QUESTION & ANSWER
Prabhu Mandir Ke Dwar Par 08
Eighth Discourse from the series of 10 discourses - Prabhu Mandir Ke Dwar Par by Osho. These discourses were given in NARGOL during OCT 30 - NOV 03 1968.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
चार दिनों की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं। चार दिनों में बहुत से प्रश्न बिना उत्तर के भी रह गए हैं। तो आज मैं छोटे-छोटे प्रश्नों को और बहुत थोड़े-थोड़े में चर्चा करना चाहूंगा, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्रश्नों के उत्तर आप तक पहुंच जाएं।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, यदि कोई ईश्वर को न माने और करुणा से जीए, तो क्या इतना पर्याप्त नहीं है?
इसमें दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह, मैंने कभी कहा नहीं कि कोई ईश्वर को माने। ईश्वर को मानना आस्तिक का लक्षण नहीं है। ईश्वर को मानना सिर्फ अपने भीतर के नास्तिक को छिपाने की तरकीब है। सवाल ईश्वर को मानने का नहीं, जानने का है। और यह भी ध्यान रहे, कि जो उसे न जान ले उसके जीवन में सच्ची करुणा कभी भी नहीं हो सकती है। उसे जानने से ही करुणा का स्रोत खुलता है, प्रकट होता है।
एक और मित्र ने भी पूछा है कि
भगवान, करुणा, सेवा, समाज का कल्याण, यह सब करके क्या हम धार्मिक नहीं हो सकते हैं? परमात्मा को नहीं पा सकते हैं?
तो ठीक से समझ लेना जरूरी है कि सेवा तभी परिपूर्ण अर्थों में सेवा हो सकती है जब जीवन में प्रभु की तरफ संबंध जुड़ गया हो। अन्यथा सेवा भी स्वार्थ ही होगी। सेवा भी अहंकार की ही तृप्ति होगी, यश की कामना होगी। और सेवा के रास्ते से भी आदमी मालिक बनने की ही कोशिश करेगा।
इस देश में हम भलीभांति जानते हैं कि कितने सेवक किस भांति मालिक बन गए हैं। और हर सेवक इस कोशिश में है कि कब मालिक बन जाए। सेवक ऊपर से होगा, भीतर तो मालिक होने की तलाश होगी। और या फिर यह भी हो सकता है कि सेवा इस जगत का कोई स्वार्थ न बने तो सेवा आगे के किसी जगत के लिए स्वार्थ बनेगी।
करपात्री जी ने एक किताब लिखी है, और उस किताब में उन्होंने समाजवाद के खिलाफ यह दलील दी है कि अगर समाजवाद आ गया और गरीब न रहे, भिखमंगे न रहे, तो दान किसको दोगे? और बिना दान के मोक्ष नहीं हो सकता है। तो मोक्ष जाना हो तो गरीबी रखनी बहुत जरूरी है, बचानी पड़ेगी। और मोक्ष जाना हो तो भिखमंगे बहुत आवश्यक हैं, वे ही सीढ़ियां हैं, जिनके सिर पर पैर रख कर मोक्ष जाया जा सकता है।
सेवा करने से मोक्ष मिलता है, अगर ऐसा हो, तो फिर ऐसे लोग बचाने होंगे जिन्हें सेवा की जरूरत है। नहीं, सेवा तो कोई कर ही नहीं सकता। जब तक उसका अहंकार विसर्जित न हो जाए, जब तक उसका मैं न मिट जाए। और जिसका मैं मिट जाता है वह प्रभु को जान लेता है। प्रभु को जान लेने पर ही, मैं और तू की दीवाल हट जाने पर ही सेवा संभव है। क्योंकि तब दूसरे का सुख मेरा सुख है, दूसरे का दुख मेरा दुख है। तब न मैं हूं, न दूसरा है, तब ही सेवा अर्थपूर्ण, सार्थक और गहरी हो सकती है। अन्यथा ऊपर से सिखाई गईं सेवाएं बड़ी खतरनाक हैं, और बहुत महंगी पड़ सकती हैं।
मैंने सुना है, एक स्कूल में एक पादरी बच्चों को समझाता है कि अगर तुम्हें स्वर्ग जाना है, ईश्वर के दर्शन करने हैं, तो सेवा करो। रोज एक सेवा का कृत्य तो करना ही चाहिए। वे बच्चे पूछते हैं, हम क्या सेवा करें? वह कहता है, अगर कोई पानी में गिर जाए, तो उसे बचाओ। किसी के घर में आग लग जाए, तो चाहे जान में जोखिम हो, उसे निकालो। किसी बूढ़े की, किसी बीमार की, जो भी सेवा बन सके, करो।
सात दिन बाद वह लौटा है उन बच्चों के पास और पूछता है, तुमने कोई सेवा की?
तीन बच्चे तीस में से हाथ हिलाते हैं। वह कहता है, फिर भी ठीक है, तीस में से तीन ने की, कोई हर्ज नहीं। पहले से पूछता है, क्या सेवा की तुमने? वह बच्चा कहता है, मैंने एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। वह कहता है, बहुत अच्छा किया। बूढ़े आदमियों को जरूर रास्ता पार करवाना चाहिए। दूसरे से पूछता है, बेटे तुमने क्या किया? वह भी कहता है, मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। उस पादरी को थोड़ा शक होता है, फिर खयाल आता है, कोई हर्ज नहीं, बहुत बूढ़ी औरतें हैं, इसने भी करवाया होगा। वह तीसरे से पूछता है कि तूने क्या किया? वह कहता है, मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। वह पादरी कहता है, तुम तीनों को तीन बुढ़िया मिल गईं? वे तीनों कहते हैं, नहीं, तीन बुढ़ियां नहीं थीं, बूढ़ी तो एक ही थी, हम तीनों ने मिल कर ही पार करवाया है। वह पादरी कहता है, क्या बूढ़ी इतनी अशक्त थी कि तीन को पार करवाना पड़ा? वे तीनों कहने लगे, अशक्त? बूढ़ी बड़ी ताकतवर थी। बामुश्किल पार हुई। असल में वह पार होना ही नहीं चाहती थी। लेकिन आपने कहा कि सेवा करना जरूरी है, तो सेवा का कृत्य करना पड़ा।
दुनिया में सेवा करना अगर जरूरी बन जाए तो सेवा खतरनाक हो जाती है। और सेवक जितने मिसचिवियस सिद्ध हुए हैं, जितने उपद्रवी, उतना कोई उपद्रवी सिद्ध नहीं हुआ। दुनिया को सेवकों से भी बचाने की बड़ी जरूरत है। जितना दुनिया में, इतना उप्रदव फैला हुआ है, उसमें नब्बे परसेंट सेवकों के द्वारा है। ईसाई भी सेवा कर रहा है, मुसलमान भी सेवा कर रहा है, हिंदू भी सेवा कर रहा है, जैन भी सेवा कर रहे हैं। सब तरह के साधु सेवा कर रहे हैं, नये-नये तरह के स्वयं-सेवक सेवा कर रहे हैं। और सारी मनुष्य-जाति को अजीब-अजीब जालों में ढाल रहे हैं, उन्हें सेवा करनी है। और सेवा करनी बहुत जरूरी है, क्योंकि स्वर्ग जाने के लिए सेवा आवश्यक है।
नहीं, मैं नहीं कहता हूं, आप किसी की सेवा करें। जब तक आपको यह खयाल है कि मैं किसी की सेवा कर रहा हूं, तब तक मैं ही मजबूत होगा। इसलिए मैं नहीं कहता हूं कि सेवा से कोई परमात्मा को जान लेगा। हां, यह बात जरूर है कि कोई परमात्मा को जान ले, तो जीवन सेवा बन जाती है। लेकिन तब सेवा धंधा नहीं होती। और न तब सेवा सचेत होती है, और न तब सेवा का पता होता है कि मैं सेवा कर रहा हूं। न सेवा अहंकार बनती है। न सेवा पूजा की मांग करती है। और न सेवक मालिक होने की कोशिश करता है। तब सेवा ऐसी होती है जैसे श्वास चलती है, आदमी चलता है, जैसे उसकी छाया चलती है। ऐसे ही उस आदमी की जिसके जीवन में प्रभु की तरफ थोड़ी भी गति हुई है, सेवा भी उसके पीछे-पीछे चलने लगती है। सेवा धर्म नहीं है, लेकिन धार्मिक हो जाना जरूर सेवक हो जाना है। सेवा से कोई धर्म तक नहीं पहुंचता। लेकिन धर्म तक पहुंचा हुआ व्यक्ति का समग्र जीवन सेवा बन जाता है।
इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना चाहिए। और करुणा भी, करुणा भी उस हृदय में ही उत्पन्न होती है जिसका अहंकार विसर्जित हुआ हो। अहंकार के सिवाय और कोई कठोरता नहीं है। अहंकार के सिवाय, ईगो के सिवाय और कोई क्रूरता नहीं है। जितनी कठोरताएं, क्रूरताएं हैं, वे सब अहंकार से ही फलित हुई हैं।
एक आदमी धन इकट्ठा किए चला जा रहा है, क्या यह संभव है कि वह अपने चारों तरफ देखता हो कि धन के इकट्ठे होने से कितनी दीनता, कितनी दरिद्रता चारों तरफ पैदा हो रही है? नहीं, लेकिन वह आदमी करुणा कह कर धर्मशाला बनवाता है, मंदिर बनवाता है, यज्ञ करवाता है, हवन करवाता है। साधुओं का एक आश्रम खोल देता है। एक तरह का पिंजरा, पोल बना देता है। आदमियों का भी, गऊंओं का भी, और इसको, इसको करुणा, दान, दया, सेवा समझता है। और दूसरी तरफ धन खींचता चला जाता है। इस आदमी के जीवन में करुणा कहां है? करुणा हो तो यह धन खींचना कैसे संभव हो? फिर इस लाखों को खींचता है, थोड़े बहुत दान भी करता है। और दोनों...इस जगत में भी सुख की व्यवस्था करता है, उस जगत में भी सुख की व्यवस्था करता है।
नहीं, करुणा तो हो सकती है उस हृदय से प्रवाहित, वहां से बह सकती है, वहां से प्रवाहित हो सकती है जहां अहंकार का केंद्र टूट गया हो। और वह सिर्फ धार्मिक व्यक्ति का ही टूटता है।
इसलिए यह मत पूछें कि अगर हम करुणावान हैं, और धार्मिक न हों तो हर्ज क्या है? आप करुणावान बिना धार्मिक हुए हो ही नहीं सकते हैं। यह असंभव है। और अगर आप करुणावान हैं, तो मेरी दृष्टि में धार्मिक आप हो गए हैं। धार्मिक होने का यह अर्थ नहीं है कि कोई मंदिर में पूजा कर रहा है तो धार्मिक हो जाएगा। और न धार्मिक होने का यह अर्थ है कि किसी ने सुबह उठ कर गीता की कुछ पंक्तियां पढ़ ली हैं तो धार्मिक हो जाएगा। न धार्मिक होने का यह अर्थ है कि कोई हज कर आता है, काबा हो आता है, काशी हो आता है, तीर्थ कर आता है, धार्मिक होने का यह अर्थ नहीं है। सच तो यह है तीर्थों में और मंदिरों में अधार्मिक लोगों के सिवाए कोई भी जाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता है। धार्मिक आदमी को वहां जाने की क्या जरूरत है? धार्मिक आदमी जहां है, वहीं मंदिर है, वहीं तीर्थ है।
रामकृष्ण के पास एक बार एक आदमी गया और कहने लगा कि मैं गंगा स्नान को जा रहा हूं। आप मुझे आशीर्वाद दें कि मेरे पाप सब गंगा में बह जाएं। रामकृष्ण ने कहा: गंगा का इसमें क्या कसूर है? पाप तूने किए, गंगा का इससे क्या संबंध? तू गंगा पर क्यों नाराज? उस आदमी ने कहा: नाराज नहीं, मैंने सुना है, गंगा में नहाने से पाप सब बह जाते हैं। रामकृष्ण ने कहा: बह जाते होंगे। लेकिन एक बात ध्यान रखना, गंगा के किनारे बड़े-बड़े वृक्ष लगे हैं वे देखे हैं? जब तू पानी में डूबेगा, पाप निकल कर वृक्षों पर बैठ जाएंगे। लेकिन तू डूबा कब तक रहेगा, आखिर तू निकलेगा पानी के बाहर, वह पाप फिर तेरे ऊपर सवार हो जाएंगे। तो अगर तू गंगा में डूबा ही रहा, निकला ही नहीं, तब तो ठीक है; लेकिन निकला कि पाप फिर सवार हो जाएंगे। बेकार मेहनत मत कर, बेकार गंगा को तकलीफ भी मत दे। पाप करते वक्त किसी से पूछने नहीं गया--न गंगा से, न मंदिर से, न भगवान से, तो पाप को धोते वक्त भी किसी से पूछने जाने की जरूरत क्या है?
लेकिन आदमी बेईमान है। पाप खुद करेगा, धोने के लिए तीर्थ जाएगा। अशांत खुद होगा, शांत होने के लिए मंदिर को खोजेगा। गलती है यह। अशांति के कारण खोजने पड़ेंगे। अशांति मिटानी पड़ेगी, जैसे अशंाति बनाई है। और पाप किया है मूर्च्छा में तो मूर्च्छा तोड़नी पड़ेगी कि पाप छूट जाए। गंगा और तीर्थ से कुछ होने वाला नहीं है।
अगर इसको आप समझते हों धार्मिक होना, तो धार्मिक होने की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन यह धर्मिक होना ही नहीं है। धार्मिक होना तो बात ही और है। धार्मिक होना तो इस सत्य की खोज है कि यह जो शरीर दिखाई पड़ता है, यही सब कुछ है, या इससे ज्यादा भी कुछ है। यह जो बाहर फैलाव दिखाई पड़ता है, यही सब कुछ है या इस फैलाव के भीतर गहराई में भी कुछ है? धार्मिक होने का अर्थ है इस सत्य की खोज कि यह जीवन की जो चरम सातत्य चल रहा है, यह जो जीवन की कंटीन्यूटी है, यह जो अस्तित्व का अनंत प्रवाह है, इसका अर्थ क्या है? इसकी गहराई क्या है? इसका प्रयोजन क्या है? मैं कौन हूं? इस पूरे अस्तित्व से मेरा क्या संबंध है? धर्म की खोज क्रियाकांड और पाखंड की खोज नहीं है, धर्म की खोज अत्यंत वैज्ञानिक खोज है, वह सुप्रीम साइंस है, वह परम विज्ञान है, उससे बड़ा कोई विज्ञान नहीं है। जीवन के आखिरी गहरे से गहरे सत्य को खोजे बिना जो आदमी जीता है, वह आदमी कभी पूरे अर्थों में नहीं जीता, वह अधूरा जीएगा, ऊपर-ऊपर जीएगा, अपने भीतर वह जानता ही नहीं है, कौन है? क्या है? हमें सिवाय वस्त्रों के और कोई पहचान नहीं है। हम अपने कपड़ों के सिवाय और कुछ पहचानते हैं भीतर?
मैंने सुना है, एक तीर्थ में बड़ी भीड़ थी। एक फकीर भी उस तीर्थ में आकर ठहरा हुआ है। वह रात एक धर्मशाला में ठहरा है। बहुत भीड़-भाड़ है। धर्मशाला के मालिक ने कहा है, एक कमरे में एक आदमी ठहरा है, उसी में तुम भी ठहर जाओ। वह फकीर उसमें ठहर गया। वह पगड़ी बांधे है, कमीज पहने है, कोट पहने है, जूते पहने हैं, वह सब कपड़े पहने हुए बिस्तर पर लेट गया। उस कमरे में जो दूसरा मेहमान है, उसने कहा: आप इतने कपड़े पहने हुए सोएंगे, नींद न आ सकेगी। उस फकीर ने कहा: वह मैं भी जानता हूं, लेकिन कपड़े उतारना बहुत मुश्किल है। अपरिचित आदमी ने ज्यादा बात करनी ठीक न समझी। फिर वह फकीर रात में करवटें बदलने लगा, नींद उसे आती नहीं है--जूते पहने हुए है, पगड़ी पहने हुए है। कई लोग जूते, पगड़ी पहने हुए सो रहे हैं। और इसलिए रात भर नींद नहीं आ रही। कई लोग दिन भर का कसाव साथ में लिए सो रहे हैं। कई लोग दिन भर का नाटक साथ में लिए सो रहे हैं, अभिनय साथ में लिए सो रहे हैं। वह आदमी भी सब कपड़े लिए सो गया है। पड़ोसी ने बार-बार कहा कि माफ करिए, आपको भी नींद नहीं आती, आप करवट बदलते हैं, मुझे भी नींद नहीं आती, आपकृपा करके ये कपड़े उतार दें, तो नींद आ जाए।
वह फकीर उठ कर बैठ गया, उसने कहा: वह मैं भी जानता हूं, लेकिन कपड़े उतारना बहुत मुश्किल है। अगर मैं अकेला होता तो दरवाजे बंद करके कपड़े उतार कर सो जाता, लेकिन आप भी यहां हो, और मैं कपड़ों के सिवाय मेरी पहचान नहीं, अगर कपड़े मैंने उतार दिए तो सुबह पता कैसे चलेगा, कौन कौन है? मैं मैं हूं कि तुम मैं हो, कौन कौन है? कपड़ों के सिवाय मैं किसी को पहचानता नहीं। बस यह कपड़ों से ही अपनी पहचान है। उस आदमी ने कहा: तो फिर ऐसा करो, कपड़े तो उतार दो, एक पास में एक घुनघुना पड़ा था, कोई पहले मेहमान ठहरे होंगे उनके बच्चे का, उस पड़ोसी ने कहा, इस घुनघुने को अपनी टांग से बांध लो, यह तुम्हारी पहचान रहेगी कि तुम ये रहे। सुबह उठ कर अपने कपड़े पहन लेना।
फकीर ने कहा: यह बात जंचती है। बिना पहचान के आदमी खो सकता है। कोई रिकग्निशन चाहिए, कोई पहचान चाहिए। इसलिए तो आदमी अपने नाम लिखता है। ये-ये नाम, फिर एम ए है, बी टी है, एल एल बी है, डी लिट है, पद्मश्री है, रायबहादुर, ये सब घुनघुने हैं। जिनको बांध कर आदमी पहचानता है कि ये मैं हूं। बांध ले घुनघुना। उस आदमी ने घुनघुना बांध दिया। फकीर कपड़े उतार कर सो गया।
उस आदमी को रात मजाक सूझी। उसने चार बजे उठ कर वह घुनघुना फकीर के पैर से निकाल कर अपने पैर में बांध लिया। सुबह छह बजे के करीब फकीर उठा और घबड़ा गया। घुनघुना पैर में नहीं है, बड़ी मुश्किल हो गई। मैं कौन हूं? उसने पड़ोसी को जोर से हिलाया और कहा: मुश्किल हो गई, इसी से मैं डरता था, वही हो गया। तुम्हारे पैर में घुनघुना है, इससे सिद्ध होता है कि तुम फकीर हो, लेकिन मैं कौन हूं? यह मुश्किल हो गई। अब मैं अपने को कैसे पहचानूं?
वह फकीर गहरी मजाक कर रहा होगा। वह सारी मनुष्यता पर हंस रहा था। हम भी अपने को ऊपर के वस्त्रों और घुनघुनों के अतिरिक्त और कुछ जानते हैं? अगर कोई पूछे, कौन हैं आप? तो कह सकते हैं, अपना नाम, नाम बचपन में बांधा गया घुनघुना है, नाम लेकर कोई आता नहीं। नाम तो झूठा है, कल्पित है, ऊपर से चिपकाया गया है। आप तो नाम के बिना हैं, मैं तो नाम के बिना हूं, नाम तो लेकर कोई आया नहीं। आज मैं चाहूं अपना नाम बदल लूं, तो भी मैं नहीं बदल जाऊंगा। नाम बदल जाएगा। फिर डिग्रियां हैं, पदवियां हैं, यश है, मान है, सम्मान है, यह सबका सब बाहर से जुड़ा हुआ है। वस्त्रों से ज्यादा नहीं। भीतर मैं कौन हूं? वह कौन है जो जन्मा? वह कौन है जो जी रहा है? वह कौन है जो मृत्यु में विदा होगा? उसकी कोई पहचान नहीं है। धर्म की खोज उसकी खोज है, उस सत्य की जो हमारे जीवन का केंद्र और आधार है। अगर उसका हमें पता नहीं, तो हम धार्मिक नहीं हैं। चाहे हम मंदिर जाएं, चाहे हम पूजा करें, प्रार्थना करें, हमारा प्रभु के मंदिर में प्रवेश ही नहीं हो सकता। क्योंकि जिसे अभी यह ही पता नहीं कि मैं कौन हूं, वह क्या कह कर मंदिर में प्रवेश करेगा? वह क्या कह कर प्रभु के सामने जाएगा? वह क्या सूचना करेगा कौन आता है? उसे कुछ भी पता नहीं है। हम आदमियों के मकानों में जा सकते हैं, आदमियों के मंदिरों में जा सकते हैं, प्रभु के मंदिर में तो उसे खोज कर जाना पड़ेगा जो वस्तुतः मैं हूं।
स्वप्नहार, एक जर्मन विचारक, एक रात एक बगीचे में घूमने चला गया। आधी रात है, बगीचे के माली ने देखा कि कोई जोर-जोर से बातें कर रहा है, शायद दो लोग हैं बगीचे में। वह माली हैरान हुआ, आधी रात कौन आ गया? भाला उठा कर, लालटेन लेकर गया बगीचे में, जोर से चिल्लाया कौन है? स्वप्नहार जोर से हंसने लगा और उसने कहा: बड़ी मुश्किल में डाल दिया, यही तो मैं अपने से पूछ रहा हूं कि मैं कौन हूं? और कोई उत्तर नहीं मिलता। मैं तुझे क्या बताऊं, मुझे खुद ही अभी तक कोई उत्तर नहीं मिल सका है।
जरूर समझा होगा माली ने कि आदमी पागल है। लेकिन पागल कौन था? स्वप्नहार पागल था कि माली पागल था? कि हम पागल हैं? पागल कौन है? जिसे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं, वह पागल नहीं है। हम सब पागल हैं। और स्वप्नहार बुद्धिमान था। कम से कम इतना तो उसे पता चल गया है कि मुझे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं? इतना भी जिसे पता चल जाए कि मुझे पता नहीं मैं कौन हूं? उसकी एक खोज एक अन्वेषण, एक यात्रा शुरू हो जाती है। इस यात्रा का नाम तीर्थयात्रा है। तीर्थ भीतर है।
पूछा है एक मित्र ने:
भगवान, कहां है भगवान?
