DADU
Sabai Sayane Ek Mat 07
Seventh Discourse from the series of 10 discourses - Sabai Sayane Ek Mat by Osho. These discourses were given during SEP 11-20 1975.
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सूत्र
जब लगि सीस न सौंपिए, तब लगि इसक न होई।
आसिक मरणै न डरै, पिया पियाला सोई।।
दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोई।
बेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई।।
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
रोम-रोम पिव-पिव करै, दादू दूसर नाहिं।।
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
दादू उस मासूक का, अल्लहि आसिक होई।।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
मनुष्य की भाषा में प्रेम से बड़ा कोई शब्द नहीं। उस एक शब्द को जिसने जान लिया, उसने सब जान लिया। जो इस एक शब्द से वंचित रह गया, उसने सब भी जान लिया हो, तो उस जानने का कोई मूल्य नहीं।
स्वभावतः प्रेम को जानने का कोई उपाय प्रेम के अतिरिक्त नहीं है। शब्द को जान लेने से जानना न होगा। प्रेम गहनतम अनुभव है। और अनुभव इतना गहरा है कि प्रेमी भी अगर बच जाए, तो भी अनुभव नहीं हो पाएगा। प्रेमी भी मिट जाए प्रेम में, तो ही अनुभव पूरा हो सकता है।
तो प्रेम को कोई द्रष्टा की तरह नहीं जान सकता; दूर खड़े होकर दर्शक की भांति नहीं जान सकता। मिट कर ही जान सकता है।
जैसे सरिता सागर में खो जाती है तो जानती है कि सागर होना क्या है; वैसे ही जब कोई जीवन-धारा प्रेम के सागर में खो जाती है, तभी जानती है, प्रेम क्या है।
कबीर ने कहा है:
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय।।
कितने ही शास्त्र कोई पढ़े, सारा पढ़ना बाहर-बाहर से है। जानना तो भीतर से होगा। मंदिर के बाहर तुम कितनी ही परिक्रमाएं करो, इससे मंदिर में विराजमान देवता का स्पर्श न होगा, न दर्शन होंगे। मंदिर के संबंध में तुम कितना ही जान लो, तो भी मंदिर में जो विराजमान है उसकी कोई प्रतीति और झलक न मिलेगी। मंदिर की दीवालों के संबंध में जानकारी मिल जाएगी, लेकिन मंदिर के प्राण अपरिचित रह जाएंगे। भीतर ही जाना होगा।
और भीतर जाने का अर्थ नहीं कि तुम मंदिर की प्रतिमा की परिक्रमा करोगे तो भीतर पहुंच जाओगे; तो भी तुम प्रतिमा के बाहर-बाहर घूमोगे। तो भी तुम जो जानोगे वह प्रतिमा की रूप-रेखा होगी। मंदिर में भीतर जाने का अर्थ तो है कि जब तुम प्रतिमा में भीतर चले जाओ। जब परिक्रमा देने वाला कोई भी न बचे। जब तुम बचो ही न। जब प्रतिमा ही रह जाए। तुम ऐसे खो जाओ जैसे सागर में सरिता खो जाती है; तभी तुम जान सकोगे।
प्रेम ज्ञान है। एकमात्र ज्ञान प्रेम ही है। बाकी सब जानना ऊपर-ऊपर है। क्योंकि ऐसा और कोई भी जानना नहीं है जिसमें जानने वाले को मिटना पड़ता हो। वह प्रेम की पहली शर्त है: मिट जाना, खो जाना।
जन्म होता है, मृत्यु होती है। सभी का जन्म होता है, सभी की मृत्यु होती है। जन्म और मृत्यु के बीच जो व्यक्ति प्रेम से परिचित हो जाता है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। फिर उसका कोई जन्म नहीं होता, फिर उसकी कोई मृत्यु नहीं होती। जन्म और मृत्यु के बीच, इन दो किनारों के बीच जो प्रवाह है, वही प्रेम है। जन्मते तो सभी हैं, मरते भी सभी हैं, प्रेम को बहुत थोड़े लोग जान पाते हैं। अवसर तो सभी को मिलता है जानने का, अवसर का उपयोग बहुत थोड़े लोग कर पाते हैं।
जो कर लेते हैं, वे धन्यभागी हैं। जो कर लेते हैं, फिर उन्हें दुबारा जन्म और मृत्यु के बीच में नहीं उतरना पड़ता। जिसने जान लिया प्रेम को, वह पार हो गया। एक ही नाव है जो पार ले जाएगी, वह नाव प्रेम की है।
जीसस से किसी ने पूछा है कि तुम्हारे परमात्मा का ढंग क्या, रूप क्या? जीसस ने कहा है, परमात्मा प्रेम है।
काश, जीसस को दादू के वचन मालूम होते। तो दादू ने और भी प्यारे ढंग से कहा है:
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
परमात्मा की जाति प्रेम; परमात्मा की देह प्रेम; परमात्मा की आत्मा, अस्तित्व प्रेम; परमात्मा का ढंग, होने का रंग, रूप-रेखा प्रेम।
जीसस का यह वचन कि परमात्मा प्रेम है, बहुत गहरे में खोजने जैसा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि परमात्मा प्रेमी है। इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा करुणावान है। इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा दयावान है। जैसा कि बहुत से ईसाइयों ने इसका अर्थ किया है। अगर ऐसा ही कहना होता जीसस को तो वे कहते: परमात्मा प्रेमी है, परमात्मा महाकारुणिक है, परमात्मा दयावान है। पर उन्होंने ऐसा नहीं कहा। उन्होंने कहा, परमात्मा प्रेम है। प्रेमी नहीं, दयावान नहीं, करुणावान नहीं; सिर्फ प्रेम है। परमात्मा का सारा रूप व्यक्तित्व का नहीं है, ऊर्जा का है। प्रेम ऊर्जा है; शुद्ध शक्ति है; शुद्धतम शक्ति है। वह श्रेष्ठतम है, अंतिम है।
जैसे बीज को हम बोते हैं, वह पहला चरण है। वृक्ष होता है, वह दूसरा चरण। फूल लगते हैं, वह तीसरा चरण। फिर सुवास आकाश में उड़ जाती है, वह चौथा चरण। प्रेम सुवास है। बीज कामवासना के हैं। प्रेम आखिरी घटना है। उसके पार फिर कुछ भी नहीं है। बीज का तो रूप है; सुवास का कोई रूप है? बीज का तो पता-ठिकाना है; सुगंध का कोई पता-ठिकाना है? बीज को तो तुम पकड़ लोगे। वृक्ष को भी पकड़ लोगे। फूल को भी मुट्ठी में ले सकते हो। लेकिन सुवास का क्या करोगे? मुट्ठी बांधोगे तो मुट्ठी में सुवास न रह जाएगी।
प्रेम को कोई बांध नहीं सकता। और जिसने भी प्रेम को बांधने की कोशिश की, उसके हाथ में कूड़ा-करकट लगेगा। सुवास को बांधने का यह ढंग नहीं। सुवास के साथ तो स्वयं जो उड़ जाए; सुवास के साथ तो स्वयं जो लीन हो जाए; सुवास के अंतहीन, आकारहीन अस्तित्व के साथ जो अपनी एकता साध ले; गिर जाए बूंद की भांति सागर में, वही जान पाएगा। जो सुवास हो जाए वही जान पाएगा।
स्वभावतः जरूर कोई बड़ी बाधा होगी कि इतने लोग जन्मते हैं, बहुत कम लोग प्रेम को जान पाते हैं। इतने लोग मरते हैं, बिना प्रेम को जाने मर जाते हैं। कोई गहरी बाधा होनी चाहिए। बाधा है। उसे हम ठीक से समझ लें तो फिर ये सूत्र समझ में आ जाएंगे।
कामवासना प्रेम की निम्नतम दशा है। है तो प्रेम की ही, पर बड़ी सीमाओं में बंधी है, क्षुद्र से घिरी है। कामवासना का अर्थ है: शरीर का शरीर के प्रति आकर्षण। स्वभावतः कामवासना पृथ्वी की है; बहुत स्थूल है। उसमें बास भूमि की है। वह मिट्टी से ही पैदा हुई है और मिट्टी में ही गिर जाएगी। मिट्टी से ऊपर उसका कोई अस्तित्व नहीं है।
फिर जीवन में जिसे हम साधारणतः प्रेम कहते हैं, वह है। उसको प्रेम दादू नहीं कहते, हम उसे प्रेम कहते हैं। वह प्रेम है दो मनों का आकर्षण। शरीर से ऊपर है। थोड़ी यात्रा ऊपर उठी। थोड़ी सीढ़ी पर ऊपर चढ़े। जो इतने प्रेम को भी उपलब्ध हो जाए वह भी धन्यभागी है।
अधिक लोग तो शरीर पर ही समाप्त हो जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि शरीर से और भी ऊंचाइयां थीं, और भी गहराइयां थीं। उन्हें यह भी पता नहीं चलता कि शरीर तो एक पायदान था। उस पर पैर रखना था, ऊपर उठ जाना था। लेकिन जिनके जीवन में थोड़ी सी प्रेम की झलक आती है, जो शरीर के आकर्षण के कारण नहीं है, जो दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व, उसके मन--शरीर के पार थोड़ा सा उठता है भाव--जिन्होंने यह प्रेम भी जान लिया, उनको एक बात समझ में आ जाती है कि जानने को और भी बाकी हो सकता है। द्वार खुलता है। अब दीवार नहीं रह जाती। जो शरीर पर ही समाप्त हो जाते हैं, उनके लिए सिर्फ दीवार ही रह जाती है।
फिर एक तीसरा और प्रेम है, जिसको भक्तों ने प्रार्थना कहा है। जब दो शरीर के बीच आकर्षण होता है तो काम; जब दो मनों के बीच आकर्षण होता है तो प्रेम--जिसे हम प्रेम कहते हैं; जब दो आत्माओं के बीच आकर्षण होता है तब प्रार्थना; और जब दो बिलकुल खो जाते हैं, दो ही नहीं रह जाते, तब इसक। जिसको दादू प्रेम कहते हैं; जिसको जीसस ने प्रेम कहा है। वह आखिरी ऊंचाई है।
वे सीढ़ियां तुम्हारे भीतर हैं। तुम पहली ही सीढ़ी पर खड़े रह जाओ तो कोई और जिम्मेवार नहीं है। दूसरी सीढ़ी पास ही थी। लेकिन कोई अड़चन होनी चाहिए। कोई गहरी बाधा होनी चाहिए। इतने लोग चूक जाते हैं कि करीब-करीब ऐसा लगता है, चूकना स्वाभाविक है। और इतने कम लोग उपलब्ध हो पाते हैं कि ऐसा लगता है, पाना अपवाद है, नियम नहीं। कोई बुद्ध, कोई चैतन्य, कोई दादू, कोई नानक--कभी करोड़ों लोगों में एक।
बाधा है: मरने का डर। क्योंकि जितनी ऊंचाई पर तुम जाते हो, उतना ही तुम्हारा अहंकार क्षीण होने लगता है, गलने लगता है। जितनी ऊंचाई होगी, उतने ही तुम कम हो जाओगे। यह डर है। जितनी नीचाई होगी, उतने ही तुम रहोगे। ठीक जमीन पर पड़े रहो तो पत्थर की चट्टान की तरह तुम होओगे। स्वभावतः ऊपर उठना हो तो पत्थर की चट्टानें ऊपर नहीं उठतीं; सुगंध उठती है, अग्नि की शिखा उठती है, भाप उठती है। विरल हो जाना पड़ता है। स्वयं को खोना पड़ता है।
कामवासना में कोई खोता नहीं अपने को। कामवासना में तुम तुम रहते हो। तुम दूसरे का उपयोग कर लेते हो। तुम मिटते नहीं, वस्तुतः तुम दूसरे को मिटाने की चेष्टा करते हो।
इसीलिए तो पति-पत्नियों में इतनी कलह है सारे संसार में पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में। हजार तरह से सोचा गया है कि पति-पत्नी की कलह कैसे मिटे। कोई उपाय नहीं दिखता। कलह मिट नहीं सकती, ऐसा लगता है।
जब तक मनुष्य ऊपर न उठना सीखे, कलह नहीं मिट सकती। कलह यही है कि पत्नी पति को मिटाने की चेष्टा कर रही है, पति पत्नी को मिटाने की चेष्टा कर रहा है। एक गहन संघर्ष है, जो चाहे उन्हें ज्ञात भी न हो। पति कोशिश कर रहा है कि मैं सब कुछ हूं, तू मेरी परिधि है। पत्नी भी यही कोशिश कर रही है कि मैं केंद्र हूं, तुम परिधि हो। दोनों के अहंकार अपने को बचाने की चेष्टा में संलग्न हैं। कहीं दूसरा मिटा न दे। इसके पहले कि दूसरा मिटाए, मैं उसे मिटा दूं; यही सुरक्षा का उपाय मालूम पड़ता है।
इसलिए कामवासना प्रेम की तो बड़ी दूर की खबर है, हिंसा की ज्यादा। और अगर ज्ञानियों ने कामवासना से ऊपर उठने को कहा है, तो इसीलिए कहा है। महावीर ने तो स्पष्ट कहा है कि कामवासना हिंसा है। ये जैन शास्त्र अब तक नहीं समझा पाए हैं इस बात को कि कामवासना को हिंसा कहने का अर्थ क्या है? उन्होंने मूढ़तापूर्ण बातें खोज ली हैं, पंडितों ने, कि संभोग करने में कीटाणुओं की हिंसा होती है। क्योंकि दो शरीर का घर्षण होता है, इसलिए कुछ कीटाणु छोटे हवा के मर जाते हैं। इसलिए महावीर ने कामवासना को हिंसा कहा है।
पंडितों से मूढ़ आदमी खोजने मुश्किल हैं। उनके पास आंखें तो नहीं हैं, अंधे हैं। शब्दों के कुछ भी अर्थ तो निकालने ही पड़ेंगे। तो वे अपने अंधेपन से यह अर्थ निकाल लेते हैं। कामवासना को महावीर ने इसलिए हिंसा नहीं कहा है। इसलिए हिंसा कहा है कि जहां भी काम है वहां दूसरे को मिटाने की चेष्टा है। वही हिंसा है। और जब तक काम प्रेम न बन जाए तब तक हिंसा जारी रहेगी। और जब तक काम प्रेम न बन जाए तब तक ब्रह्मचर्य का कोई आविर्भाव न होगा।
तो ब्रह्मचर्य कामवासना का त्याग नहीं है, बल्कि कामवासना के भीतर जो छिपे हुए प्रेम का तत्व है, उसको मुक्त करना है। कामवासना की हत्या नहीं कर देनी है। यह तो ऐसे हुआ जैसे बीज को कुचल कर मार डाला। अब तुम बैठे रहो, सुगंध न आएगी। यद्यपि बीज के रहते भी सुगंध न आ सकती थी। बीज को टूटना था--टूटना था भूमि में; ताकि बीज तो मिट जाए, लेकिन बीज में छिपी हुई जो सुवास है वह मुक्त हो जाए। उसको मुक्त होने पर लंबी यात्रा करनी पड़ेगी। बीज को वृक्ष बनना पड़ेगा, वृक्ष को फूल बनना पड़ेगा, फूल से सुवास मुक्त होगी। लंबी यात्रा है।
लेकिन अगर तुमने पत्थर उठा कर बीज मिटा दिया, जैसा कि बहुत से लोग करते हैं, साधु-संन्यासी करते हैं; उन्होंने कामवासना को पत्थर से मार डाला। अब वे बैठे हैं। ब्रह्मचर्य की कोई गंध नहीं आती। कामवासना मिटा दी और ब्रह्मचर्य की कोई सुगंध नहीं आती। तुम उनके जीवन को बड़े अधर में लटका हुआ पाओगे, त्रिशंकु की भांति पाओगे। न तो वे इस जगत के रहे, न उस जगत के।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी की बड़ी दुर्गति है। वे तुमसे भी बुरी स्थिति में हैं। तुम्हारे पास कम से कम बीज है। तुम भला बीज में ही अटके हो, लेकिन अभी भी संभावना है कि बीज को तुम बो दो, अंकुर आ जाए। अभी भी देर नहीं हो गई है। कभी भी देर नहीं हो गई है। जब भी तुम बीज को बो दोगे तभी अंकुर आ जाएगा। लेकिन तुम्हारे साधु-संन्यासी ने तो बीज को तोड़ डाला, इस डर से कि कामवासना में हिंसा है। बीज तो मर गया। उस बीज के साथ ही सुवास की संभावना भी मर गई।
कामवासना के विपरीत नहीं है ब्रह्मचर्य, कामवासना का शुद्धतम रूप है। बीज के विपरीत नहीं है सुगंध, बीज की ही शुद्धतम अभिव्यक्ति है। क्या फर्क है बीज में और सुगंध में? बीज में जो-जो पृथ्वी का अंश था वह पृथ्वी में डूब गया और जो-जो आकाश का अंश था वह सुवास से मुक्त हो गया। तुम्हारे भीतर जो-जो पृथ्वी का अंश है, वह कामवासना के धीरे-धीरे छूटते-छूटते पृथ्वी में लीन हो जाएगा। और तुम्हारे भीतर जो आकाश है--आत्मा कहो, परमात्मा कहो, वह मुक्त हो जाएगा। उसकी कोई जड़ें जमीन में न रह जाएंगी। वह उड़ जाएगा आकाश में। यही मोक्ष है, यही निर्वाण है।
लेकिन मेरी बात ठीक से समझ लेना। मैं ब्रह्मचर्य के पक्ष में हूं और कामवासना के विपक्ष में नहीं हूं। क्योंकि कामवासना के विपक्ष में होते ही ब्रह्मचर्य का तो उपाय ही खो गया। यह तो तुमने सीढ़ी का पहला पायदान ही तोड़ दिया। अब इस पर दूसरे पर तो जाने का उपाय न रहा। तुमने सीढ़ी जला दी। सीढ़ी जला कर तुम ऊपर न पहुंच जाओगे, तुम सीढ़ी से भी नीचे गिर जाओगे।
इसलिए मैं कहता हूं कि जिसने कामवासना को ठीक से समझा नहीं, वह ब्रह्मचर्य को तो नहीं होगा उपलब्ध, नपुंसकता को उपलब्ध हो जाएगा। वह सीढ़ी से भी नीचे गिर जाएगा। अगर सिर्फ नपुंसकता ही परमात्मा को पाने का उपाय होती, तो सभी नपुंसक पा लेते। लेकिन तुमने कभी सुना है किसी नपुंसक को मुक्त होते? कोई इतिहास में उल्लेख है किसी नपुंसक का, जो कि परम ज्ञान को उपलब्ध हुआ हो? वह असंभव है; इसलिए उल्लेख नहीं है। असंभव है इसलिए कि उसके पास बीज ही नहीं है। वह बो नहीं सकता। वह फसल नहीं काट सकता। वह सुगंध को फैला नहीं सकता आकाश में।
कामवासना में बुराई कुछ भी नहीं है, उस पर रुक जाने में बुराई है। कामवासना के पार जाना है। तब तुम उसे भी धन्यवाद दोगे। तब तुम कहोगे, तेरे बिना ऊपर भी न उठ सकते थे। तब तुम्हारा मन वासना के प्रति भी अनुग्रह से भरा होगा; क्रोध से, निंदा से नहीं।
दो शरीरों के बीच जो आकर्षण है उसमें हिंसा रहेगी। क्योंकि शरीर आपस में मिल कैसे सकते हैं? ठोस हैं। उनका मिलना संभव नहीं है। कामवासना में भी मिलते हैं तो मिलना क्या है? कहां मिलते हैं? मिलने का धोखा है। इतनी ठोस चीजें कहीं मिली हैं! तुम दो दीयों को मिलाने की कोशिश कर रहे हो।
दो ज्योतियां मिल सकती हैं। दो दीयों की ज्योतियां करीब ले आओ, एक ज्योति हो जाएगी। कोई बाधा न पड़ेगी। कोई संघर्षण भी न होगा। जरा भी आवाज न होगी कहीं। किसी को कानों-कान खबर न होगी कि दो ज्योतियां मिल गईं। क्योंकि दो ज्योतियों के बीच मिलने में कोई बाधा नहीं। सूक्ष्म सूक्ष्म से मिल जाता है, आत्मा आत्मा से मिल जाती है।
लेकिन दो दीयों को टकराओ! बड़ी कलह होगी, आवाज मचेगी, शोरगुल होगा, हिंसा होगी। हां, दीये एक-दूसरे को तोड़ सकते हैं; मिल नहीं सकते। और अगर मिलें तो मिलने का एक ही उपाय है कि दोनों टूट जाएं। तो उसको अगर तुम मिलना कहते हो तो बात दूसरी। लेकिन जितने वे टूटने के पहले अलग थे, उतने ही टूटने के बाद भी अलग होंगे।
स्थूल मिल ही नहीं सकता। सब मिलन सूक्ष्म का है। इसलिए जितना सूक्ष्म होते जाओगे उतना मिलन सघन होता जाएगा। और एक ऐसी भी घड़ी आती है, अंतिम घड़ी, जिसको दादू ने कहा है: इसक अलह औजूद है। परमात्मा का अस्तित्व प्रेम है। जहां दो बिलकुल मिल जाते हैं कि फिर तुम उन्हें दुबारा अलग भी न कर सकोगे। उनकी रूप-रेखा ही खो जाती है। उनको अलग करने का उपाय ही समाप्त हो जाता है। लेकिन यह तो ऊंचाई पर होगा।
कामवासना को प्रेम बनाओ। दो व्यक्तियों के मन मिल सकते हैं--थोड़े से मिल सकते हैं। शरीर से ज्यादा मिल सकते हैं, क्योंकि मन थोड़ी सूक्ष्म बात है। कभी-कभी ऐसी घटना घट जाती है।
मैं बोल रहा हूं। जब मैं बोल रहा हूं तो मैं मन का उपयोग कर रहा हूं। तुम जब सुन रहे हो तो मन का उपयोग कर रहे हो। कभी-कभी ऐसी घड़ी आ जाती है जब तुम वहां नहीं होते, मैं यहां नहीं होता। कभी-कभी सुनने वाला बोलने वाले से एक क्षण को एक हो जाता है। उसी घड़ी तुम्हें एक स्वाद मिलेगा ध्यान का। जो तुम्हें कर-कर के भी नहीं मिलता होगा, अचानक मिल जाएगा।
दो मन मिल गए, करीब आ गए। दो लपटें पास आईं और एक हो गईं। फिर दूर हो जाएंगी। क्योंकि मन सदा पास नहीं हो सकता। मन कोई स्थिर तत्व नहीं है। इसलिए मिल सकता है, अलग हो जाएगा। मन के साथ कोई स्थिरता नहीं है। वह गति तत्व है। वह भाग रहा है। वह दो नदियों की तरह है भागता हुआ। कभी पास आ जाएंगे किनारे तो मिल जाएंगे; फिर अलग हो जाएंगे।
मन एक प्रवाह है। वह शाश्वतता नहीं है। इसलिए प्रवाह का तो थोड़ी देर के लिए मिलना हो सकता है। वह तो ऐसा ही है, जैसे दो व्यक्ति रास्ते पर दौड़ते थे; करीब आ गए; फिर दूर हो गए। दौड़ते ही दौड़ते थोड़ी बात हो गई, थोड़ा मिलन हो गया, फिर अपने-अपने रास्तों पर विदा हो गए। दो पक्षी आकाश में उड़ते हुए करीब आए, फिर दूर हो गए।
लेकिन मन शरीर से ज्यादा करीब आ सकता है। कभी किसी संगीतज्ञ को सुनते वक्त कुछ लीन हो जाता है, कोई तल्लीनता जग जाती है। संगीतज्ञ नहीं रह जाता, श्रोता नहीं रह जाता, संगीत ही रह जाता है। उस संगीत में दोनों मिल गए होते हैं।
यह घटना कभी-कभी घटती है। जिनके जीवन में प्रेम की घटना घटती है उनको दिखाई पड़ता है: कैसा अभाग्य होता अगर हम शरीर पर ही रुक जाते।
इसलिए शरीर की वासनाओं से मन की वासनाएं ऊपर हैं। जैसे एक आदमी खाने में रस लेता है; यह भी वासना है। और एक आदमी संगीत में रस लेता है; यह भी वासना है। लेकिन भोजन का रस शरीर का रस है। बहुत स्थूल है। संगीत का रस सूक्ष्म है, मन का है, थोड़ा गहरा है। थोड़े गहरे संस्कार होंगे उसके। और आगे की यात्रा के लिए थोड़े संकेत मिलेंगे। थोड़े शरीर से हटे।
और जिसके जीवन में मन के रस की संभावना खुल गई, उसे एक दिन कभी दो आत्माओं के मिलने का रस भी आ जाता है। गुरु और शिष्य के बीच वैसी घटना घटती है; जहां शिष्य बड़ी गहन श्रद्धा में अपने को सौंप देता है। इस भांति सौंप देता है कि जरा भी संदेह मन में नहीं होता। अपने को बचाता नहीं जरा भी। सौंप देता है पूरा। शिष्य का अर्थ ही है, जिसने अपने को सौंप दिया और जिसने कहा--अब जैसी तेरी मर्जी!
मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया। और उस युवक ने कहा, मैं आपका शिष्य होना चाहता हूं।
फकीर ने कहा, तुझे पता है कि शिष्य होने का अर्थ क्या है? बड़ी कठिन तपश्चर्या है। प्रशिक्षण से गुजरना होगा। बहुत से कर्तव्य साधने होंगे। निखरना होगा।
उस युवक ने कहा, मुझे एक अवसर दें अपने को सिद्ध करने का। मेरी ईमानदारी को सिद्ध करने का मुझे मौका दें। जो भी आज्ञा होगी, मैं करूंगा।
गुरु ने कहा, देख, वर्षा करीब आती है, जंगल से लकड़ियां काटनी होंगी। लकड़ियों को इकट्ठा करना होगा वर्षा के लिए। फिर छप्पर आश्रम का खराब हो रहा है, छप्पर ठीक करना है। फिर बगीचे में काम करना है, क्योंकि वर्षा आने के करीब है, बगीचे को पुनः तैयार करना है। फिर चौके में भोजन बनाने के काम में लग जाना। ऐसे सब काम करने होंगे।
उस युवक ने कहा, ठीक। मैं समझा कि ये शिष्य के कर्तव्य हैं। गुरु के क्या कर्तव्य हैं?
गुरु ने कहा, गुरु का कोई कर्तव्य नहीं है। गुरु बैठा रहता है और आज्ञा देता है।
वह शिष्य चरणों पर गिर पड़ा। और उसने कहा, ऐसा क्यों न करें कि मुझे गुरु होने की ही शिक्षा दे दें। जब तैयार ही कर रहे हैं तो फिर मुझे गुरु ही होने के लिए तैयार कर दें।
बहुत से शिष्य, शिष्य अपने को मानते हैं, लेकिन गहरे में गुरु होने की आकांक्षा है। तो चूक जाएंगे। शिष्य भी बने होंगे वे तो इसी आशा में बने हैं कि आज नहीं कल गुरु हो जाना है। थोड़े दिन की मुसीबत है, झेल लेंगे। सीखने का समय है, जल्दी बीत ही जाएगा। कोई दुख सदा तो रहता नहीं। दुख भी बीत जाता है। ये दिन भी बीत जाएंगे, फिर गुरु हो जाएंगे।
अहंकार मिटना नहीं चाहता, सौंपना नहीं चाहता। कभी-कभी मिटने का खेल भी करता है। लेकिन खेल से कुछ होने वाला नहीं है। खेल से तुम किसी और को धोखा नहीं देते सिवाय अपने को।
तो तुम्हें फिर गुरु के पास होने का--जो संभावना है प्रार्थना की, वह न खुल पाएगी। तुम मंदिर की पत्थर की मूर्तियों के सामने प्रार्थना न सीख सकोगे।
इसे तुम ठीक से समझ लो। क्योंकि पत्थर की मूर्ति के सामने तुम्हारे अहंकार को कोई अड़चन ही नहीं होती झुकने में। वहां दूसरा कोई है ही नहीं जिसके सामने अड़चन हो। जीवन की वास्तविक प्रार्थना तो किसी जीवंत गुरु के पास ही पैदा होती है। क्योंकि वहीं तुम्हें झुकने की अड़चन मालूम होती है--कैसे झुकें? किसी जीवित व्यक्ति के सामने कैसे झुकें? आसान है किसी पत्थर के सामने झुक जाना। क्योंकि वहां कोई है ही नहीं जिसके सामने तुम झुक रहे हो। वस्तुतः तुम पत्थर की मूर्ति के सामने जब झुकते हो तो तुम अपने ही मन की धारणा के सामने झुक रहे हो।
मुसलमान मस्जिद में झुक जाता है, क्योंकि मस्जिद उसकी मन की धारणा है। हिंदू मंदिर में झुक जाता है, क्योंकि वह मंदिर उसका मंदिर है। हिंदू को मस्जिद में झुकाओ, तब बड़ी कठिनाई होगी। जैन को हिंदू मंदिर में झुकाओ, तब बड़ी कठिनाई होगी। रीढ़ अकड़ी रहेगी। सिर नीचे नहीं झुकेगा। क्योंकि यह मेरी धारणा नहीं है, इसके सामने मैं कैसे झुकूं!
इसे थोड़ा समझ लो। हम अपनी ही धारणा के सामने झुक जाते हैं। इसको अगर ठीक से कहा जाए तो ऐसा हुआ: हम अपने ही चरणों में झुके रहते हैं। यह तो अहंकार का खेल है। कृष्ण तुम्हारे भगवान हैं, इसलिए तुम झुक जाते हो। तुम्हारी मान्यता है कि वे भगवान हैं, इसलिए झुक जाते हो।
तुम अपनी ही मान्यता के सामने झुकते हो, कृष्ण के सामने नहीं। कृष्ण के सामने झुकते तो रूपांतरित हो जाते। अपनी ही मान्यता के सामने हजारों बार झुकते रहोगे, कुछ भी न होगा। व्यर्थ की कवायद हो रही है। नाहक शरीर को कष्ट दे रहे हो। इतना समय तुमने यूं ही गंवाया।
लेकिन जब तुम किसी जीवंत व्यक्ति के पास पहुंचते हो, कोई जीवित व्यक्ति तुम्हारी धारणा के अनुकूल नहीं हो सकता। मुर्दे ही केवल तुम्हारी धारणा के अनुकूल हो सकते हैं। जीवंत व्यक्ति तो इतनी महा घटना है कि तुम्हारी सब धारणाओं को तोड़ कर बहेगा। वह तो बाढ़ आई गंगा है। वह कोई नहरों में बहता हुआ पानी नहीं है कि तुमने लकीरें बांध दी हैं, वहीं-वहीं बहता है। जहां तुम ले जाना चाहते हो, वहीं जाता है। जीवंतता तो बाढ़ है; जीवन की बाढ़ है। वह कोई कूल-किनारा नहीं मानता। उसके सामने जब तुम झुकोगे, तो एक ही उपाय है: तुम अगर मिटो तो ही झुक सकते हो। तुम्हारी अगर जरा सी भी धारणा शेष है, तो तुम झुकने में अड़चन पाओगे।
तुम्हारी धारणा कहेगी, इस आदमी के सामने झुकते हो? पहले पक्का तो कर लो कि तुम जिसे मानते हो ज्ञानी है, यह वैसा ज्ञानी है? पहले पक्का तो कर लो कि तुम जिसे आचरण कहते हो, वैसा आचरण इसका है? तुम पहले पक्का तो कर लो कि तुम जिस शास्त्र को मानते हो, यह उस शास्त्र के अनुकूल है? तुम सारी बातें पक्की कर लो। हां, अगर तुम्हारी धारणा के अनुकूल पड़ता हो तो झुक जाना।
तब तुम ध्यान रखना, तुम फिर भी अपनी धारणा के सामने ही झुक रहे हो।
गुरु की खोज एक ऐसे व्यक्ति की खोज है जो तुम्हारी धारणाओं को तोड़ दे। वह तुम्हारी धारणाओं के अनुकूल व्यक्ति की खोज नहीं है। वह किसी जीवंत घटना की खोज है जहां तुम्हारी सारी धारणाएं डगमगा जाएं, टूट जाएं, छितर-बितर जाएं। जो तुम्हारे विचारों को उखाड़ दे; जो तुम्हारी नींद को तोड़ दे। और तुम्हारी नींद टूटे, मूर्च्छा टूटे, तो तुम शायद झुको। क्योंकि अहंकार मूर्च्छा है। वह गहरी नींद है। तुम सब उपाय कर लो, उससे कुछ भी न होगा, जब तक तुम्हारी नींद न टूटे।
मैंने सुना है कि एक आदमी ने एक बहुत सुंदर बगीचा लगाया। लेकिन एक अड़चन शुरू हो गई। कोई रात में आकर बगीचे के वृक्ष तोड़ जाता, पौधे उखाड़ जाता। सुबह सारा बगीचा आधी उजड़ी हालत में आ जाता। शक हुआ कि पड़ोसी शरारत कर रहे हैं। ईर्ष्या हो गई है। उसने आदमी रखे, जासूस लगाए। लेकिन पता चला, कोई पड़ोसी कोई गड़बड़ नहीं कर रहा है। कोई आता नहीं।
तब तो बड़ी मुश्किल हो गई। तो उसे शक हुआ कि शायद भूत-प्रेत, शायद कोई दुष्टात्माएं उपद्रव कर रही हैं। उसने गंडे-ताबीज बंधवाए।
कुछ भी परिणाम न हुआ। भूत-प्रेतों का काम जारी रहा।
तब वह घबड़ा गया। एक फकीर गांव में आया था, वह उसके पास गया। उसने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में आ गया हूं। अपनी सारी कथा सुनाई।
उस फकीर ने कहा, तू एक काम कर। ठीक आधी रात का अलार्म अपनी घड़ी में भर दे। और सात दिन तक जब अलार्म बजे तो जाग कर, पांच मिनट जाग कर अपने आस-पास देखना और सो जाना। सात दिन में कोई घटना तुझे दिखाई पड़े तो मेरे पास आ जाना।
उसे कुछ भरोसा न आया कि अलार्म इसमें क्या करेगा! मेरा जागना इसमें क्या करेगा! लेकिन अब फकीर ने कहा है तो सात दिन की ही बात है, कर ही लेनी चाहिए। और सब उपाय कर ही चुके हैं, कुछ हुआ नहीं। अलार्म भर कर घड़ी में सो गया। दो दिन तो कुछ भी न हुआ। व्यर्थ नींद टूटी। नाराज भी हुआ। फकीर को गाली भी दी मन में। लेकिन तीसरे दिन उसने पाया कि जब अलार्म बजा तो वह बगीचे में खड़ा नींद में अपने झाड़ उखाड़ रहा था।
भागा हुआ फकीर के चरणों में गिर गया। उसने कहा कि तुम अगर मुझे न जगाते तो मैं न मालूम और कितने उपाय करता। वे सब उपाय व्यर्थ थे। क्योंकि कोई दूसरा हानि नहीं पहुंचा रहा था। मैं ही अपनी नींद में अपने वृक्षों को उखाड़ रहा था।
और ऐसी ही दशा प्रत्येक की है। कोई तुम्हें दुख नहीं पहुंचा रहा है। कोई तुम्हारी बगिया नहीं उजाड़ रहा है। न तो पड़ोसी नष्ट कर रहे हैं, न कोई भूत-प्रेत तुम्हें सता रहे हैं। तुम ही अपनी नींद में अपनी जीवन की बगिया को उजाड़ते हो, दुख पाते हो, पीड़ा पाते हो। नींद टूटनी चाहिए।
और अहंकार नशा है। इसलिए तो हमने उसको मद कहा है। अहंकार के नशे में तुम सोए हो। किसी के चरणों में जब तुम छोड़ दोगे अपने को...।
और ध्यान रखना, सूक्ष्म बात है, खयाल रख लेनी। अगर किसी व्यक्ति से तुम्हारे विचार मेल खाते हों और तुम छोड़ो, तो वह नंबर दो की घटना होगी--मन और मन के मिलने की। लेकिन ऐसे व्यक्ति के चरणों में अपने को छोड़ो, जिससे तुम्हारे विचार मेल न भी खाते हों, लेकिन जिसमें तुम्हें कुछ दिखाई पड़ता है जो तुमसे पार है। भला तुम्हारे विचार उससे सब तरह मेल न भी खाते हों, कई जगह वह तुम्हारे विचार के प्रतिकूल हो, भिन्न हो, विपरीत हो; लेकिन जिस व्यक्ति में तुम्हें ऐसी झलक मिलती हो कि वह तुम्हारी जीवन-चेतना से ऊपर है। विचार की फिक्र मत करना। क्योंकि अंततः विचारों का कोई मूल्य नहीं है। अंततः तो जीवन-चेतना की स्थिति-सोपान का मूल्य है। जिसके पास जाकर तुम्हें लगता हो कि सिर उठा कर ऊपर देखना पड़ता है तब इस आदमी की थोड़ी प्रतिमा दिखाई पड़ती है, उसके चरणों में अपने को छोड़ देना; तो तीसरी घटना घटेगी प्रार्थना की।
और इस तीसरे के बाद ही चौथे का उपाय है, जिसकी दादू चर्चा कर रहे हैं। उस चौथे को वे इसक कहते हैं, प्रेम कहते हैं। उसी चौथे का नाम परमात्मा है। तब तुम किसी खास व्यक्ति के चरणों में अपने को नहीं छोड़ रहे हो। तीसरी घटना गुरु के चरणों में घटती है। गुरु का आकार है, रूप है, रंग है। चौथी घटना अरूप और निराकार के चरणों में घटती है। फिर तुम सिर्फ अपने को छोड़ देते हो। तुम फिर यह भी नहीं पूछते, किसके चरणों में? समग्र के चरणों में तुम अपने को छोड़ देते हो। तुम समग्र के साथ बहने लगते हो।
जब लगि सीस न सौंपिए, तब लगि इसक न होई।
आसिक मरणै न डरै, पिया पियाला सोई।।
जब तक सिर सौंपने की तैयारी न हो तब तक प्रेम न होगा।
सिर के दो अर्थ हैं। एक तो तुम्हारा सोच-विचार; और दूसरा तुम्हारा अहंकार। सिर तुम्हारी अकड़ है और सिर तुम्हारा चिंतन भी। तुम्हारे विचार भी सारे सिर में संगृहीत हैं और तुम्हारी अस्मिता भी, मैं-भाव भी।
जब लगि सीस न सौंपिए...
जब तक इस सिर को ही उतार कर न दे दोगे कहीं...
...तब लगि इसक न होई।
तब तक तुम्हें प्रेम का पता न चलेगा। मिटोगे नहीं, प्रेम का पता न चलेगा। तुम्हारे रहते प्रेम का पता न चलेगा, तुम्हारे मिटते ही पता चलेगा। तुम्हारे मिटने पर ही प्रेम पैदा होता है। जैसे बीज के मिटने पर वृक्ष पैदा होता है। ठीक तुम बीज की तरह हो। मिटोगे तो ही कुछ बड़ा तुम्हारे भीतर पैदा होगा। और यही बाधा है। तुम डरते हो मिटने से। तुम मृत्यु से भयभीत हो कि कहीं मिट न जाऊं! तुम अपने को बचाते हो। बचाने से हिंसा पैदा होती है। तुम दूसरे को मिटाने में लग जाते हो।
दो तरह के लोग हैं संसार में। एक, जो अपने को बचाने में लगे हैं। स्वभावतः जो अपने को बचाने में लगता है, वह दूसरे को मिटाने में लग जाता है। दूसरे, जिन्होंने यह समझ लिया कि मिटना तो होगा ही, मौत तो आने ही वाली है। इसलिए उसकी चिंता छोड़ दी। विपरीत, उन्होंने अपने को मिटाने में लगा दिया। जो अपने को मिटाने में लगता है, वह दूसरे को मिटाने में नहीं जाता। और जो स्वयं को पूरी तरह मिटा देता है, उसी के जीवन में प्रेम की सुगंध का जन्म होता है।
आसिक मरणै न डरै...
