QUESTION & ANSWER
Ramnam Janyo Nahin 02
Second Discourse from the series of 10 discourses - Ramnam Janyo Nahin by Osho. These discourses were given during MAR 11-20 1981.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आप पर यह आरोप लगाया जाता है कि आपके पास कोई नया विचार या जीवन-दर्शन नहीं है। और यह भी आलोचना की जाती है कि एक ओर आप स्वयं गीता, बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों द्वारा प्रतिपादित धर्मों को नहीं मानते, फिर आप उनके विचारों की चोरी क्यों करते हैं? भगवान, निवेदन है कि इस विषय में कुछ कहने की अनुकंपा करें।
सत्य वेदांत, विचार कभी भी नया नहीं होता। विचार का स्वभाव ही उसे नया नहीं होने दे सकता। मौलिकता और विचार विपरीत आयाम हैं। विचार तो हमेशा ही बासा होता है; क्योंकि शब्द बासे होते हैं, भाषा बासी होती है।
अनुभूति मौलिक होती है। जीवन-सत्य का साक्षात्कार मौलिक होता है। लेकिन जैसे ही जीवन-सत्य को भाषा का वेश दिया, जैसे ही जीवन-सत्य को अभिव्यक्ति दी, वैसे ही उसकी मौलिकता आच्छादित हो जाती है।
इसलिए जो लोग कहते हैं कि मेरे पास कोई नया विचार नहीं, वे सोचते होंगे मेरी आलोचना कर रहे हैं, लेकिन वस्तुतः अनजाने वे मेरे सत्य का प्रचार कर रहे हैं।
मैंने कभी कहा नहीं कि विचार मौलिक होता है। मैंने कभी कहा नहीं कि यह विचार मेरा है। मैं कैसे मौलिक होगा? मैं तो उधार है। मेरा का भाव भी उधार है। लेकिन मैं और मेरे के पीछे भी कुछ है--चैतन्य है, साक्षी है। और उस चैतन्य में जागना, उस चैतन्य में डूबना, उस चैतन्य से आपूरित हो जाना--वह मौलिक है, वह कभी भी बासा नहीं, वह कभी उधार नहीं। लेकिन वहां मैं की कोई सीमा नहीं, वहां मैं की कोई पहुंच नहीं। इसलिए जो मौलिक है वह अस्तित्व का है; और जो उधार है वह अहंकार का है।
अब मेरी भी मजबूरी है। और मेरी ही नहीं, जिन्होंने जाना उन सबकी यही मजबूरी रही। बोलना तो पड़ेगा भाषा में, क्योंकि जिनसे बोलना है उनके पास मौन को समझने की कोई क्षमता नहीं। जो जाना है वह मौन में जाना है, और जिनसे कहना है उन्हें मौन का कुछ पता नहीं। तो भाषा का उपयोग करना होगा। और भाषा का उपयोग किया कि अनुभूति की ताजगी गई, अनुभूति का जीवन गया। भाषा आई कि अनुभूति को मौत आई। अनुभूति तो ताजी होती है, जीवंत होती है, जैसे सुबह की ओस की ताजगी, नये-नये खिले फूल की ताजगी--लेकिन अनुभूति रहे अनुभूति तो ही; भाषा के वस्त्र पहनाए कि बस बात खोनी शुरू हो गई।
फिर और भी अड़चनें हैं। मैं जब कुछ कहूंगा तो तुम वही थोड़े ही सुनोगे जो मैंने कहा; तुम वह सुनोगे जो तुम सुन सकते हो। तुम्हारी बंधी धारणाएं हैं, तुम्हारे अपने पक्षपात हैं। उन्हीं पक्षपातों की आड़ से सुनोगे। सुनोगे नहीं--भाषांतर करते रहोगे, अपना रंग पहनाते रहोगे, अपना ढंग देते रहोगे। कहूंगा तो मैं, लेकिन सुनोगे तो तुम, और तुम आ जाओगे उस सब में जो मैंने कहा। तुम तक पहुंचते-पहुंचते वह बात मेरी न रह जाएगी, तुम्हारी हो जाएगी। और अगर तुमने फिर किसी को वह बात कही, तब तो सत्य हजारों कोस दूर छूट जाएगा।
पहली बात, मौन मौलिक है। मौलिक शब्द को समझो। मौलिक का अर्थ होता है: जो मूल से उगा, जो मूल से आया--मूल उदगम से, परम स्रोत से।
लेकिन भाषा तो मौलिक नहीं है, शब्द तो मौलिक नहीं हैं। शब्द आते हैं परंपरा से। शब्द आते हैं सदियों पुरानी यात्रा करके। उन पर न मालूम कितनी यात्रा की धूल जमी है। मगर उन्हीं शब्दों का उपयोग करना होगा, मजबूरी है, एक आवश्यक बुराई है।
सत्य वेदांत, तुमने जो पूछा है वैसे पत्र मेरे पास निरंतर आते हैं। जे.कृष्णमूर्ति के एक अनुयायी ने कुछ ही दिन पहले पत्र लिखा है कि मेरे विचारों में जे.कृष्णमूर्ति की झलक है।
जे.कृष्णमूर्ति को जो सुनता है, स्वभावतः उसे मेरे विचारों में जे.कृष्णमूर्ति की झलक मिल सकती है। लेकिन इस पूछने वाले को यह सवाल नहीं उठा कि जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में बुद्ध की झलक है या नहीं? और जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में लाओत्सु के विचारों की झलक है या नहीं? जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में उपनिषद की छाया है या नहीं? नहीं, यह सवाल नहीं उठा। उसका अपना पक्षपात है। जे.कृष्णमूर्ति मौलिक हैं। लेकिन मुझमें उसे जे.कृष्णमूर्ति के विचारों की झलक मिलनी शुरू हो गई। अपना पक्षपात थोप देने की आकांक्षा बड़ी प्रगाढ़ होती है।
मैं तो कहता नहीं कि मेरे विचार मौलिक हैं। जे.कृष्णमूर्ति का दावा है कि उनके विचार मौलिक हैं। और वह दावा गलत है; क्योंकि ऐसा एक भी विचार नहीं है जे.कृष्णमूर्ति का जो उपनिषदों में मौजूद न हो, जो बुद्ध की वाणी में मौजूद न हो, जिसे लाओत्सु ने और भी प्रगाढ़ता से न कहा हो। जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में झेन सदगुरुओं की सहज पुनरुक्ति है। लेकिन जे.कृष्णमूर्ति जीवन भर यह कोशिश करते रहे हैं कि उनके विचार मौलिक हैं। इतना ही नहीं, अपने विचारों की मौलिकता को सिद्ध करने के लिए वे यह भी कहते हैं कि मैं सौभाग्यशाली हूं कि मैंने उपनिषद नहीं पढ़े, बुद्ध-वचन नहीं पढ़े, कोई धर्म-शास्त्र नहीं पढ़े।
यह बात सरासर झूठ है। क्योंकि जे.कृष्णमूर्ति को ये सारे शास्त्र पढ़ाए गए थे। पढ़े ही नहीं, बल्कि एनीबीसेंट, लीडबीटर और दूसरे थियोसॉफिस्टों ने कोई बीस वर्ष जे.कृष्णमूर्ति के ऊपर श्रम किया, ताकि वे सारे अस्तित्व में अब तक जो भी श्रेष्ठतम विचार हुए हैं, उनके मालिक हो जाएं। लेकिन यह दावा कि मेरे विचार मौलिक हैं, तभी सिद्ध किया जा सकता है जब इनकार ही कर दिया जाए कि मुझे पता ही नहीं कि उपनिषदों में क्या है।
मैं तो कहता नहीं कि मेरे विचार मौलिक हैं, इसलिए मेरी आलोचना करनी असंभव है। मेरी तो धारणा ही यही है कि विचार मौलिक होते ही नहीं--किसी के भी हों। अनुभूति मौलिक होती है। और अनुभूति एक ही सत्य की है, इसलिए क्या करोगे?
एक छोटे स्कूल में यह घटना घटी। दो छोटे बच्चे, जुड़वां भाई। अध्यापिका ने कुत्ते के ऊपर निबंध लिखने को कहा था। सारे बच्चे निबंध लिख कर लाए थे। वे दोनों बच्चे भी निबंध लिख कर लाए थे। अध्यापिका बहुत हैरान हुई, क्योंकि उनके दोनों निबंध शब्दशः एक जैसे थे, जरा सा भी भेद नहीं था। तो अध्यापिका ने पूछा कि यह आश्चर्य की बात है, तुम दोनों ने निबंध बिलकुल एक जैसा लिखा है, एक मात्रा का भी भेद नहीं है।
उन दोनों बच्चों ने कहा, हम कर भी क्या सकते हैं! हमारे घर में दोनों का एक ही कुत्ता है, उसी का वर्णन कर रहे हैं। और ऊपर से यह भी मुसीबत है कि हम जुड़वां भाई हैं, इसलिए हमारे देखने और सोचने का ढंग भी एक ही जैसा है। इसमें हमारा कोई कसूर नहीं।
मैं नहीं कहता हूं कि कृष्णमूर्ति ने उपनिषद से विचार चुराए हैं; वह बात गलत होगी। लेकिन उपनिषद के ऋषियों ने जो सत्य जाना, वह सत्य ही एक है। फिर बुद्ध जानें उसे, जरथुस्त्र जानें उसे, नानक जानें उसे, कबीर जानें उसे, कृष्णमूर्ति जानें उसे, या तुम जानो, कुछ भेद न पड़ेगा। थोड़े-बहुत भेद हो सकते हैं अभिव्यक्ति के, लेकिन मूलतः भेद नहीं हो सकता।
सत्य एक है। और सत्य के जानने की विधि भी एक है--अहंकार का विसर्जन, मन से मुक्ति। जहां मन न रहा, वहां सत्य प्रकट होता है।
अब यूं समझो कि एक अंधे आदमी की आंख खुले, तो क्या उसे कुछ प्रकाश में दूसरा अनुभव होगा जैसा कि पहले अंधे आदमियों की आंखें खुली थीं तो उनको भी वही प्रकाश का अनुभव हुआ था? क्या तुम यह कहोगे कि यह अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में जो कह रहा है, यह उधार है, यह दूसरों की बातें दोहरा रहा है?
मगर प्रकाश एक है, आंख के देखने का ढंग एक है। जब भी कोई अंधा आदमी आंख पाएगा, तो क्या करेगा--वही रंग, वही प्रकाश, वही चांद, वही तारे, वही सूरज। थोड़ा अंदाजे-बयां और हो सकता है। लेकिन बयान का ढंग, अंदाज, मौलिक भेद नहीं पैदा करता।
कृष्णमूर्ति का दावा गलत है कि विचार मौलिक हैं। अनुभूति मौलिक है। मैं जो कह रहा हूं, अपनी अनुभूति से कह रहा हूं। यह और बात है कि औरों को भी यह अनुभूति हुई है। मैं यह दावा नहीं कर रहा हूं कि यह अनुभूति मुझे ही हुई है, पहली बार ही हुई है। उपनिषद के ऋषियों को भी हुई थी, कृष्ण ने भी जानी थी, महावीर ने भी पहचानी थी, बुद्ध भी उसी में डूबे थे, मीरा उसी में नाची थी, गाई थी, गुनगुनाई थी।
इसलिए जो लोग सोचते हैं कि मेरी आलोचना कर रहे हैं, वे गलती में हैं; वे मेरे सत्य की ही उदघोषणा कर रहे हैं। हां, मैंने अगर कहा होता कि मेरे विचार मौलिक हैं, तो आलोचना सार्थक हो सकती थी। यह आलोचना तो मूढ़तापूर्ण है। मैं तो खुद ही कहता हूं कि विचार मौलिक हो ही नहीं सकते हैं, मेरे-तेरे का सवाल ही नहीं है।
दूसरी बात तुमने पूछी कि वे कहते हैं कि आपका जीवन-दर्शन भी नया नहीं।
नये की बात कर रहे हो, मेरा कोई जीवन-दर्शन ही नहीं। मैं जीवन को पर्याप्त मानता हूं। जीवन-दर्शन जीवन को जीने में बाधा बनता है, सहयोगी नहीं।
जीवन-दर्शन का क्या अर्थ होता है? कि हमने जीवन के प्रति कोई रुख अख्तियार किया, कि देखने की कोई शैली अख्तियार की, कि हमने एक ढांचा बनाया। अब हम इस ढांचे में ही ढाल कर जीवन को जीएंगे और देखेंगे। कि हमने एक चौखट बिठा दी जीवन के ऊपर। और हमारे लिए चौखट इतनी मूल्यवान है कि जीवन रहे कि जाए, मगर चौखट बचानी होगी।
मेरा कोई जीवन-दर्शन नहीं है। मैं तो कहता हूं जीवन पर्याप्त है, किसी दर्शन की कोई जरूरत नहीं। दर्शन ही तो बाधा है। जब तुम जैन जीवन-दर्शन को लेकर चलोगे तो तुम जीवन से परिचित नहीं हो पाओगे। या हिंदू जीवन-दर्शन को लेकर चलोगे तो वही बाधा बनेगी, वही तुम्हारी आंखों को अंधा करेगा। क्योंकि तुमने जीवन को बिना पहचाने, जीवन से बिना अपना सरगम जोड़े, परंपराओं से, शास्त्रों से, रीति-रिवाजों से, औरों से--जो तुम जैसे ही अंधे हैं--कुछ कचरा इकट्ठा कर लिया। अब तुम उस कचरे के ही आधार पर जीवन की तलाश में चले हो।
जीवन को वही जान पाता है जो निर्विचार है, और जीवन-दर्शन तो विचार होगा। जीवन की पहचान किसे होती है? जो जीवन के पास निर्दोष जाता है। और जीवन-दर्शन कभी निर्दोष नहीं हो सकता। यूं समझो कि किसी का जीवन-दर्शन है नास्तिक का, तो उसने पहले से ही तय कर लिया कि ईश्वर नहीं है। है या नहीं, यह और बात। जाना नहीं, खोजा नहीं, पहचाना नहीं--तय कर लिया कि ईश्वर नहीं है। कैसे तय कर लिया, यह भी आश्चर्य है। तर्क किया होगा, लोगों की बातें सुनी होंगी। मान लिया कि ईश्वर नहीं है। अब यह व्यक्ति क्या अन्वेषण कर सकेगा? अगर करेगा भी तो इसका अन्वेषण घूम-फिर कर इसकी धारणा को ही सिद्ध करेगा।
एक आदमी पागल हो गया था। पागलपन भी उसका बड़ा अजीब था। बहुत बीमार था और चिकित्सकों ने कह दिया कि अब बचने की उम्मीद नहीं। परिवार के लोग इकट्ठे हो गए, मित्र, प्रियजन, पड़ोसी आ गए। इधर घड़ी की टक-टक और उधर आदमी का डूबता जाना। चिकित्सकों ने तो समय भी बता दिया था कि ठीक छह बजे आदमी मर जाएगा। उसको भी पता था। वह भी घड़ी पर आंखें लगाए था। ठीक छह बजे उसने आंखें बंद कर लीं। मरा तो नहीं। मगर जीवन-दर्शन, एक पक्की धारणा। थोड़ा शक-शुबहा भी हुआ, हिल-डुल कर भी देखा, थोड़ी-बहुत आंख भी खोल कर देखी होगी कि घड़ी भी दिखाई पड़ती है, लोग भी दिखाई पड़ते हैं।
लेकिन पत्नियों को तो आप जानते ही हैं। पत्नी पास में ही बैठी थी, उसने कहा, आंख बंद करो! अरे मर कर और आंख खोलते हो, शर्म नहीं आती? और जब चिकित्सक ने कहा है, और सबसे बड़े चिकित्सक ने कहा है, और हजार रुपया फीस भरी है, तो कोई झूठ थोड़े ही कहेगा। तुम मर चुके। और ऐसा कोई पति है जो पत्नी की न माने? मान लिया बेचारे ने। मर गया बेचारा।
मगर ऐसे कहीं मौत आती है। आंखें बंद किए पड़ा है। रात भर यूं ही पड़ा रहा। लेकिन मोहल्ले के लोगों ने इनकार कर दिया कि इसको हम जलाएंगे नहीं, यह आदमी जिंदा है। मजबूरन पत्नी को भी मानना पड़ा, चिकित्सक को भी बुलाना पड़ा। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। वह आदमी रात भर इसी जीवन-दर्शन में जीया कि मैं मर चुका, कि मैं मर ही चुका। सुबह जब चिकित्सक ने कहा कि भाई गणित बैठा नहीं, निदान ठीक नहीं आया, चमत्कार समझो, ईश्वर की अनुकंपा समझो, तुम बच गए।
उसने कहा, अब देर हो गई। मैं तो मर चुका। आप किससे बातें कर रहे हैं?
