QUESTION & ANSWER
Sambhog Se Samadhi Ki Oar 03
Third Discourse from the series of 16 discourses - Sambhog Se Samadhi Ki Oar by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। बहुत वर्ष बीते, बहुत सदियां, किसी देश में एक बड़ा चित्रकार था। वह जब अपनी युवा अवस्था में था, उसने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊं, जिसमें भगवान का आनंद झलकता हो। मैं ऐसी दो आंखें चित्रित करूं, जिनमें अनंत शांति झलकती हो। मैं ऐसे एक व्यक्ति को खोजूं, एक ऐसे मनुष्य को, जिसका चित्र, जीवन के जो पार है, जगत से जो दूर है, उसकी खबर लाता हो।
और वह अपने देश के गांव-गांव घूमा, जंगल-जंगल उसने छाना, उस आदमी को, जिसकी प्रतिछवि वह बना सके। और आखिर एक पहाड़ पर गाय चराने वाले एक चरवाहे को उसने खोज लिया। उसकी आंखों में कोई झलक थी। उसके चेहरे की रूप-रेखा में कोई दूर की खबर थी। उसे देख कर ही लगता था कि मनुष्य के भीतर परमात्मा भी है। उसने उसके चित्र को बनाया। उस चित्र की लाखों प्रतियां गांव-गांव, दूर-दूर के देशों में बिकीं। लोगों ने उस चित्र को घर में टांग कर अपने को धन्य समझा।
फिर बीस वर्ष बाद, वह चित्रकार बूढ़ा हो गया था। और उस चित्रकार को एक खयाल और आया। जीवन भर के अनुभव से उसे पता चला था कि आदमी में भगवान ही अगर अकेला होता तो ठीक था, आदमी में शैतान भी दिखाई पड़ता है। उसने सोचा कि मैं एक चित्र और बनाऊं, जिसमें आदमी के भीतर शैतान की छवि हो, तब मेरे दोनों चित्र पूरे मनुष्य के चित्र बन सकेंगे।
वह फिर गया बुढ़ापे में--जुआघरों में, शराबखानों में, पागलघरों में--उसने खोजबीन की उस आदमी की, जो आदमी न हो, शैतान हो; जिसकी आंखों में नरक की लपटें जलती हों; जिसके चेहरे की आकृति उस सबका स्मरण दिलाती हो, जो अशुभ है, कुरूप है, असुंदर है। वह पाप की प्रतिमा की खोज में निकला। एक प्रतिमा उसने परमात्मा की बनाई थी, वह एक प्रतिमा पाप की भी बनाना चाहता था।
और बहुत खोजने के बाद एक कारागृह में उसे एक कैदी मिल गया, जिसने सात हत्याएं की थीं और जो थोड़े ही दिनों बाद मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था, फांसी पर लटकाया जाने को था। उस आदमी की आंखों में नरक के दर्शन होते थे, घृणा जैसे साक्षात थी। उस आदमी की चेहरे की रूप-रेखा ऐसी थी कि वैसा कुरूप मनुष्य खोजना मुश्किल था।
उसने उसके चित्र को बनाया। जिस दिन उसका चित्र बन कर पूरा हुआ, वह अपने पहले चित्र को भी लेकर कारागृह में आया और दोनों चित्रों को पास-पास रख कर देखने लगा कि कौन सी कलाकृति श्रेष्ठ बनी है? तय करना मुश्किल था। चित्रकार खुद भी मुग्ध हो गया था। दोनों ही चित्र अदभुत थे। कौन सा श्रेष्ठ था, कला की दृष्टि से, यह तय करना मुश्किल था।
और तभी उस चित्रकार को पीछे किसी के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। लौट कर देखा, तो वह कैदी जंजीरों में बंधा रो रहा है जिसकी उसने तस्वीर बनाई थी! वह चित्रकार हैरान हुआ। उसने कहा कि मेरे दोस्त, तुम क्यों रोते हो? चित्रों को देख कर तुम्हें क्या तकलीफ हुई?
उस आदमी ने कहा, मैंने इतने दिन तक छिपाने की कोशिश की, लेकिन आज मैं हार गया हूं। शायद तुम्हें पता नहीं कि पहली तस्वीर भी तुमने मेरी ही बनाई थी। ये दोनों तस्वीरें मेरी हैं। बीस साल पहले पहाड़ पर जो आदमी तुम्हें मिला था, वह मैं ही हूं। और इसलिए रोता हूं कि मैंने बीस साल में कौन सी यात्रा कर ली--स्वर्ग से नरक की! परमात्मा से पाप की!
पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है। सच हो या न हो, लेकिन हर आदमी के जीवन में दो तस्वीरें हैं। हर आदमी के भीतर शैतान है और हर आदमी के भीतर परमात्मा भी। और हर आदमी के भीतर नरक की भी संभावना है और स्वर्ग की भी। हर आदमी के भीतर सौंदर्य के फूल भी खिल सकते हैं और कुरूपता के गंदे डबरे भी बन सकते हैं। प्रत्येक आदमी इन दो यात्राओं के बीच निरंतर डोल रहा है। ये दो छोर हैं, जिनमें से आदमी किसी को भी छू सकता है। और अधिक लोग नरक के छोर को छू लेते हैं और बहुत कम सौभाग्यशाली हैं जो अपने भीतर परमात्मा को उघाड़ पाते हों।
क्या हम अपने भीतर परमात्मा को उघाड़ पाने में सफल हो सकते हैं? क्या हम वह प्रतिमा बनेंगे जहां परमात्मा की झलक मिले? यह कैसे हो सकता है--इस प्रश्न के साथ ही आज की दूसरी चर्चा मैं शुरू करना चाहता हूं। यह कैसे हो सकता है कि आदमी परमात्मा की प्रतिमा बने? यह कैसे हो सकता है कि आदमी का जीवन एक स्वर्ग बने--एक सुवास, एक सुगंध, एक सौंदर्य? यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य उसे जान ले जिसकी कोई मृत्यु नहीं? यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट हो जाए?
होता तो उलटा है। बचपन में हम कहीं स्वर्ग में होते हैं और बूढ़े होते-होते नरक तक पहुंच जाते हैं! होता उलटा है। होता यह है कि बचपन के बाद जैसे रोज हमारा पतन होता है। बचपन में तो किसी इनोसेंस, किसी निर्दोष संसार का हम अनुभव करते हैं; और फिर धीरे-धीरे एक कपट से भरा हुआ, पाखंड से भरा हुआ मार्ग हम तय करते हैं। और बूढ़े होते-होते न केवल हम शरीर से बूढ़े हो जाते हैं, बल्कि हम आत्मा से भी बूढ़े हो जाते हैं। न केवल शरीर दीन-हीन, जीर्ण-जर्जर हो जाता है, बल्कि आत्मा भी पतित, जीर्ण-जर्जर हो जाती है। और इसे ही हम जीवन मान लेते हैं और समाप्त हो जाते हैं!
धर्म इस संबंध में संदेह उठाना चाहता है। धर्म एक बड़ा संदेह है इस संबंध में--कि यह आदमी की जीवन की यात्रा गलत है कि स्वर्ग से हम नरक तक पहुंच जाएं। होना तो उलटा चाहिए। जीवन की यात्रा उपलब्धि की यात्रा होनी चाहिए--कि हम दुख से आनंद तक पहुंचें, हम अंधकार से प्रकाश तक पहुंचें, हम मृत्यु से अमृत तक पहुंच जाएं। प्राणों के प्राण की अभिलाषा और प्यास भी वही है। प्राणों में एक ही आकांक्षा है कि मृत्यु से अमृत तक कैसे पहुंचें? प्राणों में एक ही प्यास है कि हम अंधकार से आलोक को कैसे उपलब्ध हों? प्राणों की एक ही मांग है कि हम असत्य से सत्य तक कैसे जा सकते हैं?
निश्चित ही सत्य की यात्रा के लिए, निश्चित ही स्वयं के भीतर परमात्मा की खोज के लिए, व्यक्ति को ऊर्जा का एक संग्रह चाहिए, कंजरवेशन चाहिए, व्यक्ति को शक्ति का एक संवर्धन चाहिए, उसके भीतर शक्ति इकट्ठी हो कि वह शक्ति का एक स्रोत बन जाए, तभी व्यक्तित्व को स्वर्ग तक ले जाया जा सकता है। स्वर्ग निर्बलों के लिए नहीं है। जीवन के सत्य उनके लिए नहीं हैं जो दीन-हीन हो जाते हैं शक्ति को खोकर। जो जीवन की सारी शक्ति को खो देते हैं और भीतर दुर्बल और दीन हो जाते हैं, वे यात्रा नहीं कर सकते। उस यात्रा पर चढ़ने के लिए, उन पहाड़ों पर चढ़ने के लिए शक्ति चाहिए। और शक्ति का संवर्धन धर्म का सूत्र है--शक्ति का संवर्धन, कंजरवेशन ऑफ एनर्जी। कैसे शक्ति इकट्ठी हो कि हम शक्ति के उबलते हुए भंडार हो जाएं?
लेकिन हम तो दीन-हीन जन हैं। सारी शक्ति खोकर हम धीरे-धीरे निर्बल होते चले जाते हैं। सब खो जाता है भीतर, रिक्तता रह जाती है एक खाली। भीतर एक खालीपन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं छूटता। हम शक्ति को कैसे खो देते हैं?
मनुष्य का शक्ति को खोने का सबसे बड़ा द्वार सेक्स है। काम मनुष्य की शक्ति के खोने का सबसे बड़ा द्वार है, जहां से वह शक्ति को खोता है। और जैसा मैंने कल आपसे कहा, कोई कारण है जिसकी वजह से वह शक्ति को खोता है। शक्ति को कोई भी खोना नहीं चाहता है। कौन शक्ति को खोना चाहता है? लेकिन कुछ झलक है उपलब्धि की, उस झलक के लिए आदमी शक्ति को खोने को राजी हो जाता है। काम के क्षणों में कुछ अनुभव है, उस अनुभव के लिए आदमी सब कुछ खोने को तैयार हो जाता है। अगर वह अनुभव किसी और मार्ग से उपलब्ध हो सके तो मनुष्य सेक्स के माध्यम से शक्ति को खोने को कभी भी तैयार नहीं हो सकता।
क्या और कोई द्वार है उस अनुभव को पाने का? क्या और कोई मार्ग है उस अनुभूति को उपलब्ध करने का--जहां हम अपने प्राणों की गहरी से गहरी गहराई में उतर जाते हैं, जहां हम जीवन का ऊंचा से ऊंचा शिखर छूते हैं, जहां हम जीवन की शांति और आनंद की एक झलक पाते हैं? क्या कोई और मार्ग है? क्या कोई और मार्ग है अपने भीतर पहुंच जाने का? क्या स्वयं की शांति और आनंद के स्रोत तक पहुंच जाने की और कोई सीढ़ी है?
अगर वह सीढ़ी हमें दिखाई पड़ जाए तो जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है, आदमी काम के प्रति विमुख और राम के प्रति सन्मुख हो जाता है। एक क्रांति घटित हो जाती है, एक नया द्वार खुल जाता है।
मनुष्य की जाति को अगर हम नया द्वार न दे सकें तो मनुष्य एक रिपिटीटिव सर्किल में, एक पुनरुक्ति वाले चक्कर में घूमता है और नष्ट होता है। लेकिन आज तक सेक्स के संबंध में जो भी धारणाएं रही हैं, वे मनुष्य को सेक्स के अतिरिक्त नया द्वार खोलने में समर्थ नहीं बना पाईं। बल्कि एक उलटा उपद्रव हुआ। प्रकृति एक ही द्वार देती है मनुष्य को, वह सेक्स का द्वार है। अब तक की शिक्षाओं ने वह द्वार भी बंद कर दिया और नया द्वार खोला नहीं! शक्ति भीतर घूमने लगी और चक्कर काटने लगी। और अगर नया द्वार शक्ति के लिए न मिले, तो घूमती हुई शक्ति मनुष्य को विक्षिप्त कर देती है, पागल कर देती है। और विक्षिप्त मनुष्य फिर न केवल उस द्वार से, जो सेक्स का सहज द्वार था, निकलने की चेष्टा करता है, वह दीवालों और खिड़कियों को तोड़ कर भी उसकी शक्ति बाहर बहने लगती है। वह अप्राकृतिक मार्गों से भी सेक्स की शक्ति बाहर बहने लगती है।
यह दुर्घटना घटी है। यह मनुष्य-जाति के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है। नया द्वार नहीं खोला गया और पुराना द्वार बंद कर दिया गया। इसलिए मैं सेक्स के विरोध में, दुश्मनी के लिए, दमन के लिए अब तक जो भी शिक्षाएं दी गई हैं, उन सबके स्पष्ट विरोध में खड़ा हुआ हूं। उन सारी शिक्षाओं से मनुष्य की सेक्सुअलिटी बढ़ी है, कम नहीं हुई, बल्कि विकृत हुई है।
क्या करें लेकिन? कोई और द्वार खोला जा सकता है?
मैंने आपसे कल कहा, संभोग के क्षण की जो प्रतीति है, वह प्रतीति दो बातों की है: टाइमलेसनेस और ईगोलेसनेस की। समय शून्य हो जाता है और अहंकार विलीन हो जाता है। समय शून्य होने से और अहंकार विलीन होने से हमें उसकी एक झलक मिलती है जो हमारा वास्तविक जीवन है। लेकिन क्षण भर की झलक और हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। और एक बड़ी ऊर्जा, एक बड़ी वैद्युतिक शक्ति का प्रवाह, इसमें हम खो देते हैं। फिर उस झलक की याद, स्मृति मन को पीड़ा देती रहती है। हम वापस उस अनुभव को पाना चाहते हैं, वापस उस अनुभव को पाना चाहते हैं। और वह झलक इतनी छोटी है, एक क्षण में खो जाती है! ठीक से उसकी स्मृति भी नहीं रह जाती कि क्या थी झलक, हमने क्या जाना था? बस एक धुन, एक अर्ज, एक पागल प्रतीक्षा रह जाती है फिर उस अनुभव को पाने की। और जीवन भर आदमी इसी चेष्टा में संलग्न रहता है, लेकिन उस झलक को एक क्षण से ज्यादा नहीं पा सकता है।
वही झलक ध्यान के माध्यम से भी उपलब्ध होती है। मनुष्य की चेतना तक पहुंचने के दो मार्ग हैं--काम और ध्यान, सेक्स और मेडिटेशन। सेक्स प्राकृतिक मार्ग है, जो प्रकृति ने दिया हुआ है। जानवरों को भी दिया हुआ है, पक्षियों को भी दिया हुआ है, पौधों को भी दिया हुआ है, मनुष्यों को भी दिया हुआ है। और जब तक मनुष्य केवल प्रकृति के दिए हुए द्वार का उपयोग करता है, तब तक वह पशुओं से ऊपर नहीं है। नहीं हो सकता। वह सारा द्वार तो पशुओं के लिए भी उपलब्ध है।
मनुष्यता का प्रारंभ उस दिन से होता है, जिस दिन से मनुष्य सेक्स के अतिरिक्त एक नया द्वार खोलने में समर्थ हो जाता है। उसके पहले हम मनुष्य नहीं हैं, नाम मात्र को मनुष्य हैं। उसके पहले हमारे जीवन का केंद्र पशु का केंद्र है, प्रकृति का केंद्र है। तब तक हम उसके ऊपर नहीं उठ पाए, उसे ट्रांसेंड नहीं कर पाए, उसका अतिक्रमण नहीं कर पाए; तब तक हम पशुओं की भांति ही जीते हैं। हमने कपड़े मनुष्यों के पहन रखे हैं, हम भाषा मनुष्यों की बोलते हैं, हमने सारा रूप मनुष्यों का पैदा कर रखा है; लेकिन भीतर गहरे से गहरे मन के तल पर हम पशुओं से ज्यादा नहीं होते। नहीं हो सकते हैं। और इसीलिए जरा सा मौका मिल जाए और हमारी मनुष्यता को जरा सी छूट मिल जाए, तो हम तत्काल पशु हो जाते हैं।
हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। और हमें दिखाई पड़ गया कि आदमी के कपड़ों के भीतर जानवर बैठा हुआ है। हमें दिखाई पड़ गया कि वे लोग जो कल मस्जिद में प्रार्थना करते थे और मंदिर में गीता पढ़ते थे, वे क्या कर रहे हैं? वे हत्याएं कर रहे हैं, वे बलात्कार कर रहे हैं, वे सब कुछ कर रहे हैं! वे ही लोग जो मंदिरों और मस्जिदों में दिखाई पड़ते थे, वे ही लोग बलात्कार करते हुए दिखाई पड़ने लगे! क्या हो गया इनको?
अभी दंगा-फसाद हो जाए, अभी यहां दंगा हो जाए, और यहीं आदमी को दंगे में मौका मिल जाएगा अपनी आदमियत से छुट्टी ले लेने का और फौरन वह जो भीतर छिपा हुआ पशु है, प्रकट हो जाएगा! वह हमेशा तैयार है, वह प्रतीक्षा कर रहा है कि मुझे मौका मिल जाए। भीड़-भाड़ में उसे मौका मिल जाता है, तो वह जल्दी से छोड़ देता है अपना खयाल--वह जो बांध-बूंध कर उसने रखा हुआ है। भीड़ में मौका मिल जाता है उसे भूल जाने का कि मैं भूल जाऊं अपने को!
