QUESTION & ANSWER

Saheb Mil Saheb Bhave 07

Seventh Discourse from the series of 10 discourses - Saheb Mil Saheb Bhave by Osho. These discourses were given during JUL 11-20 1980, Pune.
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पहला प्रश्न: भगवान,
खामोश नजर टूटे दिल से हम अपनी कहानी कहते हैं: बहते हैं आंसू बहते हैं! कल तक इन सूनी आंखों में शबनम थी चांद-सितारे थे ख्वाबों की गमकती कलियां थीं दिलकश रंगीन नजारे थे पर अब हमको मालूम नहीं हम किस दुनिया में रहते हैं। कृपा कर पता बताएं?
दीपक शर्मा! जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है। एक ढंग तो है नींद का। वहां मीठे सपने हैं। पर सपने ही सपने हैं, जो टूटेंगे ही टूटेंगे। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, देर-अबेर की बात है। और जब टूटेंगे तो गहन उदासी छोड़ जाएंगे। जब टूटेंगे तो पतझड़ छा जाएगा। जीवन हाथ से गया सपनों में और मौत द्वार पर खड़ी हो जाएगी।
एक और भी जीवन को जीने का ढंग है। वही वास्तविक ढंग है। वह है जाग कर जीना। सपनों से मुक्त होकर जीना। फिर आनंद की वर्षा है। फिर अमृत की बूंदा-बांदी है। फिर फूल खिलते हैं और खिलते ही चले जाते हैं। हाथ ही नहीं भरते, प्राणों का आकाश भी फूलों से भर जाता है।
अधिकतर लोग सोए-सोए ही जीते हैं। इसलिए तुम जिस कहानी की बात कह रहे हो, वह सबकी कहानी है। आकांक्षाएं, अपेक्षाएं, वासनाएं, ऐसा कर लूं, वैसा कर लूं--हार ही होने वाली है। पराजय ही हाथ लगेगी। क्योंकि जीवन का शाश्वत नियम ही तुम नहीं समझे कि तुम अलग नहीं हो, इस अस्तित्व के साथ एक हो। इस अस्तित्व के ही साथ बहो। तुम्हारे सपने तुम्हें अलग तोड़ते हैं। तुम्हारे सपने तुम्हें पृथक होने की भ्रांति देते हैं। ऐसा लगता है, मुझे कुछ करना है, मुझे कुछ होना है। और ध्यान रहे, लहर स्वयं क्या होगी? कैसे होगी? सागर के साथ रहे तो सब-कुछ है। अलग-थलग माने, फिर हाथ पीड़ा ही लगेगी, संताप ही लगेगा। नदी तो जाती हो पूरब की तरफ और नदी की एक लहर कल्पना करने लगे पश्चिम की तरफ जाने की, नदी के विपरीत जाने की, तो हारेगी। इसमें कसूर नदी का नहीं है। इसमें भ्रांति है लहर की, कि मैं अलग हूं।
संन्यास का अर्थ इतना ही है कि मैं नदी के साथ बहूंगा। अब मेरी कोई अलग योजना नहीं, कोई लक्ष्य नहीं। जो इस समष्टि का लक्ष्य है, वही मेरा लक्ष्य है, अगर कोई लक्ष्य हो तो ठीक, न हो तो ठीक। यह विराट जहां जा रहा है--अगर जा रहा हो कहीं तो ठीक, न जा रहा हो तो ठीक। मैं चिंता क्यों सिर लूं? ये दो क्षण जीवन के मिले हैं, नाचूं, गुनगुनाऊं, बांसुरी उठाऊं, पैरों में घुंघरू बांधूं। यह अहोभाग्य मिला। ये आंखें मिली हैं, सौंदर्य से भर लूं; यह हृदय मिला है, प्रीति से आंदोलित हो लूं; यह संभावना मिली है, इसको सत्य बना लूं, न सपनों में खोया रहूं।
और सपने भी हम क्या देखेंगे? हमारे सपने हमसे बड़े तो नहीं हो सकते, हमसे छोटे ही होंगे।
एक बिल्ली एक वृक्ष पर चढ़ी सपना देख रही थी। दोपहर है, वृक्ष की घनी छाया है। नीचे एक कुत्ता लेटा हुआ था वृक्ष के, वह देख रहा था कि बिल्ली सोई है और बड़ी मग्न हो रही है। बिल्ली की मुस्कुराहट साफ दिखाई पड़ रही थी। जरूर कुछ मजा ले रही है!
कुत्ता जरा खांसा, खंखारा, भौंका, बिल्ली की नींद टूटी; बिल्ली ने कहा: क्या शोरगुल मचा दिया? कम से कम दोपहर तो चुप रहा करो! क्या मजे का सपना देख रही थी, तोड़ दिया! कुत्ते ने कहा: इससे ही तो खांसा-खंखारा। क्या सपना देख रही हो? मैं भी तो सुनूं!
बिल्ली ने कहा: सपना देख रही थी कि वर्षा हो रही है और चूहे ही चूहे गिर रहे हैं, पानी नहीं। कुत्ते ने कहा: धत्‌ तेरे की, अरे मूरख, शास्त्र पढ़े हैं? शास्त्रों में साफ लिखा है कि जब वर्षा होती है तो हड्डियां बरसती हैं, चूहे नहीं। कुत्तों के शास्त्र में तो यही लिखा है कि हड्डियां बरसती हैं। बिल्ली ने कहा: तुम किन शास्त्रों की बात कर रहे हो? अरे, हमारे शास्त्रों में साफ लिखा है: जब परमात्मा देता है तो चूहे ही चूहे बरसते हैं। और हमारे ही शास्त्रों में नहीं लिखा है, आदमी तक कहते हैं: मूसलाधार वर्षा। आदमी भी हमसे राजी हैं।
कुत्तों के अपने सपने होंगे। कुत्तों से भिन्न नहीं होंगे। हड्डियां ही बरसेंगी। बिल्लियों के अपने सपने होंगे। बिल्लियों से भिन्न नहीं होंगे। चूहे ही बरसेंगे।
तुम सपने क्या देखोगे? वही तो न, जो तुम अपने अंधेरे में, अपने अज्ञान में, अपनी मूर्च्छा में देख सकते हो। तुम्हारे सपने तुमसे बड़े नहीं हो सकते।
तुम कहते हो दीपक शर्मा: ‘खामोश नजर टूटे दिल से हम अपनी कहानी कहते हैं।’
सभी को एक दिन ऐसी ही कहानी कहनी पड़ती है। दिल टूटा होता है--तार-तार टूटे होते हैं; हृदय का साज टूट गया, फूट गया होता है। आंखें धुंधला गई होती हैं, सपने देखते-देखते अंधी हो गई होती हैं। अंधेरे में रहते-रहते प्रकाश को देखने की क्षमता खो चुकी होती है। शब्द भी नहीं सूझते कि कैसे कहें, क्या कहें? लेकिन खामोश नजरें सब कह देती हैं।
कहते हो: ‘बहते हैं आंसू बहते हैं!’
और कुछ बचता ही नहीं फिर पास। खामोश नजरें। उदास नजरें, उदासीन चेहरे, जीवन भर के टूटे सपनों के ढेर, खंडहर ही खंडहर। और ध्यान रहे, जो हारते हैं वे तो हारते ही हैं, इस जगत में जो जीतते हुए मालूम पड़ते हैं वे भी हार जाते हैं। यहां कोई जीतता ही नहीं, सिर्फ उन थोड़े से लोगों को छोड़ कर जो समय रहते जाग जाते हैं। हमने उन्हें यूं ही तो बुद्ध नहीं कहा। बुद्ध का अर्थ होता है: जागा हुआ। हमने उन्हें यूं ही तो जिन नहीं कहा। जिन का अर्थ होता है: जीता हुआ। हम तो हारे हुए हैं और हम तो सोए हुए हैं; न बुद्ध, न जिन। हम तो बुद्धों को भी मानते हैं तो सिर्फ मानते हैं--नींद में ही पूजा भी कर लेते हैं, प्रार्थना भी कर लेते हैं, अर्चना भी कर लेते हैं। जिन को भी मानते हैं तो जिन नहीं होते, जैन हो जाते हैं! जिन होओ--जागो, जीओ, जीतो! जैन हो गए अर्थात चूक गए। आते-आते हाथ सूत्र, लगते-लगते हाथ चूक गए। मुड़ते थे ठीक मोड़ पर, मगर फिर भटक गए। फिर क्षुद्र बातें ही हाथ में रह जाती हैं।
एक मित्र, जिनेश्वर ने पूछा है:
भगवान, ‘थोड़े दिन पहले जैन मंदिर की प्रतिमा से पानी टपक रहा था। जैन कहते हैं कि अमृत झर रहा है, अब आनंद ही आनंद होगा। तथाकथित धर्मस्थानों में ऐसा चमत्कार होता ही रहता है। यह प्रतिमा मानव जीवन की रुग्णता देख कर आंसू बहाती है अथवा अमृत वर्षा करती है--यह कैसे पता चले? कृपया, समझाने की अनुकंपा करें।’
न तो अमृत झर रहा है, न आंसू झर रहे हैं। प्रतिमा तो पत्थर है, रोएगी भी क्या, करुणा भी क्या करेगी? लेकिन बड़े चालबाजों के हाथ में धर्म पड़ गया है। ऐसे पत्थर होते हैं जो पानी सोख लेते हैं। ऐसे पत्थर होते हैं--अफ्रीका में भी होते हैं, कश्मीर में भी होते हैं--जो हवा से भाप को सोख लेते हैं। और वही भाप ठंडक पा कर पानी की बूंद बन कर प्रतिमा पर जम जाती है। और तब बुद्धुओं की जमात एक से एक बातें कहेगी। ये तरकीबें पंडित-पुरोहित सदियों से काम में लाते रहे हैं लोगों को अंधा करने के लिए।
मगर कभी तुम यह तो सोचो, जब खुद महावीर जिंदा थे तब भी आनंद ही आनंद नहीं हुआ, अमृत नहीं बरसा, अब क्या खाक पत्थर की प्रतिमा से बरसेगा? जब महावीर मौजूद थे स्वयं, तब कितना आनंद बरसा? कितने जीवन आंदोलित हुए? और तुमने महावीर के साथ क्या किया? कानों में खीले ठोके, सताया, मारा, एक गांव से दूसरे गांव भगाया, पागल कुत्ते महावीर के पीछे छोड़े, खूंखार कुत्ते महावीर के पीछे लगाए। क्योंकि महावीर की नग्नता तुम्हें सालती थी, अखरती थी। महावीर की नग्नता उनकी सरलता की उदघोषणा थी; जैसे छोटा बच्चा। लेकिन उनकी नग्नता तुम्हें अड़चन देती थी। उनकी नग्नता तुम्हें भी खबर देती थी कि हो तो तुम भी नग्न, वस्त्रों में कितना ही अपने को छिपाओ, सचाई छिपेगी नहीं छिपाने से, उघड़ो। तुम्हें बेचैनी होती थी, घबड़ाहट होती थी। तुम समझते थे यह आदमी हमें भ्रष्ट कर रहा है, हमारे बच्चों को भ्रष्ट कर रहा है। गांव में टिकने नहीं देते थे महावीर को।
महावीर जब जीवित थे तब आनंद ही आनंद नहीं बरसा, अमृत नहीं बरसा, अब किसी पत्थर की प्रतिमा पर पानी की बूंदें जम जाएंगी और आनंद ही आनंद हो जाएगा! कुछ तो गणित भी याद करो! ये तो सीधे से गणित हैं।
लोग कहते हैं कि जब धर्म की हानि होती है तो भगवान का अवतार होता है। कृष्ण के वचन का लोग उद्धरण करते हैं: संभवामि युगे युगे! आऊंगा, युग-युग में आऊंगा। यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! जब भी ग्लानि होगी धर्म की, आऊंगा। मगर जब आए थे, तब कौन से धर्म की पुनर्स्थापना हो सकी? महाभारत हुआ, धर्म की कोई पुनर्स्थापना तो नहीं हुई। हिंदुओं के हिसाब के कोई एक अरब आदमी महाभारत के युद्ध में मरे, कटे। धर्म का कोई अवतरण तो नहीं हो गया।
सच तो यह है कि महाभारत में भारत की जो रीढ़ टूटी, वह फिर आज तक ठीक नहीं हुई। महाभारत में जो भारत की आत्मा मरी, वह अब तक पुनरुज्जीवित नहीं हो सकी। महाभारत के बाद फिर भारत उठ नहीं पाया, अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया। फिर टूटता ही गया, बिखरता ही गया, खंडित ही होता गया।
ईसाई कहते हैं कि जीसस का अवतरण हुआ था मनुष्य के उद्धार के लिए। वे आए ही इसलिए थे, परमात्मा ने भेजा ही इसलिए था। एकमात्र बेटे हैं वे परमात्मा के, इकलौते पुत्र! अपने इकलौते बेटे को परमात्मा ने भेजा कि जाओ, अब मनुष्य का उद्धार करो। ये तो सब बातें ठीक, मगर मनुष्य का उद्धार कहां हुआ! यह तो कोई देखता ही नहीं, यह तो कोई पूछता ही नहीं। मनुष्य का तो उद्धार नहीं हुआ है, जीसस को सूली लग गई। यही अगर मनुष्य का उद्धार है तो बात अलग। और ईसाइयत भी फैल गई दुनिया में तो कोई मनुष्य का उद्धार हो गया!
