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Sahaj Samadhi Bhali 20

Twentieth Discourse from the series of 21 discourses - Sahaj Samadhi Bhali by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1974, Pune.
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भगवान,
कहते हैं कि एक वृद्ध स्त्री थी--भगवान बुद्ध के समय में। वह बुद्ध के ही गांव में जन्मी थी और बुद्ध के जन्म-दिन पर ही।
लेकिन वह सदा ही बुद्ध के सामने आने से डरती रही--तभी से जब कि वह छोटी सी थी। युवा हो गई, फिर भी डरती रही। और वृद्ध हो गई, फिर भी।
लोग उसे समझाते भी कि ‘बुद्ध परम पवित्र हैं, साधु हैं, सिद्ध हैं। उनसे भय का कोई भी कारण नहीं। उनका दर्शन मंगलदायी है, वरदान-स्वरूप है।’ लेकिन उस वृद्धा की कुछ भी समझ में नहीं आता। यदि वह कभी भूल से बुद्ध की राह में पड़ भी जाती थी, तो भाग खड़ी होती। अव्वल तो बुद्ध गांव में होते, तो वह और किसी गांव चली जाती।
लेकिन एक दिन कुछ भूल हो गई। वह कुछ अपनी धुन में डूबी राह से गुजरती थी कि अचानक बुद्ध सामने पड़ गए। भागने का समय ही नहीं मिला। और फिर वह बुद्ध को सामने ही पा इतनी भयभीत हो गई कि पैरों ने भागने से जवाब दे दिया।
उसे तो लगा कि जैसे उसकी मृत्यु ही सामने आ गई है।
भाग तो वह न सकी, पर आंखें उसने जरूर ही बंद कर लीं।
पर यह क्या! बंद आंखों में भी बुद्ध दिखाई ही पड़ रहे हैं! और गैरिक वस्त्रों में स्वर्ण सा दीप्त उनका चेहरा सामने है।
फिर उसने दोनों हाथों से अपनी आंखें ढंक लीं।
पर आश्चर्यों का आश्चर्य भी उस क्षण घटित होने लगा! जितना ही करती है वह बंद आंखों को, बुद्ध उतने ही सुस्पष्ट प्रकट होते चले जाते हैं। आह! जितना ही ढंकती है वह आंखों को, बुद्ध उतने ही भीतर आ गए मालूम होते हैं।
नहीं--अब कोई बचाव नहीं है; मृत्यु निश्चित है। और इस प्रतीति के साथ ही वह वृद्धा खो जाती है और बुद्ध ही शेष रह जाते हैं।

और भगवान, झेन फकीर सदियों से पूछते रहे हैं: ‘बताएं वह वृद्धा कौन है?’
बुद्ध भी तुम हो और वृद्धा भी। तभी तो दोनों एक साथ, एक ही गांव में, एक ही दिन पैदा हो सके। तभी तो वृद्धा डरती रही--बुद्ध को देखने से, क्योंकि ‘देखने’ का अर्थ मृत्यु है।
तुम्हारे भीतर एक तत्व है, जो मरणधर्मा है। अगर वह अमृत को देख ले, तो लीन हो जाएगा। वह डरेगा, वह अमृत को देखने से भयभीत होगा।
तुम्हारे भीतर एक तत्व है, जो बुद्ध को देख ले, तो खोने के अतिरिक्त कोई मार्ग न बचेगा। जैसे नदी सागर के करीब पहुंच जाए, तो फिर क्या करे! फिर गिरने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। लौटने का गंगा को भी गंगोत्री तक कोई उपाय नहीं है; सागर सामने आ जाए, तो गिरना ही पड़ेगा। जब तक गंगा बचती रहे सागर से दूर, तभी तक बची है।
बुद्धत्व तुम्हारे भीतर की शून्यता है। और वृद्धा तुम्हारा मन है--तुम्हारे विचार। तुम दो में से एक ही हो सकते हो। जब तक तुमने वृद्धा का हाथ पकड़ा है, तब तक तुम बुद्ध न हो सकोगे। क्योंकि वृद्धा तुम्हें भगाए फिरेगी। बुद्ध इस गांव में होंगे, तो वह तुम्हें दूसरे गांव ले जाएगी। बुद्ध यहां होंगे, तो वृद्धा तुम्हें यहां न टिकने देगी। लेकिन जिस दिन तुम मन का, उस वृद्धा का साथ छोड़ोगे, उसी दिन तुम्हारा बुद्धत्व प्रकट हो जाएगा। क्योंकि बुद्धत्व कोई उपलब्धि नहीं है, उसे तुम लेकर ही पैदा हुए हो; वह तुम्हारा जन्म-सिद्ध अधिकार है, वह तुम्हारा स्वरूप है। वह तुम हो।
बुद्ध कोई ऐतिहासिक व्यक्ति ही हैं, ऐसा नहीं। गौतम सिद्धार्थ में भी वह घटना घटी थी, इसलिए वे बुद्ध हुए। वह घटना तुम में भी घट सकती है। बुद्धत्व एक घटना है; कोई किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। गौतम सिद्धार्थ में घटी, क्योंकि ‘वृद्धा’ सामने पड़ गई। तुममें अभी तक नहीं घटी है, क्योंकि वृद्धा कुशल है और अब तक सामने नहीं पड़ी है।
मन का नाम वृद्धा है। और वृद्धा क्यों है नाम?
इसके पहले कि हम कहानी में चलें, थोड़ी परिभाषाएं समझ लेनी जरूरी हैं।
क्योंकि मन सदा वृद्ध है; वह कभी जवान होता ही नहीं। मन सदा बूढ़ा है, क्योंकि मन सदा पुराना है। ‘नया मन’ होता ही नहीं। तुम जो भी जानते हो, वह सभी बीत चुका है। मन अतीत की स्मृति है, अतीत का ऊहापोह है। मन है वह धूल, जो यात्री राह पर चल कर अपने कपड़ों पर जमा कर लेता है। मन यानी संस्कार। अनुभव--जाना हुआ, सुना हुआ--वह सब इकट्ठा हो गया है। मन का कोई भविष्य तो नहीं है। मन का कोई वर्तमान भी नहीं है। मन तो सिर्फ अतीत है।
जो बीत गया है, वही तुम जानते हो। जो हो चुका है, वही तुम जानते हो। जो नहीं हुआ, उसे तुम कैसे जानोगे? जो अभी हो रहा है, उसे भी तुम न जान सकोगे; जब वह हो जाएगा, तभी जान सकोगे। मन पकड़ता ही तब है किसी चीज को, जब वह मर जाती है।
मन मरणधर्मा है; इसलिए मन को कहा है--वृद्धा। वह कभी जवान नहीं होता। छोटे से बच्चे का मन भी बूढ़ा होता है। जब तक छोटे बच्चे का मन नहीं होता, तभी तक, तभी तक वह निर्दोष है। लेकिन ऐसी कोई घड़ी नहीं होती, क्योंकि छोटा बच्चा भी अनंत जन्मों को अपने पीछे छिपाए है। वह सारा मन, यात्रा करता हुआ, साथ चला आया है।
जब तुम देह छोड़ते हो, तो देह ही छूटती है, मन तो तुम्हारे साथ चलता है। मन तो तभी छूटता है, जब बुद्ध और वृद्धा का आमना-सामना हो जाता है। लेकिन तब फिर कोई जन्म नहीं होता। इसका यह अर्थ हुआ कि सभी जन्म मन के होते हैं; तुम्हारा कोई जन्म नहीं; तुम अजन्मा हो। तुम न कभी पैदा हुए, न कभी मर सकते हो, क्योंकि जो पैदा होता है, वह मरेगा भी। मृत्यु तो उसी की होगी, जो जन्मेगा।
मन ही जन्मता है, मन ही मरता है। तुम शायद साक्षी हो--इस नाटक के; तुम द्रष्टा हो, तुम भागीदार नहीं हो। तुम एक अंश नहीं हो, इस नाटक में। तुम बाहर हो--सदा बाहर हो। लेकिन अगर तुमने मन को समझा कि यह मैं हूं--तुम अगर वृद्धा के साथ एक हुए--तो साक्षी खो जाता है; तुम कर्ता हो गए। वही दुख है, वही अज्ञान है, वही संसार है।
मन सदा वृद्ध है। छोटे बच्चे का मन भी वृद्ध है; बूढ़े का मन भी वृद्ध है। बूढ़े का थोड़ा ज्यादा वृद्ध होगा, बच्चे का थोड़ा कम वृद्ध होगा। लेकिन वृद्धता में कोई अंतर नहीं है। और जिस क्षण मन को तुम हटा कर देख सकोगे, उसी क्षण तुम पाओगे कि तुम सद्य-युवा हो। तब तुम्हारी हरियाली ऐसी है, जो कभी सूखेगी नहीं। तब तुम पाओगे कि तुम्हारे बूढ़े होने का कोई उपाय ही नहीं है। तुम जीवन हो--ताजे, सदा ताजे; जिसमें कभी बासापन नहीं आता।
लेकिन यह तो मन के हटने पर पता चलेगा। और मन हटने से डरता है, भयभीत है। उसका भय भी स्वाभाविक है। क्योंकि मृत्यु से कौन नहीं डरता है! मिटने से कौन नहीं डरता है!
