QUESTION & ANSWER

Prabhu Mandir Ke Dwar Par 07

Seventh Discourse from the series of 10 discourses - Prabhu Mandir Ke Dwar Par by Osho. These discourses were given in NARGOL during OCT 30 - NOV 03 1968.
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मेरे प्रिय आत्मन!
साक्षीभाव ध्यान है। ध्यान किसका? लोग पूछते हैं। ध्यान किसी का भी नहीं, वरन जो भी चित्त में घटित हो और चित्त के आस-पास, सबको, सब-कुछ को ध्यानपूर्वक लेना है। ध्यान का कोई संबंध किसी ऑब्जेक्ट, किसी विषय, किसी मूर्ति, किसी प्रतिमा, किसी नाम, किसी शब्द से नहीं है। लेकिन हमें ऐसा ही सिखाया गया है कि ध्यान किसी का करना पड़ेगा। जब ध्यान किसी का होगा, तो वह ध्यान नहीं रह जाएगा, एकाग्रता होगी। और कल मैंने कहा कि एकाग्रता ध्यान नहीं है।
किसी व्यक्ति को मैंने कहा, प्रेम करो, उस व्यक्ति ने पूछा, किससे प्रेम करें? मैंने उससे कहा: किससे का सवाल नहीं है, जो भी निकट हो, दूर हो; जो भी पास आए, न आए, सबके प्रति प्रेमपूर्वक होने का सवाल है। किससे प्रेम? ऐसा प्रश्न गलत है। प्रेमपूर्ण? ऐसा सवाल सही है। ऐसे ही, किसका ध्यान? यह नहीं पूछना है। जो भी मैं जीऊं, जो भी सोचूं, जो भी विचारूं, जो भी मेरे चित्त पर घटे, उस सबके प्रति मुझे ध्यानपूर्वक होना है। ध्यानपूर्वकता मेरे चित्त की दशा होनी चाहिए। जैसे प्रेमपूर्णता मेरे चित्त की दशा होनी चाहिए। ध्यानपूर्णता, ध्यानपूर्वकता उसका अर्थ है: साक्षीभाव। जो भी घटे उसे मैं जानूं, देखूं, जागरूक भाव से घटे, मूर्च्छित भाव से नहीं। मैं सोया-सोया न जीऊं , जागा-जागा जीऊं , ध्यान का यह अर्थ है।
लेकिन हम सोए-सोए ही जीते हैं। हम ऐसे जीते हैं जैसे एक गहरी निंद्रा में जी रहे हों। भीतर चित्त जागरूक नहीं है, हम जान नहीं रहे हैं जो घट रहा है उसे, भीतर भी स्वयं के भीतर ही जो हो रहा है, उसका भी हमें कोई स्मरण, कोई बोध, कोई जागरूकता नहीं है।
स्वयं के चित्त की समस्त क्रियाओं के प्रति जाग जाने का नाम ध्यान है। इसे थोड़ा समझना उपयोगी होगा।
आप रास्ते पर खड़े हो जाएं और रास्ते पर चलते हुए लोगों को देखें गौर से। तो आपको अनेक लोग ऐसे दिखाई पड़ेंगे जैसे नींद में चले जा रहे हों। कोई अपने से ही बातें करता हुआ जा रहा है, किसी के ओंठ कंप रहे हैं, कुछ सोचता चला जा रहा है। उन चलते हुए राह पर लोगों को गौर से देखेंगे, तो पाएंगे कि रास्ते का उन्हें कोई पता ही नहीं है कि चारों तरफ क्या हो रहा है? वे अपने में डूबे और सोए हुए जा रहे हैं। अगर स्वयं के बाबत भी कभी रास्ते पर चलते हुए चौंक कर खड़े हो जाएं और खयाल करें, मैं जागा हुआ चल रहा हूं या सोया हुआ? तो शायद पता चले कि सब सोए-सोए ही चल रहे हैं।
बुद्ध एक रास्ते से गुजरते थे। साथ में एक भिक्षु है। बुद्ध उससे बात कर रहे हैं, एक मक्खी बुद्ध के सिर पर आकर बैठ गई। बुद्ध उससे बात करते रहे मक्खी को उड़ा दिया। फिर ठहर गए, खड़े हो गए, फिर दुबारा हाथ वहां ले गए जहां मक्खी बैठी थी, और अब नहीं थी, फिर उड़ाया। उस साथ के भिक्षु ने पूछा, आप क्या कर रहे हैं? जो मक्खी उड़ चुकी उसको अब उड़ा रहे हैं। अब आप यह क्या कर रहे हैं? बुद्ध ने कहा: उस बार मैंने मक्खी को सोए-सोए मूर्च्छित अवस्था में उड़ा दिया, ध्यानपूर्वक नहीं। अब मैं इस भांति हाथ को ले गया हूं जैसे मुझे ले जाना चाहिए था। अब मैं मक्खी को ध्यानपूर्वक उड़ा रहा हूं, जैसे मुझे उड़ाना चाहिए था। फर्क समझे आप? मक्खी बैठी है, आप बात कर रहे हैं, उड़ा दिया हाथ ने यंत्र की भांति, न तो हाथ के उठने का हमें होश है, न मक्खी के उड़ाए जाने का हमें होश है। उड़ा दिया, हम कहीं और लगे हैं, मक्खी उड़ा दी। यह मूर्च्छित कृत्य हुआ। यह कृत्य अध्यानपूर्वक हुआ। नॉन-मेडिटेटिवली हुआ। फिर मक्खी को हम ध्यानपूर्वक उड़ाते हैं। हाथ ले गए हैं, तो हमें हाथ के ले जाने का पूरा बोध है। मक्खी हमने उड़ाई है, तो उसका बोध है। यह पूरी क्रिया जागरूक हुई है, सोए-सोए नहीं, तो फिर यह क्रिया ध्यानपूर्वक हो गई।
आप भोजन कर रहे हैं—हम सभी भोजन करते हैं—लेकिन कौन ध्यानपूर्वक भोजन करता है? भोजन कर रहे हैं और हजार काम और भी साथ कर रहे हैं। भोजन यहां चल रहा है, मन कहीं और चल रहा है। यहां भोजन चल रहा है मन कहीं और चल रहा है। तो क्रिया एक तरफ, मन दूसरी तरफ, तो क्रिया सोई हुई होगी और मन अनुपस्थित होगा।
हमारी सारी क्रियाएं सोई हुई हैं। इसका अर्थ, जहां हम कर रहे हैं क्रियाएं वहां हमारा चित्त उपस्थित नहीं है। क्रिया सोए-सोए होगी। चित्त अनुपस्थित है तो क्रिया जागरूक नहीं हो सकती। जो हम करें चित्त वहां मौजूद हो। पूरी प्रजेंस हो। जो भी हम करें, वहां हम पूरी तरह मौजूद हों। स्नान करें तो, राह पर चलें तो, भोजन करें तो, प्रेम करें तो, क्रोध करें तो, जो हम करें; सोचें तो, न सोचें तो, जो हो वह हमारा जागरूक हो, बोधपूर्वक हो, तो जीवन में ध्यान प्रविष्ट होगा, तो हम ध्यान की क्रिया को उपलब्ध होंगे। अदभुत परिणाम हैं ध्यान के। ध्यान की स्थिति के बनते ही जो व्यर्थ है वह होना बंद हो जाएगा। जैसे क्रोध समाप्त हो जाएगा। कोई व्यक्ति ध्यानपूर्वक क्रोध न कभी कर सका है और न कभी कर सकता है। यह असंभावना है, यह असंभव है।
नेपोलियन कहता है, कुछ भी असंभव नहीं। गलत कहता है, बहुत कुछ असंभव है। जैसे ध्यानपूर्वक क्रोध करना असंभव है। कोई व्यक्ति जागरूक, जानते हुए गलत नहीं कर सकता। गलत के करने के लिए सोया हुआ होना, मूर्च्छित होना, बेहोश होना अत्यंत जरूरी है।
