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Sahaj Samadhi Bhali 02

Second Discourse from the series of 21 discourses - Sahaj Samadhi Bhali by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1974, Pune.
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भगवान,
जोशू ने नानसेन से पूछा: ‘मार्ग कौन है?’
नानसेन ने कहा: ‘दैनंदिन जीवन ही मार्ग है।’
जोशू ने फिर पूछा: ‘क्या उसका अध्ययन हो सकता है?’
नानसेन ने कहा: ‘यदि अध्ययन करने की कोशिश की, तो तुम उससे बहुत दूर भटक जाओगे।’
जोशू ने फिर पूछा: ‘यदि मैं अध्ययन नहीं करूं, तो कैसे जानूंगा कि यह मार्ग है?’
नानसेन ने उत्तर में कहा: ‘मार्ग दृष्ट जगत का हिस्सा नहीं है; न ही वह अदृष्ट जगत का हिस्सा है। पहचान भ्रम है और गैर-पहचान व्यर्थ। अगर तुम असंदिग्ध होकर सच्चे मार्ग पर पहुंचना चाहते हो, तो आकाश की तरह अपने को, उसकी पूरी उन्मुक्तता में, पूरी स्वतंत्रता में छोड़ दो। और उसे न शुभ कहो और न अशुभ।’
कहते हैं कि ये शब्द सुन कर जोशू ज्ञान को उपलब्ध हो गया।

भगवान, कृपापूर्वक इस परिसंवाद का मर्म हमें समझाएं।
यह छोटी सी परिचर्चा--जोशू और नानसेन के बीच--जीवन को बदलने वाली हो सकती है। तुम्हारे जीवन में भी एक अंगार--इस परिचर्चा से पड़ सकता है। तुम भी भभक कर जल सकते हो। और अति कठिनाई होती है समझने में, कि इतनी सी परिचर्चा से सुनने वाला ज्ञान को कैसे उपलब्ध हो गया होगा! ये ‘दो बातें’--गुरु और शिष्य के बीच। इन छोटी सी दो बातों से शिष्य अचानक बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया! ऐसा तुम्हारे जीवन में भी हो सकता है। कभी होगा। ठीक क्षणों की बात है। गुरु और शिष्य के ठीक मिल जाने की बात है। जैसे अंगार बारूद से मिल जाए और विस्फोट हो जाए।
बारूद तैयार ही है--विस्फोट के लिए; तुम तैयार ही हो--बुद्धत्व के लिए। सिर्फ अंगार और तुम्हारे बीच में थोड़ी सी बाधा है, कोई दीवाल है, कोई पर्दा है। अंगार पड़ता भी है तुम्हारे ऊपर, तो तुम्हारी बारूद से मिल नहीं पाता। उस दीवाल को ही ज्ञानियों ने विचार कहा है।
तुम गुरु को दूर रखते हो--अपने से, क्योंकि तुम्हारे और गुरु के बीच विचार है। तुम सोचते हो, क्या कहा गया है; इसको तुम विचारते हो। उसी विचार में तुम चूक जाते हो। काश! तुम बिना विचारे सुन सको; बिना विचारे देख सको, तो दीवाल हट जाए। तुम भी विस्फोट को उपलब्ध हो सकते हो। जैसे हर बारूद विस्फोट हो सकती है, वैसे ही हर व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकता है।
कुछ बुनियादी बातें खयाल में ले लो, फिर हम इस छोटी सी कथा में प्रवेश करें।
पहली बुनियादी बात कि तुम जैसे हो, परिपूर्ण हो। तुममें कुछ भी किया जाना नहीं है। किए जाने का खयाल ही तुम्हें मुसीबत में डाले हुए है। यह खयाल ही कि खुद को सुधारना है, बदलना है, विकसित होना है, सीढ़ियां चढ़नी हैं, सोपान पार करने हैं, कहीं पहुंचना है--यह खयाल ही तुम्हें आत्म-निंदा से भरे हुए है। और जब तक तुम सोचोगे कि तुम्हें कहीं पहुंचना है, कुछ होना है, बदलना है, तब तक तुम मुसीबत में रहोगे।
तुम्हारी मुसीबत ऐसी ही है, जैसे कोई आदमी अपने ही जूते के बंद से खुद को उठाने की कोशिश करे। तुम खुद को कैसे बदलोगे? कौन बदलेगा? किसको बदलोगे? तुम ही बदलोगे, तो बदलाहट होगी कैसे? तुम व्यर्थ ही परेशान हो रहे हो।
तुम्हारी परेशानी वैसी है जैसे कि--कभी तुमने किसी कुत्ते को दोपहर किसी छाया में विश्राम करते देखा हो, तो अनेक बार वह छलांग लगा-लगा कर अपनी पूंछ को पकड़ने की कोशिश करता है। लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है, क्योंकि जैसे ही वह छलांग लगाता है, पूंछ भी छलांग लगा जाती है। पूंछ उसकी ही है। कुत्ते को जोश भी आता है; गुस्सा भी आता है। क्योंकि छोटी सी पूंछ इतना चकमा देती है! और जोर से झपटता है। जितने जोर से झपटता है, पूंछ उतने ही जोर से छलांग लगा जाती है।
जैसा कुत्ता मुसीबत में पड़ा है--छाया में विश्राम नहीं कर पा रहा--अपनी ही पूंछ को पकड़ने की चेष्टा में व्यर्थ परेशान हो रहा है, ऐसी ही गति तुम्हारी है। तुम जिसे पकड़ना चाह रहे हो, वह तुम्हारी ‘पूंछ’ है। और तुम जितने जोर से छलांग लगा कर पकड़ने की कोशिश करते हो, उतनी ही जोर से वह तुम्हारे हाथ से निकल जाती है। इससे तुम बड़े पीड़ित होते हो। इससे तुम सोचते हो कि शायद छलांग छोटी है; ताकत कम है; समय नहीं आया,; भाग्य साथ नहीं देता; कर्मों की बाधा है। कुछ भी नहीं है। सिर्फ इतनी ही बात जाननी है कि पूंछ तुम्हारी है और पकड़ने की कोई जरूरत नहीं है, वह पकड़ी ही हुई है। तुम कहीं भी जाओ, वह तुम्हारे पीछे ही होगी।
सिद्धत्व, बुद्धत्व पकड़ा ही हुआ है; तुम्हें वहां पहुंचना नहीं है, तुम सदा से वहां रह रहे हो। इसलिए यह घटना घट सकती है एक क्षण में, एक शब्द की चोट किसी को जगा दे।
अगर अनंत जन्मों के कर्म बाधा डाल रहे हों, तो यह कैसे हो सकता है? अगर पापों ने दीवाल बनाई हो, तो यह कैसे हो सकता है? और अगर मंजिल बहुत दूर हो और पाने में बड़ा श्रम करना पड़ता हो, तो एक क्षण में निर्वाण कैसे घटित होगा?
एक क्षण में घट जाता है। बस, तुम्हारे शांत, निर्विचार होने की बात है। दीवाल न होगी, घट जाएगा। लेकिन हमारा पूरा जीवन बड़ी उलटी कोशिश में लगा है।
एक दिन सुबह-सुबह मैं घूमने निकला। देखा, एक वृक्ष के नीचे एक बंगले के बाहर एकांत रास्ते पर इमली का वृक्ष है, एक बच्चा आंख बंद किए इमली खा रहा है। उससे मैंने पूछा कि आंख क्यों बंद किए हो? उसने आंख बंद किए ही उत्तर दिया कि मां ने कहा है कि अगर इमली का मुंह देखा, तो टांग तोड़ दूंगी।
आंख बंद किए हुए है, ताकि इमली का मुंह न देखना पड़े!
करीब-करीब जिसको हम साधक कहते हैं, उसकी दशा ऐसी ही है। भयभीत है कि अगर वासनाओं में गया तो नरक, तो दुख। लोलुप है कि अगर वासनाओं में न गया, तो सुख कहां! तो बीच का रास्ता निकाल रहा है। आंख बंद किए इमली चूस रहा है। टांग भी न टूटे, इमली भी न छूटे! पर ऐसी प्रवंचना की दशा में तुम कितना ही समय बिता दो, जागरण घटित न होगा।
ठीक से समझने की बात केवल इतनी ही है कि अपने को धोखा देने का कोई उपाय नहीं है और न अपने को बदलने का कोई उपाय है। बड़ा कठिन है; क्योंकि जब तक लगता है--‘अपने को बदल सकते हैं’, तो आशा बंधती है। और ऐसा लगता है आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों बदल ही लेंगे। इस बदलने की आशा से तुम बदलते नहीं हो, सिर्फ जो घटना अभी घट सकती थी, उसे तुम टाल देते हो।
मन उदास होगा, अगर पता चले कि बदलाहट हो ही नहीं सकती। लेकिन तुम उदासी से बेचैन मत होओ; क्योंकि आशा तुम्हें कहीं भी नहीं ले गई, तो उदासी से घबड़ाते क्यों हो? आशा ने तुम्हें कहीं नहीं पहुंचाया है, तो निराशा से इतनी बेचैनी क्या है? बदल-बदल कर तुम बदल तो नहीं पाए...। तो अगर बदलने से बदलाहट नहीं होती है, इस तथ्य का उदघाटन होता है और आंख खोल कर यह दिखाई पड़ता है, तो तुम इतने ज्यादा चिंतित क्यों होते हो?
