QUESTION & ANSWER
Prabhu Mandir Ke Dwar Par 03
Third Discourse from the series of 10 discourses - Prabhu Mandir Ke Dwar Par by Osho. These discourses were given in NARGOL during OCT 30 - NOV 03 1968.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
विश्र्वास अंधा द्वार है। अर्थात विश्र्वास द्वार नहीं है, केवल द्वार का मिथ्या आभास है। मनुष्य जो नहीं जानता है उसे इस भांति मान लेता है, जैसे जानता हो। मनुष्य के जो पास नहीं है, उसे वह इस भांति समझ लेता है जैसे वह उसके पास हो। और तब खोज बंद हो जाए तो कोई आश्र्चर्य नहीं है।
मैंने सुना है, एक अंधेरी रात में एक जंगल से दो संन्यासी गुजरते थे। एक वृद्ध संन्यासी है, एक युवा संन्यासी है। अंधेरी रात है। बियाबान जंगल है। अपरिचित रास्ता है। गांव कितनी दूर है, कुछ पता नहीं। वह वृद्ध संन्यासी तेजी से भागा चला जाता है। कंधे पर जो झोला लटकाया है, उसे जोर से हाथ से पकड़े हुए है। और बार-बार अपने युवा साथी से पूछता है, कोई खतरा तो नहीं, कोई भय तो नहीं, कोई चिंता तो नहीं? युवा साथी बहुत हैरान है, क्योंकि संन्यासी को भय कैसा, खतरा कैसा? और अगर संन्यासी को भी भय हो, खतरा हो, तो फिर ऐसा कौन होगा जिसे भय न हो, खतरा न हो? वह बहुत हैरान है कि आज यह वृद्ध संन्यासी बार-बार क्यों पूछने लगा है कि भय तो नहीं है कोई, खतरा तो नहीं है। डाकू-चोर तो इस जंगल में नहीं होते हैं, हम गांव तक कब तक पहुंच जाएंगे, और भागता है तेजी से। फिर एक कुएं पर वे रुके हैं पानी पीने को। वृद्ध पानी भर कर पी रहा है। अपना झोला उसने युवा संन्यासी को दिया है और कहा है, सम्हाल कर रखना। युवा को खयाल हुआ कि हो न हो खतरा इस झोले के भीतर होना चाहिए। उसने हाथ डाला है, देखा एक सोने की ईंट झोले के भीतर है। उससे ही भय है, उससे ही खतरा है। उसने वह सोने की ईंट निकाल कर फेंक दी और एक पत्थर का टुकड़ा उसकी जगह रख दिया है।
फिर वृद्ध पानी पीकर कुएं से नीचे उतरा है। जल्दी से झोला अपने हाथ में लेकर कंधे पर टांगा। टटोल कर ईंट देखी। ईंट है। फिर तेजी से भागने लगा है वह। फिर रास्ते में बार-बार पूछता है, कोई खतरा तो नहीं है? कोई भय तो नहीं है? उस युवक ने कहा: अब आप निर्भय हो जाएं। खतरे को मैं दो मील पीछे कुएं के पास ही फेंक आया हूं। वृद्ध ने घबड़ा कर झोले में हाथ डाला, वहां, वहां तो सोने की ईंट नहीं! सिर्फ पत्थर का टुकड़ा है! लेकिन दो मील तक उस पत्थर के टुकड़े को वह सोने की ईंट समझे रहा, और भयभीत रहा। फिर झोला उसने वहीं पटक दिया, फिर वह हंसने लगा और नाचने लगा और उसने कहा: अब गांव पहुंचने की कोई जल्दी न रही। अब कोई खतरा नहीं है। अब हम यहीं सो जाएं। अब रात यहीं विश्राम करें।
पत्थर की ईंट भी सोने की ईंट समझी जाए तो सोने की ईंट का भय पैदा कर देती है। लेकिन इससे वह सोने की ईंट नहीं हो जाती। जो हमारा ज्ञान नहीं है, उसे ज्ञान समझा जाए तो वह ज्ञान का भ्रम पैदा कर देता है। लेकिन इससे वह हमारा ज्ञान नहीं हो जाता। जो हम नहीं जानते हैं, उसे हम कितना ही मान लें तो भी जानने के भ्रम के सिवाय उस मानने से कभी जानना पैदा नहीं होता है। विश्र्वास असत्य है। और विश्र्वास अज्ञान है। और खतरा अज्ञान से उतना नहीं है, जितना विश्र्वास से है, क्योंकि अज्ञान जानता है कि नहीं जानता हूं।
विश्र्वास ऐसा अज्ञान है, जो नहीं जानता और जानता है कि जानता हूं! अज्ञान जब यह जान लेता है कि जानता हूं, तब वह विश्र्वास बन जाता है। अज्ञान को अपना बोध हो, तो अज्ञान को तोड़ने की चेष्टा चलती है और अज्ञान अबोध हो जाए तो फिर उसे तोड़ने का कोई कारण नहीं रह जाता है।
मनुष्यता को विश्र्वास ने जितने अज्ञान में रखा है उतना किसी और बात ने नहीं। अगर मनुष्य-जाति इतने अज्ञान से भरी है, तो उसका सौ में से निन्यानबे प्रतिशत कारण विश्र्वास की हजारों-हजारों वर्ष की शिक्षा है। विश्र्वास अज्ञान की सुरक्षा बन जाता है। अज्ञान को फिर वह नष्ट नहीं होने देता है। क्योंकि यह खयाल अगर पैदा हो गया कि हम जानते हैं, बिना जाने हुए, तो फिर जानने की यात्रा, अन्वेषण बंद हो जाने ही वाला है।
कल मैंने कहा कि विश्र्वास नहीं है उसका द्वार। आज कहना चाहता हूं, विचार है उसका द्वार। और विचार विश्वास से बिलकुल ही उलटी चित्त-दिशा है।
विचार के क्या-क्या तत्व हैं?
विचार का पहला तत्व है संदेह, डाउट। संदेह नहीं तो विचार नहीं। विश्र्वास का पहला तत्व है संदेह नहीं। विचार का पहला तत्व है संदेह। जो संदेह कर सकता है वही विचार करेगा; असल में जो विचार करने की हिम्मत जुटाता है वह संदेह करता है। जो विचार करने से डरता है, वह संदेह ही नहीं करता; वह आंख बंद करता है और मान लेता है। संदेह--एक छोटी सी घटना से समझाऊं।
अरस्तू तो इतना बड़ा विचारक हुआ, लेकिन तथाकथित बड़े से बड़े विचारकों के मन में भी विश्र्वास के कोने होते हैं, विश्र्वास के पॉकेट्स होते हैं। बड़े से बड़े विचारक कहे जाने वाले लोगों के भी मन के बहुत से हिस्से विश्र्वास के ही होते हैं। ऑलिवर लाज जैसा बुद्धिमान आदमी, वैज्ञानिक--लेकिन ताबीज बांध कर सोएगा, भूतों से उसे डर है! भूत-प्रेत से वह डरता है! पिकासो का नाम आप जानते हैं—बड़ा चित्रकार, इतना बुद्धिमान, इतना विचारशील, लेकिन न मालूम कितने गंडे-ताबीज बांधता है! और डरता है, भूत-प्रेत से बहुत डरता है। कहीं कोई विश्र्वास का कोना भी है।
ऐसे ही अरस्तू बहुत विचार करता है, लेकिन विश्र्वास के भी कोने हैं, जिनका उसे खयाल भी न हो। उसने अपनी किताब में लिखा है: स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। क्योंकि यूनान में हजारों साल से यह बात मानी जाती थी कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। असल में पुरुष यह मानने को राजी ही नहीं हैं कि स्त्रियों में कुछ भी उनके बराबर हो सकता है। दांत भी कैसे बराबर हो सकते हैं? स्त्रियों के दांत और पुरुषों के बराबर! यह पुरुष कैसे मान सकते हैं? यह पुरुष के अहंकार को बड़ी चोट की बात होगी। लेकिन कितना बड़ा आश्र्चर्य है कि किसी ने कभी स्त्री के दांत गिनने की कोशिश नहीं की। यह बात प्रचलित थी, प्रचलित रही और लोगों ने मान ली! अब स्त्री के दांत कितनी सुलभ बात है। घर-घर में स्त्रियां हैं, पुरुषों से थोड़ी ज्यादा ही हैं, कम नहीं हैं, और अरस्तू महाशय की तो दो औरतें थीं, एक भी नहीं थीं। दो में से किसी भी मिसेज अरस्तू को वह कह सकते थे कि एक क्षण बैठ जाओ और जरा दांत खोल दो, मैं गिन लूं। लेकिन यह उन्होंने नहीं कहा! यह मान लिया। चलता था कि स्त्री के दांत कम हैं। अरस्तू जैसे बुद्धिमान आदमी ने अपनी किताब में लिख दिया कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। और जब अरस्तू ने लिख दिया तो सारे लोगों को तो कहना ही क्या! अरस्तू का वाक्य तो प्रमाण है। एक हजार साल तक अरस्तू के मरने के बाद भी यह बात चलती रही कि स्त्रियों के दांत कम हैं। कल्पना नहीं होती कि इतने लोग हैं, किसी ने संदेह न किया कि एक बार संदेह करे और दांत गिन ले।
विश्र्वास की जो परंपराएं हैं वह संदेह करती ही नहीं। और जब पहली बार किसी आदमी ने स्त्री के दांत गिन कर यह कहा कि स्त्री के दांत पुरुषों के बराबर हैं, तो लोगों ने कहा, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? कभी स्त्रियों के दांत पुरुषों के बराबर हुए हैं? ऐसा कभी सुना है? अरस्तू की किताब देखी है? अरस्तू गलत लिखेगा? अरस्तू अज्ञानी है? तुमने कुछ गिनती में गलती कर ली होगी। या कोई गलत अपवाद स्त्री मिल गई होगी। दांत तो स्त्रियों के कम ही होते हैं, लिखा है किताब में। संदेह की वृत्ति न हो तो अतीत का पिछड़ा हुआ ज्ञान भविष्य के विकसित मस्तिष्क के लिए जंजीर बन जाता है। और ध्यान रहे, कल जो हम जानते थे उससे आज हम ज्यादा जानते हैं। और आज जो हम जानते हैं, कल हम उससे ज्यादा जानेंगे। हजार साल पहले जो हम जानते थे उससे हम आज बहुत ज्यादा जानते हैं।
ज्ञान के स्रोत पीछे नहीं हैं, ज्ञान के स्रोत निरंतर भविष्य में खुलते चले जाते हैं। लेकिन संदेह न करने वाली वृत्ति अतीत के पिछड़े हुए ज्ञान से जकड़ जाती है। और नये द्वार बंद हो जाते हैं। खुलना मुश्किल हो जाता है। संदेह बहुत अदभुत गुण है। संदेह का अर्थ है, जो कहा गया है, जो सुना गया है, जो माना जाता है, उस पर फिर से समस्या खड़ी करना, फिर से प्रश्र्नवाचक लगाना। कुछ भी जीवन में जो महत्वपूर्ण है उसे बिना प्रश्र्न के स्वीकार न कर लेना। उस पर प्रश्र्न खड़ा करना, पूछना, खोजना, जांचना, पड़ताल करना। लेकिन अगर संदेह ही खड़ा नहीं किया तो ये सब बातें रुक जाती हैं वहीं, पहले ही चरण पर; अगर मानने की पागल वृत्ति हुई, कमजोर वृत्ति हुई, तो सब रुक जाता है। फिर कोई पूछता नहीं, फिर कोई मानता नहीं। हजारों सवाल हैं जिंदगी के जो वहीं ठहरे हुए हैं, जहां हजारों साल पहले लोग उन्हें छोड़ गए, क्योंकि उन पर कोई संदेह नहीं उठा, उन पर कोई विचार नहीं उठा। और फिर हम दोहराए चले जाते हैं। दोहराए चले जाते हैं और दोहराने का एक परिणाम होता है कि मनुष्य के चित्त पर दोहराने का सम्मोहक असर होता है। कोई चीज दोहराए चले जाएं निरंतर इसकी बिना फिकर किए कि कोई मानता है या नहीं मानता है। दोहराते-दोहराते वह मानना शुरू कर देता है। वह भूल जाता है कि मैं नहीं मानता था। प्रश्र्न विलीन हो जाता है। सारे विज्ञापनदाता यही कर रहे हैं।
रास्ते पर आप जाते हैं तो बड़े-बड़े बिजली के जलते अक्षरों में लिखा है: हमाम साबुन। पहले तो एक ही तरह के अक्षरों में लिखा रहता था, अब जलते-बुझते अक्षरों में लिखा जा रहा है। वह मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि अगर तुमने बिना जलने-बुझने वाले अक्षरों में लिखा तो आदमी एक ही बार पढ़ता है, और अगर अक्षर बुझे फिर जले, फिर बुझे फिर जले, तो जितनी देर आदमी उस बोर्ड के पास से निकलता है उसको उतनी ही बार पढ़ना पड़ता है जितनी बार अक्षर जलते हैं, बुझते हैं। उसके माइंड में बार-बार रिपीट होता है: हमाम साबुन, हमाम साबुन, हमाम साबुन! उसके मस्तिष्क में घुसाया जा रहा है। रेडियो खोले, हमाम साबुन। अखबार खोले, हमाम साबुन। जहां भी जाए, हमाम साबुन। बस उससे कहो मत कुछ, सिर्फ हमाम शब्द को उसके भीतर दोहराते चले जाओ और भीतर डालते चले जाओ। वह कल दुकान पर खरीदने जाएगा, सैकड़ों साबुन रखे हैं, दुकानदार पूछता है, कौन सा साबुन आपको पसंद है? वह कहता है, हमाम साबुन। वह सिर्फ बेहोशी में बोल रहा है, उसे कुछ पता नहीं, वह क्या कह रहा है। होश में नहीं है वह आदमी, वह हिप्नोटाइज्ड है। वह सिर्फ बेहोश है। वह कह रहा है हमाम साबुन। यह हमाम साबुन दोहरा-दोहरा कर उसके मस्तिष्क के रग-रग, रेशे-रेशे में भर दिया गया है। वह अब उसकी जबान से निकल रहा है। वह सोचता है यह मैं कह रहा हूं, यह मैं सोच कर कह रहा हूं। यह वह सोच कर नहीं कह रहा है। यह सिर्फ विज्ञापन की कला उसके भीतर डाल दी है।
जब आप कहते हैं, मैं हिंदू हूं, तो आपने सोच कर कहा है? वही हमाम साबुन। जब आप कहते हैं, मैं मुसलमान हूं, आपने कभी सोच कर कहा है? वही हमाम साबुन। इनमें कोई फर्क नहीं है। बचपन से दिमाग में डाला जा रहा है कि तू हिंदू है, तू मुसलमान है। बचपन से समझाया जा रहा है--यह भगवान है कृष्ण, यह राम, यह क्राइस्ट, यह मोहम्मद, यह पैगंबर है; यह कुरान, यह गीता, ये पवित्र ग्रंथ हैं, इनमें सत्य भरा हुआ है। यह बचपन से दोहराया जा रहा है, दोहराया जा रहा है, दोहराया जा रहा है। इतने बचपन से दोहराया जा रहा है जब कि सवाल उठ ही नहीं सकता था। इतने बचपन के साथ यह बात दोहराई जा रही है जब कि प्रश्र्न उठाने की क्षमता भी न थी। इसीलिए सभी धार्मिक लोग छोटे-छोटे बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने के लिए बड़े लालायित रहते हैं। क्योंकि जब प्रश्र्न उठने शुरू हो जाएंगे। अगर बीस साल के जवान से आप पहली बार कहें कि तुम हिंदू हो, तो वह पूछेगा, क्यों? क्या मतलब? क्यों हूं हिंदू? लेकिन दो साल के छोटे बच्चे के दिमाग में डाला जा रहा है कि तुम हिंदू हो। उसे कुछ पता नहीं, प्रश्र्न पूछने की कला उसे मालूम नहीं। संदेह अभी सजग नहीं। उसके दिमाग मेंभर रहे हो उस बचपन से। जब प्रश्र्न उठने शुरू होंगे उससे बहुत गहरे में, उससे बहुत अनकांशस में तुमने भर दिया वह सब जिन पर वह अब कभी प्रश्र्न नहीं कर सकेगा। और जिंदगी भर उसे मानता चला जाएगा।
