BLAVATSKY
Samadhi Ke Sapat Dwar 09
Ninth Discourse from the series of 19 discourses - Samadhi Ke Sapat Dwar by Osho. These discourses were given in ANAND SHEELA during FEB 09-17 1973.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
मनुष्य में आलय अर्थात विश्वात्मा या परमात्मा के शुद्ध और उज्जवल सत्व को छोड़ कर सब-कुछ मृण्मय है। मनुष्य उसकी स्फटिक किरण है, प्रकाश की एक रेखा जो भीतर अपूर्व रूप से निर्दोष और निष्कलुष है--नीची भूमि पर एक मृतिका रूप। वही प्रकाश-रेखा तेरा जीवन-गुरु और तेरी सच्ची आत्मा है--द्रष्टा और मूक चिंतक। और तेरी निम्न आत्मा का शिकार आत्मा केवल भूल करने वाले शरीर में आहत होती है। इन दोनों पर नियंत्रण और स्वामित्व कायम कर और तू निकट जाते हुए संतुलन के द्वार के भीतर जाने में सुरक्षित है।
दूसरे तट को जाने वाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे। और अनंत आकाश में जो लुभाने वाली शक्तियां हैं, जो दुष्टभाव वाली आत्माएं हैं, जो द्वेषी ल्हामयी17 हैं, उनसे दूर ही रह।
दृढ़ बन। अब तू मध्य द्वार के निकट आ रहा है, जो क्लेश का भी द्वार है, जिसमें दस हजार नागपाश हैं।
ओ पूर्णता के साधक अपने विचारों का स्वामी बन, यदि तुझे इसकी देहली पार करनी है।
और यदि तुझे अपने गंतव्य पर पहुंचना है, तो अमृत सत्य के खोजी अपनी आत्मा का स्वामी बन।
उस एक शुद्ध प्रकाश पर अपनी आत्म-दृष्टि को एकाग्र कर, जो प्रकाश सभी प्रभावों से मुक्त है। और अपनी स्वर्ण-कुंजी का प्रयोग कर।
कठिन कर्म पूरा हो गया। तेरा श्रम पूर्ण हुआ। और वह विस्तृत पाताल जो तुझे निगलने को मुंह फैलाए था, लगभग पाट दिया गया है...।
मनुष्य को उसके केंद्र की तरफ से देखें, तो मनुष्य परमात्मा है। और मनुष्य को उसकी परिधि की तरफ से देखें, तो मनुष्य संसार है। बाहर से पकड़ें मनुष्य को, तो पदार्थ है; भीतर से चिन्मय ज्योति है।
मनुष्य दो का मिलन है--आकार का और निराकार का।
और यही मनुष्य की पीड़ा भी है; यही उसका आह्लाद भी है। मनुष्य की पीड़ा यही है कि वह एक नहीं, दो से निर्मित है, दो विपरीत तत्वों से। इसलिए उसके भीतर निरंतर तनाव है, खिंचाव है। पदार्थ खींचता है अपनी ओर, आत्मा खींचती है अपनी ओर। और मनुष्यता दोनों के बीच में फंस जाती है, जकड़ जाती है, उलझ जाती है।
अगर एक ही तत्व हो, तो कोई तनाव न हो। मरे हुए आदमी में फिर कोई तनाव नहीं होता; उसकी देह फिर शांत हो जाती है। समाधिस्थ आदमी में भी फिर कोई तनाव नहीं होता; आत्मा ही बचती है। मृतक देह पड़ी हो, तो शरीर बचा है, समाधिस्थ व्यक्ति पड़ा हो, तो उसके लिए भीतर अब आत्मा ही बची है, शरीर भूल गया है। जब तक दोनों हैं--और दोनों के बीच हम डांवाडोल हैं--तब तक चिंता, तनाव, संताप, बेचैनी है। और कहीं भी कोई किनारा लगता हुआ मालूम नहीं पड़ेगा। और दोनों ही खींचते हैं अपनी ओर। और स्वभावतः ठीक है खींचना। पदार्थ खींचता है नीचे की ओर; आत्मा उठ जाना चाहती है ऊपर की ओर।
ऐसा समझें कि जैसे एक मिट्टी का दीया हो और जलती हो एक ज्योति उसमें, तो मिट्टी का दीया तो जमीन का हिस्सा है, और ज्योति भागती रहती है सूर्य की ओर, ऊपर की ओर। कभी आपने अग्नि को नीचे की ओर भागते हुए देखा है? अग्नि भागती है ऊपर की ओर, वह सूर्य का हिस्सा है। मिट्टी का दीया नीचे पड़ा है जमीन से बंधा।
आदमी की देह मिट्टी की है। उसके भीतर का निवासी ज्योतिर्मय है। वह भीतर का निवासी ऊपर उठना चाहता है, और देह नीचे। और आदमी इन दोनों का जोड़ है। इसलिए आदमी जब तक आदमी है, बेचैन रहेगा। आदमी रहते हुए कोई समाधान नहीं है।
दो तरह से समाधान मिलता है। या तो आदमी राजी हो जाए, शरीर को पूरी तरह मान ले, ऊपर की यात्रा छोड़ दे। तो जो लोग बहुत निम्न जीवन जीते हैं, उनके बाहर कितना ही उपद्रव होता हो, दूसरे उन्हें कितनी ही तकलीफें खड़ी करते हों, भीतर एक अर्थों में वे शांत होते हैं। कारागृह में जाएं और अपराधियों की आंखों में देखें, साधु-गृहों में बैठे हुए साधुओं की आंखों से ज्यादा शांत अपराधियों की आंखें मिलेंगी। कारण है उसका, उन्होंने लड़ाई छोड़ दी और नीचे गिरने को तैयार हो गए। वह जो ऊपर का स्वर है, दबा डाला और नीचे के स्वर के साथ अपना पूरा तालमेल बिठा लिया। और या फिर उस व्यक्ति की आंखों में शांति मिलती है, जिसने नीचे को जीत लिया और ऊपर की यात्रा ही उसका समग्र जीवन बन गई।
एक के साथ शांति है; दो के साथ अशांति है।
और हम दो में हैं। आदमी का होना ही दो के बीच है। इस सूत्र को इस दृष्टि से समझने की कोशिश करें।
‘मनुष्य में आलय के शुद्ध और उज्जवल सत्व को छोड़ कर सब-कुछ मृण्मय है।’
‘आलय’ बुद्ध का बड़ा प्रिय शब्द है। आलय का अर्थ तो होता है घर। लेकिन बुद्ध बड़े विराट अर्थों में उसका प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं कि समस्त चेतना का एक घर है, एक आलय है, एक स्टोर हाउस है। इस सारे जगत में जितनी चेतनाएं हैं, वे सब इकट्ठे एक ही घर की किरणें हैं, एक ही सूर्य की किरणें हैं। और उन सबका एक केंद्र है, उस केंद्र का नाम आलय है।
मनुष्य में आलय अर्थात विश्वात्मा या परम सत्ता के शुद्ध और उज्जवल सत्व को छोड़ कर, उस आलय से आपको जो मिला है उसको छोड़ कर, शेष सब आपके भीतर मिट्टी है। उस आलय से जो किरण आपको उपलब्ध हुई है, वही भर मिट्टी नहीं है, बाकी सब मिट्टी है। और अगर आपको उस किरण का कोई पता न चले, तो आप अपनी मिट्टी की देह को ही अपना अस्तित्व समझते रहते हैं। और तब जीवन मिट्टी का उठना और मिट्टी का गिरना हो जाता है।
और उस किरण को खोजना अति कठिन इसलिए हो गया है--कि मिट्टी बहुत है और किरण बहुत सूक्ष्म और छोटी है। अनुपात मिट्टी का बहुत ज्यादा है। वह जो जीवन की किरण है, बड़ी मंदिम और बड़ी छोटी है। वह जो आपके भीतर आपकी आत्मा है, अति सूक्ष्म है। आपकी देह स्थूल है। जो स्थूल है, वह दिखाई पड़ता है, हर क्षण अनुभव में आता है। जो सूक्ष्म है, उसकी आवाज भी सुनाई नहीं पड़ती है। उसको सुनने के लिए भी कानों की तैयारी चाहिए। उसको सुनने के लिए बहुत ध्यानपूर्वक खोज करनी पड़ेगी। और जिस तरफ ध्यान जाता है, वही हमें सुनाई पड़ता है। आप मुझे सुन रहे हैं, तो आपको और कुछ भी सुनाई नहीं पड़ेगा। एक पक्षी अगर गुन-गुन कर रहा हो, तो सुनाई नहीं पड़ेगा। फिर अगर ध्यान दें, तो तत्क्षण सुनाई पड़ेगा।
कभी आपने खयाल किया हो, कमरे में बैठ कर आप किताब पढ़ रहे हैं, घड़ी दीवाल पर लगी है, उसकी टिक-टिक हो रही है, सुनाई नहीं पड़ती। फिर ध्यान दें, किताब बंद कर दें, तत्क्षण टिक-टिक सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। आप जब ध्यान नहीं दिए थे, तब घड़ी बंद नहीं थी। लेकिन जब ध्यान ही न दिया हो, तो टिक-टिक धीमी आवाज है, वह चोट नहीं करती है। कोई हथौड़ा पड़ रहा होता, तो शायद सुनाई पड़ जाता, बहुत स्थूल था। टिक-टिक बहुत सूक्ष्म है। ध्यान देंगे बारीकी से तो सुनाई पड़ेगी; नहीं तो नहीं सुनाई पड़ेगी, आप अपने काम में लगे रहेंगे। जिस तरफ हम ध्यान को मोड़ते हैं, उसी तरफ का आयाम सुनाई पड़ता है, दिखाई पड़ता है। उसके प्रति हम संवेदनशील हो जाते हैं। लेकिन घड़ी की टिक-टिक भी बहुत स्थूल है। आपको अपने हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है? हो रही है, लेकिन अगर बिलकुल शांत बैठ कर ध्यान दें, तो सुनाई पड़ने लगेगी।
अपने हृदय की धड़कन भी स्थूल है; वह भी कोई सूक्ष्म नहीं है। वह जो भीतर आत्मा की किरण है, वह तो अति सूक्ष्म है। किरण की तो चोट भी क्या होती है। और आप इतने व्यर्थ के शोरगुल में उलझे हैं, और इतनी स्थूल आवाजें आपके चारों तरफ हैं कि जब तक इस सबसे ध्यान खींच न लिया जाए, और मौन भीतर बैठ न जाया जाए, तब तक शायद वह जो भीतर की किरण है, उसकी कोई प्रतीति नहीं होगी।
इसलिए आत्मा की हम बातें करते रहते हैं, लेकिन आत्मा का हमें कोई पता नहीं चलता। और हम जानते यही हैं कि शरीर ही है और मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। डर लगता है मिटने से, भय होता है, तो मानने का मन होता है कि आत्मा हो। ऐसा हम चाहते हैं कि आत्मा हो और हम न मरें। लेकिन चाह का सवाल नहीं है। जिसका हमें पता ही नहीं है, वह हो भी, तो उसके होने से क्या फर्क पड़ता है? और जिसका हमें पता है, वह न भी हो, तो भी मुसीबत तो उससे होगी ही।
ज्ञान ही अस्तित्व है।
जिसका हमें पता नहीं, वह न के बराबर है। होगा या नहीं होगा, क्या फर्क पड़ता है? और जिसका हमें ज्ञान है, वह है; न भी हो, तो भी हमारे जीवन को प्रभावित करेगा। एक स्वप्न को भी आप सत्य मान लें, तो आपका जीवन उससे प्रभावित हो जाएगा। और आप इस सारे जीवन को भी स्वप्न मान लें, तो आप इससे अप्रभावित हो जाएंगे।
आपकी मान्यता में आपका अस्तित्व है, और जैसा आप मान लेते हैं, हो जाता है।
यह जो भीतर किरण है, यह इतनी सूक्ष्म है कि जब तक स्थूल से हमारा ध्यान संपूर्ण रूप से न हटे, तब तक यह सुनाई न पड़ेगी। इसे सुनने के कई उपाय हो सकते हैं; कई उपाय हैं। मेरी दृष्टि में जो उपाय सर्वाधिक उपयोगी हो सकता है, वह यह है कि पहले आप अपने आस-पास पूरा तूफान उठा लें। इसलिए ध्यान के जो प्रयोग मैं आपको करवा रहा हूं, वे सब तूफानी हैं। पूरा तूफान उठा लें, जितना शोरगुल हो सकता हो, खड़ा कर लें। स्थूल की जितनी आवाजें हो सकती हैं, सब हो जाने दें। बाहर कुछ भी शांत न रह जाए, सभी कुछ उपद्रव हो जाए, विक्षिप्तता चारों तरफ खड़ी हो जाए, तब अचानक रुक जाएं कंट्रास्ट में, इस तूफान की पृष्ठभूमि में शायद क्षण भर को आपको शांति की किरण दिखाई पड़ जाए। विपरीत में देखना आसान होता है। लेकिन तब विपरीत को अति तक ले जाना जरूरी है।
जो लोग विश्राम की कला के संबंध में खोज करते हैं, आर्ट ऑफ रिलैक्जेशन के संबंध में, उन्होंने एक मौलिक सूत्र खोजा है, यह अति वैज्ञानिक है। अगर कोई आपसे कहे कि शरीर को शिथिल छोड़ दो, विश्राम में छोड़ दो, आप क्या करोगे? कैसे छोड़ दोगे? ऐसे लेट जाने का नाम विश्राम नहीं है। विश्राम एक बड़ी ही अनूठी अवस्था है, जिसका आपको पता ही नहीं। आप जागना जानते हैं, जो कि श्रम है; आप सोना जानते हैं, जो कि थकना है। विश्राम का आपको पता नहीं है। जागना श्रम है, सोना थक जाना है। इसलिए मजदूर गहरा सो लेता है। इसलिए नहीं कि उसको गहरा विश्राम पता है; इसलिए कि वह गहरा थक जाता है। अमीर नहीं सो पाता; क्योंकि वह थक नहीं पाता। हमारी नींद थकान है, सिर्फ ध्यानी की नींद विश्राम होती है। हम जितने थक जाते हैं, उतनी नींद में गिर जाते हैं। शरीर जबाब दे देता है, अब और श्रम नहीं किया जा सकता है, शरीर गिर जाता है।
थकान और श्रम के बीच में, मध्य में एक बिंदु है, जो विश्राम है।
लेकिन हम विश्राम में जाएं कैसे? हम दो में घूम सकते हैं--श्रम कर सकते हैं, थक सकते हैं। बीच में एक जगह है और उसका कैसे पता करें? कब विश्राम का क्षण है?
तो विश्राम की कला कहती है कि पहले लेट जाओ और सारे शरीर को जितना तान सको, तनाव से भर सको, भरो। जैसे यह हाथ है मेरा, इसको अगर मुझे विश्राम में ले जाना है, तो पहले मैं इसको खींचूं इसकी नस-नस को, इसको इतना तनाव से भर दूं कि इससे आगे तनाव में जाने का कोई उपाय न रहे। जितना मैं खींच सकूं इस हाथ को, जितना तान सकूं इसका रोआं-रोआं, इसकी चमड़ी का टुकड़ा-टुकड़ा, इसके भीतर की नस, मांस, मज्जा, खून, सब खिंच जाए। और मैं उस जगह आ जाऊं, जब मैं समझ रहा हूं कि अब इससे आगे और तनाव पैदा नहीं किया जा सकता, तब इसे एकदम से ढीला छोड़ दूं। वे जो तनी हुई थीं मांस-पेशियां, एकदम शिथिल हो जाएंगी और उनका क्रमशः शिथिल होना आप अनुभव कर सकते हैं। अगर ध्यानपूर्वक हाथ को अनुभव करें, तो आप पाएंगे कि सीढ़ी-सीढ़ी हाथ विश्राम में जा रहा है, और तब एक जगह आकर हाथ रुक जाएगा, जिससे नीचे नहीं जाया जा सकता। वह विश्राम का क्षण होगा। और इस विश्राम को जानना हो, तो तनाव की पृष्ठभूमि बनानी पड़ती है।
ठीक वही सूत्र ध्यान के लिए है कि पहले आपके भीतर जितना तूफान का मन है, पूरा उठा लें। जितना करना, क्रिया, पूरा उठा लें। कुछ रत्ती भर भी छोड़ें न, जो भी हो सकता है आपके भीतर पागलपन, सारा निकाल लें। तूफान हो जाएं, एक बवंडर, एक आंधी और तब एकदम से ठहर जाएं तत्क्षण; सीढ़ी-सीढ़ी, एक-एक कदम उस जगह आ जाएंगे, जहां आप पाएंगे कि अब विश्राम है।
उस विश्राम के क्षण में ही कभी आपको भीतर की किरण का पहली दफा स्पर्श होगा। नहीं कहा जा सकता, कब होगा। यह अति सूक्ष्म है, इसलिए बहुत मोटे नियम काम नहीं आते। लेकिन होगा। हुआ है, बहुतों को हुआ है, आपको भी होगा। लेकिन होगा उस दिन, जिस दिन तालमेल बैठ जाएगा। आपका तूफान बिलकुल शांत होगा, और केंद्र बिलकुल शांति में खड़ा होगा। अचानक किरण छू जाएगी, आप पहली दफा आत्मा हो जाएंगे। थे सदा से, लेकिन जिसका पता ही नहीं है, उसके होने का क्या मतलब है! और जिस क्षण वह किरण, जो सदा से मौजूद है, आपको दिखाई पड़ेगी और अनुभव में आ जाएगी, उस दिन ही देह मिट गई। नहीं कि आप मर जाएंगे; देह चलेगी, उठेगी, सोएगी, पर अब आप देह नहीं हैं। आपका तादात्म्य बदल गया है।
कल तक देह से लगता था ‘मैं’ हूं, आज वह बात खो गई। आज देह के भीतर जो किरण है छिपी हुई रहस्य की, वही आप हो गए। अब यह देह रहे चाहे--इसकी जरूरत है, इसका उपयोग है, इसकी आवश्यकताएं हैं, वे भी पूरी करेंगे। लेकिन अब इस देह का उपयोग एक घर से ज्यादा नहीं रहा। और यह घर भी एक विश्रामालय है, जहां थोड़ी देर को हैं। और असली घर तो अब वह हो गया, जहां से किरण आई। और जहां किरण वापस जाए, तो ही, अपने मूल-स्रोत में, उदगम में लौट जाए, तो ही हमें जीवन के मूल आधार और परम रहस्य का अनुभव हो सकेगा।
इसलिए बुद्ध ने उसको आलय कहा है, उसको असली घर कहा है, जहां लौटेगी मूल-स्रोत, मूल उदगम में, जैसे गंगा गंगोत्री में लौट जाए। ऐसे जिस दिन आपकी किरण के सहारे को पकड़ कर आप उस महासूर्य में पहुंच जाएंगे, जहां से इस किरण का आना हुआ था, जैसे कोई भटका हुआ यात्री अनेक-अनेक वर्षों की भटकन के बाद अचानक अपने घर में आ जाए, तो जैसा आह्लाद से नाच उठे, फिर वैसा ही नृत्य आपके जीवन में प्रकट होने लगेगा। आपको अपना असली घर मिल गया। परमात्मा असली घर है, और हम उसकी भटकी हुई किरणें हैं। पर हम वही हैं--कितने ही भटक जाएं! और किरण सूर्य से कितनी ही दूर चली जाए, सूर्य ही है।
यह सूत्र कहता है: ‘मनुष्य में आलय के शुद्ध और उज्जवल सत्व को छोड़ कर सब-कुछ मृण्मय है, सब-कुछ मिट्टी है। मनुष्य उसकी ही स्फटिक किरण है, प्रकाश की एक रेखा जो भीतर अपूर्व रूप से निर्दोष और निष्कलुष है--नीची भूमि पर मिट्टी का एक रूप।’
लेकिन अपने स्वभाव में अपूर्व रूप से निर्दोष, निष्कलुष!
किरण की कुछ खूबियां हैं। एक खूबी तो प्रकाश की किरण की यह है कि उसे आप गंदा नहीं कर सकते। उसे गंदा करने का कोई भी उपाय नहीं है। कभी आपने खयाल किया, एक स्वच्छ सरोवर में, निर्मल सरोवर में सूर्य का प्रतिबिंब बनता है। सूर्य की किरणें निर्मल सरोवर की छाती पर नाचती हैं, लहर-लहर सोना हो जाती है। वही सूर्य एक गंदी तलैया में भी नाचता है। गंदी तलैया में बास, गंदगी है, कीचड़-कबाड़ है, कचरा है, पास जाने का मन न हो, इतना कुरूप है; सब गंदा है। सूरज की किरण उस पर भी नाचती है, उस गंदी तलैया में। क्या आप सोचते हैं कि शुद्ध सरोवर पर नाचती किरण शुद्ध और गंदी तलैया पर नाचती किरण अशुद्ध हो जाती होगी? क्या किरण में गंदगी प्रवेश कर सकती है? क्या गंदी तलैया किरण को गंदा कर पाती होगी? क्या गंदी तलैया में स्वर्ण-सूर्य का जो प्रतिबिंब बनता है, वह गंदा हो जाता होगा?
