QUESTION & ANSWER

Preetam Chhabi Nainan Basee 01

First Discourse from the series of 16 discourses - Preetam Chhabi Nainan Basee by Osho. These discourses were given during JUL 11-26 1980.
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पहला प्रश्न:
भगवान, नई प्रवचनमाला को आपने नाम दिया है: प्रीतम छबि नैनन बसी! क्या इसके अभिप्राय पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?
आनंद मैत्रेय,
रहीम का प्रसिद्ध सूत्र है:
प्रीतम छबि नैनन बसी, पर छबि कहां समाय।
भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाय।।
मनुष्य परमात्मा के बिना खाली है, बुरी तरह खाली है। और खालीपन खलता है। खालीपन को भरने के हम हजार-हजार उपाय करते हैं--धन से, पद से, प्रतिष्ठा से।
लेकिन खालीपन ऐसे भरता नहीं। धन बाहर है, खालीपन भीतर है। बाहर की कोई वस्तु भीतर के खालीपन को नहीं भर सकती। कुछ भीतर की ही संपदा चाहिए। बाहर की संपदा बाहर ही रह जाएगी। उसके भीतर पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। धन के ढेर लग जाएंगे, लेकिन भीतर का भिखमंगा भिखमंगा ही रहेगा।
दुनिया में दो तरह के भिखमंगे हैं: गरीब भिखमंगे हैं और धनी भिखमंगे हैं। मगर उनके भिखमंगेपन में कोई फर्क नहीं। सच तो यह है कि धनी भिखमंगे को अपने भिखमंगेपन की ज्यादा प्रतीति होती है। क्योंकि बाहर धन है और भीतर निर्धनता है। बाहर के धन की पृष्ठभूमि में भीतर की निर्धनता बहुत उभर कर दिखाई पड़ती है। जैसे रात में तारे दिखाई पड़ते हैं। अंधेरे में तारे उभर आते हैं। दिन में भी हैं तारे, पर सूरज की रोशनी में खो जाते हैं।
गरीब को अपनी गरीबी नहीं खलती, अमीर को अपनी गरीबी बहुत बुरी तरह खलती है। यही कारण है कि गरीब देशों में लोग संतुष्ट मालूम पड़ते हैं, अमीर देशों की बजाय। तुम्हारे साधु-संत तुम्हें समझाते हैं कि तुम संतुष्ट हो, क्योंकि तुम धार्मिक हो। यह बात सरासर झूठ है। तुम संतुष्ट प्रतीत होते हो, क्योंकि तुम गरीब हो। भीतर भी गरीबी, बाहर भी गरीबी, तो गरीबी खलती नहीं, गरीबी दिखती नहीं, उसका अहसास नहीं होता। जैसे कोई सफेद दीवाल पर सफेद खड़िया से लिख दे, तो पढ़ना मुश्किल होगा। इसीलिए तो स्कूल में काले तख्ते पर सफेद खड़िया से लिखते हैं। पृष्ठभूमि विपरीत चाहिए, तो चीजें उभर कर दिखाई पड़ती हैं।
गरीब देशों में जो एक तरह का संतोष दिखाई पड़ता है, वह झूठा संतोष है, उसका धर्म से कोई संबंध नहीं है। लेकिन तुम्हारे अहंकार को भी तृप्ति मिलती है। तुम्हारे साधु-महात्मा कहते हैं कि तुम संतुष्ट हो, क्योंकि तुम धार्मिक हो। तुम्हारा अहंकार भी प्रसन्न होता है, प्रफुल्लित होता है।
पर यह सरासर झूठ है। अहंकार जीता ही झूठों के आधार पर है। झूठ अहंकार का भोजन है। सचाई कुछ और है।
तुम्हारे साधु-महात्मा कहते हैं कि देखो पश्चिम की कैसी दुर्गति है! वे तुम्हें समझाते हैं कि दुर्गति इसलिए हो रही है पश्चिम की, क्योंकि पश्चिम नास्तिक है, क्योंकि पश्चिम ईश्वर को नहीं मानता।
यह बात भी झूठ है। पश्चिम की दुर्गति इसलिए दिखाई पड़ रही है, क्योंकि पश्चिम में धन है, सुविधा है, संपन्नता है। संपन्नता के ढेर, तो भीतर की विपन्नता बहुत खलने लगती है। इतना सब बाहर है और भीतर कुछ भी नहीं! तो प्राण रोते हैं। प्राण चाहते हैं: भीतर भी भराव हो। तो आदमी दौड़ता है। धन से नहीं भरे तो पद से भरे। तो हो जाऊं प्रधानमंत्री कि राष्ट्रपति! पद से न भरता हो तो शायद त्याग से भरे। तो त्याग दूं पद, तपश्चर्या करूं। व्रत-उपवास, योग, हवन-यज्ञ करूं।
मगर नहीं भरता है। भीतर का खालीपन ऐसे भरता ही नहीं। भीतर का खालीपन तो सिर्फ एक ही तरह से भरता है कि वह प्यारा तुम्हारे भीतर उतर आए। वही उतर सकता है तुम्हारे भीतर। परमात्मा के अतिरिक्त तुम्हारे भीतर किसी का कोई प्रवेश नहीं हो सकता। तुम्हारी प्रेयसी भी वहां नहीं जा सकती। तुम्हारा पति, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे, कोई वहां नहीं जा सकते। सिर्फ एक परमात्मा की वहां गति है। सिर्फ वही तुम्हारे अंतरतम में विराजमान हो सकता है। वह भरे तो तुम भरो। वह आए तो तुम भरो। वह जब तक नहीं तब तक तुम खाली हो। और खाली हो तो रोओगे। खाली हो तो दुखी होओगे। खाली हो तो नरक में जीओगे।
रिक्तता ही तो नरक है। और सारे नरक तो कल्पित हैं--कि वहां चढ़े हैं कड़ाहे और लोग जलाए जा रहे हैं, और कड़ाहों में तले जा रहे हैं। यह सब बकवास है। ये सब मनगढ़ंत बातें हैं। ये तो सिर्फ तुम्हें डराने के लिए पंडित और पुरोहितों की ईजादें हैं। क्योंकि तुम भयभीत हो जाते हो तो गुलाम हो जाते हो। भयभीत को गुलाम बनाना आसान है, निर्भय को गुलाम बनाना असंभव है। तुम भयभीत हो जाते हो तो तुम हर तरह के अंधविश्वास के लिए राजी हो जाते हो। कौन झंझट ले! वैसे ही तुम कंप रहे हो, और कौन झंझट ले! पता नहीं आगे क्या मुसीबत झेलनी पड़े। तो तुम मंदिर भी जाते हो, मस्जिद भी जाते हो, गुरुद्वारा भी जाते हो, पूजा-पाठ, जो भी तुम्हें पुरोहित समझाते हैं, करते हो। दान-दक्षिणा, धर्मशाला बनाते, मंदिर बनाते। लेकिन वास्तविक नरक एक ही है और वह है: भीतर रिक्त होना, खाली होना। क्योंकि जो खाली है उसकी जैसे आत्मा ही नहीं, जैसे अभी आत्मा का जन्म ही नहीं हुआ।
परमात्मा आए तो आत्मा का जन्म हो। उस परम प्यारे को पुकारना होगा। वही भर जाए तुम्हारी आंखों में। वही रम जाए तुम्हारे रोएं-रोएं में। वही बने तुम्हारे हाथों की मेंहदी। वही बने तुम्हारे आंखों का काजल। बस वही हो, तुम न बचो। इतना हो वह कि तुम्हारे रहने के लिए कोई जगह ही न रह जाए। तुम्हें खाली ही कर देना पड़े अपने को।
अभी तुम खाली हो, पीड़ित हो रहे हो। वह आएगा तो तुम्हें और भी अपने को खाली करना पड़ेगा। क्योंकि न मालूम कितना कूड़ा-करकट--विचारों का, वासनाओं का, आकांक्षाओं का, तृष्णाओं का--तुम्हारे भीतर है। न मालूम कितना अहंकार, झूठा सब, मिथ्या सब, पर कुछ न हो तो आदमी को तिनके का सहारा भी बहुत। और जो आदमी डूब रहा हो और तिनके का सहारा लेकर आंख बंद किए सपना देख रहा हो बचने का, उससे कहो कि आंख खोलो, देखो, तिनके के सहारे से कोई बचता नहीं, तो वह नाराज होगा। तुम उससे उसकी आखिरी आशा भी छीने लेते हो।
इसीलिए तो लोग बुद्धों से नाराज रहे हैं। जीसस को सूली ऐसे ही नहीं दी, और सुकरात को जहर ऐसे ही नहीं पिलाया! और अब भी उनका रवैया वही है और आगे भी उनका रवैया वही रहेगा। जो भी तुमसे कहेगा कि इन तिनकों के सहारे तुम पार न हो सकोगे, तुम उसी से नाराज हो जाओगे। कारण सीधा-साफ है। तुम वैसे ही खाली हो, किसी तरह तिनके के सहारे अपनी आंखों को बंद किए अपने को समझा-बुझा रहे हो। और यह तुमसे तिनका भी छीने ले रहा है! यह तुम्हें तिनके का सहारा भी नहीं लेने देता! तुम कैसे क्षमा करो बुद्धों को? तुम उन्हें क्षमा नहीं कर सकते। तुम उन्हें सूली देते हो। हां, सूली देकर पछताते हो। तब पश्चात्ताप होता है, तब अपराध का भाव जगता है। फिर तुम उनकी पूजा करते हो। यह बड़ा अनूठा खेल है। पहले सूली देते हो, फिर सिंहासन देते हो। जिंदा को सूली देते हो, मुर्दा को सिंहासन देते हो।
तुमने बुद्ध पर कितने पत्थर फेंके, हिसाब है कुछ? तुमने बुद्ध को मार डालने की कितनी चेष्टाएं कीं! पागल हाथी छोड़ा। बुद्ध के ऊपर चट्टानें सरकाईं पहाड़ से!
कहानियां बड़ी प्रीतिकर हैं। कहानी कहती है कि जब पागल हाथी बुद्ध के सामने आया--उस पागल हाथी ने न मालूम कितने लोगों को मार डाला था--जब बुद्ध के सामने आया, बुद्ध को देखा, ठिठक गया। चरणों में झुक गया।
मैं नहीं सोचता ऐसा हुआ होगा। पागल हाथियों से इतनी समझदारी की आशा नहीं की जा सकती। होशियार आदमियों से नहीं होती इतनी आशा, तो पागल हाथियों से क्या खाक आशा होगी! लेकिन कहानी कुछ और कहना चाहती है। कहानी यह कहती है कि तुम्हारे तथाकथित होशियार आदमियों से पागल हाथी भी ज्यादा होशियार होते हैं। पागल हाथी को भी समझ में आ गया कि यह आदमी मारा जाए, मारने योग्य नहीं है। यह आदमी झुकने योग्य है, समर्पित होने योग्य है।
कहानियां कहती हैं कि जब चट्टान बुद्ध पर सरकाई गई...वे नीचे ध्यान कर रहे हैं वृक्ष के नीचे, चट्टान पहाड़ से सरकाई गई, ठीक ऐसे कोण से कि दबोच ही देगी बुद्ध को। हड्डी-पसली का भी पता नहीं चलेगा। उसके साथ ही लुढ़क जाएंगे महागड्ढ में। लेकिन कहते हैं, चट्टान ठीक बुद्ध के पास आकर अपनी राह बदल ली।
अब चट्टानों से कोई इतना भरोसा कर सकता है! लेकिन ये सारी कहानियां इशारे हैं। ऐतिहासिक तथ्य नहीं, मनोवैज्ञानिक सत्य हैं। ये यह कह रहे हैं कि आदमी पत्थरों से भी ज्यादा पाषाण हो गया। पत्थरों को भी इतना होश है कि बुद्ध मार्ग में आते हों तो राह छोड़ दें, उनको चोट न पहुंच जाए! आदमी को इतना होश नहीं।
लेकिन फिर तुम पछताते हो, पीछे तुम पछताते हो। लेकिन पीछे पछताने से क्या होगा? फिर पछताए होत का जब चिड़ियां चुग गई खेत! फिर तुम जन्मों-जन्मों तक, सदियों-सदियों तक पूजा करते हो। तुम्हारे हाथ पर जो खून के धब्बे पड़ जाते हैं, उनको धोते हो, धोए चले जाते हो। मगर वे धब्बे फिर मिट नहीं सकते। क्योंकि वे हाथ पर नहीं पड़े हैं, वे तुम्हारी आत्मा पर ही पड़ गए हैं। उनको ऐसे पूजा-पाठ से धो लेना आसान नहीं होगा!
तुम्हारा अहंकार एक झूठ है--एक झूठ, जिसके सहारे तुम सोचते हो कि पार कर लेंगे। कागज की नाव, जिस पर बैठ कर तुम अथाह सागर को पार करने चल पड़ते हो! काल्पनिक पतवारें, जिनका कोई अस्तित्व नहीं है।
जब ईश्वर को अपने भीतर बुलावा देना हो, तो इस कूड़े-करकट को अलग कर देना होगा। झूठ के सहारे छोड़ देने होंगे। सत्य उनका है, जो झूठ का सहारा छोड़ देते हैं। सत्य साहसियों का है। क्योंकि झूठ का सहारा छोड़ना बड़े दुस्साहस का काम है। झूठ ही तो हमारा एकमात्र सहारा है। उसको भी छीनने की बात हो, तो मन डरता है, कंपता है, भयभीत होता है। और तो हमारे भीतर कुछ भी नहीं है। किसी तरह अपने को समझा-बुझा लिया है; कल्पनाओं में, सपनों में अपने को रचा-पचा लिया है। अपने भीतर विचारों का एक संसार बसा लिया है। उसमें ही उलझे रहते हैं, व्यस्त रहते हैं।
तुम देखो आदमी को, सुबह उठा कि व्यस्त हुआ। घड़ी भर चैन से नहीं बैठ सकता। और ये जो सदा व्यस्त रहते हैं, ये दूसरों को, अगर कोई शांत बैठा हो, अगर कोई चुप बैठा हो, अगर कभी कोई घड़ी भर आंख बंद करके बैठा हो, तो उनको गालियां देते हैं कि ये काहिल हैं, सुस्त हैं, अकर्मण्य हैं!
ये जो सदा व्यस्त लोग हैं, विक्षिप्त लोग हैं। ये बिना व्यस्त हुए नहीं रह सकते। व्यस्तता इनको एक उपाय है, एक सुरक्षा है। अपने को व्यस्त रखते हैं तो भूले रहते हैं--अपने भीतर की दरिद्रता को, दीनता को, झूठ को, असत्य को, कूड़े-करकट को, अपने भीतर के अभाव को भूले रखते हैं। दौड़ते रहते हैं लोग, कोई भी बहाना लेकर दौड़ते रहते हैं। बहाना चाहिए दौड़ने के लिए। दौड़ते रहते हैं तो विस्मरण रही आती है अपनी वास्तविक स्थिति। रुके कि याद आई। खाली हुए, मौन बैठे कि याद आई।
इसलिए ध्यान इस जगत में कठिनतम काम है। हालांकि ध्यान कोई काम नहीं; ध्यान कोई क्रिया नहीं; ध्यान कोई कर्म नहीं। लेकिन कठिनतम काम है। चुप बैठना सबसे ज्यादा मुश्किल हो गया है। और जो चुप नहीं बैठ सकते, वे कहते हैं कि खाली मन शैतान का घर है। बात बिलकुल उलटी है। जो खाली होने की कला जानता है, जो पूरी तरह खाली होने को राजी है, वही परमात्मा का घर बन जाता है।
लेकिन ये जो तथाकथित कर्मठ लोग हैं, ये तथाकथित जो कर्मयोगी हैं, जो कहते हैं--लगे रहो, जूझते रहो! कुछ भी करो, मगर करो जरूर! खाली होने से कुछ भी करना बेहतर है। गलत भी करो, मगर करो, खाली भर न बैठना!--इन्होंने सारी दुनिया को एक विक्षिप्तता में लगा दिया है। हम हर बच्चे को यही जहर पिला रहे हैं। और हमें यह जहर पिलाने का कारण है! कारण यह है कि हम डरते हैं, जिस दिन भी कोई अपने आमने-सामने होगा, अपने भीतर झांकेगा, तो घबड़ा जाएगा। अतल शून्य का साक्षात्कार करने की सामर्थ्य!
लेकिन जो भी उस शून्य का साक्षात्कार कर लेता है, उसमें पूर्ण उतर आता है। उसने शर्त पूरी कर दी। पूर्ण को पाने की शर्त है: महाशून्य को स्वीकार कर लेना। इसे चाहे तुम समर्पण कहो, चाहे संन्यास कहो, चाहे ध्यान, चाहे समाधि, प्रेम, प्रार्थना, पूजा, भक्ति, जो तुम्हारी मर्जी, जो नाम तुम देना चाहो। नामों में मुझे बहुत रस नहीं है। तुम्हारी आंखें उस प्यारे से भर जाएं। तुम्हारी दृष्टि में कोई और जगह ही न रहे।
ठीक कहते हैं रहीम:
‘प्रीतम छबि नैनन बसी, पर छबि कहां समाय।’
अब मैं चाहूं भी कि कोई और छबि मेरी आंखों में समा जाए--धन की, पद की, प्रतिष्ठा की--तो जगह ही नहीं है। अब तो उस प्यारे से आंखें भर गई हैं।
‘भरी सराय रहीम लखि...’
जैसे कि सराय भरी हो।
‘...पथिक आप फिर जाय।।’
आते हैं पथिक, लेकिन सराय भरी देख कर लौट जाते हैं।
वासनाएं फिर भी आएंगी, इच्छाएं फिर भी आएंगी, द्वार खटखटाएंगी। आकांक्षाएं फिर भी फुसलाएंगी, सब तरह के प्रलोभन देंगी, मगर कोई चिंता नहीं। एक बार प्रभु भीतर विराजमान हो गया--भरी सराय रहीम लखि, पथिक आप फिर जाय--कि फिर ये सब अपने आप चले जाते हैं। इन्हें छोड़ना भी नहीं पड़ता। ये खुद ही उदास होकर चले जाते हैं। ये खुद ही हताश होकर चले जाते हैं। जगह ही नहीं भीतर।
परमात्मा विराट है! वह भर जाए तुम्हारे भीतर तो कहां जगह बचेगी? रंचमात्र जगह न बचेगी। वही फिर भीतर होगा, वही फिर बाहर होगा। लेकिन उसे भरने की शर्त पूरी करनी होती है। शर्त सीधी-साफ है। शर्त है कि तुम जो थोड़े-बहुत भी हो, वह भी न रह जाओ। ऐसे तो निन्यानबे प्रतिशत तुम खाली ही हो; एक प्रतिशत है जो तुमने झूठ से भर रखा है। उस झूठ को भी गिर जाने दो। एक बार साहस करके उस झूठ को भी समर्पित कर दो। एक बार पूरे-पूरे शून्य हो जाओ। और फिर चमत्कार देखो!
अर्पित मेरी भावना--इसे स्वीकार करो!

