BLAVATSKY

Samadhi Ke Sapat Dwar 17

Seventeenth Discourse from the series of 19 discourses - Samadhi Ke Sapat Dwar by Osho. These discourses were given in ANAND SHEELA during FEB 09-17 1973.
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इसके अतिरिक्त, उन पवित्र अभिलेखों का और क्या आशय, जो तुझसे यह कहलवाते हैं:
‘ॐ, मेरा विश्वास है कि सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं।’
‘ॐ, मेरा विश्वास है कि सभी बुद्ध36 निर्वाण-धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं।’
हां, आर्य-पथ पर अब तू स्रोतापन्न नहीं है, तू एक बोधिसत्व37 है। नदी पार की जा चुकी है। सच है कि तू ‘धर्मकाया’ के वस्त्र का अधिकारी हो गया है, लेकिन ‘संभोग काया’ निर्वाणी से बड़ा है। और उससे भी बड़े हैं ‘निर्वाण काया’ वाले--कारुणिक बुद्ध38।
अब ओ बोधिसत्व, अपना सिर झुका और ठीक से सुन। करुणा स्वयं बोलती है: जब तक प्राणिमात्र दुख में हैं, क्या तब तक आनंद संभव है? क्या तू अकेला सुरक्षित होगा और सारा संसार रोता रहेगा?
अब तूने वह सुन लिया है, जो कहा गया था।
तू सातवें पद को उपलब्ध होगा और परम विद्या के द्वार को पार करेगा, लेकिन क्या मात्र इसलिए ही कि दुख के साथ तेरा गठबंधन न हो! यदि तुझे तथागत होना है, तो अपने पूर्ववर्ती के चरण-चिह्नों पर चल और अंतहीन अंत तक अहंकार-शून्य रह।
तू संबुद्ध है--अपना पथ चुन।
उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है। उसकी प्रशंसा के प्रतीक के रूप में स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले खड़े हैं। और चतुर्मुखी अभिव्यक्त शक्तियों से--दहकती अग्नि और प्रवाहमान जल से, मधु-गंधी मिट्टी और बहती हवाओं से--प्रेम का मधुर संगीत उदभूत हो रहा है।
...जिसमें विजेता स्नान करता है, उस स्वर्ण-प्रकाश के गहन व अगम्य चक्रवात से उठ कर समस्त निसर्ग की निःशब्द आवाज हजार-हजार रागों में उदघोष करती है: आनंद मना, ओ म्यालबा39 के मानवो, एक तीर्थयात्री दूसरे तट से लौट आया है।
एक नये अर्हत40 का जन्म हुआ है।
प्राणिमात्र के लिए शांति41।
आनंद पाने का एक आनंद है, लेकिन फिर उस आनंद को बांटने का और ही आनंद है। जो मिला है, वह जब तक दिया न जाए, तब तक उसकी पूरी प्रतीति, उसका पूरा रस, उसका पूरा स्वाद भी नहीं मिलता है। आनंद को बांट कर ही पता चलता है कि क्या मिला है।
जब परम स्थिति के निकट पहुंचता है साधक, शून्य होने का क्षण आ जाता है, तब जो उसे मिलता है, वह अपार है, असीम है। उसे वह अकेला लेकर डूब सकता है, लेकिन ये सूत्र महायान के कहते हैं कि वह आनंद के अंतिम और मधुर फल से वंचित रह जाएगा। आनंद उसे पूरा मिल जाएगा, फिर भी आनंद के अंतिम मधुर फल से वंचित रह जाएगा। वह मधुर फल है आनंद को बांटने का।
एक आनंद है आनंद को पाने का, और फिर उससे भी विराटतर आनंद है--आनंद को बांटने का।
वह जो बांटना है, वह जो बिखेरना है आनंद के बीजों को, सभी बुद्ध उसे नहीं कर पाते हैं। कुछ बुद्ध उसे कर पाते हैं, कुछ बुद्ध शून्य में खो जाते हैं। ये सूत्र इसी संबंध में हैं। हम इन्हें समझें।
‘इसके अतिरिक्त, उन पवित्र अभिलेखों का और क्या आशय है, जो तुझसे यह कहलवाते हैं:
‘ॐ, मेरा विश्वास है कि सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं।’
सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं--मधुर फल निर्वाण-मार्ग का, उस फल को बांट देने में है, उसे फैला देने में है। अपने लिए पाने के लिए तो संसार में सभी लोग जीते हैं। सांसारिक सुख अपने लिए पाना चाहते हैं। फिर ऐसे ही अध्यात्म के जगत में भी आध्यात्मिक आनंद अपने लिए पाना चाहते हैं। इसमें एक अर्थ में संसार की पुरानी आदत मौजूद है--अपने लिए पाने की। मिल भी जाता है, लेकिन संसार की एक पुरानी आदत जैसे काम करती चली जाती है--मैं ही केंद्र बना रहता हूं। अहंकार मिट गया अब, आत्मा बन गई केंद्र, लेकिन फिर भी मैं ही केंद्र हूं। झूठा अहंकार खो गया, सच्ची आत्मा मिल गई, फिर भी केंद्र मैं ही हूं। तो संसार का एक सूत्र जैसे काम ही कर रहा है कि मैं केंद्र हूं।
सभी अर्हत, सभी उपलब्ध व्यक्ति लौट कर इस आखिरी सूत्र को नहीं तोड़ देते हैं कि मैं केंद्र नहीं हूं, अब केंद्र दूसरे हो गए। अब यह सारा अस्तित्व केंद्र है, और मैं इस अस्तित्व के लिए समर्पित हूं।
‘मेरा विश्वास है कि सभी अर्हत निर्वाण-मार्ग के मधुर फल नहीं चखते हैं।’
‘ॐ, मेरा विश्वास है कि सभी बुद्ध निर्वाण-धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं।’
सभी बुद्ध वापस लौट कर बांटते नहीं हैं, कोई बुद्ध कभी बांटता है।
जैनों ने उन बुद्धों को ‘तीर्थंकर’ कहा है, जो बांटते भी हैं। जैनों का शब्द है तीर्थंकर, कीमती है। उस शब्द को समझने से बहुत आसानी होगी। जैनों के चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। ये चौबीस बुद्धपुरुष--केवल चौबीस ही बुद्धपुरुष हुए हैं, ऐसा नहीं है, ऐसे बहुत से जिन, बहुत से बुद्धपुरुष हुए हैं। सम्यकत्व को, सम्यक ज्ञान को, अंतिम ज्ञान को, केवल-ज्ञान को उपलब्ध बहुत से अरिहंत हुए हैं। ‘अर्हत’ बौद्धों का शब्द है, ‘अरिहंत’ जैनों का शब्द है। अर्थ एक ही है। लेकिन तीर्थंकर चौबीस हुए हैं। अनंत-अनंत बुद्धों, जिनों, अर्हतों, अरिहंतों में से केवल चौबीस व्यक्ति लौट आए हैं। और उन्हें जो मिला है, उसे उन्होंने बांटने की कोशिश की है।