यह मत पूछें। पहले अपने को तो खोज लें। और मैं आपसे कहता हूं, जो अपने को खोज लेता है वह फिर कभी नहीं पूछता कहां है भगवान? क्योंकि जहां स्वयं मिला वहीं भगवान भी मिल जाता है।
मैंने एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है, जब पृथ्वी बनी, सारा सब कुछ बन गया, आदमी बना, आदमी को बनाते ही भगवान चिंतित हो गया। और उसने देवताओं से पूछा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं, यह आदमी बना तो दिया है, लेकिन यह हजार प्रश्न लेकर रोज दरवाजे पर खड़ा हो जाएगा। मैं इससे बचना चाहता हूं। मुझे कोई ऐसा जगह बताओ जहां मैं छिपा रहूं और यह आदमी मेरे पास न आ सके।
देवताओं ने कहा: जाओ, एवरेस्ट पर छिप जाओ। भगवान ने कहा: तुम्हें पता नहीं, बहुत जल्दी हिलेरी पैदा होगा, तेनजिंग पैदा होगा, वे एवरेस्ट पर चढ़ जाएंगे। तो उन्होंने कहा: ऐसा करो, चांद पर चले जाओ। उन्होंने कहा: कुछ काम नहीं बनेगा, बहुत जल्दी रूस और अमरीका के अंतरिक्ष यात्री चांद पर पहुंच जाएंगे। इससे काम नहीं बनेगा। यह तो पल दो पल की बात है, थोड़े ही समय की बात है। आदमी मुझे पकड़ लेगा। मुझे कुछ ऐसी जगह बताओ जहां आदमी पहुंच ही न सके। तो एक देवता ने कान में भगवान के कहा, और भगवान मान गया। उस देवता ने कहा: फिर आप आदमी के भीतर छिप जाइए। वहां आदमी कभी नहीं पहुंचेगा। और भगवान वहां छिप कर बैठ गया है। कभी-कभी कोई आदमी पहुंचता है, आमतौर से कोई वहां नहीं पहुंचता। एक जगह छोड़ कर हम सब जगह जाते हैं, खुद को छोड़ कर हम सब जगह हो आते हैं। जो निकटतम है वह सबसे दूर हो गई है जगह, जो अपने ही भीतर है वही सबसे दूर, बाहर हो गई है। जो मैं स्वयं हूं, उसे ही छोड़ कर सब इकट्ठा कर लेता हूं। खुद को खो देते हैं और सब पा लेते हैं। क्या है अर्थ इस पाने का जिसमें सब पा लिया जाए और स्वयं खो जाए? ऐसे ज्ञान का क्या मूल्य है जिसमें मैं अपने को न जान पाऊं और सब जान लूं?
स्वामी राम जापान गए हुए थे। एक मकान में आग लग गई है, हजारों लोग इकट्ठे हैं, बड़ा मकान है, टोकियो के बड़े धनपति का मकान है, लोग सामान ले-ले कर बाहर आ रहे हैं, मकान आग में जकड़ता चला जा रहा है। राम भी खड़े होकर देखते हैं, मकान का मालिक बाहर बेहोश खड़ा है, चार आदमी सम्हाले हुए हैं। उस आदमी की आंखें पथरा गई हैं, उसे कुछ सूझ नहीं रहा है। फिर आखिर में घर के भीतर से कुछ लोग आते हैं और उस मकान मालिक को कहते हैं कि कुछ और जरूरी चीज रह गई हो, तो आप बता दें? हम सब कागजात निकाल लाए हैं, तिजोरियां निकाल लाए, फर्नीचर निकाल लाए, सब निकाल लाए, जो भी मूल्यवान था हम ले लाए, अब कोई और जरूरी चीज रही हो तो बता दें। क्योंकि अब यह आखिरी मौका है कि हम भीतर जा सकें। फिर इसके बाद लपटों के भीतर जाना असंभव है। वह मालिक कहता है, मुझे कुछ भी याद नहीं आता, तुम खुद एक बार जाकर और भीतर देखो, जो जरूरी लगे वह और ले आओ।
वे लोग भीतर जाते हैं और फिर छाती पीटते हुए बाहर आते हैं। साथ में एक बच्चे की लाश लिए हुए हैं। और वे सब रोकर कहते हैं कि बड़ी गलती हो गई, हम तो सामान बचाने में लग गए और मकान मालिक का इकलौता बेटा भीतर ही सोया रह गया। मकान का मालिक, असली मालिक, जो कल होने वाला मालिक था, वह जल गया। और सामान सब बचा लिया।
राम ने अपनी डायरी में लिखा: आज जो देखा यही तो सब दुनिया में हो रहा है। आदमी अपने को छोड़ कर सब बचा लेता है। खुद जल जाता है, मालिक जल जाता है, सामान बच जाता है। आखिर में सामान का ढेर रह जाता है और आदमी खो जाता है।
धर्म कहता है, अपने को पहले बचाओ। वह जो स्वयं है पहले उसे जानो और खोजो, फिर बाकी सब गौण है, बाकी सब बाहर है, बाकी सब नॉन-एसेंशियल है, बाकी सब सारभूत नहीं है। सारभूत स्वयं है। धर्म का संबंध इससे है। इसलिए कोई यह न कहे कि हम धर्म से बच जाएं, तो हर्ज क्या है? धर्म से कोई भी नहीं बच सकता। धर्मों से बच जाएं, तो बड़ा फायदा है। धर्म से मत बचना, धर्मों से जरूर बच जाना। धर्मों से यानी हिंदू से, मुसलमान से, ईसाई से, जैन से, पारसी से, इनसे बचना। इनसे जो घिरेगा वह धर्म से परिचित न हो पाएगा। धर्मों में जो भटकेगा वह धर्म से बच जाएगा। और जिसे धर्म में जाना हो उसे धर्मों को नमस्कार कर लेना चाहिए। धर्मों से धर्म का कोई भी संबंध नहीं है। रिलीजंस जब तक जमीन पर हैं रिलीजन पैदा नहीं हो सकेगा। जब तक धर्मों की भीड़ है, तब तक धर्म का जन्म बहुत मुश्किल है। लेकिन जब भी किसी आदमी को खोजना हो, धर्मों को छोड़ कर धर्म की खोज में जाना चाहिए। क्यों मैं यह कहता हूं? मैं इसलिए यह कहता हूं कि धर्म तो एक ही हो सकता है।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, आप हिंदू, मुसलमान, ईसाई इनके खिलाफ क्यों बोलते हैं?
मैं इनके खिलाफ इसलिए बोलता हूं कि धर्म तो एक ही हो सकता है। धर्म हजार नहीं हो सकते। सत्य हजार नहीं हो सकते। यह खयाल रखना, असत्य अनेक हो सकते हैं, सत्य एक ही हो सकता है। बीमारियां अनेक हो सकती हैं, स्वास्थ्य एक ही होता है। हम इतने लोग हैं यहां, अगर हम सब बीमार होने का तय करें, तो मैं अपने ढंग से बीमार हो जाऊंगा, आप अपने ढंग से, जितने आदमी हैं उतनी बीमारियां होंगी। हर आदमी अलग-अलग ढंग से बीमार हो जाएगा, लेकिन अगर हम सारे लोग स्वस्थ हो जाएं, परिपूर्ण स्वस्थ हो जाएं, तो मेरे स्वास्थ्य में और आपके स्वास्थ्य में रत्ती भर फर्क नहीं होगा। स्वास्थ्य बिलकुल एक जैसा होगा। स्वास्थ्य का अनुभव तो एक होगा, बीमारी के अनुभव अनेक हो सकते हैं। धर्म का अनुभव तो एक है, चाहे बुद्ध को हो, चाहे महावीर को, चाहे मोहम्मद को, चाहे जीसस को, चाहे कृष्ण को, धर्म का अनुभव तो एक है। लेकिन धर्मों की ये अलग-अलग जमातें क्यों खड़ी हैं? ये धर्म के अनुभव पर नहीं खड़ी हैं, ये मनुष्य की धर्म की जो प्यास है, उसके शोषण पर खड़ी हैं। धर्मों का कोई संबंध परमात्मा से नहीं है। धर्मों का संबंध पुरोहित से है। और पुरोहित और परमात्मा के बीच कभी कोई दोस्ती नहीं रही, यह खयाल रखना। पुरोहित और शैतान के बीच तो दोस्ती है, लेकिन पुरोहित और परमात्मा के बीच कोई दोस्ती नहीं है। हो भी नहीं सकती। परमात्मा और आदमी के बीच किसी एजेंट की, दलाल की कोई जरूरत नहीं है। सत्य और मनुष्य के बीच किसी की जरूरत नहीं है। खुद की आंखें खुली हों तो सत्य सामने हो जाता है। लेकिन जितनी बेईमानी का काम हो, चोरी का, शरारत का, उतने दलालों की जरूरत पड़ती है। अधर्म के लिए दलालों की जरूरत है।
मैंने सुनी है एक घटना, कि एक पादरी भागा चला जा रहा है तेजी से एक रास्ते के किनारे, एक चर्च में जाकर उसे व्याख्यान देना है। पड़ोस की खाई से जोर से आवाज आती है कि सुनिए, मैं मर रहा हूं, किसी ने मुझे छुरे मार दिए हैं, मुझे बचाइए। वह पादरी नीचे झांक कर देखता है, एक आदमी लहू में सराबोर पड़ा है, कोई ने छुरा भोंक दिया है, छुरा भी पास में पड़ा है। लेकिन पादरी को जल्दी जाना है चर्च में। वहां उसे प्रेम के ऊपर व्याख्यान देना है। और अगर वह इसकी बातों में उलझ गया, इसके इलाज में, तो झंझट में पड़ जाए, और कौन जाने, बचाने जाए और खुद उलझ जाए कि तुम्ही ने मारा है, या कोई और मुसीबत आ जाए।
पादरी जोर से भागा। लेकिन वह आदमी चिल्लाया, उसने कहा: पादरी, मैं तुझे भलीभांति जानता हूं, उसी गांव का रहने वाला हूं, जिस गांव में तू भाषण करने जा रहा है। अगर मैं बच गया तो मैं गांव में खबर कर दूंगा कि यह प्रेम पर व्याख्यान देने की जल्दी में था और मैं मर रहा था, मुझे बचाने को भी नीचे नहीं उतरा। पादरी डरा, पादरी उतर कर नीचे गया, उस आदमी का मुंह पोंछा, मुंह पोंछते ही देखा कि यह तो पहचानी हुई शक्ल है। पादरी कुछ घबड़ाया, पादरी ने कहा: तुम पहचाने हुए मालूम पड़ते हो। उस आदमी ने कहा: जरूर मालूम पडूंगा, पादरियों से अपना पुराना संबंध है, मैं शैतान हूं। तुम्हारे चर्च में मेरी तस्वीर भी लटकी हुई है। उस पादरी ने कहा: हे भगवान! मैंने तेरे खून में अपने हाथ डुबा कर बड़ा अपवित्र काम किया, तुझे बचाने का सवाल ही नहीं, तू तो मर जा तो अच्छा। तुझे मरने के लिए ही तो हम सारी कोशिश करते हैं। वह खिलखिला कर शैतान हंसने लगा, उसने कहा: नासमझ पादरी, तुझे कुछ पता नहीं है, जिस दिन मैं मर जाऊंगा, उसी दिन तू भी मर जाएगा। जब तक शैतान है, तब तक पादरी का धंधा है। जब मैं मर जाऊंगा, तू क्या करेगा? मुझे जल्दी बचा, भगवान के मरने से तुझे कोई नुकसान होने वाला नहीं है, लेकिन मैं अगर मर गया, तू तो गया। अगर मैं नहीं रहूंगा, तू क्या करेगा?
पादरी को खयाल आया, बात तो सच है, अगर लोग बुरे न रहें तो उनको भले बनाने की कोशिश करने वालों का क्या होगा? उस पादरी ने उसको कंधे पर उठा लिया और कहा: भाई मर मत जाना, मैं तुझे ले चलता हूं अस्पताल, तुझे ठीक करने की कोशिश करता हूं। तूने अच्छा याद दिला दिया, यह तो बिलकुल ठीक है। हमारा काम भगवान से क्या है? अगर सारे लोग भगवान को उपलब्ध हो जाएं, तो पादरी मर जाएगा। लेकिन सारे लोग शैतान के चक्कर में रहें, तो पादरी का काम चलेगा।
इसलिए दुनिया में जितनी बुराई फैलती है, चरित्रहीनता फैलती है, अधर्म फैलता है, उतना साधु-संन्यासी का धंधा ठीक से चलता है। यह मौसम, सी़जन आ जाता है। सी़जन की बातें हैं। आदमी बीमार पड़ता है, डाक्टर का सी़जन आ जाता है। आदमी की आत्मा बीमार पड़ती है, पादरी, पुरोहित, साधु-संन्यासी, महात्मा, सबका सी़जन आ जाता है। बड़े अजीब सी़जन हैं। और दिखता उलटा है, दिखता ऐसा है कि डाक्टर मरीज को ठीक करने के लिए जिंदा है, बिलकुल इसी कोशिश में रहता है। ऊपर से डाक्टर बेचारा मरीज को ठीक करता है, भीतर से रोज भगवान से प्रार्थना करता है कि मरीज बढ़ते रहें। उलटे काम में लगा है डाक्टर भी। दिन-रात मरीज की सेवा करता है और भीतर से चाहता है कि मरीज बढ़ते रहें, बढ़ते रहें।
मैंने सुना है, एक होटल में एक रात बड़ी देर तक कुछ मित्र बैठ कर शराब पीते रहे, मांस खाते रहे। दो बजे रात विदा हुए, बहुत बड़ा बिल उन्होंने चुकाया। दुकानदार ने, शराब के मालिक ने अपनी पत्नी से कहा कि ऐसे दिलदार लोग रोज आने लगें, तो हमारी किस्मत चमक जाए। जाते हुए ग्राहकों ने कहा: हमें क्या है, हम तो रोज आएं, भगवान से प्रार्थना करो हमारा धंधा ऐसा ही रोज चमके, तो हम रोज आएं। उसने कहा: हम भगवान से प्रार्थना करेंगे, लेकिन पहले यह तो बता दो तुम्हारा धंधा क्या है? उस आदमी ने कहा: मैं मरघट पर लकड़ी बेचने का काम करता हूं। लोग रोज ज्यादा मरें, हमारा धंधा रोज चले, हम रोज आएं।
पादरी-पुरोहित का धंधा क्या है, साधु-संन्यासी का धंधा क्या है? आदमी बुरा है, आदमी चरित्रहीन है, आदमी भटका हुआ है, अंधेरे में है, इसको रास्ते पर लाना उनका धंधा है। शैतान से उनकी सांठ-गांठ है। पुरोहित ने खड़े किए हैं धर्म, धर्मों का यह जाल, पुरोहित का जाल है। हिंदू और ईसाई और मुसलमान पुरोहित के फासले हैं। आदमी कहीं बटां हुआ नहीं। भगवान आदमी को कैसे बांटेगा? भगवान अगर है कहीं कोई अनुभव वैसा, तो आदमी जुड़ेगा, इकट्ठा होगा। आदमी आदमी ही नहीं जुड़ेगा, आदमी पशु-पक्षी जुड़ेंगे; आदमी पशु-पक्षी ही नहीं, आदमी पत्थर और फूल भी जुड़ेंगे। जोड़ बढ़ता चला जाएगा। परमात्मा है अनंत का जोड़। लेकिन धर्मों के नाम पर आदमी खंडित है। खंड-खंड है, जरूर कहीं कोई गड़बड़ है। जरूर कहीं कोई गड़बड़ है। और वह गड़बड़ यह है कि धर्मों को हम धर्म समझ रहे हैं, वह भूल है। अगर आदमी को धार्मिक बनाना हो, तो उसे हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सबसे मुक्ति चाहिए, उसका मनुष्य होना पर्याप्त है।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, आप जो बातें कहते हैं, वे नकारात्मक, निगेटिव मालूम पड़ती हैं।
निश्चित ही मैं जो बातें कहता हूं, वे नकारात्मक हैं। और नकारात्मक बातों के द्वारा ही आपके भीतर स्वयं की बुद्धि पैदा की जा सकती है, और कोई रास्ता नहीं है। एक मूर्तिकार मूर्ति बना रहा हो, आप उसके पास खड़े होकर देखें वह क्या कर रहा है? मूर्ति बना रहा है, मूर्ति नहीं बनाता, सिर्फ छैनी-हथौड़ा उठा कर पत्थर के किनारों को तोड़ता है। आप उससे कहेंगे, तुम यह क्या कर रहे हो? मूर्ति बनाओ। तुम तो सिर्फ पत्थर के छिलके तोड़ रहे हो। तुम तो पत्थर के किनारे तोड़ रहे हो। वह आदमी कहेगा, मूर्ति तो पत्थर में छिपी है, मैं सिर्फ व्यर्थ पत्थर को झाड़ दूंगा, मूर्ति प्रकट हो जाएगी। मूर्ति बनानी नहीं पड़ती, सिर्फ व्यर्थ पत्थर को झाड़ना पड़ता है। मूर्ति तो भीतर छिपी है, वह प्रकट हो जाएगी। जब मैं नकारात्मक बातें कहता हूं, तो कुल कोशिश इतनी है कि वह जो व्यर्थ सबके चारों तरफ जुड़ गया है, सबकी प्रतिभा के आस-पास जो व्यर्थ जुड़ा है पत्थर, वह झड़ जाए, गिर जाए। उस पर छैनी-हथौड़े से चोट करनी है। और जो प्रकट होगा वह तो सबके भीतर है। उसे कोई दूसरा नहीं दे सकता। प्रतिभा कोई किसी को नहीं दे सकता। लेकिन प्रतिभा के आस-पास जो जाल है, वह तोड़ा जा सकता है।
समस्त शिक्षा का एक ही अर्थ है कि प्रत्येक के भीतर जो प्रतिभा छिपी है, वह कैसे अनकॅवर हो सके? वह ढंकी है, वह कैसे उघड़ सके? प्रतिभा तो सबके भीतर है, प्रतिभा किसी को देनी नहीं है। और अगर प्रतिभा देनी हो, तो फिर काम असंभव है। प्रतिभा कोई किसी को दे नहीं सकता। ज्ञान कोई किसी को दे नहीं सकता। सिर्फ अज्ञान छीना जा सकता है, तोड़ा जा सकता है, खंडित किया जा सकता है। अज्ञान छिन जाता है, ज्ञान प्रकट होता है।
मैं जो नकारात्मक बातें कह रहा हूं, जान कर कह रहा हूं, विचारपूर्वक कह रहा हूं। सच तो यह है, धर्म की पूरी प्रक्रिया ही निगेटिव है, नकारात्मक है। क्योंकि धर्म आपके जो भीतर है उसे प्रकट करना चाहता है। धर्म आपको कुछ देना नहीं चाहता। धर्म आपसे कुछ छीन लेना चाहता है। आपसे कुछ तोड़ देना चाहता है, जो व्यर्थ है, ताकि सार्थक भर भीतर रह जाए। और सार्थक चमक जाए, व्यर्थ अलग हो जाए। हम सब व्यर्थ और सार्थक का जोड़ हैं। और हमारे ऊपर व्यर्थ की भारी परंपरा है। इतना व्यर्थ हमारे ऊपर थोपा गया है। इतनी किताबें, इतने संस्कार, इतनी परंपराएं, इतनी रूढ़िया हमारे मस्तिष्क पर बैठी हैं कि उस बोझ के कारण आदमी की आत्मा का उठना ही असंभव हो गया है। इस आदमी को व्यर्थ से मुक्ति दिलानी जरूरी है।
और ध्यान रहे, नकारात्मक के अतिरिक्त और कोई मुक्ति नहीं हो सकती। नकारात्मक मार्ग ही मुक्ति का मार्ग है। तोड़ना है, छोड़ना है, व्यर्थ को हटाना है, क्योंकि जो सार्थक है वह तो तोड़ा ही नहीं जा सकता। उसे कोई कितना ही तोड़े, तो भी वह नहीं टूटता। इसलिए बेफिकर रहो। नकारात्मक प्रक्रिया से गुजर कर सार्थक ही बच जाता है। जैसे सोने को हम आग में डाल दें, सोना नहीं डरता, हां, कोई नकली सोना बना लिया हो किसी वैद्य ने, तो मामला गड़बड़ हो सकता है। सोना नहीं डरता, लेकिन कोई आयुर्वेदिक चमत्कार से कोई तरकीब और होशियारी से, अगर कोई नकली सोना बना लिया हो तो, सोना डर भी सकता है, आग में जाने से। सोना नहीं डरता, सोना तो कहेगा डाल दो आग में, अच्छा है कचरा जल जाएगा, मैं बाहर निकल आऊंगा। जो हमारे भीतर सत्य है, वह नकार से नहीं डरता, निगेशन से नहीं डरता, आग से नहीं डरता। लेकिन जो असत्य है वह डरता है। वह कहता है नकारात्मक में तो मैं मर जाऊंगा। मुझे आग से बचाओ। सोना आग से निखर कर बाहर आता है। कचरा जल जाता है।
निगेशन जो है, नकार जो है, निषेध जो है, उससे गुजर कर आत्मा में जो व्यर्थ है वह हट जाता है और जो सार्थक है, जो सत्य है, वह शेष रह जाता है। इसलिए जिस व्यक्ति को भी सत्य की खोज में जाना हो, उसे नकार से गुजरना ही पड़ता है।
इसलिए मैं कहता हूं, जो नास्तिक नहीं हो सकता, वह कभी आस्तिक नहीं हो सकता है। नास्तिक हुए बिना कभी कोई आस्तिक नहीं हो सकता है। नास्तिकता की आग से गुजर कर आस्तिकता निखरती है। उसमें तेज आता है, उसमें बल आता है। आस्तिकता साफ-सुथरी होती है, आस्तिकता स्पष्ट होती है।
लेकिन हम इतने डरे हुए लोग हैं कि नास्तिकता से डरते हैं। और झूठे आस्तिक बन कर बैठ जाते हैं। सारी पृथ्वी पर दो तरह के लोग हैं, झूठे आस्तिक हैं, इनकी संख्या भारी है, इनकी संख्या इतनी बड़ी है कि सारी पृथ्वी को उन्होंने खतरे में डाल दिया है। झूठे आस्तिक, जो नास्तिक होने से डर गए। नास्तिकता से गुजरने से डर गए। ऐसा सोना जिसने आग में जाने से इनकार कर दिया। वह सोना तभी दीन-हीन हो गया जब आग में जाने से इनकार कर दिया। दूसरे कुछ थोड़े से नास्तिक हैं, जो नास्तिकता पर ही रुक गए हैं। अगर...सोना आग से गुजरना चाहिए, आग में रुक नहीं जाना चाहिए। आग में रुक गया सोना, तो बेमानी हो गया। आग से गुजरना है, रुकना नहीं है। नास्तिकता में रुक गया जो, वह भी व्यर्थ हो गया। नास्तिकता से गुजरना है ताकि वह शेष रह जाए और बाहर आ जाए, जो आस्तिकता है, जो सत्य है, जो वास्तविक है, जो नहीं जलता, जो नहीं मिटता।
दो तरह के लोग हैं, एक जो आग से गुजरते ही नहीं, एक जो आग में ही बैठ कर रह जाते हैं, और पृथ्वी परेशानी में पड़ गई है। आग से प्रत्येक को गुजरना चाहिए। मैंने जो चार दिन बातें कहीं, वह निषेध की, इसीलिए कहीं कि प्रत्येक की प्रतिभा इस आग से गुजरे। डरते क्यों हैं हम? डरता वही है जिसने कुछ असत्य पकड़ रखा है। सत्य हो फिर डर की कोई वजह नहीं है, कोई भय नहीं है। निषेध मार्ग है विधेय को पाने का। निगेशन...वह पाजिटिव जो है, उसको पाने का रास्ता है। निषेध से गुजरना ताकि विधेय को पा सको। इनकार करना सीखना, ताकि किसी दिन हां कह सको। जिसने कभी ‘नो’ नहीं कहा, उसके ‘यस’ का कोई मूल्य नहीं। उसका यश एकदम इंपोटेंट होगा। उसके यश में कोई बल नहीं हो सकता। उसके यस में कोई सामर्थ, कोई शक्ति, कोई साहस नहीं हो सकता। कहना, इनकार करना, ताकि किसी दिन हां कहने की शक्ति आ सके। और जब इनकार कहने वाला किसी दिन हां भरता है, उसका हां उसके जीवन का रूपांतरण हो जाता है। क्रांति हो जाती है।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, पंडितों, गुरुओं, रूढ़ियों, इन सबके विरोध में आप बोलते हैं, लेकिन कहीं ऐसा तो न हो जाए कि आपकी भी एक रूढ़ी बन जाए? एक संप्रदाय बन जाए?