तुमने गति का संघर्ष दिया मेरे मन को,
सपनों को छवि के इंद्रजाल का सम्मोहन;
तुमने आंसू की सृष्टि रची है आंखों में,
अधरों को दी है शुभ्र मधुरिमा की पुलकन;

उल्लास और उच्छवास तुम्हारे ही अवयव,
तुमने मरीचिका और तृषा का सृजन किया;
अभिशाप बना कर तुमने मेरी सत्ता को,
मुझको पग-पग पर मिटने का वरदान दिया;

मैं हंसा तुम्हारे हंसते से संकेतों पर,
मैं फूट पड़ा लख बंक भृकुटि का संचालन;
अपनी लीलाओं से है विस्मित और चकित!
अर्पित मेरी भावना--इसे स्वीकार करो!

अर्पित है मेरा कर्म--इसे स्वीकार करो!
क्या पाप और क्या पुण्य इसे तो तुम जानो,
करना पड़ता है केवल इतना ज्ञात यहां;
आकाश तुम्हारा और तुम्हारी ही पृथ्वी,
तुम में ही तो इन सांसों का आघात यहां;

तुम में निर्बलता और शक्ति इन हाथों की,
मैं चला कि चरणों का गुण केवल चलना है;
ये दृश्य रचे, दी वहीं दृष्टि तुमने मुझको,
मैं क्या जानूं क्या सत्य और क्या छलना है।

रच-रच कर करना नष्ट तुम्हारा ही गुण है,
तुम में ही तो है कुंठा इन सीमाओं की;
है निज असफलता और सफलता से प्रेरित!
अर्पित है मेरा कर्म--इसे स्वीकार करो!
अर्पित मेरा अस्तित्व--इसे स्वीकार करो!

रंगों की सुषमा रच, मधुऋतु जल जाती है,
सौरभ बिखरा कर फूल धूल बन जाता है;
धरती की प्यास बुझा जाता गल कर बादल,
पाषाणों से टकरा कर निर्झर गाता है;

तुमने ही तो पागलपन का संगीत दिया,
करुणा बन गलना तुमने मुझको सिखलाया;
तुमने ही मुझको यहां धूल से ममता दी,
रंगों में जलना मैंने तुम से ही पाया।

