QUESTION & ANSWER
Peevat Ramras Lagi Khumari 01
First Discourse from the series of 10 discourses - Peevat Ramras Lagi Khumari by Osho. These discourses were given during JAN 11-20 1981.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपने संत-शिरोमणि कबीर साहब के पद ‘पीवत रामरस लगी खुमारी’ को नई प्रवचन माला का शीर्षक बनाया है। क्या सच ही ब्रह्मानुभव परम मद है? यह ब्रह्मानुभव क्या है? भगवान, ऐसा लगता है कि कबीर साहब आपको अतिशय प्रिय हैं। क्यों?
आनंद मैत्रेय, कबीर निश्चय ही मुझे अतिप्रिय हैं। कारण बहुत हैं। बुद्ध से मुझे बहुत लगाव है, लेकिन बुद्ध राजमहल के एक उपवन हैं। सुंदर फूल खिले हैं। बड़ी सजावट है बगिया में, बड़ी रौनक है। परिष्कार है। लेकिन जंगल की जो सहजता है, स्वाभाविकता है, उसका अभाव है। बुद्ध अगर उपवन हैं तो कबीर जंगल हैं। जंगल का अपना सौंदर्य है--अछूता, कुंवारा। न तो मालियों ने संवारा है, न शिक्षा है, न संस्कार हैं, न ज्ञान है। और फिर भी परम प्रकाश का अनुभव हुआ है। शिक्षित-परिष्कृत व्यक्ति को जब परम प्रकाश का अनुभव होता है तो स्वभावतः उसकी अभिव्यक्ति जटिल होगी, दुरूह होगी। चाहे या न चाहे वह, उसकी अभिव्यक्ति में सिद्धांत की छाया होगी। उसकी अभिव्यक्ति अनगढ़ नहीं हो सकती।
कबीर की अभिव्यक्ति अनगढ़ है। ऐसा हीरा, जो अभी-अभी खान से निकला; जौहरी के हाथ ही नहीं पड़ा। न छैनी लगी, न पहलू उभरे। वैसा ही है जैसा परमात्मा ने बनाया था। आदमी ने अभी अपने हस्ताक्षर नहीं किए। इसलिए दूर हिमालय के पहाड़ों पर, कुंवारे जंगलों में जो सन्नाटा है, जो संगीत है, जो गहन मौन है, जो प्रगाढ़ शांति है--वैसी ही कुछ कबीर में है।
कबीर के साथ ही भारत में बुद्धों की एक नई श्रृंखला शुरू होती है--नानक, रैदास, फरीद, मीरा, सहजो, दया। यह एक अलग ही श्रृंखला है। बुद्ध, महावीर, कृष्ण--यह एक अलग ही श्रृंखला है। बुद्ध, महावीर और कृष्ण राजमहलों के गीत हैं। कबीर, नानक, फरीद झोपड़ों में बजी वीणा हैं। राजमहल में गीत का पैदा हो जाना बहुत आसान; न हो तो आश्चर्य, हो तो कोई आश्चर्य नहीं। राजमहलों में जो रहा है, ऊब ही जाएगा। राजमहलों में जो जीया है, जगत से उसकी आसक्ति टूट ही जाएगी। लाख सम्हालना चाहे, बचाना चाहे, बहुत मुश्किल है बचाना।
निर्धन को धन में आशा होती है। लगता है मिल जाएगा धन तो सब मिल जाएगा, फिर पाने को कुछ और क्या! लेकिन जिसको सब मिला है उसकी आशा के लिए कोई आकाश नहीं बचता। उसके हाथ तो सिर्फ निराशा रह जाती है, हताशा रह जाती है।
बुद्ध के पास सब था; कबीर के पास कुछ भी नहीं। बुद्ध के पास क्या नहीं था? कबीर के पास क्या था? इसलिए बुद्ध अगर संसार की आपाधापी से छूट गए, यह दौड़ अगर व्यर्थ हो गई, तो नहीं कोई आश्चर्य है। राजमहलों में रहकर भी अगर कोई संन्यस्त न हो तो महामूढ़ होगा, मंदबुद्धि होगा। सिर्फ इसका सबूत देगा।
झोपड़ों में रहकर भी...कबीर तो जुलाहे थे। आज कमाया, आज खाया। कल कमाएंगे तो कल खाएंगे। इतना भी नहीं था पास कि कल के लिए भी निश्चिंत बैठ सकें। ऐसी गरीबी में भी जो देख सका संसार की व्यर्थता को, उसके पास महान प्रज्ञा होनी चाहिए। बुद्ध देख सके तो ठीक, महावीर देख सके तो ठीक; लेकिन कबीर देख सके तो बात अनहोनी है।
जैसा मैंने कहा कि महलों में सिर्फ बुद्धू ही उलझे रह सकते हैं, वैसे ही यह भी स्मरण रखना है कि झोपड़ों में केवल अति प्रज्ञावान ही बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हैं।
इसलिए कबीर से स्वभावतः मेरा लगाव गहरा हो जाता है। और चूंकि कबीर अनगढ़ हैं, उनकी वाणी में एक चोट है। बुद्ध की वाणी सुकुमार है, फूल जैसी कोमल है। कबीर की वाणी यूं पड़ती है जैसे किसी ने चट्टान सिर पर गिरा दी हो।
कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ!
लट्ठ लिए हाथ में खड़े हैं।
कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
घर बारे जो आपना चले हमारे साथ।।
हो हिम्मत घर को जला डालने की, राख कर देने की तो आओ, हो लो हमारे साथ। और लट्ठ लिए खड़े हैं, कहते हैं। यह लुकाठी, यह लट्ठ क्यों? कबीर तो यूं गिरते हैं जैसे खड्ग की धार गर्दन पर गिरती हो। बुद्ध भी काटते हैं, लेकिन काटने में एक कुशलता है, एक तरतीब है, एक कला है। सूक्ष्म मार है। और कबीर तो सीधे-सीधे उठाते हैं कुल्हाड़ी और दो टुकड़े कर देते हैं।
कबीर के वचनों में आग है; आग्नेय हैं उनके वचन। बुद्ध के वचनों में कोई शीतलता भी होगी। कोई सांत्वना भी खोज सकता है बुद्ध के वचनों में, क्योंकि शीतल हैं। कबीर के वचनों में सांत्वना खोजनी असंभव है; वहां तो जलती क्रांति है। वहां तो जो राख होने को तैयार हो उसी के लिए निमंत्रण है।
फिर, चूंकि बुद्ध की सारी दीक्षा, सारी शिक्षा तर्क की थी, एक राजकुमार की तरह उन्हें शिक्षित-दीक्षित किया गया था, इसलिए जब वे बोलते हैं तो उनकी अभिव्यक्ति में तर्क का आधार है, दार्शनिकता है, गणित है। लेकिन कबीर बेबूझ हैं, पहेली हैं, उलटबांसी हैं। तर्क का उन्हें कुछ पता ही नहीं। संगति का उन्हें कुछ हिसाब ही नहीं। चूंकि संगति बिठालने का उन्हें कुछ पता ही नहीं है, इसलिए सत्य उनमें जिस परिपूर्णता से प्रगट हुआ है वैसा बुद्ध में नहीं हो सकता। बुद्ध में तो सत्य कट-छंट कर आएगा, निखार लेकर आएगा; सत्य ऐसा आएगा जो तुम्हारी बुद्धि को रुचे-पचे। सत्य में बुद्ध के साथ राजी हो जाना बहुत कठिन नहीं।
बुद्ध की पूरी प्रक्रिया बुद्धिवादी है, रैशनल है। इसलिए बुद्ध ने उन सारे प्रश्नों को ही कभी उठाया नहीं, इनकार ही कर दिया। उन प्रश्नों को अव्याख्य कह दिया, जिन प्रश्नों में विरोधाभास अनिवार्य है--जिन्हें कहना हो तो कबीर की उलटबांसी ही कहनी पड़ेंगी। जैसे कबीर कहते हैं: एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आग! बुद्ध नहीं कह सकते। अचंभा उन्होंने भी देखा है, नदिया में लगी आग उनने भी देखी है, लेकिन बुद्ध कह नहीं सकते। यह उनकी शिक्षा-दीक्षा रोकेगी, कि ये कैसे कहूं, प्रमाण कहा से लाऊंगा, तर्क कहां से जुटाऊंगा? यह बात तो देखी। इसलिए बुद्ध कहते हैं: मैं विधि बताऊंगा कि तुम्हें भी ले चलूं उस नदी के किनारे, फिर तुम्हीं देख लेना। देख लोगे तो समझ लोगे। मगर मैं न कहूंगा कि नदिया में आग लगी; वह बात ही मत पूछो। चलने की राह पूछो, पहुंचने का मार्ग पूछो, विधि पूछो, विधान पूछो; मगर यह न पूछो कि वह अनुभव क्या है।
कबीर गांव के गंवार हैं; बेफिक्री से कह देते हैं कि नदी में आग लगी। नदी में कहीं आग लगती है? विवाद करने बैठोगे तो कबीर मुश्किल में पड़ेंगे। कैसे समझाएंगे कि नदी में आग लगी?
कबीर ऐसे बहुत से अचंभों की बातें करते हैं। मछली चढ़ गई रूख। वृक्ष पर मछली चढ़ गई। मछली के कोई पैर होते हैं कि वृक्ष पर चढ़ जाए? कभी सुना है, देखा कि वृक्ष पर मछली चढ़ जाए? लेकिन कबीर जब कह रहे हैं तो उनका प्रयोजन है। लेकिन प्रयोजन तर्कातीत है। मगर कबीर को फिक्र कहां कि बात तर्क में बैठती या नहीं, गणित के ढांचे में समाती या नहीं! कबीर को चिंता ही नहीं। कबीर को कोई ऐसी शिक्षा-दीक्षा नहीं मिली जिसमें ढांचे में बिठालना हो, चौखटों में तर्क के बिठालने का उनको कोई स्मरण ही नहीं है।
अभी-अभी पश्चिम के कुछ चित्रकारों ने अपनी कलाकृतियों में फ्रेम लगाना, चौखट लगाना बंद कर दिया है। पूछे जाने पर उन चित्रकारों ने कहा कि जगत में किसी चीज पर कोई फ्रेम तो होती नहीं। जैसे तुमने एक सूर्यास्त का चित्र बनाया, तो सूर्यास्त पर तो कोई फ्रेम होती नहीं कि यहां शुरू हुआ और यहां समाप्त हुआ। न कहीं शुरू होता है, न कहीं समाप्त होता है; फैलता ही चला जाता है दोनों तरफ अनंत में, अनंत दिशाओं में फैलता चला जाता है; सब आयामों में फैलता चला जाता है। लेकिन जब तुम चित्र बनाओगे तो तुम्हारे केनवास की तो सीमा होगी। फिर सीमा ही नहीं होगी, तुम चित्र को फ्रेम भी दोगे--सुनहला, सुंदर, बेशकीमती। और फ्रेम देते ही--इन चित्रकारों का कहना है--कि तुम्हारा सूर्यास्त झूठ हो गया। असली सूर्यास्त पर तो कोई फ्रेम न था, कोई चौखट न थी। तुमने यह चौखट कैसे जड़ दी?
