ZEN/SUFI STORIES
Sahaj Samadhi Bhali 01
First Discourse from the series of 21 discourses - Sahaj Samadhi Bhali by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1974, Pune.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
भगवान,
प्रवचनमाला के आरंभ में कृपापूर्वक हमारे प्रणाम और प्रार्थना स्वीकार करें। संत शिरोमणि कबीर के कुछ प्रसिद्ध पद हैं जो सहज-योग को प्रतिष्ठित करते हैं। क्योंकि आप भी सहज-योग को बहुत महिमा देते हैं। इसलिए हम आपसे कबीर के इन पदों को समझाने का निवेदन करते हैं।
साधो सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन-दिन अधिक चली।।
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
कह कबीर यह उनमनि रहनी, सो परगट करि गाई।
दुख सुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।।
समाधि सहज ही होगी। असहज जो हो, वह समाधि नहीं है। प्रयास और प्रयत्न से जो हो, वह मन के पार न ले जाएगी, क्योंकि सभी प्रयास मन का है। और जिसे मन से पाया है, वह मन के ऊपर नहीं हो सकता। जिसे तुम मेहनत करके पाओगे, वह तुमसे बड़ा नहीं होगा। जिस परमात्मा को ‘तुम’ खोज लोगे, वह परमात्मा तुमसे छोटा होगा। परमात्मा को ‘प्रयास’ से पाने का कोई भी उपाय नहीं है। उसे तो ‘अप्रयास’ में ही पाया जा सकता है।
‘तुम’ उसे न पा सकोगे; तुम मिटो, तो ही उसका पाना हो सकेगा। इसलिए परमात्मा की खोज वस्तुतः परमात्मा में खोने की व्यवस्था है। मन की असफलता जहां हो जाती है, वहां समाधि फलित होती है। जब तक मन सफल होता है, तब तक तो ‘खेल’ जारी है, तब तक तो माया जारी है।
तो पहली तो बात यह समझ लें कि समाधि सहज ही होगी। चेष्टा, प्रयत्न और प्रयास से उसका कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए जिन्होंने उसे पाया है, उन्होंने कहा: प्रसाद से पाया; प्रभु की अनुकंपा से पाया। जब ऐसा कहते हैं संत कि ‘प्रभु की अनुकंपा से पाया’, तो इसका इतना ही अर्थ है कि हमने तो बहुत दौड़-धूप की; जितने हम दौड़े, उतने ही भटके; जितना हमने खोजा, उतना ही खोया; जितना हमने चाहा कि मिल जाए, उतने ही दूर होते चले गए। हमारी सभी चेष्टाएं व्यर्थ गईं। हम हार गए। जहां हार हो जाती है ‘तुम्हारी’, वहीं से परमात्मा की विजय शुरू होती है।
तुम्हारी जीत परमात्मा की हार है। क्योंकि तुम्हारी जीत का अर्थ क्या होगा? तुम्हारी जीत का अर्थ होगा कि--मैं, अहंकार, अस्मिता। तुम जितने जीतोगे, उतनी ही कठिनाई खड़ी होगी। तुम हो, यही तो समस्या है। कैसे वह घड़ी आ जाए कि तुम ‘न’ हो जाओ? तुम्हारे भीतर कोई भी न हो, कोरा सन्नाटा हो। तुम्हारे मंदिर में कोई प्रतिमा न रह जाए; निराकार हो; एक शब्द भी भीतर न गूंजे। ऐसी गहरी चुप्पी लग जाए कि न कोई बोलने वाला हो, न कोई भीतर सुनने वाला हो; उसी क्षण प्रभु का प्रसाद बरसने लगेगा। उसी क्षण तुम तैयार हो। जहां तुम नहीं हो, उसी क्षण तुम तैयार हो।
सभी समाधि सहज होंगी। असहज--समाधि नहीं। लेकिन मन चाहता है जीतना; हारना नहीं। मन ध्यान में भी ‘जीतना’ चाहता है, मन परमात्मा के साथ भी एक संघर्ष कर रहा है; वहां भी विजय चाहता है, वहां भी परमात्मा को मुट्ठी में चाहता है। तुमने धन कमाया, तुमने यश पाया, तुमने प्रतिष्ठा कमाई, अब तुम चाहते हो कि परमात्मा भी तुम्हारी मुट्ठी में हो; तुम कह सको कि परमात्मा को भी कमाया! तुम परमात्मा को भी बैंक-बैलेंस में कहीं जोड़ देना चाहते हो। तुम्हारी तिजोरी जब तक परमात्मा को भी बंद न कर ले, तब तक तुम्हारे अहंकार की तृप्ति नहीं है। इसलिए ज्ञानी कहते हैं, जो पा लेंगे उसे, वे कभी भूल कर न कहेंगे कि हमने पाया। और जो कहते हैं कि हमने पा लिया है, समझना कि अभी बहुत दूर है, क्योंकि दावेदार बचेगा कैसे? दावेदार का होना ही तो बाधा है। तुम जब तक कहोगे ‘मैं’, तब तक उससे मिलन न होगा।
कबीर ने कहा है: जब तक खोजता रहा, तब तक वह न मिला। और जब वह मिला, तब मैंने चौंक कर पाया कि मैं तो मिट चुका हूं। खोजने वाला मिट गया, तब मिला।
खोजत-खोजत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
निकला था खोजने, निकला था पाने; लेकिन खोजते-खोजते खुद ही घिस गया! दौड़ते-दौड़ते खुद ही मिट गया! और कबीर खो गया! जहां कबीर खोया, वहीं उससे मिलन है।
कबीर का दूसरा वचन है, जिसमें कबीर ने कहा है: जब तक मैं खोजता था, तब तक तेरे दर्शन न हुए और अब जब कि मैं बचा नहीं, तो तू मेरे पीछे-पीछे भागा-भागा फिरता है। जब तक मैं तुझे खोजता था, तब तक तेरी गंध न मिली, तब तक तेरा सुराग न मिला; कितने दरवाजे खटखटाए; लेकिन कोई दरवाजा तेरा दरवाजा नहीं था। कितने रास्तों पर तेरी तलाश की, लेकिन कोई रास्ता तेरे घर तक न जाता था! और अब जब कि मैं मिट गया हूं, तो विडंबना, कि तू मेरे पीछे-पीछे घूमता है--‘कहत कबीर-कबीर!’ पहले मैं तुझे पुकारता था, अब तू मुझे पुकारता है। और जब मैं पुकारता था, तब तू नहीं था। और अब तू पुकार रहा है और मैं नहीं हूं।
समझना। तुम्हारा मिलना परमात्मा से कभी भी नहीं होगा। तुम जैसे हो वैसे, परमात्मा से मिलना कभी भी न होगा। जब मिलना होगा, तब तुम, ‘ऐसे’ नहीं होओगे।
तुम जैसे हो, ऐसे ही परमात्मा तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। तुम गिर जाओगे, मिट जाओगे; तुम्हारी राख से ही परमात्मा का मंदिर उठता है। तुम्हारी कब्र पर ही उसका घर है। लेकिन मन चाहता है--जीत। जितना तुम जीतते हो, उतना नशा चढ़ता है--अहंकार का।
एक, परमात्मा ऐसा लगता है कि जीतना कठिन है, इसलिए तुम यह मत सोचना कि अक्सर धार्मिक लोग ही परमात्मा की खोज में निकलते हैं; सौ में से निन्यानबे तो अहंकारी होते हैं, जो परमात्मा की खोज में निकलते हैं; क्योंकि अहंकार हमेशा असंभव की आकांक्षा करता है, और परमात्मा से ज्यादा असंभव क्या है? एवरेस्ट पर चढ़ना कठिन होगा, असंभव तो नहीं है। आखिर हिलेरी और तेनसिंह चढ़ ही गए। चांद पर पहुंचना कठिन होगा, असंभव तो नहीं है। आदमी आखिर चांद पर चल ही गया। मंगल पर भी चलेगा; दूर के तारों पर भी पहुंच जाएगा, लेकिन परमात्मा को पाना एकदम असंभव मालूम होता है। जो पा लेते हैं, वे भी दावा नहीं कर पाते; इतना असंभव है। जो पा लेते हैं, वे भी चुप हो जाते हैं। चांद पर तो जाकर तुम झंडा गाड़ आते हो, परमात्मा पर तुम झंडा न गाड़ सकोगे।
तो अहंकारी का मन परमात्मा को भी जीतना चाहता है। वह सबसे ऊंचा शिखर है, वह सबसे असंभव चोटी है, उस पर भी मैं झंडा गाड़ दूं। उसको भी मैं कह दूं--‘मैंने जीता।’
सौ में से निन्यानबे--धर्म की खोज में गए लोग अहंकारी होते हैं। इसलिए धार्मिक व्यक्तियों में विनम्रता पानी बहुत कठिन है। धार्मिक आदमी अक्सर अहंकारी होगा--भयंकर अहंकारी होगा। संन्यासियों में, साधुओं में विनम्रता खोजनी बड़ी कठिन है। यद्यपि वे निरंतर कहेंगे कि विनम्र बनो, लेकिन वे तुमसे कह रहे हैं, विनम्र बनने को। वे जब तुमसे कह रहे हैं, ‘विनम्र’ बनो, तो वे यह कह रहे हैं कि ‘उनके प्रति विनम्र बनो।’ लेकिन उनके अहंकार का कोई अंत नहीं है। दो साधुओं को मिलाना मुश्किल है; दो साधुओं को साथ बैठाना मुश्किल है; क्योंकि सवाल उठता है, ‘कौन नीचे बैठेगा? कौन ऊपर बैठेगा?’
कलकत्ता में एक सभा में मैं एक दफा निमंत्रित हुआ। एक बड़ा विराट आयोजन था। कोई तीन सौ पंडित, साधु, संन्यासी, महात्मा निमंत्रित थे। और उन्होंने मंच भी बनाया था कि तीन सौ लोग बैठ सकें--मंच पर एक साथ। लेकिन एक-एक व्यक्ति ने बैठ कर व्याख्यान दिया। तीन सौ लोग उस पर इकट्ठे नहीं बैठ सके। मैंने पूछा कि बात क्या है? तो उन्होंने कहा, ‘बड़ी कठिनाई है’। शंकराचार्य कहते हैं कि वे अपने सिंहासन के साथ आएंगे और वे अगर सिंहासन पर बैठते हैं, तो दूसरे संन्यासी कहते हैं कि हम नीचे तख्त पर कैसे बैठ सकते हैं! हम भी उसी ऊंचाई पर बैठेंगे। अब बड़ी मुश्किल है। अगर सबको ऊंचा कर दो, तो वे सब फिर बराबर हो जाते हैं। किसी को ऊंचा छोड़ दो, किसी को नीचा छोड़ दो, तो कष्ट है। यही उपाय मालूम होता है कि एक-एक बैठ कर बोले। उसको जैसे बैठना हो--ऊंचा-नीचा, जहां। सुनने भी कोई दूसरे लोग नहीं आए। जब एक बोला, तब दूसरा सुनने भी नहीं आया। अज्ञानी सुनते हैं, ज्ञानी कहीं सुनने आता है? और जब जानते ही हैं, तो सुनना क्या है? अहंकार प्रबल है।
दुनिया में धर्मों का झगड़ा--धर्मों का झगड़ा नहीं है--अहंकारियों का झगड़ा है। धर्म के नाम पर अहंकारियों का बाजार है--कोई चर्च के नाम पर, कोई मस्जिद के नाम पर, कोई गुरुद्वारे के नाम पर, कोई मंदिर के नाम पर; लेकिन झगड़े अहंकार के हैं। और अहंकार से बड़ी ‘मादकता’ नहीं है।
बड़े से बड़ा काम अहंकार कर सकता है--वह यह कि कहे कि ईश्र्वर को पा लिया। इसलिए इस्लाम में इस तरह के दावेदार को ‘काफिर’ कहा है। कहने में थोड़ी सच्चाई है, क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तो गलत आदमी दावा करता है। कभी सौ में एकाध--कोई मंसूर अलहिल्लाज--कभी कोई सही दावेदार होता है। पर उस एक के लिए निन्यानबे को माफ नहीं किया जा सकता।
यह दावा आता है--श्रम से, चेष्टा से। जब तुम मेहनत करते हो, योग करते हो, आसन करते हो, ध्यान लगाते हो, बड़े कष्ट, तपश्र्चर्या, उपवास, धूप में खड़े होना, रात जागरण करते हो--तो अहंकार मजबूत होता है, नशा बढ़ता है। तुम्हें लगता है, मैं ‘इतना’ कर रहा हूं। तुम्हारे मन में परमात्मा के प्रति धन्यवाद का भाव नहीं आता, शिकायत का भाव आता है। जितनी होगी चेष्टा, उतनी शिकायत का भाव होगा। क्योंकि लगेगा--मैं ‘इतना’ कर रहा हूं, अभी तक मिलन नहीं हुआ? मैं ‘इतना’ कर रहा हूं, तुम अभी तक दूर बने हो? मैं ‘इतना’ कर रहा हूं और अभी तक मंजिल नहीं आई? तो भीतर एक शिकायत का कीड़ा हृदय को काटेगा। और जितना श्रम बढ़ेगा, उतना अहंकार फैलेगा।
वास्तविक समाधि सहजता से फलित होगी। पर सहजता को समझने के पहले, अहंकार की इस चेष्टा को समझ लेना चाहिए। और जितना नशा हो जाता है अहंकार का...। और ध्यान रहे: अहंकार से बड़ी कोई मादकता नहीं है, उससे बड़ा कोई इंटॉक्सिकेंट नहीं है। फिर तुम अपने होश में नहीं हो, फिर तुम जो भी कहते हो, जो भी बोलते हो, जो भी जीते हो, वह सब होश के बाहर हो जाता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन हमेशा दांत के डॉक्टरों से बचता रहा। हमेशा डरा रहा। लेकिन एक बार मजबूरी इतनी बढ़ गई। पीड़ा इतनी थी दांत में, कि जाना ही पड़ा। गया तो डॉक्टर से उसने कहा कि वर्षों से टाल रहा हूं, अब उस जगह पहुंच गई है बात कि अब और सहा नहीं जा सकता। न सो सकता, न बैठ सकता। दर्द बहुत है; आना ही पड़ा। लेकिन भयभीत हूं। हाथ-पैर मेरे कंप रहे हैं। स्नायु मेरे तने हैं। हृदय मेरा धड़क रहा है। मैं तुमसे बहुत डरता हूं। डॉक्टर दयालु था; उसने कहा, तुम घबड़ाओ मत। भरा हुआ गिलास शराब का नसरुद्दीन को दिया और कहा, ‘यह पी जाओ। एक ही घूंट में नसरुद्दीन उसे पी गया। गर्मी आई। आंखों में सुर्खी आ गई। दर्द भी भूल गया। डॉक्टर ने थोड़ी देर बाद पूछा कि कैसा लग रहा है? भय गया? थोड़ी निर्भयता आई? नसरुद्दीन खड़ा हो गया। छाती फुला कर, उसने कहा, ‘निर्भयता! अब मेरे दांत को हाथ लगाओ तो जानूं। देखें, कौन माई का लाल मेरे दांत को हाथ लगाता है।’
अहंकार बड़ी से बड़ी शराब है और जितना ज्यादा अहंकार बढ़ता जाता है, उतना ही ऐसा मालूम पड़ता है कि तुम्हारी विजय का कोई अंत नहीं है। परमात्मा को भी तुम विजित करके रहोगे। उसे भी जीतोगे।
इस अहंकारी ने बहुत से उपाय खोजे हैं--कैसे परमात्मा को पाना। लेकिन ध्यान रहे, किसी उपाय से कभी किसी ने परमात्मा को पाया नहीं है। जिसने उपाय किया, वह भटका और भूला।
सहज-समाधि का अर्थ है कि परमात्मा तो उपलब्ध ही है; तुम्हारे उपाय की जरूरत नहीं है। तुम कैसे पागल हुए हो! पाना तो उसे पड़ता है, जो मिला न हो। तुम उसे पाने की कोशिश कर रहे हो, जो मिला ही हुआ है। जैसे सागर की कोई मछली सागर की तलाश कर रही हो। जैसे आकाश का कोई पक्षी आकाश को खोजने निकला हो। ऐसे तुम परमात्मा को खोजने निकले हो, यही भ्रांति है। परमात्मा तुम्हारे भीतर प्रतिपल है, तुम्हारे बाहर प्रतिपल है, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस बात को ठीक से समझ लें, तो फिर कबीर की वाणी समझ में आ जाएगी।
पाना नहीं है परमात्मा को, सिर्फ स्मरण करना है। इसलिए कबीर, नानक, दादू एक कीमती शब्द का प्रयोग करते हैं, वह है--‘सुरति, स्मृति, रिमेंबरिंग।’ वे सब कहते हैं, उसे खोया होता तो पाते। उसे खो कैसे सकते हो? क्योंकि परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है--तुम्हारा परम होना है, तुम्हारी आत्मा है।
तुम उसे खोओगे कैसे? उसे कहीं भूल आने की कोई संभावना ही नहीं है। तुम जहां भी जाओगे, वह तुम्हारे साथ होगा; क्योंकि तुम वही हो। तुम्हारी श्र्वास-श्र्वास में वही बसा है। और तुम्हारी धड़कन-धड़कन में उसी की गूंज है। तुम अच्छे हो तो, तुम बुरे हो तो; और तुम पुण्यात्मा हो तो और तुम पापी हो तो; तुम नरक में जाओ तो भी परमात्मा तुम्हारे भीतर इतना ही होगा; इसमें रत्ती भर फर्क न पड़ेगा; क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही अस्तित्व है। वह तुम्हारी ‘बीइंग’ है, वह तुम्हारा ‘होना’ है। उसे तुम खो नहीं सकते, लेकिन विस्मरण कर सकते हो। तुम भूल सकते हो, कि तुम कौन हो। यही हुआ है। इसलिए सवाल खोज का नहीं है, सिर्फ स्मरण का है।
और कई बार तुम्हें अनुभव हुआ होगा, किसी को देखा है सड़क पर, चेहरा याद आता है, नाम जबान पर अटका है। लगता है कि बिलकुल पहचाना हुआ आदमी है। यह भी लगता है कि नाम यह आया, यह आया। फिर भी नाम आता नहीं; फिर भी पहचान लौटती नहीं, प्रतिभिज्ञा नहीं होती। तुम परेशान हो जाते हो, माथा सिकोड़ लेते हो, पसीना-पसीना हो जाते हो और तुम्हें पता है कि पता है। तुम भलीभांति जान रहे हो कि कंठ में अटका है। दूर भी नहीं है। लोग कहते हैं, जीभ पर रखा है, लेकिन नहीं आता। फिर तुम चले जाते हो अपने बगीचे में--गड्ढा खोदने लगते हो, या अखबार पढ़ने लगते हो, या सिगरेट पीने लगते हो और अचानक वह जो नाम नहीं पकड़ में आ रहा था, बबूले की तरह भीतर से उभर कर आ जाता है। वह याद लौट आती है। क्या हुआ?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तुम जब चेष्टा कर रहे थे, तब तुम सिकुड़ गए। जगह न रही, जिसमें स्मृति लौट आती। जितनी तुमने चेष्टा की, तुम उतने तन गए, उतना तनाव हो गया। उस तनाव के कारण स्मृति को आने की जगह न रही। संकरी हो गई गली। जब तुम भूल गए, अखबार पढ़ने लगे, छोड़ दिया खयाल ही, उसमें गली पुनः राजपथ हो गई; संकरापन चला गया, तनाव न रहा; तुम हलके और शिथिल हो गए--उस शिथिलता में जो छिपा था भीतर,वह बाहर आ गया।
सहज-योग का अर्थ है: परमात्मा को स्मरण करने की चेष्टा भी बाधा बन जाएगी। तो तुम बैठ कर राम-राम, राम-राम, राम-राम जपते रहो। यह राम-राम जपना ही शायद राम से मिलने में दीवाल बन जाए। तुम जप रहे हो, इसका मतलब ही यह है कि तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। अन्यथा जपोगे? वही सब तरफ है, कौन जपेगा? किसको जपेगा? ये शब्द तुम दोहरा रहे हो! उसका कोई नाम है? तुम इतने जोर से पुकार रहे हो कि कबीर ने कहा है कि यह मस्जिद से अजान देने वाला पागल, क्या समझता है कि परमात्मा बहरा हो गया? ‘बहरा हुआ खुदाय?’ इतने जोर से चिल्लाने की क्या जरूरत है? क्या उसके पास कान नहीं हैं? उसके पास कान हैं। तुम चिल्लाओ भी न, तुम बोलो भी न, तुम कहो भी न, तो भी सुन लेगा। वह तुम्हारे हृदय को सुनता है, तुम्हारे भाव को; भाव को--जब कि भाव शब्द भी नहीं बना होता है। भाव जब कि विचार भी नहीं बनता, जब भाव की तरंग ही रहती है, और शब्दों के जगत में कोई आकार नहीं आता--उसे भी सुन लेता है। तो इतने जोर से चिल्लाने की क्या जरूरत है? तुम राम-राम रटे जा रहे हो, इससे तुम्हारा मन और संकरा हो जाएगा।
पुकारने से कोई कभी उस तक नहीं पहुंचा। शांत हो जाने से। यह चिल्लाना व्यस्तता है। इससे तुम भर जाओगे। खाली हो जाने से कोई उस तक पहुंचता है। जब तुम्हारी गगरी बिलकुल खाली होती है, जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे होते, तब अचानक स्मृति लौटती है, सुरति आती है।
सहज-योग का अर्थ है कि कुछ करना नहीं है, उसे पाने को--वह मिला ही हुआ है। तुम वही हो, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो। मंजिल कहीं दूर होती, तो खोज लेते। तुम मंजिल पर ही खड़े हो। तुम्हारे पैर के नीचे ही खजाना गड़ा है।
सुना है मैंने, एक राजपथ पर एक आदमी वर्षों तक भिक्षा मांगता रहा। फिर मरा। कौड़ी-कौड़ी इकट्ठी करता रहा। और जब मरा तो पड़ोस के लोगों ने सोचा कि बीस-तीस वर्ष तक यह गंदा भिखारी इस जगह पर बैठा रहा--चीथड़े रखे हुए। इन सबको आग लगा दो, सफाई करो। कोई और समझदार था, उसने कहा कि इतने से काम न होगा। इसने यह जमीन का टुकड़ा भी गंदा कर दिया है। थोड़ी मिट्टी भी यहां से खोद कर फेंक दो। जब मिट्टी खोदी, तो लोग हैरान हो गए! वहां खजाना गड़ा था! वहां हीरे-जवाहरातों से भरी हुई हंडियां गड़ी थीं! सारा गांव कहने लगा: यह भिखारी भी कैसा पागल था! इस मूर्ख को इतना खयाल न आया कि जरा नीचे खोद कर देखे!
