POLITICS & SOCIETY‎

Phir Amrit Ki Boond Padi 04

Fourth Discourse from the series of 5 discourses - Phir Amrit Ki Boond Padi by Osho.
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प्रश्न:
भगवान, आजकल हमारे देश में नीति-निर्माण बार-बार देश को इक्कीसवीं शताब्दी में ले जाने की बात कर रहा है। खासकर के पिछले डेढ़-दो वर्षों में यह बहस काफी बढ़ गई है कि देश को इक्कीसवीं शताब्दी में ले जाना है। क्या आप समझते हैं कि मौजूदा हालातों में यह संभव होगा?
पहली तो बात यह है कि देश बीसवीं सदी में भी है या नहीं! इक्कीस में ले जाना है, वह तो समझ में आ गया, मगर किसको ले जाओगे? यहां लोग हजारों वर्ष पीछे जी रहे हैं। इस देश के नेता-महात्मा गांधी जैसे लोग भी सोचते हैं कि चरखे के बाद जो भी वैज्ञानिक अनुसंधान आविष्कार हुए हैं, वे सब नष्ट कर दिए जाने चाहिए। चरखा आखिरी विज्ञान है। महात्मा गांधी रेलगाड़ी के खिलाफ थे, टेलीफोन के खिलाफ थे, टेलीग्राम के खिलाफ थे! अगर उनकी बात मान ली जाए...और उनकी बात मान कर इस देश के नेता चलते रहे हैं। कम से कम दिखाते तो रहे हैं, कम से कम गांधी की टोपी तो लगाए रहते हैं, कम से कम गांधी की खादी तो पहन रखी है। अगर उनकी बात मान ली जाए तो यह देश कम से कम दो हजार साल पीछे पहुंच जाएगा। इक्कीसवीं सदी की तो छोड़ दो, अगर यह पहली सदी में भी पहुंच जाए तो धन्यभाग! जो लोग इसे इक्कीसवीं सदी में पहुंचाने की बातें कर रहे हैं, उनकी खुद की बुद्धि इतने सड़े-गले विचारों से भरी है कि वे विचार सारी दुनिया में कभी के रद्द हो चुके, मगर भारत में अभी भी जिंदा हैं। बात तो बड़ी प्यारी है कि इक्कीसवीं सदी में चले चलें और दूसरों से भी पहले चले चलें--मगर बैठे हैं बैलगाड़ी पर! दूसरे चांद पर पहुंच गए हैं। हां, कहानियों में कभी-कभी हम भी चांद पर पहुंच जाते हैं। मगर चांद पर भी पहुंच जाएंगे तो भी रहेंगे तो हम हीं।
मैंने सुना है कि जब पहली बार पहला अमरीकी चांद पर उतरा तो वह देख कर हैरान हुआ कि एक हिंदू साधु धूनी रमाए वहां बैठा है! उसने कहा: हद्द हो गई! हम मर गए मेहनत कर-कर के, अरबों-खरबों डालरों का खर्च, और ये भैया धूनी लगाए यहां पहले ही से बैठे हैं! आध्यात्मिक चमत्कार ही है। सो उस अमरीकन ने जाकर उनके पैर छुए, जब उन्होंने पैर छुए तो साधु ने आंखें खोलीं और अमरीकी से बोला, सिगरेट है? बहुत दिन हो गए, अमरीकी सिगरेट का मजा नहीं मिला। उसने कहा: सिगरेट तो तुम ले लो, मगर यह तो बताओ यहां पहुंचे कैसे?
साधु ने कहा: इसमें भी क्या अड़चन है! हमारे देश की आबादी जानते हो? आजाद हुआ था, तब चार सौ मिलियन थी। अब नौ सौ मिलियन है। और इस सदी के पूरे होते-होते एक हजार मिलियन को पार कर जाएगी। तुम्हारे सब ढोंग-धतूरों की हम सुनते थे कि तुम यह आयोजन कर रहे हो, वह आयोजन कर रहे हो। हमने कहा, क्यों फिजूल की बातों में पड़ते हो, अरे एक के ऊपर एक खड़े होने लगो--एक के ऊपर एक! जैसे बंबई में मकान खड़े करते हैं ऐसे आदमियों को एक के ऊपर एक खड़ा करते चले गए और चूंकि हम साधु थे, इसलिए सबके ऊपर! मगर सब नालायक, यहां मुझे अकेला छोड़ कर अपने-अपने काम-धंधे पर चले गए।
कहानियों में इक्कीसवीं सदी में पहुंच जाना आसान है। और भोली-भाली जनता को, नासमझ जनता को, जिसे इक्कीस तक गिनती भी पढ़नी नहीं आती, जिसके लिए दस यानी बस--उसको तुम इक्कीसवीं सदी की बात करो, कि इक्तीसवीं सदी की बात करो, कोई फर्क नहीं पड़ता। सोचती है जब तुम कह रहे हो तो ठीक ही कह रहे होओगे।
और फिर तुम्हारी किसी बात का कोई भरोसा भी नहीं रहा है, क्योंकि चालीस साल से तुमने हर बार धोखा दिया। चालीस साल से भारत के नेता धोखे पर धोखा दे रहे हैं। जनता के मन में एक समादर की भावना थी चालीस साल पहले। इन्हीं लोगों के प्रति, इनके बापदादों के प्रति। आज भारत के बेपढ़े लोगों के मन में भी राजनीतिज्ञों के प्रति कोई सम्मान नहीं है, सिर्फ अपमान है। इनकी गिनती भी लुच्चे-लफंगों के सिवाय और किन्हीं में की जाती नहीं--की भी नहीं जा सकती। लुच्चे-लफंगे तो किसी एकाध आदमी को इधर-उधर थोड़ा-बहुत लूट-खसोट लेते हैं, किसी की जेब काट ली--ये सारे देश की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं। सारे देश के आने वाले भविष्य को खराब कर रहे हैं। लेकिन लफ्फाजी की बातें तो इन्हें करनी ही पड़ेंगी। बातों के सिवाय इनके पास कुछ और है भी नहीं। इक्कीसवीं सदी। और चारों तरफ भारत के लोगों को देखो!
इक्कीसवीं सदी को लाने का अर्थ होगा, जीवन के सारे मूल्य बदले जाएं।
अभी भी हरिजनों के साथ वही व्यवहार हो रहा है जो पांच हजार साल पहले होता था। और झूठ ऐसा हमारी आत्माओं में घुसा है कि साधारण आदमी को हम छोड़ दें, साधारण आदमी की मैं बात ही नहीं करता--महात्मा गांधी का यह निरंतर कहना था कि भारत का पहला राष्ट्रपति एक औरत होगी और हरिजन औरत होगी। न तो डाक्टर राजेंद्र प्रसाद औरत थे, जहां तक मैं समझता हूं, और न ही हरिजन थे--और गांधी ने ही उनको चुना! क्या हुआ उन पुराने वायदों का? कहां गई वे ऊंची-ऊंची बातें? जो जहर तुमने हरिजनों को पिलाया, वह कहां गया?