चिकित्सक ने कहा, तुम जिंदा हो।
उस आदमी ने कहा कि आप वहम में हैं। हो सकता है मैं भूत हो गया होऊं, प्रेत हो गया होऊं। मुझे भी शक होता था पहले, लेकिन अब मुझे पक्का भरोसा आ गया है कि मैं मर चुका हूं।
अब एक मुसीबत खड़ी हुई कि इसे कैसे भरोसा दिलाया जाए कि यह आदमी जिंदा है। पत्नी ने चिकित्सक से कहा कि आपने ही यह झंझट खड़ी की, अब आप ही सुलझाओ। और जो फीस लेनी हो ले लेना, मगर इसका जीवन-दर्शन बदलो। वह उठे ही नहीं। नाश्ता तैयार है, वह उठे ही नहीं। दफ्तर जाने का वक्त हो गया है, वह उठे ही नहीं। सच पूछो तो उसे मजा भी बहुत आने लगा कि यह भी खूब रही! न दफ्तर जाना है, न कोई चिंता, न कोई फिक्र, अपने बिस्तर पर लेटे हैं। यह तो जीवन से भी बेहतर हो गया। अरे तड़फते थे एक-एक दिन के लिए छुट्टी मिल जाए, यूं छुट्टी मिल गई सारी चिंताओं से।
मगर पत्नी-बच्चे परेशान, रिश्तेदार परेशान, चिकित्सक के पीछे पड़े कि अब तुम ही कुछ करो। चिकित्सक ने बहुत समझाया, सब तरह से समझाया, मगर वह आदमी माने ही न। आखिर चिकित्सक ने कहा, एक काम करो। उठाया उसे, बामुश्किल चार आदमियों ने सहारा देकर उठाया, और कहा कि मैं तुमसे एक बात पूछता हूं। जब आदमी मर जाता है, तो अगर उसका हाथ काटो या छुरी से कहीं निशान बनाओ तो खून निकलता है या नहीं?
उस आदमी ने कहा, मरे हुए आदमी से कैसे खून निकलेगा? खून तो पानी हो जाता है।
चिकित्सक ने कहा कि तब ठीक है। अब तुम आओ दर्पण के सामने। उसको पकड़ कर दर्पण के सामने लाया गया। वह तो आता ही नहीं था। वह तो कहे, मैं कैसे आऊं? अरे मरे आदमी ने कभी दर्पण देखा है? कभी सुना है, कोई उल्लेख है? मगर पकड़ कर लाया गया, तो मुर्दा था तो रुक भी नहीं सकता था, आना पड़ा। चिकित्सक ने उठाया चाकू और उसके हाथ को जरा सा काटा, खून निकलने लगा। दिखाया कि देख, आईने में देख, हाथ में देख, खून गिर रहा है। अब तेरा क्या कहना है?
उस आदमी ने कहा कि इससे सिद्ध होता है कि वह धारणा गलत थी कि मरे आदमी में खून नहीं होता। होता है! इससे सिद्ध हो रहा है कि आदमी मर जाता है, मगर खून नहीं मरता।
जब तुम्हारी एक धारणा मजबूत हो जाती है, जब तुम उसे जकड़ कर पकड़ लेते हो, तो तुम हर चीज को उसी ढांचे में ढालना शुरू कर देते हो।
मैं जीवन-दर्शन तो सिखाता ही नहीं। मेरा कोई जीवन-दर्शन नहीं। जीवन पर्याप्त है। दर्शन की क्या जरूरत? दर्शन का क्या अर्थ हुआ? जीवन के ऊपर मन को आरोपित करना जीवन-दर्शन है। दर्शन यानी धारणाएं, दृष्टिकोण, सिद्धांत, शास्त्र; जीवन को उसकी नग्नता में न देखना, बल्कि सजावट करनी, अपना ढंग देना; ऐसा देखना जैसा कि तुम देखना चाहते हो।
मैं न तो नास्तिक हूं, न मैं आस्तिक हूं, न मैं धार्मिक हूं, न मैं अधार्मिक हूं; न मैं हिंदू हूं, न मुसलमान हूं, न जैन हूं, न ईसाई हूं, न पारसी हूं; क्योंकि ये सारी की सारी बातें जीवन को जानने में बाधा हैं। और यहां मैं कोई जीवन-दर्शन नहीं सिखा रहा हूं। यहां केवल इस बात की तुम्हें समझ दे रहा हूं कि छोड़ दो जीवन-दर्शन, ताकि जीवन को पा सको, ताकि खालिस जीवन अपने शुद्धतम रूप में तुम्हें आच्छादित कर ले।
वही जीवन सत्य है। जीवन-दर्शन सब झूठ, सब आदमी की कल्पनाएं, मनगढ़ंत। जीवन सत्य है। जीवन था हम नहीं थे तब थी। जीवन रहेगा हम नहीं होंगे तब भी। लेकिन जीवन-दर्शन तो बनाए गए और मिट जाते हैं। यूं समझो कि अगर बुद्ध न होते तो दुनिया में कोई बौद्ध जीवन-दर्शन नहीं होता। जीवन तो होता, मगर बौद्ध जीवन-दर्शन नहीं होता। अगर महावीर न होते तो जैन जीवन-दर्शन नहीं होता। अगर जीसस न होते तो ईसाई जीवन-दर्शन नहीं होता। मगर जीवन होता।
और बहुत से जीवन-दर्शन दुनिया में रहे हैं और खो गए। आज उनका कोई मानने वाला भी नहीं, कोई एक भी मानने वाला नहीं। जब थे, जैसे यूरोप में मिथ्र का जीवन-दर्शन था। वह परम देवता था और करोड़ों उसके भक्त थे, लेकिन आज एक भी नहीं। खो गई बात। बहुत से दर्शन बने और बिगड़े। दर्शन तो पानी पर खींची गई लकीरें हैं, शब्दों के जाल हैं, होशियार और चालाक आदमियों के सिद्धांतों के महल हैं। लेकिन सिद्धांतों के महल और ताश के पत्तों के महल में कुछ फर्क नहीं होता। जरा सा हवा का झोंका और सब बिखर जाता है।
मैं जीवन सिखाता हूं, जीवन-दर्शन नहीं। और वही मेरे संबंध में इतने विरोध का कारण है। काश, मैं भी तुम्हें कोई जीवन-दर्शन समझाता तो कोई अड़चन न होती। कम से कम उस जीवन-दर्शन को मानने वाले लोग तो मेरे साथ होते। अगर मैं हिंदू जीवन-दर्शन की बात करता तो हिंदुओं के अहंकार को तुष्टि मिलती, परितोष मिलता, पोषण मिलता। हिंदू उदघोषणा करते मेरे महात्मा होने की, अवतार होने की, संत, ऋषि-मुनि। लेकिन चूंकि मैं कोई हिंदू जीवन-दर्शन का समर्थन नहीं करता हूं--हिंदू नाराज। जैन नाराज, बौद्ध नाराज, ईसाई नाराज।
इस नाराजगी का कारण क्या है? ये सारे लोग एक साथ नाराज! आस्तिक ही नाराज नहीं, नास्तिक भी नाराज! भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी प्रस्ताव करती है मेरे विरोध में। क्या होगा कारण इसका? कारण बहुत सीधा-साफ है। कारण है कि मैं चाहता हूं कि तुम सभी जीवन-दर्शनों के जाल से मुक्त हो जाओ, ताकि जीवन तुम्हारे हृदय पर सरगम छेड़ सके; ताकि जीवन तुम्हारे पैरों में घुंघरू बांध सके; ताकि जीवन जैसा है, अपनी सहजता में, अपनी समग्रता में, तुम्हें आच्छादित कर ले, आंदोलित कर दे।
लेकिन ये सारे जीवन-दर्शनों को मानने वाले लोग जीवन से घबड़ाते हैं। इन्हें डर है कि कहीं इनकी धारणाएं न टूट जाएं। और इनका डर एक अर्थ में सही है। अगर तुम जीवन को उसकी सहजता में जीओगे तो हजारों की धारणाएं टूटेंगी। क्योंकि जीवन को उसकी सहजता में जीने का अर्थ है कि तुम हजारों तरह की मूढ़ताओं से मुक्त हो जाओगे। क्या-क्या मूढ़ताएं हैं!
मेरे गांव में एक बड़े पंडित थे। उनका घर अड्डा था साधु-संतों का। मेरे पिता के मित्र थे, सो कभी-कभी मैं उनके घर पहुंच जाता था। खास कर जब साधु-संत वहां होते, मैं जरूर पहुंच जाता। वे मुझे देखते ही से घबड़ाते थे। वे पहले ही खबर भेज देते थे कि घर में साधु-संत हैं, आज कृपा करके न आना। मैं उनसे पूछता कि साधु-संत मुझसे क्यों घबड़ाते हैं? तो वे कहते, तुम इस तरह की बातें पूछ देते हो कि उनको अड़चन होती है। मैंने कहा, लेकिन बातें, अगर उनके उत्तर नहीं हैं उनके पास, तो उन्हें छोड़ना चाहिए।
यह बात एक दिन मेरी उनसे हो ही रही थी कि भीतर से करपात्री महाराज बाहर आए। वे वहां ठहरे हुए थे। आकर बैठे, उनको जम्हाई आई करपात्री महाराज को। सो जम्हाई आते से ही उन्होंने दो बार चुटकी बजाई। मैंने पूछा, अब मैं कुछ बोलूं कि न बोलूं? यह चुटकी क्यों बजाई? जम्हाई तक बात समझ में आती है कि चलो ठीक है। साधु-संत हैं, ब्रह्ममुहूर्त में जगे होंगे, नींद आ रही है। ब्रह्ममुहूर्त में जो जगेगा उसको नींद आएगी ही। वहां तक समझ में आता है। रात ज्यादा देर तक भजन-कीर्तन किया होगा, स्वाध्याय, मनन, चिंतन, निदिध्यासन किया होगा। क्या-क्या नहीं करना पड़ता! छोटी रात और साधु को क्या-क्या नहीं करना पड़ता! मगर ये चुटकी क्यों बजाते हैं? और मैंने कहा कि मैं आपसे नहीं पूछ रहा हूं--पंडित जी से कहा। मैंने कहा, मैं उन्हीं से पूछता हूं कि आप चुटकी क्यों बजाते हैं?
उन्होंने कहा, इसका राज है। जब आदमी जम्हाई लेता है तो मुंह खुलता है। अगर चुटकी न बजाओ, भूत-प्रेत भीतर प्रवेश कर जाते हैं।
अब ये मूढ़! इस तरह के मूढ़ों से यह देश भरा हुआ है।
बौद्धों के एक शास्त्र में यह उल्लेख है: जब बौद्ध भिक्षु मल-विसर्जन के लिए जाए तो आवाज न करे, किसी तरह की आवाज न करे। क्यों? क्योंकि आवाज करने से, जो भूखे भूत-प्रेत वहां मौजूद होते हैं...भूखे भूत-प्रेत मल-मूत्र पान करते हैं।
मैं तो बहुत हैरान हुआ। मैं तो सोचता था, ये मोरारजी देसाई ने बड़ी मौलिकता की है। यह दो हजार साल पुराना ग्रंथ! मतलब मलजी भाई मूत्तरजी भाई देसाई पहले भी होते रहे। अब मर गए हैं, भूत-प्रेत हो गए हैं, मगर आदत नहीं छूटी। आदतें छूटती ही नहीं।
तो भी मैंने सोचा कि ठीक है करने दो, उनको मल-मूत्र भोजन करना है तो करने दो, तुम्हारा क्या बिगड़ता है? मगर सवाल यह है कि अगर उनको तुम्हारा मल-मूत्र पसंद आ गया तो वे तुम्हारा पीछा करेंगे। वे ऐसे ढंग करेंगे कि तुमको दिन में कई बार मल-मूत्र त्याग करना पड़े। स्वभावतः पेचिस की बीमारी कर दें, डायरिया हो जाए, हैजा हो जाए। इससे बचने के लिए बौद्ध भिक्षु को जरा भी आवाज नहीं करनी चाहिए, ताकि भूखे भूत-प्रेत शांत रहें। उनको पता ही न चले कि क्या हो रहा है। चुपचाप अपना कार्य करके एकदम निकल भागना चाहिए।
अब इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातें अगर मानोगे तो स्वभावतः भय पैदा होगा। और फिर इनके अनुसार तुम जीओगे। ये तुम्हारे जीवन-दर्शन हैं। चाहे तुम्हारे ईश्वर के सिद्धांत हों और चाहे तुम्हारे भूत-प्रेतों के सिद्धांत हों, कुछ बहुत भेद नहीं है। हवा में मकान बना रहे हो।
मैं किसी तरह के सिद्धांत तुम्हें नहीं देता हूं। मैं तो तुमसे सारे सिद्धांत छीन लेना चाहता हूं, सारे सिद्धांतों का कचूमर निकाल देना चाहता हूं कि बना लो उनकी चटनी।
जीवन काफी है। जीवन पर्याप्त है। जीवन परम सुंदर है। जीवन परम भगवत्ता है। तुम्हारे सिद्धांतों की कोई जरूरत नहीं। इसलिए मेरा कोई जीवन-दर्शन तो है ही नहीं।
सत्य वेदांत, तुमने पूछा कि और वे यह भी आलोचना करते हैं कि एक ओर आप स्वयं गीता, बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों द्वारा प्रतिपादित धर्मों को नहीं मानते, फिर आप उनके विचारों की चोरी क्यों करते हैं?
मैंने किसी की कभी कोई चोरी नहीं की। चोरी करने की जरूरत मुझे नहीं। मेरे पास अपनी अनुभूति है। यह और बात है कि मेरी अनुभूति कभी कुरान से मेल खा जाती हो। न तो मोहम्मद ने मेरे विचार चुराए हैं और न मैंने मोहम्मद के विचार चुराए हैं। लेकिन अनुभूतियां मेल खा सकती हैं। अब इसमें मैं क्या कर सकता हूं! सागर को कोई भी चखेगा तो खारा है। मैंने भी चखा और खारा पाया; अगर कुरान भी कहती है कि खारा है तो अब मैं क्या करूं? क्या सिर्फ इसीलिए कह दूं कि मीठा है कि कहीं कोई यह न समझ ले कि कुरान के विचार की चोरी हो गई?