लेकिन हम सभी ऐसे भिखारी हैं। हम सभी ऐसे मूर्ख हैं। जब हम मरेंगे, तब दूसरों को शायद पता भी चल जाए कि जहां हम खड़े थे, वहीं खजाना गड़ा था। लेकिन हमें पता नहीं चलता। उसके कारण हैं; क्योंकि जहां हम खड़े होते हैं, वहां हम कभी देखते ही नहीं। आंखें दूर जाती हैं। वहां तो आंखें कभी भी नहीं खोजतीं--जहां हम होते हैं।
मन सदा दूर जाता है, पास तो मन आता नहीं। जगह चाहिए, मन की यात्रा के लिए। स्पेस चाहिए। तो परमात्मा को हम रखते हैं--सातवें आसमान पर; ताकि खोज की सुविधा रहे; ताकि मन विचार करे, साधन करे, सत्संग करे, चेष्टा करे, श्रम करे। और परमात्मा वहां है, जहां तुम खड़े हो--इसी समय तुम जहां हो। तुममें और उसमें रत्ती भर का फासला नहीं है। इसलिए कोई भी श्रम, काम का नहीं है। फासला होता, तो हम सेतु बना लेते। ‘वह किनारा’ दूर होता, तो हम कोई न कोई उपाय कर लेते। यही वह किनारा है, इस पर सेतु बन नहीं सकता। सिर्फ तुम्हें जागना होगा।
सहज-समाधि का अर्थ है: जैसे तुम हो, वैसे ही जाग जाना, बिना कुछ किए।
अब हम इन सूत्रों को समझने की कोशिश करें।
मनुष्य-जाति के इतिहास में कबीर के इन सूत्रों का कोई मुकाबला नहीं है। इनसे सरल और सीधे, इनसे स्पष्ट और साफ पृथ्वी पर कभी वचन नहीं बोले गए हैं। तो दुर्भाग्य की बात है कि कबीर भारत के बाहर न के बराबर परिचित हैं। अन्यथा झेन फकीर फीके पड़ जाएं; हसीद फकीरों का नाम लोग भूल जाएं; सूफियों की क्या बिसात है! कबीर का एक-एक वचन जैसे हजारों शास्त्रों का सार है। गीता होगी कितनी ही कीमती, लेकिन कबीर के एक शब्द में समा जाए। पर कबीर अपरिचित क्यों रह गए हैं? उसके कई कारण हैं।
एक तो कबीर बेपढ़े-लिखे हैं, पंडित नहीं हैं। इसलिए पंडितों ने उनकी फिकर नहीं की। पंडितों ने उनको हमेशा जमात के बाहर रखा--अछूत। कबीर जो भाषा बोलते हैं, वह गांव के गंवार की है। बड़ी ताजी है, जैसे कि गांव के गंवार की भाषा होती है। बासी नहीं है। पंडित की भाषा तो सदा बासी होती है। कितनी ही चमकदार हो, लेकिन भीतर मुर्दा होती है। परिष्कृत भला हो, जीवंत नहीं होती। अलंकृत होती है, लेकिन जीवंत नहीं होती; उसमें चारों तरफ आभूषण होते हैं, लेकिन भीतर आत्मा नहीं होती। कबीर तो गांव के गंवार हैं। शब्द उनके अनगढ़ पत्थर की भांति हैं। गढ़े हुए पत्थर को तो कोई भी पहचान ले, उसके लिए कोई बड़े पारखी की जरूरत नहीं है। अनगढ़ हीरे को पहचानने के लिए तो बड़ा गहरा पारखी चाहिए।
कबीर अनगढ़ हीरा हैं--सीधे खदान से निकले। अभी मुंबई के जौहरियों ने उन पर काम नहीं किया। अभी उनको निखारा नहीं, साफ नहीं किया। अभी कोहनूर सीधा गोलकुंडा से आया है। उसे पहचानना मुश्किल है। शायद आपको गोलकुंडा के कोहनूर की कहानी पता हो या न हो। जिस आदमी को मिला, वह उसे एक साल तक अपने घर में रखे रहा। बच्चे उससे खेलते रहे; क्योंकि वह समझा कि कोई रंगीन पत्थर है।
कबीर कोहनूर हीरा हैं। पर सम्राटों के ताज तक पहुंचने के लिए निखार होना जरूरी है--छैनी-हथौड़ी पड़ेगी, काटे जाएंगे। वह नहीं हुआ। और अच्छा ही हुआ, कि नहीं हुआ। क्योंकि जितनी चमक आती है, उतने प्राण खो जाते हैं। इसलिए कबीर पहचाने नहीं गए। पंडितों ने उनकी चिंता नहीं की। और पंडित उनकी चिंता करेंगे भी नहीं, क्योंकि कबीर पंडितों के इतने खिलाफ हैं। कबीर के लिए ‘पंडित’ और ‘मूर्ख’ एक ही अर्थ रखते हैं।
कबीर कहते हैं:
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
कोई वेद पढ़ने से पंडित नहीं होता। बस, प्रेम के ढाई अक्षर जो पढ़ ले, वह पंडित हो जाता है। कोई शास्त्र के जानने से पंडित नहीं होता, जो प्रज्ञावान हो जाए, वह पंडित हो जाता है।
जिनको हम पंडित की तरह जानते हैं, वे तो मूढ़ हैं। उनकी मूढ़ता शब्दों में छिप गई है। उनकी मूढ़ता, शास्त्रों से अलंकृत है। उनकी मूढ़ता में वस्त्र हैं--रंगीन। लेकिन भीतर मूढ़ता है और गहन अंधकार है। तो पंडित कबीर में बहुत रस ले नहीं सकते।
फिर कबीर के जो वचन हैं, वे कोई सिद्धांत नहीं, अनुभव हैं। अनुभव के साथ एक कठिनाई है, उसे समझना मुश्किल है। जब तक कि वह तुम्हारा अनुभव न बन जाए। कबीर को समझना हो तो कबीर ही होना पड़े इससे पहले समझ में नहीं आएगा। इसके पहले तो बेबूझ मालूम पड़ेंगे। इसलिए लोगों ने कहा: कबीर की बातें तो उलटी-सुलटी हैं।
कबीर के वचनों को लोगों ने उलटबांसी का नाम दे दिया। कबीर की भाषा का अलग ही नाम रखना पड़ा--सधुक्कड़ी। कोई सुसंस्कृत भाषा नहीं है कबीर की; अलग ही नाम देना पड़ा--सधुक्कड़ी--साधुओं की अनर्गल, बेतुकी बातें; जिनमें न कोई तर्क है, न संगति।
कबीर को जानना हो तो शब्द से तो पहचाना नहीं जा सकता, अनुभव से ही पहचाना जा सकता है। कितने कम लोग हैं पृथ्वी पर जो अनुभव से पहचानेंगे!
इसलिए कबीर की बात दूर तक नहीं पहुंची। बुद्ध का नाम पहुंच सका।
बुद्ध भी अनुभव की बात बोल रहे हैं, लेकिन राजपुत्र हैं। बात अनुभव की है, लेकिन बड़ी सुसंस्कृत भाषा में है। पंडित भी उसका स्वाद ले सकता है।
महावीर का अनुभव भी वही है। लेकिन महावीर भी राजपुत्र हैं। जो श्रेष्ठतम शिक्षा-संस्कृति उपलब्ध थी, वह उन्हें उपलब्ध है। वे पंडित के तर्क, संगति, विचार, सिद्धांत सबको तृप्त कर सकते हैं।
कबीर के शब्द तो लट्ठ की तरह सिर पर पड़ते हैं। जो मिटने को ही राजी हो, वही उनको झेलने को राजी होगा।
कबीर ने कहा है:
जो घर बारै आपना, चले हमारे संग।
जो अपना घर जलाने को तैयार हो, वह हमारे साथ हो जाए। इससे कम में वे राजी नहीं हैं। पर अगर प्रेम से कोई, और प्रार्थनापूर्ण भाव से कोई, उनके शब्दों में देखे, तो मनुष्य ने जो भी श्रेष्ठतम जाना है, उसका सब सार वहां है। उनके शब्दों को समझें। एक-एक शब्द बहुमूल्य है।
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा,...
लोग मंदिर में जाते हैं, परिक्रमा करने। मूर्ति रखी है मंदिर में, उसके चारों तरफ डोल कर वे सोचते हैं--परमात्मा की परिक्रमा कर रहे हैं। परमात्मा इतना छोटा है, जिसकी तुम परिक्रमा कर सको? जिसे तुम घेर लो? जिसकी तुम परिभाषा कर सको? जिसके चारों तरफ तुम घूम आओ? कबीर कहेंगे, यह अपमान हुआ। तुम समझे ही न कि परमात्मा तुमसे बड़ा है। तुम कैसे उसकी परिक्रमा करोगे? तुम कुछ भी करो, तुम परमात्मा की परिक्रमा कैसे कर पाओगे? इसलिए कबीर किसी मंदिर नहीं जाते, किसी मस्जिद नहीं जाते। वे कहते हैं: ‘जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा।’ जहां भी जाता हूं, उसी की परिक्रमा होती है। और परिक्रमा अंतहीन है। यह पूरी भी नहीं होगी, क्योंकि पूरी तो तभी हो सकती है, जब मैं उससे बड़ा होऊं, मैं उसे घेर लूं।
एक बड़ी मीठी कथा है। शिव के दो पुत्र हैं: कार्तिक और गणेश। और शिव उनके साथ खेल रहे हैं। और शिव ने कहा: एक काम करो, तुम दोनों जाओ और विश्र्व की परिक्रमा कर आओ। जो पहले आएगा, वह पुरस्कृत होगा। कार्तिक होशियार है, दुनियादार है; निकल पड़ा तेजी से। फिर वह एक क्षण रुका नहीं। गणेश खड़े ही रहे। एक तो शरीर से स्थूल हैं, इतनी तेजी बरत भी नहीं सकते। शिव ने कहा: तुम खड़े क्या हो? कार्तिक जा भी चुका और जल्दी ही लौट आएगा। गणेश ने एक परिक्रमा शिव की लगा ली। और कहा: मैं आ गया। और गणेश जीते।
परिक्रमा, परमात्मा की--एक भाव है, कोई बाह्य जगत का तथ्य नहीं। कार्तिक चूक गया। वह सच में ही विश्र्व का परिभ्रमण करने निकल पड़ा। एक भाव-दशा है। कबीर कह रहे हैं: ‘जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा।’ एक भाव है, एक प्रार्थनापूर्ण हृदय है। तो जहां भी डोल रहा हूं, वह उसकी ही परिक्रमा है। जो भी कर रहा हूं, वह उसका ही काम है।
सहज-योग का यह पहला आधार होगा कि तुम्हारा चौबीस घंटे का जीवन परिक्रमा हो जाए। खंड-खंड हो भी तो नहीं सकता, लेकिन हमने खंड-खंड किए हैं। हम बड़े होशियार हैं। सुबह जाकर हम प्रार्थना कर आते हैं, फिर दुकान चला लेते हैं; धन कमा लेते हैं, उसी में थोड़ा दान करके धर्म भी कमा लेते हैं। जैसे जीवन को हमने कई हिस्सों में बांट रखा है और सब हिस्से अलग-अलग हैं।
जब एक आदमी मंदिर में जाता है, तब उसका चेहरा देखो, वह अलग आदमी है। वही आदमी बाजार में मिल जाए, तो उसका चेहरा अलग है। वह वही आदमी नहीं है। यह दूसरा ही खंड है। लेकिन जीवन क्या बांटा जा सकता है? जीवन तो अविभाज्य है।
प्रार्थना या तो होगी--तो चौबीस घंटे चलेगी--या नहीं होगी। घंटे भर नहीं हो सकती। ऐसा तो नहीं हो सकता कि गंगा सिर्फ काशी में बहे, प्रयाग में बहे और बाकी समय न बहे--तो प्रयाग तक पहुंचेगी कैसे? तुम मंदिर में जाकर प्रार्थनापूर्ण हो जाओ और मंदिर के बाहर एक क्षण पहले तुम प्रार्थनापूर्ण नहीं थे, तो मंदिर के भीतर जाकर अचानक प्रार्थना की गंगा बहने कैसे लगेगी? तुम अनहोना चमत्कार कर रहे हो। द्वार तक तुम साधारण दुकानदार थे, द्वार के भीतर तुम प्रविष्ट हुए, कि तुम भक्त हो गए। और फिर तुम मंदिर के बाहर निकलते से ही दुकानदार हो जाओगे। तुमने मंदिर में धोखा दिया। क्योंकि तुम्हारे तेईस घंटे ही सच होंगे, तुम्हारा एक घंटा सच नहीं हो सकता।
तेईस घंटे तुम बेईमान हो, झूठ बोल रहे हो, चोरी कर रहे हो, धोखा दे रहे हो और एक घंटे के लिए तुम एकदम सरल हो गए! सरलता कोई खेल है? कि तुमने जब चाहा, तब सम्हाल लिया। असंभव है। लेकिन हम होशियार हैं, चालाक हैं। हम दोनों लोक एक साथ सम्हाल लेना चाहते हैं। हम कहते हैं: थोड़ा सा समय परमात्मा को भी दिया, ताकि दोनों नावों पर पैर रहें।
कबीर कहते हैं: ‘यह असंभव है, धार्मिक आदमी या तो धार्मिक होता है या नहीं होता है।’ तुम यह मत सोचना कि दस परसेंट धार्मिक और बीस परसेंट धार्मिक और आधा घंटा धार्मिक कि एक घंटा धार्मिक। यह असंभव है। जैसे तुम श्र्वास लेते हो, तो चौबीस घंटे--चाहे तुम सोओ, चाहे तुम जागो, चाहे तुम होश में, चाहे तुम बेहोश। कबीर कहते हैं: जब परिक्रमा श्र्वास जैसी हो जाए--तुम जहां-जहां डोलो वहीं-वहीं--भाव परिक्रमा का बना रहे। तुम जिसके पास से भी गुजरो, वहीं परमात्मा दिखाई पड़े। वह चाहे मंदिर हो, चाहे मस्जिद, चाहे सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर हो, चाहे वेश्या का घर हो; लेकिन तुम्हें परमात्मा ही दिखाई पड़े। तुम्हारी परिक्रमा जारी रहे।
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करौं सो सेवा।
अविभाज्य जीवन का सूत्र है कि तुम उसे बांटो मत। तुम यह मत कहो कि ‘यह’ सेवा है, ‘यह’ काम है; अभी सेवा कर रहा हूं, अब काम करूंगा; अभी प्रेम कर रहा हूं, अब कर्तव्य करूंगा। यह संसार, यह परमात्मा--ऐसा विभाजन मत करो; क्योंकि जहां विभाजन है, वहीं तुम भटक गए, वहीं तुम भूल गए, वहीं द्वैत आ गया। और जहां दो आ गए, वहीं चूक हो गई, वहीं स्मरण भटक गया, वहीं स्मरण खो गया, वहीं सुरति नष्ट हो गई।
जब सोवौं तब करौं दंडवत,...
अलग से--कहते हैं कबीर--क्या दंडवत करनी? अलग से जाकर क्या मंदिर में साष्टांग लेटना? रात जब सोता हूं, तभी दंडवत कर लेता हूं, वही दंडवत है। अलग से और करने का कोई सवाल नहीं। अलग से तो दिखावा हो सकता है। जब थक जाता हूं, और जब सोता हूं--तो दंडवत है।
रात सोते वक्त खयाल रखना। जैसे मंदिर में दंडवत कर रहे हो, ऐसे बिस्तर पर सो जाना। उसी दंडवत के भाव में नींद लग जाए। सुबह उठना, तो परिक्रमा का भाव और जो भी करना...।
कबीर ज्ञानी हो गए--परम ज्ञानी हो गए, फिर भी उन्होंने काम जारी रखा। कपड़ा बुनते थे, बुनते रहे; जुलाहे थे--बने रहे। वही धुनते रहे, तार बुनते रहे। लोग कहते कि अब बंद करो, इसमें क्या सार है? और अब परम ज्ञान को उपलब्ध हुए, अब छोड़ो ये सब। लेकिन कबीर कहते: ‘जो कछु करौं सो सेवा।’ ‘राम’ बाजार में रास्ता देख रहे होंगे कि कबीर कपड़ा बुन कर लाएगा। और मैं नहीं जाऊं कपड़ा लेकर, तो ‘राम’ निराश लौटेंगे। तो कपड़ा बुनते--लेकिन कपड़ा कबीर ने जैसा बुना, किसी ने कभी नहीं बुना। कपड़ा बुनते, तो जैसे भाव बुनते--आनंद से मग्न। जैसे प्रेयसी प्रेमी से मिलने जाती हो, जैसे प्रेमी प्रेयसी से मिलने जाता हो; जैसे बहुत दिन के बाद प्रेमी आता हो और प्रेयसी ने कपड़े तैयार किए हों, कपड़े बुन रही हो। फिर वे भागे हुए बाजार की तरफ जाते और जो भी ग्राहक आता, वह उससे कहते, ‘राम, बड़ी मेहनत से बुना है। खूब चलेगा।’ साधारण दुकानदार कहता कितना ही हो कि बहुत मजबूत है, लेकिन चाहता यही है कि चले बिलकुल न, जल्दी लौट कर आना पड़े। कबीर कहते: ‘बड़ी मेहनत से बुना है। जीवन भर चलेगा। तुम्हारे लिए ही बुना है।’
सारा कृत्य जब सेवा बन जाए, तो फिर धर्म को बांटने की जरूरत नहीं रह जाती। तब तुम्हारे जीवन में एक अविभाज्य, एक अखंड ज्योति जलने लगेगी, जिसके टुकड़े नहीं हैं। और जितने ही तुम्हारी चेतना के टुकड़े हैं, उतने ही तुम मुर्दा हो। जितनी ही तुम्हारी चेतना एक होकर जलेगी, तुम मशाल की तरह हो जाओगे। तुम्हारे जीवन की ज्योति तब अपरंपार होगी, उसकी महिमा का कोई अंत नहीं है।
अभी तुम बुझे-बुझे दीये की भांति हो, क्योंकि तुम इतनी ज्योतियों में जल रहे हो। तुमने इतना बांट रखा है अपने जीवन को--इंच भर यहां, इंच भर वहां। तुम्हारे जीवन में कोई बाढ़ नहीं हो सकती, कोई ओवरफ्लोइंग नहीं हो सकती। तुम प्रेम भी करते हो तो मंदा-मंदा, तुम काम भी करते हो तो फीका-फीका। सब तरफ एक उदासी है। जीवन की ज्योति तो जलती है, जब तुममें अतिरेक होता है। जब इतनी ज्योति होती है कि तुम बांट सको और कम न हो, तुम लुटा सको और तुम्हें ऐसा न लगे कि मैं दीन हो रहा हूं--तभी जीवन में समाधि फलित होती है।
तो समाधि के लिए पहला आधार होगा कि तुम अखंड बनो। तुम धर्म को और संसार को अलग-अलग मत करो। इसलिए कबीर संसार और संन्यास को अलग-अलग नहीं करते। कबीर नहीं कहते कि तुम छोड़ कर भाग जाओ हिमालय। क्योंकि जिसे तुम हिमालय पर पाओगे, वह यहां बाजार में मौजूद था। इससे दूर जाने की जरूरत क्या थी? और जब तुम उसे यहां न पा सके, तो उसे तुम हिमालय पर कैसे पा सकोगे? क्योंकि आंखें तो तुम अपनी ही ले जाओगे। अगर आंखें यहां अंधी थीं, तो हिमालय पर जाकर कैसे तुम देखने वाले हो जाओगे? बाजार में आंखें अंधी थीं, तो हिमालय पर भी अंधी होंगी। और अगर अपनी पत्नी में तुम न देख सके, अपने बेटे में तुम न देख सके, अपने घर में न देख सके, तो किसी मंदिर में और किसी प्रतिमा में तुम न देख पाओगे। देखेगा कौन?