हम सारे लोग इसी तरह की प्रचारित बातों के बीच बड़े हुए हैं। हमारा सारा मस्तिष्क कंडीशंड है। सब संस्कारित है। अब अगर सत्य की खोज पर किसी को निकलना है और प्रभु का मंदिर खोजना है तो उसे अपने एक-एक संस्कार पर प्रश्र्न उठाना पड़ेगा। एक-एक संस्कार को उखाड़ कर पूछना पड़ेगा, ऐसा है? निश्र्चित ही बड़ी बेचैनी पैदा हो जाएगी, बहुत रेस्टलेसनेस पैदा हो जाएगी, बहुत अराजकता पैदा हो जाएगी, बहुत केऑटिक, भीतर सब गड़बड़ हो जाएगा जो सुव्यवस्थित है।
लेकिन इसके पहले कि कोई उस लंबी यात्रा पर निकले, जहां कि सच में सब सुव्यवस्थित हो जाएगा, उसके पहले जो झूठी सुव्यवस्था बनाई गई है उसका टूट जाना जरूरी है। इस अराजकता से गुजरना ही पड़ेगा। एक-एक संस्कार को पूछना पड़ेगा कि क्या ऐसा है? क्या मैं हिंदू हूं? किस कारण हिंदू हूं? इस कारण कि किसी घर में पैदा हो गया? किसी के घर में पैदा होने से कोई हिंदू कैसे हो सकता है? कम्युनिस्ट के घर में पैदा होने से कोई बेटा कम्युनिस्ट होता है? कांग्रेसी के घर में पैदा होने से कोई बेटा कांग्रेसी होता है? और अगर यह नहीं होता तो हिंदू के घर में पैदा होने से कोई हिंदू कैसे होगा? जैन के घर में पैदा होने से कोई जैन कैसे होगा? ये भी तो विचारधाराएं हैं, विचारधाराओं का जन्म से क्या संबंध है? जन्म से तो कोई भी संबंध नहीं है। खून से क्या संबंध है? विचारधारा का खून से कोई संबंध नहीं है। विचारधारा का वीर्यअणुओं से क्या संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है। आप किसी भी पिता से पैदा हों इससे आपका हिंदू और मुसलमान होने का कोई भी तो संबंध नहीं है। यह तो बिलकुल ही असंगत बात है जो आपके मस्तिष्क में जोड़ी और घुसाई जा रही है। गीता के सही और गलत होने से, आपके किसी घर में, खास घर में पैदा होने का क्या संबंध है? महावीर के तीर्थंकर होने या न होने से आपका किसी मां-बाप से पैदा होने का क्या संबंध है? कोई भी तो संबंध नहीं है। लेकिन कभी इस पर प्रश्र्न नहीं उठाया। इस पर कभी प्रश्र्नवाचक नहीं लगाया। कभी संदेह नहीं किया। इसलिए दुनिया विभाजित है। और जिस दिन एक-एक आदमी प्रश्र्न खड़ा करेगा उसी दिन दुनिया अविभाजित हो जाएगी।
आज सारी दुनिया में युद्ध है। रूस भयभीत है अमरीका से। अमरीका भयभीत है रूस से। और बेटे पूछ ही नहीं रहे हैं कि इस भय की क्या जरूरत है? पाकिस्तान भयभीत है हिंदुस्तान से। हिंदुस्तान भयभीत है पाकिस्तान से। दोनों एक दूसरे से भयभीत होकर युद्ध की तैयारी किए चले जाते हैं। कोई भी नहीं पूछता कि भयभीत होने की क्या जरूरत है? रहने के लिए पृथ्वी पर एक दूसरे से भयभीत होने की कौन सी आवश्यकता है। लेकिन प्रश्र्न ही कोई नहीं उठाएगा। भय स्वीकृत कर लिया जाएगा। झगड़े मान लिए जाएंगे और जारी रहेंगे।
जब तक समाज का मस्तिष्क, व्यक्ति का मस्तिष्क जीवन के एक-एक प्रश्र्न को वापस जगा नहीं लेता और आस्थाओं के सारे पर्दे नहीं उखाड़ देता तब तक, तब तक नये चित्त का जन्म नहीं होगा। और नया चित्त ही प्रभु के निकट पहुंच सकता है, पुराना चित्त नहीं। वह जो ओल्ड माइंड है--ओल्ड माइंड का, पुराने चित्त का मतलब बूढ़े का चित्त नहीं है, बूढ़ा चित्त। बूढ़े का चित्त नहीं। बूढ़े आदमी के पास भी ताजा चित्त हो सकता है अगर वह सोचता है, खोजता है, विचार करता है। अगर उसका चित्त क्लोज्ड नहीं हो गया, बंद नहीं हो गया, खुला है अगर उसके चित्त की दीवालें, द्वार-दरवाजे खुले हैं, सूरज की रोशनी आती है नई, हवाएं आती हैं नई, बाहर की सुगंध आती है नई, अगर उसने अपने सारे चित्त को बंद कारागृह नहीं बना लिया, तो एक बूढ़े आदमी के पास भी जवान चित्त होता है। और अगर एक जवान का चित्त भी बंद है तो उसके पास बूढ़ा चित्त होता है।
हिंदुस्तान में, इस देश में तो जवान चित्त खोजना मुश्किल है। जवान आदमी के पास ही खोजना मुश्किल है तो बूढ़े आदमी के पास खोजने का तो कोई सवाल नहीं, यह बूढ़ा चित्त कभी भी परमात्मा के द्वार पर प्रवेश नहीं कर सकता। क्यों? क्योंकि परमात्मा सदा जवान है। परमात्मा के बूढ़े होने का खयाल सुना है कभी? परमात्मा सदा जवान है। परमात्मा सदा नया है। जीवन सदा नया है, अस्तित्व सदा ताजा है, प्रतिपल ताजा और नया है अस्तित्व। अगर हम चारों तरफ जगत को देखें तो सब नया है वहां। आदमी के मन को भर देखें तो वहां पुराना मिलेगा। जगत में तो कहीं पुराना नहीं मिलेगा। जो पत्ते कल थे वे आज नहीं रह गए हैं। जो सूरज कल निकला था वह आज नहीं निकला है। जो बदलियां कल घिरी थीं, वह आज नहीं घिरी हैं। जो हवाएं कल बही थीं, वे अब कहां हैं? जो गंगा में पानी कल था वह अब कहां पहुंच गया होगा? वह कहां होगा, अब वह किन किनारों पर होगा? कुछ भी वही नहीं है जो क्षण भर पहले था। सब तीव्रता से बदलता भागा चला जा रहा है सिर्फ आदमी के चित्त को छोड़ कर। आदमी का चित्त क्यों नहीं बदलता तेजी से? इतनी ही तेजी से अगर आदमी का चित्त न बदले, अगर जीवन की गति के साथ आदमी के चित्त की गति का तारतम्य न हो तो जीवन अलग हो जाता, आदमी अलग हो जाता। आदमी अपने कैपस्युल में बंद हो जाता पुराने। और जिंदगी भागी चली जाती है। और तब इन दोनों का मिलन असंभव हो जाता है। जीवन से मिलना हो तो जीवन की तरह सतत प्रवाहशील होना जरूरी है। प्रश्र्न पूछने वाला चित्त प्रवाहित होता है। क्योंकि प्रश्र्न का मतलब ही यह है कि हम पुराने को तोड़ने का उपाय करते हैं, द्वार खोलते हैं, नये की तरफ उत्सुकता जाहिर करते हैं। लेकिन हम प्रश्र्न पूछते ही नहीं, हम प्रश्र्न पूछते ही नहीं। हमें जैसे प्रश्र्न पूछना एक भय का कारण मालूम पड़ता है--पूछो ही मत। विचार जिसे करना है, उसे यह भय छोड़ देना पड़ेगा। उसे पूछना पड़ेगा। संदेह उठाना पड़ेगा। उन सब पर भी, उन सारे सत्यों पर भी जो कहने वालों को असंदिग्ध रहे हों, उन पर भी संदेह उठाना पड़ेगा। क्योंकि तभी हम भी उस जगह तक पहुंचेंगे जहां असंदिग्ध सत्य का हम भी अनुभव कर सकें। संदेह के मार्ग से कोई असंदेह तक पहुंचता है। विश्र्वास के मार्ग से आदमी संदेह में ही जीता है और मर जाता है। विश्र्वास ऊपर होता है, भीतर संदेह होता है। संदेह को दबाए चले जाओ, विश्र्वास को थोपे चले जाओ।
पूछो किसी आदमी से, जो कहता है कि ईश्र्वर है। खोलो थोड़ी उसकी छाती। उससे कहो कि थोड़ा भीतर खोजो--कहीं ऐसा तो नहीं है कि भीतर शक हो, संदेह हो कि नहीं है। वह आदमी कहेगा, नहीं, मेरा दृढ़ विश्र्वास है। और जितने जोर से वह कहे मेरा दृढ़ विश्र्वास है, जानना कि उसके भीतर उतना ही गहरा संदेह है। उसी गहरे संदेह को दबाने के लिए दृढ़ विश्र्वास की जरूरत पड़ी, नहीं तो दृढ़ विश्र्वास की जरूरत न थी।
विश्र्वास किस चीज की दवा है? विश्र्वास संदेह को दबाने की पद्धति है। संदेह को मिटाना है, दबाना नहीं। इसलिए संदेह को पूरा प्रकट होने दो, ताकि वह प्रकट हो और उड़ जाए। प्रकट हो, सत्य से टकराए, नष्ट हो जाए। इतना ध्यान रहे कि कोई संदेह सत्य को नष्ट नहीं कर सकता है। इसलिए संदेह से भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं। संदेह टकराएगा सत्य से, सत्य बचेगा, संदेह खो जाएगा। लेकिन जो भयभीत हैं, वे शायद संदेह को सत्य से ज्यादा बड़ा मानते हैं। सभी विश्र्वासी, सभी श्रद्धावान संदेह को सत्य से बड़ा मानते होंगे। इसलिए वे कहते हैं, संदेह मत करो, विश्र्वास करो। संदेह क्या सत्य से बड़ा है कि करने से सत्य मिट जाएगा? संदेह बच जाएगा। संदेह की क्या शक्ति है सत्य के समक्ष? लेकिन हां, संदेह विश्र्वास से बड़ा है। इसलिए विश्र्वासी घबड़ाता है। संदेह उठेगा, विश्र्वास टूट जाएगा। लेकिन विश्र्वास की तो दो कौड़ी कीमत नहीं है। असली सवाल तो उस सत्य का है जिसके समक्ष संदेह गिर जाता है, टूट जाता है, नष्ट हो जाता है, खो जाता है। सत्य के समक्ष संदेह वैसे ही मिट जाता है जैसे दीये के समक्ष अंधकार मिट जाता है। दीया जला और अंधकार नहीं। लेकिन दीया मत जलाओ, द्वार-दरवाजे बंद करके अंधेरे को छिपा लो। उससे अंधेरा मिटेगा नहीं। उससे अंधेरा और सघन होगा। द्वार-दरवाजों से जो थोड़ी बहुत रोशनी आती थी वह भी नहीं आएगी। अंधेरा गहन होगा। सब दरवाजे बंद कर लो। दरवाजे पर पहरा लगा कर बैठ जाओ तो भीतर अंधेरा और गहन होगा।
विश्र्वासी आदमी के भीतर संदेह बहुत गहन होता है। संदेह को मिटाना हो, द्वार-दरवाजे खोलो, पूछो, डरो मत। विचार की पहली सीढ़ी है: संदेह। दूसरी सीढ़ी है: तर्क, दूसरी सीढ़ी है तर्कना, दूसरी सीढ़ी है रीजनिंग। सिर्फ पूछो ही मत--ऐसा भी हो सकता है कि पूछते सिर्फ इसलिए हो कि कोई बंधा हुआ उत्तर है, वही दे देने का इंतजाम है। पूछ लेते हो, फिर बंधा हुआ उत्तर दे देते हो। एक आदमी पूछता है, मैं कौन हूं? फिर बंधा हुआ उत्तर है, कहता है, मैं? मैं ब्रह्म स्वरूप, सत्-चित्त्-आनंद, मैं आत्मा हूं। यह उत्तर किताब से सीखा हुआ तैयार है। उसी किताब में उसने यह भी पढ़ा है कि पूछो मैं कौन हूं? उसी किताब में यह भी पढ़ा है कि उत्तर दो कि मैं ब्रह्म हूं। यह बेमानी है। यह पूछना किसी अर्थ का नहीं है। पूछो तो, तर्क करो, तो पूछने की कोई सार्थकता होगी। तोलो, बंधे हुए उत्तर मत दे दो। अगर बंधे हुए उत्तर देने हैं तो पूछना बेमानी हो गया। प्रश्र्न बनाया भी और पोंछ भी दिया। वह श्रम व्यर्थ गया। प्रश्र्न पूछना है तो उत्तर आने दो। सीखा हुआ उत्तर नहीं चाहिए। और जो उत्तर आए उसे तर्क की कसौटी पर कसो। देखो कि वह ठीक मालूम पड़ता हैं कि नहीं।
एक फकीर एक संध्या अपने घर आया है। किसी ने रास्ते में भिक्षा में उसे कुछ मांस दे दिया है। वह मांस घर लाकर उसने रखा है। पत्नी से कहा कि तैयार कर, मैं दस-पांच मित्रों को निमंत्रण दे आता हूं। पत्नी परेशान है। उसने सोचा, छिपा दो मांस को। दस-पांच मित्रों की परेशानी में मत पड़ो। पति लौट कर आया, उसने कहा: क्यों बैठी है तू, चूल्हा नहीं जला? उसने कहा: वह तुम्हारी जो बिल्ली है, मांस खा गई। उसके पति ने कहा: ऐसा क्या? वह बिल्ली कहां है? वह बिल्ली को पकड़ लाया, पड़ोस से एक तराजू ले आया। तीन पौंड मांस था। बिल्ली को तराजू पर रखा। बिल्ली तीन पौंड निकली। उस फकीर ने कहा: इफ दिस इ़ज दि मिट, वेयर इ़ज दि कैट? अगर यह मांस है, तो बिल्ली कहां है? मान नहीं लिया कि बिल्ली खा गई, तीन पौंड मांस बिल्ली खा जाएगी, तो बिल्ली का वजन तो बढ़ जाएगा। संयोग की बात, बिल्ली का खुद का वजन तीन पौंड है। उस फकीर ने कहा: तू ठीक कहती है कि बिल्ली मांस खा गई। यह तो मांस हो गया। अब बिल्ली कहां है? या अगर यह बिल्ली है तो कृपा कर द्वार-दरवाजे खोल, मांस कहां है? बाहर निकाल।
तौलने का अर्थ है: तर्क। तर्क का अर्थ है जो कहा जा रहा है उसे तोलो। उसे पहचानो। कहा जा रहा है, मंदिर की मूर्ति सबकी रक्षा करती है। जरा मंदिर की मूर्ति को धक्का देकर देखो, अपनी भी रक्षा कर पाती है कि नहीं कर पाती है! तो पता चलेगा कि अपनी भी रक्षा कर पाती है या नहीं कर पाती है, तो फिर सबकी रक्षा भी कर सकेगी? सोमनाथ के मंदिर पर हमला हुआ, तो पंडितों ने, पुजारियों ने क्या किया? आस-पास के राजपूतों ने खबर भेजी कि हम आएं रक्षा को? तो पुजारियों ने क्या उत्तर दिया? पुजारियों ने कहा कि जो सबका रक्षक है उसकी रक्षा तुम करोगे? नास्तिक हो? अधार्मिक हो? जो सबकी रक्षा करने वाला है, उसकी रक्षा तुम करोगे? रह गए बिचारे चुप। क्या जवाब देते? तर्क की तो क्षमता नहीं है। तर्क की क्षमता होती तो हारता यह मुल्क, ऐसा हर छोटी-छोटी बात में? चुप रह गए वे कि ठीक है, जब पुजारी कहते हैं तो ठीक कहते हैं। और जब दुश्मन गजनी ने हमला किया, तो पांच सौ पुजारी प्रार्थना कर रहे हैं भगवान से कि हमारी रक्षा करो! और वह गजनी घुस गया उनकी प्रार्थना के बीच। उसने गदा मारी और वे भगवान, जिनके सामने पांच सौ लोग प्रार्थना करते थे, और अरबों लोगों ने पहले प्रार्थना की होगी, वे भगवान चारों खाने चित्त हो गए, चार टुकड़े हो गए।