एक भिक्षु एक गांव से गुजरता था, नाम था नागार्जुन। नग्न है, हाथ में लकड़ी का भिक्षापात्र है। गांव की साम्राज्ञी, गांव की महारानी से उसने भिक्षा लेने...महारानी ने निमंत्रण दिया है। महारानी ने पैर छूकर कहा कि यह जो भिक्षापात्र है मुझे दे दें, आपकी स्मृति मैं अपने पास रखूंगी। और मैंने आपके लिए एक स्वर्णपात्र बनवाया, वह मैं आपको देती हूं। नागार्जुन ने कहा: जैसी मर्जी। कोई और भिक्षु होता तो कहता, स्वर्ण! स्वर्ण मैं छूता नहीं, मैं स्वर्ण को मिट्टी मानता हूं! लेकिन अगर स्वर्ण को मिट्टी मानते हो, तो स्वर्ण छूने से डरते क्यों हो? रानी भी थोड़ी चिंतित हुई कि स्वर्णपात्र लेने में नागार्जुन कुछ भी नहीं कह रहा है। वह स्वर्णपात्र लाई। स्वर्णपात्र में उसने बहुमूल्य हीरे लगाए हैं, लाखों की कीमत है उस स्वर्णपात्र की। नागार्जुन ने उसे ले लिया।
उस रानी ने मन में सोचा था कि नागार्जुन कहेगा, नहीं, स्वर्णपात्र मैं क्या करूंगा, मैं स्वर्ण छूता नहीं, मैं भिक्षु हूं, मैं संन्यासी हूं। लेकिन नागार्जुन ने कुछ भी न कहा। वह सच्चा ही भिक्षु रहा होगा, इसलिए मिट्टी का पात्र हो कि लकड़ी का कि स्वर्ण का, उसने कुछ अंतर न माना होगा। रानी जरूर चौंकी होगी। रानी भी तभी खुश होती जब वह कहता, नहीं-नहीं, सोना मैं न लूंगा। पैसे वाले उन्हीं को पैसा देते फिरते हैं जो कहते हैं, पैसा, नहीं-नहीं पैसा हम न लेंगे। पैसा लेने की यह तरकीब रही। पैसा लेना हो तो कहो कि पैसा हम न लेंगे। धन इकट्ठा करना हो तो कहो कि धन मिट्टी है।
रानी बड़ी चिंतित हुई। नागार्जुन ने भिक्षापात्र लिया और रास्ते पर वापस लौट गया। नंगा आदमी, सोने का भिक्षापात्र, चमकती हुई मणियां, सारा गांव देखने लगा होगा। गांव में एक बड़ा चोर है, वह नागार्जुन के पीछे हो लिया। उस चोर ने सोचा, यह नंगा आदमी कितनी देर तक इस भिक्षापात्र को बचा सकता है। कोई न कोई ले ही जाएगा। तो अकारण दूसरे को मौका देना गलत है, मैं ही क्यों न चला चलूं? वह चोर पीछे हो लिया। नागार्जुन ने पीछे कदमों की चाप सुनी, समझ गया मेरे पीछे तो कोई कभी आता नहीं है, भिक्षापात्र के पीछे ही कोई आता होगा।
गांव के बाहर एक मरघट में वह ठहरा है, एक खंडहर में। भीतर गया, न द्वार है, न दरवाजा है। चोर बाहर एक खिड़की के पास छिप कर बैठ गया है। नागार्जुन ने सोचा, अब तो मेरी दोपहर हुई, सोने का समय हुआ, मैं तो सो जाऊंगा, भिक्षापात्र तो वह बाहर बैठा हुआ व्यक्ति ले ही जाएगा। अकारण उसे चोर बनने का मौका क्यों दूं? उसे चोर बनाने का जिम्मा मैं क्यों लूं? इस भिक्षापात्र को फेंक ही दूं। एक तो बहुत देर बेचारे को बैठना पड़े, फिर चोर बनना पड़े। उसने खिड़की से वह भिक्षापात्र बाहर फेंक दिया। चोर के पास पात्र गिरा, तो चोर हैरान हो गया! इतना बहुमूल्य पात्र फेंक दिया गया? उसे उठ कर धन्यवाद देने का मन हुआ। उसने उठ कर उस नग्न भिक्षु को कहा कि मैं धन्यवाद करता हूं। आश्चर्य, मैं जिसे चुराने आया था उसे आपने फेंक दिया?
उस भिक्षु ने कहा कि तुम्हें चोर बनाने का जिम्मा लेने की मेरी तैयारी नहीं। फिर अकारण तुम बहुत देर इस धूप में बैठे हुए प्रतीक्षा करते, ले तो तुम जाते ही, क्योंकि मेरे सोने का समय हुआ। मैं तो अब सो जाऊंगा। जाओ तुम ले जाओ। उस चोर ने कहा: बड़ी कृपा होगी अगर दो क्षण मुझे भीतर आने की आज्ञा दें। ऐसे अदभुत आदमी के पास थोड़ी देर मैं बैठना चाहता हूं।
नागार्जुन ने कहा: मैंने इसीलिए पात्र बाहर फेंका ताकि तुम भीतर आ सको। आओ। वह चोर आकर बैठ गया और नागार्जुन से कहने लगा, मन में ईर्ष्या होती है, कब ऐसा दिन मेरे जीवन में भी आएगा कि स्वर्णपात्र को ऐसे मिट्टी की तरह फेंक दूं? नागार्जुन ने कहा: आज ही आ सकता है, अभी आ सकता है। वह चोर कहने लगा, मुझे बताएं, लेकिन एक शर्त, मैं साधुओं-संन्यासियों के पास जाता हूं, उनसे कहता हूं कि कब मेरे मन को शांति मिलेगी, कब आनंद, कब प्रभु का द्वार खुलेगा? तो मैं जाहिर चोर हूं। वे मुझे कहते हैं, पहले चोरी छोड़ो। वहीं बात अटक जाती है। न चोरी छूटती है, न आगे बढ़ता हूं। तो यह चोरी छोड़ने की बात तो नहीं कहेंगे? नागार्जुन ने कहा कि इसका मतलब है कि तू साधुओं के पास गया ही नहीं होगा, क्योंकि साधुओं को चोरी छोड़ने, न छोड़ने से क्या प्रयोजन? तू चोरों के पास पहुंच गया होगा। मुझे क्या मतलब तेरी चोरी से? तेरी चोरी और तू जान। मैं तुझे कुछ और कहता हूं, वह तू कर। उसने कहा: तब अपना मेल बैठ सकता है। मेल तो तभी बैठ गया जब आपने भिक्षापात्र बाहर फेंक दिया। क्या रास्ता है? नागार्जुन ने कहा: एक काम कर जो तुझे करना है कर, लेकिन जागरूक होकर कर। चोरी भी कर तो होशपूर्वक कर। जागा रहना, जानते रहना चोरी कर रहा हूं। तिजोरी खोल रहा हूं, धन बाहर निकाल रहा हूं, यह नींद में न हो, मन कहीं और न हो, मन यहीं हो, चोरी में ही हो। बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कहता। चोरी करने को मना नहीं करता, चोरी ध्यानपूर्वक करने को कहता हूं।
उस चोर ने कहा: तब अपनी बात बन सकती है। ध्यानपूर्वक करूंगा। पंद्रह दिन बाद वह चोर वापस आया, नागार्जुन के पैर पकड़ कर पड़ गया और कहने लगा, बड़ी मुश्किल में डाल दिया, चोरी करने गया, होशपूर्वक करता हूं तो हाथ आगे नहीं बढ़ते, चोरी रुक जाती है। चोरी होती है तो होश नहीं सम्हलता, बेहोशी आ जाती है। कल रात राजमहल में घुस गया था। वर्षों के बाद यह मौका मिला था, तिजोरी खोल ली है, आंखों के सामने बहुमूल्य हीरे-जवाहरात पड़े हैं, स्वर्णमुद्राएं पड़ी हैं, हाथ आगे बढ़ाता हूं होशपूर्वक और हंसी आती है और हाथ रुक जाता है। उठाता हूं स्वर्णमुद्राओं को तो मूर्च्छा में उठाता हूं, छोड़ देता हूं, क्योंकि तय कर लिया कि होशपूर्वक ही करूंगा। लेकिन रात भर मेहनत करके वापस लौट आया हूं, होशपूर्वक चोरी नहीं हो सकती। तुम बड़े बेईमान निकले, धोखा दे दिया है मुझे!