एक सूफी फकीर एक नदी के किनारे लोगों को नाव से पार कराने का काम करता था। दो-चार पैसे मिल जाते थे, उससे उसकी रोजी-रोटी चल जाती थी। एक युवक आया और उसने कहा कि मुझे पार कर दें। लेकिन पहले ही बता दूं, मेरे पास पैसे नहीं हैं और मैं कुछ दे न सकूंगा। उस फकीर ने कहा: एक ही पैसा तो मैं लेता हूं। उस युवक ने कहा: वह भी मेरे पास नहीं है। फकीर जैसा बैठा था, वैसा ही बैठा रहा। उस युवक ने कहा: क्या इरादा नहीं है ले चलने का? फकीर ने कहा: लेकिन जाने से फायदा भी क्या? पैसा तुम्हारे पास यहां भी नहीं है, उस किनारे भी नहीं होगा। करोगे क्या? इससे कोई भेद पड़ने वाला नहीं है। जैसे इस किनारे हो, वैसे ही उस किनारे भी रहोगे। नाहक मुझे तकलीफ दे रहे हो।
तुम्हारे पास अगर आंखें यहां नहीं हैं, तो उस किनारे पर भी आंखें नहीं होंगी। तुम अगर गृहस्थ होकर अंधे हो, तुम संन्यासी होकर भी अंधे रहोगे। इसलिए असली सवाल स्थान बदलना नहीं है, असली सवाल दृष्टि बदलना है। तुम्हारी आंखें खुल जाएं, तो तुम जहां हो, वहीं हिमालय है; तुम जहां हो, वहीं एकांत--अकेलापन है; ठेठ बाजार में सन्नाटा है। नहीं तो हिमालय पर भी बड़ा शोरगुल रहेगा। तुम्हारा मन तो शोरगुल साथ ले जाएगा। एक बात पक्की है कि तुम कहीं भी जाओ, तुम अपने को तो साथ ले ही जाओगे। अपने को कैसे पीछे छोड़ कर भाग सकोगे? कोई अपने से भागने का रास्ता नहीं है।
तो कबीर संसार और संन्यास को एक ही मानते हैं। कबीर कहते हैं: यहीं संन्यास है, यहीं संसार है। और संन्यास और संसार दो परिस्थितियां नहीं हैं, देखने के दो ढंग हैं। देखने की कला आ जाए, तो सभी जगह संन्यास है। देखने की कला न आए, तो सभी जगह संसार है।
तुम जाओ आश्रमों में, जाओ संन्यासियों की दुनिया में, वहां भी तुम संसार पाओगे। संसार से भागना मुश्किल है। संसार के बाहर कोई जगह हो भी नहीं सकती। सब वही चलेगा; छोटे रूप में, बड़े रूप में--वही चलेगा। मात्रा का भेद होगा, लेकिन गुण का कोई अंतर नहीं हो सकता। आखिर आश्रम में भी भोजन तो करना ही होगा। आश्रम में भी भोजन तो कमाना ही होगा। आश्रम में भी तो लोग होंगे, उनके साथ जीना होगा; संबंध होंगे, राग बनेगा, क्रोध होगा; प्रेम होगा, घृणा होगी; सब होगा। सारा संसार वहां पहुंच जाएगा। जिसे तुम सामने के दरवाजे से छोड़ कर भागे थे, वह पीछे के दरवाजे से प्रवेश कर जाएगा।
कबीर कहते हैं:
जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।
किसी और देव की मैं पूजा नहीं करता। किसी और देव की पूजा का अर्थ ही यह है कि तुम संसार में देव और अदेव का भेद कर रहे हो। राम का नाम स्मरण करने का अर्थ ही यह है कि और नाम उसके नाम नहीं हैं। मंदिर अलग बनाने का अर्थ ही यह है कि सारा संसार मंदिर नहीं हो सकता। उसकी प्रतिमा को रूप देने का अर्थ ही यह हुआ कि यही रूप उसका है, बाकी रूप किसी और के हैं।
कबीर कहते हैं: ‘पूजौं और न देवा।’ किसी और देवता की पूजा का कोई सवाल नहीं है, क्योंकि अकेला वही है। उसके अतिरिक्त कोई भी नहीं है। पूजा भी कौन करे और किसकी करे?
बायजीद बूढ़ा हो गया। निरंतर मस्जिद जाता था। कभी चूका नहीं। दिन की पांच नमाज पूरी करता था। लोग इतने आदी हो गए थे--बायजीद को मस्जिद में देखने के कि कोई कभी सोचता ही नहीं था कि ऐसा भी कोई दिन आएगा कि बायजीद मस्जिद में नहीं होगा। वर्षों से, चालीस-पचास साल से हर वक्त--बुखार चढ़ा हो, बीमार हो, तकलीफ हो, वर्षा हो रही हो, धूप हो--बायजीद पांच नमाज पूरी करता था। एक दिन अचानक सुबह मस्जिद में लोगों ने देखा, बायजीद नहीं आया है। बात साफ थी कि मर गया; क्योंकि और तो कोई कारण ही नहीं हो सकता। मस्जिद से भागे, उसके झोपड़े पर पहुंचे। वह अपने झोपड़े के सामने, वृक्ष के नीचे बैठ कर खंजड़ी बजा रहा था। लोगों ने पूछा: ‘क्या बुढ़ापे में भ्रष्ट हो गए? जीवन भर की पूजा, यह क्या कर रहे हो? अब आखिरी दिनों में परमात्मा से संबंध छोड़ रहे हो? क्या भूल गए, पांच नमाज पूरी करनी हैं? बायजीद बोला कि अब तक नाहक भटकते रहे। जो यहीं मौजूद था, उसको हम वहां खोजने आते थे। अब हम मस्जिद न आएंगे। अब जहां हम जाएंगे, मस्जिद हमारे साथ रहेगी।
शायद ही गांव के लोग समझे हों।
‘पूजौं और न देवा।’ तब तुम स्वयं ही मंदिर हो। तब भक्त और भगवान का भी फासला न रहा। तब पूजा करने वाले का और पूज्य का भी अंतर न रहा। तब तुम्हारे होने का ढंग ही ऐसा होगा कि वह पूजा होगी। तुम्हारा उठना-बैठना पूजा होगी; तुम्हारा चलना-फिरना पूजा होगी। तुम श्र्वास भी लोगे तो पूजा का भाव होगा।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
कहौं सो नाम...
जो बोलता हूं, वह उसी का नाम है; जो भी शब्द बोलता हूं, वह उसी का नाम है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, इसलिए सभी रूप उसके हैं।
...सुनौं सो सुमिरन,...
और जो भी सुन लेता हूं, वह उसी की याद है। कठिन है खयाल में लेना, लेकिन एक दफा खयाल में आ जाए, तो इससे सरल कुछ भी नहीं है।
पक्षी गाता है वृक्ष पर, सुमिरन करने की और कोई जरूरत है? पक्षी का गीत उसका ही गीत है। हवाएं गुजरती हैं वृक्ष में, पत्ते हिलते हैं, आवाज होती है--हवाएं हैं उसकी, वृक्ष हैं उसके, आवाज है उसकी, अलग से शोरगुल करने की जरूरत क्या है? एक बच्चा हंसता है, एक बच्चा रोने लगता है। रोना भी उसका है, हंसना भी उसका है। सारी आवाजें उसकी हैं। और जो व्यक्ति एक दफा इस भाव को खयाल में ले ले, फिर उसे कोई आवाज बाधा नहीं डाल सकती। वह बीच बाजार में, उसी के सुमिरन से भरा हुआ है। सब आवाजें उसी की हैं। कहीं खरीददार की तरह बोल रहा है, कहीं बेचने वाले की तरह बोल रहा है। कहीं दुकानदार है, कहीं भिखारी है; कहीं मालिक है, कहीं मजदूर है। लेकिन आवाजें सब उसी की हैं। खेल एक का है। लहरें बहुत हैं, सागर एक है।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
रामकृष्ण दक्षिणेश्र्वर में पुजारी नियुक्त हुए, तो बड़ी मुश्किल आई, क्योंकि पूजा के सब नियम तोड़ डाले। रामकृष्ण जैसे आदमी को पुजारी बनाना नहीं चाहिए। ऐेसे लोग पुजारी हो नहीं सकते। क्योंकि रीति-नियम है, मर्यादा है--ऐसे लोग मान नहीं सकते। रामकृष्ण फूल को पहले सूंघते, फिर चढ़ाते। पहले भोग खुद को लगाते, फिर भगवान को लगाते। पता चला कमेटी को। ट्रस्टी बहुत नाराज हुए कि यह बात तो बहुत बेहूदी है! बुलाया रामकृष्ण को कि यह नहीं चलेगा। यह क्या कर रहे हो? ब्राह्मण होकर तुम्हें इतना भी खयाल नहीं। रामकृष्ण ने कहा: ‘सम्हालो नौकरी। मैं अपनी मां को जानता हूं। जब तक वह खुद न चख ले, मुझे नहीं देती। मैं बिना चखे चढ़ाने वाला नहीं। पता नहीं, देने योग्य है भी या नहीं। स्वाद पहले लूंगा, फिर भगवान को चढ़ाऊंगा।’ यह पकड़ में आना मुश्किल है--रीति-नियम से जो जीता है।
लेकिन कबीर इतना भी नहीं करेंगे, जितना रामकृष्ण ने किया। वे चढ़ाएंगे ही नहीं। वे कहते हैं: यहां जिसको चढ़ा रहे हैं, वह वही है। इस पत्थर की मूर्ति के सामने और रखने का क्या नाटक करना! ‘खावं पियौं सो पूजा।’
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं,...
घर हो कि जंगल--
...एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।
सारी चेष्टा यह है कि दो का भाव मिट जाए। जहां-जहां दो हैं, वहां कबीर एक करके देखने की कोशिश करते हैं। घर और जंगल, संन्यासी और गृहस्थ, धर्म और अधर्म, संसार और मोक्ष--जहां-जहां दो हैं--‘भाव मिटावौं दूजा।’ यह दूजे का भाव मिट जाए, एक को ही देखने लगूं।
कठिन नहीं है ‘एक’ को देखना। असल तो मजा यह है कि तुमने कैसे ‘दो’ देखे, यह चमत्कार है! एक तो है, दो तुमने देखे हैं। इसलिए एक को देखना, कोई चेष्टा की बात नहीं है।
कैसे तुमने ‘दो’ देखे हैं? जैसे कोई नशा कर लेता है, तो उसे एक के दो दिखाई पड़ने लगते हैं। होश में आ जाने से फिर एक दिखाई पड़ने लगता है। आंखें डांवाडोल हो जाती हैं नशे में--संतुलन खो जाता है। उस संतुलन की डगमगाई हुई हालत में, तुम्हें चीजें ज्यादा दिखाई पड़ती हैं। जैसे ही संतुलन वापस लौटता है, भीतर की कंपन की, लहरों की स्थिति विलीन हो जाती है। तुम थिर हो जाते हो--बाहर एक दिखाई पड़ने लगता है।
बाहर ‘दो’ दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि भीतर तुम डगमगा रहे हो, कंप रहे हो। जैसे कि कोई दर्पण हो और कंप रहा हो। तुम ‘एक’ सामने खड़े हो और बहुत सी छवियां दिखाई पड़ रही हैं। जैसे रात पूनम का चांद निकला हो और तुमने एक पत्थर झील पर फेंक दिया हो और झील की सतह कंप रही हो, चांद हजार टुकड़ों में टूट जाता है। फिर धीरे-धीरे-धीरे लहरें शांत होने लगती हैं। हजार टुकड़े सौ रह जाते हैं, सौ टुकड़े दस रह जाते हैं। लहरें जैसे-जैसे खोने लगती हैं, वैसे-वैसे टुकड़े खोने लगते हैं। जब झील फिर शांत हो जाती है, एक चांद रह जाता है।
मन जब तक कंपता है तब तक ‘दो’, मन जब निष्कंप हो जाता है तब ‘एक।’
एक तो है--दो तुमने किए हैं। इसलिए एक को वापस लौटा लेना बहुत कठिन न होगा। सिर्फ समझ चाहिए, सिर्फ थोड़ा सा होश चाहिए और थोड़ा--निष्कंप। जब भी कहीं देखो, तो कंपते हुए मत देखो। जब भी कुछ देखो, तो विचार के साथ मत देखो; क्योंकि विचार कंपन है, वह लहर है। निर्विचार देखो; अचानक तुम्हें ‘एक’ दिखाई पड़ेगा। अगर तुम निर्विचार होकर गृहस्थ को और संन्यासी को देख लो, तो तुम पाओगे--दोनों एक हैं। अगर तुम निर्विचार होकर पदार्थ को और परमात्मा को देख लो, तो तुम पाओगे--दोनों एक हैं। जो भी निर्विचार होकर देखेगा, वह ‘एक’ को ही देख पाएगा। एक का अनुभव निर्विचार का अनुभव है।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
बड़ा अदभुत वचन है।
आंख न मूंदौं, कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
इंद्रियों को तोड़ने-मरोड़ने से कुछ भी न होगा। लोगों ने आंखें फोड़ ली हैं--इस भय से कि आंखों के कारण रूप आकर्षित करता है, कि स्त्री मोहित कर लेती है, कि पुरुष निमंत्रण बन जाता है। आंख ही न होगी, तो न दिखेगा रूप, न होगा आकर्षण, न जगेगी वासना। तर्क बिलकुल गलत है।
आंख बंद करके देखो। फोड़ने तक जाने की जरूरत नहीं है। आंख बंद करने से रूप खोता नहीं है और भी मधुर और प्रीतिकर हो जाता है। कोई स्त्री इतनी सुंदर नहीं है, जितनी आंख बंद करके दिखाई पड़ती है। कोई पुरुष इतना आकर्षक नहीं है, जितना तुम्हारे सपनों में रंगीन हो जाता है। तुम रंग देते हो, तुम रूप देते हो; तुम्हारी वासना रंगती है, सौंदर्य का निर्माण करती है। सुंदर तुम्हें चीजें दिखाई पड़ती हैं--आंखों के कारण नहीं--तुम्हारी आंखों के माध्यम से तुम्हारी वासना उन पर आरोपित हो रही है। पूरे समय तुम अपनी वासना उंड़ेल रहे हो।
कभी तुमने खयाल किया--वही चीज जो कल सुंदर मालूम पड़ती थी, आज असुंदर मालूम पड़ने लगती है--अगर वासना चली गई। कल तुम पागल थे; आज कुछ अर्थ न रहा। क्या फर्क पड़ गया? चीज वही की वही है; व्यक्ति वही का वही है। इतना फर्क पड़ गया है कि अब तुम अपनी वासना उस पर नहीं डाल रहे हो। परदा वही है, लेकिन प्रोजेक्टर बंद है। अब तुम उस पर कोई चित्र नहीं फेंक रहे हो।
सारा सौंदर्य, सारा रूप, तुम्हारे मन की निर्मिति है। और मन आंखों के पीछे छिपा है, आंख फोड़ने से क्या होगा? अंधे भी वासना से पीड़ित होते हैं--शायद तुमसे ज्यादा पीड़ित होते हैं, क्योंकि कुछ कर भी नहीं सकते, खोज भी नहीं सकते; वासना को तृप्त करने का उपाय भी थोड़ा कठिन है। लंगड़े दौड़ने की वासना से पीड़ित नहीं होते? महत्वाकांक्षा नहीं जगती? मनोवैज्ञानिक तो उलटी ही बात कहते हैं। वे कहते हैं कि लंगड़े के मन में जितनी वासना दौड़ने की जगती है, उतनी स्वस्थ पैर वाले के मन में कभी नहीं जगती। और अंधा देखने को जितना आतुर होता है, उतना आंख वाला कभी आतुर नहीं होता। बहरे की सुनने की आतुरता! तुम क्या मुकाबला करोगे? क्योंकि जो भी अभाव होता है, वह खलता है। जो हमारे पास नहीं होता, उसकी मांग बढ़ती है।
इसलिए कबीर कहते हैं: ‘आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहि धारौं।’ और वे कहते हैं: खुद को कष्ट देने से अगर परमात्मा मिलता होता, तब तो बड़ी आसान बात थी। लेकिन बहुत लोग खुद को कष्ट देकर सोचते हैं कि शायद इस भांति वे परमात्मा को कमाने का सौदा पूरा कर रहे हैं। जैसे कि सिक्के दे रहे हैं वे कष्ट उठा कर। ये लोग रुग्ण हैं। और जिसको मनोविज्ञान इस सदी में जाकर पहचान पाया है, कबीर बहुत पहले पहचान लिए।
कुछ लोग हैं, जो स्वयं को कष्ट देने में रस पाते हैं। उनका चित्त रुग्ण है, पैथालॉजिकल है। जब तक वे अपने को सताएं न, उनको मजा नहीं आता।
दो तरह के लोग हैं दुनिया में। एक, जो दूसरों को सताने में मजा लेते हैं। लेकिन दूसरे को सताना हमेशा खतरे का काम है। क्योंकि दूसरे को भी चुनौती दे रहे हैं आप कि वह इसका प्रतिकार करे। जो कायर और कमजोर हैं, वे भी सताना तो चाहते हैं, लेकिन दूसरे को नहीं सता सकते, क्योंकि दूसरे के साथ झंझट हो जाएगी। वे खुद ही को सताते हैं। तो आक्रामक तरह के लोग दूसरे को सताने में रस लेते हैं और कायर तरह के लोग खुद को सताने में रस लेते हैं। एक तरह के लोग हिंसा में लग जाते हैं और दूसरे तरह के लोग आत्म-हिंसा में लग जाते हैं।
एक आदमी उपवास में पड़ा है, एक आदमी कांटे बिछा कर लेटा हुआ है या एक आदमी दस वर्ष से खड़ा ही हुआ है, वह बैठा नहीं है। उसके पैर हाथी-पांव हो गए हैं, अब झुक भी नहीं सकते। या एक आदमी ने अपनी आंखों की पलकें उखाड़ कर फेंक दी हैं; ताकि नींद न आए, ताकि वह आंख खोले ही रखे। ये जो लोग हैं--मैसोचिस्ट हैं। जिनको मनोविज्ञान कहता है--स्वयं को दुख देने में इनका रस है--आत्म-पीड़क हैं।
कबीर कहते हैं: ‘तनिक कष्ट नहीं धारौं।’ लेकिन मैं अपने को कोई कष्ट नहीं देता। क्योंकि कष्ट देने का कोई सवाल नहीं है। न तो खुद को कष्ट देना है, न दूसरे को कष्ट देना है--वही साधु है। यह बड़ा मुश्किल है मामला।
आपको भी लगता है कि साधु वही है, जो खुद को कष्ट दे। और असाधु वह है, जो दूसरे को कष्ट दे। तो अगर आप साधु को आराम में देखें, तो आपको तकलीफ शुरू हो जाती है कि अरे! साधु होकर यह आदमी आराम से बैठा है। अगर साधु को आप ठीक मकान में रहते देखें, तो तकलीफ शुरू हो जाती है। छाया में बैठे साधु को देख कर आपको बड़ी बेचैनी होती है। क्योंकि असाधु को तो आप भलीभांति जानते हैं, वह आप हैं। आपको असाधु का पता है कि जब तक दूसरे को धूप में न खड़ा कर दो, तब तक आपके चित्त को शांति नहीं मिलती। तो साधु इससे उलटा होना चाहिए, यह आपका तर्क है।
तर्क सीधा है--आप अपने लिए सुख चाहते हैं, दूसरे के लिए दुख चाहते हैं। अगर दूसरे को दुख देकर भी खुद को सुख मिले, तो आप सुख चाहते हैं। सारी दुनिया को दुख मिले, तो कोई चिंता नहीं; आपको सुख मिलना चाहिए, सबको दुख मिले तो भी चलेगा। यह असाधु का भाव है। यह असाधु तभी किसी को साधु मानेगा, जब इससे उलटा कोई काम करके दिखाए। खुद को कष्ट देना शुरू कर दे--साधु हो जाएगा। लेकिन यह तो द्वंद्व का ही हिस्सा हुआ।
इसलिए कबीर को समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि कबीर कहते हैं: ‘तनिक कष्ट नहीं धारौं।’ न तो दूसरे को तकलीफ देता हूं, न खुद को तकलीफ देता हूं। क्योंकि न तो ‘मैं’ हूं, न दूसरा है। वही एक है। तकलीफ किसी को भी दी जाए, उसी को मिलती है। तो न तो दूसरे को भूखा मारना है और न खुद को। न दूसरे को धूप में खड़ा करना है, न खुद को। कष्ट देने की चेष्टा--चाहे दूसरे को, चाहे अपने को--रुग्ण है।
साधु, सुख चाहता है कि सब पर बरसे; और अपने को भी उससे वंचित नहीं करता है, क्योंकि अपने साथ भी यह ज्यादती क्यों? और अपने साथ भी यह पक्षपात क्यों? यह भेद क्यों? साधु की आकांक्षा है कि यह सारा जगत सुख से भर जाए। इसमें किसी को भी दुख न हो। इसमें वह अपने को अलग करके नहीं चलता है। वह इसका हिस्सा है। पर साधु को समझना हमें कठिन है। हमारे असाधु के कारण, हमारी कठिनाई है। इसलिए जब भी हम देखेंगे कि साधु सुख में है, हमारे मन में तत्क्षण खयाल आ जाता है कि ठीक साधु नहीं है। उसे कष्ट में होना ही चाहिए।
एक इटालियन विचारक लेंजा देलवास्तो भारत आया, तो रमण महर्षि को देखने गया--अरुणाचल। वे परम साधु; लेकिन लेंजा देलवास्तो को साधु नहीं मालूम पड़े--बैठे हैं, तकिए से टिके हुए। अक्सर तो वे तकिए से टिके ही रहते थे; बैठे ही रहते थे, बिस्तर पर। वही उनकी जगह थी। लेंजा देलवास्तो दो-चार दिन वहां रहा और उसने अपनी डायरी में लिखा कि ‘ये होंगे सिद्धपुरुष पहुंचे हुए, पर अपने लिए नहीं। यह किस तरह की साधुता?