जहां मेरी अनुभूति मेल खाती है, फिर चाहे वे कृष्ण हों, चाहे मोहम्मद हों, चाहे महावीर हों, चाहे कबीर हों, चाहे नानक हों, जहां मेरी अनुभूति किसी से मेल खाती है, वहां मेल खाती है। कोई उपाय नहीं। और जहां मेल नहीं खाती, वहां मैं कभी भी मेल बिठालने की कोशिश नहीं करता हूं। जहां मेल नहीं खाती, वहां मैं साफ घोषणा करता हूं कि मेरी अनुभूति यहां मेल नहीं खाती।
और मेरा दायित्व मेरी अनुभूति के प्रति है। मुझे किसी कुरान से लेना नहीं, देना नहीं। किसी गीता से मेरा कोई प्रयोजन नहीं। जहां मेरी अनुभूति मेल नहीं खाती, वहां मैं दो टूक हूं। वहां मैं साफ कहता हूं कि यहां मैं राजी नहीं हो सकता। उसी से तो इतनी नाराजगी है मेरे प्रति। उनकी आकांक्षा है: या तो मुझे सौ प्रतिशत राजी होना चाहिए और या फिर शून्य प्रतिशत। मगर यह मैं नहीं कर सकता हूं। यह अन्याय होगा सत्य के साथ, क्योंकि ऐसा नहीं है। वेदों में भी यद्यपि निन्यानबे प्रतिशत कचरा है, मगर एक प्रतिशत तो हीरे हैं।
अब मेरी मजबूरी यह है कि आर्यसमाजी चाहता है: या तो मैं कहूं कि सौ प्रतिशत हीरे हैं और या साफ कहूं कि सौ प्रतिशत कचरा है। मगर मैं दोनों बातों से राजी नहीं हो सकता। निन्यानबे प्रतिशत तो कचरा है। दयानंद उस निन्यानबे प्रतिशत कचरे को भी हीरा सिद्ध कर
ने की कोशिश करते हैं। वह जबरदस्ती कोशिश है। मार-ठोंक कर, अर्थ का अनर्थ करके, किसी भी भांति कुछ का कुछ अर्थ बिठा कर, उलटे-सीधे तर्कों के आधार पर, सभी सुंदर है, इसकी चेष्टा की जाती है।
मगर मेरा मानना यह है, यह सत्य के प्रति अन्याय है। जो कचरा है वह कचरा है, वेद में हो या कहीं भी हो। अच्छा है कि हम साफ करें कि वह कचरा है। इसलिए भी अच्छा है, ताकि वे जो एक प्रतिशत हीरे हैं, वे कहीं कचरे में न खो जाएं। वे एक प्रतिशत हीरे बचाने योग्य हैं। वे हीरे अदभुत हैं। लेकिन निन्यानबे प्रतिशत कचरे को अगर हम आग न लगा सकें, तो कचरे का भार इतना है कि हीरे उसमें खो जाएंगे।
तो मैं उतने दूर तक राजी होता हूं किसी से भी। मुझे कोई अड़चन नहीं। मैं जीसस के साथ चलता हूं, मोहम्मद के साथ चलता हूं, बहाऊद्दीन के साथ चलता हूं, लाओत्सु के साथ चलता हूं, लेकिन वहीं तक जहां तक मेरी अनुभूति और उनकी अनुभूति तालमेल खाती है। अंततः तो मेरी अनुभूति ही मेरे लिए निर्णायक है।
और यही मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे साथ भी तुम तब तक ही चलना जब तक तुम्हारी अनुभूति मेरी अनुभूति के साथ मेल खाए। जिस क्षण तुम पाओ कि तुम्हारी अनुभूति मेरी अनुभूति से मेल नहीं खाती, तुम मुक्त हो; तुम अपने मालिक हो; तब तुम्हें अपनी राह खोजनी है। मैं तुम्हें गुलाम नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हारे ऊपर अपने को थोप नहीं देना चाहता। उतनी दूर तक संग-साथ, जितनी दूर तक मेरी अनुभूति और तुम्हारी अनुभूति एक नृत्य में आबद्ध हों।
लेकिन जब तुम पाओ कि तुम्हारी अनुभूति अब एक अलग मार्ग लेती है, तो मैं तुमसे कहूंगा, मुझे छोड़ देना और अपनी अनुभूति के साथ जाना। क्योंकि अंततः तुम्हें अपने ही स्वभाव में जीना है। अंततः अपने स्वभाव की ही उदघोषणा करनी है। अंततः तुम्हारे भीतर ही बैठी भगवत्ता में फूल खिलाने हैं। तुम्हारा कोई दायित्व मेरे साथ नहीं है। सौभाग्य था कि थोड़ी दूर साथ चलना हुआ। थोड़ी दूर साथ गीत गाया। थोड़ी दूर मेरी बांसुरी में और तुम्हारे तबले में तालमेल रहा। ठीक, जितनी दूर तालमेल रहा, धन्यभाग! उसके लिए अनुग्रह! लेकिन जिस क्षण तुम पाओ कि तुम्हारे छंद ने अब अपनी अभिव्यक्ति लेनी शुरू कर दी, तुम्हारा छंद अब अपनी निजता में प्रकट होना चाहता है, तब तुम अपने छंद के साथ जाना। क्योंकि तुम्हारा छंद, तुम्हारे अंतर्तम का छंद, तुम्हारे और परमात्मा के बीच का सीधा जोड़ है। जब तक मैं तुम्हें तुम्हारे भीतर के परमात्मा को याद दिलाऊं, ठीक; लेकिन जहां बाधा बनने लगूं वहां मुझसे साथ छोड़ देना।
जो लोग कहते हैं कि मैं गीता, बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों द्वारा प्रतिपादित धर्मों को नहीं मानता हूं...।
कुरान बड़ी किताब है। उसमें हजारों बातें हैं। उसमें ऐसी व्यर्थ की बातें भी हैं कि एक आदमी की चार स्त्रियां होनी चाहिए। अब मैं कैसे राजी हो जाऊं? मोहम्मद ने नौ विवाह किए। मैं राजी नहीं हो सकता। लेकिन कुरान में ऐसी बातें भी हैं कि परमात्मा प्रकाश है। इससे मैं कैसे इनकार कर दूं? परमात्मा प्रकाश है। यह मेरा भी अनुभव है। लेकिन परमात्मा का प्रकाश होना और मोहम्मद की नौ शादियां, और मुसलमानों को चार शादियों की आज्ञा देना, इनमें मैं कोई तालमेल नहीं देखता। परमात्मा होगा प्रकाश, लेकिन इससे नौ पत्नियों का क्या संबंध? इसमें कोई गणित है?
और यह बात बेहूदी है; यह स्त्रियों के साथ अनाचार है। दुनिया में स्त्रियों और पुरुषों की संख्या करीब-करीब बराबर है। इसलिए अगर हर आदमी चार स्त्रियों से विवाह करने लगे, तो तीन आदमी बिना पत्नियों के रह जाएंगे। और ये तीन आदमी कुछ न कुछ उपद्रव तो करेंगे--व्यभिचार होगा, अनाचार होगा, वेश्यावृत्ति फैलेगी। और अगर एक-एक आदमी नौ-नौ पत्नियों पर कब्जा कर ले, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दस आदमियों में एक के पास तो पत्नियां होंगी, बाकी नौ आवारा! क्योंकि पत्नी यानी घर। इसलिए उसको कहते हैं घरवाली। तुमने किसी पति को सुना कहते हुए कि ये घरवाले हैं? पत्नी है तो घर, और पत्नी नहीं है तो बेघर। एक आदमी नौ पत्नियों पर कब्जा कर ले तो बाकी तो आवारा हो गए।
कृष्ण ने तो हद कर दी--सोलह हजार पत्नियां! यह तो सारी दुनिया को बरबाद करने का हिसाब हो जाएगा। मैं इससे राजी नहीं हो सकता। लेकिन कृष्ण के बहुत से सूत्रों से मैं राजी हूं। प्यारे सूत्र हैं। जहां कृष्ण कहते हैं कि स्वधर्म में मर जाना श्रेयस्कर है; परधर्म भयावह है--मैं राजी हूं। स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः। कैसे इनकार करूं?
लेकिन खयाल रखना, स्वधर्म का मतलब हिंदू धर्म या मुसलमान धर्म या ईसाई धर्म नहीं होता। स्वधर्म का अर्थ होता है: जो तुम्हारी स्वयं की सत्ता है, जो तुम्हारा स्वभाव है। उसमें ही जीओ। उसमें ही जीओगे, तो ही तुम सत्य को पा सकोगे। अगर तुमने अपनी स्वजता को, अपनी निजता को इनकार किया और तुमने किसी और को अपने ऊपर ओढ़ा, कि तुम्हारा जीवन भय से भर जाएगा। तुम्हारा जीवन जीवन कम और मौत ज्यादा हो जाएगा।
मैं इस बात से राजी हूं, लेकिन इस बात को मैं इसकी पूरी तर्क-संगति तक ले जाना चाहता हूं। तुम कृष्ण को भी मत ओढ़ना, क्योंकि वह भी परधर्म होगा। तुम्हें बांसुरी बजानी आती न हो और खड़े हो जाओ बांसुरी बजाने, और बना लो नृत्य की मुद्रा, और पहन लो पीतांबर, और बांध लो घुंघरू कमर में, और लगा लो मोर-पंख अपने मुकुट में--सिर्फ बुद्धू मालूम पड़ोगे, और कुछ भी नहीं। रासलीला वगैरह हो रही हो तो ठीक, कहीं नाटक इत्यादि में भाग ले रहे होओ तो ठीक, मगर जिंदगी में ऐसा मत कर लेना।
मैं राजी नहीं हो सकता कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों से। और इन पत्नियों में बहुत सी दूसरों की पत्नियां थीं--जो जबरदस्ती छीन कर, युद्ध के द्वारा, चुरा कर, बेईमानी से, कपट से, हर तरह से लाई गई थीं। यह बात अमानवीय है।
मेरा निर्णय व्यक्तियों को देख कर नहीं है, मेरा निर्णय तो सत्य को देख कर है। कृष्ण के जीवन में बहुत कुछ है जिससे मैं राजी नहीं हो सकता। कृष्ण के जीवन में बेईमानी है, कूटनीति है, राजनीति है, जिससे मैं राजी नहीं हो सकता। हां, कृष्ण ने जो अदभुत सत्य कहे हैं, उनसे मुझे कोई इनकार नहीं है। कैसे इनकार करूं?
कृष्ण कहते हैं, आत्मा अमर है। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि! उसे शस्त्रों से छेदा नहीं जा सकता। नैनं दहति पावकः! उसे अग्नि में जलाया नहीं जा सकता। इससे मैं राजी हूं, सौ प्रतिशत राजी हूं।
लेकिन कृष्ण की बेईमानियां और कृष्ण की धोखेधड़ियां! कृष्ण ने वचन दिया था युद्ध में अस्त्र हाथ में नहीं उठाएंगे, और उठा लिया! अपने वचन को भी पूरा न कर सके। वचन के प्रति भी एक आबद्धता नहीं है।
तो मेरे सामने हमेशा यह सवाल है कि कितने दूर तक किस व्यक्ति को समर्थन दिया जा सकता है, किस शास्त्र को कितने दूर तक समर्थन दिया जा सकता है, उतने दूर तक मैं जरूर समर्थन देता हूं। जहां तक मेरा सत्य और उस शास्त्र का सत्य समान है, वहां तक मैं राजी हूं; लेकिन जहां मेरे सत्य के विपरीत कोई बात जाती है, वहां मेरा उत्तरदायित्व मेरे सत्य के प्रति है, किसी और के सत्य के प्रति नहीं है।
और यही मेरी देशना है मेरे संन्यासियों के लिए: मुझे भी अपवाद मत समझना। कोई आवश्यकता नहीं है कि तुम मुझसे सौ प्रतिशत राजी होओ। तुम्हारी अनुभूति, तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी समाधि जहां तक मुझसे तालमेल पा सके, बस वहीं तक, उसके आगे नहीं।
चोरी का तो कोई सवाल नहीं है। लेकिन जो लोग, सत्य वेदांत, इस तरह की बातें करते हैं, उनसे पूछना कि कृष्ण की गीता में बहुत से वचन हैं जो उपनिषदों के हैं। क्या कृष्ण ने चोरी की थी? कृष्ण की गीता में बहुत से वचन हैं जो वेदों के हैं। क्या कृष्ण ने चोरी की थी? बुद्ध के वचनों में बहुत से वचन हैं जो कि उपनिषदों के हैं। क्या बुद्ध ने चोरी की थी? जीसस के वचनों में बहुत से वचन हैं जो ठीक बुद्ध के वचनों का अनुवाद हैं। जीसस को तो बुद्ध की भाषा भी नहीं आती थी, और बुद्ध के शास्त्र भी शायद अपरिचित होंगे, जीसस पढ़े-लिखे भी नहीं थे। क्या जीसस ने चोरी की थी? कबीर और नानक जो कहते हैं, वह वही तो है जो सदियों से कहा गया है। क्या ये सब चोर हैं? अगर यूं चोरी का तय करना हो, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
लेकिन इनमें से कोई भी चोर नहीं है। इन सबने अपने सत्य को पहचाना। लेकिन चूंकि सत्य एक है, इसलिए थोड़ा-बहुत भेद हो सकता है देखने वाले की दृष्टि के कारण, देखने वाले के चुनाव के कारण, देखने वाले की भाषा के कारण, अभिव्यक्ति के कारण; लेकिन चूंकि सत्य एक है, कितना ही भेद पड़े, तब भी मूलतः एक ही सत्य तो झलकेगा। उसी सत्य के अलग-अलग पहलू होंगे। भेद होगा तो गौण, मेल होगा तो मौलिक।
लेकिन धारणाओं से भरे हुए लोगों के साथ बड़ी मुसीबत है।
एक मित्र आ गए हैं--हंसराज विश्नोई। इन्होंने जो प्रश्न पूछे हैं, बहुत से प्रश्न पूछे हैं, उससे तुम्हें पता चलेगा कि भारतीय भोंदूपन किस गहराई तक नहीं उतर गया है। आत्मा तक में प्रविष्ट हो गया है।
पहला प्रश्न उन्होंने पूछा है: भगवान, आपने कहा कि आप भगवान हैं। भगवान सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी होता है। क्या आप सूर्य का उदय कुछ क्षण के लिए रोक सकते हैं? या सृष्टि में कोई परिवर्तन कर सकते हैं? कृपया बताएं। दूसरे प्रश्न में उन्होंने पूछा है कि भगवान कभी मरा नहीं, मर नहीं सकता, मरना असंभव है; फिर यहां आश्रम में इतनी सुरक्षा की व्यवस्था क्यों है? मेटल डिटेक्टर से क्यों हमें गुजरना पड़ता है? तीसरा प्रश्न पूछा है कि आपके भीतर मुझे पूजा की आकांक्षा मालूम पड़ती है कि आप चाहते हैं लोग आपको पूजें। अगर यह आकांक्षा नहीं है आपके भीतर तो माला पर आपका चित्र क्यों लगाया गया है?
हंसराज विश्नोई ने जो भी पूछा है, इसमें एक भी प्रश्न सार्थक नहीं है। मगर बंधी हुई धारणाएं हैं भीतर, उन्हीं बंधी हुई धारणाओं से प्रश्न उठने शुरू होते हैं। मगर वे पूछ कर अब फंस गए हैं, अब भाग न सकेंगे। मुझसे कुछ प्रश्न पूछना हो तो सोच-समझ कर पूछना चाहिए।
हंसराज विश्नोई, तुम्हें कैसे पता चला कि भगवान सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी है? कहीं मुलाकात हुई? भगवान है भी, यह भी तुम्हें पता है? कोई प्रमाण है तुम्हारे पास भगवान के होने का? आज तक कोई प्रमाण नहीं दे सका है। और जो भी प्रमाण दिए गए हैं, सब खंडित किए जा सकते हैं, जरा से तर्क की जरूरत है, जरा सी बुद्धि की जरूरत है।
अगर भगवान सर्वशक्तिमान है, तो हंसराज विश्नोई, तुम्हारा भोंदूपन कुछ कम बनाता। इतना तो कर देता, सूरज चाहे न रोकता। थोड़ी बुद्धि तो देता। इतनी गरीबी है दुनिया में, इतनी बीमारी है दुनिया में, आधी से ज्यादा दुनिया भूख से मर रही है, और तुम कहते हो भगवान सर्वशक्तिमान है! इसका तो मतलब यह हुआ कि वह इसी तरह चाहता है कि हो। ये भिखमंगे सड़कों पर, ये बिना दूध मिले हुए बच्चे, यह चारों तरफ फैली हुई भुखमरी और बीमारी और दारिद्य्र, जरूर सर्वशक्तिमान भगवान का प्रमाण देता है! गजब का सर्वशक्तिमान है! ये लंगड़े-लूले बच्चे क्यों पैदा होते हैं? ये अंधे बच्चे क्यों पैदा होते हैं? ये बुद्धि से रुग्ण बच्चे क्यों पैदा होते हैं? तुम्हारा सर्वशक्तिमान भगवान इतना भी नहीं कर सकता?
क्या तुम्हारे पास आधार है कि तुम कहो भगवान सर्वशक्तिमान है? और तुम तो यूं कह रहे हो जैसे कि बात बिलकुल सिद्ध ही है, कोई शक-शुबहा का सवाल नहीं है। कोई किंतु-परंतु नहीं है, साफ घोषणा है कि भगवान सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी होता है!
अगर भगवान सर्वज्ञ है तो यह दुनिया कुछ और ढंग की होनी चाहिए। यह सर्वज्ञ के द्वारा बनाई हुई दुनिया तो मालूम नहीं होती। सर्वज्ञ क्यों कैंसर बनाता है, क्या उसको इतनी भी अकल नहीं? क्यों क्षय-रोग बनाता है? सर्वज्ञ को कुछ तो बुद्धि होनी चाहिए--जो सभी कुछ जानता है, जिससे कुछ भी छिपा नहीं है! फिर यह सारा नरक जो तुम अपने चारों तरफ पा रहे हो, यह किसकी करतूत है? और तुम कहते हो भगवान सर्वव्यापी है।
हंसराज विश्नोई आए हैं हरियाणा से--मंडी डबवाली, हरियाणा। मतलब हरियाणा में भी है, मंडी डबवाली में भी है! तो फिर यहां किसलिए आए हो? वहीं मुलाकात ले लेते। सर्वव्यापी है, जहां चाहते वहीं चर्चा हो जाती।
मगर इस तरह की बातें हम पकड़ कर बैठ जाते हैं--बिना सोचे, बिना विचारे, बिना खोजे। और फिर इस तरह की बातों को हम दूसरों पर आरोपित करने लगते हैं।
मैं तुमसे स्पष्ट कहना चाहता हूं कि मैं कोई सर्वशक्तिमान नहीं हूं। तुम तो कह रहे हो कि आप सूरज को कुछ क्षण के लिए रोक सकते हैं?
मैं इस बिजली के पंखे को भी नहीं रोक सकता।
तुम पूछते हो, क्या आप सृष्टि में कोई परिवर्तन कर सकते हैं?
क्या परिवर्तन करवाने का इरादा है? सर्वशक्तिमान ने बनाई यह पृथ्वी, यह प्रकृति; सर्वज्ञ ने बनाई यह प्रकृति; सर्वव्यापी ने बनाई यह प्रकृति; अब मैं कुछ भी करूंगा तो बिगाड़ ही हो जाएगा। इसमें सुधार तो हो ही नहीं सकता। अब सर्वज्ञ से और ज्यादा सर्वज्ञ तो कोई कैसे होगा?
