QUESTION & ANSWER
Prabhu Mandir Ke Dwar Par 01
First Discourse from the series of 10 discourses - Prabhu Mandir Ke Dwar Par by Osho. These discourses were given in NARGOL during OCT 30 - NOV 03 1968.
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‘प्रभु मंदिर के द्वार पर’ इस विषय पर कुछ भी कहने के पहले प्रभु मंदिर का द्वार एक बहुत अदभुत द्वार है यह समझ लेना जरूरी है। वह कोई साधारण द्वार नहीं। और न ही जिन्हें हम मंदिर कहते हैं उन मंदिरों का द्वार है। प्रभु के नाम से जो मंदिर बने हैं उनमें कोई भी मंदिर प्रभु का नहीं है। हिंदू के है मंदिर, मुसलमान के हैं, ईसाई के हैं, जैन के हैं। और जहां तक कोई विशेषण है वहां तक प्रभु से कोई संबंध नहीं है। प्रभु का मंदिर भी है, लेकिन आदमियों के द्वारा बनाए गए मंदिरों के कारण वह मंदिर दिखाई नहीं पड़ता है। धार्मिकों के कारण धर्म को समझना ही मुश्किल हो गया है। और जब तक पृथ्वी पर हिंदू होंगे, मुसलमान होंगे, ईसाई होंगे, तब तक धार्मिक आदमी का जन्म भी नहीं हो सकता है।
पृथ्वी को एक पागलखाना बना दिया है तथाकथित धार्मिक लोगों ने। और इन धार्मिक लोगों के कारण ही अधार्मिक आदमी पैदा हुआ है। अधार्मिक आदमी धार्मिक आदमी की प्रतिक्रिया है, रिएक्शन है। जिस दिन ये तथाकथित धार्मिक आदमी विदा हो जाएंगे, उसी दिन अधार्मिक आदमी की भी मृत्यु हो जाएगी। इन झूठे धार्मिकों के कारण इनके विरोध में, इनके प्रतिक्रोध के कारण, आक्रोश के कारण एक अधार्मिक हवा पैदा हो गई है। दुनिया में एक भी नास्तिक नहीं होगा अगर तथाकथित आस्तिक विदा हो जाएं। नास्तिकता आस्तिकों की छाया है। और जिस दिन न आस्तिक होंगे, न नास्तिक होंगे, उस दिन धर्म की संभावना हो सकती है। मैंने कहा, तथाकथित धार्मिक लोगों ने, तथाकथित प्रभु के मंदिरों ने, मस्जिदों ने, गुरुद्वारों ने, गिरजों ने जमीन को एक पागलखाना, एक मैडहाउस बना दिया है।
एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है।
हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बंटवारा हो रहा है। बंटवारा ही पागलपन का लक्षण है। जिस दिन मनुष्य की बुद्धि ठीक और संयत होगी, दुनिया एक होगी, बंटी हुई नहीं होगी। बंटा हुआ मन है, खंड-खंड मन है, इसलिए पृथ्वी को भी खंड-खंड करना पड़ता है। पृथ्वी तो अखंड है। आदमी का चित्त खंडित है, इसलिए पृथ्वी को भी खंडित कर लेता है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हो रहा है। एक पाकिस्तान...हिंदू है या मुसलमान क्योंकि वे पागल कहते हैं कि हम सिर्फ आदमी हैं हमें पता ही नहीं कि हम हिंदू हैं या मुसलमान हैं। अधिकारी बड़े परेशान हैं, वे उन्हें समझाते हैं कि तुम रहोगे तो यहीं लेकिन तुम यह बता दो, तुम्हें हिंदुस्तान में जाना है कि पाकिस्तान में जाना है। वे पागल कहते हैं, बड़ी अजीब बातें कर रहे हैं आप, हम तो सोचते थे हम पागल अजीब बातें करते हैं। आप अजीब बातें कर रहे हैं, कहते हैं रहोगे यहीं, और यह बता दो कहां जाना है हिंदुस्तान में या पाकिस्तान में!
जब रहेंगे यहीं तो जाने का सवाल क्या है? और जब जाना ही नहीं है, रहना यहीं है, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान से हमें मतलब क्या है? हम जहां हैं हम ठीक हैं।
बहुत समझाया उन्हें, लेकिन उन पागलों की समझ में नहीं आया। फिर उनसे पूछा कि तुम हिंदू हो या मुसलमान, यह बता दो?--तो हिंदू हिंदुस्तान चले जाएं; हिंदू पागल हिंदुस्तान चले जाएं, मुसलमान पागल पाकिस्तान चले जाएं। तुम हिंदू हो या मुसलमान?
उन्होंने कहा: यह तो हमें पता नहीं, हम ज्यादा से ज्यादा आदमी हैं। और अगर बहुत ही कोशिश करिए तो हम कह सकते हैं, हम पागल हैं। लेकिन हिंदू-मुसलमान का हमें पता ही नहीं।
फिर कोई रास्ता न था, तो अधिकारियों ने आधे पागलखाने में रेखा खींच दी, आधे कमरे पाकिस्तान में चले गए, आधे हिंदुस्तान में। पागल बंट गए आधे-आधे। बीच से दीवाल उठा दी। वे पागल अब भी दीवाल पर चढ़ जाते हैं और एक-दूसरे से पूछते हैं, बड़े आश्चर्य की बात है, हम वहीं के वहीं हैं, कोई कहीं नहीं गया, लेकिन तुम पाकिस्तान में चले गए, हम हिंदुस्तान में चले गए। यह क्या हो गया है? कभी-कभी वे पागल दीवाल पर एक-दूसरे से लड़ते भी हैं, उनमें जो बहुत बुद्धिमान हैं वे समझाते भी हैं कि हमें हिंदू से क्या मतलब? हमें मुसलमान से क्या मतलब? हम तो सिर्फ पागल हैं। उन पागलों की बातें कोई सुनेगा तो खयाल में आएगा, वे पागल शायद हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं। हम उनसे भी ज्यादा पागल हैं।
परमात्मा के नाम पर भी आदमी ने पागलपन ईजाद किया है। परमात्मा के नाम पर भी जो पांच हजार वर्षों में हुआ है, अगर उसका हिसाब लगाया जाए, तो हमें शक होगा, ये परमात्मा के द्वार पर प्रार्थनाएं हो रहीं थी, या शैतान के द्वार पर? ये किसके द्वार पर हो रही थीं?
मैंने सुना है, एक फकीर रात सपने में शैतान को देखा। शैतान सुस्त पड़ा हुआ सोया है। फकीर ने पूछा: शैतान! तुम और सुस्त पड़े हुए हो? हमने तो यह सुना है कि शैतान चौबीस घंटे शैतानी में लगा रहता है। तुम इतनी शांति से बैठे हुए हो, तुम्हें हो क्या गया? तुम्हें अपना काम नहीं करना है, लोगों को गुमराह नहीं करना है? लोगों को रास्ता नहीं भटकाना है? तुम जितनी देर चुप बैठोगे उतनी देर लोग ठीक रास्ते पर चले जाएंगे। तुम जाओ अपने काम में लगो। उस शैतान ने कहा: अब मुझे काम की कोई जरूरत नहीं। मेरे काम को तथाकथित भगवान के भक्तों ने सम्हाल लिया है—पुरोहित, पंडे, पुजारी, वे मेरा काम कर रहे हैं। मैं तो अब विश्राम करता हूं। अब मुझे कोई भी जरूरत नहीं है। तुम जिन्हें भगवान के मंदिर कहते हो, वे सब मेरे हो गए हैं। क्योंकि मेरे एजेंट वहां पर—पुजारी, पंडे और पुरोहित होकर बैठे हुए हैं।
प्रभु मंदिर के द्वार को समझने के लिए पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि जिन्हें हम प्रभु के मंदिर कहते हैं, वे प्रभु के मंदिर नहीं हैं। आदमी का बनाया हुआ कोई मंदिर प्रभु का मंदिर नहीं हो सकता। आदमी खुद ही प्रभु का बनाया हुआ एक मंदिर है। आदमी का बनाया हुआ कोई मंदिर प्रभु का मंदिर नहीं हो सकता। आदमी खुद ही प्रभु का बनाया हुआ मंदिर है। और जो हमारे चारों तरफ निर्मित है सहज, वह जो सृष्टि का विस्तार है, वह जो जीवन है, वह जो अस्तित्व है, वह जो एक्झिस्टेंस है, वही प्रभु का मंदिर है। लेकिन आदमी उस मंदिर के ऊपर मंदिर बनाता है। और इन मंदिरों को इतना महत्व देता है कि इन मंदिर की दीवालों में वह जो असली मंदिर है, छिप जाता है। सब छिप गया है, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। और एक-एक आदमी अंधा है, धर्म के नाम पर। धर्म को खोलनी चाहिए आंख, और धर्म बनाता है अंधा, इसलिए प्रभु की चर्चा बहुत चलती है, लेकिन प्रभु से हमारा कोई संबंध नहीं हो पाता है।
प्रभु का मंदिर वही है जो है चारों तरफ। अब और कोई प्रभु-मंदिर बनाने की जरूरत नहीं है। और आदमी बना सकेगा प्रभु का मंदिर? आदमी तो प्रभु को भी बनाने की कोशिश में लगा हुआ है, मूर्तियां ढाली जा रही हैं भगवान की। मूर्तियां बनाई जा रही हैं, रंग-रोगन किए जा रहे हैं। फिर आदमी उन्हीं मूर्तियों के सामने, खुद की बनाई हुई मूर्तियों के सामने हाथ जोड़े खड़ा है। घुटने टेक कर खड़ा है। अगर किसी दूर ग्रह पर कोई भी देखने वाला होगा तो बहुत हंसता होगा। खुद ही मूर्तियां बनाते हैं लोग, फिर उन्हीं के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं। फिर घुटने टेक लेते हैं। और मूर्तियां भी किसकी बनाते हैं, अपनी ही मूर्तियां बनाते हैं। अगर घोड़े अपने भगवान की मूर्ति बनाएं, तो घोड़ों जैसी बनाएंगे। और गधे अगर बनाएं, तो गधे जैसी बनाएंगे। और आदमी, आदमी जैसी बनाता है। अफ्रीका में जो मूर्ति बनती है उसकी नाक चपटी होती है। हिंदुस्तान में जो मूर्ति बनती है उसकी नाक लंबी होती है। पश्चिम में जो मूर्ति बनेगी वह गोरी होगी, पूरब में जो मूर्ति बनेगी वह सांवली होगी। हम अपनी शक्ल में ही तो मूर्तियां बनाते हैं। हम अपनी ही तो मूर्तियां बनाते हैं। भगवान के नाम से आदमी अपनी ही पूजा कर रहा है। और खुद ही पूजा कर रहा है। और फिर पूछता है भगवान कहां है? जब नहीं पाता इन मूर्तियों में, तो चिल्लाता है और कहता है भगवान है ही नहीं?
ये दो बातें समझ लेना है। एक तो खुद ही भगवान बनाता है, यह पागलपन, फिर खुद के बनाए हुए भगवान में जब भगवान नहीं मिलता, तो कहता है, भगवान नहीं है। और भगवान को न कभी खोजता, न भगवान से कभी संबंधित होता, अपनी ही मूर्तियों की या तो पूजा करता है या अपनी ही मूर्तियों का खंडन करता है। और पूजा करने वाले और मूर्ति का खंडन करने वाले, दोनों सदा समान हैं। क्योंकि दोनों की निष्ठा मूर्ति में है। हिंदू मूर्ति पूजता है, मुसलमान मूर्ति फोड़ता है। लेकिन दोनों मूर्ति पूजक हैं। दोनों की दृष्टि मूर्ति पर लगी है, जैसे मूर्ति में कुछ है। न तो पूजा करने योग्य है, न तोड़ने योग्य है, मूर्ति में कुछ भी नहीं है। और जहां है वहां हमारी कोई दृष्टि ही नहीं है।
तो पहले तो आज की सुबह हम यह समझ लें कि भगवान का मंदिर कहां-कहां नहीं है, तो शायद हम समझ पाएं कि भगवान का मंदिर कहां हो सकता है? कहां-कहां उसका द्वार नहीं है, यह अगर हम जान लें तो शायद हम खोज सकें कि कहां उसका द्वार है? इतनी जगह नकली द्वार बने हुए हैं कि बहुत मुश्किल हो गया है, उसके द्वार को खोजना। और जब भी कोई खोजने निकलता है, जल्दी से कोई नकली द्वार मिल जाता है, नकली द्वार के दुकानदार मिल जाते हैं। और उस आदमी को नकली द्वार में प्रवेश करवा लेते हैं। फिर वह भटकता रहे उस नकली द्वार में, उसे कभी भी असली द्वार का कोई पता नहीं चल सकता है।
पहली बात, नकली द्वार...। जितने भी नकली द्वार हैं, उन सबका मूल आधार है विश्वास, वे सब विश्वास पर खड़े हैं। इसलिए विश्वास के द्वार पर जो भी दस्तक देगा, वह अंधकार में उतर जाएगा, अज्ञान में उतर जाएगा, परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता है। और सारे तथाकथित धर्मों ने यही समझाया है कि विश्वास करो।
मैंने सुना है, एक अदभुत आदमी था, मुल्ला नसरुद्दीन। वह एक दिन दोपहर को एक वृक्ष पर चढ़ कर कुछ पत्तियां काट रहा है, कुछ शाखाएं काट रहा है। लेकिन जिस शाखा पर बैठा है उसी को काट रहा है। नीचे से एक आदमी निकला और उसने चिल्लाया कि मुल्ला यह क्या करते हो? पागल हो गए हो? जिस शाखा पर बैठे हो उसी को काटते हो--गिरोगे, मरोगे! मुल्ला ने कहा: अपने रास्ते जाओ। मैं किसी पर कभी विश्वास नहीं करता। मैं अपनी बुद्धि पर विश्वास करता हूं। और मुल्ला शाखा को काटते रहे। फिर शाखा टूटी और मुल्ला जमीन पर गिरे। चोट खाई तो खयाल आया कि गलती हो गई। जो उसने कहा था, उस पर विश्वास करना चाहिए था। वह आदमी बड़ा ज्ञानी था। वह आदमी भविष्य का जानकार था, तब तो उसने बता दिया। कि अगर काटते रहोगे तो गिरोगे। भविष्य की घटना पहले बता दी, कोई ज्योतिषी था मालूम होता है।
मुल्ला भागे उसके पीछे, उसे रास्ते में पकड़ा और पैर पकड़ लिए और कहा कि मैं बड़ा अभागा हूं। कितना महान ज्योतिषी नीचे से गुजरता था, उसने इतनी बढ़िया बात कही, भविष्य की बात बताई, मैंने नहीं मानी। अब तो मैं तुमसे कुछ और भी पूछने आया हूं, तुम जो भी कहोगे मैं मान लूंगा।
उस आदमी ने कहा: और मैं कुछ नहीं जानता हूं, न मैं कोई ज्योतिषी हूं। न इसका भविष्य से कोई संबंध है, यह तो सीधी विचार की बात थी, कि जिस शाखा पर बैठ कर काटते हो...।
मुल्ला ने कहा: विचार-विचार की बात मत करो, मैंने विचार करके देख लिया और नुकसान उठाया। मैं जमीन पर गिर पड़ा, पैर टूट गए। अब तो मैं विश्वास करूंगा। तुम मुझे यह और बता दो कि मेरी मृत्यु कब आएगी?
उस आदमी ने कहा: पागल हो गए हो, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं कोई ज्योतिषी नहीं। लेकिन जितना उसने बचना चाहा, मुल्ला ने समझा कि वह आदमी छिपाना चाहता है। अब मुल्ला तो नासमझ थे ही, नहीं तो उस शाखा को न काटते जिस पर बैठे थे। वही नासमझ आदमी अब इसको पकड़ लिया। और जोर से कहने लगा कि मैं जाने न दूंगा जब तक यह न बताओगे कि मेरी मृत्यु कब है?
