QUESTION & ANSWER
Peevat Ramras Lagi Khumari 03
Third Discourse from the series of 10 discourses - Peevat Ramras Lagi Khumari by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1981.
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पहला प्रश्न:
भगवान, संत बुल्लेशाह का वचन है-- रब्ब दा की पाना, एथों पुटिया, ते एथे लाना। ‘अर्थात परमात्मा का क्या पाना, यहां से उखाड़ना और वहां लगाना।’ भगवान, क्या इतनी सी ही बात है?
सुरेंद्र सरस्वती, सरल है बात, यही कठिनाई है। कठिन होती तो कठिन न होती, क्योंकि कठिन बात के लिए तो अहंकार बहुत आतुर होता है। कठिनाई में अहंकार को चुनौती है, आमंत्रण है, बुलावा है। जितनी कठिन हो--असंभव हो तो और भी भला--और आदमी करने की ठान लेता है। गौरीशंकर पर चढ़ेगा। पाने को वहां कुछ भी नहीं, मगर अहंकार अद्वितीय होने का मजा लेना चाहता है। चांद पर जाएगा, कंकड़-पत्थर लाएगा। यहीं कुछ कमी है कंकड़-पत्थरों की? मंगल पर पहुंचेगा, दूर के सितारों पर भी एक दिन जाकर रहेगा; हाथ कुछ भी न लगेगा। पर यह दंभ कि मैं हूं पहला व्यक्ति जो गौरीशंकर पर चढ़ा, कि मैं हूं पहला व्यक्ति जो चांद पर चला! जीवनभर लोग न्योछावर करते थे ऐसी ही मूढ़ताओं पर।
कोई राष्ट्रपति होना चाहता है, कोई प्रधानमंत्री होना चाहता है। हाथ कुछ भी लगता नहीं। लेकिन सत्तर करोड़ के देश में एक ही व्यक्ति हो सकता है राष्ट्रपति। अहंकार को पोषण मिलता है।
इसलिए इस बात को खयाल में रखना: कठिन कठिन नहीं मालूम होता। सरल ही कठिन हो गया है। स्वयं को पाना इतना सरल है, इसीलिए तो बहुत कम लोग उसे पा सके।
तुमने भी बुल्लेशाह के वचन के अनुवाद में जरा सी भूल कर दी। मुझे तो बुल्लेशाह की भाषा नहीं आती, लेकिन शहनशाहों की जो भाषा है वह मुझे मालूम है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि तुमने भूल कर दी।
बुल्लेशाह का वचन है: रब्ब दा की पाना!
परमात्मा का क्या पाना? क्योंकि परमात्मा को तो पाया ही हुआ है। वह तो मिला ही हुआ है। वह तो तुम्हारे भीतर विराजमान ही है। उससे कभी छूटे नहीं। उससे कभी बिछुड़े नहीं। जिससे बिछुड़ न सको उसी का नाम तो परमात्मा है। चाहकर भी जिसे खो न सको, भागकर भी जिससे भाग न सको, उसी का नाम तो परमात्मा है। मछली तो शायद सागर छोड़ भी दे, क्योंकि सागर के बाद और भी कुछ है, बहुत कुछ है; मछुए हैं, मछुओं के जाल हैं; उत्तप्त रेत के तट हैं, चट्टानें हैं। लेकिन आदमी तो परमात्मा के सागर को छोड़कर कहां जाएगा? श्वास है तो उसकी, हृदय की धड़कन है तो उसकी। जीवन अर्थात परमात्मा। जन्मे हो परमात्मा में, जीयोगे परमात्मा में, एक दिन उसी में पिघलोगे और लीन भी हो जाओगे।
मुझसे लोग पूछते हैं, परमात्मा को कहां पाएं? और मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि तुमने खोया कहां, खोया कब? खोया हो तो मैं तुम्हें पाने का रास्ता बता दूं। कहां खोया है, तो उस जगह को हम खोज लें। न खोया है, न खो सकते हो और पाने की पूछ रहे हो! मगर अहंकार पाने की भाषा जानता है। सिर्फ एक भाषा उसे आती है--पाना। तो अहंकार पूछता है, परमात्मा को कैसे पाना? और यह अहंकार ही है जिसने परमात्मा को दूर सात आसमानों के पार बिठा रखा है। उतने दूर बिठाओगे तभी अहंकार को रस आता है, कि चलो, बात चलने जैसी है, पाने जैसी है। सिद्ध होना है, संत होना है, महात्मा होना है, मुक्त होना है। निर्वाण पाना है।
बुल्लेशाह यह कह रहे हैं: रब्ब दा की पाना!
कहां की पागलपन की बातों में पड़े हो? क्या पाना परमात्मा को? अरे, उसे पाया ही हुआ है! इतना जानना भर है। इतना पहचानना भर है। परमात्मा यानी आत्म-परिचय, अपनी पहचान। जैसे कोई दर्पण में अपने चेहरे को देखे तो क्या तुम कहोगे कि उसने चेहरा पा लिया? चेहरा तो सदा से था, दर्पण न था तब भी था। अभी दर्पण को गिरा दोगे और चकनाचूर कर दोगे, हजार टुकड़े हो जाएंगे, तो क्या तुम सोचते हो चेहरे के हजार टुकड़े हो जाएंगे? दर्पण चूर-चूर हो जाएगा, चेहरा तो अखंड ही रहेगा। दर्पण खो जाएगा, लेकिन चेहरा तो न खो जाएगा। हालांकि दर्पण ने थोड़ा सा सहारा दिया, बस इतना सहारा कि जो अपना था उसे दिखला दिया कि अपना है। बस, ध्यान इतना ही करता है। ध्यान दर्पण है।
जब सिकंदर भारत से वापस लौटता था तो एक फकीर ने उसे एक भेंट दी थी। भेंट बड़ी अजीब थी: एक छोटा सा दर्पण। कहानी प्यारी है। सिकंदर ने पूछा कि तुम देखते हो, इतने हाथी, इतने ऊंटों, इतने घोड़ों पर हीरे-जवाहरात, सोने-चांदी को लाद कर मैं ले जा रहा हूं, और तुम भेंट दे रहे हो यह छोटा सा दर्पण! दर्पण की कुछ मेरे देश में कमी है?
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, यह दर्पण कुछ और ही ढंग का है। इसमें जब तुम देखोगे तो देह की छाया न बनेगी, तुम्हारी छाया बनेगी। असली चेहरा दिखाई पड़ेगा। यह चेहरा नहीं जो आंखों की पकड़ में आ जाता है; वह चेहरा जो आंखों की पकड़ के पार रह जाता है।
सिकंदर ने उस दर्पण में देखा और चकित हुआ, हैरान हुआ, भरोसा न कर सका। देह का तो कोई प्रतिफलन नहीं बना था, लेकिन चेतना की झलक थी, चैतन्य की ज्योति थी, आभा थी।
यह तो कहानी है। यह कहानी इतना ही कह रही है कि उस फकीर ने ध्यान की कोई विधि दी होगी सिकंदर को, बस। ध्यान यानी दर्पण। और दर्पण उससे पहचान करा देता है जो तुम्हारे पास है।
रब्ब दा की पाना!
पाने की बात ही छोड़ दो। पाने की भाषा ही लोभ की भाषा है, महत्वाकांक्षा की भाषा है, पागलपन की भाषा है। मिला ही हुआ है। पहले उसे तो देख लो जो मिला ही हुआ है। क्योंकि जिसने उसे देखा उसने सब पा लिया; उसकी पाने की दौड़ ही गिर गई।
लेकिन इस वचन के आधे हिस्से में तुमसे भूल हो गई।
रब्ब दा की पाना, एथों पुटिया ते एथे लाना।
तुमने अनुवाद किया है--परमात्मा का क्या पाना, यहां से उखाड़ना और वहां लगाना। नहीं, यहीं से उखाड़ना और यहीं लगाना। साफ है--
एथों पुटिया ते एथे लाना।
यहीं से यहीं लाना। यहां और वहां में तो तुमने फासला कर लिया। उतने फासले में भी अहंकार को मजा आ जाता है। वह अज्ञान की भाषा है--यहां से वहां। यहां से यहां, वह ज्ञान की भाषा है। और यह साफ है। मुझे भाषा नहीं आती बुल्लेशाह की, लेकिन तुम भी देख सकते हो--
एथों पुटिया ते एथे लाना।
यहीं बैठा है और यहीं लाना है। न कहीं जाना है, न कहीं से उखाड़ना है, न कहीं लगाना है। यहीं लगा है। बस, विस्मरण हो गया है। स्मरण करना है। खोया नहीं है परमात्मा, सिर्फ याद खो गई है।
हजार कतरा सही, बहरे-बेकरां सा लगे
वो एक दर्द का लम्हा कि जाविदां सा लगे
किसे पड़ी थी कि दश्ते-सराब में आता
मुझे तो शहर के प्यासों का कारवां सा लगे
दिलों पे पड़ने लगे मसलहत के साए से
खुलूसे-शौक भी अब जिन्से-रायगां सा लगे
शिकस्ते-ख्वाब कोई तुर्फा सानिहा भी नहीं
किसी पे गुजरे तो कमबख्त नागहां सा लगे
न जाने गर्दे-सफर है कि आंधियों का गुबार
जिधर निगाह उठाऊं, धुआं-धुआं सा लगे
बसी हुई हैं हवाएं, जुनूं की खुशबू में
फिर आज दामने-तमकीं का इम्तिहां सा लगे
ये और बात है, यारों ने कम-सुखन जाना
मिरा ये हाल कि हर लफ्ज दास्तां सा लगे
अजीब वहम कि हर संगे-आस्तां मुझसे
खफा-खफा सा नजर आए, बदगुमां सा लगे
जराहतों के चमन जैसे खिल उठे ‘तांबां
जमाना अहले-मोहब्बत पे मेहरबां सा लगे
हजार कतरा सही, बहरे-बेकरां सा लगे
वो एक दर्द का लम्हा कि जाविदां सा लगे
एक बूंद की पहचान हो जाए कि सब सागर पहचान में आ गए।
हजार कतरा सही, बहरे-बेकरां सा लगे
यूं तो लगता है एक छोटी सी बूंद--अनुभव की, ज्ञान की उस परम प्यारे को पाने की एक छोटी सी बूंद की प्यास। मगर खोजने चलो तो अथाह सागर मिलता है इसी बूंद में।
वो एक दर्द का लम्हा कि जाविदां सा लगे
और उसे याद करने का, विरह का, उसके प्रेम में जलने का वह एक छोटा सा क्षण...
वो एक दर्द का लम्हा कि जाविदां सा लगे
लेकिन यूं लगता है जैसे शाश्वतता मिल गई। उसके बिना, उसे बिना पहचाने, तुम अनंत काल तक भी जीओ तो केवल मरते हो, सड़ते हो। उसे पाने की आकांक्षा भी उठ आए, उसे खोजने की जिज्ञासा भी जग आए, पीड़ा उठे, दर्द उठे, विरह की अग्नि जगे, तो एक क्षण भी पर्याप्त है, शाश्वत मालूम होगा। क्योंकि उसी क्षण से द्वार खुल जाता है। उसी बूंद से सागर का द्वार खुल जाता है।
किसे पड़ी थी कि दश्ते-सराब में आता
मुझे तो शहर के प्यासों का कारवां सा लगे
और यह क्या है दुनिया? और यह क्या है भीड़-भाड़? और यह क्या है संसार? प्यासों की कतारों पर कतारें।
...प्यासों का कारवां सा लगे
लेकिन प्यासे हैं जरूर, मगर पानी की तलाश नहीं करते। और पानी भीतर भरा है, जल के स्रोत और झरने भीतर हैं। दुनियाभर में खोजते हैं, दौड़ते फिरते हैं--कहां-कहां नहीं दौड़ते! धन में, पद में, प्रतिष्ठा में। कुछ पाते नहीं। जरा भी प्यास मिटती नहीं। जी लेते हैं और मर जाते हैं। कुछ हाथ नहीं, खाली हाथ आते हैं खाली हाथ जाते हैं। थोड़ा गंवाकर ही जाते हैं। क्योंकि बच्चा जब पैदा होता है तो कम से कम मुट्ठी तो बंधी होती है, खाली है तो भी कोई बात नहीं, मगर मुट्ठी बंधी तो होती है। कहते हैं: बंधी तो लाख की और खुली तो खाक की। कम से कम बच्चे की मुट्ठी तो बंद होती है! मरता है आदमी तो वह मुट्ठी भी खुल गई। बंधी थी तो लाख की थी, खुल गई तो खाक की हो गई। कुछ लेकर नहीं आते, कुछ लेकर जाते नहीं। यूं व्यर्थ ही आपाधापी कर लेते हैं। और बहुत आपाधापी!
न जाने गर्दे-सफर है कि आंधियों का गुबार
पता नहीं...! इतनी धूल-धवांस।
न जाने गर्दे-सफर है कि आंधियों का गुबार
जिधर निगाह उठाऊं, धुआं-धुआं सा लगे
जरा आंख तो उठाकर देखो, हर आदमी धुंधिया रहा है। किसी की जीवन-ज्योति जल नहीं रही। इस उपद्रव में, जिसे तुम संसार कहते हो, कुंजी जो सारे तालों को खोल दे, सारे द्वारों को खोल दे, तुम अपने साथ लाए हो। मगर चूंकि साथ लाए हो, इसीलिए भूले बैठे हो। चूंकि जन्म से ही साथ लाए हो, इसलिए स्मरण भी नहीं होता। थोड़ी दूरी चाहिए देखने के लिए। अगर आईने के बिलकुल पास खड़े हो जाओ, आंखें आईने से ही लगा दो, तो आईने में भी कुछ दिखाई न पड़ेगा; आईना भी दीवाल हो जाएगा। थोड़ा फासला चाहिए। और हमारे और परमात्मा के बीच जरा भी फासला नहीं, कोई फासला करने का उपाय नहीं, क्योंकि हम ही परमात्मा हैं। अहं ब्रह्मास्मि! अनलहक! उपनिषद कहते हैं: तत्वमसि! तुम वही हो।
नहीं, सुरेंद्र सरस्वती, अनुवाद ऐसा न करना कि परमात्मा का क्या पाना, यहां से उखाड़ना और वहां लगाना! यहां और वहां में पता नहीं कितना फासला हो जाए। यहां और वहां का ही तो उपद्रव है। यहीं, और कहीं नहीं। एथों पुटिया ते एथे लाना। यहीं है और यहीं लाना है। इसलिए तो धर्म की बात बेबूझ मालूम होती है।
सोचना पड़ता है, कैदे-बामो-दर में क्या न था
वहशतों के घर में क्या है, मेरे घर में क्या न था
फासलों की गर्द ने धुंदला दिए मंजर तमाम
वर्ना हम आवारागर्दों की नजर में क्या न था
चंद यादों के अलावा, चंद जख्मों के सिवा
जिंदगी की शाम में क्या है, सहर में क्या न था
शोरिशें ही शोरिशें थीं, जिंदगी ही जिंदगी
सोचिए तो एक मुश्ते-बालो-पर में क्या न था
छोड़िए भी, अब तलाशो-जुस्तजू से फायदा!
हां कभी वो दिन भी थे दिल के नगर में क्या न था
अक्ल बेचारी दलीलों में उलझकर रह गई
वर्ना ‘ताबां’ उस निगाहे-मुख्तसर में क्या न था
यह बुद्धि है, यह विचार है, यह तर्क है, जो न मालूम किन झंझटों में उलझकर रह गया है; नहीं तो एक संक्षिप्त सी नजर, एक छोटी सी नजर और सब राज खुल जाएं।
अक्ल बेचारी दलीलों में उलझकर रह गई
वर्ना ‘ताबां’ उस निगाहे-मुख्तसर में क्या न था
उस संक्षिप्त सी नजर में, देखने का एक ढंग, एक सलीका और सब राज खुल जाते हैं।
फासलों की गर्द ने धुंदला दिए मंजर तमाम
यह फासले की ही तो धुंध है। यह फासले की ही तो गर्द है--यहां से वहां, और फासला हुआ।
फासलों की गर्द ने धुंदला दिए मंजर तमाम
उसी के कारण तो सभी दृश्य धुंधले हो गए हैं। आंखें धुंधली हो गई हैं तो दृश्य धुंधले हो गए।
वर्ना हम आवारागर्दों की नजर में क्या न था
यूं आवारा गर्द हो गए हैं। यहां से वहां भागे फिर रहे हैं। एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव पर भागे फिर रहे हैं। आवारागर्द हो गए हैं।
वर्ना हम आवारागर्दों की नजर में क्या न था
हमारी आंख में तो सब छिपा है। हमारे देखने के ढंग में तो सब छिपा है।
शोरिशें ही शोरिशें थीं...
क्रांति हमारे भीतर है, विप्लव हमारे भीतर है, आग हमारे भीतर है।
शोरिशें ही शोरिशें थीं, जिंदगी ही जिंदगी
और जिंदगी ही जिंदगी तुम्हारे भीतर है। जीवन, और जीवन, और जीवन, अनंत जीवन!