तीर्थंकर शब्द का अर्थ है: घाट के बनाने वाले।
एक व्यक्ति जब बुद्ध होता है, तो दूसरे किनारे पहुंच गया। अगर वह लौट कर न आए वापस उस किनारे पर, जहां संसार है, जहां उसके संगी-साथी, मित्र, शिष्य, प्रियजन, जन्मों-जन्मों के संबंधी, अनेक-अनेक यात्राओं में उसके साथी, जहां उसका बड़ा परिवार है दुख में लीन, उस तट पर अगर कोई वापस न लौटे, तो तीर्थ निर्माण नहीं होता। उस तट पर अगर कोई वापस लौट आए, तो वह घाट को बनाता है। अब उसे अनुभव है--दूसरे पार जाने का रास्ता कैसे जाता है और कहां से उतरें कि हम दूसरे पार सुगमता से पहुंच सकेंगे।
तो इस किनारे पर लौट कर वह घाट का निर्माण करता है, जहां से नाव दूसरे किनारे के लिए जा सके। उस घाट का नाम है तीर्थ। और उसको जो निर्माण करता है, उसका नाम है तीर्थंकर। उस किनारे गया हुआ लौट कर जब इस किनारे ऐसा घाट निर्मित करता है, जिससे दूसरे भी नाव को पकड़ लें और दूसरे तट की ओर चल पड़ें, ऐसा बुद्ध, ऐसा जिन, ऐसा अर्हत तीर्थंकर है। लेकिन सभी बुद्ध ऐसा नहीं करते, अति कठिन काम है।
उस पार का आनंद अवर्णनीय है। उस पार की शांति की कोई तुलना नहीं है। उस पार महासुख है। उस पार रंचमात्र भी पीड़ा शेष नहीं रह जाती है। वहां से इस तरफ लौटना, अति असंभव कार्य है। दुख से सुख की तरफ जाना तो बहुत आसान है, सुख से दुख की तरफ आना बहुत कठिन है। नरक से स्वर्ग को जाने के लिए तो कोई भी तैयार होगा, लेकिन स्वर्ग से कौन नरक की तरफ आना चाहे? उस पार से इस तरफ लौटना अति दुर्गम है। इस तरफ से उस पार जाना ही अति दुर्गम है, फिर उस पार से इस पार लौटना तो बहुत ही महादुर्गम है; असंभव जैसा कृत्य है।
इसलिए हमने तीर्थंकरों और बुद्धों को इतना सम्मान दिया है। उन्होंने असंभव किया है: उस परम आनंद के अनुभव के बाद लौटना इस उत्तप्त जगत में, जहां सब जल रहा है और सब नरक है। हमें तो इसके नरक की प्रतीति ज्यादा नहीं होती; क्योंकि हम इसी में बड़े हुए हैं, इसी में जीए हैं, यह हमारी श्वास-श्वास में भरा है। हम इसे जीवन ही मानते हैं। इस नरक की प्रतीति तो उसे ही होती है इसकी पूर्णता में, जो उस पार की झलक ले आया है।
तो जितना दुख आपको मालूम होता है, आपको पता नहीं, आप सोचते होंगे कि ऐसी भी क्या तकलीफ है। थोड़ी तकलीफ है माना। ऐसी क्या तकलीफ है कि कोई उस तरफ से लौटना ही न चाहे? हमें अंदाज नहीं है।
गरीब आदमी को जो तकलीफ है, अगर अमीर आदमी गरीब की जगह खड़ा हो, तो उसे जो तकलीफ पता चलेगी, वह गरीब को कभी भी पता नहीं चली थी। वह तो अमीर को जब गरीब हो जाए, तब जो दुख पता चलेगा, वह उसी झोपड़े में रहने वाले गरीब को बिलकुल नहीं पता चल रहा है। गरीब उसका आदी है। उसके पास तुलना का उपाय भी नहीं है। किससे तौले, किससे कहे कि यह दुख है, किस आधार पर इसको दुख कहे? यही जीवन है। कठिन है। लेकिन जिसने सुख जाना हो, उसके लिए महादुख है।
एक बार जिसने उस पार की झलक पा ली हो, उसके लिए इस पार का जगत ‘म्यालबा’ है। यह तिब्बती शब्द है। म्यालबा का अर्थ है: महानरक। साधारण नरक नहीं, महानरक। इस महानरक की तरफ जो लौटता है, उसको तीर्थंकर, बोधिसत्व कहते हैं। स्वाभाविक है कि उसे इतना सम्मान दिया गया हो।
‘मेरा विश्वास है कि सभी बुद्ध निर्वाण-धर्म में प्रवेश नहीं करते हैं।’
‘हां, आर्य-पथ पर अब तू स्रोतापन्न नहीं है, तू एक बोधिसत्व है। नदी पार की जा चुकी है। सच है कि तू ‘धर्मकाया’ के वस्त्र का अधिकारी हो गया है, लेकिन ‘संभोग काया’ निर्वाणी से बड़ा है। और उससे भी बड़े हैं ‘निर्वाण काया’ वाले--कारुणिक बुद्ध।’
तीन तरह की कायाओं का विचार बुद्ध-चिंतना में है। ये तीन काया के शब्द ठीक से समझ लेने चाहिए।
एक शब्द है: ‘धर्मकाया।’ अभी हम एक शरीर में हैं, यह है पार्थिव, स्थूल काया। इस स्थूल काया के बिना संसार में नहीं हुआ जा सकता है। संसार में होने के लिए यह शरीर जरूरी है। मोक्ष में, महाशून्य में जब हम प्रवेश करते हैं, तो जो हमें घेरे होती है देह, उसका नाम है धर्मकाया। वह कोई शरीर नहीं है, सिर्फ प्रतीक है। जब महाशून्य में कोई प्रवेश करता है, तो उसके आस-पास जो आभा होती है, जो अस्तित्व की श्वास होती है, उसका नाम है धर्मकाया।
धर्मकाया इसलिए कि वह हमारा स्वरूप है, धर्म है। उसे हमसे छीना नहीं जा सकता। उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। उसको मिटाने का कोई उपाय नहीं है। वह हम ही हैं। वह हमारी आत्मा है। वह हमारा मौलिक अस्तित्व है, जिसको हम स्वभाव कहते हैं, वह आत्यंतिक स्वभाव है। उसमें से रत्ती भर अलग नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह हम ही हैं। जो भी अलग किया जा सकता है, वह स्वभाव नहीं है। स्वभाव का अर्थ है...जिससे हम अलग हो सकते हैं और फिर भी हो सकते हैं, तो फिर स्वभाव नहीं है। स्वभाव तब है, जब जिससे हम अलग ही न हो सकें, अलग करने का उपाय ही न हो, तब स्वभाव है।