यह डर वास्तविक है। यह खतरा पक्का है। यह खतरा इसलिए पक्का है कि आदमी बिलकुल पागल है। आदमी इतना अजीब है कि जिन्होंने रूढ़ियां तोड़ने की कोशिश की उनकी भी उसने रूढ़ियां बना ली हैं। बुद्ध ने लोगों को समझाया कि तुम स्वयं हो जाओ, और करोड़ों लोग बौद्ध बने बैठे हैं। अगर बुद्ध कहीं होंगे, तो अपना सिर ठोकते होंगे कि यह क्या पागलपन है? मैंने समझाया कि तुम स्वयं हो जाओ, अपने दीये बनो, और वे कहे रहे हैं कि हम ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ हम बुद्ध की शरण जाते हैं। बुद्ध कहते हैं: तुम किसी की शरण मत जाना, क्योंकि तुम्हारे भीतर वह बैठा है जिसको किसी की शरण जाने की कोई जरूरत नहीं, वह स्वयं आत्म-शरण है। वे कह रहे हैं: बुद्धं शरणं गच्छामि। बुद्ध कहते हैं, किसी की पूजा मत करना, किसी की मूर्ति मत बनाना। दुनिया में बुद्ध की जितनी मूर्तियां हैं उतनी किसी और की नहीं। उर्दू में तो शब्द बन गया है, बुत। बुत शब्द बुद्ध का ही अपभ्रंश है। इतनी मूर्तियां बन गईं कि जब अरब मुल्कों में मूर्तियां पहुचीं, तो वे बुद्ध की ही मूर्तियां थीं, लोगों ने पूछा: यह क्या है? तो लोगों ने कहा: बुद्ध। तो वे समझे कि बुद्ध यानी मूर्ति। इसलिए बुत शब्द बन गया। बुद्ध का ही रूप है बिगड़ा हुआ बुत। बुतपरस्ती, बुद्धपरस्ती का ही रूप है। और जिस आदमी ने मूर्ति का विरोध किया, उसकी इतनी मूर्तियां बन गईं!
चीन में एक मंदिर है, दस हजार बुद्धों का मंदिर। उसमें, एक मंदिर में दस हजार बुद्ध की मूर्तिंयां हैं। अगर बुद्ध कहीं होंगे, तो उनकी क्या हालत होती होगी? कि यह क्या हो रहा है? महावीर नग्न रहे, सब छोड़ दिया, कुछ भी पास न रखा; महावीर के अनुयायियों के पास जाकर देखें, जितना पैसा इस मुल्क में उन्होंने इकट्ठा कर रखा है, उतना किसी के पास नहीं है। आश्चर्यजनक है! हैरान करने वाली बात है!
मैं जिस गांव में रहता हूं, मेरे एक परिचित हैं, उनकी एक दुकान है। महावीर तो नग्न रहे, तो उनकी नग्नता के कारण उनको दिगंबर कहा गया--कि जिनका आकाश ही वस्त्र है। मेरे मित्र हैं, मेरे गांव में उनकी दुकान का नाम पता है? उनकी दुकान का नाम है: दिगंबर क्लॉथ स्टोर। नंगों की कपड़ों की दुकान। महावीर की याददाश्त में वे दुकान खोले हुए हैं कपड़ों की। वह बेचारा नंगा रह कर मर गया और ये कपड़े बेच रहे हैं? थोड़ा आश्चर्यजनक है। लेकिन ऐसा ही हुआ है, ऐसा ही हुआ है। इस्लाम का अर्थ है: शांति का धर्म। इस्लाम शब्द का अर्थ है: शांति, पीस। और इस्लाम मानने वालों ने जितनी अशांति दुनिया में फैलाई, उतनी किसी और ने नहीं फैलाई। आश्चर्य! यह क्या होता है दुनिया में? जीसस कहते हैं कि तुम्हारे गाल पर कोई एक चांटा मारे, तुम दूसरा उसके सामने कर देना। लेकिन जितनी तलवार ईसाईयों ने चलाई, जितनी आग ईसाईयों ने लगाई, जितने लोगों को उन्होंने मारा, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है कि उन्होंने कितनी हत्या की। कुछ है बात ऐसी, आदमी इतना नासमझ है कि जिस बात को तोड़ने के लिए कहा जाए, वह उसी को मजबूत करता चला जाता है। अब तक यही हुआ है। लेकिन आगे यह नहीं होना चाहिए। यह बहुत घातक सिद्ध हुआ है। और जिन चीजों से हम परेशान होते हैं, जिनसे हम दुखी होते हैं, हम हैरान होते हैं कि हम फिर उसी तरह की चीजें बना लेते हैं, फिर उसी तरह की भ्रांति कर लेते हैं।
अमरीका में एक मनोवैज्ञानिक ने तलाक के ऊपर अध्ययन किया है। डाइवोर्स पर। उसने एक आदमी के पूरे जीवन का अध्ययन किया, जिसने आठ बार तलाक दिए। पहली बार पत्नी बदली, फिर छह महीने बाद दूसरी पत्नी लाया, फिर वह...ऐसा आठ बार उसने जिंदगी में पत्नियां बदलीं। और आठ बार के निरंतर अध्ययन से जो पता चला, वह बड़ी हैरानी की बात थी। वह यह थी कि हर बार पत्नी से परेशान होकर उसने पत्नी बदली, और दूसरी बार उसने जो पत्नी चुनी वह फिर वैसी की वैसी थी जैसी उसकी पहली पत्नी थी। तब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि वह चुनने वाला आदमी वही है न, वह तो बदलता नहीं, पत्नी बदल लेता है, लेकिन वह चुनने वाला तो वही है, वह फिर वैसी ही पत्नी चुन लाता है। फिर पत्नी बदल देता है। लेकिन चुनने वाला फिर वही है। वह फिर वैसी ही पत्नी चुन लाता है। आदमी वही है।
अगर राम को छीन लो, वह बुद्ध को पकड़ लेगा; अगर बुद्ध को छीन लो, वह कृष्ण को पकड़ लेगा। अगर सबको छीन लो, जीसस को, मोहम्मद को, तो वह स्टैलिन को पकड़ लेगा, माओ को पकड़ लेगा, किसी न किसी को पकड़ लेगा। वह आदमी का दिमाग पकड़ने वाला है।
मैं जो कह रहा हूं वह यह नहीं कह रहा हूं कि आप दूसरों को छोड़ दें और मेरी बात को पकड़ लें। मैं यह कह रहा हूं कि पकड़ना गलत है। पकड़ें ही मत। आप अकेले काफी हैं। किसी को पकड़ने की किसी को कोई जरूरत नहीं है। लेकिन भूलें हम ऐसी करते हैं।
मैंने सुनी है एक कहानी, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ है, मुल्ला नसरुद्दीन। वह अपने झोपड़े में बैठा हुआ है, उसकी पत्नी उस पर बहुत नाराज हो रही है। वह उससे कह रही है कि तुमने जिंदगी गंवा दी, न मेरे लिए एक नई साड़ी ला पाते हो, न एक नया गहना खरीद पाते हो। जिंदगी खराब हो गई। यह क्या भगवान की पूजा-प्रार्थना लगा रखी है? अगर किसी आदमी की भी नौकरी करते, तो भी कुछ मिलता, यह भगवान की नौकरी में कुछ भी तो नहीं मिला? मुल्ला नसरुद्दीन कहता है, पागल, कैसी बातें कर रही है, सब भगवान के वहां बैंक में मेरा जमा होता जाता है, जब चाहूंगा ले लूंगा। अभी लिया नहीं इसलिए नहीं मिला। उसकी औरत उसको गुस्से में ला देती है, और कहती है, अच्छा, आज ले ही आओ। जाओ कुछ तो लेकर आओ, मैं समझूं कि भगवान की दुनिया से भी कुछ मिलता है।
मुल्ला ताव में आ गया है, वह बाहर निकल आया, उसने जोर से आकाश की तरफ हाथ करके कहा कि बहुत दिन हो गए, इतना जमा हो गया, एक हजार रुपये फौरन भेज! बगल में सेठ है, वह सारी बकवास सुन रहा है, पति और पत्नी की। उसको हंसी सूझी, मजाक सूझा। उसने सोचा, हजार रुपये क्यों न फेंक दूं, बड़ा मजा आ जाएगा। हजार रुपये की थैली बगल के पड़ोसी ने उसके आंगन में फेंक दी। मुल्ला ने थैली उठाई और भगवान से कहा: धन्यवाद! बाकी जमा रखना। जब जरूरत होगी ले लेंगे।
थैली लेकर भीतर गया। पत्नी भी चकित हो गई, कि आश्चर्य! हजार रुपये उसने सामने पटक दिए, कि ले! बगल के पड़ोसी ने सोचा कि दस-पंद्रह मिनट मजा ले लेने दो, फिर जाकर कह देंगे कि मजाक किया। लेकिन दस पंद्रह मिनट में तो देखा कि मुल्ला का नौकर बाजार से बैलगाड़ियों में सामान लादे हुए, खरीदे चला आ रहा है। तो वह सेठ डरा कि यह तो...कहीं लंबी मुश्किल न हो जाए? वह भागा हुआ आया उसने कहा: भई, बहुत हो गई मजाक, रुपये वापस कर दो। रुपये मैंने फेंके हैं।
मुल्ला ने कहा: पागल हो गए हो, तुमने बराबर सुना होगा, मैंने भगवान से कहा, हजार रुपये भेजो, फिर मैंने धन्यवाद दिया। तुमने कैसे फेंके? उस सेठ ने कहा: मजाक, मजाक की बात है, बात खत्म करो, रुपये वापस करो। कहीं भगवान रुपये फेंकता है? मुल्ला ने कहा: आश्चर्य, मेरे अपने जमा थे, वे मैंने लिए हैं, तुम कहां से बीच में आ गए? सेठ को लगा कि मुल्ला पैसे वापस देगा नहीं। सेठ ने कहा: तो फिर काजी के पास चलो। हजार रुपये का मामला है। सिर्फ मजाक में मैंने फेंके थे।
मुल्ला ने कहा: मैं ऐसे काजी के पास नहीं जा सकता। मैं गरीब आदमी, मेरे कपड़े फटे हुए। तुम शानदार घोड़े पर बैठ कर पगड़ी-कोट डांट कर जाओगे। काजी तुमसे प्रभावित हो जाएगा। न्यायाधीश हमेशा पैसे वालों से प्रभावित हो जाता है। मैं ऐसे नहीं जाऊंगा। वह कहेगा, यह गरीब आदमी, इस पर हजार रुपये कहां से आएंगे? झूठ बोल रहा है। तुम्हारी बात मान ली जाएगी। मैं नहीं जा सकता। अगर तुम अपने कपड़े मुझे दो और घोड़ा मुझे दो, तो मैं चल सकता हूं। सेठ ने कहा: अच्छी बात है, हजार रुपये वापस लेने हैं, तो यह भी करना पड़ेगा।
कपड़े मुल्ला को दिए, मुल्ला के कपड़े सेठ ने पहने। सेठ के घोड़े पर मुल्ला सवार हुआ, सेठ पैदल चला। अदालत में पहुंचे। मुल्ला ने चिल्ला कर नौकरों को कहा: घोड़े को सम्हालो; पानी रखो, घास डालो, ताकि अंदर मजिस्ट्रेट ठीक से सुन ले कि जो आदमी आया है वह घोड़े वाला है, वह साधारण आदमी नहीं है।
अदालतें घोड़ों से प्रभावित होती हैं, आदमियों से थोड़े ही प्रभावित होती हैं। वह भीतर गया, सेठ बेचारा गरीब हैसियत में उसके बगल में जाकर खड़ा हो गया। मुल्ला ने कहा: कहो, क्या अदालत से कहना चाहते हो? अदालत तो वैसे ही डर गई। सेठ ने कहा कि हजार रुपये मैंने मजाक में फैंके हैं। यह आदमी भगवान से कह रहा था कि हजार रुपये भेजो। कहीं भगवान रुपये भेजता है? मैंने मजाक में फेंक दिए कि थोड़ी देर का मजा होगा, फिर वापस ले आऊंगा। यह आदमी बदल गया। यह कहता है कि रुपये मेरे हैं, भगवान ने ही फेंके हैं। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि आप क्या कहते हैं? मुल्ला से पूछा। मुल्ला ने कहा कि मैं और क्या कहूं, इतना ही कह सकता हूं कि इस सेठ का दिमाग खराब हो गया है, यह हर चीज अपनी बताता है। पूछिए, ये कपड़े किसके हैं? यह घोड़ा किसका है? यह कहेगा, इसी के हैं। सेठ ने कहा: और क्या तेरे हैं, मेरे तो हैं ही। मजिस्टे्रट ने कहा: मुकदमा बरखास्त, सेठ तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है।
वह सेठ यह न समझ पाया कि जो आदमी हजार रुपये भगवान की अदालत से वसूल करता है, ऐसा बेईमान और चालाक आदमी। जो आदमी हजार रुपये मजाक में लिए अपने बताता है, उसको घोड़ा और कोट देना और भी खतरनाक है, यह भी चला जाएगा।
जिन गलतियों में हम एक बार गुजरते हैं, भूल जाते हैं कि उन्हीं गलतियों में हम गुजरते ही चले जाते हैं। हमें याद ही नहीं रहता कि हम पुनरुक्तियां कर रहे हैं उन्हीं गलतियों कीं। और आदमी पुनरुक्ति ही किए चला जाता है। जिन धोखों में हम कल फंसे थे, उन्हीं धोखों में हम फिर आज फंस जाते हैं। नाम बदल जाता है धोखे का और हम फंस जाते हैं। शक्ल बदल जाती है धोखे की और हम फंस जाते हैं। धोखेबाज बदल जाता है और हम फंस जाते हैं। तरकीब बदल जाती है और हम फंस जाते हैं।
कुछ समझ लेना चाहिए कि हम किन-किन धोखों में आज तक फंसे हैं? मनुष्यता किन-किन में फंसी है? और आगे भी फंस सकती है। पहली बात, मनुष्यता संगठन के धोखे में फंसती रही है हमेशा से। ऑर्गनाइजेशन का धोखा। जब भी संगठन होगा, आदमी खतरे में पड़ेगा। संगठन हमेशा खतरनाक है। वह किसी का भी संगठन हो—वह हिंदू का हो, मुसलमान का हो, गांधीवादी का हो, साम्यवादी का हो, संगठन खतरनाक है। क्यों? क्योंकि संगठन व्यक्ति को मिटाता है और भीड़ को खड़ा करता है। व्यक्ति की आत्मा को पोंछता है और यंत्र को मजबूत बनाता है। वह कहता है कि तुम नहीं हो, मुसलमान है; तुम नहीं हो कम्युनिस्ट है; तुम नहीं हो, व्यक्ति नहीं है, हिंदू है, ब्राह्मण है, जैन है। व्यक्ति को पोंछता है संगठन। व्यक्ति की आत्मा को पोंछता है। भीड़ को इकट्ठा करता है। यंत्र को मजबूत करता है। व्यक्ति को डुबाता है, यंत्र को बढ़ाता है।
आज तक आदमी संगठनों में फंस कर नष्ट हुआ है। आदमी ने अपनी आत्मा खोई है संगठनों में जाकर। दुनिया में जितना उपद्रव संगठनों के कारण हुआ है किसी और कारण नहीं हुआ। कभी सोचें आप, अगर ऐसी दुनिया बन सके जिसमें संगठन न हों—हिंदू, मुसलमान, कम्युनिस्ट, सोशियलिस्ट फैसिस्ट न हों—कोई संगठन न हो, व्यक्ति हों दुनिया में, तो दुनिया में युद्ध हो सकते हैं? व्यक्ति हों दुनिया में, तो दुनिया में कत्लेआम हो सकते हैं? व्यक्ति हों दुनिया में, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान हो सकते हैं? व्यक्ति हों दुनिया में, तो मस्जिद और मंदिर की दुश्मनी हो सकती है? व्यक्ति हों दुनिया में तो प्रेम हो सकता है।
संगठन जब तक दुनिया में होंगे, घृणा होगी, और कुछ भी नहंी हो सकता। उसका कारण है, क्योंकि संगठन घृणा पर जीता है। संगठन बिना घृणा के खड़ा ही नहीं होता। ध्यान रहे, प्रेम का कोई संगठन नहीं होता, सब संगठन घृणा के संगठन हैं। हालांकि मुसलमान कहते हैं कि हम एक-दूसरे को प्रेम करते हैं, इसलिए इकट्ठे हैं। हिंदू कहते हैं, हम एक-दूसरे को प्रेम करते हैं, इसलिए इकट्ठे हैं। भारतीय कहते हैं, हम एक-दूसरे को प्रेम करते हैं, इसलिए इकट्ठे हैं। लेकिन ये झूठी बातें हैं।
ध्यान रहे, भारत पर चीन का हमला हो जाए, फिर देखो, संगठन कैसा मजबूत होता है? चीन का हमला होता है तो भारतीय संगठित होते हैं, पाकिस्तान का हमला होता है तो भारतीय संगठित होते हैं। फिर हमला खत्म हुआ, संगठन ढीला हुआ। फिर गुजराती और मराठी नहीं लड़ते जब चीन का हमला होता है, तब गुजराती-मराठी भाई-भाई हो जाते हैं। फिर चीन का हमला खत्म हुआ, फिर गुजराती मराठी से लड़ता है, हिंदी गैर-हिंदी से लड़ता है। क्यों? घृणा पैदा हो गई। चीन दुश्मन है, कॉमन एनिमी है, एक सामान्य दुश्मन है, उससे लड़ो, घृणा पैदा हो गई, हम इकट्ठे हो गए। घृणा खत्म हो गई, संगठन खत्म हो गया। संगठन जारी रखना हो, घृणा जारी रखो।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है: अगर कोई भी संगठन बनाना हो, तो घृणा पैदा करो, खतरा पैदा करो, दुश्मन पैदा करो। अगर असली दुश्मन न मिले, नकली दुश्मन पैदा करो। असली खतरा न हो, नकली खतरा पैदा करो। ऐसे ही तो खतरे पैदा किए जाते हैं: इस्लाम खतरे में है! पता ही नहीं चलता इस्लाम पर क्या खतरा हो सकता है? हिंदू धर्म खतरे में है! क्या खतरा हिंदू धर्म पर हो सकता है? और खतरे में है तो होने दो, जाने दो, फायदा क्या है? डूबने दो हिंदू को भी, मुसलमान को, ईसाई को भी। नहीं, लेकिन इस्लाम खतरे में है! खतरा पैदा करो, मुसलमान को घबड़ाओ, बताओ कि दुश्मन मौजूद तैयारी कर रहा है। हिंदू छुरे पर धार रख रहा है। बस फिर मुसलमान भी छुरे पर धार रखेगा, संगठित हो जाएगा। फिर संगठन झगड़े लाएंगे, उपद्रव लाएंगे।
