MEDITATION
Samadhi Ke Dwar Par 01
First Discourse from the series of 6 discourses - Samadhi Ke Dwar Par by Osho. These discourses were given during Feb 21, 1970 to Feb 24, 1970.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीये को जला दे, और जहां कुछ भी दिखाई न पड़ता हो वहां सभी कुछ दिखाई पड़ने लगे, ऐसे ही जीवन के अंधकार में समाधि का दीया है। या जैसे कोई मरुस्थल में वर्षों से वर्षा न हुई हो और धरती के प्राण पानी के लिए प्यास से तड़पते हों, और फिर अचानक मेघ घिर जाएं और वर्षा की बूंदें पड़ने लगें, तो जैसा उस मरुस्थल के मन में शांति और आनंद नाच उठे, ऐसा ही जीवन के मरुस्थल में समाधि की वर्षा है। या जैसे कोई मरा हुआ अचानक जीवित हो जाए, और जहां श्वास न चलती हो वहां श्वास चलने लगे, और जहां आंखें न खुलती हों वहां आंखें खुल जाएं, और जहां जीवन तिरोहित हो गया था वहां वापस उसके पदचाप सुनाई पड़ने लगें, ऐसा ही मरे हुए जीवन में समाधि का आगमन है।
समाधि से ज्यादा महत्वपूर्ण जीवन में कुछ भी नहीं है। न तो कोई आनंद मिल सकता है समाधि के बिना, न कोई शांति मिल सकती है, न कोई सत्य मिल सकता है।
समाधि को समझ लेना इसलिए बहुत उपयोगी है। समझ लेना ही नहीं--क्योंकि समाधि उन कुछ थोड़ी सी बातों में से है जिसे समझ लेना काफी नहीं है--उसमें से होकर गुजरें तो ही उसे समझ भी सकते हैं।
जैसे कोई नदी के तट पर खड़ा हो और हम उसे कहें कि आओ, तुम्हें तैरना सिखा दें! और वह कहे कि पहले मैं तैरना सीख लूं तट पर ही, तभी पानी में उतरूंगा। पहले मैं समझ लूं, फिर पानी में उतरूं। तो तर्क उसका गलत न होगा। ठीक ही कहता है वह। बिना तैरना जाने कोई पानी में उतरने को राजी भी कैसे हो! लेकिन एक और बड़ी कठिनाई है, उसकी कठिनाई तो है ही, सिखाने वाले की भी कठिनाई है, क्योंकि बिना पानी में उतरे तैरना सिखाया भी कैसे जाए! तो तैरना सिखाने वाला कहने लगे, उतर आओ पहले! क्योंकि बिना पानी में उतरे तैरना न सीख सकोगे। तो वह भी गलत न कहे। और जिसे सीखना है वह कहे, भयभीत हूं मैं, बिना तैरे उतरूंगा नहीं। पहले सीख लूं, तब उतर सकता हूं।
समाधि की बात भी कुछ ऐसी ही है। समाधि में गए बिना कुछ भी पता नहीं चल सकता है। लेकिन हम जानना चाहेंगे किनारे पर खड़े होकर: क्या है समाधि?
शब्द जितना कह सकते हैं उतनी कहने की कोशिश करूंगा। शब्द जो नहीं कह सकते हैं उसे कहने का कोई रास्ता नहीं है।
सुना है मैंने, एक फकीर के पास कोई गया था, उससे पूछने लगा था: किस समाधि की बात करते हो? किस ध्यान की बात करते हो? क्या है वह? कुछ बोलो! समझाओ! बताओ!
वह फकीर आंख खोले बैठा था, उसने तत्काल आंख बंद कर ली।
उस आदमी ने कहा, यह भी खूब रहा! कम से कम आंख खोले थे। आंख तो खोलो! मैं तो जानने आया हूं कि समाधि क्या है? ध्यान क्या है? जिसकी दिन-रात बात करते हो, कुछ तो बताओ!
वह फकीर बैठा था, वह एकदम गिर गया!
उस आदमी ने कहा, कर क्या रहे हो यह? कहीं मर मत जाना! मैं तो सिर्फ समाधि के लिए पूछने आया हूं।
उस फकीर ने आंख खोली, उसने कहा, मैं बताने की कोशिश कर रहा हूं।
उस आदमी ने कहा, ऐसे नहीं, तुम तो शब्दों से ही बता दो।
वह फकीर कहने लगा, शब्दों में जो कहा जा सकता है वह समाधि के संबंध में कुछ भी न होगा। इसलिए मैंने तुम्हें कुछ करके बताया है।
लेकिन क्या, कोई आंख बंद कर ले, कोई गिर जाए, तो भी क्या पता चलेगा हमें?
नहीं; हमारी ही आंख बंद हो और हम ही गिर जाएं किसी क्षण में, न केवल बाहर से बल्कि भीतर से भी गिर जाएं और बिखर जाएं, जैसे कोई बूंद किसी सागर में खो जाए, या जैसे कोई बीज किसी मिट्टी में टूट जाए, ऐसा हमारे भीतर ही घटित हो तो ही हम पहचान पाएं कि समाधि क्या है।
लेकिन कुछ इशारे किए जा सकते हैं। सुबह तो मैं कुछ इशारे करूंगा और सांझ चाहूंगा कि हम सब साथ समाधि में प्रवेश करें। तो जिनकी सुनने में उत्सुकता है, वे सिर्फ सुबह ही आएंगे। जिनकी तैरने में भी उत्सुकता है, जो जाना ही चाहते हैं, वे सांझ आएंगे। सुबह हम बात करेंगे और सांझ स्वाद लेने की कोशिश करेंगे। लेकिन ध्यान रहे, बात से समझ में नहीं आएगा, स्वाद से ही समझ में आ सकता है।
यह भी मैं सोचता हूं कि अच्छा होगा कि मैं इस तरह समझाने की कोशिश करूं, यह बताने की कोशिश करूं कि मैं उस द्वार पर कैसे पहुंच गया। शायद उससे रास्ता साफ हो सके, शायद आपको भी लगे कि यह रास्ता चला जा सकता है।
निरंतर लोग मुझसे पूछते भी हैं: उस समाधि पर कैसे पहुंचे?
एक छोटी सी घटना से मैं शुरू करना चाहता हूं।
छोटा था, तो जिनके पास मैं बड़ा हुआ, दुर्भाग्य से या सौभाग्य से वे बहुत जल्दी दुनिया से विदा हो गए। मैं सात ही वर्ष का था तब उनकी मृत्यु आ गई। और मैंने उन्हें धीरे-धीरे मरते देखा। वे एकदम से नहीं मरे; पहले उनकी वाणी खो गई, फिर उनकी आंखें बंद हो गईं, फिर वे बेहोश हो गए और चौबीस घंटे बेहोश रहे। और फिर उसी बेहोशी में धीरे-धीरे, जैसे कोई दीये का तेल चुकता जाए, चुकता जाए और धीमी लौ होती जाए, ऐसे धीरे-धीरे वे डूबे और खो गए। उनको ही मैंने चाहा और प्रेम किया था। उनके पास ही बड़ा हुआ था। उस क्षण तो ऐसा ही लगा था--बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण हुआ।
लेकिन पता नहीं, दुर्भाग्य बहुत बार सौभाग्य भी बन जाते हैं। मेरे लिए मृत्यु की वह पहली घटना थी। और जिसे मैंने चाहा था, उसके विदा हो जाने की भी पहली घटना थी। सारा घर तो रोने लगा, दुखी और पीड़ित होने लगा। पर मुझे निरंतर एक ही बात मन में लगने लगी कि अगर वे नहीं रहे हैं तो अब मेरे रहने की भी क्या जरूरत है? और जिसे मैंने प्रेम किया वही नहीं है, तो अब मैं भी न रहूं। मुझे रोना भी न सूझा। अब आज मुझे समझ में आता है कि रोकर हम दुख प्रकट तो करते हैं, शायद दुख को बहाने की कोशिश करते हैं। अब मैं समझ पाता हूं कि रो-धो कर, चीख-चिल्ला कर, वह जो पीड़ा हम पर उतरी है, उससे हम छुटकारा पा लेते हैं, उसकी रिलीज हो जाती है, वह निकल जाती है।
मैं नहीं रो सका, क्योंकि मुझे लगा कि अगर कोई जिसे मैंने चाहा है, समाप्त हो गया है, तो अब मैं भी समाप्त हो जाऊं, अब मुझे भी जीने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें लोग मरघट ले गए, मुझे लोग घर में बंद कर गए छोटा बच्चा सोच कर--कि मैं मरघट जाऊं, पता नहीं मरघट को देखूं, कैसा मन पर आघात लगे; फिर उन्हें मैं प्रेम करता था, उन्हें जलते देखूं। लेकिन जब घर के लोग चले गए तो मैं भी चुपचाप पीछे के रास्ते से मरघट पहुंच गया। मुझे कुछ पक्का पता न था वहां क्या होने को है। डर से कि घर के लोग नाराज होंगे, छिप कर, वृक्ष पर बैठ कर ही मैंने उन्हें जलते देखा। लौट आया।
उस रात मैं एक ही प्रार्थना लेकर सो गया कि मैं भी मर जाऊं! भगवान, ऐसा कर कि मैं भी मर जाऊं! जब तक मुझे रात नींद नहीं लगी, एक ही बात मेरे मन में गूंजती रही कि मैं भी मर जाऊं, मुझे भी समाप्त हो जाना है। कब मुझे नींद लग गई, पता नहीं है, लेकिन नींद में भी मेरे मन में यही स्वर दौड़ता रहा, दौड़ता रहा कि मैं मर जाऊं, मैं मर जाऊं, मैं मर जाऊं।
कोई रात के दो या तीन बजे अचानक मेरी नींद टूटी और मुझे लगा कि वह जिसे मैं कह रहा था कि मर जाऊं, मर गया है। सब मर गया है। हाथ हिला नहीं सकता हूं, आंख खोल नहीं सकता हूं, श्वास का कोई पता नहीं मालूम पड़ता है, शरीर है भी या नहीं, उसका भी कुछ पता नहीं पड़ता है। सब मर गया है। लेकिन एक और आश्चर्य कि सब मर गया है, फिर भी मैं हूं--क्योंकि मुझे पता चल रहा है कि सब मर गया है। दोनों बातें एक साथ--सब मर गया है और फिर भी मैं हूं। यह भी पता चल रहा है कि मैं हूं। क्योंकि अगर मैं नहीं हूं तो किसे मालूम हो रहा है कि सब मर गया है?
छोटी ही उम्र थी, लेकिन उसी दिन से मृत्यु मेरे लिए समाप्त हो गई। उस दिन के बाद बहुत प्रियजन मरे, लेकिन फिर मेरे लिए कोई नहीं मरा। दूसरे दिन सुबह मैं जितनी शांति और आनंद से भरा था, वैसी शांति उस दिन तक मैंने कभी न जानी थी, वैसा आनंद भी न जाना था। एक अनुभव से होकर गुजरा था। अब लौट कर कह सकता हूं--उस दिन तो पता नहीं था, लेकिन अब लौट कर कह सकता हूं--समाधि के द्वार पर वह पहला, पहला झांकना था। समाधि के द्वार पर जिसे झांकना है उसे जीते जी मरने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
लेकिन हम सब तो मरने से बहुत डरे हुए लोग हैं। हम तो जीवन भर इस कोशिश में रहते हैं कि कहीं मर न जाएं। हमारा सारा प्रयास एक ही बात के लिए है कि मर न जाएं। हमारे दर्शन, हमारे धर्म, हमारी फिलासफीज, हमारे गुरु एक ही बात के लिए इंतजाम दे रहे हैं कि घबड़ाओ मत, घबड़ाओ मत। और अगर हम आत्मा की अमरता की बात भी मानते हैं, तो इसलिए नहीं कि हमें पता है कि आत्मा अमर है, बल्कि इसलिए कि इससे मरने का भय कम होता है।
तो दुनिया में मृत्यु से डरने वाले लोग आत्मा की अमरता को जरूर ही मान लेते हैं। हम मृत्यु से बचने के प्रयास में संलग्न हैं। हमारी पूरी जिंदगी जीने की जिंदगी नहीं है, मरने से बचने की जिंदगी है। हमारा धन, हमारे मकान, हमारे मित्र, हमारे प्रियजन, ये सब मृत्यु के खिलाफ हमारी सुरक्षाओं की दीवालें हैं। इसलिए जिस आदमी के पास जितना धन है, वह उतना सुरक्षित अनुभव करता है। जिस आदमी के पास जितना बड़ा किले जैसे मकान है, वह उतना सुरक्षित अनुभव करता है। जिस आदमी के पास सैनिकों का पहरा है, वह उतना सुरक्षित अनुभव करता है। जिस आदमी के पास जितनी शक्ति है, वह समझता है कि मैं सुरक्षित हूं।
हमारी सारी दौड़, अगर हम आदमी की पूरी जिंदगी के राज को समझना चाहें, तो दुनिया में दो ही तरह के आदमी हैं: एक वे जो जीते हैं और एक वे जो मरने से बचने का इंतजाम करते रहते हैं। लेकिन जो मरने से बचने का इंतजाम करता रहता है वह मरने से नहीं बच पाता है, मृत्यु तो आती है। और आश्चर्य तो यह है कि जो जीता है वह मरने से बच जाता है। क्योंकि जीवन की जितनी गहराइयों में उतरता है उतना ही पाता है मृत्यु नहीं है। मृत्यु सबसे बड़ा असत्य है। उससे बड़ा कोई भी असत्य नहीं है। लेकिन हम उसी से भयभीत हैं और उसी से बचने की कोशिश में संलग्न हैं। भाग रहे हैं, भाग रहे हैं कि मर न जाएं। इसीलिए हम धार्मिक आदमी नहीं हो पाते। धार्मिक आदमी वह है जो मरने के लिए तैयार है। जो कहता है: मरना ही है तो मैं मर कर देख लेना चाहता हूं।
सुकरात मर रहा था। तो किसी ने उससे पूछा कि तुम घबड़ा नहीं गए हो, मौत करीब आ रही है! तो सुकरात ने कहा, दो बातें ही हो सकती हैं। या तो मैं मर ही जाऊंगा, कुछ भी न बचेगा। और अगर मर ही जाऊंगा, कुछ भी न बचेगा, फिर भय कैसा? क्योंकि भय के लिए बचना तो जरूरी है। फिर दुख कैसा? क्योंकि दुख के लिए भी मेरा होना जरूरी है। फिर डर कैसा? अगर मैं मर ही गया, कुछ भी न बचा, तो डर नहीं है। और अगर मैं बच ही गया और मरने में मैं न मरा, तो फिर तो डर का कोई सवाल नहीं है। जब बच ही जाऊंगा, तो डर कैसा? फिर जो मर गया वह मैं नहीं था जानूंगा और जो बच गया वही मैं हूं।
सुकरात ने कहा, दो ही बातें हैं। या तो मर ही जाऊंगा, तब डर का कोई उपाय न रहा। और अगर बच ही गया, तब तो डर की कोई बात ही नहीं है। लेकिन हम? हम बहुत डरे हुए हैं, बहुत भयभीत हैं। इसलिए समाधि के पास हम नहीं पहुंच पाते हैं। समाधि के पास वही पहुंच सकता है जो मरने के लिए तैयार है। इसीलिए हम किसी की मृत्यु के बाद चबूतरा बनाते हैं तो उसे भी समाधि कहते हैं और ध्यान की आखिरी स्थिति को भी समाधि कहते हैं। कब्र को भी समाधि कहते हैं और ध्यान की आखिरी स्थिति को भी समाधि कहते हैं। दोनों में कुछ जोड़ है। जो आदमी जीते जी अपने को कब्र में डाल देता है वह समाधि को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन जीते जी कब्र में डालना, जीते जी मरने की तैयारी दुरूह है।
मैंने सुना है, इजिप्त में एक आश्रम था। और उस आश्रम में आश्रम के नीचे ही मरघट था। जमीन को खोद कर नीचे मरघट बनाया था। हजारों वर्ष पुराना आश्रम था। मीलों तक नीचे जमीन खोद कर उन्होंने कब्रगाह बनाई हुई थी। जब कोई भिक्षु मर जाता, तो पत्थर उखाड़ कर, उस नीचे के मरघट में डाल कर चट्टान बंद कर देते थे।
एक बार एक भिक्षु मरा। लेकिन कुछ भूल हो गई। वह मरा नहीं था, सिर्फ बेहोश हुआ था। उसे मरघट में नीचे डाल दिया। चट्टान बंद हो गई। पांच-छह घंटे बाद उस मौत की दुनिया में उसकी आंखें खुलीं, वह होश में आ गया। उसकी मुसीबत हम सोच सकते हैं! सोच लें कि हम उसकी जगह हैं। वहां लाशें ही लाशें हैं सड़ती हुई, दुर्गंध, हड्डियां, कीड़े-मकोड़े, अंधकार! और उस भिक्षु को पता है कि जब तक अब और कोई ऊपर न मरे, तब तक चट्टान का द्वार न खुलेगा। और उसे यह भी पता है कि अब वह कितना ही चिल्लाए...चिल्लाया, जानते हुए भी चिल्लाया कि आवाज ऊपर तक नहीं पहुंचेगी...क्योंकि आश्रम मील भर दूर है। और मरघट पर तभी आते हैं आश्रम के लोग जब कोई मरता है। और बड़ी चट्टान से द्वार बंद है। फिर भी, जानते हुए...