तर्क भी एक चौखट है, सुंदर चौखट है। बड़ी सुनहली है। खूब नक्काशी है उसमें। बड़ा बारीक काम है, बड़ी कारीगरी है। लेकिन सत्य पर कोई चौखट नहीं होती।
बुद्ध ने और महावीर ने जो कहा है उस पर तर्क की चौखट है। मजबूरी थी उनकी। उनको ही मुश्किल था यह कहना। उनकी सारी शिक्षा-दीक्षा यूं थी कि ऐसी बेबूझ बात जो कबीर कह सकते हैं--बेशर्मी से, कोई लाज नहीं, कोई संकोच नहीं--वैसी बुद्ध, महावीर कैसे कहें? उनको खुद ही अड़चन मालूम होती है कि कोई अगर और कहता तो हम विरोध करते, तो हम कैसे कहें? देखा तो उन्होंने भी है सूर्यास्त, जिस पर कोई सीमा नहीं है। देखा तो उन्होंने भी असीम को है, अनंत को है, जिसमें सारी असंगतियां तिरोहित हो जाती हैं और सारे विरोध लीन हो जाते हैं। लेकिन जब कहा है तो बड़े तर्क से, संवारे ढंग से कहा है।
इसलिए स्वभावतः बुद्ध के पास विचारशील चिंतकों का समूह इकट्ठा हुआ, पंडित इकट्ठे हुए, ज्ञानी इकट्ठे हुए, दार्शनिक इकट्ठे हुए। जितने दार्शनिकों को बुद्ध ने प्रभावित किया, संभवतः किसी व्यक्ति ने कभी प्रभावित नहीं किया। दुनिया में दर्शनशास्त्र की जितनी शाखाएं-प्रशाखाएं पैदा हुईं, वे सभी शाखा-प्रशाखाएं, वे सभी अंग-उपांग अकेले बुद्ध की धारा में भी पैदा हुए। अगर बुद्ध के दर्शन की पूरी गंगा को कोई समझ ले तो इस दुनिया में कहीं भी किसी भी तरह का कोई दर्शन पैदा हुआ हो, वह उसकी समझ में आ जाएगा। एक तरफ सारी दुनिया का दर्शनशास्त्र और एक तरफ बुद्ध की अकेली गंगा, दोनों समतोल हो जाते हैं।
फायदा भी हुआ बुद्ध को यूं कि दार्शनिक इकट्ठे हुए। और दार्शनिक निखार देते चले गए। लेकिन बात जितनी निखरी उतनी हवाई हो गई, उतनी वास्तविक न रह गई, उतनी शाब्दिक हो गई। यह नुकसान भी हुआ। हर लाभ के साथ नुकसान जुड़े हैं। बुद्ध की बड़ी छाप पड़ी। सारा एशिया बुद्ध से प्रभावित हुआ।
कबीर के पास कौन इकट्ठा हुआ--न कोई दार्शनिक आए, न कोई चिंतक आए, न कोई विचारक आए; उनको तो बात जंची ही नहीं। उनको बात जंचती कैसे? कबीर के पास कोई तर्क तो थे नहीं। अब कबीर लाख कहें कि मैंने अपनी आंख से देखा है कि नदी में आग लगी है, मगर कौन मानेगा यह? लोग कहेंगे पागल हो। हां, लेकिन दीवाने इकट्ठे हुए। तो नुकसान एक हुआ कि दार्शनिक न आए, चिंतक न आए, विचारक न आए, पंडित न आए; लेकिन लंबे अरसे में यही नुकसान लाभ का सिद्ध हुआ। दीवाने आए, मस्ताने आए, परवाने आए, होश गंवाने आए। एक और ही तरह के लोगों की जमात बैठी।
तो कबीर के वचनों में एक अखंडता है, एक परिपूर्णता है। लेकिन जब भी किसी चीज में परिपूर्णता होगी तो उसे तर्क के पार जाना पड़ेगा; उसे तर्क की चौखट को पीछे छोड़ना ही छोड़ना पड़ेगा। इसलिए कबीर से मुझे प्रेम है।
और कबीर ने फिर एक नई धारा को जन्म दिया--उजड्ड संतों की धारा। इन उजड्ड संतों की भी अपनी खूबी है--वही खूबी जो जंगल के सन्नाटे में होती है, कि सागर में उठे तूफान में होती है, कि पहाड़ पर लग गई आग में होती है। वही क्वांरापन, वही अलमस्ती, वही खुमारी। कबीर को यूं समझो कि जैसे उमर खय्याम और बुद्ध दोनों का मिलन हो गया; जैसे उमर खय्याम और बुद्ध दोनों एक संगम बन गए।
तो कबीर ने अलमस्तों की, फकीरों की, फक्कड़ों की एक अलग श्रृंखला को जन्म दिया। उस श्रृंखला में भाषा भी अपने ढंग से बनी। उस भाषा को भी एक अलग ही नाम मिल गया--सधुक्कड़ी। सधुक्कड़ी भाषा में फिर कोई तर्क नहीं पूछता। तर्क पूछना हो तो दार्शनिकों के पास जाओ। कबीर के पास तो सत्य को पीना हो तो बैठो। कबीर को न तो किताबों का कुछ पता है। कहते हैं, मसि कागद छुओ नहीं। हाथ से ही नहीं छुआ कभी कागज और स्याही। उनके लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर। वेद-कितेब, इन दोनों का तो बहुत विरोध किया, कि दोनों को अलग करो, हटाओ। इन्हीं से बीच में बाधा बन रही है। तुम्हारे और सत्य के बीच में ये वेद और कितेब। किताब का अर्थ कुरान और बाइबिल। इनको हटा दो। शास्त्र हटा दो। और द्वार खुला है और देख लो अपनी आंख से कि नदी में आग लगी है। नदी में आग लगी है का मतलब यह होता है कि विरोधाभास मिल रहे हैं; जो नहीं होना चाहिए वह हो रहा है। ऐसा जगत यह रहस्यमय है। इसे रहस्य-शून्य न करो। इसे तर्क की चौखटों में बिठाकर मारो मत, सुखाओ मत; इसके प्राणों को नष्ट न करो।
इसलिए कबीर से आनंद मैत्रेय, निश्चित ही मुझे लगाव है। और उनके एक-एक वचन में हजार-हजार वेद और कितेब समा सकते हैं। अब यही छोटा सा वचन: पीवत रामरस लगी खुमारी! ठीक ऐसा ही नानक ने कहा है: नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन-रात। ये सब एक ही जमात के फक्कड़ हैं। ये सब रिंद हैं, पियक्कड़ हैं। नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन-रात। यह खुमारी ऐसी है कि चढ़ी तो चढ़ी, उतरती ही नहीं फिर।
कबीर के इस वचन को, एक-एक शब्द को समझने की कोशिश करना, क्योंकि कबीर बहुत शब्दों के मालिक नहीं हैं। थोड़े से शब्द हैं, इसलिए एक-एक शब्द में डुबकी लगानी जरूरी है।
पीवत रामरस लगी खुमारी! पहला शब्द तो पीना। सत्य को जानना नहीं है--पीना है, जीना है, कंठ से उतर जाने देना है। खोपड़ी में नहीं भरना है--प्राणों में, अंतरंग तक पहुंच जाने देना है। क्यों? क्योंकि सत्य कोई कुतूहल नहीं है, कोई जिज्ञासा नहीं है--प्यास है! और प्यास तो पीने से मिटेगी। और भूख तो भोजन से मिटेगी। लाख प्यासे आदमी के सामने बैठकर तुम जल की चर्चा करते रहो, सारा विज्ञान जल का समझा दो, यह भी बता दो कि आक्सीजन और उद्जन के परमाणुओं से मिलकर जल बनता है, एच टू ओ का फार्मूला भी पूरा का पूरा समझा दो, फिर भी क्या होगा? प्यासा कहेगा, बकवास बंद करो, मुझे प्यास लगी है। मुझे पानी दो। मुझे पानी के संबंध में नहीं जानना है। पानी के संबंध में जानकर क्या करूंगा? जानने से क्या होगा? जानने को पीऊं, खाऊं, ओढूं, क्या करूं? पानी दो, मुझे पीना है।
और ध्यान रहे कि पीने के लिए जानना जरूरी नहीं है। अगर पीने के लिए जानना जरूरी होता तो आदमी कभी का मर चुका होता, क्योंकि यह एच टू ओ का फार्मूला तो अभी-अभी इस सदी में जाना गया और आदमी तो करोड़ों साल से जी रहा है। और आदमी ही क्यों; अरे, जानवर भी पी रहे हैं, पशु भी पी रहे हैं, पक्षी भी पी रहे हैं; पशु-पक्षी ही क्यों, वृक्ष भी पी रहे हैं। बिना ही जाने! कुछ पता नहीं कि पानी का शास्त्र क्या है और पीए जा रहे हैं। देखते हो यह धांधली! कुछ होश है न हवास है। वृक्ष पी रहे हैं पानी। पी ही नहीं रहे हैं, मस्त हो रहे हैं पी-पीकर, नाच रहे हैं हवाओं में, सूरज की किरणों में। फूल खिल रहे हैं। कोई फिक्र ही किसी को पड़ी नहीं कि इस वृक्ष में फूल नहीं खिलने चाहिए, इसे पानी का रसायन भी आता नहीं। इसे अभी पानी का सूत्र भी मालूम नहीं और खिले जा रहे हो, और हंसे जा रहे हो, और सुगंध उड़ाए जा रहे हो! कुछ लाज-शर्म भी होती है! अज्ञानी होकर अज्ञानी जैसा व्यवहार करो। अज्ञानी होकर और ज्ञानी की मस्ती दिखला रहे हो!
अच्छा ही है कि प्यास का जानने से कोई संबंध नहीं, नहीं तो वृक्ष प्यासे कब के मर जाते, कब के फूल कुम्हला जाते। रातरानी में गंध न होती, जुही से सुवास न उड़ती, गुलाब न खिलते, कमल न खिलते। पशु-पक्षी मर जाते। आदमी ही न जी सकता था। जानना और अनुभव अलग-अलग बातें हैं। इसलिए पीने पर जोर है। पीवत रामरस लगी खुमारी! पीओ।
और इसीलिए कबीर, नानक, फरीद, रैदास, दादू, इनके पास एक और ही तरह का तीर्थ निर्मित हुआ। यूं तो जैनों के चौबीस तीर्थंकरों को हमने तीर्थ बनाते देखा, मगर उनके तीर्थ बड़े तर्कबद्ध हैं, बहुत तर्कबद्ध हैं। कबीर ने भी तीर्थ बनाया, मगर वह तर्कबद्ध तीर्थ नहीं है। वह तीर्थ और ही ढंग का है--सत्संग का है।
सदगुरु के पास बैठो, डोलो, गाओ, नाचो--कभी चुप्पी में, कभी उसकी वाणी में डूबो। कभी उसके मौन को पीओ, कभी उसकी मुखरता को पीओ। कभी उसके गीत को जीओ, कभी उसके शून्य को। बैठो सत्संग में--चुप, मौन, खाली--जैसे कोई प्याली, कि वह बरसे तो तुम्हारी प्याली में जगह हो। सदगुरु तो आषाढ़ के महीने का जल से भरा हुआ मेघ है। तुम खाली हो तो भर जाओगे। नाचो, जैसे मोर नाचते हैं आषाढ़ में घिर गए मेघों को देखकर। मेघ-मल्हार उठने दो। यह और ही बात है।
महावीर समझाते हैं तर्कपूर्ण ढंग से, विवाद करते हैं, खंडन-मंडन है। कबीर के पास ये सब बातें नहीं हैं। कबीर के पास तो पियक्कड़ों की जमात है। और पीने को क्या है? रामरस! ध्यान रखना, यहां राम से कोई प्रयोजन दशरथ के बेटे राम से नहीं है। उनका तो रस कैसे बनाओगे? उसमें तो आदमखोर हो जाओगे। उसमें तो बहुत झंझट होगी। अब दशरथ के बेटे रामचंद्र जी को घिस-घिसकर क्या कोई भांग बनाओगे, कि चाय बनाओगे, काफी बनाओगे, क्या करोगे? दशरथ के बेटे राम से कोई प्रयोजन नहीं है। यहां रामरस से तो अर्थ है, वह जो परम सत्य है। उसके लिए एक नाम--राम। कोई भी नाम दे दो, सब नाम उसके। राम कहो, रहीम कहो, रहमान कहो--सब नाम उसके। कोई भी नाम दे दो। क्योंकि वह तो अनाम है। सब नाम कामचलाऊ हैं।
और वह रस है। ठीक वही सूत्र उपनिषदों का, जो परमात्मा की व्याख्या करता है--रसो वै सः! वह रस है। रस का अर्थ ही होता है कि एक बूंद भी उतर जाए भीतर तो प्यास सदा को बुझ जाए। इस रस को भीतर उतारने की कला को ही हमने इस देश में रसायन कहा था। अब तो बड़ी गड़बड़ हो गई है। अब तो कैमिस्ट्री का अनुवाद रसायनशास्त्र हो गया। रसायन बड़ा प्यारा शब्द था; उसका बड़ा आध्यात्मिक मूल्य था। कैमिस्ट्री को रसायन न कहो तो अच्छा। अल्केमी का नाम था रसायन। रसायन का अर्थ था: सत्संग, जहां रस पकता है, जहां रस झरता है, जहां रस पीया जाता है। पीवत रामरस लगी खुमारी!
और खुमारी शब्द बड़ा गहरा है। खुमारी का अर्थ होता है--न तो बेहोशी, न होश; दोनों और दोनों नहीं। कुछ-कुछ होश, कुछ-कुछ बेहोशी; दोनों का मिलन जहां हो रहा है। वह संध्याकाल, जहां दिन मिलते हैं और रात मिलती है। न कह सकते हो दिन है, न कह सकते हो रात है। ऐसी ही एक भीतर अवस्था है। जब एक तरफ से देखो तो लगता है खुमारी है। डोलते देखोगे, मस्त होते देखोगे। दूसरी तरफ से देखोगे तो पाओगे सब थिर है, स्थितप्रज्ञ को पाओगे। एक तरफ मीरा का नाच है और एक तरफ बुद्ध का मौन है। ये दोनों जहां मिल गए हैं, उसका नाम खुमारी।
बुद्ध से पूछोगे खुमारी, तो बुद्ध कुछ उत्तर न दे सकेंगे, बुद्ध चुप रह जाएंगे। उनके तर्कशास्त्र में खुमारी न जमेगी। बुद्ध तो सिर्फ होश की बात करेंगे--जागृति, स्मृति। महावीर भी विवेक की बात करेंगे, बोध की बात करेंगे; जैसे कृष्णमूर्ति अवेयरनेस की बात करते हैं, खुमारी की बात नहीं कर सकते। कृष्णमूर्ति वही बुद्ध और महावीर की परंपरा के अंग हैं, उसी श्रृंखला के। लाख इनकार करें, इनकार करने से क्या होता है? असल में इतना इनकार करते हैं, उससे ही जाहिर होता है कि कहीं न कहीं उनको डर लगा ही हुआ है कि कहीं मैं भी उसी श्रृंखला में न गिन लिया जाऊं। वह भय ही बता रहा है। लेकिन बात इतनी साफ है।
बुद्ध जिसको सम्मासति कहते हैं, सम्यक स्मृति और महावीर जिसको विवेक कहते हैं और गुरजिएफ ने जिसको सेल्फ-रिमेम्बरिंग, आत्मस्मरण कहा है, कृष्णमूर्ति उसी को अवेयरनेस कहते हैं। इसमें कुछ भेद नहीं है, शब्दों का ही भेद है। मगर इनमें खुमारी कहीं भी नहीं आती। हां, खुमारी की बात मीरा करती है, सहजो करती है, उमर खय्याम करता है, अलहिल्लाज करता है, सरमद करता है। लेकिन वे सिर्फ खुमारी की बात करते हैं; उनके पास फिर होश का कोई सवाल नहीं। कबीर वही अदभुत समागम हैं जो खुमारी की बात करते हैं; बेहोशी की नहीं, होश की भी नहीं; दोनों के बीच का संध्याकाल, जहां होश और बेहोशी मिलते हैं--ऐसे मिलते हैं कि होश बेहोश हो जाता है, बेहोशी होश हो जाती है। उस घड़ी का नाम खुमारी है। खुमारी बड़ी अदभुत दशा है--डोल भी रहे मस्ती में और जागे भी; नाच भी रहे और जागे भी।
गीत को उठने दो और साज को छिड़ जाने दो।
चुप्पी को छूने दो लफ्जों के नर्म तारों को
और लफ्जों को चुप्पी की गजल गाने दो।
खोल दो खिड़कियां सब, और उठा दो पर्दे
नई हवा को जरा बंद घर में आने दो।
छत से है झांक रही, कब से चांदनी की परी
दीया बुझा दो, आंगन में उतर आने दो।
फिजां में छाने लगी है बहार की रंगत
जुही को खिलने दो, चंपा को महक जाने दो।
जरा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
जरा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो।
हंसते ओंठों को जरा चखने दो अश्कों की नमी
और नम आंखों को जरा फिर से मुस्कुराने दो।
दिल की बातें अभी झरने दो हरसिंगारों-सी
बिना बातों के कभी आंख को भर आने दो।
रात को कहने दो, कलियों से राज की बातें
गुलों के ओंठों से उन राजों को खुल जाने दो।
जरा जमीं को अब उठने दो अपने पांवों पर
जरा आकाश की बांहों को भी झुक जाने दो।
कभी मंदिर से भी उठने दो अजान की आवाज
कभी मस्जिद की घंटियों को भी बज जाने दो।
पिंजरे के तोतों को दोहराने दो झूठी बातें
अपनी मैना को तो पर खोल चहचहाने दो।
उनको करने दो मुर्दा रस्मों की बरबादी का गम
हमें नई जमीन, नया आसमां बनाने दो।
एक दिन उनको उठा लेंगे इन सर-आंखों पर
आज जरा खुद के तो पांवों को सम्हल जाने दो।
जरा सागर को बरसने दो बन कर बादल
और बादल की नदी सागर में खो जाने दो।
जरा चंदा की नर्म धूप में सेंकने दो बदन
जरा सूरज की चांदनी में भीग जाने दो।
उसको खोने दो, जो कि पास कभी था ही नहीं
जिसको खोया ही नहीं, उसको फिर से पाने दो।
अरे, हां-हां हुए हम, लोगों के लिए दीवाने
अब लोगों को भी कुछ होश में आ जाने दो।
ये है सच कि बहुत कड़वी है मय इस साकी की
रंग लाएगी, गर सांसों में उतर जाने दो।
छलकेंगे जाम जब छाएगी खुमारी घटा
जरा मयख्वारों के पैमानों को तो सम्हल जाने दो।
जरा साकी के तेवर तो बदल जाने दो।
न रहे मयखाना, न मयख्वार, न साकी, न शराब
नशे को ऐसी भी इक हद से गुजर जाने दो।
उसको गाने दो, अपना गीत मेरे ओंठों से
और मुझे उसके सन्नाटे को गुनगुनाने दो।
जरा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
जरा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो।
गीत को उठने दो और साज को छिड़ जाने दो।।
वह घड़ी, वह संध्याकाल--जहां मीरा होश में आ जाती है और जहां बुद्ध नाचने लगते हैं, उसका नाम है--खुमारी। पीवत रामरस लगी खुमारी!
