BLAVATSKY
Samadhi Ke Sapat Dwar 08
Eighth Discourse from the series of 19 discourses - Samadhi Ke Sapat Dwar by Osho. These discourses were given in ANAND SHEELA during FEB 09-17 1973.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
चौथे मार्ग विराग पर वासना या इच्छा का हलका सा झोंका भी आत्मा की शुभ्र दीवालों पर पड़ने वाले स्थिर प्रकाश को हिला देगा। अंतःकरण में, जो तेरी उच्चस्थ आत्मा और निम्नस्थ आत्मा के बीच पथ या सेतु है, जो वृत्तियों का महापथ है और जो अहंकार14 को झकझोर कर जगाने वाला है, माया के भ्रांत सुखों के लिए राग या खेद की छोटी से छोटी लहर भी, बिजली की कौंध जैसी भासती लहर भी, तेरे तीन पुरस्कारों को तुझसे छीन लेगी, जो तूने श्रम से जीते हैं।
क्योंकि तू जान कि उस नित्य में कोई छूट नहीं है।
महाप्रभु का, पूर्णता के तथागत15 का जो अपने पूर्वजों के चरण-चिह्नों पर चलते चले आए हैं, वचन हैं: आठ घोर दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं। यदि नहीं, तो जान कि तू ज्ञान को, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।
विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर है। यदि तू इस मार्ग का स्वामी होना चाहता है, तो तुझे पहले से बहुत बढ़ कर अपने मन और दृष्टि को घातक कर्म से मुक्त रखना है।
तुझे अपने को शुद्ध आलय (परमसत्ता) से परितृप्ति कर लेना है और निसर्ग के आत्म-भाव के साथ एक हो जाना है। इसके साथ एक होकर तू अजेय है, पृथक रह कर तू समवृत्ति16 की क्रीड़ा-भूमि बन जाता है, जो संसार की समस्त भ्रांतियों का मूल-स्रोत है।
मंजिल जैसे-जैसे शिखर के करीब पहुंचती है, वैसे-वैसे कठिन होती जाती है। मंजिल जैसे-जैसे पास आती है, वैसे-वैसे भटकने की संभावना भी बढ़ जाती है। क्योंकि जितनी हो ऊंचाई, उतना ही गिरने का डर है। नरक से गिरने का कोई उपाय नहीं है; क्योंकि उससे कोई नीची जगह नहीं है। लेकिन स्वर्ग से गिरने की सारी सुविधा है; क्योंकि सब-कुछ उसके नीचे है। मोक्ष से भी गिरने का कोई उपाय नहीं है; क्योंकि मोक्ष के नीचे-ऊपर, दोनों तरफ कुछ भी नहीं है। नरक से सब-कुछ ऊपर है, इसलिए नरक से कोई गिर नहीं सकता। स्वर्ग से सब-कुछ नीचे है, इसलिए स्वर्ग से कोई भी गिर सकता है। मोक्ष से गिरने का फिर कोई उपाय नहीं--न बढ़ने का, न गिरने का; क्योंकि उसके नीचे-ऊपर दोनों ही दिशाएं नहीं हैं।
साधक जैसे-जैसे मोक्ष की तरफ पहुंचता है, वैसे-वैसे स्वर्गीय होता चला जाता है, वैसे-वैसे उसके सुख सूक्ष्म, वैसे-वैसे उसकी प्रतीति अत्यंत तरल, शुद्ध, वैसे-वैसे उसका अनुभव बहुमूल्य, नाजुक होता जाता है। और जितना नाजुक होता है अनुभव, जितना सूक्ष्म होता है, उतनी ही छोटी सी घटना भी उसे नष्ट कर डालती है। जितनी मूल्यवान चीज है, उतनी ही नाजुक हो जाती है। और इस यात्रा में तो हम अपने को ही रोज नाजुक बनाते हैं--संवेदनशील, सेंसिटिव। जरा सा झोंका सब तोड़ दे सकता है। और जब हवा की आंधी उठती है तो सड़क के किनारे पत्थरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता, लेकिन वृक्षों की शाखाओं में लगे फूल झड़ जाते हैं। पत्थर अपनी जगह बने रहते हैं, पत्थर नष्ट नहीं होते, लेकिन फूल नष्ट हो जाते हैं। जरा सा झोंका हवा का और फूल गिर जाते हैं। फिर जितना हो नाजुक फूल, उतने जल्दी गिर जाता है, और जितनी ऊंची शिखा पर हो, उतनी जल्दी गिर जाता है।
यह सूत्र इस संबंध में ही विचारणीय है।
‘चौथे मार्ग विराग पर वासना या इच्छा का हलका सा झोंका भी आत्मा की शुभ्र दीवालों पर पड़ने वाले स्थिर प्रकाश को हिला देगा।’
चौथे द्वार विराग पर वासना का हलका सा झोंका भी, वह जो नये प्रकाश की झलक आ रही है, उसे हिला देगा, उस प्रकाश को डांवाडोल कर देगा, उस प्रकाश को ओझल कर देगा, कंपित कर देगा। और भीतर का प्रकाश कंपित हो, तो आगे नहीं जाया जा सकता; पीछे गिरना शुरू हो जाता है। प्रकाश की स्थिरता ही आगे जाने का मार्ग है। भीतर का प्रकाश जितना डांवाडोल होता है, उतने हम नीचे गिर जाते हैं। जिस दिन भीतर का प्रकाश अकंप हो जाता है, कुछ भी उसे कंपा नहीं पाता, कोई कंपने की संभावना नहीं रह जाती, उसी दिन हम परम स्थिति को उपलब्ध हो जाते हैं। तो भीतर की ज्योति मापदंड है कि वह कितनी कंपती है, कितनी ठहरी है।
वासनाग्रस्त जगत में छोटी-मोटी वासनाओं से कुछ पता भी नहीं चलता। क्योंकि आप इतने बड़े रोगों से भरे होते हैं कि छोटे रोगों का क्या पता चले! आपके भी अनुभव में होगा कि अगर बड़ा रोग आ जाए, तो छोटा रोग भूल जाता है। अगर पैर में कांटा गड़ा हो और कोई छुरी लेकर सामने खड़ा हो जाए, आपको फिर कांटे का बिलकुल पता नहीं चलता। आपने काले ही वस्त्र पहन रखे हों और कोई कालिख से आपको पोत डाले, आपके वस्त्रों पर, कोई पता नहीं चलता। लेकिन जितने हों शुभ्र वस्त्र, जरा सी धूल भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। पृष्ठभूमि जितनी हो शुभ्र, उतना ही अशुभ्र भयंकर मालूम पड़ता है। क्योंकि सब प्रतीतियां तुलनात्मक हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ता है साधक और विराग के करीब पहुंचता है, वैसे-वैसे राग की छोटी सी झलक भी भयंकर तूफान की तरह मालूम पड़ती है और सब उखाड़ कर रख देती है। क्योंकि पौधे विराग के अभी बहुत नये हैं, उनकी जड़ें अभी बहुत गहरी नहीं हैं; अभी वे बिलकुल बच्चे हैं।
सुना है मैंने, एक सूफी फकीर जुन्नैद जिंदगी भर रोता रहा। अपने को पीटता था, रोता था। रास्तों से निकलता था, तो अपने को खुद चांटे मारता था। लोग उससे पूछते थे कि ‘क्यों इतना पश्चात्ताप? क्या तूने किया है पाप? क्योंकि जैसा हम तुझे जानते हैं, तुझसे ज्यादा पवित्र आदमी खोजना मुश्किल है। और अगर तू इतना दुखी है और पश्चात्ताप से भरा है, तो हमारी क्या गति होगी? और हम इतने पाप कर रहे हैं और हमें जरा भी पश्चात्ताप नहीं है। तूने पाप क्या किया है? यह गांव तुझे बचपन से जानता है--न तूने कभी चोरी की, न कभी क्रोध किया, न किसी को गाली दी, न किसी का अपमान किया। तुझसे ज्यादा पवित्र आदमी पृथ्वी पर भी शायद दूसरा न हो।’ लेकिन जुन्नैद अपने को सजा देता रहा।
मरते वक्त, उसके शिष्य हजारों थे, वे इकट्ठे हुए, उन्होंने कहा कि अब तो बता दें कि सजा किसकी दे रहे थे? तो उसने कहा: एक बार मेरे मन में ऐसा खयाल आ गया था कि मैं बड़ा पवित्र हूं; वही पाप हो गया। और परमात्मा के सामने खड़े होकर मैं आंखें भी न उठा सकूंगा, क्योंकि मैंने एक पाप किया है कि मैं पवित्र हूं--यह खयाल मुझे एक बार आ गया था, उसकी ही सजा दे रहा हूं।
लोगों ने कहा: पागल हो गए हो! अगर इतने से पाप से तुम परमात्मा के सामने आंखें न उठा सकोगे, तो हमारा क्या होगा?
जुन्नैद ने कहा: तुम मजे से आंखें उठा सकोगे। तुम्हारे पाप इतने हैं कि तुम्हें शर्म भी न आएगी। और शर्म भी कितनी करोगे? मैं भी तुम जैसा होता तो कोई चिंता न थी; बस वह एक अटक गया है। शुभ्र वस्त्र पर वह काला दाग ऐसा दिखाई पड़ता है कि उसे मैं भूल नहीं पाता, उसकी ही पीड़ा है।
इसे खयाल रखें कि जैसे-जैसे आप बढ़ते हैं अंतर्यात्रा में, वैसे-वैसे छोटी-छोटी चीजें बड़ी मूल्यवान हो जाती हैं। क्षुद्र भी विराट की यात्रा पर फिर बड़ा विराट मालूम होने लगता है। और जब तक उससे छूटना न हो जाए, तब तक आप वापस फेंके जा सकते हैं। मार्ग संकीर्ण है फिर, ऊंचाई ज्यादा है, और आप नये और नाजुक हैं इस यात्रा-पथ पर। जरा सी भूल भयंकर हो सकती है।
‘विराग पर वासना का हलका सा झोंका भी आत्मा की शुभ्र दीवालों पर पड़ने वाले स्थिर प्रकाश को हिला देगा। अंतःकरण में जो तेरी उच्चस्थ आत्मा और निम्नस्थ आत्मा के बीच सेतु है, जो वृत्तियों का महापथ है और जो अहंकार को झकझोर कर जगाने वाला है, माया के भ्रांत सुखों के लिए राग या खेद की हलकी छोटी सी लहर भी, बिजली की कौंध जैसी भासती लहर भी, तेरे तीन पुरस्कारों को तुझसे छीन लेगी, जो तूने श्रम से जीते हैं।’
विराग के द्वार पर खड़े होकर अहंकार की जरा सी झलक सब नष्ट कर देगी।
और विराग के द्वार पर अहंकार आता है। रागी का अहंकार है, विरागी का अहंकार है। रागी का अहंकार बहुत स्थूल है, साफ दिखाई पड़ता है। विरागी का अहंकार बहुत सूक्ष्म है, साफ दिखाई नहीं पड़ता। और इसलिए ज्यादा खतरनाक है। जो शत्रु दिखाई पड़ता हो, ज्यादा खतरनाक नहीं है, उससे कुछ उपाय किए जा सकते हैं। अदृश्य शत्रु बहुत खतरनाक है, क्योंकि वह दिखाई नहीं पड़ता।
कृष्णमूर्ति ने साधुओं को, संन्यासियों को पायस ईगोइस्ट कहा है, पवित्र अहंकारी। ठीक है, वह डर है। और अपवित्र अहंकार उतना खतरनाक नहीं है; क्योंकि वह जो अपवित्रता है, वह भी तो पता चलती रहती है। पवित्र अहंकार बहुत खतरनाक है; क्योंकि पवित्रता में अहंकार बिलकुल छिप जाता है। जहर के चारों तरफ शक्कर की एक पर्त हो जाती है और तब उस जहर को पी जाना बहुत आसान है। अपवित्र अहंकार तो शुद्ध जहर है। उसके आस-पास शक्कर की पर्त भी नहीं है, उसको तो पीने वाले को पता भी चलता है। पवित्र अहंकार का पता नहीं चलता है।
धर्मों में जो संघर्ष चलता है, वह पवित्र अहंकारियों का संघर्ष है। शुद्ध जहर है, लेकिन पर्त पर पवित्रता है। त्यागी है कोई, तो वह भी उतनी ही अकड़ से चलता है, उसकी अकड़ बहुत सूक्ष्म है। भोगी भी उतनी अकड़ से नहीं चलता है। जिसके पास धन है, वह क्या अकड़ से चलेगा, उसके मुकाबले जिसने धन को लात मार दी है। स्वभावतः जिसके पास धन है, जिसने धन को लात मार दी, उससे छोटा है। और धन तो बहुतों के पास होता है; धन को लात मारना बहुतों की हिम्मत नहीं होती। तो वह जो सब छोड़ दिया है, उसे एक नई चीज पकड़ लेती है कि मैंने सब छोड़ दिया है। त्याग भी भोग बन जाता है, विनम्रता अहंकार हो जाती है, और पवित्रता भी पाप बन जाती है।
विराग के क्षण में यह भाव पकड़ेगा कि ‘मैंने छोड़ा, दूसरे नहीं छोड़ पा रहे हैं; मैंने त्यागा, दूसरे नहीं त्याग पा रहे हैं--मुझसे बड़ा त्यागी कौन है! मैंने संसार को लात मार दी! जो इतना कठिन था, अति कठिन को मैंने पूरा किया है।’ यह ‘मैं’ निर्मित हुआ।
सूत्र कहता है: अगर यह ‘मैं’ निर्मित हुआ, तो वे जो तीन द्वार तूने श्रम से पार किए थे, तत्क्षण खो जाएंगे। तू वापस अपनी जगह खड़ा हो जाएगा, जहां तू था। इसमें क्षण की देरी न लगेगी। जो श्रम से पाया है, वह बिलकुल आसानी से खोया जा सकता है।
ध्यान रखना, श्रम से पाया हुआ, जरूरी नहीं कि श्रम से ही खोया जाए। जिस मकान को बनाने में वर्षों लगे हों, उसे दिन भर में गिराया जा सकता है; क्षण में गिराया जा सकता है। और यह जो भीतर का भवन है, जिसको जन्मों में बनाया हो, उसे क्षण में भूमिसात किया जा सकता है। एक छोटी सी बात, और सब नष्ट हो सकता है। तो जितना आप आगे बढ़ते हैं, उतना ही सूक्ष्म में विनाश की संभावना बढ़ जाती है। जितनी सृजन की संभावना बढ़ती है उतनी ही विनाश की संभावना बढ़ जाती है।
इसे ऐसा समझें कि आपकी सभी संभावनाएं साथ-साथ बढ़ती हैं। इस सूत्र को, इस नियम को बहुत गहराई से पकड़ लें। आपमें एक ही दिशा नहीं बढ़ती, साथ ही दूसरी दिशा भी बढ़ती है। जैसे, आप जितना सुख पाने में समर्थ हो जाते हैं, उतना ही दुख पाने में भी समर्थ हो जाते हैं। सुख के साथ दुख की क्षमता बढ़ जाती है। पशु बहुत दुखी नहीं दिखाई पड़ते, क्योंकि बहुत सुखी होने का उनमें उपाय नहीं है। एक अमीर आदमी को जितना दुखी कर सकते हैं, उतना गरीब आदमी को नहीं कर सकते हैं। क्योंकि अमीर आदमी ने सुख की क्षमता बढ़ा ली, उसकी दुख की क्षमता भी बढ़ गई।
वह जो विपरीत है, वह साथ-साथ बढ़ता है; वह किनारे-किनारे चलता है। आप एक को नहीं बढ़ा सकते; वह दूसरा खाई की तरह हमेशा शिखर के पास मौजूद है। जितनी आपकी नीति बढ़ती है, उतनी अनीति भी आपके किनारे खड़ी है। जितना आपका पुण्य बढ़ता है, उतना पाप भी आपके किनारे खड़ा है। पापी नहीं गिर सकता, आप गिर सकते हैं। जितनी हो श्रेष्ठता, उतनी निकृष्टता का डर है। जितनी सृजन की क्षमता बढ़ती है, उतना विध्वंस भी बढ़ जाता है। दोनों चीजें साथ चलती हैं, दोनों विपरीत चीजें साथ चलती हैं। जितनी आपकी शांति बढ़ती है--यह सुन कर हैरानी होगी--उतनी ही आपकी क्रोध की क्षमता बढ़ जाती है। यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा।
और हमने ऋषि-मुनियों की कथाएं पढ़ी हैं, जिनमें वे भयंकर क्रोधी हैं, तो उसका कारण आपको समझ लेना चाहिए। अगर दुर्वासा जैसे ऋषियों की कथा है, तो उसका कारण है। जितनी उनकी शांति बढ़ गई, उतनी ही उनकी क्रोध की क्षमता बढ़ गई। वे न करें, यह दूसरी बात है; बचा ले जाएं, यह दूसरी बात है। करें, तो उन जैसा क्रोध फिर दूसरा नहीं कर सकता है। और उनका क्रोध परिणामकारी होगा। आपका क्रोध परिणामकारी नहीं होता। इसलिए हमने यह मीठी बात सैकड़ों कथाओं में जोड़ी कि ऋषि का अभिशाप खतरनाक है। आपके अभिशाप का कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि आप तो अभिशाप देते ही रहते हैं, ऋषि देता नहीं। ऋषि से संभावना ही हम नहीं मानते कि वह अभिशाप देगा। लेकिन अगर कभी ऋषि से अभिशाप हो, तो वह फलित होगा; उसको रोकने की कोई क्षमता फिर कहीं भी नहीं है।
तो ऐसी कथाएं हैं हमारे पास, बहुत मूल्यवान, बहुत प्रतीकात्मक--कि ऋषि ने अगर शाप दे दिया, तो फिर भगवान भी उसे बदल नहीं सकता, वह झेलना ही पड़ेगा, क्योंकि वह इतनी ऊंचाई से दिया गया है। और जो आदमी इतनी ऊंचाई से गिरने को राजी हुआ है, जो इतना खो रहा है अपने अभिशाप के पीछे, उसके अभिशाप का फल होगा।
