ZEN/SUFI STORIES
Sahaj Samadhi Bhali 18
Eighteenth Discourse from the series of 21 discourses - Sahaj Samadhi Bhali by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1974, Pune.
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भगवान,
झेन साधक बनजान बाजार से गुजर रहा था। एक कसाई और एक ग्राहक की बातचीत उसके कानों में पड़ी।
ग्राहक ने कहा: ‘मुझे सर्वश्रेष्ठ मांस का टुकड़ा ही देना।’
कसाई बोला: ‘मेरी दुकान में सब-कुछ सर्वश्रेष्ठ ही है। यहां कुछ भी नहीं है, जो सर्वश्रेष्ठ नहीं।’
बस, इतना सुन कर बनजान ज्ञान को उपलब्ध हो गया।
भगवान, कृपा कर इस कथा का मर्म हमें बताएं।
परम ज्ञान की घटना किसी भी क्षण घट सकती है। कहावत है कि एक छोटा सा तिनका भी ऊंट को बिठा सकता है; लेकिन वह आखिरी तिनका होना चाहिए। ऊंट पर वजन को रखते जाओ, रखते जाओ, सहता जाएगा, एक सीमा है। फिर आखिरी तिनका भी उसे बिठा देगा, जब सीमा के पार हो जाएगा। बरतन में पानी को भरते जाओ, भरते जाओ, फिर एक सीमा है, उसके बाद एक बूंद भी ज्यादा, बरतन में पानी न समा सकेगा। फिर एक बूंद भी बरतन के बाहर पानी को ले जाएगी। आखिरी बूंद--आखिरी तिनका क्रांतिकारी सिद्ध होता है।
पानी को तुम गर्म करते हो; होता है गर्म--एक डिग्री से निन्यानबे डिग्री तक; लेकिन भाप नहीं बनता। आखिरी डिग्री--सौवीं डिग्री और पानी एक छलांग लेता है; क्रांति घटती है और पानी भाप बन जाता है। आखिरी डिग्री में और पहली डिग्री में क्या कोई फर्क है? गर्मी वही है: पहली डिग्री में भी उतनी ही गर्मी है, जितनी आखिरी डिग्री में।
पहले तुम पत्थर भी रखते रहे ऊंट पर, तो वह न बैठा और आखिरी तिनके ने बिठा दिया! तिनके में क्या कोई ज्यादा वजन है? सवाल तिनके का नहीं है; सवाल ऊंट की सामर्थ्य का है। आखिरी सीमा--फिर छोटी सी घटना भी क्रांति बन जाती है।
इस बात को खयाल में ले लो, और फिर यह कहानी समझ में आ जाएगी; अन्यथा कहानी बड़ी बेबूझ है। और झेन में ऐसी बहुत सी कथाएं है। और ध्यान रखना; ये कथाएं ऐतिहासिक घटनाएं हैं, कहानियां नहीं हैं। ऐसा हुआ है। और ऐसा झेन साधकों को ही हुआ है, ऐसा नहीं; दुनिया में हर कोने में, जहां भी लोगों को परम ज्ञान उपलब्ध हुआ है, ऐसी घटनाएं घटी हैं; कोई छोटी सी बात क्रांति बन जाती है।
अगर बात को सीधा समझो, तो वह तिनका है; उससे ऊंट कैसे बैठेगा! अगर गर्मी को सीधा नापो, तो वह एक ही डिग्री है; चाहे पहली हो, चाहे सौवीं डिग्री हो; उससे पानी भाप कैसे बनेगा? लेकिन देखना पड़ेगा कि किसके जीवन में क्रांति घटी, वह कहां था।
अगर तुम इनक्यानबे डिग्री पर हो, तो वही डिग्री तुम्हें सिर्फ थोड़ा सा गर्म करके रह जाएगी; तुम बानवे डिग्री पर गर्म हो जाओगे। लेकिन जो निन्यानबे डिग्री पर है, वही डिग्री, उसे क्रांति घटा देगी। तुम्हारी समझ में न आएगा।
तुम एक तिनका ऊंट पर रख दो। ऊंट पर कोई वजन नहीं है, ऊंट को तिनके का पता ही न चलेगा? और वह बहुत चकित होगा यह सुन कर कि कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि तिनके के बोझ से ऊंट बैठ गए। वह हंसेगा कि पागल हो गए हो! तिनके का वजन पता ही नहीं चलता, ऊंट बैठेंगे कैसे! लेकिन अगर ऊंट पहले से ही लदा हो और आखिरी घड़ी आ गई हो--सामर्थ्य की सीमा आ गई हो--तो एक तिनका भी काफी है।
सवाल तिनके का नहीं है; सवाल तुम्हारी मनोदशा का है। अगर कोई व्यक्ति खोज रहा है, खोज रहा है, खोजता जा रहा है और उसने अपनी सारी सामर्थ्य लगा दी है खोज में, कुछ बचाया नहीं है। इसे ठीक से खयाल में ले लेना।
तुम सदा बचा कर चलते हो, इसलिए चूक रहे हो--जन्मों-जन्मों से। इस जन्म में भी चूक जाओगे--अगर बचाया; क्योंकि तुम्हारा ऊंट कभी पूरा लदा हुआ न होगा। आखिरी तिनका, कभी आखिरी तिनका सिद्ध न होगा। तुम्हारा पानी कुनकुना ही होगा, कभी निन्यानबे डिग्री तक न उबलेगा। इसलिए आखिरी डिग्री तुममें क्रांति न ला सकेगी।
तुम्हें बुद्ध भी मिल जाएं, तो भी तुम बैठोगे नहीं। तुम्हें कृष्ण भी मिल जाएं, तो भी तुम भाप न बनोगे। और कभी-कभी ऐसा हुआ है कि एक कसाई की चर्चा--कोई संबोधि को उपलब्ध हो गया।
कहा जाता है कि लाओत्सु एक वृक्ष के नीचे बैठा था और एक सूखा पत्ता वृक्ष से टूटा--हवा के झोंके में--और गिरने लगा। उस लंबे वृक्ष से सूखे पत्ते के गिरने को देखते-देखते-देखते--जब तक वृक्ष से पत्ता जमीन तक आया, तब तक लाओत्सु ज्ञान को उपलब्ध हो चुका था। यह ऊंट पूरा लदा होगा; अन्यथा एक सूखा पत्ता किसको ज्ञान दे सकता है! तुम बैठे हो उस वृक्ष के नीचे, सारे पत्ते भी सूख कर गिर जाएं, तो भी तो कुछ न होगा।
एक झेन फकीर स्त्री पानी भर कर लौटती थी। कंधे पर कांवर रखी थी। दोनों तरफ मिट्टी के घड़े लटके थे और अचानक कांवर टूट गई। पूरे चांद की रात थी। घड़ा गिरा, फूट गया। इधर घड़ा फूटा, उधर उसके भीतर कोई क्रांति घट गई; वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गई। यह घड़े की टूटने की आवाज, यह पानी का बिखर जाना, बस क्रांति घट गई।
तुम कहोगे, अगर क्रांति ऐसे घटती हो, तो हम सारे बाजार में जितने घड़े हों; खरीद लाएं, सभी को तोड़ डालें। नहीं, तब तुम चूक गए। और इसी तरह धार्मिक लोग चूकते रहे हैं। सभी रिचुअल, सभी क्रियाकांड इसी भ्रांति से पैदा होते हैं। क्योंकि एक आदमी के जीवन में किसी बात से क्रांति घटती है। कोई आदमी राम-राम-राम कहते क्रांति को उपलब्ध हुआ।
कहते हैं कि वाल्मीकि भूल ही गया ठीक उच्चारण, तो राम न कह कर मरा-मरा-मरा कहता रहा और क्रांति को उपलब्ध हुआ। तो तुम भी दोहराते रहो; ठीक वाल्मीकि जैसा: मरा-मरा कहो या सुधार कर कहो: राम-राम, तो भी तुम क्रांति को उपलब्ध न हो जाओगे। वाल्मीकि के लिए यह घटना आखिरी तिनका थी।
तुम्हारी सारी शक्ति जब लग जाए, कुछ न बचे, कुछ लगाने को न बचे, तुमने अपने को पूरा ही दांव पर रख दिया, फिर किसी भी चीज से क्रांति घट जाएगी।
और फिर तुम्हें किसी का अनुकरण करने की जरूरत नहीं है। और प्रत्येक व्यक्ति को क्रांति अनूठे कारणों से घटेगी; क्योंकि जिंदगी बड़ी है, बहुत बड़ी है, बहुत विराट है। यहां प्रतिपल घटनाएं घट रही हैं। कब तुम्हारी क्रांति का क्षण आ जाएगा, यह तुम पर निर्भर है, घटनाओं पर नहीं। घटना तो सांयोगिक है कि तुम्हें बाजार में घटेगी कि जंगल में घटेगी--बिलकुल सांयोगिक है।
बुद्ध सिद्धासन में बैठे थे, तब घटना घटी। फिर न मालूम हजारों लोग सिद्धासन में बैठे रहते हैं--इस आशा में कि घटना घटे। वे पागल हैं। यह तो संयोग था कि बुद्ध सिद्धासन में बैठे थे और उनकी पूरी शक्ति लग गई।
महावीर को तो बहुत अजीब आसन में घटना घटी--गोदोहासन में। जैसा कि कोई गाय से दूध दोहता है, तब बैठता है, ऐसे महावीर बैठे थे। पता नहीं क्या कर रहे थे! गोदोहासन में कोई बैठता भी नहीं। शायद बैठ ही रहे होंगे--खड़े रहे होंगे, बैठने जा रहे होंगे; और जब स्थिति गोदोहासन की थी, तब क्रांति घट गई। फिर न मालूम कितने लोग गोदोहासन में बैठ कर आशा रखते रहे हैं कि क्रांति घट जाए! भूल हो जाती है।
तुम तिनके की फिकर करते हो! अपनी फिकर करना। तिनके का कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य है कि तुम्हारी सारी शक्ति लग गई हो; कुछ न बचा हो, तो हवा का एक झोंका और तुम दूसरे हो जाओगे। एक सूखे पत्ते का गिरना--और पुराना मर जाएगा; तुम्हारे भीतर नये का जन्म हो जाएगा। यह तो पहली बात समझ लो।
दूसरी बात--इसके पहले कि इस कहानी में प्रवेश हो--यह समझ लेनी जरूरी है कि मन का सारा खेल तुलना पर, कंपेरिजन पर खड़ा है। जब तक तुम तुलना करते रहोगे, तब तक मन से छुटकारा नहीं है।
मन कहता है: यह भला, यह बुरा; यह सुंदर, यह कुरूप; यह श्रेयस्कर, यह अश्रेयस्कर; इसे चुनो, इसे छोड़ो। मन कहता है: यह स्वर्ग, यह नरक। मन कहता है : यह राम, यह रावण। मन बांटता है। और जब तुम मन की सुन लेते हो, तुम भी बंट जाते हो। तुम तब तक बंटे हुए ही रहोगे, जब तक तुम मन की सुनोगे। क्योंकि मन कहता है: यह ठीक और यह गलत। गलत को नहीं करना है, ठीक को करना है।
यह विभाजन--मन बाहर ही नहीं कर रहा है; इस विभाजन के लिए तुम अगर राजी हुए; तो विभाजन भीतर भी हुआ जा रहा है। मन बाहर भी बांटता है, भीतर भी बांटता है। इसलिए कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं--च्वॉइसलेसनेस--तुम चुनाव मत करो।
चुनाव न करने का मौलिक अर्थ होता है--तुम तुलना मत करो। तुलना की, कि चुनाव हो गया। तुम भेद मत करो; और तुम मत कहो कि यह पत्थर है और यह हीरा है। और तुम मत कहो कि यह मूल्यवान है और यह निर्मूल्य है। क्योंकि जैसे ही तुमने कुछ भी तरह की तुलना खड़ी की--तुम बंटे। अनबंटा होना, अविभाजित होना, अद्वैत की उपलब्धि का मार्ग है। तब तुम्हें एक मिलेगा, जब तुम एक हो जाओगे। जब तक तुम दो हो, तब तक सब दो हैं। और तुम हो अनेक, इसलिए सब अनेक हैं। यह जगत तो एक बड़ा परदा है, इस पर तुम ही विराट होकर दिखाई पड़ रहे हो।
यह कहानी कठिन लगती है। लेकिन कठिन इसलिए लगती है कि हम यह मान ही नहीं सकते कि एक दुकान में सभी चीजें श्रेष्ठ हैं। और दुकानदार कह रहा है कि यहां तो कोई ऐसी चीज ही नहीं है, जो श्रेष्ठ न हो। सर्वश्रेष्ठ हैं। वह सारी तुलना तोड़ रहा है। क्योंकि हम कहेंगे कि होंगी अच्छी, लेकिन फिर भी तो तुलना होगी। कोई ज्यादा अच्छी होगी, कोई कम अच्छी होगी--कोई बहुत अच्छी होगी। यह तो असंभव है कि दुकान पर सभी चीजें सर्वश्रेष्ठ हों! और अगर सभी सर्वश्रेष्ठ हैं, तो उनको सर्वश्रेष्ठ कहने का कारण क्या है? क्योंकि निकृष्ठ के बिना श्रेष्ठ कैसे होगा! और जब तक सर्वश्रेष्ठ से नीचे की सीढियां न हों, तब तक सर्वश्रेष्ठ की सीढ़ी कैसे निर्मित होगी? जहां शूद्र न हों, वहां ब्राह्मण कैसे होंगे? और जहां नीचे की सीढ़ी न हो, वहां ऊपर की सीढ़ी कैसे होगी? जहां व्यर्थ न हो, वहां सार्थक कैसे होगा?