लेकिन इतनी सी बात तो वे राजपूत भी कर सकते थे आकर जांच। वे भी एक धक्का देकर देख सकते थे कि मूर्ति रक्षा कर पाएगी अपनी भी कि नहीं, कि सबकी करेगी? नहीं, पर तर्कणा नहीं है। नहीं, पर विचारणा नहीं है। नहीं, पर सोचना नहीं है, तोलना नहीं है। जो कह दिया उसे चुपचाप मान लेना। उसे अंधे की तरह मान लेना। तर्क का अर्थ है: तोलो। उसके दोनों पहलू तोलो। जो दावा किया जा रहा है उसकी परीक्षा करो कि वह दावा ठीक या नहीं। उसके विपरीत विकल्प खोजो और देखो कि क्या ठीक है? पच्चीस विकल्प हो सकते हैं, कौन ठीक है, इसकी बुद्धिगत कसौटी करो। लेकिन अबुद्धि पूर्वक स्वीकार चल रहा है। तर्कणा कौन करे? और धार्मिक, तथाकथित धार्मिक समझाते हैं, तर्क मत करना। तर्क करना ही मत। तर्क आदमी को नास्तिक बना देता है, और मैं आपसे कहता हूं कि जो तर्क करके नास्तिक बनता है, अगर तर्क करता ही चला जाए तो बहुत देर तक, नास्तिकता नहीं टिकेगी। नास्तिकता भी खो जाएगी। अधूरे तर्क पर कोई रुक जाए तो नास्तिक रह जाता है। अगर पूरे तर्क पर कोई चला जाए तो तर्क को भी पार कर जाता है। और जो कभी नास्तिक नहीं हुआ वह कभी ठीक से आस्तिक नहीं हो सकता है। आस्तिक होने के लिए नास्तिकता से गुजर जाना जरूरी है। नास्तिकता का कुल मतलब इतना है कि हम तर्क करते हैं, सोचते हैं, विचार करते हैं। जो आदमी नास्तिकता से नहीं गुजरा, उस आदमी ने न कभी सोचा, न कभी खोजा, वह आदमी डरा हुआ है और भय के कारण उसने भगवान को पकड़ रखा है। भगवान उसकी विचारगत निष्पत्ति नहीं बनी, भगवान उसकी खोज का अंतिम निष्कर्ष नहीं बना, निष्पत्ति नहीं बनी, पकड़ लिया है।
दूसरा सूत्र है: तर्क। सब तरफ से सोचो, खोजो, पूछो। सारे विकल्प देखो, जल्दी से कोई एक विकल्प मत पकड़ लो। जल्दी से कोई पक्षपात मत बना लो। निष्पक्ष भाव से खोजो, कौन क्या कहता है? इस मुल्क में चार्वाक ने कुछ तर्क दिए हैं, लेकिन कोई नहीं सुनने जाएगा। लेकिन जो चार्वाक को नहीं सुनता है वह कभी भी ठीक अर्थों में प्रभु के द्वार पर प्रविष्ट नहीं हो सकता। चार्वाक को सुन कर जो खोज में लगता है वह शायद प्रवेश पा भी जाए, लेकिन चार्वाक की तरफ कानों में अंगुलियां डाल कर जो निकल जाता है वह बहरा आदमी है, वह कभी आगे नहीं जा सकता है। इतना भय क्या है? चार्वाक की एक किताब नहीं बची--तर्कपूर्ण थीं। आग लगा दी होगी। चार्वाक के संबंध में जो भी शब्द मिलते हैं वे उनके विरोधियों की किताबों में लिखे हुए हैं, और कुछ सूत्र नहीं मिलते। आश्र्चर्यजनक है। हमने जैसे तर्क को जड़ से काटने की कोशिश की है। कहीं भी तर्क हो, विचार हो, उसे खत्म करो और अविचार को, विश्र्वास को दृढ़ करो, मजबूत करो। इसी कारण इस देश में विज्ञान का जन्म नहीं हो सका। विज्ञान वहां पैदा होता है जहां तर्क है। विज्ञान तर्क की फलश्रुति है। विज्ञान यहां पैदा नहीं हुआ, क्योंकि तर्क ही हमने कभी नहीं किया। और आज भी हम तर्क नहीं कर रहे हैं तो विज्ञान इस देश में पैदा नहीं होगा। और जो देश विज्ञान ही पैदा नहीं कर सकता वह देश धर्म कैसे पैदा करेगा? विज्ञान है पदार्थ का सत्य। और अगर हम पदार्थ का सत्य भी जानने में असमर्थ हैं तो हम परमात्मा का सत्य कैसे जान सकेंगे? वह तो बहुत ऊंची बात है। वह तो बहुत गहरी बात है। पदार्थ तो बहुत बाहरी बात है, पदार्थ तो बहुत स्थूल है। पदार्थ तो वह है जो दिखाई पड़ता है। परमात्मा वह है जो दिखाई नहीं पड़ता है। जिनकी पकड़ अभी दिखाई पड़ने वाले पर भी नहीं बैठ पाती, वे अदृश्य को पकड़ लेंगे, यह मात्र कल्पना हो जाती है।
विज्ञान से गुजरना भी जरूरी है, नास्तिकता से गुजरना भी जरूरी है, तर्क से गुजरना भी जरूरी है। और इससे जो गुजरता है उसको एक प्रौढ़ता, एक मैच्योरिटी मिलती है, उसके मस्तिष्क को एक बल मिलता है। उसके पैर किसी ठोस बुनियाद पर खड़े होने लगते हैं। फिर अगर वह किसी दिन ईश्र्वर के द्वार पर खटखटा देता है और द्वार में प्रविष्ट हो जाता है तो उसके पीछे एक आधारशिला होती है। उसे फिर वापस नहीं लौटाया जा सकता। लेकिन जो तर्क से नहीं गुजरा और ईश्र्वर के पास पहुंच गया कल्पना में, उसे तत्क्षण वापस लौटाया जा सकता है। उसके पीछे कोई आधार नहीं, कोई बुनियाद नहीं। उसके मकान की कोई नींव नहीं, उसने मकान बना लिया है। बिना नींव का वह मकान है।
यह दूसरी बात कहना चाहता हूं, एक-एक बात पर तर्कना की जरूरत है। तर्क से जो हीन है, तर्क से जो नीचे है, वह स्वीकार के योग्य नहीं है। उसे स्वीकृति नहीं दी जानी चाहिए। सोचा ही जाना चाहिए। विश्र्वास सिखाता है, समर्पण। विचार सिखाता है, संघर्षण। विश्र्वास कहता है, सब छोड़ कर मेरी शरण में आ जाओ--सब छोड़ो, तुम सोचो मत, मेरी शरण में आ जाओ। विश्र्वास सिखाता है, शरण, किसी की शरण में आ जाओ। तर्क सिखाता है--अशरण हो जाओ। किसी की शरण मत जाना। खुद सोचना, खुद विचार करना। संघर्ष, संघर्ष करना विचार से--यह ठीक है, वह ठीक है। यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है। खोजना, खोजना। जरूरी नहीं है कि खोज से आज ही सत्य मिल जाएगा। लेकिन खोजने से, भीतर जो खोजने वाली चेतना है वह ज्यादा प्रगाढ़ ज्यादा मजबूत, ज्यादा प्रौढ़ हो जाएगी। वही असली सवाल है। वही महत्वपूर्ण सवाल है।
तीसरी सीढ़ी है: चिंतन। तर्क है रीजनिंग, चिंतन है कंटेंप्लेशन। सारे तर्क कर डालो, सारे तर्क देख डालो। आस्तिक को सुनो, नास्तिक को सुनो, ईश्र्वर के पक्षपाती को सुनो, विपक्षी को सुनो, जो भी चारों तरफ तर्क दिए गए हैं जीवन के सत्य के लिए, सबके लिए द्वार खुला छोड़ दो, सबको भीतर आने दो। लेकिन फिर स्वयं सोचो। निर्णायक बनो। चिंतन का अर्थ है: फिर सोचो, कौन ठीक है, कौन मेरी बुद्धि की कसौटी पर ठीक है, इसके चिंतन में उतरो। और एक-एक चीज के सारे पहलुओं को खोजो। जल्दी नहीं है। घबड़ाहट नहीं है। जल्दी पकड़ लेने का आग्रह नहीं है। एक-एक चीज को उलटाओ, उसके चारों तरफ से देखो। आस्तिक कहता है: दुनिया है तो जरूर किसी ने बनाई होगी, उस बनाने वाले का नाम भगवान है, बिना बनाए दुनिया कैसे बन सकती है? सुनो उसकी बात। खोजो इस बात को कि यह ठीक तो कहता है, बिना बनाए दुनिया कैसे बन सकती है? नास्तिक की बात भी सुनो, वह कहता है, अगर दुनिया बनाए बिना नहीं बन सकती, तो मैं यह पूछता हूं कि भगवान को किसने बनाया है? सुनो उसकी बात। वह भी तो अर्थपूर्ण बात कहता है। वह कहता है, अगर दुनिया बिना बनाने वाले के नहीं बन सकती तो भगवान को भी तो किसी ने बनाया होगा, फिर भगवान को किसने बनाया है? और अगर कहो कि किसी ने बनाया है तो वह पूछता है, उसको किसने बनाया है? और तब पता चलता है कि यह तर्क ईश्र्वर के लिए बेमानी है। इससे ईश्र्वर न सिद्ध होता है, न असिद्ध होता है। इन दोनों को तोलो और तोल कर पाओ कि इनमें कुछ सिद्ध होता है कि ये दोनों व्यर्थ हो जाते हैं।
अगर कोई व्यक्ति ठीक से चिंतन करेगा तो वह पाएगा कि जीवन के परम सत्य के संबंध में कोई भी तर्क कुछ सिद्ध नहीं कर पाता। तर्क दलील देता है, एक बात कहता है। लेकिन ठीक विपरीत तर्क दूसरी दलील देता है, दूसरी बात कहता है। अगर दूसरे तर्क को सुना ही नहीं, तो एक तर्क को तुम पकड़ लोगे। लेकिन यह चिंतन न हुआ। तुम आस्तिक हो जाओगे। नास्तिक हो जाओगे। लेकिन यह चिंतन न हुआ। चिंतन का अर्थ है: एक-एक तर्क को निष्पक्ष रूप से खोजो। खोज कर पता चलेगा कि कोई भी तर्क सत्य को सिद्ध नहीं कर पाता। कोई भी तर्क सिद्ध नहीं कर पाता। एक तर्क जो सिद्ध करता है, दूसरा उसे असिद्ध कर जाता है। और तब एक बहुत बड़ी प्रौढ़ता उपलब्ध होगी कि तर्क भी बुद्धि का एक खेल है। विश्र्वास बुद्धि के नीचे हैं। तर्क बुद्धि के भीतर है। लेकिन तर्क भी एक खेल है, और जिस दिन यह अनुभव होता है, तर्क करने वाले विचारशील मस्तिष्क को जब यह पता चलता है कि तर्क भी एक खेल है, तो तर्क से ऊपर उठने की संभावना का द्वार खुल जाता है।
मैंने सुना है, एक आदमी ने अमरीका के एक बड़े नगर में आकर खबर की कि मैं एक ऐसा घोड़ा लाया हूं, जैसा घोड़ा पृथ्वी पर कभी नहीं हुआ। उस घोड़े का मुंह वहां है जहां पूंछ होनी चाहिए और पूंछ वहां है जहां मुंह होना चाहिए। जिन्हें देखना हो वे फलां-फलां थियेटर में सांझ पहुंच जाएं, इतने-इतने रुपये की टिकट होगी। सारा गांव टूट पड़ा। अगर आप भी रहे होंगे उस गांव में तो आप भी जरूर गए होंगे। ऐसे घोड़े को देखने से कौन बच सकता है? लोग चिल्लाने लगे, भीड़ भारी है, सारा हाल भरा है। हाल के बाहर लोग भरे हैं। लोग चिल्ला रहे हैं कि जल्दी घोड़ा निकालो। वह आदमी कहता है कि कोई साधारण घोड़ा नहीं है, थोड़ा धैर्य रखिए। घोड़ा आते ही आएगा। फिर धीरे-धीरे इंच-इंच जगह भर गई, श्र्वास लेना मुश्किल है, और फिर उस आदमी ने पर्दा हटाया। और एक बिलकुल साधारण घोड़ा खड़ा हुआ है। लोगों ने गौर से देखा, एक क्षण तो सकते में आ गए, श्वास रुक गई। यही घोड़ा है? फिर लोग चिल्लाए, धोखा दे रहे हो। मजाक कर रहे हो? यह तो साधारण घोड़ा है। उस आदमी ने कहा: जरा गौर से देखो, मेरे तर्क को देखो। फिर लोगों ने गौर से देखा, कुछ खास बात नहीं दिखाई पड़ती, सिर्फ एक मामला दिखाई पड़ता है, घोड़ा साधारण है। सिर्फ जो तोबरा मुंह में बांधा जाता है वह तोबरा उसकी पूंछ में बंधा हुआ है। और उस आदमी ने कहा: देखो गौर से, इस घोड़े का मुंह वहां है जहां पूंछ होनी चाहिए। और पूंछ वहां है, तोबरे में जहां मुंह होना चाहिए। यह घोड़ा बहुत विशेष है। और लोगों से कहा, तर्क समझ गए मेरा? अब बिना शोरगुल किए चुपचाप घर वापस चले जाओ। जो मैंने कहा था वह वायदा पूरा कर दिया।
तर्क तो ठीक है, लेकिन खिलवाड़ हो गया। लेकिन तर्क खिलवाड़ है यह भी तर्क के पहले पता नहीं चल सकता, यह भी तर्क से गुजर कर ही पता चलता है। लेकिन कोई कहेगा, जब तर्क चिंतन से पता चलता है कि बेमानी है, तो हम तर्क ही क्यों करें हम? पहले ही क्यों न रुक जाएं।
मैंने सुना है, एक स्टेशन पर बड़ा झगड़ा मचा हुआ था। कुछ लोग तीर्थ यात्रा को जा रहे हैं, हरिद्वार जा रहे हैं। और स्टेशन पर शोरगुल है। सारे लोग गाड़ी में बैठ रहे हैं। सब चिल्ला रहे हैं, सामान रखो, जल्दी रखो, कोई पीछे न छूट जाए, लड़का न छूट जाए, पत्नी न छूट जाए। गाड़ी छूटने को है। सीटी बजने लगी, घंटी हो गई, झंडी फहरने लगी। लेकिन एक आदमी के पास बड़ी भीड़ है: आठ-दस आदमी उसे पकड़ कर खींच रहे हैं, और वह आदमी यह कहता है, पहले मुझे यह बताओ, इस गाड़ी में चढूंगा तभी जब तुम यह वायदा कर दो कि फिर इसमें से उतरना तो नहीं पड़ेगा। अगर उतरना ही हो चढ़ने की क्या जरूरत? हम चढ़े क्यों, अगर उतरना हो। अगर उतरना ही है तो हम बिना चढ़े ही बेहतर। वे लोग कह रहे हैं, गाड़ी छूट जाएगी। रास्ते में तुम्हें समझाएंगे। उतरना तो पड़ेगा, लेकिन चढ़ना भी जरूरी है। लेकिन वह आदमी नहीं मानता, वह कहता है कि जब चढ़ना है और फिर उतरना है तो चढ़े क्यों? उसका तर्क ठीक है। लेकिन लोग, मित्र जबरदस्ती उसे भीतर चढ़ा लेते हैं।
फिर हरिद्वार आ गया। अब सारे लोग उतर रहे हैं। अब फिर वही झंझट शुरू हो गई। मित्र कह रहे हैं, नीचे उतरो। वह आदमी कहता है हम चढ़ कर उतरने वालों में से नहीं हैं। हम सिद्धांत के बड़े पक्के हैं। हम चढ़ गए सो चढ़ गए। हम ऐसे नहीं है कि कल कुछ, आज कुछ। हम पक्के आदमी हैं। हम चढ़ गए तो चढ़ गए, अब हम उतरेंगे नहीं। हमने पहले ही कहा था कि अगर उतरना हो तो चढ़ेंगे नहीं। मित्र जबरदस्ती नीचे उतार रहे हैं, लेकिन वह आदमी कहता है, यह बिलकुल ठीक बात नहीं, तुम जबरदस्ती कर रहे हो। अगर उतारना था तो चढ़ाया क्यों था? वह आदमी ठीक कहता है। थोड़ी सी भूल करता है। जहां चढ़ा था वह हरिद्वार नहीं था, जहां उतर रहा है वह हरिद्वार है।