आनंद मैत्रेय, और निश्चय ही यह अनुभव चाहो तो कहो निर्वाण, चाहो तो कहो ब्रह्मानुभव, मगर एक बात तय है कि यह परममद है।
परममद का अर्थ होता है जिसे पीया तो पीया; जो चढ़ा तो चढ़ा, जो फिर उतरने का नाम नहीं लेता। जो उतर-उतर जाए वह भी क्या पीने योग्य है! शराब ही पीनी हो तो ऐसी पीनी चाहिए कि फिर उतरे नहीं। बार-बार उतर जाए, फिर-फिर पीनी पड़े और उतर-उतर जाए...।
यही तो हमारे जीवन की शैली बन गई। कितनी बार जन्मे, कितनी बार वही काम किए, कितनी बार हारे, कितनी बार जीत की आकांक्षाएं लेकर चले, कितनी आशाएं और कितनी बार निराशाएं--फिर वही, फिर वही। एक चक्कर है। कोल्हू के बैल की तरह घूमते चले जाते हैं। रोज-रोज पीते हो, रोज-रोज उतर जाता है। रोज-रोज चढ़ाते हो रंग, रोज-रोज ढल जाता है। रोज-रोज बनाते हो, रोज-रोज मिट जाता है। ये ताश के पत्ते, और कब तक इनसे महल बनाने हैं? ये कागज की नावें और कब तक चलानी हैं? कुछ ऐसा पीओ कि फिर उतरे ही नहीं। वही परममद है।
नाम उसे तुम जो देना चाहो--ब्रह्मानुभव कहो, भागवत-अनुभव कहो, बुद्धत्व कहो--ये सब नामों के भेद हैं। नामों में बहुत उलझना मत। यह बुद्धि नामों में उलझ जाती है, अटक जाती है। तुम तो पीओ। तुम तो कंठ की सुनो। तुम तो प्राणों की भाषा समझो।
मेरे पास जो निर्मित हो रहा है, यह कोई मंदिर नहीं, मयखाना है, मयकदा है। और मेरे पास जो आ गए हैं, ये कोई साधारण तथाकथित धार्मिक लोग नहीं। ये रिंद हैं। ये पियक्कड़ हैं। ये परवाने हैं। और इसलिए बहुत मेरे साथ तुम्हारी भी निंदा होगी। मेरे साथ तुम पर भी बहुत गालियां बरसेंगी। यह पीने वालों का हमेशा का भाग्य रहा। इसे बदला नहीं जा सकता है। भीड़ ने सदा मस्तों के साथ यही दुर्व्यवहार किया है और भीड़ यही दुर्व्यवहार जारी रखेगी। मगर पीने का मजा ऐसा है कि कौन फिक्र करता है।
सरमद ने चिल्लाकर कहा था कि मैं परमात्मा हूं। मुल्लाओं ने, मौलवियों ने साजिश की, सरमद को झुकाने की कोशिश की। धमकी दी कि सिर काट देंगे। सरमद ने कहा, सिर काटो तो काटो, मेरा कुछ भी न काट पाओगे। और मैं तुमसे यह कहे देता हूं, मेरा कटा हुआ सिर भी यही चिल्लाएगा कि मैं परमात्मा हूं। कटने से भी कुछ फर्क न पड़ेगा। मैं फिर भी आवाज दिए जाऊंगा।
और यही हुआ। दिल्ली की जामा-मस्जिद में सरमद का सिर काटा गया। और जब सिर उसका सीढ़ियों पर गिरा मस्जिद की और सीढ़ियों से लुढ़का, तो हर सीढ़ी पर ठहरा और चिल्लाया कि मैं परमात्मा हूं! अनलहक! अहं ब्रह्मास्मि! यह शायद कहानी ही होगी, लेकिन कभी-कभी कहानियां सत्यों से भी ज्यादा सत्य होती हैं।
दीवाने मिट जाते हैं, फिर भी उनकी आवाज नहीं मिटती। दीवाने मिट जाते हैं, फिर भी उनकी दीवानगी नहीं मिटती। मस्तों को मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है।
यह जमात मस्तों की है। और यहां तुम इकट्ठे हुए हो तो इसीलिए, कि रामरस पी लो, कि खुमारी लग जाए। नाचो और भीतर थिरता भी बने। भीतर तो स्थितप्रज्ञ की अवस्था हो और बाहर परवाने का नृत्य। देखा है परवाने को नाचते शमा के चारों तरफ? तुम्हारे भीतर की चेतना तो शमा बन जाए--एक अखंड ज्योति, अकंपित। और तुम्हारा पूरा जीवन उसके चारों तरफ एक नृत्य बन जाए। इस नृत्य के और जागरण के मिलन का नाम खुमारी है। मेरे हिसाब में खुमारी में समस्त धर्म का सार आ जाता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, प्रायः सभी धर्मों में व्यक्ति के रूप में ईश्वर की धारणा क्यों बनी? ईसाई तो व्यक्तिगत ईश्वर की बात करते हैं। आप क्यों कहते हैं कि वह व्यक्ति नहीं उपस्थिति है?
निखिलानंद, उनने जिन्होंने जाना है, उन्होंने यही कहा है जो मैं कह रहा हूं। इससे अन्यथा जानने वाले कह ही नहीं सकते। लेकिन धर्म को जानने वाले और धर्मों को बनाने वाले लोग अलग-अलग होते हैं। बुद्ध जानते हैं, बनाते तो हैं पंडित। महावीर जानते हैं, बनाते तो हैं पंडित। जो जानता है वह कोई और; जो बनाता है वह कोई और। जो जानता है उसने बनाया नहीं; जो नहीं जानता है उसने बनाया है। और इसलिए सारी विकृति हो गई है।
फिर, जिसने नहीं जाना और बनाया है, उसके बनाने के अपने प्रयोजन हैं; उसने धर्म को भी शोषण का आधार बना लिया। और अगर धर्म के आधार पर शोषण करना हो तो ईश्वर की व्यक्तिगत धारणा जरूरी है, क्योंकि बिना ईश्वर को व्यक्ति की तरह माने किसकी पूजा, किसका पाठ; किसके यज्ञ, किसके हवन; किसके मंदिर, किसकी मूर्तियां; किसकी मस्जिदें, किसके गिरजे? पंडित का सारा काम ही समाप्त हो जाता है। मौलवी की कोई जरूरत नहीं रह जाती। पुरोहित विदा हो जाता है। ये सारे एजेंट और दलाल, इनका कोई स्थान नहीं बचता। ईश्वर व्यक्ति हो तो इन सबकी जरूरत रह जाती है।
अगर ईश्वर व्यक्ति है और केवल संस्कृत भाषा ही बोलता है--क्योंकि वही दिव्यवाणी है, बाकी तो सब मनुष्य की भाषाएं हैं! तुम सोच भी सकते हो कि ब्राह्मण मान ले कि ईश्वर और हिब्रू बोलता है! संस्कृत बोलता है--संस्कृत भी वैदिक संस्कृत! और निश्चित ही वैदिक संस्कृत को जानने वाला ही कोई मध्यस्थ हो सकता है। किसी न किसी को बीच में भाषांतर का काम करना पड़ेगा न! और इसलिए स्वभावतः ब्राह्मणों ने कहा कि शूद्र को तो हक ही नहीं है कि वह वेदों को पढ़े। तो समाज का करीब-करीब आधा हिस्सा, पचास प्रतिशत लोग तो उन्होंने वंचित कर दिए। वैश्यों को भी क्या समझ हो सकती है वेदों की! तुम धंधा करो, दुकान करो। तुम दुनियादारी की बात करो। उस परलोक का तुम्हें क्या पता हो सकता है! तो और एक चौथाई हिस्सा समाप्त हो गया। फिर क्षत्रियों को कहा कि तुम्हारा काम है युद्ध, वही तुम्हारा धर्म। अपना-अपना धर्म पालन करो। बचा ब्राह्मण; उसका ठेका हो गया। वही मध्यस्थ का काम करेगा। वही पूजा करेगा, प्रार्थना करेगा, पौरोहित्य करेगा।
और स्वभावतः व्यक्तिगत ईश्वर हो तो ही यह सारा काम चल सकता है। अगर भगवान नहीं है, भगवत्ता है तो बात बदल जाएगी। फिर वहां कोई है ही नहीं, भाषा का सवाल नहीं। और यहूदी कहते हैं, वह हिब्रू ही जानता है। और मुसलमान कहते हैं, वह अरबी ही जानता है। और हर भाषा के, और हर धर्मों के ठेकेदार हैं। और उन ठेकेदारों ने यह सारा आयोजन किया है, निखिलानंद। ईश्वर को जानने वालों ने नहीं, ईश्वर के नाम का शोषण करने वालों ने। और जितना शोषण धर्म के नाम पर हुआ है उतना किसी और चीज के नाम पर नहीं हुआ। धर्म के नाम पर बड़ी तरकीबों से शोषण किया जा सकता है। धार्मिक व्यक्ति बड़े कुशल हो जाते हैं शोषण करने में।
दादा चूहड़मल फूहड़मल दूध की दुकान में गए। बोले, भाई, कैसे लिटर दूध?
दुकानदार बोला, दादा, तीन रुपया फीका, चार रुपया मीठा।
दादा बोले, क्या? चार रुपया मीठा!
दुकानदार बोला, दादा, शक्कर देख रहे हो, सोलह रुपए किलो!
दादा बोले, अच्छा भाई, एक पाव मीठा दूध दे दो।
दुकानदार ने दूध दिया। दादा पीने के बाद बोले, इसमें तो शक्कर थी ही नहीं। अब पी गए, तो अब तो कोई प्रमाण बचा नहीं। धार्मिक आदमी का अपना गणित है। अब मुझे शक्कर दो। शक्कर ऊपर से खा लूंगा।
दुकानदार चौंका। लेकिन अब करे भी क्या! और भीड़ इकट्ठी हो गई और लोगों ने कहा कि साईं झूठ थोड़े ही बोलेंगे। अरे, बड़े धार्मिक गुरु हैं! क्या थोड़ी-सी शक्कर के पीछे झूठ बोलेंगे? दे शक्कर।
भीड़-भाड़ और बाजार का मामला, अपनी बेइज्जती न करवाने के लिए बेचारे ने शक्कर दी। दादा ने शक्कर खाई और शक्कर खाकर लुढ़कने लगे। कुलाटी खाने लगे। तरह-तरह के आसनादि करने लगे। भीड़ और इकट्ठी हो गई। खासा सर्कस दादा ने खड़ा कर दिया। धार्मिक आदमी जो न करे थोड़ा! दुकानदार बहुत घबड़ाया। बोला कि साईं, अब क्या हुआ। अब क्या चाहिए, बाबा बोलो!
दादा कुछ बोलें ही नहीं। वे तो कुलाटे पर कुलाटे खाते जा रहे। दुकानदार ने सोचा कि शायद मेरे दूध में कुछ गड़बड़ी है। उसने सारा दूध फिंकवा दिया। और भी जो दुकानदार उसका दूध बेचते थे, उन्होंने भी सारा दूध फेंक दिया। जब सब दूध फेंक चुके तो दादा उठकर बोले, मेरे पैसे वापस कर। किसी की जान लेगा? अभी पुलिस में जाकर रिपोर्ट करता हूं।
सो उसने घबड़ाहट में उनके पैसे भी दे दिए और फिर बोला कि साईं, अब यह तो बताओ कि आपको आखिर हो क्या गया था? क्योंकि जिंदगी मुझे दूध बेचते हो गई, मेरे बाप-दादे दूध बेचते थे, उनके बाप-दादे भी दूध बेचते थे, लेकिन दूध ने कभी ऐसा कार्य करके नहीं दिखाया। हुआ क्या?
शीर्षासन और तरह-तरह के आसन इत्यादि जितने भी योगासन जानते थे दादा ने सब करके दिखा दिए। कुछ और अपने भी जोड़ दिए। उसने कहा कि दूध में कोई खराबी रही होगी, मानता हूं। शक्कर में कोई खराबी रही होगी, मानता हूं। मगर ऐसी खराबी न सुनी कभी, न कभी देखी। अरे, आदमी बीमार हो जाए, वमन हो जाए। मगर ये इस तरह की कुलाटियां और यह सर्कस! सच कहना साईं आपको क्या हो गया था?
दादा हंसते हुए बोले, हुआ क्या था, अरे, मैं तो दूध में शक्कर मिला रहा था।
दादाओं ने धर्म खड़े किए हैं--बड़े गुरुघंटालों ने।
दादा चूहड़मल फूहड़मल अपने भक्तों के साथ एक बूढ़ी अमीर महिला को लूटने के लिए एक ट्राली एक ट्रेक्टर के पीछे बांधकर ले गए। उस महिला का सब मूल्यवान सामान ट्राली में डाला, तो महिला ने शोर मचाना शुरू किया। दादा ने उस महिला को भी उठाकर ट्राली में बिठा दिया। महिला चिल्लाने लगी कि मैं तो लुट गई, कि मैं तो मर गई! तब दादा और उसके भक्त हारमोनियम-तबले वगैरह के साथ कहने लगे कि बुढ़िया सच कहती है, कि बुढ़िया सच कहती है! रास्ते भर वह रोती रही, चिल्लाती रही कि मैं तो लुट गई, कि मैं तो मर गई! और दादा और उसके भक्त ताल में गाते रहे कि बुढ़िया सच कहती है! रास्ते में खड़े हुए लोग हंसते, पुलिस वाले हंसते। और कहते कि भई बुढ़िया सच कहती है। अरे, दुनिया में सभी लुट रहे हैं! बुढ़िया और जोर-जोर से चिल्लाती कि बचाओ, मैं लुट गई! मगर दादा का भजन और भक्तों की धुन। सभी लोग कहते कि वाह, क्या कीर्तन-मंडली है!
