DULANDAS

Prem Rang Ras Audh Chadariya 03

Third Discourse from the series of 10 discourses - Prem Rang Ras Audh Chadariya by Osho. These discourses were given during FEB 01-10 1979, Pune.
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साईं, तेरे कारन नैना भए बैरागी।
तेरा सत दरसन चहौं, कछु और न मांगी।।
निसबासर तेरे नाम की अंतर धुनि जागी।
फेरत हौं माला मनौं, अंसुवनि झरि लागी।।
पलक तजि इत उक्ति तें, मन माया त्यागी।
दृष्टि सदा सत सनमुखी, दरसन अनुरागी।।
मदमाते रातें मनौं दाधें विरह-आगी।
मिलु प्रभु दूलनदास के, करू परमसुभागी।।

धन मोरि आज सुहागिन-घड़िया।
आज मोरे आंगन संत चलि आए, कौन करों मिहमानिया।
निहुरि-निहुरि मैं अंगना बुहारौं, मातौं मैं प्रेम-लहरिया।।
भाव कै भात, प्रेम कै फुलका, ज्ञान की दाल उतरिया।
दूलनदास के साईं जगजीवन, गुरु के चरन बलिहरिया।।

सतनाम तें लागी अंखियां, मन परिगै जिकिर-जंजीर हो।
सखि, नैन बरजे ना रहैं, अब ठिरे जात वोहि तीर हो।
नाम सनेही बावरे, दृग भरि भरि आवत नीर हो।।
रस-मतवाले, रस-मसे, यहि लागी लगन गंभीर हो।
सखि, इस्क पिया के आसिकां, तजि दुनिया दौलत भीर हो।।
सखि, गोपीचंदा, भरथरी, सुलताना भयो फकीर हो।
सखि, दूलन का से कहै, यह अटपटी प्रेम की पीर हो।।
जाल-समेटा करने में भी
समय लगा करता है, मांझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।

सिमट गईं किरणें सूरज की,
सिमटीं पंखुरियां पंकज की,
दिवस चला छिति से मुंह मोड़।

तिमिर उतरता है अंबर से,
एक पुकार उठी है घर से,
खींच रहा कोई बे-डोर।

जो दुनिया जगती, वह सोती,
उस दिन की संध्या भी होती,
जिस दिन का होता है भोर।

नींद अचानक भी आती है,
सुध-बुध सब हर ले जाती है,
गठरी में लगता है चोर।

अभी क्षितिज पर कुछ-कुछ लाली,
जब तक रात न घिरती काली,
उठ अपना सामान बटोर।

जाल-समेटा करने में भी,
वक्त लगा करता है, मांझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
जीवन जिसे हम कहते हैं, व्यर्थ की मछलियों को पकड़ने में ही गंवा दिया जाता है। जाल तो हम फेंकते हैं जरूर, पर हाथ क्या लगता है? जीवन भर की लंबी दौड़ के बाद हम उतने ही भटके हुए होते हैं जितने जन्म के समय थे। मृत्यु हमें इंच भर भी आगे नहीं पाती। मृत्यु हमें वहीं पाती है जहां हम जन्मे थे। ऐसे जीवन एक सपने जैसा बीत जाता है।
सपने की परिभाषा समझ लेना--जो हाथ में मालूम पड़े और वस्तुतः हाथ में न हो, वही सपना है। जो आज तो लगे कि मेरा है और कल मेरा न रह जाए, वही सपना है। जो आज तो लगे कि भरता है हृदय को और कल सब रिक्त छोड़ जाए, वही सपना है।
जाल-समेटा करने में भी
समय लगा करता है, मांझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
समस्त बुद्धपुरुषों ने एक ही पुकार दी है, सतत एक ही पुकार दी है कि जितने जल्दी हो सके इस बात को समझ लो कि जीवन एक अवसर है। इस अवसर में कूड़ा-करकट भी इकट्ठा कर सकते हो, परमात्मा की संपदा भी पा सकते हो। जीवन एक जाल है, अगर मछली फांसनी ही हो तो समाधि की फांसना; उससे कम पर राजी मत होना। उससे जो कम पर राजी हुआ है, नासमझ है। जिसे यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाए कि जो भी मैं कर रहा हूं, करता रहा हूं, व्यर्थ की आपाधापी है--उसके जीवन में संन्यास की किरण उतरती है।
जाल-समेटा करने में भी
समय लगा करता है, मांझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।

सिमट गईं किरणें सूरज की,
सिमटीं पंखुरियां पंकज की,
दिवस चला छिति से मुंह मोड़।
और सुबह हो गई तो सांझ होने में ज्यादा देर नहीं है। सुबह हो गई तो सांझ हो गई। जन्म हुआ तो मौत हो गई। मिलन हुआ तो विछोह की तैयारी हो गई। जो भी बनता है यहां, मिट जाता है।
सिमट गईं किरणें सूरज की,
सिमटीं पंखुरियां पंकज की,
दिवस चला छिति से मुंह मोड़।
जरा जागो! समय बीता चला। कमल की पंखुरियां बंद होने लगीं। सूरज पश्चिम में उतर आया; अब डूबा, तब डूबा। फिर गहन अंधेरी रात है। फिर गर्भ की गहन अंधेरी रात है। और फिर यही जन्म शुरू होगा और फिर यही दौड़। और बहुत बार यह दौड़ हो चुकी। अगर अब भी नहीं जागते तो कब जागोगे? ऐसे भी बहुत देर हो चुकी है।
तिमिर उतरता है अंबर से,
एक पुकार उठी है घर से,
खींच रहा कोई बे-डोर।
जरा गौर तो करो कि तुम्हारा घर कहां है! यहां तुम घर बना रहे हो धर्मशालाओं में? ठहरे हो सरायों में, सुबह होते ही चल पड़ना पड़ेगा। मगर मान लेते हो रात भर को कि अपना घर है। दीवालें सजाते हो, बंदनवार बांधते हो, भुलाते हो अपने को। सपने को सच मान लेने की सारी चेष्टा चल रही है।
इस दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं: एक वे जो सपने को सत्य मानने की चेष्टा में सारा जीवन लगा रहे हैं और एक वे जो सपने को सपने की तरह जानने की चेष्टा में संलग्न हैं। जिसने सपने को सपने की तरह जाना उसे घर की याद आने लगती है--असली घर की याद आने लगती है। जिसने सराय को सराय की तरह पहचाना वह जानता है कि पड़ाव है ठीक, मंजिल नहीं है। सुबह हुई, चल पड़ना होगा। घर की अभी तलाश करनी है।
तिमिर उतरता है अंबर से,
एक पुकार उठी है घर से,
खींच रहा कोई बे-डोर।
और बाहर की व्यर्थता दिखाई पड़ जाए तो भीतर की खींच शुरू होती है। भीतर का आकर्षण जगता है। कोई बेबस, बिना डोर के भीतर खींचने लगता है। उस भीतर खिंचने का नाम ही संन्यास है। बाहर जीने का नाम संसार, भीतर खिंचने का नाम संन्यास। बाहर जीने का नाम स्वप्न, भीतर पहुंच जाने का नाम सत्य। स्वप्न और सत्य के बीच जो यात्रा है उसी का नाम संन्यास है।
जो दुनिया जगती, वह सोती,
उस दिन की संध्या भी होती,
जिस दिन का होता है भोर।
याद करो, याद करो, याद करो! बार-बार याद करो।
जो दुनिया जगती, वह सोती,
उस दिन की संध्या भी होती,
जिस दिन का होता है भोर।

