QUESTION & ANSWER
Prabhu Mandir Ke Dwar Par 02
Second Discourse from the series of 10 discourses - Prabhu Mandir Ke Dwar Par by Osho. These discourses were given in NARGOL during OCT 30 - NOV 03 1968.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्र्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, क्या ईश्र्वर है, जिसकी हम खोज करें? और भी दो-तीन मित्रों ने ईश्र्वर के संबंध में ऐसे ही प्रश्र्न पूछे हैं कि क्या आप ईश्र्वर को मानते हैं? क्या आपने ईश्र्वर का दर्शन किया है? कुछ मित्रों ने संदेह किया है कि ईश्र्वर तो नहीं है, उसको खोजें ही क्यों?
इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा। पहली बात, मैं जब परमात्मा का, प्रभु का या ईश्र्वर शब्द का उपयोग करता हूं, तो मेरा प्रयोजन है उससे जो है, दैट व्हीच इ़ज, जो है। जीवन है। अस्तित्व है। हम नहीं थे तब भी अस्तित्व था। हम नहीं होंगे तब भी अस्तित्व होगा। हमारे भीतर भी अस्तित्व है, जीवन है। जीवन की यह समग्रता, यह टोटेलिटी ही परमात्मा है। इस जीवन का हमें कुछ भी पता नहीं कि क्या है? स्वयं के भीतर भी जो जीवन है उसका भी हमें कोई पता नहीं कि वह क्या है?
एक फकीर था, बायजीद। कोई उसके द्वार पर दस्तक दे रहा है और कह रहा है, द्वार खोलो। बायजीद भीतर से पूछता है, किसको बुलाते हो? किसको खोजते हो? कौन द्वार खोले? अगर आपके घर किसी ने दस्तक दी होती तो आप पूछते कौन है? कौन बुलाता है? बायजीद ने कहा: कौन के लिए बुलाते हो? किसे बुलाते हो? कौन दरवाजा खोले? किसको पुकारते हो? बायजीद ने यह नहीं पूछा कि कौन पुकारता है, बायजीद ने कहा: किसको पुकारते हो? उस आदमी ने कहा: किसको पुकारूंगा? बायजीद को पुकारता हूं, बायजीद, दरवाजा खोलो! बायजीद ने कहा: फिर क्षमा करो। वर्षों से मैं खोज रहा हूं कि यह बायजीद कौन है? अभी तक मैं खोज नहीं पाया हूं। मुझे खुद ही पता नहीं कि बायजीद कौन है? यह मैं कौन हूं, यह मुझे खुद ही पता नहीं है।
मजाक में ही बायजीद ने यह कहा होगा। द्वार तो खोल दिए थे। लेकिन ठीक ही बात कही थी। यही हमें पता नहीं कि मैं कौन हूं? जीवन क्या है, यह हमें पता नहीं। अस्तित्व क्या है, यह हमें पता नहीं। और जब तक अस्तित्व का पता न हो, जीवन का पता न हो, तब तक हम जीते हैं नाममात्र को। वस्तुतः मरते हैं धीरे-धीरे। जीते नहीं हैं और मरने की इस लंबी प्रक्रिया को ही जीवन समझ लेते हैं।
जब मैं कहता हूं, प्रभु का द्वार, तो जानना कि मैं कह रहा हूं--जीवन का द्वार। जीवन की समग्रता का नाम ही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कहीं बैठा हुआ कि आप जाएंगे और इंटरव्यू ले लेंगे, भेंट हो जाएगी। परमात्मा कहीं कोई व्यक्ति नहीं है जो बैठा हुआ है, आपकी प्रतीक्षा कर रहा है दरवाजे के भीतर कि आप दरवाजा खोलेंगे और वह मिल जाएगा। परमात्मा का अर्थ है: यह जो जीवन का अनंत विस्तार है, यह जीवन का समस्त सारभूत है--इस सबको ही हम परमात्मा कह रहे हैं। जीवन के द्वार को खोल लेना ही परमात्मा के द्वार को खोलना है। और हमें अपने भीतर भी जो जीवन है इसका भी कोई पता नहीं है। अपने से ही अपरिचित हम जीते हैं, अनजान अपने से ही। इससे ज्यादा दुखद और अंधकारपूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता है। और जिस आदमी को यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं, उसे और क्या पता हो सकता है? उसका सारा ज्ञान इस मूल अज्ञान पर खड़ा होता है, इसलिए खतरनाक हो जाता है।
आज आदमी के पास बहुत ज्ञान है। ज्ञान की कमी नहीं है, सिर्फ एक ज्ञान छोड़ कर कि वह स्वयं कौन है? यह सारा ज्ञान अज्ञान की भित्ति पर खड़ा है। इसलिए खतरनाक है। सारी मनुष्य की सभ्यता, सारी संस्कृति, सारा समाज खतरे में है। किसी भी क्षण नष्ट हो जाए, क्योंकि अज्ञान के ऊपर ज्ञान की दीवाल खड़ी कर दी है। यह अज्ञान के ऊपर खड़ा हुआ ज्ञान का भवन आदमी को लेकर ही नष्ट होगा। अगर हम मौलिक अज्ञान को नहीं तोड़ते हैं। धर्म मनुष्य के भीतर वह जो मूलभूत अज्ञान है उसको तोड़ने की कला है। और परमात्मा कोई व्यक्ति का नाम नहीं है, परमात्मा जीवन के समस्त का नाम है। उस समस्त के मंदिर में हम कैसे प्रविष्ट हो जाएं? मैं जब परमात्मा की बात कहता हूं, तो मेरा अर्थ किसी दुनिया को बनाने वाले व्यक्ति से नहीं है। दुनिया किसी ने कभी नहीं बनाई है। कोई बनाने वाला नहीं है। परमात्मा और सृष्टि ऐसी दो चीजें नहीं हैं। स्रष्टा और सृष्टि ऐसी दो चीजें नहीं हैं।
एक गायक गीत गाता है। एक चित्रकार चित्र बनाता है। चित्र अलग है, बनाने वाला अलग है। चित्र बन कर अलग हो जाता है, चित्रकार अलग हो जाता है। परमात्मा कोई ऐसी चीज नहीं है कि जगत और जीवन से अलग हो गई है। परमात्मा ऐसे है, उदाहरण के लिए समझाऊं, जैसे कोई नृत्यकार नाचता है, नाचना और नृत्यकार एक ही हैं, दो नहीं हैं। नाचने वाला बंद, नृत्य भी बंद। ऐसा नृत्य अलग खड़ा नहीं रह जाएगा नाचने वाले से। तो परमात्मा और उसका जगत ऐसी दो चीजें नहीं हैं, स्रष्टा और सृष्टि दो चीजें नहीं हैं। क्रिएटर और क्रिएशन दो चीजें नहीं हैं। क्रिएटर ही क्रिएशन है। क्रिएशन ही क्रिएटर है। क्रिएटिविटी वह जो सृजनात्मकता है, वही परमात्मा है। और इसलिए परमात्मा को खोजने कहीं और नहीं जाना है। यहीं है, अभी और यहीं है। मुझ में है। आप में हैं। सब में हैं, सब तरफ है। जो भी है वही है। और तब एक दूसरी दृष्टि होगी। परमात्मा को एक कोने में रखने के कारण हमारी सारी दृष्टि जगत से, परमात्मा से शून्य कर ली है। और कहीं एक मंदिर की एक मूर्ति में, कहीं आकाश में उसे बिठा रखा है।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, जब परमात्मा सब जगह है, तो वह मूर्ति में क्यों नहीं होगा?
बिलकुल होगा। लेकिन जिसका आग्रह है कि मूर्ति में ही है, उसके लिए सब जगह नहीं हो सकेगा। और जिसके लिए सब जगह नहीं है, उसके लिए मूर्ति में भी नहीं हो सकता है। परमात्मा सब जगह है। निश्र्चित ही मूर्ति में भी आ गया। लेकिन जो कहता है, मूर्ति में ही है, उसके लिए सब जगह नहीं है। और जिसके लिए सब जगह नहीं है उसके लिए मूर्ति में भी नहीं हो सकता है। और जो कहता है, सब जगह है, वह मूर्ति को खोजने न जाएगा, जो मिल जाएगा वही परमात्मा है। वह मंदिर को खोजने नहीं जाएगा, क्योंकि सब उसका ही मंदिर है। फिर वह यह नहीं कहेगा कि यह मेरी मूर्ति रही, मैं इसकी पूजा करूंगा। पूजा किसकी करनी है फिर? जब सभी वही है। श्र्वास-श्र्वास वही है, कण-कण वही है, तो पूजा किसकी? मैं भी वही हूं, पूजा करे कौन? किसकी करे? यह जिसको पता हो जाएगा कि वह सब में है, वह मूर्ति की बातों में नहीं पड़ने वाला है।
लेकिन आदमी अपनी नासमझियों के लिए भी दलील खोजते हैं। सच तो यह है कि आदमी सिर्फ नासमझियों के लिए ही दलील खोजते चले जाते हैं। और अपनी नासमझियों को मजबूत करते चले जाते हैं। एक आदमी को मूर्ति पूजनी है, तो वह कहता है कि जब सब में है तो फिर मूर्ति में भी है। लेकिन सब में कभी देखा है? और अगर मूर्ति को कोई आदमी तोड़ रहा हो, तो उसमें भी दिखेगा जो तोड़ रहा है, और मूर्ति को कोई लात मार रहा हो, तो उसमें भी दिखेगा जो लात मार रहा है। उसमें नहीं दिखेगा फिर, वह लात मारने वाले की गर्दन पकड़ लेगा, यह मूर्ति का पूजक। उसमें दिखना मुश्किल हो जाएगा। वह कह रहा है कि सब में हैं। सब में कहा है, लेकिन हिंदू को मुसलमान में दिखता है, मुसलमान को हिंदू में दिखता है। कहा है सब में है, लेकिन सब में दिखता कहां है? ये सब दलीलें खतरनाक सिद्ध हो जाती हैं, अपना मतलब सिद्ध करने लगती हैं। जब सब में है तो फिर मूर्ति में भी है। फिर मूर्ति की पूजा के लिए किसलिए जा रहे हो सुबह-सुबह? कहां चले जा रहे हो, सबको छोड़ कर वहां कहां जा रहे हो? जब एवरीवेयर है, तो समवेयर की दृष्टि छोड़ देनी पड़ेगी। जब कोई कहता है कि सब जगह है, तो कहीं होने का खयाल छोड़ देना पड़ेगा। जब सब जगह है तो फिर कहीं होने का कोई सवाल नहीं रहा। कोई प्रश्र्न न रहा, कोई प्रयोजन न रहा, लेकिन हम क्या करते हैं? हम बड़ी-बड़ी बातों के आधार पर बड़ी छोटी-छोटी बातें सिद्ध करते हैं और उन छोटी-छोटी बातों को पकड़ कर बड़ी-बड़ी बातों की हत्या करते हैं।
मैं नहीं कहता हूं कि मूर्ति में नहीं है। और जब मैं कहता हूं कि मूर्ति में नहीं है, तो मेरा मतलब सिर्फ इतना ही है कि जिसे मूर्ति में ही दिखता है वह गलत देख रहा है। सब जगह दिखे, फिर तो मूर्ति में भी है।
मैंने सुना है, एक फकीर एक रात एक मंदिर में ठहरा। रात सर्द है, अंधेरी रात है। वह सर्दी से कंप रहा है, वह भीतर गया। पुजारी सो गया है। भगवान बुद्ध की मूर्तियां रखी हैं तीन। लकड़ी की मूर्तियां हैं। एक मूर्ति उठा लाया और आग लगा कर आग सेंकने लगा। मूर्ति को तापने लगा। आग जली देख कर मंदिर में मंदिर का पुजारी भागा आया, देखा तो भगवान की मूर्ति जल रही है और फकीर आंच ताप रहा है। उस पुजारी ने कहा: पागल हो, यह क्या कर रहे हो? यह क्या अनर्थ कर डाला? भगवान की मूर्ति जला रहे हो? फकीर ने चुपचाप सुना, उसने कहा: भगवान की मूर्ति! बड़ा अच्छा बताया। एक पास में पड़ी हुई लकड़ी को उठा कर उसने उस राख को कुरेदा जो जल गई थी। उस पुजारी ने पूछा: क्या खोजते हो? उसने कहा: भगवान की अस्थियां खोजता हूं। उस पुजारी ने कहा: तब निपट पागल हो। लकड़ी की मूर्ति में कहां अस्थियां? तो वह फकीर हंसने लगा, उसने कहा: रात बहुत लंबी और सर्दी बहुत ज्यादा है, दो मूर्तियां और भीतर रखी हैं, तुम उठा लाओ, उनको भी हम जला लें और ताप लें। मंदिर के पुजारी ने और पुजारियों को जगा लिया और उस फकीर को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। वह फकीर हंसता हुआ बाहर निकल गया। वे पुजारी शायद ही समझ पाए होंगे उसकी हंसी।
सुबह बहुत हैरान हुए। सुबह जब सूरज निकला है, वह फकीर सड़क के किनारे बैठा है हाथ जोड़े। राह से जो भी निकल रहा है सबके लिए हाथ जोड़े बैठा है। सामने एक पत्थर पड़ा है, उसके लिए भी हाथ जोड़े बैठा है, ऊपर सूरज निकल रहा है, उसके लिए भी हाथ जोड़े बैठा है। उन पुजारियों ने जाकर कहा कि पागल, अब क्या कर रहा है यहां? उसने कहा: पूजा कर रहा हूं। किसकी पूजा कर रहा है? उसने कहा: भगवान की पूजा कर रहा हूं। भगवान कहां है? उसने कहा: यह सब जो चारों तरफ फैला है, और क्या है? वे कहने लगे, रात मूर्ति जला दी नासमझ! और अब जहां कुछ भी मूर्ति नहीं है वहां पूजा कर रहा है? उसने कहा: मूर्ति जलाई थी ताकि तुम्हारा भ्रम जल जाए। मूर्ति से मुझे क्या लेना-देना है! मूर्ति जलाई थी, ताकि तुम्हें खयाल आ जाए कि कहीं तुम लकड़ी को ही तो नहीं पूज रहे हो। तुम्हें भगवान दिखा है? अगर लकड़ी में दिख जाता तो सब जगह दिख जाता, लेकिन कहीं नहीं दिखा। लकड़ी में सिर्फ मान कर बैठे हो। और जब मैं अस्थियां खोजने लगा, तब तुम हंसने लगे कि पागल हो।
यह जो मूर्ति को पूज रहे हैं, इन्हें कोई भगवान दिखता हो, ऐसा मत समझ लेना। और मैं जो मूर्ति के खिलाफ बोल रहा हूं, तो ऐसा मत समझ लेना कि भगवान के विरोध में बोल रहा हूं। भगवान के प्रेम में बोल रहा हूं। और अगर भगवान को लाना है, तो भगवान के नाम पर चलने वाली नासमझियों को अत्यंत शीघ्रता से बंद कर देना जरूरी है। कई बार ऐसा होता है कि शत्रु मित्र मालूम पड़ते हैं और मित्र शत्रु मालूम पड़ते हैं। आज जो भगवान की मूर्तियों के पास खड़े हैं, वे भगवान के मित्र मालूम पड़ते हैं। और सचाई यह है कि उनसे ज्यादा भगवान की शत्रुता और कोई भी नहीं कर रहा है। क्योंकि भगवान के नाम पर जिस ढोंग को, जिस पाखंड को खड़ा किया जा रहा है, जिस धंधे को, जिस व्यवसाय को चलाया जा रहा है, वह न मालूम कितने लोगों को भगवान से विमुख करने का कारण बन रहा है। मंदिरों की तरफ आंख उठा कर, तीर्थों की तरफ आंख उठा कर कोई बुद्धिमान आदमी भगवान की दिशा में जाने की हिम्मत नहीं कर सकता है। वह कहेगा, अगर यही सब भगवान के नाम पर हो रहा है तो मैं क्षमा चाहता हूं। भगवान के नाम पर जो होता रहा है आज तक, सब तरह के शोषण का समर्थन हो रहा है भगवान के नाम पर। सब तरह की गरीबी बचाई जा रही है भगवान के नाम पर। सब तरह की बेईमानी को सुरक्षा दी जा रही है भगवान के नाम पर! सब तरह की धन-संपत्ति के सारे के सारे उपद्रव की रक्षा की जा रही है भगवान के नाम पर।
तो जिस आदमी को भी यह सब जाल दिखाई पड़ेगा, वह चौंक कर कहेगा कि यह सब भगवान का नाम और भगवान की बातचीत सब अफीम है। इस सबसे छुटकारा चाहिए। लेकिन वह आदमी भी गलती कर रहा है, वह जल्दी कर रहा है। वह धर्म के दुश्मनों को धर्म का मित्र समझ रहा है और धर्म के मित्र समझ कर धर्म का दुश्मन हुआ जा रहा है।
मेरी स्थिति बहुत अजीब हो गई है। धर्म से मुझे प्रेम है और धर्म के नाम पर चलते पाखंड से घृणा है। और तब ऐसा लगता है कि शायद मैं धर्म के विरोध में बोल रहा हूं। तब ऐसा लगता है कि शायद मैं अधार्मिक हूं। तब शायद ऐसा लगता है कि शायद मैं दुनिया से धर्म को मिटा देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि दुनिया में धर्म आए, लेकिन धर्म के नाम पर जो व्यवसाय खड़ा हुआ है, वह दुनिया में धर्म नहीं आने दे रहा है। और उसका जाल इतना लंबा है और उसकी बातें इतनी पुरानी हैं, और उसकी परंपरा इतनी गहरी और जड़ों तक घुस गई है, कि हम भूल ही गए हैं कि वह कहां-कहां हमारे खून में संयुक्त हो गया है। इस सबसे जागे बिना पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकती। आज तक पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है। अगर पृथ्वी धार्मिक होती, तो यह सब होता जो हो रहा है? अगर पृथ्वी धार्मिक हो, तो समाजवाद की जरूरत है? साम्यवाद की जरूरत है?
एक दूसरे मित्र ने पूछा है, तो मैं वह प्रश्र्न भी ले लूं।
उन्होंने पूछा है:
भगवान, क्या आप कम्युनिस्ट हैं?
