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Phir Amrit Ki Boond Padi 05

Fifth Discourse from the series of 5 discourses - Phir Amrit Ki Boond Padi by Osho.
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प्रश्न:
प्यारे भगवान, वह कौन सा सपना है, जिसे साकार करने के लिए आप तमाम रुकावटों और बाधाओं को नजरअंदाज करते हुए पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से निरंतर क्रियाशील हैं?
हर्षिदा! सपना तो एक है, मेरा अपना नहीं, सदियों पुराना है, कहें कि सनातन है। पृथ्वी के इस भूभाग में मनुष्य की चेतना की पहली किरण के साथ उस सपने को देखना शुरू किया था। उस सपने की माला में कितने फूल पिरोए हैं--कितने गौतम बुद्ध, कितने महावीर, कितने कबीर, कितने नानक, उस सपने के लिए अपने प्राणों को निछावर कर गए। उस सपने को मैं अपना कैसे कहूं? वह सपना मनुष्य का, मनुष्य की अंतरात्मा का सपना है। उस सपने को हमने एक नाम दे रखा था। हम उस सपने को भारत कहते हैं। भारत कोई भूखंड नहीं है। न ही कोई राजनैतिक इकाई है, न ऐतिहासिक तथ्यों का कोई टुकड़ा है। न धन, न पद, न प्रतिष्ठा की पागल दौड़ है।
भारत है एक अभीप्सा, एक प्यास--सत्य को पा लेने की।
उस सत्य को, जो हमारे हृदय की धड़कन-धड़कन में बसा है। उस सत्य को, जो हमारी चेतना की तहों में सोया है। वह जो हमारा होकर भी हमें भूल गया है। उसका पुनर्स्मरण, उसकी पुनरुद्घोषणा भारत है।
‘अमृतस्य पुत्रः! हे अमृत के पुत्रो!’ जिन्होंने इस उदघोषणा को सुना, वे ही केवल भारत के नागरिक हैं। भारत में पैदा होने से कोई भारत का नागरिक नहीं हो सकता।
जमीन पर कोई कहीं भी पैदा हो, किसी देश में, किसी सदी में, अतीत में या भविष्य में, अगर उसकी खोज अंतस की खोज है, वह भारत का निवासी है। मेरे लिए भारत और अध्यात्म पर्यायवाची हैं। भारत और सनातन धर्म पर्यायवाची हैं। इसलिए भारत के पुत्र जमीन के कोने-कोने में हैं। और जो एक दुर्घटना की तरह केवल भारत में पैदा हो गए हैं, जब तक उन्हें अमृत की यह तलाश पागल न बना दे, तब तक वे भारत के नागरिक होने के अधिकारी नहीं हैं।
भारत एक सनातन यात्रा है, एक अमृत-पथ है, जो अनंत से अनंत तक फैला हुआ है।
इसलिए हमने कभी भारत का इतिहास नहीं लिखा। इतिहास भी कोई लिखने की बात है! साधारण सी दो कौड़ी की रोजमर्रा की घटनाओं का नाम इतिहास है। जो आज तूफान की तरह उठती हैं और कल जिनका कोई निशान भी नहीं रह जाता। इतिहास तो धूल का बवंडर है। भारत ने इतिहास नहीं लिखा। भारत ने तो केवल उस चिरंतन की ही साधना की है, वैसे ही जैसे चकोर चांद को एकटक बिना पलक झपे देखता रहता है।
मैं भी उस अनंत यात्रा का छोटा-मोटा यात्री हूं। चाहता था कि जो भूल गए हैं, उन्हें याद दिला दूं; जो सो गए हैं, उन्हें जगा दूं। और भारत अपनी आंतरिक गरिमा और गौरव को, अपनी हिमाच्छादित ऊंचाइयों को पुनः पा ले। क्योंकि भारत के भाग्य के साथ पूरी मनुष्यता का भाग्य जुड़ा हुआ है। यह केवल किसी एक देश की बात नहीं है।
अगर भारत अंधेरे में खो जाता है, तो आदमी का कोई भविष्य नहीं है।
और अगर हम भारत को पुनः उसके पंख दे देते हैं, पुनः उसका आकाश दे देते हैं, पुनः उसकी आंखों को सितारों की तरफ उड़ने की चाह से भर देते हैं तो हम केवल उनको ही नहीं बचा लेते हैं , जिनके भीतर प्यास है। हम उनको भी बचा लेते हैं, जो आज सोए हैं, लेकिन कल जागेंगे; जो आज खोए हैं, लेकिन कल घर लौटेंगे।
भारत का भाग्य मनुष्य की नियति है।
क्योंकि हमने जैसा मनुष्य की चेतना को चमकाया था और हमने जैसे दीये उसके भीतर जलाए थे, जैसे फूल हमने उसके भीतर खिलाए थे, जैसी सुगंध हमने उसमें उपजाई थी, वैसी दुनिया में कोई भी नहीं कर सका था। यह कोई दस हजार साल पुरानी सतत साधना है, सतत योग है, सतत ध्यान है। हमने इसके लिए और सब कुछ खो दिया। हमने इसके लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया। लेकिन मनुष्य की अंधेरी से अंधेरी रात में भी हमने आदमी की चेतना के दीये को जलाए रखा है, चाहे कितनी ही मद्धिम उसकी लौ हो गई हो, लेकिन दीया अब भी जलता है।
मैंने चाहा था कि वह दीया फिर अपनी पूर्णता को ले और क्यों एक के भीतर जले, क्यों न हर आदमी प्रकाश का एक स्तंभ बने।
दुनिया की किसी भाषा में मनुष्य के लिए ‘मनुष्य’ जैसा शब्द नहीं है। अरबी और अरबी से उपजी भाषाओं में, हिबू्र और हिबू्र से उपजी भाषाओं में, जो भी शब्द हैं, उनका मतलब होता है: मिट्टी का पुतला। ‘आदमी’ का मतलब होता है: मिट्टी का पुतला। ‘मैन’ का मतलब होता है: मिट्टी का पुतला। सिर्फ ‘मनुष्य’ में इस बात की स्वीकृति है कि तुम मिट्टी के पुतले नहीं हो, तुम चैतन्य हो, तुम अमृतधर्मा हो, तुम्हारे भीतर जीवन की परम ज्योति है। मिट्टी का दीया हो सकता है, ज्योति मिट्टी नहीं होती। यह शरीर मिट्टी का होगा, लेकिन इस शरीर के भीतर जो जाग रहा है, जो चैतन्य है, वह मिट्टी नहीं है। जब कि सारी दुनिया मिट्टी की खोज में लग गई, तब कुछ थोड़े से लोग ज्योति की तलाश में संलग्न रहे।
हर्षिदा, ‘तू पूछती है कि आपका क्या सपना है?’
वही जो बुद्धों का सदा से रहा है। जो भूल गया है, वह याद दिलाया जाए; जो सोया है, उसे जगाया जाए; क्योंकि जब तक आदमी यह न समझ ले कि शाश्र्वत जीवन उसका अधिकार है, ईश्र्वरत्व उसका जन्मसिद्ध हक है, तब तक आदमी पूरा नहीं हो पाता, अधूरा और अपंग रह जाता है।
जब से मैंने होश सम्हाला है, हर पल, हर घड़ी एक ही प्रयत्न और एक ही प्रयास, अहर्निश एक ही चेष्टा कि किसी तरह तुम्हारी भूली संपदा की तुम्हें याद दिला दूं, कि तुम्हारे भीतर से भी अनलहक की आवाज उठे, कि तुम भी कह सको अहं-ब्रह्मास्मि, मैं ईश्र्वर हूं।
ईश्र्वर की बातें दुनिया के कोने-कोने में हुई हैं, लेकिन ईश्र्वर सदा दूर, बहुत दूर, आसमानों के पार रहा है। केवल हमने ईश्र्वर को आदमी के भीतर प्रतिष्ठित किया है । केवल हमने ईश्र्वर को आदमी के भीतर बिठा कर आदमी को मंदिर बनने की क्षमता, सौंदर्य, महिमा दी है।
कैसे हर आदमी मंदिर बन जाए और कैसे हर आदमी का हर क्षण प्रार्थना बन जाए, इसे ही तुम मेरा सपना कह सकती हो।

प्रश्न:
प्यारे भगवान, धरती पर स्वर्ग उतारने की आकांक्षा आपको अमेरिका ले गई और वहां पर आपने संपूर्ण मानवता के सदियों-सदियों पुराने सपने को साकार कर दिखाया। क्या आप हम भारतवासियों को रजनीशपुरम की उपलब्धियों को बताने की अनुकंपा करेंगे?