वह भी सब राजनीति थी। क्योंकि घबड़ाहट वही की वही थी, अंबेदकर के नेतृत्व में हरिजन भी अलग हो जाना चाहते थे। अगर मुसलमान अपना देश अलग मांग रहे हैं और उनकी मांग जायज समझी जा रही है। और हिंदू अपना देश अलग मांग रहे हैं तो हरिजन जो कि हिंदुओं का चौथा हिस्सा हैं। और हजारों साल से सताए गए लोग हैं। इस दुनिया में उनसे ज्यादा सताया गया और कोई भी नहीं है। अगर वे भी चाहें कि हमें अपना अलग देश दे दो, तो गांधी उपवास पर बैठ गए! आमरण उपवास! आमरण उपवास एक का भी नहीं हुआ, क्योंकि मरने के पहले ही संतरे का रस--उस सबका आयोजन पहले से होता है। डाक्टर जांच कर रहे हैं।
और सारे देश में उथल-पुथल...कि महात्मा गांधी कहीं मर न जाएं--बात का रुख ही बदल दिया। हरिजनों की तो बात ही समाप्त हो गई। अंबेदकर की जान पर बन आई। लोग उसकी गर्दन दबाने लगे कि तुम माफी मांगो महात्मा गांधी से और कहो कि हम अलग देश या अलग होने की मांग नहीं करेंगे। उसकी मांग जायज थी। लेकिन यहां जायज और नाजायज की कौन फिकर करता है! और उसको भी लगा कि अगर महात्मा गांधी मर गए...तो मैं मर जाऊं यह तो कोई बड़ी बात नहीं है, इस देश में हरिजनों को जला कर खाक कर दिया जाएगा--एक कोने से दूसरे कोने तक। उनके झोपड़ों में आग लग जाएगी, उनकी स्त्रियों पर बलात्कार होंगे, गांधी के मरने का बदला लिया जाएगा। यह बात ही खत्म हो गई कि वह जो कह रहा था, ठीक कह रहा था या गलत कह रहा था--यह बात का रुख ही बदल गया।
मामला यह हो गया कि इतने हरिजनों को इतने उपद्रव में डालना उचित है या नहीं? यूं ही बेचारे बहुत परेशान रहे हैं। अब और यह आखिरी परेशानी है। तो अंबेदकर खुद ही संतरे का रस लेकर हाजिर हो गए, माफी भी मांग ली--जानते हुए कि यह आदमी धोखा दे रहा है हरिजनों को, यह आदमी इस देश को धोखा दे रहा है। लेकिन हरिजनों को न तो अलग होने का हक है, न अलग मताधिकार का हक है। उतनी छोटी सी मांग थी कि या तो अलग देश दे दो या कम से कम अलग मताधिकार दे दो, ताकि इनकी आवाज भी तुम्हारी संसद में पहुंच सके कि इन पर क्या गुजरती है--इसकी खबर भी नहीं छपती, इसकी खबर भी तुम तक नहीं पहुंचती।
और आश्र्वासन दिया गांधी ने कि चिंता न करो, पहला राष्ट्रपति हरिजन होगा। और न केवल हरिजन, बल्कि, स्त्री। क्योंकि स्त्री को भी बहुत सताया गया है। हरिजन को भी बहुत सताया गया है। स्वतंत्रता में यह सब न चलेगा।
स्वतंत्रता आ भी गई--न कोई हरिजन, न कोई स्त्री! स्वतंत्रता आई और करोड़ों लोग मरे, लुटे, न मालूम कितने बच्चों की जानें गईं, कितनी स्त्रियों की इज्जत गई, कितने लोगों को जबरदस्ती जिंदा जलाया गया। गजब की आजादी आई!
यह प्रेम से हो सकता था। लेकिन महात्मा गांधी और उनके शिष्यों ने यह नहीं होने दिया। इसे उस स्थिति तक पहुंचा दिया, जहां दुश्मनी आखिरी जगह पहुंच गई। कि जब यह हुआ तो इसका परिणाम हिंसा के सिवाय और कुछ न था। यही पंजाब में हो रहा है। यही आसाम में हो रहा है। यही कश्मीर में हो रहा है। यही देश के कोने-कोने में होगा। और ये छुटभैये देश को इक्कीसवीं सदी में ले चले!
एक ही तरकीब है ले जाने की--इक्कीसवीं सदी के कैलेंडर छाप लो और घरों में टांग दो। पहुंच गए इक्कीसवीं सदी में! गिनती करने लगो इक्कीसवें सदी की। किसी के बाप का हक है कि रोके। कैलेंडर हमारा, हम छापते हैं, हमें नहीं रहना बीसवीं सदी में, हमें इक्कीसवीं सदी में रहना है। कैलेंडर में पहुंच सकते हो, जिंदगी में नहीं। और जिंदगी में जो तुम्हें पहुंचा सकते हैं, उनकी तुम सुनने को भी राजी नहीं हो।
मैं तुम्हें इक्कीसवीं सदी में पहुंचा सकता हूं, लेकिन तुम मेरी बात भी सुनने को राजी नहीं हो। क्योंकि इक्कीसवीं सदी में पहुंचना दो बातों पर निर्भर है। पहला, तुम्हें अपने अतीत से मुक्त होना होगा, निर्भार होना होगा। तुम इस बुरी तरह बंधे हो पीछे से कि एक कदम आगे बढ़ते हो और दो कदम पीछे हट जाते हो। हर मामले में तुम पीछे बंधे हो। पीछे से सारे संबंध छोड़ देने होंगे। जरा सोचो, प्रकृति ने भी आंखें तुम्हारी खोपड़ी में पीछे नहीं लगाई हैं। आंखें हैं आगे देखने को, जो बीता सो बीता, जो छूटा सो छूटा, जो टूटा सो टूटा। आंखें आगे लगाओ। मगर नहीं, तुम रामलीला देख रहे हो।
इक्कीसवीं सदी में रामलीला नहीं हो सकती। इक्कीसवीं सदी में राम की कोई जगह नहीं है। क्योंकि राम का पूरा व्यवहार अमानवीय है। एक शूद्र के कानों में इसलिए शीशा पिघलवा कर भरवा दिया क्योंकि उसने ऋग्वेद के वचन सुन लिए थे। इसी राम के राज्य को महात्मा गांधी इस देश में लाना चाहते थे। यह बेरहमी, यह अमानवीयता और इसके हो जाने के बाद भी राम अब भी ईश्र्वर के अवतार बने हैं। अब भी तुम्हारे पूज्य हैं। अब तो उनको जयरामजी करो।
थोड़ा पीछे लौट कर देखो कि किन-किन से तुम बंधे हो और कैसे-कैसे लोगों से तुम बंधे हो!
कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं, जिनमें सिर्फ एक विवाहित स्त्री थी, रुक्मणि। उसका बहुत नाम भी नहीं आता बेचारी का। विवाहित स्त्रियों को कौन पूछता है? अपनी स्त्रियों को कौन पूछता है? एक को छोड़ कर बाकी जो सोलह हजार थीं--वे भगाई हुई थीं, वे दूसरों की थीं; उनके बच्चे थे, उनके पति थे; उनके बूढ़े सास-ससुर होंगे, उनके घर उजड़ गए होंगे। उनका कसूर सिर्फ इतना था कि वे खूबसूरत थीं। और कृष्ण जिसको देख लें, और उनकी नजर में किसी की खूबसूरती आ जाए, तो फिर इस बात की कोई फिकर नहीं कि इसका परिणाम क्या होगा--वह स्त्री उठवा ली जाती थी। जबरदस्ती सैनिक उसे उठा कर कृष्ण के हरम में पहुंचा देते थे। और फिर भी भारत में एक भी आदमी की हिम्मत नहीं कि कृष्ण के खिलाफ अंगुली उठाए--कि इस आदमी को हम ईश्र्वर का पूर्ण अवतार कहते हैं! अगर ये ईश्र्वर के पूर्णावतार के गुण हैं तो अब हम नहीं चाहते कि ईश्र्वर दुबारा यहां आएं। अब कहीं और जाएं--बहुत-बहुत तारे हैं, बहुत उपग्रह हैं, बहुत नक्षत्र हैं, जहां मर्जी हो, मरें; मगर यहां नहीं।
मैं गुजरात में एक शिविर ले रहा था, छोटी सी सुंदर जगह--तुलसी श्याम। तुलसी श्याम की भगाई हुई पत्नी थी। मंदिर में भगाई हुई पत्नी के साथ उनकी मूर्ति है, जेलखाने में होनी चाहिए, मंदिर में है! घाटी में मंदिर है, मंदिर में तुलसी श्याम की सुंदर मूर्ति है। और घाटी के ऊपर, दूर झाड़ियों में छिपा एक छोटा सा मंदिर है, जिसमें रुक्मणि की मूर्ति है--बेचारी गरीब वहां बैठ कर छिप कर देख रही है कि भैया क्या खेल कर रहे हैं!
तुम्हें अपने बहुत से मूल्य बदलने होंगे। दुखदायी होगा। क्योंकि उन मूल्यों से बड़ा लगाव रहा है। तुमने कभी उनके अंधेरे पहलुओं को देखा ही नहीं। किसी ने तुमसे उनकी कभी आलोचना ही नहीं की। हम आलोचना करना भूल ही गए। हम तो बस अंधी श्रद्धा, अंधी पूजा, अंधा विश्र्वास...इक्कीसवीं सदी में जाना हो तो तुम्हें इस अंधेपन को छोड़ना होगा। मशीनें नहीं ले जा सकतीं तुम्हें, आंखें चाहिए, साफ आंखें चाहिए। जो दूर तक देख सकती हों। और विश्र्वासी की आंखें इतनी अंधी होती हैं कि वह पास तक भी नहीं देख सकतीं, दूर तक देखने का तो सवाल ही क्या है। तुम्हें संदेह करना सीखना होगा। क्योंकि संदेह की तलवार ही तुम्हारे अंधविश्र्वासों को काटेगी। और तुम्हें मौका देगी चिंतन का, मनन का, ध्यान का।
यह जो पश्र्चिम में विज्ञान पैदा हुआ है, तीन सौ वर्षों में ही पैदा हुआ है। और इन तीन सौ वर्षों में ईसाइयत से इंच-इंच पर लड़ कर पैदा हुआ है। क्योंकि छोटी-छोटी बातों पर ईसाइयों का अड़ंगा है। बाइबिल कहती है, जमीन चपटी है। विज्ञान की खोज कहती है, जमीन गोल है। बाइबिल कहती है, सूरज जमीन के चक्कर लगाता है। और विज्ञान ने पाया कि बात उलटी ही है--जमीन सूरज के चक्कर लगाती है।
और जब गैलीलियो ने पहली दफा अपनी किताब में यह लिखा कि जमीन सूरज के चक्कर लगाती है तो उस बूढ़े आदमी को जो बिलकुल मरणासन्न था, घसीट कर पोप की अदालत में ले जाया गया। और पोप ने उससे कहा कि तुम अपनी किताब में बदलाहट कर लो, अन्यथा जिंदा जला दिए जाओगे। गैलीलियो ने कहा: मुझे कोई अड़चन नहीं है, मैं किताब में बदलाहट कर लूंगा। जिंदा जलने का मुझे कोई शौक नहीं है, मर कर तो जलना ही है, इतनी जल्दी भी क्या है। रही किताब, सो किताब में बदल दूंगा। मगर एक बात कहे देता हूं, मेरे किताब में बदलने से कोई भी फर्क नहीं होगा; जमीन सूरज के चक्कर लगाएगी और लगाएगी। लाख मेरी किताब में मैं कुछ भी लिखूं, न सूरज पढ़ता है मेरी किताब, न जमीन पढ़ती है मेरी किताब। और तुम इतना परेशान क्यों हो? एक छोटी सी लकीर, अगर बाइबिल के खिलाफ चली जाती है तो तुम्हारी इतनी परेशानी क्या है?
और पोप ने जो शब्द कहे, वे खयाल रखने जैसे हैं। पोप ने कहा कि परेशानी यह है कि अगर बाइबिल का एक वचन भी गलत सिद्ध हो जाता है, तो लोगों को संदेह उठने शुरू हो जाएंगे कि कौन जाने, जब एक बात गलत हो गई तो दूसरी बातें भी गलत हों--कौन जाने! और अब तक वे मानते रहे कि बाइबिल ईश्र्वर की लिखी हुई किताब है। और अगर ईश्र्वर भी गलतियां कर सकता है तो पोप की क्या हैसियत है, जो इस बात का दावा करता है कि उससे गलतियां होती ही नहीं हैं। हम बाइबिल में लिखी किसी बात के खिलाफ कुछ भी बरदाश्त न करेंगे। लेकिन लड़ाई जारी रही। तीन सौ वर्षों में निरंतर विज्ञान इंच-इंच लड़ा।
इस देश में कोई लड़ाई नहीं हुई है। इस देश में विज्ञान सिर्फ तुमने स्कूल और कालेज में पढ़ा है, सिर्फ ऊपर-ऊपर है। विज्ञान भी पढ़ रहे हैं, हाथ में हनुमान जी का ताबीज भी बांधे हुए बैठे हैं। ये नालायक तुम्हें इक्कीसवीं सदी में ले जाएंगे? विज्ञान की परीक्षा देने जाते हैं, पहले हनुमान जी के मंदिर में नारियल फोड़ आते हैं! वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा नहीं हो पाया है। उधार है हमारा सब विज्ञान; पढ़-लिख लेते हैं, समझ लेते हैं, मगर भीतर, भीतर हम वही के वही हैं। भीतर हमारे विश्र्वास के आधार वही के वही हैं।
मेरे एक मित्र थे बड़े डाक्टर। न मालूम कितने लोगों का उन्होंने इलाज किया होगा। और उनकी बड़ी दूर-दूर तक प्रसिद्धि थी। लेकिन जब उनकी पत्नी बीमार पड़ी, तो एक दिन मुझसे बोले कि सब इलाज कर रहे हैं, लेकिन उसे लाभ नहीं हो रहा। मेरा नौकर कहता है कि अगर कोई साधु-संत आशीर्वाद दे दें, तो ही कुछ हो सकता है। मैंने कहा: तुम इतने बड़े डाक्टर हो, तुम जानते हो कि बीमारी हो तो उसका कारण होता है। उसका निदान करो, कारण को मिटाने की कोशिश करो। तुम्हारी पत्नी किसी साधु-संत के अभिशाप से तो बीमार हुई नहीं है कि वरदान देने से ठीक हो जाएगी। अगर अभिशाप से बीमार हुई होती तो शायद वरदान देने से ठीक भी हो जाती। वे बोले, तुम कुछ भी कहो, यह मामला ऐसा है कि यहां बुद्धि चकराती है। बात तुम्हारी समझ में आती है, मगर अगर तुम किसी साधु-संत को जानते हो तो बताओ। मैंने कहा: ऐसे मैं बहुत से साधु-संतों को जानता हूं। तुम्हें ले चलूंगा।
मेरे एक मित्र पास ही दस-बारह मील दूर पहाड़ियों में रहते थे। साधु-संत तो नहीं थे, मस्त आदमी थे। कमा लिया था अपने लायक, ब्याज मिल जाता था, चल जाता था काम। अकेले पहाड़ियों में एक छोटी सी झोपड़ी बना कर मौज से रहते थे।
उनसे मैंने कहा: एक दिन जरा साधु-संत होना पड़ेगा। उन्होंने कहा: मतलब? मैंने कहा: जरा धूनी वगैरह लगा लेना, नंग-धड़ंग बैठ जाना, भभूत रमा लेना। अरे, उन्होंने कहा: यह तुम भी क्या बकवास कर रहे हो? काहे के लिए? कोई फिल्म की शूटिंग हो रही है क्या?
