QUESTION & ANSWER

Prabhu Mandir Ke Dwar Par 04

Fourth Discourse from the series of 10 discourses - Prabhu Mandir Ke Dwar Par by Osho. These discourses were given in NARGOL during OCT 30 - NOV 03 1968.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
दो दिनों की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्र्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, क्या मेरे विचार एम़ एऩ राय के विचारों से नहीं मिलते हैं? एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि क्या मैं माओ के विचारों से सहमत हूं? एक तीसरे मित्र ने पूछा है कि क्या कृष्णमूर्ति और मेरे विचारों के बीच कोई समानता है? और इसी तरह के कुछ और प्रश्र्न भी मित्रों ने पूछे हैं।
इस संबंध में कुछ बात समझ लेनी उपयोगी होगी। पहली बात तो यह कि मैं किसी से प्रभावित होने में या किसी को प्रभावित करने में विश्र्वास नहीं करता हूं। प्रभावित होने और प्रभावित करने, दोनों को आध्यात्मिक रूप से बहुत खतरनाक, विषाक्त बीमारी मानता हूं। जो व्यक्ति प्रभावित करने की कोशिश करता है वह दूसरे की आत्मा को नुकसान पहुंचाता है। और जो व्यक्ति प्रभावित होता है वह अपनी ही आत्मा का हनन करता है। लेकिन इस जगत में बहुत लोगों ने सोचा है, बहुत लोगों ने खोजा है। अगर आप भी खोज करने निकलेंगे, तो उस खोज के अंतहीन रास्ते पर, उस विराट जंगल में जहां बहुत से पथ-पगडंडियां हैं, बहुत बार बहुत से लोगों से थोड़ी देर के लिए मिलना हो जाएगा और फिर बिछुड़ना हो जाएगा। उस मिलने और बिछुड़ने का मूल्य अगर कोई है, अर्थ अगर कोई है, तो इतना ही है कि दो विचार कुछ देर के लिए समानांतर चलते हैं। मैं जैसा सोचता हूं, मैं जैसा देखता हूं, उस देखने और सोचने में बहुत बार ऐसा हुआ है कि कभी थोड़ी देर के लिए महावीर साथ मालूम पड़े हैं, कभी थोड़ी देर के लिए उनके ठीक विरोधी बुद्ध भी साथ मालूम पड़े हैं, कभी जीसस क्राइस्ट थोड़ी देर साथ मालूम पड़े हैं, कभी उनके ठीक विरोधी फ्रेड्रिक नीत्शे भी साथ मालूम पड़े हैं, कभी कनफ्यूशियस मिल गया है रास्ते पर, कभी उलटा लाओत्सु भी मिल गया है, कभी सुकरात भी, कभी जीनों भी, कभी प्लोटिनस भी, कभी रमण भी, कभी रामकृष्ण भी, कभी गांधी भी, कभी कृष्णमूर्ति भी, कभी एम़ एऩ राय भी।
मनुष्य के इस लंबे इतिहास में सारे विचार मनुष्य के आकाश में छूट गए हैं। और जब भी कोई सोचने चलेगा, बहुत बार कोई थोड़ी देर संगी-साथी होता हुआ मालूम पड़ेगा। फिर अलग होने की जगह आ जाती है। बहुतों के साथ मालूम पड़ता है साथ हैं। फिर थोड़ी देर बाद पता चलता है, साथ अलग हो गया। सच तो यह है कि अपने अतिरिक्त और किसी का साथ सदा नहीं है। तो विचार में बहुत बार किसी की निकटता मालूम पड़ेगी, लेकिन इससे न कोई किसी से प्रभावित होता है, न प्रभावित होने की जरूरत है। न कोई किसी का गुरु बनता है, न कोई किसी का शिष्य। न बनना चाहिए, न बनना आवश्यक है, न हितकर है, न कल्याणप्रद है।
मैं जब देखता हूं चारों तरफ, वहां जहां विचारों के आकाश में बहुत से विचारों के संघट हैं, बहुत से विचारों के प्रतीक हैं, बहुत से विचारों के तारे हैं, और जब कोई खुद भी खोजने जाता है, तो किसी तारे के करीब से गुजरता है, लेकिन उस तारे के करीब से गुजर जाने से वह उस तारे का नहीं हो जाता, न वह तारा उसका हो जाता है। ऐसे सब प्रश्र्न बहुत छोटी-छोटी बातों के तालमेल पर बैठ जाते हैं।
माओ का एक वाक्य कोई निकाल ले, और वाक्य निकाल ले कि वैचारिक क्रांति जरूरी है, और चूंकि मैंने भी कहा, वैचारिक क्रांति जरूरी है, फिर वह कहने लगे कि यह आदमी तो माओ से सहमत है। तो इस आदमी की बुद्धि को बहुत बचकाना कहा जाएगा। अगर मैं कहूं कि परमात्मा को खोजना जरूरी है तो वह कहे कि उपनिषद के ऋषि भी कहते हैं कि परमात्मा को खोजना जरूरी है तो यह व्यक्ति उपनिषद के ऋषियों से प्रभावित है। और अगर मैं कहूं कि मनुष्य को संदेह करना जरूरी है, तो वह कहेगा, नीत्शे भी यही कहता है। अगर मैं कहूं, मनुष्य को अपनी वासनाओं से लड़ना नहीं, दमन नहीं करना, तो वह कहेगा, फ्रायड भी यही कहता है। ऐसे एक-एक शब्द, एक-एक टुकड़े अगर उठा कर खोजे जाएं, तो स्वाभाविक है, बिलकुल ही स्वाभाविक है, बहुत तालमेल दिखाई पड़ेगा। लेकिन जब पूरे को, टोटल को, पूरे व़िजन को, मेरी पूरी दृष्टि को आप देखने की कोशिश करेंगे, तो वह सिर्फ मेरी है। वह किसी की नहीं है।
और सच तो यह है कि आपकी दृष्टि को भी अगर खोजने की आप कोशिश करेंगे तो वह सिर्फ आपकी है और किसी की भी नहीं। इस जगत में प्रत्येक व्यक्ति एकदम अनूठा है—मैं ही नहीं, आप भी। एक सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अनूठा है, बेजोड़ है, अद्वितीय है, यूनीक है। वह वही है, और किसी जैसा नहीं है। वैसा व्यक्ति न कभी हुआ और न कभी होगा। जैसा प्रेम आपने किया है वैसा न इस पृथ्वी पर कभी किसी ने किया और न कभी कोई कर सकेगा। क्योंकि आप पहली बार हैं। और इस जगत में कोई पुनरुक्ति नहीं है। प्रेम बहुत लोगों ने किया है। जैसा आप सोचते हैं वैसा बहुत लोग सोचते हुए मालूम पड़ सकते हैं। लेकिन ठीक वैसा कोई भी नहीं सोचता। नहीं तो व्यक्ति खो जाएगा, सिर्फ भीड़ रह जाएगी। एक-एक व्यक्ति व्यक्ति है। और एक-एक व्यक्ति की अपनी नियति है। इसलिए हम यह बहुत जल्दी क्यों करें।
लेकिन हमारी जल्दी की आदत है। क्योंकि हम इस भाषा में सोचने के आदी रहे हैं कि कोई हो गुरु, कोई हो शिष्य। कोई चले आगे, कोई चले पीछे। कोई हो ऊपर, कोई हो नीचे। कोई हो प्रभावित करने वाला, कोई हो तीर्थंकर, कोई हो अवतार, कोई हो अनुयायी। हम इस भाषा में सोचने के आदी रहे हैं। हम इस भाषा में सोचने के आदी नहीं रहे कि कोई भी आदमी अपनी जगह अपने ही जैसा है—इनकंपरेबल। नहीं, किसी से उसकी तुलना हो सकती? छोटे से छोटे, बड़े से बड़े, सब आदमी अपनी जगह हैं, अपने जैसे हैं। कोई किसी दूसरे से तुलनीय नहीं है। न तुलना आवश्यक है। तुलना की बात ही भ्रांत है, खतरनाक है। और मनुष्य को मनुष्य से नीचे, आगे, पीछे रखने की चेष्टा और आयोजन है। नहीं, किसी को किसी से प्रभावित होने की जरूरत नहीं। न किसी को गुरु बनाने की, न किसी का शिष्य बनने की, और न किसी को शिष्य बनाने की। अहंकार बहुत रूप लेता है।
एक ही बात ध्यान रखने की जरूरत है, कि मैं खोजूं। जो भी मेरे पास उपकरण हैं, जो भी शक्ति है उसको लगाऊं खोज में सत्य की, और जाऊं। इस यात्रा में उन रास्तों से गुजरना होगा जिनसे दूसरे लोग भी गुजरे होंगे, दूसरे समय में, दूसरे काल में, दूसरे संदर्भ में, दूसरे ढंग से। उन पद चिह्नों पर भी कभी पैर पड़ जाएंगे जिन पर किन्हीं के पद-चिह्न पड़े होंगे। लेकिन फिर भी अंततः पूरा का पूरा व्यक्तित्व आपका अपना हो। अपना होना चाहिए। जो अपने व्यक्तित्व को खोता है, दूसरों के पीछे प्रभावित होता है, वह धीरे-धीरे आत्मघात करता है। लोग कहते हैं, फलां आदमी ने सुसाइड कर लिया, फलां आदमी ने आत्मघात कर लिया, वह सिर्फ शरीरघात है, आत्मघात नहीं है। कोई आदमी छुरा मार कर मर जाता है, कोई आदमी जहर पी लेता है, कोई आदमी पहाड़ से कूद जाता है। यह सिर्फ शरीरघात है। यह आत्मघात नहीं है। आत्मघात बिलकुल दूसरा है।