जब आप अभिशाप देते हैं तो उसका कोई फल नहीं होता। क्योंकि आप कुछ खो ही नहीं रहे हैं, आप दांव पर कुछ लगा ही नहीं रहे हैं, आपकी गाली नपुंसक है।
आपका आशीर्वाद भी व्यर्थ है, आपका अभिशाप भी व्यर्थ है। जब आशीर्वाद की क्षमता बढ़ती है, तब अभिशाप की क्षमता बढ़ जाती है। उस वक्त सावधान रहना जरूरी है।
समस्त धर्मों ने कहा है कि साधक को दूसरे के संबंध में बुरा विचार भूल कर भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह तत्क्षण परिणामकारी हो सकता है। आप करते रहो, उससे कुछ हर्जा नहीं होता। आपको होता होगा, किसी और को नहीं हो सकता। आप कितना ही सोचो कि फलां आदमी मर जाए तो अच्छा। कोई आपके सोचने से मरने वाला नहीं। लेकिन ऋषि के मन में यह भाव आ जाए तो मृत्यु घटित हो सकती है। क्योंकि ऋषि के मन में यह भाव आ नहीं सकता। आ जाए, तो यह घटित हो जाएगा। क्योंकि ऋषि इस भाव के साथ नीचे गिर रहा है। और बहुत सी ऊर्जा उसके नीचे गिरने से मुक्त हो रही है, रिलीज हो रही है। वह ऊर्जा आपकी मौत बन सकती है। वह दांव पर अपने को लगा रहा है। आप जब किसी को अभिशाप देते हैं, दांव पर कुछ भी नहीं लगाते, सिर्फ मन का खेल है। ऋषि अपनी जिंदगी भर की कमाई, शायद अनेक जन्मों की कमाई दांव पर लगा रहा है। वह इतनी ऊंचाई से गिर रहा है कि उसके गिरने में शक्ति है।
आपको पता है, जितनी गति हो, उतनी शक्ति हो जाती है। अगर एक छोटे से कंकड़ को भी हम प्रकाश की गति से फेंक सकें, तो दुनिया की कोई ताकत भी उसको रोक नहीं सकेगी, वह सभी चीजों को छेद करके बाहर निकल जाएगा। एक छोटा सा कंकड़, एक टुकड़ा रेत का, अगर प्रकाश की गति से फेंका जाए, तो उसके पास वही शक्ति होगी, जो एटम बम के पास है। बस गति के साथ शक्ति बढ़ जाती है। अगर बंदूक की गोली आपको मार डालती है, तो सिर्फ उसके भीतर छिपी हुई बारूद ही नहीं है, जिस गति से फेंकी जाती है, वह गति है। कोई ऐसे धीमे से आपको फेंक कर मार दे, तो गोली नीचे गिर जाएगी, कुछ होगा नहीं। बारूद नहीं है असली चीज, असली चीज गति है--कितनी गति से फेंकी गई है।
जब ऋषि गिरता है, तो उसमें गति होती है--बड़ी ऊंचाई से गिरता है। और जब आप गिरते हो तो जमीन पर धम्म से गिर जाते हो, कोई गति नहीं होती; जहां खड़े थे, वहीं गिरते हो। आपका अभिशाप गतिहीन है।
इसलिए दुर्वासा का खतरा है। और वह कुछ कह दे, तो फिर उससे बचने का उपाय नहीं है। क्योंकि वह कुछ कह कर अपनी ताकत खो रहा है। वह ताकत कहां जाएगी? एक गोली की तरह उसकी ताकत आपकी तरफ आ रही है। इसलिए समस्त धर्मों ने कहा है कि इसके पहले कि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक ऊंचाइयों की तरफ बढ़े, उसे शील को साध लेना चाहिए; नहीं तो वह खतरनाक है।
बुद्ध ने तो नियम बनाया था कि उनके भिक्षु हर प्रार्थना के बाद अनिवार्य रूप से यह प्रार्थना भी करें कि मुझे जो इस प्रार्थना से मिला है, वह सारे जगत को बंट जाए, मेरे पास न रहे। इस भाव को वे गहरा करते जाएं कि जो भी मैं पाऊं अध्यात्म में, जो भी शक्ति हो, वह सबको बंट जाए, वह मेरे पास न रहे, वह मेरे लिए न हो। यह करुणा प्रार्थना के साथ-साथ बढ़ती रहे, तो बचाव रहेगा। नहीं तो प्रार्थना अकेली किसी भी दिन खतरनाक हो सकती है। क्योंकि शक्ति हाथ में होगी और करुणा का कोई बोध नहीं होगा। तो बुद्ध ने कहा है कि प्रार्थना से जो भी मिले, तुम उसे रोज ही बांट देना; उसे इकट्ठा ही मत करना; वह परिग्रह भी मत करना। नहीं तो किसी दिन शक्ति हाथ में होगी और खतरा पास होगा। बारूद हाथ में होगी और आग भी पास होगी। और जैसे-जैसे शिखर पर बढ़ेंगे, बारूद और आग करीब-करीब आते जाएंगे। ठेठ शिखर के पास पहुंच कर बारूद और आग बिलकुल पास-पास होंगे। उस वक्त बचाना कठिन हो सकता है।
पर जितना कठिन हो, उतना ही बचाने का मजा भी है। और जितना कठिन हो उतना रस भी है। और जितना कठिन हो, उतना ही उस कठिनाई से पार उठने में आप और बड़े शिखर पर स्थापित हो जाते हैं। और यदि गिरते हैं, तो खाई में पड़ जाते हैं। अगर नहीं गिरते हैं, तो शिखर बहुत करीब आ जाता है।
ध्यान रहे, यह अनुपात में है। जिस जगह से आप जितने नीचे गिर सकते हैं, उस जगह से आप उतने ही ऊपर उठ सकते हैं। यह अनुपात बराबर है। अगर एक पहाड़ से, इस आध्यात्मिक शिखर से आप हजारों मील नीचे गिर सकते हैं, अगर भूल करें; और भूल से अगर बच जाएं, तो हजारों मील ऊपर उठ जाते हैं। ये दोनों बातें साथ-साथ हैं।
कहा जाता है कि महापुरुष भूल नहीं करते; बिलकुल गलत है। महापुरुष छोटी भूल नहीं करते हैं। करते हैं, तो महान भूल करते हैं। लोग कहते हैं कि छोटे आदमी और बड़े आदमी में यही फर्क है कि छोटा आदमी भूलें करता है, बड़ा आदमी भूलें नहीं करता; यह बिलकुल गलत है। छोटे और बड़े आदमी में यह फर्क नहीं है। छोटे और बड़े आदमी में यही फर्क है कि छोटा आदमी छोटी भूलें करता है, बड़ा आदमी बड़ी भूलें करता है। छोटा आदमी छोटी भूलें न करे, तो थोड़ा सा आगे बढ़ता है। बड़ा आदमी बड़ी भूलें न करे, तो बड़ा आगे बढ़ता है। आपकी भूल जितना आपको गिराती है, उतना ही आपकी न भूल आपको उठा सकती है। इससे ज्यादा नहीं हो सकता है। दोनों चीजें साथ-साथ बढ़ती चली जाती हैं। उस दूसरे का खयाल रखना, जो आपके साथ चल रहा है। और जितने आप शक्तिमान हो रहे हैं, उतना ही वह दूसरा भी शक्तिमान हो रहा है।
‘इस विराग के क्षण में जरा सा झोंका अहंकार को झकझोर कर जगा देगा। बिजली की कौंध जैसी भासती छोटी सी हलकी लहर भी तेरे तीन पुरस्कारों को तुझसे छीन लेगी, जो तूने श्रम से जीते हैं।’
‘क्योंकि तू जान कि उस नित्य में कोई झूठ नहीं है।’
उसका नियम शाश्वत है, उसमें कोई झूठ नहीं है।
अगर आप बैलगाड़ी पर से गिरते हैं, तो भी जमीन का गुरुत्वाकर्षण काम करता है; लेकिन चोट उतनी ही लगती है, जितनी ऊंचाई पर बैलगाड़ी में बैठे थे। और जब हवाई जहाज से गिरते हैं, तब भी वही नियम काम करता है गुरुत्वाकर्षण का; लेकिन तब बचने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि आप बैठे हवाई जहाज में थे, बैलगाड़ी में नहीं। इसलिए बैलगाड़ी का चालक आंख बंद करके भी दोपहर में यात्रा करता है। वहां कोई ज्यादा डर नहीं है। और भटके भी, तो बहुत नहीं भटक सकते हैं। न भी पहुंचे, तो भी मंजिल बहुत दूर नहीं होगी। पहुंच ही जाएंगे। वह जो बैलगाड़ी का चालक है, सो भी जाता है, तो बैल भी चला लेते हैं। आपके जागे होने की बहुत जरूरत नहीं है। दुकान आपके बैल भी चला लेते हैं, बाजार आपके बैल भी चला लेते हैं। आपकी इंद्रियां भी काम को कर लेती हैं।
जब आप अपने घर लौटते हैं तो आपको याद रखने की जरूरत नहीं कि रास्ता कहां से कहां जा रहा है। सोचने की भी जरूरत नहीं, पैर ही मुड़ जाते हैं। खड़े हो-हो कर सोचना नहीं पड़ता कि अब बाएं घूमूं कि दाएं घूमूं, पैर ही मुड़ जाते हैं। अगर आप गाड़ी ड्राइव कर रहे हैं, तो हाथ ही काम चला लेते हैं; आंख की भी जरूरत नहीं होती। मन की, विचार की तो कोई जरूरत नहीं होती। और आत्मा को जगने का तो कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन जितनी ऊंचाई पर आप हैं, उतना ही सजग होना पड़ेगा।
जो लोग अभी चांद पर भेजे गए हैं अंतरिक्ष यात्रा के लिए, उन सबको ध्यान और योग की शिक्षा देनी पड़ी है। रूस में पहली दफा ध्यान के प्रति उत्सुकता आई है अंतरिक्ष यात्रा के कारण। क्योंकि अंतरिक्ष यात्री को तो बिलकुल ध्यानी होना चाहिए, नहीं तो जरा सी चूक--इंच भर की चूक और अनंत का फासला हो जाएगा। फिर दुबारा मिलने का कोई उपाय नहीं होगा। चांद पर उतरने की घटना सिर्फ यांत्रिक विकास का ही परिणाम नहीं है, ध्यान का भी उसमें इतना ही हाथ है। क्योंकि अंतरिक्ष यात्री को पल-पल का बोध रखना जरूरी है। और एक पल की चूक, सब चूक हो सकती है। और जरा सा भटकाव, कि हमें कभी पता भी नहीं चलेगा कि हमारे यात्री कहां गए और उनका क्या हुआ। वहां भूल-चूक नहीं चलेगी।
जितनी ऊंचाई बढ़ती है, उतना ही भूल-चूक से सावधान होना जरूरी है, और भूल-चूक उतनी ही महंगी हो जाती है। ऊंचा चढ़ने वाला खतरे अपने हाथ से मोल ले रहा है। लेकिन खतरों के बिना कोई उपलब्धि भी नहीं है।
‘और वह जो नियम है, तू जान कि उस नित्य नियम में कोई छूट नहीं है।’
यह कभी मत सोचना कि तू छोड़ दिया जाएगा, तू अपवाद हो जाएगा। यह भ्रांति मन को पकड़ती है कि इतनी सी भूल है, परमात्मा क्षमा कर देगा। जितनी ऊंचाई हो, उतनी ही क्षमा असंभव हो जाएगी। आपको क्षमा किया जा सकता है। जीसस को या बुद्ध को क्षमा नहीं किया जा सकता। आप इतनी भूलें कर रहे हैं कि क्षमा न हो, तो आप जी ही नहीं सकते हैं। क्षमा का मतलब केवल इतना ही है कि आप जहां खड़े हैं, वहां भूल से कोई बड़ा नुकसान नहीं होता। आप जमीन पर ही खड़े हैं। बुद्ध आकाश में उड़ रहे हैं। वहां से गिरना खतरनाक है।
और जितनी आपकी योग्यता बढ़ती जाती है, यह अस्तित्व आपसे उतनी ही ज्यादा योग्यता की मांग करता है। यह कसौटी है।
सुना है मैंने कि ऐसा हुआ एक बार, अवनींद्रनाथ ठाकुर बड़े कलाकार थे, रवींद्रनाथ के चाचा थे। नंदलाल बसु उनके शिष्य थे और अवनींद्रनाथ के बाद भारत में उनका कोई मुकाबला न था। और जब नंदलाल अवनींद्रनाथ के पास सीखते थे चित्रकला; तो एक दिन रवींद्रनाथ बैठ कर गपशप करते थे अवनींद्रनाथ से और नंदलाल कृष्ण का एक चित्र बना कर लाए। चित्र ऐसा अदभुत था कि रवींद्रनाथ ने कहा है कि मैंने ऐसा कृष्ण का कोई चित्र कभी नहीं देखा, शायद अद्वितीय है। अवनींद्रनाथ ने, लेकिन चित्र को देखा और चित्र को फेंक दिया बाहर, मकान के। और कहा, नंदलाल, इससे अच्छा तो बंगाल के पटिये कृष्ण का चित्र बना लेते हैं!
बंगाल में वे कृष्णाष्टमी के समय दो-दो, चार-चार पैसे में गांव के गरीब चित्रकार कृष्ण का चित्र बनाते हैं, वे चित्रकार पटिये कहलाते हैं, कृष्ण-पट बनाते हैं।
तुझसे अच्छा वे बना लेते हैं--इससे ज्यादा अपमान और कुछ हो नहीं सकता--दो पैसे का चित्र बनाने वाला पटिया! यह भी तू कोई कृष्ण का चित्र बना कर लाया है, जा पटियों से सीख!
रवींद्रनाथ तो दंग रह गए। और रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मुझे हुआ कि यह क्या कर रहे हैं अवनींद्रनाथ। जहां तक मेरी समझ है, इनका भी कोई चित्र इस चित्र के मुकाबले नहीं है। पर वह गुरु हैं और नंदलाल शिष्य हैं। बीच में बोलना उचित भी नहीं है। नंदलाल वापस चले गए, वह चित्र जहां पड़ा था, वहीं पड़ा रहा।
अवनींद्रनाथ बाहर गए, चित्र उठा कर लाए, उनकी आंख से आंसू टपकने लगे। तब तो रवींद्रनाथ और हैरान हुए। उन्होंने कहा: आप कर क्या रहे हैं! शिष्य आपका चला गया, तो मैं बोल सकता हूं कि मुझे भरोसा नहीं कि आपने भी कृष्ण का इससे सुंदर चित्र बनाया हो। अवनींद्रनाथ ने कहा: वह मैं भी जानता हूं। तब बात और जटिल हो गई। और रवींद्रनाथ ने पूछा: तो फिर इतना ज्यादा कठोर होने की क्या जरूरत थी उस गरीब लड़के पर? उन्होंने कहा कि वह लड़का गरीब होता तो इतना कठोर मैं न होता। उसकी प्रतिभा अदभुत है, और अभी और संभावना है, उसे कसा जा सकता है। अगर मैं कह दूं कि ठीक, तो रुक जाएगा। तुम्हें पता नहीं कि कितनी पीड़ा मुझे होती है--उसको मैं कह नहीं सकता ठीक, उसको मैं कभी नहीं कहूंगा ठीक। क्योंकि मेरा ठीक कहना उसकी हत्या है। साधारण शिष्यों को तो मैं ठीक कह ही देता। यह तो अदभुत है चित्र, इससे साधारण चित्रों में भी ठीक कह देता। उनसे ज्यादा आशा भी नहीं है।
जैसे-जैसे व्यक्ति ऊपर उठता है, वैसे-वैसे अस्तित्व ज्यादा आशा करता है, वैसे-वैसे चारों तरफ से शक्तियां कसती जाती हैं। कोई पीठ थपथपाने नहीं आता। जितने आप ऊपर जाते हैं, उतना ही अस्तित्व आपसे ज्यादा मांगता है। जितने बड़े शिखर पर आप होते हैं, उतनी अस्तित्व की मांग बढ़ती चली जाती है। क्योंकि अस्तित्व आपके भीतर से उस सबको निकाल लेना चाहता है, जो छिपा है। जिनकी कोई योग्यता नहीं है, वे क्षमा किए जा सकते हैं। जैसे ही योग्यता बढ़ती है, वैसे ही जरा सी भूल अक्षम्य हो जाती है।
नंदलाल तीन साल के लिए नदारद हो गए। अवनींद्रनाथ, जो भी आता, उससे पूछते: नंदलाल कहां है? किसी को पता नहीं कि नंदलाल कहां चले गए। तीन साल बाद लौटे, तो पहचानना मुश्किल था। वे गांव-गांव बंगाल में घूमते रहे। जहां-जहां उन्हें पता लगा कि कोई पटिया है, उसके पास जाकर सीखते कि कृष्ण का चित्र कैसे बनाते हैं? तीन साल बाद जब लौटे, तो उनकी हालत एक गरीब पटिये की हो गई थी। उनको पहचानना मुश्किल था कि यह लड़का वही है। अवनींद्रनाथ बूढ़े हो गए थे, उनकी आंखों में कम दिखाई पड़ता था। लेकिन नंदलाल आकर सामने खड़ा हो गया। और नंदलाल ने कहा कि आपकी बड़ी कृपा है, जो आपने मुझसे कहा। अगर उस दिन आप ऐसा न करते, तो मेरे भीतर जो छिपा था, वह छिपा ही रह जाता। आपकी कठोर करुणा के लिए धन्यवाद देने आया हूं।
हम सब सोचते हैं कि करुणा कठोर नहीं हो सकती। हम सोचते हैं कि अनुकंपा कठोर नहीं हो सकती। कठोर नहीं होती उनके लिए, जिनमें कोई योग्यता नहीं है; उनको छोड़ा जा सकता है, अस्तित्व उन्हें क्षमा करता है। जैसे-जैसे योग्यता बढ़ती है, अस्तित्व कठोर होता जाता है; क्योंकि अस्तित्व करुणावान होता जाता है।
ये सारे शब्द जो मैं प्रयोग कर रहा हूं, ये सब प्रतीक शब्द हैं, इसका खयाल रखना। क्योंकि एक मित्र ने आज ही पूछा है कि आप कहते हैं कि परमात्मा की तरफ हाथ जोड़ कर सिर झुका दें, मुझे पता ही नहीं कि कौन परमात्मा है, किसके प्रति सिर झुकाऊं? और जिसका मुझे पता ही नहीं है और फिर वह परमात्मा मेरी मदद करेगा क्या?
