MALUKDAS
Ram Duware Jo Mare 03
Third Discourse from the series of 10 discourses - Ram Duware Jo Mare by Osho. These discourses were given during NOV 11-18 1979.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
सोई सहर सुबस बसे, जहं हरि के दासा।
दरस किए सुख पाइए, पूजै मन आसा।।
साकट के घर साधजन, सुपनैं नहिं जाहीं।
तेइ-तेइ नगर उजाड़ हैं, जहं साधू नाहीं।।
मूरत पूजैं बहुत मति, नित नाम पुकारैं।
कोटि कसाई तुल्य हैं, जो आतम मारैं।।
परदुख-दुखिया भक्त है, सो रामहिं प्यारा।
एक पलक प्रभु आपतें नहिं राखैं न्यारा।।
दीनबंधु करुनामयी, ऐसे रघुराजा।
कहैं मलूक जन आपने को कौन निवाजा।।
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
मुवा मुई को ब्याहता रे, मुवा ब्याह करि देइ।।
मुए बराते जात हैं, एक मुवा बधाई लेइ, हो।।
मुवा मुए से लड़न को, मुवा जोर लै जाइ।
मुरदे मुरदे लड़ि मरे, मुरदा मन पछिताइ, हो।।
अंत एक दिन मरौगे रे, गलि गलि जैहे चाम।
ऐसी झूठी देह तें, काहे लेव न सांचा नाम, हो।।
मरने मरना भांति है रे, जो मरि जानै कोइ।
रामदुवारे जो मरे, वाका बहुरि न मरना होइ, हो।।
इनकी यह गति जानिके, मैं जहं-तहं फिरौं उदास।
अजर अमर प्रभु पाइया, कहत मलूकदास, हो।
अजर अमर प्रभु पाइया, कहत मलूकदास, हो।।
ऊपर कदम तरु पर
बांसुरी बजाते तुम जब ढलती दोपहर
स्वर ऊपर खिंचता हवाओं को खनकाता
शाम धुली अलसाई जमुना के आर-पार
पगडंडी, गांव-गली, घर-आंगन लहराता
सुर-नर-मुनि, जड़-चेतन सब पर करता टोना
नीचे मैं पोखर
कदम तरु के तले एक कच्ची तलैया भर
मैं क्या भला वंशी स्वर को पकड़ पाता?
मुझको मिला सिर्फ तुम्हारी जलछाया का भार
क्षणभंगुर साया जो दिन ढलते खो जाता
रह जाता मैला जल फैला कोना-कोना
वंशी पर तुमने जो भी जादू गाया हो
पर,
कसम धरा लो जो मैंने कुछ भी पाया हो!
बंधती होगी जमुना की धारा वंशी से
यहां तो हमेशा से बंधा हुआ पानी है
कीचड़ है, काई है, सड़े-गले-पत्ते हैं
गंदे जल-सांपों की रेंगती निशानी है
होगी कोई राधा जो खिंच आती होगी
सम्मोहित गति, खिसका आंचल, अधखुल पायल
मुझमें तो केवल कुछ थकी हुई लहरें बस
अपने से टकरातीं अपने से ही घायल
ऊपर मेरे तट पर
बजता रहा वंशी स्वर
करता रहा सुर-नर-मुनि, जड़-चेतन पर टोना
नीचे मैं पोखर
रहा ज्यों-का-त्यों कीचड़ भर
व्यास को जो दिखा नहीं
सूर ने जो लिखा नहीं
मेरे हित सारी यह लीला असंगत रही
बिलकुल निरर्थक रहा मेरा होना
कदम के तले होना, न होना
ऊपर कदम तरु पर
बांसुरी बजाते तुम जब ढलती दोपहर
स्वर ऊपर खिंचता हवाओं को खनकाता
शाम धुली अलसाई जमुना के आर-पार
पगडंडी, गांव-गली, घर-आंगन लहराता
सुर-नर-मुनि, जड़-चेतन सब पर करता टोना
विश्व एक जादू से व्याप्त है। बांसुरी बज ही रही है। हम बहरे हैं। कृष्ण का गीत उठ ही रहा है। हमारी सुनने की सामर्थ्य नहीं। सामने ही है परमात्मा और हम आंख बंद किए खड़े हैं। सूरज उसका निकला ही है। सूरज उसका कभी डूबता ही नहीं। रात उसके लोक में होती ही नहीं। अंधकार से उसकी पहचान ही नहीं। वहां चांदनी ही चांदनी है। वहां पूर्णिमा ही पूर्णिमा है। न कुछ कम होता न ज्यादा; सब वैसा का वैसा है। लेकिन हम?...बस ऐसे ही हैं जैसे कीचड़ का पोखर--सड़ता और गलता। हमारे जीवन में नहीं कमल खिलता। खिल सकता है। सड़े-गले पोखर में भी कमल खिल सकता है। सड़े-गले पोखर में ही कमल खिलता है।
कमल खिलने की क्षमता हमारे भीतर है। सामर्थ्य हमारी है। थोड़ा श्रम चाहिए। थोड़ी साधना चाहिए। थोड़ी सजगता चाहिए। थोड़े सत्य को खोजने की आकांक्षा, अभीप्सा चाहिए। तो अभी फूट पड़े बीज। अभी उग आए कमल। अभी उठ आए कमल, हो जाए पार कीचड़ से, हो जाए पार पोखर से, बात करने लगे चांद-तारों से, सुगंध उठे उसकी और कमल पहचान ले तत्क्षण बांसुरी को और कमल पहचान ले तत्क्षण राधा की पायल को।
कमल हमारा प्रतीक है सदियों से--चैतन्य के खुल जाने का। सहस्रदल कमल! जब तुम्हारी चेतना पूरी की पूरी अनावृत हो जाती है, सब आच्छादन टूट जाते हैं, सब द्वार-दरवाजे खुल जाते हैं--तभी जानना कि तुम जीवित हो, अन्यथा तुम मृत हो!
ठीक कहते हैं मलूकदास--
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
कहते हैं कि मैंने मुर्दे ही मुर्दे देखे। सारा जगत छान डाला, मुर्दों के अतिरिक्त मुझे कोई जिंदा न मिला।
थोड़ा सोचो, तुम जिंदा हो या मुर्दा? मलूकदास तुम्हारी ही बात कर रहे हैं, किसी और की नहीं। सोचो, कीचड़ ही रहना है या कमल बनना है? विचारो, संकल्प को जगने दो, समर्पण को घटने दो, कीचड़ ही रह कर नहीं मर जाना है। नहीं तो जीए, न जीने के बराबर। जीए ही नहीं, बस रोज मरे और मरे। जन्म के बाद मरते ही रहे, मरते ही रहे। सत्तर साल लगे मरने में कि अस्सी साल, इससे क्या फर्क पड़ता है? लोग अपनी मरणशय्या पर पड़े हैं।
सोई सहर सुबस बसे, जहं हरि के दासा।
मलूकदास कहते हैं: बस जानना कि वही नगर आनंदमग्न है, जहां हरि के दास निवास करते हैं। बाकी तो सब मरघट हैं। बाकी तो नगर नहीं हैं।
इब्राहीम बड़ा सूफी फकीर हुआ। उससे कोई पूछता...उसने झोपड़ा बना रखा था राजधानी बल्ख के बाहर...कोई उससे पूछता: बस्ती का रास्ता कहां है? कहता: बाएं चले जाओ। भूल कर दाएं मत जाना। दायां रास्ता मरघट का है। लोग उसकी बात मान लेते। फकीर, मानने जैसा भी लगता, उसकी बातों में बल भी दिखता, उसकी आंखों में ज्योति, उसकी उपस्थिति, गवाही, कि वह ठीक ही कहता होगा और ऐसी बात झूठ कोई क्यों कहेगा! साधारण राहगीर भी किसी को गलत रास्ता नहीं बताता। लेकिन लोग लौटते घंटे दो घंटे बाद, बड़े नाराज लौटते, बड़े गुस्से में लौटते, लड़ने-झगड़ने को लौटते। इब्राहीम से कहते कि तुम होश में हो या पागल हो? तुमने मरघट भेज दिया। और हमने दूसरों से पता लगाया, मरघट पर जो लकड़ियां बेचता है उससे पता लगाया तो पता चला कि गांव तो दूसरी तरफ है। जिस तरफ तुमने मरघट बताया वहां गांव है और जहां तुमने गांव बताया वहां मरघट है।
इब्राहीम ने कहा: क्षमा करो--रोज कहता, क्षमा करो--अपनी-तुपनी भाषा अलग। तुमसे झूठ नहीं बोला हूं। जिसको तुम बस्ती कहते हो, वह बस्ती नहीं है, क्योंकि वहां कोई कब बसा रह सका? बस्ती तो उसे कहना चाहिए जहां बसे सो बसे। जिसको तुम मरघट कहते हो, उसको मैं बस्ती कहता हूं कि वहां जो बस गया एक बार सो बस गया, फिर कभी उजड़ता नहीं। और तुम जिसको बस्ती कहते हो, वहां रोज लोग उजड़ रहे हैं, वहां रोज लोग मर रहे हैं। उसको बस्ती कहते हो! जहां पंक्तिबद्ध लोग खड़े हैं मरने को, उसको बस्ती कहते हो! तो क्षमा करना, भाई! मेरी तुम्हारी भाषा अलग है। भाषा की भूल हो गई। जान कर तुम्हें भटकाया नहीं। तुमने अगर मरघट पूछा होता, तो मैं तुम्हें उस जगह भेज देता जिसको तुम बस्ती कहते हो। लेकिन तुम बस्ती जाना चाहते थे, तो मैंने तुम्हें बस्ती भेज दिया। बस्ती? वही, जहां बसे हुए कभी उजड़ते नहीं।
हमारी बस्तियों से तो मरघट बेहतर हैं। हमारी बस्तियों में सिवाए उपद्रव के, झंझटों के, जंजाल के और क्या है? मरघट में कम से कम शांति तो है, सन्नाटा तो है, मौन तो है, कलह तो नहीं।
सोइ सहर सुबस...
वही शहर बसा हुआ जानना; ठीक से बसा है, ऐसा जानना--सुबस--सोइ सहर सुबस बसे, जहं हरि के दासा! जहां परमात्मा को प्रेम करने वाले लोग, परमात्मा को परख लेने वाले लोग, परमात्मा के चरणों को गहने वाले लोग बसते हों--समझना वही बसती है, बाकी तो सब मरघट ही मरघट है।
कब्रों के मनाजिरने करवट न कभी बदली।
अंदर वही आबादी, बाहर वही वीराना।।
वह जो कब्र में सो जाता है, करवट भी नहीं बदलता। कब्रों के मनाजिर ने करवट न कभी बदली! बस गए एक दफा कब्र में, लेट गए एक दफा कब्र में, फिर कोई करवट भी नहीं बदलता। उतनी हलचल भी नहीं है वहां। अंदर वही आबादी,...मरघट के भीतर कब्र के भीतर तो आबादी। अंदर वही आबादी, बाहर वही वीराना! जिसको तुम संसार कहते हो, वह वीराना है, मरुस्थल है। सहस्रदल कमल न खिले तो जानना कि मरुस्थल है। सिर्फ थोड़े से लोग जीए हैं यहां--कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई जीसस, कोई कबीर, कोई मलूक, कोई नानक। बस, थोड़े से लोग जीए हैं यहां। अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं उनके नाम। बाकी तो सब मुर्दा हैं।
मगर बड़ी हैरानी की बात है, मुर्दों के इतिहास लिखे जाते हैं, जिंदों का इतिहास में उल्लेख नहीं! बात भी समझ में आती है: मुर्दे ही इतिहास लिखते हैं, मुर्दों का ही इतिहास लिखेंगे। बुद्धों ने इतिहास लिखा होता, जिंदों का इतिहास लिखते। मुर्दे-मुर्दों की ही समझ पाते हैं। मुर्दों की अपनी भाषा है, अपनी दुनिया है--पद, प्रतिष्ठा, धन, गौरव, अहंकार; बस, मुर्दे इन्हीं के पीछे दौड़ते रहते हैं।
अविनश्वर हुआ रूप
शाश्वत हो गई प्यास
हर कण चेतन-हुलास
हर क्षण मधु महारास
रजनी की कबरी में, गुथे स्वर्ण-रश्मि फूल
कुंदन हो गए चरण, चंदन हो गई धूल
चेतन के सिरहाने
पंखा झलता प्रकाश
मधु लय में तैर गए, पांखी-से मगन छंद
प्राणों से बहा प्यार, फूलों से ज्यों सुगंध
मुट्ठी में बंद हुआ
पूरा मधु महाकाश
परमात्मा के चरण पकड़ो तो यह चमत्कार घटे। यह घटता रहा है। परमात्मा के सामने झुको तो यह सारा आकाश तुम्हारा है, ये सारे चांद-तारे तुम्हारे हैं। परमात्मा से जुड़ो तो मिट्टी सोना हो जाती है। अभी तो तुम सोना भी छुओ तो मिट्टी हो जाता है।
अविनश्वर हुआ रूप! जो उससे जुड़ गया, उसने ही जाना कि सौंदर्य क्या है। यह भी कोई सौंदर्य है, जो आज है और कल नहीं! यह भी कोई सौंदर्य है, जो चमड़ी से भी ज्यादा गहरा नहीं है! यह भी कोई सौंदर्य है, ऊपर-ऊपर सुंदर और भीतर? हड्डी-मांस-मज्जा! काश, तुम देख सको अपने को कि भीतर क्या है! अस्थि-पंजर मात्र हो।
मैंने सुना, एक अस्थि-पंजर एक डाक्टर के घर पहुंच गया।...हैरान न होना, अस्थि-पंजर ही पहुंच रहे हैं।...दस्तक दी, आधी रात का वक्त--लेकिन डाक्टर को तो चौबीस घंटे तत्पर होना चाहिए, सो उसने द्वार खोला। अस्थि-पंजर को देख कर उसकी भी श्वास रुक गई। बहुत देखे थे उसने मरीज, ऐसा मरीज कभी नहीं देखा था। यह तो मर चुका है। लेकिन डाक्टर भी डाक्टर, ऐसे कोई डर जाए! उसने कहा: आइए महाशय, लेकिन जरा आपको देर हो गई आने में।
और क्या कहो!
काश! तुम भी अपने को देख सको जैसे हो, तो अस्थि-पंजर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है वहां। कहां रूप, कहां सौंदर्य!
अविनश्वर हुआ रूप...
लेकिन जुड़ गया जो प्रभु से, उसका सौंदर्य विनाश के पार हो जाता है। मृत्यु भी उसके सौंदर्य को छीन नहीं सकती।
अविनश्वर हुआ रूप
शाश्वत हो गई प्यास
हर कण चेतन-हुलास...
हुलास पैदा होता है! हर कण चेतन-हुलास। सारा जगत नाचता हुआ मालूम पड़ता है। कण-कण नृत्यमय हो जाता है। रास रच जाता है।
हर-कण चेतन-हुलास
हर-क्षण मधु महारास
रजनी की कबरी में, गुथे स्वर्ण-रश्मि फूल
कुंदन हो गए चरण, चंदन हो गई धूल
प्रभु से जुड़ो तो तुम्हें वह रसायन हाथ लगे, वह कला...
कुंदन हो गए चरण, चंदन हो गई धूल
चेतन के सिरहाने
पंखा झलता प्रकाश
मधुलय में तैर गए, पांखी से मगन छंद
तुम्हारे भीतर भी उठे काव्य, तुम्हारे भीतर भी छंदों का जन्म हो, तुम्हारे भीतर भी छंद पर फड़फड़ाएं, उड़ें आकाश में। तुम्हारे भीतर भी भगवदगीता पैदा हो सकती है; कुरान पैदा हो सकता है।
मधुलय में तैर गए, पांखी-से मगन छंद
प्राणों से बहा प्यार, फूलों से ज्यों सुगंध
मुट्ठी में बंद हुआ
पूरा मधु महाकाश
परमात्मा के चरण क्या हाथ में आ जाएं कि सारा आकाश तुम्हारी मुट्ठी में आ जाता है। तब जीवन है। जब महाजीवन है तभी जीवन है! जब शाश्वत जीवन है तभी जीवन है! शेष सब तो मृत्यु है। शेष सब धोखा है।
दरस किए सुख पाइए, पूजै मन आसा।।
और वह दूर नहीं है, उसका मंदिर दूर नहीं है। हिंदुओं के मंदिर दूर होंगे, मुसलमानों की मस्जिदें दूर होंगी, ईसाइयों के गिरजे दूर होंगे, परमात्मा का मंदिर दूर नहीं है। तुम जहां हो, वही तुम्हें घेरे हुए है। जहां झुक जाओ, वहीं काबा। जहां उसकी पूजा में मग्न हो जाओ , वहीं काशी। जहां नाच उठो, वहीं यमुना-तट, वहीं बंसीवट। जहां मगन होकर, मस्त होकर डोलने लगो, वहीं कृष्ण के हाथ में हाथ पड़ जाए।
दरस किए सुख पाइए...
उसके दर्शन मात्र से सुख की बरखा हो जाती है। परस की तो बात दूर, दरस काफी! दिखाई भर पड़ जाए, एक झलक भर दिखाई पड़ जाए कि अंधेरा सदा के लिए मिट जाता है। और दरस होता है तो फिर परस भी होता है। पहले देखना, फिर स्पर्श। और उसका स्पर्श तो तुम्हें रूपांतरित कर देता है।
दरस किए सुख पाइए...
तब तक सुख नहीं मिलेगा। तब तक तुम लाख करो उपाय, दुख ही पाओगे। उपाय तो करते ही हो, सारे लोग उपाय कर रहे हैं, एक ही उपाय में संलग्न हैं--कैसे सुख मिले? मगर दिखता है कोई सुखी? धन है, सुख नहीं। पद है, सुख नहीं। नाम है, यश है, कीर्ति है, सुख नहीं।
भीतर प्राणों में झांको धनियों के, पद वालों के, यशस्वियों के--राख ही राख पाओगे। वही गंदी तलैया, जिसके ऊपर बांसुरी बजती रही, तलैया ने न कुछ सुना, न कुछ जाना। कृष्ण का रास रचता रहा तलैया के तट पर, राधा आती रही, सुर-नर-मुनि आह्लादित होते रहे, मगर तलैया थी तलैया ही रही, वहां कीचड़ ही बनती रही। वहां पत्ते ही सड़ते रहे। वहां दुर्गंध ही उठती रही। सुख है कहां?
इस संसार में इतने लोग तुम्हें दिखाई पड़ते हैं, मगर कहीं तुम्हें ऐसा लगता है कि भीतर वसंत आया है, मधुमास आया है? राख ही राख! रिक्तता ही रिक्तता! या कूड़ा-करकट! इसीलिए लोग अपने को छिपाते हैं, वस्त्रों में छिपाते हैं, मुखौटों में छिपाते हैं, मुस्कुराहटों में छिपाते हैं। लेकिन सब छिपावट के भीतर से असलियत प्रकट हो जाती है।
देखा, जिमी कार्टर जब नये-नये प्रेसिडेंट बने थे तो उनकी बत्तीसी दिखाई पड़ती थी! अब उनकी नई तस्वीरें देखीं? दो-तीन साल में ही सब पत्ते झड़ गए, फूलों का कुछ पता नहीं। वह हंसी कहां बिला गई?
जीवन के यथार्थ तुम्हारे सब मुखौटे छीन लेंगे; तुम्हारी सब मुस्कुराहटें छिन जाएंगी। आशाओं में हंस सकते हो। जब तक दूर हो, पद नहीं मिला, तब तक आशा रख सकते हो; पद मिलते ही निराशा हाथ लगती है। जब तक धन नहीं मिला, तब तक सोच सकते हो, सपने देख सकते हो कि मिल जाएगा तो ऐसा करूंगा, वैसा करूंगा; मिल जाए, फिर अड़चन शुरू होती है।
मेरे एक परिचित को एक प्राचीन शास्त्र पता नहीं कहां से हाथ लग गया है: ‘कुर्सी-सूत्र!’
ओम् श्री कुर्सीयाय नमः। अथ श्री कुर्सी सूत्रम्।।
टीका: हे कुर्सी माता, मैं आपको नमस्कार करता हूं। अब मैं कुर्सी-सूत्र का श्रीगणेश करता हूं।
शंका: कुर्सी शब्द स्त्रीलिंग है, फिर भी ‘श्री’ लगाने का औचित्य स्पष्ट करें।
निवारण: कुर्सी स्त्री, पुरुषों, आबाल वृद्धों को समान रूप से प्रिय है, अतः श्री ही उपयुक्त है। हां, तुम चाहो तो सुश्री लगा कर कुर्सी का महत्व बढ़ा सकते हो।
कुर्सी चरित्रम् नेतास्य भाग्यम्।
दैवो न जानाति कुतो मनुष्यम्।।
टीका: सुश्री कुर्सी का चरित्र और नेता-रूपी आसीन जंतु का भाग्य तो देवता भी नहीं जान सकते, मनुष्य क्या जानेगा!
शंका: महाराज, इस गूढ़ श्लोक का अर्थ बताइए।
निवारण: बालक, सद्यः राजनीति पर दृष्टिपात करो और नारायण भजो, सब तुम्हारी बुद्धि में समा जाएगा।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव।
टीका: कुर्सी ही मेरी माता और पिता है, इस संसार में इसके अलावा और कुछ भी मेरा नहीं है, अतः इसे पाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सब कुछ सही है। जो इस सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, वे कष्ट के भागी होंगे।
कुर्सी क्षेत्रे-दिल्ली क्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
नेता-नेताइन किम्कुर्वते।।
टीका: कुर्सी का क्षेत्र दिल्ली है, ऐसा शास्त्रों में लिखा है। नेता-नेताइन वहां पर क्या कर रहे हैं?
