BLAVATSKY
Samadhi Ke Sapat Dwar 05
Fifth Discourse from the series of 19 discourses - Samadhi Ke Sapat Dwar by Osho. These discourses were given in ANAND SHEELA during FEB 09-17 1973.
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दान, प्रेम और करुणा की कुंजी पाकर तू दान के द्वार पर सुरक्षित खड़ा होगा। यही मार्ग का प्रवेश-द्वार है।
ओ प्रसन्न तीर्थयात्री, देख जो द्वार तुझे दीख रहा है, वह ऊंचा और बड़ा है और प्रवेश के लिए आसान मालूम पड़ता है। और उससे होकर जो पथ जाता है, वह सीधा और चिकना तथा हरा-भरा है। अंधेरे वन की गहराइयों में यह प्रकाशित वन-पथ की तरह है--एक स्थान जो अमिताभ के स्वर्ग से प्रतिबिंबित होता है, वह चमकीले पंख वाले पक्षी, आशा के बुलबुल हरे लता-कुंजों में बैठ कर निर्भय यात्रियों के लिए सफलता का गीत गाते हैं। वे बोधिसत्व के पांच सदगुणों को गाते हैं। जो बोधिशक्ति के पांच स्रोत हैं; और वे ज्ञान के सात चरणों को गाते हैं।
बढ़ा चल, क्योंकि तू कुंजी लाया है, तू सुरक्षित है।
और जो दूसरा द्वार है, उसका पथ भी हरीतिमा से भरा है, लेकिन वह चढ़ाई वाला है और ऊपर की ओर जाता है। हां, उसके चट्टानी मस्तक को तो देख। उसके खुरदरे और पथरीले शिखरों पर भूरे-भूरे धुंध छाए होंगे, और उसके आगे सब अंधकार भरा होगा। जैसे-जैसे वह बढ़ता है, तीर्थयात्री के हृदय में आशा का गीत मंद से मंद पड़ जाता है। अब उसके ऊपर संदेह का बोझ है और उसके चरण अस्थिर होते जाते हैं।
ओ साधक, इससे सावधान रहो। उस भय से सावधान, जो तेरी आत्मा की चांदनी और बहुत दूर में फैले तेरे महान गंतव्य के बीच, आधी रात के चमगादड़ के काले व स्वरहीन पंखों की तरह फैला है।
प्रकाश से मंडित पर्वत-शिखर बहुत निकट मालूम पड़ते हैं, उसके लिए जो यात्रा पर नहीं है; जो यात्रा पर चलता है, उसे पता चलता है कि जो शिखर इतने निकट मालूम पड़ते थे, वे इतने निकट नहीं, बहुत दूर हैं। और जो यात्रा पर चलता है, उसे ही यह भी पता चलता है कि मार्ग आसान नहीं है। और जैसे-जैसे शिखर करीब आता जाएगा, वैसे-वैसे मार्ग कठिन होता जाएगा। मंजिल के अंतिम क्षण अति कठिनाई के हैं। और एक-एक पैर उठाना बोझिल हो जाता है। जितने हम दूर हैं मंजिल से, उतना आसान मालूम पड़ता है। इसके बहुत कारण हैं।
एक तो, शिखर दिखाई पड़ता है, मार्ग दिखाई नहीं पड़ता। शिखर आकर्षित करता है, साध्य, गंतव्य पुकारता है; लेकिन बीच के ऊबड़-खाबड़ रास्तों का, शिखर को देख कर, कोई अंदाज नहीं लगता। उस आकर्षण में खिंचा हुआ व्यक्ति शिखर तक भी पहुंच जाता है; लेकिन जैसे-जैसे चलता है, वैसे-वैसे कठिनाई मालूम पड़ती है।
स्वभावतः जो चलेंगे, उन्हें ही कठिनाई भी मालूम पड़ेगी। जो बैठे ही रहेंगे, उनकी कोई भी कठिनाई नहीं है। लेकिन जो बैठे रहेंगे, वे कुछ उपलब्ध भी न कर सकेंगे। और जो बैठे रहेंगे, सिवाय खोने के उनके जीवन में और कोई घटना न घटेगी। निश्चित ही जो बैठे रहते हैं, उनसे भूल भी नहीं होती; वे कभी मार्ग से भी नहीं भटकते। क्योंकि जो मार्ग पर ही नहीं चला, वह मार्ग से भटकेगा कैसे? जो चलते हैं, उनसे भूलें भी होती हैं और उनका मार्ग से भटकना भी संभव हो जाता है।
और जितना शिखर पास होता है, उतनी ही खाइयां चारों ओर से घेर लेती हैं। भटकन शिखर के करीब होने पर और बढ़ जाती है। समतल रास्ते पर कोई भटक भी जाए, तो क्या हर्ज होगा? लेकिन पहाड़ों की ऊंचाइयों पर जब कोई भटक जाता है, तो जीवन खतरे में होता है; वहां एक-एक कदम मौत हो सकती है।
इन सारी बातों को ध्यान में रख कर इस सूत्र की शुरुआत है। फिर रास्ते की कठिनाइयां और भी हैं। एक तो, अकेले ही यह यात्रा है, जहां कोई संगी-साथी नहीं होता। अपने ही साहस, अपने ही बल, अपनी ही श्रद्धा का सहारा होता है। फिर इस रास्ते पर बने-बनाए पथ भी नहीं हैं। चलने से ही रास्ता बनता है। चलने के पहले कोई रास्ता तय नहीं है, जिस पर आप चल जाएं।
अध्यात्म की यात्रा आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की भांति है। पक्षियों के पैरों के कोई चिह्न नहीं बनते कि पीछे आने वाले पक्षी उन पैरों के चिह्नों को पकड़ कर यात्रा कर लें। पक्षी उड़ते हैं आकाश में, लेकिन पीछे का पथ भी उनके उड़ने के साथ ही खो जाता है। अध्यात्म जमीन पर चलने वाली यात्रा नहीं है। निश्चित ही जितने ऊपर हम जाते हैं, उतनी ही यात्रा आकाशीय हो जाती है। जमीन पर तो चरण-चिह्न बन जाते हैं, मिट्टी उन चरण-चिह्नों को सम्हाल लेती है और हम उनका अनुसरण कर सकते हैं। जो पहले गए हैं, उनकी लकीर पर जाने का उपाय है जमीन की यात्रा में। आकाश की यात्रा में उनके मार्ग पर चलने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि मार्ग छूट नहीं जाता, कोई चरण-चिह्न नहीं होते।
और आकाश से भी ज्यादा शून्य है अध्यात्म। वहां तो कोई चिह्न नहीं छूटता। वहां रास्ते के किनारे लगे हुए मील के पत्थर भी नहीं हैं, जो खबर दें। वहां तो चलना और रास्ते का निर्मित होना एक ही साथ होता है। वहां तो जितना हम चलते हैं, उतना रास्ता बन जाता है। और इसलिए कठिनाई बहुत बढ़ जाती है।
न कोई नक्शा होता है हाथ में, क्योंकि विराट का क्या नक्शा हो सकेगा? क्षुद्र के नक्शे हो सकते हैं; विराट का कोई नक्शा नहीं है, जिसको लेकर हम जाएं और नक्शे से तालमेल बिठाते रहें कि रास्ता ठीक है या नहीं। नक्शे से रहित यात्रा है। कोई गंतव्य को बताने वाली, दिशाओं की सूचना देने वाली व्यवस्था भी नहीं है। कोई यंत्र नहीं है, जिससे पता चले कि हम पूरब चल रहे हैं, कि दक्षिण, कि पश्चिम, कि उत्तर। क्यों? क्योंकि अध्यात्म ग्यारहवीं दिशा है। दस दिशाओं के नापने के उपाय हैं। आठ दिशाओं का हमें पता है--एक नीचे जाने वाली, एक ऊपर जाने वाली; दो दिशाएं और हम जोड़ लें, तो दस दिशाएं हो जाती हैं।
अध्यात्म ग्यारहवीं दिशा है--न तो पूरब जाती है, न पश्चिम; न दक्षिण, न उत्तर; न इनकी बीच की दिशाओं में, न ऊपर और न नीचे। अध्यात्म जाता है भीतर। भूगोल में भीतर की कोई दिशा नहीं है। यह जो भीतर की दिशा है, इसको बताने वाला कोई यंत्र नहीं है। और इस भीतर की दिशा में सिर्फ शून्य ही है। वहां फिर न पूरब है, न उत्तर है, न दक्षिण; न ऊपर है, न नीचे।
तो कुछ पता नहीं चलता। कोई दिशा-सूचक यंत्र नहीं कि हम कहां जा रहे हैं? और जहां हम जा रहे हैं, एक-एक इंच जहां हम श्रम से सरक रहे हैं--इतना श्रम और इतना साहस और शक्ति लगा रहे हैं, वह कहां है? किस दिशा में है? और हमारे पैर ठीक पड़ रहे हैं या गलत पड़ रहे हैं? ये सारी जटिलताएं हैं। और इन जटिलताओं को ध्यान में रख कर इस सूत्र को हम समझने की कोशिश करें।
‘दान, प्रेम और करुणा की कुंजी पाकर तू दान के द्वार पर सुरक्षित खड़ा होगा। यही मार्ग का प्रवेश-द्वार है।’
दान पहली कुंजी है। और पहली कुंजी अध्यात्म के खोजियों की दृष्टि से सबसे सरल है और सांसारिक लोगों की दृष्टि से बहुत कठिन है। क्योंकि कठिनाई और सरलता तो तुलना की बात है। संसार का सारा नियमन दान के विपरीत है। संसार की सारी व्यवस्था छीनने-झपटने की है, दान की नहीं है। दान असांसारिक बात है। देना संसार का हिस्सा नहीं है। इसलिए दान को द्वार कहा है, मार्ग का प्रवेश-द्वार। क्योंकि दान के साथ ही आपमें, वह जो संसार नहीं है, उसका प्रवेश हो जाता है। दान के साथ ही आप कुछ कर रहे हैं, जो संसार का हिस्सा नहीं है। आप संसार के बाहर हो रहे हैं। इसलिए दान को द्वार कहा है।
तो दान की बात को ठीक से समझ लें, तो बहुत सी बातें साफ हो जाएं। संसार में हम रहते हैं लेने को। देना संसार की भाषा नहीं है। देते हैं हम, वह भी लेने को। लक्ष्य वह कभी नहीं होता। कभी साध्य की तरह हम उसका उपयोग नहीं करते, साधन की तरह। अगर हम किसी को प्रेम भी देते हैं, तो प्रेम पाने को। अगर किसी से हम मैत्री भी बनाते हैं, मैत्री देते हैं, तो वह भी मैत्री पाने को। वह जो पाना है, पहले होता है हमारे मन में, देना उसके पीछे चलता है।
और हम देने में भी हिसाब रखते हैं--चाहे चेतन, चाहे अचेतन; जान कर या अनजाने कि जितना हम दें, उससे ज्यादा हमें मिल जाए; नहीं तो सौदा घाटे का हो जाता है। तो जितना हम देते हैं, उससे ज्यादा दिखाते हैं। और जितना हम लेते हैं, सदा उससे कम दिखाते हैं। दुकानदार की भाषा यही होगी।
सुना है मैंने कि एक यहूदी फकीर एक अजनबी नगर में एक यहूदी दुकानदार के पास गया। और यहूदी इसलिए कि यहूदी से अच्छा दुकानदार दूसरा नहीं होता। इधर हिंदुस्तान में जैन होते हैं, वे यहूदी के अनुकूल हैं। फकीर ने यहूदी की दुकान देख कर बड़ी प्रशंसा जाहिर की कि चलो, अपने धर्म का, अपनी जाति का, अपने देश का आदमी मिल गया, यह लूटेगा नहीं। पर उस फकीर को पता नहीं कि लोग अपना भी इसलिए बनाते हैं, ताकि आसानी से लूट सकें। अपना बनाने में और फायदा भी क्या है? दुकानदार ने देख कर कहा कि अहोभाग्य, मेरे ही देश, मेरी ही जाति, मेरे ही धर्म के हो; क्या लेने का इरादा है?
कोई चीज फकीर ने खरीदनी चाही थी, तो यहूदी दुकानदार ने कहा कि जब अपने ही हो, तो सौ रुपये की चीज है, सौ रुपये तुमसे न लेंगे, नब्बे ही ले लेंगे; फिर तुम फकीर भी हो, नब्बे भी न लेंगे, अस्सी ही ले लेंगे। उस फकीर ने कहा: अगर तुम यहूदी न होते, तो इस चीज के पचास रुपये मैं देता; तुम यहूदी हो, पचास मैं न दूंगा, चालीस ही दूंगा; और इतने प्रेमपूर्ण हो मेरे प्रति, चालीस भी मैं देने वाला नहीं हूं; मैं तीस ही दूंगा; मोल-भाव मैं नहीं करता।
यह हम सबकी भाषा है। जाने-अनजाने हम एक-दूसरे से लेने, झपटने-छीनने की कोशिश में लगे हैं। और हम उसी को होशियार कहते हैं, जो ज्यादा झपट ले, ज्यादा छीन ले; उसे हम नासमझ कहते हैं, जो इस सौदे में गंवा बैठे।
यह सारा संसार छीन-झपट है। यहां हर आदमी का हाथ दूसरे आदमी के खीसे में है। जो बहुत कुशल हैं, वे अदृश्य हाथों से खींच कर चीजें निकालते हैं; जो अकुशल हैं, नासमझ हैं, वे सीधे ही हाथ डाल कर फंस जाते हैं। पर दृष्टि खींचने पर है। शोषण संसार का ढंग है।
दान! दान से क्या संबंध है इस संसार का?