सोचिए तो एक मुश्ते-बालो-पर में क्या न था
एक पक्षी को जब तुम आकाश में उड़ते देखते हो तो कभी सोचा--एक मुट्ठी भर मिट्टी, थोड़े से बाल, थोड़े से पंख, मगर क्या गजब की उड़ान! सारा आकाश उन दो छोटे से पंखों से हार जाता है। यूं तो हम बहुत छोटे हैं--एक मुट्ठी खाक, थोड़े से पंख, थोड़े से बाल। मगर सारा आकाश हमारा हो सकता है। यूं तो हम बूंद हैं, मगर सागर हमारा हो सकता है। उलझ गए हैं लेकिन एक बात में--
अक्ल बेचारी दलीलों में उलझकर रह गई
वर्ना ‘ताबां’उस निगाहे-मुख्तसर में क्या न था
जरा आंख को बदलो। यहां से वहां की बात की, कि चक्कर में पड़े। फिर यह रुकेगी कहां? तुम जहां पहुंचोगे वहां होगा--यहां। और परमात्मा होगा वहां। तुम जहां भी जाओगे वहीं उसे नहीं पाओगे। क्योंकि वह कभी यहां होगा नहीं और तुम कभी वहां नहीं हो पाओगे। तुम होओगे आज, परमात्मा होगा कल। और जब भी हाथ में आएगा तो आज आएगा; कल तो किसी के हाथ में आता नहीं। तो पाओगे कैसे? वह तो क्षितिज की तरह दूर ही रह जाएगा।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: परमात्मा को बाहर सोचने की दृष्टि ही गलत है। उसे दूर सोचने का भाव ही गलत है। न तो उसे मंदिरों में पूजो, न मस्जिदों में पुकारो, न गिरजों में, न गुरुद्वारों में उसकी तलाश करो। यह जुस्तजू बेकार है। यह खोज व्यर्थ है। अपने भीतर चलो। आंख बंद करो, अपने में डुबकी मारो।
तूफां के बाद बहर-ब-दस्तूर हो गया
टकरा के इक सफीना मगर चूर हो गया
निखरा हुआ है रंग जफाओं का इन दिनों
अब कम-निगाहियों का गिला दूर हो गया
दिल यूं भी बेनियाजे-करम-हाए दोस्त था
खाकर शिकस्त और भी मगरूर हो गया
दस्ते-तलब से दूर न था दामने-करम
लेकिन मैं पासे-वजा से मजबूर हो गया
इक जुंबिशे-निगाह ने मंजर बदल दिया
आलम तमाम हुस्न से मामूर हो गया
‘ताबां’ इताबे-नाज से दिल का मुआमला!
इक हादिसा फिर आज सरे-तूर हो गया
थोड़ा सा तूफान है, मगर तूफान भी तो सागर का हिस्सा है। तूफान के पहले भी सागर शांत था, तूफान के बाद भी सागर शांत हो जाएगा। यह विचारों का तूफान है हमारी चेतना के सागर में। इसके पहले भी सन्नाटा था, इसके बाद भी सन्नाटा हो जाएगा। विचार के पहले भी ध्यान है, विचार के बाद भी ध्यान है। विचार के पहले भी भगवान है, विचार के बाद भी भगवान है। यह विचार का थोड़ा सा तूफान है, बस इसे बैठ जाने दो।
तूफां के बाद बहर-ब-दस्तूर हो गया
तूफान चला जाता है, सागर फिर पूर्ववत हो जाता है।
तूफां के बाद बहर-ब-दस्तूर हो गया
टकरा के इक सफीना मगर चूर हो गया
लेकिन इस बीच एक सफीना, एक नाव टकराएगी और टूटेगी--वह तुम्हारे अहंकार की नाव है। अगर तुमने उसको बचाया तो तुम परमात्मा से चूकते रहोगे। डूबना सीखना होगा, मिटना सीखना होगा। यह नाव तभी पार लगेगी जब डूबे। डूबे तो ही पार लगे। जो डूबे वही ऊबरे। अगर डूबने की हिम्मत नहीं है तो कभी उबर भी न सकोगे। मगर अहंकार बचना चाहता है।
दिल यूं भी बेनियाजे-करम-हाए दोस्त था
खाकर शिकस्त और भी मगरूर हो गया
और जितने हारते हो उतना ही अहंकार अकड़ता जाता है, कि चलो कोई बात नहीं, इस बार हारे तो अगली बार जीतेंगे, एक दांव और सही, एक प्रयास और सही।
छोटे-छोटे बच्चों को हम सिखाते हैं कि फिक्र मत करो, अरे, आज हार गए तो कल जीतोगे; इस बार हार गए तो अगली बार जीतोगे। करते रहो हमला। निराश न होओ, हताश न होओ।
और यही चलता रहता है जिंदगी भर। न कभी कोई जीता है यहां, न कभी कोई जीत सकता है। इस संसार में हार के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता नहीं।
हां, जीते कुछ लोग, मगर वे संसार में नहीं जीते, वे स्वयं में जीते। कोई बुद्ध जीता, कोई महावीर जीता, कोई लाओत्सु जीता, कोई जरथुस्त्र जीता, कोई कबीर, कोई नानक--मगर भीतर। यह जीत भीतर घटी, बाहर नहीं। यह साम्राज्य भीतर का है, बाहर का नहीं।
दस्ते-तलब से दूर न था दामने-करम
मांगने वाले हाथ से वह देने वाला दामन बहुत दूर नहीं, जरा भी दूर नहीं, बिलकुल भी दूर नहीं।
दस्ते-तलब से दूर न था दामने-करम
वह कृपा की वर्षा अभी हो जाए, मगर हाथ फैलाने में ही अहंकार को झिझक होती है; मांगने में ही अड़चन आ जाती है।
दस्ते-तलब से दूर न था दामने-करम
लेकिन मैं पासे-वजा से मजबूर हो गया
लेकिन वह अहंकार की पुरानी आदत हाथ फैलाने नहीं देती। वह अकड़े रखती है। बहुत दूर नहीं है, जरा भी दूर नहीं है। तुम हाथ फैलाओ कि अभी मिल जाए। तुम सरल हो जाओ तो अभी मिल जाए। तुम विनम्र हो जाओ तो अभी पा जाओ।
जीसस ने कहा है: ‘धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि प्रभु का राज्य उनका है।’
और जरा सी बात में सब बदल जाता है।
इक जुंबिशे-निगाह ने मंजर बदल दिया
नजर की हलकी सी थरथराहट!
इक जुंबिशे-निगाह...
इक जुंबिशे-निगाह ने मंजर बदल दिया
सारा दृश्य ही बदल गया।
आलम तमाम हुस्न से मामूर हो गया
सारा संसार उस परमात्मा के सौंदर्य से लबालब हो उठता है। एक जरा सी थरथराहट नजर की, देखने के ढंग का बदल जाना। अभी तुम देखते हो, दूर परमात्मा है--यूं मान कर। जिस दिन यह सोचकर देखोगे कि भीतर है, स्वयं में--बस जरा सी थरथराहट!
‘ताबां’ इताबे-नाज से दिल का मुआमला!
इक हादिसा फिर आज सरे-तूर हो गया
तूर पर्वत पर हजरत मूसा को परमात्मा का प्रकाश दिखाई पड़ा था। तुम जरा सी नजर बदलो और तुम्हारे भीतर ही तूर पर्वत प्रगट हो जाए और तूर पर्वत का प्रकाश प्रगट हो जाए। वह तूर का पर्वत कहीं बाहर नहीं है।
‘ताबां’ इताबे-नाज से दिल का मुआमला!
इक हादिसा फिर आज सरे-तूर हो गया
तुम्हारे भीतर ही रोशनी हो जाए--वही रोशनी जो तूर पर्वत पर हुई थी। वह पर्वत कहीं बाहर नहीं है। वह तुम्हारी ही ऊंचाई है, तुम्हारी ही चेतना की ऊंचाई है।
सुरेंद्र सरस्वती, ऐसा मत कहो कि यहां से उखाड़ना वहां लगाना। नहीं, यहीं है, यहीं लगाना, यहीं देखना। इस क्षण में ही सब कुछ है। मैं राजी हूं बुल्लेशाह से। ये बुल्लेशाह उन थोड़े से फकीरों में एक हैं, जिनको सच में ही शाह कहा जाए, शहंशाह कहा जाए। ये बादशाहों में से एक हैं।
ठीक कहते हैं: रब्ब दा की पाना, एथों पुटिया ते एथे लाना।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, हरेकृष्ण आंदोलन के एक स्वामी, स्वामी अक्षयानंद महाराज ने कल पूना में अपने एक प्रवचन में आपकी तथा आपके संन्यासियों की आलोचना की है कि पर-स्त्री संबंध तथा गर्भपात द्वारा हत्या का समर्थन करने वाले आचार्य भगवान नहीं, प्रथम कोटि के राक्षस हैं। स्वामी अक्षयानंद महाराज ने यह भी कहा कि सौभाग्य से हमारे शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि कलियुग में रावण जैसे लोग होंगे, जो कि स्वयं को भगवान घोषित करके सीधे-सादे लोगों को मार्गच्युत करेंगे। अपने प्रवचन में स्वामी अक्षयानंद महाराज ने यह भी कहा कि भटके हुए विदेशी नागरिक संतों जैसे वस्त्र पहनकर सार्वजनिक स्थलों पर प्रणय आदि का निर्लज्ज प्रयोग कर रहे हैं। तथा उन्होंने ऐसे घृणित कार्य के लिए चिंता और आक्रोश प्रगट किया। भगवान, स्वामी अक्षयानंद महाराज की इस परोक्ष टीका पर आप क्या कहेंगे?
चैतन्य कीर्ति, पहली तो बात यह कि स्वामी अक्षयानंद महाराज अमरीकी हैं, लेकिन कह रहे हैं कि ‘हमारे शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि कलियुग में रावण जैसे लोग होंगे...।’
हिंदुओं के अहंकार को इससे बड़ी तृप्ति मिलती है, सफेद चमड़ी का कोई आदमी कह दे कि ‘हमारे शास्त्र’...हृदय गदगद हो जाता है। एकदम फूल ही फूल खिल जाते हैं, दीए ही दीए जल जाते हैं। काश, मैं भी अपने विदेशी संन्यासियों को यही समझा रहा होता कि इन सड़े-गले शास्त्रों का समर्थन करो, इन लाशों को सिर पर ढोओ, इनका गुणगान करो, स्तुति करो, तो तुम्हें भी पूजा मिलती, तुम्हें भी सम्मान मिलता! भारत तुम्हें सिर-आंखों पर उठा लेता। पलक-पांवड़े बिछ जाते। जगह-जगह वंदनवार बंध जाते। लेकिन तुम पर पत्थर फिकेंगे, तुम्हें गालियां सहनी पड़ेंगी, तुम्हें राक्षस कहा जाएगा। तुम इस देश के सड़े-गले अहंकार को कोई समर्थन नहीं दे रहे हो।
विवेकानंद के साथ सिर्फ एक अमरीकी महिला निवेदिता आ गई थी, सारे भारत में शोरगुल मच गया था कि भारी काम कर दिया विवेकानंद ने! एक विदेशी महिला को रूपांतरित कर दिया, हिंदू बना दिया। मेरे दो लाख संन्यासी हैं सारी दुनिया में, लेकिन हिंदुओं के अहंकार को या भारतीयों के अहंकार को इससे कोई समर्थन नहीं मिल रहा; यही अड़चन है, यही कठिनाई है।
और जिन शास्त्रों की अक्षयानंद महाराज बात कर रहे हैं, इनको उन शास्त्रों का कुछ पता है? अमरीकी भोंदू, इनको क्या शास्त्रों का पता है? मगर इनके जो गुरु थे भक्तिवेदांत प्रभुपाद, वे चमत्कारी पुरुष थे। उनका चमत्कार यही था कि दुनिया में जहां भी भोंदू थे, मूढ़ थे, उनकी तरफ चुंबक की भांति खिंचते थे। इतनी तो मैं बात स्वीकार करूंगा कि प्रभुपाद में इतना गुण तो था, कि कुछ खूबी थी, कि मूर्ख एकदम उनके आसपास इकट्ठे हो जाते थे। सिर घुटाकर, चुटैयों में गांठें बांधकर हरेकृष्णा-हरेरामा का भजन करने लगते थे, ढोल-मंजीरा पीटने लगते थे। और तोतों की तरह भारतीय शास्त्रों को दोहराते थे, जिनका उनको न कुछ अर्थ पता है, न जिनका संदर्भ पता है।
अब ये जिन शास्त्रों की बात कर रहे हैं, थोड़ा उन शास्त्रों का खयाल करो। भारत में जिनको भगवान कहा है, उनकी तरफ थोड़ा ध्यान करो। परशुराम को भगवान कहा है। उनका नाम ही परशुराम पड़ा, क्योंकि वह परसा लिए रहते थे, फरसा लिए रहते थे। परस वाले राम। वे हाथ में फरसा लिए रहते थे। वे सबसे पहले सरदार थे। और कहते हैं उन्होंने पृथ्वी को अठारह बार क्षत्रियों से खाली कर दिया था। गजब के ब्राह्मण थे! अठारह बार पृथ्वी से सारे क्षत्रिय उन्होंने मार डाले। और राक्षस मैं! एक क्षत्रिय मैंने मारा नहीं। क्षत्रिय की तो बात ही छोड़ो, एक तिलचट्टा भी नहीं मारा। लेकिन मैं रावण, मैं राक्षस--और परशुराम भगवान, जिन्होंने अठारह बार सारी पृथ्वी को क्षत्रियों से समाप्त कर दिया! हद दर्जे के दुष्ट आदमी रहे होंगे। बाप को शक हो गया उनकी मां पर और परशुराम को उन्होंने आज्ञा दे दी कि जाकर गर्दन काट दे। बाप की आज्ञा कहीं छोड़ सकते थे! परशुराम गए और मां की गर्दन काट दी। यह आदमी भगवान! और हिंसा क्या होती?
और राम तो धनुर्धारी राम हैं ही, वे तो हिंसा का प्रतीक ही लिए हैं! और लंका में आग लगा दी। लंका को धू-धू कर के जला डाला! और हिंसा मैं करवा रहा हूं! रावण मैं हूं! रामराज्य में आदमी और औरतें बाजारों में गुलामों की तरह बिकते थे, स्त्रियों पर नीलाम लगाए जाते थे, और फिर भी यह सतयुग था! और एक ब्राह्मण का बेटा मर गया तो उस ब्राह्मण ने जाकर राम की अदालत में कहा कि मेरा बेटा मर गया है, जो कि नहीं मरना चाहिए, क्योंकि बाप जिंदा और बेटा मर जाए यह बात ठीक नहीं, कहीं न कहीं कोई अनाचार हो रहा है। तो राम ने कहा कि पता लगाओ कहां अनाचार हो रहा है। पता यह लगा कि उस ब्राह्मण के घर से एक हजार मील दूर एक गांव में एक शूद्र ने वेद का मंत्र सुन लिया था। यह अनाचार हो रहा था! यह अत्याचार हो रहा था, जिसकी वजह से ब्राह्मण का बेटा मरा! वह भी हजार मील दूर मरा। और बीच हजार मील में किसी का बेटा न मरा! स्त्रियां बाजारों में बिक रही थीं, यह पाप न था! आदमी गुलामों की तरह बिक रहे थे, सामानों की तरह बिक रहे थे--यह पाप न था! पूरी लंका को धू-धू कर के जला दिया, यह पाप न था! गर्भवती सीता को राम ने खुद जंगल में फिंकवा दिया, यह पाप न था!
जब रावण के यहां से सीता को बचाकर लौटे तो जो पहले वचन उन्होंने सीता से कहे, अभद्र हैं। पहले वचन उन्होंने कहे कि याद रख ऐ औरत, मैंने तेरे लिए युद्ध नहीं किया है। मैंने युद्ध किया है अपनी कुल-परंपरा के लिए, रघुकुल के लिए। यह कुल की प्रतिष्ठा का सवाल था, इसलिए युद्ध किया है। कोई एक औरत के लिए मैं युद्ध करने नहीं आऊंगा।
और फिर परीक्षा ली उन्होंने सीता की कि अग्नि से गुजरो। अगर सीता की परीक्षा ली थी तो इतना तो न्याययुक्त होना ही चाहिए था कि खुद भी गुजर जाते अग्नि से, क्योंकि खुद भी इतनी देर बिना पत्नी के रहे थे, क्या भरोसा? जब स्त्री का भरोसा नहीं है तो पुरुष का क्या भरोसा? सच तो यह है कि स्त्रियों का ज्यादा भरोसा किया जा सकता है पुरुषों की बजाय। क्योंकि उस समय कोई संतति-निरोध का सामान तो था नहीं। अगर सीता ने कुछ गड़बड़ की होती तो गर्भवती हो जाती। और राम कुछ गड़बड़ करें तो पकड़ में ही नहीं आते। इसलिए तो कहते हैं कि पुरुष बच्चा, उसकी बात अलग। परीक्षा सिर्फ सीता की हुई। यह बड़ी अजीब परीक्षा हुई, खूब न्याय हुआ! ये दोहरे मापदंड हुए।
और अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी सिर्फ एक धोबी ने कह दिया अपनी स्त्री से कि तू रातभर कहां रही, मैं कोई राम नहीं हूं कि अब तुझे घर में रख लूं। यह किसी जासूस ने खबर दे दी कि एक धोबी ने यह कह दिया है और गर्भवती सीता को फिंकवा दिया। अग्नि-परीक्षा का क्या हुआ? अन्याय की भी कोई हद होती है। एक तो अग्नि-परीक्षा ली अकेली सीता की, खुद न दी और अग्नि-परीक्षा के बाद भी एक धोबी ने एतराज उठा दिया और सीता को यह भी अवसर न दिया कि कम से कम उससे कह देते कि क्यों तुझे जंगल में फिंकवाया जा रहा है। अगर न्याय ही था तो धोबी को बुलाकर, धोबी की बात सुननी थी अदालत में, सीता की भी बात सुननी थी। सीता को भी हक होना था कि अपनी व्यथा कह सकती। लेकिन उसे तो कोई मौका ही नहीं दिया गया। एकतरफा न्याय हो गया। और यह कोई ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा, यह कोई धुब्बड़, इसने निर्णय करवा दिया। स्त्री-जाति का यह सम्मान हो रहा है! नहीं, लेकिन अहंकार की प्रतिष्ठा। और अगर ऐसा ही था तो खुद भी सीता के साथ जंगल चले जाते। लेकिन राजपाट नहीं छोड़ा, पत्नी छोड़ दी। राजपाट क्यों छोड़ें! धन-दौलत क्यों छोड़ें! प्रतिष्ठा क्यों छोड़ें! प्रतिष्ठा पर दाग न लग जाए, इसलिए स्त्री को छोड़ दिया, जंगल में फिंकवा दिया गर्भवती स्त्री को। न लाज, न शर्म, न संकोच। और फिर भी तुम राम को भगवान कहे चले जाओगे! और उस ब्राह्मण के कहने पर कि एक हजार मील दूर एक शूद्र ने वेद सुन लिया, उसके कान में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया। फिर भी तुम राम को भगवान कहे चले जाओगे, मर्यादा-पुरुषोत्तम कहे चले जाओगे!