सवाल इसका नहीं है कि परमात्मा का पता है या नहीं, सवाल सिर्फ इसका है कि आपने हाथ जोड़े और सिर झुकाया। यह बात मूल्यवान नहीं है कि किसके लिए झुकाया; वह गौण है, वह बहाना है सिर्फ। आप झुके, यही मूल्यवान है। परमात्मा आपकी मदद नहीं करेगा, क्योंकि वह ही मदद करता होता, तो कभी का कर देता। आप ही अपनी मदद करेंगे। लेकिन जितना आप झुकते हैं, उतनी आप अपनी मदद कर रहे हैं। और आप झुक नहीं सकते बिना परमात्मा की धारणा के, इसलिए कहता हूं, झुको। नहीं पता है उसका, तो अज्ञात के लिए झुको। यह भी पता नहीं है, तो सिर्फ झुको, भूल जाओ, उसकी बात ही भूल जाओ, सिर्फ झुको।
समर्पण किसके प्रति, इसका मूल्य नहीं है। समर्पण का मूल्य है। झुक जाने का मूल्य है।
झुका हुआ आदमी अनेक शक्तियों को पाने का हकदार हो जाता है; अकड़ा हुआ आदमी अपने ही हाथ से बंद हो जाता है, उसे कोई शक्ति उपलब्ध नहीं होती। परमात्मा तो बहाना है, शब्द है। तुम्हें झुकाना असली बात है। किस बहाने तुम झुक जाते हो, यह गौण है। कोई बहाना खोज लो और झुको।
लेकिन बड़ा मजा है, बिना बहाने के अकड़े रहते हो। जब झुकने की बात आती है, पूछते हो, कौन परमात्मा, किसके लिए झुकना! अकड़े किसके लिए हो? किस कारण अकड़े हो? क्या है, जिससे अकड़े हो? यह कभी कोई नहीं पूछता कि मैं किस कारण अकड़ा हुआ हूं! क्या है मेरे भीतर जिससे मैं अकड़ा हुआ हूं? यह मिट्टी की देह से अकड़े हुए हो? इस जीवन से अकड़े हुए हो, जो अभी है और अभी नहीं हो जाएगा? बुद्धि से अकड़े हुए हो--क्योंकि दो और दो चार है, ऐसा जोड़ लेते हो? किस बात की अकड़ है? थोड़ा सोचो, बजाय इसके कि किसके सामने झुकें, ऐसा सोचो कि किसके कारण अकड़ रहे हैं, क्या है भीतर जिससे अकड़ रहे हैं?
और तब दिखाई पड़ेगा, भीतर कुछ भी तो नहीं है, जिसके कारण अकड़ रहे हैं। यह दिखाई पड़ जाए, तो झुकना हो जाएगा। फिर सवाल नहीं कि किसके आगे झुकें। और अगर थोड़ी सी समझ हो, तो पता चलेगा, अकड़ ही सब दुखों का कारण है और झुक जाना ही सभी सुखों का द्वार है। क्योंकि झुका हुआ आदमी खुल जाता है।
यह ऐसे ही है जैसे कोई नदी में खड़ा है अकड़ कर और प्यास लगी है और कहता है, प्यास लगी है। झुकना पड़ेगा। झुकेगा, हाथ की चुल्लू बनाएगा, तो पानी चुल्लू में आ जाएगा। कोई नदी कृपा नहीं करेगी, आपके झुकने से ही नदी की कृपा संभव हो पाएगी। आप अकड़े ही खड़े रहें कि कैसे झुकें, अगर नदी को देना है, तो दे देगी। और यह भी शर्त क्या लगानी है, अगर परमात्मा इतना बड़ा देने वाला है, तो क्या शर्त लगानी कि झुको। यह भी क्या छोटी शर्त लगानी कि झुको, देना है तो दे दे। नदी बहती रहेगी। ऐसा नहीं है कि आपको पानी नहीं देना चाहती। देने, न देने का कोई संबंध नहीं है। जो झुकता है, वह पानी पा जाता है। जो नहीं झुकता, वह प्यासा रह जाता है।
इस अर्थ में जब आपसे कहता हूं कि हाथ जोड़ कर झुक जाएं, तो समझना कि सब प्रतीक हैं। मुझे भी पता है कि आपको परमात्मा का पता नहीं है। पता ही होता, तो आप यहां आते क्यों? और जब आपको पता ही चल जाएगा, तब झुकिएगा? तब झुकने की कोई जरूरत न रह जाएगी। क्योंकि पता ही तब चलता है, जब आदमी पूरी तरह झुक ही गया होता है। उसके पहले तो पता नहीं चलता। अगर आप यह शर्त रखते हैं कि जब पता चल जाएगा, तब झुकेंगे, तो आपको कभी पता नहीं चलेगा। आप झुक जाएं, पता का बिलकुल ही विचार न करें; झुकते ही पता चलना शुरू हो जाएगा।
‘महाप्रभु का, पूर्णता के तथागत का, जो अपने पूर्व तथागतों के चरण-चिह्नों पर चलते चले आए हैं, वचन हैं: आठ घोर दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं। यदि नहीं, तो जान कि तू ज्ञान को, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।’
‘तथागत’ बड़ा कीमती शब्द है और जटिल भी। बुद्धों के लिए तथागत शब्द का प्रयोग हुआ है, समस्त बुद्धों के लिए, जाग्रत पुरुषों के लिए। तथागत का शाब्दिक अर्थ होता है: जो अपने से पहले बुद्धों के चरण-चिह्नों पर चले।
जटिलता यह है कि चरण-चिह्न बनते नहीं, उस लोक में कोई चरण-चिह्न नहीं बनते। सभी बुद्ध अनूठे होते हैं, और अपने ही जैसे होते हैं। और किसी दूसरे जैसे नहीं होते। किन्हीं दो बुद्धों के बीच किसी तरह की तुलना संभव नहीं है। जीसस बुद्ध हैं, महावीर बुद्ध हैं, गौतम बुद्ध हैं, कृष्ण बुद्ध हैं, सब जागे हुए पुरुष हैं। दो में कोई तालमेल नहीं है। कहां कृष्ण, कहां महावीर! कहां बुद्ध, कहां जीसस! क्या मेल है? क्या तालमेल है? चरण-चिह्न भी कहां एक से हैं?
जीसस सूली पर लटकते हैं। ईसाई कहते हैं कि मनुष्यता के पापों का उद्धार करने के लिए अपने को कुर्बान कर देते हैं, अपने को मिटा देते हैं, ताकि मनुष्य ऊपर उठ सके। ईसाई कहते हैं कि आदम का पाप था, इसलिए मनुष्य विकृत हुआ, और जब तक आदमी दंडित न हो, तब तक आदम को क्षमा नहीं किया जा सकता। और सब आदमी की संतानें आदम का ही विस्तार हैं, इसलिए उनका पाप में भाग है।
आप अपने ही पाप के लिए जिम्मेवार नहीं; मनुष्य मात्र के पाप के लिए जिम्मेवार हैं। यह बड़ी कीमती बात है। और उन मनुष्यों के लिए नहीं, जो आज मौजूद है; उन मनुष्यों के पाप के लिए भी, जो कल थे, परसों थे, और कभी आगे होंगे। मनुष्यता जिम्मेवार है। तो किसी आदम ने भूल की--सारी मनुष्यता जिम्मेवार हो गई! तो किसी दूसरे आदमी को भूल का प्रतिकार करना पड़े और पूरा दंड भोग लेना पड़े, तो जीसस अपने को कुर्बान कर देते हैं। जिस आज्ञा का उल्लंघन किया आदम ने, जीसस उसे परमात्मा की आज्ञा मान कर अपने को समर्पित कर देते हैं और मरने को राजी हो जाते हैं! इसलिए ईसाई कहते हैं: जीसस जैसा बुद्ध कोई भी नहीं हुआ। हम सोच ही नहीं सकते।
कोई जैन नहीं सोच सकता है कि महावीर सूली पर लटकाए जाएं, क्योंकि जैन कहते हैं कि सूली तो घटित होती कर्मों के फल के कारण। अगर कोई पाप किया हो, महापाप किया हो, तो ही सूली हो सकती है। महावीर को सूली कैसे हो सकती है? जिसके सब कर्म क्षीण हो गए, वही तो बुद्ध होता है। जिसका कोई कर्म नहीं बचा, वही तो बुद्ध होता है। और जिसका कोई कर्म नहीं बचा, उसको सूली! कल्पना में भी नहीं आ सकता कि उसको सूली हो सकती है।
अगर जैनों से पूछो या कर्म के सिद्धांत को मानने वाले से पूछो कि गांधी को गोडसे ने गोली मारी, तो ऊपर से देखने पर तो गोडसे जिम्मेवार है, लेकिन कर्म के सिद्धांत से देखने पर गांधी कहीं न कहीं जिम्मेवार होने चाहिए, कुछ न कुछ गोडसे को उन्होंने मारा हो कभी, अन्यथा यह प्रतिफल कैसा? तो ऊपर की व्यवस्था में तो गोडसे जिम्मेवार है, कानून की व्यवस्था में, लेकिन कर्म के सिद्धांत की व्यवस्था में कहीं न कहीं, किसी न किसी जन्म के, किसी न किसी तल में, गांधी को जिम्मेवार होना चाहिए।
जैनों से पूछो, तो वे कहेंगे कि महावीर के चरणों में कांटा भी नहीं गड़ सकता है, सूली तो बहुत दूर की बात है। क्योंकि कांटा भी तभी गड़ता है, जब कांटे को तुमने कभी सताया हो। बड़ा मुश्किल है। कहां इनके चरण-चिह्न एक होंगे?
जीसस उदास हैं, कहते हैं कि कभी हंसे नहीं। ईसाई कहते हैं कि जीसस कभी हंसे नहीं, क्योंकि हंसना भी कैसी क्षुद्र बात है! उदास हैं--सारी मनुष्यता का दुख, सारी मनुष्यता की पीड़ा; इतना महा नरक जहां निर्मित है, वहां जीसस हंसें!
और इधर कृष्ण हैं कि बांसुरी बजा रहे हैं। बहुत मुश्किल है, कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता। इधर कृष्ण हैं कि बांसुरी बजा रहे हैं, रास रचा रहे हैं, नाच रहे हैं। सोलह हजार पत्नियां हैं उनकी।
जीसस अविवाहित हैं। पत्नी की बात ही सोचनी मुश्किल है जीसस के साथ।
इधर सोलह हजार पत्नियों का खयाल है। जिन्होंने सोचा होगा, बड़े अदभुत लोग रहे होंगे। और सोलह हजार जिसकी पत्नियां हों, वह बुद्धपुरुष होना ही चाहिए। एक पत्नी पागल कर देती है, सोलह हजार पत्नियां! सिर्फ बुद्धपुरुष ही इनके बीच हो सकता है कि पागल न हो। इससे बड़ी और कसौटी अस्तित्व नहीं ले सकता किसी की कि सोलह हजार पत्नियां किसी को दे दे। एक-एक पत्नी का अनुभव सभी को है। किन्हीं-किन्हीं को दो का है, तीन का भी है। वे जानते हैं कि कैसी अड़चन हो जाती है। सोलह हजार!
हिम्मतवर लोग थे, जिन्होंने सोची बात। और कृष्ण इनके बीच भी बांसुरी बजा रहा है। एक ही पत्नी के साथ बांसुरी बजा कर देखिए! नाच रहा है--यह कोई और ही...जीसस से इसका कोई मेल नहीं, महावीर से इसका कोई मेल नहीं। यह सारा अस्तित्व एक नृत्य मालूम हो रहा है। जैसे दुख ऊपरी है और व्यर्थ है। दुख सिर्फ नासमझी है। पाप, पुण्य, पश्चात्ताप, सब ऊपरी बातें हैं। महोत्सव आंतरिक है, गहरा है।
तथागत शब्द इसलिए समझने जैसा है। तथागत का मतलब है: सब बुद्धपुरुष एक से ही हैं। लेकिन बाहर से तो बड़े अनेक हैं, ऊपर से तो उनको साथ रखना ही मुश्किल है। कृष्ण को और क्राइस्ट को एक ही घर में ठहराएं--बड़ी मुश्किल होगी। कहां क्राइस्ट सूली पर लटके हैं और वहीं कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं! बड़ा मुश्किल होगा।
ऊपर से देखने पर तो बुद्धपुरुषों में कोई मेल नहीं है, प्रत्येक बुद्धपुरुष अद्वितीय, अनूठा और अपने ही जैसा है, लेकिन गहरे में वे एक ही चरण-चिह्नों पर चले हैं। इसलिए उन सबको तथागत कहा है।
गहरे में उनके चरण-चिह्न बिलकुल एक हैं, लेकिन उतनी गहरी आंख हो तो ही दिखाई पड़ सकते हैं। ऊपर के आवरण का भेद है, वस्त्रों का भेद है, व्यक्तित्व का भेद है; आत्मा का भेद नहीं है।
‘महाप्रभु का, पूर्णता के तथागत का, जो अपने पूर्वजों के चरण-चिह्नों पर चलते चले आए हैं,...।’
इसलिए बुद्धपुरुष सदा नया है और सदा पुराना भी। नया है, अगर आप उसको ऊपर से देखें और पुराना है अगर भीतर से जानें। अत्यंत नूतन है, मौलिक है और अत्यंत सनातन है, प्राचीन है। वह जो भी कह रहा है, एकदम अनूठा है और वह जो भी कह रहा है, वह सदा बुद्धपुरुषों ने कहा है। ये विपरीत दिखाई पड़ने वाली बातें अगर एक साथ समझ में आ जाएं, तो तथागत शब्द का अर्थ समझ में आएगा।
भीतर के लोक में बुद्ध और महावीर बिलकुल एक जैसे हैं। क्या है उनकी एक जैसी स्थिति?
यहां हम इतने लोग बैठे हैं, सब अलग-अलग हैं। ऊपर से चाहे एक जैसे भी हों, क्योंकि शरीर एक ही जैसा है, वस्त्र एक जैसे हैं, ऊपर से तो बहुत सी बातें एक जैसी हैं, लेकिन भीतर वह जो विचार चल रहे हैं, वह सबके अलग-अलग हैं। वह भीतर का विचार सबको भिन्न कर देता है। बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, महावीर, उनके भीतर विचार नहीं हैं, शून्य है। वह शून्य सबको एक जैसा कर देता है, भीतर से।
उस शून्य की अभिव्यक्ति में भेद पड़ता है। जब वह शून्य प्रकट होता है, तो व्यक्तित्व की पर्तों से आता है। जैसे कि हम प्रकाश जलाएं और हर प्रकाश के आस-पास अलग-अलग रंग के कांच के घेरे खड़े कर दें। एक नीला कांच का घेरा हो, एक लाल कांच का घेरा हो, एक हरा कांच का घेरा हो, एक सा दीया जले। और प्रकाश का रंग एक है। वह भीतर जले, लेकिन चारों घेरों के बाहर अलग-अलग प्रकाश दिखाई पड़ेगा।
बुद्ध के भीतर जो प्रकाश जल रहा है और क्राइस्ट के भीतर जो प्रकाश जल रहा है, वह एक है। वे दोनों तथागत हैं, वहां सब शून्य हो गया। दो शून्य में कोई भेद नहीं होता। दो विचारों में भेद होता है, दो मनों में भेद होता है। दो समाधियों में भेद नहीं होता। हम अगर सब यहां शांत हो जाएं तो हमारे भीतर फिर कोई भेद नहीं रह जाएगा। सब भेद ऊपरी हैं, भीतरी कोई भेद नहीं है बुद्धपुरुषों में। हममें सब तालमेल ऊपरी है, भीतरी बिलकुल भेद है। ऊपर से हम करीब-करीब एक जैसे जीते हैं। भीतर बहुत भेद है। इसलिए दो मित्र भी बनाना मुश्किल है जगत में, क्योंकि दोनों में बड़ा भेद है। भीतर के विचार कलह उत्पन्न करते हैं। दो बुद्धपुरुषों को मिलाने की भी जरूरत नहीं है।
सुना है मैंने कि महावीर और बुद्ध एक बार एक ही गांव में, एक ही धर्मशाला में ठहरे और मिले नहीं। बड़ा अशोभन मालूम पड़ता है, मिलते तो अच्छा होता, मनुष्यता का लाभ होता। ऐसा भी नहीं कि मिलाने की कोशिश न की होगी लोगों ने। बड़ी कोशिश की होगी और बड़े लोग परेशान भी हुए होंगे कि क्यों, मिलते क्यों नहीं? मिल लेना चाहिए। हमारी समझ के बाहर है बात कि मिलने का कोई अर्थ ही नहीं; क्योंकि वे भीतर इतने एक जैसे हैं कि किससे मिलना, क्या मिलना? क्या अर्थ? भीतर दो शून्य हैं, वह मिल भी जाएं, तो एक ही शून्य बनेगा। दो शून्य से मिल कर दो शून्य नहीं बनते, दो शून्य से मिल कर एक ही शून्य बनता है। हजार शून्य भी मिला दो, तो एक ही शून्य बनता है। ऐसा नहीं कि हजार शून्य बन जाते हैं।
शून्य का मतलब कि वह कोई इकाई नहीं है, खालीपन है। दो खालीपन मिलेंगे, तो क्या होगा? एक खालीपन हो जाएगा। अगर बुद्ध और महावीर को हम पास बिठा दें, तो वहां दो आदमी नहीं हैं; वहां एक आदमी हो जाएगा। अगर हम सारे तथागतों को इकट्ठा कर लें, तो वहां हजार तथागत नहीं होंगे; वहां एक ही शून्य रह जाएगा। इस अर्थ में तथागत को कहा जाता है कि वह अनूठा भी है और अपने पूर्वजों के चरण-चिह्नों पर भी चलता है।
‘उन सब तथागतों का वचन है: आठ घोर दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं। यदि नहीं, तो जान कि तू ज्ञान को, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।’
अगर विराग के बाद भी तेरे दुख बने रहते हैं, तो समझना कि तू चूक गया। विरागी को दुख नहीं होना चाहिए। रागी का दुख समझ में आता है। क्योंकि राग जब पूरा नहीं होता, तो दुख होता है। राग जब असफल होता है, तो दुख होता है। राग में अपेक्षा है--पूर्ति न होने पर दुख होता है। पूर्ति हो जाए तो दुख होता है; क्योंकि राग की अपेक्षा निरंतर विस्तीर्ण होती चली जाती है। विरागी को दुख नहीं होना चाहिए। अगर विरागी को भी दुख होता है, तो जानना कि तू चूक गया है। बुद्धपुरुषों ने कहा है कि सभी दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं; विराग अगर सही हो जाए। और विराग के क्षण में अगर भूल से भटकाव न हो और अहंकार न पकड़ ले, और कोई सूक्ष्म वासना खेल न दिखाने लगे, तो सभी दुख विसर्जित हो जाते हैं। और अगर तुझे लगे कि दुख विसर्जित नहीं हुए, तो समझना कि तू चूक गया और निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।
‘विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर है। यदि तू इस मार्ग का स्वामी होना चाहता है, तो तुझे पहले से बहुत बढ़ कर अपने मन और दृष्टि को घातक कर्म से मुक्त रखना है।’
विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर है, वहां कोई अपवाद नहीं हो सकेगा। निश्चित ही होना भी यही चाहिए। जब सभी दुखों को छोड़ने के लिए कोई तैयार है, सभी दुखों से मुक्त होने की आशा रख रहा है, तो उसे कठोर परीक्षा से गुजरना पड़ेगा। दुख छोड़ने की जो आशा रख रहा है, सब दुख से बाहर हो जाने की जो चेष्टा कर रहा है, उसे कठोर परीक्षा से गुजरना पड़ेगा।
वह कठोर परीक्षा क्या है?