इसलिए महावीर ने, बुद्ध ने, वेदों ने, उपनिषदों ने, दान की इतनी महिमा गाई है। उस दान की महिमा का अर्थ समझ लेना। उसका अर्थ यह है कि दान इस संसार की व्यवस्था के विपरीत है। दान को महाधर्म कहा, उसका कारण इतना है कि देने का भाव ही बड़ी असंभव बात है। मगर हम वेदों से ज्यादा कुशल हैं। और कृष्ण, बुद्ध को भी हम धोखा दे जाते हैं। हमने दान को भी तरकीब बना ली--कुछ और पाने की! हमने कहा कि ठीक है, लेकिन दान किसलिए? दान क्यों? दान इसलिए कि स्वर्ग में हमें प्रतिफल मिले। दान इसलिए कि पुण्य हमारा अर्जित हो, और इस शरीर के छूटने के बाद हम परमात्मा के सामने खड़े होकर कह सकें कि मैंने इतना दिया है, उसका प्रत्युत्तर चाहिए। दान को भी हमने संसार की भाषा का हिस्सा बना लिया! तब हम दान भी करते हैं, वह भी दान नहीं है।
दान का अर्थ है: जहां लेना लक्ष्य न हो, जहां देना ही लक्ष्य हो; जहां पाने की कोई आशा न हो, अपेक्षा न हो; जहां पाने की कोई बात ही न हो, जहां देना ही अंत हो, गंतव्य हो, जहां देने में ही खुशी हो; जहां हम अनुगृहीत अनुभव करें किसी को कि उसने स्वीकार कर लिया दान, और हमें देने का मौका दिया। अगर दान देकर इतना भी होता हो कि हमें कोई धन्यवाद दे, तो बात खराब हो गई। क्योंकि धन्यवाद भी काफी सौदा हो गया। और जिनके पास काफी है, वे धन्यवाद पाकर भी खूब आनंदित होते हैं। जिनके पास देने की सुविधा है, वे लोगों को अनुगृहीत करने में कि लोग अनुगृहीत अनुभव करें उनके प्रति; काफी रस लेते हैं। इससे भी अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है।
इसलिए इस मुल्क में हमने एक अनूठी बात निकाली थी। लेकिन सब चीजें खराब हो जाती हैं; क्योंकि आदमी जैसा है, उसके हाथ में कुछ भी दो, वह सब विकृत कर लेता है। हम जिसे दान देते थे, उसे फिर हम दक्षिणा भी देते थे। वह बड़े मजे की बात है। दक्षिणा का मतलब है धन्यवाद, कि तुमने दान स्वीकार किया। जिसको दान दिया, फिर उसे दक्षिणा दी कि तुम्हारा धन्यवाद कि तुमने हमारा दान स्वीकार किया। कहां मिलता है कोई आदमी जो दान स्वीकार कर ले! हम देना चाहते थे और देकर आनंदित होना चाहते थे। तुमने स्वीकार कर लिया, तो उसकी दक्षिणा, उसका हम धन्यवाद भी देते हैं, वह भी स्वीकार कर लो।
देने वाले के मन में लेने की तो बात हो ही न; इतनी भी न हो कि कोई धन्यवाद करे, तो ही दान हो पाता है। लेकिन इसका तो यह मतलब हुआ कि फिर दान अपने आप में पूरा कृत्य है; उसका आनंद उसमें ही छिपा है, उसके बाहर नहीं। कोई फल नहीं है दान का, दान ही अपना फल है। अगर दान का कोई भी फल है तो दान दान न रहा। क्योंकि फल की आशा बंध जाती है। देने में पूर्णता है। यह सिर्फ द्वार है, इस संसार के बाहर जाने वाला।
अध्यात्म में प्रवेश का जो पहला द्वार है, वह दान है।
देना सीखें।
यह सवाल नहीं है कि क्या दें। यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। सवाल यह है कि देने का भाव बना रहे। और जब दें, तो देने में प्रसन्न हों और फल की कोई आशा, कहीं भी, सूक्ष्म में भी सघन न होने दें।
ब्लावट्स्की कहती है कि यह द्वार सबसे सरल है और द्वारों की बजाय जो आगे आएंगे। हमारे लिए तो यही सबसे ज्यादा कठिन है; क्योंकि वे जो आगे आने वाले द्वार हैं, उनका तो हमें पता नहीं। जहां हम खड़े हैं जिस बाजार में, हमें तो उसका पता है। और यह द्वार सरल नहीं मालूम प़डता, अति कठिन मालूम पड़ता है।
लेकिन एक बात और समझें, तो शायद उसकी सरलता खयाल में आने लगे। यही करिश्मा है कि हम जितना लेना चाहते हैं, उतने ही दुखी होते हैं। और जो लेना चाहते हैं, वह मिल जाए, तो भी दुखी होते हैं। ऐसा मत सोचना कि हमारा दुख हमारी वासनाओं की असफलता से आता है। सफल वासनाएं भी दुख लाती हैं; क्योंकि जब हम जो चाहते हैं, वह मिल जाता है, तब तक हमारी मांग हजार गुना हो गई होती है। और हमारी मांग बढ़ती ही चली जाती है। अगर आप दस करोड़ रुपये चाहते हैं, किसी दिन मिल सकते हैं; लेकिन जिस दिन मिलेंगे दस करोड़, उस दिन तक आपकी दस करोड़ की मांग दस अरब की हो जाएगी। वह जो मन मांगता था, वह रुकेगा नहीं, उसका भिक्षापात्र बड़ा हो जाएगा। आपके पास दस रुपये हैं तो आप दुखी होंगे; क्योंकि दस हजार की मांग होती है। आपके पास दस हजार हों तो मांग भी उतनी ही गुनी आगे बढ़ जाती है।
अनुपात दुख का बराबर रहता है। अनुपात में कभी अंतर नहीं पड़ता। अगर दस गुनी आपकी मांग होती है, तो दस गुनी हमेशा होती है। जितना आपके पास होता है, उसमें गुणित दस आपकी वासना हो जाती है। फिर उतना भी मिल जाए, तो गुणित दस आपकी वासना हो जाती है। लेकिन आप हमेशा, जो आपके पास है, उससे दस गुने को मांगते हैं। और जो आप मांगते हैं, उसके मुकाबले आप दस गुना कम गरीब, दुखी, पीड़ित; हमेशा गरीब, हमेशा दीन बने रहते हैं।
बड़े से बड़े सम्राट भी दीन ही बने रहते हैं। उनके पास धन ज्यादा है, एक भिखारी के पास धन कम है, लेकिन अनुपात, दोनों की मांग का करीब-करीब बराबर है। और अनुपात से दुख होता है, पीड़ा होती है।
मांग-मांग कर जिंदगी भर गुजार कर भी मिलता क्या है? चूस कर, इकट्ठा करके मिलता क्या है? दीनता मिटती नहीं, तो कुछ भी नहीं मिला।
देने से दीनता मिटती है, मांगने से दीनता बढ़ती है।
और कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि हमने ऐसे लोग भी देखे हैं, जैसे महावीर जैसा नग्न आदमी भी देखा, जिसके पास कुछ भी न रहा, सब दान कर दिया--सब दान कर दिया, आखिरी वस्त्र बचा था, वह भी दान कर दिया। लेकिन महावीर जैसा सम्राट खोजना मुश्किल है। दीनता जरा भी नहीं है। देने वाले को दीनता कभी पकड़ती ही नहीं। देने वाला नग्न फकीर हो जाए, तो भी मालिक ही होता है।
जो जानते हैं, वे कहते हैं: जब तक आप देने में समर्थ नहीं हैं; जिस चीज को आप देने में समर्थ नहीं हैं, उसके आप मालिक नहीं हैं। यह बड़ी उलटी बात है। अगर मैं कोई चीज दे सकता हूं, तो ही उसका मालिक हूं। और अगर नहीं दे सकता हूं, देने में झिझकता हूं, तो मैं उसका गुलाम हूं। और कोई वह जब मुझसे छीन ले, तो मैं परेशान हो जाऊं, तो साफ है कि मेरी गुलामी थी।
जिस दिन हम कोई चीज दे सकते हैं, उसी दिन मालिक होते हैं।
पाने से कोई मालिक नहीं होता, देने से मालिक होता है।
अगर आप प्रेम दे सकते हैं, तो आप प्रेम के मालिक हो जाते हैं। अगर आप दया दे सकते हैं, तो आप दया के मालिक हो जाते हैं। अगर आप धन दे सकते हैं, तो धन के मालिक हो जाते हैं। आप जो भी दे सकते हैं, उसके मालिक हो जाते हैं। अगर आप अपना पूरा जीवन दे सकते हैं, तो आप अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं। आप जीवन के मालिक हो जाते हैं। फिर आपसे जीवन कोई भी छीन नहीं सकता।
जो आप देते हैं, वही आपके पास बचता है। यह गणित जरा अजीब सा है। जो आप पकड़ते हैं, वह आपके पास नहीं है। जो आप देते हैं, वह आपके पास बच जाता है। इस उलटे गणित को जो सीख लेता है, वह दान की कुंजी उसके हाथ में आ जाती है।
थोड़ा अपने ही जीवन में अनुभव करें--अगर आपको कभी भी कोई सुख की किरण मिली हो, तो थोड़ा खोजें, वह कब मिली थी? आप हमेशा पाएंगे कि सुख की किरण के आस-पास देने का कोई कृत्य था। ठीक से निरीक्षण करेंगे, तो जरूर खोज लेंगे यह बात कि जब भी आपको कुछ सुख मिला, तब उसके पास देने का कोई कृत्य था। खोजें, यह नियम शाश्वत है। कुछ न कुछ आपने दिया होगा किसी क्षण में सहज भाव से; मांग न रही होगी उसके पीछे, कोई सौदा न रहा होगा। हृदय प्रफुल्लता से भर जाता है।
और ध्यान करें कि जब भी आप दुख में घने उतरते हैं, तो भी बात यही लागू होती है। आपने कुछ छीना होगा या आप जो दे सकते थे, उसको देने से अपने को रोक लिया होगा। कोई कृपणता की होगी। वह कृपणता का तल और आयाम कोई भी हो, आपने कुछ संकोच कर लिया होगा।
देने से आदमी फैलता है।
लेने से, छीन लेने से, रोक लेने से, न देने से सिकुड़ता है।
सिकुड़ाव दुख है, फैलाव आनंद है।
इसलिए हमने ब्रह्म को आनंद कहा। ब्रह्म का मतलब है: जो फैलता ही चला जाता है। ‘ब्रह्म’ और ‘विस्तार’ एक ही शब्द से बने हैं। जो विस्तीर्ण होता चला जाता है, वह ब्रह्म है। इसलिए हमने उसे आनंद कहा। जो सिकुड़ता ही चला जाता है, क्षुद्र होता चला जाता है, गांठ बनती चली जाती है, वह दुख है।
कभी आपने खयाल किया, जब आप दुखी होते हैं, तो आप चाहते हैं--कोई मिले भी न; अकेले में बैठ जाएं, द्वार बंद कर लें। लेकिन जब आप आनंद से भरते हैं तब? तब आप द्वार बंद नहीं करना चाहते। तब आप इकट्ठा कर लेना चाहते हैं प्रियजनों को, मित्रों को, अपरिचित हों तो उनको भी! आनंद से जब आप भरते हैं, तो आप बांटना चाहते हैं, फैलना चाहते हैं। दूसरे भी सहयोगी हो जाएं आपके आनंद-उत्सव में, यह चाहते हैं।
आनंद में एक फैलाव है। आप फैलें, तो आनंद मिलता है। आनंद मिले, तो आप फैलते हैं। दुख में सिकुड़ाव है। दुखी आदमी बंद हो जाता है कोठरी में भीतर। दुखी आदमी कभी आत्महत्या भी कर लेता है, तो उसकी आत्महत्या आखिरी उपाय है, जिसमें वह दूसरों से बिलकुल ही अलग हो जाए। आनंदित आदमी ने आज तक आत्महत्या नहीं की। आनंदित आदमी आत्महत्या कर ही नहीं सकता; क्योंकि आनंदित आदमी तो दूसरों से जुड़ना चाहता है, विराट से एक हो जाना चाहता है।
एक मजे की बात। बुद्ध और महावीर या क्राइस्ट और मोहम्मद, जो भी कभी इस यात्रा-पथ पर गए हैं, तो जब दुखी थे, तब वह जंगल की तरफ भाग गए और जब आनंद से भर गए, तो वापस बस्ती में लौट आए! जब दुखी थे, तो अकेले में गए और जब उन्हें आनंद फलित हो गया, तब फिर अकेले में न रह सके, फिर बांटने आ गए।
यह दोनों तरफ सही है। आनंद मिले तो बांटते हैं आप। अगर बांटना सीख लें, तो आनंद मिलता है। कहीं से भी शुरू करें, यह एक ही चीज के दो छोर हैं।
‘दान के द्वार पर सुरक्षित खड़ा होगा तू, यदि दान की कुंजी तेरे हाथ में है।’
बड़े मजे का सूत्र है। अगर दान की कुंजी तेरे हाथ में नहीं है, तो दान के द्वार पर तू बड़ा असुरक्षित खड़ा होगा; क्योंकि तेरी सारी संपत्ति लुटने का मौका आ गया। कई बार दान का द्वार हमारे करीब आ जाता है, तो हम भाग खड़े होते हैं, क्योंकि हम डरते हैं।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन जिस मस्जिद में काम करता था, मौलवी था, उसकी दीवाल गिर गई थी और मस्जिद खंडहर होने के करीब थी। तो वह गांव के धनी के पास गया। और धनी तो डरते ही हैं: मौलवी हो, मुल्ला हो, फकीर हो, साधु हो, संन्यासी हो। धनी इसे देख कर चौंकता है, क्योंकि वह खतरा चला आ रहा है। वह दान का द्वार चला आ रहा है। क्योंकि देने तो क्या आएगा यह नसरुद्दीन? तो धनपति अपना इंतजाम करके रखते हैं। खिड़की से धनपति ने झांक कर देखा कि नसरुद्दीन आ रहा है, जरूर मस्जिद दिक्कत में है। आदमी दरवाजे पर गया। नसरुद्दीन ने इसी बीच झांक कर देख लिया कि खिड़की से धनपति ने झांका है। सिर्फ उसका सिर दिखाई पड़ा, पगड़ी दिखाई पड़ी। नौकर से मुल्ला ने कहा कि मालिक घर पर हैं? नौकर ने कहा कि नहीं, मालिक बाहर गए हैं। नौकर धनपति का सचेत किया हुआ नौकर था कि ऐसा आदमी दिखाई पड़े, जिससे कुछ मांगने का डर हो, तो उसे विदा कर देना। तो मुल्ला ने कहा कि कोई हर्ज नहीं, बाहर गए हैं, वह तो ठीक किया है। एक सलाह है, मुफ्त देता हूं कि दुबारा बाहर जाएं, तो आपना सिर खिड़की में न छोड़ जाएं। कोई चुरा ले जाए, कोई झंझट हो जाए, फिर पीछे पछताना पड़े। बस इतनी सलाह मुफ्त देता हूं। इसका कोई दाम भी नहीं।
