QUESTION & ANSWER

Saheb Mil Saheb Bhave 09

Ninth Discourse from the series of 10 discourses - Saheb Mil Saheb Bhave by Osho. These discourses were given during JUL 11-20 1980, Pune.
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पहला प्रश्न: भगवान,
गुमनाम मंजिल दूर है सबेरा कोई संगी न साथी मैं हूं अकेला दुनिया की रीत क्या है? भला ऐसी चीज क्या है? जिसके बिना यह नाव चलती नहीं। उल्फत का गीत क्या है? जीवन संगीत क्या है? जिसके बिना यह रात ढलती नहीं! नदिया की धार कहे, अहसास जीने का मरता नहीं अपनी अग्नि में जले, ऐसे तो प्यार कोई करता नहीं! आप ही कहें, क्या कोई रास्ता नहीं?
भगवान स्वरूप! वह मंजिल तो जरूर गुमनाम है, लेकिन दूर नहीं। निकट से भी निकट है। निकट कहें, इतनी भी दूर नहीं। तुम ही हो मंजिल, तुम ही हो यात्री। मार्ग भी तुम्हीं, मंजिल भी तुम्हीं। मार्ग पर चलना भी तुम्हें है। तुम्हारे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। कहीं दूर नहीं जाना है, अपने में ही डूब जाना है। दूर जाने की धारणा में ही भटकाव है। और मन सदा दूर ही जाना चाहता है। मन की उत्सुकता दूरी में है। जितनी दूर हो कोई चीज, उतनी लुभावनी--दूर के ढोल सुहावने--उतना खींचती मन को, चाहे हाथ कुछ लगे न लगे।
इंद्रधनुष कैसा प्यारा लगता है! पास जाओगे, कुछ भी न पाओगे। हाथ में पानी की बूंदें ही लगेंगी। लेकिन दूर से सारी मणि-मुक्ताएं फीकी पड़ जाएं! दूर से तो ओस की बूंद भी कैसी चमकती है! मोतियों को मात दे दे। पास जाकर भ्रांति टूटती है। मगर आदमी अदभुत है। एक भ्रांति टूटती है तो दूसरी पाल लेता है। दूसरी टूटती है, टूट भी नहीं पाती कि उसके पहले ही तैयारियां करने लगता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मर रही थी। मरणशय्या पर आखिरी क्षणों में उसने कहा: नसरुद्दीन, मैं जानती हूं कि इधर मैं मरी और उधर तुमने विवाह किया। नसरुद्दीन ने कहा: कभी नहीं, कभी नहीं! बहुत हो चुका, देख लिया जीवन; अब तेरे साथ रहने के बाद और कौन है जिसे मैं प्रेम कर सकूंगा? असंभव। तू गई कि जिंदगी में अंधेरी रात ही रहेगी, फिर कोई दीया न जलेगा। यह घर फिर संवरेगा नहीं, उजाड़ ही रहेगा, वीरान ही रहेगा। बड़ी ऊंची बातें कीं। पत्नी सुनती रही। स्त्रियां ज्यादा पार्थिव हैं, ज्यादा यथार्थवादी हैं। पुरुष तो आकाश में पंख मारते हैं, लेकिन स्त्रियां कभी जमीन को छोड़ती नहीं।
जब यह सारी कविता बंद हो गई, नसरुद्दीन की, तो पत्नी ने फिर कहा कि देखो, ये कविताएं रहने दो, मैं भी तुम्हें भलीभांति जानती हूं। तुम बिना पत्नी न रह सकोगे; इतनी भर मेरी विनती है कि मेरे कपड़े, मेरे गहने नई पत्नी को मत देना, मेरी आत्मा को बड़ा दुख होगा। नसरुद्दीन ने कहा: उसकी तू फिकर ही मत कर, फरीदा को तेरे कपड़े बनेंगे भी नहीं!
अभी मरी नहीं है पत्नी, लेकिन तैयारियां तो भीतर चल पड़ी हैं। बाहर शहनाई थोड़ी देर से बजेगी, भीतर तो बजने लगी है। भीतर तो राह ही देखी जा रही है कि कब मरे? अभी एक सपना टूटा नहीं है, दूसरा संजोया जा रहा है। दो सपनों के बीच में क्षण भर को हम जगह भी नहीं देते, क्योंकि उसी जगह में जागरण घट सकता है। सपने के ऊपर सपने दौड़ाएं चले जाते हैं।
भगवान स्वरूप, मंजिल का नाम तो नहीं है, क्योंकि तुम्हारा कोई नाम नहीं है। तुम आए पृथ्वी पर, अनाम आए। कोई बच्चा नाम लेकर आता नहीं। नाम तो हम दे देते हैं, कामचलाऊ है, सभी नाम कामचलाऊ हैं।
एक छोटा सा बच्चा अपनी मां से पूछ रहा था कि मेरे जन्म के पहले तू मुझे जानती थी कि नहीं? उसने कहा: तुझे जन्म के पहले मैं कैसे जानूंगी? तो इस बच्चे ने कहा: यही तो मैं सोचता हूं, कि मेरे जन्म के पहले जब तू मुझे जानती नहीं थी, तो तूने पहचाना कैसे, कि मैं ही वह हूं? और नाम का तुझे कैसे पता चला?
कोई बच्चा नाम लेकर थोड़े ही आता है! न कोई पहचान लेकर आता है। पहचान तो हम थोपते हैं। नाम तो हम चिपकाते हैं। काम नहीं चलेगा बिना इसके। इस भीड़ में किसी को बुलाना भी होगा तो मुश्किल हो जाएगा। नाम की उपयोगिता है। सत्य नाम में कुछ भी नहीं। सब नाम झूठे हैं।
तो तुम्हारा नाम क्या है? कुछ भी नहीं। यूं मंजिल तो गुमनाम है, मगर गंता और गंतव्य दो नहीं हैं। यही सबसे बड़ी अड़चन है आदमी के सामने। काश, मंजिल दूर होती तो हम कभी के पहुंच गए होते! हमने दूर पहुंचने के तो कितने साधन ईजाद नहीं कर लिए! चांद पर पहुंच गए। जल्दी ही तारों पर पहुंच जाएंगे। दूर पहुंचने में तो हमारी कुशलता का कोई हिसाब नहीं। और कितनी गति से हम पहुंचते हैं! सारी पृथ्वी का चक्कर चौबीस घंटे में लग जाता है। और जल्दी, और तीव्रता के वाहन खोज लिए जाएंगे। अड़चन कुछ और है।
अड़चन यह है कि दूरी बिलकुल नहीं है। तुम जहां हो, जैसे हो, वैसे ही तुम मंजिल पर हो। मंजिल से तुम इंच भर कभी हटे नहीं। और हम रुकते नहीं। रुके तो पहुंच जाएं। चलने की हमें धुन है, सो हम चलते हैं। अभी भी तुम रास्ता पूछ रहे हो कि रास्ता बताएं। रास्ते का मतलब है कि दूर जाने का कोई उपाय सुझाएं। नहीं कोई रास्ता है। जाना ही नहीं है कहीं तो रास्ता कैसा? कोई सेतु नहीं बनाना है। ठहरो, भागो मत! रुको, दौड़ो मत, दौड़े कि चूके। भागे कि भटके। जितने तेजी से जाओगे उतने दूर निकल जाओगे, अपने से दूर निकल जाओगे।
कोई धन के पीछे दौड़-दौड़ कर दूर निकल गया है। कोई पद के पीछे दौड़-दौड़ कर दूर निकल गया है। कोई परमात्मा के पीछे दौड़-दौड़ कर अपने से दूर निकल गया है। हम सब अपने से दूर कैसे निकल गए? किसी चीज के पीछे दौड़ रहे हैं। मृग-मरीचिकाएं हैं। और साधारण आदमी ही नहीं दौड़ रहे हैं, राम तक स्वर्ण के हिरन के पीछे भाग खड़े हुए। औरों की तो छोड़ो! राम को भी न सूझा कि कहीं सोने के मृग होते हैं! स्वर्ण-मृग के पीछे चले गए। थोड़े झिझके भी जाने में इस कारण नहीं कि सोने का मृग झूठा है, इस कारण कि सीता को अकेला छोड़ जाएं, जंगल है! तो सीता ने भी आग्रह किया कि जाओ! क्या डरते हो? यह अवसर चूको मत। यह स्वर्ण-मृग खो न जाए।
राम गए स्वर्ण-मृग के पीछे, सीता ने और सहारा दिया कि जाओ। फिर लक्ष्मण को भी भेज दिया। क्योंकि राम ने आवाज दी, झूठी आवाजें! कि बचाओ, मैं मुश्किल में हूं! लक्ष्मण जाना नहीं चाहते थे। तो सीता ने कुछ ऐसी चोट की बात कह दी कि लक्ष्मण तिलमिला गए। अभद्र बात कह दी। लक्ष्मण से कहा कि मुझे पता है, तुम चाहते ही यह हो कि किसी तरह राम समाप्त हो जाएं, तो तुम मुझ पर कब्जा कर लो। तुम्हारी मर्जी यही है। तुम क्यों जाओगे? भाई मुश्किल में पड़ा है और तुम बहाने खोज रहे हो कि मेरी रक्षा के लिए रुके हो। जाओ!
यह चोट ऐसी थी कि लक्ष्मण को जाना ही पड़ा।
साधारण आदमी की तो बात छोड़ो, ये राम, लक्ष्मण, सीता, ये भी बस हमारे जैसे ही सोचने के ढंग से भरे हुए हैं। फिर तुम किस चीज के पीछे निकल गए हो, यह बात बहुत गौण है। बैकुंठ खोज रहे हो, मोक्ष, निर्वाण खोज रहे, यह बात गौण है। जब तक तुम कुछ खोज रहे हो, भटकते रहोगे। खोजो ही मत, रुको, ठहरो। बिलकुल ठहर जाओ! चित्त कंपे ही न। जरा भी हिले न। कितने ही स्वर्ण-मृग पुकारें, कितने ही आह्वान आएं, कितने ही चित्त को आकर्षित करने के लिए जाल फेंके जाएं, हिलना मत, डुलना मत। इस अवस्था का नाम ध्यान है। और यही अवस्था जब अपनी परिपूर्णता को पहुंच जाती है तो समाधि है। और समाधि में सब समाधान है। तभी तो उसे समाधि कहते हैं। जिसमें सब समाधान है।
तुम कहते हो:
‘गुमनाम मंजिल दूर है सबेरा’
नहीं, दूर जरा भी नहीं। आंख भीतर मोड़ो, सूरज निकला हुआ है। वहां कभी रात हुई ही नहीं। तुम पीठ किए हो। अब सूरज की तरफ पीठ किए हो तो सूरज दिखाई कैसे पड़े? बाहर रात ही रात है। लाख सूरज उगे, रोशनी वहां कभी होती नहीं। और भीतर रोशनी ही रोशनी है। लाख तुम पीठ किए रहो, अंधेरा वहां होता नहीं। जरा मुड़ो, जरा झांको और अभी सुबह हो जाए, इसी क्षण सुबह हो जाए, तत्क्षण सुबह हो जाए। दूरी हो तब तो समय लगे। यात्रा करोगे, पहुंचोगे, पहुंचते-पहुंचते ही पहुंचोगे, बात बनते-बनते ही बनेगी। फिर भटक भी सकते हो। रास्ता पकड़ोगे तो रास्ता गलत भी हो सकता है। रास्ता बताने वाले धोखेबाज और बेईमान भी हो सकते हैं।
एक आदमी शराब पीकर रात घर लौटा। पहुंच तो गया यंत्रवत अपने घर, क्योंकि हम यंत्र की तरह ही चलते हैं। तुम अपने घर जाते वक्त सोचते थोड़े ही कि अब बाएं मुडूं, कि अब दाएं मुडूं! फिल्मी गीत गुनगुनाते रहते हो और कार मुड़ती जाती है, कि साइकिल का हेंडिल मुड़ता चला जाता है। या पैदल ही चल रहे हो तो अपने आप मोड़ खा जाते हो। अपने घर पहुंच जाते हो।
ऐसे ही शराब तो उसने पी ली थी, मगर यंत्र, पुरानी आदत, पहुंच गया अपने घर। मगर शराब ऐसी छायी थी कि पहचान में न आए कि यह अपना घर है। दरवाजा खटखटाया, आधी रात, उसकी मां ने दरवाजा खोला। वह उससे पूछने लगा कि मेरे घर का मुझे पता बता दो। पैरों पर गिर-गिर पड़े और कहे कि मुझे मेरे घर का पता बता दो, मेरी बूढ़ी मां रास्ता देखती होगी। वह बूढ़ी मां कहने लगी: अरे, पागल हुआ है तू, मैं तेरी मां हूं! तो वह शराबी बोला: देखो मुझे समझाओ मत, मुझे बहलाओ मत, मुझे खिलौने न पकड़ाओ, मेरी मां राह देखती होगी! मुझे मेरे घर का पता बता दो। यहीं कहीं मेरा घर है! पास ही कहीं मेरा घर है! मगर मैं भूल गया हूं। मैं पी गया हूं ज्यादा। मुझे कुछ होश नहीं है। और वह मां कहने लगी: यही तो तेरा घर है, भीतर चल! मगर वह भीतर न जाए। वह कहे: मुझे भीतर जाना नहीं है, पहले मुझे मेरे घर का तो पता मिले!