धर्मकाया का अर्थ है: आत्यंतिक स्वभाव।
जब कोई शून्य में प्रवेश करता है, तो उससे सब छिन जाता है। जो भी पराया था, विजातीय था, फॉरेन था, जो उसका अपना नहीं था, वह सब छिन जाता है। बच रहता है वही, जो शुद्ध अस्तित्व है, प्योर एक्झिस्टेंस। उसका नाम है: धर्मकाया।
उससे नीचे की काया का नाम है: ‘संभोग काया।’ और उससे भी नीचे की काया का नाम है: ‘निर्वाण काया।’
धर्मकाया मिली कि व्यक्ति शून्य हुआ। धर्मकाया आखिरी है, फिर लौटना संभव नहीं है; क्योंकि लौटने के सारे साधन खो गए। लौटने के लिए वाहन चाहिए।
उससे नीचे के तल पर है संभोग काया। संभोग काया वैसी ही स्थिति है--मध्य की। संभोग काया में खड़ा हुआ व्यक्ति धर्मकाया की सारी स्थिति को देख पाता है। एक कदम आगे धर्मकाया है, आखिरी, वहां अंत होता है अस्तित्व का। वहां महाशून्य और निर्वाण शुरू होता है। उसके बाद लौटना मुश्किल है।
संभोग काया वह क्षण है, जहां से व्यक्ति देख पाता है कि अगर एक कदम और आगे बढ़ा, तो फिर लौट नहीं सकूंगा। यहां से झलक मिलती है। यहां से आगे का दिखाई पड़ता है, वह महाशून्य, स्वभाव का अनंत विस्तार, ब्रह्म, निर्वाण। वह यहां से दिखाई पड़ता है। लेकिन अगर साधक एक कदम और आगे बढ़ता है, तो वह उस निर्वाण के साथ एक हो जाएगा। आखिरी काया है, संभोग काया। जो पराई है, वह छूट गई, तो फिर लौटा नहीं जा सकता।
जिनको बोधिसत्व होना है, उनको संभोग काया के क्षण में ही ठहर जाना पड़ता है। जहां से दिखाई पड़ता है महाशून्य। लेकिन अभी अंतर है, अभी स्वयं महाशून्य नहीं हो गए हैं। अभी महाशून्य भी प्रतीत होता है, दिखाई पड़ता है, उसका दर्शन होता है। अभी भी हम द्रष्टा हैं। अभी भी थोड़ी सी बारीक दूरी है। इतनी दूरी अगर बचाए रखें तो लौटना हो सकता है।
संभोग काया से और भी पहले एक कदम है काया का, वह है निर्वाण काया। धर्मकाया से कोई संसार में नहीं लौट सकता। अकेली संभोग काया सिर्फ अंतराल है बीच का। जब कोई व्यक्ति निर्वाण काया में होता है, तो ही संसार के काम आ सकता है।
निर्वाण काया, ऐसा समझ लें हम, संसार और निर्वाण के बीच का संबंध-सेतु है। निर्वाण काया के माध्यम से कोई बुद्ध अगर चाहे तो जगत के उपकार में, करुणा में, जगत के जगाने में लग सकता है। निर्वाण काया माध्यम है, जगत और निर्वाण के बीच। निर्वाण काया और धर्मकाया के बीच में है संभोग काया। अगर कोई निर्वाण काया में ही रुका रहे, तो उसे धर्मकाया का अनुभव नहीं हो पाता, महाशून्य का अनुभव नहीं हो पाता--दूर है अभी, उससे एक कदम आगे बढ़ कर संभोग काया है।
संभोग काया इसे इसलिए नाम दिया है कि स्वयं के और उस अनंत के बीच संभोग का अनुभव होता है। थोड़ा सा फासला रह गया है, अभी बिलकुल एक नहीं हो गए हैं।
ऐसा समझें कि जब एक प्रेमी अपनी प्रेयसी से मिलता है गहन--दो तो बने ही रहते हैं, एक क्षण को ऐसा लगता है कि दो नहीं रहे, एक ही रह गया। वही संभोग का क्षण है। फिर भी दो तो रहते ही हैं। ऐसा लगता है एक क्षण को प्रतीति होती है--एक हलकी सी झलक, हवा का एक ताजा झोंका और ऐसा लगता है कि दो खो गए और एक तरंग हो गई। दो तरंगें मिल गईं, दो गीत अपने में एक-दूसरे में डूब गए, दो नदियां एक-दूसरे में घुल-मिल गईं। एक क्षण को ऐसी जो प्रतीति होती है, उसे हम संभोग कहते हैं। इस अवस्था में संभोग काया इस काया को इसीलिए कहा है कि इस काया में खड़े हुए व्यक्ति को उस महाशून्य के साथ क्षण भर को एक हो जाने का अनुभव होता है, एक हो नहीं जाता। एक हो जाए, तो फिर लौटना नहीं है।एक नहीं होता है, इसलिए लौट सकता है। संभोग काया आखिरी पड़ाव है। उसके बाद लौटना नहीं है। संभोग काया में जो सम्हल गया, जहां संभोग का अनुभव हुआ अस्तित्व के साथ--दूरी कायम रही, लेकिन मिलन हो गया। जैसे प्रेमी और प्रेयसी का मिलन। यहीं से सावधान होकर कोई नीचे उतर आए, तो निर्वाण काया है। अभी नीचे उतरा जा सकता है। अभी संबंध नहीं टूट गए हैं। निर्वाण काया में रह कर ही कोई बोधि, बोधिसत्व रह पाता है।
तो यह सूत्र बहुत अदभुत है। यह कहता है कि नदी पार की जा चुकी है। और सच है कि तू धर्मकाया के वस्त्र का अधिकारी हो गया। अब तू हकदार है महाशून्य के साथ एक हो जाने के लिए, लेकिन संभोग काया निर्वाणी से बड़ी है। तू रुक, निर्वाण में डूब जाना बिलकुल सहज है, सभी डूब जाते हैं, उससे भी बड़ा कृत्य है कि तू संभोग काया में रुक जाए। जहां एक होने के बिलकुल करीब आ गया, वहां पीठ मोड़ ले और लौट आए।
‘और उससे भी बड़े हैं निर्वाण काया में रहने वाले--कारुणिक बुद्ध।’
लेकिन संभोग काया में भी रह जाए तो संसार का कोई उपयोग नहीं है। उससे भी नीचे उतर आ, और जगत से आखिरी संबंध का जो सेतु है, उसको बना ले--निर्वाण काया। और उस सेतु के माध्यम से जगत के प्रति करुणा से भर कर कुछ करने में लग।
‘अब ओ बोधिसत्व, अपना सिर झुका और ठीक से सुन। करुणा स्वयं बोलती है: जब तक प्राणिमात्र दुख में है, क्या तब तक आनंद संभव है?’