नींद अचानक भी आती है,
सुध-बुध सब हर ले जाती है,
गठरी में लगता है चोर।
गठरी में चोर लगा ही हुआ है। लाख बचाओ, बचा न सकोगे। तुम्हारी गठरी छिनेगी ही। तुमने भी किसी और से छीनी थी, कोई और इसे छीन लेगा। यहां छीना-झपटी ही चल रही है। तुम कुछ लेकर नहीं आए, फिर गठरी के मालिक होकर बैठ गए हो। फिर तुम जाओगे और कोई और गठरी का मालिक होकर बैठ जाएगा। और इस गठरी पर सब गंवा दोगे, जिस गठरी में से एक कौड़ी भी साथ न जा सकेगी?
गठरी में समय का चोर लगा ही हुआ है। तुम लूटे ही जा रहे हो। तुम प्रतिपल लूटे जा रहे हो। जो जरा गौर से देखता है कि किस भांति लूटा जा रहा है उसकी जिंदगी में क्रांति घटनी शुरू हो जाती है।
अभी क्षितिज पर कुछ-कुछ लाली,
जब तक रात न घिरती काली,
उठ अपना सामान बटोर।
जो थोड़े-बहुत दिन बचे हों... और थोड़े-बहुत दिन ही हैं।
एक मित्र ने कल प्रश्न पूछा था कि ‘आप कहते हैं कल का भरोसा नहीं और ज्योतिषशास्त्री तो मुझसे कहते हैं कि सत्तर साल जीऊंगा, तो मैं किसकी मानूं?’
सत्तर साल भी जीओ तो भी क्या फर्क पड़ता है! सात दिन जीए कि सत्तर साल जीए! सात क्षण जीए कि सत्तर साल जीए, क्या फर्क पड़ता है! करोगे क्या? सात दिन में भी कचरा इकट्ठा करोगे, सत्तर साल में थोड़ा ज्यादा इकट्ठा करोगे।
पूछते हो: ‘ज्योतिषियों की मानें कि आपकी?’
मन तो तुम्हारा ज्योतिषियों की मानना चाहता है। मन ही तो ज्योतिषियों के पास ले जाता है। मन सांत्वना चाहता है कि अभी मौत बहुत दूर है, बहुत दूर है। अभी तो जी लें। अभी तो थोड़ा रंग, अभी तो थोड़ा रस, अभी तो थोड़ा नाच लें। अभी तो थोड़े मस्त हो लें। अभी तो थोड़ा भोग लें। अभी तो जिंदगी बहुत दूर है।
ज्योतिषी ने आश्वासन दे दिया कि अभी सत्तर साल जीना है, घबड़ाओ मत। मगर सत्तर साल ऐसे बीत जाएंगे जैसे पानी पर खींची लकीर मिट जाए। कितने-कितने लोग इस पृथ्वी पर रहे हैं! सत्तर साल भी जीए हैं, अस्सी साल भी जीए हैं, सौ साल भी जीए हैं, फिर उनका कोई नाम-निशान नहीं रह गया। और इस अनंत के विस्तार में सत्तर साल की क्या कीमत है? इस अंतहीन समय में सत्तर साल एक छोटा सा कण भी तो नहीं है।
और जब मैं कहता हूं: कल का कोई भरोसा नहीं है तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं... यह नहीं कि कल तुम मर जाओगे यह निश्चित है, मैं तुमसे यही कह रहा हूं कि कल का भरोसा करके आज की जिंदगी को टालना मत। कल जीओ तो ठीक, न जीओ तो ठीक, मगर काम ऐसा पूरा कर लेना आज कि कल अगर न भी जीओ तो पछतावा न हो।
हिरोशिमा में बम गिरा, एक लाख लोग मर गए। क्या तुम सोचते हो इन सबकी ज्योतिष के हिसाब से उम्र एक ही बराबर थी? हवाई जहाज गिरता है उसमें सात सौ लोग मर जाते हैं, क्या तुम सोचते हो इन सबकी हाथ की रेखाएं बराबर हैं, एक जैसी हैं? इन सबकी हाथ की रेखाएं भिन्न-भिन्न हैं, इनकी जन्म कुंडलियां भिन्न-भिन्न हैं। और अगर इन सात सौ लोगों ने तुम्हारे ज्योतिषियों से पूछा होता तो उन सबने यह नहीं कहा होता कि बस, तुम सबका अंत आ गया। ज्योतिषी तो तुम्हें सांत्वना देकर जीता है इसलिए ज्योतिषी तुमसे ऐसी बातें कहता है कि जिनको तुम मानना ही चाहते हो। हां, एकाध-दो ऐसी बातें भी कहता है जिन्हें तुम न मानना चाहो ताकि तुम्हें भरोसा रहे कि सिर्फ तुम्हारी खुशामद नहीं कर रहा है, ज्योतिष असली है। मगर ज्योतिषी बातें क्या करता है? भुलावे की बातें!
ज्योतिषियों की मत सुनो, बुद्धों की सुनो। बुद्ध कुछ और ही कहते हैं। बुद्ध कहते हैं: तुम जिस दिन जन्मे उसी दिन मरना शुरू हो गया। अब देर-अबेर की बात है। आज हुई सांझ कि कल हुई सांझ, क्या फर्क पड़ता है? सांझ होने वाली है। आकाश पर लाली घिरने लगी।
अभी क्षितिज पर कुछ-कुछ लाली,
जब तक रात न घिरती काली,
उठ अपना सामान बटोर।
अभी जरा रोशनी है, आंखें जरा देखती हैं, हाथों में थोड़ा बल है, पैर थोड़े चल सकते हैं, उठ, अपना सामान बटोर। थोड़ी तैयारी कर लो उस अनंत यात्रा की। उस अनंत पथ के लिए थोड़ा पाथेय जुटा लो।
जाल-समेटा करने में भी,
वक्त लगा करता है, मांझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
थोड़ा समय तो लगेगा। ध्यान करोगे, प्रार्थना करोगे, अर्चना-पूजा करोगे, थोड़ा समय तो लगेगा।
वक्त लगा करता है, मांझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
मगर तुमने खूब पसारा किया है। मैं बहुत वर्षों तक जबलपुर में रहा। एक दुकान पर लगा हुआ बोर्ड मुझे हमेशा आकर्षित करता था। फिर एक दिन कोई दुकान पर था नहीं, तो मैं भीतर गया। दुकान पर बोर्ड लगा था: ‘बड़े पसारी।’ दुकान का नाम है: ‘बड़े पसारी।’ कोई भी नहीं था, बूढ़ा बैठा था दुकानदार। बंद होने का समय था, सांझ थी। मैं भीतर गया और मैंने कहा कि पसारा बंद कब करोगे? वह बूढ़ा कुछ चौंका। उसने कहा: मतलब? मैंने कहा: तुम बड़े पसारी हो, छोटे-छोटे पसारी डूबे जा रहे हैं, तुम्हारी हालत बड़ी बुरी होगी। उसने कहा: मैं समझा नहीं, आप क्या बातें कर रहे हैं? क्या खरीदना है आपको? कहा: मैं कुछ खरीदने नहीं आया हूं। मैं तुम्हें यह कहने आया हूं कि पसारा बहुत हो गया, अब सम्हालो, सांझ आ गई। उस आदमी ने जरूर समझा होगा कि मैं पागल हूं। उस दिन से जब भी मैं वहां से निकलता था, वह गौर से देखता था और अपने लोगों को दिखाता था कि यह आदमी जा रहा है।
तुम सभी बड़े पसारी हो। छोटा पसारी तो यहां कोई है ही नहीं। सभी ने बड़े जाल फेंके हैं। और पकड़ोगे क्या? मछलियां! दुर्गंध से भरी मछलियां।
एक सुबह एक मछुए ने जाल फेंका और जीसस ने उसके कंधे पर हाथ रखा और उस मछुए ने लौट कर देखा और जीसस की वे प्यारी आंखें! और जीसस की आंखों से झरता वह अमृत! और वह मछुआ दीवाना हो गया, मदमस्त हो गया। और जीसस ने कहा: कब तक मछलियां पकड़ता रहेगा? फेंक जाल, मेरे साथ आ। मैं तुझे ऐसा जाल दूंगा कि परमात्मा भी पकड़ में आ जाए। क्या मछलियां पकड़ता है!
जाल-समेटा करने में भी,
वक्त लगा करता है, मांझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।
और वह मांझी वहीं जाल छोड़ कर जीसस के पीछे हो लिया। ऐसी हिम्मत जिनकी होती है वे ही लोग सत्य को पा सकते हैं।
आज के सूत्र बड़े प्यारे हैं; बड़े रसभरे, बड़े प्रेम से मदमाते! जब घर की याद आती है किसी को और जब घर की धुन बजने लगती है तो ऐसा ही रस बरसता है, ऐसी ही बरखा होती है।
साईं, तेरे कारन नैना भए बैरागी।
जिसको इस संसार में व्यर्थता दिखाई पड़ी तत्क्षण उसकी आंखों में साईं दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। या तो आंखें बाहर देखती हैं या आंखें भीतर देखती हैं। जब तक बाहर देखती हैं, भीतर अंधेरा होता है। जैसे ही भीतर मुड़ती हैं, बाहर का जगत विलीन हो जाता है। साईं दिखाई पड़ता है, मालिक दिखाई पड़ता है, मालिकों का मालिक!
तुम्हारा स्वभाव, तुम्हारी निजता, तुम्हारे भीतर का जला हुआ दीया!
साईं, तेरे कारन नैना भए बैरागी।
और एक बार उसकी झलक मिल जाए तो आंखें उसके विराग से भर जाती हैं, उसके प्रेम से भर जाती हैं, उसके विरह से भर जाती हैं। फिर खिंचाव शुरू होता है। फिर एक अंतर-दौड़ शुरू होती है कि और, और! और डूबें, और डूबें। जब तक बिलकुल न डूब जाएं तब तक फिर चैन नहीं मिलता। एक आग की लपट जलती है मगर लपट बड़ी प्यारी, और आग बड़ी शीतल!
मैं हूं केवल याद तुम्हारी
बुझे दीप के धुएं सरीखी ऊपर उठती याद तुम्हारी
मिले न ऐसी मौत किसी को, कहीं न ऐसा छाए गम
बूंद-बूंद मर गई स्नेह की, टूटा किरण-किरण का दम
बची धुंएली ऐंठन तम की, राख मिलन की है केवल
डूब गए सब मन के जुगनू, है जीवन-व्यापी काजल
बीच नदी में समा गई सुख की डोली दुर्दिन की मारी
मैं हूं केवल याद तुम्हारी

बीत रही है जीवन-रजनी, खड़ा मरण-सूरज सिरहाने
एक-एक करके सब मेरे सपने भी हो गए बिराने
यह भी मुमकिन है मिट जाए तुम्हारी याद, न मैं मिट पाऊं
प्रतिपल क्षीण हो रहीं बीते दिवसों की रेखाएं सारी
मैं हूं केवल याद तुम्हारी

