POLITICS & SOCIETY‎

Phir Amrit Ki Boond Padi 03

Third Discourse from the series of 5 discourses - Phir Amrit Ki Boond Padi by Osho.
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प्रश्न:
भगवान, मोरार जी सरकार से लेकर राजीव सरकार तक के आप केवल आलोचक ही बने रहे हैं। किंतु इस देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए आपके पास क्या कोई विशेष दृष्टिकोण या उत्तर है?
इस देश की समस्याएं इस देश से बड़ी हैं। और आलोचना नकारात्मक नहीं है। वह समस्याओं को सुलझाने का विधायक रूप है। जैसे कि कोई सर्जन किसी के कैंसर का आपरेशन करे, तो क्या तुम उस आपरेशन को नकारात्मक कहोगे? दिखता तो नकारात्मक है, लेकिन वस्तुतः विधायक है। और इसके पहले कि कोई पुरानी इमारत गिरानी हो, नई इमारत खड़ी करनी हो, तो लोगों को सजग करना जरूरी है कि अब पुरानी इमारत के नीचे रहना खतरनाक है। वह जीवन को नष्ट कर सकती है।
मैंने अपने जीवन में किसी की कोई आलोचना नहीं की। लेकिन मजबूरी है पैर में कांटा गड़ा हो तो दूसरे कांटे से उसे निकालना पड़ता है। दूसरा कांटा दुश्मन नहीं है दोस्त है। हालांकि वह भी कांटा है। तो पहली बात तो मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं कोई आलोचक नहीं हूं। मेरी दृष्टि सृजनात्मक है। लेकिन बनाने के पहले मिटाना पड़ेगा ही। और हजारों वर्ष की सड़ी-गली परंपराएं, अंधविश्र्वास जो हमारी छाती पर सवार हैं और इस देश को आगे नहीं बढ़ने देते, जब तक हम उन्हें अलग नहीं कर देते तब तक इस देश में कोई विधायक, कोई सृजनात्मक, कोई निर्माण नहीं हो सकता।
समस्याएं इतनी हैं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल है। लेकिन मूल समस्याओं पर मैं चर्चा करूंगा। लेकिन ध्यान रहे, वह आलोचना नहीं है, नकारात्मक नहीं है। ‘नहीं’ में मेरा विश्र्वास नहीं है। मैं तो ‘हां’ को आस्तिकता कहता हूं।
पहली समस्या है इस देश के सामने, और वह है, इसके अतीत से इसे मुक्त करना। और तुम्हारे राजनेता यह नहीं कर सकते। क्योंकि राजनेता को उन लोगों से भीख मांगनी है, वोट की, जिनका कि यह अतीत है। यूं समझो, बच्चा पैदा होता है तो उसका भविष्य होता है, कोई अतीत नहीं होता। जवान होता है तो उसका वर्तमान होता है। बूढ़ा होता है तो उसका केवल अतीत होता है। जिस कौम का केवल अतीत शेष रह गया हो, वह बूढ़ी हो गई है, मरणासन्न है; उसकी अरथी किसी भी दिन उठ सकती है।
उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी चाहते थे देश में रेलगाड़ियां न हों, टेलीफोन न हो, टेलिग्राफ न हो, बिजली न हो, मशीनें न हों: टेक्नालॉजी का कोई भी आयाम न हो। उनके लिए दुनिया का इतिहास चरखे पर रुक गया था। और चरखे से यह कौम जी नहीं सकती। अगर एक आदमी आठ घंटे रोज, सतत चरखे पर सूत काते, तो केवल अपने लिए--पत्नी के लिए नहीं, बच्चों के लिए नहीं, मां-बाप के लिए नहीं, सिर्फ अपने लिए--साल भर के लिए कपड़े पैदा कर सकता है। लेकिन कपड़े तुम खा नहीं सकते, और न कपड़े तुम पी सकते हो। और अगर आठ घंटे केवल चरखा ही कातना पड़े, तो तुम घनचक्कर हो। भोजन कहां से जुटाओगे? पत्नी और बच्चों के लिए वस्त्र कहां से लाओगे? मकान कैसे बनाओगे? तो मैंने आलोचना की, कि जब तक यह देश गांधी के फांसी के फंदे से मुक्त नहीं होता, इसका कोई भविष्य नहीं है। दुनिया बहुत आगे जा चुकी है। एक छोटी सी मशीन उतना काम कर सकती है, जितना हजार लोग नहीं कर सकते। और मशीन की खूबी है कि थकती नहीं। शिफ्ट भी बदलनी नहीं पड़ती। चौबीस घंटे भी उसे काम में लगाया जा सकता है। और मशीन की और भी खूबी है कि वह मरती नहीं। अगर कोई अंग खराब हो जाए तो बदला जा सकता है।
लेकिन गांधी हठाग्रही थे। और उनके शिष्य, जिनके हाथ में यह देश आजादी के बाद इन चालीस सालों में रहा है, इतनी छाती नहीं रखते कि जब गांधी ही चले गए, तो उनके इस बचकाने दृष्टिकोण को भी विदा देने की जरूरत है।
पहली बात है कि इस मुल्क को बड़ी से बड़ी, नवीन से नवीन टेक्नालॉजी, तकनीकी ज्ञान में विकसित करना है। जो कि कठिन नहीं है। जो कि बहुत आसान है। मगर दुविधा यह है कि पूजा गांधी की होगी तो टेक्नालॉजी को लाना इस देश में मुश्किल है।
जब गांधी मरे, तो इस देश की आबादी केवल चालीस करोड़ थी। आज इस देश की आबादी नब्बे करोड़ है। हालात बिगड़ते ही चले गए हैं। लेकिन कोई माई का लाल यह हिम्मत भी नहीं करता, कि इस बात को साफ करे मुल्क के सामने, कि ब्रह्मचर्य से इस देश की आबादी को रोका नहीं जा सकता।
