BLAVATSKY
Samadhi Ke Sapat Dwar 13
Thirteenth Discourse from the series of 19 discourses - Samadhi Ke Sapat Dwar by Osho. These discourses were given in ANAND SHEELA during FEB 09-17 1973.
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तैयार रह और समय रहते चेत जा। यदि तूने प्रयत्न किया और विफल हो गया, अदम्य लड़ाके, तो भी साहस न छोड़। लड़े जा और बारंबार युद्ध में जुटता रह।
जिसके घावों से उसका कीमती जीवन-रक्त बह रहा हो, ऐसा निर्भीक योद्धा प्राण त्यागने के पहले शत्रु पर फिर-फिर आक्रमण करेगा और उसे उसके दुर्ग से निकाल बाहर करेगा। कर्म करो, तुम सब जो निष्फल और दुखी हो, उसकी तरह ही कर्म करो और निष्फल होने के बाद भी अपनी आत्मा के सभी शत्रुओं को--महत्वाकांक्षा, क्रोध, घृणा और अपनी वासना की छाया तक को--निकाल बाहर करो...।
याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति21 के लिए युद्ध कर रहा है, अतः तेरे लिए प्रत्येक विफलता भी सफलता है। और प्रत्येक निष्ठापूर्ण प्रयत्न समय में पुरस्कृत होता है। शिष्य की आत्मा में जो पवित्र अंकुर उगते हैं और अनदेखे बढ़ते हैं, उनकी डालियां प्रत्येक परीक्षा से गुजर कर बड़ी होती हैं। और सरकंडे की तरह वे झुक जाती हैं, लेकिन कभी टूटती नहीं हैं और न वे कभी नष्ट हो सकती हैं। और जब समय आता है, तब उनमें फूल भी आ खिलते हैं।22
लेकिन यदि तू तैयारी करके आया है, तो भय की कोई बात नहीं है।
यहां से सीधे वीर्य-द्वार के लिए रास्ता साफ हो जाता है, सप्त द्वारों में यह पांचवां द्वार है।
अब तू उस राह पर है, जो ध्यानाश्रय या छठे बोधि-द्वार को जाती है।
मनुष्य के जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वह है समय। समय--जो दिखाई भी नहीं पड़ता। समय--जिसकी कोई परिभाषा भी नहीं की जा सकती। समय--जो हमें जन्म से लेकर मृत्यु तक घेरे हुए है, वैसे जैसे मछली को सागर घेरे हुए है। लेकिन न जिसका हमें कोई स्पर्श होता है, न जो हमें दिखाई पड़ता है, न हम जिसका कोई स्वाद ले सकते हैं--हम निरंतर उसकी बात करते हैं। और कहीं गहरे में कुछ अनुभव भी होता है कि वह है। लेकिन जैसे ही पकड़ने जाते हैं परिभाषा में, हाथ से छूट जाता है।
संत अगस्तीन ने कहा है कि समय बड़ा अदभुत है। जब मुझसे कोई पूछता नहीं, तो मैं जानता हूं कि समय क्या है, और जब मुझसे कोई पूछता है, तभी मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं। आप भी जानते हैं कि समय क्या है, लेकिन कोई अगर पूछे कि समय क्या है, तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे।
क्या है समय?
आप ही मुश्किल में पड़ जाएंगे, ऐसा नहीं है, बड़े-बड़े चिंतक, विचारक, दार्शनिक भी समय के संबंध में उलझन से भरे रहे हैं। अब तो विज्ञान भी समय के संबंध में चिंता से भर गया है कि समय क्या है? जो-जो सिद्धांत समय के लिए प्रस्तावित किए जाते हैं, उनसे कोई से भी कोई हल नहीं होता।
कुछ बातें समझनी जरूरी हैं। क्यों इतनी उलझन है समय के साथ? क्या कारण होगा कि हम समय को अनुभव करते हैं, नहीं भी करते हैं? क्या कारण होगा कि प्रकट रूप से समय हमारी समझ में नहीं आता है?
पहली बात, मछली को भी सागर समझ में नहीं आता है; जब तक मछली को सागर के किनारे कोई उठा कर न फेंक दे, तब तक सागर का पता भी नहीं चलता है। सागर में ही मछली पैदा हो और सागर में ही मर जाए, तो उसे कभी पता नहीं चलेगा कि सागर क्या था। क्योंकि जिसे जानना है, उससे थोड़ी दूरी चाहिए। जिसमें हम घिरे हों, उसे जाना नहीं जा सकता। ज्ञान के लिए फासला चाहिए। फासला न हो तो ज्ञान नहीं हो सकता। तो मछली को अगर कोई सागर के किनारे मछुआ पकड़ कर डाल दे रेत में, तब उसे पहली दफा पता चलता है कि सागर क्या था। सागर के बाहर होकर पता चलता है कि सागर क्या था! जब सागर नहीं होता है तब पता चलता है कि सागर क्या था! नकार से पता चलता है कि विधेय क्या था! न-होने से पता चलता है कि होना क्या था! रेत पर जब मछली तड़फती है, तब उस तड़फन में उसे पता चलता है कि सागर मेरा जीवन था! सागर मुझे घेरे था, सागर के कारण ही मैं थी, और सागर के बिना मैं न हो सकूंगी!
समय भी ऐसे ही मनुष्य को घेरे हुए है। और जटिलता थोड़ी ज्यादा है। सागर के किनारे तो फेंकी जा सकती है मछली, समय के किनारे फेंकना इतना आसान नहीं है। और मछली को तो कोई दूसरा मछुआ सागर के किनारे फेंक सकता है रेत में, आपको कोई दूसरा आदमी समय के किनारे रेत में नहीं फेंक सकता। आप ही चाहें तो फेंक सकते हैं। मछली खुद ही छलांग ले ले, तो ही किनारे पर पहुंच सकती है।
ध्यान समय के बाहर छलांग है।
इसलिए ध्यानियों ने कहा है: ध्यान है कालातीत, बियांड टाइम।
ध्यानियों ने कहा है: जहां समय मिट जाता है, वहां समझना कि समाधि आ गई। जहां समय का कोई भी पता नहीं चलता, जहां न कोई अतीत है, न कोई भविष्य, न कोई वर्तमान; जहां समय की धारा नहीं है, जहां समय ठहर गया, टाइमलेस मोमेंट, समय-रहित क्षण आ गया--तब समझना कि ध्यान हो गया।
ध्यान और समय विपरीत हैं।
अगर समय है सागर, तो ध्यान सागर से छलांग है।
और जटिलता है। और वह जटिलता यह है कि मछली सागर के बाहर तड़फती है, सागर में उसका जीवन है। और हम समय में तड़फते हैं, और समय के बाहर हमारा जीवन है। हम समय में तड़फते ही रहते हैं। समय के भीतर कोई आदमी तड़फन से मुक्त नहीं होता।
समय के भीतर दुख अनिवार्य है।
समय में रहते हुए पीड़ा के बाहर जाने का कोई उपाय ही नहीं है। हां, एक उपाय है, वह धोखा है। और वह है बेहोश हो जाना। बेहोश होकर हम समय भूल जाते हैं, समय के बाहर नहीं होते हैं। जैसे मछली को कोई बेहोशी का इंजेक्शन दे दे, रहे सागर में ही, लेकिन सागर के बाहर जैसी हो जाएगी, क्योंकि बेहोश हो जाएगी। जिसका बोध ही नहीं है, उसके हम बाहर मालूम पड़ते हैं।
समय के भीतर जितनी पीड़ाएं हैं, उनका हल बेहोशी है। इसलिए नाराज मत होना लोगों पर, अगर कोई शराब पी रहा है। वह भी ध्यान की तलाश कर रहा है। कोई और मादकता में डूब रहा है--कोई संगीत में, कोई नृत्य में। कोई कामवासना में लीन हो रहा है--वह भी मूर्च्छा खोज रहा है। वह यह कोशिश कर रहा है कि यह जो समय की पीड़ा का सागर है, इसके बाहर कैसे हो जाऊं?
दो ही उपाय हैं। एक झूठा उपाय है, मिथ्या उपाय: बेहोश हो जाएं। बाहर तो नहीं होंगे, लेकिन होश ही नहीं रह जाएगा, तो पता ही नहीं चलेगा कि बाहर हैं या भीतर। जब होश आएगा, तब पता चलेगा। इसलिए जब शराबी होश में आता है, तब संसार का दुख और भी घना हो जाता है। वह फिर-फिर शराब पीना चाहता है, ताकि यह भूले--भूल जाए बिलकुल। लेकिन कितना ही भूलें, भूलने से कोई चीज मिटती तो नहीं है। सिर्फ समय टलता है, समय व्यतीत होता है, स्थगन होता है। लेकिन समस्याएं अपनी जगह बनी रहती हैं, शायद और भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि इकट्ठी हो जाती हैं। तो बेहोशी कोई उपाय नहीं है।
शराबी दया का पात्र है, क्रोध का पात्र नहीं। वह पाप नहीं कर रहा है, भूल कर रहा है। और भूल उसकी यह है कि उसकी वास्तविक खोज समय के बाहर जाने के लिए है। वह चाहता तो ध्यान है, लेकिन ध्यान का उसे पता नहीं है, तो एक झूठा ध्यान है, शराब। इसलिए समस्त ध्यानियों ने शराब का विरोध किया है, इसलिए नहीं कि शराब पाप है।
इस फर्क को ठीक से समझ लें।
नैतिक आदमी भी शराब का विरोध करता है, उसके विरोध के कारण दूसरे हैं--कि शराब से स्वास्थ्य खराब होगा, कि शराब से घर-गृहस्थी बर्बाद हो जाएगी, कि शराब से तुम्हारे बच्चों का क्या होगा, कि शराब से समाज की व्यवस्था का क्या होगा? यह नैतिक आदमी की चिंता है।
धार्मिक आदमी की यह चिंता नहीं है। और नैतिक आदमी की चिंता को हल किया जा सकता है और शराब भी पी जा सकती है। उसमें बहुत अड़चन नहीं है। अच्छी शराब पीएं, स्वास्थ्य को नुकसान न होगा। और आज नहीं कल और अच्छी शराब बनाई जा सकती है, जिससे स्वास्थ्य को लाभ भी हो सके। क्योंकि शराब तो रसायन है। और अब तो हम इतना जानते हैं कि शराब से वह सब निकाला जा सकता है जो नुकसान करता है और वह डाला जा सकता है जो लाभ करे। लेकिन नैतिक विचारकों की वजह से यह नहीं हो पा रहा है! यह बड़ी अजीब बात है। लेकिन जिंदगी में बड़ी अजीब बातें हैं।
आज दुनिया में शराब से जो नुकसान हो रहा है, वह नैतिक लोगों की वजह से हो रहा है। क्योंकि वे शराब को ठीक नहीं बनाने देने के पक्ष में हैं। क्योंकि वे डरते हैं अगर शराब ठीक हो जाए, तो फिर शराब का विरोध कैसे करेंगे। शराब आज ठीक हो सकती है। आदमी के पास इतना रासायनिक ज्ञान है कि अगर शराब ठीक न हो सके, तो हम कुछ भी न कर पाएंगे। हमने जिन्होंने अणुबम खोज लिए, हमने जिन्होंने चांद पर पैर रख लिए, वे शराब की बोतल से नुकसान नहीं निकाल सकते बाहर? वे निकाल सकते हैं, लेकिन दुनिया भर के नैतिक पुरुष उसके विरोध में हैं। क्योंकि अगर खराबी निकल गई और शराब सुखद हो गई और स्वास्थ्यकर हो गई तो फिर नैतिक आदमी क्या करेगा?
धर्म का विरोध शराब से नहीं है, कि वह पाप है। उसका विरोध इस बात से है कि बेहोशी की खोज का मतलब है कि तुम ध्यान चाहते थे, और तुमने सस्ता, झूठा उपाय खोज लिया। तुम चाहते थे, समय के बाहर जाना, पीड़ा के बाहर जाना, संसार से हट जाना। और तुमने संसार में रह कर ही अपने को भुलाने का उपाय खोज लिया। इसलिए ध्यानियों ने विरोध किया है। ध्यानियों के विरोध के कारण बिलकुल अलग हैं। गहरा कारण यही है कि बेहोशी और होश विपरीत हैं।
ध्यान है होश, शराब है बेहोशी।
तो अगर होश चाहिए तो बेहोशी से बचना उचित है। और होश अगर बढ़ता जाए तो समय के बाहर पहुंचना हो जाता है--जागते हुए, होशपूर्वक। और एक बार जो व्यक्ति समय के बाहर की झलक पा लेता है, उसकी जिंदगी दूसरी ही हो जाती है। उसे असली, वास्तविक का अनुभव हो जाता है। तब यह सब झूठा और असत्य और स्वप्नवत मालूम होने लगता है।
समय के संबंध में एक बात तो यह जान लेनी जरूरी है कि हम उसमें ही पैदा होते हैं, उसमें ही बढ़ते हैं, उसमें ही मर जाते हैं। और इसलिए हमें उसका कोई पता नहीं चलता कि क्या है। सिर्फ ध्यानी को पता चलता है कि समय क्या है। क्योंकि ध्यानी तट पर खड़ा हो जाता है। सागर साफ अलग दिखाई पड़ने लगता है।
हमें पता तो नहीं चलता कि समय क्या है, लेकिन फिर भी हम समय का उपयोग तो करते ही हैं। उपयोग के लिए ज्ञान अत्यंत आवश्यक नहीं है।
यह बिजली जल रही है, इसको बटन दबा कर जलाना-बुझाना कोई भी कर सकता है। ऐसा करने के लिए बिजली क्या है, यह जानना जरूरी नहीं है। आप अपनी मोटर में बैठ कर, अपनी कार में बैठ कर अगर आप थोड़ा सा चलाना जानते हैं, तो आपको जानना जरूरी नहीं कि गाड़ी के इंजन में क्या हो रहा है और क्या नहीं हो रहा है। हो सकता है आपने इंजन कभी देखा ही न हो। जरूरत भी नहीं है। बोनिट के नीचे क्या छिपा है उससे कुछ लेना-देना नहीं है। आप अपनी गाड़ी को चलाना भर जानते हैं, तो काफी है।
उपयोगिता बिना ज्ञान के भी हो सकती है।
समय का हम सब उपयोग करते हैं। लेकिन समय क्या है, इसका हमें पता नहीं है। मछली भी सागर का उपयोग करती है, लेकिन सागर क्या है, इसका उसे पता नहीं है। हम जो उपयोग करते हैं, लेकिन बिना जाने उसमें बहुत भूल-चूक की संभावनाएं हैं। भूल-चूक होगी ही। उपयोग कर सकते हैं, लेकिन भूल होगी। समय को हम जानते नहीं, इसलिए हम जो भी उसमें करते हैं, उसमें अनेक भूलें हो जाती हैं। पहली भूल तो यह हो जाती है कि हम सबको ऐसा खयाल बना रहता है कि समय काफी है। यह पहली भूल है। पर्याप्त समय है।
एक मित्र आज ही आए, उन्होंने कहा कि संन्यास तो मुझे लेना है, लेकिन थोड़ा रुकूंगा। मैंने पूछा: कितनी देर रुकने का खयाल है? उन्होंने कहा कि अभी कुछ तय नहीं किया, लेकिन साल दो साल के भीतर। साल दो साल आपके पास हैं? नहीं, ऐसा कोई पूछता नहीं, और ऐसा पूछना उचित भी नहीं है। दो दिन, चार दिन भी आपके पास हैं? आने वाला पल भी होगा, इसका पक्का है? नहीं, हर आदमी को खयाल है कि समय पर्याप्त है। सभी को भीतर ऐसी धारणा है कि समय कहीं चुकता है। कर लेंगे कभी भी! कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे!
