BLAVATSKY
Samadhi Ke Sapat Dwar 12
Twelth Discourse from the series of 19 discourses - Samadhi Ke Sapat Dwar by Osho. These discourses were given in ANAND SHEELA during FEB 09-17 1973.
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और तब, ओ सत्य के संधानी, तेरे मन, आत्मा जंगल में दौड़ते-फिरने वाले पागल हाथी की तरह हो जाएंगे। जंगल के वृक्षों को जीवित शत्रु मान कर पागल हाथी सूर्य से प्रकाशित चट्टानों पर नाचने वाली अस्थिर छायाओं को मारने की चेष्टा में ही समाप्त हो जाता है।
सावधान हो, नहीं तो कहीं अहं की चिंता में देव-ज्ञान की भूमि पर तेरी आत्मा के पैर न उखड़ जाएं!
सावधान हो, नहीं तो कहीं तेरी आत्मा परमात्मा को भूल अपने कांपते मन के ऊपर नियंत्रण न खो बैठे और इस प्रकार अपनी जीत का फल भी न गंवा दे।
परिवर्तन से सावधान, क्योंकि परिवर्तन तेरा बड़ा शत्रु है। यह परिवर्तन लड़ कर तुझे तेरे मार्ग से निकाल बाहर करेगा और तुझे संदेह के दुष्ट दलदल में गाड़ देगा।
और भी गहन कठिनाई सामने आनी शुरू होती है। जैसे ही हम जगत से अपनी चेतना को भीतर की तरफ मोड़ते हैं, वैसे ही क्या यथार्थ है और क्या अयथार्थ है, इसकी जांच कठिन हो जाती है। जैसे स्वप्न में होता है, स्वप्न में जो भी दिखाई पड़ता है, प्रतीत होता है यथार्थ है। क्योंकि मापदंड का कोई उपाय नहीं होता; कोई संगी-साथी साथ नहीं होते, कोई समाज नहीं होता, आप होते हैं अकेले, और जो आप देखते हैं, वह होता है। अगर मैं अभी आपको देख रहा हूं, तो उपाय है कि मैं औरों से भी पूछ लूं कि आप दिखाई पड़ते हैं या नहीं? अगर किसी को भी दिखाई न पड़ते हों और मुझे ही दिखाई पड़ते हों, तो संदेह हो जाएगा कि भ्रम है। लेकिन अगर मैं अकेला ही हूं और आप दिखाई पड़ते हैं और कोई नहीं है जिससे पूछ सकूं कि जो मैं देख रहा हूं, वह तुम्हें भी दिखाई पड़ता है या नहीं, तो फिर जांच का कोई उपाय न रहा।
स्वप्न में और यथार्थ में इतना ही तो फर्क है कि स्वप्न है निजी अनुभव, जिसमें दूसरा भागीदार नहीं हो सकता। क्या आप अपने स्वप्न में किसी को ले जा सकते हैं साथी बना कर कि वह भी आपके स्वप्न को देख ले? कोई उपाय नहीं। एक ही स्वप्न दो व्यक्ति नहीं देख सकते हैं। और इसलिए इसका कोई मार्ग नहीं है कि दोनों तालमेल बिठा लें कि हमने जो देखा, वह तुमने भी देखा या नहीं देखा? तो जो देखा वह यथार्थ है या स्वप्न है, इसे कैसे जांचें? बाहर के जगत में जांच हो जाती है। सामूहिक सत्य और निजी सत्य में फर्क हो जाता है। जो आदमी सामूहिक सत्य में जीता है, उसे हम कहते हैं स्वस्थ। और जो निजी स्वप्नों में जीने लगता है, उसे हम कहते हैं पागल। पागल में और आपमें फर्क क्या है?
पागल और आपमें इतना ही फर्क है कि वह ऐसी सच्चाइयों में जी रहा है, जो केवल उसके लिए ही सच्चाइयां हैं और किसी के लिए सच्चाइयां नहीं हैं। एक पागल अकेला बैठा है, वह किसी से बात कर रहा है। वह जिससे बात कर रहा है, किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता है; सिर्फ उसी को दिखाई पड़ता है। आप उसे पागल कह पाते हैं; क्योंकि जो मात्र उसी को दिखाई पड़ता है और किसी को दिखाई नहीं पड़ता, वह भ्रम होगा। पागल अपने स्वप्न को सत्य मान रहा है। अगर आपको भी उसका साथी दिखाई पड़ने लगे, और सबको दिखाई पड़ने लगे, तो फिर वह पागल नहीं होगा। क्योंकि निजी न रही बात, सार्वजनिक हो गई। सार्वजनिक अगर कोई स्वप्न भी हो जाए, तो यथार्थ मालूम पड़ेगा।
और कोई सत्य अगर निजी भी हो, तो भी बड़ी कठिनाई है जांच करने की कि वह सत्य है या स्वप्न है? इसलिए गुरु बहुत उपयोगी हो जाता है--उस अंतर्यात्रा में आपको जो अनुभव में आ रहा है, वह सच में हो रहा है या सिर्फ कल्पना चल रही है? किससे मेल बिठाएंगे? कौन कहेगा कि ठीक है या गलत है? कोई और जिसको अनुभव हो चुका हो, तो उसके अनुभव से आपका मेल बिठाया जा सकता है, तो थोड़ी सी सुविधा बनती है कि हम स्वप्न में नहीं खो रहे हैं। लेकिन भीतर की यात्रा पर सबसे बड़ा खतरा यही है कि वहां बहुत कुछ होना शुरू होगा, जिसको आप तौल न पाएंगे कि वह वस्तुतः हो रहा है या सिर्फ प्रतीत हो रहा है, आभास है। और आप अकेले ही होंगे भीतर।
यह सूत्र इसी बात से संबंधित है, इस महाखतरे से संबंधित है। तो बहुत बार पागल लोग भी अपने को समझ लेते हैं कि वे आध्यात्मिक हो गए हैं। और तथाकथित आध्यात्मिक लोगों की अगर खोज की जाए, तो उनमें से सौ में से नब्बे विक्षिप्त अवस्था में होते हैं। थोड़ी संख्या नहीं है--सौ में से नब्बे विक्षिप्त हालत में होते हैं। और जो उन्हें प्रतीत हो रहा है, वह केवल स्वप्न होता है। लेकिन उनकी भी मजबूरी है और वे दया योग्य हैं। क्योंकि वे करें क्या? उन्हें अनुभव हो रहा है। कोई कृष्ण से बातें कर रहा है अपने भीतर, कोई राम के दर्शन कर रहा है अपने भीतर, किसी को स्वर्ग-नरक दिखाई पड़ रहे हैं। वस्तुतः यह हो रहा है या सिर्फ कल्पना चल रही है? यह स्वप्न का खेल है या वस्तुतः कृष्ण मौजूद हैं?
बड़ी कठिन है। और मन मान लेने का होता है कि जो हो रहा है, वह सच है; क्योंकि सच मानने में अहंकार की तृप्ति होती है। अगर आपको कृष्ण के दर्शन हो रहे हैं भीतर और मैं कहूं कि नहीं यह सच नहीं है, तो आप क्रोधित होंगे। क्योंकि आप बड़ा मजा ले रहे थे; सपना बड़ा मीठा था, सुखद था। और एक बार कोई खलल डाल दे कि यह सपना है, तो फिर सुख खो जाता है।
सपने में सुख तभी तक आता है, जब तक सत्य मानते रहें हम। जैसे ही असत्य का खयाल हुआ कि सुख डांवाडोल हो जाता है। दोनों बातें संभव हैं कि भीतर जो हो रहा है, वह वास्तविक हो, और भीतर जो हो रहा है, वह काल्पनिक हो। दोनों बातें संभव हैं।
क्या है रास्ता? कैसे हम समझेंगे कि जो हो रहा है, वह वास्तविक है या अवास्तविक है? और भीतर आने वाली विक्षिप्तता से कैसे बचेंगे?
साधारण पागल भी हैं, आध्यात्मिक पागल भी हैं। और अक्सर तो ऐसा होता है कि साधारण पागलों को अगर मौका मिल जाए, तो वे बहुत जल्दी आध्यात्मिक पागल हो जाते हैं। साधारण पागल की तो निंदा भी होती है, आध्यात्मिक पागल को सम्मान मिलने लगता है! लोग कहते हैं मस्त है, लोग कहते हैं समाधिस्थ है।
आप जान कर हैरान होंगे, आधुनिकतम मनस-विज्ञान की खोजों में एक खोज यह भी है कि जिन मुल्कों में धर्म कम हो जाता है, वहां पागलों की संख्या बढ़ जाती है। इससे लोग यह समझते हैं, कम से कम भारत के धार्मिक लोग ऐसा समझते हैं कि धर्म बड़ी ऊंची चीज है, इसलिए जहां धर्म नहीं रहता, वहां लोग पागल हो जाते हैं। ऐसा मामला नहीं है।
जहां धर्म हो, वहां पागलों को आध्यात्मिक होने का मौका रहता है--आध्यात्मिक ढंग से पागल हो सकते हैं। इसलिए वहां पागलों की संख्या ज्यादा नहीं दिखाई पड़ती, क्योंकि उनमें से बड़ी संख्या आध्यात्मिक साधु-संत होकर बैठ जाते हैं। और जिन मुल्कों में धर्म नहीं है, वहां पागल को सिर्फ साधारण पागल होने का उपाय है, आध्यात्मिक पागल होने का उपाय नहीं है। इसलिए जहां धर्म नहीं है, वहां पागलों की संख्या बढ़ जाती है। इससे आप यह मत समझना कि जहां धर्म है, वहां पागलों की संख्या कम है। संख्या उतनी ही है, लेकिन वहां पागल पागल की तरह नहीं समझे जाते हैं; उनको उपाय है।
अब जैसे समझें। ऐसे पागलों से मेरा काफी संबंध रहा है। अगर एक आदमी सौ बार हाथ धोता हो नल के नीचे शुद्धि के लिए, तो सारी दुनिया में उसको पागल समझा जाएगा; हिंदुस्तान में वह साधक हो सकता है! मैं एक सज्जन को जानता हूं, जो सुबह नल पर तीन बजे, चार बजे पहुंच जाते हैं पानी भरने को; क्योंकि उनको ऐसा खयाल है कि अगर किसी स्त्री की दृष्टि पड़ जाए पानी भरते वक्त, तो वह पानी अशुद्ध हो गया। फिर भी अगर किसी स्त्री की दृष्टि पड़ जाए, कोई स्त्री निकल जाए, तो वे तत्काल पानी उंड़ेल कर बर्तन को फिर साफ करके, फिर पानी भरते हैं। ऐसा कई दफा हो जाता है कि उन्हें सौ-सौ बार वह बर्तन साफ करके पानी भरना पड़ता है। लोग उनको बड़ा आदर देते हैं कि अदभुत साधक हैं! उनका काम यही है, ज्यादातर इसी में उनका समय व्यतीत होता है, बर्तन साफ करने में, फिर पानी भरने में! फिर कोई स्त्री दिख गई--स्त्रियों की कोई कमी नहीं है--वे निकल ही रही हैं--जरा सी भनक पड़ गई कि अशुद्ध हो गया! उनको लोग कहते हैं कि ब्रह्मचर्य का बड़ा गहरा साधक है। पानी अपवित्र हो जाए जिसका स्त्री को देख कर!...ब्रह्मचर्य की साधना जरूर हो रही है; मगर यह आदमी पागल है। ऑब्सेशन है, कुंठा है इसके मन में; स्त्री से इतना भयभीत है कि इसका पानी अशुद्ध हो जाता है! और स्त्री से ही यह आदमी पैदा हुआ है। और कितना ही धोए शरीर को, स्त्री से यह शरीर मुक्त हो नहीं सकता। स्त्री का ही खून, मांस, मज्जा, हड्डी शरीर में है। जिस पानी को यह शुद्ध करके शरीर में पी रहा है, वहां स्त्री मौजूद है, वह सब नष्ट कर देगी। यह दुनिया में कहीं भी यह आदमी होता, यह पागलखाने में होता। इस मुल्क में यह आदमी सम्मानित है, आदृत है।
और पुरुष ही आदर देते हों, ऐसा नहीं, स्त्रियां और ज्यादा आदर देती हैं।
स्त्री उस आदमी को कभी आदर नहीं दे सकती, जो स्त्री को आदर दे। स्त्री उसी को आदर दे सकती है, जो उसकी निंदा करे। क्योंकि जो निंदा करता है, लगता है ऊपर हो गया। और जो आदर करता है, लगता है अभी हमारे साथ ही खड़ा है। इस तरह के जो पागल हैं, उनको स्त्रियां जितना आदर देती हैं, उतना पुरुष नहीं देते। क्योंकि वे स्त्रियों की भयंकर निंदा कर रहे हैं। अब इससे बड़ी और निंदा कुछ नहीं हो सकती कि स्त्री को देख कर उनका बर्तन का पानी अपवित्र हो जाता हो।
ये विक्षिप्तताएं हैं। ऐसी विक्षिप्तताएं बाहर भी चलती हैं, भीतर भी चलती हैं। बाहर चलती हैं, तो हमें दिखाई भी पड़ जाती हैं, भीतर चलती हैं, तो हमें दिखाई भी नहीं पड़ती हैं।
यह सूत्र इस संबंध में सचेत करने वाला है कि भीतर साधक जब प्रवेश करता है, तो कैसे खतरे उसे पकड़ ले सकते हैं।
प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन सबसे बड़ा खतरा है।
‘और तब, ओ सत्य के संधानी, तेरे मन, आत्मा जंगल में दौड़ने-फिरने वाले पागल हाथी की तरह हो जाएंगे। जंगल के वृक्षों को जीवित शत्रु मान कर पागल हाथी सूर्य से प्रकाशित चट्टानों पर नाचने वाली अस्थिर छायाओं को मारने की चेष्टा में ही समाप्त हो जाता है।’
इस सूत्र के पहले हमने समझा कि जब व्यक्ति की चेतना भीतर स्थिर हो जाती है, लौ की भांति, जहां हवा का कोई कंपन न हो, तब छोटा सा भी विचार इस चेतना के आस-पास आए, तो मन के पर्दे पर उसकी छाया बनती है। जैसे कि कोई कमरा है शुभ्र दीवालों का, बंद है, कोई हवा का झोंका नहीं आता, दीये की ज्योति सतत जल रही है अकंप, तब एक छोटी तितली कमरे में उड़ने लगे, तो उस उड़ती तितली और प्रकाश के संबंध में दीवाल पर तितली की बड़ी छाया निर्मित होने लगेगी। तितली उड़ेगी, दीवाल पर छाया उड़ेगी।
साधारणतः इसका पता नहीं चलता, क्योंकि कमरे में बहुत चीजें हैं, बहुत छायाएं बन रही हैं। और दीये की लौ खुद ही कंप रही है, इसलिए सब छायाएं कंप रही हैं। कमरा छायाओं से भरा है और गंदा है और दीवालें सफेद भी नहीं हैं, काली हैं। कुछ पता नहीं चल रहा है। जैसे-जैसे मन शुद्ध होता जाएगा, दीवालें शुभ्र होने लगेंगी। जरा सी भी छाया होगी, तो स्पष्ट दिखाई पड़ेगी, अंकित होगी। और जैसे-जैसे लौ स्थिर होने लगेगी, दीवालें साफ होंगी, लौ बिलकुल ठहरी होगी, तो जरा से विचार की भी कंपन की स्थिति छाया निर्मित करेगी।
विचार की भी छाया होती है। विचार भी पारदर्शी नहीं हैं, ट्रांसपेरेंट नहीं हैं। और चेतना जब स्थिर होती है, तो विचार की छाया मन के पर्दे पर बनती है। उस छाया को अगर हमने जोर से पकड़ लिया, तो हम विक्षिप्त हो जाएंगे। और बड़ी सुखद छायाएं भी बनती हैं, बड़ी प्रीतिकर, जिनको पकड़ लेने का मन होता है। अब अगर कृष्ण बांसुरी बजा रहे हों दीवाल पर खड़े होकर, तो कौन नहीं होगा, जो उनके पैर न पकड़ ले? और फिर छोड़ने की हिम्मत किसकी होगी? जब सारे संसार के विचार छूट जाते हैं, तो हमारे अचेतन गर्भ में जो विचार सदियों-सदियों के संस्कार बन कर पड़े हैं, जो हमारे खून-मांस-मज्जा में प्रवेश कर गए हैं।...