भारत को भारत की याद दिलाने के लिए भारत के बाहर जाना जरूरी था। जो बहुत पास होता है, वह भूल जाता है। जो अपना होता है, उसकी हम सुनते ही नहीं। जो घर में ही होता है, उसकी खोज कौन करता है!
इधर बीस वर्षों तक मैं भारत के कोने-कोने में घूमता रहा और बीस वर्षों में जो पाया, वह सिर्फ छाती में लगे घाव हैं। क्योंकि मैं जिन्हें जगाने जा रहा था, वे अपने गहरे सपनों में थे। और कोई भी पसंद नहीं करता कि उसकी नींद तोड़ो, और कोई भी पसंद नहीं करता कि उसके सपने में विघ्न डालो। पत्थर मुझ पर फेंके गए, हत्या करने की कोशिश की गई, लेकिन यह सब मुझे स्वीकार था। और मैं समझता था कि यह होना आवश्यक है। लेकिन इससे मैं दुखी न था। एक बात से जरूर दुखी था और वह बात, जिन्होंने पत्थर फेंके या जिन्होंने छुरे फेंके या जिन्होंने जहर पिलाने की कोशिश की, उनकी नहीं है। वह बात उन लोगों की है, जिन्होंने मेरी बातों को सुन कर वाह-वाह की। उन्होंने जो घाव दिए हैं, वे अब भी हरे हैं, भरने का नाम नहीं लेते, क्योंकि वे वाह-वाह इसलिए नहीं कर रहे थे कि मैं जो कह रहा हूं, वह सत्य है। वे वाह-वाह इसलिए कर रहे थे कि मैं जो कह रहा हूं, वह उनके अहंकार की पूर्ति कर रहा है। मैं जो कह रहा था उसे वे जीवन में उतारने को राजी न थे। मैं जो कह रहा था, वे सिर्फ ताली बजा कर अपना मनोरंजन कर रहे थे, आह्लादित हो रहे थे; अपनी दीनता, अपनी हीनता, अपनी गरीबी, अपनी गुलामी को छिपाने के लिए मेरे शब्द उनका सहारा बनने लगे। इसलिए मुझे बाहर जाना पड़ा, कि शायद दूर से दी गई आवाज, उन्हें सुनाई पड़ जाए। और शायद दूर अमरीका में मैं कोई प्रयोग करके एक छोटे से भारत का निर्माण कर सकूं।
और अमरीका को चुना इसलिए कि भारत ने जो महान ऊंचाइयां पाई थीं, वे तब पाई थीं, जब भारत समृद्ध था। वे तब पाई थीं, जब दुनिया भारत को सोने की चिड़िया कहती थी। वे कोई दीन-दरिद्र, भिखमंगे और गरीब और गुलाम भारत की ऊंचाइयां नहीं थीं। खाने को रोटी भी न हो तो पंखों को आकाश में खोलना और तारों की तरफ उड़ान भरने की आकांक्षा करना संभव नहीं है। फिर अमरीका में पृष्ठभूमि तैयार थी, लोग समृद्धि की उसी ऊंचाई पर पहुंच गए हैं, जहां कभी हम थे। और जो हमने पाया था समृद्धि की ऊंचाई पर कि धन सब कुछ खरीद सकता है, लेकिन प्रेम नहीं, परमात्मा नहीं। धन सब कुछ खरीद सकता है, लेकिन आनंद नहीं, अमृत का स्वाद नहीं। धन सब कुछ खरीद सकता है, लेकिन ध्यान नहीं, शांति नहीं, मौन नहीं। धन पाकर ही आदमी को पता चलता है कि धनिक होने से ज्यादा गरीब इस दुनिया में कोई और नहीं है। सब कुछ होते हुए भीतर कुछ भी नहीं होता। खालीपन, अर्थहीनता, एक गहरा संताप कि सब कुछ मेरे पास है और फिर भी मेरे पास कुछ भी नहीं है। अमरीका उस घड़ी में है। अमरीका को जरूरत है कि कोई उसे कहे, धन के पार भी एक जगत है, जो केवल धनिक ही पा सकता है। क्योंकि उस जगत को पाने के लिए धन ही सीढ़ी बनता है। वह धन से नहीं पाया जाता। धन को पैरों के तले रौंद कर पाया जाता है। इसलिए अमरीका को चुना था।
और पांच वर्षों में, एक बहुत छोटे से समय में, जिस सपने को लेकर मैं गया था, वह पूरा भी हुआ। एक मरुस्थल को--बड़ा मरुस्थल था--एक सौ छब्बीस वर्गमील, जहां कभी कोई फूल नहीं खिला था। जिस दिन मैं उस मरुस्थल में पहुंचा, वहां एक भी पक्षी नहीं था। उस मरुस्थल को पांच वर्षों में मरूद्यान में बदल देने की चेष्टा की। पांच हजार संन्यासियों को लेकर--बारह घंटे, चौदह घंटे, प्रत्येक संन्यासी ने श्रम किया। जो जिसके पास था, धन था तो धन, तन था तो तन, सब कुछ दांव पर लगा दिया। मरुस्थल का नया जन्म हो गया, मरूद्यान बन गया। दूर-दूर से पक्षी आ गए। जंगली जानवर आ गए। हजारों हिरन मरुस्थल में आ गए। पांच हजार संन्यासियों के लिए रहने के लिए हमने मकान बनाए। अपने ही हाथों से। अमेरिका में हमने किसी की कोई सहायता नहीं ली। रास्ते बनाए, झीलें बनाईं। हंसों को निमंत्रण दिया। झीलें बनीं तो हंस भी आ गए। बगीचे लगाए तो हिरन भी आ गए। सिर्फ मेरे बगीचे में तीन सौ मोरपंख...तीन सौ मोर! वर्षा के प्रारंभ में जब वे नाच उठते, तो सारी दुनिया के रंग--सारी दुनिया का उत्सव...।
एक चौके में पांच हजार संन्यासी भोजन कर रहे थे। क्योंकि मेरी धारणा थी कि छोटे-छोटे परिवार का जमाना अब गया। अब हमें आदमी के बड़े परिवार चाहिए, कम्यून चाहिए। और पांच हजार संन्यासियों का एक साथ भोजन के लिए बैठना और किसी का गिटार पर गीत गाना और किसी का नाचना। और उत्सव के दिनों में तो बीस हजार संन्यासी सारी दुनिया से वहां इकट्ठे होते थे। उनके लिए हमने अपने हाथ से तंबू बनाए थे। और ऐसे तंबू बनाए थे जैसे तंबू कभी बनाए नहीं गए थे। वे तंबू वर्षा में, बर्फ में, धूप में, सर्दी में--हर मौसम में काम आ सकते थे। उन तंबुओं में एअरकंडीशनर लगाए जा सकते थे। उन तंबुओं में हीटर लगाए जा सकते थे। पांच हजार संन्यासियों के लिए जो मकान थे, वे सब सेंट्रली एअरकंडीशंड थे।
और सुख-सुविधाओं की जितनी व्यवस्था हो सकती थी--पांच हजार संन्यासियों के लिए--पांच सौ कारें थीं, पांच एरोप्लेन थे, सौ बसें थीं, अस्पताल था अपना, अपने डाक्टर थे, अपनी नर्सें थीं, स्कूल था, अपने शिक्षक थे; बच्चों के रहने का अलग इंतजाम था, बच्चों की अलग दुनिया थी। सुबह ध्यान के साथ काम शुरू होता। ध्यान के बाद एक घंटा मेरे साथ या तो मौन-सत्संग में बैठते या मैं कुछ बोलता तो सुनते।
और फिर दिन भर काम था और फिर सांझ उत्सव था। देर रात तक लोग नाचते-गाते। पहली बार संभवतः पांच हजार लोग पांच वर्षों तक एक साथ रहे। कोई किसी से लड़ा नहीं। कोई चोरी नहीं हुई। किसी के जीवन में न कोई चिंता थी, न कोई भविष्य की सुरक्षा का प्रश्र्न था, क्योंकि भरोसा था पांच हजार साथी और करीब दस लाख संन्यासी सारी पृथ्वी पर अपने हैं, जो हर सुख और दुख में साथ देंगे।
