QUESTION & ANSWER

Panth Prem Ko Atpato 03

Third Discourse from the series of 3 discourses - Panth Prem Ko Atpato by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक प्रदर्शनी में बहुत भीड़-भाड़ थी। बहुत नई-नई चीजें देखने को आई थीं। बहुत लोग उस प्रदर्शनी को देखने गए थे। एक आदमी एक कंगारू को भी लाया था प्रदर्शनी में दिखाने को। उसके झोपड़े के बाहर भी बड़ी भीड़ थी। लेकिन एक परिवार बड़े विचार में पड़ा था। पति बहुत चिंतित था, पत्नी भी बहुत चिंतित थी। वे सभी देखना चाहते थे। लेकिन उनके अठारह बच्चे थे और वे दो--बीस थे। दस नये पैसे टिकट थी। लेकिन फिर भी बीस लोगों के दो रुपये हो जाते थे। जो आदमी कंगारू प्रदर्शित कर रहा था, वह भी उनकी परेशानी देख कर उनके पास आया और उसने कहा: आप बड़े परेशान हैं?
उस आदमी ने कहा कि बीस हैं हम--अठारह मेरे बच्चे हैं, मेरी पत्नी और मैं। कुछ सस्ते में दिखाना नहीं हो सकेगा? कुछ कंसेशन रेट पर दिखाना नहीं हो सकता? उस आदमी ने कहा: ये अठारह बच्चे आपके ही हैं? उस पिता ने कहा: मेरे ही बच्चे हैं। तो उसने कहा: फिर फिकर मत करिए। कंगारू आपको देख कर बड़ा प्रसन्न होगा। हम उसे बाहर ले आते हैं, वह आपको देख ले। और दस पैसे ये सम्हालिए कंगारू के देखने के!
मैंने जब यह बात सुनी, तो मैं सोचने लगा, जानवर भी अब आदमी को देखने को बहुत उत्सुक होंगे! बहुत हो गया, जानवर को हम देखते रहे हैं। अब जैसी हालत है पृथ्वी पर मनुष्य की, उसे देखने को जानवर भी बहुत उत्सुक होंगे। और कुछ न कुछ व्यवस्था करनी चाहिए कि आदमियों के अजायबघर बनें और जानवर आदमी को वहां देख सकें। वैसे भी अजायबघर बनाने की बहुत जरूरत नहीं; अगर जानवरों को दिल्ली ले जाया जा सके, तो काम पूरा हो सकता है।
राजधानियां अजायबघर हो गई हैं। अनूठे तरह के आदमियों के बीच के लोग वहां इकट्ठे हो गए हैं। सब तरह के पागल और विक्षिप्त वहां इकट्ठे हो गए हैं। लेकिन राजधानियों में जो प्रकट हुआ है, उस सबमें हम जिम्मेवार हैं। और कहीं किसी पैमाने पर हम सब उसमें भागीदार हैं। पूरी मनुष्य-जाति ही एक बड़ा अजायबघर हो गई है।
मैंने सुना है कि डार्विन जब मर गया...जब तक जिंदा था तब तक आदमी उसे परेशान करते रहे, इस कारण कि उसने कहा कि आदमी बंदरों का विकास है। और आदमी सदा सोचता था कि हम भगवान के बेटे हैं। भगवान ने कभी ऐसा कहा नहीं, ऐसा कोई सर्टिफिकेट नहीं दिया! आदमी ऐसा सोचता रहा था। लेकिन जब डार्विन ने यह कहा कि आदमी बंदरों से पैदा हुआ है, तो डार्विन पर लोग बहुत नाराज हुए। लेकिन डार्विन सोचता था, कम से कम बंदर तो मुझ पर प्रसन्न होंगे। लेकिन मरने पर बंदरों की प्रेतात्माओं ने उसे घेर लिया और कहा कि हमारे साथ बहुत अन्याय किया है। आदमी को हमारा विकास कहते हो? आदमी हमारा पतन है। भटके हुए बंदर आदमी हो गए हैं, गिरे हुए बंदर आदमी हो गए हैं, पतित हुए बंदर आदमी हो गए हैं। और अपने सिद्धांत में सुधार कर लो। डार्विन ने कहा: कहना तो मैं भी यही चाहता था, लेकिन विकास बताया तब भी आदमियों ने मुझे इतना परेशान किया; अगर बंदरों का पतन बताता, तब तो बहुत मुसीबत हो जाती!