अब जैसे अगर एक आदमी हिंदू घर में कई बार पैदा हुआ है, तो कृष्ण, राम उसके बहुत गहरे में उतर गए हैं। कोई अगर जैन घर में बहुत बार पैदा हुआ है, तो महावीर उसके बहुत गहरे में उतर गए हैं। वह विचार गहरी से गहरी भूमि में प्रविष्ट हो गया है। और जब हम सारे विचार उखाड़ कर फेंक देंगे, तब भी वह विचार नहीं उखड़ गया है, वह मौजूद है। और जब मन परिपूर्ण शुद्ध होने लगेगा और चित्त की लौ शांत, स्थिर हो जाएगी, तो वह महावीर का जो विचार अचेतन में पड़ा है, वह जो प्रतिमा महावीर की अचेतन मेंपड़ी है, उसकी छाया बननी शुरू हो जाएगी। वह जो छाया दीवाल पर बनेगी, लगेगी कि महावीर का दर्शन हो रहा है। और कितनी बार चाहा था कि महावीर का दर्शन हो, कृष्ण का, क्राइस्ट का दर्शन हो और आज वह अहोभाग्य का क्षण आया कि दर्शन हो रहा है। अब यह छाया खतरनाक हो सकती है।
राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट सहयोगी हैं, बड़े दूर तक सहयोगी हैं, लेकिन अंतिम क्षण में वे भी बाधाएं हो जाते हैं। और अंतिम क्षण में उनसे भी मुक्त हो जाना पड़ता है। ये छायाएं सुखद हों, तो पकड़ लेने का मन होता है। ये छायाएं दुखद हों, तो इनसे भयभीत होकर आदमी पागल हो सकता है। पागलपन दो तरह के हो सकते हैं भीतर। अगर आपको भीतर नरक दिखाई पड़ने लगे, तो आप उससे लड़ने में लग जाएंगे। अगर आपको भीतर स्वर्ग दिखाई पड़ने लगे, तो आप उसके साथ एक होने में लग जाएंगे। लेकिन दोनों हालत में आप चूक जाएंगे ज्योति और दोनों हालत में फंस जाएंगे छाया से।
एक संसार है हमारे बाहर। और एक संसार हमारे भीतर भी है स्वप्न का। जब हम बाहर के संसार से छूटते हैं, तो उस स्वप्न के संसार के साथ हमारा मिलना होता है। वह संसार अलग-अलग ढंग का है, क्योंकि हर आदमी ने अलग-अलग तरह के स्वप्न देखे हैं, और हर आदमी ने अलग-अलग तरह के विचार किए हैं, और हर आदमी ने अलग-अलग तरह की वासनाएं और आकांक्षाएं और इच्छाओं का सार अपने भीतर संगृहीत कर लिया है। अगर हम इसको ही भारत की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो यही हमारा कर्म-संस्कार है। जब सब छूट जाता है, तब हमारे कर्मों की शुद्धतम विचारधारणाएं, प्रत्यय, कांसेप्ट हमारे चित्त की दीवाल पर प्रकट होने शुरू हो जाते हैं।
अभी पश्चिम में एल. एस. डी. और उस तरह के बहुत से ड्रग्स पर बड़ा काम चलता है। और एक बहुत अनूठी बात पता चली, जो कि भारत को हजारों बल्कि लाखों साल से खयाल में थी। लेकिन पश्चिम को तो जब तक कोई वैज्ञानिक ढंग से पता न चल जाए बात, तब तक स्वीकृत नहीं होती। एल. एस. डी. के प्रयोग से एक अनूठी बात अनुभव में आई।
पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक अल्डुअस हक्सले ने एल. एस. डी. लिया। लेने के बाद यह जगत खो गया और इस जगत की जगह स्वर्गवत मनोकामनाओं का एक लोक प्रकट हुआ! तो हक्सले तो इतना प्रभावित हो गया एल. एस. डी. से, इस मादक औषधि से इतना प्रभावित हो गया कि उसने लिखा है कि कबीर और नानक और मीरा जिस स्थिति को सैकड़ों जन्मों और न मालूम कितने उपायों के बाद उपलब्ध हुए--एल. एस. डी. का एक इंजेक्शन या एक गोली तत्क्षण उस लोक में प्रवेश करवा देती है। स्वर्ग प्रकट हो गया! साधारण पत्थर भी अल्डुअस हक्सले ने देखा, तो साधारण न रहा। कोई कोहनूर उसका मुकाबला न कर सके, इतने रंग उससे प्रकट होने लगे! साधारण कमरा जिसमें वह बैठा था, वह ऐसा हो गया कि इंद्र का कक्ष भी उतना सुंदर न होगा! जरा सी आवाज मधुर संगीत बन गई! सब रंग गहन और प्रगाढ़ हो गए! क्षुद्र खो गया, विराट का सौंदर्य प्रकट हो गया। उसने लिखा कि मैंने स्वर्ग देखा!
फिर एक कैथोलिक विचारक जायनर ने एल. एस. डी. लिया, लेकिन उसने नरक देखा। उसे स्वर्ग दिखाई नहीं पड़ा। उसने भयंकर आग की लपटें देखीं, जलते हुए लोग देखे, बड़ी कराह पीड़ा देखी। छोटी सी आवाज भी तांडव नृत्य बन गई भीतर। जो भी देखा, विध्वंस देखा। और उसने अल्डुअस हक्सले के खिलाफ लिखा कि यह बात ठीक नहीं है कि स्वर्ग है भीतर। एल. एस. डी. से स्वर्ग पैदा होता है, यह बात ठीक नहीं है, एल. एस. डी. से नरक पैदा होता है।
एल. एस. डी. से कुछ भी पैदा नहीं होता। न जायनर ठीक है, न हक्सले ठीक है। एल. एस. डी. से वही दिखाई पड़ने लगता है, जो आपके भीतर गहन संस्कारों में छिपा है। वही प्रोजेक्टेड हो जाता है। एल. एस. डी. आपके भीतर के दरवाजे तोड़ देता है और आपके अचेतन की दीवालें तोड़ देता है, और जो आपके भीतर छिपा है, प्रकट हो जाता है। जायनर के भीतर अगर नरक छिपा था, तो नरक प्रकट हो गया; अगर स्वर्ग छिपा था, तो स्वर्ग प्रकट हो गया। जो छिपा था, वह प्रकट हो गया। उसको आपने अपने ही मन की दीवाल पर देख लिया। वे जो रंग हैं सप्तवर्णी, और वे जो सुगंधें हैं और संगीत का जो अनुभव है या तांडव का, विध्वंस का, आग का, वह सब आपके ही मन का संस्कार है। जो आपकी चेतना के सामने आता है, तो फिर मन की दीवाल पर प्रकट हो जाता है। अगर ठीक से समझें, तो स्वर्ग और नरक कहीं भी नहीं हैं। और मरते क्षण में कुछ लोगों को लगता है कि वे नरक जा रहे हैं और कुछ लोगों को लगता है कि वे स्वर्ग जा रहे हैं; वह भी मृत्यु की चोट में आपका अचेतन टूट गया है और आपके मन के पर्दे पर चीजें फैल रही हैं।
तिब्बत में इसके लिए बड़े गहन प्रयोग पैदा किए गए। एक बड़ा प्रयोग है, बारदो। तिब्बत में मरते आदमी को मरते वक्त वह एक साधना करवाते हैं, पर वह एकदम से नहीं करवाई जा सकती। जीवन में उसने की हो, तो मरते वक्त उसका प्रयोग किया जा सकता है। बारदो एक तरह का ध्यान है। इस ध्यान में साधक को सचेतन रूप से स्वर्ग और नरक की यात्रा करवाई जाती है। साधक शांत होकर पड़ जाता है, शिथिल हो जाता है। उसका जो मार्ग-दर्शक है, उसका जो गुरु है, उसके प्रति अपने को समर्पित कर देता है, और कहता है, अब तुम मुझे जहां ले चलो।
एक विशेष वातावरण में जब साधक बिलकुल शिथिल होता है, और करीब-करीब सम्मोहित, हिप्नोटाइज्ड अवस्था में होता है, और अपना चिंतन, अपना विचार, अपना तर्क सब छोड़ देता है, वह जो गुरु उसके पास है, उसका मार्ग-दर्शक, गाइड, जो उसे स्वर्ग-नरक में ले जा रहा है, उसके साथ चलने को राजी होता है। फिर गुरु उसे क्रमशः, जैसे कि सम्मोहित व्यक्ति को क्रमशः गहरे ले जाया जा सकता है, वैसे उसे गहरे ले जाने लगता है। पहले वह उसे गहरा सुझाव देता है कि तू मूर्च्छित हो रहा है, बेहोश हो रहा है। और वह स्वीकार करता है, सहयोग करता है। फिर उसे सुझाव देता है कि यह मूर्च्छा इतनी गहन हो गई कि अब तेरे कानों को मेरी आवाज के सिवाय किसी की आवाज न सुनाई पड़ेगी। वह इसे भी स्वीकार कर लेता है। सब आवाजें बंद हो जाती हैं। सामान्य सम्मोहन में भी यही प्रयोग है। जब सारी आवाजें बंद हो जाती हैं, और जब सिर्फ मार्ग-दर्शक की आवाज सुनाई पड़ती है, तब मार्ग-दर्शक प्रयोग करके देखता है। हाथ में सुई चुभोता है और कहता है कि हाथ में मैं कोई सुई नहीं चुभो रहा हूं, तुझे किसी तरह की पीड़ा का अनुभव नहीं होगा। हाथ में सुई चुभोता है, हाथ हटता भी नहीं, साधक पीड़ा की कोई खबर नहीं देता है। पैर में अंगारा छुआ देता है और कहता है कि एक साधारण ठंडा पत्थर तेरे पैर से स्पर्श करा रहा हूं; साधक चीख मार कर पैर नहीं हटा लेता। अंगारा पैर को छूता है, साधक को कोई पता नहीं चलता। अब मार्ग-दर्शक जानता है कि साधक ने अपने को पूरी तरह समर्पित कर दिया।
अगर पूरा समर्पण हो, तो अंगारे से छुए गए पैर में भी फफोला नहीं आता है। और अगर आपने सुना हो कि लोग आग पर नाच कर निकल जाते हैं और आग उनको नहीं जलाती, तो इसमें कुछ जादू मत समझ लेना। सिर्फ मन का भाव है। इससे उलटा भी होता है। सम्मोहित, हिप्नोटाइज्ड व्यक्ति को अगर हाथ में कंकड़ रख दिया जाए और कहा जाए कि एक भयंकर जलता हुआ अंगारा है, तो वह सम्मोहित व्यक्ति चीख मार कर हाथ हटा लेगा, कंकड़ को फेंक देगा। यहां तक तो ठीक है क्योंकि मन की बात है। लेकिन मजा तो यह है कि हाथ पर फफोला आ जाता है।
हम जो देख रहे हैं, वह बहुत कुछ हमारे मन का खेल है।
हम जो जी रहे हैं, वह बहुत कुछ हमारे मन का खेल है।
अगर किसी के पास आपको बहुत सुख मिलता है, वह भी मन का खेल है। और किसी के पास आपको बहुत दुख मिलता है, वह भी मन का खेल है। जब कंकड़ से फफोले आ जाते हों, और अंगारे से हाथ पर फफोला न आता हो, तो आप समझ सकते हैं कि मन की कितनी क्षमता है।
जब मार्ग-दर्शक ठीक से देख लेता है कि अब साधक पूरा समर्पित है और अगर मैं उसकी गर्दन भी काट दूं तो भी इसकी चीख न निकलेगी, तब वह उसे यात्रा पर ले चलता है। वह कहता है, पहले नरक में--पहले नरक के द्वार पर तू खड़ा है। फिर वह पूरा वर्णन करता है नरक के द्वार का। फिर नरक के भीतर का। फिर नरक का पूरा वर्णन करता है, और वह जो-जो कहता जाता है, साधक वही-वही देखने लगता है। साधक के मन में जो संस्कार पड़े हैं, इस सहयोग में वे सारे संस्कार प्रकट हो जाते हैं, और मन की दीवाल पर नरक निर्मित हो जाता है। आप साधक के चेहरे को भी बाहर से देख कर कह सकते हैं कि वह भयंकर पीड़ा से गुजर रहा है। फिर दूसरा नरक, फिर तीसरा नरक, फिर वह सात नरकों की यात्रा पर ले जाता है। इस सारी पीड़ा में, भयंकर पीड़ा में गुजर कर साधक उसके भीतर जो-जो पीड़ा के भाव छिपे थे, इन नरकों में उन्हीं के प्रतीक हैं। जो-जो संभावना थी पीड़ा की, जिसकी वह कल्पना कर सकता था, नरकों में उन्हीं की चित्रावली है।
नरक आदमी के मन को देख कर सोचे गए हैं--स्वर्ग भी। जब इन सारी पीड़ाओं से वह गुजर जाता है तो उसके मन में जो-जो विचार छिपे थे, वे सब सचेतन हो गए होते हैं। और सचेतन होकर उनसे छुटकारा हो गया होता है। अब तो आधुनिक मनोविज्ञान भी कहता है कि मन में जो बात भी गहरे में पड़ी है, यदि कांशस सचेतन हो जाए, तो उससे हमारा छुटकारा हो जाता है।
फ्रायड का मनोविश्लेषण वर्षों तक यही करता है। कोई बीमार है, तो वर्षों तक साइकोएनालिसिस चलती है। वह बीमार अपनी बातें कहता जाता है, चिकित्सक सुनता जाता है। और पूछता है, और पूछता है, उसके भीतर जो-जो दबा है, उसे निकालता चला जाता है। जब सारी बातें भीतर से निकल कर बाहर आ जाती हैं विचार में, बीमार अचानक अपनी बीमारी से मुक्त हो जाता है।
अचेतन में दबा हुआ विचार धक्के देता है, निकलने के लिए। उसकी निकलने की कोशिश और हमारी दबाने की कोशिश से ही रोग पैदा होता है। जब हम उसे निकाल नहीं लेते हैं बाहर तक, जैसे केतली में भाप भरी हो और आप ढक्कन बंद किए हों, मुंह भी बंद किए हों, केतली की टोटी भी बंद किए हों, तो फिर केतली रुग्ण अवस्था में आ गई, अब विस्फोट होगा। इसे निकल जाने दें।
हम सब ऐसी ही हालत में हैं--ज्वालामुखी। न मालूम क्या-क्या जन्मों-जन्मों में, हमने दबा कर इकट्ठा कर रखा है, उसमें ही हमारे नरक हैं। और न मालूम कितनी वासनाएं और कामनाएं हमने संजो रखी हैं, उसी में हमारे स्वर्ग हैं।
जब साधक पहुंच जाता है नरकों में, फिर उसे स्वर्गों में ले जाया जाता है। फिर यह पहला स्वर्ग, दूसरा स्वर्ग और सात स्वर्ग, उन सबका वर्णन, और साधक का चेहरा बताता है कि अब वह बड़े अदभुत लोक में प्रवेश कर रहा है। उसके चेहरे की शांति, आनंद की पुलक, उसका रोमांच बाहर से भी अनुभव होता है कि भीतर वह कहीं जा रहा है। न कहीं जा रहा है, न कहीं से आ रहा है, लेकिन मन प्रोजेक्टर का काम कर रहा है, और मन के पर्दे पर सारी चीजें बनती जा रही हैं। वह देख रहा है।
इस प्रयोग को मरते वक्त भी करवाया जाता है। और साधक को कहा जाता है इस प्रयोग को करवा कर कि यह सब तेरे मन का खेल है। और मरने के बाद शरीर के छूटते ही तेरे मन में दबा हुआ जो भी है--वह शरीर के सहारे ही दबाया जा सकता था, शरीर के छूटते ही तेरा दबा हुआ सब विस्फोट होगा, तब तू स्मरण रखना और घबड़ाना मत--कि यह मन का ही खेल है।
इसलिए मरते वक्त जिन लोगों को स्वर्ग-नरक के अनुभव हो जाते हैं--वह मन का ही खेल है। पर जिन्होंने उन अनुभवों को लिखा है, उन्होंने तो वास्तविक ही जाना है। जो देखा है, वह वास्तविक था--भीतर बिलकुल वास्तविक था।
स्वर्ग-नरक प्रतीक भला हों, लेकिन बिलकुल झूठे नहीं हैं, मन के सत्य हैं।
बारदो में साधक को मरते वक्त समझा दिया जाता है कि यह सब जो तू अभी देख रहा है, मरने के बाद बहुत प्रगाढ़ होकर देखेगा, तब घबड़ाना मत और होश कायम रखना कि यह सब मन का ही खेल है। ये नरक मेरे हैं, ये स्वर्ग मेरे हैं। अगर तू दोनों का खयाल रख सका कि ये मेरे मन के ही खेल हैं, तो तू दोनों के पार चला जाएगा और मुक्त हो जाएगा। अगर मरने के पहले यह प्रयोग कई बार करा दिया गया हो, तो मरने के बाद भी खयाल रखा जा सकता है।
जीने की ही कला नहीं होती, मरने की भी कला होती है।
और हम तो जीना ही नहीं जानते, तो मरना तो हम कैसे जानें? हमें तो यही पता नहीं कि कैसे जीएं! कैसे मरना भी सीखना होता है। कोई ठीक से न मरे, तो बड़ी मुश्किल में पड़ता है। और ठीक से जो मर जाता है, वह मुश्किल से छूट जाता है।
यह सूत्र कहता है कि तेरी स्थिति, जब तू बिलकुल भीतर प्रविष्ट हो जाएगा और बाहर का लोक छूट जाएगा, एक पागल हाथी जैसी हो सकती है। सावधान रहना। क्योंकि पागल हाथी देखता है चट्टानों पर वृक्षों की हिलती शाखाओं की छाया, समझता है कोई दुश्मन है। जूझ जाता है चट्टानों से, टूट जाता है खुद ही, क्योंकि चट्टानों का क्या बिगड़ेगा, अपने को ही क्षत-विक्षत कर लेता है, लहूलुहान कर लेता है। अपनी ही मौत का कारण बन जाता है। मगर जब पागल हाथी लड़ता है चट्टानों से, तब उसको पता नहीं कि वह जिससे लड़ रहा है, वह कल्पना का खेल है।
संसार में भी हम जिनसे लड़ रहे हैं, थोड़ा खोज-बीन करेंगे, तो बहुत कुछ कल्पना का खेल ही पाएंगे। फिर भीतर भी यही लड़ाई चल सकती है। लड़ना मत, मोहित भी मत होना, साक्षी बने रहना, और जानना कि जरूर मेरी चेतना और मन की दीवाल के बीच कोई विचार है, कोई बीच में संस्कार आ गया है, जिससे मुझे यह सब दिखाई पड़ रहा है। यह होश रखना। दुख हो तो भी, सुख हो तो भी; नरक हो तो भी, स्वर्ग हो तो भी।
‘सावधान हो, नहीं तो कहीं अहं की चिंता में देव-ज्ञान की भूमि पर तेरी आत्मा के पैर न उखड़ जाएं!’
यह पैर उखड़ सकते हैं दो तरह से। या तो तू लड़ने में लग जाए और या तू भोगने में लग जाए। स्वर्ग दिखाई पड़ने लगे, तो आदमी भोगने में लग जाता है। नरक दिखाई पड़ने लगे, तो लड़ने में लग जाता है। दोनों ही हालत में उस भूमि से पैर उखड़ जाते हैं। दोनों ही हालत में वह जो चेतना है, उस पर दृष्टि नहीं रहती; वह जो बाहर मन के पर्दे पर खेल हो रहा है, उस पर दृष्टि चली जाती है।
‘सावधान हो, नहीं तो कहीं तेरी आत्मा परमात्मा को भूल अपने कांपते मन के ऊपर नियंत्रण न खो बैठे और इस प्रकार अपनी जीत का फल भी न गंवा दे।’
‘परिवर्तन से सावधान, क्योंकि परिवर्तन तेरा बड़ा शत्रु है। यह परिवर्तन लड़ कर तुझे तेरे मार्ग से निकाल बाहर करेगा और तुझे संदेह के दुष्ट दल-दल में गाड़ देगा।’
परिवर्तन से सावधान!