और तभी दूसरा शराबी आता था, अपनी बैलगाड़ी जोत कर चला आ रहा था। उसने कहा: तू भी किन बातों में पड़ा है! मोहल्ले के लोग भी इकट्ठे हो गए, लोग हंसने लगे, मजाक करने लगे। वह दूसरा शराबी बोला: आ बैठ मेरी गाड़ी में, मैं तुझे ले चलता हूं, तेरे घर पहुंचा दूंगा। मुझे भी अपने घर जाना है और तेरे ही पड़ोस में मेरा घर है!
अब इस शराबी की गाड़ी में अगर यह बैठ जाए, तो यह दूर निकल जाएगा। यह शराबी भी जा रहा है दूर अपने घर से। इसके ही पड़ोस में इसका घर है, मतलब इसके बगल में ही इसका घर है; वहीं इसका घर है, जहां पहले शराबी का घर है। मगर यहां अंधे अंधों को रास्ता बताने के लिए मिल जाते हैं। तुम पूछो भर! तुम न भी पूछो तो भी बताने वाले तैयार हैं।
और क्या-क्या मूढ़तापूर्ण बातें दुनिया में चलती हैं। कैसे-कैसे अजीब काम लोग करते हैं! इस आशा में कि इससे मंजिल मिल जाएगी, कोई उपवास कर रहा है। जैसे भूखे मरने से मंजिल को पाने का कोई संबंध हो! कोई बाल नोंच रहा है, केश-लुंच किया जा रहा है। जैसे बाल उखाड़ने से कोई मंजिल का पता चल जाएगा। कोई धूनी रमाए बैठा है। किसी ने भभूत लगा रखी है। कोई सिर के बल खड़ा है। किसी ने जटा-जूट बढ़ा रखे हैं। जैसे इन सारे कामों से मंजिल के पाने का कोई संबंध हो! कोई बैठा माला ही जप रहा है। कोई राम-राम की धुन ही लगाए हुए है। न तुम्हारा कोई नाम है, न उसका कोई नाम है, क्या धुन लगाए हो! क्या धूनी रमाए हो!
कोई हवन-यज्ञ कर रहा है। लोग भूखे मरते रहें, यहां घी और चावल और गेहूं आग में फेंके जा रहे हैं--लाखों रुपये के। हजारों यज्ञ पूरे मुल्क में होते रहते हैं। मूढ़ करवाने वाले। शराब में धुत अंधे लोग मार्ग-दर्शन दे रहे हैं। और उनसे भी महामूढ़ लोग हैं जो उनसे मार्ग-दर्शन ले रहे हैं। सदियां हो गईं तुम्हें यही यज्ञ-हवन करते, न दीनता मिटती, न दरिद्रता मिटती, फिर भी मगर तुम वही किए चले जाओगे। और कारण? बुनियादी भूल यहां है कि तुम यह सोचते हो कि मंजिल कहीं और है तो कुछ करके ही पहुंचेंगे। तो कोई विधि-विधान होना चाहिए।
न कोई विधि है, न कोई विधान है। सीधी और सरल सी बात है। साक्षीमात्र बन जाओ। बैठो अपने भीतर, विचार की प्रक्रिया को देखो! क्योंकि विचार की प्रक्रिया देखने से शांत हो जाती है। जैसे ही तुम विचार की प्रक्रिया को देखने लगते हो, वह शांत होने लगती है। शांत होते-होते अपने आप क्षीण हो जाती है।
और जब सब निर्विचार हो जाता है तो आ गई मंजिल। तुम मंजिल पर ही थे, विचारों में भटक गए थे। इसलिए चूक गए थे। अपने ही घर में बैठे-बैठे तुम सपनों में खो सकते हो। दूर-दूर के सपनों में खो सकते हो। तो भूल जाओगे घर को।
इमर्सन बहुत बड़ा विचारक हुआ। और विचारकों के साथ यह झंझट अक्सर हो जाती है। वे विचारों में इतने खो जाते हैं कि उनकी अपने पर से पकड़ बिलकुल छूट जाती है। कभी भूल कर बुद्ध को, महावीर को, पतंजलि को विचारक मत कहना। ये विचारक नहीं थे। हालांकि डॉक्टर राधाकृष्णनन जैसे लोग भी बुद्ध और महावीर को महान विचारक कहते हैं! राधाकृष्णनन हैं विचारक। तो वे सोचते हैं, कि बुद्ध महान विचारक। तो बड़ी प्रशंसा कर रहे हैं। लेकिन यह प्रशंसा न हुई, निंदा हो गई। बुद्ध विचारक नहीं हैं। बर्ट्रेंड रसल होंगे विचारक, हीगल और कांट होंगे विचारक, अरस्तू और प्लेटो होंगे विचारक, बुद्ध विचारक नहीं हैं। निर्विचारक अगर कहना हो तो कह सकते हो, लेकिन विचारक नहीं। ध्यानी हैं, समाधिस्थ हैं, प्रबुद्ध हैं, विचारक नहीं हैं। ये कुछ प्रकाश के संबंध में सोचते नहीं हैं, प्रकाश देखा है, अनुभव किया है--द्रष्टा हैं, विचारक नहीं हैं।
इमर्सन बड़ा विचारक था। एक सुबह--सर्द सुबह है, बर्फ पड़ रही है। उसके नौकर ने अंगीठी जला दी है कमरे की और वह पास में ही अपनी कुर्सी पर बैठे हुए अखबार पढ़ रहा है। नौकर कुछ काम से बाहर गया, अंगीठी खूब धधकने लगी; इतने जोर से धधकने लगी और वह इतने पास बैठा था कि उसकी आंच असह्य हो गई। तो उसे यह न सूझा कि अपनी कुर्सी को पीछे हटा ले। भूल ही गया, विचार में ऐसा खो गया था, एकदम से चिल्लाने लगा कि बचाओ! यह आग मुझे लग जाएगी, बचाओ, नौकर कहां है? नौकर कहीं गया था, पड़ोसी ने किसी ने आवाज सुनी, वह भागा हुआ आया। हालत सच में खराब थी, कुर्सी से लटकता हुआ एक कपड़ा, उसमें तो आग ही लग गई थी। और इमर्सन उसी कुर्सी पर सिकुड़ा-मिकुड़ा बैठा था। चिल्ला रहा था। पड़ोसियों ने कहा: आप भी हद कर रहे हैं, कुर्सी क्यों पीछे नहीं हटा लेते? या कुर्सी से उतर जाएं। यह कुर्सी पर ही बैठे हैं और शोरगुल मचा रहे हैं!
इमर्सन ने कहा: यह मुझे खयाल ही न आया। मैं तो ऐसा घबड़ा गया इस आग लगने के मामले को लेकर कि मुझे होश-हवास न रहे।
विचारों में खो जाओ तो किसको होश-हवास रह जाते हैं?
विचारक यानी बेहोश आदमी।
मगर इमर्सन ने किताबें बड़ी प्यारी लिखी हैं। वेदांत से वह बहुत प्रभावित था। उसने ब्रह्म पर एक बहुत बड़ी कविता लिखी है। और बड़ी ऊंची बातें की हैं ब्रह्म के ऊपर।
ऊंची बातें करना आसान है। जीवन ऊंची बातों से कुछ संबंधित नहीं है। जीवन बहुत सीधा-सादा है। यह कोई गणित बिठालने की बात नहीं है।
मत पूछो कि मंजिल दूर है, सबेरा दूर है, कोई संगी-साथी नहीं है।
करना क्या है संगी-साथी का? भीतर जाना है। वहां कोई संगी-साथी जा भी नहीं सकता। वहां तुम्हें अकेला ही जाना होगा। वहां तुम अकेले ही हो। और यह अच्छा ही है कि वहां संगी-साथी नहीं जा सकते। नहीं तो होटलें खुल जातीं, धर्मशालाएं बन जातीं, बाजार लग जाता। अगर संगी-साथी भीतर जा सकते होते तो पत्नी तुम्हारी बाहर बैठी रहती! बाल-बच्चों सहित भीतर घुस गई होती। तुम्हें कभी का निकाल कर बाहर कर दिया होता कि तुम जाओ घूम-फिर आओ और कहीं। इधर मैं अपने बच्चों को सुलाऊंगी। कि यहीं भोजन बनाएंगे। कि यहीं पिकनिक होगी। अच्छा ही है तुम्हारे भीतर कोई नहीं जा सकता, नहीं तो उतना एकांत भी न बचता। वही तो जगह बची है एक, सौभाग्यशाली हो, नहीं तो कुछ निजी जगह बचती ही नहीं, कोई एकांत बचता ही नहीं। दूसरे अड्डा जमा लेते। जिनके हाथ में लाठी होती वे घुस जाते। वे कहते: हटो जी! तुम बाहर चहलकदमी करो!
मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया। लोगों ने उससे पूछा कि तुम्हारी सेहत का, तंदुरुस्ती का, सौ साल जीने का रा़ज क्या है? उसने कहा: रा़ज है एक। जिस दिन मेरी शादी हुई, मैंने और पत्नी ने यह तय कर लिया कि अगर वह गुस्से में हो, तो मैं बाहर चला जाऊं। उस वक्त मैं गुस्सा न करूं। अगर मैं गुस्से में होऊं, तो वह बाहर चली जाए। उस वक्त वह गुस्सा न करे। और तब से अक्सर मेरी जिंदगी बाहर ही गुजरी है। यह मेरी तंदुरुस्ती का राज है, सेहत का राज है। शुद्ध हवा-पानी, धूप; बाहर ही बाहर घूमता फिरता हूं। क्योंकि घर आया कि वह एकदम बिजली की तरह कड़कती है। मुझे मौका ही नहीं दिया उसने जिंदगी में कि पहले मैं क्रोध कर लेता और उसको बाहर जाना पड़ता।
मगर मैं लाभ ही लाभ में रहा हूं। वह जब देखो तब बीमार है। कभी कमर में दर्द है, कभी पेट में दर्द, कभी सिर में दर्द। और मुझे तो फुर्सत ही कहां है सिरदर्द और कमरदर्द की! मैं तो सारे गांव के चक्कर मारता फिरता हूं।
तुम्हारे भीतर कोई नहीं जा सकता, यह शुभ है। बस, तुम्हीं वहां के मालिक हो। वहां कोई और मालिक नहीं हो सकता।
डायोजनीज को, यूनान के बहुत अदभुत मनीषी को डकैतों ने पकड़ लिया था। नंग-धड़ंग मस्त आदमी था। महावीर जैसा आदमी यूनान में बस एक हुआ--डायोजनीज। वही मस्ती, वही रंग-ढंग, वही फकीरी और वही आनंद। वैसी ही उसकी सुंदर देह भी थी। महावीर के संबंध में कहा जाता है कि वैसी सुंदर देह का व्यक्ति मुश्किल से कभी होता है। वे नग्न रहने के हकदार थे। इतनी सुंदर देह हो तो नग्न रहने का कोई भी हकदार है। तथाकथित जैन मुनियों को मैं नहीं मानता कि ये हकदार हैं नग्न रहने के। दूसरों को गलत-सलत देह दिखाने का हक किसी को भी नहीं है। किसी की आंखों में कांटा बन कर चुभने का हक किसी को भी नहीं है। इससे बेहतर है छिपाए रहो अपनी देह को। इनको देख कर और ये आदमी उदास हो जाए--वैसे ही तो आदमी मरा जा रहा है, वैसे ही तो जीना मुश्किल है, और ये मुनि महाराज के दर्शन हो जाते हैं। और जिंदगी पर तुषारापात हो जाता है। कुछ फसल आ रही हो, वह भी गई। और ओले पड़ गए। वैसे ही तो पिटे हुए हैं! महावीर को हक था नग्न होने का। सौंदर्य हो तो हक होना चाहिए।
डायोजनीज भी नग्न रहा। वैसा ही सुंदर व्यक्ति था। इन डकैतों ने सोचा कि पकड़ कर इसको बेच देंगे, अच्छी बिक्री हो जाएगी, दाम अच्छे मिलेंगे। ऐसा मस्त तगड़ा आदमी था! उसको पकड़ने की कोशिश की--आठ आदमियों को तो पकड़ने में लगना पड़ा, तब बामुश्किल तो उसको पकड़ सकते थे वे। आठ भी डरते थे कि अगर वह हमला बोल दे, तो आठों को भी भागना मुश्किल हो जाएगा। मगर जब वे आठों आए तो उसने कहा: घबड़ाओ मत, नाहक परेशान न होओ, मैं समझ गया तुम्हारा इरादा। पकड़ने आए हो? कोई जरूरत पकड़ने की नहीं, मैं साथ हुए लेता हूं। तुम मेरे पीछे चलो जी! मैं आगे चलता हूं। कहां चलना है? वे डर के मारे उसके पीछे हो लिए। उन्होंने इस तरह का आदमी नहीं देखा था, थोड़ा खुसफुस भी करने लगे आपस में कि करना क्या है? मतलब यह तो आगे हो लिया, हम पीछे।
डायोजनीज ने कहा कि तुमको गुलामों के बाजार ले चलना है मुझे बेचने, तुम्हारा इरादा जाहिर है, तुम्हारे विचार मुझे दिखाई पड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि है तो इरादा यही--डरते-डरते कहा, कि कहीं मार-पीट न खड़ी कर दे। उसने कहा: कोई फिकर न करो, तुम भयभीत न होओ बिलकुल। तुम इतने डरे लग रहे हो कि मुझे दया आ रही है। मैं चला चलता हूं। ऐसे भी मैं किसी काम का नहीं हूं, चलो तुम्हारे ही काम आ जाऊंगा। मेरी मस्ती है सो कहीं जाती नहीं, जहां रहूंगा वहीं मस्त रहूंगा। और तुम्हें कुछ पैसे मिल जाएंगे बीच में, चलो तुम्हारा भी काम हो गया।
थोड़ा पछताने भी लगे वे लोग कि किस आदमी को पकड़ लिया! इसने तो खूब हमारी लानत-मलामत की; मारा भी नहीं और हमारी मिट्टी भी पलीद कर दी! इसकी तरफ आंख उठाने की हिम्मत नहीं हो रही है। अब इससे यह भी नहीं कह सकते कि भैया छोड़ दो, हमें माफ करो, हम जाते हैं। ये कहीं और डांटे-डपटे नहीं। सो मजबूरी में उसके पीछे चुपचाप गए।
वह पहुंच गया गुलामों के बाजार में। वहां तख्ती पर खड़ा किया जाता है आदमी को और उसकी बिक्री होती है। वह तख्ती पर खुद ही चढ़ कर खड़ा हो गया और उसने जोर से आवाज दी कि है कोई, किसी की हिम्मत, एक मालिक बाजार में बिकने आया है, है कोई गुलाम खरीदने वाला? भीड़ लग गई, लेकिन लोगों ने कहा: यह भी बड़ा मजा है! वे जो आदमी लाए थे, वे भी दबे हुए भीड़ में छिपे हुए खड़े थे--‘यह है कौन, कौन इसको बेचने आया है?’ कौन मुझको बेचने आएगा? डायोजनीज ने कहा: मैं बिक रहा हूं। और ये बिचारे जो आठ-दस आदमी खड़े हैं, इनको पैसे मिलेंगे। मगर है किसी की हिम्मत मुझ मालिक को खरीदने की?