लौट कर देखो--बचपन से इस जन्म का तो तुम्हें पता है--तुम जरा भी बदले हो? एक कण भी बदला है? तुम वही के वही हो। तुमने रंग-रोगन थोड़ा बदला होगा, कपड़े बदल लिए होंगे; लेकिन अगर तुम थोड़ी सी भी समझपूर्वक देखोगे, तो तुम पाओगे कि तुम वही के वही हो। जरा भी कुछ बदला नहीं है। लेकिन फिर भी मन में आशा रखते हो, कभी बदल जाएंगे।
कौन बदलेगा? तुम्हीं बदलोगे, कैसे तुम बदलोगे? तुम्हारी कोशिश व्यर्थ है--इस बात की प्रतीति हो जाए, तो एक दूसरी प्रतीति और कर लेनी जरूरी है कि धोखा देने में भी कोई सार नहीं है; क्योंकि किसको धोखा दोगे? आंख बंद करके इमली खाओगे, इससे क्या फर्क पड़ेगा? धोखा भी नहीं दिया जा सकता और बदलाहट भी नहीं होती। तब क्या बच रहता है? जो बच रहता है, वही झेन का सार है; वही सहज-योग का सार है--जो बच रहता है।
क्या बच रहता है?--स्वीकार। जो दैनंदिन जीवन है--उसका स्वीकार। ‘तुम जैसे हो, वैसे हो,’ इस तथ्य की सहज स्वीकृति। और इस तथ्य के लिए कुछ भी न करना। अगर तुम आलसी हो, तो आलसी हो। अगर तुम क्रोधी हो, तो क्रोधी हो। अगर तुम बेईमान हो, तो बेईमान हो। अगर यह बेईमान ही बेईमानी को बदलने की कोशिश करेगा, तो बेईमानी करेगा--इसमें भी। चोर अगर चोरी से बचने की कोशिश करेगा, तो उस बचने में भी चोरी कर जाएगा। झूठा आदमी है--अगर सच बोलने की कोशिश भी करेगा तो उसके सच बोलने में भी झूठ होगा, क्योंकि झूठ उसका स्वभाव है, उसकी आदत है। उसमें से सच निकलेगा, तो झूठ हो जाएगा।
स्वयं को स्वीकार जो कर ले, उसके अहंकार के खड़े होने का कोई उपाय नहीं रह जाता। क्योंकि जैसा तुम अपने को पाओगे, उसमें अहंकार करने जैसी गुंजाइश नहीं है। किस बात का गौरव करना है? क्या है, जिसका गौरव करना है? और जो व्यक्ति स्वयं को स्वीकार कर लेगा--तो न अहंकार उठेगा, न धोखा देना पैदा होगा, न बदलाहट की चेष्टा होगी; फिर क्या होगा? फिर तुम ही बच रहते हो। और तुम जैसे हो, वैसे ही बच रहते हो। यही मार्ग है।
सहज-योग का अर्थ यह है कि कुछ भी करने जैसा नहीं है; सिर्फ स्वीकार की दशा को उपलब्ध हो जाएं; क्रांति घटित होगी। वह तुम्हारे करने से घटित नहीं होगी। वह तुम्हारे इस महान स्वीकार से फलित होगी। क्योंकि जैसे ही तुमने स्वीकार किया, विचार समाप्त हुआ।
तथ्य क्रांति ले आते हैं। सत्य क्रांति है। जैसे ही सत्य दिखाई पड़ता है, क्रांति हो जाती है।
बेईमान आदमी को बेईमानी बदलने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन बेईमान आदमी अगर अपनी बेईमानी को पूरी तरह स्वीकार कर ले, इस स्वीकृति में इतनी अग्नि पैदा होती है कि बेईमानी राख हो जाती है, जल जाती है। लेकिन बेईमान भी धोखा देता है, वह कहता है: ‘कल ईमानदार हो जाएंगे। और आज अगर बेईमानी करनी पड़ी, तो परिस्थिति के कारण करनी पड़ी। करना मैं चाहता नहीं था। मजबूरी थी। कोई आदमी मैं बुरा नहीं हूं। आदमी तो भला हूं। और भले होने की पूरी कोशिश कर रहा हूं। कल भी कर रहा था, कल भी करूंगा। आज छोटी सी बेईमानी करनी पड़ी--परिस्थितिवश। बच्चे हैं, पत्नी है, घर-द्वार है--इसको चलाना है--संसार है।’
यह आदमी रोज अपने को धोखा देता रहेगा। क्योंकि यह अपनी बेईमानी को भी देख नहीं रहा है, उसे छुपा रहा है, ढांक रहा है। बदलाहट कैसे होगी?
ढांकने से कहीं कोई बदलाहट हुई है! घाव ढंक लेने से कहीं कोई बीमारियों से छुटकारा हुआ है! यह आदमी अगर अपनी बेईमानी को पूरी तरह देखे... और देखेगा तभी, जब समझ ले कि न तो बदल सकता हूं, न आंख बंद करके धोखा दे सकता हूं; यह बेईमानी है, यह मैं हूं और इसी के साथ मुझे रहना है, इससे हटने का कोई उपाय नहीं है; यह मेरी छाया है।
क्या होगा? ऐसे क्षण में क्या होगा जब तुम बदल भी नहीं सकते, धोखा भी नहीं दे सकते और तुम्हें अपना पूरा रोग, पूरी मवाद, पूरा घाव दिखाई पड़ता है? क्या होगा? तुम्हारे जीवन में वैसी छलांग लग जाएगी, जैसे तुम्हें अचानक पता लगे कि घर में आग लगी है, चारों तरफ लपटें हैं, तब न तो तुम पूछते हो कि कहां से बाहर जाऊं, न तुम सलाह मांगते हो, न तुम कोई नक्शा खोजते हो, न तुम सोचते हो कि कल निकलेंगे, इतनी जल्दी निकलना कैसे हो सकता है! तुम बस, छलांग लगा जाते हो। तुम सोचते भी नहीं कि खिड़की कहां, द्वार कहां, मार्ग कहां? तुम बस छलांग लगा जाते हो। क्योंकि जब घर में आग लगी हो, तो सोचने की सुविधा नहीं है।
या तुम रास्ते से गुजरते हो और एक सर्प तुम्हें दिखाई पड़ता है, फन उठाए; उस वक्त तुम क्या करते हो? तुम सोचते हो? तुम सर्प से कहते हो कि ‘रुको। एक-दो क्षण मुझे विचार का मौका दो, ताकि मैं कुछ उपाय कर सकूं? कैसे निकलूं इस घेरे से?’ नहीं, तुम बस, छलांग लगा जाते हो। सोच-विचार बाद में आता है, छलांग पहले आती है। अगर ठीक से समझो तो ‘सांप भी है’, यह तुम्हें बाद में पता चलता है--जब तुम छलांग लगा जाते हो। छलांग पहले घट जाती है।
जब जीवन इतने खतरे में होता है, तो क्रांति स्वयं घटित होती है, उसे करना नहीं पड़ता।
दैनंदिन जीवन अगर पूरी तरह स्वीकार हो, तो क्रांति घटित होगी, तुम्हें ‘करना’ न होगा। तुम्हें साधक न बनना पड़ेगा, तुम सिद्ध हो जाओगे। सहज-योग का सार यही है।
अब हम इस छोटी सी परिचर्चा को लें। इसका एक-एक शब्द महत्वपूर्ण है।
जोशू ने नानसेन से पूछा: ‘मार्ग कौन है? कहां है मार्ग? कहां से चलूं कि पहुंच जाऊं?