बड़ी विषैली प्यास मुझे है, लगता तुमको कभी न ध्याऊं
सुधि के कोहरे की फैली इन सब चट्टानों को पी जाऊं
घन-व्यापी, सागर-गर्जित जीवन का सूनापन पी डालूं,
पीऊं सृष्टि के सभी स्वरों को, सारा शुष्क पवन पी डालूं
अंतर के नैकट्य देवता! मैं हूं अपनी ही लाचारी।
मैं हूं केवल याद तुम्हारी
आंख जरा भीतर मुड़े कि यह बात पल-प्रतिपल झनझनाने लगती है--
मैं हूं केवल याद तुम्हारी
अंतर के नैकट्य देवता! मैं हूं अपनी ही लाचारी।
मैं हूं केवल याद तुम्हारी
आंखें उस प्यारे को एक बार देख लें--जरा सी झलक! जैसे बिजली कौंध जाए अंधेरे में ऐसी; कि हवा का एक झोंका आ जाए और ताजगी से भर जाए; कि फूलों की गंध तैरती आए और तुम्हारे नासापुटों को आनंदित कर दे। बस जरा सी एक झलक, कि क्रांति की घड़ी आ गई। कि अब तुम बाहर के रस में कभी भी न उलझ सकोगे। अब बाहर सब विरस हो जाएगा। अब बाहर सब व्यर्थ हो जाएगा, असार हो जाएगा।
साईं तेरे कारन नैना भए बैरागी।
तेरा सत दरसन चहौं, कछु और न मांगी।।
फिर कुछ नहीं मांगता भक्त। फिर कुछ नहीं मांगता प्रेमी।
तेरा सत दरसन चहौं,...
बस एक तेरा दर्शन हो जाए।
...कछु और न मांगी।
जब तक तुम कुछ और मांगते हो, जानना कि तुम्हारे जीवन का अभी धर्म से संस्पर्श नहीं हुआ। गए मंदिर में और कुछ मांगने लगे--धन, पद, प्रतिष्ठा, तो तुमने परमात्मा का बहुत अपमान किया। परमात्मा के सामने और धन मांगा, तो अर्थ समझे? अर्थ हुआ कि धन परमात्मा से बड़ा है। परमात्मा को साधन बना रहे हो, धन मांगने में? पद मांगा, प्रतिष्ठा मांगी, बेटा मांगा, बेटी मांगी, नौकरी मांगी, यश मांगा, तुमने परमात्मा का बड़ा अपमान किया।
तुम्हारी प्रार्थनाएं परमात्मा के अपमान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। इसलिए तुम्हारी प्रार्थनाएं न तो सुनी जातीं, न कभी पूरी होतीं। तुम्हारी प्रार्थनाओं में पंख ही नहीं हैं। तुम्हारी प्रार्थनाएं यहीं तड़फड़ा कर जमीन पर गिरती हैं, कीड़े-मकोड़ों की तरह मर जाती हैं। आकाश में उड़ने की उनकी क्षमता नहीं है। आकाश में तो वे प्रार्थनाएं उड़ती हैं जिनमें सिर्फ एक ही मांग होती है, बस एक ही मांग होती है: परमात्मा की, और कुछ भी नहीं--न पद, न धन, न प्रतिष्ठा। सब खो जाए--पद भी, धन भी, प्रतिष्ठा भी, और परमात्मा से मिलन हो जाए। जिस दिन कोई सिर्फ परमात्मा को मांगता है, निपट परमात्मा को मांगता है, उसी क्षण प्रार्थना पूरी हो जाती है। और जिसने परमात्मा को पा लिया उसे सब अपने आप मिल जाता है।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है: सीक यी फर्स्ट दि किंगडम ऑफ गॉड, एंड ऑल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू। पहले तुम प्रभु के राज्य को खोज लो और फिर शेष सब अपने से मिल जाएगा। मगर खयाल रखना, मन की चालबाजी से सावधान रहना। कहीं इसलिए परमात्मा को मत मांगना ताकि शेष सब मिल जाए; नहीं तो चूक गए। अगर शेष सब मिल जाए इसलिए परमात्मा को मांगा तो परमात्मा को फिर भी नहीं मांगा। फिर भी मन धोखा दे गया। फिर तुम आत्मवंचना में पड़ गए।
तेरा सत दरसन चहौं, कछु और न मांगी।
निसबासर तेरे नाम की अंतर धुनि जागी।
जब तुम्हारी श्वास-श्वास में, धड़कन-धड़कन में, रोएं-रोएं में एक ही रोमांच होता है, एक ही भाव सतत झरता है, तुम्हारे उठने-बैठने में बस एक ही हूक उठती है कि परमात्मा से कैसे मिलन हो! नहीं कि शब्द ऐसे बनते हैं, नहीं कि तुम बार-बार कहते हो कि परमात्मा से कैसे मिलन हो! कहने की जरूरत नहीं होती। जहां भाव है वहां शब्द व्यर्थ हैं, भाव काफी है। तुम भाव से भरे होते हो, लबालब होते हो। भाव बहता है। भाव तुम्हारे पोर-पोर में समाया होता है, रोएं-रोएं में झलकता होता है। तुम्हारी आंखों में उसकी लहरें होती हैं, तुम्हारे हाथों में उसकी तरंग होती है, तुम्हारी वाणी में, तुम्हारे मौन में, सबमें उसकी झलक होती है, उसका रंग होता है।
निसबासर तेरे नाम की अंतर धुनि जागी।
और ऐसे राम-राम जपने से कुछ भी नहीं होता, कि घड़ी भर बैठ गए, माला हाथ में ले ली, राम-राम जप लिया। जब तक प्रभु-स्मरण, उसकी सुरति सोते-जागते तुम्हारा अंतर्भाव न बन जाए, अंतर्धारा न बन जाए तब तक कुछ भी न होगा। इससे कम से कुछ भी न होगा।
मौलसिरी फूली, पर आंगन के पार
गंध भर मिलेगी पर
मिलेंगे न फूल
रीता रह जाएगा
कुंआरा दुकूल
उमड़े हैं आंसू, पर अंजन के पार

निर्वसना इच्छाएं
मोह का कदंब
चिटख गया आईना
बिखर गए बिंब
एक रूप उभरा, पर दर्शन के पार