इसलिए आज तक अकेले आदमियों ने उतने पाप नहीं किए हैं, जितने भीड़ में आदमियों ने पाप किए हैं। अकेला आदमी थोड़ा डरता है कि कोई देख लेगा! अकेला आदमी थोड़ा सोचता है कि मैं यह क्या कर रहा हूं! अकेले आदमी को अपने कपड़ों की थोड़ी फिक्र होती है कि लोग क्या कहेंगे--जानवर हो! लेकिन जब बड़ी भीड़ होती है तो अकेला आदमी कहता है--अब कौन देखता है! अब कौन पहचानता है! वह भीड़ के साथ एक हो जाता है। उसकी आइडेंटिटी मिट जाती है। अब वह फलां नाम का आदमी नहीं है, अब एक बड़ी भीड़ है। और बड़ी भीड़ जो करती है वह भी करता है--हत्या करता है, आग लगाता है, बलात्कार करता है। भीड़ में उसे मौका मिल जाता है कि वह अपने पशु को फिर से छुट्टी दे दे, जो उसके भीतर छिपा है।
और इसीलिए आदमी दस-पांच वर्षों में युद्ध की प्रतीक्षा करने लगता है, दंगों की प्रतीक्षा करने लगता है। अगर हिंदू-मुस्लिम का बहाना मिल जाए तो हिंदू-मुस्लिम सही, अगर हिंदू-मुस्लिम का न मिले तो गुजराती-मराठी भी काम कर सकता है। अगर गुजराती-मराठी न हो, तो हिंदी बोलने वाला और गैर-हिंदी बोलने वाला भी काम कर सकता है। कोई भी बहाना चाहिए आदमी को, उसके भीतर के पशु को छुट्टी चाहिए। वह घबरा जाता है पशु भीतर बंद रहते-रहते। वह कहता है, मुझे प्रकट होने दो।
और आदमी के भीतर का पशु तब तक नहीं मिटता है, जब तक पशुता का जो सहज मार्ग है, उसके ऊपर मनुष्य की चेतना न उठे। पशुता का सहज मार्ग--हमारी ऊर्जा, हमारी शक्ति का एक ही द्वार है बहने का--वह है सेक्स। और वह द्वार बंद कर दें तो कठिनाई खड़ी हो जाती है। उस द्वार को बंद करने के पहले नये द्वार का उदघाटन होना जरूरी है, जीवन-चेतना नई दिशा में प्रवाहित हो सके।
लेकिन यह हो सकता है; यह आज तक किया नहीं गया। नहीं किया गया, क्योंकि दमन सरल मालूम पड़ा, रूपांतरण कठिन। दबा देना किसी बात को आसान है। बदलना, बदलने की विधि और साधना की जरूरत है। इसलिए हमने सरल मार्ग का उपयोग किया कि दबा दो अपने भीतर।
लेकिन हम यह भूल गए कि दबाने से कोई चीज नष्ट नहीं होती है, दबाने से और बलशाली हो जाती है। और हम यह भी भूल गए कि दबाने से हमारा आकर्षण और गहरा होता है। जिसे हम दबाते हैं, वह हमारी चेतना की और गहरी पर्तों में प्रविष्ट हो जाता है। हम उसे दिन में दबा लेते हैं, वह सपनों में हमारी आंखों में झूलने लगता है। हम उसे रोजमर्रा दबा लेते हैं, वह हमारे भीतर प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाए, कब मैं फूट पडूं, निकल पडूं। जिसे हम दबाते हैं उससे हम मुक्त नहीं होते, हम और गहरे अर्थों में, और गहराइयों में, और अचेतन में, और अनकांशस तक उसकी जड़ें पहुंच जाती हैं और वह हमें जकड़ लेता है।
आदमी सेक्स को दबाने के कारण ही बंध गया और जकड़ गया। और यही वजह है, पशुओं की तो सेक्स की कोई अवधि होती है, कोई पीरियड होता है वर्ष में; आदमी की कोई अवधि न रही, कोई पीरियड न रहा। आदमी चौबीस घंटे, बारह महीने सेक्सुअल है! सारे जानवरों में कोई जानवर ऐसा नहीं है कि जो बारह महीने और चौबीस घंटे कामुकता से भरा हुआ हो। उसका वक्त है, उसकी ऋतु है; वह आती है और चली जाती है। और फिर उसका स्मरण भी खो जाता है। आदमी को क्या हो गया? आदमी ने दबाया जिस चीज को वह फैल कर उसके चौबीस घंटे और बारह महीने के जीवन पर फैल गई है।
कभी आपने इस पर विचार किया कि कोई पशु हर स्थिति में, हर समय कामुक नहीं होता। लेकिन आदमी हर स्थिति में, हर समय कामुक है। जैसे कामुकता उबल रही है, जैसे कामुकता ही सब कुछ है। यह कैसे हो गया? यह दुर्घटना कैसे संभव हुई है? पृथ्वी पर सिर्फ मनुष्य के साथ हुई है और किसी जानवर के साथ नहीं--क्यों?
एक ही कारण है, सिर्फ मनुष्य ने दबाने की कोशिश की है। और जिसे दबाया, वह जहर की तरह सब तरफ फैल गया। और दबाने के लिए हमें क्या करना पड़ा? दबाने के लिए हमें निंदा करनी पड़ी, दबाने के लिए हमें गाली देनी पड़ी, दबाने के लिए हमें अपमानजनक भावनाएं पैदा करनी पड़ीं। हमें कहना पड़ा कि सेक्स पाप है। हमें कहना पड़ा कि सेक्स नरक है। हमें कहना पड़ा कि जो सेक्स में है, वह गर्हित है, निंदित है। हमें ये सारी गालियां खोजनी पड़ीं, तभी हम दबाने में सफल हो सके। और हमें खयाल भी नहीं कि इन निंदाओं और गालियों के कारण हमारा सारा जीवन जहर से भर गया।
नीत्शे ने एक वचन कहा है, जो बहुत अर्थपूर्ण है। उसने कहा है कि धर्मों ने जहर खिला कर सेक्स को मार डालने की कोशिश की थी। सेक्स मरा तो नहीं, सिर्फ जहरीला होकर जिंदा है। मर भी जाता तो ठीक था। वह मरा नहीं। लेकिन और गड़बड़ हो गई बात। वह जहरीला भी हो गया और जिंदा है।
यह जो सेक्सुअलिटी है, यह जहरीला सेक्स है। सेक्स तो पशुओं में भी है, काम तो पशुओं में भी है, क्योंकि काम जीवन की ऊर्जा है; लेकिन सेक्सुअलिटी, कामुकता सिर्फ मनुष्य में है। कामुकता पशुओं में नहीं है। पशुओं की आंखों में देखें, वहां कामुकता दिखाई नहीं पड़ेगी। आदमी की आंखों में झांकें, वहां एक कामुकता का रस झलकता हुआ दिखाई पड़ेगा। इसलिए पशु आज भी एक तरह से सुंदर है। लेकिन दमन करने वाले पागलों की कोई सीमा नहीं है कि वे कहां तक बढ़ जाएंगे।
मैंने कल आपको कहा था कि अगर हमें दुनिया को सेक्स से मुक्त करना है, तो बच्चे और बच्चियों को एक-दूसरे के निकट लाना होगा। इसके पहले कि उनमें सेक्स जागे--चौदह साल के पहले--वे एक-दूसरे के शरीर से इतने स्पष्ट रूप से परिचित हो लें कि वह आकांक्षा विलीन हो जाए।
लेकिन अमेरिका में अभी-अभी एक नया आंदोलन चला है। और वह नया आंदोलन वहां के बहुत धार्मिक लोग चला रहे हैं। शायद आपको पता भी न हो, वह नया आंदोलन बड़ा अदभुत है। वह आंदोलन यह है कि सड़कों पर गाय, भैंस, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली को भी बिना कपड़ों के नहीं निकाला जाए, उनको कपड़े पहना कर निकाला जाए! उनको भी कपड़े पहनाने चाहिए; क्योंकि नंगे पशुओं को देख कर बच्चे बिगड़ सकते हैं! बड़े मजे की बात है। नंगे पशुओं को देख कर बच्चे बिगड़ सकते हैं। अमेरिका के कुछ नीतिशास्त्री इसके बाबत आंदोलन और संगठन और संस्थाएं बना रहे हैं कि पशुओं को भी सड़कों पर नग्न नहीं लाया जा सके! आदमी को बचाने की इतनी कोशिशें चल रही हैं। और कोशिश बचाने की जो करने वाले लोग हैं, वे ही आदमी को नष्ट कर रहे हैं।
कभी आपने खयाल किया कि पशु अपनी नग्नता में भी अदभुत है और सुंदर है। उसकी नग्नता में भी वह निर्दोष है, सरल और सीधा है। कभी आपको, पशु नग्न है, यह भी खयाल शायद ही आया हो। जब तक कि आपके भीतर बहुत नंगापन न छिपा हो, तब तक आपको पशु नंगा नहीं दिखाई पड़ सकता है। लेकिन वे जो भयभीत लोग हैं, वे जो डरे हुए लोग हैं, वे भय और डर के कारण सब कुछ कर रहे हैं आज तक। और उनके सब करने से आदमी रोज नीचे से नीचे उतरता जा रहा है।
जरूरत तो यह है कि आदमी भी किसी दिन इतना सरल हो कि नग्न खड़ा हो सके--निर्दोष और आनंद से भरा हुआ। जरूरत तो यह है! जैसे महावीर जैसा व्यक्ति नग्न खड़ा हो गया। लोग कहते हैं कि उन्होंने कपड़े छोड़े, कपड़ों का त्याग किया। मैं कहता हूं, न कपड़े छोड़े, न कपड़ों का त्याग किया; चित्त इतना निर्दोष हो गया होगा, इतना इनोसेंट, जैसे छोटे बच्चों का, तो वे नग्न खड़े हो गए होंगे। क्योंकि ढांकने को जब कुछ भी नहीं रह जाता तो आदमी नग्न हो सकता है। जब तक ढांकने को कुछ है हमारे भीतर, तब तक आदमी अपने को छिपाएगा। जब ढांकने को कुछ भी नहीं है, तो नग्न हो सकता है। चाहिए तो एक ऐसी पृथ्वी कि आदमी भी इतना सरल होगा कि नग्न होने में भी उसे कोई पश्चात्ताप, कोई पीड़ा न होगी। नग्न होने में भी उसे कोई अपराध न होगा।
आज तो हम कपड़े पहन कर भी अपराधी मालूम होते हैं! हम कपड़े पहन कर भी नंगे हैं! और ऐसे लोग भी रहे हैं, जो नग्न होकर भी नग्न नहीं थे।
नंगापन मन की एक वृत्ति है।
सरलता, निर्दोष चित्त--फिर नग्नता भी सार्थक हो जाती है, अर्थपूर्ण हो जाती है; वह भी एक सौंदर्य ले लेती है।
लेकिन अब तक आदमी को जहर पिलाया गया है। और जहर का परिणाम यह हुआ कि हमारा सारा जीवन एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक विषाक्त हो गया है।
स्त्रियों को हम कहते हैं, पति को परमात्मा समझना! और उन स्त्रियों को बचपन से सिखाया गया है कि सेक्स पाप है, नरक है। वे कल विवाहित होंगी। वे उस पति को कैसे परमात्मा मान सकेंगी जो उन्हें सेक्स में और नरक में ले जा रहा है? एक तरफ हम सिखाते हैं पति परमात्मा है और पत्नी का अनुभव कहता है कि यही पहला पापी है जो मुझे नरक में घसीट रहा है।
एक बहन ने मुझे आकर कहा--पिछली मीटिंग में जब मैं यहां बोला, भारतीय विद्याभवन में, तो एक बहन मेरे पास उसी दिन आई और उसने कहा--कि मैं बहुत गुस्से में हूं, मैं बहुत क्रोध में हूं। सेक्स तो बड़ी घृणित चीज है। सेक्स तो पाप है। और आपने सेक्स की इतनी बात क्यों की? मैं तो घृणा करती हूं सेक्स को।
अब यह पत्नी है, इसका पति है, इसके बच्चे हैं, बच्चियां हैं; और यह पत्नी सेक्स को घृणा करती है! यह पति को कैसे प्रेम कर सकती है जो इसे सेक्स में ले जा रहा है? यह उन बच्चों को कैसे प्रेम कर सकती है जो सेक्स से पैदा हो रहे हैं? इसका प्रेम जहरीला रहेगा। इसके प्रेम में जहर छिपा रहेगा। पति और इसके बीच एक बुनियादी दीवाल खड़ी रहेगी। बच्चों और इसके बीच एक बुनियादी दीवाल खड़ी रहेगी। क्योंकि वह सेक्स की दीवाल और सेक्स की कंडेमनेशन की वृत्ति बीच में खड़ी है। ये बच्चे पाप से आए हैं। यह पति और मेरे बीच पाप का संबंध है। और जिनके साथ पाप का संबंध है, उनके प्रति हम मैत्रीपूर्ण हो सकते हैं? पाप के प्रति हम मैत्रीपूर्ण हो सकते हैं?
सारी दुनिया का गृहस्थ जीवन नष्ट किया है सेक्स को गाली देने वाले, निंदा करने वाले लोगों ने। और वे इसे नष्ट करके जो दुष्परिणाम लाए हैं, वह यह नहीं है कि सेक्स से लोग मुक्त हो गए हों। जो पति अपनी पत्नी और अपने बीच एक दीवाल पाता है पाप की, वह पत्नी से कभी भी तृप्ति अनुभव नहीं कर पाता। तो आस-पास की स्त्रियों को खोजता है, वेश्याओं को खोजता है। खोजेगा। अगर पत्नी से उसे तृप्ति मिल गई होती तो शायद इस जगत की सारी स्त्रियां उसके लिए मां और बहन हो जातीं। लेकिन पत्नी से भी तृप्ति न मिलने के कारण सारी स्त्रियां उसे पोटेंशियल औरतों की तरह, पोटेंशियल पत्नियों की तरह मालूम पड़ती हैं, जिनको पत्नी में बदला जा सकता है।
यह स्वाभाविक है, यह होने वाला था। यह होने वाला था, क्योंकि जहां तृप्ति मिल सकती थी, वहां जहर है, वहां पाप है, और तृप्ति नहीं मिलती है। और वह चारों तरफ भटकता है और खोजता है। और क्या-क्या ईजादें करता है खोज कर आदमी! अगर उन सारी ईजादों को हम सोचने बैठें तो घबरा जाएंगे कि आदमी ने क्या-क्या ईजादें की हैं! लेकिन एक बुनियादी बात पर खयाल नहीं किया कि वह जो प्रेम का कुआं था, वह जो काम का कुआं था, वह जहरीला बना दिया गया है।
और जब पति और पत्नी के बीच जहर का भाव हो, घबराहट का भाव हो, पाप का भाव हो, तो फिर यह पाप की भावना रूपांतरण नहीं करने देगी। अन्यथा मेरी समझ यह है कि एक पति और पत्नी अगर एक-दूसरे के प्रति समझपूर्वक प्रेम से भरे हुए, आनंद से भरे हुए और सेक्स के प्रति बिना निंदा के सेक्स को समझने की चेष्टा करेंगे, तो आज नहीं कल उनके बीच का संबंध रूपांतरित हो जाने वाला है। यह हो सकता है कि कल वही पत्नी मां जैसी दिखाई पड़ने लगे।
गांधीजी उन्नीस सौ तीस के करीब श्रीलंका गए थे। उनके साथ कस्तूरबा साथ थीं। संयोजकों ने समझा कि शायद गांधीजी की मां साथ आई हुई हैं, क्योंकि गांधीजी कस्तूरबा को खुद भी बा ही कहते थे। लोगों ने समझा कि शायद उनकी मां होंगी। संयोजकों ने परिचय देते हुए कहा कि गांधीजी आए हैं और बड़े सौभाग्य की बात है कि उनकी मां भी साथ आई हुई हैं। वह उनके बगल में बैठी हुई हैं।
गांधीजी के सेक्रेटरी तो घबरा गए कि यह तो भूल हमारी है, हमें बताना था कि साथ में कौन है। लेकिन अब तो बड़ी देर हो चुकी थी। गांधी तो मंच पर जाकर बैठ भी गए थे और बोलना शुरू कर दिया था। सेक्रेटरी घबड़ाए हुए हैं कि गांधी पीछे क्या कहेंगे! उन्हें कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि गांधी नाराज नहीं होंगे, क्योंकि ऐसे पुरुष बहुत कम हैं जो पत्नी को मां बनाने में समर्थ हो जाते हैं। लेकिन गांधीजी ने कहा कि सौभाग्य की बात है कि जिन मित्र ने मेरा परिचय दिया है, उन्होंने भूल से एक सच्ची बात कह दी है। कस्तूरबा कुछ वर्षों से मेरी मां हो गई है। कभी वह मेरी पत्नी थी। लेकिन अब वह मेरी मां है।
इस बात की संभावना है कि अगर पति और पत्नी काम को, संभोग को समझने की चेष्टा करें, तो एक-दूसरे के मित्र बन सकते हैं और एक-दूसरे के काम के रूपांतरण में सहयोगी और साथी हो सकते हैं। और जिस दिन कोई पति और पत्नी अपने आपस के संभोग के संबंध को रूपांतरित करने में सफल हो जाते हैं, उस दिन उनके जीवन में पहली दफे एक-दूसरे के प्रति अनुग्रह और ग्रेटिट्यूड का भाव पैदा होता है, उसके पहले नहीं। उसके पहले वे एक-दूसरे के प्रति क्रोध से भरे रहते हैं, उसके पहले वे एक-दूसरे के बुनियादी शत्रु बने रहते हैं, उसके पहले उनके बीच एक संघर्ष है, मैत्री नहीं।
मैत्री उस दिन शुरू होती है जिस दिन वे एक-दूसरे के साथी बनते हैं और उनके काम की ऊर्जा को रूपांतरण करने में माध्यम बन जाते हैं। उस दिन एक अनुग्रह, एक ग्रेटिट्यूड, एक कृतज्ञता का भाव ज्ञापन होता है। उस दिन पुरुष आदर से भरता है स्त्री के प्रति, क्योंकि स्त्री ने उसे कामवासना से मुक्त होने में सहायता पहुंचाई। उस दिन स्त्री अनुगृहीत होती है पुरुष के प्रति कि उसने उसे साथ दिया और उसकी वासना से मुक्ति दिलवाई। उस दिन वे सच्ची मैत्री में बंधते हैं, जो काम की नहीं, प्रेम की मैत्री है। उस दिन उनका जीवन ठीक उस दिशा में जाता है, जहां पत्नी के लिए पति परमात्मा हो जाता है और पति के लिए पत्नी परमात्मा हो जाती है--उस दिन!
लेकिन वह कुआं तो विषाक्त कर दिया गया है। इसलिए मैंने कल कहा कि मुझसे बड़ा शत्रु सेक्स का खोजना कठिन है। लेकिन मेरी शत्रुता का यह मतलब नहीं है कि मैं सेक्स को गाली दूं और निंदा करूं। मेरी शत्रुता का मतलब यह है कि मैं सेक्स को रूपांतरित करने के संबंध में दिशा-सूचन करूं। मैं आपको कहूं कि वह कैसे रूपांतरित हो सकता है। मैं कोयले का दुश्मन हूं, क्योंकि मैं कोयले को हीरा बनाना चाहता हूं। मैं सेक्स को रूपांतरित करना चाहता हूं। वह कैसे रूपांतरित होगा? उसकी क्या विधि होगी?
मैंने आपसे कहा, एक द्वार खोलना जरूरी है--नया द्वार।
बच्चे जैसे ही पैदा होते हैं, वैसे ही उनके जीवन में सेक्स का आगमन नहीं हो जाता है। अभी देर है। अभी शरीर शक्ति इकट्ठी करेगा। अभी शरीर के अणु मजबूत होंगे। अभी उस दिन की प्रतीक्षा है जब शरीर पूरा तैयार हो जाएगा, ऊर्जा इकट्ठी होगी। और द्वार जो बंद रहा है चौदह वर्षों तक, वह खुल जाएगा ऊर्जा के धक्के से, और सेक्स की दुनिया शुरू होगी। एक बार द्वार खुल जाने के बाद नया द्वार खोलना कठिन हो जाता है। क्योंकि समस्त ऊर्जाओं का नियम यह है, समस्त शक्तियों का, वे एक दफा अपना मार्ग खोज लें बहने के लिए तो वे उसी मार्ग से बहना पसंद करती हैं।
गंगा बह रही है सागर की तरफ, उसने एक बार रास्ता खोज लिया। अब वह उसी रास्ते से बही चली जाती है, बही चली जाती है। रोज-रोज नया पानी आता है, उसी रास्ते से बहता हुआ चला जाता है। गंगा रोज नये रास्ते नहीं खोजती है।
जीवन की ऊर्जा भी एक रास्ता खोज लेती है, फिर वह उसी से बहती चली जाती है। अगर जमीन को कामुकता से मुक्त करना है, तो सेक्स का रास्ता खुलने के पहले नया रास्ता--ध्यान का रास्ता--तोड़ देना जरूरी है। एक-एक छोटे बच्चे को ध्यान की अनिवार्य शिक्षा और दीक्षा मिलनी चाहिए।
पर हम तो उसे सेक्स के विरोध की दीक्षा देते हैं, जो कि अत्यंत मूर्खतापूर्ण है। सेक्स के विरोध की दीक्षा नहीं देनी है। शिक्षा देनी है ध्यान की, पाजिटिव, कि वह ध्यान को कैसे उपलब्ध हो। और बच्चे ध्यान को जल्दी उपलब्ध हो सकते हैं। क्योंकि अभी उनकी ऊर्जा का कोई भी द्वार खुला नहीं है। अभी द्वार बंद है, अभी ऊर्जा संरक्षित है, अभी कहीं भी नये द्वार पर धक्के दिए जा सकते हैं और नया द्वार खोला जा सकता है। फिर यही बूढ़े हो जाएंगे और इन्हें ध्यान में पहुंचना अत्यंत कठिन हो जाएगा।
ऐसे ही, जैसे एक नया पौधा पैदा होता है, उसकी शाखाएं कहीं भी झुक जाती हैं, कहीं भी झुकाई जा सकती हैं। फिर वही बूढ़ा वृक्ष हो जाता है। फिर हम उसकी शाखाओं को झुकाने की कोशिश करते हैं। फिर शाखाएं टूट जाती हैं, झुकती नहीं।
बूढ़े लोग ध्यान की चेष्टा करते हैं दुनिया में, जो बिलकुल ही गलत है। ध्यान की सारी चेष्टा छोटे बच्चों पर की जानी चाहिए। लेकिन मरने के करीब पहुंच कर आदमी ध्यान में उत्सुक होता है! वह पूछता है--ध्यान क्या? योग क्या? हम कैसे शांत हो जाएं? जब जीवन की सारी ऊर्जा खो गई, जब जीवन के सब रास्ते सख्त और मजबूत हो गए, जब झुकना और बदलना मुश्किल हो गया, तब वह पूछता है, अब मैं कैसे बदल जाऊं? एक पैर आदमी कब्र में डाल लेता है और दूसरा पैर बाहर रख कर पूछता है, ध्यान का कोई रास्ता है?