एक तरफ टेक्नालॉजी है, जो हाथों में जंजीर है; और दूसरी तरफ बढ़ती हुई आबादी है, जो मौत का पैगाम है। जो लोग विशेषज्ञ हैं आबादी के बढ़ने और गणित के, उनका खयाल था कि इस सदी के पूरे होते-होते भारत की आबादी सौ करोड़ होगी। लेकिन नवीनतम खोजें ये हैं कि आबादी सौ करोड़ नहीं होगी, एक सौ अस्सी करोड़ होगी। जो देश चालीस करोड़ की आबादी से भूखा रहा है, परेशान रहा है, तुम कल्पना कर सकते हो कि एक सौ अस्सी करोड़ की आबादी मौत को निमंत्रण है। लेकिन राजनीतिज्ञ यह बोल नहीं सकता। जानता भी हो तो भी बोल नहीं सकता। राजनीतिज्ञ को मुखौटे ओढ़ने पड़ते हैं--मुखौटों पर मुखौटे। क्योंकि उन्हें जिन लोगों से वोट लेनी है, उनके विश्र्वासों को कोई चोट न पहुंचे।
भारत सदियों से सोचता है कि बच्चे भगवान की देन हैं। अब यह धारणा छोड़नी होगी। बच्चे तुम्हारी करतूत हैं, किसी भगवान की देन नहीं हैं। जरा सोचो, अगर बच्चे भगवान की देन होते, उसकी अनुकंपा और प्रेम होते, तो बढ़ती आबादी जीवन को और भी प्रेम, और भी सौहार्द, और भी आनंद से भर देती। तो दो ही निर्णय लेने होंगे: या तो भगवान तुम्हारा शैतान है और या फिर कोई भगवान नहीं है। एक साधारण आदमी भी देख सकता है हमारी दरिद्रता को और भगवान त्रिकालज्ञ हैं, वे तीनों काल को जानते हैं, उनको यह दिखाई नहीं पड़ता कि एक सौ अस्सी करोड़...सड़कें लाशों से पट जाएंगी। उनको मरघट तक पहुंचाने वाले लोगों की कमी हो जाएगी। उनके लिए कफन जुटाना भी मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि गांधीवाद में अगर चरखा चलता रहा तो कफन को पैदा करने की कोई जगह नहीं है।
तो पहली बात मैं कहना चाहता हूं: ‘भारत को अपने अतीत से मुक्त होना है और उसको अपनी आंखें भविष्य की ओर लगानी हैं।’ अगर भगवान या प्रकृति को अतीत में इतना मोह था, तो उसने तुम्हारी आंखें आगे की तरफ नहीं, खोपड़ी के पीछे की तरफ दी होतीं, ताकि तुम पीछे की तरफ देख सको। उसने तुम्हें आंखें आगे की तरफ दी हैं।
राजनैतिक विचारक क्यों हिम्मत नहीं कर पाते यह कहने की, कि देश में संतति-नियमन होना चाहिए? डर, भय। यह जनता मानती है कि बच्चे भगवान की देन हैं, तो फिर उस राजनीतिज्ञ को वोट नहीं मिलने वाले हैं, जो इस देश में संतति-निग्रह के लिए आग्रह करे। इसलिए सब देख रहे हैं और चुप हैं।
कम से कम तीस वर्षों तक भारत में संतति-निग्रह की अनिवार्यता होनी चाहिए। आखिर फायदा भी क्या है इस दुनिया में उन बच्चों को लाने का--जिनको तुम भोजन न दे सकोगे, कपड़े न दे सकोगे, शिक्षा न दे सकोगे? बीमार होंगे तो दवा न दे सकोगे।
लेकिन मुसलमान कुरान की तरफ देखता है। मोहम्मद ने नौ शादियां कीं, तो कम से कम मुसलमान को चार शादियों का हक दिया, गौरव दिया। यह समझ लेने जैसा है, कि एक औरत के अगर नौ पति हों तो कोई हर्ज नहीं क्योंकि बच्चा वह एक ही पैदा कर सकेगी। लेकिन अगर एक आदमी की नौ औरतें हों तो खतरा है। वह बच्चे नौ पैदा कर सकता है। लेकिन मुसलमान इस जिद्द पर है कि यह उसका धार्मिक उसूल है।
और मोहम्मद ने इस उसूल को किसी धार्मिकता के कारण कुरान में जगह न दी थी। मोहम्मद की सारी जिंदगी तलवार, नंगी तलवार को हाथ में लेकर गुजरी। स्वभावतः आदमी मर जाते थे, स्त्रियां बच जाती थीं। अनुपात बिगड़ गया। स्त्रियां चार गुनी ज्यादा थीं। और अगर यह नियम पाला रखा जाता, कि एक व्यक्ति एक ही स्त्री से विवाह करे, तो तीन स्त्रियां क्या करेंगी? शिक्षा तो दूर रही, बुरका भी नहीं उठा सकतीं। ये तीन औरतें वेश्याएं बन जाएंगी। तो अच्छा है कि एक-एक आदमी को चार-चार औरतों की सहूलियत दी जाए। और जब तुम सहूलियत देते हो, तो अजीब खतरे पैदा होते हैं।
अभी इस सदी में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो निजाम हैदराबाद की पांच सौ औरतें थीं--जब कि दुनिया में आदमी और औरतों का संतुलन बराबर है। और एक आदमी पांच सौ औरतों पर कब्जा कर ले, तो वे जो चार सौ निन्यानबे आदमी बिना औरतों के रह गए, वे क्या करेंगे? विकृति फैलेगी, अनैतिकता फैलेगी, दुराचार फैलेगा।
मगर निजाम हैदराबाद पर बहुत नाराज मत होना। जिन्होंने दुनिया के सब रिकार्ड तोड़ दिए हैं, वे हैं तुम्हारे पूर्ण अवतार कृष्ण! उनकी सोलह हजार स्त्रियां थीं। और इन सोलह हजार स्त्रियों में सिर्फ एक स्त्री विवाहित स्त्री थी--रुक्मणी। बाकी दूसरों की स्त्रियां थीं। जो स्त्री पसंद आ गई, वह जबरदस्ती कृष्ण के घर पहुंचा दी गई। अंग्रेजी में कहावत है: माइट इ़ज राइट। कृष्ण के पास ताकत थी। वह किसी गरीब आदमी की औरत को ले जाए, तो वह इनकार भी नहीं कर सकता। उस औरत के बच्चे भी थे छोटे, पति भी था, बड़े-बुजुर्ग भी थे, वह घर सूना हो गया, उस घर में अंधेरा हो गया। और फिर भी तुम कृष्ण को पूर्ण अवतार कहे चले जाओगे? और जिस आदमी में इतनी भी आदमियत नहीं है...पूर्ण अवतार होना तो बात दूर।