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन दो स्त्रियों के प्रेम में था; और तय नहीं कर पाता था कि किसको चुने; क्योंकि एक बहुत सुंदर थी और एक बहुत धनी थी। और मन दोनों तरफ दौड़ता था। धन का लोभ भी छूटता नहीं था। धन निश्चय ही बहुत था। और मन कहता था कि शरीर का सौंदर्य तो दो दिन में बासा पड़ जाएगा; धन का सौंदर्य टिकता है। दो दिन बाद सुंदर से सुंदर स्त्री भी साधारण मालूम होने लगेगी--जब परिचित हो जाओगे। लेकिन धन देर तक काम देगा। रूप से भी ज्यादा रुपया स्थायी है।
और मन का दूसरा हिस्सा कहता था: क्या करोगे रुपयों का भी? अगर इस कुरूप स्त्री के चक्कर में पड़ गए, तो जिंदगी भर रोओगे। माना कि रूप क्षणभंगुर है, पर मूल्यवान है। सारा जीवन क्षणभंगुर पर गंवा देने जैसा है। रुपये को इकट्ठा भी कर लिया, स्थायी भी है, तो भी मुरदा है। शायद इसीलिए स्थायी भी है, क्योंकि जिंदगी तो बदलती है।
मन बड़ी मुश्किल में था; कुछ तय न कर पाता था। दोनों स्त्रियां भी बड़ी मुश्किल में थीं कि कैसे तय करें। दोनों को उलझाए हुए था। आखिर उन दोनों स्त्रियों ने कहा कि हमें ही कुछ करना पड़े।
एक दिन नसरुद्दीन को दोनों लेकर नदी पर नाव में बैठ कर गईं। रास्ते में उन्होंने कहा कि नसरुद्दीन, अगर नाव डूब जाए और तुम हम दोनों में से एक को ही बचा सको, तो तुम किसको बचाओगे? तुम हम दोनों में से किसको सुंदर समझते हो? किसको योग्य समझते हो? नसरुद्दीन ने कहा कि तुम दोनों एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर सुंदर हो। तुम दोनों एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर सुंदर हो, फिर भी उसने कमिट न किया। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि दो व्यक्ति एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर सुंदर हों! यह तो तभी हो सकता है, जब मन देखने वाला न हो।
जब तक मन है तब तक तो मन कहेगा कि एक कम, एक ज्यादा; एक नीचे, एक ऊपर। मन सीढ़ियां बनाता है, सभी वर्ण, सभी हाईररकी मन के निर्माण हैं। मन कहता है: नंबर एक, नंबर दो, नंबर तीन...। मन विभाजित करता है, सीढियां बनाता है, वर्ण निर्मित करता है, वर्ग निर्मित करता है।
कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्टैलिन और माओ--जगत में वर्ग-विहीन समाज बनाना चाहते हैं; लेकिन उन्हें कुछ पता नहीं है; जीवन के गहरे सूत्रों का कोई पता नहीं है। जब तक मन है, तब तक वर्ग-विहीन समाज बन नहीं सकता; क्योंकि मन वर्ग का निर्माता है।
धन का सवाल नहीं है। धन बंट जाए, तो भी वर्ग-विहीन समाज निर्मित न होगा। तुम्हारे पास बराबर धन बांट दिया जाए तो भी वर्ग-विहीन समाज निर्मित न होगा। क्योंकि मन को ऊपर-नीचे रखने की आदत है। तब भी किसी को सुंदर कहोगे, किसी को असुंदर; किसी को बुद्धिमान, किसी को कुरूप; किसी को योग्य, किसी को अयोग्य। और जल्दी ही जो बुद्धिमान है, वह ज्यादा धन इकट्ठा कर लेगा; जो बुद्धिहीन है, वह धन खो देगा। ज्यादा देर न लगेगी कि सुंदर के पास धन चला आएगा, कुरूप के हाथ से धन खो जाएगा। कितनी देर लगेगी: वर्ग के वापस लौट आने में! जब तक मन है, तब तक वर्ग के आने के लिए दरवाजा खुला है।
वर्ग-विहीन समाज कम्युनिस्टों के द्वारा निर्मित नहीं हो सकता। वर्ग-विहीन समाज तो सिर्फ योगियों के द्वारा निर्मित हो सकता है। इसलिए करीब-करीब असंभव है, क्योंकि जब सारी पृथ्वी योग में निष्णात हो, जब सारी पृथ्वी अ-मन की हालत में पहुंच जाए--जहां मन समाप्त हो जाता है--तब वर्ग-विहीनता आएगी। उसके पहले वर्ग-विहीनता का कोई उपाय नहीं है।
यह दूसरा तत्व है समझ लेने जैसा कि क्यों इस फकीर को एक कसाई की बात सुन कर ज्ञान उपलब्ध हो गया! कसाई ने ऐसी बेबूझ बात कही कि मन उसे पकड़ ही न पाया। वह पहेली हो गई। उसी पर ध्यान लग गया।
और कसाई ने एक ऐसी बात कही जो कि इस जगत के संबंध में सत्य है। इस परमात्मा के जगत में सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है; यहां कोटियां हैं ही नहीं। यहां नीचे-ऊपर रखने का उपाय ही नहीं है। यहां सभी कुछ ऊपर है। यहां नीचे जैसी कोई घटना ही नहीं घटती। यह दूसरी बात है कि तुम्हें कुछ नीचा दिखाई पड़ता है और तुम्हें कुछ उंचा दिखाई पड़ता है।
यह तुम्हारे देखने की बात है, यह तुम्हारा नजरिया है, यह तुम्हारी आंख है, जो कोटियां पैदा करती है। लेकिन ज्ञानी के देखने का ढंग ऐसा है कि कोटियां खो जाती हैं; वह देखता है, और कोटियां खो जाती हैं। इसलिए ज्ञानी निर्णय नहीं लेता; ज्ञानी न्यायाधीश नहीं बनता। जीसस ने जगह-जगह दोहराया है--अपने शिष्यों को कहा है: जज यी नॉट--तुम निर्णायक मत बनो; तुम न्यायाधीश मत बनो।
प्रसिद्ध कहानी है कि एक गांव में एक स्त्री को लोग जीसस के पास लेकर आए, क्योंकि उसने व्यभिचार किया था। और नियम था--पुरानी किताब में कि व्यभिचार करने वाली स्त्री को पत्थर मार कर मार डाला जाए। सारा गांव उसे मारने को उत्सुक था। ये वे ही लोग थे, जो व्यभिचार करने को भी उत्सुक रहे होंगे। शायद मारने को इसीलिए उत्सुक थे, कि व्यभिचार किसी और ने कर लिया था! उनका मौका चूक गया था। ये सभी व्यभिचार में भी प्रतियोगी थे और क्यू लगा कर खड़े रहे होंगे। ये चूक गए थे और नाराज थे और क्रोधित थे। लेकिन क्रोध भी सुंदर रास्ते खोजता है। ये इसको मार डालना चाहते थे। इस स्त्री ने इन्हें पराजित किया था। और इस स्त्री ने इन्हें प्रलोभित भी किया था, आकर्षित भी किया था; इनकी वासना को भी जगाया था और इनकी वासना तृप्त भी नहीं हो पाई थी।
सारा गांव नाराज था। बूढ़े-बड़े, जवान--सब पत्थर लिए नदी के किनारे उस स्त्री को मारने को तैयार थे। जीसस उस नदी के किनारे बैठे हैं, तो लोगों ने कहा कि जीसस से भी हम पूछ लें। और यह अच्छा मौका है--जीसस को भी फांस लेने का। यह स्त्री तो फंस ही गई है और इसको हम मार डालेंगे; जीसस को भी फांस लेने का अच्छा मौका है।
अगर जीसस कहें कि पुरानी किताब गलत है, तो ये पत्थर दोनों का ही अंत कर देंगे। यह आदमी खतरनाक है और इस तरह की बातें बोल रहा है जो कि पुराने शास्त्र के विपरीत हैं। और अगर जीसस कहे कि पुराना शास्त्र सही है, तो हम स्त्री को तो मार डालेंगे। फिर हम जीसस को कहेंगे: तुम्हारी शिक्षाओं का क्या होगा? क्योंकि तुम कहते हो--जो तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, दूसरा सामने कर देना। और तुम कहते हो कि प्रेम ही परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग है। और तुम कहते हो: विनम्र की विजय होगी। हिंसा के तुम विरोधी हो, युद्ध के तुम पक्षपाती नहीं हो। शांति का तुम्हारा संदेश है; तो फिर तुम कैसे राजी होते हो--इस स्त्री को पत्थर मार कर मार डालने के लिए! यह तो हत्या है। यह तो घृणा है। तो हम दोनों तरफ से जीसस को फांस लेंगे।
लोगों को पता नहीं था कि जीसस को फांसना मुश्किल है। जिसके पास मन नहीं, उसको फांसना बहुत मुश्किल है। क्योंकि मन ही फंसता है। उन्होंने जाल तो फेंका--बढ़िया। और सीधा--तार्किक जाल था, क्योंकि दो ही उपाय थे: या तो कहो कि पुरानी किताब ठीक है, स्त्री को मार डालें; तो भी फंसते हो। या कहो कि पुरानी किताब गलत है और स्त्री को माफ कर दो; प्रेम करो, सम्मान करो; निर्णय मत करो, जज यी नॉट, तो फिर हम तुम्हें भी मारे डालते हैं; क्योंकि पुरानी किताब के तुम भी दुश्मन हो! तो जैसा व्यभिचार इस स्त्री ने किया है, वैसे ही अनाचार को तुम फैलाना चाहते हो। तुम भी पाप के साथी हो।
लेकिन जीसस ने क्या कहा? जीसस ने कहा कि पुरानी किताब बिलकुल ठीक है। मैं पुरानी किताब को नष्ट करने नहीं आया हूं। मैं पुरानी किताब को सिद्ध करने आया हूं। लेकिन पुरानी किताब में एक बात छूट गई है, जो मैं तुम्हें बताता हूं। और वह यह है कि पहला पत्थर वही आदमी मारे, जिसने कभी व्यभिचार न किया हो और व्यभिचार का विचार न किया हो। उन आदमियों को तो हक नहीं हो सकता पत्थर मारने का, जो खुद व्यभिचारी हैं। जो तुम्हारे भीतर व्यभिचारी न हो, वह आगे आ जाए। तो जो सामने खड़े थे--बड़े-बूढ़े, पंचायत के प्रमुख, गांव के मुखिया, वे भीड़ में पीछे सरकने लगे। क्योंकि भीड़ एक-एक को जानती थी।
छोटे गांवों का एक मजा भी था और एक खतरा भी। क्योंकि हर आदमी, हर आदमी को जानता है। बड़े गावों में तुम शक्लें झूठी कर सकते हो; छोटे गावों में बहुत मुश्किल है, छोटे गांवों में तुम्हारा हर दांव-पेंच पता है। छोटे गांव में कुछ भी छिप नहीं सकता है। हर आदमी की जिंदगी खुला अखबार है। लोग इतने करीब-करीब हैं कि तुम क्या करोगे--हर आदमी जानता है, कौन वेश्या के घर जाता है, कौन पराई स्त्री के प्रेम में है, कौन क्या कर रहा है--सबको पता है।
छोटे गांव में एक परिवार जैसा संसार है, जहां छिपाना मुश्किल है। यह फायदा भी है और खतरा भी है। खतरा यह है कि कोई प्राइवेसी, कोई निजता, कोई स्वतंत्रता छोटे गांव में संभव नहीं है। छोटे गांव में एक तरह की पराधीनता है और गुलामी है। दुनिया में स्वतंत्रता आई--बड़े गावों के बनने के बाद। छोटा गांव खतरनाक है; हर आदमी के पंजे तुम्हारी गर्दन पर हैं। तुम कोई निजता का जीवन नहीं जी सकते। कुछ भी प्राइवेट नहीं है, सब पब्लिक है।
गांव छोटा था। हर आदमी हर दूसरे आदमी को जानता था। कोई आदमी दावा नहीं कर सकता था कि मैंने कभी व्यभिचार नहीं किया। पूरा गांव कहता कि अरे! हमारे सामने, और यह कहने की हिम्मत कर रहे हो? न केवल लोग पीछे हटने लगे, लोगों के हाथ में जो पत्थर उठ गए थे, वे भी गिर गए। थोड़ी देर में भीड़ नदारद हो गई। वे जो मारने आए थे--व्यभिचारिणी स्त्री को, वे जा चुके थे; क्योंकि उनमें एक भी पत्थर उठाने के योग्य न था।
अक्सर ऐसा होता है कि पापी ही पापियों को मार डालने को उत्सुक होते हैं। पुण्यात्मा तो पापी को मारने का विचार भी नहीं कर सकता। सच तो यह है कि पुण्यात्मा, पापी पापी है यह निर्णय भी नहीं ले सकता। वही पुण्य की प्रतिभा है, वही पुण्य की गरिमा है।
जब सभी जा चुके, स्त्री ही बाकी रह गई--और जीसस उस नदी तट पर, तो उस स्त्री को बोध हुआ कि इस आदमी ने न केवल मुझे बचाया, इस आदमी ने ऐसी आंखों से भी मुझे नहीं देखा कि जिसमें निंदा हो, कंडेमनेशन हो--तो उस स्त्री ने कहा कि तुम्हारे सामने मुझे कहने में संकोच नहीं है। मैं स्वीकार करती हूं कि मैं पापिणी हूं; मैं स्वीकार करती हूं कि मैं व्यभिचारिणी हूं।
ध्यान रहे, जब तुम निंदा से नहीं देखते, तो तुम दूसरे को इस योग्य बनाते हो कि वह अपने पापों को स्वयं स्वीकार कर सके। और जब तुम्हारी आंखों में क्रोध नहीं होता है और जब तुम्हारी आंखों में नरक भेज देने का भाव नहीं होता, तो तुम दूसरे आदमी को सबल बनाते हो कि वह कह सके सत्य; तुम दूसरे को सत्य होने का मौका देते हो; यह भी पुण्य है।
दूसरे को सत्य होने का मौका देना बड़े से बड़ा पुण्य है। लेकिन जब तुम निंदा करते हो, तुम दूसरे को, छिपाने के लिए अवसर देते हो; तुम दूसरे को झूठा होने का अवसर देते हो; यह पाप है। इसलिए जीसस कहते हैं: तुम निर्णय मत करो, तुम न्यायाधीश मत बनो। किसने तुम्हें न्यायाधीश बनाया है कि तुम कहो: क्या पाप है, क्या पुण्य है? कौन बुरा है, कौन भला है? कौन साधु, कौन असाधु? तुम चुप रहो।
उस स्त्री ने कहा कि मैं पापिणी हूं, मैं व्यभिचारिणी हूं। आप जो भी सजा मुझे देना चाहें, दें। यह मेरी गर्दन झुकी है। जीसस ने कहा कि मैं कौन हूं, तेरा निर्णय करने वाला! यह तेरे और तेरे परमात्मा के बीच की बात है। इसमें मैं बीच में खड़ा होने वाला कौन? लेकिन अगर तू सोचती है कि तूने कुछ गलत किया, तो अब उस गलत को मत करना। लेकिन यह अगर तू सोचती है; यह मेरा आदेश नहीं है। अगर तू सोचती है कि तूने कुछ गलत किया और यह समझ तेरे भीतर जगी है, तो तू गलत अब मत करना। मैं तुझे पापिणी नहीं कहता और व्यभिचारिणी नहीं कहता। मैं कौन हूं!
जीसस जैसे व्यक्ति को सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है: पापी भी, पुण्यात्मा भी।
सर्वश्रेष्ठता कोई तुलना से मिली हुई बात नहीं है। सर्वश्रेष्ठता प्रत्येक का स्वभाव है। अगर परमात्मा सभी के भीतर है, तो इस कसाई ने गजब की बात कही; सभी सर्वश्रेष्ठ होगा ही। अगर परमात्मा ही धड़कता है तुम्हारे हृदय में, अगर वही देखता है तुम्हारी आंखों से, तो चाहे तुम चोरी करो और चाहे व्यभिचार, और चाहे तुम मंदिर जाओ, मसजिद जाओ या वेश्यागृह, क्या फर्क पड़ रहा है! तुम्हारी सर्वश्रेष्ठता अक्षुण्ण है।
तुम्हारे भीतर जो छिपा है, उसके मैले होने का उपाय नहीं। वह सदा धुला हुआ है--सद्यःस्नात--सदा नहाया हुआ है। उसकी पुण्यता में क्षण भर के लिए भी, कण भर की कमी नहीं हो सकती। यही परम ज्ञानी की दृष्टि है--परमहंस की।
अब हम इस कहानी को समझने की कोशिश करें।
‘झेन साधक बनजान बाजार से गुजर रहा था।’ साधक है, अभी सिद्ध नहीं। अभी चल रहा है मार्ग पर, पहुंच नहीं गया है। लेकिन साधक है; सोच नहीं रहा है--साधना के संबंध में।
कुछ लोग साधना के संबंध में सोच कर सोचते हैं कि साधक हो गए! वे अक्सर सोचते रहते हैं: ध्यान करना है, प्रार्थना करनी है, संन्यास लेना है। और सोचते हैं: साधक हैं! साधना के संबंध में सोचने से कोई साधक नहीं होता; साधना करने से कोई साधक होता है। करने से ऊंट पर वजन पड़ता है; फिर कभी तिनका बिठा देता है। करने से आग पैदा होती है--सोचने से नहीं। और कभी आखिरी उष्णता आ जाती है और आदमी भाप हो जाता है।