जब कोई आदमी किसी की कंठी बांध लेता है, किसी से कान फुंकवा लेता है, किसी के पीछे हो लेता है, तब आत्मघात है, वह सुसाइड है। शरीर को मार लेने के खिलाफ कानून है और आत्मा को मार लेने के खिलाई कोई कानून नहीं है। जिस दिन अच्छी दुनिया बनेगी उस दिन आत्मा को मारने के खिलाफ भी साफ-साफ विचार होना चाहिए। अनुयायी आत्मघाती है, और जो प्रभावित होता है वह भी आत्मघाती है। जिस मात्रा में मैं किसी से प्रभावित होता हूं, उसी मात्रा में मैं, मैं नहीं रह जाता हूं। उसी मात्रा में कोई और की छाया मेरे ऊपर पड़ जाती है और मैं दब जाता हूं। जिस मात्रा में मैं किसी को स्वीकार कर लेता हूं , उसी मात्रा में मैं नष्ट होता हूं। कोई और मेरे ऊपर हावी हो जाता है। और हम सारे लोग इस पागल की तरह दूसरों को स्वीकार करने के पीछे दीवाने होते हैं, जैसे हमें चैन ही नहीं मिलता, जब तक कोई गांधीवादी न हो जाए, कोई मार्क्सवादी न हो जाए—जब तक कोई वादी न हो जाए, तब तक बेचैनी है, क्योंकि हम अपने को बेचे बिना चैन नहीं पा सकते। अपनी आत्मा को कहीं गिरवी रखेंगे तभी शांति मिल सकती है। सारे लोगों ने अपनी आत्माएं गिरवी रख दी हैं। और अगर कभी कोई आदमी आत्मा गिरवी रखने को राजी न हो, तो वे खोज-बीन करते हैं कि कहां हैं, कहां-कहां मेल-ताल बैठ सकता है। मेल, तालमेल बहुत जगह बैठ सकता है, लेकिन सब झूठा है। दो व्यक्तियों के बीच कोई तालमेल नहीं है और अगर तालमेल हो तो जानना कि उनमें एक व्यक्ति व्यक्ति ही नहीं है, सिर्फ मशीन होगा। अन्यथा तालमेल नहीं हो सकता।
बुद्ध हैं, महावीर हैं, एपिकुरस हैं, लाओत्सु हैं, कनफ्यूशियस हैं, चार्वाक हैं, उपनिषदों के ऋषि हैं, नागार्जुन हैं, शंकर हैं, मार्क्स है, फ्रायड है, नये-नये अदभुत लोग हैं, कृष्णमूर्ति हैं, रमण हैं, अरविंद हैं, रामकृष्ण हैं, दोस्तोवस्की है, सात्र है, कामु है, काफ्का है। सारी दुनिया में कितने अदभुत-अदभुत लोग हैं। अगर कोई सोचेगा तो न मालूम कितनी बार कितनों के पैरेलल, कितने के समानांतर चल जाएगा। उससे जल्दी मत कर लेना। उससे जल्दी यह मत सोच लेना कि यह आदमी इससे सहमत हुआ, बात खत्म हुई। हम क्यों इतने उत्सुक हैं किसी से सहमत किसी को कराने में? लेबल लगा लेने में फिर हमको सुविधा हो जाती है। हम समझ लेते हैं कि यह ठीक है। यह आदमी कम्युनिस्ट है। फिर हम इस आदमी के संबंध में सोचने की जरूरत से हम बचे। अब हम कम्युनिस्ट के संबंध में जो सोचते हैं वही इस पर लागू हो जाएगा, बात खत्म हो गई। एक कम्युनिस्ट भी दूसरे कम्युनिस्ट जैसा नहीं होता है। एक कम्युनिस्ट यानी कम्युनिस्ट एक। दो कम्युनिस्ट यानी कम्युनिस्ट दो। तीन कम्युनिस्ट यानी कम्युनिस्ट तीन। तीन कम्युनिस्ट भी एक ही जैसे नहीं हैं। लेकिन कम्युनिज्म का लेबल लगा कर बड़ी सुविधा मिल जाती है। फिर हमको सोचने की जरूरत नहीं रह जाती। कोई आया और उसने कहा, फलां आदमी मुसलमान है। फिर हम जो मुसलमान के संबंध में धारणा बनाए हैं। अब इस आदमी को जानने की कोई जरूरत न रही। अब वह धारणा काफी है। अब उसी धारणा को हम इस आदमी पर बिठा लेंगे। और यह आदमी? यह आदमी बिलकुल अनूठा है। हमारी जो धारणा है यह उससे बिलकुल भिन्न है। यह आदमी ही अलग है। यह आदमी कभी था ही नहीं। न यह मोहम्मद है, न यह मोहम्मद अली जिन्ना है, न यह किसी और मुसलमान जैसा है। यह आदमी ही अलग है। लेकिन वह मुसलमान की धारणा बिठा कर हम मुक्त हो जाएंगे। और हम सोचेंगे, हमने जान लिया है। इस आदमी से जानने से बचने की तरकीब है यह। लेबल लगा दिया है, फिर लेबल के संबंध में जो हम मानते हैं वही बात पूरी हो गई और खत्म हो गई।
नहीं, एक-एक आदमी को जानना हो तो सीधे जानना पड़ेगा। बीच में लेबल खतरनाक है, क्योंकि कोई आदमी लेबल जैसा नहीं है। सब आदमी, बस अपने जैसे हैं। कोई आदमी किसी जैसा नहीं है। लेकिन हमें फुरसत कहां? हम जल्दी में हैं। हम सबके संबंध में निर्णय लेना चाहते हैं और निर्णय लेने की आसान तरकीब यह है कि हम एक बात कह दें और खत्म हो जाएं और मुक्त हो जाएं। एक लेबल लगा दें और छुटकारा हो जाए। इस तरह छुटकारे से कोई मनुष्य की आत्मा से परिचित नहीं हो सकता। और इस तरह का व्यक्ति हमेशा अज्ञान में ही जीएगा और मरेगा। वह दूसरे में कभी झांक ही नहीं सकता, क्योंकि दूसरे का द्वार ही बंद कर देता है। कभी आपने अपनी पत्नी की तरफ गौर से देखा है? नहीं, पत्नी मान कर एक लेबल लगा दिया है, बात खत्म हो गई। शादी न की थी, उस वक्त शायद देखा भी हो। शादी के बाद फिर नहीं देखा है। पच्चीस साल बीत गए होंगे, रोज लगता है कि देखते हैं, लेकिन देखा है कभी गौर से? अब कोई जरूरत नहीं रही, पत्नी है, बात खत्म हो गई; पति है, बात खत्म हो गई। आपके घर जो बेटा पैदा होता है, उसे आपने देखा है? बस बेटा है, बात खत्म हो गई।
बुद्ध बारह वर्ष बाद अपने गांव वापस लौटे थे। उनका पिता क्रोध में था। ऐसे पिता खोजने कठिन हैं जो बेटों के प्रति क्रोध में न हों। पिता क्रोध में थे। बुद्ध जैसा बेटा था, तो भी क्रोध में थे। बुद्ध जैसा बेटा, तो भी क्रोध था। घर छोड़ कर चला गया था। बरबाद कर दिया था घर। एक ही बेटा था। सब घर उदास हो गया था। उसी पर आशा थी, उसी पर महत्वाकांक्षा थी। सब खंडित हो गई थी। बूढ़ा बाप दुखी था। खबरें आती थीं बीच-बीच में कि बेटा ज्ञान को उपलब्ध हो गया। बाप कैसे विश्र्वास करे कि बेटा और ज्ञान को उपलब्ध हो जाए? खबरें आती थीं और बाप कहता था, देखेंगे।
फिर बेटा आया। सारा गांव लेने गया है, शुद्धोधन भी लेने गए हैं। बुद्ध के पिता भी लेने गए हैं। बुद्ध आकर खड़े हो गए हैं नगर के द्वार पर, और बुद्ध के पिता ने क्या कहा? बुद्ध के पिता ने कहा, मैं अभी भी क्षमा कर सकता हूं, मेरे दरवाजे अभी भी खुले हैं। नासमझ, तू वापस लौट आ। तुने बहुत भूल की। हमें बहुत दुख दिया।
क्या यह पिता इस बेटे को देख रहा है जो सामने खड़ा है? नहीं, वह बारह साल पुरानी तस्वीर, वही सामने अटकी है। यह बेटा वह नहीं है। बुद्ध ने कहा: आप थोड़ा गौर से देखें। मैं बिलकुल दूसरा होकर आया हूं। जो गया था वही मैं नहीं हूं।
बुद्ध के बाप ने कहा: क्या तू मुझे समझाएगा? मैं तेरा बाप हूं, तेरे खून का कतरा-कतरा मेरा है, मैं तुझे नहीं जानता हूं? बुद्ध के पिता ने कहा: मैं तुझे नहीं जानता हूं? तू मुझे समझाएगा? गौतम बुद्ध हंसने लगे। उन्होंने कहा कि नहीं, लेकिन इतना याद दिलाऊं, पिता होने से ही आप मुझे समझ लेंगे, यह जरूरी नहीं है। अपने को ही समझना मुश्किल है, दूसरे को समझना तो और भी मुश्किल है। फिर क्या मैं निवेदन करूं कि मैं आपसे आया जरूर, लेकिन आपने मुझे निर्मित नहीं किया है। आप एक मार्ग की भांति थे, एक रास्ता जिससे गुजरा और आया, लेकिन मेरी यात्रा अनंत है, आपसे बहुत भिन्न है। एक चौराहे पर हम मिले, वह चौराहा आप थे। मैं आपसे गुजरा और मैं इस जगत में आया। लेकिन इससे आप मुझे जान नहीं लेते। जिस रास्ते से मैं गुजर कर आया हूं, क्या वह रास्ता यह कह सकता है कि मुझे जानता है? लेकिन बुद्ध के पिता कहने लगे, तू मेरा बेटा है। मैं तेरा बाप हूं। मैं तुझे नहीं जानता हूं। वह बेटे का लेबल बड़ी तकलीफ दे रहा है। बड़ा अच्छा होता कि गौतम बुद्ध शुद्धोधन के बेटे न होते तो शायद शुद्धोधन गौतम बुद्ध को आसानी से समझ सकते। बीच में लेबल न होता। लेबल सदा बाधा बन जाते हैं।
बुद्ध की पत्नी लेने नहीं आई गौतम को। सारा गांव लेने आया है, लेकिन यशोधरा नहीं आई। पति का लेबल बीच में बाधा डाल रहा है। वह क्रोध से भरी बैठी है अपने महल में। वह राह देखती है कि आओ और मुझे समझाओ-बुझाओ। पति की अपेक्षा, जैसी पत्नी करती है कि चले गए थे बारह वर्ष पहले मुझे क्रुद्ध करके, अब आओ, मुझे समझाओ-बुझाओ। वह बैठी है महल में। सारा घर चला गया है। सारा गांव चला गया है। लेकिन यशोधरा नहीं आई है। वह पति का लेबल बीच में अटका है। बुद्ध चारों तरफ देखते हैं, आनंद से पूछते हैं, यशोधरा नहीं आई? नहीं आ सकेगी। मैं उसका पति जो ठहरा। बड़ी मुश्किल है उसके आने में। बुद्ध कहते हैं, मुझे ही जाना पड़ेगा। बीच में एक द्वार अटका है...वह मुझे नहीं जानती। वह मुझे नहीं पहचानती, वह मुझे नहीं पहचान सकती।