सन्नाटा छा गया बाजार में। लेने की तो बहुत लोगों की इच्छा थी, आदमी मजबूत दिखता था, काम का दिखता था। मगर खतरनाक दिखता है। इस तरह से जो चिल्ला कर कह सके कि है कोई खरीदने वाला मालिक को? उसने कहा: एक बात जाहिर कर लेना, समझ लेना--दाम तुम्हारे जाएंगे; मेरी मालकियत जाएगी नहीं, मालिक तो मैं रहूंगा ही, जहां रहूंगा वहां रहूंगा, मालिक रहूंगा। मेरे भीतर किसी का प्रवेश नहीं हो सकता। वहां मेरा साम्राज्य है और मैं वहीं का मालिक हूं।
यह अच्छा है, भगवान स्वरूप, कि न कोई संगी, न कोई साथी। इससे डरो मत, घबड़ाओ मत! संगी-साथियों का क्या करोगे? अकेले होने का मजा लो। आनंदित होओ। जब क्षण मिल जाएं कुछ, अकेले होने में, डूबने में रसविमुग्ध हो जाओ। गुनगुनाओ भीतर, नाचो भीतर। वहीं मंदिर है। वहीं काबा, वहीं काशी, वहीं कैलाश।
कहते हो:
‘दुनिया की रीत क्या है? भला ऐसी चीज क्या है?
जिसके बिना यह नाव चलती नहीं।’
दुनिया तो एक तमाशा है। एक अभिनय, एक रंगमंच। रामलीला समझो। खेल है; खेल के नियम होते हैं। ताश भी खेलते हो तो नियम होते हैं। ताश में भी राजा राजा होता है, रानी रानी होती है, गुलाम गुलाम होता है। ताश में भी एक व्यवस्था रखनी होती है। नहीं तो ताश का खेल नहीं हो सकता। चार आदमी खेलते हैं तो एक समझौता करना होता है। और यहां तो करोड़ों लोग इकट्ठे हैं और खेल चल रहा है। उसमें कई तरह के समझौते करने होते हैं। वही रीत है।
दुनिया की रीत क्या है, तुम पूछते हो। इतनी सी रीत है कि यहां इतने लोग हैं तो कुछ समझौते करने होंगे।
मेरे एक अध्यापक थे... अकेले थे, बाल ब्रह्मचारी थे। दर्शन के बड़े ख्यातिनाम व्यक्ति थे। अकेले ही रहते थे। बड़ा बंगला उनको मिला हुआ था। मुझसे उनका लगाव हो गया, बहुत लगाव हो गया। मुझसे बोले कि तुम क्यों होस्टल में पड़े हुए हो... मैं तो विद्यार्थी था। मैंने कहा: और कहां जाऊं? होस्टल के सिवाय विद्यार्थी को रहने की कोई जगह नहीं। उन्होंने कहा: मेरे पास इतना बड़ा बंगला है और मैं अकेला हूं, कुछ अड़चन नहीं, तुम आ जाओ! तुम्हें एक कमरा, दो कमरा, जितने कमरे चाहिए, लो। छह कमरे वाला बंगला मेरे पास है। और एक ही कमरा मेरे लिए काफी है। न पत्नी है, न बच्चे हैं, न कोई है। एक नौकर है, वह भी सुबह आता है, सांझ चला जाता है।
मैं तो नहीं जाना चाहता था, क्योंकि क्यों अकारण किसी के जीवन में व्याघात डालना--वह अकेले रहने के आदी हैं जिंदगी भर से। मैंने बहुत उन्हें मना किया, वे नहीं माने, एक दिन सुबह कार ही लेकर आ गए। अपने नौकर को भी ले आए। जो कुछ मेरे पास थोड़ा-बहुत सामान था, वह सब उन्होंने गाड़ी में डलवा दिया, मुझे बिठाला और कहा कि चलो। मैंने कहा: आपकी मर्जी।
मैं उनके घर पहुंच गया, लेकिन वहां एक दिक्कत शुरू हुई। वे दो बजे रात उठ आते और गिटार बजाते--इलेक्ट्रिक गिटार! अब अकेले रहे थे जिंदगी भर, तो उनको जो करना हो करते रहे होंगे। माना कि कमरा मेरा दूसरा था, मगर इलेक्ट्रिक गिटार कोई दो बजे से बजाए, तो दो बजे के बाद सोना तो मुश्किल ही हो जाए। और मेरी आदत थी कि मैं दो बजे सोता था। दो बजे तक पढ़ता, लिखता, कुछ अपने काम में लगा रहता, दो या तीन बज जाएं तब मैं सोता। इधर मेरे सोने का वक्त हो, उधर उनका गिटार शुरू हो जाए, मैंने कहा: यह मामला तो मुश्किल हो जाएगा। मैं दो बजे रात तक जगूं और फिर सो न सकूं। और उनका गिटार बजे सो वह छह बजे तक वह बजता ही रहे। छह बजे मैं उठ कर फिर घूमने चला जाऊं।
एक दिन तो मैंने बर्दाश्त किया, फिर मैंने कहा कुछ रास्ता निकालना पड़ेगा। अब कोई रीति बनानी पड़ेगी। वे तो सो जाएं शाम को छह बजे, नौकर उनका गया कि वे सोए। अब छह बजे सो जाओगे, दो बजे नींद खुल ही जाएगी। कब तक सोओगे? वे छह बजे सो गए, मैं उनके दरवाजे पर बैठ कर इतने जोर से किताब पढूं कि उनको सोने न दूं, करवट बदलें वे। दो बजे तक मैंने किताब पढ़ी। दो बजे उठ कर उन्होंने गिटार बजाया। न वे रात भर सोए, न मैं रात भर सोया। दूसरे दिन मुझसे सुबह बोले कि भई, कुछ रास्ता अपने को बनाना पड़ेगा। बनाना ही पड़ेगा। कि ऐसा नहीं हो सकता कि तुम धीरे पढ़ो? मैंने कहा: बिलकुल हो सकता है। मैं जिंदगी भर धीरे ही पढ़ता रहा हूं, जोर से पढ़ने की जरूरत क्या है! यह तो आपका गिटार पढ़वा रहा है। मैंने उनसे कहा: ऐसा नहीं हो सकता कि बिना इलेक्ट्रिक के गिटार बजे? ‘हो सकता है।’ मैंने कहा: हो जाए। आपका इलेक्ट्रिक से न जुड़े गिटार, तो मेरे कमरे और आपके कमरे के बीच फासला है--मैं बिलकुल आखिरी कमरा लेता हूं छठवां, आप नंबर एक में रहें, बीच में चार कमरों का फासला रहेगा, पर्याप्त है। आपको गिटार बजाना हो, आप बजाएं--दरवाजा बंद, खिड़की बंद। और अगर दरवाजा-खिड़की खुला रखना है और इलेक्ट्रिक गिटार बजाना है, तो बजाएं, मुझे कोई अड़चन नहीं, मैं भी यहीं सामने बैठ कर दो बजे तक जितनी धूम कर सकूंगा, करूंगा।
समझौता हो गया।
सुबह एक ही दिक्कत बची... दूसरी दिक्कत खड़ी हो गई। साथ में रहोगे तो दिक्कतें खड़ी होंगी। सुबह से दूध लेने जाना पड़ता। जब तक वे अकेले थे, वे लेने जाते थे; उन्होंने देखा कि अब एक विद्यार्थी मिल गया है, तो वे मुझसे बोले कि ऐसा हो कि तुम अगर सुबह दूध ले आओ। मैंने कहा: मैं जिंदगी में कभी दूध लाया नहीं। कुछ रीत निकालें। उन्होंने कहा: कैसी रीत? मैंने कहा: जो पहले उठे, वह दूध लेने जाए। उन्होंने कहा: यह भी ठीक।
दूसरे दिन न तो मैं उठा दस बजे तक, ने वे उठे दस बजे तक। ऐसा मैं भी उठ कर देख लूं, वे भी उठ कर देख लें, मैं भी सो जाऊं, वे भी सो जाएं। जब सवा दस बजने लगे तो एकदम घबड़ा कर उठे, क्योंकि उनको तो युनिवर्सिटी जाना ही पड़ेगा पढ़ाने के लिए। मैं तो न भी गया तो क्या बात है। और यूं भी मैं कम ही जाता था। जब मौज होती जाता, नहीं तो नहीं जाता था।
वे एकदम सवा दस बजे हड़बड़ा कर उठे, बोले, बहुत देर हो गई। इतनी देर तो कभी नहीं हुई। और मैं दूध ले आता हूं। मैंने कहा: आप अगर पहले ही उठ आते तो मुझे भी इतनी देर तक क्यों पड़े रहना पड़ता! छह बजे से बस उठ-उठ कर देखना पड़ रहा है, नाहक की कवायद हो रही है। रीत पक्की रहे कि कल से आप लाएंगे दूध। और नहीं तो फिर यही चलेगा। देंखे कौन कितना सो सकता है? मुझे कोई ऐसी अड़चन नहीं है, मैंने कहा कि बारह बजें, दो बजें, जितना भी होगा देखा जाएगा। आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। आपकी नौकरी मुश्किल में पड़ जाएगी। उन्होंने कहा कि वह तो पड़ ही जाएगी, साफ हो गया मुझे। एक ही दिन में तय हो गया कि सुबह छह बजे मुझे दूध ले आना चाहिए--तुम्हारा भी ले आऊंगा, मेरा भी ले आऊंगा।
रीत तो बनानी पड़ती है फिर। कोई न कोई समझौता करना पड़ेगा। दो आदमी भी साथ रहेंगे तो कुछ रीत बनानी पड़ेगी। और यहां तो इतना बड़ा जगत है! चार अरब आदमी पृथ्वी पर हैं। तो रीत तो बनानी पड़ेगी। इसलिए नियम बनाना पड़ता है, कानून बनाना पड़ता है, व्यवस्था बनानी पड़ती है। बाएं चलो, दाएं मत चलो, एक नियम बनाना पड़ता है, नहीं तो जिसकी जहां मौज हो, बीच रास्ते पर चले--मज्झिम निकाय मानने वाला कि हम तो मध्यमार्गी हैं, हम बीच में चलेंगे। कोई कहे: हम दक्षिणपंथी हैं, हम दक्षिण से चलेंगे। कोई कहे: हम वामपंथी हैं, हम तो बाएं से चलेंगे। चल सकते हो मगर फिर दुर्घटनाएं होंगी। फिर बड़ा मुश्किल हो जाएगा।
एक अमरीकी इंग्लैंड जाना चाहता था; तो उसने जाकर अपना टिकट हवाई जहाज पर बुक करवाया और उसने जानकारी ली कि इंग्लैंड के संबंध में मुझे कुछ सूचनाएं मिल जाएं ताकि मैं तैयारी कर लूं। ताकि वहां एकदम अजनबी न मालूम पडूं। तो उसे सारी सूचनाएं दी गईं। उन सूचनाओं में यह भी बताया गया कि अमरीका में तो बाएं चलने का नियम नहीं है, दाएं चलने का नियम है, इसलिए यह खयाल रखना कि इंग्लैंड में बाएं चलने का नियम है।... इंग्लैंड के हिसाब से भारत में भी बाएं चलने का नियम चल पड़ा।... तो उसने कहा कि ठीक है। लेकिन जिस दिन उसका हवाई जहाज जाना था उस दिन वह आया--पैर पर पलस्तर बंधा हुआ, हाथ में पलस्तर बंधा हुआ; दो आदमी उसको पकड़ कर भीतर लाए, उसने कहा कि मेरी अब जाने की कोई इच्छा नहीं है और मेरा टिकट केंसिल किया जाए। मगर आपकी यह हालत कैसे हुई? जांच-पड़ताल के दफ्तर के अधिकारी ने पूछा: आपकी यह हालत कैसे हुई? उसने कहा कि मैंने सोचा, इंग्लैंड जाने के पहले थोड़ा अभ्यास तो कर लूं। क्योंकि वहां बाएं चलना पड़ेगा और यहां दाएं चलने का जिंदगी भर अभ्यास रहा, एकदम से अभ्यास छूटेगा कैसे? सो मैं यहां न्यूयार्क में कार को बाएं चलाने का अभ्यास कर रहा था, उसमें यह गति हुई।
अब न्यूयार्क में अभ्यास करोगे तो यह गति होने ही वाली है।
नियम का इतना ही अर्थ होता है कि एक समझौता है, उस समझौते के अनुसार चलना। संन्यासी यह जान कर चलता है कि यह समझौता है। और संसारी यह मान कर चलता है कि यह कोई सत्य है। बस, इतना ही फर्क है। और कुछ फर्क नहीं है संन्यासी और संसारी में। संसारी मानता है, यह यथार्थ है। जैसे बाएं चलने का कोई सार्वभौम अर्थ है। जैसे कोई यह सार्वकालिक नियम है। जैसे कोई ईश्वर-प्रणीत नियम है। एस धम्मो सनंतनो। वह मानता है, यह कोई धर्म का नियम है, सनातन धर्म का नियम है; कि बाएं नहीं चले तो नरक में पड़ोगे। ऐसा कुछ भी नहीं है। सिर्फ कामचलाऊ व्यवस्था है।
संसारी प्रत्येक चीज को गंभीरता से ले लेता है। बस, वहीं भूल हो जाती है। संन्यासी किसी चीज को गंभीरता से नहीं लेता। प्रत्येक चीज उसके लिए अभिनय है। समझता है उपादेयता, उपयोगिता, मगर कुछ उस उपयोगिता से बंधता नहीं है। खेल है। शतरंज का खेल है। मान लिया तो हाथी हैं, घोड़े हैं, वजीर हैं, राजा है। बस, मानने की बात है। और मानना पड़ेगा, क्योंकि तुम अकेले नहीं हो। अगर तुम अकेले होते पृथ्वी पर तो किसी रीति-नियम की कोई जरूरत न थी। जहां मौज आती वैसे ही चलते। जो करना होता वह करते। कोई अड़चन न थी। लेकिन हम अकेले नहीं हैं। इसलिए स्वभावतः व्यवस्था बनानी पड़ेगी। सुगमता के लिए।
तुम पूछते हो:
‘दुनिया की रीत क्या है? भला ऐसी चीज क्या है?