उस ज्ञान और भ्रम में ही तो तुम चेतन हो,
जिनसे मैं बरबस उठता-गिरता रहता हूं;
निज खंड-खंड में हे असीम तुम हे अखंड!
अर्पित मेरा अस्तित्व--इसे स्वीकार करो!
एक बार सब छोड़ दो उस अज्ञात के चरणों में--अपने अहंकार को, अपने कर्ताभाव को। कह दो उससे: तेरी जो मर्जी! जैसा नचाएगा, नाचेंगे! जो कराएगा, करेंगे! हम करने वाले नहीं हैं, हम सिर्फ अभिनेता हैं। तू जो निर्णय लेगा, जो पात्र बनने की आज्ञा देगा, वही बन जाएंगे। न हमारा कोई निर्णय है, न हमारी अपनी कोई नियति है। तेरे हाथों में सब है।
इतना समर्पण जो कर सके वह पूर्ण शून्य हो जाता है। और जब तुम पूर्ण शून्य हो जाते हो, तो तुम्हारा शून्य, तुम्हारा शून्य ही उस पूर्ण के लिए निमंत्रण है। वह पूर्ण तत्क्षण उतर आता है--नाचता, गुनगुनाता, महोत्सव लिए।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं अत्यंत आलसी हूं। इससे भयभीत होता हूं कि मोक्ष-उपलब्धि कैसे होगी? मार्ग-दर्शन दें!
धर्मेंद्र,
मोक्ष कोई उपलब्धि नहीं है। उपलब्धि की भाषा में तुमने मोक्ष को सोचा, कि चूके। मोक्ष कोई लक्ष्य नहीं है, जिसको पाना है; मोक्ष हमारा स्वभाव है। जिसे पाना नहीं है; जिसे हमने कभी खोया ही नहीं है। सिर्फ भूल गए हैं, विस्मृत कर बैठे हैं। पुनर्स्मरण करना है, बस केवल पुनर्स्मरण करना है।
कबीर, नानक, दादू एक शब्द का उपयोग करते हैं, प्यारा शब्द है--सुरति। सुरति आया बुद्ध के शब्द स्मृति से। बस स्मृति करनी है, उसकी सुरति करनी है, सुमिरण करना है।
लेकिन सुमिरण लोगों ने कुछ का कुछ बना डाला। सुमिरण का अर्थ हो गया: बैठ कर माला फेर रहे हैं, कि राम-नाम की चदरिया ओढ़े हैं, कि बैठे हैं तोते की तरह राम-राम राम-राम राम-राम कहे जा रहे हैं।
सुमिरण, सुरति, स्मृति, स्मरण--इतनी सस्ती बात नहीं, कि तुमने कुछ मंत्र सीख लिए और दोहराने लगे तोतों की तरह, तो तुम उपलब्ध हो जाओगे। सुरति की प्रक्रिया है: तुम्हें अपने सारे झूठ छोड़ने होंगे। तुम्हें एक-एक झूठ को पहचान-पहचान कर छोड़ना होगा।
और झूठ की परतों पर परतें हैं तुम्हारे ऊपर। तुमने झूठ के कितने वस्त्र पहन रखे हैं! तुम अगर गौर से देखोगे तो बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे। जैसे प्याज पर छिलके पर छिलके होते हैं, ऐसे तुम पर झूठ पर झूठ, पर्त पर पर्त है। जैसे प्याज को छीलने बैठ जाओ तो एक पर्त छिली नहीं कि दूसरी पर्त आ जाती है, दूसरी पर्त छिली नहीं कि तीसरी पर्त आ जाती है--ऐसी ही तुम्हारी दशा है। सदियों-सदियों में, जन्मों-जन्मों में स्वभावतः तुमने बहुत धूल की परतें इकट्ठी कर ली हैं, बहुत मिथ्या इकट्ठे कर लिए हैं। तुम जो नहीं हो, दिखलाते हो। तुम जो नहीं हो, बतलाते हो। तुम कुछ करते हो, कुछ कहते हो, कुछ होते हो। इस तरह तुम्हारे जीवन में, तुम जो हो, उसका विस्मरण हो गया है। दूसरों को झूठ दिखाते-दिखाते तुमने खुद ही अपने झूठों पर भरोसा कर लिया है।
तुम एक झूठ बोलते रहो दस-पांच वर्ष तक। फिर दस-पांच वर्ष के बाद यह याद करना मुश्किल ही हो जाएगा कि यह झूठ है या सच है! दस वर्षों तक दोहराओगे, पुनरुक्ति करोगे...और अगर दूसरों ने तुम्हारे झूठ को मान भी लिया, तब तो और मुश्किल हो जाएगी। उनकी आंखों में भरोसा देख कर तुम्हारी आंखों में भी भरोसा जगेगा। लगेगा कि जब इतने लोग मान रहे हैं तो बात ठीक ही होगी। धीरे-धीरे तुम भूल ही जाओगे कि तुमने एक झूठ की शुरुआत की थी।
और ऐसा हम सदियों से कर रहे हैं, अनंत जन्मों से कर रहे हैं। इसलिए हमें अपने मूल स्वभाव का बोध नहीं रहा है। मिट नहीं गया है हमारा मूल स्वभाव; जो मिट जाए वह स्वभाव नहीं। जो नहीं मिटता है उसी का नाम स्वभाव है। जो खो जाए उसका नाम स्वरूप नहीं। जो नहीं खोया जा सकता उसी का नाम स्वरूप है।
और मोक्ष का क्या अर्थ होता है?
झूठ के जाल से अपने स्वरूप को मुक्त कर लेना है। मोक्ष कुछ पाने की बात नहीं कि कहीं दूर है। मोक्ष कोई दिल्ली नहीं है। मोक्ष तुम्हारे भीतर है। मोक्ष तुम हो।
सो धर्मेंद्र, चिंता न करो। और किसने तुम्हें समझा दिया कि तुम आलसी हो? आस-पास लोग हैं, जो इस तरह की बातें कहते रहते हैं। अगर तुम धन की दौड़ में थोड़े धीमे हो, वे कहेंगे कि आलसी हो। अरे दूसरों को देखो, धनों के अंबार लगा लिए! और तुम वही के वही! दूसरों को देखो, क्या से क्या हो गए! और तुम वही के वही! महल खड़े कर लिए औरों ने, तुम अपना झोपड़ा भी नहीं सम्हाल पा रहे हो! यह भी कब किस बाढ़ में बह जाएगा पता नहीं।
तो लोग कहते हैं, आलसी हो। तुम्हारी पत्नी तुमसे कहेगी, आलसी हो। क्योंकि देखते नहीं दूसरे पतियों को, क्या-क्या भेंटें अपनी पत्नियों को नहीं ले आते हैं! हीरे-जवाहरातों से लाद दिया है! और एक तुम हो! देखो दूसरों को!
तुम्हारे बेटे, तुम्हारे बच्चे तुमसे कहेंगे कि आप आलसी हो। दूसरों के बच्चे कारों में स्कूल जा रहे हैं और हम अभी भी पैदल घसिट रहे हैं!
आलसी तो तुलनात्मक बात है। कौन तुमसे कह रहा है कि तुम आलसी हो? किस कारण कह रहा है? जरा इस पर गौर करना! धन की दौड़ में तुम शायद पिछड़ रहे हो। मगर हर्ज क्या? जो आगे हो गए हैं वे ही क्या कुछ खाक पा लेंगे! सिकंदरों ने क्या पा लिया? और जो पीछे रह गए उन्होंने क्या गंवा दिया? यहां न कुछ पाना है, न कुछ गंवाना है। सब खेल है। किसी ने रेत का बड़ा मकान बना लिया, किसी ने रेत का छोटा मकान बनाया। दोनों मकान गिर जाने के हैं। दोनों के नाम-निशान मिट जाने के हैं। तो क्या फिकर कि तुम छोटा ही बना पाए और दूसरे ने बहुत बड़ा बना लिया! ताश के घर हैं, अभी आएगा हवा का झोंका और सबको ले जाएगा। न छोटे को छोड़ेगा न बड़े को छोड़ेगा। क्या चिंता करते हो?
दूसरों ने तुम्हें समझा-समझा कर...चारों तरफ से यह बात उठी होगी कि तुम प्रतिद्वंद्विता में पिछड़ रहे हो...और हो सकता है तुम भले आदमी होओ। नाम से, धर्मेंद्र, अच्छा लगता है नाम। हो सकता है भले आदमी होओ। यह गला-घोंट प्रतियोगिता, जिसमें जब तक एक-दूसरे की गर्दन न काटो, कोई गति नहीं है, इसमें अगर तुम पिछड़ गए हो, तो हो सकता है थोड़े भलेमानुष हो, सज्जन हो। इसमें तो दुर्जनों की गति है। इसमें तो दुष्ट आगे हो जाने वाले हैं। क्योंकि वे फिकर ही नहीं करते। सौ-सौ जूते खाएं, तमाशा घुस कर देखें! उन्हें कोई चिंता ही नहीं, कितने ही जूते पड़ें, कोई फिकर नहीं; कितने ही कुटें, कितने ही पिटें, लेकिन दिल्ली पहुंच कर रहेंगे। रास्ते भर कुटेंगे-पिटेंगे, कोई फिकर नहीं!
मैंने सुना, बनारस के एक कुत्ते को दिल्ली जाने का फितूर समाया। देखा होगा सभी दिल्ली जा रहे हैं, चुनाव का वक्त! कुत्ते के भी दिमाग में धुन समा गई। उसने कहा, मैं भी दिल्ली जाऊंगा। बनारस के दूसरे धार्मिक कुत्तों ने समझाया कि पागल, सारी दुनिया बनारस आती है, तू दिल्ली जा रहा है? मगर वह नहीं माना। नहीं माना तो उन्होंने कहा, ठीक है, अब तू जा ही रहा है तो हमारे प्रतिनिधि की तरह जा! सारे कुत्तों ने उसे मिल कर फूलमालाएं पहनाईं और कहा कि तू हमारा प्रतिनिधि है। प्रधानमंत्री से भी मिल लेना, राष्ट्रपति से भी मिल लेना और हम कुत्तों के साथ जो दुर्व्यवहार किया जा रहा है सदियों-सदियों से, उसकी शिकायत भी कर देना।
लंबी यात्रा थी। कुत्ता तेज था, लेकिन आशा थी कि कम से कम इक्कीस दिन लगेंगे पहुंचने में। तो इक्कीस दिन के लिए भोजन इत्यादि की उन्होंने बांध दी पोटली। कलेवा इत्यादि का इंतजाम कर दिया। लेकिन वह कुत्ता सात दिन में ही दिल्ली पहुंच गया! दिल्ली के कुत्तों को भी खबर हो चुकी थी कि बनारस से कुत्ता आता है, तो वे भी स्वागत की तैयारी कर रहे थे। मगर उनकी तैयारियां ही पूरी नहीं हो पाई थीं। न मंच बना था, न झंडे लगे थे, न झंडियां बंधी थीं और यह कुत्ता पहुंच गया! उन्होंने कहा, हद्द कर दी भाई! इक्कीस दिन की यात्रा सात दिन में पूरी कर ली! यह हुआ कैसे?
वह कुत्ता मुस्कुराया और उसने कहा, अपने ही भाई-बंधुओं के कारण हुआ।
कुत्तों ने पूछा, हम समझे नहीं! पहेली न बूझो, सीधी-सीधी बात करो। यह क्या हुआ? अब तक किसी ने भी सात दिन में यात्रा नहीं की!
उस कुत्ते ने कहा कि यात्रा इक्कीस दिन की ही थी, लेकिन सात दिन में इसलिए पूरी हो गई कि जिस गांव में घुसा उसी गांव के कुत्ते मेरे पीछे पड़ गए! ऐसी भौंका-भांकी मचाई, टिकने ही नहीं दिया कहीं! और जब तक वे छोड़ कर गए, दूसरे गांव के कुत्तों ने पकड़ लिया! एक रात विश्राम नहीं किया। यह कलेवे की पोटली खोलने का मौका नहीं मिला। भूखा-प्यासा हूं, मगर चित्त प्रसन्न है कि दिल्ली तो आ गया! जो राह में गुजरी सो गुजरी, जो बीती सो बीती--बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले। कोई फिकर नहीं, जीवित आ गए, इतना ही बहुत है।
लोग भागे जा रहे हैं। इक्कीस दिन की यात्राएं सात दिनों में पूरी हो जाती हैं। लोग गति के दीवाने हैं। स्वभावतः तुम अगर धीमे-धीमे चलोगे, तुम अगर मस्ती से चलोगे, लोग कहेंगे: आलसी हो। यह कोई चाल हुई! यह कोई ढंग हुआ! अरे बीसवीं सदी में जी रहे हो और यह बैलगाड़ी की चाल! यह जनवासे की चाल के दिन नहीं रहे! दौड़ो! ये ढीले-ढाले कपड़े पहने हुए नहीं पहुंच पाओगे। चूड़ीदार पाजामा!
चूड़ीदार पाजामा चीज ऐसी है कि मुर्दे को भी पहना दो तो वह दौड़े। क्योंकि उसमें ऐसा फंसा हुआ मालूम पड़ता है कि लगता है कैसे निकल जाऊं! इसलिए तो नेताओं के लिए हमने चूड़ीदार पाजामा चुना है। मरे-मराए, मुर्दे, जिनको कभी का कब्रों में होना चाहिए था, वे चूड़ीदार पाजामा के बल से चलते हैं। तुम भी देखो एक दिन चूड़ीदार पाजामा पहन कर। दो घंटे तो पहनने में लगते हैं, दो आदमी पहनाने को चाहिए। और उतारने की तो तुम पूछो ही मत! और जब आदमी एकदम कस जाता है तो दो सीढ़ियां एक साथ छलांग लगाता है।
तो इस भाग-दौड़ की दुनिया में, धर्मेंद्र, लोग क्या कहते हैं, इसकी चिंता न करो। और लोगों ने ही तुम्हें यह भ्रांति बिठा दी होगी कि आलसी हो!
मैंने तो किसी को आलसी नहीं देखा। सांस ले रहे हो मजे से। आलसी तो सांस ही न ले। खाते-पीते हो, पचाते भी हो। आलसी तो पचाए ही नहीं। आलसी तो खाए-पीए कौन, कौन झंझट करे! उठते-बैठते हो, नहाते-धोते हो, चलते-फिरते हो। पर आदमी जैसे आदमी हो तो आलसी समझे जाओगे। घबड़ाओ मत, तुम तो दास मलूका का स्मरण रखो:
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
तुम भी कहां की बातों में पड़े हो--आलसी! और तुमने मान भी लिया, औरों ने समझा भी दिया! मान लोगे तो समस्या बन जाएगी।
और मोक्ष से तो कोई अड़चन ही नहीं है। अगर आलसी भी हो--चलो मान ही लें, सिर्फ मानने के लिए, बात पूरी करने के लिए कि आलसी ही हो--तो भी मोक्ष से कोई विरोध नहीं है आलस्य का। मोक्ष कोई दौड़ थोड़े ही है। मोक्ष तो दौड़ छोड़ना है।
अक्सर ऐसा हुआ है कि आलसियों ने पा लिया है और कर्मठ चूक गए हैं। क्योंकि आलसी बैठ सकता है शांत, लेट सकता है शांत। उसे बहुत आपा-धापी नहीं है। वह ज्यादा भाग-दौड़ में नहीं है। वह आंख भी बंद कर ले सकता है, वह घड़ी दो घड़ी के लिए बिलकुल निश्चिंत अपने में डूब भी सकता है। उसका ही मोक्ष है। क्योंकि मोक्ष अर्थात स्वभाव। तुम्हारी झूठों की परतों के भीतर छिपी जो तुम्हारी स्वरूप की धारा है, उसका अनुभव। तुम जो वस्तुतः हो, उसकी पहचान। तुम्हारे मौलिक रूप की प्रतीति, साक्षात्कार।
कोई मोक्ष ऐसा थोड़े ही है कि सीढ़ी लगानी है आकाश पर। लोगों का यही खयाल है कि मोक्ष यानी कहीं दूर आकाश में। जब भी तुम्हें मोक्ष का खयाल आएगा या स्वर्ग का खयाल आएगा तो बस देखोगे आकाश की तरफ। और नरक का जब खयाल आएगा तो सोचोगे नीचे, पाताल!
मगर भाई मेरे, पाताल में अमरीका है! और अमरीकी जब सोचते हैं नरक की, तो तुम हो। क्योंकि तुम उनके नीचे पड़ रहे हो। और अमरीकी जब स्वर्ग की सोचते हैं, तो तुम जहां नरक सोचते हो वहां उनका स्वर्ग है, और तुम जहां स्वर्ग सोचते हो वहां उनका नरक है। जमीन गोल है, थोड़ा इसका खयाल रखो। इसमें कौन नीचे, कौन ऊपर! और आकाश की कोई सीमा नहीं है, इसलिए ऊपर-नीचे कुछ हो नहीं सकता। ऊपर-नीचे तो तभी कोई चीज हो सकती है जब सीमा हो। आकाश तो असीम है, और पृथ्वी गोल है। कोई सीढ़ी थोड़े ही लगानी है। कहीं और थोड़े ही जाना है। अपने में जाना है।
और मोक्ष उपलब्धि नहीं है। उपलब्धि की भाषा अहंकार की भाषा है। मोक्ष तो वह है जो तुम्हें मिला ही हुआ है, तुम भूले-बिसरे बैठे हो। जैसे जेब में तो पैसे पड़े हों और तुम भूल गए। कई बार तुम्हें ऐसा हो जाता है--जो लोग चश्मा लगाते हैं उनको याद होगा--चश्मा तो लगाए हुए हैं और चश्मा खोज रहे हैं। चश्मा ही लगा कर चश्मे ही को खोज रहे हैं! जिन लोगों की आदतें हैं कलम को कान में खोंस लेने की, वे कान में कलम को खोंस लेंगे और फिर कलम को खोजते फिरेंगे।
बस भूली, बिसर गई बात। थोड़ा स्मरण लाना है। और स्मरण की क्षमता सभी में है। वह हमारे चैतन्य का स्वभाव है। वह चैतन्य की आंतरिक क्षमता है, उसका गुण है। जैसे आग का गुण है गर्म होना और बर्फ का गुण है ठंडा होना, वैसे चैतन्य का गुण है--सुरति, स्मृति। चैतन्य का गुण है--होश, याद। इसलिए व्यर्थ अपने मन को छोटा न करो, ओछा न करो।
देखो, सोचो, समझो; सुनो-गुनो औ’ जानो,
इसको, उसको--संभव हो निज को पहचानो।
लेकिन अपना चेहरा जैसा है, रहने दो;
जीवन की धारा में अपने को बहने दो,
तुम जो कुछ हो, वही रहोगे--मेरी मानो!
कोई तुम्हें अन्यथा नहीं होना है, तुम्हें कुछ और नहीं होना है।
तुम जो कुछ हो, वही रहोगे--मेरी मानो!
देखो, सोचो, समझो; सुनो-गुनो औ’ जानो,
इसको, उसको--संभव हो निज को पहचानो।
लेकिन अपना चेहरा जैसा है, रहने दो;
जीवन की धारा में अपने को बहने दो,
तुम जो कुछ हो, वही रहोगे--मेरी मानो!

वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो
तुम समर्थ तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो,
लेकिन अचरज इतना, तुम कितने भोले हो,
ऊपर से ठोस दिखो, अंदर से पोले हो।
बन कर मिट जाने की तुम एक कहानी हो!

पल में हंस देते हो, पल में रो पड़ते हो,
अपने में रम कर तुम अपने से लड़ते हो,
पर यह सब तुम करते, इस पर मुझे शक है
दर्शन-मीमांसा--यह फुर्सत की बकझक है!
जमने की कोशिश में रोज तुम उखड़ते हो!

थोड़ी-सी घुटन और थोड़ी रंगीनी में;
चुटकी भर मिरचे में, मुट्ठी भर चीनी में
जिंदगी तुम्हारी सीमित है--इतना सच है,
इससे जो कुछ ज्यादा, वह सब तो लालच है।
दोस्त उम्र कटने दो, इस तमाशबीनी में!

धोखा है प्रेम-बैर, इसको तुम मत ठानो,
कड़वा या मीठा, रस तो है छक कर छानो!
चलने का अंत नहीं, दिशा-ज्ञान कच्चा है।
भ्रमने का मारग ही सीधा है, सच्चा है।
जब-जब थक कर उलझो तब-तब लंबी तानो!

देखो, सोचो, समझो; सुनो-गुनो औ’ जानो,
इसको, उसको--संभव हो निज को पहचानो।
लेकिन अपना चेहरा जैसा है, रहने दो;
जीवन की धारा में अपने को बहने दो,
तुम जो कुछ हो, वही रहोगे--मेरी मानो!
जीवन की धारा में बहे चलो। अभिनय की तरह पूरा किए चलो। एक तमाशबीन की तरह। तादात्म्य न बनाओ। एक द्रष्टा की तरह। जैसे कि कोई नाटक देखता हो, ऐसे ही जीवन को देखते हुए बहे चलो। परमात्मा जहां ले चले, जो करवाए, किए चलो। कर्ता वही, नियंता वही, तुम सब उस पर छोड़ कर निर्भार हो रहो। अगर तुम बह सको तो क्या चिंता है आलस्य की! सबके दाता राम!
इतना बड़ा विराट अस्तित्व, किस माधुर्य से, किस संगीत से, किस लयबद्धता से चल रहा है! तुम एक अकेले व्यर्थ परेशान हो रहे हो। लेकिन कारण है, समझाया गया है बार-बार तुम्हें: मोक्ष को पाना है! मोक्ष के लिए श्रम करना है! मोक्ष के लिए तपश्चर्या करनी है! मोक्ष के लिए संकल्प जुटाना है! मोक्ष को एक गंतव्य बना दिया है--एक दूर का तारा! मोक्ष को भी अहंकार के लिए एक लक्ष्य बना दिया है। जब कि अहंकार का लक्ष्य मोक्ष कभी भी नहीं बन सकता। जब तक अहंकार है तब तक कहां मोक्ष! जब अहंकार नहीं है तो जो शेष रह जाता है, वही मुक्ति की अवस्था है, वही मोक्ष है, वही निर्वाण है, वही ब्रह्म-भाव है।
धर्मेंद्र, व्यर्थ चिंता न करो। यहां तक आ गए, यही कुछ कम प्रमाण है कि तुम आलसी नहीं हो! तुमने आलसियों की कहानियां तो पढ़ी ही होंगी।
दो आलसी लेटे हैं एक वृक्ष के नीचे। जामुन पक गई हैं और जामुन टपाटप पड़ रही हैं। एक आलसी दूसरे से कहता है कि भाई मेरे, यह भी क्या दोस्ती हुई! अरे दोस्त वह जो वक्त पर काम पड़े। जामुनें टपाटप गिर रही हैं, पड़े तुम सुन रहे हो, तुमसे यह भी नहीं होता कि एक जामुन उठा कर मेरे मुंह में दे दो!
दूसरे ने कहा कि जा-जा, बड़ा दोस्त बनने आया है! हां, यह मैं भी मानता हूं कि दोस्त वही जो वक्त पर काम आए। अभी थोड़ी देर पहले एक कुत्ता मेरे कान में मूत रहा था, तूने भगाया?
एक आदमी यह सुन रहा था, राह से जाता हुआ। उसने कहा हद हो गई! आया, एक-एक जामुन उठा कर दोनों के मुंह में रख दीं। चलने को हुआ तो एक ने आवाज दी, भाई, जाते कहां! कम से कम गुठली तो निकाल जाओ। नहीं तो अब ताजिंदगी हम गुठली ही मुंह में रखे पड़े रहेंगे! और एक झंझट कर दी। जरा रुको।
लेकिन इनको भी मैं आलसी नहीं कहूंगा। अगर सच्चे आलसी होते तो इतनी भी कौन बातचीत करता, कि भाई, जामुनें टपाटप गिर रही हैं, हमारे मुंह में डालो। इतना भी आलसी से होता? कि कहां चले, कि जरा गुठली तो निकाल जाओ। यह भी आलसी से होता? आलसी तो जी ही नहीं सकता। यहां कोई आलसी नहीं है। हां, तारतम्यता है, क्रम है। कुछ कम दौड़ते हैं, कुछ ज्यादा दौड़ते हैं।
लेकिन कम दौड़ने वाले के लिए कुछ मोक्ष कठिन है, मुश्किल है, दूर है--ऐसा मत समझना। मोक्ष कोई ओलंपिक की दौड़ नहीं। मोक्ष तुम्हारी निजता है। वृक्ष के नीचे पड़े-पड़े भी, ये जो दो आलसी हैं, ये भी मुक्त हो सकते हैं। ये वृक्ष के नीचे पड़े-पड़े ही मुक्त हो सकते हैं।
इस बात को तुम गांठ बांध लो कि मोक्ष तो तुम्हारे भीतर ही है। इतना भी नहीं है कि टपाटप हो रहा हो कि कोई तुम्हारे मुंह में डाले। तुम्हारे भीतर ही है, तुम ही हो! तुम से जरा भी भिन्न नहीं है। जिस क्षण शांत हो जाओगे, उसी क्षण जान लोगे। जिस क्षण मौन हो जाओगे, उसी क्षण यह अपूर्व रोशनी तुम्हारे भीतर जगमग हो उठेगी, जैसे हजार-हजार सूरज एक साथ ऊग आए हों!
कहीं शिथिल कुछ, कहीं अधिक कुछ खिंचे,
आज क्यों तार बीन के?
लरज-लरज जाते, स्वर सुंदर सहज नहीं
सुकुमार बीन के!