लेकिन मजाक जाने दें, आदमी की समस्या बहुत गंभीर है। और सबसे बड़ी समस्या यही है कि हमने समाज बनाने की कोशिश की थी, लेकिन समाज नहीं बना, अजायबघर बन गया है। मैं अजायबघर से गुजरता था, तब मुझे यह खयाल आया। जंगल में भी जानवरों को देखा है। उनकी मुक्ति, उनका आनंद, उनकी प्रफुल्लता। उनके गीत पक्षियों के, उनके नृत्य, उनकी छलांगें, उनकी दौड़, खुले आकाश, खुले सूरज के नीचे। और फिर अजायबघर में भी जानवरों को देखा है--उदास, कठघरों में बंद, बेचैन, परेशान।
एक अजायबघर से गुजरता था, तब मुझे यह खयाल आया कि यही जानवर जंगल में भी हैं, यही जानवर अजायबघर में भी हैं, लेकिन फर्क बहुत है। सबसे बड़ा फर्क यह है कि वहां जंगल में वे मुक्त हैं, स्वतंत्र और यहां अजायबघर में बंद हैं सींकचों में। और तब मैंने पता लगाने की कोशिश की कि जंगल और अजायबघर के जानवरों में क्या-क्या फर्क पैदा हो जाते हैं, तब तो मैं बहुत चकित हो गया। मुझे पता चला कि जो बीमारियां जंगलों में जानवरों को कभी पैदा नहीं होतीं, वे अजायबघर में पैदा हो जाती हैं। जैसे, अल्सर जंगल के जानवर को नहीं होता, लेकिन अजायबघर के जानवर को होता है। अल्सर असल में बहुत गहरी चिंता से पैदा होता है। पेट में घाव हो जाते हैं गहरी चिंता से। अल्सर मानसिक बीमारी है। आदमी को जो-जो बीमारियां होती हैं, वे अजायबघर के जानवरों को होती हैं, जंगल के जानवरों को नहीं।
और भी मैं हैरान हुआ जान कर कि जंगल के जानवरों में किसी तरह की विक्षिप्तता मुश्किल से कभी घटित होती है; आमतौर से घटित नहीं होती। जंगल के जानवर आमतौर से पागल होते हुए नहीं पाए जाते हैं, लेकिन अजायबघर में जानवर पागल हो जाते हैं। यह भी मैं जान कर हैरान हुआ कि जंगल के किसी जानवर ने कभी आत्मघात की, सुसाइड की कोशिश नहीं की है, लेकिन अजायबघर के जानवर आत्महत्या की कोशिश भी करते हैं।
तब मैं सोचने लगा कि आदमी ये सब काम करता है, जो अजायबघर के जानवर करते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आदमी ने वह स्वतंत्रता खो दी जो जरूरी थी? कहीं ऐसा तो नहीं है कि आदमी ने वह जीवन खो दिया जो उसका जीवन हो सकता था? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसने खुला आकाश खो दिया, मुक्ति खो दी, सूरज खो दिया, और उसने कठघरे बना लिए, अपने हाथ से सींकचे खड़े कर लिए और उनके भीतर बंद हो गया! अन्यथा पागलपन, अन्यथा आत्मघात, अन्यथा इतनी बीमारियां, इतने मानसिक रोग संभव नहीं मालूम होते।
जंगल के जानवरों में कोई सेक्सुअल परवर्शन नहीं होता, कोई कामुक-विकृति नहीं होती, लेकिन अजायबघर के जानवरों में वही विकृतियां हो जाती हैं जो आदमी में हैं। जंगल में कोई जानवर मैस्टरबेशन नहीं करता, हस्तमैथुन नहीं करता, लेकिन अजायबघर में जानवर हस्तमैथुन शुरू कर देते हैं। जंगल में कोई जानवर होमोसेक्सुअल नहीं होता, समलिंगी नहीं होता, लेकिन अजायबघर में जानवर होमोसेक्सुअल हो जाते हैं।