वह कठोर परीक्षा दो चीजों के बीच में है। एक तो कि दुखों से छुटकारा तब तक असंभव है, जब तक वासना से पूर्ण छुटकारा न हो। सूक्ष्म वासना रह जाए, तो सूक्ष्म दुख रह जाएंगे। वासना होगी, तो कहीं न कहीं दुख होगा। मांग होगी, तो पीड़ा होगी। चाह होगी तो कांटा चुभा ही रहेगा छाती में। वह जो वासना के वस्त्र हम पहने हुए हैं, उन सबको बिलकुल ही छोड़ देना पड़ेगा। वे ही हमें कसे हैं और दुख दे रहे हैं।
सुना है मैंने, ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दर्जी को कपड़े बनाने को दिए थे। बड़ी मुश्किल से सालों में पैसा इकट्ठा करके बड़ा बहुमूल्य कपड़ा खरीदा था। दर्जी ने कपड़े भी बना दिए, बड़ी देर लगाई, बड़े चक्कर कटवाए। आखिर एक दिन कपड़े बन कर तैयार हो गए। उत्सव का दिन कोई करीब आ रहा था और नसरुद्दीन बहुत खुश था। वह कपड़े लेने गया, लेकिन कपड़े पहन कर बड़ी मुश्किल में पड़ गया; बहुत उदास हो गया। उसने कहा कि यह तुमने क्या किया? बर्बाद कर दिया सारा कपड़ा। यह कालर तो देखो कि मेरे सिर तक जा रही है।
उस दर्जी ने कहा: इसमें कालर का कसूर नहीं है, थोड़ा सिर को ऊंचा करो। उसने खींच कर नसरुद्दीन की गर्दन सीधी कर दी, गर्दन ऊपर हो गई। लेकिन गर्दन तो ऊपर हो गई, पर फंस गई भीतर। अब वह नीचे न कर सके--क्योंकि वह कालर! उसने कहा: और यह एक हाथ छोटा और एक हाथ बड़ा! उसने कहा: तुम्हारा शरीर ही गड़बड़ है, तो मैं क्या कर सकूंगा? जरा इस हाथ को आगे खींचो। तो उसने एक हाथ खींच कर आगे कर दिया। और नसरुद्दीन ने कहा कि यह नीचे जो कमीज है, यह नीचे तक पूरी नहीं पहुंच रही। तो उसने कहा: थोड़ा आगे झुको। तो नसरुद्दीन आगे झुक गया। पायजामे की एक टांग लंबी थी, एक छोटी थी। और वह ठीक करता गया और नसरुद्दीन बिगड़ता गया। कपड़ा ठीक होता चला गया, तो नसरुद्दीन की दशा बड़ी विकृत हो गई। वह अष्टावक्र की हालत में हो गया, आठ जगह से झुक गया। और दर्जी ने कहा: जरा आईने में तो देखो, गांव की सारी सुंदरियां पागल हो जाएंगी! महीनों की मेहनत है मेरी इन कपड़ों पर! नसरुद्दीन ने देखा, हालत बड़ी विचित्र थी; लेकिन इस आशा से कि सुंदरियां पागल हो जाएंगी, वह खुश हुआ। उसने कहा: क्या कहते हो! दर्जी ने कहा कि मैंने इतनी मेहनत कभी किन्हीं वस्त्रों पर नहीं की।
नसरुद्दीन निकला, तो अपनी मुद्रा और आसन को सम्हाले हुए--एक हाथ लंबा तो लंबा किए, गर्दन ऊंची तो ऊंची किए, एक पैर छोटा तो भीतर सिकुड़े, एक पैर लंबा तो आगे किए, वस्त्र छोटे तो आगे झुका--इस आशा में कि सुंदरियां पागल हो जाएंगी!
सभी की गति ऐसी ही है, अपनी-अपनी मुद्रा सम्हाले हैं। वासना में जीने वाला आदमी अष्टावक्र हो जाता है।
नसरुद्दीन घर की तरफ चला इस आशा में कि अब देखें कि कौन सुंदरी पागल होती है। कई लोगों ने चौंक कर जरूर देखा। स्त्रियों ने भी चौंक कर देखा। ऐसे विचित्र आदमी को कौन चौंक कर नहीं देखेगा! नसरुद्दीन समझा कि दर्जी ठीक ही कह रहा था। एक अजनबी आदमी ने जो नसरुद्दीन को नहीं जानता था--क्योंकि बाकी गांव के लोग तो जानते थे कि इसमें कुछ अनूठा नहीं है, इस आदमी से ऐसी ही आशा है--एक अजनबी ने, जो गांव में नया-नया आया था, उसने कहा कि ठहरो नसरुद्दीन, तुम्हारे दर्जी का पता क्या है? किसने बनाया यह? नसरुद्दीन ने कहा कि क्या! मेरे दर्जी का पता पूछ कर क्या करोगे? उसको लगा कि यह आदमी प्रतियोगिता करना चाहता है। उस अजनबी ने कहा कि मैं जानना चाहता हूं तुम्हारे दर्जी का पता, क्योंकि तुम जैसे अष्टावक्र के लिए जिसने कपड़े बना दिए, उसकी प्रतिभा का मुकाबला नहीं--ही मस्ट बी ए जीनियस। इतना इरछा-तिरछा शरीर और उसने कपड़े बिलकुल ठीक-ठीक बिठा दिए--आश्चर्य! उसके मैं दर्शन करना चाहता हूं। उसको पता नहीं है कि यह बेचारा अष्टावक्र नहीं है, कपड़ों की वजह से अष्टावक्र है।
आपकी जो विकृत दशा है, वह वासनाओं का जो घेरा है चारों तरफ...कोई वासना टांग खींच रही है, कोई वासना सिर उठा रही है, कोई वासना एक हाथ खींच रही है; अपने को सम्हाले हैं बड़ी कठिन मुद्रा में। योगी भी क्या ऐसे आसन करेंगे, जो आप कर रहे हैं! और सम्हाले हैं इस आशा से कि कोई न कोई वासना इस ढंग से शायद पूरी होगी।
यह जो मनुष्य की दशा है...और जन्मों-जन्मों तक आदमी अष्टावक्र रहा है, इसलिए विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर मालूम पड़ता है। क्योंकि आपके अंग-अंग फिर से सीधे किए जाने हैं। आपकी विकृत दशा को फिर से सामान्य करना है। जो आप झुक गए हैं जगह-जगह से, वहां-वहां के जोड़ कठोर हो गए हैं, उन जोड़ों को तोड़ना है। और आदतें बन गई हैं मजबूत वासना की कि विराग के द्वार पर भी खड़े होकर वे वासना की आदतें आपको अपने ढंग से झुकाती हैं। इसलिए क्रूर और कठोर मालूम पड़ता है। जैसे किसी आदमी के शरीर की सब हड्डियां गलत ढंग से जुड़ गई हों, तो फिर उनको पुनः तोड़ना पड़े और फिर से जोड़ना पड़े, और जोड़ के बाद पलस्तर बांधने पड़ें कि कहीं वे फिर गलत आड़ी-टेढ़ी न जुड़ जाएं।
करीब-करीब विराग को यही काम करना पड़ता है। क्योंकि आपकी जन्मों-जन्मों में सारी व्यवस्था गड़बड़ जुड़ गई है। जो जहां होना चाहिए, वहां नहीं है और जहां नहीं होना चाहिए, वहां है। जिन अंगों का रूप आप समझ रहे हैं, जैसा आपके पास है, वह उनका स्वाभाविक रूप नहीं है, परवर्टेड, विकृत रूप है। सब चीजें विकृत हो गई हैं; राग ने सब विकृत कर दिया है। और राग की दौड़ में आदमी विकृत होने को तैयार है।
सिकंदर अफलातून का शिष्य था। अफलातून से वह दर्शन सीखता था। लेकिन सिकंदर था सम्राट और अफलातून तो एक गरीब दार्शनिक था। एक दिन सिकंदर ने उससे कहा कि तुम घोड़ा बन जाओ, और मैं तुम्हारे ऊपर सवारी करना चाहता हूं। तो अफलातून को उसने घोड़ा बना लिया, जैसे बच्चे बना लेते हैं, और अफलातून पर सवारी की। उसके दस-पांच दरबारी जो मौजूद थे, उनको उसने कहा कि देखो ज्ञानी की दशा! यह ज्ञानी मुझे सिखाने चला है। तो अफलातून ने कहा कि मेरी ही वासनाओं की वजह से यह मेरी दशा है कि मैं तुम्हारा घोड़ा बना हूं। मैं तुम्हें ज्ञान सिखा कर भी सौदा ही कर रहा हूं, उससे भी मैं कुछ पाना ही चाहता हूं। वह पाने की चाह ही इस हालत में ले आई कि तुम मेरे सिर पर बैठ गए हो। मेरी चाह ने ही मुझे घोड़ा बना दिया है, तुमने नहीं। तुम क्या कर सकते हो? मेरी वासना ने ही मुझे नीचे गिराया है, तुम मुझे नीचे नहीं गिरा सकते हो।
इस जगत में जो भी आपकी दशा है, वह आपकी ही वासना के कारण है। और इसलिए विराग बहुत कठोर मालूम पड़ता है। क्योंकि वह आपकी पूरी दशा को तोड़ेगा, आपको पुनः निर्मित करेगा, आपको नष्ट करेगा, तोड़ेगा, और नया निर्माण करेगा। वहां अगर जरा सी भी पुरानी आदत प्रवेश कर गई, तो आपने इस द्वार तक जो भी उपलब्धि की है--दान, शील, क्षांति--वह सब खो जाएगी और आप वापस उस जगह खड़े हो जाएंगे, जहां से आपने यात्रा शुरू की थी। इसलिए विराग के साथ अति सावधान होना जरूरी है।
‘तुझे अपने को शुद्ध आलय (परमसत्ता) से परितृप्ति कर लेना है और निसर्ग के आत्म-भाव के साथ एक हो जाना है। इसके साथ एक होकर तू अजेय है। पृथक रह कर तू समवृत्ति की क्रीड़ा-भूमि बन जाता है, जो संसार की समस्त भ्रांतियों का मूल-स्रोत है।’
शुद्ध आलय परम सत्ता के साथ अपने को परितृप्त कर लेना है।
वासना का अर्थ क्या है? वासना का अर्थ है: जो मिला है, उससे हम तृप्त नहीं हैं। जो है, उससे हम तृप्त नहीं हैं। हम अस्तित्व से कहते हैं कि नहीं, इतना काफी नहीं, यह और चाहिए, यह और चाहिए, यह और चाहिए। अस्तित्व से हमारी मांग है कि हम तृप्त होंगे तब, जब यह सब हो जाए। अस्तित्व ने जो दिया है, उससे हम राजी नहीं हैं। और अस्तित्व ने सब दिया है--जीवन दिया है, और जीवन के अनूठे रहस्य दिए हैं, और जीवन की बड़ी गहराई दी है, और जीवन का परम आनंद छिपा रखा है भीतर आपके। लेकिन वह खुलेगा तब, जब आप राजी हो जाएं अस्तित्व से। आपको तो देखने की फुर्सत ही नहीं है कि अस्तित्व ने क्या दिया है! आप तो मांग किए जा रहे हैं कि यह दो, यह दो, यह दो। इस देने की मांग में वह छिप ही गया है, जो दिया ही हुआ है। और आपको पता नहीं, जो आप मांग रहे हैं, वह कुछ भी नहीं है। जो आपको मिला ही हुआ है, उसके सामने, जो आप मांग रहे हैं, वह कुछ भी नहीं है।
एक बहुत अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना चित्र बनवाया, पोर्ट्रेट बनवाया। चित्र बन गया, तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आई। वह बहुत खुश थी। चित्रकार से उसने कहा कि क्या इसका पुरस्कार दूं? चित्रकार गरीब आदमी था। गरीब आदमी वासना भी करे तो कितनी बड़ी करे, मांगे भी तो कितना मांगे?
हमारी मांग, सब गरीब आदमी की मांग है परमात्मा से। हम जो मांग रहे हैं, वह क्षुद्र, व्यर्थ है। जिससे मांग रहे हैं, उससे यह बात मांगनी नहीं चाहिए।
तो उसने सोचा मन में कि सौ डालर मांगूं, दो सौ डालर मांगूं, पांच सौ डालर मांगूं, हजार डालर मांगूं! फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी। इतना देगी, नहीं देगी! फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूं, तो शायद ज्यादा दे। डर तो लगा मन में कि इसी पर छोड़ दूं, पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर! तो उसने फिर भी हिम्मत की। उसने कहा कि आपकी जो मर्जी। तो उसके हाथ में जो उसका बैग था, पर्स थी, उसने कहा: अच्छा तो यह पर्स तुम रख लो। यह बड़ी कीमती पर्स है।
पर्स तो कीमती थी, लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गई कि पर्स को रख कर करूंगा भी क्या? माना कि कीमती है और सुंदर है, पर इससे कुछ आता-जाता नहीं। इससे तो बेहतर था, सौ ही डालर मांग लेते। तो उसने कहा: नहीं-नहीं, मैं पर्स का क्या करूंगा, आप तो सौ डालर दे दें। तो उस महिला ने कहा: तुम्हारी मर्जी। उसने पर्स खोली, उसमें एक लाख डालर थे, उसने सौ डालर निकाल कर चित्रकार को दे दिए और पर्स लेकर वह चली गई।
सुना है कि चित्रकार अब तक छाती पीट रहा है और रो रहा है--मर गए, मारे गए, अपने से ही मारे गए!