प्रकाश का स्वभाव है निर्दोष होना; उसे अशुद्ध नहीं किया जा सकता। आपके भीतर भी वह जो परम प्रकाश की किरण है, वह निष्कलुष और निर्दोष है, चाहे कितने ही किए हों पाप, तो भी। और चाहे कितनी ही गंदगी इकट्ठी की हो जन्मों-जन्मों में, वह सब मिट्टी के साथ ही जुड़ी है, तलैया के साथ--उस प्रकाश की किरण पर उसका जरा भी कोई प्रभाव नहीं है। वह तो शुद्ध ही है, शुद्ध होना उसका स्वभाव है।
इसे ठीक से समझ लें।
कुछ चीजें हैं जो शुद्ध हो सकती हैं, अशुद्ध हो सकती हैं। उनका स्वभाव नहीं है शुद्ध होना। आप पानी को गंदा कर सकते हैं, शुद्ध कर सकते हैं। शुद्ध होना उसका स्वभाव नहीं है। वह शुद्ध भी हो सकता है, अशुद्ध भी हो सकता है। उसमें परिवर्तन संभव है।
प्रकाश को आप गंदा नहीं कर सकते हैं। शुद्ध होना उसका स्वभाव है, अशुद्ध होने का कोई उपाय नहीं है।
अशुद्ध आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। शुद्ध होना आत्मा का स्वभाव है, शुद्धि ही आत्मा है। तो एक तो यह बात खयाल में ले लें कि आपने कुछ भी किया हो, कुछ भी हुआ हो, आत्मा अशुद्ध नहीं हो गई है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आप कुछ भी करते चले जाएं। इसका मतलब ऐसा लिया गया है।
इसलिए हमारे इस देश में जहां कि आत्मा की इतनी चर्चा है, आदमी इतना गंदा है। उन देशों से भी ज्यादा गंदा है, जिन देशों में आत्मा की इतनी चर्चा नहीं है। उन देशों से भी ज्यादा गंदा है, जहां कि आत्मा का कोई विश्वास ही नहीं है।
अजीब बात मालूम पड़ती है। और जब पश्चिम के लोग भारत की किताबों से प्रभावित होकर भारत आते हैं, तो भारत का आदमी उनके सारे प्रभाव को पोंछ डालता है। वहां से आते हैं सोच कर कि ऋषि-मुनियों के देश में जा रहे हैं और यहां से लौटते हैं सारी आशा खोकर। क्योंकि यहां जिस आदमी से मिलना होता है, उसका ऋषि-मुनि से कोई लेना-देना नहीं है।
यहां जो आदमी है, यह इतना अपवित्र कैसे हो गया है? और इतना क्षुद्र, इतना अशुद्ध! क्या है इसका कारण?
इसका कारण यह महान सूत्र है। यह हैरानी की बात लगेगी कि मैं कहता हूं कि इसका कारण यह महान सूत्र है। महान सूत्र नहीं, हमारे हाथों में तो कुछ भी पड़ जाए, हम उसमें से जो गलत है, वह निकाल लेंगे। इस मुल्क को इस बात का सूत्र बुद्ध ने दिया, महावीर ने दिया, कृष्ण ने दिया कि तुम निष्कलुष हो, तुम पवित्र हो और शुद्ध होना तुम्हारा आत्यंतिक स्वभाव है। कोई उपाय नहीं है तुम्हारे अशुद्ध होने का। हमने कहा, तब बिलकुल ठीक है। यह कहा था इसलिए कि तुम आशा से भरो। यह कहा था इसलिए कि तुम इस आशा की किरण को पकड़ कर उस शुद्ध स्वभाव की यात्रा करो। हमने कहा, तब बिलकुल ठीक है। अगर स्वभाव शुद्ध ही है, तो फिर पाप कर लेने में हर्ज क्या है?
इसे हमने कोई जान कर ऐसा सोचा हो, ऐसा नहीं है। यह हमारे अचेतन मन ने ग्रहण किया है। हम पाप करने में सरल हो गए। जब अशुद्ध होता ही नहीं है, तो फिर अशुद्धि का डर क्या रखना। और जब शुद्ध हैं ही तो फिर यह पाप करने की सुविधा मिली है, यह क्यों खोना! यह अचेतन में बैठ गई बात। तो यह मुल्क आत्मा का परम ज्ञान लेकर भी मनुष्य की दृष्टि से बहुत हीन और दीन हो गया।
इस सूत्र का यह मतलब आप मत लेना कि आप शुद्ध हैं ही, इसलिए बात समाप्त हो गई। इस सूत्र से आप इतना ही मतलब लेना कि आपके भीतर जो अज्ञात किरण है, जो कि आप नहीं हो। आप तो जो हो, वह अशुद्ध है ही। आप तो गंदी तलैया हो। और उस किरण का आपको कोई भी पता नहीं है, जिसकी इस सूत्र में चर्चा है। उपनिषद जिसका गीत गाते हैं, गीता जिसका गुणगान करती है, वह आत्मा की किरण आप अभी नहीं हो। आप हो सकते हो, लेकिन होने की एक शर्त यह है कि यह गंदी तलैया से आपका तादात्म्य छूटे। अगर यह गंदी तलैया बढ़ती चली जाती है, तो तादात्म्य का छूटना मुश्किल है, वह और बढ़ता चला जाता है। अगर इसे मैं ऐसा कहूं कि आप जैसे हो, गंदे ही हो; और आप जैसे हो सकते हो, और जो आपकी आत्यंतिक नियति है, वह सदा शुद्ध है, तो ठीक होगा। तब हमें दो बिंदु मिल जाएंगे। जैसा मैं हूं, वह गंदा हूं, लेकिन जैसी मेरी नियति है, मेरी आत्यंतिक गहरी मेरी प्रकृति है, वह अशुद्ध नहीं है।
तो जो मैं अभी दिखाई पड़ रहा हूं, उसे मुझे छोड़ना है। और जो अभी मैं हूं और दिखाई नहीं पड़ रहा हूं, उसे मुझे पाना है। नहीं तो इस देश में ऐसा हुआ है, साधु, संन्यासी, ज्ञानी समझाते रहते हैं। चोर, पापी, बेईमान, कालाबाजारी, वे सब बैठ कर सुनते हैं, और वे मन में कहते हैं कि बिलकुल ठीक है महाराज। कहां अशुद्ध! आत्मा बिलकुल शुद्ध है।
मैं एक संन्यासी को जानता हूं। जो भारत में थोड़े से कुछ महाज्ञानी हुए उनमें एक हुए, कुंदकुंद। वह उन कुंदकुंद के शास्त्रों पर प्रवचन करते हैं। वह एक संन्यासी हैं। उनका प्रवचन सुनने जो लोग इकट्ठे होते हैं, उनके चेहरे ही बता सकते हैं कि इनका कुंदकुंद से कोई लेना-देना नहीं है। सब चोरों की जमात--अच्छे चोरों की, क्योंकि बुरे चोर तो जेलों में पड़े हैं, उनको तो अवसर नहीं हैं। अच्छे चोरों की जमात इकट्ठी हो जाती है। वे काफी दान-दक्षिणा करते हैं, मंदिर बनाते हैं, आश्रम खुलवाते हैं, तीर्थयात्रा होती है। मुझसे उनका एक भक्त पूछ रहा था कि इतने धनपति सब क्यों यहां कुंदकुंद को सुनने आते हैं? कुंदकुंद में इनका क्या रस हो सकता है?
तो मैंने उनको कहा: कुंदकुंद में एक ही रस है, क्योंकि कुंदकुंद की घोषणा है कि तुम सदा शुद्ध हो, तुम अशुद्ध हो ही नहीं सकते। ये सब चोर इकट्ठे होकर सुन कर बड़े आश्वस्त होते हैं, सदा शुद्ध हैं, बिलकुल ठीक है। तो वे सौ रुपये की चोरी करते हैं, उसमें से दस रुपया दान-पुण्य भी करते हैं कि कुंदकुंद ठीक कहा तुमने, तुम्हारी वाणी से हम आश्वस्त हुए। नाहक परेशान हुए जा रहे थे, चिंता में पड़ते थे, पीड़ा झेलते थे, मन में ग्लानि होती थी। तुमने सब पोंछ डाली, सब धो डाली। वह जो सौ की चोरी की है, उसमें से दस प्रतिशत दान कर देते हैं। और दस प्रतिशत दान करके, फिर सौ की चोरी करने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्योंकि अब कोई डर भी न रहा, अब कोई चिंता नहीं है, कुंदकुंद पर भरोसा पक्का है। और कुंदकुंद ठीक कहते हैं। और ये चोर बिलकुल गलत समझ लेते हैं। पर कठिनाई है, कुंदकुंद कुछ भी कहें, इससे क्या होता है? वह जो समझने वाला आदमी है, वह क्या समझेगा, अंतिम परिणाम तो उससे होने वाला है।
यह सूत्र, इसलिए मैं कहता हूं, थोड़ा सावधानीपूर्वक समझना। इसका यह मतलब नहीं है कि आप ठीक हैं बिलकुल। आप तो बिलकुल गलत हैं। और जो ठीक है आपके भीतर, उसका तो आपको कोई पता ही नहीं है। इसलिए उसको मैं कहूं कि आप हैं, तो ठीक न होगा। ऐसा उचित होगा कहना कि आप जब बिलकुल मिट जाएंगे, तभी आपको उसका पता चलेगा, जो सदा शुद्ध है। यह जो गंदी तलैया है, जब तिरोहित हो जाएगी, तब वह किरण शुद्ध होगी। वह शुद्ध है। लेकिन इस गंदी तलैया से जुड़ कर वह तो खो ही गई है, तलैया ही रह गई है।
‘वही प्रकाश-रेखा तेरा जीवन-गुरु और तेरी सच्ची आत्मा है--द्रष्टा और मूक चिंतक।’
गुरु की तलाश आदमी करता है, स्वभावतः बाहर खोजता है। क्योंकि हम खोजते ही बाहर हैं। कुछ भी खोजना हो तो बाहर खोजते हैं। धन खोजना हो तो बाहर खोजते हैं, धर्म खोजना हो तो बाहर खोजते हैं। गुरु भी खोजना हो तो बाहर खोजते हैं। खोज ही हमारी बाहर है। आंखें ही हमारी बाहर दौड़ती हैं, हाथ हमारे बाहर फैलते हैं, पैर हमारे बाहर भागते हैं। भीतर का हमें कुछ पता नहीं है। गुरु को भी हम बाहर खोजते हैं। कोई उपाय भी नहीं, क्योंकि भीतर का भी कौन हमें कहे।
और गुरु भीतर है। यह जीवन की जो किरण है--यही तेरा जीवन, यही तेरा गुरु है। क्योंकि इस किरण का तुझे पता चल जाए, तो रास्ता मिल गया। इसी किरण के रास्ते पर तू चलता जाए, तो तू महासूर्य तक पहुंच जाएगा। इस किरण का स्मरण आ जाए, तो हम सूर्य के हो गए। यह जीवन-किरण है तेरी गुरु, तेरी सच्ची आत्मा। लेकिन गुरु को हमें बाहर खोजना पड़ता है; क्योंकि हम सभी कुछ बाहर ही खोजते हैं। जीवन की जटिलताओं में एक जटिलता यह भी है कि गुरु भीतर है और हमें बाहर खोजना पड़ता है। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि तब फिर गुरु न खोजा जाए, तो फिर गुरु की कोई जरूरत नहीं?
एक मित्र ने सवाल पूछा है कि कृष्णमूर्ति कहते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन अगर कृष्णमूर्ति की यह बात मान ली, तो कृष्णमूर्ति तुम्हारे तो कम से कम गुरु हो ही गए। कृष्णमूर्ति कहते हैं यह, तुम नहीं कहते हो। और कृष्णमूर्ति को तुम मान लो, तो और गुरु होने में होता क्या है? बचता क्या है?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम किसी को गुरु नहीं बना सकते हैं, क्योंकि हम तो कृष्णमूर्ति को मानते हैं। तो गुरु तो बना लिया, गुरु बनाने का और अर्थ क्या होता है? किसी को माना, क्योंकि अपने पर भरोसा नहीं है, इसलिए किसी का सहारा लिया, इतना ही गुरु का अर्थ होता है। जिस दिन अपना ही भरोसा आ जाता है, उस दिन तो गुरु की कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन अभी वह भरोसा नहीं है। तो फिर बाहर गुरु की खोज का क्या अर्थ है?
एक तो यह बात है, जो कृष्णमूर्ति कहते हैं कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। वे बिलकुल ठीक
कहते हैं; क्योंकि जीवन-गुरु भीतर है। लेकिन वे भी लोगों को समझा रहे हैं कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। इस अर्थ में तो गुरु हो जाते हैं, शिक्षक हो जाते हैं। और वे कितना ही कहें कि मैं कोई शिक्षा नहीं देता--फिर क्या देते हैं? और वे कितना ही कहें कि मुझसे कुछ ग्रहण मत कर लेना, लेकिन वे जो सुनने आते हैं, वे ग्रहण करके जाते हैं। वह जो सुनने आया है, ग्रहण करने ही आया है। वह शिष्य है, इसीलिए आया है। उसे गुरु की तलाश है, और वह चाहता है कि कोई उसे बता दे रास्ता, जो उसे पता नहीं है। और यह सच है गहरे अर्थों में कि गुरु भीतर है, कोई दूसरा क्या रास्ता बताएगा, उसी से रास्ता मिलेगा। लेकिन आदमी क्या करे, वह कहां जाए? उसे खुद नहीं मिल रहा है, यह साफ है। और खुद मिलता होता, तो कभी का मिल गया होता।
आज ही एक व्यक्ति ने मुझे आकर कहा कि अनेक ज्ञानी जब कहते हैं कि गुरु की कोई जरूरत नहीं और गुरु भीतर है, तो फिर हम क्यों किसी को गुरु मानें? तो मैंने उनको कहा कि अब तक बिना गुरु के तुम रहे हो, मिल गया? अगर मिल गया तो बात खत्म हो गई। और नहीं मिला बिना गुरु के, तो अब तुम करोगे क्या? मिलना होता तो मिल गया होता। अब तुम करोगे क्या? और तुम मेरे पास क्यों आए हो?
आदमी की उलझन बड़ी है। वह आदमी मुझसे कहने लगा: मैं इसलिए आया हूं यही पूछने आपसे कि मेरा यह मानना ठीक तो है न कि बिना गुरु के चल जाएगा? कि अगर मैं गुरु न बनाऊं, तो कोई अड़चन तो नहीं आएगी? गुरु बनाना हो, तो किसी से पूछने जाना पड़ता है? न बनाना हो, तो भी किसी से पूछने जाना पड़ता है? गुरु से बचने का उपाय नहीं दिखता है।
कोई गुरु के पक्ष में है, तो उसके शिष्य बन जाते हैं लोग। कोई गुरु के विपक्ष में है, तो उसके शिष्य बन जाते हैं लोग। जो गुरु के पक्ष में है, वह समझाता है गुरु बिना ज्ञान नहीं होगा। वह भी समझाता है, जो गुरु के विपक्ष में है। वह भी कहता है गुरु भर मत बनाना, नहीं तो ज्ञान नहीं होगा। वह भी समझाता है।
मेरी दृष्टि है कि आप गुरु से बच नहीं सकते। भीतर का गुरु है, उसका आपको पता नहीं है। आपको बाहर गुरु पकड़ना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा। लेकिन बाहर का गुरु सिर्फ एक काम कर सकता है। वह गुरु नहीं हो सकता, लेकिन बाहर के गुरु के निकट रह कर शांत होकर उसकी सन्निधि में, उसकी मौजूदगी में, उसके उठने-बैठने में, उसकी वाणी में, उसके मौन में, उसकी आंखों में, उसके हाथों में, उसके जीवन की जो धारा बह रही है आपके पास, उसमें किसी दिन आपको उसकी प्रतिध्वनि मिल सकती है, जो आपके भीतर है--झलक। क्योंकि गुरु का अर्थ ही है: वह व्यक्ति जिसने अपने भीतर के गुरु को पा लिया। और कोई अर्थ नहीं है।
जिसने जीवन-गुरु को पा लिया, वह व्यक्ति गुरु हो गया। वह अपना तो गुरु हो ही गया, लेकिन अब वह आपके लिए भी झलक का काम बन सकता है, दर्पण बन सकता है। उसकी कोई किरण आपको भी चोट कर सकती है। उसकी वीणा के स्वर नाचने लगे हैं। उसकी नाच की धुन आपके भीतर भी प्रवेश कर जाए, तो आपकी वीणा भी झंकृत हो सकती है।
वीणावादक कहते हैं कि अगर एक शांत कमरे में एक वीणा रखी जाए, शांत मौन एक कोने में और दूसरे कोने में आहिस्ता से दूसरी वीणा के स्वर झंकृत किए जाएं और फिर झंकार बढ़ती ही जाए, तो एक घड़ी आती है कि वह जो शांत मौन रखी वीणा है, उसके तार कंपित होने लगते हैं। यह जो झंकार कमरे में गूंजती है, यह झंकार उस वीणा को भी पकड़ लेती है, उसके तार भी आहिस्ता से कंपने लगते हैं। ऐसा ही कंपन गुरु के पास आपके भीतर के गुरु में हो जाता है। इसलिए गुरु के प्रति समर्पण का इतना मूल्य है। क्योंकि समर्पण न हो तो आप अकड़े खड़े हैं। वीणा के तार ढीले छोड़ ही नहीं रहे हैं कि वे कंप सकें। समर्पण हो तो यह कंपन हो सकता है। समर्पण हो, तो आप खुल गए, आपका झरोखा खुला है।
और समान समान को आंदोलित करता है, समान समान को प्रभावित करता है। समान से समान गतिमान हो जाता है। अगर बाहर कोई गुरु है, वह आपका गुरु नहीं है असल में, आपका गुरु आपके भीतर छिपा है। लेकिन वह जो भीतर छिपा है, उसमें कोई प्रतिध्वनि तो हो, कोई हलन-चलन हो, कोई चोट पड़े, कोई झंकार हो। यह बाहर का गुरु अपने अस्तित्व से, अपने होने के ढंग से ही आपके भीतर के गुरु के लिए पुकार, आवाहन बन जाता है, एक चुंबक बन जाता है। और फिर आपको पहचान भी इसके पास आनी शुरू हो जाती है कि अगर किसी दिन भीतर का गुरु मिलेगा, तो कैसा होगा।
विवेकानंद निरंतर एक कहानी कहा करते थे कि एक मादा सिंहनी छलांग लगाती थी एक पहाड़ से। गर्भिणी थी, और छलांग लगाते हुए उसको बच्चा हो गया। और नीचे भेड़ों का एक झुंड गुजरता था, बच्चा भेड़ों के झुंड में गिर गया। फिर भेड़ों ने उसे बड़ा कर लिया। और उस शेर के बच्चे ने सदा यही जाना, सिंह के बच्चे ने कि वह भेड़ है। और कोई जानने का उपाय भी न था। क्योंकि जिनके पास हम होते हैं, हम जानते हैं कि हम उन्हीं जैसे हैं। मां--दूध पिलाने वाली मां भेड़ थी, संगी-साथी भेड़ थे। सिंह को पता भी कैसे चले कि मैं भेड़ नहीं हूं?
वह भेड़ों जैसी आवाज करना सीख गया, भेड़ों ही जैसा भागता था। थोड़ी बेचैनी तो उसे होती थी, क्योंकि वह भेड़ों से बहुत बड़ा हो गया। लेकिन तब यही समझा गया कि थोड़ी एबनार्मल, असाधारण भेड़ है। भेड़ें भी उसको भेड़ ही समझती थीं; क्योंकि उन्हीं जैसी आवाज करता, उन्हीं के साथ बड़ा हुआ, उन्हीं के साथ खेला-कूदा; सिंह जैसा कोई लक्षण उसमें उनको दिखाई भी नहीं पड़ा। न हमला करता था, न काटता था, न खाता था। भेड़ें जो खाती थीं, वही खाता था। भेड़ें जो बोलती थीं, वही बोलता था। भेड़ होना उसका जीवन था। थोड़ा एबनार्मल था, थोड़ा असाधारण था। थोड़ी लंबाई ज्यादा थी, शरीर जरा बड़ा था, रंग-रूप थोड़ा भिन्न था। तो असाधारण बच्चे तो सभी जातियों में पैदा हो जाते हैं। भेड़ों में भी हो जाते हैं। असाधारण होने की वजह से उसे थोड़ी परेशानी भी होती थी, वह अपने को दीन-हीन भी समझता था। आप भी अगर पांच फीट लंबे लोगों में दस फीट के हो जाएं, तो आप कमर झुका कर और डरे-डरे चलेंगे। क्योंकि आप बीमार हैं।
मैं जिस विश्वविद्यालय में था, मेरे एक प्रोफेसर को बीमारी हो गई थी। सारे लोग कहते थे, बीमारी है; वे भी बेचारे कहते थे, बीमारी है। वे नौ फीट होते जा रहे थे, धीरे-धीरे लंबे होते जा रहे थे। बड़े परेशान रहते थे, सो नहीं सकते थे--चिंता, इलाज। मैंने उनको पूछा कि तुम्हें तकलीफ क्या है? वे बोले: तकलीफ और कुछ नहीं है, यह लंबा होता जाना ही तकलीफ है। इसमें क्या तकलीफ है? कोई तकलीफ है तुम्हें? कोई पीड़ा, परेशानी, कोई दिक्कत तुम्हें हो रही है, जिसका तुम इलाज करवा लो? बस यह बड़ा होते जाना...क्योंकि जो देखता है, वही मुझे चौंक कर देखता है! पत्नी कहती है: यह क्या हो रहा है? कहीं जाती हूं तो लोग पूछते हैं, क्या ये तुम्हारे पति हैं? वे झुक कर चलते थे बिलकुल कि कितने नीचे हो जाएं!