नागार्जुन ने कहा: मुझे मतलब नहीं तेरी चोरी से। हम कोई चोर हैं? तू अपनी चोरी जान। एक ही बात ध्यान रखना, ध्यानपूर्वक करना। और जो ध्यानपूर्वक न हो सके, समझना वह करने योग्य नहीं है। जो ध्यानपूर्वक हो सके, वही करने योग्य है। पाप का अर्थ है: जो ध्यानपूर्वक न हो सके। पुण्य का अर्थ है: जो ध्यानपूर्वक ही हो सके। जो ध्यानपूर्वक हो सके वह पुण्य है और जो ध्यानपूर्वक न हो सके वह पाप है। इसलिए सवाल पाप को छोड़ने का और पुण्य को करने का नहीं है, सवाल है ध्यानपूर्वक सब-कुछ करने का। और जो व्यक्ति जितना ध्यानपूर्वक हो जाता है उतना ही उसका जीवन धर्म और पुण्य बन जाता है और पाप तिरोहित हो जाता है। ध्यान का अर्थ है: एक-एक क्रिया मेरी जागरूक हो, होश से भरी हो, सोई-सोई न हो। यह तीसरी सीढ़ी है। जिससे हम बिलकुल द्वार पर पहुंच जाते हैं, द्वार में प्रविष्ट हो जाते हैं।
लेकिन ध्यान वहां पहुंचा देता है जहां परमात्मा का निवास है, लेकिन वहां नहीं पहुंचाता जहां परमात्मा ही है, उसका हृदय है। मंदिर में पहुंच जाते हैं, परमात्मा के अभी भी बाहर रह जाते हैं। क्योंकि ध्यान में भी दो बच जाते हैं: एक मैं हूं जो ध्यान में है, जागा है, और एक वह सबकुछ है जिसके प्रति जागा है। अभी दो बाकी हैं। ध्यान में दो नहीं मिटते, द्वैत नहीं मिटता। ध्यान में द्वैत बना ही रह जाता है।
तो अंततः ध्यान को भी जाना पड़ेगा। ध्यान को भी छोड़ देना पड़ेगा। द्वैत को भी छोड़ देना पड़ेगा। अंततः मैं भी खो जाऊं, मैं भी न बचूं, यह भी न बचे कि मैं साक्षी हूं, यह भी बच जाना है। यह भी न बचे कि मैं आत्मा हूं। यह भी न बचे कि मैं जानने वाला हूं, दृष्टा हूं। यह मैं की अंतिम रेखा भी न बचे। इसलिए आज चौथी बात ध्यान से भी बाहर निकल जाना है।
ध्यान से बाहर निकल जाने का नाम समाधि है। ध्यान से बाहर निकल जाना ऐसे ही है जैसे कोई नदी सागर से मिल जाए। फिर नदी के बाहर निकल गई। फिर वहां नदी नहीं रह जाती, सागर ही हो जाती है। ध्यान भी एक पतली धारा है, व्यक्ति की, व्यक्तित्व की। फिर ध्यान सागर से मिल जाए, फिर यह भी खयाल न रह जाए कि मैं हूं, तू है, यह कोई खयाल न रह जाए।
रूमी की एक छोटी सी कहानी। एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर दरवाजा खटखटाता है। अंदर से पूछा जाता है, कौन है तू? और वह प्रेमी कहता है, पहचानी नहीं, मेरी आवाज से नहीं पहचानी, मैं हूं तेरा प्रेमी। भीतर से आवाज चुप हो जाती है। वह बहुत द्वार पीटता है, फिर भीतर से इतनी ही आवाज आती है, वापस लौट जाओ, यह प्रेम का घर बहुत छोटा है, इसमें दो न समा सकेंगे। मैं पहले से ही यहां हूं और एक मैं और तुम आ गए। दो ‘मैं’ इस छोटे से घर में न बन सकेंगे। बड़ी कलह होगी।
जहां-जहां दो ‘मैं’ हो जाते हैं, वहीं कलह होती है। सब घर छोटे हैं, और सब जगह दो ‘मैं’ समा गए हैं। सब जगह कलह है। वह प्रेमी कहता है, मैं तेरा प्रेमी हूं, द्वार खोल! वह कहती है, जब तक तू मौजूद है तब तक कैसा प्रेमी है? द्वार नहीं खुलेगा। मैं के लिए प्रेम का द्वार नहीं खुलता।
वह प्रेमी वापस लौट जाता है। वर्ष बीतते हैं। वह अपने मैं को गलाता है, मिटाता है, शून्य करता है, राख करता है, जलाता है, फेंक डालता है। वर्षों के बाद फिर उसी द्वार पर फिर एक पूर्णिमा की रात द्वार खटखटा रहा है। भीतर से फिर आवाज आती है, कौन है तू? वह प्रेमी कहता है, कौन? अब तो मैं नहीं हूं, तू ही है। रूमी कहता है, द्वार खुल जाते हैं।
मैं मानता हूं, रूमी ने जरा जल्दी द्वार खुलवा दिए। अभी द्वार नहीं खुल सकते हैं। क्योंकि वह प्रेमी कहता है, मैं नहीं हूं, तू ही है। जिसे तू दिखाई पड़ता है उसका मैं मिटा नहीं, बहुत सूक्ष्मतम रूप में जीवित है, शेष है। क्योंकि मैं के अभाव में तू भी दिखाई नहीं पड़ सकता है। जहां मैं नहीं वहां तू कहां? जहां मैं है वहीं तू का बोध हो सकता है। तू का बोध मैं का ही बोध है।
रूमी जरा जल्दी दरवाजा खोल देता है। मैं दरवाजा खोलने को राजी नहीं। रूमी कहीं मिल जाए—अब मिलना बहुत मुश्किल—तो रूमी को कहूं, कविता अधूरी है। अभी फिर प्रेमी वापस लौटना चाहिए। मैं कविता को आगे ले जाना चाहता हूं। वह प्रेमिका फिर कहती है भीतर से, तू, अभी तुझे तू का पता है? तो फिर तेरा मैं शेष है, अभी लौट जा, दो यहां न बन सकेंगे। और वह प्रेमी वापस लौट जाता है। फिर वह कभी वापस नहीं आता लौट कर, फिर प्रेमिका ही उसे खोजती-फिरती है, क्योंकि अब वह कैसे वापस आए? अब मैं बचा ही नहीं, अब तू भी नहीं बचा। अब वह किसके पास वापस आए? अब वह किसके पास जाए? वह कहीं नहीं जाता, उसे प्रेमिका ही खोजती है। प्रेमिका ही उसे ढूंढती है। अब वह नहीं है, अब उसे ढूंढना भी बहुत मुश्किल है। अब वह सब जगह है, क्योंकि जिसका मैं मिट गया अब वह कहीं छोटी जगह नहीं हो सकता। अब वह सर्वव्यापी हो जाता है।