लेकिन लोग इसी तरह की व्यर्थ की बातें फैलाते फिरते हैं। और आश्चर्य तो यह है कि हम सदियों-सदियों से इन्हीं घनचक्करों के चक्कर में पड़े रहते हैं। हमें होश भी नहीं आता। हम फिर-फिर उन्हीं मूढ़ताओं में पड़ जाते हैं।
न तो कोई चमत्कार है इसमें, न कुछ विशिष्टता है। जरा उस पत्थर की परीक्षा करवा लेना पत्थर के विशेषज्ञों से और तुम्हें पता चल जाएगा कि वह पोरस पत्थर है। उसमें छोटे-छोटे छेद हैं, जिन छेदों से वाष्प भीतर प्रवेश कर जाती है। और जब भी ठंडक मिलती है, तो स्वभावतः वाष्प पानी में बदल जाती है। पानी में बदली तो छिद्रों के बाहर आकर बहने लगती है। अब तुम्हारी जो मर्जी हो आरोपित करने की, गरीब पत्थर पर आरोपित कर दो। और अगर अमृत है यह, तो चाट क्यों नहीं जाते? तो कम से कम जैन ही अमर हो जाएं। और ज्यादा जैन भी नहीं हैं, कोई पैंतीस लाख ही हैं, मुल्क में इतनी मूर्तियां हैं, चाट जाओ सारी मूर्तियों को! कम से कम तुम्हीं अमर हो जाओ। जब अमृत ही मिल रहा है तो क्यों चूक रहे हो?
और ये तो हर साल घटनाएं घटती हैं। और आनंद तो कहीं दिखाई पड़ता नहीं, बस सपने ही सपने हैं। इन सपनों में ही अपने को भुलाए रखोगे तो आज नहीं कल रोओगे, ़जार-़जार रोओगे। फिर आंसू ही आंसू बहेंगे।
इसमें कसूर किसका है, दीपक शर्मा!
कहते हो: ‘कल तक इन सूनी आंखों में शबनम थी चांद-सितारे थे।’
सब झूठे! अगर सच्चे होते तो आज भी होते। कल ही क्यों? झूठ होते हैं तो कल होते हैं, आज नहीं होते, आज होते हैं तो कल नहीं होते। इस जगत में जो झूठ है, वह बदलता रहता है; जो सत्य है, वह शाश्वत है। लेकिन हम झूठ में खूब उलझ जाते हैं। हम झूठ से बहुत प्रभावित होते हैं। सच तो यह है, हम बदलाहट से ही आकर्षित होते हैं।
देखा तुमने किसी कुत्ते को बैठे हुए? बैठा है चुपचाप। कोई चीज हिलती-डुलती नहीं, तो चुपचाप बैठा रहेगा। फिर जरा सा कोई चीज को हिला-डुला दो, एक पत्थर में धागा बांध कर उसे जरा खींच दो दूर बैठ कर और कुत्ता एकदम चौंक कर खड़ा हो जाएगा। जब तक पत्थर जगह पर पड़ा था एक, कुत्ता निश्चिंत था। पत्थर हिला कि कुत्ता जागा, कि भौंका, कि आकर्षित हुआ कि मामला क्या है?
यह कुत्ते का ही नहीं लक्षण है, यह सारे मन का लक्षण है। इसलिए जो चीज बदलती नहीं, वह दिखाई नहीं पड़ती। तुम अपनी पत्नी को देखते हो? वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ती। वह बदलती ही नहीं। वह वही की वही पत्नी--कल भी थी और आज भी है, कल भी होगी। लेकिन पड़ोसी की पत्नी, पड़ोसियों की पत्नियां, उन्हें तुम टकटकी लगा कर देखते हो। तुम्हें अपना घर दिखाई पड़ता है? कुछ दिखाई नहीं पड़ता। तुम परिचित हो। सब चीजें अपनी जगह होती हैं तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। हां, कोई अदल-बदल हो जाए, रात कोई चोर घर में घुस जाए, सामान इधर का उधर कर दे; कुर्सी सरकी मिले, दरवाजा खुला मिले, ताला टूटा मिले, तो तुम चौंकते हो। परिवर्तन आकर्षित करता है। अगर चीजें थिर हों, तो आकर्षित नहीं करतीं।
इसीलिए तो फैशन रोज-रोज बदलने पड़ते हैं। कारण साफ है। क्योंकि फैशन का मतलब ही यह होता है, जो चीज आकर्षित करे। अगर बदलो मत, तो आकर्षण खो जाता है। इसलिए नई-नई साड़ियां चाहिए, नये-नये ढंग के बार्डर चाहिए, नये-नये ढंग की छपाई चाहिए, नये-नये ढंग के वस्त्र चाहिए। फिर-फिर लौट आते हैं कुछ दिनों बाद वही पुराने वस्त्र, लेकिन तब वे नये हो जाते हैं। चीजें फिर-फिर लौट आती हैं फैशन में; एक दस-पंद्रह साल फैशन में नहीं रहीं तो लोग भूल चुके होते हैं, फिर नई हो गईं, फिर लौट आती हैं। स्त्रियों ने फिर कान छिदाने शुरू कर दिए, फिर कान में बाले आ गए। फिर नाक छिदने लगीं। फिर गुदने गूदे जाने लगे। चले गए थे, बाहर हो गए थे फैशन के, अब फैशन में वापस लौटने लगे। फिर वापस चले जाएंगे। यूं ही चलता रहता है। बदलाहट चाहिए।
जिस चीज के तुम आदी हो जाते हो, उसमें रस खो जाता है। रोज-रोज वही भोजन, रस खो जाएगा। नया-नया भोजन चाहिए। रोज-रोज नई-नई फैशन चाहिए।
मुल्ला नसरुद्दीन की दिली आकांक्षा थी कि वह अपनी पत्नी को ऐसा कुछ करिश्मा दिखाए कि वह हैरान हो जाए। विस्मय-विमुग्ध हो जाए। एक दिन उन्होंने सोचा कि मैं अपनी लंबी दाढ़ी कटवा कर घर जाऊं तो शायद मेरी पत्नी चौंक जाएगी। ऐसा सोच उन्होंने अपनी दाढ़ी-मूंछ साफ करवाई और घर जा पहुंचे। रात का समय, नौकर ने दरवाजा खोला, मुल्ला सीधे बेडरूम में जाकर सो गया। थोड़ी देर बाद जब गुलजान की नींद खुली तो उसने मुल्ला के चिकने गालों पर हाथ फेरते हुए कहा कि अब तुम जाओ चंदूलाल, मेरे पति के घर आने का समय हो गया होगा।
वही दाढ़ी होती तो चल जाता। लेकिन ये चिकने-चिकने गाल... और चंदूलाल तो बिलकुल सफाचट हैं--इसीलिए तो चंदूलाल उनका नाम है!
यहां तो चीजें दिखाई ही तब पड़ती हैं जब बदलाहट होती रहे। स्त्रियां क्यों इतना रस लेती हैं श्रृंगार में? ताकि वे ताजी होकर निकलें, नई होकर निकलें, ताकि लोगों की आंखें टिकी रह जाएं। दुनिया बड़ी अजीब है यह! स्त्रियां चाहती हैं कि लोग टकटकी लगा कर देखें! और फिर कोई टकटकी लगा कर देखे तो कहती हैं--लुच्चा है। लुच्चा का मतलब ही होता है: जो टकटकी लगा कर देखे।
लुच्चा शब्द बनता है लोचन से। लोचन यानी आंख। लुच्चा का वही मतलब होता है जो आलोचक का होता है; दोनों में कुछ भेद नहीं है। आलोचक भी लोचन से ही बनता है और लुच्चा भी लोचन से। लुच्चा का मतलब है: देखे ही जाए, देखे ही जाए, आंख गड़ाए रहे। और पूरी घंटों मेहनत की इसी बेचारे के लिए है। और अब जब देख रहा है तो दिल नाराज होता है।
मैं एक कॉलेज में अध्यापक था। एक दिन बैठा था प्रिंसिपल के कमरे में, कुछ बात चल रही थी। वे कुछ ऊंची-ऊंची बातों में रस लेते थे; तो कभी-कभी मुझे बुला लेते थे। उनको रस्ते लगाने के लिए मैं कभी-कभी पहुंच भी जाता था। तभी एक युवती आई। बहुत सजी-धजी। काजल वगैरह लगाए हुए। बाल सजाए हुए, इत्र छिड़के हुए। और उसने कहा कि ये फलां लड़के ने कंकड़ मारा है। और चिट्ठियां लिखता है, और दीवालों पर मेरा नाम लिखता है। मेरे बर्दाश्त के बाहर है।
उन्होंने मुझसे कहा कि आप कुछ समझाइए इस लड़के को बुला कर। इसकी बहुत शिकायतें आ रही हैं। यह पहला मौका नहीं है। और भी लड़कियों ने यह शिकायत की है। मैंने कहा: इस लड़के को पीछे देखेंगे, अब यह लड़की आ गई है, पहले इससे निपट लें।
वह लड़की थोड़ी चौंकी। उसने कहा: मैंने तो कोई कसूर नहीं किया। मैंने कहा: कसूर नहीं किया, यह काजल किसलिए लगाया हुआ है? ये बाल इतने क्यों संवारे हुए हैं? ये इत्र किसलिए छिड़का हुआ है--किसके लिए छिड़का हुआ है? यहां कोई तुम्हारा स्वयंवर रचाया जा रहा है? और वह बेचारा तुम्हारे श्रम को सार्थक कर रहा है तो नाराजगी क्या है? उसका कसूर क्या है? उसका नंबर दो कसूर है। वह सिर्फ मूरख है और कुछ भी नहीं। वह तुम्हारी चाल में आ गया। मैंने कहा: बुलाओ उस लड़के को, मैं उसको देखूं, वह मूरख होना ही चाहिए। नहीं तो कौन तुम्हारी चाल में आएगा? कितना ही काजल लगाओ, ये गोल-मटोल तेरी आंखें मछली जैसी नहीं बन सकतीं! वह कौन नालायक है, उसको बुलाओ!
वह लड़की जो नदारद हुई सो लौटी ही नहीं। मैंने प्रिंसिपल को कहा कि बुलवाओ उस लड़की को। चपरासी भिजवाया। वह लड़की तो घर ही भाग गई। उसने तो यह सोचा ही नहीं था।
कसूर... लेकिन बड़े अजीब हैं, आदमी के तर्क बड़े अजीब हैं! और स्त्रियों का तर्क तो और भी अजीब है! उनका हिसाब ही अजीब है। धक्का न मारो, तो उनकी जिंदगी बेकार गई। धक्का मारो, तो वे पुलिस में रिपोर्ट करवाने को हाजिर हैं। और घर से पूरी तैयारी करके निकलेंगी कि कोई धक्का मारे। जब तक तुम धक्का न मारो, उनकी तैयारी बेकार गई। वह घंटों जो मेहनत की, कोई सार्थक करे। और जिसने सार्थक की, वह फंसा। वह फिर जीवन भर रोएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन मक्खियां मार रहा था। पत्नी ने पूछा: कितनी मार चुके? कहा: अभी तक तो केवल तीन मार पाया हूं। एक नर, दो मादाएं। पत्नी ने कहा: हद कर दी तुमने! तुम कैसे पहचाने कि मक्खी में कौन नर है, कौन मादा? उसने कहा: जो नर थी मक्खी, वह अखबार पर बैठी थी। और ये दो मादाएं दो घंटे से दर्पण पर ही बैठी हैं! जाहिर है कि कौन नर है, कौन मादा है, इसमें कोई बहुत बड़ा हिसाब लगाने की आवश्यकता नहीं है। ये दो घंटे से दर्पण पर क्या कर रही हैं!