वैसी हालत उस सिंह की रही होगी। बड़ा परेशान था, बेचैन था। और एक दिन और मुसीबत आ गई। एक सिंह ने उस झुंड पर हमला कर दिया। भेड़ें भागीं और भेड़ों के बीच में यह सिंह भी घसर-पसर भागा। वह जो दूसरा सिंह था, वह देख कर चमत्कृत हो गया। ऐसा दृश्य उसने कभी नहीं देखा था कि यह हो क्या रहा है! एक सिंह, और भेड़ों के बीच में भाग रहा है! और भेड़ें उससे घसर-पसर करती भाग रही हैं! कोई उससे परेशान भी नहीं है! और यह क्यों भाग रहा है? और भेड़ें इसके साथ इतना तालमेल कैसे बनाए हुए हैं? वह सिंह भेड़ों को मारने की बात तो भूल ही गया, भूख की तो बात भूल गया। वह भागा, बामुश्किल इस सिंह को पकड़ पाया। भेड़ होती, तो पकड़ना आसान भी होता, वह था तो सिंह। तो भागता तो सिंह की तरह था। बामुश्किल पकड़ पाया, जवान था और यह बूढ़ा था सिंह।
पकड़ लिया, तो वह मिमियाने लगा, रोने लगा, हाथ जोड़ने लगा कि क्षमा कर दो, माफ कर दो, अब कभी तुम्हारे रास्ते में न आऊंगा, मुझे जाने दो। उसने कहा: तू पागल हो गया है? तू भेड़ नहीं है। उसने कहा: मैं भेड़ हूं, थोड़ी असाधारण, थोड़ी ऊंचाई मेरी ज्यादा है। रंग-रूप जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं है, पर हूं मैं भेड़।
वह सिंह उसे पकड़ कर नदी के किनारे ले गया। वह रोता, चीखता कि मुझे जाने दो, मेरे सब संगी-साथी पीछे पिछड़ गए हैं। उसको घबड़ाहट हो रही कि अब मारा गया, अब मेरी मौत करीब है। लेकिन वह बूढ़ा सिंह उसको किसी तरह ले गया नदी के किनारे और कहा: झांक कर देख पागल, नदी में अपने चेहरे को। उस सिंह ने, भेड़ बने सिंह ने बड़े डरते-डरते पानी में झांक कर देखा। क्षण भर में सब बदल गया। क्षण भर में! भेड़ की आवाज खो गई। सिंह की गर्जना प्रकट हुई। जैसे ही देखा अपना चेहरा नीचे, गर्जना निकल गई। जो कभी उसने जानी न थी कि उसके भीतर छिपी है, सिंह की गर्जना। एक क्षण में वह सिंह हो गया। वह सिंह था, सिर्फ भ्रांति टूट गई।
गुरु का इतना ही अर्थ है कि वह पकड़ कर आपको किसी पानी में दिखा दे कि आप क्या हो। या खुद पानी बन जाए और आपको दिखा दे कि आप क्या हो। एक झलक आपको अपनी मिल जाए, आपको अपना गुरु मिल गया।
यह सूत्र कहता है कि ‘वह किरण, वह प्रकाश की रेखा ही तेरा जीवन-गुरु, तेरी सच्ची आत्मा है--द्रष्टा और मूक चिंतक। और तेरी निम्न आत्मा का शिकार आत्मा केवल भूल करने वाले शरीर में आहत होती है। इन दोनों पर नियंत्रण और स्वामित्व कायम कर और तू निकट आते हुए संतुलन के द्वार के भीतर जाने में सुरक्षित है।’
‘और तेरी निम्न आत्मा का शिकार आत्मा केवल भूल करने वाले शरीर में आहत होती है।’
और तूने जितनी भूलें की हैं, और तूने जितने पाप किए हैं, उन सबकी छाया और प्रतिबिंब और चिह्न तेरे शरीर में ही छूटते हैं, तुझमें नहीं। उनकी पीड़ा का, उनके फल का भोग भी तेरे शरीर में ही होता है, तुझमें नहीं। लेकिन तू अपने को शरीर के साथ एक मानता है, इसलिए तू अकारण, व्यर्थ ही पीड़ित होता है।
भेड़ के साथ जिसने अपने को एक माना है, वह भेड़ की भांति पीड़ित होगा। और यह पीड़ा काफी वास्तविक है, इसलिए कहने से कुछ अर्थ नहीं है कि वह झूठ है। वह जो सिंह भाग रहा था भेड़ों के बीच में, क्या उसका डर कुछ कम था? क्या उसकी छाती कुछ कम घबड़ा रही होगी? और अगर भागते ही जाता, तो हार्ट अटेक उसको आता, जैसा कि किसी भी भेड़ को आ सकता था। यह सब वास्तविक है। इतना कह देने से कि भ्रांति है, कुछ हल नहीं होता। होगी भ्रांति, लेकिन जब भ्रांति चलती है, तब तो वास्तविक है। और तब तो उसकी पीड़ा उतनी ही सच्ची है, जितनी वास्तविक पीड़ा होगी।
कौन सी पीड़ा हो रही होगी सिंह को?
वह सिंह है और भेड़ माने हुए है, इसलिए दुख पा रहा है।
वह दुख कहां छिपा है? उसकी धारणा में, उसके तादात्म्य में।
आपने जितने पाप किए हैं, जितनी भूलें की हैं, जितनी बुराइयां की हैं, वे सब आपमें नहीं छिपी हैं, आपकी भ्रांति में छिपी हैं--और आपकी भ्रांति है कि मैं शरीर हूं। सारी छाप शरीर पर पड़ती है। और सारी छाप का फल शरीर को भोगना पड़ता है। और शरीर के साथ मेरा तादात्म्य है, इसलिए मैं भी भोगता हुआ प्रतीत होता हूं। वह प्रतीति है, लेकिन दुख तो पूरा है। इससे कोई भेद नहीं पड़ता।
मनस्विद कहते हैं कि उनके पास लोग आते हैं। अगर उनसे कहा जाए कि तुम्हें मानसिक बीमारी है, तो पुराने दिनों में, आज से सौ वर्ष पहले, फ्रायड के पहले, कोई मन का डॉक्टर तो होता नहीं था, शरीर के ही डॉक्टर थे। शरीर का डॉक्टर इतना ही कह देता था कि भई, यह कोई बीमारी नहीं है--जांच कर लेता शरीर की। और आप कहते हैं कि मेरे तो सिर में दर्द होता ही चला जाता है। और सिर में कोई दर्द न हो वस्तुतः, तो चिकित्सक इतना ही कह सकता था कि आपको भ्रांति है, आपको खयाल है कि दर्द है। दर्द है नहीं, इसलिए कोई इलाज हो नहीं सकता, आप भ्रांति छोड़ दो। लेकिन भ्रांति कोई कैसे छोड़ दे? और जिसको दर्द हो रहा है, आपके कहने से भ्रांति हो जाती है? दर्द तो हो रहा है। और दर्द उतना ही है, जितना कोई वास्तविक दर्द हो।
फ्रायड के बाद मनस्विदों ने यह बात कहनी बंद कर दी कि भ्रांति है। यह खयाल में आया कि भ्रांति भी तो दर्द जब देती है, तो उतना ही देती है, जितना कोई सत्य दे। इसलिए यह कहने से कोई हल नहीं है। इस भ्रांति को मिटाने का उपाय करना जरूरी है।
क्या होगा उपाय?
जब तक हमारी यह तादात्म्य की भाव-दशा बनी है कि मैं शरीर हूं, तब तक हम क्या करें? कैसे खोजें कि यह भ्रांति है? क्या उपाय करें कि हमें दिखाई पड़ने लगे?
दो-तीन बातें उपयोगी हैं।
पहली: नियंत्रण, स्वामित्व कायम कर।
हमारा अपने पर कोई नियंत्रण ही नहीं है, कोई मालकियत नहीं है, कोई स्वामित्व नहीं है। और स्वामित्व न हो, तो शरीर ही हमें चलाता है। हम सोचते भले हैं कि हम शरीर को चला रहे हैं, लेकिन शरीर ही हमें चलाता है। और यह बड़े मजे का मामला है, आप सदा यही सोचते हैं कि आप मालिक हैं और आप सब चला रहे हैं। आप एक चौबीस घंटे की डायरी लिखें कि आपने शरीर को चलाया कि शरीर ने आपको चलाया, तो आपको पता चलेगा कि शरीर ने आपको चलाया है। और आप शरीर को जरा भी--जरा भी नहीं चला सके। तो जो शरीर आपको चलाता रहे, तो फिर बहुत कठिन है भ्रांति से जागना, क्योंकि जिसमें भ्रांति है वह आपका मालिक बना है। उसको कैसे आप हटाइएगा?
तो पहले तो उसकी मालकियत अलग करें। फिर उसका तादात्म्य टूट सकता है, तो नियंत्रण करें।
समस्त तपश्चर्या की प्रक्रियाएं अपने को सताने की प्रक्रियाएं नहीं हैं; सिर्फ नियंत्रण करने की प्रक्रियाएं हैं।
पेट में भूख लगी है और आपने कहा कि ठीक है, भूख लगी है शरीर, मुझे पता चल गया; लेकिन आज मैंने भोजन न करने का निर्णय किया है, अब तू चुप हो जा।
पुरानी आदत है, शरीर इतना आसानी से चुप नहीं हो जाएगा। और पहले कई दफा आपने चुप करना चाहा है, वह चुप नहीं हुआ। उसने और ज्यादा शोरगुल मचाया। और फिर आपने भोजन कर लिया। तो वह जानता है कि थोड़ा शोरगुल मचाओ। आपके छोटे-छोटे बच्चे जानते हैं। तो शरीर तो बहुत पुराना अनुभवी है।
छोटा बच्चा बाप से कहता है कि आज खिलौना लाना। बाप कहता है कि नहीं ला सकते। छोटा बच्चा जानता है कि बाप की हिम्मत कितनी है। तीन दफे ज्यादा से ज्यादा कहेगा कि नहीं ला सकते। चौथी दफे झुकेगा। वह शोरगुल मचाना शुरू कर देता है, पैर पटकता है, कूदता-फांदता है। वह जानता है कि कितनी सीमा है। बाप थोड़ा झुकता है। जब वह ज्यादा उपद्रव मचाने लगता है, वह कहता है कि भई ठहर, एक दो-चार दिन रुक। वह कहता है कि बिलकुल रुक सकते नहीं। उसने पकड़ लिया हाथ। अब वह जानता है कि थोड़ा और दबाने की जरूरत है, और ये राजी होंगे। और यह कई दफे हो चुका है। और फिर भी बाप की नासमझी है कि फिर भी वह पहले ना कहता है, और फिर तीन दफे में हारता है। इसमें उसकी सब प्रतिष्ठा भी जाती है। इससे तो पहली दफा हां भर देना बेहतर है।
फ्रायड ने कहा है कि सिर्फ उन्हीं बातों में ना करना बच्चों को, जिनमें तुम ना कायम रख सको, अन्यथा तुम बच्चों को नष्ट कर रहे हो। अगर तुमको पहले से ही पता हो कि ना तुम कायम न रख सकोगे और यह बच्चा जीत जाएगा और तुमसे हां भरवा लेगा, तो बेहतर है तुम पहली दफे ही हां भर देना। उसमें तुम मालिक तो रहोगे। और ऐसी बातों के लिए बच्चों को कहना जो तुम करवा सको।
जैसे एक बच्चा रो रहा है और आप उससे कहते हैं, चुप हो जा। अगर वह नहीं हुआ, तो आप क्या करेंगे? और बच्चे को एक दफा पता चल गया कि तुम कहते हो चुप हो जाओ, वह नहीं होता, तो आप कुछ नहीं कर सकते, तो उसको आपकी नपुंसकता पता चल गई। फ्रायड ने कहा है कि बच्चे को ऐसी बात मत कहना, जो तुम न करवा सको। बच्चे से कहना, कमरे से बाहर निकल जा; अगर न निकले, तो उसे उठा कर बाहर रखा जा सकता है, दरवाजा बंद किया जा सकता है। लेकिन उससे कहो कि मत रो, तो क्या करेंगे? आप जो करेंगे, उसमें और ज्यादा रो सकता है। और एक बार उसको ऐसा पता चल जाए कि कुछ चीजें हैं, जो आप कहते हैं और करवा नहीं सकते, तो मालिक वह हो रहा है; आप धीरे-धीरे कमजोर होते जा रहे हैं।
छोटे-छोटे बच्चे ही समझ लेते हैं, तो शरीर तो बहुत प्राचीन है। हजारों बार शरीर में आप रहे और शरीर की निश्चित प्रक्रिया हो गई है। आपको भूख लगी है, तो शरीर शोरगुल मचाएगा कि अभी चाहिए, अभी चाहिए, अभी चाहिए।
तपश्चर्या का अर्थ शरीर को कष्ट देना नहीं है। तपश्चर्या का अर्थ सिर्फ नियंत्रण बदलना है। शरीर मालिक नहीं है, मालिक मैं हूं। भूख लगी है, वह मुझे पता चल गया। अब तुम चुप हो जाओ। और मुझे भूख आज नहीं भरनी है, पूरी नहीं करनी है, आज मुझे भूखा रहना है। फिर इस बात पर टिकना। थोड़े ही दिन के प्रयोग में आप पाएंगे कि आपके कहते ही कि आज भोजन नहीं करना है, शरीर चुप हो जाएगा।
लेकिन शुरू में नहीं होगा यह। शुरू में तो वह बहुत उपाय करेगा; मन में न मालूम कितनी तरह के विचार पैदा करेगा। न मालूम कितनी जगह के निमंत्रण आ जाएंगे; न मालूम कितनी जगह राजभोज होने लगेगा। न मालूम...सारे रास्ते पर गुजरेंगे, तो सब दुकानें खो जाएंगी, सिर्फ होटलें दिखाई पड़ने लगेंगी। वह सब उपाय करेगा, अपनी तरफ से सारी चेष्टा करेगा; क्योंकि उसकी पुरानी प्रतिष्ठा है और उस प्रतिष्ठा को आप हटाए डाल रहे हैं।
लेकिन अगर आप टिके रहे, और आपने साहस का उपयोग किया, तो आज नहीं कल शरीर समझ जाएगा कि मालकियत खो गई है। और वह आपका अनुगमन करने लगेगा। तब एक बड़ी अदभुत घटना घटती है, जो कि वे ही लोग जानते हैं, जो शरीर की मालकियत कर लेते हैं। तब आपके कहते ही शरीर चुप हो जाता है। कहते ही--आपने कहा कि आज भोजन नहीं, तो शरीर चुप हो जाता है; क्योंकि वह जानता है कि इस आदमी से भोजन अब मिलने का कोई उपाय न रहा।
शरीर की अपनी समझ है। और शरीर बड़ा समझदार यंत्र है। और आपका रग-रग, रेशा-रेशा वह पहचानता है कि आप किस तरह के आदमी हैं। आपका ही शरीर है, चारों तरफ आपके घिरा है। सब तरह से आपसे परिचित है। कौन आपसे इतना ज्यादा परिचित है, जितना आपका शरीर है। वह इंच-इंच रत्ती-रत्ती जानता है कि किस तरकीब से आप झुकते हैं; वह सारा उपाय करता है। शरीर की भी पॉलिटिक्स है आपके साथ। उसकी भी राजनीति है। और वहां भी द्वंद्व और संघर्ष है। इस द्वंद्व और संघर्ष को तोड़ना पहली जरूरत है; तभी तादात्म्य टूट सकेगा।
‘दूसरे तट को जाने वाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे। और अनंत आकाश में जो लुभाने वाली शक्तियां हैं, जो दुष्टभाव वाली आत्माएं हैं, जो द्वेषी ल्हामयी हैं, उनसे दूर ही रह।’
पहली बात: शरीर को मालकियत से उतारें। इसका मतलब यह नहीं कि शरीर के दुश्मन हो जाएं कि उसको नष्ट कर डालें। इसका मतलब यह है कि उसे, जहां वह होना चाहिए--सेवक--वहां उसे बिठा दें। वह वहीं योग्य है, और वहां उसकी बड़ी उपयोगिता है। और एक बार आप उसके मालिक हो जाएं, तो शरीर से आप वे काम ले सकते हैं, जिनके बिना आत्मा की कोई यात्रा नहीं हो सकती। शरीर फिर अदभुत यंत्र है।
अभी तक जगत में मनुष्य के शरीर जैसा अदभुत यंत्र कोई भी नहीं है। बहुत सूक्ष्म, बहुत विराट, सब उसमें समाहित है। और उसमें अनंत शक्तियां प्रसुप्त हैं, जो सब जाग जाएं, तो आपके जीवन में अनंत द्वार खुल जाते हैं। आप स्वयं एक छोटे-मोटे विश्व हैं। लेकिन वह मालिक हो शरीर, तो आप सिर्फ गुलाम हैं। और हालत ऐसी है, जैसे बैलगाड़ी आगे हो और बैल पीछे बंधे हों, तो कहीं कोई जाना नहीं होता। आप बहुत तड़फते हैं, चिल्लाते हैं कि कहीं जाना जरूरी है, यात्रा करनी जरूरी है, मंजिल पर पहुंचना चाहिए, समय नष्ट हो रहा है। पर काम आप ऐसा किए हैं कि समय नष्ट होगा ही। बैल पीछे बंधे हैं, गाड़ी आगे बंधी है; धक्का-मुक्की में गाड़ी उलटी टूटती है, बैल परेशान होते हैं, कहीं कोई यात्रा नहीं होती है।
आत्मा पीछे बंधी है शरीर के, तो यात्रा नहीं हो सकती है। आत्मा आगे होनी चाहिए, शरीर पीछे होना चाहिए, तो फिर बड़ी यात्रा हो सकती है। और शरीर अदभुत वाहन है। उसका उपयोग किया जा सकता है।
दूसरी बात खयाल रखनी जरूरी है कि इस नियंत्रण के प्रयोग में उदासी न पकड़ ले; चित्त प्रसन्न रहे। क्योंकि शरीर की जो सबसे गहरी तरकीब है, वह आपको उदास करके पराजित करने की है। अगर आप भूखे हैं और उपवास किया है तो आपका मन उदास हो जाएगा। अगर उपवासा आदमी उदास है, तो समझना कि उपवास व्यर्थ हो गया। इससे बेहतर था, वह भोजन कर लेता और प्रसन्न रहता। अगर उपवासा आदमी उदास है, तो समझना बात व्यर्थ हो गई, बात खत्म हो गई। क्योंकि उदासी शरीर की तरकीब है आपसे बदला लेने की। और शरीर आपको थका डालेगा। और उदासी कितनी देर तक झेलिएगा?
