QUESTION & ANSWER

Rahiman Dhaga Prem Ka 05

Fifth Discourse from the series of 12 discourses - Rahiman Dhaga Prem Ka by Osho. These discourses were given during MAR 27 - APR 10 1980.
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पहला प्रश्न:
और कितनी प्रतीक्षा करूं? और कितनी देर है? प्रभु-मिलन के लिए आतुर हूं और अब और विरह नहीं सहा जाता है।
कृष्णानंद! प्रभु के लिए अनंत प्रतीक्षा की तैयारी चाहिए। ऐसा नहीं है कि अनंत प्रतीक्षा करनी होती है; अनंत प्रतीक्षा की तैयारी हो तो क्षण भर में भी क्रांति घट सकती है। लेकिन जल्दबाजी हो तो अनंत काल तक भी नहीं घटेगी। जल्दबाजी में बाधा है। जितना अधैर्य करोगे, उतनी देर हो जाएगी। चूंकि अधैर्य चित्त को अशांत रखता है; धैर्य चित्त को शांत करता है। अधैर्य चित्त को विह्वल करता है, चित्त में तरंगें उठाता है, आंधियां और तूफान। और ऐसे चित्त में परमात्मा आना भी चाहे तो कैसे आए? चित्त चाहिए शांत झील जैसा--जरा सी भी तरंग न हो।
ईश्वर को पाने का विचार भी वासना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह वासना का नया रूप। यह वासना का नया ढंग। यह पुरानी ही वासना है--नया वेश। कभी धन पाना चाहते थे तो अधैर्य था--जल्दी मिल जाए, लाटरी खुल जाए। धंधा तक करने की शांति नहीं थी--जुआ ही खेल लें, चोरी ही कर लें, बेईमानी ही कर लें। फिर कर लेंगे पुण्य। फिर गंगा-स्नान कर लेंगे। फिर एक मंदिर बना देंगे। फिर पूजा-पाठ सब कर लेंगे। एक बार खजाना हाथ लग जाए।
पद पाने की इच्छा थी तो भी वैसी ही दौड़ थी। वैसी ही आपाधापी थी। चाहे लोगों के सिरों की सीढ़ियां बनानी पड़ें, तो भी चिंता नहीं की। जिनके सहारे चढ़े, उनको ही गिराना पड़ा, तो भी चिंता नहीं की। सच तो यह है कि जिनके सहारे व्यक्ति चढ़ता है, उनको गिराना ही पड़ता है, क्योंकि उनसे खतरा है--दूसरे भी उनके सहारे चढ़ सकते हैं।
इसलिए किसी राजनीतिज्ञ को भूल कर भी साथ-सहयोग मत देना, क्योंकि सबसे पहले तुम ही उसके शिकार होओगे। जिस दिन वह पद पर होगा, पहले तुम्हें मारेगा। तुम आदमी खतरनाक हो! तुमने ही उसे पहुंचाया, तुम किसी और को भी पहुंचा सकते हो। तुम्हारा रहना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए राजनीति में कोई किसी का मित्र नहीं होता, सब सबके शत्रु होते हैं।
पद है, धन है, यश है--उस सबसे किसी तरह छूटे, मगर बात वही की वही पुरानी रही। लेबल बदला, रंग बदला, कपड़े बदल दिए, मगर वासना को समझा नहीं तुमने। वासना का अर्थ होता है: और मिले! और मिले! जितना है, कम है। जो है, कम है। वासना अर्थात शाश्वत अतृप्ति। वासना का अर्थ है: जल्दी मिले, बहुत देर हुई जा रही है। क्षण भर भी प्रतीक्षा नहीं वासना करना चाहती। क्षण भर भी प्रतीक्षा करनी पड़े तो आग जलने लगती है बेचैनी की, बुखार चढ़ आता है, उत्तप्त हो जाते हो, क्रुद्ध हो उठते हो।
अब तुम पूछते हो: ‘और कितनी प्रतीक्षा करूं?’
कृष्णानंद, तुमने अभी प्रतीक्षा का आनंद ही नहीं लिया, इसलिए पूछते हो: और कितनी प्रतीक्षा करूं? परमात्मा की प्रतीक्षा आनंद है, सौभाग्य है। इससे बड़ी और क्या धन्यता है? यह परमात्मा को पाने से भी बड़ा सौभाग्य है--परमात्मा की प्रतीक्षा, उसकी इंतजारी। और जो लुत्फ इंतजारी में है, वह पाने में भी नहीं है। जो आंखें बिछा कर राह देखने में है, जो द्वार-दरवाजे खोल कर, जाग कर, प्रार्थनापूर्ण हृदय से निमंत्रण भेज कर, पलक-पांवड़े बिछा कर बैठने में है--वह पाने में भी नहीं। जिस दिन तुम्हें प्रतीक्षा आनंदपूर्ण हो उठेगी, क्या ऐसा पूछोगे: और कितनी प्रतीक्षा करूं? जिस दिन प्रतीक्षा आनंदपूर्ण हो उठेगी, उसी दिन परमात्मा का मिलन भी हो जाएगा। क्योंकि जब प्रतीक्षा भी आनंद हो गई तो क्रांति घट गई। अब यह पुरानी वासना न रही। अब यह वासना ही न रही, चित्त वासना से मुक्त हो गया। अब तुम्हारे भीतर और-और की मांग नहीं है। जल्दी भी नहीं है। न मांग है, न जल्दी है। अब तो तुमने कहा: जो तेरी मर्जी! आज आए तो स्वागत, कल आए तो स्वागत, परसों आए तो स्वागत! कभी न आए तो स्वागत! ऐसे अनंत धैर्य का ही नाम प्रार्थना है। प्रार्थना प्रतीक्षा की गहनता का नाम है।
तुम तो प्रार्थना थोड़े ही करते हो, वासना ही करते हो--यह मिल जाए, वह मिल जाए। प्रार्थना का अर्थ होता है: जितना तूने दिया है, उसके लिए धन्यवाद। और वासना का अर्थ होता है: जो भी तूने दिया, कम है, मेरी योग्यता से कम है। दूसरों को ज्यादा दे दिया--जिनकी कोई योग्यता नहीं, कोई पात्रता नहीं। प्रार्थना का अर्थ होता है कि मुझ अपात्र को इतना दिया--इतना कि मेरी झोली में समाता नहीं है! कि मेरी झोली छोटी पड़ी जाती है! कि मेरी आत्मा छोटी पड़ी जाती है! कि तू है कि बरसाए चला जाता है! रखूं तो कहां रखूं? भरूं तो कहां रखूं? यह मोतियों को कहां सम्हालूं? ये खजाने कहां बचाता फिरूं? और तू है कि दिए चला जाता है! सुबह और सांझ! न दिन देखे, न रात! अहर्निश दे रहा है! प्रति श्वास दे रहा है!
प्रार्थना का अर्थ होता है: धन्यवाद। और वासना का अर्थ होता है: शिकायत। यह तो शिकायत हो गई कृष्णानंद।
तुम कहते हो: ‘और कितनी प्रतीक्षा करूं?’
तुम तो यह कह रहे हो कि मैं पात्र, सब भांति योग्य। योग किया, ध्यान किया, तप किया, त्याग किया--और अब भी देर हो रही है! और अजामिल जैसे तर गए, जिंदगी भर पाप किया, पुण्य की जिन्हें गंध नहीं थी, प्रभु का कभी स्मरण नहीं किया था। मरते वक्त उस महापापी अजामिल ने अपने बेटे को बुलाया। बेटे का नाम नारायण था। चूंकि बेटे का नाम नारायण था, ऊपर के नारायण धोखे में आ गए! और अजामिल ने अपने बेटे को बुलाया था। और निश्चित ही अजामिल ने बुलाया होगा बताने को कि धन कहां गड़ा रखा है और चोरी का कोई नुस्खा, डाके का कोई ढंग, कोई आखिरी राज--जो जिंदगी भर उसने किया था, बेटे को भी सिखा जाना चाहता होगा। आखिर और क्या! मरते वक्त आदमी की सारी जिंदगी का निचोड़ आ जाता है। अजामिल कोई बेटे को यह नहीं कह रहा होगा कि बेटा रोज सुबह उठ कर प्रार्थना करना, प्रभु का स्मरण करना, पूजा-पाठ करना। यह तो निश्चित ही नहीं कह रहा होगा। यह तो उसने खुद ही कभी नहीं किया। वह यह नहीं कहेगा कि चोरी मत करना बेटा, कि मैंने की और पाया कि सब व्यर्थ है।
कोई बाप अपने बेटे के सामने यह स्वीकार नहीं करता कि मैं हार गया हूं, कि मैं असफल हो गया हूं। हर बाप चाहता है कि बेटा मेरे जैसा ही हो जाए। हर बाप की यही आकांक्षा है--बिना इसकी फिक्र किए कि मैंने क्या पा लिया है, जो अपने बेटे को भी यही बनाने में लगा हूं! हर बाप इसी कोशिश में है कि बस बेटा उसकी प्रतिलिपि हो, प्रतिछवि हो, उसकी तस्वीर हो। इसके पीछे कारण है। बाप जानता है: मैं तो मर जाऊंगा, लेकिन मेरे अमर होने का एक ही ढंग है कि कम से कम अपनी छाप छोड़ जाऊं। मेरे ही वीर्याणु से पैदा हुआ कोई व्यक्ति ठीक उसी काम को करता रहे जो मैं करता था। इसलिए हर बाप अपनी अधूरी महत्वाकांक्षाओं को अपने बेटों के कंधों पर लाद जाता है; अपने सब रोग अपने बेटों को दे जाता है। और बेटे मजबूर हैं, अवश हैं, असहाय हैं। स्वीकार करना होता है। और करेंगे भी क्या? अगर बाप ठीक से नहीं पढ़ पाया, लिख पाया, तो बेटों को धक्के दे-दे कर स्कूल भेजता है। पढ़ाएगा-लिखाएगा। उसकी महत्वाकांक्षा अधूरी रह गई है। वह सोचता है: पढ़-लिख लेता तो पता नहीं और कितने करोड़ इकट्ठे कर लेता! इतने जो करोड़ इकट्ठे किए, इनसे कोई तृप्ति नहीं हुई। और न मालूम कितने करोड़ इकट्ठे कर लेता!