हम भी बहुत बार जानते हुए चिल्लाते हैं, जानते हुए कि आवाज नहीं पहुंचेगी। मंदिरों में लोग चिल्ला रहे हैं, जानते हुए कि आवाज कहीं भी नहीं पहुंचेगी। हम सब चिल्ला रहे हैं जानते हुए कि आवाज नहीं पहुंचेगी। आदमी जानते हुए भी चिल्लाए चला जाता है, जहां आशा नहीं है वहां भी आशा किए चला जाता है।
वह आदमी बहुत चिल्लाया, चिल्लाया, उसका गला लग गया, आवाज निकलनी बंद हो गई। शायद हम सोचेंगे कि उस आदमी ने आत्महत्या कर ली होगी। लेकिन नहीं, उस आदमी ने आत्महत्या नहीं की। वह आदमी थोड़े-बहुत दिन नहीं, सात साल उस कब्र के भीतर जिंदा रहा। वह कैसे जिंदा रहा? उसने सड़ी हुई लाशों को खाना शुरू कर दिया। उसने कीड़े-मकोड़े, जो लाशों में पलते थे, उनको खाना शुरू कर दिया। मरघट की दीवालों से नालियों का जो पानी चूता था, उसे वह चाट कर पीने लगा। इस प्रतीक्षा में कि कभी न कभी तो कोई मरेगा ही। द्वार तो खुलेगा ही। आज नहीं कल, कल नहीं परसों। कब सूरज उगता, उसे पता न चलता; कब रात आती, उसे पता न चलता।
सात साल बाद कोई मरा, चट्टान उठाई गई, तो वह आदमी बाहर निकला। और वह खाली बाहर नहीं निकला। इजिप्त में रिवाज है कि मरने वाले आदमियों को नये कपड़े पहना दिए जाते और उनके साथ दो-चार कपड़े कीमती रख दिए जाते, कुछ पैसे-रुपये भी रख दिए जाते। तो उसने सब मुर्दों के कपड़े और पैसे इकट्ठे कर लिए थे, जब निकलेगा तो लेता चला जाएगा। तो वह एक बड़ी पोटली बांध कर कपड़े और एक बड़ी थैली में सब रुपये भर कर बाहर आया। उसे तो कोई पहचान ही नहीं सका, मरघट पर जो लोग आए थे वे तो घबड़ा कर भागने लगे कि वह कौन है! उसके बाल जमीन छूने लगे थे, उसकी आंखों की पलकें इतनी बड़ी हो गई थीं कि आंख नहीं खुलती थी। उसने कहा, भागते हो? पहचाने नहीं? मैं वही हूं जिसे तुम सात साल पहले नीचे डाल गए थे।
उन्होंने कहा, लेकिन तुम जिंदा कैसे रहे? अगर छह घंटे बाद होश में भी आ गए थे तो बचे कैसे? तुमने आत्महत्या न कर ली! सात साल तुम इस मरघट में रहे कैसे?
उस आदमी ने कहा, मरना इतना आसान तो नहीं है! मैं भी सोचता था। मैं भी यही सोचता, अगर कोई और उस मरघट में गिरा होता तो मैं भी यही सोचता कि पागल, जीने की बजाय मर जाते! लेकिन अब मैं कह सकता हूं: मरना इतना आसान नहीं है। मैंने जीने की पूरी कोशिश की। और जीने के लिए मैंने जो भी किया है वह भी घबड़ाने वाला है। आज अगर फिर से सोचूं तो शायद न कर पाऊं।
हम भी सोचेंगे कि वह आदमी कैसा आदमी रहा होगा! लेकिन वह आदमी ठीक हमारे जैसा आदमी था। हम भी उसकी जगह होते तो यही करते। और जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं, क्या वह जिंदगी उस मरघट से बहुत भिन्न है? और जिसे हम भोजन कह रहे हैं, क्या वह उस मरघट में किए गए भोजन से बहुत भिन्न है? और जिसे हम कपड़े और रुपये का इकट्ठा करना कह रहे हैं, वह भी क्या मुर्दों से छीने गए रुपये और कपड़े नहीं हैं?
बाप ब़ूढा हो गया हो, तो चाहे बच्चे कहें या न कहें, सोचते हैं कि विदा हो जाए। वे मुर्दे के कपड़े और पैसे छीनने के लिए उत्सुक हैं। राष्ट्रपति को शुभकामनाएं भी देते हैं लोग। उपराष्ट्रपति जन्मदिन पर जाकर फूलमालाएं भी चढ़ाते हैं और मन में भगवान से जाने-अनजाने प्रार्थना भी करते हैं: कब तक टिके रहिएगा? क्योंकि वे विदा हों तो उनकी मरी हुई कुर्सी किसी को, कोई उस पर सवार हो जाए।
इसलिए दिल्ली में कोई मरता है, तो जो लोग चेहरे पर आंसू लिए हुए मरघट की तरफ ले जाते मालूम पड़ते हैं, वे ही तैयारी भी कर रहे होते हैं उसी वक्त कि कौन उसकी मरी हुई कुर्सी पर बैठ जाए। कहीं ऐसा न हो कि दूसरा बैठ जाए। बल्कि मरघट पर ले जाते वक्त भी इस बात की होड़ रहती है कि मुर्दे को सबसे पहले कौन हाथ दे रहा है, क्योंकि उसका कुर्सी पर कब्जा हो सकता है। मैंने सुना है कि गांधी मरे तो जिस टैंक पर चढ़ा कर उनको ले जाया गया था उस पर भी खड़े होने की प्रतियोगिता थी कि कौन-कौन नेता उस पर खड़े हो जाएं। क्योंकि दुनिया उनको देख ले कि वसीयतदार कौन हैं!
यह जिसको हम जिंदगी कहते हैं, यह भी एक बड़ा मरघट है, जिसमें क्यू है मरने वालों का। कोई अभी मरेगा, कोई थोड़ी देर बाद, कोई फिर थोड़ी देर बाद, कोई कल, कोई परसों, लेकिन सब मरेंगे। और इसमें जो मकान हैं हमारे पास, वे मुर्दों से छीने गए हैं, और जो कपड़े हैं वे भी, और जो धन है वह भी। और यहां भी हम जी रहे हैं बिना किसी आनंद को जाने, बिना किसी शांति को पाए, लेकिन सिर्फ एक आशा में कि शायद कल शांति मिले, कल आनंद मिले, कल कुछ मिल जाए। तो कल तक तो जीने की कोशिश करो। किसी भी भांति कल तक जी लो। कल शायद कुछ मिल जाए।
लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जो मरने के लिए तैयार नहीं है, उसे कभी कुछ न मिल सकेगा। और हम बहुत बार मरे हैं। लेकिन हम मरने से इतने भयभीत हैं कि मरने के बहुत पहले बेहोश हो जाते हैं। इसलिए हमें मृत्यु की कोई याद नहीं रह जाती। हम बहुत बार मरे हैं और बहुत बार जन्मे हैं, लेकिन हर बार मरने और जन्मने की क्रिया इतनी ज्यादा हमें डरा देती है कि हम बेहोशी में ही पैदा होते हैं और बेहोशी में ही मरते हैं। इसलिए उसकी मेमोरी, उसकी स्मृति नहीं बन पाती और गैप पड़ जाता है। इसलिए पिछले जन्म की भी स्मृति हमें नहीं रह जाती। पिछले जन्म की स्मृति न रह जाने का और कोई कारण नहीं है, पिछले जन्म की स्मृति न रह जाने का एक ही कारण है कि बीच में आई मृत्यु, और मृत्यु में हम इतने भयभीत हो गए कि बेहोश हो गए। और बेहोशी का जो अंतराल है, उसने स्मृति को दो हिस्सों में तोड़ दिया। पिछली स्मृति अलग टूट गई, यह स्मृति अलग टूट गई। इतना बड़ा बीच में गैप, अंतराल पड़ गया कि दोनों को जोड़ना मुश्किल है।
हां, कोई मरने की कला सीख जाए तो पिछले जन्म को स्मरण कर सकता है। क्योंकि तब फिर वह उस अंतराल को जोड़ सकता है। जन्मते भी हम बेहोश हैं। बहुत बार जन्मे हैं, लेकिन बेहोश जन्मे हैं। क्योंकि जन्म भी--यह जान कर हैरानी होगी--बच्चे को मृत्यु जैसा ही मालूम होता है। जब एक बच्चा मां के पेट से जन्मता है, तो उस बच्चे को मृत्यु जैसी ही प्रतीति होती है। वह इसीलिए मृत्यु जैसी प्रतीति होती है कि जिसे उसने नौ महीने तक जीवन समझा, वह अंत पर आ गया। जिसे उसने जीवन माना, वह अब समाप्त हो रहा है। और आगे के जीवन का तो उसे कुछ भी पता नहीं है। आगे तो भय है। मां के पेट का सारा आराम, सारी सुविधा, सारा सुख, सब छिन रहा है। और आगे का तो उसे पता नहीं है। उसकी दुनिया से वह उखाड़ा जा रहा है, अपरूट किया जा रहा है, सब जड़ें टूट जाएंगी। तो बच्चे को, जिसे हम जन्म कहते हैं, वह मृत्यु की तरह ही प्रतीत होता है। इसलिए बच्चा भी बेहोश ही जन्मता है, होश में नहीं होता। और जिसे हम मृत्यु कहते हैं वह भी जन्म है किसी और अर्थों में। लेकिन हम भी बेहोश मरते हैं। क्योंकि हमें लगता है कि जो था वह छूट रहा है, और जो आएगा वह तो अपरिचित है, आएगा भी, नहीं भी आएगा, पता नहीं क्या होगा?
हर मृत्यु जन्म है और हर जन्म मृत्यु है। इस जगत में न तो कुछ समाप्त होता और न कुछ शुरू होता है। जिसे हम शुरुआत कहते हैं, वह किसी चीज की समाप्ति है। और जिसे हम समाप्ति कहते हैं, वह किसी चीज की शुरुआत है। जिसे हम सांझ कहते हैं, वह दिन का अंत है और रात का प्रारंभ है। और जिसे हम सुबह कहते हैं, वह रात का अंत है और दिन का प्रारंभ है। और इस जगत में कुछ भी पूर्ण अंत को नहीं पहुंचता, और इस जगत में कुछ भी पहला प्रारंभ नहीं है। इस जगत में अंत है, प्रारंभ है; प्रारंभ है, अंत है। शुरुआत है, अंत है, शुरुआत है, अंत है। कोई चीज कहीं जाकर न समाप्त होती है और न कहीं शुरू होती है। इसलिए जीवन अनंत है। लेकिन मरने का डर बेहोश कर देता है। और मरने के डर के कारण ही हम समाधि में कभी प्रवेश नहीं कर पाते।
कितने लोग हैं जो मुझसे कहते हैं...कल ही एक मित्र कहते थे: आप ध्यान की बात तो कहते हैं, लेकिन अभी समझ में नहीं आती, उतर भी नहीं पाते।
नहीं उतर पाएंगे। जब तक मन की बहुत गहराई में मरने की तैयारी न हो, तब तक समाधि में नहीं उतरा जा सकता है। लेकिन जो लोग ध्यान करने आते हैं वे इसीलिए करने आते हैं कि शायद ध्यान भी मरने से बचने की एक तरकीब बन जाए। वे भी यह सोचते हैं कि शायद ध्यान के द्वारा, आत्मा अमर है, ऐसा पता चल जाए।
चलेगा पता। लेकिन वह उसी को पता चलेगा जो मरने के लिए तैयार है। ध्यान से चलेगा पता कि आत्मा अमर है, लेकिन उसे नहीं जो सिर्फ आत्मा की अमरता का पता लगाने चला आया है, उसे जो मरने के लिए तैयार है। मरने की तैयारी ही उसे उस जगह पहुंचा देती है जहां न मरने वाले का पता चलता है। इसलिए समाधि को कोई भी कभी उपलब्ध हुआ हो, तो समाधि के द्वार पर मृत्यु का बोध पहला चरण है। लेकिन हम मृत्यु के बोध को हटाए रहते हैं। हमने मरघट गांव के बाहर बनाए हैं इसीलिए कि वह रोज-रोज दिखाई न पड़े। होना तो चाहिए गांव के बीच में मरघट। जहां से हर बच्चा निकले, हर आदमी निकले, दिन में दो-चार बार उसे मृत्यु का खयाल आ जाए। हमने गांव के बाहर बनाया है, दूर, सुरक्षित, कि पता न चले।
अभी एक गांव मैं गया था, वे बड़े होशियार लोग हैं। उन्होंने जो मरघट बनाया है, बहुत ही अच्छा बनाया है। वहां जाकर भी आपको मरघट का पता न चले। वहां भी उन्होंने बगीचे लगाए हैं, लाइब्रेरी बना दी है कि वहां जो लोग जाते हैं वे अखबार वहां भी पढ़ते रहते हैं। वे यहां भी अखबार पढ़ते रहते हैं, वे वहां भी अखबार पढ़ते रहते हैं। ऐसे तो अभी भी हम जो मरघट पर जाते हैं, तो हम बहुत दुनिया भर की बातें वहां करते रहते हैं मौत को छोड़ कर, वह मौत को छोड़ देते हैं। और सदा एक खयाल बनाए रखते हैं कि सदा कोई और मरता है, मैं कभी नहीं मरता हूं! इसलिए हम दूसरों को छोड़ आते हैं--कि यह भी मर गया, यह भी मर गया। हम कभी नहीं मरते हैं। मैं कभी नहीं मरता हूं, दूसरे मरते हैं। और जब दस-पांच आदमियों को कोई आदमी मरघट पहुंचा आता है, तो और आश्वस्त हो जाता है कि मैं कैसे मरूंगा! मैं तो दूसरों को पहुंचाने का काम करता हूं। मैंने न मालूम कितने लोगों को पहुंचा दिया, अब मुझे कौन पहुंचाएगा!