फैशन बदलता है। सपने बदलते रहते हैं, यही उनकी खूबी है। सत्य शाश्वत है। जैसे का तैसा है। संतों ने कहा है: ज्यूं का त्यूं ठहराया! जिस दिन तुम उसमें अपने मन को लगा लोगे, जो जैसा है वैसा ही है, जस का तस, जरा भी बदलता नहीं। मगर उसमें तुम्हारा रस नहीं है। रस बदलाहट में है। और इसलिए एक दिन जीवन में दुख आएगा, विषाद आएगा।
खुदा के हुस्न ने इक दिन यह सवाल किया
क्यों न मुझे जहां में तूने लाजवाल किया
सौंदर्य ने एक दिन परमात्मा से पूछा कि तूने मुझे शाश्वतता क्यों न दी? क्षणभंगुरता क्यों दी? जहां में तूने मुझे लाजवाल क्यों न किया? सदा ठहरने वाला क्यों न बनाया?
यह प्रश्न सार्थक मालूम होता है। सौंदर्य जैसी चीज बनाई... गुलाब का फूल खिला, सुबह खिला और सांझ पखुड़ियां झर गईं, यह भी क्या बात हुई! इससे तो हमारे वैज्ञानिक ज्यादा होशियार हैं। प्लास्टिक का फूल बनाते हैं, बना दिया एक दफे सो बना दिया। टिका ही रहता है। जब चाहो तब धोओ, नहलाओ, साबुन से साफ करो, फिर ताजा का ताजा! प्लास्टिक में जो शाश्वतता है, इतनी भी शाश्वतता नहीं है गुलाब के फूल में, क्या परमात्मा ने फूल बनाया! पूछा होगा सौंदर्य ने।
खुदा के हुस्न ने इक दिन यह सवाल किया
क्यों न मुझे जहां में तूने लाजवाल किया
बनाया भी मुझे, इतनी मेहनत से बनाया, तो सदा के लिए बना दिया होता। जवानी दी थी तो दे ही दी होती, फिर लेनी क्या? फिर क्या बुढ़ापा?
मिला जवाब: तस्वीरखाना है दुनिया
शबे-दराजे अज्म का फसाना है दुनिया
यह दुनिया तो एक चित्रशाला है। यहां रंग बदलते रहने चाहिए। तो ही यहां आकर्षण है। इसकी रचना ही मिटने वाले रंगों से हुई है। अगर रंग ठहरे ही रहें, ठहरे ही रहें, तो कौन देखेगा उन्हें? लोग उदास हो जाएंगे; लोग बोर हो जाएंगे। इसलिए हर चीज बदलती हुई है। प्रतिपल बदलती हुई है। सब क्षणभंगुर है, परिवर्तनशील है।
मिला जवाब: तस्वीरखाना है दुनिया
शबे-दराजे अज्म का फसाना है दुनिया
हुई है रंगे-तगय्युले से नमूद इसकी
हसीं वही है, हकीकत है जवाल जिसकी
मिट जाने वाला जो है, वही यहां सौंदर्य मालूम होता है, वही यहां सौंदर्य है। जितनी जल्दी मिट जाने वाला है, उतना ज्यादा सुंदर मालूम होता है। उतना ही जल्दी लोग उसे पकड़ रखना चाहते हैं; उतना ही ठहरा लेना चाहते हैं। ठहरता नहीं, इसलिए। इसलिए लोग यहां उन चीजों में उत्सुक होते हैं जो जल्दी बदल जाने वाली हैं।
आत्मा में किसकी उत्सुकता है? आत्मा बदलती ही नहीं। तो कहते हैं: आज नहीं कल खोज लेंगे, कल नहीं परसों, इस जन्म नहीं तो अगले जन्म; चौरासी करोड़ योनियां पड़ी हैं, जल्दी क्या है? मगर फिल्म जो आज लगी है उसका क्या ठिकाना, कल रहे न रहे, उसे तो देख आएं। मंदिर तो सदा है, गीता तो कल भी पढ़ लेंगे, अखबार जो आज का है वह कल पुराना पड़ जाएगा। गीता तो कल भी पुरानी है, आज भी पुरानी है--पुरानी ही पुरानी है, वही की वही है।
लोग सुबह से अखबार पढ़ते हैं, गीता और कुरान नहीं। अखबार को जल्दी पढ़ लेना चाहते हैं। क्यों? दोपहर होते-होते तो कचरा हो जाएगा। दोपहर को तो दोपहर के संस्करण आ जाएंगे। सांझ को सांझ के संस्करण आ जाएंगे। इतनी जल्दी बदल जाने वाली चीज है कि पढ़ लो तो पढ़ लो, नहीं तो चूक गए। गीता में क्या जल्दी है? है, आज नहीं कल, कल नहीं परसों।
हसीं वही है, हकीकत है जवाल जिसकी
सौंदर्य के लिए लोग इसीलिए तो इतने दीवाने हैं। सपनों के लिए लोग इसीलिए इतने पागल हैं।
कहीं करीब था, ये गुफ्तगू ‘कमर’ ने सुनी
चांद ने यह बात सुन ली--सौंदर्य जब परमात्मा से पूछ रहा था। रहा होगा कहीं करीब।
फलक पर आम हुई, अख्तरे-सहर ने सुनी
चांद ने सुनी तो सारे आकाश को खबर कर दी। आकाश के द्वारा सूर्य की पहली किरणों को पता चल गई।
फलक पर आम हुई, अख्तरे-सहर ने सुनी
सितारे ने सुन कर सुनाई शबनम को
तारों को पता चला तो तारे जाते-जाते ओस की बूंदों को कह गए कि सुन लो, यहां वही सुंदर है जो सदा नहीं। इसीलिए तो ओस की बूंद इतनी सुंदर मालूम पड़ती है। अभी है, अभी गई। जरा सी सूरज की किरणें आईं, धूप पड़ी, ओस की बूंद उड़ गई। महावीर ने तो जीवन को कहा ही है: घास की पत्ती पर टिकी हुई ओस की बूंद। जरा हवा का झोंका आया, यह सरका, वह सरका, देर नहीं लगती।
इसीलिए तो हम जीवन को इतने जोर से पकड़ते हैं। लाख हमसे कहते हैं बुद्धपुरुष: भीतर जाओ। हम कहते हैं: जाएंगे, लेकिन बाहर का सारा खेल-तमाशा तो देख लें। यहां एक से एक चमत्कार हो रहे हैं बाहर, एक से एक खिलौने ईजाद किए जा रहे हैं। और भीतर की दुनिया तो सदा वही है, इतनी जल्दी क्या है वहां जाने की? बुढ़ापे में देखेंगे, मरते वक्त देखेंगे; पहले यह सारी रंगीन दुनिया पहचान लें।
इसीलिए हिंदुओं ने तो व्यवस्था कर रखी थी कि संन्यास लेना ही चौथी अवस्था में, पचहत्तर साल के बाद। बेटा, न बचोगे, न संन्यास लेना पड़ेगा! झंझट ही मिटी। अब भारत में तो औसत उम्र ही कोई छत्तीस साल है। और वैज्ञानिकों ने बहुत खोज-बीन की है, पांच हजार साल तक की जो लाशें मिली हैं भारत में, जो हड्डियां मिली हैं, उनसे एक अजीब बात सिद्ध होती है कि कोई हड्डी चालीस साल की उम्र से ज्यादा पुरानी नहीं है। मतलब चालीस साल से ज्यादा कोई आदमी पांच हजार साल पहले जिंदा नहीं रहता था। लाख तुम कहो कि हमारे ऋषि-मुनि बड़ी लंबी आयु वाले होते थे, मगर एक भी हड्डी गवाही नहीं देती। हड्डियां तो चालीस साल की गवाही देती हैं। मगर लंबे लगते रहे होंगे समय, क्योंकि रफ्तार चीजों की धीमी थी। रफ्तार जब धीमी होती है तो चीजें बड़ी लंबी होती हैं। अभी भी देहात में लोग गिनती ही नहीं जानते। तुम किसी से पूछो: कितनी उम्र? तो नहीं बता सकते वे। चालीस साल भी बहुत लंबे मालूम होते होंगे। और यहां जिंदगी की रफ्तार इतनी बढ़ गई है तेजी से कि यहां चालीस साल तो आनन-फानन चले जाते हैं।
पश्चिम में तो और तेजी से भाग-दौड़ है। तो चीजें और जल्दी बदल जाती हैं। कोई आदमी तीन साल से ज्यादा एक मकान में पश्चिम में नहीं रहता। न तीन साल से ज्यादा एक नौकरी में टिकता है। न कोई शादी तीन साल से ज्यादा टिकती है। तीन साल आखिरी सीमा मालूम पड़ती है बर्दाश्त की। एक-एक आदमी जिंदगी में आठ-आठ, दस-दस शादियां कर लेता है।
एक हॉलीवुड की अभिनेत्री के बाबत तो पता चला कि जब उसने इक्कीसवीं शादी की, तो शादी के चौथे दिन बाद पता चला कि यह आदमी एक बार पहले भी उसका पति रह चुका है। अब इक्कीस पति रह चुके, कौन ठिकाना रखेगा! जमाना बीत चुका होगा जब कभी यह पति रहा होगा। वर्षों बीत गए होंगे। हो सकता है, बीस-पच्चीस साल पहले रहा होगा। अब बीस-पच्चीस साल पहले की किसको याद! इस बीच कितना गंगा का पानी बह गया! यह तो तीन-चार दिन बाद कुछ-कुछ शक उसे हुआ कि यह आदमी तो कुछ जाना-पहचाना लगता है। जैसे किसी जन्म में, किसी अतीत काल में कोई परिचय रहा हो। जैसे जाति-स्मरण हुआ हो। दे जा वू। शायद, इसको कभी देखा है, कहीं देखा है!