जैसे ही ध्यान के ऊपर उठता है व्यक्ति वैसे ही परमात्मा को हमें खोजने नहीं जाना पड़ता, हम मिट जाते हैं, परमात्मा खोजता हुआ आ जाता है। आज तक कोई आदमी परमात्मा को खोजता हुआ परमात्मा के पास तो पहुंच सकता है, परमात्मा के बिलकुल भीतर नहीं पहुंच सकता है। खुद मिट जाता है, परमात्मा उतर आता है। अंततः परमात्मा ही हमें खोज लेता है। हम मिटते हैं, खाली होते हैं और वह भर जाता है। हम शून्य होते हैं और वह प्रविष्ट हो जाता है।
रवींद्रनाथ एक रात एक बजरे पर यात्रा कर रहे हैं। आधी रात है, चांद की रात है, पूरा चांद ऊपर है। बजरा है, नाव है, उस बजरे में बैठे हुए कोई किताब पढ़ते हैं। छोटा सा दीया जला रखा है, मोमबत्ती जला रखी है, उसी की टिमटिमाती रोशनी है, उसी में वे पढ़ते चले जाते हैं। उस मोमबत्ती की टिमटिमाती धीमी सी पीली रोशनी से बजरा भरा है। बीमार सी, रुग्ण सी रोशनी। आधी रात गए वे थक गए, किताब बंद करते हैं, फूंक कर बुझा देते हैं मोमबत्ती को, और अचानक जैसे कोई बंद द्वार खुल जाए, अचानक जैसे किसी अंधे को आंख मिल जाए, अचानक जैसे किसी बहरे के कानों पर वीणा का संगीत गूंजने लगे, अचानक जैसे कोई कांटे फूल बन जाएं, ऐसे रवींद्रनाथ चौंक कर खड़े हो जाते हैं। मोमबत्ती बुझी कि द्वार से, खिड़कियों से, रंध्र-रंध्र से बजरे की, चांद की किरणें भीतर भर आती हैं। सारा कक्ष चांद की रोशनी से भर जाता है। रवींद्रनाथ नाचने लगते हैं। और उस रात वे अपनी डायरी में लिखते हैं कि अदभुत अनुभव हुआ, छोटी सी मोमबत्ती की रोशनी जलती थी तो चांद भीतर न आ सका, बाहर खड़ा रहा। इतना बड़ा चांद, इतनी छोटी सी मोमबत्ती, लेकिन इतनी छोटी सी मोमबत्ती जलती थी भीतर तो चांद बाहर रहा, नहीं आया, भीतर द्वार पर ठहरा रहा। बुझी मोमबत्ती और चारों तरफ चांद की लहरें भीतर प्रविष्ट हो गईं। उसकी किरणें भीतर नाचने लगीं। उन्होंने जाल बुन दिया। कैसा पागल था मैं जो धीमी सी, पीली सी, गंदी सी, पुरानी, बासी सी रोशनी में बैठा रहा। और चांद झरता रहा बाहर और मैं अपनी रोशनी जलाए रहा।
उस दिन रवींद्रनाथ ने लिखा: कहीं ऐसा तो नहीं है कि जब तक ‘मैं’ की मोमबत्ती जलती है, तब तक परमात्मा बाहर खड़ा रहता हो? और जब मैं की धीमी सी रोशनी बुझ जाती है, तो वह भीतर आ जाता है।
ऐसा ही है। ऐसा ही है। बिलकुल ऐसा ही है। जब तक मैं की आखिरी, आखिरी सीमा तक मैं की बत्ती जलती रहती है, तब तक हम कितने ही निकट पहुंच जाएं, लेकिन वही नहीं हो पाते। वह उसमें और हमारे बीच मैं का फासला बना रहता है। ध्यान से भी ऊपर उठ जाना है। क्योंकि ध्यानी को भी मैं का पता है। ध्यान से भी ऊ पर उठ जाना है, क्योंकि ध्यानी को भी मैं साक्षी हूं, जानने वाला हूं, मैं हूं। जो लोग ध्यान से ऊपर नहीं उठ पाते वे आत्मा से ऊपर नहीं उठ पाते। इसलिए बहुत से ध्यानी आत्मा के ऊपर परमात्मा नहीं है, ऐसा कहते हुए मिलेंगे। वह मैं पर ही रुक गए हैं, आखिरी मैं पर रुक गए हैं। आखिरी सीमा पर रुक गए हैं।
मैं भी जाने दो, ध्यान भी जाने दो, साक्षी भी जाने दो, सब मिट जाने दो, कुछ मत बचाओ, टूट जाओ, बिखर जाओ। तब जहां शून्य हो जाता है वह पूर्ण उतर आता है। यहां बत्ती बुझी वहां उसकी रोशनी भीतर चली आती है। अंततः मैं से...अंततः मैं को भी तोड़ डालना है। विश्वास को उखाड़ा कि विचार आ सके, विचार आया कि उसे भी फेंक दिया कि ध्यान आ सके, ध्यान आया कि उसे भी उठा देना है, ताकि सब मिट सके, फिर मिटाने को भी कुछ न बचे। जब तक मिटाने को कुछ बचता है तब तक प्रभु के मंदिर में पूरा प्रवेश नहीं है। जब मिटाने को कुछ भी नहीं बचता, जब यह कहने को भी नहीं बचता कि मैं हूं, जब यह भी नहीं रहता कि मैं साधना कर रहा हूं, साधक हूं, ध्यान कर रहा हूं।
एक युवक ध्यान की तलाश में, प्रभु की तलाश में, सत्य की तलाश में एक आश्रम में गया है। वह सुबह से सांझ तक बैठ कर ध्यान करता है। उसका गुरु उसे बार-बार पूछता है आकर, क्या हुआ? वह कहता है, ध्यान हो रहा है, मैं साक्षी हो रहा हूं। गुरु हंसता है और वापस लौट जाता है। वर्षों बीत गए हैं, बार-बार गुरु आकर पूछता है, कुछ हुआ? वह कहता है, बहुत कुछ हुआ, मैं बड़ा शांत हो गया हूं, मैं बड़ा आनंदित हो गया हूं। गुरु हंसता है और वापस लौट जाता है। वह शिष्य बहुत हैरान है, यह गुरु कभी स्वीकृति नहीं देता कि हो गया। हस्ताक्षर नहीं कर देता कि हो गया। गुरुफिर हंसता है और वापस लौट जाता है। फिर वह आता है, पूछता है, वह कहता है, मैं मुक्त हो गया हूं। लेकिन वह मैं नहीं छूटता। वह मैं कभी शांत है, कभी मुक्त है, कभी आनंदित है, लेकिन है। मैं तब भी था, जब दुख था मैं तब भी था, जब अशांति थी, अशांति बदल गई, दुख बदल गया, लेकिन मैं मौजूद है। मैं नहीं जाता।
