QUESTION & ANSWER

Rahiman Dhaga Prem Ka 01

First Discourse from the series of 12 discourses - Rahiman Dhaga Prem Ka by Osho. These discourses were given during MAR 27 - APR 10 1980.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपकी पहली मुलाकात आंसुओं से हुई थी। इतने साल बीत गए हैं, आंसू अभी मिटते नहीं, मिटने की संभावना लगती नहीं। चाहती हूं इसी तरह मिट जाऊं!
सोहन! आंसू दुख के भी होते हैं, आनंद के भी। दुख के आंसू तो मिट जाते हैं; आनंद के आंसू अमृत हैं, उनके मिटने का कोई उपाय नहीं, कोई आवश्यकता भी नहीं। आनंद में आंसू झरें, इससे ज्यादा शुभ और कोई लक्षण नहीं है। आनंद में हंसना इतना गहरा नहीं जाता, जितना आनंद में रोना गहरा जाता है। मुस्कुराहट परिधि पर उठी हुई तरंगें हैं; और आंसू तो आते हैं अंतर्गर्भ से, अंतर्तम से। आंसू जब हंसते हैं तो केंद्र और परिधि का मिलन होता है। आंसू जब हंसते हैं तो मोती हो जाते हैं।
ये आंसू तो आनंद के हैं, प्रेम के हैं, प्रार्थना के हैं, पूजा के हैं, ध्यान के हैं, अहोभाव के हैं।
तू कहती है: ‘आपकी पहली मुलाकात आंसुओं से हुई थी।’
बहुतों की पहली मुलाकात मुझसे आंसुओं से ही हुई है। और जिनकी पहली मुलाकात आंसुओं से नहीं हुई है, उनकी मुलाकात अभी हुई ही नहीं; जब भी होगी, आंसुओं से होगी।
आंसू, तुम्हारे भीतर कुछ पिघला, इसकी सूचना है; कुछ गला; अहंकार जो जमा है बर्फ की तरह, वह पिघला, तरल हुआ, बहा। आंखें कुछ भीतर की खबर लाती हैं। जो शब्द नहीं कह पाते, आंसू कह पाते हैं। शब्द जहां असमर्थ हैं, आंसू वहां भी समर्थ हैं।
आंसुओं का काव्य है, महाकाव्य है--मौन, निःशब्द, पर अपूर्व अभिव्यंजना से भरा हुआ। आंसू तो फूल हैं--चैतन्य के।
जो मुझसे पहली बार बिना आंसुओं के मिलते हैं, उनका केवल परिचय होता है, मिलन नहीं। फिर किसी दिन मिलन भी होगा। और जब भी मिलन होगा तो आंसुओं से ही होगा। और तो कुछ जोड़ने वाला सेतु जगत में है ही नहीं। आंसू ही जोड़ते हैं। बड़ी नाजुक चीज है आंसू। मगर प्रेम भी नाजुक है। फूल भी नाजुक है।
आंसुओं से बनता है एक इंद्रधनुष--दो आत्माओं को जोड़ने वाला। कोई ईंट-पत्थर के सेतु बनाने की आवश्यकता भी नहीं है; अदृश्य को जोड़ने के लिए इंद्रधनुष पर्याप्त है। और आंसुओं पर जब ध्यान की रोशनी पड़ती है तो हर आंसू इंद्रधनुष हो जाता है।
मुझे पता है सोहन, तू रोती ही रही है। मगर मैंने तुझे कभी कहा भी नहीं कि रुक, रो मत। क्योंकि यह रोना और ही रोना है! यह रोना पीड़ा का नहीं, विषाद का नहीं, संताप का नहीं, चिंता का नहीं। यह रोना समस्या नहीं है, समाधान है। यह रोना व्यथा नहीं है, तेरे अंतर-आनंद की कथा है।
इसलिए मैंने तुझे कभी कहा नहीं कि रो मत। तेरे आंसुओं से मैं सदा प्रफुल्लित हुआ हूं। यहां बहुत हैं जो रोते हैं, पर तेरे आंसू बेजोड़ हैं। तुझ जैसा कोई भी नहीं रोता। तेरे आंसू बहुत नैसर्गिक हैं; स्वतः स्फूर्त हैं; स्वांतः सुखाय हैं।
तू कहती है: ‘इतने साल बीत गए, आंसू अभी मिटते नहीं।’
मिटेंगे भी नहीं। यह बात समय के बाहर हो रही है। समय के भीतर जो पैदा होता है, वह मिट जाता है। समय में जो जन्मता है, उसका अंत भी आ जाता है। समय में आदि है, अंत है। लेकिन समय में कुछ कभी-कभी घटता है, जो समयातीत है, कालातीत है। वही धर्म है। उसे परमात्मा कहो, मोक्ष कहो, समाधि कहो, निर्वाण कहो--जो मौज हो वह नाम दो। रसो वै सः! उसका नाम, ठीक-ठीक नाम रस है! और तू उस रस में डूबी है, ओत-प्रोत है। तेरा-मेरा संबंध सोचने-विचारने का संबंध नहीं है।
जो मुझसे सोच-विचार से जुड़े हैं, जुड़े ही नहीं। सोच-विचार जोड़ता नहीं, तोड़ता है। धोखा है जोड़ने का। वस्तुतः तोड़ता है।
यहां तीन तरह के लोग हैं। एक तो वे हैं जो मात्र कुतूहल से आ गए हैं; सिर्फ एक खुजलाहट उन्हें यहां ले आई है--एक बौद्धिक खुजलाहट--कि क्या हो रहा है? क्या है, जिसकी इतनी चर्चा है? इतना विरोध है? क्या है? आखिर अपनी आंखों से देखें! वे तमाशबीन हैं। वे आए न आए बराबर हैं। आकर भी वे नहीं आए हैं। शरीर से ही आए हैं। उनके चित्त हजार प्रश्नों से भरे हुए हैं। और प्रश्नों से ही भरे होते तो भी कुछ हर्ज न था, उत्तरों से भी भरे हुए हैं। प्रश्न इतनी बुरी कोई बात नहीं। लेकिन जिनके चित्त उत्तरों से भरे हैं, उनके साथ तो संवाद करना ही असंभव है। वे तो पहले से ही जानते हैं। गीता उन्हें कंठस्थ है, उपनिषद उनकी जबान पर रखा है। वेद की ऋचाएं वे ऐसे दोहरा दे सकते हैं, जैसे कोई यंत्र दोहराए, कि ग्रामोफोन का रिकार्ड हो। हाथ में रखा है उनके सारा ज्ञान। प्राण खाली के खाली हैं। आत्मा में एक फूल खिला नहीं, एक ऋचा ऊगी नहीं, एक मंत्र जगा नहीं। सब उधार है, बासा है। मगर उस बासे और उधार को अपना मान कर जी रहे हैं। उस थोथे कूड़े-कर्कट को ज्ञान समझ रहे हैं। सूचनाओं को प्रज्ञा मान रखा है। शास्त्रों के बोझ को ढो रहे हैं और सोचते हैं कि शास्त्रों की नावें बन जाएंगी और उस पार पहुंच जाएंगे।
शास्त्रों की नावें कागज की नावें हैं। जो भी शास्त्र की नाव से चला, डूबा, बुरी तरह डूबा। उस घाट तक पहुंचना तो दूर, उस पार पहुंचना तो दूर, इसी घाट पर डूब जाता है। उतारी नाव पानी में कि डूबी। नाव जैसी दिखाई पड़ती है, नाव नहीं है। कागज की नावों से कोई सागर का संतरण होता है? और फिर भवसागर का? इस विराट जीवन के सागर का? तुम केवल उधार शब्दों के आधार पर पार करने की आकांक्षा रखते हो?
जो कुतूहल से आ गए हैं, उनकी खोपड़ी में तो न मालूम कितना उपद्रव चल रहा है। वे यहां मुझे सुनते मालूम पड़ते हैं, बस सुनते मालूम पड़ते हैं, सुनते इत्यादि नहीं। अपनी सुनें कि मेरी सुनें? अपना ही उनके पास बहुत कुछ है। उनके भीतर पूरे समय निर्णय चल रहा है, निष्कर्ष चल रहे हैं, कि जो मैं कह रहा हूं यह ठीक है या गलत? जैसे उन्हें ठीक पता ही है! तौल चल रही है। तराजू लिए बैठे हैं। जैसे उनके पास वस्तुतः कोई तराजू है, जिस पर वे तौल सकेंगे।
जब तक समता न आई हो, जब तक संबोधि न जन्मी हो, तब तक तराजू होता ही नहीं। तब तक तुम दोहराते हो सिर्फ औरों को। और जो औरों को दोहराता है, उससे ज्यादा दयनीय और कोई भी नहीं।
तो एक तो वे लोग हैं; वे आते रहेंगे, जाते रहेंगे। दूसरे वे लोग हैं, जो जिज्ञासा से आए हैं; जिनके भीतर मात्र कुतूहल नहीं है; जिनके भीतर वस्तुतः जिज्ञासा है, जो सच में जानना चाहते हैं। उनके भीतर प्रश्न हैं, उत्तर नहीं। उत्तर होते तो जिज्ञासा का सवाल ही न था। वे पंडित नहीं हैं। उन्हें इतना बोध है कि शास्त्र को जान लेने से सत्य नहीं जाना जाता है। उन्होंने ज्ञान को कभी भी अपना बोध नहीं समझा है; उस धोखे में नहीं पड़े हैं। लिखा होगा शास्त्र में, और लिखा होगा तो ठीक ही लिखा होगा; लेकिन जब तक मेरा अनुभव न हो, जब तक मैं उसके लिए गवाही न दे सकूं, तब तक क्या सार? जब तक मैं भी न कह सकूं कि यह मेरी भी अनुभूति है, तब तक बुद्ध कहें, महावीर कहें, कृष्ण कहें, क्राइस्ट कहें, मोहम्मद कहें--कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे; कोई उन पर शंका करने की भी आवश्यकता नहीं है; लेकिन श्रद्धा करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। न शंका, न श्रद्धा--तब जिज्ञासा का जन्म होता है।
जिसका चित्त शंका और श्रद्धा, दोनों से मुक्त है; जिसके चित्त पर एक प्रश्नवाचक चिह्न है; जो खोजने निकला है; जो अन्वेषक है; जो कहता है कि मैं प्रयोग करूंगा, जानूंगा, जिस दिन जानूंगा उस दिन कहूंगा, जब जानूंगा तब मानूंगा--ऐसा व्यक्ति प्रामाणिक होता है; पंडित तो नहीं होता, प्रामाणिक होता है। पंडित कभी प्रामाणिक नहीं होते। यद्यपि पंडित शास्त्रों से प्रमाण जुटाते हैं, मगर उनके प्राणों में प्रमाण नहीं होते।
रामकृष्ण से किसी ने पूछा: ईश्वर का आपके पास क्या प्रमाण है?
रामकृष्ण खड़े हो गए। उन्होंने कहा: मैं प्रमाण हूं! मेरे पास कोई प्रमाण नहीं। अगर मेरे पास कोई प्रमाण हो तो फिर मैं केवल एक पंडित हूं। बहुत हैं जिनके पास प्रमाण हैं, फिर तुम वहां जाओ। मैं प्रमाण हूं! मेरी आंखों में झांको! मेरे हाथ को अपने हाथ में लो!
विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा था, जिज्ञासु की तरह गए थे--कि क्या ईश्वर है? क्या आप सिद्ध कर सकते हैं कि ईश्वर है?
रामकृष्ण ने कहा: सिद्ध कर सकता हूं? मेरे सिद्ध-असिद्ध करने से क्या होगा? मैं सिद्ध करूं तो भी है, मैं असिद्ध करूं तो भी है। सारी दुनिया भी असिद्ध कर दे तो भी है। मैं जानता हूं! सिद्ध-असिद्ध करने की बात नहीं। तू यह बात ही मत पूछ। तू यह पूछ कि तुझे जानना है?