जिसके बिना यह नाव चलती नहीं।’
इस नाव को चलाना है, बहुत सी नावें और भी चल रही हैं, इसलिए तुम अपनी बिलकुल मर्जी से न चला सकोगे। तुम्हें दूसरी नावों का ध्यान रख कर चलना पड़ेगा। और इसमें कुछ
हर्जा नहीं है। इतना बोध भर बना रहे कि यह बात सिर्फ अभिनय है। इससे ज्यादा गंभीरता से मत लेना।
‘उल्फत का गीत क्या है? जीवन संगीत क्या है?’
यह तो तुम्हें पता न चलेगा जब तक तुम स्वयं में थिर न होओगे। स्वयं में ठहरोगे, तो तुम्हें जीवन के संगीत का पता चलेगा; तो हृदय की वीणा बजेगी। और स्वयं में ठहरोगे तो तुम्हारे भीतर से प्रेम का नाद उठेगा। अभी तुमने जिसे प्रेम कहा है, वह प्रेम नहीं है, अभी तो वह रीति-नियम की ही बात है। पिता हैं तो इनको प्रेम करो, मां हैं तो इनको प्रेम करो, भाई हैं तो इनको प्रेम करो, पत्नी है तो इसको प्रेम करो, पति है तो इसको प्रेम करो, करना हो कि न करना हो लेकिन करो--एक व्यवस्था है।
लेकिन जिस दिन तुम अपने भीतर ठहरोगे, उस दिन एक नये प्रेम का अंकुरण होगा। वह व्यवस्था के बाहर है। बेशर्त है। इसको करो, उसको करो, ऐसा नहीं है, तुम प्रेमपूर्ण हो जाते हो। तुम जिससे भी संबंधित होओगे, उस संबंध में ही प्रेम होगा। तुम पत्थर भी छुओगे तो तुम्हारे हाथों में प्रेम ही होगा। तुम मिट्टी भी छुओगे फिर तो जैसे सोना हो उठेगी। तुम्हारा प्रेम जीवन को रूपांतरित करने लगेगा।
पूछते हो:
‘उल्फत का गीत क्या है?’...
प्रेम का गीत क्या है ?
...‘जीवन संगीत क्या है?
जिसके बिना यह रात ढलती नहीं!’
यह रात उसके बिना ढलेगी ही नहीं। अपने में झांको, वहां से सब उठेगा--प्रकाश भी, संगीत भी, काव्य भी, प्रेम भी, परमात्मा भी। रात मिट जाएगी। एकदम मिट जाएगी। अंधेरा तिरोहित हो जाएगा; सब ज्योतिर्मय हो जाएगा। मृत्यु मिट जाएगी; सब अमृत हो जाएगा। और तुम्हारे भीतर क्या-क्या नहीं है! लेकिन भीतर तो हम खोदते ही नहीं, खोजते ही नहीं। दौड़ते फिरते हैं बाहर! ऐसी आपा-धापी मचा रखी है! एक क्षण विराम नहीं। एक क्षण विश्राम नहीं।
मैं तुम्हें सिर्फ विश्राम सिखाता हूं, विराम सिखाता हूं। यहां और कुछ नहीं सिखाया जा रहा है। यहां इतना ही सिखाया जा रहा है कि भाग-दौड़ खेल-कूद से ज्यादा नहीं है, जीवन का सत्य ठहरने में है, विश्राम में है।
आश्रम का अर्थ ही मौलिक रूप से यही है: जहां विश्राम किया जा सके। जहां विश्राम को अनुभव किया जा सके। वहां अगर श्रम भी करो तो भी विश्रामपूर्ण ही होगा।
तुम यहां संन्यासियों को काम करते देख सकते हो। तुम जितना काम करते हो घर, उससे ज्यादा काम करते हैं यहां वे, लेकिन उनके चेहरे पर तुम्हें विश्राम मिलेगा। उनके पैरों में तुम्हें नृत्य का अनुभव होगा। बोझ नहीं है। कोई भार नहीं है। एक निर्भारता है। एक हलकापन है। जिसने भीतर के विश्राम को जानना शुरू किया, उसके बाहर का श्रम भी विश्रामपूर्ण हो जाता है।
‘नदिया की धार कहे, अहसास जीने का मरता नहीं’
इसीलिए नहीं मरता अहसास जीने का कि तुम सच में ही कभी मरते नहीं हो। इसलिए अहसास नहीं मरता। हालांकि तुम रोज लोगों को मरते देखते हो--आज यह मरा, कल वह मरा, लेकिन फिर भी भीतर कोई तुमसे कहे चला जाता है कि तुम नहीं मरोगे। और यह बात झूठ नहीं है। अंतर्तम में तुम्हारे यह बात कभी बैठती ही नहीं, कि मैं और मरूंगा। क्योंकि कोई भीतर मरता ही नहीं। यह बाहर से तुम लोगों को देखते हो कि अ मर गया, ब मर गया, स मर गया--यह बाहर से घटी घटना है, जो तुम्हें दिखाई पड़ रही है, भीतर न तो अ मरता है, न ब मरता है, न स मरता है। सिर्फ मकान छोड़ कर चले गए। दूसरा मकान बसा लिया होगा। या, अगर सौभाग्यशाली रहे हों, तो अब आकाश ही उनका भवन हो गया होगा। अब आकाश के विराट महल में--गगन-महल में... फकीरों ने कहा है, कबीर ने कहा है: गगन-महल, सुन्न महल... अब वे शून्य महल में समा गए होंगे। और अगर अभागे होंगे, तो अभी फिर लौट आए होंगे किसी दूसरी कुटिया में मिट्टी की। फिर किसी झोपड़े में, फिर किसी झुपड़पट्टे में फिर जिंदगी गुजरेगी। ऐसे कई बार तुम आ चुके, जा चुके। अगर अपने को जान कर जाओगे तो फिर आना नहीं पड़ेगा। फिर आवागमन की समाप्ति है।
‘नदिया की धार कहे, अहसास जीने का मरता नहीं’
तुम्हारे भीतर कुछ मरता ही नहीं। इसलिए अहसास बना रहता है। इतनी मृत्यु को घटते देखते हो, फिर भी तुम्हारा अहसास नहीं टूटता। नदी रोज सागर में गिरती है, फिर भी जानती है कि जीएगी। क्योंकि रोज बादल फिर पानी को भर जाते हैं, फिर बरसा जाते हैं, फिर पहाड़ों से जलधाराएं उतर आती हैं--नदी बहती ही रहती है, बहती ही रहती है; सतत है, सातत्य है।
और नदी तो कभी सूख भी जाए, लेकिन भीतर चेतना की धार कभी नहीं सूखती, बहती ही रहती, अनंत है। उसी चेतना की धारा को आत्मा कहा है, परमात्मा कहा है। नाम ही हैं ये सब। नामों के भेद हैं। नामों में मत उलझ जाना। जो मर्जी हो, कह लेना।
कहते हो:
‘अपनी अग्नि में जले, ऐसे तो प्यार कोई करता नहीं!’
तभी तो तुम जान नहीं पाते प्रेम को। अहंकार जब अग्नि में जल जाता है घास-फूस की भांति, तभी उस निर-अहंकारिता में से प्रेम का जन्म होता है जो शाश्वत है। उस प्रेम का जिसको जीसस ने परमात्मा का पर्यावाची कहा है।
अभी तो तुम जिस प्रेम को प्रेम कहते हो, वह प्रेम नहीं है, लेन-देन है, सौदा है, दुकानदारी है, छीना-झपटी है। दूं कम और ज्यादा ले लूं। कितना फायदा हो जाए, इसकी फिकर लगी हुई है। अभी तो तुम कुछ को कुछ समझे बैठे हो।
एक कवि एक वृक्ष के पास आकर बगीचे में रुका। काव्य से हृदय गदगद हो रहा था उसका। सुबह-सुबह थी, पक्षी गीत गाते थे, कोयल पुकारती थी, बड़ी महक थी बगिया में। उसने वृक्ष के पास खड़े होकर कहा कि हे वृक्ष, हे आम के वृक्ष, काश! तू बोल सकता होता तो तू क्या कहता? पास ही माली पानी सींच रहा था, हंसा और उसने कहा: अगर यह बोल सकता होता तो कहता कि महाराज, मैं आम का वृक्ष नहीं, अमरूद का वृक्ष हूं!
तुम जिसे प्रेम कह रहे हो, वह प्रेम है ही नहीं। आम का वृक्ष ही नहीं, अमरूद का वृक्ष है। मगर तुम उसे प्रेम कहे चले जाते हो, बड़ी कविताएं रचते रहते हो। तुम अपनी कविता की धुन में यह भी नहीं देखते कि किस चीज को क्या कह रहे हो! किस चीज को तुम प्रेम कहते हो? कामवासना को? वह जरा में मर जाती है। उसके मरते देर नहीं लगती। वह जरा में घृणा में बदल जाती है। जिससे प्रेम था और जिससे तुमने कहा था, तेरे लिए मर जाऊंगा, उसी को मारने के लिए तत्पर हो जाते हो। जरा सी बात हो जाए तो। जरा सी झंझट हो जाए। जिसके लिए जीवन दे सकते थे, उसका जीवन छीनने को तैयार हो जाते हो। क्या खाक प्रेम!