एक विश्र्व परिवार का निर्माण अमरीका बरदाश्त न कर सका। और जब मैं कहता हूं, अमरीका बरदाश्त न कर सका, तो मेरा मतलब है, अमरीका के राजनीतिज्ञ, अमरीका की सरकार बरदाश्त न कर सकी। अमरीका की जनता तो बहुत प्रभावित थी। उन्हें तो भरोसा भी नहीं आता था कि इस रेगिस्तान में, जहां कभी कुछ पैदा नहीं हुआ, वहां खेती-बाड़ी हो रही है, फल-फूल पैदा किए जा रहे हैं। हम अपनी सारी जरूरतें उस रेगिस्तान से पैदा कर रहे थे। भोजन शाक-सब्जी, फल-फूल, अपनी गौशाला, अपना दूध, अपना मक्खन, अपना घी, जो हमें जरूरी था।
और इस प्रयोग के साथ एक नई बात मैंने जोड़ी थी, वह थी, क्योंकि संन्यासी शाकाहारी हैं और शाकाहार पूर्ण भोजन नहीं है, उसमें कुछ कमी है और उसकी कमी खतरनाक कमी है। उसमें उन प्रोटीनों की कमी है, जिनसे मस्तिष्क निर्मित होता है। इसलिए किसी शाकाहारी को अब तक नोबल प्राइज नहीं मिल सका। इस कमी को पूरा करने के लिए हमने हजारों मुर्गियां पाल रखी थीं। और अगर मुर्गियों के अंडे बिना मुर्गों के संसर्ग के पैदा हों, तो उनमें प्राण नहीं होते, उनसे बच्चे पैदा नहीं हो सकते। लेकिन उनमें वे सब प्रोटीन होते हैं, जिनकी शाकाहारी भोजन में कमी है। इसलिए प्रत्येक संन्यासी को शाकाहारी भोजन में अनफर्टिलाइज्ड अंडों को जोड़ना एक नूतन प्रयोग था, जो कि सारी दुनिया के शाकाहारियों को आज नहीं तो कल करना पड़ेगा, अन्यथा तुम बौद्धिक रूप से पिछड़ते जाओगे, पिछड़ते जाओगे।
दूर-दूर से अमरीका में लोग देखने आने लगे और अमरीका के राजनीतिज्ञों को परेशानी पड़ने लगी, क्योंकि उनसे यह पूछा जाने लगा कि बाहर से आए हुए अजनबी लोग रेगिस्तान को स्वर्ग बना सकते हैं तो अमरीका में इतनी समृद्धि होते हुए भी लाखों भिखारी हैं, जिनके पास न घर है, न कपड़े हैं, न खाने को भोजन। जो सड़कों पर ही जीते हैं। और चूंकि मैंने उनमें से दो सौ भिखारियों को कम्यून में सम्मिलित कर लिया, अमरीकी राजनीतिज्ञों को और भी धक्का लग गया, कि जिन भिखारियों को वे भोजन नहीं दे सकते, उन भिखारियों को हमने मनुष्य होने का गौरव दे दिया। उनके साथ कोई भेदभाव न था। उनके लिए वही आदर था, वही सम्मान था, जो प्रत्येक मनुष्य के लिए होना चाहिए। वे विश्र्वास भी न कर सके। मुझसे आकर भिखारियों ने कहा कि हमें भरोसा नहीं आता, क्योंकि जीवन भर हम कुत्तों की तरह ठुकराए गए हैं। हम मनुष्य हैं, यह बात भी हमें भूल चुकी थी।
सारे अमरीका के पत्रकार, टेलीविजन, रेडियो, कम्यून पर आ-आ कर छाने लगे। सारा अमरीका उत्सुक हो गया कि क्या, कौन सी क्रांतिकारी घटना घटी। कम्यून में किसी मुद्रा का कोई चलन न था। पैसे का कोई व्यवहार न था। इसलिए मैं कह सकता हूं कि वह कम्यून, रजनीशपुरम, इतिहास में पहली साम्यवादी व्यवस्था थी, जहां कोई अमीर न था, कोई गरीब न था। होंगे तुम्हारे पास करोड़ों रुपये, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है, कम्यून में रुपये का उपयोग ही नहीं हो सकता। कम्यून में प्रत्येक व्यक्ति की जरूरत पूरी की जाएगी। जो भी जरूरत हो वह ले ले, लेकिन न तो कोई चीज खरीदी जाएगी, न कोई चीज बेची जाएगी।
अमरीकी राजनीति को दोहरी परेशानियां पैदा हो गईं। एक: कि साम्यवाद का शुद्धतम रूप जो कि सोवियत रूस में भी नहीं है। और दूसरा: कि सिर्फ श्रम और बुद्धि के आधार पर रेगिस्तान को मरुस्थल से मरूद्यान में बदला जा सकता है। और एक ऐसे समाज का निर्माण किया जा सकता है जहां कोई दुखी नहीं है, जहां कोई पागल नहीं है, जहां कोई आत्महत्या नहीं करता है, जहां कोई खून नहीं होता है। जहां कोई चोरी नहीं, कोई अपराध नहीं, जहां कोई झगड़ा नहीं। कोई हिंदू या मुसलमान का, ईसाई या यहूदी का कोई उपद्रव नहीं। जहां सारी जातियों के लोग हैं, सारे धर्मों के लोग हैं, जहां काले लोग हैं, गोरे लोग हैं, जहां करीब-करीब प्रत्येक देश के लोग हैं, लेकिन किसी को किसी से कोई ऊंच-नीच का भाव नहीं। ऐसी समता, ऐसा साम्यवाद--अमरीकी राजनीतिज्ञ के दिमाग में एक बात बैठ गई कि इस कम्यून का बना रहना खतरे से खाली नहीं है।
और यह बात अभी अमरीका के अटर्नी जनरल के मुंह से अचानक निकल गई है। एक पत्रकार कांफ्रेंस में उत्तर देते हुए। चूंकि उनसे पूछा गया था कि भगवान को क्यों आपने जेल में बंद नहीं किया? क्योंकि मेरे ऊपर उन्होंने एक सौ छत्तीस जुर्म लगाए थे। जिस आदमी पर एक सौ छत्तीस जुर्म लगाए हों, उसको सजा मिलनी चाहिए। कम से कम हजार साल की सजा तो मिलनी ही चाहिए--कम से कम। कम से कम दस-बारह जन्म लेना पड़ेंगे, तब पूरी हो सकेगी। अटर्नी जनरल के मुंह से जो कि कानून का सबसे बड़ा अधिकारी है, सच्ची बात निकल गई। और यही व्यक्ति, एक सौ छत्तीस जुर्म मैंने किए हैं, यह अदालत में पेश करने वाला था। उसने तीन बातें कहीं--एक: कि हमारा पहला मकसद कम्यून को नष्ट करना था। कोई पूछे, क्यों? कम्यून ने किसी का क्या बिगाड़ा था? कम्यून को अमरीका से कोई मतलब ही न था। निकटतम अमरीकी गांव कम्यून से बीस मील के फासले पर था। हमारे पास इतनी बड़ी जमीन थी और बाहर जाने की किसी को न फुरसत थी, न जाने की कोई जरूरत थी। कम्यून को मिटाना प्राथमिक उद्देश्य था।
नंबर दो: भगवान को जेल में बंद नहीं किया जा सकता था, क्योंकि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया और हमारे पास किसी भी अपराध के लिए कोई सबूत नहीं है।
आदमी भी इतना पाखंडी हो सकता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। यही आदमी एक सौ छत्तीस जुर्म लेकर अदालत में खड़ा होता है और यही आदमी यह भी कहने को तैयार है कि इसके पास न कोई सबूत है किसी जुर्म का और न ही कोई अपराध हुआ है।
और तीसरी बात और भी विचारणीय है: कि हम भगवान को जेल में बंद करके शहीद नहीं बनाना चाहते थे, क्योंकि उनके शहीद बनते ही उनका संन्यास दुनिया में एक प्रगाढ़ धर्म बन जाता।
बिलकुल गैर-कानूनी ढंग से कम्यून को नष्ट कर दिया गया। मुझे गैर-कानूनी ढंग से गिरफ्तार किया गया, बिना किसी वारंट के, क्योंकि उनके पास कोई कारण नहीं था गिरफ्तार करने के लिए।
गिरफ्तारी के बाद जो कि प्रत्येक व्यक्ति को अधिकार है कि वह अपने अटर्नी को खबर करे। मुझे अटर्नी को खबर नहीं करने दी गई। क्योंकि अटर्नी आते से ही पूछेगा कि वारंट कहां है? किस आधार पर मुझे अरेस्ट किया गया है?