विवेकानंद बहुत लोगों के पास गए थे। किसी ने भी यह न कहा था, कि तुझे जानना है? कोई थे जो मानते थे, तो विवेकानंद को कहा था: मानो। मानोगे तो जानोगे। पहले भरोसा करो, विश्वास करो, फिर जान पाओगे।
लेकिन सोचो तो सही, यह कैसा मूढ़ गणित है! अगर पहले भरोसा ही कर लिया तो फिर जानने की जगह कहां रही? अगर भरोसे के बाद भी खोज की तो तुमने भरोसा किया ही नहीं। और अगर भरोसे के बाद खोज नहीं की तो जानोगे कैसे? भरोसे का तो अर्थ ही यह है: कहा किसी और ने, हमने मान लिया। किसी ने कहा कि शहद मीठा है, और हमने मान लिया; कभी चखा नहीं, कभी प्रयोग नहीं किया, कभी स्वाद नहीं लिया, कभी कंठ के नीचे उसे उतरने नहीं दिया। और अगर मिठास का अनुभव न हुआ हो तो दुनिया कहती रहे कि शहद मीठा है, इससे क्या होगा? तुम कभी भी न जान पाओगे कि मिठास क्या है।
मिठास शब्दों में नहीं होती, शास्त्रों में नहीं होती, शहद को रखना पड़ेगा अपनी जीभ पर। और अपनी जीभ चाहिए। बुद्ध की जीभ पर कितना ही शहद हो, किसी काम का नहीं है।
रामकृष्ण ने कहा कि तू यह पूछ, कि तुझे जानना है? और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहते, क्योंकि यह उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था कि मुझे जानना है या नहीं? यही पूछते फिरते थे, ईश्वर है या नहीं? और विवाद करते फिरते थे। इसके पहले कि वे कुछ कहें, एक क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए होंगे, कि रामकृष्ण ने अपनी लात उनके सीने से लगा दी। गिर पड़े। घड़ी भर के लिए किसी और लोक में खो गए। जब आंख खोली तो झुक कर प्रणाम किया और कहा: आप भी खूब हैं! मैं तो सिर्फ पूछने आया था। यह आपने क्या कर दिया! मुझे किस लोक में ले गए! मुझे कहां से कहां उठा दिया! मुझे क्या दिखा दिया! जो मैंने देखा है, अब उस पर मैं कैसे भरोसा करूं?
तो रामकृष्ण ने कहा: और-और देख।
ऐसे रामकृष्ण के जाल में विवेकानंद फंसे। जिज्ञासु हो तो जहां ज्योति जल रही है, उस ज्योति पर परवाना होकर मिट ही जाएगा। और परवाने ही जान पाते हैं शमा की असलियत, हकीकत। दूर से देखने वाले तमाशबीन बस दूर से ही देखते रहते हैं; वे शमा के इतने कभी पास ही नहीं आते कि आंच भी लग जाए। वे आंच से डरते हैं। वे आंच से घबड़ाते हैं--कहीं कुछ जल न जाए, कहीं कुछ छूट न जाए!
जिज्ञासु जान पाता है। और तीसरे वे लोग हैं, जो मुमुक्षु हैं। मुमुक्षु का अर्थ है: जिन्होंने जन्मों-जन्मों में जिज्ञासा की है; अब जिज्ञासा करने को भी नहीं बची। अब तो बस किसी मयकदे में, किसी मधुशाला में चुपचाप बैठ कर पीना है। अब कोई जिज्ञासा भी नहीं है, कोई प्रश्न भी नहीं है। जो कुतूहल से आता है, उसके पास उत्तर ही उत्तर भरे होते हैं। जो जिज्ञासा से आता है, उसके पास प्रश्न ही प्रश्न होते हैं। जो मुमुक्षा से आता है, उसके पास न प्रश्न होते हैं, न उत्तर होते हैं; वह मौन होता है।
सोहन, तू मेरे पास तीसरी अवस्था में आई है--मौन! आज कोई सोलह वर्ष से सोहन मुझसे जुड़ी है। एक बार भी उसने कोई तात्विक जिज्ञासा नहीं की, कि पूछा हो ईश्वर के संबंध में, कि मोक्ष के संबंध में, कि आत्मा के संबंध में, कि स्वर्ग कि नरक के संबंध में, कि कर्म का सिद्धांत, कि पुनर्जन्म का सिद्धांत। इस तरह की बकवास उसने कभी की ही नहीं। उसके घर मैं वर्षों तक मेहमान होता रहा, बहुत समय उसे मिला मेरे पास बैठने का। मेरी सेवा की, मेरे पैर दबाए, कि मेरे लिए भोजन बनाया, कि मुझे कंबल ओढ़ा कर सुला दिया, मगर कभी कुछ पूछा नहीं। जिज्ञासा उसके भीतर नहीं है। कुतूहल का तो सवाल ही नहीं है। मुमुक्षा है।
पिछले जन्मों में ही, सोहन, झड़ गई तेरी धूल--जिज्ञासा की, कुतूहल की। तेरे भीतर तो मौन...।
उसने कभी यह भी नहीं पूछा कि ध्यान कैसे करूं? पूछे भी तो क्यों पूछे! ध्यान में जी रही है। हां, जब भी मेरे पास रही तो उसकी आंखों से मोतियों जैसे बड़े-बड़े आंसू जरूर टपके, बहुत टपके! बही, पिघली। यह अच्छा लक्षण है। रहीम ने इसे प्रेम का धागा कहा है। रहिमन धागा प्रेम का!
मुमुक्षा में प्रेम का आविर्भाव होता है--या प्रार्थना कहो।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।।
रहीम कोई बुद्धपुरुष नहीं हैं; महाकवि हैं। इसलिए भूल-चूक होनी स्वाभाविक है। कवि को झलक मिलती है बस सत्य की। ऋषि वह है जो सत्य को उपलब्ध हो जाए। कवि ऐसे है जैसे हजारों मील दूर से खुले आकाश में एक दिन सुबह सूरज के उगने पर गौरीशंकर के शिखर को चमकता हुआ देखा हो--दूर से! हजारों मील दूर से! सूर्य की प्रखर किरणों में गौरीशंकर का उत्तुंग शिखर, उसकी चमकती हुई बर्फ जैसे सोना हो गई हो! मगर दूर से देखा हो। उसको कवि कहते हैं। उसे झलकें मिलती हैं। कभी-कभी किसी क्षण में जैसे द्वार खुल जाता है--अनायास, आकस्मिक, उसके वश के बाहर है। ऋषि उसे कहते हैं, जिसने यात्रा की, जो गौरीशंकर पर निवास करता है; जो गौरीशंकर के साथ एक हो गया; जिसमें भेद ही न रहा अब; जो परमात्मा के साथ एक है।
तो कभी-कभी महाकवियों से सुंदर वचन निकल जाते हैं। उनमें बड़े प्यारे गुलाब खिल जाते हैं। मगर उन गुलाबों में कहीं न कहीं कांटे भी होंगे। ऋषियों के गुलाबों में कांटे नहीं होते। वे बिना कांटों के गुलाब हैं।
अब यह वचन बड़ा प्यारा है!
रहिमन धागा प्रेम का...
प्रेम बड़ा महीन धागा है। दिखाई भी नहीं पड़ता, इतना बारीक है। और ऐसे बांध लेता है, कि जंजीरों को चाहो तो तोड़ दो, मगर प्रेम के धागे को नहीं तोड़ सकते। तलवारें नहीं काट सकतीं, अग्नि नहीं जला सकती।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
लेकिन बस फिर कवि की भूल आ गई--मत तोड़ो चटकाय। जैसे कि तोड़ा जा सकता है! प्रेम का धागा कौन कब तोड़ पाया? और जो टूट गया हो वह प्रेम था ही नहीं, वह कुछ और ही रहा होगा; भूल से प्रेम समझा होगा; प्रेम का लेबल लगा होगा। प्रेम कभी टूटा ही नहीं। पूरे मनुष्य-चैतन्य के इतिहास में, प्रेम कभी टूटा नहीं। फिर वह मजनू का लैला से हो, कि शीरीं का फरिहाद से, कि मीरा का कृष्ण से, कि राधा का, कि चैतन्य का, कि राबिया का, कि थैरेसा का, कि जीसस का। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, दो व्यक्तियों के बीच प्रेम घटे या एक व्यक्ति और परम सत्ता के बीच प्रेम घटे, वह प्रेम तो वही है। बूंद में भी तो सागर होता है। एक बूंद के राज को समझ लिया तो सारे सागर के राज को समझ लिया। प्रेम कभी टूटा नहीं।
तुम तोड़ सकोगे मीरा और कृष्ण के प्रेम को? मीरा को तोड़ सकते हो, प्रेम को नहीं तोड़ सकते। तुम तोड़ सकोगे चैतन्य के प्रेम को? चैतन्य को तोड़ सकते हो, प्रेम को नहीं तोड़ सकते।
यहां कवि से भूल हो गई। वह झलक जो दिखी थी हिमालय की, खो गई होगी बदलियों में, आ गई होंगी आकाश में बदलियां--विचार के बादल आ गए होंगे।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।।
कहीं टूटता है? टूटता ही नहीं तो जोड़ने का सवाल ही नहीं उठता।
जिनसे मेरा प्रेम हुआ है, टूटा नहीं। जोड़ने की बात फिर उठी नहीं। और जिनसे टूट गया हो, वे भ्रांति में ही थे कि उनका प्रेम था। उन्होंने किसी और बात को प्रेम समझ लिया था, लोभ को प्रेम समझ लिया होगा।
यह जान कर तुम हैरान होओगे कि अंग्रेजी का शब्द लव, लोभ का ही रूपांतरण है। संस्कृत के लोभ से अंग्रेजी का लव शब्द बना है। कैसा रूपांतरण--लोभ से लव! लेकिन तथाकथित प्रेम लोभ का ही एक रूप है। तुम किसी से कहते हो: मुझे तुमसे बहुत प्रेम है! मगर जरा गौर से झांकना अपने प्रेम में, कुछ पाने की आकांक्षा है। शरीर को पाने की हो, धन को पाने की हो, पद को पाने की हो--कुछ पाने की आकांक्षा है। कहीं न कहीं कोई वासना छिपी है। और जहां वासना है वहां प्रार्थना नहीं। और जहां लोभ है वहां प्रेम नहीं।
मगर साधारणतः हमारा प्रेम लोभ ही होता है।
सोहन ने न तो मुझसे कुछ चाहा है, न कुछ मांगा है। वे ही मुझसे जुड़े हैं, जिन्होंने न कुछ चाहा है, न कुछ मांगा है। उन्हें बहुत मिला है, वह दूसरी बात। वह हिसाब के बाहर। वह खाते-बही में नहीं लिखी जाती। उसका कहीं कोई हिसाब नहीं रखा जाता। अनंत गुना मिलता है, अगर न चाहो, अगर न मांगो। मांगो कि तुम छोटे हो जाते हो। मांगो कि मंगने हो जाते हो, भिक्षा का पात्र रह जाते हो। और भिक्षा का पात्र कोई भर भी दे, तो भी क्या! भिक्षा का पात्र ही है, फिर खाली हो जाएगा। कल सुबह फिर भीख मांगने खड़े हो जाओगे।
हृदय का पात्र भरना चाहिए। मगर हृदय के पात्र के भरने की संभावना तभी है, जब कोई वासना न हो, कोई कामना न हो।
यहां मेरे पास ऐसे लोग हैं, जिन्होंने कुछ नहीं मांगा, कुछ नहीं चाहा और सब दांव पर लगा दिया है। वे ही प्रेमी हैं। उन्होंने ही जाना है प्रेम को। बेशर्त दांव पर लगा दिया है। जीएंगे तो मेरे साथ, मरेंगे तो मेरे साथ। सस्ता भी नहीं है मेरे साथ होना, महंगा सौदा है।
इसलिए रहीम यह तो बात गलत कहते हैं कि टूटे से फिर न जुड़े। टूटता ही नहीं। अब तक का अनुभव कहता है कि कभी नहीं टूटता। और जो टूट जाता है वह प्रेम नहीं था। फिर उसे जोड़ोगे भी तो जुड़े गांठ पड़ जाए। गांठ तो पड़ ही जाएगी फिर। धागा टूट जाए, फिर उसे जोड़ो तो गांठ पड़ जाए। मगर यह धागा ऐसा नहीं है जो टूट जाए।
इसलिए ऋषि और कवि के भेद को समझ लेना। मैं कभी-कभी कवियों के शब्द उपयोग करता हूं। क्योंकि एक बात खयाल में रखनी जरूरी है: ऋषियों के पास अनुभव होते हैं, मगर अक्सर शब्द नहीं होते। और कवियों के पास अक्सर शब्द होते हैं, मगर अनुभव नहीं होता। इस जीवन में बड़े विरोधाभास हैं। जो कह सकते हैं, उनके पास कहने को कुछ नहीं होता। जिनके पास कहने को कुछ होता है, उनके पास कहने के लिए शब्द नहीं होते। कभी-कभी विरले ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो ऋषि और कवि साथ-साथ होते हैं। जब कभी ऐसा कोई व्यक्ति होता है, उसी को हम सदगुरु कहते हैं--जिसने जाना भी और जो जना भी सकता है।
इसलिए मैं कवियों के शब्दों का उपयोग कर लेता हूं; अर्थ अपने देता हूं उनको। कवियों के साथ मुझे थोड़ी ज्यादती करनी पड़ती है; थोड़ा तोड़-मरोड़ करना पड़ता है; उनकी भूल-चूकों को हटाना पड़ता है; उन्हें अपना रंग देना पड़ता है। यह पद रहीम का मुझे प्यारा है--सिर्फ इसलिए प्यारा है कि इसमें बात एक काम की कही गई है, जो पहली आधी पंक्ति में है: रहिमन धागा प्रेम का! प्रेम एक अदृश्य धागा है--बहुत महीन, नाजुक, बारीक! यूं कि हवा के झोंके में टूट जाए। मगर नहीं टूटता तलवारों से। मृत्यु भी सिर्फ एक चीज को नहीं मिटा पाती, वह प्रेम है। इसलिए प्रेमी भर मृत्यु से भयभीत नहीं होता, और सब भयभीत होते हैं। प्रेमी भर मृत्यु की चिंता नहीं करता, क्योंकि उसका प्रेम कहता है कि उसने शाश्वत को जान लिया, पहचान लिया। और प्रेम की ही पराकाष्ठा प्रार्थना बन जाती है।
सोहन, तुझे प्रेम के पंख लगे हैं। तेरा प्रेम रोज-रोज प्रार्थना में रूपांतरित हो रहा है। तू ठीक ही कहती है कि चाहती हूं इसी तरह मिट जाऊं। मिट ही गई है। अब चाहने की कोई बात नहीं है। बचा भी कुछ नहीं है। अहंकार तो गया। अब भीतर तो एक सन्नाटा है, एक शून्य है। इस शून्य में किसी भी दिन पूर्ण का अवतरण हो सकता है। तू धन्यभागी है! ऐसा ही भाग्य भगवान सबको दे!