विश्र्वास करने वाला आदमी भी कहता है कि एक समय जाकर तर्क व्यर्थ हो जाता है, तो फिर हम तर्क करें ही क्यों? लेकिन विश्र्वास हरिद्वार नहीं है। विश्र्वास तर्क से पहले की अवस्था है। और जो विश्र्वास पर रुक जाता है और तर्क से नहीं गुजरता, वह तर्कातीत, बियांड दी रीजनिंग कभी नहीं पहुंच पाता। तर्कातीत अवस्था उसे कभी उपलब्ध नहीं होती। वह तर्क के पहले ही रह जाता है। तर्क के बाद की अवस्था उसे कभी उपलब्ध नहीं होती। सत्य तर्कातीत है। सत्य तर्क से नहीं मिल जाता, सत्य तर्कातीत है। ट्रासेंडेंटल है। तर्क से भी आगे है। लेकिन जो तर्क करता है, वही आगे जा पाता है। विश्र्वासी कहता है, तर्क से भी तो नहीं मिलता, हम पहले ही रुक जाते हैं। वह कहता है, हम तर्क में जाएं क्यों? हम तर्क के पहले रुक जाते हैं। वह तर्कहीन है, तर्कातीत नहीं। लेकिन जो तर्क से गुजरता है, उस प्रौढ़ता से गुजरता है, सब खोजता है, सारे तर्कों की एक-एक बारीक बात सुनता है। और आखिर में चिंतन करता है, तो चिंतन से कंटेंप्लेशन से यह पता चलता है कि विश्र्वास तो पहुंचाता नहीं। तर्क पहुंचाता है, लेकिन द्वार पर ही रोक लेता है, भीतर नहीं जाने देता। विश्र्वास तो झूठे द्वार पर खड़ा कर देता है। तर्क ठीक द्वार पर खड़ा करता है। लेकिन द्वार पर ही खड़ा करता है, भीतर प्रवेश नहीं करने देता।
तर्क के बाद है, चिंतन; वह भी विचार की तीसरी सीढ़ी है। चिंतन का मतलब है: सारे तर्कों का निष्पक्ष आंदोलन, सारे तर्कों की निष्पक्ष समीक्षा। देखना है क्या है ठीक, क्या है नहीं ठीक। और जब तर्क को कोई बहुत गौर से देखता है तो पाता है कि तर्क जिसे सिद्ध करता है, उसे असिद्ध भी कर देता है। उसे ही असिद्ध कर देता है जिसे सिद्ध करता है। तर्क दोनों पहलुओं को सिद्ध कर देता है, दोनों को असिद्ध कर देता है। और तब तर्क एक खेल रह जाता है, एक जाल रह जाता है, एक पहेली रह जाती है। जिस पहेली का अपना सुख है, लेकिन पहेली के बाहर जाने का वहां कोई मार्ग नहीं है। लेकिन जो इस पूरी पहेली को जीएगा वह बाहर हो जाता है।
एक गांव में एक सम्राट ने तय किया कि मैं अपने गांव में असत्य नहीं चलने दूंगा। और जो असत्य बोलेगा उसको फांसी लगा दूंगा। गांव के एक वृद्ध संन्यासी को बुला कर उसने पूछा कि तुम्हारी क्या आज्ञा है? मैंने तय किया है कि असत्य नहीं चलने दूंगा, आशीर्वाद दो। उस संन्यासी ने पूछा: करोगे क्या? तरकीब क्या है असत्य न चलने देने की? उसने कहा: मैं एक आदमी को रोज फांसी पर लटकाऊंगा जो असत्य बोलेगा। उस संन्यासी ने कहा: आश्र्चर्य! क्योंकि अभी तक यही तय नहीं हो सका है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है? निर्णय का रास्ता क्या है? उस आदमी ने कहा: तर्क करेंगे, विचार करेंगे। उसने कहा: बहुत अच्छा है। लेकिन तर्क और विचार से निर्णय होगा? तर्क और विचार से विश्र्वास के जो निर्णय थे वे खंडित हो जाएंगे। तर्क और विचार निषेधात्मक प्रक्रिया है, निगेटिव है। वह उखाड़ देगा विश्र्वास को। लेकिन पाजिटिव कुछ देगा, विधायक कुछ मिलेगा? पता चलेगा क्या है सत्य, क्या है असत्य? उस राजा ने कहा: हमने इसीलिए आपको पूछने के लिए बुलाया है। आप हमें बताएं, हम वैसा करें। उस फकीर ने कहा: फांसी कहां लगाओगे? राजा ने कहा: गांव का जो नगर द्वार है, कल सुबह नये वर्ष के शुरू दिन में एक आदमी को हम वहां लटकाएंगे जो झूठ बोलता पकड़ा जाएगा। उस फकीर ने कहा: फिर मैं कल सुबह नगर-द्वार पर ही मिलूंगा। कल सुबह आप वहीं मिल जाएं और अपने तर्कशास्त्रियों को लेकर वहां आ जाएं कि वे निर्णय कर सकें कि सत्य क्या है, असत्य क्या है।
दूसरे दिन द्वार खुला, फकीर अपने घोड़े पर सवार भीतर प्रविष्ट हुआ। राजा ने पूछा, घोड़े पर सवार आप कहां जा रहे हैं? उस फकीर ने कहा: मैं फांसी पर चढ़ने जा रहा हूं। राजा ने कहा: क्यों झूठ बोलते हैं? आपको, और कौन फांसी पर चढ़ाएगा? उस फकीर ने कहा: अगर झूठ बोलता हूं तो फांसी पर चढ़ा दो, लेकिन तब जो मैंने बोला वह सत्य हो जाएगा। और अगर मुझे फांसी पर नहीं चढ़ाते तो झूठ बोलने वाले आदमी को बिना फांसी पर चढ़े हुए जाने दिया है। अब तुम निर्णय कर लो। ये तुम्हारे सब विचार करने वाले निर्णय कर लें कि मुझे फांसी देनी है कि नहीं देनी है? वह राजा और उसके पंडित बहुत मुश्किल में पड़ गए। उन्होंने कहा: अगर हम इसे जाने देते हैं तो यह आदमी झूठ बोल रहा है कि मैं फांसी पर चढ़ने जा रहा हूं। और अगर नहीं जाने देते, और फांसी पर लटकाते हैं तो यह आदमी सत्य हो जाता है, और हमारा फांसी देना सत्य के लिए फांसी हो जाती है। अब हम क्या करें? उस फकीर ने कहा: जब तुम निर्णय कर लो तो मुझे खबर कर देना, मैं फांसी पर चढ़ने आ जाऊंगा। वह अपना घोड़ा बढ़ा कर चला गया। फिर वर्षों बीत गए, उस फकीर को कोई खबर नहीं आई। बार-बार उसने खबर भेजी राजा को कि निर्णय हुआ हो तो बोलो। उस राजा ने कहा: कुछ निर्णय नहीं होता। हम तर्क कर-कर के हार गए। अब हम आपसे ही पूछते हैं कि सत्य को हम कैसे जानें? तो उस फकीर ने कहा: तर्क करो, और जब हार जाओ तो तर्क के ऊपर उठो। लेकिन हारे बिना कोई ऊपर नहीं उठ सकता है।
तर्क का एक ही उपयोग है, विचार का एक ही उपयोग है, मनन का एक ही उपयोग है कि अंतिम चरण में मनन, विचार, तर्क अपने को ही व्यर्थ कर जाते हैं। विचार अंततः वहां पहुंचाता है जहां विचार कहता है: निर्विचार हो जाओ तो द्वार खुल सकता है। विचार से तो एक चक्कर पैदा होता है, कुछ खुलता नहीं है। विश्र्वास एक कांटा है जो लगा हो पैर में। और किसी आदमी को कांटा लगा हो और हम उससे कहें कि दूसरा कांटा ले आएं तुम्हारे कांटे को निकालने को? वह आदमी चिल्लाए और कहे कि पागल हुए हो, एक ही कांटा मुझे काफी तकलीफ दे रहा है और तुम दूसरा कांटा लाना चाहते हो? हम उससे कहें कि हम उस कांटे को इस कांटे को निकालने को लाते हैं। कांटा ले आएं, उसका पहला कांटा निकाल कर फेंक दें, और वह आदमी दूसरे कांटे को पहले कांटे के घाव में सम्हाल कर वापस रखने लगे और कहे, इसने बड़ी कृपा की है। इसे हम सम्हाल कर इसी छेद में रख लेते हैं। हम उससे कहें तू पागल है, फिर तो बात वही हो गई।
मैं विश्र्वास का विरोधी हूं विचार के पक्ष में। विचार के कांटे से सब विश्र्वास की जड़ें उखाड़ कर फेंक देनी चाहिए। फेंक देने बिना कोई रास्ता नहीं है। लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि फिर विश्र्वास की जगह विचार को रख लेना। जैसे ही वह कांटा व्यर्थ हुआ, विचार भी व्यर्थ हो जाता है। और विचार व्यर्थ होता है तभी जब हम विचार से गुजरते हैं, करते हैं, खोजते हैं और आखिर में पाते हैं कि विचार करने से धारणाएं मिलती हैं, कंसेप्टस मिलते हैं, ट्रूथ नहीं मिलता, सत्य नहीं मिलता, कितना ही विचार करें, तो हमें कुछ धारणा मिल सकती है कि ऐसा होगा सत्य, लेकिन ऐसा है सत्य, यह नहीं मिलता। विचार करने से, सोचने से पता चलता है कि शायद ऐसा होगा। परहेप्स, विचार कभी भी परहेप्स के ऊपर नहीं ले जाता। वह कहता है, शायद ऐसा होगा। इसीलिए विज्ञान परहेप्स के ऊपर नहीं उठता। विज्ञान कहता है, शायद ऐसा है। कल बदल सकता है, परसों बदल सकता है। फिर आगे बदलता रहेगा। न्यूटन कुछ और कहता है, आइंस्टीन कुछ और कहता है, आइंस्टीन के बेटे कुछ और कहेंगे, उनके बेटे कुछ और कहेंगे, और हमेशा परहेप्स लगा रहेगा। लगा रहेगा स्यात, ऐसा है। इतना हम कह सकते हैं कि अभी तक जो हम जानते हैं उससे ऐसा लगता है। कल, कल हम और जानेंगे, और, और अन्यथा लग सकता है। विचार स्यात के ऊपर, प्रोबेबिलिटी के ऊपर, परहेप्स के ऊपर, संभावना के ऊपर नहीं ले जा सकता। विचार एक धारणा देता है, कंसेप्ट एक प्रत्यय कि ऐसा हो सकता है।
विचार की धारणा सत्य नहीं है। सत्य तो वहां है जहां सारी धारणाएं छूट जाती हैं। लेकिन विचार से गुजरना जरूरी है।
मैं एक उदाहरण के लिए कहूं, एक आदमी गरीब है, नंगा खड़ा है सड़क पर। फिर एक महावीर हैं, वे राजपुत्र हैं, उन्होंने सुंदरतम वस्त्र पहने हैं, वे सुंदरतम गद्दों पर सोए हैं। उन्होंने जीवन का सब सुख भोग पाया है। फिर वे भी सब छोड़ कर रास्ते पर आकर नंगे खड़े हो गए हैं। ये दोनों आदमी नंगे खड़े हैं। अगर इनका एक फोटोग्राफ उतारा जाए तो फोटोग्राफ में काई फर्क नहीं मालूम पड़ेगा कि इन दोनों के नंगेपन में कोई फर्क है। लेकिन एक नंगा आदमी, जिसने कपड़े नहीं जाने, और ही तरह से नंगा है। और एक आदमी, जिसने सब सुंदरतम वस्त्र जाने, नंगा होकर खड़ा हो गया है, और ही तरह से नंगा है। एक का नंगापन गरीबी है। दरिद्रता है। एक का नंगापन मजबूरी है। एक का नंगापन आनंद है, मुक्ति है, स्वेच्छा है। एक के नंगेपन में कपड़े पहनने की आकांक्षा छिपी है। एक के नंगेपन में कपड़ों के ऊपर चले जाने का द्वार खुल गया है। ये दोनों आदमी दो भांति नंगे हैं। महावीर की नग्नता का सौंदर्य ही और है। एक गरीब आदमी की नग्नता एक कुरूपता है, एक अग्लीनेस है। क्योंकि गरीब आदमी के भीतर वस्त्रों की चाह छिपी है। उस नग्नता के भीतर मांग है, कि वस्त्र मिल जाएं। वस्त्र नहीं मिल रहे हैं, इसलिए पीड़ा भी है। महावीर वस्त्रों के ऊपर उठ गए हैं। वह भी नग्न खड़े हैं। वहां वस्त्रों की कोई मांग नहीं है। वह मांग खत्म हो गई है। अब वह नग्नता अत्यंत निर्दोष है। अब उस नग्नता में अपने को छिपाने की, वस्त्रों की मांग की कोई कल्पना नहीं है।
एक आदमी विश्र्वास कर रहा है। वह गरीब आदमी की तरह नंगा है। एक आदमी विचार करके विचार के ऊपर चला गया है। वह महावीर की तरह नग्न है। इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। विश्र्वास करने वाला भी विचार नहीं करता। विचार के ऊपर उठ जाने वाला भी विचार छोड़ देता है। लेकिन विचार न करना एक बात है, और विचार छोड़ देना बिलकुल दूसरी बात है। ये दोनों भेद न दिखाई पड़ने से विश्र्वास करने वाला सोचता है, हम भी वहीं है जहां निर्विचार वाला पहुंचाता है। वहां वह नहीं है। वहां वह कभी नहीं हो सकता है। इस विचार की प्रक्रिया से गुजरना एक अनिवार्यता है। यह गुजरना एक अनिवार्य चरण है। इससे गुजरे बिना कोई कभी निर्विचार को नहीं पहुंच सकता है।
विचार दूसरी सीढ़ी है। विश्र्वास को तोड़ दें, खंड-खंड उखाड़ दें, जड़-जड़ फेंक दें विचार की धार से। और जब विश्र्वास फिंक जाए और विचार की पूरी तपश्र्चर्या से आप गुजर जाएं और उस जगह पहुंच जाएं जहां विचार चक्कर में घुमाने लगे और कोई मार्ग न सूझे: धारणाएं हाथ में आ जाएं, सिद्धांत हाथ में आ जाएं, लेकिन सत्य हाथ में न आए, तब विचार ही कहेगा, अब मुझे छोड़ दो, अब मुझसे ऊपर चले जाओ, अब मैं किसी काम का नहीं हूं। विचार ही कहेगा कि अब मुझे छोड़ दो, अब मेरे ऊपर चल जाओ, अब मैं किसी काम का नहीं हूं। जो अंतिम दान है विचार का वह यह है कि वह कह जाता है कि मैं भी व्यर्थ हूं, अब मुझे भी पार करो।
उस तीसरी सीढ़ी में हम उस पर विचार करेंगे, निर्विचार पर अर्थात ध्यान पर। पहली, विश्र्वास नहीं लिखा है उ
स द्वार पर। विश्र्वास नहीं। और मैंने कहा, विचार, और जब विचार से गुजरेंगे, तो पाएंगे कि लिखा नहीं है उस द्वार पर। विचार भी नहीं लिखा है उस द्वार पर। परमात्मा के द्वार पर यह भी नहीं लिखा है कि विचार करो और भीतर आ जाओ। विचार करने से द्वार के बाहर तक पहुंच जाओगे, भीतर नहीं जा सकते। तीसरी सीढ़ी में हम सोचेंगे, खोजेंगे कि ध्यान क्या है? मेडिटेशन क्या है? निर्विचारणा क्या है? क्या निर्विचार लिखा है उस द्वार पर? वह हम कल सुबह की चर्चा में निर्विचार पर, ध्यान पर सोचेंगे। और चौथी चर्चा में हम सोचेंगे कि क्या ध्यान को भी छोड़ देना पड़ेगा। क्या वह भी बिलकुल भीतर अंतर-गृह तक नहीं पहुंचा सकता? वह भी नहीं पहुंचाता है। विश्र्वास छोड़ो विचार से। विचार छोड़ो निर्विचार से। फिर निर्विचार भी छोड़ दो, तब जो शेष रह जाती है समाधि की दशा। वह वहां पहुंचा देती है जहां परमात्मा का आवास है। आज की बात पर जो भी प्रश्र्न हों, संध्या उनके जवाब दूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