एक दिन वह बैठा है आंख बंद किए, दिन भर बीत गया, सांझ हो गई है। गुरु आया है, वह एक सामने ही पड़ी ईंट को उठा लेता है गुरु और पत्थर पर ईंट को जोर से घिसने लग गया है। पीछे, पीछे वह साधक बैठा है आंख बंद किए, सामने उसका गुरु ईंट को पत्थर पर घिसता है। ईंट की रगड़, शोरगुल, आवाज, उसका ध्यान टूट जाता है। वह जोर से कहता है, आप क्या पागलपन कर रहे हैं? वृद्ध होकर यह क्या बच्चों का खेल कर रहे हैं? यह ईंट किसलिए घिस रहे हैं? मेरे ध्यान को क्यों खराब करते हैं? मेरे ध्यान में क्यों बाधा बनते हैं? वह गुरु कहता है, मैं किसी को बाधा नहीं बन रहा, मैं इस ईंट को दर्पण बनाना चाहता हूं। घिस-घिस कर इसको दर्पण बना लूंगा। वह युवक कहता है, आप वृद्धावस्था में पागल तो नहीं हो गए? कभी सुना है कि ईंट घिस-घिस कर दर्पण हो जाए? तो वह बूढ़ा कहता है, कभी सुना है कि मैं घिस-घिस कर ध्यान हो जाए? कभी सुना है कि ‘मैं’ बना रहे और उसका दर्शन हो जाए? कभी सुना है कि मैं दर्पण बन जाए? ईंट दर्पण बन भी सकती है, लेकिन मैं कभी दर्पण नहीं बन सकता। वह ईंट फेंक कर चला जाता है। वह साधक पहली दफा खयाल में आता है, सब बदल गया, लेकिन मैं मौजूद है भीतर, उतनी दीवाल मौजूद है।
मैं को कभी भी दर्पण नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए अंततः योग के ऊपर भी उठ जाना है। ध्यान के ऊपर भी। बियांड मेडिटेशन। बियांड योग। योग पर जो रुक जाता है वह भी अहंकार पर रुक जाता है। ध्यान पर जो रुक जाता है वह भी अहंकार की सूक्ष्मतम वृत्ति पर रुक जाता है। इसके पार जाना है। इससे पार जाना है। हर चीज के। बियांड एण्ड बियांड। और वहां चले जाना है जिसके आगे फिर बियांड नहीं होता। जिसके पार नहीं होता है। वहीं प्रभु है जिसके पार फिर आगे कुछ भी नहीं है।
यह मैं कैसे जाएगा? साक्षी हम हो गए हैं, शांत हम हो गए हैं, आनंदित हम हो गए हैं, लगता है कि मैं सिर्फ दृष्टा हूं, बाकी सब हो रहा है। अब इस दृष्टा को भी विदा कर दें और कहें कि अब बस मैं दृष्टा हूं यह भाव भी छोड़ता हूं। अब मैं हूं, यह भाव भी छोड़ता हूं। अब सिर्फ होना रह जाएगा, एक्झिस्टेंस रह जाएगा, मैं को भी छोड़ता हूं, अ
ब सिर्फ होना है। और भीतर थोड़ा झांक कर देखें, वहां मैं हूं ऐसी कोई बात ही नहीं है, वहां हूं बस ऐसी ही बात है। वहां इ़जनेस है, वहां होना है। वहां मैं हूं ऐसा कुछ है ही नहीं। कभी भीतर झांकें, श्वासों के पार, वहां कोई कहता है कि मैं हूं। वहां होना भर है। जस्ट बीइंग, वहां सिर्फ अस्तित्व है। जैसे पत्ते हिल रहे, नदी बह रही, चांद निकला, फूल खिल रहे, श्वास चल रही, मैं कहां है? मैं बिलकुल ही भ्रम है। मैं बुनियादी इलुजन है। मैं बुनियादी माया है। मैं सबसे बड़ा झूठ, सबसे बड़ा जादू है, मैं सबसे बड़ा सम्मोहन है। मैं कहां है?
सुना है मैंने, एक राजमहल के पास पत्थरों का ढेर लगा है। एक बच्चा खेलता निकला है, एक पत्थर उठा कर फेंका है महल की तरफ। पत्थर जब ऊपर उठने लगा, नीचे पड़े पत्थरों से उसने कहा: मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। फेंका गया था। लेकिन उस पत्थर ने कहा, मैं आकाश की यात्रा को जा रहा हूं। नीचे पड़े पत्थर क्या कह सकते हैं? जानते हैं पत्थर फेंका गया है। लेकिन वह पत्थर कहीं मानेगा, उस पत्थर को लग रहा है मैं जा रहा हूं। फेंका गया पत्थर, थ्रोन, वह समझ रहा है कि मैं जा रहा हूं। छोटी सी भूल, लेकिन कितनी बड़ी भूल, पत्थर कहता है, मैं जा रहा हूं। वह गया। वह जाकर टकरा गया महल की कांच की खिड़की से। कांच चकनाचूर हो गया। अब जब पत्थर कांच से टकराता है, तो कांच चकनाचूर हो जाता है। पत्थर करता नहीं है। पत्थर को कांच को चकनाचूर करना नहीं पड़ता, वह पत्थर का कोई कर्म नहीं है। कर्तव्य नहीं है, बस पत्थर और कांच के टकराने से। स्वभाव पत्थर और कांच का ऐसा है कि पत्थर बच जाता है, कांच चकनाचूर हो जाता है। पत्थर चकनाचूर करता नहीं है। लेकिन जब कांच चकनाचूर हो गया, तो उस पत्थर ने कहा: नासमझ कांच, कितनी बार मैंने नहीं कहा कि मेरे रास्ते में कोई न आए, नहीं तो मैं चकनाचूर कर दूंगा। अब कांच के टुकड़े कुछ कह भी नहीं सकते, चकनाचूर हो गए हैं। हारा हुआ क्या कहे?