मुझे अरेस्ट किया गया बारह संगीनों के आधार पर। किसी गिरफ्तारी के लिए कोई कारण नहीं, बल्कि बारह बंदूकें भरी हुईं! और अदालत के सामने मुझे पेश किया गया। यही अटर्नी जनरल सिद्ध करने में असमर्थ रहे और इन्होंने अदालत में स्वीकार किया तीन दिन के निरंतर विवाद के बाद। मेरे साथ पांच और संन्यासी गिरफ्तार किए गए थे। उन पांचों को बेल पर छोड़ दिया गया, लेकिन अटर्नी जनरल इस बात पर अड़े थे कि मुझे बेल नहीं दी जा सकती। और खुद उन्होंने स्वीकार किया अदालत में कि हम सिद्ध करने में असमर्थ हैं कि बेल क्यों न दी जाए। लेकिन फिर भी अमरीकी सरकार की तरफ से मैं यह प्रार्थना करता हूं जज से कि बेल न दी जाए। जज ने बेल नहीं दी!
खुद जेलर हैरान हुआ, जो मुझे वापस जेल लाया, क्योंकि वह सोच भी नहीं सकता था कि मुझे वापस जेल लाना पड़ेगा। वह मेरे सब कपड़े और सारा सामान लेकर अदालत पहुंचा था कि वहां से बेल हो जाएगी। न इनके पास अरेस्ट वारंट है, न कोई गिरफ्तारी का कारण है तो बेल देने से रोकने की तो कोई वजह ही नहीं है। खुद जेलर ने मुझसे कहा कि हम चकित हैं और हैरान हैं। हमने अपने जीवन में ऐसा मामला नहीं देखा। पहली तो बात यह है कि गिरफ्तारी गलत है। गिरफ्तारी बेवजह है। सरकारी वकील कोई कारण पेश नहीं कर सका और उसने स्वीकार भी कर लिया कि हमारे पास कोई कारण नहीं है। लेकिन सरकार का आग्रह है कि फिर भी इस व्यक्ति को बेल न दी जाए।
और जेलर ने मुझसे कहा कि बेल नहीं दी गई आपको, उसका कारण यह है कि मजिस्ट्रेट को कहा गया--एक औरत मजिस्ट्रेट थी--कि अगर मुझे बेल न दी जाए तो उसे फेडरल जज बना दिया जाएगा। और अगर मुझे बेल दी गई तो वह जिंदगी भर मजिस्ट्रेट ही रहेगी। कभी फेडरल जज नहीं हो सकती। और निश्र्चित ही सिर्फ तीन दिन के भीतर वह फेडरल जज हो गई। कानून को भी रिश्र्वत--वह भी सरकारें रिश्र्वत देती हैं।
और जिस जगह मुझे अरेस्ट किया गया नार्थ कैरोलिना में, वहां से ऑरेगॉन छह घंटे के फासले पर है। हम अपने हवाई जहाज देने को तैयार थे कि आप हमारे हवाई जहाज में, आपके पायलट, आपके पुलिस आफिसर मुझे पोर्टलैंड पहुंचा दें, जहां कि फैसला होना है, लेकिन सरकारी हवाई जहाज में ही मुझे ले जाया जाएगा।
और आप जान कर हैरान होंगे कि सरकारी हवाई जहाज को छह घंटे की यात्रा करने में बारह दिन लगे। इसलिए सरकारी हवाई जहाज में ले जाना जरूरी था, क्योंकि सरकारी हवाई जहाज एक एअरपोर्ट से दूसरे एअरपोर्ट पर जाकर रुक जाता। एक जेल से मुझे दूसरी जेल में पहुंचा दिया जाता। बारह दिन में छह जेल--बिना किसी कारण के। वह ज्यादा नहीं कर सके, क्योंकि सारी दुनिया की नजरें इस बात पर लगी थीं। लेकिन फिर भी उन्होंने हर तरह की चेष्टा की कि मुझे नुकसान पहुंचा सकें। उन्हें मालूम था कि मेरी कमर में तकलीफ है, दर्द है और डाक्टर इलाज करने में असमर्थ रहे हैं। और सिवाय आपरेशन के उन्हें कुछ रास्ता नहीं दिखता और आपरेशन से भी ठीक होगा, इसकी भी गारंटी नहीं है। और आपरेशन के बाद मामला और भी बिगड़ सकता है, इसलिए आपरेशन करने की भी वे सलाह नहीं देते।
जिस रात मुझे गिरफ्तार किया, मुझे पूरी रात एक लोहे की बेंच पर बिठा रखा। हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ियां, कमर में जंजीर और मैं हाथ भी न हिला सकूं, इसलिए हाथ की जंजीर के साथ कमर की जंजीर में भी जंजीर। और जंजीर हर वक्त ठीक उस जगह बांधी गई हर जेल में, जहां मेरी कमर में तकलीफ है। और हर जगह मुझे ठीक उसी तरह की बेंच दी गई लोहे की, ताकि जितनी तकलीफ मेरी कमर को दे सकें...
एक जेलर दूसरे जेलर को मुझे सौंपता--मैं कार के भीतर बैठा हूं, वह कार के बाहर दूसरे जेलर को कहता कान में कि कुछ भी करना सोच-समझ कर, क्योंकि व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का है और सारी दुनिया की नजरें लगी हैं। जरा सा भी कुछ गड़बड़ हुआ तो अमरीका के लोकतंत्र पर धब्बा लगेगा, इसलिए जो भी किया जाए वह अपरोक्ष होना चाहिए।
दूसरे नंबर की जेल में मुझसे कहा गया कि मैं एक झूठे नाम पर दस्तखत करूं, अपने नाम पर नहीं। मैंने कहा: यह कुछ थोड़ी अजीब सी बात है और वह भी एक कानून का अधिकारी मुझसे कह रहा है कि मैं एक झूठे नाम पर दस्तखत करूं--डेविड वाशिंगटन! और मुझसे कहा जा रहा है कि मैं डेविड वाशिंगटन के नाम से ही पुकारा जाऊंगा।
मैंने इनकार किया कि मैं कोई गैर-कानूनी काम करने को तैयार नहीं हूं, तो मुझे धमकी दी गई कि तो फिर रात भर यहीं, इसी लोहे की बेंच पर बैठे रहें। मैंने उनसे कहा कि आप पछताएंगे पीछे, क्योंकि कितनी देर यह सब चल सकता है, जिस दिन भी मैं जेल के बाहर होऊंगा, उस दिन सारी दुनिया यह सारी हरकत जानेगी और किस आधार पर आप चाहते हैं कि मैं डेविड वाशिंगटन का नाम अपना नाम बताऊं? यह तो कोई छोटी-मोटी बुद्धि का आदमी भी समझ सकता है कि इसका मतलब यह हुआ कि अगर आप मुझे मार भी डालें, तो पता भी नहीं चल सकता कि मैं कहां गया, क्योंकि आपकी फाइल में मेरा नाम भी नहीं है और कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि डेविड वाशिंगटन नाम का आदमी मैं था--किसी को पता भी कैसे होगा? इसलिए मैंने कहा कि अगर आपको उत्सुकता है तो आप डेविड वाशिंगटन नाम लिखें, फार्म भरें, दस्तखत मैं करूंगा। जेलर को भी जाना था, आधी रात तक, कब तक वह बैठा रहे, उसको भी परेशानी थी, क्योंकि मेरे साथ उसको भी बैठना पड़े। इसलिए उसने फार्म भरा, लेकिन उसको यह समझ में नहीं आया कि फार्म भर कर वह गलती कर रहा है--हैंड राइटिंग उसकी होगी और दस्तखत तो मैं अपने ही नाम के करूंगा। जब मैंने दस्तखत किए तो वह हैरान हुआ कि यह आपने क्या लिखा है! मैंने कहा: डेविड वाशिंगटन ही होगा। पर किस भाषा में? मैंने कहा: मैं अपनी भाषा में ही लिखूंगा। भाषा के संबंध में तो कोई बात तय न हुई थी।