वह पति होना बीच में रुकावट डाल रहा है। सब तरह की बातें जो हम बीच में स्वीकार कर लेते हैं सीधे व्यक्ति को देखने में बाधा डालती हैं। अगर कोई आदमी तय करके आ गया कि मैं माओ के विचार का आदमी हूं, फिर वह मुझे थोड़े ही देखता है, बीच में माओ की तस्वीर लटकी है। और कहां माओ की तस्वीर और कहां मैं! अगर कोई आदमी तय करके आ गया कि मैं एम़ एऩ राय से मेल खाता हूं, फिर वह मुझे नहीं सुन रहा। बोल मैं रहा हूं, सुना जा रहा है एम़ एऩ राय। फिर वह मुझे नहीं सुन रहा है। अगर कोई आदमी तय करके आ गया है कि मैं कृष्णमूर्ति से मेरे विचार एक जैसे हैं, फिर वह मुझे नहीं सुन रहा है। वह भीतर तालमेल कर रहा है कि ठीक है, यही कृष्णमूर्ति ने भी कहा है। तब फिर मुझे नहीं सुन रहे आप। आप अपने ही मन की धारणाओं और प्रतिमाओं में भटके हुए हैं। तब आप मुझे नहीं सुन सकेंगे। और अगर आप इसी तरह सुनने की आदत बना लेते हैं तो आप फिर किसी को नहीं सुन सकेंगे। और अगर यही आपके सोचने का ढंग है, तो आप कभी नहीं सोच सकेंगे। सोचने के लिए चाहिए प्रतिमा-रहित चित्त, निष्पक्ष, बिना किसी पूर्व धारणा के, बिना किसी लेबल के, बिना किसी बीच में चश्मे के, सीधा आर-पार देख सकें जो है। उसे ही देख सकें, क्यों करें तुलना, क्यों करें कंपेरीजन?
एक गुलाब के फूल के पास खड़े हैं, तो फौरन आदमी कहता है, मैंने इससे भी अच्छे-अच्छे फूल देखे हैं। देखे होंगे, लेकिन यह फूल कभी नहीं देखा। और अच्छे-अच्छे फूल भी रहे होंगे। लेकिन यह फूल अपनी ही तरह का फूल है। ऐसा फूल कभी भी नहीं रहा। इसी को देखो न! बीच में उन गए-बीते फूलों को क्यों लाते हो? लेकिन आदमी का मन, वह इसको देख ही नहीं सकता सीधा। बीच में कुछ लाएगा, लाएगा, तब देखेगा। तब देखना कठिन हो जाता है। और तब देखना मुश्किल हो जाता है। और जब बहुत सी पर्तें बीच में आ जाती हैं तो हम न सुनते हैं, न हम देखते हैं, न हम विचारते हैं। बस हम अपने ही विचारों की, अपनी ही धारणाओं की, अपने ही पक्षपातों की दीवारों में बंद, अपनी ही कब्र में छिपे समाप्त हो जाते हैं। हमारा बाहर से कोई कम्युनिकेशन, कोई संवाद नहीं हो पाता है।
इस भाषा में सोचें ही मत कि मेरा विचार किससे मेल खाता, किससे नहीं खाता। निष्प्रयोजन है वह बात। मैं क्या कहता हूं, उसे समझें, उसे सोचें। मैं क्या कहता हूं, उसे ही समझ लें, सुन लें और इसकी भी फिकर न करें कि आप मुझसे मेल खाते हैं कि नहीं खाते हैं। इसकी भी कोई जरूरत नहीं है। आपको मेल खाने की क्या जरूरत है? हो सकता है थोड़ी देर मेरे साथ चलना हो जाए, पर्याप्त है। फिर हम विदा हो जाएंगे।
रास्ते से अभी मैं आया, रास्ते पर आया हूं, पड़ोस में कोई चलता हुआ दूसरे रास्ते से आ गया है, हम रास्ते पर दोनों मिल गए हैं, दस कदम साथ भी चल लिए हैं, समानांतर, फिर वह अपने रास्ते विदा हो गया है, मैं अपने रास्ते विदा हो गया हूं। दस क्षण साथ थे, अच्छा था। अब साथ नहीं हैं, वह भी अच्छा है। निरंतर बहुतों के साथ चल कर यह पता चलता है कि हम सिर्फ अपने ही साथ हो सकते हैं, किसी के साथ नहीं। जल्दी क्या है, आग्रह क्या है, कि किसी को पकड़ लें। इतनी कमजोरी क्या है? इसलिए मुझे सुनते वक्त यह भी फिकर न करें कि आप मुझसे सहमत होते हैं या नहीं होते हैं। अगर आप इस चिंता में पड़ गए तो आप मुझे समझ ही नहीं पाएंगे। आप वह सहमत-असहमत होने की चिंता में उलझ जाएंगे और समय व्यतीत हो जाता है। सीधा सुनें, साफ सुनें। और देखें कि क्या सच है उसमें, क्या झूठ है। तुलना में न पड़ें। तुलना अत्यंत घातक है। तुलना बहुत ही घातक है। और प्रभावित होना, बहुत ही खतरनाक है। किसी को किसी से प्रभावित होने की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसे लोग हैं जो प्रभावित करना चाहते हैं। क्यों? यह कौन लोग हैं जो प्रभावित करना चाहते हैं? जिनके भीतर भी कुछ इनफिरियरिटी कांप्लेक्स है, जिनके भीतर भी कुछ हीनता की ग्रंथि है, वे दूसरों को प्रभावित करके अपनी हीनता के भाव को पूरा करना चाहते हैं। सब गुरु, सब नेता हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। दस आदमियों की भीड़ को आस-पास इकट्ठा करके, उनकी छाती पर सवार होकर वे अनुभव करते हैं कि हम, हम कुछ हैं। कितने आदमी हमारे पीछे हैं। गिनती रखते हैं गुरु के कितने शिष्य हैं, कितने चेले-मुंड़े हैं, कितनों के कान फूंके हैं। नेता फिकर रखता है कि कितने अनुयायी हैं। संख्या बढ़ाता है। और इस सबके पीछे कारण क्या है? इस सबके पीछे कोई आत्मग्लानि, कोई आत्महीनता है खुद होना पर्याप्त नहीं है। किसी भीड़ को जोड़ लेना जरूरी है तभी लगेगा कि मैं कुछ हूं। अकेले होना काफी नहीं है। और जो आदमी अकेले होने में पर्याप्त नहीं है वह आदमी सत्य के सौंदर्य को कभी भी नहीं जान सकेगा।
सत्य का सौंदर्य भीड़ के साथ अपने को भर लेने में नहीं, बल्कि समस्त भीड़ से अपने को खाली कर देने में है। और उस जगह, जहां चित्त बिलकुल मौन और एकांत और अकेला होता है, वहीं वे फूल खिलते हैं जो सत्य के, सौंदर्य के, शिवम के हैं। लेकिन हम! हम सब एक दूसरे से अपने को बांध कर चलते हैं। बांधने के रास्ते बहुत तरह के हैं। कोई अपने को पत्नी से बांधे है, कोई पति से, कोई बेटे-बेटियों से, कोई पार्टियों से, कोई संप्रदाय से, कोई शिष्यों से, कोई आश्रमों से। लेकिन अपने को सब बांधे हुए हैं।
पाम्पेई का नगर जला, विस्फोट हुआ, पाम्पेई के ज्वालामुखी का। आधी रात थी, तीन बजे होंगे। सारा गांव भागने लगा। कोई अपने बेटों को ढूंढ़ रहा है, कोई अपनी पत्नियों को, कोई अपने शिष्यों का, कोई अपने अनुयायियों को, कोई धन को, कोई मकान को, कोई कुछ और को; जो-जो ले जा सकता है, जो-जो बचा सकता है उसकी चेष्टा में संलग्न है। एक आदमी है, गांव में एक संन्यासी भी है। सुबह तीन बजे रोज अपनी छड़ी लेकर घूमने निकलता था। वह सुबह घूमने निकला है। सारा गांव भाग रहा है। जो भी उस संन्यासी के पास से गुजरता है, वह उसे गौर से देखता है और कहता है, खाली हाथ? सामान कहां है? अकेले? संगी-साथी कहां हैं? परिवार-प्रियजन कहां है? वह संन्यासी कहता है, कोई भी नहीं है, अकेला ही हूं। मैं ही अपना परिवार हूं, मैं ही अपना प्रियजन हूं, मैं ही अपनी संपदा हूं, कुछ बचाने को नहीं है। जो हूं, अकेला हूं। बस चल रहा हूं। उस भीड़ में अकेला एक आदमी शांत है। उस भीड़ में उस उपद्रव में अकेला एक आदमी सुबह घूमने निकला है। वह ज्वालामुखी जल रहा है। लोग अपना सामान अपनी पीठों पर बांधे भागे जा रहे हैं। जो छूट गया है उसके लिए दुखी हैं, सामान के लिए। जो बच गया है, उसे छाती से चिपटाए हैं--पीड़ित, परेशान, चिंतित। तो वह पाम्पेई नगर से भागता हुआ सब-कुछ, सारा जनसमूह। एक आदमी लेकिन न चिंतित है, न पीड़ित है, न परेशान है। जो भी उसके करीब से गुजरता है, देखता है गौर से, सुबह घूमने निकले हो? वह छड़ी हिलाता हुआ, सुबह का गीत गाता हुआ, वह कहता है, अकेला हूं, कुछ भी खोने को नहीं है, जो भी खो सकता था, खुद ही खो दिया है। जो भी छूट सकता था, खुद ही छोड़ दिया। अब तो वही बचा है जो न खो सकता है, जो न छूट सकता है। अब तो मैं बस मैं ही हूं। पास से कोई निकलता है, थोड़ी देर कोई साथ हो लेता है। लेकिन न कोई संगी है, न कोई साथी है। पास से कोई निकलता है, कोई हाथ थाम लेता है। लेकिन न कोई मित्र है, न कोई शत्रु है। ऐसी चित्त-दशा में ही व्यक्ति स्वयं की आत्मा को खोज पाता है। उसके बिना नहीं खोज पाता है। प्रभावित, पकड़ा हुआ, किलिंगिंग माइंड, किसी को तुलना करता हुआ, किसी के पीछे चलता हुआ, कभी भी अकेला नहीं हो पाता। और टू बी अलोन, अकेला होना ऐसा सौंदर्य है जिसकी कल्पना करनी भी मुश्किल है।
