MEDITATION

Samadhi Ke Dwar Par 05

Fifth Discourse from the series of 6 discourses - Samadhi Ke Dwar Par by Osho. These discourses were given during Feb 21, 1970 to Feb 24, 1970.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!

एक मित्र ने पूछा है, पूछा है: उपनिषद में कहा है कि परमात्म-तत्व उसी को प्राप्त होता है जिसके गले में वह परमात्म-तत्व स्वयं ही माला डाल दे। इसका क्या अर्थ हुआ? इससे साधक की साधना निरुपयोगी नहीं हो गई?
यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। इसे समझने में थोड़ी कठिनाई भी हो सकती है।
पहली बात तो यह कि साधक के बिना उपाय के वह नहीं मिलेगा और दूसरी बात तत्काल यह भी कि सिर्फ साधक के उपाय से उसे नहीं पाया जा सकता है। साधक के प्रयत्न से भी नहीं मिलता है वह और साधक न प्रयत्न करे तो भी नहीं मिलता है। साधक प्रयत्न करता है और प्रयत्न कर-कर के थक जाता है, हार जाता है, समाप्त हो जाता है, और यह अहंकार भी प्रयत्न करते-करते टूट जाता है कि मैं पा सकूंगा, जिस क्षण प्रयत्न इस जगह पहुंचता है कि प्रयत्न भी व्यर्थ दिखाई देने लगता है और साधक का यह अहंकार भी चला जाता है कि मैं पा सकूंगा, उसी क्षण वह उपलब्ध हो जाता है। प्रयत्न की असफलता पर उसकी प्राप्ति है। और इसीलिए जब किसी को मिलता है वह तब उसे ऐसा ही लगता है कि उसकी कृपा, उसके प्रसाद से मिला। क्योंकि मैं तो प्रयत्न कर-कर के हार गया और नहीं पा सका।
लेकिन दूसरी बात भी गलत है, उसके प्रसाद से नहीं मिलता है। क्योंकि अगर उसकी कृपा से मिलता हो, तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि उसके द्वार पर भी किसी के लिए कृपा है और किसी के लिए कृपा नहीं है। तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि परमात्मा भी किसी के प्रति मोह रखता है और किसी के प्रति बड़ा विरक्त है। और किसी को दे देता है और किसी को नहीं देता है।
नहीं, उस द्वार पर ऐसा भेद संभव नहीं है। उसकी कृपा से मिलता है, इसका यह अर्थ नहीं है कि उसकी कृपा से मिलता है। क्योंकि उसकी कृपा तो सभी को उपलब्ध है। उसकी कृपा में किसी के प्रति कोई भेद-भाव नहीं है। हो भी नहीं सकता। फिर जब कोई साधक यह कहता है कि उसकी कृपा से मिला, तो असल में वह यह कहता है कि जब मैं सब प्रयत्न कर चुका तब तो नहीं मिला। और अब मुझे मिला है जब मैं कोई प्रयत्न नहीं करता था। तो साधक क्या कहे? उसे ऐसा ही प्रतीत होता है कि उसकी ही कृपा से मिला। क्योंकि मेरे प्रयास से तो नहीं मिला।
मेरी बात समझे आप? साधक की कठिनाई है। उसके प्रयास से नहीं मिला है, तो वह कैसे कहे कि मेरे प्रयास से मिला है? और मिल तो गया है। अब वह क्या कहे? वह कहता है, उसकी कृपा से मिला।
लेकिन यह भी साधक की भ्रांति है। उसकी कृपा तो सबके लिए बराबर उपलब्ध है। लेकिन उसकी कृपा के लिए हमारे द्वार बंद हैं। और हमारे द्वार तब खुलते हैं जब हमारा अहंकार नहीं होता। कर्ता का अहंकार सबसे सूक्ष्म अहंकार है। और साधना का अहंकार अंतिम अहंकार है। धन का अहंकार छोड़ देना बहुत आसान है, यश का अहंकार छोड़ देना भी बहुत कठिन नहीं; लेकिन तप का, तपश्चर्या का, त्याग का, अभ्यास का, साधना का, प्रार्थना का, धर्म का, योग का अहंकार छोड़ना सर्वाधिक कठिन है। क्योंकि उस अहंकार में बड़े गहरे में यह बात छिपी है कि मैं पा लूंगा। और मैं ही बाधा है।
एक छोटी सी घटना से समझाऊं।
बुद्ध ने छह वर्ष तक तपश्चर्या की। जो भी जिसने कहा, वही उन्होंने किया। किसी ने कहा उपवास, तो उन्होंने उपवास किए लंबे। और किसी ने कहा कि शीर्षासन, तो शीर्षासन किया। और किसी ने कहा नाम जपो, तो नाम जपा। और जिसने जो कहा, वे करते रहे। छह वर्ष निरंतर प्रयास करके भी कहीं पहुंचे नहीं, वहीं थे जहां से यात्रा शुरू की थी। निरंजना नदी में स्नान करने उतरे थे। देह दुर्बल हो गई थी। लंबे उपवास किए थे। नदी में तेज धार थी। नदी से निकलने में इतनी भी शक्ति न थी कि बाहर निकल आएं। तो एक जड़ को पकड़ कर वृक्ष की किसी तरह रुके रहे।
उस जड़ को पकड़े समय उनके मन में खयाल आया: इतना निर्बल हो गया हूं कि नदी भी पार नहीं होती, तो उस जीवन की बड़ी नदी को कैसे पार कर पाऊंगा? और छह वर्ष हो गए, सब कर चुका जो कर सकता था, अब तो करने योग्य शक्ति भी नहीं बची है। अब क्या होगा? और सब कर लिया है निष्ठापूर्वक, लेकिन उसके कोई दर्शन नहीं हुए।
धन तो छोड़ आए थे, यश तो छोड़ आए थे, राज्य तो छोड़ आए थे, उस दिन निरंजना नदी के उस तट पर अंतिम अहंकार भी व्यर्थ हो गया कि मेरे प्रयास से पा लूंगा।
फिर वे किसी भांति निकले और पास के एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उस संध्या उन्होंने साधना भी छोड़ दी। कहना चाहिए--साधना भी छूट गई। सब छूट गया। यह भी छूट गया कि मैं पा लूंगा। छह साल की असफलता ने बता दिया--यह भी नहीं हो सकता है। उस रात, उस संध्या बुद्ध के मन की कल्पना करना हमें बड़ी कठिन है। उस रात उनका मन कुछ भी करने की हालत में न रहा। धन की दौड़ नहीं थी, यश की दौड़ नहीं थी, आज सत्य की दौड़ भी नहीं थी। क्योंकि दौड़ कर पा लूंगा, यह बात ही समाप्त हो गई थी। उस रात वे परम निश्चिंत थे। कोई चिंता न थी। धर्म की चिंता भी न थी। परमात्मा को पाने का भी खयाल न था। कोई खयाल ही न था, कुछ पाने को न था, पैरों में कोई ताकत न थी। वे अत्यंत असहाय, हारे हुए, सर्वहारा, उस रात सो गए। वह पहली रात थी जिस रात वे पूरी तरह सोए। क्योंकि मन में अब कुछ करने को न बचा था, सब व्यर्थ हो गया था, करना मात्र व्यर्थ हो गया था और कर्ता मर गया था।
सुबह पांच बजे के करीब उनकी आंख खुली। आखिरी तारा डूब रहा था। उन्होंने आंख खोल कर उस आखिरी डूबते तारे को देखा। आज उनकी समझ के बाहर था कि क्या करूंगा! सुबह उठ कर क्या करूंगा! क्योंकि करना सभी समाप्त हो गया। धन की दौड़ पहले छूट चुकी; यश की दौड़ पहले छूट चुकी; रात धर्म की दौड़ भी छूट चुकी। अब मैं क्या करूंगा! वे एक शून्य में थे, जहां करना भी नहीं सूझ रहा था, एकदम खाली थे। और अचानक उन्हें लगा--जिसे मैं खोज रहा था, वह मिल गया है, वह भीतर से उभर आया है। उस शांत क्षण में, जब झील की सब लहरें ठहर गई थीं, आखिरी लहर जो धर्म के लिए मचलती थी, वह भी ठहर गई थी, उस क्षण में उन्होंने जाना कि जिसे मैं खोज रहा था वह तो मिल गया है।
जब लोग उनसे पूछते कि कैसे आपने पाया? तो वे कहते कि जब तक कैसे मैंने उपाय किया, तब तक तो पाया ही नहीं। जब मेरे सब उपाय खो गए, तब मैंने देखा कि जिसे मैं खोज रहा था वह तो मेरे भीतर मौजूद है।
असल में जिसे हम खोज रहे हैं वह भीतर मौजूद है और खोज में हम इतने व्यस्त हैं कि वह जो भीतर मौजूद है उसकी खबर ही नहीं आती। खोज भी खो जानी चाहिए, खोज भी मिट जानी चाहिए, तभी उसका पता चलेगा जो भीतर है। क्योंकि तब हम कहां जाएंगे?
खोज में चित्त कहीं चला जाता है। जब कहीं भी खोजेंगे नहीं, तो अपने पर ही लौट आएंगे। फिर कोई रास्ता न रह जाएगा। उस क्षण में मिलेगा। तो उस क्षण में जब मिलेगा, तो कैसे कहें कि मैंने पा लिया!