इसलिए जब शरीर पर नियंत्रण करना हो, तो दूसरा सूत्र खयाल रखना कि शरीर उदासी की लहरें भेजेगा; शरीर सब तरफ से आपको उदास करने की कोशिश करेगा। आप उदास मत होना, आप प्रसन्न रहना। अगर आप प्रसन्नता कायम रख सकें, तो अदभुत अनुभव होते हैं। जैसे, आपको पता नहीं है, इसलिए बड़ी अड़चनें होती हैं।
शरीर के भीतर शक्ति के तीन तल हैं। एक तल तो रोज मर रहा है काम के लिए, वह बहुत छोटा सा है। रोज जो आपको काम करने पड़ते हैं--उठना-बैठना, चलना, दफ्तर जाना, वह सब काम के लिए, एक छोटा सा स्रोत आपके शरीर के ऊपर है। यह जल्दी थक जाता है, चुक जाता है। क्योंकि इसकी पूंजी बहुत कम है।
समझें ऐसा कि आप दिन भर के थके-मांदे लौटे हैं और आप कहते हैं कि बिलकुल पड़ जाऊं और सो जाऊं। अब एक शब्द भी बोलने की इच्छा नहीं है, हाथ भी हिलाने की इच्छा नहीं है, बस सो जाना चाहता हूं। तभी अचानक घर में आग लग जाए; आपकी सब उदासी खो जाती है, थकान खो जाती है। आप एकदम सचेत हो जाते हैं, शक्ति का स्रोत दौड़ पड़ता है। यह शक्ति कहां से आई--यह आपमें नहीं थी अभी तक? यह दूसरा स्रोत है शरीर का, इमरजेंसी का। तात्कालिक जरूरत जब आ जाए, तो शरीर में नया स्रोत काम शुरू कर देता है; शक्ति दौड़ जाती है। अब आप रात भर आग बुझाने में लग सकते हैं और थकान नहीं आएगी।
इससे भी गहरा एक स्रोत है, जो अनंत स्रोत है। वह तभी उपलब्ध होता है, जब ये दोनों स्रोत चुक जाते हैं, और आप डरते नहीं, और प्रसन्नतापूर्वक और भी आगे श्रम करते चले जाते हैं। तब एक घड़ी आती है कि तीसरा स्रोत टूटता है, जो कि कॉस्मिक है, जो कि जागतिक है। वह आपका नहीं है; कहना चाहिए कि आपके नीचे छिपा हुआ जो चैतन्य का सागर है, उसका है। जिस दिन वह टूट पड़ता है, उस दिन फिर चुकने का कोई उपाय नहीं। उस दिन फिर आप शाश्वत जीवन के मालिक हो गए।
इधर मैं देखता हूं, ध्यान में लोग आते हैं, तो वे मुझे कहते हैं कि थक जाता है शरीर। मैं उनसे कहता हूं: फिकर मत करो, तुम चलते जाओ। एक ही खयाल रखना कि प्रसन्नता से, उदासी से नहीं। जल्दी ही दूसरी पर्त टूट जाएगी, और जल्दी ही टूट जाती है। और जब दूसरी पर्त टूट जाती है, तब वे ध्यान के बाद थकान अनुभव नहीं करते,
ताजगी अनुभव करते हैं। जब यह दूसरी पर्त भी थका डालेंगे आप, तब एक और तीसरी पर्त टूटेगी। उसके बाद आपके पास शाश्वत ऊर्जा है, उसके बाद अनंत जीवन आपका है, उसके बाद आप वहां आ गए, जहां कोई चीज कभी नहीं चुकती। प्रसन्नता का सहारा लेकर चलेंगे, तो ही इतने गहरे उतर पाएंगे। उदास हो गए, तो आप वापस लौट जाएंगे।
इसलिए बहुत गहरे में आप इसको पकड़ लें कि धर्म की साधना आपका आह्लाद हो, आनंद हो। आनंद अंत में नहीं, पहले चरण पर भी हो। आखिर में मिलेगा, ऐसा नहीं है, आज भी हो। उत्सवपूर्वक नाचते, गाते, प्रसन्न उस तरफ बढ़ें तो शरीर को आप जीत लेंगे। क्योंकि शरीर की जो बुनियादी तरकीब है, उसके विपरीत आपने एंटीडोट, विपरीत औषधि तैयार कर ली। शरीर उदास करके आपको पराजित कर देता है। प्रसन्न रह कर आप शरीर के मालिक हो सकते हैं।
यह सूत्र कहता है: ‘दूसरे तट को जाने वाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह।’
यह बड़े मजे का सूत्र है। और दूसरी ही पंक्ति में जो बात आती है, आप सोच भी न सकेंगे कि वह बड़ी उलटी है। ठीक इसके बाद कि ‘ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह, कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे।
अक्सर तो ऐसा होता नहीं है। वे लोग प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं, जो कामदेव की कानाफूसी पर कान देते हैं। कामदेव से जो बचते हैं, उनकी हालतें देखें, वे प्रसन्न नहीं दिखाई पड़ते। जाएं, जैनी साधुओं को देखें, वे मरने के पहले मर गए हैं; कोई प्रसन्नता नहीं है। इनको क्या रोग लग गया है? ये कामदेव से लड़ रहे हैं।
मनस्विद कहते हैं कि जिसकी कामवासना प्रकट होकर, खुल कर बहती है, वह प्रसन्न रहता है। जिसकी कामवासना अवरुद्ध कुंठित हो जाती है, वह अप्रसन्न और उदास हो जाता है। वे कहते हैं कि जवान आदमी प्रसन्न दिखाई पड़ता है, क्योंकि उसकी कामवासना अभी उभार पर है। बूढ़ा आदमी उदास हो जाता है, क्योंकि कामवासना का ज्वर उतर गया है। बच्चे बहुत प्रसन्न मालूम होते हैं, क्योंकि अभी कामवासना उनके रोएं-रोएं में जग रही है, तैयार हो रही है, फैल रही है। अभी रोएं-रोएं में शक्ति काम की दौड़ रही है। इसलिए वे इतने आनंदित हैं, भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं, कूद रहे हैं। आप उनको एक जगह बिठा नहीं सकते हैं। शक्ति नाच रही है, बच्चे प्रसन्न हैं--कामवासना का उठता हुआ ज्वर, पहली झलकें। जवान प्रसन्न हैं, नाचते, गीत गाते हैं। बूढ़े उदास हैं। सारा खेल कामवासना का है। और जो-जो कामवासना से लड़ते हुए लोग हैं, वे प्रसन्न नहीं देखे जाते हैं।
यह सूत्र बड़ा अजीब है। यह सूत्र कहता है: ‘ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह।’ और साथ ही तत्काल कहता है: ‘कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे।’
ध्यान रखना, यह प्रसन्नता अगर आपमें न आ सके, तो आपको कामदेव की कानाफूसी पर ध्यान देना ही पड़ेगा। इस कारण तत्काल यह बात कही गई है। अगर आप उदास हो गए और शरीर ने आपको उदास कर दिया, तो आपको पता है, जब आप उदास होते हैं, तो कामवासना ज्यादा मन को पकड़ती है। क्योंकि फिर एक ही उपाय शरीर के पास रह जाता है प्रसन्न होने का--कामवासना। प्रसन्न चित्त हो, आनंद से भरे हों, तो कामवासना का खयाल भी नहीं आता। क्योंकि आनंद का खयाल तो तभी आता है, जब आप आनंदित नहीं होते।
हम उसी चीज को मांगते हैं, जो हमारे पास नहीं होती; जो पास ही होती है, उसको हम क्यों मागेंगे। दुखी और उदास लोग कामवासना के प्रति बहुत ज्यादा आकर्षित होते हैं। थोड़ी सी झलक उनको खुशी की वहां मिलती है, वही उनका आकर्षण बन जाती है। अगर इस आकर्षण से बचना है, तो कामवासना में उत्सुक हुए बिना प्रसन्न होना पड़ेगा, आनंदित होना पड़ेगा। और अगर आनंद बिना कामवासना के मिल जाए, तो फिर कामवासना खींचेगी भी नहीं। क्योंकि अब कोई जरूरत भी न रही। सिर्फ प्रसन्नचित्त व्यक्ति ही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है, उदास चित्त व्यक्ति कभी उपलब्ध नहीं हो सकता; क्योंकि उदासी इतना बोझ बन जाएगी कि वह करेगा क्या उसको हटाने के लिए फिर! उदासी हटाने का जो नैसर्गिक उपाय है, वह कामवासना है। इसलिए कामवासना से गुजर कर आपको लगता है कि राहत मिली, विश्राम मिला, हलके हो गए; मुस्कुरा सकते हैं।
यह सूत्र बहुत गहन है और मन की बड़ी गहराई की बात है। अगर उदास हैं, तो कामदेव आपको पराजित कर लेगा; उसकी बात फिर आपको माननी पड़ेगी। अगर प्रसन्न हैं, तो उसकी बात सुनने की कोई जरूरत नहीं, उसकी कानाफूसी से ध्यान हटाया जा सकता है। आप खुद ही इतने प्रसन्न हैं कि अब और कोई प्रसन्नता की मांग का कोई सवाल नहीं है।
‘दूसरे तट को जाने वाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे। और अनंत आकाश में जो लुभाने वाली शक्तियां हैं, जो दुष्टभाव वाली आत्माएं हैं, जो द्वेषी ल्हामयी हैं, उनसे दूर ही रह।’
तिब्बत का शब्द है ‘ल्हामयी’। ल्हामयी का अर्थ है: ऐसी आत्माएं, जो शरीर जिनके छूट गए हैं और नये शरीर जिन्हें नहीं मिले हैं--प्रेतात्माएं। लेकिन विशेष तरह की प्रेतात्माएं जो दूसरों को पथ-भ्रष्ट करने में आनंद लेती हैं। इसे हम अनुभव से भी जान सकते हैं। शरीर के भीतर भी बहुत ऐसे लोग हैं, शरीर में भी ऐसी बहुत आत्माएं हैं, जो दूसरे को अगर थोड़ा सा पथ-भ्रष्ट कर सकें, तो बड़ी प्रसन्न होती हैं।
आपको भी पता न होगा कि कई बार आप भी यह काम करते हैं और ल्हामयी हो जाते हैं। कोई आदमी आपसे आकर कहता है कि मैं ध्यान कर रहा हूं, ऐसे-ऐसे चरण हैं ध्यान के, कि नाचता हूं, कूदता हूं, श्वास लेता हूं, हू-हू करता हूं। आपको ध्यान का कोई भी पता नहीं, आप कहते हैं, यह क्या कर रहे हो? पागल हो जाओगे। दिमाग खराब हो गया है? जैसे कि आपको पागल होने का और पागल होने की कला का कुछ पता हो! जैसे कि आपको ध्यान के रहस्यों का कोई पता हो! जैसे कि आप ध्यान कर चुके हैं! और जैसे कि आप इस रास्ते से भी गुजर चुके हैं और पागल हो चुके हैं, अनुभवी हैं। इस भांति आप उससे कहते हैं: यह क्या कर रहे हो, पागल होना है? बिना यह समझे कि आप उसको पथ-भ्रष्ट कर रहे हैं। पर खयाल भी नहीं आता कि हम पथ-भ्रष्ट कर रहे हैं, ऐसे ही कह रहे हैं। और अगर वह आदमी आपसे राजी हो जाए, तो आपका चित्त प्रसन्न होगा। और राजी न हो, तो आप थोड़े उदास होंगे।
लोग बड़ी मेहनत करते हैं दूसरों को राजी करने के लिए कि यह मत करो, और यह करो! इतनी कोशिश वे खुद को भी नहीं करते राजी करने के लिए कि मैं यह करूं, जितनी वे दूसरों के लिए करते हैं। बड़ा सिर पचाते हैं, बड़े सेवाभावी हैं। दूसरों के काम में लगे रहते हैं। इस तरह की आत्माएं चारों तरफ मौजूद हैं।
तिब्बती खोज इस संबंध में बहुत गहरी है। जब कोई आदमी मरता है, तो साधारण आदमी अगर हो, तो तत्क्षण पैदा हो जाता है, ज्यादा देर नहीं लगती उसको नया शरीर ग्रहण करने में, क्योंकि सामान्य गर्भ सदा उपलब्ध होते हैं। जब कोई असाधारण आदमी मरता है, कोई महापुरुष या कोई महापापी, तब उसको जन्म लेने में काफी समय लग जाता है, क्योंकि उसके योग्य गर्भ तत्काल, रेडीमेड नहीं होते हैं; कभी निर्मित होते हैं। जैसे हिटलर मर जाए, तो सैकड़ों वर्ष लग जाएंगे उसको मां-बाप खोजने में। उसके योग्य गर्भ पाने के लिए उसको प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। यह प्रतीक्षा के क्षण वह प्रेत होगा। कोई ज्ञानी मर जाए और अभी उस जगह न पहुंचा हो, जहां से फिर जन्म नहीं होता, तो उसको भी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, सैकड़ों वर्ष, तभी उसके योग्य गर्भ मिल सकेगा।
नीचे के छोर पर और ऊपर के छोर पर प्रतीक्षा करनी होती है। जो लोग ऊपर के छोर पर प्रतीक्षा करते हैं, उनको हम देव कहते रहे हैं। जो नीचे के छोर पर प्रतीक्षा करते हैं, उनको हम प्रेत कहते रहे हैं। दोनों प्रतीक्षा करती हुई आत्माएं हैं, जिनको अभी गर्भ लेना है। देव स्वभावतः आनंदित होते हैं, किसी की सहायता करने में। प्रेत आनंदित होते हैं, किसी को भ्रष्ट करने में, पथ से हटाने में। ये दोनों आत्माएं आपके आस-पास काम कर रही हैं।
यह सूत्र कहता है कि प्रसन्न रह, और ध्यान रख कि अगर तू उदास हुआ, तो तेरे आस-पास ऐसी ल्हामयी आत्माएं हैं, जो उदासी के क्षण में तुझे पकड़ ले सकती हैं और तुझसे ऐसे काम करवा सकती हैं, जो तूने स्वयं खुद कभी न किए होते।
आपको भी कई बार ऐसा लगता है कि यह काम मैं नहीं करना चाहता था, फिर भी किया। यह मेरी मर्जी न थी, तय भी किया था कि नहीं करूंगा, फिर भी किया। और कई बार ऐसा भी होता है कि आप कोई अच्छा काम करना बिलकुल पक्का कर लेते हैं और फिर ऐन वक्त पर बदल जाते हैं।
एक महिला कल सांझ मेरे पास पहुंची; रो रही थी। बहुत भाव में थी। संन्यास लेना था। मैंने उसे कहा: कल; कल दोपहर। आज वह पहुंची, वह बोली कि मैं महीने भर से तैयार हूं संन्यास लेने को, और कल तो इतने भाव में थी। लेकिन जैसे ही आपने कहा कि कल आकर ले लेना, न मालूम क्या हुआ, मेरा भाव ही चला गया। मुझे संन्यास अब नहीं लेना है। और रो रही है अभी भी, और कह रही है कि मैं लेना चाहती हूं और लेने की बहुत तैयारी है और बहुत दिन से प्रतीक्षा है। और पता नहीं क्या हो गया है मेरे भीतर कि अब मैं नहीं...हिम्मत ही नहीं जुट रही है लेने की। और साथ में उसे यह भी लग रहा है कि लेना है। और नहीं ले पा रही है, इसलिए रो भी रही है।
हमें खयाल में नहीं है, हमारे चारों तरफ विचार का विराट जगत है, उसमें आत्माएं भी हैं, उसमें विचारों के पुंज भी हैं। उनको हम किन्हीं क्षणों में पकड़ लेते हैं और आविष्ट हो जाते हैं। और उस आवेश में फिर हम जो करते हैं, वह हमारा किया हुआ नहीं है। शुभ विचार भी हमें पकड़ते हैं, शुभ आत्माएं भी हमें सहारा देती हैं। अशुभ विचार भी पकड़ते हैं, अशुभ आत्माएं भी बाधा डालती हैं।
लेकिन जो अति प्रसन्न है, इस नियम को समझ लेना, वह सुरक्षित है। जो उदास है, वह असुरक्षित है। उदासी के क्षण में उपद्रवी आत्माएं, उपद्रवी विचार पकड़ लेते हैं। प्रसन्नता और आनंद के अहोभाव में, जो श्रेष्ठ है, उससे संबंध जुड़ता है। जो सदा आनंदित रहने की कोशिश करे, उसे इस जगत की जितनी दिव्य शक्तियां हैं, उन सभी का सहयोग मिल जाता है। जो सदा उदास बना रहे, इस जगत में जो भी मूढ़तापूर्ण है, जो भी भारी, वजनी और पथरीला है, सबका उसके साथ सत्संग हो जाता है।
जब आप उदास बैठते हैं, तब आपके चारों तरफ एक जमात भी बैठी है, जो आपको दिखाई नहीं पड़ती है। जब आप आनंदित होते हैं, तब आपके चारों तरफ आनंदित कुछ चेतनाएं नाच रही हैं, जो आपको दिखाई नहीं पड़ती हैं। आप अपने आस-पास एक वर्तुल निर्मित कर रहे हैं।
ध्यान रहे, साधक सदा प्रसन्न रहे। न हो परिस्थिति प्रसन्न होने की, तो भी कोई कारण खोज ले और प्रसन्न रहे। प्रसन्नता को सूत्र बना ले।
‘दृढ़ बन। अब तू मध्य द्वार के निकट आ रहा है, जो क्लेश का भी द्वार है, जिसमें दस हजार नागपाश हैं।’
अब तू करीब आ रहा है यात्रा के मध्य-बिंदु पर। और मध्य-बिंदु आखिरी बिंदु है। अगर तू उस पार हो गया, तो दूसरे छोर पर जाना आसान हो जाएगा। और मध्य-बिंदु अटकाव बन गया, तो तू वापस गिर सकता है। और इस मध्य-बिंदु पर दस हजार नागपाश हैं। दस हजार उलझनें खड़ी होंगी। दस हजार उपद्रव खड़े होंगे। जितने उपद्रव तूने किए हैं अनंत-अनंत जन्मों में, सब तुझे पकड़ेंगे और वापस बुला लेना चाहेंगे। जिन-जिन का तूने साथ किया है, जिन-जिन नासमझियों का, वे सब नासमझियां एक बार आखिरी कोशिश करेंगी कि लौट आओ; इतने पुराने संगी-साथी, कहां जाते हो?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम इतने अशांत तब न थे, जब ध्यान न करते थे। अब ध्यान करते हैं, तो शांति भी बढ़ रही है और बड़ी अशांति भी मालूम पड़ती है। वह अशांति आपकी पुरानी संगी-साथिन है।
यहां भी किसी को डाइवोर्स करना हो, तलाक देना हो, तो बड़ी
मुसीबतें आती हैं। उस भीतर के लोक में तो तलाक और मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बहुत पुराने नाते-रिश्ते हैं, बहुत वायदे हैं, वचन हैं आपके दिए हुए कि सदा तुम्हारा हूं, सदा तुम्हारे साथ रहूंगा। अब अचानक छोड़ने लगते हैं, तो फिर जोर से पकड़ लिए जाते हैं, ग्रंथियां कस जाती हैं। मध्य-बिंदु पर दस हजार नागपाश प्रतीक्षा कर रहे हैं।
‘ओ पूर्णता के साधक, अपने विचारों का स्वामी बन, यदि तुझे इसकी देहली पार करनी है।’
‘और यदि तुझे अपने गंतव्य पर पहुंचना है, तो अमृत सत्य के खोजी, अपनी आत्मा का स्वामी बन।’
‘उस एक शुद्ध प्रकाश पर अपनी दृष्टि को एकाग्र कर, जो प्रकाश सभी प्रभावों से मुक्त है। और अपनी स्वर्ण-कुंजी का प्रयोग कर।’
‘कठिन कर्म पूरा हो गया। तेरा श्रम पूर्ण हुआ। और वह विस्तृत पाताल जो तुझे निगलने को मुंह फैलाए था, लगभग पाट दिया गया है...।’
अगर मध्य-बिंदु पार हो गया, तो वह विशाल खाई, जो मुंह फैलाए थी, वह लगभग पाट दी गई है। मध्य-बिंदु के बाद पतन बहुत मुश्किल है। बहुत चेष्टा की जाए, तो ही हो सकता है। मध्य-बिंदु के पहले पतन बहुत आसान है। बहुत चेष्टा की जाए, तो ही बच सकता है। मध्य-बिंदु के बाद बहुत मुश्किल है। अगर आप बहुत प्रयास ही करें, तो ही वापस गिर सकते हैं। अन्यथा अपने आप मध्य-बिंदु के बाद कोई वापस नहीं गिरता है। मध्य-बिंदु के बाद नया लोक खुल जाता है। पुराने संगी-साथी छूट जाते हैं। एक अति से अब आप दूसरी अति में प्रवेश करते हैं।
इस मध्य-बिंदु को पार करने के लिए शरीर के स्वामी बनें, पहली बात। फिर विचार के स्वामी बनें, दूसरी बात। फिर आत्मा के स्वामी बनें, तीसरी बात।
शरीर से शुरू करें; क्योंकि उसकी ही मालकियत न हो सके, तो फिर मन की मालकियत न हो सकेगी। मन की मालकियत न हो सके, तो फिर आत्मा की मालकियत न हो सकेगी। शरीर का मैंने कहा कि उसको जीतें। फिर जिस दिन आपको लगे कि अब शरीर पर मालकियत हो गई, उस दिन से मन पर भी वही प्रयोग शुरू कर दें। मन में एक विचार आए कि क्रोध करना है, तो कह दें कि क्रोध नहीं करना है, मन चुप हो जा। फिर अड़े रहें अपने वचन पर, फिर मन कितनी ही कोशिश करे, दूर खड़े रहें, देखते रहें, क्रोध न करें। आज नहीं कल आप पाएंगे कि मन आपकी सुनने को राजी हो गया। और जब आप कहेंगे कि नहीं करना है क्रोध तो क्रोध का भाव तत्क्षण विसर्जित हो जाएगा।
यह ऐसे ही घटता है, जैसे मेरा यह हाथ ऊपर है और मैं कहूं कि मुझे नहीं रखना है ऊपर, तो हाथ नीचे आ जाता है। यह हाथ मेरा है। अगर यह हाथ मैं कहूं कि नीचे आओ, और ऊपर ही अटका रहे, और मैं कितना ही कहूं कि नीचे आओ, और नीचे न आए, तो उसका मतलब हुआ कि हाथ मेरा नहीं है।
आप कहते हैं कि विचार आपके हैं। कहना नहीं चाहिए कि आपके हैं। क्योंकि आप एक विचार को बाहर करना चाहें, तो कर नहीं सकते। आप कहें कि यह विचार मेरे भीतर न आए, आपके वश में नहीं। आप कहें, न आए, तो और ज्यादा आता है। आप कहें कि मत सताओ मुझे, तो और सताता है। आप कहते हैं कि मैं क्रोध न करूंगा, तो और क्रोध से भर जाते हैं। विचार अभी मालिक है।
जो शरीर पर प्रयोग किया है, धीरे-धीरे वही प्रयोग मन पर भी करने का है। अगर आप साहसपूर्वक और प्रसन्नचित्तता से लगे रहे, तो मन के भी मालिक हो जाएंगे।
और तीसरी बात है आत्मा की मालकियत। आत्मा की मालकियत के लिए तो ये सारे के सारे सूत्र हैं। लेकिन इस संदर्भ में इस जगह आत्मा की मालकियत का मतलब इतना ही है कि आपके पूरे व्यक्तित्व की मालकियत, शरीर, मन, आत्मा, ये तीनों आपका व्यक्तित्व है, समग्रता है, इस समग्रता की मालकियत। इस समग्र की भी आपकी ही आज्ञा से गति हो। और ऐसी स्थिति आ जाती है, जब आपकी ही आज्ञा से समग्र की गति होने लगती है। और अगर आप चाहें कि मैं इसी क्षण मर जाऊं, तो इसी क्षण मौत घट जाएगी; क्योंकि समग्र आपको मानता है। इस समग्र की मालकियत का उतना आसान सूत्र नहीं है, जितना शरीर और मन का है। लेकिन जो लोग शरीर और मन के मालिक हो जाते हैं, उनके लिए तत्क्षण आत्मा के सूत्र की कुंजी मिल जाती है कि अब वे आत्मा के लिए क्या करें। वह उनको स्वयं दिखाई पड़ जाता है। जो शरीर के लिए किया, वह बाहर था; जो मन के लिए किया, वह बीच में था; अब आत्मा के लिए वही करना है, जो बहुत गहरे में है। आत्मा के लिए करने का सार अर्थ है कि अस्तित्व भी आपकी आज्ञा मानने लगे।
अभी क्या है?