अगर दुनिया धार्मिक हो तो कम्युनिज्म की कोई भी जरूरत नहीं है। और जब तक दुनिया अधार्मिक है, कम्युनिज्म की जरूरत पड़ेगी। दुनिया अगर धार्मिक हो तो गरीबी कभी की मिट जानी चाहिए थी, क्योंकि धार्मिक आदमी इतनी गरीबी, इस कुरूपता को बरदाश्त नहीं कर सकते हैं। लेकिन संत-महात्मा बड़े मजे से बरदाश्त कर रहे हैं। न केवल बरदाश्त कर रहे हैं बल्कि इस गरीबी को तर्क दे रहे हैं कि यह क्यों है? वे समझाते हैं कि गरीबी इसलिए है कि पिछले जन्मों का पाप कर्म है तुम्हारा, इसलिए तुम गरीब हो। गरीबी को बचाने के लिए ये बफर्स उपयोग किए जा रहे हैं। ट्रेन में देखा है न। ट्रेन के दो डिब्बों के बीच में बफर लगे रहते हैं, शॉक-एब्जार्बर लगे रहते हैं। कितना ही धक्का लगे गाड़ी को, डिब्बों के भीतर के यात्री को पता नहीं चलता। शॉक-एब्जार्बर धक्का पी जाता है। कार के नीचे स्ंिप्रग लगे हुए हैं, कितने ही रास्ते पर गड्ढे आ जाएं, भीतर के यात्री को कम से कम पता चलता है, स्ंिप्रग सारा धक्का पी जाता है।
हिंदुस्तान में तथाकथित धार्मिकों ने ऐसे सिद्धांत ईजाद किए हैं जो शॉक-एब्जार्बर का काम कर रहे हैं। जिंदगी कितनी ही कुरूप और गंदी हो जाए, शॉक-एब्जार्बर सब पी जाता है। कर्म का सिद्धांत ऐसा ही खतरनाक शॉक-एब्जार्वर है। वह कहता है, तुमने पिछले जन्म में पाप किए, इसलिए तुम गरीब हो। और सच्चाई यह है कि समाज अभी पाप कर रहा है, इसलिए अधिक लोग गरीब हैं। किसी के पिछले जन्म के पाप के कारण नहीं। समाज के सामूहिक पाप के कारण आदमी गरीब है। अगर धर्म सीधी और सच्ची बात कह सकता, और अगर संतों और महात्माओं ने जाने या अनजाने न्यस्त स्वार्थों की रक्षा न की होती, तो दुनिया में कम्युनिज्म की कभी भी कोई जरूरत न पड़ती। कम्युनिज्म की जरूरत पड़ रही है क्योंकि पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है। और धर्म अधार्मिक ठेकेदारों के हाथ में है। आज भी वे ही लोग सारी जमीन पर धर्म को पकड़े हुए हैं। उसकी गर्दन को पकड़े हुए हैं। यह खयाल कि एक-एक आदमी अपने कर्मों का फल भोग रहा है, अत्यंत खतरनाक सिद्ध हुआ है। हम सब सामूहिक कर्मों का फल भोग रहे हैं।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक फकीर एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहा है। मुल्ला अजान देने को चढ़ा है मस्जिद के टॉवर पर और गिर पड़ा। लंबी मीनार है। फकीर नीचे से जा रहा है। वह उसकी गर्दन पर गिरा। मुल्ला तो बच गया--गिरने वाला, फकीर की गर्दन टूट गई। उसे अस्पताल में भरती किया गया। उसके शिष्य उसके पास गए। और शिष्य जानते थे कि उनका वह जो गुरु है, वह जो फकीर है, वह हर छोटी-मोटी चीज में बड़ी ही गहरी छान-बीन करता है। तो वे गए और उन्होंने पूछा कि हम एक बात पूछने आए हैं, आपके इस गर्दन टूट जाने में भी कोई राज आपने खोजा? कोई मिस्टरी? उसने कहा: बराबर खोजा। यह बात सिद्ध हो गई कि गिरे कोई, गर्दन किसी और की टूट सकती है। अब तक मैं यही सोचता था कि जो गिरेगा उसकी गर्दन टूटेगी। अब मैं मान गया कि गिरे कोई और, गर्दन किसी और की टूट सकती है। न हम गिरे, गर्दन हमारी टूट गई है। पाप कोई और कर रहा है, फल कोई और झेल रहा है। वह बात गलत हो चुकी कि तुमने पाप किए हैं और तुम फल भोग रहे हो। वह इनडिविजुअलिटी का खयाल। व्यक्ति, अहंकार का खयाल कि एक-एक व्यक्ति अलग जी रहा है, बुनियादी रूप से झूठ है। सारे व्यक्तियों का जीवन अंतर्संबंध है, इंटररिलेशनशिप है। हम सब इकट्ठे पाप भोगते हैं, इकट्ठे पुण्य भोगते हैं।
लेकिन धर्म ने एक-एक व्यक्ति को और धर्म ने हजारों दफे समझाया कि अहंकार झूठ है। और फिर भी जाने-अनजाने अहंकार को ही बल दिया है। और कहा है कि तू अपने फल भोग रहा है, मैं अपने फल भोग रहा हूं। और अगर हर आदमी अपने फल भोग रहा है तो ऐसी विचारधारा में समाज की धारणा का जन्म ही नहीं हो सकता है। समाज का कोई अर्थ ही नहीं है। व्यक्तियों की भीड़ है, समाज नहीं है। धर्म ने जमीन को व्यक्तियों की भीड़ बना दिया है, समाज नहीं। भीड़ तो तभी बनेगी समाज जब हम अतर्संबंधित हैं। जब हम एक-दूसरे के साथ ही जी रहे हैं और भोग रहे हैं।
इस देश में इतना जो निपट स्वार्थ दिखाई पड़ता है, उसके पीछे धार्मिक लोगों की शिक्षाएं हैं। इतना जो निपट स्वार्थ और एक-एक आदमी अपनी-अपनी फिकर में। और किसी को किसी से कोई प्रयोजन नहीं। इसके पीछे बुरे लोगों का हाथ नहीं तथाकथित अच्छे लोगों का हाथ है। क्योंकि वे यह सिखा रहे हैं कि एक-एक व्यक्ति अपना-अपना मोक्ष खोजे, अपने-अपने पापों को काटे, अपने-अपने पुण्य इकट्ठे करें। समाज जैसी कोई चीज नहीं है, हम जुड़े नहीं हैं, हम सब अलग-अलग अपनी-अपनी यात्रा कर रहे हैं। इस धारणा ने हिंदुस्तान के सामाजिक जीवन को एक पागलखाना, एक कुरूपता, एक अत्यंत ही गंदा गड्ढा बना दिया है। क्योंकि हर आदमी अपनी फिकर कर रहा है। अपनी फिकर कर रहा है।
जिस दिन जीसस को सूली लगी, जिस दिन जीसस को फांसी लगी, शायद आपको पता न हो, एक आदमी को उसी दिन दाढ़ में दर्द हो रहा था, उसी गांव में। जीसस को सूली लग रही है, दुनिया के एक प्यारे से प्यारे आदमी को आज सूली पर लटकाया जाने वाला है, और एक आदमी की रात से दाढ़ में दर्द हो रहा है, दांत दुख रहा है। वह सुबह से उठ कर--जो भी उसके पास आता है, लोग कहते हैं, सुना तुमने, वह मरियम के बेटे जीसस को सूली लगने वाली है। वह कहता है, हां, सुना है। रात भर सो नहीं सका, दाढ़ में बड़ा दर्द हो रहा है। दाढ़ बड़ी दुखती है, फलां दवा लगाई थी, वह कोई काम नहीं करती। वे आदमी कहते हैं, ठीक है, दाढ़ है, ठीक हो जाएगी। लेकिन वह मरियम के बेटे को सूली लग रही है। वह कहता है, होगा, लेकिन मेरी दाढ़ में बहुत दर्द हो रहा है। जो भी आता है वह उससे कहता है, मरियम के बेटे को सूली लग रही है। और वह कहता है, होगा, ठीक है, सुना है मैंने, लेकिन मेरी दाढ़ में बड़ा दर्द हो रहा है। रात भर से मेरी दाढ़ दुख रही है।
आदमी हैरान है! वह कहता है कि ठीक है, दाढ़ है, ठीक हो जाएगी। वह कहता है, बड़ी तकलीफ है। रात भर करवटें बदलता रहा, सो नहीं सका। दाढ़ में बड़ी तकलीफ है। गांव में जीसस को सूली लग रही है, एक आदमी की दाढ़ में तकलीफ है! उसे अपनी दाढ़ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है।
हिंदुस्तान में हर आदमी की दाढ़ में तकलीफ है। और पूरे हिंदुस्तान को सूली लग रही है। और हर आदमी अपनी दाढ़ की बात कर रहा है। और हिंदुस्तान को एकाध दिन में सूली नहीं लग रही है। आदमी एकाध दिन में सूली पर चढ़ता है। देश हजारों साल तक सूलियों पर लटके रहते हैं। हिंदुस्तान हजारों साल से सूली पर लटका हुआ है, लेकिन हर आदमी की दाढ़ दुख रही है। लगने दो सूली, हमारी दाढ़ में दर्द है। उसका कुछ इंतजाम करना है। हर आदमी अपनी दाढ़ की बात कर रहा है। और यह सिखाया है तथाकथित धार्मिक लोगों ने। हिंदुस्तान के जितने भी श्रेष्ठ लोग कभी भी हुए हों--कोई बुद्ध, कोई महावीर, वे सभी एक अर्थों में कम्युनिस्ट थे। कोई अच्छा आदमी कम्युनिस्ट हुए बिना नहीं बच सकता है। नहीं बच सकता है कम्युनिस्ट हुए बिना। कम्युनिस्ट हुए बिना सिर्फ वही बच सकते हैं जो आंखें बिलकुल अंधी किए हैं या सब तरफ से अपने को बेईमानी और धोखा देने में संलग्न हैं।
कोई आदमी इस बात से कैसे बच सकता है कि हर आदमी को समान होने का अवसर मिले। कोई आदमी इस बात से कैसे बच सकता है कि हर आदमी को समान विकास का अवसर मिले। कोई आदमी इस बात से कैसे बच सकता है कि आदमी-आदमी की कीमत बराबर हो। कोई आदमी इस बात से कैसे बच सकता है कि मनुष्य का समाज वर्गों में विभक्त न हो। कोई बुद्धिमान आदमी, कोई विचारशील आदमी, कोई चरित्रवान आदमी कम्युनिस्ट हुए बिना नहीं बच सकता है।
लेकिन कम्युनिस्ट होने से मेरा मतलब नहीं है कि कोई मार्क्स का अनुयायी होकर अंधा हो जाए। कम्युनिस्ट होने से मेरा मतलब नहीं है कि कोई माओ का पागल हो जाए। कम्युनिस्ट होने से मेरा मतलब नहीं है कि कोई स्टैलिन और ट्राटस्की के पीछे अंधा होकर चलने लगे। जो अंधे होकर इस तरह चलते हैं उन्हें कम्युनिज्म से बहुत कम मतलब है। वे पुराने तरह के विश्र्वासी लोग हैं, जिन्होंने नये गुरुओं को पकड़ लिया है। वे पुराने तरह के विश्र्वासी लोग हैं जो पहले राम को पकड़ कर चलते थे, कृष्ण को पकड़ कर चलते थे, क्रोध में उन्होंने राम और कृष्ण को छोड़ दिया, लेकिन पकड़ने का ढंग वही है। उन्होंने अब मार्क्स को पकड़ लिया। अब माओ को पकड़ लिया। पहले वह गीता को, बाइबिल को पकड़ते थे, अब उन्होंने कैपिटल को कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो को पकड़ लिया। लेकिन पकड़ने का ढंग वही है। कुरान को पकड़ने का जो ढंग है मुसलमान का, तथाकथित कम्युनिस्ट का कैपिटल को पकड़ने का ढंग वही है। उसकी बुद्धि वही है। वह कहता है, हमारी किताब में जो लिखा है वह सच है। वह कहता है, हम जो कहते हैं वह ठीक है। वह कहता है, इतिहास की परिपूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या हमने कर दी। अब इससे अन्यथा कुछ भी नहीं हो सकता है।
इन अंधे लोगों को अगर आप कम्युनिस्ट कहते हैं, तो मैं कम्युनिस्ट बिलकुल नहीं हूं। अगर आप उनको कम्युनिस्ट कहते हैं, जो सोचते हैं कि हम आदमी को--जबरदस्ती आदमी की व्यवस्था को, समाज की जीवन-व्यवस्था को--एक छोटा सा अल्पमत बहुमत को जबरदस्ती छाती पर हावी होकर छुरे की धार पर बदल दें, तो मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि किसी अल्पमत को कभी यह हक नहीं है कि वह चाहे बहुमत के हित में ही, बहुमत के साथ जबरदस्ती करे। अब तक दुनिया में अल्पतम ने हमेशा बहुमत के साथ जबरदस्ती की है।
एक मुसलमान है, वह सोचता है कि अगर सारे लोग मुसलमान हो जाएं तो उनका हित होगा। और वह ईमानदारी से सोच सकता है। सिंसियर हो सकता है सोचने में कि हर आदमी को मुसलमान होना चाहिए। नहीं तो ये बेचारे स्वर्ग जाने से वंचित रह जाएंगे। नरक नहीं जा सकेंगे। वह तलवार उठा कर आपकी छाती पर चढ़ जाता है। और कहता है कि तुम मुसलमान हो जाओ नहीं तो तुम नरक चले जाओगे। मैं तुम्हारे हित के लिए कहता हूं कि तुम्हें मुसलमान हो जाना चाहिए। नहीं मानोगे तो जबरदस्ती तुम्हें मुसलमान बनाऊंगा। वह जो काम कर रहा था वही वे कम्युनिस्ट कर रहे हैं जो समाज की छाती पर जबरदस्ती और हिंसा के द्वारा समानता लाना चाहते हैं।
हिंसा से समानता नहीं आ सकती। क्योंकि हिंसा मौलिक रूप से असमानता का आधार है। जो आदमी हिंसा करता है और जिसके साथ हिंसा होती है--जिसके साथ हिंसा होती है वह नीचे दब जाता है और जो हिंसा करता है वह ऊपर उठ जाता है। दो वर्ग फिर खड़े हो जाते हैं। हिंसा करने वाला मालिक हो जाता है, जिसके साथ हिंसा की जाती है वह फिर दरिद्र हो जाता है। वह फिर दीन हो जाता है। वह फिर दब जाता है। रूस में क्रांति हुई, चीन में क्रांति हुई, लेकिन ये क्रांतियां उस कम्युनिज्म को अभी नहीं ला पाएंगी जिसकी मैं आकांक्षा करता हूं। ये क्रांतियां पूंजीवाद की, बीमारी को बदलने की पागल कोशिशें हैं। इन क्रांतियों से पूंजीवाद का वर्ग विभाजन टूटेगा। नया वर्ग विभाजन खड़ा हो जाएगा। वह रूस में भलीभांति खड़ा हो गया है। जो कल मालिक था वह अब मैनेजर है। जो कल मजदूर था वह अब भी मजदूर है। उन दोनों के बीच के फासले कम हुए हैं। तनख्वाह का फर्क कम हुआ है, लेकिन प्रतिष्ठा में और प्रतिष्ठा के भेद में कोई फर्क नहीं पड़ा।
और ध्यान रहे, आदमी धन भी इसलिए इकट्ठा करता है कि धन प्रतिष्ठा लाता है। अगर प्रतिष्ठा लाने की दूसरी तरकीबें मिल जाएं तो आदमी धन भी इकट्ठा नहीं करेगा। रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर की जो प्रतिष्ठा है वह प्रतिष्ठा गैर-कम्युनिस्ट की नहीं है। और गैर-कम्युनिस्ट होने की हिम्मत जुटानी भी बहुत मुश्किल है।
मैंने सुना है, ख्रुश्र्चेव जब हुकूमत में आया। एक मजाक मैंने सुनी है। मैंने सुना है कि ख्रुश्र्चेव रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के सारे बड़े लोगों के बीच स्टैलिन की निंदा कर रहा है। जोर से गालियां दे रहा है और कह रहा है कि स्टैलिन ने यह बुरा किया, यह बुरा किया, यह बुरा किया। एक आदमी पीछे से पूछता है कि आप स्टैलिन के साथ जिंदगी भर रहे। स्टैलिन के मरने पर आप यह बातें क्यों कह रहे हैं? जब स्टैलिन जिंदा था, तब आपने क्यों नहीं कहा? ख्रुश्र्चेव एक सेकेंड को चुप हो गया, और फिर उसने कहा: जो महाशय यह पूछते हैं, कृपया खड़े होकर अपना नाम बता दें। कोई खड़ा नहीं हुआ। किसी ने नाम नहीं बताया। ख्रुश्र्चेव ने कहा: समझे, जिस कारण से तुम खड़े नहीं हो रहे और नाम नहीं बता रहे, उसी कारण से मुझे भी चुप रह जाना पड़ा।
ठीक है, पूंजीवाद की एक तकलीफ है। गरीब और अमीर के बीच एक फासला है, वह मिटना चाहिए। लेकिन अगर नया फासला खड़ा हो जाए तो हमने बीमारी बदल ली, और कुछ भी नहीं किया। नया फासला रूस में खड़ा हो गया। वह नया फासला चीन में भी खड़ा हो गया है। एक प्रयोग किया उन्होंने हिम्मत का और उस हिम्मत के प्रयोग के लिए जितनी दाद दी जाए उतनी थोड़ी है, लेकिन वह प्रयोग असफल हो गया, कम्युनिज्म आ नहीं सका। कम्युनिज्म को आने में और वक्त लग जाएगा। और देर लग जाएगी। साम्यवाद तो तभी आ सकेगा, जब साम्यवाद का जीवन-दर्शन एक-एक व्यक्ति के प्राणों में प्रविष्ट हो जाए। और साम्यवाद का जीवन-दर्शन तभी प्रविष्ट हो सकता है जब प्रत्येक व्यक्ति को यह खयाल हो जाए कि मुझे न छोटा होना है, न बड़ा होना है। वह जो एंबीशन है एक-एक आदमी के भीतर बड़े होने की, अगर वह नहीं मिटती है तो दुनिया में साम्यवाद कितनी ही कोशिश से ले लाओ, जैसे ही कोशिश ढीली होगी, फिर पूंजीवाद आना शुरू हो आएगा।
वह जो आदमी के भीतर महत्वाकांक्षा है, जब तक नष्ट न हो जाए, तब तक साम्यवाद स्थापित नहीं हो सकता।
और मेरा मानना है कि धर्म अकेला एक विज्ञान है, जो मनुष्य के भीतर महत्वाकांक्षा को नष्ट करने की कोशिश करता है। और इसलिए मैं यह कहना चाहता हूं कि धर्म जब पृथ्वी पर आएगा पूरी तरह, उसके साथ ही साम्यवाद भी आ सकता है, उसके पहले नहीं।
और ध्यान रहे, जब तक धार्मिक आदमी कम्युनिस्ट नहीं होगा तब तक कम्युनिज्म झूठे कम्युनिस्टों के हाथ में रहेगा। और झूठे कम्युनिस्ट उतने ही खतरनाक सिद्ध होने वाले हैं जितना कि पूंजीपति सिद्ध हुआ है, सांमतवादी सिद्ध हुए हैं। ठीक कम्युनिज्म, ठीक कम्युनिस्ट पैदा करना जरूरी है।
और इसलिए मैं मानता हूं कि वे लोग जो परमात्मा को प्रेम करते हैं, उसकी खोज करते हैं, जो एक-एक आदमी के भीतर परमात्मा की झलक देखते हैं, जब तक वे कम्युनिस्ट नहीं हो जाते, तब तक कम्युनिज्म के लिए कोई भाग्यपूर्ण अवसर नहीं है। मैं कम्युनिस्ट हूं, लेकिन मेरा अर्थ आप समझ लेना। और मैं मानता हूं, कोई भी धार्मिक आदमी बिना कम्युनिस्ट हुए बिना कैसे रह सकता है? क्राइस्ट भी कम्युनिस्ट हैं, और बुद्ध भी, और महावीर भी, और लाओत्सु भी, और शंकर भी। सब विचारशील लोग जगत के कम्युनिस्ट ही रहे हैं। चाहे कम्युनिज्म का शब्द उस दिन रहा हो या न रहा हो। जिन लोगों ने भी यह कामना की है और प्रार्थना की है कि सबका कल्याण हो। और जिन लोगों ने भी यह चाहा है कि सब समान हों। और जिन लोगों ने भी सपने देखे हैं कि वह वक्त आ जाए कि कोई आदमी ऊंचा न हो, कोई आदमी नीचा न हो। और जिन्होंने भी यह दर्शन किया है कि सबके भीतर एक ही परमात्मा विराजमान है। वे सब कम्युनिस्ट हैं।
लेकिन जिसे हम कम्युनिस्ट कहते हैं, उसको परमात्मा से भी कोई मतलब नहीं। उसे आत्मा से भी कोई मतलब नहीं। उसे बहुत गहरे में हम देखें, तो मनुष्य की समानता से भी कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जिसका हिंसा में विश्र्वास है उसका असमानता में विश्र्वास है। जिसका जबरदस्ती में विश्र्वास है उसे आदमियों के भीतर जो स्वतंत्र चिंतना है उस पर विश्र्वास नहीं है। वैसा मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं। और वैसे कम्युनिस्टों से निरंतर लड़ता रहूंगा। इसलिए मेरी लड़ाई भी बड़ी मुश्किल की है—कम्युनिज्म के लिए लड़ना है और कम्युनिस्टों से लड़ना है। धर्म के लिए लड़ना है और धार्मिकों से लड़ना है। आस्तिकता के लिए लड़ना है और आस्तिकों से लड़ना है। तब बड़ी मुश्किल हो जाती है। तब बड़ी कठिनाई हो जाती है।
एक और मित्र ने पूछा है कि
भगवान, मैंने सुबह कहा कि परमात्मा को खोजना हो तो विश्र्वास के द्वार से नहीं खोज सकते हैं। तो वे कहते हैं कि अगर हम विश्र्वास न करेंगे, तब तो छोटे-छोटे काम करने भी मुश्किल हो जाएंगे?