उपनिषद ठीक ही कहते हैं--कि जब वही वरमाला पहना देता है, जब वही माला डाल देता है गले में, तभी मिलता है। लेकिन उपनिषद गलत भी कहते हैं। क्योंकि वह किसी के भी गले में माला न पहनाए, ऐसी बात ही नहीं है। वह तो माला लिए सबके ही गलों के सामने खड़ा है। जब तक हम गले को दूर रखते हैं, वह भी क्या करे? जब हम गला नीचे झुका लेते हैं, वह माला गिर जाती है। वह माला हम सबके गले के पास लिए परमात्मा खड़ा ही है। लेकिन गला झुकना भी तो चाहिए! झुकेगा कैसे? साधक का नहीं झुकता। साधक बड़ा अकड़ा रहता है। साधक बहुत अहंकार में जीता है। बड़े सात्विक, बड़े सुंदर, बड़े सूक्ष्म, पायस ईगोइस्ट होता है। साधक जो है वह पवित्र अहंकारी है। बाकी अहंकार पवित्र हो तो भी क्या फर्क पड़ता है, अहंकार अहंकार ही है। पवित्र जहर का क्या मतलब होता है? कोई मतलब नहीं होता। पवित्र जहर का मतलब हुआ कि और भी कनसनट्रेटेड, और भी शुद्ध। अपवित्र जहर का मतलब कुछ अडल्टरेशन भी है उसमें। पवित्र जहर का मतलब सिर्फ जहर ही जहर है। अब उसमें कुछ भी मिला हुआ नहीं है। पवित्र अहंकार भी शुद्ध जहर है, जिसमें कुछ मिला हुआ नहीं है। पापी के अहंकार में और भी चीजें मिली होती हैं। पुण्यात्मा का अहंकार शुद्ध जहर होता है, उसमें कुछ भी मिला नहीं होता।
तो साधक नहीं पा सकता, क्योंकि अहंकार नहीं पा सकता। लेकिन साधक हुए बिना भी कोई नहीं पा सकता। इसलिए नहीं पा सकता साधक हुए बिना, क्योंकि साधक हुए बिना पता कैसे चलेगा कि साधक होना भी बेकार है।
कृष्णमूर्ति कहते हैं, भाग्यशाली हूं मैं कि मैंने शास्त्र नहीं पढ़े। मैं कहता हूं कि भाग्यशाली हूं मैं, क्योंकि मैंने शास्त्र पढ़े, और पढ़ कर जाना कि शास्त्रों से नहीं पाया जा सकता है।
लेकिन जिसने शास्त्र नहीं पढ़े उसके मन में कहीं न कहीं शक बना रह सकता है। शास्त्रों को पढ़ कर ही जाना जा सकता है कि नहीं मिलेगा यहां, नहीं मिलेगा यहां, नहीं मिल सकता है। साधना करके ही जाना जा सकता है--बेकार गई, बेकार गई; नहीं मिला, नहीं मिला। जो सब तरफ दौड़ चुकता है, सब खोज चुकता है, सब कोने-कोने खोज लेता है और थक कर बैठ जाता है कि नहीं मिला, नहीं मिला। नहीं मिलता है, आखिरी क्षण आ जाता है, हेल्पलेस, असहाय हो जाता है, बैठ जाता है, तब हैरान होकर पाता है कि आश्चर्य, जिसे मैं दौड़ कर खोजता था, वह बैठ कर मिल गया है।
असल में बैठे बिना वह नहीं मिलता है। और खोजने वाला बैठ नहीं पाता है, वह दौड़ता रहता है, वह दौड़ता रहता है। बैठ जाए तो वह पाता है कि यह तो मेरे पास ही था।
इसलिए अगर किसी ने ऐसा कहा हो कि उसने माला डाल दी, उसकी कृपा से मिला, तो उसका कुल मतलब इतना है कि मेरे प्रयास से नहीं मिला। लेकिन उसकी कृपा सब पर बराबर है। उसकी कृपा की वर्षा सबके ऊपर हो रही है। लेकिन जो खाली घड़े की तरह हैं वे भर जाएंगे; और जो भरे हुए हैं पहले से वे खाली रह जाएंगे; वर्षा होती रहेगी, उनमें नहीं भर पाएगा वह। ध्यान रहे, परमात्मा को दयावान और कृपालु कहना बहुत ही गलत है। क्योंकि दयावान सिर्फ हम उसे ही कह सकते हैं जो कभी-कभी अ-दया भी दिखाता हो। और कृपालु उसे कह सकते हैं जो कभी-कभी कृपा को छीन भी लेता हो, रोक भी लेता हो। नहीं, परमात्मा कृपालु नहीं है, परमात्मा कृपा-स्वरूप है। यानी अ-कृपा का वहां कोई उपाय नहीं है।
हम कहते हैं, परमात्मा सर्वशक्तिशाली है। लेकिन कुछ मामलों में बिलकुल ही शक्तिशाली नहीं है। जैसे अ-कृपा करना चाहे तो बिलकुल इंपोटेंट है, नहीं कर सकता है। दुष्टता करना चाहे तो नहीं कर सकता है। वहां जाकर बिलकुल निर्वीर्य है, वहां कुछ भी नहीं कर सकता है।
स्वभाव है, वह चारों तरफ खड़ा है, हम कब गर्दन झुका देंगे--तभी।
सरमद के संबंध में मैंने सुना है। मुसलमानों की आयत है कि एक ही परमात्मा है। एक ही परमात्मा है, यह उनका खास खयाल है। और दूसरा उसमें हिस्सा है: उसके सिवाय कोई परमात्मा नहीं। एक ही परमात्मा है, उसके सिवाय दूसरा कोई परमात्मा नहीं। सरमद पहले हिस्से को छोड़ देता था और यही कहता रहता था: दूसरा कोई परमात्मा नहीं, दूसरा कोई परमात्मा नहीं। तो मुसलमान मौलवी और पंडित दिक्कत में पड़ गए।
पंडित धार्मिक आदमी से सदा ही दिक्कत में पड़ जाता है। पंडित जो हैं वे अधर्म की दुकानों के मालिक हैं। वे सदा कठिनाई में पड़ जाते हैं। वे बासे शब्दों के संग्राहक हैं। और जब ताजा सत्य पैदा होता है तब वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। क्योंकि उनका बासा सत्य एकदम बासा दिखाई पड़ने लगता है।
सरमद यही कहता फिरता: नहीं है कोई परमात्मा। आधा हिस्सा छोड़ देता, पहला हिस्सा छोड़ देता: एक ही है परमात्मा, नहीं है उसके सिवाय कोई परमात्मा। वह पिछली ही बात कहता रहता: नहीं है कोई परमात्मा।
तो जाकर औरंगजेब को लोगों ने कहा कि यह तो बहुत अधर्म की बात हो रही है। और सरमद को लाखों लोग पूजते हैं। सरमद को बुलाया और उससे कहा कि क्या है तुम्हारा कहना? उसने कहा, नहीं है कोई परमात्मा। तो औरंगजेब ने कहा, यह तो नास्तिक की बात हुई। सरमदने कहा, अभी तो मैं इतना ही जान पाया हूं कि नहीं है कोई परमात्मा। जब तक मैं जान न लूं कि है कोई परमात्मा, तब तक मैं कैसे कहूं? मैंने नहीं जाना, मैं नहीं कहूंगा। जान लूंगा, कहूंगा। जब तक नहीं जाना, कैसे कहूं? और अगर झूठ कह दूं, तो परमात्मा पीछे मुझसे पूछेगा कि बिना जाने तूने कहा कैसे? तो मैं उसको जवाब क्या दूंगा?