अभी आप अगर कहें कि कोई हर्जा नहीं अगर मौत आए, तो मैं स्वीकार कर लूंगा, लेकिन आपका अस्तित्व भीतर कहता है: नहीं, स्वीकार नहीं करेंगे, कैसे मर सकते हैं? नहीं मरना चाहते हैं, तो मालकियत उस पर आपकी नहीं है। पर शरीर और मन की यात्रा ठीक हो जाए, तो उसी सूत्र को सूक्ष्म में भीतर प्रयोग करने से अस्तित्व की भी मालकियत उपलब्ध होती है।
इस मालकियत के होते ही आपको वह प्रकाश की किरण दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, जो आप हैं। फिर उस पर ही दृष्टि को एकाग्र करें, और उस किरण की धारा में ही अपने को छोड़ दें। वह किरण ही आपका जीवन-गुरु है। उस किरण को नाव बना लें। और वह नाव परमात्मा की तरफ चलनी शुरू हो जाएगी।
दूसरे तट को जाने वाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे। और अनंत आकाश में जो लुभाने वाली शक्तियां हैं, जो दुष्टभाव वाली आत्माएं हैं, जो द्वेषी ल्हामयी17 हैं, उनसे दूर ही रह।
दृढ़ बन। अब तू मध्य द्वार के निकट आ रहा है, जो क्लेश का भी द्वार है, जिसमें दस हजार नागपाश हैं।
ओ पूर्णता के साधक अपने विचारों का स्वामी बन, यदि तुझे इसकी देहली पार करनी है।
और यदि तुझे अपने गंतव्य पर पहुंचना है, तो अमृत सत्य के खोजी अपनी आत्मा का स्वामी बन।
उस एक शुद्ध प्रकाश पर अपनी आत्म-दृष्टि को एकाग्र कर, जो प्रकाश सभी प्रभावों से मुक्त है। और अपनी स्वर्ण-कुंजी का प्रयोग कर।
कठिन कर्म पूरा हो गया। तेरा श्रम पूर्ण हुआ। और वह विस्तृत पाताल जो तुझे निगलने को मुंह फैलाए था, लगभग पाट दिया गया है...।
मनुष्य को उसके केंद्र की तरफ से देखें, तो मनुष्य परमात्मा है। और मनुष्य को उसकी परिधि की तरफ से देखें, तो मनुष्य संसार है। बाहर से पकड़ें मनुष्य को, तो पदार्थ है; भीतर से चिन्मय ज्योति है।
मनुष्य दो का मिलन है--आकार का और निराकार का।
और यही मनुष्य की पीड़ा भी है; यही उसका आह्लाद भी है। मनुष्य की पीड़ा यही है कि वह एक नहीं, दो से निर्मित है, दो विपरीत तत्वों से। इसलिए उसके भीतर निरंतर तनाव है, खिंचाव है। पदार्थ खींचता है अपनी ओर, आत्मा खींचती है अपनी ओर। और मनुष्यता दोनों के बीच में फंस जाती है, जकड़ जाती है, उलझ जाती है।
अगर एक ही तत्व हो, तो कोई तनाव न हो। मरे हुए आदमी में फिर कोई तनाव नहीं होता; उसकी देह फिर शांत हो जाती है। समाधिस्थ आदमी में भी फिर कोई तनाव नहीं होता; आत्मा ही बचती है। मृतक देह पड़ी हो, तो शरीर बचा है, समाधिस्थ व्यक्ति पड़ा हो, तो उसके लिए भीतर अब आत्मा ही बची है, शरीर भूल गया है। जब तक दोनों हैं--और दोनों के बीच हम डांवाडोल हैं--तब तक चिंता, तनाव, संताप, बेचैनी है। और कहीं भी कोई किनारा लगता हुआ मालूम नहीं पड़ेगा। और दोनों ही खींचते हैं अपनी ओर। और स्वभावतः ठीक है खींचना। पदार्थ खींचता है नीचे की ओर; आत्मा उठ जाना चाहती है ऊपर की ओर।
ऐसा समझें कि जैसे एक मिट्टी का दीया हो और जलती हो एक ज्योति उसमें, तो मिट्टी का दीया तो जमीन का हिस्सा है, और ज्योति भागती रहती है सूर्य की ओर, ऊपर की ओर। कभी आपने अग्नि को नीचे की ओर भागते हुए देखा है? अग्नि भागती है ऊपर की ओर, वह सूर्य का हिस्सा है। मिट्टी का दीया नीचे पड़ा है जमीन से बंधा।
आदमी की देह मिट्टी की है। उसके भीतर का निवासी ज्योतिर्मय है। वह भीतर का निवासी ऊपर उठना चाहता है, और देह नीचे। और आदमी इन दोनों का जोड़ है। इसलिए आदमी जब तक आदमी है, बेचैन रहेगा। आदमी रहते हुए कोई समाधान नहीं है।
दो तरह से समाधान मिलता है। या तो आदमी राजी हो जाए, शरीर को पूरी तरह मान ले, ऊपर की यात्रा छोड़ दे। तो जो लोग बहुत निम्न जीवन जीते हैं, उनके बाहर कितना ही उपद्रव होता हो, दूसरे उन्हें कितनी ही तकलीफें खड़ी करते हों, भीतर एक अर्थों में वे शांत होते हैं। कारागृह में जाएं और अपराधियों की आंखों में देखें, साधु-गृहों में बैठे हुए साधुओं की आंखों से ज्यादा शांत अपराधियों की आंखें मिलेंगी। कारण है उसका, उन्होंने लड़ाई छोड़ दी और नीचे गिरने को तैयार हो गए। वह जो ऊपर का स्वर है, दबा डाला और नीचे के स्वर के साथ अपना पूरा तालमेल बिठा लिया। और या फिर उस व्यक्ति की आंखों में शांति मिलती है, जिसने नीचे को जीत लिया और ऊपर की यात्रा ही उसका समग्र जीवन बन गई।
एक के साथ शांति है; दो के साथ अशांति है।
और हम दो में हैं। आदमी का होना ही दो के बीच है। इस सूत्र को इस दृष्टि से समझने की कोशिश करें।
‘मनुष्य में आलय के शुद्ध और उज्जवल सत्व को छोड़ कर सब-कुछ मृण्मय है।’
‘आलय’ बुद्ध का बड़ा प्रिय शब्द है। आलय का अर्थ तो होता है घर। लेकिन बुद्ध बड़े विराट अर्थों में उसका प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं कि समस्त चेतना का एक घर है, एक आलय है, एक स्टोर हाउस है। इस सारे जगत में जितनी चेतनाएं हैं, वे सब इकट्ठे एक ही घर की किरणें हैं, एक ही सूर्य की किरणें हैं। और उन सबका एक केंद्र है, उस केंद्र का नाम आलय है।
मनुष्य में आलय अर्थात विश्वात्मा या परम सत्ता के शुद्ध और उज्जवल सत्व को छोड़ कर, उस आलय से आपको जो मिला है उसको छोड़ कर, शेष सब आपके भीतर मिट्टी है। उस आलय से जो किरण आपको उपलब्ध हुई है, वही भर मिट्टी नहीं है, बाकी सब मिट्टी है। और अगर आपको उस किरण का कोई पता न चले, तो आप अपनी मिट्टी की देह को ही अपना अस्तित्व समझते रहते हैं। और तब जीवन मिट्टी का उठना और मिट्टी का गिरना हो जाता है।
और उस किरण को खोजना अति कठिन इसलिए हो गया है--कि मिट्टी बहुत है और किरण बहुत सूक्ष्म और छोटी है। अनुपात मिट्टी का बहुत ज्यादा है। वह जो जीवन की किरण है, बड़ी मंदिम और बड़ी छोटी है। वह जो आपके भीतर आपकी आत्मा है, अति सूक्ष्म है। आपकी देह स्थूल है। जो स्थूल है, वह दिखाई पड़ता है, हर क्षण अनुभव में आता है। जो सूक्ष्म है, उसकी आवाज भी सुनाई नहीं पड़ती है। उसको सुनने के लिए भी कानों की तैयारी चाहिए। उसको सुनने के लिए बहुत ध्यानपूर्वक खोज करनी पड़ेगी। और जिस तरफ ध्यान जाता है, वही हमें सुनाई पड़ता है। आप मुझे सुन रहे हैं, तो आपको और कुछ भी सुनाई नहीं पड़ेगा। एक पक्षी अगर गुन-गुन कर रहा हो, तो सुनाई नहीं पड़ेगा। फिर अगर ध्यान दें, तो तत्क्षण सुनाई पड़ेगा।
कभी आपने खयाल किया हो, कमरे में बैठ कर आप किताब पढ़ रहे हैं, घड़ी दीवाल पर लगी है, उसकी टिक-टिक हो रही है, सुनाई नहीं पड़ती। फिर ध्यान दें, किताब बंद कर दें, तत्क्षण टिक-टिक सुनाई पड़नी शुरू हो जाती है। आप जब ध्यान नहीं दिए थे, तब घड़ी बंद नहीं थी। लेकिन जब ध्यान ही न दिया हो, तो टिक-टिक धीमी आवाज है, वह चोट नहीं करती है। कोई हथौड़ा पड़ रहा होता, तो शायद सुनाई पड़ जाता, बहुत स्थूल था। टिक-टिक बहुत सूक्ष्म है। ध्यान देंगे बारीकी से तो सुनाई पड़ेगी; नहीं तो नहीं सुनाई पड़ेगी, आप अपने काम में लगे रहेंगे। जिस तरफ हम ध्यान को मोड़ते हैं, उसी तरफ का आयाम सुनाई पड़ता है, दिखाई पड़ता है। उसके प्रति हम संवेदनशील हो जाते हैं। लेकिन घड़ी की टिक-टिक भी बहुत स्थूल है। आपको अपने हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है? हो रही है, लेकिन अगर बिलकुल शांत बैठ कर ध्यान दें, तो सुनाई पड़ने लगेगी।
अपने हृदय की धड़कन भी स्थूल है; वह भी कोई सूक्ष्म नहीं है। वह जो भीतर आत्मा की किरण है, वह तो अति सूक्ष्म है। किरण की तो चोट भी क्या होती है। और आप इतने व्यर्थ के शोरगुल में उलझे हैं, और इतनी स्थूल आवाजें आपके चारों तरफ हैं कि जब तक इस सबसे ध्यान खींच न लिया जाए, और मौन भीतर बैठ न जाया जाए, तब तक शायद वह जो भीतर की किरण है, उसकी कोई प्रतीति नहीं होगी।
इसलिए आत्मा की हम बातें करते रहते हैं, लेकिन आत्मा का हमें कोई पता नहीं चलता। और हम जानते यही हैं कि शरीर ही है और मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। डर लगता है मिटने से, भय होता है, तो मानने का मन होता है कि आत्मा हो। ऐसा हम चाहते हैं कि आत्मा हो और हम न मरें। लेकिन चाह का सवाल नहीं है। जिसका हमें पता ही नहीं है, वह हो भी, तो उसके होने से क्या फर्क पड़ता है? और जिसका हमें पता है, वह न भी हो, तो भी मुसीबत तो उससे होगी ही।
ज्ञान ही अस्तित्व है।
जिसका हमें पता नहीं, वह न के बराबर है। होगा या नहीं होगा, क्या फर्क पड़ता है? और जिसका हमें ज्ञान है, वह है; न भी हो, तो भी हमारे जीवन को प्रभावित करेगा। एक स्वप्न को भी आप सत्य मान लें, तो आपका जीवन उससे प्रभावित हो जाएगा। और आप इस सारे जीवन को भी स्वप्न मान लें, तो आप इससे अप्रभावित हो जाएंगे।
आपकी मान्यता में आपका अस्तित्व है, और जैसा आप मान लेते हैं, हो जाता है।
यह जो भीतर किरण है, यह इतनी सूक्ष्म है कि जब तक स्थूल से हमारा ध्यान संपूर्ण रूप से न हटे, तब तक यह सुनाई न पड़ेगी। इसे सुनने के कई उपाय हो सकते हैं; कई उपाय हैं। मेरी दृष्टि में जो उपाय सर्वाधिक उपयोगी हो सकता है, वह यह है कि पहले आप अपने आस-पास पूरा तूफान उठा लें। इसलिए ध्यान के जो प्रयोग मैं आपको करवा रहा हूं, वे सब तूफानी हैं। पूरा तूफान उठा लें, जितना शोरगुल हो सकता हो, खड़ा कर लें। स्थूल की जितनी आवाजें हो सकती हैं, सब हो जाने दें। बाहर कुछ भी शांत न रह जाए, सभी कुछ उपद्रव हो जाए, विक्षिप्तता चारों तरफ खड़ी हो जाए, तब अचानक रुक जाएं कंट्रास्ट में, इस तूफान की पृष्ठभूमि में शायद क्षण भर को आपको शांति की किरण दिखाई पड़ जाए। विपरीत में देखना आसान होता है। लेकिन तब विपरीत को अति तक ले जाना जरूरी है।
जो लोग विश्राम की कला के संबंध में खोज करते हैं, आर्ट ऑफ रिलैक्जेशन के संबंध में, उन्होंने एक मौलिक सूत्र खोजा है, यह अति वैज्ञानिक है। अगर कोई आपसे कहे कि शरीर को शिथिल छोड़ दो, विश्राम में छोड़ दो, आप क्या करोगे? कैसे छोड़ दोगे? ऐसे लेट जाने का नाम विश्राम नहीं है। विश्राम एक बड़ी ही अनूठी अवस्था है, जिसका आपको पता ही नहीं। आप जागना जानते हैं, जो कि श्रम है; आप सोना जानते हैं, जो कि थकना है। विश्राम का आपको पता नहीं है। जागना श्रम है, सोना थक जाना है। इसलिए मजदूर गहरा सो लेता है। इसलिए नहीं कि उसको गहरा विश्राम पता है; इसलिए कि वह गहरा थक जाता है। अमीर नहीं सो पाता; क्योंकि वह थक नहीं पाता। हमारी नींद थकान है, सिर्फ ध्यानी की नींद विश्राम होती है। हम जितने थक जाते हैं, उतनी नींद में गिर जाते हैं। शरीर जबाब दे देता है, अब और श्रम नहीं किया जा सकता है, शरीर गिर जाता है।
थकान और श्रम के बीच में, मध्य में एक बिंदु है, जो विश्राम है।
लेकिन हम विश्राम में जाएं कैसे? हम दो में घूम सकते हैं--श्रम कर सकते हैं, थक सकते हैं। बीच में एक जगह है और उसका कैसे पता करें? कब विश्राम का क्षण है?
तो विश्राम की कला कहती है कि पहले लेट जाओ और सारे शरीर को जितना तान सको, तनाव से भर सको, भरो। जैसे यह हाथ है मेरा, इसको अगर मुझे विश्राम में ले जाना है, तो पहले मैं इसको खींचूं इसकी नस-नस को, इसको इतना तनाव से भर दूं कि इससे आगे तनाव में जाने का कोई उपाय न रहे। जितना मैं खींच सकूं इस हाथ को, जितना तान सकूं इसका रोआं-रोआं, इसकी चमड़ी का टुकड़ा-टुकड़ा, इसके भीतर की नस, मांस, मज्जा, खून, सब खिंच जाए। और मैं उस जगह आ जाऊं, जब मैं समझ रहा हूं कि अब इससे आगे और तनाव पैदा नहीं किया जा सकता, तब इसे एकदम से ढीला छोड़ दूं। वे जो तनी हुई थीं मांस-पेशियां, एकदम शिथिल हो जाएंगी और उनका क्रमशः शिथिल होना आप अनुभव कर सकते हैं। अगर ध्यानपूर्वक हाथ को अनुभव करें, तो आप पाएंगे कि सीढ़ी-सीढ़ी हाथ विश्राम में जा रहा है, और तब एक जगह आकर हाथ रुक जाएगा, जिससे नीचे नहीं जाया जा सकता। वह विश्राम का क्षण होगा। और इस विश्राम को जानना हो, तो तनाव की पृष्ठभूमि बनानी पड़ती है।
ठीक वही सूत्र ध्यान के लिए है कि पहले आपके भीतर जितना तूफान का मन है, पूरा उठा लें। जितना करना, क्रिया, पूरा उठा लें। कुछ रत्ती भर भी छोड़ें न, जो भी हो सकता है आपके भीतर पागलपन, सारा निकाल लें। तूफान हो जाएं, एक बवंडर, एक आंधी और तब एकदम से ठहर जाएं तत्क्षण; सीढ़ी-सीढ़ी, एक-एक कदम उस जगह आ जाएंगे, जहां आप पाएंगे कि अब विश्राम है।
उस विश्राम के क्षण में ही कभी आपको भीतर की किरण का पहली दफा स्पर्श होगा। नहीं कहा जा सकता, कब होगा। यह अति सूक्ष्म है, इसलिए बहुत मोटे नियम काम नहीं आते। लेकिन होगा। हुआ है, बहुतों को हुआ है, आपको भी होगा। लेकिन होगा उस दिन, जिस दिन तालमेल बैठ जाएगा। आपका तूफान बिलकुल शांत होगा, और केंद्र बिलकुल शांति में खड़ा होगा। अचानक किरण छू जाएगी, आप पहली दफा आत्मा हो जाएंगे। थे सदा से, लेकिन जिसका पता ही नहीं है, उसके होने का क्या मतलब है! और जिस क्षण वह किरण, जो सदा से मौजूद है, आपको दिखाई पड़ेगी और अनुभव में आ जाएगी, उस दिन ही देह मिट गई। नहीं कि आप मर जाएंगे; देह चलेगी, उठेगी, सोएगी, पर अब आप देह नहीं हैं। आपका तादात्म्य बदल गया है।
कल तक देह से लगता था ‘मैं’ हूं, आज वह बात खो गई। आज देह के भीतर जो किरण है छिपी हुई रहस्य की, वही आप हो गए। अब यह देह रहे चाहे--इसकी जरूरत है, इसका उपयोग है, इसकी आवश्यकताएं हैं, वे भी पूरी करेंगे। लेकिन अब इस देह का उपयोग एक घर से ज्यादा नहीं रहा। और यह घर भी एक विश्रामालय है, जहां थोड़ी देर को हैं। और असली घर तो अब वह हो गया, जहां से किरण आई। और जहां किरण वापस जाए, तो ही, अपने मूल-स्रोत में, उदगम में लौट जाए, तो ही हमें जीवन के मूल आधार और परम रहस्य का अनुभव हो सकेगा।
इसलिए बुद्ध ने उसको आलय कहा है, उसको असली घर कहा है, जहां लौटेगी मूल-स्रोत, मूल उदगम में, जैसे गंगा गंगोत्री में लौट जाए। ऐसे जिस दिन आपकी किरण के सहारे को पकड़ कर आप उस महासूर्य में पहुंच जाएंगे, जहां से इस किरण का आना हुआ था, जैसे कोई भटका हुआ यात्री अनेक-अनेक वर्षों की भटकन के बाद अचानक अपने घर में आ जाए, तो जैसा आह्लाद से नाच उठे, फिर वैसा ही नृत्य आपके जीवन में प्रकट होने लगेगा। आपको अपना असली घर मिल गया। परमात्मा असली घर है, और हम उसकी भटकी हुई किरणें हैं। पर हम वही हैं--कितने ही भटक जाएं! और किरण सूर्य से कितनी ही दूर चली जाए, सूर्य ही है।
यह सूत्र कहता है: ‘मनुष्य में आलय के शुद्ध और उज्जवल सत्व को छोड़ कर सब-कुछ मृण्मय है, सब-कुछ मिट्टी है। मनुष्य उसकी ही स्फटिक किरण है, प्रकाश की एक रेखा जो भीतर अपूर्व रूप से निर्दोष और निष्कलुष है--नीची भूमि पर मिट्टी का एक रूप।’
लेकिन अपने स्वभाव में अपूर्व रूप से निर्दोष, निष्कलुष!
किरण की कुछ खूबियां हैं। एक खूबी तो प्रकाश की किरण की यह है कि उसे आप गंदा नहीं कर सकते। उसे गंदा करने का कोई भी उपाय नहीं है। कभी आपने खयाल किया, एक स्वच्छ सरोवर में, निर्मल सरोवर में सूर्य का प्रतिबिंब बनता है। सूर्य की किरणें निर्मल सरोवर की छाती पर नाचती हैं, लहर-लहर सोना हो जाती है। वही सूर्य एक गंदी तलैया में भी नाचता है। गंदी तलैया में बास, गंदगी है, कीचड़-कबाड़ है, कचरा है, पास जाने का मन न हो, इतना कुरूप है; सब गंदा है। सूरज की किरण उस पर भी नाचती है, उस गंदी तलैया में। क्या आप सोचते हैं कि शुद्ध सरोवर पर नाचती किरण शुद्ध और गंदी तलैया पर नाचती किरण अशुद्ध हो जाती होगी? क्या किरण में गंदगी प्रवेश कर सकती है? क्या गंदी तलैया किरण को गंदा कर पाती होगी? क्या गंदी तलैया में स्वर्ण-सूर्य का जो प्रतिबिंब बनता है, वह गंदा हो जाता होगा?