हिटलर जैसे लोगों की मनःस्थिति में जो गहरे उतरे हैं, उनका खयाल यह है कि ऐसे लोग मृत्यु से डरे हुए लोग हैं, और दूसरे को मार कर आश्वासन पाते हैं कि मैंने तो इतने लोगों को मार डाला, मुझे कौन मार सकता है! चंगीज, या तैमूर, या हिटलर, या मुसोलिनी, या स्टैलिन, या माओ, ये सारे के सारे लोग मृत्यु से डरे हुए लोग हैं। और मृत्यु से बचने की प्रक्रिया में ही ये दूसरों को मार रहे हैं। क्योंकि जब एक आदमी लाख आदमी को मारे...अब अंदाज है कि हिटलर ने कोई सत्तर-अस्सी लाख लोगों को मारा; स्टैलिन ने कोई एक करोड़ लोगों को मारा...जब कोई एक आदमी एक करोड़ लोगों को मारे, तो एक अर्थ में परमात्मा जैसा हो जाता है। उसे लगता है कि एक करोड़ मिटा दिए, मुझे कौन मिटा सकता है! बहुत गहरे में उसे यह आश्वासन मिलता है कि मैं मिटाने वाला हूं, मैं मिटने वाला नहीं हूं।
परमात्मा जैसा अपने को अनुभव करने के दो ही रास्ते हैं: या तो हम मिटाने में उसकी होड़ कर लें, या बनाने में उसकी होड़ कर लें। तो बनाने में तो उसकी होड़ नहीं कर पाते हैं। फिर मिटाने में करना आसान पड़ जाता है। तो मिटा कर हम ईश्वर जैसे हो जाते हैं।
लेकिन है मृत्यु का भय! इसलिए हिटलर जैसा आदमी, जो इतने लोगों को मारता है, वह भी बहुत डरा हुआ आदमी है। वह रात कमरे में किसी को प्रवेश नहीं करने देगा। इसीलिए उसने शादी भी न की, कि कम से कम पत्नी को तो प्रवेश करने ही देना पड़ेगा। शादी नहीं की इसी डर से कि कहीं एक स्त्री को कमरे में आने देना पड़ेगा, और पता नहीं स्त्री धोखा दे जाए, जहर पिला दे, गोली मार दे, दुश्मन से मिल जाए। तो उसने विवाह नहीं किया।
हिटलर ने मरते वक्त विवाह किया। मरने के घंटे भर पहले। जब बर्लिन हार गया, और जब हिटलर जहां छिपा था उस तलघरे के सामने ही बम गिरने लगे, और दुश्मन के हवाई जहाज बर्लिन पर चक्कर मारने लगे, तब उसने अपने एक मित्र को कहा कि उस स्त्री को लिवा लाओ जो बारह वर्षों से विवाह की मेरे साथ प्रतीक्षा करती है। पर उन मित्रों ने कहा कि अब क्या अर्थ है? पर उसने कहा कि अब मैं निर्भय हूं, अब मरना निश्चित ही है। उसे ले आओ।
एक सोए हुए पादरी को जबरदस्ती उठा कर लाया गया। उस नीचे के तलघरे में चार-छह आदमियों के सामने हिटलर का विवाह हो गया। और विवाह के बाद जो उन्होंने सुहागरात का पहला काम किया वह था जहर पी लेना, दोनों ने, और दोनों जहर पी कर मर गए। लेकिन तब वह निश्चिंत था कि अब किसी को इतने निकट लिया जा सकता है, अब कोई डर नहीं है।
दुनिया में जितने बड़े हत्यारे हुए हैं, सब मृत्यु से डरे हुए लोग हैं। दूसरे की हत्या हम करते इसलिए हैं ताकि हम आश्वस्त हो सकें कि मैं नहीं मरूंगा, मेरी कोई हत्या नहीं कर सकता है। हमने जो व्यवस्था ईजाद की है जीवन की, उस व्यवस्था को अगर हम बहुत गौर से देखेंगे तो हम पाएंगे, हमने मृत्यु से भयभीत होकर...मृत्यु की बात नहीं करते हैं।
बचपन की मुझे याद है, जिस घटना की मैंने बात कही, क्योंकि उस घटना के बाद मेरे लिए मृत्यु सवाल न रहा।
एक संन्यासी गांव में आए हुए थे। और गांव में बड़ी चर्चा थी। मैं भी उन्हें सुनने गया था। वे आत्मा की अमरता की बातें कर रहे थे। और बात ही नहीं है करने को। मरे हुए और मरने से डरे हुए लोगों को सबसे प्रीतिकर यही लगता है कि बार-बार दोहराओ और समझाओ कि आत्मा अमर है। वे बड़े प्रफुल्लित होते हैं। इसलिए नहीं कि आत्मा अमर है, इसलिए कि उनको फिर एक आदमी ने आश्वासन दिया कि आत्मा अमर है, डर की कोई जरूरत नहीं है।
वे समझा रहे थे कि आत्मा अमर है। और मैं देख रहा था कि गांव के सब डरे हुए लोग वहां बैठ कर उन्हें बड़े आनंद से सुन रहे हैं। मैंने खड़े होकर उनसे पूछा कि स्वामी जी, आपके कब हैं इरादे मरने के? उन्होंने कहा, कैसी बेहूदी बात पूछते हो! यह कोई पूछने की बात है? और गांव के लोगों ने भी मुझे कहा कि यह कोई पूछने की बात है? यह पूछना अशिष्ट है। किसी आदमी से यह पूछना कि कब मरने के इरादे हैं। स्वामी तो बहुत नाराज हो गए।
मैंने कहा, मैं तो सोचता था कि वे कह रहे हैं, आत्मा अमर है, तो मरने की बात से नाराज न होंगे। लेकिन मरने के खयाल से ही नाराज हो गए।
मैंने पूछा कि कब मरने के इरादे हैं? कब मरिएगा? और वे कहने लगे कि यह बात नहीं पूछनी चाहिए, इस तरह की भद्दी बात नहीं पूछनी चाहिए।
अगर आत्मा अमर है, तो मृत्यु फिर भद्दी कैसे रह जाती है? फिर मृत्यु रह ही नहीं जाती। फिर मृत्यु की बात पूछनी अशोभन नहीं है।
हम मृत्यु की बात ही नहीं करते हैं, उसे हम टाले रखते हैं। वह आ भी जाए बीच में तो हम दूसरी बातें करते हैं। पड़ोस में कोई मर जाए तो हम हजार बात करते हैं, बस एक बात छोड़ देते हैं। हम कहते हैं बेचारा, हम उस पर दया खाते हैं। बिना इसकी फिकर किए कि जिस पर हम दया खा रहे हैं, वह घटना हम पर भी आज नहीं कल घट जाएगी। हम उसके बच्चों की बात करते हैं कि उनका क्या होगा? हम उसकी पत्नी की बात करते हैं--उसका क्या होगा? हम उसकी नौकरी की, पैसे की, धंधे की बात करते हैं कि वह सब क्या होगा? हम सब बात करते हैं, सिर्फ उस बीच के गोल घेरे को छोड़ जाते हैं, वह जो मृत्यु घटित हुई है, उसकी बात नहीं करते कि यह मृत्यु क्या है? उसको हम छोड़ जाते हैं। उसे हम बात के बाहर रखते हैं, उसे हम सदा किनारे रखते हैं।
अगर कोई हमारी जिंदगी में सबसे सुनिश्चित बात है तो वह मृत्यु है। बाकी तो सब अनिश्चित है। बाकी का कुछ भी तय नहीं है। एक बात तय है कि जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह घटेगी। सबसे सुनिश्चित बात पर सबसे कम चर्चा है। आपने मृत्यु पर कोई किताब न देखी होगी। आत्मा की अमरता पर किताबें हैं। मृत्यु पर किताब नहीं है। मृत्यु पर कोई बात ही नहीं करता, उसको हम बात के बाहर रखते हैं। क्योंकि वह बड़ा खतरनाक तथ्य है, वह कहीं दिखाई न पड़ जाए।
लेकिन हम कितना ही बाहर रखें, मृत्यु बाहर नहीं रहती, वह एक दिन आ ही जाती है। हमारे सब उपाय तोड़ कर भीतर चली आती है। हमारे सब द्वार-दरवाजे बेकार सिद्ध होते हैं, वह भीतर आ जाती है। हमारे सब पहरे बेकार सिद्ध होते हैं, वह भीतर आ जाती है। हमारे मित्र, साथी-संबंधी, सब व्यर्थ सिद्ध होते हैं। जिनको हमने इकट्ठा किया था--कि वे हमारा अकेलापन मिटाएं, हमें लोनली न मालूम होने दें। पत्नी को लाया था मैं--कि मैं अकेला न रहूं; बेटे को पैदा किया था--कि मैं अकेला न रहूं; मित्र बनाए थे--कि मैं अकेला न रहूं। लेकिन जब मौत आती है तो मैं पाता हूं, बिलकुल सब अकेला रह गया हूं। और जिन्हें मैंने सोचा था, वे रो रहे हैं मेरे लिए, लेकिन मेरा साथ देने को तो कोई भी तैयार नहीं है। वे रो रहे हैं मेरे लिए कि बेचारा! वे दुखी हो रहे हैं। लेकिन वे दुखी भी शायद मेरे लिए नहीं हो रहे, वे दुखी भी सिर्फ इसलिए हो रहे हैं कि वे अकेले हो गए। और जल्दी ही वे इंतजाम करेंगे कि उनका अकेलापन मिट जाए, वे फिर भरे-पूरे हो जाएं।
अकेलेपन से बचने के लिए हमने बनाया है समाज, बनाए हैं दल, बनाई हैं संस्थाएं, बनाए हैं संगठन, बनाए हैं राष्ट्र, अकेले से बचने के लिए बनाई हैं जातियां--हिंदू और मुसलमान, जैन और ईसाई, बौद्ध और पारसी। हमने, अकेला न रह जाऊं मैं, तो हमने भीड़ इकट्ठी की है।
लेकिन क्या फर्क पड़ता है? हम अकेले हैं! और हमारा सब इंतजाम झूठा है। और सब हमारा इंतजाम डिसेप्टिव है, धोखे का है, सच्चा नहीं है। और मौत हमारे सब इंतजाम को एक क्षण में व्यर्थ कर देती है। और सब अकेला रह जाता है। मौत के इस सत्य को पहचानने की जरूरत है। और मौत के इस सत्य के प्रति भयभीत होने की जरूरत नहीं है।
फिर भय का कोई प्रयोजन ही नहीं है। क्योंकि जैसा सुकरात ने कहा ठीक ही कहा, कि अगर मरूंगा बिलकुल तो मर ही जाऊंगा, फिर बात ही क्या करनी है? और अगर नहीं मरूंगा तो नहीं ही मरूंगा, फिर भी क्या बात करनी है?
हमारी व्यवस्था मौत से बचने की हमें ध्यान के करीब नहीं पहुंचने देती, समाधि के करीब नहीं पहुंचने देती। इसलिए हमने ध्यान और समाधि से बचने के लिए दूसरी धार्मिक क्रियाएं ईजाद की हैं। जब कि समाधि ही धर्म का मूल आधार है, बाकी सब क्रियाएं धोखा हैं।
समाधि से बचने के लिए हमने प्रार्थना ईजाद की है। समाधि से बचने के लिए हमने जप-तप ईजाद किया है। समाधि से बचने के लिए हमने मंत्र-तंत्र, न मालूम क्या-क्या ईजाद किया है। लेकिन समाधि से बचने के लिए।
धर्म का जो जाल हमें चारों तरफ दिखाई पड़ता है वह रिचुअल है, क्रियाकांड है। वह हमें मरने की दिशा में गति नहीं देता, वह हमें जीने का सहारा देता है। वह हमसे कहता है, घबड़ाओ मत! आश्वासन देता है।
धर्म का कोई भी आश्वासन नहीं है। धर्म तो कहता है: आओ, मिटो और मर जाओ! लेकिन जैसे ही कोई मरने को पूरी तरह राजी होकर जाता है, वह पाता है कि कुछ है, जो कि मरता ही नहीं। इस कुछ को जानते हुए, जागते हुए पहचान लेना जरूरी है। फिर कभी मृत्यु नहीं है। फिर मरेंगे हम होश से। और जो आदमी एक बार होश से मर गया, उसकी सारी जिंदगी का अर्थ, उसके जन्मों की व्यवस्था, उसकी सारी यात्रा बदल जाती है।
लेकिन होश से मरने के लिए, कांशस डेथ के पहले, हमें जीते जी मरने का कुछ अनुभव करना पड़ेगा कि हम जीते जी मरने की किसी दिशा में उतर जाएं। हम जीते जी मर जाएं।
जीसस का एक बहुत कीमती वचन है। कहा है जीसस ने: जो अपने को बचाएगा वह मिट जाएगा। और जो अपने को मिटाने को राजी है वह बचा लिया जाता है।
ठीक ही कहा है, एकदम ठीक कहा है। शायद जीसस का सूली पर लटकना उसका ही प्रतीक है--मिटने का, पूरी तरह मिटने का।
लेकिन जीसस तो सूली पर लटके, उनके अनुयायियों ने बड़ी तरकीब निकाली, वे एक छोटी सी सूली बना कर गले में लटकाए हुए हैं। अब सूली पर गला लटके, यह तो समझ में आता है; गले में सूली लटके, यह बिलकुल समझ में नहीं आता। सारी दुनिया में, जिनको हम धर्म-अनुयायी कहते हैं, वे इसी तरह के डिसेप्शन पैदा कर लेते हैं। बात वैसी ही दिखाई पड़ती है, जीसस भी सूली पर लटके हैं, जीसस का पादरी भी सूली लटकाए हुए है गले में। सोने की सूली बना ली है छोटी, उसको गले में लटकाए हुए है।
सोने की कहीं सूलियां होती हैं? और सूलियां कहीं गले में लटका कर चलने से कुछ मतलब है?
लेकिन सूली प्रतीक है किसी और बात का--मिटने की तैयारी का। जीसस भी आखिरी क्षण में बहुत घबड़ा गए। और मेरी दृष्टि में वही मोमेंट, वही क्षण उनकी जिंदगी का सबसे कीमती क्षण है। जब उन्हें सूली पर लटकाया गया और हाथ में कीले ठोंके गए, तो उनके मुंह से आवाज निकली कि हे परमात्मा, यह तू क्या कर रहा है? यह तू कर क्या रहा है? यह मेरे साथ क्या हो रहा है? अत्यंत चिंता और तनाव से भरे हुए उनके प्राणों से आवाज निकली कि हे परमात्मा, तू मुझे यह क्या दिखला रहा है?
शिकायत थी! शिकायत खबर देती है कि अभी जीसस को पता नहीं चला था। लेकिन एक ही क्षण में उनको समझ में आ गई बात, और वे हंसने लगे। और उन्होंने कहा, जो तेरी मर्जी, मैं राजी हूं।
यह एक क्षण ही जीसस के जीवन में क्रांति का क्षण है। जिस क्षण उन्होंने कहा, हे परमात्मा, यह क्या दिखला रहा है? उस वक्त मृत्यु के संबंध में शिकायत है। उस समय तक वे बढ़ई के एक बेटे जीसस थे। और एक क्षण बाद जब उन्होंने कहा, तेरी मर्जी, जो तू करे, मैं राजी हूं। बस वे जीसस न रहे, क्राइस्ट हो गए। वे एक साधारण आदमी के बेटे न रहे, परमात्मा के बेटे हो गए, मरने को राजी हो गए थे। एक क्षण में यह बात घटी और वह क्षण समाधि का क्षण बन गया--जैसे ही उन्होंने कहा, राजी हूं।
जो आदमी अपने भीतर कह सकता है कि मरने को राजी हूं, उसकी जिंदगी में समाधि का क्षण आ जाता है। और जो आदमी कहता है: मरने का? मर नहीं सकता। मैं तो इसीलिए ध्यान वगैरह खोज रहा हूं कि मरना न पड़े। आत्मा की अमरता का पता चल जाए, परमात्मा से मिलना हो जाए। और गारंटी पक्की हो कि कभी न मरूंगा। अगर यह शरीर भी मरेगा तो आत्मा नहीं मरेगी। कुछ भी हो जाए लेकिन मैं न मरूं, इसका मुझे पक्का करना है। ऐसा आदमी अगर ध्यान की खोज में जाएगा, तो ध्यान में जा ही नहीं सकता है।
जो आदमी मरने को राजी है उसे मैं संन्यासी कहता हूं। वह कपड़े बदलता है कि नहीं बदलता, यह बेमानी बात है। इसीलिए हम संन्यासी का नाम बदल देते हैं। लेकिन नाम बदलने से कुछ भी नहीं होता, क्योंकि वह आदमी वही का वही रह जाता है। नाम बदलते हैं इसीलिए कि हम मानते हैं कि पुराना आदमी मर गया, यह दूसरा आदमी है। लेकिन पुराना आदमी समाधि के बिना मर नहीं सकता। यह आदमी वही का वही है।
एक युवक मेरे पास अभी आया और उसने कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूं, आपकी क्या सलाह है?