मैंने सुना है, जापान के एक सम्राट को खबर मिली कि गांव के बगीचे में, मार्निंग ग्लोरी के, सुबह खिलने वाले फूल अदभुत रूप से खिले हैं। पूरे बगीचे में फूल ही फूल खिले हैं। सम्राट ने खबर भेजी उस माली को कि मैं देखने आना चाहता हूं। माली ने कहा, कल सुबह प्रतीक्षा करूंगा। सम्राट को बताया गया है कि रत्ती-रत्ती, इंच-इंच जमीन फूलों से भरी है। फूल ही फूल हैं। सारा बगीचा मार्निंग ग्लोरी से ही भरा हुआ है। सुबह सूरज निकला है, सम्राट अपने रथ पर सवार उस बगीचे के सामने जाकर खड़े होकर हैरान हो गया है। बगीचे में एक भी फूल नहीं है। सब फूल तोड़ कर जैसे फेंक दिए गए हैं।
दूर कोने में बसे एक फूल जो बड़े खयाल से दिखाई पड़ता है, ऊंची शाखा पर अकेला एक फूल है। वह माली से पूछता है, मैंने तो सुना था बहुत फूल हैं। कहां हैं वे बहुत फूल? उस माली ने कहा: उन बहुत फूलों में एक को भी देखना संभव नहीं हो पाता। उन बहुत फूलों में, उस भीड़ में एक को भी देखना संभव नहीं हो पाता। मैंने उन सब को अलग कर दिया, एक को बचा लिया है, ताकि आप एकांत में जान सकें, देख सकें, मिल सकें। और एक से मिल गए तो सब से मिल गए, क्योंकि जो एक में है वह सब में है। और उस भीड़ में उतने फूलों में आप शायद तुलना करते: यह छोटा है, यह बड़ा है: यह अच्छा है, वह बुरा है, इसमें खो जाते। यह सुंदर है, वह सुंदर नहीं है, इसमें भटक जाते और न देख पाते। अब एक ही है। न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। न सुंदर है, न असुंदर है। तुलना का उपाय नहीं है। यह फूल है और आप हैं। बैठ जाएं इस फूल के पास, जीएं इस फूल को। इस फूल को खिलने दें। इसके अकेलेपन में आपके, आपकी चेतना पर, तो शायद इस फूल से मिलन हो जाए, इसकी आत्मा से मिलन हो जाए।
लेकिन वह सम्राट उस फूल के पास खड़े होकर कहने लगा, सच ही इससे बड़ा फूल मैंने नहीं देखा। बहुत फूल देखे लेकिन वे छोटे थे। उस माली ने कहा, व्यर्थ मेरी मेहनत हुई। मैंने वह सारे फूल तोड़े, वह बेकार गया। आपके चित्त से तुलना नहीं जाती है। जो देखे थे फूल, वे अब कहां है? जो है, उसे देखें। जो देखे थे, उनसे क्यों तौलते हैं? स्मृति के सिवाय वे कहां हैं, स्मृति की राख के सिवाय। उस राख को हटा दें, मन के दर्पण को होने दें राख से मुक्त, धूल से पृथक, झांकने दें उसमें जो है। लेकिन नहीं, वह राजा कहता है, ठीक कहते हो। फूल बहुत बड़ा है, मैंने बहुत देखे, उन सबसे बड़ा है, उन सबसे बहुत सुंदर है। शायद ही इतना बड़ा फूल होता हो। वह माली अपना सिर ठोक लेता है, और कहता है, मेरे फूलों, जिन्हें मैंने तुम्हें तोड़ डाला, व्यर्थ मैंने मेहनत की। जो भीड़ से घिरा है वह अकेले के सामने खड़े होकर भी भीड़ से ही घिरा रहता है। मैंने व्यर्थ ही इतने फूल तोड़ डाले। हम सब मन में भी घिरे हैं। मैं आपसे कुछ कह रहा हूं, एक फूल आपके सामने रख रहा हूं। आप कहते हैं, किस बगिया से मेल खाता है? फलां-फलां बगिया में देखा था, फलां बगीचे में देखा था। फलां जंगल में किसी वृक्ष पर यही फूल था। वही है न यह? पंखुरियां वैसी हैं, रंग वैसा है। नहीं, कोई फूल वैसा नहीं है। सब फूल अपने ही जैसे हैं। एक-एक चीज का अपना व्यक्तित्व है, और इसीलिए आत्मा है। जिस दिन सब चीजें एक सी होंगी, उस दिन आत्मा नहीं होगी। लेकिन हम सब आत्मा के दुश्मन हैं। हम सब आत्मा के हत्यारे हैं। हम सब तरह से व्यक्तित्व को पोंछ कर मिटा देना चाहते हैं। और एक भीड़ चाहते हैं जो एक जैसी दिखाई पड़ती हो। अनुयायी चाहते हैं। संप्रदाय चाहते हैं। न मैं अनुयायियों में मानता, न गुरुओं में। न मैं किसी से प्रभावित हूं, न किसी को प्रभावित करने की इच्छा है। न आपसे आशा करता हूं कि आप तुलना करें। सुनें, समझें, छोड़ दें फिर। न मेरे साथ चलने की जरूरत है, न मेरे पीछे चलने की जरूरत है। थोड़ी देर के लिए मिल गए, थोड़ी देर के लिए हंस-बोल लिए, फिर अपना-अपना रास्ता है। कोई किसी के साथ नहीं, सब अकेले हैं।
एक और मित्र पूछते हैं: वे पूछते हैं कि
भगवान, ईश्र्वर को हम खोजें ही क्यों? ‘प्रभु मंदिर के द्वार’ की तलाश ही क्यों करें?
मत करें, लेकिन बच न सकेंगे करने से। यह भी पूछते हैं कि क्यों करें? यही तो सवाल खड़ा हो गया। ‘क्यों’ जिसके मन में है वह खोज से नहीं बच सकता।
आप यह पूछते हैं: क्यों खोजें प्रभु के मंदिर को?
मत खोजें। मैं कहता हूं। लेकिन आप पूछ रहे हैं, क्यों? और जो ‘क्यों’ पूछता है उसकी खोज शुरू हो गई। क्यों ही तो खोज है। वॉय? जब भी कोई आदमी पूछता है, क्यों? तो उसकी खोज शुरू हो गई। और ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो न पूछता हो क्यों? ऐसा आदमी मिल सकता है जो न पूछता हो क्यों? ऐसा आदमी मिल सकता है जिसने किसी क्षण में न पूछा हो कि मैं क्यों हूं? जिसने यह न पूछा हो कि अगर मैं न होता तो क्या हर्ज था? जिसने यह न पूछा हो कि यह सब क्यों है? ये चांद-तारे क्यों हैं? यह पृथ्वी क्यों है? ये वृक्ष क्यों हैं? ये फूल क्यों खिलते हैं? ये हवाएं क्यों चलती हैं? ये न चलतीं तो क्या हर्ज था? जिसके मन में ‘क्यों’ न उठा हो, ऐसा कहीं कोई आदमी अगर हो, मुश्किल है ऐसा आदमी होना। और अगर कहीं कोई ऐसा आदमी मिल जाए, तो समझना कि वही परमात्मा है। परमात्मा को छोड़ कर और सबके मन में क्यों उठेगा। और अगर क्यों को मिटाना है, तो परमात्मा तक पहुंचना पड़ेगा।
जिस दिन परमात्मा तक आप पहुंच जाएंगे उसी दिन क्यों भी गिर जाता है। परमात्मा को जान लेने का मतलब है: जीवन के क्यों को जान लेना। परमात्मा को जान लेने का अर्थ है: उस क्यों की दौड़ से मुक्त हो जाना वह जो कांटे की तरह, शूल की तरह चुभता है। क्यों? क्यों हूं? क्यों है यह प्रेम? क्यों है यह क्रोध? क्यों है यह श्वास? यह सब है क्यों? यह न हो तो हर्ज क्या है? यह उसी दिन मिटता है जिस दिन हम उस प्रभु-मंदिर में प्रविष्ट हो जाते हैं। अगर क्यों से मुक्त होना है तो खोज करनी पड़ेगी। अगर प्रश्र्न से मुक्त होना है तो खोज करनी पड़ेगी। अगर जिज्ञासा से ऊपर उठना है तो खोज करनी पड़ेगी। अगर खोज से उठना है, खोज से बचना है, तो खोजना पड़ेगा। और खोज है। खोज कोई भी रूप ले ले, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। अक्सर खोज दूसरे रास्तों पर भटक जाती है। और जब खोज दूसरे रास्तों पर भटक जाती है--जैसे एक आदमी धन खोज रहा है, उसकी भी खोज है, लेकिन वह खोज धन की है। वह शायद और गहरे में अपने से नहीं पूछ रहा कि धन तो मैं खोज रहा हूं, लेकिन धन किसलिए खोज रहा हूं? शायद मन कहेगा इसलिए कि धन होगा तो बल होगा, शक्ति होगी मेरे पास। प्रतिष्ठा होगी, यश होगा। लेकिन वह यह नहीं पूछ रहा है, कितने लोगों के पास यश रहा? कितने लोगों के पास बल रहा? कितने लोगों की प्रतिष्ठा रही? वे सब कहां हैं? वे सब कहां खो गए? धन की प्रतिष्ठा और बल कितनों के पास रहा है, वे सब अब कहां हैं?