निवारण: हर नेता को अर्जुन की तरह केवल कुर्सी दिखाई दे रही है, और इस कुर्सी हेतु वह लड़-लड़ मर रहा है, घिघिया रहा है और सभी संभव कार्य कर रहा है।
कुर्से त्वमधिक धन्या नेतारपि धन्यो भवतारकोऽपि।
मज्जति चुनाव समुद्रे तव कुच कलशावलंबनम् कुरुते।।
टीका: हे कुर्सी! नेता दूसरों को तो भवसागर पार करा देते हैं, परंतु जब वे स्वयं चुनाव-रूपी काम के समुद्र में डूबने लगते हैं, तब आपके कुच-कलशों (हत्थों) को पकड़ कर ही पार कर पाते हैं।
शंका: अगर कुर्सी बिना हत्थोंवाली हो, तो क्या होता है?
निवारण: ऐसी स्थिति में कुर्सी की टांगें या पूंछ पकड़ कर भी भवसागर को पार करने का विधान है।
सर्वेरक्षकाः कुर्सी। कुर्सी रक्षका नेता।।
टीका: सभी की रक्षा कुर्सी करती है और कुर्सी की रक्षा नेता करता है।
शंका: नेता कुर्सी की रक्षा कैसे कर सकता है?
निवारण: लगता है तुम आजकल अखबार नहीं पढ़ते। नेता कुर्सियों के पीछे ऐसे ही पड़े हैं, जैसे कुंआरियों के पीछे लड़के। छेड़ो तो दुख, न छेड़ो तो दुख।
उत्साहवंत पुरुषाः प्राप्तः कुर्सी।
टीका: उत्साही और परिश्रमी पुरुष कुर्सी को प्राप्त करते हैं।
शंका: क्या कुर्सी को बिना पाए काम नहीं चल सकता है?
निवारण: सामान्यजन का काम तो चल सकता है, लेकिन जानवरों के बाड़े में सभी कुर्सी चाहते हैं, अतः उनका कार्य नहीं चल पाता है। जाओ और जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास पढ़ो।
कर्मण्येवाधिकारस्ते, कुर्सी फलेषु कदाचनः।
टीका: कर्म किए जाओ, कभी तो कुर्सी-रूपी फल की प्राप्ति होगी।
शंका: लेकिन यह श्लोक तो कृष्ण ने गीता में कहा है।
निवारण: तो क्या हुआ, वत्स, उस समय भी तो लड़ाई कुर्सी के लिए ही हो रही थी।
कुर्सीनाम् मालिक डिक्टेटर भवते।
टीका: कुर्सी का मालिक डिक्टेटर बन जाता है।
शंका: कोई उदाहरण दीजिए।
निवारण: इमर्जेंसी का इतिहास देखो, बालक! वहां हर ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा अपने आपको डिक्टेटर से कम नहीं समझता था। और कुछ तो वास्तव में ही बन गए।
उच्चासने, उच्चपदे, उच्चयौवन गर्विते,
उच्चाधिकार संयुक्ते, कुर्से नमोस्तुते।
टीका: हे ऊंचे आसन, बड़े पद और उच्च यौवन तथा अधिकारों से संपन्न कुर्सी, तुझे नमस्कार है!
शंका: कुर्सी का यौवन कैसा होता है?
निवारण: कुर्सी चिरयौवना होती है, मूर्ख, कुर्सी कभी बूढ़ी नहीं होती। हां, कभी-कभी भारत सरकार की तरह लंगड़ा कर चलने लग जाती है।
प्रतिशंका: लंगड़ी कुर्सी कब स्थिर होती है?
प्रतिनिवारण: जब इमर्जेंसी लगती है।
या कुर्सी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोः नमः।।
टीका: कुर्सी-रूपी देवी सभी जगह व्याप्त है और इसे बार-बार नमस्कार है।
शंका: यह श्लोक तो दुर्गापाठ का है।
निवारण: तो क्या हुआ, अब यह नव-कुर्सीपाठ में भी सम्मिलित है।
यो भजंते मानवाः तै प्राप्तः कुर्सी।।
टीका: जो इस सूत्र का पारायण करेंगे, वे कुर्सी को आसानी से प्राप्त करेंगे।
शंका: क्या कुर्सी आवश्यक है?
निवारण: हां, रहीम ने कहा है: कुर्सी गए न ऊबरे, नेता, मानस, चून।
प्रतिशंका: क्या नेता मानस में नहीं आते?
प्रतिनिवारण: यह शंका व्यर्थ है, स्वयं समझो।
सुफलम् प्राण्नुवन्ति प्रातः भजन्ति ये।
रतिरंभा भवेद् दासी, लक्ष्मीस्तुगति सहगामिनी।।
टीका: जो व्यक्ति इस सूत्र का पारायण प्रातः उठ कर करेंगे, उसे रतिरंभा तथा लक्ष्मी जैसी सहगामिनियां अभिसार हेतु कुर्सी देवी प्रदान करेंगी।
इति श्री कुर्सी सूत्रम्।
टीका: अब मैं कुर्सी सूत्र का समापन करता हूं।
दौड़ रहे हैं लोग, विक्षिप्त की तरह दौड़ रहे हैं--धन, पद, प्रतिष्ठा। हाथ क्या लगता है? इस जीवन के पूरे ही श्रम के बाद परिणाम क्या है, प्रतिफल क्या है, निष्पत्ति क्या है? जिसने एक बार भी विचार किया, वह थोड़ा चौंकेगा: कैसे इतने लोग भागे चले जाते हैं--व्यर्थ के पीछे, असार के पीछे! देखते हैं दूसरों को रोज गिरते कब्र में, देखते हैं रोज अरथी उठते और फिर भी इस तरह लगे रहते हैं दौड़ में जैसे उन्हें इस जगत से कभी नहीं जाना है! मरते-मरते दम तक भी लड़ते रहते हैं।
मलूकदास ने तो बहुत अदभुत बात कही है। उन्होंने तो कहा है कि मर जाते हैं, फिर भी लड़ते रहते हैं।
साकट के घर साधजन, सुपनैं नहिं जाहीं।
जो इस तरह शक्ति की, पद की, प्रतिष्ठा की पूजा में संलग्न हैं...साकट। शक्ति की पूजा मनुष्य का बड़े से बड़ा दुर्भाग्य है। शांति को पूजो, शक्ति को नहीं। शक्ति की जिसने पूजा की, शांति तो पाएगा ही नहीं, शक्ति भी नहीं पाएगा। और जिसने शांति को पूजा, अदभुत घटता है। शांति तो मिलती ही मिलती है और एक अपूर्व शक्ति का आविर्भाव होता है। शक्ति जो तुम्हारी नहीं, शक्ति, जो परमात्मा की है। तुम तो केवल एक उपकरण हो जाते हो। जो शक्ति का पूजक है--फिर शक्ति धन की हो, पद की हो, ज्ञान की हो, त्याग की हो--जो भी शक्ति का पूजक है, अगर वह परमात्मा की भी पूजा कर रहा है इसलिए कि मुझे कुछ शक्ति मिल जाए, चाहे वह शक्ति साधारण हो, स्थूल हो, चाहे सूक्ष्म हो, चमत्कार की हो, जो भी शक्ति की पूजा कर रहा है, साधजन, जो सच्चा साधु है, उसके सपने में भी नहीं आता। सत्य में आना तो दूर, उसके स्वप्न में भी साधुता की छाया नहीं पड़ती।
तेइ-तेइ नगर उजाड़ हैं, जहं साधू नाहीं।।
और जहां साधु न हो, वह नगर उजाड़ है। नगर से प्रयोजन है तुम्हारा। मनुष्य को हम कहते हैं पुरुष। पुरुष शब्द बड़ा प्यारा है; वह बनता है पुर से। पुर का अर्थ होता है: नगर। पुरुष का अर्थ होता है: तुम्हारी देहरूपी नगर का वासी। तुम्हारी देह एक बड़ा नगर है, छोटा-मोटा भी नहीं। तुम्हारी देह में सात करोड़ जीवाणु हैं। बंबई की संख्या कम है, कलकत्ते की संख्या भी कम है, टोकियो की संख्या भी कम है...टोकियो दुनिया का सबसे बड़ा नगर है--एक करोड़ की आबादी। तुम तो उससे भी बड़े नगर हो, सात गुने बड़े। तुम्हारे भीतर सात करोड़ जीवाणु बसे हैं सात करोड़ जीवित अणु, जीवित कोष्ठ। और उन सात करोड़ जीवित कोष्ठों के बीच तुम्हारा निवास है, इसलिए तुम्हें पुरुष कहा है।
तेइ-तेइ नगर उजाड़ हैं, जहं साधू नाहीं।।
और तुम्हारे भीतर तब तक साधुता का जन्म नहीं होगा। जब तक तुम शक्ति की आराधना में लगे हो--धन, पद, प्रतिष्ठा; इस लोक की शक्ति या परलोक की शक्ति।
एक आदमी ने बहुत वर्षों की मेहनत के बाद पानी पर चलना सीख लिया। स्वभावतः दूर-दूर तक उसकी ख्याति पहुंच गई--ऐसा चमत्कारी, जो पानी पर चले! कहते हैं वह आदमी रामकृष्ण से मिलने आया। दिखाने आया था चमत्कार। दिखाने आया था कि तुम क्या खाक परमहंस! परमहंस मैं हूं! रामकृष्ण को उसने कहा कि आओ नदी के तट पर...दक्षिणेश्वर है भी गंगा के किनारे, जहां रामकृष्ण रहते थे...कहा: आओ गंगा के पास; वहां दिखलाऊंगा चमत्कार।
रामकृष्ण ने पूछा: तुम्हारा चमत्कार क्या है?
उसने कहा: मैं पानी पर चल सकता हूं।
रामकृष्ण ने कहा: बड़ी हैरानी की बात है! तुमने हर आदमी की तरह तैरना क्यों नहीं सीखा?! कितने साल लगे तुम्हें पानी पर चलना सीखने में?
उसने कहा: अठारह साल साधना की।
रामकृष्ण ने कहा: हद हो गई, अठारह साल गंवाए! अरे, मुझे तो जब भी उस पार जाना होता है, दो पैसे में तो नाव मुझे पार कर देती है! दो पैसे की चीज को तुमने अठारह साल में कमाया! और ऐसे रोज उस पार मुझे जाना भी नहीं पड़ता, कभी वर्ष में एकाध बार, दो बार। अठारह साल में मुश्किल से मैं दस-पंाच बार उस पार गया हूं। सो चार-छह आने की चीज को तुम दिखाने मुझे आए हो! और इतनी अकड़ से आए हो! अरे, कुछ शरम खाओ, कुछ संकोच करो!
रामकृष्ण ने ठीक कहा। आखिर पानी पर चलोगे भी तो इससे क्या होगा? पानी पर चल भी लिए तो क्या प्रयोजन है? हवा में उड़ भी लिए तो क्या होगा? मछलियां पानी में चल रही हैं, और पक्षी हवा में उड़ रहे हैं! हवा में उड़ोगे तो सिर्फ बुद्धू मालूम पड़ोगे; लोग हंसेंगे, और कुछ भी नहीं। कुछ जंचोगे भी नहीं हवा में उड़ते।
लेकिन यही धर्म के नाम पर।
निन्यानबे प्रतिशत लोग धर्म के नाम पर भी अपनी वही पुरानी मूढ़ता को थोपे चले जाते हैं। यहां संसार में भी खोजते थे यही कि दूसरों से बलशाली हो जाएं, धर्म में भी खोजते हैं वही। अहंकार की ही यह खोज है। और जहां अहंकार है, वहां साधु से पहचान नहीं हो पाएगी। साधु से पहचान तो निर-अहंकारिता में हो सकती है। सदगुरु को देख ही न पाओगे तुम। निर-अहंकार में ही दरस होगा, निर-अहंकार में ही परस होगा।
मूरत पूजैं बहुत मति, नित नाम पुकारैं।
बहुत पूजते हैं मूर्तियां लोग और बड़े नाम की रटन भी करते हैं।
कोटि कसाई तुल्य हैं, जो आतम मारैं।।
लेकिन जिन्होंने अपनी आत्मा को ही बेच दिया है सस्ती चीजों के लिए, वे कसाइयों से बड़े कसाई हैं, महा कसाई हैं। एक करोड़ कसाई भी उनके सामने कम हैं। कोटि कसाई तुल्य हैं, जो आतम मारैं। जिन्होंने अपनी आत्मा को बेच दिया है।
और इस दुनिया में हम सारे लोग आत्मा को बेचने को तैयार हैं। दो कौड़ी में बेचने को तैयार हैं! कोई तुम्हें हाथ से राख गिराना दिखा दे और तुम बिकने को तत्पर हो! और तुम लगे बाबा के पीछे! चाहे जिंदगी लग जाए, अब तुम्हें एक ही धुन सवार है कि हाथ से राख कैसे टपके। राख के तुम पहाड़ लगा दो हाथ से, तो भी क्या होगा! राख तो तुम हो ही, अब और क्या राख पैदा कर रहे हो? और अगर राख की देह से राख गिर भी गई तो कौन सा चमत्कार है? यह तो मर कर हो ही जाने वाला है सब राख, क्या गिराते हो!
मगर नहीं, लोग इन बातों से प्रभावित होते हैं। लोग मूढ़ हैं और महामूढ़ों से प्रभावित होते हैं। जो तुमसे भी आगे है मूढ़ता में, वह तुम्हें प्रभावित करता है।
हमने
परिचित नेता से
प्रश्न किया,
‘‘आपने जिस ढंग से
अपने सिर पर
टोपी लगाई है
उसे देख कर
सभी की बुद्धि
भरमायी है
आपको देख कर
लोग कई तरह के
अनुमान लगा रहे हैं
अतः कृपया बताएं
कि आप
पार्टी में आ रहे हैं,
या पार्टी से जा रहे हैं?’’
वे धूर्त की तरह
मुस्कुरा कर बोले,
‘‘न तो हम
पार्टी में आ रहे हैं
न जा रहे हैं
हम तो सिर्फ यह दिखा रहे हैं
कि हमारे पैरों में अभी दम है
हम चलने-फिरने में
सक्षम हैं
टिकट मिलेगा
तो हम यहां टिक जाएंगे
अन्यथा
जो टिकट देगा
उसी के हाथों,
बिक जाएंगे।’’
यह जो बिक जाना है, उसको ही मलूकदास कह रहे हैं: जो आतम मारैं! तुम देखते हो, यहां हर आदमी बिकने को तैयार है! हर आदमी के ऊपर उसके दाम की टिकट लगी है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक लिफ्ट में सवार हुआ। एक सुंदर महिला भी लिफ्ट में थी। दोनों ही थे। मुल्ला ने नमस्कार किया और कहा कि अगर दस हजार रुपये दूं तो एक रात मेरे साथ गुजारोगी? वह स्त्री एकदम नाराज हो गई। उसने कहा: तुमने मुझे समझा क्या है? अभी लिफ्ट रोक कर पुलिस को बुलाती हूं। मुल्ला ने कहा: पुलिस वगैरह बुलाने की कोई जरूरत नहीं, बीस हजार दूंगा। महिला नरम हुई। मुल्ला ने कहा: जो मांगो--तीस, चालीस, पचास। गर्मी मुस्कुराहट में बदल गई। स्त्री ने कहा: पचास! पचास हजार रुपये एक रात के! राजी हूं। मुल्ला ने कहा: और अगर पच्चीस रुपये दूं तो? तो स्त्री फिर भन्ना गई। कहा: जानते हो कि मैं कौन हूं? मुल्ला ने कहा: वह तो हमने तय कर लिया; जब पचास हजार में राजी हो गई, तो वह तो तय हो गया कि तू कौन है, अब तो दाम तय कर रहे हैं। अब पुलिस-वुलिस को बुलाने की कोई जरूरत नहीं है। पचास हजार में बिको या पच्चीस रुपये में बिको, क्या फर्क पड़ता है? वह तो तय हो गया कि तू कौन है? अब रह गई दाम करने की बात, सो सौदा कर लें। सो आपस में निपटारा कर लें। पुलिस को बुलाने की क्या जरूरत है? पुलिस क्या करेगी इसमें?
मुल्ला ठीक कह रहा है। तुम भी सोचना, कितने में बिक जाओगे? कितनी तुम्हारी कीमत है? कितनी ही कीमत हो, जो बिक सकता है उसने अभी आत्मा को नहीं जाना, क्योंकि आत्मा की कोई कीमत ही नहीं है। सारा संसार भी मिलता हो तो भी जिसने स्वयं को जाना है, वह बिकने को राजी नहीं हो सकता। यह सारा संसार रख दो तराजू के एक पलड़े पर और आत्मा को रख दो दूसरे पलड़े पर, तो भी आत्मा का तराजू ही भारी होगा। आत्मा यानी परमात्मा! आत्मा यानी परमात्मा का बीज, उसकी संभावना। आत्मा ही तो फैल कर, शुद्ध होकर, निखर कर परमात्मा बनती है। कहीं कोई और दूसरा परमात्मा थोड़े ही है।
वह जिसने समर्पण की कला सीख ली, उसके हाथ में अपने को निखारने का राज आ गया। उसकी आत्मा ही धीरे-धीरे शुद्ध होते-होते परम हो जाती है, परमात्मा हो जाती है। मगर लोग बहुत करते हैं पूजा, सब पूजा झूठी है। क्योंकि पूजा उनकी परमात्मा की नहीं है, कुछ मांग रहे हैं। किसी को नौकरी चाहिए, किसी को धन चाहिए, किसी को पद चाहिए।
मूरत पूजैं बहुत मति, नित नाम पुकारैं।
और लगाए हुए हैं धुन, राम-नाम की चदरिया ओढ़े बैठे हैं, माला फेर रहे हैं, राम-राम, राम-राम जप रहे हैं। मगर पीछे उनके झांक कर देखो तो कोई कामना खड़ी है। वे राम को भी इसलिए जप रहे हैं कि उनकी कोई कामना पूरी हो जाए। कोई मांग है। और जिसने राम को कामना से जपा, उसने जपा ही नहीं। राम को तो आनंदभाव से जपो। उल्लास से। कुछ मांगना क्या है? उसके सामने भिखारी होकर मत जाओ! उसके सामने मालिक की तरह जाओ! झुको जरूर मगर आनंदमग्न होकर। झोली मत फैलाओ--और तुम्हारे प्राण भर दिए जाएंगे अनंत खजानों से! और तुमने झोली फैलाई तो कंकड़-पत्थर भी न पाओगे।
कोटि कसाई तुल्य हैं, जो आतम मारैं।।
परदुख-दुखिया भक्त है, सो रामहिं प्यारा।
यह सूत्र समझने जैसा है। दूसरे के दुख की जिसे प्रतीति होती है, जो संवेदनशील है, वही राम का प्यारा है।
लेकिन दूसरे के दुख की प्रतीति किसे हो सकती है?
जिसके अपने दुख मिट गए, उसे ही दूसरे के दुख की प्रतीति हो सकती है। यह बात तुम्हें पहले तो थोड़ी उलटी लगेगी, बेबूझ लगेगी। साधारणतः तुम सोचते हो कि जो आदमी दुखी है, उसे दूसरे का दुख पता चलेगा। तुम गलती में हो। जो दुखी है, वह तो अपने दुख को झेलने के कारण, झेलने के लिए कठोर हो जाता है, नहीं तो दुख झेल नहीं सकता। दुख तोड़ देगा उसे। दुख झेलने के लिए उसे अपनी संवेदना खो देनी पड़ती है; वह संवेदनशून्य हो जाता है।
यहां पश्चिम से इतने लोग आते हैं। उनमें से अधिक मुझे पत्र लिखते हैं कि बात क्या है? रास्तों पर भिखारी हैं, हम उन्हें देखते हैं तो बड़ी पीड़ा होती है। हम उन्हें बिना कुछ दिए उनके सामने से गुजर ही नहीं पाते। बड़ी ग्लानि होती है, बड़ा पश्चात्ताप होता है। लेकिन भारतीय तो बड़े मजे से निकल जाते हैं--फिल्मी धुन गुनगुनाते! कोई मतलब ही नहीं भिखारी से! भिखारी आगे भी आ जाए तो वे कहते हैं: आगे हटो, आगे बढ़ो, रास्ता लगो!
कारण है।
भारतीय खुद ही दुखी हैं। भिखारियों में और उनमें कुछ ज्यादा भेद नहीं है। वे क्या खाक इन भिखारियों को दें! उनके पास देने को खुद नहीं है, वे खुद ही मांग रहे हैं। और वे कठोर हो गए हैं--कठोर न हों तो जिंदा नहीं रह सकते। भारत में अगर जिंदा रहना हो तो कठोर होना पड़ेगा। अगर यहां तरल-हृदय हुए, तो तुम्हारी भी दशा जल्दी वही हो जाएगी जो भिखमंगे की है। इससे किसी भिखमंगे को लाभ होगा, ऐसा नहीं, सिर्फ भिखमंगे और बढ़ जाएंगे--तुम भी उसमें सम्मिलित हो जाओगे।
सदियों-सदियों की गरीबी, दीनता और दुख ने भारत के हृदय को कठोर कर दिया है, पाषाण कर दिया है; कोई पसीजता ही नहीं। पश्चिम में समृद्धि है। भिखमंगा तो सड़कों पर दिखाई पड़ता नहीं पश्चिम में, भारत ही आकर पहली दफा भिखमंगा दिखाई पड़ता है। तो उनको बड़ी हैरानी होती है!