‘बनजान बाजार से गुजर रहा था।’ पहली बात: बनजान साधक है। वह कुछ कर रहा है, वर्षों से--शायद जन्मों से। वह बैठ कर सोचता नहीं रहा है, चला है मार्ग पर। और जैसे आखिरी घड़ी करीब आ गई है। साधक वहां है, जहां सिद्ध पैदा हो सकता है।
एक न एक दिन वह घड़ी तुम्हारी भी आएगी। जल्दी आ सकती है, अगर तुम श्रम में अपनी शक्ति पूरी लगा दो; अभी आ सकती है, इसी क्षण आ सकती है, अगर तुम बिलकुल न बचाओ और पूरे के पूरे उसमें प्रवाहित हो जाओ। जितना तुम अपने को बचाओगे, उतनी देर लग जाएगी। क्योंकि बिना तुम्हारे पूरे उतरे घटना नहीं घट सकती।
तुम नदी में उतरते भी हो, तो ऐसे
कि जरा सा पंजा तुमने उतार दिया पानी में और बाकी पूरे तुम नदी के बाहर खड़े हो! कैसे होगा स्नान? और यह स्नान ऐसा है कि डूब कर मिट ही न जाओ, तो स्नान हो नहीं सकता। कभी तुम बहुत हिम्मत भी जुटाते हो, तो गर्दन तक जाकर खड़े हो जाते हो। बहुत लोग इतनी हिम्मत जुटा लेते हैं--कि गर्दन तक...। इसके आगे डरते हैं। लेकिन असली चीज तो खोपड़ी है; जब तक वह न डूबे, कुछ नहीं डूबता है।
गर्दन तक तो सब हिस्सा बेकार है। बेकार इस अर्थ में कि उसके डुबाने से कुछ हल नहीं होता है। उसने कुछ सवाल उठाया भी नहीं है। उसकी वजह से कोई झंझट भी नहीं है। असली झंझट तो खोपड़ी की है। लेकिन खोपड़ी को तुम बचाना चाहते हो।
तो तुम पानी में गर्दन तक चले जाते हो, साधना में भी गर्दन तक चले जाते हो और जहां गर्दन कटने का वक्त आता है, वहीं से लौट आते हो! जहां गर्दन के डूबने का डर पैदा होता है कि अब तो श्वास लेना भी मुश्किल हो जाएगा, कि अब तो प्राण गए-गए--अब तो किसी भी क्षण डूब जाएंगे, बस वहीं से तुम भाग खड़े होते हो। मिटने के डर से तुम भाग आते हो। और मिटे बिना कभी कोई पहुंचा नहीं है। जब तक तुम मिटे नहीं तब तक साधक हो; पर मिटने की चेष्टा कर रहे हो। जिस दिन मिट गए, उस दिन तुम सिद्ध हो।
बनजान बिलकुल निन्यानबे डिग्री का साधक रहा होगा। और जब तक घटना न घटे, तुम बता नहीं सकते कि कब निन्यानबे डिग्री आई। यह मुश्किल है, इसलिए अनप्रिडिक्टेबल है; कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती है।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि कब तक ज्ञान होगा? कुछ नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि कब तुम निन्यानबे डिग्री पर आओगे, अब तक कोई ‘थर्मामीटर’ इसकी जांच का नहीं है। क्योंकि यह कोई शरीर की गर्मी नहीं है, जिसको नापा जा सके। यह चेतना की गर्मी है, चेतना की उष्णता है। उसको ही हमने तप कहा है। तप का अर्थ है: गर्मी, लेकिन भीतर की गर्मी। शरीर से बिलकुल नहीं नापी जा सकती। और उसके नापने का अब तक कोई उपाय नहीं है; कभी भी नहीं होगा। क्योंकि चेतना अमाप है--मेजरेबल नहीं है।
तो कोई उपाय नहीं है, जिससे हम नापें। कोई तराजू नहीं है; कोई इंच-फीट नहीं हैं, जिससे हम नापे। कुछ उपाय नहीं है।
और फिर डर यह भी है कि निन्यानबे डिग्री से भी कई बार लोग वापस लौट जाते हैं। वापस लौट सकते हैं--निन्यानबे डिग्री तक से। निन्यानबे डिग्री तक से पानी फिर ठंडा हो सकता है। सौ डिग्री हो जाए तो भाप बन जाता है; फिर लौटना मुश्किल हो जाता है, असंभव हो जाता है। क्रांति घट गई।
जब तक क्रांति नहीं घटी, कई बार तुम निन्यानबे डिग्री से होकर लौट आते हो। उबलते हो और फिर कुनकुने हो जाते हो; फिर ठंडे हो जाते हो। तुम्हारी जिंदगी में--तुम भी जानते हो--कई बार ऐसी घड़ी आती है कि कूद जाओ, कूद जाओ। बिलकुल आखिरी घड़ी आ जाती है। फिर कोई छोटी सी बात, और तुम अपने को फिर सम्हाल लेते हो। वह सम्हाल लेना शत्रुता है। तुम समझते हो: तुमने होशियारी की और अपने को बचा लिया! बचाने में ही भूल हो गई।
यह झेन साधक बनजान ‘साधक’ था--एक बात ध्यान रखना। और दूसरी बात बड़े मजे की है: बाजार से गुजर रहा था। क्योंकि झेन कहता है: पूरा संसार बाजार है; भाग कर तुम कहीं जा न सकोगे। हिमालय पर भी चले जाओगे, तो भी बाजार से छुटकारा नहीं है। तुम जहां भी रहोगे, बाजार रहेगा। बाजार तुम्हारे भीतर है; इसलिए भागना मत। भागने में कोई सार नहीं है। समय मत खोना।
भाग कर जाओगे भी कहां? जो लोग भी भागते हैं, वे वहीं पहुंचते हैं--जहां से भागे थे।
एक बहुत पुरानी सूफी कथा है कि एक आदमी सुबह-सुबह उठा और उसने अपने नौकरों को कहा कि मेरे घोड़े को ले आओ। बस, अब बहुत हो गया। यहां मैं बहुत दुखी हूं। इसलिए अब मैं यहां से दूर चला जाना चाहता हूं--फार अवे फ्रॉम हियर। नौकर ने कहा: मालिक घोड़ा तो मैं तैयार कर दूं, लेकिन डेस्टिनेशन, मंजिल क्या है? कहां जाना चाहते हैं? उस आदमी ने कहा: तुम समझे नहीं। मंजिल यही है। यहां से दूर चला जाना चाहता हूं। यही मेरी मंजिल है--यहां से दूर...। वह नौकर कोई साधारण नौकर न था; वह एक साधक... बल्कि एक सिद्धपुरुष था।
सूफियों का ऐसा ढंग है कि सूफी अपने को छिपाते हैं; वे अपने को जाहिर नहीं करते। तो कोई चमार की तरह छिपा रहता है, कोई नौकर की तरह। कोई गांव में बावर्ची का काम करता करता है; कोई बाजार में सामान बेचता है, सब्जी बेचता है।
सूफी प्रकट नहीं करता है। उसके शिष्य भी होते हैं, पर तुम उनका पता नहीं लगा सकते। क्योंकि चमार की दुकान पर बैठ कर शिष्य भी चमारी का काम करते हैं--दिन भर। रात को उनको पाठ दिए जाते हैं। दिन भर वे संसार से छिपे रहते हैं; क्योंकि सूफी विचारणा कहती है कि संसार में इतने उपद्रवी लोग हैं कि अगर उनको यह भी पता चल जाए कि तुम शांत हो रहे हो, तो वे सब तरह के उपाय करेंगे कि तुम शांत न हो पाओ! तो उपद्रवियों को अकारण मौका नहीं देना। उनको अगर यह भी पता चल जाए कि तुम शुद्ध हो रहे हो, तो वे तुम्हें अशुद्ध करने के सब उपाय करेंगे। क्यों? क्योंकि तुम्हारे शुद्ध होने से उनके अहंकार को चोट लगती है कि तुम शुद्ध हो गए और हम न हो पाए! तुमने समझा क्या है?--कि तुम संन्यास ले लिए और हम न ले पाए। खींच कर टांग तुम्हें वापस जगह पर ला देंगे।
हर जगह उनके मन में प्रतियोगिता है। इसलिए सूफी छिपाते हैं। इसलिए सूफियों का पता लगाना तुम्हें मुश्किल है, जब तक तुम्हारे पास आंख और कुंजी न हो; जब तक तुम्हें कोई कुंजी न दे, तुम सूफियों का पता न लगा सकोगे। क्योंकि वे जिंदगी में साधारण हैं, वे असाधारण होकर नहीं हैं। वे बिलकुल जिंदगी के सामान्य हिस्से हैं। बाजार में बैठे हैं और बाजार से भागते भी नहीं हैं। और उनका कहना है कि जो होना है, वह बाजार में ही हो जाएगा। क्योंकि परमात्मा भी बाजार में है। और बाजार परमात्मा में है। इसलिए तुम कहां भागे जा रहे हो? और जिसे तुम यहां न पा सकोगे, उसे तुम वहां कैसे पाओगे? और एक बड़े मजे की बात है कि तुम जहां भी पहुंच जाओगे, वहीं यहां हो जाएगा।
उस आदमी ने कहा कि मैं यहां से दूर निकल जाना चाहता हूं। उसके नौकर ने कहा: मालिक तब बड़ा मुश्किल है। मैं कितना ही तेज घोड़ा ले आऊं, आप यहां से दूर न निकल पाएंगे। क्योंकि आप कहीं भी पहुंचेंगे, वहीं यहां होगा। जाओगे कहां? तुम जहां पहुंचोगे, वहीं यहां होगा।
उस मालिक ने कहा कि यह मैंने कभी समझा न था कि तू कोई बड़ा दार्शनिक है! तू बड़ी ऊंची बातें करता है। तुझसे मैंने कहा है कि तू घोड़ा सम्हाल कर ला, तैयार कर और रास्ते के लिए सामान, भोजन, पाथेय जुटा। उस नौकर ने कहा: यह और भी मुश्किल है मालिक। यात्रा पर जाएं, तो ठीक है। लेकिन यह यात्रा ऐसी है कि यह अंतहीन है। इसमें कोई प्रोविजन, कोई पाथेय नहीं ले जाया जा सकता। सब चुक जाएगा। आप कभी पहुंच ही नहीं सकते हैं--ऐसी जगह, जो ‘यहां’ न हो।
आज तक दुनिया में ‘वहां’ कौन पहुंचा है! जहां जाओगे, वहीं यहां हो जाएगा। जो तुम्हारे लिए अभी वहां है, पहुंच कर यहां हो जाएगा। तुम जहां बैठे हो, दूसरे लोगों के लिए वह जगह वहां है; तुम्हारे लिए यहां है।
उस नौकर ने कहा: नो वन कैन गो अवे फ्रॉम हियर--यहां से दूर कोई नहीं जा सकता। और जाना हो, तुम्हारी मर्जी। लेकिन पाथेय मत ले जाएं। क्योंकि कितना ही पाथेय साथ हो, कितना ही खाना ले जाओ, वह सब चुक जाएगा। मंजिल तो कभी आने वाली नहीं, आ ही नहीं सकती। यह रास्ता लंबा ही नहीं है, अंतहीन है।
बाजार से भाग कर तुम हिमालय जाना चाहते हो, तुम ‘यहां’ से भाग कर ‘वहां’ जाना चाहते हो, तुम वहां पहुंचोगे नहीं। तुम ही बाजार हो; तुम्हारे भीतर बाजार भरा है। तुम जहां भी जाओगे, तुम वहां बाजार खड़ा कर लोगे।
अगर तुम्हारे भीतर लोभ है और हिमालय में तुम बैठे हो--पहाड़ पर, एकांत में और अगर एक हीरा पत्थर तुम्हारे सामने पड़ा होगा, तो तुम जल्दी से अपनी गुदड़ी में उसे उठा कर छिपा लोगे। या कि तुम उसे पड़ा रहने दोगे। अगर हिमालय पर तुम हीरे को पड़ा रहने दे सकते हो, तो यहां दुकान में, बाजार में बैठ कर तुम्हारी क्या चिंता है!
अगर लोभ नहीं है, तो बाजार यहीं खो गया। और अगर लोभ है तो तुम जहां जाओगे वहीं बाजार होगा। तुम बैठोगे तो जरूर हिमालय पर, लेकिन सोचोगे तुम यहां की ही--जहां से तुम आ गए हो। मन पीछे जाएगा या आगे जाएगा। तो फिर सोचोगे कि दुकान फिर चलानी है लौट कर। अब की बार वैसी भूल नहीं करेंगे, जैसे पहले की। फिर घर बसाना है। पहले गलत पत्नी चुन ली थी, अब ठीक पत्नी चुन लेंगे। सुख नहीं मिल सका, क्योंकि स्थिति गलत थी; अब स्थिति बदल लेंगे। इसी ढंग से तो तुम इतने जन्मों से चले आ रहे हो। हर जन्म में तुम यही सोचते हो कि अगले जन्म में सब ठीक कर लेंगे। इस बार भूल हो गई, आगे न होगी। लेकिन फिर तुम वही भूल करते हो। क्योंकि तुम वही हो, तो तुमसे वही भूलें निकलती हैं। जैसे वृक्ष से वही पत्ता निकलता है, जो उसमें छिपा है।
‘झेन साधक बनजान बाजार से गुजर रहा था। और एक कसाई और एक ग्राहक की बातचीत उसके कानों में पड़ी।’
और बड़ी अजीब जगह खड़ा था। कसाई की दुकान थी। कोई सोने-चांदी की दुकान होती तो हम समझ भी लेते कि वहां निर्वाण घट गया। कसाई की दुकान के पास घटा! जिंदगी बेबूझ है। कसाई और एक ग्राहक की बातचीत का टुकड़ा उसके कानों में पड़ा। ग्राहक ने कहा, सर्वश्रेष्ठ मांस का टुकड़ा मुझे देना।
जो भी खरीदने निकला है, वह सर्वश्रेष्ठ की मांग करता है। खरीददार का मन श्रेष्ठ की मांग करे, यह स्वाभाविक है। मांग ही सर्वश्रेष्ठ की होती है। और इसलिए हर मांग दुख में ले जाती है। क्योंकि तुम मांग भी नहीं पाते कि तुम देखते हो, उससे भी श्रेष्ठ कहीं ज्यादा मौजूद है; दुख फिर शुरू हो जाता है। हीरा हाथ में भी नहीं आता है कि बड़े हीरे दिखाई पड़ने लगते हैं। पद मिल भी नहीं पाता कि उदासी छा जाती है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन ने विवाह किया। तो जिस दिन उसके विवाह का समारंभ हो रहा था, उसके रिश्तेदारों ने देखा कि वह बड़ा उदास है, और जैसे कुछ खो गया हो। उसकी आंखें कहती हैं कि जैसे वह कुछ खोज रहा है। तो उसके एक मित्र ने कहा कि क्या कुछ खो गया है? कहीं विवाह का छल्ला तो नहीं खो दिया? तो नसरुद्दीन ने कहा: छल्ला तो अंगुली में है। लेकिन तुम पूछते ठीक हो, कुछ खो जरूर गया है--विवाह का उत्साह खो गया है। और कल तक यह दीवाना था--इस स्त्री को पाने के लिए! उस मित्र ने पूछा, लेकिन कल तक तुम पागल थे और हम सोचते थे, तुम्हारी खुशी का कोई अंत न होगा! उसने कहा, वह तो ठीक है। लेकिन आज समारोह में जो अनेक स्त्रियां आईं, उनमें कई इससे भी पहुंची हुई हैं; इससे ज्यादा सुंदर हैं। यह स्त्री अभी ही फीकी हो गई। अब मैं डर रहा हूं कि आगे क्या होगा।
पहुंच भी नहीं पाते कि रस खो जाता है। क्योंकि आंखें श्रेष्ठ की खोज कर रही हैं। जब तक आंखें तुलना कर रही हैं, तब तक हमेशा यही होगा: उत्साह खो जाएगा; पहुंच नहीं पाए कि उत्साह खो जाएगा। मंजिल मिली नहीं कि दुखी हो गए। इसलिए लोग कहते हैं कि इंतजारी में मजा है, वे ठीक ही कहते हैं। वे ठीक इसलिए कहते हैं कि जब तक इंतजार है, तब तक तुम एक चीज में उलझे रहते हो। जैसे ही मिलना हो जाता है, आंखें और तरफ घूमने लगती हैं--तत्क्षण।
गरीब को जो मजा है धन में, वह अमीर को नहीं है। क्योंकि गरीब के लिए धन उपलब्धि नहीं है; अभी इंतजार है। अमीर को धन मिल गया है; धन में अब कोई रस न
हीं है। अब वह कुछ और चाहता है--कुछ और ज्यादा।
ग्राहक हमेशा श्रेष्ठ की मांग कर रहा है। ग्राहक ने कहा: ‘सर्वश्रेष्ठ मांस का टुकड़ा ही मुझे देना। उससे कम पर मैं राजी नहीं हूं।’ मन कहता है: ‘श्रेष्ठतम चाहिए। उससे कम पर मैं राजी नहीं हूं।’ कसाई बोला: ‘मेरी दुकान में सब-कुछ सर्वश्रेष्ठ ही है।’ बड़ा अदभुत कसाई है, उसने बात परम ज्ञान की कही। ‘मेरी दुकान में सब-कुछ सर्वश्रेष्ठ ही है। यहां कुछ भी नहीं है जो सर्वश्रेष्ठ न हो। बस, इतना सुन कर बनजान ज्ञान को उपलब्ध हो गया।’
अब यह भी कोई बात है! और यह भी कोई जगह है, जहां ज्ञान को उपलब्ध हुआ जाए! ठीक है, समझ सकते हैं कि बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए; बोधिवृक्ष समझ में आता है। लेकिन कसाई की दुकान के सामने! कसाई की दुकान बोधिवृक्ष बन गई!
