्ग में इनकी क्या जरूरत है?
अगर स्वर्ग में जाना है तो स्वर्ग का थोड़ा अभ्यास करो। उमर खय्याम ने ठीक कहा है। मुसलमानों की धारणा है कि स्वर्ग में, बहिश्त में शराब के चश्मे बहते हैं। यहां शराब वर्जित है, यहां शराब पीना पाप है।
जब मिर्जा गालिब को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और दिल्ली को तहस-नहस कर दिया और अंग्रेज मिर्जा गालिब को पकड़ कर ले चले कारागृह की तरफ, तो रास्ते में उन्होंने पूछा, मुसलमान हो? तो मिर्जा गालिब ने कहा, हुजूर, आधा।
वे थोड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, आधा! बहुत मुसलमान पकड़े, बहुत हिंदू पकड़े, तुम पहले आदमी हो। यह क्या कहते हो? आधा मुसलमान यानी क्या मतलब? तो मिर्जा गालिब ने कहा, आधा इसलिए कि सुअर नहीं खाता, शराब पीता हूं। पूरा कैसे कहूं?
यहां शराब पीना वर्जित है और मजा यह है कि जो यहां शराब न पीएंगे उनके लिए बहिश्त में शराब के झरने बहाए गए हैं। यह कौन-सा गणित है? उमर खय्याम का गणित ज्यादा साफ मालूम पड़ता है। उमर खय्याम एक अदभुत सूफी फकीर था। उसने बात पते की कही। उसने कहा, यहां पीने दो, अभ्यास तो करने दो जी! यहां कुल्हड़ से भी न पीया और वहां एकदम जाकर झरनों में पीएंगे तो मरेंगे नहीं! ऐसा अंधाधुंध नशा चढ़ेगा कि भगवान सामने खड़े होंगे तो शैतान नजर आएगा। सब उलटा-सीधा हो जाएगा। अभ्यास करने दो। यहां पीने दो। यहीं का अभ्यास तो वहां काम आएगा।
तुम्हारे ऋषि-मुनि क्या खाक पीएंगे! और अगर स्वर्ग में शराब ही शराब के चश्मे हैं, पानी मिले ही न, तो ऋषि-मुनियों की हालत तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी। उनको तो नरक जाना पड़ेगा। उनको स्वर्ग में कहां जगह!
न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है। यहीं तुम नरक बनाते हो। अगर तुम जीवन को नकारात्मक ढंग से लेते हो, नरक बन जाता है। जीवन को नकार से देखना नरक है और जीवन को विधायकता देना स्वर्ग है। फूल चुनो, क्या कांटों के बिस्तर बना रहे हो? फूलों के बिस्तर बन सकते हैं तो फिर क्यों कांटों पर मरे जा रहे हो?
लेकिन कुछ कारण हैं। कुछ कारण हैं, क्यों लोग नकारात्मक हो गए? कारण यह है कि सुख की चाह स्वाभाविक है। आनंद की आकांक्षा सभी के भीतर है। ऐसा कौन है जो आनंद न चाहे? आनंद की अभीप्सा स्वाभाविक है। और हम आदर उसको देते हैं जो कुछ असाधारण काम करके बताए। जैसे कोई सिर के बल खड़ा हो तो वहां भीड़ लगेगी। तुम पैर के बल कितनी ही देर खड़े रहो, कोई न आएगा।
पैर के बल तुमको परमात्मा ने खड़ा किया है। लेकिन जो आदमी सिर के बल खड़ा है, मूर्खतापूर्ण कृत्य कर रहा है; क्योंकि खड़े होने के लिए परमात्मा ने पैर दिए हैं, सिर नहीं। सिर के दूसरे काम हैं। लेकिन सिर के बल खड़े आदमी के आस-पास भीड़ इकट्ठी हो जाएगी, क्योंकि वह कुछ अनूठा कर रहा है, कुछ नया कर रहा है, कुछ बेजोड़ काम कर रहा है। जहां सारे लोग पैरों पर खड़े हैं, वहां वह सिर पर खड़ा है। जहां सारे लोगों को दो दफा भोजन चाहिए, जो आदमी दस-दस दिन, पंद्रह-पंद्रह दिन का उपवास करेगा उसको सम्मान मिलने लगेगा। वह कुछ विशिष्ट काम कर रहा है।
हालांकि कुछ खास काम नहीं है; सिर्फ भूखा मरने का अभ्यास कर रहा है। और अभ्यास तो किसी भी चीज का हो सकता है। और तीन-चार-पांच दिन के बाद तो भूख मरनी शुरू हो जाती है, क्योंकि मनुष्य के शरीर में ऐसी व्यवस्था है कि तीन महीने तक के लिए शरीर भोजन जुटा कर रखता है। इसलिए तो चर्बी इकट्ठी होती है।
स्त्रियों के शरीर में ज्यादा चर्बी इकट्ठी होती है पुरुषों की बजाए, क्योंकि उनको जब बच्चे को जन्म देना होता है तो नौ महीने तक अड़चन आती है--भोजन करना मुश्किल, वमन हो जाता है, भूख नहीं लगती। पेट में बच्चा इतनी जगह ले लेता है कि अब भोजन को जगह कहां बचे? तो स्त्रियों के पास प्रकृति ने ज्यादा चर्बी दी है, इसलिए स्त्रियां एक तरह के अनुपात में होती हैं। एक गोलाई होती है उनकी देह में। पुरुष की देह में वैसी गोलाई नहीं होती। लेकिन पुरुष की देह में भी, स्वस्थ देह हो तो तीन महीने तक भोजन चल सके, इतनी चर्बी इकट्ठी होती है।
तो जब तुम उपवास करते हो तो अगर ठीक से समझना चाहो वैज्ञानिक अर्थों में तो तुम मांसाहार कर रहे हो, अपना ही मांस पचा रहे हो। एक दिन के उपवास में एक किलो वजन कम होता है। तुमने कभी सोचा, एक किलो वजन गया कहां? एक किलो वजन तुम पचा गए। तीन महीने तक आदमी, अगर पूरी तरह स्वस्थ आदमी हो, तो मजे से उपवास कर सकता है। और तीन दिन, पांच दिन के बीच में कभी रूपांतरण हो जाता है। पेट फिर बाहर से भोजन नहीं मांगता; उसके पास एक वैकल्पिक व्यवस्था है, वह तत्क्षण अपना ही मांस पचाना शुरू कर देता है। और जब अपना मांस पचाना शुरू कर देता है, बाहर से भोजन की जरूरत नहीं रह जाती।
इसलिए जो लोग लंबे उपवास करते हैं, तुम यह मत सोचना कि कोई बहुत मेहनत का काम कर रहे हैं। असली मेहनत तीन-चार दिन में ही होती है, शुरू के तीन-चार दिनों में। इसके बाद तो फिर तुम्हारा शरीर नए ढर्रे पर चलने लगता है, नई प्रक्रिया पकड़ लेता है।
मगर जो आदमी उपवास करेगा...महावीर ने, कहते हैं, बारह वर्षों में सिर्फ एक वर्ष भोजन किया, ग्यारह वर्ष भूखे रहे। इकट्ठे नहीं। इकट्ठे रहते तो कभी के खतम हो गए होते। लेकिन ग्यारह दिन उपवास करते और बारहवें दिन भोजन करते। ऐसा कर-करके उन्होंने बारह वर्ष गुजारे।
स्वभावतः खूब सम्मान मिला। जहां लोग एक बार का भोजन नहीं छोड़ सकते, जहां दिन-रात भोजन ही भोजन सिर पर सवार रहता है--सुबह नाश्ता, फिर भोजन, फिर दोपहर को थोड़ा फलाहार, फिर शाम का भोजन, फिर रात को सोते-सोते दुग्धाहार--इन्होंने जब देखा कि महावीर ग्यारह-ग्यारह, बारह-बारह दिन उपवासे रह जाते हैं, है चमत्कार!
नकारात्मक लोगों को आदर मिल सका इसलिए कि वे बड़े इक्के-दुक्के थे। लेकिन उनको आदर मिलने के कारण तुम्हारा चित्त विकृत हो गया। जो लोग धन को छोड़ कर भाग गए, तुम्हारे मन में उनके प्रति सम्मान उठा, क्योंकि तुम सब तो धन की तरफ भाग रहे हो और वे छोड़ कर भाग गए। क्या गजब का त्याग, महात्याग!
लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि चाहे तुम धन की दुनिया में ही क्यों न रहो, तुम्हें अपने ही प्रति ग्लानि पैदा हो गई कि तुम पाप कर रहे हो। तुम चाहे संसार में रहो चाहे संसार के बाहर, हर हाल में संसार की निंदा तुम्हारे मन में गहरी हो गई। और जिस चीज की निंदा हमारे मन में गहरी हो जाती है, हम उसे सजावट देना बंद कर देते हैं।
और मैं जिस सर्वांगीण विकास की बात कर रहा हूं, वह स्वभावतः जीवन को सजाने की बात है। उसे रंग देने की बात है। जीवन को इंद्रधनुष बनाने की बात है।
तमाम उम्र कटी एक बेनवा की तरह
चमन में खाक उड़ाते फिरे सबा की तरह
चिराग हसरते-पा-बोस का जलाए हुए
तुम्हारी राह में हम भी हैं नक्शे-पा की तरह
दिलों का दर्द कभी लब पे आ ही जाता है
किसी पुकार की सूरत किसी सदा की तरह
निशाने-राह न पाया तो दश्ते-गुरबत में
हम अपनी राह बनाते चले हवा की तरह
गमे-शिकस्त ने हर-हर कदम पे साथ दिया
किसी रफीक, किसी दर्द-आश्ना की तरह
इलाही गम की हवाएं किसी के दामन तक
पहुंच न पाएं मेरे दस्ते-नारसा की तरह
खुशी का नाम तो अक्सर सुना किए ‘ताबां’
मगर वुजूद न पाया कहीं हुमा की तरह
उर्दू कविता में हुमा पक्षी नाम के एक काल्पनिक पक्षी की चर्चा है। कहते हैं कि हुमा पक्षी की छाया भी किसी पर पड़ जाए तो उसके जीवन में सौभाग्य का उदय हो जाता है, अशर्फियां बरस जाती हैं। लेकिन हुमा पक्षी काल्पनिक है, उसकी छाया कहां से पड़ेगी?
खुशी का नाम तो अक्सर सुना किए ‘ताबां’
नाम तो बहुत सुना खुशी का, आनंद का।
मगर वुजूद न पाया कहीं हुमा की तरह
उसका अस्तित्व कहीं न मिला। हुमा पक्षी की तरह बहुत खोजा, मगर उसे कहीं पाया नहीं।
और ऐसे ही यह देश आनंद की बातें तो कर रहा है सदियों से, मगर पाया कहां? अरे, बाहर का भी न पा सके तो भीतर का क्या पाओगे? बाहर का तो भौतिकवादी भी पा लेते हैं, वह भी न पा सके, तो भीतर का आनंद तो बहुत बड़ी बात है। बाहर के आनंद के सोपान पर चढ़ कर ही तो भीतर का आनंद पाया जाता है।
बाहर कुछ सीढ़ी बनाओ, ताकि भीतर पहुंच सको। बाहर और भीतर में विरोध नहीं है; वे परिपूरक हैं। जैसे दिन और रात में विरोध नहीं। जैसे जवानी में और बुढ़ापे में विरोध नहीं। जैसे जिंदगी में और मौत में विरोध नहीं। जैसे सर्दी में और गर्मी में विरोध नहीं। वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं।
बाहर और भीतर में दुश्मनी न ठानो। उनकी दुश्मनी ने ही हमें मार डाला, हमें अपंग कर दिया, हमें लंगड़ा कर दिया। मैं उसी दोस्ती की तरफ इशारा कर रहा हूं। और स्वभावतः मेरा इशारा तुम्हारे तथाकथित अवतारों के विपरीत जाएगा। तो तुम मुझसे नाराज होओगे। तुम मुझ पर क्रोधित हो जाओगे।
हुजूम दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो
मिले वो रात कि जिस रात की सहर गुम हो
मजा तो जब है कि आवारगाने-शौक के साथ
गुबार बन के चले और रहगुजर गुम हो
हमारी तरह खराबे-सफर न हो कोई
इलाही यूं तो किसी का न राहबर गुम हो
चले हैं हम भी चिरागे-नजर जलाए हुए
ये रोशनी भी कहीं राह में अगर गुम हो
तलाशे-दोस्त है दिल को मगर खुदा जाने
कहां-कहां ये भटकता फिरे, किधर गुम हो
चमन-चमन है वो नश्वो-नुमा के हंगामे
गुलों को ढूंढने जाए तो खुद नजर गुम हो
सुखन की जान है हुस्ने-बयां मगर ‘ताबां’
न यूं कि लफ्ज ही रह जाएं फिक्रे-तर गुम हो
हमारे पास शब्द ही रह गए हैं, शब्दों का अर्थ कभी का खो चुका है। आनंद, आत्मा, मोक्ष--बस शब्द रह गए, इन शब्दों का अर्थ कब का खो चुका है।
सुखन की जान है हुस्ने-बयां मगर ‘ताबां’
काव्य का तो प्राण ही है--कहने का ढंग, कहने की सुंदरता।
सुखन की जान है हुस्ने-बयां मगर ‘ताबां’
मगर ध्यान रहे!
न यूं कि लफ्ज ही रह जाएं फिक्रे-तर गुम हो
कहीं ऐसा न हो कि बयान ही बयान रह जाए, हुस्ने-बयां रह जाए, कहने का ढंग और सलीका ही रह जाए और भीतर के सारे अर्थ खो जाएं।
वही दुर्भाग्य इस देश के साथ हुआ है। हमारे पास शब्द तो सुंदर हैं, बड़े सुंदर हैं, बड़े प्यारे हैं, मगर उन शब्दों का अनुभव, उन शब्दों की प्रतीति, उन शब्दों का साक्षात्कार बहुत समय हो चुका गुम हो गया है।
मैं तुम्हारे शब्दों को प्राण देना चाहता हूं। तुम्हारे शब्दों में श्वासें फूंकना चाहता हूं। तुम्हारी बंद हो गई हृदय की धड़कन को धड़कन देना चाहता हूं। लेकिन तुम इतनी सदियों से मुर्दा हो कि अब तुम जिंदगी की तकलीफ नहीं लेना चाहते। अब तुम जिंदगी की झंझट में नहीं पड़ना चाहते। जिंदगी तो चुनौती है। और जिंदगी तो खतरा है। खयाल रखना।
कनफ्यूशियस से उसके एक शिष्य ने--मैन्शियस ने--पूछा कि मैं शांति चाहता हूं, परम शांति, ऐसी शांति कि कहीं कोई बाधा न पड़े। कनफ्यूशियस ने उसे गौर से देखा और कहा, ठहर, जब तू मर जाए तो कब्र में क्या करेगा? वहीं उस शांति को पा लेना। फिर कोई बाधा न पहुंचेगी। अभी तो जिंदा है। अभी तो जिंदगी देख ले। फिर मौत आएगी, जरूर आएगी, निश्चित आती है, अपरिहार्यरूपेण आती है। फिर कब्र में शांत रहना, सुरक्षित रहना; फिर कोई बाधा न डालेगा। कोई कितना ही बैंड-बाजा बजाए, तुझे कुछ सुनाई न पड़ेगा। लेकिन अभी तो जिंदा रह ले। जब जिंदगी है तो जिंदगी को पूरी तरह जी लो।
और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जिंदगी को इस ढंग से जीया जा सकता है कि जिंदगी में नाच भी हो, गीत भी हो, संगीत भी हो और शांति भी हो। जीवन में सुख भी हो, संपदा भी हो, आनंद भी हो। जीवन में देह का स्वास्थ्य भी हो और आत्मा का ध्यान भी हो। इन दोनों में कोई विरोध नहीं।
मगर हम सदियों से कब्र की सुरक्षा में पड़े हुए हैं। यह मुर्दों का टीला है देश। इसमें मुर्दों को जगाने में झंझट तो होगी। कुछ मुर्दे नाराज होंगे कि हम कहां शांति से सो रहे थे और तुमने आकर दखल दे दी! वे पत्थर भी मारेंगे, गालियां भी देंगे, अपमान भी करेंगे, उपेक्षा भी करेंगे। यह सब स्वाभाविक है।
भारत भूषण, लेकिन मुझे जो करना है वह मैं जारी रखूंगा। न उनके पत्थर रोक सकते हैं, न उनकी गालियां रोक सकती हैं, न उनका अपमान रोक सकता है। क्योंकि मुझे तो सिर्फ इस बात में ही इस देश का भविष्य दिखाई पड़ता है कि यह बाहर और भीतर के सामंजस्य को उपलब्ध हो जाए। उन्हें उनका काम करने दो, मैं अपना काम जारी रखूंगा।
न उनकी यह रीत नई,न अपनी यह प्रीत नई।
न उनकी यह हार नई,न अपनी यह जीत नई।।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं एक कवि हूं और जीवन में सबको प्रेम बांटना चाहता हूं। लेकिन संसार की समस्याओं को देखता हूं तो सोचता हूं कि पहले इन समस्याओं को तो हल कर लूं। इन समस्याओं के रहते तो प्रेम एक विलास ही होगा न!
