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Sahaj Samadhi Bhali 19

Nineteenth Discourse from the series of 21 discourses - Sahaj Samadhi Bhali by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1974, Pune.
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भगवान,
एक बादशाह को खयाल था कि उसने जो जाना और माना है, वह सब सही है। एक अर्थ में वह न्यायप्रिय भी था। उसकी तीन बेटियां थीं।
एक दिन राजा ने अपनी तीनों बेटियों को बुला कर कहा: ‘मेरी सारी संपदा तुम्हारी होने वाली है। मुझसे ही तुम्हें जीवन मिला और मेरी इच्छा से ही तुम्हारा भविष्य और भाग्य निर्मित होगा।’
दो राजकुमारियों ने तो यह बात मान ली; लेकिन तीसरी ने कहा: ‘यद्यपि स्थिति का तकाजा है कि मैं कानून का पालन करूं, तो भी मैं यह नहीं मान सकती कि मेरा भाग्य आपकी मर्जी से बनेगा।’
‘हम देखेंगे’, यह कह कर राजा ने बागी बेटी को कैद में डाल दिया, जहां वह वर्षों कष्ट झेलती रही। इस बीच उसके हिस्से का धन भी बादशाह और वफादार बेटियों ने मिल कर खर्च कर दिया। और तब बादशाह ने स्वयं से कहा: ‘यह लड़की अपनी नहीं, मेरी मर्जी से कैद काट रही है। इससे स्पष्ट है कि मेरी इच्छा ही उसकी नियति है।’
और प्रजा भी राजा की राय से राजी थी।
बीच-बीच में राजा ने बंदी बेटी से अपनी मनवाने के लिए बहुत उपाय किए, लेकिन सारी यातनाओं के बावजूद राजकुमारी ने विचार नहीं बदला। अंत में राजा ने राज्य के बाहर एक डरावने जंगल में उसको छुड़वा दिया, जहां हिंस्र पशुओं के साथ-साथ ऐसे खतरनाक आदमी भी रहते थे, जिन्हें राज्य देश-निकाले की सजा दिया करता था।
लेकिन जंगल में पहुंच कर राजकुमारी ने पाया कि गुफा-घर है और पेड़ों के फल सोने के थाल वाले फलों जैसे ही हैं। फिर उस जंगल की आजाद जिंदगी का क्या कहना! और उस कुदरती राज्य में कोई भी तो उसके राजा-पिता की आज्ञा नहीं मानता था।
फिर किसी दिन एक भूला-भटका, किंतु समृद्ध यात्री उस जंगल में पहुंचा। वह राजकुमारी के प्रेम में पड़ा, उसे वह अपने देश ले गया और वहां जाकर उसने उससे विवाह कर लिया।
अरसा बाद दोनों उसी जंगल में फिर वापस आए, जहां उन्होंने अपनी बुद्धि, साधन और श्रद्धा के अनुरूप एक नया नगर बसाया, जिसकी लयबद्ध जिंदगी में वहां के सारे बहिष्कृत पगले घुल-मिल गए। राजकुमारी और उसके पति उसके प्रधान चुने गए।
धीरे-धीरे नये राज्य का यश सारी दुनिया में फैल गया। और उसके सामने राजकुमारी के पिता का राज्य फीका पड़ने लगा।
अंत में एक दिन बादशाह स्वयं इस नये नगर को देखने आया। और जब वह सिंहासन के पास पहुंच रहा था, तभी उसके कानों में अपनी ही बेटी के ये शब्द सुनाई पड़े:
‘प्रत्येक नर-नारी की अपनी नियति है और अपना चुनाव है।’

भगवान, इस सूफी बोध-कथा का अर्थ क्या है?
सूफी मत एक बगावत है। सभी धर्म बगावतें हैं। धार्मिक होने का अर्थ ही बगावती होना है। और जो विद्रोह नहीं जानता, वह जीवन के परम सत्यों से सदा वंचित रह जाएगा। भीड़ के पीछे चलने वाला मंदिर तक कभी भी नहीं पहुंच सकता। वह रास्ता अकेले का है। वह मार्ग--बीहड़ और निर्जन है। और उस मार्ग से गुजरने का अर्थ है कि मैं अपनी नियति अपने हाथ में लेता हूं। मैं अपने जीवन का सारा दायित्व अपने कंधों पर लेता हूं।
हम भीड़ के साथ राजी होते हैं, क्योंकि वह सुविधापूर्ण है। और धर्म का सुविधा से क्या संबंध! धर्म तपश्चर्या है।
हम समाज के पीछे चलते हैं; क्योंकि यही आसान है। इसमें उपद्रव कम है, मुसीबत नहीं है। भीड़, समाज, समूह, राज्य, राष्ट्र के साथ तुम जितने एक हो जाते हो, उतने ही तुम अपनी निजता को खो देते हो। और धर्म का मूल्य निजता का मूल्य है।
तो पहली तो बात यह समझ लेना कि धर्म का अर्थ ही यही होता है कि मैं समाज से अपने को मुक्त करूं। मैं एक अंधे की भांति भीड़ के पीछे न चलूं।
भीड़ का एक मनोविज्ञान है और भीड़ के पीछे चलने की बड़ी सुविधाएं हैं। इसीलिए तो सारे लोग भीड़ के पीछे चलते हैं। पहली सुविधा तो यह है कि उत्तरदायित्व अपना नहीं रह जाता।
कहा जाता है कि अकेला आदमी इतने भयंकर पाप कभी नहीं कर सकता, जितना भीड़ में सम्मिलित होकर कर सकता है। अकेला मुसलमान मंदिर को जला नहीं सकता; लेकिन मुसलमानों की भीड़ में मंदिर जलाया जा सकता है। अकेला हिंदू मुसलमानों की हत्या नहीं कर सकता है; लेकिन हिंदुओं की भीड़ में व्यक्ति खो जाता है। एक-एक भीड़ के आदमी से पूछो कि ‘जो तुमने किया है, क्या वह ठीक था?’ तो अकेले में वह सहमेगा। शायद कहेगा कि ‘भीड़ के साथ मैं कर गुजरा। करना ठीक तो नहीं था।’
भीड़ में तुम अपने से कम हो जाते हो। भीड़ में जो सबसे नीचा आदमी है, वह अपने तल पर सभी को खींच लेता है, जैसे पानी एक सतह में हो जाता है। तुम पानी बहाओ तो जो निम्नतम पानी का जल-स्तर है, वह सारे जल का स्तर हो जाएगा। क्योंकि कोई पानी का हिस्सा ऊपर नहीं रह सकता।
तो भीड़ में कभी भी महापुरुष पैदा नहीं होता। हो नहीं सकता। क्योंकि भीड़ में जो आखिरी आदमी है, उसके तल पर सभी को आ जाना पड़ता है। महापुरुष सदा एकांत में पैदा होता है। इसलिए महावीर को जंगल जाना पड़ता है। इसलिए बुद्ध को एकांत चुनना पड़ता है। इसलिए मोहम्मद और मूसा को पहाड़--रेगिस्तान में प्रवेश कर जाना होता है। इस दुनिया में जो भी वैभवपूर्ण व्यक्तित्व पैदा हुए हैं--ईश्वरीय जिनकी क्षमता है, वे सब एकांत में जन्मे हैं।
भीड़ ने आज तक एक भी महावीर, एक भी बुद्ध, एक भी कृष्ण पैदा नहीं किया। भीड़ क्षुद्र को पैदा करती है।
क्योंकि भीड़ का नियम तुम समझ लो, वह गणित सीधा है। जैसे पानी अपने नीचे से नीचे सतह पर आकर ठहर जाता है, ऐसे ही भीड़ में चेतना निम्नतम आदमी पर आकर ठहर जाती है। जब भी तुम भीड़ में जाते हो, तो थोड़ा सोच कर जाना। भीड़ से लौट कर तुम हमेशा पाओगे कि तुम कुछ खोकर लौटे हो।
भीड़ में दायित्व खो जाता है, इसलिए बड़ा सुख है--भीड़ का; क्योंकि तुम अनुभव नहीं करते कि तुम जिम्मेवार हो। जीवन की सबसे बड़ी कठिन साधना--जिम्मेवारी का अनुभव है। जब तुम्हें लगता है: मैं रिस्पांसिबल हूं, तब चिंता पैदा होती है। क्योंकि जहां दायित्व है, वहां चिंता है, तनाव है। भीड़ सारा दायित्व अपने ऊपर ले लेती है।
दूसरे महायुद्ध के बाद नाजी अधिकारियों पर मुकदमे चले। उनके ऊपर खतरनाक अपराध थे। ऐसे खतरनाक अपराध आदमियत के इतिहास में कभी भी किए नहीं गए थे। लाखों यहूदी उन्होंने जलाए थे। लेकिन उन्होंने क्या कहा? उन्होंने यह भी नहीं कहा कि अपराध उन्होंने नहीं किए। उन्होंने कहा: हमने तो सिर्फ आज्ञा का पालन किया है। ऊपर से जो आज्ञा मिली है, हमने उसका पालन किया। हम तो सिपाही हैं।
जब तुम आज्ञा का पालन करते हो, तब तुम्हारा कोई दायित्व नहीं रहता। इसलिए हम सैनिक को आज्ञा-पालन सिखलाते हैं--ओबिडियंस। क्योंकि उससे ऐसे काम करवाने हैं, जो कि अकेला, अपनी निजता के कारण तो वह कभी न कर सकेगा; उससे हमें पाप करवाना हैं; उससे हमें आदमियों की हत्याएं करवानी हैं; उससे निर्दोष बच्चों को जलवाना है; उससे ऐसे सोए नगर पर बम गिरवाने हैं, जिनका कोई भी कसूर नहीं है।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम बम डाला, वह रात बड़े मजे से वापस लौट कर सोया! एक लाख बीस हजार आदमी जल कर राख हो गए; जिनमें से एक आदमी से भी उसकी कोई निजी दुश्मनी न थी; जिनमें से एक आदमी ने भी उसका कभी कुछ बिगाड़ा न था; जिनमें से कोई आदमी से उसका कोई संबंध न था। लेकिन एक लाख बीस हजार आदमी क्षण भर में राख हो गए और यह आदमी वापस आकर आराम से सो गया! और जब सुबह पत्रकारों ने उससे पूछा कि क्या तुम रात आराम से सोए? तो उसने कहा: निश्चित; क्योंकि कर्तव्य पूरा किया। फिर मैं निश्चिंत आकर सो गया। इस आदमी को रात इतनी चिंता न जगी! तुम जान कर एक छोटे से कीड़े-मकोड़े को पैर के नीचे दबा दो, तो भी चिंता पैदा होती है। चिंता तभी पैदा होती है, जब दायित्व होता है--जब तुम्हें लगता है: मैं जिम्मेवार हूं। जब तुम्हें लगता है: मैं जिम्मेवार ही नहीं हूं; ऊपर से किसी ने आज्ञा दी; मैंने पूरी की। और बड़ा मजा यह है कि ऊपर जो बैठा है, उसको भी आज्ञा कहीं और से मिलती है!