आखिर उस आदमी को क्रोध आ गया, और उसने कहा कि अभी मर जाओगे, अभी मर जाओगे। अब मुझे, मेरा...मेरा पीछा छोड़ो। मुल्ला ने सुना, अभी मर जाओगे! मुल्ला ने कहा कि जब अभी मर जाओगे, यह ज्योतिषी ने कहा, तो मर जाना जरूरी है। मुल्ला फौरन गिर पड़े और मर गए। चार लोगों में उस आदमी को भी उनकी अरथी में साथ देना पड़ा और वह आदमी भी हैरान हुआ कि बड़ी आश्चर्य की बात है! चारों आदमी अरथी लेकर चले, चौरस्ते पर पहुंचे। एक रास्ता मरघट को बाएं की तरफ से जाता था, एक दाएं की तरफ से। वे सब सोचने लगे कि बाएं की तरफ से जल्दी पहुंचेंगे कि दाएं की तरफ से? मुल्ला ने सिर उठाया और कहा कि मैं बता सकता था, लेकिन चूंकि मैं मर गया हूं, इसलिए अब मैं कुछ भी नहीं बोल सकता। वैसे जब मैं जिंदा था तो मैं बाएं की तरफ से जाता था, वह रास्ता करीब का है। उन्होंने अरथी नीचे पटक दी कि मुल्ला तुम पागल हो? मुल्ला ने कहा: पहले एक दफा विचार करके धोखा खा चुका, अब तो मैंने विश्वास कर लिया है कि मैं मर गया हूं।
मुल्ला ने न तो पहली दफा विचार किया था, मुल्ला पहली दफे भी अंधा था बिना विचार किए। क्योंकि विचार करता तो उसी शाखा को न काटता जिस पर बैठा हुआ था। पहली दफा विचार नहीं किया था, वह अविचार था, उस अविचार से नुकसान उठाया था। नुकसान उठाने के डर से अब उसने दूसरा अविचार किया, विश्वास किया, अब वह विश्वास करके जिंदा जी मरने की कोशिश कर रहा है। आदमी ने अविचार से नुकसान उठाया है, यह सच है। और जो आदमी अविचार में जीएगा, वह खतरों में जाएगा। अविचार के कारण कुछ लोग उसका शोषण करते हैं, और उससे कहते हैं कि तुम विश्वास करो! अविचार भी खतरनाक है। जो आदमी नहीं सोचता, वह भटक जाता है। और जो आदमी दूसरों की सोच को मान लेता है, वह भी भटक जाता है। अपनी सोच चाहिए, अपना विचार चाहिए। अपने विचार के रास्ते के अतिरिक्त कोई कभी परमात्मा के द्वार पर नहीं पहुंचता है। और हम दो काम करते हैं, या तो विचार ही नहीं करेंगे, और अंधे की तरह जीएंगे। और या फिर विश्वास करेंगे, और फिर अंधे की तरह जीएंगे। लेकिन आंख हम कभी न खोलेंगे।
दुनिया अविचार में रही है, और उस अविचारपूर्ण दुनिया को यह बताया जा सकता है कि तुम अविचार के कारण कष्ट भोग रहे हो। आओ हम तुम्हें विचार देते हैं। विश्वास का अर्थ है: दूसरे के द्वारा दिया गया विचार। और जो विचार दूसरे के लिए दिया जाता है, दूसरे के द्वारा दिया जाता है वह कभी किसी व्यक्ति की निज आत्मा को जाग्रत करने वाला नहीं होता, सुलाने वाला होता है। हम तो उससे ही जागते हैं, जो हम सोचते हैं। हम तो उससे ही उठते हैं जो हमारे भीतर मंथन होता है। लेकिन विश्वास ने मनुष्यों के भीतर मंथन की संभावना बंद कर दी है। और सिखाया जा रहा है कि श्रद्धा करो, विश्वास करो, सोचो मत, दूसरा जो कहता है उसे मान लो। कोई तीर्थंकर कहता है उसे मान लो, कोई पैगंबर कहता है उसे मान लो, कोई महात्मा कहता है उसे मान लो, कोई ईश्वर का पुत्र कहता है उसे मान लो, लेकिन तुम मत सोचना। न तुम तीर्थंकर हो, न तुम भगवान हो, न तुम ईश्वर के पुत्र हो। और कुछ लोगों ने, तीर्थंकरों ने, भगवान के पुत्रों ने, पैगंबरों ने अवतार होने का ठेका ले रखा है! और ये सारे लोग क्या हैं? अगर एक भी आदमी तीर्थंकर हुआ है दुनिया में तो सब आदमी तीर्थंकर हैं, चाहे सोए हुए हों, चाहे जागे हुए, यह फर्क हो सकता है। अगर एक आदमी भी दुनिया में ईश्वर का अवतार हुआ है, तो सब आदमी ईश्वर के अवतार हैं, चाहे कोई जागा हुआ हो, चाहे कोई सोया हुआ हो। अगर एक आदमी भी ईश्वर का पुत्र है, तो सभी आदमी ईश्वर के पुत्र हैं। लेकिन यह सिखाया जा रहा है कि कोई ईश्वर है, कोई ईश्वर का पुत्र है, कोई अवतार है, कोई तीर्थंकर है। और सबका काम क्या है, सबका काम है, आंख बंद करके उसे मानो।
सबके भीतर परमात्मा नहीं है, सबके भीतर आंख बंद करने की आवश्यकता है। अगर परमात्मा सबके भीतर है तो सबकी आंख खुली हुई होनी चाहिए। और अगर परमात्मा सबके भीतर है, तो सबके भीतर पूजा का स्थल है। और तब किसी की पूजा अनुचित है। तब किसी की भी पूजा का आग्रह शोषण है। तब किसी भी पूजा का अड्डा बनाना आदमी को भटकाना और भरमाना है। आदमी पूज्य है, यह तो समझ में आ सकता है, लेकिन कोई आदमी पूज्य है, यह खतरनाक है। मनुष्यता पूज्य है, जीवन पूज्य है, यह तो समझ में आ सकता है, लेकिन कोई जीवन का एक रूप पूज्य बनाना और सारे रूपों को अपूज्य कर देना, और सारे रूपों को कहना कि उनका काम सिर्फ विश्वास है, अंधे होकर मान लेना है, अत्यंत खतरनाक है। मनुष्य की चेतना के विकास में बड़ी से बड़ी बाधा जो बन सकती है वह इस तरह के विश्वास से बन सकती है। और आज तक के सारे धर्मों ने आदमी के भीतर विचार जगाने की नहीं विश्वास जगाने की कोशिश की है। लेकिन क्यों? असल में जिनको भी नेतृत्व करना हो, चाहे वे धार्मिक लोग हों और चाहे राजनैतिक लोग हों, जिनको भी नेतृत्व करना हो वे दूसरों में अंधापन जगाए बिना नेतृत्व नहीं कर सकते।
नेता दूसरों के अंधेपन पर जीता है। नेता दूसरों के अंधेपन से भोजन पाता है। जितने ज्यादा अंधे लोग होंगे, उतना बड़ा नेता हो सकता है कोई। जितने ज्यादा अंधे लोग होंगे, उतने ज्यादा नेता होंगे। जितनी खुली आंखों के लोग होंगे, नेता विदा हो जाएगा, धर्मगुरु भी विदा हो जाएगा, राजगुरु भी विदा हो जाएगा, राजनैतिक नेता भी विदा होंगे, सामाजिक नेता भी विदा होंगे।
एक ऐसी दुनिया चाहिए जहां मनुष्य अपना नेतृत्व स्वयं करने में समर्थ हो और कोई उसका नेता न हो। लेकिन नेताओं को बड़ा दुख और पीड़ा होती है इस बात से। इसलिए नेता प्रचार करते रहते हैं आदमी के अंधे होने का। और इस बात की कोशिश करते हैं, कोई सोचे न। सोचने की कोई जरूरत नहीं है, सोचना मत, सोचना खतरनाक है, सोचना डेंजरस है, सोचने में भय है, जोखम है। यह बच्चे को बाप सिखा रहा है। क्यों? क्योंकि बाप भी और किसी का नेतृत्व चाहे न कर सके अपने बेटे का तो कर ही रहा है। अपने बेटे की मालकियत तो कर ही रहा है, अपने बेटे को तो वह कह ही रहा है: मैं अनुभवी, मैं ज्ञानी, मैं तुम्हारा बाप, मैं जो कहता हूं वह ठीक। दुनिया में कोई कुछ कहे, किसी के कहने से कुछ ठीक नहीं होता, ठीक होता है...कोई चीज तभी ठीक होती है, जब मेरे विवेक और विचार को ठीक होती है। सारी दुनिया कुछ कहे, लेकिन मेरे विवेक और विचार में जाग्रत होकर अगर वह चीज प्रतिफलित नहीं होती, तो वह ठीक नहीं होती। लेकिन बाप कह रहा है, कि मैं कहता हूं वह ठीक। मां कह रही है, कि मैं कहती हूं वह ठीक। स्कूल का शिक्षक कह रहा है कि मैं जो कहता हूं वह ठीक। दुकानदार कह रहा है कि मैं जो कहता हूं वह ठीक है। विज्ञापनदाता कह रहा है कि हम जो टूथपेस्ट बेचते हैं वही ठीक है; हम जो साबुन बेचते हैं वही ठीक है; सिनेमा वाला भी वही कह रहा है, राजनैतिक नेता भी वही कह रहा है कि मेरे मार्के की राजनीति ही ठीक है, मेरा शास्त्र ठीक है। सब तरफ इस तरह के लोग हैं, जो कहते हैं हम ठीक हैं। और तुम! तुम्हारा काम इतना है, तुम अच्छे आदमी हो, अगर हम जो कहते हैं तुम उसे मानो, और तुम गलत आदमी हो, अगर तुम गड़बड़ करो। अगर तुम विद्रोह करो, अगर तुम सोचो, तो तुम ठीक आदमी नहीं हो, तुम सज्जन नहीं हो। यह चारों तरफ की चेष्टा ने एक -एक आदमी की आत्मा को बंदी बना दिया है, उसे मुक्त होने के उपाय नहीं छोड़े। और जो हमें बंदी बनाए हुए हैं, हम सोचते हैं, वे ही हमारे मार्गदर्शक हैं, जो हमें सिखा रहे हैं और हमें सीखने की स्थिति में नहीं पहुंचने दे रहे हैं। हम सोचते हैं वे ही हमारे मार्गदृष्टा हैं।
एक मित्र ने मुझे एक किताब दी है और उस किताब में एक कहानी उन्होंने लिखी है, वह मुझे बहुत प्रीतिकर लगी। वह कहानी आपने भी सुनी होगी, लेकिन आधी सुनी होगी। उन मित्र ने वह कहानी पूरी कर दी है। आपने भी सुना होगा कि एक सौदागर था टोपियां बेचने वाला। वह टोपियां बेचने गया हुआ है गांव, किसी दूर बाजार में। रास्ते में ठहरा है एक झाड़ के नीचे। टोपियंा रखी हैं उसकी टोकरी में, वह सो गया है, थका-मांदा है। बंदर उतरे हैं, टोपियां लगा कर झाड़ पर चढ़ गए। और झाड़ पर चढ़ कर बंदर बहुत इठला रहे हैं, अकड़ रहे हैं। बंदर ही ठहरे। और बंदर अगर टोपी लगा लें तो बहुत अकड़ने लगते हैं। सफेद टोपिया हैं, खादी की टोपियां हैं, बंदर बहुत अकड़ रहे हैं। अब बंदर ही ठहरे। और खादी की टोपी मिल जाए तो मुसीबत है न। सौदागर की नींद खुली, उसने ऊपर देखा, सब टोपियां नदारद हैं। लेकिन सौदागर ने कहा, मत घबड़ाओ बंदरों, तुमसे टोपियां छीन लेना बहुत आसान है। उसने अपनी टोपी निकाल कर सड़क पर फेंक दी है। सारे बंदरों ने अपनी टोपियां निकाल कर फेंक दी। बंदर ही ठहरे। नकलची ठहरे। लगाई थी टोपी, तो भी इसलिए लगाई थी कि सौदागर लगाए हुए था, फेंक दी तो इसलिए फेंक दी कि सौदागर ने फेंक दी है। सौदागर ने टोपियां इकट्ठी कीं और अपने घर चला गया।
इतनी कहानी तो हम सबने सुनी है, उन मित्र ने उस कहानी को पूरा किया है। और कहानी में लिखा है कि फिर सौदागर बूढ़ा हो गया। उसका बेटा जवान हुआ और बेटे ने टोपियां बेचना शुरू किया। नालायक बेटे हमेशा वही करते हैं, जो उनके बाप करते रहे हैं। समझदार बेटे हमेशा बाप से आगे बढ़ जाते हैं, और समझदार बाप हमेशा कोशिश करता है कि बेटे उससे आगे बढ़ जाएं। नासमझ बाप कहता है, वहीं रुक जाना, लक्षमण-रेखा खिंची है, जहां तक मैं गया था, उसके आगे मत जाना, क्योंकि जिसके आगे मैं नहीं गया, तो मुझसे ज्यादा अकलमंद तुम तो नहीं हो कि तुम आगे चले जाओगे। तुम वहीं रुक जाना। बाप के अहंकार को चोट लगती है, अगर बेटा उससे आगे बढ़ जाए। सब बाप कहते हैं कि हम चाहते हैं कि बेटा आगे बढ़े, लेकिन कोई बाप नहीं चाहता कि उससे आगे बढ़े। उससे आगे बढ़ने पर तो अहंकार को चोट लगती है, उतना बढ़े जितना बाप बढ़ा है। वहां तक बढ़े जितना बाप बढ़ा। जहां तक बाप कहे वहां तक बढ़े। तब तक ठीक है, तब तक बाप के अंहकार को तृप्ति मिलती है। जैसे ही बेटा बाप से आगे गया कि बाप को कष्ट होना शुरू हो जाता है। इसलिए जो बापपन है, यह सब बेटों की जंजीर बनता है। गुरु शिष्य की जंजीर बन जाता है।
उस बाप ने भी कहा, बेटा टोपी बेच। बेटा टोपी बेचने लगा, बेटा बुद्धू रहा होगा, अन्यथा कुछ और भी कर सकता था। जिंदगी में बहुत कुछ करने को है। टोपी बेचने बेटा गया, उसी झाड़ के नीचे ठहरा जिसके नीचे पहले बाप ठहर चुका था। क्योंकि वहीं ठहरना चाहिए जहां बाप ठहर जाते हैं। उसने वहीं अपनी टोकरी रखी जहां बाप ने रखी थी। वह आज्ञाकारी बेटा था, और आज्ञाकारी बेटे, जब तक दुनिया में पैदा होते रहेंगे, तब तक दुनिया अच्छी नहीं हो सकती। क्योंकि आज्ञाकारी बेटे बड़े खतरनाक हैं। समझ भीतर से आनी चाहिए। आज्ञा बाहर से आती है। समझदार बेटे चाहिए दुनिया में। और समझदार बेटा होगा तो अपने मुसलमान बाप से कहेगा कि ठीक; तुम मुसलमान थे ठीक; हम मुसलमान नहीं, हम आदमी हैं।
आज्ञाकारी बेटा कहेगा, तुमने दो हिंदू मारे हम चार मारेंगे। हम आज्ञाकारी हैं। आज्ञाकारी बेटे कहेंगे कि हम हिंदुस्तान-पाकिस्तान में तलवारें चलाते रहेंगे। समझदार बेटे कहेंगे, पागल थे हमारे बाप जो लड़े और कटे, हम इकट्ठे हो जाते हैं।
वह बेटा आज्ञाकारी था, वह वहीं टोपी रख कर सो गया। ऊपर बंदर थे, बंदर तो न रहे होंगे वही, उनके बेटे रहे होंगे, बंदर भी अपने बेटे छोड़ जाते हैं। बंदर अपने बेटे छोड़ जाते हैं। अंग्रेज इस मुल्क से चले गए, अपने बेटे छोड़ गए, शक्ल हमसे मिलती-जुलती, लेकिन उनके बेटे हैं वे। और वे अंग्रेजों से ज्यादा खतरनाक सिद्ध होंगे। बेटा सो भी नहीं पाया था कि बेटे उतर गए बंदरों के और टोपियां लेकर ऊपर चढ़ गए। लेकिन उस बेटे ने सोचा कि घबड़ाओ मत, पिता ने कहानी सुनाई थी कि बंदरों से डरने की जरूरत नहीं है, अपनी टोपी फेंक देना अगर बंदर टोपी ले जाएं। उसके पास समाधान रेडीमेड था। उसने अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। लेकिन उसे क्या पता, बात उलटी हो गई, चमत्कार हो गया, एक बंदर बिना टोपी का रह गया था, वह नीचे उतरा और टोपी लेकर चला गया।
बंदर अब तक बुद्धिमान हो गए थे। लेकिन आदमी अब तक बुद्धू था। वह पुराना समाधान काम नहीं आया। नई समस्या थी, समाधान पुराना था, सीखे हुए समाधान सदा ऐसे ही हो जाते हैं। नहीं, दूसरे से नहीं सीख लेना है समाधान। इतनी बुद्धि विकसित करनी है कि समाधान अपना आ सके। दुनिया धार्मिक नहीं हो पाती है क्योंकि धर्म के उत्तर सिखाए जाते हैं। और जब तक धर्म के उत्तर सिखाए जाएंगे, तोतों की तरह रटाए जाएंगे, तब तक दुनिया धार्मिक नहीं हो सकेगी। धर्म तो एक क्रांति है। और उस क्रांति की शुरुआत इस बात में है कि प्रत्येक व्यक्ति की प्रज्ञा का दिया जल जाए। एक-एक व्यक्ति अपनी बुद्धि की रोशनी में देखने, समझने, सोचने लगे।