विष्णुदास राठी, पहले भी लोगों ने अगर ऐसा सोचा होता तो कभी कोई प्रेम कर ही न पाता। समस्याएं तो सदा रही हैं और समस्याएं सदा रहेंगी। यह और बात है कि समस्याओं के तल बदलते जाएं। कभी शरीर की समस्याएं होंगी, कभी मन की समस्याएं होंगी, कभी आत्मा की समस्याएं होंगी। समस्याएं तो होंगी। हां, समस्याएं ऊंची होनी चाहिए। रोटी-रोजी की सबसे छोटी समस्याएं हैं। ध्यान की, समाधि की सबसे ऊंची समस्याएं हैं।
लेकिन इस भ्रांति में मत रहना कि समस्याएं सदा के लिए समाप्त हो जाएंगी, ऐसा भी कोई दिन आएगा। अगर कोई भी समस्या न होगी तो यही समस्या खड़ी हो जाएगी कि अब क्या करें। कोई भी समस्या नहीं! मारे गए! बुरे मारे गए! करने को ही कुछ न बचा। जिंदगी तो समस्याओं का नाम है। और जिंदगी की समस्याओं को हल करना प्रतिभा के निखारने का उपाय है। लेकिन इस कारण भोजन तो करना बंद नहीं कर दिया; कि जिंदगी समस्याओं से भरी है, अभी कैसे भोजन करें, यह तो विलास होगा। सांस लेनी तो बंद नहीं कर दी, कि अभी कैसे सांस लें! जिंदगी तो इतनी समस्याओं से भरी है, दंगे-फसाद, कहीं तालाबंदी, कहीं हड़ताल, कहीं रास्ता रोको, कहीं घिराव, कहीं डकैतियां, कहीं बलात्कार, कहीं हत्याएं, कहीं युद्ध के बादल! इतनी समस्याएं हैं और तुम सांस ले रहे हो! शर्म नहीं आती?
विष्णुदास राठी, कुछ तो सोचो। क्या विलास कर रहे हो? अभी भी सोते हो? अभी भी सुबह उठ कर स्नान करते हो? कोई लाज नहीं, कोई शर्म नहीं, कोई शिष्टाचार नहीं! सिर्फ प्रेम के लिए यह सवाल उठा रहे हो। तब तो फिर कोई भी कभी प्रेम नहीं कर सकता था।
समस्याएं कब न थीं? राम के समय में न थीं? खुद की सीता गंवा बैठे, और समस्याएं न थीं? समस्याएं ही समस्याएं थीं। कृष्ण के समय में न थीं? तो महाभारत कैसे हुआ? अकारण, यूं ही खेल-खेल में! कबड्डी थी क्या? कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी! या खो-खो! सवा अरब आदमी मरे और समस्या न थी?
और तुम्हारे ऋषि-मुनि प्रार्थना निरंतर करते रहे कि हे प्रभु, अंधकार से प्रकाश की तरफ ले चलो, मृत्यु से अमृत की तरफ ले चलो, असत्य से सत्य की तरफ ले चलो। समस्याएं न थीं? बुद्ध चालीस साल समझाते रहे लोगों को--चोरी न करो, बलात्कार न करो, बेईमानी न करो, धोखाधड़ी न करो। समस्याएं न थीं, तो पागल थे, दिमाग खराब था, किसको समझा रहे थे? जो लोग चोरी नहीं करते थे उनको समझा रहे थे कि चोरी न करो? जो लोग बलात्कार करना जानते ही नहीं थे, उनको समझा रहे थे कि हे भाई, बलात्कार न करो! तो वे लोग खड़े होकर पूछते कि साईं पहले यह भी तो बताओ कि बलात्कार क्या होता है! पहले बलात्कार करना तो सिखाओ!
एक ईसाई स्कूल में पादरी समझा जा रहा था बच्चों को कि परमात्मा को पाने के लिए क्या करना होता है। पश्चात्ताप करना होता है, प्रायश्चित करना होता है।
खूब समझाने के बाद उसने बच्चों से पूछा कि परमात्मा को पाने के लिए क्या करना होता है? एक छोटे-से बच्चे ने खड़े होकर कहा, पाप करना होता है।
उसने कहा, हद हो गई! यह तो मैंने बात ही नहीं की थी। मैं समझा रहा प्रायश्चित, पश्चात्ताप, अरे दुष्ट! और तू कहता है पाप करना होता है।
उसने कहा, अगर पाप न करेंगे तो प्रायश्चित किसका करेंगे? और पश्चात्ताप किसका करेंगे? अरे, पहले पाप करना तो सिखाओ। पाप करें तो फिर प्रायश्चित करें। फिर प्रायश्चित करें तो परमात्मा मिले।
लड़के ने बात तो समझदारी की कही, पादरी से कहीं ज्यादा अकल की कही।
एक गांव में नया-नया पादरी आया और दो महिलाएं एक चर्चा कर रही थीं कि नया पादरी कैसा है, तुम्हारा क्या खयाल है? उस दूसरी महिला ने कहा, बड़ा गजब का है! अरे, जब तक आया नहीं था, हमें मालूम ही नहीं था कि पाप क्या चीज है। जब से आया है तब से पता चला कि पाप क्या चीज है।
तो बुद्ध किसको समझा रहे थे बलात्कार न करो? महावीर किसको समझा रहे थे हिंसा न करो? अहिंसा परमो धर्मः! अहिंसकों को? जिन्होंने बेचारों ने कभी मच्छर न मारा, कभी खटमल न मारा, इनको समझा रहे थे अहिंसा परमो धर्मः? तो लोग कहते, अब बस बकवास बंद करो। यहां कोई है ही नहीं हिंसा करने वाला, किसको समझा रहे हो?
खलील जिब्रान की प्रसिद्ध कहानी है। एक कुत्ता बाकी कुत्तों को समझाता था कि देखो भौंको मत, बेकार मत भौंको। बेकार भौंकने के कारण ही कुत्तों की जाति बरबाद हुई। और जब तक हम बेकार ही भौंकते रहेंगे, शक्ति व्यय होगी। और जब शक्ति भौंकने में ही व्यय हो जाएगी तो और क्या खाक करोगे? अरे, पिछड़े जा रहे हो! आदमियों तक से पिछड़े जा रहे हो!
कुत्तों को बात तो जंचती, कि बात तो सच है; मगर बेचारे कुत्ते आखिर कुत्ते हैं, बिना भौंके कैसे रहें। एकदम चांद निकल आए और कुत्ते बिना भौंके रह जाएं! सिपाही निकले और कुत्ते बिना भौंके रह जाएं! पोस्टमैन निकले, एकदम खरखरी उठती है। संन्यासी को देख लें...। कुत्ते वर्दी के खिलाफ, बड़े दुश्मन! वर्दीधारी देखा कि फिर उनसे नहीं रहा जाता। फिर सब संयम का बांध टूट जाता है। यम-नियम-प्राणायाम इत्यादि सब भ्रष्ट हो जाते हैं। फिर तो वे कहते, अब देखेंगे कल, अभी तो भौंक लें। अभी तो ऐसा मजा आता है भौंकने में!
मगर यह कुत्ता भी ठीक कहता था। इसको लोग पूजते थे कि यह अवतारी पुरुष है। ऐसा कुत्ता ही नहीं देखा जो खुद तो भौंकता ही नहीं, दूसरों को भी नहीं भौंकने देता। अदभुत है!
ऐसे वर्षों आए और गए और उपदेशक समझाता रहा और सुनने वाले सुनते रहे सिर झुका कर कि अब क्या करें, मजबूरी है, पापी हैं हम! मगर यह आदमी तो बड़ा पहुंचा हुआ है! यह कुत्ता कोई साधारण कुत्ता नहीं। यह तो सीधा आकाश से ही आया है, ईश्वर का ही अवतार होना चाहिए। न भौंके। कभी नहीं किसी ने उसको भौंकते देखा। उसका आचरण बिलकुल शुद्ध था, विचार के बिलकुल अनुकूल था। जैसा बाहर वैसा भीतर। संतों में उसकी गिनती थी।
लेकिन एक रात कुत्तों ने तय किया कि अपना गुरु कितना समझाता है और अब उसका बुढ़ापा भी आ गया है, एक दफा तो अपन ऐसा करें कि एक रात तय कर लें। अमावस की रात आ रही है कल। कल रात चाहे कुछ भी हो जाए, कितनी ही उत्तेजनाएं आएं और शैतान कितना ही हमारे गले को गुदगुदाए, कि कितने ही निकलें पुलिस वाले और सिपाही और संन्यासी, मगर हम आंख बंद किए, अंधेरी गलियों में छिपे हुए, नालियों में दबे हुए पड़े रहेंगे। एक दफा तो अपने गुरु को यह भरोसा आ जाए कि हमने भी तेरी बात सुनी और मानी।
गुरु निकला शाम से, जो उसका काम था कि कोई मिल जाए कुत्ता भौंकते हुए और वह पकड़े, दे उपदेश, पिलाए वही घोंटी। मगर कोई न मिला, बारह बज गए, रात हो गई आधी, सन्नाटा छाया हुआ है! सदगुरु बड़ा परेशान हुआ। उसने कहा, हरामजादे गए कहां! कमबख्त! कोई मिलता ही नहीं।
वह तो बेचारा समझा-समझा कर अपनी खुजलाहट निकाल लेता था। आज समझाने को भी कोई न मिला। एकदम गले में खुजलाहट उठने लगी। जब कोई कुत्ता न दिखा और सब कुत्ते नदारद, तो पहली दफा उसकी नजर सिपाहियों पर गई, पोस्टमैनों पर गई, संन्यासी चले जा रहे! बड़े जोर से जीवन भर का दबा हुआ एकदम उभर कर आने लगा। बहुत रोका, बहुत संयम साधा, बहुत राम-राम जपा, मगर कुछ काम न आए। नहीं रोक सका, एक गली में जाकर भौंक दिया।
उसका भौंकना था कि सारे गांव में क्या भुकभाहट मची, क्योंकि बाकी कुत्तों ने सोचा कोई गद्दार दगा दे गया। जब एक ने दगा दे दिया, हम क्यों पीछे रहें? अरे, हम नाहक दबे-दबाए पड़े हैं! सारे कुत्ते भौंकने लगे। ऐसी भौंक कभी नहीं मची थी। और सदगुरु वापस लौट आया! तीर्थंकर वापस आ गया! उसने कहा, अरे कमबख्तो! कितना समझाया, मगर नहीं, तुम न मानोगे। तुम अपनी जात न बदलोगे। तुम्हारा रोग न जाएगा। फिर भौंक रहे हो। इसी भौंकने में कुत्ते की जातियों का ह्रास हुआ। इसी में हम बरबाद हुए। नहीं तो आज आदमी के गले में पट्टे बांध कर घूमते होते। आ गया कलियुग! क्यों भौंक रहे हो?
फिर बेचारे कुत्ते पूंछ दबा कर चले कि क्या करें! परमहंस देव, क्या करें! छूटता ही नहीं। आज तो बहुत पक्का कर लिया था छोड़ने का, लेकिन कोई गद्दार दगा दे गया। पता नहीं कौन गद्दार है, किस धोखेबाज ने, किस बेईमान ने भौंक दिया!
तुम जो यह कह रहे हो कि समस्याओं के रहते प्रेम विलास ही होगा न! समस्याएं तो सदा रहेंगी। कुत्ते हैं तो भौंकेंगे। आदमी है तो समस्याएं खड़ी होंगी। हां, तुम न रहोगे, समस्याएं रहेंगी। समस्याएं शाश्वत हैं। तुम अभी हो, अभी नहीं। अभी नहीं थे, अभी फिर नहीं हो जाओगे। तुम इन समस्याओं में अपना समय खराब न करो।
और समस्याएं तुम क्या हल कर लोगे? और समस्याएं हल करने का प्रेम के अतिरिक्त और क्या उपाय है? ये समस्याएं ही इसीलिए हैं कि इतनी घृणा है। ये समस्याएं इसीलिए हैं कि इतनी हिंसा है। ये समस्याएं इसीलिए हैं कि इतना द्वेष है, इतनी ईर्ष्या है। और तुम प्रेम से ही बच रहे हो! और तुम कह रहे हो कि प्रेम तो विलास ही होगा न!
और तुम कहते हो, मैं एक कवि हूं।
पता नहीं किस तरह के कवि हो! नाम से तो मारवाड़ी मालूम होते हो--विष्णुदास राठी। मारवाड़ी और कविता में कोई संबंध है? करते होओगे कविता कुछ इस तरह की:
कूटनीति मंथन करी, प्राप्त हुआ यह ज्ञान,
लोहे से लोहा कटे, यह सिद्धांत प्रमान।
यह सिद्धांत प्रमान, जहर से जहर मारिए
चुभ जाए कांटा, कांटे से ही निकालिए।
कहें काका कवि, कांप रहा क्यों रिश्वत लेकर
रिश्वत पकड़ी जाए छूट जा रिश्वत देकर।
मारवाड़ी हो, और क्या करोगे? अरे, कांपना क्या? रिश्वत में पकड़े गए, रिश्वत दो और बाहर निकलो!
छात्रों से कहने लगे, दादा ऊधम सिंग,
मजा किरकिरा हो गया, बंद हुई रैगिंग।
बंद हुई रैगिंग, समझ में बात न आई,
एक वर्ग रह गया, उसे क्यों बख्शा भाई?
खतरे में भोले-भाले पतियों की लाइफ,
बेचारों की डेली रैगिंग करती वाइफ।
कहें काका, सरकार! रहम हम पर भी खाओ
पत्थर-हृदय काकियों पर प्रतिबंध लगाओ।
कविता क्या करते होओगे तुम? जब तुम प्रेम से ही डर रहे हो तो तुम्हारी कविता में और क्या होगा? माना कि समस्याएं हैं, निश्चित समस्याएं हैं। लेकिन समस्याओं के कारण प्रेम तो नहीं छोड़ा जा सकता।
और यह भी सच है कि प्रेम विलास है। इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, सभी विलास है। फूल भी विलास हैं, और चांद-तारे भी विलास हैं। लेकिन क्या चाहते हो समस्याएं ही समस्याएं बचें, न फूल बचें, न पक्षी गीत गाएं, न कोयल पुकारे, न पपीहा गीत गाए, न मोर नाचे, न मोर के पंख हों, न आकाश में इंद्रधनुष उगें, न सूर्योदय का आनंद, न सूर्यास्त का सौंदर्य, न चांद-तारों से भरा हुआ आकाश। यह सब विलास ही तो है समस्याओं से भरे जगत में। क्या चाहते हो आकाश में सिर्फ अखबारों की सुर्खियां छपी हुई मिलें, कि जहां देखो वहीं हत्याएं, जहां देखो वहीं रिश्वत, जहां देखो वहीं बलात्कार, कि जहां देखो वहीं कुछ उपद्रव। अखबार पढ़ने से जी नहीं भरता विष्णुदास राठी?