वह जो प्रेमी है, वह मरने से नहीं डरता।
...पिया पियाला सोई।।
वही प्रेम के प्याले को पीने का हकदार हो पाता है।
यह तुमने कभी खयाल किया कि साधारण जीवन में भी प्रेमी मरने से नहीं डरता। साधारण जीवन के प्रेम में भी! इस बड़े प्रेम को हम छोड़ दें। मजनू-फरिहाद जैसे साधारण प्रेमी भी मरने से नहीं डरते। प्रेम में कुछ बात है। प्रेम मृत्यु से बड़ा है। और जो प्रेम मृत्यु से डर जाए वह प्रेम ही नहीं है।
अगर तुम्हारे जीवन में कभी प्रेम क्षण भर के लिए भी उतरा हो तो तुम अपने को पूरा मिटाने को राजी हो जाओगे। तुम कहोगे, यह क्षण मेरे लिए पर्याप्त है। यह एक क्षण जान लिया, सब जान लिया। यह एक क्षण मेरे लिए शाश्वतता है। अब इसके पार कुछ जानने को नहीं बचा। अब अगर मर भी जाऊं, तो मैं तृप्त मर रहा हूं, अतृप्त नहीं।
जब साधारण प्रेम में ऐसी घटना घटती है तो उस असाधारण प्रेम की तो बात ही क्या कहनी, जो व्यक्ति और गुरु के बीच पैदा होता हो या व्यक्ति और परमात्मा के बीच पैदा होता हो। उस प्रेम की दशा में ऐसा अहसास ही नहीं होता कि मैं मर सकता हूं। प्रेम अमृत है। जिसने प्रेम को जाना, उसने मृत्यु के भय को भी उसी क्षण छोड़ दिया।
यहां तुम जीवन में अगर निरीक्षण करोगे, तो तुम उन लोगों को सर्वाधिक मृत्यु से डरता हुआ पाओगे जिन्होंने न कभी प्रेम किया और न कभी प्रेम दिया। उन्हें तुम धन को पकड़ते हुए पाओगे, क्योंकि धन मौत से रक्षा का आश्वासन है। तुम कृपण आदमियों को प्रेम करते न पाओगे। कृपण आदमी धन को पकड़ता है। क्योंकि धन से ऐसा आश्वासन मिलता है कि शायद मौत से बचने का कोई उपाय धन में छिपा हो। वह बड़े मकान बनाएगा, बड़ा धन इकट्ठा करेगा, बड़ी तिजोड़ी सुरक्षा करेगा, लेकिन प्रेम नहीं करेगा। क्योंकि प्रेम में बांटना पड़ता है। कृपण बांट नहीं सकता। कृपण दे नहीं सकता। वह केवल ले सकता है। कृपण की केवल मांग है; दान उसने जाना नहीं। और जिसने देना न जाना, वह प्रेम कैसे जानेगा! क्योंकि प्रेम तो देने की शुद्धतम भाव-दशा है। कोई अपने को पूरा दे डालना चाहता है। कोई इसमें ही प्रसन्न है कि जिसे मैंने प्रेम किया है उस पर सब भांति न्यौछावर हो जाऊं। कुछ भी मेरे पास न बचे, सब दे डालूं। उस सब देने में ही अमृत की पहली झलक आती है।
आसिक मरणै न डरै, पिया पियाला सोई।।
वही उस प्रेम का, प्रेमी का प्याला पीने में समर्थ हो पाता है।
दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोई।
बेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई।।
प्रेम की पुस्तक कोई भी पढ़ता नहीं, क्योंकि बड़ा महंगा सौदा है। सिर से चुकानी पड़ती है कीमत।
दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोई।
कोई साहसी, कोई विरला वीर पुरुष, जो अपने को दांव पर लगाने को तैयार है, प्रेम की पाती बांचता है। प्रेम की गीता पढ़ता है।
बेद पुरान पुस्तक पढ़ै...
वेद-पुराण कोई कितना ही पढ़ता रहे, कुछ भी न होगा।
...प्रेम बिना क्या होई।
क्योंकि वेद और पुराण सस्ते में मिल जाते हैं; कौड़ियों में मिल जाते हैं। प्रेम तो अपने को ही देकर मिलता है। प्रेम बाजार में नहीं बिकता। प्रेम दुकानों पर नहीं मिलता। प्रेम को किसी और सिक्के से खरीदने की कोई संभावना नहीं है। तुम्हें अपने को ही देना पड़ेगा। प्रेम तुम्हें मांगता है, उससे कम नहीं। तुम अपनी सब संपदा दे दो, तो भी कुछ न होगा। तुम अपना सब कुछ दे डालो, अपने को बचा लो; प्रेम कहेगा, इससे कुछ न होगा, यह सौदा नहीं होगा। तुम्हें अपने को ही दे देना होगा।
बेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई।
दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोई।।
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
रोम-रोम पिव-पिव करै, दादू दूसर नाहिं।।
यह बड़ा प्यारा वचन है।
प्रीति जो मेरे पीव की...
यह चौथे प्रेम की बात है, जब प्रेम प्रार्थना से भी ऊपर उठता है। क्योंकि प्रार्थना में भी थोड़ा द्वैत शेष रहता है: शिष्य और गुरु; पूज्य और पूजा और पूजक। जब चौथी घड़ी आती है प्रेम की--
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
अब वह मेरी हड्डी-हड्डी में समा गई। अब मुझे उसका नाम नहीं लेना पड़ता, दादू कहते हैं। नाम गूंजता ही रहता है। वह मेरे रोएं-रोएं से उठ रही है पुकार। मुझे करनी नहीं पड़ती। अब मैं प्रार्थना करता नहीं हूं, होती है। अब मैं कुछ भी न करूं, तो भी प्रार्थना होती है। कुछ और भी करूं, तो भी प्रार्थना होती है। प्रार्थना की एक अंतर्धारा बहती रहती है। ऊपर-ऊपर कुछ भी करता रहूं, भीतर वही रोम-रोम में गूंजता रहता है।
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
वह मेरी हड्डी-हड्डी में समा गई है।
रोम-रोम पिव-पिव करै, दादू दूसर नाहिं।।
और वह इतनी गहरी समाविष्ट हो गई है मेरे रोएं-रोएं में, रोआं-रोआं पिव-पिव कर रहा है। और मैं खोजता हूं तो मैं दादू को और कहीं नहीं पाता, बस उस पिव-पिव की आवाज में ही पाता हूं। दादू दूसर नाहिं! अब दादू दूसरा नहीं रहा, अब प्रार्थना ही हो गया है। अब ऐसा नहीं है कि दादू प्रार्थना कर रहा है। अब दादू प्रार्थना है।
...दादू दूसर नाहिं।।
अगर तुम कभी छोटे से प्रयोग करो प्रार्थना के, मंत्रोच्चार के, तो तुम्हें समझ में आ सकता है। पहले जब तुम मंत्रोच्चार करोगे तो वह बीज की तरह होगा। तुम्हें शब्द का उच्चारण करना होगा। समझो, ओम-ओम की तुम धुन लगाओगे। तुम्हें श्रम करना होगा। तुम्हें कहना होगा यह ओम। यह पहली सीढ़ी है। फिर तुम्हारे ओंठ धीरे-धीरे बंद हो जाएंगे। बाहर किससे कहना है! किसी को सुनाना थोड़े ही है, कहना है। किसी को दिखाना थोड़े ही है, अपने भीतर गुंजाना है। ओंठ बंद हो जाएंगे, अब तुम भीतर ही ओम की गुंजार करोगे। लेकिन अभी भी थोड़ा प्रयत्न रहेगा, कंठ का उपयोग रहेगा। ओंठ तो बंद हो गए, लेकिन कंठ का उपयोग रहेगा।
ऐसा कुछ दिन ओम का गुंजार तुम भीतर चलाते रहोगे। फिर किसी दिन अचानक बिना खबर दिए, तुम कुछ और काम कर रहे होओगे, अचानक तुम्हें होश आएगा--यह क्या हुआ! तुमने तो ओम की गुंजार नहीं की और भीतर गुंजार उठने लगी!
यह चौंकाती है भक्त को बात। क्योंकि पहले तो वह करता था, कर-कर के खींच-खींच कर लाता था, तब भी छूट-छूट जाती थी। फिर चेष्टा करता था तो आता था नाम; नहीं चेष्टा करता था तो भूल जाता था। चेष्टा भी करता था तो भी कभी-कभी भूल जाता था। बीच-बीच में चूक जाती थी, विस्मृति हो जाती थी। लेकिन अगर जारी रहे धारा, तो धीरे-धीरे रोएं-रोएं में समाने लगती है। एक दिन अचानक बाजार जाते तुम भीतर सुनोगे, मंत्रोच्चार हो रहा है। तुम करने वाले नहीं हो, तुम सुनने वाले हो गए।
फिर चौथी घटना घटती है जिसकी दादू बात कर रहे हैं। एक दिन ऐसा होता है कि न तुम करने वाले होते हो, न तुम सुनने वाले होते हो, उच्चार ही रह गया।
...दादू दूसर नाहिं।।
तब अचानक तुम चौंक कर देखते हो, मैं कहां खो गया? सिर्फ ओंकार गूंज रहा है। न तो मैं कर रहा हूं, न मैं सुन रहा हूं; मैं हूं ही नहीं। दादू दूसर नाहिं!
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
रोम-रोम पिव-पिव करै, दादू दूसर नाहिं।।
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
वह जो प्रेमी था, प्रेमिका हो गया।
यह थोड़ा समझने जैसा है। इसका क्या अर्थ है? और भक्त के जीवन में इसका बड़ा अर्थ है। भक्त के जीवन में यह बड़ी क्रांति का सूचक है।
आसिक मासूक हुई गया...
प्रेमी प्रेमिका हो गया।
प्रेमी है पुरुष। पुरुष में थोड़ा आक्रमण है। पुरुष में थोड़ी हिंसा है। पुरुष प्रार्थना भी करता है तो ऐसे जैसे दावा कर रहा हो। पुरुष मंदिर के द्वार पर भी जाता है तो ऐसे जैसे आक्रामक हो। वह पुरुष का गुण है। पुरुष चित्त आक्रामक है।
स्त्रैण चित्त आक्रामक नहीं है। इसलिए कोई स्त्री अपनी तरफ से कभी किसी पुरुष से नहीं कहती कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। वह प्रतीक्षा करती है, पुरुष ही कहे। क्योंकि उतना कहना भी स्त्रैण गुणधर्म के विपरीत होगा। वह भी आक्रमण हो गया। किसी से यह कहना, मैं तुझे प्रेम करता हूं--आक्रमण हो गया। यह दूसरे की सीमा का उल्लंघन हो गया। यह दूसरे के साथ जबरदस्ती की शुरुआत हो गई। हो सकता है दूसरा इसे पसंद न करे। या हो सकता है सिर्फ संस्कारवश स्वीकार कर ले। हो सकता है करुणावश, दयावश, सहानुभूतिवश इनकार न करे। यह आक्रमण हो गया।
स्त्री कभी किसी पुरुष को नहीं कहती अपनी तरफ से। जब पुरुष बहुत बार कह चुका होता है और स्त्री आश्वस्त हो गई होती है कि अब कोई आक्रमण नहीं है, तभी वह कहती है कि मैं भी तुम्हें प्रेम करती हूं। ऐसा नहीं है कि उसने कभी पहले प्रेम नहीं किया। स्त्री भी प्रेम करती है। लेकिन उसका प्रेम प्रतीक्षा का है, आक्रमण का नहीं। वह राह देखेगी। अगर पुरुष न आएगा तो पुरुष के पीछे न भागेगी। बुलावा उसने दे दिया है बड़े गहरे हृदय से। आमंत्रण उसने भेज दिया है। लेकिन वह स्थूल में नहीं है, वह बड़े सूक्ष्म में है। वह प्रतीक्षा करेगी। जाल उसने फेंक दिया है। लेकिन वह जाल पृथ्वी का नहीं है। उसे तुम पकड़ नहीं सकते उसके जाल को। उसका रोआं-रोआं तुम्हें बुला रहा है। उसकी श्वास-श्वास तुम्हें पुकार रही है। लेकिन फिर भी वह आक्रमण न करेगी। वह रोक कर तुम्हारा हाथ यह न कहेगी कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। पहल न लेगी, इनिशिएटिव न लेगी। पहल तो पुरुष को ही लेनी होगी।
तो आसिक मासूक हुई गया। दादू कहते हैं, जब शुरू की थी तेरी तरफ यात्रा, तो हम आशिक थे। दौड़ रहे थे तेरी तरफ। तुझे खोजते थे, दीवाने थे, पागल थे, मजनू की तरह थे। चिल्लाते थे लैला-लैला, ऐसा अल्लाह-अल्लाह, या राम-राम की बड़ी जोर से गूंज मचाते थे। पहाड़ों में, गुफाओं में, हिमालय में तुझे खोजते फिरते थे। काशी में, काबा में तुझे पुकारते फिरते थे। एक आक्रमण उठा रखा था। एक झंडा लेकर चल रहे थे। खोज कर रहेंगे, कहां तू छिपा है। तुझे उघाड़ लेंगे, तेरे रहस्य को तोड़ेंगे। तुझे जीत कर रहेंगे। उसमें गहरे में जीत थी।
आसिक मासूक हुई गया...
फिर एक ऐसी घड़ी आती है, जब प्रेम गहराता है, तो यह आक्रमण नष्ट हो जाता है। अब दादू कहते हैं, अब हम तुझे खोजते नहीं, हम प्रतीक्षा करते हैं कि कब तू आएगा। अब हम तुझे खोजते नहीं, क्योंकि अब हमें समझ में आ गया कि खोजना भी अहंकार है। हम तुझे खोज सकते हैं, यह बात ही अहंकार है। हम तुझे कैसे खोज सकेंगे? तेरी ही कृपा होगी तो ही तू मिलेगा। तेरे प्रसाद से तू मिलेगा, हमारे प्रयास से नहीं। हम थक गए। हमने सब तरफ तेरे द्वार खटखटा लिए। लेकिन सब जगह हमने मकान खाली पाया। अब हम समझ गए कि मकान खाली न था, हमारे आक्रमण के कारण ही तू हट गया था।
परमात्मा पर कोई आक्रमण कर सकता है? परमात्मा के प्रति कोई हिंसक हो सकता है? इसलिए तार्किक व्यक्ति उसे नहीं खोज पाता। तर्क हिंसा है। वह प्रमाण करता है, सिद्ध करता है। वैज्ञानिक परमात्मा को नहीं खोज पाता, क्योंकि विज्ञान हिंसा है।
मार्क्स ने कहा है कि मैं परमात्मा को उसी दिन स्वीकार करूंगा, जिस दिन प्रयोगशाला की परखनली में वैज्ञानिक उसे पकड़ कर सिद्ध कर देगा।
लेकिन यह कोई बात हुई! और अगर किसी दिन परमात्मा पकड़ में आ गया और परखनली में रख लिया गया, टेस्ट-ट्यूब में, और जांच-पड़ताल हो गई, उसको कोई परमात्मा कहेगा? वह कोई कीड़ा-मकोड़ा होगा। उसकी कौन पूजा करेगा? उसको मानेगा कौन? जो हमारी परखनली की पकड़ में आ गया वह हमसे ऊपर नहीं हो सकता। उसके मंदिर गिरा दिए जाएंगे। फिर ठीक है। केमिस्ट की दुकान पर तुम खरीद लेना परमात्मा डब्बी में बंद या एक कैप्सूल में बंद। वह एक दवाई हो जाएगा। विटामिन होगा। उसको ले लिया, थोड़ी ताकत आएगी। लेकिन परमात्मा नहीं बचेगा।
यह बात मार्क्स को भी समझ में आ गई। जब उसने लिखा, तो उसने बाद में यह भी जोड़ा कि यह भी मैं समझता हूं कि अगर परमात्मा टेस्ट-ट्यूब में पकड़ में आ जाए तो वह परमात्मा न रह जाएगा।
विज्ञान परमात्मा को खोज ही नहीं सकता। जिसे खोज ले वह परमात्मा नहीं हो सकता। पुरुष चित्त आक्रामक है। विज्ञान पुरुषों की खोज है। तर्क पुरुषों की खोज है। उसमें बड़ी आतुरता है, जल्दबाजी है, बेचैनी है, पा लेने की चेष्टा है, दौड़-धूप है, लेकिन समझ नहीं है। हृदय की समझ नहीं है कि कुछ चीजें हैं, जो प्रतीक्षा से मिलती हैं। कुछ चीजें हैं, जिन्हें तुम निमंत्रण दे सकते हो, आक्रमण नहीं कर सकते। जिन्हें तुम बुलावा दे सकते हो, वे अतिथि हो सकती हैं, लेकिन उनको तुम कैदी बना कर नहीं ला सकते।
परमात्मा तुम्हारा अतिथि है। तुम द्वार खुले रखना, बस! जब वह आए तो शय्या तैयार रखना। जब वह आए तो ऐसा न हो कि तुम्हारा घर तैयार ही न हो अतिथि को स्वीकार करने को। कहीं ऐसा न हो कि घर साफ-सुथरा न हो। वह जब आए तो सब तैयार पाए। बस इतना तुम्हें करना है:
आसिक मासूक हुई गया...
तब तुम प्रतीक्षा करते हो। तुम जोहते हो बाट। राह पर तुम्हारी आंख लगी रहती है। पत्ता भी खड़कता है तो तुम चौंकते हो, शायद उसका आना हो गया! हवा का झोंका आता है, तो शायद उसने द्वार पर दस्तक दी! तुम जागरूक हो, प्रतीक्षारत हो, लेकिन आक्रामक नहीं। क्योंकि तुमने जान लिया, खोजने तुझे हम कहां जाएंगे? अगर तूने तय ही किया है छिपने का तो हम तुझे उघाड़ न सकेंगे। वह तो तेरी ही मर्जी होगी तो ही तू उघाड़ेगा। और तुझे उघाड़ने की चेष्टा एक तरह का बलात्कार है।
जैसे कोई किसी स्त्री के साथ जबरदस्ती बलात्कार कर दे। तो देह से तो बलात्कार हो जाएगा, लेकिन स्त्री के मन को और आत्मा को तो छुआ भी नहीं जा सकता। बलात्कार के क्षण में स्त्री की आत्मा तो वहां होगी ही नहीं। वह आत्मा तो केवल प्रेमी को उपलब्ध हो सकती है।
विज्ञान को मैं बलात्कार कहता हूं। तर्क को बलात्कार कहता हूं। काव्य प्रेम है। प्रार्थना प्रेम है। हृदय से ही हृदय के पास जाने का उपाय है।
तो दादू ने बड़ी गजब की बात कही है। शायद ही किसी संत ने कही है। मैं किसी संत की वाणी के भीतर इस वचन को अब तक नहीं पाया।
आसिक मासूक हुई गया...
यह जानने वाला ही कह सकता है। जिसने इस प्रक्रिया को जाना हो, और जिसने भीतर पहचाना हो कि यह क्या हो गया? पुरुष की तरह चले थे, स्त्री की तरह हो गए! खोजने निकले थे, कितना बड़ा अभियान था! थक कर बैठ गए, राह देखने लगे तेरी!
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
और दादू कहते हैं, जब पुरुष मिट जाता है और स्त्री ही रह जाती है; जब प्रतीक्षा ही रह जाती है; खुले द्वार बाट जोहती आंखें ही रह जाती हैं अनंत तक, आकाश पर टिकी--तेरी राह...और तेरी राह...और तेरी राह...। और तू जब आएगा, तब की प्रतीक्षा। जल्दी भी नहीं। प्राण आतुर हैं, फिर भी जल्दबाजी नहीं, अनंत की प्रतीक्षा की तैयारी है। तू जब भी आएगा तभी जल्दी है। रोएंगे, नाचेंगे, गाएंगे; मगर तुझे खोजने कहां जाएंगे? अपने को तैयार करेंगे, ताकि तू ही खोज ले।
स्त्री लुभाती है, ताकि पुरुष चल पड़े। स्त्री नाचती है, मुस्कुराती है, उसकी आंखों में निमंत्रण होता है, ताकि पुरुष आतुर हो जाए; ताकि पुरुष के भीतर आकांक्षा का ज्वार उठ जाए, ताकि पुरुष के भीतर एक प्यास उठे, कुछ अंकुरित हो, वह दौड़ उठे।
दादू कहते हैं, तभी प्रार्थना पूरी, जब वह स्त्रैण हो जाती है।
जीसस ने कहा है, जब तक तुम स्त्रियों की भांति न हो जाओगे तब तक तुम उसे न पा सकोगे।
नीत्शे ने तो बुद्ध और जीसस का विरोध करने के लिए कहा है कि ये दोनों व्यक्ति पुरुष कम थे, स्त्रैण ज्यादा थे।
उसने तो नाराजगी में कहा है, उसने तो उनके खिलाफ कहा है, लेकिन बात तो ठीक ही है। बुद्ध को बैठे देखा तुमने? इनके शरीर को गौर किया? इस शरीर में स्त्रैण सुडौलता तो दिखाई पड़ती है, पुरुष की रुक्षता दिखाई नहीं पड़ती। इस चेहरे पर पुरुष नहीं दिखाई पड़ता, बड़ी शांत स्त्रैण भाव-दशा दिखाई पड़ती है। बुद्ध की मूर्ति को देख कर तुम्हें ऐसा लग सकता है कि यह आदमी आक्रामक हो सकता है? न, यह सिर्फ प्रतीक्षा कर रहा है। इसका मौन, इसका ध्यान, इसकी समाधि क्या है? सिवाय इसके कि यह प्रतीक्षा कर रहा है।
कुछ करने को नहीं है। सिर्फ राह देखनी है। और इस भांति राह देखनी है कि पूरे प्राण बस राह पर पट जाएं, आंखें बिछ जाएं। अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम उन सभी को, जिन्होंने परमात्मा को पाया, आखिरी घड़ी में तुम स्त्रियों की भांति पाओगे। इतने ही कोमल हो जाएंगे। इतने ही प्रतीक्षारत हो जाएंगे--अनाक्रामक! सिर्फ खुले द्वार!
