MABEL COLLINS

Sadhana Sutra 10

Tenth Discourse from the series of 20 discourses - Sadhana Sutra by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during APR 06-14 1973.
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1. भावी जीवन-संग्राम में साक्षीभाव रखो।
और यद्यपि तुम युद्ध करोगे, पर तुम योद्धा मत बनना।

वह तुम्हीं हो, फिर भी तुम सीमित हो और भूल कर सकते हो।
वह शाश्वत औैर निःसंशय है।
वह शाश्वत सत्य है।
जब वह एक बार तुममें प्रविष्ट हो चुका और तुम्हारा योद्धा बन गया,
तो फिर वह तुम्हें कभी सर्वथा न त्याग देगा
और महाशांति के दिन वह तुमसे एकात्म हो जाएगा।

2. सैनिक को खोजो और उसे भीतर युद्ध करने दो।

उसे खोजने में सतर्क रहो,
नहीं तो लड़ाई के आवेश और उतावलेपन में तुम उसके पास से निकल जाओगे।
और वह तुमको तब तक न पहचानेगा,
जब तक तुम स्वयं उसे न जान लो।
यदि उसके ध्यान से सुनने वाले कानों तक तुम्हारी पुकार पहुंचेगी,
तो वह तुम्हारे भीतर से लड़ेगा और तुम्हारे भीतर के नीरस शून्य को भर देगा।

3. युद्ध के लिए उसका आदेश प्राप्त करो और उसका पालन करो।

सेनापति मानकर उसकी आज्ञाओं का पालन न करो,
वरन इस प्रकार करो मानो कि वह तुम्हारा ही स्वरूप है
और उसके शब्दों में मानो तुम्हारी ही गुप्त इच्छाएं मुखरित हो रही हैं।
क्योंकि वह स्वयं तुम्हीं हो,
परंतु वह तुमसे असीम रूप से अधिक ज्ञानी और शक्तिशाली है।
जीवन में विजय के दो मार्ग हैं।
एक: कि तुम लड़ो और जीतने की कोशिश करो। लेकिन वह मार्ग सिर्फ आभास-मार्ग है। लड़ाई तो बहुत होगी, लेकिन विजय हाथ न लगेगी। लड़ोगे तुम जरूर--और बहुत बार ऐसा लगेगा कि जीत बिलकुल करीब है--फिर भी तुम पाओगे कि जीत कभी हाथ में नहीं आती। जीत चूकती ही चली जाएगी। सदा लगेगा कि भविष्य में विजय हो सकेगी। तुम्हारा तर्क, तुम्हारी बुद्धि सब कहेंगे कि विजय संभव है, लेकिन विजय संभव नहीं होगी।
उसके कारण हैं, क्योंकि जिससे तुम लड़ रहे हो, वह तुम्हारा ही हिस्सा है। जैसे कोई अपने ही दोनों हाथों को लड़ाए--तो जीत क्या होगी? किसकी होगी? कैसे होगी? दोनों हाथों के भीतर मैं ही हूं। यदि मैं चाहूं तो बाएं हाथ को दाएं हाथ से लड़ा सकता हूं। लेकिन इससे इस भ्रांति में मत पड़ना कि दायां हाथ मैं हूं, या बायां हाथ मैं हूं, और दूसरा हाथ मैं नहीं हूं। लड़ाई हो सकती है, लेकिन वह लड़ाई व्यर्थ होगी। न तो दायां जीत सकता है, न बायां। चाहूं तो मैं किसी को जिताने के भ्रम में पड़ सकता हूं, कि मैं दाएं को ऊपर कर लूं और बाएं को नीचे कर लूं, और सोचूं कि दायां जीत गया है। लेकिन यह जीत बिलकुल मिथ्या है, क्योंकि किसी भी क्षण मैं बाएं को ऊपर कर सकता हूं।
चूंकि दोनों के भीतर मैं ही लड़ रहा हूं, इसलिए जीतने का कोई उपाय नहीं है, हारने का भी कोई उपाय नहीं है। न तो कभी पूरी हार होगी, न कभी पूरी जीत होगी। एक बात निश्चित है कि इस संघर्ष में--इन दोनों हाथों की लड़ाई में, जो मेरे हैं--मेरी शक्ति क्षीण होगी, व्यय होगी, और नष्ट होगी। इस मार्ग से जो चलेगा, वह सिर्फ चुकेगा। जीतेगा कभी नहीं, हार भी कभी पूरी न होगी और भ्रम बना ही रहेगा कि जीत हो सकती है।
इसे हम समझने की कोशिश करें। क्योंकि हमने इसी रास्ते को जन्मों-जन्मों से पार किया है। इसलिए न तो हम जीत गए हैं और न हम हार गए हैं। तुम जहां खड़े हो, वह जगह न तो जीत की है और न हार की है। तुम अगर हार भी गए होते तो तुमने दूसरा रास्ता चुन लिया होता! हार भी पक्की नहीं हो पाई और आशा जीत की बनी हुई है। और जीत भी नहीं हो पाई।
क्रोध से तुम लड़ते हो। क्षण भर को लगता है कि जीत जाओगे, लेकिन दूसरे दिन ही पता चलता है कि जीत कल्पना थी। क्रोध फिर पकड़ लेता है। तुम कामवासना से लड़ते हो। क्षण भर को लगता है कि तुम विजेता हो गए हो, लेकिन फिर तुम हार जाते हो।
और जरा इस प्रक्रिया को ठीक से समझ लेना।
कामवासना से तुम लड़ते कब हो? जब कामवासना का ज्वार उतार पर होता है, तब तुम्हें भ्रम होता है कि तुम जीत रहे हो। काम-कृत्य के बाद अपने आप ही कामवासना उतार पर होती है। जैसे कि भोजन कर लेने के बाद भूख नष्ट हो गई होती है, उस वक्त तुम सोच सकते हो कि उपवास किया जा सकता है। वह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। भूख के बाद, भूख के मिट जाने के बाद, भोजन के बाद, तो आदमी उपवास करता ही है। लेकिन आठ-दस घंटे के बाद यह निर्णय टिकेगा नहीं। क्योंकि भूख जब फिर वापस आ जाएगी, तब तुम पाओगे कि उपवास मुश्किल है। भरे पेट आदमी उपवास का निर्णय ले सकता है। न भी ले तो उपवास की प्रशंसा कर सकता है। भूखे पेट निर्णय टूट जाता है।
जब कामवासना की शक्ति तुम में भरी होती है, तब तुम कामातुर हो जाते हो। और जब तुम संभोग कर लिए हो और कामवासना की शक्ति विसर्जित हो गई है, वह भूख मिट गई है, तब तुम पश्चात्ताप करते हो। और तब तुम सोचते हो कि किस व्यर्थ के काम में मैं पड़ा हूं? क्यों जीवन की शक्ति को नष्ट कर रहा हूं? यह सब क्या है? यह तो पशुओं जैसा है! और तब तुम निर्णय लेते हो ब्रह्मचर्य के। लेकिन वे निर्णय झूठे हैं। थोड़े ही समय बाद जब काम-ऊर्जा पुनः इकट्ठी हो जाएगी, तुम पाओगे तुम्हारे निर्णय टूट गए। स्त्री पुनः सुंदर मालूम पड़ने लगी है, पुरुष पुनः आकर्षक हो गया है, मन फिर वासना से भर गया है।
तो तुम, जब तुम्हारा पेट भरा होता है, उपवास के पक्ष में हो जाते हो। जब तुम्हारा पेट भूखा होता है, तब तुम भोजन के स्वप्न देखने लगते हो। न तो तुम कभी जीतते हो, और न कभी तुम हारते हो। कभी तुम्हें जीत का भ्रम होता है, और कभी तुम्हें हार का भ्रम होता है, लेकिन पूरी कोई भी बात नहीं हो पाती।
इसका कारण क्या है? क्योंकि जिससे तुम लड़ रहे हो, जो लड़ रहा है, और जिससे लड़ रहा है, वे दोनों एक ही शक्ति के हिस्से हैं। कौन लड़ रहा है कामवासना से? कौन लड़ रहा है इंद्रियों से? कौन लड़ रहा है पाप से? कौन लड़ रहा है क्रोध से?
इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना। जो क्रोध करता है, वही क्रोध से लड़ रहा है। सुबह क्रोध करता है, सांझ क्रोध से लड़ता है--जिसने किया था, वही! तुम अपने को दो में बांट लेते हो।
तुममें से अगर कोई ताश खेलने के शौकीन हैं, वे जानते हैं कि ताश का एक खेल होता है, जिसमें अकेला ही खिलाड़ी होता है। वह दोनों तरफ के पत्ते बिछा देता है। एक दफा इस तरफ से चलता है, दूसरी दफा उस तरफ से चलता है! अकेला ही खेलता है और हार-जीत का मजा भी लेता है! अब यह बहुत मजे की बात है! कौन जीतेगा, कौन हारेगा? वह अकेला ही एक खेल में है! अपने ही साथ लुका-छिपउअल चलती है।
इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इस रास्ते पर, जहां विजय की आशा रहती है और विजय कभी घटित नहीं होती है, हमने जन्मों-जन्मों की शक्ति नष्ट की है। अधिक लोग आज भी उसी तरह शक्ति नष्ट कर रहे हैं। उनकी भूल स्वाभाविक है, क्योंकि आशा तो बंधती है।
मैं एक घर में मेहमान था। एक बहुत बड़े करोड़पति के घर मेहमान था। वह बड़े वृद्ध थे। अब तो चल बसे। बड़े दानी थे, राजस्थान के ही थे। जब मैं उनके घर मेहमान था, तब उनकी उम्र कोई पैंसठ के ऊपर रही होगी। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं जीवन में चार बार ब्रह्मचर्य का नियम ले चुका हूं। मेरे साथ एक और मित्र थे, वे बड़े प्रभावित हुए। मैंने उनसे कहा कि तुम इतने प्रभावित मत होओ, पहले यह पूछो कि पांचवीं बार क्यों नहीं लिया। क्योंकि चार बार ब्रह्मचर्य के नियम लेने का मतलब क्या होता है? मतलब होता है कि तीन बार तो टूटा। और जिसका तीन बार टूटा--जल्दी मत करो, उससे पूछो कि पांचवीं बार क्यों नहीं लिया? वे वृद्ध रोने लगे और उन्होंने कहा कि आपने ठीक नस पकड़ ली। जिससे भी मैं कहता हूं कि मैंने चार बार नियम लिया, तो किसी ने मुझसे अब तक नहीं पूछा कि पांचवीं बार क्यों नहीं लिया? पांचवीं बार इसलिए नहीं लिया कि चार बार हार चुका, तो पांचवीं बार लेने की हिम्मत नहीं पड़ी, समझ गया कि यह अपने से न हो सकेगा।
पर वह आदमी ईमानदार है। यह भी समझ काफी ईमानदारी की है। यही समझ अगर थोड़ी और गहरी हो--लेकिन वह इतनी गहरी नहीं हो पाई। उन्होंने समझा कि मैं कमजोर हूं, इसलिए नहीं जीत पा रहा हूं। यह बात गलत है। आप कमजोर नहीं हैं। आप जिस ढंग से लड़ रहे हैं, वह ढंग ही ऐसा है कि उसमें जीत नहीं सकते।
इस फर्क को ठीक से समझ लें। नहीं तो सारी साधना-पद्धतियां आपको अनजाने हीन-भाव, हीन-ग्रंथि से भर देती हैं।
साधु हैं, संन्यासी हैं, वे आपको समझाते हैं कि ब्र्रह्मचर्य का व्रत ले लो। उनकी बात प्रभावित करती है आपको। क्योंकि कामवासना के क्षण में आपको लगता है कि आप किसी चीज के गुलाम हो गए हैं। कोई चीज आपको चला रही है, आप अपने मालिक नहीं हैं। इसलिए कामवासना में दंश है। कामवासना की जो पीड़ा है, वह कामवासना नहीं है, वह गुलामी का अनुभव है। ऐसा लगता है कि कोई खींच रहा है जबर्दस्ती और मुझे खिंचना पड़ रहा है। और मैं कुछ भी नहीं कर सकता। इसलिए साधु-संन्यासियों की बात आकर्षक लगती है। सभी चाहते हैं कि हमारी मालकियत हो। हम ऐसे हों कि कोई हमें चला न सके। हम ऐेसे हों कि हम जो करना चाहें, वही करें। ऐसी हालत न बने हमारी कि जो हम नहीं करना चाहते, वह भी हमें करना पड़े। वही तो गुलामी है।
तो कामवासना के खिलाफ बातें सुननी हमें अच्छी लगती हैं। अच्छी लगती हैं इसलिए, क्योंकि उस कामवासना की गुलामी का हमने अनुभव किया है। तो जब भी कोई कहता है तो हम प्रभावित होते हैं। उस प्रभाव के क्षण में हम निर्णय भी ले लेते हैं कि ठीक है, अब हम ब्रह्मचर्य पर अपने को रोकेंगे, अब हम लड़ेंगे। लेकिन निर्णय से थोड़े ही कोई जीत होती है। निर्णय काफी नहीं है। निर्णय जरूरी है, लेकिन अकेले निर्णय से जीत नहीं होती। क्या रास्ता आप चुनेंगे, इस पर निर्भर करेगा। कैसा रास्ता आप चुनेंगे! वह रास्ता अगर जीत तक जाता ही नहीं है, तो फिर आपका निर्णय सिर्फ भटकाएगा। और आपके निर्णय का एक ही परिणाम होगा, जो हुआ है। और वह यह होगा कि आप दीन-भाव से भर जाएंगे। बार-बार हारेंगे, पराजित होंगे। बार-बार निर्णय टूटेगा तो आपको लगेगा मैं निर्बल, मैं कमजोर, मैं नपुंसक, मुझसे यह न होगा। यह तो महावीरों का काम है।
यह महावीर वगैरह का कोई लेना-देना नहीं है। फर्क आप में और महावीर में यह नहीं है कि आप कमजोर हैं और महावीर ताकतवर हैं। फर्क इतना है कि वे ठीक रास्ते पर हैं और आप गलत रास्ते पर हैं। और गलत रास्ते पर कोई भी हो, परिणाम नहीं आएंगे।
तो सारे धर्मों ने मनुष्य को हीन-ग्रंथि से भर दिया है। यह बड़ी हैरानी की बात है। सारे धर्म कहते हैं कि तुम हो परमात्मा, तुम हो मोक्ष, तुम हो ब्रह्म-स्वरूप, लेकिन परिणाम उलटा दिखाई पड़ता है। जहां-जहां धर्म प्रभावी होता है, वहां लोग अनुभव करते हैं कि हम हैं पापी! धर्म कहते हैं कि तुम हो परमात्मा, लेकिन अनुभव में बैठता है लोगों के कि हम हैं पापी! अनुभव में बैठता है कि हम हैं दीन-हीन, हमसे कुछ न होगा!
क्या कारण होगा? कि धर्म जोर तो देते हैं तुम्हारे परम-पुण्य का, और परिणाम होता है अपराध का भाव! इनफिरिआरिटि, गिल्ट, दीनता, हीनता, निर्बलता तुममें पैदा होती है। और तुम्हारे मन में अपने प्रति एक निंदा गहन हो जाती है कि मैं बुरा हूं। और ध्यान रहे जिस आदमी को यह भाव पैदा हो गया कि मैं बुरा हूं, उस आदमी का परमात्मा से संबंध जुड़ना बहुत कठिन है, अति कठिन है। इसलिए जितना धार्मिक होता है मुल्क, उतना ही पाप की भावना से ग्रस्त होता है। होना उलटा चाहिए, लेकिन होता यह है।
और इसके पीछे यही कारण है कि आप जिस रास्ते से चलते हैं, वह रास्ता सफलता तक जाता ही नहीं। सफलता का आभास तो है, नहीं तो आप चलते ही नहीं, ऐसा लगता तो है बार-बार कि जीत जाएंगे, लेकिन जीत कभी होती नहीं है।
जो महात्मा आपको समझाते रहते हैं, वे भी नहीं जीते हैं। क्योंकि उन्हें भी मैं निकट से जानता हूं, एकांत में वे भी मुझसे वही पूछते हैं, जो आप पूछते हैं। इसलिए आपके महात्माओं में और आपमें रत्ती भर का फर्क नहीं है। फर्क है अगर तो इतना ही कि आप थोड़े ईमानदार हैं, वे ज्यादा बेईमान हैं। जहां वे नहीं जीते हैं, वहां भी जीत के आभास बनाए रखते हैं!
साधु-संत मेरे पास आते हैं। बड़े आचार्य हैं, सैकड़ों उनके शिष्य हैं, सैकड़ों उनके साधु-संन्यासी हैं, वे भी एकांत में मुझसे पूछते हैं कि कामवासना पर कैसे विजय प्राप्त हो! और ब्रह्मचर्य पर वे किताबें लिखते हैं! ब्रह्मचर्य का लोगों को नियम और व्रत दिलवाते हैं! बड़ा जाल है। मैं उनसे पूछता हूं कि जब आपको ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं हुआ है, तो क्यों ब्रह्मचर्य का व्रत लोगों को दिलवा रहे हैं? जिस झंझट में आप फंसे हैं, लोगों को क्यों फंसा रहे हैं? ईमानदारी से कहो कि यह मुझे नहीं हो सका, तो शायद रास्ता भी बने। हम सब मिल कर सोचें कि भूल कहां हो रही है? अड़चन कहां है?