और मैंने उससे कहा: कल सुबह टेलीविजन पर और सारे न्यूजपेपर्स में और रेडियो पर यह खबर होगी कि अब मेरा नाम डेविड वाशिंगटन हो गया है। उसने कहा: आप मुझे धमकी दे रहे हैं, यह कैसे हो सकता है? हम दो के सिवा यहां कोई भी नहीं है। मैंने कहा: कल सुबह आप देखना। क्योंकि मेरे साथ एक युवती, जो किसी अपराध में कैद थी, वह भी कार में जेल तक लाई गई थी। हवाई जहाज में उसने मेरे साथ यात्रा की थी। उसने मेरी किताबें पढ़ी होंगी, टेलीविजन पर मेरे व्याख्यान सुने होंगे। उसने कहा कि मैं आपकी कोई सेवा कर सकूं...तो मैंने उससे कहा: इतना ही खयाल करना कि जेल के भीतर जेलर से मेरी जो भी बातचीत हो--क्योंकि वह कल सुबह मुक्त होने वाली है जेल से--तो मुक्त होते ही पहला काम यह करना कि पत्रकार बाहर ही दरवाजे पर मिल जाएंगे, जो बात तू सुने, उनसे तू कह देना।
और उस लड़की ने ठीक-ठीक पूरा ब्योरा पत्रकारों को सुबह छह बजे दे दिया। सात बजे की न्यूज बुलेटिन पर सारे अमरीका में खबर हो गई। घबड़ाहट में उन्होंने मुझे उसी क्षण उस जेल से बाहर निकाला, क्योंकि तब उस जेल में रखना मुश्किल हो गया उन्हें।
हर जेल में उन्होंने किसी न किसी तरह से तरकीब की चोट पहुंचाने की। एक जेल में एक आदमी के साथ मुझे रहने को मजबूर किया, जिसके पास छह महीने से किसी को नहीं रखा गया था, क्योंकि वह आदमी मर रहा है संक्रामक बीमारी से--हर्पीज से। और उसके पास किसी भी व्यक्ति का होना निश्र्चित रूप से बीमारी को पकड़ लेना है। और छह महीने से उस छोटे से कमरे में वह अकेला रह रहा है और छह महीने से दूसरे व्यक्ति को उस कमरे में नहीं रखा गया है। सिर्फ इसलिए कि कहीं दूसरे को बीमारी न पकड़ जाए। लेकिन डाक्टर मौजूद है, जेलर मौजूद है और न डाक्टर ने एतराज किया और न जेलर ने एतराज किया। मुझे उस कमरे में बंद किया, वह आदमी मरने के करीब है, वह आदमी दूसरे दिन मर गया।
उस आदमी ने मुझसे कहा कि मैं ज्यादा अंग्रेजी नहीं बोल सकता हूं (वह आदमी क्यूबा से था) मगर इतना मैं आपको कहना चाहता हूं कि मेरी सहानुभूति आपके साथ है। मैं तो मर रहा हूं लेकिन मैं नहीं चाहता कि आप इस बीमारी से मरें। और इन लोगों की सारी चेष्टा यह है कि यह बीमारी आपको पकड़ जाए, इसलिए आप दरवाजे से अंदर न आएं, दरवाजे पर ही खड़े रहें और दरवाजे को ठोकें, चाहे रात भर दरवाजा ठोंकना पड़े। आप कमरे के भीतर प्रवेश न करें, दरवाजे पर ही खड़े रहें, जब तक कि ये दरवाजा न खोलें।
एक घंटा मुझे दरवाजा ठोंकना पड़ा, तब जेलर आया, डाक्टर आया। मैंने उनसे पूछा कि छह महीने से जब इस कमरे में किसी को भी नहीं रखा गया, तो तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम मुझे इस कमरे में रख रहे हो जो कि अपराधी भी नहीं है। और कल तुम क्या जवाब दोगे अखबारों को, टेलीविजन को और दुनिया को। और यह आदमी कहीं तुमसे ज्यादा आदमी है। और तुम डाक्टर हो, तुम्हें आत्महत्या कर लेनी चाहिए, तुमने कसम खाई है डाक्टरी की कि तुम लोगों के जीवन को बचाओगे और तुम यहां चुपचाप खड़े रहे, तुम्हारी कसम का क्या हुआ?
तत्काल मुझे दूसरे कमरे में ले जाया गया, कोई जवाब नहीं है उनके पास, लेकिन परोक्ष रूप से मुझे किसी भी तरह चोट पहुंच जाए, किसी भी तरह परेशान किया जाए, किसी भी तरह हैरान किया जाए, इसकी बारह दिन सतत उन्होंने चेष्टा की। वे बेचारे कुछ कर न पाए, इसका मुझे अफसोस है।
मगर एक बात साफ हो गई कि लोकतंत्र के नाम पर दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र नहीं है। मेरे मन में अमरीका के लोकतंत्र की इज्जत थी। लेकिन मैं यह जो देख कर लौटा हूं और जो अनुभव करके लौटा हूं, वह यह कि कोई लोकतंत्र कहीं भी नहीं है। और रोनाल्ड रीगन हिटलर नंबर एक--असली हिटलर बेचारा अब नंबर दो हो गया है।

प्रश्न:
प्यारे भगवान, आपके नाम के साथ सेक्स गुरु, अमीरों के गुरु इत्यादि भ्रांतिपूर्ण विशेषण क्यों जुड़े हुए हैं? क्या आपको भ्रांतियों के घेरे में रखने के पीछे कोई साजिश है?
हर्षिदा! साजिश बड़ी है। कहना चाहिए अंतर्राष्ट्रीय है। झूठ को भी अगर बार-बार दोहराया जाए तो वह सच मालूम होने लगता है।
मेरे नाम से कम से कम चार सौ किताबें प्रकाशित हुई हैं। मैंने तो कोई किताब लिखी नहीं, जो बोलता हूं, वह किताब बन जाती है। उन चार सौ किताबों में एक किताब है, जिसका नाम है: ‘संभोग से समाधि की ओर।’ वे बंबई में दिए गए पांच व्याख्यान हैं। जो भी उस किताब को पढ़ेगा, वह यह समझ सकता है कि वह किताब सेक्स के ऊपर नहीं है, सेक्स को कैसे अतिक्रमण किया जाए, इसके संबंध में है। उसी किताब का अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है: ‘सेक्स टु सुपरकांशसनेस।’ कैसे व्यक्ति कामवासना से, ध्यान के माध्यम से, आहिस्ता-आहिस्ता चेतना के ऊंचे से ऊंचे शिखरों को छू सकता है--यह उस किताब का मूल विषय है।
लेकिन किसी को न तो किताब पढ़नी है, न किसी को किताब में लिखी गई बात का प्रयोग करना है। बस लोगों की बुद्धि में एक शब्द डाल देना काफी है। चूंकि सेक्स शब्द का प्रयोग हुआ है, इसलिए अखबार वाले, राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, वे सारे लोग जिनके न्यस्त स्वार्थों पर मैं चोट कर रहा हूं और जिन्हें मेरी बातों का जवाब खोजे से नहीं मिलता, उन्होंने उस शब्द को ही पकड़ लिया है। और जब सारे धर्मगुरु, सारे राजनेता और सारे अखबार उनके हाथों में हैं--या तो धर्म नेताओं के हाथों में हैं या राजनेताओं के हाथों में हैं या धनपतियों के हाथों में हैं। सारी दुनिया में उन्होंने प्रचारित कर रखा है कि मैं सेक्स गुरु हूं।
सचाई यह है कि मेरे अतिरिक्त दुनिया में इस समय कोई भी सेक्स से कैसे पार जाया जाए, इस संबंध में शिक्षा देने वाला व्यक्ति मौजूद नहीं है।
और वही बात कि मैं धनियों का गुरु हूं। क्योंकि मैंने इस बात को बार-बार कहा है कि जिनके पास धन है, उनको ही दिखाई पड़ता है कि धन व्यर्थ है। धन की व्यर्थता जानने के लिए धन का होना जरूरी है।
जैनों के चौबीस तीर्थंकर, महाराजाओं के बेटे हैं। बुद्ध महाराजा के बेटे हैं। राम और कृष्ण सब महाराजाओं के बेटे हैं। तुमने कभी किसी भिखमंगे के बेटे को तीर्थंकर होते देखा? किसी भिखमंगे के बेटे को तुमने कभी अवतार होते देखा? भिखमंगे को फुरसत नहीं है। अभी धन को व्यर्थ कहे, इसके पहले कम से कम धन तो चाहिए, धन का अनुभव तो चाहिए।
तो चूंकि मैंने यह बात कही कि धर्म का ठीक-ठीक स्थापन, केवल समृद्ध देशों में हो सकता है। और भारत में भी तब धर्म का स्थापन था, जब भारत समृद्ध था।
आज क्या है?