शरीर के मरने से मन उतना नहीं डरता है, क्योंकि मन जानता है: मैं बचूंगा। लेकिन बुद्ध के सामने आने से डरता है, क्योंकि फिर बचने की कोई गुंजाइश नहीं, कोई जगह नहीं।
तुम भीतर के बुद्ध से भी डरते हो, तुम बाहर के बुद्ध से मिलने से भी डरते हो। अगर कभी कोई बुद्धपुरुष हो बाहर--जिसको हम सदगुरु कहते हैं--तुम उससे भी भागते हो, तुम उससे भी बचते हो। अगर तुम भूल-चूक से उसके पास भी पहुंच जाओ, तो तुम उसे सुनते नहीं। तुम कान बहरे रखते हो, आंखें अंधी रखते हो। अगर तुम सुन भी लो, तो तुम समझते नहीं हो; क्योंकि समझे कि खतरा है।
तुम जो सुनते हो, उसमें अपना कचरा मिला देते हो। तुम सोने को राख कर देते हो। तुम्हारे अर्थ, तुम्हें बचा लेते हैं। तुम्हारी व्याख्या फिर तुम्हें पुरानी दुनिया में लगा देती है।
सदगुरु से मिलने से तुम डरते हो, क्योंकि वह भी मृत्यु है। शास्त्रों ने गुरु को मृत्यु कहा है। और जो गुरु तुम्हारी मृत्यु न बन सके, वह गुरु ही नहीं है। जिस गुरु के पास से तुम बच कर आ जाओ, या तो वह गुरु नहीं था या तुम उसके पास ही नहीं गए। अगर तुम पास गए और वह गुरु था, तो तुम लौट न सकोगे। तुम्हारी मृत्यु सुनिश्चित है। क्योंकि गुरु करेगा क्या? गुरु इतना ही करेगा कि तुम्हारी वृद्धा को तुम्हारे बुद्ध के सामने कर देगा।
कुछ और करना नहीं है। तुम्हारे भीतर ही एक छोटी सी घटना जमानी है कि तुम्हारा मन तुम्हारी चेतना के सामने आ जाए, तुम्हारा साक्षी तुम्हारे विचार को देख ले। तुम्हारे मन के बादलों को तुम्हारे भीतर का सूरज साक्षात कर ले। बस, इतना ही।
बाहर का सदगुरु क्या करेगा? तुम्हारे भीतर--जिससे तुम बच रहे हो, उसको जमा देगा। और तुम तब तक बाहर भी बचोगे, भीतर भी बचोगे, जब तक तुम्हें यह स्मरण नहीं है कि तुम जिसे बचा रहे हो, वही तुम्हारा दुख है। और जिससे तुम बच रहे हो, वही तुम्हारा आनंद है। लेकिन बिना स्वाद के पता भी कैसे चलेगा?
तुम दुख से ही परिचित हो। तो मन कहता है: इतना ही काफी है कि दुख भूल जाए; थोड़ा सुख मिल जाए, इतना ही काफी है।
सुख जिसे हम कहते हैं, वह दुख का विस्मरण है। शराब पी लेते हैं; नृत्य-गान में लीन हो जाते हैं; वेश्या के द्वार पहुंच जाते हैं। थोड़ी देर के लिए मन डूब जाता है; मिटता नहीं है। थोड़ी देर के लिए चिंता विस्मृत हो जाती है। उसको हम सुख कहते हैं।
जिसको तुम सुख कहते हो, वह केवल दुख का विस्मरण है। जैसे छोटा बच्चा रो रहा हो और उसकी मां ने खिलौना उसके हाथ में दे दिया, तो वह खिलौने को देखने में लग गया; और भूल गया रोने को--कारण को। इसलिए छोटे बच्चे के जो खिलौने होते हैं, अकसर घुनघुने होते हैं, उनमें आवाज होनी चाहिए। क्योंकि आवाज बच्चे को चौंकाती है। चौंक कर वह भूल जाता है--जो हो रहा था। जैसे ही वह भूल जाता है--जो हो रहा था, वह सोचता है: आंसू सूख गए, सुख आ गया।
तुम्हारे सभी सुख बच्चों के घुनघुने हैं और इसीलिए ज्यादा देर नहीं चलते। बच्चा थोड़ी देर बजाएगा, फिर फेंक देगा खिलौने को। क्योंकि थोड़ी देर तक ही कोई चीज भुला सकती है। सदा के लिए कैसे कोई चीज भुला सकती है!
विस्मरण, बेहोशी क्षण भर को ही हो सकती है। फिर याद आएगी, क्योंकि दुख वास्तविक है। जब तक मिट ही न जाए, तब तक तुम कैसे उसे सदा भुलाए रखोगे? नशा भी कर लोगे, तो नशा उतरेगा। शराब पी लोगे, तो कितनी देर चलेगी विस्मृति?
यह विस्मृति सदा चलने वाली नहीं है। इसलिए कबीर ने कहा है कि ‘यह नशा--जो हम पीते हैं, यह वह है कि जो कभी उतरता नहीं है। ऐसी तारी लागी कि अब टूटेगी नहीं। अब हम उस नशे में खो गए हैं, जो क्षणभंगुर नहीं है--शाश्वत है।’ लेकिन शाश्वत नशा तो बुद्धत्व का ही है।
वृद्धा थोड़ी बहुत देर को भूल जाए--बस; तो तुम्हारा मन दुख को जानता है। और थोड़ी बहुत देर को जब दुख को भूल जाता है, तो सुख को जानता है। तुम्हारा सुख आनंद नहीं है। तुम्हारा सुख, सुख भी नहीं है। तुम्हारा सुख केवल दुख की विस्मृति है; हाथ में दिया हुआ खिलौना है।
थोड़ी देर में तुम ‘खिलौने’ से ऊब जाओगे और फेंक दोगे। इसलिए नई पत्नी सुखद मालूम पड़ती है। पुरानी पत्नी विस्मृत हो जाती है; ‘खिलौना’ फेंक दिया गया। नई कार खरीद लाते हो; दो-चार दिन बड़ी प्रसन्नता मालूम पड़ती है। फिर कार पुरानी पड़ जाती है। नया मकान खरीदते हो, नया पद मिलता है; दो-चार दिन घुनघुना बजता है; फिर... फिर उदास हो जाते हो।
तुम्हारे खिलौने बड़े हैं, कीमती हैं, पर खिलौने ही हैं। और मन इतना ही कर सकता है: या तो दुख--या दुख की विस्मृति। उसको वह कहता है: सुख। आनंद तो बुद्धत्व के सामने होने से होगा।
और यह बुद्धत्व कहीं बाहर होता तो भी कोई अड़चन थी; यह बुद्धत्व तुम्हारे भीतर है; यह तुम्हारे ही मन की गहराई में छिपा है। लेकिन तुम्हारा यह मन, उस गांव में तुम्हें रुकने नहीं देता, जहां बुद्ध हैं; उस जगह नहीं रुकने देता, जहां बुद्ध हैं।
तुम ध्यान करने बैठते हो, मन तुम्हें कहीं ले जाता है। तुम पूजा करने बैठते हो, मन तुम्हें कहीं ले जाता है। जहां भी बुद्ध का डर पैदा होता है कि आमना-सामना न हो जाए, साक्षात्कार न हो जाए, वहीं तुम भाग खड़े होते हो।
मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि मंदिर में जाते हैं, तब इतने ज्यादा विचार आते हैं, जितने दुकान पर भी नहीं आते हैं। आएंगे ही। क्योंकि दुकान पर बुद्धत्व से मिलने की कोई आशा नहीं है। मन निश्चिंत है। ग्राहकों से मिल कर कहीं कोई डर है! लेकिन जब तुम मंदिर में जाते हो, तो मन डरने लगता है; क्योंकि यहां डर है--इस मंदिर के सन्नाटे में; इस मंदिर की शून्यता में, इस मंदिर के वातावरण में कहीं भीतर के बुद्ध से मिलना न हो जाए! मन तत्क्षण तुम्हें कहीं और ले चलता है; वह बड़े सपनों में खो जाता है।
तुम जब ध्यान करोगे, तब तुम्हें मन जितना सताएगा, उतना कभी नहीं सताएगा। क्योंकि वहीं मौत का डर है, वहीं मन भयभीत होगा।
ये बातें खयाल में ले लें। अब यह कहानी बिलकुल सरल हो जाएगी। और इसके एक-एक शब्द को समझ लेना जरूरी है। क्योंकि झेन, सूफी या हसीद फकीर जब कोई कहानी गढ़ते हैं, तो हजारों-हजारों बुद्धों के अनुभव से गढ़ते हैं। यह कोई कहानी नहीं है। ये कोई लेखक, कोई कहानीकार, कोई कथा लिखने वाले के वचन नहीं हैं।