माना कि समस्याएं हैं और समस्याएं जरूर मुश्किल खड़ी करती हैं, प्रेम करना मुश्किल हो जाता है। लेकिन पहली तो बात यह है कि प्रेम तुम्हारे जीवन में है? तुम कहते हो, मैं सबको प्रेम बांटना चाहता हूं। बांटने के पहले होना भी तो चाहिए। नहीं तो हालत हो जाए यूं कि नंगा नहाए, निचोड़े क्या? मैंने सुना, एक नंगा नहाता ही नहीं था। तब यह कहावत बनी। लोगों ने पूछा, भई नहाते क्यों नहीं?
उसने कहा, नहा तो लूं, लेकिन निचोडूंगा कहां? और कपड़े कहां सुखाऊंगा?
कपड़े थे ही नहीं जिनके सुखाने की चिंता में वह नहाता नहीं था।
तुम कह रहे हो, सबको प्रेम बांटना चाहता हूं। लेकिन बांटोगे क्या खाक? खाक ही बांटो, विभूति नाम रख दो! प्रेम होना भी तो चाहिए। और प्रेम बिना ध्यान के नहीं होता। लोग सिर्फ इस खयाल में जीते हैं कि प्रेम है। और तभी तो समस्याएं पर्याप्त हो जाती हैं प्रेम को मारने में। वह नोन-तेल-लकड़ी, समस्याओं की दुनिया आई कि प्रेम मरा। प्रेम बचता नहीं इसीलिए कि वस्तुतः पहले से ही नहीं था, सिर्फ खयाल था।
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग!
मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात,
तेरा गम है तो गमे-दहर का झगड़ा क्या है!
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है!
तू जो मिल जाए तो तकदीर निगूं हो जाए
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए।
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग!
और भी दुख हैं जमाने में मोहब्ब्त के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा,
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशमो-अतलसो-कमख्वाब के बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाजार में जिस्म
खाक में लिथड़े हुए, खून में नहलाए हुए।
जिस्म निकले हुए अमराज के तन्नूरों से,
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से।
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग।
लौट जाती है उधर को भी नजर, क्या कीजै?
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजै?
और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा,
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग।
माना कि समस्याएं हैं, माना कि दुख हैं, माना कि तकलीफें हैं, लेकिन ये सदा से हैं और ये सदा रहेंगी। इस कारण प्रेम से अपने को बचा लेना खतरनाक है, महंगा है। क्योंकि जो प्रेम से बचा वह प्रार्थना से बच जाएगा। क्योंकि प्रार्थना प्रेम के ही फूल की सुगंध है। और जो प्रार्थना से बचा वह क्या खाक परमात्मा को समझ पाएगा! क्योंकि उस सुगंध में ही परमात्मा का पहला अनुभव होता है।
रहने दो समस्याएं। प्रेम की धारा तो बहने दो। प्रेम की धारा समस्याओं को मिटाने में सहयोगी होगी। बिलकुल मिटा देगी, ऐसा तो नहीं। हां, नया तल देगी, नया आयाम देगी। और खयाल रखना सदा, नीचे तल की समस्याओं से ऊंचे तल की समस्याएं बेहतर होती हैं। जैसे मैं यह पसंद करूंगा कि आदमी को शरीर की समस्याएं न रह जाएं, मिट सकती हैं, क्योंकि अब विज्ञान पर्याप्त है। आदमी की शरीर की समस्याएं मिट सकती हैं, लेकिन तब मन की समस्याएं खड़ी होंगी।
लेकिन भारतीय तथाकथित साधु-संत जो सारी दुनिया में चक्कर मारते फिरते हैं, और सारी दुनिया को अध्यात्म का उपदेश देते फिरते हैं--पता नहीं इनको किसने यह ठेका दिया है, इनको यह वहम है कि भारत को सारी दुनिया का सदगुरु होना है--तो ये दुनिया में यह कहते फिरते हैं कि हमारा देश गरीब है, लेकिन फिर भी वहां पागलपन कम होता है। हमारा देश गरीब है, लेकिन लोग मानसिक तनाव से पीड़ित नहीं हैं।
इन पागलों को पता नहीं कि मानसिक तनाव और पागलपन और विक्षिप्तता और आत्मघात भूख से बड़ी समस्याएं हैं, ऊपर की समस्याएं हैं। पहले पेट तो भरा हो, तब आदमी के मन में तनाव हो सकता है। अभी पेट ही तना हो तो मन में कहां से तनाव होगा? अभी पेट ही भूखा हो तो मन की चिंताएं कैसे हो सकती हैं?
और जब मन की भी सारी समस्याएं हल हो जाती हैं तो और नई समस्याएं खड़ी होंगी, और बड़ी--आत्मा की समस्याएं, अस्तित्व की समस्याएं, जीवन के अर्थ की समस्याएं। समस्याओं की ऊंचाई सभ्यता की ऊंचाई बताती है। समस्याओं की नीचाई सभ्यता की नीचाई बताती है। भारत बहुत नीचे तल पर जी रहा है। लेकिन हम बड़े होशियार हैं।
और विष्णुदास राठी, तुम तो मारवाड़ी हो, तो मारवाड़ी की ही भाषा समझोगे। यह चंदूलाल मारवाड़ी का अपनी प्रेमिका गुलाबो को लिखा हुआ पत्र तुम्हारे सामने निवेदन करता हूं। तेरह सूत्रीय पत्र है--
मेरी इकलौती हृदय की देवी गुलाबो, जैसी कि तुम्हें खबर होगी ही कि हर साल की तरह इस साल भी हमारी सरकार ने देश की गौरवमयी परंपरा का पालन करते हुए सभी आवश्यक एवं अनावश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ा दी हैं, इसलिए ऐ मेरी जान से प्यारी सोने की बुलबुल, तुझे यह समाचार लिखते हुए मेरे कलेजे में छुरा-सा चुभ रहा है कि आगे से मैं तुझे अब बहुत कम पत्र लिख पाऊंगा, क्योंकि डाक-दरों में हुई वृद्धि से मेरा प्रेम-पत्र लिखने का उत्साह लगभग पूर्णतः ठंडा हो गया है। अतः भविष्य में पत्रों के नाम पर केवल व्यापार-संबंधी काम-काजी चिट्ठियां ही लिखा करूंगा। लेकिन फिर भी मान लो कभी साल, दो साल में अथवा जन्म-जन्मांतरों में कोई अत्यंत जरूरी कारण आ बना तो भले ही कितने भी पैसे खर्च हो जाएं फिक्र नहीं, लिफाफा अंतर्देशीय न सही, पोस्टकार्ड ही हो, मगर सच कहता हूं तुम्हें लव-लेटर अवश्य लिखूंगा। यद्यपि स्थानाभाव के कारण मैं ऐसी बहुत-सी बातें न लिख पाऊंगा जो मैं अब तक डाक की दरें सस्ती होने के कारण मुहब्बत की फिजूलखर्ची के रूप में लिखता रहा हूं। अतः तुमसे प्रार्थना है कि मेरी मजबूरियों को ध्यान में रखते हुए उन बहुत-सी अलिखित बातों को, ऐ मेरी समझदार सपनों की रानी, तुम लिखा हुआ ही समझ लेना! वे बहुत-सी बातें इस प्रकार हैं; इस बार आखिरी बार लिखे दे रहा हूं, क्योंकि अभी डाक की दरें वही की वही पुरानी हैं। एक तारीख से बदलाहट होने वाली है।
पहली: पत्र के प्रारंभ में प्राण प्यारी, हृदय सम्राज्ञी, या दिल की रानी जैसे निरर्थक संबोधन लिखकर पोस्टकार्ड में व्यर्थ जगह न भरूंगा। लिखूं दिल की रानी और निकले आंखों से पानी, यह ठीक नहीं।
दूसरी: प्रेम, प्यार, नमस्कार, चुंबन आदि बेमतलब शब्द अनावश्यक स्थान घेरते हैं, अतः आने वाले समय में इन शब्दों का उपयोग कतई न किया जाएगा।
तीसरी: अत्र कुशलम् तत्रास्तु लिखना तो इस युग में बेवकूफी ही है। भला इस महंगाई के जमाने में कोई कैसे सकुशल रह सकता है! ‘आशा है तुम भी सपरिवार कुशलतापूर्वक होओगी’--मान लो मैं यह लिखूं और तुम्हारे यहां किसी को बुखार चढ़ा हो तो सोचो फिर तुम पर क्या गुजरेगी? इसलिए अब मेरी चिट्ठियों में तुम ऐसी बेहूदी बकवास लिखी हुई न पाओगी।
चौथी: ‘तुम्हारा पत्र मिल गया, धन्यवाद’ या ‘मेरा पिछला पत्र तुम्हें मिल चुका होगा’ जैसी आकाश-कुसुम बातें लिखने में भी अब मेरा विश्वास नहीं रहा है, क्योंकि ऐसा करना भारतीय डाक-तार विभाग के साथ गद्दारी करना होगा, जो मेरे जैसा देश-भक्त नागरिक कभी नहीं चाहेगा। हां, कभी जरूरी हुआ तो ‘पांच साल पहले का लिखा हुआ तुम्हारा प्रेम-पत्र प्राप्त हुआ’ ऐसा एकाध वचन अवश्य लिख दिया करूंगा।
पांचवीं: ‘तुम्हारी बहुत याद आती है’ जैसे वाक्य लिखने का जोखिम भी भविष्य में नहीं लूंगा, क्योंकि इधर मैं लिखूं कि विरह-अग्नि में जला जा रहा हूं और उधर याद के साथ तुम खुद भी चली आओ तो इस महंगाई के जमाने में बतौर मुहावरा मेरा तो दिवाला ही निकल जाएगा।
छठवीं: ‘अपने स्वास्थ्य का खयाल रखना’ जैसी उपदेशात्मक बातें लिख कर मैं अपने पत्र को स्वास्थ्य विज्ञान की पोथी नहीं बनाना चाहता। वैसे भी जो सलाह मैं तुम्हें देता हूं तुम कभी मानती नहीं, बल्कि और भी उलटी-उलटी चलती हो। अतः यदि मैं तुम्हें सेहत का खयाल रखने का मशविरा दूं और वहां तुम अपनी सेहत बिगाड़ने पर तुल जाओ तो परिणाम उलटा ही निकलेगा। इस कारण लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट की जानकारी रखने वाला तुम्हारा यह मनोवैज्ञानिक प्रेमी चंदूलाल मारवाड़ी अब कभी तुम्हारे लिए शुभकामनाएं करने का कष्ट न करेगा।
सातवीं: भविष्य में प्रेम-व्रेम की चर्चा नहीं होगी, क्योंकि मैं पहले ही बता चुका हूं कि लिफाफे की जगह पोस्टकार्ड का उपयोग करूंगा और मैं नहीं चाहता कि मेरे दिल के गहन भावों को और हृदय के उदगारों को हर कोई ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सड़क-छाप पोस्टमैन पढ़े अथवा तुम्हारे घर के लोग पढ़कर नाजायज फायदा उठावें।
आठवीं: ‘शेष तुम स्वयं समझदार हो’ जैसी बात लिख कर मिथ्यावाद को प्रोत्साहन देने में भी मेरी रुचि अब नहीं। अतः मेरे अगले पत्रों में इस तरह की कोई भी बेसिर-पैर की बात तुम्हें न मिलेगी।
नौवीं: ‘अब समाप्त करता हूं’ लिखना मुझे बहुत अखरेगा। अरे, पत्र में जगह न बचने पर पत्र को अगर समाप्त न करूंगा तो भला क्या करूंगा? क्या शुरू करूंगा? फिर ऐसी बात लिखने में तुक ही क्या है?
दसवीं: ‘पत्रोत्तर देना’ यह लिखना मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई किसी को खाने पर बुला कर अगले दिन उसके घर पहुंच जाए और कहे, कल हमने तुम्हें खाना खिलाया था, अब तुम हमें खिलाओ। अतः ऐसे वाक्य भी अब कभी न लिखूंगा। तुम्हारी इच्छा हो तो खाने पर बुलाना, वरना कोई जबरदस्ती नहीं है। मैं एक खानदानी मारवाड़ी हूं, कोई भुखमरा नहीं।
ग्यारहवीं: पत्र के अंत में तुम्हारा प्रेमी, तेरा प्यारा या बस सिर्फ तेरा जैसे बेमतलब के शब्दों के प्रयोग का भी मुझे कोई औचित्य नजर नहीं आता। जब शुरू में ही दिल की रानी नहीं लिखा तो अब यह कैसी औपचारिकता? नीचे दस्तखत की भी अब कोई जरूरत नहीं। मेरी सड़ियल खाते-बही वाली मुनीम-छाप लिखावट से तुम खुद ही समझ जाओगी कि खत किसका है।
बारहवीं महत्वपूर्ण बात: कि पोस्टकार्ड पर कभी टिकट न चिपकाऊंगा। अरे, जब मैंने स्याही खर्च करके और पेन की निब घिसकर इतना प्रेम प्रकट किया, तो क्या तुम मेरी बैरंग चिट्ठी छुड़ा कर कुछ अपनी मुहब्बत का प्रदर्शन न करोगी?