यह समझ में आता है कि कृष्ण के वचन को सुन कर कोई अर्जुन ज्ञान को उपलब्ध हो गया हो। लेकिन कसाई की बात सुन कर बनजान ज्ञान को उपलब्ध हुआ! कोई तार्किक हिसाब नहीं बैठता। बिठाने की जरूरत भी नहीं है। जैसा बोधिवृक्ष, वैसी कसाई की दुकान; कोई फर्क नहीं है। कसाई के छप्पर में क्या खराबी है? और बुद्ध भी बोधिवृक्ष के नीचे बैठे थे, तो किसलिए बैठे थे? सिर्फ छाया के लिए...। कोई बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध होने को तो नहीं बैठे थे! सिर्फ छाया के लिए...। कसाई का छप्पर भी उतनी ही छाया दे सकता है, ज्यादा ठीक से दे सकता है। और कृष्ण ने जो कहा, कृष्ण के मुंह से जो बोला, वही कसाई के ओंठों से भी बोल सकता है; क्योंकि सभी ओंठ उसी के हैं।
हो सकता है, यह कसाई एक छिपा हुआ ज्ञानी हो; इसकी पूरी संभावना है।
एक बहुत प्रसिद्ध कसाई की कथा है चीन में; वह सम्राट का कसाई था। और रोज आकर सम्राट के लिए बैल काटता था। सम्राट बड़ा हैरान था, क्योंकि वर्षों से देखता था; देखते-देखते बूढ़ा हो गया था। वह एक ही फरसा था, उसके पास; वह उस पर कभी धार भी नहीं रखता था! उसने कभी फरसा भी नहीं बदला। और तीस साल से तो यही सम्राट देखता था। वह बूढ़ा हो गया था, लेकिन कभी उसके फरसे को उसने जानवर में अटकते नहीं देखा।
एक दिन उसने पूछा: तू भी अदभुत है; तेरी कुशलता का कोई हिसाब लगाना मुश्किल है! तू कभी धार नहीं रखता और तू कभी फरसा भी नहीं बदलता? तो उस कसाई ने कहा: जो सिक्खड़ हैं, उनको एक सप्ताह में धार रखनी पड़ती है। जो कुशल हैं, उनको तीन सप्ताह में धार रखनी पड़ती है। लेकिन जो ज्ञान को उपलब्ध हो गया, उसको धार फिर कभी रखनी ही नहीं पड़ती। क्योंकि मैं बैल को काटता नहीं। बैल और फरसे के बीच जो खेल चलता है, मैं तो सिर्फ देखने वाला हूं। जब कोई काटता है, तो फरसे को चोट मारता है। जब कोई काटता है, तो बैल और फरसे के बीच संघर्ष होता है; उसी संघर्ष में धार मर जाती है। मैं काटता नहीं हूं। मैं कौन हूं, काटने वाला? और बैल कटता नहीं, क्योंकि इस जगत में कुछ भी नहीं कट सकता।
उस कसाई ने वही कहा, जो कृष्ण ने अर्जुन से कहा: नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि--न तो मुझे काटा जा सकता--कोई अस्त्र मुझे काट नहीं सकता; न आग मुझे जला सकती है। और अर्जुन को तो उन्होंने यही कहा था कि तू बेफिकरी से काट, क्योंकि न कोई काटने वाला है, न कोई कटने वाला है। एक का ही खेल है। वही छिपा है यहां, वही छिपा है वहां। तू व्यर्थ की चिंता मत ले।
उस कसाई ने सम्राट को कहा कि मैं कोई काटने वाला नहीं हूं। मैं कोई इस बैल से लड़ नहीं रहा हूं। मैं कोई इसका दुश्मन नहीं हूं। मैं कौन हूं, बीच में आने वाला! वही इसके भीतर है, वही मेरे भीतर है। वही काटता है, वही कटता है। तो बैल और मेरे फरसे के बीच एक तारतम्य है, एक हारमनी है, एक लयबद्धता है। फरसे और बैल के बीच दुश्मनी नहीं है। बैल लड़ता नहीं; फरसा काटता नहीं। बस, फरसा जगह खोज लेता है। और बैल जगह दे देता है। इसलिए धार मरती नहीं है।
उस सम्राट ने कहा कि क्या यह कला तू मुझे भी सिखा सकता है? उस कसाई ने कहा: यह असंभव है। कला सिखाई नहीं जा सकती है, सीखी जा सकती है, सिखाई नहीं जा सकती। यह तो मैं अपने बेटे को भी नहीं सिखा सकता हूं। कोई उपाय नहीं सिखाने का, क्योंकि कला के कोई गणित के फारमूले नहीं हैं।
महान से महान चित्रकार भी यह नहीं बता सकता कि उसकी कला क्या है। वह चित्र बना सकता है, तुम सीख सकते हो--उसके पास बैठ कर। शायद जैसे इंफेक्शियस बीमारी होती है, ऐसे तुम उसकी कला को भी पकड़ ले सकते हो।
वही गुरु के पास बैठने का उपयोग है कि वह संक्रामक हो जाए। बैठते-बैठते-बैठते तुम उसकी कला पकड़ लो। लेकिन कला को सचेतन रूप से सिखाने का कोई उपाय नहीं है।
कैसे सिखाएगा कोई चित्रकार कि क्या है मेरी कला की कुंजी? उसको खुद भी ठीक से पता नहीं है। वह खुद मौजूद नहीं होता, यही तो कुंजी है। जब वह बिलकुल खो जाता है बनाने में, तभी तो चित्र बनता है। जब वह होता नहीं है, तभी तो चित्र बनता है।
उस कसाई ने कहा, यह मैं सिखा न सकूंगा। लेकिन तुम चाहो तो सीख सकते हो।
गुरु सिखाता नहीं है, शिष्य सीखते हैं। गुरु बताता नहीं है, शिष्य समझते हैं। गुरु की मौजूदगी एक इशारा है, शिष्य उसको संक्रामक बना लेते हैं; वे गुरु को पी जाते हैं।
कसाई--जिसने यह कहा कि ‘मेरी दुकान में सब-कुछ सर्वश्रेष्ठ है’--एक छिपा हुआ सूफी रहा होगा, एक छिपा हुआ झेन फकीर रहा होगा। ‘यहां कुछ भी नहीं, जो सर्वश्रेष्ठ नहीं।’ इसने तो सारे जगत के संबंध में एक वक्तव्य दिया। इसने कहा: ‘तेरी नजर की भ्रांति है। यहां तो सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है।’
ये शब्द सुन कर ग्राहक को तो ज्ञान न हुआ; ग्राहक तुम थे। ग्राहक को तो ज्ञान न हुआ; ग्राहक ने तो समझा होगा कि बकवास कर रहा है; व्यर्थ की बात कह रहा है। सभी कैसे सर्वश्रेष्ठ हो सकता है? जाहिर है कि कुछ श्रेष्ठ होगा, कुछ श्रेष्ठ नहीं होगा। और अगर सभी सर्वश्रेष्ठ है, तो सर्वश्रेष्ठ कहने का प्रयोजन क्या है! श्रेष्ठता तो निकृष्ठता की तुलना में ही होती है। दुकानदार बेचना चाहता है मुझे--कुछ भी, इसलिए सभी को सर्वश्रेष्ठ बता रहा है। सभी दुकानदार बताते हैं।
ग्राहक ने तो समझा होगा कि धोखा देने की तरकीब है। लेकिन बनजान, जो राह से गुजर रहा था, यह सुन कर ज्ञान को उपलब्ध हो गया। आखिरी तिनका ऊंट पर पड़ गया।
एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है कि जब सारा संसार डूब रहा था, महाप्रलय हो गई, और नोह को परमात्मा ने आज्ञा दी कि तू हर जाति के पशु-पक्षी, हर कोटि के प्राणियों का एक-एक जोड़ा लेकर नाव में सम्हाल कर उस जगह पहुंच जा, जहां कि प्रलय नहीं होगा--एक पहाड़ की चोटी पर। तो नोह ने खबर की सारी प्रकृति में कि एक-एक जोड़ा आ सकता है नाव में। इतनी बड़ी नाव उसने तैयार रखी थी।
सब जोड़े आए। लेकिन ऊंट तीन एकदम प्रवेश करने लगे। तो नोह ने कहा: रुको, तुमने सुनी नहीं खबर कि सिर्फ एक जोड़ा आ सकता है! ऊंटों ने कहा: हमारे मामले में तुम्हें थोड़ा अपवाद करना पड़े। क्योंकि, पहले ऊंट ने कहा कि मैं वही ऊंट हूं, जो आखिरी तिनके से बैठ जाता है। और अगर मैं न रहा, तो कहावत का क्या होगा! दूसरे ऊंट ने कहा कि मैं वही ऊंट हूं, जो कि सूई के छेद से गुजर जाए, लेकिन, धनी स्वर्ग के दरवाजे से नहीं गुजर सकता। अगर मैं छूट गया, तो कहावत का क्या होगा? तीसरे ऊंट ने कहा कि मैं वही ऊंट हूं, जिसको लोग देखते हैं कि देखो, किस करवट बैठता है। और मैं छूट गया तो लोगों को तापमान का पता चलना मुश्किल हो जाएगा।
कहते हैं: नोह ने बड़ा सोचा-विचारा और कहा कि इन कहावतों के बिना तो आदमी चल ही न सकेगा। कहा कि अच्छा भाई, तुम तीनों भीतर आ जाओ; तुम्हारे लिए अपवाद है।
उसमें पहला ऊंट वही था, जिसके बाबत यह कहानी है। जिसने कहा कि आखिरी तिनके से जो बैठ जाता है। यह बनजान उस दिन उसी ऊंट की हालत में था। आखिरी तिनके की तलाश थी। और ठीक किया कि बाजार चला गया। ठीक ही करता, कहीं भी जाता। कोई भी घटना--घटना सांयोगिक है--आखिरी तिनका बन सकती थी।
एक कसाई की बातचीत...! क्या हुआ बनजान के भीतर? जब उसने सुना कि कसाई कह रहा है: ‘यहां सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है। यह तुम बात ही मत पूछो। यहां कुछ हम बेचते ही नहीं हैं, जो सर्वश्रेष्ठ न हो।’ इसको सुन कर बनजान के भीतर क्या हुआ? सारी कोटियां टूट गईं--मन की! जैसे एक परदा हट गया, तुलना मिट गई। कुछ छोटा न रहा, कुछ बड़ा न रहा। कुछ बुरा-भला न रहा। सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ हो गया। कंकड़-पत्थर हीरे हो गए; हीरे कंकड़-पत्थर हो गए। जीवन मृत्यु हो गया, मृत्यु जीवन हो गई। साधु असाधु, असाधु साधु हो गए। सब मन की कोटियां डांवाडोल हो गईं। एक महाप्रलय हो गया। उस महाप्रलय में उसने देखा कि मैं खो गया, मेरा मन खो गया। यहां सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है।
मेरे पास लोग आते हैं। उनकी चिंता स्वाभाविक है; वे कहते हैं: जब आप कृष्ण पर बोलते हैं, तो ऐसा लगता है कि कृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं। जब आप लाओत्सु पर बोलने लगते हैं, तो ऐसा लगता है कि लाओत्सु सर्वश्रेष्ठ हैं। जब आप पतंजलि पर बोलते हैं, तो लगता है कि पतंजलि सर्वश्रेष्ठ हैं। आखिर सर्वश्रेष्ठ कौन है? तो मैं उनसे कहता हूं: ‘इस दुकान में ऐसा कुछ है ही नहीं, जो सर्वश्रेष्ठ न हो। सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है।’
तुम्हारा मन मानना मुश्किल करता है। तुम्हारा मन कहता है: अगर कृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं, तो फिर बुद्ध कैसे हो सकते हैं? क्या कठिनाई है! कृष्ण ने कोई ठेका लिया है? कृष्ण पर कोई चीज समाप्त हो जाती है? बुद्ध क्यों सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकते? तुम्हारे मन की कठिनाई साधारण है। सभी मन की कठिनाई है।
बटर्रेंड रसल ने लिखा है कि मैं पैदा तो ईसाई के घर हुआ--हवा चारों तरफ ईसाइयत की थी। लेकिन परिवार नास्तिक था; तो नास्तिकता साथ में पनपी; और हवा चारों तरफ ईसाइयत की थी, तो एक ऐसी घड़ी आ गई कि मैं समझने लगा कि मैं ईसाई तो नहीं हूं! और ईसाइयत के खिलाफ भी हो गया।
रसल ने बड़ी कीमती किताब लिखी है: वॉय आइ एम नॉट ए क्रिश्चियन? बड़े तर्क, बड़े विचार से। लेकिन फिर भी रसल ने एक बात स्वीकार की है कि सब करने के बाद मैंने चारों तरफ देखा कि फिर कौन? क्राइस्ट की जगह मैं किसको रखूं? मन खाली-खाली है। तो बुद्ध की प्रतिमा उभरी। बुद्ध प्रीतिकर लगे, कीमती लगे--बहुत कीमती लगे। लेकिन मन में कहीं अचेतन पीड़ा होती है कि जीसस के ऊपर कैसे रखूं! ज्यादा से ज्यादा करीब रख सकता हूं। बस, एक साथ रख सकता हूं।
यह पीड़ा क्या है? रसल की पीड़ा यही है कि उसने कसाई का वचन न सुना। वह उस दुकान से वंचित रह गया, जहां ऐसी अदभुत घटना बनजान को घटी।
एच. जी. वेल्स ने लिखा है कि गौतम बुद्ध से महान पुरुष पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। मुझसे कोई पूछे, तो मैं कहता हूं: कृष्ण से महान पुरुष पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। फिर कहता हूं: बुद्ध से महान पुरुष पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। महावीर से महान पुरुष पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। तब तुम अड़चन में पड़ोगे। क्योंकि तब तुम्हें लगेगा कि तीन-तीन महापुरुष और उनसे बड़ा कोई भी नहीं हुआ! यह कैसे सही है?
यहां सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है। निकृष्ठ परमात्मा में पैदा ही कैसे हो सकता है? निकृष्ठ तुम्हारी ईजाद है। उसने सभी सुंदर बनाया है; कुरूप तुम्हारा दृष्टिकोण है। उसने सभी साधु बनाया है; असाधु तुम्हारे नियमों के कारण पैदा हो गए हैं। तुम्हारे नीति-नियम तुम्हारे शास्त्र--उनके कारण असाधु पैदा हो गए हैं।
उसने बुरा कुछ बनाया ही नहीं; ‘बुरा’ आदमी की खोज है। यह दिखाई पड़ जाए, यह समझ की बात नहीं है, दिखाई पड़ने की बात है। और दिखाई तब पड़ेगा, जब तुम्हारे ऊंट पर पूरा वजन होगा।
उसी वजन को रोज रखता जा रहा हूं--रखता जा रहा हूं। किसी दिन आखिरी तिनका पड़ेगा; कब पड़ जाएगा, कोई भी कह नहीं सकता; उसी दिन ऊंट बैठ जाएगा। और जिस दिन तुम्हारे मन का ऊंट बैठेगा, उस दिन तुम देखोगे कि जगत इतना हरा है, इतना सुंदर है, इतना ताजा है, इतना नया है--अभी-अभी पैदा हुआ है, जैसे सुबह पड़ी ओस की बूंद हो, कि पहली सूरज की किरण हो--इतना ताजा है। जरा भी बासा नहीं है। और सभी कुछ ताजा है; कुछ भी बासा नहीं है। और एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक, इस छोर से लेकर उस छोर तक सभी सर्वश्रेष्ठ है।
मन को जो मिटाएगा, उसे यह दिखाई पड़ेगा। तुम ध्यान किए चले जाओ, आज नहीं कल किसी बाजार से गुजरते समय, किसी कसाई की बात सुन कर अचानक जैसे बिजली कौंध जाए अंधेरे में और सब-कुछ दिखाई पड़ जाए--जहां कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था--ऐसा ही तुम्हें भी दिखाई पड़ जाएगा।
लेकिन बाजारों में घूमने से न होगा यह। बाजारों मे तुम घूम ही रहे हो जन्मों से। कसाइयों की दुकानों के पास खड़े होने से भी कुछ न होगा। वहां यह चर्चा भी चल रही हो, तो भी ग्राहक तो वंचित ही रह गया है--जिससे चर्चा हो रही थी। और जिससे कोई बात ही नहीं हो रही थी, वह तो राहगीर था, वह उपलब्ध हो गया!
असली बात है कि तुम्हारा श्रम इतना हो जाए कि तुम बिलकुल टूटने के कगार पर हो, तब यह भी हो सकता है कि यह कसाई कोई ज्ञानी न रहा हो। यह सिर्फ एक पक्का दुकानदार हो। यह कसाई सिर्फ दुकानदार की भाषा बोल रहा हो--ज्ञानी की नहीं। यह भी हो सकता है कि इस कसाई को तो हर चीज बेचनी होती है। हर दुकानदार यही कहता है कि हमारे लिए तो सभी सर्वश्रेष्ठ है। तुम जो कहो, वही सर्वश्रेष्ठ है। जिसको बेचना है, उसके लिए सभी सर्वश्रेष्ठ है। शायद यह सिर्फ एक दुकानदार रहा हो--एक अच्छा सेल्समैन। इसको न ज्ञान से कोई संबंध हो; न इसने जो कहा है, उसके अंतिम अर्थ का कोई संबंध हो। तब बात और मजे की हो जाती है!
जिसने कहा, वह अज्ञानी; और जिससे कहा, वह अज्ञानी। और दो अज्ञानियों के बीच बातचीत का टुकड़ा तीसरे के लिए ज्ञान बन गया! यह भी हो सकता है।
बंगाल में एक बहुत बड़ा संत हुआ। बूढ़ा हो गया था; काम-धाम से रिटायर हो गया था। सुबह घूमने निकला था। उसके घर का नाम राजा बाबू था। और कोई स्त्री किसी मकान के भीतर अपने बेटे को या अपने देवर को या किसी को उठा रही थी। उसका नाम भी संयोग की बात कि राजा बाबू होगा। राजा बाबू बहुत होते हैं। तो वह कह रही थी भीतर कि राजा बाबू, उठो। सुबह हो गई। अब कब तक सोए रहोगे?
और यह बूढ़ा राजा बाबू बाहर से अपनी लकड़ी टेकता हुआ घूमने जा रहा था। दरवाजा बंद था। भीतर की स्त्री को इसका कोई पता ही नहीं है; इससे कोई संबंध ही नहीं है। यह सांयोगिक है: इसका गुजरना। वह अपने किसी बेटे को या देवर को उठा रही है कि उठो राजा बाबू! सूबह हो गई। कब तक सोए रहोगे? और ठिठक कर यह बूढ़ा आदमी खड़ा हो गया। और इसके कान में आवाज पड़ी कि सुबह हो गई, कब तक सोए रहोगे? उठो, राजा बाबू। कहते हैं: वहां से वह घर न लौटा। वहां से गांव के बाहर एक मंदिर में चला गया। घर के लोग समझाने-बुझाने आए, तो वह हंसता था। और एक ही बात दुहराता था कि उठो, राजा बाबू! सुबह हो गई। अब कब तक सोए रहोगे? अब बस, बहुत सो लिए!