आदमी करीब-करीब इस हालत में है। परमात्मा ने जो दिया है, वह बंद है, छिपा है। और हम मांगे जा रहे हैं--दो-दो पैसे, दो-दो कौड़ी की बात। और यह जीवन की जो संपदा हमें दी है, उस पर्स को हमने खोल कर भी नहीं देखा है।
स्वीकृति, अस्तित्व का स्वीकार--यह अर्थ है परितृप्ति का।
जो मिला है, वह जो आप मांग सकते हैं, उससे अनंत गुना ज्यादा है। लेकिन मांग से फुर्सत हो, तो दिखाई पड़े, वह जो मिला है। भिखारी अपने घर आए, तो पता चले कि घर में क्या छिपा है। वह अपना भिक्षापात्र लिए बाजार में ही खड़ा है! वह घर धीरे-धीरे भूल ही जाता है, भिक्षापात्र ही हाथ में रह जाता है। इस भिक्षापात्र को लिए हुए भटकते-भटकते जन्मों-जन्मों में भी कुछ मिला नहीं। कुछ मिलेगा नहीं।
‘तुझे अपने शुद्ध आलय से परितृप्ति कर लेनी है--परमसत्ता से, और निसर्ग के आत्म-भाव के साथ एक हो जाना है।’
मांग छोड़, यह मांग ही निसर्ग से तोड़ती है। यह जो है, उसके साथ ही राजी हो जा। राजी होते ही रहस्य खुलने शुरू हो जाते हैं; क्योंकि आंख तब आगे मांगने के लिए नहीं उलझती; खुल जाती है, मुक्त हो जाती है। फिर हम देख सकते हैं, जो है।
‘इसके साथ एक होकर तू अजेय है।’
फिर तेरी कोई पराजय नहीं।
‘पृथक रह कर तू समवृत्ति की क्रीड़ा-भूमि बन जाता है, जो संसार की समस्त भ्रांतियों का मूल-स्रोत है।’
समवृत्ति का अर्थ है: माया।
जैसे शंकर ने कहा है कि दो तरह के सत्य हैं--पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य। वैसा बुद्ध ने कहा कि दो तरह के सत्य हैं--पारमार्थिक सत्य और समवृत्ति सत्य। समवृत्ति सत्य का वही अर्थ है, जो शंकर की भाषा में माया का है। जैसे ही आदमी ने मांगा कि वह माया के जगत में प्रवेश कर गया। मांग के साथ ही आप भिखारी हो गए। अब आप सपनों में भटकेंगे।
मांग स्वप्न का द्वार है।
जैसे ही आपने मांगना बंद किया, आप सम्राट हो गए, माया के बाहर हो गए। जो है पारमार्थिक सत्य, वह प्रकट होना शुरू हो जाएगा।
और जब तक हम कहते हैं: ऐसा होना चाहिए, तब तक हम स्वप्न निर्मित कर रहे हैं, तब तक हम माया में जी रहे हैं।
क्योंकि तू जान कि उस नित्य में कोई छूट नहीं है।
महाप्रभु का, पूर्णता के तथागत15 का जो अपने पूर्वजों के चरण-चिह्नों पर चलते चले आए हैं, वचन हैं: आठ घोर दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं। यदि नहीं, तो जान कि तू ज्ञान को, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।
विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर है। यदि तू इस मार्ग का स्वामी होना चाहता है, तो तुझे पहले से बहुत बढ़ कर अपने मन और दृष्टि को घातक कर्म से मुक्त रखना है।
तुझे अपने को शुद्ध आलय (परमसत्ता) से परितृप्ति कर लेना है और निसर्ग के आत्म-भाव के साथ एक हो जाना है। इसके साथ एक होकर तू अजेय है, पृथक रह कर तू समवृत्ति16 की क्रीड़ा-भूमि बन जाता है, जो संसार की समस्त भ्रांतियों का मूल-स्रोत है।
मंजिल जैसे-जैसे शिखर के करीब पहुंचती है, वैसे-वैसे कठिन होती जाती है। मंजिल जैसे-जैसे पास आती है, वैसे-वैसे भटकने की संभावना भी बढ़ जाती है। क्योंकि जितनी हो ऊंचाई, उतना ही गिरने का डर है। नरक से गिरने का कोई उपाय नहीं है; क्योंकि उससे कोई नीची जगह नहीं है। लेकिन स्वर्ग से गिरने की सारी सुविधा है; क्योंकि सब-कुछ उसके नीचे है। मोक्ष से भी गिरने का कोई उपाय नहीं है; क्योंकि मोक्ष के नीचे-ऊपर, दोनों तरफ कुछ भी नहीं है। नरक से सब-कुछ ऊपर है, इसलिए नरक से कोई गिर नहीं सकता। स्वर्ग से सब-कुछ नीचे है, इसलिए स्वर्ग से कोई भी गिर सकता है। मोक्ष से गिरने का फिर कोई उपाय नहीं--न बढ़ने का, न गिरने का; क्योंकि उसके नीचे-ऊपर दोनों ही दिशाएं नहीं हैं।
साधक जैसे-जैसे मोक्ष की तरफ पहुंचता है, वैसे-वैसे स्वर्गीय होता चला जाता है, वैसे-वैसे उसके सुख सूक्ष्म, वैसे-वैसे उसकी प्रतीति अत्यंत तरल, शुद्ध, वैसे-वैसे उसका अनुभव बहुमूल्य, नाजुक होता जाता है। और जितना नाजुक होता है अनुभव, जितना सूक्ष्म होता है, उतनी ही छोटी सी घटना भी उसे नष्ट कर डालती है। जितनी मूल्यवान चीज है, उतनी ही नाजुक हो जाती है। और इस यात्रा में तो हम अपने को ही रोज नाजुक बनाते हैं--संवेदनशील, सेंसिटिव। जरा सा झोंका सब तोड़ दे सकता है। और जब हवा की आंधी उठती है तो सड़क के किनारे पत्थरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचता, लेकिन वृक्षों की शाखाओं में लगे फूल झड़ जाते हैं। पत्थर अपनी जगह बने रहते हैं, पत्थर नष्ट नहीं होते, लेकिन फूल नष्ट हो जाते हैं। जरा सा झोंका हवा का और फूल गिर जाते हैं। फिर जितना हो नाजुक फूल, उतने जल्दी गिर जाता है, और जितनी ऊंची शिखा पर हो, उतनी जल्दी गिर जाता है।
यह सूत्र इस संबंध में ही विचारणीय है।
‘चौथे मार्ग विराग पर वासना या इच्छा का हलका सा झोंका भी आत्मा की शुभ्र दीवालों पर पड़ने वाले स्थिर प्रकाश को हिला देगा।’
चौथे द्वार विराग पर वासना का हलका सा झोंका भी, वह जो नये प्रकाश की झलक आ रही है, उसे हिला देगा, उस प्रकाश को डांवाडोल कर देगा, उस प्रकाश को ओझल कर देगा, कंपित कर देगा। और भीतर का प्रकाश कंपित हो, तो आगे नहीं जाया जा सकता; पीछे गिरना शुरू हो जाता है। प्रकाश की स्थिरता ही आगे जाने का मार्ग है। भीतर का प्रकाश जितना डांवाडोल होता है, उतने हम नीचे गिर जाते हैं। जिस दिन भीतर का प्रकाश अकंप हो जाता है, कुछ भी उसे कंपा नहीं पाता, कोई कंपने की संभावना नहीं रह जाती, उसी दिन हम परम स्थिति को उपलब्ध हो जाते हैं। तो भीतर की ज्योति मापदंड है कि वह कितनी कंपती है, कितनी ठहरी है।
वासनाग्रस्त जगत में छोटी-मोटी वासनाओं से कुछ पता भी नहीं चलता। क्योंकि आप इतने बड़े रोगों से भरे होते हैं कि छोटे रोगों का क्या पता चले! आपके भी अनुभव में होगा कि अगर बड़ा रोग आ जाए, तो छोटा रोग भूल जाता है। अगर पैर में कांटा गड़ा हो और कोई छुरी लेकर सामने खड़ा हो जाए, आपको फिर कांटे का बिलकुल पता नहीं चलता। आपने काले ही वस्त्र पहन रखे हों और कोई कालिख से आपको पोत डाले, आपके वस्त्रों पर, कोई पता नहीं चलता। लेकिन जितने हों शुभ्र वस्त्र, जरा सी धूल भी दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। पृष्ठभूमि जितनी हो शुभ्र, उतना ही अशुभ्र भयंकर मालूम पड़ता है। क्योंकि सब प्रतीतियां तुलनात्मक हैं। जैसे-जैसे आगे बढ़ता है साधक और विराग के करीब पहुंचता है, वैसे-वैसे राग की छोटी सी झलक भी भयंकर तूफान की तरह मालूम पड़ती है और सब उखाड़ कर रख देती है। क्योंकि पौधे विराग के अभी बहुत नये हैं, उनकी जड़ें अभी बहुत गहरी नहीं हैं; अभी वे बिलकुल बच्चे हैं।
सुना है मैंने, एक सूफी फकीर जुन्नैद जिंदगी भर रोता रहा। अपने को पीटता था, रोता था। रास्तों से निकलता था, तो अपने को खुद चांटे मारता था। लोग उससे पूछते थे कि ‘क्यों इतना पश्चात्ताप? क्या तूने किया है पाप? क्योंकि जैसा हम तुझे जानते हैं, तुझसे ज्यादा पवित्र आदमी खोजना मुश्किल है। और अगर तू इतना दुखी है और पश्चात्ताप से भरा है, तो हमारी क्या गति होगी? और हम इतने पाप कर रहे हैं और हमें जरा भी पश्चात्ताप नहीं है। तूने पाप क्या किया है? यह गांव तुझे बचपन से जानता है--न तूने कभी चोरी की, न कभी क्रोध किया, न किसी को गाली दी, न किसी का अपमान किया। तुझसे ज्यादा पवित्र आदमी पृथ्वी पर भी शायद दूसरा न हो।’ लेकिन जुन्नैद अपने को सजा देता रहा।
मरते वक्त, उसके शिष्य हजारों थे, वे इकट्ठे हुए, उन्होंने कहा कि अब तो बता दें कि सजा किसकी दे रहे थे? तो उसने कहा: एक बार मेरे मन में ऐसा खयाल आ गया था कि मैं बड़ा पवित्र हूं; वही पाप हो गया। और परमात्मा के सामने खड़े होकर मैं आंखें भी न उठा सकूंगा, क्योंकि मैंने एक पाप किया है कि मैं पवित्र हूं--यह खयाल मुझे एक बार आ गया था, उसकी ही सजा दे रहा हूं।
लोगों ने कहा: पागल हो गए हो! अगर इतने से पाप से तुम परमात्मा के सामने आंखें न उठा सकोगे, तो हमारा क्या होगा?
जुन्नैद ने कहा: तुम मजे से आंखें उठा सकोगे। तुम्हारे पाप इतने हैं कि तुम्हें शर्म भी न आएगी। और शर्म भी कितनी करोगे? मैं भी तुम जैसा होता तो कोई चिंता न थी; बस वह एक अटक गया है। शुभ्र वस्त्र पर वह काला दाग ऐसा दिखाई पड़ता है कि उसे मैं भूल नहीं पाता, उसकी ही पीड़ा है।
इसे खयाल रखें कि जैसे-जैसे आप बढ़ते हैं अंतर्यात्रा में, वैसे-वैसे छोटी-छोटी चीजें बड़ी मूल्यवान हो जाती हैं। क्षुद्र भी विराट की यात्रा पर फिर बड़ा विराट मालूम होने लगता है। और जब तक उससे छूटना न हो जाए, तब तक आप वापस फेंके जा सकते हैं। मार्ग संकीर्ण है फिर, ऊंचाई ज्यादा है, और आप नये और नाजुक हैं इस यात्रा-पथ पर। जरा सी भूल भयंकर हो सकती है।
‘विराग पर वासना का हलका सा झोंका भी आत्मा की शुभ्र दीवालों पर पड़ने वाले स्थिर प्रकाश को हिला देगा। अंतःकरण में जो तेरी उच्चस्थ आत्मा और निम्नस्थ आत्मा के बीच सेतु है, जो वृत्तियों का महापथ है और जो अहंकार को झकझोर कर जगाने वाला है, माया के भ्रांत सुखों के लिए राग या खेद की हलकी छोटी सी लहर भी, बिजली की कौंध जैसी भासती लहर भी, तेरे तीन पुरस्कारों को तुझसे छीन लेगी, जो तूने श्रम से जीते हैं।’
विराग के द्वार पर खड़े होकर अहंकार की जरा सी झलक सब नष्ट कर देगी।
और विराग के द्वार पर अहंकार आता है। रागी का अहंकार है, विरागी का अहंकार है। रागी का अहंकार बहुत स्थूल है, साफ दिखाई पड़ता है। विरागी का अहंकार बहुत सूक्ष्म है, साफ दिखाई नहीं पड़ता। और इसलिए ज्यादा खतरनाक है। जो शत्रु दिखाई पड़ता हो, ज्यादा खतरनाक नहीं है, उससे कुछ उपाय किए जा सकते हैं। अदृश्य शत्रु बहुत खतरनाक है, क्योंकि वह दिखाई नहीं पड़ता।
कृष्णमूर्ति ने साधुओं को, संन्यासियों को पायस ईगोइस्ट कहा है, पवित्र अहंकारी। ठीक है, वह डर है। और अपवित्र अहंकार उतना खतरनाक नहीं है; क्योंकि वह जो अपवित्रता है, वह भी तो पता चलती रहती है। पवित्र अहंकार बहुत खतरनाक है; क्योंकि पवित्रता में अहंकार बिलकुल छिप जाता है। जहर के चारों तरफ शक्कर की एक पर्त हो जाती है और तब उस जहर को पी जाना बहुत आसान है। अपवित्र अहंकार तो शुद्ध जहर है। उसके आस-पास शक्कर की पर्त भी नहीं है, उसको तो पीने वाले को पता भी चलता है। पवित्र अहंकार का पता नहीं चलता है।
धर्मों में जो संघर्ष चलता है, वह पवित्र अहंकारियों का संघर्ष है। शुद्ध जहर है, लेकिन पर्त पर पवित्रता है। त्यागी है कोई, तो वह भी उतनी ही अकड़ से चलता है, उसकी अकड़ बहुत सूक्ष्म है। भोगी भी उतनी अकड़ से नहीं चलता है। जिसके पास धन है, वह क्या अकड़ से चलेगा, उसके मुकाबले जिसने धन को लात मार दी है। स्वभावतः जिसके पास धन है, जिसने धन को लात मार दी, उससे छोटा है। और धन तो बहुतों के पास होता है; धन को लात मारना बहुतों की हिम्मत नहीं होती। तो वह जो सब छोड़ दिया है, उसे एक नई चीज पकड़ लेती है कि मैंने सब छोड़ दिया है। त्याग भी भोग बन जाता है, विनम्रता अहंकार हो जाती है, और पवित्रता भी पाप बन जाती है।
विराग के क्षण में यह भाव पकड़ेगा कि ‘मैंने छोड़ा, दूसरे नहीं छोड़ पा रहे हैं; मैंने त्यागा, दूसरे नहीं त्याग पा रहे हैं--मुझसे बड़ा त्यागी कौन है! मैंने संसार को लात मार दी! जो इतना कठिन था, अति कठिन को मैंने पूरा किया है।’ यह ‘मैं’ निर्मित हुआ।
सूत्र कहता है: अगर यह ‘मैं’ निर्मित हुआ, तो वे जो तीन द्वार तूने श्रम से पार किए थे, तत्क्षण खो जाएंगे। तू वापस अपनी जगह खड़ा हो जाएगा, जहां तू था। इसमें क्षण की देरी न लगेगी। जो श्रम से पाया है, वह बिलकुल आसानी से खोया जा सकता है।
ध्यान रखना, श्रम से पाया हुआ, जरूरी नहीं कि श्रम से ही खोया जाए। जिस मकान को बनाने में वर्षों लगे हों, उसे दिन भर में गिराया जा सकता है; क्षण में गिराया जा सकता है। और यह जो भीतर का भवन है, जिसको जन्मों में बनाया हो, उसे क्षण में भूमिसात किया जा सकता है। एक छोटी सी बात, और सब नष्ट हो सकता है। तो जितना आप आगे बढ़ते हैं, उतना ही सूक्ष्म में विनाश की संभावना बढ़ जाती है। जितनी सृजन की संभावना बढ़ती है उतनी ही विनाश की संभावना बढ़ जाती है।
इसे ऐसा समझें कि आपकी सभी संभावनाएं साथ-साथ बढ़ती हैं। इस सूत्र को, इस नियम को बहुत गहराई से पकड़ लें। आपमें एक ही दिशा नहीं बढ़ती, साथ ही दूसरी दिशा भी बढ़ती है। जैसे, आप जितना सुख पाने में समर्थ हो जाते हैं, उतना ही दुख पाने में भी समर्थ हो जाते हैं। सुख के साथ दुख की क्षमता बढ़ जाती है। पशु बहुत दुखी नहीं दिखाई पड़ते, क्योंकि बहुत सुखी होने का उनमें उपाय नहीं है। एक अमीर आदमी को जितना दुखी कर सकते हैं, उतना गरीब आदमी को नहीं कर सकते हैं। क्योंकि अमीर आदमी ने सुख की क्षमता बढ़ा ली, उसकी दुख की क्षमता भी बढ़ गई।
वह जो विपरीत है, वह साथ-साथ बढ़ता है; वह किनारे-किनारे चलता है। आप एक को नहीं बढ़ा सकते; वह दूसरा खाई की तरह हमेशा शिखर के पास मौजूद है। जितनी आपकी नीति बढ़ती है, उतनी अनीति भी आपके किनारे खड़ी है। जितना आपका पुण्य बढ़ता है, उतना पाप भी आपके किनारे खड़ा है। पापी नहीं गिर सकता, आप गिर सकते हैं। जितनी हो श्रेष्ठता, उतनी निकृष्टता का डर है। जितनी सृजन की क्षमता बढ़ती है, उतना विध्वंस भी बढ़ जाता है। दोनों चीजें साथ चलती हैं, दोनों विपरीत चीजें साथ चलती हैं। जितनी आपकी शांति बढ़ती है--यह सुन कर हैरानी होगी--उतनी ही आपकी क्रोध की क्षमता बढ़ जाती है। यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा।
और हमने ऋषि-मुनियों की कथाएं पढ़ी हैं, जिनमें वे भयंकर क्रोधी हैं, तो उसका कारण आपको समझ लेना चाहिए। अगर दुर्वासा जैसे ऋषियों की कथा है, तो उसका कारण है। जितनी उनकी शांति बढ़ गई, उतनी ही उनकी क्रोध की क्षमता बढ़ गई। वे न करें, यह दूसरी बात है; बचा ले जाएं, यह दूसरी बात है। करें, तो उन जैसा क्रोध फिर दूसरा नहीं कर सकता है। और उनका क्रोध परिणामकारी होगा। आपका क्रोध परिणामकारी नहीं होता। इसलिए हमने यह मीठी बात सैकड़ों कथाओं में जोड़ी कि ऋषि का अभिशाप खतरनाक है। आपके अभिशाप का कोई मूल्य नहीं है; क्योंकि आप तो अभिशाप देते ही रहते हैं, ऋषि देता नहीं। ऋषि से संभावना ही हम नहीं मानते कि वह अभिशाप देगा। लेकिन अगर कभी ऋषि से अभिशाप हो, तो वह फलित होगा; उसको रोकने की कोई क्षमता फिर कहीं भी नहीं है।