समय पर्याप्त नहीं है, समय सदा अपर्याप्त है। और जो करना है, उसके लिए सदा थोड़ा है। और आप क्षुद्र में ही उसे व्यतीत कर रहे हैं, और जो विराट है, उसको टालते चले जाते हैं, पोस्टपोन करते चले जाते हैं। स्थगन की वृत्ति पैदा होती है इस खयाल से कि समय पर्याप्त है; कर लेंगे, कल कर लेंगे! जो व्यर्थ है, वह आज कर लेते हैं और जो सार्थक है, उसे कल पर छोड़ देते हैं! यह आपसे कभी भी न होगा। यह कल पर टालने की आदत गहरी है, यह कल भी आपके साथ रहेगी। जब कल आएगा, तो वह आज हो चुका होगा और यह आदत फिर भी कहेगी कि कल। आप मर जाएंगे और यह आदत नहीं छूटेगी।
और ध्यान रखना, मौत जब भी आती है, आज आती है, वह कल नहीं आती। आप मौत से न कह सकेंगे कि कल, रुको, कल आ जाना। जब मौत से आप नहीं कह सकते कि कल आ जाना, तो थोड़ा सोचना, समय पर्याप्त नहीं है और समय आपके हाथ में नहीं है, और समय के आप मालिक नहीं हैं।
याद आती है मुझे छोटी सी घटना। युधिष्ठिर बैठे हैं अपने अज्ञातवास, वनवास के समय। छिपे हैं, वेशभूषा बना रखी है, किसी को पता नहीं है कि कौन हैं--कुटी के सामने बैठे हैं! भीम एक कोने में बैठा हुआ कुछ सोच रहा है। एक भिखारी आया और उसने युधिष्ठिर को कहा कि कुछ भीख मिल जाए। युधिष्ठिर ने कहा: तू कल आ जाना। भीम एकदम उछल कर खड़ा हो गया और नाचने लगा और भीतर घर की तरफ दौड़ा। तो युधिष्ठिर ने पूछा कि तुझे क्या हो रहा है?
तो भीम ने कहा कि मैं खबर करने जा रहा हूं कि मेरे भाई ने समय पर विजय पा ली। मैं यही सोच रहा था कि यह समय क्या है? और तुमने कहा कि कल आ जाना! तो एक बात तो पक्की है कि तुम्हें पक्का है कि कल आएगा, तो मैं जरा गांव में खबर कर आऊं कि मेरे भाई ने समय पर विजय पा ली है। युधिष्ठिर भागे, उस भिखारी को लौटाया, और कहा, तू आज ही ले जा, क्योंकि कल का सच में ही कहां भरोसा।
कल के लिए क्या उपाय है कि हम कुछ तय कर सकें? जो टालता है, वह अपने को धोखा देता है। जो कल पर छोड़ता है, वह बेईमान है। किसी और से बेईमानी नहीं कर रहा, अपने से ही बेईमानी कर रहा है।
अगर कल आपके हाथ में हो, तो स्थगित करना और कल अगर हाथ में न हो, तो स्थगित मत करना। और अगर स्थगित ही करना हो कल के लिए तो बुराई को करना; क्योंकि कल कभी नहीं आता। क्रोध करना हो तो कहना, कल करेंगे। चोरी करना हो तो कहना, कल करेंगे। गर्दन किसी की काटनी हो तो कहना, कल काटेंगे। फिर तुमसे पाप हो ही न सकेंगे। क्योंकि कल कभी नहीं आता। जो ठीक करना हो, शुभ करना हो, वह अभी कर लेना। अगर उसे कल पर टाला, तो वह भी नहीं हो सकेगा।
हम बुरे को अभी कर लेते हैं, शुभ को कल पर टाल देते हैं! इसका मतलब जाहिर है कि जो हम करना चाहते हैं, वह हम अभी कर लेते हैं और जो हम नहीं करना चाहते हैं, वह हम कल पर टाल देते हैं। मगर साफ क्यों नहीं समझते कि नहीं करना चाहते। क्या जरूरत है कि एक आदमी कहे कि संन्यास मैं कल लूंगा। इतना ही क्या कम है--काफी है कि आज संन्यास नहीं लेना है। बात खत्म है। मगर ऐसा अगर कोई कहे कि आज संन्यास नहीं लेना है, तो भीतर तकलीफ होती है। हम लेना भी नहीं चाहते और लेने का मजा भी लेना चाहते हैं। हम संन्यासी होना भी नहीं चाहते हैं--डर भी लगता है और लोभ भी पकड़ता है। तो तरकीब निकाल लेते हैं कि कल लेंगे। इससे ऐसा लगता है कि थोड़ा तो ले ही लिया, काफी तो ले ही लिया; थोड़ी सी ऊपरी औपचारिकता रह गई है, वह कल कर लेंगे। संन्यासी तो हम हो ही गए, एक प्रतिशत बचा है कि कपड़े बदल लेने हैं, कि नाम ले लेना है; वह कल कर लेंगे। दीक्षा कल हो जाएगी। ऐसे अपने को धोखा देना आसान हो जाता है।
समय पर्याप्त नहीं है। और सभी को खयाल है कि काफी है, जरूरत से ज्यादा है, इसीलिए तो टालते हैं!
अगर आपको इसी वक्त पता लगे कि कल सुबह नहीं होगी और सूरज नहीं उगेगा और कल जिंदगी समाप्त हो जाएगी, तो मैं आपसे पूछता हूं, आप पहला काम क्या करना चाहेंगे? धन इकट्ठा करना चाहेंगे? मुकदमा अदालत में लड़ना चाहेंगे? मकान बनाना चाहेंगे? चोरी, हत्या, क्रोध--क्या करना चाहेंगे? अगर यह पक्का हो जाए कि कल सुबह सूरज नहीं उगेगा और वैज्ञानिक खबर कर दें कि अंत आ गया, आज आखिरी रात है, तब आप क्या करेंगे? जो भी आपको करने जैसा लगे, उसे आज ही कर लेना। चाहे वैज्ञानिक खबर करें, चाहे न करें, क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं है, हो सकता है आपके लिए कल न ही हो। बहुतों के लिए कल नहीं होगा, आप भी उसमें हो सकते हैं। लेकिन आदमी सदा अपने को अलग छोड़ लेता है। सब नियम औरों के लिए होते हैं, खुद के लिए नियम नहीं होता--खुद आदमी अपवाद होता है!
दूसरी बात समय के संबंध में बहुत मजेदार, समझने जैसी है। और वह यह है कि समय को हम दबाए रखे हैं। समय को हमने दमन किया हुआ है। इसलिए भी हमें समय क्या है, यह पता नहीं चलता। क्योंकि समय के साथ मृत्यु बंधी है। इसे ऐसा समझें कि अगर आदमी अमर होता, अगर आप अमर होते, तो आपको समय का कोई बोध ही न होता। अगर मौत न हो तो समय का क्या मतलब है फिर? कोई मतलब नहीं। अगर मौत न हो, तो समय है ही नहीं फिर।
मौत ही समय को निर्मित करती है। इसलिए पशुओं को मौत का कोई पता नहीं है, समय का भी कोई पता नहीं है। पशु अभी जीता है, यहीं जीता है। उसे कल की कोई खबर नहीं, बीते कल की भी कोई खबर नहीं, उसे मौत का कोई पता नहीं है।
जिन समाजों में, जैसे हमारे मुल्क में यह खयाल है कि आत्मा अमर है, जिन लोगों को यह खयाल है कि आत्मा अमर है, उनका भी समय का बोध बहुत क्षीण होता है, बहुत तीव्र नहीं होता है। ईसाइयत ने समय के बोध को बहुत प्रगाढ़ कर दिया पश्चिम में। क्योंकि ईसाइयत और इस्लाम मानते हैं कि एक ही जन्म है। फिर कोई दुबारा जन्म नहीं है। जो भी करना है, बस इसी जन्म और मृत्यु के बीच कर लेना है, इतना ही समय मिला है।
भारत में हमारे पास अनंत जन्मों की धारणा है--एक जन्म, दूसरा जन्म, तीसरा जन्म। हम कहते हैं, इस जन्म में न हुआ, तो अगले जन्म में कर लेंगे। अगले जन्म में न हुआ, तो जल्दी क्या है? यह तो संसार चलता ही रहेगा, कभी भी कर लेंगे। अनंत विस्तार है हमारे सामने। इसलिए भारत में टाइम कांशसनेस, समय का बोध नहीं है। तो अगर कोई आपसे कहता है कि पांच बजे आ जाएंगे, और सात बजे आता है तो आप नाराज मत होना, यह भारतीय चिंतना का परिणाम है, इसमें कोई उसका कसूर नहीं है। उसको कोई फिकर ही नहीं इस बात की, कि पांच और सात में कोई फर्क होता है? पश्चिम में दो मिनट में बेचैनी हो जाती है। बेचैनी का कारण? बेचैनी का कारण है ईसाइयत।
ईसाइयत का खयाल है कि एक ही जन्म है। तो समय बहुत थोड़ा रह गया। उसमें आप किसी का दो घंटा खराब कर दें, तो आप उसकी जिंदगी छीन रहे हैं। यहां आप किसी के दो दिन खराब कर दें, कुछ भी नहीं छीन रहे हैं। फर्क ही क्या पड़ता है? इस समय के विस्तीर्ण प्रवाह में दो दिन का लेना-देना क्या है? तो यहां हम खूब एक-दूसरे का समय खराब करते हैं। कोई चिंता ही नहीं मानता इस बात की।
पश्चिम में ईसाइयत के विचार के कारण समय का बोध जगा। और अगर जिंदगी इतनी ही है पचास साल, सौ साल, सत्तर साल, तो उसमें से किसी के दो घंटे अकारण खराब कर देना हत्या है। कि किसी के घर अकारण पहुंच जाना और कुछ भी बातचीत शुरू कर देनी और घंटों खराब कर देना--उसकी जिंदगी छीन रहे हैं। और जिंदगी सीमित है। और दो घंटे जो आपने छीन लिए, वे वापस नहीं लौटेंगे।
तो किसी से बिना पूछे उसके घर पहुंच जाना पश्चिम में अशिष्टता है। यहां किसी से पूछ कर जाने में अशिष्टता मालूम पड़ती है कि आप भी क्या बात कर रहे हैं, पूछ कर आने की बात ही क्या है? अतिथि तो देवता है, जब आ जाए। और फिर अतिथि जितना टिक जाए उतनी उसकी कृपा है।
समय का बोध मृत्यु से बंधा है। अगर मृत्यु सन्निकट है, तो समय की चेतना गहरी हो जाएगी। अगर मृत्यु बहुत दूर है, या है ही नहीं; आत्मा अमर है, तो समय का भाव बिलकुल विलीन हो जाएगा।
ध्यान रखें, समय का हम ज्यादा विचार नहीं करते, क्योंकि अगर उसका हम ज्यादा विचार करेंगे, तो मौत का विचार भी करना पड़ेगा। मौत है टैबू, उस पर विचार करना नहीं, डर लगता है। तो समय पर भी विचार करना नहीं, उससे भी भय लगता है। मान कर चलना अच्छा है कि पर्याप्त है। मान कर चलना अच्छा है कि आत्मा अमर है। समय की कोई कमी नहीं है, समय सदा रहेगा, कोई जल्दी नहीं है।
इसके परिणाम घातक हो सकते हैं। हम ऐसे ही बैठे-बैठे समय को गंवा सकते हैं। और एक-एक पल चुकता जाता है। और एक-एक चुकते पल के साथ आप भी चुकते जाते हैं। एक-एक चुकते पल के साथ आपकी ऊर्जा भी बूंद-बूंद रिक्त होती जाती है, आप खाली होते जाते हैं।
मौत है क्या?
आपके भीतर से समय की रेत का चुक जाना।
अगर आपने रेत की घड़ी देखी है--तो कांच के एक बर्तन में रेत भरी होती है। एक-एक रेत का दाना नीचे के बर्तन में गिरता रहता है, उसके गिरने के साथ एक-एक पल का पता चलता रहता है। जब पूरी रेत खाली हो जाती है ऊपर के बर्तन से, तो समझो कि चौबीस घंटे समाप्त हो गए। फिर घड़ी उलटा कर देते हैं। नीचे का बर्तन ऊपर, ऊपर का बर्तन नीचे। फिर एक-एक रेत का दाना नीचे गिरने लगता है। चौबीस घंटे में रेत फिर नीचे के बर्तन में आ जाती है।
मौत है क्या?
आपके जीवन से समय का एक-एक बूंद करके चुक जाना।
और जिस दिन आपके भीतर समय बिलकुल चुक जाएगा, आप मर गए। कंटेनर रह गया, कंटेंट चला गया। सिर्फ बर्तन रह गया--खाली। जो भीतर था जीवन, वह रिक्त हो गया, चुक गया।
इस सूत्र को समझने के लिए समय के संबंध में यह बात जान लेनी जरूरी है कि समय बहुत कम है, करने को बहुत ज्यादा है। और करने को इतना महत्वपूर्ण है कि क्षुद्र में समय को मत गंवा देना। और जो महत्वपूर्ण है, उसे कल पर मत टालना। जो व्यर्थ है, उसे कल पर टाल देना। जो सार्थक है, उसे अभी कर लेना। यही इकॉनामिकल है, यही अर्थशास्त्रीय है कि जो जरूरी है, एसेंशियल है, उसको अभी कर लेना।
लेकिन हम अजीब हैं। अखबार हम पहले पढ़ लेते हैं, ध्यान हम सोचते हैं, कल कर लेंगे! अखबार पहले पढ़ लेते हैं, जैसे जीवन उस पर अटका है और नहीं पढ़ पाए तो मर जाएंगे। और अगर अखबार नहीं जाना, तो ज्ञान से वंचित रह जाएंगे! ध्यान बाद में भी किया जा सकता है, अखबार तो अभी पढ़ना होगा! सिनेमा आज देख लेते हैं, संन्यास कल पर छोड़ देते हैं। सिनेमा जरूरी है, पता नहीं कल फिल्म लगी रहे, न लगी रहे, और कल का भरोसा क्या है, जेब में पैसे रहें, न रहें। आज पैसे हैं, फिल्म भी लगी है, संन्यास तो कल भी है।
ऐसे हम व्यर्थ को तत्काल करते हैं, सार्थक को कल पर छोड़ते हैं। इसे बदलें और खयाल रखें कि समय का एक ही उपयोग है, और जो आदमी वह उपयोग कर लेता है, वह इस संसार में विजेता हो जाता है।
क्या है समय का उपयोग?
आप सोच भी न सकेंगे। समय का एक ही सार्थक उपयोग है--समय के बाहर जाने के लिए उपयोग कर लेना। अगर आपने समय का इतना उपयोग कर लिया कि आप समय के तट पर पहुंच गए, तो आपका जीवन सार्थक, और आपने समय का सार निचोड़ लिया। और अगर समय का आप इस काम के लिए उपयोग न कर सके तो आपने कुछ भी किया हो, कितने महल खड़े किए हों, कितनी तिजोरियां भरी हों, आप नासमझ हैं; और आपके महल और आपकी तिजोरियां जरा भी काम न आएंगे। समय के बाहर का एक अनुभव भी हो जाए, रत्ती भर भी, तो आपने अनेक-अनेक जीवन के समय का मूल्य पा लिया।
इस सूत्र को अब समझें:
तैयार रह।
‘तैयार रह और समय रहते चेत जा। यदि तूने प्रयत्न किया और विफल हो गया, अदम्य लड़ाके, तो भी साहस न छोड़। लड़े जा और बारंबार युद्ध में जुटता रह।’
समय रहते चेत जा।
हम सबको लगता है, समय तो सदा है, चेतने की जल्दी क्या है, कल चेत जाएंगे।
सुना है मैंने, कलकत्ता में एक सुबह एक घटना घटी। एक वृद्ध सज्जन साठ वर्ष के अपने रोज के नियम के अनुसार घूमने निकले थे, अपनी लाठी लिए, सुबह की चहलकदमी पर। किसी मकान में, द्वार तो बंद था, कोई स्त्री किसी को जगा रही थी, शायद उसके बेटे को, शायद उसके देवर को, शायद किसी और को। वह कह रही थी: राजाबाबू उठ, रात जा चुकी, सुबह हो गई, अब सोना उचित नहीं। संयोग की बात, वे जो बूढ़े आदमी थे, उनका नाम था राजाबाबू। ठिठक गए, सुनाई पड़ा राजाबाबू उठ, सुबह हो गई, अब सोने के लिए समय नहीं, जाग। घर की तरफ लौट रहे थे टहल कर--वहीं से किसी को कहा कि मेरे घर खबर कर देना कि राजाबाबू जाग गए हैं और अब न लौटेंगे।
एक संन्यासी का जन्म हो गया।
घर के लोगों ने आकर बहुत समझाया कि वापस चलें, यह भी क्या पागलपन है, कौन औरत किसको जगा रही थी? तुम्हें उससे क्या लेना-देना, तुमसे तो उसने कहा नहीं था। उस वृद्ध ने कहा: जिंदगी ने बहुत बार कहा था कि जाग, समय रहते जाग। नहीं जाग पाया। संयोग की बात थी कि आज चोट लग गई। अब नहीं लौटूंगा, सोने के लिए अब नहीं जाऊंगा। अब जाग कर ही रहूंगा। और समय है भी कितना कम अब मेरे पास, समय है कहां?