दो चीजें उन्हें बहुत सताती हैं--
मेरे पास जितने पत्र आते हैं उनमें दो बातों का जरूर उल्लेख होता है। एक तो भिखमंगे का। छोटे-छोटे बच्चे! पश्चिम का आदमी भरोसा ही नहीं कर सकता है कि इतने छोटे बच्चे भी इस अवस्था में हमने छोड़ रखे हैं कि भीख मांगें। और दूसरी बात की उन्हें हैरानी होती है कि जब भी वे सांताक्रूज पर हवाई जहाज से उतरते हैं और बंबई की तरफ बढ़ते हैं, तो रास्ते के दोनों तरफ लोग पाखाना कर रहे हैं! यह उनकी समझ में नहीं आता कि यह क्या हो रहा है? भारतीयों को बिलकुल अखरता ही नहीं। भारतीय देखते ही नहीं इधर-उधर; उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। सारा देश संडास है! और कोई खराब काम तो कर नहीं रहे, खाद बढ़ा रहे हैं! स्वाभाविक समझ में आता है भारतीयों को। यह तो गांव-गांव में हो रहा है, जगह-जगह लोग बैठे हैं। अब उनको देखते रहो, उनके लिए दुख मनाते रहो, तो तुम्हें जीना ही मुश्किल हो जाए। किस-किसका दुख मनाओ! लोग अंधे हो गए हैं। लोगों को दिखाई ही नहीं पड़ता। भारतीयों को नहीं दिखाई पड़ता।
जब पहली दफा कोई पाश्चात्य लेख लिखता है तो भारतीयों को बहुत अखरता है, बहुत दुख होता है उन्हें कि हमारे देश की बदनामी की जा रही है। उनको दिखाई ही नहीं पड़ता कि बात तो सच है; बदनामी नहीं की जा रही है, बात तो ठीक ही है। तुम स्वच्छता की इतनी बातें करते हो और तुम्हें स्वच्छता का बोध कितना है? जहां दिल आया वहां मल-मूत्र विसर्जन कर देते हो--तुम्हें कोई अड़चन ही नहीं होती। पश्चिम में यह असंभव है, कल्पना के बाहर है। भिखमंगा विदा हो गया है, बचा ही नहीं। तो संवेदनशीलता बढ़ती है।
इस दुनिया में जिनको थोड़ा सा आंतरिक आनंद अनुभव हुआ है, वे ही दूसरों की आंतरिक दुख की दशा का अनुभव कर पाएंगे, नहीं तो नहीं।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि देश में लोग दुखी हैं और आप लोगों को ध्यान समझा रहे हैं! मैं उनसे कहता हूं: इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं। ध्यान इन्हें थोड़ा सा सुख देगा। इन्हें थोड़ा सुख मिले, इनकी संवेदनशीलता बढ़े; इन्हें थोड़ा सुख का अनुभव हो तो इन्हें दिखाई पड़े कि चारों तरफ दुख है। नहीं तो दिखाई ही नहीं पड़ेगा। तुलना करने का कोई उपाय ही नहीं है। खुद ही इतने दुखी हैं कि किसका दुख देखें? अपना देखें कि औरों का?
जिसकी अपनी समस्याएं मिट जाती हैं, वह दूसरों की समस्याओं को देख सकता है। और जिसके अपने भीतर शांति छा जाती है, उसे दूसरे की अशांति दिखने लगती है। जिसके भीतर गुलाब के फूल खिल जाते हैं, उसे दूसरों के जीवन के कांटे अनुभव में आने लगते हैं। फिर कुछ हो सकता है।
परदुख-दुखिया भक्त है, सो रामहिं प्यारा।
वह जो राम का प्यारा है, वही अनुभव कर सकेगा दूसरे के दुख को। और जो दूसरे के दुख को अनुभव कर सकता है, वह राम का प्यारा होता जाता है। ये दोनों अन्योन्याश्रित बातें हैं।
तलाशो-जुस्तुजू की सरहदें अब खत्म होती हैं।
खुदा मुझको नजर आने लगा इंसाने-कामिल में।।
एक बार परमात्मा दिखाई पड़े तो फिर मनुष्यों में भी वही दिखाई पड़ेगा और वृक्षों में भी वही दिखाई पड़ेगा और पत्थरों में भी वही दिखाई पड़ेगा।
एक पलक प्रभु आपतें, नहिं राखैं न्यारा।।
और काश तुम उससे संबंध जोड़ लो तो तुम चकित होओ। यह जान कर तुम हैरान होओगे कि उसने तुम्हें एक पलक के लिए भी अपने से दूर नहीं रखा था। दूर थे तो तुम अपने कारण थे। पीठ की थी तो तुमने की थी, उसने नहीं। और एक दफा पहचान लोगे तब तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि वह एक पल को भी तुम्हें अपने से दूर नहीं रखता है।
एक पलक प्रभु आपतें, नहिं राखैं न्यारा।।
वह तुम्हारी प्रतिपल चिंता कर रहा है। सारा अस्तित्व तुम्हारा सहयोगी है, शत्रु नहीं।
निजामे-सुबहो-शामे-देहर है जिसके इशारों पर।
मेरी गफलत तो देखो मैं उसे गाफिल समझता हूं।।
जो चांद-तारों को चला रहा है, जिसके इशारों पर सुबह और शाम की व्यवस्था चल रही है। यह सारा जगत जिसके इशारों पर अंगुलियों पर ठहरा हुआ है...
निजामे-सुबहो-शामे-देहर है जिसके इशारों पर।
मेरी गफलत तो देखो मैं उसे गाफिल समझता हूं।
क्या तुम सोचते हो वह बेहोश है? क्या उसे तुम्हारा पता नहीं?
अस्तित्व तुम्हारी चिंता करता है। अस्तित्व का पूरा-पूरा प्रयास है कि तुम भी जागो, कि तुम भी आनंदित होओ, कि तुम्हारे जीवन में भी गीत जगें, कि तुम्हारे प्राणों में भी बांसुरी बजे। मगर तुम ही अपने दुश्मन हो। तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं।
महावीर ने ठीक कहा है: आदमी ही अपना मित्र है; उससे बड़ा उसका कोई मित्र नहीं। और आदमी ही अपना शत्रु है; उससे बड़ा उसका कोई शत्रु नहीं। दोनों बातें सच हैं। अगर तुम अपनी तरफ मुड़ो तो मित्र हो जाओ; अगर अपनी तरफ पीठ किए रहे तो अपने ही शत्रु हो। अपने ही हाथ से अपनी आत्मा का हनन कर रहे हो।
दीनबंधु करुनामयी, ऐसे रघुराजा।
कहै मलूक जन आपने को कौन निवाजा।।
मलूकदास कहते हैं कि मुझ तरह के अज्ञानी को, मुझ जैसे साधारण जन को आखिर किसने उद्धारा? सुनते हो! ध्यान देना इस बात पर। मलूक कहते हैं कि मुझ जैसे अज्ञानी को, मुझ जैसे अपात्र को आखिर किसने उद्धार किया? उसी ने! मेरी क्या बिसात थी? मेरा क्या वश था? मेरी क्या सामर्थ्य थी? मेरी क्या थी साधना और मेरी क्या थी पात्रता? मैं था निर्बल, अपंग; लेकिन उसकी कृपा, उसका प्रसाद कि मैं लंगड़ा था और पर्वत चढ़ गया। और मैं अंधा था और मैंने चांद-तारे देखे। और मैं बहरा था और मेरे कानों में उसकी बांसुरी की आवाज सुनाई पड़ी। उसकी ही कृपा है, उसका ही प्रसाद है!
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
मलूकदास कहते हैं: बहुत घूम कर देखा हूं, जगत देख डाला, मुर्दे ही मुर्दे देखे; जिंदा तो मुझे कोई दिखाई न पड़ा। जिंदा तो कभी कोई दिखाई पड़ जाए तो तुम सौभाग्यशाली हो! जिंदों को ही हमने सदगुरु कहा है--वे जो सचमुच जीवित हैं।
ये बेड़ा कहां जाकर पार लगेगा
इधर भी अंधेरा, उधर भी अंधेरा।
नये मांझियों ने नये जोश से कल
नई बल्लियों में नये पाल बांधे,
कमर में उमंगों के फेंटे लपेटे
नई साध से फिर नये डांड़ साधे!
नई बाढ़ में छोड़ दी मुक्त नौका
नये हौसलों की हिलोरें उठाते
नये ज्वार के सर्जना के स्वर में
धरा औ गगन के मिलन गीत गाते।
अभय हो गए जो मुसाफिर विकल थे,
अनिश्चय-अनास्था के दुहरे भरम में,
नई मुक्ति हित में ये लगाएंगे गोता,
नया सेतु बांधेंगे रामेश्वरम् में।
मगर ये तो पहले ही दम हांफ बैठे
झिझकते न तक पतवार तोड़ने में,
कभी बौखलाते हैं अपने वहम पे
कभी अपनी जानिब जुबां मोड़ने में।
अभी तो किनारे से कुछ ही हटे थे
अभी दूर आवर्त घूर्णित घटा तम,
अभी शेष मंझधार की थी चुनौती
अभी देखना था समुंदर का दम-खम
लुटा दी है हर सांस जिसने वतन को
बड़ी साध से जिसने सपने सजाए,
सभी अंग नासूर से रिस रहे हों
मसीहा कहां कहां मरहम लगाए!
इधर कूप उस ओर खाई खुदी है
करे कौन जन-मन व्यथा का निवारण!
उधर नादां बच्चे पर ईमां निछावर
इधर गुट-परस्ती औ बहरुपियापन!
बड़ी ऊंची बातें, बड़े ऊंचे वादे
हवा में रफू हो गए सब हिरन से,
ये तम-तोम से जूझने के प्रवादी
करेंगे किनाराकशी गर किरन से
ऊफक के धुंधलके में उल्टेगा बेड़ा
कहां फिर उजेला, कहां फिर सवेरा!
ये बेड़ा कहां पार जा कर लगेगा
इधर भी अंधेरा, उधर भी अंधेरा!
जरा अपने चारों तरफ देखो, अंधों ही अंधों की जमात है! मुर्दों की भीड़ है। और ये मुर्दे ही नेता हैं। ये मुर्दे ही अनुयायी हैं। ये मुर्दे ही पुरोहित हैं। ये मुर्दे ही मंदिरों में पूजा-पाठ करा रहे हैं, हवन-यज्ञ करा रहे हैं। और मुर्दे ही सम्मिलित हो रहे हैं। मुर्दों के कुंभ मेले भर रहे हैं, करोड़ों मुर्दे इकट्ठे हो रहे हैं। हज-यात्रा पर मुर्दे जा रहे हैं।
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
मुवा मुई को ब्याहता रे,...
मुर्दा ही मुर्दा स्त्री से विवाह कर रहा है।
...मुवा ब्याह करि देइ।।
और कोई मरा हुआ पंडित जंतर-मंतर पढ़ कर विवाह करवा देता है।
मुए बराते जात हैं,...
मुर्दे बरात में जा रहे हैं।
...एक मुवा बधाई लेइ, हो।
और मुर्दे ही बरात का स्वागत कर रहे हैं।
मुवा मुए से लड़न को, मुवा जोर लै जाइ।
बड़ा मजा चल रहा है, मुर्दे ताल ठोक रहे हैं! एक-दूसरे से लड़ने को आतुर हो रहे हैं, भुजाएं फड़फड़ा रहे हैं।
मुरदे मुरदे लड़ि मरे, मुरदा मन पछिताइ, हो।
मुर्दे मुर्दे लड़ जाते हैं, मर जाते हैं, बाकी जो बचे मुर्दे हैं वे पछताते हैं, वे रोते हैं। वे आंसुओं के फूलों के उपहार चढ़ाते हैं।
इस मुर्दा बस्ती को जरा गौर से देखो!
दो बुढ़ियाएं आपस में बातें कर रही थीं। एक ने कहा: सामने जो नौजवान लड़का रहने आया है, उसने मुझे चांद कहा है।
दूसरी बुढ़िया ने हैरत से पूछा: वह कैसे?
पहली बुढ़िया कहने लगी: कल रात मेरी बेटी सड़क पर जा रही थी, तो उस नौजवान ने उसे देख कर कहा: हाय! क्या चांद का टुकड़ा है!
बुढ़ापा आ जाए, मगर होश नहीं आता। वही बेहोशी, वही बचपना। उम्र से लोग बड़े हो जाते हैं, मगर बोध से नहीं।
चंदूलाल ने कहा: दुनिया में एक से बढ़ कर एक चीजें हैं। जो चीज देखो, मन होता है, काश, यह मेरी होती! लेकिन मनुष्य की क्षमता बहुत कम है; उसे हमेशा चुनाव करना होता है।
ढब्बू जी बोले: भाई, कुछ उदाहरण दो, तब तुम्हारी बात समझ में आएगी।
सुनो--चंदूलाल ने समझाया--इनसान एक ही बार शादी कर सकता है, लेकिन दुनिया में इतनी खूबसूरत और लुभावनी स्त्रियां हैं कि उन्हें देख कर शादीशुदा आदमी भी सोचता है कि काश, कितना अच्छा होता अगर मैं अभी तक कुंआरा होता!
ढब्बू जी ने कहा: अच्छा, अब मेरी समझ में बात आई। मेरे जीवन में भी एक ऐसी स्त्री है जिसे देख कर खयाल आता है कि काश, मैं अभी तक कुंआरा होता तो कितना बढ़िया रहता!
कौन है वह स्त्री--चंदूलाल ने अधीरता से पूछा--यहीं मोहल्ले में रहती है, इसी शहर में?
ढब्बू जी ने कहा: इसी शहर में, इसी मोहल्ले में, इसी घर में--मेरी धरम-पत्नी! उसे देख कर मुझे एक ही खयाल आता है कि काश, मैं भी कुंआरा होता!
इस जगत में अभाव रहे तो खलता है; कुछ न मिले तो अखरता है, कुछ मिल जाए तो अखरता है। गरीब परेशान है कि धन नहीं। धनी परेशान है कि धन है, मगर और कुछ नहीं है। धन का क्या करूं! धन का क्या हो! गरीब परेशान है कि सोने को बिस्तर तक नहीं। और अमीर परेशान है कि बिस्तर तो है, मगर नींद नहीं आती। करवटें बदलते रात गुजर जाती है।
इस सत्य को देख कर तुम चौंकते हो या नहीं, कि गरीब देशों में आत्महत्या कम होती है, अमीर देशों में ज्यादा? क्या कारण है? होना उलटा चाहिए। गरीब देशों में आत्महत्या ज्यादा होनी चाहिए। लोगों के पास कुछ नहीं है। लेकिन नहीं, यह नहीं होता। अमीर देशों में लोग ज्यादा पागल होते हैं, गरीब देशों में कम। मामला बड़ा अदभुत है। गणित कुछ उलटा है। गरीब देशों में पागल होने चाहिए। लेकिन गरीब देश में आशा होती है; अभी मिला नहीं है, मिलेगा, कल मिलेगा, परसों मिलेगा--आशा जिलाए रखती है। लेकिन अमीर को सब मिल गया है, सब आशा टूट गई। अब आगे सब अंधेरा है। कोई आशा नहीं। अमावस, जो कभी टूटेगी, इसकी भी कोई संभावना नहीं है। अब अमीर करे तो क्या करे? या तो पागल हो जाए या समाप्त कर ले अपने को। ऐसी जिंदगी जीने से क्या फायदा, जहां आशा भी न हो! गरीब तो थोड़ी-बहुत आशा चलाए रखता है, जिलाए रखता है। थोड़ी सी जगमग उसके भीतर बनी रहती है कि अब पहुंचा, अब पहुंचा, यह मंजिल दो ही कदम रह गई। यह मंजिल कभी मिलती ही नहीं, यह हमेशा दो ही कदम रहती है; और मिल जाए, तो उससे बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं।
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
मुवा मुई को ब्याहता रे,...
मुर्दे मुर्दों से विवाह रचा रहे हैं, भांवरें पड़ रही हैं। और फिर मुर्दों से विवाह रचाओगे, भांवरें पड़वाओगे, तो फल भी पाओगे।
झगड़ा हो जाने पर मुल्ला नसरुद्दीन की बीवी ने सूटकेस उठाते हुए कहा: लो मैं चली अपनी अम्मा के घर!
शौक से जाओ--मुल्ला बोला--मगर तुम्हें पता नहीं है, अब तो बहुत देर हो चुकी है।
उसकी पत्नी ने कहा: तुम्हारा मतलब?
नसरुद्दीन ने कहा: मतलब यह है कि तुम्हारी अम्माजान अपने पति परमेश्वर से लड़-झगड़ कर खुद अपनी अम्माजान के यहां चली गई हैं। आज ही यह खत आया है। और मेरा विचार है कि वे शायद ही अपनी अम्माजान को वहां पाएं।
ठीक कहते हैं मलूकदास: मुवा मुई को ब्याहता रे, मुवा ब्याह करि देइ।
नसरुद्दीन ढब्बू जी से कह रहे थे: मेरी पत्नी तो स्वर्ग की परी है, परी!
ढब्बू जी ने कहा: नसरुद्दीन, तुम किस्मत वाले हो।
नसरुद्दीन ने कहा: मतलब?
ढब्बू जी ने कहा: मेरी तो अभी जिंदा है।
मुए बराते जात हैं, एक मुवा बधाई लेइ, हो।
मुवा मुए से लड़न को, मुवा जोर लै जाइ।
मुरदे मुरदे लड़ि मरे, मुरदा मन पछताइ, हो।।
यह सारा संघर्ष, यह सारा उपद्रव मुर्दों के कारण है। मुर्दे लड़ते हैं तभी उनको थोड़ा लगता है कि जीवन है; टकराते हैं एक-दूसरे से, तो थोड़ा सा लगता है कि हां, हम भी कुछ हैं! जरा ताकत आजमाते हैं, तो लगता है कि नहीं, अभी मरे नहीं।
एक अमरीकन कहानी मैं पढ़ रहा था।...अमरीका में ही ऐसी कहानी घट सकती है। अभी दूसरे देश इतने भाग्यशाली नहीं।...एक पचहत्तर साल की बुढ़िया अपनी सहेली दूसरी बुढ़िया को कह रही थी कि कल रात एक बुड्ढे के साथ मैंने बिताई। लेकिन चार-छह दफे उसे मुझे चांटा लगाना पड़ा।
दूसरी बुढ़िया ने पूछा: अरे! क्या बुड्ढा छेड़ाखानी कर रहा था? ज्यादा छेड़खानी कर रहा था, कितनी उमर थी?
बुढ़िया ने कहा: होगा कोई पचासी साल का।
दूसरी बुढ़िया बोली: हद हो गई! तुझे दो-चार दफे चांटा मारना पड़ा!
उसने कहा: हां, मुझे दो-चार दफे चांटा मारना पड़ा। लेकिन तू गलत समझ रही है! छेड़ाखानी नहीं कर रहा था। मुझे दो-चार दफे चांटा मारना पड़ा, तब मुझे पता चला कि जिंदा है कि मर गया। जब मैं चांटा मारूं तब थोड़ा हिले-डुले। नहीं तो बिलकुल मुर्दे की भांति।
ढब्बू जी चुनाव लड़ रहे हैं। उन्होंने पटाखा अपना चुनाव-चिह्न चुना है। किसी ने पूछा कि ढब्बू जी, बहुत तरह के चुनाव-चिह्न देखे, पटाखा! इसका राज?
ढब्बू जी ने कहा: इसलिए कि यह फूट भी सकता है और फुस्स भी हो सकता है। इसमें दोनों गुण हैं, जो हो जाए। लग जाए तो तीर, न लगे तो तुक्का। दोनों हाथ बाजी अपनी है।
लोग लड़ते हैं। लड़ने का कारण है। सबसे बड़ा कारण है कि लड़ने में थोड़ी उन्हें गरमी मालूम होती है, जिंदगी मालूम होती है; लगता है मैं भी हूं, मैं भी कुछ हूं! थोड़े अहंकार को भोजन मिलता है। अगर लोग लड़ें न तो उनका भरोसा ही खो जाए कि हम जिंदा भी हैं कि मर गए!
पति आकर पत्नी से कुछ कहे न, बोले न, चुपचाप बैठ जाए, तो पत्नी नाराज, कि तुम्हें क्या हो गया है, सांप सूंघ गया है? चुप क्यों बैठे हो? अगर पति बोले तो झंझट।
एक छोटा सा लड़का एक दूसरे लड़के से कह रहा था कि मेरी मां गजब की है! बस, एक जरा सा विषय उसे दे दो, घंटों बोलती है!
दूसरे ने कहा: यह कुछ भी नहीं! अरे, मेरी मां, विषय इत्यादि का सवाल ही नहीं और घंटों बोलती है! पिता जी बिलकुल चुप बैठे रहते हैं और मां मेरी बोले चली जाती है। वह इसकी फिकर ही नहीं करती कि कोई विषय भी है या नहीं।
कारण है। कारण यही है कि अगर पति चुप बैठे तो पत्नी को लगता है कि जिंदगी गई! जिंदगी वही है: खटर-पटर। बर्तन...बर्तन थोड़े एक-दूसरे से टकराते हैं, थोड़ी आवाज होती रहती है, शोरगुल होता रहता है, लगता है जिंदगी है।
जरा तुम सोचो कि अगर सब सन्नाटा हो जाए, लोग लड़ना-झगड़ना बंद कर दें, लोग चुपचाप बैठें, शांत, मौन--शक पैदा हो जाएगा कि क्या हो गया? आज बात क्या है? सब कोलाहल कहां गया? इतना सन्नाटा क्यों? सन्नाटा काटने लगेगा।
मलूकदास का निरीक्षण ठीक है: मुरदे मुरदे लड़ि मरे! तलवारें खींच लेते हैं मुर्दे।
जापान में एक कहावत है कि आदमी जब मरता है तभी उसे पता चलता है कि अरे, मैं जिंदा था! मरने की घटना झकझोर देती है। होश आता है कि अरे, मैं जिंदा था! जिंदगी इतना नहीं झकझोर पाती। जब तक मौत ही तुम्हें न झकझोर दे, जब तक मौत ही तुम्हारी जड़ों को न उखाड़ने लगे, तब तक तुम्हारी नींद ही नहीं टूटती, तुम्हारे सपने ही नहीं टूटते। ऐसी गहरी तंद्रा है। और फिर पीछे जो रह जाते हैं, वे भी मुर्दे हैं, वे पछताते हैं।
जीसस का बहुत प्रसिद्ध वचन है, मुझे बहुत प्यारा है।
जीसस सुबह-सुबह एक झील पर रुके। सूरज उग रहा है और झील पर एक मछुवे ने अपना जाल फेंका है--मछलियां पकड़ने के लिए। जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखा। उस मछुवे ने लौट कर पीछे देखा कि कौन है! एक अजनबी आदमी--और अदभुत आदमी! ऐसा आदमी जैसा मछुवे ने कभी देखा नहीं था। झील भी इसकी आंखों के सामने झेंप जाए। इसकी आंखें ज्याद गहरी, झील से ज्यादा गहरी। झील की नीलिमा कुछ भी नहीं, इसकी आंखों की नीलिमा कुछ और! इसके चेहरे पर छाप किसी और लोक की, जैसे अभी-अभी उतरा हो आकाश से! सुबह की ओस की तरह ताजा, सुबह की पहली सूरज की किरण की तरह ताजा! वह ठगा रह गया, देखता ही रह गया!