मैंने कहा: एक गरीब डाक्टर है, उसकी पत्नी मर रही है। उसको साधु-संतों का आशीष चाहिए। जरा सी राख उठा कर दे देना, कह देना कि बच्चे, सब ठीक हो जाएगा, जा। वे कहने लगे, बड़ी मुश्किल में डाल रहे हो, इस गांव में सब मुझे जानते हैं, वह डाक्टर भी मुझे जानता है।
तो मैंने कहा कि वह तुम्हें जानता है? उसके पहले मैं नाई को लाऊंगा, तुम्हारी मूंछ, तुम्हारी खोपड़ी--सब सफाई करवाऊंगा। ठीक साधु-संत बनाऊंगा--ऐसा कि अगर शूटिंग भी हो जाए उस वक्त तो कोई हर्जा नहीं। कहने लगे: यह बात जरा ठीक नहीं है। और फिर इसके बाद तुम तो चले जाओगे--मैं गांव में भी नहीं जा सकता। लोग पूछेंगे, हुआ क्या? पिताजी मर गए? सिर क्यों मुड़ा लिया है? अरे तुम्हारी मूंछों को क्या हुआ? और मेरी मूंछों की शान है! सच में उनकी बड़ी शानदार मूंछें थीं। और बड़ा ताव देकर रखते थे। मैंने कहा: कुछ भी हो, उनकी औरत को तो बचाना होगा। मूंछें तो फिर उग आएंगी। औरत कहां से लाएंगे?
बामुश्किल उनको राजी किया, सिर घुटवाया, मूंछें मुंड़वाईं, वे मुझे गालियां देते रहे, मैं उनका सिर मुंडवाता रहा, दो आदमी उनके हाथ पकड़े रहे। बामुश्किल उनकी मूंछें निकलवाईं। कपड़े उतरवाए। लंगोटी पर अटक गए कि लंगोटी नहीं छोडूंगा। मैंने कहा कि सच्चा साधु लंगोटी भी छोड़ देता है और मैंने उनसे कह रखा है कि वे बिलकुल सच्चे साधु हैं।
यह अच्छी मुसीबत है, हमें कुछ लेना, न देना।
बेचारे को बैठा दिया। ठंड के दिन, मगर आग जल रही है तो थोड़ी राहत रही। डाक्टर आकर साष्टांग गिर पड़े भूमि पर, उन्होंने देखा ही नहीं उठा कर ऊपर मुंह कि है कौन! पैर पकड़ लिए कि अब बस बचाओ। और मेरे मित्र ने सोचा कि अब यहां तक बात आ गई है तो अब बचा ही लो। कहा, बेटा मत घबड़ा, उठ, तेरी पत्नी को कोई तकलीफ है? बोले कि बस, आपकी ही तलाश थी। मैं भी डाक्टर हूं, मगर पहले आदमी से पूछता हूं कि कौन सी तकलीफ है। और आप यहां मीलों दूर बैठे देख रहे हैं कि मेरी पत्नी बीमार है। बहुत इलाज किया है। साधु महाराज ने कहा: लेकिन कुछ ठीक होता नहीं, होगा भी नहीं; बीमारी आध्यात्मिक है, तू भौतिक चक्कर में पड़ा है। यह ले राख, पहले खुद खा। पर उन्होंने कहा: बीमार मेरी पत्नी है। उन्होंने कहा: तू चुप रह, तेरी ही कम्बख्तियों के कारण तेरी पत्नी बीमार है। पहले तू खा और बाकी पत्नी के लिए ले जा, और बाल-बच्चे हों उनको भी बांट देना। सब ठीक हो जाओगे।
मैं भी उनके साथ गया था। खड़ा देख रहा था। डाक्टर को राख भी खाते देखा, राख भी ले जाते देखा। कहीं राख से कोई पत्नी ठीक होती है? उसको तो मरना था सो मर ही गई। असल में हम घर पहुंचे, इसके पहले ही वह मर चुकी थी। डाक्टर बोला, कैसा है वह साधु! उस दुष्ट ने मुझे राख भी खिला दी, इधर औरत को भी मार डाला। मैंने कहा: साधुओं के चमत्कार साधु ही जानें, तुम न समझ सकोगे। तुम अपनी डाक्टरी करो। पत्नी मोक्ष गई। कहने लगे, अजीब मुसीबत है, न मालूम कहां के साधु के पास ले गए! पहले तो मुझे राख खिलाई वही बात गलत थी, उसी वक्त मुझे कुछ शक हुआ था। और शक सच्चा निकला। और उस दुष्ट ने मुझसे यह भी कहा कि तेरी ही कम्बख्तियों की वजह से तेरी पत्नी मर गई है। मैंने कहा: अब घबड़ाओ मत, तुम ही बहुत साधु-संतों की तलाश करने में पड़े थे। बामुश्किल तो मैं खोज पाया। कितनी मुसीबतें मैंने उठाईं, उसका तुम्हें पता भी नहीं है। पहले तुम्हारी दूसरी शादी हो जाए, फिर बताऊंगा।
यहां इंजीनियर हैं, डाक्टर हैं, आर्किटेक्ट हैं, वैज्ञानिक हैं, लेकिन यह सब केवल बौद्धिक विचार रह जाता है। उनके भीतर सदियों-सदियों के पड़े हुए संस्कार, ऐसी जंजीरों की तरह जकड़े हुए हैं। पश्र्चिम भी चले जाते हैं, वहां से भी शिक्षा लेकर लौट आते हैं, मगर यहां आकर फिर वही गोरखधंधा! और वही गोरख धंधा करते हैं तो लोग बड़ी प्रशंसा करते हैं। कहते हैं कि देखो पश्र्चिम भी हो आया है, पश्र्चिम के विश्र्वविद्यालयों में शिक्षा भी पाई, मगर अपने भारतीत्व को नहीं खोया। अभी भी मंदिर जाता है, अभी भी मस्जिद पहुंच जाता है। अभी भी रोज सुबह उठ कर बाइबिल को पहले नमस्कार करता है, फिर दूसरा काम शुरू करता है।
इस देश को इक्कीसवीं सदी में जरूर ले जाया जा सकता है। लेकिन इस देश को इक्कीसवीं सदी में ले जाने के पहले, ये जो हजारों वर्ष के पुराने संस्कार हैं, इनसे मुक्त करना जरूरी है। और उनसे मुक्त करने का एक ही उपाय है। और मैं उसी उपाय की चर्चा कर रहा हूं निरंतर कि तुम किसी तरह ध्यान करना सीख लो, कि तुम किसी तरह उस अवस्था को अपने भीतर पैदा करना सीख लो, जहां विचारों की तरंग बंद हो जाती है। जहां कोई हलचल, कोई ऊहापोह, कुछ भी नहीं होता। जहां तुम निस्तरंग, शांत और मौन हो जाते हो। उस मौन में तुम अतीत से टूट जाते हो, वर्तमान में आ जाते हो। और जो आज आ गया, उसे हम कल की यात्रा पर ले चल सकते हैं। मगर पहले उसे आज तो लाना होगा। आज की छलांग, कल तक पहुंचा देगी। लेकिन आज तो आना ही होगा।