औरंगजेब ने उसे सूली चढ़वा देने की आज्ञा दे दी कि यह आदमी मार डालने योग्य है। उसकी गर्दन काटी गई। और कहानी बड़ी अदभुत है, अगर सच न हो तो भी अदभुत है और अर्थपूर्ण है। जिस दिन उसकी गर्दन कटी, और दिल्ली की मस्जिद में जहां उसकी गर्दन कटी और उसका सिर गिरता हुआ सीढ़ियों पर लुढ़कने लगा, तो कहते हैं कि उसके सिर से आवाज निकली कि एक ही है परमात्मा, उसके सिवाय कोई परमात्मा नहीं। तो भीड़ थी लाखों लोगों की, उसने कहा, पागल थोड़ी देर पहले कह देता! अब गर्दन कट कर कहने से फायदा क्या! तो उस सरमद ने कहा, गर्दन कटे बिना पता कैसे चलता! गर्दन कटी तो पता चला, जब मैं मिटा तो पता चला कि नहीं, है, वही है, उसके सिवाय कोई भी नहीं। बाकी बिना गर्दन कटे पता नहीं चल सकता था। लोग कहने लगे, बड़ा पागल है, थोड़ी देर पहले कह देते तो बच जाते। सरमद ने कहा, बच जाते तो कभी कह ही न पाते। क्योंकि बच गए तो हम बच जाते, वह न हो पाता।
खोना पड़ेगा, अंततः इतना खो जाना पड़ेगा कि मेरे पास मेरा कहने जैसा भी कुछ न रह जाए। यह भी--मैं प्रयास कर रहा हूं, साधना कर रहा हूं, ध्यान कर रहा हूं, समाधि कर रहा हूं, योग कर रहा हूं--इसमें भी मैं मजबूत हो रहा है, यह भी कहने को न बच रह जाए। जिस दिन सब मेरा मैं कट जाता है...कटेगा कैसे? असफलता से कटता है। सब तरफ हार जाने से कटता है। सब तरफ प्रयास की व्यर्थता से कटता है। साधना का एक ही मूल्य है कि अंततः पता चलता है इससे भी नहीं मिलता वह। और जब कुछ भी द्वार-दरवाजा नहीं रह जाता, पाने का कोई मार्ग नहीं रह जाता, और अवाक खड़ा रह जाता है व्यक्ति और पाता है अब कुछ भी करने को शेष नहीं, तत्क्षण वह मिल जाता है। वह मिला ही हुआ है। करने वाले चित्त को दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि करने वाला चित्त भागता रहता है।
करने वाला चित्त ऐसा है जैसे कि एक फोटोग्राफर हो, और अपने कैमरे को लेकर मीलों की रफ्तार से दौड़ रहा हो, और जब बाद में अपने कैमरे को खोले तो कोई तस्वीर न बने, क्योंकि उसकी रफ्तार इतनी तेज थी कि जो भी उसके कैमरे से गुजरा, पकड़ा नहीं जा सका। लेकिन रुक जाए, तो तस्वीर बन जाए। रुका हुआ कैमरा तस्वीर पकड़ ले। भागता हुआ कैमरा कैसे पकड़े कुछ? भागता हुआ कैमरा खाली रह जाता, रुका कैमरा पकड़ लेता। इसलिए कैमरा हिल न जाए, इसकी भी फिकर रखनी पड़ती है। लेकिन हम पूरे तरफ भाग रहे हैं और हिल रहे हैं। तो वह जो मन का लेंस है, वह जो मन का कैमरा है, वह कुछ भी पकड़ नहीं पाता।
परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। और हम अपने कैमरे को लेकर, अपने मन को लेकर भागे हुए हैं। दौड़ रहे हैं, दौड़ रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, शोरगुल मचा रहे हैं, बैंडबाजा बजा रहे हैं, राम-धुन कर रहे हैं, भजन-कीर्तन कर रहे हैं, सब कर रहे हैं भागे हुए, लेकिन ठहर नहीं रहे हैं। ठहर जाएं, तो उसकी तस्वीर अभी पकड़ जाए।
लेकिन स्वभावतः, जब दौड़-दौड़ कर हम उसकी तस्वीर न पा सकेंगे, और जब हम सब हार कर खड़े होकर उसकी तस्वीर पकड़ लेंगे, तो शायद फोटोग्राफर को भी लगे: उसकी ही कृपा थी तभी पकड़ पाए, हम तो बहुत दौड़े, न मिला वह। लेकिन अब जब खड़े हो गए तब तस्वीर बनी, इसका मतलब साफ है: हमारे प्रयास से नहीं बनी, उसकी ही कृपा से बनी। हालांकि वह सदा कृपा लिए द्वार पर खड़ा था। लेकिन आप कभी मिलते ही न थे। आप कभी घर पर हैं ही नहीं। वह आए भी खोजने तो आप घर पर कभी होते नहीं, आप कहीं और ही होते हैं।
हम, यह जो, यह जो बात है उपनिषद में--सही भी, गलत भी। और यह भी आपसे कह दूं, धर्म के सभी सूत्र ऐसे हैं कि किसी अर्थ में सही भी और किसी अर्थ में गलत भी। और इसीलिए सब सूत्रों का खंडन भी किया जा सकता है और सब सूत्रों का समर्थन भी किया जा सकता है। असल में धर्म इतना रहस्यपूर्ण है कि उसमें सब विरोध समाहित हैं। तो ऐसा भी हम कह सकते हैं कि साधक को अपने ही प्रयास से मिलता है, कोई परमात्मा की कृपा नहीं है। क्योंकि अगर प्रयास के थक जाने पर भी मिलता है तो वह भी तो साधक के ही किए गए प्रयास का अंतिम फल है--थक जाना।
जैन हैं, बौद्ध हैं, वे ऐसा ही मानते हैं कि अपने ही प्रयास से मिलता है, चाहे थक कर ही मिलता हो, थकना भी तो अपना ही है। वे भी गलत नहीं कहते हैं। उपनिषद हैं, जीसस के मानने वाले हैं, ईसाई हैं, मुसलमान हैं, वे सब मानते हैं--उसकी कृपा से मिलता है। वे भी गलत नहीं कहते हैं, क्योंकि जब हम थक जाते हैं तब मिलता है। हालांकि दोनों सही कहते हैं, दोनों गलत कहते हैं। क्योंकि बात ऐसी है कि वह दोनों तरह से हो सकती है।
इसलिए मैंने कहा कि इसे ठीक से समझ लेना जरूरी है। सार में अंतिम बात इस संबंध में यह कह दूं: प्रयास जरूर करें, पूरी ताकत से करें, ताकि जल्दी थक जाएं और प्रयास व्यर्थ हो जाए। खूब दौड़ लें, ताकि थकान आ जाए और गिरना हो जाए। आधी दौड़ में मत रुक जाना किसी की बात सुन कर कि ठीक है, प्रयास से नहीं मिलेगा, वही माला डालेगा गले में, तो फिर हम काहे के लिए दौड़ें, रुक जाएं। लेकिन जो आधा दौड़ कर रुका है उसका मन दौड़ता ही रहेगा, वह रुक नहीं सकता है। पूरा दौड़ कर गिरना ही जरूरी है, थकना ही जरूरी है। चित्त से दौड़ का अर्थ ही खो जाना जरूरी है।
इसलिए मैं कहता हूं, शास्त्र पढ़ना, ताकि पता चल जाए कि शास्त्र व्यर्थ हैं। और साधना करना, ताकि पता चल जाए कि साधना बेकार है। खोजना, ताकि पता चल जाए कि खोजने से नहीं मिलता। जिस दिन यह सब हो जाएगा, उस दिन अचानक पाएंगे कि जिसे खोजने कहीं और गए थे, वह सदा से आपके द्वार पर बैठा प्रतीक्षा करता था। वह देखता था--कब तक लौट आओगे दौड़ कर, तो माला गले में डाल दें। माला सदा तैयार है, गला झुकने को तैयार नहीं। झुकता गला वही है जो कटने को तैयार हो जाए, मिटने को तैयार हो जाए, टूटने को तैयार हो जाए। इसलिए मैंने कहा, समाधि एक अर्थों में मृत्यु है। अपने मैं का मर जाना है।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि जब समाधि में आप कहते हैं कि मैं अकेला हूं और ऐसा भाव करते हैं, तो बहुत असंख्य विचार आते हैं। लेकिन यदि साथ में ओम या राम-नाम का जप करने लगें, तो अकेलेपन की भावना प्राप्त करने में सहायता मिलती है। इस संबंध में आपके क्या खयाल हैं?
अगर आपने अकेलेपन के भाव में राम-राम का जाप शुरू कर दिया, तो आप अकेले कैसे रहे? राम को बुला लिया सहायता में, अकेले न रहे, दो हो गए--आप और राम। ओम का जाप करने लगे, तो भी दो हो गए। दो में तो राहत मिल ही जाती है, हमारे मन की ही आदत दो की है। अभी थोड़ी देर पहले फिल्म का गाना गुनगुना रहे थे, तब भी दो थे, अब राम-राम, राम-राम कहने लगे, अब भी दो हैं। काम वही जारी है, सिर्फ शब्द बदल गए हैं। मन की आदत पुरानी ही जारी है। अभी सोच रहे थे किसी मित्र के संबंध में, किसी प्रियजन के संबंध में, अब उसके संबंध में न सोच कर, राम के रूप के संबंध में सोचने लगे, मन का काम जारी है। मन इसके लिए राजी हो जाएगा, वह कहेगा यह ठीक है। क्योंकि इससे कुछ बदलाहट न हुई, सिर्फ ऑब्जेक्ट बदला, सिर्फ विषय-वस्तु बदल गई, मन का काम पुराना ही जारी रहा। अब एक प्रेमी है, वह अपनी प्रेयसी के नख-शिख का विचार कर रहा है; और एक भक्त है, वह अपने भगवान के नख-शिख का विचार कर रहा है। दोनों में कोई भी फर्क नहीं, दोनों का मन एक ही काम कर रहा है। मन राजी है।
नहीं, जब मैं कह रहा हूं, अकेले का भाव, तो उसका मतलब यह है कि दूसरे के प्रवेश की जगह ही मत छोड़ना, तो ही मन मरेगा। मन दूसरे को चाहता है, मन द्वैत को चाहता है। मन द्वैत में ही जिंदा रहता है। अगर द्वैत गया तो मन गया।
तो मन कहता है, किसी तरह का द्वैत पैदा कर लो। भगवान और भक्त का कर लो, प्रेमी-प्रेयसी का कर लो, मां-बेटे का कर लो, मित्र-शत्रु का कर लो, द्वैत पैदा कर लो, बस तब मन राजी है। क्योंकि मन कहता है, द्वैत मेरा जीवन है। तो किसी तरह का द्वैत पैदा कर लो तो मन फिर गड़बड़ नहीं करता, वह कहता है, ठीक है, हम राजी हैं। लेकिन अगर द्वैत पैदा ही मत करो और कहो कि मैं अकेला ही हूं, कोई है ही नहीं दूसरा। न कोई राम, न कोई भगवान, कोई नहीं है, मैं अकेला हूं, निपट अकेला हूं। तब मन छटपटाने लगता है। तो वह जो अकेलेपन में छटपटाहट होती है तो मन फिर दौड़ कर कोई विचार पकड़ने की कोशिश करेगा। वह कहेगा कि अकेले कैसे हो सकते हैं, कुछ तो विचार करूं। कुछ तो सोचो, कोई चित्र लाओ, कोई स्मृति लाओ।