बेपढ़े-लिखे बाप बेटों के साथ बहुत धक्कमधुक्की करते हैं, उनको पढ़ा-लिखा कर ही रहेंगे। बाप गरीब हो तो बेटे को अमीर बनाने की कोशिश में लगा है। बाप अगर पद पर न पहुंच पाया हो--कोशिश तो जिंदगी भर उसने भी की थी, मगर थक गया, जिंदगी के संघर्ष में नहीं जीत पाया--तो बेटा इस काम को जारी रखे। पीढ़ी दर पीढ़ी वही रोग चलते रहते हैं।
अजामिल कोई बेटे को भक्ति का उपदेश देने के लिए नहीं बुलाया था। यह तो संयोग की बात थी कि नारायण नाम था। उन दिनों सभी नाम भगवान के नाम थे। अभी भी अधिकतम नाम भगवान के ही नाम हैं। हमारे पास एक पूरा का पूरा शास्त्र है: विष्णु सहस्र नाम। विष्णु के हजार नाम। अब तुम नाम खोजने भी जाओगे तो कहां से खोजोगे? उन्हीं हजार नामों में से कोई न कोई नाम होगा। कोई राम हैं, कोई हरि हैं, कोई विष्णु हैं, कोई कृष्ण हैं, कोई शिव हैं, कोई कुछ हैं, कोई कुछ हैं। मगर नाम तो वही के वही हैं। मुसलमानों में सौ नाम हैं, वे सब ईश्वर के नाम हैं। सारी दुनिया में ऐसा था। पुराने जमाने में सभी नाम परमात्मा के नाम थे।
सो संयोगवशात नाम नारायण था। लेकिन ऊपर के नारायण ने समझा कि अजामिल को आखिरी समय में बुद्धि आ गई। हद्द हो गई! ऊपर का नारायण भी धोखा खा गया! ऊपर के नारायण को भी इतनी आसानी से धोखा दिया जा सकता है! सो अजामिल मरा और सीधा बैकुंठ-लोक गया।
जरूर चालबाजों ने यह कहानी गढ़ी होगी। बेईमानों ने यह कहानी गढ़ी होगी। पंडित-पुरोहितों ने यह कहानी गढ़ी होगी, कि मत घबड़ाओ, अरे मरते वक्त भी अगर गंगाजल मुंह में पड़ गया तो बस सब ठीक है। मरते-मरते भी अगर कान में गायत्री का मंत्र पड़ गया तो बस सब ठीक है!
मरता हुआ आदमी, उसको न कुछ सुनाई पड़ रहा है, न कुछ सूझ रहा है, सब अंधेरा हुआ जा रहा है, और कोई दूसरा उसके कान में गायत्री मंत्र पढ़ रहा है! जिंदगी बिना गायत्री के बीत गई, अब आशा की जा रही है कि गायत्री मरते वक्त नौका बन जाएगी।
और अजामिल की कथा! सो तुमको लगता होगा कृष्णानंद कि अब और मैं कितनी प्रतीक्षा करूं? एक ही बार उसने पुकारा था नारायण और बैकुंठवासी हो गया और मैं पुकार-पुकार मरा जा रहा हूं और बैकुंठ की कोई न खबर आती, न कोई चिट्ठी-पत्री, न कोई संदेशवाहक आते, न कोई देवदूत उतरते। तुम ध्यान करते-करते बीच में आंख खोल कर देख लेते होओगे कि फरिश्ते आए कि अभी तक नहीं आए? फिर आंख बंद कर लेते होओगे कि धत तेरे की! बड़ी देर हो रही है। सुनी है कहावत न कि देर है, अंधेर नहीं! मगर अब तो अंधेर हुआ जा रहा है। इतनी देर! इसी को तो अंधेर कहते हैं। और पापी तरे जा रहे हैं, पापी पहुंचे जा रहे हैं। और तुम चिल्ला-चिल्ला कर मरे जा रहे हो कि हे पतितपावन! और बहरा हुआ बैठा है बिलकुल। कोई खोज-खबर नहीं लेता। सुदिन आने तो दूर, रोज-रोज दुर्दिन आते हैं। रोज-रोज मुसीबतें आती हैं।
नहीं; यह प्रतीक्षा नहीं है। तुमने अभी प्रार्थना ही नहीं जानी। तुमने अभी प्रतीक्षा का रस नहीं पीया। तुमने प्रतीक्षा का प्रेम नहीं सीखा। धन्यवाद दो! जीवन दिया उसने, तुमने धन्यवाद दिया? ये आंखें दीं उसने, जिनसे सूरज को देखो, चांद-तारों को देखो, इस विराट विश्व के सौंदर्य को देखो! ये कान दिए उसने कि सुनो नाद को, कि सुनो चारों तरफ व्याप्त अनाहत को! धन्यवाद दिया तुमने? सौंदर्य को देखने और परखने की संवेदना दी। जीवन को अनुभव करने का बोध दिया, चैतन्य दिया। धन्यवाद दिया तुमने? नहीं; जो हमारे पास है, उसके लिए हम धन्यवाद नहीं देते। अगर तुमसे कोई कहे कि लाओ एक आंख बेच दो, कितने दाम में देने को राजी होओगे? गरीब से गरीब आदमी भी कहेगा कि किसी कीमत पर अपनी आंख नहीं बेच सकता। अरे आंख जैसी चीज कोई बेची जाती है!
एक आदमी मर रहा था, आत्महत्या कर रहा था। एक फकीर ने उसको पकड़ लिया कि यह क्या करता है भाई?
उसने कहा: छोड़ दो मुझे! मुझे छोड़ दो! मैं तो मरूंगा।
उसने कहा कि तू मर जाना, तुझे मैं नहीं रोक रहा हूं। मगर जाते-जाते मेरा थोड़ा भला कर जा। इसमें तेरा क्या बिगड़ता है?
उस आदमी ने कहा: क्या भला?
उसने कहा कि तुझे तो मरना ही है न!
उसने कहा: मैंने बिलकुल निश्चय कर लिया है। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं है।
तो उसने कहा: इतना काम कर, एक दो-तीन घंटे और रह जा, इतने दिन रहा। मेरे लिए!
उस आदमी ने कहा: लेकिन करना क्या पड़ेगा?
उसने कहा: तू जरा मेरे साथ आ।
वह उसको सम्राट के पास ले गया। सम्राट फकीर का भक्त था।सम्राट के कान में कुछ फुसफुसाया और सम्राट से बोला कि इस आदमी की आंखें खरीद लो।
सम्राट ने कहा: कितने लेगा? क्या पैसे लेगा?
उस आदमी ने कहा: आंखें! तुमने समझा क्या है? आंखें जैसी बहुमूल्य चीज पैसों में बिकती है?