भारत को अपने अतीत से मुक्त होना है, यह पहली बात है, तो हम नये कदम उठा सकते हैं। नये कदमों में पहला कदम होगा: संतति-निग्रह। और इस सड़ी-गली दुनिया में जहां आदमी सिवाय हत्या करने के और कुछ भी नहीं करता...तीन हजार वर्षों में पांच हजार युद्ध आदमी ने किए हैं। और अब अंतिम युद्ध की तैयारी है। अगर तुम्हें जरा भी प्रेम है, तो तुम ऐसी दुनिया में अपने बच्चे को नहीं लाना चाहोगे।
अगर तीस वर्षों तक भारत संपूर्ण संतति-नियमन कर ले, तो इसकी आबादी उस सीमा पर आ जाएगी जहां हम खुशहाल हो सकते हैं। मगर यह मैं तुमसे कह सकता हूं क्योंकि मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं। और मुझे तुमसे कोई वोट नहीं लेने हैं। हां, तुम चाहो तो मुझे पत्थर मार सकते हो। वह मेरा सौभाग्य है। लेकिन राजनीतिज्ञ धंधे में है। उसे वही कहना पड़ता है जो तुम पसंद करते हो। और तुम्हारी पसंदगियां बड़ी सड़ी-गली हैं, बहुत पुरानी हैं, बहुत जराजीर्ण हैं। तुमने उन पर कभी पुनर्विचार भी नहीं किया है।
गौतम बुद्ध के जमाने में सारी दुनिया की आबादी दो करोड़ थी--सारी दुनिया की आबादी दो करोड़ थी। और अगर लोग खुशहाल थे, और अगर लोग अपने मकानों पर ताले नहीं लगाते थे, समझ में आती है बात। क्या ताला लगाना? इतनी संपन्नता थी। खास कर इस देश में, जो कि देश कम है और एक महाद्वीप ज्यादा है। हर मौसम है। हर तरह की सुविधा है। ठंडी से ठंडी जगह पा सकते हो, गर्म से गर्म जगह पा सकते हो। सूखे रेगिस्तान हैं, और चेरापूंजी जैसी जगह है: जहां पांच सौ इंच वर्षा होती है, घर के बाहर भी नहीं निकल सकते।
भारत अपने आप में एक पूरी दुनिया है। इसकी संपन्नता का कोई हिसाब न था। गलत नहीं थे वे लोग, जिन्होंने इसे सोने की चिड़िया कहा। लोग खुश थे, लोग प्रसन्न थे। यह तो सिर्फ एक उपमा है कि यहां दूध और दही की नदियां बहती थीं। दूध और दही की नदियां नहीं बहतीं। मगर सूचक है इस बात का कि इतना था कि अगर हम दूध और दही की नदियां भी बहाते, तो कोई हर्ज न होता, कोई नुकसान न होता। लेकिन मूल कारण था, आबादी का बहुत थोड़ा होना। बड़ा देश, बड़ी भूमि, उपजाऊ भूमि।
अगर इस देश के भाग्य को फिर से सोने की चमक देनी है, और अगर इस देश के पत्थरों को फिर हीरों में बदलना है, तो हमें थोड़ी हिम्मत बरतनी होगी। लेकिन मजा यह है कि ईसाई पादरी, कार्डिनल, पोप इस देश में आएगा और लोगों को समझाएगा कि संतति-नियमन पाप है। और इस देश के शंकराचार्य, इस देश के जैनाचार्य उससे सहमत हैं। क्योंकि उन सबकी चिंता कुछ और है। ईसाई चाहता है, यह देश और भी और गरीब होता जाए।
क्योंकि जितने लोग गरीब होते हैं, उतने ही लोग ईसाई होते हैं। उन्हें ईसाई होना ही पड़ता है। और शंकराचार्य और जैनाचार्य भी भयभीत हैं, कि अगर यूं ही चलता रहा, तो हमारी संख्या कम हो जाएगी। यह देश कल ईसाइयों का देश बन सकता है। तो बच्चे पैदा करो।
तो पहली बात मैं कहना चाहता हूं, कि अगर तुम्हें बच्चों से प्रेम है, तो बच्चे पैदा मत करो। एक तीस साल के लिए संतति-नियमन कर लो। जो लोग आबादी को कम करना चाहते हैं--जैसे महात्मा गांधी, विनोबा भावे, वे भी संतति-नियमन के खिलाफ हैं। वे कहते हैं, ब्रह्मचर्य धारण करो। और क्या कोई बता सकता है कि महात्मा गांधी ने कितने लोगों को ब्रह्मचारी बना दिया? खुद महात्मा गांधी का व्यक्तिगत निजी सचिव एक लड़की को ले भागा!
ब्रह्मचर्य अप्राकृतिक है। और जो काम एक छोटी सी गोली कर देती हो, उस काम के लिए नाहक सिर के बल खड़े होना, और शीर्षासन करना निहायत बेवकूफी है। और कितनी ही कोशिश करो, प्रकृति के नियमों के विपरीत तुम जा नहीं सकते, जब तक कि विज्ञान का सहारा न हो। और आज विज्ञान का पूरा सहारा उपलब्ध है। कल तक तो सिर्फ औरतों के लिए संतति-नियमन के लिए गोलियां उपलब्ध थीं, आज आदमी के लिए भी उपलब्ध हैं।
इस देश की आबादी इस देश की दुश्मन है। जो कि बड़ी सरलता से हल की जा सकती है। जरा सी बुद्धिमत्ता।
अमरीका में जिस कम्यून को मैंने निर्मित किया था, उसमें पांच हजार संन्यासी थे। ढाई हजार जोड़े। लेकिन पांच वर्षों में एक बच्चा पैदा नहीं हुआ। और न तो बंदूकें इस्तेमाल की गईं, और न जबरदस्ती पुलिस खड़ी की गई, सिर्फ समझाने की बात थी।
दूसरी बात, भारत दो हजार सालों से गुलाम रहा है। कभी मुगल, कभी तुर्क, कभी हूण, कभी मुसलमान, कभी अंग्रेज। दो हजार वर्ष लंबा समय है। दो हजार साल की गुलामी ऐसी बैठ गई है दिमाग में कि हटाए भी नहीं हटती। इस गुलामी को दिमाग से हटा देना जरूरी है। क्योंकि यह गुलामी ही नहीं, इस गुलामी ने बहुत कुछ तुम्हारे दिमाग में कूड़ा-कचरा भर दिया है, जो कि इस गुलामी के गिरने के साथ ही जाएगा। यूं देखने को तो तुम आजाद हो गए हो--बस देखने को। भीतर की गुलामी में कोई फर्क नहीं है।