जीसस ने कहा: अब देखते क्या हो? आओ मेरे साथ! कब तक मछलियां पकड़ते रहोगे? बहुत पकड़ लीं मछलियां। जिंदगी मछलियां पकड़ने में ही गंवाने को नहीं है। आओ मेरे साथ, मैं तुम्हें आदमियों को पकड़ना सिखाऊं।
मछुआ भी हिम्मत का रहा होगा। इतनी श्रद्धा, इतने अजनबी आदमी के साथ! और जीसस जैसे व्यक्ति हमेशा ही अजनबी होते हैं। पहले दिन मिलें तो अजनबी और तुम वर्षों उनके साथ रहो तो अजनबी। क्योंकि वे किसी और लोक के हैं। जब तक तुम जाग ही न जाओ तब तक वे अजनबी ही रहते हैं। उस मछुए ने जाल वहीं फेंक दिया और वह जीसस के पीछे हो लिया। गांव के बाहर निकलते थे, तब एक आदमी भागा हुआ आया और उसने मछुए से कहा: पागल, तू कहां जा रहा है? तेरे पिता बीमार थे, उन्होंने दम छोड़ दी, घर चल! उस मछुए ने जीसस से कहा: क्षमा करें! मैं तो आपके पीछे आता था, लेकिन अब यह दुर्घटना घट गई। जाऊं घर, अंतिम संस्कार करके दो-चार दिन में लौट आऊंगा। जीसस ने कहा: फिकर छोड़। गांव में काफी मुर्दे हैं, वे मुर्दे को जला देंगे। तू मेरे पीछे आ!
जीसस का वचन बड़ा हैरान करने वाला है: गांव में बहुत मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना देंगे, तुझे क्या फिकर पड़ी! तू मेरे साथ आ, मैं तुझे जिंदा होने का राज बताऊं! मैं तुझे जिंदगी से मिलाऊं! मैं तुझे जीवित कर सकता हूं, मेरे साथ आ! अब तेरे पिता तो गए। मरे ही थे, कुछ नई बात नहीं हो गई है। श्वास चलती थी मुर्दे की, अब नहीं चलती, बस इतना ही समझो। मगर गांव में कई हैं श्वास जिनकी चल रही है, वे दफना देंगे।
हिम्मतवर मछुआ रहा होगा। नहीं लौटा। जीसस के पीछे ही चल पड़ा।
इतनी हिम्मत ही होनी चाहिए सदगुरु के पीछे चलने की, तो ही कोई कभी जाग सकता है। जीवित है सदगुरु, जीवंत है सदगुरु। उसके साथ जुड़ जाओ, उसकी लपट तुम्हारी लपट बन जाए, तो तुम भी जीवित हो सकते हो।
अंत एक दिन मरौगे रे, गलि गलि जैहे चाम।
एक दिन मरना होगा। एक दिन मृत्यु निश्चित है। जिस दिन जन्मे उसी दिन निश्चित हो गई है। मिट्टी में पड़ोगे, हड्डी-मांस-मज्जा सब गल जाएगी। उसके पहले जाग जाओ!
सांसों ने बार-बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
सांसों ने बार-बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
यादों के चाहे हों कैसे भी बांध
एक बार डूब नहीं उगे वही चांद
सपनों को बार-बार हेरा,
व्यर्थ गया पलकों का पहरा है!
एक बूंद से झांके सारा आकाश
कौन प्रहर जाने बन जाए इतिहास
नचा रही बीन या संपेरा,
झूम रहा सांप जो कि बहरा है!
चूक गए अवसर हर, रीते सब जाल
करते हम रहे सिर्फ तोतले सवाल
गीत गुनगुना रहा मछेरा,
सागर से भी पोखर गहरा है!
मोहरे सब चुके सिर्फ अब बची बिसात
कोलाहल बीत गया फिर सूनी रात
झांक रहा है परिचित चेहरा
कौन कहे शायद यह मेरा है!
सांसों ने बार-बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
समय टेर रहा है, पुकार रहा है। एक क्षण रुकेगा नहीं। मौत द्वार पर दस्तक देगी, प्रतीक्षा न करेगी। और मौत कब आ जाएगी, कहा नहीं जा सकता। कल होगा भी या नहीं, कुछ निश्चित नहीं है। इस क्षण के अतिरिक्त और कुछ निश्चित नहीं है। इस क्षण का उपयोग करो! इस अवसर को गंवाओ मत, जागो! तोड़ो अपनी नींद!
अंत एक दिन मरौगे रे, गलि गलि जैहे चाम।
ऐसी झूठी देह तें, काहे लेव न सांचा नाम, हो।।
यह देह झूठी है, इसके नाते-रिश्ते झूठे हैं।
कहां की बज्मे-आलम? यह तो मेरी तंग-फहमी है।
कि मैं इक चलती-फिरती छांव को महफिल समझता हूं।।
चलती-फिरती छांव, बस इतना ही हमारा पता-ठिकाना है। यह छांव कभी भी तिरोहित हो जाएगी। जरा धूप गहरी होगी और छांव तिरोहित हो जाएगी। इस छांव का क्या भरोसा है?
यह दुनिया तुम्हारे हाथ से गई-गई है। जैसे पारा छितर जाए, ऐसे यह सब छितर जाएगा। ये सब नाते-रिश्ते, ये सब सगे-संबंधी, ये मित्र-प्रियजन-परिजन--कोई काम न आएंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम भाग जाओ, छोड़ दो संसार, कि छोड़ दो पत्नी, कि छोड़ दो बच्चे। इसका इतना ही अर्थ है: रहो यहीं, जैसे हो वैसे ही, मगर लगाव जाने दो, आसक्ति जाने दो, आग्रह जाने दो। पत्नी को मत छोड़ो, मगर पत्नी पर जो पकड़ है, वह छोड़ दो। बच्चों को मत छोड़ो, लेकिन मेरे हैं, ऐसा जो आग्रह है, वह छोड़ दो।
मगर लोग बड़े अजीब हैं! वे कहते हैं: या तो हम आसक्ति रखेंगे, आग्रह रखेंगे, जंजीरें रखेंगे, चाहें रखेंगे और अगर हमसे चाहें, जंजीरें, आग्रह छोड़ने को कहते हो, तो हम फिर सब छोड़-छाड़ कर जंगल में भाग जाएंगे।
आए दिन मंत्री-पुत्रों और मंत्रियों के रिश्तेदारों को भ्रष्टाचार के मामलों में अखबारों की सुर्खियों में देख कर एक मुख्यमंत्री की पत्नी अपने युवा पुत्रों के बारे में बहुत चिंतित थी। उनको लगा कि उन्हें अपने पति को सलाह देनी चाहिए कि वे अपने पुत्रों से नाता तोड़ लें, अपने सभी रिश्तेदारों को पहचानना बंद कर दें।
काम-काज निबटा कर मुख्यमंत्री घर पधारे। सोने से पहले उन्होंने अपने पति से कहा: तुम तो अपने सभी रिश्तेदारों को पहचानना ही बंद कर दो। मुख्यमंत्री पति ने गंभीरता के साथ सारी बात सुनी और अजनबी दृष्टि से घूर कर पत्नी को करीब-करीब अनजानी सा देखता हुआ पूछा: आपका शुभ नाम?
इतने जल्दी!
मगर लोग ऐसे ही हैं; या तो कुआं या खाई! या तो पकड़ेंगे तो पागल की तरह! पागलपन न छोड़ेंगे, छोड़ेंगे तो पागल की तरह, मगर पागलपन न छोड़ेंगे! तुम्हारे भोगी पागल, तुम्हारे योगी पागल। भोगी पागल की तरह पकड़ते हैं, योगी पागल की तरह छोड़ देते हैं। मैं चाहता हूं कि मेरा संन्यासी पागल न हो। छोड़ने-पकड़ने में क्या रखा है! छांव ही है, पकड़ो तो कुछ सार नहीं, छोड़ो तो कुछ सार नहीं। छांव को कोई पकड़ता-छोड़ता है! छांव-छांव है, इतना जानो, बस इतना होश रहे।
आता है जज्बे-दिलको, वह अंदाजे-मैकशी।
रिंदों में रिंद भी रहें, दामन भी तर न हो।।
मैखाने में भी बैठो तो कुछ हर्ज नहीं, रिंदों में भी बैठो तो कुछ हर्ज नहीं, पियक्कड़ों में भी बैठो तो कुछ हर्ज नहीं; तुम्हारा दामन तर न हो, बस इतना ही खयाल रहे।
आता है जज्बे-दिलको, वह अंदाजे-मैकशी।
रिंदों में रिंद भी रहें, दामन भी तर न हो।।
पीने का भी एक सलीका है, एक राज है, एक कला है। मगर लोग तो ऐसे हैं कि जिंदगी में तो संसार में उलझे ही रहते हैं, मर जाएं तो भी संसार में ही उलझे-उलझे मरते हैं।
नसरुद्दीन की पत्नी मरी। नसरुद्दीन तो बहुत पहले मर चुका था; पत्नी मरी, स्वर्ग के द्वार पर उसने पहरेदार से पूछा कि कुछ मुल्ला नसरुद्दीन का पता बता सकते हो? दस साल हो गए मेरे पति को मरे। पहरेदार ने कहा कि यहां तो न मालूम कितने नसरुद्दीन हैं, सदियों-सदियों से लोग मरते रहे हैं। कुछ ठीक-ठीक निशान अपने पति का बताओ, सिर्फ नाम से काम न चलेगा। कौन मुल्ला नसरुद्दीन? यहां मुल्लाओं की कोई कमी है, नसरुद्दीनों की कोई कमी है? यहां तो भीड़ है, करोड़ों-अरबों लोग हैं! पत्नी ने कहा: अब और क्या निशान बताऊं, इतना ही कह सकती हूं कि मरते वक्त नसरुद्दीन ने मुझसे कहा था कि देख, एक बात याद रखना, मैं तो मर रहा हूं, मगर मेरे बाद किसी पुरुष की तरफ आंख भी उठाकर मत देखना। अगर तूने किसी पुरुष की तरफ आंख भी उठा कर देखी तो मैं कब्र में करवटें बदलूंगा। पहरेदार ने कहा: फिर घबड़ा मत, फिर हम पहचान गए। तेरा मतलब घनचक्कर नसरुद्दीन, जो चौबीस घंटे करवटें बदलता रहता है? वह जब से यहां आया है, यही काम करता है।
लोग मर जाएं तो भी इस संसार पर पकड़ रखते हैं। मर गए, मगर पत्नी पर अभी भी पकड़ है कि कहीं पत्नी किसी दूसरे पुरुष को न देख ले।
कुछ लोग हैं, यहां संसार में रहते हैं और संसार को अपने में नहीं रहने देते, वे ही संन्यासी हैं। और कुछ लोग हैं, जो मर भी जाते हैं तो भी संसार उनके भीतर बसा ही रहता है।
बाद मरने के भी दिल लाखों तरह के गम में है।
हम नहीं दुनिया में लेकिन एक दुनिया हम में है।।
मर जाते हैं, दुनिया से छूट जाते हैं; मगर दुनिया उनके भीतर बसी है, उससे कैसे छूटें? वे जो भाग जाते हैं संसार से, सिर्फ भगोड़े हैं, संन्यासी नहीं। वे अपनी गुफाओं में बैठ कर भी संसार की ही चिंता करते हैं, यहीं की फिक्र में लगे रहते हैं, यहीं का हिसाब-किताब बिठाते रहते हैं। और वहां भी संसार ही फिर बना लेंगे। बनाना ही पड़ेगा। क्योंकि संसार से भाग जाओगे, लेकिन मन कैसे बदलेगा? उसी मन ने यहां संसार बनाया था, वही मन वहां संसार बना लेगा।
मैं एक मित्र को जानता हूं, उन्हें मकान बनाने का शौक। ऐसा शौक, खुद तो अपना मकान उन्होंने बनाया ही सुंदर, बहुत सुंदर! वे प्लेटो के इस कथन में विश्वास करते थे, प्लेटो ने कहा है कि हर आदमी को कम से कम एक सुंदर मकान पृथ्वी पर बनाना चाहिए। प्लेटो को भी सुंदर मकानों में बड़ा रस था। इस सज्जन ने अपनी दीवाल पर प्लेटो का वचन लिख रखा था कि हर आदमी को कम से कम मरने के पहले संसार में एक सुंदर मकान बनाना चाहिए।...इन्होंने एक नहीं, कई मकान बनाए। एक बन जाता कि उसको बेच कर दूसरा बनाते। ऐसा ही नहीं, मित्रों के मकान बनते होते तो भी वे दिन-रात वहां खड़े रहते।
फिर वे संन्यासी हो गए।...मेरे संन्यासी नहीं, भगोड़े संन्यासी हो गए। कोई दस साल बाद मैं उनके आश्रम के पास से गुजरता था, तो मैंने कहा जरा देख तो लूं कि हालतें क्या हैं। बस, वे छाता लगाए भरी दोपहरी में मकान बनवा रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि भलेमानुस, यह क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा: आश्रम बनवा रहा हूं! जरा देखो भी! जिंदगी भर जो मकान बनाए, उन सबकी कला इसमें ढाल दी है। एक चीज रहेगी! मैंने कहा: तुम संसार से छोड़ कर भाग आए, मगर तुम तो तुम ही हो। वहां मकान बनवाते थे, यहां आश्रम बनवाते हो। मगर फर्क क्या पड़ा? तो वहीं रहने में क्या हर्ज था, मकान ही बनवाते रहते! सिर्फ मकान का नाम आश्रम हो गया तो फर्क हो गया?
मन वही है तो फिर संसार वही का वही निर्मित हो जाएगा। मन में सारे बीज हैं। मन से छुटकारा संन्यास है; संसार से छुटकारा नहीं। मन गया कि संसार अपने-आप चला जाता है।
इस मन के जाने को, मन की इस मृत्यु को मलूकदास ने बड़े प्यारे शब्दों में प्रकट किया है--ठीक वैसे प्यारे शब्दों में जैसा तुम्हें याद होगा गोरखनाथ का वचन। गोरख ने कहा है:
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी मर गोरख दीठा।।
मरौ हे जोगी मरौ!...मरने की एक कला है, बड़ी से बड़ी कला है। मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा! बहुत मिठास है मरण में। लेकिन किस मरण में? एक तो यह सारी दुनिया है, जहां मुर्दे घूम रहे हैं, इस मृत्यु की बात नहीं हो रही है। यह किसी और ही मृत्यु की बात हो रही है। उस मृत्यु की जो महाजीवन से जोड़ देती है; शाश्वत मिठास बरस जाती है; एक सुगंध उतर आती है--सत्य की, सौंदर्य की, शिवत्व की, अमरत्व की।
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
तिस मरणी मरौ,...
मरने का भी ढंग है, वैसा मरना।
तिस मरणी मरौ,...
उस ढंग का मरण हो!...
...जिस मरणी मर गोरख दीठा।
जैसे गोरख मरा, मन को मार कर मरा! और मन जहां मरा कि वहीं दर्शन है। मन की मृत्यु परमात्मा का दरस, परमात्मा का परस।
ठीक वैसा ही वचन मलूकदास का--
मरने मरना भांति है रे,...
मरने मरने में फर्क है, रे! एक तो सारी दुनिया है जो मुर्दा है, यह भी एक मरना है। और एक और मरना है जो संन्यासी का है, जो ज्ञानी का है।
मरने मरना भांति है रे, जो मरि जानै कोइ।
अगर मरने की कला आती हो, मरना आता हो, तो मरने मरने में फर्क है। दो तरह के मरने हैं। एक तो दुनिया का मरना है कि लोग बेहोश हैं और मरे हुए हैं और एक होश का मरना है।
मरने मरना भांति है रे, जो मरि जानै कोइ।
रामदुवारे जो मरे, वाका बहुरि न मरना होइ, हो।।
जो राम के द्वार पर मर जाता है! जो अहंकार को समर्पित कर देता है परमात्मा को! जो कहता है: तुम रहो अब मेरे भीतर, मैं नहीं रहूंगा, मैं चला, मैं विदा हुआ! जो अपने हृदय को परमात्मा का आवास बना लेता है।...मंदिर मत बनाओ! पत्थर-ईंटों से बने हुए मंदिर परमात्मा का आवास नहीं हो सकते। हृदय का मंदिर बनाओ! हृदय की यात्रा करो; वही तीर्थ-यात्रा है। रामदुवारे जो मरे! राम के द्वार पर मरना। एक ही शर्त है। उस द्वार पर हमेशा से एक ही शर्त है: अपने को बाहर छोड़ दो तो तुम भीतर जा सकते हो। शर्त जरा बेबूझ है। जरा उलटबांसी है, एकदम से समझ में न आए; क्योंकि तुम कहोगे: अपने को बाहर छोड़ दूं! तो फिर भीतर कौन जाएगा?
तुम दो हो। एक तुम हो जो झूठ है; वही तुम्हारा अहंकार है। और एक तुम हो जो तुम्हारा सत्य है; वही तुम्हारी आत्मा है। झूठ को बाहर छोड़ दो, सत्य को भीतर जाने दो। लेकिन अभी तो तुमने झूठ को ही समझ रखा है कि यह मैं हूं--नाम-धाम, पता-ठिकाना, सोचते हो यही मैं हूं। शरीर मैं हूं, मन मैं हूं। यह तुम नहीं हो। न तुम शरीर हो, न तुम मन हो, न तुम विचार, न तुम वासना। इन सबके साक्षी हो तुम। इन सबसे भिन्न और इन सबके पार हो तुम।
उस साक्षी को जगाओ। देखो अपनी देह को और तादात्म्य तोड़ लो देह से। मत कहो कि मैं देह हूं। इतना ही कहो कि मैं देह में हूं। देह के भीतर निवास कर रहा हूं। देह मेरा घर--एक अस्थायी आवास; सराय, धर्मशाला। आज रुके, कल विदा हुए। और मैं मन भी नहीं हूं। क्योंकि जो भी मैं देख सकता हूं, वह मैं नहीं हो सकता।...मन को तुम देख सकते हो। विचारों की धारा चलती रहती है, तुम देख सकते हो: यह एक विचार आया, दूसरा गया; एक वासना उठी, दूसरी उठी; सतत चल रही है धारा वहां। क्रोध आया, मोह आया, लोभ आया, तुम देख सकते हो। तो निश्चित ही एक बात तय हो गई कि तुम क्रोध नहीं, तुम मोह नहीं, तुम लोभ नहीं। तुम देखने वाले हो, तुम दृष्टा हो! इस दृष्टा के साथ तुम अपने को समग्ररूपेण जोड़ लो। यही तुम्हारा स्वरूप है। यही तुम्हारा सत्य है। यही तुम्हारा परमात्मा है। बस अहंकार गया--जैसे ही शरीर और मन से संबंध छूटा, अहंकार गया; उसी को मृत्यु कह रहे हैं।
मरने मरना भांति है रे, जो मरि जानै कोइ।
मर जाओ शरीर के तरफ से, मर जाओ मन के तरफ से, तो तुम जीवित हो जाओगे साक्षी की तरह!
रामदुवारे जो मरे, वाका बहुरि न मरना होइ, हो।
और यह है राम के दरवाजे पर मरने की कला। और जो राम के दरवाजे पर मर गया, उसका फिर दुबारा मरना नहीं होता। फिर बचता ही नहीं कुछ दुबारा मरने को। तुमको तो बहुत बार मरना पड़ा है और बहुत बार मरना पड़ेगा। जब तक राम के द्वार पर न मरोगे, तब तक द्वार-द्वार पर मरना पड़ेगा। अनंत श्रृंखला है। जन्म और मृत्यु की। लेकिन एक मरने से काम हल हो जाता है; क्योंकि उस एक मरने से महाजीवन मिल जाता है जिसकी कोई मृत्यु नहीं है।
इनकी यह गति जानिके, मैं जहं-तहं फिरौं उदास।
मलूक कहते हैं कि लोगों की यह गति मैं देखता हूं कि कितने जन्मे, कितने मरे, फिर भी उसी में लगे हैं! वही चक्कर, वही उपद्रव जारी है; वही मूर्च्छा, वही बेहोशी! इनको देख कर मन उदास होता है। इन पर दया आती है। क्या करूं, कैसे इन्हें जगाऊं?...यही सब सदगुरुओं की पीड़ा है।
इनकी यह गति जानिके, मैं जहं-तहं फिरौं उदास।
अजर अमर प्रभु पाइया, कहत मलूकदास, हो।।
मलूकदास कहता है कि सुनो, मैंने अजर-अमर प्रभु पा लिया--एक छोटी सी बात से, एक छोटी सी कुंजी से, कि मैं राम के द्वार पर मर गया। तुम भी मरो, ताकि शाश्वत को पा लो!
रामदुवारे जो मरे!