विश्र्वास अंधा द्वार है। अर्थात विश्र्वास द्वार नहीं है, केवल द्वार का मिथ्या आभास है। मनुष्य जो नहीं जानता है उसे इस भांति मान लेता है, जैसे जानता हो। मनुष्य के जो पास नहीं है, उसे वह इस भांति समझ लेता है जैसे वह उसके पास हो। और तब खोज बंद हो जाए तो कोई आश्र्चर्य नहीं है।
मैंने सुना है, एक अंधेरी रात में एक जंगल से दो संन्यासी गुजरते थे। एक वृद्ध संन्यासी है, एक युवा संन्यासी है। अंधेरी रात है। बियाबान जंगल है। अपरिचित रास्ता है। गांव कितनी दूर है, कुछ पता नहीं। वह वृद्ध संन्यासी तेजी से भागा चला जाता है। कंधे पर जो झोला लटकाया है, उसे जोर से हाथ से पकड़े हुए है। और बार-बार अपने युवा साथी से पूछता है, कोई खतरा तो नहीं, कोई भय तो नहीं, कोई चिंता तो नहीं? युवा साथी बहुत हैरान है, क्योंकि संन्यासी को भय कैसा, खतरा कैसा? और अगर संन्यासी को भी भय हो, खतरा हो, तो फिर ऐसा कौन होगा जिसे भय न हो, खतरा न हो? वह बहुत हैरान है कि आज यह वृद्ध संन्यासी बार-बार क्यों पूछने लगा है कि भय तो नहीं है कोई, खतरा तो नहीं है। डाकू-चोर तो इस जंगल में नहीं होते हैं, हम गांव तक कब तक पहुंच जाएंगे, और भागता है तेजी से। फिर एक कुएं पर वे रुके हैं पानी पीने को। वृद्ध पानी भर कर पी रहा है। अपना झोला उसने युवा संन्यासी को दिया है और कहा है, सम्हाल कर रखना। युवा को खयाल हुआ कि हो न हो खतरा इस झोले के भीतर होना चाहिए। उसने हाथ डाला है, देखा एक सोने की ईंट झोले के भीतर है। उससे ही भय है, उससे ही खतरा है। उसने वह सोने की ईंट निकाल कर फेंक दी और एक पत्थर का टुकड़ा उसकी जगह रख दिया है।
फिर वृद्ध पानी पीकर कुएं से नीचे उतरा है। जल्दी से झोला अपने हाथ में लेकर कंधे पर टांगा। टटोल कर ईंट देखी। ईंट है। फिर तेजी से भागने लगा है वह। फिर रास्ते में बार-बार पूछता है, कोई खतरा तो नहीं है? कोई भय तो नहीं है? उस युवक ने कहा: अब आप निर्भय हो जाएं। खतरे को मैं दो मील पीछे कुएं के पास ही फेंक आया हूं। वृद्ध ने घबड़ा कर झोले में हाथ डाला, वहां, वहां तो सोने की ईंट नहीं! सिर्फ पत्थर का टुकड़ा है! लेकिन दो मील तक उस पत्थर के टुकड़े को वह सोने की ईंट समझे रहा, और भयभीत रहा। फिर झोला उसने वहीं पटक दिया, फिर वह हंसने लगा और नाचने लगा और उसने कहा: अब गांव पहुंचने की कोई जल्दी न रही। अब कोई खतरा नहीं है। अब हम यहीं सो जाएं। अब रात यहीं विश्राम करें।
पत्थर की ईंट भी सोने की ईंट समझी जाए तो सोने की ईंट का भय पैदा कर देती है। लेकिन इससे वह सोने की ईंट नहीं हो जाती। जो हमारा ज्ञान नहीं है, उसे ज्ञान समझा जाए तो वह ज्ञान का भ्रम पैदा कर देता है। लेकिन इससे वह हमारा ज्ञान नहीं हो जाता। जो हम नहीं जानते हैं, उसे हम कितना ही मान लें तो भी जानने के भ्रम के सिवाय उस मानने से कभी जानना पैदा नहीं होता है। विश्र्वास असत्य है। और विश्र्वास अज्ञान है। और खतरा अज्ञान से उतना नहीं है, जितना विश्र्वास से है, क्योंकि अज्ञान जानता है कि नहीं जानता हूं।
विश्र्वास ऐसा अज्ञान है, जो नहीं जानता और जानता है कि जानता हूं! अज्ञान जब यह जान लेता है कि जानता हूं, तब वह विश्र्वास बन जाता है। अज्ञान को अपना बोध हो, तो अज्ञान को तोड़ने की चेष्टा चलती है और अज्ञान अबोध हो जाए तो फिर उसे तोड़ने का कोई कारण नहीं रह जाता है।
मनुष्यता को विश्र्वास ने जितने अज्ञान में रखा है उतना किसी और बात ने नहीं। अगर मनुष्य-जाति इतने अज्ञान से भरी है, तो उसका सौ में से निन्यानबे प्रतिशत कारण विश्र्वास की हजारों-हजारों वर्ष की शिक्षा है। विश्र्वास अज्ञान की सुरक्षा बन जाता है। अज्ञान को फिर वह नष्ट नहीं होने देता है। क्योंकि यह खयाल अगर पैदा हो गया कि हम जानते हैं, बिना जाने हुए, तो फिर जानने की यात्रा, अन्वेषण बंद हो जाने ही वाला है।
कल मैंने कहा कि विश्र्वास नहीं है उसका द्वार। आज कहना चाहता हूं, विचार है उसका द्वार। और विचार विश्वास से बिलकुल ही उलटी चित्त-दिशा है।
विचार के क्या-क्या तत्व हैं?
विचार का पहला तत्व है संदेह, डाउट। संदेह नहीं तो विचार नहीं। विश्र्वास का पहला तत्व है संदेह नहीं। विचार का पहला तत्व है संदेह। जो संदेह कर सकता है वही विचार करेगा; असल में जो विचार करने की हिम्मत जुटाता है वह संदेह करता है। जो विचार करने से डरता है, वह संदेह ही नहीं करता; वह आंख बंद करता है और मान लेता है। संदेह--एक छोटी सी घटना से समझाऊं।
अरस्तू तो इतना बड़ा विचारक हुआ, लेकिन तथाकथित बड़े से बड़े विचारकों के मन में भी विश्र्वास के कोने होते हैं, विश्र्वास के पॉकेट्स होते हैं। बड़े से बड़े विचारक कहे जाने वाले लोगों के भी मन के बहुत से हिस्से विश्र्वास के ही होते हैं। ऑलिवर लाज जैसा बुद्धिमान आदमी, वैज्ञानिक--लेकिन ताबीज बांध कर सोएगा, भूतों से उसे डर है! भूत-प्रेत से वह डरता है! पिकासो का नाम आप जानते हैं—बड़ा चित्रकार, इतना बुद्धिमान, इतना विचारशील, लेकिन न मालूम कितने गंडे-ताबीज बांधता है! और डरता है, भूत-प्रेत से बहुत डरता है। कहीं कोई विश्र्वास का कोना भी है।
ऐसे ही अरस्तू बहुत विचार करता है, लेकिन विश्र्वास के भी कोने हैं, जिनका उसे खयाल भी न हो। उसने अपनी किताब में लिखा है: स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। क्योंकि यूनान में हजारों साल से यह बात मानी जाती थी कि स्त्रियों के दांत पुरुषों से कम होते हैं। असल में पुरुष यह मानने को राजी ही नहीं हैं कि स्त्रियों में कुछ भी उनके बराबर हो सकता है। दांत भी कैसे बराबर हो सकते हैं? स्त्रियों के दांत और पुरुषों के बराबर! यह पुरुष कैसे मान सकते हैं? यह पुरुष के अहंकार को बड़ी चोट की बात होगी। लेकिन कितना बड़ा आश्र्चर्य है कि किसी ने कभी स्त्री के दांत गिनने की कोशिश नहीं की। यह बात प्रचलित थी, प्रचलित रही और लोगों ने मान ली! अब स्त्री के दांत कितनी सुलभ बात है। घर-घर में स्त्रियां हैं, पुरुषों से थोड़ी ज्यादा ही हैं, कम नहीं हैं, और अरस्तू महाशय की तो दो औरतें थीं, एक भी नहीं थीं। दो में से किसी भी मिसेज अरस्तू को वह कह सकते थे कि एक क्षण बैठ जाओ और जरा दांत खोल दो, मैं गिन लूं। लेकिन यह उन्होंने नहीं कहा! यह मान लिया। चलता था कि स्त्री के दांत कम हैं। अरस्तू जैसे बुद्धिमान आदमी ने अपनी किताब में लिख दिया कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं। और जब अरस्तू ने लिख दिया तो सारे लोगों को तो कहना ही क्या! अरस्तू का वाक्य तो प्रमाण है। एक हजार साल तक अरस्तू के मरने के बाद भी यह बात चलती रही कि स्त्रियों के दांत कम हैं। कल्पना नहीं होती कि इतने लोग हैं, किसी ने संदेह न किया कि एक बार संदेह करे और दांत गिन ले।
विश्र्वास की जो परंपराएं हैं वह संदेह करती ही नहीं। और जब पहली बार किसी आदमी ने स्त्री के दांत गिन कर यह कहा कि स्त्री के दांत पुरुषों के बराबर हैं, तो लोगों ने कहा, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? कभी स्त्रियों के दांत पुरुषों के बराबर हुए हैं? ऐसा कभी सुना है? अरस्तू की किताब देखी है? अरस्तू गलत लिखेगा? अरस्तू अज्ञानी है? तुमने कुछ गिनती में गलती कर ली होगी। या कोई गलत अपवाद स्त्री मिल गई होगी। दांत तो स्त्रियों के कम ही होते हैं, लिखा है किताब में। संदेह की वृत्ति न हो तो अतीत का पिछड़ा हुआ ज्ञान भविष्य के विकसित मस्तिष्क के लिए जंजीर बन जाता है। और ध्यान रहे, कल जो हम जानते थे उससे आज हम ज्यादा जानते हैं। और आज जो हम जानते हैं, कल हम उससे ज्यादा जानेंगे। हजार साल पहले जो हम जानते थे उससे हम आज बहुत ज्यादा जानते हैं।
ज्ञान के स्रोत पीछे नहीं हैं, ज्ञान के स्रोत निरंतर भविष्य में खुलते चले जाते हैं। लेकिन संदेह न करने वाली वृत्ति अतीत के पिछड़े हुए ज्ञान से जकड़ जाती है। और नये द्वार बंद हो जाते हैं। खुलना मुश्किल हो जाता है। संदेह बहुत अदभुत गुण है। संदेह का अर्थ है, जो कहा गया है, जो सुना गया है, जो माना जाता है, उस पर फिर से समस्या खड़ी करना, फिर से प्रश्र्नवाचक लगाना। कुछ भी जीवन में जो महत्वपूर्ण है उसे बिना प्रश्र्न के स्वीकार न कर लेना। उस पर प्रश्र्न खड़ा करना, पूछना, खोजना, जांचना, पड़ताल करना। लेकिन अगर संदेह ही खड़ा नहीं किया तो ये सब बातें रुक जाती हैं वहीं, पहले ही चरण पर; अगर मानने की पागल वृत्ति हुई, कमजोर वृत्ति हुई, तो सब रुक जाता है। फिर कोई पूछता नहीं, फिर कोई मानता नहीं। हजारों सवाल हैं जिंदगी के जो वहीं ठहरे हुए हैं, जहां हजारों साल पहले लोग उन्हें छोड़ गए, क्योंकि उन पर कोई संदेह नहीं उठा, उन पर कोई विचार नहीं उठा। और फिर हम दोहराए चले जाते हैं। दोहराए चले जाते हैं और दोहराने का एक परिणाम होता है कि मनुष्य के चित्त पर दोहराने का सम्मोहक असर होता है। कोई चीज दोहराए चले जाएं निरंतर इसकी बिना फिकर किए कि कोई मानता है या नहीं मानता है। दोहराते-दोहराते वह मानना शुरू कर देता है। वह भूल जाता है कि मैं नहीं मानता था। प्रश्र्न विलीन हो जाता है। सारे विज्ञापनदाता यही कर रहे हैं।
रास्ते पर आप जाते हैं तो बड़े-बड़े बिजली के जलते अक्षरों में लिखा है: हमाम साबुन। पहले तो एक ही तरह के अक्षरों में लिखा रहता था, अब जलते-बुझते अक्षरों में लिखा जा रहा है। वह मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि अगर तुमने बिना जलने-बुझने वाले अक्षरों में लिखा तो आदमी एक ही बार पढ़ता है, और अगर अक्षर बुझे फिर जले, फिर बुझे फिर जले, तो जितनी देर आदमी उस बोर्ड के पास से निकलता है उसको उतनी ही बार पढ़ना पड़ता है जितनी बार अक्षर जलते हैं, बुझते हैं। उसके माइंड में बार-बार रिपीट होता है: हमाम साबुन, हमाम साबुन, हमाम साबुन! उसके मस्तिष्क में घुसाया जा रहा है। रेडियो खोले, हमाम साबुन। अखबार खोले, हमाम साबुन। जहां भी जाए, हमाम साबुन। बस उससे कहो मत कुछ, सिर्फ हमाम शब्द को उसके भीतर दोहराते चले जाओ और भीतर डालते चले जाओ। वह कल दुकान पर खरीदने जाएगा, सैकड़ों साबुन रखे हैं, दुकानदार पूछता है, कौन सा साबुन आपको पसंद है? वह कहता है, हमाम साबुन। वह सिर्फ बेहोशी में बोल रहा है, उसे कुछ पता नहीं, वह क्या कह रहा है। होश में नहीं है वह आदमी, वह हिप्नोटाइज्ड है। वह सिर्फ बेहोश है। वह कह रहा है हमाम साबुन। यह हमाम साबुन दोहरा-दोहरा कर उसके मस्तिष्क के रग-रग, रेशे-रेशे में भर दिया गया है। वह अब उसकी जबान से निकल रहा है। वह सोचता है यह मैं कह रहा हूं, यह मैं सोच कर कह रहा हूं। यह वह सोच कर नहीं कह रहा है। यह सिर्फ विज्ञापन की कला उसके भीतर डाल दी है।
जब आप कहते हैं, मैं हिंदू हूं, तो आपने सोच कर कहा है? वही हमाम साबुन। जब आप कहते हैं, मैं मुसलमान हूं, आपने कभी सोच कर कहा है? वही हमाम साबुन। इनमें कोई फर्क नहीं है। बचपन से दिमाग में डाला जा रहा है कि तू हिंदू है, तू मुसलमान है। बचपन से समझाया जा रहा है--यह भगवान है कृष्ण, यह राम, यह क्राइस्ट, यह मोहम्मद, यह पैगंबर है; यह कुरान, यह गीता, ये पवित्र ग्रंथ हैं, इनमें सत्य भरा हुआ है। यह बचपन से दोहराया जा रहा है, दोहराया जा रहा है, दोहराया जा रहा है। इतने बचपन से दोहराया जा रहा है जब कि सवाल उठ ही नहीं सकता था। इतने बचपन के साथ यह बात दोहराई जा रही है जब कि प्रश्र्न उठाने की क्षमता भी न थी। इसीलिए सभी धार्मिक लोग छोटे-छोटे बच्चों को धार्मिक शिक्षा देने के लिए बड़े लालायित रहते हैं। क्योंकि जब प्रश्र्न उठने शुरू हो जाएंगे। अगर बीस साल के जवान से आप पहली बार कहें कि तुम हिंदू हो, तो वह पूछेगा, क्यों? क्या मतलब? क्यों हूं हिंदू? लेकिन दो साल के छोटे बच्चे के दिमाग में डाला जा रहा है कि तुम हिंदू हो। उसे कुछ पता नहीं, प्रश्र्न पूछने की कला उसे मालूम नहीं। संदेह अभी सजग नहीं। उसके दिमाग मेंभर रहे हो उस बचपन से। जब प्रश्र्न उठने शुरू होंगे उससे बहुत गहरे में, उससे बहुत अनकांशस में तुमने भर दिया वह सब जिन पर वह अब कभी प्रश्र्न नहीं कर सकेगा। और जिंदगी भर उसे मानता चला जाएगा।