क्या आधार होगा भीतर जांचने का कि जो मैं देख रहा हूं, वह स्वप्न है या सत्य?
एक होगा आधार--अगर वह बदल रहा हो, तो स्वप्न; अगर न बदल रहा हो, तो सत्य।
परिवर्तन--इसे हम समझें।
सत्य की बहुत परिभाषाएं खोजी गई हैं जगत में। अनेक मनीषियों ने सत्य को न मालूम कितने-कितने रूपों में परिभाषित किया है। सत्य क्या है, इसका अनुसंधान चलता रहा है सदियों-सदियों में। सारा दर्शन, सारे शास्त्र इसकी ही खोज में लगे हैं कि क्या है सत्य और क्या है असत्य। आसान नहीं है काम। जितनी आसानी से हम किसी चीज को कह देते हैं असत्य और किसी चीज को कह देते हैं सत्य, उतना आसान नहीं है। बहुत जटिल है और बहुत सूक्ष्म है। और कोई मापदंड होना चाहिए, जिससे हम जांच सकें कि क्या है सत्य, क्या है असत्य।
कुछ लोग कह देते हैं जो आंख से दिखाई पड़ता है, वह सत्य। जो प्रत्यक्ष है, वह सत्य। आंख से तो स्वप्न भी दिखाई पड़ते हैं, आंख से तो झूठ भी दिखाई पड़ते हैं। एक रस्सी पड़ी है और आंख से सांप दिखाई पड़ती है। आंख से ही दिखाई पड़ती है। आंख बंद करने से नहीं दिखाई पड़ती। अंधे को नहीं दिखाई पड़ती, आंख वाले को दिखाई पड़ती है; किसी अंधे को कभी वहम नहीं होता कि रस्सी जो पड़ी है, वह सांप है। न रस्सी दिखाई पड़ती है, न सांप का कोई उपाय है देखने का। आंख वाले को दिखाई पड़ जाती है अंधेरे में कभी कि रस्सी सांप है, और भाग खड़ा होता है। जो दिखाई पड़ा था, वह दिखाई तो पड़ा ही था, आंख से ही दिखाई पड़ा था, और अपनी ही आंख से दिखाई पड़ा था।
लोग कहते हैं, दूसरे की आंख पर भरोसा मत करना। अपनी ही आंख पर भरोसा करने से क्या होने वाला है? सपने अपनी ही आंख से हम देखते हैं, भ्रम भी अपनी ही आंख से देखते हैं। और जब वे हमें दिखाई पड़ते हैं, तब बिलकुल वास्तविक होते हैं, तब उनमें रंचमात्र भी संदेह नहीं होता। आंख से देखने से सत्य का कोई निर्णय नहीं होता।
किस चीज को सत्य कहें?
जिसको सब मानते हों?
ऐसी भी परिभाषाएं हैं कि जिसको लोक-मान्यता हो, वह सत्य है। व्यक्ति की बातों में मत पड़ना; क्योंकि व्यक्ति भूल में पड़ सकता है। लेकिन पूरे के पूरे लोग, पूरे के पूरे समाज भूल में पड़ सकते हैं; पड़े हैं। एक समाज एक बात को मानता है, तो उस समाज को वह बात दिखाई पड़ती है; मान्यता से दिखाई पड़ती है। आपके खयाल में भी नहीं आती, उस समाज को खयाल में आती है, उसको दिखाई पड़ती है।
अब जैसे अगर चीन में वे चपटी नाक को सुंदर मानते हैं, तो पूरे चीन में वह दिखाई पड़ती है कि सुंदर है, और आपको सोचने में भी नहीं आती कि दबी-चपटी नाक कैसे सुंदर हो सकती है। आप यह मत सोचना कि आप समझदार हैं और वे नासमझ हैं। लंबी नाक सुंदर है, यह आपकी मान्यता है। क्योंकि सुंदरता का क्या हिसाब है? लंबी क्यों सुंदर है? आखिर लंबाई में क्या सौंदर्य है? धारणा है कि लंबी सुंदर है, तो पूरे समाज को दिखाई पड़ती है।
धारणा है कि गोरा शरीर सुंदर है, तो फिर पूरे समाज को दिखाई पड़ता है। लेकिन ऐसे समाज हैं, जहां कि गोरा शरीर सुंदर नहीं है। इस मुल्क में भी हमने गोरे शरीर को बहुत गहरा सुंदर नहीं माना है, इसलिए राम और कृष्ण को हमने सांवला रखा। थे कि नहीं, पक्का नहीं; क्योंकि जैसा हम पोतते हैं, वैसा सांवला रंग होता भी नहीं। लेकिन सांवले को हमने सुंदर माना था उस समय। वक्त बदला, फैशन बदल जाते हैं। अब अगर कृष्ण पैदा हों, तो सांवले पैदा होना ठीक नहीं है। अब अगर उनको सांवले ही पैदा होना हो, तो अमरीका में नीग्रोज में पैदा होना चाहिए। क्योंकि अब उन्होंने वहां नारा दिया है: ब्लैक इ़ज ब्यूटीफुल। काला जो है, वह सुंदर है। पर काला सुंदर है, यह भी मान्यता है। और सफेद सुंदर है, यह भी मान्यता है। और सिखावन पर निर्भर है। जो हम सीख लेते हैं, वह हमें सुंदर दिखाई पड़ने लगता है; जो हम मान लेते हैं कुरूप है, वह हमें कुरूप दिखाई पड़ने लगता है। ये मान्यताएं हैं, सत्य नहीं है। और पूरा समाज मान लेता है, तो बहुत सत्य मालूम पड़ता है।
अब देखें, जैन मुनि हैं दिगंबर, वे स्नान नहीं करते, दतौन नहीं करते, उनके मुंह से बदबू आती है--आएगी ही। उनके पास बैठ कर बातचीत करने में मितली आने लगे, घबड़ाहट होने लगे। लेकिन जैन इस कारण उनको बहुत आदर देते हैं। क्यों? क्योंकि एक मान्यता है। और वह मान्यता यह है कि उन्होंने शरीर का मोह छोड़ दिया। तो जब मोह ही छोड़ दिया, तो क्या दतौन और क्या स्नान? यह तो सजावटें हैं, श्रृंगार है। स्नान करना, दतौन करना, यह तो श्रृंगार है, सजावट है। और जो शरीर अपने को मानता ही नहीं, अपने को आत्मा मानता है, वह क्यों दतौन करे और क्यों स्नान करे? शरीर को क्यों सजाए?
जो ऐसा मानते हैं, उनको मुनि के मुंह से आती बास बड़ी सुगंधित मालूम पड़ती है। पड़ेगी ही। इस बास में त्याग की सुगंध है, इस दुर्गंध में विराग की सुगंध है। और ऐसा मानने वालों को अगर मुनि के मुंह से बास न आए, तो वह समझेगा कि चोरी-छिपे टूथपेस्ट कर रहा है। कर रहे हैं कुछ। कर भी रहे हैं, ऐसा भी नहीं है कि नहीं कर रहे हैं; क्योंकि कुछ समझदार हैं, वे दोहरा फायदा ले रहे हैं। चोरी-छिपे वह अपना टूथपेस्ट भी रखते हैं, उसको भी कर लेते हैं, और मौका मिल जाता है, तो स्पंज भी कर लेते हैं शरीर पर; क्योंकि बदबू बदबू है। पर अगर शरीर से बदबू न आए, तो भक्त को संदेह हो जाता है कि कुछ गड़बड़ हो रही है। अब यह बड़ी कठिन बात मालूम पड़ती है, लेकिन इतनी कठिन नहीं है।
अभी अमरीका में युवकों के, हिप्पियों के समूह हैं। उन्होंने पश्चिम में चलने वाले सब सौंदर्य के साधनों का विरोध कर दिया है। साबुन का उपयोग नहीं करेंगे, डियोडरेंट का उपयोग नहीं करेंगे, पाउडर का उपयोग नहीं करेंगे; क्योंकि वे कहते हैं कि शरीर की गंध बड़ी सुखद है, प्राकृतिक है। तो अगर शरीर से पसीने की बास आती है, तो स्वाभाविक है, और आनी चाहिए। इसको छिपाना आर्टिफीशियल है। इस पर साबुन लगा कर इसको दबाना और पाउडर छिड़क कर इसको रोकना झूठा है। यह आदमी झूठा है, जो ऐसा कर रहा है। और अगर ऐसे आदमी के पास आप जाते हैं, तो असली आदमी से आपका मिलना नहीं हो पाएगा।
तो हिप्पीज कहते हैं कि जो सहज है, वह सुंदर है; जो स्वाभाविक है, वह सुंदर है। इसलिए अगर स्त्री के शरीर से बास आ रही है, तो उस बास का आनंद लो; क्योंकि वह स्वाभाविक है। और सारी दुनिया में सारे पशु उसका आनंद ले रहे हैं, आदमी क्यों नहीं ले रहा? क्योंकि आदमी फॉल्स, झूठा है। तो हिप्पी गंदे रहने लगे हैं। गंदे उनके हिसाब से, जो मानते हैं कि यह गंदगी है, अपने हिसाब से नहीं। अपने हिसाब से तो वे सहज, स्वाभाविक हो रहे हैं। आप गंदे हैं; क्योंकि आप झूठे हैं। ये सब मान्यताएं हैं।
अगर आप हिप्पियों के समूह में जाएं और ठीक साफ-सुथरे कपड़े पहने हों, और शरीर से पसीने की बदबू न आती हो, तो आपको हिप्पियों का समूह स्वीकार नहीं करेगा, आपको निकाल बाहर करेगा। क्योंकि आदमी आप ठीक नहीं हैं; थोड़े गड़बड़ हैं, पुरानी धारणा के हैं, पिटे-पिटाए हैं, और झूठे हैं। वास्तविक नहीं हैं।
समूह भी एक मान्यता को मान ले, तो वह सत्य दिखाई पड़ने लगती है। और जो समूह में पैदा होता है, वह उसी धारणा में पलता है और बड़ा होता है, वह उसको सत्य दिखाई पड़ने लगती है।
तो क्या है सत्य?
अपनी आंख से देखा हुआ भी असत्य हो जाता है; समूह की मान्यता भी असत्य हो जाती है। जिसको एक समूह महात्मा मानता है, दूसरा समूह उसको बिलकुल महात्मा मानने को तैयार नहीं होता।
जैनों से पूछें कि कृष्ण भगवान हैं? मान नहीं सकते, उन्होंने अपनी किताबों में उनको नरक में डाल दिया है। क्योंकि यह आदमी कैसे भगवान हो सकता है? भगवान तो होना चाहिए विरागी। और यह आदमी बांसुरी बजा रहा है और नाच रहा है। और इसके आस-पास स्त्रियां हैं, नाच रही हैं। यह आदमी कैसे भगवान हो सकता है? यह आदमी भगवान नहीं है। तो जैनों ने अपने शास्त्रों में कृष्ण को नरक में डाल रखा है। और इस पूरे कल्प के समाप्त होने के बाद ही वह नरक से छूट सकेंगे। इसमें कुछ नाराज होने की बात नहीं है, इसमें जैनी सिर्फ इतना कह रहे हैं कि उनकी धारणा का जो सत्य है, उसमें कृष्ण बिलकुल ठीक नहीं पड़ते, बिलकुल ठीक नहीं पड़ते।
अपनी-अपनी धारणाएं हैं।
मोहम्मद को--जो लोग अहिंसा को मानते हैं, वे कैसे मान सकेंगे कि पैगंबर हैं, हाथ में तलवार है। और जो मोहम्मद को मानते हैं, वे महावीर और बुद्ध को भगोड़े मानते हैं; क्योंकि जो जिंदगी को छोड़ कर भाग गए। और जिंदगी जहां कि बुराई से लड़ना है, जहां कि बुराई को पराजित करना है, वहां से जो भाग गए, इन भगोड़ों को पैगंबर और तीर्थंकर कैसे माना जा सकता है? ये तो कायर हैं। मोहम्मद लड़ रहे हैं जिंदगी में। जहां बुराई है, उसको काटना है। और तलवार लेकर खड़े हैं, और ये सब भाग खड़े हुए हैं। भागने से बुराई तो मिटती नहीं है। इसलिए इस्लाम कहता है: बुराई से तो लड़ना पड़ेगा। और अगर बुरे आदमी के हाथ में तलवार है, तो अच्छे आदमी के हाथ में भी तलवार होनी चाहिए, नहीं तो बुरा आदमी जीतेगा। तो इस्लाम कहता है कि महावीर, बुद्ध इन सबके कारण बुराई जीत गई; क्योंकि बुरा आदमी तलवार छोड़ता नहीं, अच्छा आदमी तलवार छोड़ देता है। अब किसको कहो कि कौन सत्य है?
समूह के सत्य भी मान्यताओं के सत्य हैं। और जो आदमी उसमें बड़ा होता है, वह उसी आंख से देखता है, चश्मा उसकी आंख पर होता है। उसको वही दिखाई पड़ता है, जो उसके समूह ने उसे दे दिया है।
भारत ने एक सत्य की और ही कसौटी खोजी है। न तुम्हारी आंख, न समूह की आंख। सत्य की एक कसौटी खोजी है, जो बाहर-भीतर दोनों जगह काम आएगी। और वह यह है कि जो परिवर्तनशील है, वह सत्य नहीं है। जो शाश्वत है, वही सत्य है।
रात स्वप्न देखा, सुबह उठ कर पाया कि झूठ था। क्यों आप पाते हैं कि झूठ था? क्या कारण है झूठ पाने का? क्या आधार है आपके पास कहने का कि स्वप्न झूठ था?
पहली तो बात यह है कि स्वप्न मौजूद नहीं है कि आप तौल सकें जागरण से; वह जा चुका। जब स्वप्न था, तब जागरण नहीं था।
आप एक कमरे में सोए और रात आपने देखा कि आप स्वप्न में एक महल में हैं। फिर सुबह उठे, आपने अपने को अपने कमरे में पाया। आप कहते हैं कि वह महल झूठा था। लेकिन कैसे तोलते हैं? क्योंकि महल अब मौजूद नहीं कि इस कमरे से तौल सकें--कि कौन झूठा, कौन सच्चा? और जब आप महल में थे, तब यह कमरा मौजूद नहीं था। दो चीजों को तौलने के लिए मौजूदगी साथ-साथ चाहिए। यह भी हो सकता है कि रात का महल भी सच्चा रहा हो, और आप एक महल में प्रवेश कर गए हों चेतना के एक द्वार से, और यह भी हो सकता है यह कमरा भी सच हो। और यह भी हो सकता है कि जैसे महल झूठा था, वैसे ही यह कमरा भी झूठा हो। और किसी दिन आप जागें और पाएं कि वह कमरा भी झूठा था।
आधार क्या है?
भारतीय प्रज्ञा की निष्पत्ति है कि हमारा आधार सिर्फ इतना ही है कि जो बदल जाता है, वह सत्य नहीं है। बदलता हुआ स्वप्न है। भीतर का स्वप्न भी बदल रहा है, और बाहर का जो जगत है, वह भी प्रतिपल बदल रहा है; इसलिए उसको हम सत्य नहीं मानते। इसलिए हमने जगत को भी माया कहा है। तो जब आप रात सपना देखते हैं, तो वह जगत के विपरीत नहीं है, जगत के बड़े स्वप्न में एक छोटा स्वप्न है। स्वप्न के भीतर एक स्वप्न है।
आपको पता भी होगा, कभी आपने स्वप्न के भीतर अगर स्वप्न देखा हो तो। आप स्वप्न देखते हैं कि सो रहे हैं, आप स्वप्न देखते हैं भीतर कि खाट पर पड़े सो रहे हैं। यह सोया हुआ आदमी सपने में है, और तब आप देखते हैं कि वह सोया हुआ आदमी एक सपना देख रहा है। स्वप्न के भीतर स्वप्न और उसके भी भीतर स्वप्न हो सकते हैं। जिनकी कल्पना बहुत प्रबल होती है, वह कई स्वप्नों के भीतर स्वप्न देख सकते हैं। अक्सर कवि देख लेते हैं।
यह बड़ा विराट भी एक स्वप्न है; लेकिन स्वप्न का मतलब यह नहीं कि झूठ है। स्वप्न से इतना ही मतलब है हमारा कि परिवर्तनशील है, चेंजिंग है। सब-कुछ बदल रहा है। इस जगत में कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है। सब चीजें बदलती जा रही हैं।
इस सूत्र को अगर खयाल में रखा कि परिवर्तन असत्य है और शाश्वतता, नित्यता सत्य है, तो फिर भीतर भी काम पड़ेगा यह। तो ध्यान रखना कि वह जो दीवाल पर, मन के पर्दे पर चित्र बन रहे हैं, वे सब परिवर्तित हो रहे हैं। वे एक क्षण वही नहीं रहते हैं।
आपके भीतर कोई विचार दो क्षण नहीं टिकता। आया, गया। दूसरा आया, तीसरा आया, धारा चल रही है। चाहें भी पकड़ना एक विचार को, तो पकड़ नहीं सकते, मुट्ठी से छूट-छूट जाता है। इसलिए तो लोग कहते हैं: एकाग्रता में इतनी मुश्किल है। होगी ही। क्योंकि जिसको आप बांधना चाह रहे हैं, वह प्रवाह है। जैसे कोई मुट्ठी में पारे को बांधना चाहे और पारा हजार टुकड़े होकर गिर जाए, ऐसे आप भीतर कुछ भी पकड़ें, वह भाग रहा है, कुछ भी पकड़ आता नहीं।
इन दीवाल पर बनी छायाओं पर ध्यान रखना। चाहे वे छायाएं नरक की हों, चाहे स्वर्ग की, चाहे कृष्ण की, चाहे राम की, चाहे क्राइस्ट की, चाहे बुद्ध की। एक बात ध्यान रखना, क्या वे बदल रही हैं? बस देखते रहना गौर से, क्या वे बदल रही हैं। अगर वे बदल रही हों, तो समझना कि सत्य नहीं हैं। सिर्फ एक चीज नहीं बदलती है, वह आपका केंद्र है, वह आपकी चेतना है; वह कभी नहीं बदलती। आकाश में बादल घिरते हैं, वे बदल जाते हैं, आकाश नहीं बदलता जिसमें घिरते हैं। वह वही बना रहता है, बादल घिरें तो, बादल न घिरें तो; आएं तो, जाएं तो; वर्षा करें तो, न करें तो। वह जिस आकाश में बादल घिरे हैं, वह वही है। फूल खिल जाते हैं तो, फूल गिर जाते हैं तो; वृक्ष उठते हैं, विलीन हो जाते हैं; पृथ्वियां बनती हैं, नष्ट हो जाती हैं; संसार आते हैं, खो जाते हैं; वह जो आकाश उन्हें घेरे हुए है, वह वही है। सब बदल जाता है, सिर्फ यह फैलाव, स्पेस, यह शून्य है, महाशून्य, यह वही है। यह उदाहरण के लिए कह रहा हूं।
ठीक ऐसे ही चेतना के आकाश में बहुत कुछ आता है--स्वर्ग आते हैं, नरक आते हैं; जन्म आते हैं, मृत्युएं आती हैं। पशु बनते हैं आप, पक्षी बनते हैं आप, पौधे बनते हैं आप, पत्थर बनते हैं, देव बनते हैं, दानव बनते हैं, गृहस्थ बनते हैं, संन्यासी बनते हैं, बहुत-बहुत रूप आते हैं। सिर्फ वह भीतर की जो चेतना का आकाश है, वह भर खाली, वही का वही बना रहता है सदा। तो जब तक वहां न पहुंच जाएं, तब तक आपको परिवर्तन मिलता ही रहेगा। और जहां-जहां परिवर्तन है, वहां-वहां समझना कि स्वप्न है, असत्य है।
सावधान!