ये बौद्ध महायान के सार-सूत्र हैं और बड़े गहन हैं।
यह सूत्र यह कहता है कि जब तक प्राणिमात्र दुख में हैं, तब तक क्या आनंद संभव है? तेरा दुख मिट गया, माना, लेकिन जब तक इस जगत में दुख है, क्या सच में ही तेरा दुख मिट गया? क्या तुझे इस जगत का दुख बिलकुल स्पर्श न करेगा? क्या इस जगत का दुख जिसका कि तू एक हिस्सा है, इस अस्तित्व की पीड़ा जिसका कि तू एक अंग है, तुझे नहीं छुएगी? और इस पीड़ा की तरंगें तेरे हृदय में भी प्रवेश नहीं कर जाएंगी? क्या यह सच में ही संभव है कि इस अस्तित्व में दुख बना रहे और तू आनंद को उपलब्ध हो जाए? तूने अपना आनंद पा लिया, पर और हैं, बहुत हैं जो दुखी हैं, क्या यह दुख बिलकुल ही तुझे विस्मृत हो जाएगा? क्या तू भूल ही जाएगा कि अस्तित्व में दुख अभी शेष है--यह प्रश्न है।
यह प्रश्न है कि जब तक प्राणिमात्र दुख में हैं, क्या तब तक आनंद संभव है?
‘क्या तू अकेला सुरक्षित होगा और सारा संसार रोता रहेगा?’
‘अब तूने वह सुन लिया है, जो कहा गया था।’
‘तू सातवें पद को उपलब्ध होगा और परम विद्या के द्वार को पार करेगा, लेकिन क्या मात्र इसलिए ही कि दुख के साथ तेरा गठबंधन न हो!’
क्या यह सारी यात्रा बस इतनी ही थी कि दुख से तेरा संबंध टूट जाए?
‘यदि तुझे तथागत होना है, तो अपने पूर्ववर्ती के चरण-चिह्नों पर चल और अंतहीन अंत तक अहंकार-शून्य रह।’
‘तू संबुद्ध है--अपना पथ चुन।’
अब तू सिर्फ खोने की बात मत सोच। बहुत हैं जो दुखी हैं, उनका भी स्मरण कर। और जैसे तुझसे पहले तथागत गौतम बुद्ध ने स्वयं को रोक लिया--तब तक के लिए, जब तक यह अंतहीन संसार आनंद को उपलब्ध नहीं हो जाता, ऐसा महासंकल्प लिया--ऐसा तू भी महासंकल्प ले।
‘अब तू संबुद्ध है।’
अब तू जाग गया।
‘अपना पथ चुन।’
अब तू सिर्फ आनंद में आकर्षित होकर मत डूब।
इसे हम ऐसा भी समझ सकते हैं, महायान की दृष्टि से ऐसा है ही कि यह आखिरी वासना है कि मैं आनंद में डूब जाऊं। मेरा आनंद मिल गया, बात समाप्त हो गई।
इसे भी तोड़ दे। मेरा भी क्या? जब तक दुख है, तब तक मेरे-तेरे की बात ही मत कर। जब तक आनंद ही आनंद न हो जाए, और कोई भी दुखी न रह जाए, तब तक तू रुक।
और तू रुक सकता है, तेरी सामर्थ्य है। क्योंकि तू संबुद्ध है, जागा हुआ है, नियम के बाहर हो गया। अब तेरे ऊपर कोई भी जोर-जबर्दस्ती नहीं है। अब तू स्वयं भगवान है। अब तो कोई कारण नहीं जो तुझे धक्का दे रहा हो कि तू ऐसा कर, वैसा कर। अब तू जो करना चाहे कर सकता है। इस क्षण में तुझे इतनी बड़ी सत्ता और शक्ति मिली है कि तू जो चाहे कर सकता है। इसका उपयोग कर।
या कि सिर्फ इसका इतना ही उपयोग करेगा कि तेरा दुख मिट जाए? तेरा दुख मिट गया, बस बात समाप्त हो गई?