अभी भारत वर्तमान में भी नहीं है। इसकी नजरें पीछे हैं, इसके आराध्य पीछे हैं, इसका स्वर्णयुग पीछे है। ये पूरे हालात बदलने होंगे।
मैंने सुना है, एक रास्ते पर एक दुबला-पतला युवक मोटर साइकिल पर तेजी से भागा जा रहा है, हवा बहुत तेज है और उलटी है। सो उसने गाड़ी रोक कर अपना कोट उलटा कर लिया, ताकि छाती पर हवा इतने जोर से न लगे, सर्दी-जुकाम न पकड़ जाए। कोट उलटा कर लिया, बटनें पीछे लगा लीं, मफलर गले से ठीक से बांध लिया। फिर चला अपनी गाड़ी पर।
उधर से आ रहे थे एक सरदारजी, उन्होंने इसको देखा, उन्होंने कहा, मार डाला, यह आदमी उलटा बैठा है और इतनी तेजी से साइकिल चला रहा है। घबड़ाहट में वे टकरा गए। आदमी नीचे गिरा, बेहोश हो गया। सरदारजी ने कहा, अच्छी मुसीबत में हम भी पड़े, यह आदमी है कैसा! अब इसका सिर किसी तरह सीधा करें। यहां तो कोई दिखाई भी नहीं पड़ता कि जिसको बुलाएं सहायता के लिए। सो उन्होंने एक जोर से झटका दिया--सरदारी झटका--वाहे गुरुजी की फतह! वाहे गुरुजी का खालसा! और दिया जोर से झटका, उसका मुंह दूसरी तरह फेर दिया।
तभी वहां पुलिस की गाड़ी पहुंच गई, पूछा कि क्या मामला है? सरदारजी ने कहा: क्या मामला है--यह आदमी बेचारा मोटर साइकिल पर उलटा बैठा था। उन्होंने पूछा, जिंदा है? सरदारजी ने कहा: जिंदा था। अजीब किस्म का आदमी है, जब तक उलटी खोपड़ी थी, जिंदा था। मैंने बामुश्किल इसकी खोपड़ी उलटी की। गुरुजी की दुआ से खोपड़ी तो उलटी से सीधी हो गई, मगर श्वास बंद हो गई। अब भैया श्वास तुम सम्हालो, मुझे दूसरे काम पर जाना है। उन्होंने गौर से देखा कि मामला क्या है। बात तो ठीक कहता है। कोट के बटन सबूत देते हैं। बटन खोले तो देखा कि बात यह थी कि उसने कोट उलटा किया हुआ था, तब तक सरदारजी जा चुके थे। वह आदमी मुफ्त मारा गया।
इस भारत की दशा भी कुछ ऐसी ही है। तुम जिस तरफ जा रहे हो, उस तरफ तुम्हारा मुंह नहीं है। जिस तरफ से तुम आ रहे हो, तुम्हारा मुंह अब भी वहीं है! तुम अगर बार-बार गड्ढों में गिरते हो तो कुछ आश्र्चर्य नहीं है।
भविष्य की तरफ देखो। अतीत के साथ बहुत दिन बंध कर देख लिया, कुछ भी न पाया। हाथ खाली हैं, पेट खाली है, गरीबी रोज बढ़ती जाती है। भविष्य की तरफ देखो हालात बदलने शुरू हो जाएंगे। प्रतिभा की तुम्हारे पास कोई कमी नहीं है, मगर प्रतिभा को गलत आयाम, गलत दिशा में उलझा रखा है। प्रतिभा को ठीक-ठीक दिशा दो।
और मेरा अनुभव यह है कि अगर तुम ध्यान की चौबीस घंटों में कुछ देर के लिए भी अनुभूति ले लो, नहा जाओ, ताजे हो जाओ, तो तुम वर्तमान में आ जाओगे। वहीं, जहां तुम हो। और यहीं से जाता है रास्ता भविष्य की तरफ। इक्कीसवीं सदी हो या बाईसवीं सदी हो, यहीं से जाता है रास्ता भविष्य की तरफ।
लेकिन जो राजनीतिज्ञ तुमसे कह रहे हैं कि भविष्य...इक्कीसवीं सदी लानी है, वे खुद भी यहां नहीं हैं। इक्कीसवीं सदी तो बहुत दूर, अभी उनकी बीसवीं सदी भी नहीं आई। और तुम दिल्ली में जाकर देख सकते हो--सब तरह के ज्योतिषी, सब तरह के हस्तरेखा-विद, सब तरह के महात्मा, साधु-संत अड्डा जमाए हुए बैठे हैं। हर राजनीतिज्ञ का कोई न कोई महात्मा गुरु है। कोई न कोई हस्तरेखा-विद, उसकी हाथ की रेखाओं को पढ़ कर बताता है कि कब किस घड़ी में वह चुनाव का फार्म भरे--तारे कब सहयोगी हैं और कब तारे विरोधी हैं।
मेरे एक मित्र संसद के बहुत पुराने सदस्य थे, उनको संसद का पिता कहा जाता था। मैं उनके घर मेहमान होता था। उनके घर मेहमानी एक मुसीबत थी। मुसीबत यह थी कि वे मेरे पिता के दोस्त थे। बुजुर्ग थे, वे मुझको भी न जाने देते थे, जब तक कि उनका हस्तरेखाविद...अब हस्तरेखाओं को देख कर ट्रेनों के टाइम टेबल नहीं बनते। ट्रेन को जाना है ग्यारह बजे और मुझे छह बजे सुबह से उठा कर वे स्टेशन पहुंचा देते। मैं उनसे कहता: क्या हद कर रहे हो? वे कहते कि छह बजे घर से निष्कासन है। गाड़ी कभी आए, मगर घर छह बजे छूटे तो शुभ होगा, नहीं तो अशुभ हो जाएगा। और मैं तुम्हारे पिता को क्या जवाब दूंगा? मैंने कहा: बड़ी मुसीबत है। और इतना ही होता कि वह मुझे छोड़ कर अपने वापस चले जाते, वह भी नहीं। वे मेरी खोपड़ी खाते वहीं बैठ कर। सुबह छह बजे से लेकर जब तक ट्रेन न आ जाए।
और कोई ट्रेन इस देश में वक्त पर आती नहीं। सिर्फ एक बार मैंने एक ट्रेन को वक्त पर आते देखा। हालांकि मैं कोई तीस साल से ट्रेनों में चलता रहा हूं निरंतर, मुल्क के कोने-कोने में, सिर्फ एक बार। तो मैं ड्राइवर को धन्यवाद देने गया कि यह मेरे जीवन का सौभाग्य है कि कम से कम एक बार तुमने ट्रेन को ठीक मिनट ब मिनट...। ड्राइवर ने कहा कि धन्यवाद देने के पहले जरा मेरी भी सुन लो। यह असल में कल की ट्रेन है। चौबीस घंटे लेट! मैंने कहा: सोचा था एक तो अनुभव हो जाता, वह भी न हुआ। उस ड्राइवर से मैंने कहा: तो क्यों फिजूल टाइम टेबल छापते हो--जब गाड़ियों को जब आना है, तब आना है।
