MABEL COLLINS

Sadhana Sutra 07

Seventh Discourse from the series of 20 discourses - Sadhana Sutra by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during APR 06-14 1973.
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13. मार्ग की शोध करो।

थोड़ा रुको और विचार करो।
तुम मार्ग पाना चाहते हो, या तुम्हारे मन में ऊंची स्थिति प्राप्त करने,
ऊंचे चढ़ने और एक विशाल भविष्य निर्माण करने के स्वप्न हैं, सावधान!
मार्ग के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है--तुम्हारे ही चरण उस पर चलेंगे, इसलिए नहीं।

14. अपने भीतर लौटकर मार्ग की शोध करो।

15. बाह्य जीवन में हिम्मत से आगे बढ़कर मार्ग की शोध करो।

जो मनुष्य साधना-पथ में प्रविष्ट होना चाहता है,
उसको अपने समस्त स्वभाव को बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग में लाना चाहिए।
प्रत्येक मनुष्य पूर्णरूपेण स्वयं अपना मार्ग, अपना सत्य, और अपना जीवन है।
और इस प्रकार उस मार्ग को ढूंढ़ो। उस मार्ग को जीवन और अस्तित्व के नियमों,
प्रकृति के नियमों एवं पराप्राकृतिक नियमों के अध्ययन के द्वारा ढूंढ़ो।
ज्यों-ज्यों तुम उसकी उपासना और उसका निरीक्षण करते जाओगे,
उसका प्रकाश स्थिर गति से बढ़ता जाएगा।
तब तुम्हें पता चलेगा कि तुमने मार्ग का प्रारंभिक छोर पा लिया है।
और जब तुम मार्ग का अंतिम छोर पा लोगे,
तो उसका प्रकाश एकाएक अनंत प्रकाश का रूप धारण कर लेगा।
उस भीतर के दृश्य से न भयभीत होओ और न आश्चर्य करो।
उस धीमे प्रकाश पर अपनी दृष्टि रखो। तब वह प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ेगा।
लेकिन अपने भीतर के अंधकार से सहायता लो और समझो कि जिन्होंने प्रकाश देखा ही नहीं है,
वे कितने असहाय हैं और उनकी आत्मा कितने गहन अंधकार में है!
तेरहवां सूत्र, ‘मार्ग की शोध करो। थोड़ा रुको और विचार करो। तुम मार्ग पाना चाहते हो, या तुम्हारे मन में ऊंची स्थिति प्राप्त करने, ऊंचे चढ़ने और एक विशाल भविष्य निर्माण करने के स्वप्न हैं, सावधान! मार्ग के लिए ही मार्ग को प्राप्त करना है--तुम्हारे ही चरण उस पर चलेंगे, इसलिए नहीं।’
इस सूत्र में बहुत सी बातें समझने जैसी हैं।
पहली बात, मार्ग मिला हुआ नहीं है। उसकी खोज करनी है। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति इस भ्रांति में है कि मार्ग मिला हुआ है। और सारी दुनिया में धर्म को नष्ट करने में अगर किसी बात ने सबसे ज्यादा सहायता पहुंचाई है, तो वह इस भ्रांति में है कि मार्ग मिला हुआ है।
जन्म के साथ मार्ग नहीं मिलता, लेकिन सभी धर्मों ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि जन्म के साथ वे धर्म भी आपको दे देते हैं! मां के दूध के साथ धर्म भी दे दिया जाता है! बच्चा जब होता है अबोध, और उसे कुछ न चिंतना होती है, न कोई मनन होता है, न कोई समझ होती है, तभी गहरे अचेतन में हम मार्ग को डाल देते हैं! मां-बाप अपने मार्ग को डाल देते हैं! उनका भी वह मार्ग नहीं है! वह भी उनके मां-बाप ने उनमें डाल दिया है। तो आप हिंदू की तरह पैदा होते हैं, मुसलमान की तरह, जैन की तरह, ईसाई की तरह। आप जन्म के साथ किसी मार्ग से जुड़ जाते हैं, जोड़ दिए जाते हैं।
कोई व्यक्ति न हिंदू पैदा होता है, न मुसलमान। न हो सकता है। हिंदू घर में पैदा हो सकता है, लेकिन हिंदू कोई भी पैदा नहीं हो सकता। मुसलमान घर में पैदा हो सकता है, लेकिन मुसलमान पैदा नहीं हो सकता। आदमी पैदा होता है, तब उसके पास कोई धर्म, कोई मार्ग नहीं होता है। मार्ग मां-बाप, परिवार, समाज, जाति, बच्चे के ऊपर थोप देते हैं। और वे थोपने में जल्दी करते हैं, क्योंकि अगर बच्चे को होश आ जाए, तो वह थोपने में बाधा डालेगा। इसलिए बेहोशी में थोपा जाता है।
सभी धर्म बच्चों की गर्दन पकड़ने में बड़ी जल्दी करते हैं। जरा सी देर--और भूल हो जाएगी। और एक बार बच्चा अगर अचेतन की अवस्था से चेतन में आ गया, होश सम्हाल लिया, तो फिर आप धर्म को थोप ही न पाएंगे। फिर तो बच्चा अपनी ही खोज करेगा। और हो सकता है कि हिंदू घर के बच्चे को लगे कि ईसाई मार्ग उसके लिए है। और ईसाई घर के बच्चे को लगे कि हिंदू मार्ग उसके लिए है। बड़ी अस्तव्यस्तता हो जाएगी। वैसी अस्तव्यस्तता न हो जाए, मेरा बेटा मेरे धर्म को छोड़ कर न चला जाए, तो अचेतन में हम अपराध करते हैं, हम बच्चे की गर्दन को जकड़ देते हैं संस्कारों से। मनुष्य ने अब तक जो बड़े से बड़े पाप किए हैं, उनमें यह सबसे बड़ा पाप है।
इसे मैं क्यों सबसे बड़ा पाप कहता हूं? क्योंकि इसका यह अर्थ हुआ कि हमने बच्चे को एक झूठा धर्म दे दिया है, जो उसका चुनाव नहीं है। और धर्म कुछ ऐसी बात है कि जब तक आप न चुनें, तब तक सार्थक नहीं होगा। जब आप ही चुनते हैं, अपने प्राणों की खोज से, पीड़ा से, प्यास से, तो ही आप धार्मिक होते हैं। यह दूसरों का दिया हुआ धर्म ऊपर-ऊपर रह जाता है। और इसके कारण आपकी अपनी खोज में बाधा पड़ती है।
इसलिए देखें, जब बुद्ध जीवित होते हैं, या महावीर जीवित होते हैं, या मोहम्मद जीवित होते हैं, या ईसा--तो उस समय जो धर्म का प्रकाश होता है और जो लोग उनके पास आते हैं, उनके जीवन में जैसी क्रांति घटित होती है, फिर बाद में वह ज्योति मद्धिम होती चली जाती है। क्योंकि बुद्ध के पास जो लोग आ कर दीक्षित होते हैं, वह उनका खुद का चुनाव है कि वे बौद्ध हो रहे हैं। सोच-विचार से, अनुभव से, चिंतन से, साधना से, उन्हें लगा है कि बुद्ध का मार्ग ठीक है, तो वे बुद्ध के पीछे आ रहे हैं। यह उनका निजी चुनाव है, यह उनका अपना समर्पण है। यह प्रतिबद्धता किसी और ने नहीं दी है, उन्होंने खुद ली है। तब मजा ही और है। तब वे अपने पूरे जीवन को दांव पर लगा देते हैं। क्योंकि जो उन्हें ठीक लगता है, उस पर जीवन दांव पर लगाया जा सकता है। लेकिन उनके बच्चे पैदायशी बौद्ध होंगे। उनका चुनाव नहीं होगा। उन्होंने खुद निर्णय न लिया होगा। उन्होंने सोचा भी न होगा। बौद्ध धर्म उनकी छाती पर बिठा दिया जाएगा।
ध्यान रहे, जो आप अपनी मर्जी से चुनते हैं, अगर नर्क भी चुनें अपनी मर्जी से तो वह स्वर्ग होगा। और अगर स्वर्ग भी जबर्दस्ती आपके ऊपर रख दिया जाए तो वह नर्क हो जाएगा। जबर्दस्ती में नर्क है। अगर ऊपर से कोई चीज थोप दी जाए, तो वह आनंद भी अगर हो, तो भी दुख हो जाएगा। थोपने में दुख हो जाता है। और जो भी चीज थोपी जाती है, वह कारागृह बन जाती है।
तो न तो आज जमीन पर हिंदू हैं, न मुसलमान, न बौद्ध। आज कैदी हैं। कोई हिंदू कैदखाने में है, कोई मुसलमान कैदखाने में है, कोई जैन कैदखाने में है।
कैदखाना इसलिए कहता हूं कि आपने कभी सोचा ही नहीं कि आपको जैन होना है, कि हिंदू होना है, कि मुसलमान होना है। आपने चुना नहीं है। यह आपकी गुलामी है। लेकिन गुलामी इतनी सूक्ष्म है कि आपको पता नहीं चलता, क्योंकि आपके होश में नहीं डाली गई है। जब आप बेहोश थे, तब यह गुलामी, यह जंजीर आपके हाथ में पहना दी गई। जब आपको होश आया तो आपने जंजीर अपने हाथ में ही पाई। और इसे जंजीर भी नहीं कहा जाता है। इसे आपके मां-बाप ने, परिवार ने, समाज ने समझाया है कि यह आभूषण है! आप इसको सम्हालते हैं, कोई तोड़ न दे। यह आभूषण है और बड़ा कीमती है, आप इसके लिए जान लगा देंगे।
एक बड़े मजे की घटना घटती है। अगर हिंदू धर्म पर खतरा हो तो आप अपनी जान लगा सकते हैं। आप हिंदू धर्म, मुसलमान या ईसाई, किसी भी धर्म के लिए मर सकते हैं, लेकिन जी नहीं सकते। अगर आपसे कहा जाए कि जीवन हिंदू की तरह जीयो, तो आप जीने को राजी नहीं हैं। मुसलमान की तरह जीयो, जीने को राजी नहीं हैं। लेकिन अगर झगड़ा-फसाद हो तो आप मरने के लिए राजी हैं! वह आदमी हिंदू धर्म के लिए मरने के लिए राजी है, जो हिंदू धर्म के लिए जीने के लिए कभी राजी नहीं था! क्या मामला है?