पत्थर अंदर गिरा है जाकर। ईरानी कालीन बिछे हैं महल में, बहुमूल्य, उस पत्थर ने श्वास ली, विश्राम किया, और कहा, इस घर के लोग अतिथि प्रेमी मालूम पड़ते हैं, लगता है मेरे आने की खबर हो गई, कालीन बिछा रखे हैं। अच्छे लोग हैं, सुसंस्कृत मालूम होते हैं। आखिर मैं कोई साधारण पत्थर भी तो नहीं हूं, आकाश में उड़ने वाला पत्थर हूं। और तभी कांच के टूटने, पत्थर के गिरने से महल का दरबान भागा हुआ भीतर आया है आवाज सुन कर। उसने पत्थर को हाथ में उठाया फेंकने के लिए वापस। पत्थर ने अपनी भाषा में जोर से कहा, धन्यवाद, धन्यवाद, बहुत-बहुत धन्यवाद। मालूम होता है, भवनपति अपने हाथ में लेकर स्वागत, अभिनंदन कर रहा है। पत्थर वापस फेंक दिया गया। लौटते हुए पत्थर ने यह नहीं कहा कि मुझे वापस फेंका जा रहा है, लौटता हुआ पत्थर बोला, सम्हालो अपना महल, रखो अपना महल, होगा बहुत बड़ा, लेकिन कहां वह मजा आकाश के नीचे अपने मित्रों संगी-साथियों, प्रियजनों, परिवार के साथ होने का। होम सिकनेस मालूम होती है, मैं घर वापस जा रहा हूं।
दिल्ली से फेंके गए कोई आदमी इसी तरह तो लौटते हैं। होम सिकनेस। होम सिकनेस मालूम होती है। घर जा रहे हैं। कहीं से भी कोई फेंका जाता है, वह कहता है, हम जा रहे हैं। वह पत्थर नीचे गिर रहा है, तब वह अपने आस-पास पड़े पत्थरों से कहता है, मैं वापस लौट आया, न मालूम कितने दुश्मनों को नष्ट किया, न मालूम कितने राजमहलों में स्वागत, समारंभ पाया। लेकिन नहीं, तुम्हारी बहुत याद आती थी। मैं वापस लौट आया हूं।
उस पत्थर को ‘मैं’ का भ्रम पैदा हो गया। फेंका गया था, कहा कि जा रहा हूं। कांच टूट गया था, कहा कि तोड़ा है। कालीन बिछे थे, उस पत्थर से कोई प्रयोजन न था, उन कालीनों का कोई संबंध न था, बिछाने वालों को पत्थर का कोई पता भी न था, लेकिन उसने कहा, मेरे लिए बिछे हैं। फेंका गया, लेकिन उसने कहा, मैं लौट रहा हूं। उस पत्थर को मैं पैदा हो गया।
हम भी इसी तरह के मैं से घिरे हैं। जन्म मिलता है, हम कहते हैं, मेरा जन्म! जवानी आती है, हम कहते हैं, मेरी जवानी! श्वास चलती है और हम कहते हैं, मैं श्वास ले रहा हूं! आज तक किसी आदमी ने श्वास नहीं ली है। श्वास चलती है। लेता कोई भी नहीं। अगर हम श्वास लेते हों तब तो मृत्यु दरवाजे पर आ जाए और वह बाहर बैठी हुई कॉलबैल बजा रही है, घंटी बजा रही है और हम श्वास लिए जाते हैं, चले जा रहे हैं, हम श्वास रोकते ही नहीं, तो मृत्यु थक जाए और वापस लौट जाए। लेकिन हम जानते हैं, मृत्यु आती है। और एक श्वास बाहर गई, भीतर न लौटी, तो हम उसे भीतर न ला सकेंगे। गई तो गई। सच तो यह है कि बाहर गई श्वास कि हम भी भीतर नहीं हैं, हम भी गए। भीतर कोई बचा ही नहीं जो श्वास को फिर भीतर ले जाए। हम भी विदा हो गए, हम भी खो गए। हम भी कहीं गए। श्वास हम लेते नहीं, श्वास चलती है, लेकिन कहते हम यही हैं कि श्वास चल रही है। विचार हम करते नहीं, विचार चलते हैं, लेकिन हम कहते हैं, हम विचार करते हैं। जीवन चलता है, लेकिन हम कहते हैं, हम जीते हैं। जीवन घटता है, लेकिन हम कहते हैं, हम जीते हैं। हम मैं को मजबूत किए चले जाते हैं। व्यर्थ ही खाली शून्य पर चारों तरफ से एक पर्त लगाए चले जाते हैं। फिर इतनी पर्तें हो जाती हैं कि ऐसा लगता है भीतर कुछ होगा। जैसे प्याज को कोई छीले, तो ऐसा लगता है भीतर कुछ होगा। छीलते चले जाओ, छीलते चले जाओ और भीतर कुछ भी नहीं है। छिलके ही छिलके, छिलके ही छिलके, आखिर में भीतर शून्य है। ऐसा ही मैं है। पर्त पर पर्त बांधते चले जाते हैं, यह मैं कर रहा हूं, यह मैं कर रहा हूं, यह मैं कर रहा हूं, फिर सब पर्तें इकट्ठी हो जाती हैं, और इस गांठ के भीतर लगता है, कुछ होगा। आखिरी जो गांठ की पर्त है वह साक्षी की है। आखिरी जो पर्त है वह ध्यान की है। उसको भी उखाड़ दो, यह मत कहो कि मैं ध्यान कर रहा हूं। यह मत कहो कि मैं साक्षी हूं, देखो झांक कर भीतर, वहां कोई मैं नहीं है। खाली शून्य है। विराट शून्य है। और जैसे ही मैं छूटा, जैसे ही मैं गया, और वह छलांग, दि जम्प, वह छलांग लग जाती है। आ जाता है वह मोड़, दि टर्निंग, जहां से सब बदल जाता है, दूसरी दुनिया शुरू हो जाती है।
वहां प्रभु का आवास है जहां मैं नहीं हूं। वहां हम मंदिर में ही नहीं, मंदिर के प्राणों के प्राण में, मंदिर की प्रतिमा में, उसमें वह जो प्रभु है, उसमें ही प्रविष्ट हो गए। वहां फिर कोई दो न रहे, वहां फिर मैं और वह नहीं है। वहां फिर अस्तित्व और मैं नहीं हूं, सिर्फ अस्तित्व है। वह जो एक्झिस्टेंस है, वह जो सिर्फ अस्तित्व है, उसे जान कर पता चलता है कि मैं किसी सपने में खो गया था। उसे जान कर पता चलता है कि किसी सपने में खो गया था।
एक आदमी रात सोया है और पाता है नींद में कि टोकियो पहुंच गया, कि टिम्बकटू पहुंच गया, रात परेशान होता है कि टिम्बकटू कितनी दूर है अहमदाबाद से, बड़ी मुश्किल हो गई, अब कैसे लौटूं? कैसे जाऊं वापस? कहां है एअरपोर्ट? कहां हैं पैसे पास में? टिकट मिल सकेगी कि नहीं? कैसे जाऊं घर वापस, अहमदाबाद बहुत दूर? लड़का बीमार था, दवा लानी थी, मैं टिम्बकटू आ गया हूं, अब बड़ी मुश्किल हो गई। कैसे जाऊं? क्या करूं? बेचैन है सपने में, भागा-भागा खोज रहा है, कहां है एअरपोर्ट, कहां है टिकट, कहां से जाऊं, और सुबह नींद खुल जाती है और वह पाता है कि टिम्बकटू तो कभी गया ही नहीं, वहीं के वहीं पड़ा हूं, वहीं अहमदाबाद में, अपने ही घर में। रात सपने में लेकिन चला गया था। और सपने में लगता था चला ही गया हूं, पहुंच ही गया हूं।
कहीं कोई गया नहीं है। जिस दिन अस्तित्व के साथ मिलन हो जाता है उस दिन पता चलता है, कैसा आश्चर्य, जिससे हम कभी न छूटे थे उससे ही छूट गए मालूम पड़ते थे। कैसा आश्चर्य, जिसे हमने कभी न खोया था वही खो गया मालूम पड़ता था। कैसा आश्चर्य, जो हम स्वयं थे उसी को हम खोजते थे। कैसा आश्चर्य, परमात्मा तो निरंतर साथ था, हम वही थे, वही दूर था, वही मिलता नहीं था, वही खोजे से खोज में नहीं आता था। उसको ही क्रोध में इनकार कर देते थे कि नहीं है, प्रेम में मूर्ति गढ़ लेते थे कि है। मूर्ति भी झूठी थी, क्रोध भी झूठा था, हम तो स्वयं वही थे। लेकिन सपने में खो गए थे।