दूसरा प्रश्न:
भगवान, जीवन व्यर्थ लगता है। मैं क्या करूं?
नरेश! जीवन तो खाली किताब है, कोरा पन्ना है। कोरा पन्ना न सार्थक होता, न व्यर्थ होता; सिर्फ खाली होता है। उस पर क्या लिखोगे, सब इस पर निर्भर करता है। गालियां लिख सकते हो, गीत लिख सकते हो। अधिक लोग गालियां लिखते हैं, फिर रोते-पछताते हैं। थोड़े से लोग गीत लिखते हैं, आनंदमग्न हो जाते हैं, नाचते हैं, उत्सव मनाते हैं। जो गालियां लिखता है, उसको मैं गृहस्थ कहता हूं; जो गीत लिखता है, उसको मैं संन्यस्त कहता हूं। मेरी और कोई संन्यास की दूसरी परिभाषा नहीं है। भगोड़ों को संन्यासी नहीं कहता। सब छोड़-छाड़ कर चल पड़े, उनको मैं संन्यासी नहीं कहता। उनको तो मैं पलायनवादी कहता हूं। वे तो भीरु लोग हैं, डरपोक, कायर। संन्यासी तो मैं उनको कहता हूं, जो जीवन की किताब को गीतों से भर लेते हैं।
सब तुम्हारे हाथ में है। हाथ तुम्हारे पास, कलम तुम्हारे पास, स्याही-दवात तुम्हारे पास, जीवन की किताब तुम्हारे पास, परमात्मा ने सब तुम्हें दे दिया है--लिखो!
तुम कहते हो: ‘जीवन व्यर्थ लगता है।’
लगेगा ही। अगर गलत-सलत लिखोगे तो व्यर्थ न लगेगा तो क्या होगा? बिना सोचे-समझे लिखोगे तो व्यर्थ न होगा तो क्या होगा?
मुल्ला नसरुद्दीन के गांव में वह अकेला पढ़ा-लिखा आदमी है। तो लोग उसी से चिट्ठियां लिखवाने आते हैं। एक दिन एक आदमी उससे चिट्ठी लिखवाने आया। मुल्ला ने कहा कि नहीं भाई, आज न लिख सकूंगा, मेरे पैर में बड़ा दर्द है।
उस आदमी ने कहा: पैर में दर्द! तो पैर में दर्द का चिट्ठी लिखने से क्या संबंध है? अरे चिट्ठी हाथ से लिखोगे कि पैर से लिखोगे? बैठे हो भलीभांति, हुक्का पी रहे हो। जब हुक्का पी सकते हो हाथ में पकड़ कर तो कलम नहीं पकड़ सकते? जरूरी है चिट्ठी। मेरी पत्नी मायके गई है, उसे चिट्ठी भेजनी आवश्यक है। कुछ खबरें देनी हैं।
मुल्ला ने कहा: भाई, तुम मुझे माफ करो, बात ज्यादा न छेड़ो। मेरे पैर में बहुत दर्द है।
वह आदमी भी जिद्दी था। उसने कहा कि जब तक तुम मुझे समझाओगे नहीं, कि पैर का इससे क्या लेना-देना है, कागज मैं ले आया, कलम मैं ले आया, लिखनी भर तुम्हें है--लो पकड़े लेता हूं अपने हाथ में, तुम लिख दो, दो लकीरें लिखनी हैं। और पता लिख दो।
नसरुद्दीन ने कहा: अब तुमने बात ही छेड़ दी है और मानते नहीं तो तुम्हें बताता हूं। लिख तो दूंगा मैं, लेकिन फिर पढ़ने उस गांव कौन जाएगा? मेरा लिखा मेरे सिवाय कोई नहीं पढ़ सकता। सच तो यह है कि मुझे खुद ही पढ़ने में बहुत दिक्कत होती है।
उस आदमी ने कहा: क्या कह रहे हो? पढ़ने में दिक्कत होती है!
तो नसरुद्दीन ने कहा कि अब क्या छिपाना तुझसे! मैं कोई पढ़ा-लिखा हूं! अरे तुम जो बोलते हो, उसको याद भी रखना पड़ता है। फिर दूसरे गांव में जाकर वही याददाश्त से दोहराना पड़ता है। मैं कोई पढ़ा-लिखा हूं! मगर गांव में कोई पढ़ा-लिखा नहीं है, तो इसी से अपनी रोजी कमा लेता हूं, चार पैसे इसी से आ जाते हैं।
एक बार ऐसा हुआ, एक आदमी ने चिट्ठी लिखवाई। लंबी चिट्ठी लिखवाई, लिखवाता ही गया। नसरुद्दीन ने कहा: भाई, संक्षिप्त कर। तू तो लिखवाए ही जा रहा है। और नसरुद्दीन लिखता ही गया। और उस आदमी ने जब पूरी चिट्ठी लिखवा दी तो उसने कहा: भैया, एक दफा पढ़ कर सुना दो, कि कुछ भूल-चूक न हो गई हो।
नसरुद्दीन ने सिर ठोंक लिया। और उसने कहा: देख, पहली तो बात यह कि यह गैर-कानूनी है। चिट्ठी मेरे नाम नहीं है। जिसके नाम है वही पढ़े, मैं क्यों पढूं!
गांव का ग्रामीण था, उसने कहा: यह बात तो ठीक है, कि चिट्ठी जिसके नाम है वही पढ़े।
नसरुद्दीन की पत्नी यह सुन रही थी। वह जब आदमी चला गया, उसने नसरुद्दीन से पूछा कि मैं कुछ समझी नहीं। बेचारे की पढ़ देते, कुछ छूट-छाट गया हो।
उसने कहा कि अब तू और बात मत छेड़, और नमक मत छिड़क मेरे घावों पर। पढ़े कौन? जो मैंने लिखा है, अंट-शंट है; बस खींचता जाता हूं लकीरों पर लकीरें। कुछ भी गूदता जाता हूं। कौन सी भाषा है, मुझे भी पता नहीं। और यह आदमी होशियार मालूम पड़ता है। अगर गलत-सलत पढूंगा तो फौरन टोकेगा। और इसने एक-एक बात लिखवा दी है कि पहली, दूसरी, तीसरी। मैं खुद ही भूल गया कि कौन-कौन सी बातें इसने लिखवाई हैं। कौन एक नंबर, कौन दो नंबर, कौन तीन नंबर! इतनी लंबी अब इसकी कथा कौन याद रखे! इसलिए यह तरकीब निकालनी पड़ी कि यह चिट्ठी मेरे नाम नहीं है भैया, दूसरे के नाम है; जिसके नाम है वही पढ़ सकता है। यह गैर-कानूनी है।
तुम्हारी किताब जिंदगी की या तो खाली रह जाती है, तो अर्थ कहां से दिखे? खाली जमीन छोड़ रखोगे तो तुम सोचते हो फूल खिलेंगे? घास-पात शायद ऊग आए अपने से भी। यह घास-पात की खूबी है कि वह अपने से ऊग आता है। गुलाब अपने से नहीं ऊग आते, जूही और चमेली और चंपा अपने से नहीं ऊग आते; उगाने पड़ते हैं। श्रम करना होता है, सृजन करना होता है, साधना करनी होती है। हां, घास-पात अपने से ऊग आता है।
मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोस में एक आदमी आकर रहा। उसने उसका लान देखा, बहुत हरा! ऐसे भी दूसरे के लान हमेशा ज्यादा हरे मालूम होते हैं। अपनी दीवाल के पास खड़े होकर उसने नसरुद्दीन से कहा कि मैं नया-नया हूं, मुझे बगीचे का कोई अनुभव भी नहीं। मैंने भी बीज बोए हैं घास के लाकर, सुंदर बीज, महंगे से महंगे बीज। ऊगना भी शुरू हो गए हैं। लेकिन कुछ व्यर्थ का घास-पात भी ऊग रहा है। तो कैसे पक्का पता चले कि कौन घास-पात है और कौन है असली दूब जो मैंने बोई है?
नसरुद्दीन ने कहा: बिलकुल सीधा उपाय है। दोनों को उखाड़ कर फेंक दो। बाद में जो ऊग आए, समझना घास-पात; जो फिर न ऊगे, समझना दूब।
अगर तुम जीवन की किताब में कुछ न उगाओगे तो भी कुछ ऊगेगा, घास-पात ऊगेगा। और तुम आशा रखोगे कि गुलाब के फूल खिलें! न सुगंध उठेगी, न फूल खिलेंगे, न भंवरे आएंगे, न तितलियां उड़ेंगी, न पक्षी गीत गाएंगे। फिर तुम कहोगे, जीवन व्यर्थ है। जैसे कि जन्म के साथ ही तुम्हें जीवन मिल गया! जन्म के साथ केवल अवसर मिला है। जन्म के साथ जमीन मिली है। अब यह जमीन तैयार करो, गोड़ो, पत्थर अलग करो, घास-पात की जड़ें खोदो, बीज लाओ। ध्यान के बीज बोओ! प्रेम के बीज बोओ! आनंद के बीज बोओ! तो जीवन में अर्थवत्ता होगी, काव्य होगा, महिमा होगी। नहीं तो जीवन तो व्यर्थ लगेगा ही।
नरेश, इसमें कसूर किसका? नहीं कुछ लिखोगे जीवन की किताब में, तो भी चूहे वगैरह आकर काट-पीट कर जाएंगे, कुतर जाएंगे। जंग खा जाएगी जिंदगी, अगर उसका तुम उपयोग न करोगे। तलवार की धार मर जाएगी। तुम्हारी प्रतिभा जंग खाई हो जाएगी। और यही हो रहा है, करोड़ों लोगों के जीवन में यही अनुभव हो रहा है कि कोई अर्थ नहीं है। मगर कारण? कारण यह नहीं है कि जीवन कोई व्यर्थ घटना है। जीवन एक अपूर्व अवसर है!