कहीं कोई रोग है, कहीं कोई बीमारी है। जीने के लिए हमारी कोई उत्सुकता नहीं है। मार-काट के लिए हम उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि जैसे ही कोई हमारे धर्म पर हमला करता है, हमें होश ही नहीं रह जाता। वह हमारा बेहोश हिस्सा है, जिस पर हमला किया जा रहा है।
इसलिए जब भी हिंदू-मुसलमान लड़ते हैं, तो आप यह मत समझना कि वे होश में लड़ रहे हैं। वे बेहोशी में लड़ रहे हैं। बेहोशी में वे हिंदू-मुसलमान हैं, होश में नहीं हैं। इसलिए कोई भी उनके अचेतन मन को चोट कर दे, तो बस वे पागल हो जाएंगे। न तो हिंदू लड़ते हैं, न मुसलमान लड़ते हैं--पागल लड़ते हैं। कोई हिंदू मार्का पागल है। कोई मुसलमान मार्का पागल है। यह मार्कों का फर्क है, लेकिन पागल है।
और आपके भीतर धर्म उस समय डाला जाता है, जब तर्क की कोई क्षमता नहीं होती।
इसलिए मैं कहता हूं कि यह सबसे बड़ा पाप है। और जब तक यह पाप बंद नहीं होता, जब तक हम प्रत्येक व्यक्ति को अपने मार्ग की खोज की स्वतंत्रता नहीं देते, तब तक दुनिया धार्मिक नहीं हो सकेगी। क्योंकि धार्मिक होने के लिए स्वयं का निर्णय चाहिए।
इसे हम ऐसा समझें तो आसान हो जाएगा।
पुराने दिनों में, हमारे मुल्क में तो अभी भी, अभी थोड़े दिन पहले तक हम बाल-विवाह कर देते थे। न तो पति को कोई प्रयोजन था कि किससे हो रहा है विवाह, न पत्नी को कोई प्रयोजन था कि किससे हो रहा है विवाह। बच्चे इतने छोटे थे कि उन्हें अभी पता भी नहीं था कि क्या हो रहा है! पति-पत्नी हम उन्हें बना देते थे उनकी अचेतना में, उनको होश नहीं होता था, बेहोशी में। जैसे जन्म के साथ बहन, मां-बाप मिलते हैं, ऐसे ही बेहोशी में पत्नी और पति भी मिल जाते थे।
एक सुविधा थी बाल-विवाह में कि उसको तोड़ना बहुत मुश्किल था। क्योंकि अचेतन जुड़ जाता था, होश की बात ही नहीं थी, चुनाव का कोई सवाल ही नहीं था, तो तोड़ने का सवाल कहां था? बाल-विवाह जिन्होंने खोजा होगा, वे बहुत कुशल लोग थे। उसका मतलब यह था कि विवाह अब टूटेगा नहीं। क्योंकि जो कभी सचेतन रूप से जोड़ा ही नहीं गया, वह सचेतन रूप से तोड़ा भी नहीं जा सकता। तो विवाह चलेगा, स्थाई होगा, लेकिन उस विवाह में प्रेम की घटना कभी नहीं घटेगी।
ध्यान रहे, पास रह कर, समीप रह कर, साथ रह कर, एक तरह का मैत्रीभाव बन जाता है, लेकिन वह प्रेम नहीं है। प्रेम तो एक पागलपन है, प्रेम तो एक उन्माद है।
बाल-विवाह में प्रेम घटता ही नहीं। असल में बाल-विवाह की तरकीब ही इसीलिए है कि प्रेम घटे न, क्योंकि प्रेम खतरनाक है, वह घटे ही न। विवाह सुरक्षित है, प्रेम खतरनाक है। प्रेम इतनी ऊंचाइयां लेता है कि खतरा है, अगर वहां से गिरे तो उतनी ही गहराइयों में गिर जाएंगे। विवाह में कभी गिर नहीं सकते आप, क्योंकि उसकी कोई ऊंचाई नहीं होती, समतल जमीन पर यात्रा है। न कोई शिखर होता है, न कोई खाई होती है--सुरक्षित है, स्थाई है।
तो विवाह एक संस्था है, प्रेम एक घटना है। घटना अनजान होती है, संस्था को आयोजित किया जा सकता है। तो कुशल लोग थे। प्रेम खतरनाक हो सकता है। होगा ही। क्योंकि इतनी ऊंचाई पर सदा जीना बहुत मुश्किल है, नीचे उतरना पड़ेगा। प्रेम इतनी ऊंचाई पर ले जाता है कल्पना की, ऐसे स्वप्न निर्मित कर देता है कि उन स्वप्नों के साथ जीना थोड़े से स्वप्नदर्शियों के लिए संभव है। बाकी लोग तो जमीन पर गिर जाएंगे, उस शिखर पर जीना मुश्किल है। और जब गिरेंगे तो बड़ी पीड़ा होगी। ध्यान रहे, जितना बड़ा सुख चाहिए हो, उतने बड़े दुख की खाई सदा पास में होती है।
तो बाल-विवाह करने वाले लोगों ने बड़ी कुशल व्यवस्था की थी। प्रेम का खतरा अलग कर दिया था, गिरने का भय नहीं रहा था। और जब आपने विवाह किया ही नहीं था, तो तलाक करने का कोई सवाल नहीं था। जो आपने किया ही नहीं है, उसको आप तोड़ भी नहीं सकते। आप अपनी बहन से कहीं तलाक ले सकते हैं? कि अपनी मां से तलाक ले सकते हैं? यह तो प्राकृतिक घटना है, इसमें आप छोड़ कर जाइएगा कहां? क्या उपाय है कि आप कह दें कि अब मेरा बहन से तलाक हो गया है! यह मेरी बहन न रही। इसका कोई उपाय नहीं है। चाहे दुश्मन हो जाएं, चाहे कुछ भी करें, बहन बहन रहेगी, बाप बाप रहेगा, मां मां रहेगी। हमने पत्नी को भी ठीक इसी ढांचे में डाल दिया था।
चुनाव का एक ही मौका है जीवन में--संबंध में। बाप तो जन्म से मिलता है, मां जन्म से मिलती है, बहन-भाई जन्म से मिलते हैं। सिर्फ एक पति और पत्नी का संबंध है, जिसमें स्वतंत्रता है। बाकी तो सब परतंत्रता है। तो वह एक स्वतंत्रता की घटना खतरनाक हो सकती है, क्योंकि स्वतंत्रता खतरनाक है। हमने उसे भी काट दिया था। हमने विवाह को भी एक संस्था बना कर अचेतन के साथ जोड़ दिया था। खतरा तो मिट गया था, लेकिन प्रेम की वह जो रोमानी उड़ान थी, वह भी मिट गई थी। खतरे के साथ उसका जो रस था, वह भी मिट गया था।
जैसा हमने बाल-विवाह के साथ किया था, वैसा ही हमने धर्म के साथ किया है। हम उसे भी जोड़ देते हैं। बच्चा जब बड़ा होता है, तो वह पाता है कि वह हिंदू है। उसे होश ही नहीं है कि जब वह पैदा हुआ था तो हिंदू नहीं था। जब उसे होश आता है, तो वह पाता है कि वह हिंदू है, मुसलमान है। उसे यह भी खयाल नहीं आता है कि यह संस्कार उधार है, यह किसी ने डाल दिया है उसके चेतन में, इंजेक्ट किया गया है, इसे ले कर वह पैदा नहीं हुआ था। अब जीवन भर वह यही मान कर चलेगा कि मैं हिंदू हूं। और जो उसने नहीं चुना है, उसमें उसे कोई ज्यादा रस नहीं हो सकता है। क्योंकि उससे उसका कोई संबंध ही नहीं है, अगर ठीक से हम सोचें तो। आरोपण है, उसे ढो लेगा एक औपचारिकता की तरह। कभी मंदिर जरूरी होगा, तो हो आएगा। चर्च रविवार को पहुंच जाएगा। कभी कोई उत्सव हो तो एक औपचारिकता है, निभा लेगा। धर्म तब एक सामाजिक व्यवस्था का अंग हो जाता है।
और धर्म सामाजिक व्यवस्था का अंग नहीं है। जैसे प्रेम खतरनाक है, धर्म उससे भी ज्यादा खतरनाक है। जैसे प्रेम खतरनाक है, क्योंकि उसके रास्ते का कुछ भी पता नहीं है, कोई पूर्व घोषणा नहीं हो सकती कि क्या होगा! धर्म उससे भी ज्यादा खतरनाक है। प्रेम भी अनजान मार्गों पर ले जाता है, धर्म तो और भी अनजान मार्गों पर ले जाता है। धर्म तो आत्म-क्रांति है।