यह कहानी हजारों-हजारों बुद्धों का सार है। अनेक बुद्धों ने भीतर जो अनुभव किया है, उसको इस कहानी में रख दिया है। यह कहानी--कहानी नहीं है। तुम्हारे जीवन का बड़े से बड़ा सत्य है। इसलिए एक-एक शब्द को गौर से समझना।
‘कहते हैं कि एक वृद्ध स्त्री थी--भगवान बुद्ध के समय में। वह बुद्ध के गांव में ही जन्मी थी और उनके जन्म-दिन पर ही।’
तुम्हारा मन तुम्हारे जन्म-दिन पर ही जन्मता है। और तुम्हारा मन--इसके पहले कि तुम जागो कि तुम कौन हो, तुम्हें पकड़ लेगा। होश आने के पहले मन से तुम ग्रस्त हो जाते हो। बच्चा पैदा नहीं हुआ--इधर उसने चीख नहीं लगाई अपनी पहली--और मन पैदा हो गया। मन ‘अनुभव’ है।
शायद मनोवैज्ञानिक कहेंगे जल्दी ही--उनकी खोजें बताती हैं--पहले आसार जाहिर हो गए हैं कि मन जन्म के पहले ही पैदा हो जाता है। क्योंकि बच्चा जब गर्भ में होता है, तब भी अनुभव होते हैं। मां गिर पड़े, तो पेट में जो बच्चा है, उसको चोट की प्रतीति होती है--साफ नहीं, बहुत धुंधली, लेकिन प्रतीति होती है। मां बीमार हो, तो बच्चा भी कमजोर होता है; बच्चा भी भीतर बीमारी का अनुभव करता है। मां स्वस्थ हो, प्रसन्न हो, तो बच्चा उसकी प्रसन्नता अनुभव करता है। तो जहां अनुभव शुरू हुआ, वहां मन शुरू हो गया।
बच्चा जब पैदा होता है, तब बूढ़ा ही हो चुका होता है। कुछ अनुभव लेकर पैदा होता है। उसके कुछ संस्कार निर्मित हो गए। और अब वह इन संस्कारों के आधार पर ही जीएगा। कुछ कारागृह निर्मित हो गया, आत्मा स्वतंत्र नहीं है।
रूसो ने कहा है कि आदमी स्वतंत्र पैदा होता है और परतंत्र मरता है। गलत है बात। आदमी परतंत्र ही पैदा होता है; और आमतौर से परतंत्र ही मरता है। कुछ लोग परतंत्र पैदा होते हैं और स्वतंत्र मरते हैं। वे ही बुद्ध हैं।
सभी लोग परतंत्र पैदा होते हैं, क्योंकि अनुभव परतंत्रता है। तुमने जो जाना, उसने तुम्हारी आत्मा के आकाश को घेर दिया। तुम्हारा ज्ञान तुम्हारी सीमा बन जाता है। क्योंकि तुम सोचते हो: ‘यही मैं हूं।’
तुम्हारा हर अनुभव तुम्हें छोटा करता है। तुम्हारा हर अनुभव तुम्हें यह भ्रांति देता है कि मैं जानता हूं। और जैसे ही तुम्हें यह लगता है: मैं जानता हूं, तुम छोटे हो गए।
बूढ़े सिकुड़ते जाते हैं। उनके अनुभव की मात्रा बढ़ती जाती है और उनकी आत्मा का आकाश छोटा होता जाता है। एक तरफ तो ढेर लगने लगता है कि मैं इतना जानता हूं; और दूसरी तरफ उनकी आत्मा उतनी ही संकीर्ण होती जाती है। इसलिए बूढ़े आदमी में तुम विराट आत्मा शायद ही पाओगे। बूढ़ा आदमी बहुत संकीर्ण होता है। उसके पक्षपात सुनिश्चित होते हैं। उसकी धारणाएं मजबूत--पत्थर की तरह होती हैं। उसका हृदय तरल नहीं होता है, ठोस होता है। क्योंकि वह जानता है; उसे अनुभव है।
छोटे बच्चे का आकाश तरल होता है, अभी दीवालें साफ नहीं होतीं। कहां मैं खतम होता हूं, कहां तुम शुरू होते हो--बच्चे को अभी बहुत साफ नहीं होता। अभी चीजें तरल हैं, सीमाएं बहती हुईं हैं। अभी सब पत्थर की दीवालें नहीं हैं।
जैसे-जैसे अनुभव मजबूत होगा, वैसे ही वैसे आत्मा छोटी होती जाती है। इसलिए जगत में बड़ी से बड़ी घटना है कि तुम्हारा अनुभव बढ़े और तुम्हारी आत्मा छोटी न हो, तो तुम साधक हो। अगर तुम्हारा अनुभव बढ़े और साथ में तुम्हारा आकाश छोटा होता जाए, तुम्हारी चेतना का आंगन सिकुड़ता जाए, तो जब तुम मरो, तुम अनुभव के ढेर रह जाओ और तुम्हारे भीतर कोई भी न हो, जो बचाने योग्य था। अक्सर बूढ़ा आदमी इसी तरह मरता है। इसलिए बुढ़ापे में एक कुरूपता आ जाती है। वह कुरूपता शरीर से कम संबंधित है; वह कुरूपता तुम्हारी संकीर्ण दृष्टि से संबंधित है। तुम हिंदू हो, तुम मुसलमान हो, तुम जैन हो; तुम यह हो, तुम वह हो; तुम सब जानते हो!
छोटा बच्चा न हिंदू है, न मुसलमान है, न जैन है। अभी मस्जिद के सामने भी प्रसन्न हो सकता है और अभी मस्जिद में भी जाने की उसकी उत्सुकता उतनी ही है, जितनी मंदिर में जाने की। अभी फासले खड़े नहीं हुए हैं। अभी ‘आंगन’ बड़ा है। वही उसका सौंदर्य है।
जब कोई बूढ़ा आदमी भी छोटे बच्चे की तरह बड़े आंगन की, बड़े आकाश की संभावना रखता है अपने भीतर, तो बुढ़ापे में एक सौंदर्य प्रकट होता है, जो जवानी में भी नहीं हो सकता है। क्योंकि जवानी के सौंदर्य में थोड़ा तनाव रहेगा, उत्तेजना रहेगी; वासना का खिंचाव रहेगा, दौड़ रहेगी। जवानी का सौंदर्य छिछला होगा; बहुत गहरा नहीं हो सकता।
बच्चे के सौंदर्य में एक भोलापन है; लेकिन बुद्धूपन भी होगा; क्योंकि अनुभव नहीं है। उसके भोलेपन में मूर्खता का अंश भी होगा। उसमें नासमझी की भी संभावना है; क्योंकि समझ अभी फली नहीं है। बड़ा होगा उसका चित्त, लेकिन उस बड़ेपन में अभी मूढ़ता हो सकती है।
जवान सुंदर होगा, लेकिन सौंदर्य शरीर का होगा। और वासना से भरे चित्त में बहुत गहरा सौंदर्य नहीं हो सकता। लेकिन बूढ़ा अगर सच में ही बूढ़ा हो, जीवन प्रौढ़ता बनी हो--एक मैच्योरिटी, और जीवन में एक विकास हुआ हो और आत्मा छोटी न हुई हो; अनुभव बढ़ा हो, ज्ञान बढ़ा हो, लेकिन फिर भी विनम्रता शेष रही हो; बच्चे की तरह भोलापन कायम रहा हो--अनुभव के बावजूद; वासनाएं जा चुकी हैं, उनका तूफान, आंधियां खो गई हैं; अब जवानी की पकड़ नहीं है, खींच नहीं है; न धन पर लोभ है, न शरीर पर मोह है। चित्त जैसे एक शांत झील हो गया है। तो बुढ़ापे में जो सौंदर्य प्रकट होता है, उसकी कोई उपमा नहीं है। मगर यह होता बहुत मुश्किल से है। लेकिन जब भी होता है, तो इस जगत में वह चरम सौंदर्य है। वह ऐसे ही है, जैसे हिमालय के शिखरों पर शुभ्र बर्फ जमी हो। वैसे ही बूढ़े के शुभ्र, श्वेत केशों में--अगर जीवन सच में ही विकसित हुआ हो--तो हिमालय जैसा सौंदर्य प्रकट होता है। लेकिन यह साधारणतः घटता नहीं है--कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर...।
सामान्यतया तो हम परतंत्र पैदा होते हैं, और, और भी बुरी तरह परतंत्र होकर मरते हैं। हम कारागृह में पैदा होते हैं, और भी खतरनाक कारागृह में मरते हैं। जंजीरें लेकर आते हैं और फिर जंजीरों को बढ़ाते जाते हैं। हमारा संग्रह, हमारा ज्ञान--सब जंजीरों का वजन बनता जाता है। एक दिन हम समाप्त हो जाते हैं; जंजीरें ही रह जाती हैं।
‘कहते हैं कि एक वृद्ध स्त्री थी--भगवान बुद्ध के समय में। वह बुद्ध के गांव में ही जन्मी थी और उनके जन्म-दिन पर ही।’ वह बुद्ध के भीतर ही जन्मी थी। उसे स्त्री क्यों कहा है? उसे पुरुष क्यों न कहा?