नहीं, मन की यह छटपटाहट इस बात की खबर है कि मन मरने से डर रहा है और अपने बचने का इंतजाम कर रहा है। उसे कोई सहारा चाहिए। वह द्वैत के बिना नहीं जी सकता। आप तो जी सकते हैं द्वैत के बिना, आपका मन नहीं जी सकता। मन का अस्तित्व दो को चाहता है। दो के बिना मन को बिलकुल राहत नहीं मिलती है। किसी भी तरह दो चाहिए। दो न हों तो मन मुश्किल में हो जाता है।
तो जब मैं कहता हूं, अकेले का भाव, टोटली अलोन, तो उसका मतलब यह है: द्वैत की वृत्ति को जाने दें। मन कहे कि मुझे तो द्वैत चाहिए, तो उसे दें मत।
और फिर हमने अच्छे द्वैत खोज लिए हैं। हम कहते हैं, चलो ठीक है, फिल्म का गीत मत गाओ, वह बुरी चीज है, तो राम-धुन करो। लेकिन वही एक बात है, कोई फर्क नहीं है, जरा भी फर्क नहीं है। राम-राम कहो कि कोका-कोला कहो, कोई फर्क नहीं है। वह जो मन है, वह कहता है, कुछ करते रहो, कुछ कहते रहो, चलेगा; जो भी कहो उससे चलेगा मन का काम, लेकिन रुको मत, दूसरे को पैदा कर लो। कुछ भी दूसरा मौजूद रहे, तो मन राजी है। और समाधि में जाना हो तो दूसरे को हटाना जरूरी है, ताकि मन मिट जाए। मन की मृत्यु का सूत्र है: द्वैत से अपनी वृत्ति को हटा लेना; दूसरे से छुटकारा पा लेना। नहीं तो दूसरे के साथ रस कायम हो जाता है, कोई फर्क नहीं पड़ता है, कोई भेद नहीं पड़ता है।
इसलिए जब मैं कहता हूं, अकेलापन, तो उसका अर्थ है: अद्वैत। उसका अर्थ है: दूसरा नहीं है। किसी तरह के दूसरे का सहारा नहीं लेना है। दिक्कत होगी, कठिनाई होगी, होने दें। जब भी कोई चीज मरती है तो बड़ी कठिनाई होती है। मन पुराना है, जन्मों-जन्मों का है। शरीर तो बहुत नया है, शरीर तो हर बार बदल जाता है। मन बहुत पुराना है। लाखों, हजारों, करोड़ों वर्षों का है। मनुष्य-जाति की जितनी उम्र है उतना पुराना मन है। वह पुराना मन अपने बचने का पूरा इंतजाम करेगा। वह आखिरी उपाय करेगा। और मन के आखिरी उपाय बड़े होशियारी के हैं। अगर आप नहीं मानते, तो वह कहता है, अच्छा, तुम्हारी तरकीब से ही हम राजी हैं। तुम्हारी तरकीब से ही! तुम्हें राम-राम कहना है, राम-राम कहो। लेकिन कुछ कहो जरूर, कुछ बोलते रहो, दूसरे को बनाए रखो, तो हम भी बच जाएंगे। तो वह दूसरे को बना लेता है। मन दूसरे के बिना नहीं जी सकता। और दूसरे के बिना तत्काल मर जाता है।
मन की मृत्यु ही समाधि का द्वार है।
इसलिए मन को छटपटाने देना। कहना कि ठीक है, छटपटाओ, लेकिन मैं अकेला ही हूं। और दूसरे का सहारा अब न लूंगा। दूसरा मेरी कल्पना का सहारा है।
मन की सबसे बड़ी ताकत जो है वह यह है कि वह तत्काल, आप जिस तरह का सहारा चाहें, उसी तरह का सहारा दे देता है। आप रात सपना देखते हैं। अगर दिन भर भूखे रहे हैं, तो रात मन कहता है कि चलो, भोजन कर लो। सपना दिखा देता है भोजन का। कल्पित भोजन करा देता है। उससे बड़ा फायदा होता है मन को। नींद नहीं टूटती, नींद बनी रहती है। सपना जो है वह नींद को बचाने का उपाय है, सेफ्टी मेजर है। अगर सपना न हो तो आपका सोना मुश्किल हो जाए। क्योंकि दिन भर जो-जो आपने छोड़ा है, वह रात भर आपको परेशान करे। मन कहता है, चलो पैदा कर लो, कल्पना में ही पूरा कर लो।
आप अलार्म की घड़ी रख कर सोए हैं कि चार बजे रात उठना है। अलार्म की घड़ी बज रही है और मन कह रहा है, मंदिर की घंटी बज रही है, अच्छा, पूजा शुरू हो गई। वह अलार्म को इनकार कर रहा है। वह कह रहा है, मंदिर की घंटी बज रही है, कहां का अलार्म! और आप मजे से सपने में हो गए। घंटी बज कर बंद हो गई। आप मजे से सो रहे हैं, क्योंकि मंदिर की घंटी से उठने का क्या संबंध! मन ने तरकीब ईजाद की। मन ने कहा, नींद मत तोड़ो, नींद को बचाओ। तो अलार्म की घंटी को उसने मंदिर के घड़ियाल में बदल दिया, मंदिर का घंटा हो गया।
मन पूरे समय ईजाद कर रहा है कि नींद न टूट जाए। रात सपना दे रहा है कि नींद न टूट जाए, दिन में कल्पनाएं दे रहा है कि नींद न टूट जाए। और जब आप कल्पनाएं तोड़ने जाते हैं, तो वह नई कल्पनाएं देता है। वह कहता है कि पति की कल्पना ठीक नहीं लगती, तो कृष्ण की कल्पना पति के रूप में करो, यह बड़ी अच्छी है। वह कहता है कि नहीं लगता अच्छा आदमी का साथ, कोई फिकर नहीं, मन में भगवान का साथ करो, उनके रूप, मूर्ति निर्माण करो, उनके साथ जीओ, यह बड़ा अच्छा है। लेकिन फर्क क्या है?
रात के सपनों जैसे ही मन दिन में भी सपने पैदा कर लेता है। सपने नींद को बचाने के उपाय हैं। दो तरह की नींद है। एक तो जो हम रोज रात को सोते हैं वह नींद। और एक वह नींद जिसमें हम जन्म से ही सोए हुए हैं।
नींद अगर तोड़नी है तो मन के उपायों के प्रति जाग्रत होना पड़ेगा। समझना पड़ेगा कि मन को भोजन नहीं देना है। मन द्वैत का भोजन मांगता है।
इसलिए मित्र ने ठीक ही पूछा है कि अगर ओम और राम का सहारा देते हैं तो थोड़ी राहत मिलती है। राहत मिल ही जाएगी। क्योंकि मन का काम पूरा हो गया।
नहीं, राहत देनी ही नहीं है। राहत न देंगे, मन तड़फेगा, तड़फेगा। तड़फने दें! वह पुकार करेगा कि मुझे चाहिए दूसरा, दूसरा लाओ, किसी भी रूप में लाओ।
लेकिन आप कहें, मैं तो अकेला हूं, मैं दूसरा लाऊं भी तो कहां से लाऊं? और ले भी आऊंगा तो भी मैं अकेला हूं। कितने दूसरों को ले आया! पत्नी को घर ले आया, अकेलापन मिटा? बच्चे पैदा कर लिए, अकेलापन मिटा? साथी-संगी बना लिए, अकेलापन मिटा? अकेला तो मैं हूं ही। अकेला होना मेरा स्वभाव है। कहां से लाऊं दूसरे को? नहीं लाऊंगा।
जब आप बहुत स्पष्ट रूप से तैयार हो जाएंगे कि अकेला होने की तैयारी है, मन थोड़ी देर चिल्लाएगा और चुप हो जाएगा। थोड़े दिन चिल्लाएगा और चुप हो जाएगा। जिस दिन मन चुप होगा, उस दिन जिसकी प्रतीति होगी, वह परमात्मा है। और जिसको आप राम-राम करके कह रहे थे, वह नहीं। वे तो सब आपके शब्द हैं, आपकी ईजादें हैं। जिस दिन अद्वैत होगा, उस दिन जिसे आप जानेंगे, वह है ओम! और जिसको आप चिल्ला रहे थे, वह कुछ भी नहीं, उसका मूल्य कोका-कोला से ज्यादा नहीं। लेकिन जिस दिन मन चला जाएगा और कुछ भी न बचेगा, और आप जानेंगे, आपकी आवाज नहीं होगी, आपका द्वैत नहीं होगा, आपके मन का इन्वेनशन, ईजाद नहीं होगी, मन होगा ही नहीं, जिस दिन आप उसे जानेंगे, वह कुछ और है। उसे कोई भी नाम दे दें--मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, समाधि कहें, ओम कहें, ब्रह्म कहें--जो कहना चाहें, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उस जगत में सब शब्द समानार्थी हैं। वहां क्योंकि सभी शब्द एक से व्यर्थ हैं। वहां किसी शब्द की कोई गति नहीं है। इसलिए कोई भी अ ब स नाम दिया तो चल जाएगा, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता है।
लेकिन आप मन के धोखे में मत पड़ जाएं। आप मन के द्वारा ईजाद न कर लें। मन को राहत देने की कोशिश मत करें, मन को थोड़ा तड़फने दें, मन को थोड़ा परेशान होने दें। जब वह परेशान होगा, तड़फेगा, तभी मरता है। और मन की मृत्यु ही समाधि है।

एक और मित्र ने पूछा है कि समाधि में देवताओं का दर्शन होता है, ऐसा महान संतों के जीवन में सुना है, पढ़ा है। रामकृष्ण को होता है, मोहम्मद पैगंबर को होता है। काली माता और अन्य देवताओं के दर्शन होते हैं। ऐसे दर्शन के संबंध में क्या खयाल है?
जैसा मैंने कहा, वे सब दर्शन मन के सपने हैं। इसलिए जब तक किसी का दर्शन होता रहे, तब तक समझना कि मन अभी मौजूद है, और अभी चक्कर के बाहर आप नहीं हो गए हैं। कोई भी दिखता हो! दर्शन से ही मुक्त हो जाना है, तभी उसका पता चलेगा जिसको दर्शन हो रहा है, जो द्रष्टा है।
सब भ्रम हैं। सुंदर भ्रम हैं। बड़े प्यारे सपने हैं। अब कृष्ण खड़े हों बांसुरी बजाते हुए, कैसा प्यारा सपना है! लेकिन ध्यान रहे, प्यारे सपने बुरे सपनों से भी बुरे होते हैं। क्योंकि बुरे सपने बुरे होने की वजह से जल्दी टूट जाते हैं। और प्यारे सपने प्यारे होने की वजह से मन होता ही नहीं कि टूटें, मन होता है कि बने रहें, बने रहें। रात देखा है, सुखद सपना आता है तो मन होता है देखते ही रहो। और कोई जगा दे बीच में तो दुश्मन मालूम पड़ता है। कि किसी तरह तो दिन भर का भिखमंगापन मिटा था, रात सम्राट हो गए थे, नाहक उठा दिया। घंटे भर और रह लेते सम्राट तो बुरा क्या था!