हमने धर्म को बना दिया है सामाजिक संस्था, तो आत्म-क्रांति का कोई उपाय न रहा। फिर जो चीज हम पर थोप दी गई है, उसके प्रति मन में एक विरोध होता है। होगा ही। और जो चीज हम पर थोप दी गई है, उसको तोड़ने में रस आता है। क्यों? क्योंकि जब हम उसे तोड़ते हैं तो हमें लगता है कि हम मुक्त हो रहे हैं।
फ्रायड ने लिखा है कि मैं अपनी पत्नी और बच्चे के साथ एक बगीचे में घूमने गया था। जब हम लौटने लगे और दरवाजा बंद होने लगा, तो बच्चा नदारत था। तो मैंने पत्नी को पूछा कि कहां है बच्चा? पत्नी घबड़ा गई, दरवाजा बंद हो रहा है, बड़ा बगीचा है मीलों लंबा, कहां होगा बच्चा? तो फ्रायड ने कहा कि तू घबड़ा मत, तूने उसे कहीं जाने को मना तो नहीं किया था? अगर मना किया हो, तो पहले हम वहीं खोज लें। अगर उसमें थोड़ी भी बुद्धि है, तो वहीं होना चाहिए। पत्नी ने कहा, मैंने कहा था कि फव्वारे पर मत जाना। फ्रायड ने कहा, भाग, फव्वारे की तरफ चलें। फव्वारे पर बेटा पैर लटकाए पानी में बैठा था। फ्रायड की पत्नी कहने लगी, तुमने कैसे अंदाज लगाया कि लड़का वहां होगा? फ्रायड ने कहा कि इसमें भी अंदाज लगाने की क्या बात है! अगर लड़का बिलकुल बुद्धू हो तो भूल हो सकती थी। अगर लड़के में थोड़ी भी बुद्धि है, तो जहां इनकार है, वहां रस है; जहां निषेध है, वहां निमंत्रण है।
कह दो किसी से, ऐसा मत करना--तुमने रस पैदा कर दिया करने का।
आज जो समाज में इतनी अनीति दिखाई पड़ती है, यह नैतिक उपदेष्टाओं का परिणाम है, जो आपके गुरु बन कर बैठे हैं। साधु हैं, संन्यासी हैं, महात्मा हैं, नब्बे प्रतिशत अनीति के लिए ये जिम्मेवार हैं। क्योंकि ये रस पैदा करवाते हैं। ये कहते हैं, यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो। और जहां-जहां ये कहते हैं, यह मत करो, वहांं लगता है कि जरूर कोई रहस्य का खजाना छिपा है। जब इतने महात्मा लगे हैं समझाने में, तो जरूर कुछ बात होगी। कुछ न कुछ होगा! नहीं तो क्यों इतने महात्मा समय नष्ट करेंगे अपना! कि यह मत करो...। मन होता है कि खोजो, पता लगाओ। और एक रुग्ण रस पैदा हो जाता है।
देखिए, किसी फिल्म पर लगा दिया जाए, ओनली फार एडल्ट्‌स, सिर्फ वयस्कों के लिए! फिर देखिए छोटे बच्चे भी दो आने की मूंछ खरीद कर और लगा कर खड़े हो जाते हैं कतार में कि जरूर कोई मामला है, कुछ न कुछ रसपूर्ण वहां हो रहा है। बहुत मुश्किल है निषेध से बचना।
तो जो-जो चीजें थोपी जाती हैं जबर्दस्ती, उनको तोड़ने में रस आने लगता है। इतनी अधार्मिकता का कारण यह है कि धर्म आरोपण है, वह आपका चुनाव नहीं है, वह आपका निजी संकल्प नहीं है।
अच्छा है अधार्मिक होना, लेकिन दूसरे का धर्म सिर पर ढोना अच्छा नहीं है। क्योंकि तब आप कभी भी धार्मिक न हो पाएंगे, तब आप झूठे ही रहेंगे। अच्छा है फेंक दें उधार को। कुछ दिन बिना धर्म के जी लिए तो हर्जा नहीं है। लेकिन बिना धर्म के कोई भी आदमी ज्यादा दिन जी नहीं सकता। क्योंकि बिना धर्म के आनंद को पाने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए मैं भयभीत नहीं हूं, मैं कहता हूं, बेहतर है कि बिना धर्म के हों, लेकिन थोपा हुआ धर्म खतरनाक है। क्योंकि उस थोपे हुए धर्म के कारण आपके मन में धर्म के प्रति ही विरोध पैदा हो जाता है। गहरे में विरोध रहता है, ऊपर-ऊपर धर्म रहता है। और आप दो हिस्सों में बंट जाते हैं। तो फिर आप खोज के लिए भी नहीं जाते। फिर जब भी कहीं धर्म की बात उठती है तो आपको लगता है कि ठीक है, धर्म तो हमें पता ही है, धर्म तो हमें मालूम ही है। यह जो उधार, आरोपित, संस्कारित धर्म है, यह आपका मार्ग नहीं है। इसमें और भी खतरे हैं।
एक तो धर्म संस्था नहीं बनना चाहिए; धर्म क्रांति है। और प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म चुनना चाहिए, अपना मार्ग चुनना चाहिए। क्योंकि जिससे मोक्ष मिलने वाला है, वह दूसरे का दिया हुआ कैसे मोक्ष तक ले जाएगा? थोड़ा सोचें, जिससे परम-मुक्ति मिलने वाली है, उसका प्रारंभिक चरण ही गुलामी है, तो उससे परम-मुक्ति कैसे मिलेगी? कोई आपसे कह रहा हो कि परम-मुक्ति मिलेगी, पहले आपके हाथ में हथकड़ी डालने दो; परम-मुक्ति मिलेगी, पहले कारागृह में आपको कैद करने दो; परम-मुक्ति मिलेगी, छाती से पत्थर लटका देने दो; तो आप राजी होंगे कि यह परम-मुक्ति की तरफ ले जा रहे हैं आप मुझे? तो अभी ही मैं काफी मुक्त हूं! आप जो बता रहे हैं, वह और भी गुलामी हो जाएगी।
मुक्ति तो मुक्त होने से ही मिलेगी। मुक्ति का पहला चरण भी मुक्ति ही होगा। और पहली मुक्ति जरूरी है कि दूसरों के द्वारा दिए गए धर्म से मुक्ति।
अपने मार्ग की शोध करो--यह सूत्र का अर्थ है।
डरो मत, भयभीत मत होओ। और जरूरी नहीं है कि जिस धर्म में आप संयोग से पैदा हुए हैं और जो संस्कार आप पर डाल दिए गए हैं, वे आपके काम के हों। यह भी जरूरी नहीं है। काम के भी न हों, खतरनाक भी हों, बाधा भी हों, क्योंकि...इसे थोड़ा सोचें।
मीरा है; नाचती है, गाती है। उसकी समाधि नृत्य बन गई है। आप महावीर को नाचता हुआ सोच सकते हैं कि नाच रहे हैं महावीर? तो बहुत बेतुका लगेगा। सोचने में ही बेतुका लगेगा कि महावीर और नाच रहे हैं। जंचेगी नहीं बात, कल्पना भी करनी मुश्किल है। अभी तक किसी ने सपना भी नहीं देखा कि महावीर नाच रहे हैं, मोर-मुकुट बांधे हुए हैं। वे बड़े बेतुके लगेंगे, बड़े हास्यास्पद मालूम होंगे। लेकिन मीरा अगर न नाचे, और बैठ जाए महावीर की तरह, पत्थर की मूर्ति बन कर वृक्ष के नीचे, तो भी न जंचेगी। मीरा का व्यक्तित्व, महावीर के व्यक्तित्व से अलग है। उसका मोक्ष नृत्य के मार्ग से ही आएगा। महावीर का मोक्ष मौन, शांत, स्थिर हो कर ही आएगा। और दोनों मोक्ष की तरफ जाएंगे, लेकिन अपने-अपने ढंग से जाएंगे।