आज इतना ही।
दरस किए सुख पाइए, पूजै मन आसा।।
साकट के घर साधजन, सुपनैं नहिं जाहीं।
तेइ-तेइ नगर उजाड़ हैं, जहं साधू नाहीं।।
मूरत पूजैं बहुत मति, नित नाम पुकारैं।
कोटि कसाई तुल्य हैं, जो आतम मारैं।।
परदुख-दुखिया भक्त है, सो रामहिं प्यारा।
एक पलक प्रभु आपतें नहिं राखैं न्यारा।।
दीनबंधु करुनामयी, ऐसे रघुराजा।
कहैं मलूक जन आपने को कौन निवाजा।।
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
मुवा मुई को ब्याहता रे, मुवा ब्याह करि देइ।।
मुए बराते जात हैं, एक मुवा बधाई लेइ, हो।।
मुवा मुए से लड़न को, मुवा जोर लै जाइ।
मुरदे मुरदे लड़ि मरे, मुरदा मन पछिताइ, हो।।
अंत एक दिन मरौगे रे, गलि गलि जैहे चाम।
ऐसी झूठी देह तें, काहे लेव न सांचा नाम, हो।।
मरने मरना भांति है रे, जो मरि जानै कोइ।
रामदुवारे जो मरे, वाका बहुरि न मरना होइ, हो।।
इनकी यह गति जानिके, मैं जहं-तहं फिरौं उदास।
अजर अमर प्रभु पाइया, कहत मलूकदास, हो।
अजर अमर प्रभु पाइया, कहत मलूकदास, हो।।
ऊपर कदम तरु पर
बांसुरी बजाते तुम जब ढलती दोपहर
स्वर ऊपर खिंचता हवाओं को खनकाता
शाम धुली अलसाई जमुना के आर-पार
पगडंडी, गांव-गली, घर-आंगन लहराता
सुर-नर-मुनि, जड़-चेतन सब पर करता टोना
नीचे मैं पोखर
कदम तरु के तले एक कच्ची तलैया भर
मैं क्या भला वंशी स्वर को पकड़ पाता?
मुझको मिला सिर्फ तुम्हारी जलछाया का भार
क्षणभंगुर साया जो दिन ढलते खो जाता
रह जाता मैला जल फैला कोना-कोना
वंशी पर तुमने जो भी जादू गाया हो
पर,
कसम धरा लो जो मैंने कुछ भी पाया हो!
बंधती होगी जमुना की धारा वंशी से
यहां तो हमेशा से बंधा हुआ पानी है
कीचड़ है, काई है, सड़े-गले-पत्ते हैं
गंदे जल-सांपों की रेंगती निशानी है
होगी कोई राधा जो खिंच आती होगी
सम्मोहित गति, खिसका आंचल, अधखुल पायल
मुझमें तो केवल कुछ थकी हुई लहरें बस
अपने से टकरातीं अपने से ही घायल
ऊपर मेरे तट पर
बजता रहा वंशी स्वर
करता रहा सुर-नर-मुनि, जड़-चेतन पर टोना
नीचे मैं पोखर
रहा ज्यों-का-त्यों कीचड़ भर
व्यास को जो दिखा नहीं
सूर ने जो लिखा नहीं
मेरे हित सारी यह लीला असंगत रही
बिलकुल निरर्थक रहा मेरा होना
कदम के तले होना, न होना
ऊपर कदम तरु पर
बांसुरी बजाते तुम जब ढलती दोपहर
स्वर ऊपर खिंचता हवाओं को खनकाता
शाम धुली अलसाई जमुना के आर-पार
पगडंडी, गांव-गली, घर-आंगन लहराता
सुर-नर-मुनि, जड़-चेतन सब पर करता टोना
विश्व एक जादू से व्याप्त है। बांसुरी बज ही रही है। हम बहरे हैं। कृष्ण का गीत उठ ही रहा है। हमारी सुनने की सामर्थ्य नहीं। सामने ही है परमात्मा और हम आंख बंद किए खड़े हैं। सूरज उसका निकला ही है। सूरज उसका कभी डूबता ही नहीं। रात उसके लोक में होती ही नहीं। अंधकार से उसकी पहचान ही नहीं। वहां चांदनी ही चांदनी है। वहां पूर्णिमा ही पूर्णिमा है। न कुछ कम होता न ज्यादा; सब वैसा का वैसा है। लेकिन हम?...बस ऐसे ही हैं जैसे कीचड़ का पोखर--सड़ता और गलता। हमारे जीवन में नहीं कमल खिलता। खिल सकता है। सड़े-गले पोखर में भी कमल खिल सकता है। सड़े-गले पोखर में ही कमल खिलता है।
कमल खिलने की क्षमता हमारे भीतर है। सामर्थ्य हमारी है। थोड़ा श्रम चाहिए। थोड़ी साधना चाहिए। थोड़ी सजगता चाहिए। थोड़े सत्य को खोजने की आकांक्षा, अभीप्सा चाहिए। तो अभी फूट पड़े बीज। अभी उग आए कमल। अभी उठ आए कमल, हो जाए पार कीचड़ से, हो जाए पार पोखर से, बात करने लगे चांद-तारों से, सुगंध उठे उसकी और कमल पहचान ले तत्क्षण बांसुरी को और कमल पहचान ले तत्क्षण राधा की पायल को।
कमल हमारा प्रतीक है सदियों से--चैतन्य के खुल जाने का। सहस्रदल कमल! जब तुम्हारी चेतना पूरी की पूरी अनावृत हो जाती है, सब आच्छादन टूट जाते हैं, सब द्वार-दरवाजे खुल जाते हैं--तभी जानना कि तुम जीवित हो, अन्यथा तुम मृत हो!
ठीक कहते हैं मलूकदास--
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
कहते हैं कि मैंने मुर्दे ही मुर्दे देखे। सारा जगत छान डाला, मुर्दों के अतिरिक्त मुझे कोई जिंदा न मिला।
थोड़ा सोचो, तुम जिंदा हो या मुर्दा? मलूकदास तुम्हारी ही बात कर रहे हैं, किसी और की नहीं। सोचो, कीचड़ ही रहना है या कमल बनना है? विचारो, संकल्प को जगने दो, समर्पण को घटने दो, कीचड़ ही रह कर नहीं मर जाना है। नहीं तो जीए, न जीने के बराबर। जीए ही नहीं, बस रोज मरे और मरे। जन्म के बाद मरते ही रहे, मरते ही रहे। सत्तर साल लगे मरने में कि अस्सी साल, इससे क्या फर्क पड़ता है? लोग अपनी मरणशय्या पर पड़े हैं।
सोई सहर सुबस बसे, जहं हरि के दासा।
मलूकदास कहते हैं: बस जानना कि वही नगर आनंदमग्न है, जहां हरि के दास निवास करते हैं। बाकी तो सब मरघट हैं। बाकी तो नगर नहीं हैं।
इब्राहीम बड़ा सूफी फकीर हुआ। उससे कोई पूछता...उसने झोपड़ा बना रखा था राजधानी बल्ख के बाहर...कोई उससे पूछता: बस्ती का रास्ता कहां है? कहता: बाएं चले जाओ। भूल कर दाएं मत जाना। दायां रास्ता मरघट का है। लोग उसकी बात मान लेते। फकीर, मानने जैसा भी लगता, उसकी बातों में बल भी दिखता, उसकी आंखों में ज्योति, उसकी उपस्थिति, गवाही, कि वह ठीक ही कहता होगा और ऐसी बात झूठ कोई क्यों कहेगा! साधारण राहगीर भी किसी को गलत रास्ता नहीं बताता। लेकिन लोग लौटते घंटे दो घंटे बाद, बड़े नाराज लौटते, बड़े गुस्से में लौटते, लड़ने-झगड़ने को लौटते। इब्राहीम से कहते कि तुम होश में हो या पागल हो? तुमने मरघट भेज दिया। और हमने दूसरों से पता लगाया, मरघट पर जो लकड़ियां बेचता है उससे पता लगाया तो पता चला कि गांव तो दूसरी तरफ है। जिस तरफ तुमने मरघट बताया वहां गांव है और जहां तुमने गांव बताया वहां मरघट है।
इब्राहीम ने कहा: क्षमा करो--रोज कहता, क्षमा करो--अपनी-तुपनी भाषा अलग। तुमसे झूठ नहीं बोला हूं। जिसको तुम बस्ती कहते हो, वह बस्ती नहीं है, क्योंकि वहां कोई कब बसा रह सका? बस्ती तो उसे कहना चाहिए जहां बसे सो बसे। जिसको तुम मरघट कहते हो, उसको मैं बस्ती कहता हूं कि वहां जो बस गया एक बार सो बस गया, फिर कभी उजड़ता नहीं। और तुम जिसको बस्ती कहते हो, वहां रोज लोग उजड़ रहे हैं, वहां रोज लोग मर रहे हैं। उसको बस्ती कहते हो! जहां पंक्तिबद्ध लोग खड़े हैं मरने को, उसको बस्ती कहते हो! तो क्षमा करना, भाई! मेरी तुम्हारी भाषा अलग है। भाषा की भूल हो गई। जान कर तुम्हें भटकाया नहीं। तुमने अगर मरघट पूछा होता, तो मैं तुम्हें उस जगह भेज देता जिसको तुम बस्ती कहते हो। लेकिन तुम बस्ती जाना चाहते थे, तो मैंने तुम्हें बस्ती भेज दिया। बस्ती? वही, जहां बसे हुए कभी उजड़ते नहीं।
हमारी बस्तियों से तो मरघट बेहतर हैं। हमारी बस्तियों में सिवाए उपद्रव के, झंझटों के, जंजाल के और क्या है? मरघट में कम से कम शांति तो है, सन्नाटा तो है, मौन तो है, कलह तो नहीं।
सोइ सहर सुबस...
वही शहर बसा हुआ जानना; ठीक से बसा है, ऐसा जानना--सुबस--सोइ सहर सुबस बसे, जहं हरि के दासा! जहां परमात्मा को प्रेम करने वाले लोग, परमात्मा को परख लेने वाले लोग, परमात्मा के चरणों को गहने वाले लोग बसते हों--समझना वही बसती है, बाकी तो सब मरघट ही मरघट है।
कब्रों के मनाजिरने करवट न कभी बदली।
अंदर वही आबादी, बाहर वही वीराना।।
वह जो कब्र में सो जाता है, करवट भी नहीं बदलता। कब्रों के मनाजिर ने करवट न कभी बदली! बस गए एक दफा कब्र में, लेट गए एक दफा कब्र में, फिर कोई करवट भी नहीं बदलता। उतनी हलचल भी नहीं है वहां। अंदर वही आबादी,...मरघट के भीतर कब्र के भीतर तो आबादी। अंदर वही आबादी, बाहर वही वीराना! जिसको तुम संसार कहते हो, वह वीराना है, मरुस्थल है। सहस्रदल कमल न खिले तो जानना कि मरुस्थल है। सिर्फ थोड़े से लोग जीए हैं यहां--कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई जीसस, कोई कबीर, कोई मलूक, कोई नानक। बस, थोड़े से लोग जीए हैं यहां। अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं उनके नाम। बाकी तो सब मुर्दा हैं।
मगर बड़ी हैरानी की बात है, मुर्दों के इतिहास लिखे जाते हैं, जिंदों का इतिहास में उल्लेख नहीं! बात भी समझ में आती है: मुर्दे ही इतिहास लिखते हैं, मुर्दों का ही इतिहास लिखेंगे। बुद्धों ने इतिहास लिखा होता, जिंदों का इतिहास लिखते। मुर्दे-मुर्दों की ही समझ पाते हैं। मुर्दों की अपनी भाषा है, अपनी दुनिया है--पद, प्रतिष्ठा, धन, गौरव, अहंकार; बस, मुर्दे इन्हीं के पीछे दौड़ते रहते हैं।
अविनश्वर हुआ रूप
शाश्वत हो गई प्यास
हर कण चेतन-हुलास
हर क्षण मधु महारास
रजनी की कबरी में, गुथे स्वर्ण-रश्मि फूल
कुंदन हो गए चरण, चंदन हो गई धूल
चेतन के सिरहाने
पंखा झलता प्रकाश
मधु लय में तैर गए, पांखी-से मगन छंद
प्राणों से बहा प्यार, फूलों से ज्यों सुगंध
मुट्ठी में बंद हुआ
पूरा मधु महाकाश
परमात्मा के चरण पकड़ो तो यह चमत्कार घटे। यह घटता रहा है। परमात्मा के सामने झुको तो यह सारा आकाश तुम्हारा है, ये सारे चांद-तारे तुम्हारे हैं। परमात्मा से जुड़ो तो मिट्टी सोना हो जाती है। अभी तो तुम सोना भी छुओ तो मिट्टी हो जाता है।
अविनश्वर हुआ रूप! जो उससे जुड़ गया, उसने ही जाना कि सौंदर्य क्या है। यह भी कोई सौंदर्य है, जो आज है और कल नहीं! यह भी कोई सौंदर्य है, जो चमड़ी से भी ज्यादा गहरा नहीं है! यह भी कोई सौंदर्य है, ऊपर-ऊपर सुंदर और भीतर? हड्डी-मांस-मज्जा! काश, तुम देख सको अपने को कि भीतर क्या है! अस्थि-पंजर मात्र हो।
मैंने सुना, एक अस्थि-पंजर एक डाक्टर के घर पहुंच गया।...हैरान न होना, अस्थि-पंजर ही पहुंच रहे हैं।...दस्तक दी, आधी रात का वक्त--लेकिन डाक्टर को तो चौबीस घंटे तत्पर होना चाहिए, सो उसने द्वार खोला। अस्थि-पंजर को देख कर उसकी भी श्वास रुक गई। बहुत देखे थे उसने मरीज, ऐसा मरीज कभी नहीं देखा था। यह तो मर चुका है। लेकिन डाक्टर भी डाक्टर, ऐसे कोई डर जाए! उसने कहा: आइए महाशय, लेकिन जरा आपको देर हो गई आने में।
और क्या कहो!
काश! तुम भी अपने को देख सको जैसे हो, तो अस्थि-पंजर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है वहां। कहां रूप, कहां सौंदर्य!
अविनश्वर हुआ रूप...
लेकिन जुड़ गया जो प्रभु से, उसका सौंदर्य विनाश के पार हो जाता है। मृत्यु भी उसके सौंदर्य को छीन नहीं सकती।
अविनश्वर हुआ रूप
शाश्वत हो गई प्यास
हर कण चेतन-हुलास...
हुलास पैदा होता है! हर कण चेतन-हुलास। सारा जगत नाचता हुआ मालूम पड़ता है। कण-कण नृत्यमय हो जाता है। रास रच जाता है।
हर-कण चेतन-हुलास
हर-क्षण मधु महारास
रजनी की कबरी में, गुथे स्वर्ण-रश्मि फूल
कुंदन हो गए चरण, चंदन हो गई धूल
प्रभु से जुड़ो तो तुम्हें वह रसायन हाथ लगे, वह कला...
कुंदन हो गए चरण, चंदन हो गई धूल
चेतन के सिरहाने
पंखा झलता प्रकाश
मधुलय में तैर गए, पांखी से मगन छंद
तुम्हारे भीतर भी उठे काव्य, तुम्हारे भीतर भी छंदों का जन्म हो, तुम्हारे भीतर भी छंद पर फड़फड़ाएं, उड़ें आकाश में। तुम्हारे भीतर भी भगवदगीता पैदा हो सकती है; कुरान पैदा हो सकता है।
मधुलय में तैर गए, पांखी-से मगन छंद
प्राणों से बहा प्यार, फूलों से ज्यों सुगंध
मुट्ठी में बंद हुआ
पूरा मधु महाकाश
परमात्मा के चरण क्या हाथ में आ जाएं कि सारा आकाश तुम्हारी मुट्ठी में आ जाता है। तब जीवन है। जब महाजीवन है तभी जीवन है! जब शाश्वत जीवन है तभी जीवन है! शेष सब तो मृत्यु है। शेष सब धोखा है।
दरस किए सुख पाइए, पूजै मन आसा।।
और वह दूर नहीं है, उसका मंदिर दूर नहीं है। हिंदुओं के मंदिर दूर होंगे, मुसलमानों की मस्जिदें दूर होंगी, ईसाइयों के गिरजे दूर होंगे, परमात्मा का मंदिर दूर नहीं है। तुम जहां हो, वही तुम्हें घेरे हुए है। जहां झुक जाओ, वहीं काबा। जहां उसकी पूजा में मग्न हो जाओ , वहीं काशी। जहां नाच उठो, वहीं यमुना-तट, वहीं बंसीवट। जहां मगन होकर, मस्त होकर डोलने लगो, वहीं कृष्ण के हाथ में हाथ पड़ जाए।
दरस किए सुख पाइए...
उसके दर्शन मात्र से सुख की बरखा हो जाती है। परस की तो बात दूर, दरस काफी! दिखाई भर पड़ जाए, एक झलक भर दिखाई पड़ जाए कि अंधेरा सदा के लिए मिट जाता है। और दरस होता है तो फिर परस भी होता है। पहले देखना, फिर स्पर्श। और उसका स्पर्श तो तुम्हें रूपांतरित कर देता है।
दरस किए सुख पाइए...
तब तक सुख नहीं मिलेगा। तब तक तुम लाख करो उपाय, दुख ही पाओगे। उपाय तो करते ही हो, सारे लोग उपाय कर रहे हैं, एक ही उपाय में संलग्न हैं--कैसे सुख मिले? मगर दिखता है कोई सुखी? धन है, सुख नहीं। पद है, सुख नहीं। नाम है, यश है, कीर्ति है, सुख नहीं।
भीतर प्राणों में झांको धनियों के, पद वालों के, यशस्वियों के--राख ही राख पाओगे। वही गंदी तलैया, जिसके ऊपर बांसुरी बजती रही, तलैया ने न कुछ सुना, न कुछ जाना। कृष्ण का रास रचता रहा तलैया के तट पर, राधा आती रही, सुर-नर-मुनि आह्लादित होते रहे, मगर तलैया थी तलैया ही रही, वहां कीचड़ ही बनती रही। वहां पत्ते ही सड़ते रहे। वहां दुर्गंध ही उठती रही। सुख है कहां?
इस संसार में इतने लोग तुम्हें दिखाई पड़ते हैं, मगर कहीं तुम्हें ऐसा लगता है कि भीतर वसंत आया है, मधुमास आया है? राख ही राख! रिक्तता ही रिक्तता! या कूड़ा-करकट! इसीलिए लोग अपने को छिपाते हैं, वस्त्रों में छिपाते हैं, मुखौटों में छिपाते हैं, मुस्कुराहटों में छिपाते हैं। लेकिन सब छिपावट के भीतर से असलियत प्रकट हो जाती है।
देखा, जिमी कार्टर जब नये-नये प्रेसिडेंट बने थे तो उनकी बत्तीसी दिखाई पड़ती थी! अब उनकी नई तस्वीरें देखीं? दो-तीन साल में ही सब पत्ते झड़ गए, फूलों का कुछ पता नहीं। वह हंसी कहां बिला गई?
जीवन के यथार्थ तुम्हारे सब मुखौटे छीन लेंगे; तुम्हारी सब मुस्कुराहटें छिन जाएंगी। आशाओं में हंस सकते हो। जब तक दूर हो, पद नहीं मिला, तब तक आशा रख सकते हो; पद मिलते ही निराशा हाथ लगती है। जब तक धन नहीं मिला, तब तक सोच सकते हो, सपने देख सकते हो कि मिल जाएगा तो ऐसा करूंगा, वैसा करूंगा; मिल जाए, फिर अड़चन शुरू होती है।
मेरे एक परिचित को एक प्राचीन शास्त्र पता नहीं कहां से हाथ लग गया है: ‘कुर्सी-सूत्र!’
ओम् श्री कुर्सीयाय नमः। अथ श्री कुर्सी सूत्रम्।।
टीका: हे कुर्सी माता, मैं आपको नमस्कार करता हूं। अब मैं कुर्सी-सूत्र का श्रीगणेश करता हूं।
शंका: कुर्सी शब्द स्त्रीलिंग है, फिर भी ‘श्री’ लगाने का औचित्य स्पष्ट करें।
निवारण: कुर्सी स्त्री, पुरुषों, आबाल वृद्धों को समान रूप से प्रिय है, अतः श्री ही उपयुक्त है। हां, तुम चाहो तो सुश्री लगा कर कुर्सी का महत्व बढ़ा सकते हो।
कुर्सी चरित्रम् नेतास्य भाग्यम्।
दैवो न जानाति कुतो मनुष्यम्।।
टीका: सुश्री कुर्सी का चरित्र और नेता-रूपी आसीन जंतु का भाग्य तो देवता भी नहीं जान सकते, मनुष्य क्या जानेगा!
शंका: महाराज, इस गूढ़ श्लोक का अर्थ बताइए।
निवारण: बालक, सद्यः राजनीति पर दृष्टिपात करो और नारायण भजो, सब तुम्हारी बुद्धि में समा जाएगा।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव।
टीका: कुर्सी ही मेरी माता और पिता है, इस संसार में इसके अलावा और कुछ भी मेरा नहीं है, अतः इसे पाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सब कुछ सही है। जो इस सत्य को स्वीकार नहीं करेंगे, वे कष्ट के भागी होंगे।
कुर्सी क्षेत्रे-दिल्ली क्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
नेता-नेताइन किम्कुर्वते।।
टीका: कुर्सी का क्षेत्र दिल्ली है, ऐसा शास्त्रों में लिखा है। नेता-नेताइन वहां पर क्या कर रहे हैं?