‘समय रहते चेत...।’
किस तरफ चेतना है, किस तरफ जागना है? क्षुद्र में ही न उलझा रह, व्यर्थ में ही समय न गवां। जिसका आत्यंतिक मूल्य नहीं है, उसको बहुत मूल्य मत दे। यही मतलब है चेत का। आत्यंतिक मूल्य किन चीजों का है? क्या फर्क पड़ेगा कि एक गज जमीन ज्यादा थी कि कम? क्या फर्क पड़ेगा कि तिजोरी का वजन कितना था?
मौत सामने खड़ी होती है, तो हमेशा एक विचार आप करते रहना कि अगर मौत आज ही आपके सामने खड़ी हो जाए, तो आपके पास जो है, उसका क्या मूल्य होगा? यही कसौटी है तौलने की कि मेरे पास मूल्यवान कुछ है या नहीं है? रोज-रोज सांझ को सोते वक्त यह सोचना कि अगर मौत आज रात आ जाए, तो मेरे पास क्या है, जो मौत की मौजूदगी में मूल्यवान होगा? क्या मेरा धन, क्या मेरी जमीन, क्या मेरा नाम, पद-प्रतिष्ठा--कौन सी चीज मूल्यवान होगी? प्राण एकदम तड़फड़ाने लगेंगे, क्योंकि मौत को सामने देख कर ये कोई भी चीजें मूल्यवान नहीं हैं। सिर्फ ध्यान ही मूल्यवान हो सकता है।
मौत के क्षण में अगर कोई चीज बच सकती है, जो मौत नहीं मिटा सकती, तो वह आपके ध्यान की क्षमता है, आपके भीतर का मौन है, आपके भीतर की शांति है, आपका अपना आनंद है।
जो आनंद दूसरों से मिलता है, वस्तुओं से मिलता है, बाहर से आता है, मौत उसे छीन लेगी। जो भी बाहर का जगत है, मौत उसे छीन लेगी। समझें कि जो भी बाह्य है, मौत उसे छीन लेगी।
आंतरिक क्या है आपके पास? है कोई संपदा जो आंतरिक हो? है कोई ऐसा सुख जो अकारण हो, जिसकी बाहर कोई जड़ें न हों? है कोई ऐसी मौज जो आपकी अपनी है, जो पत्नी के कारण नहीं है, पति के कारण नहीं है, पुत्र के कारण नहीं है, पिता के कारण नहीं है, मित्र के कारण नहीं है?--किसी के कारण नहीं है, बस आपके ही कारण है। जो आपके ही कारण है, मौत उसे न छीन पाएगी। मौत आपको नहीं मिटाती, लेकिन लगता ऐसा है कि मौत आपको मिटाती है। वह इसलिए लगता है कि आप हैं ही नहीं। आपके पास जो है, वह सब उधार है, बाहर से लिया हुआ है, रिफ्लेक्टेड है, प्रतिबिंबित है।
ऐसा समझें कि चांद है। चांद की रात है और चांद बड़ी रोशनी देता है; लेकिन चांद की रोशनी उधार है। उसके पास अपनी कोई रोशनी नहीं है। सूरज की किरणें ही उस पर लौट कर वापस लौट आती हैं। वे ही हमें रोशनी मालूम पड़ती हैं। इसलिए ठंडी है उसकी रोशनी, क्योंकि सूरज की गर्मी तो पी जाता है और सिर्फ रोशनी रिफ्लेक्ट होती है। इसलिए चांद ठंडा है। बाकी रोशनी उसके पास भी सूरज की ही है। यह मत सोचना कि चांद पर जो लोग उतरे, उनको चांद पर रोशनी मिली होगी। वहां कोई रोशनी नहीं है। वह तो चांद केवल रिफ्लेक्टर है। रोशनी हमारी आंखों तक, हमारी आंख पर चोट करके हमें मालूम पड़ती है।
हमारी पृथ्वी भी चांद पर से खड़े होकर चांद जैसी मालूम पड़ती है रोशन। यह आपको खयाल में न होगा कि आपकी यह जमीन गंदी, मटमैली, यह चांद का टुकड़ा है। चांद ‘पर’ से रोशन है, इसके पास भी उधार संपत्ति है; सूरज के पास अपनी रोशनी है।
सांसारिक आदमी चांद की तरह है, आध्यात्मिक व्यक्ति सूरज की तरह होने लगता है।
मौत आपसे वह सब छीन लेगी, जो उधार है। सिर्फ आपका अपना जो है आपा, वही आपसे नहीं छिनेगा।
इसे रोज रात सोते समय सोच लेना कि अगर मौत घट जाए, तो मेरे पास क्या है, जो मौत नहीं मिटा सकेगी? उससे बेचैनी हो, तो घबड़ाना मत। बेचैनी अच्छी है। उस बेचैनी से शायद यह खयाल जगना शुरू हो कि मैं कुछ कमाऊं जो मौत मुझसे न छीन सके। एक ही कमाई है कमाने जैसी, वह यह है कि मौत न छीन सके। मौत परीक्षक है। जो मौत छीन ले, समझना, आपने कचरा-कूड़ा इकट्ठा किया था।
समय रहते चेत जा। मौत किसी भी पल आ सकती है, उसके पहले सार्थक की खोज पर निकल जा।
‘यदि तूने प्रयत्न किया और विफल हो गया, अदम्य लड़ाके, तो भी साहस न छोड़।’
डर क्या है?
इस अंतर्यात्रा में जाने का एक ही डर है कि कहीं विफल न हो जाऊं। और डर स्वाभाविक है, क्योंकि जटिल है यात्रा। मुश्किल से कभी कोई बुद्ध, और महावीर, और कृष्ण, और क्राइस्ट होता है। अरबों-खरबों लोग पैदा होते हैं, तब कभी एक बुद्ध पैदा होता है। तो स्वभावतः अरबों-खरबों लोगों को लगता है कि यह कभी-कभी होता है एक बुद्ध, अपने बस के बाहर है। अपने बस के भीतर तो यही है कि दस गज जमीन है, तो बारह गज जमीन कर लो। अपने बस में तो यही है कि दुकान एक है, तो दो दुकान कर लो। अपने बस में तो यही है कि एक बैंक में बैलेंस है, तो दूसरे बैंक में भी कर लो। अपने बस में यही है कि कागज के नोट इकट्ठे करते जाओ। अपने बस में यह नहीं है, क्योंकि बुद्ध तो करोड़ों-करोड़ों में कभी कोई एक होता है, यह अपने बस की बात नहीं है।
इसलिए सूत्र कहता है कि ‘तूने प्रयत्न किया और विफल हो गया, अदम्य लड़ाके, तो भी साहस न छोड़।’
बुद्ध करोड़ों में एक होता है, इसका मतलब यह नहीं कि करोड़ों में एक की ही होने की क्षमता होती है। करोड़ की भी क्षमता होती है। लेकिन उस क्षमता का कोई प्रयोग ही नहीं करता है। हमें खयाल ही नहीं है कि हमारी कितनी क्षमताएं ऐसे ही नष्ट हो जाती हैं।
अभी मनस्विद कहते हैं कि साधारण आदमी अपने मस्तिष्क का केवल पांच प्रतिशत उपयोग करता है--साधारण आदमी। और जिनको हम असाधारण कहते हैं, महाप्रतिभाशाली कहते हैं, वे भी पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा का उपयोग नहीं करते हैं। बड़े से बड़े जीनियस पंद्रह प्रतिशत बुद्धि का उपयोग करते हैं, जितनी उनके पास है। थोड़ा सोचें, अगर आदमी अपनी सौ प्रतिशत बुद्धि का उपयोग करे, तो यह जमीन बुद्धिमानों से भर जाए! अगर आप पांच प्रतिशत कर रहे हैं, अगर तीन गुना, पंद्रह प्रतिशत करें, तो आप भी आइंस्टीन और बर्ट्रेंड रसल की हैसियत के आदमी हैं। और यह केवल पंद्रह प्रतिशत है। आप भी अगर सौ प्रतिशत का उपयोग करें, तो ऐसी प्रतिभा जमीन पर कभी हुई ही नहीं है। लेकिन खोपड़ी ऐसे ही सड़ जाती है, उसका उपयोग ही नहीं हो पाता!
और बुद्धि की प्रतिभा तो कुछ भी नहीं है, हम फिर भी पांच प्रतिशत का उपयोग कर लेते हैं। आत्मा की प्रतिभा का हम कितना उपयोग करते हैं? कभी करोड़ों में एक बुद्ध उपयोग करता है। बाकी करोड़ उपयोग करते ही नहीं, शून्य प्रतिशत भी नहीं। बुद्धि का उपयोग पांच प्रतिशत करता है साधारण आदमी, आत्मा का तो उपयोग ही नहीं करता है! और बुद्धि का भी पांच प्रतिशत इसलिए करता है कि ये जो उपद्रव की चीजें इकट्ठी करनी हैं, इनके लिए जरूरी होता है, नहीं तो वह उसका भी न करे।
इसलिए आप जान कर हैरान होंगे कि अमीर घरों में अक्सर बुद्धिहीन बच्चे पैदा होते हैं। अगर गधे खोजने हों, तो अमीर घरों में खोजने चाहिए। उसका कारण है, क्योंकि पांच प्रतिशत की भी करने की कोई जरूरत नहीं, तो क्यों करे? गरीब बच्चे ज्यादा तेज मालूम पड़ते हैं। उनका तेजी का कारण यह नहीं है कि वे तेज हैं; उनकी तेजी का कारण यह है कि उनके पास कुछ भी नहीं है--न मकान है, न गाड़ी है, न धन है; यह सब चाहिए। इसके लिए पांच प्रतिशत वे भी थोड़ी उछल-कूद मचाते हैं। अमीर के घर में यह सब है। ये जो पांच प्रतिशत का उपयोग करते हैं, मुश्किल से मरते-मरते तक उपलब्ध कर पाएंगे। वह उसे वैसे ही मिला हुआ है, इसलिए अमीर घर के बच्चे बुद्धि से शिथिल हो जाते हैं। वे पांच प्रतिशत का भी उपयोग नहीं करते हैं। और करें भी क्यों? सच तो यह है कि अमीर आदमी को करना ही नहीं चाहिए। यह तो गरीबों का काम है। जैसे गरीब आदमी शारीरिक श्रम करता है और अमीर आदमी नहीं करता, तो यह तो गरीब का काम है, वह करे क्यों? ऐसे ही वह बौद्धिक श्रम भी नहीं करता, यह भी गरीब का काम है।
इसलिए दुनिया में जो बड़े मेधावी व्यक्ति पैदा होते हैं, वे मध्यम-वर्ग से आते हैं। अमीर घरों से कम प्रतिभाशाली लोग आते हैं। मध्यम-वर्ग से आते हैं। गरीब के घर से भी कम आते हैं, क्योंकि उसको पांच प्रतिशत उपाय भी करने को नहीं मिलता, कि वे पांच प्रतिशत प्रतिभा का भी उपयोग कर लें। इसकी सुविधा भी नहीं मिलती। अमीर को सारी सुविधा मिलती है, इसलिए कोई जरूरत नहीं होती। दोनों के बीच में जो मिडल क्लास है, मध्यम-वर्ग है, उसको थोड़ी सुविधा भी मिलती है कि वह उपयोग कर सके। और उपयोग करना चाहता है, क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है कि जो उसके पास नहीं है, वह उसके पास हो सकता है। इसलिए वे बुद्धि का उपयोग करते हैं।
अगर सच में ही किसी दिन दुनिया में समाजवाद आ जाए और सभी को मिलने लगे उनकी जरूरत के अनुसार, और सबको समान मिलने लगे, तो शायद आदमी पांच प्रतिशत बुद्धि का भी उपयोग करेगा नहीं। वह भी खो देगा। उसकी भी आवश्यकता नहीं होगी। इसका डर पैदा हो रहा है, क्योंकि अब कंप्यूटर बन गए हैं, जो मनुष्य की बुद्धि का काम कर सकते हैं। ऐसे यंत्र बन गए हैं, इसलिए इस बात का डर है। जैसे, आपको खयाल में न हो, जिन मुल्कों में विद्यार्थियों को टाइपराइटर मिल गए हैं, उनकी हस्तलिपि बिलकुल बिगड़ गई, समाप्त हो गई! हाथ से वे कुछ भी लिखें, तो उनकी खुद की समझ में नहीं आता। यंत्र ने काम सम्हाल लिया है। फाउंटेन पेन जब नहीं था, तो अक्षरों में जो सौंदर्य था, वह अब नहीं है। टाइपराइटर अगर मिल जाए सबको करने को, तो अक्षर बिलकुल शून्य हो जाएंगे।
अगर आज नहीं कल कंप्यूटर ने सारा काम करना शुरू कर दिया बुद्धि का--और वह आपसे लाख गुना ज्यादा काम कर सकता है, तो आपकी बुद्धि की क्या जरूरत रही? इतनी जरूरत रही कि कंप्यूटर कैसे चलाया जाए। उसकी चलाने भर की बुद्धि काफी होगी, बाकी सब काम कंप्यूटर कर देगा। तो शायद आदमी पांच प्रतिशत का भी उपयोग न करे।
और आत्मा के मामले में तो हम उपयोग करते ही नहीं, हमारी सौ प्रतिशत आत्मा पैक्ड, बंद वापस लौट जाती है, खुलती ही नहीं। कभी कोई एक बुद्ध खोलता है। इससे डरने का कारण नहीं है कि हमारी क्षमता नहीं है। हमारी भी क्षमता है, लेकिन विफल होने के लिए तैयार होना चाहिए।
जो आदमी विफलता से बहुत डरता है, वह कभी सफल नहीं होता। जो विफलता से डरता है, वह कदम ही नहीं उठाता कि कहीं विफल न हो जाए। जो डरता है, कहीं भूल-चूक न हो जाए, भूल-चूक तो नहीं होती, लेकिन यात्रा भी नहीं होती। विफलता की तैयारी होनी चाहिए, तो ही कोई सफल होता है। इसलिए बच्चे सीख लेते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, सीखने की पात्रता कम हो जाती है। क्योंकि बच्चे विफलता से नहीं डरते हैं, उन्हें अभी पता ही नहीं कि विफलता और सफलता में कोई खास फर्क है, अभी वे सीख लेते हैं। जैसे-जैसे आपको पता चलता है कि कहीं विफल न हो जाऊं, सीखना मुश्किल हो जाता है।
अगर एक बच्चे को कोई पराई जुबान सिखानी हो, दूसरे की भाषा सिखानी हो, वह जल्दी सीख लेता है। आप नहीं सीख पाते, क्योंकि आपको सदा डर लगा रहता है कि कहीं कोई गलती, कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए।
‘इस आत्मा की यात्रा पर अगर विफल भी हो गया, तो डर मत। साहस मत छोड़, लड़े जा और बारंबार युद्ध में जुटता रह।’
दस विफलताएं मिल कर सफलता बन जाती हैं, सफलता कुछ और है भी नहीं। जो आदमी दस विफलताओं में भी साहसपूर्वक बढ़ता चला जाता है, सफलता उसे उपलब्ध हो जाती है। सफलता विफलता के विपरीत नहीं है--सब विफलताओं का सार-निचोड़ है। यह जरा उलटा लगेगा। सफलता विफलता का विरोध नहीं है, विफलताओं का सार-निचोड़ है। जो जल्दी रुक जाता है, दो-चार विफलताओं में ही घबड़ा जाता है, वह कभी सफल नहीं हो पाता है। क्योंकि उसे यह कला ही पता नहीं कि सभी विफलताएं जुड़ कर सफलता बन जाती हैं।
प्रतीक्षा चाहिए। धैर्य और साहस। और जितनी बड़ी यात्रा हो...अंतर की यात्रा है, वहां तो बहुत विफल होने का साहस चाहिए।
‘जिसके घावों से उसका कीमती जीवन-रक्त बह रहा हो, ऐसा निर्भीक योद्धा प्राण त्यागने के पहले शत्रु पर फिर-फिर आक्रमण करेगा और उसे उसके दुर्ग से निकाल बाहर करेगा। कर्म करो, तुम सब जो निष्फल और दुखी हो, उसकी तरह ही कर्म करो और निष्फल होने के बाद भी अपनी आत्मा के सभी शत्रुओं को--महत्वाकांक्षा, क्रोध, घृणा और अपनी वासना की छाया तक को--निकाल बाहर करो।’
‘याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहा है, अतः तेरे लिए प्रत्येक विफलता भी सफलता है।’
यह सूत्र बड़ा कीमती है, स्वर्ण-सूत्र है।
इसे हम ऐसा समझें:
कोई आदमी अगर बुरा करने में सफल भी हो जाए, तो वह विफलता है। बुराई में पाई गई सफलता विफलता है। सफलता दिखाई पड़ती है, लेकिन आपको पता नहीं है कि आपकी आत्मा भीतर विफल हो गई। एक आदमी चोरी में सफल हो जाता है, चोरी की सफलता में उसकी आत्मा टूट जाती है और नष्ट हो जाती है। बाहर सफलता दिखाई पड़ती है, भीतर विफलता हो गई। सस्ते में कीमती चीज बेच दी। उसकी हालत ऐसी है, जैसे किसी पर क्रोध में आ गया और पास का हीरा जोर से फेंक कर मार दिया पत्थर समझ कर। सफल तो हो गया चोट पहुंचाने में, लेकिन जो खो दिया चोट पहुंचाने में, उसका उसे पता ही नहीं है।