सम्राट ने कहा: लाख ले ले, दस लाख ले ले, पचास लाख ले ले, करोड़ ले ले।
उस आदमी ने कहा: करोड़! अरे तू अरब दे तो मैं अपनी आंख नहीं दे सकता।
उस फकीर ने कहा: अरे भई, क्या कर रहा है तू? अभी नदी में कूद कर मर रहा था, उसमें आंख भी चली जाती। यह सम्राट सब चीजें लेने को तैयार है। आंख भी लेगा, कान भी लेगा, हाथ भी लेगा, दांत भी लेगा, नाक भी लेगा। हम सब बेचे दे रहे हैं। यही तो मैंने तुझसे कहा कि तू इतना मेरा भला कर जा जाते-जाते। तू तो मुफ्त में नदी में डूब ही जा रहा है, तो मुझे तेरी बिक्री कर लेने दे। मैं जिंदगी भर का फकीर अमीर हुआ जाता हूं। तू मजे से मर! मैं वहां बैठा ही इसलिए था कि कोई आ जाए नदी के किनारे मरने तो मैं बेच लूं। तू आ गया। यही तो मेरी प्रार्थना थी। भगवान भी सुन ही लेता है--अगर करते ही रहो, करते ही रहो, करते ही रहो। आखिर उसने तुझे भेज दिया। अब तू नटा जा रहा है!
उस आदमी को तब बोध आया कि मैं क्या कर रहा था! उसने कहा: मुझे नहीं मरना है। मैं अपने घर जा रहा हूं। न मुझे आंख बेचनी, न मुझे मरना है। आज मुझे पहली बार पता चला कि जीवन कितना बहुमूल्य है!
ऐसी ही कहानी सिकंदर के संबंध में है कि वह जब भारत आ रहा था तो एक रेगिस्तान में भटक गया। प्यास लगी। एक फकीर एक लोटे में जल लेकर उपस्थित हुआ। सिकंदर तो, बांछें खिल गईं उसकी, उसने कहा कि आप एक फरिश्ते हैं! मैं मरा जा रहा था। मुझे पानी पिलाओ। बस मेरी आखिरी सांसें हैं। अगर जल नहीं मिला तो कंठ सूखा जा रहा है।
उस फकीर ने कहा: एक लोटे जल के लिए कितना देने को राजी है?
सिकंदर ने कहा: मैं मर रहा हूं और तुझे सौदा करने की पड़ी है?
फकीर ने कहा कि कितने लोग मर गए और तूने सौदा करने में कोई कमी नहीं की, कितनों को तूने मारा! मैं कोई तुझे मार नहीं रहा हूं। मेरे पास लोटा भर जल है, लेना हो ले ले। आधा साम्राज्य देने को राजी है?
एक क्षण सिकंदर झिझका, आधा साम्राज्य! जिंदगी गंवा दी उसने आधा साम्राज्य कमाने के लिए। मगर उस घड़ी में आधा लोटा भी पानी मिल जाए तो बहुत। उसने कहा: अच्छी बात है।
फकीर ने कहा: लेकिन नहीं। मैं तो पूछ रहा था कि कितना तू देने को राजी है। पूरा लूंगा तो पूरा लोटा पानी दूंगा। पूरा साम्राज्य देने को राजी है?
और सिकंदर ने बेमन से कहा, लेकिन कहा कि हां! लेकिन पानी दो, राज्य तुम ले लो।
उस फकीर ने कहा कि पानी तू ऐसे ही ले ले, मैं तो सिर्फ यह कह रहा था कि इस राज्य की कीमत कितनी है? एक लोटा जल से ज्यादा नहीं है, जिसके लिए तूने जीवन गंवा दिया! जीवन की कितनी कीमत है!
हम धन्यवाद देना सीखें। हम थोड़ा पहचानना सीखें कि हमारे जीवन का कितना मूल्य है! कितनी अपूर्व वर्षा हमारे ऊपर वरदानों की होती रही है, हो रही है, प्रतिपल हो रही है! आशीष ही आशीष बरस रहे हैं! जिस दिन तुम उन आशीषों के लिए धन्यवाद दोगे, उस दिन तुमने प्रार्थना सीखी कृष्णानंद।
और प्रार्थना तत्क्षण पूरी हो जाती है। मगर प्रार्थना में यह भाव होता ही नहीं कि कब पूरी होगी।
और तुम पूछते हो: ‘और कितनी देर है?’
प्रार्थना में समय मिट जाता है, देर-अबेर की बात कहां? तुमने प्रार्थना की ही नहीं अभी तक। जब भी प्रार्थना करोगे, समय से मुक्त हो जाओगे, समय के बाहर हो जाओगे, घड़ी बंद हो जाएगी। सब घड़ी की टिक-टिक खो जाएगी।
इस सदी में जो बड़ी से बड़ी खोजें दुनिया में हुईं, उनमें अल्बर्ट आइंस्टीन का सापेक्षवाद का सिद्धांत है, थियरी ऑफ रिलेटिविटी। सिद्धांत बहुत कठिन है, जटिल है। होगा ही, क्योंकि जीवन की बहुत जटिलताओं को सुलझाने की चेष्टा है। और जब भी उससे कोई पूछता था तो वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाता था कि कैसे समझाएं। और हर कोई पूछता था। पार्टी में जाए, क्लब में जाए, मित्रों से मिले, बगीचे में घूमने जाए, कोई न कोई रोक ले कि आप अल्बर्ट आइंस्टीन हैं? कृपा करके, यह आपका सापेक्षवाद का सिद्धांत क्या है, संक्षिप्त में बता दें!
तो अंततः उसने एक तरकीब निकाल ली थी। वह कहता था: सापेक्षवाद का सिद्धांत बिलकुल सरल है। यह ऐसा है कि जैसे तुम्हारी प्रेयसी तुम्हें मिल गई, वर्षों के बाद। जैसे मजनू को लैला मिली। दोनों हाथ में हाथ डाले बैठे हैं। पूर्णिमा की रात है। समुद्र का तट है। ताजी और नमकीन हवाएं हैं। मस्त वसंत की बहार है। चारों तरफ सुगंध है। आकाश में बारात सजी है तारों की। और वे हाथ में हाथ दिए बैठे हैं। तो समय जल्दी गुजर जाएगा कि धीरे-धीरे गुजरेगा? समय बहुत जल्दी गुजर जाएगा। इतनी जल्दी गुजर जाएगा कि वे अपनी घड़ी देखेंगे कि यह घड़ी धोखा तो नहीं दे रही? इतनी तेजी से भागी जा रही है! घंटा यूं गुजर जाएगा जैसे पल। और समझ लो कि तुम्हारी पत्नी, जो कह कर गई थी कि तीन दिन के लिए मायके जा रही हूं, पहले ही दिन वापस लौट आई। तुमने एक राहत की सांस ली थी...
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन मुझसे कह रहा था कि बैंगलोर बड़ी गजब की जगह है। बड़ी सुख-शांति मिलती है। स्वास्थ्यवर्धक। मानसिक रूप से भी शांतिदायी। मैंने पूछा कि नसरुद्दीन, तुम तो सदा यहीं दिखाई पड़ते हो, बैंगलोर गए कब? उसने कहा: मैं नहीं गया, मेरी पत्नी गई। और जब तक बैंगलोर में रही, ऐसा मेरा स्वास्थ्य और ऐसी मन की शांति...एक महीने तक जो आनंद मैंने पाया है, वाह रे बैंगलोर!
अब समझो कि पत्नी पहले ही दिन आ जाती है या स्टेशन से ही लौट आती है, कि दिल बदल गया। अरे पत्नियों का क्या भरोसा? पत्नियां सुख में नहीं देख सकतीं पतियों को।
फ्रांस में कहावत है कि जब किसी स्त्री को तुम प्रेम करते हो तो वह आंखें क्यों बंद कर लेती है? तो कहावत है कि वह इसलिए आंखें बंद कर लेती है कि वह पति को सुख लेते नहीं देख सकती। बर्दाश्त के बाहर है कि इस निखट्टू को और इतना आनंद मिल रहा है! वह जल्दी से आंखें बंद कर लेती है।
अल्बर्ट आइंस्टीन कहता था कि तुम्हारी पत्नी लौट आए जल्दी मायके से और उसके पास तुम्हें बैठना पड़े। वही चांद, वही बारात सजी तारों की, वही समुद्र-तट, मगर समय ऐसे गुजरेगा जैसे घड़ी बंद हो गई। तुम बार-बार घड़ी कान से लगा कर देखोगे कि टिक-टिक कर रही है कि बंद ही हो गई है? चल रही है कि नहीं चल रही? समय गुजरता ही न लगेगा। इसको वह कहता था: सापेक्षता। घड़ी तो अपने ढंग से ही चलती है; न उसे प्रेयसी का पता है, न पत्नी का। घड़ी को क्या लेना-देना? तुम सुख में हो तो समय जल्दी भागता मालूम पड़ता है--तुमको! तुम दुख में हो तो समय धीमे-धीमे सरकता मालूम पड़ता है, घसिटता मालूम पड़ता है--तुमको! समय तो उसी गति से जा रहा है।
आइंस्टीन ये दो ही उदाहरण लेता था, क्योंकि तीसरे का उसको पता नहीं था। काश उसने कभी ध्यान किया होता, तो वह जानता कि एक ऐसा भी भाव का लोक है, जहां न समय भागता है, न घसिटता है, समय होता ही नहीं, समय शून्य हो जाता है। प्रेयसी के पास घड़ी तेजी से चलती है; पत्नी के पास धीमे-धीमे चलती है; ध्यान में चलती ही नहीं, ठहर ही जाती है।
कहां की पूछ रहे हो बात कि और कितनी देर है?