‘उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है। उसकी प्रशंसा के प्रतीक के रूप में स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले खड़े हैं।’
एक झलक उस स्थिति की कि अगर तू लौट आए और पीठ फेर ले इस महाआनंद की तरफ और ध्यान करे उनका, जो दुख में हैं, उसकी एक झलक।
‘उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है।’
अगर तू वापस लौट आए, तो सारा पूरब का आकाश प्रकाश से भर जाएगा, तेरे लौटते ही। जहां सदा से अंधेरा है, वहां प्रकाश का एक सूर्य उदय होगा।
‘उस स्निग्ध प्रकाश को देख, जो पूर्वाकाश को प्लावित कर रहा है। उसकी प्रशंसा के प्रतीक के रूप में स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले खड़े हैं।’
तेरा स्वागत करेगी पृथ्वी, तेरा स्वागत करेगा स्वर्ग। गलबाहीं डाले खड़े हैं कि तू आ रहा है।
‘और चतुर्मुखी अभिव्यक्त शक्तियों से--दहकती अग्नि और प्रवाहमान जल से, मधु-गंधी मिट्टी और बहती हवाओं से--प्रेम का मधुर संगीत उदभूत हो रहा है।’
देख कि तू वापस लौट रहा है उस जगत में, जहां दुख है, अंधकार है। जैसे पूरब में फिर से आध्यात्मिक अर्थों में एक सूरज का जन्म हो रहा है। स्वर्ग और पृथ्वी गलबांही डाले तेरा स्वागत कर रहे हैं। दहकती अग्नि और प्रवाहमान जल से, मधु-गंधी मिट्टी और बहती हवाओं से, तेरे लिए प्रेम का मधुर संगीत उदभूत हो रहा है।
‘सुन...जिसमें विजेता स्नान करता है, उस स्वर्ण-प्रकाश के गहन व अगम्य चक्रवात से उठ कर समस्त निसर्ग की निःशब्द आवाज हजार-हजार रागों में उदघोष करती है: आनंद मना, ओ म्यालबा के मानवो, एक तीर्थयात्री दूसरे तट से वापस लौट आया है।’
हे महानरक के निवासियो,...म्यालबा का अर्थ है: महानरक। हमारी पृथ्वी म्यालबा है।
‘सुन...जिसमें विजेता स्नान करता है, उस स्वर्ण-प्रकाश के गहन व अगम्य चक्रवात से उठ कर समस्त निसर्ग की निःशब्द आवाज हजार-हजार रागों में उदघोष करती है: आनंद मना, ओ म्यालबा के मानवो, एक तीर्थयात्री दूसरे तट से लौट आया है।’
‘एक नये अर्हत, एक नये बोधिसत्व, एक नये बुद्ध का जन्म हुआ है।’
‘प्राणिमात्र के लिए शांति।’
आदमी है दुख में, सुख खोजता है। जितना सुख खोजता है, उतना दुखी होता जाता है। जब बोध जगता है कि मेरे सुख की खोज ही मेरे दुख का कारण है, तो साधना का जन्म होता है। तब आदमी सुख नहीं खोजता, दुख से नहीं बचना चाहता, सुख-दुख दोनों से उठना चाहता है।
सांसारिक आदमी है वह, जो दुख में है, और सुख खोजता है।
संन्यासी है वह, जो समझ गया कि दुख से बचने और सुख के खोजने में ही दुख है।
तो संन्यासी है वह, जो सुख और दुख दोनों से ऊपर उठने का रास्ता, मार्ग खोजता है।
सिद्ध है वह, जो पहुंच गया उस जगह, जहां सुख और दुख के पार हो गया।
सुख-दुख के पार होते ही आनंद घटित हो जाता है।
सिद्धत्व आनंद की अवस्था है।
बोधिसत्व है वह, जो इस आनंद को पाकर खो नहीं जाता, चुप नहीं हो जाता, बैठा नहीं रहता; वरन जो दुख में हैं, उनके लिए वापस लौट आता है।
सुना है मैंने कि जापान के एक कारागृह में एक अनूठी घटना वर्षों तक घटती रही। एक फकीर बार-बार चोरी करता और सजा पाता। लोग चकित थे। क्योंकि फकीर ऐसा साधु था असाधारण कि कोई भरोसा ही न करता था कि वह साधु और कभी चोरी करेगा। गुण उसके ऐसे थे बुद्धत्व के और चोरी की बात का कहीं तालमेल न था। और चोरी भी बहुत छोटी-मोटी! और यह जिंदगी भर चला! बूढ़ा हो गया फकीर तो उसके शिष्यों ने कहा कि अब तो बंद करो यह उपद्रव। हमारी कल्पना में भी नहीं आता कि किसलिए यह चोरी करते हो! हम मान भी नहीं सकते कि तुम चोरी करते हो; लेकिन सब गवाह हो जाते हैं, सबूत हो जाते हैं, और तुम्हारी सजा हो जाती है। और तुम्हारे पीछे हम भी बदनाम होते हैं कि तुम किसके शिष्य हो, वह आदमी फिर जेल में चला गया। और अब तुम आखिरी बार छूट आए हो, और उम्र भी कम बची है, स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है, अब कृपा करके यह उपद्रव बंद करो। और तुम्हें जो चाहिए, हम सदा देने को तैयार हैं; चोरी की तुम्हें जरूरत नहीं है। और तुम चोरी भी ऐसी छोटी-छोटी करते हो कि भरोसा नहीं आता कि क्यों करते हो!