तुम जिम्मेवार आदमी को पकड़ ही नहीं सकते भीड़ में कि कौन जिम्मेवार है। अंततः कौन जिम्मेवार है? कोई जिम्मेवार नहीं है। इसलिए दुनिया में इतना महापाप चलता है। और यह महापाप चलता रहेगा, जब तक एक-एक व्यक्ति अपने कृत्य के लिए स्वयं को जिम्मेवार नहीं समझता है।
भीड़ के साथ जैसे ही तुम खड़े हो जाते हो, तुम्हारी चिंता मिट जाती है; तब तुम व्यक्ति नहीं हो, तुम हिंदू हो। तब तुम आदमी नहीं हो, तुम मुसलमान हो। तब मनुष्यता तुम्हारे भीतर बुझ जाती है। तब तुम भारतीय हो, पाकिस्तानी हो--आदमी नहीं हो। और धर्म का संबंध तुम्हारी आदमियत से है। इसलिए धर्म डिसओबिडियंस है। यह थोड़ा समझना पड़े।
धर्म बगावत है। सैनिक और संन्यासी बिलकुल विपरीत हैं, दो छोर हैं। सैनिक है--आज्ञा का अनुसरण, पालन, ओबिडियंस। संन्यासी है--डिसओबिडियंस--समस्त आज्ञाओं का उल्लंघन। सैनिक और संन्यासी विपरीत छोर हैं। इनसे ज्यादा विपरीत छोर तुम न खोज सकोगे।
क्योंकि सैनिक कहता है: जो आज्ञा। जो आज्ञा हो, उसे वह यंत्रवत पूरी करता है। वह जरा भी अनुभव नहीं करता कि मेरा कोई हाथ है या मेरा कोई पाप है। मेरा कोई जुम्मा ही नहीं है। मैं तो एक यंत्र हूं। तुम आज्ञा देते हो: लेफ्ट टर्न, तो लेफ्ट टर्न। तुम कहते हो: रुक जाओ, तो मैं रुक जाता हूं। और सैनिक यंत्रवत होते चले जाते हैं। क्योंकि जितनी बड़ी चेतना पैदा करनी हो, उतना बड़ा दायित्व लेना जरूरी है।
विलियम जेम्स एक दुकान पर बैठा हुआ था; बड़ा मनोवैज्ञानिक था; और अपने एक मित्र से बात कर रहा था कि सैनिक कैसे धीरे-धीरे यंत्रवत हो जाता है। तभी बाहर एक सैनिक जा रहा था--अंडों की एक टोकरी अपने सिर पर लिए। और विलियम जेम्स ने जोर से चिल्ला कर कहा: अटेंशन। वह आदमी टोकरी को छोड़ कर अटेंशन खड़ा हो गया। सारे अंडे फूट कर बिखर गए रास्ते पर। वह आदमी बहुत नाराज हुआ। उसने कहा: किसने यह अटेंशन कहा है? किसने कहा: सावधान? उस आदमी को सेना छोड़े दस साल हो चुके थे; वह रिटायर्ड सैनिक था। पहले महायुद्ध के समय की घटना है। लेकिन विलियम जेम्स ने कहा कि हमें हक है कि हम कुछ भी कहें। तुम्हें क्या जरूरत है सुनने की या तुम्हें क्या जरूरत है मानने की? उसने कहा: यह हमारे बस में थोड़े ही है। जब सुना: सावधान, अटेंशन। तो यंत्रवत खड़ा हो गया। यह कोई होश का तो सवाल नहीं है, बेहोश आदत है।
सैनिक की पूरी तैयारी बेहोशी के लिए है। क्योंकि होश--तो फिर वह पूछेगा कि इस जिस आदमी को मैं गोली से छेद रहा हूं, इसने बिगाड़ा क्या है? जिस आदमी को मैं मार डाल रहा हूं, इसका कसूर क्या है? अगर सोचेगा तो खतरा है। अगर विचारेगा तो मुश्किल है।
अंधे की तरह अनुसरण--सैनिक का लक्षण है। उतना ही कुशल सैनिक होगा, जितना मूर्च्छित होगा। इस मूर्च्छा को पैदा करने के लिए बड़ा आयोजन करना पड़ता है।
वर्षों तक हम सैनिक को लेफ्ट-राइट करवाते हैं। कोई भी नहीं पूछता कि यह क्यों? आखिर जिंदगी इस मूर्खता में क्यों खराब की जा रही है? लाखों लोग जमीन पर सिर्फ लेफ्ट-राइट कर रहे हैं--बाएं घूमो, दाएं घूमो--और वर्षों तक रोज घंटों कर रहे हैं। लेकिन इसके पीछे राज है। यह व्यर्थ नहीं हो रहा है; यह जान-बूझकर करवाया जा रहा है। क्योंकि इस आदमी की चेतना को क्षीण करना है; इसे यंत्रवत बनाना है। इसे मूर्खतापूर्ण आज्ञाओं को मानने के लिए राजी करना है, अर्थहीन आज्ञा के लिए राजी करना है। बाएं घूमो, तो सैनिक यह नहीं कहता कि क्यों घूमूं? जरूरत क्या है? घूमना है यानी घूमना है। प्रश्न नहीं उठाना है। अगर सैनिक ने प्रश्न पूछा, तो वह व्यर्थ है।
मैंने सुना है कि एक दार्शनिक एक बार सेना में भरती हो गया। सोच-विचार का आदमी था; सेना के बिलकुल योग्य नहीं था। क्योंकि सोचने विचारने वाले की कहां सेना में जरूरत है! तो जब उससे कहा गया: बाएं घूमो, तो सारे लोग घूम गए; वह खड़ा ही रहा। तो उसके सेनापति ने पूछा कि तुम अब खड़े किस लिए हो? तो उसने कहा: मैं सोच रहा हूं कि क्यों बाएं घूमूं? क्या प्रयोजन है? कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता है! और बिना सोचे मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं। जब तक मैं सोच न लूं, जब तक मैं निर्णय न करूं, तब तक मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं। मैं बाएं भी नहीं घूम सकता हूं।
बड़ी कोशिश की गई, लेकिन व्यर्थ था--उस आदमी को बाएं-दाएं घुमाना। लेकिन वह भरती तो हो गया था; तो उसे सैनिकों का जो भोजनालय था, वहां रख दिया। पहले ही दिन उसको मटर के दाने अलग-अलग करने को दिए गए--कि बड़े दाने अलग, छोटे दाने अलग। घंटे भर बाद जब उसका सेनापति आया, तब वह आंख बंद किए--ध्यानमग्न मटर के दानों को सामने रखे बैठा था। अभी उसने शुरू नहीं किया था! उसके सेनापति ने उसे हिलाया और कहा कि क्या कर रहे हो? यह छोटा सा काम भी नहीं होता? उसने कहा कि मैं सोच रहा हूं कि कुछ दाने बड़े हैं--माना; और कुछ दाने छोटे हैं, वह भी माना। कुछ मंझोल हैं-- उनको किस तरफ करना है? और जब तक बात साफ न हो जाए, तब तक मैं हाथ नहीं हिला सकता।
इस आदमी को सेना के बाहर निकालने के सिवाय और कोई उपाय न था। क्योंकि जो इतना सोचता हो, इसको मूर्खतापूर्ण कृत्यों में लगाया नहीं जा सकता। इसलिए जितनी कम बुद्धि हो, जितना कम विचार हो, उतना अच्छा सैनिक तैयार होता है।
वह सैनिक की जरूरत नहीं है, अयोग्यता है--सोच-विचार। क्योंकि सोच-विचार का अंतिम अर्थ: दायित्व का बोध है; मैं जिम्मेवार हूं और अंततः मुझसे पूछा जाएगा कि तुमने क्यों किया। तब मैं क्या कहूंगा। परमात्मा के सामने मैं क्या कहूंगा? यह हत्या मैंने की? यह बम मैंने फेंका? सैनिक कहेगा: आज्ञा थी; मैं तो कुछ भी नहीं हूं। जो आज्ञा थी, वह मैंने पूरी की। मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है, मेरा कोई पाप नहीं है।
संन्यासी इससे विपरीत छोर है। संन्यासी कहता है: आंख की पलक भी मेरी हिलती है और उससे भी अगर कोई किटाणु मर जाता है, तो वह मेरा जिम्मा है। रास्ते पर मैं चलता हूं और चींटी दब जाती है, तो वह मेरा दायित्व है।
एक तरफ महावीर जैसा संन्यासी है जो पैर फूंक-फूंक कर रखता है--जो गीली जमीन पर पैर नहीं रखता है, क्योंकि गीली जमीन पर कीटाणुओं के होने की संभावना ज्यादा है--जो सूखी जमीन पर मल-मूत्र विसर्जन करता है, क्योंकि गीली जमीन पर कीटाणु दब सकते हैं, मर सकते हैं; जो रात में करवट नहीं बदलता है, क्योंकि करवट बदलने से हो सकता है: कुछ कीड़े-मकोड़े इस बीच आ गए हों और तुम करवट बदलो और रात में वे दब जाएं, तो जो एक ही करवट सोता है; जो रात में चलता नहीं, क्योंकि अंधेरे में किसी के जीवन को खतरा है; जिम्मेवार मैं हूं। ये महावीर संन्यास की परम प्रतिमा हैं।
संन्यास का अर्थ हुआ कि सारा दायित्व मेरा है। मैं बहाने नहीं जुटा सकता कि किसी ने आज्ञा दी। क्योंकि अंततः ‘आज्ञा दी’--यह सवाल नहीं है, तुमने मानी--यह सवाल है।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर बम फेंका, क्या वह यह नहीं कह सकता था कि मैं बम नहीं फेंकूंगा? यह हो सकता था। इसका परिणाम होता कि उसे गोली मार दी जाती। लेकिन ठीक था। ‘मैं गोली से मर जाना पसंद करूंगा, लेकिन एक लाख बीस हजार लोगों को अकारण मारने के लिए मैं तैयार नहीं हूं।’ लेकिन तब यह आदमी सैनिक नहीं होता, संन्यासी हो जाता। तब इस दुनिया के सामने भला यह अपराधी होता, लेकिन परमात्मा के सामने इसकी गरिमा का कोई अंत न था। इस पृथ्वी पर शायद इसे कोई भी न पूछता, लेकिन उस दूसरे लोक में यह प्रथम होता।