प्रकाश का स्वभाव है निर्दोष होना; उसे अशुद्ध नहीं किया जा सकता। आपके भीतर भी वह जो परम प्रकाश की किरण है, वह निष्कलुष और निर्दोष है, चाहे कितने ही किए हों पाप, तो भी। और चाहे कितनी ही गंदगी इकट्ठी की हो जन्मों-जन्मों में, वह सब मिट्टी के साथ ही जुड़ी है, तलैया के साथ--उस प्रकाश की किरण पर उसका जरा भी कोई प्रभाव नहीं है। वह तो शुद्ध ही है, शुद्ध होना उसका स्वभाव है।
इसे ठीक से समझ लें।
कुछ चीजें हैं जो शुद्ध हो सकती हैं, अशुद्ध हो सकती हैं। उनका स्वभाव नहीं है शुद्ध होना। आप पानी को गंदा कर सकते हैं, शुद्ध कर सकते हैं। शुद्ध होना उसका स्वभाव नहीं है। वह शुद्ध भी हो सकता है, अशुद्ध भी हो सकता है। उसमें परिवर्तन संभव है।
प्रकाश को आप गंदा नहीं कर सकते हैं। शुद्ध होना उसका स्वभाव है, अशुद्ध होने का कोई उपाय नहीं है।
अशुद्ध आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। शुद्ध होना आत्मा का स्वभाव है, शुद्धि ही आत्मा है। तो एक तो यह बात खयाल में ले लें कि आपने कुछ भी किया हो, कुछ भी हुआ हो, आत्मा अशुद्ध नहीं हो गई है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आप कुछ भी करते चले जाएं। इसका मतलब ऐसा लिया गया है।
इसलिए हमारे इस देश में जहां कि आत्मा की इतनी चर्चा है, आदमी इतना गंदा है। उन देशों से भी ज्यादा गंदा है, जिन देशों में आत्मा की इतनी चर्चा नहीं है। उन देशों से भी ज्यादा गंदा है, जहां कि आत्मा का कोई विश्वास ही नहीं है।
अजीब बात मालूम पड़ती है। और जब पश्चिम के लोग भारत की किताबों से प्रभावित होकर भारत आते हैं, तो भारत का आदमी उनके सारे प्रभाव को पोंछ डालता है। वहां से आते हैं सोच कर कि ऋषि-मुनियों के देश में जा रहे हैं और यहां से लौटते हैं सारी आशा खोकर। क्योंकि यहां जिस आदमी से मिलना होता है, उसका ऋषि-मुनि से कोई लेना-देना नहीं है।
यहां जो आदमी है, यह इतना अपवित्र कैसे हो गया है? और इतना क्षुद्र, इतना अशुद्ध! क्या है इसका कारण?
इसका कारण यह महान सूत्र है। यह हैरानी की बात लगेगी कि मैं कहता हूं कि इसका कारण यह महान सूत्र है। महान सूत्र नहीं, हमारे हाथों में तो कुछ भी पड़ जाए, हम उसमें से जो गलत है, वह निकाल लेंगे। इस मुल्क को इस बात का सूत्र बुद्ध ने दिया, महावीर ने दिया, कृष्ण ने दिया कि तुम निष्कलुष हो, तुम पवित्र हो और शुद्ध होना तुम्हारा आत्यंतिक स्वभाव है। कोई उपाय नहीं है तुम्हारे अशुद्ध होने का। हमने कहा, तब बिलकुल ठीक है। यह कहा था इसलिए कि तुम आशा से भरो। यह कहा था इसलिए कि तुम इस आशा की किरण को पकड़ कर उस शुद्ध स्वभाव की यात्रा करो। हमने कहा, तब बिलकुल ठीक है। अगर स्वभाव शुद्ध ही है, तो फिर पाप कर लेने में हर्ज क्या है?
इसे हमने कोई जान कर ऐसा सोचा हो, ऐसा नहीं है। यह हमारे अचेतन मन ने ग्रहण किया है। हम पाप करने में सरल हो गए। जब अशुद्ध होता ही नहीं है, तो फिर अशुद्धि का डर क्या रखना। और जब शुद्ध हैं ही तो फिर यह पाप करने की सुविधा मिली है, यह क्यों खोना! यह अचेतन में बैठ गई बात। तो यह मुल्क आत्मा का परम ज्ञान लेकर भी मनुष्य की दृष्टि से बहुत हीन और दीन हो गया।
इस सूत्र का यह मतलब आप मत लेना कि आप शुद्ध हैं ही, इसलिए बात समाप्त हो गई। इस सूत्र से आप इतना ही मतलब लेना कि आपके भीतर जो अज्ञात किरण है, जो कि आप नहीं हो। आप तो जो हो, वह अशुद्ध है ही। आप तो गंदी तलैया हो। और उस किरण का आपको कोई भी पता नहीं है, जिसकी इस सूत्र में चर्चा है। उपनिषद जिसका गीत गाते हैं, गीता जिसका गुणगान करती है, वह आत्मा की किरण आप अभी नहीं हो। आप हो सकते हो, लेकिन होने की एक शर्त यह है कि यह गंदी तलैया से आपका तादात्म्य छूटे। अगर यह गंदी तलैया बढ़ती चली जाती है, तो तादात्म्य का छूटना मुश्किल है, वह और बढ़ता चला जाता है। अगर इसे मैं ऐसा कहूं कि आप जैसे हो, गंदे ही हो; और आप जैसे हो सकते हो, और जो आपकी आत्यंतिक नियति है, वह सदा शुद्ध है, तो ठीक होगा। तब हमें दो बिंदु मिल जाएंगे। जैसा मैं हूं, वह गंदा हूं, लेकिन जैसी मेरी नियति है, मेरी आत्यंतिक गहरी मेरी प्रकृति है, वह अशुद्ध नहीं है।
तो जो मैं अभी दिखाई पड़ रहा हूं, उसे मुझे छोड़ना है। और जो अभी मैं हूं और दिखाई नहीं पड़ रहा हूं, उसे मुझे पाना है। नहीं तो इस देश में ऐसा हुआ है, साधु, संन्यासी, ज्ञानी समझाते रहते हैं। चोर, पापी, बेईमान, कालाबाजारी, वे सब बैठ कर सुनते हैं, और वे मन में कहते हैं कि बिलकुल ठीक है महाराज। कहां अशुद्ध! आत्मा बिलकुल शुद्ध है।
मैं एक संन्यासी को जानता हूं। जो भारत में थोड़े से कुछ महाज्ञानी हुए उनमें एक हुए, कुंदकुंद। वह उन कुंदकुंद के शास्त्रों पर प्रवचन करते हैं। वह एक संन्यासी हैं। उनका प्रवचन सुनने जो लोग इकट्ठे होते हैं, उनके चेहरे ही बता सकते हैं कि इनका कुंदकुंद से कोई लेना-देना नहीं है। सब चोरों की जमात--अच्छे चोरों की, क्योंकि बुरे चोर तो जेलों में पड़े हैं, उनको तो अवसर नहीं हैं। अच्छे चोरों की जमात इकट्ठी हो जाती है। वे काफी दान-दक्षिणा करते हैं, मंदिर बनाते हैं, आश्रम खुलवाते हैं, तीर्थयात्रा होती है। मुझसे उनका एक भक्त पूछ रहा था कि इतने धनपति सब क्यों यहां कुंदकुंद को सुनने आते हैं? कुंदकुंद में इनका क्या रस हो सकता है?
तो मैंने उनको कहा: कुंदकुंद में एक ही रस है, क्योंकि कुंदकुंद की घोषणा है कि तुम सदा शुद्ध हो, तुम अशुद्ध हो ही नहीं सकते। ये सब चोर इकट्ठे होकर सुन कर बड़े आश्वस्त होते हैं, सदा शुद्ध हैं, बिलकुल ठीक है। तो वे सौ रुपये की चोरी करते हैं, उसमें से दस रुपया दान-पुण्य भी करते हैं कि कुंदकुंद ठीक कहा तुमने, तुम्हारी वाणी से हम आश्वस्त हुए। नाहक परेशान हुए जा रहे थे, चिंता में पड़ते थे, पीड़ा झेलते थे, मन में ग्लानि होती थी। तुमने सब पोंछ डाली, सब धो डाली। वह जो सौ की चोरी की है, उसमें से दस प्रतिशत दान कर देते हैं। और दस प्रतिशत दान करके, फिर सौ की चोरी करने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्योंकि अब कोई डर भी न रहा, अब कोई चिंता नहीं है, कुंदकुंद पर भरोसा पक्का है। और कुंदकुंद ठीक कहते हैं। और ये चोर बिलकुल गलत समझ लेते हैं। पर कठिनाई है, कुंदकुंद कुछ भी कहें, इससे क्या होता है? वह जो समझने वाला आदमी है, वह क्या समझेगा, अंतिम परिणाम तो उससे होने वाला है।
यह सूत्र, इसलिए मैं कहता हूं, थोड़ा सावधानीपूर्वक समझना। इसका यह मतलब नहीं है कि आप ठीक हैं बिलकुल। आप तो बिलकुल गलत हैं। और जो ठीक है आपके भीतर, उसका तो आपको कोई पता ही नहीं है। इसलिए उसको मैं कहूं कि आप हैं, तो ठीक न होगा। ऐसा उचित होगा कहना कि आप जब बिलकुल मिट जाएंगे, तभी आपको उसका पता चलेगा, जो सदा शुद्ध है। यह जो गंदी तलैया है, जब तिरोहित हो जाएगी, तब वह किरण शुद्ध होगी। वह शुद्ध है। लेकिन इस गंदी तलैया से जुड़ कर वह तो खो ही गई है, तलैया ही रह गई है।
‘वही प्रकाश-रेखा तेरा जीवन-गुरु और तेरी सच्ची आत्मा है--द्रष्टा और मूक चिंतक।’
गुरु की तलाश आदमी करता है, स्वभावतः बाहर खोजता है। क्योंकि हम खोजते ही बाहर हैं। कुछ भी खोजना हो तो बाहर खोजते हैं। धन खोजना हो तो बाहर खोजते हैं, धर्म खोजना हो तो बाहर खोजते हैं। गुरु भी खोजना हो तो बाहर खोजते हैं। खोज ही हमारी बाहर है। आंखें ही हमारी बाहर दौड़ती हैं, हाथ हमारे बाहर फैलते हैं, पैर हमारे बाहर भागते हैं। भीतर का हमें कुछ पता नहीं है। गुरु को भी हम बाहर खोजते हैं। कोई उपाय भी नहीं, क्योंकि भीतर का भी कौन हमें कहे।
और गुरु भीतर है। यह जीवन की जो किरण है--यही तेरा जीवन, यही तेरा गुरु है। क्योंकि इस किरण का तुझे पता चल जाए, तो रास्ता मिल गया। इसी किरण के रास्ते पर तू चलता जाए, तो तू महासूर्य तक पहुंच जाएगा। इस किरण का स्मरण आ जाए, तो हम सूर्य के हो गए। यह जीवन-किरण है तेरी गुरु, तेरी सच्ची आत्मा। लेकिन गुरु को हमें बाहर खोजना पड़ता है; क्योंकि हम सभी कुछ बाहर ही खोजते हैं। जीवन की जटिलताओं में एक जटिलता यह भी है कि गुरु भीतर है और हमें बाहर खोजना पड़ता है। इसका क्या अर्थ हुआ? इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि तब फिर गुरु न खोजा जाए, तो फिर गुरु की कोई जरूरत नहीं?
एक मित्र ने सवाल पूछा है कि कृष्णमूर्ति कहते हैं, गुरु की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन अगर कृष्णमूर्ति की यह बात मान ली, तो कृष्णमूर्ति तुम्हारे तो कम से कम गुरु हो ही गए। कृष्णमूर्ति कहते हैं यह, तुम नहीं कहते हो। और कृष्णमूर्ति को तुम मान लो, तो और गुरु होने में होता क्या है? बचता क्या है?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम किसी को गुरु नहीं बना सकते हैं, क्योंकि हम तो कृष्णमूर्ति को मानते हैं। तो गुरु तो बना लिया, गुरु बनाने का और अर्थ क्या होता है? किसी को माना, क्योंकि अपने पर भरोसा नहीं है, इसलिए किसी का सहारा लिया, इतना ही गुरु का अर्थ होता है। जिस दिन अपना ही भरोसा आ जाता है, उस दिन तो गुरु की कोई जरूरत नहीं रह जाती। लेकिन अभी वह भरोसा नहीं है। तो फिर बाहर गुरु की खोज का क्या अर्थ है?
एक तो यह बात है, जो कृष्णमूर्ति कहते हैं कि गुरु की कोई जरूरत नहीं है। वे बिलकुल ठीक
कहते हैं; क्योंकि जीवन-गुरु भीतर है। लेकिन वे भी लोगों को समझा रहे हैं कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। इस अर्थ में तो गुरु हो जाते हैं, शिक्षक हो जाते हैं। और वे कितना ही कहें कि मैं कोई शिक्षा नहीं देता--फिर क्या देते हैं? और वे कितना ही कहें कि मुझसे कुछ ग्रहण मत कर लेना, लेकिन वे जो सुनने आते हैं, वे ग्रहण करके जाते हैं। वह जो सुनने आया है, ग्रहण करने ही आया है। वह शिष्य है, इसीलिए आया है। उसे गुरु की तलाश है, और वह चाहता है कि कोई उसे बता दे रास्ता, जो उसे पता नहीं है। और यह सच है गहरे अर्थों में कि गुरु भीतर है, कोई दूसरा क्या रास्ता बताएगा, उसी से रास्ता मिलेगा। लेकिन आदमी क्या करे, वह कहां जाए? उसे खुद नहीं मिल रहा है, यह साफ है। और खुद मिलता होता, तो कभी का मिल गया होता।
आज ही एक व्यक्ति ने मुझे आकर कहा कि अनेक ज्ञानी जब कहते हैं कि गुरु की कोई जरूरत नहीं और गुरु भीतर है, तो फिर हम क्यों किसी को गुरु मानें? तो मैंने उनको कहा कि अब तक बिना गुरु के तुम रहे हो, मिल गया? अगर मिल गया तो बात खत्म हो गई। और नहीं मिला बिना गुरु के, तो अब तुम करोगे क्या? मिलना होता तो मिल गया होता। अब तुम करोगे क्या? और तुम मेरे पास क्यों आए हो?
आदमी की उलझन बड़ी है। वह आदमी मुझसे कहने लगा: मैं इसलिए आया हूं यही पूछने आपसे कि मेरा यह मानना ठीक तो है न कि बिना गुरु के चल जाएगा? कि अगर मैं गुरु न बनाऊं, तो कोई अड़चन तो नहीं आएगी? गुरु बनाना हो, तो किसी से पूछने जाना पड़ता है? न बनाना हो, तो भी किसी से पूछने जाना पड़ता है? गुरु से बचने का उपाय नहीं दिखता है।
कोई गुरु के पक्ष में है, तो उसके शिष्य बन जाते हैं लोग। कोई गुरु के विपक्ष में है, तो उसके शिष्य बन जाते हैं लोग। जो गुरु के पक्ष में है, वह समझाता है गुरु बिना ज्ञान नहीं होगा। वह भी समझाता है, जो गुरु के विपक्ष में है। वह भी कहता है गुरु भर मत बनाना, नहीं तो ज्ञान नहीं होगा। वह भी समझाता है।
मेरी दृष्टि है कि आप गुरु से बच नहीं सकते। भीतर का गुरु है, उसका आपको पता नहीं है। आपको बाहर गुरु पकड़ना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा। लेकिन बाहर का गुरु सिर्फ एक काम कर सकता है। वह गुरु नहीं हो सकता, लेकिन बाहर के गुरु के निकट रह कर शांत होकर उसकी सन्निधि में, उसकी मौजूदगी में, उसके उठने-बैठने में, उसकी वाणी में, उसके मौन में, उसकी आंखों में, उसके हाथों में, उसके जीवन की जो धारा बह रही है आपके पास, उसमें किसी दिन आपको उसकी प्रतिध्वनि मिल सकती है, जो आपके भीतर है--झलक। क्योंकि गुरु का अर्थ ही है: वह व्यक्ति जिसने अपने भीतर के गुरु को पा लिया। और कोई अर्थ नहीं है।
जिसने जीवन-गुरु को पा लिया, वह व्यक्ति गुरु हो गया। वह अपना तो गुरु हो ही गया, लेकिन अब वह आपके लिए भी झलक का काम बन सकता है, दर्पण बन सकता है। उसकी कोई किरण आपको भी चोट कर सकती है। उसकी वीणा के स्वर नाचने लगे हैं। उसकी नाच की धुन आपके भीतर भी प्रवेश कर जाए, तो आपकी वीणा भी झंकृत हो सकती है।
वीणावादक कहते हैं कि अगर एक शांत कमरे में एक वीणा रखी जाए, शांत मौन एक कोने में और दूसरे कोने में आहिस्ता से दूसरी वीणा के स्वर झंकृत किए जाएं और फिर झंकार बढ़ती ही जाए, तो एक घड़ी आती है कि वह जो शांत मौन रखी वीणा है, उसके तार कंपित होने लगते हैं। यह जो झंकार कमरे में गूंजती है, यह झंकार उस वीणा को भी पकड़ लेती है, उसके तार भी आहिस्ता से कंपने लगते हैं। ऐसा ही कंपन गुरु के पास आपके भीतर के गुरु में हो जाता है। इसलिए गुरु के प्रति समर्पण का इतना मूल्य है। क्योंकि समर्पण न हो तो आप अकड़े खड़े हैं। वीणा के तार ढीले छोड़ ही नहीं रहे हैं कि वे कंप सकें। समर्पण हो तो यह कंपन हो सकता है। समर्पण हो, तो आप खुल गए, आपका झरोखा खुला है।
और समान समान को आंदोलित करता है, समान समान को प्रभावित करता है। समान से समान गतिमान हो जाता है। अगर बाहर कोई गुरु है, वह आपका गुरु नहीं है असल में, आपका गुरु आपके भीतर छिपा है। लेकिन वह जो भीतर छिपा है, उसमें कोई प्रतिध्वनि तो हो, कोई हलन-चलन हो, कोई चोट पड़े, कोई झंकार हो। यह बाहर का गुरु अपने अस्तित्व से, अपने होने के ढंग से ही आपके भीतर के गुरु के लिए पुकार, आवाहन बन जाता है, एक चुंबक बन जाता है। और फिर आपको पहचान भी इसके पास आनी शुरू हो जाती है कि अगर किसी दिन भीतर का गुरु मिलेगा, तो कैसा होगा।
विवेकानंद निरंतर एक कहानी कहा करते थे कि एक मादा सिंहनी छलांग लगाती थी एक पहाड़ से। गर्भिणी थी, और छलांग लगाते हुए उसको बच्चा हो गया। और नीचे भेड़ों का एक झुंड गुजरता था, बच्चा भेड़ों के झुंड में गिर गया। फिर भेड़ों ने उसे बड़ा कर लिया। और उस शेर के बच्चे ने सदा यही जाना, सिंह के बच्चे ने कि वह भेड़ है। और कोई जानने का उपाय भी न था। क्योंकि जिनके पास हम होते हैं, हम जानते हैं कि हम उन्हीं जैसे हैं। मां--दूध पिलाने वाली मां भेड़ थी, संगी-साथी भेड़ थे। सिंह को पता भी कैसे चले कि मैं भेड़ नहीं हूं?
वह भेड़ों जैसी आवाज करना सीख गया, भेड़ों ही जैसा भागता था। थोड़ी बेचैनी तो उसे होती थी, क्योंकि वह भेड़ों से बहुत बड़ा हो गया। लेकिन तब यही समझा गया कि थोड़ी एबनार्मल, असाधारण भेड़ है। भेड़ें भी उसको भेड़ ही समझती थीं; क्योंकि उन्हीं जैसी आवाज करता, उन्हीं के साथ बड़ा हुआ, उन्हीं के साथ खेला-कूदा; सिंह जैसा कोई लक्षण उसमें उनको दिखाई भी नहीं पड़ा। न हमला करता था, न काटता था, न खाता था। भेड़ें जो खाती थीं, वही खाता था। भेड़ें जो बोलती थीं, वही बोलता था। भेड़ होना उसका जीवन था। थोड़ा एबनार्मल था, थोड़ा असाधारण था। थोड़ी लंबाई ज्यादा थी, शरीर जरा बड़ा था, रंग-रूप थोड़ा भिन्न था। तो असाधारण बच्चे तो सभी जातियों में पैदा हो जाते हैं। भेड़ों में भी हो जाते हैं। असाधारण होने की वजह से उसे थोड़ी परेशानी भी होती थी, वह अपने को दीन-हीन भी समझता था। आप भी अगर पांच फीट लंबे लोगों में दस फीट के हो जाएं, तो आप कमर झुका कर और डरे-डरे चलेंगे। क्योंकि आप बीमार हैं।
मैं जिस विश्वविद्यालय में था, मेरे एक प्रोफेसर को बीमारी हो गई थी। सारे लोग कहते थे, बीमारी है; वे भी बेचारे कहते थे, बीमारी है। वे नौ फीट होते जा रहे थे, धीरे-धीरे लंबे होते जा रहे थे। बड़े परेशान रहते थे, सो नहीं सकते थे--चिंता, इलाज। मैंने उनको पूछा कि तुम्हें तकलीफ क्या है? वे बोले: तकलीफ और कुछ नहीं है, यह लंबा होता जाना ही तकलीफ है। इसमें क्या तकलीफ है? कोई तकलीफ है तुम्हें? कोई पीड़ा, परेशानी, कोई दिक्कत तुम्हें हो रही है, जिसका तुम इलाज करवा लो? बस यह बड़ा होते जाना...क्योंकि जो देखता है, वही मुझे चौंक कर देखता है! पत्नी कहती है: यह क्या हो रहा है? कहीं जाती हूं तो लोग पूछते हैं, क्या ये तुम्हारे पति हैं? वे झुक कर चलते थे बिलकुल कि कितने नीचे हो जाएं!