शिथिल हुई संगीत-साधना,
चिढ़-चिढ़ कर चढ़ गईं त्योरियां;
हिला सहज विश्वास हृदय का,
अंगुलियों की कंपी पोरियां;

ध्यान भंग हो गया, गया तदभाव,
नयन थे पार बीन के!
कहीं शिथिल कुछ, कहीं अधिक कुछ खिंचे,
आज क्यों तार बीन के?

मनोयोग से, वीणावादी!
कर वादी-संवादी वश में!
समय सत्य तो अमृत प्रेम तू
भर वीणा के युगल कलश में!

सुधा-सिक्त स्वर-लहर जगाएं तार-तार--
शत बार बीन के!
कहीं शिथिल कुछ, कहीं अधिक कुछ खिंचे,
आज क्यों तार बीन के?
जरा सी बात करने की है। हम भी वीणा हैं--वैसी ही वीणा जैसे बुद्ध, जैसे कृष्ण; वैसी ही वीणा जैसे महावीर, जैसे मोहम्मद। लेकिन बस तार हमारे कहीं कुछ थोड़े ज्यादा खिंचे हैं, कहीं कुछ थोड़े ढीले हैं, इसलिए स्वर ठीक से जगते नहीं, स्मृति ठीक से उठती नहीं; बोध ठीक से पकड़ में नहीं आता, छूट-छूट जाता है। बस जरा तारों को थोड़ा सा ठीक बिठा लेना है।
वीणा के तार ठीक बैठ जाएं, सम-स्वर हो जाएं, तो संगीत अभी उठा! तारों में संगीत सोया पड़ा है, छेड़ने की ही बात है। तार भी भीतर हैं, छेड़ने वाला भी भीतर है, संगीत भी भीतर है--सब कुछ तुम्हारे भीतर है। थोड़े से कुछ तार ज्यादा खिंच गए हैं, उनको थोड़ा ढीला करो; कुछ तनाव हैं मन में, उन तनावों को थोड़ा शिथिल करो। कुछ तार थोड़े ढीले हो गए हैं, कुछ जीवन में अतिशय लिप्सा है, भोग है, उन तारों को थोड़ा सा कसो।
मगर भूल मत कर लेना, जैसा कि अक्सर हो जाती है। अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो तार ढीले थे, उनको लोग ज्यादा कस लेते हैं; जो तार ज्यादा कसे थे, उनको ज्यादा ढीला कर देते हैं। बात वही की वही रहती है। बीमारी वही की वही रहती है। दवा भी हो गई और बीमारी बदलती भी नहीं।
यही तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी करते हैं। जिनको तुम तपस्वी कहते हो, ये तुमसे उलटे लोग हैं, मगर तुमसे भिन्न नहीं। तुम पैर के बल खड़े हो, वे सिर के बल खड़े हैं, मगर ठीक तुम जैसे ही लोग हैं। तुम्हारे आधे तार खिंचे थे, उनके भी आधे तार खिंचे हैं। तुम्हारे आधे तार ढीले थे, उनके भी आधे तार ढीले हैं। हां, तुम्हारे दूसरे आधे तार ढीले हैं, उनके दूसरे। तुम्हारे दूसरे आधे तार खिंचे थे, उनके दूसरे आधे तार खिंचे हैं। मगर न वीणा तुम्हारी संगीत उठा रही है, न वीणा उनकी संगीत उठा रही है। सच तो यह है कि साधारण जीवन में तुम्हें लोगों के चेहरों पर ज्यादा प्रफुल्लता, ज्यादा प्रकाश दिखाई पड़ जाएगा, बजाय तुम्हारे तथाकथित मुनि, तपस्वियों के। उनके चेहरे तो बड़े उदास हैं। तपस्वियों का तो एक नाम ही धीरे-धीरे उदासी हो गया। उनके एक संप्रदाय का नाम ही उदासीन संप्रदाय हो गया। ये जीते-जी मुर्दा हो गए, इनसे क्या खाक स्वर उठेंगे! इन्होंने तो वीणा से आशा ही छोड़ दी। ये तो निराश ही होकर बैठ गए। ये तो हताश ही हो गए।
परमात्मा उत्सव है, महासंगीत है। तुम भी उसके साथ सम्मिलित हो सकते हो--संगीत होकर ही, उत्सव होकर ही।
लेकिन हमारी सदियों-सदियों की धारणाओं ने हमें खूब अंधा कर दिया है।
एक जैन मुनि बहुत दिनों पहले मुझे मिले। उनके भक्तों ने कहा कि देखते हैं आप, तपश्चर्या से इनकी काया कैसी कुंदन जैसी हो गई है!
उनकी काया हो रही थी पीले पत्ते जैसी और भक्त कह रहे कुंदन जैसी! निखरा हुआ सोना! मैंने उनसे कहा, तुम थोड़ा आंख खोल कर तो देखो! इसी आदमी को अगर ससून अस्पताल में लिटा दिया जाए बिस्तर पर और फिर तुम से कहा जाए कि इसको देखो, यह कौन है? तो तुम्हीं कहोगे कि न मालूम कितनी बीमारियों से परेशान है! तुम्हें फिर इसके चेहरे पर कुंदन जैसी आभा नहीं दिखाई पड़ेगी। और तुम्हीं को दिखाई पड़ रही है। किसी गैर-जैन से पूछो! किसी गैर-जैन को नहीं दिखाई पड़ेगी। जैन को दिखाई पड़ रही है। गैर-जैन की तो बात छोड़ दो--ये दिगंबर जैन मुनि थे--तुम जरा श्वेतांबर जैन से पूछो! उसको भी नहीं दिखाई पड़ेगी। वह भी जरा नीची आंख कर लेगा--कहां का नंग-धड़ंग आदमी खड़ा है! और नंग-धड़ंग भी हो, कम से कम देखने-दिखाने में भी सुंदर हो तो भी ठीक। नंग-धड़ंग होना ही काफी नहीं है, शरीर को सब तरह से कुरूप कर लेना भी जरूरी है। हड्डी-हड्डी हो गया है। इसको देख कर तुम्हें सिर्फ मौत की याद आ सकती है, और कुछ भी नहीं। इसको देख कर तुम्हें यही होगा कि जल्दी घर जाएं, अपने बाल-बच्चों को देखें, कि एक दफा तो देख लें।
अभी-अभी बंबई में एक दिगंबर जैन मुनि आए हुए थे: एलाचारी विद्यानंद। उनसे तो बंबई में भेल बेचने वाले भेलाचारी भी बेहतर दिखाई पड़ें। उनके चेहरे पर भी थोड़ी रौनक, थोड़ा रंग, थोड़ी आभा! मगर दिगंबर जैनों को लगेगा कि अहा! कैसा कुंदन जैसा रूप! स्वर्ण जैसा रूप!
उनके मैंने अखबारों में चित्र देखे। जितने चित्र देखे सभी में वे...अब नंग-धड़ंग बैठे हैं, तो नंग-धड़ंग तो अखबार कोई छापने को राजी होगा नहीं, और खुद भी संकोच होता होगा, और भक्तों को भी थोड़ी लाज आती होगी...तो सब अखबारों में जो उनके फोटो छपे हैं, उसमें एक बहुत बड़ा ग्रंथ अपने घुटनों पर रखे हुए बैठे हैं, जिसमें कि उनका नंग-धड़ंगपन न दिखाई पड़े। तो भैया मेरे, एक लंगोट ही पहन लेते, उसमें क्या हर्जा था? इतना बड़ा ग्रंथ, इससे लंगोट हलका होता, ज्यादा सरल होता! एक तिग्गी बांध लेते। इतना बड़ा ग्रंथ लिए बैठे हो--जरा सी बात छिपाने को!
मगर जो हमारी धारणा हो, वहां हमें कुछ नहीं गड़बड़ दिखाई पड़ती। जैन घरों में महावीर की तस्वीरें टंगी होती हैं। तो तस्वीरें इस तरह से बनाते हैं वे कि महावीर खड़े हैं, ध्यान कर रहे हैं और एक झाड़ की शाखा लंगोटी का काम कर रही है।
क्यों सता रहे हो बेचारों को!
मैं एक घर में मेहमान था। तस्वीर सुंदर थी, मगर एक शाखा सब गड़बड़ कर देती है। और घने पत्ते उसमें उगे हुए हैं, तो महावीर की नग्नता छिप जाती है। मैंने उनसे पूछा कि एक बात पूछूं, पतझड़ के दिनों में क्या करते होंगे? उन्होंने कहा, मतलब? मैंने कहा, जब ये पत्ते गिर जाते होंगे, फिर? उन्होंने कहा, आप भी क्या बात कर रहे हैं, अरे यह तस्वीर है! मैंने कहा, तस्वीर है, वह तो मुझे भी मालूम है, मगर असलियत की तो सोचो! महावीर अगर ऐसे हमेशा ही जब देखो तब झाड़ की आड़ में खड़े रहते होंगे, पतझड़ में क्या करते होंगे? और कहीं आते-जाते थे कि नहीं? क्योंकि जब देखो तब, जहां जाता हूं वहीं ये झाड़ की आड़ में ही खड़े हैं! या तो इस झाड़ को सब जगह साथ ले जाते होंगे, कि रखे हैं एक बैलगाड़ी में झाड़! तो वह असली जीवन न हुआ, वह तो ऐसे ही हुआ जैसे कि झांकियां निकलती हैं--कि ट्रक पर सवार हैं, झाड़ लगा हुआ है, उसके बगल में खड़े हुए हैं। इतना उपद्रव! एक जरा सी हनुमान जी की लंगोटी, लाल लंगोटी से काम पूरा हो जाता। जांघिया, चड्ढी, जो तुम्हारा इरादा हो ले लो!
मगर जो हमारी धारणा है वह हमें नहीं दिखाई पड़ती। हम अपनी धारणाओं के प्रति अंधे होते हैं। हमने सदियों-सदियों से उदासीन आदमी को समझा है कि यह विरक्त, पहुंचा हुआ है!
सिद्ध तो वही है जो परम उत्सवमय है; जिसके जीवन में नृत्य है, गीत है। और जीवन में नृत्य और गीत तभी होता है जब वीणा के सारे तार ठीक-ठीक कस गए हों। न ज्यादा ढीले, न ज्यादा कसे; ठीक मध्य में आ जाएं। जब ठीक मध्य में होते हैं, जहां सम्यकत्व होता है, जहां समता होती है या समाधि...ये सब शब्द बड़े प्यारे हैं। हमारे पास जितने महत्वपूर्ण शब्द हैं, सब सम से बने हैं। सम्यकत्व, समता, समाधि, संबोधि, ये सारे शब्द सम से बने हैं। सम का अर्थ है वह मध्य-बिंदु जो अतियों से पार है, जो अतियों का अतिक्रमण कर गया। न भोग की अति, न त्याग की अति; जो मध्य में ठहर गया है; जो अति से मुक्त हो गया है, अतिशय से मुक्त हो गया है। उसके जीवन में सौंदर्य भी होगा, संगीत भी होगा, सत्य भी होगा।
तुम चिंता न करो आलस्य की। इतना तुम कर सकोगे। इतना मेरा भरोसा है, प्रत्येक आदमी कर सकता है। यह प्रत्येक आदमी का जन्मसिद्ध स्वभाव है। इतना करने में कोई अड़चन नहीं है कि अपने तारों को व्यवस्थित कर ले। और तार व्यवस्थित हो जाएं तो संपदाओं की संपदा तुम्हारे भीतर है। न तो मोक्ष ऊपर है आकाश में, न कहीं दूर है, न किन्हीं और चांद-तारों पर खोजने जाना है। बस अपने भीतर डुबकी लगानी है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, बस यही एक अभीप्सा है: मौन के गहरे अतल में डूब जाऊं छूट जाए यह परिधि परिवेश शब्दों का महत व्यापार सीखा ज्ञान सारा और अपने ही निबिड़ एकांत में बैठा हुआ चुपचाप अंतरलीन हो सुनता रहूं मैं शून्य का संगीत प्रतिपल।
योग प्रीतम,
यही अभीप्सा करने योग्य है।
अभीप्सा और आकांक्षा के भेद को समझ लेना। आकांक्षा होती है सदा पर को पाने की, अन्य को पाने की। इसलिए आकांक्षा में बंधन है, पर-निर्भरता है। मिल जाए तो भी दुख है और न मिले तब तो दुख है ही।
जीवन के इस महत सत्य को समझने की कोशिश करो। जिनको धन नहीं मिलता वे दुखी हैं। क्योंकि उनको लगता है: हार गए, असफल हो गए, कुछ कर न पाए, कुछ जीवन में सिद्ध न कर पाए कि हम भी थे, कि हम भी कुछ थे! जीवन असार गया। और जिनको धन मिल जाता है वे भी दुखी हैं। वे दुखी हैं इसलिए कि जीवन भर दांव पर लगा दिया, धन कमाया, और धन में कुछ है नहीं! मगर धन मिलने पर ही पता चलता है कि इसमें कुछ है नहीं। और अब बहुत देर हो गई। अब किसी से यह कहना भी कि धन में कुछ नहीं है, नाहक अपनी और बदनामी करवानी है। तो लोग और हंसेंगे--कि तुम मूढ़ हो! जिंदगी भर जिस चीज के पीछे दौड़े, अब तुम्हें होश आया! तुम्हें बुद्धि पहले न थी?