तो उसने कहा कि जिंदगी भर मैंने कहा नहीं, अब तुमसे कहता हूं: चोरी मैं सिर्फ इसलिए करता हूं, ताकि भीतर जाकर चोरों को बदल सकूं। उन तक पहुंचने का और कोई उपाय नहीं है। वहां बहुत चोर दुखी हो रहे हैं। वहां बहुत अपराधी और पापी हैं। उनको कौन बदले? और कैसे बदले? और अगर मैं गुरु की तरह जाकर उनको उपदेश दूं, तो उनको नहीं बदल सकता।
क्योंकि जो अपना नहीं है, उसके प्रति कोई सम्मान पैदा नहीं होता। जो अपने ही जैसा नहीं है, उससे कोई संबंध निर्मित नहीं होते हैं। एक गुरु की तरह, एक साधु की तरह जाकर मैं खड़ा हो जाऊं, तो उनके मन में मेरे प्रति एक फासला और एक दूरी रहती है कि मैं साधु हूं और वह चोर है। शायद मेरी मौजूदगी उनकी निंदा भी बन जाती है। शायद मेरे कारण उन्हें पीड़ा भी हो। शायद अकारण मैं उनके दुख का कारण भी बन जाऊं। तो मैं चोर होकर ही जाना पसंद करता हूं। मैं फिर उनके जैसा हो गया। उनकी ही काल-कोठरियों में बंद, उनकी ही तरह जंजीरें मेरे हाथ में, मैं भी एक चोर, वे भी एक चोर। फिर हम एक-दूसरे की भाषा भी समझ सकते हैं। और फिर उनकी ही भाषा में मैं उनको बदलने की कोशिश करता हूं। तो तुम मुझे रोको मत। जब तक मैं हूं, मेरा यही काम है कि वे जो पीड़ा और पाप से घिरे हैं, उन्हें बाहर लाऊं।
बोधिसत्व उस किनारे से ऐसा ही व्यक्ति है लौटता हुआ इस किनारे पर। और अगर उसे यहां लौटना है, और इस किनारे के लोगों को सहायता पहुंचानी है, तो उसे इस किनारे की कुछ भाषा कायम करनी होगी। इस किनारे के लोगों से कुछ संबंध स्थापित करना होगा।
निर्वाण काया वही संबंध है इस जगत के लोगों से।
और इस जगत के लोगों की भाषा क्या है? इस जगत के लोगों की भाषा है वासना।
तो बुद्ध को अगर बोधिसत्व बनना है, तो उसे अपनी करुणा को वासना बनाना पड़ेगा। उसे यह प्रगाढ़ वासना करनी पड़ेगी कि मैं दूसरों को सहयोग दे सकूं, और साथ दे सकूं, और मार्ग-दर्शन दे सकूं।
जैनों में कहा जाता है कि तीर्थंकर वही आदमी होता है, जिसने तीर्थंकर-कर्म का बंधन किया हो। इसको भी कर्म कहते हैं। यह भी एक पाप है। है तो, क्योंकि दूसरों को जगाने की चेष्टा भी, दूसरों को बदलने की चेष्टा भी, दूसरों को रूपांतरित करने की चेष्टा भी, एक चेष्टा तो है, और एक वासना तो है। तो जिसने दूसरों को जगाने की वासना को बचा लिया हो, वही तीर्थंकर बन सकता है। इतनी तो उसे वासना रखनी पड़ेगी कि मैं दूसरों के काम आ जाऊं। इतनी वासना का धागा बना रहे, वही वासना निर्वाण काया है। तो फिर वह हमसे जुड़ा है बहुत हलके धागे से। कभी भी टूट सकता है धागा। कोई मजबूत जंजीर नहीं है। और फिर अपने ही हाथ से बंधा है। अगर इस तट पर किसी को रहना है, तो इस तट के साथ उसको कुछ खूंटियां, कुछ सूत्र, कुछ धागे, कुछ रस्सियां बांधनी पड़ती हैं।
मैंने सुना है कि रामकृष्ण को भोजन से अति लगाव था, अतिशय। ऐसा ज्यादा था कि रामकृष्ण के आस-पास के लोग चिंतित हो जाते थे। और शारदा तो बहुत बार रामकृष्ण को झिड़कती थी कि यह बंद करो बच्चों जैसा काम। क्योंकि ब्रह्मचर्चा चलती होती और अचानक रामकृष्ण बीच से उठ कर किचन में, चौके में पहुंच जाते, और कहते: क्या बना है? आज क्या बन रहा है? शारदा कहती कि ब्रह्मचर्चा छोड़ कर और यहां चौके में आकर ऐसे प्रश्न उठाना आपको शोभा नहीं देता परमहंस देव। शिष्य भी समझाते कि लोगों में खबर पहुंचती है, लोग कहते हैं, यह रामकृष्ण भी कैसा ज्ञानी है? इसको भोजन की इतनी फिकर! अज्ञानियों को भी इतनी फिकर नहीं! थाली लेकर शारदा आती तो उठ कर खड़े होकर थाली देखते, उनके चेहरे पर बड़े आनंद का भाव थाली को देख कर आ जाता!
एक दिन कोई भी न था। शारदा तो कई बार झिड़क चुकी थी। उस दिन बहुत नाराज हो गई, और उसने कहा कि समझ के बाहर है यह बात, तुममें और भोजन के प्रति ऐसा रस! रामकृष्ण ने कहा: आज तक छिपाए रखा कि कहने से तुम्हें कठिनाई होगी और दुख होगा। तुम नहीं मानती हो और तुम उलझती जाती हो, तो कहे देता हूं: ध्यान रखना, जब तक मैं भोजन में रस ले रहा हूं, तभी तक मैं इस शरीर में हूं; जिस दिन भोजन में रस न लूं, तू समझ जाना और खबर कर देना कि तीन दिन के भीतर मेरा शरीर छूट जाएगा।
फिर भी किसी ने बहुत गंभीरता से न लिया, क्योंकि हम बहुत बाद में बातें गंभीरता से लेते हैं। तब शारदा ने भी सुना-अनसुना कर दिया। औरों ने भी सुना, बात आई-गई हो गई। फिर एक दिन तब याद आई वर्षों बाद, शारदा थाली लेकर आई--रामकृष्ण लेटे थे, तो उन्होंने करवट बदल ली दूसरी तरफ। यह असंभव था। भोजन में उनका रस ऐसा था कि वह करवट बदल लें और पीठ कर लें, यह असंभव था। अचानक शारदा को याद आया, हाथ से थाली छूट कर गिर पड़ी। रोने लगी, उसने कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं, आपने पीठ क्यों फेर ली? रामकृष्ण ने कहा: तुम्हीं लोग सब सदा कहते थे, अब आज वही कर रहा हूं, जो तुम्हारी आकांक्षा थी। ठीक तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई।