वैसी हालत उस सिंह की रही होगी। बड़ा परेशान था, बेचैन था। और एक दिन और मुसीबत आ गई। एक सिंह ने उस झुंड पर हमला कर दिया। भेड़ें भागीं और भेड़ों के बीच में यह सिंह भी घसर-पसर भागा। वह जो दूसरा सिंह था, वह देख कर चमत्कृत हो गया। ऐसा दृश्य उसने कभी नहीं देखा था कि यह हो क्या रहा है! एक सिंह, और भेड़ों के बीच में भाग रहा है! और भेड़ें उससे घसर-पसर करती भाग रही हैं! कोई उससे परेशान भी नहीं है! और यह क्यों भाग रहा है? और भेड़ें इसके साथ इतना तालमेल कैसे बनाए हुए हैं? वह सिंह भेड़ों को मारने की बात तो भूल ही गया, भूख की तो बात भूल गया। वह भागा, बामुश्किल इस सिंह को पकड़ पाया। भेड़ होती, तो पकड़ना आसान भी होता, वह था तो सिंह। तो भागता तो सिंह की तरह था। बामुश्किल पकड़ पाया, जवान था और यह बूढ़ा था सिंह।
पकड़ लिया, तो वह मिमियाने लगा, रोने लगा, हाथ जोड़ने लगा कि क्षमा कर दो, माफ कर दो, अब कभी तुम्हारे रास्ते में न आऊंगा, मुझे जाने दो। उसने कहा: तू पागल हो गया है? तू भेड़ नहीं है। उसने कहा: मैं भेड़ हूं, थोड़ी असाधारण, थोड़ी ऊंचाई मेरी ज्यादा है। रंग-रूप जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं है, पर हूं मैं भेड़।
वह सिंह उसे पकड़ कर नदी के किनारे ले गया। वह रोता, चीखता कि मुझे जाने दो, मेरे सब संगी-साथी पीछे पिछड़ गए हैं। उसको घबड़ाहट हो रही कि अब मारा गया, अब मेरी मौत करीब है। लेकिन वह बूढ़ा सिंह उसको किसी तरह ले गया नदी के किनारे और कहा: झांक कर देख पागल, नदी में अपने चेहरे को। उस सिंह ने, भेड़ बने सिंह ने बड़े डरते-डरते पानी में झांक कर देखा। क्षण भर में सब बदल गया। क्षण भर में! भेड़ की आवाज खो गई। सिंह की गर्जना प्रकट हुई। जैसे ही देखा अपना चेहरा नीचे, गर्जना निकल गई। जो कभी उसने जानी न थी कि उसके भीतर छिपी है, सिंह की गर्जना। एक क्षण में वह सिंह हो गया। वह सिंह था, सिर्फ भ्रांति टूट गई।
गुरु का इतना ही अर्थ है कि वह पकड़ कर आपको किसी पानी में दिखा दे कि आप क्या हो। या खुद पानी बन जाए और आपको दिखा दे कि आप क्या हो। एक झलक आपको अपनी मिल जाए, आपको अपना गुरु मिल गया।
यह सूत्र कहता है कि ‘वह किरण, वह प्रकाश की रेखा ही तेरा जीवन-गुरु, तेरी सच्ची आत्मा है--द्रष्टा और मूक चिंतक। और तेरी निम्न आत्मा का शिकार आत्मा केवल भूल करने वाले शरीर में आहत होती है। इन दोनों पर नियंत्रण और स्वामित्व कायम कर और तू निकट आते हुए संतुलन के द्वार के भीतर जाने में सुरक्षित है।’
‘और तेरी निम्न आत्मा का शिकार आत्मा केवल भूल करने वाले शरीर में आहत होती है।’
और तूने जितनी भूलें की हैं, और तूने जितने पाप किए हैं, उन सबकी छाया और प्रतिबिंब और चिह्न तेरे शरीर में ही छूटते हैं, तुझमें नहीं। उनकी पीड़ा का, उनके फल का भोग भी तेरे शरीर में ही होता है, तुझमें नहीं। लेकिन तू अपने को शरीर के साथ एक मानता है, इसलिए तू अकारण, व्यर्थ ही पीड़ित होता है।
भेड़ के साथ जिसने अपने को एक माना है, वह भेड़ की भांति पीड़ित होगा। और यह पीड़ा काफी वास्तविक है, इसलिए कहने से कुछ अर्थ नहीं है कि वह झूठ है। वह जो सिंह भाग रहा था भेड़ों के बीच में, क्या उसका डर कुछ कम था? क्या उसकी छाती कुछ कम घबड़ा रही होगी? और अगर भागते ही जाता, तो हार्ट अटेक उसको आता, जैसा कि किसी भी भेड़ को आ सकता था। यह सब वास्तविक है। इतना कह देने से कि भ्रांति है, कुछ हल नहीं होता। होगी भ्रांति, लेकिन जब भ्रांति चलती है, तब तो वास्तविक है। और तब तो उसकी पीड़ा उतनी ही सच्ची है, जितनी वास्तविक पीड़ा होगी।
कौन सी पीड़ा हो रही होगी सिंह को?
वह सिंह है और भेड़ माने हुए है, इसलिए दुख पा रहा है।
वह दुख कहां छिपा है? उसकी धारणा में, उसके तादात्म्य में।
आपने जितने पाप किए हैं, जितनी भूलें की हैं, जितनी बुराइयां की हैं, वे सब आपमें नहीं छिपी हैं, आपकी भ्रांति में छिपी हैं--और आपकी भ्रांति है कि मैं शरीर हूं। सारी छाप शरीर पर पड़ती है। और सारी छाप का फल शरीर को भोगना पड़ता है। और शरीर के साथ मेरा तादात्म्य है, इसलिए मैं भी भोगता हुआ प्रतीत होता हूं। वह प्रतीति है, लेकिन दुख तो पूरा है। इससे कोई भेद नहीं पड़ता।
मनस्विद कहते हैं कि उनके पास लोग आते हैं। अगर उनसे कहा जाए कि तुम्हें मानसिक बीमारी है, तो पुराने दिनों में, आज से सौ वर्ष पहले, फ्रायड के पहले, कोई मन का डॉक्टर तो होता नहीं था, शरीर के ही डॉक्टर थे। शरीर का डॉक्टर इतना ही कह देता था कि भई, यह कोई बीमारी नहीं है--जांच कर लेता शरीर की। और आप कहते हैं कि मेरे तो सिर में दर्द होता ही चला जाता है। और सिर में कोई दर्द न हो वस्तुतः, तो चिकित्सक इतना ही कह सकता था कि आपको भ्रांति है, आपको खयाल है कि दर्द है। दर्द है नहीं, इसलिए कोई इलाज हो नहीं सकता, आप भ्रांति छोड़ दो। लेकिन भ्रांति कोई कैसे छोड़ दे? और जिसको दर्द हो रहा है, आपके कहने से भ्रांति हो जाती है? दर्द तो हो रहा है। और दर्द उतना ही है, जितना कोई वास्तविक दर्द हो।
फ्रायड के बाद मनस्विदों ने यह बात कहनी बंद कर दी कि भ्रांति है। यह खयाल में आया कि भ्रांति भी तो दर्द जब देती है, तो उतना ही देती है, जितना कोई सत्य दे। इसलिए यह कहने से कोई हल नहीं है। इस भ्रांति को मिटाने का उपाय करना जरूरी है।
क्या होगा उपाय?
जब तक हमारी यह तादात्म्य की भाव-दशा बनी है कि मैं शरीर हूं, तब तक हम क्या करें? कैसे खोजें कि यह भ्रांति है? क्या उपाय करें कि हमें दिखाई पड़ने लगे?
दो-तीन बातें उपयोगी हैं।
पहली: नियंत्रण, स्वामित्व कायम कर।
हमारा अपने पर कोई नियंत्रण ही नहीं है, कोई मालकियत नहीं है, कोई स्वामित्व नहीं है। और स्वामित्व न हो, तो शरीर ही हमें चलाता है। हम सोचते भले हैं कि हम शरीर को चला रहे हैं, लेकिन शरीर ही हमें चलाता है। और यह बड़े मजे का मामला है, आप सदा यही सोचते हैं कि आप मालिक हैं और आप सब चला रहे हैं। आप एक चौबीस घंटे की डायरी लिखें कि आपने शरीर को चलाया कि शरीर ने आपको चलाया, तो आपको पता चलेगा कि शरीर ने आपको चलाया है। और आप शरीर को जरा भी--जरा भी नहीं चला सके। तो जो शरीर आपको चलाता रहे, तो फिर बहुत कठिन है भ्रांति से जागना, क्योंकि जिसमें भ्रांति है वह आपका मालिक बना है। उसको कैसे आप हटाइएगा?
तो पहले तो उसकी मालकियत अलग करें। फिर उसका तादात्म्य टूट सकता है, तो नियंत्रण करें।
समस्त तपश्चर्या की प्रक्रियाएं अपने को सताने की प्रक्रियाएं नहीं हैं; सिर्फ नियंत्रण करने की प्रक्रियाएं हैं।
पेट में भूख लगी है और आपने कहा कि ठीक है, भूख लगी है शरीर, मुझे पता चल गया; लेकिन आज मैंने भोजन न करने का निर्णय किया है, अब तू चुप हो जा।
पुरानी आदत है, शरीर इतना आसानी से चुप नहीं हो जाएगा। और पहले कई दफा आपने चुप करना चाहा है, वह चुप नहीं हुआ। उसने और ज्यादा शोरगुल मचाया। और फिर आपने भोजन कर लिया। तो वह जानता है कि थोड़ा शोरगुल मचाओ। आपके छोटे-छोटे बच्चे जानते हैं। तो शरीर तो बहुत पुराना अनुभवी है।
छोटा बच्चा बाप से कहता है कि आज खिलौना लाना। बाप कहता है कि नहीं ला सकते। छोटा बच्चा जानता है कि बाप की हिम्मत कितनी है। तीन दफे ज्यादा से ज्यादा कहेगा कि नहीं ला सकते। चौथी दफे झुकेगा। वह शोरगुल मचाना शुरू कर देता है, पैर पटकता है, कूदता-फांदता है। वह जानता है कि कितनी सीमा है। बाप थोड़ा झुकता है। जब वह ज्यादा उपद्रव मचाने लगता है, वह कहता है कि भई ठहर, एक दो-चार दिन रुक। वह कहता है कि बिलकुल रुक सकते नहीं। उसने पकड़ लिया हाथ। अब वह जानता है कि थोड़ा और दबाने की जरूरत है, और ये राजी होंगे। और यह कई दफे हो चुका है। और फिर भी बाप की नासमझी है कि फिर भी वह पहले ना कहता है, और फिर तीन दफे में हारता है। इसमें उसकी सब प्रतिष्ठा भी जाती है। इससे तो पहली दफा हां भर देना बेहतर है।
फ्रायड ने कहा है कि सिर्फ उन्हीं बातों में ना करना बच्चों को, जिनमें तुम ना कायम रख सको, अन्यथा तुम बच्चों को नष्ट कर रहे हो। अगर तुमको पहले से ही पता हो कि ना तुम कायम न रख सकोगे और यह बच्चा जीत जाएगा और तुमसे हां भरवा लेगा, तो बेहतर है तुम पहली दफे ही हां भर देना। उसमें तुम मालिक तो रहोगे। और ऐसी बातों के लिए बच्चों को कहना जो तुम करवा सको।
जैसे एक बच्चा रो रहा है और आप उससे कहते हैं, चुप हो जा। अगर वह नहीं हुआ, तो आप क्या करेंगे? और बच्चे को एक दफा पता चल गया कि तुम कहते हो चुप हो जाओ, वह नहीं होता, तो आप कुछ नहीं कर सकते, तो उसको आपकी नपुंसकता पता चल गई। फ्रायड ने कहा है कि बच्चे को ऐसी बात मत कहना, जो तुम न करवा सको। बच्चे से कहना, कमरे से बाहर निकल जा; अगर न निकले, तो उसे उठा कर बाहर रखा जा सकता है, दरवाजा बंद किया जा सकता है। लेकिन उससे कहो कि मत रो, तो क्या करेंगे? आप जो करेंगे, उसमें और ज्यादा रो सकता है। और एक बार उसको ऐसा पता चल जाए कि कुछ चीजें हैं, जो आप कहते हैं और करवा नहीं सकते, तो मालिक वह हो रहा है; आप धीरे-धीरे कमजोर होते जा रहे हैं।
छोटे-छोटे बच्चे ही समझ लेते हैं, तो शरीर तो बहुत प्राचीन है। हजारों बार शरीर में आप रहे और शरीर की निश्चित प्रक्रिया हो गई है। आपको भूख लगी है, तो शरीर शोरगुल मचाएगा कि अभी चाहिए, अभी चाहिए, अभी चाहिए।
तपश्चर्या का अर्थ शरीर को कष्ट देना नहीं है। तपश्चर्या का अर्थ सिर्फ नियंत्रण बदलना है। शरीर मालिक नहीं है, मालिक मैं हूं। भूख लगी है, वह मुझे पता चल गया। अब तुम चुप हो जाओ। और मुझे भूख आज नहीं भरनी है, पूरी नहीं करनी है, आज मुझे भूखा रहना है। फिर इस बात पर टिकना। थोड़े ही दिन के प्रयोग में आप पाएंगे कि आपके कहते ही कि आज भोजन नहीं करना है, शरीर चुप हो जाएगा।
लेकिन शुरू में नहीं होगा यह। शुरू में तो वह बहुत उपाय करेगा; मन में न मालूम कितनी तरह के विचार पैदा करेगा। न मालूम कितनी जगह के निमंत्रण आ जाएंगे; न मालूम कितनी जगह राजभोज होने लगेगा। न मालूम...सारे रास्ते पर गुजरेंगे, तो सब दुकानें खो जाएंगी, सिर्फ होटलें दिखाई पड़ने लगेंगी। वह सब उपाय करेगा, अपनी तरफ से सारी चेष्टा करेगा; क्योंकि उसकी पुरानी प्रतिष्ठा है और उस प्रतिष्ठा को आप हटाए डाल रहे हैं।
लेकिन अगर आप टिके रहे, और आपने साहस का उपयोग किया, तो आज नहीं कल शरीर समझ जाएगा कि मालकियत खो गई है। और वह आपका अनुगमन करने लगेगा। तब एक बड़ी अदभुत घटना घटती है, जो कि वे ही लोग जानते हैं, जो शरीर की मालकियत कर लेते हैं। तब आपके कहते ही शरीर चुप हो जाता है। कहते ही--आपने कहा कि आज भोजन नहीं, तो शरीर चुप हो जाता है; क्योंकि वह जानता है कि इस आदमी से भोजन अब मिलने का कोई उपाय न रहा।
शरीर की अपनी समझ है। और शरीर बड़ा समझदार यंत्र है। और आपका रग-रग, रेशा-रेशा वह पहचानता है कि आप किस तरह के आदमी हैं। आपका ही शरीर है, चारों तरफ आपके घिरा है। सब तरह से आपसे परिचित है। कौन आपसे इतना ज्यादा परिचित है, जितना आपका शरीर है। वह इंच-इंच रत्ती-रत्ती जानता है कि किस तरकीब से आप झुकते हैं; वह सारा उपाय करता है। शरीर की भी पॉलिटिक्स है आपके साथ। उसकी भी राजनीति है। और वहां भी द्वंद्व और संघर्ष है। इस द्वंद्व और संघर्ष को तोड़ना पहली जरूरत है; तभी तादात्म्य टूट सकेगा।
‘दूसरे तट को जाने वाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे। और अनंत आकाश में जो लुभाने वाली शक्तियां हैं, जो दुष्टभाव वाली आत्माएं हैं, जो द्वेषी ल्हामयी हैं, उनसे दूर ही रह।’
पहली बात: शरीर को मालकियत से उतारें। इसका मतलब यह नहीं कि शरीर के दुश्मन हो जाएं कि उसको नष्ट कर डालें। इसका मतलब यह है कि उसे, जहां वह होना चाहिए--सेवक--वहां उसे बिठा दें। वह वहीं योग्य है, और वहां उसकी बड़ी उपयोगिता है। और एक बार आप उसके मालिक हो जाएं, तो शरीर से आप वे काम ले सकते हैं, जिनके बिना आत्मा की कोई यात्रा नहीं हो सकती। शरीर फिर अदभुत यंत्र है।
अभी तक जगत में मनुष्य के शरीर जैसा अदभुत यंत्र कोई भी नहीं है। बहुत सूक्ष्म, बहुत विराट, सब उसमें समाहित है। और उसमें अनंत शक्तियां प्रसुप्त हैं, जो सब जाग जाएं, तो आपके जीवन में अनंत द्वार खुल जाते हैं। आप स्वयं एक छोटे-मोटे विश्व हैं। लेकिन वह मालिक हो शरीर, तो आप सिर्फ गुलाम हैं। और हालत ऐसी है, जैसे बैलगाड़ी आगे हो और बैल पीछे बंधे हों, तो कहीं कोई जाना नहीं होता। आप बहुत तड़फते हैं, चिल्लाते हैं कि कहीं जाना जरूरी है, यात्रा करनी जरूरी है, मंजिल पर पहुंचना चाहिए, समय नष्ट हो रहा है। पर काम आप ऐसा किए हैं कि समय नष्ट होगा ही। बैल पीछे बंधे हैं, गाड़ी आगे बंधी है; धक्का-मुक्की में गाड़ी उलटी टूटती है, बैल परेशान होते हैं, कहीं कोई यात्रा नहीं होती है।
आत्मा पीछे बंधी है शरीर के, तो यात्रा नहीं हो सकती है। आत्मा आगे होनी चाहिए, शरीर पीछे होना चाहिए, तो फिर बड़ी यात्रा हो सकती है। और शरीर अदभुत वाहन है। उसका उपयोग किया जा सकता है।
दूसरी बात खयाल रखनी जरूरी है कि इस नियंत्रण के प्रयोग में उदासी न पकड़ ले; चित्त प्रसन्न रहे। क्योंकि शरीर की जो सबसे गहरी तरकीब है, वह आपको उदास करके पराजित करने की है। अगर आप भूखे हैं और उपवास किया है तो आपका मन उदास हो जाएगा। अगर उपवासा आदमी उदास है, तो समझना कि उपवास व्यर्थ हो गया। इससे बेहतर था, वह भोजन कर लेता और प्रसन्न रहता। अगर उपवासा आदमी उदास है, तो समझना बात व्यर्थ हो गई, बात खत्म हो गई। क्योंकि उदासी शरीर की तरकीब है आपसे बदला लेने की। और शरीर आपको थका डालेगा। और उदासी कितनी देर तक झेलिएगा?