उस आदमी को भी थोड़ा शक हुआ कि यह औरत यूं तो बहुत बदल गई, मगर कुछ-कुछ पहचानी मालूम पड़ती है। नाम भी सुना हुआ मालूम पड़ता है। दोनों ने अपनी कथा-व्यथा कही, तब पता चला कि ये तो पहले भी पति-पत्नी रह चुके हैं। सिर ठोक लिया। वहीं समाप्त हो गई बात। समाप्त होने में देर नहीं लगती। जरा सी बात में समाप्त हो सकती है।
एक दूसरी घटना मैंने सुनी है कि एक अभिनेत्री और एक अभिनेता विवाह रजिस्टर करने वाले दफ्तर में गए और दस्तखत कर रहे थे कि दस्तखत करने के बाद ही अभिनेत्री ने कहा कि मुझे तलाक देना है। दस्तखत किए हैं रजिस्टर में अभी, अभी स्याही भी नहीं सूखी और विवाह सूख गया। कि मुझे तलाक देना है। वह मजिस्ट्रेट भी बहुत चौंका। उसने बहुत तलाक देखे थे जिंदगी में, मगर इतने आनन-फानन! अभी सुहागरात भी नहीं हुई। अभी कुछ हुआ ही नहीं; सुहागरात तो दूर, अभी गले भी नहीं मिले, हाथ भी नहीं मिलाया; अभी आलिंगन-चुंबन कुछ भी नहीं हुआ; अभी तो सिर्फ रजिस्टर में दस्तखत हुए हैं।
उसने पूछा कि मैं थोड़ा हैरान हूं, अगर ऐसा ही तलाक करना था तो विवाह किसलिए किया? क्या कारण है तलाक की इतनी जल्दी का? उस स्त्री ने कहा: नहीं, यह आदमी मुझे जंचता ही नहीं; इससे मेरी टिकेगी नहीं, एक दिन नहीं टिकेगी। फिर भी, उसने कहा: मैं कारण तो सुन लूं; तलाक लेना हो तो लो, लेकिन कारण क्या है? उसने कहा: कारण यह है कि देखो, दस्तखत देखो इसके। इतने बड़े-बड़े अक्षरों में किए हैं! और मैंने इतने छोटे-छोटे अक्षरों में। यह अभी से अपनी हेंकड़ दिखा रहा है। यह नहीं चलेगा, यह हेंकड़पन नहीं चलेगा! यह बात शुरू हो, इसके पहले ही बंद कर देना बेहतर है। इसने जान कर यह हरकत की है।
और जरूर, जब देखा मजिस्ट्रेट ने तो वह भी हैरान हुआ। हस्ताक्षर क्या किए थे, उसने पूरा पन्ना भर दिया था। इतने बड़े-बड़े अक्षर बनाए थे कि पहली कक्षा का विद्यार्थी भी इतने बड़े-बड़े अक्षर नहीं लिखता। टक्कर शुरू हो गई अहंकारों की।
यहां हमारी उत्सुकता भाग-दौड़ के जीवन में है। और उसका कारण ही कुल इतना है कि मन आकर्षित ही होता है परिवर्तन में।
सितारे ने सुन कर सुनाई शबनम को
फलक की बात कह दी जमीं के महरम को
और ओस की बूंद ने आकाश का जो रहस्य था, वह जमीन को बता दिया। यूं बात फैलती गई, फैलती गई।
भर आए फूल के आंसू पयामे शबनम से
संदेश जो सुना शबनम का--कह तो रही थी जमीन से, लेकिन फूल ने सुन लिया, उसकी आंखों में आंसू भर आए।
नन्हा-सा दिल खूं हो गया कली का गम से
रोता हुआ चमन से मौसमे बहार गया
और जब वसंत ने सुना, मधुमास ने सुना, तो आया तो था हंसते हुए...
रोता हुआ चमन से मौसमे बहार गया
शबाब सैर को निकला था, सोगवार गया
...आए तो थे मस्ती को, यौवन का आनंद मनाने, लेकिन गए उदास। यूं सभी को जाना पड़ता है।
दीपक शर्मा, सपनों में जीओगे, क्षणभंगुर में जीओगे, तो फिर आंसू ही आंसू हाथ लगेंगे। फिर मोती हाथ नहीं लग सकते। मोती चाहिए तो जीवन में एक रूपांतरण करना होगा। उसकी पूरी शैली बदलनी होगी।
मुझसे अगर पूछो तो संसार की मैं परिभाषा करता हूं: क्षणभंगुर में जीने वाला मन अर्थात संसार। और शाश्वत में जीने वाला मन अर्थात संन्यास।
तुम कहते हो:
‘ख्वाबों की गमकती कलियां थीं दिलकश रंगीन नजारे थे
कल तक इन सूनी आंखों में शबनम थी चांद-सितारे थे
पर अब हमको मालूम नहीं हम किस दुनिया में रहते हैं।’
अभी भी हो। अभी भी देर नहीं हो गई। सुबह का भूला भी सांझ घर लौट आए तो भूला नहीं कहाता है। और भूल कर ही तो कोई आता है! भूल कर ही तो कोई लौटता है! भटक कर ही तो कोई सीखता है! अब भी सीख लो, देर नहीं हो गई है। अब मन से हटो, ध्यान में जगो! अब संसार से रस को खींच लो वापस। बहुत डाला, व्यर्थ गया; अब इस रस को अपने पर बरसाओ। यही ऊर्जा जो बाहर की भाग-दौड़ में लगी है, इसे भीतर की तरफ मोड़ो। थोड़े अंतर्मुखी बनो!
तीन सीढ़ियां हैं: बहिर्मुखता, अंतर्मुखता और अतिक्रमण। जो बहिर्मुखी है, उसे पहले अंतर्मुखी होना होता है। संसार से संन्यास; मन से ध्यान। और जब ध्यान आ जाए, संन्यास आ जाए, तो उसके भी पार जाना है। वहां भी रुक नहीं जाना है, वह इलाज था। बीमारी चली गई, तब तक औषधि का उपयोग है; जिस दिन बीमारी न बची, उस दिन औषधि को ढोने का कोई प्रयोजन नहीं। फिर बोतलें लटकाए हुए मत घूमते फिरना! जब तक मन है तब तक ध्यान का उपयोग है। जब मन गया, तो ध्यान का उपयोग गया।
जिस दिन तुम मन से मुक्त हुए, पहली क्रांति; और जिस दिन तुम ध्यान से भी मुक्त हो गए, उस दिन दूसरी क्रांति। बस, दो ही क्रांतियां हैं। उसके बाद मंदिर के द्वार खुले हैं।
क्या तुम जानते हो कि दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति कौन है? नसरुद्दीन ने अपने दोस्त ढब्बू जी से पूछा।
जवाब मिला--नहीं।
यह सुन कर मुल्ला ने कहा: तुम वाकई में बिलकुल ढब्बू ही हो। जोरू के गुलाम जो ठहरे। दिन भर घर में घुसे रहते हो, दुनिया की कुछ खोज-खबर नहीं। चूड़ियां क्यों नहीं पहन लेते, नामर्द! क्या तुम्हें पता है कि जिमी कार्टर कहां का प्रेसीडेंट है?
ढब्बू जी कुछ समझे नहीं, हड़बड़ा कर बोले: प्रेसीडेंट को कहां काट खाया?
नसरुद्दीन ने अपना सिर ठोक लिया। इसका मतलब यह कि तुमने जिमी कार्टर का नाम भी कभी सुना नहीं। हद हो गई। अच्छा यही बता दो कि अपने शहर के रोटरी क्लब का अध्यक्ष कौन है?’
ढब्बू जी बेचारे चुप रह गए।
मुल्ला ने डांटते हुए कहा: शर्म आनी चाहिए। यार, जरा सुबह-शाम यहां-वहां घूमते-फिरते क्यों नहीं? घर में घुसे रहते हो दिन भर! क्या जिंदगी ऐसे ही गंवा देनी है? कुछ देखो, कुछ सुनो, कुछ परखो, कुछ पहचानो! अरे, संसार में आए हो, तो कुछ कर जाओ!
ढब्बू जी ने बात बदलते हुए पूछा: क्या तुम सरदार विचित्तरसिंह के संबंध में कुछ जानते हो?
नसरुद्दीन बोला: नहीं तो। क्यों, क्या कोई खास बात है?
ढब्बू जी ने गंभीरता से जवाब दिया: बेटाराम, तुम तो दिन भर यहां-वहां घूमते हो और यह लफंगा दिन भर तुम्हारे घर में घुसा रहता है।
मुल्ला ने तैश में आकर पूछा: ऐसी बात है! उसकी हड्डियां चकनाचूर कर दूंगा। जरा, यह तो बताओ कि इस हरामजादे की शक्ल कैसी है?
ढब्बू जी बोले: शक्ल? अरे, शक्ल और कैसी होगी, बिलकुल तुम्हारे बेटे फजलू से मिलती है।
एक बहिर्मुखी व्यक्ति है जो बाहर-बाहर जिसका भटकाव है, फैलाव है। एक अंतर्मुखी व्यक्तित्व है, जो भीतर सिकुड़ जाता है।
कार्ल गुस्ताव जुंग ने दो ही तरह के व्यक्ति माने हैं: बहिर्मुखी और अंतर्मुखी। एक तीसरे तरह का व्यक्ति है जो दोनों नहीं है। जो दोनों के पार है। जो आंख खोलता है तो बाहर देखता है, आंख बंद करता है तो भीतर देखता है। लेकिन ऐसे किसी से बंधा नहीं है--न बाहर से, न भीतर से।
बहिर्मुखता के कांटे को निकालना हो तो अंतर्मुखता के कांटे से निकालो। और जब दोनों कांटे हाथ में आ जाएं तो दोनों को फेंक देना। नहीं तो खतरा है, कुछ ऐसे नासमझ हैं कि एक कांटे को दूसरे कांटे से निकाल लेंगे तो फिर दूसरे कांटे से उनका इतना मोह हो जाएगा कि यह कितना गजब का कांटा है, इसने पहले कांटे से हमें मुक्ति दिला दी, तो अब इस कांटे को पिछले घाव में रख लें।
बात वही की वही रही। फिर बंध गए।
कुछ लोग संसार से छूट कर संन्यास से बंध जाते हैं। और बंधना नहीं है, मुक्त होना है--संसार से भी, संन्यास से भी। संन्यास तो केवल सेतु है; कांटा है जिससे संसार का कांटा निकाल दो, फिर तुम दोनों से मुक्त होओ, फिर इससे मत बंध जाना।
बुद्ध कहते थे: कुछ मूर्खों ने एक बार नदी नाव में पार की। और फिर नाव को सिर पर लिए बाजार में पहुंच गए। लोगों ने पूछा: यह क्या माजरा है? तुम यह नाव सिर पर क्यों लिए हो? उन्होंने कहा कि हम इसे कभी भी नहीं छोड़ेंगे; अगर यह नाव हमें इस पार न लाती नदी के तो रात हो गई थी, उस पार हमें जंगली जानवर खा जाते। यह इसी नाव की कृपा से हम बचे हैं! यह जीवन अब इसी नाव की सेवा में लगा देंगे।
तो बुद्ध ने कहा: बचे न बचे बराबर है। बुद्धू के बुद्धू रहे! अब जिंदगी इस नाव को ढोते रहोगे!
ध्यान रहे, साधनों को पकड़ मत लेना! उनकी उपयोगिता है, मगर वे साध्य नहीं हैं। और यह भ्रांति हो जाती है बहुत लोगों से। भोग छोड़ा, योग पकड़ा। फिर ऐसा कसके पकड़ते हैं जितना कसके भोग को पकड़ा था। मगर पकड़ नहीं जाती। धन छोड़ देते हैं तो निर्धनता पकड़ लेते हैं।
मगर पकड़ वही पुरानी की पुरानी। संसार से बंधे थे, फिर संन्यास से बंध गए। मगर बंधने में कुछ ऐसी आदत हो गई है कि कुछ न कुछ बंधन चाहिए ही चाहिए। बिना बंधे नहीं रह सकते। फांसी कुछ न कुछ होनी ही चाहिए।
दीपक शर्मा, तुम पूछते हो: ‘कृपा कर पता बताएं।’
पता तो चलेगा अतिक्रमण से। मेरे बताने से नहीं। हां, राह बता देता हूं, राह सुझा देता हूं, चलना तो तुम्हें पड़ेगा। अभी बहिर्मुखी रहे हो। बहिर्मुखता उस जगह ले आई जहां हाथों में आंसू ही आंसू हैं और भीतर उदासी ही उदासी है। अब अंतर्मुखता सीखो; ध्यान सीखो, संन्यास सीखो। अब यह नई कला सीखो। मगर स्मरण तुम्हें दिलाना चाहता हूं पुनः-पुनः, उससे भी बंध मत जाना। जब मन से छुटकारा हो जाए तो ध्यान को भी धन्यवाद देना, अलविदा कहना। जब ध्यान की भी जरूरत न रह जाए, तभी जानना कि आत्मनिष्ठ हुए, समाधि में प्रवेश हुआ।
समाधि में ध्यान की भी आवश्यकता नहीं रह जाती। समाधिस्थ व्यक्ति ध्यान नहीं करता। करने का कोई सवाल नहीं, बात खत्म हो गई। न मन रहा, न मन को मिटाने का उपाय करने का प्रयोजन रहा। जब समाधि है, तब पता चलता है उसका जो शाश्वत है। जो सदा है। जस का तस। ज्यूं का त्यूं ठहराया! और वहीं पहुंच कर जानोगे कौन हो, क्या हो। और इतना ही नहीं कि अपने को जान लोगे, अपने को जाना कि सबको जाना। क्योंकि वह अंतर्तम तो सबका एक है। वहां कोई द्वैत नहीं, वहां तो अद्वैत है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, क्या जीवन भर की आदतों को सरलता से छोड़ा जा सकता है?