और तुम पूछते हो कि भगवान न कभी मरा, न मरा है, न मर सकता है।
सवाल पहले यह है कि जीया भी कभी? जीया हो तो मरता। जब जीया ही नहीं, तो मरेगा कैसे? जन्मा कब? बात हमेशा शुरू से करनी चाहिए। अगर जन्मा हो तो मरे। जन्म के बिना मृत्यु तो नहीं हो सकती। सो एक बात तो तय है कि जन्मा नहीं, जीया नहीं, मरेगा क्या खाक! मरना भी चाहे तो नहीं मर सकता। मरने के लिए होना चाहिए। पहले तुम्हें सिद्ध करना पड़ेगा कि है, जन्मा, कैसे जन्मा, किससे जन्मा, कौन मां-बाप हैं तुम्हारे भगवान के? और तब तो बड़ा लंबा सिलसिला शुरू हो जाएगा। फिर उनके मां-बाप होंगे, फिर उनके मां-बाप होंगे।
मगर इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातों को लोग समझते हैं धार्मिक विचार।
और तुम मुझसे यह पूछ रहे हो, लेकिन यही बात तुमने कृष्ण से पूछी? राम से पूछी? बुद्ध से पूछी? महावीर से पूछी? तुम कृष्ण को भगवान कहते हो, कृष्ण मरे या नहीं? तुम बुद्ध को भगवान कहते हो, बुद्ध मरे या नहीं? तुम राम को भगवान कहते हो, राम मरे या नहीं? मेरे संबंध में तुम कुछ अलग नियम बनाना चाहते हो? मैं भी मरूंगा। और मरने में मुझे कोई बुराई नहीं मालूम पड़ती। मरने का भी मजा लेना होगा। जीना और मरना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
लेकिन बड़ा मजा यह है, इस देश की बुद्धि की जो प्रक्रिया है, बड़ी दोहरी है। अगर राम का सवाल उठाओ तो राम भगवान हैं, और तब कोई नहीं पूछेगा कि फिर मरे कैसे। और कृष्ण भगवान हैं, मरे कैसे! बुद्ध भगवान, महावीर भगवान--कोई भगवानों की तुम्हारे यहां कमी रही है! सब मर गए। उनमें से एकाध भी जिंदा है? जिंदा हो तो पकड़ कर लाओ।
और तुम पूछते हो कि यहां सुरक्षा का इतना इंतजाम क्यों है?
सुरक्षा का इंतजाम कोई मेरी मृत्यु को नहीं रोक सकता है। मेरी मृत्यु तो होगी। सुरक्षा का इंतजाम भी रहेगा और मृत्यु होगी। सुरक्षा का इंतजाम किसी और कारण से है। मैं मरना भी चाहता हूं तो अपने ढंग से मरना चाहता हूं; किसी बेवकूफ के हाथ से नहीं मरना चाहता। मेरा अपना जीवन का ढंग है, मेरे मरने का भी अपना ढंग होगा। जीता अपनी मौज से हूं, मरूंगा भी अपनी मौज से।
कृष्ण की मृत्यु हुई एक आदमी के पैर में तीर मार देने से। कृष्ण सोए थे वृक्ष के नीचे, विश्राम कर रहे थे, और एक शिकारी ने भूल से उनको तीर मार दिया, इस तरह मृत्यु हुई। बुद्ध की मृत्यु हुई विषाक्त भोजन से। एक आदमी ने भोजन खिलाया और भोजन विषाक्त था। महावीर की मृत्यु हुई पेचिस की बीमारी से। होनी ही चाहिए, ज्यादा उपवास जो करेगा उसका यह परिणाम होने वाला है, पेट खराब होगा।
मुझे कम से कम इतना तो हक है कि मैं अपने ढंग से मरूं।
और तुम पूछते हो कि यह सुरक्षा, अगर आप भगवान हैं, सुरक्षा की क्या जरूरत?
तो रामचंद्र जी जो धनुष-बाण लिए चलते हैं, तुम क्या उनको कोई कोल-भील समझे हुए हो? कि गणतंत्र दिवस पर भाग लेने दिल्ली जा रहे हैं, कि वहां जुलूस निकलेगा? वह काहे के लिए हाथ में रखे हुए हैं धनुष-बाण? मच्छर वगैरह को भगाने के लिए? खटमलों को मारने के लिए?
तुम जो प्रश्न मुझसे पूछते हो, पहले अपने भगवानों से पूछ लिया करो। क्योंकि पहली तो बात यह कि हंसराज विश्नोई, मैं तुम्हारा भगवान नहीं। मुझसे तुम्हारा क्या नाता, क्या लेना-देना! तुम अपने भगवानों से पूछो कि आप धनुष-बाण लिए क्यों घूम रहे हैं? दिमाग खराब है? और धनुष-बाण साफ बता रहा है कि सुरक्षा का इंतजाम है। और कृष्ण ने जब चक्र घुमाया तो वह क्या था? सुरक्षा इंतजाम नहीं था तो और क्या था? परशुराम जीवन भर फरसा लेकर काटते रहे लोगों को और फिर भी तुम उनको भगवान माने चले जाते हो!
न तो मैं कोई धनुष-बाण लिए हुए हूं, न कोई फरसा लिए हुए हूं, इसमें क्या अड़चन है कि यहां थोड़ा सुरक्षा का इंतजाम हो?
लेकिन तुम्हारे दोहरे मापदंड हैं। अपनों को, जिन्होंने तुमको सदियों से संस्कार दिए हैं, तुम एक तरफ रखते हो, बचा लेते हो। मुझ पर तुम्हारे प्रश्न उठते हैं।
मुझे कोई अड़चन नहीं है सुरक्षा के इंतजाम से, क्योंकि मैं नहीं मानता कि कोई इस तरह का भगवान है, जिस तरह तुम्हारी धारणा है। भगवत्ता है, भगवान कोई भी नहीं है। भगवत्ता एक अनुभूति है।
और यह मैं जानता हूं कि आत्मा नहीं मरती। मगर यह जो सुरक्षा के लिए आयोजन है, यह कोई आत्मा को बचाने के लिए आयोजन है भी नहीं। लेकिन शरीर तो मरता है। शरीर जन्मता है और शरीर मरता है। और कोई भी विचारशील व्यक्ति अपने शरीर का उतना उपयोग करना चाहेगा जितना कर सकता है। मेरे शरीर से मैं जो भी काम करना चाहता हूं, पूरा करना चाहता हूं। इस शरीर को बचाने की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए। कोई कारण नहीं; जो इसे प्रेम करते हैं वे बचाने की कोशिश करेंगे। जो चाहते हैं कि यह शरीर उनके काम और कुछ देर आ जाए, वे इसे बचाने की कोशिश करेंगे। मैं मूढ़तापूर्ण बातों में भरोसा नहीं करता।
अब तुमने पूछा है कि आपने कहा कि आप भगवान हैं।
भगवान का मेरा अर्थ समझने की कोशिश करो। भगवान से मेरा मतलब यह नहीं है कि मैंने यह दुनिया बनाई। इस तरह की मूर्खतापूर्ण दुनिया मैं बना नहीं सकता। यह जिम्मा लेने को मैं राजी नहीं हूं। यह अपराध मैं स्वीकार नहीं करूंगा।
और मजा यह है कि तुम मुझसे पूछते हो! तुमने कृष्ण से नहीं पूछा, राम से नहीं पूछा! यह राम ने दुनिया बनाई, सूरज को रोक सकते थे, और इनकी औरत को रावण भगा ले गया! गजब के सर्वशक्तिमान, बड़े सर्वज्ञ, बड़े सर्वव्यापी! अपनी औरत को भी न बचा सके, और क्या खाक बचाएंगे! सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान हैं, सर्वव्यापी हैं, और सोने के मृग को खोजने चल पड़े! बुद्धू से बुद्धू आदमी को भी शक होता कि कहीं सोने का मृग होता है!
मगर तुम यह प्रश्न उनसे नहीं पूछोगे। क्योंकि उनको तो तुम मान कर ही बैठे हुए हो, पूछने का सवाल ही नहीं उठता है।
और फिर सीता को लाया गया लंका से छीन कर तो उसकी अग्नि-परीक्षा ली गई, और ये सर्वज्ञ हैं! जब सर्वज्ञ हैं और सर्वव्यापी हैं, तो इनको यह पता ही होना चाहिए कि सीता ने कोई भी ऐसा काम नहीं किया है कि उसकी अग्नि-परीक्षा ली जाए। यह कैसी सर्वज्ञता है? इनको यह भी पता नहीं! इनको शक है कि कहीं सीता भ्रष्ट न हो गई हो! यह पुराना दकियानूसी पति का दिमाग कि कहीं सीता का सतीत्व नष्ट न हो गया हो!
सीता कहीं ज्यादा समझदार महिला मालूम पड़ती है। उसने नहीं कहा राम से कि तुम भी आ जाओ साथ ही साथ, दोनों निकल जाएं आग से! क्योंकि तुम भी इतने दिन अकेले रहे। और कोई अच्छे संग-साथ में रहे भी नहीं; अंदर-बंदर न मालूम कहां-कहां के, रीछ-भालू, पता नहीं क्या करते रहे, क्या हुआ क्या नहीं हुआ! और जब विवाह हुआ था तो साथ-साथ गांठ बांध कर चले थे, चलो इसमें भी गांठ बांध कर गुजर जाएं।
ये सर्वज्ञ हैं?
और तुम कहते हो कि सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं। और कृष्ण पूरी गीता में क्या समझा रहे हैं अर्जुन को? कि लड़! अर्जुन कहीं ज्यादा ज्ञानी मालूम होता है तुम्हारे हिसाब से। क्योंकि वह यह कह रहा है कि क्या सार है मरने-मारने में; आत्मा तो अमर ही है, अब नाहक इनके शरीरों को क्या मारना। मैं चला जंगल! मैं तो ध्यान करूंगा, समाधि साधूंगा। इसमें कुछ सार नहीं है। और कृष्ण की पूरी गीता इसी बात का आयोजन है कि तू लड़, उठा गांडीव!
कृष्ण को पता नहीं है कि आत्मा अमर है? कहते तो वे यही हैं कि न हन्यते हन्यमाने शरीरे! शरीर मरता है, आत्मा नहीं मरती। मगर उससे उन्होंने मतलब क्या निकाला है? उससे मतलब उन्होंने बहुत चालबाजी का निकाला है। चालबाजी का मतलब यह निकाला है कि मार, बेफिक्री से मार इनके शरीरों को! क्योंकि आत्मा तो मरती ही नहीं, इसलिए कोई हानि होनी नहीं है, हिंसा कुछ होनी नहीं है।
कृष्ण ने जितनी हिंसा का प्रतिपादन किया है, दुनिया में किसी ने भी नहीं किया। एडोल्फ हिटलर, चंगीजखान, तैमूरलंग, नादिरशाह--सब फीके पड़ जाते हैं। क्योंकि भला इन्होंने हिंसा की हो, लेकिन हिंसा का समर्थन इनके भीतर नहीं है। जानते तो ये हैं कि यह गलत कर रहे हैं। कृष्ण ने हिंसा करवाई और उसको एक दार्शनिक पूरा का पूरा आडंबर दिया। समझाया अर्जुन को यह कि मार बेफिक्री से! क्योंकि आत्मा मरती ही नहीं, मारने में हर्जा क्या है! ये तो मिट्टी के घड़े हैं, फोड़ दे! आत्मा दूसरे घड़ों में प्रवेश कर जाएगी।
तुम इन सारे लोगों को भगवान मानते रहे हो और मैं जब कहता हूं कि मैं भगवान हूं, तो तुम्हें अड़चन खड़ी होती है। और मेरे अर्थ को तुम सुनना भी नहीं चाहते, समझना भी नहीं चाहते। जब मैं कहता हूं मैं भगवान हूं, तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम भी भगवान हो। भगवत्ता हमारा स्वभाव है। यह और बात है कि कोई पहचान ले या न पहचाने। जो पहचान ले वह भगवान है; जो न पहचाने वह भी भगवान है, लेकिन उसे पता नहीं होगा। कोई सोया है, कोई जागा है; मगर सोने और जागने वाले के भीतर एक ही चेतना का वास है।
तो जब मैं कहता हूं मैं भगवान हूं, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं मैंने दुनिया बनाई। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं जैसा कृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होगी तब-तब मैं आऊंगा और रक्षा करूंगा।
पहली तो बात यह है कि जब वे पहली दफा आए थे, तब कौन सी रक्षा कर ली? अब क्या खाक रक्षा करेंगे! सच तो यह है कि कृष्ण की मौजूदगी के कारण जितनी अमानवीयता और जितनी हिंसा उस समय हुई, अब अच्छा ही होगा कि वे दुबारा न आएं, कृपा करें! जब आए थे तब भी कोई रक्षा नहीं हो गई धर्म की, अब क्या खाक रक्षा कर लेंगे धर्म की आकर!
मैं कोई दावा नहीं करता धर्म की रक्षा का, और न ही दावा करता हूं कि मैं कोई अवतार हूं। उधार बातें मुझे पसंद नहीं। मैं क्यों विष्णु का अवतार होऊंगा? विष्णु मेरे अवतार नहीं हैं, मैं उनका अवतार नहीं हूं। मैं किसी का अवतार नहीं हूं। मैं किसी की रक्षा के लिए आया नहीं हूं। मुझे किसी धर्म की रक्षा नहीं करनी है। मुझे तुम्हें किसी पाप से नहीं बचाना है। मैं आनंदित हूं। मैंने अपने को जाना और मैं आनंदित हूं। और मेरे आनंद का यह हिस्सा है कि तुम्हें भी मैं अपने आनंद से परिचित करा दूं। फिर तुम्हारी मौज है। तुम स्वीकार करो न करो, वह तुम्हारी मालकियत है।
और तुम कहते हो कि आपको पूजा की आकांक्षा है।
अगर मुझे पूजा की आकांक्षा हो, तो तुम सोचते हो मुझे कोई अड़चन है? रोज पूजा करवा सकता हूं। रोज फूल चढ़वा सकता हूं। रोज आरती उतरवा सकता हूं। इसमें अड़चन क्या है? पत्थरों की आरती उतर रही है तो जिंदा आदमी में क्या अड़चन है आरती उतरवाने की? वह जो मेरी माला है, उसमें जो तस्वीर अटकाई हुई है, वह सिर्फ भारतीय भोंदुओं को चौंकाने के लिए, और कुछ भी नहीं। एक मजाक है, और कुछ भी नहीं। लेकिन मजाक को समझने के लिए भी थोड़ी बुद्धि चाहिए।
न तो मैं किसी को कह रहा हूं कि मेरे पैर छुओ; न मैं किसी को कह रहा हूं मेरी पूजा करो। मैं तो आता भी हूं तो मैं चाहता नहीं कि कोई उठ कर खड़ा हो। शायद यह भारत में होने वाली पहली धर्मसभा होगी जहां आने पर गुरु के शिष्य बैठे रहते हैं। तुमने कहीं कोई सभा देखी जहां गुरु आए और शिष्य बैठे रहें? यह शायद पहली सभा होगी भारत के पूरे इतिहास में जहां गुरु हाथ जोड़ कर तुम्हें नमस्कार करता है। क्या पूजा? किसकी पूजा?
मगर बंधी हुई धारणाएं लेकर आओगे तो अड़चन होती है। और बंधी हुई धारणाएं लेकर आ जाते हो, तो वंचित रह जाओगे उससे जो यहां घट रहा है। यहां बहुत कुछ घट रहा है।
इस तरह की छोटी-छोटी बातें, हंसराज विश्नोई, छोड़ो। कुछ समझने की कोशिश करो। यहां एक मंदिर नहीं बन रहा है, यह तो एक मधुशाला है। यहां न कोई आराध्य है, न कोई आराधक।
ऋतुओं के आंगन में फिर शायद न लौटे,
आओ, प्राणों से यह पाहुन-क्षण जी लें।
क्या भरोसा, कल हो न हो!