जीसस ने बार-बार कहा है: जो इस जमीन पर प्रथम खड़े हैं, समझ के रहना कि मेरे परमात्मा के राज्य में तुम अंतिम हो जाओगे। और जो यहां अंतिम खड़े हैं, जिन्हें कोई पूछता नहीं, वे मेरे परमात्मा के राज्य में प्रथम हो जाएंगे।
तो धर्म का पहला सूत्र है: अंधी आज्ञा मत मानना; अर्थ हुआ कि दायित्व दूसरे पर मत डालना।
आज्ञा मानने में मजा यही है कि तुम जिम्मेवार नहीं हो। तुम दायित्व दूसरे पर डाल देते हो; इसीलिए दुनिया में इतने अनुयायी हैं। अनुयायी मुफ्त नहीं हैं। कोई बेकार अनुयायी नहीं बनता। अनुयायी बनने का मतलब है कि सारा दायित्व नेता पर है; हम पर कुछ भी नहीं है।
और लोकतंत्र ने बड़ी सुविधा जुटा दी है। नेता कहता है कि सारा दायित्व मतदाताओं पर है। मतदाता सोचते हैं कि सारा दायित्व नेता पर है। आज दायित्व किसी पर भी नहीं है। एक चक्र है, जिसमें हर एक-दूसरे की तरफ इशारा करता है। तुम इस दुनिया में अपराधी को पकड़ ही नहीं सकते। इसलिए अपराध बढ़ते चले जाते हैं।
धर्म की मौलिक खोज यह है कि दायित्व तुम्हारा है। अगर तुम चूके और तुमने किसी और को बताया, तो वह किसी और को बताएगा, तो वह किसी और को बताएगा। फिर दायित्व पकड़ में आने वाला नहीं है।
यही कर्म का सिद्धांत है कि तुम जिम्मेवार हो। तुम कुछ भी करो, तुम बच न सकोगे और बचाव का कोई उपाय नहीं है। इसलिए तुम छोटा सा भी कृत्य करो, तो जान कर करना कि मैं कर रहा हूं। तुम्हारा भाग्य, तुम्हारी नियति--तुम्हारा ही निर्माण है।
सूफी बगावती लोग हैं। तो यह तो पहली बात समझ लें, तब यह कहानी आसान हो जाएगी समझना।
दूसरी बात यह समझ लें कि जितना ही तुम सोचोगे कि मैं जिम्मेवार हूं, उतने ही तुम सचेत हो जाओगे, उतनी ही अवेयरनेस बढ़ेगी, उतना ही तुम चौंक कर जीओगे, उतनी ही सावधानी सावचेतता रहेगी। जितना ही तुमने सोचा कि कोई और जिम्मेवार है, तुम उतनी ही आसानी से सो सकते हो; तब कोई भय नहीं है।
आधुनिक मनोविज्ञान ने दुनिया में अपराध करने के लिए बड़ी सुविधा जुटा दी। इस सदी में जो बड़ी से बड़ी खोजें हुईं, वे तीन हैं। और इस सदी में जिन तीन खोजों का बड़े से बड़ा परिणाम हुआ है, वे परिणाम हैं: मनुष्य को सारे उत्तरदायित्व से मुक्त कर देना।
एक तो खोज की न्यूटन और उनके साथियों ने--कि जगत नियमबद्ध है: और नियम यांत्रिक हैं। अपवाद कोई हो नहीं सकता। नियम के बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। और हर आदमी एक अंधा अनुयायी है; चाहे वह जाने और चाहे न जाने। मनुष्य है ही नहीं, मशीन है। अगर तुम यंत्र हो, तो कैसा अपराध का भाव! तब तुम्हारी चेतना को कोई पीड़ा नहीं होती। चेतना है ही नहीं; सब यंत्र है, पदार्थ है।
फिर दूसरी खोज की फ्रायड ने और वह खोज यह थी कि जब भी तुम पाप करते हो, तो तुम जिम्मेवार नहीं हो। बचपन से तुम्हें जिस तरह तैयार किया गया है, वह शिक्षण की पद्धति, माता, पिता, परिवार--वे जिम्मेवार हैं; तुम जिम्मेवार नहीं हो; माहौल, वातावरण जिम्मेवार है; तुम्हारे आस-पास की हवा जिम्मेवार है। अगर तुम चोरी करते हो, तो तुम कुछ और कर ही नहीं सकते। तुम जिस तरह बड़े किए गए हो, तुम जिस मां के घर पैदा हुए, जिस बाप ने तुम्हें पाला, जिन लोगों के साथ तुमने सीखा जीवन, बचपन गुजारा, उस सबका इकट्ठा जोड़ है। यह कोई कृत्य नहीं है, जो तुम कर रहे हो। यह फूल है, जो तुममें लग रहा है, और इसके लिए तुम जिम्मेवार नहीं हो।
और तीसरी बात मार्क्स ने कही; और उसने कहा कि समाज की आर्थिक परिस्थितियां हर चीज की अंतिम निर्धारक हैं। आदमी चोर है, क्योंकि गरीब है। बेईमान है, क्योंकि भूखा है। शोषण है, इसलिए पाप है। और जब दुनिया में कोई शोषण न होगा, तो कोई पाप न होगा।
इन तीन धारणाओं का प्रभाव है कि आज जमीन पर जितने अपराध हो रहे हैं, उतने कभी भी नहीं हुए थे। और इन अपराधों के सिलसिले को तोड़ना मुश्किल है; क्योंकि यह अपराधी अपने को अपराधी मानता ही नहीं है।
महावीर, बुद्ध, मोहम्मद, कृष्ण, जरथुस्त्र--उनकी सारी शिक्षाएं बिलकुल विपरीत हैं। वे कहते हैं कि हर कृत्य के लिए तुम जिम्मेवार हो। और अगर उनके विश्लेषण को हम समझें, तो वे कहते हैं कि तुम जिस मां-बाप के घर पैदा हुए हो, वह भी तुम्हारा चुनाव है। वह भी तुम्हारी आत्मा ने चुना कि तुम इस गर्भ को ग्रहण करो। वह भी आकस्मिक नहीं है। तुम जिस समाज में आए, वह भी तुम्हारा ही निर्णय है। कि तुम ब्राह्मण के घर पैदा हुए, कि शुद्र के घर, वह भी तुम्हारी आकांक्षाओं का सम्मिलित फल है। पर जिम्मेवार अंततः तुम ही हो। तुम अगर गरीब हो या अमीर हो, तो भी यह तुम्हारा ही चुनाव है।
तुम अंततः केंद्र में हो--अपने जीवन के। तुम्हारे सारे कृत्य परिधि पर हैं और तुम निर्णायक की तरह केंद्र में हो।
एक लिहाज से तो यह बड़ा खतरनाक भी लगता है। और भयभीत करने वाला है। क्योंकि सभी चीज के लिए तुम जिम्मेवार हो, तो बड़ी चिंता पैदा होगी। लेकिन दूसरी तरफ से देखने पर यह बड़ी गरिमा की बात है कि तुम ही जिम्मेवार हो। इससे तुम्हारा मूल्य है; तुम कीमती हो। और तुम चाहो, तो क्रांति कर सकते हो। और सारी दुनिया में क्रांति की जरूरत नहीं है--तुम्हारी क्रांति के लिए; तुम अपने को बदल सकते हो। तो एक तरफ से तो चिंता पैदा होती है, दायित्व तुम्हारा होता है; और दूसरी तरफ से तुम्हारी गरिमा प्रकट होती है, महिमा प्रकट होती है।
अगर तुम मार्क्स, फ्रायड और अन्यों को मान कर चलते हो--महावीर और बुद्ध के विपरीत, तो चिंता तो तुम्हारी समाप्त हो जाती है, लेकिन तुम्हारी गरिमा भी खो जाती है। तुम्हें कोई चिंता नहीं है, फिर तुम जैसे हो--ठीक हो। लेकिन फिर तुम्हारी महिमा भी क्या है? तुम्हारी स्वतंत्रता भी चली गई।
तुम्हारी चिंता के साथ ही साथ तुम्हारी स्वतंत्रता चली जाती है। और तुम्हारी चिंता के साथ ही साथ तुम्हारी स्वतंत्रता बढ़ती है। तो धार्मिक व्यक्ति प्रगाढ़ चिंता से गुजरता है।
कीर्कगार्ड ने लिखा है कि जैसी एंग्जायटी धार्मिक आदमी को होती है, वैसी किसी को नहीं होती। उस चिंता के बाद शांति का क्षण आता है। लेकिन वह आता है--जीवन की क्रांति के द्वारा।
दायित्व दूसरों पर फेंक कर भी शांति आती है, लेकिन वह शांति मरघट की शांति है; तुम बचे ही नहीं; तुम दो कोड़ी के हो गए। जिस दिन तुमने कहा कि मेरे कृत्यों के लिए कोई और जिम्मेवार है, उस दिन तुम समाप्त हो गए; उस दिन से तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है।
तो यह दूसरी बात खयाल में रख लें कि सारे धर्मों का जोर है कि नियति तुम्हारी है; तुम्हारा भाग्य तुम्हारे ही निर्णय का विस्तार है। तुम नियंता हो, तुम मालिक हो, तुम स्वतंत्र हो। तुम जैसे हो--बुरे, भले--तुमने ही बनाया है। और तुम चाहो तो बदल सकते हो। और कल जैसा होगा, वह तुम्हारे आज के निर्णय पर निर्भर है।
कोई दूसरा तुम्हें चला नहीं रहा है; तुम अपने ही पैरों पर चल रहे हो। कोई तुम्हें धका नहीं रहा है, तुम खुद ही अपनी आकांक्षाओं के बल यात्रा कर रहे हो। तुम्हारी महिमा है, तुम मूल्यवान हो; क्योंकि निर्णय का केंद्र तुम्हारे भीतर है।
निर्णय का केंद्र ही आत्मा है। इसलिए मार्क्स और फ्रायड आत्मा को नहीं मान सकते। क्योंकि जब निर्णय का केंद्र ही तुम्हारे भीतर नहीं है, तो कैसी आत्मा!