निवारण: हर नेता को अर्जुन की तरह केवल कुर्सी दिखाई दे रही है, और इस कुर्सी हेतु वह लड़-लड़ मर रहा है, घिघिया रहा है और सभी संभव कार्य कर रहा है।
कुर्से त्वमधिक धन्या नेतारपि धन्यो भवतारकोऽपि।
मज्जति चुनाव समुद्रे तव कुच कलशावलंबनम् कुरुते।।
टीका: हे कुर्सी! नेता दूसरों को तो भवसागर पार करा देते हैं, परंतु जब वे स्वयं चुनाव-रूपी काम के समुद्र में डूबने लगते हैं, तब आपके कुच-कलशों (हत्थों) को पकड़ कर ही पार कर पाते हैं।
शंका: अगर कुर्सी बिना हत्थोंवाली हो, तो क्या होता है?
निवारण: ऐसी स्थिति में कुर्सी की टांगें या पूंछ पकड़ कर भी भवसागर को पार करने का विधान है।
सर्वेरक्षकाः कुर्सी। कुर्सी रक्षका नेता।।
टीका: सभी की रक्षा कुर्सी करती है और कुर्सी की रक्षा नेता करता है।
शंका: नेता कुर्सी की रक्षा कैसे कर सकता है?
निवारण: लगता है तुम आजकल अखबार नहीं पढ़ते। नेता कुर्सियों के पीछे ऐसे ही पड़े हैं, जैसे कुंआरियों के पीछे लड़के। छेड़ो तो दुख, न छेड़ो तो दुख।
उत्साहवंत पुरुषाः प्राप्तः कुर्सी।
टीका: उत्साही और परिश्रमी पुरुष कुर्सी को प्राप्त करते हैं।
शंका: क्या कुर्सी को बिना पाए काम नहीं चल सकता है?
निवारण: सामान्यजन का काम तो चल सकता है, लेकिन जानवरों के बाड़े में सभी कुर्सी चाहते हैं, अतः उनका कार्य नहीं चल पाता है। जाओ और जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास पढ़ो।
कर्मण्येवाधिकारस्ते, कुर्सी फलेषु कदाचनः।
टीका: कर्म किए जाओ, कभी तो कुर्सी-रूपी फल की प्राप्ति होगी।
शंका: लेकिन यह श्लोक तो कृष्ण ने गीता में कहा है।
निवारण: तो क्या हुआ, वत्स, उस समय भी तो लड़ाई कुर्सी के लिए ही हो रही थी।
कुर्सीनाम् मालिक डिक्टेटर भवते।
टीका: कुर्सी का मालिक डिक्टेटर बन जाता है।
शंका: कोई उदाहरण दीजिए।
निवारण: इमर्जेंसी का इतिहास देखो, बालक! वहां हर ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा अपने आपको डिक्टेटर से कम नहीं समझता था। और कुछ तो वास्तव में ही बन गए।
उच्चासने, उच्चपदे, उच्चयौवन गर्विते,
उच्चाधिकार संयुक्ते, कुर्से नमोस्तुते।
टीका: हे ऊंचे आसन, बड़े पद और उच्च यौवन तथा अधिकारों से संपन्न कुर्सी, तुझे नमस्कार है!
शंका: कुर्सी का यौवन कैसा होता है?
निवारण: कुर्सी चिरयौवना होती है, मूर्ख, कुर्सी कभी बूढ़ी नहीं होती। हां, कभी-कभी भारत सरकार की तरह लंगड़ा कर चलने लग जाती है।
प्रतिशंका: लंगड़ी कुर्सी कब स्थिर होती है?
प्रतिनिवारण: जब इमर्जेंसी लगती है।
या कुर्सी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोः नमः।।
टीका: कुर्सी-रूपी देवी सभी जगह व्याप्त है और इसे बार-बार नमस्कार है।
शंका: यह श्लोक तो दुर्गापाठ का है।
निवारण: तो क्या हुआ, अब यह नव-कुर्सीपाठ में भी सम्मिलित है।
यो भजंते मानवाः तै प्राप्तः कुर्सी।।
टीका: जो इस सूत्र का पारायण करेंगे, वे कुर्सी को आसानी से प्राप्त करेंगे।
शंका: क्या कुर्सी आवश्यक है?
निवारण: हां, रहीम ने कहा है: कुर्सी गए न ऊबरे, नेता, मानस, चून।
प्रतिशंका: क्या नेता मानस में नहीं आते?
प्रतिनिवारण: यह शंका व्यर्थ है, स्वयं समझो।
सुफलम् प्राण्नुवन्ति प्रातः भजन्ति ये।
रतिरंभा भवेद् दासी, लक्ष्मीस्तुगति सहगामिनी।।
टीका: जो व्यक्ति इस सूत्र का पारायण प्रातः उठ कर करेंगे, उसे रतिरंभा तथा लक्ष्मी जैसी सहगामिनियां अभिसार हेतु कुर्सी देवी प्रदान करेंगी।
इति श्री कुर्सी सूत्रम्।
टीका: अब मैं कुर्सी सूत्र का समापन करता हूं।
दौड़ रहे हैं लोग, विक्षिप्त की तरह दौड़ रहे हैं--धन, पद, प्रतिष्ठा। हाथ क्या लगता है? इस जीवन के पूरे ही श्रम के बाद परिणाम क्या है, प्रतिफल क्या है, निष्पत्ति क्या है? जिसने एक बार भी विचार किया, वह थोड़ा चौंकेगा: कैसे इतने लोग भागे चले जाते हैं--व्यर्थ के पीछे, असार के पीछे! देखते हैं दूसरों को रोज गिरते कब्र में, देखते हैं रोज अरथी उठते और फिर भी इस तरह लगे रहते हैं दौड़ में जैसे उन्हें इस जगत से कभी नहीं जाना है! मरते-मरते दम तक भी लड़ते रहते हैं।
मलूकदास ने तो बहुत अदभुत बात कही है। उन्होंने तो कहा है कि मर जाते हैं, फिर भी लड़ते रहते हैं।
साकट के घर साधजन, सुपनैं नहिं जाहीं।
जो इस तरह शक्ति की, पद की, प्रतिष्ठा की पूजा में संलग्न हैं...साकट। शक्ति की पूजा मनुष्य का बड़े से बड़ा दुर्भाग्य है। शांति को पूजो, शक्ति को नहीं। शक्ति की जिसने पूजा की, शांति तो पाएगा ही नहीं, शक्ति भी नहीं पाएगा। और जिसने शांति को पूजा, अदभुत घटता है। शांति तो मिलती ही मिलती है और एक अपूर्व शक्ति का आविर्भाव होता है। शक्ति जो तुम्हारी नहीं, शक्ति, जो परमात्मा की है। तुम तो केवल एक उपकरण हो जाते हो। जो शक्ति का पूजक है--फिर शक्ति धन की हो, पद की हो, ज्ञान की हो, त्याग की हो--जो भी शक्ति का पूजक है, अगर वह परमात्मा की भी पूजा कर रहा है इसलिए कि मुझे कुछ शक्ति मिल जाए, चाहे वह शक्ति साधारण हो, स्थूल हो, चाहे सूक्ष्म हो, चमत्कार की हो, जो भी शक्ति की पूजा कर रहा है, साधजन, जो सच्चा साधु है, उसके सपने में भी नहीं आता। सत्य में आना तो दूर, उसके स्वप्न में भी साधुता की छाया नहीं पड़ती।
तेइ-तेइ नगर उजाड़ हैं, जहं साधू नाहीं।।
और जहां साधु न हो, वह नगर उजाड़ है। नगर से प्रयोजन है तुम्हारा। मनुष्य को हम कहते हैं पुरुष। पुरुष शब्द बड़ा प्यारा है; वह बनता है पुर से। पुर का अर्थ होता है: नगर। पुरुष का अर्थ होता है: तुम्हारी देहरूपी नगर का वासी। तुम्हारी देह एक बड़ा नगर है, छोटा-मोटा भी नहीं। तुम्हारी देह में सात करोड़ जीवाणु हैं। बंबई की संख्या कम है, कलकत्ते की संख्या भी कम है, टोकियो की संख्या भी कम है...टोकियो दुनिया का सबसे बड़ा नगर है--एक करोड़ की आबादी। तुम तो उससे भी बड़े नगर हो, सात गुने बड़े। तुम्हारे भीतर सात करोड़ जीवाणु बसे हैं सात करोड़ जीवित अणु, जीवित कोष्ठ। और उन सात करोड़ जीवित कोष्ठों के बीच तुम्हारा निवास है, इसलिए तुम्हें पुरुष कहा है।
तेइ-तेइ नगर उजाड़ हैं, जहं साधू नाहीं।।
और तुम्हारे भीतर तब तक साधुता का जन्म नहीं होगा। जब तक तुम शक्ति की आराधना में लगे हो--धन, पद, प्रतिष्ठा; इस लोक की शक्ति या परलोक की शक्ति।
एक आदमी ने बहुत वर्षों की मेहनत के बाद पानी पर चलना सीख लिया। स्वभावतः दूर-दूर तक उसकी ख्याति पहुंच गई--ऐसा चमत्कारी, जो पानी पर चले! कहते हैं वह आदमी रामकृष्ण से मिलने आया। दिखाने आया था चमत्कार। दिखाने आया था कि तुम क्या खाक परमहंस! परमहंस मैं हूं! रामकृष्ण को उसने कहा कि आओ नदी के तट पर...दक्षिणेश्वर है भी गंगा के किनारे, जहां रामकृष्ण रहते थे...कहा: आओ गंगा के पास; वहां दिखलाऊंगा चमत्कार।
रामकृष्ण ने पूछा: तुम्हारा चमत्कार क्या है?
उसने कहा: मैं पानी पर चल सकता हूं।
रामकृष्ण ने कहा: बड़ी हैरानी की बात है! तुमने हर आदमी की तरह तैरना क्यों नहीं सीखा?! कितने साल लगे तुम्हें पानी पर चलना सीखने में?
उसने कहा: अठारह साल साधना की।
रामकृष्ण ने कहा: हद हो गई, अठारह साल गंवाए! अरे, मुझे तो जब भी उस पार जाना होता है, दो पैसे में तो नाव मुझे पार कर देती है! दो पैसे की चीज को तुमने अठारह साल में कमाया! और ऐसे रोज उस पार मुझे जाना भी नहीं पड़ता, कभी वर्ष में एकाध बार, दो बार। अठारह साल में मुश्किल से मैं दस-पंाच बार उस पार गया हूं। सो चार-छह आने की चीज को तुम दिखाने मुझे आए हो! और इतनी अकड़ से आए हो! अरे, कुछ शरम खाओ, कुछ संकोच करो!
रामकृष्ण ने ठीक कहा। आखिर पानी पर चलोगे भी तो इससे क्या होगा? पानी पर चल भी लिए तो क्या प्रयोजन है? हवा में उड़ भी लिए तो क्या होगा? मछलियां पानी में चल रही हैं, और पक्षी हवा में उड़ रहे हैं! हवा में उड़ोगे तो सिर्फ बुद्धू मालूम पड़ोगे; लोग हंसेंगे, और कुछ भी नहीं। कुछ जंचोगे भी नहीं हवा में उड़ते।
लेकिन यही धर्म के नाम पर।
निन्यानबे प्रतिशत लोग धर्म के नाम पर भी अपनी वही पुरानी मूढ़ता को थोपे चले जाते हैं। यहां संसार में भी खोजते थे यही कि दूसरों से बलशाली हो जाएं, धर्म में भी खोजते हैं वही। अहंकार की ही यह खोज है। और जहां अहंकार है, वहां साधु से पहचान नहीं हो पाएगी। साधु से पहचान तो निर-अहंकारिता में हो सकती है। सदगुरु को देख ही न पाओगे तुम। निर-अहंकार में ही दरस होगा, निर-अहंकार में ही परस होगा।
मूरत पूजैं बहुत मति, नित नाम पुकारैं।
बहुत पूजते हैं मूर्तियां लोग और बड़े नाम की रटन भी करते हैं।
कोटि कसाई तुल्य हैं, जो आतम मारैं।।
लेकिन जिन्होंने अपनी आत्मा को ही बेच दिया है सस्ती चीजों के लिए, वे कसाइयों से बड़े कसाई हैं, महा कसाई हैं। एक करोड़ कसाई भी उनके सामने कम हैं। कोटि कसाई तुल्य हैं, जो आतम मारैं। जिन्होंने अपनी आत्मा को बेच दिया है।
और इस दुनिया में हम सारे लोग आत्मा को बेचने को तैयार हैं। दो कौड़ी में बेचने को तैयार हैं! कोई तुम्हें हाथ से राख गिराना दिखा दे और तुम बिकने को तत्पर हो! और तुम लगे बाबा के पीछे! चाहे जिंदगी लग जाए, अब तुम्हें एक ही धुन सवार है कि हाथ से राख कैसे टपके। राख के तुम पहाड़ लगा दो हाथ से, तो भी क्या होगा! राख तो तुम हो ही, अब और क्या राख पैदा कर रहे हो? और अगर राख की देह से राख गिर भी गई तो कौन सा चमत्कार है? यह तो मर कर हो ही जाने वाला है सब राख, क्या गिराते हो!
मगर नहीं, लोग इन बातों से प्रभावित होते हैं। लोग मूढ़ हैं और महामूढ़ों से प्रभावित होते हैं। जो तुमसे भी आगे है मूढ़ता में, वह तुम्हें प्रभावित करता है।
हमने
परिचित नेता से
प्रश्न किया,
‘‘आपने जिस ढंग से
अपने सिर पर
टोपी लगाई है
उसे देख कर
सभी की बुद्धि
भरमायी है
आपको देख कर
लोग कई तरह के
अनुमान लगा रहे हैं
अतः कृपया बताएं
कि आप
पार्टी में आ रहे हैं,
या पार्टी से जा रहे हैं?’’
वे धूर्त की तरह
मुस्कुरा कर बोले,
‘‘न तो हम
पार्टी में आ रहे हैं
न जा रहे हैं
हम तो सिर्फ यह दिखा रहे हैं
कि हमारे पैरों में अभी दम है
हम चलने-फिरने में
सक्षम हैं
टिकट मिलेगा
तो हम यहां टिक जाएंगे
अन्यथा
जो टिकट देगा
उसी के हाथों,
बिक जाएंगे।’’
यह जो बिक जाना है, उसको ही मलूकदास कह रहे हैं: जो आतम मारैं! तुम देखते हो, यहां हर आदमी बिकने को तैयार है! हर आदमी के ऊपर उसके दाम की टिकट लगी है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक लिफ्ट में सवार हुआ। एक सुंदर महिला भी लिफ्ट में थी। दोनों ही थे। मुल्ला ने नमस्कार किया और कहा कि अगर दस हजार रुपये दूं तो एक रात मेरे साथ गुजारोगी? वह स्त्री एकदम नाराज हो गई। उसने कहा: तुमने मुझे समझा क्या है? अभी लिफ्ट रोक कर पुलिस को बुलाती हूं। मुल्ला ने कहा: पुलिस वगैरह बुलाने की कोई जरूरत नहीं, बीस हजार दूंगा। महिला नरम हुई। मुल्ला ने कहा: जो मांगो--तीस, चालीस, पचास। गर्मी मुस्कुराहट में बदल गई। स्त्री ने कहा: पचास! पचास हजार रुपये एक रात के! राजी हूं। मुल्ला ने कहा: और अगर पच्चीस रुपये दूं तो? तो स्त्री फिर भन्ना गई। कहा: जानते हो कि मैं कौन हूं? मुल्ला ने कहा: वह तो हमने तय कर लिया; जब पचास हजार में राजी हो गई, तो वह तो तय हो गया कि तू कौन है, अब तो दाम तय कर रहे हैं। अब पुलिस-वुलिस को बुलाने की कोई जरूरत नहीं है। पचास हजार में बिको या पच्चीस रुपये में बिको, क्या फर्क पड़ता है? वह तो तय हो गया कि तू कौन है? अब रह गई दाम करने की बात, सो सौदा कर लें। सो आपस में निपटारा कर लें। पुलिस को बुलाने की क्या जरूरत है? पुलिस क्या करेगी इसमें?
मुल्ला ठीक कह रहा है। तुम भी सोचना, कितने में बिक जाओगे? कितनी तुम्हारी कीमत है? कितनी ही कीमत हो, जो बिक सकता है उसने अभी आत्मा को नहीं जाना, क्योंकि आत्मा की कोई कीमत ही नहीं है। सारा संसार भी मिलता हो तो भी जिसने स्वयं को जाना है, वह बिकने को राजी नहीं हो सकता। यह सारा संसार रख दो तराजू के एक पलड़े पर और आत्मा को रख दो दूसरे पलड़े पर, तो भी आत्मा का तराजू ही भारी होगा। आत्मा यानी परमात्मा! आत्मा यानी परमात्मा का बीज, उसकी संभावना। आत्मा ही तो फैल कर, शुद्ध होकर, निखर कर परमात्मा बनती है। कहीं कोई और दूसरा परमात्मा थोड़े ही है।
वह जिसने समर्पण की कला सीख ली, उसके हाथ में अपने को निखारने का राज आ गया। उसकी आत्मा ही धीरे-धीरे शुद्ध होते-होते परम हो जाती है, परमात्मा हो जाती है। मगर लोग बहुत करते हैं पूजा, सब पूजा झूठी है। क्योंकि पूजा उनकी परमात्मा की नहीं है, कुछ मांग रहे हैं। किसी को नौकरी चाहिए, किसी को धन चाहिए, किसी को पद चाहिए।
मूरत पूजैं बहुत मति, नित नाम पुकारैं।
और लगाए हुए हैं धुन, राम-नाम की चदरिया ओढ़े बैठे हैं, माला फेर रहे हैं, राम-राम, राम-राम जप रहे हैं। मगर पीछे उनके झांक कर देखो तो कोई कामना खड़ी है। वे राम को भी इसलिए जप रहे हैं कि उनकी कोई कामना पूरी हो जाए। कोई मांग है। और जिसने राम को कामना से जपा, उसने जपा ही नहीं। राम को तो आनंदभाव से जपो। उल्लास से। कुछ मांगना क्या है? उसके सामने भिखारी होकर मत जाओ! उसके सामने मालिक की तरह जाओ! झुको जरूर मगर आनंदमग्न होकर। झोली मत फैलाओ--और तुम्हारे प्राण भर दिए जाएंगे अनंत खजानों से! और तुमने झोली फैलाई तो कंकड़-पत्थर भी न पाओगे।
कोटि कसाई तुल्य हैं, जो आतम मारैं।।
परदुख-दुखिया भक्त है, सो रामहिं प्यारा।
यह सूत्र समझने जैसा है। दूसरे के दुख की जिसे प्रतीति होती है, जो संवेदनशील है, वही राम का प्यारा है।
लेकिन दूसरे के दुख की प्रतीति किसे हो सकती है?
जिसके अपने दुख मिट गए, उसे ही दूसरे के दुख की प्रतीति हो सकती है। यह बात तुम्हें पहले तो थोड़ी उलटी लगेगी, बेबूझ लगेगी। साधारणतः तुम सोचते हो कि जो आदमी दुखी है, उसे दूसरे का दुख पता चलेगा। तुम गलती में हो। जो दुखी है, वह तो अपने दुख को झेलने के कारण, झेलने के लिए कठोर हो जाता है, नहीं तो दुख झेल नहीं सकता। दुख तोड़ देगा उसे। दुख झेलने के लिए उसे अपनी संवेदना खो देनी पड़ती है; वह संवेदनशून्य हो जाता है।
यहां पश्चिम से इतने लोग आते हैं। उनमें से अधिक मुझे पत्र लिखते हैं कि बात क्या है? रास्तों पर भिखारी हैं, हम उन्हें देखते हैं तो बड़ी पीड़ा होती है। हम उन्हें बिना कुछ दिए उनके सामने से गुजर ही नहीं पाते। बड़ी ग्लानि होती है, बड़ा पश्चात्ताप होता है। लेकिन भारतीय तो बड़े मजे से निकल जाते हैं--फिल्मी धुन गुनगुनाते! कोई मतलब ही नहीं भिखारी से! भिखारी आगे भी आ जाए तो वे कहते हैं: आगे हटो, आगे बढ़ो, रास्ता लगो!
कारण है।
भारतीय खुद ही दुखी हैं। भिखारियों में और उनमें कुछ ज्यादा भेद नहीं है। वे क्या खाक इन भिखारियों को दें! उनके पास देने को खुद नहीं है, वे खुद ही मांग रहे हैं। और वे कठोर हो गए हैं--कठोर न हों तो जिंदा नहीं रह सकते। भारत में अगर जिंदा रहना हो तो कठोर होना पड़ेगा। अगर यहां तरल-हृदय हुए, तो तुम्हारी भी दशा जल्दी वही हो जाएगी जो भिखमंगे की है। इससे किसी भिखमंगे को लाभ होगा, ऐसा नहीं, सिर्फ भिखमंगे और बढ़ जाएंगे--तुम भी उसमें सम्मिलित हो जाओगे।
सदियों-सदियों की गरीबी, दीनता और दुख ने भारत के हृदय को कठोर कर दिया है, पाषाण कर दिया है; कोई पसीजता ही नहीं। पश्चिम में समृद्धि है। भिखमंगा तो सड़कों पर दिखाई पड़ता नहीं पश्चिम में, भारत ही आकर पहली दफा भिखमंगा दिखाई पड़ता है। तो उनको बड़ी हैरानी होती है!