हम सारे लोग इसी तरह की प्रचारित बातों के बीच बड़े हुए हैं। हमारा सारा मस्तिष्क कंडीशंड है। सब संस्कारित है। अब अगर सत्य की खोज पर किसी को निकलना है और प्रभु का मंदिर खोजना है तो उसे अपने एक-एक संस्कार पर प्रश्र्न उठाना पड़ेगा। एक-एक संस्कार को उखाड़ कर पूछना पड़ेगा, ऐसा है? निश्र्चित ही बड़ी बेचैनी पैदा हो जाएगी, बहुत रेस्टलेसनेस पैदा हो जाएगी, बहुत अराजकता पैदा हो जाएगी, बहुत केऑटिक, भीतर सब गड़बड़ हो जाएगा जो सुव्यवस्थित है।
लेकिन इसके पहले कि कोई उस लंबी यात्रा पर निकले, जहां कि सच में सब सुव्यवस्थित हो जाएगा, उसके पहले जो झूठी सुव्यवस्था बनाई गई है उसका टूट जाना जरूरी है। इस अराजकता से गुजरना ही पड़ेगा। एक-एक संस्कार को पूछना पड़ेगा कि क्या ऐसा है? क्या मैं हिंदू हूं? किस कारण हिंदू हूं? इस कारण कि किसी घर में पैदा हो गया? किसी के घर में पैदा होने से कोई हिंदू कैसे हो सकता है? कम्युनिस्ट के घर में पैदा होने से कोई बेटा कम्युनिस्ट होता है? कांग्रेसी के घर में पैदा होने से कोई बेटा कांग्रेसी होता है? और अगर यह नहीं होता तो हिंदू के घर में पैदा होने से कोई हिंदू कैसे होगा? जैन के घर में पैदा होने से कोई जैन कैसे होगा? ये भी तो विचारधाराएं हैं, विचारधाराओं का जन्म से क्या संबंध है? जन्म से तो कोई भी संबंध नहीं है। खून से क्या संबंध है? विचारधारा का खून से कोई संबंध नहीं है। विचारधारा का वीर्यअणुओं से क्या संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है। आप किसी भी पिता से पैदा हों इससे आपका हिंदू और मुसलमान होने का कोई भी तो संबंध नहीं है। यह तो बिलकुल ही असंगत बात है जो आपके मस्तिष्क में जोड़ी और घुसाई जा रही है। गीता के सही और गलत होने से, आपके किसी घर में, खास घर में पैदा होने का क्या संबंध है? महावीर के तीर्थंकर होने या न होने से आपका किसी मां-बाप से पैदा होने का क्या संबंध है? कोई भी तो संबंध नहीं है। लेकिन कभी इस पर प्रश्र्न नहीं उठाया। इस पर कभी प्रश्र्नवाचक नहीं लगाया। कभी संदेह नहीं किया। इसलिए दुनिया विभाजित है। और जिस दिन एक-एक आदमी प्रश्र्न खड़ा करेगा उसी दिन दुनिया अविभाजित हो जाएगी।
आज सारी दुनिया में युद्ध है। रूस भयभीत है अमरीका से। अमरीका भयभीत है रूस से। और बेटे पूछ ही नहीं रहे हैं कि इस भय की क्या जरूरत है? पाकिस्तान भयभीत है हिंदुस्तान से। हिंदुस्तान भयभीत है पाकिस्तान से। दोनों एक दूसरे से भयभीत होकर युद्ध की तैयारी किए चले जाते हैं। कोई भी नहीं पूछता कि भयभीत होने की क्या जरूरत है? रहने के लिए पृथ्वी पर एक दूसरे से भयभीत होने की कौन सी आवश्यकता है। लेकिन प्रश्र्न ही कोई नहीं उठाएगा। भय स्वीकृत कर लिया जाएगा। झगड़े मान लिए जाएंगे और जारी रहेंगे।
जब तक समाज का मस्तिष्क, व्यक्ति का मस्तिष्क जीवन के एक-एक प्रश्र्न को वापस जगा नहीं लेता और आस्थाओं के सारे पर्दे नहीं उखाड़ देता तब तक, तब तक नये चित्त का जन्म नहीं होगा। और नया चित्त ही प्रभु के निकट पहुंच सकता है, पुराना चित्त नहीं। वह जो ओल्ड माइंड है--ओल्ड माइंड का, पुराने चित्त का मतलब बूढ़े का चित्त नहीं है, बूढ़ा चित्त। बूढ़े का चित्त नहीं। बूढ़े आदमी के पास भी ताजा चित्त हो सकता है अगर वह सोचता है, खोजता है, विचार करता है। अगर उसका चित्त क्लोज्ड नहीं हो गया, बंद नहीं हो गया, खुला है अगर उसके चित्त की दीवालें, द्वार-दरवाजे खुले हैं, सूरज की रोशनी आती है नई, हवाएं आती हैं नई, बाहर की सुगंध आती है नई, अगर उसने अपने सारे चित्त को बंद कारागृह नहीं बना लिया, तो एक बूढ़े आदमी के पास भी जवान चित्त होता है। और अगर एक जवान का चित्त भी बंद है तो उसके पास बूढ़ा चित्त होता है।
हिंदुस्तान में, इस देश में तो जवान चित्त खोजना मुश्किल है। जवान आदमी के पास ही खोजना मुश्किल है तो बूढ़े आदमी के पास खोजने का तो कोई सवाल नहीं, यह बूढ़ा चित्त कभी भी परमात्मा के द्वार पर प्रवेश नहीं कर सकता। क्यों? क्योंकि परमात्मा सदा जवान है। परमात्मा के बूढ़े होने का खयाल सुना है कभी? परमात्मा सदा जवान है। परमात्मा सदा नया है। जीवन सदा नया है, अस्तित्व सदा ताजा है, प्रतिपल ताजा और नया है अस्तित्व। अगर हम चारों तरफ जगत को देखें तो सब नया है वहां। आदमी के मन को भर देखें तो वहां पुराना मिलेगा। जगत में तो कहीं पुराना नहीं मिलेगा। जो पत्ते कल थे वे आज नहीं रह गए हैं। जो सूरज कल निकला था वह आज नहीं निकला है। जो बदलियां कल घिरी थीं, वह आज नहीं घिरी हैं। जो हवाएं कल बही थीं, वे अब कहां हैं? जो गंगा में पानी कल था वह अब कहां पहुंच गया होगा? वह कहां होगा, अब वह किन किनारों पर होगा? कुछ भी वही नहीं है जो क्षण भर पहले था। सब तीव्रता से बदलता भागा चला जा रहा है सिर्फ आदमी के चित्त को छोड़ कर। आदमी का चित्त क्यों नहीं बदलता तेजी से? इतनी ही तेजी से अगर आदमी का चित्त न बदले, अगर जीवन की गति के साथ आदमी के चित्त की गति का तारतम्य न हो तो जीवन अलग हो जाता, आदमी अलग हो जाता। आदमी अपने कैपस्युल में बंद हो जाता पुराने। और जिंदगी भागी चली जाती है। और तब इन दोनों का मिलन असंभव हो जाता है। जीवन से मिलना हो तो जीवन की तरह सतत प्रवाहशील होना जरूरी है। प्रश्र्न पूछने वाला चित्त प्रवाहित होता है। क्योंकि प्रश्र्न का मतलब ही यह है कि हम पुराने को तोड़ने का उपाय करते हैं, द्वार खोलते हैं, नये की तरफ उत्सुकता जाहिर करते हैं। लेकिन हम प्रश्र्न पूछते ही नहीं, हम प्रश्र्न पूछते ही नहीं। हमें जैसे प्रश्र्न पूछना एक भय का कारण मालूम पड़ता है--पूछो ही मत। विचार जिसे करना है, उसे यह भय छोड़ देना पड़ेगा। उसे पूछना पड़ेगा। संदेह उठाना पड़ेगा। उन सब पर भी, उन सारे सत्यों पर भी जो कहने वालों को असंदिग्ध रहे हों, उन पर भी संदेह उठाना पड़ेगा। क्योंकि तभी हम भी उस जगह तक पहुंचेंगे जहां असंदिग्ध सत्य का हम भी अनुभव कर सकें। संदेह के मार्ग से कोई असंदेह तक पहुंचता है। विश्र्वास के मार्ग से आदमी संदेह में ही जीता है और मर जाता है। विश्र्वास ऊपर होता है, भीतर संदेह होता है। संदेह को दबाए चले जाओ, विश्र्वास को थोपे चले जाओ।
पूछो किसी आदमी से, जो कहता है कि ईश्र्वर है। खोलो थोड़ी उसकी छाती। उससे कहो कि थोड़ा भीतर खोजो--कहीं ऐसा तो नहीं है कि भीतर शक हो, संदेह हो कि नहीं है। वह आदमी कहेगा, नहीं, मेरा दृढ़ विश्र्वास है। और जितने जोर से वह कहे मेरा दृढ़ विश्र्वास है, जानना कि उसके भीतर उतना ही गहरा संदेह है। उसी गहरे संदेह को दबाने के लिए दृढ़ विश्र्वास की जरूरत पड़ी, नहीं तो दृढ़ विश्र्वास की जरूरत न थी।
विश्र्वास किस चीज की दवा है? विश्र्वास संदेह को दबाने की पद्धति है। संदेह को मिटाना है, दबाना नहीं। इसलिए संदेह को पूरा प्रकट होने दो, ताकि वह प्रकट हो और उड़ जाए। प्रकट हो, सत्य से टकराए, नष्ट हो जाए। इतना ध्यान रहे कि कोई संदेह सत्य को नष्ट नहीं कर सकता है। इसलिए संदेह से भयभीत होने की कोई भी जरूरत नहीं। संदेह टकराएगा सत्य से, सत्य बचेगा, संदेह खो जाएगा। लेकिन जो भयभीत हैं, वे शायद संदेह को सत्य से ज्यादा बड़ा मानते हैं। सभी विश्र्वासी, सभी श्रद्धावान संदेह को सत्य से बड़ा मानते होंगे। इसलिए वे कहते हैं, संदेह मत करो, विश्र्वास करो। संदेह क्या सत्य से बड़ा है कि करने से सत्य मिट जाएगा? संदेह बच जाएगा। संदेह की क्या शक्ति है सत्य के समक्ष? लेकिन हां, संदेह विश्र्वास से बड़ा है। इसलिए विश्र्वासी घबड़ाता है। संदेह उठेगा, विश्र्वास टूट जाएगा। लेकिन विश्र्वास की तो दो कौड़ी कीमत नहीं है। असली सवाल तो उस सत्य का है जिसके समक्ष संदेह गिर जाता है, टूट जाता है, नष्ट हो जाता है, खो जाता है। सत्य के समक्ष संदेह वैसे ही मिट जाता है जैसे दीये के समक्ष अंधकार मिट जाता है। दीया जला और अंधकार नहीं। लेकिन दीया मत जलाओ, द्वार-दरवाजे बंद करके अंधेरे को छिपा लो। उससे अंधेरा मिटेगा नहीं। उससे अंधेरा और सघन होगा। द्वार-दरवाजों से जो थोड़ी बहुत रोशनी आती थी वह भी नहीं आएगी। अंधेरा गहन होगा। सब दरवाजे बंद कर लो। दरवाजे पर पहरा लगा कर बैठ जाओ तो भीतर अंधेरा और गहन होगा।
विश्र्वासी आदमी के भीतर संदेह बहुत गहन होता है। संदेह को मिटाना हो, द्वार-दरवाजे खोलो, पूछो, डरो मत। विचार की पहली सीढ़ी है: संदेह। दूसरी सीढ़ी है: तर्क, दूसरी सीढ़ी है तर्कना, दूसरी सीढ़ी है रीजनिंग। सिर्फ पूछो ही मत--ऐसा भी हो सकता है कि पूछते सिर्फ इसलिए हो कि कोई बंधा हुआ उत्तर है, वही दे देने का इंतजाम है। पूछ लेते हो, फिर बंधा हुआ उत्तर दे देते हो। एक आदमी पूछता है, मैं कौन हूं? फिर बंधा हुआ उत्तर है, कहता है, मैं? मैं ब्रह्म स्वरूप, सत्-चित्त्-आनंद, मैं आत्मा हूं। यह उत्तर किताब से सीखा हुआ तैयार है। उसी किताब में उसने यह भी पढ़ा है कि पूछो मैं कौन हूं? उसी किताब में यह भी पढ़ा है कि उत्तर दो कि मैं ब्रह्म हूं। यह बेमानी है। यह पूछना किसी अर्थ का नहीं है। पूछो तो, तर्क करो, तो पूछने की कोई सार्थकता होगी। तोलो, बंधे हुए उत्तर मत दे दो। अगर बंधे हुए उत्तर देने हैं तो पूछना बेमानी हो गया। प्रश्र्न बनाया भी और पोंछ भी दिया। वह श्रम व्यर्थ गया। प्रश्र्न पूछना है तो उत्तर आने दो। सीखा हुआ उत्तर नहीं चाहिए। और जो उत्तर आए उसे तर्क की कसौटी पर कसो। देखो कि वह ठीक मालूम पड़ता हैं कि नहीं।
एक फकीर एक संध्या अपने घर आया है। किसी ने रास्ते में भिक्षा में उसे कुछ मांस दे दिया है। वह मांस घर लाकर उसने रखा है। पत्नी से कहा कि तैयार कर, मैं दस-पांच मित्रों को निमंत्रण दे आता हूं। पत्नी परेशान है। उसने सोचा, छिपा दो मांस को। दस-पांच मित्रों की परेशानी में मत पड़ो। पति लौट कर आया, उसने कहा: क्यों बैठी है तू, चूल्हा नहीं जला? उसने कहा: वह तुम्हारी जो बिल्ली है, मांस खा गई। उसके पति ने कहा: ऐसा क्या? वह बिल्ली कहां है? वह बिल्ली को पकड़ लाया, पड़ोस से एक तराजू ले आया। तीन पौंड मांस था। बिल्ली को तराजू पर रखा। बिल्ली तीन पौंड निकली। उस फकीर ने कहा: इफ दिस इ़ज दि मिट, वेयर इ़ज दि कैट? अगर यह मांस है, तो बिल्ली कहां है? मान नहीं लिया कि बिल्ली खा गई, तीन पौंड मांस बिल्ली खा जाएगी, तो बिल्ली का वजन तो बढ़ जाएगा। संयोग की बात, बिल्ली का खुद का वजन तीन पौंड है। उस फकीर ने कहा: तू ठीक कहती है कि बिल्ली मांस खा गई। यह तो मांस हो गया। अब बिल्ली कहां है? या अगर यह बिल्ली है तो कृपा कर द्वार-दरवाजे खोल, मांस कहां है? बाहर निकाल।
तौलने का अर्थ है: तर्क। तर्क का अर्थ है जो कहा जा रहा है उसे तोलो। उसे पहचानो। कहा जा रहा है, मंदिर की मूर्ति सबकी रक्षा करती है। जरा मंदिर की मूर्ति को धक्का देकर देखो, अपनी भी रक्षा कर पाती है कि नहीं कर पाती है! तो पता चलेगा कि अपनी भी रक्षा कर पाती है या नहीं कर पाती है, तो फिर सबकी रक्षा भी कर सकेगी? सोमनाथ के मंदिर पर हमला हुआ, तो पंडितों ने, पुजारियों ने क्या किया? आस-पास के राजपूतों ने खबर भेजी कि हम आएं रक्षा को? तो पुजारियों ने क्या उत्तर दिया? पुजारियों ने कहा कि जो सबका रक्षक है उसकी रक्षा तुम करोगे? नास्तिक हो? अधार्मिक हो? जो सबकी रक्षा करने वाला है, उसकी रक्षा तुम करोगे? रह गए बिचारे चुप। क्या जवाब देते? तर्क की तो क्षमता नहीं है। तर्क की क्षमता होती तो हारता यह मुल्क, ऐसा हर छोटी-छोटी बात में? चुप रह गए वे कि ठीक है, जब पुजारी कहते हैं तो ठीक कहते हैं। और जब दुश्मन गजनी ने हमला किया, तो पांच सौ पुजारी प्रार्थना कर रहे हैं भगवान से कि हमारी रक्षा करो! और वह गजनी घुस गया उनकी प्रार्थना के बीच। उसने गदा मारी और वे भगवान, जिनके सामने पांच सौ लोग प्रार्थना करते थे, और अरबों लोगों ने पहले प्रार्थना की होगी, वे भगवान चारों खाने चित्त हो गए, चार टुकड़े हो गए।