बड़ी मजे की बात है। मैंने आपसे कब कहा कि छोटे-छोटे काम के दरवाजे पर भी लिखा है कि विश्र्वास नहीं है। मैंने कब कहा, उन मित्र ने पूछा है कि कार चलानी है तो विश्र्वास करना पड़ेगा कि इंजन चलेगा। बड़े मजे से कार चलाइए और बड़े मजे से विश्र्वास करते रहिए। लेकिन भगवान की तरफ जाने को, कार का चलाना मत समझ लेना। उन्होंने लिखा है कि दुकान पर जाएंगे और चीज खरीदेंगे तो दुकानदार पर विश्र्वास करना पड़ेगा कि वह ठीक ही बता रहा है। बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप, बिलकुल विश्र्वास करना। हालांकि इस मुल्क में हालतें नहीं रह गईं कि दुकानदार पर विश्र्वास किया जाए। लेकिन फिर भी करना। नहीं तो काम चलना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन परमात्मा किसी दुकान पर बिकने वाली चीज नहीं है कि आप खरीदने जाएं और पुरोहित पर विश्र्वास करें। मैंने परमात्मा के लिए कहा है। और वे कह रहे हैं कि दुकान पर चीज खरीदनी होगी तो विश्र्वास करना पड़ेगा।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि
भगवान, यह तो मानना ही पड़ेगा कि पिता हमारा पिता है, क्योंकि हमें कैसे पक्का पता चल सकता है?
अगर यह मानना पड़ता है आपको कि पिता-पिता है, तो भी आपको शक तो है ही। पता कहां चल गया है? अमरीका में एक युवक एक आंदोलन चला रहा है, शायद आपको पता न हो, हिम्मतवर युवक होगा। एक आंदोलन चला रहा है कि स्कूलों में, कालेजों में कहीं भी किसी फार्म पर पिता का नाम मैं नहीं भर सकता हूं, सिर्फ मां का नाम भर सकता हूं। क्योंकि पिता का नाम विश्र्वास योग्य नहीं है। ठीक कह रहा है वह। इस मुल्क में भी लड़के समझदार होंगे तो यह कहेंगे कि हम मां का नाम भरेंगे, पिता का नाम नहीं भर सकते। पिता बिलकुल ही एक तो गैर-जरूरी है, एडीशनल है। पिता कोई बहुत एसेंशियल नहीं है मामला। असली बात तो मां है। लेकिन स्त्री की चूंकि प्रतिष्ठा नहीं है, इसलिए पिता का नाम लिखा जा रहा है जगह-जगह। लिखा तो जाना चाहिए मां का नाम ही। ठीक-ठीक उसका ही पता है। पिता का तो ठीक-ठीक पता नहीं है। लेकिन पिता ने कब्जा कर रखा है औरतों पर। औरतों तक का नाम पति के नाम से जाना जा रहा है। बेटे का नाम भी पिता के नाम से जाना जा रहा है। यह पिता का शोषण बहुत हो चुका। अच्छी दुनिया बनेगी तो पिता तो खो जाएगा। पिताओं को सावधान रहना चाहिए। पिता बहुत दिन चलने वाले नहीं हैं आगे। मां रहेगी, मां की प्रतिष्ठा होगी। मां बचनी चाहिए। वही सच है। और वही ठीक भी है।
तो आप ठीक पूछते हैं। लेकिन काम चलाने के लिए आप झंझट में मत पड़ना। पिता को माने चले जाना। लेकिन, यह परमात्मा को खोजना पिता के मानने जैसा झूठ नहीं है। परमात्मा को खोजना है, लेकिन कुछ नासमझों ने परमात्मा को पिता की शक्ल दे रखी है। वे कहते हैं: गॉड दि फादर। हद हो गई। यह पिता ही बहुत खतरनाक है, और तुम परमात्मा को भी पिता बनाने की कोशिश में लगे हो? लेकिन चूंकि पुरुषों का समाज है, इसलिए पुरुषों ने परमात्मा को भी अपनी शक्ल में निर्मित किया है। वे कहते हैं, पिता है परमात्मा। यह पिता परमात्मा भी इसी तरह विश्र्वास का आधार बना हुआ है जिस तरह खुद पिता बने हुए हैं।
नहीं; परमात्मा पिता नहीं है--परमात्मा न पिता है, न पुत्र है, न मां है। परमात्मा तो समग्र अस्तित्व है। उस अस्तित्व को खोजना पड़ेगा, मानना नहीं पड़ेगा। वह जो मैंने कहा, विश्र्वास मत करना, वह इसलिए नहीं कि तुम परमात्मा से छूट जाओ, बल्कि इसलिए ताकि तुम पहुंच सको उस तक। और जब तक विश्र्वास किए हुए हम बैठे हैं, वह विश्र्वास हमारी धारणा है, उससे ज्यादा नहीं है। हमारी जैसी तबीयत है हम वैसा माने बैठे हैं। हमें जो प्रचारित किया है वह हमने मान लिया है। आप परमात्मा को मानते क्यों हैं? बचपन से प्रचारित किया गया है, समझाया गया है, वह है। बीमारी में, सुख-दुख में हाथ जुड़वाए गए हैं, वह है। परीक्षा में, डर में, भय में कहा गया है, वह है। वह बैठ गया है भीतर, वह बैठता चला गया है भीतर। एक प्रोपेगेंडा है, वह भीतर बैठ गया है। उसने एक धारणा पकड़ ली है। फिर आप कहते हैं कि मैं परमात्मा को मानता हूं। आपके भीतर से सिर्फ प्रचार बोल रहा है। आप रूस में पैदा हों तो वहां दूसरा प्रचार चल रहा है कि परमात्मा नहीं है। तो वहां के बच्चे के दिमाग में यह बैठ गया है कि परमात्मा नहीं है। वह भी विश्र्वासी है, आप भी विश्र्वासी हैं। और कोई विश्र्वासी कभी प्रभु के मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता है। एक नास्तिक विश्र्वासी है, एक आस्तिक विश्र्वासी है। विश्र्वासी कभी नहीं पहुंच सकता है वहां। वहां तो वे पहुंचते हैं जो विचार करते हैं, जो खोजते हैं। लेकिन हम विश्र्वास क्यों कर लेते हैं इतनी जल्दी? कुछ कारण होगा। यह परमात्मा को बिना देखे बिना जाने विश्र्वास कैसे कर लेते हैं? कुछ वजह है।
और वजह है। हमें इतना आत्मविश्र्वास नहीं कि हम खोज सकें। आत्मविश्र्वास की कमी दूसरों के ऊपर विश्र्वास बन जाती है। जो आदमी जितना अपने पर कम विश्र्वास करता है वह उतना ज्यादा दूसरों पर विश्र्वास करता है और मैं कहता हूं, अपने पर विश्र्वास करना, क्योंकि अपने सिवाय कौन खोजेगा, कैसे खोजेगा? खोजना तो मुझे होगा। जानना मुझे होगा। अपने पर विश्र्वास तो समझ में आता है, दूसरे पर विश्र्वास समझ में नहीं आता। हो भी सकता है, अपने पर विश्र्वास करने से रास्ता भटक जाए, गड्ढे में गिर जाएं। लेकिन कोई हर्ज नहीं, खोजी गड्ढे में गिरने से नहीं डरता है। न रास्ता भटकने से डरता है, न भूल करने से डरता है। क्योंकि जो भूल नहीं करता, जो भटकता नहीं, जो गिरता नहीं, वह चल ही नहीं सकता है। वह कहीं पहुंच ही नहीं सकता है। खोजी भूल करने की हिम्मत दिखाता है। भटकने की हिम्मत भी दिखाता है। लेकिन खोजी यह कहता है कि कृपा करके मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मत चलाओ। अगर तुमने हाथ पकड़ कर मुझे पहुंचा भी दिया तो भी मैं कभी नहीं पहुंचूंगा। मेरा पहुंचना तो उस प्रक्रिया से गुजर कर ही हो सकता है। मैं तो उसी से निखरूंगा। इसलिए खोजी विचार करता है। खोजी का मतलब अविश्र्वासी नहीं है।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, क्या आप अविश्र्वास सिखाते हैं?
मैं अविश्र्वास सिखाऊंगा। जो आदमी विश्र्वास तक नहीं सिखाता, वह अविश्र्वास सिखाएगा।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, आप नास्तिकता सिखाते हैं?
जो आदमी आस्तिकता तक सीखने से बचाना चाहता है, वह नास्तिकता सिखाएगा? मैं न आस्तिकता सिखाता हूं, न नास्तिकता सिखाता हूं। मैं न विश्र्वास सिखाता हूं, न अविश्र्वास सिखाता हूं। मैं यह कहता हूं कि विश्र्वास से भी मुक्त रहना, अविश्र्वास से भी मुक्त रहना, और मुक्त रह कर खोजना। पक्षपात में मत बंधना। निष्पक्ष होकर खोजना--दोनों पक्ष हैं। और ध्यान रहे, विरोधी पक्ष एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। उनमें कोई बहुत फर्क नहीं होता है। विरोधी पक्ष एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। आस्तिक और नास्तिक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें कोई बहुत फर्क नहीं है। वह एक ही चीज की पीठ है, वह एक ही चीज का चेहरा है।
मैं एक मित्र को जानता हूं, एक बड़े वकील को, वे प्रिवी कौंसिल में एक मुकदमा लड़ते थे। बड़े वकील थे। भारी व्यस्त थे। रात कुछ उलझन में थे, कुछ काम में थे। देख नहीं पाए, फाइल नहीं देख पाए मुकदमे की। बिना फाइल देखे अदालत पहुंच गए। खड़े हो गए जिरह करने को। भूल गए कि मैं पक्ष में हूं कि विपक्ष में। तो जिसके पक्ष में बोलना था उसी के विपक्ष में बोलने लगे। उनका ग्राहक तो घबड़ा गया। उसके हाथ-पैर कंप गए कि यह क्या हो रहा है! मेरे ही खिलाफ दलीलें दी जा रही हैं, मेरा ही वकील! और जब मेरा वकील मेरा खंडन कर रहा है तब तो मैं मर गया। विरोधी का वकील तो खंडन करेगा ही। अब मेरा बचाव क्या है? बामुश्किल मुंशी उनको थोड़ा, थोड़ा उनका कोट खींचा। लेकिन वे तो इतने तल्लीन थे जिरह में कि वे झटका दे दें। आखिर मुंशी ने जोर से कोट में झटका दिया और कान में जाकर कहा, आप कर क्या रहे हैं? आप अपने ही पक्ष के खिलाफ बोल रहे हैं। उन्होंने कहा: अरे, तुमने इतनी देर से क्यों नहीं कहा? यह तो बहुत लंबी बात हो गई। लेकिन कोई हर्ज नहीं। उन्होंने कहा: माई लार्ड, मजिस्ट्रेट से कहा: अब तक मैंने वे दलीलें दीं जो मेरा विपक्षी देगा, अब मैं खंडन शुरू करता हूं।
ये एक ही सिक्के के दो पहलू है। ये खंडन और मंडन दो चीजें नहीं हैं। इनमें कोई बहुत फर्क नहीं है। इस सिक्के को कैसे भी उलटाया जा सकता है। इसीलिए तो यह मजा है कि न नास्तिक जीत पाते हैं न आस्तिक जीत पाते हैं। क्योंकि आधा-आधा सिक्का दोनों के हाथ में है। जीत कोई नहीं सकता। पूरा सिक्का किसी के हाथ में नहीं है। आस्तिक नहीं जीत पाए आज तक। कितनी दलीलें दी हैं ईश्र्वर के लिए? कोई दलील नहीं जीत पाई! सच तो यह है; ईश्र्वर के लिए जो दलील देता है, वह ईश्र्वर को जानता ही नहीं। ईश्र्वर के लिए जो कोई तर्क देता है, उसे ईश्र्वर का कोई पता ही नहीं। तर्क देने वाला सिद्ध करने की कोशिश करता है। सिद्ध करने की कोशिश उसी के लिए की जाती है जो सिद्ध न हो। ईश्र्वर परम-सिद्ध है, स्वयं-सिद्ध है, क्योंकि वह समस्त है। उसे सिद्ध करने की कोई भी जरूरत नहीं है।
जो सिद्ध करने जाता है ईश्र्वर को वह मान कर चलता है कि ईश्र्वर को भी सिद्ध किए जाने की जरूरत है, और वह यह भी मान कर चलता है कि मैं सिद्ध न करूं तो बेचारा ईश्र्वर असिद्ध रह जाएगा। सो ईश्र्वर से बड़ा हमेशा सिद्ध करने वाला होता है। और इसी सिद्ध करने वाले की वजह से ईश्र्वर को असिद्ध करने वाला मौजूद हो जाता है। वह इसी का रिएक्शन है, वह इसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
एक गांव में एक फकीर था। वह ऐसी गड़बड़ बातें करने लगा था कि गांव की पंचायत चिंतित हो गई और गांव की पंचायत ने कहा कि इसे बुलाना पड़ेगा और समझना पड़ेगा। इसके तर्क समझने पड़ेंगे और सिद्ध करना पड़ेगा कि तू यह क्या बातें कह रहा है। तेरी बातें गलत हैं। फकीर को निमंत्रण मिला पंचायत की तरफ से कि आज संध्या पंचायत में हाजिर हो जाओ। फकीर अपने गधे पर बैठ कर पंचायत की तरफ चला। लेकिन गधे पर वह उलटा बैठा, उसने अपना मुंह गधे की पीठ की तरफ रखा है। जब पंचायत में पहुंचा तो सारे पंच हैरान हुए कि फकीर का दिमाग क्या बिलकुल खराब हो गया है। गधे पर उलटा बैठ कर चला आ रहा है। उन सबने घेर लिया, वे कहने लगे, दिमाग खराब हो गया है? उसने कहा: पहले पक्का पता चल जाए कि किस कारण से आप कह रहे हैं कि मेरा दिमाग खराब हो गया है? उन्होंने कहा कि तुम गधे पर उलटे बैठे हो। उसने कहा: तब ठीक है। तुम भी गधे की जाति के हो। उन्होंने कहा: मतलब? उस फकीर ने कहा कि असल बात यह है कि गधा उलटा खड़ा हुआ है, मैं तो सीधा ही बैठा हुआ हूं। और गधा भी यही समझ रहा है कि मैं उलटा बैठा हुआ हूं। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम सब उन लोगों से--कहा पंचायत से, आपसे नहीं कह रहा हूं। उसने कहा: पंचायत के तुम सब लोग भी गधे की जाति के हो। गधे भी चलने में गड़बड़ कर रहा है। वह समझ रहा है कि मैं उलटा बैठा हुआ हूं। सच बात यह है कि गधा उलटा खड़ा हुआ है। पंचायत के लोगों ने कहा: इस आदमी से बातचीत करनी व्यर्थ है। और उस फकीर ने कहा कि इसीलिए मैं पहले ही यह मामला ले आया। यह एक ही चीज की दो शक्लें हैं। तुम जो कहोगे, उसके खिलाफ कहा जा सकता है। और न खिलाफ को सिद्ध किया जा सकता है और न तुम जो कहते हो उसको सिद्ध किया जा सकता है।
तर्क, बड़ी कमजोर दुनिया है तर्क की। मैं न कह रहा हूं कि विश्र्वास को पकड़ो। विश्र्वास वाला भी कहता है, तर्क है हमारे पास, आर्ग्युमेंट है। अविश्र्वास वाला भी कहता है, तर्क है हमारे पास, आर्ग्युमेंट है। हम कहते हैं कि ईश्र्वर नहीं है, आत्मा नहीं है। मैं दोनों की बात नहीं कह रहा। मैं कुछ तीसरी ही बात कह रहा हूं जो इन तीन दिनों में धीरे-धीरे साफ हो सकेगी। मैं यह कह रहा हूं, विश्र्वास से भी मत बंधना और अविश्र्वास से भी मत बंधना। और क्यों यह कह रहा हूं, क्योंकि जो आदमी ऊपर से विश्र्वास से बंधता है उसके भीतर अविश्र्वास होता है, उसका दूसरा पहलू उसके भीतर रहेगा। कांशस माइंड में, चेतन मन में, वह विश्र्वासी होगा, अचेतन में अविश्र्वासी होगा। चेतन में आस्तिक होगा, अचेतन में नास्तिक होगा। जो चेतन में नास्तिक होगा उसके भीतर आस्तिक छिप जाएगा। उलटा पहलू नीचे दब जाएगा। इसलिए ऐसा कोई नास्तिक नहीं है जिसके भीतर आस्तिक न बैठा हो। और ऐसा कोई आस्तिक नहीं है जिसके भीतर नास्तिक न बैठा हो। और आस्तिक जब लड़ता है तो किससे लड़ता है? आपको पता है, आपसे नहीं लड़ रहा है। अपने ही नास्तिक से लड़ता है बेचारा। और जब नास्तिक लड़ता है तो किससे लड़ता है? आपसे नहीं लड़ता? अपने ही आस्तिक से लड़ता है। यह लड़ाई भीतरी है। लेकिन वह आदमी धार्मिक है जो आस्तिकता-नास्तिकता दोनों को फेंक देता है और कहता है कि न मुझे पता है कि ईश्र्वर है, न मुझे पता है कि ईश्र्वर नहीं है। मैं खोजूंगा। मुझे पता नहीं है। मैं खोज पर निकलता हूं। जो भी होगा वह मैं खोज कर तय करूंगा। मैं पहले से तय नहीं करता। खोज पर निकलने के पहले तय कर लेना तो बहुत बुरा है।