लेकिन अब तक जिसे हम धर्म कहते हैं वह प्रज्ञा के दीये को जलने नहीं देता, वह कहता है, तुम अपने दीये को बुझा हुआ रखो ताकि गुरुका दिया चमकता हुआ दिखाई पड़े। सब बुझे रहो ताकि गुरुका दिया दिखाई पड़े। गुरु दीया दूसरे का जलने नहीं देता, तभी तक जब तक वह जलने नहीं देता कोई उसका शिष्य बना हुआ है। वह शिष्यों की जो भीड़ है, बुझे हुए दीयों की भीड़ है। और जब तक एक-एक आदमी का दीया नहीं जलता तब तक दस-पचास लोग दुनिया में धार्मिक हो जाएं--कोई एक बुद्ध, कोई एक महावीर, कोई एक कृष्ण, कोई एक क्राइस्ट इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। बल्कि ये थोड़े से लोग हमें और बेचैनी देते हैं। अगर ये भी न हों तो हम यह भी भूल जाएं कि धार्मिक होना कुछ होता है? हम निश्चिंत हो जाएं अपने अधर्म में, हम अपने संसार में निश्चिंत हो जाएं, हमारी चिंता मिट जाए, हमारी एंजायटी मिट जाए। यह कभी-कभी एक आदमी पैदा हो जाता और सारे चित्त को, सारे जगत को चिंतित कर देता है। हम बेचैन हो जाते हैं, जो इसके भीतर हुआ वह हमारे भीतर भी तो हो सकता है। और तब एक बेचैनी शुरू होती है। और इस बेचैनी का कुल परिणाम इतना होता है कि कोई शोषक हमारा शोषण करता है, कोई संप्रदाय, कोई गुरु, कोई मठ, कोई मंदिर, कोई किताब शोषण करती है। और हम उस शोषण से बंध जाते हैं।
दुनिया में कुछ लोग हुए हैं, इन कुछ लोगों की वजह से लगता है कि सारे लोग ऐसे हो सकते हैं। लेकिन ये सारे लोग नहीं हो सकेंगे, जब तक इनके ऊपर विश्वास का कारागृह बैठाया हुआ है। हम सब अपने-अपने विश्वासों में बंदी हैं। और जो कारागृह दीवाल का होता है, वह दिखाई पड़ता है, जो कारागृह विश्वास का होता है, वह दिखाई ही नहीं पड़ता। अभी आप बैठे हैं और आपके पड़ोस में एक आदमी और बैठा हुआ है, और आपको पता है कि आप हिंदू हैं और बगल का आदमी मुसलमान है, क्या आपको बीच की दीवाल दिखाई पड़ रही है? नहीं है कोई दीवाल वहां, हाथ फैलाएंगे तो दीवाल नहीं मिलेगी। लेकिन दीवाल वहां है, और बड़ी से बड़ी दीवालों से बड़ी दीवाल वहां है, जो दिखाई नहीं पड़ती। और दो आदमी पास-पास बैठे हैं, लेकिन कितनी दूरी पर हैं, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। हमारे विश्वास हमारे कारागृह हैं। हम सब अपने विश्वासों में बंद हैं, और विश्वास उधार हैं, बारोड हैं। यह जो बारोड माइंड है, ये जो उधार चित्त है, यह कभी प्रभु के द्वार पर नहीं पहुंचाएगा। अपना चित्त चाहिए--स्वतंत्र, मुक्त, सोच करने वाला, विचार करने वाला, साहसी, खोज करने वाला। डर भी क्या है? विश्वासी को डर लगता है कि कहीं ऐसा न हो, कि मैं खुद खोजने जाऊं और न पा सकूं।
मैं आपसे कहता हूं, खुद खोजने कोई जाए और न पाए तो भी बहुत कुछ पा लेगा। और जो खोजने नहीं गया और सोचता है पा लिया, उसने कुछ भी नहीं पाया। सवाल पाने का नहीं है, सवाल खोज से गुजर जाने का है। खोज से जो गुजरना है, वही पाना है। कहीं रखा नहीं है,कि आप पहुंच जाएंगे और उठा लेंगे, और तिजोरी में बंद कर लेंगे। आप जो विचार की तीव्र प्रक्रिया से गुजरते हैं, उस गुजरने में ही सत्य की उपलब्धि है। उस गुजरने में ही। इन दैट वैरी प्रोसेस, वह जो विचार की प्रक्रिया है, उससे गुजरना ही जैसे आग से सोना गुजर जाए। तो ऐसा तो नहीं है कि सोना आग से गुजर कर कहीं शुद्ध हो जाएगा जाकर। शुद्धि कहीं रखी नहीं है, कि सोना आग से गुजरेगा फिर शुद्धि के द्वार पर पहुंचेगा और शुद्ध हो जाएगा। सोने का आग से गुजरना ही शुद्ध हो जाना है। क्योंकि सोने का आग से गुजरना ही कचरे का जल जाना है। वह जो विचार की आग है और विचार से बड़ी आग इस पृथ्वी पर कोई दूसरी नहीं है। और अभागे हैं वे लोग जो विचार की आग से नहीं गुजरे। विचार की आग से गुजरते ही आदमी में वह सब जल जाता है जो अंधकारपूर्ण है और वह शेष रह जाता है जो ज्योतिर्मय है। विचार की आग से गुजरते ही जीवन के वे सब गलत ढांचे टूट जाते हैं। वे सब दीवालें गिर जाती हैं जो बांधती हैं और वह आकाश मिल जाता है जो मुक्त करता है, पंखों को फैलाता है और उड़ने का मौका देता है। लेकिन विचार से ही नहीं गुजरने दिया जा रहा है। विचार करने का ही मौका नहीं दिया जा रहा है।
मैं एक घर में ठहरा हुआ था। और सुबह ही सुबह मैं बगिया में टहल रहा हूं। और घर का बूढ़ा बाप अपने बेटे को समझा रहा है। ऐसे ही बात कर रहे हैं वे। और वह बेटे से कह रहा है कि भगवान ने तुम्हें इसलिए बनाया कि तुम दूसरों की सेवा करो। इसीलिए भगवान ने बनाया सबको कि दूसरों की सेवा करे। तुम्हें भी भगवान ने इसलिए बनाया है कि तुम सबकी सेवा करो। उस बेटे ने कहा, कि क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूं? जब भी कोई बेटा यह कहता है, क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूं? तभी बूढ़ी और जर्जर आत्मा एकदम चौंक जाती है। वह बूढ़ा बाप एकदम चौंक कर बैठ गया, उसने कहा: क्या पूछना है? उसके कहने का रुख यह था कि पहली तो बात कि पूछना गलत है, पूछने की हिम्मत गलत है, उसके चेहरे का ढंग यह था कि पूछो ही मत। लेकिन यह भी वह कह नहीं सकता था। उस बेटे ने कहा: आप कहें तो मैं पूछूं? उसने कहा: पूछो, क्या पूछना है? उस बेटे ने कहा: मैं यह पूछना चाहता हूं कि मुझे तो भगवान ने इसलिए बनाया कि दूसरों की सेवा करूं। दूसरों को किसलिए बनाया है? बाप ने कहा: इस तरह की फिजूल बातें मेरे सामने मत लाओ। बेकार की बातों में मत पड़ो, बेकार के विचार में मत पड़ो। हमारी किताब में यह लिखा है कि भगवान ने आदमी को दूसरों की सेवा के लिए बनाया है। सेवा करो।
वह बेटा ठीक बात पूछ रहा है। आखिर इतना तो पूछने का हक होना चाहिए। लेकिन पूछने से डर लगता है। क्योंकि जवाब नहीं है। जहां-जहां जवाब नहीं हैं, वहीं प्रश्न से भय है। जहां-जहां जवाब नहीं है, वहीं विचार से भय है। जहां-जहां जवाब नहीं है, वहीं विश्वास का आरोपण है। वहीं श्रद्धा की शिक्षा है। और अगर जवाब नहीं है, तो ठीक है यह जान लेना कि जवाब नहीं है। तो भी एक बल आएगा, लेकिन झूठे जवाबों को पकड़ कर चलना अत्यंत नपुंसकता है, बहुत इंपोटेंट है। अगर यही सच है कि कोई जवाब नहीं है हमारे पास जीवन के लिए, तो ठीक है, हिम्मतवर लोग कहेंगे, अब जवाब नहीं है। हम बिना जवाब के जीएंगे, लेकिन झूठे जवाब नहीं पकड़ेंगे। क्योंकि झूठे जवाब अगर कहीं कोई जवाब हों भी तो उन तक नहीं पहुंचा सकते। यह हिम्मत कि हम बिना जवाब के जीएंगे, बिना उत्तर के जीएंगे। प्रश्न में जीएंगे, समस्या में जीएंगे, झूठा समाधान नहीं पकड़ेंगे। यह हिम्मत शायद उस द्वार तक पहुंचा दे जहां समाधान उपलब्ध होता है, जहां उत्तर है।
परमात्मा तो है, लेकिन मिलता उन्हें है जो उसे खोजने की जोखिम, रिस्क उठाते हैं। और मजा यह हो गया है कि परमात्मा सबसे कम जोखिम का काम रह गया है। किसी को कोई जोखिम उठाने की जरूरत नहीं है। बस मान लेना काफी है। मान लेना काफी है कि परमात्मा है। पूजा कर लेनी काफी है। चंदन-तिलक लगा लेना काफी है, जनेऊ पहन लेना काफी है, कहीं मंदिर का घंटा बजा लेना काफी है, और पर्याप्त है कि आदमी को भगवान के द्वार पर पहुंच जाएगा। इतना सस्ता नहीं है मामला। और भगवान इतना सस्ता हो तो हिम्मतवर लोग ऐसे भगवान को पाने से निश्चित ही इनकार कर देंगे। इतना सस्ता भगवान पाकर भी क्या करेंगे जो मंदिर के घंटे बजाने से मिल जाता हो। ऐसा सस्ता भगवान पाकर क्या करेंगे जो भिखमंगे को दो पैसे देने से मिल जाता हो। ऐसे भगवान को पाकर क्या करेंगे जो तिलक-चंदन लगा लेने से मिल जाता हो। ऐसे भगवान की कितनी कीमत है जो रोज सुबह गीता पढ़ लेने से मिल जाता हो और रामायण पढ़ लेने से मिल जाता हो। ऐसा भगवान किसी अर्थ का नहीं हो सकता है।
भगवान की उपलब्धि आर्डुअस है, तपश्चर्यापूर्ण है। तपश्चर्या का मतलब धूप में खड़ा हो जाना नहीं है। और तपश्चर्या का मतलब कांटों पर लेट जाना नहीं है। और तपश्चर्या का मतलब भूखे मरना नहीं है। ये सब सर्कस के खेल हैं, जो कोई भी नासमझ कर सकता है। तपश्चर्या एक ही है मनुष्य के सामने और वह है: विचार की प्रक्रिया से गुजरना। और मैं आपसे कहता हूं, विचार से बड़ा तपस नहीं है, क्योंकि विचार सारे प्राणों को छेद देता है। सारे आधार उखाड़ देता है। सारी नींव गिरा देता है। सारी सुरक्षा मिटा देता है। सब सिक्युरिटी खत्म हो जाती है। सब समाधान खो जाते हैं, सब उत्तर मिट जाते हैं, और आदमी एक गहन संदेह में, एक अनजान रास्ते पर, एक अपरिचित मार्ग पर अंधकार में खड़ा रह जाता है। उतनी हिम्मत नहीं जो जुटाता वह प्रभु के द्वार पर नहीं पहुंच सकता है।
हम सब कमजोर प्रभु के द्वार पर ऐसे खड़े हैं कि वह मुफ्त मिल जाए। मुफ्त की तरकीबों से मिल जाए। कुछ ऐसी डिवाइस हमने बना ली हैं कि हमें कुछ न करना पड़े और वह मिल जाए। इस भांति अगर वह मिलता होता तो सारी मनुष्य-जाति को कभी का मिल गया होता। इस भांति वह नहीं मिल सकता है। हम इसी भांति अपेक्षा कर रहे हैं पाने की। और इसलिए जब कोई सस्ता नुस्खा बताता है और कहता है राम-राम जपो और भगवान मिल जाएगा, तो हमें समझ में पड़ता है कि बिलकुल ठीक है। कोई कहता है माला फेरो और भगवान मिल जाएगा। लेकिन कभी पूछो तो कि माला फेरने और भगवान के मिलने का क्या संबंध हो सकता है? एक चार पैसे की माला आप ले आएं हैं और फेर रहे हैं, बड़ी भगवान पर कृपा कर रहे हैं कि आप माला फेर रहे हैं।
तिब्बत में और भी होशियार लोग हैं, उन्होंने प्रेयर-व्हील बना रखा है, उन्होंने एक चक्का बना रखा है, चरखे की तरह का। उसके एक सौ आठ स्पोक हैं, आरे हैं, एक-एक आरे पर एक-एक मंत्र लिखा हुआ है। वह एक दफा चक्के को हाथ से धक्का मार देते हैं, वह चक्का जितने चक्कर लगा लेता है उतने गुणा एक सौ आठ मंत्रों का फायदा चक्कर लगाने वाले को मिल जाता है। दुकानदार बैठा है अपनी दुकान पर, बीच-बीच में ग्राहकों को चलाता जाता है और चक्के को धक्का मारता जाता है। वह इतने-इतने पुण्य का भागी हो रहा है। वह बड़ी गलती में है। अब तो बिजली चल गई, एक प्लक और जोड़ ले उसमें और लगा दें प्लक से, वह चक्का पंखे की तरह दिन भर चक्कर लगाता रहे। उतना पुण्य का उनको लाभ मिल जाएगा।
आप हाथ से क्या कर रहे हैं माला को फेर कर? गुरिए ही सरका रहे हैं। एक बिजली का यंत्र बना लें, वह गुरिया सरकाता रहे, आपको बड़े लाभ हो जाएंगे। हाथ भी एक यंत्र है और बिजली भी एक यंत्र है। और हाथ से चाहे गुरियां सरकाएं और चाहे बिजली के यंत्र से, कोई फर्क नहीं पड़ता।
इतनी सस्ती तरकीबें खोज कर आदमी सोचता है हमप्रभु के द्वार पर खड़े हो जाएंगे। प्रभु के द्वार पर खड़ा नहीं होता, हां, अपने ही बनाए हुए प्रभु के द्वार पर खड़ा हो जाता है। और अगर कोई आदमी निश्चित चेष्टा करता रहे तो अपने ही बनाए हुए प्रभु के दर्शन भी कर सकता है कि भगवान मुरली बजाते हुए खड़े हैं, कि भगवान धनुष लिए हुए खड़े हैं, कि भगवान सूली पर लटके हुए हैं। अगर कोई आदमी कल्पना, कल्पना, कल्पना करे, तो यह कल्पना स्वप्न बन सकती है, और यह प्रत्यक्ष मालूम भी हो सकता है कि हां भगवान खड़े हैं। लेकिन ये भगवान भी आपके ही निर्मित भगवान हैं, अपने ही निर्मित भगवान। चाहे कोई मूर्ति बनाए पत्थर की और चाहे कोई इमेज बनाए कल्पना का, चाहे कोई मूर्ति बनाए कल्पना की, अपना ही भगवान भगवान नहीं है। उस भगवान को पाने के लिए जो है खुद को मिटना पड़ता है। और इन भगवानों को पाने के लिए खुद को इन भगवानों को बनाना पड़ता है। ये दोनों बिलकुल उलटी बातें हैं। जो है उसे पाने के लिए तो मुझे मिटना पड़ेगा और जो नहीं है उसे निर्मित करने के लिए मैं बना रहूंगा। और एक भगवान और निर्मित कर लूंगा। और इतनी अकड़ होती है इस अहंकार की कि...
मैंने सुना है, एक महात्मा को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया। उनका नाम नहीं लूंगा, क्योंकि इस मुल्क में नाम लेने से बड़ी कठिनाई होती है। लोग इतने कमजोर, इतने, इतने हीन हो गए हैं कि हिम्मत से नाम लेकर बात करने में हिम्मत भी नहीं जुटती, पर आप समझ जाएंगे वे महात्मा कौन थे? उन महात्मा को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया वृंदावन में। वे महात्मा राम के भक्त थे। जब कृष्ण के मंदिर में वे गए, तो उन्होंने कहा कि मैं मुरली हाथ में लिए हुए वाले भगवान के सामने सिर नहीं झुकाऊंगा, मैं तो धनुर्धारी भगवान के सामने सिर झुका सकता हूं। धनुष हाथ में लो तो मैं सिर झुकाऊंगा।
मजा देखते हैं आप--भक्त भी शर्त लगाता है कि तुम इस पोज में खड़े हो जाओ, इस आसन में खड़े होओ, इस ढंग से खड़े होओ, कंडिशन है हमारी तब हम सिर झुकाएंगे। सिर झुकाने में भी कंडिशन, शर्त! तो सिर हमारा झुका कि भगवान का झुका? सिर किसका झुका फिर? अकड़ भक्त की देखते हैं, उसके अहंकार की कि तुम ऐसे खड़े होओ, तब मैं सिर झुकाऊंगा। यानी पहले तुम झुको, तब हम झुकेंगे। और तुम्हारा झुकना जरूरी है, तभी हम झुक सकते हैं। कल्पना में आप अपने भगवान को जैसा चाहें वैसा झुका लें, असली भगवान को आप नहीं झुका सकते, आपको ही झुक जाना पड़ेगा। असली भगवान के समक्ष आपको झुकना पड़ेगा। नकली भगवान को आप जैसा चाहें वैसा झुका लें। चाहें तो मोरमुकुट लगाएं, चाहें तो बांसुरी हाथ में पकड़ाएं, जैसी तबियत हो। यह पुराने ढंग का है, अगर कोई आधुनिक आदमी नैक-टाई और कंठ-लगोट भी भगवान को बांधना चाहे तो बांध सकता है। इसमें क्या हर्जा है, वह आदमी के ऊपर निर्भर है। मत बांसुरी लगाएं, सिगरट लगवा दें, आपके हाथ में है। भगवान क्या कर लेंगे?