उतनी ही देर है जब तक तुम्हें यह समय का बोध है। बस उतनी ही देर है। यह समय का बोध जाने दो--और बस उसी घड़ी हो जाएगी बात, तत्क्षण हो जाएगी बात।
और तुम कहते हो: ‘प्रभु-मिलन के लिए आतुर हूं।’
तुम तो भैया आतुर हो, ठीक; मगर कुछ कमी होगी कहीं तुम में अभी, प्रभु अभी इतना आतुर नहीं दिखता। और यह ताली दोनों तरफ से बजती है। तुम्हारी आतुरता से ही कुछ न होगा। उसकी आतुरता भी चाहिए। उसे भी आतुर बनाओ। और वह आतुर तभी होता है, जब तुम मग्न और मस्त होते हो। प्रभु भी, जो आनंदित हैं, उनसे ही मिलने को आतुर होता है।
लेकिन बड़ी अजीब दुनिया है यह! यहां दुखी आदमी प्रार्थना करते हैं और सुखी आदमी परमात्मा को भूल जाते हैं। और सुखी जो है वही परमात्मा को पा सकता है।
मेरी बात तुम्हें उलटबांसी लगेगी। मजबूरी है लेकिन, जो सच है वह मुझे तुमसे कहना ही होगा। दुख में तुम याद करते हो। तुम परमात्मा को याद नहीं करते, तुम दुख से छुटकारा चाहते हो; सोचते हो शायद परमात्मा को याद करने से छुटकारा हो जाए। सो परमात्मा की तुम सेवा मांगते हो। तुम मालिक, उसको सेवक बनाना चाहते हो, उसका उपयोग करना चाहते हो। उसका तुम साधन की तरह उपयोग करना चाहते हो कि मैं दुखी हूं, आ, मेरा दुख दूर कर। जैसे तुमने चुनौती दे दी उसे कि है हिम्मत तो करके दिखा! अरे है तू कहीं कि नहीं? अगर हो तो आ जा!
लेकिन जब तुम दुख में होते हो तब परमात्मा दूर-दूर तक खोजे से नहीं मिलेगा। जब तुम आनंदमग्न होते हो, मस्त होते हो, एक खुमार होता है तुम्हारे भीतर, डोलते हो--तब! परमात्मा उनके संग-साथ हो लेता है जो नाच रहे हैं। नाचने में उसे रस है। वह नर्तक है, नटराज है। उसे गीतों में रस है। वह बांसुरीवादक है। वह संगीत से आह्लादित होता है। जब तुम्हारा हृदय संगीतपूर्ण होता है, तब वह खिंचा चला आता है। तुम जरा उस आनंदभाव को अपने भीतर जन्माओ, जो उसे खींच ही ले, उसे आना ही पड़े। तुम फिक्र छोड़ो। तुम उसके पीछे-पीछे मत भागे फिरो। वह तुम्हारे पीछे-पीछे भागा-भागा फिरेगा।
कबीर ने कहा है: हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई। कि मैं तो खोजते-खोजते थक गया, खो ही गया। खोजते-खोजते खुद ही खो गया। वह तो नहीं मिला, मैं खो गया। लेकिन जिस दिन मैं खो गया, बस उसी दिन चमत्कार हो गया। पहले मैं चिल्लाता फिरता था कि हे प्रभु, तुम कहां हो? दिशा-दिशा में घूमता था, देश-देशांतर में भटकता था। और अब हालत उलटी है। वह मेरे पीछे-पीछे घूमता है--कहत कबीर-कबीर!
तुम आनंद को जन्माओ। तुम्हारे भीतर फूल खिलने दो चैतन्य के। तुम्हारी सुगंध उठने दो। तुम मंदिर बनो। और प्रार्थना और प्रतीक्षा तुम्हें मंदिर बना देगी। तुम मंदिर जिस दिन हो जाओगे, धूप-दीप जलेंगे--उस दिन वह आया ही आया, निश्चित है, सुनिश्चित है! इससे अन्यथा कभी न हुआ है, न हो सकता है। हर चीज का समय है। हर चीज का मौसम है। बीज बो दो और राह देखो। फिर आएंगे आषाढ़ के मेघ, फिर वर्षा होगी, फिर बीज फूटेंगे, हरे अंकुर निकलेंगे। फिर आएगा समय मधुमास का, फूल भी लगेंगे। और न मालूम कहां छिपे भंवरे गीतों के गुंजार करते हुए चले आएंगे! न मालूम कहां छिपी हुई तितलियां उड़ने लगेंगी!
जब-जब भी बोए हैं फूल
उग आए हैं बबूल
धरती की फटी छाती की दरारों से
पनप आए अविश्वास के कैक्टस व शूल
प्यार बन गया है आकाश
जो इतना सुंदर, सशक्त
और सर्वव्यापी होकर भी
वास्तव में कुछ नहीं
क्योंकि जो है वह आत्मरति है
या महज आदान-प्रदान
प्यार नहीं!

भीड़ बुत बन गई है अचानक
अकेलेपन से त्रस्त मन
बन गया नदी किनारे खड़े वृक्ष सा खामोश
वह बेहद प्यासा है
पर पनघट कहीं नहीं मिलता
क्योंकि हर कहीं प्यास है
वृक्ष की हर नंगी बांह भिक्षुक सी
उदार आकाश से कुछ मांगती है
पर ऊपर से कुछ नहीं मिलता
फूटते हैं नवपल्लव, फूल और फल
अपनी ही भीतरी शक्तियों से
पर खिलने का भी मौसम है
जो दुखों के पतझड़ के बाद आता है
रह-रह कर कांपती है वृक्ष की परछाईं
नदी के पानी में
पर बेमौसम कुछ नहीं खिलता
आने दो मौसम।
बेमौसम कुछ नहीं खिलता
कितने ही परेशान होओ, तुम्हारी परेशानी और देर कर देगी। शांत, मौन--छोड़ो उस पर, जो उसकी मर्जी! आना होगा तब आएगा। कोई जबरदस्ती है? कम से कम परमात्मा पर तो हिंसा करने के इरादे छोड़ दो! हम उस पर भी हिंसा करने के इरादे रखते हैं। हमारा वश चले तो हम उसके घर पर भी धरना दे दें। वह तो मिलता नहीं, ऐसा छिपता है--तुम्हारे ही जैसे व्यक्तियों के कारण, कृष्णानंद!
पहले तो मैंने सुना है कि वह यहीं रहता था जमीन पर ही, बीच बाजार में। लेकिन लोगों ने जान खा डाली। चौबीस घंटे लोग सोने ही न दें। जब देखो तब लोग दरवाजे पर खड़े हैं, कतार ही लगी हुई है। इसको यह चाहिए, उसको वह चाहिए। और लोगों की मांगें ऐसी हैं कि एक की पूरी करो तो दूसरे की बिखर जाए, दूसरे की पूरी करो तो तीसरे की गड़बड़ हो जाए। कोई कह रहा है कि आज पानी गिराना, क्योंकि मैंने बीज बोए हैं। और कोई कह रहा है कि आज पानी न गिराना, मैंने कपड़े रंगे हैं, सुखाने हैं। अब परमात्मा क्या करे और क्या न करे? हजार लोग, हजार उनकी मांगें। इसलिए, मैंने सुना है, उसने अपने सलाहकारों को बुलाया और कहा कि भैया, मुझे कोई जगह बताओ जहां मैं छिप रहूं। अब जो भूल हो गई, हो गई, कि सृष्टि बना दी।
यह तो तुम्हें पता ही है कि आदमी बनाने के बाद उसने फिर कुछ नहीं बनाया। बात जाहिर है, क्यों नहीं बनाया? बनाने से ही विरक्त हो गया। आदमी को बना कर समझ गया कि हो गई भूल, बस अब ठहर जाओ, पूर्ण विराम लगा दिया। आदमी जब तक नहीं बनाया था, तब तक बनाता गया। घोड़े बनाए, गधे भी बनाए, तब भी नहीं घबड़ाया! शेर बनाए, बंदर बनाए, भालू बनाए, नहीं घबड़ाया। बड़ा मस्त था, बनाता ही चला गया, बनाता ही चला गया। उसी धुन में, उसी मस्ती में, उसी भूल में आदमी को बना गया। और बस आदमी ने ऐसी मुसीबत की उसकी कि सलाहकारों से सलाह लेनी पड़ी कि कहां छिप जाऊं, कोई जगह बताओ!