कृष्ण और क्राइस्ट को साथ-साथ खड़ा करके सोचो तो बड़ी मुश्किल होती है। जीसस को मानने वाले कहते हैं कि क्राइस्ट कभी हंसे नहीं। क्योंकि जगत में इतनी पीड़ा है, इतना दुख है--कैसे हंसें? परम-ज्ञानी कैसे हंसेगा? और इधर कृष्ण हैं कि नाच रहे हैं, बांसुरी बजा रहे हैं, गोपियों के साथ रास चल रहा है। तो जीसस का मानने वाला सोच ही नहीं सकता कि कृष्ण कोई परम-ज्ञानी हो सकते हैं। क्योंकि यह इतनी प्रसन्नता परम-ज्ञानी को शोभा नहीं देती। और कृष्ण का मानने वाला यह नहीं सोच सकता कि यह उदास, लंबे चेहरे वाला आदमी जीसस, यह परम-ज्ञानी हो सकता है। ऐसी उदासी, मुर्दगी, यह परम-ज्ञानी को शोभा नहीं देती। परम-ज्ञानी तो आनंद से भरपूर हो जाना चाहिए।
लेकिन क्राइस्ट भी पहुंचते हैं अपने रास्ते से। जगत की पीड़ा के साथ जो अपने को तादात्म्य कर लेता है, सारे जगत की पीड़ा जो अपने ऊपर ले लेता है, जो अपने को भूल ही जाता है और सारे जगत की पीड़ा से एक हो जाता है, वह भी पहुंचता है। वह भी एक मार्ग है।
और जो सारी पीड़ा को भूल ही जाता है, आनंद में इतना लीन हो जाता है कि इस जगत में पीड़ा है, इसका जिसे पता भी नहीं चलता है, जो इस अस्तित्व के उत्सव के साथ एक रस हो जाता है, जो रास में डूब जाता है, वह भी पहुंच जाता है। लेकिन पहुंचने के रास्ते अलग-अलग हैं।
अब मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि अगर आपका रास्ता नृत्य का हो और आप महावीर के मानने वालों के घर में पैदा हो गए, तो आप मुश्किल में पड़ेंगे। क्योंकि आपका कहीं तालमेल नहीं बैठेगा। मीरा के घर में पैदा हो गए, तब तो ठीक, नहीं तो आपका कोई तालमेल नहीं बैठेगा। आप हमेशा पाएंगे कि आप कहीं न कहीं, कोई मेल ही नहीं बैठ रहा है। और चेतन मन में आप समझेंगे कि आप जैन हैं, और आपके पूरे व्यक्तित्व का ढांचा जो है, वह किसी भक्त का है, तो आप अड़चन में पड़ेंगे। अगर आप महावीर जैसे व्यक्तित्व के आदमी हैं और कहीं कृष्ण को मानने वालों के घर में पैदा हो गए, तो ऊपर से आपको लगेगा कि ठीक है और भीतर से लगेगा सब गलत है। तो आप पाखंडी हो जाएंगे। जो आप करेंगे, वह आपके व्यक्तित्व से मेल नहीं खाएगा, इसलिए वास्तविक, प्रामाणिक नहीं होगा। और जो आप करना चाहेंगे, वह आप कर न सकेंगे, क्योंकि वह आपके संस्कार से विपरीत पड़ जाएगा।
अगर हमने सारी मनुष्यता को आज इतनी उलझन में डाल दिया है, तो उसका कारण यह है। सभी धर्मों का अध्ययन करना जरूरी है, लेकिन चुनाव स्वयं का होना चाहिए, कोई दूसरा चुनाव न करे। अच्छी दुनिया पैदा हो सकती है। सब धर्म वैसे ही पढ़ाए जाएं और खुला छोड़ दिया जाए व्यक्ति को कि वह अपनी खोज कर ले। और वह जो भी खोज ले, उसका स्वागत हो।
इसके गहरे परिणाम होंगे। इससे एक तो धर्म के प्रति जो बगावत पैदा हो जाती है, वह पैदा नहीं होगी। दुनिया से नास्तिक कम हो जाएंगे। नास्तिकता पैदा होती है जबर्दस्ती थोपी गई आस्तिकता की प्रतिक्रिया में। दुनिया से नास्तिकता कम हो जाएगी। दुनिया से तालमेल न बैठने वाली व्यवस्था क्षीण हो जाएगी। जिससे तालमेल बैठेगा, वही हम चुनेंगे। एक रस पैदा होगा, एक प्रेम पैदा होगा। जो हमने चुना है, वह हमारी निजी खोज होगी। जो मेरी खोज है, उसमें मुझे रस होता है। जो मेरा आविष्कार है, उसमें मुझे आनंद होता है। उसके लिए मैं सब कुछ दांव पर लगा सकता हूं। और जब तक हम सब दांव पर लगा न सकें अपने धर्म के लिए, तब तक हमारे जीवन में कोई क्रांति घटित नहीं होती।
तीसरा, एक-एक घर में अनेक धर्मों के लोग हो जाएंगे। दुनिया से दंगे-फसाद समाप्त हो सकते हैं। एक ही उपाय है कि एक घर में कई धर्मों के लोग हों, बस। और कोई उपाय नहीं है। कि बाप ईसाई हो, कि बेटा जैन हो, कि पत्नी मुसलमान हो, कि एक बहू बौद्ध हो, कि एक बहू कन्फ्यूशियन हो--एक घर में अनेक धर्मों के लोग हों, तो दंगा नहीं हो सकता। किससे लड़ने जाइएगा? अगर हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाए तो क्या करिएगा फिर? आपकी पत्नी मुसलमान है, वह मुसलमान के साथ खड़ी होगी; आपका बेटा बौद्ध है, वह बौद्ध के साथ खड़ा होगा; आपका भाई जैन है, वह जैन के साथ खड़ा होगा--घर में कैसे पाकिस्तान काटिएगा? बहुत मुश्किल हो जाएगा।
जब तक पूरा का पूरा घर एक धर्म में है, तब तक दुनिया से दंगे-फसाद बंद नहीं हो सकते। क्योंकि आप बच सकते हैं आसानी से। जिनसे आपका लगाव है, वे सब आपके धर्म के हैं। जिनसे आपका संबंध है, प्रेम है, वे सब आपके धर्म के हैं। लेकिन अगर एक घर में दस धर्मों के लोग हैं, तो आपका अपनी पत्नी से प्रेम है और वह मुसलमान है, तो आप मुसलमान से लड़ नहीं सकते।
चाहे कोई कितना ही चिल्लाए हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई, और कोई कितना ही कहे अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम--सब व्यर्थ है, इन बातों से कुछ होने वाला नहीं है। जब तक कि एक-एक घर की प्रेम की व्यवस्था में अनेक धर्म प्रविष्ट न हो जाएं, तब कहने की जरूरत न होगी कि हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई, वे होंगे। यह तो कहना पड़ता है इसलिए कि वे नहीं हैं। यह झूठ है, यह सरासर व्यर्थ है, यह ऊपर से थोपा हुआ है। और चालबाजी है। और राजनीति के सिवाय कुछ भी नहीं है।
यह जो सूत्र है, बहुत क्रांतिकारी है, ‘मार्ग की शोध करो।’
मार्ग तुम्हारे पास है नहीं। जन्म से मिलता नहीं, संस्कार से उपलब्ध नहीं होता। तुम्हें अपना मार्ग खोजना ही पड़ेगा। भूल होगी, चूक होगी--होने दो, भटकोगे--भटको। मुर्दा सुरक्षा से जीवित असुरक्षा बेहतर है। भटकना अच्छा है, क्योंकि भटक कर ही खोजा जा सकता है। बिना भटके, मुफ्त, किसी और से जो मिल जाता है, वह कहीं भी नहीं ले जाता है। अपने मार्ग की शोध में कई बाधाएं खड़ी होंगी।
आप यहां बैठे हैं, जब भी मैं कुछ बोलता हूं, तो आप भीतर पूरे वक्त तौलते रहते हैं कि अपने धर्म से मेल खाता है कि नहीं--शोध नहीं हो सकती। आपकी खोपड़ी में चलता ही रहता है कि गीता में भी ऐसा लिखा है कि नहीं? कि कुरान में ऐसा आता है कि नहीं? कि महावीर स्वामी ने ऐसा कहा है कि नहीं? अगर कहा, तो ठीक। अगर नहीं कहा, तो गलत। तो आप क्या खाक शोध करिएगा! आप पहले से ही मान कर बैठे हैं कि क्या ठीक है, क्या गलत है! यह आप तय ही किए हुए हैं। जब तय ही किए हुए हैं, तो खोज क्या होगी?