मन को जो जानते हैं, वे स्त्रैण कहते हैं। आत्मा को पुरुष कहते हैं। उसका कारण है। आत्मा वृक्ष की भांति है; मन लताओं की भांति है। लताएं वृक्ष के बिना खड़ी नहीं रह सकतीं; वृक्ष लताओं के बिना खड़ा रह सकता है। तुम्हारी आत्मा, बिना मन के हो सकती है, लेकिन तुम्हारा मन, बिना आत्मा के नहीं हो सकता है।
आत्मा तो बिना मन के हो सकती है। हम जानते हैं बुद्धों को; उनको आत्मा थी--बिना मन के थी। लेकिन अब तक ऐसा एक आदमी नहीं जाना जा सका, जिसमें मन तो हो, और आत्मा न हो। इसलिए स्त्रैण है। स्त्रैण का कुल इतना ही मतलब है, स्त्री नहीं; स्त्रैण का कुल इतना ही मतलब है--‘निर्भर।’ उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वह छाया की भांति है। वह लताओं की भांति है। उसे पुरुष का सहारा चाहिए।
इसका दूसरा मतलब भी खयाल में ले लेना कि तुम जब तक सहारा दे रहे हो, तभी तक मन है। तुम जिस दिन सहारा खींच लोगे, मन खो जाएगा। मत पूछो कि मन को कैसे मिटाएं। सिर्फ इतना ही पूछो कि सहारा कैसे अलग कर लें।
तुम्हारे बिना मन रह ही नहीं सकता। और तुम अजीब काम कर रहे हो। एक तरफ से मिटाने की कोशिश करते हो, दूसरी तरफ से बनाए जाते हो। एक तरफ से सहायता देते हो, दूसरी तरफ से ईंटें खिसकाते हो। एक हाथ से मकान बनाते हो और एक से मिटाना चाहते हो। यह मकान कभी भी न मिटेगा। यह उतना का उतना ही बना रहेगा।
तुम्हारे सहारे के बिना मकान नहीं है। तुम्हारे सहारे के बिना यह मन नहीं है। तुम इसे बनाते हो, इसलिए यह है। इसलिए स्त्री है।
स्त्रैण का अर्थ है: जो सहारे के बिना न हो सके; जो लताओं की भांति है; जो पुरुष के कंधे पर हाथ रखेगी; झुकेगी, तो ही हो सकती है।
बुद्ध के भीतर ही जन्मी थी--वह स्त्री। ‘गांव’ से मतलब ठीक से समझ लेना। गांव का मतलब, वह गांव नहीं है, जो बाहर दिखाई पड़ता है।
हिंदू बड़े अदभुत हैं। और इन्होंने यहां जो कहानियां गढ़ीं हैं, उनके एक-एक शब्द में अर्थ है।
हम आत्मा को पुरुष कहते हैं। पुरुष उसी शब्द से बनता है--जिससे पुर। पुर का मतलब है: गांव। और पुरुष का मतलब है: गांव के केंद्र पर जो है।
पुर का मतलब है: तुम एक नगर हो। और अगर इसे हम ठीक से समझें, तो सच में तुम एक नगर हो। कोई सात करोड़ जीवाणु तुम्हारे भीतर हैं। इतना बड़ा न तो अभी लंदन है और न इतना बड़ा टोकियो है। बड़े से बड़ा नगर एक करोड़ का है।
तुम्हारे शरीर में सात करोड़ जीवित कोष्ठ हैं। बड़ी विस्तीर्ण तुम्हारी जीवन व्यवस्था है। और इन सात करोड़ में एक को भी पता नहीं है कि तुम हो। इतनी बड़ी भीड़ है तुम्हारे भीतर! इसको हिंदुओं ने पुर कहा है। और तुम जो इसके भीतर छिपे हो, उसको पुरुष कहा है। पुरुष का अर्थ है: जो पुर के भीतर छिपा है।
‘उसी गांव में, उसी जन्म-दिन पर...।’ बुद्ध के साथ ही बुद्ध का मन जन्मा।
मन स्त्रैण है; उसे सहारा चाहिए; बिना सहारे खो जाता है; बिना सहारे मुरझा जाता है। और अगर ज्यादा सहारा दो, तो खतरनाक भी है; क्योंकि अगर लता को बहुत सहारा दिया जाए, तो वृक्ष को सुखा डालेगी, चूस लेगी। धीरे-धीरे लता पूरे वृक्ष पर छा जाएगी। वृक्ष का पता ही न चलेगा। जिसके सहारे लता खड़ी है, उस वृक्ष का पता ही नहीं चलेगा, वह ढंक जाएगा।
अगर मन को तुमने सहारा दिया, तो धीरे-धीरे वह तुम्हें ढंक लेगा। तुम्हारा पता ही न चलेगा। बस, मन का ही पता चलेगा।
‘लेकिन वह स्त्री सदा ही बुद्ध के सामने आने से डरती रही।’ साथ पैदा हुई, उसी गांव में पैदा हुई, उसी घर में, उसी देह में, लेकिन बुद्ध के आमने-सामने आने से डरती रही। सदा डरती रही--तभी से जब वह छोटी सी थी। वृद्धा नहीं थी--छोटी थी। युवा हुई, फिर भी डरती रही। वृद्ध हो गई, फिर भी डरती रही।
मन का एक ही भय है: वह ध्यान है। ध्यान मन की मृत्यु है। और ध्यान का अर्थ है: अपने आमने-सामने आ जाना। जैसे कोई दर्पण में अपने को देख ले, ऐसा ही कोई मन के बिलकुल सामने खड़ा हो जाए; इंच भर भी मन को हटने न दे, तो बड़ा चमत्कार घटित होता है। अगर मन बिलकुल सामने आ जाए, तत्क्षण खो जाता है। तुम्हारी आंख काफी है, उसकी मृत्यु के लिए।
तुमने कहानी सुनी है कि कामदेव ने शिव को कामातुर किया। और उन्होंने अपनी तीसरी आंख से काम को देखा और वह भस्म हो गया; तब से वह अनंग है, उसकी कोई देह नहीं है।
ध्यान तीसरी आंख है--दि थर्ड आई। और अगर तुम कामवासना को तीसरी आंख से देख लो, ध्यान से देख लो, तो वह राख हो जाती है।
मन क्या है? सारी वासनाओं का जोड़ है। और मन के गहरे में कामवासना है। इसलिए ब्रह्मचर्य पर इतना जोर दिया है। अगर कामवासना चली जाए, तो शेष सारी वासनाएं अपने आप झर जाती हैं। क्योंकि जिसकी कामवासना न हो, उसका लोभ क्या होगा?
जब तक तुम्हारे मन में ‘काम’ है, तब तक लोभ है। जब तक लोभ है, तब तक क्रोध है। जब तक क्रोध है, तब तक मद-मत्सर हैं। सब जुड़े हैं। लेकिन सबसे गहरी कड़ी कामवासना की है।
छोटा बच्चा इतना भोला मालूम पड़ता है, क्योंकि वह गहरी कड़ी अभी प्रकट नहीं हुई है; अभी शरीर तैयार नहीं है। अभी चौदह साल लगेंगे, तब शरीर तैयार होगा और कामवासना की पहली कड़ी प्रकट होगी। बस, फिर सारी वासनाएं आस-पास आने लगेंगी। जैसे ही कामवासना मन में आती है, बाकी सारी वासनाएं सहयोग के लिए खड़ी हो जाती हैं।
लोभ का क्या अर्थ है, अगर तुम कामी नहीं हो। अगर तुम कामी नहीं हो, तो तुम क्रोध कैसे करोगे। अगर तुम कामी नहीं हो, तो अहंकार की घोषणा का कोई भी प्रयोजन नहीं है। तब तुम ऐसे जी सकते हो, जैसे तुम हो ही नहीं। और तब तुम्हारे पास कुछ हो या न हो, बराबर अर्थ होगा। तुम सारे संसार को जीत लो--हजार-हजार सिंहासन तुम्हारे हों तो, और तुम्हारे पास कुछ भी न हो, सब खो जाए, तो भी तुम्हारी नींद में कोई खलल न पड़ेगी। तुम वैसे ही रहोगे, जैसे सब घटनाएं बाहर-बाहर हैं।
लेकिन अगर कामवासना भीतर है, तो फर्क पड़ेगा। क्योंकि अगर तुम सिंहासन पर हो, तो तुम सुंदर स्त्रियों को पा सकोगे। अगर सिंहासन गया, तो वह सौंदर्य का सारा राज्य गया। तुम अगर धन वाले हो, त
ो तुम वासना को खरीद सकते हो। अगर तुम निर्धन हो, तो तुम क्या खरीदोगे? गरीब की क्या क्षमता है खरीद लेने की? तो आदमी धन इकट्ठा करता है, वह भी ‘काम’ के लिए ही।
फिर अगर कोई तुम्हारी वासना में बाधा डाले, तो क्रोध आता है। इसलिए हम कहते हैं कि संत अक्रोधी होगा; क्योंकि उसकी कोई वासना नहीं है। तुम बाधा किस बात में डालोगे? वह कुछ मांगता नहीं है। तुम रुकावट क्या खड़ी करोगे? अक्रोध स्वाभाविक हो जाएगा।
‘काम’ केंद्र है--सारी वासना का। मन वासना का फैलाव है।
डरता है मन--ध्यान से, क्योंकि ध्यान तीसरी आंख है। उसकी अग्नि बड़ी प्रखर है। अगर तुम आमने-सामने देख लो, तो राख हो जाएगा मन।
वह स्त्री सदा डरती रही--बुद्ध के सामने आने से। छोटी थी, युवा थी, वृद्ध हुई, लेकिन डर कायम रहा। लोग उसे समझाते भी कि ‘बुद्ध परम पवित्र हैं, साधु हैं, सिद्ध हैं; उनसे भय का कोई कारण नहीं है। उनका दर्शन मंगलदायी है, वरदान-स्वरूप है।’ लेकिन, उस वृद्धा की कुछ भी समझ में न आता। यदि वह कभी भूल से बुद्ध की राह में पड़ भी जाती, तो भाग खड़ी होती। अव्वल तो बुद्ध उस गांव में होते, तो वह किसी और गांव चली जाती।
समझना।
लोग समझाते कि ‘बुद्ध परम पवित्र हैं, सिद्ध हैं, साधु हैं, उन जैसा कौन साधु है! उनसे क्या भय है? कोई कारण नहीं है, उनसे डरने का। उनका दर्शन मंगलदायी है, वरदान-स्वरूप है--ये सब बातें ठीक हैं। लेकिन मन के बिलकुल समझ में नहीं आतीं। मंगलदायी होगा, वरदान-स्वरूप होगा--बुद्ध एक बरसते हुए आशीर्वाद हैं--सब ठीक है। लेकिन मन की समझ में नहीं आती; क्योंकि यह मंगलदायी मन के लिए नहीं हो सकते; मन की तो मौत हैं; मन की तो मृत्यु हैं।
मन तुम्हें सब तरह से समझाता है कि बुद्ध के आमने-सामने मत पड़ना। और मन इस ढंग से समझाता है, उसके तर्क कुशल हैं। पहले तो वह यह कहेगा कि इस तरह की बात ही नहीं होती; ध्यान कहीं हुआ है? सब कपोल-कल्पना है। सब कवियों का जाल है। सब कविताएं है। ध्यान वगैरह कभी हुआ नहीं है। इस झंझट में पड़ते ही क्यों हो?