वहां से, अरुणाचल से, सीधा लेंजा देलवास्तो गया--सेवाग्राम। गांधी से प्रभावित हुआ। तत्क्षण उसने दीक्षा ली और गांधी का साधु हो गया। गांधी ने उसे नाम दिया--शांतिदास। लेंजा देलवास्तो ने लिखा, ‘कि गांधी से मैं प्रभावित हुआ। यह आदमी है।’ मेहनत कर रहा है। चरखा कात रहा है। गरीब के पैर दाब रहा है। कोढ़ी को मालिश कर रहा है। कम से कम भोजन ले रहा है। शरीर हड्डी-हड्डी हो गया है। न कोई तकिया है, न कोई बिस्तर है। यह आदमी साधु है।
लेंजा देलवास्तो बुरा आदमी नहीं है, अच्छा आदमी है; सज्जन है, विचारशील है। लेकिन उसका तर्क...! वह कबीर के पास भी जाता, तो भी तर्क यही होता। सुनता अगर वह कबीर को कहते कि ‘तनिक कष्ट नहीं धारौं।’ लेंजा देलवास्तो कहता, ‘यह अपने काम का नहीं।’ कोई जैन साधु लेंजा देलवास्तो को प्रभावित करता। अगर किसी ने आंख फोड़ ली हो, तो तुम्हें भी प्रभावित करेगा कि इसने कुछ किया। किसी ने कान फोड़ लिए, तुम्हें भी प्रभावित करेगा।
रूस में एक संप्रदाय था ईसाइयों का, जो जननेंद्रिय काट लेते थे। उनका बड़ा प्रभाव था। वे परम साधु थे। क्योंकि तुम्हारे सूरदास जी ने आंखें फोड़ी होंगी, लेकिन जननेंद्रिय काट डालना और भी बड़ी बात है। हजारों की संख्या में थे। और लोग पता लगाते थे कि इस साधु ने जननेंद्रिय काटी कि नहीं। अगर काट ली, तो परम साधु! नहीं काटी, तो क्या पता जीवन में कामवासना चलती हो, भोग चलता हो, कुछ पता नहीं। लेकिन जननेंद्रिय काट डाली तो फिर भोग का कोई कारण नहीं रहा। उपाय नहीं रहा। लेकिन उपाय न रहने से क्या वासना मर जाती है? जननेंद्रिय काटने से क्या चित्त के रोग चले जाते हैं? बढ़ सकते हैं, जाने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि उससे कोई संबंध ही नहीं है।
जननेंद्रिय कामवासना का आधार नहीं है, कामवासना की अभिव्यक्ति का माध्यम है। अभिव्यक्ति के माध्यम को रोकने से कोई कामवासना नहीं रुकती। नल की टोटी को बंद कर देने से कोई पानी का प्रवाह बंद नहीं होता। नल की टोटी तोड़ भी डालो, तो भी कोई पानी का प्रवाह बंद नहीं होता। झरने के ऊपर पत्थर रख दो, तो झरना रुक भला जाए, नष्ट नहीं होता। वासना तुम्हारे भीतर झर रही है।
कबीर कहते हैं:
आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहीं धारौं।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।।
और आंख बंद करने की क्या जरूरत है? क्योंकि सभी रूप उसी के हैं। यह एक बहुत क्रांतिकारी दृष्टि है।
एक सुंदर स्त्री गुजरती है रास्ते से--साधारण साधु का ढंग है कि आंख बंद कर लो। कबीर का ढंग है कि इसमें उसी का रूप देखो--उस एक का ही रूप देखो। कबीर का ढंग महत्वपूर्ण है--सुंदर स्त्री दिखाई ही न पड़े ‘वही’ दिखाई पड़े।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।
पर हमें बड़ी मुश्किल है। फूल में हम देख भी लें। अगर मैं कहूं कि फूल में परमात्मा है, आपको अड़चन नहीं होती। अगर कहूं: एक सुंदर स्त्री को देखते रहें, घबड़ाएं मत, उसमें भी परमात्मा है, तो अड़चन होती है। क्योंकि फूल से वासना का कोई गहरा संबंध नहीं है। स्त्री को देखते ही वासना जगती है। और वासना जब तक प्रार्थना न बन जाए, तब तक स्त्री में परमात्मा दिखाई नहीं पड़ सकता। और जब तक दिखाई न पड़े, तब तक तुम भागो कितने ही रेगिस्तानों में, पहाड़ों पर--कुछ फर्क न पड़ेगा। स्त्री तुम्हारा पीछा करेगी। वह तुम्हारे साथ ही रहेगी। तुम जितने भयभीत होओगे, उतने ही सिकुड़ जाओगे, फैलोगे नहीं। और बिना फैले कभी किसी को ब्रह्म का अनुभव हुआ है? ब्रह्म को जाना है किसी ने?
सिकुड़ा हुआ आदमी अहंकार से भर जाएगा, फैला हुआ आदमी मिटता है। तुम जितने फैल जाओगे, उतना ही अहंकार कम हो जाएगा। तुम जितने सिकुड़ जाओगे, उतना ही ज्यादा हो जाएगा। अहंकार एक तरह का संकुचन है। ब्रह्म-अनुभव एक तरह का विस्तार है।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।
लेकिन साधु को तुम हंसते हुए भी नहीं देख सकते। और अगर सुंदर रूप को निहार के हंस रहा हो, तब तो बहुत कठिन हो जाएगा। तब तो तुम पुलिस को खबर कर दोगे।
लेकिन कबीर कह रहे हैं: रोने की क्या बात है? ये साधु इतने उदास क्यों दिखते हैं? इनका रोना, इनके लंबे चेहरे, इनके चित्त की यह इतनी उदासी, क्या है? वासना प्रफुल्लता नहीं बन रही है, रोग बन रही है। वासना रूपांतरित होकर प्रार्थना नहीं बन रही है, कहीं न कहीं भीतर घाव बन रही है। उस घाव की वजह से चेहरे उदास हैं, उनमें प्रफुल्लता नहीं है।
हम प्रफुल्लता से भी डरते हैं, हंसने से भी डरते हैं। शराबखाने में तो हंसी सुनी जाती है, मंदिर में नहीं। मंदिर में सच में सुनी जानी चाहिए, कि शराबखाने फीके पड़ जाएं। शराबी क्या हंसेगा? उसका हंसना कैसे गहरा हो सकता है? उसका हंसना तो रोने को छिपाने का एक उपाय ही होगा। मंदिर से हंसी उठनी चाहिए, जो कि कंपा दे।
असाधु क्या हंसेगा? वह हंस भी नहीं सकता; उसकी स्थिति हंसने की नहीं है। सिर्फ साधु ही हंस सकता है। लेकिन यह हंसी तभी हो सकती है, जब जीवन एक सहज-योग हो। अगर तुमने जबर्दस्ती की, तो तुम हंसोगे कैसे? अगर तुमने जबर्दस्ती की, तो तुम उदास हो जाओगे। अगर तुमने जबर्दस्ती की, तो तुम्हारा पौधा सूखेगा, जड़ें कटेंगी।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
यह वचन बड़ा प्यारा है। इसे स्मरण रखना।
शबद निरंतर से मन लागा,...
एक शब्द है, उस शब्द का उच्चारण नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो भी हम उच्चारण कर सकते हैं, वह निरंतर नहीं हो सकता। वह पैदा होगा, नष्ट हो जाएगा। हम बोलेंगे, गूंज होगी, खो जाएगी। वह शाश्र्वत नहीं हो सकता, वह सदा नहीं हो सकता। एक ऐसा शब्द भी है, जिसे संतों ने जाना है, जो उच्चारित नहीं किया जा सकता, जो गूंज ही रहा है। उसको उन्होंने ओंकार कहा है। उसी शब्द की वे बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं: तुम बोलना बंद करो, ताकि तुम्हारे भीतर जो शब्द गूंज ही रहा है, वह तुम्हें खयाल में आ जाए।
तुम इतना बोल रहे हो कि उसे सुन नहीं पाते। तुम इतना शोरगुल मचा रहे हो कि परमात्मा की वाणी--जो निरंतर कलकल हो रही है, भीतर उसका नाद चल रहा है--वह तुम्हें सुनाई नहीं पड़ रहा। समाधिस्थ पुरुष को सुनाई पड़ता है--शब्द, जो निरंतर है। उस शब्द का इन शब्दों से कोई अर्थ नहीं, जो हम बोलते हैं।
कबीर, नानक शबद और शबद की ही बात किए चले जाते हैं। उस शब्द से कोई भी संबंध इन शब्दों का नहीं है--जो हम बोलते और सुनते हैं। उस शब्द का उस स्थिति से संबंध है, जब हमारा बोलना बिलकुल शून्य हो जाता है। और भीतर हम सुनते हैं।
जो शब्द हम बोलते हैं, वे तो क्षणिक हैं। जो शब्द हम सुनेंगे, वह शाश्र्वत है। जब हम बिलकुल चुप होंगे, तब वह सुनाई पड़ेगा। परमात्मा से बोलना नहीं है, परमात्मा को सुनना है।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
और जैसे ही उस निरंतर शब्द की गूंज सुनाई पड़नी शुरू होती है, मलिन वासना अपने आप छूट जाती है। उसे छोड़ना नहीं पड़ता, उसका त्याग हो जाता है। क्योंकि इतना अनाहत आनंद गूंजने लगता है, छोटे सुख की मांग कौन करेगा? हीरे-जवाहरात बरस रहे हों, वहां रंगीन कंकड़-पत्थर का हिसाब कौन रखेगा? जहां अमृत झर रहा हो, वहां पानी की पुकार कौन मचाएगा? कौन कहेगा; मुझे पानी के लिए प्यास लगी है।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
‘तारी’ का अर्थ होता है: नींद, झपकी। तारी का अर्थ होता है: तंद्रा।
ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।
लेकिन उठता हूं, बैठता हूं, चलता हूं, लेकिन कोई एक ऐसा नशा लग गया, कोई एक ऐसी मस्ती छा गई, एक ऐसी तारी लग गई कि छूटती नहीं।
परमात्मा शाश्र्वत नशा है, फिर वैसी कोई शराब नहीं। शराब पीओ, चढ़ेगा नशा, उतरेगा। तारी टूटेगी। थोड़ी देर को खुद को भूल जाओगे फिर याद आएगी। लेकिन एक ऐसी तारी भी है कि तुम भूले, तो तुम भूले। फिर तुम्हारी याद तुम्हें कभी भी नहीं आती।
ऊठत बैठत कबहूं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
कह कबीर यह उनमनि रहनी, सो परगट कर गाई।
सुख दुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।।
कह कबीर यह उनमनि रहनी,...
‘उनमनि’ शब्द बड़ा कीमती है। झेन फकीर जिसको ‘नो-माइंड’ कहते हैं, वही इसका अर्थ है। उनमनि--जहां मन नहीं, जहां मन समाप्त हुआ।
कह कबीर यह उनमनि रहनी,...
मन तो समाप्त हो गया, लेकिन रहना जारी है। मन तो गया, लेकिन मैं हूं। नाम तो न रहा, सीमा तो न रही, लेकिन सागर चल रहा है। रूप तो न रहा, लेकिन जीवन अहर्निश बह रहा है।
कह कबीर यह उनमनि रहनी,...
एक ऐसा रहना, जिसमें कोई मन नहीं है। एक ऐसी जीवनचर्या, जो मन से शून्य है।
...सो परगट कर गाई।
और कबीर कह रहे हैं: बस, इसी को गा रहा हूं, इसी को प्रकट कर रहा हूं--यह जो उनमनि रहनी है, यह जो मैंने जाना है, बिना मन के रहने का राज--जिसको वे कह रहे हैं:
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आंख न मूदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहूं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
कह कबीर यह उनमनि रहनि, सो परगट कर गाई।
यह प्रकट रूप से गा दी है। जो जाना--बिना मन के रहने का जो राज है, जो रस, जो नशा, जो मस्ती है, उसे गा दिया है।
सुख दुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।
और कबीर गाने वाला अब है नहीं, सिर्फ गीत बचा है। क्योंकि कबीर तो वहां समा गया है, जो सुख दुख के ऊपर कोई परमपद है।
या तो हमारे जीवन में सुख है या दुख है। या तो कुछ है, जो हम चाहते हैं और कुछ है, जो हम नहीं चाहते। कुछ है, जिसका हम पीछा करते हैं; कुछ है, जिससे हम बचना चाहते हैं। तब तो मन बचेगा, चुनाव जारी रहेगा। और कबीर कह रहे हैं कि एक ऐसा पद भी है--लेकिन मन के पार है वह पद--जहां न सुख है, न दुख है। उसी को हमने आनंद कहा है।
आनंद जैसा शब्द दुनिया की और भाषाओं में खोजना मुश्किल है। सुख-दुख के पर्यायवाची शब्द मिल जाते हैं। आनंद का अर्थ है: जहां न सुख न दुख।
ध्यान रहे, आनंद का मतलब यह मत समझना कि जहां बहुत सुख है। क्योंकि जहां सुख होगा, वहां दुख भी रहेगा। अगर बहुत सुख होगा, तो बहुत दुख रहेगा। उनका अनुपात सदा समान होता है। गरीब के पास सुख कम होता है, दुख भी कम होता है। अमीर के पास सुख ज्यादा होता है, दुख भी ज्यादा होता है। उनकी मात्रा सदा बराबर रहेगी। वह तो संतुलन है, वे बराबर ही होंगे। जैसे साइकिल चलती है, दोनों चाक बराबर होंगे। तुमने एक चाक बड़ा किया, तो दूसरा भी बड़ा करना ही पड़ेगा; नहीं तो गिरोगे। साइकिल चल न पाएगी। सुख दुख दो पहिए हैं, वे सदा बराबर हैं। यही आदमी की मजबूरी है: वह सुख के पहिए को बड़ा करता है, बड़ा हैरान होता है कि दुख का पहिया बड़ा हो गया। उसको यह पता नहीं है कि अगर दुख का पहिया बड़ा न हो, तो तुम गिरोगे, तुम चल ही न पाओगे। इसलिए सुखी आदमी जितना दुखी होता है, उतना दुखी आदमी दुखी नहीं होता। होने का उपाय नहीं है। उसके दोनों पहिए छोटे हैं।
एक गरीब आदमी का सुख भी छोटा है दुख भी छोटा है। अमीर आदमी के दोनों बड़े हैं। इसलिए आज जितना दुख अमरीका में है, उतना दुख भारत में नहीं है। उसका कारण यह मत सोचना कि तुम सुखी हो। उसका कारण यह है कि वहां ज्यादा सुख है, ज्यादा दुख है। यहां न ज्यादा सुख है, न ज्यादा दुख है। दोनों पहिए बराबर हैं। और वह संतुलन जीवन अपने आप बनाता रहता है। लेकिन जहां तक दो हैं, जहां तक दूजा है, दुजाई है, जहां तक दुई है, वहां तक मन है।
‘उनमनि रहनी’ तो तब शुरू होगी, जब मन न रह जाए। तो एक और दशा है, जो आनंद की है।
बुद्ध ने आनंद शब्द का उपयोग नहीं किया, सिर्फ इसीलिए कि आनंद शब्द से सुख की ध्वनि आती है। हम आनंद शब्द के साथ गलत व्यवहार करते रहे हैं। उससे ऐसा लगता है--सुख--महासुख। तो बुद्ध ने शांति शब्द का प्रयोग किया है। जहां दोनों शांत हो गए हैं। उसे आनंद कहो, शांति कहो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन एक बात ध्यान में रखनी जरूरी है: ‘सुख दुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।’ कबीर तो समा गया है वहां। गाने वाला तो नहीं बचा, लेकिन यह गीत गाया जा रहा है। ‘यह उनमनि रहनी,’--यह बिना मन के रहने की जो चर्या है--यह स्वयं एक गीत बन गई है।
इस गीत को समझना हो, तो इन शब्दों को, जो मैंने समझाए, समझना काफी नहीं है। ‘निरंतर शब्द’ को सुनना पड़े। इससे थोड़ा स्वाद पकड़ जाए, बस। इससे थोड़ी भनक पड़ जाए कान में। नींद नहीं टूट जाएगी इससे, लेकिन भनक पड़ जाए, कोई हिला दे और थोड़ा सा खयाल आ जाए, बस, इतना हो सकता है। फिर खोज शुरू होती है।
खोज या तो प्रयत्न बन सकती है। अगर प्रयत्न बन जाए, तो कबीर का सहज-योग न होगा। और या फिर प्रसाद बन सकती है, अनुकंपा बन सकती है। तब तुम खोजोगे जरूर, लेकिन खोज में कोई श्रम न होगा--प्रार्थना होगी, पूजा होगी। लेकिन तुम्हारा पूरा जीवन पूजा जैसा होगा। प्रार्थना होगी, लेकिन अलग से मंदिर और मस्जिद में नहीं, तुम्हारे होने का ढंग प्रार्थनापूर्ण होगा। तुम प्रेयरफुल हो जाओगे। एक भाव-दशा निर्मित होगी और उसी भाव दशा से धीरे-धीरे मन विलीन हो जाएगा।
तुम्हारा कबीर भी जब खो जाए, तभी कबीर को समझने का उपाय है। कबीर जैसा ही होना पड़े। पर यह हो सकता है। क्योंकि तुम जो कर रहे हो, वही असंभव है। और जो कबीर या मैं करने को कह रहा हूं, वही सहज स्वभाव है।
सहज-समाधि का इतना ही अर्थ है: जिसे पाने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है, जिसे तुमने पाया हुआ है। जिसे तुमने कभी खोया नहीं, लेकिन तुम्हें खयाल है कि तुमने खो दिया है। इस खयाल को छोड़ना।
मैं तो तुमसे कहूंगा: तुम इस भांति जीना शुरू कर दो कि कुछ भी खोया नहीं है। तुम इस भांति जीना शुरू कर दो कि सब मिला हुआ है। तुम इस भांति जीना शुरू ही कर दो कि तुम पहुंच गए। और तुम पाओगे कि तुम्हारा जीवन बदलना शुरू हो गया है।
इसमें तुम सोचो भी मत। इसमें तुम विचार भी मत करो। अन्यथा मन समझाएगा कि यह कैसे हो सकता है? मंजिल दूर है। तुम इस भांति जीना शुरू कर दो कि तुम मंजिल पर हो। तुम वहां हो ही, जहां सभी को पहुंचना है। ठीक इससे तुम शुरू करो।
यह बड़ा उलटा मामला है। क्योंकि हम पहले कदम से शुरू करते हैं। और सहज-योग कहता है कि अंतिम कदम से शुरू करो। हम शुरू से शुरू करते हैं--बिगिनिंग फ्रॉम दि बिगिनिंग। और सहज-योग कहता है: अंत से शुरू करो। वहां जहां पहुंचते हो, वहीं से शुरू करो। और मैं तुमसे कहता हूं कि सहज-योग सही है।
अगर कबीर या पतंजलि की सुनना हो तो तुम कबीर की सुनना, पतंजलि की मत। क्योंकि पतंजलि का योग है--असहज योग। साधो, सम्हालो, श्रम करो। हालांकि पतंजलि से भी पहुंच जाते हैं लोग। पर पहुंचने का कारण पतंजलि नहीं हैं। पहुंच जाते हैं इसलिए, कि साधते-साधते इतना थक जाते हैं कि एक दिन छोड़ देते हैं। जिस दिन छोड़ देते हैं, उसी दिन पा लेते हैं।
कबीर कहते हैं: यह तो पहले ही हो सकता था। इसको इतनी दूर चलने की जरूरत न थी। इतने नाक-कान बंद करना, शीर्षासन लगाना। इतना सब करने के बाद ही जब छोड़ना था, इसको हम पहले ही दिन छोड़ दिए। इसको हमने उठाया ही नहीं। इस बोझ को हमने कंधे पर रखा ही नहीं।
पर दो ही रास्ते हैं: कबीर या पतंजलि। अगर मन बहुत जोर मारता हो, तो पतंजलि के साथ थोड़े दिन कशमकश करनी प़ड़े। अगर मन समझ में हो, तो एक इंच कोशिश करने की जरूरत नहीं है। कबीर के साथ तुम अभी और यहीं सिद्ध हो। सिद्ध होना तुम्हारा स्वभाव है।
आज इतना ही।
प्रवचनमाला के आरंभ में कृपापूर्वक हमारे प्रणाम और प्रार्थना स्वीकार करें। संत शिरोमणि कबीर के कुछ प्रसिद्ध पद हैं जो सहज-योग को प्रतिष्ठित करते हैं। क्योंकि आप भी सहज-योग को बहुत महिमा देते हैं। इसलिए हम आपसे कबीर के इन पदों को समझाने का निवेदन करते हैं।
साधो सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन-दिन अधिक चली।।
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
कह कबीर यह उनमनि रहनी, सो परगट करि गाई।
दुख सुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।।