तो ऐसी कथाएं हैं हमारे पास, बहुत मूल्यवान, बहुत प्रतीकात्मक--कि ऋषि ने अगर शाप दे दिया, तो फिर भगवान भी उसे बदल नहीं सकता, वह झेलना ही पड़ेगा, क्योंकि वह इतनी ऊंचाई से दिया गया है। और जो आदमी इतनी ऊंचाई से गिरने को राजी हुआ है, जो इतना खो रहा है अपने अभिशाप के पीछे, उसके अभिशाप का फल होगा।
जब आप अभिशाप देते हैं तो उसका कोई फल नहीं होता। क्योंकि आप कुछ खो ही नहीं रहे हैं, आप दांव पर कुछ लगा ही नहीं रहे हैं, आपकी गाली नपुंसक है।
आपका आशीर्वाद भी व्यर्थ है, आपका अभिशाप भी व्यर्थ है। जब आशीर्वाद की क्षमता बढ़ती है, तब अभिशाप की क्षमता बढ़ जाती है। उस वक्त सावधान रहना जरूरी है।
समस्त धर्मों ने कहा है कि साधक को दूसरे के संबंध में बुरा विचार भूल कर भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह तत्क्षण परिणामकारी हो सकता है। आप करते रहो, उससे कुछ हर्जा नहीं होता। आपको होता होगा, किसी और को नहीं हो सकता। आप कितना ही सोचो कि फलां आदमी मर जाए तो अच्छा। कोई आपके सोचने से मरने वाला नहीं। लेकिन ऋषि के मन में यह भाव आ जाए तो मृत्यु घटित हो सकती है। क्योंकि ऋषि के मन में यह भाव आ नहीं सकता। आ जाए, तो यह घटित हो जाएगा। क्योंकि ऋषि इस भाव के साथ नीचे गिर रहा है। और बहुत सी ऊर्जा उसके नीचे गिरने से मुक्त हो रही है, रिलीज हो रही है। वह ऊर्जा आपकी मौत बन सकती है। वह दांव पर अपने को लगा रहा है। आप जब किसी को अभिशाप देते हैं, दांव पर कुछ भी नहीं लगाते, सिर्फ मन का खेल है। ऋषि अपनी जिंदगी भर की कमाई, शायद अनेक जन्मों की कमाई दांव पर लगा रहा है। वह इतनी ऊंचाई से गिर रहा है कि उसके गिरने में शक्ति है।
आपको पता है, जितनी गति हो, उतनी शक्ति हो जाती है। अगर एक छोटे से कंकड़ को भी हम प्रकाश की गति से फेंक सकें, तो दुनिया की कोई ताकत भी उसको रोक नहीं सकेगी, वह सभी चीजों को छेद करके बाहर निकल जाएगा। एक छोटा सा कंकड़, एक टुकड़ा रेत का, अगर प्रकाश की गति से फेंका जाए, तो उसके पास वही शक्ति होगी, जो एटम बम के पास है। बस गति के साथ शक्ति बढ़ जाती है। अगर बंदूक की गोली आपको मार डालती है, तो सिर्फ उसके भीतर छिपी हुई बारूद ही नहीं है, जिस गति से फेंकी जाती है, वह गति है। कोई ऐसे धीमे से आपको फेंक कर मार दे, तो गोली नीचे गिर जाएगी, कुछ होगा नहीं। बारूद नहीं है असली चीज, असली चीज गति है--कितनी गति से फेंकी गई है।
जब ऋषि गिरता है, तो उसमें गति होती है--बड़ी ऊंचाई से गिरता है। और जब आप गिरते हो तो जमीन पर धम्म से गिर जाते हो, कोई गति नहीं होती; जहां खड़े थे, वहीं गिरते हो। आपका अभिशाप गतिहीन है।
इसलिए दुर्वासा का खतरा है। और वह कुछ कह दे, तो फिर उससे बचने का उपाय नहीं है। क्योंकि वह कुछ कह कर अपनी ताकत खो रहा है। वह ताकत कहां जाएगी? एक गोली की तरह उसकी ताकत आपकी तरफ आ रही है। इसलिए समस्त धर्मों ने कहा है कि इसके पहले कि कोई व्यक्ति आध्यात्मिक ऊंचाइयों की तरफ बढ़े, उसे शील को साध लेना चाहिए; नहीं तो वह खतरनाक है।
बुद्ध ने तो नियम बनाया था कि उनके भिक्षु हर प्रार्थना के बाद अनिवार्य रूप से यह प्रार्थना भी करें कि मुझे जो इस प्रार्थना से मिला है, वह सारे जगत को बंट जाए, मेरे पास न रहे। इस भाव को वे गहरा करते जाएं कि जो भी मैं पाऊं अध्यात्म में, जो भी शक्ति हो, वह सबको बंट जाए, वह मेरे पास न रहे, वह मेरे लिए न हो। यह करुणा प्रार्थना के साथ-साथ बढ़ती रहे, तो बचाव रहेगा। नहीं तो प्रार्थना अकेली किसी भी दिन खतरनाक हो सकती है। क्योंकि शक्ति हाथ में होगी और करुणा का कोई बोध नहीं होगा। तो बुद्ध ने कहा है कि प्रार्थना से जो भी मिले, तुम उसे रोज ही बांट देना; उसे इकट्ठा ही मत करना; वह परिग्रह भी मत करना। नहीं तो किसी दिन शक्ति हाथ में होगी और खतरा पास होगा। बारूद हाथ में होगी और आग भी पास होगी। और जैसे-जैसे शिखर पर बढ़ेंगे, बारूद और आग करीब-करीब आते जाएंगे। ठेठ शिखर के पास पहुंच कर बारूद और आग बिलकुल पास-पास होंगे। उस वक्त बचाना कठिन हो सकता है।
पर जितना कठिन हो, उतना ही बचाने का मजा भी है। और जितना कठिन हो उतना रस भी है। और जितना कठिन हो, उतना ही उस कठिनाई से पार उठने में आप और बड़े शिखर पर स्थापित हो जाते हैं। और यदि गिरते हैं, तो खाई में पड़ जाते हैं। अगर नहीं गिरते हैं, तो शिखर बहुत करीब आ जाता है।
ध्यान रहे, यह अनुपात में है। जिस जगह से आप जितने नीचे गिर सकते हैं, उस जगह से आप उतने ही ऊपर उठ सकते हैं। यह अनुपात बराबर है। अगर एक पहाड़ से, इस आध्यात्मिक शिखर से आप हजारों मील नीचे गिर सकते हैं, अगर भूल करें; और भूल से अगर बच जाएं, तो हजारों मील ऊपर उठ जाते हैं। ये दोनों बातें साथ-साथ हैं।
कहा जाता है कि महापुरुष भूल नहीं करते; बिलकुल गलत है। महापुरुष छोटी भूल नहीं करते हैं। करते हैं, तो महान भूल करते हैं। लोग कहते हैं कि छोटे आदमी और बड़े आदमी में यही फर्क है कि छोटा आदमी भूलें करता है, बड़ा आदमी भूलें नहीं करता; यह बिलकुल गलत है। छोटे और बड़े आदमी में यह फर्क नहीं है। छोटे और बड़े आदमी में यही फर्क है कि छोटा आदमी छोटी भूलें करता है, बड़ा आदमी बड़ी भूलें करता है। छोटा आदमी छोटी भूलें न करे, तो थोड़ा सा आगे बढ़ता है। बड़ा आदमी बड़ी भूलें न करे, तो बड़ा आगे बढ़ता है। आपकी भूल जितना आपको गिराती है, उतना ही आपकी न भूल आपको उठा सकती है। इससे ज्यादा नहीं हो सकता है। दोनों चीजें साथ-साथ बढ़ती चली जाती हैं। उस दूसरे का खयाल रखना, जो आपके साथ चल रहा है। और जितने आप शक्तिमान हो रहे हैं, उतना ही वह दूसरा भी शक्तिमान हो रहा है।
‘इस विराग के क्षण में जरा सा झोंका अहंकार को झकझोर कर जगा देगा। बिजली की कौंध जैसी भासती छोटी सी हलकी लहर भी तेरे तीन पुरस्कारों को तुझसे छीन लेगी, जो तूने श्रम से जीते हैं।’
‘क्योंकि तू जान कि उस नित्य में कोई झूठ नहीं है।’
उसका नियम शाश्वत है, उसमें कोई झूठ नहीं है।
अगर आप बैलगाड़ी पर से गिरते हैं, तो भी जमीन का गुरुत्वाकर्षण काम करता है; लेकिन चोट उतनी ही लगती है, जितनी ऊंचाई पर बैलगाड़ी में बैठे थे। और जब हवाई जहाज से गिरते हैं, तब भी वही नियम काम करता है गुरुत्वाकर्षण का; लेकिन तब बचने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि आप बैठे हवाई जहाज में थे, बैलगाड़ी में नहीं। इसलिए बैलगाड़ी का चालक आंख बंद करके भी दोपहर में यात्रा करता है। वहां कोई ज्यादा डर नहीं है। और भटके भी, तो बहुत नहीं भटक सकते हैं। न भी पहुंचे, तो भी मंजिल बहुत दूर नहीं होगी। पहुंच ही जाएंगे। वह जो बैलगाड़ी का चालक है, सो भी जाता है, तो बैल भी चला लेते हैं। आपके जागे होने की बहुत जरूरत नहीं है। दुकान आपके बैल भी चला लेते हैं, बाजार आपके बैल भी चला लेते हैं। आपकी इंद्रियां भी काम को कर लेती हैं।
जब आप अपने घर लौटते हैं तो आपको याद रखने की जरूरत नहीं कि रास्ता कहां से कहां जा रहा है। सोचने की भी जरूरत नहीं, पैर ही मुड़ जाते हैं। खड़े हो-हो कर सोचना नहीं पड़ता कि अब बाएं घूमूं कि दाएं घूमूं, पैर ही मुड़ जाते हैं। अगर आप गाड़ी ड्राइव कर रहे हैं, तो हाथ ही काम चला लेते हैं; आंख की भी जरूरत नहीं होती। मन की, विचार की तो कोई जरूरत नहीं होती। और आत्मा को जगने का तो कोई सवाल ही नहीं है। लेकिन जितनी ऊंचाई पर आप हैं, उतना ही सजग होना पड़ेगा।
जो लोग अभी चांद पर भेजे गए हैं अंतरिक्ष यात्रा के लिए, उन सबको ध्यान और योग की शिक्षा देनी पड़ी है। रूस में पहली दफा ध्यान के प्रति उत्सुकता आई है अंतरिक्ष यात्रा के कारण। क्योंकि अंतरिक्ष यात्री को तो बिलकुल ध्यानी होना चाहिए, नहीं तो जरा सी चूक--इंच भर की चूक और अनंत का फासला हो जाएगा। फिर दुबारा मिलने का कोई उपाय नहीं होगा। चांद पर उतरने की घटना सिर्फ यांत्रिक विकास का ही परिणाम नहीं है, ध्यान का भी उसमें इतना ही हाथ है। क्योंकि अंतरिक्ष यात्री को पल-पल का बोध रखना जरूरी है। और एक पल की चूक, सब चूक हो सकती है। और जरा सा भटकाव, कि हमें कभी पता भी नहीं चलेगा कि हमारे यात्री कहां गए और उनका क्या हुआ। वहां भूल-चूक नहीं चलेगी।
जितनी ऊंचाई बढ़ती है, उतना ही भूल-चूक से सावधान होना जरूरी है, और भूल-चूक उतनी ही महंगी हो जाती है। ऊंचा चढ़ने वाला खतरे अपने हाथ से मोल ले रहा है। लेकिन खतरों के बिना कोई उपलब्धि भी नहीं है।
‘और वह जो नियम है, तू जान कि उस नित्य नियम में कोई छूट नहीं है।’
यह कभी मत सोचना कि तू छोड़ दिया जाएगा, तू अपवाद हो जाएगा। यह भ्रांति मन को पकड़ती है कि इतनी सी भूल है, परमात्मा क्षमा कर देगा। जितनी ऊंचाई हो, उतनी ही क्षमा असंभव हो जाएगी। आपको क्षमा किया जा सकता है। जीसस को या बुद्ध को क्षमा नहीं किया जा सकता। आप इतनी भूलें कर रहे हैं कि क्षमा न हो, तो आप जी ही नहीं सकते हैं। क्षमा का मतलब केवल इतना ही है कि आप जहां खड़े हैं, वहां भूल से कोई बड़ा नुकसान नहीं होता। आप जमीन पर ही खड़े हैं। बुद्ध आकाश में उड़ रहे हैं। वहां से गिरना खतरनाक है।
और जितनी आपकी योग्यता बढ़ती जाती है, यह अस्तित्व आपसे उतनी ही ज्यादा योग्यता की मांग करता है। यह कसौटी है।
सुना है मैंने कि ऐसा हुआ एक बार, अवनींद्रनाथ ठाकुर बड़े कलाकार थे, रवींद्रनाथ के चाचा थे। नंदलाल बसु उनके शिष्य थे और अवनींद्रनाथ के बाद भारत में उनका कोई मुकाबला न था। और जब नंदलाल अवनींद्रनाथ के पास सीखते थे चित्रकला; तो एक दिन रवींद्रनाथ बैठ कर गपशप करते थे अवनींद्रनाथ से और नंदलाल कृष्ण का एक चित्र बना कर लाए। चित्र ऐसा अदभुत था कि रवींद्रनाथ ने कहा है कि मैंने ऐसा कृष्ण का कोई चित्र कभी नहीं देखा, शायद अद्वितीय है। अवनींद्रनाथ ने, लेकिन चित्र को देखा और चित्र को फेंक दिया बाहर, मकान के। और कहा, नंदलाल, इससे अच्छा तो बंगाल के पटिये कृष्ण का चित्र बना लेते हैं!
बंगाल में वे कृष्णाष्टमी के समय दो-दो, चार-चार पैसे में गांव के गरीब चित्रकार कृष्ण का चित्र बनाते हैं, वे चित्रकार पटिये कहलाते हैं, कृष्ण-पट बनाते हैं।
तुझसे अच्छा वे बना लेते हैं--इससे ज्यादा अपमान और कुछ हो नहीं सकता--दो पैसे का चित्र बनाने वाला पटिया! यह भी तू कोई कृष्ण का चित्र बना कर लाया है, जा पटियों से सीख!
रवींद्रनाथ तो दंग रह गए। और रवींद्रनाथ ने लिखा है कि मुझे हुआ कि यह क्या कर रहे हैं अवनींद्रनाथ। जहां तक मेरी समझ है, इनका भी कोई चित्र इस चित्र के मुकाबले नहीं है। पर वह गुरु हैं और नंदलाल शिष्य हैं। बीच में बोलना उचित भी नहीं है। नंदलाल वापस चले गए, वह चित्र जहां पड़ा था, वहीं पड़ा रहा।
अवनींद्रनाथ बाहर गए, चित्र उठा कर लाए, उनकी आंख से आंसू टपकने लगे। तब तो रवींद्रनाथ और हैरान हुए। उन्होंने कहा: आप कर क्या रहे हैं! शिष्य आपका चला गया, तो मैं बोल सकता हूं कि मुझे भरोसा नहीं कि आपने भी कृष्ण का इससे सुंदर चित्र बनाया हो। अवनींद्रनाथ ने कहा: वह मैं भी जानता हूं। तब बात और जटिल हो गई। और रवींद्रनाथ ने पूछा: तो फिर इतना ज्यादा कठोर होने की क्या जरूरत थी उस गरीब लड़के पर? उन्होंने कहा कि वह लड़का गरीब होता तो इतना कठोर मैं न होता। उसकी प्रतिभा अदभुत है, और अभी और संभावना है, उसे कसा जा सकता है। अगर मैं कह दूं कि ठीक, तो रुक जाएगा। तुम्हें पता नहीं कि कितनी पीड़ा मुझे होती है--उसको मैं कह नहीं सकता ठीक, उसको मैं कभी नहीं कहूंगा ठीक। क्योंकि मेरा ठीक कहना उसकी हत्या है। साधारण शिष्यों को तो मैं ठीक कह ही देता। यह तो अदभुत है चित्र, इससे साधारण चित्रों में भी ठीक कह देता। उनसे ज्यादा आशा भी नहीं है।
जैसे-जैसे व्यक्ति ऊपर उठता है, वैसे-वैसे अस्तित्व ज्यादा आशा करता है, वैसे-वैसे चारों तरफ से शक्तियां कसती जाती हैं। कोई पीठ थपथपाने नहीं आता। जितने आप ऊपर जाते हैं, उतना ही अस्तित्व आपसे ज्यादा मांगता है। जितने बड़े शिखर पर आप होते हैं, उतनी अस्तित्व की मांग बढ़ती चली जाती है। क्योंकि अस्तित्व आपके भीतर से उस सबको निकाल लेना चाहता है, जो छिपा है। जिनकी कोई योग्यता नहीं है, वे क्षमा किए जा सकते हैं। जैसे ही योग्यता बढ़ती है, वैसे ही जरा सी भूल अक्षम्य हो जाती है।
नंदलाल तीन साल के लिए नदारद हो गए। अवनींद्रनाथ, जो भी आता, उससे पूछते: नंदलाल कहां है? किसी को पता नहीं कि नंदलाल कहां चले गए। तीन साल बाद लौटे, तो पहचानना मुश्किल था। वे गांव-गांव बंगाल में घूमते रहे। जहां-जहां उन्हें पता लगा कि कोई पटिया है, उसके पास जाकर सीखते कि कृष्ण का चित्र कैसे बनाते हैं? तीन साल बाद जब लौटे, तो उनकी हालत एक गरीब पटिये की हो गई थी। उनको पहचानना मुश्किल था कि यह लड़का वही है। अवनींद्रनाथ बूढ़े हो गए थे, उनकी आंखों में कम दिखाई पड़ता था। लेकिन नंदलाल आकर सामने खड़ा हो गया। और नंदलाल ने कहा कि आपकी बड़ी कृपा है, जो आपने मुझसे कहा। अगर उस दिन आप ऐसा न करते, तो मेरे भीतर जो छिपा था, वह छिपा ही रह जाता। आपकी कठोर करुणा के लिए धन्यवाद देने आया हूं।
हम सब सोचते हैं कि करुणा कठोर नहीं हो सकती। हम सोचते हैं कि अनुकंपा कठोर नहीं हो सकती। कठोर नहीं होती उनके लिए, जिनमें कोई योग्यता नहीं है; उनको छोड़ा जा सकता है, अस्तित्व उन्हें क्षमा करता है। जैसे-जैसे योग्यता बढ़ती है, अस्तित्व कठोर होता जाता है; क्योंकि अस्तित्व करुणावान होता जाता है।
ये सारे शब्द जो मैं प्रयोग कर रहा हूं, ये सब प्रतीक शब्द हैं, इसका खयाल रखना। क्योंकि एक मित्र ने आज ही पूछा है कि आप कहते हैं कि परमात्मा की तरफ हाथ जोड़ कर सिर झुका दें, मुझे पता ही नहीं कि कौन परमात्मा है, किसके प्रति सिर झुकाऊं? और जिसका मुझे पता ही नहीं है और फिर वह परमात्मा मेरी मदद करेगा क्या?