यह सावधानी इसलिए बरतनी है कि एक दिन इस परिवर्तन को छोड़ते-छोड़ते, इलिमिनेट करते-करते, निषेध करते-करते, वह जगह आ जाएगी, जहां अचानक आपको पता चलेगा अब यहां कोई परिवर्तन नहीं है। वही है सत्य। रात स्वप्न देखा, सुबह जाग कर पाया कि झूठ हो गया। सुबह जाग कर दुनिया देखी; सांझ फिर नींद आई, वह झूठ हो गई, फिर सपना सच हो गया। लेकिन दोनों हालत में सब चीजें बदल जाती हैं। वह जो जाग कर देखा, वह भी बदल जाता है; जो सोकर देखा, वह भी बदल जाता है। सिर्फ देखने वाला नहीं बदलता है। वह जिसने रात सपना देखा, वही सुबह जाग कर दुनिया देखता है, वही, वह नहीं बदलता। द्रष्टा नहीं बदलता है, होश नहीं बदलता है।
परिवर्तन है बाहर, शाश्वतता है भीतर। परिवर्तन है गाड़ी का चाक। और शाश्वतता है गाड़ी की कील, जिस पर चाक घूम रहा है। धीरे-धीरे इस चाक से हटते जाना, हटते जाना, हटते जाना, हटते जाना और केंद्र पर आ जाना, जहां कोई परिवर्तन नहीं है। जब तक इस अपरिवर्तित का पता न हो, तब तक हम स्वप्न में ही भटकते हैं। स्वप्न बहुत तरह के हो सकते हैं। भले आदमी के स्वप्न, बुरे आदमी के स्वप्न, पापी के, पुण्यात्मा के, महात्मा के, वे सब स्वप्न हैं। जब तक उसका पता न चल जाए, स्वप्न देखने वाले का, तब तक सावधान।
एक मित्र ने प्रश्न पूछा है:
भगवान, सक्रिय-ध्यान के प्रयोग में ‘हू’ महामंत्र का उपयोग हम करते हैं। इस्लाम के अनुयायी मानते हैं कि इस मंत्र का उपयोग करने से सब-कुछ फना, नष्ट हो जाता है। अतः वे लोग शहर में ‘हू’ की ध्वनि करने के पक्ष में नहीं हैं। इस संबंध में कुछ कहें।
बात तो सच है। यह मंत्र है तो फना के लिए ही, समाप्त हो जाने के लिए ही, मिट जाने के लिए ही। लेकिन यह मिट जाना और बड़े हो जाने का उपाय है। सूफियों ने इस मंत्र का प्रयोग किया है। यह अल्लाहू का आखिरी हिस्सा है। सूफी साधक अल्लाह से शुरू करता है। अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह की गूंज उठाता है। जैसे-जैसे यह गूंज सघन होती जाती है, अल्लाह का रूप अल्लाहू, अल्लाहू हो जाता है। अपने आप हो जाता है।
अगर आप जोर से, तेजी से भीतर चिल्लाएंगे अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह, तो धीरे-धीरे आप पाएंगे अल्लाहू, अल्लाहू, अल्लाहू होता जा रहा है। यह सब अपने आप हो जाता है, इसको करना नहीं पड़ता है। जब यह गूंज और तीव्र हो जाती है, और जब दो अल्लाहू के बीच जगह नहीं छोड़नी होती, जरा भी जगह नहीं छूटते, एक अल्लाहू पर दूसरा अल्लाहू चढ़ने लगता है, तब लाहू, लाहू, लाहू रह जाता है। और तीव्रता जब लानी होती है, और सघन करते हैं इसे, और कंडेंस्ड करते हैं, तो ‘ला’ भी छूट जाता है, और ‘हू’ रह जाता है। फिर ‘हू’ की ही हुंकार रह जाती है।
यह ‘हू’ मंत्र निश्चित ही फना के लिए है। इस मंत्र का साधक उपयोग करता है अपने को मिटाने के लिए, अपने को समाप्त करने के लिए। यह अपने ही हाथ अपनी मौत को निमंत्रण है--इस साधारण मौत का नहीं, जो इस शरीर की है। उस महामृत्यु का, जो कि अहंकार की और मन की है, जो कि मुझे बिलकुल मिटा देगी। क्योंकि यह जिसको हम मौत कहते हैं, यह बिलकुल नहीं मिटाती। सच तो यह है कि यह मिटाती ही नहीं। और भी सच यह है कि यह हमें मिटने से बचाती है। जब एक शरीर बिलकुल सड़-गल जाता है, अगर हम उसमें ही रहे आएं तो मिट जाएंगे; तो यह मौत हमें नया शरीर दे देती है। जैसे कि कोई आपके पुराने मकान को, गिरते खंडहर को देख कर कि कहीं इसमें मिट न जाओ, आपको निमंत्रण दे और कहे कि आओ, मेरे नये मकान में बस जाओ। तो मौत मिटाती नहीं, सिर्फ आपके खंडहर को हटाती है; और नया, ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा ताजा शरीर आपको दे देती है।
‘फना’ सूफियों का शब्द है, उसका मतलब है: वास्तविक मौत। वह वास्तविक मौत सच में ही आपको मिटाती है। वह जो भीतर ‘मैं’ का भाव है, उसे छिन्न-भिन्न कर देती है। इस ‘हू’ की ध्वनि में वह राज छिपा है, जो आपके ‘मैं’ के भाव को तोड़ता है।
‘मैं’ भी क्या है? क्योंकि बहुत लोगों को ऐसा लगता है कि ‘मैं’ को एक ध्वनि कैसे तोड़ेगी?
आपको पता नहीं, ‘मैं’ भी एक ध्वनि है।
‘मैं’ भी क्या है? एक ध्वनि है। उसके विपरीत ध्वनियां भी हैं, जिनका उपयोग किया जाए, तो वह विसर्जित हो जाएगी, टूट जाएगी, नष्ट हो जाएगी। हजारों साल की साधनाओं के बाद उन ध्वनियों को खोज लिया गया है, जो एंटीडोट हैं। ‘मैं’ एक स्वर है, ‘हू’ भी एक स्वर है। ‘हू’ का स्वर एंटीडोट है, विपरीत औषधि है। और इसलिए डर भी पैदा होता है कि मैं मिट जाऊंगा, तो घबड़ाहट भी पैदा होती है।
पर नगर में प्रयोग करने से डरने की कोई जरूरत नहीं है। डर पैदा होता है--डर पैदा होता है, लेकिन डरने की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि नगर में जो हैं, उन सभी को बिना फना हुए, बिना मिटे वास्तविक जीवन नहीं मिलेगा। लेकिन घबड़ाहट भी ठीक है; क्योंकि आदमी अपने को बचाना चाहता है, वह सोचता है कहीं कोई मिटने का उपाय न हो जाए। आपको खयाल न होगा, अगर एक आदमी को आप बीच में बिठाल लें और बारह आदमी चारों तरफ हाथ बांध कर जोर से ‘हू’ की हुंकार करना शुरू करें, तो वह आदमी कंपना शुरू हो जाएगा और घबड़ाना शुरू हो जाएगा; वह न भी करे, तो भी। ‘हू’ भीतर एक भय पैदा करता है।
एक बहुत मजेदार घटना घटी, भरोसे योग्य नहीं, इसलिए अब तक मैंने कही नहीं।
एक संन्यासी हैं, आनंद विजय। जबलपुर में नगर के बाहर एक एकांत स्थल पर उन्होंने अपने रहने की जगह बना ली, और वहां उन्होंने ‘हू’ का, इस महामंत्र का प्रगाढ़ता से प्रयोग शुरू किया। कभी ज्यादा मित्र भी इकट्ठे होकर करते, अकेले तो वे करते ही। दो-चार, जो उनका परिवार है, वे तो करते ही। वे बड़े जोर से बीमार पड़े। बीमारी में एक दिन उनकी हालत करीब-करीब सन्निपात जैसी हो गई। लेकिन जब इधर सन्निपात होता है, तो कभी-कभी उधर के द्वार खुल जाते हैं। कभी-कभी जब इधर से आदमी बिलकुल मरने के करीब पहुंच जाता है, तो कुछ चीजें उसे दिखाई पड़ने लगती हैं, जो जिंदा आदमी को कभी दिखाई नहीं पड़तीं। क्योंकि वह मौत के करीब सरक गया, जिंदगी से दूर हट जाता है। कोई एक सौ छह डिग्री उनको बुखार था और सन्निपात की हालत थी, तब उनको ऐसा लगा कि उनके कमरे में कई प्रेतात्माएं खड़ी हैं। और वे सब उनसे कह रही हैं कि तुम ठीक न हो सकोगे, जब तक तुम यह ‘हू’ का उच्चार, वह नगर के बाहर देवताल पर तुम जो ‘हू’ का उच्चार कर रहे हो; जब तक तुम बंद नहीं करोगे, तब तक तुम ठीक न हो सकोगे। हम सब आत्माएं हैं, जो यहां बहुत दिन से रह रही हैं और तुम्हारे ‘हू’ के उच्चार से हम बहुत भयभीत हो गई हैं। होश में आने पर उनको यह याद रहा। और उन्होंने मुझे पत्र लिखा और कहा कि मुझे भरोसा नहीं आता कि यह सच है। मेरी कोई कल्पना ही हो सकती है, कोई खयाल ही हो सकता है। बाकी फिर दो बार यह घटना और घटी। अब तो वे चेहरा भी पहचानने लगे। और वे सारी आत्माएं चाहती हैं कि तुम यहां से हट जाओ, क्योंकि हमारा आवास यहां बहुत दिन से है, और अगर तुम यहां ‘हू’ करते ही रहे, तो या तो हमको हटना पड़े या तुम यहां से हट जाओ।
यह कल्पना हो सकती है, लेकिन एक और कारण मिला है, जिससे लगा कि यह कल्पना नहीं है। आनंद विजय को भी चिंता थी कि यह कल्पना तो नहीं है, इसलिए उनकी निष्ठा भी साफ है। उनको भी भय है कि किसी को कहूं या न कहूं। क्योंकि यह बिलकुल स्वप्न हो सकता है। और उनको भी भरोसा नहीं आता कि कोई प्रेतात्माएं इस ‘हू’ के हुंकार से घबड़ा सकती हैं। सिर्फ जांच के लिए, उन्होंने एक प्रयोग किया। उसी समय, उसी के थोड़े दिन पहले लामा कर्मप्पा ने मेरे संबंध में कुछ कहा था, वह उन्होंने पढ़ा था। कर्मप्पा ने यह कहा था कि मेरा एक शरीर तिब्बत की एक गुफा में सुरक्षित है, पुराने जन्म का। वहां निन्यानबे शरीर सुरक्षित हैं, तो उसमें एक शरीर मेरा है, ऐसा कर्मप्पा ने कहा था।
तिब्बत में उन्होंने कोशिश की है कि इन हजारों वर्षों में जिन शरीरों में कुछ विशेष घटनाएं घटी हैं, उनको प्रयोग की तरह सुरक्षित रखा है। क्योंकि वैसी घटनाएं दुबारा नहीं घटतीं, और आसानी से नहीं घटतीं। और कभी-कभी लाखों साल बाद घटती हैं। जैसे किसी व्यक्ति का तीसरा नेत्र खुल गया और तीसरे नेत्र के खुलने के साथ ही उसकी हड्डी में छेद हो गया, जहां तीसरा नेत्र है। तो ऐसी घटना कभी लाखों साल में एक बार घटती है। वह जो तीसरा छेद है, तीसरी आंख तो कई लोगों की खुल जाती है, लेकिन वह छेद सभी को नहीं होता। कभी जब वह छेद हो जाता है, तो तीसरी आंख अपनी पूर्णता में खुलती है, तब वह छेद होता है। तो फिर वैसी खोपड़ी को वह सुरक्षित रख लेते हैं या वैसे शरीर को वे सुरक्षित रख लेते हैं।
जैसे किसी व्यक्ति की काम-ऊर्जा पूरी उठी और उसके मस्तिष्क को फाड़ कर ब्रह्मांड में लीन हो गई, तो वहां छेद हो जाता है। वह छेद कभी-कभी होता है। बहुत लोग विश्वात्मा में लीन होते हैं। लेकिन ऊर्जा इतनी धीमी-धीमी और इतने लंबे अंतराल में लीन होती है कि छेद नहीं होता, बूंद-बूंद रिस जाती है। कभी-कभी सडन, इतनी त्वरा से यह घटना घटती है कि पूरी ऊर्जा मस्तिष्क को फोड़ कर और लीन हो जाती है, तो छेद हो जाता है। तो उस शरीर को वे सुरक्षित रखते हैं। ऐसे उन्होंने अब तक मनुष्य-जाति के इतिहास में सबसे बड़ा महाप्रयोग किया है। निन्यानबे शरीर उन्होंने संरक्षित रखे हैं। तो कर्मप्पा ने कहा था कि एक मेरा शरीर भी उन निन्यानबे शरीर में सुरक्षित है।
यह आनंद विजय ने पढ़ा था। तो उन्होंने सोचा कि अगर यह सच है, यह मेरी अवस्था, जब मैं सन्निपात जैसी अवस्था में हो जाता हूं, मुझे खुद ही भरोसा नहीं आता कि मैं होश में हूं या पागल हूं--अगर यह सच है और अगर मैं इतने करीब पहुंच जाता हूं प्रेतात्माओं के, तो मैं जानना चाहूंगा कि वह कौन सा शरीर है, निन्यानबे में कौन सा शरीर मेरा है। तो मैं गिनती करूंगा, और अगर मुझे दिखाई पड़ जाए और वही निकले, तो मैं समझूंगा कि जो कुछ हो रहा है, वह सच है।
उन्होंने मुझे खबर की। मैंने कहा: प्रयोग करो। उन्होंने मुझे खबर की कि वह तीसरा शरीर है। एक-दो-तीन वह तो भूल भरा है। लेकिन फिर भी ठीक है। उन्होंने दूसरे छोर से गिनती की है। वह तीसरा शरीर नहीं है, वह सत्तानबेवां शरीर है, पर फिर भी सच है। निन्यानबे शरीर रखे हैं, उन्होंने शुरू से गिनती की। वह जहां से उन्होंने समझा कि प्रारंभ है, वह प्रारंभ नहीं है, अंत है। लेकिन तीसरा वे गिन पाए, यह बड़ी गहरी बात है। सत्तानबेवां है, लेकिन अगर उलटा गिना जाए, तो तीसरा हो सकता है।
तो मैंने उनको कहा कि तुम घबड़ाओ मत, जो हो रहा है, वह तो ठीक हो रहा है। तुम जारी रखो और एक घटना और घटेगी, उसकी प्रतीक्षा करना।
वह घटना भी घट गई। वे बीमार पड़ते चले गए और वे आत्माएं उनको बार-बार कहती चली गईं। और उनको मैंने कहा था: तुम स्पष्ट कह देना कि यहां से मैं हटने वाला नहीं हूं। यह ‘हू’ यहां जारी रहेगा, तुम्हें रुकना हो तो रुको, तुम्हें भी सम्मिलित होना हो तो सम्मिलित हो जाओ; भागना हो तो भाग जाओ, मैं यहां से हटने वाला नहीं हूं। जिस दिन उन्होंने यह संकल्प पूरा कर लिया, उस दिन दूसरी आत्माएं उन्हें दिखाई पड़ीं, और उन्होंने कहा कि तुम जारी ही रखो। हम भी उसी स्थान पर रहने वाली आत्माएं हैं, लेकिन हम भली आत्माएं हैं। और यह जो उपद्रवी आत्माएं हैं, जो तुम्हारे ‘हू’ से परेशान हैं, ये हट ही जाएं, तो हम पर भी बड़ी कृपा हो।
भरोसा न आएगा, उस जगत की बातें हैं। लेकिन ‘हू’ से तकलीफ हो सकती है। लेकिन जिन मित्रों को ऐसी तकलीफ होती हो, उनको समझाना कि परमात्मा के रास्ते पर फना होने के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है। अपने को मिटाना ही होगा--अगर चाहते हो, उसे पा लेना, जो फिर मिटता नहीं है।
मृत्यु ही अमृत का द्वार है।
सहज स्वीकार से जो मृत्यु को पकड़ लेता है, मृत्यु उसके लिए समाप्त हो जाती है।
जो अपने को बचाता है, वह खोता है और जो खोता है, वह सदा के लिए बचा लेता है।
सावधान हो, नहीं तो कहीं अहं की चिंता में देव-ज्ञान की भूमि पर तेरी आत्मा के पैर न उखड़ जाएं!