बुद्ध को जिस दिन ज्ञान हुआ, लोग इकट्ठे हो गए, और उनसे पूछने लगे कि क्या मिला है ज्ञान में? बुद्ध ने कहा: मिला कुछ भी नहीं, जो मिला ही हुआ था, उसका पता चल गया है। मिला कुछ भी नहीं, जो मिला ही हुआ था, उसका पता चल गया है। पूछा किसी ने, छुटकारा हो गया? मुक्ति हो गई? बुद्ध ने कहा: मुक्ति? मुक्ति किसकी? जो मुक्त था, सपने में समझा था कि बंध गया है। सपना टूट गया, मुक्त सदा मुक्त था, पता चल गया।
एक कहानी मुझे याद आती है। एक फकीर, रमजान के दिन हैं, और एक रास्ते के पास से गुजरता है। प्यास लगी है, कुएं के पास गया है, अंदर झांक कर देखा, शांत कुआं है, गहरा जल है, और आकाश का चांद कुएं में झलक रहा है। फकीर ने सोचा, अरे, बड़ी मुश्किल हो गई, यह चांद कुएं में कैसे गिर गया? चांद कुएं में फंसा है, आस-पास कोई बचाने वाला भी नहीं दिखता, चांद को निकालने वाला भी नहीं दिखता। रमजान का महीना है, अगर चांद कुएं में फंसा रहा तो लोग मुश्किल में पड़ जाएंगे, उपवास कब तोड़ेंगे। और चांद यहां फंसा है, किसी को पता भी नहीं कि इस जंगल के कुएं में चांद गिर गया है। उस फकीर ने कहा: कुछ न कुछ मुझे करना पड़ेगा। कहीं से ढूंढ-ढांढ कर रस्सी लाया, रस्सी अंदर डाली, फंदा बनाया चांद को निकालने के लिए। रस्सी भीतर गई, किसी चट्टान से फंस गई। फकीर ने कहा: बड़ी मुश्किल है, चांद बड़ा वजनी है, अकेले से शायद खिंचेगा भी नहीं। लेकिन कोशिश करनी चाहिए। दूसरा कोई दिखाई भी नहीं पड़ता। फकीर ने बड़ी ताकत लगाई। सस्ती रस्सी थी, कच्ची रस्सी थी, सड़ी रस्सी थी, चट्टान मजबूत थी, फंदा टूट गया, फकीर जोर से गिरा। झटकेमें आंख बंद हो गई, सिर पर चोट लगी, पानी छलका, ऊपर रस्सी फिंकी, फिर आंख खोली, देखा, ऊपर चांद आ गया। उसने कहा: चलो निकल आया। बेचारा बच गया। बुरा फंसा था आज, निकलना भी मुश्किल था। थोड़ी चोट अपने को लगी, कोई हर्ज भी नहीं। चांद बाहर है, अब रमजान वाले परेशान न होंगे। अब उपवास तोड़ने में सुविधा रहेगी।
उपवास करने वाला तोड़ने की फिकर में बहुत ज्यादा रहता है। उपवास कम चलता है, तोड़ने का विचार ज्यादा चलता है। अब बेचारे मुक्त हो गए, अब वह उपवास की झंझट से बचे। अच्छा हुआ, कोई फिकर नहीं, थोड़ी चोट आ गई, लेकिन चांद बच गया। फकीर अकड़ से अपने रास्ते पर चल पड़ा है। अब वह अकड़ कर जा रहा है कि उसने चांद को छुटकारा दिला दिया है।
जैसे चांद कुएं में फंस जाता है ऐसे हम फंस गए हैं। चांद तो सदा बाहर है, हम भी सदा बाहर हैं, जो फंस गई है वह केवल परछाया है, वह रिफ्लेक्शन है, परछाईं है। लेकिन बुरी फंस गई है। और हम भूल ही गए हैं कि हम परछाईं के अलावा कुछ हैं।
ध्यान की खोज में परछाईं से हम बाहर निकलना शुरू होते हैं। बाहर निकलना शुरू होते हैं, लेकिन आखिर में बाहर निकलने की कोशिश भी तो अज्ञान है। क्योंकि जो फंसा नहीं उसको बाहर कैसे निकालोगे? साक्षी होने की कोशिश भी अंततः अज्ञान है, चरम अर्थों में अज्ञान है। क्योंकि जब दो नहीं तो कौन होगा साक्षी? और जब चांद कुएं में फंसा नहीं तो किस रस्सी से निकालोगे? ध्यान की रस्सी से? ध्यान की रस्सी से उसको निकालने की कोशिश चल रही है जो नहीं फंसा है। अंततः जानना ही होगा कि रस्सी झूठ, कुआं झूठ, जो फंसा वह झूठ, जो है वह सदा बाहर है। वह आकाश में भागा चला जा रहा है। उसे पता ही नहीं, कहां का कुआं, कहां का बंधन।
जैसे-जैसे आदमी ध्यान में स्पष्ट और गहरा होता है अंततः पाता है कि ध्यान भी बाधा है। अब इसे भी छोड़ दो, अब इससे भी छूट जाओ, अब इससे भी मुक्त हो जाओ, अब कूद जाओ वहां जहां कुछ भी नहीं है।
एक छोटी सी कहानी, अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
एक आदमी दुनिया के अंत की खोज में निकला है। जानना चाहता है दुनिया कहां खत्म होती है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें अपनी फिकर कम होती है दुनिया की फिकर ज्यादा होती है। अब उसे यह भी पता नहीं कि मैं कहां शुरू होता हूं, कहां खत्म होता हूं। इसकी फिकर नहीं है। वह इस फिकर में है कि दुनिया कहां शुरू होती है, कहां खत्म होती है। मैं दुनिया का अंत जानना चाहता हूं। खोजने निकला है। बहुत लोगों ने रोका कि यह खोज कभी पूरी नहीं हुई। दुनिया कहीं खत्म ही नहीं होती। उसने कहा: लेकिन जो भी चीज है वह जरूर कहीं न कहीं खत्म होती होगी। मैं तो खोज कर रहूंगा। जितना लोगों ने रोका उतनी उसकी जिद बढ़ती गई। रोकने से जिद बढ़ती है। अगर घर में कोई संन्यासी होना चाहता हो और आपको उसको संन्यासी बनाना ही हो, तो सब मिल कर रोकने लगना, वह संन्यासी हो जाएगा। अगर कोई शादी न करना चाहता हो और आप चाहते हों कि शादी न करे, तो आप सब समझाना कि शादी कर लो, फिर वह कभी शादी नहीं कर सकेगा।
जिद बढ़ती गई। दुनिया भर के लोगों ने कहा, पागल हो गए हो, दुनिया का अंत कोई खोज पाया कभी? जितना लोगों ने कहा उतनी उसको यह लगी कि कोई नहीं खोज पाया, उसे तो मैं खोज कर ही रहूंगा। अहंकार को बड़ा रस आने लगा। एवरेस्ट पर कोई नहीं चढ़ा, मैं चढ़ कर रहूंगा। प्रशांत महासागर में कोई नीचे तक नहीं उतरा, मैं उतरूंगा। चांद पर कोई नहीं पहुंचा, मैं पहुंचूंगा। दुनिया का अंत किसी ने नहीं पाया, मैं पाऊंगा। अहंकार और पागल होकर दौड़ने लगा, और बड़े आश्चर्य की बात, एक दिन वह ऐसी जगह पर पहुंच गया, जीवन के अंतिम क्षणों में, बुढ़ापे में, जहां एक तख्ती लगी थी, जहां लिखा था: हियर एण्ड्‌स दि वर्ल्ड, यहां दुनिया खत्म होती है। थोड़ी ही दूर जाकर दुनिया खत्म हो जाती थी। वह आखिरी पड़ाव था। वह आखिरी सूचना थी कि आगे मत बढ़ो, सावधान! आगे दुनिया खत्म हो जाती है।