हम संगठन बदल लेते हैं लेकिन संगठन को नहीं मिटाते। पुराना संगठन छोड़ते हैं नये संगठन में खड़े हो जाते हैं। पर संगठन जारी रहता है। क्या ऐसी दुनिया नहीं बन सकती जहां संगठन न हों? इसका यह मतलब नहीं है कि रेलवे का संगठन न हो, पोस्ट-आफिस का संगठन न हो, वह संगठन नहीं है। वह तो सिर्फ कामचलाऊ व्यवस्थाएं हैं। लेकिन आइडियोलॉजी के संगठन नहीं होने चाहिए। सिद्धांत के संगठन नहीं होने चाहिए। संगठन एक जड़ रही है आदमी को नष्ट करने की। उसमें आदमी मिट जाता है, व्यक्ति समाप्त हो जाता है, भीड़ रह जाती है। यह मिटाना होगा, एक।
दूसरी बात, यह माना जाता रहा है, यह अब तक माना जाता रहा है कि हर आदमी को किसी ढांचे में बंधा हुआ होना चाहिए, किसी पैटर्न में। किसी आदमी को मुक्त नहीं होना चाहिए। और जो आदमी भी जितना ढांचे में बंधा होगा, उतना ही जड़ होगा। उतनी ही उसके भीतर चेतना कम होगी। रूढ़ियों का मतलब है: ढांचे। और ढांचों में बंधने का आग्रह इतना पुराना है कि बच्चा पैदा हुआ कि हमने ढांचा बिठालना शुरू किया। हम किसी बच्चे को वही नहीं बनने देना चाहते जो वह बन सकता है। हम कहते हैं, हम तुम्हें जो बनाएं, वह तुम बनो। हम बच्चे से कहते हैं, गांधी जैसे बनो। क्यों? किसी बच्चे का कोई कसूर है? वह क्यों गांधी जैसा बने? महावीर जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो। कोई बुद्ध ने या महावीर ने कोई ठेका ले रखा है कि हर आदमी उन जैसा बने। और कोई चाहे तो भी बन सकता है। महावीर बहुत अदभुत हैं, गांधी भी बहुत अदभुत हैं, राम भी बहुत अदभुत हैं, लेकिन कोई दूसरा राम जैसा क्यों बने? क्या जरूरत है? और अगर बहुत राम होंगे, तो ध्यान रहे, राम अकेले राम होने का मजा भी चला जाएगा।
एक गांव में, सोचें अहमदाबाद में, सब राम जैसे हो गए, तो ऐसी जिंदगी बोरिंग हो जाएगी, इतनी घबड़ाहट होने लगेगी, जहां जाओ वहीं धनुषबाण लिए हुए राम मिल जाएं, ऐसी घबड़ाहट हो जाएगी कि वे सब राम मिल कर तय करेंगे कि हम आत्महत्या कर लें, क्योंकि यहां जीना बहुत मुश्किल हो गया है। राम का अकेला होना ही सुंदर है। राम की भीड़ खड़ी करने की कोई जरूरत नहीं। और कोई कितनी ही कोशिश करे, राम की भीड़ खड़ी हो भी नहीं सकती है। सच बात यह है कि एक आदमी जैसा दूसरा आदमी कभी भी नहीं हो सकता है। लेकिन होने की कोशिश में आदमी मर जाता है, नष्ट हो जाता है, मुर्दा हो जाता है, जीवंत नहीं रह जाता। कितने हजार वर्ष हुए राम को हुए? कितने लोग राम हो गए? राम-राम जप कर कितने लोग राम हो गए? हां, कुछ लोग राम हो जाते हैं, रामलीला के राम, उनसे कोई मतलब नहीं है, उनका कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन राम, राम अकेला है। सब दुनिया में हर व्यक्ति अपने जैसा ही है। बच्चे को यह कहना कि तू कोई ढांचा स्वीकार कर और ऐसा हो जा, बच्चे की हत्या करनी है। मां-बाप जितना अनाचार बच्चों के साथ किए हैं उतना दुनिया में कोई दूसरे ने किसी पर अनाचार नहीं किया है। समाज जितना आने वाले व्यक्तियों पर, नई पीढ़ियों पर अनाचार करता है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। सब ढांचे में ढालने की कोशिश चलती है।
अगर रूढ़ियों से बचना हो और एक मुक्त चेतना पानी हो, तो कभी भी दूसरे जैसे बनने की कोशिश मत करना। आप जैसा आदमी कभी हुआ ही नहीं। आप बिलकुल पहली दफे हुए हो। आप अनूठे हो, एक-एक आदमी बेजोड़ है। एक-एक आदमी के अंगूठे का निशान उसके ही जैसा है, सारी दुनिया में घूमने पर वैसा अंगूठे का निशान नहीं मिल सकता। वैसे ही एक-एक आदमी की आत्मा भी उसके ही जैसी है, वैसी आत्मा कहीं खोजने से नहीं मिल सकती। लेकिन अगर कोई ढांचा बिठाया, तो आत्मा भीतर मरने लगेगी, और ढांचा सब तरफ से काट-छांट करने लगेगा, और धीरे-धीरे भीतर एक लोथड़ा रह जाएगा मांस का, आत्मा नहीं।
यही हो गया है सारी दुनिया में। हम रूढ़ियों में, ढांचों में, पैटर्न में, आइडियालॉजी में, अतीत से, शास्त्रों में बंधे हुए लोग जिंदा नहीं रह गए हैं, मुर्दा हो गए हैं। यह मुर्दापन तोड़ना जरूरी है। इस मुर्दापन के खिलाफ बगावत जरूरी है। इस मुर्दापन को बिलकुल ही मिटा देना जरूरी है, ताकि जीवन की किरण, जीवन की आशा, जीवन का सपना, जीवन का भाव उदय हो सके।
लेकिन हम अपने देश में यह कहते हैं, हम यह कहते हैं कि सिद्धांत तो सत्य हैं, शास्त्र सत्य हैं, ढांचे सत्य हैं, आदर्श सत्य हैं, गलत है तो आदमी है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं, आदमी गलत बिलकुल नहीं है, गलत हैं तो ढांचे हैं, गलत हैं तो सिद्धांत हैं, गलत हैं तो शास्त्र हैं। असल में ढांचे का होना ही गलत है। एक-एक आदमी को बढ़ने दो, उसकी शाखाएं निकलने दो, उसके फूल निकलने दो, उसको पानी दो, खाद दो, लेकिन उसके लिए बंधा हुआ पैटर्न मत दो, ढांचा मत दो; उसे सम्हालो, उसे बढ़ाओ, उसकी रक्षा करो, लेकिन बताओ मत कि शाखा पूरब जाए कि पश्चिम, कि कितनी दूर जाएगी कि न जाए। यह सब मत बताओ, उसको गति दो, प्राण दो, जीवंतता दो; फलने दो, फूलने दो, उसे अपने ही जैसा होने दो। लेकिन नहीं, हम उलटा मानने वाले हैं।
मैंने एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है, एक सम्राट अपने महल में बैठा हुआ है, गर्मी के दिन हैं। नीचे एक पंखा बेचने वाला निकलता है। और वह चिल्लाता है, अदभुत पंखे हैं, ऐसे पंखे न कभी देखे गए, न सुने गए। राजा नीचे झांक कर देखता है, उसके पास अच्छे-अच्छे पंखे हैं, और सड़े पंखे बेच रहा है वह गरीब आदमी दो-दो पैसे के। उसे ऊपर बुलाता है और कहता है, पागल हो गया है, इन पंखों में क्या खूबी है? वह कहता है, महाराज, ये देखने में साधारण हैं, बाकी भीतर बहुत असाधारण हैं। राजा ने कहा: पंखे भी भीतर और बाहर, क्या मतलब है तेरा? उस आदमी ने कहा: इन पंखों का दाम सौ रुपया है। ये साधारण पंखे नहीं हैं। राजा ने कहा: खूबी क्या है? उसने कहा: ये सौ साल चलते हैं। सौ साल की गारंटी है। राजा ने कहा: पागल आदमी, किसको धोखा दे रहा है पता है तुझे? उसने कहा: मालिक, मुझे अच्छी तरह पता है, रोज नीचे पंखे बेचता हूं, आप खरीद लें, अगर गड़बड़ हो जाए मैं जिम्मेवार हूं। रुपये वापस कर दूंगा। सौ रुपये दे दिए गए, पंखा खरीद लिया गया।
दो दिन बाद पंखा टूट गया, पंखा बिलकुल साधारण था। राजा ने देखा कि वह पंखा वाला निकला है सुबह फिर, धोखा नहीं दे रहा। पंखे वाले को ऊपर बुलाया। पूछा कि कैसा पंखा दिया, दो दिन में टूट गया? उस पंखे वाले ने पंखे को देखा, फिर राजा को देखा और कहा कि महाराज, मालूम होता है आपको पंखा झलना नहीं आता। कृपया कर जरा पंखा झलिए, कैसा झलते हैं? हद कर दी, सौ साल चलने वाली चीज दो दिन में तोड़ दी? राजा ने कहा: तो कसूर मेरा है? क्या मुझे पंखा झलना नहीं आता? उसने कहा: आप पंखा झल कर बताइए। राजा ने पंखा झल कर बताया। वह हंसने लगा, उसने कहा: बस हो गई गलती, यह कोई ढंग है? फिर क्या ढंग है? उसने कहा: पंखे को हाथ से पकड़ कर रखिए और सिर को हिलाइए। पंखा सौ साल चलेगा। पंखा गारंटीड है। आपको पंखा करना ही नहीं आता। पंखे को हिला रहे हैं, पंखा टूट जाएगा।
उस आदमी ने बड़ी ठीक बात कही। यही ठीक बात, हमारे पंडित, पुरोहित, साधु-संन्यासी, नेता कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, हमारे पास सिद्धांत तो बिलकुल ठीक हैं, मानने वाला नहीं मिलता कोई। शास्त्र बिलकुल सही हैं। कलयुग आ गया, आदमी गलत पैदा हो गया है। हमारे पास बड़े उच्च आदर्श हैं, लेकिन आचरण करने वाले लोग नहीं हैं।
मैं कहता हूं, यह बात गलत है। आदमी बुरा नहीं है, और आदमी किसी युग का बुरा और भला नहीं होता है। न कलयुग होता है, न कोई सतयुग होता है। आदमी की आत्मा सदा एक सी है। आदमी एकदम अच्छा पैदा होता है। आदमी खालिस अच्छा पैदा होता है। लेकिन जो ढांचे हम उस पर थोपते हैं, वे गलत हैं। वे ढांचे गलत हैं, और वे ढांचे आदमी को विकृत करते हैं, और परेशान करते हैं, और तोड़ते हैं, और मोड़ते हैं। और आखिर में आदमी एक विकृति होकर खड़ा हो जाता है। आदमी नहीं रह जाता, सिर्फ एक खंडहर हो जाता है। सारे आदमी खंडहर हो गए हैं। अगर आदमी की आत्मा मुक्त न की जा सकी, तो ये सारे खंडहर पागल हो जाएंगे, ये पागल होते चले जा रहे हैं। इनके सारे जीवन का रस और आनंद खो गया है। सब संगीत खो गया है, सब खो गया है। क्या इसको ऐसे ही बरदाश्त करते चले जाना है या आदमी की आत्मा के लिए नये मार्ग खोजने हैं? नई दिशाएं, नये आकाश, नये आयाम, या कि पुरानी जो पुनरुक्ति थी कल तक उसको ही वापस दोहराए चले जाना है? अगर हम वापस उसी को दोहराए चले गए, तो हम काफी मर चुके हैं, शायद जीवन की आखिरी झलक भी हमारी डूबने को, टूटने को है।
लेकिन ऐसा लगता है कि अब भारत सोचेगा, सोचना शुरू हुआ है: नई पीढ़ी, नये लोग, नये खयाल से भरे हैं, नये सपनों से भरे हैं। वे पुनर्विचार करेंगे। वे एक-एक चीज को फिर से परखेंगे। वे देखेंगे कि कहीं पंखा ही तो कमजोर नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि पंखा ही गलत है? गारंटी झूठी है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमने जो सिद्धांत निर्मित किए हैं वे आदमी को बांधने वाले हैं, मुक्त करने वाले नहीं? हमने जो सिद्धांत निर्मित किए हैं वे आदमी को जड़ बनाने वाले हैं, डायनेमिक, गतिमान बनाने वाले नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमने जो समाज के लिए धारणा बनाई है वह समाज को मारती है, जिलाती नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमने जो विश्वास कायम किए हैं वे जीवन को पीछे की तरफ ले जाते हैं, आगे की तरफ नहीं? और जीवन सदा आगे की तरफ जाता है, पीछे की तरफ कभी नहीं जाता है। जो कौम पीछे की तरफ देखती है, वह नष्ट हो जाती है। निरंतर देखना है आगे, और आगे। और निरंतर छोड़ना है पीछे को, ताकि हम आगे जा सकें। पीछे का कदम जब छूटता है तभी आगे का कदम उठता है। पीछे की सीढ़ी छूटती है तब आगे की सीढ़ी मिलती है। लेकिन हम अब तक अतीत को पकड़े बैठे हुए हैं, छाती से लगाए बैठे हुए हैं, सब मरे हुए मुर्दों को छाती पर रखे बैठे हैं। उन्हें हटाते नहीं। बड़ा डर लगता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी चर्चा मैं पूरी कर दूंगा।
एक गांव है और उस गांव में एक पुराना चर्च है। वह पुराना चर्च गिरने के करीब आ गया। कोई उस चर्च में जाता नहीं। चर्च के पादरी भी उसके भीतर नहीं जाते हैं, क्योंकि वह कभी भी गिर सकता है। लेकिन गांव में पादरी लोगों को समझाता है कि आओ, प्रार्थना करने आओ। नष्ट हो जाओगे, नास्तिकों कहां जा रहे हो? लेकिन कौन मरने जाए चर्च में? वह चर्च ऐसा डराता है, हवा का झोंका आए गिर सकता है। पादरी भी भीतर नहीं जाता। और पादरी भी मन ही मन सोचता है कहीं उपासक आ न जाएं, नहीं तो भीतर जाना पड़े। समझाता है लोगों को, लेकिन जानता है, न कोई आएगा, न कोई झंझट है। फिर चर्च की कमेटी मिलती है, सोचती है क्या करें? वह कमेटी भी बाहर मिलती है, चर्च के भीतर नहीं। दूर बैठती है जहां चर्च की छाया भी न पड़े। और वह कमेटी विचार करती है, क्या करें? वह कमेटी चार प्रस्ताव करती है। पहला प्रस्ताव करती है कि पुराना चर्च गिराना पड़ेगा, यह हम सर्व-सम्मति से स्वीकार करते हैं। दूसरा, एक नया चर्च बनाना चाहिए, यह भी हम सर्व-सम्मति से स्वीकार करते हैं। तीसरा, हम नया चर्च पुराने जैसा ही बनाएंगे, पुरानी नींव पर ही बनाएंगे, पुरानी ईंटें लगाएंगे, पुराने दरवाजे लगाएंगे, पुराना ही आकार होगा, सब कुछ पुराना होगा, नये चर्च में नया कुछ भी नहीं होगा, सब पुराने सामान को पुराने जैसा ही फिर से जोड़-तोड़ कर खड़ा कर देंगे, कोई कह भी न सके कि यह नया चर्च है, जानने वाले आकर यही कहें कि यह पुराना ही चर्च है। इसे भी सर्व-सम्मति से वे स्वीकार करते हैं। और चौथा प्रस्ताव वे स्वीकार करते हैं कि जब तक नया चर्च बन न जाए तब तक हम कभी भी पुराने को गिराएंगे नहीं।
वह नया चर्च नहीं बनेगा कभी भी, पुराना गिरने वाला नहीं है। ऐसी ही मनोदशा इस देश की है। पुराने को हम गिराएंगे नहीं, नया बनेगा नहीं। पुराने को गिराने की हिम्मत करनी जरूरी है। क्योंकि वही हिम्मत नये के निर्माण की हिम्मत भी बनती है। समाज के संबंध में भी, सभ्यता के संबंध में भी, संस्कृति के संबंध में भी पुराने को गिराने की हिम्मत चाहिए। और अपने संबंध में भी अपने पुराने को, अपने पुराने व्यक्तित्व को, अहंकार को गिराने की हिम्मत चाहिए। जो व्यक्ति अपने पुराने को गिरा देता है वह नया हो जाता है। प्रभु से मिल जाता है। और जो समाज अपने पुराने को गिरा देता है, वह भी नया हो जाता है। और प्रभु के रास्ते पर गतिमान हो जाता है।
धर्म व्यक्ति को भी नया करना चाहता है, समाज को भी। धर्म व्यक्ति को भी जोड़ना चाहता है सनातन से, सत्य से; समाज को भी, संस्कृति को भी।
हम दोनों ही अर्थों में पिछड़ गए हैं। न धर्म समाज के लिए है, न व्यक्ति के लिए रह गया है। क्योंकि धर्म पुराने को पकड़ने वाला रह गया है। धर्म चाहिए नित-नूतन, रोज नया, ताजा, जैसे सूरज सुबह उगता, सुबह नये फूल खिलते, ऐसा ही नया-नया रोज सत्य चाहिए। नया सत्य ही रूपांतरण करता है और क्रांति देता है।
इन चार दिनों में इस नये सत्य की खोज के लिए कुछ बातें मैंने कहीं, उन बातों को मान नहीं लेना है। मैं कोई गुरु नहीं, कोई उपदेशक नहीं, कोई पुरोहित नहीं, मैं कोई आप्तवचन देने वाला नहीं, मैं कोई ऑथेरिटी नहीं। अपनी बात मैंने कही, मेरी बात को जो चुपचाप मान लेगा वह मेरा दुश्मन हुआ। मेरी बात को चुपचाप मत मान लेना। सोचना, लड़ना-झगड़ना, विचार करना, तर्क करना, खंडन करना, और जब कोई रास्ता न मिले और मेरी बात में कहीं कोई सत्य दिखाई पड़े, सोच-विचार, चिंतन-मनन, ध्यान, समाधि पर कुछ भी सत्य दिखाई पड़े, तो फिर वह मेरा नहीं रह जाएगा, वह आपके विचार से आता है तो फिर आपका हो जाता है। और जो सत्य आपका है, वही सत्य है। जो सत्य आपका है, वही मुक्त करता है। जो सत्य दूसरे का है, वह बांधता है और जंजीर बन जाता है।
मेरी इन बातों को इन चार दिनों में इतनी शांति, इतने प्रेम, इतने मौन से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, यदि कोई ईश्वर को न माने और करुणा से जीए, तो क्या इतना पर्याप्त नहीं है?