दान के द्वार पर खड़े होकर अगर हमारी पकड़ की वृत्ति और परिग्रह की वृत्ति सघन है और दान की कुंजी हाथ में नहीं है, तो हम निश्चित ही बड़ी असुरक्षा में पड़ जाएंगे। खतरा है वहां, वहां सब छिन जाने का डर है। वह दान का द्वार कहीं हमसे सब छीन न ले। इसलिए उस द्वार से हम बचेंगे। और अगर पहुंच जाएं भूल-चूक से, तो भी खतरा होगा।
यह सूत्र कहता है कि दान की कुंजी अगर तेरे हाथ में है, तो दान के द्वार पर तू सुरक्षित खड़ा होगा। अब तुझसे कुछ छीना नहीं जा सकता।
और एक बड़ी अनूठी घटना घटती है कि जिससे कुछ छीना नहीं जा सकता, वह कौन आदमी है? वह नहीं, जिसके पास बहुत कुछ है। उससे तो छीना जा सकता है! उस आदमी से कुछ भी नहीं छीना जा सकता है, जो सब देने को राजी है। उससे छीनने का उपाय नहीं है। उस आदमी की चोरी नहीं की जा सकती है। उस आदमी को लूटा नहीं जा सकता है। उस आदमी से कुछ छीना नहीं जा सकता है। उस आदमी की कोई पकड़ ही नहीं है, तो छीनने का उपाय नहीं है। दान के द्वार पर भी उस आदमी को कुछ मिलेगा, उस आदमी का कुछ खोएगा नहीं। जो सब देने को राजी है, उसको इस जगत का सब-कुछ मिल जाएगा।
‘ओ प्रसन्न तीर्थयात्री,...’ इसलिए यह सूत्र कहता है: ‘अगर तेरे पास दान की कुंजी है, तो दान के द्वार पर तू प्रसन्नता से भर जाएगा। अन्यथा दुख से, पीड़ा से, क्योंकि वहां छिनेगा सब।’
एक बहुत बड़ा धनपति निकोडेमस, जीसस के पास गया और जीसस से उस युवक निकोडेमस ने कहा: तुम्हारे प्रभु के राज्य की चर्चा मैं सुनता हूं; मेरे मन में भी लोभ उठता है, मैं उसमें प्रवेश पा सकूंगा या नहीं? तो जीसस ने कहा: तेरी योग्यता क्या है? तो निकोडेमस ने कहा कि न मैं चोरी करता हूं, न मैं व्यभिचारी हूं, न मैं शराब पीता हूं, न मैं मांसाहार करता हूं--और क्या चाहिए? जिन-जिन सदगुणों की चर्चा है शास्त्रों में, सब मुझमें हैं। जीसस ने कहा: इनसे काम न चलेगा; तू जा और अपनी सारी संपत्ति बांट आ।
निकोडेमस ने कहा कि फिर मुझे विचार करना पड़ेगा। क्योंकि न मैं मांसाहार करता हूं, न मैं शराब पीता हूं, न मैं व्यभिचारी हूं; शास्त्र का नियमित अध्ययन करता हूं, पूजा-प्रार्थना करता हूं, गिरजा, मंदिर जाता हूं, सभी पर्व-उत्सव में सम्मिलित होता हूं--और क्या चाहिए? जीसस ने कहा: इस सबसे कुछ काम न चलेगा। तेरे पास जो धन है, वह तू सब बांट आ। निकोडेमस ने कहा: तब तो बड़ी कठिन बात है।
और निकोडेमस की जगह कोई भी होता हममें से, तो यही कहता। हम भी सस्ते धर्म कर लेते हैं। न मांसाहार करते हैं, न शराब पीते हैं; ये सस्ते धर्म हैं। इनके न करने से कुछ हल नहीं, इनके करने से नुकसान होता है। न करने से कोई फायदा नहीं होता।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
इनके करने से नुकसान होता है। इनके करने में पाप है, इनके न करने में पुण्य बिलकुल नहीं है। अगर आप एक गड्ढे में गिर जाएं, तो पैर टूटता है। लेकिन गड्ढे में न गिरें, तो कुछ उपलब्धि नहीं होती। कि आप कहें कि मैं किसी गड्ढे में नहीं गिरा, बस काफी है--तो स्वर्ग का द्वार कहां है? गड्ढे में गिरने से पैर टूटता है, उसकी तकलीफ भोगनी पड़ती है। लेकिन गड्ढे में नहीं गिरे आप, इससे कुछ उपलब्धि नहीं हो गई। इससे कोई गुणवत्ता पैदा नहीं हो गई, कोई पात्रता पैदा नहीं हो गई। यह निषेधात्मक है। कोई मांसाहार करता है, तो नुकसान उठाता है; शराब पीता है, तो नुकसान उठाता है, लेकिन न पीने से कोई फायदा नहीं
होता। इसलिए अगर कोई इस तरह के सस्ते धर्म पूरे कर रहा हो, तो ठीक से समझ ले। नुकसान से बचेगा, फायदा बिलकुल नहीं होगा। नुकसान से बच गए, इतना ही क्या कम है? मगर उससे ज्यादा मत मांगना।
तो जीसस ने कहा कि जो तेरे पास है, तू सब छोड़ कर आ। क्योंकि जो बचाएगा, उससे छीन लिया जाता है और जो सब छोड़ देता है, उससे छीनने का कोई उपाय नहीं। मैं तुझे असली में समृद्ध होने का रास्ता बता रहा हूं। लेकिन तू अपने हाथ से गरीब है, तू पकड़े हुए है। निकोडेमस वापस लौट गया। यह उसके बस की बात न थी।
अगर दान की कुंजी समझ में न आई, तो धर्म के द्वार पर आप बड़े उदास खड़े हो जाएंगे, बड़े पीड़ा से भरे, जैसे अब लुटने के करीब हैं, सब लुटा जा रहा है।
‘ओ प्रसन्न तीर्थयात्री, देख जो द्वार तुझे दीख रहा है, वह ऊंचा और बड़ा है और प्रवेश के लिए आसान मालूम पड़ता है। और उससे होकर जो पथ जाता है, वह सीधा और चिकना तथा हरा-भरा है। अंधेरे वन की गहराइयों में यह प्रकाशित वन-पथ की तरह है--एक स्थान जो अमिताभ के स्वर्ग से प्रतिबिंबित होता है, वहां चमकीले पंख वाले पक्षी, आशा के बुलबुल हरे लता-कुंजों में बैठ कर निर्भय यात्रियों के लिए सफलता का गीत गाते हैं। वे बोधिसत्व के पांच सदगुणों को गाते हैं, जो बोधिशक्ति के पांच स्रोत हैं, और वे ज्ञान के सात चरणों को गाते हैं।’
दान के द्वार के प्रवेश के बाद जो पथ दिखाई पड़ेगा, वह बहुत हरा-भरा, बहुत लुभावना है, बहुत सुखद--हरी छाया, और पक्षियों के गीत, और सभी कुछ सुंदर है।
जिसने सदा छीना था, जब वह देता है, तो तत्क्षण उसके सामने सभी सुंदर हो जाता है। छीनने में सब कुरूप था। छीनना कुरूपता है। छीनने में हिंसा है। और छीनने वाला आदमी अपने चारों तरफ अस्थि-कंकालों से भर जाता है। जिन-जिन से उसने छीना है, उनके भूत-प्रेत, अस्थि-पंजर उसके आस-पास खड़े हो जाते हैं। जिसने छीना है, वह एक नाइटमेयर, एक दुखस्वप्न में जीने लगता है--छीनने के कारण। जिस-जिस से छीना है, उसकी आह इकट्ठी होती चली जाती है और चारों तरफ डसने लगती है; पीड़ा देने लगती है, शूल बन जाते हैं।
लेकिन जैसे ही कोई देने को राजी हो जाता है, वैसे ही यह सूत्र सच में कीमती बात कह रहा है--कि वैसे ही उसके सामने जैसे अंधेरे में कोई प्रकाशित पथ हो, अचानक खुल जाता है। यह पथ है छाया से भरा, हरे वृक्षों की छाया से शीतल। और पक्षियों के गीत। और पक्षियों के गीत भी साधारण नहीं, बोधिसत्वों के गुण गाते हुए। बुद्धों के वचन जैसे उन पक्षियों के गीत में समा गए हों। निश्चित ही यह जो छीनने की दुनिया से देने की दुनिया में आता है, सारी कुरूपता विलीन हो जाती है और सौंदर्य के द्वार खुल जाते हैं।
‘बढ़ा चल, क्योंकि तू कुंजी लाया है, तू सुरक्षित है।’
तुझे कोई डर नहीं है, तुझसे कुछ छिन भी नहीं सकता। तुझे यह भी भय नहीं पकड़ेगा कि पता नहीं, ये पक्षियों के इतने मधुर गीत, कोई प्रयोजन तो नहीं है! ऐसा सुंदर पथ, निश्चित ही कहीं लुटेरे छिपे होंगे। ऐसे छायादार वृक्ष, जरूर किसी ने लगाए होंगे, जो इन छायादार वृक्षों के नीचे सो गए यात्रियों को लूट लेता होगा। नहीं तो कौन लगाता है छायादार वृक्ष? और किसलिए पक्षी गीत गाएंगे? जरूर पक्षियों के गीत के पीछे कोई न कोई राजनीतिक चाल है और थोड़ी ही देर में षडयंत्र जाहिर हो जाएगा।
जिसके पास कुछ पकड़ है, उसे हर चीज से डर लगता है। वह सौंदर्य तक से डरता है। उसे हर जगह, क्योंकि जो उसके भीतर छिपा है छीनने वाला, वह सब जगह उसे दिखाई पड़ता है। वह जो चोर-लुटेरा उसके भीतर छिपा है, वह उसे सब जगह दिखाई पड़ता है। वह उससे भयभीत है। वह अपनी छाया से भी डर जाता है कि पता नहीं, कौन मेरा पीछा कर रहा है। वह अपने ही पैरों की आवाज सुन लेता है सुनसान रास्ते पर और भागने लगता है कि पता नहीं किसके पैरों की आवाज आ रही है। जिसकी कोई पकड़ है, वह डरा हुआ रहता है। जिसकी कोई पकड़ नहीं, वह बढ़ चल सकता है इस यात्रा-पथ पर, ‘क्योंकि तू कुंजी लाया है, तू सुरक्षित है।’
‘और जो दूसरा द्वार है, उसका पथ भी हरीतिमा से भरा है, लेकिन वह चढ़ाई वाला है और ऊपर की ओर जाता है। हां, उसके चट्टानी मस्तक को तो देख। उसके खुरदरे और पथरीले शिखरों पर भूरे-भूरे धुंध छाए होंगे, और उसके आगे सब अंधकार भरा होगा। जैसे-जैसे वह बढ़ता है, तीर्थयात्री के हृदय में आशा का गीत मंद से मंद पड़ जाता है। और अब उसके ऊपर संदेह का बोझ है और उसके चरण अस्थिर होते जाते हैं।’
यह सूत्र बहुत अजीब है।
और जो अनुभव किए हैं, वे ही इस तरह का सूत्र कह सकते हैं। इसे समझना जरूरी है। यह मनुष्य के गहरे मनस के ऊपर आधारित है। लूटने की दुनिया में हम जीते हैं; इसलिए देने की दुनिया तत्क्षण हमें सुख और शांति और सौंदर्य से भर देती है। यह जो सौंदर्य और शांति और आनंद की पुलक मिलती है, यह हमारा जो जीवन था अब तक का दुष्टता, क्रूरता, हिंसा से भरा--उसके विसर्जित होने से मिलती है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं टिकेगी। थोड़ी ही देर में संसार भूल जाएगा। ऐसा ही जैसे आपके पैर में एक कांटा गड़ा, फिर जब आप कांटे को निकाल देते हैं, तो राहत मिलती है। लेकिन कितनी देर मिलेगी यह राहत, जो कांटे के गड़ने के निकालने से मिलती है? वह तो कांटे की पीड़ा हो रही थी इसलिए, अब पीड़ा नहीं हो रही है, तो राहत मिलती है।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन रास्ते पर चलता था तो पता नहीं, किसके लिए गालियां देता चलता था। और ऐसे कष्ट से चलता था कि जो भी उसे देखे, उसको भी दया आ जाए, वह पूछे कि मुल्ला बात क्या है? और किसको कोस रहे हो? तो मुल्ला कहता कि मेरे जूते जो हैं बहुत चुस्त हैं, और पैर ऐसा फंसा है कि निकाल भी पाऊंगा इससे कि नहीं। और जूते काट रहे हैं। तो जो भी कहता, वह कहता: यह भी कोई बात हुई, मत पहनो इन जूतों को, अलग कर दो इन जूतों को। तो मुल्ला कहता: एक ही तो मेरे पास राहत का उपाय है, उसको भी तुम छीनना चाहते हो? दिन भर का थका-मांदा, परेशान जब घर लौटूंगा, तो पत्नी ऐसी वाणी बोलती है कि जैसे उसने जहर में बुझा-बुझा कर दिन भर तैयार की है। बच्चे चीख-पुकार मचाते हैं। धन पास नहीं है, व्यवसाय सब असफल होता जा रहा है। घर रोटी भी आज मिलेगी कि नहीं, उसका भी कोई पक्का नहीं है। भूखा सोऊंगा कि खाकर सोऊंगा, उसका भी कोई पक्का नहीं है। कर्ज बढ़ता चला जा रहा है; कर्जदार सुबह-शाम द्वार पर खड़े रहते हैं, उनकी वजह से ही बाजार की तरफ निकल आता हूं; कोई काम नहीं है बाजार में। तो जब रात थका-मांदा दिन भर का और इन जूतों से परेशान घर पहुंचता हूं, जूता निकाल कर पटकता हूं, तो कहता हूं, हे भगवान, तेरा धन्यवाद। यह जूता निकालने से ऐसी राहत मिलती है। यह एक ही तो मेरे पास राहत है, यह भी तुम छीन लेना चाहते हो!