च्वांगत्सु निकलता था एक मरघट से, किसी की खोपड़ी उसके पैर से लग गई। रात थी अंधेरी, पैर टकरा गया किसी खोपड़ी से। उसने खोपड़ी को उठा कर उससे बहुत क्षमा मांगने लगा। उसके मित्र कहने लगे, क्या करते हैं आप? खोपड़ी से क्षमा मांगते हैं? उसने कहा: तुम्हें पता नहीं। यह सब समय का थोड़ा फर्क है, अगर यह आदमी जिंदा होता तो मेरी बड़ी मुसीबत हो जाती। यह तो समय का थोड़ा फर्क है। यह आदमी जिंदा भी हो सकता था। लोगों ने कहा: लेकिन, लेकिन यह मर गया है, छोड़ो इसे, फेंको। च्वांगत्से ने कहा: शायद तुम्हें पता नहीं है, यह साधारण लोगों का मरघट नहीं है, बड़े लोगों का मरघट है। यह कोई साधारण आदमी नहीं है, यह कोई बड़ा आदमी रहा होगा, कोई सम्राट, कोई धर्मगुरु, यह बड़ों का मरघट है। वर्ग जिंदगी में ही थोड़े ही हैं, मरने के बाद भी वर्ग हैं। मरघट भी अलग-अलग हैं। छोटे आदमी एक जगह मरते हैं, एक जगह दफनाए जाते हैं। बड़े आदमी और ही जगह दफनाए जाते हैं। दफनाने में भी फर्क है। मरने के बाद भी क्लासेस हैं। वहां भी गरीब और अमीर है। यह बड़े आदमियों का मरघट है, यह कोई साधारण मरघट नहीं है। अगर यह आदमी जिंदा होता, च्वांगत्सु आज मुश्किल में पड़ जाते। क्षमा मांगनी जरूरी है। फिर वह उस खोपड़ी को साथ ले आया। मित्रों ने कहा: यह क्या करते हो? उसने कहा: इस खोपड़ी को अपने पास रखूंगा। किसलिए? उसने कहा: इसलिए कि मैं जानता हूं कि भीतर भी ठीक ऐसी ही खोपड़ी है। और आज नहीं कल किसी मरघट पर लोगों के पैरों की टक्कर खाएगी, यह याद रहे, इसलिए।
पर मित्र कहने लगे, याद करने से फायदा क्या है? इससे तो और बेचैनी होगी। उसने कहा: बेचैनी हो तो अच्छा है ताकि मैं उसी को खोज सकूं जहां चैन मिल जाता है। नहीं तो बेचैन को ही खोजता रहूंगा। खोपड़ी को पास रख लिया था फिर उसने, और कोई अगर गाली देता उसे तो वह खोपड़ी की तरफ देखता। कोई अगर अपमान करता तो वह खोपड़ी की तरफ देखता। कोई अगर उसे मारता तो वह खोपड़ी की तरफ देख कर हंसता। लोग कहते, यह क्या करते हो? तो च्वांग्त्सु कहता, मैं यह कहता हूं, समय का थोड़ा सा फासला है। आज नहीं कल, यह खोपड़ी मरघट पर पड़ी होगी। तुम लात मारोगे और मैं कुछ न कर सकूंगा। जब कुछ न कर सकूंगा तो आज भी कुछ करने का क्या अर्थ है! समय का ही थोड़ा फासला है।
धन को हम इकट्ठा कर रहे हैं, लेकिन, धन को हम खोज रहे हैं, खोज तो हम कर रहे हैं, लेकिन किसकी खोज कर रहे हैं? यश को खोज रहे हैं, लेकिन क्या, कितने लोगों ने यश को खोजा है? क्या मिल गया है यश को पाकर? कितने लोग हो जाते हैं बड़े पदों पर, क्या पा लेते हैं? क्या मिल गया है वहां? कोई नहीं पूछ रहा है। शायद हम पूछते हैं, लेकिन काफी नहीं पूछते। पूछते हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं पूछते। खोजते हैं, लेकिन चरम खोज नहीं है। इसलिए कुछ भी व्यर्थ खोजने में लग जाते हैं और सार्थक की खोज से बच जाते हैं। पूछना जरूरी है, यश खोजते हैं किसलिए? क्यों खोजें यश? क्या होगा राष्ट्रपति कोई हो जाए तो? क्या होगा?
मैंने सुना है, एक जेलखाना है, कारागृह है और कारागृह का छोटा सा अस्पताल है। कारागृह में जो बीमार पड़ते हैं, वे उस अस्पताल में भरती किए जाते हैं। अब कारागृह की अस्पताल है; न उसमें खिड़कियां हैं, बड़ी मोटी मजबूत दीवालें हैं। कैदी हैं, बीमार हैं तो भी क्या हुआ। हाथ में, पैरों में जंजीरें हैं, अपनी-अपनी लोहे की खाट से बंधे हैं। सिर्फ एक द्वार है डाक्टर के भीतर आने-जाने का। उस द्वार पर नंबर एक की खाट है। उस नंबर एक की खाट का जो मरीज है वह बड़ा प्रतिष्ठित हो गया है उस अस्पताल में, क्योंकि नंबर एक की खाट पर वह है। और न केवल नंबर एक की खाट पर है, उसकी स्थिति को उसने ऐसा बना लिया है कि सारा अस्पताल यही चाहता है कि कब भगवान करे, यह मर जाए और हम नंबर एक की खाट पर हो जाएं। क्योंकि वह नंबर एक की खाट का मरीज रोज सुबह उठता है, बाहर की तरफ देखता है और कहता है, आह! कैसा सूरज निकला है, कैसी किरणें बरसती हैं, गुलमोहर खिल गए हैं, सारा आकाश लाल फूलों से भरा है। सांझ होती है और वह कहता है, चांद निकल आया, रातरानी की सुगंध हवाओं में भर कर आ रही है, कितने सुंदर लोग रास्ते से निकलते हैं। देखा उस स्त्री को कितना कुवांरापन है उसके चेहरे पर, कैसी आंखें हैं ताजे फूल जैसी। और सारा अस्पताल पागल हो जाता है। अपनी-अपनी खाट, अपनी-अपनी जंजीर लोग हिलाने लगते हैं और क्रोध से भर जाते हैं कि कब नंबर एक की खाट मिले, कब मरे यह आदमी। लेकिन वह आदमी नहीं मरता।
पदों पर जो रहते हैं उनका मरना जरा मुश्किल होता है। लेकिन फिर भी मरना तो पड़ता है। पदों के आदमियों को भी मरना पड़ता है। कितनी ही मुश्किल से मरो, मरना पड़ता है। मरना सभी को पड़ता है।
कभी-कभी उसको हृदय का दौरा हो जाता है, तो सारा अस्पताल खुश होता है और वे कहते हैं, शायद अब यह गया। और सब डाक्टरों की खुशामद में लग जाते हैं कि खयाल रखना, अब की बार जगह खाली हो तो हमारा खयाल रखना। यही सब जो दिल्ली में चलता है वही सब उस अस्पताल में भी चलता है। वही सब उस अस्पताल में भी चलता है। वही सब चल रहा है। वह दो-तीन दफे धोखा दे जाता है वह आदमी नंबर एक की खाट का। नंबर एक की खाट के आदमी बड़े धोखेबाज होते हैं। कई दफा हृदय का दौरा आता है और बच जाता है। सब जब बच जाता है तो कहते हैं कि धन्यवाद, भगवान को धन्यवाद और भीतर कहते हैं हाय फिर मौका चूक गया। सब उसको कहते हैं, खुशी हुई बहुत, तुम बच गए। चले जाते बड़ा दुख होता। और उनके चेहरे देखें तो ऐसा लगता है कि इतना दुख उन्हें और किसी बात से नहीं हो सकता था जितना इसके बचने से हो गया। वह भी सब जानता है। वह भी सब जानता है, क्योंकि इसी तरह वह भी इस नंबर एक की खाट पर आया है। यह कहानी नई नहीं है, वह कोई नंबर एक की खाट पर पहला आदमी नहीं है। यह नंबर एक की खाट अनादि-अनंत है। यह पहले से ही मौजूद है। इस पर लोग आते ही, जाते ही रहे हैं। और जब वह देखता है कि लोग धन्यवाद दे रहे हैं तो बहुत मुस्कुराता है और फिर बातें वही कर देता है। सुबह से फिर फूल खिल जाते हैं, फिर पक्षी उड़ते हैं। फिर बगुलों की सफेद कतार निकल जाती है और सब तड़फ जाते हैं अपनी-अपनी खाट पर अपनी-अपनी जंजीर में सब बंधे तड़पते रहते हैं। लेकिन कब तक वह आदमी धोखा दे?