तुम्हारी दी हुई एक जिंदगी--
आखिर जी गया!
सुबह-शाम
कड़वे-तीखे
उबलते गरल सरीखे
जो भी मिले जाम,
उठाया, उठा कर पी गया!
एक जिंदगी जी गया।

अंगार चुगे,
फूल कलेजे का जला
दिदोरे बहुत-बहुत उगे,
भला ही हुआ
जीवन का यह दीया मुआ
जलाए बिना जलता ही कहां?
सुगंध भरा यह धूप गलता ही कहां?
इसलिए, कुछ को नहीं नकारा,
जो भी मिला, सादर स्वीकारा,
बड़ी महंगी, यह तुम्हारी ही दया
एक जिंदगी जी गया।
मैं जब भी कहीं बाहर निकलता था
एक अनपहचाना कोई मेरे साथ-साथ चलता था
सदा, छाया सा
सांझ ढले सी छाया सिमट गई
वह खो गया रंगीन मेघों की माया सा।
आज जाना, वह और कोई नहीं
मेरा ही मैं था--हाय, वह भी गया।
एक जिंदगी जी गया।

जन्म दिया और मौत गले मढ़ी
इस लंबे और बीहड़ सफर में
कितनी ही बार वह अड़ कर सामने हुई खड़ी।
मैं ओंठों मुस्कुराया, बांहें बढ़ा दीं,
पंजरा उभरी छाती सामने अड़ा दी,
यह जिंदगी और है भी क्या,
मरण की निष्करुण बंदगी के सिवा?
सो, अरूप मेरे हे बंधु आगत!
स्वागत है, हजार बार स्वागत!!
तुमने मरण दिया, मैं जीवन देता हूं, लो
और कुछ? बोलो, बोलो!
मरण देख शरमा कर सहमा
समर्पण यह अकल्पित एकबारगी नया।
एक जिंदगी जी गया।

सपने सब झूठ हुए, आशाएं टूटीं,
फिर भी इन ओंठों से हंसी नहीं छूटी।
आज जब सांसों का ऋण
चुकता करने चला हूं गिन-गिन
जी में आता है, जरा रो तो लूं
तुम्हारी लिखी अनगढ़ लिपि को
आंखों के गंगाजल से धो तो लूं।
कम से कम यह संतोष लेकर तो जाऊं
कि तुमने कफन को जो चीर दिया,
वह भी चौचीर दिया--
मैं उसे सी गया।
आखिर एक जिंदगी जी गया।
लोग किसी तरह जी रहे हैं, ढो रहे हैं बोझ की तरह, भार की तरह। जहां नृत्य हो सकता था, वहां केवल बोझ है। जहां फूल ही फूल खिल सकते थे, वहां कांटे ही कांटे हैं, बबूल ही बबूल हैं। जहां धूप उठती, दीप जलते, नैवेद्य चढ़ता, वहां कुछ भी नहीं है--एक मरघट का सन्नाटा है; एक सूनापन, एक रिक्तता। लेकिन कसूर किसका है?
ईश्वर अवसर देता है। जन्म जीवन नहीं है; जन्म केवल जीवन को पाने या खोने का अवसर है। मौत सिर्फ अवसर को छीन लेती है। जिन्होंने इस अवसर का उपयोग कर लिया; जिन्होंने जीवन को जान लिया, पहचान लिया; जिन्होंने जीवन के फूल कमा लिए; जिन्होंने जीवन की गंध पा ली--मौत उनसे कुछ भी नहीं छीन पाती।
इसलिए तो बुद्ध शांत, मौन मृत्यु का आलिंगन करते हैं। इसलिए तो सुकरात हंसता-मुस्कुराता विदा होता है। न कोई रोना है, न कोई पीटना है, न कोई पछतावा है, न कोई प्रायश्चित्त है। न यह भाव है मन में कि और थोड़े दिन मिल जाते। जितने मिले उतने के लिए अनुग्रह है।
तुम कहते हो: ‘जीवन व्यर्थ लगता है। मैं क्या करूं?’
सार्थक करो! व्यर्थ है नहीं। अगर बुद्ध के जीवन में सार्थकता हो सकती है, अगर कृष्ण के जीवन में हो सकती है, अगर महावीर के जीवन में हो सकती है, तो तुम्हारे जीवन में क्यों नहीं? तुम भी उतनी ही क्षमता लेकर पैदा हुए हो। परमात्मा सबको समान अवसर देता है। परमात्मा साम्यवादी है। फिर हर आदमी को स्वतंत्रता है कि जो चाहे करे।
एक सम्राट के तीन बेटे थे। सम्राट बूढ़ा हो गया, तय करना चाहता था, किसको राज्य दे। तीनों प्रतिभाशाली थे, शूरवीर थे, तय करना मुश्किल था, कौन है श्रेष्ठ। एक फकीर से पूछा। फकीर ने कहा: एक काम करो। इन तीनों को ये फूलों के बीज ले जाओ और दे दो। और तुम कहना कि मैं तीर्थयात्रा को जा रहा हूं और साल भर बाद लौटूंगा। पुरानी कथा है। तीर्थयात्रा को जाना कोई आसान बात नहीं थी कि आज गए और कल वापस आ गए। लंबी यात्रा थी। एक वर्ष बाद लौटूंगा। इन बीजों को सम्हाल कर रखना। और कह दो उनसे कि इन बीजों को कैसे सम्हालते हो, इस पर ही निर्भर करेगा कि कौन मेरे राज्य का मालिक होगा। सावधान कर दो उन्हें कि यह परीक्षा का क्षण है।
सम्राट उनको बीज देकर चला गया। पहले बेटे ने सोचा कि इन बीजों को सम्हालना खतरे से खाली नहीं है। चूहे खा जाएं, चोर ले जाएं, सड़ जाएं, कुछ से कुछ हो जाए। ज्यादा उचित यही होगा कि इनको मैं बाजार में बेच दूं, पैसे सम्हालना ज्यादा आसान होगा। फिर पिता जब लौट कर आएंगे, बाजार से फिर बीज खरीद कर उनको दे देंगे। बीज-बीज में क्या फर्क? बाप को पता भी नहीं चल सकेगा कि ये वही बीज नहीं हैं। ठीक भी बात है, बीज ही बीज में क्या फर्क होगा? यही...इसी फूल के बीज खरीद कर पिता को दे देंगे। तो झंझट से भी बचे सम्हालने की। होशियार था, व्यवसायी बुद्धि का आदमी रहा होगा। बात उसने पते की खोज ली। बीज बेच दिए। बीज कीमती थे। कुछ अनूठे फूलों के बीज थे। विरल फूलों के बीज थे। अच्छे दाम मिल गए। उसने सोचा कि ठीक है, जब पिता वापस आएगा, खरीद लेंगे।
दूसरे बेटे ने सोचा कि आज मैं बेच तो दूं, जैसे बड़े भाई ने बेचे हैं, मगर पिता आए और बाजार में बीज मिलें न मिलें! कौन जाने, समय की बात, कभी कोई चीज बाजार में होती है, कभी नहीं होती। पिता द्वार पर आकर किस दिन खड़े हो जाएंगे, कौन जाने! उस दिन बाजार में बीज मिले न मिले! और ये विरल बीज हैं। और दुकानदार ने कहा कि ठहरो, कि पंद्रह दिन लगेंगे, कि महीना भर लगेगा, कि अभी मौसम नहीं है, तो मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। मैं मुफ्त हार जाऊंगा। बेचना खतरे से खानी नहीं है। उसने एक तिजोड़ी खरीदी और तिजोड़ी में बीज बंद किए, चाबी लगा कर चाबी को सम्हाल कर रख लिया, कि पिता आएंगे, जल्दी से तिजोड़ी खोल कर बीज सामने कर दूंगा।
तीसरे बेटे ने भी कुछ किया। उसने बीज बो दिए। उसने कहा: बीजों को सम्हाल कर रखने का और कोई ढंग सम्यक नहीं हो सकता। अगर इनको मैं तिजोड़ी में रखूंगा, ये सड़ जाएंगे। बाजार में बेचना धोखा देना है बाप को। बाप ने कहा है--यही बीज। और बाप ने सम्हालने को कहा है, बाजार में बेच कर और फिर खरीदने को नहीं कहा है। और फिर बीज को सम्हालने का एक ही अर्थ हो सकता है, क्योंकि बीज तो संभावना है। बीज का अर्थ होता है: संभावना। संभावनाओं को वास्तविक करो। तो उसने बीज बो दिए अपने महल के पीछे।
जब पिता आए, पहला बेटा भाग कर बाजार गया। वही हुआ जो होना था। दुकानदार ने कहा: भाई, अभी तो बीज नहीं हैं; तुम जो लाए थे, वे तो बिक गए। अब जब आएंगे बीज, नई फसल आए, तब मैं तुम्हें बीज दे सकता हूं। वह उदास, सिर झुकाए आकर खड़ा हो गया। सारी बात कही। बाप ने कहा: तुमने होशियारी तो दिखाई, मगर चूक गए।
दूसरे बेटे से पूछा। वह हंस रहा था। उसने कहा: मैं पहले से ही होशियार था, कि इस झंझट में मैं नहीं पडूंगा। उसने जल्दी से तिजोड़ी खोली। तिजोड़ी से बड़ी दुर्गंध उठी। बीज सड़ गए थे। जिनसे फूल खिल सकते थे, जिनसे गंध उठ सकती थी अपूर्व, वे बिलकुल सड़ गए थे। राख थी वहां।
बाप ने कहा: ये बीज हैं? यह तो राख है। बीजों को तिजोड़ी में सम्हाला जाता है? पागल कहीं के! बीज कोई नोट हैं? नोट तो सड़े ही होते हैं, इसलिए उनको कहीं भी सम्हालो। नोटों की कोई संभावना होती है? वे तो मुर्दा हैं। तुमने नोट से मरी हुई चीज देखी दुनिया में? ये नोट होते, तब तो ठीक था तिजोड़ी में सम्हालना। मगर बीज तिजोड़ी में सम्हाले जाते हैं? ये आदमी की टकसाल में नहीं ढलते, ये परमात्मा पैदा करता है। इनको तिजोड़ी में नहीं रखा जाता। तूने तो इनको मार डाला। तूने तो नष्ट कर दी सारी संभावना। खैर तूने पहले से फिर भी ठीक किया, कम से कम राख तो बची, लाश तो बची।
तीसरे से पूछा कि तूने क्या किया?
उसने कहा: आएं मेरे साथ। वह पीछे ले गया। वहां हजारों फूल खिले थे। बीज भी लग गए थे फूलों में। जितने बीज बाप दे गया था, उससे करोड़ गुने हो गए थे। और कैसे फूल खिले थे! कैसी गंध उठती थी! उसने कहा: ये रहे आपके बीज।
स्वभावतः तीसरे बेटे को राज्य की मालकियत मिली।
तुम क्या कर रहे हो जीवन के बीजों के साथ--इनको बो रहे हो कि तिजोड़ी में सम्हाल रखा है? इनको बो रहे हो कि बाजार में बेच रहे हो? लोग अपनी आत्माएं बेच रहे हैं और फिर कहते हैं कि जीवन व्यर्थ है! और सड़ी चीजों के लिए आत्माएं बेच देते हैं! कोई को पद पर्याप्त है, आत्मा बेचने को राजी है।
तुमको अगर कोई कहे कि राष्ट्रपति होना है, आत्मा देते हो? तुम कहोगे: भैया, जितनी हो ले जाओ। राष्ट्रपति अभी बनाओ। अरे राष्ट्रपति हो गए तो आत्मा का करना ही क्या है?