तो धनी धन पाकर भी चुप रहता है। भीतर ही भीतर पीड़ित होता है, दुखी होता है, रोता है। और बाहर? मुस्कुराहट!
पद पर पहुंचा हुआ व्यक्ति भीतर तो बेचैन होता है, क्योंकि देखता है कि पद पर तो आ गया, मिला तो कुछ भी नहीं! कुर्सी कितनी ही ऊंची हो जाए, इससे मिलना क्या है? तुम तो जो थे वही हो! सिर्फ कुर्सी की ऊंचाई से तुम्हारे चैतन्य की ऊंचाई नहीं बढ़ जाएगी। काश इतना आसान होता कि कुर्सी की ऊंचाई से चैतन्य की ऊंचाई बढ़ जाती! कि तिजोड़ी में धन के बढ़ने से भीतर की निर्धनता मिट जाती! काश इतना आसान होता कि बाहर यश फैल जाता, नाम फैल जाता, ख्याति फैल जाती, और भीतर सब कुछ तृप्त हो जाता, संतुष्ट हो जाता!
पर ऐसा नहीं होता। सब मिल कर भी कुछ मिलता नहीं, यह मिलने पर पता चलता है। लेकिन तब तक पूंछ कट चुकी होती है। अब किसी और को यह कहना कि हमारी पूंछ भी कट गई और कुछ नहीं मिला, और भी भद्द होगी। तो कटी पूंछ वाला हंसता ही रहता है। वह कहता है कि बड़ा आनंद आ रहा है। पूंछ क्या कटी, जब से पूंछ कटी है, तब से आनंद ही आनंद है। एकदम वर्षा ही हो रही है आनंद की! तुम भी कटवा लो। और जिन-जिन की कट जाती है, वे सब उसी क्लब में सम्मिलित होते जाते हैं। क्योंकि फिर वे एक-दूसरे की हालत समझने लगते हैं। अब किसी से क्या कहना! अब चुप ही रहने में सार है।
अगर इस दुनिया के सारे प्रतिष्ठित लोग, राजनेता, धनी अपने-अपने जीवन की व्यथा को खोल कर कह दें, तो क्रांति हो जाए, लोगों की दौड़ बंद हो जाए। अगर दुनिया के सारे धनी एक स्वर से कह दें कि हमने धन पाया और कुछ भी नहीं पाया, तो तुम्हारी धन की दौड़ एकदम ठहर जाए! लेकिन वे कहते नहीं, वे कह नहीं सकते; क्योंकि वैसा कहना अपने जीवन भर पर कालिख पोत लेनी होगी। तो लोग कहेंगे: तुम कैसे मूढ़ हो! तुम क्यों दौड़े ऐसी चीजों के पीछे जिसमें कुछ भी नहीं था? तो जो हारे हैं वे भी शान जतलाएंगे कि तुमसे तो हम ही अच्छे! देखो न, हम दौड़े ही नहीं!
हैं हारे, दौड़े भी थे। लेकिन अब वे अपनी हार में भी अहंकार की तृप्ति करने लगेंगे। और वे कहेंगे कि हमें पहले ही से पता था! तुम्हें जगह-जगह ये लोग मिलेंगे जो तुमको हर वक्त कहेंगे, हमें पहले से ही पता था कि ऐसा होने वाला है! ऐसी कोई चीज ही नहीं होती दुनिया में जिसका लोगों को पहले से पता न हो! हरेक कहता है: हमें पहले से पता है।
कोलंबस ने जब पहली दफा जाने की चेष्टा की अमरीका, इस आधार पर कि पृथ्वी गोल है, कोई साथ देने को राजी नहीं था। एक व्यक्ति समर्थन को राजी नहीं था। वह तो एक झक्की, स्पेन की रानी ने कहा कि ठीक है, क्या हर्जा है! कितना खर्च होगा! बहुत से बहुत नुकसान ही होगा थोड़ा-बहुत, तो हो जाएगा। अब तुझे इतनी जिद्द है तो कर देख।
सारे लोगों ने रानी को कहा कि व्यर्थ पैसा खराब होगा, यह आदमी मरेगा; नब्बे आदमी यह साथ ले जा रहा है, उनकी जान खतरे में है।
वह रानी झक्की थी, उसने कहा कि होने दो। वैसे ही हजारों लोग मर जाते हैं युद्धों में, नब्बे आदमियों की क्या कीमत है! और एक आदमी को इतना फितूर सवार है, कर लेने दो इसको मन की पूरी!
कोई एक आदमी पक्ष में नहीं था। फिर कोलंबस पहुंच गया अमरीका और उसने खोज लिया अमरीका। और जब वह लौट कर आया तो सारे लोग, पूरा मुल्क ही यह कह रहा था कि अरे हम तो पहले ही कहते थे! कोलंबस तो बड़ा ही हैरान हुआ, जो मिले वही कहे कि कहो, हमने पहले ही कहा था न! हम तो सदा से कहते थे कि भाई कोई साथ दे बेचारे का, वह ठीक कह रहा है। हम तो होता धन तो हमीं साथ दे देते! एक आदमी ऐसा न मिला जो यह कहे कि हम इसके विरोध में थे।
कोलंबस ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं तो चकित हो गया कि लोग भी हद्द हैं, और लोग इतने आत्मविश्वास से कहते थे कि हमने तो पहले ही कहा था, कि उनसे यह कहना भी अच्छा न लगता कि भैया, तुम ही विरोध में थे!
रानी ने एक भोज का आयोजन किया कोलंबस के स्वागत में। देश के सारे धनी, सारे प्रतिष्ठित लोग, दरबारी, सब उपस्थित थे। वजीर, मंत्री, इत्यादि-इत्यादि, सेनापति। उन सबने रानी से कहा, इसमें ऐसी कौन सी खास बात है? अरे, यह तो कोई भी कर सकता था, पृथ्वी गोल है! इसमें कोलंबस ने कोई बड़ा गजब नहीं कर लिया, कोई असंभव संभव नहीं कर दिखाया! यह तो कोई भी कर सकता था!
कोलंबस बैठा यह सुनता रहा इन सब की बातें। भोज चलता रहा और वे सभी यह कहते रहे कि हम तो पहले ही कहते थे कि इसमें कुछ खास मामला नहीं है, बेकार पैसा खराब करना है। लेकिन आपको जिद्द थी, कर लिया। यह तो होने ही वाला था, यह तो तय ही था।
कोलंबस से न रहा गया तो उसने एक अंडा उठाया अपनी थाली में से और कहा कि इसको कोई खड़ा करके बता दे!
कई ने कोशिश की। अंडे को कैसे खड़ा करोगे! वह झट से लुढ़क जाए। लोगों ने कहा, अंडा कहीं खड़ा हो सकता है? सब कहने लगे, अंडा कहीं खड़ा हो सकता है? वे कहने लगे कि कोलंबस पागल हो गया। यह लंबी यात्रा का परिणाम होगा। तीन महीने पहुंचने में लगे--पानी ही पानी, पानी ही पानी! और घबड़ाया रहा होगा कि पहुंचते हैं जमीन पर कि नहीं पहुंचते! फिर लौटते वक्त पता नहीं अपने देश वापस पहुंच पाएंगे कि नहीं, नाव ठीक चल रही है कि नहीं। क्योंकि न तो यंत्र थे, न हिसाब था; कहां टकरा जाएंगे, क्या होगा...। इसका दिमाग खराब हो गया; अंडा कहीं सीधा खड़ा हो सकता है? सबने कोशिश की, सबने कह दिया रानी से, यह कभी नहीं हो सकता। यह आदमी पागल है। हम तो पहले ही कहते थे कि यह आदमी पागल है, वे कहने लगे!
कोलंबस ने उठाया अंडा, उसे एक झटका दिया टेबल पर जोर से, तो उसकी पेंदी अंडे की अंदर सरक गई और वह खड़ा हो गया। उसने कहा, देखो यह खड़ा है!
उन्होंने कहा, अरे! यह तो कोई भी कर सकता है। इसमें क्या खास बात है? तुमने पहले क्यों नहीं कहा? यह तो हम भी कर सकते हैं, यह तो कोई छोटा बच्चा कर सकता है। इसमें ऐसी कौन सी खूबी है?
कोलंबस ने कहा कि जरा तुम सोचो तो कि तुम क्या कह रहे हो बार-बार! जो काम करके बता दिया जाता है, वह कोई भी कर सकता है! और जो काम करके नहीं बताया जा सकता, जब तक नहीं बताया गया, तब तक कोई भी नहीं कर सकता। तुम थोड़ा विचार तो करो!
लोग ऐसे हैं। किसी की सफलता वे स्वीकार नहीं कर सकते; अपनी विफलता स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए जो सफल हो जाते हैं, वे बेचारे हिम्मत नहीं जुटा पाते यह कहने की कि साफ-साफ कह दें कि हमें कुछ मिला नहीं। क्योंकि उनको डर लगता है कि सारे विफल लोग कहेंगे कि हम तो पहले ही कहते थे। तो एक तो जिंदगी गंवाई ठीकरे कमाने में, और फिर लोगों की निंदा सहो, बदनामी सहो, और लोगों की हंसी सहो, और मखौल सहो। इससे बेहतर है चुपचाप रहो, अब जो हुआ सो हुआ। अब यह बात कहो ही मत। अब बाहर मुस्कुराते रहो, और बाकी लोगों को भी दौड़ने दो, दौड़ने ही दो।
ऐसे यह पागल दौड़ जारी रहती है। आकांक्षा कभी भी तृप्ति नहीं लाती--सफल हो जाए तो भी नहीं, असफल हो जाए तब तो लाएगी ही कैसे? अभीप्सा बड़ी और बात है, ठीक उलटी बात है। आकांक्षा होती है पर की, अभीप्सा होती है स्व की। अभीप्सा होती है आत्म-अनुभव की।
योग प्रीतम, यही अभीप्सा आवश्यक है। यह अभीप्सा तुम्हें पूरा-पूरा पकड़ ले, तन-प्राण से पकड़ ले, एक झंझावात की तरह पकड़ ले, तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाए, तुम्हारी पोर-पोर में बैठ जाए, तो क्रांति घटित हो जाएगी। और मैं देखता हूं कि रोज-रोज यह अभीप्सा तुम्हारी सघन हो रही है। तुम ठीक कहते हो:
‘मौन के गहरे अतल में डूब जाऊं
छूट जाए यह परिधि परिवेश
शब्दों का महत व्यापार
सीखा ज्ञान सारा
और अपने ही निबिड़ एकांत में
बैठा हुआ चुपचाप
अंतरलीन हो
सुनता रहूं मैं शून्य का संगीत
प्रतिपल।’
यह होगा। यह हो तभी जीवन सफल भी है। यह हो तभी कृतार्थ हुए। ऐसा जो करके मरता है वह मरता ही नहीं, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन अभीप्सा सिर्फ अभीप्सा ही न रहे, सिर्फ मात्र एक खयाल ही न रहे, सिर्फ एक स्वप्न ही न रहे। इस स्वप्न को रूपांतरित करो। ऐसा कहो ही मत कि मौन के गहरे अतल में डूब जाऊं--डूबो! कौन रोकता है?
एक बहुत मजेदार बात है। धन पाना चाहो, हजार रोकने वाले हैं, क्योंकि उनको भी धन पाना है। इसलिए प्रतिस्पर्धा है। राष्ट्रपति होना चाहो, साठ करोड़ का देश है, साठ करोड़ आदमियों से टक्कर है, क्योंकि हरेक को राष्ट्रपति होना है।
अरबी कहावत है कि परमात्मा भी हरेक आदमी के साथ खूब मजाक करता है। जिसको बनाता है, बनाने के बाद जैसे ही दुनिया में भेजने को होता है, उसके कान में फुसफुसा देता है कि तुझसे श्रेष्ठ आदमी मैंने कभी नहीं बनाया! हरेक के कान में कह देता है यही बात! इसलिए हरेक अपने भीतर यह बात छिपाए रखता है; कहे न कहे, मगर छिपाए रखता है--कि मैं हूं श्रेष्ठतम। यह दुनिया है बेहूदी और पागल और नासमझ, कि अब तक मुझे पहचान नहीं पाई, नहीं तो राष्ट्रपति मुझे ही होना ही चाहिए। और तो कोई योग्य आदमी है ही नहीं! योग्य हूं तो मैं हूं, और तो सब अयोग्य हैं।