सुखद सपने को बचाने की प्रवृत्ति होती है। दुखद सपना तो जल्दी टूट सकता है, सुखद सपना जल्दी नहीं टूटता है। ये सब सुखद सपने हैं। और आदमी के मन की ताकत है--और एक ही ताकत है आदमी के मन की--कि वह सपने पैदा करता है। ड्रीम क्रिएटिंग फोर्स! मन का अर्थ है: स्वप्न पैदा करने वाली शक्ति। वह स्वप्न किसी भी तरह के पैदा कर सकता है। और अगर आप व्यवस्था से पैदा करें, तो आप कैसे भी स्वप्न पैदा कर सकते हैं। व्यवस्थाएं हमने खोज ली हैं।
अगर आपका पेट भरा है तो आपके स्वप्न पैदा करने की क्षमता कम हो जाती है। लेकिन अगर पेट खाली है तो क्षमता बढ़ जाती है। इसलिए जो लोग इस तरह के दर्शन वगैरह के चक्कर में पड़ना चाहते हैं, उनके लिए उपवास बड़ी रामबाण व्यवस्था है। एक तीस दिन उपवास कर लें, फिर आपके सपने पैदा करने की क्षमता तीव्र हो जाती है। कभी आपको अगर बुखार आया हो और खाना-पीना बंद रखना पड़ा हो तो आपको पता होगा, अगर लंघन करनी पड़ी हो तो आपको पता होगा, कि ऐसी-ऐसी चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं जो कभी दिखाई नहीं पड़ी थीं। कभी खाट उड़ने लगती है, कभी आसमान में चले जाते हैं, कभी देवी-देवता दिखते हैं, कभी भूत-प्रेत भी दिखाई पड़ते हैं। और सब होने लगता है। लंघन में पड़े हुए बीमार आदमी को क्यों यह सब होने लगता है? क्या कारण है?
कारण है कि जैसे-जैसे शरीर की शक्ति कम होती है, मन की शक्ति ज्यादा हो जाती है। मन पर शरीर का काबू कम हो जाता है। मन बिलकुल दौड़ने लगता है। इसलिए दिन में आप उतने सपने नहीं देख पाते जितना रात में देख पाते हैं। क्योंकि रात में शरीर थक कर गिर जाता है, मन मुक्त हो जाता है, इसलिए जो चाहें देखें।
सपने देखने का इंतजाम है, सपने देखने की व्यवस्था है, सिस्टम है। उस व्यवस्था में उपवास बड़ा कारगर उपाय है। जिसको भी इस तरह के सपने देखना हो, देवी-देवता, भूत-प्रेत, जो भी देखना हो, उसके लिए लंबे दिन तक भूखे रहने से बड़ा लाभ होगा।
एकांत भी बड़ी उपयोगी चीज है। भीड़ में सपना देखना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि आस-पास के लोगों की मौजूदगी बाधा डालती है। एकांत में सपने आसान हो जाते हैं। इसलिए जंगल में भाग जाएं, किसी गुहा में छिप जाएं, वहां सपने आसान होते हैं। कभी अगर आपको एकांत में रहने का मौका मिला हो तो पता होगा। अगर घर के सब लोग चले गए हों और घर गांव के बाहर एकांत में हो, पत्ता खड़कता है तो ऐसा लगता है आया कोई! अब वह जो मन की सपने देखने की क्षमता है वह तीव्र हो गई है। वह पत्ते के खड़कने में भी किसी के पैर की आवाज सुनता है। सुबह आपने ही नहा कर लंगोट टांग दिया है। रात में दिखता है, कोई हाथ फैलाए हुए खड़ा है। आपने ही टांगा है, लेकिन लगता है कि कोई हाथ फैलाए खड़ा है।
दूसरे की मौजूदगी हमें सपने देखने में बाधा डालती है। क्योंकि दूसरा क्या कहेगा! दूसरे की मौजूदगी हमारी बुद्धि को सुस्थिर रखती है। इसलिए जिनको सपने देखने में काफी रस लेना है, उन्हें भाग जाना चाहिए समाज से दूर। समाज से भागने की प्रवृत्ति सपना देखने की सुविधा की वजह से पैदा हुई। इधर पूना में देखना बहुत मुश्किल है सपना, चले जाएं हिमालय के किसी एकांत में, वहां सपना बहुत आसान हो जाता है।
भूखे रहें, एकांत में चले जाएं। सेक्स सप्रेशन भी सपना देखने की बड़ी अदभुत तरकीब है। अगर कोई व्यक्ति अपनी यौन-प्रवृत्ति को जोर से दबा ले, तो उसकी सपने की शक्ति ऐसी हो जाती है, जैसे किसी स्प्रिंग को दबा दिया हो, तो वह स्प्रिंग चीजों को जोर से वापस फेंकता है। इसलिए जो लोग सेक्स सप्रेसिव होते हैं, उनके सपने बढ़ जाते हैं। जिन लोगों ने काम की वृत्ति को दबाया है, उनकी रात सपने से भर जाती है। बहुत पहले यह समझ में आ गया कि अगर सपना देखना है ठीक से, तो सेक्स को दबाओ।
और ध्यान रहे, जिसने सेक्स को दबाया उसके सपने देखने की क्षमता इतनी हो जाती है जिसका कोई हिसाब नहीं।
अब ये पागलखानों में जितने लोग बंद हैं, उनमें से सौ में से नब्बे काम की वृत्ति को दबाने की वजह से पागल हैं। पागल का मतलब क्या है? पागल का मतलब है कि वह सपना इतना देखने लगा कि अब आंख खोल कर भी देखता है, अब आंख बंद करने की जरूरत नहीं है। आपको जब सपना देखना होता है तो आंख बंद करनी पड़ती है, उसको अब आंख बंद करने की जरूरत नहीं, आंख खोल कर देखता है। और आपका सपना आंख खोलने से टूट जाता है, उसका सपना आंख खोलने से नहीं टूटता।
आप देखें, एक आदमी पागल बैठा है, वह किसी से बात कर रहा है मजे से। कोई है ही नहीं मौजूद, वह बात कर रहा है। इसको आप पागल कहेंगे। लेकिन एक भक्त भगवान से बातें कर रहा है, तो आप उनके चरण छुएंगे। दोनों एक ही स्थिति में हैं। हां, थोड़ा फर्क हो सकता है कि यह पागल खतरनाक हो सकता है जो किसी से बातें कर रहा है, और यह जो भक्त भगवान से बातें कर रहा है यह खतरनाक नहीं होगा। बस इतना फर्क हो सकता है। यानी सोशिएली डेंजरस हो सकता है यह आदमी जो अभी किसी से बातें कर रहा है, तो इसको हम पागलखाने में बंद करेंगे। और यह जो आदमी भगवान से बातें कर रहा है, यह सामाजिक रूप से खतरनाक नहीं है। वैसे इसे भी हम तरकीब से एक तरह के पागलखाने में बंद कर देंगे। किसी मंदिर में बिठा देंगे, किसी मंच पर चढ़ा देंगे, जय-जय कार करेंगे, और समाज और इसके बीच में फासला खड़ा कर देंगे, एक दीवाल बना देंगे। कि तुम कृपा करके इधर मत आना और हम उधर न आएंगे। हम पूजा करेंगे, फूल फेंक देंगे, लेकिन बीच में डिस्टेंस रहेगा। वह हम इंतजाम कर लेंगे। मंदिर और यह सब, ये अच्छे किस्म के पागलों को कैद करने का हमने इंतजाम किया हुआ है। आश्रम और पागलखाना! आश्रम को भी हम गांव के बाहर बनवा देते हैं कि गांव के भीतर कृपा करके ज्यादा नहीं। हमको ही कभी पागलपन की खुजलाहट होगी तो हम उधर आ जाएंगे। आप कृपा करके इधर नहीं। एक पागलखाना बनाया, वहां हम खतरनाक किस्म के पागलों को बंद करते हैं।
लेकिन पागलपन का मतलब ही यह होता है कि आदमी को वस्तु-स्थिति दिखाई नहीं पड़ती, आदमी जो चाहता है वही देखने लगा है।
अगर हम दस भक्तों को एक ही कमरे में बंद कर दें; एक जीसस का भक्त हो, तो रात में जीसस से बातें करता रहेगा; और कृष्ण का भक्त हो, तो वह कृष्ण से बातें करता रहेगा; राम का भक्त हो, तो वह धनुर्धारी राम को देखता रहेगा। और उन तीनों को दूसरे के भगवान दिखाई नहीं पड़ेंगे। और सुबह झगड़ा भी हो सकता है कि कौन कहता है कि धनुर्धारी राम यहां थे! जीसस थे, राम तो नहीं थे! कृष्ण थे, कौन कहता है जीसस यहां थे! वे तीनों सुबह लड़ेंगे। क्योंकि उनका भगवान सिर्फ उन्हीं को दिखाई पड़ता है।
ध्यान रहे, सपने की एक क्वालिटी है--प्राइवेट होना। सपना जो है वह सदा प्राइवेट होता है। सपना कभी सामूहिक नहीं हो सकता। अब इस चीज को हम देख रहे हैं, इस डंडे को, तो हम सब देख रहे हैं। यह कलेक्टिव है, यह सामूहिक है। लेकिन अगर मैं कोई सपना देख रहा हूं, तो आपको उसमें साझीदार नहीं बना सकता। कोई भक्त किसी को भी अपने सपने में साझीदार नहीं बना सकता। और कोई पागल भी किसी को अपने पागलपन में साझीदार नहीं बना सकता। सब प्राइवेट हैं। इसलिए प्राइवेट चीज से थोड़ा सावधान रहना। उसमें थोड़ा खतरा है। उसमें डर यह है कि कहीं वह सपना ही न हो। उसमें डर यह है कि कहीं वह ऐसी बात न हो जो हमने कल्पित कर ली है। और हम कल्पित कर रहे हैं।
नहीं, न तो देवी-देवताओं को देखने से कोई अध्यात्म का संबंध है; न राम, कृष्ण, बुद्ध को देखने से कोई संबंध है। इनसे कोई संबंध नहीं है। संबंध किसी और बात से है। देखना है उसे जो सबको देख रहा है। दृश्य को नहीं देखना है, देखना है द्रष्टा को। अध्यात्म का संबंध नये-नये दृश्य पैदा करना नहीं है, अध्यात्म का संबंध सभी दृश्यों को विदा करके उसे देख लेना है जो सदा देखता रहा है।
हम इस टाकीज में बैठे हुए हैं, यह पीछे पर्दा है। इस पर फिल्म चलती हो, इस पर फिल्म चलती हो, एक बुरी फिल्म चलती हो, एक हत्यारे की कहानी चलती हो, तो पर्दे पर चल रही है। फिर एक अच्छी फिल्म चलती हो, एक संत का जीवन चल रहा हो, तो भी पर्दे पर चल रहा है। और दोनों हालतों में आप सिर्फ देखने वाले हैं और पर्दे पर कहानी चल रही है--अच्छी चले, बुरी चले; शराब पीने की चले, त्याग-तपश्चर्या की चले; लेकिन पर्दे पर चल रही है, दृश्य पकड़े हुए है।
नहीं, अध्यात्म का संबंध बुरी कहानी को हटा कर अच्छी कहानी रखने से नहीं, अध्यात्म का संबंध कहानी को हटा कर पर्दा खाली करने से है। ताकि पर्दा खाली हो जाए, देखने को कुछ न बचे, तो आप अपने पर लौटें और उसे देख पाएं जो अब तक सिर्फ देखता ही रहा है, लेकिन अपने को जिसने कभी भी नहीं पहचाना कि मैं कौन हूं? जो देखता है वह कौन है?