लेकिन इतनी सी बात तो वे राजपूत भी कर सकते थे आकर जांच। वे भी एक धक्का देकर देख सकते थे कि मूर्ति रक्षा कर पाएगी अपनी भी कि नहीं, कि सबकी करेगी? नहीं, पर तर्कणा नहीं है। नहीं, पर विचारणा नहीं है। नहीं, पर सोचना नहीं है, तोलना नहीं है। जो कह दिया उसे चुपचाप मान लेना। उसे अंधे की तरह मान लेना। तर्क का अर्थ है: तोलो। उसके दोनों पहलू तोलो। जो दावा किया जा रहा है उसकी परीक्षा करो कि वह दावा ठीक या नहीं। उसके विपरीत विकल्प खोजो और देखो कि क्या ठीक है? पच्चीस विकल्प हो सकते हैं, कौन ठीक है, इसकी बुद्धिगत कसौटी करो। लेकिन अबुद्धि पूर्वक स्वीकार चल रहा है। तर्कणा कौन करे? और धार्मिक, तथाकथित धार्मिक समझाते हैं, तर्क मत करना। तर्क करना ही मत। तर्क आदमी को नास्तिक बना देता है, और मैं आपसे कहता हूं कि जो तर्क करके नास्तिक बनता है, अगर तर्क करता ही चला जाए तो बहुत देर तक, नास्तिकता नहीं टिकेगी। नास्तिकता भी खो जाएगी। अधूरे तर्क पर कोई रुक जाए तो नास्तिक रह जाता है। अगर पूरे तर्क पर कोई चला जाए तो तर्क को भी पार कर जाता है। और जो कभी नास्तिक नहीं हुआ वह कभी ठीक से आस्तिक नहीं हो सकता है। आस्तिक होने के लिए नास्तिकता से गुजर जाना जरूरी है। नास्तिकता का कुल मतलब इतना है कि हम तर्क करते हैं, सोचते हैं, विचार करते हैं। जो आदमी नास्तिकता से नहीं गुजरा, उस आदमी ने न कभी सोचा, न कभी खोजा, वह आदमी डरा हुआ है और भय के कारण उसने भगवान को पकड़ रखा है। भगवान उसकी विचारगत निष्पत्ति नहीं बनी, भगवान उसकी खोज का अंतिम निष्कर्ष नहीं बना, निष्पत्ति नहीं बनी, पकड़ लिया है।
दूसरा सूत्र है: तर्क। सब तरफ से सोचो, खोजो, पूछो। सारे विकल्प देखो, जल्दी से कोई एक विकल्प मत पकड़ लो। जल्दी से कोई पक्षपात मत बना लो। निष्पक्ष भाव से खोजो, कौन क्या कहता है? इस मुल्क में चार्वाक ने कुछ तर्क दिए हैं, लेकिन कोई नहीं सुनने जाएगा। लेकिन जो चार्वाक को नहीं सुनता है वह कभी भी ठीक अर्थों में प्रभु के द्वार पर प्रविष्ट नहीं हो सकता। चार्वाक को सुन कर जो खोज में लगता है वह शायद प्रवेश पा भी जाए, लेकिन चार्वाक की तरफ कानों में अंगुलियां डाल कर जो निकल जाता है वह बहरा आदमी है, वह कभी आगे नहीं जा सकता है। इतना भय क्या है? चार्वाक की एक किताब नहीं बची--तर्कपूर्ण थीं। आग लगा दी होगी। चार्वाक के संबंध में जो भी शब्द मिलते हैं वे उनके विरोधियों की किताबों में लिखे हुए हैं, और कुछ सूत्र नहीं मिलते। आश्र्चर्यजनक है। हमने जैसे तर्क को जड़ से काटने की कोशिश की है। कहीं भी तर्क हो, विचार हो, उसे खत्म करो और अविचार को, विश्र्वास को दृढ़ करो, मजबूत करो। इसी कारण इस देश में विज्ञान का जन्म नहीं हो सका। विज्ञान वहां पैदा होता है जहां तर्क है। विज्ञान तर्क की फलश्रुति है। विज्ञान यहां पैदा नहीं हुआ, क्योंकि तर्क ही हमने कभी नहीं किया। और आज भी हम तर्क नहीं कर रहे हैं तो विज्ञान इस देश में पैदा नहीं होगा। और जो देश विज्ञान ही पैदा नहीं कर सकता वह देश धर्म कैसे पैदा करेगा? विज्ञान है पदार्थ का सत्य। और अगर हम पदार्थ का सत्य भी जानने में असमर्थ हैं तो हम परमात्मा का सत्य कैसे जान सकेंगे? वह तो बहुत ऊंची बात है। वह तो बहुत गहरी बात है। पदार्थ तो बहुत बाहरी बात है, पदार्थ तो बहुत स्थूल है। पदार्थ तो वह है जो दिखाई पड़ता है। परमात्मा वह है जो दिखाई नहीं पड़ता है। जिनकी पकड़ अभी दिखाई पड़ने वाले पर भी नहीं बैठ पाती, वे अदृश्य को पकड़ लेंगे, यह मात्र कल्पना हो जाती है।
विज्ञान से गुजरना भी जरूरी है, नास्तिकता से गुजरना भी जरूरी है, तर्क से गुजरना भी जरूरी है। और इससे जो गुजरता है उसको एक प्रौढ़ता, एक मैच्योरिटी मिलती है, उसके मस्तिष्क को एक बल मिलता है। उसके पैर किसी ठोस बुनियाद पर खड़े होने लगते हैं। फिर अगर वह किसी दिन ईश्र्वर के द्वार पर खटखटा देता है और द्वार में प्रविष्ट हो जाता है तो उसके पीछे एक आधारशिला होती है। उसे फिर वापस नहीं लौटाया जा सकता। लेकिन जो तर्क से नहीं गुजरा और ईश्र्वर के पास पहुंच गया कल्पना में, उसे तत्क्षण वापस लौटाया जा सकता है। उसके पीछे कोई आधार नहीं, कोई बुनियाद नहीं। उसके मकान की कोई नींव नहीं, उसने मकान बना लिया है। बिना नींव का वह मकान है।
यह दूसरी बात कहना चाहता हूं, एक-एक बात पर तर्कना की जरूरत है। तर्क से जो हीन है, तर्क से जो नीचे है, वह स्वीकार के योग्य नहीं है। उसे स्वीकृति नहीं दी जानी चाहिए। सोचा ही जाना चाहिए। विश्र्वास सिखाता है, समर्पण। विचार सिखाता है, संघर्षण। विश्र्वास कहता है, सब छोड़ कर मेरी शरण में आ जाओ--सब छोड़ो, तुम सोचो मत, मेरी शरण में आ जाओ। विश्र्वास सिखाता है, शरण, किसी की शरण में आ जाओ। तर्क सिखाता है--अशरण हो जाओ। किसी की शरण मत जाना। खुद सोचना, खुद विचार करना। संघर्ष, संघर्ष करना विचार से--यह ठीक है, वह ठीक है। यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है। खोजना, खोजना। जरूरी नहीं है कि खोज से आज ही सत्य मिल जाएगा। लेकिन खोजने से, भीतर जो खोजने वाली चेतना है वह ज्यादा प्रगाढ़ ज्यादा मजबूत, ज्यादा प्रौढ़ हो जाएगी। वही असली सवाल है। वही महत्वपूर्ण सवाल है।
तीसरी सीढ़ी है: चिंतन। तर्क है रीजनिंग, चिंतन है कंटेंप्लेशन। सारे तर्क कर डालो, सारे तर्क देख डालो। आस्तिक को सुनो, नास्तिक को सुनो, ईश्र्वर के पक्षपाती को सुनो, विपक्षी को सुनो, जो भी चारों तरफ तर्क दिए गए हैं जीवन के सत्य के लिए, सबके लिए द्वार खुला छोड़ दो, सबको भीतर आने दो। लेकिन फिर स्वयं सोचो। निर्णायक बनो। चिंतन का अर्थ है: फिर सोचो, कौन ठीक है, कौन मेरी बुद्धि की कसौटी पर ठीक है, इसके चिंतन में उतरो। और एक-एक चीज के सारे पहलुओं को खोजो। जल्दी नहीं है। घबड़ाहट नहीं है। जल्दी पकड़ लेने का आग्रह नहीं है। एक-एक चीज को उलटाओ, उसके चारों तरफ से देखो। आस्तिक कहता है: दुनिया है तो जरूर किसी ने बनाई होगी, उस बनाने वाले का नाम भगवान है, बिना बनाए दुनिया कैसे बन सकती है? सुनो उसकी बात। खोजो इस बात को कि यह ठीक तो कहता है, बिना बनाए दुनिया कैसे बन सकती है? नास्तिक की बात भी सुनो, वह कहता है, अगर दुनिया बनाए बिना नहीं बन सकती, तो मैं यह पूछता हूं कि भगवान को किसने बनाया है? सुनो उसकी बात। वह भी तो अर्थपूर्ण बात कहता है। वह कहता है, अगर दुनिया बिना बनाने वाले के नहीं बन सकती तो भगवान को भी तो किसी ने बनाया होगा, फिर भगवान को किसने बनाया है? और अगर कहो कि किसी ने बनाया है तो वह पूछता है, उसको किसने बनाया है? और तब पता चलता है कि यह तर्क ईश्र्वर के लिए बेमानी है। इससे ईश्र्वर न सिद्ध होता है, न असिद्ध होता है। इन दोनों को तोलो और तोल कर पाओ कि इनमें कुछ सिद्ध होता है कि ये दोनों व्यर्थ हो जाते हैं।
अगर कोई व्यक्ति ठीक से चिंतन करेगा तो वह पाएगा कि जीवन के परम सत्य के संबंध में कोई भी तर्क कुछ सिद्ध नहीं कर पाता। तर्क दलील देता है, एक बात कहता है। लेकिन ठीक विपरीत तर्क दूसरी दलील देता है, दूसरी बात कहता है। अगर दूसरे तर्क को सुना ही नहीं, तो एक तर्क को तुम पकड़ लोगे। लेकिन यह चिंतन न हुआ। तुम आस्तिक हो जाओगे। नास्तिक हो जाओगे। लेकिन यह चिंतन न हुआ। चिंतन का अर्थ है: एक-एक तर्क को निष्पक्ष रूप से खोजो। खोज कर पता चलेगा कि कोई भी तर्क सत्य को सिद्ध नहीं कर पाता। कोई भी तर्क सिद्ध नहीं कर पाता। एक तर्क जो सिद्ध करता है, दूसरा उसे असिद्ध कर जाता है। और तब एक बहुत बड़ी प्रौढ़ता उपलब्ध होगी कि तर्क भी बुद्धि का एक खेल है। विश्र्वास बुद्धि के नीचे हैं। तर्क बुद्धि के भीतर है। लेकिन तर्क भी एक खेल है, और जिस दिन यह अनुभव होता है, तर्क करने वाले विचारशील मस्तिष्क को जब यह पता चलता है कि तर्क भी एक खेल है, तो तर्क से ऊपर उठने की संभावना का द्वार खुल जाता है।
मैंने सुना है, एक आदमी ने अमरीका के एक बड़े नगर में आकर खबर की कि मैं एक ऐसा घोड़ा लाया हूं, जैसा घोड़ा पृथ्वी पर कभी नहीं हुआ। उस घोड़े का मुंह वहां है जहां पूंछ होनी चाहिए और पूंछ वहां है जहां मुंह होना चाहिए। जिन्हें देखना हो वे फलां-फलां थियेटर में सांझ पहुंच जाएं, इतने-इतने रुपये की टिकट होगी। सारा गांव टूट पड़ा। अगर आप भी रहे होंगे उस गांव में तो आप भी जरूर गए होंगे। ऐसे घोड़े को देखने से कौन बच सकता है? लोग चिल्लाने लगे, भीड़ भारी है, सारा हाल भरा है। हाल के बाहर लोग भरे हैं। लोग चिल्ला रहे हैं कि जल्दी घोड़ा निकालो। वह आदमी कहता है कि कोई साधारण घोड़ा नहीं है, थोड़ा धैर्य रखिए। घोड़ा आते ही आएगा। फिर धीरे-धीरे इंच-इंच जगह भर गई, श्र्वास लेना मुश्किल है, और फिर उस आदमी ने पर्दा हटाया। और एक बिलकुल साधारण घोड़ा खड़ा हुआ है। लोगों ने गौर से देखा, एक क्षण तो सकते में आ गए, श्वास रुक गई। यही घोड़ा है? फिर लोग चिल्लाए, धोखा दे रहे हो। मजाक कर रहे हो? यह तो साधारण घोड़ा है। उस आदमी ने कहा: जरा गौर से देखो, मेरे तर्क को देखो। फिर लोगों ने गौर से देखा, कुछ खास बात नहीं दिखाई पड़ती, सिर्फ एक मामला दिखाई पड़ता है, घोड़ा साधारण है। सिर्फ जो तोबरा मुंह में बांधा जाता है वह तोबरा उसकी पूंछ में बंधा हुआ है। और उस आदमी ने कहा: देखो गौर से, इस घोड़े का मुंह वहां है जहां पूंछ होनी चाहिए। और पूंछ वहां है, तोबरे में जहां मुंह होना चाहिए। यह घोड़ा बहुत विशेष है। और लोगों से कहा, तर्क समझ गए मेरा? अब बिना शोरगुल किए चुपचाप घर वापस चले जाओ। जो मैंने कहा था वह वायदा पूरा कर दिया।
तर्क तो ठीक है, लेकिन खिलवाड़ हो गया। लेकिन तर्क खिलवाड़ है यह भी तर्क के पहले पता नहीं चल सकता, यह भी तर्क से गुजर कर ही पता चलता है। लेकिन कोई कहेगा, जब तर्क चिंतन से पता चलता है कि बेमानी है, तो हम तर्क ही क्यों करें हम? पहले ही क्यों न रुक जाएं।
मैंने सुना है, एक स्टेशन पर बड़ा झगड़ा मचा हुआ था। कुछ लोग तीर्थ यात्रा को जा रहे हैं, हरिद्वार जा रहे हैं। और स्टेशन पर शोरगुल है। सारे लोग गाड़ी में बैठ रहे हैं। सब चिल्ला रहे हैं, सामान रखो, जल्दी रखो, कोई पीछे न छूट जाए, लड़का न छूट जाए, पत्नी न छूट जाए। गाड़ी छूटने को है। सीटी बजने लगी, घंटी हो गई, झंडी फहरने लगी। लेकिन एक आदमी के पास बड़ी भीड़ है: आठ-दस आदमी उसे पकड़ कर खींच रहे हैं, और वह आदमी यह कहता है, पहले मुझे यह बताओ, इस गाड़ी में चढूंगा तभी जब तुम यह वायदा कर दो कि फिर इसमें से उतरना तो नहीं पड़ेगा। अगर उतरना ही हो चढ़ने की क्या जरूरत? हम चढ़े क्यों, अगर उतरना हो। अगर उतरना ही है तो हम बिना चढ़े ही बेहतर। वे लोग कह रहे हैं, गाड़ी छूट जाएगी। रास्ते में तुम्हें समझाएंगे। उतरना तो पड़ेगा, लेकिन चढ़ना भी जरूरी है। लेकिन वह आदमी नहीं मानता, वह कहता है कि जब चढ़ना है और फिर उतरना है तो चढ़े क्यों? उसका तर्क ठीक है। लेकिन लोग, मित्र जबरदस्ती उसे भीतर चढ़ा लेते हैं।
फिर हरिद्वार आ गया। अब सारे लोग उतर रहे हैं। अब फिर वही झंझट शुरू हो गई। मित्र कह रहे हैं, नीचे उतरो। वह आदमी कहता है हम चढ़ कर उतरने वालों में से नहीं हैं। हम सिद्धांत के बड़े पक्के हैं। हम चढ़ गए सो चढ़ गए। हम ऐसे नहीं है कि कल कुछ, आज कुछ। हम पक्के आदमी हैं। हम चढ़ गए तो चढ़ गए, अब हम उतरेंगे नहीं। हमने पहले ही कहा था कि अगर उतरना हो तो चढ़ेंगे नहीं। मित्र जबरदस्ती नीचे उतार रहे हैं, लेकिन वह आदमी कहता है, यह बिलकुल ठीक बात नहीं, तुम जबरदस्ती कर रहे हो। अगर उतारना था तो चढ़ाया क्यों था? वह आदमी ठीक कहता है। थोड़ी सी भूल करता है। जहां चढ़ा था वह हरिद्वार नहीं था, जहां उतर रहा है वह हरिद्वार है।