सवाल इसका नहीं है कि परमात्मा का पता है या नहीं, सवाल सिर्फ इसका है कि आपने हाथ जोड़े और सिर झुकाया। यह बात मूल्यवान नहीं है कि किसके लिए झुकाया; वह गौण है, वह बहाना है सिर्फ। आप झुके, यही मूल्यवान है। परमात्मा आपकी मदद नहीं करेगा, क्योंकि वह ही मदद करता होता, तो कभी का कर देता। आप ही अपनी मदद करेंगे। लेकिन जितना आप झुकते हैं, उतनी आप अपनी मदद कर रहे हैं। और आप झुक नहीं सकते बिना परमात्मा की धारणा के, इसलिए कहता हूं, झुको। नहीं पता है उसका, तो अज्ञात के लिए झुको। यह भी पता नहीं है, तो सिर्फ झुको, भूल जाओ, उसकी बात ही भूल जाओ, सिर्फ झुको।
समर्पण किसके प्रति, इसका मूल्य नहीं है। समर्पण का मूल्य है। झुक जाने का मूल्य है।
झुका हुआ आदमी अनेक शक्तियों को पाने का हकदार हो जाता है; अकड़ा हुआ आदमी अपने ही हाथ से बंद हो जाता है, उसे कोई शक्ति उपलब्ध नहीं होती। परमात्मा तो बहाना है, शब्द है। तुम्हें झुकाना असली बात है। किस बहाने तुम झुक जाते हो, यह गौण है। कोई बहाना खोज लो और झुको।
लेकिन बड़ा मजा है, बिना बहाने के अकड़े रहते हो। जब झुकने की बात आती है, पूछते हो, कौन परमात्मा, किसके लिए झुकना! अकड़े किसके लिए हो? किस कारण अकड़े हो? क्या है, जिससे अकड़े हो? यह कभी कोई नहीं पूछता कि मैं किस कारण अकड़ा हुआ हूं! क्या है मेरे भीतर जिससे मैं अकड़ा हुआ हूं? यह मिट्टी की देह से अकड़े हुए हो? इस जीवन से अकड़े हुए हो, जो अभी है और अभी नहीं हो जाएगा? बुद्धि से अकड़े हुए हो--क्योंकि दो और दो चार है, ऐसा जोड़ लेते हो? किस बात की अकड़ है? थोड़ा सोचो, बजाय इसके कि किसके सामने झुकें, ऐसा सोचो कि किसके कारण अकड़ रहे हैं, क्या है भीतर जिससे अकड़ रहे हैं?
और तब दिखाई पड़ेगा, भीतर कुछ भी तो नहीं है, जिसके कारण अकड़ रहे हैं। यह दिखाई पड़ जाए, तो झुकना हो जाएगा। फिर सवाल नहीं कि किसके आगे झुकें। और अगर थोड़ी सी समझ हो, तो पता चलेगा, अकड़ ही सब दुखों का कारण है और झुक जाना ही सभी सुखों का द्वार है। क्योंकि झुका हुआ आदमी खुल जाता है।
यह ऐसे ही है जैसे कोई नदी में खड़ा है अकड़ कर और प्यास लगी है और कहता है, प्यास लगी है। झुकना पड़ेगा। झुकेगा, हाथ की चुल्लू बनाएगा, तो पानी चुल्लू में आ जाएगा। कोई नदी कृपा नहीं करेगी, आपके झुकने से ही नदी की कृपा संभव हो पाएगी। आप अकड़े ही खड़े रहें कि कैसे झुकें, अगर नदी को देना है, तो दे देगी। और यह भी शर्त क्या लगानी है, अगर परमात्मा इतना बड़ा देने वाला है, तो क्या शर्त लगानी कि झुको। यह भी क्या छोटी शर्त लगानी कि झुको, देना है तो दे दे। नदी बहती रहेगी। ऐसा नहीं है कि आपको पानी नहीं देना चाहती। देने, न देने का कोई संबंध नहीं है। जो झुकता है, वह पानी पा जाता है। जो नहीं झुकता, वह प्यासा रह जाता है।
इस अर्थ में जब आपसे कहता हूं कि हाथ जोड़ कर झुक जाएं, तो समझना कि सब प्रतीक हैं। मुझे भी पता है कि आपको परमात्मा का पता नहीं है। पता ही होता, तो आप यहां आते क्यों? और जब आपको पता ही चल जाएगा, तब झुकिएगा? तब झुकने की कोई जरूरत न रह जाएगी। क्योंकि पता ही तब चलता है, जब आदमी पूरी तरह झुक ही गया होता है। उसके पहले तो पता नहीं चलता। अगर आप यह शर्त रखते हैं कि जब पता चल जाएगा, तब झुकेंगे, तो आपको कभी पता नहीं चलेगा। आप झुक जाएं, पता का बिलकुल ही विचार न करें; झुकते ही पता चलना शुरू हो जाएगा।
‘महाप्रभु का, पूर्णता के तथागत का, जो अपने पूर्व तथागतों के चरण-चिह्नों पर चलते चले आए हैं, वचन हैं: आठ घोर दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं। यदि नहीं, तो जान कि तू ज्ञान को, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।’
‘तथागत’ बड़ा कीमती शब्द है और जटिल भी। बुद्धों के लिए तथागत शब्द का प्रयोग हुआ है, समस्त बुद्धों के लिए, जाग्रत पुरुषों के लिए। तथागत का शाब्दिक अर्थ होता है: जो अपने से पहले बुद्धों के चरण-चिह्नों पर चले।
जटिलता यह है कि चरण-चिह्न बनते नहीं, उस लोक में कोई चरण-चिह्न नहीं बनते। सभी बुद्ध अनूठे होते हैं, और अपने ही जैसे होते हैं। और किसी दूसरे जैसे नहीं होते। किन्हीं दो बुद्धों के बीच किसी तरह की तुलना संभव नहीं है। जीसस बुद्ध हैं, महावीर बुद्ध हैं, गौतम बुद्ध हैं, कृष्ण बुद्ध हैं, सब जागे हुए पुरुष हैं। दो में कोई तालमेल नहीं है। कहां कृष्ण, कहां महावीर! कहां बुद्ध, कहां जीसस! क्या मेल है? क्या तालमेल है? चरण-चिह्न भी कहां एक से हैं?
जीसस सूली पर लटकते हैं। ईसाई कहते हैं कि मनुष्यता के पापों का उद्धार करने के लिए अपने को कुर्बान कर देते हैं, अपने को मिटा देते हैं, ताकि मनुष्य ऊपर उठ सके। ईसाई कहते हैं कि आदम का पाप था, इसलिए मनुष्य विकृत हुआ, और जब तक आदमी दंडित न हो, तब तक आदम को क्षमा नहीं किया जा सकता। और सब आदमी की संतानें आदम का ही विस्तार हैं, इसलिए उनका पाप में भाग है।
आप अपने ही पाप के लिए जिम्मेवार नहीं; मनुष्य मात्र के पाप के लिए जिम्मेवार हैं। यह बड़ी कीमती बात है। और उन मनुष्यों के लिए नहीं, जो आज मौजूद है; उन मनुष्यों के पाप के लिए भी, जो कल थे, परसों थे, और कभी आगे होंगे। मनुष्यता जिम्मेवार है। तो किसी आदम ने भूल की--सारी मनुष्यता जिम्मेवार हो गई! तो किसी दूसरे आदमी को भूल का प्रतिकार करना पड़े और पूरा दंड भोग लेना पड़े, तो जीसस अपने को कुर्बान कर देते हैं। जिस आज्ञा का उल्लंघन किया आदम ने, जीसस उसे परमात्मा की आज्ञा मान कर अपने को समर्पित कर देते हैं और मरने को राजी हो जाते हैं! इसलिए ईसाई कहते हैं: जीसस जैसा बुद्ध कोई भी नहीं हुआ। हम सोच ही नहीं सकते।
कोई जैन नहीं सोच सकता है कि महावीर सूली पर लटकाए जाएं, क्योंकि जैन कहते हैं कि सूली तो घटित होती कर्मों के फल के कारण। अगर कोई पाप किया हो, महापाप किया हो, तो ही सूली हो सकती है। महावीर को सूली कैसे हो सकती है? जिसके सब कर्म क्षीण हो गए, वही तो बुद्ध होता है। जिसका कोई कर्म नहीं बचा, वही तो बुद्ध होता है। और जिसका कोई कर्म नहीं बचा, उसको सूली! कल्पना में भी नहीं आ सकता कि उसको सूली हो सकती है।
अगर जैनों से पूछो या कर्म के सिद्धांत को मानने वाले से पूछो कि गांधी को गोडसे ने गोली मारी, तो ऊपर से देखने पर तो गोडसे जिम्मेवार है, लेकिन कर्म के सिद्धांत से देखने पर गांधी कहीं न कहीं जिम्मेवार होने चाहिए, कुछ न कुछ गोडसे को उन्होंने मारा हो कभी, अन्यथा यह प्रतिफल कैसा? तो ऊपर की व्यवस्था में तो गोडसे जिम्मेवार है, कानून की व्यवस्था में, लेकिन कर्म के सिद्धांत की व्यवस्था में कहीं न कहीं, किसी न किसी जन्म के, किसी न किसी तल में, गांधी को जिम्मेवार होना चाहिए।
जैनों से पूछो, तो वे कहेंगे कि महावीर के चरणों में कांटा भी नहीं गड़ सकता है, सूली तो बहुत दूर की बात है। क्योंकि कांटा भी तभी गड़ता है, जब कांटे को तुमने कभी सताया हो। बड़ा मुश्किल है। कहां इनके चरण-चिह्न एक होंगे?
जीसस उदास हैं, कहते हैं कि कभी हंसे नहीं। ईसाई कहते हैं कि जीसस कभी हंसे नहीं, क्योंकि हंसना भी कैसी क्षुद्र बात है! उदास हैं--सारी मनुष्यता का दुख, सारी मनुष्यता की पीड़ा; इतना महा नरक जहां निर्मित है, वहां जीसस हंसें!
और इधर कृष्ण हैं कि बांसुरी बजा रहे हैं। बहुत मुश्किल है, कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता। इधर कृष्ण हैं कि बांसुरी बजा रहे हैं, रास रचा रहे हैं, नाच रहे हैं। सोलह हजार पत्नियां हैं उनकी।
जीसस अविवाहित हैं। पत्नी की बात ही सोचनी मुश्किल है जीसस के साथ।
इधर सोलह हजार पत्नियों का खयाल है। जिन्होंने सोचा होगा, बड़े अदभुत लोग रहे होंगे। और सोलह हजार जिसकी पत्नियां हों, वह बुद्धपुरुष होना ही चाहिए। एक पत्नी पागल कर देती है, सोलह हजार पत्नियां! सिर्फ बुद्धपुरुष ही इनके बीच हो सकता है कि पागल न हो। इससे बड़ी और कसौटी अस्तित्व नहीं ले सकता किसी की कि सोलह हजार पत्नियां किसी को दे दे। एक-एक पत्नी का अनुभव सभी को है। किन्हीं-किन्हीं को दो का है, तीन का भी है। वे जानते हैं कि कैसी अड़चन हो जाती है। सोलह हजार!
हिम्मतवर लोग थे, जिन्होंने सोची बात। और कृष्ण इनके बीच भी बांसुरी बजा रहा है। एक ही पत्नी के साथ बांसुरी बजा कर देखिए! नाच रहा है--यह कोई और ही...जीसस से इसका कोई मेल नहीं, महावीर से इसका कोई मेल नहीं। यह सारा अस्तित्व एक नृत्य मालूम हो रहा है। जैसे दुख ऊपरी है और व्यर्थ है। दुख सिर्फ नासमझी है। पाप, पुण्य, पश्चात्ताप, सब ऊपरी बातें हैं। महोत्सव आंतरिक है, गहरा है।
तथागत शब्द इसलिए समझने जैसा है। तथागत का मतलब है: सब बुद्धपुरुष एक से ही हैं। लेकिन बाहर से तो बड़े अनेक हैं, ऊपर से तो उनको साथ रखना ही मुश्किल है। कृष्ण को और क्राइस्ट को एक ही घर में ठहराएं--बड़ी मुश्किल होगी। कहां क्राइस्ट सूली पर लटके हैं और वहीं कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं! बड़ा मुश्किल होगा।
ऊपर से देखने पर तो बुद्धपुरुषों में कोई मेल नहीं है, प्रत्येक बुद्धपुरुष अद्वितीय, अनूठा और अपने ही जैसा है, लेकिन गहरे में वे एक ही चरण-चिह्नों पर चले हैं। इसलिए उन सबको तथागत कहा है।
गहरे में उनके चरण-चिह्न बिलकुल एक हैं, लेकिन उतनी गहरी आंख हो तो ही दिखाई पड़ सकते हैं। ऊपर के आवरण का भेद है, वस्त्रों का भेद है, व्यक्तित्व का भेद है; आत्मा का भेद नहीं है।
‘महाप्रभु का, पूर्णता के तथागत का, जो अपने पूर्वजों के चरण-चिह्नों पर चलते चले आए हैं,...।’
इसलिए बुद्धपुरुष सदा नया है और सदा पुराना भी। नया है, अगर आप उसको ऊपर से देखें और पुराना है अगर भीतर से जानें। अत्यंत नूतन है, मौलिक है और अत्यंत सनातन है, प्राचीन है। वह जो भी कह रहा है, एकदम अनूठा है और वह जो भी कह रहा है, वह सदा बुद्धपुरुषों ने कहा है। ये विपरीत दिखाई पड़ने वाली बातें अगर एक साथ समझ में आ जाएं, तो तथागत शब्द का अर्थ समझ में आएगा।
भीतर के लोक में बुद्ध और महावीर बिलकुल एक जैसे हैं। क्या है उनकी एक जैसी स्थिति?
यहां हम इतने लोग बैठे हैं, सब अलग-अलग हैं। ऊपर से चाहे एक जैसे भी हों, क्योंकि शरीर एक ही जैसा है, वस्त्र एक जैसे हैं, ऊपर से तो बहुत सी बातें एक जैसी हैं, लेकिन भीतर वह जो विचार चल रहे हैं, वह सबके अलग-अलग हैं। वह भीतर का विचार सबको भिन्न कर देता है। बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, महावीर, उनके भीतर विचार नहीं हैं, शून्य है। वह शून्य सबको एक जैसा कर देता है, भीतर से।
उस शून्य की अभिव्यक्ति में भेद पड़ता है। जब वह शून्य प्रकट होता है, तो व्यक्तित्व की पर्तों से आता है। जैसे कि हम प्रकाश जलाएं और हर प्रकाश के आस-पास अलग-अलग रंग के कांच के घेरे खड़े कर दें। एक नीला कांच का घेरा हो, एक लाल कांच का घेरा हो, एक हरा कांच का घेरा हो, एक सा दीया जले। और प्रकाश का रंग एक है। वह भीतर जले, लेकिन चारों घेरों के बाहर अलग-अलग प्रकाश दिखाई पड़ेगा।
बुद्ध के भीतर जो प्रकाश जल रहा है और क्राइस्ट के भीतर जो प्रकाश जल रहा है, वह एक है। वे दोनों तथागत हैं, वहां सब शून्य हो गया। दो शून्य में कोई भेद नहीं होता। दो विचारों में भेद होता है, दो मनों में भेद होता है। दो समाधियों में भेद नहीं होता। हम अगर सब यहां शांत हो जाएं तो हमारे भीतर फिर कोई भेद नहीं रह जाएगा। सब भेद ऊपरी हैं, भीतरी कोई भेद नहीं है बुद्धपुरुषों में। हममें सब तालमेल ऊपरी है, भीतरी बिलकुल भेद है। ऊपर से हम करीब-करीब एक जैसे जीते हैं। भीतर बहुत भेद है। इसलिए दो मित्र भी बनाना मुश्किल है जगत में, क्योंकि दोनों में बड़ा भेद है। भीतर के विचार कलह उत्पन्न करते हैं। दो बुद्धपुरुषों को मिलाने की भी जरूरत नहीं है।
सुना है मैंने कि महावीर और बुद्ध एक बार एक ही गांव में, एक ही धर्मशाला में ठहरे और मिले नहीं। बड़ा अशोभन मालूम पड़ता है, मिलते तो अच्छा होता, मनुष्यता का लाभ होता। ऐसा भी नहीं कि मिलाने की कोशिश न की होगी लोगों ने। बड़ी कोशिश की होगी और बड़े लोग परेशान भी हुए होंगे कि क्यों, मिलते क्यों नहीं? मिल लेना चाहिए। हमारी समझ के बाहर है बात कि मिलने का कोई अर्थ ही नहीं; क्योंकि वे भीतर इतने एक जैसे हैं कि किससे मिलना, क्या मिलना? क्या अर्थ? भीतर दो शून्य हैं, वह मिल भी जाएं, तो एक ही शून्य बनेगा। दो शून्य से मिल कर दो शून्य नहीं बनते, दो शून्य से मिल कर एक ही शून्य बनता है। हजार शून्य भी मिला दो, तो एक ही शून्य बनता है। ऐसा नहीं कि हजार शून्य बन जाते हैं।
शून्य का मतलब कि वह कोई इकाई नहीं है, खालीपन है। दो खालीपन मिलेंगे, तो क्या होगा? एक खालीपन हो जाएगा। अगर बुद्ध और महावीर को हम पास बिठा दें, तो वहां दो आदमी नहीं हैं; वहां एक आदमी हो जाएगा। अगर हम सारे तथागतों को इकट्ठा कर लें, तो वहां हजार तथागत नहीं होंगे; वहां एक ही शून्य रह जाएगा। इस अर्थ में तथागत को कहा जाता है कि वह अनूठा भी है और अपने पूर्वजों के चरण-चिह्नों पर भी चलता है।
‘उन सब तथागतों का वचन है: आठ घोर दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं। यदि नहीं, तो जान कि तू ज्ञान को, निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।’
अगर विराग के बाद भी तेरे दुख बने रहते हैं, तो समझना कि तू चूक गया। विरागी को दुख नहीं होना चाहिए। रागी का दुख समझ में आता है। क्योंकि राग जब पूरा नहीं होता, तो दुख होता है। राग जब असफल होता है, तो दुख होता है। राग में अपेक्षा है--पूर्ति न होने पर दुख होता है। पूर्ति हो जाए तो दुख होता है; क्योंकि राग की अपेक्षा निरंतर विस्तीर्ण होती चली जाती है। विरागी को दुख नहीं होना चाहिए। अगर विरागी को भी दुख होता है, तो जानना कि तू चूक गया है। बुद्धपुरुषों ने कहा है कि सभी दुख सदा के लिए विदा हो जाते हैं; विराग अगर सही हो जाए। और विराग के क्षण में अगर भूल से भटकाव न हो और अहंकार न पकड़ ले, और कोई सूक्ष्म वासना खेल न दिखाने लगे, तो सभी दुख विसर्जित हो जाते हैं। और अगर तुझे लगे कि दुख विसर्जित नहीं हुए, तो समझना कि तू चूक गया और निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो सकता।
‘विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर है। यदि तू इस मार्ग का स्वामी होना चाहता है, तो तुझे पहले से बहुत बढ़ कर अपने मन और दृष्टि को घातक कर्म से मुक्त रखना है।’
विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर है, वहां कोई अपवाद नहीं हो सकेगा। निश्चित ही होना भी यही चाहिए। जब सभी दुखों को छोड़ने के लिए कोई तैयार है, सभी दुखों से मुक्त होने की आशा रख रहा है, तो उसे कठोर परीक्षा से गुजरना पड़ेगा। दुख छोड़ने की जो आशा रख रहा है, सब दुख से बाहर हो जाने की जो चेष्टा कर रहा है, उसे कठोर परीक्षा से गुजरना पड़ेगा।
वह कठोर परीक्षा क्या है?