नहीं, महत्वपूर्ण यह नहीं है कि राम दिखाई पड़ते हैं, महत्वपूर्ण यह है कि राम जिसको दिखाई पड़ते हैं वह कौन है? और अगर उसे देखना है तो राम को भी हाथ जोड़ कर कहना पड़ेगा: अपना धनुषबाण उठाओ और कृपा कर जाओ, इधर बाधा मत दो। अगर बुद्ध खड़े हो जाएं तो उनसे भी कहना पड़ेगा: अब बहुत देर हो गई, अब आप जाइए। अगर जीसस भी सूली पर न मानते हों और लटकते ही चले जाते हों, तो उनसे कहना: अब बंद करिए, अब यह सूली भी अपनी ले जाइए और आप भी जाइए। मुझे उसे जानना है जो मैं हूं। मैं अब दृश्यों में उत्सुक नहीं हूं।
लेकिन हमारा मन है बचकाना, वह दृश्य बदल लेता है। तो अधार्मिक दृश्य देखने वाला है आदमी, धार्मिक दृश्य देखने वाले लोग भी हैं। लेकिन कोई फर्क नहीं है, दृश्य में ही उलझे हैं। सवाल इस क्रांति का है कि दृश्य से चित्त विदा हो जाए और द्रष्टा पर पहुंच जाए। देखने वाले पर पहुंच जाऊं मैं। फिर वहां क्या दिखाई पड़ेगा? वहां राम दिखाई पड़ेंगे? कि बुद्ध? कि महावीर? नहीं, वहां मैं ही दिखाई पडूंगा।
और मजा यह है कि जो मैं हूं, जिस दिन मैं उसे जान लूंगा, उस दिन मैं राम को, बुद्ध को, कृष्ण को, मोहम्मद को, सबको जान लूंगा। क्योंकि जो मैं हूं, मेरा जो बहुत आंतरिक स्वभाव है, वही वे हैं। राम को और कृष्ण को भी दृश्य की भांति खड़ा करके हम नहीं जान सकते, उनको भी मैं अपने ही द्रष्टा-स्वरूप को अनुभव करके ही जान सकता हूं। अन्यथा नहीं जान सकता हूं।
जरथुस्त्र पहाड़ से उतर रहा है, और उसके शिष्यों ने उससे कहा है कि हमें अंतिम संदेश दे दो, क्योंकि अब वह विदा हो रहा है। तो उसने कहा कि अब शिष्यो, मुझे छोड़ो, और मैं जाता हूं।
एक वक्त आना चाहिए कि गुरु इतनी हिम्मत जुटा सके कि शिष्यों से कहे कि कृपा कर अब मुझे छोड़ो, अब मैं जाता हूं। शिष्य में भी इतनी हिम्मत होनी चाहिए कि एक दिन गुरु को कह सके कि अब कृपा करके मुझे छोड़ो और मैं जाता हूं।
लेकिन न गुरुओं में इतनी हिम्मत होती, न शिष्यों में। वे एक-दूसरे को पकड़े बांधे रहते हैं। और खुद भी डूबते हैं, दूसरे को भी डुबाते हैं।
जरथुस्त्र ने उन शिष्यों से कहा, अब कृपा करके लौटो, अब मुझे जाने दो।
वे शिष्य कहने लगे, थोड़ी दूर और साथ ले लें।
जरथुस्त्र ने कहा, नहीं। और तुमसे मैं यह भी निवेदन करता हूं कि तुम मुझे भूल जाना। क्योंकि जब तक तुम मुझे याद रखोगे, तब तक तुम अपने को कैसे याद कर पाओगे?
यह जरथुस्त्र हिम्मतवर आदमी रहा होगा। किसी से यह कहना कि मुझे भूल जाना, मुझे भुला देना...मैं खतरनाक आदमी हूं, जरथुस्त्र ने कहा, क्योंकि तुमने अगर मुझे पकड़ लिया तो तुम अपने को कब पहचानोगे? तुम मुझे जाने दो। तुम भी मुझे छोड़ो और मैं भी तुम्हें छोडूं।
एक झेन फकीर हुआ है--बोकोजू। वह अपने मित्रों को कहा करता था, बुद्ध से सावधान रहना! बिवेअर ऑफ दि बुद्धा!
वे पूछते, क्या मतलब?
तो वह उनसे कहता कि बुद्ध से जरा सावधान ही रहना। क्योंकि जब सब छूट जाएगा, तब बुद्ध खड़े हो जाएंगे। और तब तुम उनमें अटक जाओगे। अटकना कहीं भी नहीं है। अगर कहीं भी अटके तो अटकना हो जाएगा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि खूंटी लोहे की है कि सोने की? अटकने का सवाल है। नहीं, खूंटियां तोड़ देना। तो वह कहता था, बुद्ध से सावधान हो जाना। और अगर बुद्ध बीच में आएं, एक धक्का देकर अलग कर देना, कि कृपा करके हटिए रास्ते पर से! मुझे मुझ तक पहुंचने दीजिए, मेरे बीच में मत आइए।
और मजा यह है कि जिस दिन हम अपने पर पहुंचेंगे, उसी दिन हम बुद्ध पर पहुंच जाएंगे, राम पर और कृष्ण पर पहुंच जाएंगे। और जब तक हम दृश्य में उलझे रहेंगे, तब तक यह संभव नहीं है।
नहीं, सपने मत देखिए। सुंदर सपने भी मत देखिए। बहुत सपने देखे। सत्य को देखिए! और सत्य वह है जो देख रहा है, सत्य वह नहीं है जो दिखाई पड़ रहा है। द्रष्टा सत्य है। और दर्शन, दृश्य, सब सपना है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि देवी-देवताओं की चिंता में पड़िए। कि काली माता को देखिए, बनाइए मन में, सजाइए मन में, फिर हाथ जोड़ कर खड़े होइए भीतर, और फिर उनका राग करते रहिए। कुछ भी नहीं होगा, कुछ भी नहीं होगा। कुछ मतलब नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। और बहुत हो चुका; आदमी का मन सदियों से यह करता रहा, आदमी कहीं भी नहीं पहुंचा है। नहीं, अब सपने छोड़ देने पड़ेंगे, अपने को ही जानना पड़ेगा।
लेकिन बहुत कठिन तो है ही। कठिन इसलिए है कि हम सपनों में खो जाते हैं। फिल्म चलती है तो हम भूल जाते हैं कि जो चल रहा है पर्दे पर, वहां कुछ भी नहीं। एक सुंदर स्त्री आती है, तो हमारी पीठ जो है कुर्सी छोड़ देती है, आगे झुक जाती है। देखा है आपने हॉल में! और सुंदर स्त्री क्या है वहां पर्दे पर? कुछ भी नहीं है, सिर्फ धूप-छांव का खेल है। कुछ नहीं है, सिर्फ प्रकाश की कम-ज्यादा फेंकने की तरकीब है। कहीं प्रकाश ज्यादा पड़ रहा, कहीं कम पड़ रहा और खेल बन गया है। और रीढ़ हट गई बाहर और आप सम्हल कर बैठ गए हैं कि एक सुंदर स्त्री आ गई है। अगर कोई मरता है तो आपकी आंख में आंसू भी आ जाते हैं। इसलिए हॉल में अंधेरा बड़ा सहयोगी होता है। जल्दी से अपने रूमाल से पोंछ लिया, और बगल वाले को देख लिया कि किसी ने देखा नहीं है।
लेकिन किसी ने न देखा हो, आपने तो देख ही लिया। पर्दा धोखा दे गया। एक कहानी चलती थी, और आप रो भी लिए, और हंस भी लिए, और परेशान भी हो लिए। और था कुछ भी नहीं। खाली पर्दा है वहां। और उस पर्दे पर धूप-छांव का खेल है। बहुत गहरे में पूरी जिंदगी भी एक पर्दा है और धूप-छांव का खेल है। लेकिन वहां भी रोना है, धोना है।
एक बहुत विचारशील आदमी हुए हैं--विद्यासागर। एक नाटक देखने गए थे। और बड़े सात्विक आदमी थे, बुराई देख न सकते थे। जिनको हम साधु-पुरुष कहें, ऐसे थे। सामने ही बैठे थे। वह नाटक चलता था। और नाटक की कहानी में एक पात्र है, वह एक स्त्री को परेशान कर रहा है। वह करता ही चला जा रहा है। वह सब तरह से स्त्री को परेशान कर रहा है। और आखिरी चरम सीमा वहां आती है कथा में, जहां एक जंगल में, एकांत रात्रि में वह स्त्री को पकड़ लेता है, वह उससे व्यभिचार करना चाहता है। बस, विद्यासागर भूल गए, छलांग लगा कर चढ़ गए मंच पर, निकाला जूता और लगे मारने उस आदमी को।
बुद्धिमान भी बड़े कम बुद्धिमान होते हैं। विद्यासागर थे, लेकिन भारी अविद्या हो गई। वह आदमी जो था, जो अभिनेता था, उसने ज्यादा बुद्धिमानी प्रकट की। सच में ही अगर कोई अभिनेता ठीक से अभिनय करे तो बहुत बुद्धिमान हो जाता है। क्योंकि अभिनय करने का मतलब होता है, वह जानता है: जो कर रहा हूं, झूठ है; जो कर रहा हूं, झूठ है। धीरे-धीरे उसे यह भी दिखाई पड़ने लगता है: बाहर भी जो कर रहा हूं वह भी झूठ है। फिल्म में कहते-कहते कि मैं तुम्हें बहुत प्रेम करता हूं, और जानता है बिलकुल नहीं करता। कल जब अपनी पत्नी से कहता है, मैं तुम्हें बहुत प्रेम करता हूं, तब भी जान लेता है, नहीं करता हूं, एक लंबा अभिनय चल रहा है। वह अभिनेता बहुत बुद्धिमान निकला, उसने विद्यासागर का जूता हाथ में लेकर सिर से लगा लिया, और उसने लोगों से कहा कि इससे बड़ा पुरस्कार मेरे जीवन में मुझे कभी नहीं मिला। मेरा नाटक इतना सच्चा मालूम पड़ सकता है, और वह भी विद्यासागर को! यह जूता वापस न लौटाऊंगा!