तेरहवीं और अंतिम बात: खयाल रखना, यदि जगह बची तो पता लिखूंगा, वरना पता न लिखने के लिए माफी मांग लूंगा।
आज इतना ही।
भगवान, आपके कल के ओजस्वी प्रवचन से ऐसा स्पष्ट आभास हुआ कि आप भारत को उसकी अनंत क्षमताओं के प्रति जगा रहे हैं। भारत का यह परम सौभाग्य है कि उसे आप जैसा मार्गदर्शक उपलब्ध है, फिर भी वह आपकी बातों को अपनाता क्यों नहीं? और क्यों नहीं सर्वांगीण विकास के पथ पर अग्रसर होता? वरन आपका तिरस्कार और उपेक्षा क्यों करता है? भगवान, निवेदन है कि कुछ कहें।
भारत भूषण, भारत के दुर्भाग्य की कथा बहुत पुरानी है। भारत की जड़ें विषाक्त हो गई हैं। साधारण औषधियों से भारत की चिकित्सा नहीं हो सकती; शल्य-क्रिया करनी होगी। और मवाद जब भीतर गहरे पहुंच गया हो तो उसे निकालने में कष्ट भी होता है, पीड़ा भी होती है। इसीलिए मेरा तिरस्कार है, उपेक्षा है। मेरा सम्मान हो सकता है, समादर हो सकता है; लेकिन तब मुझे भारत की उन्हीं विषाक्त जड़ों को जल देना होगा, जो उसके दुर्भाग्य का कारण हैं। मेरे लिए तो आसान होगा यही कि उन्हीं जड़ों को जल दे दूं, लेकिन भारत के लिए उससे बड़ी और कोई बदकिस्मती नहीं हो सकती।
तो मैंने यही चुना कि अपमान मिले, तिरस्कार मिले, उपेक्षा मिले, लेकिन गलत जड़ों को काटना ही है। और मुझे फर्क नहीं पड़ता अपमान से, उपेक्षा से या तिरस्कार से। थोड़ी भी जड़ें काट सका, थोड़े भी संस्कार पोंछ सका, थोड़ी भी भारत के मन को स्वच्छता दे सका, स्वास्थ्य दे सका, तो सूर्योदय दूर नहीं।
माना कि अभी रात बहुत अंधेरी है और हम इस अंधेरी रात में इतने लंबे अर्से से रह रहे हैं कि हमने भरोसा भी खो दिया है कि सुबह होती है। हम तो रात के लिए राजी हो गए हैं। हमने तो रात को ही जीवन समझ लिया है। इसलिए जब कोई सुबह की बात करता है तो हमें बेचैनी होती है, क्योंकि वह फिर हमें परेशानी में डाल रहा है। हम किसी तरह बामुश्किल समझा-बुझा कर रात को ही अपना घर बना लिए हैं और फिर किसी ने टेर दे दी सुबह की और फिर किसी ने आह्वान किया और चुनौती दी। उससे हमारी नींद टूटती है। उससे हमारे सपने छिन्न-भिन्न होते हैं। हम नाराज न हों तो क्या करें? इसलिए लोगों की मेरे प्रति नाराजगी स्वाभाविक है। फिर भी मुझे जो करना है, वह मैं करूंगा।
न उनकी यह रीत नई, न अपनी यह प्रीत नई।
न उनकी यह हार नई, न अपनी यह जीत नई।।
मेरे तिरस्कार में, मेरे अपमान में, मुझे दी गई गालियों में सिर्फ वे अपनी हार की घोषणा कर रहे हैं। जब हम हार जाते हैं विचार से तो हम गालियों पर उतर आते हैं। जब हमें कुछ भी नहीं सूझता-बूझता, जब हम उत्तर देने में असमर्थ हो जाते हैं, तो हम पत्थर फेंकने लगते हैं। यह हार का सबूत है। यह अच्छा सबूत है। ये लक्षण बुरे नहीं। इससे लगता है कि मेरी बात से खलल पैदा हो रही है; कहीं न कहीं किसी न किसी की नींद में अड़चन आ रही है। वही मेरी जीत है। कुछ लोगों की भी नींद टूट जाए तो हम इस पूरे देश की नींद को तोड़ दे सकते हैं।
तुम पूछते हो, क्यों मेरा तिरस्कार, क्यों उपेक्षा? जब कि मैं जो कह रहा हूं वह सर्वांगीण विकास के लिए मार्ग बन सकता है।
कुछ बातें समझनी होंगी। पहली बात: भारत की पूरी जीवन-दृष्टि नकारात्मक है। और मेरी मजबूरी है कि मुझे सच ही तुमसे कहना होगा। कितना ही सम्हल कर कहूं, लेकिन सच तो कहना ही होगा। यह नकारात्मक दृष्टि को निर्माण करने वालों में तुम्हारे महापुरुषों का हाथ है। छोटे-छोटे आदमी तो देशों की जीवन-दृष्टि निर्धारित कर भी नहीं सकते। जब भी कसूर होता है तो हम छोटे लोगों पर टाल देते हैं और जब भी कोई महत्वपूर्ण बात होती है तो हम महापुरुषों का गुणगान करते हैं। हमारा गणित बड़ा अजीब है! जब भी देश में कोई स्वर्ण-शिखर उठता है तो हम कहेंगे महावीर, बुद्ध, शंकराचार्य का देश! और जब देश में सड़ांध पैदा होगी और जब देश में बीमारी फैलेगी और देश की आत्मा रुग्ण होगी, तब हम नहीं कहते कि बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य का देश! तब हम कहते हैं: महापुरुष तो ठीक ही कहते रहे, लोग सुने नहीं, समझे नहीं, माने नहीं।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि चाहे भला हो और चाहे बुरा हो, उस सबके नियंता तुम्हारे महापुरुष ही होते हैं। साधारणजन तो लकीर का फकीर होता है। वह तो चल पड़ता है पीछे। वह तो भरोसा कर लेता है।
भारत की नकारात्मक दृष्टि में बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य जैसे लोगों का हाथ है, क्योंकि ये सभी पलायनवादी हैं। और पलायनवाद जिस देश की छाती पर बैठ जाए उसकी आत्मा को कैंसर लग गया समझो। और शरीर के कैंसर का तो शायद कभी न कभी कोई इलाज खोज लिया जाएगा, लेकिन आत्मा के कैंसर का इलाज बहुत मुश्किल है।
नकारात्मक दृष्टि का अर्थ है जीवन-विरोधी दृष्टि--यह जीवन बुरा है, जंजाल है; इस जीवन को त्यागना है, इस जीवन से भागना है। और जब तुम जीवन को त्यागोगे और भागोगे तो कैसे उसे सुंदर बनाओगे? कौन उसे सुंदर बनाएगा? जब जीवन ही गर्हित है, कुत्सित है, निंदित है, तो क्या सजाना इसे, क्या श्र्ृंगार देना इसे, क्यों समृद्ध बनाना इसे? सड़ने दो! यह तो इसकी नियति है! यह तो होना ही है! इससे बचने का कोई उपाय ही नहीं है!
ऐसी निराशा, ऐसी हताशा सदियों से तुम्हें सिखाई गई है। यह तुम्हारे रक्त में, मांस में, मज्जा में प्रविष्ट कर गई है। यह बात स्वीकार ही कर ली गई, अब इस पर कोई संदेह ही नहीं उठाता। अब कोई जवां मर्द पुनर्विचार के लिए ललकारता भी नहीं कि हम फिर से एक बार तो सोच लें--क्यों हम गरीब हैं? क्यों हम गुलाम रहे? क्यों हम दीन हैं? इतनी समृद्ध भूमि, जिसके पास करीब-करीब दुनिया की सभी ऋतुएं हैं, जिसके पास सभी तरह के मौसम हैं, जिसके पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो न हो, फिर क्या हुआ? भूमि के साथ कुछ भूल नहीं है, न ऋतुओं के साथ कोई भूल है, न नदियों की कमी है, न पहाड़ों की, न जमीन की। मगर आदमी में कुछ गलत हो गया, कुछ तिरछा हो गया। इस पर पुनर्विचार की जरूरत है।
और पुनर्विचार में कष्ट तो होता है, क्योंकि हजारों साल की मानी हुई धारणा हमारा मंदिर बन गई है। वहीं हमने पूजा के फूल चढ़ाए, वहीं हमने आरती उतारी, वहीं हमने धूप-दीप जलाए। और आज अचानक मैं तुमसे कहूं कि फिर से सोचो, कि मनु ने, महावीर ने, बुद्ध ने, शंकराचार्य ने जो तुम्हें जीवन को देखने का ढंग दिया है, कहीं उसमें कुछ भूल-चूक तो नहीं? संसार को माया कहोगे तो कैसे विज्ञान का जन्म होगा? संसार को माया कहोगे और कामिनी-कांचन को गालियां दोगे...।
रामकृष्ण जीवन भर यही करते रहे। बस ये दो शब्दों पर ही उनका सारा उपदेश टिका हुआ है: कामिनी-कांचन का त्याग! अब इन दो शब्दों को ठीक से समझ लो। अगर सोना मिट्टी है तो क्यों पैदा करना? अगर सोना मिट्टी है तो क्यों निर्मित करना? और सोना निर्मित किया जाता है, पैदा किया जाता है। संपदा आकाश से नहीं बरसती; मनुष्य के श्रम और प्रतिभा से पैदा होती है। मनुष्य को उसकी कला ईजाद करनी होती है। विज्ञान वही है--संपदा को जन्म देने का एक सुनियोजित, श्र्ृंखलाबद्ध आयोजन है।
लेकिन कांचन तो छोड़ना है, धन तो व्यर्थ है, असार है! अगर धन असार है तो फिर दरिद्र रहोगे। फिर रोते क्यों हो? फिर परेशान क्यों होते हो? फिर झींकते क्यों हो? फिर क्यों भीख मांगते फिरते हो दुनिया भर में? फिर गरीबी के लिए प्रसन्न होओ, आनंदित होओ, कि प्रभु की बड़ी कृपा है कि उसने तुम्हें धन के जाल से पहले से ही बचा रखा है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: धन असार नहीं है। धन को पकड़ने में अधर्म है, लेकिन धन का उपयोग करने में कोई अधर्म नहीं। लोभ में अधर्म है, लेकिन धन में कोई अधर्म नहीं। लोभ में भी अधर्म का कारण मेरा है; वही नहीं है जो तुम परंपरा से सुनते रहे हो। मैं लोभ को इसलिए अधर्म कहता हूं कि लोभ के कारण धन की गति रुकती है।
हम यहां अगर दो हजार लोग मौजूद हैं और सब अपने-अपने धन को पकड़ कर बैठे रहें तो धन की गति नहीं होगी। लेकिन लोग धन को जीएं, भोगें, उसका व्यय करें, विनियोग करें, खरीदें चीजें, बेचें चीजें, तो धन जितना चलेगा उतना ज्यादा हो जाता है। पांच रुपए मेरे पास हों और जब मैं किसी दूसरे को देता हूं तो दस हो गए। क्योंकि मैंने पांच का उपयोग कर लिया और अब उसको मौका मिला पांच का उपयोग करने का। उसने जब तीसरे को दिए तो पंद्रह हो गए और जब चौथे को दिए तो बीस हो गए और जब पांचवें को दिए तो पच्चीस हो गए। क्योंकि प्रत्येक ने पांच का उपयोग किया और दूसरे के पास फिर पांच पहुंच गए।
अंग्रेजी में शब्द है धन के लिए: करेंसी। वह शब्द बड़ा ठीक है। जो चले वह धन, करेंसी यानी करेंट। जो धार की तरह बहे वह धन। लोभ अटकाता है, जैसे कि झरने पर कोई पत्थर को रख दे। झरना बुरा नहीं है, पत्थरों का रखना बुरा है। मगर तुम्हें सदियों से सिखाया गया है कि झरना बुरा है।
मैं तुमसे कहता हूं: पत्थर हटा दो। धन को भोगने की कला सीखो। जब तुम धन को भोगने की कला सीखोगे तो धन को पैदा करने की कला भी सीखनी पड़ेगी।
और न ही मैं कामिनी के विरोध में हूं। क्योंकि जो व्यक्ति पुरुष है और स्त्रियों के विरोध में है, उसकी जिंदगी में से सारा रस, सारा सौंदर्य, सारा प्रेम सूख जाएगा। सूख ही जाएगा। जो स्त्री पुरुषों के विरोध में है, उसके जीवन में कैसे काव्य के फूल लगेंगे? असंभव। जहां प्रेम सूख गया वहां आदमियत मर जाती है। फिर यह देश क्या है? मुर्दों का एक ढेर हो गया।
प्रेम के प्रति हमारे मन में घृणा है, क्योंकि प्रेम को हमने बंधन कहा। मैं तुमसे फिर कहना चाहता हूं: प्रेम बंधन नहीं है। मोह बंधन है। अपनी भाषा बदलो। पूरी वर्णमाला नई करनी है, तब कहीं इस देश में सूर्योदय हो सकता है। धन नहीं, लोभ। और प्रेम नहीं, मोह। हां, मोह गलत है। मगर मोह के लिए तो हम सब राजी हैं और प्रेम के हम विरोध में पड़ गए हैं।
मोह भी इसलिए गलत है कि वह प्रेम को नुकसान पहुंचाता है; जैसे लोभ धन को नुकसान पहुंचाता है। जैसे लोभ के पत्थर धन के झरने को रोक लेते हैं ऐसे ही मोह के पत्थर प्रेम के झरने को रोक लेते हैं। मोह का मतलब है: यह मेरा; यह मेरी पत्नी, यह किसी और के साथ बैठ कर हंसे भी तो मुझे बेचैनी, तो मुझे नजर रखनी है, मुझे चारों पहर ध्यान रखना है। और पत्नी को भी यही काम है कि पति पर नजर रखे। दफ्तर भी जाता है तो दिन में चार-छह दफे फोन कर लेती है कि कहां हैं, क्या कर रहे हैं। कहीं हंसी-बोल तो नहीं चल रहा है! कहीं किसी स्त्री से मैत्री तो नहीं चल रही है!
यह जो मोह है, यह मार डालता है। प्रेम भी प्रवाह मांगता है। जितना ज्यादा लोगों से तुम प्रेम कर सको उतना ही तुम्हारे जीवन में रसधार होगी। जितने तुम्हारी मैत्री के नए-नए आयाम होंगे, जितने तुम्हारे संबंधों में नई-नई शाखाएं निकलेंगी, नए पत्ते लगेंगे, उतना तुम्हारे जीवन में रस होगा। और इसे तुम अपने अनुभव से भी जानते हो, मगर तुम अनुभव की नहीं मानते, तुम शास्त्रों की मानते हो। तुम अपने अनुभव से जानते हो: जब तुम्हारे जीवन में प्रेम का पदार्पण होता है, एकदम फूल खिल जाते हैं, वसंत आ जाता है।
पतियों को और पत्नियों को साथ-साथ देखो, दोनों उदास चले जा रहे हैं। एक-दूसरे पर पहरा लगाए हुए। दोनों चोर हैं, दोनों पुलिस वाले हैं। पति यहां-वहां नहीं देख सकता।
मुल्ला नसरुद्दीन अपनी पत्नी के साथ एक लिफ्ट में सवार हुआ। साथ ही एक नवयौवना, बड़ी सुंदर स्त्री भी लिफ्ट में थी। मुल्ला की नजर स्वभावतः उस पर अटक गई। कुछ पाप नहीं। अगर सुबह के सुंदर सूरज को देख कर तुम्हारी आंखें ठिठक जाएं और अगर गुलाब का फूल खिले और तुम्हारी आंख एक पल को रुक जाए तो किसी स्त्री के सौंदर्य को देख कर न रुके, यह बात कैसे होगी? यह होनी ही चाहिए। न हो तो कुछ गलत है।
तो मुल्ला लाख उपाय करे यहां-वहां देखने का, लेकिन छोटा-सा तो लिफ्ट और जल्दी ही उसकी मंजिल भी आ जाएगी, तो ज्यादा समय भी नहीं है कि यहां-वहां देखे। सो घूर-घूर कर उसी युवती को देख रहा था। बचना भी चाहता था क्योंकि पत्नी साथ थी, इधर-उधर भी देखता था, मगर देखता उसी को था।
हमारे पास एक शब्द है: लुच्चा। लुच्चा का मतलब समझते हो? लोचन से बना है, आंख। लुच्चे का अर्थ होता है, जो किसी को घूर-घूर कर देखे। और इसमें कोई खराब बात नहीं है। इसी से आलोचक शब्द भी बना है। दोनों का मतलब एक ही होता है--आलोचक और लुच्चा--दोनों घूर-घूर कर देखते हैं।
उस युवती ने थोड़ी देर बाद उठाया हाथ और तड़ाक से मुल्ला के चेहरे पर मारा। झल्ला गया मुल्ला, लेकिन अब कुछ कर भी न सका। और वह स्त्री बोली, शर्म नहीं आती? इस उम्र में और चिकोटी काटते हो?
अब मुल्ला कुछ कहे भी तो क्या कहे! जब लिफ्ट से उतरा अपनी पत्नी के साथ तो उसने कहा कि फजलू की मां, मैं अल्लाह की कसम खाकर कहता हूं कि मैंने चिकोटी नहीं काटी थी।
फजलू की मां ने कहा, मुझे मालूम है। चिकोटी मैंने काटी थी। मगर घूर-घूर कर कौन देख रहा था? तुम्हें व्यर्थ अल्लाह की कसम खाने की कोई जरूरत नहीं, मुझे पक्का पता है कि चिकोटी किसने काटी थी। मैंने काटी थी। मगर काटनी पड़ी, नहीं तो चांटा कैसे पड़ता!