मैंने सुना है, एक राजनेता के मस्तिष्क का आपरेशन हुआ। आपरेशन भारी था। खोपड़ी खोल कर मस्तिष्क को बाहर निकाल कर सर्जन सफाई कर रहा था। राजनेता का मस्तिष्क था। होगा भी गंदा बहुत, सफाई में समय भी लग रहा होगा। खूब धुलाई कर रहा था। तो उसने खोपड़ी सी दी थी और काम में लगा हुआ था। तभी एक आदमी भागा हुआ अंदर आया और उसने दरवाजा झटके में खोला। अटका था दरवाजा। अंदर भागा आया और राजनेता से बोला: आप यहां क्या कर रहे हो? अरे आप प्रधानमंत्री चुन लिए गए हो, यहां क्या लेटे हो? वह राजनेता एकदम उठा और चला। सर्जन ने कहा: भाई, कहां जा रहे हो? अपना मस्तिष्क तो लेते जाओ। उसने कहा: अब मस्तिष्क का क्या करना है? अब मैं प्रधानमंत्री हो गया! अब तुम्हीं सम्हाल कर रखो, कभी जरूरत होगी देखेंगे।
प्रधानमंत्रियों को कोई मस्तिष्क की जरूरत तो होती नहीं। अगर मस्तिष्क हो तो प्रधानमंत्री होना मुश्किल हो जाए, बहुत मुश्किल हो जाए।
आत्मा बेचने को आदमी तैयार है, दो-दो पैसे में बेचने को तैयार है! पैसा मिल जाए, कि पद मिल जाए, प्रतिष्ठा मिल जाए, सब बेचने को तैयार है। और फिर तुम कहते हो, जीवन में अर्थ नहीं।
नरेश, अर्थ पैदा करोगे तो होगा। जीवन में अर्थ पैदा करने का विज्ञान ही धर्म है। अगर अर्थ होता ही जीवन में तो धर्म की कोई जरूरत न थी। धर्म का पूरा का पूरा आयोजन इतना ही है कि तुम अनगढ़ पत्थर हो, तुम्हें गढ़े; तुम में से मूर्ति को प्रकट करे। तुम्हें नृत्य नहीं आता, तो तुम्हें नृत्य दे। तुम्हारा कंठ बेसुरा है, तो तुम्हें सुर दे। तुम्हारी बांसुरी पोली नहीं है, अहंकार से भरी है, तो उसे अहंकार से मुक्त करे, ताकि तुम्हारी बांसुरी पोली हो सके, उसमें से स्वर बह सकें।
अगर जीवन में अर्थ नहीं है तो इसका केवल एक ही अर्थ होता है कि जीवन में धर्म नहीं है। अर्थ की फिक्र छोड़ो, धर्म की चिंता करो। अर्थ आएगा। अर्थ आता है धर्म की छाया की तरह। और जहां धर्म नहीं है वहां अनर्थ है। और जहां धर्म नहीं है वहां आज नहीं कल यह प्रश्न प्रगाढ़ होकर खड़ा होने ही वाला है कि मैं जीवन का क्या करूं? बेकार क्यों ढोऊं? क्यों कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काटता रहूं? वही चक्कर! वही सुबह उठना, वही दफ्तर जाना, वही घर, वही पत्नी, वही कलह, वही बच्चे, वही उपद्रव! फिर दूसरे दिन सुबह हो जाती है, फिर वही चक्कर, चक्कर घूमता रहता है, मैं चाक में बंधा हुआ घूमता रहता हूं। क्यों जीऊं? क्या सार है?
पश्चिम के बहुत बड़े विचारक कामू ने लिखा है कि मेरे देखे, मेरे लेखे, मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी समस्या एक ही है कि आदमी जीए ही क्यों? आत्महत्या सबसे बड़ी तात्विक समस्या है। और कामू ठीक कह रहा है। अगर तुमने जीवन में अर्थ को पैदा नहीं किया तो आत्महत्या ही सबसे बड़ी समस्या है, कि मैं अपने को मिटा क्यों न लूं?
पश्चिम के और विचारक भी इसी दिशा में सोचते हैं। दोस्तोवस्की का एक नायक, उसकी प्रसिद्ध कृति ब्रदर्स कर्माजोव में परमात्मा से कहता है कि तू कहां है? मैं तुझसे मिलना चाहता हूं। इसलिए नहीं कि मुझे तेरी कोई पूजा करनी है, कि मुझे तुझसे कुछ प्रार्थना करनी है। मैं तुझसे यह पूछना चाहता हूं कि मेरे बिना पूछे तूने मुझे जीवन क्यों दिया? यह कैसी कठोरता है? यह कैसी क्रूरता है? मुझसे पूछा तो होता कि मैं होना भी चाहता हूं या नहीं! मैं तुझसे मिलना चाहता हूं, ताकि रूबरू यह बात हो सके कि यह कैसा अन्याय है! और मैं तेरी टिकट वापस करना चाहता हूं कि मुझे कृपा कर बाहर जाने दे! मुझे जीवन में नहीं रहना। मुझे जीवित नहीं रहना।
जो भी सोचेगा, उसे ऐसा लगेगा ही, स्वभावतः। सोचते ही रहोगे तो जीवन व्यर्थ रहेगा।
धर्म की कला का पहला सूत्र है: ध्यान, सोच-विचार से मुक्त होना। निर्विचार में ठहरना। मौन में ठहरना। निःशब्द में जागना। साक्षीभाव में विराजमान होना। और तब एकदम अर्थ के दीयों पर दीये जल जाते हैं, दीपावली हो जाती है। अभी तो तुम्हारी जिंदगी एक दीवाला है, फिर तुम्हारी जिंदगी दीवाली हो जाती है।
धर्म को मूल्य दो। ध्यान में गति करो।
तुम पूछते हो: ‘मैं क्या करूं?’
ध्यान करो। ध्यान में डूबो। आएगा अर्थ। मेरे जीवन में आया, तुम्हारे जीवन में क्यों न आएगा! मैं अपने अनुभव से कहता हूं। मैं जो कह रहा हूं, वह किसी और के आधार से नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि मेरी बात मान लो। मैं तुमसे इतना ही कह रहा हूं कि मेरा निमंत्रण मान लो। प्रयोग करो।
तुम्हारे भीतर भी इतनी ही संभावना है, जितनी किसी कृष्ण के भीतर, लाओत्सु के भीतर, जरथुस्त्र के भीतर। तुम्हारे भीतर भी इतना ही बड़ा कमल खिलेगा--सहस्रदल कमल! तुम्हारे भीतर भी बड़ी अपूर्व ज्योति भरी है।
पर भीतर जाओ तब पहचानो न! बाहर ही बाहर भटकते रहोगे, नहीं पा सकोगे। संपदा है भीतर और तुम भटक रहे बाहर। तुम्हारा राज्य है भीतर और तुम खोज रहे बाहर। इसलिए अर्थहीनता अनुभव होती है। थाेड़ा भीतर, जरा सा भीतर झांको, और क्रांति घट जाती है! और जीवन में एक ही क्रांति है--अंतर-क्रांति। बाकी सब क्रांतियां झूठी हैं, मिथ्या हैं, धोखे हैं, आत्मवंचनाएं हैं।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, आप हमेशा ‘लिव्वा लिटिल हॉट, सिप्पा गोल्ड स्पॉट’ कहते हैं। आप इसके स्थान पर कभी ऐसा क्यों नहीं कहते--‘लिव ए लिटिल हॉट, सिप ए कोल्ड बियर’? आखिर बियर में बहुत प्रोटीन रहता है!
शीला! तू भी खाक बार-टेंडर थी अमरीका में! प्रोटीन तो जरूर रहता है, और मैं कोई बियर का दुश्मन भी नहीं हूं। लेकिन ‘लिव्वा लिटिल हॉट, सिप्पा गोल्ड स्पॉट’ में थोड़ी तुकबंदी है, प्रोटीन हो या न हो। तुकबंदी भी है और इटैलियन भाषा भी। अब ‘लिव ए लिटिल हॉट, सिप ए कोल्ड बियर’, इसमें तुकबंदी भी नहीं है और इटैलियन भी नहीं है। और दोनों बातें जरूरी हैं। अगर तू मुझे मजबूर ही करेगी तो मैं कहूंगा: ‘कमा लिटिला नियर, सिप्पा कोल्डा बियर।’

चौथा प्रश्न:
भगवान, कल एक सरदार जी आश्रम देखने आए। उन्होंने कहा: ‘ओशो जी दे दर्शन सानूं अभी करा दो।’ हमने उत्तर दिया कि आपके दर्शन सुबह प्रवचन में ही होंगे। तो वे मानें ही न। वे बोले: ‘दर्शन तो सानूं अभी ही करा दो। असी ऐनी दूर अमृतसर तो आए हां। साडी गड्डी अभी छूटण वाली है।’ वे मानें ही न। फिर मैंने अचानक घड़ी देखी, तो देखा बारह बजे हैं। क्या बारह बजे का कोई विशेष रहस्य है?
संत महाराज! रहस्य तो है ही।
संत भी पंजाबी हैं। न हुए पूरे सरदार, तो भी निन्यानबे प्रतिशत तो सरदार हैं ही। पंजाबी और सरदार में कोई ज्यादा फर्क नहीं, एक प्रतिशत का फर्क होता है। बस जरा दाढ़ी-मूंछ बढ़ा ली, बाल बढ़ा लिए, पांच ककार...। कोई खास ककार भी नहीं--कंघा, केश, कड़ा...इस तरह के पांच ‘क’ पूरे हो गए कि कोई भी पंजाबी सरदार है।
सरदार कोई नई जाति थोड़े ही है, कोई नई कौम थोड़े ही है। पंजाबी ही हैं, जो पांच ककारों में फंस गए हैं। पांच क का घेरा कर लिया खड़ा।
और बारह बजे का तो संत महाराज, महत्व है ही। बारह बजे का मतलब होता है: अद्वैत। जहां दो ‘एक’ हो जाते हैं। और जहां द्वैत गया, वहां बुद्धि गई। फिर कहां बुद्धि की जरूरत! जब द्वैत ही न रहा तो बुद्धि की जरूरत भी न रही। बुद्धि की जरूरत तो यह दुई की दुनिया में है। जहां द्वैत नहीं, वहां बुद्धि का क्या प्रयोजन?
बारह बजे बड़ा प्रतीकात्मक मामला है। ऐसे ही तुम्हारे भीतर जब बारह बजेंगे, जब दोनों कांटे मिल कर एक हो जाएंगे--रात और दिन एक, जीवन और मृत्यु एक, सुख और दुख एक! अरे इसी को तो कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि हे अर्जुन, समता को उपलब्ध हो! द्वैत को न देखे! सफलता-असफलता में समभाव रख, समदृष्टि हो। यही तो स्थितप्रज्ञ के लक्षण हैं। वह तो उस समय में घड़ियां नहीं थीं, नहीं तो वे सीधा-सीधा कह देते कि बारह बजा। इतना लंबा समझाना...। संक्षिप्त में बात कह दी होती, कि बेटा, बारह बजा! सरदार हो जा! और सरदार हो जाता तो कृष्ण जो समझा रहे थे, वह काम पूरा हो जाता। वह खुद ही मार-काट शुरू कर देता। वह कोई कृष्ण की सुनने को रुकता कि इतनी गीता का...वह कहता: अब ठहरो, गीता वगैरह पीछे हो जाएगी। वह तो कहता कि साडी गड्डी अभी छूटण वाली है। अब तुम गीता वगैरह पीछे कर लेना। कृपाण फड़काता। कृपाण भी पांच ककारों में एक है।
अब पांचवां ककार मुझे भूल रहा है। वह जरा खतरनाक ककार भी है। समझो तो समझ लेना। थोड़ी कही, बहुत समझना। पांचवां ककार का मतलब होता है...सोचो! खोजोगे तो पा लोगे! जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ!