समाधि सहज ही होगी। असहज जो हो, वह समाधि नहीं है। प्रयास और प्रयत्न से जो हो, वह मन के पार न ले जाएगी, क्योंकि सभी प्रयास मन का है। और जिसे मन से पाया है, वह मन के ऊपर नहीं हो सकता। जिसे तुम मेहनत करके पाओगे, वह तुमसे बड़ा नहीं होगा। जिस परमात्मा को ‘तुम’ खोज लोगे, वह परमात्मा तुमसे छोटा होगा। परमात्मा को ‘प्रयास’ से पाने का कोई भी उपाय नहीं है। उसे तो ‘अप्रयास’ में ही पाया जा सकता है।
‘तुम’ उसे न पा सकोगे; तुम मिटो, तो ही उसका पाना हो सकेगा। इसलिए परमात्मा की खोज वस्तुतः परमात्मा में खोने की व्यवस्था है। मन की असफलता जहां हो जाती है, वहां समाधि फलित होती है। जब तक मन सफल होता है, तब तक तो ‘खेल’ जारी है, तब तक तो माया जारी है।
तो पहली तो बात यह समझ लें कि समाधि सहज ही होगी। चेष्टा, प्रयत्न और प्रयास से उसका कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए जिन्होंने उसे पाया है, उन्होंने कहा: प्रसाद से पाया; प्रभु की अनुकंपा से पाया। जब ऐसा कहते हैं संत कि ‘प्रभु की अनुकंपा से पाया’, तो इसका इतना ही अर्थ है कि हमने तो बहुत दौड़-धूप की; जितने हम दौड़े, उतने ही भटके; जितना हमने खोजा, उतना ही खोया; जितना हमने चाहा कि मिल जाए, उतने ही दूर होते चले गए। हमारी सभी चेष्टाएं व्यर्थ गईं। हम हार गए। जहां हार हो जाती है ‘तुम्हारी’, वहीं से परमात्मा की विजय शुरू होती है।
तुम्हारी जीत परमात्मा की हार है। क्योंकि तुम्हारी जीत का अर्थ क्या होगा? तुम्हारी जीत का अर्थ होगा कि--मैं, अहंकार, अस्मिता। तुम जितने जीतोगे, उतनी ही कठिनाई खड़ी होगी। तुम हो, यही तो समस्या है। कैसे वह घड़ी आ जाए कि तुम ‘न’ हो जाओ? तुम्हारे भीतर कोई भी न हो, कोरा सन्नाटा हो। तुम्हारे मंदिर में कोई प्रतिमा न रह जाए; निराकार हो; एक शब्द भी भीतर न गूंजे। ऐसी गहरी चुप्पी लग जाए कि न कोई बोलने वाला हो, न कोई भीतर सुनने वाला हो; उसी क्षण प्रभु का प्रसाद बरसने लगेगा। उसी क्षण तुम तैयार हो। जहां तुम नहीं हो, उसी क्षण तुम तैयार हो।
सभी समाधि सहज होंगी। असहज--समाधि नहीं। लेकिन मन चाहता है जीतना; हारना नहीं। मन ध्यान में भी ‘जीतना’ चाहता है, मन परमात्मा के साथ भी एक संघर्ष कर रहा है; वहां भी विजय चाहता है, वहां भी परमात्मा को मुट्ठी में चाहता है। तुमने धन कमाया, तुमने यश पाया, तुमने प्रतिष्ठा कमाई, अब तुम चाहते हो कि परमात्मा भी तुम्हारी मुट्ठी में हो; तुम कह सको कि परमात्मा को भी कमाया! तुम परमात्मा को भी बैंक-बैलेंस में कहीं जोड़ देना चाहते हो। तुम्हारी तिजोरी जब तक परमात्मा को भी बंद न कर ले, तब तक तुम्हारे अहंकार की तृप्ति नहीं है। इसलिए ज्ञानी कहते हैं, जो पा लेंगे उसे, वे कभी भूल कर न कहेंगे कि हमने पाया। और जो कहते हैं कि हमने पा लिया है, समझना कि अभी बहुत दूर है, क्योंकि दावेदार बचेगा कैसे? दावेदार का होना ही तो बाधा है। तुम जब तक कहोगे ‘मैं’, तब तक उससे मिलन न होगा।
कबीर ने कहा है: जब तक खोजता रहा, तब तक वह न मिला। और जब वह मिला, तब मैंने चौंक कर पाया कि मैं तो मिट चुका हूं। खोजने वाला मिट गया, तब मिला।
खोजत-खोजत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
निकला था खोजने, निकला था पाने; लेकिन खोजते-खोजते खुद ही घिस गया! दौड़ते-दौड़ते खुद ही मिट गया! और कबीर खो गया! जहां कबीर खोया, वहीं उससे मिलन है।
कबीर का दूसरा वचन है, जिसमें कबीर ने कहा है: जब तक मैं खोजता था, तब तक तेरे दर्शन न हुए और अब जब कि मैं बचा नहीं, तो तू मेरे पीछे-पीछे भागा-भागा फिरता है। जब तक मैं तुझे खोजता था, तब तक तेरी गंध न मिली, तब तक तेरा सुराग न मिला; कितने दरवाजे खटखटाए; लेकिन कोई दरवाजा तेरा दरवाजा नहीं था। कितने रास्तों पर तेरी तलाश की, लेकिन कोई रास्ता तेरे घर तक न जाता था! और अब जब कि मैं मिट गया हूं, तो विडंबना, कि तू मेरे पीछे-पीछे घूमता है--‘कहत कबीर-कबीर!’ पहले मैं तुझे पुकारता था, अब तू मुझे पुकारता है। और जब मैं पुकारता था, तब तू नहीं था। और अब तू पुकार रहा है और मैं नहीं हूं।
समझना। तुम्हारा मिलना परमात्मा से कभी भी नहीं होगा। तुम जैसे हो वैसे, परमात्मा से मिलना कभी भी न होगा। जब मिलना होगा, तब तुम, ‘ऐसे’ नहीं होओगे।
तुम जैसे हो, ऐसे ही परमात्मा तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। तुम गिर जाओगे, मिट जाओगे; तुम्हारी राख से ही परमात्मा का मंदिर उठता है। तुम्हारी कब्र पर ही उसका घर है। लेकिन मन चाहता है--जीत। जितना तुम जीतते हो, उतना नशा चढ़ता है--अहंकार का।
एक, परमात्मा ऐसा लगता है कि जीतना कठिन है, इसलिए तुम यह मत सोचना कि अक्सर धार्मिक लोग ही परमात्मा की खोज में निकलते हैं; सौ में से निन्यानबे तो अहंकारी होते हैं, जो परमात्मा की खोज में निकलते हैं; क्योंकि अहंकार हमेशा असंभव की आकांक्षा करता है, और परमात्मा से ज्यादा असंभव क्या है? एवरेस्ट पर चढ़ना कठिन होगा, असंभव तो नहीं है। आखिर हिलेरी और तेनसिंह चढ़ ही गए। चांद पर पहुंचना कठिन होगा, असंभव तो नहीं है। आदमी आखिर चांद पर चल ही गया। मंगल पर भी चलेगा; दूर के तारों पर भी पहुंच जाएगा, लेकिन परमात्मा को पाना एकदम असंभव मालूम होता है। जो पा लेते हैं, वे भी दावा नहीं कर पाते; इतना असंभव है। जो पा लेते हैं, वे भी चुप हो जाते हैं। चांद पर तो जाकर तुम झंडा गाड़ आते हो, परमात्मा पर तुम झंडा न गाड़ सकोगे।
तो अहंकारी का मन परमात्मा को भी जीतना चाहता है। वह सबसे ऊंचा शिखर है, वह सबसे असंभव चोटी है, उस पर भी मैं झंडा गाड़ दूं। उसको भी मैं कह दूं--‘मैंने जीता।’
सौ में से निन्यानबे--धर्म की खोज में गए लोग अहंकारी होते हैं। इसलिए धार्मिक व्यक्तियों में विनम्रता पानी बहुत कठिन है। धार्मिक आदमी अक्सर अहंकारी होगा--भयंकर अहंकारी होगा। संन्यासियों में, साधुओं में विनम्रता खोजनी बड़ी कठिन है। यद्यपि वे निरंतर कहेंगे कि विनम्र बनो, लेकिन वे तुमसे कह रहे हैं, विनम्र बनने को। वे जब तुमसे कह रहे हैं, ‘विनम्र’ बनो, तो वे यह कह रहे हैं कि ‘उनके प्रति विनम्र बनो।’ लेकिन उनके अहंकार का कोई अंत नहीं है। दो साधुओं को मिलाना मुश्किल है; दो साधुओं को साथ बैठाना मुश्किल है; क्योंकि सवाल उठता है, ‘कौन नीचे बैठेगा? कौन ऊपर बैठेगा?’
कलकत्ता में एक सभा में मैं एक दफा निमंत्रित हुआ। एक बड़ा विराट आयोजन था। कोई तीन सौ पंडित, साधु, संन्यासी, महात्मा निमंत्रित थे। और उन्होंने मंच भी बनाया था कि तीन सौ लोग बैठ सकें--मंच पर एक साथ। लेकिन एक-एक व्यक्ति ने बैठ कर व्याख्यान दिया। तीन सौ लोग उस पर इकट्ठे नहीं बैठ सके। मैंने पूछा कि बात क्या है? तो उन्होंने कहा, ‘बड़ी कठिनाई है’। शंकराचार्य कहते हैं कि वे अपने सिंहासन के साथ आएंगे और वे अगर सिंहासन पर बैठते हैं, तो दूसरे संन्यासी कहते हैं कि हम नीचे तख्त पर कैसे बैठ सकते हैं! हम भी उसी ऊंचाई पर बैठेंगे। अब बड़ी मुश्किल है। अगर सबको ऊंचा कर दो, तो वे सब फिर बराबर हो जाते हैं। किसी को ऊंचा छोड़ दो, किसी को नीचा छोड़ दो, तो कष्ट है। यही उपाय मालूम होता है कि एक-एक बैठ कर बोले। उसको जैसे बैठना हो--ऊंचा-नीचा, जहां। सुनने भी कोई दूसरे लोग नहीं आए। जब एक बोला, तब दूसरा सुनने भी नहीं आया। अज्ञानी सुनते हैं, ज्ञानी कहीं सुनने आता है? और जब जानते ही हैं, तो सुनना क्या है? अहंकार प्रबल है।
दुनिया में धर्मों का झगड़ा--धर्मों का झगड़ा नहीं है--अहंकारियों का झगड़ा है। धर्म के नाम पर अहंकारियों का बाजार है--कोई चर्च के नाम पर, कोई मस्जिद के नाम पर, कोई गुरुद्वारे के नाम पर, कोई मंदिर के नाम पर; लेकिन झगड़े अहंकार के हैं। और अहंकार से बड़ी ‘मादकता’ नहीं है।
बड़े से बड़ा काम अहंकार कर सकता है--वह यह कि कहे कि ईश्र्वर को पा लिया। इसलिए इस्लाम में इस तरह के दावेदार को ‘काफिर’ कहा है। कहने में थोड़ी सच्चाई है, क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तो गलत आदमी दावा करता है। कभी सौ में एकाध--कोई मंसूर अलहिल्लाज--कभी कोई सही दावेदार होता है। पर उस एक के लिए निन्यानबे को माफ नहीं किया जा सकता।
यह दावा आता है--श्रम से, चेष्टा से। जब तुम मेहनत करते हो, योग करते हो, आसन करते हो, ध्यान लगाते हो, बड़े कष्ट, तपश्र्चर्या, उपवास, धूप में खड़े होना, रात जागरण करते हो--तो अहंकार मजबूत होता है, नशा बढ़ता है। तुम्हें लगता है, मैं ‘इतना’ कर रहा हूं। तुम्हारे मन में परमात्मा के प्रति धन्यवाद का भाव नहीं आता, शिकायत का भाव आता है। जितनी होगी चेष्टा, उतनी शिकायत का भाव होगा। क्योंकि लगेगा--मैं ‘इतना’ कर रहा हूं, अभी तक मिलन नहीं हुआ? मैं ‘इतना’ कर रहा हूं, तुम अभी तक दूर बने हो? मैं ‘इतना’ कर रहा हूं और अभी तक मंजिल नहीं आई? तो भीतर एक शिकायत का कीड़ा हृदय को काटेगा। और जितना श्रम बढ़ेगा, उतना अहंकार फैलेगा।
वास्तविक समाधि सहजता से फलित होगी। पर सहजता को समझने के पहले, अहंकार की इस चेष्टा को समझ लेना चाहिए। और जितना नशा हो जाता है अहंकार का...। और ध्यान रहे: अहंकार से बड़ी कोई मादकता नहीं है, उससे बड़ा कोई इंटॉक्सिकेंट नहीं है। फिर तुम अपने होश में नहीं हो, फिर तुम जो भी कहते हो, जो भी बोलते हो, जो भी जीते हो, वह सब होश के बाहर हो जाता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन हमेशा दांत के डॉक्टरों से बचता रहा। हमेशा डरा रहा। लेकिन एक बार मजबूरी इतनी बढ़ गई। पीड़ा इतनी थी दांत में, कि जाना ही पड़ा। गया तो डॉक्टर से उसने कहा कि वर्षों से टाल रहा हूं, अब उस जगह पहुंच गई है बात कि अब और सहा नहीं जा सकता। न सो सकता, न बैठ सकता। दर्द बहुत है; आना ही पड़ा। लेकिन भयभीत हूं। हाथ-पैर मेरे कंप रहे हैं। स्नायु मेरे तने हैं। हृदय मेरा धड़क रहा है। मैं तुमसे बहुत डरता हूं। डॉक्टर दयालु था; उसने कहा, तुम घबड़ाओ मत। भरा हुआ गिलास शराब का नसरुद्दीन को दिया और कहा, ‘यह पी जाओ। एक ही घूंट में नसरुद्दीन उसे पी गया। गर्मी आई। आंखों में सुर्खी आ गई। दर्द भी भूल गया। डॉक्टर ने थोड़ी देर बाद पूछा कि कैसा लग रहा है? भय गया? थोड़ी निर्भयता आई? नसरुद्दीन खड़ा हो गया। छाती फुला कर, उसने कहा, ‘निर्भयता! अब मेरे दांत को हाथ लगाओ तो जानूं। देखें, कौन माई का लाल मेरे दांत को हाथ लगाता है।’
अहंकार बड़ी से बड़ी शराब है और जितना ज्यादा अहंकार बढ़ता जाता है, उतना ही ऐसा मालूम पड़ता है कि तुम्हारी विजय का कोई अंत नहीं है। परमात्मा को भी तुम विजित करके रहोगे। उसे भी जीतोगे।
इस अहंकारी ने बहुत से उपाय खोजे हैं--कैसे परमात्मा को पाना। लेकिन ध्यान रहे, किसी उपाय से कभी किसी ने परमात्मा को पाया नहीं है। जिसने उपाय किया, वह भटका और भूला।
सहज-समाधि का अर्थ है कि परमात्मा तो उपलब्ध ही है; तुम्हारे उपाय की जरूरत नहीं है। तुम कैसे पागल हुए हो! पाना तो उसे पड़ता है, जो मिला न हो। तुम उसे पाने की कोशिश कर रहे हो, जो मिला ही हुआ है। जैसे सागर की कोई मछली सागर की तलाश कर रही हो। जैसे आकाश का कोई पक्षी आकाश को खोजने निकला हो। ऐसे तुम परमात्मा को खोजने निकले हो, यही भ्रांति है। परमात्मा तुम्हारे भीतर प्रतिपल है, तुम्हारे बाहर प्रतिपल है, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस बात को ठीक से समझ लें, तो फिर कबीर की वाणी समझ में आ जाएगी।
पाना नहीं है परमात्मा को, सिर्फ स्मरण करना है। इसलिए कबीर, नानक, दादू एक कीमती शब्द का प्रयोग करते हैं, वह है--‘सुरति, स्मृति, रिमेंबरिंग।’ वे सब कहते हैं, उसे खोया होता तो पाते। उसे खो कैसे सकते हो? क्योंकि परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है--तुम्हारा परम होना है, तुम्हारी आत्मा है।
तुम उसे खोओगे कैसे? उसे कहीं भूल आने की कोई संभावना ही नहीं है। तुम जहां भी जाओगे, वह तुम्हारे साथ होगा; क्योंकि तुम वही हो। तुम्हारी श्र्वास-श्र्वास में वही बसा है। और तुम्हारी धड़कन-धड़कन में उसी की गूंज है। तुम अच्छे हो तो, तुम बुरे हो तो; और तुम पुण्यात्मा हो तो और तुम पापी हो तो; तुम नरक में जाओ तो भी परमात्मा तुम्हारे भीतर इतना ही होगा; इसमें रत्ती भर फर्क न पड़ेगा; क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही अस्तित्व है। वह तुम्हारी ‘बीइंग’ है, वह तुम्हारा ‘होना’ है। उसे तुम खो नहीं सकते, लेकिन विस्मरण कर सकते हो। तुम भूल सकते हो, कि तुम कौन हो। यही हुआ है। इसलिए सवाल खोज का नहीं है, सिर्फ स्मरण का है।
और कई बार तुम्हें अनुभव हुआ होगा, किसी को देखा है सड़क पर, चेहरा याद आता है, नाम जबान पर अटका है। लगता है कि बिलकुल पहचाना हुआ आदमी है। यह भी लगता है कि नाम यह आया, यह आया। फिर भी नाम आता नहीं; फिर भी पहचान लौटती नहीं, प्रतिभिज्ञा नहीं होती। तुम परेशान हो जाते हो, माथा सिकोड़ लेते हो, पसीना-पसीना हो जाते हो और तुम्हें पता है कि पता है। तुम भलीभांति जान रहे हो कि कंठ में अटका है। दूर भी नहीं है। लोग कहते हैं, जीभ पर रखा है, लेकिन नहीं आता। फिर तुम चले जाते हो अपने बगीचे में--गड्ढा खोदने लगते हो, या अखबार पढ़ने लगते हो, या सिगरेट पीने लगते हो और अचानक वह जो नाम नहीं पकड़ में आ रहा था, बबूले की तरह भीतर से उभर कर आ जाता है। वह याद लौट आती है। क्या हुआ?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तुम जब चेष्टा कर रहे थे, तब तुम सिकुड़ गए। जगह न रही, जिसमें स्मृति लौट आती। जितनी तुमने चेष्टा की, तुम उतने तन गए, उतना तनाव हो गया। उस तनाव के कारण स्मृति को आने की जगह न रही। संकरी हो गई गली। जब तुम भूल गए, अखबार पढ़ने लगे, छोड़ दिया खयाल ही, उसमें गली पुनः राजपथ हो गई; संकरापन चला गया, तनाव न रहा; तुम हलके और शिथिल हो गए--उस शिथिलता में जो छिपा था भीतर,वह बाहर आ गया।
सहज-योग का अर्थ है: परमात्मा को स्मरण करने की चेष्टा भी बाधा बन जाएगी। तो तुम बैठ कर राम-राम, राम-राम, राम-राम जपते रहो। यह राम-राम जपना ही शायद राम से मिलने में दीवाल बन जाए। तुम जप रहे हो, इसका मतलब ही यह है कि तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। अन्यथा जपोगे? वही सब तरफ है, कौन जपेगा? किसको जपेगा? ये शब्द तुम दोहरा रहे हो! उसका कोई नाम है? तुम इतने जोर से पुकार रहे हो कि कबीर ने कहा है कि यह मस्जिद से अजान देने वाला पागल, क्या समझता है कि परमात्मा बहरा हो गया? ‘बहरा हुआ खुदाय?’ इतने जोर से चिल्लाने की क्या जरूरत है? क्या उसके पास कान नहीं हैं? उसके पास कान हैं। तुम चिल्लाओ भी न, तुम बोलो भी न, तुम कहो भी न, तो भी सुन लेगा। वह तुम्हारे हृदय को सुनता है, तुम्हारे भाव को; भाव को--जब कि भाव शब्द भी नहीं बना होता है। भाव जब कि विचार भी नहीं बनता, जब भाव की तरंग ही रहती है, और शब्दों के जगत में कोई आकार नहीं आता--उसे भी सुन लेता है। तो इतने जोर से चिल्लाने की क्या जरूरत है? तुम राम-राम रटे जा रहे हो, इससे तुम्हारा मन और संकरा हो जाएगा।
पुकारने से कोई कभी उस तक नहीं पहुंचा। शांत हो जाने से। यह चिल्लाना व्यस्तता है। इससे तुम भर जाओगे। खाली हो जाने से कोई उस तक पहुंचता है। जब तुम्हारी गगरी बिलकुल खाली होती है, जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे होते, तब अचानक स्मृति लौटती है, सुरति आती है।
सहज-योग का अर्थ है कि कुछ करना नहीं है, उसे पाने को--वह मिला ही हुआ है। तुम वही हो, जिसकी तुम तलाश कर रहे हो। मंजिल कहीं दूर होती, तो खोज लेते। तुम मंजिल पर ही खड़े हो। तुम्हारे पैर के नीचे ही खजाना गड़ा है।
सुना है मैंने, एक राजपथ पर एक आदमी वर्षों तक भिक्षा मांगता रहा। फिर मरा। कौड़ी-कौड़ी इकट्ठी करता रहा। और जब मरा तो पड़ोस के लोगों ने सोचा कि बीस-तीस वर्ष तक यह गंदा भिखारी इस जगह पर बैठा रहा--चीथड़े रखे हुए। इन सबको आग लगा दो, सफाई करो। कोई और समझदार था, उसने कहा कि इतने से काम न होगा। इसने यह जमीन का टुकड़ा भी गंदा कर दिया है। थोड़ी मिट्टी भी यहां से खोद कर फेंक दो। जब मिट्टी खोदी, तो लोग हैरान हो गए! वहां खजाना गड़ा था! वहां हीरे-जवाहरातों से भरी हुई हंडियां गड़ी थीं! सारा गांव कहने लगा: यह भिखारी भी कैसा पागल था! इस मूर्ख को इतना खयाल न आया कि जरा नीचे खोद कर देखे!