और गुलामी एक जंजीर है, जो मनुष्य की प्रतिभा को रोकती है।
अंग्रेजों ने तीन सौ वर्षों में इस देश में स्कूल खड़े किए, कालेज बनाए, युनिवर्सिटियां बनाईं। इसलिए नहीं कि तुम शिक्षित हो जाओ; बल्कि इसलिए कि तुम शिक्षित होने से रह जाओ। और सारी शिक्षा की व्यवस्था यूं की, कि ये स्कूल, कालेज और युनिवर्सिटियां केवल फैक्ट्रियां बन गईं क्लर्कों को पैदा करने की। क्या तुम सोच सकते हो, भारत जैसा विशाल देश, जो इस सदी के अंत में दुनिया का सबसे बड़ा देश होगा--संख्या की दृष्टि से--वहां केवल अब तक तीन नोबल प्राइज मिले हैं? और यहूदी, जिनकी संख्या बहुत नहीं है--भारत में तो न के बराबर है--वे हर वर्ष चालीस प्रतिशत नोबल प्राइज उपलब्ध करते हैं।
क्या होगी बात? क्या हमारे मस्तिष्क बिलकुल खाली हो गए हैं, खोखले हो गए हैं? उन्हें खोखला किया गया है। और खोखला करने की बड़ी वैज्ञानिक विधियां उपयोग की गई हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई सिक्ख है। और अंग्रेजों की हमेशा यह चेष्टा रही कि यह देश कभी एक न हो पाए। यह आपस में ही लड़ता रहे। इसकी सारी ऊर्जा आपस में लड़ने में ही नष्ट होती रहे।
पहला हमला हुआ, कि जिन्ना न तो कभी जेल गया, न कभी उस पर कोई लाठी पड़ी, और फिर भी इस मुल्क को तीन हिस्सों में बांटने का कारण बन गया। क्योंकि अंग्रेजों ने एक बात इस देश के मन में बहुत गहराई से भर दी है, जो इसके पहले नहीं थी। सिक्खों का गुरुग्रंथ देखो: उसमें हिंदू फकीरों के वचन हैं, उसमें मुसलमान फरीद के वचन हैं। हमारी निष्ठा थी अब तक सत्य के प्रति। एक ही गुरुग्रंथ में, सारे धर्मों के लोगों ने, जिन्होंने भी सत्य वचन बोला है, संगृहीत है। लेकिन अंग्रेजों ने धीरे-धीरे दीवालें खड़ी कीं।
हिंदुस्तान की आजादी के पहले विन्सटन चर्चिल ने कहा था--तब तक वे प्रधानमंत्री नहीं थे--कि एटली भूल कर रहे हैं। भारत की आजादी भारत को छिन्न-भिन्न कर देगी, और भारत की आजादी एक अराजकता बन जाएगी। और चर्चिल कितना भी चोर रहा हो राजनीति में, लेकिन उसका यह वक्तव्य तो सही है। आजादी क्या आई, मुसीबत आई। करोड़ों लोग घर बेघर हो गए। उनकी पत्नियों पर बलात्कार किए गए। हजारों लोगों को जिंदा जलाया गया, काटा गया। और यह थी गांधी की अहिंसा की लंबी शिक्षा, जिसका अंतिम परिणाम हिंसा में हुआ। न केवल मुल्क के साथ हिंसा में हुआ, बल्कि एक हिंदू ने ही गांधी को भी गोली मारी।
तो मैं चाहूंगा कि इस देश में मनुष्य रहें। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, और सिक्ख--ये तुम्हारी व्यक्तिगत और निजी बातें हैं। तुम गुरुद्वारा जाओ, यह तुम्हारी मौज है। और तुम मस्जिद जाओ, यह तुम्हारी मौज है। लेकिन इसमें झगड़ा क्या है? तुम कुरान पढ़ो, यह तुम्हारी मौज है। तुम गीता में रस लो, तुम उपनिषदों में डुबकी लगाओ--इसमें हर्ज क्या है? लेकिन इसमें झगड़ा कहां है?
इस देश के युवक को कम से कम यह समझ लेना चाहिए कि वह सिर्फ आदमी है। आदमी पहले है फिर कुछ और है। फिर तो उसकी निजी बातें हैं कि तुम कौन सी मार्का सिगरेट पीते हो, इसमें कोई झगड़ा नहीं होता। तुम किस फिल्म स्टार को पसंद करते हो, यह तुम्हारी पसंदगी है।
धर्म बिलकुल निजी व्यक्तिगत बात है। इसका समूह से कोई संबंध नहीं। तुम्हें जहां रस मिलता है, तुम्हें जहां प्राण मिलते हैं, जहां तुम्हें शांति मिलती है, वह तुम्हारा द्वार है। लेकिन दूसरे को उस द्वार से मत घसीटो।
इस देश की अधिक ऊर्जा और शक्ति आपस में लड़ने में व्यतीत हो जाती है। वही शक्ति इस देश को लहलहाते खेतों से भर सकती है। लेकिन वही शक्ति इस देश को खून से भर देती है। जो अपने थे, जो अपने हैं, हम उन्हें भी काटने में फिर चिंता नहीं करते हैं। फिर हम भूल जाते हैं कि हम आदमी हैं, फिर हम जानवर की तरह व्यवहार करते हैं।
मेरे सुझाव सीधे और साफ हैं। धर्म को व्यक्तिगत घोषित किया जाना चाहिए। धर्म कोई संगठन नहीं होना चाहिए, हर आदमी की मौज होनी चाहिए। और यह भी हो सकता है कि आज तुम्हें गुरुद्वारा जाना पसंद हो, और कल तुम्हें मस्जिद की अजान पढ़ना आनंद देने लगे, तो कोई हर्ज तो नहीं है। सब मकान हैं: गुरुद्वारे भी, मस्जिदें भी, मंदिर भी, चर्च भी। सब हमारे हैं। और जहां से तुम्हें हीरे मिल सकें, चुन लो। और जहां से तुम्हें सत्य की थोड़ी सी भी झलक मिलती हो, आत्मसात कर लो। लेकिन बजाय इसके हम एक-दूसरे की गर्दन के प्यासे हैं। यह थोड़ी सी ही समझ की बात है। मत पूछना कभी किसी से कि तुम्हारा धर्म क्या है?