एक अभाव की राहत है, जो मिलती है। जब आप दुख के बाद, पीड़ा के बाद बाहर आते हैं, बीमारी के बाद स्वस्थ होते हैं, तब मिलती है। लेकिन वह कितनी देर टिकेगी? संसार है एक रोग। उससे बाहर जब हम निकलते हैं एकदम, तो बड़ा हलकापन आ जाता है। सारा बोझ उतर गया। लेकिन कितनी देर टिकेगा यह?
यह अभावात्मक है, यह नकारात्मक है, यह ज्यादा देर नहीं टिकेगा। जैसे ही इससे हम बाहर हुए कि पहाड़ की चढ़ाइयां शुरू हो जाएंगी। और इन पहाड़ों के आस-पास गहरे धुंध के बादल होंगे। और यह पहाड़ हम चढ़ भी सकेंगे, इसकी हिम्मत तोड़ेंगे। आशा मंद होने लगेगी, संदेह का बोझ बढ़ने लगेगा कि संसार छूट गया हाथ से और जो मिलना चाहिए वह बहुत दूर मालूम पड़ता है। दान का द्वार बहुत बड़ा था, उससे हम प्रविष्ट हो गए। और दान के बाद हमें जो हलकी राहत मिली थी संसार के बोझ के हट जाने से, वह भी अब खो गई।
‘और एक अंधेरा घेर लेता है...।’
एक घना अंधकार घेर लेता है। घेरेगा ही। इसके पहले कि हमारी असली आंखें खुलें, हमारी नकली आंखें बंद हो जाएंगी। क्योंकि वही शक्ति जो हम नकली आंखों में उपयोग करते हैं, वही शक्ति असली आंखों में प्रवेश करेगी और उन्हें सक्रिय करेगी। इसके पहले कि हमें वास्तविक प्रकाश दिखाई पड़े, हमारा जो झूठा प्रकाश है, वह सब विलीन हो जाएगा।
‘घना अंधकार घेर लेगा...।’
यह घना अंधकार इसीलिए घेर रहा है। यह बड़ा शुभ लक्षण है--जो जानते हैं उनके लिए। अन्यथा साधक घबड़ा कर वापस भी लौट आता है।
और बहुत से लोग दान से आगे नहीं बढ़ पाते हैं, बहुत से लोग दान पर रुक जाते हैं। और अनेक जन्मों तक दान पर रुके रहते हैं। क्योंकि दान तक भी संसार की भाषा थोड़ी-बहुत समझ में आती है। छीनना-झपटना था, यहां देना है। लेकिन समझ सकते हैं हम, गणित साफ है। अब तक लेते थे, अब देते हैं। विपरीत है, लेकिन फिर भी भाषा अनुकूल है, निकट है, समझी जा सकती है।
इन दोनों के खो जाने पर संसार का द्वंद्व खो जाता है। और जो आंखें हमारे पास हैं, जो प्रकाश हमारे पास है, वह सब विलीन हो जाता है।
‘गहन अंधकार घेर लेता है...।’
इस अंधकार में संदेह उठना स्वाभाविक है। जो था, वह खो गया। जो किनारा पास था, नाव उससे दूर हट रही है। हमने सारी जंजीरें खोल लीं और दूसरा किनारा दिखाई भी नहीं पड़ता है। पैर डगमगाने लगते हैं, अस्थिर होने लगते हैं।
‘ओ साधक, इससे सावधान रहना। इस भय से सावधान, जो तेरी आत्मा की चांदनी और बहुत दूर में फैले तेरे महान गंतव्य के बीच, आधी रात के चमगादड़ के काले व स्वरहीन पंखों की तरह फैला है।’
संसार से हटते ही अध्यात्म नहीं मिल जाता है। संसार से हटने के बाद बीच में एक अंतराल का क्षण है, एक खाली जगह है, जब हम कहीं भी नहीं होते, त्रिशंकु हो गए होते हैं। न यहां होते हैं, न वहां होते हैं; नाव बीच में होती है। एक किनारा छोड़ कर दूसरा किनारा तो नहीं मिल जाता; बीच मझदार में होते हैं। उस मझदार में मन डांवाडोल होता है। पीछे लौट जाने की इच्छा होने लगती है कि वापस लौट चलो। कम से कम किनारा तो था। दुख था, कोई हर्ज नहीं; परिचित था, जाना-माना था। और अकेले ही न थे। दुखी थे तो भी बहुत लोगों के साथ थे--भीड़ थी, परिवार था, मित्र थे, प्रियजन थे, अपने लोग थे। एक-दूसरे के दुख में सहानुभूति बंटाते थे। यह अब अकेले हो गए, न वह किनारा रहा, न परिचित लोग रहे, न कोई सांत्वना देने वाला रहा। इस अकेलेपन में, इस मझधार में भय पकड़ता है।
सूत्र कहता है: ‘ओ साधक, इससे सावधान। इस भय से सावधान, जो तेरी आत्मा की चांदनी और बहुत दूर में फैले तेरे महान गंतव्य के बीच, आधी रात के चमगादड़ के काले व स्वरहीन पंखों की तरह फैला है।’
भय प्रत्येक साधक को पकड़ता है। सांसारिक भय नहीं, ज्यादा अस्तित्वगत भय, एक्झिस्टेंशियल फियर। और इन क्षणों में जब साधक भयभीत होने लगता है, कि बीच में अटक गया, अब क्या होगा--पीछे भी लौटा नहीं जा सकता। क्योंकि जगत में पीछे लौटने का कोई रास्ता ही नहीं है। कैसे कोई पीछे लौट सकता है? जो जान लिया, उसे अनजाना नहीं किया जा सकता। जो दिखाई पड़ गया, उसको अब अनदेखा नहीं किया जा सकता। जो अनुभव में आ गया अब, कैसे उससे पीछे जाया जा सकता है? जब वह अनुभव में नहीं आया था। अनुभव से पीछे हटने का कोई भी उपाय नहीं है। पीछे लौटा नहीं जा सकता, आगे का किनारा दिखाई नहीं पड़ता। आगे का किनारा देखने में थोड़ा समय लगेगा। नई आंखें चाहिए, और आंखों का नया संतुलन चाहिए।
जिसे देखने की आदत है, उसे हम देख लेते हैं; जिसे देखने की आदत नहीं है, उसे हम नहीं देख पाते हैं। जिसे सुनते रहे, उसे सुन लेते हैं; जिसे नहीं सुनते रहे, उसे हम नहीं सुन पाते हैं।
आदत, व्यवस्था, ढंग-ढांचा हमारा, वह सब इस किनारे का है। उस किनारे को देखने, पहचानने, समझने के पहले यह सारा ढांचा हटेगा। और पुराना ढांचा हटेगा, तो नया एकदम निर्मित नहीं होगा। नये का जन्म होगा, विकास होगा। समय लगेगा। यह समय का जो अंतराल है, यह अंधकार होगा। और अत्यंत भय मन को पकड़ेगा। भय यही पकड़ेगा कि कोई नासमझी तो नहीं कर बैठे। अच्छे-भले किनारे पर बैठे थे। और यह क्या भूल कर ली कि मझदार में उतर गए। और अब ऐसा लगता है कि पुराने किनारे पर भी लौटना नहीं हो सकता। और नये का कुछ पता नहीं है, तो आशा मंदी हो जाएगी। और जब आशा मंदी होती है, तो भय बढ़ता है। जब आशा बिलकुल शून्य हो जाती है, तो संदेह पकड़ लेता है। तब आत्मा ही नहीं, सारा अस्तित्व कंपने लगेगा। इस कंपित अवस्था में साधक पहुंचता है। और इस कंपित अवस्था के लिए पहले से सावधान रहना अत्यंत जरूरी है।
जब आप अपने भीतर भी प्रवेश करेंगे, तो ध्यान में ऐसी घड़ी आती है, जब आप भयभीत होने लगते हैं कि अब आगे जाना ठीक नहीं है। आते हैं मेरे पास मित्र और वे कहते हैं कि यह तो खतरे का क्षण मालूम होता है। ऐसा लगता है भीतर कि अब अगर जरा और आगे बढ़े तो, या तो पागल हो जाएंगे, या यह भी हो सकता है कि मौत घट जाए। और ऐसा लगने लगता है भीतर कि कहीं ऐसा तो न होगा कि अब इस भीतर के कुएं में गिर रहे हैं, वापस लौट सकेंगे या नहीं। उस क्षण साहस रखना जरूरी है। क्योंकि वह क्षण कीमती है और क्रांतिकारी है। अगर उस क्षण आप घबड़ा गए, तो चूक गए। और उस क्षण अगर आप घबड़ा गए, तो वह भय आपकी आत्मा में बैठ जाएगा और हमेशा के लिए तकलीफ देगा। लौट सकते नहीं। आगे जाते तो भय भी मिट जाता। पीछे जा नहीं सकते, आगे गए नहीं, तो भयभीत हो जाएंगे।
कीर्कगार्ड ने कहा है कि एक ऐसा क्षण आता है--उसने एक किताब लिखी है, जिसको नाम दिया है: ‘इदर-आर’--यह या वह, ऐसा या वैसा, यह पार या उस पार। ऐसा दोनों के बीच में एक क्षण आता है और उस क्षण में सारा अस्तित्व कंपने लगता है; जैसे तूफान ने, आंधी ने किसी वृक्ष को पकड़ लिया हो। और या तो इस तरफ आ जाओ, तो आंधी चली जाती है या उस तरफ चले जाओ, तो आंधी चली जाती है और अगर बीच में ही फंस जाओ, तो आंधी ही हमारा जीवन बन जाती है। बहुत लोग उलझ जाते हैं इस आंधी में।
और इसलिए सांसारिक आदमी डरता भी है धर्म की तरफ जाने में, ध्यान की तरफ, योग की तरफ जाने में। वह भय भी अनुभव के कारण है, बहुत पुराना है। बहुत लोगों को इस जगत ने आंधी में फंस जाते देखा है। इस जगत ने बहुत लोगों को विक्षिप्त हो जाते देखा है, पागल हो जाते देखा है; तो डर पैदा हो गया है। जैसे ही आप सुनते हैं कि कोई संन्यासी हो गया, भीतर एक डर आता है कि यह क्या कर लिया। संन्यास! इसका मतलब हुआ कि किनारा छोड़ने का विचार किया, कि किनारा छोड़ रहे हैं और संकल्प किया। खतरे में जा रहे हो, अनजान में उतर रहे हो! और अपरिचित राहों पर जाना ठीक नहीं। परिचित जाने-माने रास्तों पर चलो, क्यों झंझट में पड़ते हो? यह भी अनुभव के कारण ही है।
बहुत बार ऐसा हुआ है कि साधक जब बीच में फंस जाता है, लौट नहीं सकता, आगे जा नहीं पाता--भय के कारण, तो बड़ी उलझन हो जाती है। पैथालॉजिकल, रुग्ण अवस्था हो जाती है। इसलिए यह सावधानी जरूरी है।
इतना पक्का है कि अगर उस क्षण में हिम्मत रखी और भय न खोया, तो आप शीघ्र ही भय के पार हो जाएंगे और सदा के लिए अभय हो जाएंगे। फिर दुनिया का कोई भय आपको न पकड़ सकेगा। जो व्यक्ति अध्यात्म के भय के पार हो जाता है, फिर उसे दुनिया का कोई भय नहीं पकड़ सकता। और जिसको यह क्षण नहीं कंपा पाता, भयभीत नहीं कर पाता, फिर उसे कोई भी शक्ति भयभीत न कर पाएगी। फिर मृत्यु भी उसके रोएं को नहीं हिला सकती; क्योंकि यह मृत्यु से भी बड़ा खतरा है। क्योंकि मृत्यु में तो शरीर ही मिटता है, इस क्षण में तो ऐसा लगता है कि मेरा सारा प्राण टूटा जा रहा है। अब मैं कहीं का न रहा। अब मैं शून्य ही हो जाऊंगा। एक अनंत खड्ढ में जैसे कोई गिर गया हो; जिसकी कोई नीचे की थाह भी पता नहीं चलती। और ऊपर तो जाने का कोई उपाय नहीं है। और गिरता ही जाए, और गिरता ही जाए और नीचे की थाह का कोई पता न चले--ठीक वैसी ही प्रतीति होती है।
लेकिन उस प्रतीति को आह्लाद से, प्रसन्नता से, अनुग्रह से स्वीकार कर लेना और जानना कि परमात्मा की कृपा है कि यह क्षण आ गया। क्योंकि इसी क्षण के बाद क्रांति है; इसी क्षण के बाद रूपांतरण है। अगर इस बोध से बढ़ गए आगे, तो भय सदा के लिए तिरोहित हो जाता है। रात सदा के लिए मिट जाती है। अंधेरा सदा के लिए खो जाता है।
श्री अरविंद ने कहा है कि जिसे मैं कल तक प्रकाश कहता था, अब जिस प्रकाश को जाना, उसके समक्ष वह प्रकाश अंधेरा मालूम पड़ता है। और कल तक जिसे मैं जीवन समझता था, आज जिस जीवन को मैंने जाना है, उसके समक्ष वह जीवन मृत्यु से भी बदतर है।
लेकिन यह भय के क्षण के बाद होगा। स्मरण रखने योग्य है कि ‘ओ साधक, इससे सावधान! इस भय से सावधान।’ यह सावधानी अगर रही...जब भी भय पकड़े आपको, तो सावधान रहना कि यह शुभ लक्षण है, हम करीब आ रहे हैं उस खाई के, जिसमें अगर हम गिरने को राजी रहे, तो पुराना मिट जाएगा और नये का जन्म होगा। दुख विसर्जित हो जाएगा और आनंद की किरण फूटेगी। सूर्योदय निकट है।
जितनी घनी हो गई है रात, उतना ही सूर्योदय निकट है। ऐसा मन में भाव बना रहे।