वह कठोर परीक्षा दो चीजों के बीच में है। एक तो कि दुखों से छुटकारा तब तक असंभव है, जब तक वासना से पूर्ण छुटकारा न हो। सूक्ष्म वासना रह जाए, तो सूक्ष्म दुख रह जाएंगे। वासना होगी, तो कहीं न कहीं दुख होगा। मांग होगी, तो पीड़ा होगी। चाह होगी तो कांटा चुभा ही रहेगा छाती में। वह जो वासना के वस्त्र हम पहने हुए हैं, उन सबको बिलकुल ही छोड़ देना पड़ेगा। वे ही हमें कसे हैं और दुख दे रहे हैं।
सुना है मैंने, ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दर्जी को कपड़े बनाने को दिए थे। बड़ी मुश्किल से सालों में पैसा इकट्ठा करके बड़ा बहुमूल्य कपड़ा खरीदा था। दर्जी ने कपड़े भी बना दिए, बड़ी देर लगाई, बड़े चक्कर कटवाए। आखिर एक दिन कपड़े बन कर तैयार हो गए। उत्सव का दिन कोई करीब आ रहा था और नसरुद्दीन बहुत खुश था। वह कपड़े लेने गया, लेकिन कपड़े पहन कर बड़ी मुश्किल में पड़ गया; बहुत उदास हो गया। उसने कहा कि यह तुमने क्या किया? बर्बाद कर दिया सारा कपड़ा। यह कालर तो देखो कि मेरे सिर तक जा रही है।
उस दर्जी ने कहा: इसमें कालर का कसूर नहीं है, थोड़ा सिर को ऊंचा करो। उसने खींच कर नसरुद्दीन की गर्दन सीधी कर दी, गर्दन ऊपर हो गई। लेकिन गर्दन तो ऊपर हो गई, पर फंस गई भीतर। अब वह नीचे न कर सके--क्योंकि वह कालर! उसने कहा: और यह एक हाथ छोटा और एक हाथ बड़ा! उसने कहा: तुम्हारा शरीर ही गड़बड़ है, तो मैं क्या कर सकूंगा? जरा इस हाथ को आगे खींचो। तो उसने एक हाथ खींच कर आगे कर दिया। और नसरुद्दीन ने कहा कि यह नीचे जो कमीज है, यह नीचे तक पूरी नहीं पहुंच रही। तो उसने कहा: थोड़ा आगे झुको। तो नसरुद्दीन आगे झुक गया। पायजामे की एक टांग लंबी थी, एक छोटी थी। और वह ठीक करता गया और नसरुद्दीन बिगड़ता गया। कपड़ा ठीक होता चला गया, तो नसरुद्दीन की दशा बड़ी विकृत हो गई। वह अष्टावक्र की हालत में हो गया, आठ जगह से झुक गया। और दर्जी ने कहा: जरा आईने में तो देखो, गांव की सारी सुंदरियां पागल हो जाएंगी! महीनों की मेहनत है मेरी इन कपड़ों पर! नसरुद्दीन ने देखा, हालत बड़ी विचित्र थी; लेकिन इस आशा से कि सुंदरियां पागल हो जाएंगी, वह खुश हुआ। उसने कहा: क्या कहते हो! दर्जी ने कहा कि मैंने इतनी मेहनत कभी किन्हीं वस्त्रों पर नहीं की।
नसरुद्दीन निकला, तो अपनी मुद्रा और आसन को सम्हाले हुए--एक हाथ लंबा तो लंबा किए, गर्दन ऊंची तो ऊंची किए, एक पैर छोटा तो भीतर सिकुड़े, एक पैर लंबा तो आगे किए, वस्त्र छोटे तो आगे झुका--इस आशा में कि सुंदरियां पागल हो जाएंगी!
सभी की गति ऐसी ही है, अपनी-अपनी मुद्रा सम्हाले हैं। वासना में जीने वाला आदमी अष्टावक्र हो जाता है।
नसरुद्दीन घर की तरफ चला इस आशा में कि अब देखें कि कौन सुंदरी पागल होती है। कई लोगों ने चौंक कर जरूर देखा। स्त्रियों ने भी चौंक कर देखा। ऐसे विचित्र आदमी को कौन चौंक कर नहीं देखेगा! नसरुद्दीन समझा कि दर्जी ठीक ही कह रहा था। एक अजनबी आदमी ने जो नसरुद्दीन को नहीं जानता था--क्योंकि बाकी गांव के लोग तो जानते थे कि इसमें कुछ अनूठा नहीं है, इस आदमी से ऐसी ही आशा है--एक अजनबी ने, जो गांव में नया-नया आया था, उसने कहा कि ठहरो नसरुद्दीन, तुम्हारे दर्जी का पता क्या है? किसने बनाया यह? नसरुद्दीन ने कहा कि क्या! मेरे दर्जी का पता पूछ कर क्या करोगे? उसको लगा कि यह आदमी प्रतियोगिता करना चाहता है। उस अजनबी ने कहा कि मैं जानना चाहता हूं तुम्हारे दर्जी का पता, क्योंकि तुम जैसे अष्टावक्र के लिए जिसने कपड़े बना दिए, उसकी प्रतिभा का मुकाबला नहीं--ही मस्ट बी ए जीनियस। इतना इरछा-तिरछा शरीर और उसने कपड़े बिलकुल ठीक-ठीक बिठा दिए--आश्चर्य! उसके मैं दर्शन करना चाहता हूं। उसको पता नहीं है कि यह बेचारा अष्टावक्र नहीं है, कपड़ों की वजह से अष्टावक्र है।
आपकी जो विकृत दशा है, वह वासनाओं का जो घेरा है चारों तरफ...कोई वासना टांग खींच रही है, कोई वासना सिर उठा रही है, कोई वासना एक हाथ खींच रही है; अपने को सम्हाले हैं बड़ी कठिन मुद्रा में। योगी भी क्या ऐसे आसन करेंगे, जो आप कर रहे हैं! और सम्हाले हैं इस आशा से कि कोई न कोई वासना इस ढंग से शायद पूरी होगी।
यह जो मनुष्य की दशा है...और जन्मों-जन्मों तक आदमी अष्टावक्र रहा है, इसलिए विराग का सदगुण बहुत कठोर और क्रूर मालूम पड़ता है। क्योंकि आपके अंग-अंग फिर से सीधे किए जाने हैं। आपकी विकृत दशा को फिर से सामान्य करना है। जो आप झुक गए हैं जगह-जगह से, वहां-वहां के जोड़ कठोर हो गए हैं, उन जोड़ों को तोड़ना है। और आदतें बन गई हैं मजबूत वासना की कि विराग के द्वार पर भी खड़े होकर वे वासना की आदतें आपको अपने ढंग से झुकाती हैं। इसलिए क्रूर और कठोर मालूम पड़ता है। जैसे किसी आदमी के शरीर की सब हड्डियां गलत ढंग से जुड़ गई हों, तो फिर उनको पुनः तोड़ना पड़े और फिर से जोड़ना पड़े, और जोड़ के बाद पलस्तर बांधने पड़ें कि कहीं वे फिर गलत आड़ी-टेढ़ी न जुड़ जाएं।
करीब-करीब विराग को यही काम करना पड़ता है। क्योंकि आपकी जन्मों-जन्मों में सारी व्यवस्था गड़बड़ जुड़ गई है। जो जहां होना चाहिए, वहां नहीं है और जहां नहीं होना चाहिए, वहां है। जिन अंगों का रूप आप समझ रहे हैं, जैसा आपके पास है, वह उनका स्वाभाविक रूप नहीं है, परवर्टेड, विकृत रूप है। सब चीजें विकृत हो गई हैं; राग ने सब विकृत कर दिया है। और राग की दौड़ में आदमी विकृत होने को तैयार है।
सिकंदर अफलातून का शिष्य था। अफलातून से वह दर्शन सीखता था। लेकिन सिकंदर था सम्राट और अफलातून तो एक गरीब दार्शनिक था। एक दिन सिकंदर ने उससे कहा कि तुम घोड़ा बन जाओ, और मैं तुम्हारे ऊपर सवारी करना चाहता हूं। तो अफलातून को उसने घोड़ा बना लिया, जैसे बच्चे बना लेते हैं, और अफलातून पर सवारी की। उसके दस-पांच दरबारी जो मौजूद थे, उनको उसने कहा कि देखो ज्ञानी की दशा! यह ज्ञानी मुझे सिखाने चला है। तो अफलातून ने कहा कि मेरी ही वासनाओं की वजह से यह मेरी दशा है कि मैं तुम्हारा घोड़ा बना हूं। मैं तुम्हें ज्ञान सिखा कर भी सौदा ही कर रहा हूं, उससे भी मैं कुछ पाना ही चाहता हूं। वह पाने की चाह ही इस हालत में ले आई कि तुम मेरे सिर पर बैठ गए हो। मेरी चाह ने ही मुझे घोड़ा बना दिया है, तुमने नहीं। तुम क्या कर सकते हो? मेरी वासना ने ही मुझे नीचे गिराया है, तुम मुझे नीचे नहीं गिरा सकते हो।
इस जगत में जो भी आपकी दशा है, वह आपकी ही वासना के कारण है। और इसलिए विराग बहुत कठोर मालूम पड़ता है। क्योंकि वह आपकी पूरी दशा को तोड़ेगा, आपको पुनः निर्मित करेगा, आपको नष्ट करेगा, तोड़ेगा, और नया निर्माण करेगा। वहां अगर जरा सी भी पुरानी आदत प्रवेश कर गई, तो आपने इस द्वार तक जो भी उपलब्धि की है--दान, शील, क्षांति--वह सब खो जाएगी और आप वापस उस जगह खड़े हो जाएंगे, जहां से आपने यात्रा शुरू की थी। इसलिए विराग के साथ अति सावधान होना जरूरी है।
‘तुझे अपने को शुद्ध आलय (परमसत्ता) से परितृप्ति कर लेना है और निसर्ग के आत्म-भाव के साथ एक हो जाना है। इसके साथ एक होकर तू अजेय है। पृथक रह कर तू समवृत्ति की क्रीड़ा-भूमि बन जाता है, जो संसार की समस्त भ्रांतियों का मूल-स्रोत है।’
शुद्ध आलय परम सत्ता के साथ अपने को परितृप्त कर लेना है।
वासना का अर्थ क्या है? वासना का अर्थ है: जो मिला है, उससे हम तृप्त नहीं हैं। जो है, उससे हम तृप्त नहीं हैं। हम अस्तित्व से कहते हैं कि नहीं, इतना काफी नहीं, यह और चाहिए, यह और चाहिए, यह और चाहिए। अस्तित्व से हमारी मांग है कि हम तृप्त होंगे तब, जब यह सब हो जाए। अस्तित्व ने जो दिया है, उससे हम राजी नहीं हैं। और अस्तित्व ने सब दिया है--जीवन दिया है, और जीवन के अनूठे रहस्य दिए हैं, और जीवन की बड़ी गहराई दी है, और जीवन का परम आनंद छिपा रखा है भीतर आपके। लेकिन वह खुलेगा तब, जब आप राजी हो जाएं अस्तित्व से। आपको तो देखने की फुर्सत ही नहीं है कि अस्तित्व ने क्या दिया है! आप तो मांग किए जा रहे हैं कि यह दो, यह दो, यह दो। इस देने की मांग में वह छिप ही गया है, जो दिया ही हुआ है। और आपको पता नहीं, जो आप मांग रहे हैं, वह कुछ भी नहीं है। जो आपको मिला ही हुआ है, उसके सामने, जो आप मांग रहे हैं, वह कुछ भी नहीं है।
एक बहुत अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना चित्र बनवाया, पोर्ट्रेट बनवाया। चित्र बन गया, तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आई। वह बहुत खुश थी। चित्रकार से उसने कहा कि क्या इसका पुरस्कार दूं? चित्रकार गरीब आदमी था। गरीब आदमी वासना भी करे तो कितनी बड़ी करे, मांगे भी तो कितना मांगे?
हमारी मांग, सब गरीब आदमी की मांग है परमात्मा से। हम जो मांग रहे हैं, वह क्षुद्र, व्यर्थ है। जिससे मांग रहे हैं, उससे यह बात मांगनी नहीं चाहिए।
तो उसने सोचा मन में कि सौ डालर मांगूं, दो सौ डालर मांगूं, पांच सौ डालर मांगूं, हजार डालर मांगूं! फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी। इतना देगी, नहीं देगी! फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूं, तो शायद ज्यादा दे। डर तो लगा मन में कि इसी पर छोड़ दूं, पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर! तो उसने फिर भी हिम्मत की। उसने कहा कि आपकी जो मर्जी। तो उसके हाथ में जो उसका बैग था, पर्स थी, उसने कहा: अच्छा तो यह पर्स तुम रख लो। यह बड़ी कीमती पर्स है।
पर्स तो कीमती थी, लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गई कि पर्स को रख कर करूंगा भी क्या? माना कि कीमती है और सुंदर है, पर इससे कुछ आता-जाता नहीं। इससे तो बेहतर था, सौ ही डालर मांग लेते। तो उसने कहा: नहीं-नहीं, मैं पर्स का क्या करूंगा, आप तो सौ डालर दे दें। तो उस महिला ने कहा: तुम्हारी मर्जी। उसने पर्स खोली, उसमें एक लाख डालर थे, उसने सौ डालर निकाल कर चित्रकार को दे दिए और पर्स लेकर वह चली गई।
सुना है कि चित्रकार अब तक छाती पीट रहा है और रो रहा है--मर गए, मारे गए, अपने से ही मारे गए!
आदमी करीब-करीब इस हालत में है। परमात्मा ने जो दिया है, वह बंद है, छिपा है। और हम मांगे जा रहे हैं--दो-दो पैसे, दो-दो कौड़ी की बात। और यह जीवन की जो संपदा हमें दी है, उस पर्स को हमने खोल कर भी नहीं देखा है।
स्वीकृति, अस्तित्व का स्वीकार--यह अर्थ है परितृप्ति का।
जो मिला है, वह जो आप मांग सकते हैं, उससे अनंत गुना ज्यादा है। लेकिन मांग से फुर्सत हो, तो दिखाई पड़े, वह जो मिला है। भिखारी अपने घर आए, तो पता चले कि घर में क्या छिपा है। वह अपना भिक्षापात्र लिए बाजार में ही खड़ा है! वह घर धीरे-धीरे भूल ही जाता है, भिक्षापात्र ही हाथ में रह जाता है। इस भिक्षापात्र को लिए हुए भटकते-भटकते जन्मों-जन्मों में भी कुछ मिला नहीं। कुछ मिलेगा नहीं।
‘तुझे अपने शुद्ध आलय से परितृप्ति कर लेनी है--परमसत्ता से, और निसर्ग के आत्म-भाव के साथ एक हो जाना है।’
मांग छोड़, यह मांग ही निसर्ग से तोड़ती है। यह जो है, उसके साथ ही राजी हो जा। राजी होते ही रहस्य खुलने शुरू हो जाते हैं; क्योंकि आंख तब आगे मांगने के लिए नहीं उलझती; खुल जाती है, मुक्त हो जाती है। फिर हम देख सकते हैं, जो है।
‘इसके साथ एक होकर तू अजेय है।’
फिर तेरी कोई पराजय नहीं।
‘पृथक रह कर तू समवृत्ति की क्रीड़ा-भूमि बन जाता है, जो संसार की समस्त भ्रांतियों का मूल-स्रोत है।’
समवृत्ति का अर्थ है: माया।
जैसे शंकर ने कहा है कि दो तरह के सत्य हैं--पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्य। वैसा बुद्ध ने कहा कि दो तरह के सत्य हैं--पारमार्थिक सत्य और समवृत्ति सत्य। समवृत्ति सत्य का वही अर्थ है, जो शंकर की भाषा में माया का है। जैसे ही आदमी ने मांगा कि वह माया के जगत में प्रवेश कर गया। मांग के साथ ही आप भिखारी हो गए। अब आप सपनों में भटकेंगे।
मांग स्वप्न का द्वार है।
जैसे ही आपने मांगना बंद किया, आप सम्राट हो गए, माया के बाहर हो गए। जो है पारमार्थिक सत्य, वह प्रकट होना शुरू हो जाएगा।
और जब तक हम कहते हैं: ऐसा होना चाहिए, तब तक हम स्वप्न निर्मित कर रहे हैं, तब तक हम माया में जी रहे हैं।