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
दादू उस मासूक का, अल्लहि आसिक होई।।
और जब प्रेमी प्रेमिका बन गया, तभी परमात्मा उस प्रेमिका का प्रेमी बनता है। जब तुम स्त्रैण हो रहते हो, तब परमात्मा भागा चला आता है। भक्त लुभाता है, भगवान भागा चला आता है।
जिन्होंने जाना है उन्होंने यही कहा है, परमात्मा को तुम खोज न सकोगे; तुम अपने को तैयार कर लो, वह आ जाएगा। तुम बुलाओ, मगर ओंठ से आवाज न निकले। हृदय में ही हो आवाज। शून्य में उठे स्वर। तुम पुकारो, हृदयपूर्वक पुकारो; लेकिन तुम्हारी पुकार अभद्र न हो जाए, किसी को कानों-कान खबर न हो जाए। तुम पातियां लिखो उसे, लेकिन इस तरह के अक्षरों से लिखना जो अदृश्य हों। तुम चिट्ठियां भेजो उसे, लेकिन डाकियों के हाथ मत भेजना। शून्य आकाश में ही जाने दो।
तुम तैयार हो जाओ, वह तुम्हारा प्रेमी हो जाएगा।
यह बड़ी क्रांतिकारी बात है। तुम जब तक प्रेमी की तरह हो, तब तक तुम परमात्मा को प्रेयसी की तरह खोज रहे हो। वहीं तुम्हारी भूल है। तुम आक्रामक रहोगे और वह प्रेयसी छुपती रहेगी, छुपाती रहेगी। खेल चलता रहेगा। वह हजार-हजार अवगुंठनों में छिप जाएगी। तुम छोड़ो दौड़, तुम इस खेल को तोड़ो अपनी तरफ से, तो वह भी तोड़ देगा। तुम प्रेयसी हो रहो। फिर तुमसे छिपने का कोई कारण न रहा। फिर वह तुम्हारे पास चला आएगा।
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
दादू उस मासूक का, अल्लहि आसिक होई।।
अल्लाह स्वयं उस प्रेयसी का प्रेमी हो जाता है।
और तब आता है यह परम वचन:
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
और तब दादू ने पूरी परिभाषा परमात्मा की जिस ढंग से की है, तुम उसकी तुलना न खोज सकोगे।
इसक अलह की जाति है...
अगर तुम पूछो कि परमात्मा की जाति क्या है? प्रेम उसकी जाति है।
यह बड़ी विरोधाभासी बात है। क्योंकि जाति प्रेम की होती ही नहीं। जाति तो घृणा की होती है। तुम हिंदू हो, क्योंकि मुसलमान से तुम्हारी घृणा है। अगर मुसलमान से तुम्हारी घृणा निश्चित ही गिर जाए, तो क्या तुम हिंदू रह जाओगे? तुम कैसे हिंदू रहोगे? तुम जैन हो, क्योंकि हिंदू से तुम्हारी घृणा है। अगर हिंदू से तुम्हारी घृणा वस्तुतः ही गिर जाए, तुम किस आधार पर जैन रहोगे?
मेरे घर की जो सीमा-रेखा है, वह मेरे पड़ोसी के डर के कारण है। अगर पड़ोसी का डर ही चला जाए तो वह सीमा-रेखा समाप्त हो गई। पड़ोसी से दुश्मनी के कारण तुम्हारे घर के पास की सीमा है। अगर दुश्मनी ही नहीं तो बात खतम हो गई, सीमा का कोई अर्थ न रहा।
इसे तुम ध्यान रखना! तुम हिंदू होने के कारण हिंदू नहीं हो। तुम हिंदू के प्रेम के कारण हिंदू नहीं हो। तुम मुसलमान की घृणा के कारण हिंदू हो। अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में, मेनकैम्फ में लिखा है कि अगर राष्ट्रों को बलशाली बनाना हो तो उन्हें सदा अपनी दुश्मनी जीवित रखनी चाहिए; नहीं तो वे कमजोर हो जाते हैं। अगर हिंदुस्तान को ताकतवर रखना हो तो पाकिस्तान से दुश्मनी जारी रखनी चाहिए; नहीं तो कमजोर हो जाएगा।
तुम्हारी सारी ताकत घृणा की है। तुम थोड़ी देर को सोचो, अगर तुम्हारी किसी से कोई दुश्मनी नहीं है, तो तुम्हारी कौन सी जाति है? कौन सा देश है? कौन सा समाज है? तब सभी तुम्हारे हो गए।
प्रेम की कोई सीमा नहीं है। सब सीमाएं घृणा की हैं। बड़ी अच्छी बात दादू ने कही है, बड़ी मधुर, विरोधाभासी।
अगर पूछते हो अल्लाह की जाति--हिंदू कह सकते थे, मुसलमान कह सकते थे, ईसाई कह सकते थे। लेकिन नहीं, वह जाति नहीं कही। ब्राह्मण, शूद्र कह सकते थे; लेकिन नहीं, वह जाति नहीं कही। क्योंकि वे सब तो घृणा की जातियां हैं। वे तो खड़ी ही इसलिए हैं कि आदमी विक्षिप्त है, पागल है। तुम्हारे पागल होने की वजह से तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो। जिस दिन तुम पागल न रहोगे, उस दिन तुम अचानक पाओगे, तुम कोरे निपट मनुष्य हो--खाली, सुंदर, असीम! उस दिन कोई रूप-रेखा तुम्हें न घेरेगी। कोई छोटी बातें तुम्हें न घेरेंगी। कोई विशेषण तुम्हारे ऊपर लागू न होंगे। तुम विशेषण-शून्य हो जाओगे।
लेकिन उस दिन तुम्हारे हृदय से उठता हुआ एक अहर्निश भाव होगा प्रेम का।
इसलिए दादू कहते हैं: इसक अलह की जाति है।
अगर पूछते ही हो, जिद ही करते हो, उसकी कोई जाति तो है नहीं, लेकिन अगर कहना ही पड़े कि क्या उसकी जाति है, मानोगे ही न...जैसे कि कभी जनगणना करने वाला अधिकारी आ जाता है। वे मुझे भी मिल जाते थे पहले। तो उनको मैं कहता, मेरी कोई जाति नहीं। वे कहते, ऐसा कैसे चलेगा? कुछ तो लिखवाइए। आपका धर्म क्या है? मेरा कोई धर्म नहीं। वे मुस्कुराते, वे कहते, मजाक छोड़िए। कोई तो धर्म होगा ही। बिना धर्म के कहीं कोई आदमी होता है? कुछ भी लिखवा दीजिए; मगर झंझट मिटाइए। खाली कैसे छोड़ें? खाने बने हुए हैं, इसमें लिखा है कि...नहीं तो वे लोग कहेंगे कि तुम पूरा काम करके नहीं आए। खाना भर दो। कोई भी--उसकी कोई चिंता नहीं है उन्हें।
तो अगर जिद ही करते हो कि ईश्वर की जाति क्या है? क्योंकि बिना जाति के तुम समझ ही न पाओगे। तो दादू कहते हैं, प्रेम उसकी जाति है।
प्रेम की कोई जाति हो नहीं सकती। प्रेम की कोई सीमा नहीं है। प्रेम का कोई विशेषण है? हिंदू प्रेम, मुसलमान प्रेम, ऐसा कभी तुमने सुना है? नहीं, प्रेम कोई सीमा नहीं मानता। प्रेम किसी सीमा का दावा नहीं करता। प्रेम तो असीम में अवतरण है।
इसक अलह की जाति है...
और जो परमात्मा की तरफ जा रहे हैं, अगर उनकी भी जाति प्रेम की ही न हो, तो वे कभी न जा पाएंगे। छोड़ना होगा हिंदू को, मुसलमान को, ईसाई को, सिक्ख को। उन्होंने आदमी को बांटा है, जोड़ा नहीं। छोड़ना होगा उन सारे विशेषणों को। उन्होंने लड़ाया है, उन्होंने सिर्फ घृणा उपजाई है। क्योंकि मूल ही उनका आधार घृणा पर है। दूसरे की दुश्मनी पर उनका आधार है।
और जब तक तुम इतने प्रेम से न भर जाओ कि तुम्हें कोई दुश्मन न दिखाई पड़े, कोई पराया न दिखाई पड़े, तब तक तुम जानना कि तुम्हारा अहंकार नहीं मिटा। तब तक तुमने सीस नहीं सौंपा। जिस दिन तुम अपने सीस को ही सौंप दोगे, उस दिन तुम हिंदू बचोगे? मुसलमान बचोगे? कौन बचोगे? तुम कोई भी न रहोगे। प्रेम तुम्हारी भी जाति हो जाएगा।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
तुम उसकी पूछते हो, उसका आकार कैसा है? चतुर्भुज है? तीन सिर हैं उसके कि चार सिर हैं? त्रिमूर्ति है? कैसा रूप-रंग है? आंखें कैसी हैं? चेहरा कैसा है? हिंदुओं ने अपना बनाया है, ईसाइयों ने अपना बनाया है, यहूदियों ने अपना बनाया है। लेकिन उसका रंग कैसा? उसका ढंग कैसा? उसका अंग कैसा? उसकी देह कैसी है? दादू कहते हैं, अगर जिद ही करते हो, तो प्रेम उसकी देह है। बस वह प्रेम में ही घिरा जीता है। उसके चारों तरफ प्रेम ही प्रेम है, वही उसकी देह है। उसके बीच में ही, इस प्रेम के ही तेल के बीच में उसकी जीवन-ज्योति जलती है।
इसक अलह का अंग।
और जिस दिन प्रेम तुम्हारी भी देह बन जाए, उसी दिन तुम्हें अपने भीतर परमात्मा की प्रतीति होनी शुरू हो जाएगी। शरीर को अपनी देह मत मानो, मन को अपनी देह मत मानो; सिर्फ प्रेम को, हार्दिकता को, भाव को अपनी देह मानो। अगर भाव तुम्हारी देह बन गया, भक्ति तुम्हारी देह बन गई, तो भगवान का दीया जल उठेगा। वह जल ही रहा है, पहचान हो जाएगी।
अभी पहचान नहीं होती, क्योंकि तुमने मिट्टी-पत्थर को अपनी देह मान रखा है। ज्यादा से ज्यादा अगर तुम भीतर प्रवेश करते हो तो तुम विचारों को अपनी देह मान लेते हो। या तो शरीर, या मन; भाव तक तुम नहीं पहुंच पाते।
इसलिए तो दादू कहते हैं, भाव भगति बेसास। भाव दे, भक्ति दे, विश्वास दे। विचार नहीं, चिंतन नहीं, मनन नहीं। भाव भगति बेसास।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है...
यह औजूद शब्द बड़ा बहुमूल्य है। इसका अर्थ होता है: अस्तित्व, एक्झिस्टेंस, आत्मा, सारभूत, होना मात्र।
इसक अलह औजूद है...
यह जो मौजूद दिखाई पड़ रहा है चारों तरफ, यह इश्क है। यह अस्तित्व के होने का ढंग प्रेम है। यह सारा अस्तित्व प्रेम से चल रहा है, प्रेम में ही चल रहा है।
जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ जाएगा कि प्रेम के ही सागर में हम पैदा होते हैं और प्रेम के ही सागर में हम लीन हो जाते हैं, उसी दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो जाएगी। उसी दिन धर्म का तुम्हारे जीवन में जन्म होगा। प्रेम की पहचान धर्म है।
इसक अलह औजूद है...
वह अल्लाह का अस्तित्व है प्रेम। तुम उसे न तो मूर्तियों में खोजना, क्योंकि तुम उसे वहां न पा सकोगे। हां, अगर तुमने प्रेम में पा लिया तो मूर्ति में भी पा लोगे। तुमने मूर्ति में ही खोजा, तुम उसे न पा सकोगे। उसे खोजने का ढंग एक ही है कि प्रेम में खोजना।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
और प्रेम का ही रंग है उसके ऊपर। और कोई रंग उसके ऊपर नहीं है।
पंडितों ने परमात्मा की परिभाषा में तीन शब्दों का प्रयोग किया है। मैं कहता हूं, पंडितों ने। क्योंकि दादू जैसे प्रेमी ने तो एक ही शब्द का प्रयोग किया है: प्रेम। पंडित कहते हैं, वह सर्वशक्तिमान है, ओम्नीपोटेंट; सर्वज्ञ है, ओम्नीसायंट; सब जगह मौजूद है, ओम्नीप्रेजेंट। लेकिन दादू कहते हैं सिर्फ प्रेम।
यह सर्वशक्तिमान है, यह भी हमारे अहंकार की धारणा है। क्योंकि हम शक्ति के पूजक हैं। अहंकार शक्ति चाहता है। वह परमात्मा की भी जब व्याख्या करता है तो शक्ति को ही बीच में ले आता है।
सर्वज्ञ है! क्योंकि अहंकार सब कुछ जानना चाहता है। ज्ञान की बड़ी आकांक्षा है अहंकार की। इसलिए जब वह परमात्मा की व्याख्या करता है तो सर्वज्ञ।
और अहंकार सब जगह मौजूद होना चाहता है। कोई ऐसी जगह न रह जाए जहां अहंकार मौजूद न हो। क्योंकि जिस जगह मौजूद नहीं होगा, वह जगह अपनी सामर्थ्य के बाहर रह जाएगी, अपनी सीमा के बाहर रह जाएगी, उससे भय होगा।
तो अहंकार ने जो परमात्मा की परिभाषाएं की हैं, उनमें सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सब जगह वही मौजूद है। दादू तो सिर्फ एक शब्द कहते हैं, प्रेम। और मजा यह है कि प्रेम बिना सर्वशक्तिमान हुए सर्वशक्तिमान है। शक्ति का वहां कोई सवाल ही नहीं है, और इसीलिए महाशक्तिमान है।
तुमने प्रेम की शक्ति कभी अनुभव की? प्रेम शक्ति की घोषणा नहीं करता, क्योंकि शक्ति की घोषणा तो कमजोर ही करते हैं। प्रेम इतना शक्तिमान है कि उसे पता ही नहीं शक्ति क्या होती है! वह तो कमजोर का अनुभव है शक्ति। प्रेम की शक्ति इतनी स्वाभाविक है, इतनी पर्याप्त है, हीनता का उसे कभी बोध ही नहीं हुआ है कि शक्ति का पता चल जाए।
मैं एक यहूदी फकीर बालसेम के वचन पढ़ता था। तो उसमें कुछ वचन मुझे बड़े प्यारे लगे। उसमें एक वचन है: संतोष तब पूरा है, जब तुम्हें संतोष का पता न चले। जब तक पता चल रहा है, तब तक कुछ अड़चन है। कहीं कुछ असंतुष्टि होगी। उसने यह भी लिखा है कि संतोष तभी पूरा है, जब संतोष की भी जरूरत न रह जाए। जब तक संतोष की जरूरत है, उसका मतलब है, तुम कुछ दबा रहे हो, सांत्वना कर रहे हो। संतोष से तुमने कुछ छिपा रखा है।
तो परिपूर्ण संतुष्ट व्यक्ति वह होगा जिसे संतोष का पता ही नहीं। तुम उससे पूछो, संतोष! वह कहेगा, मिले नहीं, कभी मिलना नहीं हुआ, संतोष क्या है? असंतोष का ही पता न हो तो संतोष का कैसे पता होगा! वह कहेगा, संतोष की जरूरत ही क्या है? बिना संतोष के ही बड़े संतुष्ट हैं। संतोष की जरूरत क्या है?