आखिर वह मर जाता है। सारे अस्पताल में डाक्टरों की खुशामद होती है। फिर एक आदमी को, जो खुशामद में जीत जाता है, उसे पहले नंबर एक की खाट पर पहुंचा दिया जाता है। वह आदमी पहुंचता है नंबर एक की खाट पर--देखो उसकी अकड़--जब वह चलता है अपनी खाट से नंबर एक की खाट की तरफ। देखो उसकी अकड़। हाथ की जंजीरें ऐसी मालूम पड़ती हैं जैसे आभूषण हों। कैदी के वस्त्र ऐसे मालूम पड़ते हैं जैसे कोई स्वर्ग से देवताओं के वस्त्र उतरे हों। पहुंच जाता है नंबर एक की खाट पर, बैठ जाता है, बाहर देखता है, बाहर कुछ भी नहीं है, एक बड़ी दीवाल है पत्थरों की, और कुछ भी नहीं है। न सूरज दिखाई पड़ता है, न गुलमोहर के फूल हैं, न रात को चांद दिखता, न बगुलों की कतार है, न सुंदर स्त्रियां निकलती हैं, न रातरानी की गंध आती है। बाहर कुछ भी नहीं है, पत्थरों की एक बड़ी लंबी दीवाल है। वह आदमी तो चौंक जाता है, पीछे लौट कर क्या कहे? लेकिन तब खयाल आता है कि अगर मैं कहूं कि बाहर सिर्फ पत्थरों की दीवाल है तो मैं ही बुद्धू बनूंगा। और कोई अर्थ न होगा। लोग सब हंसेंगे कि हमने तो पहले कहा था। सब कहेंगे, हमने तो पहले कहा था, वहां कुछ भी नहीं है। वे सब कहेंगे जिन्होंने भी खुशामद की थी पहुंचने की। वे कहेंगे, वहां तो कुछ भी नहीं है। तो वह आदमी पीछे लौट कर कहता है, अहा, कैसा सूरज निकला है, गुलमोहर खिले हैं, फूल झर रहे हैं, आकाश में बादल तैर रहे हैं। कैसा अदभुत लोक है बाहर! हे परमात्मा, तुझे धन्यवाद कि मुझे मौका दिया। और सारा अस्पताल फिर पागल हो जाता है कि अब यह दुष्ट कब मरे। फिर वही चलता है, वह अस्पताल में चलता ही रहता है। नंबर एक पर पहुंचने वाले लोग मरते रहते हैं और दूसरे लोग नंबर एक पर पहुंचने की दौड़ में लगे रहते हैं। और जो भी नंबर एक पर पहुंच जाता है वह जो इटर्नल इल्युजन है, वह जो अनंत भ्रम है, वह उसको कायम रखता है। नहीं तो वह बुद्धू बन जाएगा, लोग क्या कहेंगे? और वह भ्रम जारी है।
पूछना जरूरी है कि यश को खोज कर क्या खोज लेंगे? यश को खोज कर किसने क्या खोज लिया है? धन को खोज कर क्या खोज लेंगे? धन को खोज कर किसने क्या खोज लिया है? खोज तो कोई और है। लेकिन उस खोज की जगह हम कुछ और खोज रहे हैं। हमने कुछ सब्स्टीट्‌‌‌यूट खोजें, कुछ परिपूरक खोजें बना ली हैं, और जीवन उनमें नष्ट हो जाता है। और हम खोज भी नहीं पाते जिसे खोजना था और वहां भटक जाते हैं जिसे खोजने का कोई अर्थ न था।
खोजना तो उसे ही है जिसे ईश्र्वर कहते हैं। ईश्र्वर का मतलब क्या है? ईश्र्वर का मतलब है: खोजना उसे ही है जो जीवन का परम अर्थ है। खोजना उसे ही है जो जीवन की गहनतम गहराई है। खोजना उसे है जो जीवन की उच्चतम ऊंचाई है। खोजना उसे है जो अस्तित्व का सार है। खोजना उसे है वह जो एक्झिस्टेंस है, वह जो अस्तित्व की आत्मा है। ईश्र्वर का क्या मतलब? ईश्र्वर की सस्ती बातचीत ने बहुत मुश्किल में डाल दिया है। ईश्र्वर की बिलकुल सस्ती बातचीत ने ऐसा काम कर दिया है कि ईश्र्वर की अर्थवत्ता ही खो गई है। ईश्र्वर की अर्थवत्ता है अस्तित्व की आत्मा हम हैं। लेकिन यह होना क्या है? क्यों है? कहां है? कहां से है? कहां की तरफ है? इस पूरे होने को, इस बीइंग को, इस आत्मा को जानना ही प्रभु के मंदिर की खोज है। इसे खोजे बिना हम कुछ भी खोजते रहें, और हम कुछ भी पा लें, कुछ अर्थ नहीं। पाते ही, पाते ही हम पाएंगे सब व्यर्थ हो गया। जो भी हम पा लें--धन पा लें, धन पाते ही व्यर्थ हो जाता है। धन के पाने का एक ही लाभ है, धन पाने का एक ही लाभ है, और वह लाभ यह है कि धन पाते ही धन व्यर्थ हो जाता है। और निर्धन होने की क्षमता उपलब्ध हो जाती है। और कोई लाभ नहीं है। यश पाते ही यश व्यर्थ हो जाता है, और कोई चाहे तो बिना यश के जीने की क्षमता उपलब्ध हो जाती है। और कुछ लाभ नहीं।
लेकिन धोखा, आत्मवंचना गहरी है। एक वंचना से छूटते हैं कि तत्काल दूसरी वंचना पकड़ लेते हैं। एक यात्रा पूरी नहीं हो पाती कि नई यात्रा शुरू कर देते हैं। और कोई नहीं पूछता कि इस सबको करने से होगा क्या?
मैंने सुना है, रूस में एक लोक-कथा है। लोक-कथा है कि एक वृक्ष के ऊपर सुबह-सुबह एक कौआ बैठा हुआ है और वृक्ष के नीचे एक कवि विश्राम कर रहा है। सूरज निकला है, पक्षी उड़ते हैं, गीत गाते हैं। उस एकाकी कौवे के बैठे हुए वृक्ष के नीचे वह अकेला कवि अपना गीत गाने लगता है। वह अपनी एक गीत की चार कड़ियां गाता है और कहता है कि मैंने सब धन पा लिया, सब धन--ध्यान रहे, कुछ भी बचा नहीं। मैं कुबेर हो गया। सोलोमन का खजाना मेरे हाथ में है। अब मुझे पाने को शेष क्या है? वह कौआ ऊपर से जोर से हंसता है। कवि घबड़ा जाता है। वह कौवे की तरफ देखता है, कौआ कहता है, सो वॉट? पा लिया सब, इससे क्या होता है? कवि कहता है, नासमझ कौवे, तुझे क्या पता कि धन क्या खूबी की चीज है। कौवा कहता है, ठीक कहते हो। धन का पागलपन आदमियों को छोड़ कर किसी पशु-पक्षी में नहीं है। और हम हंसते हैं कि आदमी धन को पाकर समझता है कि कुछ पा लिया। क्या फायदा, क्या मिल गया, सो वॉट? कवि कहता है, छोड़ अच्छा धन को। मैं सारी पृथ्वी का चक्रवर्ती सम्राट हो गया हूं। सारी पृथ्वी पर मेरा झंडा फहर गया है, सब पर मेरा राज्य है, अब कुछ मुझे जीतने को न बचा। सब मैंने जीत लिया है। वह कौवा कहता है, सो वॉट? फहर गया झंडा, क्या होगा इससे? जीत लिया सबको, क्या होगा इससे? क्या मिलेगा इससे? तुम क्या हो जाओगे इससे? चक्रवर्ती होने से तुम क्या हो जाओगे?
वह कवि कहता है, नासमझ, तुझे कुछ पता नहीं। तू कुछ समझता नहीं। ठहर, मैं तुझे तीसरी कविता सुनाता हूं। और कवि तो रुकते नहीं, कविता सुनाए ही चले जाते हैं, चाहे कौआ ही सुनने वाला हो। वह तीसरी सुनाते हैं। नासमझ, कोई फिकर नहीं। वह कहता है, फिर तीसरी कविता कहता है, कि मैंने गीता जान ली, कुरान जान लिया, बाइबिल जान लिया, मैंने सब जान लिया, मैंने सब ज्ञान इकट्ठा कर लिया। मैं सर्वज्ञ हो गया हूं। जो भी जाना गया, सब मैं जानता हूं। जो भी लिखा है, सब मैं पढ़ा हूं। मुझसे बड़ा पंडित कोई भी नहीं। मैं महापंडित हूं। वह कौआ कहता है, सो वॉट? इससे क्या होता है? कवि गुस्से में किताब फेंक कर चल पड़ता है कि कहां के नासमझ कौवे से मुकाबला हो गया है। हर चीज में कहता है, सो वॉट? वह कौआ कहता है, भाग जाओ किताब छोड़ कर, उससे भी कुछ नहीं होता। सो वॉट?