धर्म तो एक ही है: और वह धर्म है, अपने को इस विराट विश्र्व की चेतना के साथ एक कर लेना। तुम कैसे करते हो एक, यह तुम्हारी मर्जी है। तुम किस राह चलते हो, किन सीढ़ियों पर चढ़ते हो, यह तुम्हारी मर्जी है। मत कहना भूल कर भी कि मेरा धर्म! तुम धर्म के हो सकते हो, धर्म तुम्हारा नहीं हो सकता। धर्म कोई चीज नहीं है, कि तुम उस पर ठप्पा लगा दो, और अपने नाम का निशान लगा दो, और हस्ताक्षर कर दो, कि यह मेरा धर्म है। और जिस दिन तुम यह करते हो--यह मेरा धर्म, उस दिन स्वभावतः तुम्हारा अहंकार कहता है, कि मेरा धर्म ही एकमात्र असली धर्म है।
नहीं, धर्म के तुम हो जाओ। धर्म को अपना मत बनाओ। इस धर्म के गौरीशंकर पर न मालूम कितने मार्गों से लोग चढ़े हैं। तुम्हें जो मार्ग पसंद हो तुम पसंद कर लो। यह भी जरूरी नहीं है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारे मार्ग पर तुम्हारे साथ चले। और यह भी जरूरी नहीं है कि तुम्हारे बेटे तुम्हारे मार्ग पर चलें।
धर्म तो एक परम स्वतंत्रता है। उससे बड़ी कोई आजादी नहीं है। तो यह हो सकता है कि पत्नी जैन मंदिर जाती हो, पति गुरुद्वारा जाता हो, बेटे मस्जिद में नमाज पढ़ते हों। यह बड़ी प्यारी बात होगी। एक घर में अगर सारे धर्मों को अंगीकार करने वाले लोग हों, तो इस देश से धर्मों के झगड़े मिटाए जा सकते हैं--जो कि हमारी व्यर्थ ताकत, हमारी शक्ति, निर्माण करने की हमारी ऊर्जा को फिजूल कर देती है, मिट्टी कर देती है।
मैं तुमसे यह भी कहना चाहूंगा, कि सदियों से तुम्हें यह समझाया गया है कि गरीबी में कोई अध्यात्म है। अगर गरीबी में कोई अध्यात्म है, तो हमने परमात्मा को ईश्र्वर न कहा होता। ईश्र्वर का अर्थ होता है: ऐश्र्वर्य। वह परम धनी है। क्या तुम सोचते हो, किसी दिन तुम ईश्र्वर को मिलो तो वह नंग-धड़ंग धूप में कहीं खड़े होंगे? या कि कांटों की किसी सेज पर लेटे होंगे? धर्म दरिद्रता नहीं है, धर्म जीवन की परम समृद्धि है--बाहर की भी और भीतर की भी। और उन दोनों में कोई विरोध नहीं है। रेगिस्तान में बैठ कर ध्यान करना, और अपने घर की शांति, मौन में ध्यान करना--मैं तुमसे कहूंगा, घर ही चुनना। क्योंकि रेगिस्तान में ध्यान मुश्किल होगा। यह घर की शांति तुम्हें ज्यादा मौन देगी।
हमें यह भी कहा गया है कि धार्मिक व्यक्ति संसार को छोड़ दे, त्याग दे, भाग जाता है पहाड़ों में, गुफाओं में, रेगिस्तान में। इसका दुष्परिणाम हुआ। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि करोड़ों लोग सदियों में भागते रहे संसार से। छोड़ गए पत्नियों को, बच्चों को, बूढ़े मां-बाप को, विधवा बहन को--बिना यह सोचे कि इनका क्या होगा? ये बच्चे भीख मांगेंगे। और कल या परसों से ही मदर टेरेसा इनको ईसाई बनाएगी। ये लाखों संन्यासी, जो भाग गए हैं घर छोड़ कर--भगोड़े हैं। इनकी पत्नियों का क्या होगा? या तो वे भीख मांगें, और या वेश्याएं हो जाएं। दोनों ही बातें अशोभनीय हैं।
मैं चाहता हूं तुमसे कहना कि धर्म कोई संसार का छोड़ना नहीं है। धर्म है संसार को सुंदर बनाना। एक तरफ तो तुम कहते हो कि ईश्र्वर ने जगत को बनाया और दूसरी तरफ तुम्हारे महात्मा कहते हैं कि जगत को छोड़ो। तो गणित साफ है: तुम्हारे महात्मा परमात्मा के विरोध में हैं। अगर यूं जगत को ही छोड़ना था तो बनाने की क्या जरूरत थी? और अगर जगत में होना ही पाप था, तो सारी जिम्मेवारी ईश्र्वर की है, तुम्हारी नहीं। और नरक में अगर कोई भी एक आदमी पड़ेगा तो तुम्हारा ईश्र्वर पड़ेगा। क्योंकि उसने ही जगत बनाया, तुम्हें वासनाएं दीं, आकांक्षाएं दीं। तुम तो बिलकुल निर्दोष हो। तुम तो उसके हाथ की कठपुतली हो। अगर सजा भी मिलेगी तो उसी को मिलनी चाहिए।
जॉर्ज गुरजिएफ इस सदी का एक बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति था। ठीक-ठीक उसने यही वचन लिखा है कि सारे महात्मा परमात्मा के विरोध में हैं। जब पहली दफा मैंने पढ़ा, एक झटका लगा: यह आदमी क्या कह रहा है? लेकिन जब मैंने समझा, तो पाया कि वह बात तो ठीक ही कह रहा है। परमात्मा जगत को बनाए और महात्मा जगत को छोड़ने की बातें करें। निश्र्चित ही विरोध है।
अगर मानना ही है तो परमात्मा को मानना। जगत को और सुंदर बनाओ। जैसे तुम पैदा हुए थे, मरते वक्त जगत को उससे ज्यादा सुंदर छोड़ना है; तो तुमने परमात्मा की सेवा की। भला तुम किसी मंदिर गए या नहीं गए, कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तुमने परमात्मा के मंदिर में दो नये फूल उगा दिए, तुमने परमात्मा के संसार में थोड़ी सुगंध ला दी, तुमने परमात्मा के संसार को अपने जीवन की प्रतिभा दान कर दी।
इस देश को बदलना बहुत कठिन नहीं है। इस देश को केवल दस वर्षों के भीतर इसकी पुरानी गरिमा वापस दिलाई जा सकती है। क्योंकि इस देश ने अपनी प्रतिभा खो नहीं दी है, सिर्फ राख उसके अंगारों पर जम गई है, जो उड़ा देनी है।

प्रश्न:
भगवान, अननोएबल (अज्ञेय) की ओर आपकी यात्रा कैसी होगी? आप कुछ नये स्कूल, कम्यून स्थापित करना चाहेंगे क्या?