एक सलाहकार ने कहा: आप ऐसा करें कि गौरीशंकर, हिमालय के शिखर पर बैठ जाएं।
उसने कहा: तुम्हें पता नहीं, मैं तो आगे तक की देखता हूं। अरे थोड़े दिनों बाद, होगा एक आदमी तेनसिंग और एक आदमी हिलेरी, वे दोनों चढ़ जाएंगे। और एक दफा दो आदमी पहुंच गए कि बाकी के आने में कितनी देर है! जल्दी ही बसें वगैरह आएंगी, होटलें खुल जाएंगी, सिनेमाघर बन जाएंगे। मेरी जान ये वहीं खाएंगे। इससे कुछ ज्यादा देर मामला नहीं टलेगा। एक थोड़ी देर के लिए, अस्थायी उपाय समझ लो। मैं चाहता हूं कोई स्थायी उपाय, आदमी से बचने का कोई स्थायी उपाय।
किसी ने कहा: चांद पर चले जाओ।
उसने कहा: तुम भी नहीं समझे। और दो दिन की देरी समझो, चांद पर पहुंचेंगे ये। ये छोड़ने वाले नहीं कहीं।
तब एक बूढ़े सलाहकार ने उसके कान में कहा: आप ऐसा करो, आदमी के भीतर छिप जाओ। और यह बात उसे जंच गई और तब से वह आदमी के भीतर छिप गया। क्योंकि उस बूढ़े आदमी ने उससे कहा कि एक जगह भर आदमी कभी नहीं जाएगा--अपने भीतर। और सब जगह जाएगा। और दुनिया छान मारेगा। अपने भीतर कभी नहीं जाएगा।
कृष्णानंद, वह वहीं छिपा बैठा है। तुम कहां आंखें टकटकी लगाए बैठे हो? आकाश में, तारों से आएगा? कि मक्का-मदीना से आएगा? कि काशी-कैलाश से आएगा? कि गिरनार, शिखरजी से आएगा? तुम कहां आंखें अटकाए बैठे हो? आंख बंद करो और मौन-शांति में डूबो! आनंदमग्न! अपने भीतर! जितनी गहराई में बैठ सको, बैठ जाओ। वहीं तुम उसे पाओगे। वह वहां मौजूद ही है। न देर है, न अंधेर है। सिर्फ तुम ठीक जगह पहुंच जाओ, तुम ठीक हो जाओ। तुम्हारे तार ठीक बैठ जाएं, तुम सरगम में आ जाओ, तुम्हारा साज ठीक बैठ जाए--बस धुन बज उठेगी, गीत झर उठेंगे, फूल खिल उठेंगे!

दूसरा प्रश्न:
किन अज्ञात हाथों से पैरों में घुंघरू बांध दिए हैं कि अब मैं छम-छम नचंदी फिरां!
सीता! वही बांध रहा है, वही बांधता है। हाथ निश्चित ही अज्ञात हैं उसके, अदृश्य हैं, मगर वही पैरों में घूंघर बांध देता है। वही वेणी में फूल सजा देता है। वही तुम्हें अपने रंग में सरोबोर कर देता है। पहचानो उसके अदृश्य हाथों को।
और नाचने में कंजूसी मत करना। जी भर कर नाचो। ऐसे नाचो कि नाच ही रह जाए, तुम खो जाओ। हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई। तुम नाचो, ताकि किसी दिन कह सको: नाचत-नाचत हे सखी...। नाचते-नाचते!
और मैं तुमसे यह कहूं कि नृत्य की बड़ी खूबी है, जो किसी और कृत्य की नहीं। नृत्य में जितने जल्दी नर्तक डूब जाता है और खो जाता है, किसी और चीज में नहीं खोता। और हर चीज में द्वैत बना रहता है, नृत्य में बड़ा अद्वैत है। तुम चित्र बनाओ तो चित्र अलग हो जाता है चित्रकार से; मूर्ति बनाओ, मूर्ति अलग हो जाती है मूर्तिकार से; नाचो, लेकिन नृत्य नर्तक से अलग नहीं होता, संयुक्त ही रहते हैं, उनको अलग करने का उपाय ही नहीं। नर्तक और नृत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और नृत्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचता है, जब नर्तक बिलकुल विस्मरण हो जाता है--जब भीतर कोई अस्मिता, कोई अहंकार नहीं बचता, गल जाता है अहंकार, नाच में पिघल जाता है और बह जाता है--जब तुम नहीं नाचतीं, जब वही नाचता है तुम्हारे भीतर! शुभ घड़ी आई, शुभ दिन आया!
फिर संवार सितार लो।
बांध कर फिर ठाट, अपने
अंक पर झंकार दो।
फिर संवार सितार लो।

शब्द के कलि-दल खुलें,
गति-पवन भर कांप थर-थर
भीड़ भ्रमरावलि ढुलें,
गीत-परिमल बहे निर्मल
फिर बहार-बहार हो!
फिर संवार सितार लो।
स्वप्न ज्यों सज जाए
यह तरी, यह सरित, यह तट,
यह गगन, समुदाय।
कमल-वलयित सरल दृग-जल
हार का उपहार हो!
फिर संवार सितार लो।

बांध कर फिर ठाट, अपने
अंक पर झंकार दो।
फिर संवार सितार लो।
मैं इसी को तो, सीता, संन्यास कहता हूं--नृत्य की इस कला को, डूब जाने, अपने को विसर्जित, विस्मृत कर देने की इस अदभुत प्रक्रिया को। संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं है। संन्यास मेरे लिए परमात्मा का भोग है। संन्यास मेरे लिए परमात्मा के साथ-साथ इस विराट विश्व के महारास में सम्मिलित हो जाना है।
नाचती रहो, नाचते-नाचते एक दिन पाओगी कि मिल गया वह जिसकी तलाश थी। और अपने भीतर ही मिल गया! और नाचते-नाचते जो मिलता हो, उसे रोते-रोते क्यों पाना? नाचते-नाचते जो मिलता हो, उसे उदास और गंभीर होकर क्यों पाना? हंसते-हंसते जो मिलता हो, उसके लिए लोग नाहक ही धूनी रमाए बैठे हैं। जैसे परमात्मा कोई दुष्ट है और तुम्हें सताने को आतुर है। सो गर्मी के दिन हों और आप धूनी रमाए बैठे हैं। उतने से भी चित्त नहीं मानता तो और भभूत लगा ली है शरीर पर, ताकि शरीर में भी जो रंध्र हैं, जिनसे श्वास ली जाती है, वे भी बंद हो जाएं। किसको सता रहे हो? उसी को सता रहे हो! और इतने से भी चित्त नहीं मानता तो सिर के बल खड़े हैं। चारों तरफ धूनी लगा ली है, शरीर पर भभूत रमा ली है, बिलकुल भूत बन गए हैं और अब सिर के बल खड़े हैं।
सिर के बल ही खड़ा करना होता उसे तो पैर के बल काहे के लिए खड़ा करता? तुम उसमें भी सुधार करने की कोशिश में लगे हो? तुम उसको भी कह रहे हो कि तूने बड़ी गलती की जो हमें पैर के बल खड़ा किया, अरे शीर्षासन करता हुआ पैदा करता तो हम जन्म से ही महात्मा होते! और यह क्या शरीर दिया जिसमें कि रंध्र ही रंध्र हैं जिनसे श्वास ली जाती है! दे देता प्लास्टिक का शरीर तो यह भभूत वगैरह तो न रमानी पड़ती।
क्यों सता रहे हो अपने को? लोग उपवास कर रहे हैं, भूखे मर रहे हैं और सोच रहे हैं कि इस तरह परमात्मा प्रसन्न होगा। तुम क्या सोचते हो कि परमात्मा कोई दुखवादी है? कोई सैडिस्ट है? कि तुम अपने को सताओ तो वह प्रसन्न हो? सो लोग अपने गालों में भाले भोंक लेते हैं, कांटों पर सो जाते हैं, अंगारों पर चलते हैं। ये सब कोशिशें चल रही हैं उसको प्रसन्न करने की! और मैं तुमसे कहे देता हूं: अगर वह कहीं भी हो तो तुमसे बचेगा। तुम आदमी भले नहीं, तुम्हारे साथ वह रहना नहीं चाहेगा। क्योंकि तुम्हारे साथ रहा तो तुम उसे भी कांटों की सेज पर सुलाओगे। नहीं तो तुम कहोगे: अरे पापी! हम तो कांटों की सेज पर सोए हैं और तुम डनलप की गद्दी पर लेटे हो! कि हमने भभूत रमाई, तुम क्या कर रहे हो? रमाओ भभूत! लगाओ धूनी! हम तो अनशन कर रहे हैं और तुम छप्पन प्रकार के भोग लगा रहे हो! तुम उसको जीने दोगे?