भूल यहां हो रही है। आदमी गलत रास्ते से चले, तो परिणाम में सिर्फ विफलता ही हाथ आती है। ठीक रास्ता...ठीक रास्ता क्या है? अगर आप अपने से ही लड़ते हैं तो आप जीत नहीं सकेंगे। क्योंकि कौन जीतेगा, कौन हारेगा? और ये सारी ऊर्जाएं आपकी ही हैं। काम है, क्रोध है, लोभ है--आपकी ही ऊर्जाएं हैं, आपकी ही शक्तियां हैं।
तब क्या किया जाए? यह सूत्र आपको बताएगा कि क्या किया जाए।
आपके भीतर एक ऐसे बिंदु को खोजना जरूरी है जो इन दोनों के पार है, तो जीत शुरू होगी। कामवासना है, ब्रह्मचर्य का भी लोभ है, ये दोनों हैं। इन दोनों में संघर्ष है। ये एक ही तल पर हैं, इनमें जीत नहीं हो सकती। ये समान शक्ति वाले हैं, इनमें जीत नहीं हो सकती। अगर इन दोनों के ऊपर, आपके भीतर एक ऐसा बिंदु भी खोजा जा सके, जो न तो कामवासना में आतुर है, न ब्रह्मचर्य में आतुर है--फर्क समझ लें--जो न तो कहता है कि मुझे कामवासना में रस है, न जो कहता है कि मुझे ब्रह्मचर्य में रस है; आपके भीतर अगर एक ऐसा बिंदु खोजा जा सके, तो वह विजय की तरफ ले जाएगा।
उस बिंदु को ही हमने साक्षी-भाव कहा है, विटनेस। यह जो साक्षी मिल जाए आपके भीतर, जो दोनों के प्रति तटस्थ भाव से देख सके, तो आप जीत की यात्रा पर निकल जाएंगे। क्योंकि उस तीसरे की कोई भी लड़ाई नहीं है। वह किसी से लड़ ही नहीं रहा है। और साक्षी हो कर देखेगा कामवासना को भी और ब्रह्मचर्य-वासना को भी।
मैं शब्द का प्रयोग करता हूं--ब्रह्मचर्य-वासना। इसे ठीक से समझ लेना। काम भी वासना है, ब्रह्मचर्य भी वासना है। किसी ने कहा नहीं है आपको कि ब्रह्मचर्य भी वासना है। लेकिन वह भी वासना है और कामवासना के विपरीत वासना है। कामवासना में जब हम परेशान होते हैं, तो हम ब्रह्मचर्य की वासना करते हैं। क्रोध भी वासना है और अक्रोध भी वासना है। जब हम क्रोध से थक जाते हैं, जल जाते हैं, घाव पड़ जाते हैं, तब हम अक्रोध की वासना करते हैं। लेकिन वह भी वासना है। क्रोध के जो विपरीत है, वह वासना ही होगी। काम के जो विपरीत है, वह वासना ही होगी। दोनों का तल समान है। विपरीत होने से कोई चीज वासना नहीं होती, ऐसा मत समझना। संसार भी वासना है। और अगर संसार से घबड़ा कर आप संन्यास लेते हैं, तो संन्यास भी वासना है।
संसार से घबड़ा कर नहीं, संसार के साक्षीभाव से जिस संन्यास का जन्म होता है, वह वासना नहीं, वह मुक्ति है।
थोड़ा जटिल है। लेकिन एक बात खयाल में रख लें कि विपरीत समान-धर्मा होते हैं। विपरीत असमान-धर्मा नहीं हो सकते। अगर काम वासना है, तो उसके विपरीत जो ब्रह्मचर्य है, वह भी वासना है। फर्क इतना ही है कि जैसे आप सीधे खड़े हैं पैर के बल, और फिर आप शीर्षासन कर रहे हैं। दोनों ही आप हैं। सिर के बल खड़े भी आप हैं, पैर के बल खड़े भी आप हैं। कामवासना पैर के बल खड़ी है, ब्रह्मचर्य सिर के बल खड़ा है। लेकिन वह उसी का ही उलटा रूप है।
क्या आप इन दोनों वासनाओं के भीतर एक साक्षी-भाव को पकड़ सकते हैं जो दोनों को देख रहा है! जो दोनों में से किसी के भी पक्ष में नहीं है। जो इसके खिलाफ उसको नहीं चुनता, जो उसके खिलाफ इसको नहीं चुनता। जो दोनों को देख रहा है। जो दोनों का द्रष्टा है। इस द्रष्टा-भाव की ही विजय हो सकती है। क्योंकि इस द्रष्टा को जीतना ही नहीं है, यह जीता ही हुआ है।
इस बात को ठीक से समझ लें। यह द्रष्टा-भाव जितना गहरा होता चला जाए--यह जीता ही हुआ है। इसको जीतना नहीं है। जीतने को कुछ है नहीं इसको। यह लड़ाई के बाहर खड़ा हो गया, लड़ाई के भीतर रहा ही नहीं।
और जैसे ही आप लड़ाई के बाहर खड़े होते हैं, वैसे ही आपको दिखाई पड़ता है कि आप किस पागलपन में पड़े थे। काम से ब्रह्मचर्य, ब्रह्मचर्य से काम--आप घड़ी के पेंडुलम की तरह घूम रहे थे। पहले पेंडुलम बाईं तरफ गया, तब आप सोचते थे कि बाईं तरफ जा रहा है। लेकिन आपको पता नहीं, बाईं तरफ जाते समय पेंडुलम दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है। वह बाईं तरफ जा इसलिए रहा है ताकि दाईं तरफ जा सके, मोमेंटम इकट्ठा कर रहा है। घड़ी की यंत्र-व्यवस्था यह है कि बाईं तरफ पेंडुलम जब जा रहा है, तो आपको दिखाई पड़ता है कि बाएं जा रहा है, लेकिन आपको पता नहीं कि वह दाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है। जितना वह बायां जाएगा, उतना ही दायां जा सकेगा अब। फिर वह दाएं जा रहा है, तो आप सोचते हैं, विपरीत जा रहा है। लेकिन जब वह दाएं जा रहा है, तो पुनः बाईं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है।
इसका अर्थ, जब आप ब्रह्मचर्य के विचार से भरते हैं, तब आप कामातुर होने की शक्ति इकट्ठी कर रहे हैं। जब आप उपवास का विचार करते हैं, तब आप भोजन का रस पुनः पैदा कर रहे हैं। अगर आप भोजन ही करते जाएं, भोजन ही करते जाएं, तो भोजन का रस समाप्त हो जाएगा। बीच में उपवास जरूरी है। उससे भोजन का रस पुनः-पुनः पैदा होता है। अगर आपको कोई भोजन करवाता ही चला जाए, तो आप घबड़ा उठेंगे, आप भोजन के दुश्मन हो जाएंगे। अगर कोई आपको कामवासना में डाल दे ऐसा कि आपको कामवासना में ही पड़ा रहना पड़े, तो आप ऐसे भागेंगे उस जगह से, कि लौट कर रुकेंगे नहीं, लौट कर देखेंगे नहीं। बीच में गैप चाहिए।
काम-कृत्य किया, फिर दो दिन का उपवास रहा, ब्रह्मचर्य रहा। उस ब्रह्मचर्य में आप फिर काम-कृत्य में उतरने का रस इकट्ठा कर लेंगे। इस अंतर-यांत्रिकता को आप नहीं समझेंगे, तो आप लड़ते रहेंगे और कभी मुक्त न हो पाएंगे। आपकी ब्रह्मचर्य की बातें काम-रस को पैदा करने वाली हैं। उससे स्वाद पुनः जन्मता है।
इससे विपरीत भी सच है। आपका काम-कृत्य में उतरना, पुनः ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण बना देता है। काम-कृत्य में उतर कर फिर आप पश्चात्ताप करते हैं। और फिर आपका मन बड़ा साधु-महात्मा जैसा हो जाता है। क्रोध करके आप पश्चात्ताप करते हैं। और आप सोचते हैं कि आपका पश्चात्ताप क्रोध के विपरीत है। नहीं, आपका पश्चात्ताप आपको पुनः क्रोध करने की शक्ति देता है। इसलिए जो पश्चात्ताप करते हैं, वे क्रोध करते रहेंगे। वे कभी मुक्त नहीं हो सकते।
पश्चात्ताप क्रोध का दुश्मन नहीं है, क्रोध का मित्र है। अगर आप पश्चात्ताप छोड़ दें, आपका क्रोध खतम हो जाए। लेकिन आप पश्चात्ताप छोड़ेंगे नहीं। और क्रोध के बाद आप बड़ा मजा लेते हैं कि पश्चात्ताप कर रहे हैं, अब अक्रोधी हुए जा रहे हैं। आपको पता नहीं कि वह क्रोध के कारण जो पेंडुलम एक तरफ चला गया है, अब पश्चात्ताप में दूसरी तरफ जाएगा! और फिर से क्रोध की तरफ जाने की शक्ति अर्जित हो जाएगी!