‘यह परमात्मा और मोक्ष--ये सब सपने हैं।’ और मन इनके लिए बड़े तर्क देता है। इसीलिए तो बुद्ध पैदा भी हों, तो भी कितने थोड़े से लोग उनका लाभ ले पाते हैं! कितने थोड़े से लोग उनके सरोवर में अपनी प्यास बुझाते हैं! आखिर इतने अधिक लोग--जो सोने के पीछे दौड़ते हैं, वे बुद्ध के पीछे क्यों नहीं दौड़ते हैं?
जो धन के पीछे दौड़ते हैं, वे बुद्धत्व के पीछे क्यों नहीं दौड़ते? खुद बुद्ध को गांव-गांव भटकना पड़ता है--लोगों को खोजते। कोई उन्हें खोजते हुए नहीं भटक रहा है! क्या मामला है?
लोग अपने मन को समझाते हैं: यह सब बातचीत है। इसमें कुछ ज्यादा सार नहीं है। समय मत गंवाओ। जिंदगी छोटी है; दुबारा मिलेगी नहीं। ‘पार’ का कोई पता नहीं; भोग लो; जो भी क्षण भर हाथ में है, उसे छोड़ो मत। मन का यह गहन तर्क है।
‘लेकिन उस वृद्धा की कुछ भी समझ में न आता था। यदि वह कभी भूल से बुद्ध की राह में भी पड़ जाती, तो भाग खड़ी होती।’ कभी ऐसा आकस्मिक भी हो जाता है कि तुम खाली बैठे हो, अचानक मन आमने-सामने हो जाता है, तो तत्क्षण मन भाग खड़ा होता है; तत्क्षण कोई रूप ले लेता है, कोई विचार पकड़ लेता है; किसी विचार की धारा को पकड़कर कहीं चला जाता है।
कभी-कभी खुली रात--आकाश के नीचे बैठे हुए, कभी नदी के किनारे बैठे हुए, कभी किसी पहाड़ी झरने के कलकल नाद को सुनते हुए, कभी सिर्फ वृक्षों की हरियालियों को आत्मसात करते हुए, कभी किसी पक्षी की आवाज सुन कर एक सन्नाटा छा जाता है। कभी किसी सदगुरु का वचन सुन कर, कभी किसी सदगुरु की मौजूदगी में एक सुगंध भीतर प्रवेश कर जाती है; जैसे अचानक किसी ने धूप जला दी हो। मगर मन तत्क्षण बेचैन हो जाता है, और, कहीं और ले जाता है। मन तत्क्षण तुम्हें कुछ मार्ग बता देता है, जिससे तुम भाग खड़े होओ।
ऐसा रोज घटता है; ऐसा हर आदमी की जिंदगी में घटता है। ऐसे क्षण आते हैं, जब तुम आमने-सामने होने के करीब होते हो। लेकिन मार्ग--मन सदा खोज लेता है; वह कुछ न कुछ उपाय कर लेता है; उसे अपने को बचाना है। आत्म-रक्षा तो सभी करना चाहते हैं: मन भी करना चाहता है।
‘अव्वल तो बुद्ध गांव में होते, तो वह किसी और गांव चली जाती।’ यह तुम्हारे मन की जानी-मानी तरकीब है।
तुम मुझे यहां सुन रहे हो; लेकिन तुम्हारा मन किसी और गांव में चला गया हो। तब तुम्हें लगेगा: तुम सुन भी रहे हो। तुम धोखा दे रहे हो। तुम्हारा शरीर भर यहां है; मन कहीं और चला गया है। और शरीर को ले जाने की जरूरत नहीं है। मन बिना शरीर के कहीं भी चला जा सकता है--चांद-तारों पर चला जा सकता है।
तुम यहां बैठे हो और तुम्हारी दुकान, तुम्हारा बाजार, तुम्हारी पत्नी, घर-द्वार, मित्र-शत्रु--हजार समस्याएं हैं; अदालत है, मुकदमें हैं--तुम उनमें जा सकते हो। और यहां जब तुम बैठे हो, तब तुम अकसर चले जाओगे; क्योंकि यहां खतरा है। और मन खतरे को बड़ी जल्दी पहचानता है; जैसे घोड़ा कान खड़े कर लेता है, खतरे को देख कर। मील-दो-मील दूर खतरा हो। कुत्ता सूंघ लेता है--दो मील फासले पर गंध हो। ऐसा ही तुम्हारा मन राडार की भांति, चौबीस घंटे--भय से--चारों तरफ डोलता रहता है; पकड़ता रहता है: कहां खतरा है। इसका कारण भी है।
क्योंकि मन का सारा उपयोग प्रकृति में खतरे से सावधान होने के लिए है; वह राडार है। इसके पहले कि खतरा आ जाए, तुम्हें पता चल जाना चाहिए। नहीं तो हो सकता है: खतरा आ जाए और फिर तुम्हें पता चले; फिर कुछ करने को न बचे। घर में आग लग जाए, तब तुम्हें पता चले; फिर बचना मुश्किल हो जाएगा। आग लगने के पहले--आग की शुरुआत में, जब पहला धुआं उठे, तब मन को सचेत हो जाना चाहिए। तब पानी डाला जा सकता है, आग बुझाई जा सकती है। कुछ हो सकता है।
तो मन ‘राडार’ है। वह चौबीस घंटे तुम्हारे चारों तरफ संवेदनशील घूम रहा है कि कहीं कोई खतरा तो नहीं है। इसलिए अकसर ऐसा हो जाता है कि जो लोग सदा खतरे में रहते हैं, उनके पास बड़ा तीव्र मन हो जाता है। और जो लोग किसी खतरे में नहीं रहते, उनका मन अकसर डल, मंद हो जाता है। इसलिए धनपतियों के घर बहुत प्रतिभाशाली मन के बच्चे पैदा नहीं होते।
खतरा नहीं है, तो ‘राडार’ जंग खा जाता है; जरूरत ही नहीं रह जाती है उसकी। दुनिया में जितने बुद्धि और प्रतिभा के लोग पैदा होते हैं, अक्सर धनपतियों के घरों से नहीं आते हैं, गरीब घरों से आते हैं, जहां चारों तरफ खतरा है।
तुमने यह भी देखा होगा कि इतिहास के वे ही क्षण, जब किसी राष्ट्र के जीवन में बड़े खतरनाक होते हैं, महापुरुषों के जन्म के क्षण होते हैं। अब तुम दुबारा गांधी पैदा न कर सकोगे जल्दी। न तुम दुबारा रवींद्रनाथ पैदा कर सकोगे; न राजा राममोहन राय, न सुभाष, न जवाहर--अब तुम जल्दी पैदा न कर सकोगे। अब तुम बिलकुल कचरा पैदा कर रहे हो। कारण क्या है? खतरा नहीं है।
जब भी किसी राष्ट्र के जीवन में खतरा होता है, तो मन सतेज हो जाता है। महापुरुष मन से पैदा होते हैं। वे कोई बुद्ध नहीं हैं; वे मन की ही प्रतिभाएं हैं।
तुमने भी कभी खयाल किया है कि जब खतरा होता है, तब तुम्हारे मन की प्रतिभा में एक चमक आ जाती है। और जब कोई खतरा नहीं होता है, तो मन सो जाता है। जरूरत ही नहीं है, तो कोई प्रयोजन नहीं है। तुमने कभी खयाल किया है कि जब तुम खतरे में होते हो, तब तुम में अनजाने स्रोत जग जाते हैं--शक्ति के। और अगर तुम खतरे में नहीं होते हो, तो कोई स्रोत नहीं जगता।
तुम्हें कोई दौड़ाए कि तुम अपनी पूरी ताकत से दौड़ो--तुम अपनी पूरी ताकत लगाते हो। तुम्हें खयाल भी नहीं आता कि कोई भी ताकत बची है--जो तुमने न लगाई हो। फिर तुम्हें एक प्रतियोगिता में लगाया जाए, जहां और दस लोग भी दौड़ रहे हैं, तब तुम दुगुनी ताकत से दौड़ते हो। और पहले तुम कहते थे कि पूरी ताकत से मैं दौड़ रहा हूं; अब यह ताकत कहां से आई? अब खतरा है; क्योंकि प्रतियोगिता है; पराजित होने का भय है। लेकिन यह भी कुछ नहीं है। एक आदमी तुम्हारे पीछे बंदूक लेकर लग जाए, तब तुम जो भागोगे, उस भागने का कोई मुकाबला ही नहीं है; तब तुम ऐसे भागोगे, जैसा कि कोई आदमी कभी नहीं भागा है; तब तुम अपनी पूरी त्वरा में भागोगे।