बर्नार्ड शॉ से किसी ने पूछा कि आप स्वर्ग जाना पसंद करेंगे कि नरक?
उसने कहा: जहां तक संग-साथ का संबंध है, मैं नरक ही जाना पसंद करूंगा, क्योंकि लोग वहां कम से कम जरा दिलबहार, मस्त, मौजी ढंग के लोग मिलेंगे। स्वर्ग से मैं डरता हूं। महात्मागणों की याद करके ही मन कंपता है। और एकाध ही महात्मा डराने को काफी होता है--महात्मा ही महात्मा! जिस झाड़ के नीचे देखो वहीं एक से एक अपने को सताने में लगे हैं! सरकस ही होगा पूरा स्वर्ग तो, कि बिना टिकट और देखो! और एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर खेल दिखा रहे हैं लोग। और तुम बिलकुल पापी समझे जाओगे।
यह बात सच है। बर्नार्ड शॉ की इस बात में थोड़ी सचाई है। आदमी अगर सिगरेट पीता हो, शराब पीता हो, कभी-कभार ताश भी खेल लेता हो, दीवाली-होली जुआ भी खेल लेता हो--तो आदमी मिलनसार होता है, थोड़ा भला होता है, भलामानस होता है। जो न सिगरेट पीएं; सिगरेट दूर, चाय न पीएं; काफी न पीएं; जुए की बात कर रहे हो, जो ताश भी न खेलें; अरे ताश की बात कर रहे हो, जो तुम्हें ताश हाथ में लिए देख लें तो इस तरह देखें कि सड़ोगे नरक में! इस तरह के आदमियों को लोग दूर से ही नमस्कार करते हैं, क्योंकि इस तरह के आदमी के साथ रहना बड़ा मुश्किल हो जाता है। अगर तुम्हें चौबीस घंटे इनके साथ रहना पड़े तो ये तुम्हारा जीवन नरक बना दें। इसलिए महात्माओं के पास कोई रहता नहीं; जल्दी से पैर छुए और भागे! यह तरकीब है कि हे महात्मा जी, आप भी जीओ, हम भी जीएं! लिव एंड लेट लिव! आपको जो करना हो, आप करो; हमको जो करना है, हम करें। आप बड़ा काम कर रहे हैं, नमस्कार!
लोग महात्माओं के पास ज्यादा देर नहीं टिकते। तुम चौबीस घंटे किसी महात्मा के पास रह कर तो देखो! शक्ल मातमी हो जाएगी तुम्हारी। हंस नहीं सकोगे। महात्मा के पास कोई हंसता है? हंसे कि महात्मा ऐसे देखेंगे गुर्रा कर कि अरे संसारी जीव, भवसागर में डूब मरेगा! भवसागर में डूब रहे हो और हंस रहे हो! वैसे ही तो डूब रहे हो, हंसे तो और पानी मुंह में भर जाएगा। मुंह बंद रखो!
महात्माओं के साथ तो कोई संबंध बनाना नहीं चाहता। उनसे बचने की एक ही तरकीब है: जल्दी से पांव छुओ, कि महात्मा आशीर्वाद दो--और भागे! कारण साफ है। तुम्हारे महात्मा रुग्ण हैं, बीमार हैं, मानसिक रूप से व्याधिग्रस्त हैं। इनको चिकित्सा की आवश्यकता है। जिनकी हंसी खो गई, इनसे आदमी बचना चाहते हैं, इनसे परमात्मा भी बचना चाहेगा। इस तरह के लोगों के साथ कौन होना चाहेगा?
इसलिए सीता, नाचो! जी भर कर नाचो! हंसो! गाओ! इस जगत को एक नाचते हुए, हंसते हुए, गाते हुए धर्म की जरूरत है। वही इस जगत को बचा सकता है।

तीसरा प्रश्न:
आपने कहा--कमा लिटिला नियर, सिप्पा कोल्डा बियर। मैं आपसे कहता हूं--आई एम हियर, व्हेयर इज़ दि बियर?
कमल भारती! भैया, पूछो शीला से। वही है मेरी बार-टेंडर। पर तुम्हारे संतोष के लिए कहता हूं: आर यू रियली हियर? देन आई एम दि बियर।

अब दो बहुत गंभीर और तात्विक प्रश्न। प्रश्नकर्ता हैं: स्वामी शांतानंद सरस्वती। जब से आए हैं, प्रश्नों पर प्रश्न लिख कर भेजे जा रहे हैं। रोज। सब कचरा प्रश्न। लेकिन हरेक का जवाब चाहते हैं। और जवाब नहीं मिलता तो बड़े उद्विग्न हुए जा रहे हैं, बड़े बेचैन हुए जा रहे हैं, क्रोधित हुए जा रहे हैं।
इसके पहले कि उनके दो प्रश्न तुम्हें पढ़ कर सुनाऊं, उनको मैं जवाब दूं, कुछ बातें कह देनी जरूरी हैं, क्योंकि और भी लोग होंगे जिनके प्रश्न आते हैं और जिन्हें जवाब नहीं मिलते।
पहली तो बात: तुमने पूछ लिया, इतना भर काफी नहीं है जवाब पाने के लिए। मैं अपनी मौज का आदमी हूं, तुम्हारा कोई गुलाम नहीं। तुम पूछने को स्वतंत्र हो, मैं जवाब देने को स्वतंत्र हूं--दूं या न दूं। मैंने कोई ठेका नहीं लिया है कि तुम्हारे सारे प्रश्नों के जवाब दूं। इसलिए किसी को नाराज होने या किसी को परेशान होने की जरा भी आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हें मजबूर नहीं कर सकता कि प्रश्न पूछो। तुम मुझे मजबूर कर सकते हो कि मैं जवाब दूं? यहां बहुत हैं जो कभी नहीं पूछते, तो उनको क्या मैं कह सकता हूं कि क्यों नहीं पूछते? पूछते हो कि नहीं पूछते? पूछना पड़ेगा, क्योंकि मुझे जवाब देना है।
वे भी स्वतंत्र हैं, उनकी मौज, नहीं पूछते। तुम्हारी मौज, तुम पूछते हो। लेकिन जवाब देना न देना मेरी मालकियत है। तुमने पूछ लिया, इतना भर काफी नहीं है कि तुम्हें जवाब मिलना ही चाहिए। मैं अपने ढंग से सोचता हूं। मैं देने योग्य जवाब मानता हूं तो जवाब देता हूं; देने योग्य नहीं मानता तो नहीं देता हूं। नाराज होने का कोई कारण नहीं है। बहुत ज्यादा नाराजगी हो, दरवाजा खुला है, दरवाजे के बाहर! भीतर आने पर पाबंदी है, बाहर जाने पर कोई पाबंदी नहीं है।
और जब मैं बहुत दिन तक तुम्हारे प्रश्नों के जवाब न दूं तो इतनी अकल तो होनी चाहिए कि तुम्हारे प्रश्नों में कुछ होगा कूड़ा-कर्कट। और अगर तुम सोचते हो तुम्हारे प्रश्न बड़े बहुमूल्य हैं, तो उत्तर तुम खुद ही खोज लो। अगर इतने बहुमूल्य प्रश्न खोज सकते हो तो उत्तर नहीं खोज सकोगे?

पहला प्रश्न:
बंधी परंपराओं के विरुद्ध आपके विचार बहुत अच्छे व प्रेरणादायी लगते हैं। किंतु माला और भगवे कपड़े में बांधने के आपके प्रयास में हमें परंपरा की बू मालूम पड़ती है। हमें लगता है कि भगवान का संबोधन स्वीकार करने और माला तथा भगवे रंग के कपड़ों को देने के पीछे आपकी एक पीर-पैगंबर या अवतारी पुरुष होने की वासना छिपी हुई है। यह मेरा नितांत भ्रम भी हो सकता है। कृपा करके इसका निवारण करें!