अजीब सी बात है। बिलकुल पागलपन की बात है। यह पृथ्वी कभी भी शांत और ध्यानस्थ नहीं हो सकेगी, जब तक ध्यान का संबंध पहले दिन के पैदा हुए बच्चे से हम न जोड़ेंगे। अंतिम दिन के वृद्ध से नहीं जोड़ा जा सकता। व्यर्थ ही हमें बहुत श्रम उठाना पड़ता है बाद के दिनों में शांत होने के लिए, जो कि पहले एकदम हो सकता था।
छोटे बच्चों को ध्यान की दीक्षा, काम के रूपांतरण का पहला चरण है--शांत होने की दीक्षा, निर्विचार होने की दीक्षा, मौन होने की दीक्षा। बच्चे ऐसे भी मौन हैं, बच्चे ऐसे भी शांत हैं। अगर उन्हें थोड़ी सी दिशा दी जाए और उन्हें मौन और शांत होने के लिए घड़ी भर की शिक्षा दी जाए, तो जब वे चौदह वर्ष के होने के करीब आएंगे, जब काम जगेगा, तब तक उनका एक द्वार खुल चुका होगा। शक्ति इकट्ठी होगी और जो द्वार खुला है उसी द्वार से बहनी शुरू हो जाएगी। उन्हें शांति का, आनंद का, कालहीनता का, निरहंकार भाव का अनुभव सेक्स के बहुत अनुभव के पहले उपलब्ध हो जाएगा। वही अनुभव उनकी ऊर्जा को गलत मार्गों से रोकेगा और ठीक मार्गों पर ले आएगा।
लेकिन हम छोटे-छोटे बच्चों को ध्यान तो नहीं सिखाते, काम का विरोध सिखाते हैं! पाप है, गंदगी है, कुरूपता है, बुराई है, नरक है--यह सब हम बताते हैं! और इस सबके बताने से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। बल्कि हमारे बताने से वे और भी आकर्षित होते हैं और तलाश करते हैं कि क्या है यह गंदगी, क्या है यह नरक, जिसके लिए बड़े इतने भयभीत और बेचैन हैं?
और फिर थोड़े ही दिनों में उन्हें यह भी पता चल जाता है कि बड़े जिस बात से हमें रोकने की कोशिश कर रहे हैं, खुद दिन-रात उसी में लीन हैं। और जिस दिन उन्हें यह पता चल जाता है, मां-बाप के प्रति सारी श्रद्धा समाप्त हो जाती है।
मां-बाप के प्रति श्रद्धा समाप्त करने में शिक्षा का हाथ नहीं है। मां-बाप के प्रति श्रद्धा समाप्त करने में मां-बाप का अपना हाथ है। आप जिन बातों के लिए बच्चों को गंदा कहते हैं, बच्चे बहुत जल्दी पता लगा लेते हैं कि उन सारी गंदगियों में आप भलीभांति लवलीन हैं। आपकी दिन की जिंदगी दूसरी है और रात की दूसरी। आप कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। छोटे बच्चे बहुत एक्यूट आब्जर्वर होते हैं। वे बहुत गौर से निरीक्षण करते रहते हैं कि क्या हो रहा है घर में! वे देखते हैं कि मां जिस बात को गंदा कहती है, बाप जिस बात को गंदा कहता है, वही गंदी बात दिन-रात घर में चल रही है। इसका उन्हें बहुत जल्दी बोध हो जाता है। उनका सारा श्रद्धा का भाव विलीन हो जाता है--कि धोखेबाज हैं ये मां-बाप! पाखंडी हैं! हिपोक्रेट हैं! ये बातें कुछ और कहते हैं, करते कुछ और हैं।
और जिन बच्चों का मां-बाप पर से विश्वास उठ गया, वे बच्चे परमात्मा पर कभी विश्वास नहीं कर सकेंगे, इसको याद रखना। क्योंकि बच्चों के लिए परमात्मा का पहला दर्शन मां-बाप में होता है। अगर वही खंडित हो गया, तो ये बच्चे भविष्य में नास्तिक हो जाने वाले हैं। बच्चों को पहले परमात्मा की प्रतीति अपने मां-बाप की पवित्रता से होती है। पहली दफा बच्चे मां-बाप को ही जानते हैं निकटतम और उनसे ही उन्हें पहली दफा श्रद्धा और रिवरेंस का भाव पैदा होता है। अगर वही खंडित हो गया, तो इन बच्चों को मरते दम तक वापस परमात्मा के रास्ते पर लाना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि पहला परमात्मा ही धोखा दे गया। जो मां थी, जो बाप था, वही धोखेबाज सिद्ध हुआ।
आज सारी दुनिया में जो लड़के यह कह रहे हैं कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है, कोई मोक्ष नहीं है, धर्म सब बकवास है--उसका कारण यह नहीं है कि लड़कों ने पता लगा लिया है कि आत्मा नहीं है, परमात्मा नहीं है। उसका कारण यह है कि लड़कों ने मां-बाप का पता लगा लिया है कि वे धोखेबाज हैं। और यह सारा धोखा सेक्स के आस-पास केंद्रित है। यह सारा धोखा सेक्स के केंद्र पर खड़ा हुआ है।
बच्चों को यह सिखाने की जरूरत नहीं कि सेक्स पाप है, बल्कि ईमानदारी से यह सिखाने की जरूरत है कि सेक्स जिंदगी का एक हिस्सा है और तुम सेक्स से ही पैदा हुए हो और हमारी जिंदगी में वह है। ताकि बच्चे सरलता से मां-बाप को समझ सकें और जब जीवन को वे जानें तो वे आदर से भर सकें कि मां-बाप सच्चे और ईमानदार थे। उनको जीवन में आस्तिक बनाने में इससे बड़ा संबल और कुछ भी नहीं होगा कि वे अपने मां-बाप को सच्चा और ईमानदार अनुभव कर सकें।
लेकिन आज सब बच्चे जानते हैं कि मां-बाप बेईमान और धोखेबाज हैं। यह बच्चे और मां-बाप के
बीच एक कलह का कारण बनता है। सेक्स का दमन पति और पत्नी को तोड़ दिया है। मां-बाप और बच्चों को तोड़ दिया है।
नहीं, सेक्स का विरोध नहीं, निंदा नहीं, बल्कि सेक्स की शिक्षा दी जानी चाहिए। जैसे ही बच्चे पूछने को तैयार हो जाएं, जो भी जरूरी मालूम पड़े, जो उनके समझ के योग्य मालूम पड़े, वह सब उन्हें बता दिया जाना चाहिए। ताकि वे सेक्स के संबंध में अति उत्सुक न हों; ताकि उनका आकर्षण न पैदा हो; ताकि वे दीवाने होकर गलत रास्तों से जानकारी पाने की कोशिश न करें।
आज बच्चे सब जानकारी पा लेते हैं यहां-वहां से। गलत मार्गों से, गलत लोगों से उन्हें जानकारी मिलती है, जो जीवन भर उन्हें पीड़ा देती है। और मां-बाप और उनके बीच एक मौन की दीवार होती है, जैसे मां-बाप को कुछ भी पता नहीं और बच्चों को भी कुछ पता नहीं! उन्हें सेक्स की सम्यक शिक्षा मिलनी चाहिए--राइट एजुकेशन।
और दूसरी बात, उन्हें ध्यान की दीक्षा मिलनी चाहिए--कैसे मौन हों, कैसे शांत हों, कैसे निर्विचार हों। और बच्चे तत्क्षण निर्विचार हो सकते हैं, मौन हो सकते हैं, शांत हो सकते हैं। चौबीस घंटे में एक घंटे अगर बच्चों को घर में मौन में ले जाने की व्यवस्था हो--निश्चित ही, वे मौन में तभी जा सकेंगे, जब आप भी उनके साथ मौन बैठ सकें। हर घर में एक घंटा मौन का अनिवार्य होना चाहिए। एक दिन खाना न मिले घर में तो चल सकता है, लेकिन एक घंटा मौन के बिना घर नहीं चल सकता है। वह घर झूठा है, उस घर को परिवार कहना गलत है, जिस परिवार में एक घंटे के मौन की दीक्षा नहीं है।
वह एक घंटे का मौन चौदह वर्षों में उस दरवाजे को तोड़ देगा--रोज धक्के मारेगा--उस दरवाजे को तोड़ देगा, जिसका नाम ध्यान है। जिस ध्यान से मनुष्य को समयहीन, टाइमलेसनेस, ईगोलेसनेस, अहंकार-शून्य अनुभव होता है, जहां से आत्मा की झलक मिलती है। वह झलक सेक्स के अनुभव के पहले मिल जानी जरूरी है। अगर वह झलक मिल जाए तो सेक्स के प्रति अतिशय दौड़ समाप्त हो जाएगी। ऊर्जा इस नये मार्ग से बहने लगेगी।
यह मैं पहला चरण कहता हूं। ब्रह्मचर्य की साधना में, सेक्स के ऊपर उठने की साधना में, सेक्स की ऊर्जा के ट्रांसफार्मेशन के लिए पहला चरण है ध्यान। और दूसरा चरण है प्रेम। बच्चे को बचपन से ही प्रेम की दीक्षा दी जानी चाहिए।
हम अब तक यही सोचते रहे हैं कि प्रेम की शिक्षा मनुष्य को सेक्स में ले जाएगी। यह बात अत्यंत भ्रांत है। सेक्स की शिक्षा तो मनुष्य को प्रेम में ले जा सकती है, लेकिन प्रेम की शिक्षा कभी किसी मनुष्य को सेक्स में नहीं ले जाती। बल्कि सच्चाई उलटी है। जितना प्रेम विकसित होता है, उतनी ही सेक्स की ऊर्जा प्रेम में रूपांतरित होकर बंटनी शुरू हो जाती है।
जो लोग जितने कम प्रेम से भरे होते हैं, उतने ही ज्यादा कामुक होंगे, उतने ही सेक्सुअल होंगे।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ज्यादा घृणा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतना ही विद्वेष होगा।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ईर्ष्या होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उतनी ही उनके जीवन में प्रतिस्पर्धा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही चिंता और दुख होगा।
दुख, चिंता, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, इन सबसे जो आदमी जितना ज्यादा घिरा है, उसकी शक्तियां सारी की सारी भीतर इकट्ठी हो जाती हैं। उनके निकास का कोई मार्ग नहीं रह जाता। उनके निकास का एक ही मार्ग रह जाता है--वह सेक्स है।
प्रेम शक्तियों का निकास बनता है। प्रेम बहाव है। क्रिएशन, सृजनात्मक है प्रेम, इसलिए वह बहता है और एक तृप्ति लाता है। वह तृप्ति सेक्स की तृप्ति से बहुत ज्यादा कीमती और गहरी है। जिसे वह तृप्ति मिल गई--वह फिर कंकड़-पत्थर नहीं बीनता, जिसे हीरे-जवाहरात मिलने शुरू हो जाते हैं।
लेकिन घृणा से भरे आदमी को वह तृप्ति कभी नहीं मिलती है। घृणा में वह तोड़ देता है चीजों को। लेकिन तोड़ने से कभी किसी आदमी को कोई तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलती है निर्माण करने से। द्वेष से भरा आदमी संघर्ष करता है। लेकिन संघर्ष से कोई तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलती है दान से, देने से; छीन लेने से नहीं। संघर्ष करने वाला छीन लेता है। छीनने से वह तृप्ति कभी नहीं मिलती, जो किसी को दे देने से और दान से उपलब्ध होती है।
महत्वाकांक्षी आदमी एक पद से दूसरे पद की यात्रा करता रहता है, लेकिन कभी भी शांत नहीं हो पाता। शांत वे होते हैं, जो पदों की यात्रा नहीं, बल्कि प्रेम की यात्रा करते हैं। जो प्रेम के एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ की यात्रा करते हैं।
जितना आदमी प्रेमपूर्ण होता है, उतनी तृप्ति, एक कंटेंटमेंट, एक गहरा संतोष, एक आनंद का भाव, एक उपलब्धि का भाव उसके प्राणों के रग-रग में बहने लगता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है, जो तृप्ति का रस है, जो आनंद का रस है। वैसा तृप्त आदमी सेक्स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने के लिए, रोकने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती; वह जाता ही नहीं। क्योंकि यही तृप्ति क्षण भर को सेक्स से मिलती थी, प्रेम से यह तृप्ति चौबीस घंटे को मिल जाती है।
तो दूसरी दिशा है--कि व्यक्तित्व का अधिकतम विकास प्रेम के मार्गों पर होना चाहिए। हम प्रेम करें, हम प्रेम दें, हम प्रेम में जीएं। और जरूरी नहीं है कि हम प्रेम मनुष्य को ही देंगे तभी प्रेम की दीक्षा होगी। प्रेम की दीक्षा तो पूरे व्यक्तित्व के प्रेमपूर्ण होने की दीक्षा है, वह तो टु बी लविंग होने की दीक्षा है। एक पत्थर को भी हम उठाएं तो ऐसे उठा सकते हैं जैसे मित्र को उठा रहे हैं, और एक आदमी का हाथ भी हम ऐसे पकड़ सकते हैं जैसे शत्रु का हाथ पकड़े हुए हैं। एक आदमी वस्तुओं के साथ भी प्रेमपूर्ण व्यवहार कर सकता है, एक आदमी आदमियों के साथ भी ऐसा व्यवहार करता है जैसा वस्तुओं के साथ भी नहीं करना चाहिए। घृणा से भरा हुआ आदमी वस्तुएं समझता है मनुष्यों को। प्रेम से भरा हुआ आदमी वस्तुओं को भी व्यक्तित्व देता है।
एक फकीर से मिलने एक जर्मन यात्री गया हुआ था। वह किसी क्रोध में होगा। उसने दरवाजे पर जोर से जूते खोल दिए, जूतों को पटका, धक्का दिया दरवाजे को जोर से।
क्रोध में आदमी जूते भी खोलता है तो ऐसे जैसे जूते दुश्मन हों। दरवाजा भी खोलता है तो ऐसे जैसे दरवाजे से कोई झगड़ा हो!
दरवाजे को धक्का देकर वह भीतर गया। उस फकीर से जाकर नमस्कार किया। उस फकीर ने कहा कि नहीं, अभी मैं नमस्कार का उत्तर न दे सकूंगा। पहले तुम दरवाजे से और जूतों से क्षमा मांग आओ।
उस आदमी ने कहा, आप पागल हो गए हैं? दरवाजों और जूतों से क्षमा! क्या उनका भी कोई व्यक्तित्व है?
उस फकीर ने कहा, तुमने क्रोध करते समय कभी भी न सोचा कि इनका कोई व्यक्तित्व है। तुमने जूते ऐसे पटके जैसे उनमें जान हो, जैसे उनका कोई कसूर हो; तुमने दरवाजा ऐसे खोला जैसे कि तुम दुश्मन हो। नहीं, जब तुमने क्रोध करते वक्त उनका व्यक्तित्व मान लिया, तो पहले जाओ क्षमा मांग कर आ जाओ, तब मैं तुमसे आगे बात करूंगा, अन्यथा मैं बात करने को नहीं हूं।
अब वह आदमी दूर जर्मनी से उस फकीर को मिलने गया था, इतनी सी बात पर मुलाकात न हो सकेगी। मजबूरी थी। उसे जाकर दरवाजे पर हाथ जोड़ कर क्षमा मांगनी पड़ी कि मित्र, क्षमा कर दो! जूतों को कहना पड़ा, माफ करिए, भूल हो गई हमने जो आपको इस भांति गुस्से में खोला!