इसमें दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह, मैंने कभी कहा नहीं कि कोई ईश्वर को माने। ईश्वर को मानना आस्तिक का लक्षण नहीं है। ईश्वर को मानना सिर्फ अपने भीतर के नास्तिक को छिपाने की तरकीब है। सवाल ईश्वर को मानने का नहीं, जानने का है। और यह भी ध्यान रहे, कि जो उसे न जान ले उसके जीवन में सच्ची करुणा कभी भी नहीं हो सकती है। उसे जानने से ही करुणा का स्रोत खुलता है, प्रकट होता है।
एक और मित्र ने भी पूछा है कि
भगवान, करुणा, सेवा, समाज का कल्याण, यह सब करके क्या हम धार्मिक नहीं हो सकते हैं? परमात्मा को नहीं पा सकते हैं?
तो ठीक से समझ लेना जरूरी है कि सेवा तभी परिपूर्ण अर्थों में सेवा हो सकती है जब जीवन में प्रभु की तरफ संबंध जुड़ गया हो। अन्यथा सेवा भी स्वार्थ ही होगी। सेवा भी अहंकार की ही तृप्ति होगी, यश की कामना होगी। और सेवा के रास्ते से भी आदमी मालिक बनने की ही कोशिश करेगा।
इस देश में हम भलीभांति जानते हैं कि कितने सेवक किस भांति मालिक बन गए हैं। और हर सेवक इस कोशिश में है कि कब मालिक बन जाए। सेवक ऊपर से होगा, भीतर तो मालिक होने की तलाश होगी। और या फिर यह भी हो सकता है कि सेवा इस जगत का कोई स्वार्थ न बने तो सेवा आगे के किसी जगत के लिए स्वार्थ बनेगी।
करपात्री जी ने एक किताब लिखी है, और उस किताब में उन्होंने समाजवाद के खिलाफ यह दलील दी है कि अगर समाजवाद आ गया और गरीब न रहे, भिखमंगे न रहे, तो दान किसको दोगे? और बिना दान के मोक्ष नहीं हो सकता है। तो मोक्ष जाना हो तो गरीबी रखनी बहुत जरूरी है, बचानी पड़ेगी। और मोक्ष जाना हो तो भिखमंगे बहुत आवश्यक हैं, वे ही सीढ़ियां हैं, जिनके सिर पर पैर रख कर मोक्ष जाया जा सकता है।
सेवा करने से मोक्ष मिलता है, अगर ऐसा हो, तो फिर ऐसे लोग बचाने होंगे जिन्हें सेवा की जरूरत है। नहीं, सेवा तो कोई कर ही नहीं सकता। जब तक उसका अहंकार विसर्जित न हो जाए, जब तक उसका मैं न मिट जाए। और जिसका मैं मिट जाता है वह प्रभु को जान लेता है। प्रभु को जान लेने पर ही, मैं और तू की दीवाल हट जाने पर ही सेवा संभव है। क्योंकि तब दूसरे का सुख मेरा सुख है, दूसरे का दुख मेरा दुख है। तब न मैं हूं, न दूसरा है, तब ही सेवा अर्थपूर्ण, सार्थक और गहरी हो सकती है। अन्यथा ऊपर से सिखाई गईं सेवाएं बड़ी खतरनाक हैं, और बहुत महंगी पड़ सकती हैं।
मैंने सुना है, एक स्कूल में एक पादरी बच्चों को समझाता है कि अगर तुम्हें स्वर्ग जाना है, ईश्वर के दर्शन करने हैं, तो सेवा करो। रोज एक सेवा का कृत्य तो करना ही चाहिए। वे बच्चे पूछते हैं, हम क्या सेवा करें? वह कहता है, अगर कोई पानी में गिर जाए, तो उसे बचाओ। किसी के घर में आग लग जाए, तो चाहे जान में जोखिम हो, उसे निकालो। किसी बूढ़े की, किसी बीमार की, जो भी सेवा बन सके, करो।
सात दिन बाद वह लौटा है उन बच्चों के पास और पूछता है, तुमने कोई सेवा की?
तीन बच्चे तीस में से हाथ हिलाते हैं। वह कहता है, फिर भी ठीक है, तीस में से तीन ने की, कोई हर्ज नहीं। पहले से पूछता है, क्या सेवा की तुमने? वह बच्चा कहता है, मैंने एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। वह कहता है, बहुत अच्छा किया। बूढ़े आदमियों को जरूर रास्ता पार करवाना चाहिए। दूसरे से पूछता है, बेटे तुमने क्या किया? वह भी कहता है, मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। उस पादरी को थोड़ा शक होता है, फिर खयाल आता है, कोई हर्ज नहीं, बहुत बूढ़ी औरतें हैं, इसने भी करवाया होगा। वह तीसरे से पूछता है कि तूने क्या किया? वह कहता है, मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। वह पादरी कहता है, तुम तीनों को तीन बुढ़िया मिल गईं? वे तीनों कहते हैं, नहीं, तीन बुढ़ियां नहीं थीं, बूढ़ी तो एक ही थी, हम तीनों ने मिल कर ही पार करवाया है। वह पादरी कहता है, क्या बूढ़ी इतनी अशक्त थी कि तीन को पार करवाना पड़ा? वे तीनों कहने लगे, अशक्त? बूढ़ी बड़ी ताकतवर थी। बामुश्किल पार हुई। असल में वह पार होना ही नहीं चाहती थी। लेकिन आपने कहा कि सेवा करना जरूरी है, तो सेवा का कृत्य करना पड़ा।
दुनिया में सेवा करना अगर जरूरी बन जाए तो सेवा खतरनाक हो जाती है। और सेवक जितने मिसचिवियस सिद्ध हुए हैं, जितने उपद्रवी, उतना कोई उपद्रवी सिद्ध नहीं हुआ। दुनिया को सेवकों से भी बचाने की बड़ी जरूरत है। जितना दुनिया में, इतना उप्रदव फैला हुआ है, उसमें नब्बे परसेंट सेवकों के द्वारा है। ईसाई भी सेवा कर रहा है, मुसलमान भी सेवा कर रहा है, हिंदू भी सेवा कर रहा है, जैन भी सेवा कर रहे हैं। सब तरह के साधु सेवा कर रहे हैं, नये-नये तरह के स्वयं-सेवक सेवा कर रहे हैं। और सारी मनुष्य-जाति को अजीब-अजीब जालों में ढाल रहे हैं, उन्हें सेवा करनी है। और सेवा करनी बहुत जरूरी है, क्योंकि स्वर्ग जाने के लिए सेवा आवश्यक है।
नहीं, मैं नहीं कहता हूं, आप किसी की सेवा करें। जब तक आपको यह खयाल है कि मैं किसी की सेवा कर रहा हूं, तब तक मैं ही मजबूत होगा। इसलिए मैं नहीं कहता हूं कि सेवा से कोई परमात्मा को जान लेगा। हां, यह बात जरूर है कि कोई परमात्मा को जान ले, तो जीवन सेवा बन जाती है। लेकिन तब सेवा धंधा नहीं होती। और न तब सेवा सचेत होती है, और न तब सेवा का पता होता है कि मैं सेवा कर रहा हूं। न सेवा अहंकार बनती है। न सेवा पूजा की मांग करती है। और न सेवक मालिक होने की कोशिश करता है। तब सेवा ऐसी होती है जैसे श्वास चलती है, आदमी चलता है, जैसे उसकी छाया चलती है। ऐसे ही उस आदमी की जिसके जीवन में प्रभु की तरफ थोड़ी भी गति हुई है, सेवा भी उसके पीछे-पीछे चलने लगती है। सेवा धर्म नहीं है, लेकिन धार्मिक हो जाना जरूर सेवक हो जाना है। सेवा से कोई धर्म तक नहीं पहुंचता। लेकिन धर्म तक पहुंचा हुआ व्यक्ति का समग्र जीवन सेवा बन जाता है।
इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना चाहिए। और करुणा भी, करुणा भी उस हृदय में ही उत्पन्न होती है जिसका अहंकार विसर्जित हुआ हो। अहंकार के सिवाय और कोई कठोरता नहीं है। अहंकार के सिवाय, ईगो के सिवाय और कोई क्रूरता नहीं है। जितनी कठोरताएं, क्रूरताएं हैं, वे सब अहंकार से ही फलित हुई हैं।
एक आदमी धन इकट्ठा किए चला जा रहा है, क्या यह संभव है कि वह अपने चारों तरफ देखता हो कि धन के इकट्ठे होने से कितनी दीनता, कितनी दरिद्रता चारों तरफ पैदा हो रही है? नहीं, लेकिन वह आदमी करुणा कह कर धर्मशाला बनवाता है, मंदिर बनवाता है, यज्ञ करवाता है, हवन करवाता है। साधुओं का एक आश्रम खोल देता है। एक तरह का पिंजरा, पोल बना देता है। आदमियों का भी, गऊंओं का भी, और इसको, इसको करुणा, दान, दया, सेवा समझता है। और दूसरी तरफ धन खींचता चला जाता है। इस आदमी के जीवन में करुणा कहां है? करुणा हो तो यह धन खींचना कैसे संभव हो? फिर इस लाखों को खींचता है, थोड़े बहुत दान भी करता है। और दोनों...इस जगत में भी सुख की व्यवस्था करता है, उस जगत में भी सुख की व्यवस्था करता है।
नहीं, करुणा तो हो सकती है उस हृदय से प्रवाहित, वहां से बह सकती है, वहां से प्रवाहित हो सकती है जहां अहंकार का केंद्र टूट गया हो। और वह सिर्फ धार्मिक व्यक्ति का ही टूटता है।
इसलिए यह मत पूछें कि अगर हम करुणावान हैं, और धार्मिक न हों तो हर्ज क्या है? आप करुणावान बिना धार्मिक हुए हो ही नहीं सकते हैं। यह असंभव है। और अगर आप करुणावान हैं, तो मेरी दृष्टि में धार्मिक आप हो गए हैं। धार्मिक होने का यह अर्थ नहीं है कि कोई मंदिर में पूजा कर रहा है तो धार्मिक हो जाएगा। और न धार्मिक होने का यह अर्थ है कि किसी ने सुबह उठ कर गीता की कुछ पंक्तियां पढ़ ली हैं तो धार्मिक हो जाएगा। न धार्मिक होने का यह अर्थ है कि कोई हज कर आता है, काबा हो आता है, काशी हो आता है, तीर्थ कर आता है, धार्मिक होने का यह अर्थ नहीं है। सच तो यह है तीर्थों में और मंदिरों में अधार्मिक लोगों के सिवाए कोई भी जाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता है। धार्मिक आदमी को वहां जाने की क्या जरूरत है? धार्मिक आदमी जहां है, वहीं मंदिर है, वहीं तीर्थ है।
रामकृष्ण के पास एक बार एक आदमी गया और कहने लगा कि मैं गंगा स्नान को जा रहा हूं। आप मुझे आशीर्वाद दें कि मेरे पाप सब गंगा में बह जाएं। रामकृष्ण ने कहा: गंगा का इसमें क्या कसूर है? पाप तूने किए, गंगा का इससे क्या संबंध? तू गंगा पर क्यों नाराज? उस आदमी ने कहा: नाराज नहीं, मैंने सुना है, गंगा में नहाने से पाप सब बह जाते हैं। रामकृष्ण ने कहा: बह जाते होंगे। लेकिन एक बात ध्यान रखना, गंगा के किनारे बड़े-बड़े वृक्ष लगे हैं वे देखे हैं? जब तू पानी में डूबेगा, पाप निकल कर वृक्षों पर बैठ जाएंगे। लेकिन तू डूबा कब तक रहेगा, आखिर तू निकलेगा पानी के बाहर, वह पाप फिर तेरे ऊपर सवार हो जाएंगे। तो अगर तू गंगा में डूबा ही रहा, निकला ही नहीं, तब तो ठीक है; लेकिन निकला कि पाप फिर सवार हो जाएंगे। बेकार मेहनत मत कर, बेकार गंगा को तकलीफ भी मत दे। पाप करते वक्त किसी से पूछने नहीं गया--न गंगा से, न मंदिर से, न भगवान से, तो पाप को धोते वक्त भी किसी से पूछने जाने की जरूरत क्या है?
लेकिन आदमी बेईमान है। पाप खुद करेगा, धोने के लिए तीर्थ जाएगा। अशांत खुद होगा, शांत होने के लिए मंदिर को खोजेगा। गलती है यह। अशांति के कारण खोजने पड़ेंगे। अशांति मिटानी पड़ेगी, जैसे अशंाति बनाई है। और पाप किया है मूर्च्छा में तो मूर्च्छा तोड़नी पड़ेगी कि पाप छूट जाए। गंगा और तीर्थ से कुछ होने वाला नहीं है।
अगर इसको आप समझते हों धार्मिक होना, तो धार्मिक होने की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन यह धर्मिक होना ही नहीं है। धार्मिक होना तो बात ही और है। धार्मिक होना तो इस सत्य की खोज है कि यह जो शरीर दिखाई पड़ता है, यही सब कुछ है, या इससे ज्यादा भी कुछ है। यह जो बाहर फैलाव दिखाई पड़ता है, यही सब कुछ है या इस फैलाव के भीतर गहराई में भी कुछ है? धार्मिक होने का अर्थ है इस सत्य की खोज कि यह जीवन की जो चरम सातत्य चल रहा है, यह जो जीवन की कंटीन्यूटी है, यह जो अस्तित्व का अनंत प्रवाह है, इसका अर्थ क्या है? इसकी गहराई क्या है? इसका प्रयोजन क्या है? मैं कौन हूं? इस पूरे अस्तित्व से मेरा क्या संबंध है? धर्म की खोज क्रियाकांड और पाखंड की खोज नहीं है, धर्म की खोज अत्यंत वैज्ञानिक खोज है, वह सुप्रीम साइंस है, वह परम विज्ञान है, उससे बड़ा कोई विज्ञान नहीं है। जीवन के आखिरी गहरे से गहरे सत्य को खोजे बिना जो आदमी जीता है, वह आदमी कभी पूरे अर्थों में नहीं जीता, वह अधूरा जीएगा, ऊपर-ऊपर जीएगा, अपने भीतर वह जानता ही नहीं है, कौन है? क्या है? हमें सिवाय वस्त्रों के और कोई पहचान नहीं है। हम अपने कपड़ों के सिवाय और कुछ पहचानते हैं भीतर?
मैंने सुना है, एक तीर्थ में बड़ी भीड़ थी। एक फकीर भी उस तीर्थ में आकर ठहरा हुआ है। वह रात एक धर्मशाला में ठहरा है। बहुत भीड़-भाड़ है। धर्मशाला के मालिक ने कहा है, एक कमरे में एक आदमी ठहरा है, उसी में तुम भी ठहर जाओ। वह फकीर उसमें ठहर गया। वह पगड़ी बांधे है, कमीज पहने है, कोट पहने है, जूते पहने हैं, वह सब कपड़े पहने हुए बिस्तर पर लेट गया। उस कमरे में जो दूसरा मेहमान है, उसने कहा: आप इतने कपड़े पहने हुए सोएंगे, नींद न आ सकेगी। उस फकीर ने कहा: वह मैं भी जानता हूं, लेकिन कपड़े उतारना बहुत मुश्किल है। अपरिचित आदमी ने ज्यादा बात करनी ठीक न समझी। फिर वह फकीर रात में करवटें बदलने लगा, नींद उसे आती नहीं है--जूते पहने हुए है, पगड़ी पहने हुए है। कई लोग जूते, पगड़ी पहने हुए सो रहे हैं। और इसलिए रात भर नींद नहीं आ रही। कई लोग दिन भर का कसाव साथ में लिए सो रहे हैं। कई लोग दिन भर का नाटक साथ में लिए सो रहे हैं, अभिनय साथ में लिए सो रहे हैं। वह आदमी भी सब कपड़े लिए सो गया है। पड़ोसी ने बार-बार कहा कि माफ करिए, आपको भी नींद नहीं आती, आप करवट बदलते हैं, मुझे भी नींद नहीं आती, आपकृपा करके ये कपड़े उतार दें, तो नींद आ जाए।
वह फकीर उठ कर बैठ गया, उसने कहा: वह मैं भी जानता हूं, लेकिन कपड़े उतारना बहुत मुश्किल है। अगर मैं अकेला होता तो दरवाजे बंद करके कपड़े उतार कर सो जाता, लेकिन आप भी यहां हो, और मैं कपड़ों के सिवाय मेरी पहचान नहीं, अगर कपड़े मैंने उतार दिए तो सुबह पता कैसे चलेगा, कौन कौन है? मैं मैं हूं कि तुम मैं हो, कौन कौन है? कपड़ों के सिवाय मैं किसी को पहचानता नहीं। बस यह कपड़ों से ही अपनी पहचान है। उस आदमी ने कहा: तो फिर ऐसा करो, कपड़े तो उतार दो, एक पास में एक घुनघुना पड़ा था, कोई पहले मेहमान ठहरे होंगे उनके बच्चे का, उस पड़ोसी ने कहा, इस घुनघुने को अपनी टांग से बांध लो, यह तुम्हारी पहचान रहेगी कि तुम ये रहे। सुबह उठ कर अपने कपड़े पहन लेना।
फकीर ने कहा: यह बात जंचती है। बिना पहचान के आदमी खो सकता है। कोई रिकग्निशन चाहिए, कोई पहचान चाहिए। इसलिए तो आदमी अपने नाम लिखता है। ये-ये नाम, फिर एम ए है, बी टी है, एल एल बी है, डी लिट है, पद्मश्री है, रायबहादुर, ये सब घुनघुने हैं। जिनको बांध कर आदमी पहचानता है कि ये मैं हूं। बांध ले घुनघुना। उस आदमी ने घुनघुना बांध दिया। फकीर कपड़े उतार कर सो गया।
उस आदमी को रात मजाक सूझी। उसने चार बजे उठ कर वह घुनघुना फकीर के पैर से निकाल कर अपने पैर में बांध लिया। सुबह छह बजे के करीब फकीर उठा और घबड़ा गया। घुनघुना पैर में नहीं है, बड़ी मुश्किल हो गई। मैं कौन हूं? उसने पड़ोसी को जोर से हिलाया और कहा: मुश्किल हो गई, इसी से मैं डरता था, वही हो गया। तुम्हारे पैर में घुनघुना है, इससे सिद्ध होता है कि तुम फकीर हो, लेकिन मैं कौन हूं? यह मुश्किल हो गई। अब मैं अपने को कैसे पहचानूं?
वह फकीर गहरी मजाक कर रहा होगा। वह सारी मनुष्यता पर हंस रहा था। हम भी अपने को ऊपर के वस्त्रों और घुनघुनों के अतिरिक्त और कुछ जानते हैं? अगर कोई पूछे, कौन हैं आप? तो कह सकते हैं, अपना नाम, नाम बचपन में बांधा गया घुनघुना है, नाम लेकर कोई आता नहीं। नाम तो झूठा है, कल्पित है, ऊपर से चिपकाया गया है। आप तो नाम के बिना हैं, मैं तो नाम के बिना हूं, नाम तो लेकर कोई आया नहीं। आज मैं चाहूं अपना नाम बदल लूं, तो भी मैं नहीं बदल जाऊंगा। नाम बदल जाएगा। फिर डिग्रियां हैं, पदवियां हैं, यश है, मान है, सम्मान है, यह सबका सब बाहर से जुड़ा हुआ है। वस्त्रों से ज्यादा नहीं। भीतर मैं कौन हूं? वह कौन है जो जन्मा? वह कौन है जो जी रहा है? वह कौन है जो मृत्यु में विदा होगा? उसकी कोई पहचान नहीं है। धर्म की खोज उसकी खोज है, उस सत्य की जो हमारे जीवन का केंद्र और आधार है। अगर उसका हमें पता नहीं, तो हम धार्मिक नहीं हैं। चाहे हम मंदिर जाएं, चाहे हम पूजा करें, प्रार्थना करें, हमारा प्रभु के मंदिर में प्रवेश ही नहीं हो सकता। क्योंकि जिसे अभी यह ही पता नहीं कि मैं कौन हूं, वह क्या कह कर मंदिर में प्रवेश करेगा? वह क्या कह कर प्रभु के सामने जाएगा? वह क्या सूचना करेगा कौन आता है? उसे कुछ भी पता नहीं है। हम आदमियों के मकानों में जा सकते हैं, आदमियों के मंदिरों में जा सकते हैं, प्रभु के मंदिर में तो उसे खोज कर जाना पड़ेगा जो वस्तुतः मैं हूं।
स्वप्नहार, एक जर्मन विचारक, एक रात एक बगीचे में घूमने चला गया। आधी रात है, बगीचे के माली ने देखा कि कोई जोर-जोर से बातें कर रहा है, शायद दो लोग हैं बगीचे में। वह माली हैरान हुआ, आधी रात कौन आ गया? भाला उठा कर, लालटेन लेकर गया बगीचे में, जोर से चिल्लाया कौन है? स्वप्नहार जोर से हंसने लगा और उसने कहा: बड़ी मुश्किल में डाल दिया, यही तो मैं अपने से पूछ रहा हूं कि मैं कौन हूं? और कोई उत्तर नहीं मिलता। मैं तुझे क्या बताऊं, मुझे खुद ही अभी तक कोई उत्तर नहीं मिल सका है।
जरूर समझा होगा माली ने कि आदमी पागल है। लेकिन पागल कौन था? स्वप्नहार पागल था कि माली पागल था? कि हम पागल हैं? पागल कौन है? जिसे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं, वह पागल नहीं है। हम सब पागल हैं। और स्वप्नहार बुद्धिमान था। कम से कम इतना तो उसे पता चल गया है कि मुझे यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं? इतना भी जिसे पता चल जाए कि मुझे पता नहीं मैं कौन हूं? उसकी एक खोज एक अन्वेषण, एक यात्रा शुरू हो जाती है। इस यात्रा का नाम तीर्थयात्रा है। तीर्थ भीतर है।
पूछा है एक मित्र ने:
भगवान, कहां है भगवान?