मैंने कहा, संन्यास कभी किसी ने लिया है? और अगर लिया होगा तो झूठा होगा। संन्यास लिया नहीं जा सकता। क्योंकि वह जो लेने वाला है, वह मर जाए, तो संन्यास घटित होता है। वह जो लेने वाला है, जो कहता है मैं संन्यास ले रहा हूं, उसकी मृत्यु ही तो संन्यास बनती है। तो मैंने उससे कहा, जब तक संन्यास लेने जैसा लगे, तब तक लेना ही मत। लेकिन जिस दिन तुम पाओ कि वह आदमी मर ही गया जो संन्यास लेता फिरता था, उस दिन तुम संन्यासी हो जाओगे। और मैंने कहा कि जब तक किसी से पूछना पड़े, सलाह लेनी पड़े, तब तक तो लेना ही मत। क्योंकि दूसरे की सलाह से लिया हुआ सदा झूठा हो जाता है। जिस दिन तुम पाओ कि सारी दुनिया भी कहे कि संन्यास मत लो, लेकिन तुम पाओ कि अब लेने का सवाल ही नहीं, मैं संन्यासी हो गया। तभी कुछ...
पुराने दिनों में दीक्षा देते थे वे...जैसी मैंने जीसस की बात कही, वैसी ही सारी दुनिया में बात हो गई है...दीक्षा देते थे संन्यासी को तो वे उसे मरघट पर ले जाते थे। उसे चिता पर सुलाते थे, चिता में आग लगाते थे। वह प्रतीक था। फिर जलती हुई चिता से उसे उठाते थे और कहते थे: वह आदमी मर गया जो तुम थे, अब एक दूसरे आदमी का जन्म हुआ है।
मुर्दे का सिर घोट देते हैं न, इसीलिए संन्यासी का सिर घोट देते थे, कि यह आदमी मर गया। फिर उसका नाम बदल देते थे, क्योंकि वह आदमी तो मर ही गया--जो किसी का बेटा था, किसी का पति था, किसी का बाप था, किसी का भाई था--वह मर गया। इसलिए उसे दूसरा नाम दे देते थे।
अब भी वही हो रहा है। लेकिन अब वह सब झूठा है। और किसी लकड़ी की चिता पर अगर लिटा कर हम किसी को उठा लेंगे, तो क्या भीतर का आदमी मर जाएगा? कैसे मर जाएगा? और कपड़े बदल देंगे, और नाम बदल देंगे, तो क्या भीतर का आदमी मर जाएगा?
नहीं, चिता का अर्थ है--समाधि। जो व्यक्ति समाधि में प्रविष्ट होता है, फिर वह वही लौटता ही नहीं जो गया था, दूसरा ही आदमी लौटता है। वह बिलकुल और ही आदमी होता है। मरने की तैयारी संन्यास है। और संन्यास समाधि से फलित होता है। और मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति कहीं भी समाधि को उपलब्ध हो जाए, वह संन्यस्त हो जाएगा। संन्यस्त का मतलब यह नहीं कि वह घर छोड़ कर भाग जाएगा। क्योंकि घर छोड़ कर तो वे ही केवल भागते हैं जिनके लिए घर बहुत मूल्यवान है; पत्नी छोड़ कर वे ही भागते हैं जो स्त्री-लोलुप हैं; धन छोड़ कर वे ही भागते हैं जो लोभी हैं। लेकिन जिनके लिए सब जैसा है वैसा स्वीकार हो गया, वे कहीं भी नहीं भागते हैं, वे जहां हैं, हैं।
मैंने सुना है, एक गांव में एक फकीर है। उस गांव का राजा रात को निकलता है कभी, तो बार-बार उस फकीर को देखता है कि नीम के वृक्ष के नीचे वह सर्दी की रातों में ठिठुरता रहता है। फिर उसने गांव में पता लगाया। उसके वजीरों ने कहा, वह साधारण आदमी नहीं है, बहुत अदभुत व्यक्ति है; कहीं पहुंच गया, कुछ पा लिया, कुछ हो गया है उसकी जिंदगी में। तो सम्राट ने एक रात उससे जाकर कहा कि आप यहां न पड़े रहें, मेरे मन में बड़ी श्रद्धा का उदय हुआ है, चलें आप राजमहल में, वहीं निवास करें।
राजा ने सोचा--शायद न भी सोचा हो, लेकिन अचेतन में कहीं छाया रही होगी--कि संन्यासी तो फौरन कहेगा, राजमहल? मैं नहीं जा सकता हूं। हम फकीर हैं, हम झोपड़ों में सड़क के किनारे पड़े रहते हैं। राजमहल हमारे लिए नहीं है।
लेकिन सम्राट यह कह ही रहा था कि तभी वह फकीर उचका और राजा के घोड़े पर सवार हो गया। और उसने कहा, चलिए, किस तरफ चलें?
राजा को बड़ी मुश्किल हो गई। श्रद्धा एकदम समाप्त हो गई। उसने कहा कि मैंने कहा भी नहीं और यह आदमी राजी हो गया! यह कैसा संन्यासी है? लेकिन अपने ही शब्द वापस लेने में भी तो देर लग जाती है। अब एकदम से कैसे शब्द वापस ले ले! मन तो वहीं खट्टा हो गया। क्योंकि भोगी जो हैं वे सिर्फ त्यागियों को पूज सकते हैं। भोगियों की पूजा ने ही त्यागियों को पैदा किया हुआ है।
इसलिए जिसकी धन से जितनी ज्यादा लोलुपता होगी, वह उस आदमी के पास जाकर पैर छुएगा जिसने धन को लात मार दी होगी। वह इसलिए पैर छुएगा कि हां, यह है कुछ आदमी। यह पहुंच गया वहां जहां मुझे भी पहुंचना चाहिए। जो आदमी स्त्रियों के पीछे दीवाना होगा, वह ब्रह्मचारी के जाकर पैर पड़ेगा। वह कहेगा कि यह है आदमी। हम अपने से उलटे को पूजते हैं। और अगर पूजा लेनी हो तो आम लोग जैसे हैं उससे उलटा होना जरूरी हो जाता है। अगर वे पैर से चलते हैं तो आप शीर्षासन करिए, फिर पूजा मिलनी शुरू हो जाती है। पूजा सिर्फ उलटे को मिलती है। और जो उलटा है, वह बदला हुआ नहीं है। सिर के बल खड़े हो जाइए चाहे पैर के बल, आदमी आप वही हैं। आदमी नहीं बदल जाता सिर के बल खड़े होने से।
राजा बहुत मुश्किल में पड़ गया, लेकिन निमंत्रण दिया था तो फकीर को घर ले गया। अच्छे से अच्छा महल था, फकीर को ठहरा दिया। लेकिन श्रद्धा चली गई। क्योंकि श्रद्धा भोगी की त्यागी में हो सकती है। और धीरे-धीरे श्रद्धा मिटती गई। क्योंकि जो भी खाने को कहा, उसने खाना ले लिया; जहां भी सोने को कहा, वह सो गया--मखमली गद्दे थे तो स्वीकार कर लिए। तब तो राजा ने कहा, बात सब खराब हो गई। मैं बड़ी गलती में पड़ गया। मैं किस तरह के आदमी को ले आया!
छह महीने बाद राजा ने एक दिन जाकर उस फकीर को कहा कि एक सवाल मेरे मन में उठा है, पूछ लूं? वह सवाल यह है कि मुझमें और आपमें अब फर्क क्या है?
उस संन्यासी ने कहा, तुम छह महीने बाद पूछ रहे हो, सवाल तो उसी रात उठ गया था।
उसने कहा, क्या मतलब?
संन्यासी ने कहा, जब मैं घोड़े पर सवार हुआ था, तभी सवाल उठ गया था। लेकिन बड़े कमजोर आदमी हो, पूछने में भी छह महीने लगा दिए!
उस राजा ने कहा, शायद आप ठीक कहते हैं, सवाल तो उसी वक्त उठ गया था।
तो उसी वक्त पूछ लेना था, उस फकीर ने कहा, कैसे कमजोर आदमी हो!
फिर राजा ने कहा, अब आज तो बता दें, कि अब मुझमें और आपमें फर्क क्या है?
फकीर ने कहा, सच में ही फर्क जानना है, तो चलो उसी जगह चलें जहां से यह सवाल उठा था। वहीं जवाब दे दूंगा।
वे गए गांव के बाहर, उस झाड़ के नीचे, फिर वे चलते ही गए। राजा ने कहा, वह झाड़ भी निकल गया, अब आप जवाब दे दें।
उस फकीर ने कहा, थोड़े और आगे, थोड़े और आगे...
फिर वे गांव की सीमा-रेखा पर पहुंच गए, जहां राजा का राज्य समाप्त हो जाता था। नदी थी। फकीर ने कहा, नदी भी पार कर लें।
उस राजा ने कहा, लेकिन मतलब क्या है? अब जवाब दीजिए, दोपहर हो गई, धूप सिर पर चढ़ गई।
उस फकीर ने कहा, जवाब मेरा यही है कि अब मैं तो आगे जाता हूं, तुम भी साथ चलते हो?
उस राजा ने कहा, मैं कैसे जा सकता हूं? मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा राज्य!
उस फकीर ने कहा, तो मैं तो जाता हूं। अगर फर्क दिखाई पड़े तो देख लेना। तुम्हारे महल में मैं था, लेकिन तुम्हारा महल मेरे भीतर न था। तुम सिर्फ महल में नहीं हो, महल भी तुम्हारे भीतर है। अब कहां है महल तुम्हारा? कहां है पत्नी? कहां हैं तुम्हारे बच्चे? लेकिन तुम कहते हो कि मुझे लौटना पड़ेगा--मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा महल! मेरा कुछ भी नहीं है। मैं तुम्हारे महल में मेहमान था, मैं तुम्हारे महल का मालिक न था। महल के भीतर था मैं, लेकिन महल मेरे भीतर न था। अच्छा मैं जाऊं?
राजा के मन में श्रद्धा का फिर उदय हुआ। श्रद्धा के उदय होने में भी देर नहीं लगती, जाने में भी देर नहीं लगती। वह एकदम संन्यासी के पैर पकड़ लिया और उसने कहा, महाराज, कहां मुझे छोड़ कर जाते हैं! वापस चलें।
उसने कहा, मैं फिर घोड़े पर सवार हो सकता हूं, लेकिन श्रद्धा का अंत हो जाएगा। अब तुम मुझे जाने दो। मुझे कोई कठिनाई नहीं है, मैं लौट सकता हूं। लेकिन तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। छह महीने मैं तो बड़े मजे में सोया, तुम बड़ी मुसीबत में रहे। फिर सवाल उठ जाएगा, अगर मैं लौटा। तो अब मत लौटाओ। मैं तो लौट सकता हूं, क्योंकि मेरे लिए यह दिशा और वह दिशा, सब बराबर है। इधर जाऊं कि इधर जाऊं, कि कहीं न जाऊं, कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन तुम मुसीबत में पड़ जाओगे।
इस आदमी को मैं संन्यासी कहता हूं। जो संसार से भयभीत है वह संन्यासी नहीं है। लेकिन जो संसार में ऐसे रहने लगा जैसे मेहमान है, अतिथि है; जो संसार में ऐसे रहने लगा कि संसार चारों तरफ है, लेकिन उसके भीतर नहीं है; वह आदमी संन्यस्त है।
लेकिन संन्यस्त व्यक्ति समाधि से गुजरे बिना कोई भी नहीं हो सकता। संन्यस्त होने का मतलब है: बिना मरे कोई संन्यस्त नहीं हो सकता। जीते जी जो मर जाता है, जीते जी जो मरने की कला सीख लेता है। और एक बार समाधि से कोई गुजर जाए, तो प्रतिपल मरता है और प्रतिपल नये का जन्म होता है। फिर ऐसा नहीं है कि एक दफा मैं मर गया और दूसरा हो गया। नहीं, प्रतिपल जो पुराना था वह मर जाता है और नया उभरता रहता है। प्रतिपल मृत्यु है, प्रतिपल जीवन है, प्रतिपल पुनर्जीवन है। प्रतिपल मरता है पुराना, नया जन्म लेता है। और जब कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में हो जाता है कि उसके ऊपर अतीत का कोई बोझ नहीं है, अतीत का सब मर जाता है; और भविष्य की कोई चिंता नहीं है, क्योंकि जो नहीं आया उसकी चिंता कैसी; जिसके ऊपर सिर्फ वर्तमान के जीवन की पुलक रह जाती है, वह व्यक्ति परमात्मा के पूर्ण आनंद को उपलब्ध हो पाता है। और वह जान पाता है कि क्या है मुक्ति, क्या है मोक्ष, क्या है जीवन का अर्थ, क्या है जीवन की सुगंध, क्या है जीवन की ज्योति।
लेकिन तैरना सीखना हो तो पानी में उतरना पड़े। और अगर अमृत को जानना हो तो मृत्यु में जाना पड़े। जैसे हम काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखते हैं। सफेद दीवाल पर भी लिख सकते हैं, दिखाई तो नहीं पड़ेगा, लिख सकते हैं। दिखाई तो तभी पड़ेगा जब काले तख्ते पर हम सफेद खड़िया से लिखें, उभर कर दिखाई पड़ेगा। दिन में भी तारे होते हैं आकाश में, दिखाई नहीं पड़ते। मिट नहीं जाते हैं, दिन में भी होते हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते। रात दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि काली चादर फैल जाती है, उसमें तारे फिर चमक कर दिखाई पड़ते हैं। अमावस की रात जैसे तारे दिखाई पड़ते हैं वैसे कभी भी दिखाई नहीं पड़ते। जितनी काली रात, उतना तारा चमक कर दिखाई पड़ता है।
जो आदमी जितनी गहरी मृत्यु में से गुजरता है, उतना ही अमृत का तारा उसे चमक कर दिखाई पड़ने लगता है। गहरी मृत्यु की चादर घेर लेती है सब तरफ से, फिर बीच में वही दीया दिखाई पड़ता रह जाता है जो अमर है, जो नहीं मिटता है, नहीं मिट सकता है। उपाय नहीं मिटने का, मार्ग नहीं मिटने का, द्वार नहीं मिटने का। अमृत को जानना हो तो मृत्यु को जानना जरूरी है।
यह बात उलटी मालूम पड़ेगी। यह बात उलटी मालूम पड़ेगी, लेकिन बीज से अगर हम कहें कि
अगर वृक्ष बनना है तो मिटना जरूरी है, बीज मिटे तो वृक्ष बनता है। ऐसे ही, अगर हम मिटें, तो अमृत का पौधा हमारे भीतर खिलना शुरू हो जाता है। अनूठी है सुगंध उसकी, अनूठा है संगीत। लेकिन हम अभागे उससे वंचित रह जाते हैं, क्योंकि हम उससे ही डरे रह जाते हैं जो द्वार है, इसलिए भवन में कभी प्रवेश नहीं होता।
अगर मंदिर में जाना हो परमात्मा के, तो उसके द्वार का नाम मृत्यु है। इसलिए हम उस मंदिर को ही छोड़ देते हैं, हम अपना ही एक मंदिर मोहल्ले में बना लेते हैं। और एक अपना ही बनाया हुआ, गृह-उद्योग से, होम-मेड भगवान वहां खड़ा कर देते हैं। अपना ही दरवाजा बना लेते हैं, अपना ही मंदिर बना लेते हैं, अपनी ही चाबी, अपना ही सब कुछ। मंदिर में भी प्रवेश कर जाते हैं, और वही के वही वापस लौट आते हैं जो भीतर गए थे।
नहीं, परमात्मा का मंदिर कहीं और है, जो हमारे बनाने से नहीं बनता। उसका द्वार कुछ और है। जिससे हम भयभीत हैं, वही उसका द्वार है।
तो सुबह तो मैं रोज बात करूंगा उसके द्वार के और चरणों की। आपके जो भी प्रश्न हों, वे लिख कर दे देंगे, उन पर बात करता रहूंगा। और रात्रि सिर्फ उनको निमंत्रण है, जो उस द्वार में प्रवेश करने का साहस जुटा पाते हैं।
तो दिन भर आप सोच लेना, लगे कि हां, है हिम्मत कि थोड़ा मर कर भी देखें, तो ही आना, अन्यथा नहीं आना। कमजोर के लिए वह रास्ता नहीं है। हालांकि कोई भी इतना कमजोर नहीं है। लेकिन हम चाहें तो अपने को कमजोर बना सकते हैं, बहुत भयभीत हो सकते हैं, और नष्ट हो सकते हैं।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीये को जला दे, और जहां कुछ भी दिखाई न पड़ता हो वहां सभी कुछ दिखाई पड़ने लगे, ऐसे ही जीवन के अंधकार में समाधि का दीया है। या जैसे कोई मरुस्थल में वर्षों से वर्षा न हुई हो और धरती के प्राण पानी के लिए प्यास से तड़पते हों, और फिर अचानक मेघ घिर जाएं और वर्षा की बूंदें पड़ने लगें, तो जैसा उस मरुस्थल के मन में शांति और आनंद नाच उठे, ऐसा ही जीवन के मरुस्थल में समाधि की वर्षा है। या जैसे कोई मरा हुआ अचानक जीवित हो जाए, और जहां श्वास न चलती हो वहां श्वास चलने लगे, और जहां आंखें न खुलती हों वहां आंखें खुल जाएं, और जहां जीवन तिरोहित हो गया था वहां वापस उसके पदचाप सुनाई पड़ने लगें, ऐसा ही मरे हुए जीवन में समाधि का आगमन है।
समाधि से ज्यादा महत्वपूर्ण जीवन में कुछ भी नहीं है। न तो कोई आनंद मिल सकता है समाधि के बिना, न कोई शांति मिल सकती है, न कोई सत्य मिल सकता है।
समाधि को समझ लेना इसलिए बहुत उपयोगी है। समझ लेना ही नहीं--क्योंकि समाधि उन कुछ थोड़ी सी बातों में से है जिसे समझ लेना काफी नहीं है--उसमें से होकर गुजरें तो ही उसे समझ भी सकते हैं।
जैसे कोई नदी के तट पर खड़ा हो और हम उसे कहें कि आओ, तुम्हें तैरना सिखा दें! और वह कहे कि पहले मैं तैरना सीख लूं तट पर ही, तभी पानी में उतरूंगा। पहले मैं समझ लूं, फिर पानी में उतरूं। तो तर्क उसका गलत न होगा। ठीक ही कहता है वह। बिना तैरना जाने कोई पानी में उतरने को राजी भी कैसे हो! लेकिन एक और बड़ी कठिनाई है, उसकी कठिनाई तो है ही, सिखाने वाले की भी कठिनाई है, क्योंकि बिना पानी में उतरे तैरना सिखाया भी कैसे जाए! तो तैरना सिखाने वाला कहने लगे, उतर आओ पहले! क्योंकि बिना पानी में उतरे तैरना न सीख सकोगे। तो वह भी गलत न कहे। और जिसे सीखना है वह कहे, भयभीत हूं मैं, बिना तैरे उतरूंगा नहीं। पहले सीख लूं, तब उतर सकता हूं।
समाधि की बात भी कुछ ऐसी ही है। समाधि में गए बिना कुछ भी पता नहीं चल सकता है। लेकिन हम जानना चाहेंगे किनारे पर खड़े होकर: क्या है समाधि?