खोज तो वही कर सकता है, जिसने तय नहीं किया है। अगर मैं कुछ कह रहा हूं, या कोई भी कुछ कह रहा है, तो उसके प्रति बड़ा निष्पक्ष भाव होना चाहिए। पहले उसे समझने की चेष्टा करनी चाहिए और अपनी पूर्व धारणाएं एक तरफ रख देनीं चाहिए, कि तुम बीच में मत आना। क्योंकि उनके आने पर तो समझना असंभव है। उनको एक तरफ रख देने का मतलब यह नहीं है कि जो कहा जाए, वह मान लेना। मानने की कोई जरूरत नहीं है, समझना। और जब पूरी तरह से समझ लो, तब दोनों को तौलना। और दोनों को जब तौलो, तो दोनों से दूर खड़े हो कर तौलना। यह मत कहना कि एक मेरी मान्यता है और एक आपकी। तो फिर आप तौल नहीं पाओगे। क्योंकि जो आपकी मान्यता है, उसको आप जिता लोगे। फिर तो आप बेईमानी करोगे। फिर आप जज नहीं हो, फिर तो एक पक्ष से आपका संबंध है। आप संबंधी हो, तो आप न्याययुक्त न हो पाओगे।
जिस व्यक्ति को मार्ग की शोध करनी है, उसको सभी मार्गों से निष्पक्ष अपने को रखना जरूरी है। अगर जैन हो, तो जैन होने को एक तरफ रख देना है। मुसलमान हो, तो एक तरफ रख देना है। तब जो भी खोज रहे हो, उसको पूरा समझना, अनुभव में देखना और फिर दोनों को तौलना। और दोनों को तौलते वक्त किसी पक्ष में खुद खड़े मत होना, दोनों से दूर खड़े हो कर तौलना। तब अगर ठीक लगे कि मुसलमान जो कहता है, वही ठीक है, तो फिर उसका अनुगमन करना।
और ध्यान रहे, तब वह भी आपकी शोध हो गई। जरूरी नहीं है कि मुसलमान घर में जो पैदा हुआ है, उसको अनिवार्य रूप से यह पता चले कि मुसलमान होना ठीक नहीं है। पता चल सकता है कि मुसलमान होना ठीक है। हिंदू घर में पैदा हुए आदमी को जरूरी नहीं है कि हिंदू धर्म छोड़ना ही पड़े। हो सकता है कि हिंदू धर्म ही उसका मार्ग हो। लेकिन जब इतनी निष्पक्षता से खोजेगा, तो वह जो दिया हुआ है, वह भी अपना हो गया। फिर वह दिया हुआ नहीं रहा, हमने पुनः खोज कर ली, और पाया कि नहीं, हिंदू धर्म ही मेरे लिए मार्ग है। यह जो पुनः आविष्कार है, इससे सारा गुण बदल जाता है। तब यह मां-बाप का दिया हुआ धर्म नहीं है, मैंने खुद भी खोज लिया।
पर इसमें बड़ा ईमानदार होने की जरूरत है। जल्दी की जरूरत नहीं है कि मन में तो पता ही है कि हिंदू धर्म ठीक है। ऐसे तो हम मानते ही हैं। थोड़ा-बहुत, जरा कुरान वगैरह देख कर कहा कि नहीं, धर्म तो हिंदू ही ठीक है। इतनी जल्दबाजी से नहीं होगा। अपने को बेईमानी से बचाना, शोध का अनिवार्य हिस्सा है।
लेकिन हम कुशल हैं। और जिनको हम बहुत अच्छे लोग कहते हैं, वे भी हद के कुशल हैं। जैसे कि बहुत सी किताबें लिखी गई हैं। डा. भगवानदास ने एक किताब लिखी है सब धर्मों के समन्वय पर, सब धर्मों की बुनियादी एकता, एसेन्शियल युनिटी आफ आल रिलीजन्स। भगवानदास बड़े पंडित थे और बहुत खोज कर लिखी है। और हिंदुस्तान में सर्व धर्मों के समन्वय की जो धारा चली, उसमें बड़ी कीमती किताब है। सभी उस किताब से प्रभावित हुए, ऐनी बीसेंट से ले कर महात्मा गांधी तक।
मगर किताब बेईमान है। बेईमान इसलिए है कि डा. भगवानदास कुरान में से कुछ खोजते हैं; लेकिन वे खोजते वही हैं, जो गीता में भी है। गीता ठीक है, यह तो भीतर गहरा भाव है। फिर कुरान में भी अगर वही बात कही है, जो गीता में कही है, तो कुरान भी ठीक है। बाइबिल में भी अगर वही बात कही है, जो गीता में कही है, तो बाइबिल भी ठीक है। लेकिन खोजते वही हैं, जो गीता की ही झलक है। गीता ही ठीक है। कुरान भी ठीक हो सकता है, अगर उसने वही कहा हो, जो गीता में कहा है। इसका कोई अर्थ न रहा। यह बुनियादी एकता नहीं खोजी जा रही है। क्योंकि कुरान में बहुत कुछ ऐसा भी कहा है, जो गीता में नहीं है। उसको वह बिलकुल छोड़ जाते हैं! और कुरान में ऐसा भी बहुत कुछ कहा है, जो गीता के विपरीत है; उसको तो बिलकुल ही छोड़ जाते हैं!
अगर एक मुसलमान इसी किताब को लिखे, तो वह किताब बिलकुल दूसरी होगी। क्योंकि वह आधार में कुरान को रखेगा। और जो कुरान में है, वह अगर गीता में है, तो गीता ठीक होगी। उसका चुनाव बिलकुल अलग होगा। कुरान और गीता में तो बड़ा फासला है। यहां जैनों और गीता में चुनाव करवा कर देखें, तो खयाल में आ जाएगा।
जैन गीता में से वे सब हिस्से निकाल देंगे, जो मूल्यवान हैं, क्योंकि वे सभी हिस्से अहिंसा पर चोट करते हैं। क्योंकि गीता का मौलिक संदेश यह है कि तू लड़ और डर मत, क्योंकि मृत्यु तो होती ही नहीं, इसलिए हिंसा का भय क्या है? न हन्यते हन्यमाने शरीरे, कुछ मरता नहीं, कुछ कटता नहीं। शरीर भी काटा नहीं जा सकता। कट भी जाए, तो वह जो भीतर है, वह अ-कटा रह जाता है--तो तू डर मत। तो जैन की बड़ी कठिनाई हो जाएगी। जैन गीता में से वे हिस्से चुनेगा, जिनका महावीर की वाणी से मेल खाता हो। लेकिन बुनियादी गीता छूट जाएगी। क्योंकि यह सब तो उपद्रव है, यह महावीर के साथ मेल नहीं खा सकता।
ये जो चुनाव हैं, इनको मैं कहता हूं बेईमान, क्योंकि भीतर आप अपने धर्म को तो ठीक मान कर चलते ही हैं, दूसरे पर थोड़ी दया करते हैं। आप सहिष्णु हैं, तो दूसरे पर थोड़ी दया दिखाते हैं। और उसमें भी कुछ थोड़ा ठीक होगा, इसलिए इसको निकाल कर बता देते हैं कि इसमें भी ठीक है। ऐसे तो ठीक हम ही हैं आखिर में, लेकिन दूसरा भी बिलकुल गलत नहीं है। इसकी बात में भी थोड़ा-थोड़ा सार है, वह सार हम बता देते हैं। लेकिन वह सार वही है, जो हमारी बात में है। तो फिर आप मार्ग की शोध नहीं कर सकते।
मार्ग की शोध तो तभी हो सकती है, जब आप अपने भीतर एक तटस्थता पैदा करें, एक साक्षीभाव पैदा करें, और सभी चीजों को दूर खड़े हो कर देख सकें। और अंतिम निर्णय यही हो कि जो सत्य हो, उसको मैं चुनूंगा। जो मेरा है, उसको नहीं; जो सत्य है, उसको मैं चुनूंगा। हम, जो मेरा है, उसको सत्य मानते हैं। वास्तविक खोजी, जो सत्य है, उसको अपना मानता है। इस भेद को ध्यान में रखें तो यह सूत्र साधक के लिए बहुत गहरे काम का है।
‘मार्ग की शोध करो।’
चौदहवां सूत्र, ‘अपने भीतर लौट कर मार्ग की शोध करो।’
पहला सूत्र, मार्ग की शोध करो। दूसरा, अपने भीतर लौट कर मार्ग की शोध करो।
बाहर भी तुमने शोध लिया कि यह मार्ग ठीक है, अभी भी पक्का मत कर लेना। अभी भीतर इस पर प्रयोग भी करना। भीतर लौटना और इस मार्ग पर प्रयोग करना और जब तक तुम्हारे जीवन में फल न आ जाए, जब तक तुम्हारी अनुभूति गवाही न बन जाए, और जब तक तुम्हारा हृदय न कह दे कि ठीक, मेरे अनुभव से सिद्ध हुआ, तब तक अभी मार्ग की शोध पूरी नहीं हुई।
इधर मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि यह ध्यान तो देख कर हमें डर लगता है। कोई आता है, वह कहता है, यह ध्यान तो बिलकुल पागलपन है, यह ठीक नहीं हो सकता। मैं उनको कहता हूं कि तुम करके देखो। और उसके पहले कोई निर्णय मत लो। हो सकता है पागलपन ही हो, लेकिन तुम करके देख लो। अगर तुम्हारा पागलपन बढ़ने लगे भीतर, तभी कहना। अगर घटने लगे तो फिर मत कहना। क्योंकि मेरे अनुभव में तो यह आया है कि अगर पागल भी इस प्रयोग को करे, तो उसका पागलपन घटने लगता है।