विपरीत का सहारा है। विपरीत के कारण रस निर्मित होता है। इसलिए जब आप के स्वाद बदलते हैं तब आप...। जो लोग मन की खोज करते हैं, उनके निर्णय बड़े भिन्न हैं। आप सोचते हैं कि जब आप स्वाद बदलते हैं, तो आप शायद पहले स्वाद से दुश्मन हो रहे हैं। नहीं, आप पहले स्वाद को पुनः अर्जित करने की कोशिश कर रहे हैं।
अभी पश्चिम के मनस्विद ने एक प्रस्ताव दिया है। वह बहुत हैरान करने वाला है, लेकिन बहुत सही है। वह प्रस्ताव यह है कि पति-पत्नी इसलिए एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं, क्योंकि बीच में स्वाद बदलने का मौका नहीं है। यह बहुत घबड़ाने वाला है--कम से कम पुरानी धारणा के लोगों को। लेकिन इसके पीछे सचाई है। और पश्चिम में इस पर प्रयोग चल रहे हैं। और वह प्रयोग यह हैं कि अगर एक पति, एक पत्नी बीच-बीच में दूसरे स्त्री-पुरुषों से संबंध स्थापित कर लें, तो उनका पुराना संबंध फिर से रसपूर्ण हो जाता है, नष्ट नहीं होता है।
हमारी अब तक की धारणा उलटी है। हमारी धारणा यह है कि अगर पति किसी और स्त्री में उत्सुक हो जाए तो फिर पत्नी के लिए उसका रस समाप्त हो गया। यह बिलकुल गलत है। उसका दूसरी स्त्री में उत्सुक होना, थोड़ी देर के लिए पत्नी के प्रति उपवासा हो जाना, वापस पत्नी में रस ले आएगा। और अगर पत्नी जल्दी न करे, सिर्फ प्रतीक्षा करे, तो वह वापस लौट आएगा। और यह वापसी फिर ताजी हो जाएगी। यह रस फिर नया हो जाएगा।
इसलिए स्त्रियां बदलने का प्रयोग अमरीका में चलता है। छोटे-छोटे क्लब हैं, जहां लोग अपनी पत्नियां बदलते हैं। और जिन लोगों ने ये प्रयोग किए हैं, उन सबका वक्तव्य इसके अनुकूल है कि हमारा अपनी पत्नियों में रस बढ़ गया है। और हमारे संघर्ष कम हो गए हैं।
यह कितना ही खतरनाक लगे पुरानी नैतिक धारणाओं के लोगों को, लेकिन भविष्य इसके साथ होने वाला है। पुरानी नैतिक धारणा बच नहीं सकती, क्योंकि उसने पति-पत्नियों को काफी कष्ट दे दिया है। स्वाभाविक है। नियम यही है कि आपको एक ही भोजन रोज दिया जाए तो आप कितनी देर तक कर पाएंगे? सात दिन में आप घबड़ा जाएंगे और सोचने लगेंगे कि इससे तो उपवास ही बेहतर है। लेकिन रोज भोजन बदल देते हैं, रस कायम रहता है। चार-छः दिन के बाद फिर वही भोजन, और आपका रस कायम रहता है।
जीवन के सभी तलों पर यह बात गहरे रूप में सच है। तो आप जो विपरीत में डोलते रहते हैं, तो उसमें आप यह मत समझना कि कभी-कभी आप बड़े साधु चित्तवान हो जाते हैं। और बड़े ब्रह्मचर्य की धारणा आ जाती है और बड़ी ज्ञान की और आत्मज्ञान की बातें उठने लगती हैं। वह कुछ भी नहीं है, आपके देह-भाव में लौटने का उपाय है। जब आप आत्मा वगैरह की बहुत बातें करने लगते हैं, उसका कुल मतलब इतना है कि देह से ऊब गए हैं, अब थोड़ी आत्मा की बातें करके देह में लौटने में रस आएगा। पर इन दोनों से भिन्न भी एक बिंदु आदमी के भीतर है और वही विजय का सूत्र है। वह बिंदु है, साक्षीभाव।
अब हम इन सूत्रों को लें।
पहला सूत्र, ‘भावी जीवन-संग्राम में साक्षी-भाव रखो। और यद्यपि तुम युद्ध करोगे, पर तुम योद्धा मत बनना।’
युद्ध तो जारी रहेगा, लेकिन साक्षी-भाव के युद्ध में एक फर्क होगा। युद्ध तो तुम करोगे, लेकिन योद्धा मत बनना, तुम पार्टी मत बनना। तुम क्रोध के खिलाफ पश्चात्ताप मत बनना। तुम कामवासना के विपरीत ब्रह्मचर्य मत बनना। तुम योद्धा मत बनना। युद्ध तो जारी रहेगा, लेकिन तुम साक्षी बनना। तुम दूर खड़े हो कर दोनों को समान भाव से देखना।
तुम समभावी बनना। तुम वासना समझना काम को भी और ब्रह्मचर्य को भी। तुम संसार को भी वासना समझना और संन्यास को भी। तुम बंधन को भी बंधन समझना और मोक्ष को भी। और तुम दोनों के पार, विपरीत के पार अपने को ठहराना। तुम कहना कि मैं सिर्फ देखने वाला हूं, करने वाला नहीं हूं। मैं कर्ता नहीं हूं, क्योंकि कर्ता योद्धा बन जाता है। जैसे ही तुमने कुछ किया कि तुम योद्धा बने।
और सिर्फ एक ही सूत्र है न-करने का--और वह है साक्षी। नहीं तो सभी कुछ करना हो जाता है। हम जो भी करते हैं, उसमें कर्ता भाव आ जाता है। और कर्ता भाव जिस तल पर होता है, उस तल पर विजय नहीं होती। उसमें हम एक पक्ष को चुन लेते हैं एक बार। जब हम एक पक्ष को चुनते हैं, दूसरा पक्ष मजबूत होता चला जाता है। एक दिन आता है कि हमें दूसरा पक्ष चुनना पड़ता है। जब हम दूसरे को चुनते हैं तो पहला मजबूत होता चला जाता है। और ऐसे हम द्वंद्व के बीच डोलते रहते हैं। इस द्वंद्व का नाम संसार है।
इस द्वंद्व के बाहर होने की एक ही विधि है कि तुम द्वंद्व में चुनना ही मत, तुम सिर्फ द्वंद्व को देखना।
क्या अर्थ हुआ इसका? इसका अर्थ हुआ कि जब कामवासना आए, तो तुम देखना कि कामवासना आई। जब कामवासना आए तो तुम अनुभव करना कि कामवासना ने तुम्हें घेर लिया। लड़ना मत, सिर्फ जानना कि घेर लिया। कामवासना जो भी करवाए, करना। लेकिन दूर खड़े हो कर देखते रहना कि कामवासना ये-ये करवा रही है। जैसे कि तुम एक दर्शक हो और तुम एक खेल देख रहे हो। तुम्हारी कोई लड़ाई नहीं है। जब कामवासना पूरे शिखर पर पहुंचे, तब भी तुम देखते रहना कि कामवासना में ये-ये हो रहा है। जब कामवासना शिखर से वापस गिरने लगे, तब भी तुम देखना कि अब कामवासना शिखर से
गिरने लगी और पश्चात्ताप मन को पकड़ने लगा, उसे भी देखना। पश्चात्ताप घना होने लगे और ब्रह्मचर्य के भाव उठने लगें, उनको भी देखना, कि अब ब्रह्मचर्य के भाव उठ रहे हैं।
अगर यह पूरी बात साक्षी-भाव से देखी, तो तुम समझ जाओगे कि कामवासना और ब्रह्मचर्य दो चीजें नहीं हैं, एक ही लहर का उठना और गिरना है। और जिस दिन तुम्हें यह बात दिखाई पड़ गई कि कामवासना और ब्रह्मचर्य दोनों ही वासना हैं--काम है उठती हुई लहर और ब्रह्मचर्य है गिरती हुई लहर, क्रोध है उठती हुई लहर और पश्चात्ताप है गिरती हुई लहर, संसार है उठती हुई लहर और संन्यास है गिरती हुई लहर--जिस दिन तुमने इन दोनों को एक साथ देख लिया जुड़ा हुआ, उसी दिन तुम पाओगे कि युद्ध में विजय शुरू हो गई, बिना योद्धा बने। चुनाव बंद हो गया, अ-चुनाव पैदा हो गया। अब चुनना ही क्या है? अगर दोनों ही एक हैं, तो चुनने को कुछ बचा नहीं। और जब चुनने को कुछ भी नहीं बचता, द्वंद्व के बाहर तुम सरकना शुरू हो गए।
चुनाव द्वंद्व है, अ-चुनाव द्वंद्वातीत है। इस साक्षी को पकड़ना और धीरे-धीरे इसी साक्षी में लीन होते चले जाना। अचानक तुम पाओगे कि जो विजय लड़ कर नहीं मिली थी, वह बिना लड़े मिलनी शुरू हो गई।
‘योद्धा मत बनना।’