एक मित्र हैं जयपुर में, डाक्टर बनर्जी। उनका नाम आपने सुना होगा। वह पुनर्जन्म सिद्ध करने के लिए कथाएं खोजते हैं। घटनाएं खोजते हैं। बंबई में मेरा उनसे मिलना हुआ। कुछ मित्र बड़ी आकांक्षा किए कि दोनों जन मिलें। मैं तो हमेशा तैयार हूं, मिलने को तैयार हो गया। मिलने गया। उन डा. बनर्जी ने कहा शुरू बातचीत में कि मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है। मैंने कहा: आप सिद्ध करना चाहते हैं। उन्होंने कहा: हां, मैं सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है। फिर मैंने कहा: आप वैज्ञानिक नहीं हैं, क्योंकि आपने यह पहले ही मान रखा है कि पुनर्जन्म है। अब इसको सिद्ध करना है? वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी कहता है कि मैं पता लगाना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है या नहीं है। मैंने कुछ मान नहीं लिया है। जिसने पहले ही मान लिया है वह सिद्ध कर लेगा जो उसने मान लिया है। लेकिन तब वह खोज वैज्ञानिक नहीं रह जाएगी। वैज्ञानिक होने का मतलब यह है कि मैं मान कर नहीं चलता कि क्या है, मैं आंख खोल कर चलूंगा, और जो होगा वह कहूंगा कि है, जो नहीं होगा कहूंगा कि नहीं है।
अवैज्ञानिक, विश्र्वासी, अविश्र्वासी, आस्तिक, नास्तिक, पक्षपाती, वे कहते हैं, हम पहले मान कर चलते हैं कि ईश्र्वर है। कोई कहता है, ईश्र्वर नहीं है। और अब हम सिद्ध करेंगे, अब हम खोज करेंगे। अब क्या खाक खोज करिएगा? जब मान ही लिया तो खोज नहीं होगी। जो भी आपने मान लिया है उसके लिए आप तर्क खोज लेंगे। और जगत इतना बड़ा है कि यहां हर चीज के लिए तर्क और पहलू उपलब्ध हो जाएंगे।
एक आदमी ने अमरीका में एक किताब लिखी है, किताब लिखी है कि तेरह का अंक अपशकुन है। और इतनी वैज्ञानिक किताब लिखी है कि आप भी कहेंगे कि हां, बिलकुल वैज्ञानिक है। यह तो मानता ही है कि तेरह तारीख अपशकुन है। यह तो पहले ही माना हुआ है। अब सिद्ध करना है। तो उसने पता लगाया कि तेरहवीं मंजिल से कितने लोग कब-कब कहां-कहां गिरते हैं, कहां- कहां गिरे हैं। कई अमरीका में तो ऐसे मकान हैं, जिसमें तेरहवीं मंजिल होती ही नहीं। क्योंकि तेरहवीं मंजिल पर कोई रहने को राजी नहीं होता। बारहवीं के बाद सीधी चौदहवीं आती है, तेरहवीं होती ही नहीं। क्योंकि तेरहवीं को किराए पर उठाना मुश्किल है। इसलिए तेरहवीं मंजिल होती नहीं। कई मकानों में नहीं होती तेरहवीं मंजिल। उस आदमी ने पता लगाया है कि तेरहवीं मंजिल से कौन-कौन, कब-कब कहां-कहां गिरा है। तेरहवीं तारीख को कौन-कौन एक्सीडेंट होते हैं। तेरहवीं तारीख को कहां-कहां आग लगती है। तेरहवीं तारीख को कौन-कौन जहाज डूबता है। तेरहवीं तारीख को कौन-कौन हवाई जहाज गिरता है। तेरहवीं तारीख को की गई कौन-कौन शादियां टूटती हैं। सब उसने इकट्ठा किया। तेरह तारीख को पैदा हुए कितने बच्चे मर जाते हैं, उसने सब इकट्ठा किया। अब तेरह तारीख बड़ी घटना है। तेरह तारीख को सब कुछ होता है। उसने सब इकट्ठा कर लिया है, जो-जो अपशकुन है। भारी किताब लिखी है और इतने उदाहरण दिए हैं, इतने आंकड़े दिए हैं कि लगेगा कि तेरह तारीख निश्र्चित ही अपशकुन है। लेकिन कोई अगर चाहे तो बारह तारीख के लिए भी यही इकट्ठा कर ले। कोई चाहे ग्यारह तारीख के लिए इकट्ठा कर ले--जो मर्जी हो इकट्ठा कर ले। जिंदगी एक बहुत बड़ी घटना है। उसमें अनंत घटनाएं घट रही हैं। जिंदगी एक बहुत बड़ा रहस्य है, उसके अनंत पहलू हैं। अगर कोई आदमी पहले से पक्ष लेकर जाता है तो अपने पक्ष की दलीलें खोज लेगा। और दलीलें इकट्ठी कर लेगा। वह प्रिज्युडिस्ड है, वह पहले से तैयार है। वह वही देखेगा जो वह देखना चाहता है। उसकी आंख पर चश्मा पहले से चढ़ा हुआ है। वह वही देखेगा जो देखना चाहता है। उसे वही दिखाई पड़ेगा। वही खोज लेगा। वही। और सब इकट्ठा कर लेगा। और फिर समझेगा कि मैंने कोई खोज की है। यह खोज न हुई—यह खोज नहीं है।
खोज का मतलब है कि मैं निष्पक्ष हूं, यह पहली शर्त है। और मैंने जो सुबह आपसे कहा, विश्र्वास से मुक्त होने के लिए, तो उसका कोई और अर्थ नहीं है, उसका अर्थ है: निष्पक्ष होना। विश्र्वासी पक्षपात से भरा हुआ है--हिंदू है, मुसलमान है, जैन है, बौद्ध है--ये सब विश्र्वासी हैं। आस्तिक हैं, नास्तिक हैं, ये विश्र्वासी हैं। सोशलिस्ट हैं, कम्युनिस्ट हैं, कांग्रेसी हैं, गांधीइस्ट हैं। ये सब विश्र्वासी हैं। और इसलिए इनमें से कोई भी सत्य को नहीं देखता। वही देखता है, जो देखना चाहता है।
रूस में क्रांति हुई उन्नीस सौ सत्रह में। एक गांव था छोटा सा। उस गांव में एक स्कूल था। स्कूल में एक ही शिक्षक था और एक ही विद्यार्थी था। दूर एकांत में वह गांव था। क्रांति हो गई। उन्नीस सौ सत्रह के बाद उस स्कूल की रिपोर्ट छपी। और रिपोर्ट में छापा गया कि भारी प्रगति हुई है क्रांति के बाद शिक्षा में। दुगुनी प्रगति हुई है, दुगुने विद्यार्थी हो गए हैं। सब जगह अखबारों में वह खबर छपी। और कुल बात इतनी हुई थी कि जिस स्कूल में एक विद्यार्थी था, उसमें दो हो गए थे। दुगुनी शिक्षा हो गई। गलती है कोई बात--दुगुने विद्यार्थी हो गए? गलती है कोई बात! जहां सौ का आंकड़ा था, वहां दो सौ का आंकड़ा हो गया। कोई कम है यह बात? लेकिन मामला कुल इतना था कि एक विद्यार्थी की जगह दो विद्यार्थी हो गए थे। लेकिन वह जो देखने गया होगा जिस आंख से, वह आंख कम्युनिस्ट की रही होगी। वह क्रांति को बढ़ा कर दिखाने वाले का खयाल रहा होगा। उसकी कोई गलती नहीं है, उसको ऐसा दिखा होगा। कोई बेईमानी की है। ऐसा नहीं, उसको ऐसा दिखा ही होगा। यह बात बिलकुल सच ही है। इसलिए सरकारी आंकड़े सब झूठे हो जाते हैं। क्योंकि सरकार की आंख से देखे गए होते हैं। वही गरीब जनता की आंख से देखा जाए तो आंकड़ा बिलकुल दूसरा दिखाई पड़ेगा। स्थिति बिलकुल दूसरी होगी। सरकार का आदमी जब आकर देखता है, तब स्थिति और होती है। वही आदमी कल इलेक्शन हार जाए, और फिर देखता है तो स्थिति दूसरी हो जाती है। चश्मा बदल गया। पद के नीचे आ गए। पक्ष बदल गया गए तो सब बदल जाता है।
हम देखते नहीं, हम सिर्फ पक्षपात से घिरे हुए जीते हैं। सत्य की खोज पक्षपाती के लिए नहीं है। प्रभु का मंदिर उनके लिए खुलता है जो निष्पक्ष हैं, अनप्रिज्युडिस माइंड हैं। मन खुला है जिनका वे वही देखेंगे जो है। जो नहीं कहेंगे, जिनकी शर्त नहीं है कि यह हो, जिनके ये आग्रह नहीं हैं कि ऐसा होना चाहिए। जो आदमी आग्रह से भरा है वह सत्य का खोजी नहीं हो सकता। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि सत्याग्रह शब्द बड़ा खतरनाक है। सत्य का कोई आग्रह नहीं हो सकता। सब आग्रह पक्ष के हैं। सत्य हमेशा अनाग्रह है। सत्य निराग्रह है। उसका कोई आग्रह नहीं, कोई पक्ष नहीं। सत्य की खोज में यह कठिन तपश्र्चर्या है कि हम अपना आग्रह छोड़ दें।
मैंने सुना है, एक आदमी अपने हाथ पर शेर की तस्वीर खुदवाना चाहता था। कई आदमी ऐसे हैं, जिनके भीतर कायर होता है तो वे शेर की तस्वीर खुदवा कर मन को तृप्ति देना चाहते हैं। अधिक आदमी ऐसे हैं। असल में जो, जो तस्वीर खुदवाते हैं, वे इसी तरह के आदमी होते हैं। चाहे वह तस्वीर किसी तरह की खुदवाएं। एक आदमी राम-राम लिखे हुए है खोपड़ी पर। यह आदमी खतरनाक है। इस आदमी के भीतर रावण बैठा हुआ होना चाहिए, नहीं तो राम का बोर्ड कभी न लगाता। इसके भीतर रावण है। और यह रावण से डरा हुआ है। और लगता है इसे कि कोई रावण को न देख ले। राम का बोर्ड लगाए हुए है। हम सब जानते हैं, अगर नकली घी बेचना हो तो असली घी का बोर्ड लगाना पड़ता है। और जहां असली शुद्ध घी का बोर्ड लगा हो, वहां हम जानते हैं कि निश्र्चित रूप से नकली घी मिल जाएगा। अब तो नकली घी के भी होने की संभावना कम होती चली जाती है। उसमें भी और ईजादें हैं। बोर्ड हमेशा उलटा होता है। क्योंकि बोर्ड उसको छिपाने के लिए होता है, जो भीतर है। विनम्रता का बोर्ड जिसके चेहरे पर लगा हो, वह आदमी अहंकारी होता है। वह विनम्रता ओढ़े रहता है।
वह आदमी बड़ा डरपोक था। अंधेरे में जाता था तो डर लगता था। उसने कहा: हम शेर खुदवाएंगे, अपने हाथ पर। वह कविताएं बहादुरी की करता था। कमजोर आदमी हमेशा कविताएं बहादुरी की करते हैं। हमारे ही मुल्क में युद्ध हो जाए तो फिर देखो, कितनी बहादुरी की कविताएं पूरा मुल्क करता है। हर आदमी के दिमाग में एकदम कवि पैदा हो जाता है। सब राष्ट्र-कवि हो जाते हैं। हर आदमी अपनी-अपनी चौपाल, अपने-अपने घर के बाहर निकल कर कविताएं सुनाने लगता है कि सिंह हैं, हम सोए हुए हैं, हमको छेड़ो मत! अरे कभी किसी सिंह को यह कविता करते देखा है? छेड़ो और पता चलता है कि मामला क्या है? जब सिंह नहीं होता है भीतर तब कविता होती है कि हम सिंह हैं, हमको छेड़ो मत! उसको मारो तो वह कहेगा, हमको मारो मत, हम सिंह हैं, हम बहुत बदला लेंगे। लेकिन मारते चले जाओ, वह कविता करता चला जाएगा! अब वे सब सिंह कहां चले गए? उनका कुछ पता नहीं है! वे जिस चीन के छेड़ने पर वे नाराज हुए थे, वह जमीन दबा कर बैठा है लाखों मील, अब वे सारे कवि कहां हैं? एक-एक कवि को पकड़ कर मिलिटरी में भर्ती किए बिना इस मुल्क में कविता बंद नहीं होंगी। उन सबको भेजो कि अब तुमको छेड़ दिया गया बुरी तरह से, अब तुम उठो। अब वे कहेंगे कि नहीं, यह हमारा काम नहीं, हम सिर्फ कविता करते हैं।
वह आदमी भीतर डरपोक था, शेर की तस्वीर बनवानी थी। गया एक खोदने वाले के पास, उसने कहा: मेरे हाथ पर शेर की तस्वीर खोद दें, लेकिन शानदार शेर चाहिए बिलकुल कि देख कर आदमी डर जाए। उसने कहा: खोद दूंगा। उस आदमी ने अपनी सुई उठाई और खोदना शुरू किया। तो तकलीफ होती है। जरा ही बढ़ा था कि उसने कहा: ठहर-ठहर, कौन सा हिस्सा खोद रहा है? उसने कहा: पूंछ खोद रहा हूं। उसने कहा: जाने दें, पूंछ के बिना चलेगा, बिना पूंछ का खोद दे। उस आदमी ने फिर सुई उठाई, और फिर उसे तकलीफ हुई। उस आदमी ने कहा: ठहर, क्या जान ले लेगा? अब कौन सा हिस्सा खोद रहा है? उसने कहा: अब मैं चेहरा खोद रहा हूं। उसने कहा: बिना चेहरे का चलेगा। तू फिकर मत कर। उस आदमी ने कहा: फिर क्षमा करो, मैंने बिना पूंछ और बिना चेहरे के शेर नहीं देखे।
यह ऊपर से खोदने वाला आदमी भीतर बिलकुल उलटा है। यह क्या खोद रहा है? शेर खोद रहा है। लेकिन खुदवाने की हिम्मत भी तो नहीं है!
आदमी परमात्मा को खोजता है खोजने की हिम्मत भी नहीं है, इसलिए विश्र्वासी हो जाता है। विश्र्वास ऊपर से खोदी गई बातें हैं। उनसे ज्यादा कोई मूल्य नहीं है। खोजना चाहता है सत्य को, लेकिन खोजने का जो श्रम है, जो तपश्र्चर्या है, जो साधना है, उससे बचना चाहता है! तो वह कहता है कि हां, ठीक है, ऊपर से ही खोद दो। और जब खोदने के लिए सुई उठेगी तो वह कहेगा, चलो, यह भी जाने दो, यह भी जाने दो! इतनी तकलीफ हम नहीं उठा सकते! इससे तो वह अपना विश्र्वास अच्छा है। न कुछ करना पड़ता है, न कहीं जाना पड़ता है, न कुछ होना पड़ता है। चुपचाप विश्र्वास ओढ़ लो और परमात्मा को उपलब्ध हो जाओ। हम सब उपलब्ध हो गए हैं। हम सब उपलब्ध हो गए हैं परमात्मा को, विश्र्वास ओढ़ कर।
विश्र्वास को ओढ़ कर कोई कभी सत्य को नहीं पहुंचता है।
इसलिए मैंने सुबह आपसे कहा, हिम्मत जुटाओ विश्र्वास छोड़ने की अगर पाना हो ज्ञान। हिम्मत जुटाओ अंधा बनना छोड़ने की। अगर पानी हो आंखें, हिम्मत जुटाओ थोड़ा विचार से गुजरने की, अगर उसके द्वार में प्रवेश की जरूरत हो। और अन्यथा फिर उसकी फिकर छोड़ दो। फिर कहो, हमें कोई प्रयोजन नहीं ईश्र्वर से, सत्य से। तो कम से कम एक बात तो साफ हो जाए कि दुनिया में यह पता चल जाए कि किन लोगों को सत्य से प्रयोजन है और किनको प्रयोजन नहीं। अभी कुछ पता ही नहीं चलता कि कौन शेर है और कौन खुदाया हुआ शेर है। और खुदाए हुए शेर इतने ज्यादा हैं कि सब उनको देख कर ऐसा समझते हैं कि खुदा लेना ही शेर हो जाना है।
आस्तिक हो जाना ऐसा नहीं है। ईश्र्वर की दिशा में धार्मिक हो जाना ऐसा नहीं है। इसलिए मैंने सुबह आपसे कहा। कल सुबह दूसरे सूत्र पर बात करूंगा। जो प्रश्र्न बच गए, कल संध्या उनकी बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्र्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, क्या ईश्र्वर है, जिसकी हम खोज करें? और भी दो-तीन मित्रों ने ईश्र्वर के संबंध में ऐसे ही प्रश्र्न पूछे हैं कि क्या आप ईश्र्वर को मानते हैं? क्या आपने ईश्र्वर का दर्शन किया है? कुछ मित्रों ने संदेह किया है कि ईश्र्वर तो नहीं है, उसको खोजें ही क्यों?
इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा। पहली बात, मैं जब परमात्मा का, प्रभु का या ईश्र्वर शब्द का उपयोग करता हूं, तो मेरा प्रयोजन है उससे जो है, दैट व्हीच इ़ज, जो है। जीवन है। अस्तित्व है। हम नहीं थे तब भी अस्तित्व था। हम नहीं होंगे तब भी अस्तित्व होगा। हमारे भीतर भी अस्तित्व है, जीवन है। जीवन की यह समग्रता, यह टोटेलिटी ही परमात्मा है। इस जीवन का हमें कुछ भी पता नहीं कि क्या है? स्वयं के भीतर भी जो जीवन है उसका भी हमें कोई पता नहीं कि वह क्या है?
एक फकीर था, बायजीद। कोई उसके द्वार पर दस्तक दे रहा है और कह रहा है, द्वार खोलो। बायजीद भीतर से पूछता है, किसको बुलाते हो? किसको खोजते हो? कौन द्वार खोले? अगर आपके घर किसी ने दस्तक दी होती तो आप पूछते कौन है? कौन बुलाता है? बायजीद ने कहा: कौन के लिए बुलाते हो? किसे बुलाते हो? कौन दरवाजा खोले? किसको पुकारते हो? बायजीद ने यह नहीं पूछा कि कौन पुकारता है, बायजीद ने कहा: किसको पुकारते हो? उस आदमी ने कहा: किसको पुकारूंगा? बायजीद को पुकारता हूं, बायजीद, दरवाजा खोलो! बायजीद ने कहा: फिर क्षमा करो। वर्षों से मैं खोज रहा हूं कि यह बायजीद कौन है? अभी तक मैं खोज नहीं पाया हूं। मुझे खुद ही पता नहीं कि बायजीद कौन है? यह मैं कौन हूं, यह मुझे खुद ही पता नहीं है।
मजाक में ही बायजीद ने यह कहा होगा। द्वार तो खोल दिए थे। लेकिन ठीक ही बात कही थी। यही हमें पता नहीं कि मैं कौन हूं? जीवन क्या है, यह हमें पता नहीं। अस्तित्व क्या है, यह हमें पता नहीं। और जब तक अस्तित्व का पता न हो, जीवन का पता न हो, तब तक हम जीते हैं नाममात्र को। वस्तुतः मरते हैं धीरे-धीरे। जीते नहीं हैं और मरने की इस लंबी प्रक्रिया को ही जीवन समझ लेते हैं।
जब मैं कहता हूं, प्रभु का द्वार, तो जानना कि मैं कह रहा हूं--जीवन का द्वार। जीवन की समग्रता का नाम ही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कहीं बैठा हुआ कि आप जाएंगे और इंटरव्यू ले लेंगे, भेंट हो जाएगी। परमात्मा कहीं कोई व्यक्ति नहीं है जो बैठा हुआ है, आपकी प्रतीक्षा कर रहा है दरवाजे के भीतर कि आप दरवाजा खोलेंगे और वह मिल जाएगा। परमात्मा का अर्थ है: यह जो जीवन का अनंत विस्तार है, यह जीवन का समस्त सारभूत है--इस सबको ही हम परमात्मा कह रहे हैं। जीवन के द्वार को खोल लेना ही परमात्मा के द्वार को खोलना है। और हमें अपने भीतर भी जो जीवन है इसका भी कोई पता नहीं है। अपने से ही अपरिचित हम जीते हैं, अनजान अपने से ही। इससे ज्यादा दुखद और अंधकारपूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता है। और जिस आदमी को यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं, उसे और क्या पता हो सकता है? उसका सारा ज्ञान इस मूल अज्ञान पर खड़ा होता है, इसलिए खतरनाक हो जाता है।
आज आदमी के पास बहुत ज्ञान है। ज्ञान की कमी नहीं है, सिर्फ एक ज्ञान छोड़ कर कि वह स्वयं कौन है? यह सारा ज्ञान अज्ञान की भित्ति पर खड़ा है। इसलिए खतरनाक है। सारी मनुष्य की सभ्यता, सारी संस्कृति, सारा समाज खतरे में है। किसी भी क्षण नष्ट हो जाए, क्योंकि अज्ञान के ऊपर ज्ञान की दीवाल खड़ी कर दी है। यह अज्ञान के ऊपर खड़ा हुआ ज्ञान का भवन आदमी को लेकर ही नष्ट होगा। अगर हम मौलिक अज्ञान को नहीं तोड़ते हैं। धर्म मनुष्य के भीतर वह जो मूलभूत अज्ञान है उसको तोड़ने की कला है। और परमात्मा कोई व्यक्ति का नाम नहीं है, परमात्मा जीवन के समस्त का नाम है। उस समस्त के मंदिर में हम कैसे प्रविष्ट हो जाएं? मैं जब परमात्मा की बात कहता हूं, तो मेरा अर्थ किसी दुनिया को बनाने वाले व्यक्ति से नहीं है। दुनिया किसी ने कभी नहीं बनाई है। कोई बनाने वाला नहीं है। परमात्मा और सृष्टि ऐसी दो चीजें नहीं हैं। स्रष्टा और सृष्टि ऐसी दो चीजें नहीं हैं।
एक गायक गीत गाता है। एक चित्रकार चित्र बनाता है। चित्र अलग है, बनाने वाला अलग है। चित्र बन कर अलग हो जाता है, चित्रकार अलग हो जाता है। परमात्मा कोई ऐसी चीज नहीं है कि जगत और जीवन से अलग हो गई है। परमात्मा ऐसे है, उदाहरण के लिए समझाऊं, जैसे कोई नृत्यकार नाचता है, नाचना और नृत्यकार एक ही हैं, दो नहीं हैं। नाचने वाला बंद, नृत्य भी बंद। ऐसा नृत्य अलग खड़ा नहीं रह जाएगा नाचने वाले से। तो परमात्मा और उसका जगत ऐसी दो चीजें नहीं हैं, स्रष्टा और सृष्टि दो चीजें नहीं हैं। क्रिएटर और क्रिएशन दो चीजें नहीं हैं। क्रिएटर ही क्रिएशन है। क्रिएशन ही क्रिएटर है। क्रिएटिविटी वह जो सृजनात्मकता है, वही परमात्मा है। और इसलिए परमात्मा को खोजने कहीं और नहीं जाना है। यहीं है, अभी और यहीं है। मुझ में है। आप में हैं। सब में हैं, सब तरफ है। जो भी है वही है। और तब एक दूसरी दृष्टि होगी। परमात्मा को एक कोने में रखने के कारण हमारी सारी दृष्टि जगत से, परमात्मा से शून्य कर ली है। और कहीं एक मंदिर की एक मूर्ति में, कहीं आकाश में उसे बिठा रखा है।
एक मित्र ने पूछा है कि
भगवान, जब परमात्मा सब जगह है, तो वह मूर्ति में क्यों नहीं होगा?
बिलकुल होगा। लेकिन जिसका आग्रह है कि मूर्ति में ही है, उसके लिए सब जगह नहीं हो सकेगा। और जिसके लिए सब जगह नहीं है, उसके लिए मूर्ति में भी नहीं हो सकता है। परमात्मा सब जगह है। निश्र्चित ही मूर्ति में भी आ गया। लेकिन जो कहता है, मूर्ति में ही है, उसके लिए सब जगह नहीं है। और जिसके लिए सब जगह नहीं है उसके लिए मूर्ति में भी नहीं हो सकता है। और जो कहता है, सब जगह है, वह मूर्ति को खोजने न जाएगा, जो मिल जाएगा वही परमात्मा है। वह मंदिर को खोजने नहीं जाएगा, क्योंकि सब उसका ही मंदिर है। फिर वह यह नहीं कहेगा कि यह मेरी मूर्ति रही, मैं इसकी पूजा करूंगा। पूजा किसकी करनी है फिर? जब सभी वही है। श्र्वास-श्र्वास वही है, कण-कण वही है, तो पूजा किसकी? मैं भी वही हूं, पूजा करे कौन? किसकी करे? यह जिसको पता हो जाएगा कि वह सब में है, वह मूर्ति की बातों में नहीं पड़ने वाला है।
लेकिन आदमी अपनी नासमझियों के लिए भी दलील खोजते हैं। सच तो यह है कि आदमी सिर्फ नासमझियों के लिए ही दलील खोजते चले जाते हैं। और अपनी नासमझियों को मजबूत करते चले जाते हैं। एक आदमी को मूर्ति पूजनी है, तो वह कहता है कि जब सब में है तो फिर मूर्ति में भी है। लेकिन सब में कभी देखा है? और अगर मूर्ति को कोई आदमी तोड़ रहा हो, तो उसमें भी दिखेगा जो तोड़ रहा है, और मूर्ति को कोई लात मार रहा हो, तो उसमें भी दिखेगा जो लात मार रहा है। उसमें नहीं दिखेगा फिर, वह लात मारने वाले की गर्दन पकड़ लेगा, यह मूर्ति का पूजक। उसमें दिखना मुश्किल हो जाएगा। वह कह रहा है कि सब में हैं। सब में कहा है, लेकिन हिंदू को मुसलमान में दिखता है, मुसलमान को हिंदू में दिखता है। कहा है सब में है, लेकिन सब में दिखता कहां है? ये सब दलीलें खतरनाक सिद्ध हो जाती हैं, अपना मतलब सिद्ध करने लगती हैं। जब सब में है तो फिर मूर्ति में भी है। फिर मूर्ति की पूजा के लिए किसलिए जा रहे हो सुबह-सुबह? कहां चले जा रहे हो, सबको छोड़ कर वहां कहां जा रहे हो? जब एवरीवेयर है, तो समवेयर की दृष्टि छोड़ देनी पड़ेगी। जब कोई कहता है कि सब जगह है, तो कहीं होने का खयाल छोड़ देना पड़ेगा। जब सब जगह है तो फिर कहीं होने का कोई सवाल नहीं रहा। कोई प्रश्र्न न रहा, कोई प्रयोजन न रहा, लेकिन हम क्या करते हैं? हम बड़ी-बड़ी बातों के आधार पर बड़ी छोटी-छोटी बातें सिद्ध करते हैं और उन छोटी-छोटी बातों को पकड़ कर बड़ी-बड़ी बातों की हत्या करते हैं।
मैं नहीं कहता हूं कि मूर्ति में नहीं है। और जब मैं कहता हूं कि मूर्ति में नहीं है, तो मेरा मतलब सिर्फ इतना ही है कि जिसे मूर्ति में ही दिखता है वह गलत देख रहा है। सब जगह दिखे, फिर तो मूर्ति में भी है।
मैंने सुना है, एक फकीर एक रात एक मंदिर में ठहरा। रात सर्द है, अंधेरी रात है। वह सर्दी से कंप रहा है, वह भीतर गया। पुजारी सो गया है। भगवान बुद्ध की मूर्तियां रखी हैं तीन। लकड़ी की मूर्तियां हैं। एक मूर्ति उठा लाया और आग लगा कर आग सेंकने लगा। मूर्ति को तापने लगा। आग जली देख कर मंदिर में मंदिर का पुजारी भागा आया, देखा तो भगवान की मूर्ति जल रही है और फकीर आंच ताप रहा है। उस पुजारी ने कहा: पागल हो, यह क्या कर रहे हो? यह क्या अनर्थ कर डाला? भगवान की मूर्ति जला रहे हो? फकीर ने चुपचाप सुना, उसने कहा: भगवान की मूर्ति! बड़ा अच्छा बताया। एक पास में पड़ी हुई लकड़ी को उठा कर उसने उस राख को कुरेदा जो जल गई थी। उस पुजारी ने पूछा: क्या खोजते हो? उसने कहा: भगवान की अस्थियां खोजता हूं। उस पुजारी ने कहा: तब निपट पागल हो। लकड़ी की मूर्ति में कहां अस्थियां? तो वह फकीर हंसने लगा, उसने कहा: रात बहुत लंबी और सर्दी बहुत ज्यादा है, दो मूर्तियां और भीतर रखी हैं, तुम उठा लाओ, उनको भी हम जला लें और ताप लें। मंदिर के पुजारी ने और पुजारियों को जगा लिया और उस फकीर को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। वह फकीर हंसता हुआ बाहर निकल गया। वे पुजारी शायद ही समझ पाए होंगे उसकी हंसी।
सुबह बहुत हैरान हुए। सुबह जब सूरज निकला है, वह फकीर सड़क के किनारे बैठा है हाथ जोड़े। राह से जो भी निकल रहा है सबके लिए हाथ जोड़े बैठा है। सामने एक पत्थर पड़ा है, उसके लिए भी हाथ जोड़े बैठा है, ऊपर सूरज निकल रहा है, उसके लिए भी हाथ जोड़े बैठा है। उन पुजारियों ने जाकर कहा कि पागल, अब क्या कर रहा है यहां? उसने कहा: पूजा कर रहा हूं। किसकी पूजा कर रहा है? उसने कहा: भगवान की पूजा कर रहा हूं। भगवान कहां है? उसने कहा: यह सब जो चारों तरफ फैला है, और क्या है? वे कहने लगे, रात मूर्ति जला दी नासमझ! और अब जहां कुछ भी मूर्ति नहीं है वहां पूजा कर रहा है? उसने कहा: मूर्ति जलाई थी ताकि तुम्हारा भ्रम जल जाए। मूर्ति से मुझे क्या लेना-देना है! मूर्ति जलाई थी, ताकि तुम्हें खयाल आ जाए कि कहीं तुम लकड़ी को ही तो नहीं पूज रहे हो। तुम्हें भगवान दिखा है? अगर लकड़ी में दिख जाता तो सब जगह दिख जाता, लेकिन कहीं नहीं दिखा। लकड़ी में सिर्फ मान कर बैठे हो। और जब मैं अस्थियां खोजने लगा, तब तुम हंसने लगे कि पागल हो।
यह जो मूर्ति को पूज रहे हैं, इन्हें कोई भगवान दिखता हो, ऐसा मत समझ लेना। और मैं जो मूर्ति के खिलाफ बोल रहा हूं, तो ऐसा मत समझ लेना कि भगवान के विरोध में बोल रहा हूं। भगवान के प्रेम में बोल रहा हूं। और अगर भगवान को लाना है, तो भगवान के नाम पर चलने वाली नासमझियों को अत्यंत शीघ्रता से बंद कर देना जरूरी है। कई बार ऐसा होता है कि शत्रु मित्र मालूम पड़ते हैं और मित्र शत्रु मालूम पड़ते हैं। आज जो भगवान की मूर्तियों के पास खड़े हैं, वे भगवान के मित्र मालूम पड़ते हैं। और सचाई यह है कि उनसे ज्यादा भगवान की शत्रुता और कोई भी नहीं कर रहा है। क्योंकि भगवान के नाम पर जिस ढोंग को, जिस पाखंड को खड़ा किया जा रहा है, जिस धंधे को, जिस व्यवसाय को चलाया जा रहा है, वह न मालूम कितने लोगों को भगवान से विमुख करने का कारण बन रहा है। मंदिरों की तरफ आंख उठा कर, तीर्थों की तरफ आंख उठा कर कोई बुद्धिमान आदमी भगवान की दिशा में जाने की हिम्मत नहीं कर सकता है। वह कहेगा, अगर यही सब भगवान के नाम पर हो रहा है तो मैं क्षमा चाहता हूं। भगवान के नाम पर जो होता रहा है आज तक, सब तरह के शोषण का समर्थन हो रहा है भगवान के नाम पर। सब तरह की गरीबी बचाई जा रही है भगवान के नाम पर। सब तरह की बेईमानी को सुरक्षा दी जा रही है भगवान के नाम पर! सब तरह की धन-संपत्ति के सारे के सारे उपद्रव की रक्षा की जा रही है भगवान के नाम पर।
तो जिस आदमी को भी यह सब जाल दिखाई पड़ेगा, वह चौंक कर कहेगा कि यह सब भगवान का नाम और भगवान की बातचीत सब अफीम है। इस सबसे छुटकारा चाहिए। लेकिन वह आदमी भी गलती कर रहा है, वह जल्दी कर रहा है। वह धर्म के दुश्मनों को धर्म का मित्र समझ रहा है और धर्म के मित्र समझ कर धर्म का दुश्मन हुआ जा रहा है।
मेरी स्थिति बहुत अजीब हो गई है। धर्म से मुझे प्रेम है और धर्म के नाम पर चलते पाखंड से घृणा है। और तब ऐसा लगता है कि शायद मैं धर्म के विरोध में बोल रहा हूं। तब ऐसा लगता है कि शायद मैं अधार्मिक हूं। तब शायद ऐसा लगता है कि शायद मैं दुनिया से धर्म को मिटा देना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि दुनिया में धर्म आए, लेकिन धर्म के नाम पर जो व्यवसाय खड़ा हुआ है, वह दुनिया में धर्म नहीं आने दे रहा है। और उसका जाल इतना लंबा है और उसकी बातें इतनी पुरानी हैं, और उसकी परंपरा इतनी गहरी और जड़ों तक घुस गई है, कि हम भूल ही गए हैं कि वह कहां-कहां हमारे खून में संयुक्त हो गया है। इस सबसे जागे बिना पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकती। आज तक पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है। अगर पृथ्वी धार्मिक होती, तो यह सब होता जो हो रहा है? अगर पृथ्वी धार्मिक हो, तो समाजवाद की जरूरत है? साम्यवाद की जरूरत है?
एक दूसरे मित्र ने पूछा है, तो मैं वह प्रश्र्न भी ले लूं।
उन्होंने पूछा है:
भगवान, क्या आप कम्युनिस्ट हैं?