इसलिए गुरु उपयोगी हो जाता है। और जो भय से भर सकते हैं, उनके लिए बहुत उपयोगी हो जाता है। क्योंकि तब, जिन रास्तों से वह गुजरा है, उनकी बात कर सकता है। और जो भय उसे पकड़े हैं, उनकी खबर दे सकता है। और कहां-कहां, किन-किन क्षणों में अड़चन आ जाएगी, उपद्रव हो सकता है, आदमी अटक सकता है, उसकी सब खबर दे सकता है। और एक दफा उनका स्पष्ट बोध हो, तो पार होना आसान हो जाता है।
ओ प्रसन्न तीर्थयात्री, देख जो द्वार तुझे दीख रहा है, वह ऊंचा और बड़ा है और प्रवेश के लिए आसान मालूम पड़ता है। और उससे होकर जो पथ जाता है, वह सीधा और चिकना तथा हरा-भरा है। अंधेरे वन की गहराइयों में यह प्रकाशित वन-पथ की तरह है--एक स्थान जो अमिताभ के स्वर्ग से प्रतिबिंबित होता है, वह चमकीले पंख वाले पक्षी, आशा के बुलबुल हरे लता-कुंजों में बैठ कर निर्भय यात्रियों के लिए सफलता का गीत गाते हैं। वे बोधिसत्व के पांच सदगुणों को गाते हैं। जो बोधिशक्ति के पांच स्रोत हैं; और वे ज्ञान के सात चरणों को गाते हैं।
बढ़ा चल, क्योंकि तू कुंजी लाया है, तू सुरक्षित है।
और जो दूसरा द्वार है, उसका पथ भी हरीतिमा से भरा है, लेकिन वह चढ़ाई वाला है और ऊपर की ओर जाता है। हां, उसके चट्टानी मस्तक को तो देख। उसके खुरदरे और पथरीले शिखरों पर भूरे-भूरे धुंध छाए होंगे, और उसके आगे सब अंधकार भरा होगा। जैसे-जैसे वह बढ़ता है, तीर्थयात्री के हृदय में आशा का गीत मंद से मंद पड़ जाता है। अब उसके ऊपर संदेह का बोझ है और उसके चरण अस्थिर होते जाते हैं।
ओ साधक, इससे सावधान रहो। उस भय से सावधान, जो तेरी आत्मा की चांदनी और बहुत दूर में फैले तेरे महान गंतव्य के बीच, आधी रात के चमगादड़ के काले व स्वरहीन पंखों की तरह फैला है।
प्रकाश से मंडित पर्वत-शिखर बहुत निकट मालूम पड़ते हैं, उसके लिए जो यात्रा पर नहीं है; जो यात्रा पर चलता है, उसे पता चलता है कि जो शिखर इतने निकट मालूम पड़ते थे, वे इतने निकट नहीं, बहुत दूर हैं। और जो यात्रा पर चलता है, उसे ही यह भी पता चलता है कि मार्ग आसान नहीं है। और जैसे-जैसे शिखर करीब आता जाएगा, वैसे-वैसे मार्ग कठिन होता जाएगा। मंजिल के अंतिम क्षण अति कठिनाई के हैं। और एक-एक पैर उठाना बोझिल हो जाता है। जितने हम दूर हैं मंजिल से, उतना आसान मालूम पड़ता है। इसके बहुत कारण हैं।
एक तो, शिखर दिखाई पड़ता है, मार्ग दिखाई नहीं पड़ता। शिखर आकर्षित करता है, साध्य, गंतव्य पुकारता है; लेकिन बीच के ऊबड़-खाबड़ रास्तों का, शिखर को देख कर, कोई अंदाज नहीं लगता। उस आकर्षण में खिंचा हुआ व्यक्ति शिखर तक भी पहुंच जाता है; लेकिन जैसे-जैसे चलता है, वैसे-वैसे कठिनाई मालूम पड़ती है।
स्वभावतः जो चलेंगे, उन्हें ही कठिनाई भी मालूम पड़ेगी। जो बैठे ही रहेंगे, उनकी कोई भी कठिनाई नहीं है। लेकिन जो बैठे रहेंगे, वे कुछ उपलब्ध भी न कर सकेंगे। और जो बैठे रहेंगे, सिवाय खोने के उनके जीवन में और कोई घटना न घटेगी। निश्चित ही जो बैठे रहते हैं, उनसे भूल भी नहीं होती; वे कभी मार्ग से भी नहीं भटकते। क्योंकि जो मार्ग पर ही नहीं चला, वह मार्ग से भटकेगा कैसे? जो चलते हैं, उनसे भूलें भी होती हैं और उनका मार्ग से भटकना भी संभव हो जाता है।
और जितना शिखर पास होता है, उतनी ही खाइयां चारों ओर से घेर लेती हैं। भटकन शिखर के करीब होने पर और बढ़ जाती है। समतल रास्ते पर कोई भटक भी जाए, तो क्या हर्ज होगा? लेकिन पहाड़ों की ऊंचाइयों पर जब कोई भटक जाता है, तो जीवन खतरे में होता है; वहां एक-एक कदम मौत हो सकती है।
इन सारी बातों को ध्यान में रख कर इस सूत्र की शुरुआत है। फिर रास्ते की कठिनाइयां और भी हैं। एक तो, अकेले ही यह यात्रा है, जहां कोई संगी-साथी नहीं होता। अपने ही साहस, अपने ही बल, अपनी ही श्रद्धा का सहारा होता है। फिर इस रास्ते पर बने-बनाए पथ भी नहीं हैं। चलने से ही रास्ता बनता है। चलने के पहले कोई रास्ता तय नहीं है, जिस पर आप चल जाएं।
अध्यात्म की यात्रा आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की भांति है। पक्षियों के पैरों के कोई चिह्न नहीं बनते कि पीछे आने वाले पक्षी उन पैरों के चिह्नों को पकड़ कर यात्रा कर लें। पक्षी उड़ते हैं आकाश में, लेकिन पीछे का पथ भी उनके उड़ने के साथ ही खो जाता है। अध्यात्म जमीन पर चलने वाली यात्रा नहीं है। निश्चित ही जितने ऊपर हम जाते हैं, उतनी ही यात्रा आकाशीय हो जाती है। जमीन पर तो चरण-चिह्न बन जाते हैं, मिट्टी उन चरण-चिह्नों को सम्हाल लेती है और हम उनका अनुसरण कर सकते हैं। जो पहले गए हैं, उनकी लकीर पर जाने का उपाय है जमीन की यात्रा में। आकाश की यात्रा में उनके मार्ग पर चलने का कोई उपाय नहीं, क्योंकि मार्ग छूट नहीं जाता, कोई चरण-चिह्न नहीं होते।
और आकाश से भी ज्यादा शून्य है अध्यात्म। वहां तो कोई चिह्न नहीं छूटता। वहां रास्ते के किनारे लगे हुए मील के पत्थर भी नहीं हैं, जो खबर दें। वहां तो चलना और रास्ते का निर्मित होना एक ही साथ होता है। वहां तो जितना हम चलते हैं, उतना रास्ता बन जाता है। और इसलिए कठिनाई बहुत बढ़ जाती है।
न कोई नक्शा होता है हाथ में, क्योंकि विराट का क्या नक्शा हो सकेगा? क्षुद्र के नक्शे हो सकते हैं; विराट का कोई नक्शा नहीं है, जिसको लेकर हम जाएं और नक्शे से तालमेल बिठाते रहें कि रास्ता ठीक है या नहीं। नक्शे से रहित यात्रा है। कोई गंतव्य को बताने वाली, दिशाओं की सूचना देने वाली व्यवस्था भी नहीं है। कोई यंत्र नहीं है, जिससे पता चले कि हम पूरब चल रहे हैं, कि दक्षिण, कि पश्चिम, कि उत्तर। क्यों? क्योंकि अध्यात्म ग्यारहवीं दिशा है। दस दिशाओं के नापने के उपाय हैं। आठ दिशाओं का हमें पता है--एक नीचे जाने वाली, एक ऊपर जाने वाली; दो दिशाएं और हम जोड़ लें, तो दस दिशाएं हो जाती हैं।
अध्यात्म ग्यारहवीं दिशा है--न तो पूरब जाती है, न पश्चिम; न दक्षिण, न उत्तर; न इनकी बीच की दिशाओं में, न ऊपर और न नीचे। अध्यात्म जाता है भीतर। भूगोल में भीतर की कोई दिशा नहीं है। यह जो भीतर की दिशा है, इसको बताने वाला कोई यंत्र नहीं है। और इस भीतर की दिशा में सिर्फ शून्य ही है। वहां फिर न पूरब है, न उत्तर है, न दक्षिण; न ऊपर है, न नीचे।
तो कुछ पता नहीं चलता। कोई दिशा-सूचक यंत्र नहीं कि हम कहां जा रहे हैं? और जहां हम जा रहे हैं, एक-एक इंच जहां हम श्रम से सरक रहे हैं--इतना श्रम और इतना साहस और शक्ति लगा रहे हैं, वह कहां है? किस दिशा में है? और हमारे पैर ठीक पड़ रहे हैं या गलत पड़ रहे हैं? ये सारी जटिलताएं हैं। और इन जटिलताओं को ध्यान में रख कर इस सूत्र को हम समझने की कोशिश करें।
‘दान, प्रेम और करुणा की कुंजी पाकर तू दान के द्वार पर सुरक्षित खड़ा होगा। यही मार्ग का प्रवेश-द्वार है।’
दान पहली कुंजी है। और पहली कुंजी अध्यात्म के खोजियों की दृष्टि से सबसे सरल है और सांसारिक लोगों की दृष्टि से बहुत कठिन है। क्योंकि कठिनाई और सरलता तो तुलना की बात है। संसार का सारा नियमन दान के विपरीत है। संसार की सारी व्यवस्था छीनने-झपटने की है, दान की नहीं है। दान असांसारिक बात है। देना संसार का हिस्सा नहीं है। इसलिए दान को द्वार कहा है, मार्ग का प्रवेश-द्वार। क्योंकि दान के साथ ही आपमें, वह जो संसार नहीं है, उसका प्रवेश हो जाता है। दान के साथ ही आप कुछ कर रहे हैं, जो संसार का हिस्सा नहीं है। आप संसार के बाहर हो रहे हैं। इसलिए दान को द्वार कहा है।
तो दान की बात को ठीक से समझ लें, तो बहुत सी बातें साफ हो जाएं। संसार में हम रहते हैं लेने को। देना संसार की भाषा नहीं है। देते हैं हम, वह भी लेने को। लक्ष्य वह कभी नहीं होता। कभी साध्य की तरह हम उसका उपयोग नहीं करते, साधन की तरह। अगर हम किसी को प्रेम भी देते हैं, तो प्रेम पाने को। अगर किसी से हम मैत्री भी बनाते हैं, मैत्री देते हैं, तो वह भी मैत्री पाने को। वह जो पाना है, पहले होता है हमारे मन में, देना उसके पीछे चलता है।
और हम देने में भी हिसाब रखते हैं--चाहे चेतन, चाहे अचेतन; जान कर या अनजाने कि जितना हम दें, उससे ज्यादा हमें मिल जाए; नहीं तो सौदा घाटे का हो जाता है। तो जितना हम देते हैं, उससे ज्यादा दिखाते हैं। और जितना हम लेते हैं, सदा उससे कम दिखाते हैं। दुकानदार की भाषा यही होगी।
सुना है मैंने कि एक यहूदी फकीर एक अजनबी नगर में एक यहूदी दुकानदार के पास गया। और यहूदी इसलिए कि यहूदी से अच्छा दुकानदार दूसरा नहीं होता। इधर हिंदुस्तान में जैन होते हैं, वे यहूदी के अनुकूल हैं। फकीर ने यहूदी की दुकान देख कर बड़ी प्रशंसा जाहिर की कि चलो, अपने धर्म का, अपनी जाति का, अपने देश का आदमी मिल गया, यह लूटेगा नहीं। पर उस फकीर को पता नहीं कि लोग अपना भी इसलिए बनाते हैं, ताकि आसानी से लूट सकें। अपना बनाने में और फायदा भी क्या है? दुकानदार ने देख कर कहा कि अहोभाग्य, मेरे ही देश, मेरी ही जाति, मेरे ही धर्म के हो; क्या लेने का इरादा है?
कोई चीज फकीर ने खरीदनी चाही थी, तो यहूदी दुकानदार ने कहा कि जब अपने ही हो, तो सौ रुपये की चीज है, सौ रुपये तुमसे न लेंगे, नब्बे ही ले लेंगे; फिर तुम फकीर भी हो, नब्बे भी न लेंगे, अस्सी ही ले लेंगे। उस फकीर ने कहा: अगर तुम यहूदी न होते, तो इस चीज के पचास रुपये मैं देता; तुम यहूदी हो, पचास मैं न दूंगा, चालीस ही दूंगा; और इतने प्रेमपूर्ण हो मेरे प्रति, चालीस भी मैं देने वाला नहीं हूं; मैं तीस ही दूंगा; मोल-भाव मैं नहीं करता।
यह हम सबकी भाषा है। जाने-अनजाने हम एक-दूसरे से लेने, झपटने-छीनने की कोशिश में लगे हैं। और हम उसी को होशियार कहते हैं, जो ज्यादा झपट ले, ज्यादा छीन ले; उसे हम नासमझ कहते हैं, जो इस सौदे में गंवा बैठे।
यह सारा संसार छीन-झपट है। यहां हर आदमी का हाथ दूसरे आदमी के खीसे में है। जो बहुत कुशल हैं, वे अदृश्य हाथों से खींच कर चीजें निकालते हैं; जो अकुशल हैं, नासमझ हैं, वे सीधे ही हाथ डाल कर फंस जाते हैं। पर दृष्टि खींचने पर है। शोषण संसार का ढंग है।
दान! दान से क्या संबंध है इस संसार का?