भांवरें न गठबंधन
पढ़े नहीं श्लोक
संबंधों का फिर भी
खिल गया अशोक
प्राण हुए बंदी, पर बंधन के पार
एक ऐसी भांवर भी पड़ती है कि भांवर पड़ती ही नहीं और भांवर पड़ जाती है। एक ऐसा भी प्रीति का बंधन है जिसे बंधन नहीं कहा जा सकता, जो मुक्ति है।
भांवरें न गठबंधन
पढ़े नहीं श्लोक
संबंधों का फिर भी
खिल गया अशोक
प्राण हुए बंदी पर बंधन के पार
एक श्लोक भी नहीं दोहराना पड़ता। न गीता, न कुरान, न वेद, न उपनिषद, न धम्मपद, एक श्लोक भी नहीं दोहराना पड़ता। प्रेमी के भीतर तो सतत धुन बजती है, इकतारा बजता है। सोते में भी बजता है। जागते में भी बजता है। उसे तो एक ही याद रमी रहती है।
भांवरें न गठबंधन
पढ़े नहीं श्लोक
संबंधों का फिर भी
खिल गया अशोक
प्राण हुए बंदी पर बंधन के पार
यह प्रभु के प्रेम का बंधन ऐसा है कि इससे बड़ी कोई मुक्ति नहीं है। यह बांधता नहीं, मुक्त करता है। प्रेम वही सत्य है जो बांधता नहीं, मुक्त करता है। प्रेम वही प्रेम है जिसमें छिपी आती है मुक्ति, अनंत मुक्ति। प्रेम जो मोक्ष न बन जाए, जानना कुछ और है, प्रेम नहीं। जिसे हम प्रेम जानते हैं वह तो बुरी तरह बांध लेता है, जकड़ लेता है। जंजीरें ही जंजीरें फैल जाती हैं। हाथ-पैर सब बंध जाते हैं।
इस प्रेम के कारण तुम यह मत समझ लेना कि प्रेम गलत है--जैसा कि बहुत लोगों ने समझ लिया है। सदियों-सदियों से तुम्हारे तथाकथित साधु-संत यही समझा रहे हैं कि प्रेम पाप है, प्रेम मोह है, प्रेम बंधन है। उन्होंने असली प्रेम नहीं जाना। उन्होंने प्रेम के नाम से कुछ और जाना। उन्होंने परमात्मा का प्रेम नहीं जाना, नहीं तो वे ऐसी बातें न कह पाते। ऐसी बातें कैसे कह पाते? प्रेम और बंधन? प्रेम और आसक्ति? प्रेम में आसक्ति की छाया भी नहीं पड़ती। प्रेम के प्रकाश में बंधन के अंधकार के आने का उपाय नहीं है। जहां प्रेम है वहां परम मुक्ति है।
प्रेम मुक्ति देता है लेकिन तब प्रेम की कला सीखनी होगी; तब प्रेम को ऊंचाइयों पर ले चलना होगा; तब प्रेम को जमीन की क्षुद्रताओं से मुक्त करना होगा; तब प्रेम को पंख देने होंगे, आकाश देना होगा; तब प्रेम को प्रार्थना बनाना होगा। जब प्रेम प्रार्थना बनता है तब मुक्तिदायी है। और अगर प्रेम प्रार्थना न बने तो प्रेम वासना बनता है; और तब प्रेम बहुत बंधनकारी है।
प्रेम की दो संभावनाएं हैं: गिरे तो वासना, उठे तो प्रार्थना, गिरे तो नरक, उठे तो स्वर्ग; गिरे तो जहर और उठे तो अमृत। जिन साधु-संतों ने प्रेम को गालियां दी हैं उन्होंने सिर्फ प्रेम के गिरे हुए रूप को जाना है। और ध्यान रखना, गिरे हुए रूप को देख कर निर्णय नहीं लेने चाहिए। कीचड़ को देख कर कमल के संबंध में निर्णय मत लेना। हां, अगर चाहो निर्णय लेना तो कमल को देख कर कीचड़ के संबंध में निर्णय लेना। वही मेरी प्रक्रिया है, वही मेरे देखने का ढंग, मेरी दृष्टि, मेरा दर्शन।
मैं कमल की निंदा नहीं करता, क्योंकि कमल कीचड़ से पैदा होता है। मैं कीचड़ की प्रशंसा करता हूं, क्योंकि कमल कीचड़ से पैदा होता है। श्रेष्ठ से निकृष्ट को समझने की कोशिश करना तो तुम्हारे जीवन में बड़ी सुगमता हो जाएगी। निकृष्ट से श्रेष्ठ को समझने की कोशिश मत करना अन्यथा तुम्हारे जीवन का सारा अर्थ खो जाएगा, तुम्हारे जीवन में सारा काव्य नष्ट हो जाएगा, तुम्हारे जीवन में फिर गणित ही गणित रह जाएगा, तुम्हारे जीवन में फिर कोई संगीत नहीं बज सकता। वीणा और वीणा के तारों से वीणा में उठे संगीत को मत समझाने की कोशिश करना। हां, वीणा में उठे संगीत से वीणा को समझाने की कोशिश करो तो ठीक।
मैं इस संसार की निंदा नहीं करता, क्योंकि इसी संसार में परमात्मा जाना गया है। इसी संसार में बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, कैसे निंदा करें इस संसार की? इसी संसार में दूलनदास ने उस परम प्यारे को जाना। कैसे निंदा करें इस संसार की? इसी संसार में मोक्ष को अनुभव करने वाले लोग हुए। इसी अंधकार में सूर्यों के सूर्य लोगों के भीतर उगे, कैसे निंदा करें इस संसार की? यह संसार अवसर है; मगर ये दो संभावनाएं हैं।
अगर तुम वैज्ञानिक से पूछो तो वह कहता है: चेतना कुछ भी नहीं है, बस मिट्टी की एक उप-उत्पत्ति, बाई-प्रॉडक्ट। और अगर तुम रहस्यवादी से पूछो तो वह कहेगा: मिट्टी कुछ भी नहीं है, बस चेतना का एक प्रच्छन्न रूप। और दोनों में बड़ा फर्क हो गया। बड़ा फर्क हो गया! वही शब्द दोनों ने उपयोग किए, जरा इधर-उधर रखे, मगर बड़ा फर्क हो गया।
ऐसा हुआ कि एक यहूदी आश्रम में दो युवक बगीचे में घूमते थे। दोनों को ही धूम्रपान की आदत थी। आश्रम के भीतर तो धूम्रपान करना संभव नहीं था लेकिन बगीचे में सुबह और सांझ एक-एक घंटा घूमने के लिए मिलता था। वह भी घूमने को नहीं मिलता था, वह भी घूम कर ध्यान करने को मिलता था। वही एक उपाय था जिस समय गुरु नजर की ओट होते थे और कोई देखने वाला भी नहीं होता था। उन दोनों ने सोचा कि हम धूम्रपान यहीं कर लिया करें लेकिन उचित यह होगा कि गुरु से पूछ लें।
दूसरे दिन जब वे दोनों मिले तो एक ने कहा कि मैंने गुरु से पूछा लेकिन वे बहुत नाराज हो गए। इतने नाराज हो गए कि मुझे लगा कि कहीं मुझे मारेंगे-ठोकेंगे तो नहीं! उन्होंने डंडा उठा लिया और कहा कि बदतमीज, कमबख्त! तुझे ऐसी बात पूछते शर्म नहीं आती? दूसरे ने कहा: लेकिन यह बड़ी हैरानी की बात है क्योंकि मुझे तो उन्होंने सिगरेट पीने की आज्ञा दे दी। दूसरे ने पूछा: मैं यह जानना चाहता हूं तूने गुरु से पूछा कैसे था? तेरे शब्द क्या थे? उसने कहा कि सीधी-सीधी बात थी। मैंने उनसे पूछा कि क्या मैं ध्यान करते समय सिगरेट पी सकता हूं? उन्होंने एकदम डंडा उठा लिया। उन्होंने कहा: ध्यान करते समय और सिगरेट पीने की बात? बदतमीज, कमबख्त, तुझे अक्ल भी है? ध्यान और सिगरेट! दूसरा युवक हंसने लगा। उसने कहा: बात साफ हो गई। मैंने उनसे पूछा था कि क्या मैं सिगरेट पीते हुए ध्यान कर सकता हूं? उन्होंने कहा: जरूर!
सिगरेट पीते हुए ध्यान करने की कोई पूछे तो कैसे मना करोगे? चलो इतना ही क्या कम है! सिगरेट तो पी ही रहा है, ध्यान कर रहा है। और ध्यान करता रहा तो शायद एक दिन सिगरेट भी छूट जाए। लेकिन जो पूछे कि क्या मैं ध्यान करते समय सिगरेट पी सकता हूं, तो बात उलटी हो गई।
तुम्हारे साधु-संतों ने जीवन को बड़ा उलटा देखा है। शायद शीर्षासन करने की आदत के कारण ऐसा हुआ हो! सिर के बल खड़े होकर देखोगे, संसार उल्टा दिखाई पड़ेगा।
कृष्णचंद्र की प्रसिद्ध कहानी है कि जब पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे तो एक गधा उनसे मिलने गया। गधा कोई साधारण गधा नहीं था, पढ़ा-लिखा गधा था। पहरेदार द्वार पर खड़ा था लेकिन झपकी खा रहा था, जैसे कि पहरेदार झपकी खाते हैं। और कोई आदमी होता तो शायद वह रोकता भी, अब गधा भीतर जा रहा था तो उसने कहा जाने भी दो। गधे से क्या बनने-बिगड़ने वाला है! कोई गधा बम तो नहीं ले जाएगा, कोई छुरी-बंदूक तो नहीं ले जाएगा। कोई कम्युनिस्ट तो हो नहीं सकता गधा। कोई षडयंत्रकारी तो है नहीं, जाने भी दो!
गधा भीतर पहुंच गया। सुबह-सुबह का वक्त! जवाहरलाल नेहरू, जैसा कि शीर्षासन करने की उनकी आदत थी, बगीचे में शीर्षासन कर रहे हैं। गधा जाकर पास खड़ा हो गया। उन्होंने देखा गधे को कि गधा उलटा खड़ा है। उन्होंने कहा: भाई गधे! गधे मैंने बहुत देखे, मगर तू उलटा क्यों खड़ा है? गधा खिलखिला कर हंसने लगा, उसने कहा: क्षमा करें पंडित जी, मैं उलटा नहीं खड़ा हूं, आप शीर्षासन कर रहे हैं। गधे को बोलता देख कर तो जवाहरलाल नेहरू उचक कर खड़े हो गए। गधे ने कहा: क्षमा करिए, नाराज मत हो जाइए। मुझमें और कोई विशेषता नहीं है, अखबार पढ़ते-पढ़ते धीरे-धीरे मैं बोलना सीख गया हूं। तब तक जवाहरलाल ने अपने को सम्हाल लिया था। उन्होंने कहा: कोई फिकर मत कर, तू चिंता भी मत कर। तू कोई पहला गधा नहीं है जो बोलता है। मेरे पास कई बोलते हुए गधे रोज आते हैं। सच तो यह है कि गधों के सिवाय मुझसे मिलने कोई आता ही नहीं। मगर जवाहरलाल नेहरू का उलटा खड़ा होना एक क्षण को धोखा दे गया कि गधा उलटा है।
साधु-संन्यासियों ने तुम्हारे जीवन को बड़े उलटे ढंग से देखा है। जीवन को प्रेम से नहीं देखा, घृणा से देखा है। घृणा शीर्षासन है। जीवन को अहोभाव से नहीं देखा, निंदा से देखा है। निंदा शीर्षासन है। जीवन के फूल नहीं गिने, कांटे गिने हैं और वहीं चूक हो गई। और उस चूक का परिणाम भयंकर हुआ है। सारी पृथ्वी अगर अधार्मिक हो गई है तो नास्तिकों के कारण नहीं, तुम्हारे गलत साधु-संतों के कारण। उनके देखने की गलत प्रक्रिया सारी मनुष्य-जाति को धर्म से वंचित कर गई है।
कीचड़ की निंदा मत करो क्योंकि कीचड़ में कमल छिपे हैं। कमल की प्रशंसा करो और चूंकि कमल कीचड़ से प्रकट होता है इसलिए कीचड़ की भी प्रशंसा करो। और तब तुम्हारे जीवन में एक अहोभाव उठेगा, एक कृतज्ञता उठेगी। और तब तुम पाओगे, हर तरफ परमात्मा की छवि है। तब तुम्हें संत में ही नहीं असंत में भी वही दिखाई पड़ेगा।
निसबासर तेरे नाम की अंतर धुनि जागी।
और तब यह संभव होगा कि निसबासर--दिन-रात! उठो-बैठो, आंख खोलो, बंद करो; आंख खोलो तो वही बाहर, आंख खोलो तो वही भीतर। हाथ फैलाओ तो वही छूने में आए, सुनो तो वही, गुनो तो वही, चखो तो वही, पीयो तो वही। उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। परमात्मा अस्तित्व का दूसरा नाम है। प्यारा नाम है, प्रेमियों का दिया हुआ नाम है। अस्तित्व तटस्थ नाम है; दार्शनिकों का दिया हुआ। परमात्मा प्रेमियों का दिया हुआ नाम है--साईं, स्वामी, मालिक।
फेरत हौं माला मनौं, अंसुवनि झरि लागी।
कहते हैं दूलनदास कि अब तो मन के भीतर माला फिर रही है। बाहर की माला तो कब की छूट गई। बाहर की माला तो औपचारिक थी, गिर गई। क्रियाकांड था, भटक गई, भूल गई।
फेरत हौं माला मनौं,...
अब तो भीतर की माला फिर रही है, मन की माला फिर रही है, मन के मनके फिर रहे हैं।
...अंसुवनि झरि लागी।
और एक ही प्रार्थना जानता हूं अब कि आंसुओं की झरी लगी है। मीरा ने कहा न! ‘अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम-बेलि बोई।’ यह जो प्रेम की बेलि है यह केवल आंसुओं के सींचने से ही बोई जाती है। कोई और पानी काम न करेगा। प्रेम की बेल तो सिर्फ आंसुओं को ही मानती है, आंसुओं से ही परिपुष्ट होती है।
फेरत हौं माला मनौं, अंसुवनि झरि लागी।
पलक तजि इत उक्ति तें, मन माया त्यागी।
और कहते हैं: एक जादू होते मैंने देखा। पलक के फेरते मन से और माया से छुटकारा हो गया। पलक के फेरते, भीतर देखते! बस पलक का फर्क है संसार में और परमात्मा में। यह आंख खुली तो तुम्हें संसार दिखाई पड़ रहा है। यह आंख बंद हुई कि परमात्मा दिखाई पड़ा। बस, पलक झपी!
पलक तजि इत उक्ति तें,...
एक छोटी सी युक्ति आंख बंद करने की। आंख बंद करके देखने की कला।
...मन माया त्यागी।
और सब छूट गया, जिसे छोड़ने के लिए बहुत-बहुत चेष्टाएं की थीं और न छूटा था; छोड़ना चाह कर न छूटा था, छूट गया।
दृष्टि सदा सत सनमुखी, दरसन अनुरागी।
और अब तो सत्य की तरफ दृष्टि लगी है, अब हटाना भी चाहूं तो दृष्टि हटती नहीं। ‘दरसन अनुरागी।’ अब तो बस एक प्रेम का झरना बह रहा है, एक अनुराग जन्मा है।
मदमाते रातें मनौं दाधें विरह-आगी।
अब तो ऐसी मस्ती छाई है--‘मदमाते रातें मनौं।’ नाच रहा हूं मस्ती में। और मस्ती भी बड़ी अनूठी है। एक तरफ मस्ती का झरना बह रहा है और दूसरी तरफ हृदय में विरह की अग्नि जगी है। जैसे-जैसे मिलन करीब आता है वैसे-वैसे विरह की अग्नि प्रज्ज्वलित होती है। लेकिन याद रखना, यह विरह की अग्नि सिर्फ जलाती नहीं, निखारती भी है। यह तुम्हें कुंदन बनाती है, शुद्ध स्वर्ण बनाती है। यह शत्रु नहीं है, मित्र है।
नहीं--
मैं यह आश्वासन नहीं दे सकूंगा
कि जब इस आग-अंगार
लपटों की ललकार,
उत्तप्त बयार,
क्षार-धूम्र की फूत्कार
को पार कर जाओगे
तो निर्मल, शीतल जल का सरोवर पाओगे,
नहीं--
मैं यह आश्वासन नहीं दे सकूंगा
कि जब इस आग-अंगार
लपटों की ललकार,
उत्तप्त बयार,
क्षार धूम्र की फूत्कार
को पार कर जाओगे
तो निर्मल, शीतल जल का सरोवर पाओगे,
जिसमें पैठ नहाओगे,
रोम-रोम जुड़ाओगे,
अपनी प्यास बुझाओगे।
नहीं--
इस आग-अंगार के पार भी
आग होगी, अंगार होंगे,
और उनके पार फिर आग-अंगार,
फिर आग-अंगार,
फिर आग
फिर और...
तो क्या छोर तक तपना-जलना ही होगा?
नहीं--
इस आग से त्राण तब पाओगे
जब तुम स्वयं आग बन जाओगे!
प्यास मिटती है मगर तब, जब तुम सिर्फ प्यास ही प्यास रह जाते हो। आग फूल बन जाती है लेकिन तब, जब तुम आग ही आग रह जाते हो।
नहीं--
मैं यह आश्वासन नहीं दे सकूंगा
कि जब इस आग-अंगार
लपटों की ललकार,
उत्तप्त बयार,
क्षार-धूम्र की फूत्कार
को पार कर जाओगे
तो निर्मल, शीतल जल का सरोवर पाओगे,
जिसमें पैठ नहाओगे,
रोम-रोम जुड़ाओगे,
अपनी प्यास बुझाओगे।
नहीं--
इस आग-अंगार के पार भी
आग होगी, अंगार होंगे,
और उनके पार फिर आग-अंगार,
फिर आग-अंगार,
फिर और...
तो क्या छोर तक तपना-जलना ही होगा?
नहीं--
इस आग से त्राण तब पाओगे
जब तुम स्वयं आग बन जाओगे!
ऐसी घड़ी आती है। ऐसी सौभाग्य की घड़ी आती है। ऐसी सुहाग की घड़ी आती है।
मदमाते रातें मनौं, दाधें विरह-आगी।
ऐसी जलाती है विरह की अग्नि। मगर एक बड़ा विरोधाभास है। एक तरफ विरह की अग्नि जलाती है और दूसरी तरफ मिलन की झनकार रोज-रोज पास आने लगती है। इधर लपटें बढ़ती हैं, उधर परमात्मा की झलक स्पष्ट होने लगती है। यहां कांटे चुभते हैं वहां फूल खिलने लगते हैं। यह साथ-साथ घटता है। इसलिए जो विरह से बचेगा वह मिलन से बच जाएगा। और जिसे मिलन की अभीप्सा हो उसे विरह की अग्नि में जलना ही होगा। जलना ही होगा, समग्रता से जलना होगा, राख-राख हो जाना होगा। उस महामृत्यु में से ही परम जीवन का आविर्भाव होता है।
मिलु प्रभु दूलनदास के, करू परम सुभागी।
दूलनदास कहते हैं: आग बढ़ती जाती है। मिलन का मस्त भाव भी बढ़ता जाता है। अब घड़ी सौभाग्य की करीब आती है ऐसा मालूम होता है।
मिलु प्रभु दूलनदास के,...
अब बस मिले, अब मिले! अब दूरी ज्यादा नहीं मालूम होती। घर आ गया, द्वार दिखाई पड़ने लगा।
...करू परम सुभागी।
अब मिल जाओ और मेरे परम सौभाग्य बन जाओ!
धन मोरि आज सुहागिन-घड़िया।
तुम्हारे द्वार पर आकर आज जाना है कि जीवन की धन्यता क्या है!
धन मोरि आज सुहागिन-घड़िया।
आज मैं सुहाग से भरी। आज मैं परिणीता हुई। आज मेरी भांवर पड़ी।
आज मोरे आंगन संत चलि आए,..
और जैसे-जैसे तुम्हारी आग सघन होती है वैसे-वैसे तुम्हें परमात्मा के पास नहीं जाना पड़ता, परमात्मा ही तुम्हारे पास चला आता है। तुम जलो! तुम बेशर्त जलो और देखो तुम्हारे आंगन में उतर आएगा। तुम जलोगे तो पात्र हो जाओगे।
धन मोरि आज सुहागिन-घड़िया।
आज मोरे आंगन संत चलि आए, कौन करों मिहमानिया।
दूलनदास कहते हैं: कैसे आतिथ्य करूं? क्या है मेरे पास जो तुम्हें भेंट दूं? क्या तुम्हारे चरणों में चढ़ाऊं? मेरी सामर्थ्य क्या! मेरी योग्यता क्या! मेरी गुणवत्ता क्या! सब दिया तुम्हारा है, इसको तुम्हीं को भेंट किस मुंह से दूं?
यह सत्य खयाल में लेना। अंतिम घड़ी में भक्त परमात्मा के पास नहीं जाता। भक्त तो अपनी जगह ही बैठा-बैठा राख हो जाता है। परमात्मा ही आता है। सदा परमात्मा ही आया है। भक्त तो अपनी जगह बैठा-बैठा राख हो गया है, मिट गया है।
मैं जब जब होती हूं उन्मन,
विरह-व्याकुल होता तन-मन,
तब तब प्रिय! तुम आ जाते हो
मृदु मादक प्यार लुटाते हो।