बारह बजे से नाराज होने की कोई जरूरत नहीं है; हालांकि सरदार नाराज हो जाते हैं, एकदम नाराज हो जाते हैं। यह तो बड़ी ऊंची तात्विक बात है बारह बजना। मगर पंजाब में बारह बजे का प्रतीक और ही तरह से लिया जाता है। कोई मर जाता है तो कहते हैं, उसके घर बारह बज गए। इसलिए पंजाबी नाराज हो जाता है, सरदार नाराज हो जाता है। यह मातम का प्रतीक है। बारह बज गए, मतलब रोना-धोना शुरू हो गया, कोई स्वर्गवासी हो गया।
ऐसे तो इसमें रोने-धोने की कोई जरूरत नहीं; कोई स्वर्गवासी हो गया, तुम क्यों रो-धो रहे हो? हो जाने दो, स्वर्गवासी ही हो रहा है बेचारा, कोई नरकवासी तो हो नहीं रहा है।
मगर हम कहते तो हैं एक तरफ कि फलां स्वर्गवासी हो गया, फिर रोते भी हैं। क्योंकि हम जानते तो हैं भलीभांति कि गए तो होंगे नरक; कहते हैं स्वर्गवासी हो गए, क्योंकि अब मरे के लिए क्या बुरा कहना! अब जो चला ही गया, अब उसके लिए क्या बुरा कहना!
मुझे लोग पत्र लिखते हैं, प्रश्न पूछते हैं, कि आप अब श्री मोरार जी देसाई के संबंध में कुछ क्यों नहीं कह रहे हैं?
क्या कहूं, स्वर्गीय हो गए! अब कोई मरों को मारता है! अब तो बेचारे करते क्या हैं--बंबई में वेदांत सत्संग मंडल में गीता पर प्रवचन देते हैं। गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ हो गए। मर कर आदमी क्या-क्या नहीं हो जाता! गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ!
और वेदांत मंडल में एक दफा मैं भी गया था, फिर दुबारा नहीं गया। क्योंकि तब मैंने वहां देखा कि वेदांत मंडल का अर्थ क्या है? वे चमनलाल बैठे हुए हैं, वे जानते हैं कि वेदांत मंडल का क्या मतलब है। क्योंकि उनके बहनोई हरिकिशन दास अग्रवाल ही उसको चलाते थे, वे भी स्वर्गीय हो गए। वहां जाकर मुझे पता चला कि वेदांत का मतलब होता है, जहां बिना दांत के लोग इकट्ठे हों। फिर मैं दुबारा नहीं गया। सब बुड्ढे-ठुड्ढे इकट्ठे! जिनको होना नहीं चाहिए था, मगर एलोपैथी के चमत्कार से हैं, ऐसे दस-पच्चीस बुड्ढे-ठुड्ढे इकट्ठे होते हैं। उसका नाम वेदांत सत्संग मंडल। तब मैं समझा कि मैं भी पागल, अभी तक वेदांत का मतलब ही न समझा।
वहीं अब मोरार जी देसाई प्रवचन देते हैं। और या फिर और कहीं नहीं मिलती जगह तो आचार्य तुलसी एक आंदोलन चलाते हैं, अणुव्रत आंदोलन, तो अणुव्रत की सभा में व्याख्यान देते हैं। वहां दस-पच्चीस मारवाड़ी इकट्ठे होकर उनका अणुव्रत पर प्रवचन सुनते हैं।
गए बेचारे! मरों के संबंध में कुछ भी आलोचना करनी उचित नहीं। जो गए सो गए। बारह बज गए!
संत महाराज, ज्यादा देर नहीं है, तुम्हारे भीतर भी घड़ी के कांटे करीब आ रहे हैं। जिस दिन घड़ी के कांटे तुम्हारे भीतर करीब आ जाएंगे, फिर खयाल रखना, घड़ी को वहीं बंद कर देना। ऐसा न हो कि फिर कांटे बिछुड़ जाएं।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय।।
एक दफा दोनों कांटे करीब आ जाएं, फिर हटने मत देना। फिर तो पेंडुलम से पकड़ कर लटक जाना। फिर तो घड़ी को आगे बढ़ने ही मत देना। वही समाधि की अवस्था है: चित्त थिर हो गया, समय बंद हो गया। जीसस से किसी ने पूछा कि तुम्हारे प्रभु के राज्य में सबसे महत्वपूर्ण बात क्या होगी? तो उन्होंने कहा: देयर शैल बी टाइम नो लांगर। वहां समय नहीं होगा।
गजब कर दिया। बिलकुल सरदारी बात कह दी। मतलब--कांटे बिलकुल रुक जाएंगे। मिलन हो गया, फिर विरह नहीं। फिर कैसा विरह? भक्त-भगवान एक हो गए।
सो तुम ठीक पूछते हो कि क्या बारह बजे का कोई विशेष रहस्य है? अरे रहस्य क्यों नहीं है, यहां तो हर बात में रहस्य है! और लोग एक से एक बातें पूछते हैं।

पांचवां प्रश्न:
भगवान, क्या कारण है कि सभी संत बाल और दाढ़ी बढ़ाए रहते हैं? अगर वे लोग बाल और दाढ़ी न बढ़ाएं तो क्या संत नहीं कहाएंगे?
अमरनाथ सिंह ने पूछा है। अब मुझे पता नहीं कि संत कहाएंगे कि नहीं कहाएंगे। और संतों को क्या पड़ी कि संत कहाते कि नहीं कहाते। मगर लोगों का बड़ा नुकसान हो जाएगा। बाल-बच्चों को क्या कह कर डराओगे? बाल-बच्चों को डराने का एक ही उपाय है कि बाबाजी आ रहे हैं! सोचो तुम, क्या बाल-बच्चों को कह कर डराओगे, अगर संत बाल और दाढ़ी न बढ़ाएं? पैंट-कोट और टाई लगा कर घूमें, तो बच्चों को कैसे डराओगे? बच्चों को डराने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। अब ये संत कम से कम इतने काम तो आते ही हैं, कि देख अगर गड़बड़ की तो बाबाजी को दे देंगे।
बाबाजी का मतलब समझते हो? बा बाजू! जो इधर से उस तरफ चले गए। उधर ही रहने लगे--बाबाजी।
दाढ़ी और बाल बढ़ाना कुछ अर्थ तो रखता है। मैंने तो कभी कटाए नहीं; हालांकि मैं कोई संत नहीं हूं और संत होना भी नहीं चाहता।
मैं जब विश्वविद्यालय में था तो मेरे वाइस-चांसलर को मैं मिलने गया। वे बहुत आधुनिक आदमी थे। सारे विश्व का भ्रमण किया था। कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड में भी पढ़ाया था। कैंब्रिज से ही डी.लिट. थे। तो बिलकुल ही अत्याधुनिक थे। उन्होंने मेरी दाढ़ी-मूंछ देखी। और मैं तो यूनिवर्सिटी में भी लुंगी पहनता था और एक बड़ा झब्बा, और खड़ाऊं कि आधा मील से लोगों को पता चल जाए कि मैं आ रहा हूं! सो लोग सावधान हो जाएं कि बाबाजी आ रहे हैं! जिनको डरना हो डर जाएं, जिनको भागना हो भाग जाएं, जिनको जो भी इंतजाम करना हो कर लें।
मैं गया था उनसे मिलने कि मुझे स्कॉलरशिप चाहिए। उन्होंने कहा कि स्कॉलरशिप तो पीछे हम बात करेंगे, पहले मैं यह पूछना चाहता हूं कि तुमने बाल और दाढ़ी क्यों बढ़ाए?
मेरे विभाग के जो अध्यक्ष थे, मेरे जो प्रोफेसर थे, मुझे बहुत प्रेम करते थे, जो मेरे साथ गए थे मेरी सिफारिश के लिए कि मुझे निश्चित ही स्कॉलरशिप मिलनी चाहिए--वे मुझे समझा कर ले गए थे कि देखो, किसी विवाद में नहीं पड़ना। रास्ते भर मुझे समझाते रहे कि देखो, मैं तुमसे फिर कहता हूं! दरवाजे के बाहर भी उन्होंने मुझसे कहा कि देखो, मैं तुमसे फिर कहता हूं, वाद-विवाद नहीं करना। अपने को स्कॉलरशिप लेने से मतलब है। और स्कॉलरशिप तुम्हें मिल जाएगी, मैंने उनसे बात की है, वे राजी हैं, कोई अड़चन नहीं है। लेकिन तुमने अगर कोई वाद-विवाद खड़ा कर लिया तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी। तुम जैसे मुझसे वाद-विवाद करते हो, उनसे मत करना।
मैं सुनता रहा। मैंने कहा कि जब उनसे नहीं करना है तो तुमसे भी नहीं कर रहा हूं। मैं बिलकुल चुप हूं। मगर मैं यह भी कहे देता हूं कि अगर उन्होंने कोई बहुत बुनियादी बात छेड़ दी, तो फिर भाड़ में जाए स्कॉलरशिप, मिले कि न मिले। और उन्होंने यही बात छेड़ दी। उन्होंने देख कर ही मुझे कहा कि और सब तो ठीक है, दाढ़ी-मूंछ क्यों बढ़ाई हैं?
मेरे प्रोफेसर, जो मेरे पास ही बैठे थे, पैर से मेरे पैर में पैर मारने लगे कि चुप।
मैंने उनसे कहा कि देखिए, इसके पहले कि मैं आपसे बात करूं, मेरे प्रोफेसर को कहिए कि मेरी टांग में टांग न मारें।
मेरे प्रोफेसर तो बहुत घबड़ा गए, उनको तो पसीना छूट गया। मैंने कहा कि तुम्हें क्यों पसीना छूट रहा है? स्कॉलरशिप मेरी जा रही है, जाने दो!
और वाइस-चांसलर तो बहुत हैरान हुआ कि यह मामला क्या है!
उन्होंने कहा कि क्यों टांग में टांग मार रहे हैं?
मैंने कहा: ये मुझे समझाते आ रहे हैं रास्ते भर से कि अगर विवाद किया तो स्कॉलरशिप चली जाएगी। मैंने भी इनसे कह रखा है कि अगर उन्होंने कोई बुनियादी बात छेड़ी तो विवाद होकर रहेगा। आपने बुनियादी बात छेड़ दी! अब ये मेरी टांग में टांग मार रहे हैं। अब मैं स्कॉलरशिप की फिक्र करूं कि अपनी आत्मरक्षा करूं, आप बोलिए?
उन्होंने कहा कि तुम फिक्र छोड़ो, विवाद कर सकते हो। स्कॉलरशिप कहीं नहीं जाएगी।
मैंने कहा: स्कॉलरशिप का मामला पहले निपटा दीजिए, ताकि ये...नहीं तो ये मेरी टांग में टांग मारेंगे।
बात इतनी साफ थी कि उन्होंने पहले मेरी स्कॉलरशिप के फार्म पर दस्तखत किया कि यह खत्म, अब बोलो।
मैंने कहा: अब मैं तुमसे यह पूछता हूं कि आपने बाल और दाढ़ी कटाए हैं या मैंने बढ़ाए हैं? ये तो अपने आप बढ़े हैं। आपने कटाए क्यों?
उन्होंने कहा: यह बात ठीक है कि कटाए तो मैंने ही हैं।
मैंने कहा कि तुम मुझसे पूछ रहे हो उलटे। उलटा चोर कोतवाल को डांटे! मैंने बढ़ाए नहीं, अब मैं क्या करूं बढ़ गए! कटाए नहीं, यह बात जरूर है, क्योंकि मैं आज तक तय ही नहीं कर पाया कि कटाऊं कैसे, भगवान बढ़ा रहा है और मैं कटाऊं! अब तुम कल हमसे यह ही कहने लगोगे कि अंगुलियां क्यों नहीं कटाईं? कि टांग क्यों नहीं कटाई? तो अब यह तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा, हम क्या-क्या कटाएं! तुमने क्यों कटाए हैं?