यह सूत्र बहुत गहरा है, योद्धा मत बनना। कल हमने जो सूत्र लिया, वह था कि अब तुम प्रवेश कर सकोगे प्रज्ञा के मंदिर में। और उसकी दीवालों पर लिखे हैं ज्वलंत अक्षर, वे तुम पढ़ सकोगे। यह पहला सूत्र प्रज्ञा के मंदिर का है। यह ज्वलंत अक्षरों में प्रज्ञा के मंदिर पर लिखा है:
‘भावी जीवन-संग्राम में साक्षीभाव रखो। और यद्यपि तुम युद्ध करोगे, पर तुम योद्धा मत बनना। वह तुम्हीं हो।’
वह साक्षी जो है, वह तुम्हीं हो।
‘फिर भी तुम सीमित हो और भूल कर सकते हो।’
वह साक्षी तुम्हारा अंतरतम है। वह साक्षी तुम्हारे जीवन का गहनतम रूप है। और तुम अपनी परिधि पर खड़े हो अभी। तुम भूल कर सकते हो, वह साक्षी भूल नहीं कर सकता। वह साक्षी तुम्हारी श्रेष्ठतम सत्ता है। तुम विकृत हो। जीवन-अनुभवों ने, रास्तों ने, मार्गों ने, संसार ने, अनेक-अनेक जन्मों ने, संस्कारों ने तुम्हें विकृत किया है। तुम परिधि पर धूल-धवांस से भरे हो, तुम भूल कर सकते हो। तुम पर भरोसा नहीं किया जा सकता। तुम अपने पर भरोसा मत करना कर्ता की तरह, क्योंकि कर्ता परिधि पर खड़ा है। वह कर्म के निकट खड़ा है, वह कर्म से जुड़ा हुआ है। अगर भरोसा तुम अपने पर करोगे, तो तुम वही दोहराते जाओगे, जो तुमने हमेशा किया है। तुम एक वर्तुल हो, एक दुष्चक्र हो। तुम घूमते रहोगे वैसे ही, जो तुमने बार-बार किया है।
इसे थोड़ा समझ लें।
आप कभी कुछ नया करते हैं? पीछे जिंदगी में लौट कर देखें, तो आप पाएंगे कि एक वर्तुलाकार में घूमते रहते हैं। सुबह क्रोध किया, दोपहर पश्चात्ताप किया, सांझ प्रेमपूर्ण हो गए, रात क्रोध से भर गए, सुबह घृणा आ गई; वह घूमता रहता है। अगर आप अपनी डायरी रखें एक तीन महीने की, तो आप चकित हो जाएंगे कि आप मशीन हैं या आदमी? और अगर आप बहुत ईमानदारी से डायरी रखें तो आप अपनी घोषणा भी कर सकते हैं कि आने वाले तीन महीनों में किस दिन क्या होगा! आप सुबह से ही घर में अपना कैलेंडर लटका सकते हैं कि आज इतने बजे मैं क्रोध करूंगा, और इतने बजे शांत रहूंगा, और इतने बजे विषाद से भर जाऊंगा। और अगर घर के सब सदस्य अपना-अपना कैलेंडर रोज सुबह लटका लें, तो बड़ी सुविधा हो जाए। क्योंकि पत्नी कह सकती है कि पांच बजे तुम दफ्तर से लौटोगे, तो मैं ठीक अवस्था में नहीं रहूंगी, तुम इसका ध्यान रखना। तो पति कैलेंडर देख सकता है कि आज क्या-क्या होने वाला है, उस हिसाब से चल सकता है। पत्नी पति का कैलेंडर देख सकती है। और दोनों किसी समझौते पर आ सकते हैं।
अभी हम अंधे की तरह टकराते रहते हैं। और बड़ा मजा यह है कि जब हम टकराते हैं, तो हम सदा यह सोचते हैं कि कोई और हमें परेशान कर रहा है। जब कि आपका भीतर का वर्तुल ही चल रहा है, कोई और परेशान नहीं कर रहा है। जैसे स्त्रियों को मासिक-धर्म होता है, तो कोई उनका खून निकाल नहीं रहा है शरीर से, कोई चोट नहीं पहुंचा रहा है उनको। वह उनका भीतर का वर्तुल है, जिससे मासिक-धर्म हो रहा है। ठीक वैसे ही आपके चौबीस घंटे के वर्तुल चल रहे हैं, कोई आपको परेशान नहीं कर रहा है। लेकिन किसी क्षण में आप उदास होते हैं, और किसी क्षण में खुश होते हैं। जब खुश होते हैं, तब आप सोचते हैं कि कोई खुश कर रहा है। और जब आप उदास होते हैं, तो सोचते हैं कि कोई उदास कर रहा है।
और यह बड़े मजे की बात है कि आपकी भीतरी दशा पर निर्भर करता है। वही चीज उदास कर सकती है, अगर आप भीतर उदास होने को हैं। और वही चीज प्रसन्न कर सकती है, अगर आप भीतर प्रसन्न होने को हैं। इसका थोड़ा आत्मिक निरीक्षण करेंगे तो बहुत चकित हो जाएंगे, बहुत हैरान हो जाएंगे। तब आप दुनिया में किसी को दोष देने नहीं जाएंगे। आप पाएंगे कि भीतर के मौसम बदलते रहते हैं। कभी वर्षा है, कभी धूप है, कभी शीत है--भीतर के मौसम बदलते रहते हैं। और अपने भीतर के मौसम के अगर आप साक्षी हो जाएं, तो आप मालिक हो जाएंगे।
लेकिन आप कर्ता बन जाते हैं! जब क्रोध आता है, तो आप क्रोधी बन जाते हैं। जब कामवासना आती है, तो आप कामी बन जाते हैं। जब ब्रह्मचर्य की वासना आती है, तो आप ब्रह्मचर्य का झंडा ले कर खड़े हो जाते हैं। बाकी आप तादात्म्य कर लेते हैं। दूर खड़े हों। जितने दूर हो सकेंगे अपनी इन वृत्तियों से, उतनी ही मालकियत है।
साक्षीभाव में मालकियत है। योद्धा बनने में पराजय है।
यह बहुत उलटा लगेगा, क्योंकि हम सोचते हैं कि बिना योद्धा बने हम जीतेंगे कैसे? इस संसार में योद्धा बन कर जीता जाता है। अध्यात्म में योद्धा बन कर सिवाय हारने के कुछ भी हाथ नहीं लगता। और हार भी पूरी नहीं लगती, नहीं तो आदमी ऊब जाए! हार भी अधूरी रहती है और आशा सदा बनी रहती है कि जीतूंगा, जीतूंगा। और जीत कभी हाथ में नहीं आती!
‘वह तुम्हीं हो।’
वह साक्षी भाव तुम्हारा ही अंतरतम है।
‘फिर भी तुम सीमित हो और भूल कर सकते हो। वह शाश्वत और निःसंशय है। वह शाश्वत सत्य है। जब वह एक बार तुममें प्रविष्ट हो चुका और तुम्हारा योद्धा बन गया, तो फिर तुम्हें वह कभी सर्वथा त्याग न देगा और महाशांति के दिन वह तुमसे एकात्म हो जाएगा।’
तुम्हारे दो रूप हैं: तुम्हारी परिधि पर खड़े हुए तुम और तुम्हारे केंद्र में छिपे हुए तुम। तुम्हारा जो केंद्र है, वहां तुम परमात्मा हो, वहां तुम परम-शक्ति हो। तुम्हारी जो परिधि है, वहां तुम एक कमजोर आदमी हो। अगर तुम परिधि पर ही लड़ते रहे, तो तुम्हारी जितनी शक्ति है, उतनी ही काम आएगी। अगर तुम केंद्र की तरफ सरके, तो तुम्हारी शक्ति बढ़ती चली जाती है। ठीक केंद्र पर खड़े हुए आदमी को लड़ना ही नहीं पड़ता। वह इतना महा-शक्तिवान होता है कि वृत्तियां उस महाशक्ति में जल जाती हैं और राख हो जाती हैं। बड़ा सवाल यह नहीं है कि कैसे लड़ें! बड़ा सवाल यह है कि कैसे महा- शक्तिवान हो जाएं! उस महा-शक्तिवान के मौजूद होते ही परिधि नप जाती है, चुक जाती है। परिधि का वह जो उपद्रव था, सब शांत हो जाता है। बिना लड़े कैसे तुम जीतो, इसका यह सूत्र है। और बिना लड़े ही जीत आती है।
दूसरा सूत्र, ‘सैनिक को खोजो और उसे भीतर युद्ध करने दो।’
तुम साक्षी रहो।
‘सैनिक को खोजो और उसे भीतर युद्ध करने दो। उसे खोजने में सतर्क रहो, नहीं तो लड़ाई के आवेश और उतावलेपन में तुम उसके पास से निकल जाओगे। और वह तुमको तब तक न पहचानेगा, जब तक तुम स्वयं उसे न जान लो। यदि उसके ध्यान से सुनने वाले कानों तक तुम्हारी पुकार पहुंचेगी, तो वह तुम्हारे भीतर से लड़ेगा, और तुम्हारे भीतर के नीरस शून्य को भर देगा।’
यह जो साक्षी-भाव है, तुम इसे खोजो। इसकी खोज के साथ ही तुम्हें वह सैनिक मिल जाएगा, जो परिधि पर लड़ेगा। पर बड़ा फर्क है। तुम वह सैनिक नहीं बनोगे, तुम योद्धा नहीं बनोगे, तुम लड़ने नहीं जाओगे, तुम सिर्फ मौजूद रहोगे। इसका क्या अर्थ है?