प्रेम की शक्ति ऐसी अनिर्वचनीय है कि उसे सर्वशक्तिमान होने की जरूरत नहीं, वह है वही। वह तो हमारे अहंकार की ही घोषणा है कि परमात्मा सर्वशक्तिमान है। क्योंकि हम शक्ति को मानते हैं। अगर उसमें जरा भी शक्ति की कमी हो तो हम किसी और परमात्मा को खोजेंगे। क्योंकि वह परमात्मा हमारे योग्य न रहा।
सर्वज्ञ है! सब कुछ जानता है! यह भी हमारा पागलपन है कि सब कुछ जाना ही जाना चाहिए। इसीलिए तो विज्ञान बढ़ता जाता है। आदमी का पागलपन--सब जान लेना है।
असली सवाल जानने का नहीं है, असली सवाल होने का है। जान कर भी क्या करोगे? सब भी जान लिया और जीवन गंवा दिया जानने ही जानने में, और कभी जीए न, तो क्या सार होगा उसका! जीवन तो होना होना चाहिए।
प्रेम होना है। प्रेम जानना नहीं है। यद्यपि जो प्रेम से भर जाता है, वह सब जान लेता है। वह जानना प्रेम की छाया की तरह आता है। वह उसका लक्ष्य नहीं है, वह उसका परिणाम है।
और प्रेम सब जगह भर जाता है। क्योंकि प्रेम के लिए कोई सीमा नहीं है, जहां वह रुके। इसलिए कहने की कोई जरूरत नहीं है कि वह सर्वव्यापक है। प्रेम है ही सर्वव्यापक।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
तो तुम इश्क में रंग जाओ तो अल्लाह में रंग गए। तुम इश्कमय हो जाओ तो तुम अल्लाहमय हो गए। तुम्हारा औजूद, तुम्हारा होने का ढंग ही प्रेमपूर्ण हो जाए, तो बस प्रार्थना हो गई। फिर तुम परमात्मा को मानो न मानो, कोई अंतर नहीं पड़ता।
बुद्ध ने परमात्मा की बात ही नहीं की। कोई जरूरत नहीं है; प्रेम काफी है। महावीर ने परमात्मा को इनकार ही कर दिया कि यह और झंझट क्यों खड़ी करनी। प्रेम काफी है।
इसलिए मैंने कहा कि प्रेम से बड़ा शब्द मनुष्य की भाषा में दूसरा नहीं है। परमात्मा से भी बड़ा शब्द है प्रेम। क्योंकि परमात्मा के बिना तो तुम रह सकते हो, प्रेम के बिना नहीं। परमात्मा को इनकार करके भी जी सकते हो। प्रेम को इनकार किया कि सड़े। फिर नहीं जी सकते। और प्रेम को जान लिया तो परमात्मा को जान ही लोगे। परमात्मा को जानने का और कोई उपाय नहीं है। तो यदि मनुष्य परमात्मा को भूल भी जाए, कोई हानि न होगी। सिर्फ प्रेम स्मरण रहे।
यह वचन दादू का तुम्हारे लिए उपनिषद बन जाए। यह तुम्हारे हृदय पर खुद जाए। इसे तुम कभी-कभी गुनगुनाना, ताकि तुम्हारी हड्डी-मांस-मज्जा में समा जाए। इसे कभी-कभी तुम बैठ कर शांति से सोचना, विचारना, मनन करना। कभी इस पर ध्यान करना कि क्या अर्थ होगा। और कभी छोटे-छोटे जीवन में इसके प्रयोग शुरू करना। कभी मुसलमान आता हो, मुसलमान को हटा देना अपने पर्दे से आंख के, और आदमी को उघाड़ कर देखना। तब तुम अपने ही जैसा आदमी वहां छिपा पाओगे। और हो सकता था, किसी झगड़े-झांसे में तुम इस आदमी को छुरा मार देते। तुम अपनी ही तरह का कमजोर, दुखी, पीड़ित, परेशान, परमात्मा की खोज में भटकता हुआ आदमी मुसलमान में भी पाओगे, ईसाई में भी पाओगे, हिंदू में भी पाओगे। सभी के भीतर वही एक की खोज चल रही है। कितना ही कोई भटका हो, उस भटकाव में भी उसी की तरफ यात्रा चल रही है।
तो तुम जरा देखने की कोशिश करना। कभी अपनी जाति को भी प्रेम बना लेना और जरा देखना। जैसे ही तुम अपनी जाति को प्रेम अनुभव करोगे, वैसे ही पाओगे: न मालूम कितनी सीमाएं तत्क्षण तिरोहित हो गईं; न मालूम कितनी बाधाएं गिर गईं; न मालूम कितनी दीवालें, जो बड़ी मजबूत होती थीं, अब नहीं रहीं।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
आज इतना ही।
जब लगि सीस न सौंपिए, तब लगि इसक न होई।
आसिक मरणै न डरै, पिया पियाला सोई।।
दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोई।
बेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई।।
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
रोम-रोम पिव-पिव करै, दादू दूसर नाहिं।।
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
दादू उस मासूक का, अल्लहि आसिक होई।।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
मनुष्य की भाषा में प्रेम से बड़ा कोई शब्द नहीं। उस एक शब्द को जिसने जान लिया, उसने सब जान लिया। जो इस एक शब्द से वंचित रह गया, उसने सब भी जान लिया हो, तो उस जानने का कोई मूल्य नहीं।
स्वभावतः प्रेम को जानने का कोई उपाय प्रेम के अतिरिक्त नहीं है। शब्द को जान लेने से जानना न होगा। प्रेम गहनतम अनुभव है। और अनुभव इतना गहरा है कि प्रेमी भी अगर बच जाए, तो भी अनुभव नहीं हो पाएगा। प्रेमी भी मिट जाए प्रेम में, तो ही अनुभव पूरा हो सकता है।
तो प्रेम को कोई द्रष्टा की तरह नहीं जान सकता; दूर खड़े होकर दर्शक की भांति नहीं जान सकता। मिट कर ही जान सकता है।
जैसे सरिता सागर में खो जाती है तो जानती है कि सागर होना क्या है; वैसे ही जब कोई जीवन-धारा प्रेम के सागर में खो जाती है, तभी जानती है, प्रेम क्या है।
कबीर ने कहा है:
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय।।
कितने ही शास्त्र कोई पढ़े, सारा पढ़ना बाहर-बाहर से है। जानना तो भीतर से होगा। मंदिर के बाहर तुम कितनी ही परिक्रमाएं करो, इससे मंदिर में विराजमान देवता का स्पर्श न होगा, न दर्शन होंगे। मंदिर के संबंध में तुम कितना ही जान लो, तो भी मंदिर में जो विराजमान है उसकी कोई प्रतीति और झलक न मिलेगी। मंदिर की दीवालों के संबंध में जानकारी मिल जाएगी, लेकिन मंदिर के प्राण अपरिचित रह जाएंगे। भीतर ही जाना होगा।
और भीतर जाने का अर्थ नहीं कि तुम मंदिर की प्रतिमा की परिक्रमा करोगे तो भीतर पहुंच जाओगे; तो भी तुम प्रतिमा के बाहर-बाहर घूमोगे। तो भी तुम जो जानोगे वह प्रतिमा की रूप-रेखा होगी। मंदिर में भीतर जाने का अर्थ तो है कि जब तुम प्रतिमा में भीतर चले जाओ। जब परिक्रमा देने वाला कोई भी न बचे। जब तुम बचो ही न। जब प्रतिमा ही रह जाए। तुम ऐसे खो जाओ जैसे सागर में सरिता खो जाती है; तभी तुम जान सकोगे।
प्रेम ज्ञान है। एकमात्र ज्ञान प्रेम ही है। बाकी सब जानना ऊपर-ऊपर है। क्योंकि ऐसा और कोई भी जानना नहीं है जिसमें जानने वाले को मिटना पड़ता हो। वह प्रेम की पहली शर्त है: मिट जाना, खो जाना।
जन्म होता है, मृत्यु होती है। सभी का जन्म होता है, सभी की मृत्यु होती है। जन्म और मृत्यु के बीच जो व्यक्ति प्रेम से परिचित हो जाता है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है। फिर उसका कोई जन्म नहीं होता, फिर उसकी कोई मृत्यु नहीं होती। जन्म और मृत्यु के बीच, इन दो किनारों के बीच जो प्रवाह है, वही प्रेम है। जन्मते तो सभी हैं, मरते भी सभी हैं, प्रेम को बहुत थोड़े लोग जान पाते हैं। अवसर तो सभी को मिलता है जानने का, अवसर का उपयोग बहुत थोड़े लोग कर पाते हैं।
जो कर लेते हैं, वे धन्यभागी हैं। जो कर लेते हैं, फिर उन्हें दुबारा जन्म और मृत्यु के बीच में नहीं उतरना पड़ता। जिसने जान लिया प्रेम को, वह पार हो गया। एक ही नाव है जो पार ले जाएगी, वह नाव प्रेम की है।
जीसस से किसी ने पूछा है कि तुम्हारे परमात्मा का ढंग क्या, रूप क्या? जीसस ने कहा है, परमात्मा प्रेम है।
काश, जीसस को दादू के वचन मालूम होते। तो दादू ने और भी प्यारे ढंग से कहा है:
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
परमात्मा की जाति प्रेम; परमात्मा की देह प्रेम; परमात्मा की आत्मा, अस्तित्व प्रेम; परमात्मा का ढंग, होने का रंग, रूप-रेखा प्रेम।
जीसस का यह वचन कि परमात्मा प्रेम है, बहुत गहरे में खोजने जैसा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि परमात्मा प्रेमी है। इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा करुणावान है। इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा दयावान है। जैसा कि बहुत से ईसाइयों ने इसका अर्थ किया है। अगर ऐसा ही कहना होता जीसस को तो वे कहते: परमात्मा प्रेमी है, परमात्मा महाकारुणिक है, परमात्मा दयावान है। पर उन्होंने ऐसा नहीं कहा। उन्होंने कहा, परमात्मा प्रेम है। प्रेमी नहीं, दयावान नहीं, करुणावान नहीं; सिर्फ प्रेम है। परमात्मा का सारा रूप व्यक्तित्व का नहीं है, ऊर्जा का है। प्रेम ऊर्जा है; शुद्ध शक्ति है; शुद्धतम शक्ति है। वह श्रेष्ठतम है, अंतिम है।
जैसे बीज को हम बोते हैं, वह पहला चरण है। वृक्ष होता है, वह दूसरा चरण। फूल लगते हैं, वह तीसरा चरण। फिर सुवास आकाश में उड़ जाती है, वह चौथा चरण। प्रेम सुवास है। बीज कामवासना के हैं। प्रेम आखिरी घटना है। उसके पार फिर कुछ भी नहीं है। बीज का तो रूप है; सुवास का कोई रूप है? बीज का तो पता-ठिकाना है; सुगंध का कोई पता-ठिकाना है? बीज को तो तुम पकड़ लोगे। वृक्ष को भी पकड़ लोगे। फूल को भी मुट्ठी में ले सकते हो। लेकिन सुवास का क्या करोगे? मुट्ठी बांधोगे तो मुट्ठी में सुवास न रह जाएगी।
प्रेम को कोई बांध नहीं सकता। और जिसने भी प्रेम को बांधने की कोशिश की, उसके हाथ में कूड़ा-करकट लगेगा। सुवास को बांधने का यह ढंग नहीं। सुवास के साथ तो स्वयं जो उड़ जाए; सुवास के साथ तो स्वयं जो लीन हो जाए; सुवास के अंतहीन, आकारहीन अस्तित्व के साथ जो अपनी एकता साध ले; गिर जाए बूंद की भांति सागर में, वही जान पाएगा। जो सुवास हो जाए वही जान पाएगा।
स्वभावतः जरूर कोई बड़ी बाधा होगी कि इतने लोग जन्मते हैं, बहुत कम लोग प्रेम को जान पाते हैं। इतने लोग मरते हैं, बिना प्रेम को जाने मर जाते हैं। कोई गहरी बाधा होनी चाहिए। बाधा है। उसे हम ठीक से समझ लें तो फिर ये सूत्र समझ में आ जाएंगे।
कामवासना प्रेम की निम्नतम दशा है। है तो प्रेम की ही, पर बड़ी सीमाओं में बंधी है, क्षुद्र से घिरी है। कामवासना का अर्थ है: शरीर का शरीर के प्रति आकर्षण। स्वभावतः कामवासना पृथ्वी की है; बहुत स्थूल है। उसमें बास भूमि की है। वह मिट्टी से ही पैदा हुई है और मिट्टी में ही गिर जाएगी। मिट्टी से ऊपर उसका कोई अस्तित्व नहीं है।
फिर जीवन में जिसे हम साधारणतः प्रेम कहते हैं, वह है। उसको प्रेम दादू नहीं कहते, हम उसे प्रेम कहते हैं। वह प्रेम है दो मनों का आकर्षण। शरीर से ऊपर है। थोड़ी यात्रा ऊपर उठी। थोड़ी सीढ़ी पर ऊपर चढ़े। जो इतने प्रेम को भी उपलब्ध हो जाए वह भी धन्यभागी है।
अधिक लोग तो शरीर पर ही समाप्त हो जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि शरीर से और भी ऊंचाइयां थीं, और भी गहराइयां थीं। उन्हें यह भी पता नहीं चलता कि शरीर तो एक पायदान था। उस पर पैर रखना था, ऊपर उठ जाना था। लेकिन जिनके जीवन में थोड़ी सी प्रेम की झलक आती है, जो शरीर के आकर्षण के कारण नहीं है, जो दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व, उसके मन--शरीर के पार थोड़ा सा उठता है भाव--जिन्होंने यह प्रेम भी जान लिया, उनको एक बात समझ में आ जाती है कि जानने को और भी बाकी हो सकता है। द्वार खुलता है। अब दीवार नहीं रह जाती। जो शरीर पर ही समाप्त हो जाते हैं, उनके लिए सिर्फ दीवार ही रह जाती है।
फिर एक तीसरा और प्रेम है, जिसको भक्तों ने प्रार्थना कहा है। जब दो शरीर के बीच आकर्षण होता है तो काम; जब दो मनों के बीच आकर्षण होता है तो प्रेम--जिसे हम प्रेम कहते हैं; जब दो आत्माओं के बीच आकर्षण होता है तब प्रार्थना; और जब दो बिलकुल खो जाते हैं, दो ही नहीं रह जाते, तब इसक। जिसको दादू प्रेम कहते हैं; जिसको जीसस ने प्रेम कहा है। वह आखिरी ऊंचाई है।
वे सीढ़ियां तुम्हारे भीतर हैं। तुम पहली ही सीढ़ी पर खड़े रह जाओ तो कोई और जिम्मेवार नहीं है। दूसरी सीढ़ी पास ही थी। लेकिन कोई अड़चन होनी चाहिए। कोई गहरी बाधा होनी चाहिए। इतने लोग चूक जाते हैं कि करीब-करीब ऐसा लगता है, चूकना स्वाभाविक है। और इतने कम लोग उपलब्ध हो पाते हैं कि ऐसा लगता है, पाना अपवाद है, नियम नहीं। कोई बुद्ध, कोई चैतन्य, कोई दादू, कोई नानक--कभी करोड़ों लोगों में एक।
बाधा है: मरने का डर। क्योंकि जितनी ऊंचाई पर तुम जाते हो, उतना ही तुम्हारा अहंकार क्षीण होने लगता है, गलने लगता है। जितनी ऊंचाई होगी, उतने ही तुम कम हो जाओगे। यह डर है। जितनी नीचाई होगी, उतने ही तुम रहोगे। ठीक जमीन पर पड़े रहो तो पत्थर की चट्टान की तरह तुम होओगे। स्वभावतः ऊपर उठना हो तो पत्थर की चट्टानें ऊपर नहीं उठतीं; सुगंध उठती है, अग्नि की शिखा उठती है, भाप उठती है। विरल हो जाना पड़ता है। स्वयं को खोना पड़ता है।
कामवासना में कोई खोता नहीं अपने को। कामवासना में तुम तुम रहते हो। तुम दूसरे का उपयोग कर लेते हो। तुम मिटते नहीं, वस्तुतः तुम दूसरे को मिटाने की चेष्टा करते हो।
इसीलिए तो पति-पत्नियों में इतनी कलह है सारे संसार में पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में। हजार तरह से सोचा गया है कि पति-पत्नी की कलह कैसे मिटे। कोई उपाय नहीं दिखता। कलह मिट नहीं सकती, ऐसा लगता है।
जब तक मनुष्य ऊपर न उठना सीखे, कलह नहीं मिट सकती। कलह यही है कि पत्नी पति को मिटाने की चेष्टा कर रही है, पति पत्नी को मिटाने की चेष्टा कर रहा है। एक गहन संघर्ष है, जो चाहे उन्हें ज्ञात भी न हो। पति कोशिश कर रहा है कि मैं सब कुछ हूं, तू मेरी परिधि है। पत्नी भी यही कोशिश कर रही है कि मैं केंद्र हूं, तुम परिधि हो। दोनों के अहंकार अपने को बचाने की चेष्टा में संलग्न हैं। कहीं दूसरा मिटा न दे। इसके पहले कि दूसरा मिटाए, मैं उसे मिटा दूं; यही सुरक्षा का उपाय मालूम पड़ता है।
इसलिए कामवासना प्रेम की तो बड़ी दूर की खबर है, हिंसा की ज्यादा। और अगर ज्ञानियों ने कामवासना से ऊपर उठने को कहा है, तो इसीलिए कहा है। महावीर ने तो स्पष्ट कहा है कि कामवासना हिंसा है। ये जैन शास्त्र अब तक नहीं समझा पाए हैं इस बात को कि कामवासना को हिंसा कहने का अर्थ क्या है? उन्होंने मूढ़तापूर्ण बातें खोज ली हैं, पंडितों ने, कि संभोग करने में कीटाणुओं की हिंसा होती है। क्योंकि दो शरीर का घर्षण होता है, इसलिए कुछ कीटाणु छोटे हवा के मर जाते हैं। इसलिए महावीर ने कामवासना को हिंसा कहा है।
पंडितों से मूढ़ आदमी खोजने मुश्किल हैं। उनके पास आंखें तो नहीं हैं, अंधे हैं। शब्दों के कुछ भी अर्थ तो निकालने ही पड़ेंगे। तो वे अपने अंधेपन से यह अर्थ निकाल लेते हैं। कामवासना को महावीर ने इसलिए हिंसा नहीं कहा है। इसलिए हिंसा कहा है कि जहां भी काम है वहां दूसरे को मिटाने की चेष्टा है। वही हिंसा है। और जब तक काम प्रेम न बन जाए तब तक हिंसा जारी रहेगी। और जब तक काम प्रेम न बन जाए तब तक ब्रह्मचर्य का कोई आविर्भाव न होगा।
तो ब्रह्मचर्य कामवासना का त्याग नहीं है, बल्कि कामवासना के भीतर जो छिपे हुए प्रेम का तत्व है, उसको मुक्त करना है। कामवासना की हत्या नहीं कर देनी है। यह तो ऐसे हुआ जैसे बीज को कुचल कर मार डाला। अब तुम बैठे रहो, सुगंध न आएगी। यद्यपि बीज के रहते भी सुगंध न आ सकती थी। बीज को टूटना था--टूटना था भूमि में; ताकि बीज तो मिट जाए, लेकिन बीज में छिपी हुई जो सुवास है वह मुक्त हो जाए। उसको मुक्त होने पर लंबी यात्रा करनी पड़ेगी। बीज को वृक्ष बनना पड़ेगा, वृक्ष को फूल बनना पड़ेगा, फूल से सुवास मुक्त होगी। लंबी यात्रा है।
लेकिन अगर तुमने पत्थर उठा कर बीज मिटा दिया, जैसा कि बहुत से लोग करते हैं, साधु-संन्यासी करते हैं; उन्होंने कामवासना को पत्थर से मार डाला। अब वे बैठे हैं। ब्रह्मचर्य की कोई गंध नहीं आती। कामवासना मिटा दी और ब्रह्मचर्य की कोई सुगंध नहीं आती। तुम उनके जीवन को बड़े अधर में लटका हुआ पाओगे, त्रिशंकु की भांति पाओगे। न तो वे इस जगत के रहे, न उस जगत के।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी की बड़ी दुर्गति है। वे तुमसे भी बुरी स्थिति में हैं। तुम्हारे पास कम से कम बीज है। तुम भला बीज में ही अटके हो, लेकिन अभी भी संभावना है कि बीज को तुम बो दो, अंकुर आ जाए। अभी भी देर नहीं हो गई है। कभी भी देर नहीं हो गई है। जब भी तुम बीज को बो दोगे तभी अंकुर आ जाएगा। लेकिन तुम्हारे साधु-संन्यासी ने तो बीज को तोड़ डाला, इस डर से कि कामवासना में हिंसा है। बीज तो मर गया। उस बीज के साथ ही सुवास की संभावना भी मर गई।
कामवासना के विपरीत नहीं है ब्रह्मचर्य, कामवासना का शुद्धतम रूप है। बीज के विपरीत नहीं है सुगंध, बीज की ही शुद्धतम अभिव्यक्ति है। क्या फर्क है बीज में और सुगंध में? बीज में जो-जो पृथ्वी का अंश था वह पृथ्वी में डूब गया और जो-जो आकाश का अंश था वह सुवास से मुक्त हो गया। तुम्हारे भीतर जो-जो पृथ्वी का अंश है, वह कामवासना के धीरे-धीरे छूटते-छूटते पृथ्वी में लीन हो जाएगा। और तुम्हारे भीतर जो आकाश है--आत्मा कहो, परमात्मा कहो, वह मुक्त हो जाएगा। उसकी कोई जड़ें जमीन में न रह जाएंगी। वह उड़ जाएगा आकाश में। यही मोक्ष है, यही निर्वाण है।
लेकिन मेरी बात ठीक से समझ लेना। मैं ब्रह्मचर्य के पक्ष में हूं और कामवासना के विपक्ष में नहीं हूं। क्योंकि कामवासना के विपक्ष में होते ही ब्रह्मचर्य का तो उपाय ही खो गया। यह तो तुमने सीढ़ी का पहला पायदान ही तोड़ दिया। अब इस पर दूसरे पर तो जाने का उपाय न रहा। तुमने सीढ़ी जला दी। सीढ़ी जला कर तुम ऊपर न पहुंच जाओगे, तुम सीढ़ी से भी नीचे गिर जाओगे।
इसलिए मैं कहता हूं कि जिसने कामवासना को ठीक से समझा नहीं, वह ब्रह्मचर्य को तो नहीं होगा उपलब्ध, नपुंसकता को उपलब्ध हो जाएगा। वह सीढ़ी से भी नीचे गिर जाएगा। अगर सिर्फ नपुंसकता ही परमात्मा को पाने का उपाय होती, तो सभी नपुंसक पा लेते। लेकिन तुमने कभी सुना है किसी नपुंसक को मुक्त होते? कोई इतिहास में उल्लेख है किसी नपुंसक का, जो कि परम ज्ञान को उपलब्ध हुआ हो? वह असंभव है; इसलिए उल्लेख नहीं है। असंभव है इसलिए कि उसके पास बीज ही नहीं है। वह बो नहीं सकता। वह फसल नहीं काट सकता। वह सुगंध को फैला नहीं सकता आकाश में।
कामवासना में बुराई कुछ भी नहीं है, उस पर रुक जाने में बुराई है। कामवासना के पार जाना है। तब तुम उसे भी धन्यवाद दोगे। तब तुम कहोगे, तेरे बिना ऊपर भी न उठ सकते थे। तब तुम्हारा मन वासना के प्रति भी अनुग्रह से भरा होगा; क्रोध से, निंदा से नहीं।
दो शरीरों के बीच जो आकर्षण है उसमें हिंसा रहेगी। क्योंकि शरीर आपस में मिल कैसे सकते हैं? ठोस हैं। उनका मिलना संभव नहीं है। कामवासना में भी मिलते हैं तो मिलना क्या है? कहां मिलते हैं? मिलने का धोखा है। इतनी ठोस चीजें कहीं मिली हैं! तुम दो दीयों को मिलाने की कोशिश कर रहे हो।
दो ज्योतियां मिल सकती हैं। दो दीयों की ज्योतियां करीब ले आओ, एक ज्योति हो जाएगी। कोई बाधा न पड़ेगी। कोई संघर्षण भी न होगा। जरा भी आवाज न होगी कहीं। किसी को कानों-कान खबर न होगी कि दो ज्योतियां मिल गईं। क्योंकि दो ज्योतियों के बीच मिलने में कोई बाधा नहीं। सूक्ष्म सूक्ष्म से मिल जाता है, आत्मा आत्मा से मिल जाती है।
लेकिन दो दीयों को टकराओ! बड़ी कलह होगी, आवाज मचेगी, शोरगुल होगा, हिंसा होगी। हां, दीये एक-दूसरे को तोड़ सकते हैं; मिल नहीं सकते। और अगर मिलें तो मिलने का एक ही उपाय है कि दोनों टूट जाएं। तो उसको अगर तुम मिलना कहते हो तो बात दूसरी। लेकिन जितने वे टूटने के पहले अलग थे, उतने ही टूटने के बाद भी अलग होंगे।
स्थूल मिल ही नहीं सकता। सब मिलन सूक्ष्म का है। इसलिए जितना सूक्ष्म होते जाओगे उतना मिलन सघन होता जाएगा। और एक ऐसी भी घड़ी आती है, अंतिम घड़ी, जिसको दादू ने कहा है: इसक अलह औजूद है। परमात्मा का अस्तित्व प्रेम है। जहां दो बिलकुल मिल जाते हैं कि फिर तुम उन्हें दुबारा अलग भी न कर सकोगे। उनकी रूप-रेखा ही खो जाती है। उनको अलग करने का उपाय ही समाप्त हो जाता है। लेकिन यह तो ऊंचाई पर होगा।
कामवासना को प्रेम बनाओ। दो व्यक्तियों के मन मिल सकते हैं--थोड़े से मिल सकते हैं। शरीर से ज्यादा मिल सकते हैं, क्योंकि मन थोड़ी सूक्ष्म बात है। कभी-कभी ऐसी घटना घट जाती है।
मैं बोल रहा हूं। जब मैं बोल रहा हूं तो मैं मन का उपयोग कर रहा हूं। तुम जब सुन रहे हो तो मन का उपयोग कर रहे हो। कभी-कभी ऐसी घड़ी आ जाती है जब तुम वहां नहीं होते, मैं यहां नहीं होता। कभी-कभी सुनने वाला बोलने वाले से एक क्षण को एक हो जाता है। उसी घड़ी तुम्हें एक स्वाद मिलेगा ध्यान का। जो तुम्हें कर-कर के भी नहीं मिलता होगा, अचानक मिल जाएगा।
दो मन मिल गए, करीब आ गए। दो लपटें पास आईं और एक हो गईं। फिर दूर हो जाएंगी। क्योंकि मन सदा पास नहीं हो सकता। मन कोई स्थिर तत्व नहीं है। इसलिए मिल सकता है, अलग हो जाएगा। मन के साथ कोई स्थिरता नहीं है। वह गति तत्व है। वह भाग रहा है। वह दो नदियों की तरह है भागता हुआ। कभी पास आ जाएंगे किनारे तो मिल जाएंगे; फिर अलग हो जाएंगे।
मन एक प्रवाह है। वह शाश्वतता नहीं है। इसलिए प्रवाह का तो थोड़ी देर के लिए मिलना हो सकता है। वह तो ऐसा ही है, जैसे दो व्यक्ति रास्ते पर दौड़ते थे; करीब आ गए; फिर दूर हो गए। दौड़ते ही दौड़ते थोड़ी बात हो गई, थोड़ा मिलन हो गया, फिर अपने-अपने रास्तों पर विदा हो गए। दो पक्षी आकाश में उड़ते हुए करीब आए, फिर दूर हो गए।
लेकिन मन शरीर से ज्यादा करीब आ सकता है। कभी किसी संगीतज्ञ को सुनते वक्त कुछ लीन हो जाता है, कोई तल्लीनता जग जाती है। संगीतज्ञ नहीं रह जाता, श्रोता नहीं रह जाता, संगीत ही रह जाता है। उस संगीत में दोनों मिल गए होते हैं।
यह घटना कभी-कभी घटती है। जिनके जीवन में प्रेम की घटना घटती है उनको दिखाई पड़ता है: कैसा अभाग्य होता अगर हम शरीर पर ही रुक जाते।
इसलिए शरीर की वासनाओं से मन की वासनाएं ऊपर हैं। जैसे एक आदमी खाने में रस लेता है; यह भी वासना है। और एक आदमी संगीत में रस लेता है; यह भी वासना है। लेकिन भोजन का रस शरीर का रस है। बहुत स्थूल है। संगीत का रस सूक्ष्म है, मन का है, थोड़ा गहरा है। थोड़े गहरे संस्कार होंगे उसके। और आगे की यात्रा के लिए थोड़े संकेत मिलेंगे। थोड़े शरीर से हटे।
और जिसके जीवन में मन के रस की संभावना खुल गई, उसे एक दिन कभी दो आत्माओं के मिलने का रस भी आ जाता है। गुरु और शिष्य के बीच वैसी घटना घटती है; जहां शिष्य बड़ी गहन श्रद्धा में अपने को सौंप देता है। इस भांति सौंप देता है कि जरा भी संदेह मन में नहीं होता। अपने को बचाता नहीं जरा भी। सौंप देता है पूरा। शिष्य का अर्थ ही है, जिसने अपने को सौंप दिया और जिसने कहा--अब जैसी तेरी मर्जी!