ऋतुओं के आंगन में फिर शायद न लौटे,
आओ, प्राणों से यह पाहुन-क्षण जी लें।
कल को झर जाने दें झरते पत्तों के संग,
वासंती धूप अंजुरी भर-भर कर पी लें।
छाल-पत्र छोड़ खुली नभ में चंपई बांहें,
अंधी अंतस की एक सख्त पर्त छीलें।
शब्द-शर्करा घुलने दें पल के प्याले में,
धीरे-धीरे चुप्पी-रस की चुस्की लें।
लो, ऊपर उठ मंडराए, कुछ भूरे पतझरी पात,
नीम से उतरीं, कुछ चकराती पीली चीलें।
देहरी से तके पीपल को, रोज फागुनी किशोरी,
आंखों को चुभ-चुभ जाएं कुछ नर्म कोंपल कीलें।
वर्जित खत बांच लिया, छुप कर क्वांरी कलियों ने,
अब टूटी वर्जन की, सब सर्द मुहर-सीलें।
फागुनी हवा को दिल दे बैठा आम का छोरा,
फिर काम न आएं, बूढ़े बरगद की तर्क-दलीलें।
पिघली शिखरों की बर्फ, लौटे पाहुन पांखी,
समाधिस्थ आंखों सी हुईं, शून्य-शांत झीलें।
आओ, प्राणों से यह फागुन-क्षण जी लें।
आओ, प्राणों से यह फागुन-क्षण जी लें।
आज इतना ही।
भगवान, आप पर यह आरोप लगाया जाता है कि आपके पास कोई नया विचार या जीवन-दर्शन नहीं है। और यह भी आलोचना की जाती है कि एक ओर आप स्वयं गीता, बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों द्वारा प्रतिपादित धर्मों को नहीं मानते, फिर आप उनके विचारों की चोरी क्यों करते हैं? भगवान, निवेदन है कि इस विषय में कुछ कहने की अनुकंपा करें।
सत्य वेदांत, विचार कभी भी नया नहीं होता। विचार का स्वभाव ही उसे नया नहीं होने दे सकता। मौलिकता और विचार विपरीत आयाम हैं। विचार तो हमेशा ही बासा होता है; क्योंकि शब्द बासे होते हैं, भाषा बासी होती है।
अनुभूति मौलिक होती है। जीवन-सत्य का साक्षात्कार मौलिक होता है। लेकिन जैसे ही जीवन-सत्य को भाषा का वेश दिया, जैसे ही जीवन-सत्य को अभिव्यक्ति दी, वैसे ही उसकी मौलिकता आच्छादित हो जाती है।
इसलिए जो लोग कहते हैं कि मेरे पास कोई नया विचार नहीं, वे सोचते होंगे मेरी आलोचना कर रहे हैं, लेकिन वस्तुतः अनजाने वे मेरे सत्य का प्रचार कर रहे हैं।
मैंने कभी कहा नहीं कि विचार मौलिक होता है। मैंने कभी कहा नहीं कि यह विचार मेरा है। मैं कैसे मौलिक होगा? मैं तो उधार है। मेरा का भाव भी उधार है। लेकिन मैं और मेरे के पीछे भी कुछ है--चैतन्य है, साक्षी है। और उस चैतन्य में जागना, उस चैतन्य में डूबना, उस चैतन्य से आपूरित हो जाना--वह मौलिक है, वह कभी भी बासा नहीं, वह कभी उधार नहीं। लेकिन वहां मैं की कोई सीमा नहीं, वहां मैं की कोई पहुंच नहीं। इसलिए जो मौलिक है वह अस्तित्व का है; और जो उधार है वह अहंकार का है।
अब मेरी भी मजबूरी है। और मेरी ही नहीं, जिन्होंने जाना उन सबकी यही मजबूरी रही। बोलना तो पड़ेगा भाषा में, क्योंकि जिनसे बोलना है उनके पास मौन को समझने की कोई क्षमता नहीं। जो जाना है वह मौन में जाना है, और जिनसे कहना है उन्हें मौन का कुछ पता नहीं। तो भाषा का उपयोग करना होगा। और भाषा का उपयोग किया कि अनुभूति की ताजगी गई, अनुभूति का जीवन गया। भाषा आई कि अनुभूति को मौत आई। अनुभूति तो ताजी होती है, जीवंत होती है, जैसे सुबह की ओस की ताजगी, नये-नये खिले फूल की ताजगी--लेकिन अनुभूति रहे अनुभूति तो ही; भाषा के वस्त्र पहनाए कि बस बात खोनी शुरू हो गई।
फिर और भी अड़चनें हैं। मैं जब कुछ कहूंगा तो तुम वही थोड़े ही सुनोगे जो मैंने कहा; तुम वह सुनोगे जो तुम सुन सकते हो। तुम्हारी बंधी धारणाएं हैं, तुम्हारे अपने पक्षपात हैं। उन्हीं पक्षपातों की आड़ से सुनोगे। सुनोगे नहीं--भाषांतर करते रहोगे, अपना रंग पहनाते रहोगे, अपना ढंग देते रहोगे। कहूंगा तो मैं, लेकिन सुनोगे तो तुम, और तुम आ जाओगे उस सब में जो मैंने कहा। तुम तक पहुंचते-पहुंचते वह बात मेरी न रह जाएगी, तुम्हारी हो जाएगी। और अगर तुमने फिर किसी को वह बात कही, तब तो सत्य हजारों कोस दूर छूट जाएगा।
पहली बात, मौन मौलिक है। मौलिक शब्द को समझो। मौलिक का अर्थ होता है: जो मूल से उगा, जो मूल से आया--मूल उदगम से, परम स्रोत से।
लेकिन भाषा तो मौलिक नहीं है, शब्द तो मौलिक नहीं हैं। शब्द आते हैं परंपरा से। शब्द आते हैं सदियों पुरानी यात्रा करके। उन पर न मालूम कितनी यात्रा की धूल जमी है। मगर उन्हीं शब्दों का उपयोग करना होगा, मजबूरी है, एक आवश्यक बुराई है।
सत्य वेदांत, तुमने जो पूछा है वैसे पत्र मेरे पास निरंतर आते हैं। जे.कृष्णमूर्ति के एक अनुयायी ने कुछ ही दिन पहले पत्र लिखा है कि मेरे विचारों में जे.कृष्णमूर्ति की झलक है।
जे.कृष्णमूर्ति को जो सुनता है, स्वभावतः उसे मेरे विचारों में जे.कृष्णमूर्ति की झलक मिल सकती है। लेकिन इस पूछने वाले को यह सवाल नहीं उठा कि जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में बुद्ध की झलक है या नहीं? और जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में लाओत्सु के विचारों की झलक है या नहीं? जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में उपनिषद की छाया है या नहीं? नहीं, यह सवाल नहीं उठा। उसका अपना पक्षपात है। जे.कृष्णमूर्ति मौलिक हैं। लेकिन मुझमें उसे जे.कृष्णमूर्ति के विचारों की झलक मिलनी शुरू हो गई। अपना पक्षपात थोप देने की आकांक्षा बड़ी प्रगाढ़ होती है।
मैं तो कहता नहीं कि मेरे विचार मौलिक हैं। जे.कृष्णमूर्ति का दावा है कि उनके विचार मौलिक हैं। और वह दावा गलत है; क्योंकि ऐसा एक भी विचार नहीं है जे.कृष्णमूर्ति का जो उपनिषदों में मौजूद न हो, जो बुद्ध की वाणी में मौजूद न हो, जिसे लाओत्सु ने और भी प्रगाढ़ता से न कहा हो। जे.कृष्णमूर्ति के विचारों में झेन सदगुरुओं की सहज पुनरुक्ति है। लेकिन जे.कृष्णमूर्ति जीवन भर यह कोशिश करते रहे हैं कि उनके विचार मौलिक हैं। इतना ही नहीं, अपने विचारों की मौलिकता को सिद्ध करने के लिए वे यह भी कहते हैं कि मैं सौभाग्यशाली हूं कि मैंने उपनिषद नहीं पढ़े, बुद्ध-वचन नहीं पढ़े, कोई धर्म-शास्त्र नहीं पढ़े।
यह बात सरासर झूठ है। क्योंकि जे.कृष्णमूर्ति को ये सारे शास्त्र पढ़ाए गए थे। पढ़े ही नहीं, बल्कि एनीबीसेंट, लीडबीटर और दूसरे थियोसॉफिस्टों ने कोई बीस वर्ष जे.कृष्णमूर्ति के ऊपर श्रम किया, ताकि वे सारे अस्तित्व में अब तक जो भी श्रेष्ठतम विचार हुए हैं, उनके मालिक हो जाएं। लेकिन यह दावा कि मेरे विचार मौलिक हैं, तभी सिद्ध किया जा सकता है जब इनकार ही कर दिया जाए कि मुझे पता ही नहीं कि उपनिषदों में क्या है।
मैं तो कहता नहीं कि मेरे विचार मौलिक हैं, इसलिए मेरी आलोचना करनी असंभव है। मेरी तो धारणा ही यही है कि विचार मौलिक होते ही नहीं--किसी के भी हों। अनुभूति मौलिक होती है। और अनुभूति एक ही सत्य की है, इसलिए क्या करोगे?
एक छोटे स्कूल में यह घटना घटी। दो छोटे बच्चे, जुड़वां भाई। अध्यापिका ने कुत्ते के ऊपर निबंध लिखने को कहा था। सारे बच्चे निबंध लिख कर लाए थे। वे दोनों बच्चे भी निबंध लिख कर लाए थे। अध्यापिका बहुत हैरान हुई, क्योंकि उनके दोनों निबंध शब्दशः एक जैसे थे, जरा सा भी भेद नहीं था। तो अध्यापिका ने पूछा कि यह आश्चर्य की बात है, तुम दोनों ने निबंध बिलकुल एक जैसा लिखा है, एक मात्रा का भी भेद नहीं है।
उन दोनों बच्चों ने कहा, हम कर भी क्या सकते हैं! हमारे घर में दोनों का एक ही कुत्ता है, उसी का वर्णन कर रहे हैं। और ऊपर से यह भी मुसीबत है कि हम जुड़वां भाई हैं, इसलिए हमारे देखने और सोचने का ढंग भी एक ही जैसा है। इसमें हमारा कोई कसूर नहीं।
मैं नहीं कहता हूं कि कृष्णमूर्ति ने उपनिषद से विचार चुराए हैं; वह बात गलत होगी। लेकिन उपनिषद के ऋषियों ने जो सत्य जाना, वह सत्य ही एक है। फिर बुद्ध जानें उसे, जरथुस्त्र जानें उसे, नानक जानें उसे, कबीर जानें उसे, कृष्णमूर्ति जानें उसे, या तुम जानो, कुछ भेद न पड़ेगा। थोड़े-बहुत भेद हो सकते हैं अभिव्यक्ति के, लेकिन मूलतः भेद नहीं हो सकता।
सत्य एक है। और सत्य के जानने की विधि भी एक है--अहंकार का विसर्जन, मन से मुक्ति। जहां मन न रहा, वहां सत्य प्रकट होता है।
अब यूं समझो कि एक अंधे आदमी की आंख खुले, तो क्या उसे कुछ प्रकाश में दूसरा अनुभव होगा जैसा कि पहले अंधे आदमियों की आंखें खुली थीं तो उनको भी वही प्रकाश का अनुभव हुआ था? क्या तुम यह कहोगे कि यह अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में जो कह रहा है, यह उधार है, यह दूसरों की बातें दोहरा रहा है?
मगर प्रकाश एक है, आंख के देखने का ढंग एक है। जब भी कोई अंधा आदमी आंख पाएगा, तो क्या करेगा--वही रंग, वही प्रकाश, वही चांद, वही तारे, वही सूरज। थोड़ा अंदाजे-बयां और हो सकता है। लेकिन बयान का ढंग, अंदाज, मौलिक भेद नहीं पैदा करता।
कृष्णमूर्ति का दावा गलत है कि विचार मौलिक हैं। अनुभूति मौलिक है। मैं जो कह रहा हूं, अपनी अनुभूति से कह रहा हूं। यह और बात है कि औरों को भी यह अनुभूति हुई है। मैं यह दावा नहीं कर रहा हूं कि यह अनुभूति मुझे ही हुई है, पहली बार ही हुई है। उपनिषद के ऋषियों को भी हुई थी, कृष्ण ने भी जानी थी, महावीर ने भी पहचानी थी, बुद्ध भी उसी में डूबे थे, मीरा उसी में नाची थी, गाई थी, गुनगुनाई थी।
इसलिए जो लोग सोचते हैं कि मेरी आलोचना कर रहे हैं, वे गलती में हैं; वे मेरे सत्य की ही उदघोषणा कर रहे हैं। हां, मैंने अगर कहा होता कि मेरे विचार मौलिक हैं, तो आलोचना सार्थक हो सकती थी। यह आलोचना तो मूढ़तापूर्ण है। मैं तो खुद ही कहता हूं कि विचार मौलिक हो ही नहीं सकते हैं, मेरे-तेरे का सवाल ही नहीं है।
दूसरी बात तुमने पूछी कि वे कहते हैं कि आपका जीवन-दर्शन भी नया नहीं।
नये की बात कर रहे हो, मेरा कोई जीवन-दर्शन ही नहीं। मैं जीवन को पर्याप्त मानता हूं। जीवन-दर्शन जीवन को जीने में बाधा बनता है, सहयोगी नहीं।
जीवन-दर्शन का क्या अर्थ होता है? कि हमने जीवन के प्रति कोई रुख अख्तियार किया, कि देखने की कोई शैली अख्तियार की, कि हमने एक ढांचा बनाया। अब हम इस ढांचे में ही ढाल कर जीवन को जीएंगे और देखेंगे। कि हमने एक चौखट बिठा दी जीवन के ऊपर। और हमारे लिए चौखट इतनी मूल्यवान है कि जीवन रहे कि जाए, मगर चौखट बचानी होगी।
मेरा कोई जीवन-दर्शन नहीं है। मैं तो कहता हूं जीवन पर्याप्त है, किसी दर्शन की कोई जरूरत नहीं। दर्शन ही तो बाधा है। जब तुम जैन जीवन-दर्शन को लेकर चलोगे तो तुम जीवन से परिचित नहीं हो पाओगे। या हिंदू जीवन-दर्शन को लेकर चलोगे तो वही बाधा बनेगी, वही तुम्हारी आंखों को अंधा करेगा। क्योंकि तुमने जीवन को बिना पहचाने, जीवन से बिना अपना सरगम जोड़े, परंपराओं से, शास्त्रों से, रीति-रिवाजों से, औरों से--जो तुम जैसे ही अंधे हैं--कुछ कचरा इकट्ठा कर लिया। अब तुम उस कचरे के ही आधार पर जीवन की तलाश में चले हो।
जीवन को वही जान पाता है जो निर्विचार है, और जीवन-दर्शन तो विचार होगा। जीवन की पहचान किसे होती है? जो जीवन के पास निर्दोष जाता है। और जीवन-दर्शन कभी निर्दोष नहीं हो सकता। यूं समझो कि किसी का जीवन-दर्शन है नास्तिक का, तो उसने पहले से ही तय कर लिया कि ईश्वर नहीं है। है या नहीं, यह और बात। जाना नहीं, खोजा नहीं, पहचाना नहीं--तय कर लिया कि ईश्वर नहीं है। कैसे तय कर लिया, यह भी आश्चर्य है। तर्क किया होगा, लोगों की बातें सुनी होंगी। मान लिया कि ईश्वर नहीं है। अब यह व्यक्ति क्या अन्वेषण कर सकेगा? अगर करेगा भी तो इसका अन्वेषण घूम-फिर कर इसकी धारणा को ही सिद्ध करेगा।
एक आदमी पागल हो गया था। पागलपन भी उसका बड़ा अजीब था। बहुत बीमार था और चिकित्सकों ने कह दिया कि अब बचने की उम्मीद नहीं। परिवार के लोग इकट्ठे हो गए, मित्र, प्रियजन, पड़ोसी आ गए। इधर घड़ी की टक-टक और उधर आदमी का डूबता जाना। चिकित्सकों ने तो समय भी बता दिया था कि ठीक छह बजे आदमी मर जाएगा। उसको भी पता था। वह भी घड़ी पर आंखें लगाए था। ठीक छह बजे उसने आंखें बंद कर लीं। मरा तो नहीं। मगर जीवन-दर्शन, एक पक्की धारणा। थोड़ा शक-शुबहा भी हुआ, हिल-डुल कर भी देखा, थोड़ी-बहुत आंख भी खोल कर देखी होगी कि घड़ी भी दिखाई पड़ती है, लोग भी दिखाई पड़ते हैं।
लेकिन पत्नियों को तो आप जानते ही हैं। पत्नी पास में ही बैठी थी, उसने कहा, आंख बंद करो! अरे मर कर और आंख खोलते हो, शर्म नहीं आती? और जब चिकित्सक ने कहा है, और सबसे बड़े चिकित्सक ने कहा है, और हजार रुपया फीस भरी है, तो कोई झूठ थोड़े ही कहेगा। तुम मर चुके। और ऐसा कोई पति है जो पत्नी की न माने? मान लिया बेचारे ने। मर गया बेचारा।
मगर ऐसे कहीं मौत आती है। आंखें बंद किए पड़ा है। रात भर यूं ही पड़ा रहा। लेकिन मोहल्ले के लोगों ने इनकार कर दिया कि इसको हम जलाएंगे नहीं, यह आदमी जिंदा है। मजबूरन पत्नी को भी मानना पड़ा, चिकित्सक को भी बुलाना पड़ा। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। वह आदमी रात भर इसी जीवन-दर्शन में जीया कि मैं मर चुका, कि मैं मर ही चुका। सुबह जब चिकित्सक ने कहा कि भाई गणित बैठा नहीं, निदान ठीक नहीं आया, चमत्कार समझो, ईश्वर की अनुकंपा समझो, तुम बच गए।
उसने कहा, अब देर हो गई। मैं तो मर चुका। आप किससे बातें कर रहे हैं?