ये दो बातें खयाल में लें, फिर हम इस कहानी के एक-एक शब्द को समझने की कोशिश करें।
‘एक बादशाह को खयाल था कि उसने जो जाना और माना है, वह सही है। एक अर्थ में वह न्यायप्रिय भी था।’
जिनके पास भी थोड़ी शक्ति आ जाती है, उन्हें यह वहम पैदा होना शुरू हो जाता है कि उन्होंने जो भी जाना और माना है, वह सही है। इसीलिए तो लोग शक्ति की इतनी खोज करते हैं। राजनीति की इतनी दौड़ है; क्योंकि सिंहासन पर पहुंच कर तुम जो कहो, वही सत्य हो जाता है।
दुनिया में सत्य की खोज दो तरह से हो सकती है। एक तो, तुम सत्य को खोजने निकलो, तब शायद तुम्हें सब सिंहासन छोड़ देने पड़ें; क्योंकि खोज इतनी कीमती है कि सिंहासनों पर बैठ कर, हो नहीं सकती है। और खोज इतनी गहरी है कि सिंहासन पर बैठा हुआ वहां तक पहुंच नहीं सकता। जो सत्य की खोज पर जाता है, सिंहासन छोड़ देता है।
एक तो खोज है महावीर और बुद्ध की और दूसरी खोज यह है कि तुम सत्य चाहते हो, सिंहासन पर पहुंच जाओ। क्योकि सिंहासन पर पहुंच कर तुम जो भी कहोगे--तुम्हारी ताकत की वजह से--लोग उसे सत्य मानेंगे। और तुम्हें भी वहम पैदा होगा कि जब इतने लोग मानते हैं सत्य, तो जो मैं कहता हूं, वह सत्य होना चाहिए।
नेपोलियन का प्रसिद्ध वचन है कि उसने कहा: आइ एम दि लॉ, आइ एम दि स्टेट--मैं हूं कानून, मैं हूं राज्य। मैं जो कहूं, वही कानून है; कोई और कानून नहीं है। सिंहासन पर पहुंचे आदमी को यह वहम स्वाभाविक हो जाता है कि वह जो कहता है, वही नियम है।
या तो तुम सत्य के अनुसार हो जाओ और या तुम इतने ताकतवर हो जाओ कि तुम दावा कर सको कि सत्य मेरे अनुसार है। बस, ये दो ही खोज हैं। राजनीति और धर्म--दो ही यात्राएं हैं। इसीलिए राजनीतिज्ञ कभी धार्मिक नहीं हो पाता है। और धार्मिक का राजनीतिज्ञ होना असंभव है। यात्रा ही अलग है। एक शक्ति की खोज है और एक शांति की। एक सत्य की खोज है और एक सिंहासन की। सत्य की खोज में सूली तो भला मिल जाए, सिंहासन कभी भी नहीं मिलता। और सिंहासन की खोज में सिंहासन ही मिलता है, सत्य कभी नहीं मिलता। लेकिन जिसके पास ताकत है, वह लोगों को झुका सकता है, मनवा सकता है। और उसकी ताकत के कारण इनकार करना असंभव होगा।
ऐसा हुआ कि मोलोतोव--स्टैलिन का एक निकट साथी--एक बड़ी राजनीतिक कांफ्रेंस में लंदन आया हुआ था। कोई जरूरी बात थी, जो स्टैलिन से पूछनी थी, तभी वह उत्तर दे सकता था। तो वह फोन कर रहा था स्टैलिन को। और एक पत्रकार, जो उससे मिलने आया था, वह कमरे में बैठा था। उधर से स्टैलिन जो भी कहता था, वह कहता था: यस सर--जी हां, जी हां, जी हां। लेकिन एक ऐसी घड़ी आई कि इसने कहा कि नहीं, बिलकुल नहीं। पत्रकार चौंका। क्योंकि स्टैलिन को कहना: नहीं, बिलकुल नहीं--असंभव बात है! और मोलोतोव कहे, अनुभवी है कि जिसने नहीं कही, उसकी गर्दन गई; वह बचेगा नहीं। तो पत्रकार ऐसे तो सुनता रहा, जब तक मोलोतोव जी हां, जी हां कह रहा था। लेकिन उत्सुक हुआ, जब मालोतोव ने कहा कि नहीं, बिलकुल नहीं--एब्सोल्यूटली नो।
उस पत्रकार ने, जब वार्ता पूरी हो गई तो उसने कहा: अगर आप नाराज न हों तो... बड़ी उत्सुकता पैदा हो गई है। मुझे मतलब नहीं कि आप किन चीजों में जी हां कह रह थे। लेकिन किस बात पर आपने कहा कि नहीं! आश्चर्यजनक! स्टैलिन को--और कोई कहे नहीं! मोलोतोव हंसने लगा। उसने कहा कि स्टैलिन को नहीं कहना असंभव है। लेकिन स्टैलिन उस समय मुझसे कह रहा था: मोलोतोव, तुम ही निर्णय ले लो। इसलिए मैं कह रहा था कि नहीं, बिलकुल नहीं।
जिसके पास शक्ति है, वह तुमसे हां कहलवा सकता है--चाहे वह तुम्हारे हृदय से आए या न आए। लेकिन वह तुम्हें मजबूर कर सकता है। सिंहासन पर बैठे लोगों को भ्रम हो जाता है कि उनके पास सत्य है।
इस सम्राट को भी यही खयाल था कि जो उसने जाना और माना है, वह सही है। इससे कोई इनकार भी नहीं कर सकता था। और एक और खतरा था कि वह आदमी सिंहासन पर ही नहीं था--शक्तिशाली ही नहीं था--न्यायप्रिय भी था। और जब कोई आदमी सिंहासन पर भी हो--और साधु हो, तो उससे ज्यादा खतरनाक आदमी नहीं होता। एक तो सिंहासन! उसे सत्य होने का खयाल! असाधु हो, तो तुम जानते हो कि खयाल है सिर्फ, लेकिन वह साधु भी हो--आदमी अच्छा भी हो--तो बहुत मुश्किल हो जाती है।
बुरे आदमी के हाथ में ताकत उतनी खतरनाक नहीं है, क्योंकि तुम जानते हो कि आदमी बुरा है और अगर हां भी कह रहे हो, तो ऊपर से कह रहे हो। भीतर से तुम इनकार कर रहे हो। लेकिन आदमी अच्छा भी हो, न्यायप्रिय भी हो, तब अड़चन और ज्यादा हो जाती है। तब तुम भीतर से भी ना कहने में मजबूर हो जाते हो; नहीं कह पाते हो; तब तुम्हें सब तरफ से हां कहनी पड़ती है।
न केवल आदमी शक्तिशाली था, न्यायप्रिय भी था। उसकी तीन बेटियां थीं। एक दिन राजा ने अपनी सभी बेटियों को बुला कर कहा: ‘मेरी सारी संपदा तुम्हारी होने वाली है। मुझसे ही तुम्हें जीवन मिला और मेरी इच्छा से ही तुम्हारे भविष्य और भाग्य का निर्माण होगा।’
दो राजकुमारियों ने तो यह बात मान ली। लेकिन तीसरी ने कहा: ‘यद्यपि स्थिति का तकाजा है कि मैं कानून का पालन करूं, तो भी मैं यह नहीं मान सकती कि मेरा भाग्य आपकी मर्जी से बनेगा।’
बुद्ध के पिता ने एक दिन बुद्ध से यही कहा था: कहा था कि तू मुझसे पैदा हुआ है। और कहा था--एक विशेष परिस्थिति में। बुद्ध ज्ञानी होकर वापस लौटे गांव, तो बुद्ध के पिता नाराज थे कि छोकरा घर छोड़ कर भाग गया था। और नाराज थे, क्योंकि इकलौता बेटा था, इसका ही सारा साम्राज्य था। और नाराज थे कि जिस परिवार ने कभी भीख नहीं मांगी--लाखों को भीख दी--उसका इकलौता बेटा सड़कों पर भीख मांग रहा था। अहंकार को बड़ी चोट लगी थी। और जब बुद्ध गांव में वापस आए, तो बाप नाराज थे।
और ध्यान रहे, अगर आप बाप हैं, तो बेटा बुद्ध भी हो जाए, तो भी पहचानना बहुत मुश्किल है। क्योंकि बाप का मतलब है: ताकत की स्थिति।
बुद्ध के बाप को दिखाई नहीं पड़ा कि यह बेटा इतना रोशन होकर लौटा है, इतना ज्योतिर्मय होकर लौटा है! बुद्ध के बाप की आंखों में तो क्रोध था। और जहां क्रोध है, वहां दर्शन साफ नहीं होता। देखते ही उसने कहा कि फेंको यह भिक्षापात्र। और बहुत हो चुका यह नाटक। और मेरे द्वार अब भी खुले हैं। बाप का हृदय है, कभी बंद नहीं होता। तुम वापस लौट आओ। और मैं तुम्हें माफ कर दूंगा। यद्यपि तुमने पाप गहन किया है, माफी के योग्य नहीं है; लेकिन करुणा के कारण, प्रेम के कारण, मोह के कारण, माफ कर दूंगा।
बुद्ध ने कहा: आप गौर से तो देखें; क्योंकि जो बेटा आपका घर छोड़ कर गया था, वही वापस नहीं लौटा है। यह कोई और ही आदमी है, जो सामने खड़ा है। क्योंकि मैं आपसे निश्चित कहता हूं, वह मर चुका, जो गया था। और जो आया है, इससे उसका कोई भी संबंध नहीं। देह शायद एक हो, लेकिन भीतर का निवासी बिलकुल बदल गया है। मकान पुराना हो, मालिक वही नहीं है। आप एक बार गौर से तो देखें। आप मुझे पहचानने की कोशिश करें।
बाप ने कहा: मैंने तुझे पैदा किया और मैं तुझे पहचानने की कोशिश करूं! मुझसे भलीभांति तुझे कौन जानता है? मेरा ही खून है, मेरी ही हड्डी-मांस-मज्जा है और मैं तुझे जानता नहीं!
बुद्ध ने कहा: आपने मुझे पैदा किया होगा; लेकिन फिर भी मैं आपसे कहता हूं कि आपने मुझे निर्मित नहीं किया। मैं आपसे गुजरा हूं; आप एक चौराहे थे, जिससे मैं पार हुआ हूं। लेकिन क्या आप सोचते हैं कि जिस रास्ते से यात्री गुजर जाता है, वह रास्ता उस यात्री को जान लेता है? आप सिर्फ रास्ता थे, जिससे मैं आया हूं।
ये अनहोनी सी बातें, जो किसी बेटे ने कभी किसी बाप से नहीं कीं--बुद्ध के बाप ने आंखें पोंछी, जो क्रोध की वजह से आंसुओं से भर गई थीं और गौर से इस युवक को देखा। निश्चित ही जो लड़का घर से गया था, यह वही नहीं है।
इस तीसरी बेटी ने कहा: ‘स्थिति का तकाजा है कि मैं कानून का पालन करूं, तो भी मैं यह नहीं मान सकती कि मेरा भाग्य आपकी मर्जी से बनेगा। आप मेरे पिता हैं, आपने मुझे जन्म दिया है, वह सब ठीक है। यह भी हो सकता है कि आप मेरे अतीत हैं; लेकिन आप मेरे भविष्य हैं--यह मैं नहीं मान सकती। और भविष्य मेरा स्वतंत्र है; वह आपकी मर्जी से नहीं बनेगा। मैं यंत्र नहीं हूं। मेरा भी अपना जीवन है। और मैं मृत नहीं हूं, मैं चेतन हूं।’
‘मैं एक स्वतंत्र इकाई हूं?’ यह घोषणा ही आत्मा की घोषणा है। इसलिए महावीर ने परमात्मा को इनकार कर दिया। महावीर ने कहा: ‘कोई परमात्मा नहीं है दुनिया में।’ क्योंकि अगर परमात्मा--परमात्मा यानी पिता--तो फिर बेटे की कोई स्वतंत्रता नहीं हो सकती। और अगर परमात्मा ने बनाया है--आत्मा को, तो जो चीज बनाई गई है, वह कल मिटाई भी जा सकती है। इसलिए फिर आत्मा की कोई शाश्वतता नहीं है।
और अगर परमात्मा ने ही आत्मा को बनाया है, तो तुम्हारे प्रयास तुम कितने ही करो--व्यर्थ हैं; क्योंकि परमात्मा तुम्हारी स्थिति को कभी भी बदल दे सकता है। तुम कितना ही पुण्य करो, वह तुम्हें पाप में डाल सकता है। और तुम कितने ही पाप करो, वह तुम्हें पुण्यात्मा बना सकता है; क्योंकि अंतिम मालिक वही है; उसने तुम्हें बनाया है।
परमात्मा को धार्मिक लोग पिता कहते हैं--महापिता कहते हैं। सारी दुनिया में वह प्रतीक है: पिता का। वह सोचने जैसा है। साधारण पिता तो इतना ही कह सकता है कि तुम मुझसे पैदा हुए हो। मैंने तुम्हें बनाया, यह दावा नहीं कर सकता। अगर बिलकुल अंधा हो तो ही कर सकता है। लेकिन अगर परमात्मा पिता है, तब तो वह यह भी दावा कर सकता है कि मैंने तुम्हें बनाया। तुम मुझसे पैदा नहीं हुए हो, मेरे ही निर्माण हो।
सारे धर्म यही तो कथा कहते हैं कि उसने मिट्टी की मूर्ति बनाई, फिर श्वास फूंक दी और आदमी निर्मित हो गया। महावीर ने कहा: अगर ऐसा कोई परमात्मा है, तो मनुष्य की सारी गरिमा खो जाती है; क्योंकि तब स्वतंत्रता नहीं है। और तब फिर पाप या पुण्य का कोई अर्थ नहीं है। फिर मैं अपने को मुक्त करने की चेष्टा करूं, वह भी व्यर्थ है।
क्योंकि अगर यही सच है कि कोई भीतर से धागे डाल रहा है और मैं कठपुतली की तरह नाच रहा हूं, तो कठपुतली की क्या स्वतंत्रता! फिर कठपुतली चोर हो कि साधु हो--यह धागे खींचने वाले पर निर्भर है। फिर सब व्यर्थ हो जाता है। फिर यह पूरा जगत एक मूर्खतापूर्ण कथा है, जिसमें कोई सार नहीं है। इसलिए महावीर ने कहा: ‘परमात्मा नहीं है। बस, तुम हो।’ यह बड़ा सोचने जैसा है।
महावीर ने यह कहा कि तुम ही परमात्मा हो। सूफी भी यही कहते हैं। इसलिए मुसलमान सूफियों पर बहुत नाराज रहे। इसलिए मंसूर जैसे सूफी को मुसलमानों ने सूली पर लटका दिया, मार डाला; क्योंकि सूफियों के पास गहरे से गहरा वेदांत--गहरी से गहरी महावीर की वाणी है। सूफियों के पास--जो गहरे से गहरा धर्म है--वह है।
गहरे से गहरा धर्म, परमात्मा को तुम्हारे भीतर रखता है--आकाश में नहीं। क्योंकि आकाश में अगर परमात्मा है, तो तुम परतंत्र हो। परमात्मा तुम्हारे भीतर हो, तो ही तुम स्वतंत्र हो, तो ही तुम्हारी मुक्ति कभी संभव है; तो ही मोक्ष का उपाय है अन्यथा गुलामी सदा रहेगी। वह कभी नहीं मिट सकती, अगर परमात्मा ऊपर है।
अगर परमात्मा तुमसे भिन्न है, तो तुम्हारी कोई कीमत नहीं; तुम दो कौड़ी के हो। और जब तुम्हारी कोई कीमत नहीं, तो धर्म का क्या मूल्य है?