अगर दुनिया धार्मिक हो तो कम्युनिज्म की कोई भी जरूरत नहीं है। और जब तक दुनिया अधार्मिक है, कम्युनिज्म की जरूरत पड़ेगी। दुनिया अगर धार्मिक हो तो गरीबी कभी की मिट जानी चाहिए थी, क्योंकि धार्मिक आदमी इतनी गरीबी, इस कुरूपता को बरदाश्त नहीं कर सकते हैं। लेकिन संत-महात्मा बड़े मजे से बरदाश्त कर रहे हैं। न केवल बरदाश्त कर रहे हैं बल्कि इस गरीबी को तर्क दे रहे हैं कि यह क्यों है? वे समझाते हैं कि गरीबी इसलिए है कि पिछले जन्मों का पाप कर्म है तुम्हारा, इसलिए तुम गरीब हो। गरीबी को बचाने के लिए ये बफर्स उपयोग किए जा रहे हैं। ट्रेन में देखा है न। ट्रेन के दो डिब्बों के बीच में बफर लगे रहते हैं, शॉक-एब्जार्बर लगे रहते हैं। कितना ही धक्का लगे गाड़ी को, डिब्बों के भीतर के यात्री को पता नहीं चलता। शॉक-एब्जार्बर धक्का पी जाता है। कार के नीचे स्ंिप्रग लगे हुए हैं, कितने ही रास्ते पर गड्ढे आ जाएं, भीतर के यात्री को कम से कम पता चलता है, स्ंिप्रग सारा धक्का पी जाता है।
हिंदुस्तान में तथाकथित धार्मिकों ने ऐसे सिद्धांत ईजाद किए हैं जो शॉक-एब्जार्बर का काम कर रहे हैं। जिंदगी कितनी ही कुरूप और गंदी हो जाए, शॉक-एब्जार्बर सब पी जाता है। कर्म का सिद्धांत ऐसा ही खतरनाक शॉक-एब्जार्वर है। वह कहता है, तुमने पिछले जन्म में पाप किए, इसलिए तुम गरीब हो। और सच्चाई यह है कि समाज अभी पाप कर रहा है, इसलिए अधिक लोग गरीब हैं। किसी के पिछले जन्म के पाप के कारण नहीं। समाज के सामूहिक पाप के कारण आदमी गरीब है। अगर धर्म सीधी और सच्ची बात कह सकता, और अगर संतों और महात्माओं ने जाने या अनजाने न्यस्त स्वार्थों की रक्षा न की होती, तो दुनिया में कम्युनिज्म की कभी भी कोई जरूरत न पड़ती। कम्युनिज्म की जरूरत पड़ रही है क्योंकि पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है। और धर्म अधार्मिक ठेकेदारों के हाथ में है। आज भी वे ही लोग सारी जमीन पर धर्म को पकड़े हुए हैं। उसकी गर्दन को पकड़े हुए हैं। यह खयाल कि एक-एक आदमी अपने कर्मों का फल भोग रहा है, अत्यंत खतरनाक सिद्ध हुआ है। हम सब सामूहिक कर्मों का फल भोग रहे हैं।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक फकीर एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहा है। मुल्ला अजान देने को चढ़ा है मस्जिद के टॉवर पर और गिर पड़ा। लंबी मीनार है। फकीर नीचे से जा रहा है। वह उसकी गर्दन पर गिरा। मुल्ला तो बच गया--गिरने वाला, फकीर की गर्दन टूट गई। उसे अस्पताल में भरती किया गया। उसके शिष्य उसके पास गए। और शिष्य जानते थे कि उनका वह जो गुरु है, वह जो फकीर है, वह हर छोटी-मोटी चीज में बड़ी ही गहरी छान-बीन करता है। तो वे गए और उन्होंने पूछा कि हम एक बात पूछने आए हैं, आपके इस गर्दन टूट जाने में भी कोई राज आपने खोजा? कोई मिस्टरी? उसने कहा: बराबर खोजा। यह बात सिद्ध हो गई कि गिरे कोई, गर्दन किसी और की टूट सकती है। अब तक मैं यही सोचता था कि जो गिरेगा उसकी गर्दन टूटेगी। अब मैं मान गया कि गिरे कोई और, गर्दन किसी और की टूट सकती है। न हम गिरे, गर्दन हमारी टूट गई है। पाप कोई और कर रहा है, फल कोई और झेल रहा है। वह बात गलत हो चुकी कि तुमने पाप किए हैं और तुम फल भोग रहे हो। वह इनडिविजुअलिटी का खयाल। व्यक्ति, अहंकार का खयाल कि एक-एक व्यक्ति अलग जी रहा है, बुनियादी रूप से झूठ है। सारे व्यक्तियों का जीवन अंतर्संबंध है, इंटररिलेशनशिप है। हम सब इकट्ठे पाप भोगते हैं, इकट्ठे पुण्य भोगते हैं।
लेकिन धर्म ने एक-एक व्यक्ति को और धर्म ने हजारों दफे समझाया कि अहंकार झूठ है। और फिर भी जाने-अनजाने अहंकार को ही बल दिया है। और कहा है कि तू अपने फल भोग रहा है, मैं अपने फल भोग रहा हूं। और अगर हर आदमी अपने फल भोग रहा है तो ऐसी विचारधारा में समाज की धारणा का जन्म ही नहीं हो सकता है। समाज का कोई अर्थ ही नहीं है। व्यक्तियों की भीड़ है, समाज नहीं है। धर्म ने जमीन को व्यक्तियों की भीड़ बना दिया है, समाज नहीं। भीड़ तो तभी बनेगी समाज जब हम अतर्संबंधित हैं। जब हम एक-दूसरे के साथ ही जी रहे हैं और भोग रहे हैं।
इस देश में इतना जो निपट स्वार्थ दिखाई पड़ता है, उसके पीछे धार्मिक लोगों की शिक्षाएं हैं। इतना जो निपट स्वार्थ और एक-एक आदमी अपनी-अपनी फिकर में। और किसी को किसी से कोई प्रयोजन नहीं। इसके पीछे बुरे लोगों का हाथ नहीं तथाकथित अच्छे लोगों का हाथ है। क्योंकि वे यह सिखा रहे हैं कि एक-एक व्यक्ति अपना-अपना मोक्ष खोजे, अपने-अपने पापों को काटे, अपने-अपने पुण्य इकट्ठे करें। समाज जैसी कोई चीज नहीं है, हम जुड़े नहीं हैं, हम सब अलग-अलग अपनी-अपनी यात्रा कर रहे हैं। इस धारणा ने हिंदुस्तान के सामाजिक जीवन को एक पागलखाना, एक कुरूपता, एक अत्यंत ही गंदा गड्ढा बना दिया है। क्योंकि हर आदमी अपनी फिकर कर रहा है। अपनी फिकर कर रहा है।
जिस दिन जीसस को सूली लगी, जिस दिन जीसस को फांसी लगी, शायद आपको पता न हो, एक आदमी को उसी दिन दाढ़ में दर्द हो रहा था, उसी गांव में। जीसस को सूली लग रही है, दुनिया के एक प्यारे से प्यारे आदमी को आज सूली पर लटकाया जाने वाला है, और एक आदमी की रात से दाढ़ में दर्द हो रहा है, दांत दुख रहा है। वह सुबह से उठ कर--जो भी उसके पास आता है, लोग कहते हैं, सुना तुमने, वह मरियम के बेटे जीसस को सूली लगने वाली है। वह कहता है, हां, सुना है। रात भर सो नहीं सका, दाढ़ में बड़ा दर्द हो रहा है। दाढ़ बड़ी दुखती है, फलां दवा लगाई थी, वह कोई काम नहीं करती। वे आदमी कहते हैं, ठीक है, दाढ़ है, ठीक हो जाएगी। लेकिन वह मरियम के बेटे को सूली लग रही है। वह कहता है, होगा, लेकिन मेरी दाढ़ में बहुत दर्द हो रहा है। जो भी आता है वह उससे कहता है, मरियम के बेटे को सूली लग रही है। और वह कहता है, होगा, ठीक है, सुना है मैंने, लेकिन मेरी दाढ़ में बड़ा दर्द हो रहा है। रात भर से मेरी दाढ़ दुख रही है।
आदमी हैरान है! वह कहता है कि ठीक है, दाढ़ है, ठीक हो जाएगी। वह कहता है, बड़ी तकलीफ है। रात भर करवटें बदलता रहा, सो नहीं सका। दाढ़ में बड़ी तकलीफ है। गांव में जीसस को सूली लग रही है, एक आदमी की दाढ़ में तकलीफ है! उसे अपनी दाढ़ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है।
हिंदुस्तान में हर आदमी की दाढ़ में तकलीफ है। और पूरे हिंदुस्तान को सूली लग रही है। और हर आदमी अपनी दाढ़ की बात कर रहा है। और हिंदुस्तान को एकाध दिन में सूली नहीं लग रही है। आदमी एकाध दिन में सूली पर चढ़ता है। देश हजारों साल तक सूलियों पर लटके रहते हैं। हिंदुस्तान हजारों साल से सूली पर लटका हुआ है, लेकिन हर आदमी की दाढ़ दुख रही है। लगने दो सूली, हमारी दाढ़ में दर्द है। उसका कुछ इंतजाम करना है। हर आदमी अपनी दाढ़ की बात कर रहा है। और यह सिखाया है तथाकथित धार्मिक लोगों ने। हिंदुस्तान के जितने भी श्रेष्ठ लोग कभी भी हुए हों--कोई बुद्ध, कोई महावीर, वे सभी एक अर्थों में कम्युनिस्ट थे। कोई अच्छा आदमी कम्युनिस्ट हुए बिना नहीं बच सकता है। नहीं बच सकता है कम्युनिस्ट हुए बिना। कम्युनिस्ट हुए बिना सिर्फ वही बच सकते हैं जो आंखें बिलकुल अंधी किए हैं या सब तरफ से अपने को बेईमानी और धोखा देने में संलग्न हैं।
कोई आदमी इस बात से कैसे बच सकता है कि हर आदमी को समान होने का अवसर मिले। कोई आदमी इस बात से कैसे बच सकता है कि हर आदमी को समान विकास का अवसर मिले। कोई आदमी इस बात से कैसे बच सकता है कि आदमी-आदमी की कीमत बराबर हो। कोई आदमी इस बात से कैसे बच सकता है कि मनुष्य का समाज वर्गों में विभक्त न हो। कोई बुद्धिमान आदमी, कोई विचारशील आदमी, कोई चरित्रवान आदमी कम्युनिस्ट हुए बिना नहीं बच सकता है।
लेकिन कम्युनिस्ट होने से मेरा मतलब नहीं है कि कोई मार्क्स का अनुयायी होकर अंधा हो जाए। कम्युनिस्ट होने से मेरा मतलब नहीं है कि कोई माओ का पागल हो जाए। कम्युनिस्ट होने से मेरा मतलब नहीं है कि कोई स्टैलिन और ट्राटस्की के पीछे अंधा होकर चलने लगे। जो अंधे होकर इस तरह चलते हैं उन्हें कम्युनिज्म से बहुत कम मतलब है। वे पुराने तरह के विश्र्वासी लोग हैं, जिन्होंने नये गुरुओं को पकड़ लिया है। वे पुराने तरह के विश्र्वासी लोग हैं जो पहले राम को पकड़ कर चलते थे, कृष्ण को पकड़ कर चलते थे, क्रोध में उन्होंने राम और कृष्ण को छोड़ दिया, लेकिन पकड़ने का ढंग वही है। उन्होंने अब मार्क्स को पकड़ लिया। अब माओ को पकड़ लिया। पहले वह गीता को, बाइबिल को पकड़ते थे, अब उन्होंने कैपिटल को कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो को पकड़ लिया। लेकिन पकड़ने का ढंग वही है। कुरान को पकड़ने का जो ढंग है मुसलमान का, तथाकथित कम्युनिस्ट का कैपिटल को पकड़ने का ढंग वही है। उसकी बुद्धि वही है। वह कहता है, हमारी किताब में जो लिखा है वह सच है। वह कहता है, हम जो कहते हैं वह ठीक है। वह कहता है, इतिहास की परिपूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या हमने कर दी। अब इससे अन्यथा कुछ भी नहीं हो सकता है।
इन अंधे लोगों को अगर आप कम्युनिस्ट कहते हैं, तो मैं कम्युनिस्ट बिलकुल नहीं हूं। अगर आप उनको कम्युनिस्ट कहते हैं, जो सोचते हैं कि हम आदमी को--जबरदस्ती आदमी की व्यवस्था को, समाज की जीवन-व्यवस्था को--एक छोटा सा अल्पमत बहुमत को जबरदस्ती छाती पर हावी होकर छुरे की धार पर बदल दें, तो मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि किसी अल्पमत को कभी यह हक नहीं है कि वह चाहे बहुमत के हित में ही, बहुमत के साथ जबरदस्ती करे। अब तक दुनिया में अल्पतम ने हमेशा बहुमत के साथ जबरदस्ती की है।
एक मुसलमान है, वह सोचता है कि अगर सारे लोग मुसलमान हो जाएं तो उनका हित होगा। और वह ईमानदारी से सोच सकता है। सिंसियर हो सकता है सोचने में कि हर आदमी को मुसलमान होना चाहिए। नहीं तो ये बेचारे स्वर्ग जाने से वंचित रह जाएंगे। नरक नहीं जा सकेंगे। वह तलवार उठा कर आपकी छाती पर चढ़ जाता है। और कहता है कि तुम मुसलमान हो जाओ नहीं तो तुम नरक चले जाओगे। मैं तुम्हारे हित के लिए कहता हूं कि तुम्हें मुसलमान हो जाना चाहिए। नहीं मानोगे तो जबरदस्ती तुम्हें मुसलमान बनाऊंगा। वह जो काम कर रहा था वही वे कम्युनिस्ट कर रहे हैं जो समाज की छाती पर जबरदस्ती और हिंसा के द्वारा समानता लाना चाहते हैं।
हिंसा से समानता नहीं आ सकती। क्योंकि हिंसा मौलिक रूप से असमानता का आधार है। जो आदमी हिंसा करता है और जिसके साथ हिंसा होती है--जिसके साथ हिंसा होती है वह नीचे दब जाता है और जो हिंसा करता है वह ऊपर उठ जाता है। दो वर्ग फिर खड़े हो जाते हैं। हिंसा करने वाला मालिक हो जाता है, जिसके साथ हिंसा की जाती है वह फिर दरिद्र हो जाता है। वह फिर दीन हो जाता है। वह फिर दब जाता है। रूस में क्रांति हुई, चीन में क्रांति हुई, लेकिन ये क्रांतियां उस कम्युनिज्म को अभी नहीं ला पाएंगी जिसकी मैं आकांक्षा करता हूं। ये क्रांतियां पूंजीवाद की, बीमारी को बदलने की पागल कोशिशें हैं। इन क्रांतियों से पूंजीवाद का वर्ग विभाजन टूटेगा। नया वर्ग विभाजन खड़ा हो जाएगा। वह रूस में भलीभांति खड़ा हो गया है। जो कल मालिक था वह अब मैनेजर है। जो कल मजदूर था वह अब भी मजदूर है। उन दोनों के बीच के फासले कम हुए हैं। तनख्वाह का फर्क कम हुआ है, लेकिन प्रतिष्ठा में और प्रतिष्ठा के भेद में कोई फर्क नहीं पड़ा।
और ध्यान रहे, आदमी धन भी इसलिए इकट्ठा करता है कि धन प्रतिष्ठा लाता है। अगर प्रतिष्ठा लाने की दूसरी तरकीबें मिल जाएं तो आदमी धन भी इकट्ठा नहीं करेगा। रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के मेम्बर की जो प्रतिष्ठा है वह प्रतिष्ठा गैर-कम्युनिस्ट की नहीं है। और गैर-कम्युनिस्ट होने की हिम्मत जुटानी भी बहुत मुश्किल है।
मैंने सुना है, ख्रुश्र्चेव जब हुकूमत में आया। एक मजाक मैंने सुनी है। मैंने सुना है कि ख्रुश्र्चेव रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के सारे बड़े लोगों के बीच स्टैलिन की निंदा कर रहा है। जोर से गालियां दे रहा है और कह रहा है कि स्टैलिन ने यह बुरा किया, यह बुरा किया, यह बुरा किया। एक आदमी पीछे से पूछता है कि आप स्टैलिन के साथ जिंदगी भर रहे। स्टैलिन के मरने पर आप यह बातें क्यों कह रहे हैं? जब स्टैलिन जिंदा था, तब आपने क्यों नहीं कहा? ख्रुश्र्चेव एक सेकेंड को चुप हो गया, और फिर उसने कहा: जो महाशय यह पूछते हैं, कृपया खड़े होकर अपना नाम बता दें। कोई खड़ा नहीं हुआ। किसी ने नाम नहीं बताया। ख्रुश्र्चेव ने कहा: समझे, जिस कारण से तुम खड़े नहीं हो रहे और नाम नहीं बता रहे, उसी कारण से मुझे भी चुप रह जाना पड़ा।
ठीक है, पूंजीवाद की एक तकलीफ है। गरीब और अमीर के बीच एक फासला है, वह मिटना चाहिए। लेकिन अगर नया फासला खड़ा हो जाए तो हमने बीमारी बदल ली, और कुछ भी नहीं किया। नया फासला रूस में खड़ा हो गया। वह नया फासला चीन में भी खड़ा हो गया है। एक प्रयोग किया उन्होंने हिम्मत का और उस हिम्मत के प्रयोग के लिए जितनी दाद दी जाए उतनी थोड़ी है, लेकिन वह प्रयोग असफल हो गया, कम्युनिज्म आ नहीं सका। कम्युनिज्म को आने में और वक्त लग जाएगा। और देर लग जाएगी। साम्यवाद तो तभी आ सकेगा, जब साम्यवाद का जीवन-दर्शन एक-एक व्यक्ति के प्राणों में प्रविष्ट हो जाए। और साम्यवाद का जीवन-दर्शन तभी प्रविष्ट हो सकता है जब प्रत्येक व्यक्ति को यह खयाल हो जाए कि मुझे न छोटा होना है, न बड़ा होना है। वह जो एंबीशन है एक-एक आदमी के भीतर बड़े होने की, अगर वह नहीं मिटती है तो दुनिया में साम्यवाद कितनी ही कोशिश से ले लाओ, जैसे ही कोशिश ढीली होगी, फिर पूंजीवाद आना शुरू हो आएगा।
वह जो आदमी के भीतर महत्वाकांक्षा है, जब तक नष्ट न हो जाए, तब तक साम्यवाद स्थापित नहीं हो सकता।
और मेरा मानना है कि धर्म अकेला एक विज्ञान है, जो मनुष्य के भीतर महत्वाकांक्षा को नष्ट करने की कोशिश करता है। और इसलिए मैं यह कहना चाहता हूं कि धर्म जब पृथ्वी पर आएगा पूरी तरह, उसके साथ ही साम्यवाद भी आ सकता है, उसके पहले नहीं।
और ध्यान रहे, जब तक धार्मिक आदमी कम्युनिस्ट नहीं होगा तब तक कम्युनिज्म झूठे कम्युनिस्टों के हाथ में रहेगा। और झूठे कम्युनिस्ट उतने ही खतरनाक सिद्ध होने वाले हैं जितना कि पूंजीपति सिद्ध हुआ है, सांमतवादी सिद्ध हुए हैं। ठीक कम्युनिज्म, ठीक कम्युनिस्ट पैदा करना जरूरी है।
और इसलिए मैं मानता हूं कि वे लोग जो परमात्मा को प्रेम करते हैं, उसकी खोज करते हैं, जो एक-एक आदमी के भीतर परमात्मा की झलक देखते हैं, जब तक वे कम्युनिस्ट नहीं हो जाते, तब तक कम्युनिज्म के लिए कोई भाग्यपूर्ण अवसर नहीं है। मैं कम्युनिस्ट हूं, लेकिन मेरा अर्थ आप समझ लेना। और मैं मानता हूं, कोई भी धार्मिक आदमी बिना कम्युनिस्ट हुए बिना कैसे रह सकता है? क्राइस्ट भी कम्युनिस्ट हैं, और बुद्ध भी, और महावीर भी, और लाओत्सु भी, और शंकर भी। सब विचारशील लोग जगत के कम्युनिस्ट ही रहे हैं। चाहे कम्युनिज्म का शब्द उस दिन रहा हो या न रहा हो। जिन लोगों ने भी यह कामना की है और प्रार्थना की है कि सबका कल्याण हो। और जिन लोगों ने भी यह चाहा है कि सब समान हों। और जिन लोगों ने भी सपने देखे हैं कि वह वक्त आ जाए कि कोई आदमी ऊंचा न हो, कोई आदमी नीचा न हो। और जिन्होंने भी यह दर्शन किया है कि सबके भीतर एक ही परमात्मा विराजमान है। वे सब कम्युनिस्ट हैं।
लेकिन जिसे हम कम्युनिस्ट कहते हैं, उसको परमात्मा से भी कोई मतलब नहीं। उसे आत्मा से भी कोई मतलब नहीं। उसे बहुत गहरे में हम देखें, तो मनुष्य की समानता से भी कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जिसका हिंसा में विश्र्वास है उसका असमानता में विश्र्वास है। जिसका जबरदस्ती में विश्र्वास है उसे आदमियों के भीतर जो स्वतंत्र चिंतना है उस पर विश्र्वास नहीं है। वैसा मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं। और वैसे कम्युनिस्टों से निरंतर लड़ता रहूंगा। इसलिए मेरी लड़ाई भी बड़ी मुश्किल की है—कम्युनिज्म के लिए लड़ना है और कम्युनिस्टों से लड़ना है। धर्म के लिए लड़ना है और धार्मिकों से लड़ना है। आस्तिकता के लिए लड़ना है और आस्तिकों से लड़ना है। तब बड़ी मुश्किल हो जाती है। तब बड़ी कठिनाई हो जाती है।
एक और मित्र ने पूछा है कि
भगवान, मैंने सुबह कहा कि परमात्मा को खोजना हो तो विश्र्वास के द्वार से नहीं खोज सकते हैं। तो वे कहते हैं कि अगर हम विश्र्वास न करेंगे, तब तो छोटे-छोटे काम करने भी मुश्किल हो जाएंगे?