शांतानंद सरस्वती! सबसे पहला काम तो तुम यह करो कि माला छोड़ो और गेरुए वस्त्र छोड़ो। जिस चीज में तुम्हें परंपरा की बू आती हो, उसमें उलझना क्यों? मैं तुम्हें बुलाने नहीं गया। मेरी कोई उत्सुकता नहीं है कि तुम संन्यासी होओ। तुम आकर प्रार्थना करते हो कि संन्यासी होना है; मैं तो अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलता। दरवाजे के बाहर नहीं गया वर्षों से। मेरी कोई उत्सुकता नहीं है तुम में, तुम्हारे संन्यास में। तुम माला और गेरुए वस्त्र छोड़ दो। क्यों इस परेशानी में पड़ना? जिस चीज में बू आती हो परंपरा की तुम्हें, तुमसे कहता कौन है कि उलझो? और अगर तुम्हारी हिम्मत न पड़ती हो माला छोड़ने की, तो संत महाराज को मैं कहे देता हूं, तुम जब बाहर जाओगे दरवाजे के, वे माला तुमसे वापस ले लेंगे, ताकि तुम्हारा छुटकारा हो। इस तरह के लोगों को मैं यहां चाहता भी नहीं। मेरा कोई भी रस नहीं है इस तरह के लोगों में।
मैंने गैरिक वस्त्र इसीलिए चुने हैं कि गैरिक वस्त्रों को परंपरा ने बदनाम कर दिया। मैं गैरिक वस्त्रों को चुन कर परंपरा से मुक्त कर रहा हूं। गैरिक वस्त्र प्यारे वस्त्र हैं, बड़े प्रतीकात्मक वस्त्र हैं। गैरिक रंग वसंत का रंग है। और वसंत तुममें आए तो ही परमात्मा आए। गैरिक रंग सूर्योदय का रंग है। तुम्हारे भीतर भी ध्यान का सूर्योदय हो तो परमात्मा तुम्हारे भीतर आए। गैरिक रंग फूलों का रंग है, मस्ती का रंग है, खिलावट का रंग है। तुम्हारे भीतर समाधि का फूल खिले, सहस्रदल कमल खिले, तो ही तुम जान सकोगे कि सत्य क्या है। गैरिक रंग लहू का रंग है; वह जीवन का प्रतीक है।
बुद्ध ने पीत वस्त्र चुने थे अपने भिक्षुओं के लिए--पीले, क्योंकि पीत रंग, पीले पत्ते का रंग, मौत का प्रतीक है। और बुद्ध की पूरी की पूरी देशना यही थी कि जीवन असार है, व्यर्थ है, छोड़ देने योग्य है; मृत्यु वरण करने योग्य है। इसलिए पीला रंग उन्होंने चुना था। वह प्रतीक रंग है।
जैनों ने सफेद रंग चुना है अपने साधुओं के लिए--सफेद वस्त्र। सफेद वस्त्र त्याग का प्रतीक है। अगर तुम प्रकाश के विज्ञान से परिचित हो तो सफेद वस्त्र त्याग का प्रतीक है। क्यों? क्योंकि सफेद कोई रंग नहीं है, सब रंगों का अतिक्रमण है। सफेद न लाल है, न पीला है, न हरा है, न नीला है। सारे रंगों के मिलने से, सारे रंगों के एक साथ जुड़ जाने से, संगम हो जाने से--एक अतिक्रमण पैदा होता है, वह सफेद रंग है। सफेद रंग रंगों के पार जाना है। जीवन सतरंगा है। जीवन इंद्रधनुष जैसा है। उसमें सातों रंग हैं। जीवन में सातों राग हैं--सा, रे, ग, म, प, ध, नि। सफेद राग-रहित है, वह विराग है। उसमें सातों राग खो गए, सातों रंग खो गए। वह कोरा है। इसलिए जैनों ने सफेद वस्त्र चुने थे।
हिंदुओं ने गैरिक वस्त्र चुने थे। सिर्फ इसलिए कि हिंदुओं ने गैरिक वस्त्र चुने, मैं गैरिक वस्त्र न चुनूं, यह नहीं हो सकता। यह तो परंपरा से डरना हो जाएगा। मैं न तो परंपरावादी हूं और न परंपरा से भयभीत हूं। मुझे तो जो उचित लगता है, जो प्रीतिकर लगता है, वह मेरा है। वह फिर किसी का हो, मैं फिक्र नहीं करता इसकी; वह बाइबिल में हो, कुरान में हो, गीता में हो, धम्मपद में हो, समयसार में हो--मैं किसी की बपौती नहीं मानता। मैं गैरिक रंग को सफेद और पीत दोनों रंगों से ऊंचाई पर मानता हूं।
इस्लाम ने हरा रंग चुना है, क्योंकि वह हरियाली का प्रतीक है, वृक्षों का प्रतीक है। लेकिन इन सारे रंगों पर विचार करने के बाद मुझे तो गैरिक जमा। इसलिए नहीं चुना है कि वह परंपरा का प्रतीक है, क्योंकि मैं कोई हिंदू घर में पैदा नहीं हुआ, हिंदू होना मेरी परंपरा नहीं है। मैं पैदा तो जैन घर में हुआ, लेकिन सफेद वस्त्र मैंने नहीं चुने। वे मेरे लिए परंपरागत वस्त्र थे। मैंने चुने गैरिक वस्त्र, क्योंकि मुझे लगा कि इन सारे रंगों में गैरिक रंग की जितनी विधाएं हैं, जितना बहुआयामी है, उतना कोई दूसरा रंग नहीं है। यह मुझे प्रीतिकर लगा। इसलिए मैंने चुना है। और इसलिए भी कि मैं चाहता हूं कि पृथ्वी पर इतने गैरिक संन्यासी हों मेरे कि वे पुराने ढब के जो गैरिक संन्यासी हैं, डूब ही जाएं, उनका पता चलना मुश्किल हो जाए। उन्हें मैं डुबाना चाहता हूं। मुक्तानंद, अखंडानंद, नित्यानंद, शिवानंद...इनको मैं डुबाना चाहता हूं। इसलिए मैं अपने संन्यासियों को नाम भी दे रहा हूं--शिवानंद, मुक्तानंद, नित्यानंद--ताकि यह तय करना ही मुश्किल हो जाएगा एक दस साल के भीतर कि कौन कौन है। मैं इतने शिवानंद और इतने नित्यानंद और इतने मुक्तानंद खड़े कर दूंगा कि वे जो पिटे-पिटाए मुक्तानंद थे, इस भीड़-भाड़ में कहीं खो जाएंगे, उनकी कुछ पूछ न रह जाएगी।
और सवाल इसका नहीं है कि क्या परंपरागत है। क्योंकि जीवन कोई एकदम से थोड़े ही आविर्भूत होता है। सारी चीजें संबद्ध हैं, श्र्ृंखलाबद्ध हैं। जो गंगा तुम प्रयाग में पाते हो, वह गंगोत्री से चल रही है। वही गंगा नहीं है, लेकिन फिर भी वही है। दोनों बातें ध्यान में रखना। बहुत कुछ नया आ गया है उसमें, लेकिन शुरुआत, प्रारंभ, स्रोत तो पुराना ही है।
तो मेरा संन्यास प्राचीन से प्राचीन है और नवीन से नवीन। इसलिए मैंने पुराने से पुराना रंग चुना है उसके लिए और नये से नया ढंग चुना है उसके लिए। यह मेरा चुनाव है। तुम्हें प्रीतिकर लगे, ठीक; तुम्हें प्रीतिकर न लगे, तुम छोड़ने को मुक्त।
तुम पूछते हो कि ‘भगवान का संबोधन स्वीकार करने...’
मैंने किसी का संबोधन स्वीकार नहीं किया; यह मेरी घोषणा है। यह किसी का संबोधन नहीं है। यह मेरी घोषणा है कि प्रत्येक व्यक्ति भगवान है। तो क्या तुम सोचते हो, सिर्फ मैं अपने को अपवाद मान लूं कि मुझे छोड़ कर सब व्यक्ति भगवान हैं? भगवत्ता प्रत्येक व्यक्ति के भीतर छिपी है, यह मेरी उदघोषणा है। और जो मेरी उदघोषणा तुम्हारे बाबत है, वह मेरे बाबत भी है। यह तुम्हारा संबोधन नहीं है। दुनिया में मुझे एक भी व्यक्ति भगवान न कहे तो भी मैं अपने को भगवान कहूंगा। मैं क्या कर सकता हूं इसमें, कोई कहे या न कहे! यह तुम्हारी मौज, तुम्हें जो कहना हो। मुझे शैतान कहने वाले लोग हैं। यह मेरी उदघोषणा है, खयाल रखना।
उपनिषदों में जब ऋषियों ने घोषणा की--अहं ब्रह्मास्मि, तो वह किसी का संबोधन नहीं है। वे कहते हैं: मैं ब्रह्म हूं! जब अलहिल्लाज मंसूर ने उदघोषणा की--अनलहक, कि मैं ईश्वर हूं, तो वह किसी का संबोधन नहीं है। तुम क्या संबोधन करोगे? तुम्हें अपना पता नहीं, तुम मुझे क्या संबोधन करोगे? तुम्हें अपने भीतर की भगवत्ता का बोध नहीं है, तुम मेरी भगवत्ता को कैसे पहचानोगे? मुझे मेरी भगवत्ता का बोध है, इसलिए तुम्हारी भगवत्ता को भी पहचानता हूं।
और तुम कहते हो कि ‘आपकी एक पीर-पैगंबर या अवतारी पुरुष होने की वासना छिपी हुई है।’
भगवान से ऊपर तो नहीं होते पीर-पैगंबर। या अवतारी पुरुष भगवान से ऊपर तो नहीं होते। और मैं भगवान से इंच भर नीचे उतरने को राजी नहीं हूं। तुम कहां की बातें कर रहे हो!