प्रेम में कुछ बुराई नहीं है। सौंदर्य के स्वीकार में कुछ बुराई नहीं है। हां, मोह में बुराई है। लेकिन हम मोह के भय से प्रेम को ही काट गए। अंग्रेजी में कहावत है न कि बच्चे को नहलाओ तो फिर गंदे पानी के साथ बच्चे को मत फेंक देना। लेकिन हमने गंदे पानी के साथ बच्चे को भी फेंक दिया। हमने प्रेम को फेंक दिया मोह के डर में, क्योंकि प्रेम रहेगा तो कहीं मोह पैदा न हो जाए। और हमने धन को फेंक दिया लोभ के डर में, कि कहीं धन हुआ तो लोभ न पैदा हो जाए। मगर तब फिर हम सूख गए। न प्रेम रहा, न संपदा रही। बाहर की संपदा भी गई और भीतर की संपदा भी गई। प्रेम भीतर की संपदा है और धन बाहर की संपदा है। दोनों गंवा कर हम बैठे हैं।
और इसलिए मैं अगर आज तुमसे कहूं कि रामकृष्ण के इन उपदेशों से मैं राजी नहीं, तो बेचैनी होती है, क्योंकि रामकृष्ण तुम्हारे लिए परमहंस हैं। वे जो कहें सो परम वाक्य है। अगर मैं आज तुमसे कहूं कि मैं राजी नहीं हूं महावीर का महल को छोड़ कर जाना या बुद्ध का राजपाट छोड़ना, इससे मैं राजी नहीं हूं।
मैं तो पसंद करता कि महावीर रुके होते महलों में और राज्य को रूपांतरित किया होता। क्षमता थी उनके पास, प्रतिभा थी उनके पास। चाहते तो उस राज्य को जिसकी मालकियत उन्हें मिली थी, संपदा से भर देते, विज्ञान से भर देते। मगर वह तो न किया, छोड़ कर भाग गए। इससे गरीबों की गरीबी न मिटी, दुखियों का दुख न मिटा। बुद्ध छोड़ कर चले गए।
इस देश में जिसके पास प्रतिभा थी वह छोड़ कर भाग गया। बुद्धू दुकानों पर बैठे हैं। बुद्धू राजनीति में बैठे हैं। बुद्धू संसार चला रहे हैं। बुद्धिमान हिमालय की गुफाओं में चले गए। दुनिया में इससे उलटा हुआ। बुद्धिमान दुनिया में रहे। और स्वभावतः इसका लाभ हुआ दुनिया को।
थोड़ी देर सोचो, आइंस्टीन अगर महावीर की तरह छोड़ कर जंगल में भाग जाए तो माना कि जरूर थोड़ी शांति अनुभव करेगा वहां। लेकिन संसार का कितना अहित हो जाएगा, इसका कुछ हिसाब है? अगर एडीसन भाग गया होता दुनिया से तो बिजली न होती, रेडियो न होता, टेलीफोन न होता। एक हजार आविष्कार किए एडीसन ने। लेकिन एडीसन को तुम उतना आदर नहीं दोगे जितना महावीर को दोगे, क्योंकि महावीर ने क्या किया--नग्न खड़े हो गए! जो नग्न खड़ा हुआ, उसने तुम सबको भी नग्न कर दिया। और जरूरत थी वस्त्रों की। जिसने छप्पर छोड़ दिया, उसने तुम्हारे छप्पर भी गिरा दिए। और जरूरत थी छप्परों की।
हमें अपने मूल्यांकन बदलने होंगे। और चूंकि मैं मूल्यांकन बदलने की बात करता हूं, इसलिए मुझे महावीर पर भी चोट करनी पड़ेगी, मनु पर भी चोट करनी पड़ेगी, शंकराचार्य पर भी चोट करनी पड़ेगी, रामकृष्ण पर भी चोट करनी पड़ेगी। और यह तुम्हारे समादृत पुरुषों की परंपरा है। तुम कैसे मुझे गालियां देने से अपने को रोक पाओगे? तुम मुझे जिंदा छोड़ रहे हो, यह भी आश्चर्य है। तुम तो अपने पुराने ढंग से ही सोचोगे।
एक आदमी पर
सरकारी वकील ने
आरोप लगाते हुए कहा--
मी लार्ड,
इसके पास नहीं है
राशन कार्ड!
इसे गेहूं और शक्कर की फिक्र नहीं है
इसकी बातों में कहीं भी
महंगाई और सरकार का
जिक्र नहीं है
इतना ही नहीं,
यह हमेशा हंसता और मस्त रहता है
इस पर भी देखिए
अपने आप को हिंदुस्तानी कहता है
इसके चेहरे पर
चिंता की एक भी रेखा नहीं है
जरूर यह विदेशी जासूस मालूम होता है।
भारत में तो हमने आज तक ऐसा आदमी देखा ही नहीं है। यहां तो मस्त होना, आनंदित होना, प्रफुल्लित होना पाप हो गया है। यहां उदास होना, गंभीर होना संतत्व का लक्षण हो गया है। यहां जितना मुर्दा आदमी हो, जितना सड़ा-सड़ाया हो, उतने ही ज्यादा सम्मान का पात्र हो जाएगा।
तुम सम्मान भी किनको देते हो? कोई उपवास कर रहा है, इसलिए सम्मान देते हो। इसके उपवास से क्या हो जाएगा? ऐसे ही भारत में आधे लोग उपवास कर रहे हैं, भूखे मर रहे हैं। जो आदमी नग्न खड़ा हो जाता है, इसको सम्मान देते हो। यूं ही भारत में कितने लोगों के पास कपड़े हैं? लंगोटी भी तो न बची। कहते हैं--भागते भूत की लंगोटी भली। वह लंगोटी भी न बची, भूत को भागे भी न मालूम कितने हजार साल हो गए! ढूंढोगे भी तो लंगोटी पाना मुश्किल है। मगर कोई आदमी अगर नग्न खड़ा हो जाए तो तुम्हारे समादर का पात्र हो जाता है। तुम गदगद हो जाते हो। तुम फूल की मालाएं लेकर तत्काल स्वागत के लिए राजी हो जाते हो। तुम्हारे हृदय में एकदम सुस्वागतम लिख जाता है। तुम्हारे हृदय के पट एकदम से खुल जाते हैं, कि पधारो महाराज, अन्न-जल शुद्ध, पधारो, विराजो! तुम गलत जीवन-दृष्टि में इतने ज्यादा रंग गए हो कि आज मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह तुम कुछ का कुछ समझ लेते हो।
शिष्या को समझा रहे, त्रिगुणाचार्य त्रिशूल,
डैडी कहने की प्रथा, संस्कृति के प्रतिकूल।
संस्कृति के प्रतिकूल, लाड़ली लड़की भोली,
करके नीची नजर मंद्र सप्तक में बोली,
कहूं, पिताजी तो यह कठिनाई आती है,
टकराते हैं ओंठ, लिपिस्टिक हट जाती है।
उसके अपने सोचने का ढंग है!
मांटेसरी के छोटे छात्र
हाफ टाइम में नाश्ता करते-करते
बताने लगे अपने पापा की पोजीशन,
पहले ने कहा--हमारे पापा लखपति हैं,
दूसरा बोला--मेरे फादर करोड़पति हैं,
तीसरे ने मुंह खोला--हमारे डैडी तो मम्मी के पति हैं।
होली का गुलाल मलते हुए बोले
एक हीरो छाप देवर,
हम तुम इक कमरे में बंद हों
और खो जाए चाबी,
तो क्या होगा भाभी?
होगा क्या लाला,
तुड़वाना पड़ेगा तीन रुपए का ताला।
मैं कुछ कहूंगा, तुम कुछ सुनोगे। और कसूर तुम्हारा भी क्या! तुम्हारी भाषा निर्णीत हो गई है; तुम्हारे संस्कार सुस्थिर हो गए हैं, जड़ हो गए हैं। ये पानी पर खींची लकीरें न रहीं, पत्थर पर लिखावटें हो गई हैं।
प्रभु मेरे मैं नहिं रिश्वत खाई।
जबरन नोट भरे पाकिट में, करके हाथापाई।
मोहि फंसाइके, सफा निकसि गयौ, सेठ बड़ो हरजाई।
भोजन-भजन न कछू सुहावै, आई रही उबकाई।
देउ दबाय केस को भगवन, कर लेउ आध बटाई।
कहं काका तब बिहंसि प्रभु ने, लियो कंठ लिपटाई।
प्रभु मेरे मैं नहीं रिश्वत खाई।
तुम भजन भी करोगे तो भी तो तुम्हारी ही दृष्टि से निकलेगा। तुम गीत भी गुनगुनाओगे तो भी तो तुम्हारे ही प्राणों से उठेगा।
इसलिए भारत भूषण, मैं जो कह रहा हूं वह तो सर्वांगीण विकास का पथ है। लेकिन तुम जो सुन रहे हो, तुम तो समझोगे अपनी ही शैली से। तुम्हारी तो बंधी हुई धारणाएं हो गई हैं। यह भारत की नकारात्मक दृष्टि बदलनी होगी, इसे विधायकता देनी जरूरी है। जीवन को निराशा से हटाना है और आशा देनी जरूरी है। कहो कि संसार उतना ही सत्य है जितनी आत्मा, देह उतनी ही सत्य है जितनी चेतना। तब विज्ञान और धर्म दोनों साथ-साथ चल सकते हैं; साथ-साथ ही चलने चाहिए। जैसे पक्षी उड़े तो दो पंख चाहिए। दो पंखों के बिना पक्षी न उड़ सकेगा। दो पंख होंगे तो ही उड़ेगा। एक पंख होगा तो कैसे उड़ेगा? लाख तड़फे, उड़ना चाहे, मगर गिरेगा।
पश्चिम के पास भी एक पंख है--विज्ञान का। वह भी बुरी तरह परेशान है। और हमारे पास भी एक पंख है--धर्म का। हम भी बुरी तरह परेशान हैं। यह समय है जब हम एक-दूसरे से सीख लें। पूर्व और पश्चिम मिल जाने चाहिए। विज्ञान और धर्म जुड़ जाने चाहिए। भविष्य इस पर ही निर्भर होगा--इसी योग पर। इसको मैं महायोग कहता हूं--विज्ञान और धर्म का मिल जाना। और तभी तुम भीतर भी आनंद को उपलब्ध होओगे और बाहर भी। दोनों आनंदों में विरोध नहीं है। सच पूछो तो दोनों आनंदों में सामंजस्य है। बाहर का आनंद भीतर के आनंद के लिए भूमिका बनता है।
इसलिए मैं तुम्हें संसार छोड़ने को नहीं कहता; संसार को जीने की कला सीखने को कहता हूं। मेरा संन्यास त्याग नहीं है, भोग की कला है। चौंकोगे तुम, क्योंकि सदियों से तुमने सुना संन्यास यानी त्याग। और मैं कहता हूं संन्यास यानी भोग की कला। हां, अगर बिना कला के भोगो तो पशु जैसे हो जाते हो। और बिना कला के भागो तो सिर्फ कायर हो। जिसको कला आती है उसको भागना भी नहीं पड़ता और पशु भी नहीं होना पड़ता; उसके जीवन में महाक्रांति घटित होती है। वह जल में कमलवत। यहीं संसार में, इसकी पूरी समृद्धि में यूं जीता है जैसे कुछ भी न छूता हो। माना कि यह काजल की कोठरी है, लेकिन इससे गुजरने का ढंग भी है। कबीर गुजरे तो तुम भी गुजर सकते हो। मैं गुजर रहा हूं तो तुम भी गुजर सकते हो।
कबीर ने कहा: ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया, खूब जतन से ओढ़ी रे कबीरा।
जरा भी मैली न होने दी। काजल लग ही न पाया। इसमें क्या खूबी है कि भाग गए, काजल की कोठरी से ही न निकले और वस्त्र सफेद रहे? इसमें क्या कला है? इसमें क्या प्रतिभा है? और काजल की कोठरी से निकले, कपड़े ही काले न हुए, खुद भी काले हो गए--इसमें भी कोई कला नहीं। कला तो इसमें है कि काजल की कोठरी से निकलो और जरा-सा भी दाग न लग पाए, बेदाग निकल आओ। और तभी मैं कहता हूं कि तुम इस योग्य होओगे कि परमात्मा ने तुम्हें जो जीवन दिया था उसको धन्यवादपूर्वक वापस कर सको; कह सको कि धन्यवादी हूं कि तुमने एक अपूर्व अवसर दिया--जागने का, होश सम्हालने का, ध्यान का।
तुमने पूछा कि आप भारत को उसकी अनंत क्षमताओं के प्रति जगा रहे हैं।
जगाने में ही तो अड़चन है। किसी सोए आदमी को जगाओ, और वह नाराज होगा। यह भी हो सकता है कि कह कर सोया हो कि सुबह मुझे उठा देना, कि मुझे जल्दी टे्रन पकड़नी है। मगर वही सुबह उठाने में अड़चन डालेगा। वही कंबल खींच-खींच कर कहेगा, जरा पांच मिनट और। जरा एक करवट और ले लूं। अभी क्या जल्दी पड़ी है? और भारतीय गाड़ियां हैं, कोई समय पर आने वाली हैं! क्यों मेरे पीछे पड़े हो? और अगर वह कोई सुंदर सपना देख रहा हो कि किसी राजमहल में निवास कर रहा हो सपने में, तब तो और भी नाराज हो जाएगा।
तुम सपने देख रहे हो स्वर्गों के, जो कहीं भी नहीं हैं; बैकुंठ के, जो कहीं भी नहीं हैं; गोलोक, जो कहीं भी नहीं हैं। तुम सपने देख रहे हो सुंदर। और तुम्हारे ऋषि-मुनि तो और भी सुंदर सपने देख रहे हैं, क्योंकि उनको खयाल है चूंकि वे उपवास करते हैं, धूनी रमा कर बैठे हैं, वस्त्र त्याग कर दिया है, जंगल में आ गए हैं--तो स्वर्ग के पाने के अधिकारी हो गए हैं।
अब धूनी रमाए बैठे हो, इस अभ्यास से तो इतना ही तय होता है कि तुम्हें नरक भेजा जाना चाहिए। क्योंकि नरक में धूनी लगी हुई है, धू-धू करके जल रही है अग्नि, कड़ाहे चढ़े हुए हैं। स्वभावतः जो लोग ठीक गहरे अभ्यासी हैं, उनको ही भेजा जाएगा। गैर-अभ्यासियों को वहां भेज कर क्या करोगे? यह तो सीधा गणित है कि अगर तुम इंजीनियर हो तो इंजीनियर का काम मिलेगा, अगर डाक्टर हो तो डाक्टर का काम मिलेगा। पढ़ो तो इंजीनियरी और हो जाओ डाक्टर, तो जान लोगे लोगों की। खुद भी मुसीबत में पड़ोगे, लोगों को भी मुसीबत में डालोगे।
जो धूनी रमाए बैठे हैं, धूप में अपने को सता रहे हैं, कांटे बिछा कर लेटे हैं, अगर कहीं कोई नरक होगा तो उसी का तो अभ्यास कर रहे हैं। इनको स्वर्ग भेजने की कोई जरूरत भी नहीं है। ये स्वर्ग में करेंगे क्या?