बुराई में आदमी जब सफल होता है, तो भीतर टूट जाता है, नष्ट हो जाता है। और जो वह चूक रहा है वह बहुत ज्यादा है, जो मिल रहा है वह कुछ भी नहीं है। इससे उलटी घटना भी घटती है। भलाई में जब कोई आदमी विफल भी हो जाता है, तो भी सफल होता है। क्योंकि भलाई में विफल हो जाना भी गौरवपूर्ण है। भलाई करने की कोशिश की, यह भी क्या कम है? और भलाई करके विफल होने की हिम्मत की, यह क्या कम है? और भलाई में विफल होकर भी, फिर भी भलाई जारी रखी--निश्चित भीतर आत्मा निर्मित होती चली जाएगी। आत्मा एक गहन अनुभव है--धैर्य का, प्रतीक्षा का, साहस का, श्रम का और भरोसे का।
सुना है मैंने, एक मुसलमान फकीर इब्राहीम कहता था कि मैं उस आदमी की तलाश में हूं, जो मुझे भलाई में विफल कर दे। उस आदमी की तलाश में हूं जो मुझे भलाई में विफल कर दे। विफल से उसका मतलब यह था कि जिसकी वजह से मुझे यह भरोसा आ जाए कि आदमी इतना बुरा है कि उसकी भलाई करना उचित नहीं है। जिंदगी में बहुत लोगों ने उसे धोखे दिए, उसकी चीजें छीन लीं, उसका सामान चुरा ले गए, उसे चोटें पहुंचाईं, लेकिन हर बार वह हंसता था और वह कहता था: तुम कुछ भी करो, लेकिन मैं इनसान पर भरोसा न खोऊंगा। मैं इतना ही समझूंगा कि किसी से भूल हो गई, लेकिन कभी यह न समझूंगा कि आदमी बुरा है।
अगर एक आदमी आपको धोखा दे देता है--एक आदमी! इस जमीन पर तीन अरब आदमी हैं। एक आदमी आपको धोखा दे देता है, आप कहते हैं: आदमी का कोई भरोसा नहीं! आदमी का कोई भरोसा नहीं है, आप कहते हैं। अब आप कभी किसी आदमी पर भरोसा न करेंगे। अब आप सदा सावधान रहेंगे कि कहीं कोई धोखा देने की कोशिश तो नहीं कर रहा है, क्योंकि एक आदमी ने आपको धोखा दे दिया! और तीन अरब आदमियों के संबंध में आपने निर्णय ले लिया। बड़े जल्दी आपकी भलाई विफल हो जाती है और आप विफलता में भरोसा कर लेते हैं।
भलाई में कितनी ही विफलता मिले, और अंतर्यात्रा में कितनी ही चूकें हो जाएं और कितनी ही बार गिरना हो जाए, घबड़ाना मत; उस यात्रा पर सभी विफलताएं सफलताएं बन जाती हैं। उस तरफ चलना ही बड़ी सफलता है। उस तरफ भूलें करना भी बड़ा गौरव है, बड़ा गुण है। चोर होकर कुशल हो जाना भी अच्छा नहीं और ध्यानी होकर अकुशल बना रहना भी अच्छा है।
‘फिर याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहा है,...।’
तो यह एक और भी कीमती धारणा है। धारणा ही नहीं, एक कीमती सत्य है कि जब भी एक आदमी भी मुक्त होता है इस पृथ्वी पर, तो सारे लोगों की मुक्ति का रास्ता साफ होता है। और एक आदमी भी जब जमीन पर गिरता है, पतित होता है, बुरा होता है, तो वह सभी लोगों को भी किसी न किसी ढंग से बुरा कर जाता है, उसकी छाया सभी पर पड़ जाती है। हम इकट्ठे हैं, हम जुड़े हैं और हम एक-दूसरे में आंदोलित होते रहते हैं।
जब कोई एक बुद्ध पैदा होता है, तो सारी पृथ्वी भी उसके बुद्धत्व से आंदोलित होती है। होना ही चाहिए। एक फूल भी खिलता है, तो उसके साथ चारों तरफ का वातावरण खिल जाता है। एक कमल को खिला हुआ देखें, उसके साथ पूरी झील भी खिल जाती है, उसके साथ झील के किनारे भी खिल जाते हैं। एक कमल को अगर गौर से देखें, तो उस क्षण में सारा जगत उसके साथ खिलता है, क्योंकि फूल सारे जगत का हिस्सा है। हम न देख पाएं, क्योंकि हमारे पास आंखें छोटी हैं और समझ न के बराबर है और हम गहरे में नहीं उतर सकते, यह दूसरी बात है। फिर जब बुद्ध जैसा फूल खिलता हो तो हमें चाहे दिखाई पड़े या न पड़े, यह सारा जगत किसी बोझ से हलका होता है। बुद्ध के होने के बाद आप जो हैं, वह दूसरे आदमी हैं, बुद्ध के होने के पहले आप दूसरे आदमी थे।
लोग मेरे पास आते हैं कभी और पूछते हैं कि क्या फायदा हुआ बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट से; क्या फायदा होगा आपसे; सब बातें हैं, सब खो जाती हैं, आदमी जैसा है, वैसा ही बना रहता है; क्यों मेहनत करते हैं? क्यों व्यर्थ परेशान होते हैं? किनके लिए परेशान हो रहे हैं? बुद्ध परेशान हुए, क्राइस्ट परेशान हुए--क्या फायदा है?
उन्हें पता नहीं। उन्हें पता हो भी नहीं सकता कि बुद्ध के पहले के आदमी में और बुद्ध के बाद के आदमी में जमीन-आसमान का फर्क है। लेकिन फर्क बड़ा सूक्ष्म है। बुद्ध के खिलने के साथ आदमी का भविष्य दूसरा हो गया, नियति बदल गई। बुद्ध के बाद अब इतिहास कभी वही नहीं हो सकता, जो बुद्ध के पहले था। मार्ग से एक बड़ा पत्थर हट गया, रास्ता साफ हो गया। अब आप न चलें, आपकी जिम्मेवारी है, लेकिन रास्ते पर रुकावट कम है। एक आदमी चल चुका। और एक आदमी ने चल कर बता दिया कि ऐसा भी हो सकता है। यह हो सकता है कि बुद्धत्व आ जाए। यह एक बड़ी संभावना है। और यह संभावना भविष्य में है। देखें जमीन पर जब भी कभी कोई इस तरह का विराट व्यक्तित्व पैदा होता है, तो सारी पृथ्वी पर उसकी अनुगूंज सुनाई पड़ती है।
पांच सौ वर्षों में, बुद्ध के समय में सारी पृथ्वी पर बुद्धत्व की अनुगूंज सुनाई पड़ी। जब बुद्ध भारत में पैदा हुए, तो महावीर थे। सिर्फ बिहार में, एक छोटे से प्रांत में, जो सदा का दीन है; जो उसके पहले भी दीन था, उसके बाद भी दीन हो गया, कुछ वर्षों के लिए बुद्ध के साथ बिहार में जैसे सारे कमल खिल गए। सिर्फ छोटे से बिहार में आठ तीर्थंकर थे। अदभुत उनकी प्रतिभा थी। और यह जान कर हैरानी होगी कि वे एक-दूसरे के विरोध में थे, तो भी एक-दूसरे के खिलने के साथ ही खिले थे।
ठीक उसी समय यूनान में पाइथागोरस था, ठीक बुद्ध के जैसे व्यक्तित्व की स्थिति वाला आदमी। थोड़े दिन बाद साक्रेटीज था, प्लेटो था, अरस्तू था। चीन में लाओत्सु था, च्वांगत्सु था, कनफ्यूशियस था, मेन्शीयस था। उस छोटे से समय में सारी जमीन में, सारी पृथ्वी पर छोटे-बड़े कई कमल खिले! फिर वैसा कभी नहीं हुआ।
जब भी एक व्यक्ति भी बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, तो उसकी झंकार बहुत वीणाओं पर बजती है। अनेक अपनी यात्रा पर हजारों मील आगे बढ़ जाते हैं। जो अपनी मंजिल के बिलकुल करीब थे, एक छलांग में बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। जो बहुत दूर थे, वे करीब आ जाते हैं। जो बिलकुल सोए थे, वे भी करवट बदलते हैं। जिनकी नींद महा गहन थी, उनका भी स्वप्न क्षण भर को टूटता है। लेकिन अनंत घटनाएं घटती हैं।
यह सूत्र कहता है: ‘याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहा है,...।’
यह मुक्ति का युद्ध तेरा अपना अकेला नहीं है, यह पूरी मनुष्यता का है। तेरे साथ, तुझमें, तेरे द्वारा, पूरी मनुष्यता भी लड़ रही है; तू तो लड़ ही रहा है। एक लहर जो ऊपर उठती है--लहर तो ऊपर उठ ही रही है, उसके साथ सागर भी तो ऊपर उठ रहा है। अगर लहर किसी दिन चांद को छू ले, तो सागर ने भी तो चांद को छू लिया।
‘तो याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहा है, अतः तेरे लिए प्रत्येक विफलता भी सफलता है। और प्रत्येक निष्ठापूर्ण प्रयत्न, समय में पुरस्कृत होता है।’
जल्दी मत करना पुरस्कार की, और जल्दी मत समझ लेना कि मैं विफल हो गया। क्योंकि सभी चीजें समय चाहती हैं, और हर चीज का समय है। बीज आज बोए जाएं, तो आज ही नहीं अंकुर बन जाते। प्रतीक्षा करेंगे बीज ठीक मौसम की, ठीक वर्षा की, ठीक सूरज की। ठीक समय पर अंकुरित होंगे, ठीक समय पर पकेंगे, ठीक समय पर खिलेंगे। तो धीरज रखना, जो भी तूने निष्ठापूर्वक प्रयत्न किया है, वह समय पर पुरस्कृत होता है। इस जगत में कोई भी अपुरस्कृत नहीं रहता।
अस्तित्व का नियम है, जो भी चलता है, वह पाता है। जो भी बोता है, वह काटता है। लेकिन थोड़े धैर्य की जरूरत है, क्योंकि समय लगेगा। कोई भी बीज छलांग लगा कर वृक्ष नहीं हो सकता है।
‘...शिष्य की आत्मा में जो पवित्र अंकुर उगते हैं और अनदेखे बढ़ते हैं, उनकी डालियां प्रत्येक परीक्षा से गुजर कर बड़ी होती हैं। और सरकंडे की तरह वे झुक जाती हैं, लेकिन कभी टूटती नहीं हैं और न वे कभी नष्ट हो सकती हैं। और जब समय आता है, तब उनमें फूल भी आ खिलते हैं।’
कई बार पता ही नहीं चलता बीज का। बीज का पता भी कैसे चलेगा? आज आप ध्यान कर रहे हैं। हो सकता है आज आपको पता भी न चले कि क्या हो रहा है भीतर? शायद कोई खयाल भी न आए कि कोई बीज आपकी अंतरात्मा में प्रविष्ट हो गया। वर्ष, दो वर्ष बाद समय पाकर, अनुभव की धूप पाकर, अवसर की वर्षा पाकर, बीज अंकुरित होने लगेगा। तब भी अंकुर आपको दिखाई न पड़ेगा। अंकुर अदृश्य है, जब तक कि शाखाएं न आ जाएं और जब तक कि पत्ते आपके चारों तरफ छायाएं न फैलाने लगें। आपको शायद तब तक ठीक-ठीक पता न चलेगा, जब तक दूसरों को पता न चलने लगे। जब दूसरे आपकी सुगंध को अनुभव करने लगें और कहने लगें कि कहां से पाई यह सुगंध, क्या हुआ? जब दूसरे थके-मांदे धूप से आएं और आपके पास आकर शीतल हो जाएं और कहें कि कैसी शीतलता है तुम्हारी, किस वटवृक्ष की? तुम्हारे नीचे विश्राम करने का मन होता है। कि जब दूसरों के दुख-ताप तुम्हारे पास आकर अचानक तिरोहित हो जाएं, और तुम्हारी मौजूदगी औषधि बन जाए, और जब दूसरे तुमसे कहने लगें कि क्या हुआ है? शायद तब तुम्हें पता चले।
बहुत धीरे-धीरे बढ़ते हैं अंकुर। और हर संघर्ष--जो इन अंकुरों को ऐसा लगता है कि कहीं तोड़ न डाले। हर हवा का झोंका, जिसमें लगता है कि कहीं यह वृक्ष उखड़ न जाए। वह झोंका भी वृक्ष से संघर्ष करके उसको मजबूत कर जाता है। अगर कोई हवा का झोंका वृक्ष को न टकराए, तो वृक्ष कभी भी टूट सकता है। हर झोंका चुनौती देता है वृक्ष को। और वृक्ष चुनौती को झेल लेता है, झोंका निकल जाता है, वृक्ष फिर खड़ा हो जाता है।
लोचपूर्ण रहना सरकंडे की तरह।
लाओत्सु ने कहा है: अकड़े हुए वृक्ष मत बन जाना, नहीं तो उखाड़ दिए जाओगे।
अकड़ना मत। अपनी इस भीतर की यात्रा में अकड़ भर मत जाना, नहीं तो कोई भी तूफान तुम्हें उखाड़ कर रख देगा। विनम्र रहना। और जब तूफान आए, तो ऐसे झुक जाना, जैसे घास झुक जाती है। और तूफान तुम्हारा कुछ बिगाड़ न पाएगा, तुम्हें ताजा कर जाएगा, तुम्हें नया प्राण दे जाएगा, तुम्हारी धूल झाड़ जाएगा, तुम्हें सबल कर जाएगा। और जब तूफान चला जाएगा, तब तुम फिर खड़े हो जाओगे आकाश में--और भी स्वस्थ, और भी ताजे, और भी नाचते हुए, और भी मदमस्त। अस्तित्व से मदमस्त होना घास की तरह।
यह सूत्र कहता है: जैसे सरकंडा झुक जाता है, लेकिन कभी टूटता नहीं, वैसे ही इस भीतर के बीज को अगर विनम्र, प्रतीक्षारत, प्रार्थनापूर्ण भाव से बढ़ाया, तो यह कभी टूटेगा नहीं और कभी नष्ट न होगा। और जब समय आएगा, तब उसमें फूल खिल जाएंगे। तुम जल्दी मत करना, तुम फूलों को खींचने की कोशिश मत करना, क्योंकि कोई भी फूल खींच कर नहीं निकाले जा सकते। समय के पहले कुछ भी नहीं हो सकता है। जल्दी नासमझी है। आग्रह कि अभी हो जाए, उपद्रव करेगा। प्रतीक्षा करना और चीजों को होने देना। मौका देना कि ठीक अपने मौसम में चीजें खिल जाएं। समय आता है, तब उनमें फूल भी आ खिलते हैं।
‘लेकिन यदि तू तैयारी करके आया है, तो भय की कोई बात नहीं है।’
‘यहां से सीधे वीर्य-द्वार के लिए रास्ता साफ हो जाता है, सप्त द्वारों में यह पांचवां द्वार है।’
‘अब तू उस राह पर है, जो ध्यानाश्रय या छठे बोधि-द्वार को जाती है।’
वीर्य-द्वार पर हम कल सुबह बात करेंगे।
जिसके घावों से उसका कीमती जीवन-रक्त बह रहा हो, ऐसा निर्भीक योद्धा प्राण त्यागने के पहले शत्रु पर फिर-फिर आक्रमण करेगा और उसे उसके दुर्ग से निकाल बाहर करेगा। कर्म करो, तुम सब जो निष्फल और दुखी हो, उसकी तरह ही कर्म करो और निष्फल होने के बाद भी अपनी आत्मा के सभी शत्रुओं को--महत्वाकांक्षा, क्रोध, घृणा और अपनी वासना की छाया तक को--निकाल बाहर करो...।
याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति21 के लिए युद्ध कर रहा है, अतः तेरे लिए प्रत्येक विफलता भी सफलता है। और प्रत्येक निष्ठापूर्ण प्रयत्न समय में पुरस्कृत होता है। शिष्य की आत्मा में जो पवित्र अंकुर उगते हैं और अनदेखे बढ़ते हैं, उनकी डालियां प्रत्येक परीक्षा से गुजर कर बड़ी होती हैं। और सरकंडे की तरह वे झुक जाती हैं, लेकिन कभी टूटती नहीं हैं और न वे कभी नष्ट हो सकती हैं। और जब समय आता है, तब उनमें फूल भी आ खिलते हैं।22
लेकिन यदि तू तैयारी करके आया है, तो भय की कोई बात नहीं है।
यहां से सीधे वीर्य-द्वार के लिए रास्ता साफ हो जाता है, सप्त द्वारों में यह पांचवां द्वार है।
अब तू उस राह पर है, जो ध्यानाश्रय या छठे बोधि-द्वार को जाती है।
मनुष्य के जीवन में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वह है समय। समय--जो दिखाई भी नहीं पड़ता। समय--जिसकी कोई परिभाषा भी नहीं की जा सकती। समय--जो हमें जन्म से लेकर मृत्यु तक घेरे हुए है, वैसे जैसे मछली को सागर घेरे हुए है। लेकिन न जिसका हमें कोई स्पर्श होता है, न जो हमें दिखाई पड़ता है, न हम जिसका कोई स्वाद ले सकते हैं--हम निरंतर उसकी बात करते हैं। और कहीं गहरे में कुछ अनुभव भी होता है कि वह है। लेकिन जैसे ही पकड़ने जाते हैं परिभाषा में, हाथ से छूट जाता है।
संत अगस्तीन ने कहा है कि समय बड़ा अदभुत है। जब मुझसे कोई पूछता नहीं, तो मैं जानता हूं कि समय क्या है, और जब मुझसे कोई पूछता है, तभी मैं मुश्किल में पड़ जाता हूं। आप भी जानते हैं कि समय क्या है, लेकिन कोई अगर पूछे कि समय क्या है, तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे।
क्या है समय?