इसको कहते हैं धार्मिक डाका। धर्म के नाम पर धार्मिक डाके पड़ते रहे हैं।
निखिलानंद, सभी धर्मों में व्यक्ति के रूप में ईश्वर की धारणा इसलिए बनी कि पंडित-पुरोहित, मौलवी-मुल्ला, पादरी-पोप, वह ईश्वर की व्यक्तिगत धारणा के बिना जी नहीं सकता। लेकिन जिन्होंने जाना है, उन्होंने परमात्मा को व्यक्ति नहीं कहा है, अनुभूति कहा है; सत्य कहा है; चैतन्य का परम शिखर कहा है; भगवत्ता की प्रतीति कहा है। लेकिन भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, जिसने दुनिया बनाई हो, जो दुनिया को चला रहा हो, जो यह सब गोरखधंधा कर रहा हो। यह तुम्हारी ही चेतना का समाधिस्थ रूप है। तुम्हारी ही चेतना जब मन से मुक्त हो जाती है, विचार से शून्य हो जाती है, जब तुम्हारे भीतर ही सारे अंधड़-तूफान आने बंद हो जाते हैं, जब तुम्हारे चित्त की झील बिलकुल ही तरंग-रहित हो जाती है, जब तुम एक दर्पण बन जाते हो, तब तुम्हारे भीतर जो अनुभव होता है वही अनुभव परमात्मा है, भगवान है। लेकिन अच्छा हो कि हम भगवत्ता शब्द का उपयोग करें।
इसलिए मैं कहता हूं कि ईश्वर व्यक्ति नहीं, उपस्थिति है। जब तुम खुमारी में डूब जाओगे तो जानोगे।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, मा विपस्सना व स्वामी चिन्मय ने मृत्यु के पूर्व छठवें चक्र तक यात्रा कर ली। तथा स्वामी देवतीर्थ भारती और अभी कल ही स्वामी आनंद विमलकीर्ति अपनी मृत्यु से पहले परमबोधि को उपलब्ध हुए। भगवान, क्या मृत्यु में बुद्धत्व की घटना जीवन में जागरण से आसान है? समझाने की अनुकंपा करें। अब तो कबीरदास की यह साखी ही हम सब संन्यासियों की अभीप्सा है-- जिस मरने से जग डरै मेरो मन आनंद। कब मरिहौं कब भेटिहौं पूरन परमानंद।।
शैलेंद्र, जीवन में जागना तभी संभव है जब जीवित अवस्था में ही तुम्हें मृत्यु का बोध स्पष्ट हो जाए। जागरण तो हमेशा मृत्यु के कारण ही होता है, जीवन में हो या मृत्यु में हो। जब तुम्हें दिखाई पड़ने लगता है कि यह जीवन हमारा चारों तरफ मृत्यु से घिरा है, अब गया तब गया। देर-अबेर की बात है, मौत आई ही है। हम पंक्तिबद्ध खड़े हैं। एक-एक व्यक्ति खिसकता जा रहा है, पंक्ति छोटी होती जा रही है, क्यू छोटा होता जा रहा है। हम मौत के दरवाजे के करीब पहुंचते जा रहे हैं।
हर जन्मदिन पर तुम्हें जन्मदिन नहीं मृत्युदिन मनाना चाहिए, क्योंकि एक साल और जिंदगी से कम हो गया। जन्मने के बाद बच्चा एकदम मरना शुरू हो जाता है, तत्क्षण, क्योंकि एक-एक पल जीवन छंटने लगा और बूंद, बूंद चुकते-चुकते पूरी गागर खाली हो जाती है। गागर क्या, सागर भी खाली हो जाता है।
जिनको इतना बोध है, जिनके भीतर इतनी तीक्ष्ण प्रतिभा है कि वे जीवन में ही मृत्यु को छुपा देख लेते हैं, वे तो जीवन में ही जागते हैं। और अगर इसमें थोड़ी देर-अबेर लग गई तो मृत्यु के क्षण में एक परम अवसर मिलता है। मगर वह भी तभी मिल सकता है जब जीवन में थोड़ा-बहुत ध्यान का प्रयोग किया हो। अगर बिलकुल प्रयोग न किया हो तो वह नहीं मिलेगा।
मृत्यु दो तरह से घटती है--ध्यानी की और गैर-ध्यानी की। गैर-ध्यानी तो मृत्यु के पहले ही बेहोश हो जाता है। इसलिए बेहोशी में ही मरता है। लेकिन ध्यानी, जिसने थोड़ा भी ध्यान साधा हो, मृत्यु में भी ध्यान की उतनी बारीक किरण को बचा पाता है। और उसी बारीक किरण के कारण उसे फासला साफ हो जाता है कि शरीर मर रहा है, मन मर रहा है; मैं नहीं मर रहा हूं। और जैसे ही यह अनुभव हुआ कि मैं नहीं मर रहा हूं, कि निर्वाण उपलब्ध हो गया, कि शाश्वतता मिल गई, कि अमृत का अनुभव हो गया।
रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना है।
यह संसार कांट की बाड़ी, उलझ पुलझ मरि जाना है।।
यह संसार झाड़ और झांखर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु नाम ठिकाना है।।
लेकिन यह अनुभव जीते-जी जरा मुश्किल। बचपन में होश कहां! बचपन में तो खिलौने उलझा लेते हैं। फिर जवानी आई तो खिलौने बदल जाते हैं, मगर खेल जारी रहता है। छोटे बच्चे गुड़ियों से खेलते हैं, गुड्डा-गुड़ियों के विवाह रचाते हैं। जवान अपने विवाह रचाने लगते हैं। वही गुड्डा-गुड़ियों का खेल है, जरा पैमाना बड़ा हुआ।
आंख बेवजह भी हो जाती है नम, क्या कीजै
मुफ्त बदनाम हुए उनके सितम, क्या कीजै
यूं तो सर्मा-ए-जां है मुझे यारों का खुलूस
दिल दुखा जाती है हर सअई-ए-करम, क्या कीजै
रक्स में कौस बनाती हुई बाहों की तरह
मंजिलों से भी हसीन राह के खम, क्या कीजै
छू गई प्यार से हर दर्द की साअत दिल को
और दुनिया से तकाजाए-करम, क्या कीजै
चंद लम्हों को सही, आ तो गया दिल में मलाल
खुल गया दावा-ए-तम्कीं का भरम, क्या कीजै
कौन पा सकता हम आवारा-मिजाजों का सुराग
दास्तां लिखते गए नक्शे-कदम, क्या कीजै
हसरते-दीद की तस्कीन का सामान कहां
पत्थरों में अभी सोते हैं सनम, क्या कीजै
इत्तिफाकाते-जमाना हैं, खिजां हो कि बहार
जो गुजरना है गुजर जाएगी, गम क्या कीजै
दफअतन जल उठे ‘ताबां’ कई यादों के चिराग
आज फिर जीत गई शामे-अलम, क्या कीजै
आंख बेवजह भी हो जाती है नम, क्या कीजै
मुफ्त बदनाम हुए उनके सितम, क्या कीजै
जिंदगी सब दृश्य दिखाती है, चुनाव हम पर है। कांटे भी और फूल भी और दिन भी और रातें भी। सुख भी और दुख भी। जिंदगी सब लाती है। लेकिन चुनाव हम पर निर्भर है। देखने की क्षमता हम पर निर्भर है। पहचानना हमें है। यूं तो हीरे भी पत्थर हैं, जो पहचान ले। और नहीं तो पत्थर भी हीरे मालूम हो सकते हैं; जो न पहचाने। पारखी की नजर चाहिए।
रक्स में कौस बनाती हुई बाहों की तरह
मंजिलों से भी हसीन राह के खम, क्या कीजै
मंजिलों की तो बात छोड़ो, रास्ते के मोड़ ही इतने प्यारे लगते हैं कि उन्हीं में उलझ जाते हैं।
रक्स में कौस बनाती हुई बाहों की तरह
जैसे नाच में बाहों ने इंद्रधनुष बनाए हों।
मंजिलों से भी हसीन राह के खम, क्या कीजै
राह की उलझनें ही, राह के मोड़ ही ऐसे प्यारे लगते हैं, ऐसे घुमावदार, हम वहीं भटक जाते हैं। समझा-बुझा लेते हैं अपने को।
इत्तिफाकाते-जमाना हैं, खिजां हो कि बहार
सब संयोग की बात है--समझा लेते हैं अपने को। नदी-नाव संयोग।
इत्तिफाकाते-जमाना हैं, खिजां हो कि बहार
फिर बहार आए कि पतझड़ सब संयोग है।
जो गुजरना है गुजर जाएगी, गम क्या कीजै
समझाते रहते हैं कि जो गुजरना है गुजर जाएगी। जो गुजरना है वह तो जरूर गुजर जाएगी, मगर तुम तो जाग जाओ, तुम तो न गुजरो, तुम तो उसके साथ न बह जाओ।
जिंदगी में वही अवसर तुम्हें हैं, जो कबीर को, जो नानक को, जो बुद्ध को, जो महावीर को, वही अवसर सभी को हैं। मगर हर व्यक्ति अपने-अपने होश के हिसाब से चुन लेता है। बच्चों से तो आशा नहीं की जा सकती। जवान बहुत महत्वाकांक्षाओं से भरे होते हैं। लेकिन हैरानी तो यह होती है कि बूढ़े भी वही गोरखधंधा, वही बेवकूफियां, वही जमानेभर के उलटे-सीधे काम। मरते-मरते दम तक लोग जरा भी साधते नहीं स्वयं को। तो फिर मौत आती है, बेहोशी लाती है।
लेकिन शैलेंद्र, अगर ध्यान की गति बनती रहे तो मौत परम अवसर है, महाअवसर है, क्योंकि मौत आखिरी मौका है। जिंदगीभर अगर ध्यान की थोड़ी सी भी धारा भीतर सघन होती रहे तो मौत में जाकर प्रगाढ़ हो उठती है, प्रज्वलित हो उठती है। वह जो टिमटिमाते दीए की तरह जलती थी; मौत में भभक उठती है, जंगल की आग हो जाती है। और मृत्यु के क्षण में अगर होश बना रहे तो मुक्ति सुनिश्चित है, निर्वाण सुनिश्चित है।
जीवन से भी ज्यादा बड़ा अवसर मृत्यु है। मगर मृत्यु तभी अवसर है, जब तुमने जीवन का थोड़ा सा, कम से कम थोड़ा सा, एक अंश भी ध्यान के लिए समर्पित किया हो। तो फिर मृत्यु भी मृत्यु नहीं है; सिर्फ अमृत का द्वार है।
अपने को थोड़ा-थोड़ा उलझावों से बाहर करो। तर्क न खोजो। उलझाव के लिए बहुत तर्क हैं।
यकीं को वहम, हकीकत को ख्वाब कैसे कहूं
जश्ने-शौक को मौजे-सराब कैसे कहूं
हजार कुर्बतें जिसमें हों, ऐसी दूरी को
गुरेज कैसे कहूं, इज्तिनाब कैसे कहूं
खिले हुए हों जहां सौ चमन जराहत के
वो मेरा दिल ही सही, मैं खराब कैसे कहूं
हजार निस्बतें पिन्हां सही, मगर फिर भी
तेरी जफा को तिरा इज्तिराब कैसे कहूं
मिरा बुजूद मुजस्सम सवाल है लेकिन
जमाना देगा मुझे क्या जबाव, कैसे कहूं
मता-ए-शौक से खाली है मदरिसा ‘ताबां’
जुनूं के दर्स को दर्से-किताब कैसे कहूं
समझाए चले जाते हैं।
यकीं को वहम, हकीकत को ख्वाब कैसे कहूं
इस यथार्थ को सपना कैसे कहें? मगर यह सपना है, क्योंकि एक दिन नहीं था और एक दिन फिर नहीं हो जाएगा। सपने का और क्या अर्थ होता है? कहो या न कहो। सपने का अर्थ होता है--जो अभी है, अभी नहीं है; अभी नहीं था, फिर नहीं हो जाएगा। लेकिन समझाना चाहो अपने को तो समझा सकते हो।
यकीं को वहम, हकीकत को ख्वाब कैसे कहूं
जश्ने-शौक को मौजे-सराब कैसे कहूं
यह आकांक्षाओं के संसार को मृग-मरीचिका कैसे कहूं? यह इतना प्यारा संसार, ये इतने प्यारे सपने, ये इतनी प्यारी आकांक्षाएं, ये इतने मीठे-मीठे खयाल!
जश्ने-शौक को मौजे-सराब कैसे कहूं
यकीं को वहम, हकीकत को ख्वाब कैसे कहूं
हजार कुर्बतें जिसमें हों, ऐसी दूरी को
गुरेज कैसे कहूं, इज्तिनाब कैसे कहूं
कैसे कहूं विरक्ति, कैसे कहूं पलायन?
खिले हुए हों जहां सौ चमन जराहत के
वो मेरा दिल ही सही, मैं खराब कैसे कहूं
हजार निस्बतें पिन्हां सही, मगर फिर भी
तेरी जफा को तिरा इज्तिराब कैसे कहूं
मिरा बुजूद मुजस्सम सवाल है लेकिन
मेरा अस्तित्व एक साकार प्रश्न है।
मिरा बुजूद मुजस्सम सवाल है लेकि
नजमाना देगा मुझे क्या जबाव, कैसे कहूं
मता-ए-शौक से खाली है मदरिसा ‘ताबां’
प्रेमरूपी पूंजी से यह पाठशाला तो खाली है।
मता-ए-शौक से खाली है मदरिसा ‘ताबां’
जुनूं के दर्स को...
उन्माद को, पागलपन को...
जुनूं के दर्स को दर्से-किताब कैसे कहूं
पुस्तक का पाठ कैसे कहूं?
बस यूं अपने को समझाता रहता है आदमी। जो अपने को यूं समझाता रहता है, उसको तो कबीर पागल मालूम पड़ेंगे; उसे बुद्ध तो बुद्धू मालूम पड़े। उसे तो यह दीवाने भटक गए हुए लोग मालूम पड़े। उसे तो जहां धन कमाया जा रहा है, पद कमाया जा रहा है, जहां प्रतिष्ठा कमाई जा रही, वहां ही सारा प्राण अटका हुआ मालूम पड़ता है।
जिंदगी में वहम बहुत हैं। जिंदगी में मृग-मरीचिकाएं बहुत हैं उलझाए रखने को। मौत में तो सब बंद हो जाता है, पूर्णविराम आ जाता है। अब आशाओं को कहां ले जाओ, आकांक्षाओं को कहां दौड़ाओ? अब कैसी दुकान, अब कैसा धन, कैसा पद? अगर जरा सा ध्यान सधा रहा हो तो मृत्यु के क्षण में उसी ध्यान का बांध बंध जाता है, क्योंकि आगे जाने को कोई उपाय न रहा। आगे तो द्वार बंद हो गया। बांध बंध गया। और बांध तो, छोटा सा भी झरना अगर ध्यान का बांध पर आ जाए, तो बड़ी झील बन जाती है। वही झील मुक्ति का कारण हो सकती है, महापरिनिर्वाण बन सकती है।
आज इतना ही।
भगवान, आपने संत-शिरोमणि कबीर साहब के पद ‘पीवत रामरस लगी खुमारी’ को नई प्रवचन माला का शीर्षक बनाया है। क्या सच ही ब्रह्मानुभव परम मद है? यह ब्रह्मानुभव क्या है? भगवान, ऐसा लगता है कि कबीर साहब आपको अतिशय प्रिय हैं। क्यों?