और छीना-झपटी है। प्रेमी सोचता है कि मुझे प्रेम नहीं मिल रहा है, प्रेयसी सोचती है, मुझे प्रेम नहीं मिल रहा है। यही तो सारी दुनिया में प्रेमियों का झगड़ा है, उपद्रव है। कलह ही कलह है। क्या कारण है कलह का? दोनों मांगते हैं। दोनों छीनना चाहते हैं। और दोनों में से कोई देने को राजी नहीं--वह करें भी क्या, दें भी कहां से? हो तो दें! भीतर पैदा ही नहीं हुआ तो दें क्या खाक! भिखमंगे हैं दोनों। एक-दूसरे के सामने पात्र फैलाए हुए हैं। एक-दूसरे से मांग रहे हैं कि दे दो, मेरा पात्र भर दो। और यह देख ही नहीं रहे कि दूसरे के पास कुछ होता तो उसने अपना पात्र हमारे सामने क्यों फैलाया होता ?
सिर्फ बुद्धों के अतिरिक्त प्रेम को किसी ने जाना नहीं। सिर्फ जिनों के अतिरिक्त प्रेम को किसी ने जाना नहीं। और उस प्रेम में तो, एक चीज तो जलानी ही होगी, अहंकार तो जलाना ही होगा। अहंकार प्रेम का दुश्मन है। जहां अहंकार है, वहां प्रेम पैदा ही नहीं होता। अहंकार तो मृत्यु है प्रेम की। वह तो कब्र है प्रेम की। और हम सब अहंकार से भरे होते हैं। हमारा प्रेम भी अहंकार का ही प्रदर्शन होता है।
इस प्रेम को तुम प्रेम कहना बंद करो। इस अहंकार को जलने दो। यह अहंकार बिलकुल राख हो जाए। तुम जब मिट जाओगे तब तुम्हारे भीतर से प्रेम का आविर्भाव होगा। तुम जब नहीं होओगे तब प्रेम होगा। जब तक तुम हो तब तक प्रेम नहीं। फिर जो प्रेम पैदा होता है, वह न तो मेरा है, न तेरा है। फिर जब प्रेम पैदा होता है तो उसकी कोई सीमा नहीं है। उसका कोई पारावार नहीं है। वह उतना ही अनंत है जैसा आकाश। उतना ही विराट है जितना परमात्मा। उस प्रेम से ही तृप्ति मिल सकती है। उस प्रेम के अतिरिक्त कोई तृप्ति नहीं है। फिर जीवन में नृत्य है, गीत है, उत्सव है।
योग प्रीतम के ये शब्द तुम्हारे काम पड़ेंगे--
जो बात हृदय में प्रीत-पगी
उसको अधरों तक आने दो
जो गीत जगा है अंतस में
वह छंदों में बह जाने दो

उर मीत मिलन से आनंदित
निशिदिन नर्तन में लीन रहे
होले-होले से कानों में
मीठी-सी बजती बीन रहे

उमड़े बादल, चमके बिजली
जब प्राणों में मधु-वर्षण हो
मन तो रस भीगा रहता है
तन को भी डुबकी खाने दो

यदि स्वर्ग उतर आए भू पर
पृथ्वी के पांव थिरकते हैं
भगवान बिहंसता हो भीतर
संसृति के प्राण चहकते हैं

यदि अंतश्चेतन हर्षित है
तन के भी पर लग जाते हैं
दोनों वरदान विधाता के
इनको समरस हो जाने दो

यदि भीतर व्यक्ति विनंदित हो
सौंदर्य झलक ही जाता है
यदि उर हो रस से आपूरित
आनंद छलक ही आता है

अंदर बाहर में भेद कहां
सबमें उसका ही दर्शन है
जल-मिश्री से हैं घुले-मिले
दोनों पर मस्ती छाने दो

जो बात हृदय में प्रीत-पगी
उसको अधरों तक आने दो
जो गीत जगा है अंतस में
वह छंदों में बह जाने दो
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने पूर्व प्रवचन में अभिव्यक्त किया कि श्री महावीर को संन्यस्त होने में उनके माता-पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता ने विरोध किया और श्री महावीर मान गए, धैर्य रखा। यही समस्या हमारे साथ हो तो उसका समाधान बताने की अनुकंपा करें!

तेजराम मीणा! वही समस्या तुम्हारे साथ नहीं हो सकती। तुम महावीर नहीं हो। इसलिए वही समाधान भी तुम्हारे काम का नहीं हो सकता। तुम चालबाजी करना चाहते हो; तुम धोखा देना चाहते हो।
तेजराम मीणा हैं गंगापुर सिटी, राजस्थान से। पक्के मारवाड़ी मालूम होते हैं। तुम अपनी मारवाड़ी कुशलता का उपयोग कर रहे हो। महावीर मारवाड़ी नहीं थे।
पहली तो बात, जब महावीर को उनकी मां ने, उनके पिता ने, या उनके बड़े भाई ने कहा कि हमारे रहते, जीते तुम संन्यास की बात ही मत उठाना, तो वे फिर किसी से पूछने नहीं गए, जैसा तुम मुझसे पूछने आए हो। भेद तो वहीं से शुरू हो जाता है। वे किसी से पूछने नहीं गए।
मैं रायपुर में था, एक युवक ने आकर मुझसे पूछा कि मैं शादी करूं या न करूं? मैंने कहा: तुम कर ही लो। उसने कहा: आपने क्यों नहीं की फिर? जब मुझे आप करने को कहते हैं तो आपने क्यों नहीं की? मैंने उससे कहा कि देखो, मुझमें तुममें फर्क है। मैं किसी से पूछने नहीं गया। तुम किसी से पूछने आए हो। वहीं से फर्क शुरू हो गया। अगर तुम्हें करनी ही नहीं है तो तुम पूछने भी नहीं आओगे।
पूछने का मतलब ही क्या? कि तुम दुविधा में हो।
महावीर को दुविधा ही खड़ी नहीं हुई। महावीर की मां ने कहा कि मेरे जीते-जी संन्यास की बात मत उठाना, महावीर एक शब्द नहीं बोले, बात खत्म हो गई। फिर मां मर गई तो मरघट से घर भी नहीं लौटे, मां की चिता वहां राख हो रही और उन्होंने अपने भाई से कहा कि मां ने कहा था, जब तक मैं जिंदा हूं, संन्यास मत लेना। दो साल मैं चुप रहा। संयोग की बात, अब मां चली गई। अब तुमसे आज्ञा लेता हूं, तुम बड़े भाई हो, अब आज्ञा दे दो। बड़े भाई ने कहा कि तुझे शर्म नहीं आती? संकोच भी नहीं होता? मां मर गई हमारी, उसके पहले पिता मर गए--जब पिता मरे, तब तूने मां से पूछा, क्योंकि पहले तुझे पिता ने रोका था; अब मां मर गई, तू मुझे सताने लगा! इधर हम पर पहाड़ पर पहाड़ टूट रहे हैं मुसीबतों के--पिता चले गए, मां चली गई और एक तू है कि तुझे एक ही धुन है--संन्यास! जब तक मैं जिंदा हूं, यह बात ही मत उठाना। फिर भी दुविधा नहीं आई, महावीर ने कहा कि ठीक। फिर बात नहीं उठाई। उठाई ही नहीं बात!
मगर इसका यह मतलब मत समझ लेना कि महावीर संन्यास से रुके। यह मतलब समझा तो भूल हो जाएगी। महावीर घर में रहते हुए ही संन्यस्त हो गए। महावीर ने ऐसा संन्यास ले लिया जैसा संन्यास मैं तुम्हें दे रहा हूं। इस संन्यास की शुरुआत महावीर ने ही की--यूं समझो। वह घर में ही रहते हुए संन्यस्त हो गए। सारा समय ध्यान में बीतने लगा। अपने भीतर ही आंख बंद किए डुबकी मारे रहते। भोजन करने के लिए कोई कह देता तो भोजन कर लेते, कोई न कहता तो चुपचाप बैठे रहते। किसी को सलाह न देते, मशविरा न देते। दो आदमी भी घर में लड़ रहे हों और महावीर बैठे हों तो वे यह भी नहीं कहते कि भाई, लड़ो मत, क्यों झगड़ा करते हो? वे यूं ही देखते रहते जैसे अपना कुछ लेना-देना ही नहीं है। घर में आग भी लगी हो तो महावीर बैठे साक्षीभाव से देखते रहते। जैसे हैं ही नहीं।
मेरी मां यहां मौजूद हैं। बचपन में ऐसा अक्सर हो जाता था। मैं कभी घर के किसी काम आया नहीं। छोटे-मोटे काम भी नहीं आया कि सब्जी ले आओ--कोई बाजार दूर नहीं था, छोटा गांव, एक चार कदम पर बाजार था, लेकिन उतना भी काम मैंने कभी घर का किया नहीं। धीरे-धीरे घर के लोग राजी हो गए थे, करोगे क्या? तो मैं सामने बैठा रहता, मेरी मां सामने बैठी रहती और कहती: घर में कोई दिखाई नहीं पड़ता, किसी को सब्जी लेने बाजार भेजना है। और मैं कहता दिखाई तो कोई भी नहीं पड़ता। मैं सामने ही बैठा हूं और वह मेरे ही सामने कहती है: घर में कोई दिखाई ही नहीं पड़ता। कि कोई होता तो किसी को सब्जी लेने भेज देते। मैं कहता: कोई दिखाई पड़ेगा तो मैं बताऊंगा, दिखाई तो मुझे भी नहीं पड़ता।
फिर मैं विश्वविद्यालय गया तो अपनी बुआ के घर रहा। उनको यह थी सनक सवार कि मुझे बिगाड़ दिया है। घर के लोगों ने कोई कभी काम बताया नहीं, कभी काम लिया नहीं, तो मैं बिलकुल बिगड़ गया हूं। तो उन्होंने सुधारने का जिम्मा लिया। मैंने कहा: बिलकुल ठीक। तो उन्होंने पहले ही दिन मुझे कहा कि जाओ तुम... आम का मौसम था... तुम आम खरीद लाओ। मैंने कहा: ठीक।
मैं गया बाजार में, मैंने दुकानदार से पूछा कि सबसे कीमती आम कौन से हैं? उसने मुझे देख कर ही समझ लिया कि ये कोई खरीदार नहीं है! सामने आम रखे हैं सब तरह के और ये पूछता है, सबसे कीमती आम कौन से हैं? इसने कभी आम खरीदे भी नहीं हैं। सो उसने मुझे सबसे सड़े-गले जो आम थे, वह बता दिए कि ये सबसे कीमती आम हैं। मैंने कहा कि ठीक। तू दे दे सौ आम। वह भी चौंका, थोड़ा सकुचाया भी, वह संकोच भी उसके चेहरे पर देखा--उसको भी थोड़ी लज्जा लगी कि बिलकुल सड़े-गले आम! और जो कीमत उसने मुझसे बताई थी, उतनी कीमत मैंने उसको दे दी, कोई मोल-भाव किया नहीं, वे सड़े-गले आम लेकर मैं आ गया।
मैंने उनको कहा... मैं बड़ी मस्ती में आया कि सबसे बढ़िया आम खरीद कर लाया हूं! मैंने अपनी बुआ को कहा कि ये आम... उन्होंने आम देखे और सिर पीट लिया। मैंने कहा: क्यों? उन्होंने कहा कि ये सड़े-गले आम हैं। ये तो कोई मुफ्त में भी नहीं लेगा। ये तुम काहे के लिए उठा लाए?
मैंने कहा कि मैंने कभी आम खरीदे जिंदगी में? मैंने तो उससे ही पूछा भलेमानस से कि जो भी श्रेष्ठतम आम हों और अच्छे से अच्छे हों और जो सबसे ज्यादा कीमती हों, वे दे दे। उसने ये सबसे कीमती दिए हैं, दाम यह चुकाया है। उन्होंने कहा: इस दाम के आम मैंने सुने भी नहीं। चौगुने दाम ले लिए उसने अच्छे से अच्छे आमों के और ये सड़े-गले आम दे दिए। अब तुम ऐसा करो कि ये... बगल में एक बुढ़िया रहती थी, घर में खाना वगैरह बच जाता तो उसको दे देते थे; कोई था नहीं उसका... तुम ये आम उसको दे दो। मैंने कहा: ठीक है। मैं उस बुढ़िया को देने गया, उस बुढ़िया ने कहा: ये आम घूरे पर फेंक दो। ऐसी चीजें कभी मेरे पास लाना मत! मैंने कहा: जैसी मर्जी! मैं घूरे पर फेंक आया। मैंने कहा: वह बुढ़िया भी लेने को राजी नहीं है।
फिर उन्होंने मुझे सुधारने का प्रयास नहीं किया। कहा: बात ही खत्म करो। तुम सुधारे नहीं जा सकते। तुम बिलकुल बिगड़ चुके हो।
तेजराम मीणा, तुम कहते हो कि ‘यही मेरी हालत है, जो महावीर की थी।’
यही हालत तुम्हारी नहीं हो सकती। कभी दूसरों का अनुकरण न करना। हां, अगर तुम घर में ही महावीर जैसे संन्यस्त होने की सामर्थ्य रखते होओ तो हो जाओ। मगर पहली तो भूल तुमने की कि तुम मुझसे सलाह ले रहे हो। महावीर ने किसी से सलाह नहीं ली थी।
फिर दूसरी बात यह है कि तुम सिर्फ तरकीब निकाल रहे हो। तुम्हारे घर के लोग विरोध में होंगे, लेकिन क्या तुम्हारी पत्नी ने कहा कि जब तक मैं जिंदा हूं तब तक संन्यास मत लेगा? यह नहीं कहा होगा तुम्हारी पत्नी ने। और क्या तुम सोचते हो जब पत्नी चल बसेगी तब तुम संन्यास ले लोगे?