उस जर्मन यात्री ने लिखा है कि लेकिन जब मैं क्षमा मांग रहा था तो पहले तो मुझे हंसी आई कि मैं क्या पागलपन कर रहा हूं! लेकिन जब मैं क्षमा मांग चुका तो मैं हैरान हुआ, मुझे एक इतनी शांति मालूम हुई जिसकी मुझे कल्पना नहीं हो सकती थी कि दरवाजे और जूतों से क्षमा मांग कर शांति मिल सकती है! मैं जाकर उस फकीर के पास बैठा, वह हंसने लगा। और उसने कहा, अब ठीक, अब कुछ बात हो सकती है। तुमने थोड़ा प्रेम जाहिर किया, अब तुम संबंधित हो सकते हो, समझ भी सकते हो; क्योंकि अब तुम प्रफुल्लित हो, अब तुम आनंद से भर गए हो।
सवाल मनुष्यों के साथ ही प्रेमपूर्ण होने का नहीं, प्रेमपूर्ण होने का है। यह सवाल नहीं है कि मां को प्रेम दो! ये गलत बातें हैं। जब कोई मां अपने बच्चे को कहती है कि मैं तेरी मां हूं इसलिए प्रेम कर, तब वह गलत शिक्षा दे रही है। क्योंकि जिस प्रेम में ‘इसलिए’ लगा हुआ है, ‘देयरफोर’, वह प्रेम झूठा है। जो कहता है, इसलिए प्रेम करो कि मैं बाप हूं, वह गलत शिक्षा दे रहा है। वह कारण बता रहा है प्रेम का। प्रेम अकारण होता है, प्रेम कारण सहित नहीं होता। मां कहती है, मैं तेरी मां हूं, मैंने तुझे इतने दिन पाला-पोसा, बड़ा किया, इसलिए प्रेम कर! वह वजह बता रही है, प्रेम खत्म हो गया। अगर वह प्रेम भी होगा तो बच्चा झूठा प्रेम दिखाने की कोशिश करेगा--क्योंकि यह मां है, इसलिए प्रेम दिखाना पड़ रहा है।
नहीं, प्रेम की शिक्षा का मतलब है: प्रेम का कारण नहीं, प्रेमपूर्ण होने की सुविधा और व्यवस्था कि बच्चा प्रेमपूर्ण हो सके।
जो मां कहती है, मुझसे प्रेम कर, क्योंकि मैं मां हूं, वह प्रेम नहीं सिखा रही। उसे यह कहना चाहिए कि यह तेरा व्यक्तित्व, यह तेरे भविष्य, यह तेरे आनंद की बात है कि जो भी तेरे मार्ग पर पड़ जाए, तू उससे प्रेमपूर्ण हो--पत्थर पड़ जाए, फूल पड़ जाए, आदमी पड़ जाए, जानवर पड़ जाए। यह सवाल जानवर को प्रेम देने का नहीं, फूल को प्रेम देने का नहीं, मां को प्रेम देने का नहीं, तेरे प्रेमपूर्ण होने का है! क्योंकि तेरा भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि तू कितना प्रेमपूर्ण है, तेरा व्यक्तित्व कितना प्रेम से भरा हुआ है, उतना तेरे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ेगी।
प्रेमपूर्ण होने की शिक्षा चाहिए मनुष्य को, तो वह कामुकता से मुक्त हो सकता है।
लेकिन हम तो प्रेम की कोई शिक्षा नहीं देते। हम तो प्रेम का कोई भाव पैदा नहीं करते। हम तो प्रेम के नाम पर भी जो बातें करते हैं, वह झूठ ही सिखाते हैं उनको।
क्या आपको पता है कि एक आदमी एक के प्रति प्रेमपूर्ण है और दूसरे के प्रति घृणापूर्ण हो सकता है? यह असंभव है। प्रेमपूर्ण आदमी प्रेमपूर्ण होता है, आदमियों से कोई संबंध नहीं है उस बात का। अकेले में बैठता है तो भी प्रेमपूर्ण होता है। कोई नहीं होता तो भी प्रेमपूर्ण होता है। प्रेमपूर्ण होना उसके स्वभाव की बात है। वह आपसे संबंधित होने का सवाल नहीं।
क्रोधी आदमी अकेले में भी क्रोधपूर्ण होता है। घृणा से भरा आदमी अकेले में भी घृणा से भरा होता है। वह अकेले भी बैठा है तो आप उसको देख कर कह सकते हैं कि यह आदमी क्रोधी है। हालांकि वह किसी पर क्रोध नहीं कर रहा है। लेकिन उसका सारा व्यक्तित्व क्रोधी है। प्रेमपूर्ण आदमी अगर अकेले में भी बैठा है तो आप कहेंगे, यह आदमी कितने प्रेम से भरा हुआ बैठा है।
फूल एकांत में खिलते हैं जंगल के तो वहां भी सुगंध बिखेरते रहते हैं, चाहे कोई सूंघने वाला हो या न हो। रास्ते से कोई निकले या न निकले, फूल सुगंधित होता रहता है। फूल का सुगंधित होना स्वभाव है। इस भूल में आप मत पड़ना कि आपके लिए सुगंधित हो रहा है।
प्रेमपूर्ण होना व्यक्तित्व बनाना चाहिए। वह हमारा व्यक्तित्व हो, इससे कोई संबंध नहीं कि वह किसके प्रति।
लेकिन जितने प्रेम करने वाले लोग हैं, वे सोचते हैं कि मेरे प्रति प्रेमपूर्ण हो जाए, और किसी के प्रति नहीं। और उनको पता नहीं कि जो सबके प्रति प्रेमपूर्ण नहीं, वह किसी के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता! पत्नी कहती है पति से, मुझे प्रेम करना बस! फिर आ गया स्टाप, फिर इधर-उधर कहीं देखना मत, फिर और कहीं तुम्हारे प्रेम की जरा सी धारा न बहे, बस प्रेम यानी इस तरफ। और उस पत्नी को पता नहीं कि यह प्रेम झूठा वह अपने हाथ से किए ले रही है। जो पति प्रेमपूर्ण नहीं है हर स्थिति में, हरेक के प्रति, वह पत्नी के प्रति भी प्रेमपूर्ण कैसे हो सकता है? प्रेमपूर्ण चौबीस घंटे के जीवन का स्वभाव
है। वह ऐसी कोई बात नहीं कि हम किसी के प्रति प्रेमपूर्ण हो जाएं और किसी के प्रति प्रेमहीन हो जाएं।
लेकिन आज तक मनुष्यता इसको समझने में समर्थ नहीं हो पाई! बाप कहता है कि मेरे प्रति प्रेमपूर्ण! लेकिन घर में जो चपरासी है उसके प्रति? वह तो नौकर है! लेकिन उसे पता नहीं कि जो बेटा एक बूढ़े नौकर के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो पाया है--वह बूढ़ा नौकर भी किसी का बाप है--वह आज नहीं कल जब उसका बाप भी बूढ़ा हो जाएगा, उसके प्रति भी प्रेमपूर्ण नहीं रह जाएगा। तब यह बाप पछताएगा कि मेरा लड़का मेरे प्रति प्रेमपूर्ण नहीं है। लेकिन इस बाप को पता ही नहीं कि लड़का प्रेमपूर्ण हो सकता था उसके प्रति भी, अगर जो भी आस-पास थे, सबके प्रति प्रेमपूर्ण होने की शिक्षा दी गई होती तो वह इसके प्रति भी प्रेमपूर्ण होता।
प्रेम स्वभाव की बात है, संबंध की बात नहीं है।
प्रेम रिलेशनशिप नहीं है, प्रेम है स्टेट ऑफ माइंड। वह मनुष्य के व्यक्तित्व का भीतरी अंग है।
तो हमें प्रेमपूर्ण होने की दूसरी दीक्षा दी जानी चाहिए--एक-एक चीज के प्रति। अगर बच्चा एक किताब को भी गलत ढंग से रखे तो गलती बात है, उसे उसी क्षण टोकना चाहिए कि यह तुम्हारे व्यक्तित्व के लिए शोभादायक नहीं कि तुम इस भांति किताब को रखो। कोई देखेगा, कोई सुनेगा, कोई पाएगा कि तुम किताब के साथ दुर्व्यवहार किए हो! तुम एक कुत्ते के साथ गलत ढंग से पेश आए हो! यह तुम्हारे व्यक्तित्व की गलती है।
एक फकीर के बाबत मुझे खयाल आता है। एक छोटा सा फकीर का झोपड़ा था। रात थी, जोर से वर्षा होती थी। रात के बारह बजे होंगे, फकीर और उसकी पत्नी दोनों सोते थे, किसी आदमी ने दरवाजे पर दस्तक दी। छोटा था झोपड़ा, कोई शायद शरण चाहता है। उसकी पत्नी से उसने कहा कि द्वार खोल दे, कोई द्वार पर खड़ा है, कोई यात्री, कोई अपरिचित मित्र।
सुनते हैं उसकी बात? उसने कहा, कोई अपरिचित मित्र! हमारे तो जो परिचित हैं, वे भी मित्र नहीं होते। उसने कहा, कोई अपरिचित मित्र! यह प्रेम का भाव है।
कोई अपरिचित मित्र द्वार पर खड़ा है, द्वार खोल!
उसकी पत्नी ने कहा, लेकिन जगह तो बहुत कम है, हम दो के लायक ही मुश्किल से है। कोई तीसरा आदमी भीतर आएगा तो हम क्या करेंगे?
उस फकीर ने कहा, पागल, यह किसी अमीर का महल नहीं है कि छोटा पड़ जाए, यह गरीब की झोपड़ी है। अमीर का महल छोटा पड़ जाता है हमेशा, एक मेहमान आ जाए तो महल छोटा पड़ जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है।
उसकी पत्नी ने कहा, इसमें झोपड़ी...अमीर और गरीब क्या सवाल? जगह छोटी है।
उस फकीर ने कहा, जहां दिल में जगह बड़ी हो वहां झोपड़ा महल की तरह मालूम होता है और जहां दिल में छोटी जगह हो वहां झोपड़ा तो क्या महल भी छोटा और झोपड़ा हो जाता है। द्वार खोल दे! द्वार पर खड़े हुए आदमी को वापस कैसे लौटाया जा सकता है? अभी हम दोनों लेटे थे, अब तीन लेट नहीं सकेंगे, तीनों बैठेंगे, बैठने के लिए काफी जगह है।
मजबूरी थी, पत्नी को दरवाजा खोल देना पड़ा। एक मित्र आ गया, पानी से भीगा हुआ। उसके कपड़े बदले। फिर वे तीनों बैठ कर गपशप करने लगे। दरवाजा फिर बंद है।
फिर किन्हीं दो आदमियों ने दरवाजे पर दस्तक दी। अब उस फकीर ने उस मित्र को कहा--वह दरवाजे के पास था--कि दरवाजा खोल दो, मालूम होता है कोई आया।
उस आदमी ने कहा, कैसे खोल दूं दरवाजा, जगह कहां है यहां?
वह आदमी अभी दो घड़ी पहले आया था खुद और भूल गया यह बात कि जिस प्रेम ने मुझे जगह दी थी, वह मुझे जगह नहीं दी थी, प्रेम था उसके भीतर इसलिए जगह दी थी। अब फिर कोई दूसरा आ गया, फिर जगह बनानी पड़ेगी। लेकिन उस आदमी ने कहा, नहीं, दरवाजा खोलने की जरूरत नहीं; मुश्किल से हम तीन बैठे हुए हैं!
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, बड़े पागल हो! मैंने तुम्हारे लिए जगह नहीं की थी, प्रेम था इसलिए जगह की थी। प्रेम अब भी है, वह तुम पर चुक नहीं गया और समाप्त नहीं हो गया। दरवाजा खोलो! अभी हम दूर-दूर बैठे हैं, फिर हम पास-पास बैठ जाएंगे। पास-पास बैठने के लिए काफी जगह है। और रात ठंडी है, पास-पास बैठने में आनंद ही और होगा।
दरवाजा खोलना पड़ा। दो आदमी भीतर आ गए। फिर वे पास-पास बैठ कर गपशप करने लगे। और थोड़ी ही देर बीती है और रात आगे बढ़ गई है और वर्षा हो रही है, और एक गधे ने आकर सिर लगाया दरवाजे से। पानी में भीग गया है। वह रात शरण चाहता है। उस फकीर ने कहा कि मित्रो--वे दो मित्र दरवाजे पर बैठे हुए थे जो पीछे आए थे--दरवाजा खोल दो! कोई अपरिचित मित्र फिर आ गया।
उन लोगों ने कहा, यह मित्र वगैरह नहीं है, यह गधा है। इसके लिए द्वार खोलने की कोई जरूरत नहीं।
उस फकीर ने कहा, तुम्हें शायद पता नहीं, अमीर के दरवाजे पर आदमी के साथ भी गधे जैसा व्यवहार किया जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है, हम गधे के साथ भी आदमी जैसा व्यवहार करने की आदत से भरे हैं। दरवाजा खोल दो!
पर वे दोनों कहने लगे, जगह?
उस फकीर ने कहा, जगह बहुत है; अभी हम बैठे हैं, अब हम खड़े हो जाएंगे। खड़े होने के लिए काफी जगह है। और फिर तुम घबराओ मत, अगर जरूरत पड़ेगी तो मैं हमेशा बाहर होने के लिए तैयार हूं। प्रेम इतना कर सकता है।
एक लविंग एटिट्यूड, एक प्रेमपूर्ण हृदय बनाने की जरूरत है। जब प्रेमपूर्ण हृदय बनता है, तो व्यक्तित्व में एक तृप्ति का भाव, एक रसपूर्ण तृप्ति...क्या आपको कभी खयाल है, जब भी आप किसी के प्रति जरा से प्रेमपूर्ण हुए हैं, पीछे एक तृप्ति की लहर छूट गई है? क्या आपको कभी भी खयाल है कि जीवन में तृप्ति के क्षण वे ही रहे हैं, जो बेशर्त प्रेम के क्षण रहे होंगे, जब कोई शर्त न रही होगी प्रेम की। और जब आपने रास्ते चलते एक अजनबी आदमी को देख कर मुस्कुरा दिया होगा--उसके पीछे छूट गई तृप्ति का कोई अनुभव है? उसके पीछे साथ आ गया एक शांति का भाव! एक प्राणों में एक आनंद की लहर का कोई पता है--जब राह चलते किसी आदमी को उठा लिया हो, किसी गिरते को सम्हाल लिया हो, किसी बीमार को एक फूल दे दिया हो? इसलिए नहीं कि वह आपकी मां है, इसलिए नहीं कि वह आपका पिता है। नहीं, वह आपका कोई भी नहीं है। लेकिन एक फूल किसी बीमार को दे देना आनंदपूर्ण है।
व्यक्तित्व में प्रेम की संभावना बढ़ती जानी चाहिए। वह इतनी बढ़ जानी चाहिए--पौधों के प्रति, पक्षियों के प्रति, पशुओं के प्रति, आदमियों के प्रति, अपरिचितों के प्रति, अनजान लोगों के प्रति, विदेशियों के प्रति, जो बहुत दूर हैं उनके प्रति, चांद-तारों के प्रति--प्रेम हमारा बढ़ता चला जाए।
जितना प्रेम हमारा बढ़ता है, उतनी ही सेक्स की जीवन में संभावना कम होती चली जाती है।
प्रेम और ध्यान, दोनों मिल कर उस दरवाजे को खोल देते हैं जो परमात्मा का दरवाजा है।
प्रेम + ध्यान = परमात्मा। प्रेम और ध्यान का जोड़ हो जाए और परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।
और उस उपलब्धि से जीवन में ब्रह्मचर्य फलित होता है। फिर सारी ऊर्जा एक नये ही मार्ग पर ऊपर चढ़ने लगती है। फिर बह-बह कर निकल नहीं जाती। फिर जीवन से बाहर निकल-निकल कर व्यर्थ नहीं हो जाती। फिर जीवन के भीतरी मार्गों पर गति करने लगती है। उसका एक ऊर्ध्वगमन, एक ऊपर की तरफ यात्रा शुरू होती है।
अभी हमारी यात्रा नीचे की तरफ है। सेक्स, ऊर्जा का अधोगमन है, नीचे की तरफ बह जाना है। ब्रह्मचर्य, ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है, ऊपर की तरफ उठ जाना है।
प्रेम और ध्यान, ब्रह्मचर्य के सूत्र हैं।
तीसरी बात कल आपसे करने को हूं कि ब्रह्मचर्य उपलब्ध होगा तो क्या फल होगा? क्या होगी उपलब्धि? क्या मिल जाएगा?
ये दो बातें मैंने आज आपसे कहीं--प्रेम और ध्यान। मैंने यह कहा कि छोटे बच्चों से इनकी शिक्षा शुरू हो जानी चाहिए। इससे आप यह मत सोच लेना कि अब तो हम बच्चे नहीं रहे, इसलिए करने को कुछ बाकी नहीं है। यह आप मत सोच कर चले जाना, अन्यथा मेरी मेहनत फिजूल गई। आप किसी भी उम्र के हों, यह काम शुरू किया जा सकता है। यह काम कभी भी शुरू किया जा सकता है। हालांकि जितनी उम्र बढ़ती चली जाती है, उतना मुश्किल होता चला जाता है। बच्चों के साथ हो सके, सौभाग्य! लेकिन कभी भी हो सके, सौभाग्य! इतनी देर कभी भी नहीं हुई है कि हम कुछ भी न कर सकें। हम आज शुरू कर सकते हैं।
और जो लोग सीखने के लिए तैयार हैं, वे बुढ़ापे में भी बच्चों जैसे ही होते हैं, वे बुढ़ापे में भी शुरू कर सकते हैं। अगर उनकी सीखने की क्षमता है, अगर लर्निंग का एटिट्यूड है, अगर वे इस ज्ञान से नहीं भर गए हैं कि हमने सब जान लिया और सब पा लिया, तो वे सीख सकते हैं और वे छोटे बच्चों की भांति नई यात्रा शुरू कर सकते हैं।
बुद्ध के पास एक भिक्षु कुछ वर्षों से दीक्षित था। एक दिन बुद्ध ने उससे पूछा कि भिक्षु, तुम्हारी उम्र क्या है? उस भिक्षु ने कहा, मेरी उम्र? पांच वर्ष! बुद्ध कहने लगे, पांच वर्ष? तुम तो कोई सत्तर वर्ष के मालूम पड़ते हो! कैसा झूठ बोलते हो!