चिकित्सक ने कहा, तुम जिंदा हो।
उस आदमी ने कहा कि आप वहम में हैं। हो सकता है मैं भूत हो गया होऊं, प्रेत हो गया होऊं। मुझे भी शक होता था पहले, लेकिन अब मुझे पक्का भरोसा आ गया है कि मैं मर चुका हूं।
अब एक मुसीबत खड़ी हुई कि इसे कैसे भरोसा दिलाया जाए कि यह आदमी जिंदा है। पत्नी ने चिकित्सक से कहा कि आपने ही यह झंझट खड़ी की, अब आप ही सुलझाओ। और जो फीस लेनी हो ले लेना, मगर इसका जीवन-दर्शन बदलो। वह उठे ही नहीं। नाश्ता तैयार है, वह उठे ही नहीं। दफ्तर जाने का वक्त हो गया है, वह उठे ही नहीं। सच पूछो तो उसे मजा भी बहुत आने लगा कि यह भी खूब रही! न दफ्तर जाना है, न कोई चिंता, न कोई फिक्र, अपने बिस्तर पर लेटे हैं। यह तो जीवन से भी बेहतर हो गया। अरे तड़फते थे एक-एक दिन के लिए छुट्टी मिल जाए, यूं छुट्टी मिल गई सारी चिंताओं से।
मगर पत्नी-बच्चे परेशान, रिश्तेदार परेशान, चिकित्सक के पीछे पड़े कि अब तुम ही कुछ करो। चिकित्सक ने बहुत समझाया, सब तरह से समझाया, मगर वह आदमी माने ही न। आखिर चिकित्सक ने कहा, एक काम करो। उठाया उसे, बामुश्किल चार आदमियों ने सहारा देकर उठाया, और कहा कि मैं तुमसे एक बात पूछता हूं। जब आदमी मर जाता है, तो अगर उसका हाथ काटो या छुरी से कहीं निशान बनाओ तो खून निकलता है या नहीं?
उस आदमी ने कहा, मरे हुए आदमी से कैसे खून निकलेगा? खून तो पानी हो जाता है।
चिकित्सक ने कहा कि तब ठीक है। अब तुम आओ दर्पण के सामने। उसको पकड़ कर दर्पण के सामने लाया गया। वह तो आता ही नहीं था। वह तो कहे, मैं कैसे आऊं? अरे मरे आदमी ने कभी दर्पण देखा है? कभी सुना है, कोई उल्लेख है? मगर पकड़ कर लाया गया, तो मुर्दा था तो रुक भी नहीं सकता था, आना पड़ा। चिकित्सक ने उठाया चाकू और उसके हाथ को जरा सा काटा, खून निकलने लगा। दिखाया कि देख, आईने में देख, हाथ में देख, खून गिर रहा है। अब तेरा क्या कहना है?
उस आदमी ने कहा कि इससे सिद्ध होता है कि वह धारणा गलत थी कि मरे आदमी में खून नहीं होता। होता है! इससे सिद्ध हो रहा है कि आदमी मर जाता है, मगर खून नहीं मरता।
जब तुम्हारी एक धारणा मजबूत हो जाती है, जब तुम उसे जकड़ कर पकड़ लेते हो, तो तुम हर चीज को उसी ढांचे में ढालना शुरू कर देते हो।
मैं जीवन-दर्शन तो सिखाता ही नहीं। मेरा कोई जीवन-दर्शन नहीं। जीवन पर्याप्त है। दर्शन की क्या जरूरत? दर्शन का क्या अर्थ हुआ? जीवन के ऊपर मन को आरोपित करना जीवन-दर्शन है। दर्शन यानी धारणाएं, दृष्टिकोण, सिद्धांत, शास्त्र; जीवन को उसकी नग्नता में न देखना, बल्कि सजावट करनी, अपना ढंग देना; ऐसा देखना जैसा कि तुम देखना चाहते हो।
मैं न तो नास्तिक हूं, न मैं आस्तिक हूं, न मैं धार्मिक हूं, न मैं अधार्मिक हूं; न मैं हिंदू हूं, न मुसलमान हूं, न जैन हूं, न ईसाई हूं, न पारसी हूं; क्योंकि ये सारी की सारी बातें जीवन को जानने में बाधा हैं। और यहां मैं कोई जीवन-दर्शन नहीं सिखा रहा हूं। यहां केवल इस बात की तुम्हें समझ दे रहा हूं कि छोड़ दो जीवन-दर्शन, ताकि जीवन को पा सको, ताकि खालिस जीवन अपने शुद्धतम रूप में तुम्हें आच्छादित कर ले।
वही जीवन सत्य है। जीवन-दर्शन सब झूठ, सब आदमी की कल्पनाएं, मनगढ़ंत। जीवन सत्य है। जीवन था हम नहीं थे तब थी। जीवन रहेगा हम नहीं होंगे तब भी। लेकिन जीवन-दर्शन तो बनाए गए और मिट जाते हैं। यूं समझो कि अगर बुद्ध न होते तो दुनिया में कोई बौद्ध जीवन-दर्शन नहीं होता। जीवन तो होता, मगर बौद्ध जीवन-दर्शन नहीं होता। अगर महावीर न होते तो जैन जीवन-दर्शन नहीं होता। अगर जीसस न होते तो ईसाई जीवन-दर्शन नहीं होता। मगर जीवन होता।
और बहुत से जीवन-दर्शन दुनिया में रहे हैं और खो गए। आज उनका कोई मानने वाला भी नहीं, कोई एक भी मानने वाला नहीं। जब थे, जैसे यूरोप में मिथ्र का जीवन-दर्शन था। वह परम देवता था और करोड़ों उसके भक्त थे, लेकिन आज एक भी नहीं। खो गई बात। बहुत से दर्शन बने और बिगड़े। दर्शन तो पानी पर खींची गई लकीरें हैं, शब्दों के जाल हैं, होशियार और चालाक आदमियों के सिद्धांतों के महल हैं। लेकिन सिद्धांतों के महल और ताश के पत्तों के महल में कुछ फर्क नहीं होता। जरा सा हवा का झोंका और सब बिखर जाता है।
मैं जीवन सिखाता हूं, जीवन-दर्शन नहीं। और वही मेरे संबंध में इतने विरोध का कारण है। काश, मैं भी तुम्हें कोई जीवन-दर्शन समझाता तो कोई अड़चन न होती। कम से कम उस जीवन-दर्शन को मानने वाले लोग तो मेरे साथ होते। अगर मैं हिंदू जीवन-दर्शन की बात करता तो हिंदुओं के अहंकार को तुष्टि मिलती, परितोष मिलता, पोषण मिलता। हिंदू उदघोषणा करते मेरे महात्मा होने की, अवतार होने की, संत, ऋषि-मुनि। लेकिन चूंकि मैं कोई हिंदू जीवन-दर्शन का समर्थन नहीं करता हूं--हिंदू नाराज। जैन नाराज, बौद्ध नाराज, ईसाई नाराज।
इस नाराजगी का कारण क्या है? ये सारे लोग एक साथ नाराज! आस्तिक ही नाराज नहीं, नास्तिक भी नाराज! भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी प्रस्ताव करती है मेरे विरोध में। क्या होगा कारण इसका? कारण बहुत सीधा-साफ है। कारण है कि मैं चाहता हूं कि तुम सभी जीवन-दर्शनों के जाल से मुक्त हो जाओ, ताकि जीवन तुम्हारे हृदय पर सरगम छेड़ सके; ताकि जीवन तुम्हारे पैरों में घुंघरू बांध सके; ताकि जीवन जैसा है, अपनी सहजता में, अपनी समग्रता में, तुम्हें आच्छादित कर ले, आंदोलित कर दे।
लेकिन ये सारे जीवन-दर्शनों को मानने वाले लोग जीवन से घबड़ाते हैं। इन्हें डर है कि कहीं इनकी धारणाएं न टूट जाएं। और इनका डर एक अर्थ में सही है। अगर तुम जीवन को उसकी सहजता में जीओगे तो हजारों की धारणाएं टूटेंगी। क्योंकि जीवन को उसकी सहजता में जीने का अर्थ है कि तुम हजारों तरह की मूढ़ताओं से मुक्त हो जाओगे। क्या-क्या मूढ़ताएं हैं!
मेरे गांव में एक बड़े पंडित थे। उनका घर अड्डा था साधु-संतों का। मेरे पिता के मित्र थे, सो कभी-कभी मैं उनके घर पहुंच जाता था। खास कर जब साधु-संत वहां होते, मैं जरूर पहुंच जाता। वे मुझे देखते ही से घबड़ाते थे। वे पहले ही खबर भेज देते थे कि घर में साधु-संत हैं, आज कृपा करके न आना। मैं उनसे पूछता कि साधु-संत मुझसे क्यों घबड़ाते हैं? तो वे कहते, तुम इस तरह की बातें पूछ देते हो कि उनको अड़चन होती है। मैंने कहा, लेकिन बातें, अगर उनके उत्तर नहीं हैं उनके पास, तो उन्हें छोड़ना चाहिए।
यह बात एक दिन मेरी उनसे हो ही रही थी कि भीतर से करपात्री महाराज बाहर आए। वे वहां ठहरे हुए थे। आकर बैठे, उनको जम्हाई आई करपात्री महाराज को। सो जम्हाई आते से ही उन्होंने दो बार चुटकी बजाई। मैंने पूछा, अब मैं कुछ बोलूं कि न बोलूं? यह चुटकी क्यों बजाई? जम्हाई तक बात समझ में आती है कि चलो ठीक है। साधु-संत हैं, ब्रह्ममुहूर्त में जगे होंगे, नींद आ रही है। ब्रह्ममुहूर्त में जो जगेगा उसको नींद आएगी ही। वहां तक समझ में आता है। रात ज्यादा देर तक भजन-कीर्तन किया होगा, स्वाध्याय, मनन, चिंतन, निदिध्यासन किया होगा। क्या-क्या नहीं करना पड़ता! छोटी रात और साधु को क्या-क्या नहीं करना पड़ता! मगर ये चुटकी क्यों बजाते हैं? और मैंने कहा कि मैं आपसे नहीं पूछ रहा हूं--पंडित जी से कहा। मैंने कहा, मैं उन्हीं से पूछता हूं कि आप चुटकी क्यों बजाते हैं?
उन्होंने कहा, इसका राज है। जब आदमी जम्हाई लेता है तो मुंह खुलता है। अगर चुटकी न बजाओ, भूत-प्रेत भीतर प्रवेश कर जाते हैं।
अब ये मूढ़! इस तरह के मूढ़ों से यह देश भरा हुआ है।
बौद्धों के एक शास्त्र में यह उल्लेख है: जब बौद्ध भिक्षु मल-विसर्जन के लिए जाए तो आवाज न करे, किसी तरह की आवाज न करे। क्यों? क्योंकि आवाज करने से, जो भूखे भूत-प्रेत वहां मौजूद होते हैं...भूखे भूत-प्रेत मल-मूत्र पान करते हैं।
मैं तो बहुत हैरान हुआ। मैं तो सोचता था, ये मोरारजी देसाई ने बड़ी मौलिकता की है। यह दो हजार साल पुराना ग्रंथ! मतलब मलजी भाई मूत्तरजी भाई देसाई पहले भी होते रहे। अब मर गए हैं, भूत-प्रेत हो गए हैं, मगर आदत नहीं छूटी। आदतें छूटती ही नहीं।
तो भी मैंने सोचा कि ठीक है करने दो, उनको मल-मूत्र भोजन करना है तो करने दो, तुम्हारा क्या बिगड़ता है? मगर सवाल यह है कि अगर उनको तुम्हारा मल-मूत्र पसंद आ गया तो वे तुम्हारा पीछा करेंगे। वे ऐसे ढंग करेंगे कि तुमको दिन में कई बार मल-मूत्र त्याग करना पड़े। स्वभावतः पेचिस की बीमारी कर दें, डायरिया हो जाए, हैजा हो जाए। इससे बचने के लिए बौद्ध भिक्षु को जरा भी आवाज नहीं करनी चाहिए, ताकि भूखे भूत-प्रेत शांत रहें। उनको पता ही न चले कि क्या हो रहा है। चुपचाप अपना कार्य करके एकदम निकल भागना चाहिए।
अब इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातें अगर मानोगे तो स्वभावतः भय पैदा होगा। और फिर इनके अनुसार तुम जीओगे। ये तुम्हारे जीवन-दर्शन हैं। चाहे तुम्हारे ईश्वर के सिद्धांत हों और चाहे तुम्हारे भूत-प्रेतों के सिद्धांत हों, कुछ बहुत भेद नहीं है। हवा में मकान बना रहे हो।
मैं किसी तरह के सिद्धांत तुम्हें नहीं देता हूं। मैं तो तुमसे सारे सिद्धांत छीन लेना चाहता हूं, सारे सिद्धांतों का कचूमर निकाल देना चाहता हूं कि बना लो उनकी चटनी।
जीवन काफी है। जीवन पर्याप्त है। जीवन परम सुंदर है। जीवन परम भगवत्ता है। तुम्हारे सिद्धांतों की कोई जरूरत नहीं। इसलिए मेरा कोई जीवन-दर्शन तो है ही नहीं।
सत्य वेदांत, तुमने पूछा कि और वे यह भी आलोचना करते हैं कि एक ओर आप स्वयं गीता, बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों द्वारा प्रतिपादित धर्मों को नहीं मानते, फिर आप उनके विचारों की चोरी क्यों करते हैं?
मैंने किसी की कभी कोई चोरी नहीं की। चोरी करने की जरूरत मुझे नहीं। मेरे पास अपनी अनुभूति है। यह और बात है कि मेरी अनुभूति कभी कुरान से मेल खा जाती हो। न तो मोहम्मद ने मेरे विचार चुराए हैं और न मैंने मोहम्मद के विचार चुराए हैं। लेकिन अनुभूतियां मेल खा सकती हैं। अब इसमें मैं क्या कर सकता हूं! सागर को कोई भी चखेगा तो खारा है। मैंने भी चखा और खारा पाया; अगर कुरान भी कहती है कि खारा है तो अब मैं क्या करूं? क्या सिर्फ इसीलिए कह दूं कि मीठा है कि कहीं कोई यह न समझ ले कि कुरान के विचार की चोरी हो गई?