नानसेन ने कहा: ‘दैनंदिन जीवन ही मार्ग है।’ यह रोज की जिंदगी ही मार्ग है। तुम जैसे हो, तुम जहां हो, तुम जो कर रहे हो--वही मार्ग है। उससे अलग तुमने मार्ग सोचा कि तुम धोखे में पड़ोगे। क्योंकि उससे अलग कोई मार्ग है ही नहीं। तुम्हारी दुकान, तुम्हारा मकान, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे, तुम्हारा काम-धंधा, तुम्हारा क्रोध, तुम्हारी वासना, बस, वहीं मार्ग है। तुमने अगर तरकीब निकाली और कोई सुंदर मार्ग सपने का बनाया, वह झूठा होगा। उससे तुम्हारा कोई संबंध ही न होगा।
हम सबने ऐसे मार्ग बना लिए हैं, जिनसे हमारा कोई भी संबंध नहीं है, जिन पर हम चल भी नहीं सकते, क्योंकि हम तो चलेंगे वहां, जहां हम हैं। हमने मार्ग बनाए हैं--लोकोत्तर। लोक में जीते हैं--लोकोत्तर मार्ग हैं। जीते साधारण में हैं--असाधारण मार्ग हैं। जीते पृथ्वी पर हैं--सभी मार्ग स्वर्ग में हैं। तुम्हारे और तुम्हारे मार्ग के बीच कोई सेतु नहीं है। इसलिए मार्ग अपनी जगह, तुम अपनी जगह; जिंदगी चलती जाती है; कोई क्रांति घटित नहीं होती।
नानसेन ने कहा: ‘दैनंदिन जीवन ही मार्ग है।’
जोशू ने फिर पूछा: ‘क्या उस मार्ग का अध्ययन हो सकता है?’
मन बड़ा कुशल है। नानसेन का उत्तर बिलकुल साफ है, लेकिन फिर भी प्रश्र्न निर्मित होता है। दैनंदिन जीवन ही अगर मार्ग है, तो अध्ययन की जरूरत क्या है? अध्ययन तो उसका करना होता है, जिससे हम अपरिचित हैं। अध्ययन उसका करना होता है, जिसे हम नहीं जानते। अगर करुणा को समझना है, तो अध्ययन करना पड़ेगा; क्रोध का अध्ययन करने की कोई जरूरत है? क्रोध तो है, तुम उसे उघाड़ कर देख ले सकते हो; रोज-रोज आता है; तुम उसे ढांक-ढांक कर छिपाते हो। तुम अध्ययन से बचते हो। अध्ययन की क्या जरूरत है?
अगर ब्रह्मचर्य को समझना हो, तो अध्ययन की जरूरत है। लेकिन कामवासना को समझने के लिए अध्ययन की क्या जरूरत है? अंधा भी समझ लेगा। क्योंकि कामवासना तो जल रही है, उसकी लपटें तो चारों तरफ हैं।
जोशू ने फिर पूछा: ‘क्या उस मार्ग का अध्ययन हो सकता है?’
मन तरकीब खोज रहा है। क्योंकि अध्ययन अगर करने की सुविधा मिल जाए, तो क्रांति से बचने का उपाय हो जाता है। क्योंकि हम कहते हैं: पहले अध्ययन करेंगे, समझेंगे, फिर आचरण करेंगे; स्वाध्याय होगा, फिर आचरण होगा। अभी इतने जल्दी आचरण तो नहीं हो सकता। जब समझते नहीं कि करुणा क्या है?
लेकिन नानसेन यह कह रहा है कि करुणा को समझने की जरूरत ही नहीं है, अध्ययन की जरूरत ही नहीं है; करुणा की तुम बात ही छोड़ दो। तुम क्रोध को ही ठीक से जान लो; वह मौजूद है, अध्ययन क्या करना है? उसे उघड़ जाने दो। अगर वह पूरा उघड़ जाए, करुणा फलित होगी।
यह गहरी से गहरी कुंजियों में से एक है।
जैसे पानी गर्म हो जाए, तो भाप प्रकट होगी, अगर क्रोध का साक्षात्कार हो जाए, तो करुणा प्रकट होगी। करुणा क्रोध के विपरीत साधी गई कोई अवस्था नहीं है। क्रोध को जिसने उसकी पूरी विषाक्त दशा में जान लिया, वह छलांग लगा कर बाहर हो जाता है। उसकी छलांग उसे करुणा में ले जाती है।
क्रोध के भीतर बैठे-बैठे करुणा को जो साध रहा है, वह धोखा दे रहा है। क्रोध के भीतर बैठे-बैठे जो करुणा का अध्ययन कर रहा है, वह धोखा दे रहा है। कामवासना में दबा हुआ जो ब्रह्मचर्य के विचार कर रहा है, वह धोखा दे रहा है। और इस धोखे के कारण कामवासना मिटेगी नहीं, बढ़ेगी। इसलिए ब्रह्मचारी की कामवासना और भी बढ़ जाती है, घटती नहीं है।
और तुम अगर उन लोगों को देखो, जो कि क्रोध पर नियंत्रण कर रहे हैं, उनके क्रोध का कोई मुकाबला नहीं है। उनका क्रोध जलती हुई आग है। तुम्हारा क्रोध कुनकुना है; कुछ भी नहीं है। उनका क्रोध भभकता हुआ है। ऐसे क्रोधियों से ही दुर्वासा जैसे ऋषि पैदा हुए। भभकता हुआ क्रोध है।
ऋषि-मुनियों की वासना का क्या हिसाब है! जब भी ध्यान करने बैठते हैं, अप्सराएं चारों तरफ नाचने लगती हैं। तुमने ब्रह्मचर्य का सोच-विचार किया और कामवासना को छिपाया, तो यह होगा।
नानसेन ने कहा: ‘यदि अध्ययन करने की कोशिश की, तो तुम उससे बहुत दूर भटक जाओगे।’
अध्ययन के लिए दूरी चाहिए; देखने के लिए दूरी नहीं चाहिए। विचार करने के लिए दूरी चाहिए; समझने के लिए दूरी नहीं चाहिए। समझ तो तभी फलित होती है, जब दूरी बिलकुल नहीं होती और विचार तभी चलता है, जब दूरी काफी होती है।
जैसे किसी व्यक्ति को प्रेम का अध्ययन करना हो, तो उसे प्रेम में नहीं पड़ना चाहिए; क्योंकि जो प्रेम में पड़ेगा, वह प्रेम का अध्ययन कैसे करेगा! वह तो इतना उत्तप्त हो जाएगा प्रेम से, कि उसका अध्ययन निष्पक्ष नहीं हो सकता। अध्ययन प्रेम का करना हो, तो प्रेम में भूल कर नहीं पड़ना चाहिए। पुस्तकालय में बैठ कर, प्रयोगशाला में बैठ कर अध्ययन करना चाहिए।
अगर प्रेम में उतर गए, तो प्रेम की समझ तो आ जाएगी, लेकिन अध्ययन नहीं हो सकेगा। अध्ययन के लिए दूरी चाहिए और तटस्थता चाहिए; फासला चाहिए। प्रेम के लिए दूरी मिटनी चाहिए, सब फासले गिरने चाहिए। तब प्रेम की समझ का तो उदय होगा, लेकिन उस समझ को हम अध्ययन नहीं कह सकते।
जोशू पूछ रहा है कि क्या अध्ययन हो सकता है उस मार्ग का? मन कह रहा है कि अगर अध्ययन हो सकता है, तो पोस्टपोनमेंट किया जा सकता है। तो फिर कुछ दिन अध्ययन करेंगे। और जिंदगी जटिल है, एक जन्म में भी अध्ययन पूरा न हो। अनेक जन्म लग सकते हैं, फिर समझेंगे, सोचेंगे, विचारेंगे, फिर छलांग लगा लेंगे।
नानसेन ने कहा: ‘अध्ययन करने की कोशिश की, तो तुम उससे बहुत दूर भटक जाओगे।’
अगर दूर भटकना हो, तो अध्ययन करना। इसलिए विचारक सत्य से जितने दूर निकल जाते हैं, उतने अज्ञानी भी दूर नहीं होते। अज्ञानी के भी हाथ के पास में ही सत्य होता है; जब चाहे नजर फेर ले और देख ले। लेकिन विचारक से बहुत दूर हो जाता है। जितना बड़ा विचारक, उतना दूर हो जाता है।
जिनको हम महान दार्शनिक कहते हैं, उनसे तो सत्य का कोई संबंध ही नहीं रहता। वे शब्दों में जीने लगते हैं, सिद्धांतों में जीने लगते हैं, शास्त्रों में जीने लगते हैं।
सत्य से शास्त्र का, शब्द का क्या वास्ता? सिद्धांत का क्या संबंध?