आदमी जिस भगवान को निर्मित कर रहा है वह उसकी ही कल्पना का खेल, उसकी मुट्ठी का खेल है। इस भगवान को भगवान मत समझ लेना। यह भक्त की अपनी कल्पना है। और भक्त की अपनी वासना है। और भक्त की अपनी इच्छा का प्रोजेक्शन है, प्रक्षेपण है। उसने जैसा चाहा है, अगर किसी स्त्री को प्रेमी की कमी रह गई है मन में, और प्रेमी नहीं मिल पाया, और किस स्त्री को मिल पाता है? प्रेमी मिलना तो बहुत मुश्किल है इस पृथ्वी पर। प्रेमी मिलना आसान है क्या? पति मिल जाते हैं, प्रेमी मिलना बहुत मुश्किल है। और पति और प्रेमी का कोई संबंध है? कहां पति और कहां प्रेमी। पति है मालिक, और प्रेमी तो बात ही और है। प्रेमी कहां मिलता है? पति मिल जाते हैं। जब स्त्रियों को पति ही पति मिलते जाते हैं, तो कोई संवेदनशील स्त्री बेचैन हो जाती है और कहती है, नहीं, यह पति नहीं चाहिए, हमें तो प्रेमी चाहिए। तो वह कृष्ण को ही प्रेमी मान लेती है, वह आंखों में बंद किए वह कृष्ण को सजाती चली जाती है। और नाचती है, और गीत गाती है, और उसके ही रस में रहने लगती है। उसके भीतर जो प्रेमी की कमी रह गई है, वह प्रेमी की जो डिजायर, वह जो वासना रह गई है प्रेमी की, अब वह कृष्ण को बना रही है। अब यह कल्पना में वह प्रेमी को निर्मित कर लेती है, वह उसी के आस-पास नाचती है, जीती है और खुश होती है, प्रसन्न होती है। यह सब होता है। लेकिन इससे भगवान का कोई लेना-देना नहीं है। यह अपनी ही कल्पना का जाल है। अपनी ही अतृप्त वासना का जाल है। हम जैसी चाहें वैसी कल्पना कर लें, हमारे भीतर जो रह गया अतृप्त, उसको हम तृप्त कर लें।
मन की यह खूबी है, रात आप सोए हैं, भूख लगी है, तो मन सपना देखता है कि आप खाना खा रहे हैं। क्यों? क्योंकि मन यह कहता है, जो असली में नहीं मिल रहा, उसे सपने में ले लो। असली में नहीं मिल रहा है, दिन में खाना नहीं मिला, रात सपने में ले लो। दिन में जिस स्त्री को आपने चाहा है, वह दिन में नहीं मिल सकी, वह पड़ोसी की पत्नी है, और पड़ोसी की पत्नी को मां-बहन मानना चाहिए, तो दिन भर तो मां-बहन माना, अब रात सपने में, रात सपने में ले लो। मन जो अतृप्त रह गया है, उसे क्रिएट करता है, उसे सृजन करता है, उसे रात पूरा कर लेता है।
भक्त सपना देख रहे हैं, भगवान नहीं हैं वहां। और अगर कोई हिम्मतवर आदमी हो, तो जागते भी सपना देख सकता है, दिवास्वप्न, डे-ड्रीम्स भी होते हैं। लेकिन उसकी तरकीबें हैं उस सपने को देखने की। उस सपने को देखने की तरकीबों को लोग साधना समझ रहे हैं। वे सब सपना देखने की तरकीबें हैं। जैसे अगर आप पूरे पेट भरे हुए हैं तो आपका चित्त मजबूत होता है, लेकिन अगर आप दस-पंद्रह दिन भूखे रह गए हैं, चित्त कमजोर हो जाता है। अगर किसी आदमी को कल्पना का साक्षात करना हो, तो उपवास बहुत उपयोगी है। उपवास से एक ही फायदा है, कल्पना प्रगाढ़ हो जाती है और चित्त की तर्क की, विचार करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। इसलिए कोई आदमी अगर दस-पंद्रह दिन लंघन हो जाए बुखार में, तो आप देखें, उसे क्या-क्या दिखाई पड़ता है? कहीं उसकी खाट उड़ रही है आकाश में, कहीं कुछ हो रहा है, कहीं कुछ हो रहा है, उसे न मालूम क्या-क्या दिखाई पड़ता है। सन्निपात में क्या-क्या दिखाई पड़ता है आदमी को? जिनको हम भगवान की उपलब्धि कहे हुए लोग कहते हैं, उनमें सौ में से निन्यानबे सन्निपात की अवस्था में हैं। भूखे मरो, उपवासे रहो, स्वभावतः चित्त की तर्क करने की, विचार करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। फिर कल्पना प्रगाढ़ हो जाती है। और कल्पना में फिर कुछ भी देखा जा सकता है।
इसलिए जिनको अपने बनाए हुए भगवान देखना हो उनके लिए फास्ट और उपवास बड़ी उपयोगी चीज है। उसका उपयोग करना चाहिए। फिर अगर भीड़ में आप हो तो कल्पना उतनी प्रगाढ़ नहंी होती, एकांत में ज्यादा प्रगाढ़ होती है। इसलिए अकेले में ज्यादा डर लगता है। एक मकान है जिसमें दस लोग हैं, तो आपको डर नहीं लगता क्यों? मकान वही है, फिर दस आदमी नहीं हैं, आप अकेले हैं। तो दिन में आपको डर नहीं लगता, रात में लगता है, मकान वही है। रात में अकेले पड़ गए, चारों तरफ अंधेरा घिर गया। अकेले हैं, जरा सा पत्ता खड़कता है, और लगता है कि भूत-प्रेत आए। कोई चोर-बदमाश आया। अकेले में, एकांत में आदमी कमजोर पड़ जाता है। कमजोरी की वजह से कल्पना प्रगाढ़ हो जाती है। तो जिनको भगवान का दर्शन करना हो, उन्हें समाज छोड़ कर एकांत में चले जाना चाहिए। वहां भगवान का दर्शन ज्यादा आसान है। यहंा भगवान का दर्शन जरा मुश्किल है। भीड़-भाड़ में आदमी की हिम्मत थोड़ी ज्यादा है, अकेले में हिम्मत कमजोर हो जाती है। उपवास करिए, एकांतवास करिए और एक ही चीज की रटन लगाए रखिए दिन-रात, चौबीस घंटे, चौबीस घंटे बस मुरली बजाते भगवान की रटन लगाए रखिए कि हे भगवान, कब दर्शन दोगे! हे भगवान, कब दर्शन दोगे! बार-बार आंख बंद करिए, उन्हीं को देखिए। आंख खोलिए मूर्ति रख लीजिए, चौबीस घंटे उसी धुन में रहिए, और आप ही जैसे अगर दस-पांच पागल हों तो उनसे मिलिए और उसका नाम सत्संग...और उसी बकवास को जारी रखिए चौबीस घंटे। महीने-छह महीने में दिमाग खराब हो जाएगा, भगवान के दर्शन होने लगेंगे और लगेगा कि बहुत कुछ पा लिया। यह प्रभु का द्वार नहीं है।
विश्वास से, श्रद्धा से, कल्पना से उस द्वार पर कोई कभी नहीं पहुंचा है। विचार से, तीव्र विवेक से, खोज से, अन्वेषण से वहां कोई पहुंचता है।
इसलिए पहली बात आपसे कहना चाहता हूं आज की सुबह: विश्वास का द्वार उसका द्वार नहीं है। वह जो बिलीफ जहां लिखा हो, जिस दरवाजे पर लिखा हो श्रद्धा, वहां से हाथ जोड़ कर वापस लौट आना। उस दरवाजे को भगवान का दरवाजा कभी भूल कर मत मानना। वही दरवाजा आदमी को धर्म के नाम पर धोखा देता रहा है। उस दरवाजे के पीछे परमात्मा नहीं है, सिर्फ पुरोहित है। और पुरोहित से बड़ा दुश्मन परमात्मा का न अब तक हुआ है और न हो सकता है। उसके पीछे पुरोहित खड़ा है। वे जो मूर्तियां हैं भगवान की उनके पीछे पुरोहित खड़ा है, धागे लिए हुए वह खींच रहा है, सारा जाल उसका है। और पुरोहित सबसे बड़ा दुश्मन है परमात्मा का। वह परमात्मा और आदमी के बीच सबसे बड़ी बाधा है। क्योंकि जहां-जहां भगवान नहीं हैं वह वहां बताता है कि यहां हैं, क्योंकि वहां उसका धंधा है, वहां उसका व्यवसाय है। आदमी जितना अंधा हो उतना पुरोहित के काम का। इसीलिए तो पुरुष तो कम हैं पुरोहितों के जाल में, स्त्रियां ज्यादा हैं पुरोहित के जाल में। क्योंकि ज्यादा कल्पनाशील, ज्यादा विश्वास प्रवण, ज्यादा श्रद्धालु। इस वक्त तो, इस जमाने में तो अगर स्त्रियां पुरोहितों से जरा भी हाथ जोड़ लें, तो जाल गिर जाए, लेकिन स्त्रियां उनके जाल को पूरी तरह बनाने का काम कर रही हैं। और जहां स्त्रियां जाती हैं उनके पीछे बेचारे उनके पतियों को भी जाना पड़ता है। वह पति अपने मन से मंदिर नहीं जा रहे हैं, लेकिन पत्नी जा रही है पति उसके पीछे चले जा रहे हैं। वह पत्नी, वह स्त्री ज्यादा प्रवण है, भाव प्रवण है, श्रद्धालु है। और श्रद्धालु होने का कारण है, क्योंकि पांच-छह-सात हजार वर्षों के लंबे इतिहास में उसे शिक्षा नहीं दी गई। जिसको शिक्षा मिलेगी, वह बुद्धिमान हो जाएगा, विचारशील हो जाएगा। इसलिए पुरोहित स्त्रियों की शिक्षा का दुश्मन रहा है। क्योंकि स्त्रियां ही उसका आधार स्तंभ हैं। अगर स्त्रियों को शिक्षा मिल गई तो मुश्किल हो जाएगी। इसलिए स्त्रियों की शिक्षा के विरोध में है। जिस दिन सारी दुनिया की स्त्रियां शिक्षित हो जाएंगी, पुरोहित क
ी नब्बे परसेंट जान एकदम निकल जाने वाली है। स्त्रियों के शिक्षा के वह पक्ष में नहीं है। वह एकदम दुश्मन है।
अभी मैं पटना में था। शंकराचार्य मेरे साथ थे। एक ही मंच पर दोनों का मिलना हो गया। तो बड़ी मुसीबत हो गई। वे तो देख कर ही एकदम बोले कि दोनों आदमी एक साथ कैसे हैं? वे वहां समझा रहे थे कि स्त्रियों को शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है। क्यों? उन्होंने एक बहुत मजेदार बात कही। उन्होंने यह कहा कि हिंदू धर्म तो स्त्रियों को इतना आदर देता है कि किसी स्त्री को डाक्टर बनने की जरूरत नहीं; सिर्फ डाक्टर की पत्नी बन जाए और लोग डाक्टरनी कहते हैं। कोई जरूरत ही नहीं शिक्षा की। डाक्टरनी तो सिर्फ डाक्टर की पत्नी बनने से हो जाती है वह। इसलिए किसी स्त्री को डाक्टर बनने की जरूरत नहीं है। किसी स्त्री को पंडित होने की जरूरत नहीं है, उन्होंने समझाया, क्योंकि वह तो पंडित की पत्नी होने से पंडितायन हो ही जाती है।
ये इस मुल्क को समझाने वाले लोग हैं। और ऐसे खतरनाक लोगों को गुरु माना जा रहा है। तब तो इस मुल्क का दुर्भाग्य होगा ही। और ऐसे लोग उन मंदिरों के द्वार पर खड़े हैं जिनको हम भगवान का मंदिर समझ रहे हैं।
ये ही सज्जन पुरी के शंकराचार्य दिल्ली में ठहरे हुए थे। एक बहुत अदभुत घटना घटी, वह मैं कहूं, अपनी बात पूरी करूं। एक आदमी आया और उसने कहा कि हम चाहते हैं, हमारा एक छोटा सा मंडल है ब्रह्मज्ञानियों का, ब्रह्मज्ञान पर हम चर्चा करते हैं, जिज्ञासु हैं, आप चलें और हमारे मंडल में हमें ब्रह्म के संबंध में कुछ समझाएं। शंकराचार्य ने नीचे से ऊपर तक उन्हें देखा, पतलून पहने हुए हैं, कोट पहने हुए हैं, टाई बांधे हुए हैं, हैट लगाए हुए हैं, कहा, इसी कपड़े में ब्रह्मज्ञान पाओगे? कभी सुना है इन कपड़ों में किसी को ब्रह्मज्ञान हुआ हो? ॠषि-मुनि नासमझ थे, नहीं तो वे भी टोप पहनते, कोट-पतलून पहनते। हमारे ॠषि-मुनि नासमझ थे, तुम्हीं एक ज्ञानी पैदा हुए हो।
वह आदमी तो घबड़ा गया होगा, उसने तो सोचा भी नहीं होगा। उसने तो सोचा होगा कि मैं किसी ज्ञानी के पास जा रहा हूं, उसे क्या पता कि कोई टेलर मास्टर के पास पहुंच गए जो कपड़ों का हिसाब रखता है। यहीं तक बात नहीं रुकी, शंकराचार्य ने कहा, जरा टोप अलग करो। चोटी है या नहीं? चोटी तो नहीं थी। किसी समझदार आदमी की नहीं हो सकती। कोई दिमाग खराब है? चोटी रखने का कोई प्रयोजन है? चोटी नहीं थी, तो उन्होंने कहा, देख लो, दस-पच्चीस पागल वहां इकट्ठे होंगे, अगर पागल न हों तो गुरु कभी भी खत्म हो जाएं। वे हमेशा इकट्ठे रहते हैं। वे हंसे होंगे, उन्होंने कहा, क्या बढ़िया गुरुने ज्ञान की बात कही? और आदमी कैसी फजीहत में पड़ गया? चोटी नहीं है? वह आदमी भी घबड़ा गया होगा। यहीं तक बात नहीं रुकी। शंकराचार्य ने जो कहा, अगर वह कल्याण ने न छापा होता, तो शायद मैं भी विश्वास न करता कि यह बात हुई होगी। उन्होंने कहा, पेशाब खड़े होकर करते हो कि बैठ कर? खड़े होकर पेशाब करने वालों को ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता है, इसे नोट कर लेना। उस दिन मुझे पता चला, कि ब्रह्म भी पेशाब करने के ढंग पर ध्यान देता है। और ब्रह्मज्ञान भी पेशाब करने की पद्धति से आता है। ये हमारे गुरुहैं, ये मंदिरों के द्वारों पर खड़े हुए हैं। और ये छोटे-मोटे गुरु नहीं हैं, जगतगुरु हैं। और मजा यह है कि जगत से कोई पूछता ही नहीं, कि कब जगत ने आपको गुरु बनाया? जगत से पूछने की कोई जरूरत नहीं। किसी को वहम पैदा हो जाए, वह चिल्ला दे कि मैं जगतगुरु हूं।
एक गांव में मैं गया था, वहां भी एक जगतगुरुथे। हमारे तो मुल्क में गांव-गांव में जगतगुरु हैं। मैंने पूछा कि इस गांव में भी जगतगुरु? कितने इनके शिष्य हैं? लोगों ने कहा: शिष्य तो ज्यादा नहीं हैं, एक ही है। फिर एक ही शिष्य का आदमी जगतगुरु कैसे हो गया? उन्होंने कहा कि बिलकुल कांस्टीट्यूशनल है हमारा जगतगुरु। बिलकुल वैधानिक है। मैंने कहा: मतलब? उन्होंने कहा: जो उनका एक शिष्य है, हालांकि वह वैतनिक है, क्योंकि आजकल शिष्य बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। तनख्वाह देनी पड़ती है तब मिलते हैं। वैतनिक शिष्य है, लेकिन उसका नाम उन्होंने जगत रख लिया है। जगत शिष्य का नाम रख लिया है, वे जगतगुरु हो गए हैं। एक ही शिष्य है।
ये खड़े हैं मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरजों के द्वार पर। ये सारे लोग। इनकी शक्लें अलग-अलग हैं। कोई पोप बना हुआ खड़ा है, कोई शंकराचार्य बना हुआ खड़ा है, कोई, कोई और बना होगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। शक्लें अलग हैं, दुकानें अलग हैं, प्रयोजन एक है, और वह प्रयोजन है आदमी को विचार के रास्ते से हटाना और विश्वास के रास्ते पर भटकाना। और जब तक आदमी विश्वास के रास्ते पर जाने को राजी है, ध्यान रहे, उसकी पीठ परमात्मा की तरफ है। वह कभी भी परमात्मा को नहीं जान सकता। परमात्मा को जानना हो तो उन्मुक्त विचार चाहिए। सतत विचार चाहिए। जैसा विश्वासी कहता है कि अभी मिल जाएगा, विश्वास करो, ऐसा मैं नहीं कहता कि विचार करने से अभी मिल जाएगा। विचार करना लंबी प्रक्रिया है। विचार करना लंबा संघर्ष है। लंबे संघर्ष से आप गुजरोगे, निखरोगे, ताजे होओगे, नये होओगे, जरूर वह मिल जाएगा। जिस दिन निखार पूरा होगा उस दिन वह मिल जाएगा। सच तो यह है कि वह मिला ही हुआ है, हम निखरे हुए नहीं हैं, इसलिए कठिनाई है। सच तो यह है कि उसका दरवाजा दूर नहीं है, हमारी आंखें बंद हैं इसलिए दरवाजा नहीं दिखाई पड़ता। सच तो यह है, कि उसका दरवाजा बंद भी नहीं है, खुला हुआ है, लेकिन हमारी आंखें बंद हैं।
एक फकीर था, वह निरंतर सुबह-शाम समझाता था लोगों को, नॉक एंड दि डोर शैल बी ओपन। खटखटाओ दरवाजे खुल जाएंगे। एक बूढ़ी औरत राबिया भी उसको सुनने जाती थी, तीस वर्षों तक निरंतर सुनने के बाद एक दिन उसने कहा, बंद भी करो यह बकवास कि खटखटाओ खुल जाएगा, अभी तक तुम्हें पता नहीं चला कि उसका दरवाजा खुला ही हुआ है। हैव यू नॉट नोन एट दैट दि डोर इ़ज ओपन। हैज आलवेज बीन ओपन। दि डोर इटसेल्फ इ़ज एन ओपनिंग। वह जो परमात्मा का दरवाजा है वह कोई आदमियों जैसा दरवाजा नहीं है जिस पर ताला लगा है, चाबी लगी है। दरवाजा यानी खुलापन। द्वार है। वहां कुछ है नहीं। हमारी आंख बंद है, उसका दरवाजा तो खुला है। और आंख बंद रहेगी, जिनकी आंखों पर विश्वास के पत्थर रखे हैं उनकी आंखें कैसे खुल जाएंगी? विश्वास के पत्थर हटाएं और आंख खुल जाएंगी।
विश्वास के पत्थरों पर पुरोहित बैठे हुए हैं। वे विश्वास के जो पत्थर हैं पुरोहितों के सिंहासन हैं। पुरोहितों को हटाएं, पत्थरों को हटाएं, आंख खुल जाएंगी। पत्थरों के ऊपर पुरोहित बैठ कर शास्त्र पढ़ रहे हैं। वह शास्त्र उनके आधार हैं, वे कहते हैं, शास्त्र में सत्य है। शास्त्र में सत्य नहीं है; जिनमें सत्य था उनसे शास्त्र जरूर निकले हैं। शास्त्र में सत्य नहीं है। और आप जिस दिन सत्य को जान लेंगे, उस दिन शास्त्र में भी सत्य दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन जब तक आपने नहीं जाना, सब शास्त्र असत्य हैं। आपको कुछ नहीं मिल सकता, सिवाय शब्दों के। आप जब तक सत्य को नहीं जानते, शास्त्रों में सिवाय शब्द के कुछ भी नहीं पा सकते हैं। जिस दिन आप जान लेंगे, उस दिन शास्त्रों में तो सत्य मिल ही जाएगा, उस किताब में भी सत्य मिल जाएगा जिसमें एक भी शब्द नहीं है। वहां भी सत्य मिल जाएगा, जहां पत्ते हिल रहे हैं, वहां भी सत्य मिल जाएगा, जहां हवाएं लहरें ले रही हैं। और वहां भी सत्य मिल जाएगा जहां पक्षी आकाश में उड़ रहे हैं। वहां भी सत्य मिल जाएगा, जहां रास्ते के किनारे पत्थर पड़े हैं, सत्य जिस दिन भीतर मिल जाए उस दिन सब जगह बाहर मिल जाता है। और जब तक भीतर न मिला हो, तब तक बाहर का कोई शास्त्र सत्य नहीं दे सकता। पुरोहित को हटाएं, उसके शास्त्र को हटाएं, उसके पत्थर को हटाएं, आंख खोलें, लेकिन विश्वास हटे, तो ये सब हट जा सकते हैं। विश्वास का पत्थर आंख रोके रहे, तो हम प्रभु के मंदिर पर प्रवेश नहीं पा सकते हैं।
तो आज मैं आपसे कहता हूं, विश्वास द्वार नहीं है। कल आपसे बात करूंगा कि द्वार क्या है? मेरी इन बातों के संबंध में जो भी प्रश्न हों वे आप लिख कर दे दें। संध्या में उनके उत्तर दूंगा, और अच्छा यह होगा जो कि मैंने कहा इसी संबंध में लिख कर दें, ताकि ठीक-ठीक पूरी-पूरी बात हो सके। सांझ आपके प्रश्नों का उत्तर होगा, कल सुबह फिर मैं बोलूंगा और रोज सांझ आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
पृथ्वी को एक पागलखाना बना दिया है तथाकथित धार्मिक लोगों ने। और इन धार्मिक लोगों के कारण ही अधार्मिक आदमी पैदा हुआ है। अधार्मिक आदमी धार्मिक आदमी की प्रतिक्रिया है, रिएक्शन है। जिस दिन ये तथाकथित धार्मिक आदमी विदा हो जाएंगे, उसी दिन अधार्मिक आदमी की भी मृत्यु हो जाएगी। इन झूठे धार्मिकों के कारण इनके विरोध में, इनके प्रतिक्रोध के कारण, आक्रोश के कारण एक अधार्मिक हवा पैदा हो गई है। दुनिया में एक भी नास्तिक नहीं होगा अगर तथाकथित आस्तिक विदा हो जाएं। नास्तिकता आस्तिकों की छाया है। और जिस दिन न आस्तिक होंगे, न नास्तिक होंगे, उस दिन धर्म की संभावना हो सकती है। मैंने कहा, तथाकथित धार्मिक लोगों ने, तथाकथित प्रभु के मंदिरों ने, मस्जिदों ने, गुरुद्वारों ने, गिरजों ने जमीन को एक पागलखाना, एक मैडहाउस बना दिया है।
एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है।
हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बंटवारा हो रहा है। बंटवारा ही पागलपन का लक्षण है। जिस दिन मनुष्य की बुद्धि ठीक और संयत होगी, दुनिया एक होगी, बंटी हुई नहीं होगी। बंटा हुआ मन है, खंड-खंड मन है, इसलिए पृथ्वी को भी खंड-खंड करना पड़ता है। पृथ्वी तो अखंड है। आदमी का चित्त खंडित है, इसलिए पृथ्वी को भी खंडित कर लेता है। हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हो रहा है। एक पाकिस्तान...हिंदू है या मुसलमान क्योंकि वे पागल कहते हैं कि हम सिर्फ आदमी हैं हमें पता ही नहीं कि हम हिंदू हैं या मुसलमान हैं। अधिकारी बड़े परेशान हैं, वे उन्हें समझाते हैं कि तुम रहोगे तो यहीं लेकिन तुम यह बता दो, तुम्हें हिंदुस्तान में जाना है कि पाकिस्तान में जाना है। वे पागल कहते हैं, बड़ी अजीब बातें कर रहे हैं आप, हम तो सोचते थे हम पागल अजीब बातें करते हैं। आप अजीब बातें कर रहे हैं, कहते हैं रहोगे यहीं, और यह बता दो कहां जाना है हिंदुस्तान में या पाकिस्तान में!