जब सूनापन घहराता है
जगती के कोलाहल से तब
मन दूर कहीं भटकाता है
तब उस सन्नाटे में मानो तुम चुपके से आ जाते हो
मौन पड़ी मन-वीणा को फिर से झंकृत कर जाते हो।

जब निलांबर श्यामल होता
गर्जन-तर्जन के तांडव में
आशा-सूरज भी खो जाता
तब सहसा अरुणाचल से तुम, सूरज बन कर मुस्काते हो
बाहों के घेरे में लेकर उजियाले में ले आते हो।

जब कभी निशा की नीरवता
में सहम अकेला मन मेरा
आकुल-सा टेर तुम्हें देता
तब ओ मेरे मनमीत! कहां से तुम उस पल आ जाते हो
इन प्यासे प्राणों को अपने प्राणों के संग लिपटाते हो।

मैं तुमसे कोसों दूर भले
तुम मेरे पास रहे हर पल
ज्यूं बाती में हो ज्योति और
हृदय में बसती हो धड़कन।
तुम भी कहते--हम दूर कहां? ये ओंठ मेरे दोहराते हैं,
इस जन्म विरह की बात न कर, ये जन्म-जन्म के नाते हैं।
परमात्मा से हम कभी टूटे नहीं हैं। वह हमारे आंगन में नाच ही रहा है। हम आंख बंद कर बैठे हैं। और यह नाता कोई नया नहीं है।
तुम भी कहते--हम दूर कहां? ये ओंठ मेरे दोहराते हैं,
इस जन्म विरह की बात न कर, ये जन्म-जन्म के नाते हैं।
उसी की तलाश चल रही है; उसी की जिसे हमने कभी खोया नहीं है। उसी को खोजते फिर रहे हैं जो हमारे भीतर विराजमान है, जो हमारे सिंहासन पर बैठा है। उसी को खोजते मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, गिरजों में, जिसे तुमने एक क्षण को भी खोया नहीं है। और चूंकि तुम बाहर खोजते इसलिए खोज नहीं पाते। वह भीतर है; पहले भीतर है। और पहले भीतर उसका अनुभव हो जाए तो फिर बाहर भी उसका अनुभव होना शुरू हो जाता है। आता है परमात्मा।
आज मोरे आंगन संत चलि आए, कौन करों मिहमानिया।
कैसे स्वागत करें? भक्त को कुछ सूझता नहीं। हठात, अवाक भक्त रह जाता है। दूलनदास जैसा ज्ञानी भी कैसी बातें करता है सुनो!
निहुरि-निहुरि मैं अंगना बुहारौं,...
अब और क्या करूं! झुक-झुक कर आंगन को बुहारती हूं।
निहुरि-निहुरि मैं अंगना बुहारौं, मातौं मैं प्रेम-लहरिया।
और मतवाली हो रही हूं, प्रेम की लहरें उठ रही हैं। मैं होश में नहीं हूं। कुछ भूल-चूक हो जाए तो क्षमा कर देना। आतिथ्य में कोई कमी रह जाए तो खयाल न करना।
निहुरि-निहुरि मैं अंगना बुहारौं, मातौं मैं प्रेम लहरिया।
भाव कै भात,...
अब भाव के ही चावल पकाऊं।
...प्रेम कै फुलका,...
प्रेम की रोटी पकाऊं।
...ज्ञान की दाल उतरिया।
सुनते हो? दूलनदास जैसा ज्ञानी ऐसी बच्चों जैसी बातें कर रहा है। मगर प्रेम की घड़ी ऐसी ही घड़ी है। प्यार की घड़ी ऐसी ही घड़ी है। सारा ज्ञान भूल गया। सारा ध्यान भूल गया।
निहुरि-निहुरि मैं अंगना बुहारौं, मातौं मैं प्रेम-लहरिया।
भाव कै भात, प्रेम कै फुलका, ज्ञान की दाल उतरिया।
दूलनदास के साईं जगजीवन, गुरु के चरन बलिहरिया।।
लेकिन एक बात भक्त को कभी नहीं भूलती, कभी नहीं भूलती। परमात्मा भी द्वार पर खड़ा हो जाता है तो भी वह गुरु को धन्यवाद देना नहीं भूलता। वह बात भूलती ही नहीं।
कबीर कहते हैं: ‘गुरु गोविंद दोई खड़े, काके लागूं पांव।’ आखिरी घड़ी में भी जब गुरु और गोविंद दोनों सामने खड़े होते हैं तो कबीर को झिझक होती है किसके पैर पहले पडूं? पड़ने तो परमात्मा के ही चाहिए लेकिन परमात्मा का तो पता भी नहीं हो सकता था गुरु के बिना। इसलिए पहले गुरु के ही पड़ना चाहिए। लेकिन परमात्मा की मौजूदगी में और गुरु के पहले पैर पड़ना--शोभन होगा क्या? कबीर की दुविधा सभी संतों की दुविधा है। काके लागूं पांव, गुरु गोविंद दोई खड़े। और बड़ी प्रीतिकर बात पर यह पद पूरा हुआ है: ‘बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताए।’ कबीर को झिझकता देख कर गुरु ने कहा: पड़! परमात्मा के पैर पड़।
वही सदगुरु है जो आखिरी क्षण में अपने को हटा ले; जो बीच से हट जाए। वह झीना सा पर्दा भी न रह जाए। उतना घूंघट भी न रह जाए।
दूलनदास के साईं जगजीवन, गुरु के चरन बलिहरिया।
वे कहते हैं: आज तुम मेरे द्वार आए हो और तब मुझे याद आती है गुरु की, जगजीवन की। आज मैं उनके चरणों पर बलिहार जा रहा हूं। कितने उन पर संदेह किए थे! कितने-कितने प्रश्न उठाए थे, कितनी-कितनी झिझकें थीं! कितना हिचका था! कैसे मुश्किल-मुश्किल से चला था! कैसे मुश्किल-मुश्किल से उन्होंने चलाया था! कैसे समझाया, कैसे बुझाया, कैसे रिझाया! मैं तो भागा-भागा था, वे पकड़-पकड़ ले आए थे। मेरी चलती तो मैं कभी का तुमसे दूर निकल गया होता। उन्होंने मेरी नहीं चलने दी, नहीं चलने दी। उन्होंने ऐसे प्रेम के जाल में मुझे बांधा कि छूट न पाया। उन्हीं का प्रेम तुम तक मुझे ले आया। आज इस परम सौभाग्य की घड़ी में उनके चरणों पर बलिहारी जाता हूं।
सतनाम तें लागी अंखियां, मन परिगै जिकिर-जंजीर हो।।
सूफियों का शब्द है ‘जिक्र।’ जिक्र का वही अर्थ होता है जो कबीर, नानक और दादू की भाषा में सुरति का होता है--सुध; जो बुद्ध की भाषा में स्मृति का होता है। जिक्र का अर्थ होता है: याद उठती ही रहे, उठती ही रहे। अहर्निश।
निसबासर तेरे नाम की अंतर धुनि जागी।
सतनाम तें लागी अंखियां,...
अब आंखें तुझ पर अटक गई हैं। अब आंखें कहीं और नहीं जातीं। अब जाने को कोई जगह नहीं बची। अब घर आ गया।
...मन परिगै जिकिर-जंजीर हो।
और मन तो तेरी याद की जंजीर में जकड़ गया है। और मन ने तो अब तेरे साथ अपना सदा के लिए नाता जोड़ लिया है। टूट गया नाता संसार से, जुड़ गया सतनाम से।
मीत तुम्हारा
प्रीत हमारी
रीत न्यारी।