नानसेन ने कहा: ‘अध्ययन करने की कोशिश की, तो तुम उससे बहुत दूर भटक जाओगे।’
तुमने कभी खयाल किया है कि जब भी तुम विचार करते हो, तभी तुम जीवन से भटक जाते हो।
गुलाब का फूल खिला है, तुम उसके पास बैठे हो। तुमने सोचा--और तुम दूर गए। तुमने कहा कि फूल सुंदर है और तुम दूर गए। तुमने कहा: कैसी सुगंध, कैसा प्यारा फूल? और तुम दूर गए। तुमने सोचा कि क्या नाम है इस फूल का? और तुम दूर गए। तुम्हें कविताएं याद आ जाएंगी, जो फूल के संबंध में तुमने पढ़ी हैं। लेकिन ये फूल, इससे तुम दूर हो जाओगे।
अगर फूल के पास होना है, तो एक ही उपाय है कि तुम्हारे भीतर विचार पैदा न हो। तुम ‘देखो’ तो फूल को, लेकिन सोचो मत। तुम ‘सुनो’ तो फूल को, लेकिन सोचो मत। तुम ‘सूंघो’ तो फूल को, लेकिन सोचो मत। तब तुम्हारा मस्तिष्क बाधा न बनेगा और तुम्हारे हृदय के द्वार खुले होंगे। उसी खुले द्वार से फूल तुमसे मिलेगा, तुम फूल से मिलोगे।
जब भी तुम सोचते हो, तभी तुम दूर निकल जाते हो। सोचना एक यात्रा है--दूर जाने की। इसलिए ज्ञानियों का इतना जोर है--ध्यान पर। ध्यान का अर्थ है: न सोचना। ध्यान सोचने से विपरीत है। ध्यान सोचने का दुश्मन है।
लेकिन तुम होशियार हो। तुम पूछोगे: ध्यान के संबंध में भी अध्ययन तो करना ही पड़ेगा। ध्यान के संबंध में भी सोचेंगे तो ही; नहीं तो ध्यान को जानेंगे कैसे! यही जोशू कह रहा है। वह कह रहा है: ‘अध्ययन तो कर सकते हैं।’
जोशू ने फिर भी पूछा: ‘यदि मैं अध्ययन न करूं, तो कैसे जानूंगा कि यही मार्ग है?’
विचार की बड़ी कठिनाइयां हैं। क्योंकि विचार अंधे की तरह टटोलता है।
एक अंधा आदमी है, वह लकड़ी से रास्ता खोजता है, टटोलता है, देखता है, लकड़ी से। दीवाल है, तो समझ लेता है; दरवाजा है, तो समझ लेता है। अंधे आदमी की आंख का इलाज करो, तो वह पूछेगा कि इलाज के बाद फिर मेरी लकड़ी छोड़ दूंगा या रखूंगा? तो चिकित्सक उससे कहे कि फिर लकड़ी की कोई जरूरत न रहेगी और अगर लकड़ी फिर भी लेकर तुम टटोलते रहे, तो उसका मतलब है तुम अभी भी अंधे हो। अंधा पूछेगा: लेकिन फिर मैं जानूंगा कैसे कि दरवाजा कहां है और दीवाल कहां है? क्योंकि अब तक उसने लकड़ी के सहारे ही टटोल कर जाना है। उसे पता ही नहीं है, कि आंख का एक देखना भी होता है, जिसमें लकड़ी की कोई जरूरत नहीं।
जोशू ने पूछा: ‘यदि अध्ययन न करूं, अगर सोचूं-विचारूं न, अगर शास्त्रों का ज्ञान न हो, तो जानूंगा कैसे कि यही मार्ग है? कुमार्ग में पड़ जाऊं तो? गलत मार्ग पर चला जाऊं तो? भटक जाऊं तो?’
हमें भी लगेगा कि उसकी बात ठीक है, गलत मार्ग भी हो तो सकता है! लेकिन सहज-योग कहता है कि गलत के होने का सिर्फ एक ही उपाय है और वह है कि तुमने सोचा। बाकी कोई उपाय गलत होने का नहीं है। अगर तुमने नहीं सोचा, तो तुम सही हो। तुम जहां भी जाओगे, सही ही जाओगे। अगर तुमने सोचा, तो तुम जहां भी जाओगे, गलत ही जाओगे।
विचार गलत मार्ग है और ध्यान सही मार्ग है। विचार से तय नहीं होता कि क्या सही है, विचार तो जहां होता है, वहीं गलत हो जाता है। विचार ही गलत है।
बड़ी मुसीबत है, क्योंकि हम तो विचार से तय कर रहे हैं कि क्या सही और क्या गलत। विचार जो कि गलत की प्रक्रिया है, जिससे हर चीज गलत होती है, हम उसी से सही को खोजने की कोशिश कर रहे हैं।
हमारी हालत उस सुनार जैसी है, जो अपने सोने के कसने के पत्थर को लेकर बगीचे में आ गया है और फूलों को कस-कस कर देख रहा है कि कौन सा फूल सही है और कौन सा गलत है! पत्थर पर फूल नहीं कसे जाते। और अगर पत्थर पर तुमने फूल कसे, तो सभी फूल गलत होंगे। इसका कारण यह नहीं है कि सभी फूल गलत हैं, तुम पत्थर ही गलत ले आए हो। पत्थर के लाने में ही गलती हो गई है। सोना कसा जाता होगा, फूल नहीं कसे जाते। पत्थर पर घिस कर कहीं फूलों का पता चलेगा, कौन सही, कौन झूठा, कौन असली, कौन नकली?
विचार से सही और गलत का कोई संबंध नहीं है। अगर विचार का किसी चीज से संबंध है, तो क्या है? विचार का संबंध है--जहां बहुत सी गलतियां हैं, उसमें सबसे कम गलत को चुनना--दि लीस्ट--वह जो सबसे कम गलत है, सबसे कम बुरा है। सबसे कम बुराई को चुनना विचार की प्रक्रिया है। लेकिन सबसे कम बुराई भी बुराई है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने एक ठिगने शैतान को चुना है कि एक लंबे शैतान को चुना है। शैतान की मात्रा से उसके गुण में कोई फर्क नहीं पड़ता। दो पैसे की चोरी भी उतनी ही बड़ी होती है, जितनी दो करोड़ की। चोरी चोरी है। छोटी और बड़ी चोरियां नहीं होतीं। छोटी बुराई और बड़ी बुराई नहीं होतीं।
मैंने सुना है, एक आदमी सेना में भर्ती होने गया। उससे पूछा गया कि तुम शराब तो नहीं पीते हो? उसने कहा: नहीं। चोरी की आदत तो नहीं है? उसने कहा: नहीं। सिगरेट, धूम्रपान? उसने कहा: नहीं। स्त्रियों के पीछे तो नहीं भटकते हो? उसने कहा कि बिलकुल नहीं। आखिर पूछने वाला भी थोड़ा चौंका। उसने कहा: कोई एकाध तो बुराई होगी? उस सैनिक ने कहा: सिर्फ एक ही बुराई है कि मैं झूठ बोलता हूं। मगर एक बुराई काफी है। वह जो सब उन्होंने कहा था, व्यर्थ हो गया।
बुराई छोटी-बड़ी नहीं होती। और ध्यान रहे, बुराई एक दो और तीन भी नहीं होतीं। एक बुराई काफी है। सब बुराइयां उसके पीछे आ जाती हैं। एक से दरवाजा खुल गया, कि पूरी भीड़ आ जाती है। विचार--कम से कम बुराई क्या है, इ
सको चुनता है। लेकिन वह भी बुराई है।
विचार से कभी पता नहीं चलता है कि क्या ठीक है और क्या गलत है। बहुत गलतियों में सबसे कम गलत कौन है, इसके लिए विचार तर्क करता है।
नानसेन ने कहा: ‘अध्ययन नहीं, विचारण नहीं।’
जोशू ने पूछा: ‘फिर जानेंगे कैसे कि ठीक क्या है?’