सूफी मानते हैं कि ‘प्रत्येक व्यक्ति ही अपना नियंता, अपना स्रष्टा है। भाग्य अपने हाथ में है।’
यह तीसरी लड़की सूफियों की प्रतीक है; यह सूफियों की प्रतिनिधि है। उस तीसरी लड़की ने कहा: ‘स्थिति का तकाजा है।’ उसने कहा: ‘परिस्थिति तो यही है, सरल भी यही है, सुगम भी यही है कि जैसे मेरी दो बहिनें राजी हो गई हैं, वैसे मैं भी राजी हो जाऊं। लेकिन यह सत्य नहीं है।’ और जो परिस्थिति के सामने झुकता है और सत्य को छोड़ता है, वही सांसारिक व्यक्ति है। और जो सत्य को पकड़ता है और परिस्थिति चाहे बदलती हो, टूटती हो, नष्ट होती हो, उसकी चिंता नहीं लेता है, वही संन्यासी है।
तुम परिस्थिति को मूल्यवान समझते हो या सत्य को? इससे ही निर्णय होगा कि तुम गृहस्थ हो या संन्यासी हो। अगर परिस्थिति मूल्यवान है अर्थात संसार मूल्यवान है, घर मूल्यवान है, परिवार मूल्यवान है, पद-प्रतिष्ठा मूल्यवान है, तो तुम गृहस्थ हो। वे दो लड़कियां गृहस्थ की प्रतीक हैं।
तीसरी लड़की--एक संन्यस्त भाव वाली लड़की है। उसने कहा: ‘स्थिति का तकाजा है कि मैं कानून का पालन करूं। आप जो कहें, वही सत्य है। लेकिन तो भी मैं यह मान नहीं सकती कि मेरा भाग्य आपकी मर्जी से बनेगा।’
इसलिए धार्मिक आदमी अक्सर बगावती दिखाई पड़ता है--जीसस या बुद्ध या महावीर। और तथाकथित धार्मिक आदमी उसकी हत्या करने को उत्सुक हो जाते हैं। जीसस को जिन्होंने मारा, वे तुम जैसे धार्मिक लोग थे--जो रोज मंदिर जाते हैं, पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, किताब को मानते हैं, कानून को मानते हैं। लेकिन ‘स्थिति’ ऊंची है; और स्थिति से ऊपर उनके भीतर कुछ भी नहीं है। परिस्थिति बड़ी है और मनःस्थिति का कोई अर्थ नहीं है।
उन्होंने जीसस को मारा, क्योंकि जीसस ने घोषणा की मनःस्थिति की और परिस्थिति को दो कौड़ी का कहा। महावीर को पत्थर मारे गए; बुद्ध का अपमान किया गया। वह सब स्वाभाविक है। और जिन्होंने किया--ध्यान रखना वे कोई अधार्मिक लोग नहीं थे। अधार्मिक को मतलब ही नहीं है। जीसस को जिन लोगों ने मारा, वे कोई नास्तिक नहीं थे। नास्तिक जो थे, उन्हें तो प्रयोजन ही नहीं था कि जीसस क्या बक रहा है। आस्तिक थे वे सारे लोग; धार्मिक थे।
तो एक तो दिखाई पड़ने वाला तथाकथित धार्मिक है; वह हमेशा आज्ञा के अनुसार चलता है; परिस्थिति को मान कर चलता है, झुक कर चलता है। और एक वास्तविक धार्मिक है, वह अपना सिर उठाता है, तो हमें कष्ट होता है।
उस लड़की ने बड़ी बगावत की बात कही; उसने कहा: ‘यह मैं नहीं मान सकती कि भविष्य तुम्हारी मर्जी से बनेगा।’ ‘हम देखेंगे’, कह कर बादशाह ने बागी बेटी को कैद में डाल दिया, जहां वह वर्षों कष्ट झेलती रही। इस बीच उसके हिस्से का धन भी बादशाह और वफादार बेटियों ने खर्च कर दिया। और तब बादशाह ने स्वयं से कहा: ‘यह लड़की--अपनी नहीं--मेरी मर्जी से कैद काट रही है। इससे स्पष्ट है कि मेरी इच्छा ही उसकी नियति है।’
लेकिन लड़की क्या सोचती रही होगी कारागृह में? यही मजा है कि जीवन बड़ा जटिल है और तुम अपने अनुसार धारणा बना लेते हो। बादशाह का कहना भी तर्कयुक्त है कि लड़की मेरी मर्जी से जेल काट रही है। और लड़की सोचती रही होगी कि ‘यह मेरी मर्जी से मैं जेल काट रही हूं। क्योंकि मैं चाहती, तो झुक जाती--परिस्थिति के सामने, आज्ञा मान लेती और आज म
हल में होती, कारागृह में न होती। यह मेरी ही मर्जी है कि मैं कारागृह में हूं।’ और बादशाह सोचता रहा, उसका सोचना भी दुरुस्त है, तर्कयुक्त मालूम पड़ता है कि ‘यह मेरी ही मर्जी है कि वह जेल काट रही है।’ लेकिन अगर तुम गौर करोगे, समझने की कोशिश करोगे, तो लड़की अपनी मर्जी से ही जेल काट रही है; बादशाह सिर्फ निमित्त है। क्योंकि दो लड़कियां अपनी ही मर्जी से महल में बैठी हैं; बादशाह सिर्फ निमित्त है।
धार्मिक व्यक्ति अपने को निमित्त मानता है--कर्ता नहीं। और अगर दूसरों के जीवन में भी उससे कुछ होता है, तो वह निमित्त मानता है--कर्ता नहीं। वह कहता है: ‘मैं सिर्फ निमित्त हूं।’ अधार्मिक व्यक्ति अकड़ जाता है। अहंकार घोषणा करता है कि देखो, अब तू जेल काट रही है; किसकी मर्जी से? तेरा भविष्य कारागृह बन गया मेरी मर्जी से। और अहंकार का तर्क ऊपर से ठीक मालूम पड़ता है, फिर भी ठीक नहीं है। जो भी घटता है, अंततः तुम्हारी ही मर्जी से घटता है।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर बम गिराया, यह भी उसकी ही मर्जी से; क्योंकि यह उसके हाथ में था कि वह कह दे कि मैं आज्ञा मानूं या न मानूं। यह अंतिम रूप से तो तुम्हारी ही मर्जी निर्धारक है। दुनिया कितना ही कुछ कहे, आखिर में तो तुम्हीं निर्णय लेते हो कि मैं मानूं या न मानूं; मैं जाऊं या न जाऊं। इसलिए यह आदमी अगर कभी अंतिम कोई अदालत हो--जैसा कि ईसाई कहते हैं, मुसलमान कहते हैं: लास्ट जजमेंट डे--तो जिस आदमी ने हिरोशिमा पर बम पटका है, वह यह न कह सकेगा कि मैंने आज्ञा मानी; क्योंकि इससे पूछा जाएगा कि आज्ञा मानना और न मानना तेरे हाथ में था या नही?
इसलिए तुम अपने को धोखा मत देना। तुम यह मत कहना कि पिता ने कहा, इसलिए मैंने ऐसा किया। तुम यह मत कहना कि समाज ने कहा, इसलिए मैंने ऐसा किया। क्योंकि कोई कुछ भी कहे, आखिरी निर्णायक तो तुम्हीं हो--सदा। अंतिम निर्णय सदा तुम्हारे हाथ में है; उससे तुम नहीं बच सकते।
बादशाह का तर्क ऊपर से ठीक दिखाई पड़ता है, भीतर से भ्रांत है।
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा है कि तेरे भाई में और तेरी उम्र में कितना फासला है? तो नसरुद्दीन ने कहा: मेरा भाई मुझसे तीन साल छोटा है और रोज छोटा होता जा रहा है। वह आदमी थोड़ा चौंका। आधी बात तो ठीक थी कि होगा तीन साल छोटा; लेकिन रोज छोटा होता जा रहा है...! उसने कहा: मैं समझा नहीं। तुम किस हिसाब से कहते हो नसरुद्दीन? नसरुद्दीन ने कहा: रीजनिंग, तर्क। एक साल पहले मैंने सुना कि मेरा भाई किसी को कह रहा था कि वह मुझसे दो साल छोटा है। एक साल बीत गया। अब वह मुझसे तीन साल छोटा है। और ज्यादा देर न लगेगी कि मैं उसके पिता की उम्र का हो जाऊंगा। और कुछ न कहो अगर ज्यादा जी गया तो उसके बाप के बाप की उम्र का हो जाऊंगा। वह रोज छोटा होता जा रहा है। एक साल बीत गया है और मैं एक साल बड़ा हो गया हूं।
अहंकार के तर्क सिर्फ अपनी तरफ देखते हैं। वह बढ़ रहा है। दूसरा? उसकी तरफ कोई सवाल नहीं है।
राजा ने अपनी तरफ तो देखा कि मेरे निर्णय से यह लड़की पड़ी है कारागृह में। उसने यह न देखा कि इसका ही अपना निर्णय है अंततः। और यह आज राजी हो जाए, तो महल में आ जाएगी। वह निर्णय भी उसका ही होगा। मैं निमित्त से ज्यादा नहीं हूं।
निर-अहंकार पैदा होना शुरू होता है--जब तुम देखते हो कि दूसरे के लिए तुम निमित्त हो, सिर्फ अपने लिए कर्ता हो। और जब तुम सोचते हो कि तुम अपने लिए भी कर्ता हो और दूसरे के लिए भी कर्ता हो, तभी भ्रांति खड़ी होती है और अहंकार निर्मित होता है।
अपने लिए कर्ता होने में कोई अहंकार नहीं है; वह तो दायित्व है। और जरूरी है कि तुम्हारे भीतर हो; अन्यथा तुम भटक जाओगे, खो जाओगे, खंड-खंड होकर गिर जाओगे। तुम्हारे पास जोड़ने वाली कोई चीज ही न होगी। कोई सीमेंट न होगा, तुम्हारे भीतर, जिससे तुम इकट्ठे खड़े रह सको। तुम बिखर जाओगे।
अपने लिए तुम कर्ता हो, तुम्हारा भाग्य तुम्हारा निर्णय है। पर दूसरों का भाग्य तुम्हारा निर्णय नहीं है; वे अपने कर्ता हैं। और अगर उनके जीवन में तुमसे कुछ भी संबंध है, तो वह निमित्त का है।
यह ‘निमित्त’ शब्द बड़ा कीमती है। निमित्त का अर्थ है कि तुम न होते तो कोई दूसरा भी यही काम करता; कोई तीसरा करता; तुम्हारा होना अनिवार्य नहीं है। किसी से भी यही घटना घट जाती। यह लड़की कारागृह में होती, कोई भी बाप होता। बाप का जो भाव है, कर्ता का जो भाव है, अहंकार जो है, उससे इस लड़की की बगावत हो जाती; यह दुख में पड़ती।
‘और प्रजा भी राजा की राय से राजी थी।’ प्रजा सदा राजा की राय से राजी है; इसीलिए प्रजा है। जो भी ताकतवर है, उससे वह राजी है।
उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई। उस क्रांति के पहले रूस दुनिया में अधिक से अधिक धार्मिक मुल्कों में एक था। लोग चर्च जाते, बाइबिल रखते, गले में क्रॉस लटकाते। और उन्नीस सौ सत्रह में क्रांति हुई और कम्युनिस्ट ताकत में आए। और कानून की एक लकीर और सारा रूस नास्तिक हो गया। यह चमत्कार है। ऐसा चमत्कार दुनिया के इतिहास में दूसरा दिखाई नहीं पड़ता।
आखिर ये बीस करोड़ लोग, जो कल तक धार्मिक थे, चर्च जाते थे--पादरियों और पुरोहितों को मारने लगे, हत्या करने लगे, चर्चों को आग लगाने लगे! इन्हीं पुजारियों, इन्हीं पूजा करने वालों ने चर्चों को स्कूल में बदल दिया, अस्पताल बना दिया। सब मूर्तियां ईसा की खो गईं। बाइबिलें जला दी गईं--बीच चौराहों पर रख कर। होलियां हो गईं--बाइबिलों की। और ये ‘वही’ लोग थे!