यह मत पूछें। पहले अपने को तो खोज लें। और मैं आपसे कहता हूं, जो अपने को खोज लेता है वह फिर कभी नहीं पूछता कहां है भगवान? क्योंकि जहां स्वयं मिला वहीं भगवान भी मिल जाता है।
मैंने एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है, जब पृथ्वी बनी, सारा सब कुछ बन गया, आदमी बना, आदमी को बनाते ही भगवान चिंतित हो गया। और उसने देवताओं से पूछा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं, यह आदमी बना तो दिया है, लेकिन यह हजार प्रश्न लेकर रोज दरवाजे पर खड़ा हो जाएगा। मैं इससे बचना चाहता हूं। मुझे कोई ऐसा जगह बताओ जहां मैं छिपा रहूं और यह आदमी मेरे पास न आ सके।
देवताओं ने कहा: जाओ, एवरेस्ट पर छिप जाओ। भगवान ने कहा: तुम्हें पता नहीं, बहुत जल्दी हिलेरी पैदा होगा, तेनजिंग पैदा होगा, वे एवरेस्ट पर चढ़ जाएंगे। तो उन्होंने कहा: ऐसा करो, चांद पर चले जाओ। उन्होंने कहा: कुछ काम नहीं बनेगा, बहुत जल्दी रूस और अमरीका के अंतरिक्ष यात्री चांद पर पहुंच जाएंगे। इससे काम नहीं बनेगा। यह तो पल दो पल की बात है, थोड़े ही समय की बात है। आदमी मुझे पकड़ लेगा। मुझे कुछ ऐसी जगह बताओ जहां आदमी पहुंच ही न सके। तो एक देवता ने कान में भगवान के कहा, और भगवान मान गया। उस देवता ने कहा: फिर आप आदमी के भीतर छिप जाइए। वहां आदमी कभी नहीं पहुंचेगा। और भगवान वहां छिप कर बैठ गया है। कभी-कभी कोई आदमी पहुंचता है, आमतौर से कोई वहां नहीं पहुंचता। एक जगह छोड़ कर हम सब जगह जाते हैं, खुद को छोड़ कर हम सब जगह हो आते हैं। जो निकटतम है वह सबसे दूर हो गई है जगह, जो अपने ही भीतर है वही सबसे दूर, बाहर हो गई है। जो मैं स्वयं हूं, उसे ही छोड़ कर सब इकट्ठा कर लेता हूं। खुद को खो देते हैं और सब पा लेते हैं। क्या है अर्थ इस पाने का जिसमें सब पा लिया जाए और स्वयं खो जाए? ऐसे ज्ञान का क्या मूल्य है जिसमें मैं अपने को न जान पाऊं और सब जान लूं?
स्वामी राम जापान गए हुए थे। एक मकान में आग लग गई है, हजारों लोग इकट्ठे हैं, बड़ा मकान है, टोकियो के बड़े धनपति का मकान है, लोग सामान ले-ले कर बाहर आ रहे हैं, मकान आग में जकड़ता चला जा रहा है। राम भी खड़े होकर देखते हैं, मकान का मालिक बाहर बेहोश खड़ा है, चार आदमी सम्हाले हुए हैं। उस आदमी की आंखें पथरा गई हैं, उसे कुछ सूझ नहीं रहा है। फिर आखिर में घर के भीतर से कुछ लोग आते हैं और उस मकान मालिक को कहते हैं कि कुछ और जरूरी चीज रह गई हो, तो आप बता दें? हम सब कागजात निकाल लाए हैं, तिजोरियां निकाल लाए, फर्नीचर निकाल लाए, सब निकाल लाए, जो भी मूल्यवान था हम ले लाए, अब कोई और जरूरी चीज रही हो तो बता दें। क्योंकि अब यह आखिरी मौका है कि हम भीतर जा सकें। फिर इसके बाद लपटों के भीतर जाना असंभव है। वह मालिक कहता है, मुझे कुछ भी याद नहीं आता, तुम खुद एक बार जाकर और भीतर देखो, जो जरूरी लगे वह और ले आओ।
वे लोग भीतर जाते हैं और फिर छाती पीटते हुए बाहर आते हैं। साथ में एक बच्चे की लाश लिए हुए हैं। और वे सब रोकर कहते हैं कि बड़ी गलती हो गई, हम तो सामान बचाने में लग गए और मकान मालिक का इकलौता बेटा भीतर ही सोया रह गया। मकान का मालिक, असली मालिक, जो कल होने वाला मालिक था, वह जल गया। और सामान सब बचा लिया।
राम ने अपनी डायरी में लिखा: आज जो देखा यही तो सब दुनिया में हो रहा है। आदमी अपने को छोड़ कर सब बचा लेता है। खुद जल जाता है, मालिक जल जाता है, सामान बच जाता है। आखिर में सामान का ढेर रह जाता है और आदमी खो जाता है।
धर्म कहता है, अपने को पहले बचाओ। वह जो स्वयं है पहले उसे जानो और खोजो, फिर बाकी सब गौण है, बाकी सब बाहर है, बाकी सब नॉन-एसेंशियल है, बाकी सब सारभूत नहीं है। सारभूत स्वयं है। धर्म का संबंध इससे है। इसलिए कोई यह न कहे कि हम धर्म से बच जाएं, तो हर्ज क्या है? धर्म से कोई भी नहीं बच सकता। धर्मों से बच जाएं, तो बड़ा फायदा है। धर्म से मत बचना, धर्मों से जरूर बच जाना। धर्मों से यानी हिंदू से, मुसलमान से, ईसाई से, जैन से, पारसी से, इनसे बचना। इनसे जो घिरेगा वह धर्म से परिचित न हो पाएगा। धर्मों में जो भटकेगा वह धर्म से बच जाएगा। और जिसे धर्म में जाना हो उसे धर्मों को नमस्कार कर लेना चाहिए। धर्मों से धर्म का कोई भी संबंध नहीं है। रिलीजंस जब तक जमीन पर हैं रिलीजन पैदा नहीं हो सकेगा। जब तक धर्मों की भीड़ है, तब तक धर्म का जन्म बहुत मुश्किल है। लेकिन जब भी किसी आदमी को खोजना हो, धर्मों को छोड़ कर धर्म की खोज में जाना चाहिए। क्यों मैं यह कहता हूं? मैं इसलिए यह कहता हूं कि धर्म तो एक ही हो सकता है।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, आप हिंदू, मुसलमान, ईसाई इनके खिलाफ क्यों बोलते हैं?
मैं इनके खिलाफ इसलिए बोलता हूं कि धर्म तो एक ही हो सकता है। धर्म हजार नहीं हो सकते। सत्य हजार नहीं हो सकते। यह खयाल रखना, असत्य अनेक हो सकते हैं, सत्य एक ही हो सकता है। बीमारियां अनेक हो सकती हैं, स्वास्थ्य एक ही होता है। हम इतने लोग हैं यहां, अगर हम सब बीमार होने का तय करें, तो मैं अपने ढंग से बीमार हो जाऊंगा, आप अपने ढंग से, जितने आदमी हैं उतनी बीमारियां होंगी। हर आदमी अलग-अलग ढंग से बीमार हो जाएगा, लेकिन अगर हम सारे लोग स्वस्थ हो जाएं, परिपूर्ण स्वस्थ हो जाएं, तो मेरे स्वास्थ्य में और आपके स्वास्थ्य में रत्ती भर फर्क नहीं होगा। स्वास्थ्य बिलकुल एक जैसा होगा। स्वास्थ्य का अनुभव तो एक होगा, बीमारी के अनुभव अनेक हो सकते हैं। धर्म का अनुभव तो एक है, चाहे बुद्ध को हो, चाहे महावीर को, चाहे मोहम्मद को, चाहे जीसस को, चाहे कृष्ण को, धर्म का अनुभव तो एक है। लेकिन धर्मों की ये अलग-अलग जमातें क्यों खड़ी हैं? ये धर्म के अनुभव पर नहीं खड़ी हैं, ये मनुष्य की धर्म की जो प्यास है, उसके शोषण पर खड़ी हैं। धर्मों का कोई संबंध परमात्मा से नहीं है। धर्मों का संबंध पुरोहित से है। और पुरोहित और परमात्मा के बीच कभी कोई दोस्ती नहीं रही, यह खयाल रखना। पुरोहित और शैतान के बीच तो दोस्ती है, लेकिन पुरोहित और परमात्मा के बीच कोई दोस्ती नहीं है। हो भी नहीं सकती। परमात्मा और आदमी के बीच किसी एजेंट की, दलाल की कोई जरूरत नहीं है। सत्य और मनुष्य के बीच किसी की जरूरत नहीं है। खुद की आंखें खुली हों तो सत्य सामने हो जाता है। लेकिन जितनी बेईमानी का काम हो, चोरी का, शरारत का, उतने दलालों की जरूरत पड़ती है। अधर्म के लिए दलालों की जरूरत है।
मैंने सुनी है एक घटना, कि एक पादरी भागा चला जा रहा है तेजी से एक रास्ते के किनारे, एक चर्च में जाकर उसे व्याख्यान देना है। पड़ोस की खाई से जोर से आवाज आती है कि सुनिए, मैं मर रहा हूं, किसी ने मुझे छुरे मार दिए हैं, मुझे बचाइए। वह पादरी नीचे झांक कर देखता है, एक आदमी लहू में सराबोर पड़ा है, कोई ने छुरा भोंक दिया है, छुरा भी पास में पड़ा है। लेकिन पादरी को जल्दी जाना है चर्च में। वहां उसे प्रेम के ऊपर व्याख्यान देना है। और अगर वह इसकी बातों में उलझ गया, इसके इलाज में, तो झंझट में पड़ जाए, और कौन जाने, बचाने जाए और खुद उलझ जाए कि तुम्ही ने मारा है, या कोई और मुसीबत आ जाए।
पादरी जोर से भागा। लेकिन वह आदमी चिल्लाया, उसने कहा: पादरी, मैं तुझे भलीभांति जानता हूं, उसी गांव का रहने वाला हूं, जिस गांव में तू भाषण करने जा रहा है। अगर मैं बच गया तो मैं गांव में खबर कर दूंगा कि यह प्रेम पर व्याख्यान देने की जल्दी में था और मैं मर रहा था, मुझे बचाने को भी नीचे नहीं उतरा। पादरी डरा, पादरी उतर कर नीचे गया, उस आदमी का मुंह पोंछा, मुंह पोंछते ही देखा कि यह तो पहचानी हुई शक्ल है। पादरी कुछ घबड़ाया, पादरी ने कहा: तुम पहचाने हुए मालूम पड़ते हो। उस आदमी ने कहा: जरूर मालूम पडूंगा, पादरियों से अपना पुराना संबंध है, मैं शैतान हूं। तुम्हारे चर्च में मेरी तस्वीर भी लटकी हुई है। उस पादरी ने कहा: हे भगवान! मैंने तेरे खून में अपने हाथ डुबा कर बड़ा अपवित्र काम किया, तुझे बचाने का सवाल ही नहीं, तू तो मर जा तो अच्छा। तुझे मरने के लिए ही तो हम सारी कोशिश करते हैं। वह खिलखिला कर शैतान हंसने लगा, उसने कहा: नासमझ पादरी, तुझे कुछ पता नहीं है, जिस दिन मैं मर जाऊंगा, उसी दिन तू भी मर जाएगा। जब तक शैतान है, तब तक पादरी का धंधा है। जब मैं मर जाऊंगा, तू क्या करेगा? मुझे जल्दी बचा, भगवान के मरने से तुझे कोई नुकसान होने वाला नहीं है, लेकिन मैं अगर मर गया, तू तो गया। अगर मैं नहीं रहूंगा, तू क्या करेगा?
पादरी को खयाल आया, बात तो सच है, अगर लोग बुरे न रहें तो उनको भले बनाने की कोशिश करने वालों का क्या होगा? उस पादरी ने उसको कंधे पर उठा लिया और कहा: भाई मर मत जाना, मैं तुझे ले चलता हूं अस्पताल, तुझे ठीक करने की कोशिश करता हूं। तूने अच्छा याद दिला दिया, यह तो बिलकुल ठीक है। हमारा काम भगवान से क्या है? अगर सारे लोग भगवान को उपलब्ध हो जाएं, तो पादरी मर जाएगा। लेकिन सारे लोग शैतान के चक्कर में रहें, तो पादरी का काम चलेगा।
इसलिए दुनिया में जितनी बुराई फैलती है, चरित्रहीनता फैलती है, अधर्म फैलता है, उतना साधु-संन्यासी का धंधा ठीक से चलता है। यह मौसम, सी़जन आ जाता है। सी़जन की बातें हैं। आदमी बीमार पड़ता है, डाक्टर का सी़जन आ जाता है। आदमी की आत्मा बीमार पड़ती है, पादरी, पुरोहित, साधु-संन्यासी, महात्मा, सबका सी़जन आ जाता है। बड़े अजीब सी़जन हैं। और दिखता उलटा है, दिखता ऐसा है कि डाक्टर मरीज को ठीक करने के लिए जिंदा है, बिलकुल इसी कोशिश में रहता है। ऊपर से डाक्टर बेचारा मरीज को ठीक करता है, भीतर से रोज भगवान से प्रार्थना करता है कि मरीज बढ़ते रहें। उलटे काम में लगा है डाक्टर भी। दिन-रात मरीज की सेवा करता है और भीतर से चाहता है कि मरीज बढ़ते रहें, बढ़ते रहें।
मैंने सुना है, एक होटल में एक रात बड़ी देर तक कुछ मित्र बैठ कर शराब पीते रहे, मांस खाते रहे। दो बजे रात विदा हुए, बहुत बड़ा बिल उन्होंने चुकाया। दुकानदार ने, शराब के मालिक ने अपनी पत्नी से कहा कि ऐसे दिलदार लोग रोज आने लगें, तो हमारी किस्मत चमक जाए। जाते हुए ग्राहकों ने कहा: हमें क्या है, हम तो रोज आएं, भगवान से प्रार्थना करो हमारा धंधा ऐसा ही रोज चमके, तो हम रोज आएं। उसने कहा: हम भगवान से प्रार्थना करेंगे, लेकिन पहले यह तो बता दो तुम्हारा धंधा क्या है? उस आदमी ने कहा: मैं मरघट पर लकड़ी बेचने का काम करता हूं। लोग रोज ज्यादा मरें, हमारा धंधा रोज चले, हम रोज आएं।
पादरी-पुरोहित का धंधा क्या है, साधु-संन्यासी का धंधा क्या है? आदमी बुरा है, आदमी चरित्रहीन है, आदमी भटका हुआ है, अंधेरे में है, इसको रास्ते पर लाना उनका धंधा है। शैतान से उनकी सांठ-गांठ है। पुरोहित ने खड़े किए हैं धर्म, धर्मों का यह जाल, पुरोहित का जाल है। हिंदू और ईसाई और मुसलमान पुरोहित के फासले हैं। आदमी कहीं बटां हुआ नहीं। भगवान आदमी को कैसे बांटेगा? भगवान अगर है कहीं कोई अनुभव वैसा, तो आदमी जुड़ेगा, इकट्ठा होगा। आदमी आदमी ही नहीं जुड़ेगा, आदमी पशु-पक्षी जुड़ेंगे; आदमी पशु-पक्षी ही नहीं, आदमी पत्थर और फूल भी जुड़ेंगे। जोड़ बढ़ता चला जाएगा। परमात्मा है अनंत का जोड़। लेकिन धर्मों के नाम पर आदमी खंडित है। खंड-खंड है, जरूर कहीं कोई गड़बड़ है। जरूर कहीं कोई गड़बड़ है। और वह गड़बड़ यह है कि धर्मों को हम धर्म समझ रहे हैं, वह भूल है। अगर आदमी को धार्मिक बनाना हो, तो उसे हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सबसे मुक्ति चाहिए, उसका मनुष्य होना पर्याप्त है।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, आप जो बातें कहते हैं, वे नकारात्मक, निगेटिव मालूम पड़ती हैं।
निश्चित ही मैं जो बातें कहता हूं, वे नकारात्मक हैं। और नकारात्मक बातों के द्वारा ही आपके भीतर स्वयं की बुद्धि पैदा की जा सकती है, और कोई रास्ता नहीं है। एक मूर्तिकार मूर्ति बना रहा हो, आप उसके पास खड़े होकर देखें वह क्या कर रहा है? मूर्ति बना रहा है, मूर्ति नहीं बनाता, सिर्फ छैनी-हथौड़ा उठा कर पत्थर के किनारों को तोड़ता है। आप उससे कहेंगे, तुम यह क्या कर रहे हो? मूर्ति बनाओ। तुम तो सिर्फ पत्थर के छिलके तोड़ रहे हो। तुम तो पत्थर के किनारे तोड़ रहे हो। वह आदमी कहेगा, मूर्ति तो पत्थर में छिपी है, मैं सिर्फ व्यर्थ पत्थर को झाड़ दूंगा, मूर्ति प्रकट हो जाएगी। मूर्ति बनानी नहीं पड़ती, सिर्फ व्यर्थ पत्थर को झाड़ना पड़ता है। मूर्ति तो भीतर छिपी है, वह प्रकट हो जाएगी। जब मैं नकारात्मक बातें कहता हूं, तो कुल कोशिश इतनी है कि वह जो व्यर्थ सबके चारों तरफ जुड़ गया है, सबकी प्रतिभा के आस-पास जो व्यर्थ जुड़ा है पत्थर, वह झड़ जाए, गिर जाए। उस पर छैनी-हथौड़े से चोट करनी है। और जो प्रकट होगा वह तो सबके भीतर है। उसे कोई दूसरा नहीं दे सकता। प्रतिभा कोई किसी को नहीं दे सकता। लेकिन प्रतिभा के आस-पास जो जाल है, वह तोड़ा जा सकता है।
समस्त शिक्षा का एक ही अर्थ है कि प्रत्येक के भीतर जो प्रतिभा छिपी है, वह कैसे अनकॅवर हो सके? वह ढंकी है, वह कैसे उघड़ सके? प्रतिभा तो सबके भीतर है, प्रतिभा किसी को देनी नहीं है। और अगर प्रतिभा देनी हो, तो फिर काम असंभव है। प्रतिभा कोई किसी को दे नहीं सकता। ज्ञान कोई किसी को दे नहीं सकता। सिर्फ अज्ञान छीना जा सकता है, तोड़ा जा सकता है, खंडित किया जा सकता है। अज्ञान छिन जाता है, ज्ञान प्रकट होता है।
मैं जो नकारात्मक बातें कह रहा हूं, जान कर कह रहा हूं, विचारपूर्वक कह रहा हूं। सच तो यह है, धर्म की पूरी प्रक्रिया ही निगेटिव है, नकारात्मक है। क्योंकि धर्म आपके जो भीतर है उसे प्रकट करना चाहता है। धर्म आपको कुछ देना नहीं चाहता। धर्म आपसे कुछ छीन लेना चाहता है। आपसे कुछ तोड़ देना चाहता है, जो व्यर्थ है, ताकि सार्थक भर भीतर रह जाए। और सार्थक चमक जाए, व्यर्थ अलग हो जाए। हम सब व्यर्थ और सार्थक का जोड़ हैं। और हमारे ऊपर व्यर्थ की भारी परंपरा है। इतना व्यर्थ हमारे ऊपर थोपा गया है। इतनी किताबें, इतने संस्कार, इतनी परंपराएं, इतनी रूढ़िया हमारे मस्तिष्क पर बैठी हैं कि उस बोझ के कारण आदमी की आत्मा का उठना ही असंभव हो गया है। इस आदमी को व्यर्थ से मुक्ति दिलानी जरूरी है।
और ध्यान रहे, नकारात्मक के अतिरिक्त और कोई मुक्ति नहीं हो सकती। नकारात्मक मार्ग ही मुक्ति का मार्ग है। तोड़ना है, छोड़ना है, व्यर्थ को हटाना है, क्योंकि जो सार्थक है वह तो तोड़ा ही नहीं जा सकता। उसे कोई कितना ही तोड़े, तो भी वह नहीं टूटता। इसलिए बेफिकर रहो। नकारात्मक प्रक्रिया से गुजर कर सार्थक ही बच जाता है। जैसे सोने को हम आग में डाल दें, सोना नहीं डरता, हां, कोई नकली सोना बना लिया हो किसी वैद्य ने, तो मामला गड़बड़ हो सकता है। सोना नहीं डरता, लेकिन कोई आयुर्वेदिक चमत्कार से कोई तरकीब और होशियारी से, अगर कोई नकली सोना बना लिया हो तो, सोना डर भी सकता है, आग में जाने से। सोना नहीं डरता, सोना तो कहेगा डाल दो आग में, अच्छा है कचरा जल जाएगा, मैं बाहर निकल आऊंगा। जो हमारे भीतर सत्य है, वह नकार से नहीं डरता, निगेशन से नहीं डरता, आग से नहीं डरता। लेकिन जो असत्य है वह डरता है। वह कहता है नकारात्मक में तो मैं मर जाऊंगा। मुझे आग से बचाओ। सोना आग से निखर कर बाहर आता है। कचरा जल जाता है।
निगेशन जो है, नकार जो है, निषेध जो है, उससे गुजर कर आत्मा में जो व्यर्थ है वह हट जाता है और जो सार्थक है, जो सत्य है, वह शेष रह जाता है। इसलिए जिस व्यक्ति को भी सत्य की खोज में जाना हो, उसे नकार से गुजरना ही पड़ता है।
इसलिए मैं कहता हूं, जो नास्तिक नहीं हो सकता, वह कभी आस्तिक नहीं हो सकता है। नास्तिक हुए बिना कभी कोई आस्तिक नहीं हो सकता है। नास्तिकता की आग से गुजर कर आस्तिकता निखरती है। उसमें तेज आता है, उसमें बल आता है। आस्तिकता साफ-सुथरी होती है, आस्तिकता स्पष्ट होती है।
लेकिन हम इतने डरे हुए लोग हैं कि नास्तिकता से डरते हैं। और झूठे आस्तिक बन कर बैठ जाते हैं। सारी पृथ्वी पर दो तरह के लोग हैं, झूठे आस्तिक हैं, इनकी संख्या भारी है, इनकी संख्या इतनी बड़ी है कि सारी पृथ्वी को उन्होंने खतरे में डाल दिया है। झूठे आस्तिक, जो नास्तिक होने से डर गए। नास्तिकता से गुजरने से डर गए। ऐसा सोना जिसने आग में जाने से इनकार कर दिया। वह सोना तभी दीन-हीन हो गया जब आग में जाने से इनकार कर दिया। दूसरे कुछ थोड़े से नास्तिक हैं, जो नास्तिकता पर ही रुक गए हैं। अगर...सोना आग से गुजरना चाहिए, आग में रुक नहीं जाना चाहिए। आग में रुक गया सोना, तो बेमानी हो गया। आग से गुजरना है, रुकना नहीं है। नास्तिकता में रुक गया जो, वह भी व्यर्थ हो गया। नास्तिकता से गुजरना है ताकि वह शेष रह जाए और बाहर आ जाए, जो आस्तिकता है, जो सत्य है, जो वास्तविक है, जो नहीं जलता, जो नहीं मिटता।
दो तरह के लोग हैं, एक जो आग से गुजरते ही नहीं, एक जो आग में ही बैठ कर रह जाते हैं, और पृथ्वी परेशानी में पड़ गई है। आग से प्रत्येक को गुजरना चाहिए। मैंने जो चार दिन बातें कहीं, वह निषेध की, इसीलिए कहीं कि प्रत्येक की प्रतिभा इस आग से गुजरे। डरते क्यों हैं हम? डरता वही है जिसने कुछ असत्य पकड़ रखा है। सत्य हो फिर डर की कोई वजह नहीं है, कोई भय नहीं है। निषेध मार्ग है विधेय को पाने का। निगेशन...वह पाजिटिव जो है, उसको पाने का रास्ता है। निषेध से गुजरना ताकि विधेय को पा सको। इनकार करना सीखना, ताकि किसी दिन हां कह सको। जिसने कभी ‘नो’ नहीं कहा, उसके ‘यस’ का कोई मूल्य नहीं। उसका यश एकदम इंपोटेंट होगा। उसके यश में कोई बल नहीं हो सकता। उसके यस में कोई सामर्थ, कोई शक्ति, कोई साहस नहीं हो सकता। कहना, इनकार करना, ताकि किसी दिन हां कहने की शक्ति आ सके। और जब इनकार कहने वाला किसी दिन हां भरता है, उसका हां उसके जीवन का रूपांतरण हो जाता है। क्रांति हो जाती है।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, पंडितों, गुरुओं, रूढ़ियों, इन सबके विरोध में आप बोलते हैं, लेकिन कहीं ऐसा तो न हो जाए कि आपकी भी एक रूढ़ी बन जाए? एक संप्रदाय बन जाए?