उन्होंने कहा कि मुझे थोड़ा सोचने का समय दो।
कितना समय चाहिए? मैंने कहा: स्कॉलरशिप का मामला तो खत्म हो चुका है, अब यह बात चलेगी, इसको मैं छोड़ने वाला नहीं हूं। मैं रोज आ जाया करूंगा। आप सोचें रोज, मैं ठीक ग्यारह बजे आपके दफ्तर पर दस्तक दिया करूंगा। दस्तक देने की वैसे भी जरूरत नहीं है, मेरी खड़ाऊं करीब आधा मील से बजती है।
मैं रोज वहां जाने लगा। वे मुझे देखते ही से कहते कि भाई, अभी नहीं सोच पाया। चौथे दिन मुझसे बोले कि तुम मुझे सोने दोगे कि नहीं? रात भर मैं करवटें बदलता हूं, सोचता हूं कि क्या जवाब देना। कटाए तो मैंने ही हैं, यह बात तो सच है। कसूर मेरा ही है, जो कुछ भी भूल-चूक है, मेरी है। पूछा भी मैंने ही है।
मैंने उनसे पूछा कि थोड़ा सोचो तो, अगर कोई स्त्री दाढ़ी-मूंछ बढ़ा ले तो उसको तुम क्या कहोगे?
कहा: उसको हम पागल कहेंगे।
तो मैंने कहा: और कोई पुरुष दाढ़ी-मूंछ कटा ले, उसको तुम क्या कहोगे? स्त्री बेचारी पागल, क्योंकि दाढ़ी-मूंछ बढ़ा ली!
मैंने उनसे पूछा कि अगर स्त्री दाढ़ी-मूंछ बढ़ा ले, उससे कोई विवाह करेगा?
उन्होंने कहा कि भाई, मुश्किल है उससे कोई विवाह करे।
मैंने कहा: आप विवाह करोगे?
बोले: मैं तो कतई नहीं करूंगा। दाढ़ी-मूंछ वाली स्त्री से कौन विवाह करे!
तो मैंने कहा कि और जिस स्त्री ने आपसे विवाह किया है, उसे चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए। उसने दाढ़ी-मूंछ-रहित पुरुष से विवाह कर लिया! यह क्या अन्याय? यह कैसा मापदंड है? दोहरे मापदंड चल रहे हैं!
पांचवें दिन उन्होंने मुझसे कहा: मैं हाथ जोड़ता हूं। प्रश्न तो मुझे और भी पूछने थे, मतलब खड़ाऊं के संबंध में, और यह चोगा, और यह लुंगी, मगर मैं कुछ नहीं पूछता भैया। मुझे पूछना ही नहीं प्रश्न। मैं हार गया! मैं अपना प्रश्न वापस लेता हूं। और अब मैं समझा कि तुम्हारा प्रोफेसर क्यों तुम्हारे पैर में टांग मार रहा था। अरे वह मेरी टांग में टांग मारता तो ठीक था। उसे मुझे सावधान करना था, तुम्हें क्या सावधान करना!
फिर दो साल मेरे उनसे संबंध रहे, उन्होंने कभी कोई प्रश्न नहीं उठाए--इस तरह का कोई प्रश्न नहीं। चाहे वे देख भी लें कि मैं कुछ ठीक नहीं कर रहा हूं जो कि यूनिवर्सिटी के स्नातक को नहीं करना चाहिए, मगर अगर मैं ऊंट पर भी सवार होकर पहुंच जाता तो भी वे मुझसे नहीं पूछ सकते थे कि तुम ऊंट पर सवार क्यों हो? क्योंकि पता नहीं इसमें से क्या मामला निकले, फिर पीछे झंझट खड़ी हो!
तुम पूछ रहे हो अमरनाथ सिंह, कि संत बाल और दाढ़ी क्यों बढ़ाए रहते हैं?
संत बेचारे सहज स्वाभाविक लोग, जो परमात्मा करता है, करने देते हैं, बाधा नहीं डालते, कि बैठे हैं उस्तरा लिए और बाधा डाल रहे हैं। परमात्मा जो करता है, उसे सहज स्वीकार करते हैं। और यह पुरुष का लक्षण है। यह पुरुष के शरीर का हिस्सा है। यह बिलकुल नैसर्गिक है। यह तो बिलकुल पागलपन है कि दाढ़ी-मूंछ सफा करके बैठे हुए हो। यह शोभा नहीं देता। इससे तुम्हारे पुरुषत्व में थोड़ी सी कमी पड़ जाती है।
तुम्हारे चेहरों में और स्त्रियों के चेहरों में जितना फासला हो उतना अच्छा, जितना भेद हो उतना अच्छा, उतना आकर्षण होता है। लेकिन पीछे कारण हैं कि लोगों ने क्यों दाढ़ी-मूंछ कटानी शुरू की। पुरुष को स्त्री का चेहरा सुंदर लगता है, सो उसने सोचा कि इसी तरह का चेहरा मैं बना लूं तो सुंदर लगेगा। यह गलत बात है। स्त्रियों से भी तो पूछो कि तुम्हें कौन का चेहरा सुंदर लगता है! स्त्रियों को स्त्रियों के चेहरे सुंदर लगते हैं? स्त्रियों को तो हैरानी होती है यह सोच कर कि पुरुष मरे जाते हैं स्त्रियों पर, किसलिए? पुरुषों का चेहरा सुंदर लगता है।
और तुमने देखा, दाढ़ी-मूंछ के साथ पुरुष के चेहरे पर एक गरिमा आ जाती है, भराव आ जाता है, एक व्यक्तित्व आ जाता है! दाढ़ी-मूंछ से रहित पुरुष के चेहरे से कुछ खो जाता है, कुछ खालीपन हो जाता है, कुछ रिक्त हो जाता है।
अच्छी दुनिया होगी और लोग सहज स्वाभाविक जीएंगे, तो यह बिलकुल स्वाभाविक होगा कि लोग दाढ़ी-मूंछ बढ़ाएं। इसमें कुछ आध्यात्मिक रहस्य खोजने की कोशिश न करो। मगर लोग हर चीज में कुछ न कुछ आध्यात्मिक रहस्य खोजने में लगे रहते हैं।

छठवां प्रश्न:
भगवान, सती सक्कूबाई, सती अनसूया, सती सावित्री जैसी महान पतिव्रता साध्वियों की महिमा का शास्त्रों में बहुत उल्लेख है। आपकी दृष्टि में पतिव्रता का क्या अर्थ है?
सुशीला! पतिव्रता का अर्थ होता है--जो पति से बहुत तरह के व्रत करवाए। कि आज सोमवार है, आज एकादशी है, यह पर्युषण आ गया--करो व्रत! पतिव्रता का मतलब साफ है कि पति के पीछे पड़ी रहे कि सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठो, कि जाओ अब घूमने, कि सिगरेट न पीओ, कि चाय न पीओ, कि ताश न खेलो, कि सिनेमा न देखो, कि यह न करो, कि वह न करो--जो पति के पीछे ही पड़ी रहे; जो पति का सुधार करने में लगी रहे; जो पति को व्रती बना कर रहे--उसका नाम पतिव्रता। सीधा-सादा शब्द है! इसमें क्या अध्यात्म खोजने में लगी है सुशीला तू?
एक स्कूल में अध्यापक ने पूछा: तुम्हारे पिता को दो सौ रुपये वेतन मिले, अगर उनमें से सौ रुपये वे तुम्हारी माता को दे दें, तो बताओ उनके पास क्या बचेगा?
छात्र: कुछ नहीं।
अध्यापक: क्यों?
छात्र: बाकी सौ रुपये मां अपने आप ही ले लेंगी। देने की कोई जरूरत ही नहीं।
एक नेताजी अपनी पत्नी के व्याख्यान से परेशान हुए जा रहे थे; वह सिर खाए जा रही थी, बोले ही चली जा रही थी। जब उससे कहा कि अब चुप भी हो, तो वह और भड़क गई, जैसे आग में कोई घी डाल दे! उसने कहा: आप तो दिन भर भाषण झाड़ते हैं और लोग कुछ नहीं कहते। और मैं जरा सा बोलती हूं कि आप झट कह देते हैं, चुप रहो!
नेताजी ने कहा: जब मैं भाषण देता हूं, तब मेरी चीख-पुकार हजारों कानों में बंट जाती है, इसलिए लोग सह लेते हैं। मगर तुम्हारा भाषण तो मुझ अकेले को ही सुनना पड़ता है।
हर पति भाषण सुन रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन को रात तीन बजे पुलिसवाले ने पकड़ा कि कहां जा रहे हो?
उसने कहा: प्रवचन सुनने।
उसने कहा: होश में हो? तीन बजे रात कहां प्रवचन हो रहा है? हां, कोरेगांव पार्क में होता है, मगर आठ बजे सुबह। तीन बजे रात?
उसने कहा: तुम समझे नहीं, मैं अपने घर जा रहा हूं। और तीन बजे रात क्या, जब भी जाऊंगा, चार बजे जाऊं कि पांच बजे जाऊं, मेरी पत्नी बैठी रहेगी। जब तक वह प्रवचन न दे, न खुद सोएगी, न मुझे सोने देगी। बस तैयार होकर जा रहा हूं। श्रोता की तरह बैठ कर सुनना है अब जो सुनाए। हालांकि वही बातें जो कई बार सुना चुकी है, फिर सुनाएगी।
पुरुष ने स्त्रियों को गुलाम बना दिया है, उनसे सारी स्वतंत्रता छीन ली है। और इसका बदला स्त्रियां भलीभांति दे रही हैं। उनके पास एक ही उपाय बचा, कि वे पुरुष को धर्म के बहाने सताएं। और उनके पास कोई उपाय नहीं है। और सब मामलों में पुरुष मालिक बन कर बैठा हुआ है; बस एक ही बात उनके हाथ में बची है--धर्म, व्रत, नियम, नीति, आचरण। इस सबके संबंध में ही उनके पास सुविधा है।
उनको तो है भी नहीं आचरण खोने की सुविधा, कि जुआ खेलने जाएं, कि शराब पीने जाएं, कि सिगरेट पीएं। पुरुष ने ये सारी सुविधाएं अपने लिए रख छोड़ी हैं। स्त्री को बंद कर दिया घर में। मगर इसका फल भी भोग रहा है, सदियों से भोग रहा है, कि जितना मजा ले रहा होगा सिगरेट पीने में और शराब पीने में और जुआ खेलने में, स्त्रियां भी उसे खूब मजा चखा रही हैं। घर पहुंचा कि उन्होंने चखाया मजा। सच तो यह है कि अगर स्त्रियां मजा चखाना बंद कर दें तो दुनिया में महात्माओं की एकदम कमी पड़ जाए। ये स्त्रियां ही इतना सताती हैं कि आदमी एक दिन सोचता है कि अब तो महात्मा ही हो जाना बेहतर है। जब महात्मा ही होना है तो फिर काहे के लिए क्लर्की करनी!