इसका यह अर्थ है कि जब तुम्हारे भीतर क्रोध उठता है, तब तुम्हारे भीतर पश्चात्ताप नहीं उठता है अभी। दोनों साथ उठें, तो एक-दूसरे को काट दें और तुम शांत हो जाओ। अभी तुम्हारे भीतर क्रोध जब उठता है, तब पश्चात्ताप नहीं उठता। और जब पश्चात्ताप उठता है, तब क्रोध नहीं उठता। एक-एक उठते हैं। अभी जब कामवासना उठती है, तब ब्रह्मचर्य नहीं उठता। और जब ब्रह्मचर्य उठता है, तब कामवासना नहीं उठती। इन दोनों की कहीं मुलाकात नहीं होती। अगर मुलाकात हो जाए तो ये कट जाएं। ये दोनों ही एक-दूसरे को काट दें। जैसे ऋण और धन काट देते हैं एक-दूसरे को, ऐसे ये एक-दूसरे को काट दें, और तुम शांत हो जाओ। लेकिन जब एक आता है, तब दूसरे का पता नहीं होता। जब दूसरा आता है, तब पहला जा चुका होता है। इनका कहीं मिलना ही नहीं होता।
इसे थोड़ा समझो। क्योंकि यह जीवन की, विजय की अंतरतम घटना है। अगर ये दोनों एक साथ आ जाएं तो क्या होगा? जब तुम क्रोध से भरते हो, तभी तुम पश्चात्ताप से भी भर जाओ, तो क्या होगा? पश्चात्ताप और क्रोध एक-दूसरे को काट देंगे। जब तुम कामवासना से भरे हो, तभी ब्रह्मचर्य की वासना भी मौजूद हो जाए, तो एक-दूसरे को काट देंगे। और जब एक-दूसरे को काट देंगे, तो हिसाब में न तो ब्रह्मचर्य बचेगा और न कामवासना।
इस फर्क को समझ लेना।
इसलिए जो परम-ब्रह्मचारी है, उसको ब्रह्मचयर्र् का भाव भी नहीं होता। जो सच में ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है, उसे ब्रह्मचर्य की कोई अस्मिता, कोई अहंकार नहीं होता। जिसको लगता है कि मैं ब्रह्मचारी हूं, और जो अपने ब्रह्मचर्य को साधता है, सम्हालता है; यह ब्रह्मचर्य कामवासना के विपरीत चुना गया है। कामवासना कटी नहीं है, वह रास्ता देख रही है। इस आदमी ने ब्रह्मचर्य से भाव अपना इकट्ठा कर लिया है, लेकिन कामवासना प्रतीक्षा कर रही है। जल्दी ही भाव बदलेगा, मौसम बदलेगा। इस जगत में कुछ टिकता नहीं, सब बदल जाता है।
सिर्फ साक्षी को छोड़ कर इस जगत में सभी परिवर्तनशील है। सिर्फ एक बिंदु इस जगत में शाश्वत, सनातन है, जहां कोई बदलाहट नहीं होती, बाकी सब बदल जाता है। परिधि पर तो घूमता ही रहता है चाक, सिर्फ बीच की कील जहां साक्षीभाव है, वहां कुछ भी नहीं घूमता। वहां सब चीजें थिर हैं।
तो कामवासना के खिलाफ ब्रह्मचर्य को चुन लिया, तो कामवासना दबी है अचेतन में, प्रतीक्षा कर रही है। जब तुम थक जाओ ब्रह्मचर्य से, तब वह तुम्हारे सिर को पकड़ लेगी; छोड़ेगी नहीं। साधु-संन्यासी रात सोने तक से डरने लगते हैं, क्योंकि सपने में पकड़ लेगी कामवासना! भयभीत इतने हो जाते हैं फिर कि अगर कहीं स्त्री बैठी है, तो शास्त्रों में लिखा है इस तरह के पागलों ने, कि उस जगह पर इतने मिनिट तक मत बैठना! अगर कहीं बैठ चुकी है स्त्री, वह जा भी चुकी है; वह जगह भी खतरनाक है, वहां मत बैठना! क्योंकि उस पर अगर बैठ गए तो कामवासना उठेगी।
स्त्री जिस जगह पर बैठी है, उस जगह पर बैठने से कामवासना नहीं उठती। लेकिन अगर मन में कामवासना बहुत दबाई हो तो उठ सकती है। वह स्पर्श पृथ्वी का भी सुखद मालूम पड़ेगा, जहां स्त्री बैठी थी! अब यह पागलपन का लक्षण है। यह ब्रह्मचर्य का लक्षण नहीं है, यह गहन वासना का लक्षण है।
ब्रह्मचर्य का तो लक्षण ही यह होगा कि स्त्री गले से भी आ कर लग गई हो, तो भी कामवासना न उठे। पागलपन का लक्षण यह होगा कि स्त्री जिस जमीन पर बैठी थी--वह जा भी चुकी है--अब आप उस जमीन पर बैठ गए और कामवासना उठ रही है!
यह आप ही उठा रहे हो, जमीन-वगैरह पर कुछ नहीं हो गया है। यह चमत्कार सिर्फ महात्माओं को ही घटित हो सकता है। यह चमत्कार कि स्त्री जिस जगह बैठी हो, वहां बैठ कर कामवासना का उठना, सिर्फ महात्माओं को घटित हो सकता है। इसमें स्त्री का कोई हाथ नहीं है, महात्मा की ही कारीगिरी है। वह जो महात्मा अपने साथ कर रहा है, वह जो दबा रहा है, वह जो लड़ रहा है, वह इतना ज्यादा परेशान है भीतर से कि कोई भी बहाना काफी हो सकता है--कोई भी बहाना।
सुना होगा आपने, पढ़ा होगा कि सभी ऋषि-मुनि जब सिद्ध अवस्था में पहुंचने लगते हैं, तो स्वर्ग से अप्सराएं उतर कर उन्हें सताने लगती हैं। अब यह स्वर्ग में कौन सा धंधा है? किसने खोला है? और किसको प्रयोजन है इन ऋषि-मुनियों को भ्रष्ट करने में? किसकी उत्सुकता है?
नहीं, कोई अप्सराएं कहीं से नहीं आ रही हैं। यह ऋषि-मुनियों का ही अचेतन मन है। स्त्रियों को इस बुरी तरह दबाया है भीतर कि आखिरी क्षण तक पीछा नहीं छोड़ता। और फिर ऋषि-मुनि भ्रष्ट हो जाते हैं! और भ्रष्ट वगैरह नहीं हो रहे। यह पूरा मनोवैज्ञानिक खेल है। कोई भ्रष्ट नहीं कर रहा उनको। लेकिन जो दबाया है, वह शक्तिशाली हो रहा है। और जब आखिरी क्षण आएगा तो वह इतना शक्तिशाली हो जाएगा कि उसी की वजह से वे हार जाएंगे। वह जो जीता हुआ हाथ था, वह हार जाएगा। और वे दोनों हाथ उन्हीं के हैं। ब्रह्मचर्य आरोपित था, खींच-खींच कर उसको खड़ा कर लिया था। लेकिन वह भीतर जो दबी है वासना, वह रास्ता देख रही है। एक क्षण आएगा, जब पेंडुलम घूमना शुरू होगा। जब पेंडुलम घूमेगा...।
तो आपको यह रस नहीं आ सकता। आपके पास अप्सराएं नहीं आतीं। उसके लिए ऋषि होना जरूरी है। अगर अप्सराओं को बुलाना हो, तो पहले ऋषि की प्रक्रिया से गुजरना जरूरी है। पेंडुलम इतना बाएं जाना चाहिए कि जब दाएं जाए तो स्वर्ग तक पहुंच जाए। उसके दाएं जाने के लिए इतनी ऊर्जा अर्जित होनी चाहिए। अगर अप्सराएं चाहिए हों, तो ऋषि होना जरूरी है। जब से ऋषि खो गए, अप्सराएं खो गईं!