लेकिन हम सभी ऐसे भिखारी हैं। हम सभी ऐसे मूर्ख हैं। जब हम मरेंगे, तब दूसरों को शायद पता भी चल जाए कि जहां हम खड़े थे, वहीं खजाना गड़ा था। लेकिन हमें पता नहीं चलता। उसके कारण हैं; क्योंकि जहां हम खड़े होते हैं, वहां हम कभी देखते ही नहीं। आंखें दूर जाती हैं। वहां तो आंखें कभी भी नहीं खोजतीं--जहां हम होते हैं।
मन सदा दूर जाता है, पास तो मन आता नहीं। जगह चाहिए, मन की यात्रा के लिए। स्पेस चाहिए। तो परमात्मा को हम रखते हैं--सातवें आसमान पर; ताकि खोज की सुविधा रहे; ताकि मन विचार करे, साधन करे, सत्संग करे, चेष्टा करे, श्रम करे। और परमात्मा वहां है, जहां तुम खड़े हो--इसी समय तुम जहां हो। तुममें और उसमें रत्ती भर का फासला नहीं है। इसलिए कोई भी श्रम, काम का नहीं है। फासला होता, तो हम सेतु बना लेते। ‘वह किनारा’ दूर होता, तो हम कोई न कोई उपाय कर लेते। यही वह किनारा है, इस पर सेतु बन नहीं सकता। सिर्फ तुम्हें जागना होगा।
सहज-समाधि का अर्थ है: जैसे तुम हो, वैसे ही जाग जाना, बिना कुछ किए।
अब हम इन सूत्रों को समझने की कोशिश करें।
मनुष्य-जाति के इतिहास में कबीर के इन सूत्रों का कोई मुकाबला नहीं है। इनसे सरल और सीधे, इनसे स्पष्ट और साफ पृथ्वी पर कभी वचन नहीं बोले गए हैं। तो दुर्भाग्य की बात है कि कबीर भारत के बाहर न के बराबर परिचित हैं। अन्यथा झेन फकीर फीके पड़ जाएं; हसीद फकीरों का नाम लोग भूल जाएं; सूफियों की क्या बिसात है! कबीर का एक-एक वचन जैसे हजारों शास्त्रों का सार है। गीता होगी कितनी ही कीमती, लेकिन कबीर के एक शब्द में समा जाए। पर कबीर अपरिचित क्यों रह गए हैं? उसके कई कारण हैं।
एक तो कबीर बेपढ़े-लिखे हैं, पंडित नहीं हैं। इसलिए पंडितों ने उनकी फिकर नहीं की। पंडितों ने उनको हमेशा जमात के बाहर रखा--अछूत। कबीर जो भाषा बोलते हैं, वह गांव के गंवार की है। बड़ी ताजी है, जैसे कि गांव के गंवार की भाषा होती है। बासी नहीं है। पंडित की भाषा तो सदा बासी होती है। कितनी ही चमकदार हो, लेकिन भीतर मुर्दा होती है। परिष्कृत भला हो, जीवंत नहीं होती। अलंकृत होती है, लेकिन जीवंत नहीं होती; उसमें चारों तरफ आभूषण होते हैं, लेकिन भीतर आत्मा नहीं होती। कबीर तो गांव के गंवार हैं। शब्द उनके अनगढ़ पत्थर की भांति हैं। गढ़े हुए पत्थर को तो कोई भी पहचान ले, उसके लिए कोई बड़े पारखी की जरूरत नहीं है। अनगढ़ हीरे को पहचानने के लिए तो बड़ा गहरा पारखी चाहिए।
कबीर अनगढ़ हीरा हैं--सीधे खदान से निकले। अभी मुंबई के जौहरियों ने उन पर काम नहीं किया। अभी उनको निखारा नहीं, साफ नहीं किया। अभी कोहनूर सीधा गोलकुंडा से आया है। उसे पहचानना मुश्किल है। शायद आपको गोलकुंडा के कोहनूर की कहानी पता हो या न हो। जिस आदमी को मिला, वह उसे एक साल तक अपने घर में रखे रहा। बच्चे उससे खेलते रहे; क्योंकि वह समझा कि कोई रंगीन पत्थर है।
कबीर कोहनूर हीरा हैं। पर सम्राटों के ताज तक पहुंचने के लिए निखार होना जरूरी है--छैनी-हथौड़ी पड़ेगी, काटे जाएंगे। वह नहीं हुआ। और अच्छा ही हुआ, कि नहीं हुआ। क्योंकि जितनी चमक आती है, उतने प्राण खो जाते हैं। इसलिए कबीर पहचाने नहीं गए। पंडितों ने उनकी चिंता नहीं की। और पंडित उनकी चिंता करेंगे भी नहीं, क्योंकि कबीर पंडितों के इतने खिलाफ हैं। कबीर के लिए ‘पंडित’ और ‘मूर्ख’ एक ही अर्थ रखते हैं।
कबीर कहते हैं:
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
कोई वेद पढ़ने से पंडित नहीं होता। बस, प्रेम के ढाई अक्षर जो पढ़ ले, वह पंडित हो जाता है। कोई शास्त्र के जानने से पंडित नहीं होता, जो प्रज्ञावान हो जाए, वह पंडित हो जाता है।
जिनको हम पंडित की तरह जानते हैं, वे तो मूढ़ हैं। उनकी मूढ़ता शब्दों में छिप गई है। उनकी मूढ़ता, शास्त्रों से अलंकृत है। उनकी मूढ़ता में वस्त्र हैं--रंगीन। लेकिन भीतर मूढ़ता है और गहन अंधकार है। तो पंडित कबीर में बहुत रस ले नहीं सकते।
फिर कबीर के जो वचन हैं, वे कोई सिद्धांत नहीं, अनुभव हैं। अनुभव के साथ एक कठिनाई है, उसे समझना मुश्किल है। जब तक कि वह तुम्हारा अनुभव न बन जाए। कबीर को समझना हो तो कबीर ही होना पड़े इससे पहले समझ में नहीं आएगा। इसके पहले तो बेबूझ मालूम पड़ेंगे। इसलिए लोगों ने कहा: कबीर की बातें तो उलटी-सुलटी हैं।
कबीर के वचनों को लोगों ने उलटबांसी का नाम दे दिया। कबीर की भाषा का अलग ही नाम रखना पड़ा--सधुक्कड़ी। कोई सुसंस्कृत भाषा नहीं है कबीर की; अलग ही नाम देना पड़ा--सधुक्कड़ी--साधुओं की अनर्गल, बेतुकी बातें; जिनमें न कोई तर्क है, न संगति।
कबीर को जानना हो तो शब्द से तो पहचाना नहीं जा सकता, अनुभव से ही पहचाना जा सकता है। कितने कम लोग हैं पृथ्वी पर जो अनुभव से पहचानेंगे!
इसलिए कबीर की बात दूर तक नहीं पहुंची। बुद्ध का नाम पहुंच सका।
बुद्ध भी अनुभव की बात बोल रहे हैं, लेकिन राजपुत्र हैं। बात अनुभव की है, लेकिन बड़ी सुसंस्कृत भाषा में है। पंडित भी उसका स्वाद ले सकता है।
महावीर का अनुभव भी वही है। लेकिन महावीर भी राजपुत्र हैं। जो श्रेष्ठतम शिक्षा-संस्कृति उपलब्ध थी, वह उन्हें उपलब्ध है। वे पंडित के तर्क, संगति, विचार, सिद्धांत सबको तृप्त कर सकते हैं।
कबीर के शब्द तो लट्ठ की तरह सिर पर पड़ते हैं। जो मिटने को ही राजी हो, वही उनको झेलने को राजी होगा।
कबीर ने कहा है:
जो घर बारै आपना, चले हमारे संग।
जो अपना घर जलाने को तैयार हो, वह हमारे साथ हो जाए। इससे कम में वे राजी नहीं हैं। पर अगर प्रेम से कोई, और प्रार्थनापूर्ण भाव से कोई, उनके शब्दों में देखे, तो मनुष्य ने जो भी श्रेष्ठतम जाना है, उसका सब सार वहां है। उनके शब्दों को समझें। एक-एक शब्द बहुमूल्य है।
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा,...
लोग मंदिर में जाते हैं, परिक्रमा करने। मूर्ति रखी है मंदिर में, उसके चारों तरफ डोल कर वे सोचते हैं--परमात्मा की परिक्रमा कर रहे हैं। परमात्मा इतना छोटा है, जिसकी तुम परिक्रमा कर सको? जिसे तुम घेर लो? जिसकी तुम परिभाषा कर सको? जिसके चारों तरफ तुम घूम आओ? कबीर कहेंगे, यह अपमान हुआ। तुम समझे ही न कि परमात्मा तुमसे बड़ा है। तुम कैसे उसकी परिक्रमा करोगे? तुम कुछ भी करो, तुम परमात्मा की परिक्रमा कैसे कर पाओगे? इसलिए कबीर किसी मंदिर नहीं जाते, किसी मस्जिद नहीं जाते। वे कहते हैं: ‘जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा।’ जहां भी जाता हूं, उसी की परिक्रमा होती है। और परिक्रमा अंतहीन है। यह पूरी भी नहीं होगी, क्योंकि पूरी तो तभी हो सकती है, जब मैं उससे बड़ा होऊं, मैं उसे घेर लूं।
एक बड़ी मीठी कथा है। शिव के दो पुत्र हैं: कार्तिक और गणेश। और शिव उनके साथ खेल रहे हैं। और शिव ने कहा: एक काम करो, तुम दोनों जाओ और विश्र्व की परिक्रमा कर आओ। जो पहले आएगा, वह पुरस्कृत होगा। कार्तिक होशियार है, दुनियादार है; निकल पड़ा तेजी से। फिर वह एक क्षण रुका नहीं। गणेश खड़े ही रहे। एक तो शरीर से स्थूल हैं, इतनी तेजी बरत भी नहीं सकते। शिव ने कहा: तुम खड़े क्या हो? कार्तिक जा भी चुका और जल्दी ही लौट आएगा। गणेश ने एक परिक्रमा शिव की लगा ली। और कहा: मैं आ गया। और गणेश जीते।
परिक्रमा, परमात्मा की--एक भाव है, कोई बाह्य जगत का तथ्य नहीं। कार्तिक चूक गया। वह सच में ही विश्र्व का परिभ्रमण करने निकल पड़ा। एक भाव-दशा है। कबीर कह रहे हैं: ‘जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा।’ एक भाव है, एक प्रार्थनापूर्ण हृदय है। तो जहां भी डोल रहा हूं, वह उसकी ही परिक्रमा है। जो भी कर रहा हूं, वह उसका ही काम है।
सहज-योग का यह पहला आधार होगा कि तुम्हारा चौबीस घंटे का जीवन परिक्रमा हो जाए। खंड-खंड हो भी तो नहीं सकता, लेकिन हमने खंड-खंड किए हैं। हम बड़े होशियार हैं। सुबह जाकर हम प्रार्थना कर आते हैं, फिर दुकान चला लेते हैं; धन कमा लेते हैं, उसी में थोड़ा दान करके धर्म भी कमा लेते हैं। जैसे जीवन को हमने कई हिस्सों में बांट रखा है और सब हिस्से अलग-अलग हैं।
जब एक आदमी मंदिर में जाता है, तब उसका चेहरा देखो, वह अलग आदमी है। वही आदमी बाजार में मिल जाए, तो उसका चेहरा अलग है। वह वही आदमी नहीं है। यह दूसरा ही खंड है। लेकिन जीवन क्या बांटा जा सकता है? जीवन तो अविभाज्य है।
प्रार्थना या तो होगी--तो चौबीस घंटे चलेगी--या नहीं होगी। घंटे भर नहीं हो सकती। ऐसा तो नहीं हो सकता कि गंगा सिर्फ काशी में बहे, प्रयाग में बहे और बाकी समय न बहे--तो प्रयाग तक पहुंचेगी कैसे? तुम मंदिर में जाकर प्रार्थनापूर्ण हो जाओ और मंदिर के बाहर एक क्षण पहले तुम प्रार्थनापूर्ण नहीं थे, तो मंदिर के भीतर जाकर अचानक प्रार्थना की गंगा बहने कैसे लगेगी? तुम अनहोना चमत्कार कर रहे हो। द्वार तक तुम साधारण दुकानदार थे, द्वार के भीतर तुम प्रविष्ट हुए, कि तुम भक्त हो गए। और फिर तुम मंदिर के बाहर निकलते से ही दुकानदार हो जाओगे। तुमने मंदिर में धोखा दिया। क्योंकि तुम्हारे तेईस घंटे ही सच होंगे, तुम्हारा एक घंटा सच नहीं हो सकता।
तेईस घंटे तुम बेईमान हो, झूठ बोल रहे हो, चोरी कर रहे हो, धोखा दे रहे हो और एक घंटे के लिए तुम एकदम सरल हो गए! सरलता कोई खेल है? कि तुमने जब चाहा, तब सम्हाल लिया। असंभव है। लेकिन हम होशियार हैं, चालाक हैं। हम दोनों लोक एक साथ सम्हाल लेना चाहते हैं। हम कहते हैं: थोड़ा सा समय परमात्मा को भी दिया, ताकि दोनों नावों पर पैर रहें।
कबीर कहते हैं: ‘यह असंभव है, धार्मिक आदमी या तो धार्मिक होता है या नहीं होता है।’ तुम यह मत सोचना कि दस परसेंट धार्मिक और बीस परसेंट धार्मिक और आधा घंटा धार्मिक कि एक घंटा धार्मिक। यह असंभव है। जैसे तुम श्र्वास लेते हो, तो चौबीस घंटे--चाहे तुम सोओ, चाहे तुम जागो, चाहे तुम होश में, चाहे तुम बेहोश। कबीर कहते हैं: जब परिक्रमा श्र्वास जैसी हो जाए--तुम जहां-जहां डोलो वहीं-वहीं--भाव परिक्रमा का बना रहे। तुम जिसके पास से भी गुजरो, वहीं परमात्मा दिखाई पड़े। वह चाहे मंदिर हो, चाहे मस्जिद, चाहे सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर हो, चाहे वेश्या का घर हो; लेकिन तुम्हें परमात्मा ही दिखाई पड़े। तुम्हारी परिक्रमा जारी रहे।
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करौं सो सेवा।
अविभाज्य जीवन का सूत्र है कि तुम उसे बांटो मत। तुम यह मत कहो कि ‘यह’ सेवा है, ‘यह’ काम है; अभी सेवा कर रहा हूं, अब काम करूंगा; अभी प्रेम कर रहा हूं, अब कर्तव्य करूंगा। यह संसार, यह परमात्मा--ऐसा विभाजन मत करो; क्योंकि जहां विभाजन है, वहीं तुम भटक गए, वहीं तुम भूल गए, वहीं द्वैत आ गया। और जहां दो आ गए, वहीं चूक हो गई, वहीं स्मरण भटक गया, वहीं स्मरण खो गया, वहीं सुरति नष्ट हो गई।
जब सोवौं तब करौं दंडवत,...
अलग से--कहते हैं कबीर--क्या दंडवत करनी? अलग से जाकर क्या मंदिर में साष्टांग लेटना? रात जब सोता हूं, तभी दंडवत कर लेता हूं, वही दंडवत है। अलग से और करने का कोई सवाल नहीं। अलग से तो दिखावा हो सकता है। जब थक जाता हूं, और जब सोता हूं--तो दंडवत है।
रात सोते वक्त खयाल रखना। जैसे मंदिर में दंडवत कर रहे हो, ऐसे बिस्तर पर सो जाना। उसी दंडवत के भाव में नींद लग जाए। सुबह उठना, तो परिक्रमा का भाव और जो भी करना...।
कबीर ज्ञानी हो गए--परम ज्ञानी हो गए, फिर भी उन्होंने काम जारी रखा। कपड़ा बुनते थे, बुनते रहे; जुलाहे थे--बने रहे। वही धुनते रहे, तार बुनते रहे। लोग कहते कि अब बंद करो, इसमें क्या सार है? और अब परम ज्ञान को उपलब्ध हुए, अब छोड़ो ये सब। लेकिन कबीर कहते: ‘जो कछु करौं सो सेवा।’ ‘राम’ बाजार में रास्ता देख रहे होंगे कि कबीर कपड़ा बुन कर लाएगा। और मैं नहीं जाऊं कपड़ा लेकर, तो ‘राम’ निराश लौटेंगे। तो कपड़ा बुनते--लेकिन कपड़ा कबीर ने जैसा बुना, किसी ने कभी नहीं बुना। कपड़ा बुनते, तो जैसे भाव बुनते--आनंद से मग्न। जैसे प्रेयसी प्रेमी से मिलने जाती हो, जैसे प्रेमी प्रेयसी से मिलने जाता हो; जैसे बहुत दिन के बाद प्रेमी आता हो और प्रेयसी ने कपड़े तैयार किए हों, कपड़े बुन रही हो। फिर वे भागे हुए बाजार की तरफ जाते और जो भी ग्राहक आता, वह उससे कहते, ‘राम, बड़ी मेहनत से बुना है। खूब चलेगा।’ साधारण दुकानदार कहता कितना ही हो कि बहुत मजबूत है, लेकिन चाहता यही है कि चले बिलकुल न, जल्दी लौट कर आना पड़े। कबीर कहते: ‘बड़ी मेहनत से बुना है। जीवन भर चलेगा। तुम्हारे लिए ही बुना है।’
सारा कृत्य जब सेवा बन जाए, तो फिर धर्म को बांटने की जरूरत नहीं रह जाती। तब तुम्हारे जीवन में एक अविभाज्य, एक अखंड ज्योति जलने लगेगी, जिसके टुकड़े नहीं हैं। और जितने ही तुम्हारी चेतना के टुकड़े हैं, उतने ही तुम मुर्दा हो। जितनी ही तुम्हारी चेतना एक होकर जलेगी, तुम मशाल की तरह हो जाओगे। तुम्हारे जीवन की ज्योति तब अपरंपार होगी, उसकी महिमा का कोई अंत नहीं है।
अभी तुम बुझे-बुझे दीये की भांति हो, क्योंकि तुम इतनी ज्योतियों में जल रहे हो। तुमने इतना बांट रखा है अपने जीवन को--इंच भर यहां, इंच भर वहां। तुम्हारे जीवन में कोई बाढ़ नहीं हो सकती, कोई ओवरफ्लोइंग नहीं हो सकती। तुम प्रेम भी करते हो तो मंदा-मंदा, तुम काम भी करते हो तो फीका-फीका। सब तरफ एक उदासी है। जीवन की ज्योति तो जलती है, जब तुममें अतिरेक होता है। जब इतनी ज्योति होती है कि तुम बांट सको और कम न हो, तुम लुटा सको और तुम्हें ऐसा न लगे कि मैं दीन हो रहा हूं--तभी जीवन में समाधि फलित होती है।
तो समाधि के लिए पहला आधार होगा कि तुम अखंड बनो। तुम धर्म को और संसार को अलग-अलग मत करो। इसलिए कबीर संसार और संन्यास को अलग-अलग नहीं करते। कबीर नहीं कहते कि तुम छोड़ कर भाग जाओ हिमालय। क्योंकि जिसे तुम हिमालय पर पाओगे, वह यहां बाजार में मौजूद था। इससे दूर जाने की जरूरत क्या थी? और जब तुम उसे यहां न पा सके, तो उसे तुम हिमालय पर कैसे पा सकोगे? क्योंकि आंखें तो तुम अपनी ही ले जाओगे। अगर आंखें यहां अंधी थीं, तो हिमालय पर जाकर कैसे तुम देखने वाले हो जाओगे? बाजार में आंखें अंधी थीं, तो हिमालय पर भी अंधी होंगी। और अगर अपनी पत्नी में तुम न देख सके, अपने बेटे में तुम न देख सके, अपने घर में न देख सके, तो किसी मंदिर में और किसी प्रतिमा में तुम न देख पाओगे। देखेगा कौन?