तो नानसेन ने उत्तर दिया: ‘मार्ग दृष्ट जगत का हिस्सा नहीं है; न ही वह अदृष्ट जगत का हिस्सा है। पहचान भ्रम है और गैर-पहचान व्यर्थ है। यदि तुम असंदिग्ध होकर सच्चे मार्ग पर पहुंचना चाहो, तो आकाश की तरह अपने को उसकी पूरी उन्मुक्तता में छोड़ दो, पूरी स्वतंत्रता में छोड़ दो। और उसे न शुभ कहो और न अशुभ।’
बड़े कीमती सूत्र हैं।
‘मार्ग न तो दृश्य जगत का हिस्सा है...।’
जिन रास्तों को तुम देखते हो, उन रास्तों में से कोई भी रास्ता आत्मा तक नहीं जाता। वे सभी रास्ते बाहर ले जाते हैं। उनमें से कोई भी रास्ता भीतर की तरफ नहीं जाता। तुम दुनिया भर के रास्तों पर चलते रहो, तो भी तुम अपने भीतर नहीं पहुंचोगे। रास्ते मात्र जो दिखाई पड़ते हैं--बाहर ले जाते हैं।
तो विचार कहेगा, तो फिर इससे विपरीत सही होगा। अगर दृष्ट रास्ते उस तक नहीं ले जाते, तो वह अदृष्ट का हिस्सा होगा। विचार हमेशा विपरीत में सोचता है। अगर ‘यह’ सही नहीं है, तो इससे उलटा सही होगा। अगर ‘हां’ गलत है, तो ‘नहीं’ सही होगा; अगर ‘नहीं’ गलत है, तो ‘हां’ सही होगा। अगर नास्तिक गलत है, तो आस्तिक ठीक होगा; अगर आस्तिक गलत है, तो नास्तिक ठीक होगा। लेकिन ठीक--सदा दोनों के पार है। न तो नास्तिक ठीक है, न आस्तिक ठीक है। वे तो एक ही गलती के दो छोर हैं। वे तो एक ही जिद के दो हिस्से हैं। वे एक ही नासमझी के दो पहलू हैं। जो परम धार्मिक है, वह न तो आस्तिक होता, न नास्तिक।
इसलिए बुद्ध और महावीर के संबंध में बड़ा भ्रम है। बहुत लोग समझते हैं वे आस्तिक हैं, बहुत लोग समझते हैं कि वे नास्तिक हैं। और वे खुद चुप हैं। जैन समझते हैं कि महावीर से बड़ा आस्तिक कहां खोजोगे! हिंदू समझते हैं कि महावीर से बड़ा नास्तिक और कौन होगा।
बौद्ध सोचते हैं, बुद्ध महा-आस्तिक हैं। लेकिन गैर-बौद्ध सोचते हैं, इस आदमी ने सब भ्रष्ट किया। यह आदमी महा नास्तिक है। यह आदमी बड़ा है; बड़ा बहुमूल्य था; इसलिए हिंदुओं ने इसे दसवां अवतार स्वीकार किया। इसको इनकार करना भी मुश्किल है, आदमी वजनी था। इसको एकदम इनकार करोगे, तो तुम्हें खुद लगेगा कि कुछ भूल हो रही है। इतना बड़ा आदमी इस मुल्क में पैदा हुआ, इसको हिंदू अपने अवतारों में से छोड़ भी नहीं सकते। क्योंकि छोड़ने से इसका कोई नुकसान न होगा, उनकी फेहरिस्त कमजोर हो जाएगी। वे जो लिस्ट बनाए हुए हैं--अवतारों की, उसकी ही कीमत गिर जाएगी। बुद्ध का कोई हर्जा नहीं है।
लेकिन बुद्ध से ज्यादा जगमगाता आदमी पैदा नहीं हुआ इस जमीन पर, इस मुल्क में। इसको छोड़ना हिंदुओं के लिए दुखद है। यह ‘दुकान’ के लिए नुकसान होगा। इस आदमी के साथ बड़ी क्रेडिट जुड़ी है। तो इसको स्वीकार किया--दसवां अवतार। लेकिन यह आदमी खतरनाक भी है। क्योंकि इसको साधारण अर्थों में आस्तिक नहीं कह सकते। यह कहता है: कोई ईश्र्वर नहीं है। इसको साधारण अर्थों में आत्मवादी भी नहीं कह सकते। यह कहता है: कोई आत्मा नहीं है। इस आदमी को साधारण अर्थों में आध्यात्मिक तक नहीं कह सकते; क्योंकि यह कहता है: न कोई मोक्ष है, न कहीं जाना है, कुछ भी नहीं है, परम शून्य है। आस्तिक नहीं, आत्मवादी नहीं, अध्यात्मवादी नहीं; इसे अवतार मानने से भी बचा नहीं जा सकता है। इसकी कीमत ज्यादा है, इसको छोड़ भी नहीं सकते। तो हिंदुओं ने एक कथा गढ़ी कि बुद्ध अवतार हैं।
और एक बड़ी मीठी कथा है हिंदुओं की कि जब भगवान ने जगत बनाया, तो उसने नरक भी बनाया, स्वर्ग भी बनाया; फिर भगवान के अवतार हुए--नौ अवतार बुद्ध के पहले, और उन्होंने लोगों को धर्म समझाया। लोग इतने धार्मिक होते गए कि वे सभी स्वर्ग चले गए। नरक में शैतान बैठा है, खाली हाथ। लंबा समय बीतता जाता है, कोई आता नहीं। शैतान ने भगवान से कहा कि यह बहुत...। इसका अर्थ क्या? प्रयोजन क्या? मुझे किसलिए बिठा रखा है? जो दफ्तर चलता ही नहीं, और जहां कोई कभी आता ही नहीं? तुम्हारे अवतार सभी को मुक्त किए दे रहे हैं। तो बंद करो। मुझे वहां किसलिए बिठा रखा है? तो भगवान ने बुद्ध को भेजा, ताकि वे लोगों को भटकाएं और लोग नरक जा सकें और शैतान खाली न बैठा रहे। छोटे-मोटे आदमी से यह भटकाना भी नहीं हो सकता; क्योंकि राम ने जिनको चलाया हो रास्ते पर, कृष्ण ने जिनको मार्ग दिखाया हो, तो उनकी हैसियत का, बल्कि उनसे भी बड़ी हैसियत का आदमी चाहिए--जो भटकाए। इसलिए दसवां अवतार बुद्ध का हुआ--लोगों को भटकाने के लिए। हिंदू-मन ने बड़ी तरकीब से काम लिया; गणित पूरा ठीक बिठाया। इस आदमी को स्वीकार भी नहीं करना है और इस आदमी को इनकार करके नुकसान भी नहीं उठाना है।
लेकिन बुद्ध के साथ तकलीफ क्या है! तकलीफ यही है कि परम धार्मिक व्यक्ति ‘हां’ और ‘न’ में विभाजित नहीं होता। तुम उसे किसी पक्ष में नहीं रख सकते। तुम उसे विपक्ष में नहीं रख सकते, क्योंकि वह निष्पक्ष होता है। उसका कोई पक्षपात नहीं है।
तो मार्ग न तो दृश्य जगत में है...। मन तत्काल कहेगा, दृश्य में नहीं है, तो अदृश्य में होगा। लेकिन नानसेन ने कहा: ‘नहीं, न तो दृश्य में मार्ग है, न अदृश्य में।’ मार्ग तुममें है।
यह बड़े मजे की बात है। तुम न तो दृश्य हो और न अदृश्य। तुम दोनों के पार हो; क्योंकि तुम्हें देखा भी नहीं जा सकता और तुम यह भी नहीं कह सकते कि मैंने अपने को कभी देखा नहीं। ये दोनों बातें गलत होंगी। तुम अपने को जानते तो हो, पहचानते भी हो, क्योंकि तुम अपने को ही नहीं पहचानोगे तो तुम और क्या पहचानोगे! तुम्हारे होने का तुम्हें प्रतिपल पता चल रहा है। लेकिन तुम स्पष्ट रूप से यह भी नहीं कह सकते कि मैंने अपने को जान लिया है; क्योंकि जानने के लिए दूरी चाहिए, जानने के लिए दूसरा चाहिए; स्वयं को कोई कैसे जानेगा?