वह कौआ ठीक कहता है। चाहे यश, चाहे धन, चाहे पाडिंत्य और चाहे त्याग, छोड़ कर भाग जाओ सब कुछ। कुछ भी नहीं होता। इस सबसे कुछ भी नहीं होता। तो लोग क्यों करते हैं इसे? नहीं, कुछ होता है। कौआ कुछ गलत कहता है। शायद कौआ आदमी को नहीं समझता है इसलिए ऐसी बातें कहता है। हो सकता है कौआ अंततः ठीक कहता हो। लेकिन आदमी कहेगा, गलत कहता है। कुछ जरूर होता है यश पाने से, धन पाने से, त्याग करने से, पांडित्य पाने से कुछ जरूर होता है। कौवे को पता नहीं, वृक्षों को पता नहीं, पक्षियों को पता नहीं, आदमियों को पता है। कुछ जरूर होता है। क्या होता है? कुछ होता है। आदमी का अहंकार भरता है, ईगो भरती है--मैं कुछ हूं। और मजा यह है कि जिन्हें यही पता नहीं कि हम क्या हैं, उनको यह भ्रम हो जाता है कि वे कुछ हैं। अहंकार भरता है। अहंकार से बड़ा असत्य और कुछ भी नहीं है। एक असत्य मजबूत होता है, एक झूठ मजबूत होती है। और अहंकार से बड़ा कुछ असत्य नहीं, कोई बड़ी झूठ नहीं।
मैंने सुना है, कैलिफोर्निया की एक झील के किनारे एक आदमी मछलियां मार रहा है। सामने ही तख्ती लगी है कि मछलियां मारना सख्त मना है, लेकिन वह वहीं बैठ कर मछलियां मार रहा है। आदमी का कुछ मन ऐसा है, जहां तख्ती लगी हो, मना हो, वहीं तबीयत मछली मारने की होने लगती है। तख्ती लगाना बड़ा खतरनाक है। अगर मछलियों को बचाना हो, तो मछली न मारने की तख्ती कभी मत लगाना। नहीं तो मछलियां मरेंगी। मछलियां मारना मना है। वह आदमी वहीं बैठ कर मछलियां मार रहा है। जगह-जगह आदमी मिलेंगे आपको, जहां-जहां मछलियां मारना मना है, वहीं-वहीं मछलियां मारते मिलेंगे। कई तरह की मछलियां हैं, कई तरह के बोर्ड हैं, कई तरह के आदमी हैं। लेकिन जहां निषेध है, वहां निमंत्रण है। वह आदमी मछली मार रहा है, एक आदमी पीछे से आकर खड़ा हो जाता है और उस आदमी से पूछता है कि भाईजान, कितनी मछलियां मारीं? वह पास में पड़े हुए एक झोले की तरफ इशारा करता है कि झोला भर गया है। बड़ी-बड़ी मछलियां मारी हैं। वह आदमी कहता है कि शायद आपको पता नहीं कि मैं कौन हूं। वह मछली मारने वाला कहता है, कौन हैं आप? वह आदमी कहता है कि मैं इस झील का निरीक्षक हूं। यहां मछलियां मारना मना है। मैं सबसे बड़ा अधिकारी हूं इस झील का। तख्ती देखते हैं पीछे। वह आदमी कहता है, तख्ती देखने की कोई जरूरत नहीं। आपको पता है कि मैं कौन हूं। वह निरीक्षक कहता है, आप कौन हैं? वह आदमी कहता है, मैं इस झील के आस-पास रहने वाला सबसे बड़ा झूठ बोलने वाला हूं। वह झोला खाली है। उसमें कोई मछली वगैरह नहीं है। तो वह आदमी कहता है, फिर काहे के लिए यह ढोंग कर रहे हो? झोला खाली है, उसको भरा बताते हो? धागा जो लटकाया है, उसमें कोई नीचे भोजन नहीं। मछली के लिए बस धागा ही लटकाया है। धागा उचका कर वह दिखाता है। तो फिर काहे के लिए ढोंग कर रहे हो? वह आदमी कहता है, कुछ मित्र आने वाले हैं, उनको मैं दिखाना चाहता हूं कि मैं भी मछली मारने वाला हूं। साधारण नहीं हूं। मैं भी कुछ हूं। वह आदमी कहता है, इससे क्या फायदा? वह मछली मारने वाला कहता है, अगर इससे फायदा नहीं, तो दुनिया की सब दौड़ व्यर्थ हैं। क्योंकि सब दौड़ एक ही बात दिखाना चाहती हैं कि मैं कुछ हूं।
वह आदमी ठीक कहता है। वह उस झील के आस-पास झूठ बोलने वाला सबसे बड़ा है। और जो आदमी भी यह दिखाने की कोशिश में लगा है कि मैं कुछ हूं, वह चाहे कहीं भी रहता हो किसी झील के आस-पास, वह भी एक बहुत बड़ी झूठ को सम्हालने में लगा है।
अहंकार से बड़ी कोई झूठ नहीं। और अहंकार के लिए हम सारी खोज कर रहे हैं। एक तो यह खोज है। और जिस आदमी को यह दिखाई पड़ जाता है कि अहंकार तो एक झूठ है। मैं हूं, लेकिन क्या हूं? यही मुझे पता नहीं। तो मैं यह हूं, वह हूं, यह दिखाने की कोशिश में लग कर कहीं मैं भटक तो नहीं जाऊंगा? पहले यह तो जान लूं कि मैं कौन हूं? फिर मैं कहूं कि मैं यह हूं। समबडी होने के पहले, कुछ होने के पहले यह तो जान लूं कि क्या हूं? और मजे की बात है, जो यह जानने जाते हैं कि वे क्या हैं, वे खो जाते हैं। और उससे एक हो जाते हैं जो सब है। और जो इस यात्रा पर जाते हैं बताने के लिए कि मैं यह हूं--धन से, ज्ञान से, यश से, पांडित्य से, त्याग से, जो यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि मैं कुछ हूं, वे सिकुड़ते चले जाते हैं। दीवाल चारों तरफ बनती चली जाती है। एक ईगो, एक अहंकार मजबूत हो जाता है। वही अहंकार कांटे की तरह चुभता है, दुख देता है, पीड़ा देता है, कष्ट देता है। फिर वह आदमी पूछता है कि शांति के लिए क्या करूं? बड़ा मन अशांत है। अगर मन अशांत हो, तो जानना कि अहंकार किया होगा मजबूत, इसलिए मन अशांत है। फिर वह आदमी कहता है, बहुत दुखी हूं, आनंद पाने के लिए क्या करूं? अगर दुख हो, तो जानना कि अहंकार के अतिरिक्त और कोई दुख नहीं है। अहंकार किया है मजबूत। और अब वह आदमी पूछता है, आनंद कहां पाऊं? और वह आदमी कहता है कि बड़े अज्ञान में भटक रहा हूं, ज्ञान चाहिए। लेकिन उससे खयाल से पूछना, अज्ञान अहंकार के सिवाय और क्या है? और अगर अहंकार है, तो अज्ञान नहीं मिट सकता है।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, सुकरात कहता है कि मैं जानता हूं कि मैं नहीं जानता। इसका क्या अर्थ है?
इसका इतना ही अर्थ है कि सुकरात यह कह रहा है कि यह भी अहंकार कि मैं जानता हूं, अज्ञान का सबूत है। यह भी अहंकार कि मैं जानता हूं, मैंने जान लिया, मैंने पा लिया। यह जो ‘मैं’ पर जोर है, तो वह अहंकार है। अहंकार है तो खतरा है। जो जानता है, वह कहेगा, जानता हूं लेकिन मैं कहां हूं। वह अहंकार कहां है, वह इगो कहां है? इसका यह मतलब नहीं है कि ‘मैं’ मिट जाएगा, तो आप मिट जाओगे। मैं मिटा तभी आप पूरे अर्थों में आप हो पाते हो। लेकिन तब वह आप बहुत बड़ा आप हो जाता है, उसमें सब समा जाता है। अहंकार की खोज चल रही है सब तरफ। एक आदमी धन इकट्ठा करता है, धन के ऊपर खड़ा होता चला जाता है। क्यों? यह ढेर किसलिए? वह चारों तरफ के लोगों से ऊपर उठ कर दिखलाना चाहता है कि मैं तुमसे ऊपर हूं। छोटे बच्चों जैसी बुद्धि होगी। एक छोटा सा बच्चा अपने बाप के पास कुर्सी पर खड़ा हो जाता है और कहता है, देखते हैं पिताजी, मैं आपसे बड़ा हो गया हूं। पिता हंसता है, वह कहता है, ठीक है। जरूर कुर्सी पर ऊंचे खड़े हो गए हो, बड़े हो गए हो। तो आदमी धन की कुर्सी बनाता है, ग्रंथों की कुर्सी बनाता है और उस पर खड़ा हो जाता है और चिल्ला कर कहता है कि मैं बड़ा हो गया हूं।
मैंने सुना है, डा़ पट्टाभि सीतारमैया ने एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि मद्रास में एक मजिस्ट्रेट था, और मजिस्ट्रेट बिलकुल पागल था। और पागलपन क्या था? वही जो हम सबका पागलपन है। पागलपन यह था कि उसने अदालत में एक ही कुर्सी रख छोड़ी थी खुद के बैठने के लिए। दूसरी कुर्सियां न थीं। हां, अंदर रख दी थीं कुर्सियां उसने। सात नंबर की कुर्सियां थीं। एक नंबर की शानदार कुर्सी थी। सात नंबर का एक मुढा था--गरीब। और आठवें नंबर के आदमी आते थे, तो खड़े-खड़े उनसे बात कर लेता था। आदमी देख कर कुर्सी बुलवाता था।
एक दिन एक बूढ़ा आकर खड़ा हुआ, लकड़ी टेकता हुआ। उसने सोचा, बिना कुर्सी के ही चल जाएगा। लेकिन तभी बूढ़े ने बाह खींची, घड़ी देखी। घड़ी कीमती है। मजिस्ट्रेट ने अपने नौकर को कहा: जल्दी जा, नंबर तीन की कुर्सी ले आ। वह भीतर से नंबर तीन की कुर्सी जब तक ला पाया तब तक उस बूढ़े ने कहा, शायद आप मुझे पहचानते नहीं? मैं रायबहादुर, फलां-फलां, फलां-फलां गांव का, भूल गए। मजिस्ट्रेट चिल्लाया: ठहर! चपरासी! नंबर दो की कुर्सी ला। चपरासी बीच से वापस लौट गया। उस बूढ़े ने कहा: नहीं, शायद आप पहचान नहीं पाए। मैंने पिछले महायुद्ध में सरकार को दस लाख रुपये दान दिए थे। तब तक चपरासी फिर चला आ रहा है नंबर दो की कुर्सी लेकर। वह मजिस्ट्रेट चिल्लाया, ठहर! नंबर एक की लेकर आ। वह बूढ़ा बोला, मैं खड़े-खड़े थक गया, आखिरी जो नंबर हो वही बुला लें, क्योंकि अभी और बातें मुझे बतानी हैं। अभी मुझे पहचानने में थोड़ा वक्त और लग जाएगा।
लेकिन यही हमारी पहचान है। यही बूढ़ा अगर न कहे कि रायबहादुर हूं, दस लाख दिए थे। घड़ी न हो कीमती, बस खत्म हो गया। क्या आदमी इतना ही है? इतनी ही चीजों का जोड़--कपड़े, रायबहादुर, पदमश्री। बस, इन्हीं का जोड़--कोट, कमीज, पगड़ी, इन्हीं का जोड़ है आदमी? धन जो खीसे में है; किताबें जो खोपड़ी में हैं; त्याग जो स्मृति में है, इन्हीं का जोड़ है आदमी? बस, यही काफी है? इतना जान लेने से जानना हो जाएगा? खोज पूरी हो जाएगी?