एक सूफी फकीर एक नदी के किनारे लोगों को नाव से पार कराने का काम करता था। दो-चार पैसे मिल जाते थे, उससे उसकी रोजी-रोटी चल जाती थी। एक युवक आया और उसने कहा कि मुझे पार कर दें। लेकिन पहले ही बता दूं, मेरे पास पैसे नहीं हैं और मैं कुछ दे न सकूंगा। उस फकीर ने कहा: एक ही पैसा तो मैं लेता हूं। उस युवक ने कहा: वह भी मेरे पास नहीं है। फकीर जैसा बैठा था, वैसा ही बैठा रहा। उस युवक ने कहा: क्या इरादा नहीं है ले चलने का? फकीर ने कहा: लेकिन जाने से फायदा भी क्या? पैसा तुम्हारे पास यहां भी नहीं है, उस किनारे भी नहीं होगा। करोगे क्या? इससे कोई भेद पड़ने वाला नहीं है। जैसे इस किनारे हो, वैसे ही उस किनारे भी रहोगे। नाहक मुझे तकलीफ दे रहे हो।
तुम्हारे पास अगर आंखें यहां नहीं हैं, तो उस किनारे पर भी आंखें नहीं होंगी। तुम अगर गृहस्थ होकर अंधे हो, तुम संन्यासी होकर भी अंधे रहोगे। इसलिए असली सवाल स्थान बदलना नहीं है, असली सवाल दृष्टि बदलना है। तुम्हारी आंखें खुल जाएं, तो तुम जहां हो, वहीं हिमालय है; तुम जहां हो, वहीं एकांत--अकेलापन है; ठेठ बाजार में सन्नाटा है। नहीं तो हिमालय पर भी बड़ा शोरगुल रहेगा। तुम्हारा मन तो शोरगुल साथ ले जाएगा। एक बात पक्की है कि तुम कहीं भी जाओ, तुम अपने को तो साथ ले ही जाओगे। अपने को कैसे पीछे छोड़ कर भाग सकोगे? कोई अपने से भागने का रास्ता नहीं है।
तो कबीर संसार और संन्यास को एक ही मानते हैं। कबीर कहते हैं: यहीं संन्यास है, यहीं संसार है। और संन्यास और संसार दो परिस्थितियां नहीं हैं, देखने के दो ढंग हैं। देखने की कला आ जाए, तो सभी जगह संन्यास है। देखने की कला न आए, तो सभी जगह संसार है।
तुम जाओ आश्रमों में, जाओ संन्यासियों की दुनिया में, वहां भी तुम संसार पाओगे। संसार से भागना मुश्किल है। संसार के बाहर कोई जगह हो भी नहीं सकती। सब वही चलेगा; छोटे रूप में, बड़े रूप में--वही चलेगा। मात्रा का भेद होगा, लेकिन गुण का कोई अंतर नहीं हो सकता। आखिर आश्रम में भी भोजन तो करना ही होगा। आश्रम में भी भोजन तो कमाना ही होगा। आश्रम में भी तो लोग होंगे, उनके साथ जीना होगा; संबंध होंगे, राग बनेगा, क्रोध होगा; प्रेम होगा, घृणा होगी; सब होगा। सारा संसार वहां पहुंच जाएगा। जिसे तुम सामने के दरवाजे से छोड़ कर भागे थे, वह पीछे के दरवाजे से प्रवेश कर जाएगा।
कबीर कहते हैं:
जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।
किसी और देव की मैं पूजा नहीं करता। किसी और देव की पूजा का अर्थ ही यह है कि तुम संसार में देव और अदेव का भेद कर रहे हो। राम का नाम स्मरण करने का अर्थ ही यह है कि और नाम उसके नाम नहीं हैं। मंदिर अलग बनाने का अर्थ ही यह है कि सारा संसार मंदिर नहीं हो सकता। उसकी प्रतिमा को रूप देने का अर्थ ही यह हुआ कि यही रूप उसका है, बाकी रूप किसी और के हैं।
कबीर कहते हैं: ‘पूजौं और न देवा।’ किसी और देवता की पूजा का कोई सवाल नहीं है, क्योंकि अकेला वही है। उसके अतिरिक्त कोई भी नहीं है। पूजा भी कौन करे और किसकी करे?
बायजीद बूढ़ा हो गया। निरंतर मस्जिद जाता था। कभी चूका नहीं। दिन की पांच नमाज पूरी करता था। लोग इतने आदी हो गए थे--बायजीद को मस्जिद में देखने के कि कोई कभी सोचता ही नहीं था कि ऐसा भी कोई दिन आएगा कि बायजीद मस्जिद में नहीं होगा। वर्षों से, चालीस-पचास साल से हर वक्त--बुखार चढ़ा हो, बीमार हो, तकलीफ हो, वर्षा हो रही हो, धूप हो--बायजीद पांच नमाज पूरी करता था। एक दिन अचानक सुबह मस्जिद में लोगों ने देखा, बायजीद नहीं आया है। बात साफ थी कि मर गया; क्योंकि और तो कोई कारण ही नहीं हो सकता। मस्जिद से भागे, उसके झोपड़े पर पहुंचे। वह अपने झोपड़े के सामने, वृक्ष के नीचे बैठ कर खंजड़ी बजा रहा था। लोगों ने पूछा: ‘क्या बुढ़ापे में भ्रष्ट हो गए? जीवन भर की पूजा, यह क्या कर रहे हो? अब आखिरी दिनों में परमात्मा से संबंध छोड़ रहे हो? क्या भूल गए, पांच नमाज पूरी करनी हैं? बायजीद बोला कि अब तक नाहक भटकते रहे। जो यहीं मौजूद था, उसको हम वहां खोजने आते थे। अब हम मस्जिद न आएंगे। अब जहां हम जाएंगे, मस्जिद हमारे साथ रहेगी।
शायद ही गांव के लोग समझे हों।
‘पूजौं और न देवा।’ तब तुम स्वयं ही मंदिर हो। तब भक्त और भगवान का भी फासला न रहा। तब पूजा करने वाले का और पूज्य का भी अंतर न रहा। तब तुम्हारे होने का ढंग ही ऐसा होगा कि वह पूजा होगी। तुम्हारा उठना-बैठना पूजा होगी; तुम्हारा चलना-फिरना पूजा होगी। तुम श्र्वास भी लोगे तो पूजा का भाव होगा।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
कहौं सो नाम...
जो बोलता हूं, वह उसी का नाम है; जो भी शब्द बोलता हूं, वह उसी का नाम है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, इसलिए सभी रूप उसके हैं।
...सुनौं सो सुमिरन,...
और जो भी सुन लेता हूं, वह उसी की याद है। कठिन है खयाल में लेना, लेकिन एक दफा खयाल में आ जाए, तो इससे सरल कुछ भी नहीं है।
पक्षी गाता है वृक्ष पर, सुमिरन करने की और कोई जरूरत है? पक्षी का गीत उसका ही गीत है। हवाएं गुजरती हैं वृक्ष में, पत्ते हिलते हैं, आवाज होती है--हवाएं हैं उसकी, वृक्ष हैं उसके, आवाज है उसकी, अलग से शोरगुल करने की जरूरत क्या है? एक बच्चा हंसता है, एक बच्चा रोने लगता है। रोना भी उसका है, हंसना भी उसका है। सारी आवाजें उसकी हैं। और जो व्यक्ति एक दफा इस भाव को खयाल में ले ले, फिर उसे कोई आवाज बाधा नहीं डाल सकती। वह बीच बाजार में, उसी के सुमिरन से भरा हुआ है। सब आवाजें उसी की हैं। कहीं खरीददार की तरह बोल रहा है, कहीं बेचने वाले की तरह बोल रहा है। कहीं दुकानदार है, कहीं भिखारी है; कहीं मालिक है, कहीं मजदूर है। लेकिन आवाजें सब उसी की हैं। खेल एक का है। लहरें बहुत हैं, सागर एक है।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
रामकृष्ण दक्षिणेश्र्वर में पुजारी नियुक्त हुए, तो बड़ी मुश्किल आई, क्योंकि पूजा के सब नियम तोड़ डाले। रामकृष्ण जैसे आदमी को पुजारी बनाना नहीं चाहिए। ऐेसे लोग पुजारी हो नहीं सकते। क्योंकि रीति-नियम है, मर्यादा है--ऐसे लोग मान नहीं सकते। रामकृष्ण फूल को पहले सूंघते, फिर चढ़ाते। पहले भोग खुद को लगाते, फिर भगवान को लगाते। पता चला कमेटी को। ट्रस्टी बहुत नाराज हुए कि यह बात तो बहुत बेहूदी है! बुलाया रामकृष्ण को कि यह नहीं चलेगा। यह क्या कर रहे हो? ब्राह्मण होकर तुम्हें इतना भी खयाल नहीं। रामकृष्ण ने कहा: ‘सम्हालो नौकरी। मैं अपनी मां को जानता हूं। जब तक वह खुद न चख ले, मुझे नहीं देती। मैं बिना चखे चढ़ाने वाला नहीं। पता नहीं, देने योग्य है भी या नहीं। स्वाद पहले लूंगा, फिर भगवान को चढ़ाऊंगा।’ यह पकड़ में आना मुश्किल है--रीति-नियम से जो जीता है।
लेकिन कबीर इतना भी नहीं करेंगे, जितना रामकृष्ण ने किया। वे चढ़ाएंगे ही नहीं। वे कहते हैं: यहां जिसको चढ़ा रहे हैं, वह वही है। इस पत्थर की मूर्ति के सामने और रखने का क्या नाटक करना! ‘खावं पियौं सो पूजा।’
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं,...
घर हो कि जंगल--
...एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।
सारी चेष्टा यह है कि दो का भाव मिट जाए। जहां-जहां दो हैं, वहां कबीर एक करके देखने की कोशिश करते हैं। घर और जंगल, संन्यासी और गृहस्थ, धर्म और अधर्म, संसार और मोक्ष--जहां-जहां दो हैं--‘भाव मिटावौं दूजा।’ यह दूजे का भाव मिट जाए, एक को ही देखने लगूं।
कठिन नहीं है ‘एक’ को देखना। असल तो मजा यह है कि तुमने कैसे ‘दो’ देखे, यह चमत्कार है! एक तो है, दो तुमने देखे हैं। इसलिए एक को देखना, कोई चेष्टा की बात नहीं है।
कैसे तुमने ‘दो’ देखे हैं? जैसे कोई नशा कर लेता है, तो उसे एक के दो दिखाई पड़ने लगते हैं। होश में आ जाने से फिर एक दिखाई पड़ने लगता है। आंखें डांवाडोल हो जाती हैं नशे में--संतुलन खो जाता है। उस संतुलन की डगमगाई हुई हालत में, तुम्हें चीजें ज्यादा दिखाई पड़ती हैं। जैसे ही संतुलन वापस लौटता है, भीतर की कंपन की, लहरों की स्थिति विलीन हो जाती है। तुम थिर हो जाते हो--बाहर एक दिखाई पड़ने लगता है।
बाहर ‘दो’ दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि भीतर तुम डगमगा रहे हो, कंप रहे हो। जैसे कि कोई दर्पण हो और कंप रहा हो। तुम ‘एक’ सामने खड़े हो और बहुत सी छवियां दिखाई पड़ रही हैं। जैसे रात पूनम का चांद निकला हो और तुमने एक पत्थर झील पर फेंक दिया हो और झील की सतह कंप रही हो, चांद हजार टुकड़ों में टूट जाता है। फिर धीरे-धीरे-धीरे लहरें शांत होने लगती हैं। हजार टुकड़े सौ रह जाते हैं, सौ टुकड़े दस रह जाते हैं। लहरें जैसे-जैसे खोने लगती हैं, वैसे-वैसे टुकड़े खोने लगते हैं। जब झील फिर शांत हो जाती है, एक चांद रह जाता है।
मन जब तक कंपता है तब तक ‘दो’, मन जब निष्कंप हो जाता है तब ‘एक।’
एक तो है--दो तुमने किए हैं। इसलिए एक को वापस लौटा लेना बहुत कठिन न होगा। सिर्फ समझ चाहिए, सिर्फ थोड़ा सा होश चाहिए और थोड़ा--निष्कंप। जब भी कहीं देखो, तो कंपते हुए मत देखो। जब भी कुछ देखो, तो विचार के साथ मत देखो; क्योंकि विचार कंपन है, वह लहर है। निर्विचार देखो; अचानक तुम्हें ‘एक’ दिखाई पड़ेगा। अगर तुम निर्विचार होकर गृहस्थ को और संन्यासी को देख लो, तो तुम पाओगे--दोनों एक हैं। अगर तुम निर्विचार होकर पदार्थ को और परमात्मा को देख लो, तो तुम पाओगे--दोनों एक हैं। जो भी निर्विचार होकर देखेगा, वह ‘एक’ को ही देख पाएगा। एक का अनुभव निर्विचार का अनुभव है।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
बड़ा अदभुत वचन है।
आंख न मूंदौं, कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
इंद्रियों को तोड़ने-मरोड़ने से कुछ भी न होगा। लोगों ने आंखें फोड़ ली हैं--इस भय से कि आंखों के कारण रूप आकर्षित करता है, कि स्त्री मोहित कर लेती है, कि पुरुष निमंत्रण बन जाता है। आंख ही न होगी, तो न दिखेगा रूप, न होगा आकर्षण, न जगेगी वासना। तर्क बिलकुल गलत है।
आंख बंद करके देखो। फोड़ने तक जाने की जरूरत नहीं है। आंख बंद करने से रूप खोता नहीं है और भी मधुर और प्रीतिकर हो जाता है। कोई स्त्री इतनी सुंदर नहीं है, जितनी आंख बंद करके दिखाई पड़ती है। कोई पुरुष इतना आकर्षक नहीं है, जितना तुम्हारे सपनों में रंगीन हो जाता है। तुम रंग देते हो, तुम रूप देते हो; तुम्हारी वासना रंगती है, सौंदर्य का निर्माण करती है। सुंदर तुम्हें चीजें दिखाई पड़ती हैं--आंखों के कारण नहीं--तुम्हारी आंखों के माध्यम से तुम्हारी वासना उन पर आरोपित हो रही है। पूरे समय तुम अपनी वासना उंड़ेल रहे हो।
कभी तुमने खयाल किया--वही चीज जो कल सुंदर मालूम पड़ती थी, आज असुंदर मालूम पड़ने लगती है--अगर वासना चली गई। कल तुम पागल थे; आज कुछ अर्थ न रहा। क्या फर्क पड़ गया? चीज वही की वही है; व्यक्ति वही का वही है। इतना फर्क पड़ गया है कि अब तुम अपनी वासना उस पर नहीं डाल रहे हो। परदा वही है, लेकिन प्रोजेक्टर बंद है। अब तुम उस पर कोई चित्र नहीं फेंक रहे हो।
सारा सौंदर्य, सारा रूप, तुम्हारे मन की निर्मिति है। और मन आंखों के पीछे छिपा है, आंख फोड़ने से क्या होगा? अंधे भी वासना से पीड़ित होते हैं--शायद तुमसे ज्यादा पीड़ित होते हैं, क्योंकि कुछ कर भी नहीं सकते, खोज भी नहीं सकते; वासना को तृप्त करने का उपाय भी थोड़ा कठिन है। लंगड़े दौड़ने की वासना से पीड़ित नहीं होते? महत्वाकांक्षा नहीं जगती? मनोवैज्ञानिक तो उलटी ही बात कहते हैं। वे कहते हैं कि लंगड़े के मन में जितनी वासना दौड़ने की जगती है, उतनी स्वस्थ पैर वाले के मन में कभी नहीं जगती। और अंधा देखने को जितना आतुर होता है, उतना आंख वाला कभी आतुर नहीं होता। बहरे की सुनने की आतुरता! तुम क्या मुकाबला करोगे? क्योंकि जो भी अभाव होता है, वह खलता है। जो हमारे पास नहीं होता, उसकी मांग बढ़ती है।
इसलिए कबीर कहते हैं: ‘आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहि धारौं।’ और वे कहते हैं: खुद को कष्ट देने से अगर परमात्मा मिलता होता, तब तो बड़ी आसान बात थी। लेकिन बहुत लोग खुद को कष्ट देकर सोचते हैं कि शायद इस भांति वे परमात्मा को कमाने का सौदा पूरा कर रहे हैं। जैसे कि सिक्के दे रहे हैं वे कष्ट उठा कर। ये लोग रुग्ण हैं। और जिसको मनोविज्ञान इस सदी में जाकर पहचान पाया है, कबीर बहुत पहले पहचान लिए।
कुछ लोग हैं, जो स्वयं को कष्ट देने में रस पाते हैं। उनका चित्त रुग्ण है, पैथालॉजिकल है। जब तक वे अपने को सताएं न, उनको मजा नहीं आता।
दो तरह के लोग हैं दुनिया में। एक, जो दूसरों को सताने में मजा लेते हैं। लेकिन दूसरे को सताना हमेशा खतरे का काम है। क्योंकि दूसरे को भी चुनौती दे रहे हैं आप कि वह इसका प्रतिकार करे। जो कायर और कमजोर हैं, वे भी सताना तो चाहते हैं, लेकिन दूसरे को नहीं सता सकते, क्योंकि दूसरे के साथ झंझट हो जाएगी। वे खुद ही को सताते हैं। तो आक्रामक तरह के लोग दूसरे को सताने में रस लेते हैं और कायर तरह के लोग खुद को सताने में रस लेते हैं। एक तरह के लोग हिंसा में लग जाते हैं और दूसरे तरह के लोग आत्म-हिंसा में लग जाते हैं।
एक आदमी उपवास में पड़ा है, एक आदमी कांटे बिछा कर लेटा हुआ है या एक आदमी दस वर्ष से खड़ा ही हुआ है, वह बैठा नहीं है। उसके पैर हाथी-पांव हो गए हैं, अब झुक भी नहीं सकते। या एक आदमी ने अपनी आंखों की पलकें उखाड़ कर फेंक दी हैं; ताकि नींद न आए, ताकि वह आंख खोले ही रखे। ये जो लोग हैं--मैसोचिस्ट हैं। जिनको मनोविज्ञान कहता है--स्वयं को दुख देने में इनका रस है--आत्म-पीड़क हैं।
कबीर कहते हैं: ‘तनिक कष्ट नहीं धारौं।’ लेकिन मैं अपने को कोई कष्ट नहीं देता। क्योंकि कष्ट देने का कोई सवाल नहीं है। न तो खुद को कष्ट देना है, न दूसरे को कष्ट देना है--वही साधु है। यह बड़ा मुश्किल है मामला।
आपको भी लगता है कि साधु वही है, जो खुद को कष्ट दे। और असाधु वह है, जो दूसरे को कष्ट दे। तो अगर आप साधु को आराम में देखें, तो आपको तकलीफ शुरू हो जाती है कि अरे! साधु होकर यह आदमी आराम से बैठा है। अगर साधु को आप ठीक मकान में रहते देखें, तो तकलीफ शुरू हो जाती है। छाया में बैठे साधु को देख कर आपको बड़ी बेचैनी होती है। क्योंकि असाधु को तो आप भलीभांति जानते हैं, वह आप हैं। आपको असाधु का पता है कि जब तक दूसरे को धूप में न खड़ा कर दो, तब तक आपके चित्त को शांति नहीं मिलती। तो साधु इससे उलटा होना चाहिए, यह आपका तर्क है।
तर्क सीधा है--आप अपने लिए सुख चाहते हैं, दूसरे के लिए दुख चाहते हैं। अगर दूसरे को दुख देकर भी खुद को सुख मिले, तो आप सुख चाहते हैं। सारी दुनिया को दुख मिले, तो कोई चिंता नहीं; आपको सुख मिलना चाहिए, सबको दुख मिले तो भी चलेगा। यह असाधु का भाव है। यह असाधु तभी किसी को साधु मानेगा, जब इससे उलटा कोई काम करके दिखाए। खुद को कष्ट देना शुरू कर दे--साधु हो जाएगा। लेकिन यह तो द्वंद्व का ही हिस्सा हुआ।
इसलिए कबीर को समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि कबीर कहते हैं: ‘तनिक कष्ट नहीं धारौं।’ न तो दूसरे को तकलीफ देता हूं, न खुद को तकलीफ देता हूं। क्योंकि न तो ‘मैं’ हूं, न दूसरा है। वही एक है। तकलीफ किसी को भी दी जाए, उसी को मिलती है। तो न तो दूसरे को भूखा मारना है और न खुद को। न दूसरे को धूप में खड़ा करना है, न खुद को। कष्ट देने की चेष्टा--चाहे दूसरे को, चाहे अपने को--रुग्ण है।
साधु, सुख चाहता है कि सब पर बरसे; और अपने को भी उससे वंचित नहीं करता है, क्योंकि अपने साथ भी यह ज्यादती क्यों? और अपने साथ भी यह पक्षपात क्यों? यह भेद क्यों? साधु की आकांक्षा है कि यह सारा जगत सुख से भर जाए। इसमें किसी को भी दुख न हो। इसमें वह अपने को अलग करके नहीं चलता है। वह इसका हिस्सा है। पर साधु को समझना हमें कठिन है। हमारे असाधु के कारण, हमारी कठिनाई है। इसलिए जब भी हम देखेंगे कि साधु सुख में है, हमारे मन में तत्क्षण खयाल आ जाता है कि ठीक साधु नहीं है। उसे कष्ट में होना ही चाहिए।
एक इटालियन विचारक लेंजा देलवास्तो भारत आया, तो रमण महर्षि को देखने गया--अरुणाचल। वे परम साधु; लेकिन लेंजा देलवास्तो को साधु नहीं मालूम पड़े--बैठे हैं, तकिए से टिके हुए। अक्सर तो वे तकिए से टिके ही रहते थे; बैठे ही रहते थे, बिस्तर पर। वही उनकी जगह थी। लेंजा देलवास्तो दो-चार दिन वहां रहा और उसने अपनी डायरी में लिखा कि ‘ये होंगे सिद्धपुरुष पहुंचे हुए, पर अपने लिए नहीं। यह किस तरह की साधुता?