नहीं। जो कम्यून, जो स्कूल मैंने कायम किए थे, वे केवल प्रयोग थे इस बात को जानने के कि मैं जो कह रहा हूं वह असलियत बन सकता है या नहीं। सपने साकार हो सकते हैं या नहीं। मैंने उन सपनों को साकार होते देख लिया। अब तो मैं चाहूंगा कि यह पूरी दुनिया मेरा कम्यून बने। यह पूरी दुनिया ही उस रहस्य, उस विस्मय के जगत में प्रवेश करे, जिसके लिए कि हम पैदा हुए हैं, जो कि हमारी नियति है। इसलिए अब अलग-अलग कम्यून और स्कूल...।
वे प्राथमिक प्रयोग थे, वे सफल हुए हैं। उनसे मैंने वे सूत्र पा लिए हैं कि कैसे सारी दुनिया को बदला जा सकता है। अगर मैं कम्यून और स्कूल ही बनाता रहूं, तो बड़ी छोटी बात होगी। क्यों न हम इस सारी दुनिया को एक विश्र्वविद्यालय बना लें, जहां हर आदमी रहस्य की यात्रा करे और हर आदमी उस अज्ञात की ओर बढ़े। अब तो मैं सारे संसार को ही अपना कम्यून बनाना चाहता हूं। अब मेरे पास ठीक-ठीक सूत्र हैं, जिन्हें मैंने ठीक कसौटी पर परख लिया है, कि वह खरा, चौबीस कैरेट सोना है।
मुझे याद आती है, मैं यूनान में था--एक छोटा सा द्वीप है यूनान का, उस पर ठहरा हुआ था। उसके बगीचे में हजारों संन्यासी पूरे यूरोप से इकट्ठे हो गए थे। लेकिन जिस वृक्ष के नीचे मैं बैठा था, मैंने वैसा वृक्ष पहले कभी देखा नहीं था। मैंने पूछा, कि यह वृक्ष क्या है? नाम क्या है? और मैं चकित हुआ कि मुझे बताया गया कि ग्रीक में इसका नाम कैरब है। लेकिन यह वृक्ष इस जगत में अनूठा है। क्योंकि इसका हर छोटा सा फल एक ही वजन का होता है। कैरब का फल कहीं भी पैदा हो उन फलों के वजन में कोई फर्क नहीं होता। और इसलिए कैरब दूसरी भाषाओं में कैरेट बन गया, क्योंकि सोने को तौलने का इससे ज्यादा सुंदर उपाय अतीत में नहीं था। कैरब कभी धोखा नहीं देता। इसका वजन हमेशा एक है।
इसलिए हम कहते हैं, चौबीस कैरेट सोना। वह कैरेट, कैरब वृक्ष के फलों की इस अनूठी बात से पैदा हुआ है, कि उनका वजन हमेशा एक होता है। चाहे वे किसी भी देश में पैदा हों और किसी भी हवा में पैदा हों।
मैंने चौबीस कैरेट वे सिद्धांत परख लिए हैं। स्वभावतः परखने के लिए छोटे स्कूल, छोटे कम्यून जरूरी थे। आदमी सब एक जैसे हैं। उनकी चमड़ियों के रंग अलग हो सकते हैं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। उनकी ऊंचाइयां, लंबाइयां भिन्न हो सकती हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन उसके भीतर, हर आदमी के भीतर चौबीस कैरेट सोना है। और अब मैं चाहूंगा कि सारी दुनिया को ही वे सारे सूत्र उपलब्ध करा दिए जाएं, कि क्यों भारत ही संपन्न हो? क्यों भारत ही महिमा से मंडित हो? क्यों न सारा मनुष्य मंडित हो महिमा से?
मेरी यह चेष्टा कि सारी दुनिया को ही मैं अब अपना घर समझता हूं, और हर आदमी को सिर्फ आदमी समझता हूं, मुझे एक अजीब स्थिति में खड़ा कर दिया है। सारी दुनिया के धर्म और सारी दुनिया के राजनीतिज्ञ इस षडयंत्र में शामिल हो गए हैं कि मुझे काम न करने दें। क्योंकि ईसाई डरता है कि अगर मेरी बात ईसाई सुनेगा, तो आदमी तो बन जाएगा लेकिन ईसाई न रहेगा। और हिंदू डरता है कि अगर हिंदू मेरी बात सुनेगा, तो आदमी तो बन जाएगा लेकिन हिंदू न रहेगा।
अब तो एक अकेला आदमी सारी दुनिया को बदलने के सूत्र देने की तैयारी...और स्वभावतः दुनिया इतने खंडों में बंटी है--तीन सौ धर्म हैं सारी दुनिया में। और हर धर्म समझता है कि वही एकमात्र सच्चा धर्म है, बाकी सब थोथे हैं। और मैं यह कह रहा हूं कि आदमी सच्चा है, उसकी आदमियत सच्ची है, और उसकी आदमियत के भीतर ही परमात्मा का निवास है। वह कौन सी किताब पढ़ता है और कौन से मंदिर में जाता है, यह उसकी मौज है, यह उसका मनोरंजन है।
शायद कभी भी इसके पहले ऐसा न हुआ हो कि एक आदमी के खिलाफ सारी दुनिया हो। लेकिन मैं इसे गौरव समझता हूं। क्योंकि जब भी एक आदमी के खिलाफ सारी दुनिया हो, तो एक बात निश्र्चित है कि सारी दुनिया सही नहीं हो सकती। अगर सही होती तो आज दुनिया की स्थिति और होती। और एक आदमी के खिलाफ सारी दुनिया का विरोध में होना इस बात का सबूत है कि मेरी विजय की यात्रा शुरू हो गई है। उन्होंने अपनी हार भीतर-भीतर स्वीकार कर ली है, अब वे उसे ढांकने की कोशिश में लगे हैं।

प्रश्न:
भगवान, वर्तमान स्थिति में आप अपने आप को कहां तक सीमित रखेंगे? पुनः एक बार रजनीशवाद दुनिया को अपनी लपेट में लेगा या आप केवल चार्वाक बन कर रह जाएंगे?
इस प्रश्र्न में दो प्रश्र्न छिपे हैं। पहला: कि क्या रजनीशवाद दुनिया को फिर अपनी लपेट में लेगा?