आजकल कोई अप्सराएं नहीं आतीं! उसका कारण यह नहीं है कि अप्सराएं बची नहीं। ऋषि नहीं बचे। ऋषि पैदा करिए, अप्सराएं आनी शुरू हो जाएंगी। वे ऋषियों के मस्तिष्क की विक्षिप्तता हैं। वह जो दबाया है, वह प्रकट होगा, पीछा करेगा। और अगर बहुत दबाया है, तो वह इतना साकार हो जाएगा। इसमें ऋषियों की भूल नहीं है। उन्होंने रिपोर्ट तो बिलकुल ठीक दी है कि अप्सराएं आईं। और अप्सराएं इतनी सुंदर होंगी, जितनी कोई स्त्री कभी नहीं होती।
वह सौंदर्य जो है, दबी हुई वासना से आ रहा है। वह जो सौंदर्य है, स्वयं का निर्माण है। जब आप वासना से भरे होते हैं, जितनी गहरी वासना से भरे होते हैं, उतनी ही स्त्रियां ज्यादा सुंदर मालूम होंगी, या पुरुष ज्यादा सुंदर मालूम होंगे। अगर वासना से बहुत भरे हों तो कुरूप स्त्री भी सुंदर मालूम पड़ेगी। अगर वासना से बहुत भरे हों और उपवास बहुत करना पड़ा हो तो वृद्ध स्त्री भी सुंदर मालूम पड़ने लगेगी।
वह जो सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वह आपका प्रक्षेपण है। वह ऐसे ही है, जैसे भूखे आदमी को रूखी-सूखी रोटी भी परम-भोग मालूम पड़ेगी। वह कुछ रूखी-सूखी रोटी में नहीं है परम-भोग, वह परम-भोग उसकी भूख में है। अगर आप भरे पेट हैं तो परम-भोग भी रखा हो, तो आपको खयाल न आएगा कि यहां भोजन रखा है।
किसी दिन उपवास करके सड़क से निकलें, उस दिन सिर्फ होटल, रेस्ट्रारेंट--इनके ही बोर्ड आप पढ़ेंगे। बाकी कोई दुकान दिखाई नहीं पड़ेगी! और बड़े रस से पढ़ेंगे और बोर्ड बड़े सुंदर मालूम पड़ेंगे। और वे जो भोजन और मिठाइयां दिखाई पड़ रही हैं, वह आपको पहली दफे दिखाई पड़ेंगी। और उनमें जैसा रंग और जैसी गंध और उनमें जैसा सौंदर्य और परम-रहस्य प्रगट होगा, वैसा कभी नहीं हुआ था! वह वहां है नहीं, वह आपके भीतर है, वह आप डालते हैं।
आदमी अपने चारों तरफ डालता है अपने ही भावों को। तो ऋषि-मुनियों ने जरूर अप्सराएं देखीं, पर वे अप्सराएं उनकी मनो-सृष्टियां थीं, उनका अपना ही सृजन था।
अगर आप साक्षी बनते हैं तो यह परिणाम घटित होगा कि दोनों बातें आप एक साथ देख सकेंगे। जितना आप दूर हटेंगे, उतने ही दोनों बातें आप एक साथ देख सकेंगे। दूरी चाहिए दोनों को देखने के लिए। अगर आप बहुत पास हैं, तो एक ही दिखाई पड़ता है।
मैं यहां बैठा हूं तो आप सब मुझे दिखाई पड़ते हैं। मैं आपके और पास आऊं तो मुझे और कम लोग दिखाई पड़ेंगे। मैं और पास आऊं तो और कम लोग दिखाई पड़ेंगे। अगर मैं किसी के बिलकुल पास आ जाऊं तो सिर्फ वही दिखाई पड़ेगा। जितनी दूरी होती है, उतना विस्तीर्ण परिप्रेक्ष्य होता है।
तो जब कोई व्यक्ति साक्षी हो जाता है, तो उसको क्रोध, अक्रोध; लोभ, अलोभ; घृणा, प्रेम; काम, ब्रह्मचर्य; साथ दिखाई पड़ने लगते हैं। और तब वह चकित हो जाता है कि यह तो एक ही तरंग है--इधर क्रोध, उधर पश्चात्ताप; इधर संसार, उधर संन्यास; इधर भोग, उधर त्याग--यह तो एक ही तरंग के दो रूप हैं। जैसे ही यह दिखता है, दोनों चीजें एक साथ उपस्थित होकर एक-दूसरे को काट देती हैं। वही सैनिक है। योद्धा बनने की जरूरत नहीं है।
उस सैनिक को खोज लेना जरूरी है, जहां विपरीत कट जाते हैं। अपनी समान सह-उपस्थिति से अपने आप कट जाते हैं। यह जो उनका अपने आप कट जाना है, यह बिना किसी हिंसा के युद्ध में विजय है--बिना लड़े।
‘सैनिक को खोजो और उसे भीतर युद्ध करने दो।’
सैनिक का अर्थ है, विपरीत की सह-उपस्थिति, एक साथ दोनों का अनुभव।
‘उसे खोजने में सतर्क रहो, नहीं तो लड़ाई के आवेश में और उतावलेपन में तुम उसके पास से निकल जाओगे।’
बहुत बार तुम उसके करीब पहुंचते हो। मगर तुम समझने को कम और लड़ने को इतने आतुर हो, तुम्हारा मन इतने उतावलेपन और जल्दबाजी से भरा है विजय के लिए कि तुम उस सैनिक से, जो तुम्हें जिता सकता है, उसके पास से निकल जाते हो, उसे तुम देखते भी नहीं। अगर तुम जल्दबाजी में हो, और लड़ने की शीघ्रता में हो, और जीतने के लिए उतावले हो, तो तुम उससे चूकते रहोगे। क्योंकि उसे देखने के लिए गैर-उतावलापन, शांति, मौन, सहजता चाहिए। तो ही तुम्हें वह दिखाई पड़ेगा। तो ही तुम इतनी दूरी बना सकोगे। तो ही तुम दोनों को एक साथ देख पाओगे।
तो जल्दी मत करना जीतने की, अगर जीतना हो। अगर जल्दी जीतना हो, तो जल्दी बिलकुल मत करना। शीघ्रता मत करना, अगर चाहते हो कि शीघ्र परिणाम आ जाए। क्योंकि तुम जितनी शीघ्रता करोगे, तुम उतनी ही अशांति में रहोगे और तुम चूकते चले जाओगे।
तुम्हारे भीतर ही वह शक्ति मौजूद है, जो तुम्हें मुक्त कर देगी। तुम्हारे ही भीतर की शक्ति ने तुम्हें बांधा है, तुम्हारे ही भीतर की शक्ति तुम्हें मुक्त भी कर देगी। लेकिन तुम जल्दी मत करना। धैर्य, प्रतीक्षा और जीत की कोई उतावली नहीं, तो तुम्हारी जीत निश्चित है।
‘और वह तुमको तब तक न पहचानेगा’...ध्यान रखना कि वह सैनिक तुम्हारे भीतर है। लेकिन ‘वह तब तक तुमको न पहचानेगा, जब तक तुम स्वयं उसे न पहचान लो।’
वह बैठा रहेगा, उसका तुम उपयोग ही नहीं कर रहे हो! एक महान शक्ति का उपयोग तुम छोड़ रहे हो! वह महान शक्ति इसमें छिपी है कि दो विपरीत को साथ देख लो। उसको तुम चूके जा रहे हो। एक को तुम देखते हो; जब उससे थक जाते हो, तब तुम दूसरे को देखते हो। लेकिन दोनों का मिलन न हो तो काट नहीं हो सकती। दोनों एक-दूसरे को ऋण नहीं कर सकते, दोनों एक-दूसरे को मिटा नहीं सकते।
‘यदि उसके ध्यान से सुनने वाले कानों तक तुम्हारी पुकार पहुंचेगी, तो वह तुम्हारे भीतर से लड़ेगा और तुम्हारे भीतर के नीरस शून्य को भर देगा।’
तीसरा सूत्र, ‘युद्ध के लिए उसका आदेश प्राप्त करो और उसका पालन करो। सेनापति मान कर उसकी आज्ञाओं का पालन न करो, वरन इस प्रकार करो कि मानो वह तुम्हारा ही स्वरूप है और उसके शब्दों में मानो तुम्हारी ही गुप्त इच्छाएं मुखरित हो रही हैं। क्योंकि वह तुम्हीं हो, परंतु वह तुमसे असीम रूप से अधिक ज्ञानी और शक्तिशाली है।’
यह जो साक्षी है तुम्हारे भीतर, उस पर छोड़ दो युद्ध पूरा। उसे तुम योद्धा मत बनाओ। लेकिन जैसे ही तुम उसका उपयोग करने में समर्थ हो जाओगे, उसके द्वारा देखने में समर्थ हो जाओगे, तुम्हें आदेश मिलने लगेंगे, जो कि सुनिश्चित विजय की तरफ ले जाते हैं। शास्त्रों से आदेश मत लेना, शब्दों से आदेश मत लेना, अपने साक्षी से आदेश लेना। वह तुम्हें हमेशा ही ठीक दिशा पर ले जाएगा। उससे गलती होने की कोई संभावना ही नहीं है।
लेकिन हम सब न मालूम किस-किस से आदेश ले लेते हैं! हमें इसकी भी फिक्र नहीं होती कि जिनसे हम आदेश ले रहे हैं, वे भी कहीं पहुंचे हैं या नहीं?