गरीबी, भूख, बीमारी--रोटी मांगती है। भूखे आदमी के पास जाकर तुम कहो कि मैं तुम्हें ध्यान करना सिखाऊंगा तो तुम्हें खुद ही शर्म आएगी।
मैं चाहता हूं, यह देश समृद्ध हो। मैं चाहता हूं कि दुनिया में कोई भी गरीब न रहे, कोई भूखा न रहे। और क्यों चाहता हूं? इसलिए कि अगर सारी दुनिया में समृद्धि हो तो हम सारी दुनिया में अध्यात्म की प्यास को हजार गुना बढ़ा सकते हैं। हम उसे एक जंगल की आग की तरह फैला सकते हैं।
अब मेरी इस बात से अगर कोई यह मतलब निकाल ले कि मैं धनपतियों का गुरु हूं और उसके पास अगर साधन हों प्रचार के तो वह प्रचार कर सकता है। अब मेरी मुसीबत यह है कि मैं अकेला आदमी हूं और सारी दुनिया से अकेला लड़ रहा हूं। मेरे पास फुरसत भी नहीं है कि मैं उन सारे अखबारों को देख सकूं, जिनमें मेरे संबंध में खबरें छपती हैं। दुनिया की सारी भाषाओं में।
अभी परसों इजरायल के एक अखबार ने खबर छापी है कि अब मैं योजना बना रहा हूं इजरायल आने की। और इजरायल आकर मैं अपने आप को यहूदी धर्म में दीक्षित कर दूंगा। और एक बार यहूदी धर्म में दीक्षित हो जाने के बाद मैं घोषणा करूंगा कि मैं यहूदी धर्म के संस्थापक मूसा का अवतार हूं।
अब मैं इन लोगों के लिए क्या जवाब दूं? और जवाब देने का मतलब भी क्या है? और किस-किस को जवाब दूं? और दुनिया भर के अखबारों में क्या छपता है। सात वर्ष से तो मैं कुछ पढ़ता ही नहीं। मैंने पढ़ना ही छोड़ दिया, क्योंकि फिजूल की बातों को पढ़ने से क्या प्रयोजन है। सात वर्षों से न मैंने कोई किताब पढ़ी है, न कोई अखबार पढ़ा है, कोई बहुत जरूरी बात होती है तो मेरे संन्यासी मेरे तक पहुंचा देते हैं।
तो मेरे संबंध में जितने झूठ प्रचारित करने हों, बहुत आसान है, क्योंकि मुझे पता ही नहीं चलता कि मेरे संबंध में झूठ प्रचारित किए जा रहे हैं। और चूंकि मैं उनका खंडन नहीं करूंगा, लोग उन्हें मान ही लेंगे कि ठीक होंगे, नहीं तो मुझे खंडन करना चाहिए।
जनता कुछ भी संवेदनशील, सनसनीखेज बात चाहती है। अखबार उसे छापने को तैयार रहते हैं। उनके खिलाफ छापने में तो उन्हें घबड़ाहट होती है, जिनके हाथ में ताकत है। क्योंकि ताकत उनको परेशान करेगी। अगर कोई व्यक्ति राजनीति में किसी बड़े पद पर है तो उसके खिलाफ सच्ची बात को भी नहीं छापा जा सकता। मेरे हाथ में तो कोई ताकत नहीं है। मैं किसी को कोई नुकसान पहुंचा सकता नहीं। मेरे संबंध में जितनी झूठी बातें छापनी हों, छापी जा सकती हैं। लेकिन झूठ में प्राण नहीं होते। और धीरे-धीरे सारी दुनिया में लोगों को एक बात समझ में आ गई है कि मेरे खिलाफ सुनिश्र्चित रूप से षड्यंत्र कोई चल रहा है।
अभी यहां एक सप्ताह पूर्व मेरे एक संन्यासी विमलकीर्ति की पत्नी मौजूद थी। विमलकीर्ति जर्मनी के अंतिम सम्राट का प्रपौत्र है। वह मेरा संन्यासी था, उसकी पत्नी भी मेरी संन्यासिनी है। वह संन्यासी की हालत में ही मृत्यु को उपलब्ध हुआ। उसके पिता, उसकी मां, उसके भाई, सब उसकी मृत्यु के समय यहां मौजूद थे। डाक्टरों ने पहले ही दिन से कह दिया था कि उसके जिंदा बचने की कोई उम्मीद नहीं है, क्योंकि उसके मस्तिष्क की नस फट गई है, और वह बीमारी आनुवांशिक है। उसके दादा की भी मृत्यु वैसे ही हुई थी। और अभी दो महीने पहले उसके काका की मृत्यु भी ठीक वैसे ही हुई। और उस नस के फट जाने के बाद वह बेहोश है, उसको कृत्रिम श्र्वास देकर हम लाश को जिंदा रख सकते हैं, मगर यह व्यर्थ की मेहनत है। और पांच दिन के बाद तो डाक्टरों ने बिलकुल इनकार कर दिया कि फिजूल हमारा समय खराब करवाया जा रहा है। अब इस व्यक्ति के लौटने का कोई उपाय ही नहीं है। इसके मस्तिष्क का सब कुछ समाप्त हो गया है। पर मैंने उनसे प्रार्थना की कि कम से कम उसके मां-बाप को आ जाने दो। और मां-बाप के आ जाने के बाद उन लोगों ने उसकी कृत्रिम श्र्वास की जो नली थी, वह अलग कर ली और अलग करते ही वह मर गया। वह मर तो चुका था सात दिन पहले, सिर्फ, मां-बाप के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे। यूरोप के किसी अखबार ने यह खबर छाप दी कि मैंने उसे मरवा डाला, कि मैंने डाक्टरों को कहा कि उसकी नली अलग कर लो। उसकी पत्नी मौजूद थी, उसकी बेटी मौजूद थी। जब नली अलग की गई, तब उसकी पत्नी और बेटी मौजूद थीं अस्पताल में।
लेकिन उसकी पत्नी अभी यहां थी, उसने मुझे कहा कि आप हैरान होंगे जान कर यह बात कि ग्रीस की महारानी भारत के एक शंकराचार्य की शिष्या हैं। ग्रीस की महारानी का एक बेटा इग्लैंड का राजा है: प्रिंस फिलिप, एलिजाबेथ का पति। एक लड़की विमलकीर्ति की मां जर्मनी के पदच्युत सम्राट की पत्नी है। दूसरी लड़की हालैंड की, तीसरी लड़की किसी और देश की। ये सारे राज परिवार अभी महारानी की मृत्यु के वक्त इकट्ठे हुए। तुरीया, विमलकीर्ति की पत्नी भी महारानी की मृत्यु पर इकट्ठी हुई। क्योंकि वह करीब-करीब यूरोप के सारे राज परिवारों में किसी न किसी तरह का संबंध--कोई लड़का, कोई लड़की कहीं ब्याहा हुआ है, किसी की लड़की उसके यहां है। ग्रीस की महारानी करीब-करीब सारे यूरोप के राज परिवारों के ऊपर अधिकार रखे हुए है। तुरीया ने मुझे बताया कि मरने के पहले उसने कहा कि कुछ भी हो, भगवान के हाथ से तुरीया और उसकी लड़की को निकालो, क्योंकि शंकराचार्य ने मुझे कहा है कि इससे ज्यादा खतरनाक व्यक्ति और दूसरा नहीं हो सकता। यह आदमी धर्म का दुश्मन है।