रजनीशवाद जैसी कोई चीज न कभी थी, न है, न होगी। मैं वादों का दुश्मन हूं। इन्हीं वादों ने दुनिया को बरबाद किया है। आखिर इस्लाम क्या है? आखिर ईसाइयत क्या है? आखिर जैनिज्म क्या है? ये किन्हीं व्यक्तियों की चेष्टाएं हैं सारी दुनिया को अपनी लपेट में लेने की। ये सब हार गए। और अपनी हार में सारी दुनिया को गंदगी में पटक गए।
मैं कोई ऐसा पाप करने को राजी नहीं हूं। मैं दुनिया को अपने घेरे में नहीं लेना चाहता। मैं चाहता हूं कि दुनिया मुझे अपने घेरे में ले ले। भूल जाए मेरा नाम, भूल जाए मेरा पता, अपनी याद करे। मैं अपने पीछे कोई धर्म नहीं छोड़ जाना चाहता हूं।
मेरी एक ही प्रार्थना है उन लोगों से जो मुझे प्रेम करते हैं, कि उनके प्रेम का एक ही सबूत होगा, कि वे मुझे क्षमा कर दें और मुझे सदा के लिए भूल जाएं। हां, अगर कोई सत्य मुझसे प्रकट हुआ हो, तो सत्य को पी लें--जी भर कर पी लें। लेकिन वह सत्य मेरा नहीं है। सत्य किसी का भी नहीं है। सत्य तो बस अपना है। उस पर कोई लेबल नहीं है, कोई विशेषण नहीं है।
इसलिए मैं तो घुल जाना चाहता हूं, मिल जाना चाहता हूं, मिट जाना चाहता हूं। यूं कि मेरे पैरों के निशान भी जमीन पर न रह जाएं कि कोई उनका अनुसरण करे। जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं, लेकिन उनके पैरों के कोई चिह्न आकाश में नहीं छूटते। मैं भी कोई चिह्न अपने पीछे नहीं छोड़ जाना चाहता हूं।
मैं चाहता हूं कि मनुष्यता सत्य को, प्रेम को, करुणा को, ध्यान को, अस्तित्व को--इनको प्रेम करे। मैं तो कल नहीं था, कल नहीं हो जाऊंगा। इस अस्थिपंजर को मूर्ति मत बना लेना।
और मैं किसी को अपनी लपेट में नहीं लेना चाहता हूं। इस संबंध में यह भी तुम्हें कह दूं कि जो लोग दुनिया में इस चेष्टा में संलग्न होते हैं कि लोग उनके अनुयायी हो जाएं, लोग उनकी लपेट में आ जाएं, ये कोई भले लोग नहीं होते। ये अहंकारी हैं। ये अपने अहंकार के शिखर को बड़े से बड़े करना चाहते हैं। ये तुम्हारे कंधों पर खड़े होकर आकाश के तारे छूना चाहते हैं।
मैं तो यूं मिट जाना चाहता हूं कि जैसे कभी था नहीं। सिर्फ वही रह जाए जो सदा था, सदा है और सदा रहेगा। और उसकी ही तुम लपेट में रहो। मुझसे क्या लेना-देना है? मेरा क्या मूल्य है।
दूसरी बात तुम्हारे प्रश्र्न में है: कि क्या आप एक चार्वाक ही होकर रह जाएंगे?
शायद तुम्हें पता नहीं कि चार्वाक शब्द का क्या अर्थ है। और शायद यह भी पता नहीं कि चार्वाक कभी कोई व्यक्ति नहीं था। चार्वाक एक परंपरा थी--एक जीवन दृष्टि थी। जो लोग उस जीवन-दृष्टि के विरोध में थे, उन्होंने यह नाम ‘चार्वाक’ दिया है। चार्वाक शब्द का अर्थ है: जो चरने में विश्र्वास करता है--खाओ, पीओ, मौज करो, चरे जाओ! लेकिन यह असली नाम नहीं है उस परंपरा का। उस परंपरा का अपना नाम था: ‘चारु वाक।’ चार्वाक नहीं, चारु वाक। और चारु वाक का अर्थ होता है: मीठे वचन। चारु: मीठे; वाक: वचन।
आदमी ने आदमी के साथ क्या किया है, यह बड़ी हैरानी की बात है। ऐसी बेईमानी कि उसके असली नाम को, परंपरा को--जो कि सिर्फ इतना ही कहती थी कि जीवन में एक मिठास हो, तुम्हारे वचन-वचन में फूल झरें--उसको विकृत किया।
निश्र्चित ही चारुवाक कहता था कि जीवन ने जो कुछ तुम्हें दिया है, उसका जितना आनंद ले सको, लो। वह कोई त्यागी नहीं है, वह कोई भगोड़ा नहीं है, वह कोई जीवन-विरोधी नहीं है। चारुवाक की परंपरा है कि जीवन को जितने मधुर रस से भर दे, यह उसकी आकांक्षा है।
यह जान कर तुम्हें आश्र्चर्य होगा कि चारुवाक की लंबी परंपरा का एक भी ग्रंथ मौजूद नहीं है। सारे ग्रंथ हिंदुओं ने जला डाले। क्योंकि बात ही उसकी इतनी मीठी थी कि खतरा था। और बात उसकी इतनी तर्कयुक्त थी कि पुरोहित को खतरा था। क्योंकि चारुवाक कह रहा था: मत करो फिकर परलोक की। अगर तुमने इस लोक को आनंद, सौंदर्य और मधुरिमा में जीया है, तो अगर कोई परलोक है...खयाल करें उसके शब्दों पर: ‘अगर कोई परलोक है, तो वह इसी लोक का ही तो विस्तार होगा।’
और ईमानदारी उसकी कि उसने कहा कि जब तक कि मैं मर न जाऊं, मैं कैसे जानूं कि परलोक है? क्योंकि कोई भी तो कभी लौटा नहीं यह खबर देने कि हां, परलोक है।
इसलिए मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि जो है, उसको जितनी प्रीति और जितने आनंद से जी सको, तुम्हारा जीवन जितना नृत्य बन सके और तुम्हारे घुंघरुओं की आवाज जितनी मधुर हो, उतना अच्छा है। क्योंकि अगर कोई परलोक है तो उस परलोक की आधारशिला इसी लोक में रखी जाएगी। तुम ही तो परलोक में होओगे। और अगर तुम यहां आनंदित हो, तो वहां परम आनंदित होओगे। और अगर परलोक नहीं है, तो कोई प्रश्र्न नहीं है। न तुम होओगे, न कोई अनुभव होगा।
एक ईमानदार दार्शनिक परंपरा।
लेकिन सारे तथाकथित धर्म परलोक के सहारे जीते हैं। वे तुम्हारे इस लोक को नष्ट करते हैं और तुम्हें आश्र्वासन देते हैं, कि परलोक में तुम्हें इसका पुरस्कार मिलेगा। और उनका पुरस्कार अगर तुम देखो, तो बड़ी हैरानी में पड़ जाओगे।
मुसलमान कहते हैं कि इस लोक में जो शराब पीएगा, वह सबसे बड़ा पापी है। लेकिन परलोक में शराब की नदियां बहती हैं। क्या तुम इसमें कोई तर्क संगति देखते हो? अगर यहां साधु होना है तो शराब मत पीना, छूना मत। मधुशाला के पास से भी न गुजरना। और यह थोड़े ही दिन की बात है। क्योंकि मुसलमान और ईसाई और यहूदी एक ही जन्म को मानते हैं। बहुत तो निकल गई, थोड़ी बची है यह भी निकल जाएगी। जरा गुजार दो, फिर परलोक है। और वहां आनंद ही आनंद है।
हिंदू कहते हैं कि यहां अगर तुमने स्त्री को प्रेम दिया, तो नरक में पड़ोगे। लेकिन अगर सच में चाहते हो सुंदरतम अप्सराओं का प्रेम, तो जरा रुको, जरा धीरज रखो। परलोक में अप्सराएं ही अप्सराएं हैं। और उनका वर्णन भी थोड़ा समझने जैसा है। सदियों पर सदियां बीत गईं, अनंतकाल बीत गया, वे परलोक की जो अप्सराएं हैं, अब भी सोलह साल की हैं। उनकी उम्र नहीं बढ़ती। ऐसा लगता है, चमड़ी कम, प्लास्टिक की ज्यादा बनी हैं। और यह भी मजा है कि वे कोई पतिव्रता नहीं हैं। और न मालूम कितने ऋषि-मुनि आते रहे, जाते रहे, अपने पुण्य का फल पाते रहे। मगर बड़े आश्र्चर्य की बात है कि यहां स्त्री को छूना भी पाप है, और वहां स्त्रियों का जमघट है, जो ऋषि-मुनियों की प्रतीक्षा कर रहा है।
मुझे इसमें गणित की भूल मालूम पड़ती है। अगर यह बात सच है कि वहां स्त्रियां प्रतीक्षा कर रही हैं, तो कम से कम थोड़ा अभ्यास यहां तो करने दो। यहां तो तुम्हारा ऋषि-मुनि सूख-सूख कर मरा जा रहा है। और जीवन भर ब्रह्मचर्य को साधने की कोशिश में करीब-करीब मुर्दा हो गया है। इस गरीब को अप्सराएं घेर लेंगी, यह भागेगा कि माई, यह क्या करती हो?