ये इतने हैरान करने वाले तथ्य थे कि तब मुझे ऐसा लगने ही लगा कि कहीं न कहीं हमने भूल कर दी। आदमी का समाज नहीं बन पाया और अजायबघर बन गया है। क्योंकि सब तरह के रोग, सब तरह की विकृतियां, सब तरह के मानसिक विकार--जिसे हम समाज और सभ्यता कहते हैं--शायद वह स्वयं एक महारोग की तरह हमारे पीछे है। इसे अगर समझा जा सके, तो शायद बदला भी जा सकता है।
समझने की दिशा में दो-तीन बातें सोचनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह सोचनी जरूरी है कि वे कौन से सींकचे हैं जिन्होंने आदमी की स्वतंत्रता छीन ली है। दिखाई तो नहीं पड़ते। रास्ते पर मैं चलता हूं, तो मेरे चारों तरफ कोई सींकचे नहीं हैं। आप बैठे हैं, आपके चारों तरफ कोई सींकचे नहीं हैं। अच्छा होता कि सींकचे दिखाई पड़ते, तो शायद हम भ्रम में भी न पड़ते। लेकिन आदमी ने ऐसे सींकचे ईजाद किए हैं, जो अदृश्य हैं। और उन सींकचों के भीतर हम बंद होते चले गए हैं।
अब जैसे, राष्ट्र। राष्ट्र एक कारागृह है, जो अदृश्य है। अगर मैं हिंदुस्तान की सीमा पार करना चाहूं, तो मुझे सरकारी आज्ञा की जरूरत है। मैं सीमा को पार नहीं कर सकता। अगर मैं पाकिस्तान में प्रवेश करना चाहूं, तो मुझे पाकिस्तान की सरकार की आज्ञा की जरूरत है। सीमा पर एक कठघरा खड़ा है, जिसके आर-पार कोई जा नहीं सकता। आखिर कारागृह में कैदी के लिए कौन सी कारागृह है, जेल की दीवाल के भीतर तो वह भी स्वतंत्र है। जेल की दीवाल के बाहर नहीं जा सकता, वहां संतरी तैनात हैं। लेकिन जेल की दीवाल बहुत छोटी है, दिखाई पड़ती है। राष्ट्र की दीवाल बहुत बड़ी है, दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन वहां संतरी तैनात हैं। और राष्ट्र की सीमा के बाहर कहीं कोई प्रवेश नहीं हो सकता। लेकिन राष्ट्र बहुत बड़ी कारागृह है, दिखाई नहीं पड़ती। उसके भीतर बड़ी स्वतंत्रता से हम घूम सकते हैं।
फिर हमने और छोटे कारागृह बनाए हैं--धर्मों के कारागृह हैं। राष्ट्र एक है, लेकिन राष्ट्र के भीतर दस धर्म हैं, तो दस छोटे कारागृह हैं। उनकी भी अभी अपनी सीमाएं हैं, उनके बाहर नहीं जा सकते। उनके बाहर शादी नहीं कर सकते, उनके बाहर मित्र को भोजन पर आमंत्रित नहीं कर सकते। उनके बाहर भोजन असंभव है। उनके बाहर हाथ फैला कर दोस्ती बढ़ानी बहुत मुश्किल है। हिंदू का अपना कारागृह है, मुसलमान का अपना कारागृह है। कभी-कभी एक-दूसरे के कारागृह में वे घुस जाते हैं, लेकिन दोस्ती से नहीं, दुश्मनी से। जैसे पीछे अहमदाबाद में हो गया। एक-दूसरे की दीवालों में घुस जाते हैं हत्या करने के लिए, मित्रता के लिए नहीं। जिनसे शादी करना वर्जित है, उनकी हत्या सिर्फ की जा सकती है। जिनके साथ दोस्ती नहीं बनाई जा सकती है, उनसे सिर्फ दुश्मनी ही बन सकती है, शत्रुता ही बन सकती है। कभी-कभी दीवालें टूटती हैं धर्मों की, लेकिन वे तभी टूटती हैं जब एक-दूसरे के घर में घुस कर हत्या करने की इच्छा पैदा होती है।