मैंने किसी के कान में सीसा तो पिघलवाकर भरवाया नहीं। वेद के मंत्र जरूर किसी के कान में मैंने डाले होंगे, मगर सीसा तो पिघलवाकर किसी के कान में डाला नहीं। मैं राक्षस हूं! और जिस कृष्ण के ये भक्त हैं स्वामी अक्षयानंद महाराज और इनके मरहूम गुरु, भक्तिवेदांत प्रभुपाद, उन कृष्ण का जीवन तो जरा गौर से देखो, जिन शास्त्रों की ये बातें कर रहे हैं। ये कृष्ण-आंदोलन चलाते हैं, कृष्ण-भक्त हैं ये सब। ये कृष्ण का गुणगान करते हैं, श्रीमद् भागवत दोहराते हैं और गीता का पाठ करते हैं।
कृष्ण के जीवन में जितनी हिंसा है उतनी हिंसा शायद मनुष्य-जाति के जीवन में किसी व्यक्ति के संबंध में उल्लिखित नहीं है। इतिहासज्ञों का अनुमान यह है कि जैसा वर्णन है महाभारत का, अगर सच में वैसा युद्ध हुआ हो, तो उसमें कम से कम एक अरब पच्चीस करोड़ आदमी मरे होंगे, सवा अरब आदमी। अभी पृथ्वी की कुल संख्या जितनी है उसमें से एक तिहाई आदमी मरे होंगे। अभी भारत की कुल संख्या सत्तर करोड़ है, इससे करीब-करीब दो गुने आदमी उस युद्ध में मरे।
अर्जुन तो बेचारा ढोलक लेकर भजन-कीर्तन करने का विचार करता था। वह तो स्वामी अक्षयानंद हो जाना चाहता था। वह तो अपना ढोलक बजाता, हरेकृष्णा-हरेरामा करता। मगर कृष्ण ने उसे रोक लिया। और कृष्ण ने उसे दलीलें क्या दीं? कृष्ण ने दलील जो दीं, अगर वे सच हैं तो...निश्चित सच होनी चाहिए, क्योंकि यह हरेकृष्ण आंदोलन को मानने वाले लोग कृष्ण-भक्त हैं, अगर उनकी दलीलों पर उनको भरोसा है तो ये किस तरह मुझसे कह सकते हैं कि मैं गर्भपात द्वारा हत्या का समर्थन करवा रहा हूं? क्योंकि कृष्ण तो कहते हैं--न हन्यते हन्यमाने शरीरे। शरीर के मरने से मृत्यु होती ही नहीं। अग्नि में जलाने से आत्मा जलती नहीं। नैनं छिन्दंति शस्त्राणि। न तो शस्त्रों से छेदी जा सकती है। नैनं दहति पावकः। और न आग में डालो तो जलाई जा सकती है। यह तो आत्मा मरती ही नहीं। यह तो दलील दी अर्जुन को कि तू क्या फिक्र करता है, मार, बेफिक्री से मार, कोई मरता नहीं। यह जो तेरे सामने कौरवों की फौज खड़ी है, इसको जी भरकर काट, गाजर-मूली की तरह काट। क्योंकि शरीर ही मरता है, आत्मा तो कभी मरती ही नहीं, आत्मा अमर है।
यह तो बुनियादी दलील है गीता की कि आत्मा मरती नहीं। और अगर सवा अरब आदमियों को मारने से हिंसा नहीं होती तो गर्भपात से कैसे हिंसा हो जाएगी? कृष्ण भगवान हैं! अगर हिंसा के आधार पर सोचते हो, तो तो जैन शास्त्र ठीक कहते हैं। उन्होंने कृष्ण को सातवें नर्क में डाला है। अगर अक्षयानंद में थोड़ी भी बुद्धि हो, जिसका मैं जरा भी भरोसा नहीं कर सकता कि हो सकती है...। ये पंचामृत खाने-पीने वाले लोग, इनमें बुद्धि क्या हो सकती है? पंचामृत का मतलब समझते हो? गोबर, गोमूत्र, दूध, दही, घी--इन पांचों को मिलाकर गटक जाओ तो पंचामृत होता है। यह तो कृष्ण-भक्तों का पुराना आहार, प्रसाद यही है--पंचामृत! यह गोबर गोबर नहीं है।
इस दृष्टि से तो महात्मा गांधी के एक शिष्य थे भंसाली, वे सच्चे कृष्ण-भक्त थे, वे गोबर ही खाते थे। जैसे मोरारजी देसाई स्वमूत्र पीते हैं, वे गोमूत्र से भी आगे जा चुके हैं। अरे, क्या बाहर पर निर्भर रहना! भंसाली गांधी के बड़े भक्त थे, गांधी के पट शिष्यों में एक थे। वर्धा-आश्रम में उनके जैसा चमत्कारी कोई आदमी नहीं था। वे महीनों तक गोबर ही खाकर रहते थे। और महात्मा गांधी भी उनको मानते थे कि है तो यह तपस्वी! महात्मा गांधी को भी हरा दिया था उन्होंने।
कृष्ण को जैनों ने नर्क में डाला है--इसी कारण कि उन्होंने यह महाहिंसा करवाई। तो पहली तो दलील कृष्ण ने यह दी कि कोई मारने से मरता नहीं। दूसरी दलील यह दी है अर्जुन को--अगर कृष्ण के मानने वाले लोग उनकी दलीलें समझें तो बात बहुत साफ हो जाएगी--दूसरी दलील यह दी है कि परमात्मा जिसको मारना चाहता है वही मरता है। तो अर्जुन, तू तो निमित्त मात्र है। तू थोड़े ही मारने वाला है। मारने वाला तो परमात्मा है। उसने तो पहले ही ये कौरवों को मार डाला है, तू तो सिर्फ निमित्त है, धक्का दे और ये गिर जाएंगे। ये तो मरे ही खड़े हैं। तो अगर परमात्मा ही मारने वाला है और परमात्मा ही जिलाने वाला है, उसके बिना अगर पत्ता भी नहीं हिलता, तो गर्भपात से कोई मृत्यु कैसे हो जाएगी?
और फिर यह भी बड़े मजे की बात है कि मैं गर्भपात नहीं करवा रहा हूं। गर्भपात करवाने वाले लोग महात्मा गांधी, ये कृष्ण आंदोलन के बनाने वाले प्रभुपाद, ये पोप, यह मदर टेरेसा, ये लोग हैं। क्योंकि ये लोग लोगों को संतति-नियमन का उपयोग नहीं करने देते। मैं तो पक्षपाती हूं इसका कि बच्चों को भीतर गर्भ में आने तक की भी कोई जरूरत नहीं, तो गर्भपात का कोई सवाल ही नहीं उठता। गर्भपात तो ये लोग करवा रहे हैं। पहले तो कहेंगे कि जो भी संतति-निग्रह के साधन हैं उनका उपयोग मत करना, क्योंकि उनका उपयोग पाप है। फिर गरीब आदमी बच्चे पैदा कर लेगा या स्त्रियां गर्भवती हो जाएंगी। उन बच्चों को पालने की उसके पास सुविधा नहीं, वह करे क्या? फिर उनका गर्भपात करेगा। और गर्भपात के लिए जिम्मेवार मैं हूं! अगर मेरा वश चले तो दुनिया में एक भी गर्भपात नहीं होगा, क्योंकि मैं तो पूरे विज्ञान का उपयोग करने का समर्थन करता हूं। जब गोली ही लेकर बच्चे को आने से रोका जा सकता है तो बच्चे को पहले लाना और फिर गर्भपात करना, इतना उपद्रव क्यों करना? इसका क्या प्रयोजन?
लेकिन ये महात्मा गांधी तो कहते हैं कि संतति-नियमन का उपयोग मत करना, पोप कहते हैं संतति-नियमन का उपयोग मत करना। अगर बच्चों को रोकना है तो ब्रह्मचर्य से रोको। और महात्मा गांधी भी बच्चे नहीं रोक सके, पांच बच्चे पैदा किए। और महात्मा गांधी के आश्रम में जहां कि ब्रह्मचर्य का नियम था, वहां रोज ब्रह्मचर्य टूटता था। खुद महात्मा गांधी के प्राइवेट सेक्रेटरी प्यारेलाल ने ब्रह्मचर्य तोड़ दिया, तो उनको आश्रम से निकाला गया। और प्यारेलाल ने ही महात्मा गांधी की सबसे सुंदर जीवनी लिखी; वही उनके अधिकृत जीवन कथा-लेखक हैं।
गर्भपात कौन करवा रहा है? इसका जिम्मेवार मैं हूं? मेरी बात मानी जाए तो गर्भपात दुनिया में एक भी नहीं होगा। ये इस तरह के मूढ़ ही गर्भपात करवा रहे हैं।
और दूसरी बात उन्होंने कही कि ‘पर-स्त्री संबंध...।’
कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं, यह स्वामी अक्षयानंद महाराज को बताना। और ये सोलह हजार स्त्रियां इनकी विवाहित स्त्रियां नहीं थीं, दूसरों की विवाहित स्त्रियां थीं। और ये राजी-खुशी भी इनके साथ नहीं आ गई थीं, ये जबर्दस्ती भगाकर लाई गई थीं। कृष्ण भगवान हैं--और मैं राक्षस! सोलह हजार क्या, मैंने सोलह स्त्रियां भी नहीं भगाईं। अगर भगवान होने के लिए सोलह हजार स्त्रियां दूसरों की उड़ाना जरूरी हो तो निश्चित ही मैं भगवान नहीं हूं और होना भी नहीं चाहता। राक्षस ही भला। अगर राक्षस रावण का कसूर इतना है कि उसने सीता भगाई, तो एक ही स्त्री भगाई थी। और कृष्ण ने सोलह हजार स्त्रियां भगाईं। अगर एक स्त्री के भगाने से रावण राक्षस हो गया तो कृष्ण सोलह हजार गुने राक्षस हैं। और अगर सोलह हजार स्त्रियां भगाना जरूरी हैं भगवान होने के लिए तो फिर एक बटा सोलह हजार भगवान तो रावण को भी मानना पड़ेगा कृष्ण के हिसाब से। और मैंने एक भी नहीं भगाई। पराए की भगाना तो दूर, अपनी भी नहीं भगाई। इस हिसाब से मैं तो एक बटा सोलह हजार भगवान भी नहीं हूं। राक्षस भी नहीं हूं, क्योंकि किसी की सीता भी नहीं भगाई। बात तो साफ है कि मैं सतयुगी भगवानों के मुकाबले कहीं भी भगवान नहीं ठहरता।
मेरे लिए तो अगर भगवान स्वीकार करना हो तो अलग ही कोटि बनानी पड़ेगी। न तो धनुर्धारी हूं, न फरसा लिए हूं। न कृष्ण जैसा धोखा, बेईमानी, जालसाजी, झूठ, वचन-भंग कि कसम खाई थी कि युद्ध में हथियार न उठाएंगे, फिर सुदर्शन-चक्र उठा लिया। सुदर्शन-चक्र भी मेरे पास नहीं, कुछ भी नहीं मेरे पास।
कई बार मैं सोचता हूं कि यह भगवान शब्द गंदा है। और जैसे ही नया कम्यून स्थापित हो जाए, इस शब्द को त्याग करना है, क्योंकि भगवान के नाम से जो लोगों का संबंध जुड़ा रहा है, उनकी पंक्ति में मैं खड़ा नहीं होना चाहता।
बता रहे हैं वे कि ‘पर-स्त्री संबंध और गर्भपात का समर्थन करने वाले आचार्य भगवान नहीं, प्रथम कोटि के राक्षस हैं।’
होना ही चाहिए प्रथम कोटि का राक्षस, क्योंकि ये तो कोई भी गुण मुझमें नहीं हैं। ये परशुराम की तरह लिए फरसा घूम रहे हैं कि जहां कोई दिखा क्षत्रिय कि सत सिरी अकाल, वहीं खातमा किया! न किन्हीं की स्त्रियों को मैं भगा रहा हूं। और ये सब मांसाहारी थे--ये राम, ये कृष्ण, ये सब मांसाहारी थे।
जैन शास्त्रों में उल्लेख है कि कृष्ण के चचेरे भाई नेमीनाथ, जैनों के एक तीर्थंकर हैं। नेमीनाथ का विवाह हुआ--विवाह हो रहा था, हो नहीं पाया था, पूरा नहीं हो पाया। नेमीनाथ की जब बारात पहुंची, तो नेमीनाथ ने देखा कि हजारों पशु चिल्ला रहे हैं, मिमिया रहे हैं, क्योंकि वे बरातियों के लिए बांधकर रखे गए थे कि बराती आएं तो काटे जाएं। बरातियों का स्वागत-सत्कार करना है। तो नेमीनाथ ने पूछा, इतने पशु क्यों चिल्ला रहे हैं? क्या बात है? ये क्यों बांधे गए हैं? तो बताया गया कि ये बरातियों के स्वागत के लिए इनकी बलि दी जाएगी। नेमीनाथ के मन को ऐसी चोट पड़ी कि उन्होंने कहा कि मुझे यह विवाह ही नहीं करना। जिस विवाह में इतनी हिंसा शुरुआत में हो रही हो, मैं तो यह चला! उन्हें हिंसा से ऐसी विरक्ति हुई कि उन्होंने बरात छोड़कर जंगल की राह पकड़ी। वे चचेरे भाई थे कृष्ण के। कृष्ण थे तो अहीर। अहीर तो मांसाहारी हैं, कोई शाकाहारी नहीं।
राम भी क्षत्रिय थे, मांसाहारी थे। ये मांसाहारी भगवान हैं; निश्चित ही मैं शाकाहारी हूं, कैसे भगवान हो सकता हूं। और ये स्वामी अक्षयानंद महाराज शास्त्रों के ज्ञाता हैं, क्या खाक शास्त्र जानते हैं? राम के जीवन में उल्लेख है कि जब वे वन जा रहे हैं तो अहिल्या पत्थर होकर पड़ी है और उनके पैर की प्रतीक्षा कर रही है जन्मों से कि जब उनका पैर पत्थर पर पड़ेगा तो अहिल्या पुनः जीवित हो उठेगी। और इसका खूब गुणगान किया जाता है कि क्या चमत्कार हुआ! राम के पैर का स्पर्श हुआ और चट्टान पुनरुज्जीवित हो उठी! लेकिन कोई यह भी पूछे कि अहिल्या पत्थर कैसे हो गई थी? मैं कुछ मामलों को इतनी आसानी से नहीं छोड़ देता। यह अहिल्या अभिशापित हुई थी पति के द्वारा।
और बड़े मजे की कहानी है पुराणों में। कहानी यह है कि इंद्र ने धोखा दिया एक ऋषि की पत्नी को--अहिल्या को। ऋषि गए स्नान को। ऋषियों को पहले से ही बताया गया है कि ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने जाना। क्यों ब्रह्ममुहूर्त में करने स्नान जाना, क्योंकि देवी-देवता इस बीच जो भी उन्हें घूंघर करना हो कर लें। ऋषि महाराज गए स्नान करने ब्रह्ममुहूर्त में और इंद्र ऋषि के घर पहुंच गया--ऋषि का वेश बनाकर। देवता को क्या कमी, कोई भी चमत्कार कर लें! पत्नी को धोखा हो गया। पत्नी को कुछ पता न चला कि यह कोई दूसरा आदमी है जो ऋषि का धोखा बनकर अंदर आ गया है। उसने अहिल्या के साथ भोग किया। और जब ऋषि को पता चला तो उसने अभिशाप दे दिया अहिल्या को। अब तुम थोड़ा अन्याय देखो। अभिशाप देना चाहिए इंद्र को, अहिल्या का क्या कसूर है? अभिशाप देना था इंद्र को कि हो जा पत्थर का। लेकिन इंद्र हैं पुरुष, पुरुष को तो क्या अभिशाप देना? स्त्री को अभिशाप दिया, जिसका कि कोई कसूर न था। इसका क्या कसूर? अगर कोई आदमी ठीक पति जैसा होकर आ जाए और संभोग करे तो यह स्त्री कैसे मना करती, इसे कैसे पता चलता? इसकी तो कहीं भी कोई भूल नहीं है। इसको अभिशाप दे दिया कि तू पत्थर होकर पड़ी रहेगी तब तक, जब तक राम के चरण तेरे ऊपर न पड़ेंगे।
यह दोहरा मापदंड बेईमानी का प्रतीक है, अन्याय का प्रतीक है। स्त्रियों के साथ जितनी ज्यादती भारतीय पुराणों में हुई है, उतनी ज्यादती दुनिया के किन्हीं शास्त्रों में नहीं हुई। और इन्हीं शास्त्रों की गुणगाथा गाई जाती है और इन्हीं की प्रशंसा की जाती है। ये सड़े-गले शास्त्र जला देने योग्य हैं। मगर हिंदू अहंकार प्रभावित होता है जब भी कोई आकर कह देता है हमारे शास्त्र! और अमरीकी चुटैयाधारी, सिर घुटाए, ढोलक बजाए, हरेकृष्णा-हरेरामा करे और फिर कहे कि हमारे शास्त्र, तो हिंदुओं का हृदय तो एकदम गार्डन-गार्डन हो जाए! एकदम नाच उठे, खुमारी छा जाए, कि क्या बात गहरी कह दी!