यह हुआ क्या? इनकी आस्तिकता कैसी थी! ये आस्तिक नहीं थे। तब जार था। वह आस्तिकता में मानता था। वह अपने को धार्मिक समझता था। उसकी धारणा थी धार्मिक होने की। ये जार के साथ राजी थे; ये तब भी प्रजा थे।
फिर जार की जगह लेनिन, स्टैलिन आ गए; ये नास्तिक थे, ये ईश्वर को नहीं मानते थे। ये चर्च के दुश्मन थे। ये कहते थे: ‘धर्म अफीम का नशा है।’ प्रजा इनसे राजी हो गई। प्रजा सदा राजी होती है। प्रजा का अर्थ है: जिसका अपना कोई निर्णय नहीं। जहां ताकत हो, वह उसके साथ राजी हो जाती है। जिसके पास ताकत हो, वह उससे राजी हो जाती है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक सम्राट के यहां नौकर था। उसकी कुशलताएं, उसकी बुद्धिमत्ताएं, उसकी अनहोनी बातें--राजा उससे प्रेम करने लगा। और रोज खाने के वक्त उसे बुला लेता था। एक दिन भिंडी की सब्जी बनी और राजा ने कहा कि बड़ी अच्छी सब्जी है। मुल्ला ने कहा: गजब की है; भिंडी जैसी तो कोई चीज ही नहीं है। सारा वनस्पति शास्त्र खोज डाला, भिंडी का कोई मुकाबला नहीं। यह तो राजा है--सब्जियों में।
दूसरे दिन, सुन लिया सब्जी बनाने वाले ने, उसने दूसरे दिन फिर भिंडी बनाई; क्योंकि जब ऐसी ‘राजा भिंडी’ है, तो दूसरे दिन भी बनाई। राजा ने खाई तो, लेकिन कोई चर्चा न की। तो मुल्ला नसरुद्दीन भी चुप रहा। तीसरे दिन फिर उसने भिंडी बनाई, तो राजा नाराज हो गया। उसने थाली सरका दी और जमीन पर गिरा दी। उसने कहा: यह क्या पागलपन है--रोज भिंडी-भिंडी! ऊब गया।
नसरुद्दीन ने उठ कर एक लात मारी थाली को और कहा: भिंडी! यह भी कोई खाने योग्य है? यह तो जानवरों के लायक है। राजा ने कहा: नसरुद्दीन! दो दिन पहले तो तुमने कहा था कि यह सब्जियों में राजा है। नसरुद्दीन ने कहा: मालिक, मैं आपका नौकर हूं, भिंडी का थोड़े ही हूं। जहां हवा बहती है, उस तरफ हम बहते हैं। हमें भिंडी से क्या लेना-देना! भिंडी हमें क्या दे देगी! आप जहर की प्रशंसा करो, हम जहर को अमृत कहेंगे। हम आपके साथ हैं, चाहे कुछ भी हो जाए। हम आपके नौकर हैं।
वह प्रजा, राजा बदल जाता है, प्रजा बदल जाती है। इसलिए प्रजा का कोई भरोसा नहीं है। उसकी कोई अपनी धारणा नहीं है।
बुद्धों का मुल्क, सत्तर करोड़ लोग बौद्ध थे चीन में; माओ ने बदल डाले। बुद्ध की प्रतिमाएं हट गईं, माओ की प्रतिमाएं लग गईं। आज बुद्ध का कोई नाम नहीं लेता। आज कोई नहीं कहता: नमो बुद्धाय! क्या हुआ?
हजारों साल से जिन्होंने बुद्ध की पूजा की थी, जिन्होंने बुद्ध के बड़े से बड़े मंदिर बनाए। दस हजार बुद्धों का मंदिर है चीन में, जिसमें दस हजार प्रतिमाएं हैं--बुद्ध की। इतना विराट मंदिर जगत में कहीं भी नहीं है, किसी का भी नहीं है। जिन्होंने पहाड़ के पहाड़ खोद डाले, सदियों तक श्रम किया; अचानक सब व्यर्थ हो गया!
क्या सच में ही ये लोग बौद्ध थे? भ्रांति थी। बौद्ध भिक्षुओं ने इनको बदला नहीं था। बौद्ध भिक्षुओं ने सम्राटों को बदल लिया था। सम्राट बौद्ध हो गया था, तो ये लोग बौद्ध हो गए थे। प्रजा राजा के पीछे चली गई थी। अब सम्राट माओ है, तो ये सब कम्युनिस्ट हैं।
प्रजा के पास अपनी कोई धारणा नहीं है। इसलिए प्रजा ने भी कहा कि राजा बिलकुल ठीक है। राजा सदा ठीक है। जिसके पास शक्ति है, वह ठीक है।
जब तक तुम्हारे पास सत्य की आकांक्षा न हो, तब तक तुम प्रजा के तल से ऊपर न उठोगे। जब तुम सत्य की आकांक्षा से भरोगे, तब तुम शक्ति से नहीं झुकोगे; तब तुम्हारे पास अपनी धारणा होगी, अपनी जीवन शैली होगी। उसके पहले सब उधार है। उसके पहले राजा के पीछे तुम चल रहे हो। उसके पहले जिसके पास ताकत है, तुम उसके साथ हो।
स्टैलिन के पास ताकत थी, तो स्टैलिन भगवान था रूस में। फिर स्टैलिन की ताकत चली गई। स्टैलिन मरा, ताकत विरोधियों के हाथ में पहुंच गई। ख्रुश्चेव के हाथ में पहुंच गई। तो स्टैलिन को जहां क्रेमलिन में गड़ाया गया था, वहां से लाश हटा दी गई। मरे हुए आदमी की लाश को वापस निकाला, क्योंकि वह बहुत प्रतिष्ठित जगह है--क्रेमलिन का चौराहा, जहां लेनिन की लाश है, उसके बगल में स्टैलिन की लाश थी, वह हटा ली गई। सब किताबों में से स्टैलिन का नाम अलग कर दिया गया, सब तस्वीरों में से स्टैलिन की तस्वीर काट दी गई। और जो कहते थे: स्टैलिन भगवान, वे सब चुप रहे।
ख्रुश्चेव ने यह सब किया, फिर ख्रुश्चेव की भी तख्ती पलट गई। फिर ख्रुश्चेव की जगह दूसरे लोग ताकत में आ गए। और लोग भूल गए कि ख्रुश्चेव जिंदा है कि नहीं! ख्रुश्चेव एक देहात में, दूर देहात में, बिलकुल गुमनाम जिंदगी जीने लगा।
लोग बड़े अजीब हैं! लोग ताकत के पीछे चलते हैं। और जो ताकत का गुलाम है, वह सत्य की खोज कभी नहीं कर सकता। वह कैसे करेगा? क्योंकि ताकत वाला बदल जाएगा, तो सत्य बदल जाएगा। और सत्य कभी बदलता नहीं। सत्य शाश्वत है और शक्ति तो रोज बदलती है। वह तो मौसम की तरह है--सुबह कुछ, सांझ कुछ।
‘बीच-बीच में राजा ने बंदी बेटी से अपनी मनवाने के बहुत उपाय किए, लेकिन सारी यातनाओं के बावजूद राजकुमारी ने--विचार नहीं बदला। अंत में राजा ने राज्य के बाहर एक डरावने जंगल में उसको छुड़वा दिया, जहां हिंस्र पशुओं के साथ-साथ ऐसे खतरनाक आदमी भी थे, जिन्हें राज्य देश-निकाले की सजा दिया करता था।’
‘लेकिन जंगल में पहुंच कर राजकुमारी ने पाया कि गुफा-घर है। और पेड़ों के फल सोने के थाल वाले फलों जैसे ही हैं; शायद और भी बेहतर।’
लेकिन यह तभी होगा, जब तुम्हारे भीतर आत्मा का जन्म शुरू हो जाए, तब सोने वाले थाल में रखे हुए फल से, वृक्षों से गिरा हुआ फल ज्यादा मधुर, ज्यादा ताजा, ज्यादा स्वस्थ होगा। जब तक तुम्हारे भीतर आत्मा नहीं है, तब तक फल का कोई सवाल नहीं है; सोने के थाल की कीमत है; तब तक जीवन का कोई मूल्य नहीं है, महल का मूल्य है; तब तक प्राण की कोई क्षमता नहीं है, सिंहासन का अर्थ है।
कारागृह में इस युवती ने यातनाएं झेलीं। यातनाओं के सामने जो झुक जाए, उसकी आत्मा मर जाती है। और यातनाओं के सामने जो खड़ा रहे--चुनौती को स्वीकार कर ले, न झुके--उसके भीतर आत्मा का जन्म होता है।
ध्यान रखना: यातना बहुमूल्य क्षण है। जब तुम दुख को झेल लेते हो--बिना झुके, तो दुख तुम्हें महान बना जाता है। और जब तुम दुख से झुक जाते हो, मिट जाते हो, तब दुख तुम्हें तिरोहित कर जाता है।
दुख खतरनाक भी है, दुख प्रीतिकर भी है। दुख दुश्मन भी है, दुख मित्र भी है। तुम पर ही निर्भर है अंततः कि तुम उसका कैसा उपयोग कर लेते हो। अगर तुम दुख के सामने खड़े रहे और दुख तुम्हें न मिटा पाया, तो तुम पाते हो कि तुम्हारे पास इतनी शक्ति, इतनी ऊर्जा आ गई, जितनी कभी न थी।
इसे तुम छोटी-छोटी घटनाओं में भी अनुभव कर सकते हो। जब तुम बीमार पड़ते हो, अगर तुम बीमारी से टूट न जाओ, तो तुम पाओगे कि बीमारी के बाद तुम्हारे पास ऐसा ताजा स्वास्थ्य है, जो बीमारी के पहले नहीं था। लेकिन अगर तुम बीमारी से झुक जाओ और टूट जाओ, तो बीमारी भी चली जाएगी और तुम बीमार ही बने रहोगे। बीमारी जा चुकेगी, लेकिन तुम्हें निर्बल कर जाएगी। फिर तुम कभी उस बल को न पा सकोगे, जो बीमारी के पहले था।
खड़े रहने की क्षमता--और जब यातना आए, तब उसका साक्षात करने की क्षमता--तपश्चर्या है। अपने हाथ से भी साधकों ने यातनाएं पैदा की हैं, ताकि वे उनके सामने खड़े रहें।
महावीर जंगल में खड़े हैं--उपवासे, भूखे। वह भूख अपने हाथ से पैदा की गई यातना है। और महावीर उसके सामने खड़े होकर देखने की कोशिश कर रहे हैं कि--भूख जीतती है या मैं! भूख जीतती है या चेतना? भूख झुका लेती है आत्मा को, कि आत्मा झुका लेती है भूख को? और वे उसी दिन गांव में भोजन मांगने जाते हैं, जिस दिन भूख हार जाती है। तुम भी गए होते गांव में भोजन मांगने; लेकिन उस दिन, जिस दिन भूख जीत जाती। तब बड़ा फर्क हो जाता। इसको थोड़ा खयाल में ले लेना।
कभी महावीर पंद्रह दिन बाद जाते हैं--गांव में भीख मांगने, कभी महीने भर बाद, कभी दो महीने बाद, कभी दो दिन बाद! राज क्या है? कुंजी क्या है? किस दिन वे जाते हैं--गांव में?