इसलिए महावीर ने, बुद्ध ने, वेदों ने, उपनिषदों ने, दान की इतनी महिमा गाई है। उस दान की महिमा का अर्थ समझ लेना। उसका अर्थ यह है कि दान इस संसार की व्यवस्था के विपरीत है। दान को महाधर्म कहा, उसका कारण इतना है कि देने का भाव ही बड़ी असंभव बात है। मगर हम वेदों से ज्यादा कुशल हैं। और कृष्ण, बुद्ध को भी हम धोखा दे जाते हैं। हमने दान को भी तरकीब बना ली--कुछ और पाने की! हमने कहा कि ठीक है, लेकिन दान किसलिए? दान क्यों? दान इसलिए कि स्वर्ग में हमें प्रतिफल मिले। दान इसलिए कि पुण्य हमारा अर्जित हो, और इस शरीर के छूटने के बाद हम परमात्मा के सामने खड़े होकर कह सकें कि मैंने इतना दिया है, उसका प्रत्युत्तर चाहिए। दान को भी हमने संसार की भाषा का हिस्सा बना लिया! तब हम दान भी करते हैं, वह भी दान नहीं है।
दान का अर्थ है: जहां लेना लक्ष्य न हो, जहां देना ही लक्ष्य हो; जहां पाने की कोई आशा न हो, अपेक्षा न हो; जहां पाने की कोई बात ही न हो, जहां देना ही अंत हो, गंतव्य हो, जहां देने में ही खुशी हो; जहां हम अनुगृहीत अनुभव करें किसी को कि उसने स्वीकार कर लिया दान, और हमें देने का मौका दिया। अगर दान देकर इतना भी होता हो कि हमें कोई धन्यवाद दे, तो बात खराब हो गई। क्योंकि धन्यवाद भी काफी सौदा हो गया। और जिनके पास काफी है, वे धन्यवाद पाकर भी खूब आनंदित होते हैं। जिनके पास देने की सुविधा है, वे लोगों को अनुगृहीत करने में कि लोग अनुगृहीत अनुभव करें उनके प्रति; काफी रस लेते हैं। इससे भी अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है।
इसलिए इस मुल्क में हमने एक अनूठी बात निकाली थी। लेकिन सब चीजें खराब हो जाती हैं; क्योंकि आदमी जैसा है, उसके हाथ में कुछ भी दो, वह सब विकृत कर लेता है। हम जिसे दान देते थे, उसे फिर हम दक्षिणा भी देते थे। वह बड़े मजे की बात है। दक्षिणा का मतलब है धन्यवाद, कि तुमने दान स्वीकार किया। जिसको दान दिया, फिर उसे दक्षिणा दी कि तुम्हारा धन्यवाद कि तुमने हमारा दान स्वीकार किया। कहां मिलता है कोई आदमी जो दान स्वीकार कर ले! हम देना चाहते थे और देकर आनंदित होना चाहते थे। तुमने स्वीकार कर लिया, तो उसकी दक्षिणा, उसका हम धन्यवाद भी देते हैं, वह भी स्वीकार कर लो।
देने वाले के मन में लेने की तो बात हो ही न; इतनी भी न हो कि कोई धन्यवाद करे, तो ही दान हो पाता है। लेकिन इसका तो यह मतलब हुआ कि फिर दान अपने आप में पूरा कृत्य है; उसका आनंद उसमें ही छिपा है, उसके बाहर नहीं। कोई फल नहीं है दान का, दान ही अपना फल है। अगर दान का कोई भी फल है तो दान दान न रहा। क्योंकि फल की आशा बंध जाती है। देने में पूर्णता है। यह सिर्फ द्वार है, इस संसार के बाहर जाने वाला।
अध्यात्म में प्रवेश का जो पहला द्वार है, वह दान है।
देना सीखें।
यह सवाल नहीं है कि क्या दें। यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। सवाल यह है कि देने का भाव बना रहे। और जब दें, तो देने में प्रसन्न हों और फल की कोई आशा, कहीं भी, सूक्ष्म में भी सघन न होने दें।
ब्लावट्स्की कहती है कि यह द्वार सबसे सरल है और द्वारों की बजाय जो आगे आएंगे। हमारे लिए तो यही सबसे ज्यादा कठिन है; क्योंकि वे जो आगे आने वाले द्वार हैं, उनका तो हमें पता नहीं। जहां हम खड़े हैं जिस बाजार में, हमें तो उसका पता है। और यह द्वार सरल नहीं मालूम प़डता, अति कठिन मालूम पड़ता है।
लेकिन एक बात और समझें, तो शायद उसकी सरलता खयाल में आने लगे। यही करिश्मा है कि हम जितना लेना चाहते हैं, उतने ही दुखी होते हैं। और जो लेना चाहते हैं, वह मिल जाए, तो भी दुखी होते हैं। ऐसा मत सोचना कि हमारा दुख हमारी वासनाओं की असफलता से आता है। सफल वासनाएं भी दुख लाती हैं; क्योंकि जब हम जो चाहते हैं, वह मिल जाता है, तब तक हमारी मांग हजार गुना हो गई होती है। और हमारी मांग बढ़ती ही चली जाती है। अगर आप दस करोड़ रुपये चाहते हैं, किसी दिन मिल सकते हैं; लेकिन जिस दिन मिलेंगे दस करोड़, उस दिन तक आपकी दस करोड़ की मांग दस अरब की हो जाएगी। वह जो मन मांगता था, वह रुकेगा नहीं, उसका भिक्षापात्र बड़ा हो जाएगा। आपके पास दस रुपये हैं तो आप दुखी होंगे; क्योंकि दस हजार की मांग होती है। आपके पास दस हजार हों तो मांग भी उतनी ही गुनी आगे बढ़ जाती है।
अनुपात दुख का बराबर रहता है। अनुपात में कभी अंतर नहीं पड़ता। अगर दस गुनी आपकी मांग होती है, तो दस गुनी हमेशा होती है। जितना आपके पास होता है, उसमें गुणित दस आपकी वासना हो जाती है। फिर उतना भी मिल जाए, तो गुणित दस आपकी वासना हो जाती है। लेकिन आप हमेशा, जो आपके पास है, उससे दस गुने को मांगते हैं। और जो आप मांगते हैं, उसके मुकाबले आप दस गुना कम गरीब, दुखी, पीड़ित; हमेशा गरीब, हमेशा दीन बने रहते हैं।
बड़े से बड़े सम्राट भी दीन ही बने रहते हैं। उनके पास धन ज्यादा है, एक भिखारी के पास धन कम है, लेकिन अनुपात, दोनों की मांग का करीब-करीब बराबर है। और अनुपात से दुख होता है, पीड़ा होती है।
मांग-मांग कर जिंदगी भर गुजार कर भी मिलता क्या है? चूस कर, इकट्ठा करके मिलता क्या है? दीनता मिटती नहीं, तो कुछ भी नहीं मिला।
देने से दीनता मिटती है, मांगने से दीनता बढ़ती है।
और कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि हमने ऐसे लोग भी देखे हैं, जैसे महावीर जैसा नग्न आदमी भी देखा, जिसके पास कुछ भी न रहा, सब दान कर दिया--सब दान कर दिया, आखिरी वस्त्र बचा था, वह भी दान कर दिया। लेकिन महावीर जैसा सम्राट खोजना मुश्किल है। दीनता जरा भी नहीं है। देने वाले को दीनता कभी पकड़ती ही नहीं। देने वाला नग्न फकीर हो जाए, तो भी मालिक ही होता है।
जो जानते हैं, वे कहते हैं: जब तक आप देने में समर्थ नहीं हैं; जिस चीज को आप देने में समर्थ नहीं हैं, उसके आप मालिक नहीं हैं। यह बड़ी उलटी बात है। अगर मैं कोई चीज दे सकता हूं, तो ही उसका मालिक हूं। और अगर नहीं दे सकता हूं, देने में झिझकता हूं, तो मैं उसका गुलाम हूं। और कोई वह जब मुझसे छीन ले, तो मैं परेशान हो जाऊं, तो साफ है कि मेरी गुलामी थी।
जिस दिन हम कोई चीज दे सकते हैं, उसी दिन मालिक होते हैं।
पाने से कोई मालिक नहीं होता, देने से मालिक होता है।
अगर आप प्रेम दे सकते हैं, तो आप प्रेम के मालिक हो जाते हैं। अगर आप दया दे सकते हैं, तो आप दया के मालिक हो जाते हैं। अगर आप धन दे सकते हैं, तो धन के मालिक हो जाते हैं। आप जो भी दे सकते हैं, उसके मालिक हो जाते हैं। अगर आप अपना पूरा जीवन दे सकते हैं, तो आप अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं। आप जीवन के मालिक हो जाते हैं। फिर आपसे जीवन कोई भी छीन नहीं सकता।
जो आप देते हैं, वही आपके पास बचता है। यह गणित जरा अजीब सा है। जो आप पकड़ते हैं, वह आपके पास नहीं है। जो आप देते हैं, वह आपके पास बच जाता है। इस उलटे गणित को जो सीख लेता है, वह दान की कुंजी उसके हाथ में आ जाती है।
थोड़ा अपने ही जीवन में अनुभव करें--अगर आपको कभी भी कोई सुख की किरण मिली हो, तो थोड़ा खोजें, वह कब मिली थी? आप हमेशा पाएंगे कि सुख की किरण के आस-पास देने का कोई कृत्य था। ठीक से निरीक्षण करेंगे, तो जरूर खोज लेंगे यह बात कि जब भी आपको कुछ सुख मिला, तब उसके पास देने का कोई कृत्य था। खोजें, यह नियम शाश्वत है। कुछ न कुछ आपने दिया होगा किसी क्षण में सहज भाव से; मांग न रही होगी उसके पीछे, कोई सौदा न रहा होगा। हृदय प्रफुल्लता से भर जाता है।
और ध्यान करें कि जब भी आप दुख में घने उतरते हैं, तो भी बात यही लागू होती है। आपने कुछ छीना होगा या आप जो दे सकते थे, उसको देने से अपने को रोक लिया होगा। कोई कृपणता की होगी। वह कृपणता का तल और आयाम कोई भी हो, आपने कुछ संकोच कर लिया होगा।
देने से आदमी फैलता है।
लेने से, छीन लेने से, रोक लेने से, न देने से सिकुड़ता है।
सिकुड़ाव दुख है, फैलाव आनंद है।
इसलिए हमने ब्रह्म को आनंद कहा। ब्रह्म का मतलब है: जो फैलता ही चला जाता है। ‘ब्रह्म’ और ‘विस्तार’ एक ही शब्द से बने हैं। जो विस्तीर्ण होता चला जाता है, वह ब्रह्म है। इसलिए हमने उसे आनंद कहा। जो सिकुड़ता ही चला जाता है, क्षुद्र होता चला जाता है, गांठ बनती चली जाती है, वह दुख है।
कभी आपने खयाल किया, जब आप दुखी होते हैं, तो आप चाहते हैं--कोई मिले भी न; अकेले में बैठ जाएं, द्वार बंद कर लें। लेकिन जब आप आनंद से भरते हैं तब? तब आप द्वार बंद नहीं करना चाहते। तब आप इकट्ठा कर लेना चाहते हैं प्रियजनों को, मित्रों को, अपरिचित हों तो उनको भी! आनंद से जब आप भरते हैं, तो आप बांटना चाहते हैं, फैलना चाहते हैं। दूसरे भी सहयोगी हो जाएं आपके आनंद-उत्सव में, यह चाहते हैं।
आनंद में एक फैलाव है। आप फैलें, तो आनंद मिलता है। आनंद मिले, तो आप फैलते हैं। दुख में सिकुड़ाव है। दुखी आदमी बंद हो जाता है कोठरी में भीतर। दुखी आदमी कभी आत्महत्या भी कर लेता है, तो उसकी आत्महत्या आखिरी उपाय है, जिसमें वह दूसरों से बिलकुल ही अलग हो जाए। आनंदित आदमी ने आज तक आत्महत्या नहीं की। आनंदित आदमी आत्महत्या कर ही नहीं सकता; क्योंकि आनंदित आदमी तो दूसरों से जुड़ना चाहता है, विराट से एक हो जाना चाहता है।
एक मजे की बात। बुद्ध और महावीर या क्राइस्ट और मोहम्मद, जो भी कभी इस यात्रा-पथ पर गए हैं, तो जब दुखी थे, तब वह जंगल की तरफ भाग गए और जब आनंद से भर गए, तो वापस बस्ती में लौट आए! जब दुखी थे, तो अकेले में गए और जब उन्हें आनंद फलित हो गया, तब फिर अकेले में न रह सके, फिर बांटने आ गए।
यह दोनों तरफ सही है। आनंद मिले तो बांटते हैं आप। अगर बांटना सीख लें, तो आनंद मिलता है। कहीं से भी शुरू करें, यह एक ही चीज के दो छोर हैं।
‘दान के द्वार पर सुरक्षित खड़ा होगा तू, यदि दान की कुंजी तेरे हाथ में है।’
बड़े मजे का सूत्र है। अगर दान की कुंजी तेरे हाथ में नहीं है, तो दान के द्वार पर तू बड़ा असुरक्षित खड़ा होगा; क्योंकि तेरी सारी संपत्ति लुटने का मौका आ गया। कई बार दान का द्वार हमारे करीब आ जाता है, तो हम भाग खड़े होते हैं, क्योंकि हम डरते हैं।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन जिस मस्जिद में काम करता था, मौलवी था, उसकी दीवाल गिर गई थी और मस्जिद खंडहर होने के करीब थी। तो वह गांव के धनी के पास गया। और धनी तो डरते ही हैं: मौलवी हो, मुल्ला हो, फकीर हो, साधु हो, संन्यासी हो। धनी इसे देख कर चौंकता है, क्योंकि वह खतरा चला आ रहा है। वह दान का द्वार चला आ रहा है। क्योंकि देने तो क्या आएगा यह नसरुद्दीन? तो धनपति अपना इंतजाम करके रखते हैं। खिड़की से धनपति ने झांक कर देखा कि नसरुद्दीन आ रहा है, जरूर मस्जिद दिक्कत में है। आदमी दरवाजे पर गया। नसरुद्दीन ने इसी बीच झांक कर देख लिया कि खिड़की से धनपति ने झांका है। सिर्फ उसका सिर दिखाई पड़ा, पगड़ी दिखाई पड़ी। नौकर से मुल्ला ने कहा कि मालिक घर पर हैं? नौकर ने कहा कि नहीं, मालिक बाहर गए हैं। नौकर धनपति का सचेत किया हुआ नौकर था कि ऐसा आदमी दिखाई पड़े, जिससे कुछ मांगने का डर हो, तो उसे विदा कर देना। तो मुल्ला ने कहा कि कोई हर्ज नहीं, बाहर गए हैं, वह तो ठीक किया है। एक सलाह है, मुफ्त देता हूं कि दुबारा बाहर जाएं, तो आपना सिर खिड़की में न छोड़ जाएं। कोई चुरा ले जाए, कोई झंझट हो जाए, फिर पीछे पछताना पड़े। बस इतनी सलाह मुफ्त देता हूं। इसका कोई दाम भी नहीं।