फिर हिंदू-मुसलमान के कारागृह हैं, जैन-बौद्ध के कारागृह हैं। लेकिन उतने से भी काम नहीं चलता। वे भी बड़े कारागृह हैं, फिर और छोटे कारागृह हैं--तो जैनों के दिगंबर और श्र्वेतांबर के कारागृह हैं। उतने से भी काम नहीं चलता, तो श्र्वेताबंर के भीतर भी तेरापंथी और स्थानकवासी के कारागृह हैं। उतने से भी काम नहीं चलता और हम तोड़ते चले जाते हैं। और अगर हम गौर से देखें, तो सीमाओं के भीतर सीमाएं, कारागृह के भीतर कारागृह हैं। जैसे कभी जादूगर का डब्बा देखा हो, और उसके भीतर डब्बे, और उसके भीतर डब्बे, और उसके भीतर डब्बे, और डब्बों का कोई अंत ही नहीं आता और घबड़ाहट होनी शुरू हो जाती है।
ऐसा आदमी हजार तरह के कारागृह में बंद है। अगर वह अजायबघर का जानवर न हो जाए तो और क्या हो सकता है? अगर मनुष्य को समाज बनाना हो, अजायबघर नहीं, विक्षिप्त, पागल, रुग्ण, बीमार लोगों का समूह नहीं, बल्कि जीवित, प्रेम से भरे हुए, करुणा से पूर्ण लोगों का समाज बनाना हो, तो हमें सब तरह के कारागृह तोड़ देने की तैयारी दिखानी जरूरी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कारागृह का नाम क्या है। बड़े कारागृह वाले लोग छोटे कारागृह तोड़ने की कोशिश करते हैं। राष्ट्र जिसको बहुत प्रेमपूर्ण मालूम होता है, वह कहता है, धर्मों के कारागृह तोड़ो, ताकि राष्ट्र का कारागृह मजबूत हो सके। जिसे राष्ट्र बड़ा कीमती मालूम पड़ता है, वह कहता है, प्रदेशों के कारागृह तोड़ो, ताकि राष्ट्र का कारागृह मजबूत हो सके।
लेकिन अब तक दुनिया में बहुत कम लोग हैं, जो कारागृह मात्र को तोड़ देने के लिए आतुर हैं; जो यह नहीं कहते कि छोटे कारागृह को बड़े कारागृह के लिए तोड़ो। जब तक हम इस भाषा में सोचेंगे, तब तक कारागूह कभी भी नहीं टूटनेे वाले हैं। तब तक आदमी कैद के बाहर नहीं हो सकता, सींकचों के बाहर नहीं हो सकता। एकबारगी मनुष्य को समझना होगा कि हम सींकचों में नहीं रहना चाहते--चाहे सींकचों का नाम हिंदू हो, और चाहे सींकचों का नाम जैन हो, और चाहे सींकचों का नाम ब्राह्मण हो, शुद्र हो, और चाहे सींकचों का नाम हिंदुस्तान हो, चीन हो, पाकिस्तान हो, हम सींकचों के भीतर नहीं रहना चाहते। सब तरह के सींकचे खतरनाक हैं, और आदमी को पागल किए दे रहे हैं। क्यों? आखिर सींकचे आदगी को पागल क्यों कर देते हैं?