शब्द जितना कह सकते हैं उतनी कहने की कोशिश करूंगा। शब्द जो नहीं कह सकते हैं उसे कहने का कोई रास्ता नहीं है।
सुना है मैंने, एक फकीर के पास कोई गया था, उससे पूछने लगा था: किस समाधि की बात करते हो? किस ध्यान की बात करते हो? क्या है वह? कुछ बोलो! समझाओ! बताओ!
वह फकीर आंख खोले बैठा था, उसने तत्काल आंख बंद कर ली।
उस आदमी ने कहा, यह भी खूब रहा! कम से कम आंख खोले थे। आंख तो खोलो! मैं तो जानने आया हूं कि समाधि क्या है? ध्यान क्या है? जिसकी दिन-रात बात करते हो, कुछ तो बताओ!
वह फकीर बैठा था, वह एकदम गिर गया!
उस आदमी ने कहा, कर क्या रहे हो यह? कहीं मर मत जाना! मैं तो सिर्फ समाधि के लिए पूछने आया हूं।
उस फकीर ने आंख खोली, उसने कहा, मैं बताने की कोशिश कर रहा हूं।
उस आदमी ने कहा, ऐसे नहीं, तुम तो शब्दों से ही बता दो।
वह फकीर कहने लगा, शब्दों में जो कहा जा सकता है वह समाधि के संबंध में कुछ भी न होगा। इसलिए मैंने तुम्हें कुछ करके बताया है।
लेकिन क्या, कोई आंख बंद कर ले, कोई गिर जाए, तो भी क्या पता चलेगा हमें?
नहीं; हमारी ही आंख बंद हो और हम ही गिर जाएं किसी क्षण में, न केवल बाहर से बल्कि भीतर से भी गिर जाएं और बिखर जाएं, जैसे कोई बूंद किसी सागर में खो जाए, या जैसे कोई बीज किसी मिट्टी में टूट जाए, ऐसा हमारे भीतर ही घटित हो तो ही हम पहचान पाएं कि समाधि क्या है।
लेकिन कुछ इशारे किए जा सकते हैं। सुबह तो मैं कुछ इशारे करूंगा और सांझ चाहूंगा कि हम सब साथ समाधि में प्रवेश करें। तो जिनकी सुनने में उत्सुकता है, वे सिर्फ सुबह ही आएंगे। जिनकी तैरने में भी उत्सुकता है, जो जाना ही चाहते हैं, वे सांझ आएंगे। सुबह हम बात करेंगे और सांझ स्वाद लेने की कोशिश करेंगे। लेकिन ध्यान रहे, बात से समझ में नहीं आएगा, स्वाद से ही समझ में आ सकता है।
यह भी मैं सोचता हूं कि अच्छा होगा कि मैं इस तरह समझाने की कोशिश करूं, यह बताने की कोशिश करूं कि मैं उस द्वार पर कैसे पहुंच गया। शायद उससे रास्ता साफ हो सके, शायद आपको भी लगे कि यह रास्ता चला जा सकता है।
निरंतर लोग मुझसे पूछते भी हैं: उस समाधि पर कैसे पहुंचे?
एक छोटी सी घटना से मैं शुरू करना चाहता हूं।
छोटा था, तो जिनके पास मैं बड़ा हुआ, दुर्भाग्य से या सौभाग्य से वे बहुत जल्दी दुनिया से विदा हो गए। मैं सात ही वर्ष का था तब उनकी मृत्यु आ गई। और मैंने उन्हें धीरे-धीरे मरते देखा। वे एकदम से नहीं मरे; पहले उनकी वाणी खो गई, फिर उनकी आंखें बंद हो गईं, फिर वे बेहोश हो गए और चौबीस घंटे बेहोश रहे। और फिर उसी बेहोशी में धीरे-धीरे, जैसे कोई दीये का तेल चुकता जाए, चुकता जाए और धीमी लौ होती जाए, ऐसे धीरे-धीरे वे डूबे और खो गए। उनको ही मैंने चाहा और प्रेम किया था। उनके पास ही बड़ा हुआ था। उस क्षण तो ऐसा ही लगा था--बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण हुआ।
लेकिन पता नहीं, दुर्भाग्य बहुत बार सौभाग्य भी बन जाते हैं। मेरे लिए मृत्यु की वह पहली घटना थी। और जिसे मैंने चाहा था, उसके विदा हो जाने की भी पहली घटना थी। सारा घर तो रोने लगा, दुखी और पीड़ित होने लगा। पर मुझे निरंतर एक ही बात मन में लगने लगी कि अगर वे नहीं रहे हैं तो अब मेरे रहने की भी क्या जरूरत है? और जिसे मैंने प्रेम किया वही नहीं है, तो अब मैं भी न रहूं। मुझे रोना भी न सूझा। अब आज मुझे समझ में आता है कि रोकर हम दुख प्रकट तो करते हैं, शायद दुख को बहाने की कोशिश करते हैं। अब मैं समझ पाता हूं कि रो-धो कर, चीख-चिल्ला कर, वह जो पीड़ा हम पर उतरी है, उससे हम छुटकारा पा लेते हैं, उसकी रिलीज हो जाती है, वह निकल जाती है।
मैं नहीं रो सका, क्योंकि मुझे लगा कि अगर कोई जिसे मैंने चाहा है, समाप्त हो गया है, तो अब मैं भी समाप्त हो जाऊं, अब मुझे भी जीने की कोई जरूरत नहीं है। उन्हें लोग मरघट ले गए, मुझे लोग घर में बंद कर गए छोटा बच्चा सोच कर--कि मैं मरघट जाऊं, पता नहीं मरघट को देखूं, कैसा मन पर आघात लगे; फिर उन्हें मैं प्रेम करता था, उन्हें जलते देखूं। लेकिन जब घर के लोग चले गए तो मैं भी चुपचाप पीछे के रास्ते से मरघट पहुंच गया। मुझे कुछ पक्का पता न था वहां क्या होने को है। डर से कि घर के लोग नाराज होंगे, छिप कर, वृक्ष पर बैठ कर ही मैंने उन्हें जलते देखा। लौट आया।
उस रात मैं एक ही प्रार्थना लेकर सो गया कि मैं भी मर जाऊं! भगवान, ऐसा कर कि मैं भी मर जाऊं! जब तक मुझे रात नींद नहीं लगी, एक ही बात मेरे मन में गूंजती रही कि मैं भी मर जाऊं, मुझे भी समाप्त हो जाना है। कब मुझे नींद लग गई, पता नहीं है, लेकिन नींद में भी मेरे मन में यही स्वर दौड़ता रहा, दौड़ता रहा कि मैं मर जाऊं, मैं मर जाऊं, मैं मर जाऊं।
कोई रात के दो या तीन बजे अचानक मेरी नींद टूटी और मुझे लगा कि वह जिसे मैं कह रहा था कि मर जाऊं, मर गया है। सब मर गया है। हाथ हिला नहीं सकता हूं, आंख खोल नहीं सकता हूं, श्वास का कोई पता नहीं मालूम पड़ता है, शरीर है भी या नहीं, उसका भी कुछ पता नहीं पड़ता है। सब मर गया है। लेकिन एक और आश्चर्य कि सब मर गया है, फिर भी मैं हूं--क्योंकि मुझे पता चल रहा है कि सब मर गया है। दोनों बातें एक साथ--सब मर गया है और फिर भी मैं हूं। यह भी पता चल रहा है कि मैं हूं। क्योंकि अगर मैं नहीं हूं तो किसे मालूम हो रहा है कि सब मर गया है?
छोटी ही उम्र थी, लेकिन उसी दिन से मृत्यु मेरे लिए समाप्त हो गई। उस दिन के बाद बहुत प्रियजन मरे, लेकिन फिर मेरे लिए कोई नहीं मरा। दूसरे दिन सुबह मैं जितनी शांति और आनंद से भरा था, वैसी शांति उस दिन तक मैंने कभी न जानी थी, वैसा आनंद भी न जाना था। एक अनुभव से होकर गुजरा था। अब लौट कर कह सकता हूं--उस दिन तो पता नहीं था, लेकिन अब लौट कर कह सकता हूं--समाधि के द्वार पर वह पहला, पहला झांकना था। समाधि के द्वार पर जिसे झांकना है उसे जीते जी मरने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
लेकिन हम सब तो मरने से बहुत डरे हुए लोग हैं। हम तो जीवन भर इस कोशिश में रहते हैं कि कहीं मर न जाएं। हमारा सारा प्रयास एक ही बात के लिए है कि मर न जाएं। हमारे दर्शन, हमारे धर्म, हमारी फिलासफीज, हमारे गुरु एक ही बात के लिए इंतजाम दे रहे हैं कि घबड़ाओ मत, घबड़ाओ मत। और अगर हम आत्मा की अमरता की बात भी मानते हैं, तो इसलिए नहीं कि हमें पता है कि आत्मा अमर है, बल्कि इसलिए कि इससे मरने का भय कम होता है।
तो दुनिया में मृत्यु से डरने वाले लोग आत्मा की अमरता को जरूर ही मान लेते हैं। हम मृत्यु से बचने के प्रयास में संलग्न हैं। हमारी पूरी जिंदगी जीने की जिंदगी नहीं है, मरने से बचने की जिंदगी है। हमारा धन, हमारे मकान, हमारे मित्र, हमारे प्रियजन, ये सब मृत्यु के खिलाफ हमारी सुरक्षाओं की दीवालें हैं। इसलिए जिस आदमी के पास जितना धन है, वह उतना सुरक्षित अनुभव करता है। जिस आदमी के पास जितना बड़ा किले जैसे मकान है, वह उतना सुरक्षित अनुभव करता है। जिस आदमी के पास सैनिकों का पहरा है, वह उतना सुरक्षित अनुभव करता है। जिस आदमी के पास जितनी शक्ति है, वह समझता है कि मैं सुरक्षित हूं।
हमारी सारी दौड़, अगर हम आदमी की पूरी जिंदगी के राज को समझना चाहें, तो दुनिया में दो ही तरह के आदमी हैं: एक वे जो जीते हैं और एक वे जो मरने से बचने का इंतजाम करते रहते हैं। लेकिन जो मरने से बचने का इंतजाम करता रहता है वह मरने से नहीं बच पाता है, मृत्यु तो आती है। और आश्चर्य तो यह है कि जो जीता है वह मरने से बच जाता है। क्योंकि जीवन की जितनी गहराइयों में उतरता है उतना ही पाता है मृत्यु नहीं है। मृत्यु सबसे बड़ा असत्य है। उससे बड़ा कोई भी असत्य नहीं है। लेकिन हम उसी से भयभीत हैं और उसी से बचने की कोशिश में संलग्न हैं। भाग रहे हैं, भाग रहे हैं कि मर न जाएं। इसीलिए हम धार्मिक आदमी नहीं हो पाते। धार्मिक आदमी वह है जो मरने के लिए तैयार है। जो कहता है: मरना ही है तो मैं मर कर देख लेना चाहता हूं।
सुकरात मर रहा था। तो किसी ने उससे पूछा कि तुम घबड़ा नहीं गए हो, मौत करीब आ रही है! तो सुकरात ने कहा, दो बातें ही हो सकती हैं। या तो मैं मर ही जाऊंगा, कुछ भी न बचेगा। और अगर मर ही जाऊंगा, कुछ भी न बचेगा, फिर भय कैसा? क्योंकि भय के लिए बचना तो जरूरी है। फिर दुख कैसा? क्योंकि दुख के लिए भी मेरा होना जरूरी है। फिर डर कैसा? अगर मैं मर ही गया, कुछ भी न बचा, तो डर नहीं है। और अगर मैं बच ही गया और मरने में मैं न मरा, तो फिर तो डर का कोई सवाल नहीं है। जब बच ही जाऊंगा, तो डर कैसा? फिर जो मर गया वह मैं नहीं था जानूंगा और जो बच गया वही मैं हूं।
सुकरात ने कहा, दो ही बातें हैं। या तो मर ही जाऊंगा, तब डर का कोई उपाय न रहा। और अगर बच ही गया, तब तो डर की कोई बात ही नहीं है। लेकिन हम? हम बहुत डरे हुए हैं, बहुत भयभीत हैं। इसलिए समाधि के पास हम नहीं पहुंच पाते हैं। समाधि के पास वही पहुंच सकता है जो मरने के लिए तैयार है। इसीलिए हम किसी की मृत्यु के बाद चबूतरा बनाते हैं तो उसे भी समाधि कहते हैं और ध्यान की आखिरी स्थिति को भी समाधि कहते हैं। कब्र को भी समाधि कहते हैं और ध्यान की आखिरी स्थिति को भी समाधि कहते हैं। दोनों में कुछ जोड़ है। जो आदमी जीते जी अपने को कब्र में डाल देता है वह समाधि को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन जीते जी कब्र में डालना, जीते जी मरने की तैयारी दुरूह है।
मैंने सुना है, इजिप्त में एक आश्रम था। और उस आश्रम में आश्रम के नीचे ही मरघट था। जमीन को खोद कर नीचे मरघट बनाया था। हजारों वर्ष पुराना आश्रम था। मीलों तक नीचे जमीन खोद कर उन्होंने कब्रगाह बनाई हुई थी। जब कोई भिक्षु मर जाता, तो पत्थर उखाड़ कर, उस नीचे के मरघट में डाल कर चट्टान बंद कर देते थे।
एक बार एक भिक्षु मरा। लेकिन कुछ भूल हो गई। वह मरा नहीं था, सिर्फ बेहोश हुआ था। उसे मरघट में नीचे डाल दिया। चट्टान बंद हो गई। पांच-छह घंटे बाद उस मौत की दुनिया में उसकी आंखें खुलीं, वह होश में आ गया। उसकी मुसीबत हम सोच सकते हैं! सोच लें कि हम उसकी जगह हैं। वहां लाशें ही लाशें हैं सड़ती हुई, दुर्गंध, हड्डियां, कीड़े-मकोड़े, अंधकार! और उस भिक्षु को पता है कि जब तक अब और कोई ऊपर न मरे, तब तक चट्टान का द्वार न खुलेगा। और उसे यह भी पता है कि अब वह कितना ही चिल्लाए...चिल्लाया, जानते हुए भी चिल्लाया कि आवाज ऊपर तक नहीं पहुंचेगी...क्योंकि आश्रम मील भर दूर है। और मरघट पर तभी आते हैं आश्रम के लोग जब कोई मरता है। और बड़ी चट्टान से द्वार बंद है। फिर भी, जानते हुए...