दान के द्वार पर खड़े होकर अगर हमारी पकड़ की वृत्ति और परिग्रह की वृत्ति सघन है और दान की कुंजी हाथ में नहीं है, तो हम निश्चित ही बड़ी असुरक्षा में पड़ जाएंगे। खतरा है वहां, वहां सब छिन जाने का डर है। वह दान का द्वार कहीं हमसे सब छीन न ले। इसलिए उस द्वार से हम बचेंगे। और अगर पहुंच जाएं भूल-चूक से, तो भी खतरा होगा।
यह सूत्र कहता है कि दान की कुंजी अगर तेरे हाथ में है, तो दान के द्वार पर तू सुरक्षित खड़ा होगा। अब तुझसे कुछ छीना नहीं जा सकता।
और एक बड़ी अनूठी घटना घटती है कि जिससे कुछ छीना नहीं जा सकता, वह कौन आदमी है? वह नहीं, जिसके पास बहुत कुछ है। उससे तो छीना जा सकता है! उस आदमी से कुछ भी नहीं छीना जा सकता है, जो सब देने को राजी है। उससे छीनने का उपाय नहीं है। उस आदमी की चोरी नहीं की जा सकती है। उस आदमी को लूटा नहीं जा सकता है। उस आदमी से कुछ छीना नहीं जा सकता है। उस आदमी की कोई पकड़ ही नहीं है, तो छीनने का उपाय नहीं है। दान के द्वार पर भी उस आदमी को कुछ मिलेगा, उस आदमी का कुछ खोएगा नहीं। जो सब देने को राजी है, उसको इस जगत का सब-कुछ मिल जाएगा।
‘ओ प्रसन्न तीर्थयात्री,...’ इसलिए यह सूत्र कहता है: ‘अगर तेरे पास दान की कुंजी है, तो दान के द्वार पर तू प्रसन्नता से भर जाएगा। अन्यथा दुख से, पीड़ा से, क्योंकि वहां छिनेगा सब।’
एक बहुत बड़ा धनपति निकोडेमस, जीसस के पास गया और जीसस से उस युवक निकोडेमस ने कहा: तुम्हारे प्रभु के राज्य की चर्चा मैं सुनता हूं; मेरे मन में भी लोभ उठता है, मैं उसमें प्रवेश पा सकूंगा या नहीं? तो जीसस ने कहा: तेरी योग्यता क्या है? तो निकोडेमस ने कहा कि न मैं चोरी करता हूं, न मैं व्यभिचारी हूं, न मैं शराब पीता हूं, न मैं मांसाहार करता हूं--और क्या चाहिए? जिन-जिन सदगुणों की चर्चा है शास्त्रों में, सब मुझमें हैं। जीसस ने कहा: इनसे काम न चलेगा; तू जा और अपनी सारी संपत्ति बांट आ।
निकोडेमस ने कहा कि फिर मुझे विचार करना पड़ेगा। क्योंकि न मैं मांसाहार करता हूं, न मैं शराब पीता हूं, न मैं व्यभिचारी हूं; शास्त्र का नियमित अध्ययन करता हूं, पूजा-प्रार्थना करता हूं, गिरजा, मंदिर जाता हूं, सभी पर्व-उत्सव में सम्मिलित होता हूं--और क्या चाहिए? जीसस ने कहा: इस सबसे कुछ काम न चलेगा। तेरे पास जो धन है, वह तू सब बांट आ। निकोडेमस ने कहा: तब तो बड़ी कठिन बात है।
और निकोडेमस की जगह कोई भी होता हममें से, तो यही कहता। हम भी सस्ते धर्म कर लेते हैं। न मांसाहार करते हैं, न शराब पीते हैं; ये सस्ते धर्म हैं। इनके न करने से कुछ हल नहीं, इनके करने से नुकसान होता है। न करने से कोई फायदा नहीं होता।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
इनके करने से नुकसान होता है। इनके करने में पाप है, इनके न करने में पुण्य बिलकुल नहीं है। अगर आप एक गड्ढे में गिर जाएं, तो पैर टूटता है। लेकिन गड्ढे में न गिरें, तो कुछ उपलब्धि नहीं होती। कि आप कहें कि मैं किसी गड्ढे में नहीं गिरा, बस काफी है--तो स्वर्ग का द्वार कहां है? गड्ढे में गिरने से पैर टूटता है, उसकी तकलीफ भोगनी पड़ती है। लेकिन गड्ढे में नहीं गिरे आप, इससे कुछ उपलब्धि नहीं हो गई। इससे कोई गुणवत्ता पैदा नहीं हो गई, कोई पात्रता पैदा नहीं हो गई। यह निषेधात्मक है। कोई मांसाहार करता है, तो नुकसान उठाता है; शराब पीता है, तो नुकसान उठाता है, लेकिन न पीने से कोई फायदा नहीं
होता। इसलिए अगर कोई इस तरह के सस्ते धर्म पूरे कर रहा हो, तो ठीक से समझ ले। नुकसान से बचेगा, फायदा बिलकुल नहीं होगा। नुकसान से बच गए, इतना ही क्या कम है? मगर उससे ज्यादा मत मांगना।
तो जीसस ने कहा कि जो तेरे पास है, तू सब छोड़ कर आ। क्योंकि जो बचाएगा, उससे छीन लिया जाता है और जो सब छोड़ देता है, उससे छीनने का कोई उपाय नहीं। मैं तुझे असली में समृद्ध होने का रास्ता बता रहा हूं। लेकिन तू अपने हाथ से गरीब है, तू पकड़े हुए है। निकोडेमस वापस लौट गया। यह उसके बस की बात न थी।
अगर दान की कुंजी समझ में न आई, तो धर्म के द्वार पर आप बड़े उदास खड़े हो जाएंगे, बड़े पीड़ा से भरे, जैसे अब लुटने के करीब हैं, सब लुटा जा रहा है।
‘ओ प्रसन्न तीर्थयात्री, देख जो द्वार तुझे दीख रहा है, वह ऊंचा और बड़ा है और प्रवेश के लिए आसान मालूम पड़ता है। और उससे होकर जो पथ जाता है, वह सीधा और चिकना तथा हरा-भरा है। अंधेरे वन की गहराइयों में यह प्रकाशित वन-पथ की तरह है--एक स्थान जो अमिताभ के स्वर्ग से प्रतिबिंबित होता है, वहां चमकीले पंख वाले पक्षी, आशा के बुलबुल हरे लता-कुंजों में बैठ कर निर्भय यात्रियों के लिए सफलता का गीत गाते हैं। वे बोधिसत्व के पांच सदगुणों को गाते हैं, जो बोधिशक्ति के पांच स्रोत हैं, और वे ज्ञान के सात चरणों को गाते हैं।’
दान के द्वार के प्रवेश के बाद जो पथ दिखाई पड़ेगा, वह बहुत हरा-भरा, बहुत लुभावना है, बहुत सुखद--हरी छाया, और पक्षियों के गीत, और सभी कुछ सुंदर है।
जिसने सदा छीना था, जब वह देता है, तो तत्क्षण उसके सामने सभी सुंदर हो जाता है। छीनने में सब कुरूप था। छीनना कुरूपता है। छीनने में हिंसा है। और छीनने वाला आदमी अपने चारों तरफ अस्थि-कंकालों से भर जाता है। जिन-जिन से उसने छीना है, उनके भूत-प्रेत, अस्थि-पंजर उसके आस-पास खड़े हो जाते हैं। जिसने छीना है, वह एक नाइटमेयर, एक दुखस्वप्न में जीने लगता है--छीनने के कारण। जिस-जिस से छीना है, उसकी आह इकट्ठी होती चली जाती है और चारों तरफ डसने लगती है; पीड़ा देने लगती है, शूल बन जाते हैं।
लेकिन जैसे ही कोई देने को राजी हो जाता है, वैसे ही यह सूत्र सच में कीमती बात कह रहा है--कि वैसे ही उसके सामने जैसे अंधेरे में कोई प्रकाशित पथ हो, अचानक खुल जाता है। यह पथ है छाया से भरा, हरे वृक्षों की छाया से शीतल। और पक्षियों के गीत। और पक्षियों के गीत भी साधारण नहीं, बोधिसत्वों के गुण गाते हुए। बुद्धों के वचन जैसे उन पक्षियों के गीत में समा गए हों। निश्चित ही यह जो छीनने की दुनिया से देने की दुनिया में आता है, सारी कुरूपता विलीन हो जाती है और सौंदर्य के द्वार खुल जाते हैं।
‘बढ़ा चल, क्योंकि तू कुंजी लाया है, तू सुरक्षित है।’
तुझे कोई डर नहीं है, तुझसे कुछ छिन भी नहीं सकता। तुझे यह भी भय नहीं पकड़ेगा कि पता नहीं, ये पक्षियों के इतने मधुर गीत, कोई प्रयोजन तो नहीं है! ऐसा सुंदर पथ, निश्चित ही कहीं लुटेरे छिपे होंगे। ऐसे छायादार वृक्ष, जरूर किसी ने लगाए होंगे, जो इन छायादार वृक्षों के नीचे सो गए यात्रियों को लूट लेता होगा। नहीं तो कौन लगाता है छायादार वृक्ष? और किसलिए पक्षी गीत गाएंगे? जरूर पक्षियों के गीत के पीछे कोई न कोई राजनीतिक चाल है और थोड़ी ही देर में षडयंत्र जाहिर हो जाएगा।
जिसके पास कुछ पकड़ है, उसे हर चीज से डर लगता है। वह सौंदर्य तक से डरता है। उसे हर जगह, क्योंकि जो उसके भीतर छिपा है छीनने वाला, वह सब जगह उसे दिखाई पड़ता है। वह जो चोर-लुटेरा उसके भीतर छिपा है, वह उसे सब जगह दिखाई पड़ता है। वह उससे भयभीत है। वह अपनी छाया से भी डर जाता है कि पता नहीं, कौन मेरा पीछा कर रहा है। वह अपने ही पैरों की आवाज सुन लेता है सुनसान रास्ते पर और भागने लगता है कि पता नहीं किसके पैरों की आवाज आ रही है। जिसकी कोई पकड़ है, वह डरा हुआ रहता है। जिसकी कोई पकड़ नहीं, वह बढ़ चल सकता है इस यात्रा-पथ पर, ‘क्योंकि तू कुंजी लाया है, तू सुरक्षित है।’
‘और जो दूसरा द्वार है, उसका पथ भी हरीतिमा से भरा है, लेकिन वह चढ़ाई वाला है और ऊपर की ओर जाता है। हां, उसके चट्टानी मस्तक को तो देख। उसके खुरदरे और पथरीले शिखरों पर भूरे-भूरे धुंध छाए होंगे, और उसके आगे सब अंधकार भरा होगा। जैसे-जैसे वह बढ़ता है, तीर्थयात्री के हृदय में आशा का गीत मंद से मंद पड़ जाता है। और अब उसके ऊपर संदेह का बोझ है और उसके चरण अस्थिर होते जाते हैं।’
यह सूत्र बहुत अजीब है।
और जो अनुभव किए हैं, वे ही इस तरह का सूत्र कह सकते हैं। इसे समझना जरूरी है। यह मनुष्य के गहरे मनस के ऊपर आधारित है। लूटने की दुनिया में हम जीते हैं; इसलिए देने की दुनिया तत्क्षण हमें सुख और शांति और सौंदर्य से भर देती है। यह जो सौंदर्य और शांति और आनंद की पुलक मिलती है, यह हमारा जो जीवन था अब तक का दुष्टता, क्रूरता, हिंसा से भरा--उसके विसर्जित होने से मिलती है। लेकिन यह ज्यादा देर नहीं टिकेगी। थोड़ी ही देर में संसार भूल जाएगा। ऐसा ही जैसे आपके पैर में एक कांटा गड़ा, फिर जब आप कांटे को निकाल देते हैं, तो राहत मिलती है। लेकिन कितनी देर मिलेगी यह राहत, जो कांटे के गड़ने के निकालने से मिलती है? वह तो कांटे की पीड़ा हो रही थी इसलिए, अब पीड़ा नहीं हो रही है, तो राहत मिलती है।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन रास्ते पर चलता था तो पता नहीं, किसके लिए गालियां देता चलता था। और ऐसे कष्ट से चलता था कि जो भी उसे देखे, उसको भी दया आ जाए, वह पूछे कि मुल्ला बात क्या है? और किसको कोस रहे हो? तो मुल्ला कहता कि मेरे जूते जो हैं बहुत चुस्त हैं, और पैर ऐसा फंसा है कि निकाल भी पाऊंगा इससे कि नहीं। और जूते काट रहे हैं। तो जो भी कहता, वह कहता: यह भी कोई बात हुई, मत पहनो इन जूतों को, अलग कर दो इन जूतों को। तो मुल्ला कहता: एक ही तो मेरे पास राहत का उपाय है, उसको भी तुम छीनना चाहते हो? दिन भर का थका-मांदा, परेशान जब घर लौटूंगा, तो पत्नी ऐसी वाणी बोलती है कि जैसे उसने जहर में बुझा-बुझा कर दिन भर तैयार की है। बच्चे चीख-पुकार मचाते हैं। धन पास नहीं है, व्यवसाय सब असफल होता जा रहा है। घर रोटी भी आज मिलेगी कि नहीं, उसका भी कोई पक्का नहीं है। भूखा सोऊंगा कि खाकर सोऊंगा, उसका भी कोई पक्का नहीं है। कर्ज बढ़ता चला जा रहा है; कर्जदार सुबह-शाम द्वार पर खड़े रहते हैं, उनकी वजह से ही बाजार की तरफ निकल आता हूं; कोई काम नहीं है बाजार में। तो जब रात थका-मांदा दिन भर का और इन जूतों से परेशान घर पहुंचता हूं, जूता निकाल कर पटकता हूं, तो कहता हूं, हे भगवान, तेरा धन्यवाद। यह जूता निकालने से ऐसी राहत मिलती है। यह एक ही तो मेरे पास राहत है, यह भी तुम छीन लेना चाहते हो!