यही तो संघर्ष है राजनीति का कि प्रत्येक व्यक्ति सोचता है: मैं योग्य हूं। मैं सारी समस्याएं हल कर लूंगा। हालांकि किसी को समस्याएं हल करने की पड़ी नहीं है। समस्या प्रत्येक को एक हल करनी है--कि मैं कैसे पद पर हो जाऊं! एक ही समस्या है असली, बाकी सब समस्याएं तो बकवास हैं; बाकी समस्याएं तो उस एक समस्या को छिपाने के उपाय हैं।
भीतर की यात्रा में एक खूबी की बात है कि कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है।
योग प्रीतम, कौन रोकता है? कोई नहीं रोक रहा है। तुम्हें मौन होना है, कोई अड़चन नहीं है। किसी से टक्कर नहीं है। यही तो आध्यात्मिक जीवन का सबसे सुंदर सत्य है कि वहां किसी से होड़ नहीं, किसी से छीना-झपटी नहीं। आध्यात्मिक संपदा ऐसी संपदा है कि तुम कितनी ही पाओ, किसी और की कम नहीं होती। बाहर की दुनिया में तो तुम पाओगे तो किसी की कम हो ही जाएगी।
मैंने सुना है, एक युवक और उसकी बहन, दोनों हालीवुड पहुंचे। युवक अभिनेता बनना चाहता था। अभिनेता बन गया, मगर हमेशा दिक्कत में, ऋण उसके ऊपर बढ़ता ही जाए। कमाए भी बहुत, मगर जितना कमाए उससे ज्यादा उसका खर्च। ऋण के बोझ के नीचे दबा जा रहा है, कभी भी दिवालिया हो जाएगा। उसकी बहन हो गई वेश्या। उसकी कमाई बढ़ती ही चली गई और धन के ढेर लगते चले गए। एक दिन दोनों मिले। बहन ने उससेकहा कि भाई मेरे! मैं भी हालीवुड में हूं, तुम भी हालीवुड में हो। तुम पर ऋण ही ऋण बढ़ता जाता है, मेरा धन ही धन बढ़ता जाता है। तुम कर क्या रहे हो?
तो उस भाई ने कहा कि अब तुझसे क्या छिपाना! जिस कारण तेरा धन बढ़ रहा है, उसी कारण मेरा धन खो रहा है!
बाहर की दुनिया में तो अगर तुम्हारी जेब वजनी होने लगेगी तो किसी की जेब खाली होने लगेगी। कोई लुटेगा तो तुम बसोगे। कोई बस्ती उजड़ेगी तो तुम्हारी बस्ती आबाद होगी। यहां तो जीवन छीना-झपटी है। यहां तो हरेक हरेक का शोषक है। जो जितना कुशल है, जो जितना कपटी है, जो जितना बेईमान है, वह उतना ज्यादा झपट्टा मार लेगा।
लेकिन भीतर के जगत में और ही अर्थशास्त्र है। वहां तुम्हारी संपदा जितनी बढ़ती है, किसी की घटती नहीं, उलटे तुम्हारी संपदा के बढ़ने से औरों की संपदा बढ़ती है। मनुष्य-जाति के इतिहास में से हम बुद्ध को, महावीर को, कृष्ण को, क्राइस्ट को, मोहम्मद को, जरथुस्त्र को काट दें, अलग कर दें, और आदमी में क्या बचेगा? आदमी वापस झाड़ों पर बैठा हुआ नजर आएगा। आदमी वापस जंगली हो जाएगा। आदमी में कुछ भी नहीं बचेगा। ये थोड़े से लोगों ने जो भीतर की संपदा पाई, उस संपदा के कारण आदमी के चैतन्य की ऊर्जा बढ़ी है।
एक व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है तो सारी मनुष्यता जैसे एक सीढ़ी ऊपर उठ जाती है। पता भी नहीं चलता तुम्हें, लेकिन तुम्हारे भीतर क्रांति हो जाती है। एक व्यक्ति बुद्ध होता है तो उसकी रोशनी, उसकी जगमगाहट तुम्हारे अनजाने ही तुम्हारे प्राणों को आंदोलित कर जाती है। उसकी सुगंध तुम्हारे नासापुटों को भर जाती है। तुम पहचानो न पहचानो, तुम आभार मानो न मानो, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता। जब वसंत आता है तो हजारों फूल खिल जाते हैं। तुम चाहे देखो चाहे न देखो, लेकिन हवा में गंध होती है, तुम्हारे नासापुट गंध से भरते हैं, हवा में ताजगी होती है, पक्षियों के गीत होते हैं। तुम सुनो न सुनो, तुम बहरे रहो, रहो, मगर गीत तो तुम्हारे प्राणों में प्रवेश करते ही जाते हैं। चुपचाप! बिना किसी पगध्वनि के! एक व्यक्ति का जाग्रत हो जाना सारी मनुष्य-जाति के जीवन में जागरण की एक लहर को पहुंचा देता है।
तो भीतर का अर्थशास्त्र बड़ा उलटा है। वहां एक पाता है, सबको मिलता है। बाहर की दुनिया का अर्थशास्त्र ऐसा है: वहां एक पाए तो बहुतों का छिनता है।
‘मौन के गहरे अतल में डूब जाऊं’--तुम कहते हो, योग प्रीतम।
डूबो! शुभ है तुम्हारे लिए भी, औरों के लिए भी।
‘छूट जाए यह परिधि परिवेश
शब्दों का महत व्यापार
सीखा ज्ञान सारा।’
ज्ञान ने थोड़े ही तुम्हें पकड़ा है। पागल हो! तुम उसे पकड़े हो।
शेख फरीद हुआ एक सूफी फकीर। एक आदमी आया और उससे कहने लगा कि कैसे? कैसे यह संसार छूटे?
शेख फरीद तो बहुत मस्त किस्म का आदमी था, अल्हड़। उसके जवाब भी अल्हड़ होते थे। वह एकदम उठा। वह आदमी बोला, आप कहां चले?
फरीद ने कहा कि तुम्हें उत्तर देता हूं, बैठो! वह एकदम उठा और पास ही एक खंभे को पकड़ कर जोर से चिल्लाने लगा, बचाओ भाई, बचाओ!
वह आदमी बोला कि आप कर क्या रहे हैं? आप होश में हैं? आपने पी-पा तो नहीं ली? बचाना क्या है?
फरीद ने कहा, अरे खंभे से छुड़ाओ!
उस आदमी ने कहा, आप भी हद की बातें कर रहे हैं! खुद खंभे को पकड़े हुए हैं और कहते हैं खंभे से छुड़ाओ!
फरीद ने कहा, तो तू तो आदमी होशियार है। जब तुझे इतना समझ में आता है कि मैं खंभे को पकड़े हूं, इसलिए मुझे कोई और छुड़ा नहीं सकता जब तक मैं ही न छोड़ दूं। तू रास्ता लग! संसार को तू पकड़े है कि संसार तुझे पकड़े हुए है? जिस दिन छोड़ना हो, छोड़ देना। इतना शोरगुल क्या मचाना? पूछना-पाछना क्या?
पूछते-पाछते ही हम इसलिए हैं ताकि स्थगित कर सकें। हम पूछते हैं कि कोई रास्ता बताएं कि संसार कैसे छूटे! न कोई रास्ता बता पाएगा...और बताए भी कोई रास्ता, तो कोई हम मानने वाले हैं! अभी हम और पता लगाएंगे। आदमी दो पैसे की मटकी खरीदता है तो ठोंक-ठोंक कर, बजा-बजा कर। तो हम हर रास्ते को पूछेंगे, अभी जाएंगे और सदगुरुओं के पास, इधर और उधर और सब जगह भटकेंगे, शास्त्रों में खोजेंगे। जब तक ठीक रास्ता न मिले तब तक ऐसे कोई हर किसी रास्ते पर थोड़े ही चल पड़ेंगे! इतने नासमझ थोड़े ही हैं, ऐसे अज्ञानी थोड़े ही हैं!
ऐसे न रास्ता मिलेगा, न संसार को छोड़ना पड़ेगा। और रास्ता मिल भी जाए तो भी हम कहते हैं: बड़ा मुश्किल है! बड़ा जाल है संसार का!
अभी मर जाओगे, और एक क्षण में छूट जाओगे। और संसार रोक नहीं पाएगा, और सारा जाल ऐसे का ही ऐसा रहेगा!
एक महिला संन्यासिनी होना चाहती थी। तीन साल सोचती रही। मैंने उससे बार-बार कहा कि तेरी उम्र काफी हो गई, सत्तर साल तेरी उम्र है, कब तक सोचेगी? ऐसे में कहीं मौत पहले आ गई तो फिर मुझे दोष मत देना!
उसने कहा, नहीं-नहीं, आप भी कैसी बात करते हैं! ऐसी बात कहना ही नहीं आप, ऐसी अपशगुन की बात नहीं कहनी चाहिए!
मैंने कहा, इसमें अपशगुन की बात नहीं कह रहा हूं। मौत तो आएगी ही। और सत्तर साल की तू हो गई, कितने दिन तुझे और जीने का इरादा है? मौत के पहले ही संन्यास ले ले। और मौत के बाद तू लेना भी चाहेगी तो मुझे देने में मुश्किल होगी। और मौत के बाद तू कृपा ही करना, आना ही मत। क्योंकि भूत-प्रेतों को संन्यास देने की कोई परंपरा ही नहीं है। वैसे ही मैं काफी झंझट में पड़ा हूं, और अब कहां भूत-प्रेतों को संन्यास देकर झंझट लूंगा! तू क्षमा करना, अगर मर जाए तो कृपा करना, फिर मत आना।
संयोग की बात, बिलकुल संयोग की बात कि दूसरे दिन ही वह एक मोटर से टक्कर खा गई। अस्पताल में भरती है! उसका बेटा भागा हुआ आया। उसने कहा कि आपने भी कैसी बात कह दी! मेरी मां मोटर से टक्कर खा गई। न आप ऐसी अपशगुन बात कहते...
मैंने कहा कि तुम भी पागल हुए हो! जितने लोग मोटर से टक्कर खाते हैं, कोई मेरे अपशगुन कहने से! ड्राइवर को क्या पता कि मैंने तेरी मां से क्या कहा है!
मैंने कहा, तू फिक्र कर, भाग जा जल्दी और पूछ उससे कि अभी संन्यास लेना हो तो ले ले।
मगर उसकी मां ने कहा कि सोचूंगी। और चौबीस घंटे बाद वह मर गई। मरते वक्त उसने अपने बेटे से कहा कि यह तो बड़ी अजीब बात हुई! मैं तो चली। और सच है कि संसार जहां का तहां है, जाल सब वैसा का वैसा है। मेरे नहीं होने से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। और मैं संन्यास न ले सकी! तुम जाओ और इतनी प्रार्थना करना कि कम से कम मेरी लाश को माला पहना दें।
वह बेटा आया। मैंने कहा, मैंने पहले ही कहा था कि भूत-प्रेत होकर नहीं। लाश को माला पहनाने से क्या होगा? अब लाश तो मिट्टी है। जिसको लेना था संन्यास, वह पक्षी तो उड़ चुका, वह तो दूसरी देह में प्रवेश कर चुका होगा। यह देह तो अब खाली है। वैसे तुम्हारा मन हो और तुम्हें दुख होता हो, तो मैं माला दे देता हूं, जाकर तुम पहना देना, अपने मन को समझा लेना। लेकिन अच्छा यह हो कि तुम संन्यास लो।
उसने कहा, आप भी क्या बात करते हैं! अरे घर-द्वार, गृहस्थी, बच्चे। ऐसे ही मेरी मां मर गई और मैं संन्यास ले लूं? तो अभी घर में हड़कंप मच जाएगा।
मैंने कहा, मां के मरने से कोई हड़कंप मच गया है? मरने से हड़कंप नहीं मचता, संन्यास लेने से हड़कंप मच जाएगा! यही भूल तुम्हारी मां ने की।
उसने कहा, बस अब आप चुप रहें, आप और कुछ आगे मत कहना। क्योंकि कल ही आपने कहा और चौबीस घंटे में मेरी मां खतम! मैं आऊंगा, मैं जरूर आऊंगा।
कोई आठ साल हो गए, अभी तक वे आए ही नहीं।
लोग शांत होने की, मौन होने की भी व्यवस्था नहीं कर पाते। कोई रोक नहीं रहा है। शब्दों का उधार ज्ञान छोड़ने को कौन रोकता है? ज्ञान तुम्हें पकड़ नहीं सकता, शास्त्र तुम्हें पकड़ नहीं सकते, तुम्हीं जकड़े हो। तुम छोड़ दो मुट्ठी, सब गिर जाएगा।
तुम कहते हो:
‘और अपने ही निबिड़ एकांत में
बैठा हुआ चुपचाप
अंतरलीन हो
सुनता रहूं मैं शून्य का संगीत
प्रतिपल।’
डूबो! देर न करो। क्षण भर की भी देर उचित नहीं है।
यह फूल नहीं है, मेरे मन की भाषा है!
अवनी के मन में--
अंबर से मिल जाने की अभिलाषा है!