जब खतरा होता है--शक्ति जगती है।
मन तुम्हारा--खतरे का आंकलन करने वाला यंत्र है। और सबसे बड़ा खतरा क्या है, उसकी गंध पाकर भी मन भाग खड़ा होता है? फिर उस तरफ जाता ही नहीं; घोड़ा ठिठक जाता है; फिर वह हजार बहाने खोजता है, लेकिन उस तरफ नहीं जाता।
सबसे बड़ा खतरा है--आत्म-साक्षात्कार, आत्म-ज्ञान। क्योंकि जैसे ही आत्म-ज्ञान हुआ, मन की कोई जरूरत न रह जाएगी। और मन इसे जानता है कि एक ऐसा बोध का क्षण है, जहां मेरी जरूरत नहीं रह जाती है; जहां मुझे उठा कर फेंक दिया जाएगा--कूड़े-कर्कट की भांति।
‘अव्वल तो बुद्ध गांव में होते, तो वह किसी और गांव में चली जाती। लेकिन एक दिन कुछ भूल हो गई। वह कुछ अपनी धुन में डूबी राह से गुजरती थी कि अचानक बुद्ध सामने पड़ गए। भागने का समय न मिला। और फिर वह बुद्ध को सामने ही पा, इतनी भयभीत हो गई कि पैरों ने भागने से जवाब दे दिया।’
यह पूरी बात समझ लेना। यह तुम्हारी जिंदगी में कभी न कभी घटने वाली है। जितनी जल्दी घटे, उतना अच्छा है।
‘...एक दिन कुछ भूल हो गई।’ यह बड़े मजे कि बात है कि तुम ‘भूल’ से ही जागोगे। होशियारी से तुम जागने वाले नहीं हो। क्योंकि होशियारी तो मन की ही होगी। तुम मन की किसी चूक से जागोगे; तुम मन की किसी कला से नहीं। कोई ऐसा क्षण तुम्हें जगाएगा, जहां मन की कुशलता काम नहीं पड़ेगी।
दुर्घटना से तुम बुद्ध बनोगे--साधना से नहीं। क्योंकि साधना तो मन की ही होगी। तुम्हारा मन ही पतंजलि को पढ़ेगा और यम, नियम साधेगा। फिर कोई डर नहीं मन को। लेकिन किसी दुर्घटना से तुम जागोगे।
इसलिए पुराने शास्त्र कहते हैं कि बिना गुरु के तुम न जग सकोगे। क्योंकि तुम जो भी करोगे, वह ‘साधना’ होगी। ‘दुर्घटना’ तो गुरु ही करवा सकता है। एक फॉरेन एलिमेंट दुर्घटना ला सकता है; बाहर से कोई दुर्घटना पैदा कर सकता है।
तुम सो रहे हो। तुम्हें जगाना है। अगर तुम पर ही छोड़ दिया जाए, तो आदमी इतना कुशल है, मन इतना अदभुत है--उस जैसा कलाकार नहीं--कि वह नींद में ही सोच सकता है कि मैं जग गया! सपना देख सकता है जगने का। तब बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है। क्योंकि अब तुम करोगे क्या! जाग गए--सपना देख रहे हो कि जाग गए--तो एक अलार्म रख देना पड़ता है।
अलार्म एक दुर्घटना है; बाहर से आती है। लेकिन मन बड़ा कुशल है। एकाध दफा अलार्म से जग जाओगे। फिर धीरे-धीरे मन अलार्म से भी सपना बना लेगा। वह देखेगा सपना कि मंदिर है; मंदिर की घंटियां बज रही हैं। और अलार्म को ‘डुबा’ देगा। तब तुम्हें जीवित व्यक्ति चाहिए, जो रोज नई तरकीब निकाल सके; जिसके आस-पास तुम ‘सपना’ न बना सको।
गुरु का इतना ही अर्थ है कि वह तुम्हारे लिए बाहर से दुर्घटना खड़ी कर दे। वह तुम्हें एक ऐसी मुसीबत में डाल दे, जिससे बचने का तुम्हारे पास कोई उपाय न हो। वह तुम्हें एक ऐसे कोने में ले आए, जहां से भागने के रास्ते न हों। वह तुम्हें उस जगह ले आए, जहां से तुम कहीं भी जाओ, तो मिटो। पीछे लौटो, तो मिटो; आगे जाओ, तो मिटो।
गुरु का अर्थ है: दुर्घटना। उसका अर्थ है: तुम्हारी जितनी जानकारी, तुम्हारी जितनी कुशलता और समझदारी है, उस सबसे भिन्न, पृथक स्थिति मौजूद कर दे।
‘एक दिन भूल हो गई। वह कुछ अपनी धुन में डूबी राह से गुजरती थी।’ और वह भूल तभी होगी, जब तुम किसी धुन में होओगे। इसलिए
सभी गुरु तुम्हें कुछ धुन देते हैं। कोई तुम्हें मंत्र पकड़ा देता है; वह मंत्र सिर्फ धुन है--मन को उलझाने की। कोई तुमसे कहता है: राम-राम, राम-राम, राम-राम जपते रहो। चलो--उठो--बैठो--राम-राम जपते रहो। वह धुन दे रहा है, ताकि मन काम में लगा रहे और भाग न पाए। और चौबीस घंटे में कई बार तुम उस जगह आते हो, जहां बुद्ध सामने होते हैं।
अगर मन अपनी धुन में हो, तो शायद दुर्घटना हो जाए, भूल हो जाए। मन अगर अपनी धुन में चला जा रहा हो, तो देख न पाए--पहले से--कि ‘बुद्ध’ सामने हैं। और भाग न पाए--गली आस-पास में खोज न पाए। बिलकुल सामने पड़ जाएं ‘बुद्ध’--तभी धुन टूटे। अगर बिलकुल सामने पड़ कर धुन टूटे, तो तुम भाग भी न सकोगे; क्योंकि पैर लकवा खा जाएंगे।
भय अगर बहुत हो, तो दौड़ नहीं हो सकती है। तुम समझ ही नहीं पाते, एक क्षण को तुम इतनी चौंकी अवस्था में रह जाते हो--इतने अवाक कि भागना कैसा? भागे कौन? भागना कहां है?--इस सबका मौका नहीं मिल पाता है।
‘...वह कुछ अपनी धुन में डूबी राह से गुजरती थी।’ मन को कोई धुन देनी पड़े--कोई मंत्र, कोई तंत्र, कोई यंत्र; वे सब धुन हैं।
मैं तुम्हें संन्यास देता हूं। वह एक धुन है। मैं तुम्हें एक धुन पकड़ा रहा हूं, कि तुम कहीं भी जाओ: उठो-बैठो--तुम्हें भी याद रहे, दूसरे भी याद दिलाते रहें कि तुम संन्यासी हो। यह एक सतत धुन बन जाए। यह ‘बांसुरी’ तुम्हारे भीतर बजती ही रहे कि मैं एक संन्यासी हूं।
एक मित्र मेरे पास आए; उन्होंने संन्यास लेने के पहले मुझसे कहा कि एक मुसीबत है। और वह यह है कि मैं शराब पीता हूं, तो मैं क्या करूं? तो मैंने कहा कि तुम फिकर छोड़ो। पहले तुम संन्यास लो, फिर देखेंगे। संन्यास वे लेकर गए। आठ दिन बाद आए। उन्होंने कहा कि झंझट खड़ी कर दी। क्योंकि अब शराब-घर की तरफ जाते पैर रुकते हैं। ये गेरुए वस्त्र...! अच्छा फंसाया मुझे। क्योंकि शराबी तक ऐसा चौंक कर देखते हैं कि मैं कोई अपराधी हूं! शराबी--जिनसे अपनी पुरानी जान-पहचान है--वे तक कहते हैं: संन्यासी होकर...? और खुद भी बड़ी ग्लानि मालूम पड़ती है। हाथ में शराब लेता हूं, पच्चीस दफे सोचता हूं कि पीऊं, न पीऊं? अब शायद यह उचित नहीं है।
एक धुन पकड़ गई। और तुम्हें जब तक धुन न पकड़ जाए, जब तक मन किसी चीज में ऐसा लीन न हो जाए कि भूल जाए: कहां खड़ा है...। वह क्षण तो आता है--चौबीस घंटे में कई बार, जब तुम ‘बुद्ध’ के सामने पड़ते हो, लेकिन धुन लगी हो।