हम भी बहुत बार जानते हुए चिल्लाते हैं, जानते हुए कि आवाज नहीं पहुंचेगी। मंदिरों में लोग चिल्ला रहे हैं, जानते हुए कि आवाज कहीं भी नहीं पहुंचेगी। हम सब चिल्ला रहे हैं जानते हुए कि आवाज नहीं पहुंचेगी। आदमी जानते हुए भी चिल्लाए चला जाता है, जहां आशा नहीं है वहां भी आशा किए चला जाता है।
वह आदमी बहुत चिल्लाया, चिल्लाया, उसका गला लग गया, आवाज निकलनी बंद हो गई। शायद हम सोचेंगे कि उस आदमी ने आत्महत्या कर ली होगी। लेकिन नहीं, उस आदमी ने आत्महत्या नहीं की। वह आदमी थोड़े-बहुत दिन नहीं, सात साल उस कब्र के भीतर जिंदा रहा। वह कैसे जिंदा रहा? उसने सड़ी हुई लाशों को खाना शुरू कर दिया। उसने कीड़े-मकोड़े, जो लाशों में पलते थे, उनको खाना शुरू कर दिया। मरघट की दीवालों से नालियों का जो पानी चूता था, उसे वह चाट कर पीने लगा। इस प्रतीक्षा में कि कभी न कभी तो कोई मरेगा ही। द्वार तो खुलेगा ही। आज नहीं कल, कल नहीं परसों। कब सूरज उगता, उसे पता न चलता; कब रात आती, उसे पता न चलता।
सात साल बाद कोई मरा, चट्टान उठाई गई, तो वह आदमी बाहर निकला। और वह खाली बाहर नहीं निकला। इजिप्त में रिवाज है कि मरने वाले आदमियों को नये कपड़े पहना दिए जाते और उनके साथ दो-चार कपड़े कीमती रख दिए जाते, कुछ पैसे-रुपये भी रख दिए जाते। तो उसने सब मुर्दों के कपड़े और पैसे इकट्ठे कर लिए थे, जब निकलेगा तो लेता चला जाएगा। तो वह एक बड़ी पोटली बांध कर कपड़े और एक बड़ी थैली में सब रुपये भर कर बाहर आया। उसे तो कोई पहचान ही नहीं सका, मरघट पर जो लोग आए थे वे तो घबड़ा कर भागने लगे कि वह कौन है! उसके बाल जमीन छूने लगे थे, उसकी आंखों की पलकें इतनी बड़ी हो गई थीं कि आंख नहीं खुलती थी। उसने कहा, भागते हो? पहचाने नहीं? मैं वही हूं जिसे तुम सात साल पहले नीचे डाल गए थे।
उन्होंने कहा, लेकिन तुम जिंदा कैसे रहे? अगर छह घंटे बाद होश में भी आ गए थे तो बचे कैसे? तुमने आत्महत्या न कर ली! सात साल तुम इस मरघट में रहे कैसे?
उस आदमी ने कहा, मरना इतना आसान तो नहीं है! मैं भी सोचता था। मैं भी यही सोचता, अगर कोई और उस मरघट में गिरा होता तो मैं भी यही सोचता कि पागल, जीने की बजाय मर जाते! लेकिन अब मैं कह सकता हूं: मरना इतना आसान नहीं है। मैंने जीने की पूरी कोशिश की। और जीने के लिए मैंने जो भी किया है वह भी घबड़ाने वाला है। आज अगर फिर से सोचूं तो शायद न कर पाऊं।
हम भी सोचेंगे कि वह आदमी कैसा आदमी रहा होगा! लेकिन वह आदमी ठीक हमारे जैसा आदमी था। हम भी उसकी जगह होते तो यही करते। और जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं, क्या वह जिंदगी उस मरघट से बहुत भिन्न है? और जिसे हम भोजन कह रहे हैं, क्या वह उस मरघट में किए गए भोजन से बहुत भिन्न है? और जिसे हम कपड़े और रुपये का इकट्ठा करना कह रहे हैं, वह भी क्या मुर्दों से छीने गए रुपये और कपड़े नहीं हैं?
बाप ब़ूढा हो गया हो, तो चाहे बच्चे कहें या न कहें, सोचते हैं कि विदा हो जाए। वे मुर्दे के कपड़े और पैसे छीनने के लिए उत्सुक हैं। राष्ट्रपति को शुभकामनाएं भी देते हैं लोग। उपराष्ट्रपति जन्मदिन पर जाकर फूलमालाएं भी चढ़ाते हैं और मन में भगवान से जाने-अनजाने प्रार्थना भी करते हैं: कब तक टिके रहिएगा? क्योंकि वे विदा हों तो उनकी मरी हुई कुर्सी किसी को, कोई उस पर सवार हो जाए।
इसलिए दिल्ली में कोई मरता है, तो जो लोग चेहरे पर आंसू लिए हुए मरघट की तरफ ले जाते मालूम पड़ते हैं, वे ही तैयारी भी कर रहे होते हैं उसी वक्त कि कौन उसकी मरी हुई कुर्सी पर बैठ जाए। कहीं ऐसा न हो कि दूसरा बैठ जाए। बल्कि मरघट पर ले जाते वक्त भी इस बात की होड़ रहती है कि मुर्दे को सबसे पहले कौन हाथ दे रहा है, क्योंकि उसका कुर्सी पर कब्जा हो सकता है। मैंने सुना है कि गांधी मरे तो जिस टैंक पर चढ़ा कर उनको ले जाया गया था उस पर भी खड़े होने की प्रतियोगिता थी कि कौन-कौन नेता उस पर खड़े हो जाएं। क्योंकि दुनिया उनको देख ले कि वसीयतदार कौन हैं!
यह जिसको हम जिंदगी कहते हैं, यह भी एक बड़ा मरघट है, जिसमें क्यू है मरने वालों का। कोई अभी मरेगा, कोई थोड़ी देर बाद, कोई फिर थोड़ी देर बाद, कोई कल, कोई परसों, लेकिन सब मरेंगे। और इसमें जो मकान हैं हमारे पास, वे मुर्दों से छीने गए हैं, और जो कपड़े हैं वे भी, और जो धन है वह भी। और यहां भी हम जी रहे हैं बिना किसी आनंद को जाने, बिना किसी शांति को पाए, लेकिन सिर्फ एक आशा में कि शायद कल शांति मिले, कल आनंद मिले, कल कुछ मिल जाए। तो कल तक तो जीने की कोशिश करो। किसी भी भांति कल तक जी लो। कल शायद कुछ मिल जाए।
लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जो मरने के लिए तैयार नहीं है, उसे कभी कुछ न मिल सकेगा। और हम बहुत बार मरे हैं। लेकिन हम मरने से इतने भयभीत हैं कि मरने के बहुत पहले बेहोश हो जाते हैं। इसलिए हमें मृत्यु की कोई याद नहीं रह जाती। हम बहुत बार मरे हैं और बहुत बार जन्मे हैं, लेकिन हर बार मरने और जन्मने की क्रिया इतनी ज्यादा हमें डरा देती है कि हम बेहोशी में ही पैदा होते हैं और बेहोशी में ही मरते हैं। इसलिए उसकी मेमोरी, उसकी स्मृति नहीं बन पाती और गैप पड़ जाता है। इसलिए पिछले जन्म की भी स्मृति हमें नहीं रह जाती। पिछले जन्म की स्मृति न रह जाने का और कोई कारण नहीं है, पिछले जन्म की स्मृति न रह जाने का एक ही कारण है कि बीच में आई मृत्यु, और मृत्यु में हम इतने भयभीत हो गए कि बेहोश हो गए। और बेहोशी का जो अंतराल है, उसने स्मृति को दो हिस्सों में तोड़ दिया। पिछली स्मृति अलग टूट गई, यह स्मृति अलग टूट गई। इतना बड़ा बीच में गैप, अंतराल पड़ गया कि दोनों को जोड़ना मुश्किल है।
हां, कोई मरने की कला सीख जाए तो पिछले जन्म को स्मरण कर सकता है। क्योंकि तब फिर वह उस अंतराल को जोड़ सकता है। जन्मते भी हम बेहोश हैं। बहुत बार जन्मे हैं, लेकिन बेहोश जन्मे हैं। क्योंकि जन्म भी--यह जान कर हैरानी होगी--बच्चे को मृत्यु जैसा ही मालूम होता है। जब एक बच्चा मां के पेट से जन्मता है, तो उस बच्चे को मृत्यु जैसी ही प्रतीति होती है। वह इसीलिए मृत्यु जैसी प्रतीति होती है कि जिसे उसने नौ महीने तक जीवन समझा, वह अंत पर आ गया। जिसे उसने जीवन माना, वह अब समाप्त हो रहा है। और आगे के जीवन का तो उसे कुछ भी पता नहीं है। आगे तो भय है। मां के पेट का सारा आराम, सारी सुविधा, सारा सुख, सब छिन रहा है। और आगे का तो उसे पता नहीं है। उसकी दुनिया से वह उखाड़ा जा रहा है, अपरूट किया जा रहा है, सब जड़ें टूट जाएंगी। तो बच्चे को, जिसे हम जन्म कहते हैं, वह मृत्यु की तरह ही प्रतीत होता है। इसलिए बच्चा भी बेहोश ही जन्मता है, होश में नहीं होता। और जिसे हम मृत्यु कहते हैं वह भी जन्म है किसी और अर्थों में। लेकिन हम भी बेहोश मरते हैं। क्योंकि हमें लगता है कि जो था वह छूट रहा है, और जो आएगा वह तो अपरिचित है, आएगा भी, नहीं भी आएगा, पता नहीं क्या होगा?
हर मृत्यु जन्म है और हर जन्म मृत्यु है। इस जगत में न तो कुछ समाप्त होता और न कुछ शुरू होता है। जिसे हम शुरुआत कहते हैं, वह किसी चीज की समाप्ति है। और जिसे हम समाप्ति कहते हैं, वह किसी चीज की शुरुआत है। जिसे हम सांझ कहते हैं, वह दिन का अंत है और रात का प्रारंभ है। और जिसे हम सुबह कहते हैं, वह रात का अंत है और दिन का प्रारंभ है। और इस जगत में कुछ भी पूर्ण अंत को नहीं पहुंचता, और इस जगत में कुछ भी पहला प्रारंभ नहीं है। इस जगत में अंत है, प्रारंभ है; प्रारंभ है, अंत है। शुरुआत है, अंत है, शुरुआत है, अंत है। कोई चीज कहीं जाकर न समाप्त होती है और न कहीं शुरू होती है। इसलिए जीवन अनंत है। लेकिन मरने का डर बेहोश कर देता है। और मरने के डर के कारण ही हम समाधि में कभी प्रवेश नहीं कर पाते।
कितने लोग हैं जो मुझसे कहते हैं...कल ही एक मित्र कहते थे: आप ध्यान की बात तो कहते हैं, लेकिन अभी समझ में नहीं आती, उतर भी नहीं पाते।
नहीं उतर पाएंगे। जब तक मन की बहुत गहराई में मरने की तैयारी न हो, तब तक समाधि में नहीं उतरा जा सकता है। लेकिन जो लोग ध्यान करने आते हैं वे इसीलिए करने आते हैं कि शायद ध्यान भी मरने से बचने की एक तरकीब बन जाए। वे भी यह सोचते हैं कि शायद ध्यान के द्वारा, आत्मा अमर है, ऐसा पता चल जाए।
चलेगा पता। लेकिन वह उसी को पता चलेगा जो मरने के लिए तैयार है। ध्यान से चलेगा पता कि आत्मा अमर है, लेकिन उसे नहीं जो सिर्फ आत्मा की अमरता का पता लगाने चला आया है, उसे जो मरने के लिए तैयार है। मरने की तैयारी ही उसे उस जगह पहुंचा देती है जहां न मरने वाले का पता चलता है। इसलिए समाधि को कोई भी कभी उपलब्ध हुआ हो, तो समाधि के द्वार पर मृत्यु का बोध पहला चरण है। लेकिन हम मृत्यु के बोध को हटाए रहते हैं। हमने मरघट गांव के बाहर बनाए हैं इसीलिए कि वह रोज-रोज दिखाई न पड़े। होना तो चाहिए गांव के बीच में मरघट। जहां से हर बच्चा निकले, हर आदमी निकले, दिन में दो-चार बार उसे मृत्यु का खयाल आ जाए। हमने गांव के बाहर बनाया है, दूर, सुरक्षित, कि पता न चले।
अभी एक गांव मैं गया था, वे बड़े होशियार लोग हैं। उन्होंने जो मरघट बनाया है, बहुत ही अच्छा बनाया है। वहां जाकर भी आपको मरघट का पता न चले। वहां भी उन्होंने बगीचे लगाए हैं, लाइब्रेरी बना दी है कि वहां जो लोग जाते हैं वे अखबार वहां भी पढ़ते रहते हैं। वे यहां भी अखबार पढ़ते रहते हैं, वे वहां भी अखबार पढ़ते रहते हैं। ऐसे तो अभी भी हम जो मरघट पर जाते हैं, तो हम बहुत दुनिया भर की बातें वहां करते रहते हैं मौत को छोड़ कर, वह मौत को छोड़ देते हैं। और सदा एक खयाल बनाए रखते हैं कि सदा कोई और मरता है, मैं कभी नहीं मरता हूं! इसलिए हम दूसरों को छोड़ आते हैं--कि यह भी मर गया, यह भी मर गया। हम कभी नहीं मरते हैं। मैं कभी नहीं मरता हूं, दूसरे मरते हैं। और जब दस-पांच आदमियों को कोई आदमी मरघट पहुंचा आता है, तो और आश्वस्त हो जाता है कि मैं कैसे मरूंगा! मैं तो दूसरों को पहुंचाने का काम करता हूं। मैंने न मालूम कितने लोगों को पहुंचा दिया, अब मुझे कौन पहुंचाएगा!