आप ही मुश्किल में पड़ जाएंगे, ऐसा नहीं है, बड़े-बड़े चिंतक, विचारक, दार्शनिक भी समय के संबंध में उलझन से भरे रहे हैं। अब तो विज्ञान भी समय के संबंध में चिंता से भर गया है कि समय क्या है? जो-जो सिद्धांत समय के लिए प्रस्तावित किए जाते हैं, उनसे कोई से भी कोई हल नहीं होता।
कुछ बातें समझनी जरूरी हैं। क्यों इतनी उलझन है समय के साथ? क्या कारण होगा कि हम समय को अनुभव करते हैं, नहीं भी करते हैं? क्या कारण होगा कि प्रकट रूप से समय हमारी समझ में नहीं आता है?
पहली बात, मछली को भी सागर समझ में नहीं आता है; जब तक मछली को सागर के किनारे कोई उठा कर न फेंक दे, तब तक सागर का पता भी नहीं चलता है। सागर में ही मछली पैदा हो और सागर में ही मर जाए, तो उसे कभी पता नहीं चलेगा कि सागर क्या था। क्योंकि जिसे जानना है, उससे थोड़ी दूरी चाहिए। जिसमें हम घिरे हों, उसे जाना नहीं जा सकता। ज्ञान के लिए फासला चाहिए। फासला न हो तो ज्ञान नहीं हो सकता। तो मछली को अगर कोई सागर के किनारे मछुआ पकड़ कर डाल दे रेत में, तब उसे पहली दफा पता चलता है कि सागर क्या था। सागर के बाहर होकर पता चलता है कि सागर क्या था! जब सागर नहीं होता है तब पता चलता है कि सागर क्या था! नकार से पता चलता है कि विधेय क्या था! न-होने से पता चलता है कि होना क्या था! रेत पर जब मछली तड़फती है, तब उस तड़फन में उसे पता चलता है कि सागर मेरा जीवन था! सागर मुझे घेरे था, सागर के कारण ही मैं थी, और सागर के बिना मैं न हो सकूंगी!
समय भी ऐसे ही मनुष्य को घेरे हुए है। और जटिलता थोड़ी ज्यादा है। सागर के किनारे तो फेंकी जा सकती है मछली, समय के किनारे फेंकना इतना आसान नहीं है। और मछली को तो कोई दूसरा मछुआ सागर के किनारे फेंक सकता है रेत में, आपको कोई दूसरा आदमी समय के किनारे रेत में नहीं फेंक सकता। आप ही चाहें तो फेंक सकते हैं। मछली खुद ही छलांग ले ले, तो ही किनारे पर पहुंच सकती है।
ध्यान समय के बाहर छलांग है।
इसलिए ध्यानियों ने कहा है: ध्यान है कालातीत, बियांड टाइम।
ध्यानियों ने कहा है: जहां समय मिट जाता है, वहां समझना कि समाधि आ गई। जहां समय का कोई भी पता नहीं चलता, जहां न कोई अतीत है, न कोई भविष्य, न कोई वर्तमान; जहां समय की धारा नहीं है, जहां समय ठहर गया, टाइमलेस मोमेंट, समय-रहित क्षण आ गया--तब समझना कि ध्यान हो गया।
ध्यान और समय विपरीत हैं।
अगर समय है सागर, तो ध्यान सागर से छलांग है।
और जटिलता है। और वह जटिलता यह है कि मछली सागर के बाहर तड़फती है, सागर में उसका जीवन है। और हम समय में तड़फते हैं, और समय के बाहर हमारा जीवन है। हम समय में तड़फते ही रहते हैं। समय के भीतर कोई आदमी तड़फन से मुक्त नहीं होता।
समय के भीतर दुख अनिवार्य है।
समय में रहते हुए पीड़ा के बाहर जाने का कोई उपाय ही नहीं है। हां, एक उपाय है, वह धोखा है। और वह है बेहोश हो जाना। बेहोश होकर हम समय भूल जाते हैं, समय के बाहर नहीं होते हैं। जैसे मछली को कोई बेहोशी का इंजेक्शन दे दे, रहे सागर में ही, लेकिन सागर के बाहर जैसी हो जाएगी, क्योंकि बेहोश हो जाएगी। जिसका बोध ही नहीं है, उसके हम बाहर मालूम पड़ते हैं।
समय के भीतर जितनी पीड़ाएं हैं, उनका हल बेहोशी है। इसलिए नाराज मत होना लोगों पर, अगर कोई शराब पी रहा है। वह भी ध्यान की तलाश कर रहा है। कोई और मादकता में डूब रहा है--कोई संगीत में, कोई नृत्य में। कोई कामवासना में लीन हो रहा है--वह भी मूर्च्छा खोज रहा है। वह यह कोशिश कर रहा है कि यह जो समय की पीड़ा का सागर है, इसके बाहर कैसे हो जाऊं?
दो ही उपाय हैं। एक झूठा उपाय है, मिथ्या उपाय: बेहोश हो जाएं। बाहर तो नहीं होंगे, लेकिन होश ही नहीं रह जाएगा, तो पता ही नहीं चलेगा कि बाहर हैं या भीतर। जब होश आएगा, तब पता चलेगा। इसलिए जब शराबी होश में आता है, तब संसार का दुख और भी घना हो जाता है। वह फिर-फिर शराब पीना चाहता है, ताकि यह भूले--भूल जाए बिलकुल। लेकिन कितना ही भूलें, भूलने से कोई चीज मिटती तो नहीं है। सिर्फ समय टलता है, समय व्यतीत होता है, स्थगन होता है। लेकिन समस्याएं अपनी जगह बनी रहती हैं, शायद और भी बढ़ जाती हैं, क्योंकि इकट्ठी हो जाती हैं। तो बेहोशी कोई उपाय नहीं है।
शराबी दया का पात्र है, क्रोध का पात्र नहीं। वह पाप नहीं कर रहा है, भूल कर रहा है। और भूल उसकी यह है कि उसकी वास्तविक खोज समय के बाहर जाने के लिए है। वह चाहता तो ध्यान है, लेकिन ध्यान का उसे पता नहीं है, तो एक झूठा ध्यान है, शराब। इसलिए समस्त ध्यानियों ने शराब का विरोध किया है, इसलिए नहीं कि शराब पाप है।
इस फर्क को ठीक से समझ लें।
नैतिक आदमी भी शराब का विरोध करता है, उसके विरोध के कारण दूसरे हैं--कि शराब से स्वास्थ्य खराब होगा, कि शराब से घर-गृहस्थी बर्बाद हो जाएगी, कि शराब से तुम्हारे बच्चों का क्या होगा, कि शराब से समाज की व्यवस्था का क्या होगा? यह नैतिक आदमी की चिंता है।
धार्मिक आदमी की यह चिंता नहीं है। और नैतिक आदमी की चिंता को हल किया जा सकता है और शराब भी पी जा सकती है। उसमें बहुत अड़चन नहीं है। अच्छी शराब पीएं, स्वास्थ्य को नुकसान न होगा। और आज नहीं कल और अच्छी शराब बनाई जा सकती है, जिससे स्वास्थ्य को लाभ भी हो सके। क्योंकि शराब तो रसायन है। और अब तो हम इतना जानते हैं कि शराब से वह सब निकाला जा सकता है जो नुकसान करता है और वह डाला जा सकता है जो लाभ करे। लेकिन नैतिक विचारकों की वजह से यह नहीं हो पा रहा है! यह बड़ी अजीब बात है। लेकिन जिंदगी में बड़ी अजीब बातें हैं।
आज दुनिया में शराब से जो नुकसान हो रहा है, वह नैतिक लोगों की वजह से हो रहा है। क्योंकि वे शराब को ठीक नहीं बनाने देने के पक्ष में हैं। क्योंकि वे डरते हैं अगर शराब ठीक हो जाए, तो फिर शराब का विरोध कैसे करेंगे। शराब आज ठीक हो सकती है। आदमी के पास इतना रासायनिक ज्ञान है कि अगर शराब ठीक न हो सके, तो हम कुछ भी न कर पाएंगे। हमने जिन्होंने अणुबम खोज लिए, हमने जिन्होंने चांद पर पैर रख लिए, वे शराब की बोतल से नुकसान नहीं निकाल सकते बाहर? वे निकाल सकते हैं, लेकिन दुनिया भर के नैतिक पुरुष उसके विरोध में हैं। क्योंकि अगर खराबी निकल गई और शराब सुखद हो गई और स्वास्थ्यकर हो गई तो फिर नैतिक आदमी क्या करेगा?
धर्म का विरोध शराब से नहीं है, कि वह पाप है। उसका विरोध इस बात से है कि बेहोशी की खोज का मतलब है कि तुम ध्यान चाहते थे, और तुमने सस्ता, झूठा उपाय खोज लिया। तुम चाहते थे, समय के बाहर जाना, पीड़ा के बाहर जाना, संसार से हट जाना। और तुमने संसार में रह कर ही अपने को भुलाने का उपाय खोज लिया। इसलिए ध्यानियों ने विरोध किया है। ध्यानियों के विरोध के कारण बिलकुल अलग हैं। गहरा कारण यही है कि बेहोशी और होश विपरीत हैं।
ध्यान है होश, शराब है बेहोशी।
तो अगर होश चाहिए तो बेहोशी से बचना उचित है। और होश अगर बढ़ता जाए तो समय के बाहर पहुंचना हो जाता है--जागते हुए, होशपूर्वक। और एक बार जो व्यक्ति समय के बाहर की झलक पा लेता है, उसकी जिंदगी दूसरी ही हो जाती है। उसे असली, वास्तविक का अनुभव हो जाता है। तब यह सब झूठा और असत्य और स्वप्नवत मालूम होने लगता है।
समय के संबंध में एक बात तो यह जान लेनी जरूरी है कि हम उसमें ही पैदा होते हैं, उसमें ही बढ़ते हैं, उसमें ही मर जाते हैं। और इसलिए हमें उसका कोई पता नहीं चलता कि क्या है। सिर्फ ध्यानी को पता चलता है कि समय क्या है। क्योंकि ध्यानी तट पर खड़ा हो जाता है। सागर साफ अलग दिखाई पड़ने लगता है।
हमें पता तो नहीं चलता कि समय क्या है, लेकिन फिर भी हम समय का उपयोग तो करते ही हैं। उपयोग के लिए ज्ञान अत्यंत आवश्यक नहीं है।
यह बिजली जल रही है, इसको बटन दबा कर जलाना-बुझाना कोई भी कर सकता है। ऐसा करने के लिए बिजली क्या है, यह जानना जरूरी नहीं है। आप अपनी मोटर में बैठ कर, अपनी कार में बैठ कर अगर आप थोड़ा सा चलाना जानते हैं, तो आपको जानना जरूरी नहीं कि गाड़ी के इंजन में क्या हो रहा है और क्या नहीं हो रहा है। हो सकता है आपने इंजन कभी देखा ही न हो। जरूरत भी नहीं है। बोनिट के नीचे क्या छिपा है उससे कुछ लेना-देना नहीं है। आप अपनी गाड़ी को चलाना भर जानते हैं, तो काफी है।
उपयोगिता बिना ज्ञान के भी हो सकती है।
समय का हम सब उपयोग करते हैं। लेकिन समय क्या है, इसका हमें पता नहीं है। मछली भी सागर का उपयोग करती है, लेकिन सागर क्या है, इसका उसे पता नहीं है। हम जो उपयोग करते हैं, लेकिन बिना जाने उसमें बहुत भूल-चूक की संभावनाएं हैं। भूल-चूक होगी ही। उपयोग कर सकते हैं, लेकिन भूल होगी। समय को हम जानते नहीं, इसलिए हम जो भी उसमें करते हैं, उसमें अनेक भूलें हो जाती हैं। पहली भूल तो यह हो जाती है कि हम सबको ऐसा खयाल बना रहता है कि समय काफी है। यह पहली भूल है। पर्याप्त समय है।
एक मित्र आज ही आए, उन्होंने कहा कि संन्यास तो मुझे लेना है, लेकिन थोड़ा रुकूंगा। मैंने पूछा: कितनी देर रुकने का खयाल है? उन्होंने कहा कि अभी कुछ तय नहीं किया, लेकिन साल दो साल के भीतर। साल दो साल आपके पास हैं? नहीं, ऐसा कोई पूछता नहीं, और ऐसा पूछना उचित भी नहीं है। दो दिन, चार दिन भी आपके पास हैं? आने वाला पल भी होगा, इसका पक्का है? नहीं, हर आदमी को खयाल है कि समय पर्याप्त है। सभी को भीतर ऐसी धारणा है कि समय कहीं चुकता है। कर लेंगे कभी भी! कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे!