आनंद मैत्रेय, कबीर निश्चय ही मुझे अतिप्रिय हैं। कारण बहुत हैं। बुद्ध से मुझे बहुत लगाव है, लेकिन बुद्ध राजमहल के एक उपवन हैं। सुंदर फूल खिले हैं। बड़ी सजावट है बगिया में, बड़ी रौनक है। परिष्कार है। लेकिन जंगल की जो सहजता है, स्वाभाविकता है, उसका अभाव है। बुद्ध अगर उपवन हैं तो कबीर जंगल हैं। जंगल का अपना सौंदर्य है--अछूता, कुंवारा। न तो मालियों ने संवारा है, न शिक्षा है, न संस्कार हैं, न ज्ञान है। और फिर भी परम प्रकाश का अनुभव हुआ है। शिक्षित-परिष्कृत व्यक्ति को जब परम प्रकाश का अनुभव होता है तो स्वभावतः उसकी अभिव्यक्ति जटिल होगी, दुरूह होगी। चाहे या न चाहे वह, उसकी अभिव्यक्ति में सिद्धांत की छाया होगी। उसकी अभिव्यक्ति अनगढ़ नहीं हो सकती।
कबीर की अभिव्यक्ति अनगढ़ है। ऐसा हीरा, जो अभी-अभी खान से निकला; जौहरी के हाथ ही नहीं पड़ा। न छैनी लगी, न पहलू उभरे। वैसा ही है जैसा परमात्मा ने बनाया था। आदमी ने अभी अपने हस्ताक्षर नहीं किए। इसलिए दूर हिमालय के पहाड़ों पर, कुंवारे जंगलों में जो सन्नाटा है, जो संगीत है, जो गहन मौन है, जो प्रगाढ़ शांति है--वैसी ही कुछ कबीर में है।
कबीर के साथ ही भारत में बुद्धों की एक नई श्रृंखला शुरू होती है--नानक, रैदास, फरीद, मीरा, सहजो, दया। यह एक अलग ही श्रृंखला है। बुद्ध, महावीर, कृष्ण--यह एक अलग ही श्रृंखला है। बुद्ध, महावीर और कृष्ण राजमहलों के गीत हैं। कबीर, नानक, फरीद झोपड़ों में बजी वीणा हैं। राजमहल में गीत का पैदा हो जाना बहुत आसान; न हो तो आश्चर्य, हो तो कोई आश्चर्य नहीं। राजमहलों में जो रहा है, ऊब ही जाएगा। राजमहलों में जो जीया है, जगत से उसकी आसक्ति टूट ही जाएगी। लाख सम्हालना चाहे, बचाना चाहे, बहुत मुश्किल है बचाना।
निर्धन को धन में आशा होती है। लगता है मिल जाएगा धन तो सब मिल जाएगा, फिर पाने को कुछ और क्या! लेकिन जिसको सब मिला है उसकी आशा के लिए कोई आकाश नहीं बचता। उसके हाथ तो सिर्फ निराशा रह जाती है, हताशा रह जाती है।
बुद्ध के पास सब था; कबीर के पास कुछ भी नहीं। बुद्ध के पास क्या नहीं था? कबीर के पास क्या था? इसलिए बुद्ध अगर संसार की आपाधापी से छूट गए, यह दौड़ अगर व्यर्थ हो गई, तो नहीं कोई आश्चर्य है। राजमहलों में रहकर भी अगर कोई संन्यस्त न हो तो महामूढ़ होगा, मंदबुद्धि होगा। सिर्फ इसका सबूत देगा।
झोपड़ों में रहकर भी...कबीर तो जुलाहे थे। आज कमाया, आज खाया। कल कमाएंगे तो कल खाएंगे। इतना भी नहीं था पास कि कल के लिए भी निश्चिंत बैठ सकें। ऐसी गरीबी में भी जो देख सका संसार की व्यर्थता को, उसके पास महान प्रज्ञा होनी चाहिए। बुद्ध देख सके तो ठीक, महावीर देख सके तो ठीक; लेकिन कबीर देख सके तो बात अनहोनी है।
जैसा मैंने कहा कि महलों में सिर्फ बुद्धू ही उलझे रह सकते हैं, वैसे ही यह भी स्मरण रखना है कि झोपड़ों में केवल अति प्रज्ञावान ही बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हैं।
इसलिए कबीर से स्वभावतः मेरा लगाव गहरा हो जाता है। और चूंकि कबीर अनगढ़ हैं, उनकी वाणी में एक चोट है। बुद्ध की वाणी सुकुमार है, फूल जैसी कोमल है। कबीर की वाणी यूं पड़ती है जैसे किसी ने चट्टान सिर पर गिरा दी हो।
कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ!
लट्ठ लिए हाथ में खड़े हैं।
कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
घर बारे जो आपना चले हमारे साथ।।
हो हिम्मत घर को जला डालने की, राख कर देने की तो आओ, हो लो हमारे साथ। और लट्ठ लिए खड़े हैं, कहते हैं। यह लुकाठी, यह लट्ठ क्यों? कबीर तो यूं गिरते हैं जैसे खड्ग की धार गर्दन पर गिरती हो। बुद्ध भी काटते हैं, लेकिन काटने में एक कुशलता है, एक तरतीब है, एक कला है। सूक्ष्म मार है। और कबीर तो सीधे-सीधे उठाते हैं कुल्हाड़ी और दो टुकड़े कर देते हैं।
कबीर के वचनों में आग है; आग्नेय हैं उनके वचन। बुद्ध के वचनों में कोई शीतलता भी होगी। कोई सांत्वना भी खोज सकता है बुद्ध के वचनों में, क्योंकि शीतल हैं। कबीर के वचनों में सांत्वना खोजनी असंभव है; वहां तो जलती क्रांति है। वहां तो जो राख होने को तैयार हो उसी के लिए निमंत्रण है।
फिर, चूंकि बुद्ध की सारी दीक्षा, सारी शिक्षा तर्क की थी, एक राजकुमार की तरह उन्हें शिक्षित-दीक्षित किया गया था, इसलिए जब वे बोलते हैं तो उनकी अभिव्यक्ति में तर्क का आधार है, दार्शनिकता है, गणित है। लेकिन कबीर बेबूझ हैं, पहेली हैं, उलटबांसी हैं। तर्क का उन्हें कुछ पता ही नहीं। संगति का उन्हें कुछ हिसाब ही नहीं। चूंकि संगति बिठालने का उन्हें कुछ पता ही नहीं है, इसलिए सत्य उनमें जिस परिपूर्णता से प्रगट हुआ है वैसा बुद्ध में नहीं हो सकता। बुद्ध में तो सत्य कट-छंट कर आएगा, निखार लेकर आएगा; सत्य ऐसा आएगा जो तुम्हारी बुद्धि को रुचे-पचे। सत्य में बुद्ध के साथ राजी हो जाना बहुत कठिन नहीं।
बुद्ध की पूरी प्रक्रिया बुद्धिवादी है, रैशनल है। इसलिए बुद्ध ने उन सारे प्रश्नों को ही कभी उठाया नहीं, इनकार ही कर दिया। उन प्रश्नों को अव्याख्य कह दिया, जिन प्रश्नों में विरोधाभास अनिवार्य है--जिन्हें कहना हो तो कबीर की उलटबांसी ही कहनी पड़ेंगी। जैसे कबीर कहते हैं: एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आग! बुद्ध नहीं कह सकते। अचंभा उन्होंने भी देखा है, नदिया में लगी आग उनने भी देखी है, लेकिन बुद्ध कह नहीं सकते। यह उनकी शिक्षा-दीक्षा रोकेगी, कि ये कैसे कहूं, प्रमाण कहा से लाऊंगा, तर्क कहां से जुटाऊंगा? यह बात तो देखी। इसलिए बुद्ध कहते हैं: मैं विधि बताऊंगा कि तुम्हें भी ले चलूं उस नदी के किनारे, फिर तुम्हीं देख लेना। देख लोगे तो समझ लोगे। मगर मैं न कहूंगा कि नदिया में आग लगी; वह बात ही मत पूछो। चलने की राह पूछो, पहुंचने का मार्ग पूछो, विधि पूछो, विधान पूछो; मगर यह न पूछो कि वह अनुभव क्या है।
कबीर गांव के गंवार हैं; बेफिक्री से कह देते हैं कि नदी में आग लगी। नदी में कहीं आग लगती है? विवाद करने बैठोगे तो कबीर मुश्किल में पड़ेंगे। कैसे समझाएंगे कि नदी में आग लगी?
कबीर ऐसे बहुत से अचंभों की बातें करते हैं। मछली चढ़ गई रूख। वृक्ष पर मछली चढ़ गई। मछली के कोई पैर होते हैं कि वृक्ष पर चढ़ जाए? कभी सुना है, देखा कि वृक्ष पर मछली चढ़ जाए? लेकिन कबीर जब कह रहे हैं तो उनका प्रयोजन है। लेकिन प्रयोजन तर्कातीत है। मगर कबीर को फिक्र कहां कि बात तर्क में बैठती या नहीं, गणित के ढांचे में समाती या नहीं! कबीर को चिंता ही नहीं। कबीर को कोई ऐसी शिक्षा-दीक्षा नहीं मिली जिसमें ढांचे में बिठालना हो, चौखटों में तर्क के बिठालने का उनको कोई स्मरण ही नहीं है।
अभी-अभी पश्चिम के कुछ चित्रकारों ने अपनी कलाकृतियों में फ्रेम लगाना, चौखट लगाना बंद कर दिया है। पूछे जाने पर उन चित्रकारों ने कहा कि जगत में किसी चीज पर कोई फ्रेम तो होती नहीं। जैसे तुमने एक सूर्यास्त का चित्र बनाया, तो सूर्यास्त पर तो कोई फ्रेम होती नहीं कि यहां शुरू हुआ और यहां समाप्त हुआ। न कहीं शुरू होता है, न कहीं समाप्त होता है; फैलता ही चला जाता है दोनों तरफ अनंत में, अनंत दिशाओं में फैलता चला जाता है; सब आयामों में फैलता चला जाता है। लेकिन जब तुम चित्र बनाओगे तो तुम्हारे केनवास की तो सीमा होगी। फिर सीमा ही नहीं होगी, तुम चित्र को फ्रेम भी दोगे--सुनहला, सुंदर, बेशकीमती। और फ्रेम देते ही--इन चित्रकारों का कहना है--कि तुम्हारा सूर्यास्त झूठ हो गया। असली सूर्यास्त पर तो कोई फ्रेम न था, कोई चौखट न थी। तुमने यह चौखट कैसे जड़ दी?