और फिर मेरे संन्यास में तो कहीं जाना नहीं है, महावीर को तो जंगल जाना था। मेरे संन्यास में तो तुम्हें घर ही रहना है। ध्यान करो, वहीं ध्यान में डूब जाओ, कहीं जाने-आने का कोई सवाल ही कहां है? पत्नी डरती होगी कि तुम संन्यास लोगे, घर छोड़ दोगे। संन्यास की धारणा ही हमारी ऐसी हो गई है। ‘संन्यास’ शब्द ही सुनते से प्राण कंपते हैं। पत्नियां डर जाती हैं, बच्चे रोने लगते हैं, जैसे आदमी मर गया। मृत्यु से जैसी घबड़ाहट होती है वैसी संन्यास से होती है। मैं तो संन्यास को नई व्याख्या, नई परिभाषा, नया रंग, नया जीवन दे रहा हूं। कहां छोड़ना है, कहां जाना है, वहीं रहना है। इसलिए इस संन्यास में तो कोई विरोध का कारण नहीं है।
और फिर अगर तुम्हें लगता हो कि जैसा महावीर ने धैर्य रखा ऐसा तुम भी रख सकते हो, तो जरूर रख लो। मगर महावीर ने जो किया, वह करना। कि फिर घर में ऐसे हो जाना जैसे हो ही नहीं। बिलकुल शून्यवत। तो फिर कोई मुझे अड़चन नहीं है। नहीं तो यह होशियारी की बात हो जाएगी।
चंदूलाल मारवाड़ी गंभीर रूप से बीमार थे। बीमार थे, लेकिन इलाज न करवाएं। दोस्तों ने बहुत आग्रह किया कि मित्र, डॉक्टर को दिखाओ, ऐसे आखिर कब तक चलेगा? जब मित्रों ने बहुत दबाव डाला तो चंदूलाल ने पूछा: यह बताओ कि डॉक्टर को दिखाने में खर्च कितना हो जाएगा? मित्रों ने हिसाब लगा कर बताया कि यही कोई एक सौ रुपये खर्च होंगे। चंदूलाल बोले: ऐं, सौ रुपया! अच्छा, और यह बताओ कि मरने के बाद अरथी वगैरह में कितना खर्च होगा? मित्रों ने फिर हिसाब लगा कर बताया कि यही कोई पचास-साठ रुपये खर्च होंगे। चंदूलाल बोले: ठीक है, तब तो मरने में ही फायदा है। कम से कम चालीस रुपये तो बचेंगे।
तुम मारवाड़ी हिसाब से मत चलो। महावीर मारवाड़ी नहीं थे। ये किसी हिसाब के कारण नहीं रुक गए थे। तुम हिसाब-किताब बिठा रहे होओगे, तुमने सोचा कि यह तो अच्छा बहाना मिला, मुफ्त में महावीर हुए जा रहे हैं। न हल्दी लगे न फिटकरी रंग चोखा हो जाए। तेजराम मीणा महावीर हो गए। गंगापुर सिटी में कभी महावीर हुए हैं!
गांव के लोग एक बार चंदा लेने चंदूलाल मारवाड़ी के पास आए। वैसे तो वे जानते थे कि चंदूलाल उन्हें कुछ न देगा, लेकिन उन्होंने सोचा, आखिर कोशिश करने में हर्ज क्या है? चंदूलाल बोले: चंदा तो जरूर दूंगा, दोस्तो, मगर यह बात गुप्त ही रहे तो अच्छा होगा, क्योंकि मैं गुप्तदान में विश्वास करता हूं। गांव वाले बोले: बिलकुल चिंता न करें चंदूलाल जी, यह बात बिलकुल गुप्त रहेगी। चंदूलाल ने पूछा: अच्छा कितने का चेक दे दूं? गांव वाले तो चौंक गए। बोले: एक सौ एक रुपये का दे दीजिए। चंदूलाल मारवाड़ी ने चेक तो काट कर दे दिया, लेकिन जब गांव वालों ने देखा तो बोले: श्रीमान जी, इसमें आपने दस्तखत तो किए ही नहीं! चंदूलाल बोले: वह तो मैंने पहले ही कहा था कि भाइयो, मैं गुप्तदान में विश्वास करता हूं। मैं नहीं चाहता कि लोगों को पता चले कि यह दान मैंने दिया है। दस्तखत मैं कभी नहीं करूंगा।
ऐसी होशियारी अगर बिठा रहे होओ, कि मुफ्त में चलो महावीर भी हो गए, घर के घर में रहे, तो तुम्हारी मौज! लेकिन तुम मारवाड़ी ही रहे फिर, महावीर न हुए। महावीर और मारवाड़ी का क्या मेल बैठेगा? होशियारियां न करो!
तुम पूछते हो: ‘आपने पूर्व-प्रवचन में अभिव्यक्त किया कि श्री महावीर को संन्यस्त होने में उनके माता-पिता व ज्येष्ठ भ्राता ने विरोध किया और श्री महावीर मान गए, धैर्य रखा। यही समस्या हमारे साथ हो तो उसका समाधान बताने की अनुकंपा करें!’
यह समस्या तुम्हारे साथ हो ही नहीं सकती। पहले तो यह संन्यास भिन्न, तुम भिन्न, समस्या कैसे समान हो सकती है! कभी भी भूल कर महावीर या बुद्ध या कृष्ण या क्राइस्ट, इनको अपने ऊपर आरोपित करने की कोशिश न करना। नहीं तो तुम चूकोगे, बुरी तरह चूकोगे। और मन बड़ा चालबाज है--मन सदा से मारवाड़ी है। मन ऐसे हिसाब निकाल लेता है, ऐसी तरकीबें निकाल लेता है, बचने के ऐसे उपाय निकाल लेता है कि लगते बड़े शोभापूर्ण, सुंदर, मगर होते बड़े कूटनीति के और राजनीति के।
एक आदमी उल्लू खरीदने गया। उल्लू बेचने वाले और कोई नहीं थे, थे चंदूलाल मारवाड़ी। उनके पास दो उल्लू थे। चंदूलाल ने एक का दाम दस रुपये बताया और दूसरे का बीस रुपये। ग्राहक ने पूछा: क्यों, भाई साहब, उल्लू दोनों एक ही समान हैं, फिर दाम में फर्क क्यों? चंदूलाल ने कहा: जी, एक उल्लू है और दूसरा उल्लू का पट्ठा। उससे भी पहुंचा हुआ है। इसके दाम दुगुने लगेंगे।
होशियारी नहीं! समझदारी की बात करो। हां, अगर तुम सोचते हो कि सच में ही वही समस्या है, तो वही समाधान है। फिर घर में ही रहते महावीर जैसे हो जाओ। है उतना धैर्य, है उतना साहस? कर सकोगे वैसा? न कर सकते होओ, तो क्या इतना डरना, क्या इतना घबड़ाना! फिर यह संन्यास कोई भगोड़ा संन्यास नहीं है। न पत्नी की कोई हानि हो रही है, न मां की कोई हानि हो रही है, न बच्चों की कोई हानि हो रही है--सच तो यह है, उनको लाभ ही होगा। तुम ज्यादा प्रेमपूर्ण हो जाओगे, तुम ज्यादा आनंदपूर्ण हो जाओगे, तुम ज्यादा मस्त हो जाओगे, तुम्हारे कारण घर में भी वसंत आ जाएगा। जहां कभी गीत नहीं जगे थे, वहां कुछ गीत जगेंगे। कभी संगीत न उठा था, कुछ संगीत उठेगा। प्रभु की कुछ चर्चा होगी। कुछ भजन होगा, कुछ कीर्तन होगा, कुछ ध्यान होगा। शायद वे भी डूबें। शायद वे भी भीग जाएं। उनका भी खयाल करो। तुम्हारा संन्यास शायद उनके जीवन में भी एक नई क्रांति की शुरुआत हो जाए। उन पर भी करुणा करो।
मगर हर हाल में संन्यास तो होना ही चाहिए।
या तो हिम्मत करो और उनसे कहना कि संन्यस्त तो मैं होता हूं। और या फिर दूसरी हिम्मत करो, जो और बड़ी हिम्मत है--खयाल रखना, दूसरी हिम्मत, महावीर जैसे रहने की हिम्मत बड़ी हिम्मत है। वह कोई महावीर ही कर पाएगा। उतना निरपेक्ष होना बहुत कठिन होगा। घर जलता रहे और तुम देखते रहो...!
बंगाल के बहुत बड़े विद्वान हुए, ईश्वरचंद्र विद्यासागर। उनको वाइसराय ने उनकी विद्वत्ता के लिए, सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया था। अंग्रेजों के जमाने थे, और कलकत्ता तब राजधानी थी। वाइसराय कलकत्ता में ही होता था, और विद्यासागर भी कलकता में ही थे। तो वाइसराय ने एक विशेष सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमें विद्वानों को सम्मानित किया जाने वाला था। विद्यासागर उसमें सर्वाधिक सम्मान पाने के लिए आमंत्रित किए गए थे। रहते वे सीधे-सादे ढंग से थे। उनके कपड़े भी बड़े पुराने तरकीब के थे। मित्रों ने कहा: इन कपड़ों में वाइसराय-भवन जाओगे? भद्द हो जाएगी। अच्छे कपड़े बनवा देते हैं, शेरवानी बनवा देते हैं, शानदार कपड़े पहन कर जाओ, इज्जत का सवाल है। तुम्हारी इज्जत का नहीं, बंगालियों की इज्जत का सवाल है।
पहले तो उन्होंने ना-नुच किया, लेकिन मित्र नहीं माने तो उन्होंने कहा: ठीक है। तो उन्होंने शानदार शेरवानी बनवाई, चूड़ीदार पजामा बनवाया, साफा वगैरह तैयार करवाया, हाथ के लिए बढ़िया उनके लिए छड़ी तैयार करवाई, सोने की मूठ लगवाई, सब तरह की तैयारी हो गई। कल वाइसराय-भवन उन्हें जाना है सम्मानित होने को और आज की सांझ वे घूमने गए थे; बगीचे से निकल रहे थे, उनके सामने ही... रोज घूमने जाते थे और इस मुसलमान को उन्होंने हमेशा देखा था। मीर साहब नाम के एक मुसलमान रोज वहां घूमने आते थे। लखनवी ढंग के आदमी थे। बड़े नफासतपसंद। उनकी चाल भी लखनवी थी। हाथ की छड़ी को घुमाते हुए जिस शान से वे चलते थे, वह देखते बनती थी!
वे आगे-आगे जा रहे थे, पीछे-पीछे विद्यासागर थे। उनका नौकर दौड़ता हुआ आया और उसने कहा: मीर साहब, मीर साहब, जल्दी चलिए, भागिए, घर में आग लगी है! मीर साहब ने कहा: चलता हूं। मगर चाल वही रही। वही लखनवी चाल, वही लहजा, वही हाथ की घूमती हुई छड़ी, न जरा जोर से दौड़े, न भागे। नौकर तो समझा नहीं। नौकर तो समझा कि शायद मीर साहब समझे नहीं। उसने कहा: आपने सुना या नहीं? आप किस खयाल में खोए हैं? घर में आग लग गई, घर धू-धू करके जल रहा है, इस चाल से चले तो पहुंचते-पहुंचते राख हो जाएगा।
मीर साहब ने कहा: मैंने सुन लिया, लेकिन जिंदगी भर की चाल एक सड़े से घर के जल जाने के लिए बदल दूं? अरे, घर तो अब जल ही रहा है, जल ही जाएगा, चाल को क्यों गंवाऊं? अब जो हो गया हो गया, घर जल गया तो जल गया। और मैं पहुंच भी जाऊंगा तो क्या करूंगा? थोड़ी देर जल्दी पहुंचा, कि थोड़ी देर देर से पहुंचा! लेकिन जीवन भर की चाल यूं न छोड़ दूंगा!
विद्यासागर ने सुना तो बहुत चौंके कि एक आदमी यह है कि मकान जल रहा है और यह जीवन भर की चाल नहीं छोड़ रहा है! अपने ढंग से ही चलेगा! उसी चाल से वे चले। विद्यासागर पीछे-पीछे गए कि यह आदमी देखने योग्य है। वहां भीड़ इकट्ठी थी, भीड़ ने घेर लिया मीर साहब को, लोग सांत्वना देने लगे। उन्होंने कहा कि इसमें सांत्वना की क्या बात है? चीजें जलती ही रहती हैं; यहां इस जगत में क्या बचने को है! आज मकान जल रहा है, कल मैं भी जल जाऊंगा। जल जाने दो। नाहक सांत्वना न दो। व्यर्थ की बातें न करो।
जो सांत्वना देने आए थे, वे भी थोड़ा धक्का खाए, चौंके कि यह क्या बात हुई! धन्यवाद भी नहीं, उलटा मीर साहब ने डांटा कि चुप रहो! अब मकान ही जल रहा है, इसमें क्या खास बात है! यह मकान भी जलेगा। ये सब मकान जल जाने वाले हैं। कोई आज जला, कोई कल जला, कोई परसों जला, देर-अबेर की बात है, यहां सब जल जाने वाला है, यहां सब राख हो जाने वाला है। मगर इस कारण कोई मन की शांति क्यों खराब करे! इस कारण कोई मन में बेचैनी लाए! इस कारण कोई अपने जीवन का प्रसाद छोड़ दे!