समय पर्याप्त नहीं है, समय सदा अपर्याप्त है। और जो करना है, उसके लिए सदा थोड़ा है। और आप क्षुद्र में ही उसे व्यतीत कर रहे हैं, और जो विराट है, उसको टालते चले जाते हैं, पोस्टपोन करते चले जाते हैं। स्थगन की वृत्ति पैदा होती है इस खयाल से कि समय पर्याप्त है; कर लेंगे, कल कर लेंगे! जो व्यर्थ है, वह आज कर लेते हैं और जो सार्थक है, उसे कल पर छोड़ देते हैं! यह आपसे कभी भी न होगा। यह कल पर टालने की आदत गहरी है, यह कल भी आपके साथ रहेगी। जब कल आएगा, तो वह आज हो चुका होगा और यह आदत फिर भी कहेगी कि कल। आप मर जाएंगे और यह आदत नहीं छूटेगी।
और ध्यान रखना, मौत जब भी आती है, आज आती है, वह कल नहीं आती। आप मौत से न कह सकेंगे कि कल, रुको, कल आ जाना। जब मौत से आप नहीं कह सकते कि कल आ जाना, तो थोड़ा सोचना, समय पर्याप्त नहीं है और समय आपके हाथ में नहीं है, और समय के आप मालिक नहीं हैं।
याद आती है मुझे छोटी सी घटना। युधिष्ठिर बैठे हैं अपने अज्ञातवास, वनवास के समय। छिपे हैं, वेशभूषा बना रखी है, किसी को पता नहीं है कि कौन हैं--कुटी के सामने बैठे हैं! भीम एक कोने में बैठा हुआ कुछ सोच रहा है। एक भिखारी आया और उसने युधिष्ठिर को कहा कि कुछ भीख मिल जाए। युधिष्ठिर ने कहा: तू कल आ जाना। भीम एकदम उछल कर खड़ा हो गया और नाचने लगा और भीतर घर की तरफ दौड़ा। तो युधिष्ठिर ने पूछा कि तुझे क्या हो रहा है?
तो भीम ने कहा कि मैं खबर करने जा रहा हूं कि मेरे भाई ने समय पर विजय पा ली। मैं यही सोच रहा था कि यह समय क्या है? और तुमने कहा कि कल आ जाना! तो एक बात तो पक्की है कि तुम्हें पक्का है कि कल आएगा, तो मैं जरा गांव में खबर कर आऊं कि मेरे भाई ने समय पर विजय पा ली है। युधिष्ठिर भागे, उस भिखारी को लौटाया, और कहा, तू आज ही ले जा, क्योंकि कल का सच में ही कहां भरोसा।
कल के लिए क्या उपाय है कि हम कुछ तय कर सकें? जो टालता है, वह अपने को धोखा देता है। जो कल पर छोड़ता है, वह बेईमान है। किसी और से बेईमानी नहीं कर रहा, अपने से ही बेईमानी कर रहा है।
अगर कल आपके हाथ में हो, तो स्थगित करना और कल अगर हाथ में न हो, तो स्थगित मत करना। और अगर स्थगित ही करना हो कल के लिए तो बुराई को करना; क्योंकि कल कभी नहीं आता। क्रोध करना हो तो कहना, कल करेंगे। चोरी करना हो तो कहना, कल करेंगे। गर्दन किसी की काटनी हो तो कहना, कल काटेंगे। फिर तुमसे पाप हो ही न सकेंगे। क्योंकि कल कभी नहीं आता। जो ठीक करना हो, शुभ करना हो, वह अभी कर लेना। अगर उसे कल पर टाला, तो वह भी नहीं हो सकेगा।
हम बुरे को अभी कर लेते हैं, शुभ को कल पर टाल देते हैं! इसका मतलब जाहिर है कि जो हम करना चाहते हैं, वह हम अभी कर लेते हैं और जो हम नहीं करना चाहते हैं, वह हम कल पर टाल देते हैं। मगर साफ क्यों नहीं समझते कि नहीं करना चाहते। क्या जरूरत है कि एक आदमी कहे कि संन्यास मैं कल लूंगा। इतना ही क्या कम है--काफी है कि आज संन्यास नहीं लेना है। बात खत्म है। मगर ऐसा अगर कोई कहे कि आज संन्यास नहीं लेना है, तो भीतर तकलीफ होती है। हम लेना भी नहीं चाहते और लेने का मजा भी लेना चाहते हैं। हम संन्यासी होना भी नहीं चाहते हैं--डर भी लगता है और लोभ भी पकड़ता है। तो तरकीब निकाल लेते हैं कि कल लेंगे। इससे ऐसा लगता है कि थोड़ा तो ले ही लिया, काफी तो ले ही लिया; थोड़ी सी ऊपरी औपचारिकता रह गई है, वह कल कर लेंगे। संन्यासी तो हम हो ही गए, एक प्रतिशत बचा है कि कपड़े बदल लेने हैं, कि नाम ले लेना है; वह कल कर लेंगे। दीक्षा कल हो जाएगी। ऐसे अपने को धोखा देना आसान हो जाता है।
समय पर्याप्त नहीं है। और सभी को खयाल है कि काफी है, जरूरत से ज्यादा है, इसीलिए तो टालते हैं!
अगर आपको इसी वक्त पता लगे कि कल सुबह नहीं होगी और सूरज नहीं उगेगा और कल जिंदगी समाप्त हो जाएगी, तो मैं आपसे पूछता हूं, आप पहला काम क्या करना चाहेंगे? धन इकट्ठा करना चाहेंगे? मुकदमा अदालत में लड़ना चाहेंगे? मकान बनाना चाहेंगे? चोरी, हत्या, क्रोध--क्या करना चाहेंगे? अगर यह पक्का हो जाए कि कल सुबह सूरज नहीं उगेगा और वैज्ञानिक खबर कर दें कि अंत आ गया, आज आखिरी रात है, तब आप क्या करेंगे? जो भी आपको करने जैसा लगे, उसे आज ही कर लेना। चाहे वैज्ञानिक खबर करें, चाहे न करें, क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं है, हो सकता है आपके लिए कल न ही हो। बहुतों के लिए कल नहीं होगा, आप भी उसमें हो सकते हैं। लेकिन आदमी सदा अपने को अलग छोड़ लेता है। सब नियम औरों के लिए होते हैं, खुद के लिए नियम नहीं होता--खुद आदमी अपवाद होता है!
दूसरी बात समय के संबंध में बहुत मजेदार, समझने जैसी है। और वह यह है कि समय को हम दबाए रखे हैं। समय को हमने दमन किया हुआ है। इसलिए भी हमें समय क्या है, यह पता नहीं चलता। क्योंकि समय के साथ मृत्यु बंधी है। इसे ऐसा समझें कि अगर आदमी अमर होता, अगर आप अमर होते, तो आपको समय का कोई बोध ही न होता। अगर मौत न हो तो समय का क्या मतलब है फिर? कोई मतलब नहीं। अगर मौत न हो, तो समय है ही नहीं फिर।
मौत ही समय को निर्मित करती है। इसलिए पशुओं को मौत का कोई पता नहीं है, समय का भी कोई पता नहीं है। पशु अभी जीता है, यहीं जीता है। उसे कल की कोई खबर नहीं, बीते कल की भी कोई खबर नहीं, उसे मौत का कोई पता नहीं है।
जिन समाजों में, जैसे हमारे मुल्क में यह खयाल है कि आत्मा अमर है, जिन लोगों को यह खयाल है कि आत्मा अमर है, उनका भी समय का बोध बहुत क्षीण होता है, बहुत तीव्र नहीं होता है। ईसाइयत ने समय के बोध को बहुत प्रगाढ़ कर दिया पश्चिम में। क्योंकि ईसाइयत और इस्लाम मानते हैं कि एक ही जन्म है। फिर कोई दुबारा जन्म नहीं है। जो भी करना है, बस इसी जन्म और मृत्यु के बीच कर लेना है, इतना ही समय मिला है।
भारत में हमारे पास अनंत जन्मों की धारणा है--एक जन्म, दूसरा जन्म, तीसरा जन्म। हम कहते हैं, इस जन्म में न हुआ, तो अगले जन्म में कर लेंगे। अगले जन्म में न हुआ, तो जल्दी क्या है? यह तो संसार चलता ही रहेगा, कभी भी कर लेंगे। अनंत विस्तार है हमारे सामने। इसलिए भारत में टाइम कांशसनेस, समय का बोध नहीं है। तो अगर कोई आपसे कहता है कि पांच बजे आ जाएंगे, और सात बजे आता है तो आप नाराज मत होना, यह भारतीय चिंतना का परिणाम है, इसमें कोई उसका कसूर नहीं है। उसको कोई फिकर ही नहीं इस बात की, कि पांच और सात में कोई फर्क होता है? पश्चिम में दो मिनट में बेचैनी हो जाती है। बेचैनी का कारण? बेचैनी का कारण है ईसाइयत।
ईसाइयत का खयाल है कि एक ही जन्म है। तो समय बहुत थोड़ा रह गया। उसमें आप किसी का दो घंटा खराब कर दें, तो आप उसकी जिंदगी छीन रहे हैं। यहां आप किसी के दो दिन खराब कर दें, कुछ भी नहीं छीन रहे हैं। फर्क ही क्या पड़ता है? इस समय के विस्तीर्ण प्रवाह में दो दिन का लेना-देना क्या है? तो यहां हम खूब एक-दूसरे का समय खराब करते हैं। कोई चिंता ही नहीं मानता इस बात की।
पश्चिम में ईसाइयत के विचार के कारण समय का बोध जगा। और अगर जिंदगी इतनी ही है पचास साल, सौ साल, सत्तर साल, तो उसमें से किसी के दो घंटे अकारण खराब कर देना हत्या है। कि किसी के घर अकारण पहुंच जाना और कुछ भी बातचीत शुरू कर देनी और घंटों खराब कर देना--उसकी जिंदगी छीन रहे हैं। और जिंदगी सीमित है। और दो घंटे जो आपने छीन लिए, वे वापस नहीं लौटेंगे।
तो किसी से बिना पूछे उसके घर पहुंच जाना पश्चिम में अशिष्टता है। यहां किसी से पूछ कर जाने में अशिष्टता मालूम पड़ती है कि आप भी क्या बात कर रहे हैं, पूछ कर आने की बात ही क्या है? अतिथि तो देवता है, जब आ जाए। और फिर अतिथि जितना टिक जाए उतनी उसकी कृपा है।
समय का बोध मृत्यु से बंधा है। अगर मृत्यु सन्निकट है, तो समय की चेतना गहरी हो जाएगी। अगर मृत्यु बहुत दूर है, या है ही नहीं; आत्मा अमर है, तो समय का भाव बिलकुल विलीन हो जाएगा।
ध्यान रखें, समय का हम ज्यादा विचार नहीं करते, क्योंकि अगर उसका हम ज्यादा विचार करेंगे, तो मौत का विचार भी करना पड़ेगा। मौत है टैबू, उस पर विचार करना नहीं, डर लगता है। तो समय पर भी विचार करना नहीं, उससे भी भय लगता है। मान कर चलना अच्छा है कि पर्याप्त है। मान कर चलना अच्छा है कि आत्मा अमर है। समय की कोई कमी नहीं है, समय सदा रहेगा, कोई जल्दी नहीं है।
इसके परिणाम घातक हो सकते हैं। हम ऐसे ही बैठे-बैठे समय को गंवा सकते हैं। और एक-एक पल चुकता जाता है। और एक-एक चुकते पल के साथ आप भी चुकते जाते हैं। एक-एक चुकते पल के साथ आपकी ऊर्जा भी बूंद-बूंद रिक्त होती जाती है, आप खाली होते जाते हैं।
मौत है क्या?
आपके भीतर से समय की रेत का चुक जाना।
अगर आपने रेत की घड़ी देखी है--तो कांच के एक बर्तन में रेत भरी होती है। एक-एक रेत का दाना नीचे के बर्तन में गिरता रहता है, उसके गिरने के साथ एक-एक पल का पता चलता रहता है। जब पूरी रेत खाली हो जाती है ऊपर के बर्तन से, तो समझो कि चौबीस घंटे समाप्त हो गए। फिर घड़ी उलटा कर देते हैं। नीचे का बर्तन ऊपर, ऊपर का बर्तन नीचे। फिर एक-एक रेत का दाना नीचे गिरने लगता है। चौबीस घंटे में रेत फिर नीचे के बर्तन में आ जाती है।
मौत है क्या?
आपके जीवन से समय का एक-एक बूंद करके चुक जाना।
और जिस दिन आपके भीतर समय बिलकुल चुक जाएगा, आप मर गए। कंटेनर रह गया, कंटेंट चला गया। सिर्फ बर्तन रह गया--खाली। जो भीतर था जीवन, वह रिक्त हो गया, चुक गया।
इस सूत्र को समझने के लिए समय के संबंध में यह बात जान लेनी जरूरी है कि समय बहुत कम है, करने को बहुत ज्यादा है। और करने को इतना महत्वपूर्ण है कि क्षुद्र में समय को मत गंवा देना। और जो महत्वपूर्ण है, उसे कल पर मत टालना। जो व्यर्थ है, उसे कल पर टाल देना। जो सार्थक है, उसे अभी कर लेना। यही इकॉनामिकल है, यही अर्थशास्त्रीय है कि जो जरूरी है, एसेंशियल है, उसको अभी कर लेना।
लेकिन हम अजीब हैं। अखबार हम पहले पढ़ लेते हैं, ध्यान हम सोचते हैं, कल कर लेंगे! अखबार पहले पढ़ लेते हैं, जैसे जीवन उस पर अटका है और नहीं पढ़ पाए तो मर जाएंगे। और अगर अखबार नहीं जाना, तो ज्ञान से वंचित रह जाएंगे! ध्यान बाद में भी किया जा सकता है, अखबार तो अभी पढ़ना होगा! सिनेमा आज देख लेते हैं, संन्यास कल पर छोड़ देते हैं। सिनेमा जरूरी है, पता नहीं कल फिल्म लगी रहे, न लगी रहे, और कल का भरोसा क्या है, जेब में पैसे रहें, न रहें। आज पैसे हैं, फिल्म भी लगी है, संन्यास तो कल भी है।
ऐसे हम व्यर्थ को तत्काल करते हैं, सार्थक को कल पर छोड़ते हैं। इसे बदलें और खयाल रखें कि समय का एक ही उपयोग है, और जो आदमी वह उपयोग कर लेता है, वह इस संसार में विजेता हो जाता है।
क्या है समय का उपयोग?
आप सोच भी न सकेंगे। समय का एक ही सार्थक उपयोग है--समय के बाहर जाने के लिए उपयोग कर लेना। अगर आपने समय का इतना उपयोग कर लिया कि आप समय के तट पर पहुंच गए, तो आपका जीवन सार्थक, और आपने समय का सार निचोड़ लिया। और अगर समय का आप इस काम के लिए उपयोग न कर सके तो आपने कुछ भी किया हो, कितने महल खड़े किए हों, कितनी तिजोरियां भरी हों, आप नासमझ हैं; और आपके महल और आपकी तिजोरियां जरा भी काम न आएंगे। समय के बाहर का एक अनुभव भी हो जाए, रत्ती भर भी, तो आपने अनेक-अनेक जीवन के समय का मूल्य पा लिया।
इस सूत्र को अब समझें:
तैयार रह।
‘तैयार रह और समय रहते चेत जा। यदि तूने प्रयत्न किया और विफल हो गया, अदम्य लड़ाके, तो भी साहस न छोड़। लड़े जा और बारंबार युद्ध में जुटता रह।’
समय रहते चेत जा।
हम सबको लगता है, समय तो सदा है, चेतने की जल्दी क्या है, कल चेत जाएंगे।
सुना है मैंने, कलकत्ता में एक सुबह एक घटना घटी। एक वृद्ध सज्जन साठ वर्ष के अपने रोज के नियम के अनुसार घूमने निकले थे, अपनी लाठी लिए, सुबह की चहलकदमी पर। किसी मकान में, द्वार तो बंद था, कोई स्त्री किसी को जगा रही थी, शायद उसके बेटे को, शायद उसके देवर को, शायद किसी और को। वह कह रही थी: राजाबाबू उठ, रात जा चुकी, सुबह हो गई, अब सोना उचित नहीं। संयोग की बात, वे जो बूढ़े आदमी थे, उनका नाम था राजाबाबू। ठिठक गए, सुनाई पड़ा राजाबाबू उठ, सुबह हो गई, अब सोने के लिए समय नहीं, जाग। घर की तरफ लौट रहे थे टहल कर--वहीं से किसी को कहा कि मेरे घर खबर कर देना कि राजाबाबू जाग गए हैं और अब न लौटेंगे।
एक संन्यासी का जन्म हो गया।
घर के लोगों ने आकर बहुत समझाया कि वापस चलें, यह भी क्या पागलपन है, कौन औरत किसको जगा रही थी? तुम्हें उससे क्या लेना-देना, तुमसे तो उसने कहा नहीं था। उस वृद्ध ने कहा: जिंदगी ने बहुत बार कहा था कि जाग, समय रहते जाग। नहीं जाग पाया। संयोग की बात थी कि आज चोट लग गई। अब नहीं लौटूंगा, सोने के लिए अब नहीं जाऊंगा। अब जाग कर ही रहूंगा। और समय है भी कितना कम अब मेरे पास, समय है कहां?