तो यह जरूरी नहीं है कि दुकानदार ज्ञानी रहा हो। तब एक आखिरी बात खयाल ले लो: अज्ञानी भी तुम्हें जगा सकता है, अगर तुम्हारी जगने की तैयारी पूरी हो गई है। और ज्ञानी भी कुछ नहीं कर सकता है, अगर तुम्हारी तैयारी पूरी नहीं है। शायद आखिरी बात तुम्हारी तैयारी की है।
कई बार ऐसे गुरुओं के पास लोग ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं, जो गुरु खुद ज्ञान को उपलब्ध न थे। इसलिए तुम इसकी चिंता ही मत करना कि गुरु को ज्ञान मिला है कि नहीं। गुरु अज्ञानी थे और उनके पास लोग ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं! उनकी तैयारी थी।
इससे उलटा तो रोज ही घटता है कि ज्ञान को उपलब्ध गुरु के पास सैकड़ों लोग आते हैं, जाते हैं, कुछ भी उनके जीवन में क्रांति नहीं होती। उनकी कोई तैयारी नहीं है। अंतिम निर्णय तुम्हारी तैयारी से होगा।
अपने को पूरा लगा दो, ताकि ऊंट आखिरी तिनके की चोट से किसी भी दिन बैठ जाए। बचाया कि चूके। बचाना मत, तब किसी भी बाजार में, कोई भी शब्द का टुकड़ा--अनायास कहा गया वेद बन जाता है। अन्यथा तुम्हारे कान में कोई वेद गुनगुनाता रहे; तुम्हें सिर्फ भिनभिनाहट मालूम पड़ती है; तुम समझते हो कि सब शब्दों की बकवास है।
आज इतना ही।
झेन साधक बनजान बाजार से गुजर रहा था। एक कसाई और एक ग्राहक की बातचीत उसके कानों में पड़ी।
ग्राहक ने कहा: ‘मुझे सर्वश्रेष्ठ मांस का टुकड़ा ही देना।’
कसाई बोला: ‘मेरी दुकान में सब-कुछ सर्वश्रेष्ठ ही है। यहां कुछ भी नहीं है, जो सर्वश्रेष्ठ नहीं।’
बस, इतना सुन कर बनजान ज्ञान को उपलब्ध हो गया।
भगवान, कृपा कर इस कथा का मर्म हमें बताएं।
परम ज्ञान की घटना किसी भी क्षण घट सकती है। कहावत है कि एक छोटा सा तिनका भी ऊंट को बिठा सकता है; लेकिन वह आखिरी तिनका होना चाहिए। ऊंट पर वजन को रखते जाओ, रखते जाओ, सहता जाएगा, एक सीमा है। फिर आखिरी तिनका भी उसे बिठा देगा, जब सीमा के पार हो जाएगा। बरतन में पानी को भरते जाओ, भरते जाओ, फिर एक सीमा है, उसके बाद एक बूंद भी ज्यादा, बरतन में पानी न समा सकेगा। फिर एक बूंद भी बरतन के बाहर पानी को ले जाएगी। आखिरी बूंद--आखिरी तिनका क्रांतिकारी सिद्ध होता है।
पानी को तुम गर्म करते हो; होता है गर्म--एक डिग्री से निन्यानबे डिग्री तक; लेकिन भाप नहीं बनता। आखिरी डिग्री--सौवीं डिग्री और पानी एक छलांग लेता है; क्रांति घटती है और पानी भाप बन जाता है। आखिरी डिग्री में और पहली डिग्री में क्या कोई फर्क है? गर्मी वही है: पहली डिग्री में भी उतनी ही गर्मी है, जितनी आखिरी डिग्री में।
पहले तुम पत्थर भी रखते रहे ऊंट पर, तो वह न बैठा और आखिरी तिनके ने बिठा दिया! तिनके में क्या कोई ज्यादा वजन है? सवाल तिनके का नहीं है; सवाल ऊंट की सामर्थ्य का है। आखिरी सीमा--फिर छोटी सी घटना भी क्रांति बन जाती है।
इस बात को खयाल में ले लो, और फिर यह कहानी समझ में आ जाएगी; अन्यथा कहानी बड़ी बेबूझ है। और झेन में ऐसी बहुत सी कथाएं है। और ध्यान रखना; ये कथाएं ऐतिहासिक घटनाएं हैं, कहानियां नहीं हैं। ऐसा हुआ है। और ऐसा झेन साधकों को ही हुआ है, ऐसा नहीं; दुनिया में हर कोने में, जहां भी लोगों को परम ज्ञान उपलब्ध हुआ है, ऐसी घटनाएं घटी हैं; कोई छोटी सी बात क्रांति बन जाती है।
अगर बात को सीधा समझो, तो वह तिनका है; उससे ऊंट कैसे बैठेगा! अगर गर्मी को सीधा नापो, तो वह एक ही डिग्री है; चाहे पहली हो, चाहे सौवीं डिग्री हो; उससे पानी भाप कैसे बनेगा? लेकिन देखना पड़ेगा कि किसके जीवन में क्रांति घटी, वह कहां था।
अगर तुम इनक्यानबे डिग्री पर हो, तो वही डिग्री तुम्हें सिर्फ थोड़ा सा गर्म करके रह जाएगी; तुम बानवे डिग्री पर गर्म हो जाओगे। लेकिन जो निन्यानबे डिग्री पर है, वही डिग्री, उसे क्रांति घटा देगी। तुम्हारी समझ में न आएगा।
तुम एक तिनका ऊंट पर रख दो। ऊंट पर कोई वजन नहीं है, ऊंट को तिनके का पता ही न चलेगा? और वह बहुत चकित होगा यह सुन कर कि कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि तिनके के बोझ से ऊंट बैठ गए। वह हंसेगा कि पागल हो गए हो! तिनके का वजन पता ही नहीं चलता, ऊंट बैठेंगे कैसे! लेकिन अगर ऊंट पहले से ही लदा हो और आखिरी घड़ी आ गई हो--सामर्थ्य की सीमा आ गई हो--तो एक तिनका भी काफी है।
सवाल तिनके का नहीं है; सवाल तुम्हारी मनोदशा का है। अगर कोई व्यक्ति खोज रहा है, खोज रहा है, खोजता जा रहा है और उसने अपनी सारी सामर्थ्य लगा दी है खोज में, कुछ बचाया नहीं है। इसे ठीक से खयाल में ले लेना।
तुम सदा बचा कर चलते हो, इसलिए चूक रहे हो--जन्मों-जन्मों से। इस जन्म में भी चूक जाओगे--अगर बचाया; क्योंकि तुम्हारा ऊंट कभी पूरा लदा हुआ न होगा। आखिरी तिनका, कभी आखिरी तिनका सिद्ध न होगा। तुम्हारा पानी कुनकुना ही होगा, कभी निन्यानबे डिग्री तक न उबलेगा। इसलिए आखिरी डिग्री तुममें क्रांति न ला सकेगी।
तुम्हें बुद्ध भी मिल जाएं, तो भी तुम बैठोगे नहीं। तुम्हें कृष्ण भी मिल जाएं, तो भी तुम भाप न बनोगे। और कभी-कभी ऐसा हुआ है कि एक कसाई की चर्चा--कोई संबोधि को उपलब्ध हो गया।
कहा जाता है कि लाओत्सु एक वृक्ष के नीचे बैठा था और एक सूखा पत्ता वृक्ष से टूटा--हवा के झोंके में--और गिरने लगा। उस लंबे वृक्ष से सूखे पत्ते के गिरने को देखते-देखते-देखते--जब तक वृक्ष से पत्ता जमीन तक आया, तब तक लाओत्सु ज्ञान को उपलब्ध हो चुका था। यह ऊंट पूरा लदा होगा; अन्यथा एक सूखा पत्ता किसको ज्ञान दे सकता है! तुम बैठे हो उस वृक्ष के नीचे, सारे पत्ते भी सूख कर गिर जाएं, तो भी तो कुछ न होगा।
एक झेन फकीर स्त्री पानी भर कर लौटती थी। कंधे पर कांवर रखी थी। दोनों तरफ मिट्टी के घड़े लटके थे और अचानक कांवर टूट गई। पूरे चांद की रात थी। घड़ा गिरा, फूट गया। इधर घड़ा फूटा, उधर उसके भीतर कोई क्रांति घट गई; वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गई। यह घड़े की टूटने की आवाज, यह पानी का बिखर जाना, बस क्रांति घट गई।
तुम कहोगे, अगर क्रांति ऐसे घटती हो, तो हम सारे बाजार में जितने घड़े हों; खरीद लाएं, सभी को तोड़ डालें। नहीं, तब तुम चूक गए। और इसी तरह धार्मिक लोग चूकते रहे हैं। सभी रिचुअल, सभी क्रियाकांड इसी भ्रांति से पैदा होते हैं। क्योंकि एक आदमी के जीवन में किसी बात से क्रांति घटती है। कोई आदमी राम-राम-राम कहते क्रांति को उपलब्ध हुआ।
कहते हैं कि वाल्मीकि भूल ही गया ठीक उच्चारण, तो राम न कह कर मरा-मरा-मरा कहता रहा और क्रांति को उपलब्ध हुआ। तो तुम भी दोहराते रहो; ठीक वाल्मीकि जैसा: मरा-मरा कहो या सुधार कर कहो: राम-राम, तो भी तुम क्रांति को उपलब्ध न हो जाओगे। वाल्मीकि के लिए यह घटना आखिरी तिनका थी।
तुम्हारी सारी शक्ति जब लग जाए, कुछ न बचे, कुछ लगाने को न बचे, तुमने अपने को पूरा ही दांव पर रख दिया, फिर किसी भी चीज से क्रांति घट जाएगी।
और फिर तुम्हें किसी का अनुकरण करने की जरूरत नहीं है। और प्रत्येक व्यक्ति को क्रांति अनूठे कारणों से घटेगी; क्योंकि जिंदगी बड़ी है, बहुत बड़ी है, बहुत विराट है। यहां प्रतिपल घटनाएं घट रही हैं। कब तुम्हारी क्रांति का क्षण आ जाएगा, यह तुम पर निर्भर है, घटनाओं पर नहीं। घटना तो सांयोगिक है कि तुम्हें बाजार में घटेगी कि जंगल में घटेगी--बिलकुल सांयोगिक है।
बुद्ध सिद्धासन में बैठे थे, तब घटना घटी। फिर न मालूम हजारों लोग सिद्धासन में बैठे रहते हैं--इस आशा में कि घटना घटे। वे पागल हैं। यह तो संयोग था कि बुद्ध सिद्धासन में बैठे थे और उनकी पूरी शक्ति लग गई।
महावीर को तो बहुत अजीब आसन में घटना घटी--गोदोहासन में। जैसा कि कोई गाय से दूध दोहता है, तब बैठता है, ऐसे महावीर बैठे थे। पता नहीं क्या कर रहे थे! गोदोहासन में कोई बैठता भी नहीं। शायद बैठ ही रहे होंगे--खड़े रहे होंगे, बैठने जा रहे होंगे; और जब स्थिति गोदोहासन की थी, तब क्रांति घट गई। फिर न मालूम कितने लोग गोदोहासन में बैठ कर आशा रखते रहे हैं कि क्रांति घट जाए! भूल हो जाती है।
तुम तिनके की फिकर करते हो! अपनी फिकर करना। तिनके का कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य है कि तुम्हारी सारी शक्ति लग गई हो; कुछ न बचा हो, तो हवा का एक झोंका और तुम दूसरे हो जाओगे। एक सूखे पत्ते का गिरना--और पुराना मर जाएगा; तुम्हारे भीतर नये का जन्म हो जाएगा। यह तो पहली बात समझ लो।
दूसरी बात--इसके पहले कि इस कहानी में प्रवेश हो--यह समझ लेनी जरूरी है कि मन का सारा खेल तुलना पर, कंपेरिजन पर खड़ा है। जब तक तुम तुलना करते रहोगे, तब तक मन से छुटकारा नहीं है।
मन कहता है: यह भला, यह बुरा; यह सुंदर, यह कुरूप; यह श्रेयस्कर, यह अश्रेयस्कर; इसे चुनो, इसे छोड़ो। मन कहता है: यह स्वर्ग, यह नरक। मन कहता है : यह राम, यह रावण। मन बांटता है। और जब तुम मन की सुन लेते हो, तुम भी बंट जाते हो। तुम तब तक बंटे हुए ही रहोगे, जब तक तुम मन की सुनोगे। क्योंकि मन कहता है: यह ठीक और यह गलत। गलत को नहीं करना है, ठीक को करना है।
यह विभाजन--मन बाहर ही नहीं कर रहा है; इस विभाजन के लिए तुम अगर राजी हुए; तो विभाजन भीतर भी हुआ जा रहा है। मन बाहर भी बांटता है, भीतर भी बांटता है। इसलिए कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं--च्वॉइसलेसनेस--तुम चुनाव मत करो।
चुनाव न करने का मौलिक अर्थ होता है--तुम तुलना मत करो। तुलना की, कि चुनाव हो गया। तुम भेद मत करो; और तुम मत कहो कि यह पत्थर है और यह हीरा है। और तुम मत कहो कि यह मूल्यवान है और यह निर्मूल्य है। क्योंकि जैसे ही तुमने कुछ भी तरह की तुलना खड़ी की--तुम बंटे। अनबंटा होना, अविभाजित होना, अद्वैत की उपलब्धि का मार्ग है। तब तुम्हें एक मिलेगा, जब तुम एक हो जाओगे। जब तक तुम दो हो, तब तक सब दो हैं। और तुम हो अनेक, इसलिए सब अनेक हैं। यह जगत तो एक बड़ा परदा है, इस पर तुम ही विराट होकर दिखाई पड़ रहे हो।
यह कहानी कठिन लगती है। लेकिन कठिन इसलिए लगती है कि हम यह मान ही नहीं सकते कि एक दुकान में सभी चीजें श्रेष्ठ हैं। और दुकानदार कह रहा है कि यहां तो कोई ऐसी चीज ही नहीं है, जो श्रेष्ठ न हो। सर्वश्रेष्ठ हैं। वह सारी तुलना तोड़ रहा है। क्योंकि हम कहेंगे कि होंगी अच्छी, लेकिन फिर भी तो तुलना होगी। कोई ज्यादा अच्छी होगी, कोई कम अच्छी होगी--कोई बहुत अच्छी होगी। यह तो असंभव है कि दुकान पर सभी चीजें सर्वश्रेष्ठ हों! और अगर सभी सर्वश्रेष्ठ हैं, तो उनको सर्वश्रेष्ठ कहने का कारण क्या है? क्योंकि निकृष्ठ के बिना श्रेष्ठ कैसे होगा! और जब तक सर्वश्रेष्ठ से नीचे की सीढियां न हों, तब तक सर्वश्रेष्ठ की सीढ़ी कैसे निर्मित होगी? जहां शूद्र न हों, वहां ब्राह्मण कैसे होंगे? और जहां नीचे की सीढ़ी न हो, वहां ऊपर की सीढ़ी कैसे होगी? जहां व्यर्थ न हो, वहां सार्थक कैसे होगा?