और इस तरह के प्रश्न रोज लिख कर भेजते हो। अब तुम चाहते हो, इनके उत्तर होने चाहिए। इतने लोगों का समय खराब करवाना है?
और दूसरा प्रश्न और भी अदभुत है, जो कि वे करीब-करीब रोज लिख कर भेजते हैं, जिससे कि बहुत कुछ जाहिर होता है।

पूछा है:
आप संदेह की निवृत्ति के लिए हमें जूझने का आह्वान करते हैं। क्या आपका ऐसा आह्वान सभा-भवन में मात्र आपकी औपचारिक विचार-स्वतंत्रता की प्रीति और उदारता का परिचायक नहीं है, जब कि न तो हमारे प्रश्नों का जवाब ही मिलता है और न आपसे मिल पाने की छूट और सुविधा ही?
तुम पूछने के लिए मुक्त हो, जवाब देने के लिए मैं मुक्त हूं। तुम सोचते हो तुम्हीं को स्वतंत्रता दे रहा हूं मैं पूछने की? मैं भी स्वतंत्रता ले रहा हूं जवाब देने की। हम दोनों स्वतंत्र हैं।
अनेक लोग यह बात पूछते हैं कि मैं मिलता क्यों नहीं?
तुम मिलना चाहते हो, बड़ी कृपा, धन्यवाद! लेकिन मुझे भी तो कोई रस हो तुमसे मिलने में! तुम्हें देख कर ही विराग पैदा होता है। तुम्हें देख कर ही मुझे लगता है कि अब हिमालय ही चला जाऊं। तुम्हें देख कर मैं समझ जाता हूं कि क्यों ऋषि-मुनि बेचारे भागते फिरे। संसार वगैरह से नहीं भाग रहे थे, तुम जैसे महात्माओं से...कि जो सत्संग करने के लिए एकदम धरना दिए बैठे थे।
बहुत दिन तक मैं मिलता-जुलता था, थक गया, बुरी तरह थक गया। क्योंकि लोगों के मिलने-जुलने का कोई हिसाब ही नहीं। किसी को बारह बजे रात सत्संग करने की सूझ जाए तो बारह बजे आकर दरवाजा खटखटा दे! एक बार एक सज्जन दो बजे रात आ गए। दरवाजा खटखटाया तो मैं समझा किसी मुसीबत में होंगे। दरवाजा खोला, तो वे बोले कि असल बात यह है कि मैं ट्रेन से जा रहा था, लेकिन ट्रेन चूक गया, तो सोचा कि चलो आपसे सत्संग ही कर लें। अब दूसरी गाड़ी तो सुबह पांच बजे जाएगी, तब तक सत्संग हो जाएगा। सो उन्होंने दो बजे रात से लेकर पांच बजे तक सत्संग किया।
ट्रेन में मैं सफर करता था तो ट्रेन में लोग डब्बों में चढ़ जाएं--उनको सत्संग करना है! किसी को पैर ही दबाने हैं। मैं उनसे कह रहा हूं कि भई, मुझे सोने दो। पर वे कहते हैं: आपको सोना हो तो आप सोओ, मगर हम तो सेवा करेंगे। सेवा के लिए आप इनकार नहीं कर सकते। अरे महात्माओं की सेवा तो सदा से चली आई है। सो वे मेरा पांव दबा रहे हैं। कोई मेरा सिर दबा रहा है। अब मैं सोऊं तो कैसे सोऊं? अब इनकी स्वतंत्रता देखूं या अपनी स्वतंत्रता देखूं?
आपकी बड़ी कृपा है कि आप मिलना चाहते हैं, लेकिन मेरी कोई इच्छा नहीं रह गई है आपसे मिलने की। इतनी देर जो सामूहिक रूप से मिल लेता हूं, यह पर्याप्त समझो; यह भी ज्यादा दिन चलेगा नहीं। अगर तुम जैसे महापुरुष आते रहे, यह भी बंद हो जाएगा।
इस बात को समझ ही लो ठीक से कि तुम्हारी मेरे ऊपर कोई दावेदारी नहीं है, कोई अधिकार नहीं है। मैं अपना मालिक हूं, तुम अपने मालिक हो। ठीक, तुम्हारी मौज, तुम मिलना चाहते हो, लेकिन अगर मैं न मिलना चाहूं, तो हम दोनों को राजी होना चाहिए, तभी मिलन हो सकता है। नहीं तो यह तो जबरदस्ती हो जाएगी।
यहां लोग आ जाते हैं। मुझे पत्र आते हैं कि हम सत्याग्रह कर देंगे!
मैं कहता हूं: तुम करो। मैं कोई गांधीवादी नहीं हूं कि तुम मुझे सत्याग्रह वगैरह से डराओगे। मैं तुम्हारे आस-पास और लोगों को बिठाल दूंगा कि भजन करो। भैया सत्याग्रह कर रहे हैं, तुम भजन करो, तुम इनको साथ दो।
एक लफंगे ने एक आदमी के घर के सामने जाकर सत्याग्रह कर दिया। कहा कि मैं तुम्हारी लड़की से शादी करूंगा। मेरा प्रेम हो गया है।
वे भी बेचारे आदमी घबड़ाए, भीड़-भाड़ लग गई, अखबार वालों को तो मजा आ गया। और लोग प्रोत्साहन देने लगे उस लफंगे को कि बिलकुल ठीक, यह तो बिलकुल गांधीवादी तरीका है, अहिंसात्मक! वह कोई हमला नहीं कर रहा, कुछ नहीं, सिर्फ बिस्तर लगाए सामने बैठा है। गांव भर में चर्चा और सभी की सहानुभूति कि बेचारा युवक अपनी जान दे रहा है। अरे इसको कहते हैं प्रेम! कलियुग में भी प्रेमी हैं जो अपनी जान देने को तैयार हैं!
बाप परेशान था, बहुत परेशान था। उसने किसी पुराने गांधीवादी से पूछा कि भैया, क्या करें, तुम कुछ सहायता दो। उसने कहा: तुम एक काम करो। वह जो बूढ़ी वेश्या है गांव की, उसको ले आओ, उसको इसके बगल में ही बिस्तर लगवा दो। और यह पूछे कि क्यों? तो उससे बुढ़िया कहेगी कि मैं तुझसे ही विवाह करूंगी, मुझे तेरे से प्रेम हो गया है। नहीं तो सत्याग्रह करूंगी, यहीं मर जाऊंगी।
सो बुढ़िया को ले आए वे दस रुपये देकर। उस बुढ़िया को देख कर युवक बहुत हैरान हुआ। उसने कहा: तू यहां किसलिए आई है? हट यहां से!
उसने कहा: कैसे हटूं? अरे तुम मेरे प्राण-प्यारे! तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगी! तुम ही मेरे कृष्ण-कन्हैया।
वह बोला: अरे क्या बक रही है? होश में आ! तू अस्सी साल की!
उसने कहा: साल का क्या सवाल है? प्रेम कोई साल मानता है? प्रेम तो किसी का किसी से हो जाए। मेरा तो हो गया तेरे से। अब प्रेम कोई करता थोड़े ही है, हो जाता है। वह तो बिस्तर फैलाने लगी।
उसने कहा: तू...क्या विचार हैं तेरे?
सत्याग्रह करूंगी, मर जाऊंगी यहीं, मगर तुम्हीं से विवाह रचाऊंगी।
आधी रात वह युवक अपना बिस्तर गोल करके भाग गया। उसने सोचा कि यह झंझट का मामला है। लड़की तो गई ही गई और यह बुढ़िया पीछे न लग जाए।
सत्याग्रह करने आ जाते हैं लोग कि आपसे मिल कर ही रहेंगे।
मेरी कोई उत्सुकता नहीं है। कोई पीर-पैगंबर होने का सवाल ही नहीं है। दो कौड़ी की चीजें हैं पीर और पैगंबर। मुझे छोटी-मोटी बातों में रस ही नहीं है।
तुम लेकिन गलत जगह आ गए।
उन्होंने मुझे सलाह भी दी है कि ‘क्या आप प्रश्नोत्तर अनावश्यक लंबा करने की बजाय, दस-पांच मिनट में उत्तर देकर अधिक प्रश्नों को नहीं निपटा सकते हैं?’

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