वहां से, अरुणाचल से, सीधा लेंजा देलवास्तो गया--सेवाग्राम। गांधी से प्रभावित हुआ। तत्क्षण उसने दीक्षा ली और गांधी का साधु हो गया। गांधी ने उसे नाम दिया--शांतिदास। लेंजा देलवास्तो ने लिखा, ‘कि गांधी से मैं प्रभावित हुआ। यह आदमी है।’ मेहनत कर रहा है। चरखा कात रहा है। गरीब के पैर दाब रहा है। कोढ़ी को मालिश कर रहा है। कम से कम भोजन ले रहा है। शरीर हड्डी-हड्डी हो गया है। न कोई तकिया है, न कोई बिस्तर है। यह आदमी साधु है।
लेंजा देलवास्तो बुरा आदमी नहीं है, अच्छा आदमी है; सज्जन है, विचारशील है। लेकिन उसका तर्क...! वह कबीर के पास भी जाता, तो भी तर्क यही होता। सुनता अगर वह कबीर को कहते कि ‘तनिक कष्ट नहीं धारौं।’ लेंजा देलवास्तो कहता, ‘यह अपने काम का नहीं।’ कोई जैन साधु लेंजा देलवास्तो को प्रभावित करता। अगर किसी ने आंख फोड़ ली हो, तो तुम्हें भी प्रभावित करेगा कि इसने कुछ किया। किसी ने कान फोड़ लिए, तुम्हें भी प्रभावित करेगा।
रूस में एक संप्रदाय था ईसाइयों का, जो जननेंद्रिय काट लेते थे। उनका बड़ा प्रभाव था। वे परम साधु थे। क्योंकि तुम्हारे सूरदास जी ने आंखें फोड़ी होंगी, लेकिन जननेंद्रिय काट डालना और भी बड़ी बात है। हजारों की संख्या में थे। और लोग पता लगाते थे कि इस साधु ने जननेंद्रिय काटी कि नहीं। अगर काट ली, तो परम साधु! नहीं काटी, तो क्या पता जीवन में कामवासना चलती हो, भोग चलता हो, कुछ पता नहीं। लेकिन जननेंद्रिय काट डाली तो फिर भोग का कोई कारण नहीं रहा। उपाय नहीं रहा। लेकिन उपाय न रहने से क्या वासना मर जाती है? जननेंद्रिय काटने से क्या चित्त के रोग चले जाते हैं? बढ़ सकते हैं, जाने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि उससे कोई संबंध ही नहीं है।
जननेंद्रिय कामवासना का आधार नहीं है, कामवासना की अभिव्यक्ति का माध्यम है। अभिव्यक्ति के माध्यम को रोकने से कोई कामवासना नहीं रुकती। नल की टोटी को बंद कर देने से कोई पानी का प्रवाह बंद नहीं होता। नल की टोटी तोड़ भी डालो, तो भी कोई पानी का प्रवाह बंद नहीं होता। झरने के ऊपर पत्थर रख दो, तो झरना रुक भला जाए, नष्ट नहीं होता। वासना तुम्हारे भीतर झर रही है।
कबीर कहते हैं:
आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहीं धारौं।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।।
और आंख बंद करने की क्या जरूरत है? क्योंकि सभी रूप उसी के हैं। यह एक बहुत क्रांतिकारी दृष्टि है।
एक सुंदर स्त्री गुजरती है रास्ते से--साधारण साधु का ढंग है कि आंख बंद कर लो। कबीर का ढंग है कि इसमें उसी का रूप देखो--उस एक का ही रूप देखो। कबीर का ढंग महत्वपूर्ण है--सुंदर स्त्री दिखाई ही न पड़े ‘वही’ दिखाई पड़े।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।
पर हमें बड़ी मुश्किल है। फूल में हम देख भी लें। अगर मैं कहूं कि फूल में परमात्मा है, आपको अड़चन नहीं होती। अगर कहूं: एक सुंदर स्त्री को देखते रहें, घबड़ाएं मत, उसमें भी परमात्मा है, तो अड़चन होती है। क्योंकि फूल से वासना का कोई गहरा संबंध नहीं है। स्त्री को देखते ही वासना जगती है। और वासना जब तक प्रार्थना न बन जाए, तब तक स्त्री में परमात्मा दिखाई नहीं पड़ सकता। और जब तक दिखाई न पड़े, तब तक तुम भागो कितने ही रेगिस्तानों में, पहाड़ों पर--कुछ फर्क न पड़ेगा। स्त्री तुम्हारा पीछा करेगी। वह तुम्हारे साथ ही रहेगी। तुम जितने भयभीत होओगे, उतने ही सिकुड़ जाओगे, फैलोगे नहीं। और बिना फैले कभी किसी को ब्रह्म का अनुभव हुआ है? ब्रह्म को जाना है किसी ने?
सिकुड़ा हुआ आदमी अहंकार से भर जाएगा, फैला हुआ आदमी मिटता है। तुम जितने फैल जाओगे, उतना ही अहंकार कम हो जाएगा। तुम जितने सिकुड़ जाओगे, उतना ही ज्यादा हो जाएगा। अहंकार एक तरह का संकुचन है। ब्रह्म-अनुभव एक तरह का विस्तार है।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।
लेकिन साधु को तुम हंसते हुए भी नहीं देख सकते। और अगर सुंदर रूप को निहार के हंस रहा हो, तब तो बहुत कठिन हो जाएगा। तब तो तुम पुलिस को खबर कर दोगे।
लेकिन कबीर कह रहे हैं: रोने की क्या बात है? ये साधु इतने उदास क्यों दिखते हैं? इनका रोना, इनके लंबे चेहरे, इनके चित्त की यह इतनी उदासी, क्या है? वासना प्रफुल्लता नहीं बन रही है, रोग बन रही है। वासना रूपांतरित होकर प्रार्थना नहीं बन रही है, कहीं न कहीं भीतर घाव बन रही है। उस घाव की वजह से चेहरे उदास हैं, उनमें प्रफुल्लता नहीं है।
हम प्रफुल्लता से भी डरते हैं, हंसने से भी डरते हैं। शराबखाने में तो हंसी सुनी जाती है, मंदिर में नहीं। मंदिर में सच में सुनी जानी चाहिए, कि शराबखाने फीके पड़ जाएं। शराबी क्या हंसेगा? उसका हंसना कैसे गहरा हो सकता है? उसका हंसना तो रोने को छिपाने का एक उपाय ही होगा। मंदिर से हंसी उठनी चाहिए, जो कि कंपा दे।
असाधु क्या हंसेगा? वह हंस भी नहीं सकता; उसकी स्थिति हंसने की नहीं है। सिर्फ साधु ही हंस सकता है। लेकिन यह हंसी तभी हो सकती है, जब जीवन एक सहज-योग हो। अगर तुमने जबर्दस्ती की, तो तुम हंसोगे कैसे? अगर तुमने जबर्दस्ती की, तो तुम उदास हो जाओगे। अगर तुमने जबर्दस्ती की, तो तुम्हारा पौधा सूखेगा, जड़ें कटेंगी।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
यह वचन बड़ा प्यारा है। इसे स्मरण रखना।
शबद निरंतर से मन लागा,...
एक शब्द है, उस शब्द का उच्चारण नहीं किया जा सकता, क्योंकि जो भी हम उच्चारण कर सकते हैं, वह निरंतर नहीं हो सकता। वह पैदा होगा, नष्ट हो जाएगा। हम बोलेंगे, गूंज होगी, खो जाएगी। वह शाश्र्वत नहीं हो सकता, वह सदा नहीं हो सकता। एक ऐसा शब्द भी है, जिसे संतों ने जाना है, जो उच्चारित नहीं किया जा सकता, जो गूंज ही रहा है। उसको उन्होंने ओंकार कहा है। उसी शब्द की वे बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं: तुम बोलना बंद करो, ताकि तुम्हारे भीतर जो शब्द गूंज ही रहा है, वह तुम्हें खयाल में आ जाए।
तुम इतना बोल रहे हो कि उसे सुन नहीं पाते। तुम इतना शोरगुल मचा रहे हो कि परमात्मा की वाणी--जो निरंतर कलकल हो रही है, भीतर उसका नाद चल रहा है--वह तुम्हें सुनाई नहीं पड़ रहा। समाधिस्थ पुरुष को सुनाई पड़ता है--शब्द, जो निरंतर है। उस शब्द का इन शब्दों से कोई अर्थ नहीं, जो हम बोलते हैं।
कबीर, नानक शबद और शबद की ही बात किए चले जाते हैं। उस शब्द से कोई भी संबंध इन शब्दों का नहीं है--जो हम बोलते और सुनते हैं। उस शब्द का उस स्थिति से संबंध है, जब हमारा बोलना बिलकुल शून्य हो जाता है। और भीतर हम सुनते हैं।
जो शब्द हम बोलते हैं, वे तो क्षणिक हैं। जो शब्द हम सुनेंगे, वह शाश्र्वत है। जब हम बिलकुल चुप होंगे, तब वह सुनाई पड़ेगा। परमात्मा से बोलना नहीं है, परमात्मा को सुनना है।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
और जैसे ही उस निरंतर शब्द की गूंज सुनाई पड़नी शुरू होती है, मलिन वासना अपने आप छूट जाती है। उसे छोड़ना नहीं पड़ता, उसका त्याग हो जाता है। क्योंकि इतना अनाहत आनंद गूंजने लगता है, छोटे सुख की मांग कौन करेगा? हीरे-जवाहरात बरस रहे हों, वहां रंगीन कंकड़-पत्थर का हिसाब कौन रखेगा? जहां अमृत झर रहा हो, वहां पानी की पुकार कौन मचाएगा? कौन कहेगा; मुझे पानी के लिए प्यास लगी है।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
‘तारी’ का अर्थ होता है: नींद, झपकी। तारी का अर्थ होता है: तंद्रा।
ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।
लेकिन उठता हूं, बैठता हूं, चलता हूं, लेकिन कोई एक ऐसा नशा लग गया, कोई एक ऐसी मस्ती छा गई, एक ऐसी तारी लग गई कि छूटती नहीं।
परमात्मा शाश्र्वत नशा है, फिर वैसी कोई शराब नहीं। शराब पीओ, चढ़ेगा नशा, उतरेगा। तारी टूटेगी। थोड़ी देर को खुद को भूल जाओगे फिर याद आएगी। लेकिन एक ऐसी तारी भी है कि तुम भूले, तो तुम भूले। फिर तुम्हारी याद तुम्हें कभी भी नहीं आती।
ऊठत बैठत कबहूं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
कह कबीर यह उनमनि रहनी, सो परगट कर गाई।
सुख दुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।।
कह कबीर यह उनमनि रहनी,...
‘उनमनि’ शब्द बड़ा कीमती है। झेन फकीर जिसको ‘नो-माइंड’ कहते हैं, वही इसका अर्थ है। उनमनि--जहां मन नहीं, जहां मन समाप्त हुआ।
कह कबीर यह उनमनि रहनी,...
मन तो समाप्त हो गया, लेकिन रहना जारी है। मन तो गया, लेकिन मैं हूं। नाम तो न रहा, सीमा तो न रही, लेकिन सागर चल रहा है। रूप तो न रहा, लेकिन जीवन अहर्निश बह रहा है।
कह कबीर यह उनमनि रहनी,...
एक ऐसा रहना, जिसमें कोई मन नहीं है। एक ऐसी जीवनचर्या, जो मन से शून्य है।
...सो परगट कर गाई।
और कबीर कह रहे हैं: बस, इसी को गा रहा हूं, इसी को प्रकट कर रहा हूं--यह जो उनमनि रहनी है, यह जो मैंने जाना है, बिना मन के रहने का राज--जिसको वे कह रहे हैं:
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा, जो कछु करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आंख न मूदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहूं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
कह कबीर यह उनमनि रहनि, सो परगट कर गाई।
यह प्रकट रूप से गा दी है। जो जाना--बिना मन के रहने का जो राज है, जो रस, जो नशा, जो मस्ती है, उसे गा दिया है।
सुख दुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।
और कबीर गाने वाला अब है नहीं, सिर्फ गीत बचा है। क्योंकि कबीर तो वहां समा गया है, जो सुख दुख के ऊपर कोई परमपद है।
या तो हमारे जीवन में सुख है या दुख है। या तो कुछ है, जो हम चाहते हैं और कुछ है, जो हम नहीं चाहते। कुछ है, जिसका हम पीछा करते हैं; कुछ है, जिससे हम बचना चाहते हैं। तब तो मन बचेगा, चुनाव जारी रहेगा। और कबीर कह रहे हैं कि एक ऐसा पद भी है--लेकिन मन के पार है वह पद--जहां न सुख है, न दुख है। उसी को हमने आनंद कहा है।
आनंद जैसा शब्द दुनिया की और भाषाओं में खोजना मुश्किल है। सुख-दुख के पर्यायवाची शब्द मिल जाते हैं। आनंद का अर्थ है: जहां न सुख न दुख।
ध्यान रहे, आनंद का मतलब यह मत समझना कि जहां बहुत सुख है। क्योंकि जहां सुख होगा, वहां दुख भी रहेगा। अगर बहुत सुख होगा, तो बहुत दुख रहेगा। उनका अनुपात सदा समान होता है। गरीब के पास सुख कम होता है, दुख भी कम होता है। अमीर के पास सुख ज्यादा होता है, दुख भी ज्यादा होता है। उनकी मात्रा सदा बराबर रहेगी। वह तो संतुलन है, वे बराबर ही होंगे। जैसे साइकिल चलती है, दोनों चाक बराबर होंगे। तुमने एक चाक बड़ा किया, तो दूसरा भी बड़ा करना ही पड़ेगा; नहीं तो गिरोगे। साइकिल चल न पाएगी। सुख दुख दो पहिए हैं, वे सदा बराबर हैं। यही आदमी की मजबूरी है: वह सुख के पहिए को बड़ा करता है, बड़ा हैरान होता है कि दुख का पहिया बड़ा हो गया। उसको यह पता नहीं है कि अगर दुख का पहिया बड़ा न हो, तो तुम गिरोगे, तुम चल ही न पाओगे। इसलिए सुखी आदमी जितना दुखी होता है, उतना दुखी आदमी दुखी नहीं होता। होने का उपाय नहीं है। उसके दोनों पहिए छोटे हैं।
एक गरीब आदमी का सुख भी छोटा है दुख भी छोटा है। अमीर आदमी के दोनों बड़े हैं। इसलिए आज जितना दुख अमरीका में है, उतना दुख भारत में नहीं है। उसका कारण यह मत सोचना कि तुम सुखी हो। उसका कारण यह है कि वहां ज्यादा सुख है, ज्यादा दुख है। यहां न ज्यादा सुख है, न ज्यादा दुख है। दोनों पहिए बराबर हैं। और वह संतुलन जीवन अपने आप बनाता रहता है। लेकिन जहां तक दो हैं, जहां तक दूजा है, दुजाई है, जहां तक दुई है, वहां तक मन है।
‘उनमनि रहनी’ तो तब शुरू होगी, जब मन न रह जाए। तो एक और दशा है, जो आनंद की है।
बुद्ध ने आनंद शब्द का उपयोग नहीं किया, सिर्फ इसीलिए कि आनंद शब्द से सुख की ध्वनि आती है। हम आनंद शब्द के साथ गलत व्यवहार करते रहे हैं। उससे ऐसा लगता है--सुख--महासुख। तो बुद्ध ने शांति शब्द का प्रयोग किया है। जहां दोनों शांत हो गए हैं। उसे आनंद कहो, शांति कहो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन एक बात ध्यान में रखनी जरूरी है: ‘सुख दुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।’ कबीर तो समा गया है वहां। गाने वाला तो नहीं बचा, लेकिन यह गीत गाया जा रहा है। ‘यह उनमनि रहनी,’--यह बिना मन के रहने की जो चर्या है--यह स्वयं एक गीत बन गई है।
इस गीत को समझना हो, तो इन शब्दों को, जो मैंने समझाए, समझना काफी नहीं है। ‘निरंतर शब्द’ को सुनना पड़े। इससे थोड़ा स्वाद पकड़ जाए, बस। इससे थोड़ी भनक पड़ जाए कान में। नींद नहीं टूट जाएगी इससे, लेकिन भनक पड़ जाए, कोई हिला दे और थोड़ा सा खयाल आ जाए, बस, इतना हो सकता है। फिर खोज शुरू होती है।
खोज या तो प्रयत्न बन सकती है। अगर प्रयत्न बन जाए, तो कबीर का सहज-योग न होगा। और या फिर प्रसाद बन सकती है, अनुकंपा बन सकती है। तब तुम खोजोगे जरूर, लेकिन खोज में कोई श्रम न होगा--प्रार्थना होगी, पूजा होगी। लेकिन तुम्हारा पूरा जीवन पूजा जैसा होगा। प्रार्थना होगी, लेकिन अलग से मंदिर और मस्जिद में नहीं, तुम्हारे होने का ढंग प्रार्थनापूर्ण होगा। तुम प्रेयरफुल हो जाओगे। एक भाव-दशा निर्मित होगी और उसी भाव दशा से धीरे-धीरे मन विलीन हो जाएगा।
तुम्हारा कबीर भी जब खो जाए, तभी कबीर को समझने का उपाय है। कबीर जैसा ही होना पड़े। पर यह हो सकता है। क्योंकि तुम जो कर रहे हो, वही असंभव है। और जो कबीर या मैं करने को कह रहा हूं, वही सहज स्वभाव है।
सहज-समाधि का इतना ही अर्थ है: जिसे पाने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है, जिसे तुमने पाया हुआ है। जिसे तुमने कभी खोया नहीं, लेकिन तुम्हें खयाल है कि तुमने खो दिया है। इस खयाल को छोड़ना।
मैं तो तुमसे कहूंगा: तुम इस भांति जीना शुरू कर दो कि कुछ भी खोया नहीं है। तुम इस भांति जीना शुरू कर दो कि सब मिला हुआ है। तुम इस भांति जीना शुरू ही कर दो कि तुम पहुंच गए। और तुम पाओगे कि तुम्हारा जीवन बदलना शुरू हो गया है।
इसमें तुम सोचो भी मत। इसमें तुम विचार भी मत करो। अन्यथा मन समझाएगा कि यह कैसे हो सकता है? मंजिल दूर है। तुम इस भांति जीना शुरू कर दो कि तुम मंजिल पर हो। तुम वहां हो ही, जहां सभी को पहुंचना है। ठीक इससे तुम शुरू करो।
यह बड़ा उलटा मामला है। क्योंकि हम पहले कदम से शुरू करते हैं। और सहज-योग कहता है कि अंतिम कदम से शुरू करो। हम शुरू से शुरू करते हैं--बिगिनिंग फ्रॉम दि बिगिनिंग। और सहज-योग कहता है: अंत से शुरू करो। वहां जहां पहुंचते हो, वहीं से शुरू करो। और मैं तुमसे कहता हूं कि सहज-योग सही है।
अगर कबीर या पतंजलि की सुनना हो तो तुम कबीर की सुनना, पतंजलि की मत। क्योंकि पतंजलि का योग है--असहज योग। साधो, सम्हालो, श्रम करो। हालांकि पतंजलि से भी पहुंच जाते हैं लोग। पर पहुंचने का कारण पतंजलि नहीं हैं। पहुंच जाते हैं इसलिए, कि साधते-साधते इतना थक जाते हैं कि एक दिन छोड़ देते हैं। जिस दिन छोड़ देते हैं, उसी दिन पा लेते हैं।
कबीर कहते हैं: यह तो पहले ही हो सकता था। इसको इतनी दूर चलने की जरूरत न थी। इतने नाक-कान बंद करना, शीर्षासन लगाना। इतना सब करने के बाद ही जब छोड़ना था, इसको हम पहले ही दिन छोड़ दिए। इसको हमने उठाया ही नहीं। इस बोझ को हमने कंधे पर रखा ही नहीं।
पर दो ही रास्ते हैं: कबीर या पतंजलि। अगर मन बहुत जोर मारता हो, तो पतंजलि के साथ थोड़े दिन कशमकश करनी प़ड़े। अगर मन समझ में हो, तो एक इंच कोशिश करने की जरूरत नहीं है। कबीर के साथ तुम अभी और यहीं सिद्ध हो। सिद्ध होना तुम्हारा स्वभाव है।
आज इतना ही।