हरि कृष्ण! आदत आदत ही है, स्वभाव नहीं। स्वभाव को नहीं छोड़ा जा सकता। आदत पकड़ी जाती है, छोड़ी जा सकती है। और आदत तुम्हें नहीं पकड़ती, तुम्हीं आदत को पकड़ते हो। इसलिए जब चाहो तब छोड़ सकते हो! और ध्यान रहे, आदत सरलता से ही छोड़ी जा सकती है। अगर आदत को कठिनाई से छोड़ा, तो छूटेगी नहीं; पीछे के दरवाजे से वापस आ जाएगी। सिगरेट पीना छोड़ दोगे, हुक्का गुड़गुड़ाओगे। हुक्का गुड़गुड़ाना छोड़ोगे, तंबाकू फांकने लगोगे। तंबाकू छोड़ दोगे तो कुछ और उपद्रव करोगे। उपद्रव से बचना बहुत मुश्किल है।
इसलिए मुश्किल है कि तुम आदत की जड़ में नहीं जाते। आदत को छोड़ने में ज्यादा उत्सुकता लेते हो, समझने में कम। समझ लो तो आदत को छोड़ना सरल है। मगर समझने की फुर्सत किसे है? समझना कौन चाहता है? छोड़ने की फिकर है। और यहां लोग हैं चारों तरफ समझाने वाले, बताने वाले--यह छोड़ो, यह बुरा है, वह बुरा है। तुम जो भी करो, उसको छुड़ाने वाले लोग मिल जाएंगे। तुम्हारा जीना हराम कर देंगे, अगर तुम सारे लोगों की बातें सुनो तो जीना बिलकुल हराम कर देंगे।
मैंने सुना है, एक बाप और बेटा अपने गधे को बेचने बाजार की तरफ गए। रात थी, पूरे चांद की रात थी। दोनों पैदल चले जा रहे थे। कुछ लोग रास्ते पर मिले, उन्होंने कहा: अरे देखो! ये गधे देखो। दो गधे एक गधे को लिए जा रहे हैं; तीनों गधे हैं। बूढ़े ने पूछा: तुम्हारा मतलब? उन्होंने कहा: जब गधा साथ है, तो पैदल क्यों चल रहे हो? इतनी भी अकल नहीं है! बात तो ठीक ही थी, ऐसा लगा दोनों को, सो दोनों गधे पर चढ़ गए।
थोड़ी देर बाद फिर कुछ लोग मिले, उन्होंने कहा: ये गधे देखो! जान ले लेंगे बेचारे की! दो-दो चढ़े बैठे हैं, एक गधे पर! अरे, उतरो, नालायको! शर्म भी नहीं खाते? उस गधे की हालत देख रहे हो? गिरा-गिरा हुआ जा रहा है! मारना है? सो घबड़ा कर दोनों उतर गए। कि भई, ठीक कहते हैं, ये भी ठीक कहते हैं!
थोड़ी देर बाद फिर कुछ लोग मिले। उन्होंने पूछा कि जब गधा साथ है, तो यह बूढ़े आदमी को तो कम से कम बिठाल दो--जवान बेटे को कहा--कि यह बूढ़े को तो न घसीटो! तू तो जवान है, चल सकता है, मगर बूढ़े आदमी को तो गधे पर बिठाल दे। यह बात भी जंची।
थोड़ी दूर आगे फिर कुछ लोग मिले। लोगों की कोई कमी है! तुम न भी मिलना चाहो तो क्या, लोग तो मिलेंगे ही! लोग ही लोग तो भरे हैं चारों तरफ! उन्होंने कहा: यह भी मजा देखो! बाप तो चढ़ा बैठा है और बेचारे बेटे को पैदल चला रहा है! अरे, शर्म भी आनी चाहिए! बुजुर्ग होकर इतनी अक्ल तो होनी चाहिए! बाप घबड़ा कर नीचे उतर गया, बेटे को चढ़ा दिया।
फिर कुछ लोग मिल गए, उन्होंने कहा: यह देखो मजा! आ गया कलियुग! बेटा चढ़ा बैठा है, बूढ़ा बाप पैदल चल रहा है! अरे हरामजादे, बूढ़े को पैदल घसीट रहा है और खुद चढ़ा बैठा है गधे पर! शर्म नहीं आती! चुल्लू भर पानी में डूब मर।
घबड़ा कर बेटा उतर गया।
उन्होंने सोचा, अब करना क्या है? मतलब सब जो किया जा सकता था, कर चुके। अब तो एक ही उपाय बचा, उन दोनों ने सोचा कि अब हम दोनों गधे को ढोएं। और तो कुछ बचा नहीं करने को। और तो सब गणित हो चुके।
सो उन्होंने एक डंडे में गधे को बांधा, उलटा लटकाया--और गधा तड़फड़ाए, क्योंकि गधा जिंदा; कोई मरा गधा तो है नहीं कि तुम उसको ऐसा उलटा-लटका कर... और गधा फड़फड़ाए और चिल्लाए! मगर वे भी हिम्मतवर लोग थे, उन्होंने कहा कि अब कोई बुद्धू थोड़े ही बनना है। इतने लोग मिले, जितने मिले सभी ने कुछ ना कुछ समझाया, ठीक ही बताया--अरे, सब हितेच्छु ही थे! और गधा फड़फड़ाए और रेंके! सो भीड़ इकट्ठी हो गई, भीड़ चलने लगी हंसती हुई कि यह भी एक खूब मजा है! दुनिया में बहुत तरह के लोग देखे मगर... आदमियों को गधों पर सवार देखा, गधों को आदमी पर सवार देखा नहीं! यह पहला ही चमत्कार हो रहा है!
मगर अब लड़के और बाप ने भी कहा कि अब कब तक ऐसे ही सुनते रहेंगे! अब तो कुछ बचा ही नहीं करने को। अब यही एक आखिरी काम था, सो करके दिखा दें।
एक पुल पर से गुजर रहे थे--और भीड़ इतनी इकट्ठी हो गई और लड़के शोरगुल मचाने लगे और हू-हल्ला इतना मचा और गधा ऐसा तड़पा और फड़का कि वह नदी में गिर गया। वह मर ही गया बेचारा!
गए थे बेचने, खाली हाथ घर लौट आए!
तुम अगर लोगों की सुनोगे तो हर तरह की सलाह देने वाले लोग मिल जाएंगे। अगर आलू खाते हो, कोई मिल जाएगा--आलू मत खाना! क्यों भाई? आलू खाना पाप है, आलू खाए कि नरक गए!
जैन आलू नहीं खाते। या जो भ्रष्ट हो गए हैं, वे खाते हों तो बात अलग है। उनको धर्म का कुछ पता नहीं। जो चीज जमीन के नीचे पैदा होती है, जिसको सूरज की रोशनी नहीं मिलती, उसको खाने से तमस बढ़ेगा। बात तो बड़ी गजब की है! अंधेरे में पैदा होगी, अंधेरा भरा होगा भीतर उसके। खाओ, तामसी हो जाओगे! अब मारे गए, आलू चिप्स भी नहीं खा सकते! खाओ आलू चिप्स! सड़ोगे नरक में! फिर एक-एक चिप्स का बदला चुकाना पड़ेगा! ऐसा ही छील-छील कर चिपें निकाली जाएंगी और वहां कड़ाहों में च़ुढाए जाओगे, कि और खाओ बेटा आलू चिप्स! अरे, जरा अपनी जबान पर कुछ काबू करो! जिह्वा पर वश करो! जैन मुनि समझाते हैं: जिह्वा पर वश करो! क्या आलू में उलझे हो!
और अभी अखबारों में खबरें आ रही हैं कि जो आलू खाता है, उसको पेट का कैंसर नहीं होता। अब बड़ी मुश्किल हो गई। आलू न खाया, पेट का कैंसर हो जाए। मरोगे पेट के कैंसर से। नरक वगैरह तो होगा जब होगा, मगर पेट का कैंसर हो जाएगा अगर आलू नहीं खाया। अब जरा सोचना पड़ेगा, करना क्या? नरक में मरना कि कैंसर में सड़ना? और नरक है कि नहीं, पता नहीं? और होगा भी तो इतनी भीड़ होगी वहां कि तुमको जगह कहां मिलेगी? क्यू में खड़े रहोगे जन्मों तक तो। और भीतर भी प्रवेश पा लिया तो भी कड़ाहे कितने होंगे, वे भी कभी के कम पड़ चुके होंगे। कितने अनंत लोग पैदा हो चुके और आलू खा चुके और नरक जा चुके! तुम्हारी क्या गणना होगी!
उमर खय्याम ने कहा है कि इतने-इतने बड़े पापी हो गए कि मुझ गरीब को वहां पूछेगा कौन? अरे, यही कोई छोटे-मोटे पाप-गुनाह किए, हम गरीबों की कहां कदर होगी! हमें कौन पूछेगा? वहां नादिरशाह, तैमूरलंग, चंगीज खां, एक से एक पहुंचे हुए पुरुष बैठे हैं, एडोल्फ हिटलर, जोसेफ स्टैलिन, वे लोग आगे खड़े होंगे--झंडा ऊंचा रहे हमारा!--तुम्हें कौन पूछेगा? तुम घुमाते रहना अपनी लंगोटी, मगर कोई पूछेगा नहीं! तुम खूब चिल्लाना जिंदाबाद इत्यादि, मगर कोई नहीं पूछेगा! तुमको डांट कर लोग कह देंगे: तुम चुप रहो। बाहर बैठो! भीतर न आओ! यहां बड़े-बड़ों की तो पहुंच नहीं है, तुम कहां घुसे आ रहे हो! तुम कहोगे: भई, मैंने आलू खाए थे! तुम बाहर रहो! कुल जमा आलू खाए और बड़े पहुंचे हुए हो गए! यहां ये दादा इदी अमीन, आदमी खा गए हैं, वे बैठे हैं!
इदी अमीन कहते हैं कि आदमी के मांस से ज्यादा स्वादिष्ट कोई भोजन ही नहीं है। और जब इदी अमीन भागे युगांडा से तो उनके रेफ्रिजरेटर में छोटे बच्चों का मांस मिला। कई बच्चों का मांस, फ्रीज किया हुआ रखा था। अब कहते हैं तो अनुभवी हैं वे, अब अनुभवियों से कौन झंझट मोल ले, कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे, क्योंकि मैंने तो कभी चखा नहीं। इसलिए अब कुछ कह भी नहीं सकते। वे कहते हैं कि इससे स्वादिष्ट कोई भोजन ही नहीं है।
युगांडा में बच्चे नदारद हो जाते थे, जब तक इदी अमीन हुकूमत में रहे। और लोग सोचते थे कि कौन ले जाता है? शैतान, चोर, बदमाश? थे राष्ट्रपति।
राष्ट्रपतियों की कुछ न पूछो।
क्या-क्या आदमी पड़े हैं दुनिया में! अफ्रीका में अभी भी ऐसी जातियां हैं जो आदमी को खाती हैं। और मानती हैं कि आदमी के मांस से स्वादिष्ट कोई मांस नहीं होता। सच तो यह है कि दुनिया के अनेक बड़े होटल हैं, जहां आदमी का मांस चलता है। बच्चे चोरी जाते हैं। छोटे बच्चों का मांस ज्यादा स्वादिष्ट होता है। ये जो बच्चे चोरी चले जाते हैं, ये कहां खो जाते हैं? ये फाइव स्टार होटलों में खो जाते हैं। और तुम्हें शायद पता भी न हो कि तुम जो मांसाहार कर रहे हो, वह किसका कर रहे हो? अब ऐसे पहुंचे हुए पुरुषों के सामने तुम अपना बटाटा बड़ा, कि हम बटाटा बड़ा खाते रहे! तो खाते रहे खाते रहे! जाओ और खाओ दस-पच्चीस जन्म, फिर आना!