मैंने सुना है, एक आदमी सरकस में काम करता था। उसका काम ही यही था कि खीलों के बिस्तर पर सोता था। नुकीले खीले कि हाथ को छू जाएं तो लहूलुहान कर दें। वह उस पर सोता था। उसकी भी कला है, क्योंकि तुम्हारी पीठ में इस तरह के बिंदु हैं जहां कोई संवेदना नहीं होती। अगर भरोसा न हो तो घर में किसी को भी, अपनी पत्नी को कहना--उसको भी थोड़ा मजा आएगा--कि सुई लेकर तुम्हारी पीठ में चुभाए। जहां-जहां तुम्हें पीड़ा मालूम हो, कहना राम-राम! और जहां-जहां पीड़ा तुम्हें पता ही न चले कि सुई चुभाई गई है, वहां वह निशान लगाती जाए। तुम्हारी पीठ पर ऐसे बहुत-से बिंदु हैं जहां तुम्हें अनुभव ही नहीं होगा कि सुई चुभाई गई। वहां कोई संवेदनशीलता नहीं है। बस उन्हीं बिंदुओं को सम्हालने की बात होती है। कांटे उन्हीं बिंदुओं को छूते हैं। बिस्तर ऐसा बनाना पड़ता है कि कांटे उन्हीं बिंदुओं को छुएं।
अब यह आदमी रोज यही धंधा करता था सरकस में। एक दिन छुट्टी पर आराम कर रहा था घर। उसकी पत्नी देख कर हैरान हुई, क्योंकि वह कांटों का बिस्तर लगा रहा था--वही खीले का बिस्तर। पत्नी ने कहा, क्या कर रहे हो? आज तो छुट्टी है।
उसने कहा, छुट्टी तो है, मगर मैं सोऊं कैसे? अभ्यास जो हो गया है। जब तक इस खीलियों वाले बिस्तर पर लेटूंगा नहीं, मैं सो नहीं पाऊंगा।
अभ्यास बड़ी चीज है।
तुम्हारे ऋषि-मुनियों को तो नरक भेजा ही जाना चाहिए। अगर कहीं कोई नरक है तो निश्चित ही ऋषि-मुनियों के लिए बनाया गया है। इतना बेचारे अभ्यास कर रहे हैं! यह सब बेकार ही अभ्यास जाएगा पानी में? स्वर्ग में ये करेंगे क्या, वहां जाकर कांटे बिछाएंगे। स्वर्ग में जाकर धूनी रमाएंगे। स्वर्ग में जाकर नंगे घूमेंगे। स्वर्ग में इनकी क्या जरूरत है?
अगर स्वर्ग में जाना है तो स्वर्ग का थोड़ा अभ्यास करो। उमर खय्याम ने ठीक कहा है। मुसलमानों की धारणा है कि स्वर्ग में, बहिश्त में शराब के चश्मे बहते हैं। यहां शराब वर्जित है, यहां शराब पीना पाप है।
जब मिर्जा गालिब को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और दिल्ली को तहस-नहस कर दिया और अंग्रेज मिर्जा गालिब को पकड़ कर ले चले कारागृह की तरफ, तो रास्ते में उन्होंने पूछा, मुसलमान हो? तो मिर्जा गालिब ने कहा, हुजूर, आधा।
वे थोड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, आधा! बहुत मुसलमान पकड़े, बहुत हिंदू पकड़े, तुम पहले आदमी हो। यह क्या कहते हो? आधा मुसलमान यानी क्या मतलब? तो मिर्जा गालिब ने कहा, आधा इसलिए कि सुअर नहीं खाता, शराब पीता हूं। पूरा कैसे कहूं?
यहां शराब पीना वर्जित है और मजा यह है कि जो यहां शराब न पीएंगे उनके लिए बहिश्त में शराब के झरने बहाए गए हैं। यह कौन-सा गणित है? उमर खय्याम का गणित ज्यादा साफ मालूम पड़ता है। उमर खय्याम एक अदभुत सूफी फकीर था। उसने बात पते की कही। उसने कहा, यहां पीने दो, अभ्यास तो करने दो जी! यहां कुल्हड़ से भी न पीया और वहां एकदम जाकर झरनों में पीएंगे तो मरेंगे नहीं! ऐसा अंधाधुंध नशा चढ़ेगा कि भगवान सामने खड़े होंगे तो शैतान नजर आएगा। सब उलटा-सीधा हो जाएगा। अभ्यास करने दो। यहां पीने दो। यहीं का अभ्यास तो वहां काम आएगा।
तुम्हारे ऋषि-मुनि क्या खाक पीएंगे! और अगर स्वर्ग में शराब ही शराब के चश्मे हैं, पानी मिले ही न, तो ऋषि-मुनियों की हालत तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी। उनको तो नरक जाना पड़ेगा। उनको स्वर्ग में कहां जगह!
न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है। यहीं तुम नरक बनाते हो। अगर तुम जीवन को नकारात्मक ढंग से लेते हो, नरक बन जाता है। जीवन को नकार से देखना नरक है और जीवन को विधायकता देना स्वर्ग है। फूल चुनो, क्या कांटों के बिस्तर बना रहे हो? फूलों के बिस्तर बन सकते हैं तो फिर क्यों कांटों पर मरे जा रहे हो?
लेकिन कुछ कारण हैं। कुछ कारण हैं, क्यों लोग नकारात्मक हो गए? कारण यह है कि सुख की चाह स्वाभाविक है। आनंद की आकांक्षा सभी के भीतर है। ऐसा कौन है जो आनंद न चाहे? आनंद की अभीप्सा स्वाभाविक है। और हम आदर उसको देते हैं जो कुछ असाधारण काम करके बताए। जैसे कोई सिर के बल खड़ा हो तो वहां भीड़ लगेगी। तुम पैर के बल कितनी ही देर खड़े रहो, कोई न आएगा।
पैर के बल तुमको परमात्मा ने खड़ा किया है। लेकिन जो आदमी सिर के बल खड़ा है, मूर्खतापूर्ण कृत्य कर रहा है; क्योंकि खड़े होने के लिए परमात्मा ने पैर दिए हैं, सिर नहीं। सिर के दूसरे काम हैं। लेकिन सिर के बल खड़े आदमी के आस-पास भीड़ इकट्ठी हो जाएगी, क्योंकि वह कुछ अनूठा कर रहा है, कुछ नया कर रहा है, कुछ बेजोड़ काम कर रहा है। जहां सारे लोग पैरों पर खड़े हैं, वहां वह सिर पर खड़ा है। जहां सारे लोगों को दो दफा भोजन चाहिए, जो आदमी दस-दस दिन, पंद्रह-पंद्रह दिन का उपवास करेगा उसको सम्मान मिलने लगेगा। वह कुछ विशिष्ट काम कर रहा है।
हालांकि कुछ खास काम नहीं है; सिर्फ भूखा मरने का अभ्यास कर रहा है। और अभ्यास तो किसी भी चीज का हो सकता है। और तीन-चार-पांच दिन के बाद तो भूख मरनी शुरू हो जाती है, क्योंकि मनुष्य के शरीर में ऐसी व्यवस्था है कि तीन महीने तक के लिए शरीर भोजन जुटा कर रखता है। इसलिए तो चर्बी इकट्ठी होती है।
स्त्रियों के शरीर में ज्यादा चर्बी इकट्ठी होती है पुरुषों की बजाए, क्योंकि उनको जब बच्चे को जन्म देना होता है तो नौ महीने तक अड़चन आती है--भोजन करना मुश्किल, वमन हो जाता है, भूख नहीं लगती। पेट में बच्चा इतनी जगह ले लेता है कि अब भोजन को जगह कहां बचे? तो स्त्रियों के पास प्रकृति ने ज्यादा चर्बी दी है, इसलिए स्त्रियां एक तरह के अनुपात में होती हैं। एक गोलाई होती है उनकी देह में। पुरुष की देह में वैसी गोलाई नहीं होती। लेकिन पुरुष की देह में भी, स्वस्थ देह हो तो तीन महीने तक भोजन चल सके, इतनी चर्बी इकट्ठी होती है।
तो जब तुम उपवास करते हो तो अगर ठीक से समझना चाहो वैज्ञानिक अर्थों में तो तुम मांसाहार कर रहे हो, अपना ही मांस पचा रहे हो। एक दिन के उपवास में एक किलो वजन कम होता है। तुमने कभी सोचा, एक किलो वजन गया कहां? एक किलो वजन तुम पचा गए। तीन महीने तक आदमी, अगर पूरी तरह स्वस्थ आदमी हो, तो मजे से उपवास कर सकता है। और तीन दिन, पांच दिन के बीच में कभी रूपांतरण हो जाता है। पेट फिर बाहर से भोजन नहीं मांगता; उसके पास एक वैकल्पिक व्यवस्था है, वह तत्क्षण अपना ही मांस पचाना शुरू कर देता है। और जब अपना मांस पचाना शुरू कर देता है, बाहर से भोजन की जरूरत नहीं रह जाती।
इसलिए जो लोग लंबे उपवास करते हैं, तुम यह मत सोचना कि कोई बहुत मेहनत का काम कर रहे हैं। असली मेहनत तीन-चार दिन में ही होती है, शुरू के तीन-चार दिनों में। इसके बाद तो फिर तुम्हारा शरीर नए ढर्रे पर चलने लगता है, नई प्रक्रिया पकड़ लेता है।
मगर जो आदमी उपवास करेगा...महावीर ने, कहते हैं, बारह वर्षों में सिर्फ एक वर्ष भोजन किया, ग्यारह वर्ष भूखे रहे। इकट्ठे नहीं। इकट्ठे रहते तो कभी के खतम हो गए होते। लेकिन ग्यारह दिन उपवास करते और बारहवें दिन भोजन करते। ऐसा कर-करके उन्होंने बारह वर्ष गुजारे।
स्वभावतः खूब सम्मान मिला। जहां लोग एक बार का भोजन नहीं छोड़ सकते, जहां दिन-रात भोजन ही भोजन सिर पर सवार रहता है--सुबह नाश्ता, फिर भोजन, फिर दोपहर को थोड़ा फलाहार, फिर शाम का भोजन, फिर रात को सोते-सोते दुग्धाहार--इन्होंने जब देखा कि महावीर ग्यारह-ग्यारह, बारह-बारह दिन उपवासे रह जाते हैं, है चमत्कार!
नकारात्मक लोगों को आदर मिल सका इसलिए कि वे बड़े इक्के-दुक्के थे। लेकिन उनको आदर मिलने के कारण तुम्हारा चित्त विकृत हो गया। जो लोग धन को छोड़ कर भाग गए, तुम्हारे मन में उनके प्रति सम्मान उठा, क्योंकि तुम सब तो धन की तरफ भाग रहे हो और वे छोड़ कर भाग गए। क्या गजब का त्याग, महात्याग!
लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि चाहे तुम धन की दुनिया में ही क्यों न रहो, तुम्हें अपने ही प्रति ग्लानि पैदा हो गई कि तुम पाप कर रहे हो। तुम चाहे संसार में रहो चाहे संसार के बाहर, हर हाल में संसार की निंदा तुम्हारे मन में गहरी हो गई। और जिस चीज की निंदा हमारे मन में गहरी हो जाती है, हम उसे सजावट देना बंद कर देते हैं।
और मैं जिस सर्वांगीण विकास की बात कर रहा हूं, वह स्वभावतः जीवन को सजाने की बात है। उसे रंग देने की बात है। जीवन को इंद्रधनुष बनाने की बात है।
तमाम उम्र कटी एक बेनवा की तरह
चमन में खाक उड़ाते फिरे सबा की तरह
चिराग हसरते-पा-बोस का जलाए हुए
तुम्हारी राह में हम भी हैं नक्शे-पा की तरह
दिलों का दर्द कभी लब पे आ ही जाता है
किसी पुकार की सूरत किसी सदा की तरह
निशाने-राह न पाया तो दश्ते-गुरबत में
हम अपनी राह बनाते चले हवा की तरह
गमे-शिकस्त ने हर-हर कदम पे साथ दिया
किसी रफीक, किसी दर्द-आश्ना की तरह
इलाही गम की हवाएं किसी के दामन तक
पहुंच न पाएं मेरे दस्ते-नारसा की तरह
खुशी का नाम तो अक्सर सुना किए ‘ताबां’
मगर वुजूद न पाया कहीं हुमा की तरह
उर्दू कविता में हुमा पक्षी नाम के एक काल्पनिक पक्षी की चर्चा है। कहते हैं कि हुमा पक्षी की छाया भी किसी पर पड़ जाए तो उसके जीवन में सौभाग्य का उदय हो जाता है, अशर्फियां बरस जाती हैं। लेकिन हुमा पक्षी काल्पनिक है, उसकी छाया कहां से पड़ेगी?
खुशी का नाम तो अक्सर सुना किए ‘ताबां’
नाम तो बहुत सुना खुशी का, आनंद का।
मगर वुजूद न पाया कहीं हुमा की तरह
उसका अस्तित्व कहीं न मिला। हुमा पक्षी की तरह बहुत खोजा, मगर उसे कहीं पाया नहीं।
और ऐसे ही यह देश आनंद की बातें तो कर रहा है सदियों से, मगर पाया कहां? अरे, बाहर का भी न पा सके तो भीतर का क्या पाओगे? बाहर का तो भौतिकवादी भी पा लेते हैं, वह भी न पा सके, तो भीतर का आनंद तो बहुत बड़ी बात है। बाहर के आनंद के सोपान पर चढ़ कर ही तो भीतर का आनंद पाया जाता है।
बाहर कुछ सीढ़ी बनाओ, ताकि भीतर पहुंच सको। बाहर और भीतर में विरोध नहीं है; वे परिपूरक हैं। जैसे दिन और रात में विरोध नहीं। जैसे जवानी में और बुढ़ापे में विरोध नहीं। जैसे जिंदगी में और मौत में विरोध नहीं। जैसे सर्दी में और गर्मी में विरोध नहीं। वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं।
बाहर और भीतर में दुश्मनी न ठानो। उनकी दुश्मनी ने ही हमें मार डाला, हमें अपंग कर दिया, हमें लंगड़ा कर दिया। मैं उसी दोस्ती की तरफ इशारा कर रहा हूं। और स्वभावतः मेरा इशारा तुम्हारे तथाकथित अवतारों के विपरीत जाएगा। तो तुम मुझसे नाराज होओगे। तुम मुझ पर क्रोधित हो जाओगे।
हुजूम दर्द का इतना बढ़े असर गुम हो
मिले वो रात कि जिस रात की सहर गुम हो
मजा तो जब है कि आवारगाने-शौक के साथ
गुबार बन के चले और रहगुजर गुम हो
हमारी तरह खराबे-सफर न हो कोई
इलाही यूं तो किसी का न राहबर गुम हो
चले हैं हम भी चिरागे-नजर जलाए हुए
ये रोशनी भी कहीं राह में अगर गुम हो
तलाशे-दोस्त है दिल को मगर खुदा जाने
कहां-कहां ये भटकता फिरे, किधर गुम हो
चमन-चमन है वो नश्वो-नुमा के हंगामे
गुलों को ढूंढने जाए तो खुद नजर गुम हो
सुखन की जान है हुस्ने-बयां मगर ‘ताबां’
न यूं कि लफ्ज ही रह जाएं फिक्रे-तर गुम हो
हमारे पास शब्द ही रह गए हैं, शब्दों का अर्थ कभी का खो चुका है। आनंद, आत्मा, मोक्ष--बस शब्द रह गए, इन शब्दों का अर्थ कब का खो चुका है।
सुखन की जान है हुस्ने-बयां मगर ‘ताबां’
काव्य का तो प्राण ही है--कहने का ढंग, कहने की सुंदरता।
सुखन की जान है हुस्ने-बयां मगर ‘ताबां’
मगर ध्यान रहे!