तब नयनन की
मतवाली
मादक
सपनीली
छवि प्यारी!

वे सरस सुवासित
स्वर्गामृत
आनंद निकेतन
छोटे-छोटे
पैने-पतले
अधखिली कली से
नाजुक
तब अधरों का
अधरामृत!

लाज प्यार की गरिमा में
सौजन्य लिए
सौंदर्य जिए
दर्द-जुदाई से
मुरझाए
अलसाए
मादक मादक।

सोई सुंदरता के
प्रतिपादक।
वे यौवन घट
ज्यों पनघट के हों
सरस कलश!

आह! याद तिहारी
दर्द भरे
इक हूक लिए
बस, तड़पा जाती!
एक हूक उठने लगती है अहर्निश। एक हुंकार उठने लगती है अहर्निश। काम में लगे रहो हजार, कि झाडू-बुहारी दो झुक-झुक कर, कि प्रेम की रोटियां पकाओ, कि आनंद की दाल उतारो, कि हजार-हजार कामों में व्यस्त रहो लेकिन भीतर उसकी याद चलती रहती है। उसकी याद भीतर बुझती नहीं। क्षण भर को भी विस्मरण नहीं होता।
जनक के जीवन में उल्लेख है। एक सदगुरु ने अपने शिष्य को जनक के पास भेजा ज्ञान की अंतिम उपलब्धि के लिए। जनक को देख कर संन्यासी बहुत हैरान हुआ। दरबार भरा था, नर्तकियां नाचती थीं, शराब के दौर चल रहे थे। इस भ्रष्ट भोगी से ज्ञान की अंतिम शिक्षा क्या मिलेगी ऐसा भाव स्वभावतः संन्यासी के मन में उठा। लेकिन जनक ने उसके भाव को जैसे तत्क्षण पढ़ लिया और कहा कि जल्दी न करो, जल्दी निर्णय न लो। उसने कुछ कहा न था, कुछ बोला न था, यह तो सिर्फ भाव की बात थी। लेकिन जनक ने कहा: जल्दी न करो, जल्दी निर्णय न लो। आ गए हो तो रात विश्राम करो, सुबह सत्संग होगा। थका-मांदा था, सोचा रात रुक जाना ठीक है। सत्संग तो क्या खाक होगा! देख लिया जो देखना था। यहां भ्रष्ट होना हो तो रुकना ठीक है। लेकिन फिर जनक ने कहा: जल्दी न करो, सुबह तक तो ठहर जाओ, इतना तो धैर्य रखो!
रात भोजन कराया जनक ने, पंखा झला संन्यासी के ऊपर। वे प्यारे दिन थे जब सम्राट भी संन्यासियों पर पंखे झलते थे। फिर भोजन के बाद बिस्तर पर लिटाया। सुंदर बिस्तर! संन्यासी ने कभी ऐसा बिस्तर देखा भी नहीं था। फिर सुबह हुई, सम्राट आया, संन्यासी से पूछा: रात ठीक से विश्राम किया? उसने कहा: क्या खाक विश्राम! विश्राम करने ही न दिया। यह तलवार क्यों ऊपर लटकी है? बिस्तर के ऊपर एक कच्चे धागे से तलवार लटकी हुई थी नंगी। संन्यासी ने कहा: बहुत उपाय किए सोने के। बहुत करवटें बदलीं, बहुत मन में दोहराया कि आत्मा तो अमर है, मगर वे बातें कोई काम न आईं। ब्रह्मज्ञान जो भी मैंने सुना-समझा है, सब याद किया कि अरे, शरीर ही मरता है! न हन्यते हन्यमाने शरीरे। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। सब दोहराया मगर कोई काम न आया। वह तलवार लटकी ऊपर और नंगी और कच्चा धागा! और जरा हवा का झोंका आ जाए कि टूट जाए। तो रात भर बहुत कोशिश की सोने की मगर सो न पाया। आंखें अटकी रहीं तलवार पर। आंख भी बंद करूं तो तलवार दिखाई पड़ती थी। कभी-कभी शायद थोड़ी-बहुत तंद्रा भी आई हो, थका-मांदा था तो थोड़ी-बहुत नींद भी लग गई हो, मगर तलवार नहीं भूली सो नहीं भूली। उस तंद्रा में भी तलवार लटकी थी। और तंद्रा में भी मुझे याद था कि तलवार लटकी है और खतरा है।
जनक ने कहा: कुछ समझ में आया? ऐसी ही हालत मेरी है। बैठा हूं राजमहल में लेकिन तलवार मौत की लटकी है, वह भूलती नहीं। और जैसे तलवार भूलती नहीं, नींद में भी याद रहती है, वैसे ही परमात्मा को भी याद करने का ढंग है। वह भी भूलता नहीं, नींद में भी याद रहता है। शराब भी चल रही है, नृत्य भी हो रहा है, सब हो रहा है मगर मैं इस सब के बाहर हूं। हूं बीच में मौजूद और फिर भी मौजूद नहीं हूं। तुम्हारे गुरु ने इसीलिए भेजा है कि यह आखिरी सत्य है, यह परम सत्य है। और जब तक यह तुम न जान लोगे तब तक तुम्हारा संन्यास थोथा है, ऊपरी है। अब तुम जा सकते हो। संन्यास तभी पूरा है जब संसार में रह कर भी और संन्यास पर कालिख न आती हो; जब बाजार में खड़े होकर और ध्यान लगा रहे; जब दुकान पर बैठे-बैठे और जिक्र चलता रहे; जब घर-द्वार का काम भी संभाला जाए, घर-गृहस्थी की फिकर भी की जाए और फिर भी फिकर परमात्मा की ही होती रहे। यह आखिरी उपदेश है जिसके लिए गुरु ने तुम्हें यहां भेजा है। अब तुम जा सकते हो।
सतनाम तें लागी अंखियां, मन परिगै जिकिर-जंजीर हो।
मन अगर उसकी जिक्र की जंजीर में बंध जाए, अगर उसकी याद की जंजीर में बंध जाए, अगर उसकी हूक उठती रहे, उठती रहे, अगर उसका स्मरण आता ही रहे, आता ही रहे तो फिर तुम क्या करते हो इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम्हारे कृत्यों का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारी स्मृति का ही आत्यंतिक मूल्य है, तुम्हारी सुधि का मूल्य है, तुम्हारे कर्मों का नहीं। तुम अच्छे कर्म भी करो और अगर परमात्मा की याद भीतर न हो तो वे सब बंधन बन जाएंगे। और तुम अच्छे कर्म न भी करो और तुम्हारे भीतर परमात्मा की सतत याद बहती रहे तो तुम पर कोई बंधन होने वाला नहीं है।
इसलिए कृष्ण अर्जुन को कह सके कि तू लड़। लड़ना कोई अच्छा कृत्य नहीं है।... मार! काट! घबड़ा मत। बस, एक बात स्मरण रख कि कर्ता वही है, तू फलाकांक्षी न हो। तू अपने को बीच में न ला। उसकी याद रहे। उसके चरणों में अपने को छोड़ दे, उसके हाथों में, फिर उसकी जो मर्जी! वह जो करवा ले! तू उसके हाथ का खिलौना बन जा, कठपुतली बन जा, फिर जो हो ठीक है। उसकी याद भर न जाए। सारी गीता का सार-संचय इतना है कि परमात्मा के चरणों में सब छोड़ दो, उसकी याद पर सब छोड़ दो। उसकी याद सतत बहती रहे, फिर तुम जो भी करोगे शुभ है, धर्म है। तुमसे जो भी होगा वही सुंदर है।
सखि, नैन बरजे ना रहैं, अब ठिरे जात वोहि तीर हो।
और जब भीतर की धुन बजने लगती है तो तुम लाख बाहर ले जाने की कोशिश करो, मन भीतर जाने लगता है, भीतर जाने लगता है। तुम उलझाने की भी कोशिश करो बाहर तो नहीं उलझता।
रामकृष्ण के जीवन में ऐसा रोज घट जाता था। रामकृष्ण को कहीं ले जाना तक मुश्किल था। कभी किन्हीं शिष्यों के घर निमंत्रण होता तो रामकृष्ण को ले जाने में बड़ी झंझट होती थी। क्योंकि रास्ते पर से गुजरना पड़ता और रास्ते पर कोई इतना ही कह दे: ‘जयराम जी!’ अब किसी को रोक तो नहीं सकते। रास्ते पर इतने लोग चल रहे हैं, कोई किसी से जयराम जी कर दे, कि रामकृष्ण से ही कह दे: ‘जयराम जी!’ बस, इतना काफी है। राम का नाम कान पर पड़ गया कि वे वहीं सड़क पर चौराहे पर मस्त हो गए। कि नाचने लगे, कि आंखों से अश्रुधार बहने लगी; कि गिर पड़े चौराहे पर; कि होश न रहा; कि बाहर की दुनिया भूल गई।
रामकृष्ण से किसी ने पूछा कि आप तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं, जगन्नाथपुरी जा रहे हैं, क्या अच्छा न होगा कि जहां बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुआ--बोधगया भी होते आएं? तो रामकृष्ण ने कहा: नहीं, बोधगया न जाऊंगा। बड़ी प्यारी बात है। रामकृष्ण ने कहा: बोधगया न जाऊंगा। क्यों? तो रामकृष्ण ने कहा: बोधगया गया तो फिर लौट नहीं सकूंगा। जहां बुद्ध को बुद्धत्व मिला वहां की हवा काफी है, फिर मैं ऐसा भीतर डूबूंगा कि तुम मुझे बाहर न ला पाओगे। सो अगर चाहते हो कि मैं कुछ देर और रह जाऊं और तुम्हारी सेवा कर लूं और तुम्हारे जीवन में प्रभु का गीत गुनगुनाऊं तो बोधगया से बचाना। बोधगया न जाऊंगा।
कितने लोग बोधगया गए हैं! जाने वाला यह एक आदमी था जो गया नहीं। कितने दूर-दूर से बौद्ध भिक्षु यात्रा करते आते हैं--कोरिया से और जापान से और ताइवान से और चीन से और तिब्बत से और लंका से--मगर जाने वाला यह आदमी था जिसको जाना चाहिए था, जो जाने की योग्यता रखता था। इसने कहा कि नहीं, बोधगया से बचाना। बोधगया बीच में पड़ना ही नहीं चाहिए, क्योंकि बोधगया बीच में पड़ा तो मुश्किल हो जाएगी। फिर मैं अपने भीतर के शून्य में समाविष्ट हो जाऊंगा। फिर लाख उपाय करूं तो मुझे बाहर की याद न रहेगी। तो बुद्ध का जहां जन्म हुआ हो वहां मत ले जाना। और बुद्ध का जहां अंत हुआ हो वहां मत ले जाना। और बुद्ध को जहां संबोधि मिली हो वहां मत ले जाना। ये तीन जगह बचाना। इन तीन जगह में खतरा है। फिर मुझसे मत कहना कि आपने पहले क्यों नहीं चेताया!
रामकृष्ण ने बड़ी अदभुत बात कही, बड़ी गहरी बात कही। यह सच है।
रामकृष्ण जैसा व्यक्ति बुद्ध के स्मरण मात्र से ऐसी डुबकी लगा सकता है कि फिर हम उसे खोज न पाएं; फिर उसका पता लगाना मुश्किल हो जाए।
सखि, नैन बरजे ना रहैं,...
दूलनदास कहते हैं कि अपनी आंखों को बरजता हूं कि जरा बाहर भी देखो, क्या भीतर ही भीतर लगे हो? क्या उसी-उसी को देख रहे हो? और टकटकी बांध कर किसी को देखना शिष्टाचार भी नहीं है। थोड़ी पलकें भी झपो, थोड़ा आंखों को आराम भी दो।
सखि, नैन बरजे ना रहैं,...
लेकिन कोई उपाय काम नहीं करता। कितना ही बरजता हूं, आंख है कि वहीं चली जाती है।
...अब ठिरे जात वोहि तीर हो।
अब तो बस उसके पास ही निकट ठहरना होता है, कहीं और ठहरने की न आकांक्षा है, न ठहरना हो पाता है।
नाम सनेही बावरे, दृग भरि भरि आवत नीर हो।।
और जैसे ही उसका नाम सुनता हूं, आंखें एकदम आंसुओं से भर जाती हैं; आंखें सरोवर हो जाती हैं।