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन दो स्त्रियों के प्रेम में था; और तय नहीं कर पाता था कि किसको चुने; क्योंकि एक बहुत सुंदर थी और एक बहुत धनी थी। और मन दोनों तरफ दौड़ता था। धन का लोभ भी छूटता नहीं था। धन निश्चय ही बहुत था। और मन कहता था कि शरीर का सौंदर्य तो दो दिन में बासा पड़ जाएगा; धन का सौंदर्य टिकता है। दो दिन बाद सुंदर से सुंदर स्त्री भी साधारण मालूम होने लगेगी--जब परिचित हो जाओगे। लेकिन धन देर तक काम देगा। रूप से भी ज्यादा रुपया स्थायी है।
और मन का दूसरा हिस्सा कहता था: क्या करोगे रुपयों का भी? अगर इस कुरूप स्त्री के चक्कर में पड़ गए, तो जिंदगी भर रोओगे। माना कि रूप क्षणभंगुर है, पर मूल्यवान है। सारा जीवन क्षणभंगुर पर गंवा देने जैसा है। रुपये को इकट्ठा भी कर लिया, स्थायी भी है, तो भी मुरदा है। शायद इसीलिए स्थायी भी है, क्योंकि जिंदगी तो बदलती है।
मन बड़ी मुश्किल में था; कुछ तय न कर पाता था। दोनों स्त्रियां भी बड़ी मुश्किल में थीं कि कैसे तय करें। दोनों को उलझाए हुए था। आखिर उन दोनों स्त्रियों ने कहा कि हमें ही कुछ करना पड़े।
एक दिन नसरुद्दीन को दोनों लेकर नदी पर नाव में बैठ कर गईं। रास्ते में उन्होंने कहा कि नसरुद्दीन, अगर नाव डूब जाए और तुम हम दोनों में से एक को ही बचा सको, तो तुम किसको बचाओगे? तुम हम दोनों में से किसको सुंदर समझते हो? किसको योग्य समझते हो? नसरुद्दीन ने कहा कि तुम दोनों एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर सुंदर हो। तुम दोनों एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर सुंदर हो, फिर भी उसने कमिट न किया। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि दो व्यक्ति एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर सुंदर हों! यह तो तभी हो सकता है, जब मन देखने वाला न हो।
जब तक मन है तब तक तो मन कहेगा कि एक कम, एक ज्यादा; एक नीचे, एक ऊपर। मन सीढ़ियां बनाता है, सभी वर्ण, सभी हाईररकी मन के निर्माण हैं। मन कहता है: नंबर एक, नंबर दो, नंबर तीन...। मन विभाजित करता है, सीढियां बनाता है, वर्ण निर्मित करता है, वर्ग निर्मित करता है।
कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्टैलिन और माओ--जगत में वर्ग-विहीन समाज बनाना चाहते हैं; लेकिन उन्हें कुछ पता नहीं है; जीवन के गहरे सूत्रों का कोई पता नहीं है। जब तक मन है, तब तक वर्ग-विहीन समाज बन नहीं सकता; क्योंकि मन वर्ग का निर्माता है।
धन का सवाल नहीं है। धन बंट जाए, तो भी वर्ग-विहीन समाज निर्मित न होगा। तुम्हारे पास बराबर धन बांट दिया जाए तो भी वर्ग-विहीन समाज निर्मित न होगा। क्योंकि मन को ऊपर-नीचे रखने की आदत है। तब भी किसी को सुंदर कहोगे, किसी को असुंदर; किसी को बुद्धिमान, किसी को कुरूप; किसी को योग्य, किसी को अयोग्य। और जल्दी ही जो बुद्धिमान है, वह ज्यादा धन इकट्ठा कर लेगा; जो बुद्धिहीन है, वह धन खो देगा। ज्यादा देर न लगेगी कि सुंदर के पास धन चला आएगा, कुरूप के हाथ से धन खो जाएगा। कितनी देर लगेगी: वर्ग के वापस लौट आने में! जब तक मन है, तब तक वर्ग के आने के लिए दरवाजा खुला है।
वर्ग-विहीन समाज कम्युनिस्टों के द्वारा निर्मित नहीं हो सकता। वर्ग-विहीन समाज तो सिर्फ योगियों के द्वारा निर्मित हो सकता है। इसलिए करीब-करीब असंभव है, क्योंकि जब सारी पृथ्वी योग में निष्णात हो, जब सारी पृथ्वी अ-मन की हालत में पहुंच जाए--जहां मन समाप्त हो जाता है--तब वर्ग-विहीनता आएगी। उसके पहले वर्ग-विहीनता का कोई उपाय नहीं है।
यह दूसरा तत्व है समझ लेने जैसा कि क्यों इस फकीर को एक कसाई की बात सुन कर ज्ञान उपलब्ध हो गया! कसाई ने ऐसी बेबूझ बात कही कि मन उसे पकड़ ही न पाया। वह पहेली हो गई। उसी पर ध्यान लग गया।
और कसाई ने एक ऐसी बात कही जो कि इस जगत के संबंध में सत्य है। इस परमात्मा के जगत में सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है; यहां कोटियां हैं ही नहीं। यहां नीचे-ऊपर रखने का उपाय ही नहीं है। यहां सभी कुछ ऊपर है। यहां नीचे जैसी कोई घटना ही नहीं घटती। यह दूसरी बात है कि तुम्हें कुछ नीचा दिखाई पड़ता है और तुम्हें कुछ उंचा दिखाई पड़ता है।
यह तुम्हारे देखने की बात है, यह तुम्हारा नजरिया है, यह तुम्हारी आंख है, जो कोटियां पैदा करती है। लेकिन ज्ञानी के देखने का ढंग ऐसा है कि कोटियां खो जाती हैं; वह देखता है, और कोटियां खो जाती हैं। इसलिए ज्ञानी निर्णय नहीं लेता; ज्ञानी न्यायाधीश नहीं बनता। जीसस ने जगह-जगह दोहराया है--अपने शिष्यों को कहा है: जज यी नॉट--तुम निर्णायक मत बनो; तुम न्यायाधीश मत बनो।
प्रसिद्ध कहानी है कि एक गांव में एक स्त्री को लोग जीसस के पास लेकर आए, क्योंकि उसने व्यभिचार किया था। और नियम था--पुरानी किताब में कि व्यभिचार करने वाली स्त्री को पत्थर मार कर मार डाला जाए। सारा गांव उसे मारने को उत्सुक था। ये वे ही लोग थे, जो व्यभिचार करने को भी उत्सुक रहे होंगे। शायद मारने को इसीलिए उत्सुक थे, कि व्यभिचार किसी और ने कर लिया था! उनका मौका चूक गया था। ये सभी व्यभिचार में भी प्रतियोगी थे और क्यू लगा कर खड़े रहे होंगे। ये चूक गए थे और नाराज थे और क्रोधित थे। लेकिन क्रोध भी सुंदर रास्ते खोजता है। ये इसको मार डालना चाहते थे। इस स्त्री ने इन्हें पराजित किया था। और इस स्त्री ने इन्हें प्रलोभित भी किया था, आकर्षित भी किया था; इनकी वासना को भी जगाया था और इनकी वासना तृप्त भी नहीं हो पाई थी।
सारा गांव नाराज था। बूढ़े-बड़े, जवान--सब पत्थर लिए नदी के किनारे उस स्त्री को मारने को तैयार थे। जीसस उस नदी के किनारे बैठे हैं, तो लोगों ने कहा कि जीसस से भी हम पूछ लें। और यह अच्छा मौका है--जीसस को भी फांस लेने का। यह स्त्री तो फंस ही गई है और इसको हम मार डालेंगे; जीसस को भी फांस लेने का अच्छा मौका है।
अगर जीसस कहें कि पुरानी किताब गलत है, तो ये पत्थर दोनों का ही अंत कर देंगे। यह आदमी खतरनाक है और इस तरह की बातें बोल रहा है जो कि पुराने शास्त्र के विपरीत हैं। और अगर जीसस कहे कि पुराना शास्त्र सही है, तो हम स्त्री को तो मार डालेंगे। फिर हम जीसस को कहेंगे: तुम्हारी शिक्षाओं का क्या होगा? क्योंकि तुम कहते हो--जो तुम्हारे गाल पर एक चांटा मारे, दूसरा सामने कर देना। और तुम कहते हो कि प्रेम ही परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग है। और तुम कहते हो: विनम्र की विजय होगी। हिंसा के तुम विरोधी हो, युद्ध के तुम पक्षपाती नहीं हो। शांति का तुम्हारा संदेश है; तो फिर तुम कैसे राजी होते हो--इस स्त्री को पत्थर मार कर मार डालने के लिए! यह तो हत्या है। यह तो घृणा है। तो हम दोनों तरफ से जीसस को फांस लेंगे।
लोगों को पता नहीं था कि जीसस को फांसना मुश्किल है। जिसके पास मन नहीं, उसको फांसना बहुत मुश्किल है। क्योंकि मन ही फंसता है। उन्होंने जाल तो फेंका--बढ़िया। और सीधा--तार्किक जाल था, क्योंकि दो ही उपाय थे: या तो कहो कि पुरानी किताब ठीक है, स्त्री को मार डालें; तो भी फंसते हो। या कहो कि पुरानी किताब गलत है और स्त्री को माफ कर दो; प्रेम करो, सम्मान करो; निर्णय मत करो, जज यी नॉट, तो फिर हम तुम्हें भी मारे डालते हैं; क्योंकि पुरानी किताब के तुम भी दुश्मन हो! तो जैसा व्यभिचार इस स्त्री ने किया है, वैसे ही अनाचार को तुम फैलाना चाहते हो। तुम भी पाप के साथी हो।
लेकिन जीसस ने क्या कहा? जीसस ने कहा कि पुरानी किताब बिलकुल ठीक है। मैं पुरानी किताब को नष्ट करने नहीं आया हूं। मैं पुरानी किताब को सिद्ध करने आया हूं। लेकिन पुरानी किताब में एक बात छूट गई है, जो मैं तुम्हें बताता हूं। और वह यह है कि पहला पत्थर वही आदमी मारे, जिसने कभी व्यभिचार न किया हो और व्यभिचार का विचार न किया हो। उन आदमियों को तो हक नहीं हो सकता पत्थर मारने का, जो खुद व्यभिचारी हैं। जो तुम्हारे भीतर व्यभिचारी न हो, वह आगे आ जाए। तो जो सामने खड़े थे--बड़े-बूढ़े, पंचायत के प्रमुख, गांव के मुखिया, वे भीड़ में पीछे सरकने लगे। क्योंकि भीड़ एक-एक को जानती थी।
छोटे गांवों का एक मजा भी था और एक खतरा भी। क्योंकि हर आदमी, हर आदमी को जानता है। बड़े गावों में तुम शक्लें झूठी कर सकते हो; छोटे गावों में बहुत मुश्किल है, छोटे गांवों में तुम्हारा हर दांव-पेंच पता है। छोटे गांव में कुछ भी छिप नहीं सकता है। हर आदमी की जिंदगी खुला अखबार है। लोग इतने करीब-करीब हैं कि तुम क्या करोगे--हर आदमी जानता है, कौन वेश्या के घर जाता है, कौन पराई स्त्री के प्रेम में है, कौन क्या कर रहा है--सबको पता है।
छोटे गांव में एक परिवार जैसा संसार है, जहां छिपाना मुश्किल है। यह फायदा भी है और खतरा भी है। खतरा यह है कि कोई प्राइवेसी, कोई निजता, कोई स्वतंत्रता छोटे गांव में संभव नहीं है। छोटे गांव में एक तरह की पराधीनता है और गुलामी है। दुनिया में स्वतंत्रता आई--बड़े गावों के बनने के बाद। छोटा गांव खतरनाक है; हर आदमी के पंजे तुम्हारी गर्दन पर हैं। तुम कोई निजता का जीवन नहीं जी सकते। कुछ भी प्राइवेट नहीं है, सब पब्लिक है।
गांव छोटा था। हर आदमी हर दूसरे आदमी को जानता था। कोई आदमी दावा नहीं कर सकता था कि मैंने कभी व्यभिचार नहीं किया। पूरा गांव कहता कि अरे! हमारे सामने, और यह कहने की हिम्मत कर रहे हो? न केवल लोग पीछे हटने लगे, लोगों के हाथ में जो पत्थर उठ गए थे, वे भी गिर गए। थोड़ी देर में भीड़ नदारद हो गई। वे जो मारने आए थे--व्यभिचारिणी स्त्री को, वे जा चुके थे; क्योंकि उनमें एक भी पत्थर उठाने के योग्य न था।
अक्सर ऐसा होता है कि पापी ही पापियों को मार डालने को उत्सुक होते हैं। पुण्यात्मा तो पापी को मारने का विचार भी नहीं कर सकता। सच तो यह है कि पुण्यात्मा, पापी पापी है यह निर्णय भी नहीं ले सकता। वही पुण्य की प्रतिभा है, वही पुण्य की गरिमा है।
जब सभी जा चुके, स्त्री ही बाकी रह गई--और जीसस उस नदी तट पर, तो उस स्त्री को बोध हुआ कि इस आदमी ने न केवल मुझे बचाया, इस आदमी ने ऐसी आंखों से भी मुझे नहीं देखा कि जिसमें निंदा हो, कंडेमनेशन हो--तो उस स्त्री ने कहा कि तुम्हारे सामने मुझे कहने में संकोच नहीं है। मैं स्वीकार करती हूं कि मैं पापिणी हूं; मैं स्वीकार करती हूं कि मैं व्यभिचारिणी हूं।
ध्यान रहे, जब तुम निंदा से नहीं देखते, तो तुम दूसरे को इस योग्य बनाते हो कि वह अपने पापों को स्वयं स्वीकार कर सके। और जब तुम्हारी आंखों में क्रोध नहीं होता है और जब तुम्हारी आंखों में नरक भेज देने का भाव नहीं होता, तो तुम दूसरे आदमी को सबल बनाते हो कि वह कह सके सत्य; तुम दूसरे को सत्य होने का मौका देते हो; यह भी पुण्य है।
दूसरे को सत्य होने का मौका देना बड़े से बड़ा पुण्य है। लेकिन जब तुम निंदा करते हो, तुम दूसरे को, छिपाने के लिए अवसर देते हो; तुम दूसरे को झूठा होने का अवसर देते हो; यह पाप है। इसलिए जीसस कहते हैं: तुम निर्णय मत करो, तुम न्यायाधीश मत बनो। किसने तुम्हें न्यायाधीश बनाया है कि तुम कहो: क्या पाप है, क्या पुण्य है? कौन बुरा है, कौन भला है? कौन साधु, कौन असाधु? तुम चुप रहो।
उस स्त्री ने कहा कि मैं पापिणी हूं, मैं व्यभिचारिणी हूं। आप जो भी सजा मुझे देना चाहें, दें। यह मेरी गर्दन झुकी है। जीसस ने कहा कि मैं कौन हूं, तेरा निर्णय करने वाला! यह तेरे और तेरे परमात्मा के बीच की बात है। इसमें मैं बीच में खड़ा होने वाला कौन? लेकिन अगर तू सोचती है कि तूने कुछ गलत किया, तो अब उस गलत को मत करना। लेकिन यह अगर तू सोचती है; यह मेरा आदेश नहीं है। अगर तू सोचती है कि तूने कुछ गलत किया और यह समझ तेरे भीतर जगी है, तो तू गलत अब मत करना। मैं तुझे पापिणी नहीं कहता और व्यभिचारिणी नहीं कहता। मैं कौन हूं!
जीसस जैसे व्यक्ति को सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है: पापी भी, पुण्यात्मा भी।
सर्वश्रेष्ठता कोई तुलना से मिली हुई बात नहीं है। सर्वश्रेष्ठता प्रत्येक का स्वभाव है। अगर परमात्मा सभी के भीतर है, तो इस कसाई ने गजब की बात कही; सभी सर्वश्रेष्ठ होगा ही। अगर परमात्मा ही धड़कता है तुम्हारे हृदय में, अगर वही देखता है तुम्हारी आंखों से, तो चाहे तुम चोरी करो और चाहे व्यभिचार, और चाहे तुम मंदिर जाओ, मसजिद जाओ या वेश्यागृह, क्या फर्क पड़ रहा है! तुम्हारी सर्वश्रेष्ठता अक्षुण्ण है।
तुम्हारे भीतर जो छिपा है, उसके मैले होने का उपाय नहीं। वह सदा धुला हुआ है--सद्यःस्नात--सदा नहाया हुआ है। उसकी पुण्यता में क्षण भर के लिए भी, कण भर की कमी नहीं हो सकती। यही परम ज्ञानी की दृष्टि है--परमहंस की।
अब हम इस कहानी को समझने की कोशिश करें।
‘झेन साधक बनजान बाजार से गुजर रहा था।’ साधक है, अभी सिद्ध नहीं। अभी चल रहा है मार्ग पर, पहुंच नहीं गया है। लेकिन साधक है; सोच नहीं रहा है--साधना के संबंध में।
कुछ लोग साधना के संबंध में सोच कर सोचते हैं कि साधक हो गए! वे अक्सर सोचते रहते हैं: ध्यान करना है, प्रार्थना करनी है, संन्यास लेना है। और सोचते हैं: साधक हैं! साधना के संबंध में सोचने से कोई साधक नहीं होता; साधना करने से कोई साधक होता है। करने से ऊंट पर वजन पड़ता है; फिर कभी तिनका बिठा देता है। करने से आग पैदा होती है--सोचने से नहीं। और कभी आखिरी उष्णता आ जाती है और आदमी भाप हो जाता है।