मैंने सुना है कि एक बहुत बड़ा हिंदू महात्मा मरा, जिसका एक ही उपदेश था कि ब्रह्मचर्य ही ब्रह्म को पाने का उपाय है। उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। उसके मर जाने के बाद, जो उसका निकटतम शिष्य था, वह विरह न सह सका। दूसरे दिन उसका भी हार्ट फेल हो गया। वह चला स्वर्ग के मार्ग पर, बड़ा आनंदित कि गुरु के दर्शन होंगे। और बड़ा आनंदित कि गुरु आनंद भोग रहे होंगे।
और जब स्वर्ग पहुंचा तो देखा, एक वृक्ष के नीचे सूख गई हड्डियों वाला बूढ़ा गुरु नग्न पड़ा है। और अमरीका की तभी-तभी मरी हुई मर्लिन मनरो, वहां की बड़ी अभिनेत्री, जिससे प्रेसिडेंट केनेडी भी चोरी-छिपे मिला करते थे, वह उसके गुरु से लिपटी हुई है। उसने कहा, हे मेरे भगवान! आंख खोलूं कि बंद रखूं? रखना तो बंद ही चाहिए शास्त्र के अनुसार, लेकिन दिल तो आंख खोल कर देखने का होता है।
और हर आदमी तरकीब निकाल लेता है। वह झट से गुरु के चरणों में गिर पड़ा। और उसने कहा: हे मेरे गुरु, मुझे मालूम ही था कि तुमने ऐसा ब्रह्मचर्य साधा है कि तुम्हें इसका परम फल मिलेगा।
इसके पहले कि गुरु कुछ बोलते, मर्लिन मनरो ने कहा: अरे नालायक, यह तेरे गुरु को पुरस्कार नहीं मिल रहा है, यह मुझे दंड मिल रहा है। यह कमबख्त न मालूम कब से नहाया भी नहीं है।
सारे धर्मों की यही व्यवस्था है। इस लोक को विकृत करो, ताकि परलोक में तुम्हें पुरस्कार मिले। मगर यह बिलकुल ही तर्क के विरुद्ध है, गणित के विरुद्ध है। अगर परलोक में सुख मिलना है, तो उसका अभ्यास इस लोक में हो जाना जरूरी है। यह तो एक छोटी-मोटी पाठशाला है, जहां थोड़ा अभ्यास कर लो, फिर परलोक में...।
चार्वाक को चार्वाक मत कहो, चारुवाक कहो। उसके वचन बड़े मीठे हैं। उसकी तो सारी किताबें जला दी गईं। उस परंपरा को पूरी की पूरी तरह नष्ट कर दिया गया। लेकिन विरोधियों की किताब में चारुवाक का खंडन करने के लिए कुछ-कुछ उद्धरण उपलब्ध होते हैं।
वे उद्धरण भी काफी हैं कि जिसने भी इस परंपरा को शुरू किया होगा, वह अति प्रतिभा संपन्न व्यक्ति होगा। वह परलोक को और इस लोक को जोड़ रहा है, तोड़ नहीं रहा है। वह जीवन को बांट नहीं रहा है, अखंड बना रहा है। और वह तुमसे कह रहा है कि यह लोक भी उसी परमात्मा का है; परलोक भी उसी परमात्मा का है, इन दोनों के बीच विरोध की खाई बंद होनी चाहिए।
तुम पूछते हो: ‘क्या आप चार्वाक ही होकर रह जाएंगे?’
शायद तुम्हें मेरी पूरी जीवन दृष्टि का कोई पता नहीं है। मेरी पूरी जीवन दृष्टि है: चार्वाक और गौतम बुद्ध को जोड़ देना। गौतम बुद्ध परलोक है, चार्वाक यही लोक है। चार्वाक भी अधूरा है, अगर परलोक की कोई धारणा न हो। और गौतम बुद्ध भी अधूरे हैं, अगर इस जीवन के प्रति निषेध हो।
मैं जीवन को उसकी सर्वांगीणता में स्वीकार करता हूं। मैं चार्वाक हूं और मैंने बुद्धत्व की उस ऊंचाई को भी छुआ है। और मैंने कोई अनुभव नहीं किया है कि उन दोनों में कोई विरोध है। संसार में विरोध हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह एक इकट्ठी इकाई है। यहां दो नहीं हैं। यह एक ही परमात्मा का विस्तार है। परमात्मा के पैर उतने ही जरूरी हैं, जितना कि परमात्मा का सिर। मत काटो परमात्मा को दो हिस्सों में। अन्यथा पैर भी मर जाएंगे और सिर भी मर जाएगा। मैं दोनों को एक साथ देखना चाहता हूं। मैं देखना चाहता हूं बुद्ध को जीवन के सारे आनंद, सारी संभावनाओं के साथ; और मैं देखना चाहता हूं चारुवाक को स्वर्ग की सारी ऊंचाइयों के साथ।
क्या यह नहीं हो सकता? मैंने तो इसे अपने भीतर होते देखा है, इसलिए अधिकारपूर्वक कहता हूं कि अगर यह मेरे भीतर हो सकता है, यह तुम्हारे भीतर हो सकता है।
जीवन को एक अखंड इकाई की तरह स्वीकार कर लेना मनुष्य की प्रतिभा का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।

धन्यवाद।

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