न यूं कि लफ्ज ही रह जाएं फिक्रे-तर गुम हो
कहीं ऐसा न हो कि बयान ही बयान रह जाए, हुस्ने-बयां रह जाए, कहने का ढंग और सलीका ही रह जाए और भीतर के सारे अर्थ खो जाएं।
वही दुर्भाग्य इस देश के साथ हुआ है। हमारे पास शब्द तो सुंदर हैं, बड़े सुंदर हैं, बड़े प्यारे हैं, मगर उन शब्दों का अनुभव, उन शब्दों की प्रतीति, उन शब्दों का साक्षात्कार बहुत समय हो चुका गुम हो गया है।
मैं तुम्हारे शब्दों को प्राण देना चाहता हूं। तुम्हारे शब्दों में श्वासें फूंकना चाहता हूं। तुम्हारी बंद हो गई हृदय की धड़कन को धड़कन देना चाहता हूं। लेकिन तुम इतनी सदियों से मुर्दा हो कि अब तुम जिंदगी की तकलीफ नहीं लेना चाहते। अब तुम जिंदगी की झंझट में नहीं पड़ना चाहते। जिंदगी तो चुनौती है। और जिंदगी तो खतरा है। खयाल रखना।
कनफ्यूशियस से उसके एक शिष्य ने--मैन्शियस ने--पूछा कि मैं शांति चाहता हूं, परम शांति, ऐसी शांति कि कहीं कोई बाधा न पड़े। कनफ्यूशियस ने उसे गौर से देखा और कहा, ठहर, जब तू मर जाए तो कब्र में क्या करेगा? वहीं उस शांति को पा लेना। फिर कोई बाधा न पहुंचेगी। अभी तो जिंदा है। अभी तो जिंदगी देख ले। फिर मौत आएगी, जरूर आएगी, निश्चित आती है, अपरिहार्यरूपेण आती है। फिर कब्र में शांत रहना, सुरक्षित रहना; फिर कोई बाधा न डालेगा। कोई कितना ही बैंड-बाजा बजाए, तुझे कुछ सुनाई न पड़ेगा। लेकिन अभी तो जिंदा रह ले। जब जिंदगी है तो जिंदगी को पूरी तरह जी लो।
और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जिंदगी को इस ढंग से जीया जा सकता है कि जिंदगी में नाच भी हो, गीत भी हो, संगीत भी हो और शांति भी हो। जीवन में सुख भी हो, संपदा भी हो, आनंद भी हो। जीवन में देह का स्वास्थ्य भी हो और आत्मा का ध्यान भी हो। इन दोनों में कोई विरोध नहीं।
मगर हम सदियों से कब्र की सुरक्षा में पड़े हुए हैं। यह मुर्दों का टीला है देश। इसमें मुर्दों को जगाने में झंझट तो होगी। कुछ मुर्दे नाराज होंगे कि हम कहां शांति से सो रहे थे और तुमने आकर दखल दे दी! वे पत्थर भी मारेंगे, गालियां भी देंगे, अपमान भी करेंगे, उपेक्षा भी करेंगे। यह सब स्वाभाविक है।
भारत भूषण, लेकिन मुझे जो करना है वह मैं जारी रखूंगा। न उनके पत्थर रोक सकते हैं, न उनकी गालियां रोक सकती हैं, न उनका अपमान रोक सकता है। क्योंकि मुझे तो सिर्फ इस बात में ही इस देश का भविष्य दिखाई पड़ता है कि यह बाहर और भीतर के सामंजस्य को उपलब्ध हो जाए। उन्हें उनका काम करने दो, मैं अपना काम जारी रखूंगा।
न उनकी यह रीत नई,न अपनी यह प्रीत नई।
न उनकी यह हार नई,न अपनी यह जीत नई।।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं एक कवि हूं और जीवन में सबको प्रेम बांटना चाहता हूं। लेकिन संसार की समस्याओं को देखता हूं तो सोचता हूं कि पहले इन समस्याओं को तो हल कर लूं। इन समस्याओं के रहते तो प्रेम एक विलास ही होगा न!
विष्णुदास राठी, पहले भी लोगों ने अगर ऐसा सोचा होता तो कभी कोई प्रेम कर ही न पाता। समस्याएं तो सदा रही हैं और समस्याएं सदा रहेंगी। यह और बात है कि समस्याओं के तल बदलते जाएं। कभी शरीर की समस्याएं होंगी, कभी मन की समस्याएं होंगी, कभी आत्मा की समस्याएं होंगी। समस्याएं तो होंगी। हां, समस्याएं ऊंची होनी चाहिए। रोटी-रोजी की सबसे छोटी समस्याएं हैं। ध्यान की, समाधि की सबसे ऊंची समस्याएं हैं।
लेकिन इस भ्रांति में मत रहना कि समस्याएं सदा के लिए समाप्त हो जाएंगी, ऐसा भी कोई दिन आएगा। अगर कोई भी समस्या न होगी तो यही समस्या खड़ी हो जाएगी कि अब क्या करें। कोई भी समस्या नहीं! मारे गए! बुरे मारे गए! करने को ही कुछ न बचा। जिंदगी तो समस्याओं का नाम है। और जिंदगी की समस्याओं को हल करना प्रतिभा के निखारने का उपाय है। लेकिन इस कारण भोजन तो करना बंद नहीं कर दिया; कि जिंदगी समस्याओं से भरी है, अभी कैसे भोजन करें, यह तो विलास होगा। सांस लेनी तो बंद नहीं कर दी, कि अभी कैसे सांस लें! जिंदगी तो इतनी समस्याओं से भरी है, दंगे-फसाद, कहीं तालाबंदी, कहीं हड़ताल, कहीं रास्ता रोको, कहीं घिराव, कहीं डकैतियां, कहीं बलात्कार, कहीं हत्याएं, कहीं युद्ध के बादल! इतनी समस्याएं हैं और तुम सांस ले रहे हो! शर्म नहीं आती?
विष्णुदास राठी, कुछ तो सोचो। क्या विलास कर रहे हो? अभी भी सोते हो? अभी भी सुबह उठ कर स्नान करते हो? कोई लाज नहीं, कोई शर्म नहीं, कोई शिष्टाचार नहीं! सिर्फ प्रेम के लिए यह सवाल उठा रहे हो। तब तो फिर कोई भी कभी प्रेम नहीं कर सकता था।
समस्याएं कब न थीं? राम के समय में न थीं? खुद की सीता गंवा बैठे, और समस्याएं न थीं? समस्याएं ही समस्याएं थीं। कृष्ण के समय में न थीं? तो महाभारत कैसे हुआ? अकारण, यूं ही खेल-खेल में! कबड्डी थी क्या? कबड्डी, कबड्डी, कबड्डी! या खो-खो! सवा अरब आदमी मरे और समस्या न थी?
और तुम्हारे ऋषि-मुनि प्रार्थना निरंतर करते रहे कि हे प्रभु, अंधकार से प्रकाश की तरफ ले चलो, मृत्यु से अमृत की तरफ ले चलो, असत्य से सत्य की तरफ ले चलो। समस्याएं न थीं? बुद्ध चालीस साल समझाते रहे लोगों को--चोरी न करो, बलात्कार न करो, बेईमानी न करो, धोखाधड़ी न करो। समस्याएं न थीं, तो पागल थे, दिमाग खराब था, किसको समझा रहे थे? जो लोग चोरी नहीं करते थे उनको समझा रहे थे कि चोरी न करो? जो लोग बलात्कार करना जानते ही नहीं थे, उनको समझा रहे थे कि हे भाई, बलात्कार न करो! तो वे लोग खड़े होकर पूछते कि साईं पहले यह भी तो बताओ कि बलात्कार क्या होता है! पहले बलात्कार करना तो सिखाओ!
एक ईसाई स्कूल में पादरी समझा जा रहा था बच्चों को कि परमात्मा को पाने के लिए क्या करना होता है। पश्चात्ताप करना होता है, प्रायश्चित करना होता है।
खूब समझाने के बाद उसने बच्चों से पूछा कि परमात्मा को पाने के लिए क्या करना होता है? एक छोटे-से बच्चे ने खड़े होकर कहा, पाप करना होता है।
उसने कहा, हद हो गई! यह तो मैंने बात ही नहीं की थी। मैं समझा रहा प्रायश्चित, पश्चात्ताप, अरे दुष्ट! और तू कहता है पाप करना होता है।
उसने कहा, अगर पाप न करेंगे तो प्रायश्चित किसका करेंगे? और पश्चात्ताप किसका करेंगे? अरे, पहले पाप करना तो सिखाओ। पाप करें तो फिर प्रायश्चित करें। फिर प्रायश्चित करें तो परमात्मा मिले।
लड़के ने बात तो समझदारी की कही, पादरी से कहीं ज्यादा अकल की कही।
एक गांव में नया-नया पादरी आया और दो महिलाएं एक चर्चा कर रही थीं कि नया पादरी कैसा है, तुम्हारा क्या खयाल है? उस दूसरी महिला ने कहा, बड़ा गजब का है! अरे, जब तक आया नहीं था, हमें मालूम ही नहीं था कि पाप क्या चीज है। जब से आया है तब से पता चला कि पाप क्या चीज है।
तो बुद्ध किसको समझा रहे थे बलात्कार न करो? महावीर किसको समझा रहे थे हिंसा न करो? अहिंसा परमो धर्मः! अहिंसकों को? जिन्होंने बेचारों ने कभी मच्छर न मारा, कभी खटमल न मारा, इनको समझा रहे थे अहिंसा परमो धर्मः? तो लोग कहते, अब बस बकवास बंद करो। यहां कोई है ही नहीं हिंसा करने वाला, किसको समझा रहे हो?
खलील जिब्रान की प्रसिद्ध कहानी है। एक कुत्ता बाकी कुत्तों को समझाता था कि देखो भौंको मत, बेकार मत भौंको। बेकार भौंकने के कारण ही कुत्तों की जाति बरबाद हुई। और जब तक हम बेकार ही भौंकते रहेंगे, शक्ति व्यय होगी। और जब शक्ति भौंकने में ही व्यय हो जाएगी तो और क्या खाक करोगे? अरे, पिछड़े जा रहे हो! आदमियों तक से पिछड़े जा रहे हो!
कुत्तों को बात तो जंचती, कि बात तो सच है; मगर बेचारे कुत्ते आखिर कुत्ते हैं, बिना भौंके कैसे रहें। एकदम चांद निकल आए और कुत्ते बिना भौंके रह जाएं! सिपाही निकले और कुत्ते बिना भौंके रह जाएं! पोस्टमैन निकले, एकदम खरखरी उठती है। संन्यासी को देख लें...। कुत्ते वर्दी के खिलाफ, बड़े दुश्मन! वर्दीधारी देखा कि फिर उनसे नहीं रहा जाता। फिर सब संयम का बांध टूट जाता है। यम-नियम-प्राणायाम इत्यादि सब भ्रष्ट हो जाते हैं। फिर तो वे कहते, अब देखेंगे कल, अभी तो भौंक लें। अभी तो ऐसा मजा आता है भौंकने में!
मगर यह कुत्ता भी ठीक कहता था। इसको लोग पूजते थे कि यह अवतारी पुरुष है। ऐसा कुत्ता ही नहीं देखा जो खुद तो भौंकता ही नहीं, दूसरों को भी नहीं भौंकने देता। अदभुत है!
ऐसे वर्षों आए और गए और उपदेशक समझाता रहा और सुनने वाले सुनते रहे सिर झुका कर कि अब क्या करें, मजबूरी है, पापी हैं हम! मगर यह आदमी तो बड़ा पहुंचा हुआ है! यह कुत्ता कोई साधारण कुत्ता नहीं। यह तो सीधा आकाश से ही आया है, ईश्वर का ही अवतार होना चाहिए। न भौंके। कभी नहीं किसी ने उसको भौंकते देखा। उसका आचरण बिलकुल शुद्ध था, विचार के बिलकुल अनुकूल था। जैसा बाहर वैसा भीतर। संतों में उसकी गिनती थी।
लेकिन एक रात कुत्तों ने तय किया कि अपना गुरु कितना समझाता है और अब उसका बुढ़ापा भी आ गया है, एक दफा तो अपन ऐसा करें कि एक रात तय कर लें। अमावस की रात आ रही है कल। कल रात चाहे कुछ भी हो जाए, कितनी ही उत्तेजनाएं आएं और शैतान कितना ही हमारे गले को गुदगुदाए, कि कितने ही निकलें पुलिस वाले और सिपाही और संन्यासी, मगर हम आंख बंद किए, अंधेरी गलियों में छिपे हुए, नालियों में दबे हुए पड़े रहेंगे। एक दफा तो अपने गुरु को यह भरोसा आ जाए कि हमने भी तेरी बात सुनी और मानी।
गुरु निकला शाम से, जो उसका काम था कि कोई मिल जाए कुत्ता भौंकते हुए और वह पकड़े, दे उपदेश, पिलाए वही घोंटी। मगर कोई न मिला, बारह बज गए, रात हो गई आधी, सन्नाटा छाया हुआ है! सदगुरु बड़ा परेशान हुआ। उसने कहा, हरामजादे गए कहां! कमबख्त! कोई मिलता ही नहीं।
वह तो बेचारा समझा-समझा कर अपनी खुजलाहट निकाल लेता था। आज समझाने को भी कोई न मिला। एकदम गले में खुजलाहट उठने लगी। जब कोई कुत्ता न दिखा और सब कुत्ते नदारद, तो पहली दफा उसकी नजर सिपाहियों पर गई, पोस्टमैनों पर गई, संन्यासी चले जा रहे! बड़े जोर से जीवन भर का दबा हुआ एकदम उभर कर आने लगा। बहुत रोका, बहुत संयम साधा, बहुत राम-राम जपा, मगर कुछ काम न आए। नहीं रोक सका, एक गली में जाकर भौंक दिया।
उसका भौंकना था कि सारे गांव में क्या भुकभाहट मची, क्योंकि बाकी कुत्तों ने सोचा कोई गद्दार दगा दे गया। जब एक ने दगा दे दिया, हम क्यों पीछे रहें? अरे, हम नाहक दबे-दबाए पड़े हैं! सारे कुत्ते भौंकने लगे। ऐसी भौंक कभी नहीं मची थी। और सदगुरु वापस लौट आया! तीर्थंकर वापस आ गया! उसने कहा, अरे कमबख्तो! कितना समझाया, मगर नहीं, तुम न मानोगे। तुम अपनी जात न बदलोगे। तुम्हारा रोग न जाएगा। फिर भौंक रहे हो। इसी भौंकने में कुत्ते की जातियों का ह्रास हुआ। इसी में हम बरबाद हुए। नहीं तो आज आदमी के गले में पट्टे बांध कर घूमते होते। आ गया कलियुग! क्यों भौंक रहे हो?
फिर बेचारे कुत्ते पूंछ दबा कर चले कि क्या करें! परमहंस देव, क्या करें! छूटता ही नहीं। आज तो बहुत पक्का कर लिया था छोड़ने का, लेकिन कोई गद्दार दगा दे गया। पता नहीं कौन गद्दार है, किस धोखेबाज ने, किस बेईमान ने भौंक दिया!
तुम जो यह कह रहे हो कि समस्याओं के रहते प्रेम विलास ही होगा न! समस्याएं तो सदा रहेंगी। कुत्ते हैं तो भौंकेंगे। आदमी है तो समस्याएं खड़ी होंगी। हां, तुम न रहोगे, समस्याएं रहेंगी। समस्याएं शाश्वत हैं। तुम अभी हो, अभी नहीं। अभी नहीं थे, अभी फिर नहीं हो जाओगे। तुम इन समस्याओं में अपना समय खराब न करो।
और समस्याएं तुम क्या हल कर लोगे? और समस्याएं हल करने का प्रेम के अतिरिक्त और क्या उपाय है? ये समस्याएं ही इसीलिए हैं कि इतनी घृणा है। ये समस्याएं इसीलिए हैं कि इतनी हिंसा है। ये समस्याएं इसीलिए हैं कि इतना द्वेष है, इतनी ईर्ष्या है। और तुम प्रेम से ही बच रहे हो! और तुम कह रहे हो कि प्रेम तो विलास ही होगा न!