मैंने सुना है, एक सूफी फकीर के पास एक युवक आया। और उस युवक ने कहा, मैं आपका शिष्य होना चाहता हूं।
फकीर ने कहा, तुझे पता है कि शिष्य होने का अर्थ क्या है? बड़ी कठिन तपश्चर्या है। प्रशिक्षण से गुजरना होगा। बहुत से कर्तव्य साधने होंगे। निखरना होगा।
उस युवक ने कहा, मुझे एक अवसर दें अपने को सिद्ध करने का। मेरी ईमानदारी को सिद्ध करने का मुझे मौका दें। जो भी आज्ञा होगी, मैं करूंगा।
गुरु ने कहा, देख, वर्षा करीब आती है, जंगल से लकड़ियां काटनी होंगी। लकड़ियों को इकट्ठा करना होगा वर्षा के लिए। फिर छप्पर आश्रम का खराब हो रहा है, छप्पर ठीक करना है। फिर बगीचे में काम करना है, क्योंकि वर्षा आने के करीब है, बगीचे को पुनः तैयार करना है। फिर चौके में भोजन बनाने के काम में लग जाना। ऐसे सब काम करने होंगे।
उस युवक ने कहा, ठीक। मैं समझा कि ये शिष्य के कर्तव्य हैं। गुरु के क्या कर्तव्य हैं?
गुरु ने कहा, गुरु का कोई कर्तव्य नहीं है। गुरु बैठा रहता है और आज्ञा देता है।
वह शिष्य चरणों पर गिर पड़ा। और उसने कहा, ऐसा क्यों न करें कि मुझे गुरु होने की ही शिक्षा दे दें। जब तैयार ही कर रहे हैं तो फिर मुझे गुरु ही होने के लिए तैयार कर दें।
बहुत से शिष्य, शिष्य अपने को मानते हैं, लेकिन गहरे में गुरु होने की आकांक्षा है। तो चूक जाएंगे। शिष्य भी बने होंगे वे तो इसी आशा में बने हैं कि आज नहीं कल गुरु हो जाना है। थोड़े दिन की मुसीबत है, झेल लेंगे। सीखने का समय है, जल्दी बीत ही जाएगा। कोई दुख सदा तो रहता नहीं। दुख भी बीत जाता है। ये दिन भी बीत जाएंगे, फिर गुरु हो जाएंगे।
अहंकार मिटना नहीं चाहता, सौंपना नहीं चाहता। कभी-कभी मिटने का खेल भी करता है। लेकिन खेल से कुछ होने वाला नहीं है। खेल से तुम किसी और को धोखा नहीं देते सिवाय अपने को।
तो तुम्हें फिर गुरु के पास होने का--जो संभावना है प्रार्थना की, वह न खुल पाएगी। तुम मंदिर की पत्थर की मूर्तियों के सामने प्रार्थना न सीख सकोगे।
इसे तुम ठीक से समझ लो। क्योंकि पत्थर की मूर्ति के सामने तुम्हारे अहंकार को कोई अड़चन ही नहीं होती झुकने में। वहां दूसरा कोई है ही नहीं जिसके सामने अड़चन हो। जीवन की वास्तविक प्रार्थना तो किसी जीवंत गुरु के पास ही पैदा होती है। क्योंकि वहीं तुम्हें झुकने की अड़चन मालूम होती है--कैसे झुकें? किसी जीवित व्यक्ति के सामने कैसे झुकें? आसान है किसी पत्थर के सामने झुक जाना। क्योंकि वहां कोई है ही नहीं जिसके सामने तुम झुक रहे हो। वस्तुतः तुम पत्थर की मूर्ति के सामने जब झुकते हो तो तुम अपने ही मन की धारणा के सामने झुक रहे हो।
मुसलमान मस्जिद में झुक जाता है, क्योंकि मस्जिद उसकी मन की धारणा है। हिंदू मंदिर में झुक जाता है, क्योंकि वह मंदिर उसका मंदिर है। हिंदू को मस्जिद में झुकाओ, तब बड़ी कठिनाई होगी। जैन को हिंदू मंदिर में झुकाओ, तब बड़ी कठिनाई होगी। रीढ़ अकड़ी रहेगी। सिर नीचे नहीं झुकेगा। क्योंकि यह मेरी धारणा नहीं है, इसके सामने मैं कैसे झुकूं!
इसे थोड़ा समझ लो। हम अपनी ही धारणा के सामने झुक जाते हैं। इसको अगर ठीक से कहा जाए तो ऐसा हुआ: हम अपने ही चरणों में झुके रहते हैं। यह तो अहंकार का खेल है। कृष्ण तुम्हारे भगवान हैं, इसलिए तुम झुक जाते हो। तुम्हारी मान्यता है कि वे भगवान हैं, इसलिए झुक जाते हो।
तुम अपनी ही मान्यता के सामने झुकते हो, कृष्ण के सामने नहीं। कृष्ण के सामने झुकते तो रूपांतरित हो जाते। अपनी ही मान्यता के सामने हजारों बार झुकते रहोगे, कुछ भी न होगा। व्यर्थ की कवायद हो रही है। नाहक शरीर को कष्ट दे रहे हो। इतना समय तुमने यूं ही गंवाया।
लेकिन जब तुम किसी जीवंत व्यक्ति के पास पहुंचते हो, कोई जीवित व्यक्ति तुम्हारी धारणा के अनुकूल नहीं हो सकता। मुर्दे ही केवल तुम्हारी धारणा के अनुकूल हो सकते हैं। जीवंत व्यक्ति तो इतनी महा घटना है कि तुम्हारी सब धारणाओं को तोड़ कर बहेगा। वह तो बाढ़ आई गंगा है। वह कोई नहरों में बहता हुआ पानी नहीं है कि तुमने लकीरें बांध दी हैं, वहीं-वहीं बहता है। जहां तुम ले जाना चाहते हो, वहीं जाता है। जीवंतता तो बाढ़ है; जीवन की बाढ़ है। वह कोई कूल-किनारा नहीं मानता। उसके सामने जब तुम झुकोगे, तो एक ही उपाय है: तुम अगर मिटो तो ही झुक सकते हो। तुम्हारी अगर जरा सी भी धारणा शेष है, तो तुम झुकने में अड़चन पाओगे।
तुम्हारी धारणा कहेगी, इस आदमी के सामने झुकते हो? पहले पक्का तो कर लो कि तुम जिसे मानते हो ज्ञानी है, यह वैसा ज्ञानी है? पहले पक्का तो कर लो कि तुम जिसे आचरण कहते हो, वैसा आचरण इसका है? तुम पहले पक्का तो कर लो कि तुम जिस शास्त्र को मानते हो, यह उस शास्त्र के अनुकूल है? तुम सारी बातें पक्की कर लो। हां, अगर तुम्हारी धारणा के अनुकूल पड़ता हो तो झुक जाना।
तब तुम ध्यान रखना, तुम फिर भी अपनी धारणा के सामने ही झुक रहे हो।
गुरु की खोज एक ऐसे व्यक्ति की खोज है जो तुम्हारी धारणाओं को तोड़ दे। वह तुम्हारी धारणाओं के अनुकूल व्यक्ति की खोज नहीं है। वह किसी जीवंत घटना की खोज है जहां तुम्हारी सारी धारणाएं डगमगा जाएं, टूट जाएं, छितर-बितर जाएं। जो तुम्हारे विचारों को उखाड़ दे; जो तुम्हारी नींद को तोड़ दे। और तुम्हारी नींद टूटे, मूर्च्छा टूटे, तो तुम शायद झुको। क्योंकि अहंकार मूर्च्छा है। वह गहरी नींद है। तुम सब उपाय कर लो, उससे कुछ भी न होगा, जब तक तुम्हारी नींद न टूटे।
मैंने सुना है कि एक आदमी ने एक बहुत सुंदर बगीचा लगाया। लेकिन एक अड़चन शुरू हो गई। कोई रात में आकर बगीचे के वृक्ष तोड़ जाता, पौधे उखाड़ जाता। सुबह सारा बगीचा आधी उजड़ी हालत में आ जाता। शक हुआ कि पड़ोसी शरारत कर रहे हैं। ईर्ष्या हो गई है। उसने आदमी रखे, जासूस लगाए। लेकिन पता चला, कोई पड़ोसी कोई गड़बड़ नहीं कर रहा है। कोई आता नहीं।
तब तो बड़ी मुश्किल हो गई। तो उसे शक हुआ कि शायद भूत-प्रेत, शायद कोई दुष्टात्माएं उपद्रव कर रही हैं। उसने गंडे-ताबीज बंधवाए।
कुछ भी परिणाम न हुआ। भूत-प्रेतों का काम जारी रहा।
तब वह घबड़ा गया। एक फकीर गांव में आया था, वह उसके पास गया। उसने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में आ गया हूं। अपनी सारी कथा सुनाई।
उस फकीर ने कहा, तू एक काम कर। ठीक आधी रात का अलार्म अपनी घड़ी में भर दे। और सात दिन तक जब अलार्म बजे तो जाग कर, पांच मिनट जाग कर अपने आस-पास देखना और सो जाना। सात दिन में कोई घटना तुझे दिखाई पड़े तो मेरे पास आ जाना।
उसे कुछ भरोसा न आया कि अलार्म इसमें क्या करेगा! मेरा जागना इसमें क्या करेगा! लेकिन अब फकीर ने कहा है तो सात दिन की ही बात है, कर ही लेनी चाहिए। और सब उपाय कर ही चुके हैं, कुछ हुआ नहीं। अलार्म भर कर घड़ी में सो गया। दो दिन तो कुछ भी न हुआ। व्यर्थ नींद टूटी। नाराज भी हुआ। फकीर को गाली भी दी मन में। लेकिन तीसरे दिन उसने पाया कि जब अलार्म बजा तो वह बगीचे में खड़ा नींद में अपने झाड़ उखाड़ रहा था।
भागा हुआ फकीर के चरणों में गिर गया। उसने कहा कि तुम अगर मुझे न जगाते तो मैं न मालूम और कितने उपाय करता। वे सब उपाय व्यर्थ थे। क्योंकि कोई दूसरा हानि नहीं पहुंचा रहा था। मैं ही अपनी नींद में अपने वृक्षों को उखाड़ रहा था।
और ऐसी ही दशा प्रत्येक की है। कोई तुम्हें दुख नहीं पहुंचा रहा है। कोई तुम्हारी बगिया नहीं उजाड़ रहा है। न तो पड़ोसी नष्ट कर रहे हैं, न कोई भूत-प्रेत तुम्हें सता रहे हैं। तुम ही अपनी नींद में अपनी जीवन की बगिया को उजाड़ते हो, दुख पाते हो, पीड़ा पाते हो। नींद टूटनी चाहिए।
और अहंकार नशा है। इसलिए तो हमने उसको मद कहा है। अहंकार के नशे में तुम सोए हो। किसी के चरणों में जब तुम छोड़ दोगे अपने को...।
और ध्यान रखना, सूक्ष्म बात है, खयाल रख लेनी। अगर किसी व्यक्ति से तुम्हारे विचार मेल खाते हों और तुम छोड़ो, तो वह नंबर दो की घटना होगी--मन और मन के मिलने की। लेकिन ऐसे व्यक्ति के चरणों में अपने को छोड़ो, जिससे तुम्हारे विचार मेल न भी खाते हों, लेकिन जिसमें तुम्हें कुछ दिखाई पड़ता है जो तुमसे पार है। भला तुम्हारे विचार उससे सब तरह मेल न भी खाते हों, कई जगह वह तुम्हारे विचार के प्रतिकूल हो, भिन्न हो, विपरीत हो; लेकिन जिस व्यक्ति में तुम्हें ऐसी झलक मिलती हो कि वह तुम्हारी जीवन-चेतना से ऊपर है। विचार की फिक्र मत करना। क्योंकि अंततः विचारों का कोई मूल्य नहीं है। अंततः तो जीवन-चेतना की स्थिति-सोपान का मूल्य है। जिसके पास जाकर तुम्हें लगता हो कि सिर उठा कर ऊपर देखना पड़ता है तब इस आदमी की थोड़ी प्रतिमा दिखाई पड़ती है, उसके चरणों में अपने को छोड़ देना; तो तीसरी घटना घटेगी प्रार्थना की।
और इस तीसरे के बाद ही चौथे का उपाय है, जिसकी दादू चर्चा कर रहे हैं। उस चौथे को वे इसक कहते हैं, प्रेम कहते हैं। उसी चौथे का नाम परमात्मा है। तब तुम किसी खास व्यक्ति के चरणों में अपने को नहीं छोड़ रहे हो। तीसरी घटना गुरु के चरणों में घटती है। गुरु का आकार है, रूप है, रंग है। चौथी घटना अरूप और निराकार के चरणों में घटती है। फिर तुम सिर्फ अपने को छोड़ देते हो। तुम फिर यह भी नहीं पूछते, किसके चरणों में? समग्र के चरणों में तुम अपने को छोड़ देते हो। तुम समग्र के साथ बहने लगते हो।
जब लगि सीस न सौंपिए, तब लगि इसक न होई।
आसिक मरणै न डरै, पिया पियाला सोई।।
जब तक सिर सौंपने की तैयारी न हो तब तक प्रेम न होगा।
सिर के दो अर्थ हैं। एक तो तुम्हारा सोच-विचार; और दूसरा तुम्हारा अहंकार। सिर तुम्हारी अकड़ है और सिर तुम्हारा चिंतन भी। तुम्हारे विचार भी सारे सिर में संगृहीत हैं और तुम्हारी अस्मिता भी, मैं-भाव भी।
जब लगि सीस न सौंपिए...
जब तक इस सिर को ही उतार कर न दे दोगे कहीं...
...तब लगि इसक न होई।
तब तक तुम्हें प्रेम का पता न चलेगा। मिटोगे नहीं, प्रेम का पता न चलेगा। तुम्हारे रहते प्रेम का पता न चलेगा, तुम्हारे मिटते ही पता चलेगा। तुम्हारे मिटने पर ही प्रेम पैदा होता है। जैसे बीज के मिटने पर वृक्ष पैदा होता है। ठीक तुम बीज की तरह हो। मिटोगे तो ही कुछ बड़ा तुम्हारे भीतर पैदा होगा। और यही बाधा है। तुम डरते हो मिटने से। तुम मृत्यु से भयभीत हो कि कहीं मिट न जाऊं! तुम अपने को बचाते हो। बचाने से हिंसा पैदा होती है। तुम दूसरे को मिटाने में लग जाते हो।
दो तरह के लोग हैं संसार में। एक, जो अपने को बचाने में लगे हैं। स्वभावतः जो अपने को बचाने में लगता है, वह दूसरे को मिटाने में लग जाता है। दूसरे, जिन्होंने यह समझ लिया कि मिटना तो होगा ही, मौत तो आने ही वाली है। इसलिए उसकी चिंता छोड़ दी। विपरीत, उन्होंने अपने को मिटाने में लगा दिया। जो अपने को मिटाने में लगता है, वह दूसरे को मिटाने में नहीं जाता। और जो स्वयं को पूरी तरह मिटा देता है, उसी के जीवन में प्रेम की सुगंध का जन्म होता है।
आसिक मरणै न डरै...