मगर लोग हैं कि किसी भी चीज के पीछे पड़े हैं। कोई तंबाकू चबा रहा है, वह सोचता है कि मारे गए, पाप कर रहे हैं। क्या खाक पाप कर रहे हो! तंबाकू न चबाओगे, बकवास करोगे। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं: तंबाकू चबाना, पान चबाना, सुपारी चबाना, अमरीका में च्यूइंगम--गाद को ही चबा रहे हैं! इसके पीछे कुछ राज है। यह इतना चबान जो चलती है दुनिया में--चर्वण--इसके पीछे कुछ कारण है। और उसका कारण यह है कि अगर नहीं चबाओगे तो फिर बातचीत करनी पड़ेगी। मुंह चलेगा। मुंह चलना ही चाहिए। इससे तो बेहतर है, भैया, तंबाकू ही चबाओ, नहीं तो किसी की खोपड़ी खाओगे।
लोग अपना बैठे हैं, तंबाकू बना रहे हैं, कुछ समय उसमें निकला; कुछ चबाने में निकला, कुछ पिचकारी चलाने में निकला।
मैं भोपाल में एक वकील के घर मेहमान था, दीवाल पर तख्ती लगी देखी कि फर्श पर थूकना मना है। मैंने कहा: मामला क्या है, कोई फर्श पर थूकेगा ही क्यों? अरे, उन्होंने कहा: आप भी क्या बातें कर रहे हैं? यह भोपाल है! यहां तो लोग कहीं भी पिचकारी चला देते हैं। वे देखते ही नहीं कि फर्श है, कि फर्श बिछा है।
मैंने कहा कि तुमने कहानी सुनी है एक प्रसिद्ध दार्शनिक की। कि वह एक घर में गया जहां लिखा हुआ था--फर्श पर थूकना मना है। सो उसने निशाना लगा कर ऊपर छप्पर पर थूक दिया। अब क्या करो, जब फर्श पर थूकना मना है, तो छप्पर पर थूका। सो छप्पर पर भी गया, दीवारों पर भी गया, फर्श पर भी आया। उसने कहा: मेरा कसूर नहीं है इसमें। अब अगर छप्पर से फर्श पर आए, तो खुदा मालिक। अरे, जब देता है तो छप्पर फोड़ कर देता है, उसमें कोई क्या कर सकता है?
आदतें क्या हैं तुम्हारी, हरि कृष्ण?
तुम पूछते हो कि ‘क्या जीवन भर की आदतों को सरलता से छोड़ा जा सकता है?’
पहले तो पक्का होना चाहिए कि आदत क्या है तुम्हारी? सौ में निन्यानबे आदतें तो बिलकुल ही निर्दोष हैं। जिनको नाहक साधुओं ने, महात्माओं ने शोरगुल मचा रखा है। कोई चाय पी रहा है, वह बेचारा समझ रहा है कि बड़ा पाप कर रहे हैं। क्या खाक पाप कर रहे हो! अपनी चाय की चुस्कियां ले रहे हो, किसी का कुछ बिगाड़ रहो हो? और वह बिलकुल शाकाहारी है चाय। इसमें कुछ हर्जा नहीं, जरा भी। थोड़ा सा निकोटिन है इसमें, उसमें भी कोई पाप नहीं। थोड़ा शरीर में गर्मी आ जाती है, थोड़ा जोश आ जाता है, सो कुछ बुराई नहीं है, थोड़ा जोश रहे तो कुछ अच्छा ही है; थोड़ा काम-धाम में तबीयत लगती है। मगर नहीं, महात्मा गांधी के आश्रम में चाय पाप थी--सिर्फ एक व्यक्ति को छोड़ कर, राजा जी को भर चाय पीने का हक था। क्योंकि वह समधी थे। अब समधी पर तो नियम लागू हो नहीं सकते। समधी के साथ तो समधियाना निभाना पड़ता है। सो उनके लिए छुट्टी थी। बाकी सबके लिए चाय पाप थी।
एक दफा एक युवक पकड़ लिया गया चाय पीते--छिप कर बना रहा होगा चाय--आश्रम में वह भद्द उड़ी। गांधी जी ने तीन दिन का उपवास कर दिया। आत्मशुद्धि के लिए। वह चाय पीए, ये आत्मशुद्धि करें! मगर यह उनकी तरकीब थी लोगों को सताने की, यह हिंसा का ढंग था उनका। इसको मैं अहिंसा नहीं मानता, हिंसा मानता हूं। यह भी खूब हुआ सताने का ढंग कि उस आदमी को अब तुमने बुरी तरह और बेइज्जत किया। अब सारा आश्रम उसकी लानत-मलामत कर रहा है कि अरे दुष्ट, अरे पापी, महापापी, चाय के पीछे तूने बेचारे महात्मा जी को तीन दिन का उपवास करवा दिया। अब वह ग्लानि में मरा जा रहा है। वह रो रहा है, महात्मा जी के पैर पकड़ रहा है कि आप कृपा करें, अब कभी नहीं पीऊंगा--कभी! अरे, इस जन्म में क्या किसी जन्म में नहीं पीऊंगा चाय। आप मगर उपवास तोड़ दें। मगर वे! कि नहीं, मैं तेरे लिए थोड़े ही कर रहा हूं, मैं तो अपनी आत्मशुद्धि के लिए कर रहा हूं। तो आप अपनी आत्मशुद्धि के लिए क्यों कर रहे हैं, चाय तो मैंने पी है? तो इसलिए कर रहा हूं कि अगर मैं सच्चा गुरु होता, तो कैसे मेरा कोई शिष्य चाय पी सकता था?... गजब! तो मैं तो अपनी आत्मशुद्धि कर रहा हूं। तेरा इससे कुछ मामला नहीं।
यह सताने की तो खूब तरकीब रही। अहिंसा के नाम पर बड़ी गहन हिंसा हो गई। दूसरा मेरे अनुसार चले, इसकी इतनी प्रबल आकांक्षा ही हिंसा है।
और इसलिए मैं कुछ भेद नहीं देखता, सरहदी गांधी का कल फिर मैंने वक्तव्य देखा। किसी ने पूछा उनसे कि आप क्या कहते हैं, भारत में इतना व्यभिचार हो रहा है, बलात्कार हो रहा है! तो उन्होंने कहा: एक-एक को पकड़ कर गोली मार देनी चाहिए। गोली से उड़ा दो! और कोई भारतीय गांधीवादी नहीं कहेगा कि यह क्या बात कर रहे हो?
मगर मैं इसमें कुछ विरोध नहीं देखता, महात्मा गांधी में और सीमांत गांधी में कुछ विरोध नहीं है। यह आदमी सीधा-साधा है, बस इतना मामला है! इतना तिरछा नहीं है, यह हिंदू नहीं है कि जरा इरछा-तिरछा और तात्विक विश्लेषण में जाए और घूम-फिर कर काम करे। यह पठान है--पख्तून! कि उठाओ लट्ठ, करो फैसला; साफ-सीधा सामना करो; गोली मार दो! वह तो ऊंची बात कर रहा है--गोली मार दो, मगर गोली कौन मारेगा? वह जो गोली मारने वाला है, वही तो बलात्कार कर रहा है। उसको जो गोली मारेगा, वह बलात्कार करेगा। यूं बलात्कार नहीं मिटाया जा सकता गोली मारने से। जिसके हाथ में बंदूक होगी, वह बलात्कार करेगा। जिसके हाथ में बंदूक रही, उसने हमेशा बलात्कार किया। यह कोई नई बात है? कोई आज की बात है?
राजाओं की हजारों रानियां हुआ करती थीं। यह बलात्कार नहीं था तो क्या था? और अतीत में ही नहीं, अभी, आज से पचास साल पहले निजाम हैदराबाद की पांच सौ पत्नियां थीं। सिर्फ पचास साल पहले, इसी सदी में, बीसवीं सदी में पांच सौ रानियां! लोग मुझसे पूछा करते थे कि यह हम मान नहीं सकते कि कृष्ण की सोलह हजार रानियां रही हों। मैं उनसे कहता: क्या अड़चन है? अगर बीसवीं सदी में पांच सौ रानियां हो सकती हैं, तो बत्तीस का ही गुणा करना है, कोई बहुत बड़ा मामला नहीं, पांच हजार साल पहले सोलह हजार हो सकती थीं। जिसके हाथ में लाठी थी उसकी भैंस। अपनी भैंस नहीं, बाकी सबकी भैंसें भी ले आए। अपनी भैंस तो अपनी है ही, उसका कोई सवाल नहीं है, मगर औरों की भैंसें भी छीन लाए।
गोली कौन मारेगा? गोली मारने से कुछ भी होने वाला नहीं है। और यही तुम्हें सिखाया गया है, या तो दूसरे को गोली मारो सुधारने के लिए और या अपने को गोली मारो सुधारने के लिए। समझ की कोई बात नहीं।
आदत? पहले तो यह समझने की फिकर करो--कौन सी आदत? छोटी-मोटी आदतों पर समय ही मत गंवाना। अगर कोई आदमी गोंद चबाता है, चबाने दो! इसमें क्या पाप है! कोई आदमी सिगरेट पीता है, पीने दो। धुआं ही उड़ाता है। एक तरह का प्राणायाम है। थोड़ा नालायक है आदमी और कुछ नहीं, कोई पापी नहीं है; शुद्ध हवा न लेकर धुआं पहले पैदा करता है फिर हवा लेता है। और सच तो यह है, बंबई, न्यूयार्क और लंदन जैसे नगरों में सिगरेट पीना बिलकुल बेकार है--हवा में इतना धुआं वैसे ही अब। कारें और रेल के इंजन और हवाई जहाज और कारखाने इतना धुआं छोड़ रहे हैं कि न्यूयार्क में वैज्ञानिक चकित हैं कि इतना धुआं आदमी पचा कैसे ले रहा है? तो थोड़ा-बहुत तुमने अपने ही भीतर व्यक्तिगत धुआं भी पैदा करके भीतर ले गए, बाहर लाए--कोई हर्जा नहीं!
छोटी-मोटी बातों में पड़ो मत। क्योंकि जिंदगी को छोटी-छोटी बातों में उलझाने से समय ही व्यर्थ होता है। हां, समझने की जरूर कोशिश करो कि क्या कारण होगा कि तुम इस तरह की आदत के गुलाम हो? और अगर समझ आ जाए उसके मूल कारण की, तो एक बड़े रहस्य की बात हाथ लग जाती है: जैसे किसी वृक्ष को उखाड़ लो उसकी जड़ें पकड़ कर, देख लो ठीक से, वृक्ष मर गया। ऐसे ही किसी आदत की जड़ें अगर तुम देख लो, तो उसका निदान पूरा होते-होते ही उसका उपचार भी हो जाता है। और तब सरलता से ही छूट जाती हैं। लेकिन लोग उलटे-सीधे काम करके आदतें छोड़ना चाहते हैं, तो नई आदतें फंस जाएंगी। एक से निकले--कुआं से निकले खाई में गिरे। कठिन तो है, तब कठिन है, बहुत कठिन है।
एक अध्यापक की हुई शादी
सुहागरात को
दुल्हन का घूंघट उठाते ही
उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी--
‘तुम्हारा नाम? चम्पा है या चमेली
कौन-कौन थीं तुम्हारी सहेली?
सहेलियों की और अपनी
सही-सही उम्र बताओ
तुम्हारे कितने भाई-बहन हैं?
कितने छोटे हैं? कितने बड़े हैं?
कौन-कौन घर में बेकार पड़े हैं?
कौन-कौन अपने-अपने पांवों पर खड़े हैं?
जन्म से विवाह तक
देखी हुई फिल्मों के नाम गिनाओ
कौन-सी फिल्म किसके साथ देखी? जोड़े बनाओ
अपने मकान का भूगोल हमें समझाओ
संक्षेप में परिवार का इतिहास भी बताओ...’