बन गई नयन-मुस्कान शब्द,
हो गया हृदय का मौन मुखर,
अंतरमन के अनजाने कोने में
आया मधु-भाव उभर;
यह फूल नहीं है,
अलिखित मेरे छंदों की परिभाषा है!

थिर हुई अचिरता में पल भर
सौरभ रंग रस की एक लहर,
मुरझा कर झरने के क्रम में
खुल कर खिलना बस एक पहर;
यह फूल नहीं है,
कर्म-वचन-मन खिल पाने की आशा है!

यह खुला हुआ अपलक जैसे
अंतरमन का ध्यानस्थ नयन,
है पलक-पंखुरियों पर हंसता
रवि-कर-चुंबित चंचल हिम-कन;
यह फूल नहीं है,
मंत्र-लुब्ध नयनों की अमर पिपासा है!
यह तुम्हारी अभीप्सा शुभ है, मंगलदायी है। यह तुम्हारे प्राणों की भाषा है। यह तुम्हारे अंतरतम की अभिलाषा है। इसे पूरा करो; इसे पूरा होने दो; इसे सहयोग दो। इसके लिए सब कुछ समर्पित करो। और आ गया समय कि अपने निबिड़ एकांत में डूबो। जो जितना बुद्धिमान है, उतनी जल्दी उसका समय आ जाता है। जो जितना बुद्धू है, उतनी देर लगाता है।
अब लहरने-हहरने की गई वेला!
बहुत दिन मैं प्राण-मन के खेल खेला!
ठहरने दो जल, निथरने निखरने दो,
सरोवर को पड़ा रहने दो अकेला!

ठहरने दो मृत्तिका के कण अतल में,
ऊर्मियां उठने न दो अब शांत जल में!
उतरने दो गगन को प्रतिबिंब बन कर,
जागने दो ज्योति मानस के अतल में!

मोह कैसा लोह के इस आवरण से?
क्लेश कैसा काल के काया-हरण से!
प्राण-मन क्यों हों दुखी क्षण-कण विरह में?
अंतरिक्ष न दूर हो अंतःकरण से!

हंस रहा सरसिज, बनी मुसकान वाणी!
खुला गूढ़ रहस्य, बोला मौन ज्ञानी!
बिंबगत बिंबाधरा प्रत्यूष वेला,
खुला नभ अब खुला, दर्पण-स्वच्छ पानी!

अब लहरने-हहरने की गई वेला!
मानसर निष्कंप, लहरों का न मेला!
नाल पर दृग बंद कर ध्यानस्थ सरसिज,
मध्यसर में हंस आत्मा का अकेला!
गए दिन लहरने-हहरने के। बीत गए क्षण दौड़ के, आपाधापी के। तुम्हारे भीतर जो परम जिज्ञासा है, वह उठी है। इन क्षणों को मूल्य दो। क्योंकि कौन जाने यह जिज्ञासा फिर कब उठे! कौन जाने यह अभीप्सा फिर कब जगे, न जगे! किन्हीं सौभाग्य के क्षणों में ऐसी अभीप्सा मनुष्य के प्राणों को पकड़ती है। इन क्षणों को चूकना उचित नहीं है। सब समर्पित करो, सब अर्पित करो।
और यह क्रांति घटेगी, घट सकती है, जरा भी अड़चन नहीं है। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई अड़चन नहीं है। तुम्हीं चाहो अगर घटाना तो अभी घट सकती है, यहीं! एक क्षण पर भी टालने की आवश्यकता नहीं है। कल की तो बात ही न करना। क्योंकि जिसने कल पर छोड़ा उसने सदा के लिए छोड़ा। जिसे नहीं करना होता है, वह कल पर छोड़ता है। अभी कर लो, आज कर लो। एक पल का भी भरोसा नहीं है।
उतरो भीतर अपने, ठहरने दो सब--शांति में, मौन में। साक्षी बनो। पुरानी आदत है, विचारों की तरंगें कुछ दिन तक आएंगी! आने दो। देखते रहो निरपेक्ष-भाव से, निष्कंप। न बुरा कहो, न भला। निर्णय मत लेना, चुनाव न करना। तादात्म्य से अपने को अछूता रखना। बस देखते रहना। आती हों मन में लहरें, आने दो। जानना कि यह मैं नहीं हूं। न मैं देह हूं, न मैं मन हूं। जिस दिन, जिस क्षण यह बात सघन होकर बैठ जाएगी--न मैं मन हूं, न मैं तन हूं--उसी क्षण तुम जान लोगे कि मैं कौन हूं। मैं ब्रह्म हूं! अहं ब्रह्मास्मि!

आज इतना ही।

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