जरा अपने शास्त्रों को उठाकर देखो और शर्म से सिर झुक जाएगा। तुम्हारे शास्त्रों में तुम्हारे सारे देवी-देवता निपट लफंगे हैं। मेरी मजबूरी है, क्योंकि जो है मैं उसको वैसा ही कह रहा हूं। तुम्हारा एक देवता ढंग का आदमी नहीं है। और तुम्हारे देवताओं का कुल काम क्या है स्वर्ग में? अप्सराओं को नचाओ, और क्या करोगे! और जब अप्सराओं से ऊब जाते हैं तो यहां ऋषि-मुनियों की स्त्रियों को सताओ। और ऋषि-मुनि अगर तपश्चर्या करें, तो अप्सराओं को भेजो तो उनकी तपश्चर्या डगमगाएं, कि उनको भ्रष्ट करें। गजब का काम तुम्हारे देवताओं के हाथ में लगा हुआ है! खुद स्त्रियों को नचाते रहो--एक काम, दूसरा काम--कोई ऋषि-मुनि तपश्चर्या न कर पाए, इसका ध्यान रखो। खूब देवता हैं, धर्म की रक्षा कर रहे हैं कि कोई ऋषि-मुनि तपश्चर्या न कर पाए। तपश्चर्या में जरा ही ऊंचा उठने लगे कि भेज दो फौरन उर्वशी को, मेनका को, भ्रष्ट करो उसको। क्योंकि इंद्र का सिंहासन डोलने लगता है कि कोई ऋषि-मुनि कहीं तपश्चर्या में सफल हो गया तो इंद्र न हो जाए। तो यह तो राजनीति हुई, धर्म क्या हुआ? ये देवी-देवता भी राजनीति में ही पड़े हुए हैं, इनका भी सिंहासन डोल रहा है, कि कहीं दूसरा हमारे सिंहासन पर न आ जाए! वही साधारण आदमियों की कथाएं।
और ये देवी-देवताओं के पास सुंदर उर्वशियां हैं, मेनकाएं हैं, जिनकी उम्र हमेशा सोलह साल रहती है। क्या गजब का इंतजाम किया है! जिनके शरीर से पसीना नहीं बहता! जिनके शरीर से सुगंध ही सुगंध उठती है! इन स्त्रियों से भी ये ऊब जाते हैं। कितनी ही स्वादिष्ट हों ये स्त्रियां, मगर वही स्वाद, वही स्वाद, रोज रसमलाई, रसमलाई, रसमलाई! फिर आदमी घबड़ा जाएगा। कभी आदमी का मन भजिया इत्यादि खाने का भी होने लगता है। तो वे चले आते हैं पृथ्वी पर। और यहां दूसरे तो जाते नहीं ब्रह्ममुहूर्त में उठकर, पर पतिदेव घर में ही बैठे रहते हैं ब्रह्ममुहूर्त में भी, ऋषि-मुनि बेचारे जाते ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने। गए गंगा जी। और देवताओं का काम है उनकी पत्नियों को भ्रष्ट करना। और यह बड़े मजे की बात है कि उर्वशी पर प्रभावित हो जाता है मुनि तो भ्रष्ट हो गया और देवता आकर मुनियों की स्त्रियों को भ्रष्ट कर जाते हैं तो भी भ्रष्ट नहीं होते।
तुम जरा अपने शास्त्रों को उठाकर तो देखो। ब्रह्मा ने पृथ्वी बनाई और पृथ्वी को बनाकर वे उस पर मोहित हो गए, क्योंकि पृथ्वी यानी स्त्री। बनाने वाले थे तो पिता थे, पिता बेटी पर मोहित हो गए। शास्त्र कहते हैं कि उनके मन में एकदम कामवासना जग गई। वे लगे पीछा करने। अब इनको अगर मैं लंपट न कहूं तो क्या कहूं? और बेचारी स्त्री लाज-शरम के मारे छिपने लगी। इस तरह सारी सृष्टि का जन्म हुआ है...छिपने की प्रक्रिया से। कैसे छिपी? वह गाय बन गई तो ब्रह्मा सांड बन गए। वे भी पीछा न छोड़ें। वह घोड़ी बन गई तो वे घोड़ा बन गए। वह गधी बन गई तो वे गधा बन गए। बनते ही चले गए। वह बाई बनती गई, वे भैया बनते गए। ऐसे सारे जगत का फैलाव हुआ।
ये तुम्हारे पुराण, ये तुम्हारे शास्त्र और इनका तुम गुणगान करते नहीं थकते! और तुम थक गए हो अब तो यह बाहर से उधार मूढ़, जिनको कुछ पता नहीं शास्त्रों का, ये आकर यहां शास्त्रों की प्रशंसा कर रहे हैं। और मुझको कह रहे हैं राक्षस! तो राक्षस की परिभाषा एक दफे ठीक से कर लो, तो तुम्हारे सारे देवता राक्षस सिद्ध होंगे और तुमने जिनको भगवान कहा है अब तक, उनमें कोई भगवान कहने योग्य न बचेगा। महावीर में कुछ भगवत्ता है, लेकिन हिंदू शास्त्रों ने महावीर का उल्लेख भी नहीं किया। बुद्ध में भगवत्ता है, लेकिन हिंदू शास्त्रों ने बुद्ध का ऐसा उल्लेख किया है कि जो बेईमानी से भरा हुआ है। उल्लेख ऐसा किया कि ब्रह्मा ने नर्क बनाया, स्वर्ग बनाया; नर्क में कोई जाए ही न, क्योंकि कोई पाप ही न करे। आखिर नर्क के जो काम करने वाले कार्यकर्तागण थे, उन्होंने जाकर परमात्मा से प्रार्थना की, हमें किसलिए बिठा रखा है? खाली बैठे हैं। न कोई कभी आता, न कभी कोई जाता, कोई पाप ही नहीं करता।
तो उन पर दया करके परमात्मा ने कहा कि घबड़ाओ मत, जल्दी ही मैं गौतम बुद्ध की तरह अवतार ग्रहण करूंगा और लोगों को मार्ग से भ्रष्ट करूंगा।
सो वे गौतम बुद्ध की तरह अवतरित हुए--नर्क के अधिकारियों पर दया करने के लिए। नर्क ही मिटा देते, क्या जरूरत थी नर्क को बनाए रखने की? अगर कोई पाप नहीं कर रहा था तो कोई जबर्दस्ती पाप करवाने की आवश्यकता है? तो उनको छुट्टी दे देते नर्क के कार्यकर्ताओं को। उनको कह देते, तुम भी स्वर्ग में आ जाओ, यहीं कोई काम सम्हाल लो। नर्क का काम ही बंद कर दो। सीधी सी बात थी। किसी भी छोटी-मोटी बुद्धि के आदमी को समझने में आ जाए कि बात ठीक थी, दुकान नहीं चल रही तो क्या जरूरत कि जबर्दस्ती ग्राहक पैदा करो?
तो बुद्ध की तरह अवतार लिया भगवान ने--लोगों को भ्रष्ट करने के लिए! और लोगों को भ्रष्ट किया। और तब से नर्क में ऐसी भीड़म-भाड़ मची हुई है, कतारें लगी हुई हैं, लोगों को प्रवेश नहीं मिलता। तब से स्वर्ग में अड़चन हो गई होगी। तब से कोई स्वर्ग जाएगा ही क्यों?
गौतम बुद्ध में भगवत्ता एक दफे प्रगट हुई है, बड़ी प्रगाढ़ता से। न तो राम में वह खूबी है, न परशुराम में वह खूबी है, न कृष्ण में वह खूबी है--जो बुद्ध में है। लेकिन बुद्ध को उन्होंने क्या कहानी गढ़ी! इस देश में ब्राह्मण, पुरोहितों और पंडितों ने इस तरह की जालसाजी रची है, इस तरह की दकियानूसी और अंधविश्वास पैदा किया है कि जिसका कोई अंत नहीं। जिनको भगवान कहा जा सकता था उनको भगवान कहा नहीं, और जिनको भगवान कहा है उनमें भगवत्ता जैसे कोई लक्षण नहीं।
अब वे कहते हैं कि मेरे संन्यासियों की उन्होंने आलोचना की। और आलोचना करने का कारण क्या है?
‘क्योंकि भटके हुए विदेशी नागरिक संतों जैसे वस्त्र पहन कर...।’
कौन भटका हुआ है? जैनों के हिसाब से हिंदू भटके हुए हैं; हिंदुओं के हिसाब से जैन भटके हुए हैं; जैनों-हिंदुओं, दोनों के हिसाब से बौद्ध भटके हुए हैं; बौद्धों के हिसाब से जैन-हिंदू भटके हुए हैं। मुसलमानों के हिसाब से ईसाई भटके हुए हैं। ईसाइयों के हिसाब से मुसलमान भटके हुए हैं। ईसाइयों और मुसलमानों, दोनों के हिसाब से जैन, हिंदू, बौद्ध, सब भटके हुए हैं। कौन भटका हुआ है?
मेरे पास जो लोग हैं, इनको वे कह रहे हैं कि ये सीधे-सादे लोग मेरे कारण मार्गच्युत हो रहे हैं और भटक रहे हैं।
यह भ्रांति छोड़ दो, मेरे पास सीधे-सादे लोग इकट्ठे नहीं हुए हैं। मेरे पास अति विचारशील लोग इकट्ठे हुए हैं। भोंदू तो बचे ही नहीं, वे तो सब हरेकृष्ण आंदोलन में सम्मिलित हो गए।
इस देश में तीन बड़े महापुरुष--एक प्रभुपाद; एक मोरारजी देसाई; एक मुक्तानंद। इन तीन से तो कोई बाजी नहीं ले सकता। प्रभुपाद तो मर गए, मगर इससे कुछ नहीं होता। उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए! अब ये औलाद घूंघर कर रही है। स्वामी अक्षयानंद महाराज, उनकी औलाद। न इनके गुरु को कोई अक्ल थी--अक्ल जैसी चीज से कोई वास्ता ही न था--न इनको कोई अक्ल है।
मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं, ये सुशिक्षित लोग हैं। इनमें सैकड़ों ग्रेजुएट हैं, पी.एच.डी. हैं, डी.लिट हैं, पश्चिम के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में शिक्षित हुए लोग हैं। इनमें प्रोफेसर्स हैं, मनोवैज्ञानिक हैं, डाक्टर हैं, इंजीनियर हैं, वैज्ञानिक हैं। ये कोई सीधे-सादे लोगों की जमात नहीं है। ये सब तरफ से सुशिक्षित-सुसंस्कृत लोग हैं। और अगर आज इन्होंने सीधा-सादा होना चाहा है तो ये जीवन के सारे तिरछेपन को जीकर सीधे हो रहे हैं, अनुभव से सीधे हो रहे हैं। इनकी सादगी मूढ़ता का प्रतीक नहीं है; इनकी सादगी इनकी साधुता का प्रतीक है।
और उन्होंने आलोचना में जो कहा वह यह कि ‘चूंकि यह सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम का निर्लज्ज प्रदर्शन करते हैं...।’
और ये कृष्ण को मानने वाले लोग कहें, तब तो जरा हद हो जाती है। कम से कम मेरे कोई संन्यासी नदी में स्नान करती हुई स्त्रियों के कपड़े लेकर झाड़ों पर नहीं बैठते। और कृष्ण क्या करते थे? यह वंशीवट में और बांसुरी बजाना और यह लीला और यह रासलीला और स्त्रियों का नाच! ये सब सार्वजनिक स्थल नहीं थे तो क्या थे वृंदावन में? ये नदी के घाट, यह वंशीवट! और कृष्ण को मानने वाला कोई व्यक्ति ऐसी बात करे तो फिर बेहूदगी की हद हो गई। फिर मेरे संन्यासी किसी और की स्त्रियों के साथ छेड़खान नहीं कर रहे हैं; अपनी प्रेयसी को अगर हाथ पकड़कर चल रहे हैं तो इसमें किसी को क्या एतराज? अगर अपने प्रिय को गले मिलते हैं तो इसमें किसी को क्या एतराज? जिनको एतराज है वे विकृत हैं, कुरूप हैं; उनके भीतर दमित वासनाएं हैं।
और ये बेचारे हरेकृष्ण आंदोलन में सम्मिलित लोग एकदम दमित वासनाओं से भरे हुए हैं, क्योंकि इनको भारत में जो मूर्खता सदियों तक चलती रही है वही इनको सिखाई गई है। इनको सिखाया जा रहा है दमन। और दमन के परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
कल मैंने एक खबर पढ़ी कि एक कैथलिक नन, साध्वी, चालीस साल साध्वी रहने के बाद, सड़सठ साल की उम्र में--और साधारण साध्वी नहीं थी, कैथलिक साध्वियों के आश्रम की प्रधान थी, मदर सुपीरियर थी, जैसे मदर टेरेसा--वह भाग गई और उसने विवाह कर लिया एक बूढ़े से। चालीस साल साध्वी रहने के बाद सड़सठ साल की उम्र में भागना और विवाह कर लेना एक बूढ़े से! जब मैं पढ़ रहा था तो मैं थोड़ा हैरान हुआ। कभी-कभी मुझे ऐसे खयाल आते हैं, अच्छे-अच्छे खयाल आते हैं। जैसे कभी-कभी मैं सोचता हूं कि अगर मदर टेरेसा मोरारजी देसाई का विवाह हुआ होता, तो संतान कैसी होती! खयाल की बात, कल्पना की बात, कविता की बात समझो। पृथ्वी वंचित रह गई। कहावत तो हमारे पास है--राम मिलाई जोड़ी, कोई अंधा कोई कोढ़ी। मदर टेरेसा और मोरारजी देसाई जैसी जोड़ी, और इनसे जो संतान पैदा होती, दर्शनीय होती, अद्वितीय होती!
सड़सठ साल की उम्र में कोई साध्वी भाग जाए और विवाह करे, यह किस बात का सबूत होगा? यह इस बात का सबूत होगा कि चालीस साल तक गरीब औरत ने दमन किया, भारी दमन किया और दमन का यह परिणाम है।
‘उन्होंने चिंता और आक्रोश प्रगट किया है।’
करो चिंता प्रगट, करो आक्रोश प्रगट। मुझे न तो चिंता होती इस तरह के लोगों पर, न आक्रोश होता, सिर्फ हंसी आती है। यह व्यक्ति हास्यास्पद है, और कुछ भी नहीं। मगर इस तरह के लोग प्रभावित करते रहते हैं, इस तरह के लोग व्यर्थ की बकवासों में लगे रहते हैं। और इस तरह के लोग लोगों को चलाते रहते हैं, मार्गदर्शन करते रहते हैं। बेईमान हैं, धोखेबाज हैं। न सोचा है, न समझा है, न विचारा है; ध्यान तो बहुत दूर। मगर दुकानदारियां हैं।
और हिंदू मन बहुत प्रताड़ित है। बड़ी आकांक्षा उसकी होती है कोई उसके अहंकार को थोड़ा सा भी मक्खन लगा दे। हमारे शास्त्र, हमारा धर्म, हमारे भगवान!
मैं तो वही कहूंगा जैसा है, चाहे कोई भी परिणाम हों। जो गलत है उसको गलत कहूंगा; जो सही है उसको सही कहूंगा। मैं तो दो और दो चार, उतना स्पष्ट हूं। फिर इसके जो भी परिणाम हों। सत्य के ऊपर सब कुछ दांव लगा देने की मेरी तैयारी है। और जो मेरे साथ हैं, उनको भी इतनी ही तैयारी रखनी होगी। मेरे साथ होना आग के साथ होना है। लेकिन इस आग में जल जाना सौभाग्य है, क्योंकि इसमें वही जल जाएगा जो व्यर्थ है, असार है और वही बच रहेगा जो खालिस सोना है।
आज इतना ही।
भगवान, संत बुल्लेशाह का वचन है-- रब्ब दा की पाना, एथों पुटिया, ते एथे लाना। ‘अर्थात परमात्मा का क्या पाना, यहां से उखाड़ना और वहां लगाना।’ भगवान, क्या इतनी सी ही बात है?