आत्म-ज्ञान की बड़ी कठिनाई है। न तो वह ज्ञान जैसा है और न अज्ञान जैसा है। वह दोनों से भिन्न है। वह ज्ञान जैसा साफ है और अज्ञान जैसा रहस्यपूर्ण है। वह प्रकाश जैसा स्पष्ट है और अंधेरे जैसा गहन है। वह दोनों है। इसलिए आत्म-ज्ञान, न तो दृश्य जगत का हिस्सा है और न अदृश्य जगत का। दोनों को अतिक्रमण कर जाता है; ट्रांसेंडेंटल है; दोनों के पार है।
नानसेन ने कहा: ‘न तो दृष्ट का हिस्सा है और न अदृष्ट का। पहचान भ्रम है...।’
बड़े मजे की बात कह रहा है नानसेन।
‘पहचान भ्रम है और गैर-पहचान व्यर्थ है।’
अगर तुमने कहा कि मैंने पहचान लिया, तो तुम गलती में हो। क्योंकि पहचानेगा कौन? वहां तुम अकेले हो, दूसरा नहीं है--जो पहचान ले। और अगर तुमने कहा कि मैं अभी तक पहचान नहीं पाया, तो भी तुम व्यर्थ हो। अगर तुम कहो: मैंने जान लिया, तो गलत; अगर तुमने कहा कि मैंने नहीं जाना, तो भी गलत।
पहली बात समझ लें, तो दूसरी मुश्किल हो जाती है। दूसरी मान लें, तो पहली मुश्किल हो जाती है। यह हमारे मन का द्वंद्व है।
अगर कोई कहता है कि मैंने आत्मा को जान लिया, नानसेन कहता है: गलत; क्योंकि जानने वाला और जाना जाने वाला एक ही है। दावा कौन करेगा? तो हमारा मन कहता है: विपरीत बात सही होगी; तब उस आदमी को कहना चाहिए, कि मैंने अभी तक जाना नहीं। लेकिन वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो कहे: मैंने अभी तक अपने को जाना नहीं--इस कहने में ही जानना घटित हो जाएगा। जिसने इतना जान लिया, उसे जानने को और क्या बचा! इसलिए साक्रेटीज कहता है: जिसने जान लिया कि मैं नहीं जानता, वह ज्ञानी हो गया।
बड़ी उलटी बात हो गई। कहो हां, तो आधा; कहो न, तो आधा; और तुम पूरे हो। तुम दोनों हो। तो या तो हां और न एक साथ कहो; या हां और न को एक साथ इनकार कर दो। लेकिन चुनो मत। आधा-आधा मत करो।
‘पहचान भ्रम है, गैर-पहचान व्यर्थ।’
‘यदि तुम असंदिग्ध होकर सच्चे मार्ग पर पहुंचना चाहते हो, तो आकाश की तरह अपने को उसकी पूरी उन्मुक्तता में छोड़ दो।’
अगर तुम सही मार्ग पर पहुंचना चाहते हो तो तुम सही और गलत का विचार मत करो अन्यथा तुम कभी भी न पहुंचोगे; तुम बैठे ही रहोगे--जहां हो, वहीं।
‘अगर तुम सही मार्ग पर पहुंचना चाहते हो, तो तुम आकाश की तरह अपने को उन्मुक्त छोड़ दो।’
तुम खोजो ही मत, तुम चुनो ही मत। तुम पक्षियों की भांति हो जाओ, जिनका कोई मार्ग नहीं होता। आकाश में कोई मार्ग तो नहीं है, कोई बंधे-बंधाए रास्ते नहीं हैं। पक्षी उड़ता है, पद-चिह्न भी नहीं छूटते।
‘तुम आकाश की भांति मुक्त हो जाओ। अपने को पूरी स्वतंत्रता में छोड़ दो और इसे न शुभ कहो और न अशुभ।’ क्योंकि जैसे ही स्वतंत्रता का खयाल आता है, तुम्हारा मन भी तत्काल कहेगा कि कहीं बुराई हो गई, फिर अगर स्वतंत्र छोड़ दिया...।
मैं लोगों से कहता हूं: ‘छोड़ दो अपने को स्वतंत्र।’ तत्क्षण वे पूछते हैं: फिर नीति-अनीति, फिर शुभ-अशुभ? अगर चोरी करने का मन हुआ, तो फिर क्या करें? अगर स्वतंत्र छोड़ा और चोरी करने का मन हुआ, तो फिर क्या करें? नियंत्रण तो रखना ही पड़ेगा, नहीं तो चोरी हो जाएगी। नियंत्रण तो रखना ही पड़ेगा, नहीं तो गलत में गति हो जाएगी। इसलिए तत्क्षण नानसेन कहता है: ‘और उसे न शुभ कहो और न अशुभ।’ उन्मुक्त छोड़ दो, जैसे तुम नियंता नहीं हो।
बड़ी कठिन बात है। इसका अर्थ हुआ कि अगर क्रोध आए, तो आने दो। इसका अर्थ हुआ: घृणा आए, तो आने दो; तुम रोको मत। तुम होने दो, जो होता है। निश्र्चित ही जो फल होगा, वह भी भोगो।
हमारी कठिनाई क्या है--क्रोध से हमें तकलीफ नहीं है, फल से तकलीफ है। अगर तुम क्रोध करो और पुरस्कृत किए जाओ, और तुम जिस पर क्रोध करो, वही तुम्हारे चरण छुए, और तुम जिस पर क्रोध करो, वही फूलमालाएं पहनाए, तो तुम कभी भूल कर न सोचोगे कि क्रोध पाप है या क्रोध बुरा है। तब तो तुम क्रोध का शिक्षण लोगे। तब तुम गुरुओं के पास जाओगे और उनसे कहोगे कि हमें दीक्षित करो--ऐसे क्रोध में, जैसा कोई कभी न हुआ हो।
न, क्रोध से तुम्हें तकलीफ नहीं हो रही है; तकलीफ तुम्हें हो रही है क्रोध के परिणाम से। क्रोध का परिणाम दुख है। अगर तुम उन्मुक्त अपने को छोड़ते हो, तो उसका अर्थ हुआ: जो तुम कृत्य कर रहे हो, वह भी और जो तुम फल भोगोगे वह भी--दोनों में उन्मुक्त रहो।
क्रोध किया, तो क्रोध हुआ; फिर क्रोध का फल भी भोगना पड़ेगा। उसे भी तुम पूरी उन्मुक्तता से भोग लो, तुम बाधा न डालो। तुम्हारे जीवन में क्रांति निश्र्चित घट जाएगी। क्योंकि तुमने अगर क्रोध किया और उसका फल भी भोगा और इन दोनों को तुमने देखा और नियंत्रण न किया; क्योंकि तुम जब नियंत्रण में लग जाते हो, तभी तुम देखने से चूक जाते हो, तब तुम्हें इनका जहर पूरा दिखाई पड़ेगा। यह तीर तुम्हारी छाती में छिदा हुआ दिखाई पड़ेगा। देर न लगेगी--तुम इस तीर को निकाल कर फेंक दोगे; तुम सोचोगे भी नहीं। क्रोध और उसके परिणाम दोनों तुमसे गिर जाएंगे। लेकिन यह क्रांति तुम्हारे किए न होगी। यह क्रांति तो तुम जब अपने को उन्मुक्त छोड़ोगे, तभी घटित होगी।
उन्मुक्तता अंत में परम आनंद लाएगी। प्रारंभ में बहुत दुख लाएगी। उस दुख से बचने के लिए तुम नियंत्रण करते हो। तुम डरे-डरे जीते हो कि क्या होगा--घर का? क्या होगा--गृहस्थी का? अगर किसी के प्रेम में पड़ गए, क्या होगा पत्नी का? क्या होगा पति का? तुम डरे-डरे जी रहे हो। तुम इतने डरे हुए जी रहे हो कि तुम्हारे जीने को ‘जीना’ कहा ही नहीं जा सकता। तब तुम डरे-डरे मरोगे।
तुम न तो ठीक से जीए और न ठीक से मरे। न तुम्हारे इस जीवन में कोई ज्योति थी और न तुम्हारे मरने में कोई त्वरा होगी। न तो तुम्हारा जीवन तूफान था, और न तो तुम्हारी मृत्यु में कोई गति होगी। तुम एक लाश की भांति हो, जो घसीटे जा रहे हो।
जब नानसेन कहता है: ‘छोड़ दो आकाश की तरह अपने को उसकी पूरी उन्मुक्तता में। पूरी स्वतंत्रता में। और न तो उसे शुभ कहो और न अशुभ।’
न तो कहो कि यह ठीक है और न कहो कि यह गलत है। सिर्फ इतना ही जानो कि यही नियति है। यही मेरे होने का स्वभाव है। यही मेरा ढंग है। और इससे अन्यथा न कभी मैं हो सकता हूं, न कभी होने की कोई बात उठा सकता हूं। यह मेरा ढंग है।