नाम सनेही बावरे,...
उस प्यारे का नाम बस पर्याप्त है कि रोमांच हो आता है; कि जैसे किसी ने शराब उं़ड़ेल दी।
...दृग भरि भरि आवत नीर हो।
रस-मतवाले रस-मसे,...
कैसे रस में मैं डुबकी खा रहा हूं तुम्हें कैसे बताऊं?
रस-मतवाले रस-मसे, यहि लागी लगन गंभीर हो।।
अब तो बस यही विभोरता! डुबकी बढ़ती जाती है, गहराई बढ़ती जाती है, रस की सघनता बढ़ती जाती है।
ऐसे ही जानने वालों ने तो परमात्मा की परिभाषा रस की है--रसो वै सः। वह परमात्मा रसरूप है। ऐसी परिभाषा दुनिया में कहीं भी नहीं की गई। यहूदियों ने परिभाषाएं की हैं कि परमात्मा जगत का स्रष्टा है। ठीक है, कामचलाऊ बात है। ईसाइयों ने परिभाषाएं की हैं लेकिन ‘रसो वै सः’ इस परिभाषा की तुलना किसी और परिभाषा से नहीं हो सकती--कि परमात्मा रसरूप है! यह दार्शनिकों की परिभाषा नहीं है, यह अलमस्तों की परिभाषा है, यह दीवानों की परिभाषा है, यह प्रेमियों की परिभाषा है। जिन्होंने चखा है उसे, पीया है उसे, जो मदमाते हुए, जो मस्त हुए। जिन्होंने उसे चखा और सदा के लिए बेहोश हुए; और ऐसी बेहोशी कि जिसमें होश भी है, ऐसी बेहोशी कि जिसमें होश का दीया भी जलता है, यह उनकी परिभाषा है। यह प्यारों की परिभाषा है। यह परिभाषा बहुत करीब आ जाती है। ऐसे तो परमात्मा की कोई परिभाषा हो नहीं सकती, मगर अगर करनी ही हो तो रसो वै सः--रसरूप है।
रस-मतवाले रस-मसे, यहि लागी लगन गंभीर हो।
सखि, इस्क पिया के आसिकां, तजि दुनिया दौलत भीर हो।।
और कह रहे हैं कि सुनो! ‘इस्क पिया के आसिकां’... अब तो इश्क पैदा हो गया। अब तो प्रेम पैदा हो गया। अब तो हम आशिक हो गए। अब तो परमात्मा माशूक हो गया। अब तो हम मजनू हैं, वह लैला है। और जैसे मजनू चिल्लाता रहता है: लैला, लैला, लैला।
कहानी तुमने सुनी है मजनू की? मजनू का यह सतत चिल्लाना लैला-लैला! गली-गली, गांव के कूचे-कूचे में चिल्लाना। लैला प्रतिष्ठित परिवार की लड़की थी। बाप बहुत नाराज था। मजनू की आवारागर्दी, उसकी ये आवाजें बाप के लिए भारी पड़ने लगीं। बाप ने तय किया कि गांव ही छोड़ देंगे। उसने यह गांव ही छोड़ दिया। चले! बड़ा संपत्ति वाला था, बड़ी धन-दौलत थी। सब लादे गए ऊंटों पर। अनेक ऊंटों का काफिला चला। लैला को भी ऊंट पर बांध दिया गया। मजनू को खबर मिली, वह गांव के बाहर जाकर एक वृक्ष के नीचे खड़ा हो गया और वहीं धुन सतत लग गई: लैला-लैला। काफिला गुजरता रहा, लैला को धुन सुनाई पड़ती रही, लैला की आंखों से आंसू टपकते रहे लेकिन कोई उपाय न था। काफिला दूर होता गया, मजनू की आवाज जोर से होने लगी। काफिला दूर होता गया, मजनू चिल्लाता रहा, चिल्लाता रहा, चिल्लाता रहा। कहानी बड़ी प्रीतिकर है।
ध्यान रखना, लैला-मजनू की कहानी एक सूफी कहानी है। इसका संबंध साधारण प्रेम की दुनिया से नहीं है। लैला परमात्मा का प्रतीक है, मजनू भक्त का प्रतीक है। यह एक सूफी आख्यान है। मजनू खड़ा ही रहा उसी वृक्ष के नीचे, उसी वृक्ष से टिका। दिन आए-गए, रातें आईं-गईं, चांद निकले-डूबे, सूरज उगे-डूबे, वर्षा आई, गर्मी आई, सब ऋतुएं आईं, न मालूम कितना समय गुजरा, मगर वह चिल्लाता ही रहा: लैला-लैला! जब तक धुन रही, जब तक वाणी में शक्ति रही, जब तक श्वास रही, चिल्लाता रहा, चिल्लाता रहा।
बारह वर्ष बीत गए तब लैला वापस लौटी। उसने गांव में पता लगाया कि मजनू कहां है। लोगों ने कहा कि मजनू तो अब नहीं है सिर्फ मजनू की आवाज है। और वह भी रात के सन्नाटे में अगर गांव के फलां-फलां वृक्ष के नीचे जाकर खड़ी रहो तो सन्नाटे में रात के आवाज आती है: लैला-लैला-लैला। मजनू का तो कुछ पता नहीं है, लेकिन आवाज आती है। शायद मजनू भूत हो गया या क्या हो गया! हम तो जाने से भी डरते हैं। उस रास्ते से रात लोग गुजरते भी नहीं, क्योंकि आवाज बड़े जोर से आती है। लैला गई उस वृक्ष के नीचे, आवाज आ रही थी। दूसरों को रात के सन्नाटे में सुनाई पड़ती होगी, क्योंकि दूसरों के सिर में हजार तरह का शोरगुल है, मगर लैला को तो दिन में ही सुनाई पड़ने लगी। जैसे ही वृक्ष के पास पहुंची, सुनाई पड़ने लगी। वही आवाज! वही बारह साल जैसे बीच से मिट गए। और जब वह वृक्ष के पास गई तो चकित हो गई। मजनू था, मर नहीं गया था; लेकिन बारह साल वृक्ष के साथ खड़ा-खड़ा वृक्ष से जुड़ गया था। उसके हाथ वृक्ष की शाखाएं हो गए थे। उसके शरीर पर पत्ते निकल आए थे, फूल निकल आए थे। अब वृक्ष का ही हिस्सा था और सारे वृक्ष से एक ही धुन निकल रही थी: लैला-लैला। यह प्रीतिकर कथा है, यह भक्त की कथा है।
रस-मतवाले रस-मसे, यहि लागी लगन गंभीर हो।
सखि, इस्क पिया के आसिकां, तजि दुनिया दौलत भीर हो।।
छोड़ो दुनिया की भीड़-भाड़। वहां कोई मिलेगा नहीं। वहां कोई संगी-साथी न मिलेगा। संगी-साथी तुम्हारे भीतर है उसे पुकारो।
आवाजो, आज मुझे एकाकी छोड़ दो
भीड़ से अलग भी तो
मेरा अस्तित्व हो
निजी इकाई मेरी
स्व पर स्वामित्व हो
कोलाहल नस-नस में भर गया निचोड़ दो
मुकुरों का सौदागर
पाहन के देश में
वैसे ही गीत घिरा
है अगेय क्लेश में
स्वर से संबंध मूक सांसों का जोड़ दो
परेशान हूं अपनी
ही जय-जयकार से
लौटे आतिथ्य बिना
क्षण मेरे द्वार से
दर्प भरी गरिमाओ! कुंठा-घट फोड़ दो
शापित अतिरेक लिए
महानगर-बोध में
यंत्रों में भटका हूं
मैं अपने शोध में
मेरा यह अंध अहम ओ, विवेक! तोड़ दो
आवाजो, आज मुझे एकाकी छोड़ दो
भीड़ है तुम्हारे चारों तरफ और भीड़ तुम्हारे भीतर भी प्रवेश कर गई है। बाहर की आवाजें सुनते-सुनते भीतर भी तुम्हारे आवाजें ही आवाजें हो गई हैं। इसी शोरगुल में खो गई है तुम्हारे अंतर्तम की आवाज, प्यारे की पुकार, जिक्र, सुधि, सुरति, स्मृति।
तुम्हारे भीतर अब भी आवाज उठ रही है पर बड़ी धीमी क्योंकि शोरगुल बहुत है। इस शोरगुल से अपने को काटना जरूरी है। इस शोरगुल से काटने का नाम ही ध्यान है। छोड़ो बाहर की आवाजें। और धीरे-धीरे भीतर से भी आवाजों को विदा दो। अलविदा कहो। नमस्कार कर लो। बहुत हो गया शोरगुल में रहते-रहते। भीतर सन्नाटे को बसने दो। भीतर थोड़ा शून्य पैदा होने दो। भीतर निर्विचार आने दो और उसी निर्विचार में तुम पहली बार सुनोगे मजनू जगा, लैला को पुकारा गया।
सखि, गोपीचंदा, भरथरी, सुलताना भयो फकीर हो।
सखि, दूलन का से कहै, यह अटपटी प्रेम की पीर हो।।
कहते हैं गोपीचंद, भर्तृहरि सम्राट था। साधारण सम्राट भी नहीं, बड़ा बुद्धिमान सम्राट रहा होगा। और साधारण बुद्धिमान भी नहीं, जीवन को जीआ होगा गहराई से इसलिए श्रृंगार-शतक जैसी अदभुत किताब लिखी। लेकिन एक दिन बात समझ में आ गई कि बाहर श्रृंगार का सिर्फ धोखा है, बाहर सौंदर्य की सिर्फ भ्रांति है, सपने हैं; असली सौंदर्य भीतर है; असली श्रृंगार भीतर है; असली राजा भीतर है। बाहर राजा होने का सिर्फ दंभ है, असली मालकियत आत्मा की मालकियत है।
तो एक दिन सब छोड़ कर भर्तृहरि चले गए। फिर एक दूसरी किताब लिखी उतनी ही कीमती जितनी सौंदर्य-शतक, श्रृंगार-शतक। वैराग्य-शतक लिखा। राग की बात भी लिखी, बड़ी गहराई से लिखी। और मेरी समझ यह है कि जिसने राग की बात इतनी गहराई से लिखी वही वैराग्य की बात इतनी गहराई से लिख सकता था। ये दोनों शतक सौंदर्य, श्रृंगार, वैराग्य, भक्ति, संयुक्त हैं; एक ही अनुभव के दो पहलू हैं। ठीक-ठीक संसार को देखा तो दिखाई पड़ गया कि व्यर्थ है। दूर के ढोल सुहावने हैं। मृग-मरीचिका मालूम हो गई। तो भर्तृहरि सब छोड़ दिया, फकीर हुआ। और छोड़ कर उसे पाया जिसे पकड़-पकड़ कर न पाया था। वैराग्य में उस सौंदर्य को जाना जिसे सौंदर्य में नहीं जाना था। वैराग्य में उस राग को पाया जिसे राग में रह-रह कर भी नहीं पाया था। असली श्रृंगार तो एक ही है कि तुम्हारे भीतर बुद्धत्व का जन्म हो। तुम्हारे भीतर दीया जले आत्मा का, वही असली श्रृंगार है। उसके सामने सब कोहिनूर कंकड़-पत्थर हैं।
सखि, गोपीचंदा, भरथरी, सुलताना भयो फकीर हो।
बोध आ गया तो सम्राट फकीर हो गया।
सखि, दूलन का से कहै,...
यह बड़ी अटपटी गैल है। इसको कहना कठिन।
सखि, दूलन का से कहै, यह अटपटी प्रेम की पीर हो।
लेकिन यह जो भर्तृहरि फकीर हो गया यह प्रेम में ही फकीर हुआ यह याद रखना। यह परमात्मा के प्रेम में फकीर हुआ। इसने छोटे-मोटे प्रेम करके देख लिए और पाया कि उनमें कुछ भी नहीं है। दिखाई पड़ते हैं दूर से मरूद्यान, पास जाओ तो रेत के ढेर हैं। फिर असली मरूद्यान की तलाश की, मगर यह प्रेम की ही तलाश है। ध्यान रखना, भूल कर भी प्रेम के शत्रु मत हो जाना अन्यथा परमात्मा से न जुड़ सकोगे। प्रेम सेतु है। प्रेम ही संसार से जोड़ता है, प्रेम ही परमात्मा से जोड़ता है। जोड़ने की एक ही व्यवस्था है: प्रेम। हां, संसार से जुड़ोगे तो विषाद में ही रहोगे क्योंकि संसार में कुछ है नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है; आभास है। परमात्मा से जुड़ोगे तो तृप्त हो जाओगे क्योंकि आभास नहीं है, सत्य है। और यह प्रेम की बड़ी अटपटी पीर है। कही न जा सके ऐसी बात है।
कुछ कथ्य हृदय में व्याकुल भटक रहा
हो सके इसे अभिव्यंजन का वर दो