सुन करके ये ढेर सारे सवाल
दुल्हन का तो हो गया बुरा हाल
तभी उसका बढ़ाते हुए हौसला
अध्यापक बोला--
‘घबड़ाओ मत, धीरे-धीरे सोच-समझ कर
किन्ही पांच प्रश्नों के दो उत्तर’
पुरानी आदत! वे बेचारे और कुछ जाने ही नहीं तो करें भी क्या? अध्यापक थे सो अध्यापक थे।
मैं अपने गणित के एक अध्यापक को जानता हूं। वे ज्यामिति पढ़ाते थे। उनको छह महीने की सजा हो गई। कुछ दंगा-फसाद हो गया, मार-पीट हो गई--जरा तेज-तर्रार आदमी थे, राजपूत थे, तो लट्ठ मार दिया--छह महीने की सजा हो गई। मुझसे उनका बड़ा लगाव था। आदमी सीधे-साफ थे। सो मैं उन्हें लेने गया, जब वे निकले जेल से सो मैं दरवाजे पर उनका स्वागत करने गया। मैंने उनसे पूछा कि सब ठीक-ठाक तो रहा, और कोई गड़बड़ तो नहीं हुई। उन्होंने कहा: और सब तो ठीक था, लेकिन जिस कोठरी में मुझे रखा उसमें बड़ी बेचैनी रही। मैंने कहा: क्या तकलीफ थी? बहुत छोटी थी? अंधेरा था? उन्होंने कहा: अंधेरा और छोटी-मोटी से मुझे कुछ मतलब नहीं, लेकिन उसके कोने नब्बे के अंश के नहीं थे। इरछे-तिरछे थे। उसने मेरी जान ले ली! छह महीने बस एक ही बात मेरे दिल में खटाखट, मेरी खोपड़ी में खटाखट लगे, कि किस मूरख ने इस कोठरी को बनाया है! अरे, नब्बे का कोण तो नब्बे का होना चाहिए।
वे ज्यामिति के अध्यापक थे, तो उनको वह बात अखरी होगी। मेरी भी समझ में आया कि उनको बहुत कष्ट रहा होगा। उनका बस चलता तो वे ठीक-ठाक कर देते कोठरी को तोड़ कर। मगर वे वहां कुछ कर भी नहीं सकते थे, हथकड़ियां पड़ी हुई थीं, तो और मुश्किल थी। और छह महीने उसी कोठरी में रहना, और दिन-रात वे ही गलत कोने देखना--इरछे-तिरछे--वह उनके बस के बाहर था। मैं जानता था उनको कि अगर उनकी कक्षा में कोई जरा भी ज्यामिति में गड़बड़ करके ले जाए, तो उसमें वे गलत-सही का निशान नहीं लगाते थे, वह एकदम पन्ना ही फाड़ देते थे। राजपूत थे! गलत चीज को वहीं मिटा कर साफ कर देते थे!
मैंने कहा: मैं आपकी तकलीफ समझता हूं। उन्होंने कहा: अंधेरे-वंधेरे की मुझे कोई फिकर नहीं। अरे, अंधेरा कितना ही रहता, मैं गुजार लेता! अंधेरा होता तो अच्छा ही था, बिलकुल दिखाई न पड़ता तो अच्छा था! मगर वे कोने, ऐसे छाती में ठक-ठक! और चौबीस घंटे! आंख खोलो तब! लाख उपाय करो, कहीं भी देखो--चारों कोने गड़बड़ थे। इधर देखो तो यह कोना गड़बड़, उधर देखो तो वह कोना गड़बड़। और कब तक दीवाल ही दीवाल देखते रहो! और दीवाल भी देखते रहो तो पता तो है क्यों दीवाल देख रहे हो! वह कोनों से बचने के लिए देख रहे हो!
कठिन तो होगा।
गाड़ी में यात्रा करते हुए एक महाशय बड़ी देर से अपनी छींक को रोक रहे थे। छींक आने को होती तो वे अजीब शक्ल बना कर उसे रोकते।... अब छींक को रोकना कोई आसान बात नहीं है! कोई महायोगी ही रोक सकता है। ...एक सहयात्री आखिर पूछ ही बैठा: आप यह क्या कर रहे हैं? आखिर आप छींक को रोक क्यों रहे हैं? आ क्यों नहीं जाने देते? कितना कष्ट उठा रहे हैं? कैसा-कैसा चेहरा बना रहे हैं कि मुझे तक डर लगता है, कि पता नहीं अब आगे आप क्या करेंगे? सब तरह के योगासन साध रहे हैं। निकल जाने दो, छींक ही है, क्या खो जाएगा? इसमें कौन सा व्यभिचार हुआ जा रहा है?
उन महाशय ने कहा: आपको पता नहीं। मेरी बीवी का कहना है कि जब भी छींक आए तो समझ लो कि मैंने याद किया है। और तुरंत आपको मेरे पास आ जाना चाहिए।
सहयात्री बोला: आपकी बीवी है कहां?
उन महाशय ने कहा: यह मत पूछो। यह याद मत दिलाओ। कब्र में है।... मर गई है, मगर घबड़ाहट छोड़ गई है। ...छींक तब से मैंने ली ही नहीं जब से बीवी मरी है। क्योंकि वह कहती थी, जब भी छींक आए तो समझ लेना कि मैंने याद किया है, और जहां भी होओ, तत्क्षण मेरे पास आ जाना। प्राण निकल जाएं मगर मैं छींक नहीं लूंगा। पहले प्राण निकलेंगे, फिर छींक निकलेगी।
इस तरह अगर मुसीबत के काम करोगे, तो निश्चित ही बहुत कठिन हो जाएगा।
एक शिकारी ने खूब ऊंचे उड़ते हुए बगुले को गोली से मार गिराया। पास ही खड़े चंदूलाल मारवाड़ी यह देख रहे थे; वे देख कर उस शिकारी से बोले: तुमने यह गोली यूं ही बेकार कर दी।
कैसे? शिकारी का प्रश्न था।
चंदूलाल बोले: अरे, इतनी ऊंचाई से गिर कर तो बगुला अपने आप ही मर गया होता। इसमें गोली क्यों खराब की?
मारवाड़ी बुद्धि! वह अपना हिसाब बिठा रही है! कि नाहक एक गोली खराब हो गई! अरे, इतनी ऊंचाई से तो अपने आप ही मर जाता--गिरता भर! इसमें कौन सा तुमने गजब कर दिया?
मुल्ला नसरुद्दीन एक बार शिकार को गए थे। पत्नी न मानी--क्योंकि पत्नी को भरोसा नहीं था, कि ये शिकार को जा रहे हैं, कि किसी और शिकार को जा रहे हैं? उसने कहा मैं साथ आऊंगी। अरे, मुल्ला ने बहुत कहा कि यह शिकार का मामला है, मेरा ही तो पाजामा ढीला हो जाता है, तू वहां क्या करेगी? मगर पत्नी ने कहा कि वही पाजामा ढीला होने का तो मुझे डर है! कि कहीं और ढीला न हो जाए! तुमने पजामा की बात उठा कर और संदेह पैदा कर दिया! मैं नजर रखूंगी, पाजामा ढीला नहीं होने दूंगी। मैं आती हूं।
अब नहीं मानी बीवी तो ले जाना पड़ा। बीवी को बिठा दिया एक झोपड़े में और खुद बाहर जाकर शिकार करने को निकले। पीछे-पीछे एक आदमी दौड़ते हुआ आया, उसने कहा कि बड़े मियां, कहां जा रहे हो? एक चीता झोपड़े में घुस गया है, तुम्हारी बीवी अकेली है, कुछ करो! नसरुद्दीन ने कहा: भैया, अब मैं क्या कर सकता हूं। अब चीता खुद ही अपने हाथ से मुश्किल में पड़ा है, अब बेटा अपने को बचाए खुद ही! अरे, हमें कौन बचाने आया? जब बीस साल हम फंसे रहे, कोई माई का लाल नहीं आया, तो अब चीता जाने और चीता का भाग्य जाने! अब जो होगा सो होगा।
वह आदमी तो चौंक कर ही खड़ा रह गया। उसकी कुछ समझ में ही न आया कि बात क्या हो रही है!
उसको नसरुद्दीन के अनुभव का पता नहीं कि वह बीवी ऐसी है नसरुद्दीन की कि चीता के छक्के छुड़ा देगी!
आदमी अपने अनुभव से जीता है। तुम अगर पचास साल जी चुके हो, हरि कृष्ण, तो तुम हो क्या? तुम्हारा मन क्या है? पचास साल का संचित अनुभव। तुम्हारी आदतें भी उस अनुभव से निकली हैं। अगर तुम उनको जबर्दस्ती बदलना चाहो, तो मुश्किल होगा। उनकी जड़ें पचास साल के अनुभव में फैली हुई हैं। आज ऊपर-ऊपर अंकुर दिखाई पड़ रहे हैं लेकिन जड़ें तो बहुत गहरी गई हुई हैं। तुम ऊपर से अंकुर काट दोगे, फिर नये अंकुर निकल आएंगे। जड़ें तो मौजूद रहेंगी। इसलिए आदतों को बदलना कठिन मालूम होता है, क्योंकि तुम केवल पत्ते काटते हो, शाखाएं काटते हो और जड़ों का तुम्हें कुछ पता नहीं है।
मेरा तुमसे निवेदन है कि पहली तो बात, छोटी-छोटी आदतों को काटने में पड़ना मत। क्योंकि उनको काट भी लिया तो कुछ बड़ा सार नहीं है। और जीवन में निन्यानबे प्रतिशत तो ऐसी ही छोटी-मोटी आदतें हैं जिनको व्यर्थ ही तुम बढ़ा चढ़ा कर देख रहे हो। और तुम्हारे महात्मागण उन्हीं पर रोज-रोज हमला बोलते रहते हैं। और नाहक तुम्हें परेशान किए हुए हैं। निर्दोष हैं तुम्हारी आदतें। अब अगर तुम्हें भोजन स्वादिष्ट अच्छा लगता है, तो कोई पाप नहीं है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन तुम्हारे महात्मा कहेंगे कि यह बात ठीक नहीं। तुम जिह्वा के गुलाम! नमक छोड़ दो! बिना नमक के भोजन करो! अब बिना नमक के भोजन करोगे, मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि नमक शरीर की जरूरत है। नमक बड़ी अपरिहार्य जरूरत है। वह कोई आदत नहीं है। और जो तुम्हारे महात्मा तुम्हें समझाते हैं कि आदत है, वे गलत समझाते हैं। और जो तुम्हें समझाते हैं कि बिना नमक का भोजन करो, यह महात्याग है, वे मूर्खतापूर्ण बात समझा रहे हैं। तुम्हारे शरीर को नमक की जरूरत है। तुम्हारे शरीर में अस्सी प्रतिशत समुद्र के पानी का ही अंश है और उसमें उतना ही नमक चाहिए जितना समुद्र के पानी में होता है। तो ही तुम स्वस्थ रह सकते हो। अन्यथा नमक के बिना तुम एकदम शिथिल हो जाओगे। नमक के बिना तुम्हारी जीवन-ऊर्जा क्षीण हो जाएगी। तुम्हारी तेजस्विता खो जाएगी।
इसीलिए तो कहा जाता है कि उस आदमी की जिंदगी में बड़ा नमक है। या जीसस का प्रसिद्ध वचन है कि जागे हुए ही इस पृथ्वी के नमक हैं। उसका मतलब, इस मुहावरे का मतलब कि उन्हीं के कारण इस जगत में थोड़ी रौनक है, थोड़ा जीवन है, थोड़ी ऊर्जा है, थोड़ी चमक है, दमक है, थोड़े दीये जलते हैं, थोड़ी रोशनी है।
लेकिन तुम्हारे महात्मा तुम्हें समझा रहे हैं, बेहूदी बातें--नमक छोड़ दो। कोई कहता है, घी छोड़ दो। कोई कहता है, शक्कर मत खाना। कोई कहता है, मिठाई छोड़ दो। ये सब जरूरतें हैं। हां, जरूरत से ज्यादा तुम लेते होओ, तो नुकसान की बातें हैं। तो जरूरत से ज्यादा तो पानी भी पीआगे तो नुकसान की बात है। इसमें कोई नमक और घी और शक्कर का सवाल नहीं है।
होशपूर्वक जीओ, छोड़ा-छाड़ी में मत पड़ो। जो जरूरत है। अब तुम्हारे महात्मागण तुम्हें समझाते हैं कि ज्यादा सोने से तामस बढ़ जाएगा। तो कितने घंटे सोने की आज्ञा है उनकी तरफ से? उनसे पूछो तो वे कहते हैं: कम करते जाओ। बस, दो घंटे सो लिए तो बहुत है। मगर अगर तुम दो घंटे सोओगे तो दिन भर आलस में रहोगे। और तब महात्मा की बात बिलकुल ठीक जंचेगी। वह कहेगा कि तुम तामसी हो। नींद कम करो, और कम करो। और असली कारण यह है कि तुम नींद कम कर रहे हो इसलिए तामस बढ़ रहा है। जवान आदमी को छह और आठ घंटे के बीच सोना ही चाहिए। हां, बूढ़े के लिए, अपने आप नींद कम हो जाती है। चार से पांच घंटे हो जाती है। और बूढ़ा हो गया तो तीन ही घंटे रह जाती है।