और एक बैठक हुई सारे यूरोप के राज परिवारों की, जो वहां मौजूद थे अंतिम संस्कार के लिए, जिसमें यह तय किया गया कि किसी भी तरह से मेरे आंदोलन को नष्ट किया जाए और किसी भी तरह से मुझे नष्ट किया जाए और एक व्यवस्थित योजना बनाई जाए। निश्र्चित ही ये सारे लोग या तो अब भी राज्य उनके हाथ में है, जैसे कि प्रिंस फिलिप...प्रिंस फिलिप के हाथ में पूरा का पूरा काम सौंपा गया कि वह षड्यंत्र कैसे रचा जाए, इसकी व्यवस्था करें। और जो लोग अब राज्य में नहीं हैं फिर भी उनकी सत्ता तो है, फिर भी राजनीतिज्ञों पर उनका दबाव तो है, फिर भी धनपतियों पर उनका प्रभाव तो है।
अगर यूरोप के सारे देशों की पार्लियामेंट मेरे खिलाफ यह कानून बना सकती हैं कि मैं उनके देश में प्रवेश नहीं कर सकता, तो निश्र्चित ही साजिश अंतर्राष्ट्रीय है और पीछे धर्मगुरुओं का हाथ है, राजनेताओं का हाथ है, धनपतियों का हाथ है। उनके पास ताकत है।
लेकिन एक बात मैं स्पष्ट बात कर देना चाहता हूं कि झूठ के पास चाहे कितनी ही ताकत हो, सत्य के समक्ष झूठ नपुंसक है। वे सारी साजिशें बेकार हो जाएंगी। जो मैं कह रहा हूं, अगर वह सच है और जो मैं कर रहा हूं, अगर वह अस्तित्व के अनुकूल है, जो मैं बोल रहा हूं, अगर वह सनातन धर्म है, तो सारे षड्यंत्र, सारी साजिशें मिट्टी में मिल जाएंगी, उनकी कोई कीमत नहीं है। इसलिए मैं उनके खंडन करने का और व्यर्थ अपना समय नष्ट करने की चेष्टा भी नहीं करता हूं। वे अपनी मौत मर जाने वाले झूठ हैं।
मैं तो उसका गुरु हूं जिसका हृदय प्रेम का धनी है। मैं तो उसका गुरु हूं जिसके प्राणों में ध्यान का धन है। मैं तो उसका गुरु हूं जिसके भीतर सत्य को, सत्य के धन को खोजने की प्यास जगी है। अगर धनियों का गुरु ही कहना है तो निश्र्चित ही मैं धनियों का गुरु हूं, लेकिन तब मेरे धन की परिभाषा तुम्हें समझ लेनी होगी। जिनके पास केवल सोने और चांदी के ठीकरे हैं, उनको मैं भिखमंगे कहता हूं। धनी तो वह है, जिसके हृदय में शांति है, आनंद है, उल्लास है, जिसके पैरों में नृत्य है, जिसकी श्र्वासों में बांसुरी है। जिसके भीतर परमात्मा ने थोड़ी सी झलक दिखा दी है। बस वही केवल धनी है और सब गरीब हैं।
लेकिन यह मेरा धंधा ही खराब धंधा है। सुकरात को जब जहर दिया गया तो उसने यही कहा कि इसमें कसूर जहर देने वालों का नहीं है, मेरा धंधा ही खराब है। यह सत्य बांटने का धंधा खतरनाक धंधा है। मीरा ने कहा है: ‘‘जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय, जगत ढिंढोरा पीटती, प्रीत न करियो कोय।’’ परमात्मा से प्रेम किया तो झंझट शुरू हुई। अब मैं तो मुसीबत में फंसा हूं, तुमको भी फसाऊंगा। साथ ही तैरेंगे, साथ ही डूबेंगे।

प्रश्न:
प्यारे भगवान, चालीस वर्षों की स्वतंत्रता के बावजूद यह देश समृद्धिशाली क्यों नहीं है, जब कि इतने समय में रूस, चीन, जापान इत्यादि देश विश्र्व शक्तियों में तबदील हो चुके हैं? क्या आपका जीवन-दर्शन भारत को समृद्ध बना सकता है? क्या आप रजनीशपुरम जैसा स्वर्ग समस्त भारत में उतार सकते हैं?
निश्र्चित ही। भारत के समृद्ध होने में कोई बाधा नहीं है; सिवाय भारत की प्राचीन धारणाओं के।
कुछ मौलिक बातें भारत के मस्तिष्क में उतर जाएं तो केवल दस वर्षों के भीतर भारत दुनिया की विश्र्व शक्ति बन सकता है।
पहली बात कि दरिद्रता में कोई अध्यात्म नहीं है। यह और बात है कि कोई समृद्ध व्यक्ति अपनी समृद्धि को लात मार कर भिखारी हो जाए, लेकिन उसके भिखारीपन में और एक साधारण भिखारी में जमीन-आसमान का अंतर है। उसका भिखारीपन समृद्धि के बाद की सीढ़ी है और साधारण भिखारी अभी समृद्धि तक ही नहीं पहुंचा, अभी समृद्धि के पार वाली सीढ़ी पर कैसे पहुंचेगा? भारत के मन में दरिद्रता के प्रति जो एक झूठा भाव पैदा हो गया है कि यह आध्यात्मिक है उसका कारण है; क्योंकि बुद्ध ने राज्य छोड़ दिया, महावीर ने राज्य छोड़ दिया। स्वाभाविक तर्क कहता है कि जब धन को छोड़ कर लोग चले गए, गरीब हो गए, नग्न हो गए, तो तुम तो बड़े सौभाग्यशाली हो, तुम नग्न ही हो, कहीं छोड़ कर जाने की जरूरत ही नहीं है। न राज्य छोड़ना है, न धन छोड़ना है। मगर तुम भूलते हो। बुद्ध के व्यक्तित्व में जो गरिमा दिखाई पड़ रही है, वह साम्राज्य को छोड़े बिना नहीं हो सकती थी। साम्राज्य का अनुभव एक विराट मुक्ति का अनुभव है, कि धन तुच्छ है, इससे कुछ पाया नहीं जा सकता।
लेकिन इससे पूरे भारत ने एक गलत नतीजा ले लिया कि गरीब ही बने रहने में सार है। क्या फायदा है? सम्राट गरीब हो रहे हैं तो तुम्हारे गरीबी को छोड़ने से क्या फायदा है?