अनुभूति गई अवचेतन कक्षों में
वह आवेगों के क्षण में पक आई
अब शब्दों का आधार मांगती है
वह कविता जो अधरों पर अखुंवाई
कोई अनाम स्वर सांसों में तिरता
हो सके इसे संबोधन का वर दो

हो गया अहम वट-वृक्ष तले जिसके
भावों का कोई पौधा नहीं जमा
केंद्रित कर निज को परिधि बना डाली
जिसमें विवेक बंदी सहमा-सहमा
हो गई अहिल्या पाहन कुंठा की
हो सके इसे संवेदन का वर दो

जीवन क्या है आयु के सिरे वह दो
जिनमें फैली यात्रा की लंबाई
हर पग गलती से बचने के हित में
हर बार गई है गलती दुहराई
आदमी जीआ भूलों ही भूलों में
हो सके इसे संशोधन का वर दो
एक ही प्रार्थना करो परमात्मा से--
जीवन क्या है आयु के सिरे वह दो
जिनमें फैली यात्रा की लंबाई
हर पग गलती से बचने के हित में
हर बार गई है गलती दुहराई
आदमी जीआ भूलों ही भूलों में
हो सके इसे संशोधन का वर दो
हे प्रभु! थोड़ा सुधार लो इसे, थोड़ी भूल-चूक ठीक कर दो।
हो गई अहिल्या पाहन कुंठा की
हो सके इसे संवेदन का वर दो
हम प्रेम विहीन पत्थर हो गए हैं, थोड़ी संवेदना दे दो।
कोई अनाम स्वर सांसों में तिरता
हो सके इसे संबोधन का वर दो
और प्रत्येक के भीतर परमात्मा की ध्वनि गूंज रही है लेकिन हम भूल गए कैसे उससे संबंध जोड़ें! और भूल गए कैसे उसे जगाएं, पुकारें, उभारें, अभिव्यक्ति दें?
हो सके इसे संबोधन का वर दो
कुछ कथ्य हृदय में व्याकुल भटक रहा
हो सके इसे अभिव्यंजन का वर दो
जब तक परमात्मा तुम्हारे भीतर से प्रकट न हो सके; जैसे कली फूल बनती है ऐसे तुम जब तक परमात्मा के फूल न बन जाओ तब तक तुम्हारा जीवन व्यर्थ है, व्यर्थ रहा है, व्यर्थ रहेगा। बहुत देर वैसे ही हो चुकी है, अब जागो! जाल समेटो! कब से जाल फेंकते रहे, अब तो समेटो।
जाल-समेटा करने में भी
समय लगा करता है, मांझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।

सिमट गईं किरणें सूरज की,
सिमटीं पंखुरियां पंकज की,
दिवस चला छिति से मुंह मोड़।

तिमिर उतरता है अंबर से,
एक पुकार उठी है घर से,
खींच रहा कोई बे-डोर।

जो दुनिया जगती, वह सोती,
उस दिन की संध्या भी होती,
जिस दिन का होता है भोर।

नींद अचानक भी आती है,
सुध-बुध सब हर ले जाती है,
गठरी में लगता है चोर।

अभी क्षितिज पर कुछ-कुछ लाली,
जब तक रात न घिरती काली,
उठ अपना सामान बटोर।

जाल-समेटा करने में भी,
वक्त लगा करता है, मांझी,
मोह मछलियों का अब छोड़।

आज इतना ही।

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