एक लिविंग स्पेस की जरूरत है हर आदमी को जिंदा रहने के लिए, एक विस्तार की जरूरत है। विस्तार जितना ज्यादा होगा, जीवन उतना मुक्त होगा। विस्तार जितना कम होगा, जीवन उतना सिकुड़ जाएगा। विस्तार जितना बड़ा होगा, उतनी ही आत्मा फैलेगी। विस्तार जितना छोटा होगा, आत्मा उतनी सिकुड़ जाएगी। एक बड़े मकान में रहने का मजा और एक छोटी कोठरी में रहने का फर्क यही है। एक छोटी कोठरी में हम भी सिकुड़ जाते हैं, एक बड़े मकान में हम भी फैल जाते हैं।
जितना विस्तार होगा, मनुष्य के जीवन की विस्तृत आधारशिला होगी, उतना आदमी की आत्मा विकसित होती है। लेकिन हम खंड-खंड में तोड़ते हैं। छोटे-छोटे खंड तोड़ कर भी मन भरता नहीं, तो और छोटे खंडों में तोड़ते हैं। और खंडों में तोड़ते-तोड़ते आखिर में एक-एक आदमी ही खंड रह जाता है। एक-एक आदमी एक-एक छोटा टुकड़ा रह जाता है। चारों तरफ सीमाएं आ जाती हैं और सब तरफ से बंद आदमी भीतर बेचैन और परेशान हो जाता है।
इसके दोहरे परिणाम होते हैं। पहला परिणाम तो यह होता है उसकी आत्मा कभी फैल नहीं पाती। और जब आत्मा न फैल पाए, तो पागल होना शुरू हो जाता है; विक्षिप्तता आनी शुरू हो जाती है। और दूसरा परिणाम यह होता है कि आत्मा को फैलाने के झूठे रास्ते खोजने पड़ते हैं। जब जिंदगी सब तरफ से बंधी हो, तो आत्मा को फैलाने के लिए ऐसे रास्ते खोजने पड़ते हैं, जो अपने आप में गलत हैं। जैसे आज, आज सारी दुनिया में कांशसनेस, चेतना को विस्तीर्ण करने के लिए ड्रग्स का उपयोग हो रहा है--एल एस डी का, मैस्कलीन का।
क्या आपको पता है कि आदमी इतना ज्यादा सिकुड़ गया है कि अब वह बेहोश होकर ही अनुभव कर पाता है कि मैं फैला हुआ हूं! एल एस डी को वे कांशसनेस एक्सपैंडिंग ड्रग्स कहते हैं। वे कहते हैं कि एल एस डी को लेने से आदमी की चेतना विस्तीर्ण हो जाती है थोड़ी देर को। छह घंटे को, दस घंटे को उसकी सब सीमाएं टूट जाती हैं, वह सारे जगत के साथ एक हो जाता है। चांद उसे अपने से एक मालूम पड़ता है। फूल अपने भीतर खिलते हुए मालूम होते हैं। सूरज दूर नहीं मालूम पड़ता है, निकट आ जाता है। और दुनिया की सब सीमाएं गिर जाती हैं।
एक तरफ हम सीमाएं बनाए चले जा रहे हैं, और आदमी इतना बेचैनी हो गया है कि वह असीम को छूने के लिए एल एस डी जैसे ड्रग्स का, रासायनिक तत्वों का उपयोग करने को मजबूर हो गया। धार्मिक लोग विरोध करते हैं एल एस डी का, लेकिन मजा यह है कि धार्मिक लोग जो सीमाएं खड़ी करते हैं, वे ही सीमाएं एल एस डी लेने को लोगों को मजबूर कर रही हैं। एक तरफ आदमी पागल हुआ जाता है सीमाओं में बंध कर, दूसरी तरफ सीमाओं से ऊब कर बेहोशी के रास्ते खोज रहा है।