यह डर वास्तविक है। यह खतरा पक्का है। यह खतरा इसलिए पक्का है कि आदमी बिलकुल पागल है। आदमी इतना अजीब है कि जिन्होंने रूढ़ियां तोड़ने की कोशिश की उनकी भी उसने रूढ़ियां बना ली हैं। बुद्ध ने लोगों को समझाया कि तुम स्वयं हो जाओ, और करोड़ों लोग बौद्ध बने बैठे हैं। अगर बुद्ध कहीं होंगे, तो अपना सिर ठोकते होंगे कि यह क्या पागलपन है? मैंने समझाया कि तुम स्वयं हो जाओ, अपने दीये बनो, और वे कहे रहे हैं कि हम ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ हम बुद्ध की शरण जाते हैं। बुद्ध कहते हैं: तुम किसी की शरण मत जाना, क्योंकि तुम्हारे भीतर वह बैठा है जिसको किसी की शरण जाने की कोई जरूरत नहीं, वह स्वयं आत्म-शरण है। वे कह रहे हैं: बुद्धं शरणं गच्छामि। बुद्ध कहते हैं, किसी की पूजा मत करना, किसी की मूर्ति मत बनाना। दुनिया में बुद्ध की जितनी मूर्तियां हैं उतनी किसी और की नहीं। उर्दू में तो शब्द बन गया है, बुत। बुत शब्द बुद्ध का ही अपभ्रंश है। इतनी मूर्तियां बन गईं कि जब अरब मुल्कों में मूर्तियां पहुचीं, तो वे बुद्ध की ही मूर्तियां थीं, लोगों ने पूछा: यह क्या है? तो लोगों ने कहा: बुद्ध। तो वे समझे कि बुद्ध यानी मूर्ति। इसलिए बुत शब्द बन गया। बुद्ध का ही रूप है बिगड़ा हुआ बुत। बुतपरस्ती, बुद्धपरस्ती का ही रूप है। और जिस आदमी ने मूर्ति का विरोध किया, उसकी इतनी मूर्तियां बन गईं!
चीन में एक मंदिर है, दस हजार बुद्धों का मंदिर। उसमें, एक मंदिर में दस हजार बुद्ध की मूर्तिंयां हैं। अगर बुद्ध कहीं होंगे, तो उनकी क्या हालत होती होगी? कि यह क्या हो रहा है? महावीर नग्न रहे, सब छोड़ दिया, कुछ भी पास न रखा; महावीर के अनुयायियों के पास जाकर देखें, जितना पैसा इस मुल्क में उन्होंने इकट्ठा कर रखा है, उतना किसी के पास नहीं है। आश्चर्यजनक है! हैरान करने वाली बात है!
मैं जिस गांव में रहता हूं, मेरे एक परिचित हैं, उनकी एक दुकान है। महावीर तो नग्न रहे, तो उनकी नग्नता के कारण उनको दिगंबर कहा गया--कि जिनका आकाश ही वस्त्र है। मेरे मित्र हैं, मेरे गांव में उनकी दुकान का नाम पता है? उनकी दुकान का नाम है: दिगंबर क्लॉथ स्टोर। नंगों की कपड़ों की दुकान। महावीर की याददाश्त में वे दुकान खोले हुए हैं कपड़ों की। वह बेचारा नंगा रह कर मर गया और ये कपड़े बेच रहे हैं? थोड़ा आश्चर्यजनक है। लेकिन ऐसा ही हुआ है, ऐसा ही हुआ है। इस्लाम का अर्थ है: शांति का धर्म। इस्लाम शब्द का अर्थ है: शांति, पीस। और इस्लाम मानने वालों ने जितनी अशांति दुनिया में फैलाई, उतनी किसी और ने नहीं फैलाई। आश्चर्य! यह क्या होता है दुनिया में? जीसस कहते हैं कि तुम्हारे गाल पर कोई एक चांटा मारे, तुम दूसरा उसके सामने कर देना। लेकिन जितनी तलवार ईसाईयों ने चलाई, जितनी आग ईसाईयों ने लगाई, जितने लोगों को उन्होंने मारा, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है कि उन्होंने कितनी हत्या की। कुछ है बात ऐसी, आदमी इतना नासमझ है कि जिस बात को तोड़ने के लिए कहा जाए, वह उसी को मजबूत करता चला जाता है। अब तक यही हुआ है। लेकिन आगे यह नहीं होना चाहिए। यह बहुत घातक सिद्ध हुआ है। और जिन चीजों से हम परेशान होते हैं, जिनसे हम दुखी होते हैं, हम हैरान होते हैं कि हम फिर उसी तरह की चीजें बना लेते हैं, फिर उसी तरह की भ्रांति कर लेते हैं।
अमरीका में एक मनोवैज्ञानिक ने तलाक के ऊपर अध्ययन किया है। डाइवोर्स पर। उसने एक आदमी के पूरे जीवन का अध्ययन किया, जिसने आठ बार तलाक दिए। पहली बार पत्नी बदली, फिर छह महीने बाद दूसरी पत्नी लाया, फिर वह...ऐसा आठ बार उसने जिंदगी में पत्नियां बदलीं। और आठ बार के निरंतर अध्ययन से जो पता चला, वह बड़ी हैरानी की बात थी। वह यह थी कि हर बार पत्नी से परेशान होकर उसने पत्नी बदली, और दूसरी बार उसने जो पत्नी चुनी वह फिर वैसी की वैसी थी जैसी उसकी पहली पत्नी थी। तब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि वह चुनने वाला आदमी वही है न, वह तो बदलता नहीं, पत्नी बदल लेता है, लेकिन वह चुनने वाला तो वही है, वह फिर वैसी ही पत्नी चुन लाता है। फिर पत्नी बदल देता है। लेकिन चुनने वाला फिर वही है। वह फिर वैसी ही पत्नी चुन लाता है। आदमी वही है।
अगर राम को छीन लो, वह बुद्ध को पकड़ लेगा; अगर बुद्ध को छीन लो, वह कृष्ण को पकड़ लेगा। अगर सबको छीन लो, जीसस को, मोहम्मद को, तो वह स्टैलिन को पकड़ लेगा, माओ को पकड़ लेगा, किसी न किसी को पकड़ लेगा। वह आदमी का दिमाग पकड़ने वाला है।
मैं जो कह रहा हूं वह यह नहीं कह रहा हूं कि आप दूसरों को छोड़ दें और मेरी बात को पकड़ लें। मैं यह कह रहा हूं कि पकड़ना गलत है। पकड़ें ही मत। आप अकेले काफी हैं। किसी को पकड़ने की किसी को कोई जरूरत नहीं है। लेकिन भूलें हम ऐसी करते हैं।
मैंने सुनी है एक कहानी, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ है, मुल्ला नसरुद्दीन। वह अपने झोपड़े में बैठा हुआ है, उसकी पत्नी उस पर बहुत नाराज हो रही है। वह उससे कह रही है कि तुमने जिंदगी गंवा दी, न मेरे लिए एक नई साड़ी ला पाते हो, न एक नया गहना खरीद पाते हो। जिंदगी खराब हो गई। यह क्या भगवान की पूजा-प्रार्थना लगा रखी है? अगर किसी आदमी की भी नौकरी करते, तो भी कुछ मिलता, यह भगवान की नौकरी में कुछ भी तो नहीं मिला? मुल्ला नसरुद्दीन कहता है, पागल, कैसी बातें कर रही है, सब भगवान के वहां बैंक में मेरा जमा होता जाता है, जब चाहूंगा ले लूंगा। अभी लिया नहीं इसलिए नहीं मिला। उसकी औरत उसको गुस्से में ला देती है, और कहती है, अच्छा, आज ले ही आओ। जाओ कुछ तो लेकर आओ, मैं समझूं कि भगवान की दुनिया से भी कुछ मिलता है।
मुल्ला ताव में आ गया है, वह बाहर निकल आया, उसने जोर से आकाश की तरफ हाथ करके कहा कि बहुत दिन हो गए, इतना जमा हो गया, एक हजार रुपये फौरन भेज! बगल में सेठ है, वह सारी बकवास सुन रहा है, पति और पत्नी की। उसको हंसी सूझी, मजाक सूझा। उसने सोचा, हजार रुपये क्यों न फेंक दूं, बड़ा मजा आ जाएगा। हजार रुपये की थैली बगल के पड़ोसी ने उसके आंगन में फेंक दी। मुल्ला ने थैली उठाई और भगवान से कहा: धन्यवाद! बाकी जमा रखना। जब जरूरत होगी ले लेंगे।
थैली लेकर भीतर गया। पत्नी भी चकित हो गई, कि आश्चर्य! हजार रुपये उसने सामने पटक दिए, कि ले! बगल के पड़ोसी ने सोचा कि दस-पंद्रह मिनट मजा ले लेने दो, फिर जाकर कह देंगे कि मजाक किया। लेकिन दस पंद्रह मिनट में तो देखा कि मुल्ला का नौकर बाजार से बैलगाड़ियों में सामान लादे हुए, खरीदे चला आ रहा है। तो वह सेठ डरा कि यह तो...कहीं लंबी मुश्किल न हो जाए? वह भागा हुआ आया उसने कहा: भई, बहुत हो गई मजाक, रुपये वापस कर दो। रुपये मैंने फेंके हैं।
मुल्ला ने कहा: पागल हो गए हो, तुमने बराबर सुना होगा, मैंने भगवान से कहा, हजार रुपये भेजो, फिर मैंने धन्यवाद दिया। तुमने कैसे फेंके? उस सेठ ने कहा: मजाक, मजाक की बात है, बात खत्म करो, रुपये वापस करो। कहीं भगवान रुपये फेंकता है? मुल्ला ने कहा: आश्चर्य, मेरे अपने जमा थे, वे मैंने लिए हैं, तुम कहां से बीच में आ गए? सेठ को लगा कि मुल्ला पैसे वापस देगा नहीं। सेठ ने कहा: तो फिर काजी के पास चलो। हजार रुपये का मामला है। सिर्फ मजाक में मैंने फेंके थे।
मुल्ला ने कहा: मैं ऐसे काजी के पास नहीं जा सकता। मैं गरीब आदमी, मेरे कपड़े फटे हुए। तुम शानदार घोड़े पर बैठ कर पगड़ी-कोट डांट कर जाओगे। काजी तुमसे प्रभावित हो जाएगा। न्यायाधीश हमेशा पैसे वालों से प्रभावित हो जाता है। मैं ऐसे नहीं जाऊंगा। वह कहेगा, यह गरीब आदमी, इस पर हजार रुपये कहां से आएंगे? झूठ बोल रहा है। तुम्हारी बात मान ली जाएगी। मैं नहीं जा सकता। अगर तुम अपने कपड़े मुझे दो और घोड़ा मुझे दो, तो मैं चल सकता हूं। सेठ ने कहा: अच्छी बात है, हजार रुपये वापस लेने हैं, तो यह भी करना पड़ेगा।
कपड़े मुल्ला को दिए, मुल्ला के कपड़े सेठ ने पहने। सेठ के घोड़े पर मुल्ला सवार हुआ, सेठ पैदल चला। अदालत में पहुंचे। मुल्ला ने चिल्ला कर नौकरों को कहा: घोड़े को सम्हालो; पानी रखो, घास डालो, ताकि अंदर मजिस्ट्रेट ठीक से सुन ले कि जो आदमी आया है वह घोड़े वाला है, वह साधारण आदमी नहीं है।
अदालतें घोड़ों से प्रभावित होती हैं, आदमियों से थोड़े ही प्रभावित होती हैं। वह भीतर गया, सेठ बेचारा गरीब हैसियत में उसके बगल में जाकर खड़ा हो गया। मुल्ला ने कहा: कहो, क्या अदालत से कहना चाहते हो? अदालत तो वैसे ही डर गई। सेठ ने कहा कि हजार रुपये मैंने मजाक में फैंके हैं। यह आदमी भगवान से कह रहा था कि हजार रुपये भेजो। कहीं भगवान रुपये भेजता है? मैंने मजाक में फेंक दिए कि थोड़ी देर का मजा होगा, फिर वापस ले आऊंगा। यह आदमी बदल गया। यह कहता है कि रुपये मेरे हैं, भगवान ने ही फेंके हैं। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि आप क्या कहते हैं? मुल्ला से पूछा। मुल्ला ने कहा कि मैं और क्या कहूं, इतना ही कह सकता हूं कि इस सेठ का दिमाग खराब हो गया है, यह हर चीज अपनी बताता है। पूछिए, ये कपड़े किसके हैं? यह घोड़ा किसका है? यह कहेगा, इसी के हैं। सेठ ने कहा: और क्या तेरे हैं, मेरे तो हैं ही। मजिस्टे्रट ने कहा: मुकदमा बरखास्त, सेठ तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है।
वह सेठ यह न समझ पाया कि जो आदमी हजार रुपये भगवान की अदालत से वसूल करता है, ऐसा बेईमान और चालाक आदमी। जो आदमी हजार रुपये मजाक में लिए अपने बताता है, उसको घोड़ा और कोट देना और भी खतरनाक है, यह भी चला जाएगा।
जिन गलतियों में हम एक बार गुजरते हैं, भूल जाते हैं कि उन्हीं गलतियों में हम गुजरते ही चले जाते हैं। हमें याद ही नहीं रहता कि हम पुनरुक्तियां कर रहे हैं उन्हीं गलतियों कीं। और आदमी पुनरुक्ति ही किए चला जाता है। जिन धोखों में हम कल फंसे थे, उन्हीं धोखों में हम फिर आज फंस जाते हैं। नाम बदल जाता है धोखे का और हम फंस जाते हैं। शक्ल बदल जाती है धोखे की और हम फंस जाते हैं। धोखेबाज बदल जाता है और हम फंस जाते हैं। तरकीब बदल जाती है और हम फंस जाते हैं।
कुछ समझ लेना चाहिए कि हम किन-किन धोखों में आज तक फंसे हैं? मनुष्यता किन-किन में फंसी है? और आगे भी फंस सकती है। पहली बात, मनुष्यता संगठन के धोखे में फंसती रही है हमेशा से। ऑर्गनाइजेशन का धोखा। जब भी संगठन होगा, आदमी खतरे में पड़ेगा। संगठन हमेशा खतरनाक है। वह किसी का भी संगठन हो—वह हिंदू का हो, मुसलमान का हो, गांधीवादी का हो, साम्यवादी का हो, संगठन खतरनाक है। क्यों? क्योंकि संगठन व्यक्ति को मिटाता है और भीड़ को खड़ा करता है। व्यक्ति की आत्मा को पोंछता है और यंत्र को मजबूत बनाता है। वह कहता है कि तुम नहीं हो, मुसलमान है; तुम नहीं हो कम्युनिस्ट है; तुम नहीं हो, व्यक्ति नहीं है, हिंदू है, ब्राह्मण है, जैन है। व्यक्ति को पोंछता है संगठन। व्यक्ति की आत्मा को पोंछता है। भीड़ को इकट्ठा करता है। यंत्र को मजबूत करता है। व्यक्ति को डुबाता है, यंत्र को बढ़ाता है।
आज तक आदमी संगठनों में फंस कर नष्ट हुआ है। आदमी ने अपनी आत्मा खोई है संगठनों में जाकर। दुनिया में जितना उपद्रव संगठनों के कारण हुआ है किसी और कारण नहीं हुआ। कभी सोचें आप, अगर ऐसी दुनिया बन सके जिसमें संगठन न हों—हिंदू, मुसलमान, कम्युनिस्ट, सोशियलिस्ट फैसिस्ट न हों—कोई संगठन न हो, व्यक्ति हों दुनिया में, तो दुनिया में युद्ध हो सकते हैं? व्यक्ति हों दुनिया में, तो दुनिया में कत्लेआम हो सकते हैं? व्यक्ति हों दुनिया में, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान हो सकते हैं? व्यक्ति हों दुनिया में, तो मस्जिद और मंदिर की दुश्मनी हो सकती है? व्यक्ति हों दुनिया में तो प्रेम हो सकता है।
संगठन जब तक दुनिया में होंगे, घृणा होगी, और कुछ भी नहंी हो सकता। उसका कारण है, क्योंकि संगठन घृणा पर जीता है। संगठन बिना घृणा के खड़ा ही नहीं होता। ध्यान रहे, प्रेम का कोई संगठन नहीं होता, सब संगठन घृणा के संगठन हैं। हालांकि मुसलमान कहते हैं कि हम एक-दूसरे को प्रेम करते हैं, इसलिए इकट्ठे हैं। हिंदू कहते हैं, हम एक-दूसरे को प्रेम करते हैं, इसलिए इकट्ठे हैं। भारतीय कहते हैं, हम एक-दूसरे को प्रेम करते हैं, इसलिए इकट्ठे हैं। लेकिन ये झूठी बातें हैं।
ध्यान रहे, भारत पर चीन का हमला हो जाए, फिर देखो, संगठन कैसा मजबूत होता है? चीन का हमला होता है तो भारतीय संगठित होते हैं, पाकिस्तान का हमला होता है तो भारतीय संगठित होते हैं। फिर हमला खत्म हुआ, संगठन ढीला हुआ। फिर गुजराती और मराठी नहीं लड़ते जब चीन का हमला होता है, तब गुजराती-मराठी भाई-भाई हो जाते हैं। फिर चीन का हमला खत्म हुआ, फिर गुजराती मराठी से लड़ता है, हिंदी गैर-हिंदी से लड़ता है। क्यों? घृणा पैदा हो गई। चीन दुश्मन है, कॉमन एनिमी है, एक सामान्य दुश्मन है, उससे लड़ो, घृणा पैदा हो गई, हम इकट्ठे हो गए। घृणा खत्म हो गई, संगठन खत्म हो गया। संगठन जारी रखना हो, घृणा जारी रखो।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है: अगर कोई भी संगठन बनाना हो, तो घृणा पैदा करो, खतरा पैदा करो, दुश्मन पैदा करो। अगर असली दुश्मन न मिले, नकली दुश्मन पैदा करो। असली खतरा न हो, नकली खतरा पैदा करो। ऐसे ही तो खतरे पैदा किए जाते हैं: इस्लाम खतरे में है! पता ही नहीं चलता इस्लाम पर क्या खतरा हो सकता है? हिंदू धर्म खतरे में है! क्या खतरा हिंदू धर्म पर हो सकता है? और खतरे में है तो होने दो, जाने दो, फायदा क्या है? डूबने दो हिंदू को भी, मुसलमान को, ईसाई को भी। नहीं, लेकिन इस्लाम खतरे में है! खतरा पैदा करो, मुसलमान को घबड़ाओ, बताओ कि दुश्मन मौजूद तैयारी कर रहा है। हिंदू छुरे पर धार रख रहा है। बस फिर मुसलमान भी छुरे पर धार रखेगा, संगठित हो जाएगा। फिर संगठन झगड़े लाएंगे, उपद्रव लाएंगे।