एक अभाव की राहत है, जो मिलती है। जब आप दुख के बाद, पीड़ा के बाद बाहर आते हैं, बीमारी के बाद स्वस्थ होते हैं, तब मिलती है। लेकिन वह कितनी देर टिकेगी? संसार है एक रोग। उससे बाहर जब हम निकलते हैं एकदम, तो बड़ा हलकापन आ जाता है। सारा बोझ उतर गया। लेकिन कितनी देर टिकेगा यह?
यह अभावात्मक है, यह नकारात्मक है, यह ज्यादा देर नहीं टिकेगा। जैसे ही इससे हम बाहर हुए कि पहाड़ की चढ़ाइयां शुरू हो जाएंगी। और इन पहाड़ों के आस-पास गहरे धुंध के बादल होंगे। और यह पहाड़ हम चढ़ भी सकेंगे, इसकी हिम्मत तोड़ेंगे। आशा मंद होने लगेगी, संदेह का बोझ बढ़ने लगेगा कि संसार छूट गया हाथ से और जो मिलना चाहिए वह बहुत दूर मालूम पड़ता है। दान का द्वार बहुत बड़ा था, उससे हम प्रविष्ट हो गए। और दान के बाद हमें जो हलकी राहत मिली थी संसार के बोझ के हट जाने से, वह भी अब खो गई।
‘और एक अंधेरा घेर लेता है...।’
एक घना अंधकार घेर लेता है। घेरेगा ही। इसके पहले कि हमारी असली आंखें खुलें, हमारी नकली आंखें बंद हो जाएंगी। क्योंकि वही शक्ति जो हम नकली आंखों में उपयोग करते हैं, वही शक्ति असली आंखों में प्रवेश करेगी और उन्हें सक्रिय करेगी। इसके पहले कि हमें वास्तविक प्रकाश दिखाई पड़े, हमारा जो झूठा प्रकाश है, वह सब विलीन हो जाएगा।
‘घना अंधकार घेर लेगा...।’
यह घना अंधकार इसीलिए घेर रहा है। यह बड़ा शुभ लक्षण है--जो जानते हैं उनके लिए। अन्यथा साधक घबड़ा कर वापस भी लौट आता है।
और बहुत से लोग दान से आगे नहीं बढ़ पाते हैं, बहुत से लोग दान पर रुक जाते हैं। और अनेक जन्मों तक दान पर रुके रहते हैं। क्योंकि दान तक भी संसार की भाषा थोड़ी-बहुत समझ में आती है। छीनना-झपटना था, यहां देना है। लेकिन समझ सकते हैं हम, गणित साफ है। अब तक लेते थे, अब देते हैं। विपरीत है, लेकिन फिर भी भाषा अनुकूल है, निकट है, समझी जा सकती है।
इन दोनों के खो जाने पर संसार का द्वंद्व खो जाता है। और जो आंखें हमारे पास हैं, जो प्रकाश हमारे पास है, वह सब विलीन हो जाता है।
‘गहन अंधकार घेर लेता है...।’
इस अंधकार में संदेह उठना स्वाभाविक है। जो था, वह खो गया। जो किनारा पास था, नाव उससे दूर हट रही है। हमने सारी जंजीरें खोल लीं और दूसरा किनारा दिखाई भी नहीं पड़ता है। पैर डगमगाने लगते हैं, अस्थिर होने लगते हैं।
‘ओ साधक, इससे सावधान रहना। इस भय से सावधान, जो तेरी आत्मा की चांदनी और बहुत दूर में फैले तेरे महान गंतव्य के बीच, आधी रात के चमगादड़ के काले व स्वरहीन पंखों की तरह फैला है।’
संसार से हटते ही अध्यात्म नहीं मिल जाता है। संसार से हटने के बाद बीच में एक अंतराल का क्षण है, एक खाली जगह है, जब हम कहीं भी नहीं होते, त्रिशंकु हो गए होते हैं। न यहां होते हैं, न वहां होते हैं; नाव बीच में होती है। एक किनारा छोड़ कर दूसरा किनारा तो नहीं मिल जाता; बीच मझदार में होते हैं। उस मझदार में मन डांवाडोल होता है। पीछे लौट जाने की इच्छा होने लगती है कि वापस लौट चलो। कम से कम किनारा तो था। दुख था, कोई हर्ज नहीं; परिचित था, जाना-माना था। और अकेले ही न थे। दुखी थे तो भी बहुत लोगों के साथ थे--भीड़ थी, परिवार था, मित्र थे, प्रियजन थे, अपने लोग थे। एक-दूसरे के दुख में सहानुभूति बंटाते थे। यह अब अकेले हो गए, न वह किनारा रहा, न परिचित लोग रहे, न कोई सांत्वना देने वाला रहा। इस अकेलेपन में, इस मझधार में भय पकड़ता है।
सूत्र कहता है: ‘ओ साधक, इससे सावधान। इस भय से सावधान, जो तेरी आत्मा की चांदनी और बहुत दूर में फैले तेरे महान गंतव्य के बीच, आधी रात के चमगादड़ के काले व स्वरहीन पंखों की तरह फैला है।’
भय प्रत्येक साधक को पकड़ता है। सांसारिक भय नहीं, ज्यादा अस्तित्वगत भय, एक्झिस्टेंशियल फियर। और इन क्षणों में जब साधक भयभीत होने लगता है, कि बीच में अटक गया, अब क्या होगा--पीछे भी लौटा नहीं जा सकता। क्योंकि जगत में पीछे लौटने का कोई रास्ता ही नहीं है। कैसे कोई पीछे लौट सकता है? जो जान लिया, उसे अनजाना नहीं किया जा सकता। जो दिखाई पड़ गया, उसको अब अनदेखा नहीं किया जा सकता। जो अनुभव में आ गया अब, कैसे उससे पीछे जाया जा सकता है? जब वह अनुभव में नहीं आया था। अनुभव से पीछे हटने का कोई भी उपाय नहीं है। पीछे लौटा नहीं जा सकता, आगे का किनारा दिखाई नहीं पड़ता। आगे का किनारा देखने में थोड़ा समय लगेगा। नई आंखें चाहिए, और आंखों का नया संतुलन चाहिए।
जिसे देखने की आदत है, उसे हम देख लेते हैं; जिसे देखने की आदत नहीं है, उसे हम नहीं देख पाते हैं। जिसे सुनते रहे, उसे सुन लेते हैं; जिसे नहीं सुनते रहे, उसे हम नहीं सुन पाते हैं।
आदत, व्यवस्था, ढंग-ढांचा हमारा, वह सब इस किनारे का है। उस किनारे को देखने, पहचानने, समझने के पहले यह सारा ढांचा हटेगा। और पुराना ढांचा हटेगा, तो नया एकदम निर्मित नहीं होगा। नये का जन्म होगा, विकास होगा। समय लगेगा। यह समय का जो अंतराल है, यह अंधकार होगा। और अत्यंत भय मन को पकड़ेगा। भय यही पकड़ेगा कि कोई नासमझी तो नहीं कर बैठे। अच्छे-भले किनारे पर बैठे थे। और यह क्या भूल कर ली कि मझदार में उतर गए। और अब ऐसा लगता है कि पुराने किनारे पर भी लौटना नहीं हो सकता। और नये का कुछ पता नहीं है, तो आशा मंदी हो जाएगी। और जब आशा मंदी होती है, तो भय बढ़ता है। जब आशा बिलकुल शून्य हो जाती है, तो संदेह पकड़ लेता है। तब आत्मा ही नहीं, सारा अस्तित्व कंपने लगेगा। इस कंपित अवस्था में साधक पहुंचता है। और इस कंपित अवस्था के लिए पहले से सावधान रहना अत्यंत जरूरी है।
जब आप अपने भीतर भी प्रवेश करेंगे, तो ध्यान में ऐसी घड़ी आती है, जब आप भयभीत होने लगते हैं कि अब आगे जाना ठीक नहीं है। आते हैं मेरे पास मित्र और वे कहते हैं कि यह तो खतरे का क्षण मालूम होता है। ऐसा लगता है भीतर कि अब अगर जरा और आगे बढ़े तो, या तो पागल हो जाएंगे, या यह भी हो सकता है कि मौत घट जाए। और ऐसा लगने लगता है भीतर कि कहीं ऐसा तो न होगा कि अब इस भीतर के कुएं में गिर रहे हैं, वापस लौट सकेंगे या नहीं। उस क्षण साहस रखना जरूरी है। क्योंकि वह क्षण कीमती है और क्रांतिकारी है। अगर उस क्षण आप घबड़ा गए, तो चूक गए। और उस क्षण अगर आप घबड़ा गए, तो वह भय आपकी आत्मा में बैठ जाएगा और हमेशा के लिए तकलीफ देगा। लौट सकते नहीं। आगे जाते तो भय भी मिट जाता। पीछे जा नहीं सकते, आगे गए नहीं, तो भयभीत हो जाएंगे।
कीर्कगार्ड ने कहा है कि एक ऐसा क्षण आता है--उसने एक किताब लिखी है, जिसको नाम दिया है: ‘इदर-आर’--यह या वह, ऐसा या वैसा, यह पार या उस पार। ऐसा दोनों के बीच में एक क्षण आता है और उस क्षण में सारा अस्तित्व कंपने लगता है; जैसे तूफान ने, आंधी ने किसी वृक्ष को पकड़ लिया हो। और या तो इस तरफ आ जाओ, तो आंधी चली जाती है या उस तरफ चले जाओ, तो आंधी चली जाती है और अगर बीच में ही फंस जाओ, तो आंधी ही हमारा जीवन बन जाती है। बहुत लोग उलझ जाते हैं इस आंधी में।
और इसलिए सांसारिक आदमी डरता भी है धर्म की तरफ जाने में, ध्यान की तरफ, योग की तरफ जाने में। वह भय भी अनुभव के कारण है, बहुत पुराना है। बहुत लोगों को इस जगत ने आंधी में फंस जाते देखा है। इस जगत ने बहुत लोगों को विक्षिप्त हो जाते देखा है, पागल हो जाते देखा है; तो डर पैदा हो गया है। जैसे ही आप सुनते हैं कि कोई संन्यासी हो गया, भीतर एक डर आता है कि यह क्या कर लिया। संन्यास! इसका मतलब हुआ कि किनारा छोड़ने का विचार किया, कि किनारा छोड़ रहे हैं और संकल्प किया। खतरे में जा रहे हो, अनजान में उतर रहे हो! और अपरिचित राहों पर जाना ठीक नहीं। परिचित जाने-माने रास्तों पर चलो, क्यों झंझट में पड़ते हो? यह भी अनुभव के कारण ही है।
बहुत बार ऐसा हुआ है कि साधक जब बीच में फंस जाता है, लौट नहीं सकता, आगे जा नहीं पाता--भय के कारण, तो बड़ी उलझन हो जाती है। पैथालॉजिकल, रुग्ण अवस्था हो जाती है। इसलिए यह सावधानी जरूरी है।
इतना पक्का है कि अगर उस क्षण में हिम्मत रखी और भय न खोया, तो आप शीघ्र ही भय के पार हो जाएंगे और सदा के लिए अभय हो जाएंगे। फिर दुनिया का कोई भय आपको न पकड़ सकेगा। जो व्यक्ति अध्यात्म के भय के पार हो जाता है, फिर उसे दुनिया का कोई भय नहीं पकड़ सकता। और जिसको यह क्षण नहीं कंपा पाता, भयभीत नहीं कर पाता, फिर उसे कोई भी शक्ति भयभीत न कर पाएगी। फिर मृत्यु भी उसके रोएं को नहीं हिला सकती; क्योंकि यह मृत्यु से भी बड़ा खतरा है। क्योंकि मृत्यु में तो शरीर ही मिटता है, इस क्षण में तो ऐसा लगता है कि मेरा सारा प्राण टूटा जा रहा है। अब मैं कहीं का न रहा। अब मैं शून्य ही हो जाऊंगा। एक अनंत खड्ढ में जैसे कोई गिर गया हो; जिसकी कोई नीचे की थाह भी पता नहीं चलती। और ऊपर तो जाने का कोई उपाय नहीं है। और गिरता ही जाए, और गिरता ही जाए और नीचे की थाह का कोई पता न चले--ठीक वैसी ही प्रतीति होती है।
लेकिन उस प्रतीति को आह्लाद से, प्रसन्नता से, अनुग्रह से स्वीकार कर लेना और जानना कि परमात्मा की कृपा है कि यह क्षण आ गया। क्योंकि इसी क्षण के बाद क्रांति है; इसी क्षण के बाद रूपांतरण है। अगर इस बोध से बढ़ गए आगे, तो भय सदा के लिए तिरोहित हो जाता है। रात सदा के लिए मिट जाती है। अंधेरा सदा के लिए खो जाता है।
श्री अरविंद ने कहा है कि जिसे मैं कल तक प्रकाश कहता था, अब जिस प्रकाश को जाना, उसके समक्ष वह प्रकाश अंधेरा मालूम पड़ता है। और कल तक जिसे मैं जीवन समझता था, आज जिस जीवन को मैंने जाना है, उसके समक्ष वह जीवन मृत्यु से भी बदतर है।
लेकिन यह भय के क्षण के बाद होगा। स्मरण रखने योग्य है कि ‘ओ साधक, इससे सावधान! इस भय से सावधान।’ यह सावधानी अगर रही...जब भी भय पकड़े आपको, तो सावधान रहना कि यह शुभ लक्षण है, हम करीब आ रहे हैं उस खाई के, जिसमें अगर हम गिरने को राजी रहे, तो पुराना मिट जाएगा और नये का जन्म होगा। दुख विसर्जित हो जाएगा और आनंद की किरण फूटेगी। सूर्योदय निकट है।
जितनी घनी हो गई है रात, उतना ही सूर्योदय निकट है। ऐसा मन में भाव बना रहे।
इसलिए गुरु उपयोगी हो जाता है। और जो भय से भर सकते हैं, उनके लिए बहुत उपयोगी हो जाता है। क्योंकि तब, जिन रास्तों से वह गुजरा है, उनकी बात कर सकता है। और जो भय उसे पकड़े हैं, उनकी खबर दे सकता है। और कहां-कहां, किन-किन क्षणों में अड़चन आ जाएगी, उपद्रव हो सकता है, आदमी अटक सकता है, उसकी सब खबर दे सकता है। और एक दफा उनका स्पष्ट बोध हो, तो पार होना आसान हो जाता है।