वह जो प्रेमी है, वह मरने से नहीं डरता।
...पिया पियाला सोई।।
वही प्रेम के प्याले को पीने का हकदार हो पाता है।
यह तुमने कभी खयाल किया कि साधारण जीवन में भी प्रेमी मरने से नहीं डरता। साधारण जीवन के प्रेम में भी! इस बड़े प्रेम को हम छोड़ दें। मजनू-फरिहाद जैसे साधारण प्रेमी भी मरने से नहीं डरते। प्रेम में कुछ बात है। प्रेम मृत्यु से बड़ा है। और जो प्रेम मृत्यु से डर जाए वह प्रेम ही नहीं है।
अगर तुम्हारे जीवन में कभी प्रेम क्षण भर के लिए भी उतरा हो तो तुम अपने को पूरा मिटाने को राजी हो जाओगे। तुम कहोगे, यह क्षण मेरे लिए पर्याप्त है। यह एक क्षण जान लिया, सब जान लिया। यह एक क्षण मेरे लिए शाश्वतता है। अब इसके पार कुछ जानने को नहीं बचा। अब अगर मर भी जाऊं, तो मैं तृप्त मर रहा हूं, अतृप्त नहीं।
जब साधारण प्रेम में ऐसी घटना घटती है तो उस असाधारण प्रेम की तो बात ही क्या कहनी, जो व्यक्ति और गुरु के बीच पैदा होता हो या व्यक्ति और परमात्मा के बीच पैदा होता हो। उस प्रेम की दशा में ऐसा अहसास ही नहीं होता कि मैं मर सकता हूं। प्रेम अमृत है। जिसने प्रेम को जाना, उसने मृत्यु के भय को भी उसी क्षण छोड़ दिया।
यहां तुम जीवन में अगर निरीक्षण करोगे, तो तुम उन लोगों को सर्वाधिक मृत्यु से डरता हुआ पाओगे जिन्होंने न कभी प्रेम किया और न कभी प्रेम दिया। उन्हें तुम धन को पकड़ते हुए पाओगे, क्योंकि धन मौत से रक्षा का आश्वासन है। तुम कृपण आदमियों को प्रेम करते न पाओगे। कृपण आदमी धन को पकड़ता है। क्योंकि धन से ऐसा आश्वासन मिलता है कि शायद मौत से बचने का कोई उपाय धन में छिपा हो। वह बड़े मकान बनाएगा, बड़ा धन इकट्ठा करेगा, बड़ी तिजोड़ी सुरक्षा करेगा, लेकिन प्रेम नहीं करेगा। क्योंकि प्रेम में बांटना पड़ता है। कृपण बांट नहीं सकता। कृपण दे नहीं सकता। वह केवल ले सकता है। कृपण की केवल मांग है; दान उसने जाना नहीं। और जिसने देना न जाना, वह प्रेम कैसे जानेगा! क्योंकि प्रेम तो देने की शुद्धतम भाव-दशा है। कोई अपने को पूरा दे डालना चाहता है। कोई इसमें ही प्रसन्न है कि जिसे मैंने प्रेम किया है उस पर सब भांति न्यौछावर हो जाऊं। कुछ भी मेरे पास न बचे, सब दे डालूं। उस सब देने में ही अमृत की पहली झलक आती है।
आसिक मरणै न डरै, पिया पियाला सोई।।
वही उस प्रेम का, प्रेमी का प्याला पीने में समर्थ हो पाता है।
दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोई।
बेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई।।
प्रेम की पुस्तक कोई भी पढ़ता नहीं, क्योंकि बड़ा महंगा सौदा है। सिर से चुकानी पड़ती है कीमत।
दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोई।
कोई साहसी, कोई विरला वीर पुरुष, जो अपने को दांव पर लगाने को तैयार है, प्रेम की पाती बांचता है। प्रेम की गीता पढ़ता है।
बेद पुरान पुस्तक पढ़ै...
वेद-पुराण कोई कितना ही पढ़ता रहे, कुछ भी न होगा।
...प्रेम बिना क्या होई।
क्योंकि वेद और पुराण सस्ते में मिल जाते हैं; कौड़ियों में मिल जाते हैं। प्रेम तो अपने को ही देकर मिलता है। प्रेम बाजार में नहीं बिकता। प्रेम दुकानों पर नहीं मिलता। प्रेम को किसी और सिक्के से खरीदने की कोई संभावना नहीं है। तुम्हें अपने को ही देना पड़ेगा। प्रेम तुम्हें मांगता है, उससे कम नहीं। तुम अपनी सब संपदा दे दो, तो भी कुछ न होगा। तुम अपना सब कुछ दे डालो, अपने को बचा लो; प्रेम कहेगा, इससे कुछ न होगा, यह सौदा नहीं होगा। तुम्हें अपने को ही दे देना होगा।
बेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई।
दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोई।।
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
रोम-रोम पिव-पिव करै, दादू दूसर नाहिं।।
यह बड़ा प्यारा वचन है।
प्रीति जो मेरे पीव की...
यह चौथे प्रेम की बात है, जब प्रेम प्रार्थना से भी ऊपर उठता है। क्योंकि प्रार्थना में भी थोड़ा द्वैत शेष रहता है: शिष्य और गुरु; पूज्य और पूजा और पूजक। जब चौथी घड़ी आती है प्रेम की--
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
अब वह मेरी हड्डी-हड्डी में समा गई। अब मुझे उसका नाम नहीं लेना पड़ता, दादू कहते हैं। नाम गूंजता ही रहता है। वह मेरे रोएं-रोएं से उठ रही है पुकार। मुझे करनी नहीं पड़ती। अब मैं प्रार्थना करता नहीं हूं, होती है। अब मैं कुछ भी न करूं, तो भी प्रार्थना होती है। कुछ और भी करूं, तो भी प्रार्थना होती है। प्रार्थना की एक अंतर्धारा बहती रहती है। ऊपर-ऊपर कुछ भी करता रहूं, भीतर वही रोम-रोम में गूंजता रहता है।
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
वह मेरी हड्डी-हड्डी में समा गई है।
रोम-रोम पिव-पिव करै, दादू दूसर नाहिं।।
और वह इतनी गहरी समाविष्ट हो गई है मेरे रोएं-रोएं में, रोआं-रोआं पिव-पिव कर रहा है। और मैं खोजता हूं तो मैं दादू को और कहीं नहीं पाता, बस उस पिव-पिव की आवाज में ही पाता हूं। दादू दूसर नाहिं! अब दादू दूसरा नहीं रहा, अब प्रार्थना ही हो गया है। अब ऐसा नहीं है कि दादू प्रार्थना कर रहा है। अब दादू प्रार्थना है।
...दादू दूसर नाहिं।।
अगर तुम कभी छोटे से प्रयोग करो प्रार्थना के, मंत्रोच्चार के, तो तुम्हें समझ में आ सकता है। पहले जब तुम मंत्रोच्चार करोगे तो वह बीज की तरह होगा। तुम्हें शब्द का उच्चारण करना होगा। समझो, ओम-ओम की तुम धुन लगाओगे। तुम्हें श्रम करना होगा। तुम्हें कहना होगा यह ओम। यह पहली सीढ़ी है। फिर तुम्हारे ओंठ धीरे-धीरे बंद हो जाएंगे। बाहर किससे कहना है! किसी को सुनाना थोड़े ही है, कहना है। किसी को दिखाना थोड़े ही है, अपने भीतर गुंजाना है। ओंठ बंद हो जाएंगे, अब तुम भीतर ही ओम की गुंजार करोगे। लेकिन अभी भी थोड़ा प्रयत्न रहेगा, कंठ का उपयोग रहेगा। ओंठ तो बंद हो गए, लेकिन कंठ का उपयोग रहेगा।
ऐसा कुछ दिन ओम का गुंजार तुम भीतर चलाते रहोगे। फिर किसी दिन अचानक बिना खबर दिए, तुम कुछ और काम कर रहे होओगे, अचानक तुम्हें होश आएगा--यह क्या हुआ! तुमने तो ओम की गुंजार नहीं की और भीतर गुंजार उठने लगी!
यह चौंकाती है भक्त को बात। क्योंकि पहले तो वह करता था, कर-कर के खींच-खींच कर लाता था, तब भी छूट-छूट जाती थी। फिर चेष्टा करता था तो आता था नाम; नहीं चेष्टा करता था तो भूल जाता था। चेष्टा भी करता था तो भी कभी-कभी भूल जाता था। बीच-बीच में चूक जाती थी, विस्मृति हो जाती थी। लेकिन अगर जारी रहे धारा, तो धीरे-धीरे रोएं-रोएं में समाने लगती है। एक दिन अचानक बाजार जाते तुम भीतर सुनोगे, मंत्रोच्चार हो रहा है। तुम करने वाले नहीं हो, तुम सुनने वाले हो गए।
फिर चौथी घटना घटती है जिसकी दादू बात कर रहे हैं। एक दिन ऐसा होता है कि न तुम करने वाले होते हो, न तुम सुनने वाले होते हो, उच्चार ही रह गया।
...दादू दूसर नाहिं।।
तब अचानक तुम चौंक कर देखते हो, मैं कहां खो गया? सिर्फ ओंकार गूंज रहा है। न तो मैं कर रहा हूं, न मैं सुन रहा हूं; मैं हूं ही नहीं। दादू दूसर नाहिं!
प्रीति जो मेरे पीव की, पैठी पिंजर माहिं।
रोम-रोम पिव-पिव करै, दादू दूसर नाहिं।।
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
वह जो प्रेमी था, प्रेमिका हो गया।
यह थोड़ा समझने जैसा है। इसका क्या अर्थ है? और भक्त के जीवन में इसका बड़ा अर्थ है। भक्त के जीवन में यह बड़ी क्रांति का सूचक है।
आसिक मासूक हुई गया...
प्रेमी प्रेमिका हो गया।
प्रेमी है पुरुष। पुरुष में थोड़ा आक्रमण है। पुरुष में थोड़ी हिंसा है। पुरुष प्रार्थना भी करता है तो ऐसे जैसे दावा कर रहा हो। पुरुष मंदिर के द्वार पर भी जाता है तो ऐसे जैसे आक्रामक हो। वह पुरुष का गुण है। पुरुष चित्त आक्रामक है।
स्त्रैण चित्त आक्रामक नहीं है। इसलिए कोई स्त्री अपनी तरफ से कभी किसी पुरुष से नहीं कहती कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। वह प्रतीक्षा करती है, पुरुष ही कहे। क्योंकि उतना कहना भी स्त्रैण गुणधर्म के विपरीत होगा। वह भी आक्रमण हो गया। किसी से यह कहना, मैं तुझे प्रेम करता हूं--आक्रमण हो गया। यह दूसरे की सीमा का उल्लंघन हो गया। यह दूसरे के साथ जबरदस्ती की शुरुआत हो गई। हो सकता है दूसरा इसे पसंद न करे। या हो सकता है सिर्फ संस्कारवश स्वीकार कर ले। हो सकता है करुणावश, दयावश, सहानुभूतिवश इनकार न करे। यह आक्रमण हो गया।
स्त्री कभी किसी पुरुष को नहीं कहती अपनी तरफ से। जब पुरुष बहुत बार कह चुका होता है और स्त्री आश्वस्त हो गई होती है कि अब कोई आक्रमण नहीं है, तभी वह कहती है कि मैं भी तुम्हें प्रेम करती हूं। ऐसा नहीं है कि उसने कभी पहले प्रेम नहीं किया। स्त्री भी प्रेम करती है। लेकिन उसका प्रेम प्रतीक्षा का है, आक्रमण का नहीं। वह राह देखेगी। अगर पुरुष न आएगा तो पुरुष के पीछे न भागेगी। बुलावा उसने दे दिया है बड़े गहरे हृदय से। आमंत्रण उसने भेज दिया है। लेकिन वह स्थूल में नहीं है, वह बड़े सूक्ष्म में है। वह प्रतीक्षा करेगी। जाल उसने फेंक दिया है। लेकिन वह जाल पृथ्वी का नहीं है। उसे तुम पकड़ नहीं सकते उसके जाल को। उसका रोआं-रोआं तुम्हें बुला रहा है। उसकी श्वास-श्वास तुम्हें पुकार रही है। लेकिन फिर भी वह आक्रमण न करेगी। वह रोक कर तुम्हारा हाथ यह न कहेगी कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। पहल न लेगी, इनिशिएटिव न लेगी। पहल तो पुरुष को ही लेनी होगी।
तो आसिक मासूक हुई गया। दादू कहते हैं, जब शुरू की थी तेरी तरफ यात्रा, तो हम आशिक थे। दौड़ रहे थे तेरी तरफ। तुझे खोजते थे, दीवाने थे, पागल थे, मजनू की तरह थे। चिल्लाते थे लैला-लैला, ऐसा अल्लाह-अल्लाह, या राम-राम की बड़ी जोर से गूंज मचाते थे। पहाड़ों में, गुफाओं में, हिमालय में तुझे खोजते फिरते थे। काशी में, काबा में तुझे पुकारते फिरते थे। एक आक्रमण उठा रखा था। एक झंडा लेकर चल रहे थे। खोज कर रहेंगे, कहां तू छिपा है। तुझे उघाड़ लेंगे, तेरे रहस्य को तोड़ेंगे। तुझे जीत कर रहेंगे। उसमें गहरे में जीत थी।
आसिक मासूक हुई गया...
फिर एक ऐसी घड़ी आती है, जब प्रेम गहराता है, तो यह आक्रमण नष्ट हो जाता है। अब दादू कहते हैं, अब हम तुझे खोजते नहीं, हम प्रतीक्षा करते हैं कि कब तू आएगा। अब हम तुझे खोजते नहीं, क्योंकि अब हमें समझ में आ गया कि खोजना भी अहंकार है। हम तुझे खोज सकते हैं, यह बात ही अहंकार है। हम तुझे कैसे खोज सकेंगे? तेरी ही कृपा होगी तो ही तू मिलेगा। तेरे प्रसाद से तू मिलेगा, हमारे प्रयास से नहीं। हम थक गए। हमने सब तरफ तेरे द्वार खटखटा लिए। लेकिन सब जगह हमने मकान खाली पाया। अब हम समझ गए कि मकान खाली न था, हमारे आक्रमण के कारण ही तू हट गया था।
परमात्मा पर कोई आक्रमण कर सकता है? परमात्मा के प्रति कोई हिंसक हो सकता है? इसलिए तार्किक व्यक्ति उसे नहीं खोज पाता। तर्क हिंसा है। वह प्रमाण करता है, सिद्ध करता है। वैज्ञानिक परमात्मा को नहीं खोज पाता, क्योंकि विज्ञान हिंसा है।
मार्क्स ने कहा है कि मैं परमात्मा को उसी दिन स्वीकार करूंगा, जिस दिन प्रयोगशाला की परखनली में वैज्ञानिक उसे पकड़ कर सिद्ध कर देगा।
लेकिन यह कोई बात हुई! और अगर किसी दिन परमात्मा पकड़ में आ गया और परखनली में रख लिया गया, टेस्ट-ट्यूब में, और जांच-पड़ताल हो गई, उसको कोई परमात्मा कहेगा? वह कोई कीड़ा-मकोड़ा होगा। उसकी कौन पूजा करेगा? उसको मानेगा कौन? जो हमारी परखनली की पकड़ में आ गया वह हमसे ऊपर नहीं हो सकता। उसके मंदिर गिरा दिए जाएंगे। फिर ठीक है। केमिस्ट की दुकान पर तुम खरीद लेना परमात्मा डब्बी में बंद या एक कैप्सूल में बंद। वह एक दवाई हो जाएगा। विटामिन होगा। उसको ले लिया, थोड़ी ताकत आएगी। लेकिन परमात्मा नहीं बचेगा।
यह बात मार्क्स को भी समझ में आ गई। जब उसने लिखा, तो उसने बाद में यह भी जोड़ा कि यह भी मैं समझता हूं कि अगर परमात्मा टेस्ट-ट्यूब में पकड़ में आ जाए तो वह परमात्मा न रह जाएगा।
विज्ञान परमात्मा को खोज ही नहीं सकता। जिसे खोज ले वह परमात्मा नहीं हो सकता। पुरुष चित्त आक्रामक है। विज्ञान पुरुषों की खोज है। तर्क पुरुषों की खोज है। उसमें बड़ी आतुरता है, जल्दबाजी है, बेचैनी है, पा लेने की चेष्टा है, दौड़-धूप है, लेकिन समझ नहीं है। हृदय की समझ नहीं है कि कुछ चीजें हैं, जो प्रतीक्षा से मिलती हैं। कुछ चीजें हैं, जिन्हें तुम निमंत्रण दे सकते हो, आक्रमण नहीं कर सकते। जिन्हें तुम बुलावा दे सकते हो, वे अतिथि हो सकती हैं, लेकिन उनको तुम कैदी बना कर नहीं ला सकते।
परमात्मा तुम्हारा अतिथि है। तुम द्वार खुले रखना, बस! जब वह आए तो शय्या तैयार रखना। जब वह आए तो ऐसा न हो कि तुम्हारा घर तैयार ही न हो अतिथि को स्वीकार करने को। कहीं ऐसा न हो कि घर साफ-सुथरा न हो। वह जब आए तो सब तैयार पाए। बस इतना तुम्हें करना है:
आसिक मासूक हुई गया...
तब तुम प्रतीक्षा करते हो। तुम जोहते हो बाट। राह पर तुम्हारी आंख लगी रहती है। पत्ता भी खड़कता है तो तुम चौंकते हो, शायद उसका आना हो गया! हवा का झोंका आता है, तो शायद उसने द्वार पर दस्तक दी! तुम जागरूक हो, प्रतीक्षारत हो, लेकिन आक्रामक नहीं। क्योंकि तुमने जान लिया, खोजने तुझे हम कहां जाएंगे? अगर तूने तय ही किया है छिपने का तो हम तुझे उघाड़ न सकेंगे। वह तो तेरी ही मर्जी होगी तो ही तू उघाड़ेगा। और तुझे उघाड़ने की चेष्टा एक तरह का बलात्कार है।
जैसे कोई किसी स्त्री के साथ जबरदस्ती बलात्कार कर दे। तो देह से तो बलात्कार हो जाएगा, लेकिन स्त्री के मन को और आत्मा को तो छुआ भी नहीं जा सकता। बलात्कार के क्षण में स्त्री की आत्मा तो वहां होगी ही नहीं। वह आत्मा तो केवल प्रेमी को उपलब्ध हो सकती है।
विज्ञान को मैं बलात्कार कहता हूं। तर्क को बलात्कार कहता हूं। काव्य प्रेम है। प्रार्थना प्रेम है। हृदय से ही हृदय के पास जाने का उपाय है।
तो दादू ने बड़ी गजब की बात कही है। शायद ही किसी संत ने कही है। मैं किसी संत की वाणी के भीतर इस वचन को अब तक नहीं पाया।
आसिक मासूक हुई गया...
यह जानने वाला ही कह सकता है। जिसने इस प्रक्रिया को जाना हो, और जिसने भीतर पहचाना हो कि यह क्या हो गया? पुरुष की तरह चले थे, स्त्री की तरह हो गए! खोजने निकले थे, कितना बड़ा अभियान था! थक कर बैठ गए, राह देखने लगे तेरी!
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
और दादू कहते हैं, जब पुरुष मिट जाता है और स्त्री ही रह जाती है; जब प्रतीक्षा ही रह जाती है; खुले द्वार बाट जोहती आंखें ही रह जाती हैं अनंत तक, आकाश पर टिकी--तेरी राह...और तेरी राह...और तेरी राह...। और तू जब आएगा, तब की प्रतीक्षा। जल्दी भी नहीं। प्राण आतुर हैं, फिर भी जल्दबाजी नहीं, अनंत की प्रतीक्षा की तैयारी है। तू जब भी आएगा तभी जल्दी है। रोएंगे, नाचेंगे, गाएंगे; मगर तुझे खोजने कहां जाएंगे? अपने को तैयार करेंगे, ताकि तू ही खोज ले।
स्त्री लुभाती है, ताकि पुरुष चल पड़े। स्त्री नाचती है, मुस्कुराती है, उसकी आंखों में निमंत्रण होता है, ताकि पुरुष आतुर हो जाए; ताकि पुरुष के भीतर आकांक्षा का ज्वार उठ जाए, ताकि पुरुष के भीतर एक प्यास उठे, कुछ अंकुरित हो, वह दौड़ उठे।
दादू कहते हैं, तभी प्रार्थना पूरी, जब वह स्त्रैण हो जाती है।
जीसस ने कहा है, जब तक तुम स्त्रियों की भांति न हो जाओगे तब तक तुम उसे न पा सकोगे।
नीत्शे ने तो बुद्ध और जीसस का विरोध करने के लिए कहा है कि ये दोनों व्यक्ति पुरुष कम थे, स्त्रैण ज्यादा थे।
उसने तो नाराजगी में कहा है, उसने तो उनके खिलाफ कहा है, लेकिन बात तो ठीक ही है। बुद्ध को बैठे देखा तुमने? इनके शरीर को गौर किया? इस शरीर में स्त्रैण सुडौलता तो दिखाई पड़ती है, पुरुष की रुक्षता दिखाई नहीं पड़ती। इस चेहरे पर पुरुष नहीं दिखाई पड़ता, बड़ी शांत स्त्रैण भाव-दशा दिखाई पड़ती है। बुद्ध की मूर्ति को देख कर तुम्हें ऐसा लग सकता है कि यह आदमी आक्रामक हो सकता है? न, यह सिर्फ प्रतीक्षा कर रहा है। इसका मौन, इसका ध्यान, इसकी समाधि क्या है? सिवाय इसके कि यह प्रतीक्षा कर रहा है।
कुछ करने को नहीं है। सिर्फ राह देखनी है। और इस भांति राह देखनी है कि पूरे प्राण बस राह पर पट जाएं, आंखें बिछ जाएं। अगर तुम गौर से देखोगे तो तुम उन सभी को, जिन्होंने परमात्मा को पाया, आखिरी घड़ी में तुम स्त्रियों की भांति पाओगे। इतने ही कोमल हो जाएंगे। इतने ही प्रतीक्षारत हो जाएंगे--अनाक्रामक! सिर्फ खुले द्वार!