जब रहेंगे यहीं तो जाने का सवाल क्या है? और जब जाना ही नहीं है, रहना यहीं है, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान से हमें मतलब क्या है? हम जहां हैं हम ठीक हैं।
बहुत समझाया उन्हें, लेकिन उन पागलों की समझ में नहीं आया। फिर उनसे पूछा कि तुम हिंदू हो या मुसलमान, यह बता दो?--तो हिंदू हिंदुस्तान चले जाएं; हिंदू पागल हिंदुस्तान चले जाएं, मुसलमान पागल पाकिस्तान चले जाएं। तुम हिंदू हो या मुसलमान?
उन्होंने कहा: यह तो हमें पता नहीं, हम ज्यादा से ज्यादा आदमी हैं। और अगर बहुत ही कोशिश करिए तो हम कह सकते हैं, हम पागल हैं। लेकिन हिंदू-मुसलमान का हमें पता ही नहीं।
फिर कोई रास्ता न था, तो अधिकारियों ने आधे पागलखाने में रेखा खींच दी, आधे कमरे पाकिस्तान में चले गए, आधे हिंदुस्तान में। पागल बंट गए आधे-आधे। बीच से दीवाल उठा दी। वे पागल अब भी दीवाल पर चढ़ जाते हैं और एक-दूसरे से पूछते हैं, बड़े आश्चर्य की बात है, हम वहीं के वहीं हैं, कोई कहीं नहीं गया, लेकिन तुम पाकिस्तान में चले गए, हम हिंदुस्तान में चले गए। यह क्या हो गया है? कभी-कभी वे पागल दीवाल पर एक-दूसरे से लड़ते भी हैं, उनमें जो बहुत बुद्धिमान हैं वे समझाते भी हैं कि हमें हिंदू से क्या मतलब? हमें मुसलमान से क्या मतलब? हम तो सिर्फ पागल हैं। उन पागलों की बातें कोई सुनेगा तो खयाल में आएगा, वे पागल शायद हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं। हम उनसे भी ज्यादा पागल हैं।
परमात्मा के नाम पर भी आदमी ने पागलपन ईजाद किया है। परमात्मा के नाम पर भी जो पांच हजार वर्षों में हुआ है, अगर उसका हिसाब लगाया जाए, तो हमें शक होगा, ये परमात्मा के द्वार पर प्रार्थनाएं हो रहीं थी, या शैतान के द्वार पर? ये किसके द्वार पर हो रही थीं?
मैंने सुना है, एक फकीर रात सपने में शैतान को देखा। शैतान सुस्त पड़ा हुआ सोया है। फकीर ने पूछा: शैतान! तुम और सुस्त पड़े हुए हो? हमने तो यह सुना है कि शैतान चौबीस घंटे शैतानी में लगा रहता है। तुम इतनी शांति से बैठे हुए हो, तुम्हें हो क्या गया? तुम्हें अपना काम नहीं करना है, लोगों को गुमराह नहीं करना है? लोगों को रास्ता नहीं भटकाना है? तुम जितनी देर चुप बैठोगे उतनी देर लोग ठीक रास्ते पर चले जाएंगे। तुम जाओ अपने काम में लगो। उस शैतान ने कहा: अब मुझे काम की कोई जरूरत नहीं। मेरे काम को तथाकथित भगवान के भक्तों ने सम्हाल लिया है—पुरोहित, पंडे, पुजारी, वे मेरा काम कर रहे हैं। मैं तो अब विश्राम करता हूं। अब मुझे कोई भी जरूरत नहीं है। तुम जिन्हें भगवान के मंदिर कहते हो, वे सब मेरे हो गए हैं। क्योंकि मेरे एजेंट वहां पर—पुजारी, पंडे और पुरोहित होकर बैठे हुए हैं।
प्रभु मंदिर के द्वार को समझने के लिए पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि जिन्हें हम प्रभु के मंदिर कहते हैं, वे प्रभु के मंदिर नहीं हैं। आदमी का बनाया हुआ कोई मंदिर प्रभु का मंदिर नहीं हो सकता। आदमी खुद ही प्रभु का बनाया हुआ एक मंदिर है। आदमी का बनाया हुआ कोई मंदिर प्रभु का मंदिर नहीं हो सकता। आदमी खुद ही प्रभु का बनाया हुआ मंदिर है। और जो हमारे चारों तरफ निर्मित है सहज, वह जो सृष्टि का विस्तार है, वह जो जीवन है, वह जो अस्तित्व है, वह जो एक्झिस्टेंस है, वही प्रभु का मंदिर है। लेकिन आदमी उस मंदिर के ऊपर मंदिर बनाता है। और इन मंदिरों को इतना महत्व देता है कि इन मंदिर की दीवालों में वह जो असली मंदिर है, छिप जाता है। सब छिप गया है, कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। और एक-एक आदमी अंधा है, धर्म के नाम पर। धर्म को खोलनी चाहिए आंख, और धर्म बनाता है अंधा, इसलिए प्रभु की चर्चा बहुत चलती है, लेकिन प्रभु से हमारा कोई संबंध नहीं हो पाता है।
प्रभु का मंदिर वही है जो है चारों तरफ। अब और कोई प्रभु-मंदिर बनाने की जरूरत नहीं है। और आदमी बना सकेगा प्रभु का मंदिर? आदमी तो प्रभु को भी बनाने की कोशिश में लगा हुआ है, मूर्तियां ढाली जा रही हैं भगवान की। मूर्तियां बनाई जा रही हैं, रंग-रोगन किए जा रहे हैं। फिर आदमी उन्हीं मूर्तियों के सामने, खुद की बनाई हुई मूर्तियों के सामने हाथ जोड़े खड़ा है। घुटने टेक कर खड़ा है। अगर किसी दूर ग्रह पर कोई भी देखने वाला होगा तो बहुत हंसता होगा। खुद ही मूर्तियां बनाते हैं लोग, फिर उन्हीं के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं। फिर घुटने टेक लेते हैं। और मूर्तियां भी किसकी बनाते हैं, अपनी ही मूर्तियां बनाते हैं। अगर घोड़े अपने भगवान की मूर्ति बनाएं, तो घोड़ों जैसी बनाएंगे। और गधे अगर बनाएं, तो गधे जैसी बनाएंगे। और आदमी, आदमी जैसी बनाता है। अफ्रीका में जो मूर्ति बनती है उसकी नाक चपटी होती है। हिंदुस्तान में जो मूर्ति बनती है उसकी नाक लंबी होती है। पश्चिम में जो मूर्ति बनेगी वह गोरी होगी, पूरब में जो मूर्ति बनेगी वह सांवली होगी। हम अपनी शक्ल में ही तो मूर्तियां बनाते हैं। हम अपनी ही तो मूर्तियां बनाते हैं। भगवान के नाम से आदमी अपनी ही पूजा कर रहा है। और खुद ही पूजा कर रहा है। और फिर पूछता है भगवान कहां है? जब नहीं पाता इन मूर्तियों में, तो चिल्लाता है और कहता है भगवान है ही नहीं?
ये दो बातें समझ लेना है। एक तो खुद ही भगवान बनाता है, यह पागलपन, फिर खुद के बनाए हुए भगवान में जब भगवान नहीं मिलता, तो कहता है, भगवान नहीं है। और भगवान को न कभी खोजता, न भगवान से कभी संबंधित होता, अपनी ही मूर्तियों की या तो पूजा करता है या अपनी ही मूर्तियों का खंडन करता है। और पूजा करने वाले और मूर्ति का खंडन करने वाले, दोनों सदा समान हैं। क्योंकि दोनों की निष्ठा मूर्ति में है। हिंदू मूर्ति पूजता है, मुसलमान मूर्ति फोड़ता है। लेकिन दोनों मूर्ति पूजक हैं। दोनों की दृष्टि मूर्ति पर लगी है, जैसे मूर्ति में कुछ है। न तो पूजा करने योग्य है, न तोड़ने योग्य है, मूर्ति में कुछ भी नहीं है। और जहां है वहां हमारी कोई दृष्टि ही नहीं है।
तो पहले तो आज की सुबह हम यह समझ लें कि भगवान का मंदिर कहां-कहां नहीं है, तो शायद हम समझ पाएं कि भगवान का मंदिर कहां हो सकता है? कहां-कहां उसका द्वार नहीं है, यह अगर हम जान लें तो शायद हम खोज सकें कि कहां उसका द्वार है? इतनी जगह नकली द्वार बने हुए हैं कि बहुत मुश्किल हो गया है, उसके द्वार को खोजना। और जब भी कोई खोजने निकलता है, जल्दी से कोई नकली द्वार मिल जाता है, नकली द्वार के दुकानदार मिल जाते हैं। और उस आदमी को नकली द्वार में प्रवेश करवा लेते हैं। फिर वह भटकता रहे उस नकली द्वार में, उसे कभी भी असली द्वार का कोई पता नहीं चल सकता है।
पहली बात, नकली द्वार...। जितने भी नकली द्वार हैं, उन सबका मूल आधार है विश्वास, वे सब विश्वास पर खड़े हैं। इसलिए विश्वास के द्वार पर जो भी दस्तक देगा, वह अंधकार में उतर जाएगा, अज्ञान में उतर जाएगा, परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता है। और सारे तथाकथित धर्मों ने यही समझाया है कि विश्वास करो।
मैंने सुना है, एक अदभुत आदमी था, मुल्ला नसरुद्दीन। वह एक दिन दोपहर को एक वृक्ष पर चढ़ कर कुछ पत्तियां काट रहा है, कुछ शाखाएं काट रहा है। लेकिन जिस शाखा पर बैठा है उसी को काट रहा है। नीचे से एक आदमी निकला और उसने चिल्लाया कि मुल्ला यह क्या करते हो? पागल हो गए हो? जिस शाखा पर बैठे हो उसी को काटते हो--गिरोगे, मरोगे! मुल्ला ने कहा: अपने रास्ते जाओ। मैं किसी पर कभी विश्वास नहीं करता। मैं अपनी बुद्धि पर विश्वास करता हूं। और मुल्ला शाखा को काटते रहे। फिर शाखा टूटी और मुल्ला जमीन पर गिरे। चोट खाई तो खयाल आया कि गलती हो गई। जो उसने कहा था, उस पर विश्वास करना चाहिए था। वह आदमी बड़ा ज्ञानी था। वह आदमी भविष्य का जानकार था, तब तो उसने बता दिया। कि अगर काटते रहोगे तो गिरोगे। भविष्य की घटना पहले बता दी, कोई ज्योतिषी था मालूम होता है।
मुल्ला भागे उसके पीछे, उसे रास्ते में पकड़ा और पैर पकड़ लिए और कहा कि मैं बड़ा अभागा हूं। कितना महान ज्योतिषी नीचे से गुजरता था, उसने इतनी बढ़िया बात कही, भविष्य की बात बताई, मैंने नहीं मानी। अब तो मैं तुमसे कुछ और भी पूछने आया हूं, तुम जो भी कहोगे मैं मान लूंगा।
उस आदमी ने कहा: और मैं कुछ नहीं जानता हूं, न मैं कोई ज्योतिषी हूं। न इसका भविष्य से कोई संबंध है, यह तो सीधी विचार की बात थी, कि जिस शाखा पर बैठ कर काटते हो...।
मुल्ला ने कहा: विचार-विचार की बात मत करो, मैंने विचार करके देख लिया और नुकसान उठाया। मैं जमीन पर गिर पड़ा, पैर टूट गए। अब तो मैं विश्वास करूंगा। तुम मुझे यह और बता दो कि मेरी मृत्यु कब आएगी?
उस आदमी ने कहा: पागल हो गए हो, मुझे कुछ भी पता नहीं, मैं कोई ज्योतिषी नहीं। लेकिन जितना उसने बचना चाहा, मुल्ला ने समझा कि वह आदमी छिपाना चाहता है। अब मुल्ला तो नासमझ थे ही, नहीं तो उस शाखा को न काटते जिस पर बैठे थे। वही नासमझ आदमी अब इसको पकड़ लिया। और जोर से कहने लगा कि मैं जाने न दूंगा जब तक यह न बताओगे कि मेरी मृत्यु कब है?