दो चीजें उन्हें बहुत सताती हैं--
मेरे पास जितने पत्र आते हैं उनमें दो बातों का जरूर उल्लेख होता है। एक तो भिखमंगे का। छोटे-छोटे बच्चे! पश्चिम का आदमी भरोसा ही नहीं कर सकता है कि इतने छोटे बच्चे भी इस अवस्था में हमने छोड़ रखे हैं कि भीख मांगें। और दूसरी बात की उन्हें हैरानी होती है कि जब भी वे सांताक्रूज पर हवाई जहाज से उतरते हैं और बंबई की तरफ बढ़ते हैं, तो रास्ते के दोनों तरफ लोग पाखाना कर रहे हैं! यह उनकी समझ में नहीं आता कि यह क्या हो रहा है? भारतीयों को बिलकुल अखरता ही नहीं। भारतीय देखते ही नहीं इधर-उधर; उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। सारा देश संडास है! और कोई खराब काम तो कर नहीं रहे, खाद बढ़ा रहे हैं! स्वाभाविक समझ में आता है भारतीयों को। यह तो गांव-गांव में हो रहा है, जगह-जगह लोग बैठे हैं। अब उनको देखते रहो, उनके लिए दुख मनाते रहो, तो तुम्हें जीना ही मुश्किल हो जाए। किस-किसका दुख मनाओ! लोग अंधे हो गए हैं। लोगों को दिखाई ही नहीं पड़ता। भारतीयों को नहीं दिखाई पड़ता।
जब पहली दफा कोई पाश्चात्य लेख लिखता है तो भारतीयों को बहुत अखरता है, बहुत दुख होता है उन्हें कि हमारे देश की बदनामी की जा रही है। उनको दिखाई ही नहीं पड़ता कि बात तो सच है; बदनामी नहीं की जा रही है, बात तो ठीक ही है। तुम स्वच्छता की इतनी बातें करते हो और तुम्हें स्वच्छता का बोध कितना है? जहां दिल आया वहां मल-मूत्र विसर्जन कर देते हो--तुम्हें कोई अड़चन ही नहीं होती। पश्चिम में यह असंभव है, कल्पना के बाहर है। भिखमंगा विदा हो गया है, बचा ही नहीं। तो संवेदनशीलता बढ़ती है।
इस दुनिया में जिनको थोड़ा सा आंतरिक आनंद अनुभव हुआ है, वे ही दूसरों की आंतरिक दुख की दशा का अनुभव कर पाएंगे, नहीं तो नहीं।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि देश में लोग दुखी हैं और आप लोगों को ध्यान समझा रहे हैं! मैं उनसे कहता हूं: इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं। ध्यान इन्हें थोड़ा सा सुख देगा। इन्हें थोड़ा सुख मिले, इनकी संवेदनशीलता बढ़े; इन्हें थोड़ा सुख का अनुभव हो तो इन्हें दिखाई पड़े कि चारों तरफ दुख है। नहीं तो दिखाई ही नहीं पड़ेगा। तुलना करने का कोई उपाय ही नहीं है। खुद ही इतने दुखी हैं कि किसका दुख देखें? अपना देखें कि औरों का?
जिसकी अपनी समस्याएं मिट जाती हैं, वह दूसरों की समस्याओं को देख सकता है। और जिसके अपने भीतर शांति छा जाती है, उसे दूसरे की अशांति दिखने लगती है। जिसके भीतर गुलाब के फूल खिल जाते हैं, उसे दूसरों के जीवन के कांटे अनुभव में आने लगते हैं। फिर कुछ हो सकता है।
परदुख-दुखिया भक्त है, सो रामहिं प्यारा।
वह जो राम का प्यारा है, वही अनुभव कर सकेगा दूसरे के दुख को। और जो दूसरे के दुख को अनुभव कर सकता है, वह राम का प्यारा होता जाता है। ये दोनों अन्योन्याश्रित बातें हैं।
तलाशो-जुस्तुजू की सरहदें अब खत्म होती हैं।
खुदा मुझको नजर आने लगा इंसाने-कामिल में।।
एक बार परमात्मा दिखाई पड़े तो फिर मनुष्यों में भी वही दिखाई पड़ेगा और वृक्षों में भी वही दिखाई पड़ेगा और पत्थरों में भी वही दिखाई पड़ेगा।
एक पलक प्रभु आपतें, नहिं राखैं न्यारा।।
और काश तुम उससे संबंध जोड़ लो तो तुम चकित होओ। यह जान कर तुम हैरान होओगे कि उसने तुम्हें एक पलक के लिए भी अपने से दूर नहीं रखा था। दूर थे तो तुम अपने कारण थे। पीठ की थी तो तुमने की थी, उसने नहीं। और एक दफा पहचान लोगे तब तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि वह एक पल को भी तुम्हें अपने से दूर नहीं रखता है।
एक पलक प्रभु आपतें, नहिं राखैं न्यारा।।
वह तुम्हारी प्रतिपल चिंता कर रहा है। सारा अस्तित्व तुम्हारा सहयोगी है, शत्रु नहीं।
निजामे-सुबहो-शामे-देहर है जिसके इशारों पर।
मेरी गफलत तो देखो मैं उसे गाफिल समझता हूं।।
जो चांद-तारों को चला रहा है, जिसके इशारों पर सुबह और शाम की व्यवस्था चल रही है। यह सारा जगत जिसके इशारों पर अंगुलियों पर ठहरा हुआ है...
निजामे-सुबहो-शामे-देहर है जिसके इशारों पर।
मेरी गफलत तो देखो मैं उसे गाफिल समझता हूं।
क्या तुम सोचते हो वह बेहोश है? क्या उसे तुम्हारा पता नहीं?
अस्तित्व तुम्हारी चिंता करता है। अस्तित्व का पूरा-पूरा प्रयास है कि तुम भी जागो, कि तुम भी आनंदित होओ, कि तुम्हारे जीवन में भी गीत जगें, कि तुम्हारे प्राणों में भी बांसुरी बजे। मगर तुम ही अपने दुश्मन हो। तुमसे बड़ा तुम्हारा कोई दुश्मन नहीं।
महावीर ने ठीक कहा है: आदमी ही अपना मित्र है; उससे बड़ा उसका कोई मित्र नहीं। और आदमी ही अपना शत्रु है; उससे बड़ा उसका कोई शत्रु नहीं। दोनों बातें सच हैं। अगर तुम अपनी तरफ मुड़ो तो मित्र हो जाओ; अगर अपनी तरफ पीठ किए रहे तो अपने ही शत्रु हो। अपने ही हाथ से अपनी आत्मा का हनन कर रहे हो।
दीनबंधु करुनामयी, ऐसे रघुराजा।
कहै मलूक जन आपने को कौन निवाजा।।
मलूकदास कहते हैं कि मुझ तरह के अज्ञानी को, मुझ जैसे साधारण जन को आखिर किसने उद्धारा? सुनते हो! ध्यान देना इस बात पर। मलूक कहते हैं कि मुझ जैसे अज्ञानी को, मुझ जैसे अपात्र को आखिर किसने उद्धार किया? उसी ने! मेरी क्या बिसात थी? मेरा क्या वश था? मेरी क्या सामर्थ्य थी? मेरी क्या थी साधना और मेरी क्या थी पात्रता? मैं था निर्बल, अपंग; लेकिन उसकी कृपा, उसका प्रसाद कि मैं लंगड़ा था और पर्वत चढ़ गया। और मैं अंधा था और मैंने चांद-तारे देखे। और मैं बहरा था और मेरे कानों में उसकी बांसुरी की आवाज सुनाई पड़ी। उसकी ही कृपा है, उसका ही प्रसाद है!
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
मलूकदास कहते हैं: बहुत घूम कर देखा हूं, जगत देख डाला, मुर्दे ही मुर्दे देखे; जिंदा तो मुझे कोई दिखाई न पड़ा। जिंदा तो कभी कोई दिखाई पड़ जाए तो तुम सौभाग्यशाली हो! जिंदों को ही हमने सदगुरु कहा है--वे जो सचमुच जीवित हैं।
ये बेड़ा कहां जाकर पार लगेगा
इधर भी अंधेरा, उधर भी अंधेरा।
नये मांझियों ने नये जोश से कल
नई बल्लियों में नये पाल बांधे,
कमर में उमंगों के फेंटे लपेटे
नई साध से फिर नये डांड़ साधे!
नई बाढ़ में छोड़ दी मुक्त नौका
नये हौसलों की हिलोरें उठाते
नये ज्वार के सर्जना के स्वर में
धरा औ गगन के मिलन गीत गाते।
अभय हो गए जो मुसाफिर विकल थे,
अनिश्चय-अनास्था के दुहरे भरम में,
नई मुक्ति हित में ये लगाएंगे गोता,
नया सेतु बांधेंगे रामेश्वरम् में।
मगर ये तो पहले ही दम हांफ बैठे
झिझकते न तक पतवार तोड़ने में,
कभी बौखलाते हैं अपने वहम पे
कभी अपनी जानिब जुबां मोड़ने में।
अभी तो किनारे से कुछ ही हटे थे
अभी दूर आवर्त घूर्णित घटा तम,
अभी शेष मंझधार की थी चुनौती
अभी देखना था समुंदर का दम-खम
लुटा दी है हर सांस जिसने वतन को
बड़ी साध से जिसने सपने सजाए,
सभी अंग नासूर से रिस रहे हों
मसीहा कहां कहां मरहम लगाए!
इधर कूप उस ओर खाई खुदी है
करे कौन जन-मन व्यथा का निवारण!
उधर नादां बच्चे पर ईमां निछावर
इधर गुट-परस्ती औ बहरुपियापन!
बड़ी ऊंची बातें, बड़े ऊंचे वादे
हवा में रफू हो गए सब हिरन से,
ये तम-तोम से जूझने के प्रवादी
करेंगे किनाराकशी गर किरन से
ऊफक के धुंधलके में उल्टेगा बेड़ा
कहां फिर उजेला, कहां फिर सवेरा!
ये बेड़ा कहां पार जा कर लगेगा
इधर भी अंधेरा, उधर भी अंधेरा!
जरा अपने चारों तरफ देखो, अंधों ही अंधों की जमात है! मुर्दों की भीड़ है। और ये मुर्दे ही नेता हैं। ये मुर्दे ही अनुयायी हैं। ये मुर्दे ही पुरोहित हैं। ये मुर्दे ही मंदिरों में पूजा-पाठ करा रहे हैं, हवन-यज्ञ करा रहे हैं। और मुर्दे ही सम्मिलित हो रहे हैं। मुर्दों के कुंभ मेले भर रहे हैं, करोड़ों मुर्दे इकट्ठे हो रहे हैं। हज-यात्रा पर मुर्दे जा रहे हैं।
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
मुवा मुई को ब्याहता रे,...
मुर्दा ही मुर्दा स्त्री से विवाह कर रहा है।
...मुवा ब्याह करि देइ।।
और कोई मरा हुआ पंडित जंतर-मंतर पढ़ कर विवाह करवा देता है।
मुए बराते जात हैं,...
मुर्दे बरात में जा रहे हैं।
...एक मुवा बधाई लेइ, हो।
और मुर्दे ही बरात का स्वागत कर रहे हैं।
मुवा मुए से लड़न को, मुवा जोर लै जाइ।
बड़ा मजा चल रहा है, मुर्दे ताल ठोक रहे हैं! एक-दूसरे से लड़ने को आतुर हो रहे हैं, भुजाएं फड़फड़ा रहे हैं।
मुरदे मुरदे लड़ि मरे, मुरदा मन पछिताइ, हो।
मुर्दे मुर्दे लड़ जाते हैं, मर जाते हैं, बाकी जो बचे मुर्दे हैं वे पछताते हैं, वे रोते हैं। वे आंसुओं के फूलों के उपहार चढ़ाते हैं।
इस मुर्दा बस्ती को जरा गौर से देखो!
दो बुढ़ियाएं आपस में बातें कर रही थीं। एक ने कहा: सामने जो नौजवान लड़का रहने आया है, उसने मुझे चांद कहा है।
दूसरी बुढ़िया ने हैरत से पूछा: वह कैसे?
पहली बुढ़िया कहने लगी: कल रात मेरी बेटी सड़क पर जा रही थी, तो उस नौजवान ने उसे देख कर कहा: हाय! क्या चांद का टुकड़ा है!
बुढ़ापा आ जाए, मगर होश नहीं आता। वही बेहोशी, वही बचपना। उम्र से लोग बड़े हो जाते हैं, मगर बोध से नहीं।
चंदूलाल ने कहा: दुनिया में एक से बढ़ कर एक चीजें हैं। जो चीज देखो, मन होता है, काश, यह मेरी होती! लेकिन मनुष्य की क्षमता बहुत कम है; उसे हमेशा चुनाव करना होता है।
ढब्बू जी बोले: भाई, कुछ उदाहरण दो, तब तुम्हारी बात समझ में आएगी।
सुनो--चंदूलाल ने समझाया--इनसान एक ही बार शादी कर सकता है, लेकिन दुनिया में इतनी खूबसूरत और लुभावनी स्त्रियां हैं कि उन्हें देख कर शादीशुदा आदमी भी सोचता है कि काश, कितना अच्छा होता अगर मैं अभी तक कुंआरा होता!
ढब्बू जी ने कहा: अच्छा, अब मेरी समझ में बात आई। मेरे जीवन में भी एक ऐसी स्त्री है जिसे देख कर खयाल आता है कि काश, मैं अभी तक कुंआरा होता तो कितना बढ़िया रहता!
कौन है वह स्त्री--चंदूलाल ने अधीरता से पूछा--यहीं मोहल्ले में रहती है, इसी शहर में?
ढब्बू जी ने कहा: इसी शहर में, इसी मोहल्ले में, इसी घर में--मेरी धरम-पत्नी! उसे देख कर मुझे एक ही खयाल आता है कि काश, मैं भी कुंआरा होता!
इस जगत में अभाव रहे तो खलता है; कुछ न मिले तो अखरता है, कुछ मिल जाए तो अखरता है। गरीब परेशान है कि धन नहीं। धनी परेशान है कि धन है, मगर और कुछ नहीं है। धन का क्या करूं! धन का क्या हो! गरीब परेशान है कि सोने को बिस्तर तक नहीं। और अमीर परेशान है कि बिस्तर तो है, मगर नींद नहीं आती। करवटें बदलते रात गुजर जाती है।
इस सत्य को देख कर तुम चौंकते हो या नहीं, कि गरीब देशों में आत्महत्या कम होती है, अमीर देशों में ज्यादा? क्या कारण है? होना उलटा चाहिए। गरीब देशों में आत्महत्या ज्यादा होनी चाहिए। लोगों के पास कुछ नहीं है। लेकिन नहीं, यह नहीं होता। अमीर देशों में लोग ज्यादा पागल होते हैं, गरीब देशों में कम। मामला बड़ा अदभुत है। गणित कुछ उलटा है। गरीब देशों में पागल होने चाहिए। लेकिन गरीब देश में आशा होती है; अभी मिला नहीं है, मिलेगा, कल मिलेगा, परसों मिलेगा--आशा जिलाए रखती है। लेकिन अमीर को सब मिल गया है, सब आशा टूट गई। अब आगे सब अंधेरा है। कोई आशा नहीं। अमावस, जो कभी टूटेगी, इसकी भी कोई संभावना नहीं है। अब अमीर करे तो क्या करे? या तो पागल हो जाए या समाप्त कर ले अपने को। ऐसी जिंदगी जीने से क्या फायदा, जहां आशा भी न हो! गरीब तो थोड़ी-बहुत आशा चलाए रखता है, जिलाए रखता है। थोड़ी सी जगमग उसके भीतर बनी रहती है कि अब पहुंचा, अब पहुंचा, यह मंजिल दो ही कदम रह गई। यह मंजिल कभी मिलती ही नहीं, यह हमेशा दो ही कदम रहती है; और मिल जाए, तो उससे बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं।
मुवा सकल जग देखिया, मैं तो जियत न देखा कोय, हो।
मुवा मुई को ब्याहता रे,...
मुर्दे मुर्दों से विवाह रचा रहे हैं, भांवरें पड़ रही हैं। और फिर मुर्दों से विवाह रचाओगे, भांवरें पड़वाओगे, तो फल भी पाओगे।
झगड़ा हो जाने पर मुल्ला नसरुद्दीन की बीवी ने सूटकेस उठाते हुए कहा: लो मैं चली अपनी अम्मा के घर!
शौक से जाओ--मुल्ला बोला--मगर तुम्हें पता नहीं है, अब तो बहुत देर हो चुकी है।
उसकी पत्नी ने कहा: तुम्हारा मतलब?
नसरुद्दीन ने कहा: मतलब यह है कि तुम्हारी अम्माजान अपने पति परमेश्वर से लड़-झगड़ कर खुद अपनी अम्माजान के यहां चली गई हैं। आज ही यह खत आया है। और मेरा विचार है कि वे शायद ही अपनी अम्माजान को वहां पाएं।
ठीक कहते हैं मलूकदास: मुवा मुई को ब्याहता रे, मुवा ब्याह करि देइ।
नसरुद्दीन ढब्बू जी से कह रहे थे: मेरी पत्नी तो स्वर्ग की परी है, परी!
ढब्बू जी ने कहा: नसरुद्दीन, तुम किस्मत वाले हो।
नसरुद्दीन ने कहा: मतलब?
ढब्बू जी ने कहा: मेरी तो अभी जिंदा है।
मुए बराते जात हैं, एक मुवा बधाई लेइ, हो।
मुवा मुए से लड़न को, मुवा जोर लै जाइ।
मुरदे मुरदे लड़ि मरे, मुरदा मन पछताइ, हो।।
यह सारा संघर्ष, यह सारा उपद्रव मुर्दों के कारण है। मुर्दे लड़ते हैं तभी उनको थोड़ा लगता है कि जीवन है; टकराते हैं एक-दूसरे से, तो थोड़ा सा लगता है कि हां, हम भी कुछ हैं! जरा ताकत आजमाते हैं, तो लगता है कि नहीं, अभी मरे नहीं।
एक अमरीकन कहानी मैं पढ़ रहा था।...अमरीका में ही ऐसी कहानी घट सकती है। अभी दूसरे देश इतने भाग्यशाली नहीं।...एक पचहत्तर साल की बुढ़िया अपनी सहेली दूसरी बुढ़िया को कह रही थी कि कल रात एक बुड्ढे के साथ मैंने बिताई। लेकिन चार-छह दफे उसे मुझे चांटा लगाना पड़ा।
दूसरी बुढ़िया ने पूछा: अरे! क्या बुड्ढा छेड़ाखानी कर रहा था? ज्यादा छेड़खानी कर रहा था, कितनी उमर थी?
बुढ़िया ने कहा: होगा कोई पचासी साल का।
दूसरी बुढ़िया बोली: हद हो गई! तुझे दो-चार दफे चांटा मारना पड़ा!
उसने कहा: हां, मुझे दो-चार दफे चांटा मारना पड़ा। लेकिन तू गलत समझ रही है! छेड़ाखानी नहीं कर रहा था। मुझे दो-चार दफे चांटा मारना पड़ा, तब मुझे पता चला कि जिंदा है कि मर गया। जब मैं चांटा मारूं तब थोड़ा हिले-डुले। नहीं तो बिलकुल मुर्दे की भांति।
ढब्बू जी चुनाव लड़ रहे हैं। उन्होंने पटाखा अपना चुनाव-चिह्न चुना है। किसी ने पूछा कि ढब्बू जी, बहुत तरह के चुनाव-चिह्न देखे, पटाखा! इसका राज?
ढब्बू जी ने कहा: इसलिए कि यह फूट भी सकता है और फुस्स भी हो सकता है। इसमें दोनों गुण हैं, जो हो जाए। लग जाए तो तीर, न लगे तो तुक्का। दोनों हाथ बाजी अपनी है।
लोग लड़ते हैं। लड़ने का कारण है। सबसे बड़ा कारण है कि लड़ने में थोड़ी उन्हें गरमी मालूम होती है, जिंदगी मालूम होती है; लगता है मैं भी हूं, मैं भी कुछ हूं! थोड़े अहंकार को भोजन मिलता है। अगर लोग लड़ें न तो उनका भरोसा ही खो जाए कि हम जिंदा भी हैं कि मर गए!
पति आकर पत्नी से कुछ कहे न, बोले न, चुपचाप बैठ जाए, तो पत्नी नाराज, कि तुम्हें क्या हो गया है, सांप सूंघ गया है? चुप क्यों बैठे हो? अगर पति बोले तो झंझट।
एक छोटा सा लड़का एक दूसरे लड़के से कह रहा था कि मेरी मां गजब की है! बस, एक जरा सा विषय उसे दे दो, घंटों बोलती है!
दूसरे ने कहा: यह कुछ भी नहीं! अरे, मेरी मां, विषय इत्यादि का सवाल ही नहीं और घंटों बोलती है! पिता जी बिलकुल चुप बैठे रहते हैं और मां मेरी बोले चली जाती है। वह इसकी फिकर ही नहीं करती कि कोई विषय भी है या नहीं।
कारण है। कारण यही है कि अगर पति चुप बैठे तो पत्नी को लगता है कि जिंदगी गई! जिंदगी वही है: खटर-पटर। बर्तन...बर्तन थोड़े एक-दूसरे से टकराते हैं, थोड़ी आवाज होती रहती है, शोरगुल होता रहता है, लगता है जिंदगी है।
जरा तुम सोचो कि अगर सब सन्नाटा हो जाए, लोग लड़ना-झगड़ना बंद कर दें, लोग चुपचाप बैठें, शांत, मौन--शक पैदा हो जाएगा कि क्या हो गया? आज बात क्या है? सब कोलाहल कहां गया? इतना सन्नाटा क्यों? सन्नाटा काटने लगेगा।
मलूकदास का निरीक्षण ठीक है: मुरदे मुरदे लड़ि मरे! तलवारें खींच लेते हैं मुर्दे।
जापान में एक कहावत है कि आदमी जब मरता है तभी उसे पता चलता है कि अरे, मैं जिंदा था! मरने की घटना झकझोर देती है। होश आता है कि अरे, मैं जिंदा था! जिंदगी इतना नहीं झकझोर पाती। जब तक मौत ही तुम्हें न झकझोर दे, जब तक मौत ही तुम्हारी जड़ों को न उखाड़ने लगे, तब तक तुम्हारी नींद ही नहीं टूटती, तुम्हारे सपने ही नहीं टूटते। ऐसी गहरी तंद्रा है। और फिर पीछे जो रह जाते हैं, वे भी मुर्दे हैं, वे पछताते हैं।
जीसस का बहुत प्रसिद्ध वचन है, मुझे बहुत प्यारा है।
जीसस सुबह-सुबह एक झील पर रुके। सूरज उग रहा है और झील पर एक मछुवे ने अपना जाल फेंका है--मछलियां पकड़ने के लिए। जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखा। उस मछुवे ने लौट कर पीछे देखा कि कौन है! एक अजनबी आदमी--और अदभुत आदमी! ऐसा आदमी जैसा मछुवे ने कभी देखा नहीं था। झील भी इसकी आंखों के सामने झेंप जाए। इसकी आंखें ज्याद गहरी, झील से ज्यादा गहरी। झील की नीलिमा कुछ भी नहीं, इसकी आंखों की नीलिमा कुछ और! इसके चेहरे पर छाप किसी और लोक की, जैसे अभी-अभी उतरा हो आकाश से! सुबह की ओस की तरह ताजा, सुबह की पहली सूरज की किरण की तरह ताजा! वह ठगा रह गया, देखता ही रह गया!