हिटलर जैसे लोगों की मनःस्थिति में जो गहरे उतरे हैं, उनका खयाल यह है कि ऐसे लोग मृत्यु से डरे हुए लोग हैं, और दूसरे को मार कर आश्वासन पाते हैं कि मैंने तो इतने लोगों को मार डाला, मुझे कौन मार सकता है! चंगीज, या तैमूर, या हिटलर, या मुसोलिनी, या स्टैलिन, या माओ, ये सारे के सारे लोग मृत्यु से डरे हुए लोग हैं। और मृत्यु से बचने की प्रक्रिया में ही ये दूसरों को मार रहे हैं। क्योंकि जब एक आदमी लाख आदमी को मारे...अब अंदाज है कि हिटलर ने कोई सत्तर-अस्सी लाख लोगों को मारा; स्टैलिन ने कोई एक करोड़ लोगों को मारा...जब कोई एक आदमी एक करोड़ लोगों को मारे, तो एक अर्थ में परमात्मा जैसा हो जाता है। उसे लगता है कि एक करोड़ मिटा दिए, मुझे कौन मिटा सकता है! बहुत गहरे में उसे यह आश्वासन मिलता है कि मैं मिटाने वाला हूं, मैं मिटने वाला नहीं हूं।
परमात्मा जैसा अपने को अनुभव करने के दो ही रास्ते हैं: या तो हम मिटाने में उसकी होड़ कर लें, या बनाने में उसकी होड़ कर लें। तो बनाने में तो उसकी होड़ नहीं कर पाते हैं। फिर मिटाने में करना आसान पड़ जाता है। तो मिटा कर हम ईश्वर जैसे हो जाते हैं।
लेकिन है मृत्यु का भय! इसलिए हिटलर जैसा आदमी, जो इतने लोगों को मारता है, वह भी बहुत डरा हुआ आदमी है। वह रात कमरे में किसी को प्रवेश नहीं करने देगा। इसीलिए उसने शादी भी न की, कि कम से कम पत्नी को तो प्रवेश करने ही देना पड़ेगा। शादी नहीं की इसी डर से कि कहीं एक स्त्री को कमरे में आने देना पड़ेगा, और पता नहीं स्त्री धोखा दे जाए, जहर पिला दे, गोली मार दे, दुश्मन से मिल जाए। तो उसने विवाह नहीं किया।
हिटलर ने मरते वक्त विवाह किया। मरने के घंटे भर पहले। जब बर्लिन हार गया, और जब हिटलर जहां छिपा था उस तलघरे के सामने ही बम गिरने लगे, और दुश्मन के हवाई जहाज बर्लिन पर चक्कर मारने लगे, तब उसने अपने एक मित्र को कहा कि उस स्त्री को लिवा लाओ जो बारह वर्षों से विवाह की मेरे साथ प्रतीक्षा करती है। पर उन मित्रों ने कहा कि अब क्या अर्थ है? पर उसने कहा कि अब मैं निर्भय हूं, अब मरना निश्चित ही है। उसे ले आओ।
एक सोए हुए पादरी को जबरदस्ती उठा कर लाया गया। उस नीचे के तलघरे में चार-छह आदमियों के सामने हिटलर का विवाह हो गया। और विवाह के बाद जो उन्होंने सुहागरात का पहला काम किया वह था जहर पी लेना, दोनों ने, और दोनों जहर पी कर मर गए। लेकिन तब वह निश्चिंत था कि अब किसी को इतने निकट लिया जा सकता है, अब कोई डर नहीं है।
दुनिया में जितने बड़े हत्यारे हुए हैं, सब मृत्यु से डरे हुए लोग हैं। दूसरे की हत्या हम करते इसलिए हैं ताकि हम आश्वस्त हो सकें कि मैं नहीं मरूंगा, मेरी कोई हत्या नहीं कर सकता है। हमने जो व्यवस्था ईजाद की है जीवन की, उस व्यवस्था को अगर हम बहुत गौर से देखेंगे तो हम पाएंगे, हमने मृत्यु से भयभीत होकर...मृत्यु की बात नहीं करते हैं।
बचपन की मुझे याद है, जिस घटना की मैंने बात कही, क्योंकि उस घटना के बाद मेरे लिए मृत्यु सवाल न रहा।
एक संन्यासी गांव में आए हुए थे। और गांव में बड़ी चर्चा थी। मैं भी उन्हें सुनने गया था। वे आत्मा की अमरता की बातें कर रहे थे। और बात ही नहीं है करने को। मरे हुए और मरने से डरे हुए लोगों को सबसे प्रीतिकर यही लगता है कि बार-बार दोहराओ और समझाओ कि आत्मा अमर है। वे बड़े प्रफुल्लित होते हैं। इसलिए नहीं कि आत्मा अमर है, इसलिए कि उनको फिर एक आदमी ने आश्वासन दिया कि आत्मा अमर है, डर की कोई जरूरत नहीं है।
वे समझा रहे थे कि आत्मा अमर है। और मैं देख रहा था कि गांव के सब डरे हुए लोग वहां बैठ कर उन्हें बड़े आनंद से सुन रहे हैं। मैंने खड़े होकर उनसे पूछा कि स्वामी जी, आपके कब हैं इरादे मरने के? उन्होंने कहा, कैसी बेहूदी बात पूछते हो! यह कोई पूछने की बात है? और गांव के लोगों ने भी मुझे कहा कि यह कोई पूछने की बात है? यह पूछना अशिष्ट है। किसी आदमी से यह पूछना कि कब मरने के इरादे हैं। स्वामी तो बहुत नाराज हो गए।
मैंने कहा, मैं तो सोचता था कि वे कह रहे हैं, आत्मा अमर है, तो मरने की बात से नाराज न होंगे। लेकिन मरने के खयाल से ही नाराज हो गए।
मैंने पूछा कि कब मरने के इरादे हैं? कब मरिएगा? और वे कहने लगे कि यह बात नहीं पूछनी चाहिए, इस तरह की भद्दी बात नहीं पूछनी चाहिए।
अगर आत्मा अमर है, तो मृत्यु फिर भद्दी कैसे रह जाती है? फिर मृत्यु रह ही नहीं जाती। फिर मृत्यु की बात पूछनी अशोभन नहीं है।
हम मृत्यु की बात ही नहीं करते हैं, उसे हम टाले रखते हैं। वह आ भी जाए बीच में तो हम दूसरी बातें करते हैं। पड़ोस में कोई मर जाए तो हम हजार बात करते हैं, बस एक बात छोड़ देते हैं। हम कहते हैं बेचारा, हम उस पर दया खाते हैं। बिना इसकी फिकर किए कि जिस पर हम दया खा रहे हैं, वह घटना हम पर भी आज नहीं कल घट जाएगी। हम उसके बच्चों की बात करते हैं कि उनका क्या होगा? हम उसकी पत्नी की बात करते हैं--उसका क्या होगा? हम उसकी नौकरी की, पैसे की, धंधे की बात करते हैं कि वह सब क्या होगा? हम सब बात करते हैं, सिर्फ उस बीच के गोल घेरे को छोड़ जाते हैं, वह जो मृत्यु घटित हुई है, उसकी बात नहीं करते कि यह मृत्यु क्या है? उसको हम छोड़ जाते हैं। उसे हम बात के बाहर रखते हैं, उसे हम सदा किनारे रखते हैं।
अगर कोई हमारी जिंदगी में सबसे सुनिश्चित बात है तो वह मृत्यु है। बाकी तो सब अनिश्चित है। बाकी का कुछ भी तय नहीं है। एक बात तय है कि जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह घटेगी। सबसे सुनिश्चित बात पर सबसे कम चर्चा है। आपने मृत्यु पर कोई किताब न देखी होगी। आत्मा की अमरता पर किताबें हैं। मृत्यु पर किताब नहीं है। मृत्यु पर कोई बात ही नहीं करता, उसको हम बात के बाहर रखते हैं। क्योंकि वह बड़ा खतरनाक तथ्य है, वह कहीं दिखाई न पड़ जाए।
लेकिन हम कितना ही बाहर रखें, मृत्यु बाहर नहीं रहती, वह एक दिन आ ही जाती है। हमारे सब उपाय तोड़ कर भीतर चली आती है। हमारे सब द्वार-दरवाजे बेकार सिद्ध होते हैं, वह भीतर आ जाती है। हमारे सब पहरे बेकार सिद्ध होते हैं, वह भीतर आ जाती है। हमारे मित्र, साथी-संबंधी, सब व्यर्थ सिद्ध होते हैं। जिनको हमने इकट्ठा किया था--कि वे हमारा अकेलापन मिटाएं, हमें लोनली न मालूम होने दें। पत्नी को लाया था मैं--कि मैं अकेला न रहूं; बेटे को पैदा किया था--कि मैं अकेला न रहूं; मित्र बनाए थे--कि मैं अकेला न रहूं। लेकिन जब मौत आती है तो मैं पाता हूं, बिलकुल सब अकेला रह गया हूं। और जिन्हें मैंने सोचा था, वे रो रहे हैं मेरे लिए, लेकिन मेरा साथ देने को तो कोई भी तैयार नहीं है। वे रो रहे हैं मेरे लिए कि बेचारा! वे दुखी हो रहे हैं। लेकिन वे दुखी भी शायद मेरे लिए नहीं हो रहे, वे दुखी भी सिर्फ इसलिए हो रहे हैं कि वे अकेले हो गए। और जल्दी ही वे इंतजाम करेंगे कि उनका अकेलापन मिट जाए, वे फिर भरे-पूरे हो जाएं।
अकेलेपन से बचने के लिए हमने बनाया है समाज, बनाए हैं दल, बनाई हैं संस्थाएं, बनाए हैं संगठन, बनाए हैं राष्ट्र, अकेले से बचने के लिए बनाई हैं जातियां--हिंदू और मुसलमान, जैन और ईसाई, बौद्ध और पारसी। हमने, अकेला न रह जाऊं मैं, तो हमने भीड़ इकट्ठी की है।
लेकिन क्या फर्क पड़ता है? हम अकेले हैं! और हमारा सब इंतजाम झूठा है। और सब हमारा इंतजाम डिसेप्टिव है, धोखे का है, सच्चा नहीं है। और मौत हमारे सब इंतजाम को एक क्षण में व्यर्थ कर देती है। और सब अकेला रह जाता है। मौत के इस सत्य को पहचानने की जरूरत है। और मौत के इस सत्य के प्रति भयभीत होने की जरूरत नहीं है।
फिर भय का कोई प्रयोजन ही नहीं है। क्योंकि जैसा सुकरात ने कहा ठीक ही कहा, कि अगर मरूंगा बिलकुल तो मर ही जाऊंगा, फिर बात ही क्या करनी है? और अगर नहीं मरूंगा तो नहीं ही मरूंगा, फिर भी क्या बात करनी है?
हमारी व्यवस्था मौत से बचने की हमें ध्यान के करीब नहीं पहुंचने देती, समाधि के करीब नहीं पहुंचने देती। इसलिए हमने ध्यान और समाधि से बचने के लिए दूसरी धार्मिक क्रियाएं ईजाद की हैं। जब कि समाधि ही धर्म का मूल आधार है, बाकी सब क्रियाएं धोखा हैं।
समाधि से बचने के लिए हमने प्रार्थना ईजाद की है। समाधि से बचने के लिए हमने जप-तप ईजाद किया है। समाधि से बचने के लिए हमने मंत्र-तंत्र, न मालूम क्या-क्या ईजाद किया है। लेकिन समाधि से बचने के लिए।
धर्म का जो जाल हमें चारों तरफ दिखाई पड़ता है वह रिचुअल है, क्रियाकांड है। वह हमें मरने की दिशा में गति नहीं देता, वह हमें जीने का सहारा देता है। वह हमसे कहता है, घबड़ाओ मत! आश्वासन देता है।
धर्म का कोई भी आश्वासन नहीं है। धर्म तो कहता है: आओ, मिटो और मर जाओ! लेकिन जैसे ही कोई मरने को पूरी तरह राजी होकर जाता है, वह पाता है कि कुछ है, जो कि मरता ही नहीं। इस कुछ को जानते हुए, जागते हुए पहचान लेना जरूरी है। फिर कभी मृत्यु नहीं है। फिर मरेंगे हम होश से। और जो आदमी एक बार होश से मर गया, उसकी सारी जिंदगी का अर्थ, उसके जन्मों की व्यवस्था, उसकी सारी यात्रा बदल जाती है।
लेकिन होश से मरने के लिए, कांशस डेथ के पहले, हमें जीते जी मरने का कुछ अनुभव करना पड़ेगा कि हम जीते जी मरने की किसी दिशा में उतर जाएं। हम जीते जी मर जाएं।
जीसस का एक बहुत कीमती वचन है। कहा है जीसस ने: जो अपने को बचाएगा वह मिट जाएगा। और जो अपने को मिटाने को राजी है वह बचा लिया जाता है।
ठीक ही कहा है, एकदम ठीक कहा है। शायद जीसस का सूली पर लटकना उसका ही प्रतीक है--मिटने का, पूरी तरह मिटने का।
लेकिन जीसस तो सूली पर लटके, उनके अनुयायियों ने बड़ी तरकीब निकाली, वे एक छोटी सी सूली बना कर गले में लटकाए हुए हैं। अब सूली पर गला लटके, यह तो समझ में आता है; गले में सूली लटके, यह बिलकुल समझ में नहीं आता। सारी दुनिया में, जिनको हम धर्म-अनुयायी कहते हैं, वे इसी तरह के डिसेप्शन पैदा कर लेते हैं। बात वैसी ही दिखाई पड़ती है, जीसस भी सूली पर लटके हैं, जीसस का पादरी भी सूली लटकाए हुए है गले में। सोने की सूली बना ली है छोटी, उसको गले में लटकाए हुए है।
सोने की कहीं सूलियां होती हैं? और सूलियां कहीं गले में लटका कर चलने से कुछ मतलब है?
लेकिन सूली प्रतीक है किसी और बात का--मिटने की तैयारी का। जीसस भी आखिरी क्षण में बहुत घबड़ा गए। और मेरी दृष्टि में वही मोमेंट, वही क्षण उनकी जिंदगी का सबसे कीमती क्षण है। जब उन्हें सूली पर लटकाया गया और हाथ में कीले ठोंके गए, तो उनके मुंह से आवाज निकली कि हे परमात्मा, यह तू क्या कर रहा है? यह तू कर क्या रहा है? यह मेरे साथ क्या हो रहा है? अत्यंत चिंता और तनाव से भरे हुए उनके प्राणों से आवाज निकली कि हे परमात्मा, तू मुझे यह क्या दिखला रहा है?
शिकायत थी! शिकायत खबर देती है कि अभी जीसस को पता नहीं चला था। लेकिन एक ही क्षण में उनको समझ में आ गई बात, और वे हंसने लगे। और उन्होंने कहा, जो तेरी मर्जी, मैं राजी हूं।
यह एक क्षण ही जीसस के जीवन में क्रांति का क्षण है। जिस क्षण उन्होंने कहा, हे परमात्मा, यह क्या दिखला रहा है? उस वक्त मृत्यु के संबंध में शिकायत है। उस समय तक वे बढ़ई के एक बेटे जीसस थे। और एक क्षण बाद जब उन्होंने कहा, तेरी मर्जी, जो तू करे, मैं राजी हूं। बस वे जीसस न रहे, क्राइस्ट हो गए। वे एक साधारण आदमी के बेटे न रहे, परमात्मा के बेटे हो गए, मरने को राजी हो गए थे। एक क्षण में यह बात घटी और वह क्षण समाधि का क्षण बन गया--जैसे ही उन्होंने कहा, राजी हूं।
जो आदमी अपने भीतर कह सकता है कि मरने को राजी हूं, उसकी जिंदगी में समाधि का क्षण आ जाता है। और जो आदमी कहता है: मरने का? मर नहीं सकता। मैं तो इसीलिए ध्यान वगैरह खोज रहा हूं कि मरना न पड़े। आत्मा की अमरता का पता चल जाए, परमात्मा से मिलना हो जाए। और गारंटी पक्की हो कि कभी न मरूंगा। अगर यह शरीर भी मरेगा तो आत्मा नहीं मरेगी। कुछ भी हो जाए लेकिन मैं न मरूं, इसका मुझे पक्का करना है। ऐसा आदमी अगर ध्यान की खोज में जाएगा, तो ध्यान में जा ही नहीं सकता है।
जो आदमी मरने को राजी है उसे मैं संन्यासी कहता हूं। वह कपड़े बदलता है कि नहीं बदलता, यह बेमानी बात है। इसीलिए हम संन्यासी का नाम बदल देते हैं। लेकिन नाम बदलने से कुछ भी नहीं होता, क्योंकि वह आदमी वही का वही रह जाता है। नाम बदलते हैं इसीलिए कि हम मानते हैं कि पुराना आदमी मर गया, यह दूसरा आदमी है। लेकिन पुराना आदमी समाधि के बिना मर नहीं सकता। यह आदमी वही का वही है।
एक युवक मेरे पास अभी आया और उसने कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूं, आपकी क्या सलाह है?