उस भिक्षु ने कहा, लेकिन पांच वर्ष पहले ही मेरे जीवन में ध्यान की किरण फूटी। पांच वर्ष पहले ही मेरे जीवन में प्रेम की वर्षा हुई। उसके पहले मैं जीता था, वह सपने में जीना था, वह नींद में जीना था। उसकी गिनती अब मैं नहीं करता हूं। कैसे करूं? जिंदगी तो इधर पांच वर्षों से शुरू हुई, इसलिए मैं कहता हूं, मेरी उम्र पांच वर्ष है।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, भिक्षुओ, इस बात को खयाल में रख लेना। अपनी उम्र आज से तुम भी इसी तरह जोड़ना। यही उम्र को नापने का ढंग समझना।
अगर प्रेम और ध्यान का जन्म नहीं हुआ है तो उम्र फिजूल चली गई। अभी आपका ठीक जन्म भी नहीं हुआ है। और कभी भी इतनी देर नहीं हुई, जब कि हम प्रयास करें, श्रम करें और हम अपने नये जन्म को उपलब्ध न हो जाएं।
इसलिए मेरी बात से यह नतीजा मत निकाल लेना आप कि आप तो अब बचपन के पार हो चुके, इसलिए यह बात आने वाले बच्चों के लिए है। कोई आदमी किसी भी क्षण इतनी दूर नहीं निकल गया है कि वापस न लौट आए। कोई आदमी कितने ही गलत रास्तों पर चला हो, ऐसी जगह नहीं पहुंच गया है कि ठीक रास्ता उसे दिखाई न पड़ सके। कोई आदमी कितने ही हजारों वर्षों से अंधकार में रह रहा हो, इसका मतलब यह नहीं है कि वह दीया जलाएगा तो अंधकार कहेगा कि मैं हजार वर्ष पुराना हूं, इसलिए नहीं टूटता! दीया जलाने से एक दिन का अंधकार भी टूटता है, हजार साल का अंधकार भी उसी तरह टूट जाता है। दीया जलाने की चेष्टा बचपन में आसानी से हो सकती है, बाद में थोड़ी कठिनाई है।
लेकिन कठिनाई का अर्थ असंभावना नहीं है। कठिनाई का अर्थ है: थोड़ा ज्यादा श्रम। कठिनाई का अर्थ है: थोड़ा ज्यादा संकल्प। कठिनाई का अर्थ है: थोड़ा ज्यादा लगनपूर्वक, ज्यादा सातत्य से तोड़ना पड़ेगा, व्यक्तित्व की जो बंधी धाराएं हैं उनको, और नये मार्ग खोलने पड़ेंगे।
लेकिन जब नये मार्ग की जरा सी भी किरण फूटनी शुरू होती है, तो सारा श्रम ऐसा लगता है कि हमने कुछ भी नहीं किया और बहुत कुछ पा लिया है। जब एक किरण भी आती है उस आनंद की, उस सत्य की, उस प्रकाश की, तो लगता है कि हमने तो बिना कुछ किए पा लिया है। क्योंकि हमने जो किया था, उसका तो कोई भी मूल्य नहीं था। जो हाथ में आ गया है, वह तो अमूल्य है।
इसलिए यह भाव मन में आप न लेंगे। ऐसी मेरी प्रार्थना है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। बहुत वर्ष बीते, बहुत सदियां, किसी देश में एक बड़ा चित्रकार था। वह जब अपनी युवा अवस्था में था, उसने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊं, जिसमें भगवान का आनंद झलकता हो। मैं ऐसी दो आंखें चित्रित करूं, जिनमें अनंत शांति झलकती हो। मैं ऐसे एक व्यक्ति को खोजूं, एक ऐसे मनुष्य को, जिसका चित्र, जीवन के जो पार है, जगत से जो दूर है, उसकी खबर लाता हो।
और वह अपने देश के गांव-गांव घूमा, जंगल-जंगल उसने छाना, उस आदमी को, जिसकी प्रतिछवि वह बना सके। और आखिर एक पहाड़ पर गाय चराने वाले एक चरवाहे को उसने खोज लिया। उसकी आंखों में कोई झलक थी। उसके चेहरे की रूप-रेखा में कोई दूर की खबर थी। उसे देख कर ही लगता था कि मनुष्य के भीतर परमात्मा भी है। उसने उसके चित्र को बनाया। उस चित्र की लाखों प्रतियां गांव-गांव, दूर-दूर के देशों में बिकीं। लोगों ने उस चित्र को घर में टांग कर अपने को धन्य समझा।
फिर बीस वर्ष बाद, वह चित्रकार बूढ़ा हो गया था। और उस चित्रकार को एक खयाल और आया। जीवन भर के अनुभव से उसे पता चला था कि आदमी में भगवान ही अगर अकेला होता तो ठीक था, आदमी में शैतान भी दिखाई पड़ता है। उसने सोचा कि मैं एक चित्र और बनाऊं, जिसमें आदमी के भीतर शैतान की छवि हो, तब मेरे दोनों चित्र पूरे मनुष्य के चित्र बन सकेंगे।
वह फिर गया बुढ़ापे में--जुआघरों में, शराबखानों में, पागलघरों में--उसने खोजबीन की उस आदमी की, जो आदमी न हो, शैतान हो; जिसकी आंखों में नरक की लपटें जलती हों; जिसके चेहरे की आकृति उस सबका स्मरण दिलाती हो, जो अशुभ है, कुरूप है, असुंदर है। वह पाप की प्रतिमा की खोज में निकला। एक प्रतिमा उसने परमात्मा की बनाई थी, वह एक प्रतिमा पाप की भी बनाना चाहता था।
और बहुत खोजने के बाद एक कारागृह में उसे एक कैदी मिल गया, जिसने सात हत्याएं की थीं और जो थोड़े ही दिनों बाद मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था, फांसी पर लटकाया जाने को था। उस आदमी की आंखों में नरक के दर्शन होते थे, घृणा जैसे साक्षात थी। उस आदमी की चेहरे की रूप-रेखा ऐसी थी कि वैसा कुरूप मनुष्य खोजना मुश्किल था।
उसने उसके चित्र को बनाया। जिस दिन उसका चित्र बन कर पूरा हुआ, वह अपने पहले चित्र को भी लेकर कारागृह में आया और दोनों चित्रों को पास-पास रख कर देखने लगा कि कौन सी कलाकृति श्रेष्ठ बनी है? तय करना मुश्किल था। चित्रकार खुद भी मुग्ध हो गया था। दोनों ही चित्र अदभुत थे। कौन सा श्रेष्ठ था, कला की दृष्टि से, यह तय करना मुश्किल था।
और तभी उस चित्रकार को पीछे किसी के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। लौट कर देखा, तो वह कैदी जंजीरों में बंधा रो रहा है जिसकी उसने तस्वीर बनाई थी! वह चित्रकार हैरान हुआ। उसने कहा कि मेरे दोस्त, तुम क्यों रोते हो? चित्रों को देख कर तुम्हें क्या तकलीफ हुई?
उस आदमी ने कहा, मैंने इतने दिन तक छिपाने की कोशिश की, लेकिन आज मैं हार गया हूं। शायद तुम्हें पता नहीं कि पहली तस्वीर भी तुमने मेरी ही बनाई थी। ये दोनों तस्वीरें मेरी हैं। बीस साल पहले पहाड़ पर जो आदमी तुम्हें मिला था, वह मैं ही हूं। और इसलिए रोता हूं कि मैंने बीस साल में कौन सी यात्रा कर ली--स्वर्ग से नरक की! परमात्मा से पाप की!
पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है। सच हो या न हो, लेकिन हर आदमी के जीवन में दो तस्वीरें हैं। हर आदमी के भीतर शैतान है और हर आदमी के भीतर परमात्मा भी। और हर आदमी के भीतर नरक की भी संभावना है और स्वर्ग की भी। हर आदमी के भीतर सौंदर्य के फूल भी खिल सकते हैं और कुरूपता के गंदे डबरे भी बन सकते हैं। प्रत्येक आदमी इन दो यात्राओं के बीच निरंतर डोल रहा है। ये दो छोर हैं, जिनमें से आदमी किसी को भी छू सकता है। और अधिक लोग नरक के छोर को छू लेते हैं और बहुत कम सौभाग्यशाली हैं जो अपने भीतर परमात्मा को उघाड़ पाते हों।
क्या हम अपने भीतर परमात्मा को उघाड़ पाने में सफल हो सकते हैं? क्या हम वह प्रतिमा बनेंगे जहां परमात्मा की झलक मिले? यह कैसे हो सकता है--इस प्रश्न के साथ ही आज की दूसरी चर्चा मैं शुरू करना चाहता हूं। यह कैसे हो सकता है कि आदमी परमात्मा की प्रतिमा बने? यह कैसे हो सकता है कि आदमी का जीवन एक स्वर्ग बने--एक सुवास, एक सुगंध, एक सौंदर्य? यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य उसे जान ले जिसकी कोई मृत्यु नहीं? यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट हो जाए?
होता तो उलटा है। बचपन में हम कहीं स्वर्ग में होते हैं और बूढ़े होते-होते नरक तक पहुंच जाते हैं! होता उलटा है। होता यह है कि बचपन के बाद जैसे रोज हमारा पतन होता है। बचपन में तो किसी इनोसेंस, किसी निर्दोष संसार का हम अनुभव करते हैं; और फिर धीरे-धीरे एक कपट से भरा हुआ, पाखंड से भरा हुआ मार्ग हम तय करते हैं। और बूढ़े होते-होते न केवल हम शरीर से बूढ़े हो जाते हैं, बल्कि हम आत्मा से भी बूढ़े हो जाते हैं। न केवल शरीर दीन-हीन, जीर्ण-जर्जर हो जाता है, बल्कि आत्मा भी पतित, जीर्ण-जर्जर हो जाती है। और इसे ही हम जीवन मान लेते हैं और समाप्त हो जाते हैं!
धर्म इस संबंध में संदेह उठाना चाहता है। धर्म एक बड़ा संदेह है इस संबंध में--कि यह आदमी की जीवन की यात्रा गलत है कि स्वर्ग से हम नरक तक पहुंच जाएं। होना तो उलटा चाहिए। जीवन की यात्रा उपलब्धि की यात्रा होनी चाहिए--कि हम दुख से आनंद तक पहुंचें, हम अंधकार से प्रकाश तक पहुंचें, हम मृत्यु से अमृत तक पहुंच जाएं। प्राणों के प्राण की अभिलाषा और प्यास भी वही है। प्राणों में एक ही आकांक्षा है कि मृत्यु से अमृत तक कैसे पहुंचें? प्राणों में एक ही प्यास है कि हम अंधकार से आलोक को कैसे उपलब्ध हों? प्राणों की एक ही मांग है कि हम असत्य से सत्य तक कैसे जा सकते हैं?
निश्चित ही सत्य की यात्रा के लिए, निश्चित ही स्वयं के भीतर परमात्मा की खोज के लिए, व्यक्ति को ऊर्जा का एक संग्रह चाहिए, कंजरवेशन चाहिए, व्यक्ति को शक्ति का एक संवर्धन चाहिए, उसके भीतर शक्ति इकट्ठी हो कि वह शक्ति का एक स्रोत बन जाए, तभी व्यक्तित्व को स्वर्ग तक ले जाया जा सकता है। स्वर्ग निर्बलों के लिए नहीं है। जीवन के सत्य उनके लिए नहीं हैं जो दीन-हीन हो जाते हैं शक्ति को खोकर। जो जीवन की सारी शक्ति को खो देते हैं और भीतर दुर्बल और दीन हो जाते हैं, वे यात्रा नहीं कर सकते। उस यात्रा पर चढ़ने के लिए, उन पहाड़ों पर चढ़ने के लिए शक्ति चाहिए। और शक्ति का संवर्धन धर्म का सूत्र है--शक्ति का संवर्धन, कंजरवेशन ऑफ एनर्जी। कैसे शक्ति इकट्ठी हो कि हम शक्ति के उबलते हुए भंडार हो जाएं?
लेकिन हम तो दीन-हीन जन हैं। सारी शक्ति खोकर हम धीरे-धीरे निर्बल होते चले जाते हैं। सब खो जाता है भीतर, रिक्तता रह जाती है एक खाली। भीतर एक खालीपन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं छूटता। हम शक्ति को कैसे खो देते हैं?
मनुष्य का शक्ति को खोने का सबसे बड़ा द्वार सेक्स है। काम मनुष्य की शक्ति के खोने का सबसे बड़ा द्वार है, जहां से वह शक्ति को खोता है। और जैसा मैंने कल आपसे कहा, कोई कारण है जिसकी वजह से वह शक्ति को खोता है। शक्ति को कोई भी खोना नहीं चाहता है। कौन शक्ति को खोना चाहता है? लेकिन कुछ झलक है उपलब्धि की, उस झलक के लिए आदमी शक्ति को खोने को राजी हो जाता है। काम के क्षणों में कुछ अनुभव है, उस अनुभव के लिए आदमी सब कुछ खोने को तैयार हो जाता है। अगर वह अनुभव किसी और मार्ग से उपलब्ध हो सके तो मनुष्य सेक्स के माध्यम से शक्ति को खोने को कभी भी तैयार नहीं हो सकता।
क्या और कोई द्वार है उस अनुभव को पाने का? क्या और कोई मार्ग है उस अनुभूति को उपलब्ध करने का--जहां हम अपने प्राणों की गहरी से गहरी गहराई में उतर जाते हैं, जहां हम जीवन का ऊंचा से ऊंचा शिखर छूते हैं, जहां हम जीवन की शांति और आनंद की एक झलक पाते हैं? क्या कोई और मार्ग है? क्या कोई और मार्ग है अपने भीतर पहुंच जाने का? क्या स्वयं की शांति और आनंद के स्रोत तक पहुंच जाने की और कोई सीढ़ी है?
अगर वह सीढ़ी हमें दिखाई पड़ जाए तो जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है, आदमी काम के प्रति विमुख और राम के प्रति सन्मुख हो जाता है। एक क्रांति घटित हो जाती है, एक नया द्वार खुल जाता है।
मनुष्य की जाति को अगर हम नया द्वार न दे सकें तो मनुष्य एक रिपिटीटिव सर्किल में, एक पुनरुक्ति वाले चक्कर में घूमता है और नष्ट होता है। लेकिन आज तक सेक्स के संबंध में जो भी धारणाएं रही हैं, वे मनुष्य को सेक्स के अतिरिक्त नया द्वार खोलने में समर्थ नहीं बना पाईं। बल्कि एक उलटा उपद्रव हुआ। प्रकृति एक ही द्वार देती है मनुष्य को, वह सेक्स का द्वार है। अब तक की शिक्षाओं ने वह द्वार भी बंद कर दिया और नया द्वार खोला नहीं! शक्ति भीतर घूमने लगी और चक्कर काटने लगी। और अगर नया द्वार शक्ति के लिए न मिले, तो घूमती हुई शक्ति मनुष्य को विक्षिप्त कर देती है, पागल कर देती है। और विक्षिप्त मनुष्य फिर न केवल उस द्वार से, जो सेक्स का सहज द्वार था, निकलने की चेष्टा करता है, वह दीवालों और खिड़कियों को तोड़ कर भी उसकी शक्ति बाहर बहने लगती है। वह अप्राकृतिक मार्गों से भी सेक्स की शक्ति बाहर बहने लगती है।
यह दुर्घटना घटी है। यह मनुष्य-जाति के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है। नया द्वार नहीं खोला गया और पुराना द्वार बंद कर दिया गया। इसलिए मैं सेक्स के विरोध में, दुश्मनी के लिए, दमन के लिए अब तक जो भी शिक्षाएं दी गई हैं, उन सबके स्पष्ट विरोध में खड़ा हुआ हूं। उन सारी शिक्षाओं से मनुष्य की सेक्सुअलिटी बढ़ी है, कम नहीं हुई, बल्कि विकृत हुई है।
क्या करें लेकिन? कोई और द्वार खोला जा सकता है?
मैंने आपसे कल कहा, संभोग के क्षण की जो प्रतीति है, वह प्रतीति दो बातों की है: टाइमलेसनेस और ईगोलेसनेस की। समय शून्य हो जाता है और अहंकार विलीन हो जाता है। समय शून्य होने से और अहंकार विलीन होने से हमें उसकी एक झलक मिलती है जो हमारा वास्तविक जीवन है। लेकिन क्षण भर की झलक और हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। और एक बड़ी ऊर्जा, एक बड़ी वैद्युतिक शक्ति का प्रवाह, इसमें हम खो देते हैं। फिर उस झलक की याद, स्मृति मन को पीड़ा देती रहती है। हम वापस उस अनुभव को पाना चाहते हैं, वापस उस अनुभव को पाना चाहते हैं। और वह झलक इतनी छोटी है, एक क्षण में खो जाती है! ठीक से उसकी स्मृति भी नहीं रह जाती कि क्या थी झलक, हमने क्या जाना था? बस एक धुन, एक अर्ज, एक पागल प्रतीक्षा रह जाती है फिर उस अनुभव को पाने की। और जीवन भर आदमी इसी चेष्टा में संलग्न रहता है, लेकिन उस झलक को एक क्षण से ज्यादा नहीं पा सकता है।
वही झलक ध्यान के माध्यम से भी उपलब्ध होती है। मनुष्य की चेतना तक पहुंचने के दो मार्ग हैं--काम और ध्यान, सेक्स और मेडिटेशन। सेक्स प्राकृतिक मार्ग है, जो प्रकृति ने दिया हुआ है। जानवरों को भी दिया हुआ है, पक्षियों को भी दिया हुआ है, पौधों को भी दिया हुआ है, मनुष्यों को भी दिया हुआ है। और जब तक मनुष्य केवल प्रकृति के दिए हुए द्वार का उपयोग करता है, तब तक वह पशुओं से ऊपर नहीं है। नहीं हो सकता। वह सारा द्वार तो पशुओं के लिए भी उपलब्ध है।
मनुष्यता का प्रारंभ उस दिन से होता है, जिस दिन से मनुष्य सेक्स के अतिरिक्त एक नया द्वार खोलने में समर्थ हो जाता है। उसके पहले हम मनुष्य नहीं हैं, नाम मात्र को मनुष्य हैं। उसके पहले हमारे जीवन का केंद्र पशु का केंद्र है, प्रकृति का केंद्र है। तब तक हम उसके ऊपर नहीं उठ पाए, उसे ट्रांसेंड नहीं कर पाए, उसका अतिक्रमण नहीं कर पाए; तब तक हम पशुओं की भांति ही जीते हैं। हमने कपड़े मनुष्यों के पहन रखे हैं, हम भाषा मनुष्यों की बोलते हैं, हमने सारा रूप मनुष्यों का पैदा कर रखा है; लेकिन भीतर गहरे से गहरे मन के तल पर हम पशुओं से ज्यादा नहीं होते। नहीं हो सकते हैं। और इसीलिए जरा सा मौका मिल जाए और हमारी मनुष्यता को जरा सी छूट मिल जाए, तो हम तत्काल पशु हो जाते हैं।
हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। और हमें दिखाई पड़ गया कि आदमी के कपड़ों के भीतर जानवर बैठा हुआ है। हमें दिखाई पड़ गया कि वे लोग जो कल मस्जिद में प्रार्थना करते थे और मंदिर में गीता पढ़ते थे, वे क्या कर रहे हैं? वे हत्याएं कर रहे हैं, वे बलात्कार कर रहे हैं, वे सब कुछ कर रहे हैं! वे ही लोग जो मंदिरों और मस्जिदों में दिखाई पड़ते थे, वे ही लोग बलात्कार करते हुए दिखाई पड़ने लगे! क्या हो गया इनको?
अभी दंगा-फसाद हो जाए, अभी यहां दंगा हो जाए, और यहीं आदमी को दंगे में मौका मिल जाएगा अपनी आदमियत से छुट्टी ले लेने का और फौरन वह जो भीतर छिपा हुआ पशु है, प्रकट हो जाएगा! वह हमेशा तैयार है, वह प्रतीक्षा कर रहा है कि मुझे मौका मिल जाए। भीड़-भाड़ में उसे मौका मिल जाता है, तो वह जल्दी से छोड़ देता है अपना खयाल--वह जो बांध-बूंध कर उसने रखा हुआ है। भीड़ में मौका मिल जाता है उसे भूल जाने का कि मैं भूल जाऊं अपने को!