खड़े रहे वहां, देखते रहे, जैसे और सारे लोग देख रहे थे, जैसे किसी और का मकान जल रहा हो। दूसरे लोग हाय-तोबा मचा रहे थे, मगर मीर साहब खड़े रहे।
विद्यासागर को खयाल आया--और एक मैं हूं कि सड़ा सा सम्मान वाइसराय के द्वारा किया जा रहा है, जिसमें कुछ खास मामला नहीं, कागज का एक सर्टिफिकेट मिलने वाला है, और मैं जिंदगी भर के अपने कपड़े बदल कर जा रहा हूं। भाड़ में जाए वह सम्मान! वे दूसरे दिन पहुंच गए अपने उन्हीं पुराने कपड़ों में। मित्रों ने देखा तो बहुत हैरान हुए; उन्होंने कहा कि हमने कपड़े बनवाए, वे कहां हैं? और यह कहां का सड़ा डंडा लेकर आ गए तुम, बांस, जो लेकर घूमते फिरते हो! और हमने सोने की छड़ी बनवाई है और मुट्ठी लगवाई है और हीरा जड़वाया है, उस सबका क्या किया? उन्होंने कहा: छोड़ो जी बात; बकवास छोड़ो! कल एक मुसलमान ने मुझे ऐसा... ऐसा दचकोरा, रात भर सोने नहीं दिया! मैं तक घबड़ा रहा था, उसका मकान जल रहा था, मैं घबड़ा रहा था, कि क्या करूं, क्या न करूं! और वह एक शानदार आदमी था!
तुम अगर इतने शानदार आदमी हो, तेजराम मीणा, अगर इतने तेजस्वी हो जैसा कि नाम है तुम्हारा, तो फिर कोई बात नहीं। मगर फिर घर में आग लगे, तो मौज से देखते रहना। फिर घर में यूं रहो जैसे सराय में हो। तो फिर तुम्हें कोई अड़चन नहीं है। फिर तुमने महावीर की बात को समझ लिया।
मगर अगर उतनी हिम्मत न हो तो नाहक महावीर का आवरण मत ओढ़ो। आपने को छिपाओ मत, बचाओ मत, तरकीबें न खोजो। नहीं तो लोग अच्छी-अच्छी बातें खोज लेने में इतने कुशल हैं कि उन्होंने सोचा, अब हम क्या करें, जब महावीर जैसा व्यक्ति रुक गया, तो हम भी रुकेंगे। अब जब पत्नी मरेगी... और पत्नी तुमसे पहले मरेगी तुम सोचते हो! आमतौर से पत्नियां पहले नहीं मरतीं।
स्त्रियां पुरुषों से पांच साल ज्यादा जीती हैं, खयाल रखना। और दूसरी मूर्खता पुरुष और करते हैं कि पांच साल कम उम्र औरत से शादी करते हैं। खुद पच्चीस के तो बीस साल की लड़की चाहिए। तो पांच साल वह और पांच साल स्त्रियां ज्यादा जीती हैं। उनकी औसत उम्र पांच साल ज्यादा है, सो दस साल का फर्क। तेजराम मीणा, तुम्हें विदा करके, बाद में बाई विदा होगी! दस साल बाद।
इसीलिए तो इतनी विधवाएं दिखलाई पड़ती हैं। उसका कारण है। कि पांच साल की एक तो पहले तुम गड़बड़ कर लेते हो। अगर गणित के हिसाब से चलो तो हमेशा पांच साल ज्यादा उम्र की औरत से शादी करना चाहिए। कई लिहाज से फायदे का है। थोड़ी अनुभवी भी होगी, ज्यादा सताएगी भी नहीं, थोड़ा मातृत्व-भाव भी उसमें होगा, थोड़ी दया-ममता भी करेगी--और तुम्हें पहले विदा न करेगी। साथ ही साथ करीब-करीब जाना होगा। साथ ही साथ जाना अच्छा है। स्त्रियां पांच साल क्यों ज्यादा जीती हैं? मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, सब ये अध्ययन में लीन रहे हैं, पता नहीं लगा पाते ठीक से कि मामला क्या है? क्योंकि कहते तो हम यह हैं कि पुरुष मजबूत होता है। तो पुरुष को ज्यादा जीना चाहिए। लेकिन बात यह सच नहीं है।
पुरुष की मजबूती सिर्फ मस्कुलर है। हां, उसके पास मसल मजबूत होते हैं। हम्माल वगैरह का काम करवाना हो तो उसके लायक हैं वे। बैलगाड़ी में जोतना हो तो जोत दो। उनकी मजबूती उस तरह की है। मगर एक और तरह की मजबूती है जो इससे भी ज्यादा गहन है। वह स्त्री में होती है; सहनशीलता की। टूटती नहीं जल्दी, कितने ही आघात लगें, सह जाती है, पी जाती है, पचा जाती है। पुरुष इतने आघात नहीं सह सकता। प्रकृति ने उसे बनाया मजबूत है, क्योंकि उसे बच्चों को जन्म देना होगा। एक बच्चे को तो जन्म देकर देखो, तेजराम मीणा! तब पता चलेगा। बस, एक में ही छठी का दूध याद आ जाएगा। फिर तुम यह न कहोगे: दो या तीन बस, तुम कहोगे: एक बस। कहां दो और तीन लगा रखे हैं, जिंदा रहने देना है कि नहीं! एक हो गया तो बहुत।
एक तो नौ महीने पेट में बच्चे को लेकर चलना! जरा कोशिश तो करो, थोड़ा सा पत्थर बांध कर पेट पर एक नौ महीने चलो! कमर झुक जाएगी! उठते-बैठते नहीं बनेगा! सुध-बुध भूल जाएगी खाने-पीने की! होश-हवास गुम हो जाएंगे!
और बच्चे आजकल के तुम जानते ही हो! पेट से ही उपद्रव शुरू कर देते हैं--हड़ताल, घेराव, मुर्दाबाद, जिंदाबाद, क्या-क्या नहीं करते! वैज्ञानिक कहते हैं कि लड़के तो लातें फटकारते हैं। लड़कियां चुपचाप पड़ी रहती हैं।... स्त्रियों को अनुभव हो जाता है दो-चार बच्चों के बाद कि बच्ची है भीतर कि बच्चा है। बच्चा तो वहीं से राजनीति शुरू कर देता है--लातें मारेगा, करवटें बदलेगा, शोरगुल मचाएगा। हरकतें शुरू कर दीं उसने। वह दिल्ली जाने की कोशिश में लग गया। लड़कियां चुपचाप रहती हैं।
मां को अनुभव होने लगता है कि लड़की है पेट में कि लड़का है। लड़कियां जरा शांत रहती हैं।
और फिर नौ महीने के बाद ही मामला हल नहीं हो जाता। फिर उनको रात लेकर सोओ! बच्चे भी एक से एक गजब के होते हैं, कि दिन भर तो सोएं और रात भर जगें! पता नहीं कौन सा गणित उनका है! कि दिन में तो खर्राटे लेंगे और रात में किसी को सोने न देंगे।
अलार्म घड़ी की जिसने ईजाद की, उससे किसी ने पूछा कि तुमने अलार्म घड़ी क्यों बनाई? उसने कहा: मेरे घर में कोई बच्चे नहीं हैं।
जिनके घर में बच्चे हैं, उनको अलार्म घड़ी की क्या जरूरत! वे तो रात भर सोने ही नहीं देते। फिर चीं-पुकार, फिर चीं-पी, फिर कुछ गड़बड़। मगर स्त्रियां हैं कि कोई उनको अड़चन नहीं। वे रात भर सह लेंगी। और दिन भर काम में लगी रहेंगी, रात भर बच्चों में लगी रहेंगी। फिर भी कोई अड़चन नहीं। फिर भी उनमें एक तरह का सौम्य, एक तरह की सहनशीलता। इसलिए ज्यादा जी लेती हैं।
अन्यथा स्त्रियों के जीवन में तुमने रहने क्या दिया है जीने योग्य? कुछ भी तो नहीं बचने दिया। उनके जीवन को इस बुरी तरह मारा है, इस तरह से काटा है, पंगु किया है, कि क्या है उनकी जिंदगी में खुशी? कोई तुम सोचते हो, तेजराम मीणा, तुम्हारा दर्शन करके बहुत आनंद उपलब्ध होता है! बस, अपनी खोपड़ी को धिक्कारती हैं, अपने भाग्य को धिक्कारती हैं, और क्या करें!
चंदूलाल की पत्नी लड़की की शादी की बात कर रही थी चंदूलाल से कि अब लड़की के लिए कोई लड़का खोजो! और जल्दी करो! चंदूलाल ने कहा कि जल्दी में मत पड़ो। कोई ढंग
का परिवार मिले, कोई ढंग का लड़का मिले, तो ही काम हो। जल्दी में तो गड़बड़ हो जाएगी। चंदूलाल की पत्नी बोली: अगर जल्दी में गड़बड़ हो जाएगी... अगर मेरे मां-बाप जल्दी न करते, तो तुम जैसे लंगूर से मेरी शादी होती! अरे, जल्दी का ही तो यह है कि तुम जैसे लंगूर को भी पत्नी मिल गई। नहीं तो तुमको पत्नी मिलने वाली थी!
तुम्हें रोक रही होगी पत्नी सिर्फ इसीलिए कि स्त्रियों को तुमने अपाहिज कर दिया है, पंगु कर दिया है, उनके हाथ-पैर तोड़ दिए हैं, आर्थिक रूप से उनका जीवन बिलकुल ही कुंठित कर दिया है। सब तरह से उनको अपने ऊपर निर्भर कर लिया है। और फिर तुम संन्यास की बातें करो! और फिर स्त्री को पता भी नहीं होगा कि मैं जिस संन्यास की बात कर रहा हूं, वह संन्यास कैसा है। उसे तो पुराने ही संन्यास का खयाल होगा। उसे समझाओ कि यह संन्यास पुराना नहीं है।
यह संन्यास बिलकुल नई अभिव्यंजना है। कहीं जाना नहीं, कहीं भागना नहीं, कुछ छोड़ना नहीं, कुछ त्यागना नहीं, जहां हो ठीक वैसे ही रहना है--रहने की और कला सीख लेनी है। रहने की और एक नई शैली सीख लेनी है। और उस शैली से तुम्हारी पत्नी को कोई नुकसान होने वाला नहीं है। और न हो तो उसको यहां ले आओ। उसको समझ में आ जाएगा। उसे तुम यहां लाओगे नहीं। क्योंकि वह आई तो पहले उसका संन्यास हो जाएगा। स्त्रियों को बात जल्दी समझ में आ जाती है। क्योंकि मेरी बात सीधी-साफ है।
स्त्रियों को वह पुराना संन्यास घबड़ाने वाला है, स्वाभाविक। तुमने कितना अत्याचार किया पुराने संन्यास के नाम पर! पति जीवित रहे और स्त्रियां विधवा हो गईं। लाखों स्त्रियां विधवा हो गईं। फिर उनको किस तरह जिंदगी गुजारनी पड़ी--किसी के बर्तन धोने पड़े, कि किसी के कपड़े सीने पड़े, कि किसी की रोटी बनानी पड़ी, कि किसी को वेश्या हो जाना पड़ा। इन सबका पाप किसके ऊपर है? उनके बच्चे अनाथ हो गए। बच्चे तो तुम पैदा कर गए और फिर तुम संन्यासी हो गए! संन्यासी ही होना था तो शादी क्यों की? बच्चे क्यों पैदा किए? बच्चे पैदा कर लिए, पत्नी ले आए, घर बसा लिया, और फिर भाग खड़े हुए! फिर जिम्मेवारी छोड़ कर भाग गए। लाखों लोग यह काम करते रहे और हमने इन भगोड़ों को बहुत सम्मान दिया। हमने इनको त्यागी-तपस्वी कहा। कोई मुनि, कोई महात्मा, कोई यति--क्या-क्या हमने उनकी पूजा की, अर्चना की, वंदना की! थालियां उतारीं, फूलमालाओं से उनको सजाया, धूप-दीप जलाए--और इनके कारण कितना देश में अनाचार हुआ, कितना व्यभिचार हुआ; और इनके कारण कितने लोग दीन-हीन हुए, इस सबकी कोई चिंता नहीं।
मैं उस संन्यास के बिलकुल विपरीत हूं।
तुम अपनी पत्नी को, अपने परिवार को मेरे संन्यास की धारणा समझाना। अच्छा हो उनको यहां ले आओ! बजाय महावीर बनने के उन्हें यहां ले आओ। और अगर तुम महावीर ही बनना चाहते होओ, तो फिर हिम्मत करके करना! फिर महावीर ही बन जाना! वह कुछ आसान मामला नहीं है, जैसा तुम सोच रहे हो। तुम यह मत सोचना कि यह बचने की तरकीब मिल गई। और धोखा तुम दोगे तो किसको दोगे? मेरा कुछ हर्जा नहीं है, तुम्हारी जैसी मर्जी! तुम्हें ऐसा करना हो, ऐसा कर लेना।
मगर ध्यान रहे, झूठों से मुक्ति नहीं हो सकती। और अपने को ही धोखा दिया तो बहुत पछताओगे। समय रहते जीवन को रूपांतरित करो, समय को गंवाओ मत, यूं ही गुजर न जाने दो।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, सपने भी तो सच होते हैं; आज के सपने कल सच हो जाएंगे। फिर क्यों सपने का मतलब कल्पना या झूठ माना जाता है?