बड़ी मजे की बात है। मैंने आपसे कब कहा कि छोटे-छोटे काम के दरवाजे पर भी लिखा है कि विश्र्वास नहीं है। मैंने कब कहा, उन मित्र ने पूछा है कि कार चलानी है तो विश्र्वास करना पड़ेगा कि इंजन चलेगा। बड़े मजे से कार चलाइए और बड़े मजे से विश्र्वास करते रहिए। लेकिन भगवान की तरफ जाने को, कार का चलाना मत समझ लेना। उन्होंने लिखा है कि दुकान पर जाएंगे और चीज खरीदेंगे तो दुकानदार पर विश्र्वास करना पड़ेगा कि वह ठीक ही बता रहा है। बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप, बिलकुल विश्र्वास करना। हालांकि इस मुल्क में हालतें नहीं रह गईं कि दुकानदार पर विश्र्वास किया जाए। लेकिन फिर भी करना। नहीं तो काम चलना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन परमात्मा किसी दुकान पर बिकने वाली चीज नहीं है कि आप खरीदने जाएं और पुरोहित पर विश्र्वास करें। मैंने परमात्मा के लिए कहा है। और वे कह रहे हैं कि दुकान पर चीज खरीदनी होगी तो विश्र्वास करना पड़ेगा।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि
भगवान, यह तो मानना ही पड़ेगा कि पिता हमारा पिता है, क्योंकि हमें कैसे पक्का पता चल सकता है?
अगर यह मानना पड़ता है आपको कि पिता-पिता है, तो भी आपको शक तो है ही। पता कहां चल गया है? अमरीका में एक युवक एक आंदोलन चला रहा है, शायद आपको पता न हो, हिम्मतवर युवक होगा। एक आंदोलन चला रहा है कि स्कूलों में, कालेजों में कहीं भी किसी फार्म पर पिता का नाम मैं नहीं भर सकता हूं, सिर्फ मां का नाम भर सकता हूं। क्योंकि पिता का नाम विश्र्वास योग्य नहीं है। ठीक कह रहा है वह। इस मुल्क में भी लड़के समझदार होंगे तो यह कहेंगे कि हम मां का नाम भरेंगे, पिता का नाम नहीं भर सकते। पिता बिलकुल ही एक तो गैर-जरूरी है, एडीशनल है। पिता कोई बहुत एसेंशियल नहीं है मामला। असली बात तो मां है। लेकिन स्त्री की चूंकि प्रतिष्ठा नहीं है, इसलिए पिता का नाम लिखा जा रहा है जगह-जगह। लिखा तो जाना चाहिए मां का नाम ही। ठीक-ठीक उसका ही पता है। पिता का तो ठीक-ठीक पता नहीं है। लेकिन पिता ने कब्जा कर रखा है औरतों पर। औरतों तक का नाम पति के नाम से जाना जा रहा है। बेटे का नाम भी पिता के नाम से जाना जा रहा है। यह पिता का शोषण बहुत हो चुका। अच्छी दुनिया बनेगी तो पिता तो खो जाएगा। पिताओं को सावधान रहना चाहिए। पिता बहुत दिन चलने वाले नहीं हैं आगे। मां रहेगी, मां की प्रतिष्ठा होगी। मां बचनी चाहिए। वही सच है। और वही ठीक भी है।
तो आप ठीक पूछते हैं। लेकिन काम चलाने के लिए आप झंझट में मत पड़ना। पिता को माने चले जाना। लेकिन, यह परमात्मा को खोजना पिता के मानने जैसा झूठ नहीं है। परमात्मा को खोजना है, लेकिन कुछ नासमझों ने परमात्मा को पिता की शक्ल दे रखी है। वे कहते हैं: गॉड दि फादर। हद हो गई। यह पिता ही बहुत खतरनाक है, और तुम परमात्मा को भी पिता बनाने की कोशिश में लगे हो? लेकिन चूंकि पुरुषों का समाज है, इसलिए पुरुषों ने परमात्मा को भी अपनी शक्ल में निर्मित किया है। वे कहते हैं, पिता है परमात्मा। यह पिता परमात्मा भी इसी तरह विश्र्वास का आधार बना हुआ है जिस तरह खुद पिता बने हुए हैं।
नहीं; परमात्मा पिता नहीं है--परमात्मा न पिता है, न पुत्र है, न मां है। परमात्मा तो समग्र अस्तित्व है। उस अस्तित्व को खोजना पड़ेगा, मानना नहीं पड़ेगा। वह जो मैंने कहा, विश्र्वास मत करना, वह इसलिए नहीं कि तुम परमात्मा से छूट जाओ, बल्कि इसलिए ताकि तुम पहुंच सको उस तक। और जब तक विश्र्वास किए हुए हम बैठे हैं, वह विश्र्वास हमारी धारणा है, उससे ज्यादा नहीं है। हमारी जैसी तबीयत है हम वैसा माने बैठे हैं। हमें जो प्रचारित किया है वह हमने मान लिया है। आप परमात्मा को मानते क्यों हैं? बचपन से प्रचारित किया गया है, समझाया गया है, वह है। बीमारी में, सुख-दुख में हाथ जुड़वाए गए हैं, वह है। परीक्षा में, डर में, भय में कहा गया है, वह है। वह बैठ गया है भीतर, वह बैठता चला गया है भीतर। एक प्रोपेगेंडा है, वह भीतर बैठ गया है। उसने एक धारणा पकड़ ली है। फिर आप कहते हैं कि मैं परमात्मा को मानता हूं। आपके भीतर से सिर्फ प्रचार बोल रहा है। आप रूस में पैदा हों तो वहां दूसरा प्रचार चल रहा है कि परमात्मा नहीं है। तो वहां के बच्चे के दिमाग में यह बैठ गया है कि परमात्मा नहीं है। वह भी विश्र्वासी है, आप भी विश्र्वासी हैं। और कोई विश्र्वासी कभी प्रभु के मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता है। एक नास्तिक विश्र्वासी है, एक आस्तिक विश्र्वासी है। विश्र्वासी कभी नहीं पहुंच सकता है वहां। वहां तो वे पहुंचते हैं जो विचार करते हैं, जो खोजते हैं। लेकिन हम विश्र्वास क्यों कर लेते हैं इतनी जल्दी? कुछ कारण होगा। यह परमात्मा को बिना देखे बिना जाने विश्र्वास कैसे कर लेते हैं? कुछ वजह है।
और वजह है। हमें इतना आत्मविश्र्वास नहीं कि हम खोज सकें। आत्मविश्र्वास की कमी दूसरों के ऊपर विश्र्वास बन जाती है। जो आदमी जितना अपने पर कम विश्र्वास करता है वह उतना ज्यादा दूसरों पर विश्र्वास करता है और मैं कहता हूं, अपने पर विश्र्वास करना, क्योंकि अपने सिवाय कौन खोजेगा, कैसे खोजेगा? खोजना तो मुझे होगा। जानना मुझे होगा। अपने पर विश्र्वास तो समझ में आता है, दूसरे पर विश्र्वास समझ में नहीं आता। हो भी सकता है, अपने पर विश्र्वास करने से रास्ता भटक जाए, गड्ढे में गिर जाएं। लेकिन कोई हर्ज नहीं, खोजी गड्ढे में गिरने से नहीं डरता है। न रास्ता भटकने से डरता है, न भूल करने से डरता है। क्योंकि जो भूल नहीं करता, जो भटकता नहीं, जो गिरता नहीं, वह चल ही नहीं सकता है। वह कहीं पहुंच ही नहीं सकता है। खोजी भूल करने की हिम्मत दिखाता है। भटकने की हिम्मत भी दिखाता है। लेकिन खोजी यह कहता है कि कृपा करके मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मत चलाओ। अगर तुमने हाथ पकड़ कर मुझे पहुंचा भी दिया तो भी मैं कभी नहीं पहुंचूंगा। मेरा पहुंचना तो उस प्रक्रिया से गुजर कर ही हो सकता है। मैं तो उसी से निखरूंगा। इसलिए खोजी विचार करता है। खोजी का मतलब अविश्र्वासी नहीं है।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, क्या आप अविश्र्वास सिखाते हैं?
मैं अविश्र्वास सिखाऊंगा। जो आदमी विश्र्वास तक नहीं सिखाता, वह अविश्र्वास सिखाएगा।
एक मित्र ने पूछा है:
भगवान, आप नास्तिकता सिखाते हैं?
जो आदमी आस्तिकता तक सीखने से बचाना चाहता है, वह नास्तिकता सिखाएगा? मैं न आस्तिकता सिखाता हूं, न नास्तिकता सिखाता हूं। मैं न विश्र्वास सिखाता हूं, न अविश्र्वास सिखाता हूं। मैं यह कहता हूं कि विश्र्वास से भी मुक्त रहना, अविश्र्वास से भी मुक्त रहना, और मुक्त रह कर खोजना। पक्षपात में मत बंधना। निष्पक्ष होकर खोजना--दोनों पक्ष हैं। और ध्यान रहे, विरोधी पक्ष एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। उनमें कोई बहुत फर्क नहीं होता है। विरोधी पक्ष एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। आस्तिक और नास्तिक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें कोई बहुत फर्क नहीं है। वह एक ही चीज की पीठ है, वह एक ही चीज का चेहरा है।
मैं एक मित्र को जानता हूं, एक बड़े वकील को, वे प्रिवी कौंसिल में एक मुकदमा लड़ते थे। बड़े वकील थे। भारी व्यस्त थे। रात कुछ उलझन में थे, कुछ काम में थे। देख नहीं पाए, फाइल नहीं देख पाए मुकदमे की। बिना फाइल देखे अदालत पहुंच गए। खड़े हो गए जिरह करने को। भूल गए कि मैं पक्ष में हूं कि विपक्ष में। तो जिसके पक्ष में बोलना था उसी के विपक्ष में बोलने लगे। उनका ग्राहक तो घबड़ा गया। उसके हाथ-पैर कंप गए कि यह क्या हो रहा है! मेरे ही खिलाफ दलीलें दी जा रही हैं, मेरा ही वकील! और जब मेरा वकील मेरा खंडन कर रहा है तब तो मैं मर गया। विरोधी का वकील तो खंडन करेगा ही। अब मेरा बचाव क्या है? बामुश्किल मुंशी उनको थोड़ा, थोड़ा उनका कोट खींचा। लेकिन वे तो इतने तल्लीन थे जिरह में कि वे झटका दे दें। आखिर मुंशी ने जोर से कोट में झटका दिया और कान में जाकर कहा, आप कर क्या रहे हैं? आप अपने ही पक्ष के खिलाफ बोल रहे हैं। उन्होंने कहा: अरे, तुमने इतनी देर से क्यों नहीं कहा? यह तो बहुत लंबी बात हो गई। लेकिन कोई हर्ज नहीं। उन्होंने कहा: माई लार्ड, मजिस्ट्रेट से कहा: अब तक मैंने वे दलीलें दीं जो मेरा विपक्षी देगा, अब मैं खंडन शुरू करता हूं।
ये एक ही सिक्के के दो पहलू है। ये खंडन और मंडन दो चीजें नहीं हैं। इनमें कोई बहुत फर्क नहीं है। इस सिक्के को कैसे भी उलटाया जा सकता है। इसीलिए तो यह मजा है कि न नास्तिक जीत पाते हैं न आस्तिक जीत पाते हैं। क्योंकि आधा-आधा सिक्का दोनों के हाथ में है। जीत कोई नहीं सकता। पूरा सिक्का किसी के हाथ में नहीं है। आस्तिक नहीं जीत पाए आज तक। कितनी दलीलें दी हैं ईश्र्वर के लिए? कोई दलील नहीं जीत पाई! सच तो यह है; ईश्र्वर के लिए जो दलील देता है, वह ईश्र्वर को जानता ही नहीं। ईश्र्वर के लिए जो कोई तर्क देता है, उसे ईश्र्वर का कोई पता ही नहीं। तर्क देने वाला सिद्ध करने की कोशिश करता है। सिद्ध करने की कोशिश उसी के लिए की जाती है जो सिद्ध न हो। ईश्र्वर परम-सिद्ध है, स्वयं-सिद्ध है, क्योंकि वह समस्त है। उसे सिद्ध करने की कोई भी जरूरत नहीं है।
जो सिद्ध करने जाता है ईश्र्वर को वह मान कर चलता है कि ईश्र्वर को भी सिद्ध किए जाने की जरूरत है, और वह यह भी मान कर चलता है कि मैं सिद्ध न करूं तो बेचारा ईश्र्वर असिद्ध रह जाएगा। सो ईश्र्वर से बड़ा हमेशा सिद्ध करने वाला होता है। और इसी सिद्ध करने वाले की वजह से ईश्र्वर को असिद्ध करने वाला मौजूद हो जाता है। वह इसी का रिएक्शन है, वह इसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
एक गांव में एक फकीर था। वह ऐसी गड़बड़ बातें करने लगा था कि गांव की पंचायत चिंतित हो गई और गांव की पंचायत ने कहा कि इसे बुलाना पड़ेगा और समझना पड़ेगा। इसके तर्क समझने पड़ेंगे और सिद्ध करना पड़ेगा कि तू यह क्या बातें कह रहा है। तेरी बातें गलत हैं। फकीर को निमंत्रण मिला पंचायत की तरफ से कि आज संध्या पंचायत में हाजिर हो जाओ। फकीर अपने गधे पर बैठ कर पंचायत की तरफ चला। लेकिन गधे पर वह उलटा बैठा, उसने अपना मुंह गधे की पीठ की तरफ रखा है। जब पंचायत में पहुंचा तो सारे पंच हैरान हुए कि फकीर का दिमाग क्या बिलकुल खराब हो गया है। गधे पर उलटा बैठ कर चला आ रहा है। उन सबने घेर लिया, वे कहने लगे, दिमाग खराब हो गया है? उसने कहा: पहले पक्का पता चल जाए कि किस कारण से आप कह रहे हैं कि मेरा दिमाग खराब हो गया है? उन्होंने कहा कि तुम गधे पर उलटे बैठे हो। उसने कहा: तब ठीक है। तुम भी गधे की जाति के हो। उन्होंने कहा: मतलब? उस फकीर ने कहा कि असल बात यह है कि गधा उलटा खड़ा हुआ है, मैं तो सीधा ही बैठा हुआ हूं। और गधा भी यही समझ रहा है कि मैं उलटा बैठा हुआ हूं। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम सब उन लोगों से--कहा पंचायत से, आपसे नहीं कह रहा हूं। उसने कहा: पंचायत के तुम सब लोग भी गधे की जाति के हो। गधे भी चलने में गड़बड़ कर रहा है। वह समझ रहा है कि मैं उलटा बैठा हुआ हूं। सच बात यह है कि गधा उलटा खड़ा हुआ है। पंचायत के लोगों ने कहा: इस आदमी से बातचीत करनी व्यर्थ है। और उस फकीर ने कहा कि इसीलिए मैं पहले ही यह मामला ले आया। यह एक ही चीज की दो शक्लें हैं। तुम जो कहोगे, उसके खिलाफ कहा जा सकता है। और न खिलाफ को सिद्ध किया जा सकता है और न तुम जो कहते हो उसको सिद्ध किया जा सकता है।
तर्क, बड़ी कमजोर दुनिया है तर्क की। मैं न कह रहा हूं कि विश्र्वास को पकड़ो। विश्र्वास वाला भी कहता है, तर्क है हमारे पास, आर्ग्युमेंट है। अविश्र्वास वाला भी कहता है, तर्क है हमारे पास, आर्ग्युमेंट है। हम कहते हैं कि ईश्र्वर नहीं है, आत्मा नहीं है। मैं दोनों की बात नहीं कह रहा। मैं कुछ तीसरी ही बात कह रहा हूं जो इन तीन दिनों में धीरे-धीरे साफ हो सकेगी। मैं यह कह रहा हूं, विश्र्वास से भी मत बंधना और अविश्र्वास से भी मत बंधना। और क्यों यह कह रहा हूं, क्योंकि जो आदमी ऊपर से विश्र्वास से बंधता है उसके भीतर अविश्र्वास होता है, उसका दूसरा पहलू उसके भीतर रहेगा। कांशस माइंड में, चेतन मन में, वह विश्र्वासी होगा, अचेतन में अविश्र्वासी होगा। चेतन में आस्तिक होगा, अचेतन में नास्तिक होगा। जो चेतन में नास्तिक होगा उसके भीतर आस्तिक छिप जाएगा। उलटा पहलू नीचे दब जाएगा। इसलिए ऐसा कोई नास्तिक नहीं है जिसके भीतर आस्तिक न बैठा हो। और ऐसा कोई आस्तिक नहीं है जिसके भीतर नास्तिक न बैठा हो। और आस्तिक जब लड़ता है तो किससे लड़ता है? आपको पता है, आपसे नहीं लड़ रहा है। अपने ही नास्तिक से लड़ता है बेचारा। और जब नास्तिक लड़ता है तो किससे लड़ता है? आपसे नहीं लड़ता? अपने ही आस्तिक से लड़ता है। यह लड़ाई भीतरी है। लेकिन वह आदमी धार्मिक है जो आस्तिकता-नास्तिकता दोनों को फेंक देता है और कहता है कि न मुझे पता है कि ईश्र्वर है, न मुझे पता है कि ईश्र्वर नहीं है। मैं खोजूंगा। मुझे पता नहीं है। मैं खोज पर निकलता हूं। जो भी होगा वह मैं खोज कर तय करूंगा। मैं पहले से तय नहीं करता। खोज पर निकलने के पहले तय कर लेना तो बहुत बुरा है।