हजार तरकीबें लोगों ने खोजी हैं दुनिया में। माला ही कोई फेर रहा है, लेकिन वह धुन होनी चाहिए। तुम अगर माला फेर रहे हो--मुरदे की तरह, यंत्र की तरह, अगर वह धुन नहीं है, मन कुछ और काम कर रहा है; तो बेकार है। माला फेरते वक्त अगर माला का फेरना ही सब-कुछ हो जाए, वही धुन हो जाए, किसी भी क्षण अचानक तुम पाओगे कि भूल हो गई। तुम उसी के सामने खड़े हो, जिससे अब भागने का कोई उपाय नहीं है। तुम अपने ही सामने खड़े हो। सागर आ गया। अब नदी को मिटना पड़े।
‘...भागने का समय भी न मिला।’ अवाक होने का यही अर्थ है कि कुछ करने का समय न मिले। तुम चौंका दिए गए। तुम चले जा रहे थे--अपनी मस्ती में और एक आदमी ने आकर तुम्हारी छाती पर बंदूक रख दी; भागने का समय भी न मिला; सोचने का भी समय न मिला। और जहां समय न मिले, वहीं तुम ‘बुद्ध’ के सामने आ जाओगे। क्योंकि समय मिला कि मन सोच लेता है। समय मिला कि मन यात्रा पर निकल जाता है। समय मिला कि जगह मिल गई। समय मिला कि तुम दूसरे गांव पहुंच जाओगे।
समय के बिना मन नहीं हो सकता है, जैसे सागर के बिना मछली नहीं हो सकती। मछली को पटक दो किनारे, पानी न हो--तड़प-तड़प कर मर जाएगी। मन को पटक दो समय के बाहर, उसी वक्त मर जाएगा; तड़फेगा भी नहीं। मछली तो तड़फेगी थोड़ी देर। मन को समय के बाहर रखो कि मरा; क्योंकि तड़फने लायक भी जिंदगी नहीं बचती।
समय मन का प्राण है। इसलिए सभी ज्ञानी कहते हैं कि ध्यान समयातीत है, बियांड टाइम--समय के बाहर है, कालातीत है।
‘...समय ही न मिला। और फिर वह बुद्ध को सामने पा इतनी भयभीत हो गई कि पैरों ने भागने से जवाब दे दिया।’ पक्षाघात हो गया, लकवा लग गया। वह रुक गई। उसे तो लगा कि जैसे उसकी मृत्यु ही सामने आ गई है। भाग तो वह न सकी, पर आंखें उसने जरूर बंद कर लीं। इतना उपाय मन ने जरूर किया।
जब भी तुम भाग नहीं सकते, तब तुम आंख बंद करते हो। वह ‘न कुछ करने से, कुछ करना बेहतर है’--ऐसा मन सोचता है।
‘...भाग तो वह न सकी, पर आंखें उसने जरूर बंद कर लीं। पर यह क्या! बंद आंखों में बुद्ध ही दिखाई पड़ रहे हैं।’ संसार में यह तरकीब काम आ जाती है। अगर तुम भाग न सको, तो आंख बंद कर लेना; क्योंकि संसार की चीजें बाहर हैं; आंख बंद कर ली, तो संबंध टूट गया। लेकिन यह बुद्ध का होना भीतर है। आंख बंद करने से तो वे और साफ दिखाई पड़ने लगे।
भूल--महा भूल हो गई। अपने ही हाथ वृद्धा मुश्किल में पड़ गई। उसकी पुरानी तरकीब यह थी कि जिस चीज से भी बचना हो, आंख बंद कर लो। उसी तरकीब का उसने उपयोग किया। और करोगे भी क्या! जो हम जानते हैं, उसका ही उपयोग करते हैं।
‘उसने आंख बंद कर ली। आंख बंद करके पाया कि बुद्ध तो दिखाई ही पड़ रहे हैं। और गैरिक वस्त्रों में स्वर्ण सा दीप्त उनका चेहरा सामने है। फिर उसने दोनों हाथों से अपनी आंखें ढंक लीं। पर आश्चर्यों का आश्चर्य उस क्षण घटित होने लगा। जितना ही करती वह बंद आंखों को, बुद्ध उतने ही सुस्पष्ट होते चले जाते।’
इसलिए ध्यान में आंखें बंद करने की व्यवस्था है; क्योंकि वह स्वयं का साक्षात्कार है; आंखें खुली रखने की जरूरत नहीं है। दूसरे को देखना हो, तो आंख खुली चाहिए। खुद को देखना हो, तो आंख बंद चाहिए। बंद आंख से तुम दूसरे को न देख सकोगे। खुली आंख से खुद को देखना बहुत मुश्किल होगा। इसलिए ध्यान कहता है: आंख बंद कर लो।
जैसे-जैसे आंख बंद की, चमत्कार मालूम होने लगा। आश्चर्य है कि बुद्ध उतने ही सुस्पष्ट होते जाते हैं। आह! जितनी ही ढंकती है वह आंखों को, बुद्ध उतने ही भीतर आ गए मालूम होते हैं। अब भागने की कोई भी जगह न बची। पैर ठिठक गए। आंख बंद करने का उपाय था--जाना-माना परिचित--वह व्यर्थ हो गया। संघर्ष टूट गया।
‘नहीं, अब कोई बचाव नहीं है।’ और जिस क्षण मन को यह अनुभव होता है--‘नहीं, अब कोई बचाव नहीं है’--समर्पण हो जाता है। जब तक उसे लगता है: कुछ बचाव है, तब तक वह प्रयास करता है।
‘मृत्यु निश्चित है’ और इस प्रतीति के साथ ही वह वृद्धा खो जाती है। और बुद्ध ही शेष रह जाते हैं।
एक बहुत बड़ी महत्वपूर्ण बात समझ लेने जैसी है कि जिस चीज का भी तुम्हें खयाल हो जाए कि निश्चित है, उस संबंध में तुम्हारा संघर्ष समाप्त हो जाता है। जब तक तुम्हें लगता है कि कुछ बदलाहट हो सकती है, तब तक तुम लड़ते हो, तब तक मन संघर्ष करता है। जैसे ही पक्का हो जाता है कि निश्चित है--अब कुछ नहीं हो सकता, कोई उपाय नहीं है--रत्ती भर हेर-फेर का--बात खत्म हो जाती है।
युद्ध के मैदान पर लोगों का भय खो जाता है। सभी सैनिकों का अनुभव है कि युद्ध में जाने के पहले उनको बड़ा भय लगता है। वे सब उपाय करते हैं बचने के--कोई बीमार बनने का उपाय करता है, कोई डॉक्टर का सर्टिफिकेट लाता है; किसी के घर कोई काम है। वे पच्चीस उपाय करते हैं। सब उपाय कर लेते हैं, लेकिन जब कोई उपाय नहीं बचता है और युद्ध के मैदान पर जाना ही पड़ता है, तो एक मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययन किया है कि युद्ध के मैदान पर जाते ही सैनिक का भय खो जाता है। क्योंकि जब आ ही गए और अब कोई उपाय ही बचने का नहीं है और जब बात निश्चित ही है, तो मन संघर्ष छोड़ देता है। तब पास ही बम के गोले गिरते रहते हैं, बौछार गोलियों की निकलती रहती है, पास ही मित्र-परिचित मरे पड़े रहते हैं और सैनिक बैठ कर आराम से अपना काम करता रहता है। भोजन भी करता है, सिगरेट भी पीता है, रेडियो भी सुनता है, अखबार भी पढ़ता है। सब जैसे जिंदगी यही है; सामान्य है सब-कुछ, असामान्य नहीं हो रहा है।
मृत्यु निश्चित हो गई, फिर स्वीकृति आ जाती है।
जब तक तुम सामने नहीं पड़े हो अपने, तब तक तुम बचाव करोगे। जिस दिन सामने पड़ जाओगे, लगेगा: अब कोई मार्ग नहीं है--तुम हथियार डाल दोगे।
‘अब कोई बचाव नहीं है, मृत्यु निश्चित है और इस प्रतीति के साथ ही वह वृद्धा खो जाती है। बुद्ध ही शेष रह जाते हैं।’
वृद्धा तुम्हारे आत्मा के आस-पास बनी हुई परिधि है। जैसे ही तुम अपना साक्षात्कार करते हो, परिधि खो जाती है, केंद्र ही रह जाता है।
‘और झेन फकीर सदियों से पूछते आ रहे हैं: बताओ वह वृद्धा कौन है?’