इसलिए जब शरीर पर नियंत्रण करना हो, तो दूसरा सूत्र खयाल रखना कि शरीर उदासी की लहरें भेजेगा; शरीर सब तरफ से आपको उदास करने की कोशिश करेगा। आप उदास मत होना, आप प्रसन्न रहना। अगर आप प्रसन्नता कायम रख सकें, तो अदभुत अनुभव होते हैं। जैसे, आपको पता नहीं है, इसलिए बड़ी अड़चनें होती हैं।
शरीर के भीतर शक्ति के तीन तल हैं। एक तल तो रोज मर रहा है काम के लिए, वह बहुत छोटा सा है। रोज जो आपको काम करने पड़ते हैं--उठना-बैठना, चलना, दफ्तर जाना, वह सब काम के लिए, एक छोटा सा स्रोत आपके शरीर के ऊपर है। यह जल्दी थक जाता है, चुक जाता है। क्योंकि इसकी पूंजी बहुत कम है।
समझें ऐसा कि आप दिन भर के थके-मांदे लौटे हैं और आप कहते हैं कि बिलकुल पड़ जाऊं और सो जाऊं। अब एक शब्द भी बोलने की इच्छा नहीं है, हाथ भी हिलाने की इच्छा नहीं है, बस सो जाना चाहता हूं। तभी अचानक घर में आग लग जाए; आपकी सब उदासी खो जाती है, थकान खो जाती है। आप एकदम सचेत हो जाते हैं, शक्ति का स्रोत दौड़ पड़ता है। यह शक्ति कहां से आई--यह आपमें नहीं थी अभी तक? यह दूसरा स्रोत है शरीर का, इमरजेंसी का। तात्कालिक जरूरत जब आ जाए, तो शरीर में नया स्रोत काम शुरू कर देता है; शक्ति दौड़ जाती है। अब आप रात भर आग बुझाने में लग सकते हैं और थकान नहीं आएगी।
इससे भी गहरा एक स्रोत है, जो अनंत स्रोत है। वह तभी उपलब्ध होता है, जब ये दोनों स्रोत चुक जाते हैं, और आप डरते नहीं, और प्रसन्नतापूर्वक और भी आगे श्रम करते चले जाते हैं। तब एक घड़ी आती है कि तीसरा स्रोत टूटता है, जो कि कॉस्मिक है, जो कि जागतिक है। वह आपका नहीं है; कहना चाहिए कि आपके नीचे छिपा हुआ जो चैतन्य का सागर है, उसका है। जिस दिन वह टूट पड़ता है, उस दिन फिर चुकने का कोई उपाय नहीं। उस दिन फिर आप शाश्वत जीवन के मालिक हो गए।
इधर मैं देखता हूं, ध्यान में लोग आते हैं, तो वे मुझे कहते हैं कि थक जाता है शरीर। मैं उनसे कहता हूं: फिकर मत करो, तुम चलते जाओ। एक ही खयाल रखना कि प्रसन्नता से, उदासी से नहीं। जल्दी ही दूसरी पर्त टूट जाएगी, और जल्दी ही टूट जाती है। और जब दूसरी पर्त टूट जाती है, तब वे ध्यान के बाद थकान अनुभव नहीं करते,
ताजगी अनुभव करते हैं। जब यह दूसरी पर्त भी थका डालेंगे आप, तब एक और तीसरी पर्त टूटेगी। उसके बाद आपके पास शाश्वत ऊर्जा है, उसके बाद अनंत जीवन आपका है, उसके बाद आप वहां आ गए, जहां कोई चीज कभी नहीं चुकती। प्रसन्नता का सहारा लेकर चलेंगे, तो ही इतने गहरे उतर पाएंगे। उदास हो गए, तो आप वापस लौट जाएंगे।
इसलिए बहुत गहरे में आप इसको पकड़ लें कि धर्म की साधना आपका आह्लाद हो, आनंद हो। आनंद अंत में नहीं, पहले चरण पर भी हो। आखिर में मिलेगा, ऐसा नहीं है, आज भी हो। उत्सवपूर्वक नाचते, गाते, प्रसन्न उस तरफ बढ़ें तो शरीर को आप जीत लेंगे। क्योंकि शरीर की जो बुनियादी तरकीब है, उसके विपरीत आपने एंटीडोट, विपरीत औषधि तैयार कर ली। शरीर उदास करके आपको पराजित कर देता है। प्रसन्न रह कर आप शरीर के मालिक हो सकते हैं।
यह सूत्र कहता है: ‘दूसरे तट को जाने वाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह।’
यह बड़े मजे का सूत्र है। और दूसरी ही पंक्ति में जो बात आती है, आप सोच भी न सकेंगे कि वह बड़ी उलटी है। ठीक इसके बाद कि ‘ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह, कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे।
अक्सर तो ऐसा होता नहीं है। वे लोग प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं, जो कामदेव की कानाफूसी पर कान देते हैं। कामदेव से जो बचते हैं, उनकी हालतें देखें, वे प्रसन्न नहीं दिखाई पड़ते। जाएं, जैनी साधुओं को देखें, वे मरने के पहले मर गए हैं; कोई प्रसन्नता नहीं है। इनको क्या रोग लग गया है? ये कामदेव से लड़ रहे हैं।
मनस्विद कहते हैं कि जिसकी कामवासना प्रकट होकर, खुल कर बहती है, वह प्रसन्न रहता है। जिसकी कामवासना अवरुद्ध कुंठित हो जाती है, वह अप्रसन्न और उदास हो जाता है। वे कहते हैं कि जवान आदमी प्रसन्न दिखाई पड़ता है, क्योंकि उसकी कामवासना अभी उभार पर है। बूढ़ा आदमी उदास हो जाता है, क्योंकि कामवासना का ज्वर उतर गया है। बच्चे बहुत प्रसन्न मालूम होते हैं, क्योंकि अभी कामवासना उनके रोएं-रोएं में जग रही है, तैयार हो रही है, फैल रही है। अभी रोएं-रोएं में शक्ति काम की दौड़ रही है। इसलिए वे इतने आनंदित हैं, भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं, कूद रहे हैं। आप उनको एक जगह बिठा नहीं सकते हैं। शक्ति नाच रही है, बच्चे प्रसन्न हैं--कामवासना का उठता हुआ ज्वर, पहली झलकें। जवान प्रसन्न हैं, नाचते, गीत गाते हैं। बूढ़े उदास हैं। सारा खेल कामवासना का है। और जो-जो कामवासना से लड़ते हुए लोग हैं, वे प्रसन्न नहीं देखे जाते हैं।
यह सूत्र बड़ा अजीब है। यह सूत्र कहता है: ‘ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह।’ और साथ ही तत्काल कहता है: ‘कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे।’
ध्यान रखना, यह प्रसन्नता अगर आपमें न आ सके, तो आपको कामदेव की कानाफूसी पर ध्यान देना ही पड़ेगा। इस कारण तत्काल यह बात कही गई है। अगर आप उदास हो गए और शरीर ने आपको उदास कर दिया, तो आपको पता है, जब आप उदास होते हैं, तो कामवासना ज्यादा मन को पकड़ती है। क्योंकि फिर एक ही उपाय शरीर के पास रह जाता है प्रसन्न होने का--कामवासना। प्रसन्न चित्त हो, आनंद से भरे हों, तो कामवासना का खयाल भी नहीं आता। क्योंकि आनंद का खयाल तो तभी आता है, जब आप आनंदित नहीं होते।
हम उसी चीज को मांगते हैं, जो हमारे पास नहीं होती; जो पास ही होती है, उसको हम क्यों मागेंगे। दुखी और उदास लोग कामवासना के प्रति बहुत ज्यादा आकर्षित होते हैं। थोड़ी सी झलक उनको खुशी की वहां मिलती है, वही उनका आकर्षण बन जाती है। अगर इस आकर्षण से बचना है, तो कामवासना में उत्सुक हुए बिना प्रसन्न होना पड़ेगा, आनंदित होना पड़ेगा। और अगर आनंद बिना कामवासना के मिल जाए, तो फिर कामवासना खींचेगी भी नहीं। क्योंकि अब कोई जरूरत भी न रही। सिर्फ प्रसन्नचित्त व्यक्ति ही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है, उदास चित्त व्यक्ति कभी उपलब्ध नहीं हो सकता; क्योंकि उदासी इतना बोझ बन जाएगी कि वह करेगा क्या उसको हटाने के लिए फिर! उदासी हटाने का जो नैसर्गिक उपाय है, वह कामवासना है। इसलिए कामवासना से गुजर कर आपको लगता है कि राहत मिली, विश्राम मिला, हलके हो गए; मुस्कुरा सकते हैं।
यह सूत्र बहुत गहन है और मन की बड़ी गहराई की बात है। अगर उदास हैं, तो कामदेव आपको पराजित कर लेगा; उसकी बात फिर आपको माननी पड़ेगी। अगर प्रसन्न हैं, तो उसकी बात सुनने की कोई जरूरत नहीं, उसकी कानाफूसी से ध्यान हटाया जा सकता है। आप खुद ही इतने प्रसन्न हैं कि अब और कोई प्रसन्नता की मांग का कोई सवाल नहीं है।
‘दूसरे तट को जाने वाले ओ साहसी यात्री, प्रसन्न रह। कामदेव की कानाफूसी पर कान मत दे। और अनंत आकाश में जो लुभाने वाली शक्तियां हैं, जो दुष्टभाव वाली आत्माएं हैं, जो द्वेषी ल्हामयी हैं, उनसे दूर ही रह।’
तिब्बत का शब्द है ‘ल्हामयी’। ल्हामयी का अर्थ है: ऐसी आत्माएं, जो शरीर जिनके छूट गए हैं और नये शरीर जिन्हें नहीं मिले हैं--प्रेतात्माएं। लेकिन विशेष तरह की प्रेतात्माएं जो दूसरों को पथ-भ्रष्ट करने में आनंद लेती हैं। इसे हम अनुभव से भी जान सकते हैं। शरीर के भीतर भी बहुत ऐसे लोग हैं, शरीर में भी ऐसी बहुत आत्माएं हैं, जो दूसरे को अगर थोड़ा सा पथ-भ्रष्ट कर सकें, तो बड़ी प्रसन्न होती हैं।
आपको भी पता न होगा कि कई बार आप भी यह काम करते हैं और ल्हामयी हो जाते हैं। कोई आदमी आपसे आकर कहता है कि मैं ध्यान कर रहा हूं, ऐसे-ऐसे चरण हैं ध्यान के, कि नाचता हूं, कूदता हूं, श्वास लेता हूं, हू-हू करता हूं। आपको ध्यान का कोई भी पता नहीं, आप कहते हैं, यह क्या कर रहे हो? पागल हो जाओगे। दिमाग खराब हो गया है? जैसे कि आपको पागल होने का और पागल होने की कला का कुछ पता हो! जैसे कि आपको ध्यान के रहस्यों का कोई पता हो! जैसे कि आप ध्यान कर चुके हैं! और जैसे कि आप इस रास्ते से भी गुजर चुके हैं और पागल हो चुके हैं, अनुभवी हैं। इस भांति आप उससे कहते हैं: यह क्या कर रहे हो, पागल होना है? बिना यह समझे कि आप उसको पथ-भ्रष्ट कर रहे हैं। पर खयाल भी नहीं आता कि हम पथ-भ्रष्ट कर रहे हैं, ऐसे ही कह रहे हैं। और अगर वह आदमी आपसे राजी हो जाए, तो आपका चित्त प्रसन्न होगा। और राजी न हो, तो आप थोड़े उदास होंगे।
लोग बड़ी मेहनत करते हैं दूसरों को राजी करने के लिए कि यह मत करो, और यह करो! इतनी कोशिश वे खुद को भी नहीं करते राजी करने के लिए कि मैं यह करूं, जितनी वे दूसरों के लिए करते हैं। बड़ा सिर पचाते हैं, बड़े सेवाभावी हैं। दूसरों के काम में लगे रहते हैं। इस तरह की आत्माएं चारों तरफ मौजूद हैं।
तिब्बती खोज इस संबंध में बहुत गहरी है। जब कोई आदमी मरता है, तो साधारण आदमी अगर हो, तो तत्क्षण पैदा हो जाता है, ज्यादा देर नहीं लगती उसको नया शरीर ग्रहण करने में, क्योंकि सामान्य गर्भ सदा उपलब्ध होते हैं। जब कोई असाधारण आदमी मरता है, कोई महापुरुष या कोई महापापी, तब उसको जन्म लेने में काफी समय लग जाता है, क्योंकि उसके योग्य गर्भ तत्काल, रेडीमेड नहीं होते हैं; कभी निर्मित होते हैं। जैसे हिटलर मर जाए, तो सैकड़ों वर्ष लग जाएंगे उसको मां-बाप खोजने में। उसके योग्य गर्भ पाने के लिए उसको प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। यह प्रतीक्षा के क्षण वह प्रेत होगा। कोई ज्ञानी मर जाए और अभी उस जगह न पहुंचा हो, जहां से फिर जन्म नहीं होता, तो उसको भी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, सैकड़ों वर्ष, तभी उसके योग्य गर्भ मिल सकेगा।
नीचे के छोर पर और ऊपर के छोर पर प्रतीक्षा करनी होती है। जो लोग ऊपर के छोर पर प्रतीक्षा करते हैं, उनको हम देव कहते रहे हैं। जो नीचे के छोर पर प्रतीक्षा करते हैं, उनको हम प्रेत कहते रहे हैं। दोनों प्रतीक्षा करती हुई आत्माएं हैं, जिनको अभी गर्भ लेना है। देव स्वभावतः आनंदित होते हैं, किसी की सहायता करने में। प्रेत आनंदित होते हैं, किसी को भ्रष्ट करने में, पथ से हटाने में। ये दोनों आत्माएं आपके आस-पास काम कर रही हैं।
यह सूत्र कहता है कि प्रसन्न रह, और ध्यान रख कि अगर तू उदास हुआ, तो तेरे आस-पास ऐसी ल्हामयी आत्माएं हैं, जो उदासी के क्षण में तुझे पकड़ ले सकती हैं और तुझसे ऐसे काम करवा सकती हैं, जो तूने स्वयं खुद कभी न किए होते।
आपको भी कई बार ऐसा लगता है कि यह काम मैं नहीं करना चाहता था, फिर भी किया। यह मेरी मर्जी न थी, तय भी किया था कि नहीं करूंगा, फिर भी किया। और कई बार ऐसा भी होता है कि आप कोई अच्छा काम करना बिलकुल पक्का कर लेते हैं और फिर ऐन वक्त पर बदल जाते हैं।
एक महिला कल सांझ मेरे पास पहुंची; रो रही थी। बहुत भाव में थी। संन्यास लेना था। मैंने उसे कहा: कल; कल दोपहर। आज वह पहुंची, वह बोली कि मैं महीने भर से तैयार हूं संन्यास लेने को, और कल तो इतने भाव में थी। लेकिन जैसे ही आपने कहा कि कल आकर ले लेना, न मालूम क्या हुआ, मेरा भाव ही चला गया। मुझे संन्यास अब नहीं लेना है। और रो रही है अभी भी, और कह रही है कि मैं लेना चाहती हूं और लेने की बहुत तैयारी है और बहुत दिन से प्रतीक्षा है। और पता नहीं क्या हो गया है मेरे भीतर कि अब मैं नहीं...हिम्मत ही नहीं जुट रही है लेने की। और साथ में उसे यह भी लग रहा है कि लेना है। और नहीं ले पा रही है, इसलिए रो भी रही है।
हमें खयाल में नहीं है, हमारे चारों तरफ विचार का विराट जगत है, उसमें आत्माएं भी हैं, उसमें विचारों के पुंज भी हैं। उनको हम किन्हीं क्षणों में पकड़ लेते हैं और आविष्ट हो जाते हैं। और उस आवेश में फिर हम जो करते हैं, वह हमारा किया हुआ नहीं है। शुभ विचार भी हमें पकड़ते हैं, शुभ आत्माएं भी हमें सहारा देती हैं। अशुभ विचार भी पकड़ते हैं, अशुभ आत्माएं भी बाधा डालती हैं।
लेकिन जो अति प्रसन्न है, इस नियम को समझ लेना, वह सुरक्षित है। जो उदास है, वह असुरक्षित है। उदासी के क्षण में उपद्रवी आत्माएं, उपद्रवी विचार पकड़ लेते हैं। प्रसन्नता और आनंद के अहोभाव में, जो श्रेष्ठ है, उससे संबंध जुड़ता है। जो सदा आनंदित रहने की कोशिश करे, उसे इस जगत की जितनी दिव्य शक्तियां हैं, उन सभी का सहयोग मिल जाता है। जो सदा उदास बना रहे, इस जगत में जो भी मूढ़तापूर्ण है, जो भी भारी, वजनी और पथरीला है, सबका उसके साथ सत्संग हो जाता है।
जब आप उदास बैठते हैं, तब आपके चारों तरफ एक जमात भी बैठी है, जो आपको दिखाई नहीं पड़ती है। जब आप आनंदित होते हैं, तब आपके चारों तरफ आनंदित कुछ चेतनाएं नाच रही हैं, जो आपको दिखाई नहीं पड़ती हैं। आप अपने आस-पास एक वर्तुल निर्मित कर रहे हैं।
ध्यान रहे, साधक सदा प्रसन्न रहे। न हो परिस्थिति प्रसन्न होने की, तो भी कोई कारण खोज ले और प्रसन्न रहे। प्रसन्नता को सूत्र बना ले।
‘दृढ़ बन। अब तू मध्य द्वार के निकट आ रहा है, जो क्लेश का भी द्वार है, जिसमें दस हजार नागपाश हैं।’
अब तू करीब आ रहा है यात्रा के मध्य-बिंदु पर। और मध्य-बिंदु आखिरी बिंदु है। अगर तू उस पार हो गया, तो दूसरे छोर पर जाना आसान हो जाएगा। और मध्य-बिंदु अटकाव बन गया, तो तू वापस गिर सकता है। और इस मध्य-बिंदु पर दस हजार नागपाश हैं। दस हजार उलझनें खड़ी होंगी। दस हजार उपद्रव खड़े होंगे। जितने उपद्रव तूने किए हैं अनंत-अनंत जन्मों में, सब तुझे पकड़ेंगे और वापस बुला लेना चाहेंगे। जिन-जिन का तूने साथ किया है, जिन-जिन नासमझियों का, वे सब नासमझियां एक बार आखिरी कोशिश करेंगी कि लौट आओ; इतने पुराने संगी-साथी, कहां जाते हो?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम इतने अशांत तब न थे, जब ध्यान न करते थे। अब ध्यान करते हैं, तो शांति भी बढ़ रही है और बड़ी अशांति भी मालूम पड़ती है। वह अशांति आपकी पुरानी संगी-साथिन है।
यहां भी किसी को डाइवोर्स करना हो, तलाक देना हो, तो बड़ी
मुसीबतें आती हैं। उस भीतर के लोक में तो तलाक और मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बहुत पुराने नाते-रिश्ते हैं, बहुत वायदे हैं, वचन हैं आपके दिए हुए कि सदा तुम्हारा हूं, सदा तुम्हारे साथ रहूंगा। अब अचानक छोड़ने लगते हैं, तो फिर जोर से पकड़ लिए जाते हैं, ग्रंथियां कस जाती हैं। मध्य-बिंदु पर दस हजार नागपाश प्रतीक्षा कर रहे हैं।
‘ओ पूर्णता के साधक, अपने विचारों का स्वामी बन, यदि तुझे इसकी देहली पार करनी है।’
‘और यदि तुझे अपने गंतव्य पर पहुंचना है, तो अमृत सत्य के खोजी, अपनी आत्मा का स्वामी बन।’
‘उस एक शुद्ध प्रकाश पर अपनी दृष्टि को एकाग्र कर, जो प्रकाश सभी प्रभावों से मुक्त है। और अपनी स्वर्ण-कुंजी का प्रयोग कर।’
‘कठिन कर्म पूरा हो गया। तेरा श्रम पूर्ण हुआ। और वह विस्तृत पाताल जो तुझे निगलने को मुंह फैलाए था, लगभग पाट दिया गया है...।’
अगर मध्य-बिंदु पार हो गया, तो वह विशाल खाई, जो मुंह फैलाए थी, वह लगभग पाट दी गई है। मध्य-बिंदु के बाद पतन बहुत मुश्किल है। बहुत चेष्टा की जाए, तो ही हो सकता है। मध्य-बिंदु के पहले पतन बहुत आसान है। बहुत चेष्टा की जाए, तो ही बच सकता है। मध्य-बिंदु के बाद बहुत मुश्किल है। अगर आप बहुत प्रयास ही करें, तो ही वापस गिर सकते हैं। अन्यथा अपने आप मध्य-बिंदु के बाद कोई वापस नहीं गिरता है। मध्य-बिंदु के बाद नया लोक खुल जाता है। पुराने संगी-साथी छूट जाते हैं। एक अति से अब आप दूसरी अति में प्रवेश करते हैं।
इस मध्य-बिंदु को पार करने के लिए शरीर के स्वामी बनें, पहली बात। फिर विचार के स्वामी बनें, दूसरी बात। फिर आत्मा के स्वामी बनें, तीसरी बात।
शरीर से शुरू करें; क्योंकि उसकी ही मालकियत न हो सके, तो फिर मन की मालकियत न हो सकेगी। मन की मालकियत न हो सके, तो फिर आत्मा की मालकियत न हो सकेगी। शरीर का मैंने कहा कि उसको जीतें। फिर जिस दिन आपको लगे कि अब शरीर पर मालकियत हो गई, उस दिन से मन पर भी वही प्रयोग शुरू कर दें। मन में एक विचार आए कि क्रोध करना है, तो कह दें कि क्रोध नहीं करना है, मन चुप हो जा। फिर अड़े रहें अपने वचन पर, फिर मन कितनी ही कोशिश करे, दूर खड़े रहें, देखते रहें, क्रोध न करें। आज नहीं कल आप पाएंगे कि मन आपकी सुनने को राजी हो गया। और जब आप कहेंगे कि नहीं करना है क्रोध तो क्रोध का भाव तत्क्षण विसर्जित हो जाएगा।
यह ऐसे ही घटता है, जैसे मेरा यह हाथ ऊपर है और मैं कहूं कि मुझे नहीं रखना है ऊपर, तो हाथ नीचे आ जाता है। यह हाथ मेरा है। अगर यह हाथ मैं कहूं कि नीचे आओ, और ऊपर ही अटका रहे, और मैं कितना ही कहूं कि नीचे आओ, और नीचे न आए, तो उसका मतलब हुआ कि हाथ मेरा नहीं है।
आप कहते हैं कि विचार आपके हैं। कहना नहीं चाहिए कि आपके हैं। क्योंकि आप एक विचार को बाहर करना चाहें, तो कर नहीं सकते। आप कहें कि यह विचार मेरे भीतर न आए, आपके वश में नहीं। आप कहें, न आए, तो और ज्यादा आता है। आप कहें कि मत सताओ मुझे, तो और सताता है। आप कहते हैं कि मैं क्रोध न करूंगा, तो और क्रोध से भर जाते हैं। विचार अभी मालिक है।
जो शरीर पर प्रयोग किया है, धीरे-धीरे वही प्रयोग मन पर भी करने का है। अगर आप साहसपूर्वक और प्रसन्नचित्तता से लगे रहे, तो मन के भी मालिक हो जाएंगे।
और तीसरी बात है आत्मा की मालकियत। आत्मा की मालकियत के लिए तो ये सारे के सारे सूत्र हैं। लेकिन इस संदर्भ में इस जगह आत्मा की मालकियत का मतलब इतना ही है कि आपके पूरे व्यक्तित्व की मालकियत, शरीर, मन, आत्मा, ये तीनों आपका व्यक्तित्व है, समग्रता है, इस समग्रता की मालकियत। इस समग्र की भी आपकी ही आज्ञा से गति हो। और ऐसी स्थिति आ जाती है, जब आपकी ही आज्ञा से समग्र की गति होने लगती है। और अगर आप चाहें कि मैं इसी क्षण मर जाऊं, तो इसी क्षण मौत घट जाएगी; क्योंकि समग्र आपको मानता है। इस समग्र की मालकियत का उतना आसान सूत्र नहीं है, जितना शरीर और मन का है। लेकिन जो लोग शरीर और मन के मालिक हो जाते हैं, उनके लिए तत्क्षण आत्मा के सूत्र की कुंजी मिल जाती है कि अब वे आत्मा के लिए क्या करें। वह उनको स्वयं दिखाई पड़ जाता है। जो शरीर के लिए किया, वह बाहर था; जो मन के लिए किया, वह बीच में था; अब आत्मा के लिए वही करना है, जो बहुत गहरे में है। आत्मा के लिए करने का सार अर्थ है कि अस्तित्व भी आपकी आज्ञा मानने लगे।
अभी क्या है?
अभी आप अगर कहें कि कोई हर्जा नहीं अगर मौत आए, तो मैं स्वीकार कर लूंगा, लेकिन आपका अस्तित्व भीतर कहता है: नहीं, स्वीकार नहीं करेंगे, कैसे मर सकते हैं? नहीं मरना चाहते हैं, तो मालकियत उस पर आपकी नहीं है। पर शरीर और मन की यात्रा ठीक हो जाए, तो उसी सूत्र को सूक्ष्म में भीतर प्रयोग करने से अस्तित्व की भी मालकियत उपलब्ध होती है।
इस मालकियत के होते ही आपको वह प्रकाश की किरण दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, जो आप हैं। फिर उस पर ही दृष्टि को एकाग्र करें, और उस किरण की धारा में ही अपने को छोड़ दें। वह किरण ही आपका जीवन-गुरु है। उस किरण को नाव बना लें। और वह नाव परमात्मा की तरफ चलनी शुरू हो जाएगी।