सुरेंद्र सरस्वती, सरल है बात, यही कठिनाई है। कठिन होती तो कठिन न होती, क्योंकि कठिन बात के लिए तो अहंकार बहुत आतुर होता है। कठिनाई में अहंकार को चुनौती है, आमंत्रण है, बुलावा है। जितनी कठिन हो--असंभव हो तो और भी भला--और आदमी करने की ठान लेता है। गौरीशंकर पर चढ़ेगा। पाने को वहां कुछ भी नहीं, मगर अहंकार अद्वितीय होने का मजा लेना चाहता है। चांद पर जाएगा, कंकड़-पत्थर लाएगा। यहीं कुछ कमी है कंकड़-पत्थरों की? मंगल पर पहुंचेगा, दूर के सितारों पर भी एक दिन जाकर रहेगा; हाथ कुछ भी न लगेगा। पर यह दंभ कि मैं हूं पहला व्यक्ति जो गौरीशंकर पर चढ़ा, कि मैं हूं पहला व्यक्ति जो चांद पर चला! जीवनभर लोग न्योछावर करते थे ऐसी ही मूढ़ताओं पर।
कोई राष्ट्रपति होना चाहता है, कोई प्रधानमंत्री होना चाहता है। हाथ कुछ भी लगता नहीं। लेकिन सत्तर करोड़ के देश में एक ही व्यक्ति हो सकता है राष्ट्रपति। अहंकार को पोषण मिलता है।
इसलिए इस बात को खयाल में रखना: कठिन कठिन नहीं मालूम होता। सरल ही कठिन हो गया है। स्वयं को पाना इतना सरल है, इसीलिए तो बहुत कम लोग उसे पा सके।
तुमने भी बुल्लेशाह के वचन के अनुवाद में जरा सी भूल कर दी। मुझे तो बुल्लेशाह की भाषा नहीं आती, लेकिन शहनशाहों की जो भाषा है वह मुझे मालूम है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि तुमने भूल कर दी।
बुल्लेशाह का वचन है: रब्ब दा की पाना!
परमात्मा का क्या पाना? क्योंकि परमात्मा को तो पाया ही हुआ है। वह तो मिला ही हुआ है। वह तो तुम्हारे भीतर विराजमान ही है। उससे कभी छूटे नहीं। उससे कभी बिछुड़े नहीं। जिससे बिछुड़ न सको उसी का नाम तो परमात्मा है। चाहकर भी जिसे खो न सको, भागकर भी जिससे भाग न सको, उसी का नाम तो परमात्मा है। मछली तो शायद सागर छोड़ भी दे, क्योंकि सागर के बाद और भी कुछ है, बहुत कुछ है; मछुए हैं, मछुओं के जाल हैं; उत्तप्त रेत के तट हैं, चट्टानें हैं। लेकिन आदमी तो परमात्मा के सागर को छोड़कर कहां जाएगा? श्वास है तो उसकी, हृदय की धड़कन है तो उसकी। जीवन अर्थात परमात्मा। जन्मे हो परमात्मा में, जीयोगे परमात्मा में, एक दिन उसी में पिघलोगे और लीन भी हो जाओगे।
मुझसे लोग पूछते हैं, परमात्मा को कहां पाएं? और मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि तुमने खोया कहां, खोया कब? खोया हो तो मैं तुम्हें पाने का रास्ता बता दूं। कहां खोया है, तो उस जगह को हम खोज लें। न खोया है, न खो सकते हो और पाने की पूछ रहे हो! मगर अहंकार पाने की भाषा जानता है। सिर्फ एक भाषा उसे आती है--पाना। तो अहंकार पूछता है, परमात्मा को कैसे पाना? और यह अहंकार ही है जिसने परमात्मा को दूर सात आसमानों के पार बिठा रखा है। उतने दूर बिठाओगे तभी अहंकार को रस आता है, कि चलो, बात चलने जैसी है, पाने जैसी है। सिद्ध होना है, संत होना है, महात्मा होना है, मुक्त होना है। निर्वाण पाना है।
बुल्लेशाह यह कह रहे हैं: रब्ब दा की पाना!
कहां की पागलपन की बातों में पड़े हो? क्या पाना परमात्मा को? अरे, उसे पाया ही हुआ है! इतना जानना भर है। इतना पहचानना भर है। परमात्मा यानी आत्म-परिचय, अपनी पहचान। जैसे कोई दर्पण में अपने चेहरे को देखे तो क्या तुम कहोगे कि उसने चेहरा पा लिया? चेहरा तो सदा से था, दर्पण न था तब भी था। अभी दर्पण को गिरा दोगे और चकनाचूर कर दोगे, हजार टुकड़े हो जाएंगे, तो क्या तुम सोचते हो चेहरे के हजार टुकड़े हो जाएंगे? दर्पण चूर-चूर हो जाएगा, चेहरा तो अखंड ही रहेगा। दर्पण खो जाएगा, लेकिन चेहरा तो न खो जाएगा। हालांकि दर्पण ने थोड़ा सा सहारा दिया, बस इतना सहारा कि जो अपना था उसे दिखला दिया कि अपना है। बस, ध्यान इतना ही करता है। ध्यान दर्पण है।
जब सिकंदर भारत से वापस लौटता था तो एक फकीर ने उसे एक भेंट दी थी। भेंट बड़ी अजीब थी: एक छोटा सा दर्पण। कहानी प्यारी है। सिकंदर ने पूछा कि तुम देखते हो, इतने हाथी, इतने ऊंटों, इतने घोड़ों पर हीरे-जवाहरात, सोने-चांदी को लाद कर मैं ले जा रहा हूं, और तुम भेंट दे रहे हो यह छोटा सा दर्पण! दर्पण की कुछ मेरे देश में कमी है?
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा, यह दर्पण कुछ और ही ढंग का है। इसमें जब तुम देखोगे तो देह की छाया न बनेगी, तुम्हारी छाया बनेगी। असली चेहरा दिखाई पड़ेगा। यह चेहरा नहीं जो आंखों की पकड़ में आ जाता है; वह चेहरा जो आंखों की पकड़ के पार रह जाता है।
सिकंदर ने उस दर्पण में देखा और चकित हुआ, हैरान हुआ, भरोसा न कर सका। देह का तो कोई प्रतिफलन नहीं बना था, लेकिन चेतना की झलक थी, चैतन्य की ज्योति थी, आभा थी।
यह तो कहानी है। यह कहानी इतना ही कह रही है कि उस फकीर ने ध्यान की कोई विधि दी होगी सिकंदर को, बस। ध्यान यानी दर्पण। और दर्पण उससे पहचान करा देता है जो तुम्हारे पास है।
रब्ब दा की पाना!
पाने की बात ही छोड़ दो। पाने की भाषा ही लोभ की भाषा है, महत्वाकांक्षा की भाषा है, पागलपन की भाषा है। मिला ही हुआ है। पहले उसे तो देख लो जो मिला ही हुआ है। क्योंकि जिसने उसे देखा उसने सब पा लिया; उसकी पाने की दौड़ ही गिर गई।
लेकिन इस वचन के आधे हिस्से में तुमसे भूल हो गई।
रब्ब दा की पाना, एथों पुटिया ते एथे लाना।
तुमने अनुवाद किया है--परमात्मा का क्या पाना, यहां से उखाड़ना और वहां लगाना। नहीं, यहीं से उखाड़ना और यहीं लगाना। साफ है--
एथों पुटिया ते एथे लाना।
यहीं से यहीं लाना। यहां और वहां में तो तुमने फासला कर लिया। उतने फासले में भी अहंकार को मजा आ जाता है। वह अज्ञान की भाषा है--यहां से वहां। यहां से यहां, वह ज्ञान की भाषा है। और यह साफ है। मुझे भाषा नहीं आती बुल्लेशाह की, लेकिन तुम भी देख सकते हो--
एथों पुटिया ते एथे लाना।
यहीं बैठा है और यहीं लाना है। न कहीं जाना है, न कहीं से उखाड़ना है, न कहीं लगाना है। यहीं लगा है। बस, विस्मरण हो गया है। स्मरण करना है। खोया नहीं है परमात्मा, सिर्फ याद खो गई है।
हजार कतरा सही, बहरे-बेकरां सा लगे
वो एक दर्द का लम्हा कि जाविदां सा लगे
किसे पड़ी थी कि दश्ते-सराब में आता
मुझे तो शहर के प्यासों का कारवां सा लगे
दिलों पे पड़ने लगे मसलहत के साए से
खुलूसे-शौक भी अब जिन्से-रायगां सा लगे
शिकस्ते-ख्वाब कोई तुर्फा सानिहा भी नहीं
किसी पे गुजरे तो कमबख्त नागहां सा लगे
न जाने गर्दे-सफर है कि आंधियों का गुबार
जिधर निगाह उठाऊं, धुआं-धुआं सा लगे
बसी हुई हैं हवाएं, जुनूं की खुशबू में
फिर आज दामने-तमकीं का इम्तिहां सा लगे
ये और बात है, यारों ने कम-सुखन जाना
मिरा ये हाल कि हर लफ्ज दास्तां सा लगे
अजीब वहम कि हर संगे-आस्तां मुझसे
खफा-खफा सा नजर आए, बदगुमां सा लगे
जराहतों के चमन जैसे खिल उठे ‘तांबां
जमाना अहले-मोहब्बत पे मेहरबां सा लगे
हजार कतरा सही, बहरे-बेकरां सा लगे
वो एक दर्द का लम्हा कि जाविदां सा लगे
एक बूंद की पहचान हो जाए कि सब सागर पहचान में आ गए।
हजार कतरा सही, बहरे-बेकरां सा लगे
यूं तो लगता है एक छोटी सी बूंद--अनुभव की, ज्ञान की उस परम प्यारे को पाने की एक छोटी सी बूंद की प्यास। मगर खोजने चलो तो अथाह सागर मिलता है इसी बूंद में।
वो एक दर्द का लम्हा कि जाविदां सा लगे
और उसे याद करने का, विरह का, उसके प्रेम में जलने का वह एक छोटा सा क्षण...
वो एक दर्द का लम्हा कि जाविदां सा लगे
लेकिन यूं लगता है जैसे शाश्वतता मिल गई। उसके बिना, उसे बिना पहचाने, तुम अनंत काल तक भी जीओ तो केवल मरते हो, सड़ते हो। उसे पाने की आकांक्षा भी उठ आए, उसे खोजने की जिज्ञासा भी जग आए, पीड़ा उठे, दर्द उठे, विरह की अग्नि जगे, तो एक क्षण भी पर्याप्त है, शाश्वत मालूम होगा। क्योंकि उसी क्षण से द्वार खुल जाता है। उसी बूंद से सागर का द्वार खुल जाता है।
किसे पड़ी थी कि दश्ते-सराब में आता
मुझे तो शहर के प्यासों का कारवां सा लगे
और यह क्या है दुनिया? और यह क्या है भीड़-भाड़? और यह क्या है संसार? प्यासों की कतारों पर कतारें।
...प्यासों का कारवां सा लगे
लेकिन प्यासे हैं जरूर, मगर पानी की तलाश नहीं करते। और पानी भीतर भरा है, जल के स्रोत और झरने भीतर हैं। दुनियाभर में खोजते हैं, दौड़ते फिरते हैं--कहां-कहां नहीं दौड़ते! धन में, पद में, प्रतिष्ठा में। कुछ पाते नहीं। जरा भी प्यास मिटती नहीं। जी लेते हैं और मर जाते हैं। कुछ हाथ नहीं, खाली हाथ आते हैं खाली हाथ जाते हैं। थोड़ा गंवाकर ही जाते हैं। क्योंकि बच्चा जब पैदा होता है तो कम से कम मुट्ठी तो बंधी होती है, खाली है तो भी कोई बात नहीं, मगर मुट्ठी बंधी तो होती है। कहते हैं: बंधी तो लाख की और खुली तो खाक की। कम से कम बच्चे की मुट्ठी तो बंद होती है! मरता है आदमी तो वह मुट्ठी भी खुल गई। बंधी थी तो लाख की थी, खुल गई तो खाक की हो गई। कुछ लेकर नहीं आते, कुछ लेकर जाते नहीं। यूं व्यर्थ ही आपाधापी कर लेते हैं। और बहुत आपाधापी!
न जाने गर्दे-सफर है कि आंधियों का गुबार
पता नहीं...! इतनी धूल-धवांस।
न जाने गर्दे-सफर है कि आंधियों का गुबार
जिधर निगाह उठाऊं, धुआं-धुआं सा लगे
जरा आंख तो उठाकर देखो, हर आदमी धुंधिया रहा है। किसी की जीवन-ज्योति जल नहीं रही। इस उपद्रव में, जिसे तुम संसार कहते हो, कुंजी जो सारे तालों को खोल दे, सारे द्वारों को खोल दे, तुम अपने साथ लाए हो। मगर चूंकि साथ लाए हो, इसीलिए भूले बैठे हो। चूंकि जन्म से ही साथ लाए हो, इसलिए स्मरण भी नहीं होता। थोड़ी दूरी चाहिए देखने के लिए। अगर आईने के बिलकुल पास खड़े हो जाओ, आंखें आईने से ही लगा दो, तो आईने में भी कुछ दिखाई न पड़ेगा; आईना भी दीवाल हो जाएगा। थोड़ा फासला चाहिए। और हमारे और परमात्मा के बीच जरा भी फासला नहीं, कोई फासला करने का उपाय नहीं, क्योंकि हम ही परमात्मा हैं। अहं ब्रह्मास्मि! अनलहक! उपनिषद कहते हैं: तत्वमसि! तुम वही हो।
नहीं, सुरेंद्र सरस्वती, अनुवाद ऐसा न करना कि परमात्मा का क्या पाना, यहां से उखाड़ना और वहां लगाना! यहां और वहां में पता नहीं कितना फासला हो जाए। यहां और वहां का ही तो उपद्रव है। यहीं, और कहीं नहीं। एथों पुटिया ते एथे लाना। यहीं है और यहीं लाना है। इसलिए तो धर्म की बात बेबूझ मालूम होती है।
सोचना पड़ता है, कैदे-बामो-दर में क्या न था
वहशतों के घर में क्या है, मेरे घर में क्या न था
फासलों की गर्द ने धुंदला दिए मंजर तमाम
वर्ना हम आवारागर्दों की नजर में क्या न था
चंद यादों के अलावा, चंद जख्मों के सिवा
जिंदगी की शाम में क्या है, सहर में क्या न था
शोरिशें ही शोरिशें थीं, जिंदगी ही जिंदगी
सोचिए तो एक मुश्ते-बालो-पर में क्या न था
छोड़िए भी, अब तलाशो-जुस्तजू से फायदा!
हां कभी वो दिन भी थे दिल के नगर में क्या न था
अक्ल बेचारी दलीलों में उलझकर रह गई
वर्ना ‘ताबां’ उस निगाहे-मुख्तसर में क्या न था
यह बुद्धि है, यह विचार है, यह तर्क है, जो न मालूम किन झंझटों में उलझकर रह गया है; नहीं तो एक संक्षिप्त सी नजर, एक छोटी सी नजर और सब राज खुल जाएं।
अक्ल बेचारी दलीलों में उलझकर रह गई
वर्ना ‘ताबां’ उस निगाहे-मुख्तसर में क्या न था
उस संक्षिप्त सी नजर में, देखने का एक ढंग, एक सलीका और सब राज खुल जाते हैं।
फासलों की गर्द ने धुंदला दिए मंजर तमाम
यह फासले की ही तो धुंध है। यह फासले की ही तो गर्द है--यहां से वहां, और फासला हुआ।
फासलों की गर्द ने धुंदला दिए मंजर तमाम
उसी के कारण तो सभी दृश्य धुंधले हो गए हैं। आंखें धुंधली हो गई हैं तो दृश्य धुंधले हो गए।
वर्ना हम आवारागर्दों की नजर में क्या न था
यूं आवारा गर्द हो गए हैं। यहां से वहां भागे फिर रहे हैं। एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव पर भागे फिर रहे हैं। आवारागर्द हो गए हैं।
वर्ना हम आवारागर्दों की नजर में क्या न था
हमारी आंख में तो सब छिपा है। हमारे देखने के ढंग में तो सब छिपा है।
शोरिशें ही शोरिशें थीं...
क्रांति हमारे भीतर है, विप्लव हमारे भीतर है, आग हमारे भीतर है।
शोरिशें ही शोरिशें थीं, जिंदगी ही जिंदगी
और जिंदगी ही जिंदगी तुम्हारे भीतर है। जीवन, और जीवन, और जीवन, अनंत जीवन!