आखिर उस आदमी को क्रोध आ गया, और उसने कहा कि अभी मर जाओगे, अभी मर जाओगे। अब मुझे, मेरा...मेरा पीछा छोड़ो। मुल्ला ने सुना, अभी मर जाओगे! मुल्ला ने कहा कि जब अभी मर जाओगे, यह ज्योतिषी ने कहा, तो मर जाना जरूरी है। मुल्ला फौरन गिर पड़े और मर गए। चार लोगों में उस आदमी को भी उनकी अरथी में साथ देना पड़ा और वह आदमी भी हैरान हुआ कि बड़ी आश्चर्य की बात है! चारों आदमी अरथी लेकर चले, चौरस्ते पर पहुंचे। एक रास्ता मरघट को बाएं की तरफ से जाता था, एक दाएं की तरफ से। वे सब सोचने लगे कि बाएं की तरफ से जल्दी पहुंचेंगे कि दाएं की तरफ से? मुल्ला ने सिर उठाया और कहा कि मैं बता सकता था, लेकिन चूंकि मैं मर गया हूं, इसलिए अब मैं कुछ भी नहीं बोल सकता। वैसे जब मैं जिंदा था तो मैं बाएं की तरफ से जाता था, वह रास्ता करीब का है। उन्होंने अरथी नीचे पटक दी कि मुल्ला तुम पागल हो? मुल्ला ने कहा: पहले एक दफा विचार करके धोखा खा चुका, अब तो मैंने विश्वास कर लिया है कि मैं मर गया हूं।
मुल्ला ने न तो पहली दफा विचार किया था, मुल्ला पहली दफे भी अंधा था बिना विचार किए। क्योंकि विचार करता तो उसी शाखा को न काटता जिस पर बैठा हुआ था। पहली दफा विचार नहीं किया था, वह अविचार था, उस अविचार से नुकसान उठाया था। नुकसान उठाने के डर से अब उसने दूसरा अविचार किया, विश्वास किया, अब वह विश्वास करके जिंदा जी मरने की कोशिश कर रहा है। आदमी ने अविचार से नुकसान उठाया है, यह सच है। और जो आदमी अविचार में जीएगा, वह खतरों में जाएगा। अविचार के कारण कुछ लोग उसका शोषण करते हैं, और उससे कहते हैं कि तुम विश्वास करो! अविचार भी खतरनाक है। जो आदमी नहीं सोचता, वह भटक जाता है। और जो आदमी दूसरों की सोच को मान लेता है, वह भी भटक जाता है। अपनी सोच चाहिए, अपना विचार चाहिए। अपने विचार के रास्ते के अतिरिक्त कोई कभी परमात्मा के द्वार पर नहीं पहुंचता है। और हम दो काम करते हैं, या तो विचार ही नहीं करेंगे, और अंधे की तरह जीएंगे। और या फिर विश्वास करेंगे, और फिर अंधे की तरह जीएंगे। लेकिन आंख हम कभी न खोलेंगे।
दुनिया अविचार में रही है, और उस अविचारपूर्ण दुनिया को यह बताया जा सकता है कि तुम अविचार के कारण कष्ट भोग रहे हो। आओ हम तुम्हें विचार देते हैं। विश्वास का अर्थ है: दूसरे के द्वारा दिया गया विचार। और जो विचार दूसरे के लिए दिया जाता है, दूसरे के द्वारा दिया जाता है वह कभी किसी व्यक्ति की निज आत्मा को जाग्रत करने वाला नहीं होता, सुलाने वाला होता है। हम तो उससे ही जागते हैं, जो हम सोचते हैं। हम तो उससे ही उठते हैं जो हमारे भीतर मंथन होता है। लेकिन विश्वास ने मनुष्यों के भीतर मंथन की संभावना बंद कर दी है। और सिखाया जा रहा है कि श्रद्धा करो, विश्वास करो, सोचो मत, दूसरा जो कहता है उसे मान लो। कोई तीर्थंकर कहता है उसे मान लो, कोई पैगंबर कहता है उसे मान लो, कोई महात्मा कहता है उसे मान लो, कोई ईश्वर का पुत्र कहता है उसे मान लो, लेकिन तुम मत सोचना। न तुम तीर्थंकर हो, न तुम भगवान हो, न तुम ईश्वर के पुत्र हो। और कुछ लोगों ने, तीर्थंकरों ने, भगवान के पुत्रों ने, पैगंबरों ने अवतार होने का ठेका ले रखा है! और ये सारे लोग क्या हैं? अगर एक भी आदमी तीर्थंकर हुआ है दुनिया में तो सब आदमी तीर्थंकर हैं, चाहे सोए हुए हों, चाहे जागे हुए, यह फर्क हो सकता है। अगर एक आदमी भी दुनिया में ईश्वर का अवतार हुआ है, तो सब आदमी ईश्वर के अवतार हैं, चाहे कोई जागा हुआ हो, चाहे कोई सोया हुआ हो। अगर एक आदमी भी ईश्वर का पुत्र है, तो सभी आदमी ईश्वर के पुत्र हैं। लेकिन यह सिखाया जा रहा है कि कोई ईश्वर है, कोई ईश्वर का पुत्र है, कोई अवतार है, कोई तीर्थंकर है। और सबका काम क्या है, सबका काम है, आंख बंद करके उसे मानो।
सबके भीतर परमात्मा नहीं है, सबके भीतर आंख बंद करने की आवश्यकता है। अगर परमात्मा सबके भीतर है तो सबकी आंख खुली हुई होनी चाहिए। और अगर परमात्मा सबके भीतर है, तो सबके भीतर पूजा का स्थल है। और तब किसी की पूजा अनुचित है। तब किसी की भी पूजा का आग्रह शोषण है। तब किसी भी पूजा का अड्डा बनाना आदमी को भटकाना और भरमाना है। आदमी पूज्य है, यह तो समझ में आ सकता है, लेकिन कोई आदमी पूज्य है, यह खतरनाक है। मनुष्यता पूज्य है, जीवन पूज्य है, यह तो समझ में आ सकता है, लेकिन कोई जीवन का एक रूप पूज्य बनाना और सारे रूपों को अपूज्य कर देना, और सारे रूपों को कहना कि उनका काम सिर्फ विश्वास है, अंधे होकर मान लेना है, अत्यंत खतरनाक है। मनुष्य की चेतना के विकास में बड़ी से बड़ी बाधा जो बन सकती है वह इस तरह के विश्वास से बन सकती है। और आज तक के सारे धर्मों ने आदमी के भीतर विचार जगाने की नहीं विश्वास जगाने की कोशिश की है। लेकिन क्यों? असल में जिनको भी नेतृत्व करना हो, चाहे वे धार्मिक लोग हों और चाहे राजनैतिक लोग हों, जिनको भी नेतृत्व करना हो वे दूसरों में अंधापन जगाए बिना नेतृत्व नहीं कर सकते।
नेता दूसरों के अंधेपन पर जीता है। नेता दूसरों के अंधेपन से भोजन पाता है। जितने ज्यादा अंधे लोग होंगे, उतना बड़ा नेता हो सकता है कोई। जितने ज्यादा अंधे लोग होंगे, उतने ज्यादा नेता होंगे। जितनी खुली आंखों के लोग होंगे, नेता विदा हो जाएगा, धर्मगुरु भी विदा हो जाएगा, राजगुरु भी विदा हो जाएगा, राजनैतिक नेता भी विदा होंगे, सामाजिक नेता भी विदा होंगे।
एक ऐसी दुनिया चाहिए जहां मनुष्य अपना नेतृत्व स्वयं करने में समर्थ हो और कोई उसका नेता न हो। लेकिन नेताओं को बड़ा दुख और पीड़ा होती है इस बात से। इसलिए नेता प्रचार करते रहते हैं आदमी के अंधे होने का। और इस बात की कोशिश करते हैं, कोई सोचे न। सोचने की कोई जरूरत नहीं है, सोचना मत, सोचना खतरनाक है, सोचना डेंजरस है, सोचने में भय है, जोखम है। यह बच्चे को बाप सिखा रहा है। क्यों? क्योंकि बाप भी और किसी का नेतृत्व चाहे न कर सके अपने बेटे का तो कर ही रहा है। अपने बेटे की मालकियत तो कर ही रहा है, अपने बेटे को तो वह कह ही रहा है: मैं अनुभवी, मैं ज्ञानी, मैं तुम्हारा बाप, मैं जो कहता हूं वह ठीक। दुनिया में कोई कुछ कहे, किसी के कहने से कुछ ठीक नहीं होता, ठीक होता है...कोई चीज तभी ठीक होती है, जब मेरे विवेक और विचार को ठीक होती है। सारी दुनिया कुछ कहे, लेकिन मेरे विवेक और विचार में जाग्रत होकर अगर वह चीज प्रतिफलित नहीं होती, तो वह ठीक नहीं होती। लेकिन बाप कह रहा है, कि मैं कहता हूं वह ठीक। मां कह रही है, कि मैं कहती हूं वह ठीक। स्कूल का शिक्षक कह रहा है कि मैं जो कहता हूं वह ठीक। दुकानदार कह रहा है कि मैं जो कहता हूं वह ठीक है। विज्ञापनदाता कह रहा है कि हम जो टूथपेस्ट बेचते हैं वही ठीक है; हम जो साबुन बेचते हैं वही ठीक है; सिनेमा वाला भी वही कह रहा है, राजनैतिक नेता भी वही कह रहा है कि मेरे मार्के की राजनीति ही ठीक है, मेरा शास्त्र ठीक है। सब तरफ इस तरह के लोग हैं, जो कहते हैं हम ठीक हैं। और तुम! तुम्हारा काम इतना है, तुम अच्छे आदमी हो, अगर हम जो कहते हैं तुम उसे मानो, और तुम गलत आदमी हो, अगर तुम गड़बड़ करो। अगर तुम विद्रोह करो, अगर तुम सोचो, तो तुम ठीक आदमी नहीं हो, तुम सज्जन नहीं हो। यह चारों तरफ की चेष्टा ने एक -एक आदमी की आत्मा को बंदी बना दिया है, उसे मुक्त होने के उपाय नहीं छोड़े। और जो हमें बंदी बनाए हुए हैं, हम सोचते हैं, वे ही हमारे मार्गदर्शक हैं, जो हमें सिखा रहे हैं और हमें सीखने की स्थिति में नहीं पहुंचने दे रहे हैं। हम सोचते हैं वे ही हमारे मार्गदृष्टा हैं।
एक मित्र ने मुझे एक किताब दी है और उस किताब में एक कहानी उन्होंने लिखी है, वह मुझे बहुत प्रीतिकर लगी। वह कहानी आपने भी सुनी होगी, लेकिन आधी सुनी होगी। उन मित्र ने वह कहानी पूरी कर दी है। आपने भी सुना होगा कि एक सौदागर था टोपियां बेचने वाला। वह टोपियां बेचने गया हुआ है गांव, किसी दूर बाजार में। रास्ते में ठहरा है एक झाड़ के नीचे। टोपियंा रखी हैं उसकी टोकरी में, वह सो गया है, थका-मांदा है। बंदर उतरे हैं, टोपियां लगा कर झाड़ पर चढ़ गए। और झाड़ पर चढ़ कर बंदर बहुत इठला रहे हैं, अकड़ रहे हैं। बंदर ही ठहरे। और बंदर अगर टोपी लगा लें तो बहुत अकड़ने लगते हैं। सफेद टोपिया हैं, खादी की टोपियां हैं, बंदर बहुत अकड़ रहे हैं। अब बंदर ही ठहरे। और खादी की टोपी मिल जाए तो मुसीबत है न। सौदागर की नींद खुली, उसने ऊपर देखा, सब टोपियां नदारद हैं। लेकिन सौदागर ने कहा, मत घबड़ाओ बंदरों, तुमसे टोपियां छीन लेना बहुत आसान है। उसने अपनी टोपी निकाल कर सड़क पर फेंक दी है। सारे बंदरों ने अपनी टोपियां निकाल कर फेंक दी। बंदर ही ठहरे। नकलची ठहरे। लगाई थी टोपी, तो भी इसलिए लगाई थी कि सौदागर लगाए हुए था, फेंक दी तो इसलिए फेंक दी कि सौदागर ने फेंक दी है। सौदागर ने टोपियां इकट्ठी कीं और अपने घर चला गया।
इतनी कहानी तो हम सबने सुनी है, उन मित्र ने उस कहानी को पूरा किया है। और कहानी में लिखा है कि फिर सौदागर बूढ़ा हो गया। उसका बेटा जवान हुआ और बेटे ने टोपियां बेचना शुरू किया। नालायक बेटे हमेशा वही करते हैं, जो उनके बाप करते रहे हैं। समझदार बेटे हमेशा बाप से आगे बढ़ जाते हैं, और समझदार बाप हमेशा कोशिश करता है कि बेटे उससे आगे बढ़ जाएं। नासमझ बाप कहता है, वहीं रुक जाना, लक्षमण-रेखा खिंची है, जहां तक मैं गया था, उसके आगे मत जाना, क्योंकि जिसके आगे मैं नहीं गया, तो मुझसे ज्यादा अकलमंद तुम तो नहीं हो कि तुम आगे चले जाओगे। तुम वहीं रुक जाना। बाप के अहंकार को चोट लगती है, अगर बेटा उससे आगे बढ़ जाए। सब बाप कहते हैं कि हम चाहते हैं कि बेटा आगे बढ़े, लेकिन कोई बाप नहीं चाहता कि उससे आगे बढ़े। उससे आगे बढ़ने पर तो अहंकार को चोट लगती है, उतना बढ़े जितना बाप बढ़ा है। वहां तक बढ़े जितना बाप बढ़ा। जहां तक बाप कहे वहां तक बढ़े। तब तक ठीक है, तब तक बाप के अंहकार को तृप्ति मिलती है। जैसे ही बेटा बाप से आगे गया कि बाप को कष्ट होना शुरू हो जाता है। इसलिए जो बापपन है, यह सब बेटों की जंजीर बनता है। गुरु शिष्य की जंजीर बन जाता है।
उस बाप ने भी कहा, बेटा टोपी बेच। बेटा टोपी बेचने लगा, बेटा बुद्धू रहा होगा, अन्यथा कुछ और भी कर सकता था। जिंदगी में बहुत कुछ करने को है। टोपी बेचने बेटा गया, उसी झाड़ के नीचे ठहरा जिसके नीचे पहले बाप ठहर चुका था। क्योंकि वहीं ठहरना चाहिए जहां बाप ठहर जाते हैं। उसने वहीं अपनी टोकरी रखी जहां बाप ने रखी थी। वह आज्ञाकारी बेटा था, और आज्ञाकारी बेटे, जब तक दुनिया में पैदा होते रहेंगे, तब तक दुनिया अच्छी नहीं हो सकती। क्योंकि आज्ञाकारी बेटे बड़े खतरनाक हैं। समझ भीतर से आनी चाहिए। आज्ञा बाहर से आती है। समझदार बेटे चाहिए दुनिया में। और समझदार बेटा होगा तो अपने मुसलमान बाप से कहेगा कि ठीक; तुम मुसलमान थे ठीक; हम मुसलमान नहीं, हम आदमी हैं।
आज्ञाकारी बेटा कहेगा, तुमने दो हिंदू मारे हम चार मारेंगे। हम आज्ञाकारी हैं। आज्ञाकारी बेटे कहेंगे कि हम हिंदुस्तान-पाकिस्तान में तलवारें चलाते रहेंगे। समझदार बेटे कहेंगे, पागल थे हमारे बाप जो लड़े और कटे, हम इकट्ठे हो जाते हैं।
वह बेटा आज्ञाकारी था, वह वहीं टोपी रख कर सो गया। ऊपर बंदर थे, बंदर तो न रहे होंगे वही, उनके बेटे रहे होंगे, बंदर भी अपने बेटे छोड़ जाते हैं। बंदर अपने बेटे छोड़ जाते हैं। अंग्रेज इस मुल्क से चले गए, अपने बेटे छोड़ गए, शक्ल हमसे मिलती-जुलती, लेकिन उनके बेटे हैं वे। और वे अंग्रेजों से ज्यादा खतरनाक सिद्ध होंगे। बेटा सो भी नहीं पाया था कि बेटे उतर गए बंदरों के और टोपियां लेकर ऊपर चढ़ गए। लेकिन उस बेटे ने सोचा कि घबड़ाओ मत, पिता ने कहानी सुनाई थी कि बंदरों से डरने की जरूरत नहीं है, अपनी टोपी फेंक देना अगर बंदर टोपी ले जाएं। उसके पास समाधान रेडीमेड था। उसने अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। लेकिन उसे क्या पता, बात उलटी हो गई, चमत्कार हो गया, एक बंदर बिना टोपी का रह गया था, वह नीचे उतरा और टोपी लेकर चला गया।
बंदर अब तक बुद्धिमान हो गए थे। लेकिन आदमी अब तक बुद्धू था। वह पुराना समाधान काम नहीं आया। नई समस्या थी, समाधान पुराना था, सीखे हुए समाधान सदा ऐसे ही हो जाते हैं। नहीं, दूसरे से नहीं सीख लेना है समाधान। इतनी बुद्धि विकसित करनी है कि समाधान अपना आ सके। दुनिया धार्मिक नहीं हो पाती है क्योंकि धर्म के उत्तर सिखाए जाते हैं। और जब तक धर्म के उत्तर सिखाए जाएंगे, तोतों की तरह रटाए जाएंगे, तब तक दुनिया धार्मिक नहीं हो सकेगी। धर्म तो एक क्रांति है। और उस क्रांति की शुरुआत इस बात में है कि प्रत्येक व्यक्ति की प्रज्ञा का दिया जल जाए। एक-एक व्यक्ति अपनी बुद्धि की रोशनी में देखने, समझने, सोचने लगे।