अधिक लोग इतने की ही खोज में व्यस्त हैं। और जो इतने की खोज में व्यस्त है वह अभी कपड़े खोज रहा है। और जो कपड़े खोज रहा है वह समय खो रहा है।
खोजना उसे है जो अंतस, जो आंतरिक, जो आत्मा है।
और हम सब कपड़े खोज रहे हैं।
वह मित्र पूछते हैं: खोजें क्यों ईश्र्वर को? वह मित्र यह पूछते हैं कि कपड़े ही क्यों न खोजते रहें? क्यों खोजें आत्मा को?
मत खोजें। मर्जी आपकी। लेकिन कपड़े खोज-खोज कर परेशान हो जाएंगे। कपड़ों का ढेर इकट्ठा हो जाएगा। आप कपड़ों में ही खो जाएंगे, दब जाएंगे। और आप, आप कपड़े नहीं हैं।
गालिब को एक दफा बहादुरशाह ने बुलाया है। निमंत्रण दिया है भोजन के लिए, आ जाओ। कवि है, गरीब आदमी है। फटे-पुराने कपड़े पहन कर चलने लगा। मित्रों ने कहा: यह पहन कर मत जाओ। राजा के दरवाजे पर ये कपड़े नहीं पहचाने जाते। गालिब ने कहा: मुझे बुलाया है कि मेरे कपड़ों को? नासमझ रहा होगा। दुनिया में कपड़े ही बुलाए जाते हैं, पहचाने जाते हैं। आदमी, आदमी को बुलाने का वक्त कहां आया अभी तक? समय कहां आया वह?
लेकिन गालिब नहीं माना। कुछ लोग जिद्दी होते हैं, नहीं मानते। मित्रों ने बहुत कहा, हम उधार कपड़े ले आते हैं। गालिब ने कहा: उधार कपड़े भी क्या उचित होगा? उससे तो फटे-पुराने अपने ही बेहतर, कम से कम अपने तो हैं। कोई यह तो नहीं कह सकता कि उधार हैं। उन्होंने कहा: पागल हुए हो, कौन पहचानता है कि क्या उधार है, क्याअपना है, इस दुनिया में सब उधार चल रहा है। उधार ज्ञान से आदमी ज्ञानी हो जाता है, तुम उधार कपड़ों की फिकर करते हो?
गालिब नहीं माना। गालिब ने कहा कि नहीं, जो अपना है वही ठीक है। गरीब भी अपना ही तो है, फिर कपड़े की क्या फिकर। मैं हूं। मैं तो वही रहूंगा, कपड़े कोई भी हों। मित्रों ने कहा: यह सब तुम नासमझी की बातें कर रहे हो, आदमी कपड़े से बदल जाता है। कपड़े जैसे होते हैं वैसा आदमी हो जाता है।
नहीं माना गालिब, चला गया। दरवाजे पर जाकर भीतर जाने लगा, द्वार पर खड़े द्वारपाल ने एक धक्का दिया और कहा: कहां भीतर जा रहे हो? यह कोई धर्मशाला है? कहां घुस रहे हो?
गालिब ने कहा: मुझे बुलाया है। सम्राट मेरे मित्र हैं। मुझे निमंत्रण भेजा है।
उस सिपाही ने कहा: हद्द हो गई। हर किसी भिखमंगे को सम्राट से दोस्ती का खयाल हो जाता है। रास्ते पर चलो, अन्यथा उठा कर बंद करवा दूंगा।
गालिब को तब मित्र याद आए कि गलती हो गई। शायद कपड़े ही पहचाने जाते हैं।
गालिब वापस लौट आया। मित्रों से कहा: क्षमा मांगता हूं, भूल हो गई। कपड़े ले आओ। मित्र तो उधार कपड़े ले आए। जूते उधार हैं, पगड़ी उधार है, कोट उधार है, सब उधार है। उधार आदमी बड़ा जंचता है। गालिब खूब जंचने लगे। उधार आदमी खूब जंचता है। गालिब खूब जंचने लगे। सड़क पर हर दुकानदार झुक-झुक कर नमस्कार करने लगा। आदमी की यह जात...यह आदमियत अब तक उधारी को ही नमस्कार करती रही है। यही गालिब थोड़ी देर पहले इसी रास्ते से निकला था, किसी ने नमस्कार नहीं किया था। रास्ता वही है, लोग वही हैं, गालिब वही है। कपड़े बदल गए, सब बदल गया।
गालिब तो हैरान हो गया। यह सत्य कभी न जाना था कि कपड़ों में इतना सत्य है। वही द्वारपाल के पास पहुंचा है, द्वारपाल ने झुक कर नमस्कार किया और कहा कि कहां पहुंचाऊं? कैसे आए महाराज? गालिब ने गौर से उसे देखा। लेकिन द्वारपाल नहीं पहचानता। आंख है, आंखों में कौन झांकता है? कपड़ों में देखने से फुरसत मिले कि कोई आंखों में झांके। आदमी कौन देखता है? कपड़ों से आंख हटे तो कोई आदमी को देखे। और जिनके भीतर आदमी बिलकुल नहीं होता इसलिए वे चौबीस घंटे कपड़ों की फिकर में होते हैं। कोई गेरुआ कपड़े रंगे हुए खड़ा है। आदमी भीतर बिलकुल नहीं है। कोई और तरह के कपड़े रंगे हुए खड़ा है। आदमी भीतर बिलकुल नहीं है। कोई गहने पहने हुए खड़ा है। कोई स्त्री सजी-धजी खड़ी है। आदमी भीतर बिलकुल नहीं है। जब तक यह साज-बाज बहुत जोर से चलेगा ऊपर, तब तक जानना कि भीतर कोई कमी है, जिसे ऊपर से छिपाया जा रहा है। लेकिन यही दुनिया है, यही पहचाना जाता है।
गालिब भीतर पहुंचा दिए गए। सम्राट ने कहा: बड़ी देर से राह देखता हूं। गालिब को भोजन पर बिठाया। उठा कर भोजन गालिब अपनी पगड़ी को कहने लगा: ले पगड़ी खा, ले कोट खा। सम्राट ने कहा: क्या करते हैं आप? आपके खाने की बड़ी अजीब आदत मालूम होती है। गालिब ने कहा: अजीब आदत नहीं महाराज! मैं तो पहले आया था, अब नहीं आया हूं। अब तो कपड़े ही आए हैं। मैं तो आकर जा भी चुका। और अब कभी न आऊंगा। क्योंकि जहां कपड़े पहचाने जाते हैं वहां अपनी क्या जरूरत। अब तो कपड़े ही आए हैं। अब तो कपड़ों को भोजन करा दूं और वापस लौट जाऊं।
यह हम जिस जिंदगी की दौड़ को दौड़ समझ रहे हैं, खोज को खोज समझ रहे हैं, यात्रा को यात्रा समझ रहे हैं, यह कपड़ों से ज्यादा है? हम क्या खोज रहे हैं? इस सबको खोज कर भी क्या हम उसे पा लेंगे जो हम हैं?
और फिर आप पूछते हैं, क्यों खोजें ईश्र्वर को? ईश्र्वर की खोज का मतलब क्या है? ईश्र्वर की खोज का मतलब है, उसकी खोज जो है। और संसार की खोज का मतलब है, उसकी खोज जो नहीं है। संसार की खोज का मतलब है, असत्य की खोज। प्रभु के मंदिर की खोज का अर्थ है, सत्य की खोज। और असत्य का केंद्र है, अहंकार। संसार का केंद्र है, अहंकार। और प्रभु को जो खोजने जाता है वह अपने को खोता है, धीरे-धीरे खोता है।
मैंने कल कहा, विश्र्वास खो दो। आज कहा, विचार भी खो दो। कल कुछ और खोने को कहूंगा, परसों कुछ और। एक घड़ी ऐसी आती है कि जो भी नॉन-एसेंशियल है, जो भी ऊपर से जुड़ा है, जो भी वस्त्र हैं, वह सब खो दो। रह जाने दो उसे जो नहीं खोया जा सकता है। और जिस दिन सिर्फ वही बच जाता है जिसे खोना असंभव है। उसी दिन क्रांति घटित हो जाती है। प्रभु मंदिर का द्वार खुल जाता है।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना उसके लिए मैं बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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