सावधान हो, नहीं तो कहीं तेरी आत्मा परमात्मा को भूल अपने कांपते मन के ऊपर नियंत्रण न खो बैठे और इस प्रकार अपनी जीत का फल भी न गंवा दे।
परिवर्तन से सावधान, क्योंकि परिवर्तन तेरा बड़ा शत्रु है। यह परिवर्तन लड़ कर तुझे तेरे मार्ग से निकाल बाहर करेगा और तुझे संदेह के दुष्ट दलदल में गाड़ देगा।
और भी गहन कठिनाई सामने आनी शुरू होती है। जैसे ही हम जगत से अपनी चेतना को भीतर की तरफ मोड़ते हैं, वैसे ही क्या यथार्थ है और क्या अयथार्थ है, इसकी जांच कठिन हो जाती है। जैसे स्वप्न में होता है, स्वप्न में जो भी दिखाई पड़ता है, प्रतीत होता है यथार्थ है। क्योंकि मापदंड का कोई उपाय नहीं होता; कोई संगी-साथी साथ नहीं होते, कोई समाज नहीं होता, आप होते हैं अकेले, और जो आप देखते हैं, वह होता है। अगर मैं अभी आपको देख रहा हूं, तो उपाय है कि मैं औरों से भी पूछ लूं कि आप दिखाई पड़ते हैं या नहीं? अगर किसी को भी दिखाई न पड़ते हों और मुझे ही दिखाई पड़ते हों, तो संदेह हो जाएगा कि भ्रम है। लेकिन अगर मैं अकेला ही हूं और आप दिखाई पड़ते हैं और कोई नहीं है जिससे पूछ सकूं कि जो मैं देख रहा हूं, वह तुम्हें भी दिखाई पड़ता है या नहीं, तो फिर जांच का कोई उपाय न रहा।
स्वप्न में और यथार्थ में इतना ही तो फर्क है कि स्वप्न है निजी अनुभव, जिसमें दूसरा भागीदार नहीं हो सकता। क्या आप अपने स्वप्न में किसी को ले जा सकते हैं साथी बना कर कि वह भी आपके स्वप्न को देख ले? कोई उपाय नहीं। एक ही स्वप्न दो व्यक्ति नहीं देख सकते हैं। और इसलिए इसका कोई मार्ग नहीं है कि दोनों तालमेल बिठा लें कि हमने जो देखा, वह तुमने भी देखा या नहीं देखा? तो जो देखा वह यथार्थ है या स्वप्न है, इसे कैसे जांचें? बाहर के जगत में जांच हो जाती है। सामूहिक सत्य और निजी सत्य में फर्क हो जाता है। जो आदमी सामूहिक सत्य में जीता है, उसे हम कहते हैं स्वस्थ। और जो निजी स्वप्नों में जीने लगता है, उसे हम कहते हैं पागल। पागल में और आपमें फर्क क्या है?
पागल और आपमें इतना ही फर्क है कि वह ऐसी सच्चाइयों में जी रहा है, जो केवल उसके लिए ही सच्चाइयां हैं और किसी के लिए सच्चाइयां नहीं हैं। एक पागल अकेला बैठा है, वह किसी से बात कर रहा है। वह जिससे बात कर रहा है, किसी को भी दिखाई नहीं पड़ता है; सिर्फ उसी को दिखाई पड़ता है। आप उसे पागल कह पाते हैं; क्योंकि जो मात्र उसी को दिखाई पड़ता है और किसी को दिखाई नहीं पड़ता, वह भ्रम होगा। पागल अपने स्वप्न को सत्य मान रहा है। अगर आपको भी उसका साथी दिखाई पड़ने लगे, और सबको दिखाई पड़ने लगे, तो फिर वह पागल नहीं होगा। क्योंकि निजी न रही बात, सार्वजनिक हो गई। सार्वजनिक अगर कोई स्वप्न भी हो जाए, तो यथार्थ मालूम पड़ेगा।
और कोई सत्य अगर निजी भी हो, तो भी बड़ी कठिनाई है जांच करने की कि वह सत्य है या स्वप्न है? इसलिए गुरु बहुत उपयोगी हो जाता है--उस अंतर्यात्रा में आपको जो अनुभव में आ रहा है, वह सच में हो रहा है या सिर्फ कल्पना चल रही है? किससे मेल बिठाएंगे? कौन कहेगा कि ठीक है या गलत है? कोई और जिसको अनुभव हो चुका हो, तो उसके अनुभव से आपका मेल बिठाया जा सकता है, तो थोड़ी सी सुविधा बनती है कि हम स्वप्न में नहीं खो रहे हैं। लेकिन भीतर की यात्रा पर सबसे बड़ा खतरा यही है कि वहां बहुत कुछ होना शुरू होगा, जिसको आप तौल न पाएंगे कि वह वस्तुतः हो रहा है या सिर्फ प्रतीत हो रहा है, आभास है। और आप अकेले ही होंगे भीतर।
यह सूत्र इसी बात से संबंधित है, इस महाखतरे से संबंधित है। तो बहुत बार पागल लोग भी अपने को समझ लेते हैं कि वे आध्यात्मिक हो गए हैं। और तथाकथित आध्यात्मिक लोगों की अगर खोज की जाए, तो उनमें से सौ में से नब्बे विक्षिप्त अवस्था में होते हैं। थोड़ी संख्या नहीं है--सौ में से नब्बे विक्षिप्त हालत में होते हैं। और जो उन्हें प्रतीत हो रहा है, वह केवल स्वप्न होता है। लेकिन उनकी भी मजबूरी है और वे दया योग्य हैं। क्योंकि वे करें क्या? उन्हें अनुभव हो रहा है। कोई कृष्ण से बातें कर रहा है अपने भीतर, कोई राम के दर्शन कर रहा है अपने भीतर, किसी को स्वर्ग-नरक दिखाई पड़ रहे हैं। वस्तुतः यह हो रहा है या सिर्फ कल्पना चल रही है? यह स्वप्न का खेल है या वस्तुतः कृष्ण मौजूद हैं?
बड़ी कठिन है। और मन मान लेने का होता है कि जो हो रहा है, वह सच है; क्योंकि सच मानने में अहंकार की तृप्ति होती है। अगर आपको कृष्ण के दर्शन हो रहे हैं भीतर और मैं कहूं कि नहीं यह सच नहीं है, तो आप क्रोधित होंगे। क्योंकि आप बड़ा मजा ले रहे थे; सपना बड़ा मीठा था, सुखद था। और एक बार कोई खलल डाल दे कि यह सपना है, तो फिर सुख खो जाता है।
सपने में सुख तभी तक आता है, जब तक सत्य मानते रहें हम। जैसे ही असत्य का खयाल हुआ कि सुख डांवाडोल हो जाता है। दोनों बातें संभव हैं कि भीतर जो हो रहा है, वह वास्तविक हो, और भीतर जो हो रहा है, वह काल्पनिक हो। दोनों बातें संभव हैं।
क्या है रास्ता? कैसे हम समझेंगे कि जो हो रहा है, वह वास्तविक है या अवास्तविक है? और भीतर आने वाली विक्षिप्तता से कैसे बचेंगे?
साधारण पागल भी हैं, आध्यात्मिक पागल भी हैं। और अक्सर तो ऐसा होता है कि साधारण पागलों को अगर मौका मिल जाए, तो वे बहुत जल्दी आध्यात्मिक पागल हो जाते हैं। साधारण पागल की तो निंदा भी होती है, आध्यात्मिक पागल को सम्मान मिलने लगता है! लोग कहते हैं मस्त है, लोग कहते हैं समाधिस्थ है।
आप जान कर हैरान होंगे, आधुनिकतम मनस-विज्ञान की खोजों में एक खोज यह भी है कि जिन मुल्कों में धर्म कम हो जाता है, वहां पागलों की संख्या बढ़ जाती है। इससे लोग यह समझते हैं, कम से कम भारत के धार्मिक लोग ऐसा समझते हैं कि धर्म बड़ी ऊंची चीज है, इसलिए जहां धर्म नहीं रहता, वहां लोग पागल हो जाते हैं। ऐसा मामला नहीं है।
जहां धर्म हो, वहां पागलों को आध्यात्मिक होने का मौका रहता है--आध्यात्मिक ढंग से पागल हो सकते हैं। इसलिए वहां पागलों की संख्या ज्यादा नहीं दिखाई पड़ती, क्योंकि उनमें से बड़ी संख्या आध्यात्मिक साधु-संत होकर बैठ जाते हैं। और जिन मुल्कों में धर्म नहीं है, वहां पागल को सिर्फ साधारण पागल होने का उपाय है, आध्यात्मिक पागल होने का उपाय नहीं है। इसलिए जहां धर्म नहीं है, वहां पागलों की संख्या बढ़ जाती है। इससे आप यह मत समझना कि जहां धर्म है, वहां पागलों की संख्या कम है। संख्या उतनी ही है, लेकिन वहां पागल पागल की तरह नहीं समझे जाते हैं; उनको उपाय है।
अब जैसे समझें। ऐसे पागलों से मेरा काफी संबंध रहा है। अगर एक आदमी सौ बार हाथ धोता हो नल के नीचे शुद्धि के लिए, तो सारी दुनिया में उसको पागल समझा जाएगा; हिंदुस्तान में वह साधक हो सकता है! मैं एक सज्जन को जानता हूं, जो सुबह नल पर तीन बजे, चार बजे पहुंच जाते हैं पानी भरने को; क्योंकि उनको ऐसा खयाल है कि अगर किसी स्त्री की दृष्टि पड़ जाए पानी भरते वक्त, तो वह पानी अशुद्ध हो गया। फिर भी अगर किसी स्त्री की दृष्टि पड़ जाए, कोई स्त्री निकल जाए, तो वे तत्काल पानी उंड़ेल कर बर्तन को फिर साफ करके, फिर पानी भरते हैं। ऐसा कई दफा हो जाता है कि उन्हें सौ-सौ बार वह बर्तन साफ करके पानी भरना पड़ता है। लोग उनको बड़ा आदर देते हैं कि अदभुत साधक हैं! उनका काम यही है, ज्यादातर इसी में उनका समय व्यतीत होता है, बर्तन साफ करने में, फिर पानी भरने में! फिर कोई स्त्री दिख गई--स्त्रियों की कोई कमी नहीं है--वे निकल ही रही हैं--जरा सी भनक पड़ गई कि अशुद्ध हो गया! उनको लोग कहते हैं कि ब्रह्मचर्य का बड़ा गहरा साधक है। पानी अपवित्र हो जाए जिसका स्त्री को देख कर!...ब्रह्मचर्य की साधना जरूर हो रही है; मगर यह आदमी पागल है। ऑब्सेशन है, कुंठा है इसके मन में; स्त्री से इतना भयभीत है कि इसका पानी अशुद्ध हो जाता है! और स्त्री से ही यह आदमी पैदा हुआ है। और कितना ही धोए शरीर को, स्त्री से यह शरीर मुक्त हो नहीं सकता। स्त्री का ही खून, मांस, मज्जा, हड्डी शरीर में है। जिस पानी को यह शुद्ध करके शरीर में पी रहा है, वहां स्त्री मौजूद है, वह सब नष्ट कर देगी। यह दुनिया में कहीं भी यह आदमी होता, यह पागलखाने में होता। इस मुल्क में यह आदमी सम्मानित है, आदृत है।
और पुरुष ही आदर देते हों, ऐसा नहीं, स्त्रियां और ज्यादा आदर देती हैं।
स्त्री उस आदमी को कभी आदर नहीं दे सकती, जो स्त्री को आदर दे। स्त्री उसी को आदर दे सकती है, जो उसकी निंदा करे। क्योंकि जो निंदा करता है, लगता है ऊपर हो गया। और जो आदर करता है, लगता है अभी हमारे साथ ही खड़ा है। इस तरह के जो पागल हैं, उनको स्त्रियां जितना आदर देती हैं, उतना पुरुष नहीं देते। क्योंकि वे स्त्रियों की भयंकर निंदा कर रहे हैं। अब इससे बड़ी और निंदा कुछ नहीं हो सकती कि स्त्री को देख कर उनका बर्तन का पानी अपवित्र हो जाता हो।
ये विक्षिप्तताएं हैं। ऐसी विक्षिप्तताएं बाहर भी चलती हैं, भीतर भी चलती हैं। बाहर चलती हैं, तो हमें दिखाई भी पड़ जाती हैं, भीतर चलती हैं, तो हमें दिखाई भी नहीं पड़ती हैं।
यह सूत्र इस संबंध में सचेत करने वाला है कि भीतर साधक जब प्रवेश करता है, तो कैसे खतरे उसे पकड़ ले सकते हैं।
प्रक्षेपण, प्रोजेक्शन सबसे बड़ा खतरा है।
‘और तब, ओ सत्य के संधानी, तेरे मन, आत्मा जंगल में दौड़ने-फिरने वाले पागल हाथी की तरह हो जाएंगे। जंगल के वृक्षों को जीवित शत्रु मान कर पागल हाथी सूर्य से प्रकाशित चट्टानों पर नाचने वाली अस्थिर छायाओं को मारने की चेष्टा में ही समाप्त हो जाता है।’
इस सूत्र के पहले हमने समझा कि जब व्यक्ति की चेतना भीतर स्थिर हो जाती है, लौ की भांति, जहां हवा का कोई कंपन न हो, तब छोटा सा भी विचार इस चेतना के आस-पास आए, तो मन के पर्दे पर उसकी छाया बनती है। जैसे कि कोई कमरा है शुभ्र दीवालों का, बंद है, कोई हवा का झोंका नहीं आता, दीये की ज्योति सतत जल रही है अकंप, तब एक छोटी तितली कमरे में उड़ने लगे, तो उस उड़ती तितली और प्रकाश के संबंध में दीवाल पर तितली की बड़ी छाया निर्मित होने लगेगी। तितली उड़ेगी, दीवाल पर छाया उड़ेगी।
साधारणतः इसका पता नहीं चलता, क्योंकि कमरे में बहुत चीजें हैं, बहुत छायाएं बन रही हैं। और दीये की लौ खुद ही कंप रही है, इसलिए सब छायाएं कंप रही हैं। कमरा छायाओं से भरा है और गंदा है और दीवालें सफेद भी नहीं हैं, काली हैं। कुछ पता नहीं चल रहा है। जैसे-जैसे मन शुद्ध होता जाएगा, दीवालें शुभ्र होने लगेंगी। जरा सी भी छाया होगी, तो स्पष्ट दिखाई पड़ेगी, अंकित होगी। और जैसे-जैसे लौ स्थिर होने लगेगी, दीवालें साफ होंगी, लौ बिलकुल ठहरी होगी, तो जरा से विचार की भी कंपन की स्थिति छाया निर्मित करेगी।
विचार की भी छाया होती है। विचार भी पारदर्शी नहीं हैं, ट्रांसपेरेंट नहीं हैं। और चेतना जब स्थिर होती है, तो विचार की छाया मन के पर्दे पर बनती है। उस छाया को अगर हमने जोर से पकड़ लिया, तो हम विक्षिप्त हो जाएंगे। और बड़ी सुखद छायाएं भी बनती हैं, बड़ी प्रीतिकर, जिनको पकड़ लेने का मन होता है। अब अगर कृष्ण बांसुरी बजा रहे हों दीवाल पर खड़े होकर, तो कौन नहीं होगा, जो उनके पैर न पकड़ ले? और फिर छोड़ने की हिम्मत किसकी होगी? जब सारे संसार के विचार छूट जाते हैं, तो हमारे अचेतन गर्भ में जो विचार सदियों-सदियों के संस्कार बन कर पड़े हैं, जो हमारे खून-मांस-मज्जा में प्रवेश कर गए हैं।...