‘समय रहते चेत...।’
किस तरफ चेतना है, किस तरफ जागना है? क्षुद्र में ही न उलझा रह, व्यर्थ में ही समय न गवां। जिसका आत्यंतिक मूल्य नहीं है, उसको बहुत मूल्य मत दे। यही मतलब है चेत का। आत्यंतिक मूल्य किन चीजों का है? क्या फर्क पड़ेगा कि एक गज जमीन ज्यादा थी कि कम? क्या फर्क पड़ेगा कि तिजोरी का वजन कितना था?
मौत सामने खड़ी होती है, तो हमेशा एक विचार आप करते रहना कि अगर मौत आज ही आपके सामने खड़ी हो जाए, तो आपके पास जो है, उसका क्या मूल्य होगा? यही कसौटी है तौलने की कि मेरे पास मूल्यवान कुछ है या नहीं है? रोज-रोज सांझ को सोते वक्त यह सोचना कि अगर मौत आज रात आ जाए, तो मेरे पास क्या है, जो मौत की मौजूदगी में मूल्यवान होगा? क्या मेरा धन, क्या मेरी जमीन, क्या मेरा नाम, पद-प्रतिष्ठा--कौन सी चीज मूल्यवान होगी? प्राण एकदम तड़फड़ाने लगेंगे, क्योंकि मौत को सामने देख कर ये कोई भी चीजें मूल्यवान नहीं हैं। सिर्फ ध्यान ही मूल्यवान हो सकता है।
मौत के क्षण में अगर कोई चीज बच सकती है, जो मौत नहीं मिटा सकती, तो वह आपके ध्यान की क्षमता है, आपके भीतर का मौन है, आपके भीतर की शांति है, आपका अपना आनंद है।
जो आनंद दूसरों से मिलता है, वस्तुओं से मिलता है, बाहर से आता है, मौत उसे छीन लेगी। जो भी बाहर का जगत है, मौत उसे छीन लेगी। समझें कि जो भी बाह्य है, मौत उसे छीन लेगी।
आंतरिक क्या है आपके पास? है कोई संपदा जो आंतरिक हो? है कोई ऐसा सुख जो अकारण हो, जिसकी बाहर कोई जड़ें न हों? है कोई ऐसी मौज जो आपकी अपनी है, जो पत्नी के कारण नहीं है, पति के कारण नहीं है, पुत्र के कारण नहीं है, पिता के कारण नहीं है, मित्र के कारण नहीं है?--किसी के कारण नहीं है, बस आपके ही कारण है। जो आपके ही कारण है, मौत उसे न छीन पाएगी। मौत आपको नहीं मिटाती, लेकिन लगता ऐसा है कि मौत आपको मिटाती है। वह इसलिए लगता है कि आप हैं ही नहीं। आपके पास जो है, वह सब उधार है, बाहर से लिया हुआ है, रिफ्लेक्टेड है, प्रतिबिंबित है।
ऐसा समझें कि चांद है। चांद की रात है और चांद बड़ी रोशनी देता है; लेकिन चांद की रोशनी उधार है। उसके पास अपनी कोई रोशनी नहीं है। सूरज की किरणें ही उस पर लौट कर वापस लौट आती हैं। वे ही हमें रोशनी मालूम पड़ती हैं। इसलिए ठंडी है उसकी रोशनी, क्योंकि सूरज की गर्मी तो पी जाता है और सिर्फ रोशनी रिफ्लेक्ट होती है। इसलिए चांद ठंडा है। बाकी रोशनी उसके पास भी सूरज की ही है। यह मत सोचना कि चांद पर जो लोग उतरे, उनको चांद पर रोशनी मिली होगी। वहां कोई रोशनी नहीं है। वह तो चांद केवल रिफ्लेक्टर है। रोशनी हमारी आंखों तक, हमारी आंख पर चोट करके हमें मालूम पड़ती है।
हमारी पृथ्वी भी चांद पर से खड़े होकर चांद जैसी मालूम पड़ती है रोशन। यह आपको खयाल में न होगा कि आपकी यह जमीन गंदी, मटमैली, यह चांद का टुकड़ा है। चांद ‘पर’ से रोशन है, इसके पास भी उधार संपत्ति है; सूरज के पास अपनी रोशनी है।
सांसारिक आदमी चांद की तरह है, आध्यात्मिक व्यक्ति सूरज की तरह होने लगता है।
मौत आपसे वह सब छीन लेगी, जो उधार है। सिर्फ आपका अपना जो है आपा, वही आपसे नहीं छिनेगा।
इसे रोज रात सोते समय सोच लेना कि अगर मौत घट जाए, तो मेरे पास क्या है, जो मौत नहीं मिटा सकेगी? उससे बेचैनी हो, तो घबड़ाना मत। बेचैनी अच्छी है। उस बेचैनी से शायद यह खयाल जगना शुरू हो कि मैं कुछ कमाऊं जो मौत मुझसे न छीन सके। एक ही कमाई है कमाने जैसी, वह यह है कि मौत न छीन सके। मौत परीक्षक है। जो मौत छीन ले, समझना, आपने कचरा-कूड़ा इकट्ठा किया था।
समय रहते चेत जा। मौत किसी भी पल आ सकती है, उसके पहले सार्थक की खोज पर निकल जा।
‘यदि तूने प्रयत्न किया और विफल हो गया, अदम्य लड़ाके, तो भी साहस न छोड़।’
डर क्या है?
इस अंतर्यात्रा में जाने का एक ही डर है कि कहीं विफल न हो जाऊं। और डर स्वाभाविक है, क्योंकि जटिल है यात्रा। मुश्किल से कभी कोई बुद्ध, और महावीर, और कृष्ण, और क्राइस्ट होता है। अरबों-खरबों लोग पैदा होते हैं, तब कभी एक बुद्ध पैदा होता है। तो स्वभावतः अरबों-खरबों लोगों को लगता है कि यह कभी-कभी होता है एक बुद्ध, अपने बस के बाहर है। अपने बस के भीतर तो यही है कि दस गज जमीन है, तो बारह गज जमीन कर लो। अपने बस में तो यही है कि दुकान एक है, तो दो दुकान कर लो। अपने बस में तो यही है कि एक बैंक में बैलेंस है, तो दूसरे बैंक में भी कर लो। अपने बस में यही है कि कागज के नोट इकट्ठे करते जाओ। अपने बस में यह नहीं है, क्योंकि बुद्ध तो करोड़ों-करोड़ों में कभी कोई एक होता है, यह अपने बस की बात नहीं है।
इसलिए सूत्र कहता है कि ‘तूने प्रयत्न किया और विफल हो गया, अदम्य लड़ाके, तो भी साहस न छोड़।’
बुद्ध करोड़ों में एक होता है, इसका मतलब यह नहीं कि करोड़ों में एक की ही होने की क्षमता होती है। करोड़ की भी क्षमता होती है। लेकिन उस क्षमता का कोई प्रयोग ही नहीं करता है। हमें खयाल ही नहीं है कि हमारी कितनी क्षमताएं ऐसे ही नष्ट हो जाती हैं।
अभी मनस्विद कहते हैं कि साधारण आदमी अपने मस्तिष्क का केवल पांच प्रतिशत उपयोग करता है--साधारण आदमी। और जिनको हम असाधारण कहते हैं, महाप्रतिभाशाली कहते हैं, वे भी पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा का उपयोग नहीं करते हैं। बड़े से बड़े जीनियस पंद्रह प्रतिशत बुद्धि का उपयोग करते हैं, जितनी उनके पास है। थोड़ा सोचें, अगर आदमी अपनी सौ प्रतिशत बुद्धि का उपयोग करे, तो यह जमीन बुद्धिमानों से भर जाए! अगर आप पांच प्रतिशत कर रहे हैं, अगर तीन गुना, पंद्रह प्रतिशत करें, तो आप भी आइंस्टीन और बर्ट्रेंड रसल की हैसियत के आदमी हैं। और यह केवल पंद्रह प्रतिशत है। आप भी अगर सौ प्रतिशत का उपयोग करें, तो ऐसी प्रतिभा जमीन पर कभी हुई ही नहीं है। लेकिन खोपड़ी ऐसे ही सड़ जाती है, उसका उपयोग ही नहीं हो पाता!
और बुद्धि की प्रतिभा तो कुछ भी नहीं है, हम फिर भी पांच प्रतिशत का उपयोग कर लेते हैं। आत्मा की प्रतिभा का हम कितना उपयोग करते हैं? कभी करोड़ों में एक बुद्ध उपयोग करता है। बाकी करोड़ उपयोग करते ही नहीं, शून्य प्रतिशत भी नहीं। बुद्धि का उपयोग पांच प्रतिशत करता है साधारण आदमी, आत्मा का तो उपयोग ही नहीं करता है! और बुद्धि का भी पांच प्रतिशत इसलिए करता है कि ये जो उपद्रव की चीजें इकट्ठी करनी हैं, इनके लिए जरूरी होता है, नहीं तो वह उसका भी न करे।
इसलिए आप जान कर हैरान होंगे कि अमीर घरों में अक्सर बुद्धिहीन बच्चे पैदा होते हैं। अगर गधे खोजने हों, तो अमीर घरों में खोजने चाहिए। उसका कारण है, क्योंकि पांच प्रतिशत की भी करने की कोई जरूरत नहीं, तो क्यों करे? गरीब बच्चे ज्यादा तेज मालूम पड़ते हैं। उनका तेजी का कारण यह नहीं है कि वे तेज हैं; उनकी तेजी का कारण यह है कि उनके पास कुछ भी नहीं है--न मकान है, न गाड़ी है, न धन है; यह सब चाहिए। इसके लिए पांच प्रतिशत वे भी थोड़ी उछल-कूद मचाते हैं। अमीर के घर में यह सब है। ये जो पांच प्रतिशत का उपयोग करते हैं, मुश्किल से मरते-मरते तक उपलब्ध कर पाएंगे। वह उसे वैसे ही मिला हुआ है, इसलिए अमीर घर के बच्चे बुद्धि से शिथिल हो जाते हैं। वे पांच प्रतिशत का भी उपयोग नहीं करते हैं। और करें भी क्यों? सच तो यह है कि अमीर आदमी को करना ही नहीं चाहिए। यह तो गरीबों का काम है। जैसे गरीब आदमी शारीरिक श्रम करता है और अमीर आदमी नहीं करता, तो यह तो गरीब का काम है, वह करे क्यों? ऐसे ही वह बौद्धिक श्रम भी नहीं करता, यह भी गरीब का काम है।
इसलिए दुनिया में जो बड़े मेधावी व्यक्ति पैदा होते हैं, वे मध्यम-वर्ग से आते हैं। अमीर घरों से कम प्रतिभाशाली लोग आते हैं। मध्यम-वर्ग से आते हैं। गरीब के घर से भी कम आते हैं, क्योंकि उसको पांच प्रतिशत उपाय भी करने को नहीं मिलता, कि वे पांच प्रतिशत प्रतिभा का भी उपयोग कर लें। इसकी सुविधा भी नहीं मिलती। अमीर को सारी सुविधा मिलती है, इसलिए कोई जरूरत नहीं होती। दोनों के बीच में जो मिडल क्लास है, मध्यम-वर्ग है, उसको थोड़ी सुविधा भी मिलती है कि वह उपयोग कर सके। और उपयोग करना चाहता है, क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है कि जो उसके पास नहीं है, वह उसके पास हो सकता है। इसलिए वे बुद्धि का उपयोग करते हैं।
अगर सच में ही किसी दिन दुनिया में समाजवाद आ जाए और सभी को मिलने लगे उनकी जरूरत के अनुसार, और सबको समान मिलने लगे, तो शायद आदमी पांच प्रतिशत बुद्धि का भी उपयोग करेगा नहीं। वह भी खो देगा। उसकी भी आवश्यकता नहीं होगी। इसका डर पैदा हो रहा है, क्योंकि अब कंप्यूटर बन गए हैं, जो मनुष्य की बुद्धि का काम कर सकते हैं। ऐसे यंत्र बन गए हैं, इसलिए इस बात का डर है। जैसे, आपको खयाल में न हो, जिन मुल्कों में विद्यार्थियों को टाइपराइटर मिल गए हैं, उनकी हस्तलिपि बिलकुल बिगड़ गई, समाप्त हो गई! हाथ से वे कुछ भी लिखें, तो उनकी खुद की समझ में नहीं आता। यंत्र ने काम सम्हाल लिया है। फाउंटेन पेन जब नहीं था, तो अक्षरों में जो सौंदर्य था, वह अब नहीं है। टाइपराइटर अगर मिल जाए सबको करने को, तो अक्षर बिलकुल शून्य हो जाएंगे।
अगर आज नहीं कल कंप्यूटर ने सारा काम करना शुरू कर दिया बुद्धि का--और वह आपसे लाख गुना ज्यादा काम कर सकता है, तो आपकी बुद्धि की क्या जरूरत रही? इतनी जरूरत रही कि कंप्यूटर कैसे चलाया जाए। उसकी चलाने भर की बुद्धि काफी होगी, बाकी सब काम कंप्यूटर कर देगा। तो शायद आदमी पांच प्रतिशत का भी उपयोग न करे।
और आत्मा के मामले में तो हम उपयोग करते ही नहीं, हमारी सौ प्रतिशत आत्मा पैक्ड, बंद वापस लौट जाती है, खुलती ही नहीं। कभी कोई एक बुद्ध खोलता है। इससे डरने का कारण नहीं है कि हमारी क्षमता नहीं है। हमारी भी क्षमता है, लेकिन विफल होने के लिए तैयार होना चाहिए।
जो आदमी विफलता से बहुत डरता है, वह कभी सफल नहीं होता। जो विफलता से डरता है, वह कदम ही नहीं उठाता कि कहीं विफल न हो जाए। जो डरता है, कहीं भूल-चूक न हो जाए, भूल-चूक तो नहीं होती, लेकिन यात्रा भी नहीं होती। विफलता की तैयारी होनी चाहिए, तो ही कोई सफल होता है। इसलिए बच्चे सीख लेते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, सीखने की पात्रता कम हो जाती है। क्योंकि बच्चे विफलता से नहीं डरते हैं, उन्हें अभी पता ही नहीं कि विफलता और सफलता में कोई खास फर्क है, अभी वे सीख लेते हैं। जैसे-जैसे आपको पता चलता है कि कहीं विफल न हो जाऊं, सीखना मुश्किल हो जाता है।
अगर एक बच्चे को कोई पराई जुबान सिखानी हो, दूसरे की भाषा सिखानी हो, वह जल्दी सीख लेता है। आप नहीं सीख पाते, क्योंकि आपको सदा डर लगा रहता है कि कहीं कोई गलती, कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए।
‘इस आत्मा की यात्रा पर अगर विफल भी हो गया, तो डर मत। साहस मत छोड़, लड़े जा और बारंबार युद्ध में जुटता रह।’
दस विफलताएं मिल कर सफलता बन जाती हैं, सफलता कुछ और है भी नहीं। जो आदमी दस विफलताओं में भी साहसपूर्वक बढ़ता चला जाता है, सफलता उसे उपलब्ध हो जाती है। सफलता विफलता के विपरीत नहीं है--सब विफलताओं का सार-निचोड़ है। यह जरा उलटा लगेगा। सफलता विफलता का विरोध नहीं है, विफलताओं का सार-निचोड़ है। जो जल्दी रुक जाता है, दो-चार विफलताओं में ही घबड़ा जाता है, वह कभी सफल नहीं हो पाता है। क्योंकि उसे यह कला ही पता नहीं कि सभी विफलताएं जुड़ कर सफलता बन जाती हैं।
प्रतीक्षा चाहिए। धैर्य और साहस। और जितनी बड़ी यात्रा हो...अंतर की यात्रा है, वहां तो बहुत विफल होने का साहस चाहिए।
‘जिसके घावों से उसका कीमती जीवन-रक्त बह रहा हो, ऐसा निर्भीक योद्धा प्राण त्यागने के पहले शत्रु पर फिर-फिर आक्रमण करेगा और उसे उसके दुर्ग से निकाल बाहर करेगा। कर्म करो, तुम सब जो निष्फल और दुखी हो, उसकी तरह ही कर्म करो और निष्फल होने के बाद भी अपनी आत्मा के सभी शत्रुओं को--महत्वाकांक्षा, क्रोध, घृणा और अपनी वासना की छाया तक को--निकाल बाहर करो।’