तुम ही वह वृद्धा हो, तुम ही वह बुद्ध हो। लेकिन अभी ‘बुद्ध’ का तुम्हें कोई पता नहीं और ‘वृद्धा’ की तुम्हें कोई पहचान नहीं। वृद्धा तुम अभी हो, बुद्ध भी तुम अभी हो। लेकिन बुद्ध अंधेरे में छिपे हैं, वृद्धा प्रकाश में है। और चूंकि तुम बुद्ध को जानते नहीं। तुम्हारी स्थिति उस भिखमंगे जैसी है, जिसे अपने ही खजाने का कोई पता नहीं है और वह भीख मांग रहा है--भिक्षापात्र लिए। और जब तक तुम्हें झलक न मिल जाए--अपने खजाने की, तुम भीख मांगते रहोगे और दुखी होते रहोगे।
अब क्या किया जाए कि तुम्हें पता चल जाए--तुम्हारे खजाने का?
सब उपाय, सब योग, सब ध्यान, सब पूजा-प्रार्थना-अर्चना--सब उपाय, बस, इतनी सी बात के हैं कि तुम एक बार भीतर देख लो; अपने आमने-सामने आ जाओ।
क्या किया जाए?--बस, मन को दूसरे गांव जाने का मौका मत दो। मन को विचार करने की सुविधा मत दो; मन को समय मत दो। एक क्षण को भी तुम दूसरे गांव न जाओ, एक क्षण को भी विचार की धारा बंद हो जाए, एक क्षण को भी तरंगें न उठें--बुद्ध सामने आ जाएंगे।
सोचे कि तुम भटके। बिना सोचे रहे--कि मिलन हुआ।
अब इस दिशा में तुम्हें बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी; क्योंकि मन पुरानी आदतों के जाल में फंसा हुआ है।
मुल्ला नसरुद्दीन शराब का आदी था। और पत्नी रोज शराब के खिलाफ कुछ न कुछ प्रमाण ले आती थी। कभी अखबार की कटिंग ले आती थी, कभी कोई किताब ले आती--कि देखो। और एक दिन बड़े डॉक्टरों का वक्तव्य था अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के--कि शराब से ये-ये बीमारियां होती हैं। उसने लाकर नसरुद्दीन को दी कि देखो। नसरुद्दीन ने कहा: सब बकवास है। सब बातचीत है। सब प्रचार है। मैं खुद इतने दिन से पी रहा हूं और अभी तक कोई बीमारी नहीं हुई है। अनुभव से मैं कहता हूं कि यह सब बातचीत है। नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा कि ये कहते हैं कि दस साल उम्र कम हो जाएगी। नसरुद्दीन ने कहा: मौत अभी दूर है, जब आएगी तब निपट लेंगे। और नसरुद्दीन ने कहा कि बंद कर ये चीजें--मेरे सामने लाना। जब तक मैं मर ही न जाऊं, तब तक मैं शराब पीना बंद करने वाला नहीं हूं। उसकी पत्नी ने कहा: तुम्हें पक्का भरोसा है कि मर कर भी तुम बंद करोगे? आदत तुम्हारी ऐसी है कि मुझे शक है कि तुम मर कर भी पीओगे।
आदत पीछा करती है। और आदत से तुम्हारा ऐसा तादात्म्य हो जाता है, कि तुम यह सोच ही नहीं पाते कि आदत और तुम, अलग-अलग हो। तुम आदत ही हो जाते हो; उसी के साथ एक रूप हो जाते हो।
मन की सारी ताकत यही है कि वह तुम्हारी सभी आदतों का जोड़ है। और तुम उसके साथ एकरूप हो गए हो। तुमने मान लिया है कि तुम वृद्धा हो। यह मान्यता तोड़नी है। और इस मान्यता को तोड़ने का एक ही उपाय है कि तुम चेष्टा में संलग्न हो जाओ। दूसरे गांव मत जाओ। अभी तुम दस मील दूर जाते थे; कोशिश करोगे तो नौ मील जाओगे, आठ मील जाओगे, एक मील जाओगे।
कोशिश जारी रहे। और ‘धुन’ पैदा करो, ताकि मन एक गीत में, एक लय में तल्लीन रहे। और कभी आकस्मिक दुर्घटना भी घटती है। कभी, अचानक तुम सामने आ जाओगे। मन लीन रहेगा तो यह कहानी घट जाएगी।
यह घटना ऐसे ही घटती है कि मन लीन हो--भूल-चूक हो जाए, तुम आमने-सामने पड़ जाओ; भागने को जगह न बचे; सोचने का उपाय न रहे; मृत्यु निश्चित हो जाए; तुम हथियार डाल दो। और समर्पण होते ही सब-कुछ हो जाता है।
नदी डरती है--व्यर्थ ही। ‘सागर में खोती है’--ऐसी भ्रांति है उसे। नदी रहेगी ही। क्योंकि जो भी है, वह खोता कभी नहीं। सागर होकर रहेगी। अब तक क्षुद्र थी; सीमाओं में बंधी थी, किनारे थे। अब कोई किनारे न होंगे; अब विराट के साथ तादात्म्य हो जाएगा।
नदी मिटती नहीं है, सागर हो जाती है। लेकिन यह तो जो नदी मिट जाती है, उसको पता चलता है। जो नदी अपने किनारे से बंधी है, वह डरती है। वह भयभीत होती है कि मेरा रूप, मेरा तादात्म्य, मेरी आइडेंटिटी, मेरा नाम खो जाएगा, मेरे किनारे खो जाएंगे।
मन भी डरता है। मन नदी है; बुद्धत्व सागर है।
थोड़ी, एक झलक--खोने की, फिर तुम निर्भय हो जाओगे। फिर तुम्हारे पैर में बल आ जाएगा। फिर तुम छलांग ले सकोगे।
धुन पैदा करो--किसी भी बहाने। वह धुन कोई भी हो, लेकिन सच्ची हो। ऊपर-ऊपर हो, तो कोई सार नहीं। तुम ऊपर-ऊपर राम-राम जपते रहो और भीतर बाजार चलता रहे, कोई सार नहीं है। धुन ऐसी हो कि तुम उसमें लग जाओ। धुन ऐसी हो कि तुम्हारा कोई ऑपरेशन भी करे और तुम अपनी धुन में लगे हो, तो तुम्हें ऑपरेशन का पता न चले।
काशी के नरेश का ऑपरेशन हुआ उन्नीस सौ दस में। उसने कसम ले रखी थी कि वह किसी तरह का मादक द्रव्य नहीं लेगा, तो बड़ी कठिनाई खड़ी हुई। क्योंकि बिना बेहोशी का कुछ इंजेक्शन दिए ऑपरेशन नहीं हो सकता था। अपेंडिक्स का ऑपरेशन था; लंबा ऑपरेशन था, खतरनाक था। और पीड़ा होनी स्वाभाविक थी। तो काशी के नरेश ने कहा: तुम भयभीत न होओ। बस, मेरी गीता मुझे दे दो। मैं गीता को गुनगुनाता रहूंगा, तुम ऑपरेशन कर लेना।
डॉक्टरों को भरोसा न हुआ। क्योंकि ऑपरेशन अपेंडिक्स का--पेट पूरा खोलना पड़ेगा। घंटे भर, दो घंटे लगेंगे; क्या भरोसा; इस आदमी की धुन टूट जाए! यह कहता है, अनुभव क्या है इसको? पहले कभी ऑपरेशन तो हुआ नहीं है। तो उन्होंने कहा कि तुम प्रयोग शुरू करो। और सब तरह से खीलें चुभाईं, छुरियां चुभाईं--हाथ में, पैर में; सब तरह की पीड़ा देकर देखी कि किसी पीड़ा से धुन तो नहीं टूटती। धुन टूटी ही नहीं। वह आदमी अपनी गीता ही पढ़ता रहा, जैसे उसे पता ही न चला।
साधारण जीवन में भी ऐसा घटता है। यह कुछ चमत्कार नहीं है। एक बच्चा खेल रहा है--हाकी के मैदान पर। पैर में चोट लग जाती है, खून बह रहा है और वह दौड़ रहा है। उसे पता ही नहीं है। धुन लगी है।
जब धुन लगी होती है, तो न शरीर का पता होता है, न संसार का पता होता है। धुन लगे होने का यही मतलब है कि सब भूल गया। तुम किसी एक चीज में ऐसे लीन हो गए कि कुछ भी न बचा, बस, यही एक चीज बची। फिर वही मंत्र हो जाता है।
फिर उन्होंने ऑपरेशन किया और ऑपरेशन सफल हुआ। और वह आदमी अपनी गीता पढ़ता रहा। वह पहला ऑपरेशन था--बिना किसी अनेस्थेसिया के।
क्या थी कला?--कला कुल इतनी थी कि वह अपनी गीता में लीन था।
जब सारा ध्यान लीन हो कहीं--बचता ही न हो कहीं और जाने को--तब धुन...। ऐसी धुन पैदा करो, तो अचानक किसी दिन तुम पाओगे कि तुम ‘बुद्ध’ के सामने पड़ गए। ‘वृद्धा’ अब भाग नहीं सकती। और जब कोई उपाय नहीं रहता है, ‘वृद्धा’ समर्पण कर देती है।
और समर्पण सत्य का द्वार है।

आज इतना ही।

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