अभी पश्चिम में तो बहुत इस तरह के प्रयोगों पर काम चल रहा है। और वे कहते हैं कि अगर पागल को उसके पागलपन को निकालने का मौका दिया जा सके, तो वह घट जाएगा। समाज उसको निकालने नहीं देता, सब तरह से रुकावट डाल देता है, वह उसके भीतर इकट्ठा होता चला जाता है। फिर वह इतना इकट्ठा हो जाता है कि वह एक्सप्लोड होता है, विस्फोट हो जाता है। फिर हम उसको पागलखाने में रख देते हैं। अभी पश्चिम के बहुत से मनस्विद कहते हैं कि पागलों के साथ हम दुर्व्यवहार कर रहे हैं। हम ही उनको पागल करते हैं और फिर उनको पागलखाने में बंद करते हैं। और हम ही उनके पागलपन को निकालने नहीं देते। और वे निकालें तो मुश्किल और न निकालें तो आखिर में वे पागल हो जाते हैं, तब हम उनको दंड देना शुरू कर देते हैं! हजार तरह की तरकीबों से सताने लगते हैं। यह सारा जाल अदभुत है।
और लोग हैं, दूर से खड़े हो कर कह देंगे कि यह ठीक नहीं है। चुप रहना--न कहना कि ठीक, न कहना कि गैर ठीक--जब तक कि भीतर प्रयोग न कर लो। क्योंकि जीवन इतना आसान नहीं है कि दूर से खड़े हो कर परखा जा सके। इसमें डुबकी ही लगानी पड़े तो ही परखा जा सकता है।
जिसको प्रेम का कोई अनुभव नहीं है, वह अगर प्रेम के संबंध में कुछ कहे, उसका मूल्य क्या? और अक्सर ऐसा होता है कि जिनके जीवन में प्रेम का कोई अनुभव नहीं है, वे प्रेम के संबंध में काफी चर्चा करते हैं। कारण है उसका, क्योंकि चर्चा से ही वे मन को भरते हैं। प्रेम तो है नहीं जीवन में, प्रेम की चर्चा करके ही थोड़ा-बहुत रस ले लेते हैं।
अक्सर प्रेम की कविताएं लिखने वाले वे ही लोग होते हैं, जिनके जीवन में प्रेम का कोई अनुभव नहीं होता। सब्स्टीट्‌यूट है, वह कविता जो है। वह जो प्रेम में उन्होंने किया होता, वह नहीं कर पाए हैं, वह शब्दों में कर रहे हैं। इसलिए आप प्रेम की कविता पढ़ कर उस कविता के लिखने वाले कवि से मिलने मत चले जाना, नहीं तो बड़ी निराशा होगी। वहां बिलकुल दूसरा ही आदमी आप पाएंगे।
जीवन सिर्फ बुद्धि से समझ में आने वाला होता, दूर खड़े हो कर, तो फिर दर्शक भी जीवन को जान लेते, फिर भोक्ता होने की कोई जरूरत न थी। फिर तो राहगीर भी किनारे से गुजर कर जिंदगी को पहचान लेते, फिर तो जिंदगी में डुबकी लगाने की और एकरस होने की कोई जरूरत न होती। लेकिन राहगीर कुछ भी नहीं जान पाते। वे जो किनारे खड़े हुए लोग हैं, उनको ऊपर-ऊपर की चीजें दिखाई पड़ती हैं, भीतर जो घट रहा है, वह आंखों से चूक जाता है।
तो एक बार खयाल में आ जाए, बुद्धि समझ ले कि यह मार्ग ठीक है, तटस्थ बुद्धि समझ ले कि यह मार्ग ठीक है, तब भी अभी पर्याप्त नहीं है--अपने भीतर लौट कर मार्ग की शोध करना। तत्क्षण जो तुमने ठीक पाया है, उसे अपने भीतर लौटाना, उसे जीवन बनाना, उसे अंतस-यात्रा में परिवर्तित करना। और जब तक वहां तुम्हें अनुभव न मिलना शुरू हो जाएं, तब तक चुप रहना, कोई निर्णय मत लेना।
दुनिया में बहुत नासमझी कम हो सकती है, अगर लोग बिना जाने निर्णय देना बंद कर दें। बिना जाने लोग इतना निर्णय देते हैं, लेकिन उनको खयाल ही नहीं कि वे कुछ कसूर कर रहे हैं, कि वे कोई अपराध कर रहे हैं। बिना जाने लोग निर्णय देते रहते हैं। बिना जाने जो निर्णय देता है, वह आदमी नितांत मूढ़ है। और न खुद मूढ़ है, बल्कि और लोगों को भी मूढ़ता में डालने का उपाय कर रहा है।
अनुभव के सिवाय कोई कसौटी नहीं है। आखिरी कसौटी आपका अपना अनुभव है। और जब तक उस कसौटी पर न कस लें, तब तक
चुप रहना और मत कहना कि यह मार्ग सत्य है।
और पंद्रहवां सूत्र है, ‘बाह्य जीवन में हिम्मत से आगे बढ़ कर मार्ग की शोध करो।’
और भीतर अनुभव में जिसको लिया है, अब उसे आचरण में भी जाने दो। अब बाह्य जीवन में भी उसकी शोध करो। क्योंकि जो भीतर ही सच है, हो सकता है सपना हो। क्योंकि भीतर के सच काल्पनिक हो सकते हैं। भीतर जो सच मालूम पड़ा है, वह हो सकता है, व्यक्तिगत भ्रांति हो। क्योंकि वहां कोई दूसरा तो है नहीं, जिससे पूछ लो; तीसरा तो नहीं है, जिससे सहारा ले लो। वहां कोई और तो कसौटी नहीं है, आप अकेले हो।
समझो कि आपको भीतर प्रकाश दिखाई पड़ता है। ध्यान का आप प्रयोग करते हैं, आपको भीतर प्रकाश दिखाई पड़ता है, कि बड़ा आनंद अनुभव आता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि यह प्रकाश सिर्फ कल्पना हो, प्रोजेक्शन हो, मन का ही प्रक्षेपण हो, कि आप अपने मन में खुद ही भ्रांति पैदा कर रहे हों। क्योंकि आपने शास्त्रों में पढ़ा है कि प्रकाश अनुभव होता है, वह भाव बीज रूप में पड़ा है, कहीं वही प्रकट न हो रहा हो!
क्योंकि मजे की बात है, कृष्ण का भक्त अगर ध्यान करे तो उसको कृष्ण के दर्शन होते हैं, क्राइस्ट के कभी नहीं होते। जीसस का भक्त ध्यान करे तो उसको तत्काल क्राइस्ट के दर्शन होते हैं, कृष्ण के कभी नहीं होते।
तो वह जो दर्शन हो रहा है, वह कहीं उसके ही अचेतन में पड़े हुए किसी भाव की पुनरावृत्ति तो नहीं है? भीतर कैसे जांच करिएगा? भीतर जो हो रहा है, वह कोई आत्म-विमूढ़ता, कोई आत्मसम्मोहन, कोई सेल्फ-हिप्नोसिस तो नहीं है? खुद को ही कहीं हमने अपने आप में धोखा देने का उपाय तो नहीं कर लिया है? तो फिर अभी भी मार्ग की शोध पूरी नहीं हुई। अभी जो भीतर जाना है, जो भीतर ठीक पाया है, वह सब्जेक्टिव है, निजी है।
निजी में एक खतरा है। सभी सपने निजी होते हैं। सपने की खूबी उसका निजी होना है। आप अपने निकटतम मित्र के सपने में भी प्रवेश नहीं कर सकते। किसी के सपने में आप साझीदार नहीं हो सकते। ऐसा नहीं हो सकता कि मैं एक सपना देखूं और आप भी वही सपना देखें। और हम दोनों एक साथ वह सपना देखें, इसका कोई उपाय नहीं है। सपने निजी हैं, प्राइवेट हैं। उनको बाहर लाने का भी कोई उपाय नहीं है। दूसरे के साथ साझेदारी करवाने का भी कोई उपाय नहीं है। तो आप जो भी अनुभव कर रहे हैं, कहीं वह सपना तो नहीं है?
तो उसकी आखिरी कसौटी यही है कि आपके भीतर जो घट रहा है, अगर शांति आपके भीतर घट रही है, तो वह शांति आपके आचरण में बाहर की यात्रा पर जानी शुरू होनी चाहिए। कि आप कहें कि भीतर तो मुझे बड़ी शांति आती है, और बाहर आप क्रोधी हैं, तो फिर आपकी शांति कल्पना होगी। कि आप कहें कि भीतर तो मेरे जीवन में बड़ा आनंद आ रहा है, और बाहर के जीवन में वासना भरी हो, तो वह खबर नहीं दे रही। क्योंकि आनंद से भरे हुए आदमी की वासना नहीं हो सकती। वासना तो दुख भरे आदमी की ही होती है। वासना का तो मतलब है, मैं दुखी हूं, मुझे सुख चाहिए। मैं आनंदित हूं तो मुझे सुख का कोई सवाल नहीं। वह तो ऐसा ही हुआ कि जिसके पास कोहिनूर है, वह कंकड़-पत्थर मांग रहा है। वह मांगेगा क्यों?