भारत के मन से गरीबी का आदर मिटा देना जरूरी है।
भारत में जनसंख्या को तीस वर्षों तक बिलकुल रोक देना जरूरी है।
पांच वर्षों तक रजनीशपुरम में एक भी बच्चा पैदा नहीं हुआ। कोई जोर-जबरदस्ती नहीं थी, कोई बंदूक लेकर नहीं खड़ा था पीछे। सिर्फ समझाने, समझ की बात है। हमारे पास जितनी जमीन है; जितनी चादर है, उससे ज्यादा पैर मत फैलाओ। नहीं तो या तो पैर उघड़ जाएंगे या सिर उघड़ जाएगा। कुछ न कुछ उघड़ जाएगा।
तीस वर्षों तक भारत की जनसंख्या न बढ़े।
भारत के विश्र्वविद्यालयों में, विद्यालयों में, स्कूलों में, उन विषयों पर जिनका आज जीवन को समृद्ध करने में कोई सहयोग नहीं है, जोर न दिया जाए, जैसे भूगोल, इतिहास। तकनीकी ज्ञान, साइंस और ध्यान, ये भारतीय शिक्षा के आधार बन जाएं। और इन दोनों के बीच संतुलन बना रहे कि जितना विज्ञान बढ़े, उतना ही ध्यान बढ़े। विज्ञान बढ़ जाए और ध्यान न बढ़े तो खतरा है। क्योंकि तब ऐसा होगा, जैसे छोटे बच्चे के हाथ में नंगी तलवार आ गई।
भारत में इतने धर्म हैं, जिनमें रोज झगड़ा है। इस मूर्खता को छोड़ा जाए।
कम से कम भारत पहल करे दुनिया में कि धर्म एक है।
और उसका संबंध न हिंदू से है, न मुसलमान से है।
उसका संबंध तो भीतर की वीणा के तार गुंजाने से है। संन्यास के नाम से मैंने उसी एक धर्म को फैलाने की कोशिश की है ताकि जो शक्ति व्यर्थ लड़ने में लग जाती है वही शक्ति भारत में सृजन के काम में आ जाए।
भारत के चालीस वर्ष खराब हुए, उसके पीछे कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि महात्मा गांधी की जीवन-दृष्टि बहुत आदिम थी, विकासशील नहीं थी। चरखे पर रुक गई थी। चरखे को भुलाना पड़ेगा, दफनाना पड़ेगा, समादर सहित। गांधी को आदर दो, क्योंकि उन्होंने देश की आजादी के लिए अथक प्रयास किया। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जो लोग देश की आजादी के लिए लड़ना जानते हैं, वे ही लोग देश का निर्माण करना भी जानते होंगे। ये दोनों अलग बातें हैं। देश की आजादी के लिए लड़ना एक बात है। यह एक सैनिक की बात है। एक योद्धा की बात है।
मेरे परिवार में सारे लोग जेल गए। मैं उन सबसे पूछता था, मुझे तुम यह बताओ कि तुम्हारी आजादी अंग्रेजों से आजादी है यह तो ठीक, लेकिन आजादी किसलिए? आजादी किससे, यह तो समझ में आता है। लेकिन किसलिए? तुम्हारे पास अगर आजादी आज आ जाए तो तुम क्या करोगे? देश के बड़े-बड़े नेताओं से, मैं तो छोटा था, जयप्रकाश से मैंने पूछा, कि अगर आज आजादी आ जाए तो क्या करोगे? तुम्हारे पास आजादी के बाद क्या करना है इसकी कोई योजना, कोई स्पष्ट धारणा नहीं है। और मुश्किल यही हो गई कि जो लोग आजादी का युद्ध लड़े उन्हीं के हाथ में आजादी की सत्ता गई। वे लड़ना तो जानते थे, मगर सृजन करना और निर्माण करना नहीं जानते थे। उससे उनका कोई नाता नहीं था। वह उन्होंने कभी सोचा नहीं था।
अब जरूरत है हमें कि हम उन लोगों के हाथ में सत्ता दें, जो देश में सृजन, नई जीवन-दृष्टि, नये आयाम खोलने की क्षमता रखते हों।
और उन लोगों की कमी नहीं है। हिंदुस्तान में वैज्ञानिक कोई पैदा होता है तो उसे पश्र्चिम में नौकरी करनी पड़ती है, क्योंकि हिंदुस्तान में पहली तो बात उसके लिए प्रयोग करने के लिए कोई साधन नहीं है। कोई प्रयोगशाला नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वह प्रोफेसर हो सकता है। सृजनात्मक कुछ भी उससे न हो सकेगा। और भारत को निर्माण करना हो तो हमें सृजन पर जोर देना चाहिए।
पांच हजार लोगों के कम्यून में वैज्ञानिक थे, सर्जन थे, डाक्टर थे, मनोवैज्ञानिक थे, मनोचिकित्सक थे, अणुविद थे। और मैं उन सबको भारत ला सकता हूं। मेरे संन्यासियों में कोई आदिवासी नहीं है। यह कोई ईसाई मिशनरियों का मामला नहीं है कि अनाथालय के बच्चे और आदिवासी! मेरे संन्यासियों में जगत के श्रेष्ठतम प्रतिभाशाली लोग हैं। मैं उन सबको भारत ला सकता हूं, पूरे दस लाख संन्यासियों को और यहां भारत में उनको पूरे सृजन में लगा सकता हूं।
लेकिन इस देश की सरकार मुझ पर रोक लगाना चाहती है कि कोई भी बाहर से संन्यासी हिंदुस्तान न आ सके। नासमझी की एक सीमा होती है। इनको पता होना चाहिए कि हम अपने बच्चों को पढ़ाते हैं, लिखाते हैं, उन पर खर्च करते हैं। उनको पश्र्चिम पढ़ने भेजते हैं और जब वे पढ़-लिख कर तैयार हो जाते हैं, तो पश्र्चिम उन्हें पी लेता है। सारा खर्च हमारा, प्रतिभा हमारी, लेकिन उसका अंतिम फल पश्र्चिम को मिलता है। अमेरिका जानता है कि किस तरह सारी दुनिया से प्रतिभाशाली लोगों को खींच लेना।
मेरे पास वह प्रतिभाशाली लोगों की जमात है।
लेकिन एक मूढ़ सरकार हमारी है, वह मेरे संन्यासियों को भारत आने से रोक रही है। कानूनन तो नहीं रोक सकती। तो पार्लियामेंट में तो मिनिस्टर कहते हैं कि हम संन्यासी नहीं रोकेंगे और एंबेसीज को खबरें दी जाती हैं कि संन्यासियों को आने मत देना। जगह-जगह से संन्यासी मुझे खबर भेज रहे हैं कि हम एंबेसी में जाते हैं और वहां से खबर मिलती है कि संन्यासी को भारत जाने की कोई जरूरत नहीं है!
मेरे एक मित्र ने अभी आस्ट्रेलिया से मुझे खबर की। सुन कर मुझे धक्का लगा कि भारतीय एंबेसेडर ने एक युवक को, इंजीनियर को कहा, जो कि संन्यासी है, कि तुम किसलिए भारत जाना चाहते हो? उसने कहा: मैं भारत ध्यान सीखने जाना चाहता हूं। तो भारतीय राजदूत ने कहा: कि भारत, ध्यान, योग इत्यादि सीखने जाने के लिए अब कोई जगह नहीं है। वे जमाने लद गए। अब इस तरह के लोगों को हम भारत नहीं जाने देंगे।
यह हमारे राजदूत हैं! कोई व्यक्ति ध्यान सीखने भारत आना चाहता है और हमारे राजदूत उससे कहते हैं कि वे जमाने लद गए, अब भारत कोई ध्यान सीखने नहीं जा सकता।
और मेरे लिए भारत सिवाय ध्यान सीखने के और किसी बात का प्रतीक नहीं है। यह ध्यान का विश्र्वविद्यालय है। और यह आज नहीं सदियों से ध्यान का विश्र्वविद्यालय है।
जो चालीस वर्ष हमने खोए हैं, वह दस वर्ष में हम वापस पा सकते हैं। लेकिन बस मजबूरी तो यह है कि उल्लू मर जाते हैं, औलाद छोड़ जाते हैं। और उल्लू ही ठीक थे, औलाद और भी उपद्रव है।

प्रश्न:
प्यारे भगवान, भारतवासियों के लिए आपका कोई ऐसा संदेश है, जिसे आप उन तक पहुंचाना चाहेंगे?
हर्षिदा! इतना ही कहना चाहता हूं भारत से कि तुम अपने असली चेहरे को पहचानो, तुम गौतम बुद्ध के देश हो। और तुम्हारे राजदूत कह रहे हैं कि ध्यान के लिए भारत जाने के लिए अब द्वार बंद हैं। तुम कृष्ण के देश हो। तुम पतंजलि के देश हो। तुमने उन सितारों को जन्म दिया है, जिनका कोई मुकाबला दुनिया में नहीं है। सारे आकाश के तारे तुम्हारे तारों के सामने फीके हैं। तुम जागो, ताकि दो कौड़ी के राजनीतिज्ञ तुम्हारा और तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों का शोषण न कर सकें। ताकि अंधे लोग एक आंख वालों के देश का मार्गदर्शन न कर सकें। तुम जरा याददाश्तों से भरो। तुम जरा उन सारी सुगंधों को फिर से याद करो। उपनिषदों की गूंज, कबीर के गीत, मीरा के नृत्य, तुम अद्वितीय हो।
छोटे-मोटे लोग तुम्हारे ऊपर अधिकार किए बैठे हैं। इन्हें उतार फेंको। तुम्हारा देश अभी भी बुद्धिमानों से खाली नहीं है। लेकिन बुद्धिमान व्यक्ति चुनाव में भिखमंगों की तरह तुम्हारे पास वोट मांगने नहीं आएंगे। जो तुम्हारे पास वोट मांगने आए, उसे वोट मत देना। जिसे तुम वोट देने योग्य समझो, उसके पैर पड़ना, उसे समझाना-बुझाना कि तुम खड़े हो जाओ, हम तुम्हें वोट देना चाहते हैं। जो तुम्हारे पास भीख मांगने आता है, वह दो कौड़ी का है। जिसकी कोई कीमत है और जिसकी कोई आत्मा है और जिसका कोई स्वाभिमान है, वह तुमसे भीख मांगने नहीं आएगा। तुम्हें उससे जाकर प्रार्थना करनी होगी।
भारत को एक नये ढंग का लोकतंत्र दुनिया को देना होगा, जहां नेता भीख नहीं मांगता, जहां जनता बुद्धिमानों को, विचारशीलों को प्रार्थना करती है कि थोड़ा सा समय, थोड़ी सी बुद्धिमत्ता इस गरीब देश के लिए भी दे दो।

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