एक कैथलिक लड़की एक प्रोटेस्टेंट युवक के प्रेम में पड़ गई थी। उसके बाप ने कहा कि और सब तो ठीक है, लड़के में मुझे कोई एतराज नहीं है, परिवार अच्छा है, कुलीन है, सुशिक्षित है, मगर कैथलिक नहीं है। तो पहले उसे कैथलिक धर्म में दीक्षित होने के लिए राजी कर। तो धीरे-धीरे धर्म की, अपने धर्म की शिक्षा दे। जब वह कैथलिक हो जाएगा, तब मैं विवाह के लिए स्वीकृति दूंगा।
लड़की हर महीने पिता को रिपोर्ट देने लगी कि सफलता मिल रही है। अब वह कैथलिक चर्च में भी जाने लगा है, कैथलिक पादरी को भी सुनने लगा है। अब वह यह भी करने लगा, अब वह भी करने लगा। अब कैथलिक शास्त्रों को भी पढ़ने लगा, कैथलिक नियम-व्रत इत्यादि को भी मानने लगा। हर महीने रिपोर्ट थी सफलता की। और लड़की बड़ी प्रसन्न थी कि अब देर नहीं है...कि एक दिन लड़की आई, आंसू टपक रहे हैं, ज़ार-ज़ार रो रही है। पिता ने कहा: क्या हुआ? उसने कहा कि मैंने जरूरत से ज्यादा सुधार कर दिया। अब वह कहता है कि मुझे कैथलिक पादरी होना है। विवाह करना ही नहीं। और मैंने उससे पूछा: क्यों? तो उसने कहा कि जब विवाह के पहले ही तूने मेरा इतना सुधार कर दिया, तो विवाह के बाद तू क्या करेगी, इससे बेहतर है कि मैं पादरी ही हो जाऊं।
ये तुम्हें जो इतने महात्मा दिखाई पड़ते हैं, ये भागे हुए पति हैं। पत्नियों ने इन्हें ऐसा सुधारा, उन्होंने पतिव्रता-धर्म ऐसा निभाया, ऐसे व्रत इनसे करवाए, ऐसे शीर्षासन करवाए, ऐसी इनकी मिट्टी पलीद की, कि इन्होंने सोचा इससे तो महात्मा ही हो जाना बेहतर है, कम से कम पूजा तो मिलेगी। पत्नियों ने इनकी ऐसी पूजा की--दूसरे अर्थ में पूजा, असली अर्थ में पूजा की--कि इन्होंने सोचा इससे तो महात्मा हो जाना बेहतर है।
अगर स्त्रियां पतियों में सुधार करना बंद कर दें तो मैं तुमसे कहता हूं: दुनिया में पादरी, पुरोहित, महात्मा, साधु, इनकी संख्या एकदम गिर जाए। स्त्रियां दोहरे तरह से धर्म को सम्हाल रही हैं। पहले तो वे लोगों को इतना सताती हैं धार्मिक होने के लिए, कि उनको धार्मिक होना पड़ता है। आत्मरक्षा के निमित्त ही होना पड़ता है। और जब वे धार्मिक हो जाते हैं तो स्त्रियां उनकी सेवा करती हैं, चरण धोती हैं, चरण धो-धो कर पानी पीती हैं। सब तरह से महात्मा का जो-जो स्वागत-सत्कार होना चाहिए, स्त्रियां करती हैं। पुरुष नहीं करते। पुरुष तो जानते हैं कि अरे, यह भगोड़ा है! हम भी सताए जा रहे हैं, मगर हम टिके हैं; और ये भैया भाग गए! हमें सब पता है कि ये क्यों भागे। मगर हम टिके हैं।
मगर स्त्रियां पहले भगाती हैं, फिर इनकी पूजा करती हैं। इस तरह स्त्रियां दोहरे तरह से धर्म को चलाती हैं। यह तथाकथित थोथा धर्म स्त्रियां चलाती हैं। और मंदिर-मस्जिद के सिवाय उनको जाने के लिए कहीं उपाय भी नहीं है। क्लबघर में जा नहीं सकतीं। होटलों में बैठें तो जरा उनकी लज्जा के विपरीत है। फुटबॉल का मैच देखने जाएं तो जरा जंचता नहीं, कुलीनता के लिए योग्य नहीं है। क्या करें? उनके लिए बचने की एक ही जगह है: मंदिर! सत्यनारायण की कथा! और वहां कथा सत्यनारायण की बिलकुल नहीं होती, वहां कथा कुछ और ही चलती है।
सत्यनारायण की कथा हो रही थी, दो सहेलियां आपस में बातें कर रही थीं। उनमें से एक बोली: यह पड़ोसन हर समय अपने पति की बुराई दूसरों से करती रहती है, कितनी बुरी बात है! पति की बुराई कभी नहीं करनी चाहिए। अब मुझे ही देख लो, मेरे पति कितने निखट्टू हैं, परंतु मैं कितनी शांतिपूर्वक निभा रही हूं। कभी किसी से बुराई करती हूं?
मैं एक दफा कृष्ण-जयंती पर बोलने चला गया, बस भूल से चला गया। बहुत आग्रह किया आयोजकों ने तो मैंने कहा कि ठीक है, आ जाता हूं। सिर्फ उनको टालने के लिए कह दिया कि आ जाता हूं। मगर वे भी पीछे पड़े थे, वे आ ही गए। इसके पहले कि मैं भाग खड़ा होता, वे घंटे भर पहले से ही आकर बैठ गए अड्डा जमा कर, तो मुझे जाना पड़ा। और वहां जो मैंने देखा हाल, बिलकुल कृष्ण-जयंती ही मनाई जा रही थी! मेरे पहले जो बोल रहे थे, वे एक बड़े नेता थे, स्पीकर थे मध्यप्रदेश के। स्त्रियों की ही भीड़ थी। कुछ थोड़े पुरुष थे। उस तरह के पुरुष जो धक्कमधुक्की करने आ गए होंगे, क्योंकि ऐसी जगह स्त्रियां इकट्ठी होती हैं, दो धक्का-मुक्का! पुरुष जाते ही धार्मिक स्थलों में इसलिए हैं कि धक्का-मुक्की थोड़ी करने का मौका मिलता है, सुविधा मिलती है। कुछ थोड़े से लफंगे इकट्ठे थे, बाकी स्त्रियों की भीड़ थी। और स्त्रियां क्या गजब का काम कर रही थीं! वक्ता बोल रहा है, वे उसकी तरफ पीठ किए गपशप कर रही हैं--पीठ किए! झुंड बनाए हुए! जगह-जगह अलग-अलग झुंड बने हुए हैं!
मैंने संयोजकों से कहा कि मैं हाथ जोड़ता हूं, मुझे जाने दो। यह मेरे वश के बाहर है मामला। ये राजनेता हैं, ये बोल रहे हैं, इनको कोई फिक्र नहीं। इनको यह भी फिक्र नहीं है कि ये क्या बोल रहे हैं। इनको यह भी फिक्र नहीं है कि कोई सुन रहा है कि नहीं सुन रहा है। इनको इससे फिक्र है कि कल अखबार में फोटो छप जाएगी, बात खत्म हो गई। मगर मैं नहीं बोल सकता हूं। यह मेरे लिए असंभव है। यहां कोई सुनने वाला ही नहीं है।
मंदिरों में स्त्रियां चर्चाएं कर रही हैं--गहनों की, साड़ियों की; अपने पतियों की निंदा कर रही हैं; अपने बच्चों की प्रशंसा कर रही हैं। सबके बेटे कितने तीसमारखां हैं, उस सबका विवरण दे रही हैं।
और सुशीला, तू पूछती है कि पतिव्रता का क्या अर्थ है? और सती सक्कूबाई, सती अनसूया, सती सावित्री जैसी महान पतिव्रता साध्वियों की महिमा का शास्त्रों में बहुत उल्लेख है।
ये पुरुषों ने लिखे हैं शास्त्र। और इन्होंने इस बात का तो बहुत उल्लेख किया कि स्त्रियों को साध्वी होना चाहिए, सती होना चाहिए; पुरुषों की कोई चर्चा नहीं की इन्होंने, कि इनको भी सता होना चाहिए! स्त्रियों को समझाया कि मर जाओ अगर पति मर जाए--यही प्रेम की कसौटी है। मगर किसी पति को नहीं कहा कि तू भी मर जाना अपनी पत्नी के पीछे। एकाध तो सता होता! बस ढांढन सती की झांकी सजाई जा रही है। कोई ढांढू की भी तो सजाई जाती! एकाध भोंदू तो गिर जाता चिता में, भूल-चूक से भी! मगर नहीं, पांच हजार साल के इतिहास में एक भोंदू ने यह काम नहीं किया। गरीब स्त्रियां, इन शास्त्रज्ञों के हाथ में फंस गई हैं। ये पुरुषों के लिखे हुए शास्त्र हैं, ये प्रशंसा क्यों नहीं करेंगे! ये प्रशंसा कर रहे हैं उन स्त्रियों की जो पुरुषों पर मरने को तैयार हैं। और पुरुषों ने इंतजाम किया कि जिंदा हम रहें तो तुम जिंदा रहो; हम मर जाएं तो पुरुषों को शक है कि हमारे मरने के बाद कहीं तुम किसी से विवाह न कर लो। तुम हमारी संपत्ति हो! तुम्हें हमारे साथ ही समाप्त हो जाना चाहिए। संपत्ति को क्या अधिकार है मालिक के मर जाने के बाद जिंदा रहने का?
पति का अर्थ ही मालिक होता है। स्त्री को कहते हैं दासी। और पति? वह मालिक है, स्वामी। राष्ट्रपति शब्द अच्छा नहीं है, बदलना चाहिए। अब समझ लो कि कोई स्त्री राष्ट्रपति हो जाए, उसको क्या राष्ट्रपत्नी कहोगे? बहुत उपद्रव मच जाएगा। यह शब्द ठीक नहीं है। सभापति! तो किसी स्त्री को बिठाओगे तो क्या सभापत्नी कहोगे? नहीं, पत्नी शब्द का उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि पत्नी में वह मालकियत का भाव ही नहीं है। अगर सभापत्नी कहोगे तो वह तो वेश्या हो गई। और सभापति कहो तो चलेगा, क्योंकि पहले ही से पुरुष यह काम करता रहा और स्त्रियों को समझाता रहा कि हम पुरुष हैं, हमें सब तरह की स्वतंत्रता है। तुम्हारा गौरव तो इसी में है--समर्पण। तुम तो डूब मरो। तुम तो जीवन भर भी अपना जलाओ और अगर हम मर जाएं तो हमारे साथ मर जाओ।
पुरुष को हक है कि एक नहीं, कई स्त्रियां रखे। मुसलमान चार स्त्रियां रख सकते हैं। मोहम्मद ने खुद नौ विवाह किए। मगर यह मोहम्मद तो कुछ भी नहीं, कृष्ण ने सोलह हजार स्त्रियां! बेचारे मोहम्मद का कहां हिसाब, कहां किस हिसाब में आते हैं! तुलना कर ही नहीं सकते। सोलह हजार स्त्रियां!
पुरुष जो करे, ठीक! पुरुष की दुनिया है यह। अब तक रही है, आगे नहीं रहनी चाहिए। स्त्री और पुरुष का समान अधिकार है। और दोनों को सब तरह से समानता मिलनी चाहिए। न तो पतिव्रता होने की कोई जरूरत है, न पत्नीव्रता होने की कोई जरूरत है। काफी अनाचार हो चुका इन शब्दों की आड़ में।
प्रेम करो! प्रेम से जीओ! और प्रेम से जो सहज-स्फूर्त हो, वह शुभ है। लेकिन ऊपर से आचरण आरोपित नहीं होना चाहिए। सुशीला, पुरुषों के शास्त्रों से थोड़ा सावधान रहना। स्त्रियों ने कोई शास्त्र नहीं लिखे, लिखने ही नहीं दिए। पढ़ने नहीं दिए तो लिखने तो क्या देंगे! मनाही कर दी स्त्रियों को कि वेद पढ़ने की मनाही है। कुरान पढ़ने की मनाही है। जब पढ़ने ही नहीं देंगे तो लिखने का तो सवाल ही नहीं उठता।
अब ये सब जाल तोड़ो, यह पागलपन छोड़ो। प्रेम जरूर करो, लेकिन प्रेम समानता में मानता है और प्रेम स्वतंत्रता में मानता है। प्रेम गुलामी नहीं है। न तो खुद गुलाम होता है प्रेम, न दूसरे को गुलाम बनाता है। प्रेम खुद भी मुक्त होता है, दूसरे को भी मुक्त करता है। प्रेम तो मुक्तिदायी है। प्रेम तो मोक्ष है।

आज इतना ही।

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