अब जैसे अगर एक आदमी हिंदू घर में कई बार पैदा हुआ है, तो कृष्ण, राम उसके बहुत गहरे में उतर गए हैं। कोई अगर जैन घर में बहुत बार पैदा हुआ है, तो महावीर उसके बहुत गहरे में उतर गए हैं। वह विचार गहरी से गहरी भूमि में प्रविष्ट हो गया है। और जब हम सारे विचार उखाड़ कर फेंक देंगे, तब भी वह विचार नहीं उखड़ गया है, वह मौजूद है। और जब मन परिपूर्ण शुद्ध होने लगेगा और चित्त की लौ शांत, स्थिर हो जाएगी, तो वह महावीर का जो विचार अचेतन में पड़ा है, वह जो प्रतिमा महावीर की अचेतन मेंपड़ी है, उसकी छाया बननी शुरू हो जाएगी। वह जो छाया दीवाल पर बनेगी, लगेगी कि महावीर का दर्शन हो रहा है। और कितनी बार चाहा था कि महावीर का दर्शन हो, कृष्ण का, क्राइस्ट का दर्शन हो और आज वह अहोभाग्य का क्षण आया कि दर्शन हो रहा है। अब यह छाया खतरनाक हो सकती है।
राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट सहयोगी हैं, बड़े दूर तक सहयोगी हैं, लेकिन अंतिम क्षण में वे भी बाधाएं हो जाते हैं। और अंतिम क्षण में उनसे भी मुक्त हो जाना पड़ता है। ये छायाएं सुखद हों, तो पकड़ लेने का मन होता है। ये छायाएं दुखद हों, तो इनसे भयभीत होकर आदमी पागल हो सकता है। पागलपन दो तरह के हो सकते हैं भीतर। अगर आपको भीतर नरक दिखाई पड़ने लगे, तो आप उससे लड़ने में लग जाएंगे। अगर आपको भीतर स्वर्ग दिखाई पड़ने लगे, तो आप उसके साथ एक होने में लग जाएंगे। लेकिन दोनों हालत में आप चूक जाएंगे ज्योति और दोनों हालत में फंस जाएंगे छाया से।
एक संसार है हमारे बाहर। और एक संसार हमारे भीतर भी है स्वप्न का। जब हम बाहर के संसार से छूटते हैं, तो उस स्वप्न के संसार के साथ हमारा मिलना होता है। वह संसार अलग-अलग ढंग का है, क्योंकि हर आदमी ने अलग-अलग तरह के स्वप्न देखे हैं, और हर आदमी ने अलग-अलग तरह के विचार किए हैं, और हर आदमी ने अलग-अलग तरह की वासनाएं और आकांक्षाएं और इच्छाओं का सार अपने भीतर संगृहीत कर लिया है। अगर हम इसको ही भारत की पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो यही हमारा कर्म-संस्कार है। जब सब छूट जाता है, तब हमारे कर्मों की शुद्धतम विचारधारणाएं, प्रत्यय, कांसेप्ट हमारे चित्त की दीवाल पर प्रकट होने शुरू हो जाते हैं।
अभी पश्चिम में एल. एस. डी. और उस तरह के बहुत से ड्रग्स पर बड़ा काम चलता है। और एक बहुत अनूठी बात पता चली, जो कि भारत को हजारों बल्कि लाखों साल से खयाल में थी। लेकिन पश्चिम को तो जब तक कोई वैज्ञानिक ढंग से पता न चल जाए बात, तब तक स्वीकृत नहीं होती। एल. एस. डी. के प्रयोग से एक अनूठी बात अनुभव में आई।
पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक अल्डुअस हक्सले ने एल. एस. डी. लिया। लेने के बाद यह जगत खो गया और इस जगत की जगह स्वर्गवत मनोकामनाओं का एक लोक प्रकट हुआ! तो हक्सले तो इतना प्रभावित हो गया एल. एस. डी. से, इस मादक औषधि से इतना प्रभावित हो गया कि उसने लिखा है कि कबीर और नानक और मीरा जिस स्थिति को सैकड़ों जन्मों और न मालूम कितने उपायों के बाद उपलब्ध हुए--एल. एस. डी. का एक इंजेक्शन या एक गोली तत्क्षण उस लोक में प्रवेश करवा देती है। स्वर्ग प्रकट हो गया! साधारण पत्थर भी अल्डुअस हक्सले ने देखा, तो साधारण न रहा। कोई कोहनूर उसका मुकाबला न कर सके, इतने रंग उससे प्रकट होने लगे! साधारण कमरा जिसमें वह बैठा था, वह ऐसा हो गया कि इंद्र का कक्ष भी उतना सुंदर न होगा! जरा सी आवाज मधुर संगीत बन गई! सब रंग गहन और प्रगाढ़ हो गए! क्षुद्र खो गया, विराट का सौंदर्य प्रकट हो गया। उसने लिखा कि मैंने स्वर्ग देखा!
फिर एक कैथोलिक विचारक जायनर ने एल. एस. डी. लिया, लेकिन उसने नरक देखा। उसे स्वर्ग दिखाई नहीं पड़ा। उसने भयंकर आग की लपटें देखीं, जलते हुए लोग देखे, बड़ी कराह पीड़ा देखी। छोटी सी आवाज भी तांडव नृत्य बन गई भीतर। जो भी देखा, विध्वंस देखा। और उसने अल्डुअस हक्सले के खिलाफ लिखा कि यह बात ठीक नहीं है कि स्वर्ग है भीतर। एल. एस. डी. से स्वर्ग पैदा होता है, यह बात ठीक नहीं है, एल. एस. डी. से नरक पैदा होता है।
एल. एस. डी. से कुछ भी पैदा नहीं होता। न जायनर ठीक है, न हक्सले ठीक है। एल. एस. डी. से वही दिखाई पड़ने लगता है, जो आपके भीतर गहन संस्कारों में छिपा है। वही प्रोजेक्टेड हो जाता है। एल. एस. डी. आपके भीतर के दरवाजे तोड़ देता है और आपके अचेतन की दीवालें तोड़ देता है, और जो आपके भीतर छिपा है, प्रकट हो जाता है। जायनर के भीतर अगर नरक छिपा था, तो नरक प्रकट हो गया; अगर स्वर्ग छिपा था, तो स्वर्ग प्रकट हो गया। जो छिपा था, वह प्रकट हो गया। उसको आपने अपने ही मन की दीवाल पर देख लिया। वे जो रंग हैं सप्तवर्णी, और वे जो सुगंधें हैं और संगीत का जो अनुभव है या तांडव का, विध्वंस का, आग का, वह सब आपके ही मन का संस्कार है। जो आपकी चेतना के सामने आता है, तो फिर मन की दीवाल पर प्रकट हो जाता है। अगर ठीक से समझें, तो स्वर्ग और नरक कहीं भी नहीं हैं। और मरते क्षण में कुछ लोगों को लगता है कि वे नरक जा रहे हैं और कुछ लोगों को लगता है कि वे स्वर्ग जा रहे हैं; वह भी मृत्यु की चोट में आपका अचेतन टूट गया है और आपके मन के पर्दे पर चीजें फैल रही हैं।
तिब्बत में इसके लिए बड़े गहन प्रयोग पैदा किए गए। एक बड़ा प्रयोग है, बारदो। तिब्बत में मरते आदमी को मरते वक्त वह एक साधना करवाते हैं, पर वह एकदम से नहीं करवाई जा सकती। जीवन में उसने की हो, तो मरते वक्त उसका प्रयोग किया जा सकता है। बारदो एक तरह का ध्यान है। इस ध्यान में साधक को सचेतन रूप से स्वर्ग और नरक की यात्रा करवाई जाती है। साधक शांत होकर पड़ जाता है, शिथिल हो जाता है। उसका जो मार्ग-दर्शक है, उसका जो गुरु है, उसके प्रति अपने को समर्पित कर देता है, और कहता है, अब तुम मुझे जहां ले चलो।
एक विशेष वातावरण में जब साधक बिलकुल शिथिल होता है, और करीब-करीब सम्मोहित, हिप्नोटाइज्ड अवस्था में होता है, और अपना चिंतन, अपना विचार, अपना तर्क सब छोड़ देता है, वह जो गुरु उसके पास है, उसका मार्ग-दर्शक, गाइड, जो उसे स्वर्ग-नरक में ले जा रहा है, उसके साथ चलने को राजी होता है। फिर गुरु उसे क्रमशः, जैसे कि सम्मोहित व्यक्ति को क्रमशः गहरे ले जाया जा सकता है, वैसे उसे गहरे ले जाने लगता है। पहले वह उसे गहरा सुझाव देता है कि तू मूर्च्छित हो रहा है, बेहोश हो रहा है। और वह स्वीकार करता है, सहयोग करता है। फिर उसे सुझाव देता है कि यह मूर्च्छा इतनी गहन हो गई कि अब तेरे कानों को मेरी आवाज के सिवाय किसी की आवाज न सुनाई पड़ेगी। वह इसे भी स्वीकार कर लेता है। सब आवाजें बंद हो जाती हैं। सामान्य सम्मोहन में भी यही प्रयोग है। जब सारी आवाजें बंद हो जाती हैं, और जब सिर्फ मार्ग-दर्शक की आवाज सुनाई पड़ती है, तब मार्ग-दर्शक प्रयोग करके देखता है। हाथ में सुई चुभोता है और कहता है कि हाथ में मैं कोई सुई नहीं चुभो रहा हूं, तुझे किसी तरह की पीड़ा का अनुभव नहीं होगा। हाथ में सुई चुभोता है, हाथ हटता भी नहीं, साधक पीड़ा की कोई खबर नहीं देता है। पैर में अंगारा छुआ देता है और कहता है कि एक साधारण ठंडा पत्थर तेरे पैर से स्पर्श करा रहा हूं; साधक चीख मार कर पैर नहीं हटा लेता। अंगारा पैर को छूता है, साधक को कोई पता नहीं चलता। अब मार्ग-दर्शक जानता है कि साधक ने अपने को पूरी तरह समर्पित कर दिया।
अगर पूरा समर्पण हो, तो अंगारे से छुए गए पैर में भी फफोला नहीं आता है। और अगर आपने सुना हो कि लोग आग पर नाच कर निकल जाते हैं और आग उनको नहीं जलाती, तो इसमें कुछ जादू मत समझ लेना। सिर्फ मन का भाव है। इससे उलटा भी होता है। सम्मोहित, हिप्नोटाइज्ड व्यक्ति को अगर हाथ में कंकड़ रख दिया जाए और कहा जाए कि एक भयंकर जलता हुआ अंगारा है, तो वह सम्मोहित व्यक्ति चीख मार कर हाथ हटा लेगा, कंकड़ को फेंक देगा। यहां तक तो ठीक है क्योंकि मन की बात है। लेकिन मजा तो यह है कि हाथ पर फफोला आ जाता है।
हम जो देख रहे हैं, वह बहुत कुछ हमारे मन का खेल है।
हम जो जी रहे हैं, वह बहुत कुछ हमारे मन का खेल है।
अगर किसी के पास आपको बहुत सुख मिलता है, वह भी मन का खेल है। और किसी के पास आपको बहुत दुख मिलता है, वह भी मन का खेल है। जब कंकड़ से फफोले आ जाते हों, और अंगारे से हाथ पर फफोला न आता हो, तो आप समझ सकते हैं कि मन की कितनी क्षमता है।
जब मार्ग-दर्शक ठीक से देख लेता है कि अब साधक पूरा समर्पित है और अगर मैं उसकी गर्दन भी काट दूं तो भी इसकी चीख न निकलेगी, तब वह उसे यात्रा पर ले चलता है। वह कहता है, पहले नरक में--पहले नरक के द्वार पर तू खड़ा है। फिर वह पूरा वर्णन करता है नरक के द्वार का। फिर नरक के भीतर का। फिर नरक का पूरा वर्णन करता है, और वह जो-जो कहता जाता है, साधक वही-वही देखने लगता है। साधक के मन में जो संस्कार पड़े हैं, इस सहयोग में वे सारे संस्कार प्रकट हो जाते हैं, और मन की दीवाल पर नरक निर्मित हो जाता है। आप साधक के चेहरे को भी बाहर से देख कर कह सकते हैं कि वह भयंकर पीड़ा से गुजर रहा है। फिर दूसरा नरक, फिर तीसरा नरक, फिर वह सात नरकों की यात्रा पर ले जाता है। इस सारी पीड़ा में, भयंकर पीड़ा में गुजर कर साधक उसके भीतर जो-जो पीड़ा के भाव छिपे थे, इन नरकों में उन्हीं के प्रतीक हैं। जो-जो संभावना थी पीड़ा की, जिसकी वह कल्पना कर सकता था, नरकों में उन्हीं की चित्रावली है।
नरक आदमी के मन को देख कर सोचे गए हैं--स्वर्ग भी। जब इन सारी पीड़ाओं से वह गुजर जाता है तो उसके मन में जो-जो विचार छिपे थे, वे सब सचेतन हो गए होते हैं। और सचेतन होकर उनसे छुटकारा हो गया होता है। अब तो आधुनिक मनोविज्ञान भी कहता है कि मन में जो बात भी गहरे में पड़ी है, यदि कांशस सचेतन हो जाए, तो उससे हमारा छुटकारा हो जाता है।
फ्रायड का मनोविश्लेषण वर्षों तक यही करता है। कोई बीमार है, तो वर्षों तक साइकोएनालिसिस चलती है। वह बीमार अपनी बातें कहता जाता है, चिकित्सक सुनता जाता है। और पूछता है, और पूछता है, उसके भीतर जो-जो दबा है, उसे निकालता चला जाता है। जब सारी बातें भीतर से निकल कर बाहर आ जाती हैं विचार में, बीमार अचानक अपनी बीमारी से मुक्त हो जाता है।
अचेतन में दबा हुआ विचार धक्के देता है, निकलने के लिए। उसकी निकलने की कोशिश और हमारी दबाने की कोशिश से ही रोग पैदा होता है। जब हम उसे निकाल नहीं लेते हैं बाहर तक, जैसे केतली में भाप भरी हो और आप ढक्कन बंद किए हों, मुंह भी बंद किए हों, केतली की टोटी भी बंद किए हों, तो फिर केतली रुग्ण अवस्था में आ गई, अब विस्फोट होगा। इसे निकल जाने दें।
हम सब ऐसी ही हालत में हैं--ज्वालामुखी। न मालूम क्या-क्या जन्मों-जन्मों में, हमने दबा कर इकट्ठा कर रखा है, उसमें ही हमारे नरक हैं। और न मालूम कितनी वासनाएं और कामनाएं हमने संजो रखी हैं, उसी में हमारे स्वर्ग हैं।
जब साधक पहुंच जाता है नरकों में, फिर उसे स्वर्गों में ले जाया जाता है। फिर यह पहला स्वर्ग, दूसरा स्वर्ग और सात स्वर्ग, उन सबका वर्णन, और साधक का चेहरा बताता है कि अब वह बड़े अदभुत लोक में प्रवेश कर रहा है। उसके चेहरे की शांति, आनंद की पुलक, उसका रोमांच बाहर से भी अनुभव होता है कि भीतर वह कहीं जा रहा है। न कहीं जा रहा है, न कहीं से आ रहा है, लेकिन मन प्रोजेक्टर का काम कर रहा है, और मन के पर्दे पर सारी चीजें बनती जा रही हैं। वह देख रहा है।
इस प्रयोग को मरते वक्त भी करवाया जाता है। और साधक को कहा जाता है इस प्रयोग को करवा कर कि यह सब तेरे मन का खेल है। और मरने के बाद शरीर के छूटते ही तेरे मन में दबा हुआ जो भी है--वह शरीर के सहारे ही दबाया जा सकता था, शरीर के छूटते ही तेरा दबा हुआ सब विस्फोट होगा, तब तू स्मरण रखना और घबड़ाना मत--कि यह मन का ही खेल है।
इसलिए मरते वक्त जिन लोगों को स्वर्ग-नरक के अनुभव हो जाते हैं--वह मन का ही खेल है। पर जिन्होंने उन अनुभवों को लिखा है, उन्होंने तो वास्तविक ही जाना है। जो देखा है, वह वास्तविक था--भीतर बिलकुल वास्तविक था।
स्वर्ग-नरक प्रतीक भला हों, लेकिन बिलकुल झूठे नहीं हैं, मन के सत्य हैं।
बारदो में साधक को मरते वक्त समझा दिया जाता है कि यह सब जो तू अभी देख रहा है, मरने के बाद बहुत प्रगाढ़ होकर देखेगा, तब घबड़ाना मत और होश कायम रखना कि यह सब मन का ही खेल है। ये नरक मेरे हैं, ये स्वर्ग मेरे हैं। अगर तू दोनों का खयाल रख सका कि ये मेरे मन के ही खेल हैं, तो तू दोनों के पार चला जाएगा और मुक्त हो जाएगा। अगर मरने के पहले यह प्रयोग कई बार करा दिया गया हो, तो मरने के बाद भी खयाल रखा जा सकता है।
जीने की ही कला नहीं होती, मरने की भी कला होती है।
और हम तो जीना ही नहीं जानते, तो मरना तो हम कैसे जानें? हमें तो यही पता नहीं कि कैसे जीएं! कैसे मरना भी सीखना होता है। कोई ठीक से न मरे, तो बड़ी मुश्किल में पड़ता है। और ठीक से जो मर जाता है, वह मुश्किल से छूट जाता है।
यह सूत्र कहता है कि तेरी स्थिति, जब तू बिलकुल भीतर प्रविष्ट हो जाएगा और बाहर का लोक छूट जाएगा, एक पागल हाथी जैसी हो सकती है। सावधान रहना। क्योंकि पागल हाथी देखता है चट्टानों पर वृक्षों की हिलती शाखाओं की छाया, समझता है कोई दुश्मन है। जूझ जाता है चट्टानों से, टूट जाता है खुद ही, क्योंकि चट्टानों का क्या बिगड़ेगा, अपने को ही क्षत-विक्षत कर लेता है, लहूलुहान कर लेता है। अपनी ही मौत का कारण बन जाता है। मगर जब पागल हाथी लड़ता है चट्टानों से, तब उसको पता नहीं कि वह जिससे लड़ रहा है, वह कल्पना का खेल है।
संसार में भी हम जिनसे लड़ रहे हैं, थोड़ा खोज-बीन करेंगे, तो बहुत कुछ कल्पना का खेल ही पाएंगे। फिर भीतर भी यही लड़ाई चल सकती है। लड़ना मत, मोहित भी मत होना, साक्षी बने रहना, और जानना कि जरूर मेरी चेतना और मन की दीवाल के बीच कोई विचार है, कोई बीच में संस्कार आ गया है, जिससे मुझे यह सब दिखाई पड़ रहा है। यह होश रखना। दुख हो तो भी, सुख हो तो भी; नरक हो तो भी, स्वर्ग हो तो भी।
‘सावधान हो, नहीं तो कहीं अहं की चिंता में देव-ज्ञान की भूमि पर तेरी आत्मा के पैर न उखड़ जाएं!’
यह पैर उखड़ सकते हैं दो तरह से। या तो तू लड़ने में लग जाए और या तू भोगने में लग जाए। स्वर्ग दिखाई पड़ने लगे, तो आदमी भोगने में लग जाता है। नरक दिखाई पड़ने लगे, तो लड़ने में लग जाता है। दोनों ही हालत में उस भूमि से पैर उखड़ जाते हैं। दोनों ही हालत में वह जो चेतना है, उस पर दृष्टि नहीं रहती; वह जो बाहर मन के पर्दे पर खेल हो रहा है, उस पर दृष्टि चली जाती है।
‘सावधान हो, नहीं तो कहीं तेरी आत्मा परमात्मा को भूल अपने कांपते मन के ऊपर नियंत्रण न खो बैठे और इस प्रकार अपनी जीत का फल भी न गंवा दे।’
‘परिवर्तन से सावधान, क्योंकि परिवर्तन तेरा बड़ा शत्रु है। यह परिवर्तन लड़ कर तुझे तेरे मार्ग से निकाल बाहर करेगा और तुझे संदेह के दुष्ट दल-दल में गाड़ देगा।’
परिवर्तन से सावधान!