और तुम कहते हो, मैं एक कवि हूं।
पता नहीं किस तरह के कवि हो! नाम से तो मारवाड़ी मालूम होते हो--विष्णुदास राठी। मारवाड़ी और कविता में कोई संबंध है? करते होओगे कविता कुछ इस तरह की:
कूटनीति मंथन करी, प्राप्त हुआ यह ज्ञान,
लोहे से लोहा कटे, यह सिद्धांत प्रमान।
यह सिद्धांत प्रमान, जहर से जहर मारिए
चुभ जाए कांटा, कांटे से ही निकालिए।
कहें काका कवि, कांप रहा क्यों रिश्वत लेकर
रिश्वत पकड़ी जाए छूट जा रिश्वत देकर।
मारवाड़ी हो, और क्या करोगे? अरे, कांपना क्या? रिश्वत में पकड़े गए, रिश्वत दो और बाहर निकलो!
छात्रों से कहने लगे, दादा ऊधम सिंग,
मजा किरकिरा हो गया, बंद हुई रैगिंग।
बंद हुई रैगिंग, समझ में बात न आई,
एक वर्ग रह गया, उसे क्यों बख्शा भाई?
खतरे में भोले-भाले पतियों की लाइफ,
बेचारों की डेली रैगिंग करती वाइफ।
कहें काका, सरकार! रहम हम पर भी खाओ
पत्थर-हृदय काकियों पर प्रतिबंध लगाओ।
कविता क्या करते होओगे तुम? जब तुम प्रेम से ही डर रहे हो तो तुम्हारी कविता में और क्या होगा? माना कि समस्याएं हैं, निश्चित समस्याएं हैं। लेकिन समस्याओं के कारण प्रेम तो नहीं छोड़ा जा सकता।
और यह भी सच है कि प्रेम विलास है। इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, सभी विलास है। फूल भी विलास हैं, और चांद-तारे भी विलास हैं। लेकिन क्या चाहते हो समस्याएं ही समस्याएं बचें, न फूल बचें, न पक्षी गीत गाएं, न कोयल पुकारे, न पपीहा गीत गाए, न मोर नाचे, न मोर के पंख हों, न आकाश में इंद्रधनुष उगें, न सूर्योदय का आनंद, न सूर्यास्त का सौंदर्य, न चांद-तारों से भरा हुआ आकाश। यह सब विलास ही तो है समस्याओं से भरे जगत में। क्या चाहते हो आकाश में सिर्फ अखबारों की सुर्खियां छपी हुई मिलें, कि जहां देखो वहीं हत्याएं, जहां देखो वहीं रिश्वत, जहां देखो वहीं बलात्कार, कि जहां देखो वहीं कुछ उपद्रव। अखबार पढ़ने से जी नहीं भरता विष्णुदास राठी?
माना कि समस्याएं हैं और समस्याएं जरूर मुश्किल खड़ी करती हैं, प्रेम करना मुश्किल हो जाता है। लेकिन पहली तो बात यह है कि प्रेम तुम्हारे जीवन में है? तुम कहते हो, मैं सबको प्रेम बांटना चाहता हूं। बांटने के पहले होना भी तो चाहिए। नहीं तो हालत हो जाए यूं कि नंगा नहाए, निचोड़े क्या? मैंने सुना, एक नंगा नहाता ही नहीं था। तब यह कहावत बनी। लोगों ने पूछा, भई नहाते क्यों नहीं?
उसने कहा, नहा तो लूं, लेकिन निचोडूंगा कहां? और कपड़े कहां सुखाऊंगा?
कपड़े थे ही नहीं जिनके सुखाने की चिंता में वह नहाता नहीं था।
तुम कह रहे हो, सबको प्रेम बांटना चाहता हूं। लेकिन बांटोगे क्या खाक? खाक ही बांटो, विभूति नाम रख दो! प्रेम होना भी तो चाहिए। और प्रेम बिना ध्यान के नहीं होता। लोग सिर्फ इस खयाल में जीते हैं कि प्रेम है। और तभी तो समस्याएं पर्याप्त हो जाती हैं प्रेम को मारने में। वह नोन-तेल-लकड़ी, समस्याओं की दुनिया आई कि प्रेम मरा। प्रेम बचता नहीं इसीलिए कि वस्तुतः पहले से ही नहीं था, सिर्फ खयाल था।
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग!
मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात,
तेरा गम है तो गमे-दहर का झगड़ा क्या है!
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है!
तू जो मिल जाए तो तकदीर निगूं हो जाए
यूं न था, मैंने फकत चाहा था यूं हो जाए।
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग!
और भी दुख हैं जमाने में मोहब्ब्त के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा,
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशमो-अतलसो-कमख्वाब के बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाजार में जिस्म
खाक में लिथड़े हुए, खून में नहलाए हुए।
जिस्म निकले हुए अमराज के तन्नूरों से,
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से।
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग।
लौट जाती है उधर को भी नजर, क्या कीजै?
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजै?
और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा,
मुझसे पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग।
माना कि समस्याएं हैं, माना कि दुख हैं, माना कि तकलीफें हैं, लेकिन ये सदा से हैं और ये सदा रहेंगी। इस कारण प्रेम से अपने को बचा लेना खतरनाक है, महंगा है। क्योंकि जो प्रेम से बचा वह प्रार्थना से बच जाएगा। क्योंकि प्रार्थना प्रेम के ही फूल की सुगंध है। और जो प्रार्थना से बचा वह क्या खाक परमात्मा को समझ पाएगा! क्योंकि उस सुगंध में ही परमात्मा का पहला अनुभव होता है।
रहने दो समस्याएं। प्रेम की धारा तो बहने दो। प्रेम की धारा समस्याओं को मिटाने में सहयोगी होगी। बिलकुल मिटा देगी, ऐसा तो नहीं। हां, नया तल देगी, नया आयाम देगी। और खयाल रखना सदा, नीचे तल की समस्याओं से ऊंचे तल की समस्याएं बेहतर होती हैं। जैसे मैं यह पसंद करूंगा कि आदमी को शरीर की समस्याएं न रह जाएं, मिट सकती हैं, क्योंकि अब विज्ञान पर्याप्त है। आदमी की शरीर की समस्याएं मिट सकती हैं, लेकिन तब मन की समस्याएं खड़ी होंगी।
लेकिन भारतीय तथाकथित साधु-संत जो सारी दुनिया में चक्कर मारते फिरते हैं, और सारी दुनिया को अध्यात्म का उपदेश देते फिरते हैं--पता नहीं इनको किसने यह ठेका दिया है, इनको यह वहम है कि भारत को सारी दुनिया का सदगुरु होना है--तो ये दुनिया में यह कहते फिरते हैं कि हमारा देश गरीब है, लेकिन फिर भी वहां पागलपन कम होता है। हमारा देश गरीब है, लेकिन लोग मानसिक तनाव से पीड़ित नहीं हैं।
इन पागलों को पता नहीं कि मानसिक तनाव और पागलपन और विक्षिप्तता और आत्मघात भूख से बड़ी समस्याएं हैं, ऊपर की समस्याएं हैं। पहले पेट तो भरा हो, तब आदमी के मन में तनाव हो सकता है। अभी पेट ही तना हो तो मन में कहां से तनाव होगा? अभी पेट ही भूखा हो तो मन की चिंताएं कैसे हो सकती हैं?
और जब मन की भी सारी समस्याएं हल हो जाती हैं तो और नई समस्याएं खड़ी होंगी, और बड़ी--आत्मा की समस्याएं, अस्तित्व की समस्याएं, जीवन के अर्थ की समस्याएं। समस्याओं की ऊंचाई सभ्यता की ऊंचाई बताती है। समस्याओं की नीचाई सभ्यता की नीचाई बताती है। भारत बहुत नीचे तल पर जी रहा है। लेकिन हम बड़े होशियार हैं।
और विष्णुदास राठी, तुम तो मारवाड़ी हो, तो मारवाड़ी की ही भाषा समझोगे। यह चंदूलाल मारवाड़ी का अपनी प्रेमिका गुलाबो को लिखा हुआ पत्र तुम्हारे सामने निवेदन करता हूं। तेरह सूत्रीय पत्र है--
मेरी इकलौती हृदय की देवी गुलाबो, जैसी कि तुम्हें खबर होगी ही कि हर साल की तरह इस साल भी हमारी सरकार ने देश की गौरवमयी परंपरा का पालन करते हुए सभी आवश्यक एवं अनावश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ा दी हैं, इसलिए ऐ मेरी जान से प्यारी सोने की बुलबुल, तुझे यह समाचार लिखते हुए मेरे कलेजे में छुरा-सा चुभ रहा है कि आगे से मैं तुझे अब बहुत कम पत्र लिख पाऊंगा, क्योंकि डाक-दरों में हुई वृद्धि से मेरा प्रेम-पत्र लिखने का उत्साह लगभग पूर्णतः ठंडा हो गया है। अतः भविष्य में पत्रों के नाम पर केवल व्यापार-संबंधी काम-काजी चिट्ठियां ही लिखा करूंगा। लेकिन फिर भी मान लो कभी साल, दो साल में अथवा जन्म-जन्मांतरों में कोई अत्यंत जरूरी कारण आ बना तो भले ही कितने भी पैसे खर्च हो जाएं फिक्र नहीं, लिफाफा अंतर्देशीय न सही, पोस्टकार्ड ही हो, मगर सच कहता हूं तुम्हें लव-लेटर अवश्य लिखूंगा। यद्यपि स्थानाभाव के कारण मैं ऐसी बहुत-सी बातें न लिख पाऊंगा जो मैं अब तक डाक की दरें सस्ती होने के कारण मुहब्बत की फिजूलखर्ची के रूप में लिखता रहा हूं। अतः तुमसे प्रार्थना है कि मेरी मजबूरियों को ध्यान में रखते हुए उन बहुत-सी अलिखित बातों को, ऐ मेरी समझदार सपनों की रानी, तुम लिखा हुआ ही समझ लेना! वे बहुत-सी बातें इस प्रकार हैं; इस बार आखिरी बार लिखे दे रहा हूं, क्योंकि अभी डाक की दरें वही की वही पुरानी हैं। एक तारीख से बदलाहट होने वाली है।
पहली: पत्र के प्रारंभ में प्राण प्यारी, हृदय सम्राज्ञी, या दिल की रानी जैसे निरर्थक संबोधन लिखकर पोस्टकार्ड में व्यर्थ जगह न भरूंगा। लिखूं दिल की रानी और निकले आंखों से पानी, यह ठीक नहीं।
दूसरी: प्रेम, प्यार, नमस्कार, चुंबन आदि बेमतलब शब्द अनावश्यक स्थान घेरते हैं, अतः आने वाले समय में इन शब्दों का उपयोग कतई न किया जाएगा।
तीसरी: अत्र कुशलम् तत्रास्तु लिखना तो इस युग में बेवकूफी ही है। भला इस महंगाई के जमाने में कोई कैसे सकुशल रह सकता है! ‘आशा है तुम भी सपरिवार कुशलतापूर्वक होओगी’--मान लो मैं यह लिखूं और तुम्हारे यहां किसी को बुखार चढ़ा हो तो सोचो फिर तुम पर क्या गुजरेगी? इसलिए अब मेरी चिट्ठियों में तुम ऐसी बेहूदी बकवास लिखी हुई न पाओगी।
चौथी: ‘तुम्हारा पत्र मिल गया, धन्यवाद’ या ‘मेरा पिछला पत्र तुम्हें मिल चुका होगा’ जैसी आकाश-कुसुम बातें लिखने में भी अब मेरा विश्वास नहीं रहा है, क्योंकि ऐसा करना भारतीय डाक-तार विभाग के साथ गद्दारी करना होगा, जो मेरे जैसा देश-भक्त नागरिक कभी नहीं चाहेगा। हां, कभी जरूरी हुआ तो ‘पांच साल पहले का लिखा हुआ तुम्हारा प्रेम-पत्र प्राप्त हुआ’ ऐसा एकाध वचन अवश्य लिख दिया करूंगा।
पांचवीं: ‘तुम्हारी बहुत याद आती है’ जैसे वाक्य लिखने का जोखिम भी भविष्य में नहीं लूंगा, क्योंकि इधर मैं लिखूं कि विरह-अग्नि में जला जा रहा हूं और उधर याद के साथ तुम खुद भी चली आओ तो इस महंगाई के जमाने में बतौर मुहावरा मेरा तो दिवाला ही निकल जाएगा।
छठवीं: ‘अपने स्वास्थ्य का खयाल रखना’ जैसी उपदेशात्मक बातें लिख कर मैं अपने पत्र को स्वास्थ्य विज्ञान की पोथी नहीं बनाना चाहता। वैसे भी जो सलाह मैं तुम्हें देता हूं तुम कभी मानती नहीं, बल्कि और भी उलटी-उलटी चलती हो। अतः यदि मैं तुम्हें सेहत का खयाल रखने का मशविरा दूं और वहां तुम अपनी सेहत बिगाड़ने पर तुल जाओ तो परिणाम उलटा ही निकलेगा। इस कारण लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट की जानकारी रखने वाला तुम्हारा यह मनोवैज्ञानिक प्रेमी चंदूलाल मारवाड़ी अब कभी तुम्हारे लिए शुभकामनाएं करने का कष्ट न करेगा।
सातवीं: भविष्य में प्रेम-व्रेम की चर्चा नहीं होगी, क्योंकि मैं पहले ही बता चुका हूं कि लिफाफे की जगह पोस्टकार्ड का उपयोग करूंगा और मैं नहीं चाहता कि मेरे दिल के गहन भावों को और हृदय के उदगारों को हर कोई ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सड़क-छाप पोस्टमैन पढ़े अथवा तुम्हारे घर के लोग पढ़कर नाजायज फायदा उठावें।
आठवीं: ‘शेष तुम स्वयं समझदार हो’ जैसी बात लिख कर मिथ्यावाद को प्रोत्साहन देने में भी मेरी रुचि अब नहीं। अतः मेरे अगले पत्रों में इस तरह की कोई भी बेसिर-पैर की बात तुम्हें न मिलेगी।
नौवीं: ‘अब समाप्त करता हूं’ लिखना मुझे बहुत अखरेगा। अरे, पत्र में जगह न बचने पर पत्र को अगर समाप्त न करूंगा तो भला क्या करूंगा? क्या शुरू करूंगा? फिर ऐसी बात लिखने में तुक ही क्या है?
दसवीं: ‘पत्रोत्तर देना’ यह लिखना मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई किसी को खाने पर बुला कर अगले दिन उसके घर पहुंच जाए और कहे, कल हमने तुम्हें खाना खिलाया था, अब तुम हमें खिलाओ। अतः ऐसे वाक्य भी अब कभी न लिखूंगा। तुम्हारी इच्छा हो तो खाने पर बुलाना, वरना कोई जबरदस्ती नहीं है। मैं एक खानदानी मारवाड़ी हूं, कोई भुखमरा नहीं।
ग्यारहवीं: पत्र के अंत में तुम्हारा प्रेमी, तेरा प्यारा या बस सिर्फ तेरा जैसे बेमतलब के शब्दों के प्रयोग का भी मुझे कोई औचित्य नजर नहीं आता। जब शुरू में ही दिल की रानी नहीं लिखा तो अब यह कैसी औपचारिकता? नीचे दस्तखत की भी अब कोई जरूरत नहीं। मेरी सड़ियल खाते-बही वाली मुनीम-छाप लिखावट से तुम खुद ही समझ जाओगी कि खत किसका है।
बारहवीं महत्वपूर्ण बात: कि पोस्टकार्ड पर कभी टिकट न चिपकाऊंगा। अरे, जब मैंने स्याही खर्च करके और पेन की निब घिसकर इतना प्रेम प्रकट किया, तो क्या तुम मेरी बैरंग चिट्ठी छुड़ा कर कुछ अपनी मुहब्बत का प्रदर्शन न करोगी?
तेरहवीं और अंतिम बात: खयाल रखना, यदि जगह बची तो पता लिखूंगा, वरना पता न लिखने के लिए माफी मांग लूंगा।
आज इतना ही।