इसलिए आज तक अकेले आदमियों ने उतने पाप नहीं किए हैं, जितने भीड़ में आदमियों ने पाप किए हैं। अकेला आदमी थोड़ा डरता है कि कोई देख लेगा! अकेला आदमी थोड़ा सोचता है कि मैं यह क्या कर रहा हूं! अकेले आदमी को अपने कपड़ों की थोड़ी फिक्र होती है कि लोग क्या कहेंगे--जानवर हो! लेकिन जब बड़ी भीड़ होती है तो अकेला आदमी कहता है--अब कौन देखता है! अब कौन पहचानता है! वह भीड़ के साथ एक हो जाता है। उसकी आइडेंटिटी मिट जाती है। अब वह फलां नाम का आदमी नहीं है, अब एक बड़ी भीड़ है। और बड़ी भीड़ जो करती है वह भी करता है--हत्या करता है, आग लगाता है, बलात्कार करता है। भीड़ में उसे मौका मिल जाता है कि वह अपने पशु को फिर से छुट्टी दे दे, जो उसके भीतर छिपा है।
और इसीलिए आदमी दस-पांच वर्षों में युद्ध की प्रतीक्षा करने लगता है, दंगों की प्रतीक्षा करने लगता है। अगर हिंदू-मुस्लिम का बहाना मिल जाए तो हिंदू-मुस्लिम सही, अगर हिंदू-मुस्लिम का न मिले तो गुजराती-मराठी भी काम कर सकता है। अगर गुजराती-मराठी न हो, तो हिंदी बोलने वाला और गैर-हिंदी बोलने वाला भी काम कर सकता है। कोई भी बहाना चाहिए आदमी को, उसके भीतर के पशु को छुट्टी चाहिए। वह घबरा जाता है पशु भीतर बंद रहते-रहते। वह कहता है, मुझे प्रकट होने दो।
और आदमी के भीतर का पशु तब तक नहीं मिटता है, जब तक पशुता का जो सहज मार्ग है, उसके ऊपर मनुष्य की चेतना न उठे। पशुता का सहज मार्ग--हमारी ऊर्जा, हमारी शक्ति का एक ही द्वार है बहने का--वह है सेक्स। और वह द्वार बंद कर दें तो कठिनाई खड़ी हो जाती है। उस द्वार को बंद करने के पहले नये द्वार का उदघाटन होना जरूरी है, जीवन-चेतना नई दिशा में प्रवाहित हो सके।
लेकिन यह हो सकता है; यह आज तक किया नहीं गया। नहीं किया गया, क्योंकि दमन सरल मालूम पड़ा, रूपांतरण कठिन। दबा देना किसी बात को आसान है। बदलना, बदलने की विधि और साधना की जरूरत है। इसलिए हमने सरल मार्ग का उपयोग किया कि दबा दो अपने भीतर।
लेकिन हम यह भूल गए कि दबाने से कोई चीज नष्ट नहीं होती है, दबाने से और बलशाली हो जाती है। और हम यह भी भूल गए कि दबाने से हमारा आकर्षण और गहरा होता है। जिसे हम दबाते हैं, वह हमारी चेतना की और गहरी पर्तों में प्रविष्ट हो जाता है। हम उसे दिन में दबा लेते हैं, वह सपनों में हमारी आंखों में झूलने लगता है। हम उसे रोजमर्रा दबा लेते हैं, वह हमारे भीतर प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाए, कब मैं फूट पडूं, निकल पडूं। जिसे हम दबाते हैं उससे हम मुक्त नहीं होते, हम और गहरे अर्थों में, और गहराइयों में, और अचेतन में, और अनकांशस तक उसकी जड़ें पहुंच जाती हैं और वह हमें जकड़ लेता है।
आदमी सेक्स को दबाने के कारण ही बंध गया और जकड़ गया। और यही वजह है, पशुओं की तो सेक्स की कोई अवधि होती है, कोई पीरियड होता है वर्ष में; आदमी की कोई अवधि न रही, कोई पीरियड न रहा। आदमी चौबीस घंटे, बारह महीने सेक्सुअल है! सारे जानवरों में कोई जानवर ऐसा नहीं है कि जो बारह महीने और चौबीस घंटे कामुकता से भरा हुआ हो। उसका वक्त है, उसकी ऋतु है; वह आती है और चली जाती है। और फिर उसका स्मरण भी खो जाता है। आदमी को क्या हो गया? आदमी ने दबाया जिस चीज को वह फैल कर उसके चौबीस घंटे और बारह महीने के जीवन पर फैल गई है।
कभी आपने इस पर विचार किया कि कोई पशु हर स्थिति में, हर समय कामुक नहीं होता। लेकिन आदमी हर स्थिति में, हर समय कामुक है। जैसे कामुकता उबल रही है, जैसे कामुकता ही सब कुछ है। यह कैसे हो गया? यह दुर्घटना कैसे संभव हुई है? पृथ्वी पर सिर्फ मनुष्य के साथ हुई है और किसी जानवर के साथ नहीं--क्यों?
एक ही कारण है, सिर्फ मनुष्य ने दबाने की कोशिश की है। और जिसे दबाया, वह जहर की तरह सब तरफ फैल गया। और दबाने के लिए हमें क्या करना पड़ा? दबाने के लिए हमें निंदा करनी पड़ी, दबाने के लिए हमें गाली देनी पड़ी, दबाने के लिए हमें अपमानजनक भावनाएं पैदा करनी पड़ीं। हमें कहना पड़ा कि सेक्स पाप है। हमें कहना पड़ा कि सेक्स नरक है। हमें कहना पड़ा कि जो सेक्स में है, वह गर्हित है, निंदित है। हमें ये सारी गालियां खोजनी पड़ीं, तभी हम दबाने में सफल हो सके। और हमें खयाल भी नहीं कि इन निंदाओं और गालियों के कारण हमारा सारा जीवन जहर से भर गया।
नीत्शे ने एक वचन कहा है, जो बहुत अर्थपूर्ण है। उसने कहा है कि धर्मों ने जहर खिला कर सेक्स को मार डालने की कोशिश की थी। सेक्स मरा तो नहीं, सिर्फ जहरीला होकर जिंदा है। मर भी जाता तो ठीक था। वह मरा नहीं। लेकिन और गड़बड़ हो गई बात। वह जहरीला भी हो गया और जिंदा है।
यह जो सेक्सुअलिटी है, यह जहरीला सेक्स है। सेक्स तो पशुओं में भी है, काम तो पशुओं में भी है, क्योंकि काम जीवन की ऊर्जा है; लेकिन सेक्सुअलिटी, कामुकता सिर्फ मनुष्य में है। कामुकता पशुओं में नहीं है। पशुओं की आंखों में देखें, वहां कामुकता दिखाई नहीं पड़ेगी। आदमी की आंखों में झांकें, वहां एक कामुकता का रस झलकता हुआ दिखाई पड़ेगा। इसलिए पशु आज भी एक तरह से सुंदर है। लेकिन दमन करने वाले पागलों की कोई सीमा नहीं है कि वे कहां तक बढ़ जाएंगे।
मैंने कल आपको कहा था कि अगर हमें दुनिया को सेक्स से मुक्त करना है, तो बच्चे और बच्चियों को एक-दूसरे के निकट लाना होगा। इसके पहले कि उनमें सेक्स जागे--चौदह साल के पहले--वे एक-दूसरे के शरीर से इतने स्पष्ट रूप से परिचित हो लें कि वह आकांक्षा विलीन हो जाए।
लेकिन अमेरिका में अभी-अभी एक नया आंदोलन चला है। और वह नया आंदोलन वहां के बहुत धार्मिक लोग चला रहे हैं। शायद आपको पता भी न हो, वह नया आंदोलन बड़ा अदभुत है। वह आंदोलन यह है कि सड़कों पर गाय, भैंस, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली को भी बिना कपड़ों के नहीं निकाला जाए, उनको कपड़े पहना कर निकाला जाए! उनको भी कपड़े पहनाने चाहिए; क्योंकि नंगे पशुओं को देख कर बच्चे बिगड़ सकते हैं! बड़े मजे की बात है। नंगे पशुओं को देख कर बच्चे बिगड़ सकते हैं। अमेरिका के कुछ नीतिशास्त्री इसके बाबत आंदोलन और संगठन और संस्थाएं बना रहे हैं कि पशुओं को भी सड़कों पर नग्न नहीं लाया जा सके! आदमी को बचाने की इतनी कोशिशें चल रही हैं। और कोशिश बचाने की जो करने वाले लोग हैं, वे ही आदमी को नष्ट कर रहे हैं।
कभी आपने खयाल किया कि पशु अपनी नग्नता में भी अदभुत है और सुंदर है। उसकी नग्नता में भी वह निर्दोष है, सरल और सीधा है। कभी आपको, पशु नग्न है, यह भी खयाल शायद ही आया हो। जब तक कि आपके भीतर बहुत नंगापन न छिपा हो, तब तक आपको पशु नंगा नहीं दिखाई पड़ सकता है। लेकिन वे जो भयभीत लोग हैं, वे जो डरे हुए लोग हैं, वे भय और डर के कारण सब कुछ कर रहे हैं आज तक। और उनके सब करने से आदमी रोज नीचे से नीचे उतरता जा रहा है।
जरूरत तो यह है कि आदमी भी किसी दिन इतना सरल हो कि नग्न खड़ा हो सके--निर्दोष और आनंद से भरा हुआ। जरूरत तो यह है! जैसे महावीर जैसा व्यक्ति नग्न खड़ा हो गया। लोग कहते हैं कि उन्होंने कपड़े छोड़े, कपड़ों का त्याग किया। मैं कहता हूं, न कपड़े छोड़े, न कपड़ों का त्याग किया; चित्त इतना निर्दोष हो गया होगा, इतना इनोसेंट, जैसे छोटे बच्चों का, तो वे नग्न खड़े हो गए होंगे। क्योंकि ढांकने को जब कुछ भी नहीं रह जाता तो आदमी नग्न हो सकता है। जब तक ढांकने को कुछ है हमारे भीतर, तब तक आदमी अपने को छिपाएगा। जब ढांकने को कुछ भी नहीं है, तो नग्न हो सकता है। चाहिए तो एक ऐसी पृथ्वी कि आदमी भी इतना सरल होगा कि नग्न होने में भी उसे कोई पश्चात्ताप, कोई पीड़ा न होगी। नग्न होने में भी उसे कोई अपराध न होगा।
आज तो हम कपड़े पहन कर भी अपराधी मालूम होते हैं! हम कपड़े पहन कर भी नंगे हैं! और ऐसे लोग भी रहे हैं, जो नग्न होकर भी नग्न नहीं थे।
नंगापन मन की एक वृत्ति है।
सरलता, निर्दोष चित्त--फिर नग्नता भी सार्थक हो जाती है, अर्थपूर्ण हो जाती है; वह भी एक सौंदर्य ले लेती है।
लेकिन अब तक आदमी को जहर पिलाया गया है। और जहर का परिणाम यह हुआ कि हमारा सारा जीवन एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक विषाक्त हो गया है।
स्त्रियों को हम कहते हैं, पति को परमात्मा समझना! और उन स्त्रियों को बचपन से सिखाया गया है कि सेक्स पाप है, नरक है। वे कल विवाहित होंगी। वे उस पति को कैसे परमात्मा मान सकेंगी जो उन्हें सेक्स में और नरक में ले जा रहा है? एक तरफ हम सिखाते हैं पति परमात्मा है और पत्नी का अनुभव कहता है कि यही पहला पापी है जो मुझे नरक में घसीट रहा है।
एक बहन ने मुझे आकर कहा--पिछली मीटिंग में जब मैं यहां बोला, भारतीय विद्याभवन में, तो एक बहन मेरे पास उसी दिन आई और उसने कहा--कि मैं बहुत गुस्से में हूं, मैं बहुत क्रोध में हूं। सेक्स तो बड़ी घृणित चीज है। सेक्स तो पाप है। और आपने सेक्स की इतनी बात क्यों की? मैं तो घृणा करती हूं सेक्स को।
अब यह पत्नी है, इसका पति है, इसके बच्चे हैं, बच्चियां हैं; और यह पत्नी सेक्स को घृणा करती है! यह पति को कैसे प्रेम कर सकती है जो इसे सेक्स में ले जा रहा है? यह उन बच्चों को कैसे प्रेम कर सकती है जो सेक्स से पैदा हो रहे हैं? इसका प्रेम जहरीला रहेगा। इसके प्रेम में जहर छिपा रहेगा। पति और इसके बीच एक बुनियादी दीवाल खड़ी रहेगी। बच्चों और इसके बीच एक बुनियादी दीवाल खड़ी रहेगी। क्योंकि वह सेक्स की दीवाल और सेक्स की कंडेमनेशन की वृत्ति बीच में खड़ी है। ये बच्चे पाप से आए हैं। यह पति और मेरे बीच पाप का संबंध है। और जिनके साथ पाप का संबंध है, उनके प्रति हम मैत्रीपूर्ण हो सकते हैं? पाप के प्रति हम मैत्रीपूर्ण हो सकते हैं?
सारी दुनिया का गृहस्थ जीवन नष्ट किया है सेक्स को गाली देने वाले, निंदा करने वाले लोगों ने। और वे इसे नष्ट करके जो दुष्परिणाम लाए हैं, वह यह नहीं है कि सेक्स से लोग मुक्त हो गए हों। जो पति अपनी पत्नी और अपने बीच एक दीवाल पाता है पाप की, वह पत्नी से कभी भी तृप्ति अनुभव नहीं कर पाता। तो आस-पास की स्त्रियों को खोजता है, वेश्याओं को खोजता है। खोजेगा। अगर पत्नी से उसे तृप्ति मिल गई होती तो शायद इस जगत की सारी स्त्रियां उसके लिए मां और बहन हो जातीं। लेकिन पत्नी से भी तृप्ति न मिलने के कारण सारी स्त्रियां उसे पोटेंशियल औरतों की तरह, पोटेंशियल पत्नियों की तरह मालूम पड़ती हैं, जिनको पत्नी में बदला जा सकता है।
यह स्वाभाविक है, यह होने वाला था। यह होने वाला था, क्योंकि जहां तृप्ति मिल सकती थी, वहां जहर है, वहां पाप है, और तृप्ति नहीं मिलती है। और वह चारों तरफ भटकता है और खोजता है। और क्या-क्या ईजादें करता है खोज कर आदमी! अगर उन सारी ईजादों को हम सोचने बैठें तो घबरा जाएंगे कि आदमी ने क्या-क्या ईजादें की हैं! लेकिन एक बुनियादी बात पर खयाल नहीं किया कि वह जो प्रेम का कुआं था, वह जो काम का कुआं था, वह जहरीला बना दिया गया है।
और जब पति और पत्नी के बीच जहर का भाव हो, घबराहट का भाव हो, पाप का भाव हो, तो फिर यह पाप की भावना रूपांतरण नहीं करने देगी। अन्यथा मेरी समझ यह है कि एक पति और पत्नी अगर एक-दूसरे के प्रति समझपूर्वक प्रेम से भरे हुए, आनंद से भरे हुए और सेक्स के प्रति बिना निंदा के सेक्स को समझने की चेष्टा करेंगे, तो आज नहीं कल उनके बीच का संबंध रूपांतरित हो जाने वाला है। यह हो सकता है कि कल वही पत्नी मां जैसी दिखाई पड़ने लगे।
गांधीजी उन्नीस सौ तीस के करीब श्रीलंका गए थे। उनके साथ कस्तूरबा साथ थीं। संयोजकों ने समझा कि शायद गांधीजी की मां साथ आई हुई हैं, क्योंकि गांधीजी कस्तूरबा को खुद भी बा ही कहते थे। लोगों ने समझा कि शायद उनकी मां होंगी। संयोजकों ने परिचय देते हुए कहा कि गांधीजी आए हैं और बड़े सौभाग्य की बात है कि उनकी मां भी साथ आई हुई हैं। वह उनके बगल में बैठी हुई हैं।
गांधीजी के सेक्रेटरी तो घबरा गए कि यह तो भूल हमारी है, हमें बताना था कि साथ में कौन है। लेकिन अब तो बड़ी देर हो चुकी थी। गांधी तो मंच पर जाकर बैठ भी गए थे और बोलना शुरू कर दिया था। सेक्रेटरी घबड़ाए हुए हैं कि गांधी पीछे क्या कहेंगे! उन्हें कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि गांधी नाराज नहीं होंगे, क्योंकि ऐसे पुरुष बहुत कम हैं जो पत्नी को मां बनाने में समर्थ हो जाते हैं। लेकिन गांधीजी ने कहा कि सौभाग्य की बात है कि जिन मित्र ने मेरा परिचय दिया है, उन्होंने भूल से एक सच्ची बात कह दी है। कस्तूरबा कुछ वर्षों से मेरी मां हो गई है। कभी वह मेरी पत्नी थी। लेकिन अब वह मेरी मां है।
इस बात की संभावना है कि अगर पति और पत्नी काम को, संभोग को समझने की चेष्टा करें, तो एक-दूसरे के मित्र बन सकते हैं और एक-दूसरे के काम के रूपांतरण में सहयोगी और साथी हो सकते हैं। और जिस दिन कोई पति और पत्नी अपने आपस के संभोग के संबंध को रूपांतरित करने में सफल हो जाते हैं, उस दिन उनके जीवन में पहली दफे एक-दूसरे के प्रति अनुग्रह और ग्रेटिट्यूड का भाव पैदा होता है, उसके पहले नहीं। उसके पहले वे एक-दूसरे के प्रति क्रोध से भरे रहते हैं, उसके पहले वे एक-दूसरे के बुनियादी शत्रु बने रहते हैं, उसके पहले उनके बीच एक संघर्ष है, मैत्री नहीं।
मैत्री उस दिन शुरू होती है जिस दिन वे एक-दूसरे के साथी बनते हैं और उनके काम की ऊर्जा को रूपांतरण करने में माध्यम बन जाते हैं। उस दिन एक अनुग्रह, एक ग्रेटिट्यूड, एक कृतज्ञता का भाव ज्ञापन होता है। उस दिन पुरुष आदर से भरता है स्त्री के प्रति, क्योंकि स्त्री ने उसे कामवासना से मुक्त होने में सहायता पहुंचाई। उस दिन स्त्री अनुगृहीत होती है पुरुष के प्रति कि उसने उसे साथ दिया और उसकी वासना से मुक्ति दिलवाई। उस दिन वे सच्ची मैत्री में बंधते हैं, जो काम की नहीं, प्रेम की मैत्री है। उस दिन उनका जीवन ठीक उस दिशा में जाता है, जहां पत्नी के लिए पति परमात्मा हो जाता है और पति के लिए पत्नी परमात्मा हो जाती है--उस दिन!
लेकिन वह कुआं तो विषाक्त कर दिया गया है। इसलिए मैंने कल कहा कि मुझसे बड़ा शत्रु सेक्स का खोजना कठिन है। लेकिन मेरी शत्रुता का यह मतलब नहीं है कि मैं सेक्स को गाली दूं और निंदा करूं। मेरी शत्रुता का मतलब यह है कि मैं सेक्स को रूपांतरित करने के संबंध में दिशा-सूचन करूं। मैं आपको कहूं कि वह कैसे रूपांतरित हो सकता है। मैं कोयले का दुश्मन हूं, क्योंकि मैं कोयले को हीरा बनाना चाहता हूं। मैं सेक्स को रूपांतरित करना चाहता हूं। वह कैसे रूपांतरित होगा? उसकी क्या विधि होगी?
मैंने आपसे कहा, एक द्वार खोलना जरूरी है--नया द्वार।
बच्चे जैसे ही पैदा होते हैं, वैसे ही उनके जीवन में सेक्स का आगमन नहीं हो जाता है। अभी देर है। अभी शरीर शक्ति इकट्ठी करेगा। अभी शरीर के अणु मजबूत होंगे। अभी उस दिन की प्रतीक्षा है जब शरीर पूरा तैयार हो जाएगा, ऊर्जा इकट्ठी होगी। और द्वार जो बंद रहा है चौदह वर्षों तक, वह खुल जाएगा ऊर्जा के धक्के से, और सेक्स की दुनिया शुरू होगी। एक बार द्वार खुल जाने के बाद नया द्वार खोलना कठिन हो जाता है। क्योंकि समस्त ऊर्जाओं का नियम यह है, समस्त शक्तियों का, वे एक दफा अपना मार्ग खोज लें बहने के लिए तो वे उसी मार्ग से बहना पसंद करती हैं।
गंगा बह रही है सागर की तरफ, उसने एक बार रास्ता खोज लिया। अब वह उसी रास्ते से बही चली जाती है, बही चली जाती है। रोज-रोज नया पानी आता है, उसी रास्ते से बहता हुआ चला जाता है। गंगा रोज नये रास्ते नहीं खोजती है।
जीवन की ऊर्जा भी एक रास्ता खोज लेती है, फिर वह उसी से बहती चली जाती है। अगर जमीन को कामुकता से मुक्त करना है, तो सेक्स का रास्ता खुलने के पहले नया रास्ता--ध्यान का रास्ता--तोड़ देना जरूरी है। एक-एक छोटे बच्चे को ध्यान की अनिवार्य शिक्षा और दीक्षा मिलनी चाहिए।
पर हम तो उसे सेक्स के विरोध की दीक्षा देते हैं, जो कि अत्यंत मूर्खतापूर्ण है। सेक्स के विरोध की दीक्षा नहीं देनी है। शिक्षा देनी है ध्यान की, पाजिटिव, कि वह ध्यान को कैसे उपलब्ध हो। और बच्चे ध्यान को जल्दी उपलब्ध हो सकते हैं। क्योंकि अभी उनकी ऊर्जा का कोई भी द्वार खुला नहीं है। अभी द्वार बंद है, अभी ऊर्जा संरक्षित है, अभी कहीं भी नये द्वार पर धक्के दिए जा सकते हैं और नया द्वार खोला जा सकता है। फिर यही बूढ़े हो जाएंगे और इन्हें ध्यान में पहुंचना अत्यंत कठिन हो जाएगा।
ऐसे ही, जैसे एक नया पौधा पैदा होता है, उसकी शाखाएं कहीं भी झुक जाती हैं, कहीं भी झुकाई जा सकती हैं। फिर वही बूढ़ा वृक्ष हो जाता है। फिर हम उसकी शाखाओं को झुकाने की कोशिश करते हैं। फिर शाखाएं टूट जाती हैं, झुकती नहीं।
बूढ़े लोग ध्यान की चेष्टा करते हैं दुनिया में, जो बिलकुल ही गलत है। ध्यान की सारी चेष्टा छोटे बच्चों पर की जानी चाहिए। लेकिन मरने के करीब पहुंच कर आदमी ध्यान में उत्सुक होता है! वह पूछता है--ध्यान क्या? योग क्या? हम कैसे शांत हो जाएं? जब जीवन की सारी ऊर्जा खो गई, जब जीवन के सब रास्ते सख्त और मजबूत हो गए, जब झुकना और बदलना मुश्किल हो गया, तब वह पूछता है, अब मैं कैसे बदल जाऊं? एक पैर आदमी कब्र में डाल लेता है और दूसरा पैर बाहर रख कर पूछता है, ध्यान का कोई रास्ता है?