‘याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहा है, अतः तेरे लिए प्रत्येक विफलता भी सफलता है।’
यह सूत्र बड़ा कीमती है, स्वर्ण-सूत्र है।
इसे हम ऐसा समझें:
कोई आदमी अगर बुरा करने में सफल भी हो जाए, तो वह विफलता है। बुराई में पाई गई सफलता विफलता है। सफलता दिखाई पड़ती है, लेकिन आपको पता नहीं है कि आपकी आत्मा भीतर विफल हो गई। एक आदमी चोरी में सफल हो जाता है, चोरी की सफलता में उसकी आत्मा टूट जाती है और नष्ट हो जाती है। बाहर सफलता दिखाई पड़ती है, भीतर विफलता हो गई। सस्ते में कीमती चीज बेच दी। उसकी हालत ऐसी है, जैसे किसी पर क्रोध में आ गया और पास का हीरा जोर से फेंक कर मार दिया पत्थर समझ कर। सफल तो हो गया चोट पहुंचाने में, लेकिन जो खो दिया चोट पहुंचाने में, उसका उसे पता ही नहीं है।
बुराई में आदमी जब सफल होता है, तो भीतर टूट जाता है, नष्ट हो जाता है। और जो वह चूक रहा है वह बहुत ज्यादा है, जो मिल रहा है वह कुछ भी नहीं है। इससे उलटी घटना भी घटती है। भलाई में जब कोई आदमी विफल भी हो जाता है, तो भी सफल होता है। क्योंकि भलाई में विफल हो जाना भी गौरवपूर्ण है। भलाई करने की कोशिश की, यह भी क्या कम है? और भलाई करके विफल होने की हिम्मत की, यह क्या कम है? और भलाई में विफल होकर भी, फिर भी भलाई जारी रखी--निश्चित भीतर आत्मा निर्मित होती चली जाएगी। आत्मा एक गहन अनुभव है--धैर्य का, प्रतीक्षा का, साहस का, श्रम का और भरोसे का।
सुना है मैंने, एक मुसलमान फकीर इब्राहीम कहता था कि मैं उस आदमी की तलाश में हूं, जो मुझे भलाई में विफल कर दे। उस आदमी की तलाश में हूं जो मुझे भलाई में विफल कर दे। विफल से उसका मतलब यह था कि जिसकी वजह से मुझे यह भरोसा आ जाए कि आदमी इतना बुरा है कि उसकी भलाई करना उचित नहीं है। जिंदगी में बहुत लोगों ने उसे धोखे दिए, उसकी चीजें छीन लीं, उसका सामान चुरा ले गए, उसे चोटें पहुंचाईं, लेकिन हर बार वह हंसता था और वह कहता था: तुम कुछ भी करो, लेकिन मैं इनसान पर भरोसा न खोऊंगा। मैं इतना ही समझूंगा कि किसी से भूल हो गई, लेकिन कभी यह न समझूंगा कि आदमी बुरा है।
अगर एक आदमी आपको धोखा दे देता है--एक आदमी! इस जमीन पर तीन अरब आदमी हैं। एक आदमी आपको धोखा दे देता है, आप कहते हैं: आदमी का कोई भरोसा नहीं! आदमी का कोई भरोसा नहीं है, आप कहते हैं। अब आप कभी किसी आदमी पर भरोसा न करेंगे। अब आप सदा सावधान रहेंगे कि कहीं कोई धोखा देने की कोशिश तो नहीं कर रहा है, क्योंकि एक आदमी ने आपको धोखा दे दिया! और तीन अरब आदमियों के संबंध में आपने निर्णय ले लिया। बड़े जल्दी आपकी भलाई विफल हो जाती है और आप विफलता में भरोसा कर लेते हैं।
भलाई में कितनी ही विफलता मिले, और अंतर्यात्रा में कितनी ही चूकें हो जाएं और कितनी ही बार गिरना हो जाए, घबड़ाना मत; उस यात्रा पर सभी विफलताएं सफलताएं बन जाती हैं। उस तरफ चलना ही बड़ी सफलता है। उस तरफ भूलें करना भी बड़ा गौरव है, बड़ा गुण है। चोर होकर कुशल हो जाना भी अच्छा नहीं और ध्यानी होकर अकुशल बना रहना भी अच्छा है।
‘फिर याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहा है,...।’
तो यह एक और भी कीमती धारणा है। धारणा ही नहीं, एक कीमती सत्य है कि जब भी एक आदमी भी मुक्त होता है इस पृथ्वी पर, तो सारे लोगों की मुक्ति का रास्ता साफ होता है। और एक आदमी भी जब जमीन पर गिरता है, पतित होता है, बुरा होता है, तो वह सभी लोगों को भी किसी न किसी ढंग से बुरा कर जाता है, उसकी छाया सभी पर पड़ जाती है। हम इकट्ठे हैं, हम जुड़े हैं और हम एक-दूसरे में आंदोलित होते रहते हैं।
जब कोई एक बुद्ध पैदा होता है, तो सारी पृथ्वी भी उसके बुद्धत्व से आंदोलित होती है। होना ही चाहिए। एक फूल भी खिलता है, तो उसके साथ चारों तरफ का वातावरण खिल जाता है। एक कमल को खिला हुआ देखें, उसके साथ पूरी झील भी खिल जाती है, उसके साथ झील के किनारे भी खिल जाते हैं। एक कमल को अगर गौर से देखें, तो उस क्षण में सारा जगत उसके साथ खिलता है, क्योंकि फूल सारे जगत का हिस्सा है। हम न देख पाएं, क्योंकि हमारे पास आंखें छोटी हैं और समझ न के बराबर है और हम गहरे में नहीं उतर सकते, यह दूसरी बात है। फिर जब बुद्ध जैसा फूल खिलता हो तो हमें चाहे दिखाई पड़े या न पड़े, यह सारा जगत किसी बोझ से हलका होता है। बुद्ध के होने के बाद आप जो हैं, वह दूसरे आदमी हैं, बुद्ध के होने के पहले आप दूसरे आदमी थे।
लोग मेरे पास आते हैं कभी और पूछते हैं कि क्या फायदा हुआ बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट से; क्या फायदा होगा आपसे; सब बातें हैं, सब खो जाती हैं, आदमी जैसा है, वैसा ही बना रहता है; क्यों मेहनत करते हैं? क्यों व्यर्थ परेशान होते हैं? किनके लिए परेशान हो रहे हैं? बुद्ध परेशान हुए, क्राइस्ट परेशान हुए--क्या फायदा है?
उन्हें पता नहीं। उन्हें पता हो भी नहीं सकता कि बुद्ध के पहले के आदमी में और बुद्ध के बाद के आदमी में जमीन-आसमान का फर्क है। लेकिन फर्क बड़ा सूक्ष्म है। बुद्ध के खिलने के साथ आदमी का भविष्य दूसरा हो गया, नियति बदल गई। बुद्ध के बाद अब इतिहास कभी वही नहीं हो सकता, जो बुद्ध के पहले था। मार्ग से एक बड़ा पत्थर हट गया, रास्ता साफ हो गया। अब आप न चलें, आपकी जिम्मेवारी है, लेकिन रास्ते पर रुकावट कम है। एक आदमी चल चुका। और एक आदमी ने चल कर बता दिया कि ऐसा भी हो सकता है। यह हो सकता है कि बुद्धत्व आ जाए। यह एक बड़ी संभावना है। और यह संभावना भविष्य में है। देखें जमीन पर जब भी कभी कोई इस तरह का विराट व्यक्तित्व पैदा होता है, तो सारी पृथ्वी पर उसकी अनुगूंज सुनाई पड़ती है।
पांच सौ वर्षों में, बुद्ध के समय में सारी पृथ्वी पर बुद्धत्व की अनुगूंज सुनाई पड़ी। जब बुद्ध भारत में पैदा हुए, तो महावीर थे। सिर्फ बिहार में, एक छोटे से प्रांत में, जो सदा का दीन है; जो उसके पहले भी दीन था, उसके बाद भी दीन हो गया, कुछ वर्षों के लिए बुद्ध के साथ बिहार में जैसे सारे कमल खिल गए। सिर्फ छोटे से बिहार में आठ तीर्थंकर थे। अदभुत उनकी प्रतिभा थी। और यह जान कर हैरानी होगी कि वे एक-दूसरे के विरोध में थे, तो भी एक-दूसरे के खिलने के साथ ही खिले थे।
ठीक उसी समय यूनान में पाइथागोरस था, ठीक बुद्ध के जैसे व्यक्तित्व की स्थिति वाला आदमी। थोड़े दिन बाद साक्रेटीज था, प्लेटो था, अरस्तू था। चीन में लाओत्सु था, च्वांगत्सु था, कनफ्यूशियस था, मेन्शीयस था। उस छोटे से समय में सारी जमीन में, सारी पृथ्वी पर छोटे-बड़े कई कमल खिले! फिर वैसा कभी नहीं हुआ।
जब भी एक व्यक्ति भी बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, तो उसकी झंकार बहुत वीणाओं पर बजती है। अनेक अपनी यात्रा पर हजारों मील आगे बढ़ जाते हैं। जो अपनी मंजिल के बिलकुल करीब थे, एक छलांग में बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। जो बहुत दूर थे, वे करीब आ जाते हैं। जो बिलकुल सोए थे, वे भी करवट बदलते हैं। जिनकी नींद महा गहन थी, उनका भी स्वप्न क्षण भर को टूटता है। लेकिन अनंत घटनाएं घटती हैं।
यह सूत्र कहता है: ‘याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहा है,...।’
यह मुक्ति का युद्ध तेरा अपना अकेला नहीं है, यह पूरी मनुष्यता का है। तेरे साथ, तुझमें, तेरे द्वारा, पूरी मनुष्यता भी लड़ रही है; तू तो लड़ ही रहा है। एक लहर जो ऊपर उठती है--लहर तो ऊपर उठ ही रही है, उसके साथ सागर भी तो ऊपर उठ रहा है। अगर लहर किसी दिन चांद को छू ले, तो सागर ने भी तो चांद को छू लिया।
‘तो याद रहे, तू मनुष्य की मुक्ति के लिए युद्ध कर रहा है, अतः तेरे लिए प्रत्येक विफलता भी सफलता है। और प्रत्येक निष्ठापूर्ण प्रयत्न, समय में पुरस्कृत होता है।’
जल्दी मत करना पुरस्कार की, और जल्दी मत समझ लेना कि मैं विफल हो गया। क्योंकि सभी चीजें समय चाहती हैं, और हर चीज का समय है। बीज आज बोए जाएं, तो आज ही नहीं अंकुर बन जाते। प्रतीक्षा करेंगे बीज ठीक मौसम की, ठीक वर्षा की, ठीक सूरज की। ठीक समय पर अंकुरित होंगे, ठीक समय पर पकेंगे, ठीक समय पर खिलेंगे। तो धीरज रखना, जो भी तूने निष्ठापूर्वक प्रयत्न किया है, वह समय पर पुरस्कृत होता है। इस जगत में कोई भी अपुरस्कृत नहीं रहता।
अस्तित्व का नियम है, जो भी चलता है, वह पाता है। जो भी बोता है, वह काटता है। लेकिन थोड़े धैर्य की जरूरत है, क्योंकि समय लगेगा। कोई भी बीज छलांग लगा कर वृक्ष नहीं हो सकता है।
‘...शिष्य की आत्मा में जो पवित्र अंकुर उगते हैं और अनदेखे बढ़ते हैं, उनकी डालियां प्रत्येक परीक्षा से गुजर कर बड़ी होती हैं। और सरकंडे की तरह वे झुक जाती हैं, लेकिन कभी टूटती नहीं हैं और न वे कभी नष्ट हो सकती हैं। और जब समय आता है, तब उनमें फूल भी आ खिलते हैं।’
कई बार पता ही नहीं चलता बीज का। बीज का पता भी कैसे चलेगा? आज आप ध्यान कर रहे हैं। हो सकता है आज आपको पता भी न चले कि क्या हो रहा है भीतर? शायद कोई खयाल भी न आए कि कोई बीज आपकी अंतरात्मा में प्रविष्ट हो गया। वर्ष, दो वर्ष बाद समय पाकर, अनुभव की धूप पाकर, अवसर की वर्षा पाकर, बीज अंकुरित होने लगेगा। तब भी अंकुर आपको दिखाई न पड़ेगा। अंकुर अदृश्य है, जब तक कि शाखाएं न आ जाएं और जब तक कि पत्ते आपके चारों तरफ छायाएं न फैलाने लगें। आपको शायद तब तक ठीक-ठीक पता न चलेगा, जब तक दूसरों को पता न चलने लगे। जब दूसरे आपकी सुगंध को अनुभव करने लगें और कहने लगें कि कहां से पाई यह सुगंध, क्या हुआ? जब दूसरे थके-मांदे धूप से आएं और आपके पास आकर शीतल हो जाएं और कहें कि कैसी शीतलता है तुम्हारी, किस वटवृक्ष की? तुम्हारे नीचे विश्राम करने का मन होता है। कि जब दूसरों के दुख-ताप तुम्हारे पास आकर अचानक तिरोहित हो जाएं, और तुम्हारी मौजूदगी औषधि बन जाए, और जब दूसरे तुमसे कहने लगें कि क्या हुआ है? शायद तब तुम्हें पता चले।
बहुत धीरे-धीरे बढ़ते हैं अंकुर। और हर संघर्ष--जो इन अंकुरों को ऐसा लगता है कि कहीं तोड़ न डाले। हर हवा का झोंका, जिसमें लगता है कि कहीं यह वृक्ष उखड़ न जाए। वह झोंका भी वृक्ष से संघर्ष करके उसको मजबूत कर जाता है। अगर कोई हवा का झोंका वृक्ष को न टकराए, तो वृक्ष कभी भी टूट सकता है। हर झोंका चुनौती देता है वृक्ष को। और वृक्ष चुनौती को झेल लेता है, झोंका निकल जाता है, वृक्ष फिर खड़ा हो जाता है।
लोचपूर्ण रहना सरकंडे की तरह।
लाओत्सु ने कहा है: अकड़े हुए वृक्ष मत बन जाना, नहीं तो उखाड़ दिए जाओगे।
अकड़ना मत। अपनी इस भीतर की यात्रा में अकड़ भर मत जाना, नहीं तो कोई भी तूफान तुम्हें उखाड़ कर रख देगा। विनम्र रहना। और जब तूफान आए, तो ऐसे झुक जाना, जैसे घास झुक जाती है। और तूफान तुम्हारा कुछ बिगाड़ न पाएगा, तुम्हें ताजा कर जाएगा, तुम्हें नया प्राण दे जाएगा, तुम्हारी धूल झाड़ जाएगा, तुम्हें सबल कर जाएगा। और जब तूफान चला जाएगा, तब तुम फिर खड़े हो जाओगे आकाश में--और भी स्वस्थ, और भी ताजे, और भी नाचते हुए, और भी मदमस्त। अस्तित्व से मदमस्त होना घास की तरह।
यह सूत्र कहता है: जैसे सरकंडा झुक जाता है, लेकिन कभी टूटता नहीं, वैसे ही इस भीतर के बीज को अगर विनम्र, प्रतीक्षारत, प्रार्थनापूर्ण भाव से बढ़ाया, तो यह कभी टूटेगा नहीं और कभी नष्ट न होगा। और जब समय आएगा, तब उसमें फूल खिल जाएंगे। तुम जल्दी मत करना, तुम फूलों को खींचने की कोशिश मत करना, क्योंकि कोई भी फूल खींच कर नहीं निकाले जा सकते। समय के पहले कुछ भी नहीं हो सकता है। जल्दी नासमझी है। आग्रह कि अभी हो जाए, उपद्रव करेगा। प्रतीक्षा करना और चीजों को होने देना। मौका देना कि ठीक अपने मौसम में चीजें खिल जाएं। समय आता है, तब उनमें फूल भी आ खिलते हैं।
‘लेकिन यदि तू तैयारी करके आया है, तो भय की कोई बात नहीं है।’
‘यहां से सीधे वीर्य-द्वार के लिए रास्ता साफ हो जाता है, सप्त द्वारों में यह पांचवां द्वार है।’
‘अब तू उस राह पर है, जो ध्यानाश्रय या छठे बोधि-द्वार को जाती है।’
वीर्य-द्वार पर हम कल सुबह बात करेंगे।