लेकिन अब तक जिसे हम धर्म कहते हैं वह प्रज्ञा के दीये को जलने नहीं देता, वह कहता है, तुम अपने दीये को बुझा हुआ रखो ताकि गुरुका दिया चमकता हुआ दिखाई पड़े। सब बुझे रहो ताकि गुरुका दिया दिखाई पड़े। गुरु दीया दूसरे का जलने नहीं देता, तभी तक जब तक वह जलने नहीं देता कोई उसका शिष्य बना हुआ है। वह शिष्यों की जो भीड़ है, बुझे हुए दीयों की भीड़ है। और जब तक एक-एक आदमी का दीया नहीं जलता तब तक दस-पचास लोग दुनिया में धार्मिक हो जाएं--कोई एक बुद्ध, कोई एक महावीर, कोई एक कृष्ण, कोई एक क्राइस्ट इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। बल्कि ये थोड़े से लोग हमें और बेचैनी देते हैं। अगर ये भी न हों तो हम यह भी भूल जाएं कि धार्मिक होना कुछ होता है? हम निश्चिंत हो जाएं अपने अधर्म में, हम अपने संसार में निश्चिंत हो जाएं, हमारी चिंता मिट जाए, हमारी एंजायटी मिट जाए। यह कभी-कभी एक आदमी पैदा हो जाता और सारे चित्त को, सारे जगत को चिंतित कर देता है। हम बेचैन हो जाते हैं, जो इसके भीतर हुआ वह हमारे भीतर भी तो हो सकता है। और तब एक बेचैनी शुरू होती है। और इस बेचैनी का कुल परिणाम इतना होता है कि कोई शोषक हमारा शोषण करता है, कोई संप्रदाय, कोई गुरु, कोई मठ, कोई मंदिर, कोई किताब शोषण करती है। और हम उस शोषण से बंध जाते हैं।
दुनिया में कुछ लोग हुए हैं, इन कुछ लोगों की वजह से लगता है कि सारे लोग ऐसे हो सकते हैं। लेकिन ये सारे लोग नहीं हो सकेंगे, जब तक इनके ऊपर विश्वास का कारागृह बैठाया हुआ है। हम सब अपने-अपने विश्वासों में बंदी हैं। और जो कारागृह दीवाल का होता है, वह दिखाई पड़ता है, जो कारागृह विश्वास का होता है, वह दिखाई ही नहीं पड़ता। अभी आप बैठे हैं और आपके पड़ोस में एक आदमी और बैठा हुआ है, और आपको पता है कि आप हिंदू हैं और बगल का आदमी मुसलमान है, क्या आपको बीच की दीवाल दिखाई पड़ रही है? नहीं है कोई दीवाल वहां, हाथ फैलाएंगे तो दीवाल नहीं मिलेगी। लेकिन दीवाल वहां है, और बड़ी से बड़ी दीवालों से बड़ी दीवाल वहां है, जो दिखाई नहीं पड़ती। और दो आदमी पास-पास बैठे हैं, लेकिन कितनी दूरी पर हैं, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। हमारे विश्वास हमारे कारागृह हैं। हम सब अपने विश्वासों में बंद हैं, और विश्वास उधार हैं, बारोड हैं। यह जो बारोड माइंड है, ये जो उधार चित्त है, यह कभी प्रभु के द्वार पर नहीं पहुंचाएगा। अपना चित्त चाहिए--स्वतंत्र, मुक्त, सोच करने वाला, विचार करने वाला, साहसी, खोज करने वाला। डर भी क्या है? विश्वासी को डर लगता है कि कहीं ऐसा न हो, कि मैं खुद खोजने जाऊं और न पा सकूं।
मैं आपसे कहता हूं, खुद खोजने कोई जाए और न पाए तो भी बहुत कुछ पा लेगा। और जो खोजने नहीं गया और सोचता है पा लिया, उसने कुछ भी नहीं पाया। सवाल पाने का नहीं है, सवाल खोज से गुजर जाने का है। खोज से जो गुजरना है, वही पाना है। कहीं रखा नहीं है,कि आप पहुंच जाएंगे और उठा लेंगे, और तिजोरी में बंद कर लेंगे। आप जो विचार की तीव्र प्रक्रिया से गुजरते हैं, उस गुजरने में ही सत्य की उपलब्धि है। उस गुजरने में ही। इन दैट वैरी प्रोसेस, वह जो विचार की प्रक्रिया है, उससे गुजरना ही जैसे आग से सोना गुजर जाए। तो ऐसा तो नहीं है कि सोना आग से गुजर कर कहीं शुद्ध हो जाएगा जाकर। शुद्धि कहीं रखी नहीं है, कि सोना आग से गुजरेगा फिर शुद्धि के द्वार पर पहुंचेगा और शुद्ध हो जाएगा। सोने का आग से गुजरना ही शुद्ध हो जाना है। क्योंकि सोने का आग से गुजरना ही कचरे का जल जाना है। वह जो विचार की आग है और विचार से बड़ी आग इस पृथ्वी पर कोई दूसरी नहीं है। और अभागे हैं वे लोग जो विचार की आग से नहीं गुजरे। विचार की आग से गुजरते ही आदमी में वह सब जल जाता है जो अंधकारपूर्ण है और वह शेष रह जाता है जो ज्योतिर्मय है। विचार की आग से गुजरते ही जीवन के वे सब गलत ढांचे टूट जाते हैं। वे सब दीवालें गिर जाती हैं जो बांधती हैं और वह आकाश मिल जाता है जो मुक्त करता है, पंखों को फैलाता है और उड़ने का मौका देता है। लेकिन विचार से ही नहीं गुजरने दिया जा रहा है। विचार करने का ही मौका नहीं दिया जा रहा है।
मैं एक घर में ठहरा हुआ था। और सुबह ही सुबह मैं बगिया में टहल रहा हूं। और घर का बूढ़ा बाप अपने बेटे को समझा रहा है। ऐसे ही बात कर रहे हैं वे। और वह बेटे से कह रहा है कि भगवान ने तुम्हें इसलिए बनाया कि तुम दूसरों की सेवा करो। इसीलिए भगवान ने बनाया सबको कि दूसरों की सेवा करे। तुम्हें भी भगवान ने इसलिए बनाया है कि तुम सबकी सेवा करो। उस बेटे ने कहा, कि क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूं? जब भी कोई बेटा यह कहता है, क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूं? तभी बूढ़ी और जर्जर आत्मा एकदम चौंक जाती है। वह बूढ़ा बाप एकदम चौंक कर बैठ गया, उसने कहा: क्या पूछना है? उसके कहने का रुख यह था कि पहली तो बात कि पूछना गलत है, पूछने की हिम्मत गलत है, उसके चेहरे का ढंग यह था कि पूछो ही मत। लेकिन यह भी वह कह नहीं सकता था। उस बेटे ने कहा: आप कहें तो मैं पूछूं? उसने कहा: पूछो, क्या पूछना है? उस बेटे ने कहा: मैं यह पूछना चाहता हूं कि मुझे तो भगवान ने इसलिए बनाया कि दूसरों की सेवा करूं। दूसरों को किसलिए बनाया है? बाप ने कहा: इस तरह की फिजूल बातें मेरे सामने मत लाओ। बेकार की बातों में मत पड़ो, बेकार के विचार में मत पड़ो। हमारी किताब में यह लिखा है कि भगवान ने आदमी को दूसरों की सेवा के लिए बनाया है। सेवा करो।
वह बेटा ठीक बात पूछ रहा है। आखिर इतना तो पूछने का हक होना चाहिए। लेकिन पूछने से डर लगता है। क्योंकि जवाब नहीं है। जहां-जहां जवाब नहीं हैं, वहीं प्रश्न से भय है। जहां-जहां जवाब नहीं है, वहीं विचार से भय है। जहां-जहां जवाब नहीं है, वहीं विश्वास का आरोपण है। वहीं श्रद्धा की शिक्षा है। और अगर जवाब नहीं है, तो ठीक है यह जान लेना कि जवाब नहीं है। तो भी एक बल आएगा, लेकिन झूठे जवाबों को पकड़ कर चलना अत्यंत नपुंसकता है, बहुत इंपोटेंट है। अगर यही सच है कि कोई जवाब नहीं है हमारे पास जीवन के लिए, तो ठीक है, हिम्मतवर लोग कहेंगे, अब जवाब नहीं है। हम बिना जवाब के जीएंगे, लेकिन झूठे जवाब नहीं पकड़ेंगे। क्योंकि झूठे जवाब अगर कहीं कोई जवाब हों भी तो उन तक नहीं पहुंचा सकते। यह हिम्मत कि हम बिना जवाब के जीएंगे, बिना उत्तर के जीएंगे। प्रश्न में जीएंगे, समस्या में जीएंगे, झूठा समाधान नहीं पकड़ेंगे। यह हिम्मत शायद उस द्वार तक पहुंचा दे जहां समाधान उपलब्ध होता है, जहां उत्तर है।
परमात्मा तो है, लेकिन मिलता उन्हें है जो उसे खोजने की जोखिम, रिस्क उठाते हैं। और मजा यह हो गया है कि परमात्मा सबसे कम जोखिम का काम रह गया है। किसी को कोई जोखिम उठाने की जरूरत नहीं है। बस मान लेना काफी है। मान लेना काफी है कि परमात्मा है। पूजा कर लेनी काफी है। चंदन-तिलक लगा लेना काफी है, जनेऊ पहन लेना काफी है, कहीं मंदिर का घंटा बजा लेना काफी है, और पर्याप्त है कि आदमी को भगवान के द्वार पर पहुंच जाएगा। इतना सस्ता नहीं है मामला। और भगवान इतना सस्ता हो तो हिम्मतवर लोग ऐसे भगवान को पाने से निश्चित ही इनकार कर देंगे। इतना सस्ता भगवान पाकर भी क्या करेंगे जो मंदिर के घंटे बजाने से मिल जाता हो। ऐसा सस्ता भगवान पाकर क्या करेंगे जो भिखमंगे को दो पैसे देने से मिल जाता हो। ऐसे भगवान को पाकर क्या करेंगे जो तिलक-चंदन लगा लेने से मिल जाता हो। ऐसे भगवान की कितनी कीमत है जो रोज सुबह गीता पढ़ लेने से मिल जाता हो और रामायण पढ़ लेने से मिल जाता हो। ऐसा भगवान किसी अर्थ का नहीं हो सकता है।
भगवान की उपलब्धि आर्डुअस है, तपश्चर्यापूर्ण है। तपश्चर्या का मतलब धूप में खड़ा हो जाना नहीं है। और तपश्चर्या का मतलब कांटों पर लेट जाना नहीं है। और तपश्चर्या का मतलब भूखे मरना नहीं है। ये सब सर्कस के खेल हैं, जो कोई भी नासमझ कर सकता है। तपश्चर्या एक ही है मनुष्य के सामने और वह है: विचार की प्रक्रिया से गुजरना। और मैं आपसे कहता हूं, विचार से बड़ा तपस नहीं है, क्योंकि विचार सारे प्राणों को छेद देता है। सारे आधार उखाड़ देता है। सारी नींव गिरा देता है। सारी सुरक्षा मिटा देता है। सब सिक्युरिटी खत्म हो जाती है। सब समाधान खो जाते हैं, सब उत्तर मिट जाते हैं, और आदमी एक गहन संदेह में, एक अनजान रास्ते पर, एक अपरिचित मार्ग पर अंधकार में खड़ा रह जाता है। उतनी हिम्मत नहीं जो जुटाता वह प्रभु के द्वार पर नहीं पहुंच सकता है।
हम सब कमजोर प्रभु के द्वार पर ऐसे खड़े हैं कि वह मुफ्त मिल जाए। मुफ्त की तरकीबों से मिल जाए। कुछ ऐसी डिवाइस हमने बना ली हैं कि हमें कुछ न करना पड़े और वह मिल जाए। इस भांति अगर वह मिलता होता तो सारी मनुष्य-जाति को कभी का मिल गया होता। इस भांति वह नहीं मिल सकता है। हम इसी भांति अपेक्षा कर रहे हैं पाने की। और इसलिए जब कोई सस्ता नुस्खा बताता है और कहता है राम-राम जपो और भगवान मिल जाएगा, तो हमें समझ में पड़ता है कि बिलकुल ठीक है। कोई कहता है माला फेरो और भगवान मिल जाएगा। लेकिन कभी पूछो तो कि माला फेरने और भगवान के मिलने का क्या संबंध हो सकता है? एक चार पैसे की माला आप ले आएं हैं और फेर रहे हैं, बड़ी भगवान पर कृपा कर रहे हैं कि आप माला फेर रहे हैं।
तिब्बत में और भी होशियार लोग हैं, उन्होंने प्रेयर-व्हील बना रखा है, उन्होंने एक चक्का बना रखा है, चरखे की तरह का। उसके एक सौ आठ स्पोक हैं, आरे हैं, एक-एक आरे पर एक-एक मंत्र लिखा हुआ है। वह एक दफा चक्के को हाथ से धक्का मार देते हैं, वह चक्का जितने चक्कर लगा लेता है उतने गुणा एक सौ आठ मंत्रों का फायदा चक्कर लगाने वाले को मिल जाता है। दुकानदार बैठा है अपनी दुकान पर, बीच-बीच में ग्राहकों को चलाता जाता है और चक्के को धक्का मारता जाता है। वह इतने-इतने पुण्य का भागी हो रहा है। वह बड़ी गलती में है। अब तो बिजली चल गई, एक प्लक और जोड़ ले उसमें और लगा दें प्लक से, वह चक्का पंखे की तरह दिन भर चक्कर लगाता रहे। उतना पुण्य का उनको लाभ मिल जाएगा।
आप हाथ से क्या कर रहे हैं माला को फेर कर? गुरिए ही सरका रहे हैं। एक बिजली का यंत्र बना लें, वह गुरिया सरकाता रहे, आपको बड़े लाभ हो जाएंगे। हाथ भी एक यंत्र है और बिजली भी एक यंत्र है। और हाथ से चाहे गुरियां सरकाएं और चाहे बिजली के यंत्र से, कोई फर्क नहीं पड़ता।
इतनी सस्ती तरकीबें खोज कर आदमी सोचता है हमप्रभु के द्वार पर खड़े हो जाएंगे। प्रभु के द्वार पर खड़ा नहीं होता, हां, अपने ही बनाए हुए प्रभु के द्वार पर खड़ा हो जाता है। और अगर कोई आदमी निश्चित चेष्टा करता रहे तो अपने ही बनाए हुए प्रभु के दर्शन भी कर सकता है कि भगवान मुरली बजाते हुए खड़े हैं, कि भगवान धनुष लिए हुए खड़े हैं, कि भगवान सूली पर लटके हुए हैं। अगर कोई आदमी कल्पना, कल्पना, कल्पना करे, तो यह कल्पना स्वप्न बन सकती है, और यह प्रत्यक्ष मालूम भी हो सकता है कि हां भगवान खड़े हैं। लेकिन ये भगवान भी आपके ही निर्मित भगवान हैं, अपने ही निर्मित भगवान। चाहे कोई मूर्ति बनाए पत्थर की और चाहे कोई इमेज बनाए कल्पना का, चाहे कोई मूर्ति बनाए कल्पना की, अपना ही भगवान भगवान नहीं है। उस भगवान को पाने के लिए जो है खुद को मिटना पड़ता है। और इन भगवानों को पाने के लिए खुद को इन भगवानों को बनाना पड़ता है। ये दोनों बिलकुल उलटी बातें हैं। जो है उसे पाने के लिए तो मुझे मिटना पड़ेगा और जो नहीं है उसे निर्मित करने के लिए मैं बना रहूंगा। और एक भगवान और निर्मित कर लूंगा। और इतनी अकड़ होती है इस अहंकार की कि...
मैंने सुना है, एक महात्मा को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया। उनका नाम नहीं लूंगा, क्योंकि इस मुल्क में नाम लेने से बड़ी कठिनाई होती है। लोग इतने कमजोर, इतने, इतने हीन हो गए हैं कि हिम्मत से नाम लेकर बात करने में हिम्मत भी नहीं जुटती, पर आप समझ जाएंगे वे महात्मा कौन थे? उन महात्मा को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया वृंदावन में। वे महात्मा राम के भक्त थे। जब कृष्ण के मंदिर में वे गए, तो उन्होंने कहा कि मैं मुरली हाथ में लिए हुए वाले भगवान के सामने सिर नहीं झुकाऊंगा, मैं तो धनुर्धारी भगवान के सामने सिर झुका सकता हूं। धनुष हाथ में लो तो मैं सिर झुकाऊंगा।
मजा देखते हैं आप--भक्त भी शर्त लगाता है कि तुम इस पोज में खड़े हो जाओ, इस आसन में खड़े होओ, इस ढंग से खड़े होओ, कंडिशन है हमारी तब हम सिर झुकाएंगे। सिर झुकाने में भी कंडिशन, शर्त! तो सिर हमारा झुका कि भगवान का झुका? सिर किसका झुका फिर? अकड़ भक्त की देखते हैं, उसके अहंकार की कि तुम ऐसे खड़े होओ, तब मैं सिर झुकाऊंगा। यानी पहले तुम झुको, तब हम झुकेंगे। और तुम्हारा झुकना जरूरी है, तभी हम झुक सकते हैं। कल्पना में आप अपने भगवान को जैसा चाहें वैसा झुका लें, असली भगवान को आप नहीं झुका सकते, आपको ही झुक जाना पड़ेगा। असली भगवान के समक्ष आपको झुकना पड़ेगा। नकली भगवान को आप जैसा चाहें वैसा झुका लें। चाहें तो मोरमुकुट लगाएं, चाहें तो बांसुरी हाथ में पकड़ाएं, जैसी तबियत हो। यह पुराने ढंग का है, अगर कोई आधुनिक आदमी नैक-टाई और कंठ-लगोट भी भगवान को बांधना चाहे तो बांध सकता है। इसमें क्या हर्जा है, वह आदमी के ऊपर निर्भर है। मत बांसुरी लगाएं, सिगरट लगवा दें, आपके हाथ में है। भगवान क्या कर लेंगे?