‘बनजान बाजार से गुजर रहा था।’ पहली बात: बनजान साधक है। वह कुछ कर रहा है, वर्षों से--शायद जन्मों से। वह बैठ कर सोचता नहीं रहा है, चला है मार्ग पर। और जैसे आखिरी घड़ी करीब आ गई है। साधक वहां है, जहां सिद्ध पैदा हो सकता है।
एक न एक दिन वह घड़ी तुम्हारी भी आएगी। जल्दी आ सकती है, अगर तुम श्रम में अपनी शक्ति पूरी लगा दो; अभी आ सकती है, इसी क्षण आ सकती है, अगर तुम बिलकुल न बचाओ और पूरे के पूरे उसमें प्रवाहित हो जाओ। जितना तुम अपने को बचाओगे, उतनी देर लग जाएगी। क्योंकि बिना तुम्हारे पूरे उतरे घटना नहीं घट सकती।
तुम नदी में उतरते भी हो, तो ऐसे
कि जरा सा पंजा तुमने उतार दिया पानी में और बाकी पूरे तुम नदी के बाहर खड़े हो! कैसे होगा स्नान? और यह स्नान ऐसा है कि डूब कर मिट ही न जाओ, तो स्नान हो नहीं सकता। कभी तुम बहुत हिम्मत भी जुटाते हो, तो गर्दन तक जाकर खड़े हो जाते हो। बहुत लोग इतनी हिम्मत जुटा लेते हैं--कि गर्दन तक...। इसके आगे डरते हैं। लेकिन असली चीज तो खोपड़ी है; जब तक वह न डूबे, कुछ नहीं डूबता है।
गर्दन तक तो सब हिस्सा बेकार है। बेकार इस अर्थ में कि उसके डुबाने से कुछ हल नहीं होता है। उसने कुछ सवाल उठाया भी नहीं है। उसकी वजह से कोई झंझट भी नहीं है। असली झंझट तो खोपड़ी की है। लेकिन खोपड़ी को तुम बचाना चाहते हो।
तो तुम पानी में गर्दन तक चले जाते हो, साधना में भी गर्दन तक चले जाते हो और जहां गर्दन कटने का वक्त आता है, वहीं से लौट आते हो! जहां गर्दन के डूबने का डर पैदा होता है कि अब तो श्वास लेना भी मुश्किल हो जाएगा, कि अब तो प्राण गए-गए--अब तो किसी भी क्षण डूब जाएंगे, बस वहीं से तुम भाग खड़े होते हो। मिटने के डर से तुम भाग आते हो। और मिटे बिना कभी कोई पहुंचा नहीं है। जब तक तुम मिटे नहीं तब तक साधक हो; पर मिटने की चेष्टा कर रहे हो। जिस दिन मिट गए, उस दिन तुम सिद्ध हो।
बनजान बिलकुल निन्यानबे डिग्री का साधक रहा होगा। और जब तक घटना न घटे, तुम बता नहीं सकते कि कब निन्यानबे डिग्री आई। यह मुश्किल है, इसलिए अनप्रिडिक्टेबल है; कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती है।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि कब तक ज्ञान होगा? कुछ नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि कब तुम निन्यानबे डिग्री पर आओगे, अब तक कोई ‘थर्मामीटर’ इसकी जांच का नहीं है। क्योंकि यह कोई शरीर की गर्मी नहीं है, जिसको नापा जा सके। यह चेतना की गर्मी है, चेतना की उष्णता है। उसको ही हमने तप कहा है। तप का अर्थ है: गर्मी, लेकिन भीतर की गर्मी। शरीर से बिलकुल नहीं नापी जा सकती। और उसके नापने का अब तक कोई उपाय नहीं है; कभी भी नहीं होगा। क्योंकि चेतना अमाप है--मेजरेबल नहीं है।
तो कोई उपाय नहीं है, जिससे हम नापें। कोई तराजू नहीं है; कोई इंच-फीट नहीं हैं, जिससे हम नापे। कुछ उपाय नहीं है।
और फिर डर यह भी है कि निन्यानबे डिग्री से भी कई बार लोग वापस लौट जाते हैं। वापस लौट सकते हैं--निन्यानबे डिग्री तक से। निन्यानबे डिग्री तक से पानी फिर ठंडा हो सकता है। सौ डिग्री हो जाए तो भाप बन जाता है; फिर लौटना मुश्किल हो जाता है, असंभव हो जाता है। क्रांति घट गई।
जब तक क्रांति नहीं घटी, कई बार तुम निन्यानबे डिग्री से होकर लौट आते हो। उबलते हो और फिर कुनकुने हो जाते हो; फिर ठंडे हो जाते हो। तुम्हारी जिंदगी में--तुम भी जानते हो--कई बार ऐसी घड़ी आती है कि कूद जाओ, कूद जाओ। बिलकुल आखिरी घड़ी आ जाती है। फिर कोई छोटी सी बात, और तुम अपने को फिर सम्हाल लेते हो। वह सम्हाल लेना शत्रुता है। तुम समझते हो: तुमने होशियारी की और अपने को बचा लिया! बचाने में ही भूल हो गई।
यह झेन साधक बनजान ‘साधक’ था--एक बात ध्यान रखना। और दूसरी बात बड़े मजे की है: बाजार से गुजर रहा था। क्योंकि झेन कहता है: पूरा संसार बाजार है; भाग कर तुम कहीं जा न सकोगे। हिमालय पर भी चले जाओगे, तो भी बाजार से छुटकारा नहीं है। तुम जहां भी रहोगे, बाजार रहेगा। बाजार तुम्हारे भीतर है; इसलिए भागना मत। भागने में कोई सार नहीं है। समय मत खोना।
भाग कर जाओगे भी कहां? जो लोग भी भागते हैं, वे वहीं पहुंचते हैं--जहां से भागे थे।
एक बहुत पुरानी सूफी कथा है कि एक आदमी सुबह-सुबह उठा और उसने अपने नौकरों को कहा कि मेरे घोड़े को ले आओ। बस, अब बहुत हो गया। यहां मैं बहुत दुखी हूं। इसलिए अब मैं यहां से दूर चला जाना चाहता हूं--फार अवे फ्रॉम हियर। नौकर ने कहा: मालिक घोड़ा तो मैं तैयार कर दूं, लेकिन डेस्टिनेशन, मंजिल क्या है? कहां जाना चाहते हैं? उस आदमी ने कहा: तुम समझे नहीं। मंजिल यही है। यहां से दूर चला जाना चाहता हूं। यही मेरी मंजिल है--यहां से दूर...। वह नौकर कोई साधारण नौकर न था; वह एक साधक... बल्कि एक सिद्धपुरुष था।
सूफियों का ऐसा ढंग है कि सूफी अपने को छिपाते हैं; वे अपने को जाहिर नहीं करते। तो कोई चमार की तरह छिपा रहता है, कोई नौकर की तरह। कोई गांव में बावर्ची का काम करता करता है; कोई बाजार में सामान बेचता है, सब्जी बेचता है।
सूफी प्रकट नहीं करता है। उसके शिष्य भी होते हैं, पर तुम उनका पता नहीं लगा सकते। क्योंकि चमार की दुकान पर बैठ कर शिष्य भी चमारी का काम करते हैं--दिन भर। रात को उनको पाठ दिए जाते हैं। दिन भर वे संसार से छिपे रहते हैं; क्योंकि सूफी विचारणा कहती है कि संसार में इतने उपद्रवी लोग हैं कि अगर उनको यह भी पता चल जाए कि तुम शांत हो रहे हो, तो वे सब तरह के उपाय करेंगे कि तुम शांत न हो पाओ! तो उपद्रवियों को अकारण मौका नहीं देना। उनको अगर यह भी पता चल जाए कि तुम शुद्ध हो रहे हो, तो वे तुम्हें अशुद्ध करने के सब उपाय करेंगे। क्यों? क्योंकि तुम्हारे शुद्ध होने से उनके अहंकार को चोट लगती है कि तुम शुद्ध हो गए और हम न हो पाए! तुमने समझा क्या है?--कि तुम संन्यास ले लिए और हम न ले पाए। खींच कर टांग तुम्हें वापस जगह पर ला देंगे।
हर जगह उनके मन में प्रतियोगिता है। इसलिए सूफी छिपाते हैं। इसलिए सूफियों का पता लगाना तुम्हें मुश्किल है, जब तक तुम्हारे पास आंख और कुंजी न हो; जब तक तुम्हें कोई कुंजी न दे, तुम सूफियों का पता न लगा सकोगे। क्योंकि वे जिंदगी में साधारण हैं, वे असाधारण होकर नहीं हैं। वे बिलकुल जिंदगी के सामान्य हिस्से हैं। बाजार में बैठे हैं और बाजार से भागते भी नहीं हैं। और उनका कहना है कि जो होना है, वह बाजार में ही हो जाएगा। क्योंकि परमात्मा भी बाजार में है। और बाजार परमात्मा में है। इसलिए तुम कहां भागे जा रहे हो? और जिसे तुम यहां न पा सकोगे, उसे तुम वहां कैसे पाओगे? और एक बड़े मजे की बात है कि तुम जहां भी पहुंच जाओगे, वहीं यहां हो जाएगा।
उस आदमी ने कहा कि मैं यहां से दूर निकल जाना चाहता हूं। उसके नौकर ने कहा: मालिक तब बड़ा मुश्किल है। मैं कितना ही तेज घोड़ा ले आऊं, आप यहां से दूर न निकल पाएंगे। क्योंकि आप कहीं भी पहुंचेंगे, वहीं यहां होगा। जाओगे कहां? तुम जहां पहुंचोगे, वहीं यहां होगा।
उस मालिक ने कहा कि यह मैंने कभी समझा न था कि तू कोई बड़ा दार्शनिक है! तू बड़ी ऊंची बातें करता है। तुझसे मैंने कहा है कि तू घोड़ा सम्हाल कर ला, तैयार कर और रास्ते के लिए सामान, भोजन, पाथेय जुटा। उस नौकर ने कहा: यह और भी मुश्किल है मालिक। यात्रा पर जाएं, तो ठीक है। लेकिन यह यात्रा ऐसी है कि यह अंतहीन है। इसमें कोई प्रोविजन, कोई पाथेय नहीं ले जाया जा सकता। सब चुक जाएगा। आप कभी पहुंच ही नहीं सकते हैं--ऐसी जगह, जो ‘यहां’ न हो।
आज तक दुनिया में ‘वहां’ कौन पहुंचा है! जहां जाओगे, वहीं यहां हो जाएगा। जो तुम्हारे लिए अभी वहां है, पहुंच कर यहां हो जाएगा। तुम जहां बैठे हो, दूसरे लोगों के लिए वह जगह वहां है; तुम्हारे लिए यहां है।
उस नौकर ने कहा: नो वन कैन गो अवे फ्रॉम हियर--यहां से दूर कोई नहीं जा सकता। और जाना हो, तुम्हारी मर्जी। लेकिन पाथेय मत ले जाएं। क्योंकि कितना ही पाथेय साथ हो, कितना ही खाना ले जाओ, वह सब चुक जाएगा। मंजिल तो कभी आने वाली नहीं, आ ही नहीं सकती। यह रास्ता लंबा ही नहीं है, अंतहीन है।
बाजार से भाग कर तुम हिमालय जाना चाहते हो, तुम ‘यहां’ से भाग कर ‘वहां’ जाना चाहते हो, तुम वहां पहुंचोगे नहीं। तुम ही बाजार हो; तुम्हारे भीतर बाजार भरा है। तुम जहां भी जाओगे, तुम वहां बाजार खड़ा कर लोगे।
अगर तुम्हारे भीतर लोभ है और हिमालय में तुम बैठे हो--पहाड़ पर, एकांत में और अगर एक हीरा पत्थर तुम्हारे सामने पड़ा होगा, तो तुम जल्दी से अपनी गुदड़ी में उसे उठा कर छिपा लोगे। या कि तुम उसे पड़ा रहने दोगे। अगर हिमालय पर तुम हीरे को पड़ा रहने दे सकते हो, तो यहां दुकान में, बाजार में बैठ कर तुम्हारी क्या चिंता है!
अगर लोभ नहीं है, तो बाजार यहीं खो गया। और अगर लोभ है तो तुम जहां जाओगे वहीं बाजार होगा। तुम बैठोगे तो जरूर हिमालय पर, लेकिन सोचोगे तुम यहां की ही--जहां से तुम आ गए हो। मन पीछे जाएगा या आगे जाएगा। तो फिर सोचोगे कि दुकान फिर चलानी है लौट कर। अब की बार वैसी भूल नहीं करेंगे, जैसे पहले की। फिर घर बसाना है। पहले गलत पत्नी चुन ली थी, अब ठीक पत्नी चुन लेंगे। सुख नहीं मिल सका, क्योंकि स्थिति गलत थी; अब स्थिति बदल लेंगे। इसी ढंग से तो तुम इतने जन्मों से चले आ रहे हो। हर जन्म में तुम यही सोचते हो कि अगले जन्म में सब ठीक कर लेंगे। इस बार भूल हो गई, आगे न होगी। लेकिन फिर तुम वही भूल करते हो। क्योंकि तुम वही हो, तो तुमसे वही भूलें निकलती हैं। जैसे वृक्ष से वही पत्ता निकलता है, जो उसमें छिपा है।
‘झेन साधक बनजान बाजार से गुजर रहा था। और एक कसाई और एक ग्राहक की बातचीत उसके कानों में पड़ी।’
और बड़ी अजीब जगह खड़ा था। कसाई की दुकान थी। कोई सोने-चांदी की दुकान होती तो हम समझ भी लेते कि वहां निर्वाण घट गया। कसाई की दुकान के पास घटा! जिंदगी बेबूझ है। कसाई और एक ग्राहक की बातचीत का टुकड़ा उसके कानों में पड़ा। ग्राहक ने कहा, सर्वश्रेष्ठ मांस का टुकड़ा मुझे देना।
जो भी खरीदने निकला है, वह सर्वश्रेष्ठ की मांग करता है। खरीददार का मन श्रेष्ठ की मांग करे, यह स्वाभाविक है। मांग ही सर्वश्रेष्ठ की होती है। और इसलिए हर मांग दुख में ले जाती है। क्योंकि तुम मांग भी नहीं पाते कि तुम देखते हो, उससे भी श्रेष्ठ कहीं ज्यादा मौजूद है; दुख फिर शुरू हो जाता है। हीरा हाथ में भी नहीं आता है कि बड़े हीरे दिखाई पड़ने लगते हैं। पद मिल भी नहीं पाता कि उदासी छा जाती है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन ने विवाह किया। तो जिस दिन उसके विवाह का समारंभ हो रहा था, उसके रिश्तेदारों ने देखा कि वह बड़ा उदास है, और जैसे कुछ खो गया हो। उसकी आंखें कहती हैं कि जैसे वह कुछ खोज रहा है। तो उसके एक मित्र ने कहा कि क्या कुछ खो गया है? कहीं विवाह का छल्ला तो नहीं खो दिया? तो नसरुद्दीन ने कहा: छल्ला तो अंगुली में है। लेकिन तुम पूछते ठीक हो, कुछ खो जरूर गया है--विवाह का उत्साह खो गया है। और कल तक यह दीवाना था--इस स्त्री को पाने के लिए! उस मित्र ने पूछा, लेकिन कल तक तुम पागल थे और हम सोचते थे, तुम्हारी खुशी का कोई अंत न होगा! उसने कहा, वह तो ठीक है। लेकिन आज समारोह में जो अनेक स्त्रियां आईं, उनमें कई इससे भी पहुंची हुई हैं; इससे ज्यादा सुंदर हैं। यह स्त्री अभी ही फीकी हो गई। अब मैं डर रहा हूं कि आगे क्या होगा।
पहुंच भी नहीं पाते कि रस खो जाता है। क्योंकि आंखें श्रेष्ठ की खोज कर रही हैं। जब तक आंखें तुलना कर रही हैं, तब तक हमेशा यही होगा: उत्साह खो जाएगा; पहुंच नहीं पाए कि उत्साह खो जाएगा। मंजिल मिली नहीं कि दुखी हो गए। इसलिए लोग कहते हैं कि इंतजारी में मजा है, वे ठीक ही कहते हैं। वे ठीक इसलिए कहते हैं कि जब तक इंतजार है, तब तक तुम एक चीज में उलझे रहते हो। जैसे ही मिलना हो जाता है, आंखें और तरफ घूमने लगती हैं--तत्क्षण।
गरीब को जो मजा है धन में, वह अमीर को नहीं है। क्योंकि गरीब के लिए धन उपलब्धि नहीं है; अभी इंतजार है। अमीर को धन मिल गया है; धन में अब कोई रस न
हीं है। अब वह कुछ और चाहता है--कुछ और ज्यादा।
ग्राहक हमेशा श्रेष्ठ की मांग कर रहा है। ग्राहक ने कहा: ‘सर्वश्रेष्ठ मांस का टुकड़ा ही मुझे देना। उससे कम पर मैं राजी नहीं हूं।’ मन कहता है: ‘श्रेष्ठतम चाहिए। उससे कम पर मैं राजी नहीं हूं।’ कसाई बोला: ‘मेरी दुकान में सब-कुछ सर्वश्रेष्ठ ही है।’ बड़ा अदभुत कसाई है, उसने बात परम ज्ञान की कही। ‘मेरी दुकान में सब-कुछ सर्वश्रेष्ठ ही है। यहां कुछ भी नहीं है जो सर्वश्रेष्ठ न हो। बस, इतना सुन कर बनजान ज्ञान को उपलब्ध हो गया।’
अब यह भी कोई बात है! और यह भी कोई जगह है, जहां ज्ञान को उपलब्ध हुआ जाए! ठीक है, समझ सकते हैं कि बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए; बोधिवृक्ष समझ में आता है। लेकिन कसाई की दुकान के सामने! कसाई की दुकान बोधिवृक्ष बन गई!