बड़ा मजा तो यह है कि हम अपने ही जैसे लोगों से आदेश लेते हैं। क्योंकि हमें अपने ही जैसे लोग, हमारी बुद्धि में उतरते हैं। अगर तुम कामवासना से पीड़ित हो, तो बहुत संभावना इस बात की है कि तुम ऐसा गुरु खोज लोगे, जो कामवासना से पीड़ित है और ब्रह्मचर्य को थोपे हुए है। बहुत संभावना इस बात की है कि तुम उसको खोज लोगे। तुम ऐसे गुरु के पास पहुंच ही न पाओगे, जो कामवासना से पीड़ित नहीं है और जिसका ब्रह्मचर्य सहज है। क्योंकि वह सहज ब्रह्मचर्य तुम्हारी पकड़ में ही नहीं आएगा। तुम इतने पीड़ित हो कामवासना से, तुम इतने असहज हो कि असहज ब्रह्मचर्य ही तुम्हारी समझ में आएगा। अगर तुम सहज व्यक्ति के पास पहुंच गए तो तुम पच्चीस बहाने निकाल कर वहां से भाग निकलोगे।
क्यों? क्योंकि तुम्हें जो चीजें परेशान करती हैं, अगर तुमने देखा कि तुम्हारे गुरु को वे चीजें परेशान नहीं कर रही हैं, तो तुम यह मान ही नहीं सकते कि उसको परेशान नहीं कर रही होंगी। क्योंकि तुमको परेशान करती हैं। तुम भाग खड़े होओगे। तुम तो उसी गुरु को चुनोगे, जो तुम्हारे जैसा है। बड़ा मुश्किल है। और उससे तुम कभी मुक्त न होओगे, क्योंकि वह तुम्हें उसी जाल में डाल देगा। जिस जाल में तुम पहले से ही पड़े थे, उसके विपरीत जाल में डाल देगा। लेकिन वह एक ही श्रृंखला है--कामी ब्रह्मचारियों को चुन लेते हैं।
मैं निरंतर देखता हूं और लोग मुझसे आ कर बात करते हैं कि ऐसा हुआ। अभी चार-छह दिन पहले पार्लियामेंट के एक सदस्य और एक बड़े उद्योगपति मुझे मिलने आए। आते से ही उन्होंने कहा कि आपकी स्मृति बड़ी अदभुत है। तभी मुझे लगा कि इस आदमी की स्मृति कमजोर होनी चाहिए, यह भी कोई बात है करने की! स्मृति से क्या लेना-देना है, अच्छी है या बुरी, इससे क्या? तो इसकी स्मृति जरूर कमजोर होनी चाहिए। जब बार-बार वे कहने लगे कि गजब हैं आप, कि न नाम भूलते हैं आप, न किताब भूलते हैं आप, न कोई परिचित आदमी को भूलते हैं वर्षों तक आप। आपकी स्मृति बड़ी अदभुत है। तभी उन्होंने कहा कि अभी पिछले महीने जब आप क्रास मैदान में रामायण पर व्याख्यान कर रहे थे--मैं रामायण पर कभी बोला नहीं, गीता पर बोल रहा था--वे कह रहे हैं कि रामायण पर प्रवचन कर रहे थे! क्या बातें आपने कहीं! बड़े-बड़े पंडितों से रामायण सुनी है। तब मैंने कहा, कि महाराज, जब आप आए, तभी मैं समझ गया था कि आप स्मृति की कमजोरी से बीमार हैं।
आपको क्या प्रभावित करता है, वह खबर देता है आपके संबंध में। वह दूसरे के संबंध में बहुत खबर नहीं देता, सिर्फ आपके संबंध में खबर देता है। अगर आपको पता चल जाए कि फलां आदमी बाल-ब्रह्मचारी है। तो बिचारे महात्मा घोषणा करवाते रहते हैं कि फलां बाल-ब्रह्मचारी हैं। कामी लोग जल्दी उत्सुक होते हैं बाल-ब्रह्मचारियों में। इसका और कोई कारण नहीं है। इसका कारण उनकी कमजोरी है, उनकी तकलीफ है। एक अति पर वे खड़े हैं, दूसरी अति उन्हें बुलाती है।
आप लोभी हैं। तो अगर कोई कह दे कि उसने लाखों रुपए त्याग कर दिए, बस आप चरणों में गिर प़ड़ते हैं। यह आपके बाबत खबर दे रहा है। उसने लाख छोड़े कि नहीं, इसका कोई बड़ा मतलब नहीं है। मगर आप कौड़ी भी पकड़े हुए हैं, इसलिए लाख छोड़ने वाला आपको एकदम प्रभावित करता है, आप एकदम चरण पकड़ लेते हैं।
जैनी अपने शास्त्रों में लिखते हैं, महावीर ने इतने घोड़े छोड़े, इतने हाथी छोड़े! ये इतने हाथी-घोड़ों की बाबत जो इतनी चर्चा चलाते हैं, इनके संबंध में यह खबर है। महावीर ने छोड़े कि नहीं, यह बड़ा महत्वपूर्ण नहीं है। और क्यों घोड़े-गधे--इनके छोड़ने से क्या लेना-देना है? कितने छोड़े इसकी संख्या का क्या प्रयोजन है?
लेकिन संख्या को बढ़ाए चले जाते हैं! यह इनकी पकड़ की खबर है। इसलिए महावीर के आसपास लोभी इकट्ठे हो गए हैं। इसलिए जैनियों ने अगर खूब पैसा इकट्ठा किया है तो उसका कारण है। अगर वे समृद्ध बन सके तो उसका कारण है। असल में लोभी उत्सुक हुए महावीर की तरफ। वे त्यागी थे, तो लोभी एकदम पकड़ता है।
आप किसको पकड़ते हैं, यह आप पर निर्भर है। और तब बड़ी दुर्घटना घटती है। इस जगत में महागुरु भी असफल हो जाते हैं, क्योंकि उनको जो लोग पकड़ लेते हैं, वे बिलकुल उलटे लोग होते हैं। महावीर को आप नहीं समझ सके। आपके लोभ की वजह से आप उत्सुक हो गए कि इस आदमी ने इतना छोड़ा, गजब है! क्योंकि आप छोड़ नहीं सकते एक कौड़ी। और इतने हाथी, इतने घोड़े, इतने रत्न छोड़ दिए! बस यह आदमी ठीक गुरु है। और आप बिलकुल गलत आदमी हैं इस गुरु के लिए।
जिंदगी बहुत जटिल है। ठीक-ठीक आदेश अगर आपको पाना है और अपने से बचना है, क्योंकि आप गुरु को भी खोजेंगे तो उसे आपकी परिधि का ही आदमी खोजेगा। आप गलत को ही खोज लेंगे। आप ठीक को भी खोजेंगे, तो उसमें भी गलत को ही आरोपित करके खोजेंगे। उचित है कि आप पीछे सरकें और साक्षीभाव में खड़े हों। क्योंकि आप पहले तो अपने को ही साक्षीभाव से देखें। इस साक्षीभाव से देखने की जैसे ही क्षमता आपमें विकसित होगी, आपको अंतर-आदेश उपलब्ध होने शुरू हो जाएंगे। वे ही आदेश सत्य हैं। वे आदेश आपको ठीक मार्ग पर ले जाएंगे। अपनी वाणी की खोज, अंतर-आत्मा की, अंतःकरण की, अत्यंत जरूरी है। उस खोज के बिना आप भटकते रहेंगे लहरों पर लकड़ी के टुकड़े की तरह, कभी यहां टकराएंगे, कभी वहां टकराएंगे। समय नष्ट होगा।
सबसे पहले आपको अंतर की खोज करनी है। क्योंकि उस अंतर की खोज के बाद जो गुरु भी आप चुनेंगे, वह बात ही और होगी। क्योंकि तब वह आपके परिधि के आदमी ने नहीं चुना है, आपके बीमार आदमी ने नहीं चुना है। आपकी ही अंतर-वाणी आई है।
साक्षीभाव को अगर आप थोड़ा भी समझ लें, तो जिस गुरु को आप चुनेंगे, उसके सहारे आप पार हो सकेंगे। वह नाव बन सकता है। पर वह होना चाहिए अंतर का आदेश, आपकी परिधि की बातें नहीं।
‘युद्ध के लिए उसका आदेश प्राप्त करो और उसका पालन करो। सेनापति मान कर उसकी आज्ञाओं का पालन न करो, वरन इस प्रकार करो मानो कि वह तुम्हारा ही स्वरूप है और उसके शब्दों में मानो तुम्हारी ही गुप्त इच्छाएं मुखरित हो रही हैं। क्योंकि वह तुम्हीं हो, परंतु वह तुमसे असीम रूप से अधिक ज्ञानी और शक्तिशाली है।’
तुम्हारे ही भीतर छिपा है तुम्हारा ही एक रूप, जो तुमसे बहुत ज्यादा शक्तिशाली और बहुत ज्ञानी है। उसकी सुनो, उसका अनुसरण करो। लेकिन उसके लिए जरूरी है कि तुम द्वंद्व के बीच जाग कर साक्षी बनना सीखो।

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