सोचिए तो एक मुश्ते-बालो-पर में क्या न था
एक पक्षी को जब तुम आकाश में उड़ते देखते हो तो कभी सोचा--एक मुट्ठी भर मिट्टी, थोड़े से बाल, थोड़े से पंख, मगर क्या गजब की उड़ान! सारा आकाश उन दो छोटे से पंखों से हार जाता है। यूं तो हम बहुत छोटे हैं--एक मुट्ठी खाक, थोड़े से पंख, थोड़े से बाल। मगर सारा आकाश हमारा हो सकता है। यूं तो हम बूंद हैं, मगर सागर हमारा हो सकता है। उलझ गए हैं लेकिन एक बात में--
अक्ल बेचारी दलीलों में उलझकर रह गई
वर्ना ‘ताबां’उस निगाहे-मुख्तसर में क्या न था
जरा आंख को बदलो। यहां से वहां की बात की, कि चक्कर में पड़े। फिर यह रुकेगी कहां? तुम जहां पहुंचोगे वहां होगा--यहां। और परमात्मा होगा वहां। तुम जहां भी जाओगे वहीं उसे नहीं पाओगे। क्योंकि वह कभी यहां होगा नहीं और तुम कभी वहां नहीं हो पाओगे। तुम होओगे आज, परमात्मा होगा कल। और जब भी हाथ में आएगा तो आज आएगा; कल तो किसी के हाथ में आता नहीं। तो पाओगे कैसे? वह तो क्षितिज की तरह दूर ही रह जाएगा।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: परमात्मा को बाहर सोचने की दृष्टि ही गलत है। उसे दूर सोचने का भाव ही गलत है। न तो उसे मंदिरों में पूजो, न मस्जिदों में पुकारो, न गिरजों में, न गुरुद्वारों में उसकी तलाश करो। यह जुस्तजू बेकार है। यह खोज व्यर्थ है। अपने भीतर चलो। आंख बंद करो, अपने में डुबकी मारो।
तूफां के बाद बहर-ब-दस्तूर हो गया
टकरा के इक सफीना मगर चूर हो गया
निखरा हुआ है रंग जफाओं का इन दिनों
अब कम-निगाहियों का गिला दूर हो गया
दिल यूं भी बेनियाजे-करम-हाए दोस्त था
खाकर शिकस्त और भी मगरूर हो गया
दस्ते-तलब से दूर न था दामने-करम
लेकिन मैं पासे-वजा से मजबूर हो गया
इक जुंबिशे-निगाह ने मंजर बदल दिया
आलम तमाम हुस्न से मामूर हो गया
‘ताबां’ इताबे-नाज से दिल का मुआमला!
इक हादिसा फिर आज सरे-तूर हो गया
थोड़ा सा तूफान है, मगर तूफान भी तो सागर का हिस्सा है। तूफान के पहले भी सागर शांत था, तूफान के बाद भी सागर शांत हो जाएगा। यह विचारों का तूफान है हमारी चेतना के सागर में। इसके पहले भी सन्नाटा था, इसके बाद भी सन्नाटा हो जाएगा। विचार के पहले भी ध्यान है, विचार के बाद भी ध्यान है। विचार के पहले भी भगवान है, विचार के बाद भी भगवान है। यह विचार का थोड़ा सा तूफान है, बस इसे बैठ जाने दो।
तूफां के बाद बहर-ब-दस्तूर हो गया
तूफान चला जाता है, सागर फिर पूर्ववत हो जाता है।
तूफां के बाद बहर-ब-दस्तूर हो गया
टकरा के इक सफीना मगर चूर हो गया
लेकिन इस बीच एक सफीना, एक नाव टकराएगी और टूटेगी--वह तुम्हारे अहंकार की नाव है। अगर तुमने उसको बचाया तो तुम परमात्मा से चूकते रहोगे। डूबना सीखना होगा, मिटना सीखना होगा। यह नाव तभी पार लगेगी जब डूबे। डूबे तो ही पार लगे। जो डूबे वही ऊबरे। अगर डूबने की हिम्मत नहीं है तो कभी उबर भी न सकोगे। मगर अहंकार बचना चाहता है।
दिल यूं भी बेनियाजे-करम-हाए दोस्त था
खाकर शिकस्त और भी मगरूर हो गया
और जितने हारते हो उतना ही अहंकार अकड़ता जाता है, कि चलो कोई बात नहीं, इस बार हारे तो अगली बार जीतेंगे, एक दांव और सही, एक प्रयास और सही।
छोटे-छोटे बच्चों को हम सिखाते हैं कि फिक्र मत करो, अरे, आज हार गए तो कल जीतोगे; इस बार हार गए तो अगली बार जीतोगे। करते रहो हमला। निराश न होओ, हताश न होओ।
और यही चलता रहता है जिंदगी भर। न कभी कोई जीता है यहां, न कभी कोई जीत सकता है। इस संसार में हार के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता नहीं।
हां, जीते कुछ लोग, मगर वे संसार में नहीं जीते, वे स्वयं में जीते। कोई बुद्ध जीता, कोई महावीर जीता, कोई लाओत्सु जीता, कोई जरथुस्त्र जीता, कोई कबीर, कोई नानक--मगर भीतर। यह जीत भीतर घटी, बाहर नहीं। यह साम्राज्य भीतर का है, बाहर का नहीं।
दस्ते-तलब से दूर न था दामने-करम
मांगने वाले हाथ से वह देने वाला दामन बहुत दूर नहीं, जरा भी दूर नहीं, बिलकुल भी दूर नहीं।
दस्ते-तलब से दूर न था दामने-करम
वह कृपा की वर्षा अभी हो जाए, मगर हाथ फैलाने में ही अहंकार को झिझक होती है; मांगने में ही अड़चन आ जाती है।
दस्ते-तलब से दूर न था दामने-करम
लेकिन मैं पासे-वजा से मजबूर हो गया
लेकिन वह अहंकार की पुरानी आदत हाथ फैलाने नहीं देती। वह अकड़े रखती है। बहुत दूर नहीं है, जरा भी दूर नहीं है। तुम हाथ फैलाओ कि अभी मिल जाए। तुम सरल हो जाओ तो अभी मिल जाए। तुम विनम्र हो जाओ तो अभी पा जाओ।
जीसस ने कहा है: ‘धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि प्रभु का राज्य उनका है।’
और जरा सी बात में सब बदल जाता है।
इक जुंबिशे-निगाह ने मंजर बदल दिया
नजर की हलकी सी थरथराहट!
इक जुंबिशे-निगाह...
इक जुंबिशे-निगाह ने मंजर बदल दिया
सारा दृश्य ही बदल गया।
आलम तमाम हुस्न से मामूर हो गया
सारा संसार उस परमात्मा के सौंदर्य से लबालब हो उठता है। एक जरा सी थरथराहट नजर की, देखने के ढंग का बदल जाना। अभी तुम देखते हो, दूर परमात्मा है--यूं मान कर। जिस दिन यह सोचकर देखोगे कि भीतर है, स्वयं में--बस जरा सी थरथराहट!
‘ताबां’ इताबे-नाज से दिल का मुआमला!
इक हादिसा फिर आज सरे-तूर हो गया
तूर पर्वत पर हजरत मूसा को परमात्मा का प्रकाश दिखाई पड़ा था। तुम जरा सी नजर बदलो और तुम्हारे भीतर ही तूर पर्वत प्रगट हो जाए और तूर पर्वत का प्रकाश प्रगट हो जाए। वह तूर का पर्वत कहीं बाहर नहीं है।
‘ताबां’ इताबे-नाज से दिल का मुआमला!
इक हादिसा फिर आज सरे-तूर हो गया
तुम्हारे भीतर ही रोशनी हो जाए--वही रोशनी जो तूर पर्वत पर हुई थी। वह पर्वत कहीं बाहर नहीं है। वह तुम्हारी ही ऊंचाई है, तुम्हारी ही चेतना की ऊंचाई है।
सुरेंद्र सरस्वती, ऐसा मत कहो कि यहां से उखाड़ना वहां लगाना। नहीं, यहीं है, यहीं लगाना, यहीं देखना। इस क्षण में ही सब कुछ है। मैं राजी हूं बुल्लेशाह से। ये बुल्लेशाह उन थोड़े से फकीरों में एक हैं, जिनको सच में ही शाह कहा जाए, शहंशाह कहा जाए। ये बादशाहों में से एक हैं।
ठीक कहते हैं: रब्ब दा की पाना, एथों पुटिया ते एथे लाना।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, हरेकृष्ण आंदोलन के एक स्वामी, स्वामी अक्षयानंद महाराज ने कल पूना में अपने एक प्रवचन में आपकी तथा आपके संन्यासियों की आलोचना की है कि पर-स्त्री संबंध तथा गर्भपात द्वारा हत्या का समर्थन करने वाले आचार्य भगवान नहीं, प्रथम कोटि के राक्षस हैं। स्वामी अक्षयानंद महाराज ने यह भी कहा कि सौभाग्य से हमारे शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि कलियुग में रावण जैसे लोग होंगे, जो कि स्वयं को भगवान घोषित करके सीधे-सादे लोगों को मार्गच्युत करेंगे। अपने प्रवचन में स्वामी अक्षयानंद महाराज ने यह भी कहा कि भटके हुए विदेशी नागरिक संतों जैसे वस्त्र पहनकर सार्वजनिक स्थलों पर प्रणय आदि का निर्लज्ज प्रयोग कर रहे हैं। तथा उन्होंने ऐसे घृणित कार्य के लिए चिंता और आक्रोश प्रगट किया। भगवान, स्वामी अक्षयानंद महाराज की इस परोक्ष टीका पर आप क्या कहेंगे?
चैतन्य कीर्ति, पहली तो बात यह कि स्वामी अक्षयानंद महाराज अमरीकी हैं, लेकिन कह रहे हैं कि ‘हमारे शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि कलियुग में रावण जैसे लोग होंगे...।’
हिंदुओं के अहंकार को इससे बड़ी तृप्ति मिलती है, सफेद चमड़ी का कोई आदमी कह दे कि ‘हमारे शास्त्र’...हृदय गदगद हो जाता है। एकदम फूल ही फूल खिल जाते हैं, दीए ही दीए जल जाते हैं। काश, मैं भी अपने विदेशी संन्यासियों को यही समझा रहा होता कि इन सड़े-गले शास्त्रों का समर्थन करो, इन लाशों को सिर पर ढोओ, इनका गुणगान करो, स्तुति करो, तो तुम्हें भी पूजा मिलती, तुम्हें भी सम्मान मिलता! भारत तुम्हें सिर-आंखों पर उठा लेता। पलक-पांवड़े बिछ जाते। जगह-जगह वंदनवार बंध जाते। लेकिन तुम पर पत्थर फिकेंगे, तुम्हें गालियां सहनी पड़ेंगी, तुम्हें राक्षस कहा जाएगा। तुम इस देश के सड़े-गले अहंकार को कोई समर्थन नहीं दे रहे हो।
विवेकानंद के साथ सिर्फ एक अमरीकी महिला निवेदिता आ गई थी, सारे भारत में शोरगुल मच गया था कि भारी काम कर दिया विवेकानंद ने! एक विदेशी महिला को रूपांतरित कर दिया, हिंदू बना दिया। मेरे दो लाख संन्यासी हैं सारी दुनिया में, लेकिन हिंदुओं के अहंकार को या भारतीयों के अहंकार को इससे कोई समर्थन नहीं मिल रहा; यही अड़चन है, यही कठिनाई है।
और जिन शास्त्रों की अक्षयानंद महाराज बात कर रहे हैं, इनको उन शास्त्रों का कुछ पता है? अमरीकी भोंदू, इनको क्या शास्त्रों का पता है? मगर इनके जो गुरु थे भक्तिवेदांत प्रभुपाद, वे चमत्कारी पुरुष थे। उनका चमत्कार यही था कि दुनिया में जहां भी भोंदू थे, मूढ़ थे, उनकी तरफ चुंबक की भांति खिंचते थे। इतनी तो मैं बात स्वीकार करूंगा कि प्रभुपाद में इतना गुण तो था, कि कुछ खूबी थी, कि मूर्ख एकदम उनके आसपास इकट्ठे हो जाते थे। सिर घुटाकर, चुटैयों में गांठें बांधकर हरेकृष्णा-हरेरामा का भजन करने लगते थे, ढोल-मंजीरा पीटने लगते थे। और तोतों की तरह भारतीय शास्त्रों को दोहराते थे, जिनका उनको न कुछ अर्थ पता है, न जिनका संदर्भ पता है।
अब ये जिन शास्त्रों की बात कर रहे हैं, थोड़ा उन शास्त्रों का खयाल करो। भारत में जिनको भगवान कहा है, उनकी तरफ थोड़ा ध्यान करो। परशुराम को भगवान कहा है। उनका नाम ही परशुराम पड़ा, क्योंकि वह परसा लिए रहते थे, फरसा लिए रहते थे। परस वाले राम। वे हाथ में फरसा लिए रहते थे। वे सबसे पहले सरदार थे। और कहते हैं उन्होंने पृथ्वी को अठारह बार क्षत्रियों से खाली कर दिया था। गजब के ब्राह्मण थे! अठारह बार पृथ्वी से सारे क्षत्रिय उन्होंने मार डाले। और राक्षस मैं! एक क्षत्रिय मैंने मारा नहीं। क्षत्रिय की तो बात ही छोड़ो, एक तिलचट्टा भी नहीं मारा। लेकिन मैं रावण, मैं राक्षस--और परशुराम भगवान, जिन्होंने अठारह बार सारी पृथ्वी को क्षत्रियों से समाप्त कर दिया! हद दर्जे के दुष्ट आदमी रहे होंगे। बाप को शक हो गया उनकी मां पर और परशुराम को उन्होंने आज्ञा दे दी कि जाकर गर्दन काट दे। बाप की आज्ञा कहीं छोड़ सकते थे! परशुराम गए और मां की गर्दन काट दी। यह आदमी भगवान! और हिंसा क्या होती?
और राम तो धनुर्धारी राम हैं ही, वे तो हिंसा का प्रतीक ही लिए हैं! और लंका में आग लगा दी। लंका को धू-धू कर के जला डाला! और हिंसा मैं करवा रहा हूं! रावण मैं हूं! रामराज्य में आदमी और औरतें बाजारों में गुलामों की तरह बिकते थे, स्त्रियों पर नीलाम लगाए जाते थे, और फिर भी यह सतयुग था! और एक ब्राह्मण का बेटा मर गया तो उस ब्राह्मण ने जाकर राम की अदालत में कहा कि मेरा बेटा मर गया है, जो कि नहीं मरना चाहिए, क्योंकि बाप जिंदा और बेटा मर जाए यह बात ठीक नहीं, कहीं न कहीं कोई अनाचार हो रहा है। तो राम ने कहा कि पता लगाओ कहां अनाचार हो रहा है। पता यह लगा कि उस ब्राह्मण के घर से एक हजार मील दूर एक गांव में एक शूद्र ने वेद का मंत्र सुन लिया था। यह अनाचार हो रहा था! यह अत्याचार हो रहा था, जिसकी वजह से ब्राह्मण का बेटा मरा! वह भी हजार मील दूर मरा। और बीच हजार मील में किसी का बेटा न मरा! स्त्रियां बाजारों में बिक रही थीं, यह पाप न था! आदमी गुलामों की तरह बिक रहे थे, सामानों की तरह बिक रहे थे--यह पाप न था! पूरी लंका को धू-धू कर के जला दिया, यह पाप न था! गर्भवती सीता को राम ने खुद जंगल में फिंकवा दिया, यह पाप न था!
जब रावण के यहां से सीता को बचाकर लौटे तो जो पहले वचन उन्होंने सीता से कहे, अभद्र हैं। पहले वचन उन्होंने कहे कि याद रख ऐ औरत, मैंने तेरे लिए युद्ध नहीं किया है। मैंने युद्ध किया है अपनी कुल-परंपरा के लिए, रघुकुल के लिए। यह कुल की प्रतिष्ठा का सवाल था, इसलिए युद्ध किया है। कोई एक औरत के लिए मैं युद्ध करने नहीं आऊंगा।
और फिर परीक्षा ली उन्होंने सीता की कि अग्नि से गुजरो। अगर सीता की परीक्षा ली थी तो इतना तो न्याययुक्त होना ही चाहिए था कि खुद भी गुजर जाते अग्नि से, क्योंकि खुद भी इतनी देर बिना पत्नी के रहे थे, क्या भरोसा? जब स्त्री का भरोसा नहीं है तो पुरुष का क्या भरोसा? सच तो यह है कि स्त्रियों का ज्यादा भरोसा किया जा सकता है पुरुषों की बजाय। क्योंकि उस समय कोई संतति-निरोध का सामान तो था नहीं। अगर सीता ने कुछ गड़बड़ की होती तो गर्भवती हो जाती। और राम कुछ गड़बड़ करें तो पकड़ में ही नहीं आते। इसलिए तो कहते हैं कि पुरुष बच्चा, उसकी बात अलग। परीक्षा सिर्फ सीता की हुई। यह बड़ी अजीब परीक्षा हुई, खूब न्याय हुआ! ये दोहरे मापदंड हुए।
और अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी सिर्फ एक धोबी ने कह दिया अपनी स्त्री से कि तू रातभर कहां रही, मैं कोई राम नहीं हूं कि अब तुझे घर में रख लूं। यह किसी जासूस ने खबर दे दी कि एक धोबी ने यह कह दिया है और गर्भवती सीता को फिंकवा दिया। अग्नि-परीक्षा का क्या हुआ? अन्याय की भी कोई हद होती है। एक तो अग्नि-परीक्षा ली अकेली सीता की, खुद न दी और अग्नि-परीक्षा के बाद भी एक धोबी ने एतराज उठा दिया और सीता को यह भी अवसर न दिया कि कम से कम उससे कह देते कि क्यों तुझे जंगल में फिंकवाया जा रहा है। अगर न्याय ही था तो धोबी को बुलाकर, धोबी की बात सुननी थी अदालत में, सीता की भी बात सुननी थी। सीता को भी हक होना था कि अपनी व्यथा कह सकती। लेकिन उसे तो कोई मौका ही नहीं दिया गया। एकतरफा न्याय हो गया। और यह कोई ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा, यह कोई धुब्बड़, इसने निर्णय करवा दिया। स्त्री-जाति का यह सम्मान हो रहा है! नहीं, लेकिन अहंकार की प्रतिष्ठा। और अगर ऐसा ही था तो खुद भी सीता के साथ जंगल चले जाते। लेकिन राजपाट नहीं छोड़ा, पत्नी छोड़ दी। राजपाट क्यों छोड़ें! धन-दौलत क्यों छोड़ें! प्रतिष्ठा क्यों छोड़ें! प्रतिष्ठा पर दाग न लग जाए, इसलिए स्त्री को छोड़ दिया, जंगल में फिंकवा दिया गर्भवती स्त्री को। न लाज, न शर्म, न संकोच। और फिर भी तुम राम को भगवान कहे चले जाओगे! और उस ब्राह्मण के कहने पर कि एक हजार मील दूर एक शूद्र ने वेद सुन लिया, उसके कान में सीसा पिघलवाकर भरवा दिया। फिर भी तुम राम को भगवान कहे चले जाओगे, मर्यादा-पुरुषोत्तम कहे चले जाओगे!