यह समझ में आता है कि कृष्ण के वचन को सुन कर कोई अर्जुन ज्ञान को उपलब्ध हो गया हो। लेकिन कसाई की बात सुन कर बनजान ज्ञान को उपलब्ध हुआ! कोई तार्किक हिसाब नहीं बैठता। बिठाने की जरूरत भी नहीं है। जैसा बोधिवृक्ष, वैसी कसाई की दुकान; कोई फर्क नहीं है। कसाई के छप्पर में क्या खराबी है? और बुद्ध भी बोधिवृक्ष के नीचे बैठे थे, तो किसलिए बैठे थे? सिर्फ छाया के लिए...। कोई बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध होने को तो नहीं बैठे थे! सिर्फ छाया के लिए...। कसाई का छप्पर भी उतनी ही छाया दे सकता है, ज्यादा ठीक से दे सकता है। और कृष्ण ने जो कहा, कृष्ण के मुंह से जो बोला, वही कसाई के ओंठों से भी बोल सकता है; क्योंकि सभी ओंठ उसी के हैं।
हो सकता है, यह कसाई एक छिपा हुआ ज्ञानी हो; इसकी पूरी संभावना है।
एक बहुत प्रसिद्ध कसाई की कथा है चीन में; वह सम्राट का कसाई था। और रोज आकर सम्राट के लिए बैल काटता था। सम्राट बड़ा हैरान था, क्योंकि वर्षों से देखता था; देखते-देखते बूढ़ा हो गया था। वह एक ही फरसा था, उसके पास; वह उस पर कभी धार भी नहीं रखता था! उसने कभी फरसा भी नहीं बदला। और तीस साल से तो यही सम्राट देखता था। वह बूढ़ा हो गया था, लेकिन कभी उसके फरसे को उसने जानवर में अटकते नहीं देखा।
एक दिन उसने पूछा: तू भी अदभुत है; तेरी कुशलता का कोई हिसाब लगाना मुश्किल है! तू कभी धार नहीं रखता और तू कभी फरसा भी नहीं बदलता? तो उस कसाई ने कहा: जो सिक्खड़ हैं, उनको एक सप्ताह में धार रखनी पड़ती है। जो कुशल हैं, उनको तीन सप्ताह में धार रखनी पड़ती है। लेकिन जो ज्ञान को उपलब्ध हो गया, उसको धार फिर कभी रखनी ही नहीं पड़ती। क्योंकि मैं बैल को काटता नहीं। बैल और फरसे के बीच जो खेल चलता है, मैं तो सिर्फ देखने वाला हूं। जब कोई काटता है, तो फरसे को चोट मारता है। जब कोई काटता है, तो बैल और फरसे के बीच संघर्ष होता है; उसी संघर्ष में धार मर जाती है। मैं काटता नहीं हूं। मैं कौन हूं, काटने वाला? और बैल कटता नहीं, क्योंकि इस जगत में कुछ भी नहीं कट सकता।
उस कसाई ने वही कहा, जो कृष्ण ने अर्जुन से कहा: नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि--न तो मुझे काटा जा सकता--कोई अस्त्र मुझे काट नहीं सकता; न आग मुझे जला सकती है। और अर्जुन को तो उन्होंने यही कहा था कि तू बेफिकरी से काट, क्योंकि न कोई काटने वाला है, न कोई कटने वाला है। एक का ही खेल है। वही छिपा है यहां, वही छिपा है वहां। तू व्यर्थ की चिंता मत ले।
उस कसाई ने सम्राट को कहा कि मैं कोई काटने वाला नहीं हूं। मैं कोई इस बैल से लड़ नहीं रहा हूं। मैं कोई इसका दुश्मन नहीं हूं। मैं कौन हूं, बीच में आने वाला! वही इसके भीतर है, वही मेरे भीतर है। वही काटता है, वही कटता है। तो बैल और मेरे फरसे के बीच एक तारतम्य है, एक हारमनी है, एक लयबद्धता है। फरसे और बैल के बीच दुश्मनी नहीं है। बैल लड़ता नहीं; फरसा काटता नहीं। बस, फरसा जगह खोज लेता है। और बैल जगह दे देता है। इसलिए धार मरती नहीं है।
उस सम्राट ने कहा कि क्या यह कला तू मुझे भी सिखा सकता है? उस कसाई ने कहा: यह असंभव है। कला सिखाई नहीं जा सकती है, सीखी जा सकती है, सिखाई नहीं जा सकती। यह तो मैं अपने बेटे को भी नहीं सिखा सकता हूं। कोई उपाय नहीं सिखाने का, क्योंकि कला के कोई गणित के फारमूले नहीं हैं।
महान से महान चित्रकार भी यह नहीं बता सकता कि उसकी कला क्या है। वह चित्र बना सकता है, तुम सीख सकते हो--उसके पास बैठ कर। शायद जैसे इंफेक्शियस बीमारी होती है, ऐसे तुम उसकी कला को भी पकड़ ले सकते हो।
वही गुरु के पास बैठने का उपयोग है कि वह संक्रामक हो जाए। बैठते-बैठते-बैठते तुम उसकी कला पकड़ लो। लेकिन कला को सचेतन रूप से सिखाने का कोई उपाय नहीं है।
कैसे सिखाएगा कोई चित्रकार कि क्या है मेरी कला की कुंजी? उसको खुद भी ठीक से पता नहीं है। वह खुद मौजूद नहीं होता, यही तो कुंजी है। जब वह बिलकुल खो जाता है बनाने में, तभी तो चित्र बनता है। जब वह होता नहीं है, तभी तो चित्र बनता है।
उस कसाई ने कहा, यह मैं सिखा न सकूंगा। लेकिन तुम चाहो तो सीख सकते हो।
गुरु सिखाता नहीं है, शिष्य सीखते हैं। गुरु बताता नहीं है, शिष्य समझते हैं। गुरु की मौजूदगी एक इशारा है, शिष्य उसको संक्रामक बना लेते हैं; वे गुरु को पी जाते हैं।
कसाई--जिसने यह कहा कि ‘मेरी दुकान में सब-कुछ सर्वश्रेष्ठ है’--एक छिपा हुआ सूफी रहा होगा, एक छिपा हुआ झेन फकीर रहा होगा। ‘यहां कुछ भी नहीं, जो सर्वश्रेष्ठ नहीं।’ इसने तो सारे जगत के संबंध में एक वक्तव्य दिया। इसने कहा: ‘तेरी नजर की भ्रांति है। यहां तो सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है।’
ये शब्द सुन कर ग्राहक को तो ज्ञान न हुआ; ग्राहक तुम थे। ग्राहक को तो ज्ञान न हुआ; ग्राहक ने तो समझा होगा कि बकवास कर रहा है; व्यर्थ की बात कह रहा है। सभी कैसे सर्वश्रेष्ठ हो सकता है? जाहिर है कि कुछ श्रेष्ठ होगा, कुछ श्रेष्ठ नहीं होगा। और अगर सभी सर्वश्रेष्ठ है, तो सर्वश्रेष्ठ कहने का प्रयोजन क्या है! श्रेष्ठता तो निकृष्ठता की तुलना में ही होती है। दुकानदार बेचना चाहता है मुझे--कुछ भी, इसलिए सभी को सर्वश्रेष्ठ बता रहा है। सभी दुकानदार बताते हैं।
ग्राहक ने तो समझा होगा कि धोखा देने की तरकीब है। लेकिन बनजान, जो राह से गुजर रहा था, यह सुन कर ज्ञान को उपलब्ध हो गया। आखिरी तिनका ऊंट पर पड़ गया।
एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है कि जब सारा संसार डूब रहा था, महाप्रलय हो गई, और नोह को परमात्मा ने आज्ञा दी कि तू हर जाति के पशु-पक्षी, हर कोटि के प्राणियों का एक-एक जोड़ा लेकर नाव में सम्हाल कर उस जगह पहुंच जा, जहां कि प्रलय नहीं होगा--एक पहाड़ की चोटी पर। तो नोह ने खबर की सारी प्रकृति में कि एक-एक जोड़ा आ सकता है नाव में। इतनी बड़ी नाव उसने तैयार रखी थी।
सब जोड़े आए। लेकिन ऊंट तीन एकदम प्रवेश करने लगे। तो नोह ने कहा: रुको, तुमने सुनी नहीं खबर कि सिर्फ एक जोड़ा आ सकता है! ऊंटों ने कहा: हमारे मामले में तुम्हें थोड़ा अपवाद करना पड़े। क्योंकि, पहले ऊंट ने कहा कि मैं वही ऊंट हूं, जो आखिरी तिनके से बैठ जाता है। और अगर मैं न रहा, तो कहावत का क्या होगा! दूसरे ऊंट ने कहा कि मैं वही ऊंट हूं, जो कि सूई के छेद से गुजर जाए, लेकिन, धनी स्वर्ग के दरवाजे से नहीं गुजर सकता। अगर मैं छूट गया, तो कहावत का क्या होगा? तीसरे ऊंट ने कहा कि मैं वही ऊंट हूं, जिसको लोग देखते हैं कि देखो, किस करवट बैठता है। और मैं छूट गया तो लोगों को तापमान का पता चलना मुश्किल हो जाएगा।
कहते हैं: नोह ने बड़ा सोचा-विचारा और कहा कि इन कहावतों के बिना तो आदमी चल ही न सकेगा। कहा कि अच्छा भाई, तुम तीनों भीतर आ जाओ; तुम्हारे लिए अपवाद है।
उसमें पहला ऊंट वही था, जिसके बाबत यह कहानी है। जिसने कहा कि आखिरी तिनके से जो बैठ जाता है। यह बनजान उस दिन उसी ऊंट की हालत में था। आखिरी तिनके की तलाश थी। और ठीक किया कि बाजार चला गया। ठीक ही करता, कहीं भी जाता। कोई भी घटना--घटना सांयोगिक है--आखिरी तिनका बन सकती थी।
एक कसाई की बातचीत...! क्या हुआ बनजान के भीतर? जब उसने सुना कि कसाई कह रहा है: ‘यहां सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है। यह तुम बात ही मत पूछो। यहां कुछ हम बेचते ही नहीं हैं, जो सर्वश्रेष्ठ न हो।’ इसको सुन कर बनजान के भीतर क्या हुआ? सारी कोटियां टूट गईं--मन की! जैसे एक परदा हट गया, तुलना मिट गई। कुछ छोटा न रहा, कुछ बड़ा न रहा। कुछ बुरा-भला न रहा। सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ हो गया। कंकड़-पत्थर हीरे हो गए; हीरे कंकड़-पत्थर हो गए। जीवन मृत्यु हो गया, मृत्यु जीवन हो गई। साधु असाधु, असाधु साधु हो गए। सब मन की कोटियां डांवाडोल हो गईं। एक महाप्रलय हो गया। उस महाप्रलय में उसने देखा कि मैं खो गया, मेरा मन खो गया। यहां सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है।
मेरे पास लोग आते हैं। उनकी चिंता स्वाभाविक है; वे कहते हैं: जब आप कृष्ण पर बोलते हैं, तो ऐसा लगता है कि कृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं। जब आप लाओत्सु पर बोलने लगते हैं, तो ऐसा लगता है कि लाओत्सु सर्वश्रेष्ठ हैं। जब आप पतंजलि पर बोलते हैं, तो लगता है कि पतंजलि सर्वश्रेष्ठ हैं। आखिर सर्वश्रेष्ठ कौन है? तो मैं उनसे कहता हूं: ‘इस दुकान में ऐसा कुछ है ही नहीं, जो सर्वश्रेष्ठ न हो। सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है।’
तुम्हारा मन मानना मुश्किल करता है। तुम्हारा मन कहता है: अगर कृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं, तो फिर बुद्ध कैसे हो सकते हैं? क्या कठिनाई है! कृष्ण ने कोई ठेका लिया है? कृष्ण पर कोई चीज समाप्त हो जाती है? बुद्ध क्यों सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकते? तुम्हारे मन की कठिनाई साधारण है। सभी मन की कठिनाई है।
बटर्रेंड रसल ने लिखा है कि मैं पैदा तो ईसाई के घर हुआ--हवा चारों तरफ ईसाइयत की थी। लेकिन परिवार नास्तिक था; तो नास्तिकता साथ में पनपी; और हवा चारों तरफ ईसाइयत की थी, तो एक ऐसी घड़ी आ गई कि मैं समझने लगा कि मैं ईसाई तो नहीं हूं! और ईसाइयत के खिलाफ भी हो गया।
रसल ने बड़ी कीमती किताब लिखी है: वॉय आइ एम नॉट ए क्रिश्चियन? बड़े तर्क, बड़े विचार से। लेकिन फिर भी रसल ने एक बात स्वीकार की है कि सब करने के बाद मैंने चारों तरफ देखा कि फिर कौन? क्राइस्ट की जगह मैं किसको रखूं? मन खाली-खाली है। तो बुद्ध की प्रतिमा उभरी। बुद्ध प्रीतिकर लगे, कीमती लगे--बहुत कीमती लगे। लेकिन मन में कहीं अचेतन पीड़ा होती है कि जीसस के ऊपर कैसे रखूं! ज्यादा से ज्यादा करीब रख सकता हूं। बस, एक साथ रख सकता हूं।
यह पीड़ा क्या है? रसल की पीड़ा यही है कि उसने कसाई का वचन न सुना। वह उस दुकान से वंचित रह गया, जहां ऐसी अदभुत घटना बनजान को घटी।
एच. जी. वेल्स ने लिखा है कि गौतम बुद्ध से महान पुरुष पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। मुझसे कोई पूछे, तो मैं कहता हूं: कृष्ण से महान पुरुष पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। फिर कहता हूं: बुद्ध से महान पुरुष पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। महावीर से महान पुरुष पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ। तब तुम अड़चन में पड़ोगे। क्योंकि तब तुम्हें लगेगा कि तीन-तीन महापुरुष और उनसे बड़ा कोई भी नहीं हुआ! यह कैसे सही है?
यहां सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ है। निकृष्ठ परमात्मा में पैदा ही कैसे हो सकता है? निकृष्ठ तुम्हारी ईजाद है। उसने सभी सुंदर बनाया है; कुरूप तुम्हारा दृष्टिकोण है। उसने सभी साधु बनाया है; असाधु तुम्हारे नियमों के कारण पैदा हो गए हैं। तुम्हारे नीति-नियम तुम्हारे शास्त्र--उनके कारण असाधु पैदा हो गए हैं।
उसने बुरा कुछ बनाया ही नहीं; ‘बुरा’ आदमी की खोज है। यह दिखाई पड़ जाए, यह समझ की बात नहीं है, दिखाई पड़ने की बात है। और दिखाई तब पड़ेगा, जब तुम्हारे ऊंट पर पूरा वजन होगा।
उसी वजन को रोज रखता जा रहा हूं--रखता जा रहा हूं। किसी दिन आखिरी तिनका पड़ेगा; कब पड़ जाएगा, कोई भी कह नहीं सकता; उसी दिन ऊंट बैठ जाएगा। और जिस दिन तुम्हारे मन का ऊंट बैठेगा, उस दिन तुम देखोगे कि जगत इतना हरा है, इतना सुंदर है, इतना ताजा है, इतना नया है--अभी-अभी पैदा हुआ है, जैसे सुबह पड़ी ओस की बूंद हो, कि पहली सूरज की किरण हो--इतना ताजा है। जरा भी बासा नहीं है। और सभी कुछ ताजा है; कुछ भी बासा नहीं है। और एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक, इस छोर से लेकर उस छोर तक सभी सर्वश्रेष्ठ है।
मन को जो मिटाएगा, उसे यह दिखाई पड़ेगा। तुम ध्यान किए चले जाओ, आज नहीं कल किसी बाजार से गुजरते समय, किसी कसाई की बात सुन कर अचानक जैसे बिजली कौंध जाए अंधेरे में और सब-कुछ दिखाई पड़ जाए--जहां कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था--ऐसा ही तुम्हें भी दिखाई पड़ जाएगा।
लेकिन बाजारों में घूमने से न होगा यह। बाजारों मे तुम घूम ही रहे हो जन्मों से। कसाइयों की दुकानों के पास खड़े होने से भी कुछ न होगा। वहां यह चर्चा भी चल रही हो, तो भी ग्राहक तो वंचित ही रह गया है--जिससे चर्चा हो रही थी। और जिससे कोई बात ही नहीं हो रही थी, वह तो राहगीर था, वह उपलब्ध हो गया!
असली बात है कि तुम्हारा श्रम इतना हो जाए कि तुम बिलकुल टूटने के कगार पर हो, तब यह भी हो सकता है कि यह कसाई कोई ज्ञानी न रहा हो। यह सिर्फ एक पक्का दुकानदार हो। यह कसाई सिर्फ दुकानदार की भाषा बोल रहा हो--ज्ञानी की नहीं। यह भी हो सकता है कि इस कसाई को तो हर चीज बेचनी होती है। हर दुकानदार यही कहता है कि हमारे लिए तो सभी सर्वश्रेष्ठ है। तुम जो कहो, वही सर्वश्रेष्ठ है। जिसको बेचना है, उसके लिए सभी सर्वश्रेष्ठ है। शायद यह सिर्फ एक दुकानदार रहा हो--एक अच्छा सेल्समैन। इसको न ज्ञान से कोई संबंध हो; न इसने जो कहा है, उसके अंतिम अर्थ का कोई संबंध हो। तब बात और मजे की हो जाती है!
जिसने कहा, वह अज्ञानी; और जिससे कहा, वह अज्ञानी। और दो अज्ञानियों के बीच बातचीत का टुकड़ा तीसरे के लिए ज्ञान बन गया! यह भी हो सकता है।
बंगाल में एक बहुत बड़ा संत हुआ। बूढ़ा हो गया था; काम-धाम से रिटायर हो गया था। सुबह घूमने निकला था। उसके घर का नाम राजा बाबू था। और कोई स्त्री किसी मकान के भीतर अपने बेटे को या अपने देवर को या किसी को उठा रही थी। उसका नाम भी संयोग की बात कि राजा बाबू होगा। राजा बाबू बहुत होते हैं। तो वह कह रही थी भीतर कि राजा बाबू, उठो। सुबह हो गई। अब कब तक सोए रहोगे?
और यह बूढ़ा राजा बाबू बाहर से अपनी लकड़ी टेकता हुआ घूमने जा रहा था। दरवाजा बंद था। भीतर की स्त्री को इसका कोई पता ही नहीं है; इससे कोई संबंध ही नहीं है। यह सांयोगिक है: इसका गुजरना। वह अपने किसी बेटे को या देवर को उठा रही है कि उठो राजा बाबू! सूबह हो गई। कब तक सोए रहोगे? और ठिठक कर यह बूढ़ा आदमी खड़ा हो गया। और इसके कान में आवाज पड़ी कि सुबह हो गई, कब तक सोए रहोगे? उठो, राजा बाबू। कहते हैं: वहां से वह घर न लौटा। वहां से गांव के बाहर एक मंदिर में चला गया। घर के लोग समझाने-बुझाने आए, तो वह हंसता था। और एक ही बात दुहराता था कि उठो, राजा बाबू! सुबह हो गई। अब कब तक सोए रहोगे? अब बस, बहुत सो लिए!
तो यह जरूरी नहीं है कि दुकानदार ज्ञानी रहा हो। तब एक आखिरी बात खयाल ले लो: अज्ञानी भी तुम्हें जगा सकता है, अगर तुम्हारी जगने की तैयारी पूरी हो गई है। और ज्ञानी भी कुछ नहीं कर सकता है, अगर तुम्हारी तैयारी पूरी नहीं है। शायद आखिरी बात तुम्हारी तैयारी की है।
कई बार ऐसे गुरुओं के पास लोग ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं, जो गुरु खुद ज्ञान को उपलब्ध न थे। इसलिए तुम इसकी चिंता ही मत करना कि गुरु को ज्ञान मिला है कि नहीं। गुरु अज्ञानी थे और उनके पास लोग ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं! उनकी तैयारी थी।
इससे उलटा तो रोज ही घटता है कि ज्ञान को उपलब्ध गुरु के पास सैकड़ों लोग आते हैं, जाते हैं, कुछ भी उनके जीवन में क्रांति नहीं होती। उनकी कोई तैयारी नहीं है। अंतिम निर्णय तुम्हारी तैयारी से होगा।
अपने को पूरा लगा दो, ताकि ऊंट आखिरी तिनके की चोट से किसी भी दिन बैठ जाए। बचाया कि चूके। बचाना मत, तब किसी भी बाजार में, कोई भी शब्द का टुकड़ा--अनायास कहा गया वेद बन जाता है। अन्यथा तुम्हारे कान में कोई वेद गुनगुनाता रहे; तुम्हें सिर्फ भिनभिनाहट मालूम पड़ती है; तुम समझते हो कि सब शब्दों की बकवास है।
आज इतना ही।