जहां मेरी अनुभूति मेल खाती है, फिर चाहे वे कृष्ण हों, चाहे मोहम्मद हों, चाहे महावीर हों, चाहे कबीर हों, चाहे नानक हों, जहां मेरी अनुभूति किसी से मेल खाती है, वहां मेल खाती है। कोई उपाय नहीं। और जहां मेल नहीं खाती, वहां मैं कभी भी मेल बिठालने की कोशिश नहीं करता हूं। जहां मेल नहीं खाती, वहां मैं साफ घोषणा करता हूं कि मेरी अनुभूति यहां मेल नहीं खाती।
और मेरा दायित्व मेरी अनुभूति के प्रति है। मुझे किसी कुरान से लेना नहीं, देना नहीं। किसी गीता से मेरा कोई प्रयोजन नहीं। जहां मेरी अनुभूति मेल नहीं खाती, वहां मैं दो टूक हूं। वहां मैं साफ कहता हूं कि यहां मैं राजी नहीं हो सकता। उसी से तो इतनी नाराजगी है मेरे प्रति। उनकी आकांक्षा है: या तो मुझे सौ प्रतिशत राजी होना चाहिए और या फिर शून्य प्रतिशत। मगर यह मैं नहीं कर सकता हूं। यह अन्याय होगा सत्य के साथ, क्योंकि ऐसा नहीं है। वेदों में भी यद्यपि निन्यानबे प्रतिशत कचरा है, मगर एक प्रतिशत तो हीरे हैं।
अब मेरी मजबूरी यह है कि आर्यसमाजी चाहता है: या तो मैं कहूं कि सौ प्रतिशत हीरे हैं और या साफ कहूं कि सौ प्रतिशत कचरा है। मगर मैं दोनों बातों से राजी नहीं हो सकता। निन्यानबे प्रतिशत तो कचरा है। दयानंद उस निन्यानबे प्रतिशत कचरे को भी हीरा सिद्ध कर
ने की कोशिश करते हैं। वह जबरदस्ती कोशिश है। मार-ठोंक कर, अर्थ का अनर्थ करके, किसी भी भांति कुछ का कुछ अर्थ बिठा कर, उलटे-सीधे तर्कों के आधार पर, सभी सुंदर है, इसकी चेष्टा की जाती है।
मगर मेरा मानना यह है, यह सत्य के प्रति अन्याय है। जो कचरा है वह कचरा है, वेद में हो या कहीं भी हो। अच्छा है कि हम साफ करें कि वह कचरा है। इसलिए भी अच्छा है, ताकि वे जो एक प्रतिशत हीरे हैं, वे कहीं कचरे में न खो जाएं। वे एक प्रतिशत हीरे बचाने योग्य हैं। वे हीरे अदभुत हैं। लेकिन निन्यानबे प्रतिशत कचरे को अगर हम आग न लगा सकें, तो कचरे का भार इतना है कि हीरे उसमें खो जाएंगे।
तो मैं उतने दूर तक राजी होता हूं किसी से भी। मुझे कोई अड़चन नहीं। मैं जीसस के साथ चलता हूं, मोहम्मद के साथ चलता हूं, बहाऊद्दीन के साथ चलता हूं, लाओत्सु के साथ चलता हूं, लेकिन वहीं तक जहां तक मेरी अनुभूति और उनकी अनुभूति तालमेल खाती है। अंततः तो मेरी अनुभूति ही मेरे लिए निर्णायक है।
और यही मैं तुमसे कहता हूं कि मेरे साथ भी तुम तब तक ही चलना जब तक तुम्हारी अनुभूति मेरी अनुभूति के साथ मेल खाए। जिस क्षण तुम पाओ कि तुम्हारी अनुभूति मेरी अनुभूति से मेल नहीं खाती, तुम मुक्त हो; तुम अपने मालिक हो; तब तुम्हें अपनी राह खोजनी है। मैं तुम्हें गुलाम नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हारे ऊपर अपने को थोप नहीं देना चाहता। उतनी दूर तक संग-साथ, जितनी दूर तक मेरी अनुभूति और तुम्हारी अनुभूति एक नृत्य में आबद्ध हों।
लेकिन जब तुम पाओ कि तुम्हारी अनुभूति अब एक अलग मार्ग लेती है, तो मैं तुमसे कहूंगा, मुझे छोड़ देना और अपनी अनुभूति के साथ जाना। क्योंकि अंततः तुम्हें अपने ही स्वभाव में जीना है। अंततः अपने स्वभाव की ही उदघोषणा करनी है। अंततः तुम्हारे भीतर ही बैठी भगवत्ता में फूल खिलाने हैं। तुम्हारा कोई दायित्व मेरे साथ नहीं है। सौभाग्य था कि थोड़ी दूर साथ चलना हुआ। थोड़ी दूर साथ गीत गाया। थोड़ी दूर मेरी बांसुरी में और तुम्हारे तबले में तालमेल रहा। ठीक, जितनी दूर तालमेल रहा, धन्यभाग! उसके लिए अनुग्रह! लेकिन जिस क्षण तुम पाओ कि तुम्हारे छंद ने अब अपनी अभिव्यक्ति लेनी शुरू कर दी, तुम्हारा छंद अब अपनी निजता में प्रकट होना चाहता है, तब तुम अपने छंद के साथ जाना। क्योंकि तुम्हारा छंद, तुम्हारे अंतर्तम का छंद, तुम्हारे और परमात्मा के बीच का सीधा जोड़ है। जब तक मैं तुम्हें तुम्हारे भीतर के परमात्मा को याद दिलाऊं, ठीक; लेकिन जहां बाधा बनने लगूं वहां मुझसे साथ छोड़ देना।
जो लोग कहते हैं कि मैं गीता, बाइबिल, कुरान आदि धर्मग्रंथों द्वारा प्रतिपादित धर्मों को नहीं मानता हूं...।
कुरान बड़ी किताब है। उसमें हजारों बातें हैं। उसमें ऐसी व्यर्थ की बातें भी हैं कि एक आदमी की चार स्त्रियां होनी चाहिए। अब मैं कैसे राजी हो जाऊं? मोहम्मद ने नौ विवाह किए। मैं राजी नहीं हो सकता। लेकिन कुरान में ऐसी बातें भी हैं कि परमात्मा प्रकाश है। इससे मैं कैसे इनकार कर दूं? परमात्मा प्रकाश है। यह मेरा भी अनुभव है। लेकिन परमात्मा का प्रकाश होना और मोहम्मद की नौ शादियां, और मुसलमानों को चार शादियों की आज्ञा देना, इनमें मैं कोई तालमेल नहीं देखता। परमात्मा होगा प्रकाश, लेकिन इससे नौ पत्नियों का क्या संबंध? इसमें कोई गणित है?
और यह बात बेहूदी है; यह स्त्रियों के साथ अनाचार है। दुनिया में स्त्रियों और पुरुषों की संख्या करीब-करीब बराबर है। इसलिए अगर हर आदमी चार स्त्रियों से विवाह करने लगे, तो तीन आदमी बिना पत्नियों के रह जाएंगे। और ये तीन आदमी कुछ न कुछ उपद्रव तो करेंगे--व्यभिचार होगा, अनाचार होगा, वेश्यावृत्ति फैलेगी। और अगर एक-एक आदमी नौ-नौ पत्नियों पर कब्जा कर ले, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दस आदमियों में एक के पास तो पत्नियां होंगी, बाकी नौ आवारा! क्योंकि पत्नी यानी घर। इसलिए उसको कहते हैं घरवाली। तुमने किसी पति को सुना कहते हुए कि ये घरवाले हैं? पत्नी है तो घर, और पत्नी नहीं है तो बेघर। एक आदमी नौ पत्नियों पर कब्जा कर ले तो बाकी तो आवारा हो गए।
कृष्ण ने तो हद कर दी--सोलह हजार पत्नियां! यह तो सारी दुनिया को बरबाद करने का हिसाब हो जाएगा। मैं इससे राजी नहीं हो सकता। लेकिन कृष्ण के बहुत से सूत्रों से मैं राजी हूं। प्यारे सूत्र हैं। जहां कृष्ण कहते हैं कि स्वधर्म में मर जाना श्रेयस्कर है; परधर्म भयावह है--मैं राजी हूं। स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः। कैसे इनकार करूं?
लेकिन खयाल रखना, स्वधर्म का मतलब हिंदू धर्म या मुसलमान धर्म या ईसाई धर्म नहीं होता। स्वधर्म का अर्थ होता है: जो तुम्हारी स्वयं की सत्ता है, जो तुम्हारा स्वभाव है। उसमें ही जीओ। उसमें ही जीओगे, तो ही तुम सत्य को पा सकोगे। अगर तुमने अपनी स्वजता को, अपनी निजता को इनकार किया और तुमने किसी और को अपने ऊपर ओढ़ा, कि तुम्हारा जीवन भय से भर जाएगा। तुम्हारा जीवन जीवन कम और मौत ज्यादा हो जाएगा।
मैं इस बात से राजी हूं, लेकिन इस बात को मैं इसकी पूरी तर्क-संगति तक ले जाना चाहता हूं। तुम कृष्ण को भी मत ओढ़ना, क्योंकि वह भी परधर्म होगा। तुम्हें बांसुरी बजानी आती न हो और खड़े हो जाओ बांसुरी बजाने, और बना लो नृत्य की मुद्रा, और पहन लो पीतांबर, और बांध लो घुंघरू कमर में, और लगा लो मोर-पंख अपने मुकुट में--सिर्फ बुद्धू मालूम पड़ोगे, और कुछ भी नहीं। रासलीला वगैरह हो रही हो तो ठीक, कहीं नाटक इत्यादि में भाग ले रहे होओ तो ठीक, मगर जिंदगी में ऐसा मत कर लेना।
मैं राजी नहीं हो सकता कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों से। और इन पत्नियों में बहुत सी दूसरों की पत्नियां थीं--जो जबरदस्ती छीन कर, युद्ध के द्वारा, चुरा कर, बेईमानी से, कपट से, हर तरह से लाई गई थीं। यह बात अमानवीय है।
मेरा निर्णय व्यक्तियों को देख कर नहीं है, मेरा निर्णय तो सत्य को देख कर है। कृष्ण के जीवन में बहुत कुछ है जिससे मैं राजी नहीं हो सकता। कृष्ण के जीवन में बेईमानी है, कूटनीति है, राजनीति है, जिससे मैं राजी नहीं हो सकता। हां, कृष्ण ने जो अदभुत सत्य कहे हैं, उनसे मुझे कोई इनकार नहीं है। कैसे इनकार करूं?
कृष्ण कहते हैं, आत्मा अमर है। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि! उसे शस्त्रों से छेदा नहीं जा सकता। नैनं दहति पावकः! उसे अग्नि में जलाया नहीं जा सकता। इससे मैं राजी हूं, सौ प्रतिशत राजी हूं।
लेकिन कृष्ण की बेईमानियां और कृष्ण की धोखेधड़ियां! कृष्ण ने वचन दिया था युद्ध में अस्त्र हाथ में नहीं उठाएंगे, और उठा लिया! अपने वचन को भी पूरा न कर सके। वचन के प्रति भी एक आबद्धता नहीं है।
तो मेरे सामने हमेशा यह सवाल है कि कितने दूर तक किस व्यक्ति को समर्थन दिया जा सकता है, किस शास्त्र को कितने दूर तक समर्थन दिया जा सकता है, उतने दूर तक मैं जरूर समर्थन देता हूं। जहां तक मेरा सत्य और उस शास्त्र का सत्य समान है, वहां तक मैं राजी हूं; लेकिन जहां मेरे सत्य के विपरीत कोई बात जाती है, वहां मेरा उत्तरदायित्व मेरे सत्य के प्रति है, किसी और के सत्य के प्रति नहीं है।
और यही मेरी देशना है मेरे संन्यासियों के लिए: मुझे भी अपवाद मत समझना। कोई आवश्यकता नहीं है कि तुम मुझसे सौ प्रतिशत राजी होओ। तुम्हारी अनुभूति, तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी समाधि जहां तक मुझसे तालमेल पा सके, बस वहीं तक, उसके आगे नहीं।
चोरी का तो कोई सवाल नहीं है। लेकिन जो लोग, सत्य वेदांत, इस तरह की बातें करते हैं, उनसे पूछना कि कृष्ण की गीता में बहुत से वचन हैं जो उपनिषदों के हैं। क्या कृष्ण ने चोरी की थी? कृष्ण की गीता में बहुत से वचन हैं जो वेदों के हैं। क्या कृष्ण ने चोरी की थी? बुद्ध के वचनों में बहुत से वचन हैं जो कि उपनिषदों के हैं। क्या बुद्ध ने चोरी की थी? जीसस के वचनों में बहुत से वचन हैं जो ठीक बुद्ध के वचनों का अनुवाद हैं। जीसस को तो बुद्ध की भाषा भी नहीं आती थी, और बुद्ध के शास्त्र भी शायद अपरिचित होंगे, जीसस पढ़े-लिखे भी नहीं थे। क्या जीसस ने चोरी की थी? कबीर और नानक जो कहते हैं, वह वही तो है जो सदियों से कहा गया है। क्या ये सब चोर हैं? अगर यूं चोरी का तय करना हो, तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
लेकिन इनमें से कोई भी चोर नहीं है। इन सबने अपने सत्य को पहचाना। लेकिन चूंकि सत्य एक है, इसलिए थोड़ा-बहुत भेद हो सकता है देखने वाले की दृष्टि के कारण, देखने वाले के चुनाव के कारण, देखने वाले की भाषा के कारण, अभिव्यक्ति के कारण; लेकिन चूंकि सत्य एक है, कितना ही भेद पड़े, तब भी मूलतः एक ही सत्य तो झलकेगा। उसी सत्य के अलग-अलग पहलू होंगे। भेद होगा तो गौण, मेल होगा तो मौलिक।
लेकिन धारणाओं से भरे हुए लोगों के साथ बड़ी मुसीबत है।
एक मित्र आ गए हैं--हंसराज विश्नोई। इन्होंने जो प्रश्न पूछे हैं, बहुत से प्रश्न पूछे हैं, उससे तुम्हें पता चलेगा कि भारतीय भोंदूपन किस गहराई तक नहीं उतर गया है। आत्मा तक में प्रविष्ट हो गया है।
पहला प्रश्न उन्होंने पूछा है: भगवान, आपने कहा कि आप भगवान हैं। भगवान सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी होता है। क्या आप सूर्य का उदय कुछ क्षण के लिए रोक सकते हैं? या सृष्टि में कोई परिवर्तन कर सकते हैं? कृपया बताएं। दूसरे प्रश्न में उन्होंने पूछा है कि भगवान कभी मरा नहीं, मर नहीं सकता, मरना असंभव है; फिर यहां आश्रम में इतनी सुरक्षा की व्यवस्था क्यों है? मेटल डिटेक्टर से क्यों हमें गुजरना पड़ता है? तीसरा प्रश्न पूछा है कि आपके भीतर मुझे पूजा की आकांक्षा मालूम पड़ती है कि आप चाहते हैं लोग आपको पूजें। अगर यह आकांक्षा नहीं है आपके भीतर तो माला पर आपका चित्र क्यों लगाया गया है?
हंसराज विश्नोई ने जो भी पूछा है, इसमें एक भी प्रश्न सार्थक नहीं है। मगर बंधी हुई धारणाएं हैं भीतर, उन्हीं बंधी हुई धारणाओं से प्रश्न उठने शुरू होते हैं। मगर वे पूछ कर अब फंस गए हैं, अब भाग न सकेंगे। मुझसे कुछ प्रश्न पूछना हो तो सोच-समझ कर पूछना चाहिए।
हंसराज विश्नोई, तुम्हें कैसे पता चला कि भगवान सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी है? कहीं मुलाकात हुई? भगवान है भी, यह भी तुम्हें पता है? कोई प्रमाण है तुम्हारे पास भगवान के होने का? आज तक कोई प्रमाण नहीं दे सका है। और जो भी प्रमाण दिए गए हैं, सब खंडित किए जा सकते हैं, जरा से तर्क की जरूरत है, जरा सी बुद्धि की जरूरत है।
अगर भगवान सर्वशक्तिमान है, तो हंसराज विश्नोई, तुम्हारा भोंदूपन कुछ कम बनाता। इतना तो कर देता, सूरज चाहे न रोकता। थोड़ी बुद्धि तो देता। इतनी गरीबी है दुनिया में, इतनी बीमारी है दुनिया में, आधी से ज्यादा दुनिया भूख से मर रही है, और तुम कहते हो भगवान सर्वशक्तिमान है! इसका तो मतलब यह हुआ कि वह इसी तरह चाहता है कि हो। ये भिखमंगे सड़कों पर, ये बिना दूध मिले हुए बच्चे, यह चारों तरफ फैली हुई भुखमरी और बीमारी और दारिद्य्र, जरूर सर्वशक्तिमान भगवान का प्रमाण देता है! गजब का सर्वशक्तिमान है! ये लंगड़े-लूले बच्चे क्यों पैदा होते हैं? ये अंधे बच्चे क्यों पैदा होते हैं? ये बुद्धि से रुग्ण बच्चे क्यों पैदा होते हैं? तुम्हारा सर्वशक्तिमान भगवान इतना भी नहीं कर सकता?
क्या तुम्हारे पास आधार है कि तुम कहो भगवान सर्वशक्तिमान है? और तुम तो यूं कह रहे हो जैसे कि बात बिलकुल सिद्ध ही है, कोई शक-शुबहा का सवाल नहीं है। कोई किंतु-परंतु नहीं है, साफ घोषणा है कि भगवान सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी होता है!
अगर भगवान सर्वज्ञ है तो यह दुनिया कुछ और ढंग की होनी चाहिए। यह सर्वज्ञ के द्वारा बनाई हुई दुनिया तो मालूम नहीं होती। सर्वज्ञ क्यों कैंसर बनाता है, क्या उसको इतनी भी अकल नहीं? क्यों क्षय-रोग बनाता है? सर्वज्ञ को कुछ तो बुद्धि होनी चाहिए--जो सभी कुछ जानता है, जिससे कुछ भी छिपा नहीं है! फिर यह सारा नरक जो तुम अपने चारों तरफ पा रहे हो, यह किसकी करतूत है? और तुम कहते हो भगवान सर्वव्यापी है।
हंसराज विश्नोई आए हैं हरियाणा से--मंडी डबवाली, हरियाणा। मतलब हरियाणा में भी है, मंडी डबवाली में भी है! तो फिर यहां किसलिए आए हो? वहीं मुलाकात ले लेते। सर्वव्यापी है, जहां चाहते वहीं चर्चा हो जाती।
मगर इस तरह की बातें हम पकड़ कर बैठ जाते हैं--बिना सोचे, बिना विचारे, बिना खोजे। और फिर इस तरह की बातों को हम दूसरों पर आरोपित करने लगते हैं।
मैं तुमसे स्पष्ट कहना चाहता हूं कि मैं कोई सर्वशक्तिमान नहीं हूं। तुम तो कह रहे हो कि आप सूरज को कुछ क्षण के लिए रोक सकते हैं?
मैं इस बिजली के पंखे को भी नहीं रोक सकता।
तुम पूछते हो, क्या आप सृष्टि में कोई परिवर्तन कर सकते हैं?
क्या परिवर्तन करवाने का इरादा है? सर्वशक्तिमान ने बनाई यह पृथ्वी, यह प्रकृति; सर्वज्ञ ने बनाई यह प्रकृति; सर्वव्यापी ने बनाई यह प्रकृति; अब मैं कुछ भी करूंगा तो बिगाड़ ही हो जाएगा। इसमें सुधार तो हो ही नहीं सकता। अब सर्वज्ञ से और ज्यादा सर्वज्ञ तो कोई कैसे होगा?