क्या आधार होगा भीतर जांचने का कि जो मैं देख रहा हूं, वह स्वप्न है या सत्य?
एक होगा आधार--अगर वह बदल रहा हो, तो स्वप्न; अगर न बदल रहा हो, तो सत्य।
परिवर्तन--इसे हम समझें।
सत्य की बहुत परिभाषाएं खोजी गई हैं जगत में। अनेक मनीषियों ने सत्य को न मालूम कितने-कितने रूपों में परिभाषित किया है। सत्य क्या है, इसका अनुसंधान चलता रहा है सदियों-सदियों में। सारा दर्शन, सारे शास्त्र इसकी ही खोज में लगे हैं कि क्या है सत्य और क्या है असत्य। आसान नहीं है काम। जितनी आसानी से हम किसी चीज को कह देते हैं असत्य और किसी चीज को कह देते हैं सत्य, उतना आसान नहीं है। बहुत जटिल है और बहुत सूक्ष्म है। और कोई मापदंड होना चाहिए, जिससे हम जांच सकें कि क्या है सत्य, क्या है असत्य।
कुछ लोग कह देते हैं जो आंख से दिखाई पड़ता है, वह सत्य। जो प्रत्यक्ष है, वह सत्य। आंख से तो स्वप्न भी दिखाई पड़ते हैं, आंख से तो झूठ भी दिखाई पड़ते हैं। एक रस्सी पड़ी है और आंख से सांप दिखाई पड़ती है। आंख से ही दिखाई पड़ती है। आंख बंद करने से नहीं दिखाई पड़ती। अंधे को नहीं दिखाई पड़ती, आंख वाले को दिखाई पड़ती है; किसी अंधे को कभी वहम नहीं होता कि रस्सी जो पड़ी है, वह सांप है। न रस्सी दिखाई पड़ती है, न सांप का कोई उपाय है देखने का। आंख वाले को दिखाई पड़ जाती है अंधेरे में कभी कि रस्सी सांप है, और भाग खड़ा होता है। जो दिखाई पड़ा था, वह दिखाई तो पड़ा ही था, आंख से ही दिखाई पड़ा था, और अपनी ही आंख से दिखाई पड़ा था।
लोग कहते हैं, दूसरे की आंख पर भरोसा मत करना। अपनी ही आंख पर भरोसा करने से क्या होने वाला है? सपने अपनी ही आंख से हम देखते हैं, भ्रम भी अपनी ही आंख से देखते हैं। और जब वे हमें दिखाई पड़ते हैं, तब बिलकुल वास्तविक होते हैं, तब उनमें रंचमात्र भी संदेह नहीं होता। आंख से देखने से सत्य का कोई निर्णय नहीं होता।
किस चीज को सत्य कहें?
जिसको सब मानते हों?
ऐसी भी परिभाषाएं हैं कि जिसको लोक-मान्यता हो, वह सत्य है। व्यक्ति की बातों में मत पड़ना; क्योंकि व्यक्ति भूल में पड़ सकता है। लेकिन पूरे के पूरे लोग, पूरे के पूरे समाज भूल में पड़ सकते हैं; पड़े हैं। एक समाज एक बात को मानता है, तो उस समाज को वह बात दिखाई पड़ती है; मान्यता से दिखाई पड़ती है। आपके खयाल में भी नहीं आती, उस समाज को खयाल में आती है, उसको दिखाई पड़ती है।
अब जैसे अगर चीन में वे चपटी नाक को सुंदर मानते हैं, तो पूरे चीन में वह दिखाई पड़ती है कि सुंदर है, और आपको सोचने में भी नहीं आती कि दबी-चपटी नाक कैसे सुंदर हो सकती है। आप यह मत सोचना कि आप समझदार हैं और वे नासमझ हैं। लंबी नाक सुंदर है, यह आपकी मान्यता है। क्योंकि सुंदरता का क्या हिसाब है? लंबी क्यों सुंदर है? आखिर लंबाई में क्या सौंदर्य है? धारणा है कि लंबी सुंदर है, तो पूरे समाज को दिखाई पड़ती है।
धारणा है कि गोरा शरीर सुंदर है, तो फिर पूरे समाज को दिखाई पड़ता है। लेकिन ऐसे समाज हैं, जहां कि गोरा शरीर सुंदर नहीं है। इस मुल्क में भी हमने गोरे शरीर को बहुत गहरा सुंदर नहीं माना है, इसलिए राम और कृष्ण को हमने सांवला रखा। थे कि नहीं, पक्का नहीं; क्योंकि जैसा हम पोतते हैं, वैसा सांवला रंग होता भी नहीं। लेकिन सांवले को हमने सुंदर माना था उस समय। वक्त बदला, फैशन बदल जाते हैं। अब अगर कृष्ण पैदा हों, तो सांवले पैदा होना ठीक नहीं है। अब अगर उनको सांवले ही पैदा होना हो, तो अमरीका में नीग्रोज में पैदा होना चाहिए। क्योंकि अब उन्होंने वहां नारा दिया है: ब्लैक इ़ज ब्यूटीफुल। काला जो है, वह सुंदर है। पर काला सुंदर है, यह भी मान्यता है। और सफेद सुंदर है, यह भी मान्यता है। और सिखावन पर निर्भर है। जो हम सीख लेते हैं, वह हमें सुंदर दिखाई पड़ने लगता है; जो हम मान लेते हैं कुरूप है, वह हमें कुरूप दिखाई पड़ने लगता है। ये मान्यताएं हैं, सत्य नहीं है। और पूरा समाज मान लेता है, तो बहुत सत्य मालूम पड़ता है।
अब देखें, जैन मुनि हैं दिगंबर, वे स्नान नहीं करते, दतौन नहीं करते, उनके मुंह से बदबू आती है--आएगी ही। उनके पास बैठ कर बातचीत करने में मितली आने लगे, घबड़ाहट होने लगे। लेकिन जैन इस कारण उनको बहुत आदर देते हैं। क्यों? क्योंकि एक मान्यता है। और वह मान्यता यह है कि उन्होंने शरीर का मोह छोड़ दिया। तो जब मोह ही छोड़ दिया, तो क्या दतौन और क्या स्नान? यह तो सजावटें हैं, श्रृंगार है। स्नान करना, दतौन करना, यह तो श्रृंगार है, सजावट है। और जो शरीर अपने को मानता ही नहीं, अपने को आत्मा मानता है, वह क्यों दतौन करे और क्यों स्नान करे? शरीर को क्यों सजाए?
जो ऐसा मानते हैं, उनको मुनि के मुंह से आती बास बड़ी सुगंधित मालूम पड़ती है। पड़ेगी ही। इस बास में त्याग की सुगंध है, इस दुर्गंध में विराग की सुगंध है। और ऐसा मानने वालों को अगर मुनि के मुंह से बास न आए, तो वह समझेगा कि चोरी-छिपे टूथपेस्ट कर रहा है। कर रहे हैं कुछ। कर भी रहे हैं, ऐसा भी नहीं है कि नहीं कर रहे हैं; क्योंकि कुछ समझदार हैं, वे दोहरा फायदा ले रहे हैं। चोरी-छिपे वह अपना टूथपेस्ट भी रखते हैं, उसको भी कर लेते हैं, और मौका मिल जाता है, तो स्पंज भी कर लेते हैं शरीर पर; क्योंकि बदबू बदबू है। पर अगर शरीर से बदबू न आए, तो भक्त को संदेह हो जाता है कि कुछ गड़बड़ हो रही है। अब यह बड़ी कठिन बात मालूम पड़ती है, लेकिन इतनी कठिन नहीं है।
अभी अमरीका में युवकों के, हिप्पियों के समूह हैं। उन्होंने पश्चिम में चलने वाले सब सौंदर्य के साधनों का विरोध कर दिया है। साबुन का उपयोग नहीं करेंगे, डियोडरेंट का उपयोग नहीं करेंगे, पाउडर का उपयोग नहीं करेंगे; क्योंकि वे कहते हैं कि शरीर की गंध बड़ी सुखद है, प्राकृतिक है। तो अगर शरीर से पसीने की बास आती है, तो स्वाभाविक है, और आनी चाहिए। इसको छिपाना आर्टिफीशियल है। इस पर साबुन लगा कर इसको दबाना और पाउडर छिड़क कर इसको रोकना झूठा है। यह आदमी झूठा है, जो ऐसा कर रहा है। और अगर ऐसे आदमी के पास आप जाते हैं, तो असली आदमी से आपका मिलना नहीं हो पाएगा।
तो हिप्पीज कहते हैं कि जो सहज है, वह सुंदर है; जो स्वाभाविक है, वह सुंदर है। इसलिए अगर स्त्री के शरीर से बास आ रही है, तो उस बास का आनंद लो; क्योंकि वह स्वाभाविक है। और सारी दुनिया में सारे पशु उसका आनंद ले रहे हैं, आदमी क्यों नहीं ले रहा? क्योंकि आदमी फॉल्स, झूठा है। तो हिप्पी गंदे रहने लगे हैं। गंदे उनके हिसाब से, जो मानते हैं कि यह गंदगी है, अपने हिसाब से नहीं। अपने हिसाब से तो वे सहज, स्वाभाविक हो रहे हैं। आप गंदे हैं; क्योंकि आप झूठे हैं। ये सब मान्यताएं हैं।
अगर आप हिप्पियों के समूह में जाएं और ठीक साफ-सुथरे कपड़े पहने हों, और शरीर से पसीने की बदबू न आती हो, तो आपको हिप्पियों का समूह स्वीकार नहीं करेगा, आपको निकाल बाहर करेगा। क्योंकि आदमी आप ठीक नहीं हैं; थोड़े गड़बड़ हैं, पुरानी धारणा के हैं, पिटे-पिटाए हैं, और झूठे हैं। वास्तविक नहीं हैं।
समूह भी एक मान्यता को मान ले, तो वह सत्य दिखाई पड़ने लगती है। और जो समूह में पैदा होता है, वह उसी धारणा में पलता है और बड़ा होता है, वह उसको सत्य दिखाई पड़ने लगती है।
तो क्या है सत्य?
अपनी आंख से देखा हुआ भी असत्य हो जाता है; समूह की मान्यता भी असत्य हो जाती है। जिसको एक समूह महात्मा मानता है, दूसरा समूह उसको बिलकुल महात्मा मानने को तैयार नहीं होता।
जैनों से पूछें कि कृष्ण भगवान हैं? मान नहीं सकते, उन्होंने अपनी किताबों में उनको नरक में डाल दिया है। क्योंकि यह आदमी कैसे भगवान हो सकता है? भगवान तो होना चाहिए विरागी। और यह आदमी बांसुरी बजा रहा है और नाच रहा है। और इसके आस-पास स्त्रियां हैं, नाच रही हैं। यह आदमी कैसे भगवान हो सकता है? यह आदमी भगवान नहीं है। तो जैनों ने अपने शास्त्रों में कृष्ण को नरक में डाल रखा है। और इस पूरे कल्प के समाप्त होने के बाद ही वह नरक से छूट सकेंगे। इसमें कुछ नाराज होने की बात नहीं है, इसमें जैनी सिर्फ इतना कह रहे हैं कि उनकी धारणा का जो सत्य है, उसमें कृष्ण बिलकुल ठीक नहीं पड़ते, बिलकुल ठीक नहीं पड़ते।
अपनी-अपनी धारणाएं हैं।
मोहम्मद को--जो लोग अहिंसा को मानते हैं, वे कैसे मान सकेंगे कि पैगंबर हैं, हाथ में तलवार है। और जो मोहम्मद को मानते हैं, वे महावीर और बुद्ध को भगोड़े मानते हैं; क्योंकि जो जिंदगी को छोड़ कर भाग गए। और जिंदगी जहां कि बुराई से लड़ना है, जहां कि बुराई को पराजित करना है, वहां से जो भाग गए, इन भगोड़ों को पैगंबर और तीर्थंकर कैसे माना जा सकता है? ये तो कायर हैं। मोहम्मद लड़ रहे हैं जिंदगी में। जहां बुराई है, उसको काटना है। और तलवार लेकर खड़े हैं, और ये सब भाग खड़े हुए हैं। भागने से बुराई तो मिटती नहीं है। इसलिए इस्लाम कहता है: बुराई से तो लड़ना पड़ेगा। और अगर बुरे आदमी के हाथ में तलवार है, तो अच्छे आदमी के हाथ में भी तलवार होनी चाहिए, नहीं तो बुरा आदमी जीतेगा। तो इस्लाम कहता है कि महावीर, बुद्ध इन सबके कारण बुराई जीत गई; क्योंकि बुरा आदमी तलवार छोड़ता नहीं, अच्छा आदमी तलवार छोड़ देता है। अब किसको कहो कि कौन सत्य है?
समूह के सत्य भी मान्यताओं के सत्य हैं। और जो आदमी उसमें बड़ा होता है, वह उसी आंख से देखता है, चश्मा उसकी आंख पर होता है। उसको वही दिखाई पड़ता है, जो उसके समूह ने उसे दे दिया है।
भारत ने एक सत्य की और ही कसौटी खोजी है। न तुम्हारी आंख, न समूह की आंख। सत्य की एक कसौटी खोजी है, जो बाहर-भीतर दोनों जगह काम आएगी। और वह यह है कि जो परिवर्तनशील है, वह सत्य नहीं है। जो शाश्वत है, वही सत्य है।
रात स्वप्न देखा, सुबह उठ कर पाया कि झूठ था। क्यों आप पाते हैं कि झूठ था? क्या कारण है झूठ पाने का? क्या आधार है आपके पास कहने का कि स्वप्न झूठ था?
पहली तो बात यह है कि स्वप्न मौजूद नहीं है कि आप तौल सकें जागरण से; वह जा चुका। जब स्वप्न था, तब जागरण नहीं था।
आप एक कमरे में सोए और रात आपने देखा कि आप स्वप्न में एक महल में हैं। फिर सुबह उठे, आपने अपने को अपने कमरे में पाया। आप कहते हैं कि वह महल झूठा था। लेकिन कैसे तोलते हैं? क्योंकि महल अब मौजूद नहीं कि इस कमरे से तौल सकें--कि कौन झूठा, कौन सच्चा? और जब आप महल में थे, तब यह कमरा मौजूद नहीं था। दो चीजों को तौलने के लिए मौजूदगी साथ-साथ चाहिए। यह भी हो सकता है कि रात का महल भी सच्चा रहा हो, और आप एक महल में प्रवेश कर गए हों चेतना के एक द्वार से, और यह भी हो सकता है यह कमरा भी सच हो। और यह भी हो सकता है कि जैसे महल झूठा था, वैसे ही यह कमरा भी झूठा हो। और किसी दिन आप जागें और पाएं कि वह कमरा भी झूठा था।
आधार क्या है?
भारतीय प्रज्ञा की निष्पत्ति है कि हमारा आधार सिर्फ इतना ही है कि जो बदल जाता है, वह सत्य नहीं है। बदलता हुआ स्वप्न है। भीतर का स्वप्न भी बदल रहा है, और बाहर का जो जगत है, वह भी प्रतिपल बदल रहा है; इसलिए उसको हम सत्य नहीं मानते। इसलिए हमने जगत को भी माया कहा है। तो जब आप रात सपना देखते हैं, तो वह जगत के विपरीत नहीं है, जगत के बड़े स्वप्न में एक छोटा स्वप्न है। स्वप्न के भीतर एक स्वप्न है।
आपको पता भी होगा, कभी आपने स्वप्न के भीतर अगर स्वप्न देखा हो तो। आप स्वप्न देखते हैं कि सो रहे हैं, आप स्वप्न देखते हैं भीतर कि खाट पर पड़े सो रहे हैं। यह सोया हुआ आदमी सपने में है, और तब आप देखते हैं कि वह सोया हुआ आदमी एक सपना देख रहा है। स्वप्न के भीतर स्वप्न और उसके भी भीतर स्वप्न हो सकते हैं। जिनकी कल्पना बहुत प्रबल होती है, वह कई स्वप्नों के भीतर स्वप्न देख सकते हैं। अक्सर कवि देख लेते हैं।
यह बड़ा विराट भी एक स्वप्न है; लेकिन स्वप्न का मतलब यह नहीं कि झूठ है। स्वप्न से इतना ही मतलब है हमारा कि परिवर्तनशील है, चेंजिंग है। सब-कुछ बदल रहा है। इस जगत में कोई भी चीज ठहरी हुई नहीं है। सब चीजें बदलती जा रही हैं।
इस सूत्र को अगर खयाल में रखा कि परिवर्तन असत्य है और शाश्वतता, नित्यता सत्य है, तो फिर भीतर भी काम पड़ेगा यह। तो ध्यान रखना कि वह जो दीवाल पर, मन के पर्दे पर चित्र बन रहे हैं, वे सब परिवर्तित हो रहे हैं। वे एक क्षण वही नहीं रहते हैं।
आपके भीतर कोई विचार दो क्षण नहीं टिकता। आया, गया। दूसरा आया, तीसरा आया, धारा चल रही है। चाहें भी पकड़ना एक विचार को, तो पकड़ नहीं सकते, मुट्ठी से छूट-छूट जाता है। इसलिए तो लोग कहते हैं: एकाग्रता में इतनी मुश्किल है। होगी ही। क्योंकि जिसको आप बांधना चाह रहे हैं, वह प्रवाह है। जैसे कोई मुट्ठी में पारे को बांधना चाहे और पारा हजार टुकड़े होकर गिर जाए, ऐसे आप भीतर कुछ भी पकड़ें, वह भाग रहा है, कुछ भी पकड़ आता नहीं।
इन दीवाल पर बनी छायाओं पर ध्यान रखना। चाहे वे छायाएं नरक की हों, चाहे स्वर्ग की, चाहे कृष्ण की, चाहे राम की, चाहे क्राइस्ट की, चाहे बुद्ध की। एक बात ध्यान रखना, क्या वे बदल रही हैं? बस देखते रहना गौर से, क्या वे बदल रही हैं। अगर वे बदल रही हों, तो समझना कि सत्य नहीं हैं। सिर्फ एक चीज नहीं बदलती है, वह आपका केंद्र है, वह आपकी चेतना है; वह कभी नहीं बदलती। आकाश में बादल घिरते हैं, वे बदल जाते हैं, आकाश नहीं बदलता जिसमें घिरते हैं। वह वही बना रहता है, बादल घिरें तो, बादल न घिरें तो; आएं तो, जाएं तो; वर्षा करें तो, न करें तो। वह जिस आकाश में बादल घिरे हैं, वह वही है। फूल खिल जाते हैं तो, फूल गिर जाते हैं तो; वृक्ष उठते हैं, विलीन हो जाते हैं; पृथ्वियां बनती हैं, नष्ट हो जाती हैं; संसार आते हैं, खो जाते हैं; वह जो आकाश उन्हें घेरे हुए है, वह वही है। सब बदल जाता है, सिर्फ यह फैलाव, स्पेस, यह शून्य है, महाशून्य, यह वही है। यह उदाहरण के लिए कह रहा हूं।
ठीक ऐसे ही चेतना के आकाश में बहुत कुछ आता है--स्वर्ग आते हैं, नरक आते हैं; जन्म आते हैं, मृत्युएं आती हैं। पशु बनते हैं आप, पक्षी बनते हैं आप, पौधे बनते हैं आप, पत्थर बनते हैं, देव बनते हैं, दानव बनते हैं, गृहस्थ बनते हैं, संन्यासी बनते हैं, बहुत-बहुत रूप आते हैं। सिर्फ वह भीतर की जो चेतना का आकाश है, वह भर खाली, वही का वही बना रहता है सदा। तो जब तक वहां न पहुंच जाएं, तब तक आपको परिवर्तन मिलता ही रहेगा। और जहां-जहां परिवर्तन है, वहां-वहां समझना कि स्वप्न है, असत्य है।
सावधान!