हम संगठन बदल लेते हैं लेकिन संगठन को नहीं मिटाते। पुराना संगठन छोड़ते हैं नये संगठन में खड़े हो जाते हैं। पर संगठन जारी रहता है। क्या ऐसी दुनिया नहीं बन सकती जहां संगठन न हों? इसका यह मतलब नहीं है कि रेलवे का संगठन न हो, पोस्ट-आफिस का संगठन न हो, वह संगठन नहीं है। वह तो सिर्फ कामचलाऊ व्यवस्थाएं हैं। लेकिन आइडियोलॉजी के संगठन नहीं होने चाहिए। सिद्धांत के संगठन नहीं होने चाहिए। संगठन एक जड़ रही है आदमी को नष्ट करने की। उसमें आदमी मिट जाता है, व्यक्ति समाप्त हो जाता है, भीड़ रह जाती है। यह मिटाना होगा, एक।
दूसरी बात, यह माना जाता रहा है, यह अब तक माना जाता रहा है कि हर आदमी को किसी ढांचे में बंधा हुआ होना चाहिए, किसी पैटर्न में। किसी आदमी को मुक्त नहीं होना चाहिए। और जो आदमी भी जितना ढांचे में बंधा होगा, उतना ही जड़ होगा। उतनी ही उसके भीतर चेतना कम होगी। रूढ़ियों का मतलब है: ढांचे। और ढांचों में बंधने का आग्रह इतना पुराना है कि बच्चा पैदा हुआ कि हमने ढांचा बिठालना शुरू किया। हम किसी बच्चे को वही नहीं बनने देना चाहते जो वह बन सकता है। हम कहते हैं, हम तुम्हें जो बनाएं, वह तुम बनो। हम बच्चे से कहते हैं, गांधी जैसे बनो। क्यों? किसी बच्चे का कोई कसूर है? वह क्यों गांधी जैसा बने? महावीर जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो। कोई बुद्ध ने या महावीर ने कोई ठेका ले रखा है कि हर आदमी उन जैसा बने। और कोई चाहे तो भी बन सकता है। महावीर बहुत अदभुत हैं, गांधी भी बहुत अदभुत हैं, राम भी बहुत अदभुत हैं, लेकिन कोई दूसरा राम जैसा क्यों बने? क्या जरूरत है? और अगर बहुत राम होंगे, तो ध्यान रहे, राम अकेले राम होने का मजा भी चला जाएगा।
एक गांव में, सोचें अहमदाबाद में, सब राम जैसे हो गए, तो ऐसी जिंदगी बोरिंग हो जाएगी, इतनी घबड़ाहट होने लगेगी, जहां जाओ वहीं धनुषबाण लिए हुए राम मिल जाएं, ऐसी घबड़ाहट हो जाएगी कि वे सब राम मिल कर तय करेंगे कि हम आत्महत्या कर लें, क्योंकि यहां जीना बहुत मुश्किल हो गया है। राम का अकेला होना ही सुंदर है। राम की भीड़ खड़ी करने की कोई जरूरत नहीं। और कोई कितनी ही कोशिश करे, राम की भीड़ खड़ी हो भी नहीं सकती है। सच बात यह है कि एक आदमी जैसा दूसरा आदमी कभी भी नहीं हो सकता है। लेकिन होने की कोशिश में आदमी मर जाता है, नष्ट हो जाता है, मुर्दा हो जाता है, जीवंत नहीं रह जाता। कितने हजार वर्ष हुए राम को हुए? कितने लोग राम हो गए? राम-राम जप कर कितने लोग राम हो गए? हां, कुछ लोग राम हो जाते हैं, रामलीला के राम, उनसे कोई मतलब नहीं है, उनका कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन राम, राम अकेला है। सब दुनिया में हर व्यक्ति अपने जैसा ही है। बच्चे को यह कहना कि तू कोई ढांचा स्वीकार कर और ऐसा हो जा, बच्चे की हत्या करनी है। मां-बाप जितना अनाचार बच्चों के साथ किए हैं उतना दुनिया में कोई दूसरे ने किसी पर अनाचार नहीं किया है। समाज जितना आने वाले व्यक्तियों पर, नई पीढ़ियों पर अनाचार करता है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। सब ढांचे में ढालने की कोशिश चलती है।
अगर रूढ़ियों से बचना हो और एक मुक्त चेतना पानी हो, तो कभी भी दूसरे जैसे बनने की कोशिश मत करना। आप जैसा आदमी कभी हुआ ही नहीं। आप बिलकुल पहली दफे हुए हो। आप अनूठे हो, एक-एक आदमी बेजोड़ है। एक-एक आदमी के अंगूठे का निशान उसके ही जैसा है, सारी दुनिया में घूमने पर वैसा अंगूठे का निशान नहीं मिल सकता। वैसे ही एक-एक आदमी की आत्मा भी उसके ही जैसी है, वैसी आत्मा कहीं खोजने से नहीं मिल सकती। लेकिन अगर कोई ढांचा बिठाया, तो आत्मा भीतर मरने लगेगी, और ढांचा सब तरफ से काट-छांट करने लगेगा, और धीरे-धीरे भीतर एक लोथड़ा रह जाएगा मांस का, आत्मा नहीं।
यही हो गया है सारी दुनिया में। हम रूढ़ियों में, ढांचों में, पैटर्न में, आइडियालॉजी में, अतीत से, शास्त्रों में बंधे हुए लोग जिंदा नहीं रह गए हैं, मुर्दा हो गए हैं। यह मुर्दापन तोड़ना जरूरी है। इस मुर्दापन के खिलाफ बगावत जरूरी है। इस मुर्दापन को बिलकुल ही मिटा देना जरूरी है, ताकि जीवन की किरण, जीवन की आशा, जीवन का सपना, जीवन का भाव उदय हो सके।
लेकिन हम अपने देश में यह कहते हैं, हम यह कहते हैं कि सिद्धांत तो सत्य हैं, शास्त्र सत्य हैं, ढांचे सत्य हैं, आदर्श सत्य हैं, गलत है तो आदमी है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं, आदमी गलत बिलकुल नहीं है, गलत हैं तो ढांचे हैं, गलत हैं तो सिद्धांत हैं, गलत हैं तो शास्त्र हैं। असल में ढांचे का होना ही गलत है। एक-एक आदमी को बढ़ने दो, उसकी शाखाएं निकलने दो, उसके फूल निकलने दो, उसको पानी दो, खाद दो, लेकिन उसके लिए बंधा हुआ पैटर्न मत दो, ढांचा मत दो; उसे सम्हालो, उसे बढ़ाओ, उसकी रक्षा करो, लेकिन बताओ मत कि शाखा पूरब जाए कि पश्चिम, कि कितनी दूर जाएगी कि न जाए। यह सब मत बताओ, उसको गति दो, प्राण दो, जीवंतता दो; फलने दो, फूलने दो, उसे अपने ही जैसा होने दो। लेकिन नहीं, हम उलटा मानने वाले हैं।
मैंने एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है, एक सम्राट अपने महल में बैठा हुआ है, गर्मी के दिन हैं। नीचे एक पंखा बेचने वाला निकलता है। और वह चिल्लाता है, अदभुत पंखे हैं, ऐसे पंखे न कभी देखे गए, न सुने गए। राजा नीचे झांक कर देखता है, उसके पास अच्छे-अच्छे पंखे हैं, और सड़े पंखे बेच रहा है वह गरीब आदमी दो-दो पैसे के। उसे ऊपर बुलाता है और कहता है, पागल हो गया है, इन पंखों में क्या खूबी है? वह कहता है, महाराज, ये देखने में साधारण हैं, बाकी भीतर बहुत असाधारण हैं। राजा ने कहा: पंखे भी भीतर और बाहर, क्या मतलब है तेरा? उस आदमी ने कहा: इन पंखों का दाम सौ रुपया है। ये साधारण पंखे नहीं हैं। राजा ने कहा: खूबी क्या है? उसने कहा: ये सौ साल चलते हैं। सौ साल की गारंटी है। राजा ने कहा: पागल आदमी, किसको धोखा दे रहा है पता है तुझे? उसने कहा: मालिक, मुझे अच्छी तरह पता है, रोज नीचे पंखे बेचता हूं, आप खरीद लें, अगर गड़बड़ हो जाए मैं जिम्मेवार हूं। रुपये वापस कर दूंगा। सौ रुपये दे दिए गए, पंखा खरीद लिया गया।
दो दिन बाद पंखा टूट गया, पंखा बिलकुल साधारण था। राजा ने देखा कि वह पंखा वाला निकला है सुबह फिर, धोखा नहीं दे रहा। पंखे वाले को ऊपर बुलाया। पूछा कि कैसा पंखा दिया, दो दिन में टूट गया? उस पंखे वाले ने पंखे को देखा, फिर राजा को देखा और कहा कि महाराज, मालूम होता है आपको पंखा झलना नहीं आता। कृपया कर जरा पंखा झलिए, कैसा झलते हैं? हद कर दी, सौ साल चलने वाली चीज दो दिन में तोड़ दी? राजा ने कहा: तो कसूर मेरा है? क्या मुझे पंखा झलना नहीं आता? उसने कहा: आप पंखा झल कर बताइए। राजा ने पंखा झल कर बताया। वह हंसने लगा, उसने कहा: बस हो गई गलती, यह कोई ढंग है? फिर क्या ढंग है? उसने कहा: पंखे को हाथ से पकड़ कर रखिए और सिर को हिलाइए। पंखा सौ साल चलेगा। पंखा गारंटीड है। आपको पंखा करना ही नहीं आता। पंखे को हिला रहे हैं, पंखा टूट जाएगा।
उस आदमी ने बड़ी ठीक बात कही। यही ठीक बात, हमारे पंडित, पुरोहित, साधु-संन्यासी, नेता कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, हमारे पास सिद्धांत तो बिलकुल ठीक हैं, मानने वाला नहीं मिलता कोई। शास्त्र बिलकुल सही हैं। कलयुग आ गया, आदमी गलत पैदा हो गया है। हमारे पास बड़े उच्च आदर्श हैं, लेकिन आचरण करने वाले लोग नहीं हैं।
मैं कहता हूं, यह बात गलत है। आदमी बुरा नहीं है, और आदमी किसी युग का बुरा और भला नहीं होता है। न कलयुग होता है, न कोई सतयुग होता है। आदमी की आत्मा सदा एक सी है। आदमी एकदम अच्छा पैदा होता है। आदमी खालिस अच्छा पैदा होता है। लेकिन जो ढांचे हम उस पर थोपते हैं, वे गलत हैं। वे ढांचे गलत हैं, और वे ढांचे आदमी को विकृत करते हैं, और परेशान करते हैं, और तोड़ते हैं, और मोड़ते हैं। और आखिर में आदमी एक विकृति होकर खड़ा हो जाता है। आदमी नहीं रह जाता, सिर्फ एक खंडहर हो जाता है। सारे आदमी खंडहर हो गए हैं। अगर आदमी की आत्मा मुक्त न की जा सकी, तो ये सारे खंडहर पागल हो जाएंगे, ये पागल होते चले जा रहे हैं। इनके सारे जीवन का रस और आनंद खो गया है। सब संगीत खो गया है, सब खो गया है। क्या इसको ऐसे ही बरदाश्त करते चले जाना है या आदमी की आत्मा के लिए नये मार्ग खोजने हैं? नई दिशाएं, नये आकाश, नये आयाम, या कि पुरानी जो पुनरुक्ति थी कल तक उसको ही वापस दोहराए चले जाना है? अगर हम वापस उसी को दोहराए चले गए, तो हम काफी मर चुके हैं, शायद जीवन की आखिरी झलक भी हमारी डूबने को, टूटने को है।
लेकिन ऐसा लगता है कि अब भारत सोचेगा, सोचना शुरू हुआ है: नई पीढ़ी, नये लोग, नये खयाल से भरे हैं, नये सपनों से भरे हैं। वे पुनर्विचार करेंगे। वे एक-एक चीज को फिर से परखेंगे। वे देखेंगे कि कहीं पंखा ही तो कमजोर नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि पंखा ही गलत है? गारंटी झूठी है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमने जो सिद्धांत निर्मित किए हैं वे आदमी को बांधने वाले हैं, मुक्त करने वाले नहीं? हमने जो सिद्धांत निर्मित किए हैं वे आदमी को जड़ बनाने वाले हैं, डायनेमिक, गतिमान बनाने वाले नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमने जो समाज के लिए धारणा बनाई है वह समाज को मारती है, जिलाती नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमने जो विश्वास कायम किए हैं वे जीवन को पीछे की तरफ ले जाते हैं, आगे की तरफ नहीं? और जीवन सदा आगे की तरफ जाता है, पीछे की तरफ कभी नहीं जाता है। जो कौम पीछे की तरफ देखती है, वह नष्ट हो जाती है। निरंतर देखना है आगे, और आगे। और निरंतर छोड़ना है पीछे को, ताकि हम आगे जा सकें। पीछे का कदम जब छूटता है तभी आगे का कदम उठता है। पीछे की सीढ़ी छूटती है तब आगे की सीढ़ी मिलती है। लेकिन हम अब तक अतीत को पकड़े बैठे हुए हैं, छाती से लगाए बैठे हुए हैं, सब मरे हुए मुर्दों को छाती पर रखे बैठे हैं। उन्हें हटाते नहीं। बड़ा डर लगता है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी चर्चा मैं पूरी कर दूंगा।
एक गांव है और उस गांव में एक पुराना चर्च है। वह पुराना चर्च गिरने के करीब आ गया। कोई उस चर्च में जाता नहीं। चर्च के पादरी भी उसके भीतर नहीं जाते हैं, क्योंकि वह कभी भी गिर सकता है। लेकिन गांव में पादरी लोगों को समझाता है कि आओ, प्रार्थना करने आओ। नष्ट हो जाओगे, नास्तिकों कहां जा रहे हो? लेकिन कौन मरने जाए चर्च में? वह चर्च ऐसा डराता है, हवा का झोंका आए गिर सकता है। पादरी भी भीतर नहीं जाता। और पादरी भी मन ही मन सोचता है कहीं उपासक आ न जाएं, नहीं तो भीतर जाना पड़े। समझाता है लोगों को, लेकिन जानता है, न कोई आएगा, न कोई झंझट है। फिर चर्च की कमेटी मिलती है, सोचती है क्या करें? वह कमेटी भी बाहर मिलती है, चर्च के भीतर नहीं। दूर बैठती है जहां चर्च की छाया भी न पड़े। और वह कमेटी विचार करती है, क्या करें? वह कमेटी चार प्रस्ताव करती है। पहला प्रस्ताव करती है कि पुराना चर्च गिराना पड़ेगा, यह हम सर्व-सम्मति से स्वीकार करते हैं। दूसरा, एक नया चर्च बनाना चाहिए, यह भी हम सर्व-सम्मति से स्वीकार करते हैं। तीसरा, हम नया चर्च पुराने जैसा ही बनाएंगे, पुरानी नींव पर ही बनाएंगे, पुरानी ईंटें लगाएंगे, पुराने दरवाजे लगाएंगे, पुराना ही आकार होगा, सब कुछ पुराना होगा, नये चर्च में नया कुछ भी नहीं होगा, सब पुराने सामान को पुराने जैसा ही फिर से जोड़-तोड़ कर खड़ा कर देंगे, कोई कह भी न सके कि यह नया चर्च है, जानने वाले आकर यही कहें कि यह पुराना ही चर्च है। इसे भी सर्व-सम्मति से वे स्वीकार करते हैं। और चौथा प्रस्ताव वे स्वीकार करते हैं कि जब तक नया चर्च बन न जाए तब तक हम कभी भी पुराने को गिराएंगे नहीं।
वह नया चर्च नहीं बनेगा कभी भी, पुराना गिरने वाला नहीं है। ऐसी ही मनोदशा इस देश की है। पुराने को हम गिराएंगे नहीं, नया बनेगा नहीं। पुराने को गिराने की हिम्मत करनी जरूरी है। क्योंकि वही हिम्मत नये के निर्माण की हिम्मत भी बनती है। समाज के संबंध में भी, सभ्यता के संबंध में भी, संस्कृति के संबंध में भी पुराने को गिराने की हिम्मत चाहिए। और अपने संबंध में भी अपने पुराने को, अपने पुराने व्यक्तित्व को, अहंकार को गिराने की हिम्मत चाहिए। जो व्यक्ति अपने पुराने को गिरा देता है वह नया हो जाता है। प्रभु से मिल जाता है। और जो समाज अपने पुराने को गिरा देता है, वह भी नया हो जाता है। और प्रभु के रास्ते पर गतिमान हो जाता है।
धर्म व्यक्ति को भी नया करना चाहता है, समाज को भी। धर्म व्यक्ति को भी जोड़ना चाहता है सनातन से, सत्य से; समाज को भी, संस्कृति को भी।
हम दोनों ही अर्थों में पिछड़ गए हैं। न धर्म समाज के लिए है, न व्यक्ति के लिए रह गया है। क्योंकि धर्म पुराने को पकड़ने वाला रह गया है। धर्म चाहिए नित-नूतन, रोज नया, ताजा, जैसे सूरज सुबह उगता, सुबह नये फूल खिलते, ऐसा ही नया-नया रोज सत्य चाहिए। नया सत्य ही रूपांतरण करता है और क्रांति देता है।
इन चार दिनों में इस नये सत्य की खोज के लिए कुछ बातें मैंने कहीं, उन बातों को मान नहीं लेना है। मैं कोई गुरु नहीं, कोई उपदेशक नहीं, कोई पुरोहित नहीं, मैं कोई आप्तवचन देने वाला नहीं, मैं कोई ऑथेरिटी नहीं। अपनी बात मैंने कही, मेरी बात को जो चुपचाप मान लेगा वह मेरा दुश्मन हुआ। मेरी बात को चुपचाप मत मान लेना। सोचना, लड़ना-झगड़ना, विचार करना, तर्क करना, खंडन करना, और जब कोई रास्ता न मिले और मेरी बात में कहीं कोई सत्य दिखाई पड़े, सोच-विचार, चिंतन-मनन, ध्यान, समाधि पर कुछ भी सत्य दिखाई पड़े, तो फिर वह मेरा नहीं रह जाएगा, वह आपके विचार से आता है तो फिर आपका हो जाता है। और जो सत्य आपका है, वही सत्य है। जो सत्य आपका है, वही मुक्त करता है। जो सत्य दूसरे का है, वह बांधता है और जंजीर बन जाता है।
मेरी इन बातों को इन चार दिनों में इतनी शांति, इतने प्रेम, इतने मौन से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।