साधारणतः तुम अगर सोचोगे, तो यही सोचोगे कि जिस दिन भूख बहुत लगती होगी, जिस दिन न सह पाते होंगे भूख को, जिस दिन भूख इतना सता देती होगी कि रुकना मुश्किल हो जाता होगा, उसी दिन उपवास तोड़ते होंगे। नहीं। अगर तुमने ऐसा समझा तो यह तुम्हारी अपने बाबत खबर है, महावीर के बाबत नहीं। महावीर भीख मांगने जाते हैं; लेकिन उस दिन, जिस दिन भूख पक्की पराजित हो जाती है।
जिस दिन भूख गिर ही जाती है, जिस दिन भूख मिट ही जाती है और जिस दिन आत्मा निश्चल खड़ी हो जाती है, उस दिन महावीर गांव में भीक्षा मांगने जाते हैं। उस दिन वे भोजन करते हैं, जिस दिन भूख पराजित होती है। कभी महीना भर लग जाता है--उसको पराजित करने में। कभी दो दिन में भी हो जाती है--यह घटना। इसलिए दिन तय नहीं किए जा सकते; अनेक संयोगों पर निर्भर होगा।
वह लड़की यातनाओं को सह गई। उसके भीतर आत्मा पैदा हो गई। आत्मा का अर्थ ही है--यातनाओं के सामने खड़े होने की क्षमता। और जिसमें ऐसी क्षमता आ जाए, उसके जीवन की दृष्टि बदल जाती है।
उसे जंगल में गुफाएं घर जैसी प्रीतिकर लगीं; शायद ज्यादा प्रीतिकर। क्योंकि कोई घर वैसी स्वतंत्रता नहीं दे सकता, जैसी स्वतंत्रता गुफा दे सकती है। घर कितना ही घर हो, एक तरह का कारागृह होता है। उसमें एक परतंत्रता तो होती ही है। गुफा परम स्वतंत्र है। और जंगल में वृक्षों से गिरे हुए फलों की मिठास, उनकी ताजगी और उनका जीवन-रस, सोने की थालियों से पूरा नहीं किया जा सकता।
फिर उस जंगल की आजाद जिंदगी का क्या कहना! और उस कुदरती राज्य में कोई भी तो उसके राजा पिता की आज्ञा नहीं मानता था। और वहां सभी बगावती थे।
ध्यान रहे, अपराधी में और धार्मिक आदमी में थोड़ा सा तालमेल है। क्योंकि धार्मिक भी बगावती होता है, अपराधी भी बगावती है; इतना तालमेल है। उनकी बगावत की दिशाएं अलग हैं, लेकिन बगावत एक है।
अपराधी भी कानून तोड़ता है; धार्मिक व्यक्ति भी कानून तोड़ता है। अपराधी कानून तोड़ कर कानून से नीचे गिर जाता है; धार्मिक व्यक्ति कानून तोड़ कर कानून से ऊपर उठ जाता है। ये बड़े भेद हैं। लेकिन कानून को तोड़ने की प्रक्रिया तो है। इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि वाल्मीकि जैसा अपराधी क्षण में धार्मिक हो जाता है; अंगुलीमाल जैसा हत्यारा क्षण में बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है।
यह कीमिया कैसे घटित होती है कि अंगुलीमाल या वाल्मीकि जैसा दुष्ट हत्यारा एक क्षण में... और लोग सदियों से पूछते रहे हैं कि अपराधी एक क्षण में कैसे धार्मिक हो सकता है! क्योंकि एक सूत्र दोनों में एक जैसा है, वह है--बगावत का।
बगावत का रुख बदलने की बात है। दोनों ‘दौड़ना’ जानते हैं; सिर्फ दिशा चुनने की बात है। अपराधी भी दौड़ने में कुशल है। एक दफा उसकी दिशा बदल जाए, तो मंदिर तक पहुंचना कठिन नहीं है।
तुम दौड़ना ही नहीं जानते। वह जो मध्यस्थ आदमी है--जो न अपराधी है और न धार्मिक है--जो प्रजा है, वह जो प्रजा है--वह दौड़ना नहीं जानती। उसके पैर पंगु हैं। उसको बगावत का कोई पता नहीं। उसने किसी तरह की बगावत नहीं की है। उसको बहुत देर लगती है--धार्मिक होने में।
वहां जितने लोग थे, या तो देश निकाले गए थे या यह लड़की थी। उन दोनों के बीच एक तालमेल था कि वे सभी बगावती थे।
फिर किसी दिन एक भूला-भटका किंतु समृद्ध यात्री उस जंगल में आया। वह राजकुमारी के प्रेम में पड़ा। उसे वह अपने देश ले गया। वहां उससे उसने विवाह किया। अरसे बाद दोनों उसी जंगल में वापस आए, जहां उन्होंने अपनी बुद्धि, साधन और श्रद्धा के अनुरूप एक नगर बसाया, जिसकी लयबद्ध जिंदगी में वहां के सारे बहिष्कृत पगले घुल-मिल गए।
यही कल्पना है--सूफियों की, समस्त फकीरों की, संन्यासियों की कभी यह पृथ्वी एक ऐसा नगर बन जाए, जहां पागल भी स्वीकृत हों, जहां अपराधी भी घुल-मिल जाएं; जहां साधु-असाधु का भेद न करना पड़े; जहां बुरे और अच्छे में फासला न हो, जहां बुरा भी अच्छे में गति दे और जहां अच्छा भी बुरे में साथ दे; और जहां दोनों दो चाक की तरह गाड़ी को चलाएं; जहां दुश्मनी न हो, एक लयबद्धता हो।
और ध्यान रहे, अगर समाज में सभी अच्छे-अच्छे लोग हों... जैसा अब तक कोशिश की गई है--वह सफल नहीं होगी, क्योंकि तुम एक ही चाक से समाज को चलाने की कोशिश करते हो। वह दूसरा चाक बिलकुल जरूरी है। और न तो वह सफल होती है, न सफल हो सकती है। लेकिन अगर कभी सफल हो जाए, तो समाज बड़ा ऊब से भरा हुआ होगा।
तुम थोड़ा सोचो--एक समाज, जहां सभी अच्छे लोग हैं। उस समाज में कुछ भी रस न होगा। अच्छे आदमी की--मनोवैज्ञानिक कहते हैं--कोई जिंदगी ही नहीं होती है। जिंदगी तो बुरे आदमी की होती है। इसलिए तुम एक उपन्यास लिखो--अच्छे आदमी के ऊपर--तुम मुश्किल में पड़ जाओगे।
राम की कथा लिखो--रावण के बिना! वह कथा रावण की है। पूरी कथा रावण की है। सारा खेल उस पर खड़ा है। और रावण कह दे: नहीं चुराते सीता को, तो राम बेकार हैं। सारी गति, सारा प्राण रावण से आता है। असली नायक रावण है। यह तो हम साधु-चित्त लोगों की चेष्टा है कि हमने राम को नायक बना दिया है। लेकिन कथा का नायक रावण है; राम परिधि पर हैं।
और यह बड़े मजे की बात है कि शायद रावण तो हो भी सकता है--बिना राम के; राम नहीं हो सकते हैं। कठिन है--वह भी; वह भी नहीं हो सकता। लेकिन शायद इसकी कोई संभावना हो कि रावण राम के बिना हो जाए। क्योंकि हम देखते हैं, इस जमीन पर, रावण तो बहुत हैं, राम दिखाई नहीं पड़ते!