मैंने किसी के कान में सीसा तो पिघलवाकर भरवाया नहीं। वेद के मंत्र जरूर किसी के कान में मैंने डाले होंगे, मगर सीसा तो पिघलवाकर किसी के कान में डाला नहीं। मैं राक्षस हूं! और जिस कृष्ण के ये भक्त हैं स्वामी अक्षयानंद महाराज और इनके मरहूम गुरु, भक्तिवेदांत प्रभुपाद, उन कृष्ण का जीवन तो जरा गौर से देखो, जिन शास्त्रों की ये बातें कर रहे हैं। ये कृष्ण-आंदोलन चलाते हैं, कृष्ण-भक्त हैं ये सब। ये कृष्ण का गुणगान करते हैं, श्रीमद् भागवत दोहराते हैं और गीता का पाठ करते हैं।
कृष्ण के जीवन में जितनी हिंसा है उतनी हिंसा शायद मनुष्य-जाति के जीवन में किसी व्यक्ति के संबंध में उल्लिखित नहीं है। इतिहासज्ञों का अनुमान यह है कि जैसा वर्णन है महाभारत का, अगर सच में वैसा युद्ध हुआ हो, तो उसमें कम से कम एक अरब पच्चीस करोड़ आदमी मरे होंगे, सवा अरब आदमी। अभी पृथ्वी की कुल संख्या जितनी है उसमें से एक तिहाई आदमी मरे होंगे। अभी भारत की कुल संख्या सत्तर करोड़ है, इससे करीब-करीब दो गुने आदमी उस युद्ध में मरे।
अर्जुन तो बेचारा ढोलक लेकर भजन-कीर्तन करने का विचार करता था। वह तो स्वामी अक्षयानंद हो जाना चाहता था। वह तो अपना ढोलक बजाता, हरेकृष्णा-हरेरामा करता। मगर कृष्ण ने उसे रोक लिया। और कृष्ण ने उसे दलीलें क्या दीं? कृष्ण ने दलील जो दीं, अगर वे सच हैं तो...निश्चित सच होनी चाहिए, क्योंकि यह हरेकृष्ण आंदोलन को मानने वाले लोग कृष्ण-भक्त हैं, अगर उनकी दलीलों पर उनको भरोसा है तो ये किस तरह मुझसे कह सकते हैं कि मैं गर्भपात द्वारा हत्या का समर्थन करवा रहा हूं? क्योंकि कृष्ण तो कहते हैं--न हन्यते हन्यमाने शरीरे। शरीर के मरने से मृत्यु होती ही नहीं। अग्नि में जलाने से आत्मा जलती नहीं। नैनं छिन्दंति शस्त्राणि। न तो शस्त्रों से छेदी जा सकती है। नैनं दहति पावकः। और न आग में डालो तो जलाई जा सकती है। यह तो आत्मा मरती ही नहीं। यह तो दलील दी अर्जुन को कि तू क्या फिक्र करता है, मार, बेफिक्री से मार, कोई मरता नहीं। यह जो तेरे सामने कौरवों की फौज खड़ी है, इसको जी भरकर काट, गाजर-मूली की तरह काट। क्योंकि शरीर ही मरता है, आत्मा तो कभी मरती ही नहीं, आत्मा अमर है।
यह तो बुनियादी दलील है गीता की कि आत्मा मरती नहीं। और अगर सवा अरब आदमियों को मारने से हिंसा नहीं होती तो गर्भपात से कैसे हिंसा हो जाएगी? कृष्ण भगवान हैं! अगर हिंसा के आधार पर सोचते हो, तो तो जैन शास्त्र ठीक कहते हैं। उन्होंने कृष्ण को सातवें नर्क में डाला है। अगर अक्षयानंद में थोड़ी भी बुद्धि हो, जिसका मैं जरा भी भरोसा नहीं कर सकता कि हो सकती है...। ये पंचामृत खाने-पीने वाले लोग, इनमें बुद्धि क्या हो सकती है? पंचामृत का मतलब समझते हो? गोबर, गोमूत्र, दूध, दही, घी--इन पांचों को मिलाकर गटक जाओ तो पंचामृत होता है। यह तो कृष्ण-भक्तों का पुराना आहार, प्रसाद यही है--पंचामृत! यह गोबर गोबर नहीं है।
इस दृष्टि से तो महात्मा गांधी के एक शिष्य थे भंसाली, वे सच्चे कृष्ण-भक्त थे, वे गोबर ही खाते थे। जैसे मोरारजी देसाई स्वमूत्र पीते हैं, वे गोमूत्र से भी आगे जा चुके हैं। अरे, क्या बाहर पर निर्भर रहना! भंसाली गांधी के बड़े भक्त थे, गांधी के पट शिष्यों में एक थे। वर्धा-आश्रम में उनके जैसा चमत्कारी कोई आदमी नहीं था। वे महीनों तक गोबर ही खाकर रहते थे। और महात्मा गांधी भी उनको मानते थे कि है तो यह तपस्वी! महात्मा गांधी को भी हरा दिया था उन्होंने।
कृष्ण को जैनों ने नर्क में डाला है--इसी कारण कि उन्होंने यह महाहिंसा करवाई। तो पहली तो दलील कृष्ण ने यह दी कि कोई मारने से मरता नहीं। दूसरी दलील यह दी है अर्जुन को--अगर कृष्ण के मानने वाले लोग उनकी दलीलें समझें तो बात बहुत साफ हो जाएगी--दूसरी दलील यह दी है कि परमात्मा जिसको मारना चाहता है वही मरता है। तो अर्जुन, तू तो निमित्त मात्र है। तू थोड़े ही मारने वाला है। मारने वाला तो परमात्मा है। उसने तो पहले ही ये कौरवों को मार डाला है, तू तो सिर्फ निमित्त है, धक्का दे और ये गिर जाएंगे। ये तो मरे ही खड़े हैं। तो अगर परमात्मा ही मारने वाला है और परमात्मा ही जिलाने वाला है, उसके बिना अगर पत्ता भी नहीं हिलता, तो गर्भपात से कोई मृत्यु कैसे हो जाएगी?
और फिर यह भी बड़े मजे की बात है कि मैं गर्भपात नहीं करवा रहा हूं। गर्भपात करवाने वाले लोग महात्मा गांधी, ये कृष्ण आंदोलन के बनाने वाले प्रभुपाद, ये पोप, यह मदर टेरेसा, ये लोग हैं। क्योंकि ये लोग लोगों को संतति-नियमन का उपयोग नहीं करने देते। मैं तो पक्षपाती हूं इसका कि बच्चों को भीतर गर्भ में आने तक की भी कोई जरूरत नहीं, तो गर्भपात का कोई सवाल ही नहीं उठता। गर्भपात तो ये लोग करवा रहे हैं। पहले तो कहेंगे कि जो भी संतति-निग्रह के साधन हैं उनका उपयोग मत करना, क्योंकि उनका उपयोग पाप है। फिर गरीब आदमी बच्चे पैदा कर लेगा या स्त्रियां गर्भवती हो जाएंगी। उन बच्चों को पालने की उसके पास सुविधा नहीं, वह करे क्या? फिर उनका गर्भपात करेगा। और गर्भपात के लिए जिम्मेवार मैं हूं! अगर मेरा वश चले तो दुनिया में एक भी गर्भपात नहीं होगा, क्योंकि मैं तो पूरे विज्ञान का उपयोग करने का समर्थन करता हूं। जब गोली ही लेकर बच्चे को आने से रोका जा सकता है तो बच्चे को पहले लाना और फिर गर्भपात करना, इतना उपद्रव क्यों करना? इसका क्या प्रयोजन?
लेकिन ये महात्मा गांधी तो कहते हैं कि संतति-नियमन का उपयोग मत करना, पोप कहते हैं संतति-नियमन का उपयोग मत करना। अगर बच्चों को रोकना है तो ब्रह्मचर्य से रोको। और महात्मा गांधी भी बच्चे नहीं रोक सके, पांच बच्चे पैदा किए। और महात्मा गांधी के आश्रम में जहां कि ब्रह्मचर्य का नियम था, वहां रोज ब्रह्मचर्य टूटता था। खुद महात्मा गांधी के प्राइवेट सेक्रेटरी प्यारेलाल ने ब्रह्मचर्य तोड़ दिया, तो उनको आश्रम से निकाला गया। और प्यारेलाल ने ही महात्मा गांधी की सबसे सुंदर जीवनी लिखी; वही उनके अधिकृत जीवन कथा-लेखक हैं।
गर्भपात कौन करवा रहा है? इसका जिम्मेवार मैं हूं? मेरी बात मानी जाए तो गर्भपात दुनिया में एक भी नहीं होगा। ये इस तरह के मूढ़ ही गर्भपात करवा रहे हैं।
और दूसरी बात उन्होंने कही कि ‘पर-स्त्री संबंध...।’
कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं, यह स्वामी अक्षयानंद महाराज को बताना। और ये सोलह हजार स्त्रियां इनकी विवाहित स्त्रियां नहीं थीं, दूसरों की विवाहित स्त्रियां थीं। और ये राजी-खुशी भी इनके साथ नहीं आ गई थीं, ये जबर्दस्ती भगाकर लाई गई थीं। कृष्ण भगवान हैं--और मैं राक्षस! सोलह हजार क्या, मैंने सोलह स्त्रियां भी नहीं भगाईं। अगर भगवान होने के लिए सोलह हजार स्त्रियां दूसरों की उड़ाना जरूरी हो तो निश्चित ही मैं भगवान नहीं हूं और होना भी नहीं चाहता। राक्षस ही भला। अगर राक्षस रावण का कसूर इतना है कि उसने सीता भगाई, तो एक ही स्त्री भगाई थी। और कृष्ण ने सोलह हजार स्त्रियां भगाईं। अगर एक स्त्री के भगाने से रावण राक्षस हो गया तो कृष्ण सोलह हजार गुने राक्षस हैं। और अगर सोलह हजार स्त्रियां भगाना जरूरी हैं भगवान होने के लिए तो फिर एक बटा सोलह हजार भगवान तो रावण को भी मानना पड़ेगा कृष्ण के हिसाब से। और मैंने एक भी नहीं भगाई। पराए की भगाना तो दूर, अपनी भी नहीं भगाई। इस हिसाब से मैं तो एक बटा सोलह हजार भगवान भी नहीं हूं। राक्षस भी नहीं हूं, क्योंकि किसी की सीता भी नहीं भगाई। बात तो साफ है कि मैं सतयुगी भगवानों के मुकाबले कहीं भी भगवान नहीं ठहरता।
मेरे लिए तो अगर भगवान स्वीकार करना हो तो अलग ही कोटि बनानी पड़ेगी। न तो धनुर्धारी हूं, न फरसा लिए हूं। न कृष्ण जैसा धोखा, बेईमानी, जालसाजी, झूठ, वचन-भंग कि कसम खाई थी कि युद्ध में हथियार न उठाएंगे, फिर सुदर्शन-चक्र उठा लिया। सुदर्शन-चक्र भी मेरे पास नहीं, कुछ भी नहीं मेरे पास।
कई बार मैं सोचता हूं कि यह भगवान शब्द गंदा है। और जैसे ही नया कम्यून स्थापित हो जाए, इस शब्द को त्याग करना है, क्योंकि भगवान के नाम से जो लोगों का संबंध जुड़ा रहा है, उनकी पंक्ति में मैं खड़ा नहीं होना चाहता।
बता रहे हैं वे कि ‘पर-स्त्री संबंध और गर्भपात का समर्थन करने वाले आचार्य भगवान नहीं, प्रथम कोटि के राक्षस हैं।’
होना ही चाहिए प्रथम कोटि का राक्षस, क्योंकि ये तो कोई भी गुण मुझमें नहीं हैं। ये परशुराम की तरह लिए फरसा घूम रहे हैं कि जहां कोई दिखा क्षत्रिय कि सत सिरी अकाल, वहीं खातमा किया! न किन्हीं की स्त्रियों को मैं भगा रहा हूं। और ये सब मांसाहारी थे--ये राम, ये कृष्ण, ये सब मांसाहारी थे।
जैन शास्त्रों में उल्लेख है कि कृष्ण के चचेरे भाई नेमीनाथ, जैनों के एक तीर्थंकर हैं। नेमीनाथ का विवाह हुआ--विवाह हो रहा था, हो नहीं पाया था, पूरा नहीं हो पाया। नेमीनाथ की जब बारात पहुंची, तो नेमीनाथ ने देखा कि हजारों पशु चिल्ला रहे हैं, मिमिया रहे हैं, क्योंकि वे बरातियों के लिए बांधकर रखे गए थे कि बराती आएं तो काटे जाएं। बरातियों का स्वागत-सत्कार करना है। तो नेमीनाथ ने पूछा, इतने पशु क्यों चिल्ला रहे हैं? क्या बात है? ये क्यों बांधे गए हैं? तो बताया गया कि ये बरातियों के स्वागत के लिए इनकी बलि दी जाएगी। नेमीनाथ के मन को ऐसी चोट पड़ी कि उन्होंने कहा कि मुझे यह विवाह ही नहीं करना। जिस विवाह में इतनी हिंसा शुरुआत में हो रही हो, मैं तो यह चला! उन्हें हिंसा से ऐसी विरक्ति हुई कि उन्होंने बरात छोड़कर जंगल की राह पकड़ी। वे चचेरे भाई थे कृष्ण के। कृष्ण थे तो अहीर। अहीर तो मांसाहारी हैं, कोई शाकाहारी नहीं।
राम भी क्षत्रिय थे, मांसाहारी थे। ये मांसाहारी भगवान हैं; निश्चित ही मैं शाकाहारी हूं, कैसे भगवान हो सकता हूं। और ये स्वामी अक्षयानंद महाराज शास्त्रों के ज्ञाता हैं, क्या खाक शास्त्र जानते हैं? राम के जीवन में उल्लेख है कि जब वे वन जा रहे हैं तो अहिल्या पत्थर होकर पड़ी है और उनके पैर की प्रतीक्षा कर रही है जन्मों से कि जब उनका पैर पत्थर पर पड़ेगा तो अहिल्या पुनः जीवित हो उठेगी। और इसका खूब गुणगान किया जाता है कि क्या चमत्कार हुआ! राम के पैर का स्पर्श हुआ और चट्टान पुनरुज्जीवित हो उठी! लेकिन कोई यह भी पूछे कि अहिल्या पत्थर कैसे हो गई थी? मैं कुछ मामलों को इतनी आसानी से नहीं छोड़ देता। यह अहिल्या अभिशापित हुई थी पति के द्वारा।
और बड़े मजे की कहानी है पुराणों में। कहानी यह है कि इंद्र ने धोखा दिया एक ऋषि की पत्नी को--अहिल्या को। ऋषि गए स्नान को। ऋषियों को पहले से ही बताया गया है कि ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने जाना। क्यों ब्रह्ममुहूर्त में करने स्नान जाना, क्योंकि देवी-देवता इस बीच जो भी उन्हें घूंघर करना हो कर लें। ऋषि महाराज गए स्नान करने ब्रह्ममुहूर्त में और इंद्र ऋषि के घर पहुंच गया--ऋषि का वेश बनाकर। देवता को क्या कमी, कोई भी चमत्कार कर लें! पत्नी को धोखा हो गया। पत्नी को कुछ पता न चला कि यह कोई दूसरा आदमी है जो ऋषि का धोखा बनकर अंदर आ गया है। उसने अहिल्या के साथ भोग किया। और जब ऋषि को पता चला तो उसने अभिशाप दे दिया अहिल्या को। अब तुम थोड़ा अन्याय देखो। अभिशाप देना चाहिए इंद्र को, अहिल्या का क्या कसूर है? अभिशाप देना था इंद्र को कि हो जा पत्थर का। लेकिन इंद्र हैं पुरुष, पुरुष को तो क्या अभिशाप देना? स्त्री को अभिशाप दिया, जिसका कि कोई कसूर न था। इसका क्या कसूर? अगर कोई आदमी ठीक पति जैसा होकर आ जाए और संभोग करे तो यह स्त्री कैसे मना करती, इसे कैसे पता चलता? इसकी तो कहीं भी कोई भूल नहीं है। इसको अभिशाप दे दिया कि तू पत्थर होकर पड़ी रहेगी तब तक, जब तक राम के चरण तेरे ऊपर न पड़ेंगे।
यह दोहरा मापदंड बेईमानी का प्रतीक है, अन्याय का प्रतीक है। स्त्रियों के साथ जितनी ज्यादती भारतीय पुराणों में हुई है, उतनी ज्यादती दुनिया के किन्हीं शास्त्रों में नहीं हुई। और इन्हीं शास्त्रों की गुणगाथा गाई जाती है और इन्हीं की प्रशंसा की जाती है। ये सड़े-गले शास्त्र जला देने योग्य हैं। मगर हिंदू अहंकार प्रभावित होता है जब भी कोई आकर कह देता है हमारे शास्त्र! और अमरीकी चुटैयाधारी, सिर घुटाए, ढोलक बजाए, हरेकृष्णा-हरेरामा करे और फिर कहे कि हमारे शास्त्र, तो हिंदुओं का हृदय तो एकदम गार्डन-गार्डन हो जाए! एकदम नाच उठे, खुमारी छा जाए, कि क्या बात गहरी कह दी!