आदमी जिस भगवान को निर्मित कर रहा है वह उसकी ही कल्पना का खेल, उसकी मुट्ठी का खेल है। इस भगवान को भगवान मत समझ लेना। यह भक्त की अपनी कल्पना है। और भक्त की अपनी वासना है। और भक्त की अपनी इच्छा का प्रोजेक्शन है, प्रक्षेपण है। उसने जैसा चाहा है, अगर किसी स्त्री को प्रेमी की कमी रह गई है मन में, और प्रेमी नहीं मिल पाया, और किस स्त्री को मिल पाता है? प्रेमी मिलना तो बहुत मुश्किल है इस पृथ्वी पर। प्रेमी मिलना आसान है क्या? पति मिल जाते हैं, प्रेमी मिलना बहुत मुश्किल है। और पति और प्रेमी का कोई संबंध है? कहां पति और कहां प्रेमी। पति है मालिक, और प्रेमी तो बात ही और है। प्रेमी कहां मिलता है? पति मिल जाते हैं। जब स्त्रियों को पति ही पति मिलते जाते हैं, तो कोई संवेदनशील स्त्री बेचैन हो जाती है और कहती है, नहीं, यह पति नहीं चाहिए, हमें तो प्रेमी चाहिए। तो वह कृष्ण को ही प्रेमी मान लेती है, वह आंखों में बंद किए वह कृष्ण को सजाती चली जाती है। और नाचती है, और गीत गाती है, और उसके ही रस में रहने लगती है। उसके भीतर जो प्रेमी की कमी रह गई है, वह प्रेमी की जो डिजायर, वह जो वासना रह गई है प्रेमी की, अब वह कृष्ण को बना रही है। अब यह कल्पना में वह प्रेमी को निर्मित कर लेती है, वह उसी के आस-पास नाचती है, जीती है और खुश होती है, प्रसन्न होती है। यह सब होता है। लेकिन इससे भगवान का कोई लेना-देना नहीं है। यह अपनी ही कल्पना का जाल है। अपनी ही अतृप्त वासना का जाल है। हम जैसी चाहें वैसी कल्पना कर लें, हमारे भीतर जो रह गया अतृप्त, उसको हम तृप्त कर लें।
मन की यह खूबी है, रात आप सोए हैं, भूख लगी है, तो मन सपना देखता है कि आप खाना खा रहे हैं। क्यों? क्योंकि मन यह कहता है, जो असली में नहीं मिल रहा, उसे सपने में ले लो। असली में नहीं मिल रहा है, दिन में खाना नहीं मिला, रात सपने में ले लो। दिन में जिस स्त्री को आपने चाहा है, वह दिन में नहीं मिल सकी, वह पड़ोसी की पत्नी है, और पड़ोसी की पत्नी को मां-बहन मानना चाहिए, तो दिन भर तो मां-बहन माना, अब रात सपने में, रात सपने में ले लो। मन जो अतृप्त रह गया है, उसे क्रिएट करता है, उसे सृजन करता है, उसे रात पूरा कर लेता है।
भक्त सपना देख रहे हैं, भगवान नहीं हैं वहां। और अगर कोई हिम्मतवर आदमी हो, तो जागते भी सपना देख सकता है, दिवास्वप्न, डे-ड्रीम्स भी होते हैं। लेकिन उसकी तरकीबें हैं उस सपने को देखने की। उस सपने को देखने की तरकीबों को लोग साधना समझ रहे हैं। वे सब सपना देखने की तरकीबें हैं। जैसे अगर आप पूरे पेट भरे हुए हैं तो आपका चित्त मजबूत होता है, लेकिन अगर आप दस-पंद्रह दिन भूखे रह गए हैं, चित्त कमजोर हो जाता है। अगर किसी आदमी को कल्पना का साक्षात करना हो, तो उपवास बहुत उपयोगी है। उपवास से एक ही फायदा है, कल्पना प्रगाढ़ हो जाती है और चित्त की तर्क की, विचार करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। इसलिए कोई आदमी अगर दस-पंद्रह दिन लंघन हो जाए बुखार में, तो आप देखें, उसे क्या-क्या दिखाई पड़ता है? कहीं उसकी खाट उड़ रही है आकाश में, कहीं कुछ हो रहा है, कहीं कुछ हो रहा है, उसे न मालूम क्या-क्या दिखाई पड़ता है। सन्निपात में क्या-क्या दिखाई पड़ता है आदमी को? जिनको हम भगवान की उपलब्धि कहे हुए लोग कहते हैं, उनमें सौ में से निन्यानबे सन्निपात की अवस्था में हैं। भूखे मरो, उपवासे रहो, स्वभावतः चित्त की तर्क करने की, विचार करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। फिर कल्पना प्रगाढ़ हो जाती है। और कल्पना में फिर कुछ भी देखा जा सकता है।
इसलिए जिनको अपने बनाए हुए भगवान देखना हो उनके लिए फास्ट और उपवास बड़ी उपयोगी चीज है। उसका उपयोग करना चाहिए। फिर अगर भीड़ में आप हो तो कल्पना उतनी प्रगाढ़ नहंी होती, एकांत में ज्यादा प्रगाढ़ होती है। इसलिए अकेले में ज्यादा डर लगता है। एक मकान है जिसमें दस लोग हैं, तो आपको डर नहीं लगता क्यों? मकान वही है, फिर दस आदमी नहीं हैं, आप अकेले हैं। तो दिन में आपको डर नहीं लगता, रात में लगता है, मकान वही है। रात में अकेले पड़ गए, चारों तरफ अंधेरा घिर गया। अकेले हैं, जरा सा पत्ता खड़कता है, और लगता है कि भूत-प्रेत आए। कोई चोर-बदमाश आया। अकेले में, एकांत में आदमी कमजोर पड़ जाता है। कमजोरी की वजह से कल्पना प्रगाढ़ हो जाती है। तो जिनको भगवान का दर्शन करना हो, उन्हें समाज छोड़ कर एकांत में चले जाना चाहिए। वहां भगवान का दर्शन ज्यादा आसान है। यहंा भगवान का दर्शन जरा मुश्किल है। भीड़-भाड़ में आदमी की हिम्मत थोड़ी ज्यादा है, अकेले में हिम्मत कमजोर हो जाती है। उपवास करिए, एकांतवास करिए और एक ही चीज की रटन लगाए रखिए दिन-रात, चौबीस घंटे, चौबीस घंटे बस मुरली बजाते भगवान की रटन लगाए रखिए कि हे भगवान, कब दर्शन दोगे! हे भगवान, कब दर्शन दोगे! बार-बार आंख बंद करिए, उन्हीं को देखिए। आंख खोलिए मूर्ति रख लीजिए, चौबीस घंटे उसी धुन में रहिए, और आप ही जैसे अगर दस-पांच पागल हों तो उनसे मिलिए और उसका नाम सत्संग...और उसी बकवास को जारी रखिए चौबीस घंटे। महीने-छह महीने में दिमाग खराब हो जाएगा, भगवान के दर्शन होने लगेंगे और लगेगा कि बहुत कुछ पा लिया। यह प्रभु का द्वार नहीं है।
विश्वास से, श्रद्धा से, कल्पना से उस द्वार पर कोई कभी नहीं पहुंचा है। विचार से, तीव्र विवेक से, खोज से, अन्वेषण से वहां कोई पहुंचता है।
इसलिए पहली बात आपसे कहना चाहता हूं आज की सुबह: विश्वास का द्वार उसका द्वार नहीं है। वह जो बिलीफ जहां लिखा हो, जिस दरवाजे पर लिखा हो श्रद्धा, वहां से हाथ जोड़ कर वापस लौट आना। उस दरवाजे को भगवान का दरवाजा कभी भूल कर मत मानना। वही दरवाजा आदमी को धर्म के नाम पर धोखा देता रहा है। उस दरवाजे के पीछे परमात्मा नहीं है, सिर्फ पुरोहित है। और पुरोहित से बड़ा दुश्मन परमात्मा का न अब तक हुआ है और न हो सकता है। उसके पीछे पुरोहित खड़ा है। वे जो मूर्तियां हैं भगवान की उनके पीछे पुरोहित खड़ा है, धागे लिए हुए वह खींच रहा है, सारा जाल उसका है। और पुरोहित सबसे बड़ा दुश्मन है परमात्मा का। वह परमात्मा और आदमी के बीच सबसे बड़ी बाधा है। क्योंकि जहां-जहां भगवान नहीं हैं वह वहां बताता है कि यहां हैं, क्योंकि वहां उसका धंधा है, वहां उसका व्यवसाय है। आदमी जितना अंधा हो उतना पुरोहित के काम का। इसीलिए तो पुरुष तो कम हैं पुरोहितों के जाल में, स्त्रियां ज्यादा हैं पुरोहित के जाल में। क्योंकि ज्यादा कल्पनाशील, ज्यादा विश्वास प्रवण, ज्यादा श्रद्धालु। इस वक्त तो, इस जमाने में तो अगर स्त्रियां पुरोहितों से जरा भी हाथ जोड़ लें, तो जाल गिर जाए, लेकिन स्त्रियां उनके जाल को पूरी तरह बनाने का काम कर रही हैं। और जहां स्त्रियां जाती हैं उनके पीछे बेचारे उनके पतियों को भी जाना पड़ता है। वह पति अपने मन से मंदिर नहीं जा रहे हैं, लेकिन पत्नी जा रही है पति उसके पीछे चले जा रहे हैं। वह पत्नी, वह स्त्री ज्यादा प्रवण है, भाव प्रवण है, श्रद्धालु है। और श्रद्धालु होने का कारण है, क्योंकि पांच-छह-सात हजार वर्षों के लंबे इतिहास में उसे शिक्षा नहीं दी गई। जिसको शिक्षा मिलेगी, वह बुद्धिमान हो जाएगा, विचारशील हो जाएगा। इसलिए पुरोहित स्त्रियों की शिक्षा का दुश्मन रहा है। क्योंकि स्त्रियां ही उसका आधार स्तंभ हैं। अगर स्त्रियों को शिक्षा मिल गई तो मुश्किल हो जाएगी। इसलिए स्त्रियों की शिक्षा के विरोध में है। जिस दिन सारी दुनिया की स्त्रियां शिक्षित हो जाएंगी, पुरोहित क
ी नब्बे परसेंट जान एकदम निकल जाने वाली है। स्त्रियों के शिक्षा के वह पक्ष में नहीं है। वह एकदम दुश्मन है।
अभी मैं पटना में था। शंकराचार्य मेरे साथ थे। एक ही मंच पर दोनों का मिलना हो गया। तो बड़ी मुसीबत हो गई। वे तो देख कर ही एकदम बोले कि दोनों आदमी एक साथ कैसे हैं? वे वहां समझा रहे थे कि स्त्रियों को शिक्षा की कोई जरूरत नहीं है। क्यों? उन्होंने एक बहुत मजेदार बात कही। उन्होंने यह कहा कि हिंदू धर्म तो स्त्रियों को इतना आदर देता है कि किसी स्त्री को डाक्टर बनने की जरूरत नहीं; सिर्फ डाक्टर की पत्नी बन जाए और लोग डाक्टरनी कहते हैं। कोई जरूरत ही नहीं शिक्षा की। डाक्टरनी तो सिर्फ डाक्टर की पत्नी बनने से हो जाती है वह। इसलिए किसी स्त्री को डाक्टर बनने की जरूरत नहीं है। किसी स्त्री को पंडित होने की जरूरत नहीं है, उन्होंने समझाया, क्योंकि वह तो पंडित की पत्नी होने से पंडितायन हो ही जाती है।
ये इस मुल्क को समझाने वाले लोग हैं। और ऐसे खतरनाक लोगों को गुरु माना जा रहा है। तब तो इस मुल्क का दुर्भाग्य होगा ही। और ऐसे लोग उन मंदिरों के द्वार पर खड़े हैं जिनको हम भगवान का मंदिर समझ रहे हैं।
ये ही सज्जन पुरी के शंकराचार्य दिल्ली में ठहरे हुए थे। एक बहुत अदभुत घटना घटी, वह मैं कहूं, अपनी बात पूरी करूं। एक आदमी आया और उसने कहा कि हम चाहते हैं, हमारा एक छोटा सा मंडल है ब्रह्मज्ञानियों का, ब्रह्मज्ञान पर हम चर्चा करते हैं, जिज्ञासु हैं, आप चलें और हमारे मंडल में हमें ब्रह्म के संबंध में कुछ समझाएं। शंकराचार्य ने नीचे से ऊपर तक उन्हें देखा, पतलून पहने हुए हैं, कोट पहने हुए हैं, टाई बांधे हुए हैं, हैट लगाए हुए हैं, कहा, इसी कपड़े में ब्रह्मज्ञान पाओगे? कभी सुना है इन कपड़ों में किसी को ब्रह्मज्ञान हुआ हो? ॠषि-मुनि नासमझ थे, नहीं तो वे भी टोप पहनते, कोट-पतलून पहनते। हमारे ॠषि-मुनि नासमझ थे, तुम्हीं एक ज्ञानी पैदा हुए हो।
वह आदमी तो घबड़ा गया होगा, उसने तो सोचा भी नहीं होगा। उसने तो सोचा होगा कि मैं किसी ज्ञानी के पास जा रहा हूं, उसे क्या पता कि कोई टेलर मास्टर के पास पहुंच गए जो कपड़ों का हिसाब रखता है। यहीं तक बात नहीं रुकी, शंकराचार्य ने कहा, जरा टोप अलग करो। चोटी है या नहीं? चोटी तो नहीं थी। किसी समझदार आदमी की नहीं हो सकती। कोई दिमाग खराब है? चोटी रखने का कोई प्रयोजन है? चोटी नहीं थी, तो उन्होंने कहा, देख लो, दस-पच्चीस पागल वहां इकट्ठे होंगे, अगर पागल न हों तो गुरु कभी भी खत्म हो जाएं। वे हमेशा इकट्ठे रहते हैं। वे हंसे होंगे, उन्होंने कहा, क्या बढ़िया गुरुने ज्ञान की बात कही? और आदमी कैसी फजीहत में पड़ गया? चोटी नहीं है? वह आदमी भी घबड़ा गया होगा। यहीं तक बात नहीं रुकी। शंकराचार्य ने जो कहा, अगर वह कल्याण ने न छापा होता, तो शायद मैं भी विश्वास न करता कि यह बात हुई होगी। उन्होंने कहा, पेशाब खड़े होकर करते हो कि बैठ कर? खड़े होकर पेशाब करने वालों को ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता है, इसे नोट कर लेना। उस दिन मुझे पता चला, कि ब्रह्म भी पेशाब करने के ढंग पर ध्यान देता है। और ब्रह्मज्ञान भी पेशाब करने की पद्धति से आता है। ये हमारे गुरुहैं, ये मंदिरों के द्वारों पर खड़े हुए हैं। और ये छोटे-मोटे गुरु नहीं हैं, जगतगुरु हैं। और मजा यह है कि जगत से कोई पूछता ही नहीं, कि कब जगत ने आपको गुरु बनाया? जगत से पूछने की कोई जरूरत नहीं। किसी को वहम पैदा हो जाए, वह चिल्ला दे कि मैं जगतगुरु हूं।
एक गांव में मैं गया था, वहां भी एक जगतगुरुथे। हमारे तो मुल्क में गांव-गांव में जगतगुरु हैं। मैंने पूछा कि इस गांव में भी जगतगुरु? कितने इनके शिष्य हैं? लोगों ने कहा: शिष्य तो ज्यादा नहीं हैं, एक ही है। फिर एक ही शिष्य का आदमी जगतगुरु कैसे हो गया? उन्होंने कहा कि बिलकुल कांस्टीट्यूशनल है हमारा जगतगुरु। बिलकुल वैधानिक है। मैंने कहा: मतलब? उन्होंने कहा: जो उनका एक शिष्य है, हालांकि वह वैतनिक है, क्योंकि आजकल शिष्य बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। तनख्वाह देनी पड़ती है तब मिलते हैं। वैतनिक शिष्य है, लेकिन उसका नाम उन्होंने जगत रख लिया है। जगत शिष्य का नाम रख लिया है, वे जगतगुरु हो गए हैं। एक ही शिष्य है।
ये खड़े हैं मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरजों के द्वार पर। ये सारे लोग। इनकी शक्लें अलग-अलग हैं। कोई पोप बना हुआ खड़ा है, कोई शंकराचार्य बना हुआ खड़ा है, कोई, कोई और बना होगा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। शक्लें अलग हैं, दुकानें अलग हैं, प्रयोजन एक है, और वह प्रयोजन है आदमी को विचार के रास्ते से हटाना और विश्वास के रास्ते पर भटकाना। और जब तक आदमी विश्वास के रास्ते पर जाने को राजी है, ध्यान रहे, उसकी पीठ परमात्मा की तरफ है। वह कभी भी परमात्मा को नहीं जान सकता। परमात्मा को जानना हो तो उन्मुक्त विचार चाहिए। सतत विचार चाहिए। जैसा विश्वासी कहता है कि अभी मिल जाएगा, विश्वास करो, ऐसा मैं नहीं कहता कि विचार करने से अभी मिल जाएगा। विचार करना लंबी प्रक्रिया है। विचार करना लंबा संघर्ष है। लंबे संघर्ष से आप गुजरोगे, निखरोगे, ताजे होओगे, नये होओगे, जरूर वह मिल जाएगा। जिस दिन निखार पूरा होगा उस दिन वह मिल जाएगा। सच तो यह है कि वह मिला ही हुआ है, हम निखरे हुए नहीं हैं, इसलिए कठिनाई है। सच तो यह है कि उसका दरवाजा दूर नहीं है, हमारी आंखें बंद हैं इसलिए दरवाजा नहीं दिखाई पड़ता। सच तो यह है, कि उसका दरवाजा बंद भी नहीं है, खुला हुआ है, लेकिन हमारी आंखें बंद हैं।
एक फकीर था, वह निरंतर सुबह-शाम समझाता था लोगों को, नॉक एंड दि डोर शैल बी ओपन। खटखटाओ दरवाजे खुल जाएंगे। एक बूढ़ी औरत राबिया भी उसको सुनने जाती थी, तीस वर्षों तक निरंतर सुनने के बाद एक दिन उसने कहा, बंद भी करो यह बकवास कि खटखटाओ खुल जाएगा, अभी तक तुम्हें पता नहीं चला कि उसका दरवाजा खुला ही हुआ है। हैव यू नॉट नोन एट दैट दि डोर इ़ज ओपन। हैज आलवेज बीन ओपन। दि डोर इटसेल्फ इ़ज एन ओपनिंग। वह जो परमात्मा का दरवाजा है वह कोई आदमियों जैसा दरवाजा नहीं है जिस पर ताला लगा है, चाबी लगी है। दरवाजा यानी खुलापन। द्वार है। वहां कुछ है नहीं। हमारी आंख बंद है, उसका दरवाजा तो खुला है। और आंख बंद रहेगी, जिनकी आंखों पर विश्वास के पत्थर रखे हैं उनकी आंखें कैसे खुल जाएंगी? विश्वास के पत्थर हटाएं और आंख खुल जाएंगी।
विश्वास के पत्थरों पर पुरोहित बैठे हुए हैं। वे विश्वास के जो पत्थर हैं पुरोहितों के सिंहासन हैं। पुरोहितों को हटाएं, पत्थरों को हटाएं, आंख खुल जाएंगी। पत्थरों के ऊपर पुरोहित बैठ कर शास्त्र पढ़ रहे हैं। वह शास्त्र उनके आधार हैं, वे कहते हैं, शास्त्र में सत्य है। शास्त्र में सत्य नहीं है; जिनमें सत्य था उनसे शास्त्र जरूर निकले हैं। शास्त्र में सत्य नहीं है। और आप जिस दिन सत्य को जान लेंगे, उस दिन शास्त्र में भी सत्य दिखाई पड़ जाएगा। लेकिन जब तक आपने नहीं जाना, सब शास्त्र असत्य हैं। आपको कुछ नहीं मिल सकता, सिवाय शब्दों के। आप जब तक सत्य को नहीं जानते, शास्त्रों में सिवाय शब्द के कुछ भी नहीं पा सकते हैं। जिस दिन आप जान लेंगे, उस दिन शास्त्रों में तो सत्य मिल ही जाएगा, उस किताब में भी सत्य मिल जाएगा जिसमें एक भी शब्द नहीं है। वहां भी सत्य मिल जाएगा, जहां पत्ते हिल रहे हैं, वहां भी सत्य मिल जाएगा, जहां हवाएं लहरें ले रही हैं। और वहां भी सत्य मिल जाएगा जहां पक्षी आकाश में उड़ रहे हैं। वहां भी सत्य मिल जाएगा, जहां रास्ते के किनारे पत्थर पड़े हैं, सत्य जिस दिन भीतर मिल जाए उस दिन सब जगह बाहर मिल जाता है। और जब तक भीतर न मिला हो, तब तक बाहर का कोई शास्त्र सत्य नहीं दे सकता। पुरोहित को हटाएं, उसके शास्त्र को हटाएं, उसके पत्थर को हटाएं, आंख खोलें, लेकिन विश्वास हटे, तो ये सब हट जा सकते हैं। विश्वास का पत्थर आंख रोके रहे, तो हम प्रभु के मंदिर पर प्रवेश नहीं पा सकते हैं।
तो आज मैं आपसे कहता हूं, विश्वास द्वार नहीं है। कल आपसे बात करूंगा कि द्वार क्या है? मेरी इन बातों के संबंध में जो भी प्रश्न हों वे आप लिख कर दे दें। संध्या में उनके उत्तर दूंगा, और अच्छा यह होगा जो कि मैंने कहा इसी संबंध में लिख कर दें, ताकि ठीक-ठीक पूरी-पूरी बात हो सके। सांझ आपके प्रश्नों का उत्तर होगा, कल सुबह फिर मैं बोलूंगा और रोज सांझ आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।