स्टेशन मास्टर पास ही खड़ा था, मुझसे बोला कि टाइम टेबल की बात मत करना। मैंने कहा: क्यों? उसने कहा: टाइम टेबल न छापेंगे तो पता कैसे चलेगा कि कौन ट्रेन कितनी लेट है। तुम और मुसीबत में डाल दोगे। टाइम टेबल का मतलब ही क्या है? यह ही मतलब है कि इससे पता चल जाता है कि यह ट्रेन बारह घंटे लेट है या चौदह घंटे लेट है या चौबीस घंटे लेट है, नहीं तो पता ही नहीं चलेगा कि कौन सी ट्रेन कब आई, कब गई; कहां गई; गई कि नहीं गई। टाइम टेबल छपेगा। मैंने कहा: अच्छा भैया, छपने दो टाइम टेबल।
सत्तर वर्ष के हो गए थे, बड़ी-बड़ी समस्याएं हल करने का मन में खयाल रखते थे। जुगल किशोर बिड़ला से उन्होंने मुझे मिलाया इस आशा में कि अगर जुगल किशोर बिड़ला को मेरी बातों में कोई रस और कोई रुचि आ जाए तो मेरे काम को धन की, अर्थ की कोई कमी न रह जाए। मैं कोई भी काम करूं, बिड़ला उस काम को आर्थिक सहारा दे दें। जुगल किशोर बिड़ला ने कहा: सिर्फ दो काम करने योग्य हैं। एक काम तो गौ-रक्षा। मैंने कहा: मारे गए। गौ-रक्षा मुझको नहीं करनी है। अपना धन आप अपने पास रखो। इधर आदमी मरने के करीब पहुंच रहा है, लेकिन जिनकी आंखें पीछे बंधी हैं, वे कहते हैं गौ-रक्षा! और दूसरी बात कि हिंदू धर्म का प्रचार करो--तो जितना धन चाहिए, खाली चेक-बुक देने को तैयार हूं। मैंने कहा: वह चेक-बुक आप अपने पास रखो। मैं धर्म का तो प्रचार कर सकता हूं, लेकिन हिंदू धर्म का नहीं। क्योंकि जैसे ही धर्म हिंदू हुआ कि धर्म नहीं रह जाता; मुस्लिम हुआ कि धर्म नहीं रह जाता; ईसाई हुआ कि धर्म नहीं रह जाता।
धर्म तो तभी तक धर्म होता है, जब तक उस पर कोई विशेषण नहीं होता। तब तक वह एक खुले आकाश की सुगंध है, खुले तारों की रोशनी है।
तुम एक पक्षी को आकाश में उड़ते देखते हो--मन गदगद हो जाता है, उसके सौंदर्य को देख कर। इसी पक्षी को तुम पिंजरे में बंद कर लो सोने के और घर में टांग लो। शायद तुम सोचो कि यह वही पक्षी है। तुम गलती में हो। यह वही पक्षी नहीं है। उस पक्षी के पास पूरा आकाश था, इस पक्षी के पास सिवाय जंजीरों के और कुछ भी नहीं है। वह पक्षी जिंदा था, यह पक्षी सिर्फ नाममात्र को जिंदा है--श्वासें लेता है। वह पक्षी जिंदा ही क्या, जिसके पंखों को आजादी न हो।
धर्म आकाश में उड़ते हुए पक्षी की तरह मुक्त है।
तो मैंने जुगल किशोर को कहा: धर्म की तो बात मैं जीवन भर करूंगा, जीवन की अंतिम श्र्वास तक करूंगा, लेकिन कोई विशेषण उस पर नहीं बैठने दूंगा। विशेषण बैठा कि बात मरी। विशेषण आया कि पक्षी पिंजरे में बंद हुआ। उन्होंने कहा: मुझे धर्म से कुछ नहीं लेना-देना--हिंदू धर्म, सनातन धर्म...मैंने कहा: आप अपना सनातन धर्म भी अपने पास रखो, अपनी चेक-बुक भी सम्हाल कर रखो।
इस देश को जिन चीजों से लगाव हो गया है सदियों में, उस लगाव को कोई भी तोड़ने चलेगा तो लगता है, दुश्मन है। इससे मुझे लोग न मालूम अनजाने में कैसे अपना दुश्मन समझ लेते हैं। मैं चला हूं उनके पिंजरे से उनको बाहर निकालने, वे मेरे ही हाथों को लहूलुहान कर देते हैं। वे पिंजड़े के बाहर निकलने को राजी नहीं हैं।
कौन ले जाएगा इस देश को इक्कीसवीं सदी में। राजनेता? नहीं, लेकिन अच्छा सपना देते हैं तुम्हें। ये सपनों के सौदागर हैं। तुम्हें सपने देते हैं, तुमसे नगद वोट लेते हैं। न सपने कभी पूरे होते हैं। पांच साल में फिर तुम भूल जाते हो। फिर नये सपने के सौदागर खड़े हो जाते हैं। फिर तुम इस आशा में कि शायद जो कल नहीं हुआ, अब हो जाए।
मगर राजनीति ने कभी भी मनुष्य को विकसित नहीं होने दिया है। राजनीति चाहती नहीं कि मनुष्य विकसित हो। क्योंकि जितना विकसित मनुष्य होगा, उतना ही उसे गुलाम बनाना मुश्किल है, उतना ही उसे स्वतंत्र होने से रोकना मुश्किल है, उतना ही उसे आज्ञाकारी बनाना मुश्किल है।
स्वतंत्रता क्रांति है।
और क्रांति ही केवल तुम्हें भविष्य में ले जा सकती है। एक आध्यात्मिक क्रांति--और उस क्रांति का सूत्र है: ध्यान।

प्रश्न:
भगवान, आप जानते ही हैं कि भारत में क्रिकेट का खेल इस हद तक लोकप्रिय है कि लोग इसके पीछे दीवाने हो जाते हैं। इस विदेशी खेल के चलते भारत के अपने कई खेल उभर नहीं पाए। स्थिति यह है कि क्रिकेट के टेस्ट खिलाड़ी--नाम तो मैं लेना नहीं चाहता--भारत में पूजे जाते हैं, स्टार समझे जाते हैं। यानी राजनीति के बाद, अगर फिल्म के बाद सबसे ज्यादा कोई स्टेज पर हावी हैं तो ये ही खिलाड़ी हैं। लेकिन इस खेल की वजह से हिंदुस्तान के अपने कई खेल नहीं पनप पाए। इस दीवानगी को आप किस रूप में समझते हैं?