विद्यासागर की मुसीबत तो बहुत हो गई होगी। बेचारे कैसे मंच से उतरे होंगे! कैसे कुर्सी पर वापस बैठे होंगे! कैसी बेचैनी हुई होगी! भूल गए एक क्षण में।
हम सब भूल जाते हैं। नाटक चलता है पर्दे पर, वह भी हमें पकड़ लेता है। दृश्य ने हमें इतना पकड़ा है कि हमारी पूरी जिंदगी दृश्यों में बीत जाती है। दिन भर सपना है, रात भर सपना है। और हमें द्रष्टा का कभी पता ही नहीं चलता कि वह जो देख रहा है। जिस दिन हमें पता चल जाएगा उसका जो देख रहा है, उस दिन सब दृश्य सपने हो जाएंगे। देवी-देवता ही नहीं, वह हमारे चारों तरफ जो जगत फैला हुआ है, वह जगत भी एक सपने का हिस्सा हो जाएगा। काली और राम और कृष्ण ही नहीं, पति-पत्नी, मित्र और शत्रु, वे भी चारों तरफ एक बड़े नाटक के हिस्से हो जाएंगे।
मैं छोटा था तो अपने गांव में रामलीला देखने जाता था। मैं सदा हैरान होता था कि वहां पीछे क्या होता होगा? पर्दे के पीछे, वह जो ग्रीन-रूम होता है, वहां क्या होता है? क्योंकि सारे लोग वहीं से आते हैं। राम भी वहीं से निकलते हैं, और रावण भी वहीं से निकलते हैं, एक ही दरवाजे से! मैं सदा चिंतित होता था कि इस दरवाजे के पीछे क्या राज है? राम भी वहीं से आते हैं, रावण भी वहीं से आते हैं! सीता को चुराने वाला भी वहीं से आता, बचाने वाला भी वहीं से आता, सीता भी वहीं से आती! फिर तीनों वहीं चले जाते! उस कमरे में क्या होता है?
तो मैं पीछे का पर्दा उठा कर उस ग्रीन-रूम में घुस गया। वहां तो मैं बड़ा चकित हुआ! क्योंकि वे जो राम और रावण बाहर बड़ा युद्ध कर रहे थे, वे वहां बैठ कर सिगरेट पी रहे थे दोनों! गपशप कर रहे थे! मैंने कहा कि यह तो बड़ा आश्चर्यजनक मामला है! और पर्दे पर तो ये बड़ा धनुषबाण खींच कर, और बड़ी आवाज, और पैर पटक कर बातें करते हैं। यहां सिगरेट पी रहे हैं! तब से मुझे निरंतर यह खयाल रहा है कि जिंदगी के पर्दे के पीछे भी कोई आश्चर्य नहीं है कि राम और रावण बैठ कर सिगरेट पीते हों। कुछ बहुत आश्चर्य नहीं है। क्योंकि जिंदगी के पर्दे पर भी हम एक ही जगह से आते हैं और एक ही जगह वापस लौट जाते हैं। ग्रीन-रूम एक ही है। पर्दे पर आना-जाना तो होता रहता है। लेकिन पीछे लौटते-आते एक ही रास्ता है। उसी अंधकार से हम आते हैं जन्म के और मृत्यु में उसी अंधकार में वापस लौट जाते हैं। पर्दे के पीछे राम और रावण में बहुत फर्क नहीं है।
इसलिए जो जानते हैं वे इस जगत को लीला कहेंगे, नाटक कहेंगे। जो जानते हैं वे इस जगत को खेल कहेंगे। लेकिन यह जगत लीला तभी होगा जब हमें द्रष्टा का थोड़ा खयाल आ जाए। नहीं तो लीला ही सत्य हो जाती है, नाटक ही सत्य हो जाता है, सपना ही सत्य हो जाता है।
क्या आपने कभी खयाल किया कि सपने में कभी पता नहीं चलता कि जो मैं देख रहा हूं यह सपना है! कितनी दफे सपना आपने देखा जिंदगी में? रोज सुबह उठ कर कहते हैं सपना था। फिर रात सोते हैं और फिर सपना देखते हैं, लेकिन सपने में खयाल नहीं आता कि जो देख रहा हूं यह सपना है। फिर सपना पकड़ लेता है। फिर सुबह उठ कर कहते हैं कि सब सपना था। रात फिर आती है और फिर सपना पकड़ लेता है। सपने की पकड़ बड़ी गहरी मालूम पड़ती है। हजार-हजार अनुभव के बाद भी जब सपना आता है, तो एकदम पकड़ लेता है, सपना सच हो जाता है।
ध्यान रहे, जब सपना सच होता है तब आप झूठे हो जाते हैं तत्काल। दो में से एक ही चीज सत्य हो सकती है: या तो दृश्य, या द्रष्टा। जब दृश्य सत्य हो जाता है तो द्रष्टा झूठा हो जाता है। पता ही नहीं चलता कि है। जब द्रष्टा लौटता है तो दृश्य झूठा हो जाता है। सुबह जब आप जागते हैं और द्रष्टा की तरह देखते हैं, तब आपको पता चलता है कि सपना था, झूठा था। रात जब सोते हैं, द्रष्टा सो जाता है, सपना सच हो जाता है, दृश्य सत्य हो जाता है।
दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। एक वे जिन्हें दर्शन सत्य है, दृश्य सत्य है; और एक वे जिन्हें द्रष्टा सत्य है। और दोनों एक साथ सत्य नहीं हो सकते। कभी हुए नहीं हैं। इसलिए जिन्होंने कहा, जगत माया है, उनका मतलब कुछ और नहीं है। उनका मतलब केवल इतना है: सपना है। उनका मतलब केवल इतना है: दृश्य है। और जो देख रहा है वह गहरे में सत्य है। सब्स्टेंशिएल, तात्विक वह है जो देख रहा है। जो दिखाई पड़ रहा है, वह अभी है, अभी मिट जाएगा; अभी बना है, अभी खो जाएगा। लेकिन देखने वाला?