शरीर में अगर बांध कर रखना हो किसी बोधिसत्व को, तो शरीर की कोई वासना पकड़नी होगी, नहीं तो वह तत्क्षण छूट जाएगा। पर यह वासना पकड़ी जा रही है, इसमें भी वह मालिक है। यह वासना उसे नहीं पकड़ रही है। एक तो ऐसा है कि किनारे की खूंटी आपको पकड़े हुए है, और आप खूंटी के बस में हैं। और एक ऐसा है कि आपने खूंटी किनारे की पकड़ रखी है अपने हाथ से; क्योंकि आप धारा में बह नहीं जाना चाहते, इस किनारे पर कुछ काम आना चाहते हैं। जिस दिन चाहें, उस क्षण छोड़ सकते हैं। खूंटी की कोई पकड़ आप पर नहीं है, आप ही खूंटी को पकड़े हुए हैं।
भोजन में आपका भी रस है। आप यह मत सोचना कि आप भी रामकृष्ण जैसे हैं। रामकृष्ण और आपके भोजन के रस में भी फर्क है। यह प्रयोजित है, जाना-माना है, आयोजित है। रामकृष्ण जान रहे हैं कि इस शरीर को अगर पकड़े रखना है कि कुछ देर काम आ जाए, तो इस शरीर की भाषा में कुछ सूत्र, सेतु, मार्ग पकड़ रखना पड़ेंगे। यह मैंने उदाहरण के लिए कहा।
उस क्षण में जब कोई शून्य में खोने के करीब आ गया, तब अगर उसे जगत के साथ कोई संबंध रखना है, तो उसे करुणा की वासना में अपने को रोक रखना पड़ेगा। यह सूत्र करुणा की वासना जगाने के लिए है।
अंत होता है इस पुस्तक का: ‘प्राणिमात्र के लिए शांति।’
बुद्ध ने निरंतर बार-बार कहा है: अपने लिए शांति मत मांगना, प्राणिमात्र के लिए मांगना। अपने लिए आनंद मत मांगना, प्राणिमात्र के लिए आनंद मांगना। अपने लिए प्रार्थना मत करना, प्राणिमात्र के लिए प्रार्थना करना। क्यों? क्योंकि इन्हीं प्रार्थनाओं, इन्हीं मांगों, इन्हीं आकांक्षाओं-अभीप्साओं से तुम्हारे भीतर वह सूत्र निर्मित होता जाएगा, जो अंतिम क्षण में, जब तुम शून्य में खोने लगोगे, तो तुम्हें वापस खींच सकेगा।
प्राणिमात्र का स्मरण--इसे पहले से ही बुद्ध को मानने वाला साधक प्रार्थना करता है, प्रार्थना के बाद कहता है: प्राणिमात्र को शांति। जो मुझे मिला, वह प्राणिमात्र में बंट जाए; जो मैंने पाया, वह अकेला मेरा न हो, सबका हो जाए। यह वह निरंतर कहता जाता है, ताकि इसकी गहन रेखा बन जाती है भीतर। और जिस दिन महाआनंद भी आता है, तब तत्क्षण इस पुरानी गहन रेखा, लीक के कारण, उसके मन में भाव उदय होता है--जो मुझे मिला है, वह सब प्राणिमात्र में बंट जाए। जो शांति मुझे मिली है, वह सबकी हो जाए। जो आनंद मुझे मिला है, वह सबका हो जाए। यह स्मरण आते ही वह लौट कर जगत की तरफ देखता है, और सेतु निर्मित हो जाता है। उस सेतु का नाम है निर्वाण काया।
अंतिम दिन है, जाने के पहले कुछ बातें और भी मैं आपसे कहना चाहूंगा।
एक, जो कि आप यहां कर रहे थे, वह केवल प्रयोग है, ताकि खयाल में आ सके कि क्या करना है। इतना मात्र कर लेने से कुछ हल न हो जाएगा, उसे जारी रखना पड़ेगा। तो लौट कर जारी रखें। अन्यथा मैं देखता हूं, आप शिविर में कर लेते हैं, शांति मिलती है, सहजता आती है, निर्दोष थोड़ी सी झलक आती है, एक ताजी हवा का झोंका आता है, और अच्छा लगता है। फिर वापस घर लौट कर आप पुरानी आदतों में जीने लगते हैं। फिर कभी किसी शिविर में आ जाएंगे, फिर कर लेंगे। ऐसे बार-बार करेंगे और बार-बार खोते रहेंगे, तो बहुत गहरे परिणाम न होंगे। इसे तो खोदते ही जाना है। यह कुआं इतना गहरा है कि इसे अगर खोदा दो-चार दिन, फिर छोड़ दिया चार-छह महीने, फिर कूड़ा-करकट भर कर जमीन फिर पुरानी हो जाएगी, फिर सतह वही हो जाएगी। फिर खोद लिया दो-चार हाथ, फिर छोड़ दिया। तो कुआं कभी भी न खुदेगा और वह जल जिसकी तलाश है, कभी न मिलेगा। इसे खोदते ही जाएं। इसे खोदते ही जाना है। और एक ही जगह खोदते जाएं। बार-बार अलग-अलग जगह खोदेंगे, तो श्रम भी होगा, समय भी नष्ट होगा, शक्ति भी जाएगी, और परिणाम भी न होंगे।
रूमी ने अपने शिष्यों को एक दफा कहा कि तुम मेरे साथ आओ, तुम कैसे हो, मैं तुम्हें बताता हूं। वह अपने शिष्यों को ले गया एक खेत में, वहां आठ बड़े-बड़े गड्ढे खुदे थे, सारा खेत खराब हो गया था। रूमी ने कहा: देखो इन गड्ढों को। यह किसान पागल है, यह कुआं खोदना चाहता है, यह चार-आठ हाथ गड्ढा खोदता है, फिर सोच कर कि यहां पानी नहीं निकलता, दूसरा खोदता है। चार हाथ, आठ हाथ खोद कर, सोच कर कि पानी नहीं निकलता, तीसरा...यह आठ खोद चुका है। पूरा खेत भी खराब हो गया, अभी कुआं नहीं बना। अगर यह एक ही गड्ढे पर इतनी मेहनत करता, जो इसने आठ गड्ढों पर की है, तो पानी निश्चित मिल गया होता।
तो एक दफा संकल्प करें, एक जगह सतत खोदते चले जाएं, तो ही आपको जीवन के जल-स्रोत मिलेंगे। यहां जो सीखा है, उसे प्रयोग करें, ताकि दूसरे शिविरों में जब आप आएं, तो वहीं से शुरू न करना पड़े, जहां से पहले शिविर में शुरू किया था। आप कुछ खोद कर लाएं, तो फिर हम और गहरी खुदाई कर सकें। और हर बार शिविर आपके लिए नये द्वार खोल सकता है, लेकिन आप पुराने द्वार पर काम करते रहे हों, तभी।
तो पहली तो बात तो यह स्मरण रखें कि ध्यान एक भीतरी खुदाई है, जिसको सतत जारी रखना जरूरी है।