दीवानगी तो दीवानगी है; वह चाहे बाहर की हो, चाहे भारत की हो। सारी दुनिया में अलग-अलग खेल लोगों को दीवाना बनाते हैं। मगर मकसद एक है। कैलिफोर्निया में कैलिफोर्निया की युनिवर्सिटी ने पिछले वर्ष, एक वर्ष तक अध्ययन किया इस बात का कि जब भी वहां फुटबॉल के मैच होते हैं तो लोग बिलकुल पागल हो जाते हैं। और सात दिनों तक, मैच के समाप्त हो जाने के बाद--अपराधों में चौदह प्रतिशत बढ़ोतरी हो जाती है--ज्यादा हिंसाएं होती हैं, ज्यादा आत्महत्याएं होती हैं, ज्यादा रेप होते हैं। और फिर भी सरकार उन खेलों को चलने देगी!
उन खेलों को रोका नहीं जा सकता। और मैं भी नहीं कहूंगा कि रोको, क्योंकि उन खेलों में लोगों का जो बावलापन निकल जाता है, वह अगर न निकल पाए तो और भी ज्यादा बलात्कार होंगे, और भी ज्यादा हिंसाएं होंगी। खेल चाहे कोई भी हो--क्रिकेट का हो, कि फुटबॉल मैच हो, कि वालीबॉल हो, कि हाकी हो, तुम्हारे भीतर की हिंसा को निकालने का सुसंस्कृत रूप है। और जब तक आदमी के भीतर हिंसा है, क्रोध है, तब तक कोई बुराई नहीं है। मैं नहीं समझता कि--अगर क्रिकेट के खिलाड़ियों को लोग नेताओं की तरह, फिल्म स्टारों की तरह पूज्य स्थानों पर रखते हों--मुझे कोई एतराज नहीं है। मेरा एतराज यही है कि राजनेताओं का नंबर सबसे नीचे होना चाहिए।
फिल्मों के अभिनेता लोगों के मनों में दबाए गए प्रेम, दबाई गई भावनाओं--उन सबका रेचन करने में सहयोगी होते हैं। उन्हें इज्जत मिलनी चाहिए। और अभी-अभी यह दुर्भाग्य घटा है कि फिल्म के अभिनेताओं को राजनीति में पहुंचने का नशा चढ़ा है। यह गिराव है। यह उनकी इज्जत की ऊंचाई नहीं है। जब वे फिल्म अभिनेता थे तो एक कलाकार थे; अब, अब उनके जीवन में कोई कला नहीं है। उन्हें वापस लौट आना चाहिए। राजनीति में तो उन लोगों को भेजना चाहिए, जिनसे कुछ और हो ही न सकता हो। क्योंकि वहां करना ही कुछ नहीं है। क्रिकेट के खिलाड़ी भी, या फुटबॉल मैच, या और खेलों के खिलाड़ी वे सब भी तुम्हारे भीतर रेचन करते हैं, कैथार्सिस करते हैं; उनको खेलते देख कर तुम्हारे भीतर के बहुत से आवेग निकल जाते हैं।
रही भारतीय खेलों की बात, तो भारतीय खेलों में कोई भी ऐसा खेल नहीं है, जो क्रिकेट या फुटबाल या हाकी के मुकाबले खड़ा हो सके। इसमें किसी का कसूर नहीं है। तुम लाख कबड्डी-कबड्डी करो, किसी को कुछ मजा नहीं आता। कबड्डी-कबड्डी तो लोग रोज अपने-अपने घरों में कर ही रहे हैं--पति पत्नी के साथ कबड्डी-कबड्डी। पूरा देश कबड्डी-खाना बना हुआ है। यहां और अब क्या कबड्डी करवाओगे? और कौन रस लेगा उसमें? कि यही तो घर में कर रहे हैं। अब इसको देखने कौन जाने वाला है? या गिल्ली-डंडा! भारतीय खेलों में कोई दम नहीं है। अब यह मजबूरी है, अब क्या करें? उसका कारण है कि भारतीय खेलों में दम क्यों नहीं है। हर चीज के पीछे वजह तो होती है।
भारतीय खेल बच्चों के खेल थे। भारत में जवानी आ ही नहीं पाती थी, क्योंकि हम जल्दी से विवाह कर देते थे। मेरी मां यहां मौजूद हैं, उनकी शादी सात साल में हो गई थी। तब मेरे पिता की उम्र बारह साल की रही होगी। बारह साल की उम्र में शादी हो जाए तो अब घर-गृहस्थी की फिकर करें कि फुटबाल खेलें, कि क्रिकेट खेलें।
भारतीय खेल छोटे-छोटे बच्चों के खेल हैं।
पाश्र्चात्य खेल जवानों के खेल हैं।
पश्र्चिम में जवानी आई, क्योंकि विवाह की उम्र रेखा ऊपर उठती गई। अब लोग पच्चीस साल में, छब्बीस साल में, तीस साल की उम्र में विवाह करते हैं। चौदह साल की उम्र में युवक विवाह के योग्य हो जाते हैं। उनके भीतर ऊर्जा और शक्ति का अवतरण होता है। अब वे बच्चों को जन्म दे सकते हैं। तेरह साल की उम्र में लड़कियां मां बनने के योग्य हो जाती हैं। लेकिन उनको रुकना पड़ेगा, अभी पंद्रह साल तक। यह पंद्रह साल की जवानी, कहीं इसका निष्कासन होना चाहिए। इसलिए पश्र्चिम के खेल जवानों के खेल हैं। और उनका रस और है।
भारत के खेल घुनघुने हैं। अब तुम नाहक घुनघुनों को, सिर्फ भारतीय हैं, इसलिए सिर पर उठाए फिरो तो तुम्हारी मर्जी। भारतीयों के पास कोई जवानी का खेल नहीं है।
और बहुत जल्द तुम इस बात को खयाल में लेना कि खेलों की भी उम्र होती है। जिस देश में लोग ज्यादा जीते हैं, वहां कुछ और खेल भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जैसे शतरंज--ये बूढ़ों के खेल हैं, जवानों के नहीं। ये उनके खेल हैं, जिनको अब कुछ करने को बचा नहीं। सब कर चुके। अब एक और नालायकी बची है, यह और कर लें, फिर संसार से छुटकारा है। फिर मोक्ष में--न कबड्डी है, न शतरंज है। खेलों की भी उम्र है। जिस देश में औसत उम्र कम होती है, वहां इस तरह के खेलों की भी कोई बहुत बड़ी प्रशंसा नहीं होती और न प्रसार होता है।
मगर मैं यह कहना चाहूंगा कि खेलों के कारण अगर लोग सम्मान देते हों किसी को, अभिनय के कारण किसी को सम्मान देते हों, संगीत के कारण किसी को सम्मान देते हों--जैसे बीटलों को सम्मान मिला सारी दुनिया में...। संगीत कोई महान न था, जवानों का था। शास्त्रीय न था, शास्त्रीय संगीत के लिए बुढ़ापा चाहिए। एक उम्र चाहिए, लंबी उम्र कि शास्त्रीय संगीत को समझा जा सके। बीटल और उनके बाद आने वाले दूसरे संगीतज्ञ पश्र्चिम में उछल-कूद कर रहे थे। वह कोई न तो नाच था, न कोई संगीत था, लेकिन जवानों को उसकी जरूरत थी। उस उछल-कूद से उनके भीतर के आवेग निकल जाते थे। नहीं तो यही आवेग अपराध बन जाएंगे।