तर्क भी एक चौखट है, सुंदर चौखट है। बड़ी सुनहली है। खूब नक्काशी है उसमें। बड़ा बारीक काम है, बड़ी कारीगरी है। लेकिन सत्य पर कोई चौखट नहीं होती।
बुद्ध ने और महावीर ने जो कहा है उस पर तर्क की चौखट है। मजबूरी थी उनकी। उनको ही मुश्किल था यह कहना। उनकी सारी शिक्षा-दीक्षा यूं थी कि ऐसी बेबूझ बात जो कबीर कह सकते हैं--बेशर्मी से, कोई लाज नहीं, कोई संकोच नहीं--वैसी बुद्ध, महावीर कैसे कहें? उनको खुद ही अड़चन मालूम होती है कि कोई अगर और कहता तो हम विरोध करते, तो हम कैसे कहें? देखा तो उन्होंने भी है सूर्यास्त, जिस पर कोई सीमा नहीं है। देखा तो उन्होंने भी असीम को है, अनंत को है, जिसमें सारी असंगतियां तिरोहित हो जाती हैं और सारे विरोध लीन हो जाते हैं। लेकिन जब कहा है तो बड़े तर्क से, संवारे ढंग से कहा है।
इसलिए स्वभावतः बुद्ध के पास विचारशील चिंतकों का समूह इकट्ठा हुआ, पंडित इकट्ठे हुए, ज्ञानी इकट्ठे हुए, दार्शनिक इकट्ठे हुए। जितने दार्शनिकों को बुद्ध ने प्रभावित किया, संभवतः किसी व्यक्ति ने कभी प्रभावित नहीं किया। दुनिया में दर्शनशास्त्र की जितनी शाखाएं-प्रशाखाएं पैदा हुईं, वे सभी शाखा-प्रशाखाएं, वे सभी अंग-उपांग अकेले बुद्ध की धारा में भी पैदा हुए। अगर बुद्ध के दर्शन की पूरी गंगा को कोई समझ ले तो इस दुनिया में कहीं भी किसी भी तरह का कोई दर्शन पैदा हुआ हो, वह उसकी समझ में आ जाएगा। एक तरफ सारी दुनिया का दर्शनशास्त्र और एक तरफ बुद्ध की अकेली गंगा, दोनों समतोल हो जाते हैं।
फायदा भी हुआ बुद्ध को यूं कि दार्शनिक इकट्ठे हुए। और दार्शनिक निखार देते चले गए। लेकिन बात जितनी निखरी उतनी हवाई हो गई, उतनी वास्तविक न रह गई, उतनी शाब्दिक हो गई। यह नुकसान भी हुआ। हर लाभ के साथ नुकसान जुड़े हैं। बुद्ध की बड़ी छाप पड़ी। सारा एशिया बुद्ध से प्रभावित हुआ।
कबीर के पास कौन इकट्ठा हुआ--न कोई दार्शनिक आए, न कोई चिंतक आए, न कोई विचारक आए; उनको तो बात जंची ही नहीं। उनको बात जंचती कैसे? कबीर के पास कोई तर्क तो थे नहीं। अब कबीर लाख कहें कि मैंने अपनी आंख से देखा है कि नदी में आग लगी है, मगर कौन मानेगा यह? लोग कहेंगे पागल हो। हां, लेकिन दीवाने इकट्ठे हुए। तो नुकसान एक हुआ कि दार्शनिक न आए, चिंतक न आए, विचारक न आए, पंडित न आए; लेकिन लंबे अरसे में यही नुकसान लाभ का सिद्ध हुआ। दीवाने आए, मस्ताने आए, परवाने आए, होश गंवाने आए। एक और ही तरह के लोगों की जमात बैठी।
तो कबीर के वचनों में एक अखंडता है, एक परिपूर्णता है। लेकिन जब भी किसी चीज में परिपूर्णता होगी तो उसे तर्क के पार जाना पड़ेगा; उसे तर्क की चौखट को पीछे छोड़ना ही छोड़ना पड़ेगा। इसलिए कबीर से मुझे प्रेम है।
और कबीर ने फिर एक नई धारा को जन्म दिया--उजड्ड संतों की धारा। इन उजड्ड संतों की भी अपनी खूबी है--वही खूबी जो जंगल के सन्नाटे में होती है, कि सागर में उठे तूफान में होती है, कि पहाड़ पर लग गई आग में होती है। वही क्वांरापन, वही अलमस्ती, वही खुमारी। कबीर को यूं समझो कि जैसे उमर खय्याम और बुद्ध दोनों का मिलन हो गया; जैसे उमर खय्याम और बुद्ध दोनों एक संगम बन गए।
तो कबीर ने अलमस्तों की, फकीरों की, फक्कड़ों की एक अलग श्रृंखला को जन्म दिया। उस श्रृंखला में भाषा भी अपने ढंग से बनी। उस भाषा को भी एक अलग ही नाम मिल गया--सधुक्कड़ी। सधुक्कड़ी भाषा में फिर कोई तर्क नहीं पूछता। तर्क पूछना हो तो दार्शनिकों के पास जाओ। कबीर के पास तो सत्य को पीना हो तो बैठो। कबीर को न तो किताबों का कुछ पता है। कहते हैं, मसि कागद छुओ नहीं। हाथ से ही नहीं छुआ कभी कागज और स्याही। उनके लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर। वेद-कितेब, इन दोनों का तो बहुत विरोध किया, कि दोनों को अलग करो, हटाओ। इन्हीं से बीच में बाधा बन रही है। तुम्हारे और सत्य के बीच में ये वेद और कितेब। किताब का अर्थ कुरान और बाइबिल। इनको हटा दो। शास्त्र हटा दो। और द्वार खुला है और देख लो अपनी आंख से कि नदी में आग लगी है। नदी में आग लगी है का मतलब यह होता है कि विरोधाभास मिल रहे हैं; जो नहीं होना चाहिए वह हो रहा है। ऐसा जगत यह रहस्यमय है। इसे रहस्य-शून्य न करो। इसे तर्क की चौखटों में बिठाकर मारो मत, सुखाओ मत; इसके प्राणों को नष्ट न करो।
इसलिए कबीर से आनंद मैत्रेय, निश्चित ही मुझे लगाव है। और उनके एक-एक वचन में हजार-हजार वेद और कितेब समा सकते हैं। अब यही छोटा सा वचन: पीवत रामरस लगी खुमारी! ठीक ऐसा ही नानक ने कहा है: नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन-रात। ये सब एक ही जमात के फक्कड़ हैं। ये सब रिंद हैं, पियक्कड़ हैं। नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन-रात। यह खुमारी ऐसी है कि चढ़ी तो चढ़ी, उतरती ही नहीं फिर।
कबीर के इस वचन को, एक-एक शब्द को समझने की कोशिश करना, क्योंकि कबीर बहुत शब्दों के मालिक नहीं हैं। थोड़े से शब्द हैं, इसलिए एक-एक शब्द में डुबकी लगानी जरूरी है।
पीवत रामरस लगी खुमारी! पहला शब्द तो पीना। सत्य को जानना नहीं है--पीना है, जीना है, कंठ से उतर जाने देना है। खोपड़ी में नहीं भरना है--प्राणों में, अंतरंग तक पहुंच जाने देना है। क्यों? क्योंकि सत्य कोई कुतूहल नहीं है, कोई जिज्ञासा नहीं है--प्यास है! और प्यास तो पीने से मिटेगी। और भूख तो भोजन से मिटेगी। लाख प्यासे आदमी के सामने बैठकर तुम जल की चर्चा करते रहो, सारा विज्ञान जल का समझा दो, यह भी बता दो कि आक्सीजन और उद्जन के परमाणुओं से मिलकर जल बनता है, एच टू ओ का फार्मूला भी पूरा का पूरा समझा दो, फिर भी क्या होगा? प्यासा कहेगा, बकवास बंद करो, मुझे प्यास लगी है। मुझे पानी दो। मुझे पानी के संबंध में नहीं जानना है। पानी के संबंध में जानकर क्या करूंगा? जानने से क्या होगा? जानने को पीऊं, खाऊं, ओढूं, क्या करूं? पानी दो, मुझे पीना है।
और ध्यान रहे कि पीने के लिए जानना जरूरी नहीं है। अगर पीने के लिए जानना जरूरी होता तो आदमी कभी का मर चुका होता, क्योंकि यह एच टू ओ का फार्मूला तो अभी-अभी इस सदी में जाना गया और आदमी तो करोड़ों साल से जी रहा है। और आदमी ही क्यों; अरे, जानवर भी पी रहे हैं, पशु भी पी रहे हैं, पक्षी भी पी रहे हैं; पशु-पक्षी ही क्यों, वृक्ष भी पी रहे हैं। बिना ही जाने! कुछ पता नहीं कि पानी का शास्त्र क्या है और पीए जा रहे हैं। देखते हो यह धांधली! कुछ होश है न हवास है। वृक्ष पी रहे हैं पानी। पी ही नहीं रहे हैं, मस्त हो रहे हैं पी-पीकर, नाच रहे हैं हवाओं में, सूरज की किरणों में। फूल खिल रहे हैं। कोई फिक्र ही किसी को पड़ी नहीं कि इस वृक्ष में फूल नहीं खिलने चाहिए, इसे पानी का रसायन भी आता नहीं। इसे अभी पानी का सूत्र भी मालूम नहीं और खिले जा रहे हो, और हंसे जा रहे हो, और सुगंध उड़ाए जा रहे हो! कुछ लाज-शर्म भी होती है! अज्ञानी होकर अज्ञानी जैसा व्यवहार करो। अज्ञानी होकर और ज्ञानी की मस्ती दिखला रहे हो!
अच्छा ही है कि प्यास का जानने से कोई संबंध नहीं, नहीं तो वृक्ष प्यासे कब के मर जाते, कब के फूल कुम्हला जाते। रातरानी में गंध न होती, जुही से सुवास न उड़ती, गुलाब न खिलते, कमल न खिलते। पशु-पक्षी मर जाते। आदमी ही न जी सकता था। जानना और अनुभव अलग-अलग बातें हैं। इसलिए पीने पर जोर है। पीवत रामरस लगी खुमारी! पीओ।
और इसीलिए कबीर, नानक, फरीद, रैदास, दादू, इनके पास एक और ही तरह का तीर्थ निर्मित हुआ। यूं तो जैनों के चौबीस तीर्थंकरों को हमने तीर्थ बनाते देखा, मगर उनके तीर्थ बड़े तर्कबद्ध हैं, बहुत तर्कबद्ध हैं। कबीर ने भी तीर्थ बनाया, मगर वह तर्कबद्ध तीर्थ नहीं है। वह तीर्थ और ही ढंग का है--सत्संग का है।
सदगुरु के पास बैठो, डोलो, गाओ, नाचो--कभी चुप्पी में, कभी उसकी वाणी में डूबो। कभी उसके मौन को पीओ, कभी उसकी मुखरता को पीओ। कभी उसके गीत को जीओ, कभी उसके शून्य को। बैठो सत्संग में--चुप, मौन, खाली--जैसे कोई प्याली, कि वह बरसे तो तुम्हारी प्याली में जगह हो। सदगुरु तो आषाढ़ के महीने का जल से भरा हुआ मेघ है। तुम खाली हो तो भर जाओगे। नाचो, जैसे मोर नाचते हैं आषाढ़ में घिर गए मेघों को देखकर। मेघ-मल्हार उठने दो। यह और ही बात है।
महावीर समझाते हैं तर्कपूर्ण ढंग से, विवाद करते हैं, खंडन-मंडन है। कबीर के पास ये सब बातें नहीं हैं। कबीर के पास तो पियक्कड़ों की जमात है। और पीने को क्या है? रामरस! ध्यान रखना, यहां राम से कोई प्रयोजन दशरथ के बेटे राम से नहीं है। उनका तो रस कैसे बनाओगे? उसमें तो आदमखोर हो जाओगे। उसमें तो बहुत झंझट होगी। अब दशरथ के बेटे रामचंद्र जी को घिस-घिसकर क्या कोई भांग बनाओगे, कि चाय बनाओगे, काफी बनाओगे, क्या करोगे? दशरथ के बेटे राम से कोई प्रयोजन नहीं है। यहां रामरस से तो अर्थ है, वह जो परम सत्य है। उसके लिए एक नाम--राम। कोई भी नाम दे दो, सब नाम उसके। राम कहो, रहीम कहो, रहमान कहो--सब नाम उसके। कोई भी नाम दे दो। क्योंकि वह तो अनाम है। सब नाम कामचलाऊ हैं।
और वह रस है। ठीक वही सूत्र उपनिषदों का, जो परमात्मा की व्याख्या करता है--रसो वै सः! वह रस है। रस का अर्थ ही होता है कि एक बूंद भी उतर जाए भीतर तो प्यास सदा को बुझ जाए। इस रस को भीतर उतारने की कला को ही हमने इस देश में रसायन कहा था। अब तो बड़ी गड़बड़ हो गई है। अब तो कैमिस्ट्री का अनुवाद रसायनशास्त्र हो गया। रसायन बड़ा प्यारा शब्द था; उसका बड़ा आध्यात्मिक मूल्य था। कैमिस्ट्री को रसायन न कहो तो अच्छा। अल्केमी का नाम था रसायन। रसायन का अर्थ था: सत्संग, जहां रस पकता है, जहां रस झरता है, जहां रस पीया जाता है। पीवत रामरस लगी खुमारी!
और खुमारी शब्द बड़ा गहरा है। खुमारी का अर्थ होता है--न तो बेहोशी, न होश; दोनों और दोनों नहीं। कुछ-कुछ होश, कुछ-कुछ बेहोशी; दोनों का मिलन जहां हो रहा है। वह संध्याकाल, जहां दिन मिलते हैं और रात मिलती है। न कह सकते हो दिन है, न कह सकते हो रात है। ऐसी ही एक भीतर अवस्था है। जब एक तरफ से देखो तो लगता है खुमारी है। डोलते देखोगे, मस्त होते देखोगे। दूसरी तरफ से देखोगे तो पाओगे सब थिर है, स्थितप्रज्ञ को पाओगे। एक तरफ मीरा का नाच है और एक तरफ बुद्ध का मौन है। ये दोनों जहां मिल गए हैं, उसका नाम खुमारी।
बुद्ध से पूछोगे खुमारी, तो बुद्ध कुछ उत्तर न दे सकेंगे, बुद्ध चुप रह जाएंगे। उनके तर्कशास्त्र में खुमारी न जमेगी। बुद्ध तो सिर्फ होश की बात करेंगे--जागृति, स्मृति। महावीर भी विवेक की बात करेंगे, बोध की बात करेंगे; जैसे कृष्णमूर्ति अवेयरनेस की बात करते हैं, खुमारी की बात नहीं कर सकते। कृष्णमूर्ति वही बुद्ध और महावीर की परंपरा के अंग हैं, उसी श्रृंखला के। लाख इनकार करें, इनकार करने से क्या होता है? असल में इतना इनकार करते हैं, उससे ही जाहिर होता है कि कहीं न कहीं उनको डर लगा ही हुआ है कि कहीं मैं भी उसी श्रृंखला में न गिन लिया जाऊं। वह भय ही बता रहा है। लेकिन बात इतनी साफ है।
बुद्ध जिसको सम्मासति कहते हैं, सम्यक स्मृति और महावीर जिसको विवेक कहते हैं और गुरजिएफ ने जिसको सेल्फ-रिमेम्बरिंग, आत्मस्मरण कहा है, कृष्णमूर्ति उसी को अवेयरनेस कहते हैं। इसमें कुछ भेद नहीं है, शब्दों का ही भेद है। मगर इनमें खुमारी कहीं भी नहीं आती। हां, खुमारी की बात मीरा करती है, सहजो करती है, उमर खय्याम करता है, अलहिल्लाज करता है, सरमद करता है। लेकिन वे सिर्फ खुमारी की बात करते हैं; उनके पास फिर होश का कोई सवाल नहीं। कबीर वही अदभुत समागम हैं जो खुमारी की बात करते हैं; बेहोशी की नहीं, होश की भी नहीं; दोनों के बीच का संध्याकाल, जहां होश और बेहोशी मिलते हैं--ऐसे मिलते हैं कि होश बेहोश हो जाता है, बेहोशी होश हो जाती है। उस घड़ी का नाम खुमारी है। खुमारी बड़ी अदभुत दशा है--डोल भी रहे मस्ती में और जागे भी; नाच भी रहे और जागे भी।
गीत को उठने दो और साज को छिड़ जाने दो।
चुप्पी को छूने दो लफ्जों के नर्म तारों को
और लफ्जों को चुप्पी की गजल गाने दो।
खोल दो खिड़कियां सब, और उठा दो पर्दे
नई हवा को जरा बंद घर में आने दो।
छत से है झांक रही, कब से चांदनी की परी
दीया बुझा दो, आंगन में उतर आने दो।
फिजां में छाने लगी है बहार की रंगत
जुही को खिलने दो, चंपा को महक जाने दो।
जरा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
जरा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो।
हंसते ओंठों को जरा चखने दो अश्कों की नमी
और नम आंखों को जरा फिर से मुस्कुराने दो।
दिल की बातें अभी झरने दो हरसिंगारों-सी
बिना बातों के कभी आंख को भर आने दो।
रात को कहने दो, कलियों से राज की बातें
गुलों के ओंठों से उन राजों को खुल जाने दो।
जरा जमीं को अब उठने दो अपने पांवों पर
जरा आकाश की बांहों को भी झुक जाने दो।
कभी मंदिर से भी उठने दो अजान की आवाज
कभी मस्जिद की घंटियों को भी बज जाने दो।
पिंजरे के तोतों को दोहराने दो झूठी बातें
अपनी मैना को तो पर खोल चहचहाने दो।
उनको करने दो मुर्दा रस्मों की बरबादी का गम
हमें नई जमीन, नया आसमां बनाने दो।
एक दिन उनको उठा लेंगे इन सर-आंखों पर
आज जरा खुद के तो पांवों को सम्हल जाने दो।
जरा सागर को बरसने दो बन कर बादल
और बादल की नदी सागर में खो जाने दो।
जरा चंदा की नर्म धूप में सेंकने दो बदन
जरा सूरज की चांदनी में भीग जाने दो।
उसको खोने दो, जो कि पास कभी था ही नहीं
जिसको खोया ही नहीं, उसको फिर से पाने दो।
अरे, हां-हां हुए हम, लोगों के लिए दीवाने
अब लोगों को भी कुछ होश में आ जाने दो।
ये है सच कि बहुत कड़वी है मय इस साकी की
रंग लाएगी, गर सांसों में उतर जाने दो।
छलकेंगे जाम जब छाएगी खुमारी घटा
जरा मयख्वारों के पैमानों को तो सम्हल जाने दो।
जरा साकी के तेवर तो बदल जाने दो।
न रहे मयखाना, न मयख्वार, न साकी, न शराब
नशे को ऐसी भी इक हद से गुजर जाने दो।
उसको गाने दो, अपना गीत मेरे ओंठों से
और मुझे उसके सन्नाटे को गुनगुनाने दो।
जरा सम्हलने दो मीरा की थिरकती पायल
जरा गौतम के सधे पांव बहक जाने दो।
गीत को उठने दो और साज को छिड़ जाने दो।।
वह घड़ी, वह संध्याकाल--जहां मीरा होश में आ जाती है और जहां बुद्ध नाचने लगते हैं, उसका नाम है--खुमारी। पीवत रामरस लगी खुमारी!