यह सावधानी इसलिए बरतनी है कि एक दिन इस परिवर्तन को छोड़ते-छोड़ते, इलिमिनेट करते-करते, निषेध करते-करते, वह जगह आ जाएगी, जहां अचानक आपको पता चलेगा अब यहां कोई परिवर्तन नहीं है। वही है सत्य। रात स्वप्न देखा, सुबह जाग कर पाया कि झूठ हो गया। सुबह जाग कर दुनिया देखी; सांझ फिर नींद आई, वह झूठ हो गई, फिर सपना सच हो गया। लेकिन दोनों हालत में सब चीजें बदल जाती हैं। वह जो जाग कर देखा, वह भी बदल जाता है; जो सोकर देखा, वह भी बदल जाता है। सिर्फ देखने वाला नहीं बदलता है। वह जिसने रात सपना देखा, वही सुबह जाग कर दुनिया देखता है, वही, वह नहीं बदलता। द्रष्टा नहीं बदलता है, होश नहीं बदलता है।
परिवर्तन है बाहर, शाश्वतता है भीतर। परिवर्तन है गाड़ी का चाक। और शाश्वतता है गाड़ी की कील, जिस पर चाक घूम रहा है। धीरे-धीरे इस चाक से हटते जाना, हटते जाना, हटते जाना, हटते जाना और केंद्र पर आ जाना, जहां कोई परिवर्तन नहीं है। जब तक इस अपरिवर्तित का पता न हो, तब तक हम स्वप्न में ही भटकते हैं। स्वप्न बहुत तरह के हो सकते हैं। भले आदमी के स्वप्न, बुरे आदमी के स्वप्न, पापी के, पुण्यात्मा के, महात्मा के, वे सब स्वप्न हैं। जब तक उसका पता न चल जाए, स्वप्न देखने वाले का, तब तक सावधान।
एक मित्र ने प्रश्न पूछा है:
भगवान, सक्रिय-ध्यान के प्रयोग में ‘हू’ महामंत्र का उपयोग हम करते हैं। इस्लाम के अनुयायी मानते हैं कि इस मंत्र का उपयोग करने से सब-कुछ फना, नष्ट हो जाता है। अतः वे लोग शहर में ‘हू’ की ध्वनि करने के पक्ष में नहीं हैं। इस संबंध में कुछ कहें।
बात तो सच है। यह मंत्र है तो फना के लिए ही, समाप्त हो जाने के लिए ही, मिट जाने के लिए ही। लेकिन यह मिट जाना और बड़े हो जाने का उपाय है। सूफियों ने इस मंत्र का प्रयोग किया है। यह अल्लाहू का आखिरी हिस्सा है। सूफी साधक अल्लाह से शुरू करता है। अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह की गूंज उठाता है। जैसे-जैसे यह गूंज सघन होती जाती है, अल्लाह का रूप अल्लाहू, अल्लाहू हो जाता है। अपने आप हो जाता है।
अगर आप जोर से, तेजी से भीतर चिल्लाएंगे अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह, तो धीरे-धीरे आप पाएंगे अल्लाहू, अल्लाहू, अल्लाहू होता जा रहा है। यह सब अपने आप हो जाता है, इसको करना नहीं पड़ता है। जब यह गूंज और तीव्र हो जाती है, और जब दो अल्लाहू के बीच जगह नहीं छोड़नी होती, जरा भी जगह नहीं छूटते, एक अल्लाहू पर दूसरा अल्लाहू चढ़ने लगता है, तब लाहू, लाहू, लाहू रह जाता है। और तीव्रता जब लानी होती है, और सघन करते हैं इसे, और कंडेंस्ड करते हैं, तो ‘ला’ भी छूट जाता है, और ‘हू’ रह जाता है। फिर ‘हू’ की ही हुंकार रह जाती है।
यह ‘हू’ मंत्र निश्चित ही फना के लिए है। इस मंत्र का साधक उपयोग करता है अपने को मिटाने के लिए, अपने को समाप्त करने के लिए। यह अपने ही हाथ अपनी मौत को निमंत्रण है--इस साधारण मौत का नहीं, जो इस शरीर की है। उस महामृत्यु का, जो कि अहंकार की और मन की है, जो कि मुझे बिलकुल मिटा देगी। क्योंकि यह जिसको हम मौत कहते हैं, यह बिलकुल नहीं मिटाती। सच तो यह है कि यह मिटाती ही नहीं। और भी सच यह है कि यह हमें मिटने से बचाती है। जब एक शरीर बिलकुल सड़-गल जाता है, अगर हम उसमें ही रहे आएं तो मिट जाएंगे; तो यह मौत हमें नया शरीर दे देती है। जैसे कि कोई आपके पुराने मकान को, गिरते खंडहर को देख कर कि कहीं इसमें मिट न जाओ, आपको निमंत्रण दे और कहे कि आओ, मेरे नये मकान में बस जाओ। तो मौत मिटाती नहीं, सिर्फ आपके खंडहर को हटाती है; और नया, ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा ताजा शरीर आपको दे देती है।
‘फना’ सूफियों का शब्द है, उसका मतलब है: वास्तविक मौत। वह वास्तविक मौत सच में ही आपको मिटाती है। वह जो भीतर ‘मैं’ का भाव है, उसे छिन्न-भिन्न कर देती है। इस ‘हू’ की ध्वनि में वह राज छिपा है, जो आपके ‘मैं’ के भाव को तोड़ता है।
‘मैं’ भी क्या है? क्योंकि बहुत लोगों को ऐसा लगता है कि ‘मैं’ को एक ध्वनि कैसे तोड़ेगी?
आपको पता नहीं, ‘मैं’ भी एक ध्वनि है।
‘मैं’ भी क्या है? एक ध्वनि है। उसके विपरीत ध्वनियां भी हैं, जिनका उपयोग किया जाए, तो वह विसर्जित हो जाएगी, टूट जाएगी, नष्ट हो जाएगी। हजारों साल की साधनाओं के बाद उन ध्वनियों को खोज लिया गया है, जो एंटीडोट हैं। ‘मैं’ एक स्वर है, ‘हू’ भी एक स्वर है। ‘हू’ का स्वर एंटीडोट है, विपरीत औषधि है। और इसलिए डर भी पैदा होता है कि मैं मिट जाऊंगा, तो घबड़ाहट भी पैदा होती है।
पर नगर में प्रयोग करने से डरने की कोई जरूरत नहीं है। डर पैदा होता है--डर पैदा होता है, लेकिन डरने की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि नगर में जो हैं, उन सभी को बिना फना हुए, बिना मिटे वास्तविक जीवन नहीं मिलेगा। लेकिन घबड़ाहट भी ठीक है; क्योंकि आदमी अपने को बचाना चाहता है, वह सोचता है कहीं कोई मिटने का उपाय न हो जाए। आपको खयाल न होगा, अगर एक आदमी को आप बीच में बिठाल लें और बारह आदमी चारों तरफ हाथ बांध कर जोर से ‘हू’ की हुंकार करना शुरू करें, तो वह आदमी कंपना शुरू हो जाएगा और घबड़ाना शुरू हो जाएगा; वह न भी करे, तो भी। ‘हू’ भीतर एक भय पैदा करता है।
एक बहुत मजेदार घटना घटी, भरोसे योग्य नहीं, इसलिए अब तक मैंने कही नहीं।
एक संन्यासी हैं, आनंद विजय। जबलपुर में नगर के बाहर एक एकांत स्थल पर उन्होंने अपने रहने की जगह बना ली, और वहां उन्होंने ‘हू’ का, इस महामंत्र का प्रगाढ़ता से प्रयोग शुरू किया। कभी ज्यादा मित्र भी इकट्ठे होकर करते, अकेले तो वे करते ही। दो-चार, जो उनका परिवार है, वे तो करते ही। वे बड़े जोर से बीमार पड़े। बीमारी में एक दिन उनकी हालत करीब-करीब सन्निपात जैसी हो गई। लेकिन जब इधर सन्निपात होता है, तो कभी-कभी उधर के द्वार खुल जाते हैं। कभी-कभी जब इधर से आदमी बिलकुल मरने के करीब पहुंच जाता है, तो कुछ चीजें उसे दिखाई पड़ने लगती हैं, जो जिंदा आदमी को कभी दिखाई नहीं पड़तीं। क्योंकि वह मौत के करीब सरक गया, जिंदगी से दूर हट जाता है। कोई एक सौ छह डिग्री उनको बुखार था और सन्निपात की हालत थी, तब उनको ऐसा लगा कि उनके कमरे में कई प्रेतात्माएं खड़ी हैं। और वे सब उनसे कह रही हैं कि तुम ठीक न हो सकोगे, जब तक तुम यह ‘हू’ का उच्चार, वह नगर के बाहर देवताल पर तुम जो ‘हू’ का उच्चार कर रहे हो; जब तक तुम बंद नहीं करोगे, तब तक तुम ठीक न हो सकोगे। हम सब आत्माएं हैं, जो यहां बहुत दिन से रह रही हैं और तुम्हारे ‘हू’ के उच्चार से हम बहुत भयभीत हो गई हैं। होश में आने पर उनको यह याद रहा। और उन्होंने मुझे पत्र लिखा और कहा कि मुझे भरोसा नहीं आता कि यह सच है। मेरी कोई कल्पना ही हो सकती है, कोई खयाल ही हो सकता है। बाकी फिर दो बार यह घटना और घटी। अब तो वे चेहरा भी पहचानने लगे। और वे सारी आत्माएं चाहती हैं कि तुम यहां से हट जाओ, क्योंकि हमारा आवास यहां बहुत दिन से है, और अगर तुम यहां ‘हू’ करते ही रहे, तो या तो हमको हटना पड़े या तुम यहां से हट जाओ।
यह कल्पना हो सकती है, लेकिन एक और कारण मिला है, जिससे लगा कि यह कल्पना नहीं है। आनंद विजय को भी चिंता थी कि यह कल्पना तो नहीं है, इसलिए उनकी निष्ठा भी साफ है। उनको भी भय है कि किसी को कहूं या न कहूं। क्योंकि यह बिलकुल स्वप्न हो सकता है। और उनको भी भरोसा नहीं आता कि कोई प्रेतात्माएं इस ‘हू’ के हुंकार से घबड़ा सकती हैं। सिर्फ जांच के लिए, उन्होंने एक प्रयोग किया। उसी समय, उसी के थोड़े दिन पहले लामा कर्मप्पा ने मेरे संबंध में कुछ कहा था, वह उन्होंने पढ़ा था। कर्मप्पा ने यह कहा था कि मेरा एक शरीर तिब्बत की एक गुफा में सुरक्षित है, पुराने जन्म का। वहां निन्यानबे शरीर सुरक्षित हैं, तो उसमें एक शरीर मेरा है, ऐसा कर्मप्पा ने कहा था।
तिब्बत में उन्होंने कोशिश की है कि इन हजारों वर्षों में जिन शरीरों में कुछ विशेष घटनाएं घटी हैं, उनको प्रयोग की तरह सुरक्षित रखा है। क्योंकि वैसी घटनाएं दुबारा नहीं घटतीं, और आसानी से नहीं घटतीं। और कभी-कभी लाखों साल बाद घटती हैं। जैसे किसी व्यक्ति का तीसरा नेत्र खुल गया और तीसरे नेत्र के खुलने के साथ ही उसकी हड्डी में छेद हो गया, जहां तीसरा नेत्र है। तो ऐसी घटना कभी लाखों साल में एक बार घटती है। वह जो तीसरा छेद है, तीसरी आंख तो कई लोगों की खुल जाती है, लेकिन वह छेद सभी को नहीं होता। कभी जब वह छेद हो जाता है, तो तीसरी आंख अपनी पूर्णता में खुलती है, तब वह छेद होता है। तो फिर वैसी खोपड़ी को वह सुरक्षित रख लेते हैं या वैसे शरीर को वे सुरक्षित रख लेते हैं।
जैसे किसी व्यक्ति की काम-ऊर्जा पूरी उठी और उसके मस्तिष्क को फाड़ कर ब्रह्मांड में लीन हो गई, तो वहां छेद हो जाता है। वह छेद कभी-कभी होता है। बहुत लोग विश्वात्मा में लीन होते हैं। लेकिन ऊर्जा इतनी धीमी-धीमी और इतने लंबे अंतराल में लीन होती है कि छेद नहीं होता, बूंद-बूंद रिस जाती है। कभी-कभी सडन, इतनी त्वरा से यह घटना घटती है कि पूरी ऊर्जा मस्तिष्क को फोड़ कर और लीन हो जाती है, तो छेद हो जाता है। तो उस शरीर को वे सुरक्षित रखते हैं। ऐसे उन्होंने अब तक मनुष्य-जाति के इतिहास में सबसे बड़ा महाप्रयोग किया है। निन्यानबे शरीर उन्होंने संरक्षित रखे हैं। तो कर्मप्पा ने कहा था कि एक मेरा शरीर भी उन निन्यानबे शरीर में सुरक्षित है।
यह आनंद विजय ने पढ़ा था। तो उन्होंने सोचा कि अगर यह सच है, यह मेरी अवस्था, जब मैं सन्निपात जैसी अवस्था में हो जाता हूं, मुझे खुद ही भरोसा नहीं आता कि मैं होश में हूं या पागल हूं--अगर यह सच है और अगर मैं इतने करीब पहुंच जाता हूं प्रेतात्माओं के, तो मैं जानना चाहूंगा कि वह कौन सा शरीर है, निन्यानबे में कौन सा शरीर मेरा है। तो मैं गिनती करूंगा, और अगर मुझे दिखाई पड़ जाए और वही निकले, तो मैं समझूंगा कि जो कुछ हो रहा है, वह सच है।
उन्होंने मुझे खबर की। मैंने कहा: प्रयोग करो। उन्होंने मुझे खबर की कि वह तीसरा शरीर है। एक-दो-तीन वह तो भूल भरा है। लेकिन फिर भी ठीक है। उन्होंने दूसरे छोर से गिनती की है। वह तीसरा शरीर नहीं है, वह सत्तानबेवां शरीर है, पर फिर भी सच है। निन्यानबे शरीर रखे हैं, उन्होंने शुरू से गिनती की। वह जहां से उन्होंने समझा कि प्रारंभ है, वह प्रारंभ नहीं है, अंत है। लेकिन तीसरा वे गिन पाए, यह बड़ी गहरी बात है। सत्तानबेवां है, लेकिन अगर उलटा गिना जाए, तो तीसरा हो सकता है।
तो मैंने उनको कहा कि तुम घबड़ाओ मत, जो हो रहा है, वह तो ठीक हो रहा है। तुम जारी रखो और एक घटना और घटेगी, उसकी प्रतीक्षा करना।
वह घटना भी घट गई। वे बीमार पड़ते चले गए और वे आत्माएं उनको बार-बार कहती चली गईं। और उनको मैंने कहा था: तुम स्पष्ट कह देना कि यहां से मैं हटने वाला नहीं हूं। यह ‘हू’ यहां जारी रहेगा, तुम्हें रुकना हो तो रुको, तुम्हें भी सम्मिलित होना हो तो सम्मिलित हो जाओ; भागना हो तो भाग जाओ, मैं यहां से हटने वाला नहीं हूं। जिस दिन उन्होंने यह संकल्प पूरा कर लिया, उस दिन दूसरी आत्माएं उन्हें दिखाई पड़ीं, और उन्होंने कहा कि तुम जारी ही रखो। हम भी उसी स्थान पर रहने वाली आत्माएं हैं, लेकिन हम भली आत्माएं हैं। और यह जो उपद्रवी आत्माएं हैं, जो तुम्हारे ‘हू’ से परेशान हैं, ये हट ही जाएं, तो हम पर भी बड़ी कृपा हो।
भरोसा न आएगा, उस जगत की बातें हैं। लेकिन ‘हू’ से तकलीफ हो सकती है। लेकिन जिन मित्रों को ऐसी तकलीफ होती हो, उनको समझाना कि परमात्मा के रास्ते पर फना होने के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है। अपने को मिटाना ही होगा--अगर चाहते हो, उसे पा लेना, जो फिर मिटता नहीं है।
मृत्यु ही अमृत का द्वार है।
सहज स्वीकार से जो मृत्यु को पकड़ लेता है, मृत्यु उसके लिए समाप्त हो जाती है।
जो अपने को बचाता है, वह खोता है और जो खोता है, वह सदा के लिए बचा लेता है।