पूरी मनुष्य-जाति का इतिहास अगर हम इस भांति देखें, तो हम हैरान होंगे कि सारी मनुष्य-जाति के लंबे इतिहास में हमने शराब, नशे, गांजे, और अफीम और मैस्कलीन और सोमरस से लेकर एल एस डी तक, आदमी की चेतना विस्तीर्ण हो, फैल सके, सीमाएं टूट सकें, इसके लिए नशे का उपयोग किया है। ऋग्वेद के ऋषियों से लेकर अमरीका के आधुनिक बीटल और हिप्पी तक। आदमी की चेतना फैल सके।
लेकिन आदमी की चेतना फैल क्यों नहीं सकती है? हम चारों तरफ सीमाएं बांधें हुए हैं। वे सीमाएं हम तोड़ने को राजी नहीं हैं। अगर यही स्थिति रही, तो आने वाले पचास वर्षों में सारी मनुष्य की चेतना बेहोशी के, रासायनिक द्रव्यों के नीचे दब जाएगी। उसके सिवाय कोई रास्ता नहीं रह जाएगा--फैला हुआ अनुभव करने के लिए। लेकिन क्या यह उचित रास्ता है? क्या नशा लेकर चेतना के फैलने का अनुभव कोई आध्यात्मिक मूल्य रखता है? कोई भी आध्यात्मिक मूल्य नहीं रखता।
नशे में विस्तार अनुभव करने से कोई परिवर्तन नहीं होता है; लौट कर हम फिर संकुचित हो जाते हैं। लेकिन क्या हम सच में विस्तार अनुभव नहीं कर सकते हैं? हम सारी सीमाएं नहीं तोड़ सकते हैं? कौन रोके हुए है आदमी को सीमाएं तोड़ने से? लेकिन हमें खयाल ही नहीं है। हमें खयाल ही नहीं है कि हमारी बनाई हुई सीमाएं ही हमारी आत्मा को कारागृह में डाले हुए हैं और उनके भीतर हम बेचैन और परेशान हो गए हैं। वह परेशानी बहुत रूपों में प्रकट होती है।
आज सारी दुनिया में विद्रोह और बगावत है। सारी दुनिया में एक रिबेलियन है। नये बच्चे सारी पुरानी चीजों को तोड़ने को आतुर हैं। नये बच्चे सारे पुराने मूल्यों को मिटा देने के लिए विक्षिप्त हुए जा रहे हैं। कौन है जिम्मेवार इसके लिए? नये लड़के? नहीं, अब तक की पूरी मनुष्य-जाति को नियम और सिद्धांत देने वाले वे सारे लोग जिम्मेवार हैं, जिन्होंने आदमी को स्वतंत्र नहीं किया, परतंत्र किया है। इतने जोर से आदमी को बांध दिया है कि वह बंधन अब आखिरी सीमा पर पहुंच गए हैं और बच्चे अब उन बंधनों को तोड़ देने के लिए आतुर हो गए हैं।
लेकिन उन बच्चों को भी पता नहीं है कि वे क्या तोड़ रहे हैं। बस में आग लगाने से आदमी की चेतना के बंधन नहीं टूट सकते हैं। और न स्कूल के कांचों पर पत्थर फेंकने से आत्मा के बंधन टूट सकते हैं। और न ही शराब की बोतलों से, और न ही स्कूल के फर्नीचर को जलाने से, वे बंधन नहीं टूट सकते हैं। वे बंधन बहुत अदृश्य हैं। वे हिंदू के, मुसलमान के, जैन के, ईसाई के बंधन बहुत भीतरी हैं, वे छिपे हुए हैं, वे दिखाई नहीं पड़ते हैं। और उनको तोड़े बिना मनुष्य की आत्मा मुक्त नहीं हो सकती है।