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
दादू उस मासूक का, अल्लहि आसिक होई।।
और जब प्रेमी प्रेमिका बन गया, तभी परमात्मा उस प्रेमिका का प्रेमी बनता है। जब तुम स्त्रैण हो रहते हो, तब परमात्मा भागा चला आता है। भक्त लुभाता है, भगवान भागा चला आता है।
जिन्होंने जाना है उन्होंने यही कहा है, परमात्मा को तुम खोज न सकोगे; तुम अपने को तैयार कर लो, वह आ जाएगा। तुम बुलाओ, मगर ओंठ से आवाज न निकले। हृदय में ही हो आवाज। शून्य में उठे स्वर। तुम पुकारो, हृदयपूर्वक पुकारो; लेकिन तुम्हारी पुकार अभद्र न हो जाए, किसी को कानों-कान खबर न हो जाए। तुम पातियां लिखो उसे, लेकिन इस तरह के अक्षरों से लिखना जो अदृश्य हों। तुम चिट्ठियां भेजो उसे, लेकिन डाकियों के हाथ मत भेजना। शून्य आकाश में ही जाने दो।
तुम तैयार हो जाओ, वह तुम्हारा प्रेमी हो जाएगा।
यह बड़ी क्रांतिकारी बात है। तुम जब तक प्रेमी की तरह हो, तब तक तुम परमात्मा को प्रेयसी की तरह खोज रहे हो। वहीं तुम्हारी भूल है। तुम आक्रामक रहोगे और वह प्रेयसी छुपती रहेगी, छुपाती रहेगी। खेल चलता रहेगा। वह हजार-हजार अवगुंठनों में छिप जाएगी। तुम छोड़ो दौड़, तुम इस खेल को तोड़ो अपनी तरफ से, तो वह भी तोड़ देगा। तुम प्रेयसी हो रहो। फिर तुमसे छिपने का कोई कारण न रहा। फिर वह तुम्हारे पास चला आएगा।
आसिक मासूक हुई गया, इसक कहावै सोई।
दादू उस मासूक का, अल्लहि आसिक होई।।
अल्लाह स्वयं उस प्रेयसी का प्रेमी हो जाता है।
और तब आता है यह परम वचन:
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
और तब दादू ने पूरी परिभाषा परमात्मा की जिस ढंग से की है, तुम उसकी तुलना न खोज सकोगे।
इसक अलह की जाति है...
अगर तुम पूछो कि परमात्मा की जाति क्या है? प्रेम उसकी जाति है।
यह बड़ी विरोधाभासी बात है। क्योंकि जाति प्रेम की होती ही नहीं। जाति तो घृणा की होती है। तुम हिंदू हो, क्योंकि मुसलमान से तुम्हारी घृणा है। अगर मुसलमान से तुम्हारी घृणा निश्चित ही गिर जाए, तो क्या तुम हिंदू रह जाओगे? तुम कैसे हिंदू रहोगे? तुम जैन हो, क्योंकि हिंदू से तुम्हारी घृणा है। अगर हिंदू से तुम्हारी घृणा वस्तुतः ही गिर जाए, तुम किस आधार पर जैन रहोगे?
मेरे घर की जो सीमा-रेखा है, वह मेरे पड़ोसी के डर के कारण है। अगर पड़ोसी का डर ही चला जाए तो वह सीमा-रेखा समाप्त हो गई। पड़ोसी से दुश्मनी के कारण तुम्हारे घर के पास की सीमा है। अगर दुश्मनी ही नहीं तो बात खतम हो गई, सीमा का कोई अर्थ न रहा।
इसे तुम ध्यान रखना! तुम हिंदू होने के कारण हिंदू नहीं हो। तुम हिंदू के प्रेम के कारण हिंदू नहीं हो। तुम मुसलमान की घृणा के कारण हिंदू हो। अडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में, मेनकैम्फ में लिखा है कि अगर राष्ट्रों को बलशाली बनाना हो तो उन्हें सदा अपनी दुश्मनी जीवित रखनी चाहिए; नहीं तो वे कमजोर हो जाते हैं। अगर हिंदुस्तान को ताकतवर रखना हो तो पाकिस्तान से दुश्मनी जारी रखनी चाहिए; नहीं तो कमजोर हो जाएगा।
तुम्हारी सारी ताकत घृणा की है। तुम थोड़ी देर को सोचो, अगर तुम्हारी किसी से कोई दुश्मनी नहीं है, तो तुम्हारी कौन सी जाति है? कौन सा देश है? कौन सा समाज है? तब सभी तुम्हारे हो गए।
प्रेम की कोई सीमा नहीं है। सब सीमाएं घृणा की हैं। बड़ी अच्छी बात दादू ने कही है, बड़ी मधुर, विरोधाभासी।
अगर पूछते हो अल्लाह की जाति--हिंदू कह सकते थे, मुसलमान कह सकते थे, ईसाई कह सकते थे। लेकिन नहीं, वह जाति नहीं कही। ब्राह्मण, शूद्र कह सकते थे; लेकिन नहीं, वह जाति नहीं कही। क्योंकि वे सब तो घृणा की जातियां हैं। वे तो खड़ी ही इसलिए हैं कि आदमी विक्षिप्त है, पागल है। तुम्हारे पागल होने की वजह से तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, जैन हो। जिस दिन तुम पागल न रहोगे, उस दिन तुम अचानक पाओगे, तुम कोरे निपट मनुष्य हो--खाली, सुंदर, असीम! उस दिन कोई रूप-रेखा तुम्हें न घेरेगी। कोई छोटी बातें तुम्हें न घेरेंगी। कोई विशेषण तुम्हारे ऊपर लागू न होंगे। तुम विशेषण-शून्य हो जाओगे।
लेकिन उस दिन तुम्हारे हृदय से उठता हुआ एक अहर्निश भाव होगा प्रेम का।
इसलिए दादू कहते हैं: इसक अलह की जाति है।
अगर पूछते ही हो, जिद ही करते हो, उसकी कोई जाति तो है नहीं, लेकिन अगर कहना ही पड़े कि क्या उसकी जाति है, मानोगे ही न...जैसे कि कभी जनगणना करने वाला अधिकारी आ जाता है। वे मुझे भी मिल जाते थे पहले। तो उनको मैं कहता, मेरी कोई जाति नहीं। वे कहते, ऐसा कैसे चलेगा? कुछ तो लिखवाइए। आपका धर्म क्या है? मेरा कोई धर्म नहीं। वे मुस्कुराते, वे कहते, मजाक छोड़िए। कोई तो धर्म होगा ही। बिना धर्म के कहीं कोई आदमी होता है? कुछ भी लिखवा दीजिए; मगर झंझट मिटाइए। खाली कैसे छोड़ें? खाने बने हुए हैं, इसमें लिखा है कि...नहीं तो वे लोग कहेंगे कि तुम पूरा काम करके नहीं आए। खाना भर दो। कोई भी--उसकी कोई चिंता नहीं है उन्हें।
तो अगर जिद ही करते हो कि ईश्वर की जाति क्या है? क्योंकि बिना जाति के तुम समझ ही न पाओगे। तो दादू कहते हैं, प्रेम उसकी जाति है।
प्रेम की कोई जाति हो नहीं सकती। प्रेम की कोई सीमा नहीं है। प्रेम का कोई विशेषण है? हिंदू प्रेम, मुसलमान प्रेम, ऐसा कभी तुमने सुना है? नहीं, प्रेम कोई सीमा नहीं मानता। प्रेम किसी सीमा का दावा नहीं करता। प्रेम तो असीम में अवतरण है।
इसक अलह की जाति है...
और जो परमात्मा की तरफ जा रहे हैं, अगर उनकी भी जाति प्रेम की ही न हो, तो वे कभी न जा पाएंगे। छोड़ना होगा हिंदू को, मुसलमान को, ईसाई को, सिक्ख को। उन्होंने आदमी को बांटा है, जोड़ा नहीं। छोड़ना होगा उन सारे विशेषणों को। उन्होंने लड़ाया है, उन्होंने सिर्फ घृणा उपजाई है। क्योंकि मूल ही उनका आधार घृणा पर है। दूसरे की दुश्मनी पर उनका आधार है।
और जब तक तुम इतने प्रेम से न भर जाओ कि तुम्हें कोई दुश्मन न दिखाई पड़े, कोई पराया न दिखाई पड़े, तब तक तुम जानना कि तुम्हारा अहंकार नहीं मिटा। तब तक तुमने सीस नहीं सौंपा। जिस दिन तुम अपने सीस को ही सौंप दोगे, उस दिन तुम हिंदू बचोगे? मुसलमान बचोगे? कौन बचोगे? तुम कोई भी न रहोगे। प्रेम तुम्हारी भी जाति हो जाएगा।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
तुम उसकी पूछते हो, उसका आकार कैसा है? चतुर्भुज है? तीन सिर हैं उसके कि चार सिर हैं? त्रिमूर्ति है? कैसा रूप-रंग है? आंखें कैसी हैं? चेहरा कैसा है? हिंदुओं ने अपना बनाया है, ईसाइयों ने अपना बनाया है, यहूदियों ने अपना बनाया है। लेकिन उसका रंग कैसा? उसका ढंग कैसा? उसका अंग कैसा? उसकी देह कैसी है? दादू कहते हैं, अगर जिद ही करते हो, तो प्रेम उसकी देह है। बस वह प्रेम में ही घिरा जीता है। उसके चारों तरफ प्रेम ही प्रेम है, वही उसकी देह है। उसके बीच में ही, इस प्रेम के ही तेल के बीच में उसकी जीवन-ज्योति जलती है।
इसक अलह का अंग।
और जिस दिन प्रेम तुम्हारी भी देह बन जाए, उसी दिन तुम्हें अपने भीतर परमात्मा की प्रतीति होनी शुरू हो जाएगी। शरीर को अपनी देह मत मानो, मन को अपनी देह मत मानो; सिर्फ प्रेम को, हार्दिकता को, भाव को अपनी देह मानो। अगर भाव तुम्हारी देह बन गया, भक्ति तुम्हारी देह बन गई, तो भगवान का दीया जल उठेगा। वह जल ही रहा है, पहचान हो जाएगी।
अभी पहचान नहीं होती, क्योंकि तुमने मिट्टी-पत्थर को अपनी देह मान रखा है। ज्यादा से ज्यादा अगर तुम भीतर प्रवेश करते हो तो तुम विचारों को अपनी देह मान लेते हो। या तो शरीर, या मन; भाव तक तुम नहीं पहुंच पाते।
इसलिए तो दादू कहते हैं, भाव भगति बेसास। भाव दे, भक्ति दे, विश्वास दे। विचार नहीं, चिंतन नहीं, मनन नहीं। भाव भगति बेसास।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है...
यह औजूद शब्द बड़ा बहुमूल्य है। इसका अर्थ होता है: अस्तित्व, एक्झिस्टेंस, आत्मा, सारभूत, होना मात्र।
इसक अलह औजूद है...
यह जो मौजूद दिखाई पड़ रहा है चारों तरफ, यह इश्क है। यह अस्तित्व के होने का ढंग प्रेम है। यह सारा अस्तित्व प्रेम से चल रहा है, प्रेम में ही चल रहा है।
जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ जाएगा कि प्रेम के ही सागर में हम पैदा होते हैं और प्रेम के ही सागर में हम लीन हो जाते हैं, उसी दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो जाएगी। उसी दिन धर्म का तुम्हारे जीवन में जन्म होगा। प्रेम की पहचान धर्म है।
इसक अलह औजूद है...
वह अल्लाह का अस्तित्व है प्रेम। तुम उसे न तो मूर्तियों में खोजना, क्योंकि तुम उसे वहां न पा सकोगे। हां, अगर तुमने प्रेम में पा लिया तो मूर्ति में भी पा लोगे। तुमने मूर्ति में ही खोजा, तुम उसे न पा सकोगे। उसे खोजने का ढंग एक ही है कि प्रेम में खोजना।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
और प्रेम का ही रंग है उसके ऊपर। और कोई रंग उसके ऊपर नहीं है।
पंडितों ने परमात्मा की परिभाषा में तीन शब्दों का प्रयोग किया है। मैं कहता हूं, पंडितों ने। क्योंकि दादू जैसे प्रेमी ने तो एक ही शब्द का प्रयोग किया है: प्रेम। पंडित कहते हैं, वह सर्वशक्तिमान है, ओम्नीपोटेंट; सर्वज्ञ है, ओम्नीसायंट; सब जगह मौजूद है, ओम्नीप्रेजेंट। लेकिन दादू कहते हैं सिर्फ प्रेम।
यह सर्वशक्तिमान है, यह भी हमारे अहंकार की धारणा है। क्योंकि हम शक्ति के पूजक हैं। अहंकार शक्ति चाहता है। वह परमात्मा की भी जब व्याख्या करता है तो शक्ति को ही बीच में ले आता है।
सर्वज्ञ है! क्योंकि अहंकार सब कुछ जानना चाहता है। ज्ञान की बड़ी आकांक्षा है अहंकार की। इसलिए जब वह परमात्मा की व्याख्या करता है तो सर्वज्ञ।
और अहंकार सब जगह मौजूद होना चाहता है। कोई ऐसी जगह न रह जाए जहां अहंकार मौजूद न हो। क्योंकि जिस जगह मौजूद नहीं होगा, वह जगह अपनी सामर्थ्य के बाहर रह जाएगी, अपनी सीमा के बाहर रह जाएगी, उससे भय होगा।
तो अहंकार ने जो परमात्मा की परिभाषाएं की हैं, उनमें सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सब जगह वही मौजूद है। दादू तो सिर्फ एक शब्द कहते हैं, प्रेम। और मजा यह है कि प्रेम बिना सर्वशक्तिमान हुए सर्वशक्तिमान है। शक्ति का वहां कोई सवाल ही नहीं है, और इसीलिए महाशक्तिमान है।
तुमने प्रेम की शक्ति कभी अनुभव की? प्रेम शक्ति की घोषणा नहीं करता, क्योंकि शक्ति की घोषणा तो कमजोर ही करते हैं। प्रेम इतना शक्तिमान है कि उसे पता ही नहीं शक्ति क्या होती है! वह तो कमजोर का अनुभव है शक्ति। प्रेम की शक्ति इतनी स्वाभाविक है, इतनी पर्याप्त है, हीनता का उसे कभी बोध ही नहीं हुआ है कि शक्ति का पता चल जाए।
मैं एक यहूदी फकीर बालसेम के वचन पढ़ता था। तो उसमें कुछ वचन मुझे बड़े प्यारे लगे। उसमें एक वचन है: संतोष तब पूरा है, जब तुम्हें संतोष का पता न चले। जब तक पता चल रहा है, तब तक कुछ अड़चन है। कहीं कुछ असंतुष्टि होगी। उसने यह भी लिखा है कि संतोष तभी पूरा है, जब संतोष की भी जरूरत न रह जाए। जब तक संतोष की जरूरत है, उसका मतलब है, तुम कुछ दबा रहे हो, सांत्वना कर रहे हो। संतोष से तुमने कुछ छिपा रखा है।
तो परिपूर्ण संतुष्ट व्यक्ति वह होगा जिसे संतोष का पता ही नहीं। तुम उससे पूछो, संतोष! वह कहेगा, मिले नहीं, कभी मिलना नहीं हुआ, संतोष क्या है? असंतोष का ही पता न हो तो संतोष का कैसे पता होगा! वह कहेगा, संतोष की जरूरत ही क्या है? बिना संतोष के ही बड़े संतुष्ट हैं। संतोष की जरूरत क्या है?
प्रेम की शक्ति ऐसी अनिर्वचनीय है कि उसे सर्वशक्तिमान होने की जरूरत नहीं, वह है वही। वह तो हमारे अहंकार की ही घोषणा है कि परमात्मा सर्वशक्तिमान है। क्योंकि हम शक्ति को मानते हैं। अगर उसमें जरा भी शक्ति की कमी हो तो हम किसी और परमात्मा को खोजेंगे। क्योंकि वह परमात्मा हमारे योग्य न रहा।
सर्वज्ञ है! सब कुछ जानता है! यह भी हमारा पागलपन है कि सब कुछ जाना ही जाना चाहिए। इसीलिए तो विज्ञान बढ़ता जाता है। आदमी का पागलपन--सब जान लेना है।
असली सवाल जानने का नहीं है, असली सवाल होने का है। जान कर भी क्या करोगे? सब भी जान लिया और जीवन गंवा दिया जानने ही जानने में, और कभी जीए न, तो क्या सार होगा उसका! जीवन तो होना होना चाहिए।
प्रेम होना है। प्रेम जानना नहीं है। यद्यपि जो प्रेम से भर जाता है, वह सब जान लेता है। वह जानना प्रेम की छाया की तरह आता है। वह उसका लक्ष्य नहीं है, वह उसका परिणाम है।
और प्रेम सब जगह भर जाता है। क्योंकि प्रेम के लिए कोई सीमा नहीं है, जहां वह रुके। इसलिए कहने की कोई जरूरत नहीं है कि वह सर्वव्यापक है। प्रेम है ही सर्वव्यापक।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
तो तुम इश्क में रंग जाओ तो अल्लाह में रंग गए। तुम इश्कमय हो जाओ तो तुम अल्लाहमय हो गए। तुम्हारा औजूद, तुम्हारा होने का ढंग ही प्रेमपूर्ण हो जाए, तो बस प्रार्थना हो गई। फिर तुम परमात्मा को मानो न मानो, कोई अंतर नहीं पड़ता।
बुद्ध ने परमात्मा की बात ही नहीं की। कोई जरूरत नहीं है; प्रेम काफी है। महावीर ने परमात्मा को इनकार ही कर दिया कि यह और झंझट क्यों खड़ी करनी। प्रेम काफी है।
इसलिए मैंने कहा कि प्रेम से बड़ा शब्द मनुष्य की भाषा में दूसरा नहीं है। परमात्मा से भी बड़ा शब्द है प्रेम। क्योंकि परमात्मा के बिना तो तुम रह सकते हो, प्रेम के बिना नहीं। परमात्मा को इनकार करके भी जी सकते हो। प्रेम को इनकार किया कि सड़े। फिर नहीं जी सकते। और प्रेम को जान लिया तो परमात्मा को जान ही लोगे। परमात्मा को जानने का और कोई उपाय नहीं है। तो यदि मनुष्य परमात्मा को भूल भी जाए, कोई हानि न होगी। सिर्फ प्रेम स्मरण रहे।
यह वचन दादू का तुम्हारे लिए उपनिषद बन जाए। यह तुम्हारे हृदय पर खुद जाए। इसे तुम कभी-कभी गुनगुनाना, ताकि तुम्हारी हड्डी-मांस-मज्जा में समा जाए। इसे कभी-कभी तुम बैठ कर शांति से सोचना, विचारना, मनन करना। कभी इस पर ध्यान करना कि क्या अर्थ होगा। और कभी छोटे-छोटे जीवन में इसके प्रयोग शुरू करना। कभी मुसलमान आता हो, मुसलमान को हटा देना अपने पर्दे से आंख के, और आदमी को उघाड़ कर देखना। तब तुम अपने ही जैसा आदमी वहां छिपा पाओगे। और हो सकता था, किसी झगड़े-झांसे में तुम इस आदमी को छुरा मार देते। तुम अपनी ही तरह का कमजोर, दुखी, पीड़ित, परेशान, परमात्मा की खोज में भटकता हुआ आदमी मुसलमान में भी पाओगे, ईसाई में भी पाओगे, हिंदू में भी पाओगे। सभी के भीतर वही एक की खोज चल रही है। कितना ही कोई भटका हो, उस भटकाव में भी उसी की तरफ यात्रा चल रही है।
तो तुम जरा देखने की कोशिश करना। कभी अपनी जाति को भी प्रेम बना लेना और जरा देखना। जैसे ही तुम अपनी जाति को प्रेम अनुभव करोगे, वैसे ही पाओगे: न मालूम कितनी सीमाएं तत्क्षण तिरोहित हो गईं; न मालूम कितनी बाधाएं गिर गईं; न मालूम कितनी दीवालें, जो बड़ी मजबूत होती थीं, अब नहीं रहीं।
इसक अलह की जाति है, इसक अलह का अंग।
इसक अलह औजूद है, इसक अलह का रंग।।
आज इतना ही।