लेकिन राम नहीं हो सकते। और राम की जिंदगी में क्या बचता है, रावण को हटा दो? कुछ नहीं बचता, कोई कथा नहीं बन सकती। इसलिए उपन्यास जिनको लिखना होता है, वे बुरे आदमी के बिना नहीं लिख पाते। और अगर अच्छा आदमी तुम्हारे पास हो, चर्चा में भी मजा न आएगा उससे। क्योंकि बात उसकी सब साधारण है; अच्छी-अच्छी है।
अच्छे आदमी की जिंदगी में नमक नहीं होता और नमक के बिना कोई स्वाद नहीं है। नमक स्वाद है। बुरे आदमी में नमक होता है, तेजी होती है। वह चाहे तिक्त और कड़वा भी कभी क्यों न हो, लेकिन एक गरिमा होती है।
सूफियों की, धार्मिकों की जो कल्पना है, वह ऐसे समाज की नहीं है, जहां अच्छे आदमी बचें और बुरे समाप्त हो जाएं। क्योंकि वह समाज तो बेरौनक होगा, उबाने वाला होगा।
बटर्‌रेंड रसल ने ठीक ही कहा है कि मैं स्वर्ग न जाना चाहूंगा; क्योंकि वहां कहते हैं: सभी साधु-संत पहुंच गए हैं। वहां जिंदगी बड़ी बोर्डम होगी। नरक में थोड़ा रस भी हो सकता है। क्योंकि वहां गजब के लोग हैं। जिनको ईश्वर को भी नरक भेजना पड़ता है, वे आदमी गजब के ही हैं! जिनको क्षमा करने का--उस महाकरुणावान को भी उपाय नहीं है, जिनकी बगावत बड़ी गहरी है।
नरक में जरूर गजब की घटनाएं घटती होंगी; क्योंकि सभी उपद्रवी वहां इकट्ठे हैं। स्वर्ग में क्या घटता होगा! वहां लोग अपनी-अपनी सिद्धशिलाओं पर बैठे होंगे। और एक-दूसरे को देखते होंगे कि वह अपनी सिद्धशिला पर बैठा है, हम अपनी सिद्धशिला पर। यह उबाने वाला हो जाएगा। और कहते हैं: यह शाश्वत है।
तो रसल ठीक कहता है; उसकी बात में जान है, अर्थ है कि स्वर्ग मैं न जाना चाहूंगा। वहां सब भले आदमी जा चुके हैं।
तुमने कभी भले आदमी की जिंदगी में कोई रस देखा है? भले आदमी की जिंदगी में रस असंभव है। तुम्हें बुरा आदमी हंसता हुआ, नाचता हुआ मिल जाएगा। भला आदमी हमेशा लंबे चेहरे का और उदास होगा। भले आदमी से दोस्ती तक करनी मुश्किल है; वह दोस्ती के योग्य भी नहीं होता।
सूफियों की, ज्ञानियों की कल्पना इस जगत को भले आदमियों का जगत बनाने की नहीं है। इस जगत में एक ऐसी लयबद्धता लाने की है, एक ऐसी रिदम पैदा करने की है, जहां बुरे और भले में विरोध न रह जाए--जहां बुरे और भले एक-दूसरे के परिपूरक हों, कांप्लिमेंटरी हों।
और एक ही स्वर से तो संगीत पैदा नहीं होता; अनेक स्वर चाहिए। और एक ही रंग से तो कला निर्मित नहीं होती--अनेक रंग चाहिए। और एक ही रंग का होगा स्वर, तो बेरौनक होगा। लेकिन सभी स्वर दो ढंग से हो सकते हैं।
एक तो हो सकता है कि सभी स्वर एक-दूसरे के विपरीत हों; तब कोलाहल पैदा होता है। बाजार प्रतीक है, जहां सभी स्वर चल रहे हैं, लेकिन एक कोलाहल है। और फिर एक संगीतज्ञ है, एक ऑर्केस्ट्रा है; वहां भी न मालूम कितने स्वर चल रहे हैं; पचास संगीतज्ञ हैं और सबके बीच एक लयबद्धता है, एक रिदम है। ‘ऑर्केस्ट्रा’ और ‘बाजार’--ये दो स्थितियां हैं।
अभी संसार बाजार है। धार्मिकों की कल्पना है कि कभी आर्केस्ट्रा बने। वहां हम बुरे का भी उपयोग कर लेंगे। उसको मारेंगे नहीं, काटेंगे नहीं, जेल में नहीं फेंकेंगे। उसका नमक बड़ा कीमती है। वह स्वाद देगा जिंदगी को। उसकी बगावत बड़ी मूल्यवान है। उसकी बगावत मनुष्य को त्वरा देगी, गति देगी, क्षमता देगी। हम उसकी बगावत को आत्मघात न बनने देंगे। हम उसकी बगावत को आत्म-क्रांति बना लेंगे।
‘और फिर अरसे बाद दोनों उसी जंगल में वापस आए, जहां उन्होंने अपनी बुद्धि, साधन और श्रद्धा के अनुरूप एक नगर बसाया। जिसकी लयबद्ध जिंदगी में वहां के सारे बहिष्कृत पगले घुल-मिल गए। राजकुमारी और उसके पति उसके प्रधान चुने गए।’
‘धीरे-धीरे नये राज्य का यश सारी दुनिया में फैल गया। और उसके सामने राजकुमारी के पिता का राज्य फीका पड़ने लगा।’
जहां बुरे और भले में जोड़ हो जाए, वहां भला उसके सामने बिलकुल फीका पड़ने लगेगा।
राजकुमारी का पिता न्यायप्रिय आदमी था। उसने बुरे लोगों को काटकर जंगल में फेंक दिया था; कारागृहों में डाल दिया था। उसने भले लोगों को बचाया था। बगावत के सब अंश तोड़ दिए थे, सब अंकुर दबा दिए थे।
वह राज्य अच्छा था। लेकिन बेरौनक होगा। और जब यह संगीतबद्ध आर्केस्ट्रा पैदा हुआ--जहां पागल भी बहिष्कृत न था, स्वागत था उसका भी। हम उसके पागलपन का भी उपयोग कर रहे थे। जहां हमने बुराई का भी सृजनात्मक उपयोग कर लिया था--उसके सामने उसका राज्य फीका पड़ने लगा।
अंत में बादशाह स्वयं एक दिन इस नये नगर को देखने आया; और जब वह सिंहासन के पास पहुंच रहा था, तभी उसके कानों में अपनी ही बेटी के ये शब्द सुनाई पड़े: ‘प्रत्येक नर-नारी की अपनी नियति है और अपना चुनाव है।’
अगर एक अच्छी दुनिया बनानी हो, तो उसका सूत्र यही होगा कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी नियति है और अपना चुनाव है। अगर एक अच्छी दुनिया बनानी हो, तो वह भीड़ पर नहीं बनेगी, प्रजा पर नहीं बनेगी। अगर अच्छी दुनिया बनानी हो, तो प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा पर बनेगी।
आज जो दुनिया है, उसमें गरिमा छिन जाती है, बचती नहीं है। सब तरफ गरिमा छीनने वाले लोग हैं। बाप बेटे से छीन रहा है, पत्नी पति से छीन रही है, मालिक नौकर से छीन रहा है। ताकत जिनके पास है, वह ताकतहीनों से छीन रहे हैं। जिनके पास धन है, वे निर्धन से छीन रहे हैं।
सब तरफ छीना-झपट है; गरिमा छीनी जा रही है; किसी को भी व्यक्ति होने का मौका नहीं है। और किसी को आज्ञा नहीं है कि तुम वही हो जाओ, जो तुम होने को पैदा हुए हो। किसी को स्वयं होने की सुविधा नहीं है। सब तरफ धक्के दिए जा रहे हैं कि तुम कुछ और हो जाओ।
मैंने सुना है, एक नाटक की शुरुआत में एक छोटा सा कुत्ता--बड़ा प्यारा--कुछ खेल दिखा रहा था। उसने कई संगीत की धुनें पैदा कीं। उसने कई गीतों की कड़ियां गुनगुनाईं और लोग बड़े आनंदित हुए, चकित हुए; क्योंकि कुत्ता--और इतने गजब का काम कर रहा था। और तभी बीच में--सभी लोग चौंक गए--एक बड़ा कुत्ता झपट कर आया--पर्दे के पीछे से और छोटे कुत्ते की गर्दन उसने मुंह में ली और उसे लेकर बाहर जाने लगा। जाते-जाते छोटे कुत्ते ने चिल्ला कर कहा कि यह मेरी मां है। और वह चाहती है कि मैं नाटक में काम न करूं; मैं एक डॉक्टर हो जाऊं।
यहां मां धक्का दे रही है, बाप धक्का दे रहा है, स्थितियां धक्के दे रही हैं कि तुम यह हो जाओ, तुम यह हो जाओ, तुम यह हो जाओ।
कोई भी राजी नहीं है कि तुम वही हो जाओ, जो तुम्हारी नियति हो। तुम जो होना चाहो, हो जाओ--ऐसा कोई भी नहीं कह रहा है। इसलिए सब स्वतंत्रता झूठी है।
स्वतंत्रता का एक ही अर्थ हो सकता है--गहरे से गहरा अर्थ--कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं होने की सुविधा हो।
अब तक जमीन पर ऐसी स्वतंत्रता आई नहीं है। अभी तक जितनी स्वतंत्रताएं आई हैं, वे सब नाम मात्र को हैं। क्योंकि चेष्टा जारी रहती है--तुम्हें कुछ बनाने की। और जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, जो स्वतंत्रता के लिए लड़ते हैं, उनकी भी चेष्टा होती है कि तुम कुछ बनो--उनके हिसाब से।
सदगुरु वही है, जो तुम्हें इतनी स्वतंत्रता दे कि तुम वही बन जाओ--जो तुम्हारे भीतर छिपा था, वह प्रकट हो; जो तुम्हारे बीज में था, वह तुम्हारे फूल तक आ जाए।
तो पिता ने ये शब्द सुने--अपनी ही बेटी के--कि ‘प्रत्येक नर-नारी की अपनी नियति है और अपना चुनाव है, अपना भाग्य है, अपनी स्वतंत्रता है। और प्रत्येक व्यक्ति अपना मालिक है।’
लेकिन तुम दूसरों के मालिक होने में लगे हो, इसलिए अपने मालिक कब हो पाओगे? शायद तुम दूसरों के मालिक होने में इतना रस इसीलिए ले रहे हो कि तुम अपने मालिक नहीं हो पाए हो।
जो व्यक्ति अपना मालिक हो जाता है, वह दूसरे की मालकियत में रस नहीं लेता है। वह क्यों व्यर्थ पंचायत लेगा! जो व्यक्ति अपना मालिक हो जाता है, उसे इतनी बड़ी मालकियत मिल गई, इतना बड़ा खजाना मिल गया कि वह तुम्हारा मालिक नहीं होना चाहेगा। वह तुम्हें स्वतंत्रता देगा।
इसलिए आत्मवान व्यक्ति ही दूसरों को स्वतंत्रता दे सकते हैं। आत्महीन व्यक्ति दूसरों की स्वतंत्रता छीनते हैं--वे दूसरों को भी आत्महीन बनाते हैं; वे दूसरों से भी रौनक छीन लेते हैं, नष्ट कर देते हैं।
लेकिन यही हो रहा है। हम सब एक-दूसरे के पीछे पड़े हैं। और जब तक तुम दूसरे के पीछे पड़े हो, तुम भटकोगे।
तुम अपने पीछे पड़ो। वहीं से साधना शुरू हो जाती है।
और स्मरण रखो कि प्रत्येक कृत्य के लिए तुम्हीं जिम्मेवार हो। और अंतिम गवाही में तुम्हारे अतिरिक्त कोई जिम्मेवार नहीं होगा--तुम्हारी जिंदगी के लिए। अगर तुम अंधेरे में गए, तो तुम यह न कह सकोगे कि मेरी पत्नी ने मुझे रोशनी में न जाने दिया। अगर तुम भटके तो तुम यह न कह सकोगे कि क्या करूं, घर-गृहस्थी थी, भटकना पड़ा, परिस्थिति की मजबूरी भी थी।
कोई मजबूरी नहीं है और कोई परिस्थिति नहीं है। क्योंकि तुम जिस चीज के लिए भी राजी हो, तुम ही राजी हो। वह परिस्थिति तुम्हारी बनाई हुई है। और तुम चाहो, तो उस परिस्थिति के बाहर हो सकते हो; कोई तुम्हें रोक नहीं रहा है।
आकाश सदा खुला है।
और अगर तुम पिंजड़े में बंद हो, तो ध्यान रखना: पिंजड़े का दरवाजा किसी ने बंद नहीं किया है। तुम्हीं भीतर से बंद किए हुए हो!
अक्सर तो ऐसा हो जाता है कि अगर तुम पिंजड़े को खोलो तोते के और उसे बाहर निकालना चाहो, तो वह बाहर निकलेगा नहीं। तड़फेगा, चिल्लाएगा, शोरगुल मचाएगा, सींकचों को पकड़ेगा--भीतर से। क्योंकि वह आदी हो गया है। वह उसका ‘घर’ है।
परतंत्रता तुम्हारा ‘घर’ है, तो तुम धार्मिक नहीं हो सकते। स्वतंत्रता के आकाश में ही धर्म खिलता है, फलता-फूलता है।

आज इतना ही।

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