क्या यह संभव नहीं हो सकता है कि मनुष्य सिर्फ मनुष्य हो? क्या यह संभव नहीं हो सकता है कि पृथ्वी--पूरी पृथ्वी हमारी माता हो, भारत माता नहीं, पाकिस्तान माता नहीं, पूरी पृथ्वी हमारी माता हो, क्या यह नहीं हो सकता? सच तो यही है कि पूरी पृथ्वी एक है। कहीं भी हिंदुस्तान और पाकिस्तान टूटे हुए नहीं हैं। कहीं कोई दरार नहीं है पृथ्वी पर जहां से हिंदुस्तान अलग होता हो और पाकिस्तान शुरू होता हो। और जहां जर्मनी समाप्त होता हो और रूस शुरू होता हो। जमीन पर कहीं कोई रेखाएं नहीं हैं, सिवाय पागल राजनीतिज्ञों के नक्शों के अतिरिक्त। पृथ्वी कहीं भी बंटी हुई नहीं है। लेकिन राजनीतिज्ञ पृथ्वी को बांटे हुए हैं।
मैंने कहा कि पहले तरह के बंधन, जिन्होंने आदमी को पागल किया है, धार्मिक लोगों ने दिए हैं। और दूसरे तरह के बंधन, जिन्होंने पृथ्वी को खंडित किया है और आदमी को आदमी की दुश्मनी में खड़ा कर दिया है, वे राजनीतिज्ञों ने दिए हैं। धर्म के बंधन तो धीरे-धीरे शिथिल होते चले जाते हैं, क्योंकि पुरानी बीमारी है, उसके प्रति धीरे-धीरे हम जागते चले जाते हैं। लेकिन राजनीति के बंधन बहुत नये हैं। और अभी उनके प्रति जागने का हमें खयाल ही नहीं है।
असल में धर्मगुरु की जगह धीरे-धीरे राजनीतिज्ञ आ गया है। और धार्मिक मक्का-मदीना की जगह राजधानियां आ गई हैं। अब मक्का महत्वपूर्ण नहीं है, क्रेमलिन महत्वपूर्ण है--वह भी एक मक्का है नये तरह का! अब काशी महत्वपूर्ण नहीं है, पेकिंग महत्वपूर्ण है--वह भी काशी है नये लोगों की। अब गीता और कुरान उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, अब दास कैपिटल ज्यादा महत्वपूर्ण है--वह भी धर्म-पुस्तक है नये धार्मिकों की। पुराने धर्मगुरु बदले हैं, उनकी जगह नये धर्मगुरु आए हैं। और नये धर्मगुरु और भी खतरनाक हैं। नये धर्मगुरु राजनीतिज्ञ हैं, जो आदमी को फिर बांट रहे हैं। जगह-जगह खंड-खंड किए दे रहे हैं। सारी पृथ्वी को उन्होंने टुकड़ों में बांट दिया है। फिर पृथ्वी के छोटे-छोटे टुकड़ों को भी और टुकड़ों में बांट दिया है।
और इतने टुकड़े हैं ये, इन टुकड़ों के कारण इतने युद्ध हैं, इतने युद्ध हैं, इन युद्धों के कारण आदमी की जिंदगी में शांति के और आनंद के फूल खिलने असंभव हो गए हैं। पिछले तीन हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध हुए हैं। प्रतिवर्ष पांच युद्धों का अनुपात है, कहीं न कहीं जमीन के किसी कोने पर युद्ध चल रहा है। कहीं न कहीं आग भड़की है--चाहे वियतनाम हो, चाहे कोरिया हो, चाहे कश्मीर हो। कहीं न कहीं आग जलेगी, कहीं न कहीं आदमी जलता रहेगा। जमीन के किसी न किसी कोने पर उपद्रव और घाव बनते ही रहेंगे। अब तक ऐसा नहीं हुआ है कि कभी एक दिन को भी शांति हो पृथ्वी पर। कहीं न कहीं उपद्रव है!