हर स्कूल में व्यवस्था होनी चाहिए कि लोगों के आवेग निकल जाएं। हमारे मुल्क में यह समस्या है कि लड़के हड़ताल करते हैं, पत्थर फेंकते हैं, शिक्षकों को सताते हैं, स्कूलों में आग लगाते हैं। जिम्मेवार हम हैं। हम उनके वेगों को निकलने का कोई समुचित उपाय नहीं देते। इसके पहले कि वे पत्थर मारें--यही हाथ जो पत्थर मारते हैं और पत्थर मार कर एक तरह की शांति अनुभव करते हैं, यही हाथ वालीबॉल से भी खेल सकते हैं। और वालीबॉल से भी इनको वही शांति मिल जाएगी। और स्कूल के कांच भी बच जाएंगे। स्कूल की दीवालें भी बच जाएंगी। स्कूल के शिक्षक भी बच जाएंगे।
खेलों का मनोविज्ञान है।
और मनोविज्ञान यही है कि हमारे भीतर दबे हुए आवेग उनके माध्यम से बह जाते हैं, हम भीतर थोड़े हलके हो जाते हैं।
पश्र्चिम के खेल भारत के खेलों को बढ़ने से रोक रहे हैं, ऐसा नहीं है। भारत के पास जवानों के खेल ही नहीं हैं। क्योंकि भारत में जवानी अभी-अभी आई है। और वह भी पश्र्चिम के जरिए आई है, उनकी शिक्षण व्यवस्था से आई है, इसलिए उन्हीं के खेलों को दोहराती है। भारत के पास सिर्फ छोटे बच्चों के खेल हैं। उन खेलों को कोई इतना बड़ा रूप नहीं दिया जा सकता कि किसी आदमी को तुम एक स्टार बना दो। क्योंकि ये गिल्ली-डंडा खेलने में बड़े होशियार हैं। लोग सिर्फ हंसेंगे उनको देख कर कि भैया, तुम्हें कुछ और नहीं सूझता करने को? गिल्ली-डंडा! ये छोटे-छोटे बच्चे खेलते हैं, खेलने दो, तुम कुछ और करो। इसमें कुछ भारत का सवाल नहीं है। इसमें सवाल है उम्र और उम्र की अलग-अलग पीढ़ियों का।
भारत में सदियों से हमने जवानी को कभी आने ही नहीं दिया। इसलिए जवानी की बहुत सी चीजें भारत में कभी पैदा ही नहीं हुईं। छोटे से बच्चे की शादी कर दी, इसलिए भारत में प्रेम-विवाह का सवाल ही न उठा। सवाल कहां से उठे? प्रेम-विवाह का सवाल तो तब उठे, जब हम बच्चों की शादी न करें, उन्हें जवान होने दें, उनके भीतर प्रेम की ऊर्जा जगने दें और मौका दें उन्हें कि स्त्री और पुरुष मिल सकें। तो प्रेम-विवाह का सवाल उठेगा। तो प्रेम का सवाल उठेगा। यहां तो हम इतने बचपन में शादी कर देते थे कि पत्नी और पति करीब-करीब भाई-बहन की तरह बड़े होते थे। संस्कृत का पुराना शब्द है भगिनी। उसके दोनों मतलब होते हैं--पत्नी भी और बहन भी। वह शब्द बड़ा प्यारा है। वह इस बात का सूचक है कि इतनी जल्दी शादी हो जाती थी कि अभी पता भी नहीं था कि पत्नी और पति इनका भी कोई नाता होता है। ज्यादा से ज्यादा भाई-बहन। जैसे और भाई-बहन थे, वैसी यह भी एक बहन और घर में आ गई। इसके साथ बड़े होते थे। साथ-साथ जवान होते थे। मौका ही न मिलता था कि इधर-उधर चौपाटी वगैरह पर जाएं, क्योंकि यह बहन साथ ही साथ चौपाटी जाती है। दूसरे भैया भी वहां होते, मगर उनकी बहनें भी होतीं।
हमने हजारों साल तक जवानी को आने ही नहीं दिया। और साथ ही साथ बच्चों को छह-सात साल, आठ साल का बच्चा हुआ कि वह मां-बाप के साथ काम में लग जाता। खेत जाने लगता, बढ़ईगिरी करने लगता, जूता सीने लगता, दुकान पर बैठने लगता। कुछ भी करता, मां-बाप की सहायता करता। उसे पता ही नहीं चलता कि कभी जवानी के दिन भी आए और गए। उसके बचपन में और उसके बुढ़ापे के बीच जवानी की कोई जगह न थी, कोई खाली जगह न थी।
यह तो आधुनिक शिक्षा का परिणाम है, जो पश्र्चिम से आई। और अच्छा है कि आई, क्योंकि इसने एक नया वर्ग पैदा किया जवान का, और जवानी के नये रंग, नये रूप पैदा किए। खेल जवानों के अपने होंगे। साहित्य जवानों का अपना होगा। फिल्में जवानों की अपनी होंगी। गीत जवानों के अपने होंगे। एक पूरा आयाम खुल गया, जो बिलकुल नया है। और चूंकि पश्र्चिम से आया है, हमारे पास उसके मुकाबले में कुछ भी न था, इसलिए यह मत सोचो कि उसने कुछ दबाया है। उसने कुछ भी नहीं दबाया है, उसने सिर्फ एक खाली जगह को पैदा किया है। और खाली जगह में वही आया, जो पश्र्चिम से आना संभव था।
अब जैसे हमने इस देश में कभी विज्ञान की कोई खोज नहीं की। जो भी विज्ञान आ रहा है, पश्र्चिम से आ रहा है। उस विज्ञान के साथ-साथ जो भी अच्छाई आएगी, बुराई आएगी, वह भी पश्र्चिम से आएगी। यह मत कहना कि हमारा कुछ दबा कर...हमारे पास कुछ था ही नहीं, विज्ञान के नाम पर हम खाली और सूने हैं। पश्र्चिम से विज्ञान आ रहा है।
और हर चीज के पहलू होते हैं। उसके अच्छे पहलू हैं, उसके बुरे पहलू हैं। अब समझो कि पश्र्चिम से बर्थ कंट्रोल आया कि आदमी चाहे तो बच्चे पैदा करे या चाहे तो न पैदा करे। अब इसका अच्छा परिणाम हो सकता है कि हम देश की आबादी को कम कर लें और देश की खुशहाली को बढ़ा लें। और इसका दूसरा परिणाम यह भी हो सकता है कि हम देश को वेश्याओं से भर दें, और देश की सारी नैतिकता को नष्ट कर दें, क्योंकि अब तुम्हारी पत्नी पड़ोसी के साथ मेलजोल रखती है, इसका तुम पता नहीं लगा सकते। अब तुम पक्का नहीं कर सकते कि यह बेटा तुम्हारा ही है। यह हमारे हाथ में है। विज्ञान तो तटस्थ है। उसका उपयोग हम कैसे करते हैं, यह हम पर निर्भर करेगा।
ये खेल भी तटस्थ हैं। इनका हम कैसे उपयोग करते हैं, यह भी हम पर निर्भर करेगा। और हमें हर चीज का सम्यक उपयोग करने की दृष्टि पैदा करनी चाहिए। हर चीज का ऐसा उपयोग किया जा सकता है कि इस देश की अंतरात्मा को, जो हजारों साल के कूड़े-कचरे से दबी है, हम गंगा स्नान करवा सकते हैं।

धन्यवाद।

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