बच्चे मां के पेट में चौबीस घंटे सोते हैं। क्या तुम सोचते हो तामसी हैं, इसलिए? चौबीस घंटे सोते हैं, इसीलिए बढ़ते हैं। नौ महीने में जो बढ़ाव होता है, वह फिर जिंदगी में कभी भी नहीं होगा। बढ़ने के लिए नींद जरूरी है। फिर पैदा होने के बाद तेईस घंटे सोएंगे, बाईस घंटे सोएंगे, बीस घंटे सोएंगे, अट्ठारह घंटे सोएंगे। धीरे-धीरे नींद अपने आप कम होती जाएगी। जितनी जरूरत है, उतनी रह जाएगी।
न कम सोओ, न ज्यादा सोओ, तब तुम्हारे जीवन में संतुलन होगा।
और कोई दूसरा तय नहीं कर सकता कि कितना सोओ। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत अलग होगी। जो आदमी मजदूरी कर रहा है, उसको ज्यादा नींद की जरूरत पड़ेगी। और जो आदमी टेबल-कुर्सी पर बैठ कर काम कर रहा है, उसको कम नींद की जरूरत पड़ेगी। बुद्धिजीवियों को कम नींद की जरूरत पड़ेगी, श्रमजीवियों को ज्यादा नींद की जरूरत पड़ेगी।
फिर प्रत्येक के शरीर पर निर्भर होगा। क्योंकि जितना ज्यादा भोजन तुम्हारा शरीर पचाएगा, उतनी ही ज्यादा नींद की जरूरत पड़ेगी। जितना तुम्हारे लिए कम भोजन शरीर पचा सकता है, उतनी ही कम नींद की जरूरत पड़ेगी। भोजन के अनुसार नींद में फर्क पड़ता जाएगा। श्रम, भोजन, तुम्हारे जीवन का कार्य।
अब तुम्हारे महात्मागण अगर कम सोते हों, तो उसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। काम ही कुछ नहीं करेंगे तो नींद कम अपने आप हो जाएगी। इसमें कुछ महात्मापन नहीं है।
अपने जीवन के निर्णायक तुम खुद होओ, दूसरों की सलाहों पर मत चलना। इसलिए मुझे पता नहीं कि तुम किन आदतों की बातें कर रहे हो, इतना तुमसे कह सकता हूं कि निन्यानबे प्रतिशत आदतें तो तुम्हारी निर्दोष हैं, उनके लिए नाहक परेशानी में मत पड़ना। हां, एक प्रतिशत आदत ऐसी हो सकती है जो कि छोड़ने जैसी हो। जैसे कोई मांसाहार करता हो। यह घातक है। किसी के जीवन का अंत करना, सिर्फ भोजन के लिए, जब कि सुस्वादु भोजन उपलब्ध हैं--स्वादिष्ट फल उपलब्ध हैं, सब्जियां उपलब्ध हैं, मेवे उपलब्ध हैं--तब क्यों किसी का जीवन नष्ट करना? और जीवन जैसा तुम्हें प्यारा है, किसी और को भी प्यारा है।
तो ऐसी कोई आदत हो तो जरूर छोड़नी चाहिए। मगर वह भी छोड़नी चाहिए समझ से। जबर्दस्ती नहीं, चेष्टा से नहीं, बोध से। इसलिए मेरा जोर उसको भी छोड़ने पर कम है, समझने पर ज्यादा है।
यह मेरा अनुभव है कि जो व्यक्ति ध्यान में शांति को उपलब्ध होने लगता है, उसका मांसाहार अपने आप छूटने लगता है। यहां तो मेरे संन्यासियों में अधिक मांसाहारी परिवारों से आए हुए लोग हैं, सारी दुनिया से आए हैं, सारी दुनिया मांसाहारी है, लेकिन यहां आकर अचानक धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता--और मैं कहता नहीं उनसे, कोई जबर्दस्ती नहीं है कि उनको छोड़ना ही है--लेकिन जैसे-जैसे ध्यान की गहराई उतरनी शुरू होती है, उनको खुद ही यह बात दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है--अपने आप! मांसाहार असंभव हो जाता है। समझ क्रांति लाती है। बोध ही एकमात्र सच्ची क्रांति है। बोध के कारण तुम्हारा स्वभाव प्रकट होता है और आदतें अपने आप टूट जाती हैं।
ऊपर से मत थोपना। आदत आचरण नहीं है। आचरण मत बनाना तुम धर्म को, धर्म को ध्यान से जोड़ना। और फिर उसके कारण तुम्हारे जीवन में जो रूपांतरण हो जाएं, वे सुखद हैं।
तुम्हारी दृष्टि बदलेगी, तो सृष्टि बदल जाती है।
एक आदमी बीमा एजेंट से बोला: मान लीजिए मैं अपनी पत्नी के नाम से बीस हजार रुपये की पालिसी लेता हूं और कल वह मर जाती है, तो उसके बाद मुझे क्या मिलेगा?
बीमा एजेंट ने कहा: कह नहीं सकते साहब, यह जज पर निर्भर करता है, कि वह फांसी दे या उम्र-कैद।
अब आज ही पॉलिसी करवा रहे हैं बीस हजार रुपये की और विचार कर रहे हैं कि कल अगर मर जाए तो क्या मिलेगा? जीवन बीमा करवा रहे हैं और कल ही मरने का हिसाब लगा रहे हैं।
लोगों के भीतर हिंसा पड़ी हुई है। फिर तुम मांसाहार न भी करो तो भी क्या होता है? तुम बिना मांसाहार किए भी लोगों का खून पी जाओगे। आखिर जैन इस देश में हैं, शाकाहारी हैं, मगर जितना धन शोषण करने में वे कुशल हैं, कोई भी नहीं। पानी छान-छान कर पीते हैं, खून बिना छाने पी जाते हैं। रात भोजन नहीं करते, शुद्ध भोजन करते हैं, लेकिन आदमी की गर्दन उनके हाथ में आ जाए, तो बस खात्मा है। फिर वह बच नहीं सकेगा। एक दफा उनके चक्कर में पड़ गया कोई तो फिर चक्रवृद्धि ब्याज उस पर बैठता ही जाएगा। फिर वह चक्कर खत्म होने वाला नहीं, वह आदमी भला खत्म हो जाए। उसकी पीढ़ी दर पीढ़ी तक भुगतेंगी। और बड़े प्रेम से यह सारा व्यवहार चलेगा। और ‘अहिंसा परमो धर्मः’ की तख्ती दुकान पर लगी रहेगी और ब्याज का धंधा होगा।
तुम ऊपर से कुछ छोड़ दो, इससे फर्क नहीं पड़ने वाला। महावीर ने कहा: हिंसा छोड़ दो। तो छोड़ दी लोगों ने हिंसा। इतनी छोड़ दी कि जैनों को कोई उपाय ही न रहा। क्षत्रिय हो नहीं सकते, क्योंकि उसमें तलवार उठानी पड़ती है। और शूद्र तो कोई होना ही नहीं चाहता, क्योंकि कौन पाखाना ढोएगा! किसान भी नहीं हो सकते थे वे, क्योंकि उसमें हिंसा होती है, वृक्ष काटने पड़ेंगे--वृक्षों में जीवन है। महावीर ने कहा: पौधे उखाड़ोगे, वृक्ष काटोगे, इतने जीवन की हत्या होगी--नरक जाओगे! तो फिर जैनों के लिए सिवाय व्यवसाय के कुछ भी न बचा। जैन अनिवार्यरूपेण वणिक हो गए, बनिया हो गए। हो ही जाना पड़ा उनको। मगर उनकी सारी हिंसा उनकी बनियागिरी में उतर आई। इसलिए उनके शोषण का पंजा सबसे ज्यादा मजबूत हो गया। इस देश में उनकी संख्या कम है, लेकिन धन की तादाद उन पर काफी।
इसलिए मैं तुमसे ऊपर से बदलने को नहीं कहता। मैं कहता हूं: किसी आदत को अगर तुम देखो कि उसमें गलती है, पाप है, तो उसकी जड़ में जाना, समझने की कोशिश करना! और ध्यान में उतरो!
पतिदेव ने कहा: प्रिये, देखो न मैं तुम्हारे लिए कितनी बढ़िया चीज लाया हूं!
पत्नी: बस, बस, बढ़िया-घटिया के चक्कर में ही सारी उम्र बहकाते रहोगे या कभी सोने की चीज भी लाओगे? पत्नी ने तुनक कर जवाब दिया।
सोने पर नजर लगी है। क्या बढ़िया-घटिया लगा रखा है? सोना महत्वपूर्ण है।
सोना इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया? ताकत लाता है। बल देता है। लगता है मैं भी कुछ हूं। तलवार का काम कर देता है बिना तलवार के। ताकत का काम कर देता है बिना ताकत के।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसके बेटे, दोनों ने एक नाले पर छलांग लगाई। मुल्ला तो पार कर गया--बूढ़ा, और बेटा बीच नाले में गिर गया।
बेटे ने कहा कि पापा, हद हो गई! आप बूढ़े हैं, छलांग लगा गए! मैं तो यह सोच कर कि जब आप निकल गए पार तो मैं छलांग लगा कर निकल जाऊंगा, मैं बीच में गिर गया।
नसरुद्दीन हंसने लगा। उसने कहा: बेटा, इसका राज है। उसने अपना खीसा बजा कर बताया--खनाखन, खनाखन!
लड़के ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं।
उसने कहा: अरे, रुपये खीसे में होने चाहिए। नाला क्या, समुद्र आदमी पार कर जाए। मैं जब घर से निकलता हूं तो नगद कलदार खीसे में रखता हूं। इससे गर्मी रहती है। इससे प्राणों में बल रहता है। यह आदमी की असली आत्मा है। और कोई आत्मा वगैरह नहीं। अब तू बिना ही आत्मा के कूद रहा हैं, धड़ाम से गिर गया बीच में, देखा? अगली दफा रुपये खीसे में रख कर कूदना, फिर देखना!
रुपये का एक बल है। दिखाई नहीं पड़ता कहीं भी, लेकिन रुपये की बड़ी हिंसा है। रुपया यूं मार देता है--बिना मारे।
तो तुम एक तरफ से बचोगे तो कहीं दूसरी तरफ से तुम्हारे सब रोग प्रकट होने शुरू हो जाएंगे। इसलिए बचने की जल्दी मत करो, समझने की फिकर लो। और समझ आती है केवल ध्यान से। और किसी तरह से नहीं आती।
निर्विचार जब तुम होना सीख जाओगे, उस निर्विचार अवस्था में तुम्हारा चित्त का दर्पण ऐसा साफ होता है, धूलरहित कि उसमें सब साफ-साफ दिखाई पड़ने लगता है। फिर उसी दृष्टि के अनुसार जीवन को चलाने में कोई कठिनाई नहीं है।
तुम पूछते हो कि ‘क्या जीवन भर की आदतों को सरलता से छोड़ा जा सकता है?’
बिलकुल सरलता से छोड़ा जा सकता है। लेकिन छोड़ने की कोशिश से नहीं। एक परोक्ष प्रक्रिया है: ध्यान के माध्यम से, बोध के माध्यम से सारी आदतें छूट जाती हैं। और मजा यह है कि जब ध्यान से आदतें छूटती हैं तो यह भी अकड़ नहीं होती भीतर कि देखो मैंने आदतें छोड़ दी हैं। मैंने यह छोड़ दिया, मैंने वह छोड़ दिया, यह अकड़ भी पैदा नहीं होती। यह त्यागी की, तपस्वी की अकड़ भी पैदा नहीं होती, यह अहंकार भी पैदा नहीं होता। जीवन क्रांति से भर जाता है, लेकिन क्रांति का दंभ जरा भी नहीं। कहीं छाया नहीं पड़ती। असली क्रांति वही है। नहीं तो अहंकार सारी क्रांति को मटियामेट कर देता है।

आज इतना ही।

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