आनंद मैत्रेय, और निश्चय ही यह अनुभव चाहो तो कहो निर्वाण, चाहो तो कहो ब्रह्मानुभव, मगर एक बात तय है कि यह परममद है।
परममद का अर्थ होता है जिसे पीया तो पीया; जो चढ़ा तो चढ़ा, जो फिर उतरने का नाम नहीं लेता। जो उतर-उतर जाए वह भी क्या पीने योग्य है! शराब ही पीनी हो तो ऐसी पीनी चाहिए कि फिर उतरे नहीं। बार-बार उतर जाए, फिर-फिर पीनी पड़े और उतर-उतर जाए...।
यही तो हमारे जीवन की शैली बन गई। कितनी बार जन्मे, कितनी बार वही काम किए, कितनी बार हारे, कितनी बार जीत की आकांक्षाएं लेकर चले, कितनी आशाएं और कितनी बार निराशाएं--फिर वही, फिर वही। एक चक्कर है। कोल्हू के बैल की तरह घूमते चले जाते हैं। रोज-रोज पीते हो, रोज-रोज उतर जाता है। रोज-रोज चढ़ाते हो रंग, रोज-रोज ढल जाता है। रोज-रोज बनाते हो, रोज-रोज मिट जाता है। ये ताश के पत्ते, और कब तक इनसे महल बनाने हैं? ये कागज की नावें और कब तक चलानी हैं? कुछ ऐसा पीओ कि फिर उतरे ही नहीं। वही परममद है।
नाम उसे तुम जो देना चाहो--ब्रह्मानुभव कहो, भागवत-अनुभव कहो, बुद्धत्व कहो--ये सब नामों के भेद हैं। नामों में बहुत उलझना मत। यह बुद्धि नामों में उलझ जाती है, अटक जाती है। तुम तो पीओ। तुम तो कंठ की सुनो। तुम तो प्राणों की भाषा समझो।
मेरे पास जो निर्मित हो रहा है, यह कोई मंदिर नहीं, मयखाना है, मयकदा है। और मेरे पास जो आ गए हैं, ये कोई साधारण तथाकथित धार्मिक लोग नहीं। ये रिंद हैं। ये पियक्कड़ हैं। ये परवाने हैं। और इसलिए बहुत मेरे साथ तुम्हारी भी निंदा होगी। मेरे साथ तुम पर भी बहुत गालियां बरसेंगी। यह पीने वालों का हमेशा का भाग्य रहा। इसे बदला नहीं जा सकता है। भीड़ ने सदा मस्तों के साथ यही दुर्व्यवहार किया है और भीड़ यही दुर्व्यवहार जारी रखेगी। मगर पीने का मजा ऐसा है कि कौन फिक्र करता है।
सरमद ने चिल्लाकर कहा था कि मैं परमात्मा हूं। मुल्लाओं ने, मौलवियों ने साजिश की, सरमद को झुकाने की कोशिश की। धमकी दी कि सिर काट देंगे। सरमद ने कहा, सिर काटो तो काटो, मेरा कुछ भी न काट पाओगे। और मैं तुमसे यह कहे देता हूं, मेरा कटा हुआ सिर भी यही चिल्लाएगा कि मैं परमात्मा हूं। कटने से भी कुछ फर्क न पड़ेगा। मैं फिर भी आवाज दिए जाऊंगा।
और यही हुआ। दिल्ली की जामा-मस्जिद में सरमद का सिर काटा गया। और जब सिर उसका सीढ़ियों पर गिरा मस्जिद की और सीढ़ियों से लुढ़का, तो हर सीढ़ी पर ठहरा और चिल्लाया कि मैं परमात्मा हूं! अनलहक! अहं ब्रह्मास्मि! यह शायद कहानी ही होगी, लेकिन कभी-कभी कहानियां सत्यों से भी ज्यादा सत्य होती हैं।
दीवाने मिट जाते हैं, फिर भी उनकी आवाज नहीं मिटती। दीवाने मिट जाते हैं, फिर भी उनकी दीवानगी नहीं मिटती। मस्तों को मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है।
यह जमात मस्तों की है। और यहां तुम इकट्ठे हुए हो तो इसीलिए, कि रामरस पी लो, कि खुमारी लग जाए। नाचो और भीतर थिरता भी बने। भीतर तो स्थितप्रज्ञ की अवस्था हो और बाहर परवाने का नृत्य। देखा है परवाने को नाचते शमा के चारों तरफ? तुम्हारे भीतर की चेतना तो शमा बन जाए--एक अखंड ज्योति, अकंपित। और तुम्हारा पूरा जीवन उसके चारों तरफ एक नृत्य बन जाए। इस नृत्य के और जागरण के मिलन का नाम खुमारी है। मेरे हिसाब में खुमारी में समस्त धर्म का सार आ जाता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, प्रायः सभी धर्मों में व्यक्ति के रूप में ईश्वर की धारणा क्यों बनी? ईसाई तो व्यक्तिगत ईश्वर की बात करते हैं। आप क्यों कहते हैं कि वह व्यक्ति नहीं उपस्थिति है?
निखिलानंद, उनने जिन्होंने जाना है, उन्होंने यही कहा है जो मैं कह रहा हूं। इससे अन्यथा जानने वाले कह ही नहीं सकते। लेकिन धर्म को जानने वाले और धर्मों को बनाने वाले लोग अलग-अलग होते हैं। बुद्ध जानते हैं, बनाते तो हैं पंडित। महावीर जानते हैं, बनाते तो हैं पंडित। जो जानता है वह कोई और; जो बनाता है वह कोई और। जो जानता है उसने बनाया नहीं; जो नहीं जानता है उसने बनाया है। और इसलिए सारी विकृति हो गई है।
फिर, जिसने नहीं जाना और बनाया है, उसके बनाने के अपने प्रयोजन हैं; उसने धर्म को भी शोषण का आधार बना लिया। और अगर धर्म के आधार पर शोषण करना हो तो ईश्वर की व्यक्तिगत धारणा जरूरी है, क्योंकि बिना ईश्वर को व्यक्ति की तरह माने किसकी पूजा, किसका पाठ; किसके यज्ञ, किसके हवन; किसके मंदिर, किसकी मूर्तियां; किसकी मस्जिदें, किसके गिरजे? पंडित का सारा काम ही समाप्त हो जाता है। मौलवी की कोई जरूरत नहीं रह जाती। पुरोहित विदा हो जाता है। ये सारे एजेंट और दलाल, इनका कोई स्थान नहीं बचता। ईश्वर व्यक्ति हो तो इन सबकी जरूरत रह जाती है।
अगर ईश्वर व्यक्ति है और केवल संस्कृत भाषा ही बोलता है--क्योंकि वही दिव्यवाणी है, बाकी तो सब मनुष्य की भाषाएं हैं! तुम सोच भी सकते हो कि ब्राह्मण मान ले कि ईश्वर और हिब्रू बोलता है! संस्कृत बोलता है--संस्कृत भी वैदिक संस्कृत! और निश्चित ही वैदिक संस्कृत को जानने वाला ही कोई मध्यस्थ हो सकता है। किसी न किसी को बीच में भाषांतर का काम करना पड़ेगा न! और इसलिए स्वभावतः ब्राह्मणों ने कहा कि शूद्र को तो हक ही नहीं है कि वह वेदों को पढ़े। तो समाज का करीब-करीब आधा हिस्सा, पचास प्रतिशत लोग तो उन्होंने वंचित कर दिए। वैश्यों को भी क्या समझ हो सकती है वेदों की! तुम धंधा करो, दुकान करो। तुम दुनियादारी की बात करो। उस परलोक का तुम्हें क्या पता हो सकता है! तो और एक चौथाई हिस्सा समाप्त हो गया। फिर क्षत्रियों को कहा कि तुम्हारा काम है युद्ध, वही तुम्हारा धर्म। अपना-अपना धर्म पालन करो। बचा ब्राह्मण; उसका ठेका हो गया। वही मध्यस्थ का काम करेगा। वही पूजा करेगा, प्रार्थना करेगा, पौरोहित्य करेगा।
और स्वभावतः व्यक्तिगत ईश्वर हो तो ही यह सारा काम चल सकता है। अगर भगवान नहीं है, भगवत्ता है तो बात बदल जाएगी। फिर वहां कोई है ही नहीं, भाषा का सवाल नहीं। और यहूदी कहते हैं, वह हिब्रू ही जानता है। और मुसलमान कहते हैं, वह अरबी ही जानता है। और हर भाषा के, और हर धर्मों के ठेकेदार हैं। और उन ठेकेदारों ने यह सारा आयोजन किया है, निखिलानंद। ईश्वर को जानने वालों ने नहीं, ईश्वर के नाम का शोषण करने वालों ने। और जितना शोषण धर्म के नाम पर हुआ है उतना किसी और चीज के नाम पर नहीं हुआ। धर्म के नाम पर बड़ी तरकीबों से शोषण किया जा सकता है। धार्मिक व्यक्ति बड़े कुशल हो जाते हैं शोषण करने में।
दादा चूहड़मल फूहड़मल दूध की दुकान में गए। बोले, भाई, कैसे लिटर दूध?
दुकानदार बोला, दादा, तीन रुपया फीका, चार रुपया मीठा।
दादा बोले, क्या? चार रुपया मीठा!
दुकानदार बोला, दादा, शक्कर देख रहे हो, सोलह रुपए किलो!
दादा बोले, अच्छा भाई, एक पाव मीठा दूध दे दो।
दुकानदार ने दूध दिया। दादा पीने के बाद बोले, इसमें तो शक्कर थी ही नहीं। अब पी गए, तो अब तो कोई प्रमाण बचा नहीं। धार्मिक आदमी का अपना गणित है। अब मुझे शक्कर दो। शक्कर ऊपर से खा लूंगा।
दुकानदार चौंका। लेकिन अब करे भी क्या! और भीड़ इकट्ठी हो गई और लोगों ने कहा कि साईं झूठ थोड़े ही बोलेंगे। अरे, बड़े धार्मिक गुरु हैं! क्या थोड़ी-सी शक्कर के पीछे झूठ बोलेंगे? दे शक्कर।
भीड़-भाड़ और बाजार का मामला, अपनी बेइज्जती न करवाने के लिए बेचारे ने शक्कर दी। दादा ने शक्कर खाई और शक्कर खाकर लुढ़कने लगे। कुलाटी खाने लगे। तरह-तरह के आसनादि करने लगे। भीड़ और इकट्ठी हो गई। खासा सर्कस दादा ने खड़ा कर दिया। धार्मिक आदमी जो न करे थोड़ा! दुकानदार बहुत घबड़ाया। बोला कि साईं, अब क्या हुआ। अब क्या चाहिए, बाबा बोलो!
दादा कुछ बोलें ही नहीं। वे तो कुलाटे पर कुलाटे खाते जा रहे। दुकानदार ने सोचा कि शायद मेरे दूध में कुछ गड़बड़ी है। उसने सारा दूध फिंकवा दिया। और भी जो दुकानदार उसका दूध बेचते थे, उन्होंने भी सारा दूध फेंक दिया। जब सब दूध फेंक चुके तो दादा उठकर बोले, मेरे पैसे वापस कर। किसी की जान लेगा? अभी पुलिस में जाकर रिपोर्ट करता हूं।
सो उसने घबड़ाहट में उनके पैसे भी दे दिए और फिर बोला कि साईं, अब यह तो बताओ कि आपको आखिर हो क्या गया था? क्योंकि जिंदगी मुझे दूध बेचते हो गई, मेरे बाप-दादे दूध बेचते थे, उनके बाप-दादे भी दूध बेचते थे, लेकिन दूध ने कभी ऐसा कार्य करके नहीं दिखाया। हुआ क्या?
शीर्षासन और तरह-तरह के आसन इत्यादि जितने भी योगासन जानते थे दादा ने सब करके दिखा दिए। कुछ और अपने भी जोड़ दिए। उसने कहा कि दूध में कोई खराबी रही होगी, मानता हूं। शक्कर में कोई खराबी रही होगी, मानता हूं। मगर ऐसी खराबी न सुनी कभी, न कभी देखी। अरे, आदमी बीमार हो जाए, वमन हो जाए। मगर ये इस तरह की कुलाटियां और यह सर्कस! सच कहना साईं आपको क्या हो गया था?
दादा हंसते हुए बोले, हुआ क्या था, अरे, मैं तो दूध में शक्कर मिला रहा था।
दादाओं ने धर्म खड़े किए हैं--बड़े गुरुघंटालों ने।
दादा चूहड़मल फूहड़मल अपने भक्तों के साथ एक बूढ़ी अमीर महिला को लूटने के लिए एक ट्राली एक ट्रेक्टर के पीछे बांधकर ले गए। उस महिला का सब मूल्यवान सामान ट्राली में डाला, तो महिला ने शोर मचाना शुरू किया। दादा ने उस महिला को भी उठाकर ट्राली में बिठा दिया। महिला चिल्लाने लगी कि मैं तो लुट गई, कि मैं तो मर गई! तब दादा और उसके भक्त हारमोनियम-तबले वगैरह के साथ कहने लगे कि बुढ़िया सच कहती है, कि बुढ़िया सच कहती है! रास्ते भर वह रोती रही, चिल्लाती रही कि मैं तो लुट गई, कि मैं तो मर गई! और दादा और उसके भक्त ताल में गाते रहे कि बुढ़िया सच कहती है! रास्ते में खड़े हुए लोग हंसते, पुलिस वाले हंसते। और कहते कि भई बुढ़िया सच कहती है। अरे, दुनिया में सभी लुट रहे हैं! बुढ़िया और जोर-जोर से चिल्लाती कि बचाओ, मैं लुट गई! मगर दादा का भजन और भक्तों की धुन। सभी लोग कहते कि वाह, क्या कीर्तन-मंडली है!