दूसरी बात ध्यान रखें, यहां तो आसान है कर लेना। घर भय लगेगा, पड़ोस है, आस-पास लोग हैं, परिवार के लोग हैं; हंसेंगे, चिल्लाएंगे, रोएंगे, तो क्या कहेंगे लोग? एक बात सदा खयाल रखें कि वैसे भी कोई आपके बाबत अच्छा कहता नहीं है। इस भ्रांति में आप रहना ही मत कि लोग आपके संबंध में बहुत अच्छा सोचते हैं। उससे ही यह तकलीफ शुरू होती है कि कहीं अपनी अच्छी प्रतिमा न गिर जाए। वह कहीं है ही नहीं। आप सोचें, आपके मन में पड़ोसी की कोई अच्छी प्रतिमा है? आपके मन में किसकी अच्छी प्रतिमा है? किसके मन में आपकी होने वाली है? यह नाहक की भ्रांति है, इसमें पड़ना ही मत।
और अच्छा यही होगा कि घर के लोगों को भी बता देना कि ऐसा प्रयोग मैं कर रहा हूं, चिंता लेने की जरूरत नहीं है। अगर आसान हो, तो पास-पड़ोस में भी जाकर बता आना कि ऐसा मैं एक प्रयोग कर रहा हूं, थोड़ी आवाज करूं, चिल्लाऊं तो आप बहुत चिंतित मत होना। तो आप हलके होकर कर सकेंगे प्रयोग। लोग जानते हैं, दो-चार दिन में समझ जाते हैं कि ठीक है। जिन लोगों से आपको डर है, अगर आप प्रयोग करते रहे उनका भय छोड़ कर, महीने दो महीने के भीतर वे आपसे आकर पूछेंगे कि हमें भी सिखा दें। क्योंकि दो महीने में आपकी बदलाहट हो जाएगी। अभी आपकी कोई प्रतिमा नहीं है लोगों के पास, लेकिन अगर आपने ध्यान किया, तो निश्चित आपकी प्रतिमा होगी। क्योंकि आपकी शांति की खबर मिलनी शुरू हो जाती है। फूल खिलते हैं, तो छिप नहीं सकते। सूरज निकलता है, तो अंधे तक को भी उसका उत्ताप पता चलने लगता है, न भी दिखाई पड़े तो भी--तो भी पक्षियों के गीत कहने लगते हैं कि सुबह हो गई।
आप ध्यान में गहरे उतरेंगे, तो आपकी शांति, आपका आनंद, आपका प्रेम, आपकी करुणा सब बढ़ेगी। आपका क्रोध, आपकी घृणा, आपकी ईर्ष्या घटेगी। आप अपने पड़ोस में, अपने परिवार में, अपने संबंधियों के बीच नये आदमी बन जाएंगे। मगर अगर अभी से आप डरते हैं कि कहीं कोई यह न समझे कि मैं पागल हूं, कहीं कोई यह न समझे कि कहीं कोई वैसा न समझ ले--इस भ्रांति को छोड़ दें।
किसी को एक तो चिंता नहीं है बहुत ज्यादा आपके संबंध में सोचने की। कभी आपने खयाल किया, सब अपने-अपने संबंध में सोचते हैं। किसको फुर्सत है कि आपके संबंध में सोचे? आप किसके संबंध में कितना सोचते हैं? और अगर पड़ोस में कोई चिल्लाने लगे जोर से, तो एक दफा सोचेंगे कि शायद दिमाग खराब हो गया है। फिर फुर्सत है कि उस पर लगे रहें? लेकिन अगर यह आदमी, चिल्लाने वाला, आपको दूसरे दिन इसकी शक्ल में फर्क दिखने लगे, साल-छह महीने के भीतर यह आदमी एक शांति का स्रोत बन जाए, तो आप ही इससे पूछेंगे कि वह तरकीब क्या है चिल्लाने की, जिससे तुम शांत हो गए हो? तो जल्दी न करना, प्रतीक्षा करना अपने में परिवर्तन की। तभी आपकी कोई प्रतिमा निर्मित होती है। अभी कोई प्रतिमा नहीं है, अभी सिर्फ आपको खयाल है।
तीसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है। घर पर आप अकेले होंगे, लेकिन अकेले होने की जरूरत नहीं है। जिस भांति आप यहां मेरे सामने बैठ कर ध्यान कर रहे हैं, अगर इसी भांति आपने खयाल रख लिया कि मैं सामने बैठा हूं और आप ध्यान कर रहे हैं, तो आप मेरी मौजूदगी इतनी ही पाएंगे, जितनी आप यहां पाते हैं। और तब निर्भय होकर आप प्रयोग कर सकते हैं। निर्भय होकर प्रयोग कर सकते हैं। और आपकी निर्भयता प्रयोग के लिए बहुत जरूरी है। आप डरें--अकेले हैं, कुछ खतरा न हो जाए--कोई खतरा न होगा। आप जाने के पहले सारे खतरे, सारे भय मेरे पास छोड़ जाएं।
और आपसे मांगता ही केवल इतना हूं जाते इन क्षणों में कि आपका जितना दुख, जितनी चिंता, जितनी पीड़ा, जितना संताप है, वह मुझे दे दें।
उसको साथ मत ढोए फिरें। उसको साथ रखने की कोई जरूरत नहीं है। आपसे धन नहीं मांगता, आपसे तन नहीं मांगता, आपसे कुछ और नहीं मांगता हूं। आपके पास जो भी पीड़ा है, जो भी उपद्रव है, जो भी संताप है, सब मुझे दे दें। उससे मुझे अड़चन न होगी, आप निर्भार हो जाएंगे। और आप जिस चीज से दुखी हो रहे हैं, जिस शक्ति से दुखी हो रहे हैं नासमझी के कारण; जिस शक्ति से आप चिंतित हो रहे हैं नासमझी के कारण--सब नासमझी मुझे दे दें। मैं आपको वही शक्ति वापस लौटा दूंगा। वह आनंद हो जाएगी, वह शांति हो जाएगी, करुणा हो जाएगी।
आप घर पहुंचते हैं, तो ज्यादा समय न खोएं। यहां जो सिलसिला पैदा हुआ है, यहां जो हवा बनी है और मन का जो रुझान पैदा हुआ है, वह खो जाए, इतना समय न गंवाएं; घर जाकर तत्क्षण ध्यान में लग जाएं। एक घंटा रोज ध्यान को दे दें। जिंदगी के आखिर में आप पाएंगे, बाकी सब समय व्यर्थ गया, यह जो ध्यान में लगाया था समय, वही केवल आपके काम आया, वही बचा है, वही सार्थक हुआ है।
और मुझे स्मरण रखें, कोई भय न होगा। और भीतर जब प्रवेश करेंगे, तो कभी लगेगा कि कहीं मौत न हो जाए। जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा, मौत का अनुभव होना शुरू होगा। जरा भी न घबड़ाएं, घबड़ा कर वापस न लौटें। अगर मौत भी भीतर आती हो तो कहें कि ठीक है, स्वीकार है, मैं बढ़ता हूं। और मैं आपके साथ हूं।

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