और तुम पूछते हो कि भगवान न कभी मरा, न मरा है, न मर सकता है।
सवाल पहले यह है कि जीया भी कभी? जीया हो तो मरता। जब जीया ही नहीं, तो मरेगा कैसे? जन्मा कब? बात हमेशा शुरू से करनी चाहिए। अगर जन्मा हो तो मरे। जन्म के बिना मृत्यु तो नहीं हो सकती। सो एक बात तो तय है कि जन्मा नहीं, जीया नहीं, मरेगा क्या खाक! मरना भी चाहे तो नहीं मर सकता। मरने के लिए होना चाहिए। पहले तुम्हें सिद्ध करना पड़ेगा कि है, जन्मा, कैसे जन्मा, किससे जन्मा, कौन मां-बाप हैं तुम्हारे भगवान के? और तब तो बड़ा लंबा सिलसिला शुरू हो जाएगा। फिर उनके मां-बाप होंगे, फिर उनके मां-बाप होंगे।
मगर इस तरह की मूढ़तापूर्ण बातों को लोग समझते हैं धार्मिक विचार।
और तुम मुझसे यह पूछ रहे हो, लेकिन यही बात तुमने कृष्ण से पूछी? राम से पूछी? बुद्ध से पूछी? महावीर से पूछी? तुम कृष्ण को भगवान कहते हो, कृष्ण मरे या नहीं? तुम बुद्ध को भगवान कहते हो, बुद्ध मरे या नहीं? तुम राम को भगवान कहते हो, राम मरे या नहीं? मेरे संबंध में तुम कुछ अलग नियम बनाना चाहते हो? मैं भी मरूंगा। और मरने में मुझे कोई बुराई नहीं मालूम पड़ती। मरने का भी मजा लेना होगा। जीना और मरना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
लेकिन बड़ा मजा यह है, इस देश की बुद्धि की जो प्रक्रिया है, बड़ी दोहरी है। अगर राम का सवाल उठाओ तो राम भगवान हैं, और तब कोई नहीं पूछेगा कि फिर मरे कैसे। और कृष्ण भगवान हैं, मरे कैसे! बुद्ध भगवान, महावीर भगवान--कोई भगवानों की तुम्हारे यहां कमी रही है! सब मर गए। उनमें से एकाध भी जिंदा है? जिंदा हो तो पकड़ कर लाओ।
और तुम पूछते हो कि यहां सुरक्षा का इतना इंतजाम क्यों है?
सुरक्षा का इंतजाम कोई मेरी मृत्यु को नहीं रोक सकता है। मेरी मृत्यु तो होगी। सुरक्षा का इंतजाम भी रहेगा और मृत्यु होगी। सुरक्षा का इंतजाम किसी और कारण से है। मैं मरना भी चाहता हूं तो अपने ढंग से मरना चाहता हूं; किसी बेवकूफ के हाथ से नहीं मरना चाहता। मेरा अपना जीवन का ढंग है, मेरे मरने का भी अपना ढंग होगा। जीता अपनी मौज से हूं, मरूंगा भी अपनी मौज से।
कृष्ण की मृत्यु हुई एक आदमी के पैर में तीर मार देने से। कृष्ण सोए थे वृक्ष के नीचे, विश्राम कर रहे थे, और एक शिकारी ने भूल से उनको तीर मार दिया, इस तरह मृत्यु हुई। बुद्ध की मृत्यु हुई विषाक्त भोजन से। एक आदमी ने भोजन खिलाया और भोजन विषाक्त था। महावीर की मृत्यु हुई पेचिस की बीमारी से। होनी ही चाहिए, ज्यादा उपवास जो करेगा उसका यह परिणाम होने वाला है, पेट खराब होगा।
मुझे कम से कम इतना तो हक है कि मैं अपने ढंग से मरूं।
और तुम पूछते हो कि यह सुरक्षा, अगर आप भगवान हैं, सुरक्षा की क्या जरूरत?
तो रामचंद्र जी जो धनुष-बाण लिए चलते हैं, तुम क्या उनको कोई कोल-भील समझे हुए हो? कि गणतंत्र दिवस पर भाग लेने दिल्ली जा रहे हैं, कि वहां जुलूस निकलेगा? वह काहे के लिए हाथ में रखे हुए हैं धनुष-बाण? मच्छर वगैरह को भगाने के लिए? खटमलों को मारने के लिए?
तुम जो प्रश्न मुझसे पूछते हो, पहले अपने भगवानों से पूछ लिया करो। क्योंकि पहली तो बात यह कि हंसराज विश्नोई, मैं तुम्हारा भगवान नहीं। मुझसे तुम्हारा क्या नाता, क्या लेना-देना! तुम अपने भगवानों से पूछो कि आप धनुष-बाण लिए क्यों घूम रहे हैं? दिमाग खराब है? और धनुष-बाण साफ बता रहा है कि सुरक्षा का इंतजाम है। और कृष्ण ने जब चक्र घुमाया तो वह क्या था? सुरक्षा इंतजाम नहीं था तो और क्या था? परशुराम जीवन भर फरसा लेकर काटते रहे लोगों को और फिर भी तुम उनको भगवान माने चले जाते हो!
न तो मैं कोई धनुष-बाण लिए हुए हूं, न कोई फरसा लिए हुए हूं, इसमें क्या अड़चन है कि यहां थोड़ा सुरक्षा का इंतजाम हो?
लेकिन तुम्हारे दोहरे मापदंड हैं। अपनों को, जिन्होंने तुमको सदियों से संस्कार दिए हैं, तुम एक तरफ रखते हो, बचा लेते हो। मुझ पर तुम्हारे प्रश्न उठते हैं।
मुझे कोई अड़चन नहीं है सुरक्षा के इंतजाम से, क्योंकि मैं नहीं मानता कि कोई इस तरह का भगवान है, जिस तरह तुम्हारी धारणा है। भगवत्ता है, भगवान कोई भी नहीं है। भगवत्ता एक अनुभूति है।
और यह मैं जानता हूं कि आत्मा नहीं मरती। मगर यह जो सुरक्षा के लिए आयोजन है, यह कोई आत्मा को बचाने के लिए आयोजन है भी नहीं। लेकिन शरीर तो मरता है। शरीर जन्मता है और शरीर मरता है। और कोई भी विचारशील व्यक्ति अपने शरीर का उतना उपयोग करना चाहेगा जितना कर सकता है। मेरे शरीर से मैं जो भी काम करना चाहता हूं, पूरा करना चाहता हूं। इस शरीर को बचाने की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए। कोई कारण नहीं; जो इसे प्रेम करते हैं वे बचाने की कोशिश करेंगे। जो चाहते हैं कि यह शरीर उनके काम और कुछ देर आ जाए, वे इसे बचाने की कोशिश करेंगे। मैं मूढ़तापूर्ण बातों में भरोसा नहीं करता।
अब तुमने पूछा है कि आपने कहा कि आप भगवान हैं।
भगवान का मेरा अर्थ समझने की कोशिश करो। भगवान से मेरा मतलब यह नहीं है कि मैंने यह दुनिया बनाई। इस तरह की मूर्खतापूर्ण दुनिया मैं बना नहीं सकता। यह जिम्मा लेने को मैं राजी नहीं हूं। यह अपराध मैं स्वीकार नहीं करूंगा।
और मजा यह है कि तुम मुझसे पूछते हो! तुमने कृष्ण से नहीं पूछा, राम से नहीं पूछा! यह राम ने दुनिया बनाई, सूरज को रोक सकते थे, और इनकी औरत को रावण भगा ले गया! गजब के सर्वशक्तिमान, बड़े सर्वज्ञ, बड़े सर्वव्यापी! अपनी औरत को भी न बचा सके, और क्या खाक बचाएंगे! सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान हैं, सर्वव्यापी हैं, और सोने के मृग को खोजने चल पड़े! बुद्धू से बुद्धू आदमी को भी शक होता कि कहीं सोने का मृग होता है!
मगर तुम यह प्रश्न उनसे नहीं पूछोगे। क्योंकि उनको तो तुम मान कर ही बैठे हुए हो, पूछने का सवाल ही नहीं उठता है।
और फिर सीता को लाया गया लंका से छीन कर तो उसकी अग्नि-परीक्षा ली गई, और ये सर्वज्ञ हैं! जब सर्वज्ञ हैं और सर्वव्यापी हैं, तो इनको यह पता ही होना चाहिए कि सीता ने कोई भी ऐसा काम नहीं किया है कि उसकी अग्नि-परीक्षा ली जाए। यह कैसी सर्वज्ञता है? इनको यह भी पता नहीं! इनको शक है कि कहीं सीता भ्रष्ट न हो गई हो! यह पुराना दकियानूसी पति का दिमाग कि कहीं सीता का सतीत्व नष्ट न हो गया हो!
सीता कहीं ज्यादा समझदार महिला मालूम पड़ती है। उसने नहीं कहा राम से कि तुम भी आ जाओ साथ ही साथ, दोनों निकल जाएं आग से! क्योंकि तुम भी इतने दिन अकेले रहे। और कोई अच्छे संग-साथ में रहे भी नहीं; अंदर-बंदर न मालूम कहां-कहां के, रीछ-भालू, पता नहीं क्या करते रहे, क्या हुआ क्या नहीं हुआ! और जब विवाह हुआ था तो साथ-साथ गांठ बांध कर चले थे, चलो इसमें भी गांठ बांध कर गुजर जाएं।
ये सर्वज्ञ हैं?
और तुम कहते हो कि सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं। और कृष्ण पूरी गीता में क्या समझा रहे हैं अर्जुन को? कि लड़! अर्जुन कहीं ज्यादा ज्ञानी मालूम होता है तुम्हारे हिसाब से। क्योंकि वह यह कह रहा है कि क्या सार है मरने-मारने में; आत्मा तो अमर ही है, अब नाहक इनके शरीरों को क्या मारना। मैं चला जंगल! मैं तो ध्यान करूंगा, समाधि साधूंगा। इसमें कुछ सार नहीं है। और कृष्ण की पूरी गीता इसी बात का आयोजन है कि तू लड़, उठा गांडीव!
कृष्ण को पता नहीं है कि आत्मा अमर है? कहते तो वे यही हैं कि न हन्यते हन्यमाने शरीरे! शरीर मरता है, आत्मा नहीं मरती। मगर उससे उन्होंने मतलब क्या निकाला है? उससे मतलब उन्होंने बहुत चालबाजी का निकाला है। चालबाजी का मतलब यह निकाला है कि मार, बेफिक्री से मार इनके शरीरों को! क्योंकि आत्मा तो मरती ही नहीं, इसलिए कोई हानि होनी नहीं है, हिंसा कुछ होनी नहीं है।
कृष्ण ने जितनी हिंसा का प्रतिपादन किया है, दुनिया में किसी ने भी नहीं किया। एडोल्फ हिटलर, चंगीजखान, तैमूरलंग, नादिरशाह--सब फीके पड़ जाते हैं। क्योंकि भला इन्होंने हिंसा की हो, लेकिन हिंसा का समर्थन इनके भीतर नहीं है। जानते तो ये हैं कि यह गलत कर रहे हैं। कृष्ण ने हिंसा करवाई और उसको एक दार्शनिक पूरा का पूरा आडंबर दिया। समझाया अर्जुन को यह कि मार बेफिक्री से! क्योंकि आत्मा मरती ही नहीं, मारने में हर्जा क्या है! ये तो मिट्टी के घड़े हैं, फोड़ दे! आत्मा दूसरे घड़ों में प्रवेश कर जाएगी।
तुम इन सारे लोगों को भगवान मानते रहे हो और मैं जब कहता हूं कि मैं भगवान हूं, तो तुम्हें अड़चन खड़ी होती है। और मेरे अर्थ को तुम सुनना भी नहीं चाहते, समझना भी नहीं चाहते। जब मैं कहता हूं मैं भगवान हूं, तो मैं यह कह रहा हूं कि तुम भी भगवान हो। भगवत्ता हमारा स्वभाव है। यह और बात है कि कोई पहचान ले या न पहचाने। जो पहचान ले वह भगवान है; जो न पहचाने वह भी भगवान है, लेकिन उसे पता नहीं होगा। कोई सोया है, कोई जागा है; मगर सोने और जागने वाले के भीतर एक ही चेतना का वास है।
तो जब मैं कहता हूं मैं भगवान हूं, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं मैंने दुनिया बनाई। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं जैसा कृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होगी तब-तब मैं आऊंगा और रक्षा करूंगा।
पहली तो बात यह है कि जब वे पहली दफा आए थे, तब कौन सी रक्षा कर ली? अब क्या खाक रक्षा करेंगे! सच तो यह है कि कृष्ण की मौजूदगी के कारण जितनी अमानवीयता और जितनी हिंसा उस समय हुई, अब अच्छा ही होगा कि वे दुबारा न आएं, कृपा करें! जब आए थे तब भी कोई रक्षा नहीं हो गई धर्म की, अब क्या खाक रक्षा कर लेंगे धर्म की आकर!
मैं कोई दावा नहीं करता धर्म की रक्षा का, और न ही दावा करता हूं कि मैं कोई अवतार हूं। उधार बातें मुझे पसंद नहीं। मैं क्यों विष्णु का अवतार होऊंगा? विष्णु मेरे अवतार नहीं हैं, मैं उनका अवतार नहीं हूं। मैं किसी का अवतार नहीं हूं। मैं किसी की रक्षा के लिए आया नहीं हूं। मुझे किसी धर्म की रक्षा नहीं करनी है। मुझे तुम्हें किसी पाप से नहीं बचाना है। मैं आनंदित हूं। मैंने अपने को जाना और मैं आनंदित हूं। और मेरे आनंद का यह हिस्सा है कि तुम्हें भी मैं अपने आनंद से परिचित करा दूं। फिर तुम्हारी मौज है। तुम स्वीकार करो न करो, वह तुम्हारी मालकियत है।
और तुम कहते हो कि आपको पूजा की आकांक्षा है।
अगर मुझे पूजा की आकांक्षा हो, तो तुम सोचते हो मुझे कोई अड़चन है? रोज पूजा करवा सकता हूं। रोज फूल चढ़वा सकता हूं। रोज आरती उतरवा सकता हूं। इसमें अड़चन क्या है? पत्थरों की आरती उतर रही है तो जिंदा आदमी में क्या अड़चन है आरती उतरवाने की? वह जो मेरी माला है, उसमें जो तस्वीर अटकाई हुई है, वह सिर्फ भारतीय भोंदुओं को चौंकाने के लिए, और कुछ भी नहीं। एक मजाक है, और कुछ भी नहीं। लेकिन मजाक को समझने के लिए भी थोड़ी बुद्धि चाहिए।
न तो मैं किसी को कह रहा हूं कि मेरे पैर छुओ; न मैं किसी को कह रहा हूं मेरी पूजा करो। मैं तो आता भी हूं तो मैं चाहता नहीं कि कोई उठ कर खड़ा हो। शायद यह भारत में होने वाली पहली धर्मसभा होगी जहां आने पर गुरु के शिष्य बैठे रहते हैं। तुमने कहीं कोई सभा देखी जहां गुरु आए और शिष्य बैठे रहें? यह शायद पहली सभा होगी भारत के पूरे इतिहास में जहां गुरु हाथ जोड़ कर तुम्हें नमस्कार करता है। क्या पूजा? किसकी पूजा?
मगर बंधी हुई धारणाएं लेकर आओगे तो अड़चन होती है। और बंधी हुई धारणाएं लेकर आ जाते हो, तो वंचित रह जाओगे उससे जो यहां घट रहा है। यहां बहुत कुछ घट रहा है।
इस तरह की छोटी-छोटी बातें, हंसराज विश्नोई, छोड़ो। कुछ समझने की कोशिश करो। यहां एक मंदिर नहीं बन रहा है, यह तो एक मधुशाला है। यहां न कोई आराध्य है, न कोई आराधक।
ऋतुओं के आंगन में फिर शायद न लौटे,
आओ, प्राणों से यह पाहुन-क्षण जी लें।
क्या भरोसा, कल हो न हो!
ऋतुओं के आंगन में फिर शायद न लौटे,
आओ, प्राणों से यह पाहुन-क्षण जी लें।
कल को झर जाने दें झरते पत्तों के संग,
वासंती धूप अंजुरी भर-भर कर पी लें।
छाल-पत्र छोड़ खुली नभ में चंपई बांहें,
अंधी अंतस की एक सख्त पर्त छीलें।
शब्द-शर्करा घुलने दें पल के प्याले में,
धीरे-धीरे चुप्पी-रस की चुस्की लें।
लो, ऊपर उठ मंडराए, कुछ भूरे पतझरी पात,
नीम से उतरीं, कुछ चकराती पीली चीलें।
देहरी से तके पीपल को, रोज फागुनी किशोरी,
आंखों को चुभ-चुभ जाएं कुछ नर्म कोंपल कीलें।
वर्जित खत बांच लिया, छुप कर क्वांरी कलियों ने,
अब टूटी वर्जन की, सब सर्द मुहर-सीलें।
फागुनी हवा को दिल दे बैठा आम का छोरा,
फिर काम न आएं, बूढ़े बरगद की तर्क-दलीलें।
पिघली शिखरों की बर्फ, लौटे पाहुन पांखी,
समाधिस्थ आंखों सी हुईं, शून्य-शांत झीलें।
आओ, प्राणों से यह फागुन-क्षण जी लें।
आओ, प्राणों से यह फागुन-क्षण जी लें।
आज इतना ही।