तो आपके भीतर जो घटित हुआ है, सूत्र कहता है, ‘बाह्य जीवन में हिम्मत से आगे बढ़ कर मार्ग की शोध करो।’
जो भीतर जान लिया है, अब बाहर हिम्मत से आगे बढ़ो। बहुत हिम्मत की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि जो भीतर जाना है, अगर उसको आप बाहर लाएंगे, तो बाहर का सारा संबंध-जाल बदलेगा।
एक महिला मेरे पास आई। और उसने मुझे कहा कि मैं पढ़ती हूं, सुनती हूं आपको। और अब ऐसी मेरे भीतर प्रेरणा घनीभूत होने लगी, कि आप जो कहते हैं, वह मैं प्रयोग भी करूं--बहुत बड़े परिवार की महिला है--वह मैं प्रयोग भी करूं। लेकिन एक ही डर है कि इस प्रयोग से कोई ऐसी बुराई और हानि तो नहीं होगी कि मेरे घर, परिवार और दांपत्य के जीवन में कोई बाधा पड़ जाए? तो मैंने उससे कहा कि बुराई तो इससे कुछ भी न होगी, लेकिन अनेक भलाइयां होंगी, और उनसे भी बाधा पड़ेगी। यह खयाल छोड़ देना कि बुराई से बाधा पड़ती है, भलाई से भी बाधा पड़ती है। उसने कहा कि मैं समझी नहीं, भलाई से क्यों बाधा पड़ेगी? तो मैंने कहा कि तू प्रयोग करके देख, तब तुझे पता चलेगा कि भलाई से किस तरह बाधा पड़ती है।
अगर आपकी पत्नी दुष्ट प्रकृति की है, लड़ैल-झगड़ैल है, तो आप उससे धीरे-धीरे राजी हो गए हैं, एडजस्टमेंट हो गया है। अगर वह कल ध्यान करने लगे और उसका झगड़ैलपन चला जाए, तो आपका समझिए दूसरा विवाह हुआ, पुनर्विवाह, अब आपको फिर एडजस्ट करना पड़ेगा। फिर से शुरू हुई बात। और आपको फिर बेचैनी होगी। जैसे कि नए मकान में जाने से होती है, नया फर्नीचर घर में लगाने से होती है, नई कार खरीद लें तो ड्राइवर को तकलीफ होती है--नए एडजस्टमेंट फिर करने पड़ेंगे। और नई ही पत्नी होती तो इतनी दिक्कत नहीं होती। क्योंकि आप मानते कि ठीक है, नई पत्नी है, थोड़ी फिर देर लगेगी, थोड़ी फिर खट-पट होगी, फिर अंग जरा घिसेंगे-पिटेंगे, तो मशीनरी फिर ठीक होगी--नई ही होती। लेकिन पुरानी है और नए की तरह व्यवहार करने लगे, तो ज्यादा बेचैनी होगी।
फिर हम सबके भीतर व्यवस्था की भी सीढ़ियां हैं। अगर पत्नी दुष्ट है और पति शांत है या पति दुष्ट है और पत्नी शांत है, तो पत्नी अपने को श्रेष्ठ मानती है अगर वह शांत है, और पति को मानती है वह निकृष्ट है। अगर पति शांत हो जाए, तो यह हायररकी बदलती है। अब पति श्रेष्ठ हो जाएगा। और दुष्ट पति को सहना आसान है, श्रेष्ठ पति को सहना और भी कठिन है। क्योंकि अहंकार को चोट दुष्ट पति से नहीं लगती, श्रेष्ठ पति से लगती है। अगर पति शराब पीता है तो उतनी अड़चन नहीं होती। क्यों? क्योंकि शराबी पति डरता है, भयभीत होता है। और पत्नी को मानता है कि देवी है। सब शराबी पति पत्नी को देवी मानते हैं, ध्यान रखना। नहीं तो कोई मानने का कारण नहीं है। वह डरा हुआ पति है--कि तू देवी है, तेरी पवित्रता का क्या कहना, हम पापी हैं। लेकिन यह पति शराब छोड़ दे और यह पति ध्यान करने लगे और यह प्रार्थना में लीन होने लगे, तो फिर यह पत्नी और इसके बीच जो नाता था सदा का, वह सब अस्तव्यस्त हो गया। अब पत्नी को इसे देवता मानना पड़ेगा, जो कि बहुत कठिन होगा, बड़ी अड़चन होगी। अचेतन मन पत्नी का कहेगा कि इससे तो तुम पहले ही बेहतर थे--अचेतन। ऊपर से वह कहेगी, बड़ी खुशी जाहिर करेगी कि बिलकुल ठीक है, बिलकुल उचित है, कितना अच्छा हो गया है! लेकिन भीतर कष्ट और दंश होगा।
तो मैंने उस महिला को कहा कि तू फिर से सोच कर आ, भलाई से भी बाधा पड़ती है। और कभी-कभी तो बुराई से भी ज्यादा बाधा पड़ती है।
इसलिए यह सूत्र कहता है, साहसपूर्वक बाहर के जीवन में प्रयोग करो। वह जो भीतर अनुभव में आना शुरू हुआ है, उसे बाहर प्रयोग करो। तो सारी व्यवस्था बदलेगी। बाहर का सारा ढांचा जो तुमने गैर-ध्यान की अवस्था में बनाया था, वह काम में नहीं आएगा। अब तुम्हें सब बदलना पड़ेगा।
मैं एक मकान में रहता था, एक मित्र के परिवार में। मैं थोड़ा हैरान हुआ, वे मित्र न तो कभी अपने बच्चों से बात करते, न कभी अपने नौकर से, न कभी अपनी पत्नी से। वे घर भी आते, तो तेजी से आते। अगर बच्चे सामने खड़े हों तो वे बिलकुल बिना देखे, सीधी नजर किए मकान में प्रवेश कर जाते। मैं थोड़ा हैरान हुआ। और मुझसे जब मिलते थे तो बड़े प्रेम से मिलते थे। मैं उनका मेहमान ही था। मैंने उनसे कहा कि मैं जरा हैरान हूं कि आप ऐसा कैसे चलते हैं? बच्चे खड़े हैं तो आप उनकी तरफ देखते नहीं, नौकर खड़े हैं तो देखते नहीं! तो वह बोले कि बड़ा खतरनाक है। अगर जरा बच्चों की तरफ प्रेम से देखो, वे फौरन पैसा मांगते हैं। अगर नौकर की तरफ प्रेम से देखो, तो वह कहता है तनख्वाह बढ़ाओ। पत्नी की तरफ जरा ही प्रेम से देखो कि वह कहती है, नई साड़ी बाजार में आ गई है। तो आखिर में मैंने यही तय किया है कि किसी की तरफ प्रेम से देखो ही मत, अकड़े ही रहो। चाहे अकड़ का कोई कारण भी न हो, लेकिन अकड़े रहो। तो न बच्चे अपनी तरफ आते, न नौकर आते, न पत्नी आती। सब शांति से चलते हैं।
अब यह आदमी अगर ध्यान करे तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। यह प्रेमपूर्ण हो जाए। यह अकड़ गिर जाए। अकड़ गिर जाए तो यह सारा का सारा जाल जो उसने बना कर रखा है, यह सब उलटा हो जाए। इसको बड़ी मुश्किल होगी।
जिंदगी एक व्यवस्था है रोज। और जो आदमी जितना भीतर जाता है, उतनी उसकी व्यवस्था रोज बदलती है। जो जितना मुर्दा होता है, उसकी व्यवस्था थिर होती है। जो जितना जीवित होता है, नदी की धार की तरह होता है, उसकी व्यवस्था रोज बदलती है। इसलिए सब अस्तव्यस्त हो जाएगा।
इसलिए सूत्र कहता है, साहसपूर्वक हिम्मत से आगे बढ़ कर बाह्य जीवन में भी मार्ग की शोध करो।
‘जो मनुष्य साधना-पथ में प्रविष्ट होना चाहता है, उसको अपने समस्त स्वभाव को बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग में लाना चाहिए।’
समझना, बहुत गहरा है।
‘जो मनुष्य साधना-पथ में प्रविष्ट होना चाहता है, उसको अपने समस्त स्वभाव को बुद्धिमत्ता के साथ उपयोग में लाना चाहिए।’
समस्त स्वभाव को! जो भी तुम्हारा स्वभाव है, उसमें से कुछ भी काटने का अर्थ है कि तुम बुद्धिमान नहीं हो। जो भी तुम्हें मिला है निसर्ग से, उसमें से कुछ भी छोड़ने का अर्थ है कि तुम अधूरे रहोगे, पूरे कभी न हो पाओगे। अगर तुम्हारे भीतर क्रोध है, अगर तुम्हारे भीतर कामवासना है, तुम्हारे भीतर लोभ है...है, वह प्रकृति ने दिया है। उसमें कुछ शर्म की बात नहीं है। उसमें कुछ चिंतित होने की बात नहीं है। वह है, वह प्रकृति ने दिया है।