इसको कहते हैं धार्मिक डाका। धर्म के नाम पर धार्मिक डाके पड़ते रहे हैं।
निखिलानंद, सभी धर्मों में व्यक्ति के रूप में ईश्वर की धारणा इसलिए बनी कि पंडित-पुरोहित, मौलवी-मुल्ला, पादरी-पोप, वह ईश्वर की व्यक्तिगत धारणा के बिना जी नहीं सकता। लेकिन जिन्होंने जाना है, उन्होंने परमात्मा को व्यक्ति नहीं कहा है, अनुभूति कहा है; सत्य कहा है; चैतन्य का परम शिखर कहा है; भगवत्ता की प्रतीति कहा है। लेकिन भगवान कोई व्यक्ति नहीं है, जिसने दुनिया बनाई हो, जो दुनिया को चला रहा हो, जो यह सब गोरखधंधा कर रहा हो। यह तुम्हारी ही चेतना का समाधिस्थ रूप है। तुम्हारी ही चेतना जब मन से मुक्त हो जाती है, विचार से शून्य हो जाती है, जब तुम्हारे भीतर ही सारे अंधड़-तूफान आने बंद हो जाते हैं, जब तुम्हारे चित्त की झील बिलकुल ही तरंग-रहित हो जाती है, जब तुम एक दर्पण बन जाते हो, तब तुम्हारे भीतर जो अनुभव होता है वही अनुभव परमात्मा है, भगवान है। लेकिन अच्छा हो कि हम भगवत्ता शब्द का उपयोग करें।
इसलिए मैं कहता हूं कि ईश्वर व्यक्ति नहीं, उपस्थिति है। जब तुम खुमारी में डूब जाओगे तो जानोगे।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, मा विपस्सना व स्वामी चिन्मय ने मृत्यु के पूर्व छठवें चक्र तक यात्रा कर ली। तथा स्वामी देवतीर्थ भारती और अभी कल ही स्वामी आनंद विमलकीर्ति अपनी मृत्यु से पहले परमबोधि को उपलब्ध हुए। भगवान, क्या मृत्यु में बुद्धत्व की घटना जीवन में जागरण से आसान है? समझाने की अनुकंपा करें। अब तो कबीरदास की यह साखी ही हम सब संन्यासियों की अभीप्सा है-- जिस मरने से जग डरै मेरो मन आनंद। कब मरिहौं कब भेटिहौं पूरन परमानंद।।
शैलेंद्र, जीवन में जागना तभी संभव है जब जीवित अवस्था में ही तुम्हें मृत्यु का बोध स्पष्ट हो जाए। जागरण तो हमेशा मृत्यु के कारण ही होता है, जीवन में हो या मृत्यु में हो। जब तुम्हें दिखाई पड़ने लगता है कि यह जीवन हमारा चारों तरफ मृत्यु से घिरा है, अब गया तब गया। देर-अबेर की बात है, मौत आई ही है। हम पंक्तिबद्ध खड़े हैं। एक-एक व्यक्ति खिसकता जा रहा है, पंक्ति छोटी होती जा रही है, क्यू छोटा होता जा रहा है। हम मौत के दरवाजे के करीब पहुंचते जा रहे हैं।
हर जन्मदिन पर तुम्हें जन्मदिन नहीं मृत्युदिन मनाना चाहिए, क्योंकि एक साल और जिंदगी से कम हो गया। जन्मने के बाद बच्चा एकदम मरना शुरू हो जाता है, तत्क्षण, क्योंकि एक-एक पल जीवन छंटने लगा और बूंद, बूंद चुकते-चुकते पूरी गागर खाली हो जाती है। गागर क्या, सागर भी खाली हो जाता है।
जिनको इतना बोध है, जिनके भीतर इतनी तीक्ष्ण प्रतिभा है कि वे जीवन में ही मृत्यु को छुपा देख लेते हैं, वे तो जीवन में ही जागते हैं। और अगर इसमें थोड़ी देर-अबेर लग गई तो मृत्यु के क्षण में एक परम अवसर मिलता है। मगर वह भी तभी मिल सकता है जब जीवन में थोड़ा-बहुत ध्यान का प्रयोग किया हो। अगर बिलकुल प्रयोग न किया हो तो वह नहीं मिलेगा।
मृत्यु दो तरह से घटती है--ध्यानी की और गैर-ध्यानी की। गैर-ध्यानी तो मृत्यु के पहले ही बेहोश हो जाता है। इसलिए बेहोशी में ही मरता है। लेकिन ध्यानी, जिसने थोड़ा भी ध्यान साधा हो, मृत्यु में भी ध्यान की उतनी बारीक किरण को बचा पाता है। और उसी बारीक किरण के कारण उसे फासला साफ हो जाता है कि शरीर मर रहा है, मन मर रहा है; मैं नहीं मर रहा हूं। और जैसे ही यह अनुभव हुआ कि मैं नहीं मर रहा हूं, कि निर्वाण उपलब्ध हो गया, कि शाश्वतता मिल गई, कि अमृत का अनुभव हो गया।
रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना है।
यह संसार कांट की बाड़ी, उलझ पुलझ मरि जाना है।।
यह संसार झाड़ और झांखर, आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु नाम ठिकाना है।।
लेकिन यह अनुभव जीते-जी जरा मुश्किल। बचपन में होश कहां! बचपन में तो खिलौने उलझा लेते हैं। फिर जवानी आई तो खिलौने बदल जाते हैं, मगर खेल जारी रहता है। छोटे बच्चे गुड़ियों से खेलते हैं, गुड्डा-गुड़ियों के विवाह रचाते हैं। जवान अपने विवाह रचाने लगते हैं। वही गुड्डा-गुड़ियों का खेल है, जरा पैमाना बड़ा हुआ।
आंख बेवजह भी हो जाती है नम, क्या कीजै
मुफ्त बदनाम हुए उनके सितम, क्या कीजै
यूं तो सर्मा-ए-जां है मुझे यारों का खुलूस
दिल दुखा जाती है हर सअई-ए-करम, क्या कीजै
रक्स में कौस बनाती हुई बाहों की तरह
मंजिलों से भी हसीन राह के खम, क्या कीजै
छू गई प्यार से हर दर्द की साअत दिल को
और दुनिया से तकाजाए-करम, क्या कीजै
चंद लम्हों को सही, आ तो गया दिल में मलाल
खुल गया दावा-ए-तम्कीं का भरम, क्या कीजै
कौन पा सकता हम आवारा-मिजाजों का सुराग
दास्तां लिखते गए नक्शे-कदम, क्या कीजै
हसरते-दीद की तस्कीन का सामान कहां
पत्थरों में अभी सोते हैं सनम, क्या कीजै
इत्तिफाकाते-जमाना हैं, खिजां हो कि बहार
जो गुजरना है गुजर जाएगी, गम क्या कीजै
दफअतन जल उठे ‘ताबां’ कई यादों के चिराग
आज फिर जीत गई शामे-अलम, क्या कीजै
आंख बेवजह भी हो जाती है नम, क्या कीजै
मुफ्त बदनाम हुए उनके सितम, क्या कीजै
जिंदगी सब दृश्य दिखाती है, चुनाव हम पर है। कांटे भी और फूल भी और दिन भी और रातें भी। सुख भी और दुख भी। जिंदगी सब लाती है। लेकिन चुनाव हम पर निर्भर है। देखने की क्षमता हम पर निर्भर है। पहचानना हमें है। यूं तो हीरे भी पत्थर हैं, जो पहचान ले। और नहीं तो पत्थर भी हीरे मालूम हो सकते हैं; जो न पहचाने। पारखी की नजर चाहिए।
रक्स में कौस बनाती हुई बाहों की तरह
मंजिलों से भी हसीन राह के खम, क्या कीजै
मंजिलों की तो बात छोड़ो, रास्ते के मोड़ ही इतने प्यारे लगते हैं कि उन्हीं में उलझ जाते हैं।
रक्स में कौस बनाती हुई बाहों की तरह
जैसे नाच में बाहों ने इंद्रधनुष बनाए हों।
मंजिलों से भी हसीन राह के खम, क्या कीजै
राह की उलझनें ही, राह के मोड़ ही ऐसे प्यारे लगते हैं, ऐसे घुमावदार, हम वहीं भटक जाते हैं। समझा-बुझा लेते हैं अपने को।
इत्तिफाकाते-जमाना हैं, खिजां हो कि बहार
सब संयोग की बात है--समझा लेते हैं अपने को। नदी-नाव संयोग।
इत्तिफाकाते-जमाना हैं, खिजां हो कि बहार
फिर बहार आए कि पतझड़ सब संयोग है।
जो गुजरना है गुजर जाएगी, गम क्या कीजै
समझाते रहते हैं कि जो गुजरना है गुजर जाएगी। जो गुजरना है वह तो जरूर गुजर जाएगी, मगर तुम तो जाग जाओ, तुम तो न गुजरो, तुम तो उसके साथ न बह जाओ।
जिंदगी में वही अवसर तुम्हें हैं, जो कबीर को, जो नानक को, जो बुद्ध को, जो महावीर को, वही अवसर सभी को हैं। मगर हर व्यक्ति अपने-अपने होश के हिसाब से चुन लेता है। बच्चों से तो आशा नहीं की जा सकती। जवान बहुत महत्वाकांक्षाओं से भरे होते हैं। लेकिन हैरानी तो यह होती है कि बूढ़े भी वही गोरखधंधा, वही बेवकूफियां, वही जमानेभर के उलटे-सीधे काम। मरते-मरते दम तक लोग जरा भी साधते नहीं स्वयं को। तो फिर मौत आती है, बेहोशी लाती है।
लेकिन शैलेंद्र, अगर ध्यान की गति बनती रहे तो मौत परम अवसर है, महाअवसर है, क्योंकि मौत आखिरी मौका है। जिंदगीभर अगर ध्यान की थोड़ी सी भी धारा भीतर सघन होती रहे तो मौत में जाकर प्रगाढ़ हो उठती है, प्रज्वलित हो उठती है। वह जो टिमटिमाते दीए की तरह जलती थी; मौत में भभक उठती है, जंगल की आग हो जाती है। और मृत्यु के क्षण में अगर होश बना रहे तो मुक्ति सुनिश्चित है, निर्वाण सुनिश्चित है।
जीवन से भी ज्यादा बड़ा अवसर मृत्यु है। मगर मृत्यु तभी अवसर है, जब तुमने जीवन का थोड़ा सा, कम से कम थोड़ा सा, एक अंश भी ध्यान के लिए समर्पित किया हो। तो फिर मृत्यु भी मृत्यु नहीं है; सिर्फ अमृत का द्वार है।
अपने को थोड़ा-थोड़ा उलझावों से बाहर करो। तर्क न खोजो। उलझाव के लिए बहुत तर्क हैं।
यकीं को वहम, हकीकत को ख्वाब कैसे कहूं
जश्ने-शौक को मौजे-सराब कैसे कहूं
हजार कुर्बतें जिसमें हों, ऐसी दूरी को
गुरेज कैसे कहूं, इज्तिनाब कैसे कहूं
खिले हुए हों जहां सौ चमन जराहत के
वो मेरा दिल ही सही, मैं खराब कैसे कहूं
हजार निस्बतें पिन्हां सही, मगर फिर भी
तेरी जफा को तिरा इज्तिराब कैसे कहूं
मिरा बुजूद मुजस्सम सवाल है लेकिन
जमाना देगा मुझे क्या जबाव, कैसे कहूं
मता-ए-शौक से खाली है मदरिसा ‘ताबां’
जुनूं के दर्स को दर्से-किताब कैसे कहूं
समझाए चले जाते हैं।
यकीं को वहम, हकीकत को ख्वाब कैसे कहूं
इस यथार्थ को सपना कैसे कहें? मगर यह सपना है, क्योंकि एक दिन नहीं था और एक दिन फिर नहीं हो जाएगा। सपने का और क्या अर्थ होता है? कहो या न कहो। सपने का अर्थ होता है--जो अभी है, अभी नहीं है; अभी नहीं था, फिर नहीं हो जाएगा। लेकिन समझाना चाहो अपने को तो समझा सकते हो।
यकीं को वहम, हकीकत को ख्वाब कैसे कहूं
जश्ने-शौक को मौजे-सराब कैसे कहूं
यह आकांक्षाओं के संसार को मृग-मरीचिका कैसे कहूं? यह इतना प्यारा संसार, ये इतने प्यारे सपने, ये इतनी प्यारी आकांक्षाएं, ये इतने मीठे-मीठे खयाल!
जश्ने-शौक को मौजे-सराब कैसे कहूं
यकीं को वहम, हकीकत को ख्वाब कैसे कहूं
हजार कुर्बतें जिसमें हों, ऐसी दूरी को
गुरेज कैसे कहूं, इज्तिनाब कैसे कहूं
कैसे कहूं विरक्ति, कैसे कहूं पलायन?
खिले हुए हों जहां सौ चमन जराहत के
वो मेरा दिल ही सही, मैं खराब कैसे कहूं
हजार निस्बतें पिन्हां सही, मगर फिर भी
तेरी जफा को तिरा इज्तिराब कैसे कहूं
मिरा बुजूद मुजस्सम सवाल है लेकिन
मेरा अस्तित्व एक साकार प्रश्न है।
मिरा बुजूद मुजस्सम सवाल है लेकि
नजमाना देगा मुझे क्या जबाव, कैसे कहूं
मता-ए-शौक से खाली है मदरिसा ‘ताबां’
प्रेमरूपी पूंजी से यह पाठशाला तो खाली है।
मता-ए-शौक से खाली है मदरिसा ‘ताबां’
जुनूं के दर्स को...
उन्माद को, पागलपन को...
जुनूं के दर्स को दर्से-किताब कैसे कहूं
पुस्तक का पाठ कैसे कहूं?
बस यूं अपने को समझाता रहता है आदमी। जो अपने को यूं समझाता रहता है, उसको तो कबीर पागल मालूम पड़ेंगे; उसे बुद्ध तो बुद्धू मालूम पड़े। उसे तो यह दीवाने भटक गए हुए लोग मालूम पड़े। उसे तो जहां धन कमाया जा रहा है, पद कमाया जा रहा है, जहां प्रतिष्ठा कमाई जा रही, वहां ही सारा प्राण अटका हुआ मालूम पड़ता है।
जिंदगी में वहम बहुत हैं। जिंदगी में मृग-मरीचिकाएं बहुत हैं उलझाए रखने को। मौत में तो सब बंद हो जाता है, पूर्णविराम आ जाता है। अब आशाओं को कहां ले जाओ, आकांक्षाओं को कहां दौड़ाओ? अब कैसी दुकान, अब कैसा धन, कैसा पद? अगर जरा सा ध्यान सधा रहा हो तो मृत्यु के क्षण में उसी ध्यान का बांध बंध जाता है, क्योंकि आगे जाने को कोई उपाय न रहा। आगे तो द्वार बंद हो गया। बांध बंध गया। और बांध तो, छोटा सा भी झरना अगर ध्यान का बांध पर आ जाए, तो बड़ी झील बन जाती है। वही झील मुक्ति का कारण हो सकती है, महापरिनिर्वाण बन सकती है।
आज इतना ही।