लेकिन उस आदमी ने कहा: मैं तो बढूंगा, मैं तो इसी की खोज में आया। वह आदमी और थोड़े कदम आगे गया, और दस-बीस कदम के बाद दुनिया खत्म हो जाती थी। हर चीज खत्म हो जाती है। जो चीज शुरू होती है वह खत्म हो जाती है। जो चीज जन्मती है वह मर जाती है। जिसका प्रारंभ है उसका अंत है। जिसका होना है उसका न होना है। जो है वह नहीं हो जाएगी। दुनिया खत्म हो गई है। अनंत खड्ढ आ गया। इटरनल एबिस है। नीचे कोई पार नहीं, ऊपर कोई पार नहीं, आगे शून्य का कोई हिसाब नहीं। घबड़ा गया, सिर घूम गया, झांक कर देखा, कभी बड़े पहाड़ से झांक कर नीचे देखा है? पर वह तो बड़े पहाड़ का कोई हिसाब ही लगाना मुश्किल है, वहां तो नीचे कोई फिर बॉटम ही न थी, कोई नीचे तलहटी न थी, नीचे शून्य था, शून्य था, शून्य था, शून्य के नीचे महाशून्य था, ऊपर भी वही, चारों तरफ वही, उस आदमी का सिर घूम गया, वह भागा लौट कर कि बचाओ मुझे, दुनिया का अंत तो मिल गया, लेकिन मैं अंत नहीं होना चाहता हूं। वह भागा लौट कर तख्ती के पास, तख्ती से भाग कर आगे आखिरी मंदिर है, वह रास्ते में पड़ा था, उसका पुजारी सामने मिला था, उस पुजारी ने कहा भी था कि मत जाओ, वहां जो भी जाता है लौट आता है, वहां बहुत घबड़ाहट है, वहां आगे जाना खतरनाक है। लेकिन नहीं रुका था, जाकर सीढ़ियों पर मंदिर की गिर पड़ा, वह पुजारी पंखा झलने लगा, पानी छिड़कने लगा, होश आया, पूछा कि लौट आए? उसने कहा: हे भगवान! क्या देखा? सब अंत हो जाता है, लौट आया। वह पुजारी कहने लगा, काश, एक कदम और आगे चले जाते। वह आदमी बोला: पागल हो गए हो, इतने में ही मुश्किल हो गई, एक कदम आगे और, फिर लौटता कैसे, फिर तो सब समाप्त हो जाता।
उस पुजारी ने कहा: तुझे पता नहीं, तूने हिम्मत खो दी, अब फिर जन्म-जन्म लग जाएंगे, तब तू उस तख्ती के पास फिर पहुंच पाएगा, बहुत मुश्किल है उस तख्ती के पास पहुंचना। तूने तख्ती के उस तरफ भी पढ़ा था? तख्ती के इस तरफ लिखा था: हियर एण्ड्‌स दि वर्ल्ड। तूने उस तरफ भी देखा था? उसने कहा: घबड़ाहट में मैंने उस तरफ तो देखा ही नहीं, एकदम भागा। उसने कहा: उस तरफ लिखा था, हियर बिगिंस दि गॉड। इधर तख्ती के एक तरफ था: गुजरात राज्य समाप्त होता है, तो उधर राजस्थान शुरू होगा न? उस तरफ भी पढ़ा था? न, उस तरफ तो घबड़ाहट में नहीं पढ़ा। उसने कहा: अब तू फिर खोज। उस तख्ती के दूसरी तरफ लिखा था: यहां परमात्मा शुरू होता है। और अगर तू छलांग लगा जाता, तो दुनिया तो खत्म हो जाती, लेकिन परमात्मा शुरू हो जाता।
शून्य में छलांग। अहंकार आखिरी सीमा है। हियर एण्ड्‌स दि वर्ल्ड। वह जो दि ईगो है, वह जो अहंकार है, वह जो मैं है, वह आखिरी तख्ती है, जिस पर लिखा है: यहां खत्म होती है दुनिया। उसके उस तरफ शुरू होता है प्रभु। उसके उस तरफ शुरू होता है परमात्मा। लेकिन हम यहीं से वापस लौट आते हैं। धनी भी लौट आता है यहीं से, यशस्वी भी लौट आता है यहीं से, लेकिन वे क्षमा किए जा सकते हैं। धनी लौट आए, धन की गति कितनी? यशस्वी लौट आए, महत्वाकंाक्षी लौट आए, उसकी गति कितनी? लेकिन ध्यानी भी अटक जाता है उसी जगह, योगी भी अटक जाता है उसी जगह। वह मैं की आखिरी सूक्ष्म रेखा, मैं साक्षी, मैं दृष्टा, मैं ब्रह्म, अहं-ब्रह्मास्मी, मैं ब्रह्म हूं, बस वह वहीं फिर अटक जाता है।
एक छलांग, एक कदम, और बच रहता है कि मैं नहीं हूं। आइ एम नॉट। वह एक छलांग और लग जाए तो प्रभु में प्रवेश हो जाता है। जो शून्य होने को तैयार है, वह पूर्ण होने का अधिकारी हो जाता है। जो मिटने को राजी है, वह होने की पात्रता पा जाता है। बीज जब टूटता है और खोता है तो वृक्ष हो जाता है। बूंद जब मिटती है और विलीन होती है तो सागर हो जाती है। और जब यह छोटे से मैं की बूंद और मैं का बीज टूटता है, मिटता है, खोता है, समाप्त हो जाता है, वाष्पीभूत हो जाता है, तो वही रह जाता है जो है, जो सदा से है, जो कभी कहीं गया नहीं, वहीं है जहां था, जो सदा वहीं होगा जहां है। जिसके ऊपर बहुत सपने आते हैं और जाते हैं, लेकिन जो सपने के बाहर है। चांद आकाश में है, कुएं में फंसा नहीं। बहुत कोशिश हम कर रहे हैं निकालने की। विश्वास से निकालना चाहते हैं, नहीं निकलता; विचार से निकालना चाहते हैं, नहीं निकलता; ध्यान से निकालना चाहते हैं...निकलता भी है तो भी नहीं निकलता। और फिर शून्य में खो जाते हैं और पाते हैं वह निकला ही हुआ है।
वह कभी फंसा ही नहीं था, वह सदा बाहर है। अस्तित्व में खो जाना है परिपूर्णता से। लेकिन वही खो सकता है जो स्वयं के मैं की शून्यता को, नथिंगनेस को न होने को अनुभव कर लेता है। बस उसके आगे फिर कुछ कहने को शेष नहीं। उसके आगे कोई शब्द काम नहीं करते। उसके आगे कोई अर्थ नहीं, कोई दर्शन नहीं, कोई फिलॉसफी नहीं। उसके आगे कोई शास्त्र नहीं। शास्त्र वहीं तक हैं जहां तक परमात्मा नहीं हैं। शब्द वहीं तक हैं जहां तक परमात्मा नहीं हैं। सिद्धांत वहीं तक हैं जहां तक परमात्मा नहीं है। सिद्धांत, शास्त्र, शब्द, सब अहंकार की सीमा के भीतर हैं। और वह बाहर है, वह सपने की सीमा के बाहर हैं।
उसकी खोज में ये चार बातें मैंने कहीं। अंततः सब छोड़ कर, सब, स्वयं को भी, जो साहस जुटाता है वह उसे पा लेता है। उसे पा लेना अमृत है। उसे पा लेने पर फिर जन्म नहीं, मरण नहीं। उसे पा लेना आनंद है। उसे पा लेने पर फिर सुख नहीं, दुख नहीं, आनंद है। उसे पा लेने पर फिर कुछ पाने को शेष नहीं। उसे पा लेने पर फिर कुछ जानने को शेष नहीं। धन्य हैं वे जो मिट जाते हैं, क्योंकि वे उसे पा लेते हैं। और अभागे हैं वे जो मजबूत सख्त गांठ बन जाते हैं और सपने में ही डूबे रह जाते हैं और सत्य से उनका कभी कोई संबंध नहीं हो पाता है। प्रभु करे आप मिट सकें, ताकि प्रभु को पा सकें।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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