सहजानंद! सपने सच नहीं होते। कभी-कभी संयोगवशात सच में और सपने में तालमेल हो जाता है, वह बात दूसरी है। मगर वह संयोग की बात है। लग गया तो तीर नहीं तो तुक्का। सौ में निन्यानबे बार तो लगता ही नहीं। एकाध बार लग जाता है। लेकिन इससे तुम कोई धनुर्धर नहीं हो जाते।
मुल्ला नसरुद्दीन के संबंध में प्रसिद्ध कथा है कि वह अपनी पाठशाला के बच्चों को लेकर गांव में नुमाइश भरी थी, वहां गया। नुमाइश में कई तरह के स्टाल थे। एक स्टाल पर तीरंदाजी पर लोग दांव लगा रहे थे। लोग रुपये लगा देते थे, फिर तीर चलाते थे। तीर लग जाता तो दस गुना दुकानदार देता था उनको। जितना भी रुपया लगाते! दस लगाते तो सौ देता। अगर तीर न लगता तो दस रुपये गए। धंधा करने जैसा था। मिलता था दस गुना। सीधा जुआ था।
नसरुद्दीन ने अपने विद्यार्थियों को कहा कि आओ! जाकर उसने सीधे सौ रुपये लगाए। उठाया तीर, अपनी टोपी सम्हाल कर लगाई, खींचा धनुष और लड़कों से कहा: गौर से देखो! भीड़ लग गई वहां कि नसरुद्दीन क्या करतब दिखा रहे हैं? दुकानदार भी उत्सुक हो गया, लड़के भी भीड़ लगा कर खड़े हो गए--पूरा मदरसा, जहां नसरुद्दीन पढ़ाते थे, सबको ले आए थे। तीर चलाया, बहुत दूर निकल गया तीर! जिस स्थान पर भेद करना था, वह तो यहीं रह गया, इनका तीर बहुत आगे चला गया। लोग खिलखिला कर हंसे। लोगों ने तालियां पीटीं, हू-हल्ला मचाया, हूट किया। नसरुद्दीन ने कहा: चुप रहो, नासमझो! पहले बात तो समझो! एक सन्नाटा छा गया। दुकानदार भी सन्नाटे में आ गया। नसरुद्दीन ने विद्यार्थियों से कहा: देखा, यह उस आदमी का तीर है जिस आदमी को अपने ऊपर जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास है। इससे पाठ समझो। लोग भी कहे कि बात तो ठीक है। तीर आगे निकल जाए, इसका मतलब जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास है।
नसरुद्दीन ने दूसरा तीर उठाया। चलाया। वह पहुंचा ही नहीं वहां तक। वह चार-छह कदम पर ही गिर गया। वह स्थान तक भी न पहुंचा जहां भेद करना था। फिर खिलखिलाहट आई, फिर हु-हल्ला मचा। नसरुद्दीन ने कहा: चुप रहो नासमझो! फिर भी नहीं समझे? अपने लड़कों से कहा: बेटे, समझे? यह उस आदमी का तीर है जो अपने आत्मविश्वास से इतना घबड़ा गया कि वह दूसरी अति पर चला गया। हीनता का भाव अनुभव करने लगा। यह उस आदमी का तीर है। अब तो लोगों ने कहा कि बात तो पते की कह रहा है! ऐसे है झक्की, मगर बातें बड़ी पते की कह रहा है।
तीसरा तीर उठाया। तीसरा तीर गया और लग गया ठीक निशान पर। जाकर उसने सौ रुपये अपने उठाए और कहा कि और हजार रुपये दो। दुकानदार ने कहा कि भई, यह क्या माजरा है? उसने कहा: यह मेरा तीर है। वह पहला तीर तो उस आदमी का तीर था जिसको जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास है। दूसरा तीर उसका था जो हीनता के भाव से भरा है। यह मेरा तीर है।
जो लग जाए, वह मेरा तीर! जो न लगे, उसके लिए कोई रास्ता खोजना पड़ेगा।
कभी तुम्हारे सपने लग जाते हैं। संयोगवशात। ऐसा मत सोच लेना कि सपने सत्य होते हैं। जो होने वाला था, वह होने वाला था, यह संयोग की बात है कि सपने से तालमेल खा गया। ऐसा कभी-कभार होता है।
चंदूलाल और उनके मित्र ढब्बू जी आपस में बातें कर रहे थे। ढब्बू जी ने बातों ही बातों में पूछा कि मित्र चंदूलाल, एक बात बताओ। क्या तुम्हारे बचपन की कोई आकांक्षा कभी पूरी हुई या नहीं? चंदूलाल बोले: हुई; हुई क्यों नहीं! अरे, बचपन में जब मास्टर जी मेरे बाल पकड़ कर मुझे पीटा करते थे तो मैं एक आकांक्षा करता था कि हे भगवान, काश मेरे सिर पर बाल न होते तो कितना अच्छा होता! और ईश्वर की कृपा से आज मेरे सिर पर एक भी बाल नहीं। चांद ही चांद है। चंदूलाल उनका नाम है। यह आकांक्षा पूरी हो गई। ईश्वर ने सुन ली। ईश्वर सुनता है जी, कहने वाला कोई हो!
अब यूं कभी तीर लग जाए तो बात और।
चंदूलाल तो खुश हैं। क्योंकि बाल बनवाने जाते हैं तो कम पैसे में बन जाते हैं। बाल ही नहीं है तो बनाना क्या है?
कोई उनसे पूछ रहा था कि आपको तकलीफ नहीं होती चांद से? उन्होंने कहा: तकलीफ क्या, फायदा ही फायदा है। सिर्फ एक तकलीफ होती है कि सुबह-सुबह उठ कर जब मुंह धोता हूं, तो कहां तक धोना, उसमें भर जरा अड़चन आती है! मतलब कभी-कभी पानी ज्यादा लग जाता है, बस, और कोई हर्जा नहीं है। नहीं तो लाभ ही लाभ है। हानि क्या हो गई? और ये तो बुद्धिमानी के लक्षण हैं।
अब तुमने किसी सरदार को चांद निकलते देखी? क्या खाक निकलेगी चांद! पहले बुद्धिमानी तो होनी चाहिए। तो चांद वालों ने अपने लिए हिसाब कर रखा है--बुद्धिमानी। स्त्रियों को तुमने चांद निकलते देखी? क्या खाक! मैंने तो एक स्त्री देखी है अपने पूरे जीवन में अभी तक। पूरे भारत में भ्रमण करता रहा, करता रहा कि कोई स्त्री मिल जाए चांद वाली! एक स्त्री। मगर वह भी कुछ खास स्त्री नहीं। मतलब मुछाड़िया स्त्री। उसको मूंछें और चांद, दोनों। गजब की स्त्री!
संयोग से ही... सहजानंद, सपने पूरे नहीं होते। कभी कोई सपना तालमेल खा जाता है, इससे नियम मत बनाना, वह अपवाद है। लेकिन लोग तो जो मान बैठते हैं उसके लिए अपवाद भी मिल जाए तो उसको नियम समझ लेते हैं।
दो मित्र आपस में बात कर रहे थे। एक बोला कि यार, ज्योतिष में तो आपका पक्का भरोसा है! मेरे बेटे का हाथ देख कर ज्योतिषी ने कहा था कि जनाब, आपके बेटे के जीवन में काफी उतार-चढ़ाव है। और अंततः उसकी बात सच निकली। दूसरे ने पूछा: वह कैसे? पहला बोला: अरे, आजकल मेरा बेटा लिफ्ट मैन है। बस, सुबह से शाम तक ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर, उतार-चढ़ाव में ही जिंदगी बीत रही है। क्या गजब का ज्योतिषी था! क्या बात कह गया! पते की बात कह गया!
ज्योतिषी इसी तरह की बातें कहते रहते हैं। हिसाब रखते हैं कि कौन सी बातें कहनी चाहिए। हर आदमी से वे बातें कहते रहते हैं। कि आपके जीवन में बड़ा उतार-चढ़ाव है। अब उतार-चढ़ाव किसके जीवन में नहीं होता! ऐसा कोई आदमी देखा है जिसके जीवन में उतार-चढाव न हो? चाहे लिफ्ट मैन हो या न हो, उतार-चढ़ाव तो होगा ही। नहीं तो करोगे क्या जिंदगी में? उतरोगे नहीं, चढ़ोगे नहीं तो करोगे क्या? काम ही क्या है और? उतरो और चढ़ो! ऐसे उलझे रहो। सीढ़ी लगा कर उतरते रहे, चढ़ते रहे। कोई धन की सीढ़ी लगाए है, कोई पद की सीढ़ी लगाए है; कोई, कोई कुर्सी पर चढ़ रहा है, उतर रहा है। तुम नहीं उतरोगे तो दूसरे उतारेंगे। और कभी-कभी तुम नहीं चढ़ोगे, दूसरे चढ़ा देंगे। दूसरे भी खेल देखते हैं उतरने-चढ़ने का। यही तो मुजरा है इस दुनिया का। लोग चढ़ रहे, उतर रहे। और है ही क्या यहां? बस, लहरें ही लहरें हैं।
ज्योतिषी कहते हैं: तुम्हारे हाथ में पैसा तो आएगा, टिकेगा नहीं। किसके हाथ में टिकता है! पैसा टिक जाए तो उसका नाम पैसा? अंग्रेजी में उसको करेंसी क्यों कहते हैं? करेंसी का मतलब चल-चलाव। आया, गया। आयाराम, गयाराम: करेंसी का मतलब--ठहरता नहीं। ठहर जाए तो कोई पैसा है? जितना पैसा चलता है, उतनी कोई दुनिया में दूसरी चीज चलती है? एक हाथ से दूसरे हाथ, दूसरे से तीसरे हाथ, चलता ही रहता है। न दिन देखे, न रात देखे, चलता ही रहता है। कहां-कहां चल कर तुम्हारे पास आता है! कितने पड़ाव, कितनी मंजिलें! तो हर आदमी को ठीक लगती है बात कि बिलकुल ठीक है।
ज्योतिषी इस तरह की बातें हिसाब में बिठा रखते हैं कि जो सभी के लिए तीर की तरह लग ही जाएं। जिन में से कुछ न कुछ अर्थ निकल ही आए। कि जीवन में तुम्हारे प्रतिभा तो बहुत है, मगर बाधाएं भी बहुत हैं। अब यह किस पर लागू न होगा! हर आदमी मानता है उसके पास प्रतिभा बहुत है। अगर रुक रहा है तो दूसरों के द्वारा दी गई बाधाओं के कारण रुक रहा है।
अरबी में कहावत है कि परमात्मा जब भी दुनिया में किसी को भेजता है, हरेक के कान में एक मजाक फूंक देता है। कह देता है: तुमसे ज्यादा सुंदर, तुमसे ज्यादा प्रतिभाशाली व्यक्ति मैंने बनाया ही नहीं। सो हर आदमी भीतर यही धुन लिए आता है दुनिया में, मुझसे ज्यादा सुंदर, मुझसे ज्यादा प्रतिभाशाली कोई व्यक्ति दुनिया में है ही नहीं। कहता नहीं किसी से, क्योंकि कहना जरा शोभादायक नहीं मालूम होता, छिपा कर रखता है, मगर भीतर-भीतर यही सोचता है, सिद्ध करने की जीवन भर कोशिश करता है। मगर दूसरे भी इतने हैं बाधाएं डालने वाले कि किसकी प्रतिभा को टिकने देते हैं!
नहीं, सहजानंद, सपने न तो पूरे होते, न पूरे हो सकते हैं। और सपनों को कल्पना इसलिए कहते हैं कि जो है, उससे तुम्हें चुकाते हैं। क्योंकि तुम उसमें खोए रहते हो जो होना चाहिए और हाथ से वह चूका जाता है, जो है। और जो है, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। बस, वही है। उसमें ही जीना, जो है, उसमें ही पूरे के पूरे लीन होना ध्यान है, समाधि है।
सपनों में खोए रहना वर्तमान को अपने हाथ से चूकते जाना है। और वर्तमान के अतिरिक्त और कुछ भी सत्य नहीं है।

आज इतना ही।

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