रात जब मैं सपना देखता हूं तब भी मैं होता हूं। नहीं तो सुबह याद कौन करेगा? सपना तो मिट जाता है, मैं बच जाता हूं सुबह। दिन भर सपना देखता हूं, तब भी मैं होता हूं। रात दिन भर का सपना फिर खो जाता है, लेकिन मैं फिर बच जाता हूं।
बच्चा था तब मैंने बचपन का सपना देखा था, लेकिन मैं था। अब जवान हूं तो जवानी का सपना देख रहा हूं, अब मैं हूं। बूढ़ा हो जाऊंगा तो बूढ़े होने का सपना देखूंगा, तब भी मैं होऊंगा। बचपन में, बुढ़ापे में, जवानी में सपना रोज बदलता रहेगा, लेकिन देखने वाला रोज वही है, वही है, वही है।
एक वह है जो बदल रहा है, और एक वह है जो अनबदला देख रहा है।
धर्म, अध्यात्म उसकी खोज है जो देख रहा है। संसार उसकी खोज है जो दिखाई पड़ रहा है। जो दिखाई पड़ रहा है उसकी खोज में जो पड़ गया, वह भटकता चला जाएगा। क्योंकि दिखाई पड़ने वाला प्रतिपल बदल रहा है, आप खोजोगे कैसे? आप जब तक पहुंचोगे तब तक सब बदल चुका है।
एक छोटी सी कहानी, और अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
किसी गांव में एक आदमी था। बहुत चालाक, बहुत होशियार। गांव के लोग किसी मुसीबत में पड़ते तो उससे सवाल पूछने जाते। वह चालाक होशियार आदमी था। अपना ताला भी लगाता तो दो-तीन बार लौट कर हिला कर देख लेता, कि सच में लगा है न! एक दिन नाईबाड़े में बाल बनवाने गया था। बाल तो बनवा लिए, रुपया दिया, आठ आने हुए थे, आठ आने नाई के पास वापस करने को न थे। नाई ने रुपया तो खीसे में रख लिया और कहा कि कल बाजार आएं तब पैसे बाकी ले लेना।
उस आदमी ने कहा, पता नहीं यह आदमी कल तक नाई रहे कि न रहे। जमाना बड़ा खराब है। कल शर्मा लिख ले कि वर्मा लिख ले, कुछ पक्का पता नहीं है। नाम बदल ले, जाति बदल ले, दुकान बदल ले। यहां सब बदल रहा है। इधर कुछ पक्का पता ही नहीं है। अभी आदमी चीफ मिनिस्टर था, अभी चपरासी है। अभी चपरासी है, अभी चीफ मिनिस्टर हो गया। कुछ जहां पक्का नहीं, जहां सब गड़बड़ हो गया है, वहां इस नाई का क्या भरोसा कि कल आठ आने दे न दे। तो कुछ पक्का इंतजाम कर लेना चाहिए कि इसका पक्का पता रहे। बोर्ड बदलने में कितनी देर लगती है! जरा में बदल लेता है। एक आदमी कांग्रेसी है, एक मिनट में गैर-कांग्रेसी हो जाता है। तो बोर्ड तो बदल सकता है। तो यह बोर्ड अपना बदल ले और कल कुछ गड़बड़ हो जाए, तो आठ आने गए। वह जो आदमी ताला तीन दफे हिलाता था, साधारण आदमी न था। उसने कहा, कुछ ऐसा इंतजाम करो जिसे यह बदल ही न सके। और उसने इंतजाम कर लिया। एक भैंस उस नाईबाड़े के सामने बैठी थी। उसने कहा कि ठीक है, इसको क्या पता कि यह भैंस यहां बैठी है। कल जहां भैंस बैठी होगी, हम फौरन पकड़ लेंगे कि बेटा, कितना ही बदलो...।
कल वह अपना आया निश्चिंत। भैंस कहीं बैठी थी जरूर, आज भी बैठी थी। देखा उसने, उसने कहा, ठीक किया जो हमने भैंस से संबंध बांधा। हद्द हो गई! बोर्ड तो बदल ही लिया है। कल जहां नाईबाड़ा लिखा था, आज वहां मिठाई वाला लिखा है। कल जहां नाई की दुकान थी, आज वहां मिठाई बिक रही है। उसने कहा, हद हो गई! हमने भी ठीक किया जो भैंस को खयाल में रखा। अगर बोर्ड को खयाल में रखते तो फंस ही जाते। अंदर जाकर उचक कर उसने उस मिठाई वाले की गर्दन पकड़ ली, उसने कहा, हद्द कर दी तूने भी। आठ आने के पीछे इतनी बदलाहट करनी पड़ती है! उस मिठाई वाले ने कहा, आप बात क्या कर रहे हैं? उसने कहा, गड़बड़ मत कर। मैं ऐसा इंतजाम कर गया हूं पक्का। वह भैंस बाहर की बाहर बैठी है अभी भी।
अब भैंस का कोई भरोसा है कि वह वहीं बैठी हो?
हम जिंदगी भर दृश्यों के लिए भाग रहे हैं। दृश्यों का कोई भरोसा है कि वे वहीं होंगे? क्या आप वही सपना आज रात फिर देख सकते हैं जो आपने कल रात देखा था? उपाय करके देखें। कितना ही उपाय करें, उसे दुबारा देखना बहुत मुश्किल है। वही दुबारा। कल जिस पत्नी को आप मिले थे अपनी, आज आप उसी पत्नी से मिल सकते हैं दुबारा? आशा रखते हैं, इसी से दिक्कत होती है। कल जो स्त्री थी वह आज कहां, गंगा का बहुत पानी बह गया! कल उसने प्रेम किया था, हो सकता है आज गाली दे। तब मुश्किल होगी मन में कि यह कैसी इनकंसिस्टेंसी! कल यह औरत प्रेम की बात करती थी, आज गाली देती है!
आप भी भैंस को पहचान कर घर चले गए थे। आपने जो चीज पकड़ी थी वह बदलने वाली थी। स्त्री भी बदलेगी, बेटा भी बदलेगा। मां अपने बेटे से कहती है: शादी होने के बाद तू कैसा हो गया? कल तक मेरी गोद में सिर रखता था, अब मेरी तरफ देखता ही नहीं! भैंस को पकड़ लिया। अब मुश्किल में पड़ गए। अब वह बेटा किसी और स्त्री की गोद में सिर रख रहा है, वह कब तक तुम्हारी गोद में सिर रखता रहेगा! बदलने वाले को पकड़ कर हम बड़ी झंझट में पड़े हुए हैं, चौबीस घंटे। और वह बदलने वाला बदला जा रहा है, कोई उपाय नहीं है। और ऐसा नहीं कि वही बदला जा रहा है, हम भी बदले जा रहे हैं। जहां दृश्य की दुनिया है वहां सब बदल रहा है; वहां कुछ भरोसा नहीं है।
तो जो दृश्य की खोज में दौड़ रहा है वह जिंदगी भर पीड़ा में, परेशानी में रहेगा। और ऐसा नहीं कि हम ही दौड़ रहे हैं, बड़े बुद्धिमान दौड़ जाते हैं। अब रामचंद्र दौड़ गए स्वर्णमृग के पीछे! हम भी एक दफा सोचते कि सोने का हिरन होता भी है? लेकिन राम दौड़ गए सोने का हिरन देख कर। सीता का भी मन हुआ कि ले आओ पकड़ कर इस स्वर्ण के मृग को! स्वर्ण के मृग के पीछे राम भी दौड़ जाते हैं? सोने का कहीं हिरन होता है? लेकिन राम दौड़ जाते हैं।
हम भी दौड़ रहे हैं। असल में हमारे भीतर भी राम ही दौड़ रहे हैं। दौड़ेगा कौन? स्वर्णमृग दिखाई पड़ रहे हैं; दौड़े चले जा रहे हैं। दृश्यों की एक दुनिया है, वहां हम दौड़ते-दौड़ते-दौड़ते, न मालूम कितने अनंतकाल से दौड़ते हैं।
लेकिन कब तक दौड़ते रहिएगा? क्या अभी काफी दौड़ नहीं हो गई? समय नहीं आ गया कि हम उसे पहचानें जो दौड़ रहा है? उसे पहचानें जो देख रहा है?
अगर समय आ गया है उसे पहचानने का, तो अब नई दौड़ें न बनाएं देवी-देवताओं की, इसकी, उसकी। नहीं, अब नई दौड़ नहीं चाहिए। अब तो दौड़ का ठहरना चाहिए। और उसे देखना है जो सब दौड़ को सदा देखता रहा है। समाधि उसका द्वार है।
आज रात्रि, जो मित्र तीन दिन तक समाधि के प्रयोग के लिए आते रहे हैं, या तीन दिन में से एक भी दिन जो मित्र आया हो, आज की रात्रि सिर्फ वही आएंगे जो तीन दिन आए हैं या कम से कम एक दिन आए हों, क्योंकि आज एक घंटे मौन प्रवचन, साइलेंट कम्युनिकेशन रखा है।
शब्द से वह कहने की कोशिश करता हूं जो नहीं कहा जा सकता, इसलिए मैं भी मुश्किल में पड़ता हूं, आप भी मुश्किल में पड़ते हैं। शब्द से वह कहता हूं जो कहा ही नहीं जा सकता। शब्द से आप वह सुनते हैं जो सुना ही नहीं जा सकता। इसलिए कठिनाइयां बिलकुल स्वाभाविक हो जाती हैं।
आज रात घंटे भर मैं चुप बैठूंगा आपके बीच, कुछ मौन से कहने की कोशिश करूंगा। आप सिर्फ मौन में सुनने की कोशिश करना, और कुछ न करना। कुछ भी पता नहीं, शायद जो नहीं शब्द में कहा जा सकता वह निःशब्द में आप तक पहुंच जाए। पहुंच सकता है। शब्द ही एकमात्र मार्ग नहीं हैं पहुंचाने का। सच तो यह है शब्द कोई मार्ग ही नहीं हैं। चूंकि मौन हम नहीं हो सकते हैं, इसलिए शब्द में बात करनी पड़ती है। काश हम चुप हो सकें तो शब्द की कोई जरूरत नहीं, जो कहना है वह बिना कहे भी कहा जा सकता है।
इसलिए जो मित्र आते हों, नया मित्र कोई भी न आए आज, एक दिन कम से कम पिछले तीन दिनों में कोई आया हो तो ही। नया मित्र न आए। अन्यथा घंटा भर उसे समझ के बाहर हो जाएगा कि क्या हो रहा है। जो मित्र आते हैं वे स्नान करके आएंगे, ताजे कपड़े पहन कर आएंगे। और घर से ही चुप होकर चल पड़ेंगे। साढ़े आठ बजे के पहले ही सबको पहुंच जाना है, अपनी-अपनी जगह चुपचाप बैठ जाना है। मैं आकर बैठ जाऊंगा, घंटे भर चुप आपके पास रहूंगा। अगर उस बीच किसी को भी मेरे पास आने जैसा लगे--लगे तो ही--तो चुपचाप उठ कर मेरे पास दो मिनट आकर बैठ जाएगा। दो मिनट से ज्यादा नहीं। उठ कर वापस लौट जाएगा। कोई किसी को देख कर नहीं आएगा। और कोई, अगर मन में उठे तो संकोच से रुकेगा भी नहीं, चुपचाप उठ कर आकर बैठ कर वापस लौट जाएगा। देखें, शायद मौन में वह संवाद हो सके जो शब्द से नहीं हो सकता है।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।