बुद्धिमान वह आदमी है, जो अपने क्रोध को भी संलग्न कर लेता है साधना में। वह काटता नहीं। जो अपनी कामवासना को भी साधना में संलग्न कर लेता है, जो उसका भी उपयोग कर लेता है, जो उस विष को भी मोड़ लेता है अमृत में--वही आदमी बुद्धिमान है। जो कुछ भी काट कर नहीं फेंकता। जो अपने समस्त निसर्ग स्वभाव को पूरा का पूरा नियोजित कर लेता है साधना-पथ में, वही आदमी पूर्णता को उपलब्ध होगा।
अगर तुमने कुछ भी काटा, तो उतना हिस्सा तुम्हारा सदा के लिए कटा रह जाएगा। इसलिए काटना मत। क्रोध ही तो करुणा बनती है। क्रोध ही...अगर तुमने क्रोध काट दिया तो तुम करुणा से सदा के लिए वंचित रह जाओगे। काम ही तो ब्रह्मचर्य बनता है। अगर तुमने काम को बिलकुल दरवाजे बंद करके रोक दिया, तो तुम कभी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न हो पाओगे।
ये बड़ी जटिल बातें हैं और बड़ी मुश्किल में डालती हैं। क्योंकि हम सोचते हैं, ब्रह्मचर्य का अर्थ है, काम को काट डालो, जला डालो, भस्म कर दो, तब ब्रह्मचर्य उपलब्ध होगा। कभी ऐसा ब्रह्मचर्य न उपलब्ध हुआ है, न हो सकता है। क्योंकि काम की ऊर्जा ही तो ब्रह्मचर्य बनेगी।
नपुंसकता का नाम अगर ब्रह्मचर्य होता, तो काम को बिलकुल काट देने से ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो जाता। तब तो साधना की जरूरत ही नहीं है। फिर तो छोटे-मोटे आपरेशन ही इस काम को कर देंगे। तब तो डाक्टर को जा कर कहना चाहिए कि मेरे काम-संस्थान को काट डालो बिलकुल! लेकिन तब जो आदमी आप होंगे--वह ब्रह्मचर्य नहीं होगा।
वह फर्क देख लें एक बैल में और सांड में। वही हालत हो जाएगी। बैल को जोता जा सकता है इसीलिए, क्योंकि अब वह नपुंसक है। सांड को जोता नहीं जा सकता, क्योंकि काम-ऊर्जा बलवती है। लेकिन सांड में जीवन है, सौंदर्य है। और बैल निस्तेज है, न कोई सौंदर्य है, न कोई जीवन है।
तो तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी बैलों की हालत में हैं। काट कर तो यही होगा, नष्ट करके तो यही होगा।
रूपांतरण चाहिए। ऊर्जा नष्ट नहीं करनी है, ऊर्ध्वगामी बनानी है, ऊपर की ओर ले जानी है। वह जो नीचे की तरफ प्रवाह है वासना का, वह ऊपर की तरफ हो जाए। लेकिन शक्ति तो वही होगी। तो जो कामवासना से लड़ेगा, वह कभी भी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध न होगा। वह सदा ही कामवासना से ग्रस्त रहेगा और उसका एक अंग सदा ही बोझ की तरह अटका रह जाएगा। उसके जीवन में प्रफुल्लता नहीं होगी, भय होगा। और जहां भय है, वहां फूल कभी खिलता नहीं।
फूल तो प्रफुल्लता चाहता है। सब कुछ स्वीकार हो, तभी फूल खिलता है। और जब पूरे जीवन का फूल खिलता है, तो उसमें तुम्हारी काम-ऊर्जा ब्रह्मचर्य बन गई होती है, तुम्हारा क्रोध करुणा बन गया होता है, तुम्हारी कठोरता दया बन गई होती है, तुम्हारी घृणा ही प्रेम बन गई होती है। घृणा और प्रेम में जो फर्क है, वह दिशा का फर्क है। शक्ति एक है।
यह सूत्र कहता है, बुद्धिमत्ता इस बात में है कि तुम अपने स्वभाव की समस्त शक्तियों का उपयोग कर लेना।
‘प्रत्येक मनुष्य पूर्णरूपेण स्वयं अपना मार्ग है, अपना सत्य और अपना जीवन है।’
तुम्हारे भीतर ही छिपा है मार्ग, सत्य, जीवन। तुम पूरे हो। लेकिन तुम्हारे जीवन में स्वर तो सब मौजूद हैं, संगीत नहीं है। स्वरों को बिठाना है, बस उतनी ही साधना है। जैसे कि वीणा पड़ी हो, सब तार पड़े हों, लेकिन तारों को बांधना है, कसना है। फिर तारों को तौलना है एक संतुलन में, वीणा तैयार हो जाएगी।
प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा है--अव्यवस्थित।
जैसे छोटे बच्चों की पहेलियां होती हैं। लकड़ी के टुकड़े, उनको जमाओ तो एक सुंदर मूर्ति बन जाए, कि एक महल बन जाए, कि एक नाव बन जाए। लेकिन सब टुकड़े अस्तव्यस्त कर देते हैं, तो बच्चे उनको जमाते रहते हैं। सब मौजूद है, नाव पूरी मौजूद है, मूर्ति पूरी मौजूद है--लेकिन टुकड़े हैं अलग-अलग। और टुकड़ों को जमाना है। और टुकड़ों को ऐसी व्यवस्था में लाना है कि वह जो अराजकता थी, वह विलीन हो जाए और आकार निर्मित हो जाए।
हर आदमी एक पहेली है, जब तक जमा नहीं है। जिस दिन जम गया, पहेली विसर्जित हो जाती है और परमात्मा प्रकट हो जाता है।
‘और इस प्रकार उस मार्ग को ढूंढ़ो। उस मार्ग को जीवन और अस्तित्व के नियमों, प्रकृति के नियमों एवं पराप्राकृतिक नियमों के अध्ययन के द्वारा ढूंढ़ो। ज्यों-ज्यों तुम उसकी उपासना और उसका निरीक्षण करते जाओगे, उसका प्रकाश स्थिर गति से बढ़ता जाएगा। तब तुम्हें पता चलेगा कि तुमने मार्ग का प्रारंभिक छोर पा लिया। और जब तुम मार्ग का अंतिम छोर पा लोगे, तो उसका प्रकाश एकाएक अनंत प्रकाश का रूप धारण कर लेगा। उस भीतर के दृश्य से न तो भयभीत होना, न आश्चर्य करना। उस धीमे प्रकाश पर अपनी दृष्टि रखो, तब वह प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ेगा। लेकिन अपने भीतर के अंधकार से सहायता लो। अंधकार से भी सहायता लो और समझो कि जिन्होंने प्रकाश देखा ही नहीं है, वे कितने असहाय हैं और उनकी आत्मा कितने गहन अंधकार में है।’
अगर अपना पथ खोजा जाए, अपने पथ को अनुभव में उतारा जाए, अपने अनुभव को आचरण में लाया जाए, तो तुम्हारे भीतर वह प्रकाश की किरण पैदा हो जाएगी। वह दीया जल जाएगा, जो फिर और आगे महा-प्रकाश बन जाता है।
लेकिन बैठे-बैठे यह न होगा। बिना कुछ किए यह न होगा। और यात्रा की शुरुआत से ही शुरुआत करनी उचित है। उधार मार्ग से मत चलना। क्योंकि पहला कदम गलत पड़ जाए, तो अंतिम कदम सही नहीं पड़ सकता। और जो पहले कदम पर ही भूल जाए, उसके पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए पहले कदम को बहुत ध्यान से रखना। क्योंकि पहला कदम आधी मंजिल है। अगर पहला कदम बिलकुल ठीक पड़ा, तो मंजिल बहुत दूर नहीं है। क्योंकि पहला कदम ही मंजिल की शुरुआत है। उसी में मंजिल से तुम जुड़ गए। थोड़ी देर लगेगी, लेकिन यात्रा शुरू हो गई।
लेकिन हम पहले कदम के संबंध में बहुत गाफिल हैं, और अंतिम मंजिल के संबंध में बहुत उत्सुक हैं। आनंद मिले, परमात्मा मिले, मोक्ष मिले--बड़ी उत्सुकता है। लेकिन वह पहला कदम हम गलत न रख लें, वहां हमारी उत्सुकता बिलकुल नहीं है। वहां हम बिलकुल जड़ता से मजबूत हैं कि पहला कदम तो हमारे पास है ही, रास्ता हमारे पास है, सब मार्ग साफ है, सिर्फ अंतिम मंजिल की बात है।
शोध मार्ग की करो। अनुभव से परीक्षण करो। आचरण में जांचो कि जो जाना है, वह स्वप्न तो नहीं है। फिर मंजिल बहुत दूर नहीं है।

मंजिल सदा पास है--ठीक पहले कदम की जरूरत है।

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