शुरू में बड़ी अड़चन आएगी, वही संन्यास की अड़चन है। वही साधक की तकलीफ है। शुरू में बड़ी अड़चन आएगी, क्योंकि सब तरफ तुमने झूठ बोल रखा है। सब तरफ तुमने अपना नियंत्रित चेहरा दिखलाया है। तुमने अपना असली चेहरा तो प्रकट ही नहीं किया। तुम कभी सच तो बोले नहीं। जब तुम्हें रोना था, तब तुम हंसे। जब तुम्हें गाली देनी थी, तब तुमने प्रशंसा की। तुमने चारों तरफ ऐसा असत्य का जाल फैला रखा है, कि आज अचानक तुम भी घबड़ाओगे कि कैसे उन्मुक्त हो जाऊं! यह जाल किसी और ने बनाया होता, तो शायद तुम छलांग भी लगा जाते; यह तुमने ही रचा है--बड़ी मेहनत से रचा है। अब तुम उसी में घुटे जा रहे हो। उसी में तुम्हारी गर्दन दबी जा रही है।
संन्यास का अर्थ है: बिना भय के, बिना परिणाम की चिंता के, बिना ठीक और गलत के विचार के, जीवन जहां ले जाए, वहां जाने की तैयारी। नरक ले जाए, तो नरक जाएंगे। लेकिन अगर तुम इतने उन्मुक्त हो, तो तुम्हारे लिए नरक नहीं है। अगर तुम इतने स्वच्छंद हो, इतने स्वतंत्र हो, तब तुम्हारे लिए पूरा आकाश खुला है, तुम्हारे लिए कोई कारागृह नहीं है।
‘कहते हैं कि ये शब्द सुन कर--सिर्फ शब्द सुन कर--जोशू ज्ञान को उपलब्ध हो गया।’
तुम भी हो सकते हो। पर मैंने कहा और तुमने सोचना शुरू कर दिया। देखो, अभी तुम सोच रहे हो। मैंने कहा: स्वतंत्र हो जाओ, तुम भीतर संकुचित हो गए। तुमने कहा: बात भला ठीक हो, अपने काम की नहीं। घर-गृहस्थी वाले आदमी हैं। समाज है। दूसरे क्या कहते हैं? इसको भी सोचना पड़ता है।
मैंने सुना है कि एक रेगिस्तान में दो ऊंट यात्रा कर रहे थे। दोनों पसीने से तरबतर, कंठ प्यास से अवरुद्ध। लेकिन दोनों प्रतीक्षा कर रहे हैं कि दूसरा कहे कि प्यास लगी है; क्योंकि इज्जत का सवाल है। किताबों में आदमियों ने लिखा है--ऊंटों ने तो किताबें लिखी नहीं--आदमियों ने लिखा है कि ऊंट छत्तीस-छत्तीस घंटे तक बिना पानी पीए चल सकता है। तो इज्जत का भी सवाल है। और जो पहले कहे, वह हार स्वीकार करे। आखिर एक ने कहा: बहुत हो गया। नाउ आइ डोंट केअर वॉट अदर्स से; आइ एम थर्सटी। अब मैं फिकर नहीं करता कि दुनिया क्या कहती है; मुझे प्यास लगी है।
कब तुम हिम्मत जुटाओगे? कब तुम कहोगे कि दुनिया क्या कहती है, इसकी अब मैं चिंता न करूंगा? अब मैं तुम्हारे ढंग से अपने को बनाऊंगा नहीं। अब मैं जो हूं, उसे मैं स्वीकार करता हूं। मुझे प्यास लगी है। पहली दफा ईमानदारी तुम्हारे जीवन में पैदा होगी। पहली दफा प्रामाणिक आत्मा का जन्म होगा। अन्यथा तुम एक लंबी झूठ हो।
कोई स्वीकार नहीं करना चाहता, कि मुझसे कोई भूल हुई है। तुम सोचते हो निरंतर कि कोई और कारण है, जिसकी वजह से तुम दुख में हो। यह तुम कभी स्वीकार नहीं करना चाहते कि तुम्हारी ही भूलों का इकट्ठा जोड़ है। भूल तो कोई स्वीकार करना ही नहीं चाहता।
मुल्ला नसरुद्दीन का पूरा परिवार उससे परेशान था। दफ्तर के आदमी परेशान थे। नौकर-चाकर परेशान थे, क्योंकि वह अपने को इनफालिबल... वह समझता था कि मुझसे कभी कोई भूल हुई नहीं और न हो सकती है। ऐसा आदमी बहुत दुष्ट हो जाता है, जिसको ऐसा खयाल हो। उसके पास रहना बड़ा कठिन मामला है। क्योंकि उससे भूल कभी होती नहीं। जब भी भूल हो, तुम्हीं से होगी। उसकी भूलें भी तुम्हारे कंधों पर पड़ेंगी।
आखिर एक दिन एक आदमी बहुत ही परेशान हो गया। और उसने कहा कि नसरुद्दीन एक सवाल पूछूं? कभी जिंदगी में, कभी एकाध बार भी तुमसे भूल हुई? नसरुद्दीन ने कहा: हां, एक बार मुझसे भूल हुई। वह आदमी भी सुन कर चौंका कि इतना भी स्वीकार कर ले, इसकी भी आशा नहीं थी। उसने बहुत उत्तेजित होकर पूछा: वह कौन सी घटना है, जरूर कहो। नसरुद्दीन ने कहा: एक बार मैंने सोचा कि मुझसे भूल हुई, लेकिन हुई नहीं थी। बस, वही एक भूल है।
तुम्हारे चारों तरफ भूलों का तांता है और भूलों के तांते का आधार यह है कि तुम जो हो, उससे अन्यथा दिखलाने की कोशिश कर रहे हो।
चोर--साधु की तरह अपने को प्रकट कर रहा है। बेईमान--ईमानदार की तरह अपने को प्रकट कर रहा है। धोखेबाज--भोलेपन का आवरण लिए है। लेकिन तुम किसी और को कष्ट नहीं दे रहे हो; पक्का समझ लेना। यह सब झूठ तुम्हारी ही गर्दन पर कस गया है। जब नानसेन कहता है कि ‘छोड़ दो उन्मुक्त आकाश में अपने को’, तो वह यह कह रहा है कि तुम फिकर छोड़ो कि लोग क्या कहते हैं। तुम फिकर छोड़ो कि सही क्या है, गलत क्या है। तुम इतनी ही फिकर करो कि तुम्हारे लिए स्वाभाविक क्या है। तुम अपने स्वभाव के पीछे चलो।
स्वभाव का अनुगमन संन्यास है। और स्वभाव में लीन होने की प्रक्रिया का नाम सहज-योग है।
वह जो कबीर कह रहे हैं: ‘साधो सहज समाधि भली।’--तो वे यही कह रहे हैं कि असहज होकर तुम बड़े कष्ट में पड़ गए हो, व्यर्थ कष्ट झेल रहे हो। एक झूठ से दस झूठ पैदा होते हैं। एक को बचाओ; दस झूठ खड़े करने पड़ते हैं। एक में फंसे थे, दस में फंस जाते हो। और यह जाल अंतहीन है। कब तुम साहस करोगे और प्रामाणिक हो जाओगे?
और ध्यान रहे, प्रामाणिक होना कोई नियंत्रण नहीं है। प्रामाणिक होने का मतलब यह नहीं है कि तुम बेईमानी छोड़ो और ईमानदार हो जाओ; चोरी छोड़ो और साधु हो जाओ। प्रामाणिक होने का अर्थ है कि तुम जो हो--अगर तुम चोर हो, तो स्वीकार कर लो कि ठीक है, मैं चोर हूं। ‘मुझे प्यास लगी है।’ तुम अपने हृदय को खोल दो, ढांको मत। जिस दिन तुम अपने हृदय को खोल दोगे और ढांकोगे नहीं--चाहे शुरू में तुम्हें अड़चन हो--जल्दी ही तुम पाओगे; तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो गई।
और जब कोई इतना प्रामाणिक हो जाता है, तो सारे जगत से, चारों तरफ से उस पर फूल बरसने लगते हैं।
प्रामाणिक का सम्मान है, झूठ का कोई सम्मान हो नहीं सकता। तुम कितना ही इंतजाम करो, तुम जिस कोशिश में लगे हो, उसमें तुम हारोगे। झूठ जीत नहीं सकता, उसके पास पैर नहीं हैं--चलने को; प्राण भी नहीं हैं--श्र्वास लेने को।
‘उन्मुक्त छोड़ दो, पूरी स्वतंत्रता में छोड़ दो। और उसे न शुभ कहो, न अशुभ।’
‘कहते हैं, ये शब्द सुन कर जोशू ज्ञान को उपलब्ध हो गया।’
तुम भी हो सकते हो। जो जोशू के साथ घटा, वह तुम्हारे भीतर भी घट सकता है।
क्या घटा जोशू को? उसे दिखाई पड़ गई यह बात कि यह सच है। जीवन का दुख क्या है; कि मैं जो होने को हूं, उससे अन्यथा होने की कोशिश कर रहा हूं। कमल का फूल गुलाब होना चाह रहा है, गुलाब का फूल कमल होना चाह रहा है। दोनों कष्ट में पड़े हैं। जो मैं हूं, उससे अन्यथा की कोशिश नरक है। जो मैं हूं, उसका स्वीकार मोक्ष है।