मैंने कहा, संन्यास कभी किसी ने लिया है? और अगर लिया होगा तो झूठा होगा। संन्यास लिया नहीं जा सकता। क्योंकि वह जो लेने वाला है, वह मर जाए, तो संन्यास घटित होता है। वह जो लेने वाला है, जो कहता है मैं संन्यास ले रहा हूं, उसकी मृत्यु ही तो संन्यास बनती है। तो मैंने उससे कहा, जब तक संन्यास लेने जैसा लगे, तब तक लेना ही मत। लेकिन जिस दिन तुम पाओ कि वह आदमी मर ही गया जो संन्यास लेता फिरता था, उस दिन तुम संन्यासी हो जाओगे। और मैंने कहा कि जब तक किसी से पूछना पड़े, सलाह लेनी पड़े, तब तक तो लेना ही मत। क्योंकि दूसरे की सलाह से लिया हुआ सदा झूठा हो जाता है। जिस दिन तुम पाओ कि सारी दुनिया भी कहे कि संन्यास मत लो, लेकिन तुम पाओ कि अब लेने का सवाल ही नहीं, मैं संन्यासी हो गया। तभी कुछ...
पुराने दिनों में दीक्षा देते थे वे...जैसी मैंने जीसस की बात कही, वैसी ही सारी दुनिया में बात हो गई है...दीक्षा देते थे संन्यासी को तो वे उसे मरघट पर ले जाते थे। उसे चिता पर सुलाते थे, चिता में आग लगाते थे। वह प्रतीक था। फिर जलती हुई चिता से उसे उठाते थे और कहते थे: वह आदमी मर गया जो तुम थे, अब एक दूसरे आदमी का जन्म हुआ है।
मुर्दे का सिर घोट देते हैं न, इसीलिए संन्यासी का सिर घोट देते थे, कि यह आदमी मर गया। फिर उसका नाम बदल देते थे, क्योंकि वह आदमी तो मर ही गया--जो किसी का बेटा था, किसी का पति था, किसी का बाप था, किसी का भाई था--वह मर गया। इसलिए उसे दूसरा नाम दे देते थे।
अब भी वही हो रहा है। लेकिन अब वह सब झूठा है। और किसी लकड़ी की चिता पर अगर लिटा कर हम किसी को उठा लेंगे, तो क्या भीतर का आदमी मर जाएगा? कैसे मर जाएगा? और कपड़े बदल देंगे, और नाम बदल देंगे, तो क्या भीतर का आदमी मर जाएगा?
नहीं, चिता का अर्थ है--समाधि। जो व्यक्ति समाधि में प्रविष्ट होता है, फिर वह वही लौटता ही नहीं जो गया था, दूसरा ही आदमी लौटता है। वह बिलकुल और ही आदमी होता है। मरने की तैयारी संन्यास है। और संन्यास समाधि से फलित होता है। और मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति कहीं भी समाधि को उपलब्ध हो जाए, वह संन्यस्त हो जाएगा। संन्यस्त का मतलब यह नहीं कि वह घर छोड़ कर भाग जाएगा। क्योंकि घर छोड़ कर तो वे ही केवल भागते हैं जिनके लिए घर बहुत मूल्यवान है; पत्नी छोड़ कर वे ही भागते हैं जो स्त्री-लोलुप हैं; धन छोड़ कर वे ही भागते हैं जो लोभी हैं। लेकिन जिनके लिए सब जैसा है वैसा स्वीकार हो गया, वे कहीं भी नहीं भागते हैं, वे जहां हैं, हैं।
मैंने सुना है, एक गांव में एक फकीर है। उस गांव का राजा रात को निकलता है कभी, तो बार-बार उस फकीर को देखता है कि नीम के वृक्ष के नीचे वह सर्दी की रातों में ठिठुरता रहता है। फिर उसने गांव में पता लगाया। उसके वजीरों ने कहा, वह साधारण आदमी नहीं है, बहुत अदभुत व्यक्ति है; कहीं पहुंच गया, कुछ पा लिया, कुछ हो गया है उसकी जिंदगी में। तो सम्राट ने एक रात उससे जाकर कहा कि आप यहां न पड़े रहें, मेरे मन में बड़ी श्रद्धा का उदय हुआ है, चलें आप राजमहल में, वहीं निवास करें।
राजा ने सोचा--शायद न भी सोचा हो, लेकिन अचेतन में कहीं छाया रही होगी--कि संन्यासी तो फौरन कहेगा, राजमहल? मैं नहीं जा सकता हूं। हम फकीर हैं, हम झोपड़ों में सड़क के किनारे पड़े रहते हैं। राजमहल हमारे लिए नहीं है।
लेकिन सम्राट यह कह ही रहा था कि तभी वह फकीर उचका और राजा के घोड़े पर सवार हो गया। और उसने कहा, चलिए, किस तरफ चलें?
राजा को बड़ी मुश्किल हो गई। श्रद्धा एकदम समाप्त हो गई। उसने कहा कि मैंने कहा भी नहीं और यह आदमी राजी हो गया! यह कैसा संन्यासी है? लेकिन अपने ही शब्द वापस लेने में भी तो देर लग जाती है। अब एकदम से कैसे शब्द वापस ले ले! मन तो वहीं खट्टा हो गया। क्योंकि भोगी जो हैं वे सिर्फ त्यागियों को पूज सकते हैं। भोगियों की पूजा ने ही त्यागियों को पैदा किया हुआ है।
इसलिए जिसकी धन से जितनी ज्यादा लोलुपता होगी, वह उस आदमी के पास जाकर पैर छुएगा जिसने धन को लात मार दी होगी। वह इसलिए पैर छुएगा कि हां, यह है कुछ आदमी। यह पहुंच गया वहां जहां मुझे भी पहुंचना चाहिए। जो आदमी स्त्रियों के पीछे दीवाना होगा, वह ब्रह्मचारी के जाकर पैर पड़ेगा। वह कहेगा कि यह है आदमी। हम अपने से उलटे को पूजते हैं। और अगर पूजा लेनी हो तो आम लोग जैसे हैं उससे उलटा होना जरूरी हो जाता है। अगर वे पैर से चलते हैं तो आप शीर्षासन करिए, फिर पूजा मिलनी शुरू हो जाती है। पूजा सिर्फ उलटे को मिलती है। और जो उलटा है, वह बदला हुआ नहीं है। सिर के बल खड़े हो जाइए चाहे पैर के बल, आदमी आप वही हैं। आदमी नहीं बदल जाता सिर के बल खड़े होने से।
राजा बहुत मुश्किल में पड़ गया, लेकिन निमंत्रण दिया था तो फकीर को घर ले गया। अच्छे से अच्छा महल था, फकीर को ठहरा दिया। लेकिन श्रद्धा चली गई। क्योंकि श्रद्धा भोगी की त्यागी में हो सकती है। और धीरे-धीरे श्रद्धा मिटती गई। क्योंकि जो भी खाने को कहा, उसने खाना ले लिया; जहां भी सोने को कहा, वह सो गया--मखमली गद्दे थे तो स्वीकार कर लिए। तब तो राजा ने कहा, बात सब खराब हो गई। मैं बड़ी गलती में पड़ गया। मैं किस तरह के आदमी को ले आया!
छह महीने बाद राजा ने एक दिन जाकर उस फकीर को कहा कि एक सवाल मेरे मन में उठा है, पूछ लूं? वह सवाल यह है कि मुझमें और आपमें अब फर्क क्या है?
उस संन्यासी ने कहा, तुम छह महीने बाद पूछ रहे हो, सवाल तो उसी रात उठ गया था।
उसने कहा, क्या मतलब?
संन्यासी ने कहा, जब मैं घोड़े पर सवार हुआ था, तभी सवाल उठ गया था। लेकिन बड़े कमजोर आदमी हो, पूछने में भी छह महीने लगा दिए!
उस राजा ने कहा, शायद आप ठीक कहते हैं, सवाल तो उसी वक्त उठ गया था।
तो उसी वक्त पूछ लेना था, उस फकीर ने कहा, कैसे कमजोर आदमी हो!
फिर राजा ने कहा, अब आज तो बता दें, कि अब मुझमें और आपमें फर्क क्या है?
फकीर ने कहा, सच में ही फर्क जानना है, तो चलो उसी जगह चलें जहां से यह सवाल उठा था। वहीं जवाब दे दूंगा।
वे गए गांव के बाहर, उस झाड़ के नीचे, फिर वे चलते ही गए। राजा ने कहा, वह झाड़ भी निकल गया, अब आप जवाब दे दें।
उस फकीर ने कहा, थोड़े और आगे, थोड़े और आगे...
फिर वे गांव की सीमा-रेखा पर पहुंच गए, जहां राजा का राज्य समाप्त हो जाता था। नदी थी। फकीर ने कहा, नदी भी पार कर लें।
उस राजा ने कहा, लेकिन मतलब क्या है? अब जवाब दीजिए, दोपहर हो गई, धूप सिर पर चढ़ गई।
उस फकीर ने कहा, जवाब मेरा यही है कि अब मैं तो आगे जाता हूं, तुम भी साथ चलते हो?
उस राजा ने कहा, मैं कैसे जा सकता हूं? मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा राज्य!
उस फकीर ने कहा, तो मैं तो जाता हूं। अगर फर्क दिखाई पड़े तो देख लेना। तुम्हारे महल में मैं था, लेकिन तुम्हारा महल मेरे भीतर न था। तुम सिर्फ महल में नहीं हो, महल भी तुम्हारे भीतर है। अब कहां है महल तुम्हारा? कहां है पत्नी? कहां हैं तुम्हारे बच्चे? लेकिन तुम कहते हो कि मुझे लौटना पड़ेगा--मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा महल! मेरा कुछ भी नहीं है। मैं तुम्हारे महल में मेहमान था, मैं तुम्हारे महल का मालिक न था। महल के भीतर था मैं, लेकिन महल मेरे भीतर न था। अच्छा मैं जाऊं?
राजा के मन में श्रद्धा का फिर उदय हुआ। श्रद्धा के उदय होने में भी देर नहीं लगती, जाने में भी देर नहीं लगती। वह एकदम संन्यासी के पैर पकड़ लिया और उसने कहा, महाराज, कहां मुझे छोड़ कर जाते हैं! वापस चलें।
उसने कहा, मैं फिर घोड़े पर सवार हो सकता हूं, लेकिन श्रद्धा का अंत हो जाएगा। अब तुम मुझे जाने दो। मुझे कोई कठिनाई नहीं है, मैं लौट सकता हूं। लेकिन तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। छह महीने मैं तो बड़े मजे में सोया, तुम बड़ी मुसीबत में रहे। फिर सवाल उठ जाएगा, अगर मैं लौटा। तो अब मत लौटाओ। मैं तो लौट सकता हूं, क्योंकि मेरे लिए यह दिशा और वह दिशा, सब बराबर है। इधर जाऊं कि इधर जाऊं, कि कहीं न जाऊं, कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन तुम मुसीबत में पड़ जाओगे।
इस आदमी को मैं संन्यासी कहता हूं। जो संसार से भयभीत है वह संन्यासी नहीं है। लेकिन जो संसार में ऐसे रहने लगा जैसे मेहमान है, अतिथि है; जो संसार में ऐसे रहने लगा कि संसार चारों तरफ है, लेकिन उसके भीतर नहीं है; वह आदमी संन्यस्त है।
लेकिन संन्यस्त व्यक्ति समाधि से गुजरे बिना कोई भी नहीं हो सकता। संन्यस्त होने का मतलब है: बिना मरे कोई संन्यस्त नहीं हो सकता। जीते जी जो मर जाता है, जीते जी जो मरने की कला सीख लेता है। और एक बार समाधि से कोई गुजर जाए, तो प्रतिपल मरता है और प्रतिपल नये का जन्म होता है। फिर ऐसा नहीं है कि एक दफा मैं मर गया और दूसरा हो गया। नहीं, प्रतिपल जो पुराना था वह मर जाता है और नया उभरता रहता है। प्रतिपल मृत्यु है, प्रतिपल जीवन है, प्रतिपल पुनर्जीवन है। प्रतिपल मरता है पुराना, नया जन्म लेता है। और जब कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में हो जाता है कि उसके ऊपर अतीत का कोई बोझ नहीं है, अतीत का सब मर जाता है; और भविष्य की कोई चिंता नहीं है, क्योंकि जो नहीं आया उसकी चिंता कैसी; जिसके ऊपर सिर्फ वर्तमान के जीवन की पुलक रह जाती है, वह व्यक्ति परमात्मा के पूर्ण आनंद को उपलब्ध हो पाता है। और वह जान पाता है कि क्या है मुक्ति, क्या है मोक्ष, क्या है जीवन का अर्थ, क्या है जीवन की सुगंध, क्या है जीवन की ज्योति।
लेकिन तैरना सीखना हो तो पानी में उतरना पड़े। और अगर अमृत को जानना हो तो मृत्यु में जाना पड़े। जैसे हम काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखते हैं। सफेद दीवाल पर भी लिख सकते हैं, दिखाई तो नहीं पड़ेगा, लिख सकते हैं। दिखाई तो तभी पड़ेगा जब काले तख्ते पर हम सफेद खड़िया से लिखें, उभर कर दिखाई पड़ेगा। दिन में भी तारे होते हैं आकाश में, दिखाई नहीं पड़ते। मिट नहीं जाते हैं, दिन में भी होते हैं, लेकिन दिखाई नहीं पड़ते। रात दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि काली चादर फैल जाती है, उसमें तारे फिर चमक कर दिखाई पड़ते हैं। अमावस की रात जैसे तारे दिखाई पड़ते हैं वैसे कभी भी दिखाई नहीं पड़ते। जितनी काली रात, उतना तारा चमक कर दिखाई पड़ता है।
जो आदमी जितनी गहरी मृत्यु में से गुजरता है, उतना ही अमृत का तारा उसे चमक कर दिखाई पड़ने लगता है। गहरी मृत्यु की चादर घेर लेती है सब तरफ से, फिर बीच में वही दीया दिखाई पड़ता रह जाता है जो अमर है, जो नहीं मिटता है, नहीं मिट सकता है। उपाय नहीं मिटने का, मार्ग नहीं मिटने का, द्वार नहीं मिटने का। अमृत को जानना हो तो मृत्यु को जानना जरूरी है।
यह बात उलटी मालूम पड़ेगी। यह बात उलटी मालूम पड़ेगी, लेकिन बीज से अगर हम कहें कि
अगर वृक्ष बनना है तो मिटना जरूरी है, बीज मिटे तो वृक्ष बनता है। ऐसे ही, अगर हम मिटें, तो अमृत का पौधा हमारे भीतर खिलना शुरू हो जाता है। अनूठी है सुगंध उसकी, अनूठा है संगीत। लेकिन हम अभागे उससे वंचित रह जाते हैं, क्योंकि हम उससे ही डरे रह जाते हैं जो द्वार है, इसलिए भवन में कभी प्रवेश नहीं होता।
अगर मंदिर में जाना हो परमात्मा के, तो उसके द्वार का नाम मृत्यु है। इसलिए हम उस मंदिर को ही छोड़ देते हैं, हम अपना ही एक मंदिर मोहल्ले में बना लेते हैं। और एक अपना ही बनाया हुआ, गृह-उद्योग से, होम-मेड भगवान वहां खड़ा कर देते हैं। अपना ही दरवाजा बना लेते हैं, अपना ही मंदिर बना लेते हैं, अपनी ही चाबी, अपना ही सब कुछ। मंदिर में भी प्रवेश कर जाते हैं, और वही के वही वापस लौट आते हैं जो भीतर गए थे।
नहीं, परमात्मा का मंदिर कहीं और है, जो हमारे बनाने से नहीं बनता। उसका द्वार कुछ और है। जिससे हम भयभीत हैं, वही उसका द्वार है।
तो सुबह तो मैं रोज बात करूंगा उसके द्वार के और चरणों की। आपके जो भी प्रश्न हों, वे लिख कर दे देंगे, उन पर बात करता रहूंगा। और रात्रि सिर्फ उनको निमंत्रण है, जो उस द्वार में प्रवेश करने का साहस जुटा पाते हैं।
तो दिन भर आप सोच लेना, लगे कि हां, है हिम्मत कि थोड़ा मर कर भी देखें, तो ही आना, अन्यथा नहीं आना। कमजोर के लिए वह रास्ता नहीं है। हालांकि कोई भी इतना कमजोर नहीं है। लेकिन हम चाहें तो अपने को कमजोर बना सकते हैं, बहुत भयभीत हो सकते हैं, और नष्ट हो सकते हैं।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।