अजीब सी बात है। बिलकुल पागलपन की बात है। यह पृथ्वी कभी भी शांत और ध्यानस्थ नहीं हो सकेगी, जब तक ध्यान का संबंध पहले दिन के पैदा हुए बच्चे से हम न जोड़ेंगे। अंतिम दिन के वृद्ध से नहीं जोड़ा जा सकता। व्यर्थ ही हमें बहुत श्रम उठाना पड़ता है बाद के दिनों में शांत होने के लिए, जो कि पहले एकदम हो सकता था।
छोटे बच्चों को ध्यान की दीक्षा, काम के रूपांतरण का पहला चरण है--शांत होने की दीक्षा, निर्विचार होने की दीक्षा, मौन होने की दीक्षा। बच्चे ऐसे भी मौन हैं, बच्चे ऐसे भी शांत हैं। अगर उन्हें थोड़ी सी दिशा दी जाए और उन्हें मौन और शांत होने के लिए घड़ी भर की शिक्षा दी जाए, तो जब वे चौदह वर्ष के होने के करीब आएंगे, जब काम जगेगा, तब तक उनका एक द्वार खुल चुका होगा। शक्ति इकट्ठी होगी और जो द्वार खुला है उसी द्वार से बहनी शुरू हो जाएगी। उन्हें शांति का, आनंद का, कालहीनता का, निरहंकार भाव का अनुभव सेक्स के बहुत अनुभव के पहले उपलब्ध हो जाएगा। वही अनुभव उनकी ऊर्जा को गलत मार्गों से रोकेगा और ठीक मार्गों पर ले आएगा।
लेकिन हम छोटे-छोटे बच्चों को ध्यान तो नहीं सिखाते, काम का विरोध सिखाते हैं! पाप है, गंदगी है, कुरूपता है, बुराई है, नरक है--यह सब हम बताते हैं! और इस सबके बताने से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता, कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। बल्कि हमारे बताने से वे और भी आकर्षित होते हैं और तलाश करते हैं कि क्या है यह गंदगी, क्या है यह नरक, जिसके लिए बड़े इतने भयभीत और बेचैन हैं?
और फिर थोड़े ही दिनों में उन्हें यह भी पता चल जाता है कि बड़े जिस बात से हमें रोकने की कोशिश कर रहे हैं, खुद दिन-रात उसी में लीन हैं। और जिस दिन उन्हें यह पता चल जाता है, मां-बाप के प्रति सारी श्रद्धा समाप्त हो जाती है।
मां-बाप के प्रति श्रद्धा समाप्त करने में शिक्षा का हाथ नहीं है। मां-बाप के प्रति श्रद्धा समाप्त करने में मां-बाप का अपना हाथ है। आप जिन बातों के लिए बच्चों को गंदा कहते हैं, बच्चे बहुत जल्दी पता लगा लेते हैं कि उन सारी गंदगियों में आप भलीभांति लवलीन हैं। आपकी दिन की जिंदगी दूसरी है और रात की दूसरी। आप कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। छोटे बच्चे बहुत एक्यूट आब्जर्वर होते हैं। वे बहुत गौर से निरीक्षण करते रहते हैं कि क्या हो रहा है घर में! वे देखते हैं कि मां जिस बात को गंदा कहती है, बाप जिस बात को गंदा कहता है, वही गंदी बात दिन-रात घर में चल रही है। इसका उन्हें बहुत जल्दी बोध हो जाता है। उनका सारा श्रद्धा का भाव विलीन हो जाता है--कि धोखेबाज हैं ये मां-बाप! पाखंडी हैं! हिपोक्रेट हैं! ये बातें कुछ और कहते हैं, करते कुछ और हैं।
और जिन बच्चों का मां-बाप पर से विश्वास उठ गया, वे बच्चे परमात्मा पर कभी विश्वास नहीं कर सकेंगे, इसको याद रखना। क्योंकि बच्चों के लिए परमात्मा का पहला दर्शन मां-बाप में होता है। अगर वही खंडित हो गया, तो ये बच्चे भविष्य में नास्तिक हो जाने वाले हैं। बच्चों को पहले परमात्मा की प्रतीति अपने मां-बाप की पवित्रता से होती है। पहली दफा बच्चे मां-बाप को ही जानते हैं निकटतम और उनसे ही उन्हें पहली दफा श्रद्धा और रिवरेंस का भाव पैदा होता है। अगर वही खंडित हो गया, तो इन बच्चों को मरते दम तक वापस परमात्मा के रास्ते पर लाना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि पहला परमात्मा ही धोखा दे गया। जो मां थी, जो बाप था, वही धोखेबाज सिद्ध हुआ।
आज सारी दुनिया में जो लड़के यह कह रहे हैं कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है, कोई मोक्ष नहीं है, धर्म सब बकवास है--उसका कारण यह नहीं है कि लड़कों ने पता लगा लिया है कि आत्मा नहीं है, परमात्मा नहीं है। उसका कारण यह है कि लड़कों ने मां-बाप का पता लगा लिया है कि वे धोखेबाज हैं। और यह सारा धोखा सेक्स के आस-पास केंद्रित है। यह सारा धोखा सेक्स के केंद्र पर खड़ा हुआ है।
बच्चों को यह सिखाने की जरूरत नहीं कि सेक्स पाप है, बल्कि ईमानदारी से यह सिखाने की जरूरत है कि सेक्स जिंदगी का एक हिस्सा है और तुम सेक्स से ही पैदा हुए हो और हमारी जिंदगी में वह है। ताकि बच्चे सरलता से मां-बाप को समझ सकें और जब जीवन को वे जानें तो वे आदर से भर सकें कि मां-बाप सच्चे और ईमानदार थे। उनको जीवन में आस्तिक बनाने में इससे बड़ा संबल और कुछ भी नहीं होगा कि वे अपने मां-बाप को सच्चा और ईमानदार अनुभव कर सकें।
लेकिन आज सब बच्चे जानते हैं कि मां-बाप बेईमान और धोखेबाज हैं। यह बच्चे और मां-बाप के
बीच एक कलह का कारण बनता है। सेक्स का दमन पति और पत्नी को तोड़ दिया है। मां-बाप और बच्चों को तोड़ दिया है।
नहीं, सेक्स का विरोध नहीं, निंदा नहीं, बल्कि सेक्स की शिक्षा दी जानी चाहिए। जैसे ही बच्चे पूछने को तैयार हो जाएं, जो भी जरूरी मालूम पड़े, जो उनके समझ के योग्य मालूम पड़े, वह सब उन्हें बता दिया जाना चाहिए। ताकि वे सेक्स के संबंध में अति उत्सुक न हों; ताकि उनका आकर्षण न पैदा हो; ताकि वे दीवाने होकर गलत रास्तों से जानकारी पाने की कोशिश न करें।
आज बच्चे सब जानकारी पा लेते हैं यहां-वहां से। गलत मार्गों से, गलत लोगों से उन्हें जानकारी मिलती है, जो जीवन भर उन्हें पीड़ा देती है। और मां-बाप और उनके बीच एक मौन की दीवार होती है, जैसे मां-बाप को कुछ भी पता नहीं और बच्चों को भी कुछ पता नहीं! उन्हें सेक्स की सम्यक शिक्षा मिलनी चाहिए--राइट एजुकेशन।
और दूसरी बात, उन्हें ध्यान की दीक्षा मिलनी चाहिए--कैसे मौन हों, कैसे शांत हों, कैसे निर्विचार हों। और बच्चे तत्क्षण निर्विचार हो सकते हैं, मौन हो सकते हैं, शांत हो सकते हैं। चौबीस घंटे में एक घंटे अगर बच्चों को घर में मौन में ले जाने की व्यवस्था हो--निश्चित ही, वे मौन में तभी जा सकेंगे, जब आप भी उनके साथ मौन बैठ सकें। हर घर में एक घंटा मौन का अनिवार्य होना चाहिए। एक दिन खाना न मिले घर में तो चल सकता है, लेकिन एक घंटा मौन के बिना घर नहीं चल सकता है। वह घर झूठा है, उस घर को परिवार कहना गलत है, जिस परिवार में एक घंटे के मौन की दीक्षा नहीं है।
वह एक घंटे का मौन चौदह वर्षों में उस दरवाजे को तोड़ देगा--रोज धक्के मारेगा--उस दरवाजे को तोड़ देगा, जिसका नाम ध्यान है। जिस ध्यान से मनुष्य को समयहीन, टाइमलेसनेस, ईगोलेसनेस, अहंकार-शून्य अनुभव होता है, जहां से आत्मा की झलक मिलती है। वह झलक सेक्स के अनुभव के पहले मिल जानी जरूरी है। अगर वह झलक मिल जाए तो सेक्स के प्रति अतिशय दौड़ समाप्त हो जाएगी। ऊर्जा इस नये मार्ग से बहने लगेगी।
यह मैं पहला चरण कहता हूं। ब्रह्मचर्य की साधना में, सेक्स के ऊपर उठने की साधना में, सेक्स की ऊर्जा के ट्रांसफार्मेशन के लिए पहला चरण है ध्यान। और दूसरा चरण है प्रेम। बच्चे को बचपन से ही प्रेम की दीक्षा दी जानी चाहिए।
हम अब तक यही सोचते रहे हैं कि प्रेम की शिक्षा मनुष्य को सेक्स में ले जाएगी। यह बात अत्यंत भ्रांत है। सेक्स की शिक्षा तो मनुष्य को प्रेम में ले जा सकती है, लेकिन प्रेम की शिक्षा कभी किसी मनुष्य को सेक्स में नहीं ले जाती। बल्कि सच्चाई उलटी है। जितना प्रेम विकसित होता है, उतनी ही सेक्स की ऊर्जा प्रेम में रूपांतरित होकर बंटनी शुरू हो जाती है।
जो लोग जितने कम प्रेम से भरे होते हैं, उतने ही ज्यादा कामुक होंगे, उतने ही सेक्सुअल होंगे।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ज्यादा घृणा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतना ही विद्वेष होगा।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ईर्ष्या होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उतनी ही उनके जीवन में प्रतिस्पर्धा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही चिंता और दुख होगा।
दुख, चिंता, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, इन सबसे जो आदमी जितना ज्यादा घिरा है, उसकी शक्तियां सारी की सारी भीतर इकट्ठी हो जाती हैं। उनके निकास का कोई मार्ग नहीं रह जाता। उनके निकास का एक ही मार्ग रह जाता है--वह सेक्स है।
प्रेम शक्तियों का निकास बनता है। प्रेम बहाव है। क्रिएशन, सृजनात्मक है प्रेम, इसलिए वह बहता है और एक तृप्ति लाता है। वह तृप्ति सेक्स की तृप्ति से बहुत ज्यादा कीमती और गहरी है। जिसे वह तृप्ति मिल गई--वह फिर कंकड़-पत्थर नहीं बीनता, जिसे हीरे-जवाहरात मिलने शुरू हो जाते हैं।
लेकिन घृणा से भरे आदमी को वह तृप्ति कभी नहीं मिलती है। घृणा में वह तोड़ देता है चीजों को। लेकिन तोड़ने से कभी किसी आदमी को कोई तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलती है निर्माण करने से। द्वेष से भरा आदमी संघर्ष करता है। लेकिन संघर्ष से कोई तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलती है दान से, देने से; छीन लेने से नहीं। संघर्ष करने वाला छीन लेता है। छीनने से वह तृप्ति कभी नहीं मिलती, जो किसी को दे देने से और दान से उपलब्ध होती है।
महत्वाकांक्षी आदमी एक पद से दूसरे पद की यात्रा करता रहता है, लेकिन कभी भी शांत नहीं हो पाता। शांत वे होते हैं, जो पदों की यात्रा नहीं, बल्कि प्रेम की यात्रा करते हैं। जो प्रेम के एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ की यात्रा करते हैं।
जितना आदमी प्रेमपूर्ण होता है, उतनी तृप्ति, एक कंटेंटमेंट, एक गहरा संतोष, एक आनंद का भाव, एक उपलब्धि का भाव उसके प्राणों के रग-रग में बहने लगता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है, जो तृप्ति का रस है, जो आनंद का रस है। वैसा तृप्त आदमी सेक्स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने के लिए, रोकने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती; वह जाता ही नहीं। क्योंकि यही तृप्ति क्षण भर को सेक्स से मिलती थी, प्रेम से यह तृप्ति चौबीस घंटे को मिल जाती है।
तो दूसरी दिशा है--कि व्यक्तित्व का अधिकतम विकास प्रेम के मार्गों पर होना चाहिए। हम प्रेम करें, हम प्रेम दें, हम प्रेम में जीएं। और जरूरी नहीं है कि हम प्रेम मनुष्य को ही देंगे तभी प्रेम की दीक्षा होगी। प्रेम की दीक्षा तो पूरे व्यक्तित्व के प्रेमपूर्ण होने की दीक्षा है, वह तो टु बी लविंग होने की दीक्षा है। एक पत्थर को भी हम उठाएं तो ऐसे उठा सकते हैं जैसे मित्र को उठा रहे हैं, और एक आदमी का हाथ भी हम ऐसे पकड़ सकते हैं जैसे शत्रु का हाथ पकड़े हुए हैं। एक आदमी वस्तुओं के साथ भी प्रेमपूर्ण व्यवहार कर सकता है, एक आदमी आदमियों के साथ भी ऐसा व्यवहार करता है जैसा वस्तुओं के साथ भी नहीं करना चाहिए। घृणा से भरा हुआ आदमी वस्तुएं समझता है मनुष्यों को। प्रेम से भरा हुआ आदमी वस्तुओं को भी व्यक्तित्व देता है।
एक फकीर से मिलने एक जर्मन यात्री गया हुआ था। वह किसी क्रोध में होगा। उसने दरवाजे पर जोर से जूते खोल दिए, जूतों को पटका, धक्का दिया दरवाजे को जोर से।
क्रोध में आदमी जूते भी खोलता है तो ऐसे जैसे जूते दुश्मन हों। दरवाजा भी खोलता है तो ऐसे जैसे दरवाजे से कोई झगड़ा हो!
दरवाजे को धक्का देकर वह भीतर गया। उस फकीर से जाकर नमस्कार किया। उस फकीर ने कहा कि नहीं, अभी मैं नमस्कार का उत्तर न दे सकूंगा। पहले तुम दरवाजे से और जूतों से क्षमा मांग आओ।
उस आदमी ने कहा, आप पागल हो गए हैं? दरवाजों और जूतों से क्षमा! क्या उनका भी कोई व्यक्तित्व है?
उस फकीर ने कहा, तुमने क्रोध करते समय कभी भी न सोचा कि इनका कोई व्यक्तित्व है। तुमने जूते ऐसे पटके जैसे उनमें जान हो, जैसे उनका कोई कसूर हो; तुमने दरवाजा ऐसे खोला जैसे कि तुम दुश्मन हो। नहीं, जब तुमने क्रोध करते वक्त उनका व्यक्तित्व मान लिया, तो पहले जाओ क्षमा मांग कर आ जाओ, तब मैं तुमसे आगे बात करूंगा, अन्यथा मैं बात करने को नहीं हूं।
अब वह आदमी दूर जर्मनी से उस फकीर को मिलने गया था, इतनी सी बात पर मुलाकात न हो सकेगी। मजबूरी थी। उसे जाकर दरवाजे पर हाथ जोड़ कर क्षमा मांगनी पड़ी कि मित्र, क्षमा कर दो! जूतों को कहना पड़ा, माफ करिए, भूल हो गई हमने जो आपको इस भांति गुस्से में खोला!