भय क्या है? कौन क्या बिगाड़ लेगा? किसके हाथ में क्या है बिगाड़ने को? तुमसे कोई क्या छीन लेगा? लेकिन चारों तरफ से तुम डराए गए हो। पूरा समाज भय पर खड़ा है और इतना भय कि तुम इंच भर भी कदम नहीं हिला सकते। सब तरफ से भयभीत हो, कंप रहे हो। इस कंपन से कहीं सत्य का कोई मिलन हो सकेगा? मत कंपो। और इस कम्पन ने तुम्हें कुछ दिया भी नहीं है, इस भय से तुम्हें कुछ मिला भी नहीं है; कोई निधि भी मिल गई होती, तो भी कुछ था। कुछ भी नहीं मिला; सिर्फ तुमने खोया ही खोया है।
अगर सोचो मत, तो इसी क्षण तुम उतार कर रख दे सकते हो सब; क्योंकि जिसको तुम समझ रहे हो, उसने तुम्हें पकड़ा है, उसने तुम्हें पकड़ा नहीं है, तुम्हीं उसे जोर से पकड़ हुए हो। तुम्हारे छोड़ते ही संसार गिर जाएगा।
‘कहते हैं, ये शब्द सुन कर जोशू ज्ञान को उपलब्ध हो गया।’
मुश्किल लगता है। मात्र सुन कर! पर उसने ‘सुना’ होगा और अगर तुम न हो पाओ सुन कर, तो समझना कि तुमने सुना नहीं; तुम सोचने लगे। तुम ज्यादा होशियार हो, जोशू से। होशियारी में तुम चूकोगे। जोशू भोलाभाला रहा होगा। उसने थोड़े हाथ-पैर तड़फड़ाए। उसने कहा कि अध्ययन करें, उसने कहा कि अध्ययन न करेंगे तो भटक न जाएंगे! लेकिन नानसेन की बात, उसे दिखाई पड़ गई।
सत्य एक क्षण में दिखाई पड़ सकता है। बस, एक ही शर्त; उस क्षण तुम सोचो मत। जरा सा विचार और वर्तुल शुरू हो जाता है। तुम दूर निकलना शुरू हो गए। तुम बड़ी दूर पहुंच गए। जरा सा सोच बड़ी दूर ले जाता है। जरा सा अ-सोच तत्क्षण तुम्हें स्वयं से मिला देता है।
न सोचने की कला ध्यान है; सोचने की कला संसार है।
जोशू ने सोचा नहीं, सुना, देखा, नानसेन की गंध ली। यह आदमी एक उन्मुक्त आकाश था। यह आदमी एक महाशून्य था। सामने बैठे वाले आदमी से कोई सिद्धांत नहीं बोल रहे थे। यह किन्हीं शास्त्रों के लिए गवाहियां नहीं दे रहा था। यह आदमी अपने अनुभव से कह रहा था। ऐसे ही इसने भी जीवन के सत्य को पाया है। ऐसे ही एक दिन थक कर, ऊब कर, इसने सब बंधन उतार कर रख दिए थे। जिन्हें इसने अब तक आभूषण समझा था, पहचान लिया था कि वे जंजीरें हैं; उनको गिरा दिया था। खुले आकाश की तरह हो गया था। सोचना बंद कर दिया कि कोई क्या कहेगा। प्यास थी, तो प्यास थी; भूख थी, तो भूख थी; वासना थी, तो वासना थी; क्रोध था, तो क्रोध था; इसने अंगीकार कर लिया अपने को; इसने बदलने की व्यर्थ कोशिश छोड़ दी। यह सहज-योगी हो गया था। और जैसे ही कोई सहज-योग को उपलब्ध होता है, क्रांति घटित हो जाती है। जो जन्मों-जन्मों से नहीं घटा, वह दो शब्दों को सुन क
र घटित हो जाता है। क्योंकि तब तुम देखते हो, अपने पूरे तथ्य को: आग लगा हुआ भवन--सब तरफ जलता हुआ। फिर क्षण की देरी नहीं लगती, समय नहीं लगता; तुम कूद कर बाहर हो जाते हो। तुम देखते हो सामने ही खड़ी मृत्यु को; तुम छलांग लगा कर मार्ग से हट जाते हो।
यह घट सकता है।
तुमसे निरंतर कहे जाता हूं कुछ। वह सिर्फ इसी आशा में कि किसी दिन तुम सुनोगे। तब करने को कुछ भी न बचेगा।
ध्यान रखना: तुम सोचते हो कि सुन कर फिर कुछ करना है। सुनेंगे, फिर हिसाब लगाएंगे। फिर अपने काम का चुनेंगे, फिर उसके अनुसार आचरण बनाएंगे। तब तुम गलती में हो। मैं तुमसे कहता हूं, सुन कर ही घट सकता है। कुछ और करने को नहीं बच रह जाता। पर सुनना; सुनते वक्त--बस सुनना। वहां विचार की छोटी सी भी तरंग न हो, जो विकृत करे।
‘कहते हैं कि ये शब्द सुन कर जोशू ज्ञान को उपलब्ध हो गया।’
तुमने भी ये शब्द सुने। अपने भीतर देखना, तुम सोचने लगे और ये शब्द ऐसे हैं कि सोच पैदा होता है। ये शब्द जटिल हैं, चोट करने वाले हैं। नानसेन जैसे लोग हमेशा शॉक ट्रीटमेंट में भरोसा करते हैं।
एक आदमी मेरे पास आया और उसने आकर कहा: आप कहते हैं कि सब स्वीकार कर लो! और मैं वेश्यागामी हूं।
मैंने कहा: स्वीकार कर लो। मत छिपाओ। अंगीकार कर लो कि वेश्यागामी हो। छिपाने से मिटता भी नहीं, मिटाने की कोई जरूरत भी नहीं है। वेश्या का क्या कसूर है? और तुम भी क्या कर सकते हो? जैसे हो, हो। अगर कोई कसूरवार भी है कभी, तो यह भगवान होगा। तुम स्वीकार कर लो।
उस आदमी ने कहा: आप क्या कहते हैं? वेश्यागामी? वह भी स्वीकार करने को राजी नहीं है, वेश्यागामी होने को राजी है। उसमें कोई तकलीफ नहीं है, लेकिन स्वीकार करने को राजी नहीं है। उसने कहा: आप क्या कहते हैं? फिर तो मैं नष्ट ही हो जाऊंगा। अभी तो एक आशा है कि आज नहीं कल सम्हाल लूंगा। और आप कहते हैं: स्वीकार कर लो!
कब से सम्हाल रहे हो? मैंने पूछा। उसने कहा: कोई बीस साल तो हो ही गए। मैंने कहा: ताकत पहले ज्यादा थी, अब कम होती जा रही है। ज्यादा ताकत में बाहर न निकल पाए; कम ताकत में कैसे निकल पाओगे? उसने कहा: कुछ भी हो, लेकिन आप आशा तोड़ देते हैं?
मैं आशा तोड़ना चाहता हूं, क्योंकि आशा ही तुम्हारे पाप का मूल है। इसीलिए तुम कल के भरोसे आज वेश्यागामी हो, क्योंकि हर्जा क्या है; कल ठीक हो लेंगे। जल्दी भी क्या है!
एक शराबी शराब पी रहा था। और किसी ने उससे कहा कि जानते हो क्या कर रहे हो? पता है कि यह तुम क्या पी रहे हो? दिस इ़ज स्लो पाय़जन। यह आहिस्ता-आहिस्ता मारने वाला जहर है। उस आदमी ने कहा: बट आई एम नॉट इन ए हरी। मैं कोई जल्दी में भी नहीं हूं। होगा धीरे-धीरे मारने वाला, लेकिन मैं जल्दी में कहां हूं!
तुम अगर स्थगित कर पाओ, तो तुम्हें सुविधा मिल जाती है। कल--कल तुम्हारा, सुरक्षा का आधार है। चोर आज हो, कल अचोर हो जाओगे। आज असाधु हो, कल साधु हो जाओगे। आज पापी हो, कल पुण्यात्मा हो जाओगे। यह ‘कल’ ही तुम्हारे सारे पापों को बचा रहा है। इसकी आशा में ही तुम आज पापी होने की सुविधा पा सके हो।
मैं तुमसे कहता हूं, कल भी तुम होने वाले नहीं हो। तुम पापी हो, तो तुम पापी हो, और आज के अतिरिक्त तुम्हारे पास कोई समय नहीं है। जब पापी ही हो, तो पूरी तरह कम से कम पापी ही हो जाओ। और कल पुण्यात्मा होना है; जब कल आएगा तब कल देख लेंगे। कल के पुण्यात्मा को आज क्यों बीच में लाते हो?
कल के पुण्यात्मा को आज बीच में लाने से आज के पापी को पापी का दंश कम हो जाता है। पीड़ा कम हो जाती है, आग फीकी पड़ जाती है, अंगारा राख में दब जाता है। छलांग नहीं हो पाती है।
आज के पापी को पूरा पापी होने दो। मत कहो बुरा, मत कहो भला। ‘जो है--है।’ इस तथ्य को पूरी तरह जी लो और मैं तुमसे कहता हूं कि जो जोशू को घटा, वह तुम्हें भी घट सकता है।

आज इतना ही।

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