विश्र्वास करने वाला आदमी भी कहता है कि एक समय जाकर तर्क व्यर्थ हो जाता है, तो फिर हम तर्क करें ही क्यों? लेकिन विश्र्वास हरिद्वार नहीं है। विश्र्वास तर्क से पहले की अवस्था है। और जो विश्र्वास पर रुक जाता है और तर्क से नहीं गुजरता, वह तर्कातीत, बियांड दी रीजनिंग कभी नहीं पहुंच पाता। तर्कातीत अवस्था उसे कभी उपलब्ध नहीं होती। वह तर्क के पहले ही रह जाता है। तर्क के बाद की अवस्था उसे कभी उपलब्ध नहीं होती। सत्य तर्कातीत है। सत्य तर्क से नहीं मिल जाता, सत्य तर्कातीत है। ट्रासेंडेंटल है। तर्क से भी आगे है। लेकिन जो तर्क करता है, वही आगे जा पाता है। विश्र्वासी कहता है, तर्क से भी तो नहीं मिलता, हम पहले ही रुक जाते हैं। वह कहता है, हम तर्क में जाएं क्यों? हम तर्क के पहले रुक जाते हैं। वह तर्कहीन है, तर्कातीत नहीं। लेकिन जो तर्क से गुजरता है, उस प्रौढ़ता से गुजरता है, सब खोजता है, सारे तर्कों की एक-एक बारीक बात सुनता है। और आखिर में चिंतन करता है, तो चिंतन से कंटेंप्लेशन से यह पता चलता है कि विश्र्वास तो पहुंचाता नहीं। तर्क पहुंचाता है, लेकिन द्वार पर ही रोक लेता है, भीतर नहीं जाने देता। विश्र्वास तो झूठे द्वार पर खड़ा कर देता है। तर्क ठीक द्वार पर खड़ा करता है। लेकिन द्वार पर ही खड़ा करता है, भीतर प्रवेश नहीं करने देता।
तर्क के बाद है, चिंतन; वह भी विचार की तीसरी सीढ़ी है। चिंतन का मतलब है: सारे तर्कों का निष्पक्ष आंदोलन, सारे तर्कों की निष्पक्ष समीक्षा। देखना है क्या है ठीक, क्या है नहीं ठीक। और जब तर्क को कोई बहुत गौर से देखता है तो पाता है कि तर्क जिसे सिद्ध करता है, उसे असिद्ध भी कर देता है। उसे ही असिद्ध कर देता है जिसे सिद्ध करता है। तर्क दोनों पहलुओं को सिद्ध कर देता है, दोनों को असिद्ध कर देता है। और तब तर्क एक खेल रह जाता है, एक जाल रह जाता है, एक पहेली रह जाती है। जिस पहेली का अपना सुख है, लेकिन पहेली के बाहर जाने का वहां कोई मार्ग नहीं है। लेकिन जो इस पूरी पहेली को जीएगा वह बाहर हो जाता है।
एक गांव में एक सम्राट ने तय किया कि मैं अपने गांव में असत्य नहीं चलने दूंगा। और जो असत्य बोलेगा उसको फांसी लगा दूंगा। गांव के एक वृद्ध संन्यासी को बुला कर उसने पूछा कि तुम्हारी क्या आज्ञा है? मैंने तय किया है कि असत्य नहीं चलने दूंगा, आशीर्वाद दो। उस संन्यासी ने पूछा: करोगे क्या? तरकीब क्या है असत्य न चलने देने की? उसने कहा: मैं एक आदमी को रोज फांसी पर लटकाऊंगा जो असत्य बोलेगा। उस संन्यासी ने कहा: आश्र्चर्य! क्योंकि अभी तक यही तय नहीं हो सका है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है? निर्णय का रास्ता क्या है? उस आदमी ने कहा: तर्क करेंगे, विचार करेंगे। उसने कहा: बहुत अच्छा है। लेकिन तर्क और विचार से निर्णय होगा? तर्क और विचार से विश्र्वास के जो निर्णय थे वे खंडित हो जाएंगे। तर्क और विचार निषेधात्मक प्रक्रिया है, निगेटिव है। वह उखाड़ देगा विश्र्वास को। लेकिन पाजिटिव कुछ देगा, विधायक कुछ मिलेगा? पता चलेगा क्या है सत्य, क्या है असत्य? उस राजा ने कहा: हमने इसीलिए आपको पूछने के लिए बुलाया है। आप हमें बताएं, हम वैसा करें। उस फकीर ने कहा: फांसी कहां लगाओगे? राजा ने कहा: गांव का जो नगर द्वार है, कल सुबह नये वर्ष के शुरू दिन में एक आदमी को हम वहां लटकाएंगे जो झूठ बोलता पकड़ा जाएगा। उस फकीर ने कहा: फिर मैं कल सुबह नगर-द्वार पर ही मिलूंगा। कल सुबह आप वहीं मिल जाएं और अपने तर्कशास्त्रियों को लेकर वहां आ जाएं कि वे निर्णय कर सकें कि सत्य क्या है, असत्य क्या है।
दूसरे दिन द्वार खुला, फकीर अपने घोड़े पर सवार भीतर प्रविष्ट हुआ। राजा ने पूछा, घोड़े पर सवार आप कहां जा रहे हैं? उस फकीर ने कहा: मैं फांसी पर चढ़ने जा रहा हूं। राजा ने कहा: क्यों झूठ बोलते हैं? आपको, और कौन फांसी पर चढ़ाएगा? उस फकीर ने कहा: अगर झूठ बोलता हूं तो फांसी पर चढ़ा दो, लेकिन तब जो मैंने बोला वह सत्य हो जाएगा। और अगर मुझे फांसी पर नहीं चढ़ाते तो झूठ बोलने वाले आदमी को बिना फांसी पर चढ़े हुए जाने दिया है। अब तुम निर्णय कर लो। ये तुम्हारे सब विचार करने वाले निर्णय कर लें कि मुझे फांसी देनी है कि नहीं देनी है? वह राजा और उसके पंडित बहुत मुश्किल में पड़ गए। उन्होंने कहा: अगर हम इसे जाने देते हैं तो यह आदमी झूठ बोल रहा है कि मैं फांसी पर चढ़ने जा रहा हूं। और अगर नहीं जाने देते, और फांसी पर लटकाते हैं तो यह आदमी सत्य हो जाता है, और हमारा फांसी देना सत्य के लिए फांसी हो जाती है। अब हम क्या करें? उस फकीर ने कहा: जब तुम निर्णय कर लो तो मुझे खबर कर देना, मैं फांसी पर चढ़ने आ जाऊंगा। वह अपना घोड़ा बढ़ा कर चला गया। फिर वर्षों बीत गए, उस फकीर को कोई खबर नहीं आई। बार-बार उसने खबर भेजी राजा को कि निर्णय हुआ हो तो बोलो। उस राजा ने कहा: कुछ निर्णय नहीं होता। हम तर्क कर-कर के हार गए। अब हम आपसे ही पूछते हैं कि सत्य को हम कैसे जानें? तो उस फकीर ने कहा: तर्क करो, और जब हार जाओ तो तर्क के ऊपर उठो। लेकिन हारे बिना कोई ऊपर नहीं उठ सकता है।
तर्क का एक ही उपयोग है, विचार का एक ही उपयोग है, मनन का एक ही उपयोग है कि अंतिम चरण में मनन, विचार, तर्क अपने को ही व्यर्थ कर जाते हैं। विचार अंततः वहां पहुंचाता है जहां विचार कहता है: निर्विचार हो जाओ तो द्वार खुल सकता है। विचार से तो एक चक्कर पैदा होता है, कुछ खुलता नहीं है। विश्र्वास एक कांटा है जो लगा हो पैर में। और किसी आदमी को कांटा लगा हो और हम उससे कहें कि दूसरा कांटा ले आएं तुम्हारे कांटे को निकालने को? वह आदमी चिल्लाए और कहे कि पागल हुए हो, एक ही कांटा मुझे काफी तकलीफ दे रहा है और तुम दूसरा कांटा लाना चाहते हो? हम उससे कहें कि हम उस कांटे को इस कांटे को निकालने को लाते हैं। कांटा ले आएं, उसका पहला कांटा निकाल कर फेंक दें, और वह आदमी दूसरे कांटे को पहले कांटे के घाव में सम्हाल कर वापस रखने लगे और कहे, इसने बड़ी कृपा की है। इसे हम सम्हाल कर इसी छेद में रख लेते हैं। हम उससे कहें तू पागल है, फिर तो बात वही हो गई।
मैं विश्र्वास का विरोधी हूं विचार के पक्ष में। विचार के कांटे से सब विश्र्वास की जड़ें उखाड़ कर फेंक देनी चाहिए। फेंक देने बिना कोई रास्ता नहीं है। लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि मैं यह कह रहा हूं कि फिर विश्र्वास की जगह विचार को रख लेना। जैसे ही वह कांटा व्यर्थ हुआ, विचार भी व्यर्थ हो जाता है। और विचार व्यर्थ होता है तभी जब हम विचार से गुजरते हैं, करते हैं, खोजते हैं और आखिर में पाते हैं कि विचार करने से धारणाएं मिलती हैं, कंसेप्टस मिलते हैं, ट्रूथ नहीं मिलता, सत्य नहीं मिलता, कितना ही विचार करें, तो हमें कुछ धारणा मिल सकती है कि ऐसा होगा सत्य, लेकिन ऐसा है सत्य, यह नहीं मिलता। विचार करने से, सोचने से पता चलता है कि शायद ऐसा होगा। परहेप्स, विचार कभी भी परहेप्स के ऊपर नहीं ले जाता। वह कहता है, शायद ऐसा होगा। इसीलिए विज्ञान परहेप्स के ऊपर नहीं उठता। विज्ञान कहता है, शायद ऐसा है। कल बदल सकता है, परसों बदल सकता है। फिर आगे बदलता रहेगा। न्यूटन कुछ और कहता है, आइंस्टीन कुछ और कहता है, आइंस्टीन के बेटे कुछ और कहेंगे, उनके बेटे कुछ और कहेंगे, और हमेशा परहेप्स लगा रहेगा। लगा रहेगा स्यात, ऐसा है। इतना हम कह सकते हैं कि अभी तक जो हम जानते हैं उससे ऐसा लगता है। कल, कल हम और जानेंगे, और, और अन्यथा लग सकता है। विचार स्यात के ऊपर, प्रोबेबिलिटी के ऊपर, परहेप्स के ऊपर, संभावना के ऊपर नहीं ले जा सकता। विचार एक धारणा देता है, कंसेप्ट एक प्रत्यय कि ऐसा हो सकता है।
विचार की धारणा सत्य नहीं है। सत्य तो वहां है जहां सारी धारणाएं छूट जाती हैं। लेकिन विचार से गुजरना जरूरी है।
मैं एक उदाहरण के लिए कहूं, एक आदमी गरीब है, नंगा खड़ा है सड़क पर। फिर एक महावीर हैं, वे राजपुत्र हैं, उन्होंने सुंदरतम वस्त्र पहने हैं, वे सुंदरतम गद्दों पर सोए हैं। उन्होंने जीवन का सब सुख भोग पाया है। फिर वे भी सब छोड़ कर रास्ते पर आकर नंगे खड़े हो गए हैं। ये दोनों आदमी नंगे खड़े हैं। अगर इनका एक फोटोग्राफ उतारा जाए तो फोटोग्राफ में काई फर्क नहीं मालूम पड़ेगा कि इन दोनों के नंगेपन में कोई फर्क है। लेकिन एक नंगा आदमी, जिसने कपड़े नहीं जाने, और ही तरह से नंगा है। और एक आदमी, जिसने सब सुंदरतम वस्त्र जाने, नंगा होकर खड़ा हो गया है, और ही तरह से नंगा है। एक का नंगापन गरीबी है। दरिद्रता है। एक का नंगापन मजबूरी है। एक का नंगापन आनंद है, मुक्ति है, स्वेच्छा है। एक के नंगेपन में कपड़े पहनने की आकांक्षा छिपी है। एक के नंगेपन में कपड़ों के ऊपर चले जाने का द्वार खुल गया है। ये दोनों आदमी दो भांति नंगे हैं। महावीर की नग्नता का सौंदर्य ही और है। एक गरीब आदमी की नग्नता एक कुरूपता है, एक अग्लीनेस है। क्योंकि गरीब आदमी के भीतर वस्त्रों की चाह छिपी है। उस नग्नता के भीतर मांग है, कि वस्त्र मिल जाएं। वस्त्र नहीं मिल रहे हैं, इसलिए पीड़ा भी है। महावीर वस्त्रों के ऊपर उठ गए हैं। वह भी नग्न खड़े हैं। वहां वस्त्रों की कोई मांग नहीं है। वह मांग खत्म हो गई है। अब वह नग्नता अत्यंत निर्दोष है। अब उस नग्नता में अपने को छिपाने की, वस्त्रों की मांग की कोई कल्पना नहीं है।
एक आदमी विश्र्वास कर रहा है। वह गरीब आदमी की तरह नंगा है। एक आदमी विचार करके विचार के ऊपर चला गया है। वह महावीर की तरह नग्न है। इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। विश्र्वास करने वाला भी विचार नहीं करता। विचार के ऊपर उठ जाने वाला भी विचार छोड़ देता है। लेकिन विचार न करना एक बात है, और विचार छोड़ देना बिलकुल दूसरी बात है। ये दोनों भेद न दिखाई पड़ने से विश्र्वास करने वाला सोचता है, हम भी वहीं है जहां निर्विचार वाला पहुंचाता है। वहां वह नहीं है। वहां वह कभी नहीं हो सकता है। इस विचार की प्रक्रिया से गुजरना एक अनिवार्यता है। यह गुजरना एक अनिवार्य चरण है। इससे गुजरे बिना कोई कभी निर्विचार को नहीं पहुंच सकता है।
विचार दूसरी सीढ़ी है। विश्र्वास को तोड़ दें, खंड-खंड उखाड़ दें, जड़-जड़ फेंक दें विचार की धार से। और जब विश्र्वास फिंक जाए और विचार की पूरी तपश्र्चर्या से आप गुजर जाएं और उस जगह पहुंच जाएं जहां विचार चक्कर में घुमाने लगे और कोई मार्ग न सूझे: धारणाएं हाथ में आ जाएं, सिद्धांत हाथ में आ जाएं, लेकिन सत्य हाथ में न आए, तब विचार ही कहेगा, अब मुझे छोड़ दो, अब मुझसे ऊपर चले जाओ, अब मैं किसी काम का नहीं हूं। विचार ही कहेगा कि अब मुझे छोड़ दो, अब मेरे ऊपर चल जाओ, अब मैं किसी काम का नहीं हूं। जो अंतिम दान है विचार का वह यह है कि वह कह जाता है कि मैं भी व्यर्थ हूं, अब मुझे भी पार करो।
उस तीसरी सीढ़ी में हम उस पर विचार करेंगे, निर्विचार पर अर्थात ध्यान पर। पहली, विश्र्वास नहीं लिखा है उ
स द्वार पर। विश्र्वास नहीं। और मैंने कहा, विचार, और जब विचार से गुजरेंगे, तो पाएंगे कि लिखा नहीं है उस द्वार पर। विचार भी नहीं लिखा है उस द्वार पर। परमात्मा के द्वार पर यह भी नहीं लिखा है कि विचार करो और भीतर आ जाओ। विचार करने से द्वार के बाहर तक पहुंच जाओगे, भीतर नहीं जा सकते। तीसरी सीढ़ी में हम सोचेंगे, खोजेंगे कि ध्यान क्या है? मेडिटेशन क्या है? निर्विचारणा क्या है? क्या निर्विचार लिखा है उस द्वार पर? वह हम कल सुबह की चर्चा में निर्विचार पर, ध्यान पर सोचेंगे। और चौथी चर्चा में हम सोचेंगे कि क्या ध्यान को भी छोड़ देना पड़ेगा। क्या वह भी बिलकुल भीतर अंतर-गृह तक नहीं पहुंचा सकता? वह भी नहीं पहुंचाता है। विश्र्वास छोड़ो विचार से। विचार छोड़ो निर्विचार से। फिर निर्विचार भी छोड़ दो, तब जो शेष रह जाती है समाधि की दशा। वह वहां पहुंचा देती है जहां परमात्मा का आवास है। आज की बात पर जो भी प्रश्र्न हों, संध्या उनके जवाब दूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।