उस जर्मन यात्री ने लिखा है कि लेकिन जब मैं क्षमा मांग रहा था तो पहले तो मुझे हंसी आई कि मैं क्या पागलपन कर रहा हूं! लेकिन जब मैं क्षमा मांग चुका तो मैं हैरान हुआ, मुझे एक इतनी शांति मालूम हुई जिसकी मुझे कल्पना नहीं हो सकती थी कि दरवाजे और जूतों से क्षमा मांग कर शांति मिल सकती है! मैं जाकर उस फकीर के पास बैठा, वह हंसने लगा। और उसने कहा, अब ठीक, अब कुछ बात हो सकती है। तुमने थोड़ा प्रेम जाहिर किया, अब तुम संबंधित हो सकते हो, समझ भी सकते हो; क्योंकि अब तुम प्रफुल्लित हो, अब तुम आनंद से भर गए हो।
सवाल मनुष्यों के साथ ही प्रेमपूर्ण होने का नहीं, प्रेमपूर्ण होने का है। यह सवाल नहीं है कि मां को प्रेम दो! ये गलत बातें हैं। जब कोई मां अपने बच्चे को कहती है कि मैं तेरी मां हूं इसलिए प्रेम कर, तब वह गलत शिक्षा दे रही है। क्योंकि जिस प्रेम में ‘इसलिए’ लगा हुआ है, ‘देयरफोर’, वह प्रेम झूठा है। जो कहता है, इसलिए प्रेम करो कि मैं बाप हूं, वह गलत शिक्षा दे रहा है। वह कारण बता रहा है प्रेम का। प्रेम अकारण होता है, प्रेम कारण सहित नहीं होता। मां कहती है, मैं तेरी मां हूं, मैंने तुझे इतने दिन पाला-पोसा, बड़ा किया, इसलिए प्रेम कर! वह वजह बता रही है, प्रेम खत्म हो गया। अगर वह प्रेम भी होगा तो बच्चा झूठा प्रेम दिखाने की कोशिश करेगा--क्योंकि यह मां है, इसलिए प्रेम दिखाना पड़ रहा है।
नहीं, प्रेम की शिक्षा का मतलब है: प्रेम का कारण नहीं, प्रेमपूर्ण होने की सुविधा और व्यवस्था कि बच्चा प्रेमपूर्ण हो सके।
जो मां कहती है, मुझसे प्रेम कर, क्योंकि मैं मां हूं, वह प्रेम नहीं सिखा रही। उसे यह कहना चाहिए कि यह तेरा व्यक्तित्व, यह तेरे भविष्य, यह तेरे आनंद की बात है कि जो भी तेरे मार्ग पर पड़ जाए, तू उससे प्रेमपूर्ण हो--पत्थर पड़ जाए, फूल पड़ जाए, आदमी पड़ जाए, जानवर पड़ जाए। यह सवाल जानवर को प्रेम देने का नहीं, फूल को प्रेम देने का नहीं, मां को प्रेम देने का नहीं, तेरे प्रेमपूर्ण होने का है! क्योंकि तेरा भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि तू कितना प्रेमपूर्ण है, तेरा व्यक्तित्व कितना प्रेम से भरा हुआ है, उतना तेरे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ेगी।
प्रेमपूर्ण होने की शिक्षा चाहिए मनुष्य को, तो वह कामुकता से मुक्त हो सकता है।
लेकिन हम तो प्रेम की कोई शिक्षा नहीं देते। हम तो प्रेम का कोई भाव पैदा नहीं करते। हम तो प्रेम के नाम पर भी जो बातें करते हैं, वह झूठ ही सिखाते हैं उनको।
क्या आपको पता है कि एक आदमी एक के प्रति प्रेमपूर्ण है और दूसरे के प्रति घृणापूर्ण हो सकता है? यह असंभव है। प्रेमपूर्ण आदमी प्रेमपूर्ण होता है, आदमियों से कोई संबंध नहीं है उस बात का। अकेले में बैठता है तो भी प्रेमपूर्ण होता है। कोई नहीं होता तो भी प्रेमपूर्ण होता है। प्रेमपूर्ण होना उसके स्वभाव की बात है। वह आपसे संबंधित होने का सवाल नहीं।
क्रोधी आदमी अकेले में भी क्रोधपूर्ण होता है। घृणा से भरा आदमी अकेले में भी घृणा से भरा होता है। वह अकेले भी बैठा है तो आप उसको देख कर कह सकते हैं कि यह आदमी क्रोधी है। हालांकि वह किसी पर क्रोध नहीं कर रहा है। लेकिन उसका सारा व्यक्तित्व क्रोधी है। प्रेमपूर्ण आदमी अगर अकेले में भी बैठा है तो आप कहेंगे, यह आदमी कितने प्रेम से भरा हुआ बैठा है।
फूल एकांत में खिलते हैं जंगल के तो वहां भी सुगंध बिखेरते रहते हैं, चाहे कोई सूंघने वाला हो या न हो। रास्ते से कोई निकले या न निकले, फूल सुगंधित होता रहता है। फूल का सुगंधित होना स्वभाव है। इस भूल में आप मत पड़ना कि आपके लिए सुगंधित हो रहा है।
प्रेमपूर्ण होना व्यक्तित्व बनाना चाहिए। वह हमारा व्यक्तित्व हो, इससे कोई संबंध नहीं कि वह किसके प्रति।
लेकिन जितने प्रेम करने वाले लोग हैं, वे सोचते हैं कि मेरे प्रति प्रेमपूर्ण हो जाए, और किसी के प्रति नहीं। और उनको पता नहीं कि जो सबके प्रति प्रेमपूर्ण नहीं, वह किसी के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता! पत्नी कहती है पति से, मुझे प्रेम करना बस! फिर आ गया स्टाप, फिर इधर-उधर कहीं देखना मत, फिर और कहीं तुम्हारे प्रेम की जरा सी धारा न बहे, बस प्रेम यानी इस तरफ। और उस पत्नी को पता नहीं कि यह प्रेम झूठा वह अपने हाथ से किए ले रही है। जो पति प्रेमपूर्ण नहीं है हर स्थिति में, हरेक के प्रति, वह पत्नी के प्रति भी प्रेमपूर्ण कैसे हो सकता है? प्रेमपूर्ण चौबीस घंटे के जीवन का स्वभाव
है। वह ऐसी कोई बात नहीं कि हम किसी के प्रति प्रेमपूर्ण हो जाएं और किसी के प्रति प्रेमहीन हो जाएं।
लेकिन आज तक मनुष्यता इसको समझने में समर्थ नहीं हो पाई! बाप कहता है कि मेरे प्रति प्रेमपूर्ण! लेकिन घर में जो चपरासी है उसके प्रति? वह तो नौकर है! लेकिन उसे पता नहीं कि जो बेटा एक बूढ़े नौकर के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो पाया है--वह बूढ़ा नौकर भी किसी का बाप है--वह आज नहीं कल जब उसका बाप भी बूढ़ा हो जाएगा, उसके प्रति भी प्रेमपूर्ण नहीं रह जाएगा। तब यह बाप पछताएगा कि मेरा लड़का मेरे प्रति प्रेमपूर्ण नहीं है। लेकिन इस बाप को पता ही नहीं कि लड़का प्रेमपूर्ण हो सकता था उसके प्रति भी, अगर जो भी आस-पास थे, सबके प्रति प्रेमपूर्ण होने की शिक्षा दी गई होती तो वह इसके प्रति भी प्रेमपूर्ण होता।
प्रेम स्वभाव की बात है, संबंध की बात नहीं है।
प्रेम रिलेशनशिप नहीं है, प्रेम है स्टेट ऑफ माइंड। वह मनुष्य के व्यक्तित्व का भीतरी अंग है।
तो हमें प्रेमपूर्ण होने की दूसरी दीक्षा दी जानी चाहिए--एक-एक चीज के प्रति। अगर बच्चा एक किताब को भी गलत ढंग से रखे तो गलती बात है, उसे उसी क्षण टोकना चाहिए कि यह तुम्हारे व्यक्तित्व के लिए शोभादायक नहीं कि तुम इस भांति किताब को रखो। कोई देखेगा, कोई सुनेगा, कोई पाएगा कि तुम किताब के साथ दुर्व्यवहार किए हो! तुम एक कुत्ते के साथ गलत ढंग से पेश आए हो! यह तुम्हारे व्यक्तित्व की गलती है।
एक फकीर के बाबत मुझे खयाल आता है। एक छोटा सा फकीर का झोपड़ा था। रात थी, जोर से वर्षा होती थी। रात के बारह बजे होंगे, फकीर और उसकी पत्नी दोनों सोते थे, किसी आदमी ने दरवाजे पर दस्तक दी। छोटा था झोपड़ा, कोई शायद शरण चाहता है। उसकी पत्नी से उसने कहा कि द्वार खोल दे, कोई द्वार पर खड़ा है, कोई यात्री, कोई अपरिचित मित्र।
सुनते हैं उसकी बात? उसने कहा, कोई अपरिचित मित्र! हमारे तो जो परिचित हैं, वे भी मित्र नहीं होते। उसने कहा, कोई अपरिचित मित्र! यह प्रेम का भाव है।
कोई अपरिचित मित्र द्वार पर खड़ा है, द्वार खोल!
उसकी पत्नी ने कहा, लेकिन जगह तो बहुत कम है, हम दो के लायक ही मुश्किल से है। कोई तीसरा आदमी भीतर आएगा तो हम क्या करेंगे?
उस फकीर ने कहा, पागल, यह किसी अमीर का महल नहीं है कि छोटा पड़ जाए, यह गरीब की झोपड़ी है। अमीर का महल छोटा पड़ जाता है हमेशा, एक मेहमान आ जाए तो महल छोटा पड़ जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है।
उसकी पत्नी ने कहा, इसमें झोपड़ी...अमीर और गरीब क्या सवाल? जगह छोटी है।
उस फकीर ने कहा, जहां दिल में जगह बड़ी हो वहां झोपड़ा महल की तरह मालूम होता है और जहां दिल में छोटी जगह हो वहां झोपड़ा तो क्या महल भी छोटा और झोपड़ा हो जाता है। द्वार खोल दे! द्वार पर खड़े हुए आदमी को वापस कैसे लौटाया जा सकता है? अभी हम दोनों लेटे थे, अब तीन लेट नहीं सकेंगे, तीनों बैठेंगे, बैठने के लिए काफी जगह है।
मजबूरी थी, पत्नी को दरवाजा खोल देना पड़ा। एक मित्र आ गया, पानी से भीगा हुआ। उसके कपड़े बदले। फिर वे तीनों बैठ कर गपशप करने लगे। दरवाजा फिर बंद है।
फिर किन्हीं दो आदमियों ने दरवाजे पर दस्तक दी। अब उस फकीर ने उस मित्र को कहा--वह दरवाजे के पास था--कि दरवाजा खोल दो, मालूम होता है कोई आया।
उस आदमी ने कहा, कैसे खोल दूं दरवाजा, जगह कहां है यहां?
वह आदमी अभी दो घड़ी पहले आया था खुद और भूल गया यह बात कि जिस प्रेम ने मुझे जगह दी थी, वह मुझे जगह नहीं दी थी, प्रेम था उसके भीतर इसलिए जगह दी थी। अब फिर कोई दूसरा आ गया, फिर जगह बनानी पड़ेगी। लेकिन उस आदमी ने कहा, नहीं, दरवाजा खोलने की जरूरत नहीं; मुश्किल से हम तीन बैठे हुए हैं!
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, बड़े पागल हो! मैंने तुम्हारे लिए जगह नहीं की थी, प्रेम था इसलिए जगह की थी। प्रेम अब भी है, वह तुम पर चुक नहीं गया और समाप्त नहीं हो गया। दरवाजा खोलो! अभी हम दूर-दूर बैठे हैं, फिर हम पास-पास बैठ जाएंगे। पास-पास बैठने के लिए काफी जगह है। और रात ठंडी है, पास-पास बैठने में आनंद ही और होगा।
दरवाजा खोलना पड़ा। दो आदमी भीतर आ गए। फिर वे पास-पास बैठ कर गपशप करने लगे। और थोड़ी ही देर बीती है और रात आगे बढ़ गई है और वर्षा हो रही है, और एक गधे ने आकर सिर लगाया दरवाजे से। पानी में भीग गया है। वह रात शरण चाहता है। उस फकीर ने कहा कि मित्रो--वे दो मित्र दरवाजे पर बैठे हुए थे जो पीछे आए थे--दरवाजा खोल दो! कोई अपरिचित मित्र फिर आ गया।
उन लोगों ने कहा, यह मित्र वगैरह नहीं है, यह गधा है। इसके लिए द्वार खोलने की कोई जरूरत नहीं।
उस फकीर ने कहा, तुम्हें शायद पता नहीं, अमीर के दरवाजे पर आदमी के साथ भी गधे जैसा व्यवहार किया जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है, हम गधे के साथ भी आदमी जैसा व्यवहार करने की आदत से भरे हैं। दरवाजा खोल दो!
पर वे दोनों कहने लगे, जगह?
उस फकीर ने कहा, जगह बहुत है; अभी हम बैठे हैं, अब हम खड़े हो जाएंगे। खड़े होने के लिए काफी जगह है। और फिर तुम घबराओ मत, अगर जरूरत पड़ेगी तो मैं हमेशा बाहर होने के लिए तैयार हूं। प्रेम इतना कर सकता है।
एक लविंग एटिट्यूड, एक प्रेमपूर्ण हृदय बनाने की जरूरत है। जब प्रेमपूर्ण हृदय बनता है, तो व्यक्तित्व में एक तृप्ति का भाव, एक रसपूर्ण तृप्ति...क्या आपको कभी खयाल है, जब भी आप किसी के प्रति जरा से प्रेमपूर्ण हुए हैं, पीछे एक तृप्ति की लहर छूट गई है? क्या आपको कभी भी खयाल है कि जीवन में तृप्ति के क्षण वे ही रहे हैं, जो बेशर्त प्रेम के क्षण रहे होंगे, जब कोई शर्त न रही होगी प्रेम की। और जब आपने रास्ते चलते एक अजनबी आदमी को देख कर मुस्कुरा दिया होगा--उसके पीछे छूट गई तृप्ति का कोई अनुभव है? उसके पीछे साथ आ गया एक शांति का भाव! एक प्राणों में एक आनंद की लहर का कोई पता है--जब राह चलते किसी आदमी को उठा लिया हो, किसी गिरते को सम्हाल लिया हो, किसी बीमार को एक फूल दे दिया हो? इसलिए नहीं कि वह आपकी मां है, इसलिए नहीं कि वह आपका पिता है। नहीं, वह आपका कोई भी नहीं है। लेकिन एक फूल किसी बीमार को दे देना आनंदपूर्ण है।
व्यक्तित्व में प्रेम की संभावना बढ़ती जानी चाहिए। वह इतनी बढ़ जानी चाहिए--पौधों के प्रति, पक्षियों के प्रति, पशुओं के प्रति, आदमियों के प्रति, अपरिचितों के प्रति, अनजान लोगों के प्रति, विदेशियों के प्रति, जो बहुत दूर हैं उनके प्रति, चांद-तारों के प्रति--प्रेम हमारा बढ़ता चला जाए।
जितना प्रेम हमारा बढ़ता है, उतनी ही सेक्स की जीवन में संभावना कम होती चली जाती है।
प्रेम और ध्यान, दोनों मिल कर उस दरवाजे को खोल देते हैं जो परमात्मा का दरवाजा है।
प्रेम + ध्यान = परमात्मा। प्रेम और ध्यान का जोड़ हो जाए और परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।
और उस उपलब्धि से जीवन में ब्रह्मचर्य फलित होता है। फिर सारी ऊर्जा एक नये ही मार्ग पर ऊपर चढ़ने लगती है। फिर बह-बह कर निकल नहीं जाती। फिर जीवन से बाहर निकल-निकल कर व्यर्थ नहीं हो जाती। फिर जीवन के भीतरी मार्गों पर गति करने लगती है। उसका एक ऊर्ध्वगमन, एक ऊपर की तरफ यात्रा शुरू होती है।
अभी हमारी यात्रा नीचे की तरफ है। सेक्स, ऊर्जा का अधोगमन है, नीचे की तरफ बह जाना है। ब्रह्मचर्य, ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है, ऊपर की तरफ उठ जाना है।
प्रेम और ध्यान, ब्रह्मचर्य के सूत्र हैं।
तीसरी बात कल आपसे करने को हूं कि ब्रह्मचर्य उपलब्ध होगा तो क्या फल होगा? क्या होगी उपलब्धि? क्या मिल जाएगा?
ये दो बातें मैंने आज आपसे कहीं--प्रेम और ध्यान। मैंने यह कहा कि छोटे बच्चों से इनकी शिक्षा शुरू हो जानी चाहिए। इससे आप यह मत सोच लेना कि अब तो हम बच्चे नहीं रहे, इसलिए करने को कुछ बाकी नहीं है। यह आप मत सोच कर चले जाना, अन्यथा मेरी मेहनत फिजूल गई। आप किसी भी उम्र के हों, यह काम शुरू किया जा सकता है। यह काम कभी भी शुरू किया जा सकता है। हालांकि जितनी उम्र बढ़ती चली जाती है, उतना मुश्किल होता चला जाता है। बच्चों के साथ हो सके, सौभाग्य! लेकिन कभी भी हो सके, सौभाग्य! इतनी देर कभी भी नहीं हुई है कि हम कुछ भी न कर सकें। हम आज शुरू कर सकते हैं।
और जो लोग सीखने के लिए तैयार हैं, वे बुढ़ापे में भी बच्चों जैसे ही होते हैं, वे बुढ़ापे में भी शुरू कर सकते हैं। अगर उनकी सीखने की क्षमता है, अगर लर्निंग का एटिट्यूड है, अगर वे इस ज्ञान से नहीं भर गए हैं कि हमने सब जान लिया और सब पा लिया, तो वे सीख सकते हैं और वे छोटे बच्चों की भांति नई यात्रा शुरू कर सकते हैं।
बुद्ध के पास एक भिक्षु कुछ वर्षों से दीक्षित था। एक दिन बुद्ध ने उससे पूछा कि भिक्षु, तुम्हारी उम्र क्या है? उस भिक्षु ने कहा, मेरी उम्र? पांच वर्ष! बुद्ध कहने लगे, पांच वर्ष? तुम तो कोई सत्तर वर्ष के मालूम पड़ते हो! कैसा झूठ बोलते हो!
उस भिक्षु ने कहा, लेकिन पांच वर्ष पहले ही मेरे जीवन में ध्यान की किरण फूटी। पांच वर्ष पहले ही मेरे जीवन में प्रेम की वर्षा हुई। उसके पहले मैं जीता था, वह सपने में जीना था, वह नींद में जीना था। उसकी गिनती अब मैं नहीं करता हूं। कैसे करूं? जिंदगी तो इधर पांच वर्षों से शुरू हुई, इसलिए मैं कहता हूं, मेरी उम्र पांच वर्ष है।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा, भिक्षुओ, इस बात को खयाल में रख लेना। अपनी उम्र आज से तुम भी इसी तरह जोड़ना। यही उम्र को नापने का ढंग समझना।
अगर प्रेम और ध्यान का जन्म नहीं हुआ है तो उम्र फिजूल चली गई। अभी आपका ठीक जन्म भी नहीं हुआ है। और कभी भी इतनी देर नहीं हुई, जब कि हम प्रयास करें, श्रम करें और हम अपने नये जन्म को उपलब्ध न हो जाएं।
इसलिए मेरी बात से यह नतीजा मत निकाल लेना आप कि आप तो अब बचपन के पार हो चुके, इसलिए यह बात आने वाले बच्चों के लिए है। कोई आदमी किसी भी क्षण इतनी दूर नहीं निकल गया है कि वापस न लौट आए। कोई आदमी कितने ही गलत रास्तों पर चला हो, ऐसी जगह नहीं पहुंच गया है कि ठीक रास्ता उसे दिखाई न पड़ सके। कोई आदमी कितने ही हजारों वर्षों से अंधकार में रह रहा हो, इसका मतलब यह नहीं है कि वह दीया जलाएगा तो अंधकार कहेगा कि मैं हजार वर्ष पुराना हूं, इसलिए नहीं टूटता! दीया जलाने से एक दिन का अंधकार भी टूटता है, हजार साल का अंधकार भी उसी तरह टूट जाता है। दीया जलाने की चेष्टा बचपन में आसानी से हो सकती है, बाद में थोड़ी कठिनाई है।
लेकिन कठिनाई का अर्थ असंभावना नहीं है। कठिनाई का अर्थ है: थोड़ा ज्यादा श्रम। कठिनाई का अर्थ है: थोड़ा ज्यादा संकल्प। कठिनाई का अर्थ है: थोड़ा ज्यादा लगनपूर्वक, ज्यादा सातत्य से तोड़ना पड़ेगा, व्यक्तित्व की जो बंधी धाराएं हैं उनको, और नये मार्ग खोलने पड़ेंगे।
लेकिन जब नये मार्ग की जरा सी भी किरण फूटनी शुरू होती है, तो सारा श्रम ऐसा लगता है कि हमने कुछ भी नहीं किया और बहुत कुछ पा लिया है। जब एक किरण भी आती है उस आनंद की, उस सत्य की, उस प्रकाश की, तो लगता है कि हमने तो बिना कुछ किए पा लिया है। क्योंकि हमने जो किया था, उसका तो कोई भी मूल्य नहीं था। जो हाथ में आ गया है, वह तो अमूल्य है।
इसलिए यह भाव मन में आप न लेंगे। ऐसी मेरी प्रार्थना है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।