एक मित्र हैं जयपुर में, डाक्टर बनर्जी। उनका नाम आपने सुना होगा। वह पुनर्जन्म सिद्ध करने के लिए कथाएं खोजते हैं। घटनाएं खोजते हैं। बंबई में मेरा उनसे मिलना हुआ। कुछ मित्र बड़ी आकांक्षा किए कि दोनों जन मिलें। मैं तो हमेशा तैयार हूं, मिलने को तैयार हो गया। मिलने गया। उन डा. बनर्जी ने कहा शुरू बातचीत में कि मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है। मैंने कहा: आप सिद्ध करना चाहते हैं। उन्होंने कहा: हां, मैं सिद्ध करना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है। फिर मैंने कहा: आप वैज्ञानिक नहीं हैं, क्योंकि आपने यह पहले ही मान रखा है कि पुनर्जन्म है। अब इसको सिद्ध करना है? वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी कहता है कि मैं पता लगाना चाहता हूं कि पुनर्जन्म है या नहीं है। मैंने कुछ मान नहीं लिया है। जिसने पहले ही मान लिया है वह सिद्ध कर लेगा जो उसने मान लिया है। लेकिन तब वह खोज वैज्ञानिक नहीं रह जाएगी। वैज्ञानिक होने का मतलब यह है कि मैं मान कर नहीं चलता कि क्या है, मैं आंख खोल कर चलूंगा, और जो होगा वह कहूंगा कि है, जो नहीं होगा कहूंगा कि नहीं है।
अवैज्ञानिक, विश्र्वासी, अविश्र्वासी, आस्तिक, नास्तिक, पक्षपाती, वे कहते हैं, हम पहले मान कर चलते हैं कि ईश्र्वर है। कोई कहता है, ईश्र्वर नहीं है। और अब हम सिद्ध करेंगे, अब हम खोज करेंगे। अब क्या खाक खोज करिएगा? जब मान ही लिया तो खोज नहीं होगी। जो भी आपने मान लिया है उसके लिए आप तर्क खोज लेंगे। और जगत इतना बड़ा है कि यहां हर चीज के लिए तर्क और पहलू उपलब्ध हो जाएंगे।
एक आदमी ने अमरीका में एक किताब लिखी है, किताब लिखी है कि तेरह का अंक अपशकुन है। और इतनी वैज्ञानिक किताब लिखी है कि आप भी कहेंगे कि हां, बिलकुल वैज्ञानिक है। यह तो मानता ही है कि तेरह तारीख अपशकुन है। यह तो पहले ही माना हुआ है। अब सिद्ध करना है। तो उसने पता लगाया कि तेरहवीं मंजिल से कितने लोग कब-कब कहां-कहां गिरते हैं, कहां- कहां गिरे हैं। कई अमरीका में तो ऐसे मकान हैं, जिसमें तेरहवीं मंजिल होती ही नहीं। क्योंकि तेरहवीं मंजिल पर कोई रहने को राजी नहीं होता। बारहवीं के बाद सीधी चौदहवीं आती है, तेरहवीं होती ही नहीं। क्योंकि तेरहवीं को किराए पर उठाना मुश्किल है। इसलिए तेरहवीं मंजिल होती नहीं। कई मकानों में नहीं होती तेरहवीं मंजिल। उस आदमी ने पता लगाया है कि तेरहवीं मंजिल से कौन-कौन, कब-कब कहां-कहां गिरा है। तेरहवीं तारीख को कौन-कौन एक्सीडेंट होते हैं। तेरहवीं तारीख को कहां-कहां आग लगती है। तेरहवीं तारीख को कौन-कौन जहाज डूबता है। तेरहवीं तारीख को कौन-कौन हवाई जहाज गिरता है। तेरहवीं तारीख को की गई कौन-कौन शादियां टूटती हैं। सब उसने इकट्ठा किया। तेरह तारीख को पैदा हुए कितने बच्चे मर जाते हैं, उसने सब इकट्ठा किया। अब तेरह तारीख बड़ी घटना है। तेरह तारीख को सब कुछ होता है। उसने सब इकट्ठा कर लिया है, जो-जो अपशकुन है। भारी किताब लिखी है और इतने उदाहरण दिए हैं, इतने आंकड़े दिए हैं कि लगेगा कि तेरह तारीख निश्र्चित ही अपशकुन है। लेकिन कोई अगर चाहे तो बारह तारीख के लिए भी यही इकट्ठा कर ले। कोई चाहे ग्यारह तारीख के लिए इकट्ठा कर ले--जो मर्जी हो इकट्ठा कर ले। जिंदगी एक बहुत बड़ी घटना है। उसमें अनंत घटनाएं घट रही हैं। जिंदगी एक बहुत बड़ा रहस्य है, उसके अनंत पहलू हैं। अगर कोई आदमी पहले से पक्ष लेकर जाता है तो अपने पक्ष की दलीलें खोज लेगा। और दलीलें इकट्ठी कर लेगा। वह प्रिज्युडिस्ड है, वह पहले से तैयार है। वह वही देखेगा जो वह देखना चाहता है। उसकी आंख पर चश्मा पहले से चढ़ा हुआ है। वह वही देखेगा जो देखना चाहता है। उसे वही दिखाई पड़ेगा। वही खोज लेगा। वही। और सब इकट्ठा कर लेगा। और फिर समझेगा कि मैंने कोई खोज की है। यह खोज न हुई—यह खोज नहीं है।
खोज का मतलब है कि मैं निष्पक्ष हूं, यह पहली शर्त है। और मैंने जो सुबह आपसे कहा, विश्र्वास से मुक्त होने के लिए, तो उसका कोई और अर्थ नहीं है, उसका अर्थ है: निष्पक्ष होना। विश्र्वासी पक्षपात से भरा हुआ है--हिंदू है, मुसलमान है, जैन है, बौद्ध है--ये सब विश्र्वासी हैं। आस्तिक हैं, नास्तिक हैं, ये विश्र्वासी हैं। सोशलिस्ट हैं, कम्युनिस्ट हैं, कांग्रेसी हैं, गांधीइस्ट हैं। ये सब विश्र्वासी हैं। और इसलिए इनमें से कोई भी सत्य को नहीं देखता। वही देखता है, जो देखना चाहता है।
रूस में क्रांति हुई उन्नीस सौ सत्रह में। एक गांव था छोटा सा। उस गांव में एक स्कूल था। स्कूल में एक ही शिक्षक था और एक ही विद्यार्थी था। दूर एकांत में वह गांव था। क्रांति हो गई। उन्नीस सौ सत्रह के बाद उस स्कूल की रिपोर्ट छपी। और रिपोर्ट में छापा गया कि भारी प्रगति हुई है क्रांति के बाद शिक्षा में। दुगुनी प्रगति हुई है, दुगुने विद्यार्थी हो गए हैं। सब जगह अखबारों में वह खबर छपी। और कुल बात इतनी हुई थी कि जिस स्कूल में एक विद्यार्थी था, उसमें दो हो गए थे। दुगुनी शिक्षा हो गई। गलती है कोई बात--दुगुने विद्यार्थी हो गए? गलती है कोई बात! जहां सौ का आंकड़ा था, वहां दो सौ का आंकड़ा हो गया। कोई कम है यह बात? लेकिन मामला कुल इतना था कि एक विद्यार्थी की जगह दो विद्यार्थी हो गए थे। लेकिन वह जो देखने गया होगा जिस आंख से, वह आंख कम्युनिस्ट की रही होगी। वह क्रांति को बढ़ा कर दिखाने वाले का खयाल रहा होगा। उसकी कोई गलती नहीं है, उसको ऐसा दिखा होगा। कोई बेईमानी की है। ऐसा नहीं, उसको ऐसा दिखा ही होगा। यह बात बिलकुल सच ही है। इसलिए सरकारी आंकड़े सब झूठे हो जाते हैं। क्योंकि सरकार की आंख से देखे गए होते हैं। वही गरीब जनता की आंख से देखा जाए तो आंकड़ा बिलकुल दूसरा दिखाई पड़ेगा। स्थिति बिलकुल दूसरी होगी। सरकार का आदमी जब आकर देखता है, तब स्थिति और होती है। वही आदमी कल इलेक्शन हार जाए, और फिर देखता है तो स्थिति दूसरी हो जाती है। चश्मा बदल गया। पद के नीचे आ गए। पक्ष बदल गया गए तो सब बदल जाता है।
हम देखते नहीं, हम सिर्फ पक्षपात से घिरे हुए जीते हैं। सत्य की खोज पक्षपाती के लिए नहीं है। प्रभु का मंदिर उनके लिए खुलता है जो निष्पक्ष हैं, अनप्रिज्युडिस माइंड हैं। मन खुला है जिनका वे वही देखेंगे जो है। जो नहीं कहेंगे, जिनकी शर्त नहीं है कि यह हो, जिनके ये आग्रह नहीं हैं कि ऐसा होना चाहिए। जो आदमी आग्रह से भरा है वह सत्य का खोजी नहीं हो सकता। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि सत्याग्रह शब्द बड़ा खतरनाक है। सत्य का कोई आग्रह नहीं हो सकता। सब आग्रह पक्ष के हैं। सत्य हमेशा अनाग्रह है। सत्य निराग्रह है। उसका कोई आग्रह नहीं, कोई पक्ष नहीं। सत्य की खोज में यह कठिन तपश्र्चर्या है कि हम अपना आग्रह छोड़ दें।
मैंने सुना है, एक आदमी अपने हाथ पर शेर की तस्वीर खुदवाना चाहता था। कई आदमी ऐसे हैं, जिनके भीतर कायर होता है तो वे शेर की तस्वीर खुदवा कर मन को तृप्ति देना चाहते हैं। अधिक आदमी ऐसे हैं। असल में जो, जो तस्वीर खुदवाते हैं, वे इसी तरह के आदमी होते हैं। चाहे वह तस्वीर किसी तरह की खुदवाएं। एक आदमी राम-राम लिखे हुए है खोपड़ी पर। यह आदमी खतरनाक है। इस आदमी के भीतर रावण बैठा हुआ होना चाहिए, नहीं तो राम का बोर्ड कभी न लगाता। इसके भीतर रावण है। और यह रावण से डरा हुआ है। और लगता है इसे कि कोई रावण को न देख ले। राम का बोर्ड लगाए हुए है। हम सब जानते हैं, अगर नकली घी बेचना हो तो असली घी का बोर्ड लगाना पड़ता है। और जहां असली शुद्ध घी का बोर्ड लगा हो, वहां हम जानते हैं कि निश्र्चित रूप से नकली घी मिल जाएगा। अब तो नकली घी के भी होने की संभावना कम होती चली जाती है। उसमें भी और ईजादें हैं। बोर्ड हमेशा उलटा होता है। क्योंकि बोर्ड उसको छिपाने के लिए होता है, जो भीतर है। विनम्रता का बोर्ड जिसके चेहरे पर लगा हो, वह आदमी अहंकारी होता है। वह विनम्रता ओढ़े रहता है।
वह आदमी बड़ा डरपोक था। अंधेरे में जाता था तो डर लगता था। उसने कहा: हम शेर खुदवाएंगे, अपने हाथ पर। वह कविताएं बहादुरी की करता था। कमजोर आदमी हमेशा कविताएं बहादुरी की करते हैं। हमारे ही मुल्क में युद्ध हो जाए तो फिर देखो, कितनी बहादुरी की कविताएं पूरा मुल्क करता है। हर आदमी के दिमाग में एकदम कवि पैदा हो जाता है। सब राष्ट्र-कवि हो जाते हैं। हर आदमी अपनी-अपनी चौपाल, अपने-अपने घर के बाहर निकल कर कविताएं सुनाने लगता है कि सिंह हैं, हम सोए हुए हैं, हमको छेड़ो मत! अरे कभी किसी सिंह को यह कविता करते देखा है? छेड़ो और पता चलता है कि मामला क्या है? जब सिंह नहीं होता है भीतर तब कविता होती है कि हम सिंह हैं, हमको छेड़ो मत! उसको मारो तो वह कहेगा, हमको मारो मत, हम सिंह हैं, हम बहुत बदला लेंगे। लेकिन मारते चले जाओ, वह कविता करता चला जाएगा! अब वे सब सिंह कहां चले गए? उनका कुछ पता नहीं है! वे जिस चीन के छेड़ने पर वे नाराज हुए थे, वह जमीन दबा कर बैठा है लाखों मील, अब वे सारे कवि कहां हैं? एक-एक कवि को पकड़ कर मिलिटरी में भर्ती किए बिना इस मुल्क में कविता बंद नहीं होंगी। उन सबको भेजो कि अब तुमको छेड़ दिया गया बुरी तरह से, अब तुम उठो। अब वे कहेंगे कि नहीं, यह हमारा काम नहीं, हम सिर्फ कविता करते हैं।
वह आदमी भीतर डरपोक था, शेर की तस्वीर बनवानी थी। गया एक खोदने वाले के पास, उसने कहा: मेरे हाथ पर शेर की तस्वीर खोद दें, लेकिन शानदार शेर चाहिए बिलकुल कि देख कर आदमी डर जाए। उसने कहा: खोद दूंगा। उस आदमी ने अपनी सुई उठाई और खोदना शुरू किया। तो तकलीफ होती है। जरा ही बढ़ा था कि उसने कहा: ठहर-ठहर, कौन सा हिस्सा खोद रहा है? उसने कहा: पूंछ खोद रहा हूं। उसने कहा: जाने दें, पूंछ के बिना चलेगा, बिना पूंछ का खोद दे। उस आदमी ने फिर सुई उठाई, और फिर उसे तकलीफ हुई। उस आदमी ने कहा: ठहर, क्या जान ले लेगा? अब कौन सा हिस्सा खोद रहा है? उसने कहा: अब मैं चेहरा खोद रहा हूं। उसने कहा: बिना चेहरे का चलेगा। तू फिकर मत कर। उस आदमी ने कहा: फिर क्षमा करो, मैंने बिना पूंछ और बिना चेहरे के शेर नहीं देखे।
यह ऊपर से खोदने वाला आदमी भीतर बिलकुल उलटा है। यह क्या खोद रहा है? शेर खोद रहा है। लेकिन खुदवाने की हिम्मत भी तो नहीं है!
आदमी परमात्मा को खोजता है खोजने की हिम्मत भी नहीं है, इसलिए विश्र्वासी हो जाता है। विश्र्वास ऊपर से खोदी गई बातें हैं। उनसे ज्यादा कोई मूल्य नहीं है। खोजना चाहता है सत्य को, लेकिन खोजने का जो श्रम है, जो तपश्र्चर्या है, जो साधना है, उससे बचना चाहता है! तो वह कहता है कि हां, ठीक है, ऊपर से ही खोद दो। और जब खोदने के लिए सुई उठेगी तो वह कहेगा, चलो, यह भी जाने दो, यह भी जाने दो! इतनी तकलीफ हम नहीं उठा सकते! इससे तो वह अपना विश्र्वास अच्छा है। न कुछ करना पड़ता है, न कहीं जाना पड़ता है, न कुछ होना पड़ता है। चुपचाप विश्र्वास ओढ़ लो और परमात्मा को उपलब्ध हो जाओ। हम सब उपलब्ध हो गए हैं। हम सब उपलब्ध हो गए हैं परमात्मा को, विश्र्वास ओढ़ कर।
विश्र्वास को ओढ़ कर कोई कभी सत्य को नहीं पहुंचता है।
इसलिए मैंने सुबह आपसे कहा, हिम्मत जुटाओ विश्र्वास छोड़ने की अगर पाना हो ज्ञान। हिम्मत जुटाओ अंधा बनना छोड़ने की। अगर पानी हो आंखें, हिम्मत जुटाओ थोड़ा विचार से गुजरने की, अगर उसके द्वार में प्रवेश की जरूरत हो। और अन्यथा फिर उसकी फिकर छोड़ दो। फिर कहो, हमें कोई प्रयोजन नहीं ईश्र्वर से, सत्य से। तो कम से कम एक बात तो साफ हो जाए कि दुनिया में यह पता चल जाए कि किन लोगों को सत्य से प्रयोजन है और किनको प्रयोजन नहीं। अभी कुछ पता ही नहीं चलता कि कौन शेर है और कौन खुदाया हुआ शेर है। और खुदाए हुए शेर इतने ज्यादा हैं कि सब उनको देख कर ऐसा समझते हैं कि खुदा लेना ही शेर हो जाना है।
आस्तिक हो जाना ऐसा नहीं है। ईश्र्वर की दिशा में धार्मिक हो जाना ऐसा नहीं है। इसलिए मैंने सुबह आपसे कहा। कल सुबह दूसरे सूत्र पर बात करूंगा। जो प्रश्र्न बच गए, कल संध्या उनकी बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।