जीसस ने कहा: अब देखते क्या हो? आओ मेरे साथ! कब तक मछलियां पकड़ते रहोगे? बहुत पकड़ लीं मछलियां। जिंदगी मछलियां पकड़ने में ही गंवाने को नहीं है। आओ मेरे साथ, मैं तुम्हें आदमियों को पकड़ना सिखाऊं।
मछुआ भी हिम्मत का रहा होगा। इतनी श्रद्धा, इतने अजनबी आदमी के साथ! और जीसस जैसे व्यक्ति हमेशा ही अजनबी होते हैं। पहले दिन मिलें तो अजनबी और तुम वर्षों उनके साथ रहो तो अजनबी। क्योंकि वे किसी और लोक के हैं। जब तक तुम जाग ही न जाओ तब तक वे अजनबी ही रहते हैं। उस मछुए ने जाल वहीं फेंक दिया और वह जीसस के पीछे हो लिया। गांव के बाहर निकलते थे, तब एक आदमी भागा हुआ आया और उसने मछुए से कहा: पागल, तू कहां जा रहा है? तेरे पिता बीमार थे, उन्होंने दम छोड़ दी, घर चल! उस मछुए ने जीसस से कहा: क्षमा करें! मैं तो आपके पीछे आता था, लेकिन अब यह दुर्घटना घट गई। जाऊं घर, अंतिम संस्कार करके दो-चार दिन में लौट आऊंगा। जीसस ने कहा: फिकर छोड़। गांव में काफी मुर्दे हैं, वे मुर्दे को जला देंगे। तू मेरे पीछे आ!
जीसस का वचन बड़ा हैरान करने वाला है: गांव में बहुत मुर्दे हैं, वे मुर्दे को दफना देंगे, तुझे क्या फिकर पड़ी! तू मेरे साथ आ, मैं तुझे जिंदा होने का राज बताऊं! मैं तुझे जिंदगी से मिलाऊं! मैं तुझे जीवित कर सकता हूं, मेरे साथ आ! अब तेरे पिता तो गए। मरे ही थे, कुछ नई बात नहीं हो गई है। श्वास चलती थी मुर्दे की, अब नहीं चलती, बस इतना ही समझो। मगर गांव में कई हैं श्वास जिनकी चल रही है, वे दफना देंगे।
हिम्मतवर मछुआ रहा होगा। नहीं लौटा। जीसस के पीछे ही चल पड़ा।
इतनी हिम्मत ही होनी चाहिए सदगुरु के पीछे चलने की, तो ही कोई कभी जाग सकता है। जीवित है सदगुरु, जीवंत है सदगुरु। उसके साथ जुड़ जाओ, उसकी लपट तुम्हारी लपट बन जाए, तो तुम भी जीवित हो सकते हो।
अंत एक दिन मरौगे रे, गलि गलि जैहे चाम।
एक दिन मरना होगा। एक दिन मृत्यु निश्चित है। जिस दिन जन्मे उसी दिन निश्चित हो गई है। मिट्टी में पड़ोगे, हड्डी-मांस-मज्जा सब गल जाएगी। उसके पहले जाग जाओ!
सांसों ने बार-बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
सांसों ने बार-बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
यादों के चाहे हों कैसे भी बांध
एक बार डूब नहीं उगे वही चांद
सपनों को बार-बार हेरा,
व्यर्थ गया पलकों का पहरा है!
एक बूंद से झांके सारा आकाश
कौन प्रहर जाने बन जाए इतिहास
नचा रही बीन या संपेरा,
झूम रहा सांप जो कि बहरा है!
चूक गए अवसर हर, रीते सब जाल
करते हम रहे सिर्फ तोतले सवाल
गीत गुनगुना रहा मछेरा,
सागर से भी पोखर गहरा है!
मोहरे सब चुके सिर्फ अब बची बिसात
कोलाहल बीत गया फिर सूनी रात
झांक रहा है परिचित चेहरा
कौन कहे शायद यह मेरा है!
सांसों ने बार-बार टेरा
बंजारा वक्त नहीं ठहरा है!
समय टेर रहा है, पुकार रहा है। एक क्षण रुकेगा नहीं। मौत द्वार पर दस्तक देगी, प्रतीक्षा न करेगी। और मौत कब आ जाएगी, कहा नहीं जा सकता। कल होगा भी या नहीं, कुछ निश्चित नहीं है। इस क्षण के अतिरिक्त और कुछ निश्चित नहीं है। इस क्षण का उपयोग करो! इस अवसर को गंवाओ मत, जागो! तोड़ो अपनी नींद!
अंत एक दिन मरौगे रे, गलि गलि जैहे चाम।
ऐसी झूठी देह तें, काहे लेव न सांचा नाम, हो।।
यह देह झूठी है, इसके नाते-रिश्ते झूठे हैं।
कहां की बज्मे-आलम? यह तो मेरी तंग-फहमी है।
कि मैं इक चलती-फिरती छांव को महफिल समझता हूं।।
चलती-फिरती छांव, बस इतना ही हमारा पता-ठिकाना है। यह छांव कभी भी तिरोहित हो जाएगी। जरा धूप गहरी होगी और छांव तिरोहित हो जाएगी। इस छांव का क्या भरोसा है?
यह दुनिया तुम्हारे हाथ से गई-गई है। जैसे पारा छितर जाए, ऐसे यह सब छितर जाएगा। ये सब नाते-रिश्ते, ये सब सगे-संबंधी, ये मित्र-प्रियजन-परिजन--कोई काम न आएंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम भाग जाओ, छोड़ दो संसार, कि छोड़ दो पत्नी, कि छोड़ दो बच्चे। इसका इतना ही अर्थ है: रहो यहीं, जैसे हो वैसे ही, मगर लगाव जाने दो, आसक्ति जाने दो, आग्रह जाने दो। पत्नी को मत छोड़ो, मगर पत्नी पर जो पकड़ है, वह छोड़ दो। बच्चों को मत छोड़ो, लेकिन मेरे हैं, ऐसा जो आग्रह है, वह छोड़ दो।
मगर लोग बड़े अजीब हैं! वे कहते हैं: या तो हम आसक्ति रखेंगे, आग्रह रखेंगे, जंजीरें रखेंगे, चाहें रखेंगे और अगर हमसे चाहें, जंजीरें, आग्रह छोड़ने को कहते हो, तो हम फिर सब छोड़-छाड़ कर जंगल में भाग जाएंगे।
आए दिन मंत्री-पुत्रों और मंत्रियों के रिश्तेदारों को भ्रष्टाचार के मामलों में अखबारों की सुर्खियों में देख कर एक मुख्यमंत्री की पत्नी अपने युवा पुत्रों के बारे में बहुत चिंतित थी। उनको लगा कि उन्हें अपने पति को सलाह देनी चाहिए कि वे अपने पुत्रों से नाता तोड़ लें, अपने सभी रिश्तेदारों को पहचानना बंद कर दें।
काम-काज निबटा कर मुख्यमंत्री घर पधारे। सोने से पहले उन्होंने अपने पति से कहा: तुम तो अपने सभी रिश्तेदारों को पहचानना ही बंद कर दो। मुख्यमंत्री पति ने गंभीरता के साथ सारी बात सुनी और अजनबी दृष्टि से घूर कर पत्नी को करीब-करीब अनजानी सा देखता हुआ पूछा: आपका शुभ नाम?
इतने जल्दी!
मगर लोग ऐसे ही हैं; या तो कुआं या खाई! या तो पकड़ेंगे तो पागल की तरह! पागलपन न छोड़ेंगे, छोड़ेंगे तो पागल की तरह, मगर पागलपन न छोड़ेंगे! तुम्हारे भोगी पागल, तुम्हारे योगी पागल। भोगी पागल की तरह पकड़ते हैं, योगी पागल की तरह छोड़ देते हैं। मैं चाहता हूं कि मेरा संन्यासी पागल न हो। छोड़ने-पकड़ने में क्या रखा है! छांव ही है, पकड़ो तो कुछ सार नहीं, छोड़ो तो कुछ सार नहीं। छांव को कोई पकड़ता-छोड़ता है! छांव-छांव है, इतना जानो, बस इतना होश रहे।
आता है जज्बे-दिलको, वह अंदाजे-मैकशी।
रिंदों में रिंद भी रहें, दामन भी तर न हो।।
मैखाने में भी बैठो तो कुछ हर्ज नहीं, रिंदों में भी बैठो तो कुछ हर्ज नहीं, पियक्कड़ों में भी बैठो तो कुछ हर्ज नहीं; तुम्हारा दामन तर न हो, बस इतना ही खयाल रहे।
आता है जज्बे-दिलको, वह अंदाजे-मैकशी।
रिंदों में रिंद भी रहें, दामन भी तर न हो।।
पीने का भी एक सलीका है, एक राज है, एक कला है। मगर लोग तो ऐसे हैं कि जिंदगी में तो संसार में उलझे ही रहते हैं, मर जाएं तो भी संसार में ही उलझे-उलझे मरते हैं।
नसरुद्दीन की पत्नी मरी। नसरुद्दीन तो बहुत पहले मर चुका था; पत्नी मरी, स्वर्ग के द्वार पर उसने पहरेदार से पूछा कि कुछ मुल्ला नसरुद्दीन का पता बता सकते हो? दस साल हो गए मेरे पति को मरे। पहरेदार ने कहा कि यहां तो न मालूम कितने नसरुद्दीन हैं, सदियों-सदियों से लोग मरते रहे हैं। कुछ ठीक-ठीक निशान अपने पति का बताओ, सिर्फ नाम से काम न चलेगा। कौन मुल्ला नसरुद्दीन? यहां मुल्लाओं की कोई कमी है, नसरुद्दीनों की कोई कमी है? यहां तो भीड़ है, करोड़ों-अरबों लोग हैं! पत्नी ने कहा: अब और क्या निशान बताऊं, इतना ही कह सकती हूं कि मरते वक्त नसरुद्दीन ने मुझसे कहा था कि देख, एक बात याद रखना, मैं तो मर रहा हूं, मगर मेरे बाद किसी पुरुष की तरफ आंख भी उठाकर मत देखना। अगर तूने किसी पुरुष की तरफ आंख भी उठा कर देखी तो मैं कब्र में करवटें बदलूंगा। पहरेदार ने कहा: फिर घबड़ा मत, फिर हम पहचान गए। तेरा मतलब घनचक्कर नसरुद्दीन, जो चौबीस घंटे करवटें बदलता रहता है? वह जब से यहां आया है, यही काम करता है।
लोग मर जाएं तो भी इस संसार पर पकड़ रखते हैं। मर गए, मगर पत्नी पर अभी भी पकड़ है कि कहीं पत्नी किसी दूसरे पुरुष को न देख ले।
कुछ लोग हैं, यहां संसार में रहते हैं और संसार को अपने में नहीं रहने देते, वे ही संन्यासी हैं। और कुछ लोग हैं, जो मर भी जाते हैं तो भी संसार उनके भीतर बसा ही रहता है।
बाद मरने के भी दिल लाखों तरह के गम में है।
हम नहीं दुनिया में लेकिन एक दुनिया हम में है।।
मर जाते हैं, दुनिया से छूट जाते हैं; मगर दुनिया उनके भीतर बसी है, उससे कैसे छूटें? वे जो भाग जाते हैं संसार से, सिर्फ भगोड़े हैं, संन्यासी नहीं। वे अपनी गुफाओं में बैठ कर भी संसार की ही चिंता करते हैं, यहीं की फिक्र में लगे रहते हैं, यहीं का हिसाब-किताब बिठाते रहते हैं। और वहां भी संसार ही फिर बना लेंगे। बनाना ही पड़ेगा। क्योंकि संसार से भाग जाओगे, लेकिन मन कैसे बदलेगा? उसी मन ने यहां संसार बनाया था, वही मन वहां संसार बना लेगा।
मैं एक मित्र को जानता हूं, उन्हें मकान बनाने का शौक। ऐसा शौक, खुद तो अपना मकान उन्होंने बनाया ही सुंदर, बहुत सुंदर! वे प्लेटो के इस कथन में विश्वास करते थे, प्लेटो ने कहा है कि हर आदमी को कम से कम एक सुंदर मकान पृथ्वी पर बनाना चाहिए। प्लेटो को भी सुंदर मकानों में बड़ा रस था। इस सज्जन ने अपनी दीवाल पर प्लेटो का वचन लिख रखा था कि हर आदमी को कम से कम मरने के पहले संसार में एक सुंदर मकान बनाना चाहिए।...इन्होंने एक नहीं, कई मकान बनाए। एक बन जाता कि उसको बेच कर दूसरा बनाते। ऐसा ही नहीं, मित्रों के मकान बनते होते तो भी वे दिन-रात वहां खड़े रहते।
फिर वे संन्यासी हो गए।...मेरे संन्यासी नहीं, भगोड़े संन्यासी हो गए। कोई दस साल बाद मैं उनके आश्रम के पास से गुजरता था, तो मैंने कहा जरा देख तो लूं कि हालतें क्या हैं। बस, वे छाता लगाए भरी दोपहरी में मकान बनवा रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि भलेमानुस, यह क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा: आश्रम बनवा रहा हूं! जरा देखो भी! जिंदगी भर जो मकान बनाए, उन सबकी कला इसमें ढाल दी है। एक चीज रहेगी! मैंने कहा: तुम संसार से छोड़ कर भाग आए, मगर तुम तो तुम ही हो। वहां मकान बनवाते थे, यहां आश्रम बनवाते हो। मगर फर्क क्या पड़ा? तो वहीं रहने में क्या हर्ज था, मकान ही बनवाते रहते! सिर्फ मकान का नाम आश्रम हो गया तो फर्क हो गया?
मन वही है तो फिर संसार वही का वही निर्मित हो जाएगा। मन में सारे बीज हैं। मन से छुटकारा संन्यास है; संसार से छुटकारा नहीं। मन गया कि संसार अपने-आप चला जाता है।
इस मन के जाने को, मन की इस मृत्यु को मलूकदास ने बड़े प्यारे शब्दों में प्रकट किया है--ठीक वैसे प्यारे शब्दों में जैसा तुम्हें याद होगा गोरखनाथ का वचन। गोरख ने कहा है:
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
तिस मरणी मरौ, जिस मरणी मर गोरख दीठा।।
मरौ हे जोगी मरौ!...मरने की एक कला है, बड़ी से बड़ी कला है। मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा! बहुत मिठास है मरण में। लेकिन किस मरण में? एक तो यह सारी दुनिया है, जहां मुर्दे घूम रहे हैं, इस मृत्यु की बात नहीं हो रही है। यह किसी और ही मृत्यु की बात हो रही है। उस मृत्यु की जो महाजीवन से जोड़ देती है; शाश्वत मिठास बरस जाती है; एक सुगंध उतर आती है--सत्य की, सौंदर्य की, शिवत्व की, अमरत्व की।
मरौ हे जोगी मरौ, मरौ मरन है मीठा।
तिस मरणी मरौ,...
मरने का भी ढंग है, वैसा मरना।
तिस मरणी मरौ,...
उस ढंग का मरण हो!...
...जिस मरणी मर गोरख दीठा।
जैसे गोरख मरा, मन को मार कर मरा! और मन जहां मरा कि वहीं दर्शन है। मन की मृत्यु परमात्मा का दरस, परमात्मा का परस।
ठीक वैसा ही वचन मलूकदास का--
मरने मरना भांति है रे,...
मरने मरने में फर्क है, रे! एक तो सारी दुनिया है जो मुर्दा है, यह भी एक मरना है। और एक और मरना है जो संन्यासी का है, जो ज्ञानी का है।
मरने मरना भांति है रे, जो मरि जानै कोइ।
अगर मरने की कला आती हो, मरना आता हो, तो मरने मरने में फर्क है। दो तरह के मरने हैं। एक तो दुनिया का मरना है कि लोग बेहोश हैं और मरे हुए हैं और एक होश का मरना है।
मरने मरना भांति है रे, जो मरि जानै कोइ।
रामदुवारे जो मरे, वाका बहुरि न मरना होइ, हो।।
जो राम के द्वार पर मर जाता है! जो अहंकार को समर्पित कर देता है परमात्मा को! जो कहता है: तुम रहो अब मेरे भीतर, मैं नहीं रहूंगा, मैं चला, मैं विदा हुआ! जो अपने हृदय को परमात्मा का आवास बना लेता है।...मंदिर मत बनाओ! पत्थर-ईंटों से बने हुए मंदिर परमात्मा का आवास नहीं हो सकते। हृदय का मंदिर बनाओ! हृदय की यात्रा करो; वही तीर्थ-यात्रा है। रामदुवारे जो मरे! राम के द्वार पर मरना। एक ही शर्त है। उस द्वार पर हमेशा से एक ही शर्त है: अपने को बाहर छोड़ दो तो तुम भीतर जा सकते हो। शर्त जरा बेबूझ है। जरा उलटबांसी है, एकदम से समझ में न आए; क्योंकि तुम कहोगे: अपने को बाहर छोड़ दूं! तो फिर भीतर कौन जाएगा?
तुम दो हो। एक तुम हो जो झूठ है; वही तुम्हारा अहंकार है। और एक तुम हो जो तुम्हारा सत्य है; वही तुम्हारी आत्मा है। झूठ को बाहर छोड़ दो, सत्य को भीतर जाने दो। लेकिन अभी तो तुमने झूठ को ही समझ रखा है कि यह मैं हूं--नाम-धाम, पता-ठिकाना, सोचते हो यही मैं हूं। शरीर मैं हूं, मन मैं हूं। यह तुम नहीं हो। न तुम शरीर हो, न तुम मन हो, न तुम विचार, न तुम वासना। इन सबके साक्षी हो तुम। इन सबसे भिन्न और इन सबके पार हो तुम।
उस साक्षी को जगाओ। देखो अपनी देह को और तादात्म्य तोड़ लो देह से। मत कहो कि मैं देह हूं। इतना ही कहो कि मैं देह में हूं। देह के भीतर निवास कर रहा हूं। देह मेरा घर--एक अस्थायी आवास; सराय, धर्मशाला। आज रुके, कल विदा हुए। और मैं मन भी नहीं हूं। क्योंकि जो भी मैं देख सकता हूं, वह मैं नहीं हो सकता।...मन को तुम देख सकते हो। विचारों की धारा चलती रहती है, तुम देख सकते हो: यह एक विचार आया, दूसरा गया; एक वासना उठी, दूसरी उठी; सतत चल रही है धारा वहां। क्रोध आया, मोह आया, लोभ आया, तुम देख सकते हो। तो निश्चित ही एक बात तय हो गई कि तुम क्रोध नहीं, तुम मोह नहीं, तुम लोभ नहीं। तुम देखने वाले हो, तुम दृष्टा हो! इस दृष्टा के साथ तुम अपने को समग्ररूपेण जोड़ लो। यही तुम्हारा स्वरूप है। यही तुम्हारा सत्य है। यही तुम्हारा परमात्मा है। बस अहंकार गया--जैसे ही शरीर और मन से संबंध छूटा, अहंकार गया; उसी को मृत्यु कह रहे हैं।
मरने मरना भांति है रे, जो मरि जानै कोइ।
मर जाओ शरीर के तरफ से, मर जाओ मन के तरफ से, तो तुम जीवित हो जाओगे साक्षी की तरह!
रामदुवारे जो मरे, वाका बहुरि न मरना होइ, हो।
और यह है राम के दरवाजे पर मरने की कला। और जो राम के दरवाजे पर मर गया, उसका फिर दुबारा मरना नहीं होता। फिर बचता ही नहीं कुछ दुबारा मरने को। तुमको तो बहुत बार मरना पड़ा है और बहुत बार मरना पड़ेगा। जब तक राम के द्वार पर न मरोगे, तब तक द्वार-द्वार पर मरना पड़ेगा। अनंत श्रृंखला है। जन्म और मृत्यु की। लेकिन एक मरने से काम हल हो जाता है; क्योंकि उस एक मरने से महाजीवन मिल जाता है जिसकी कोई मृत्यु नहीं है।
इनकी यह गति जानिके, मैं जहं-तहं फिरौं उदास।
मलूक कहते हैं कि लोगों की यह गति मैं देखता हूं कि कितने जन्मे, कितने मरे, फिर भी उसी में लगे हैं! वही चक्कर, वही उपद्रव जारी है; वही मूर्च्छा, वही बेहोशी! इनको देख कर मन उदास होता है। इन पर दया आती है। क्या करूं, कैसे इन्हें जगाऊं?...यही सब सदगुरुओं की पीड़ा है।
इनकी यह गति जानिके, मैं जहं-तहं फिरौं उदास।
अजर अमर प्रभु पाइया, कहत मलूकदास, हो।।
मलूकदास कहता है कि सुनो, मैंने अजर-अमर प्रभु पा लिया--एक छोटी सी बात से, एक छोटी सी कुंजी से, कि मैं राम के द्वार पर मर गया। तुम भी मरो, ताकि शाश्वत को पा लो!
रामदुवारे जो मरे!
आज इतना ही।