जरा अपने शास्त्रों को उठाकर देखो और शर्म से सिर झुक जाएगा। तुम्हारे शास्त्रों में तुम्हारे सारे देवी-देवता निपट लफंगे हैं। मेरी मजबूरी है, क्योंकि जो है मैं उसको वैसा ही कह रहा हूं। तुम्हारा एक देवता ढंग का आदमी नहीं है। और तुम्हारे देवताओं का कुल काम क्या है स्वर्ग में? अप्सराओं को नचाओ, और क्या करोगे! और जब अप्सराओं से ऊब जाते हैं तो यहां ऋषि-मुनियों की स्त्रियों को सताओ। और ऋषि-मुनि अगर तपश्चर्या करें, तो अप्सराओं को भेजो तो उनकी तपश्चर्या डगमगाएं, कि उनको भ्रष्ट करें। गजब का काम तुम्हारे देवताओं के हाथ में लगा हुआ है! खुद स्त्रियों को नचाते रहो--एक काम, दूसरा काम--कोई ऋषि-मुनि तपश्चर्या न कर पाए, इसका ध्यान रखो। खूब देवता हैं, धर्म की रक्षा कर रहे हैं कि कोई ऋषि-मुनि तपश्चर्या न कर पाए। तपश्चर्या में जरा ही ऊंचा उठने लगे कि भेज दो फौरन उर्वशी को, मेनका को, भ्रष्ट करो उसको। क्योंकि इंद्र का सिंहासन डोलने लगता है कि कोई ऋषि-मुनि कहीं तपश्चर्या में सफल हो गया तो इंद्र न हो जाए। तो यह तो राजनीति हुई, धर्म क्या हुआ? ये देवी-देवता भी राजनीति में ही पड़े हुए हैं, इनका भी सिंहासन डोल रहा है, कि कहीं दूसरा हमारे सिंहासन पर न आ जाए! वही साधारण आदमियों की कथाएं।
और ये देवी-देवताओं के पास सुंदर उर्वशियां हैं, मेनकाएं हैं, जिनकी उम्र हमेशा सोलह साल रहती है। क्या गजब का इंतजाम किया है! जिनके शरीर से पसीना नहीं बहता! जिनके शरीर से सुगंध ही सुगंध उठती है! इन स्त्रियों से भी ये ऊब जाते हैं। कितनी ही स्वादिष्ट हों ये स्त्रियां, मगर वही स्वाद, वही स्वाद, रोज रसमलाई, रसमलाई, रसमलाई! फिर आदमी घबड़ा जाएगा। कभी आदमी का मन भजिया इत्यादि खाने का भी होने लगता है। तो वे चले आते हैं पृथ्वी पर। और यहां दूसरे तो जाते नहीं ब्रह्ममुहूर्त में उठकर, पर पतिदेव घर में ही बैठे रहते हैं ब्रह्ममुहूर्त में भी, ऋषि-मुनि बेचारे जाते ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने। गए गंगा जी। और देवताओं का काम है उनकी पत्नियों को भ्रष्ट करना। और यह बड़े मजे की बात है कि उर्वशी पर प्रभावित हो जाता है मुनि तो भ्रष्ट हो गया और देवता आकर मुनियों की स्त्रियों को भ्रष्ट कर जाते हैं तो भी भ्रष्ट नहीं होते।
तुम जरा अपने शास्त्रों को उठाकर तो देखो। ब्रह्मा ने पृथ्वी बनाई और पृथ्वी को बनाकर वे उस पर मोहित हो गए, क्योंकि पृथ्वी यानी स्त्री। बनाने वाले थे तो पिता थे, पिता बेटी पर मोहित हो गए। शास्त्र कहते हैं कि उनके मन में एकदम कामवासना जग गई। वे लगे पीछा करने। अब इनको अगर मैं लंपट न कहूं तो क्या कहूं? और बेचारी स्त्री लाज-शरम के मारे छिपने लगी। इस तरह सारी सृष्टि का जन्म हुआ है...छिपने की प्रक्रिया से। कैसे छिपी? वह गाय बन गई तो ब्रह्मा सांड बन गए। वे भी पीछा न छोड़ें। वह घोड़ी बन गई तो वे घोड़ा बन गए। वह गधी बन गई तो वे गधा बन गए। बनते ही चले गए। वह बाई बनती गई, वे भैया बनते गए। ऐसे सारे जगत का फैलाव हुआ।
ये तुम्हारे पुराण, ये तुम्हारे शास्त्र और इनका तुम गुणगान करते नहीं थकते! और तुम थक गए हो अब तो यह बाहर से उधार मूढ़, जिनको कुछ पता नहीं शास्त्रों का, ये आकर यहां शास्त्रों की प्रशंसा कर रहे हैं। और मुझको कह रहे हैं राक्षस! तो राक्षस की परिभाषा एक दफे ठीक से कर लो, तो तुम्हारे सारे देवता राक्षस सिद्ध होंगे और तुमने जिनको भगवान कहा है अब तक, उनमें कोई भगवान कहने योग्य न बचेगा। महावीर में कुछ भगवत्ता है, लेकिन हिंदू शास्त्रों ने महावीर का उल्लेख भी नहीं किया। बुद्ध में भगवत्ता है, लेकिन हिंदू शास्त्रों ने बुद्ध का ऐसा उल्लेख किया है कि जो बेईमानी से भरा हुआ है। उल्लेख ऐसा किया कि ब्रह्मा ने नर्क बनाया, स्वर्ग बनाया; नर्क में कोई जाए ही न, क्योंकि कोई पाप ही न करे। आखिर नर्क के जो काम करने वाले कार्यकर्तागण थे, उन्होंने जाकर परमात्मा से प्रार्थना की, हमें किसलिए बिठा रखा है? खाली बैठे हैं। न कोई कभी आता, न कभी कोई जाता, कोई पाप ही नहीं करता।
तो उन पर दया करके परमात्मा ने कहा कि घबड़ाओ मत, जल्दी ही मैं गौतम बुद्ध की तरह अवतार ग्रहण करूंगा और लोगों को मार्ग से भ्रष्ट करूंगा।
सो वे गौतम बुद्ध की तरह अवतरित हुए--नर्क के अधिकारियों पर दया करने के लिए। नर्क ही मिटा देते, क्या जरूरत थी नर्क को बनाए रखने की? अगर कोई पाप नहीं कर रहा था तो कोई जबर्दस्ती पाप करवाने की आवश्यकता है? तो उनको छुट्टी दे देते नर्क के कार्यकर्ताओं को। उनको कह देते, तुम भी स्वर्ग में आ जाओ, यहीं कोई काम सम्हाल लो। नर्क का काम ही बंद कर दो। सीधी सी बात थी। किसी भी छोटी-मोटी बुद्धि के आदमी को समझने में आ जाए कि बात ठीक थी, दुकान नहीं चल रही तो क्या जरूरत कि जबर्दस्ती ग्राहक पैदा करो?
तो बुद्ध की तरह अवतार लिया भगवान ने--लोगों को भ्रष्ट करने के लिए! और लोगों को भ्रष्ट किया। और तब से नर्क में ऐसी भीड़म-भाड़ मची हुई है, कतारें लगी हुई हैं, लोगों को प्रवेश नहीं मिलता। तब से स्वर्ग में अड़चन हो गई होगी। तब से कोई स्वर्ग जाएगा ही क्यों?
गौतम बुद्ध में भगवत्ता एक दफे प्रगट हुई है, बड़ी प्रगाढ़ता से। न तो राम में वह खूबी है, न परशुराम में वह खूबी है, न कृष्ण में वह खूबी है--जो बुद्ध में है। लेकिन बुद्ध को उन्होंने क्या कहानी गढ़ी! इस देश में ब्राह्मण, पुरोहितों और पंडितों ने इस तरह की जालसाजी रची है, इस तरह की दकियानूसी और अंधविश्वास पैदा किया है कि जिसका कोई अंत नहीं। जिनको भगवान कहा जा सकता था उनको भगवान कहा नहीं, और जिनको भगवान कहा है उनमें भगवत्ता जैसे कोई लक्षण नहीं।
अब वे कहते हैं कि मेरे संन्यासियों की उन्होंने आलोचना की। और आलोचना करने का कारण क्या है?
‘क्योंकि भटके हुए विदेशी नागरिक संतों जैसे वस्त्र पहन कर...।’
कौन भटका हुआ है? जैनों के हिसाब से हिंदू भटके हुए हैं; हिंदुओं के हिसाब से जैन भटके हुए हैं; जैनों-हिंदुओं, दोनों के हिसाब से बौद्ध भटके हुए हैं; बौद्धों के हिसाब से जैन-हिंदू भटके हुए हैं। मुसलमानों के हिसाब से ईसाई भटके हुए हैं। ईसाइयों के हिसाब से मुसलमान भटके हुए हैं। ईसाइयों और मुसलमानों, दोनों के हिसाब से जैन, हिंदू, बौद्ध, सब भटके हुए हैं। कौन भटका हुआ है?
मेरे पास जो लोग हैं, इनको वे कह रहे हैं कि ये सीधे-सादे लोग मेरे कारण मार्गच्युत हो रहे हैं और भटक रहे हैं।
यह भ्रांति छोड़ दो, मेरे पास सीधे-सादे लोग इकट्ठे नहीं हुए हैं। मेरे पास अति विचारशील लोग इकट्ठे हुए हैं। भोंदू तो बचे ही नहीं, वे तो सब हरेकृष्ण आंदोलन में सम्मिलित हो गए।
इस देश में तीन बड़े महापुरुष--एक प्रभुपाद; एक मोरारजी देसाई; एक मुक्तानंद। इन तीन से तो कोई बाजी नहीं ले सकता। प्रभुपाद तो मर गए, मगर इससे कुछ नहीं होता। उल्लू मर गए, औलाद छोड़ गए! अब ये औलाद घूंघर कर रही है। स्वामी अक्षयानंद महाराज, उनकी औलाद। न इनके गुरु को कोई अक्ल थी--अक्ल जैसी चीज से कोई वास्ता ही न था--न इनको कोई अक्ल है।
मेरे पास जो लोग इकट्ठे हुए हैं, ये सुशिक्षित लोग हैं। इनमें सैकड़ों ग्रेजुएट हैं, पी.एच.डी. हैं, डी.लिट हैं, पश्चिम के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में शिक्षित हुए लोग हैं। इनमें प्रोफेसर्स हैं, मनोवैज्ञानिक हैं, डाक्टर हैं, इंजीनियर हैं, वैज्ञानिक हैं। ये कोई सीधे-सादे लोगों की जमात नहीं है। ये सब तरफ से सुशिक्षित-सुसंस्कृत लोग हैं। और अगर आज इन्होंने सीधा-सादा होना चाहा है तो ये जीवन के सारे तिरछेपन को जीकर सीधे हो रहे हैं, अनुभव से सीधे हो रहे हैं। इनकी सादगी मूढ़ता का प्रतीक नहीं है; इनकी सादगी इनकी साधुता का प्रतीक है।
और उन्होंने आलोचना में जो कहा वह यह कि ‘चूंकि यह सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम का निर्लज्ज प्रदर्शन करते हैं...।’
और ये कृष्ण को मानने वाले लोग कहें, तब तो जरा हद हो जाती है। कम से कम मेरे कोई संन्यासी नदी में स्नान करती हुई स्त्रियों के कपड़े लेकर झाड़ों पर नहीं बैठते। और कृष्ण क्या करते थे? यह वंशीवट में और बांसुरी बजाना और यह लीला और यह रासलीला और स्त्रियों का नाच! ये सब सार्वजनिक स्थल नहीं थे तो क्या थे वृंदावन में? ये नदी के घाट, यह वंशीवट! और कृष्ण को मानने वाला कोई व्यक्ति ऐसी बात करे तो फिर बेहूदगी की हद हो गई। फिर मेरे संन्यासी किसी और की स्त्रियों के साथ छेड़खान नहीं कर रहे हैं; अपनी प्रेयसी को अगर हाथ पकड़कर चल रहे हैं तो इसमें किसी को क्या एतराज? अगर अपने प्रिय को गले मिलते हैं तो इसमें किसी को क्या एतराज? जिनको एतराज है वे विकृत हैं, कुरूप हैं; उनके भीतर दमित वासनाएं हैं।
और ये बेचारे हरेकृष्ण आंदोलन में सम्मिलित लोग एकदम दमित वासनाओं से भरे हुए हैं, क्योंकि इनको भारत में जो मूर्खता सदियों तक चलती रही है वही इनको सिखाई गई है। इनको सिखाया जा रहा है दमन। और दमन के परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
कल मैंने एक खबर पढ़ी कि एक कैथलिक नन, साध्वी, चालीस साल साध्वी रहने के बाद, सड़सठ साल की उम्र में--और साधारण साध्वी नहीं थी, कैथलिक साध्वियों के आश्रम की प्रधान थी, मदर सुपीरियर थी, जैसे मदर टेरेसा--वह भाग गई और उसने विवाह कर लिया एक बूढ़े से। चालीस साल साध्वी रहने के बाद सड़सठ साल की उम्र में भागना और विवाह कर लेना एक बूढ़े से! जब मैं पढ़ रहा था तो मैं थोड़ा हैरान हुआ। कभी-कभी मुझे ऐसे खयाल आते हैं, अच्छे-अच्छे खयाल आते हैं। जैसे कभी-कभी मैं सोचता हूं कि अगर मदर टेरेसा मोरारजी देसाई का विवाह हुआ होता, तो संतान कैसी होती! खयाल की बात, कल्पना की बात, कविता की बात समझो। पृथ्वी वंचित रह गई। कहावत तो हमारे पास है--राम मिलाई जोड़ी, कोई अंधा कोई कोढ़ी। मदर टेरेसा और मोरारजी देसाई जैसी जोड़ी, और इनसे जो संतान पैदा होती, दर्शनीय होती, अद्वितीय होती!
सड़सठ साल की उम्र में कोई साध्वी भाग जाए और विवाह करे, यह किस बात का सबूत होगा? यह इस बात का सबूत होगा कि चालीस साल तक गरीब औरत ने दमन किया, भारी दमन किया और दमन का यह परिणाम है।
‘उन्होंने चिंता और आक्रोश प्रगट किया है।’
करो चिंता प्रगट, करो आक्रोश प्रगट। मुझे न तो चिंता होती इस तरह के लोगों पर, न आक्रोश होता, सिर्फ हंसी आती है। यह व्यक्ति हास्यास्पद है, और कुछ भी नहीं। मगर इस तरह के लोग प्रभावित करते रहते हैं, इस तरह के लोग व्यर्थ की बकवासों में लगे रहते हैं। और इस तरह के लोग लोगों को चलाते रहते हैं, मार्गदर्शन करते रहते हैं। बेईमान हैं, धोखेबाज हैं। न सोचा है, न समझा है, न विचारा है; ध्यान तो बहुत दूर। मगर दुकानदारियां हैं।
और हिंदू मन बहुत प्रताड़ित है। बड़ी आकांक्षा उसकी होती है कोई उसके अहंकार को थोड़ा सा भी मक्खन लगा दे। हमारे शास्त्र, हमारा धर्म, हमारे भगवान!
मैं तो वही कहूंगा जैसा है, चाहे कोई भी परिणाम हों। जो गलत है उसको गलत कहूंगा; जो सही है उसको सही कहूंगा। मैं तो दो और दो चार, उतना स्पष्ट हूं। फिर इसके जो भी परिणाम हों। सत्य के ऊपर सब कुछ दांव लगा देने की मेरी तैयारी है। और जो मेरे साथ हैं, उनको भी इतनी ही तैयारी रखनी होगी। मेरे साथ होना आग के साथ होना है। लेकिन इस आग में जल जाना सौभाग्य है, क्योंकि इसमें वही जल जाएगा जो व्यर्थ है, असार है और वही बच रहेगा जो खालिस सोना है।
आज इतना ही।