किसके कारण है? कौन तोड़ता है आदमी को? कौन आमने-सामने खड़ा कर देता है? राजनीतिज्ञ तोड़ रहा है। लेकिन राजनीतिज्ञ तोड़ने को मजबूर है, क्योंकि बिना तोड़े लोगों पर राज्य नहीं किया जा सकता।
हिंदुस्तान में अंग्रेजों की हुकूमत थी, तो हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ लोगों को समझाते थे कि अंग्रेजों का नियम है--डिवाइड एण्ड रूल, तोड़ो और राज्य करो। लेकिन कोई पूछे कि सारी दुनिया के राजनीतिज्ञों का नियम क्या है? उनका भी नियम वही है--तोड़ो और राज्य करो। जब तक पृथ्वी खंड-खंड में टूटी है, तब तक पृथ्वी पर हजारों तरह के राजनीतिज्ञों का राज्य होगा। जिस दिन मनुष्य एक हो जाएगा, उस दिन इन राजनीतिज्ञों को विदा हो जाना पड़ेगा। मनुष्यों की एकता राजनीतिज्ञों की आत्महत्या सिद्ध होगी, इसलिए राजनीतिज्ञ मनुष्यों को एक न होने देगा।
हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि अगर तुम्हारे देश के दुश्मन न हों, तो झूठे दुश्मन पैदा करो, क्योंकि जब तक तुम दुश्मन पैदा नहीं करते, तब तक तुम महान नेता नहीं बन सकते हो। महान नेता बनने के लिए युद्ध की भूमिका जरूरी है। अगर सच्चे दुश्मन मिल जाएं, तो बहुत ठीक, अन्यथा झूठे दुश्मन पैदा करो। लेकिन दुश्मन जरूरी है। क्योंकि जब दुश्मन होता है, तब जनता नेता के पीछे खड़ी हो जाती है--घबड़ाहट में, भय में, असुरक्षा में, इनसिक्योरिटी में। वह कहती है, हमें बचाओ। और जो उसे बचाता है, वह महान हो जाता है। इसलिए सब युद्ध बड़े नेताओं को पैदा करते हैं।
अगर बड़ा नेता होना हो, तो युद्ध बहुत जरूरी है। शांति के समय में बड़े नेता पैदा नहीं होते। बड़े नेता के पैदा होने के लिए संघर्ष जरूरी है, युद्ध जरूरी है, हिंसा जरूरी है, हत्या जरूरी है। जितनी हत्या होगी, जितनी हिंसा होगी, उतना बड़ा नेता प्रकट होगा। शांति के समय में बड़ा नेता प्रकट नहीं होता। और अगर शांति स्थायी चल जाए, तो नेता एकदम फेड आउट हो जाएंगे, विदा हो जाएंगे, उनको कोई पूछेगा ही नहीं। उनकी जरूरत ही तभी है।
रास्ते पर, चौराहे पर एक पुलिसवाला खड़ा है। वह पुलिसवाला इसलिए खड़ा है कि कहीं चोर है। अदालत में एक मजिस्ट्रेट बैठा है, वह इसीलिए बैठा है कि कहीं चोर है। अगर चोर विदा हो जाएं, तो चोरों के विदा होते ही अचानक चौरस्ते का पुलिसवाला विदा हो जाएगा। चोरों के विदा होते ही मजिस्ट्रेट विदा हो जाएगा। इसलिए मजिस्ट्रेट ऊपर से चोरों को सजा दे रहा है, भीतर से भगवान से प्रार्थना करता है कि रोज आते रहना। स्वाभाविक, उसका धंधा तो चोरों पर है। उसकी जिंदगी चोरों पर है।
राजनीतिज्ञ ऊपर से कहता है, शांति चाहिए। और कबूतर उड़ाता है, शांति के कबूतर! लेकिन भीतर से युद्ध की कामना करता है। युद्ध चाहिए। युद्ध न हो, तो राजनैतिक नेता की कोई जगह नहीं है। युद्ध न हो, तो राजनीति की ही कोई जगह नहीं है। असल में युद्ध से ही राजनीति पैदा होती है। फिर अगर बड़ा युद्ध न चलता हो, तो छोटा युद्ध चलाना पड़ता है। अगर मुल्क के बाहर कोई लड़ाई न हो, तो मुल्क के भीतर लड़ाई चलानी पड़ती है। अगर मुल्क के भीतर भी न हो, तो एक ही पार्टी को दो हिस्सों में तोड़ कर लड़ाई चलानी पड़ती है!
बड़ा नेता लड़ाई में पैदा होता है। छोटे नेता शांति में जीते हैं। छोटे नेता कभी बड़े नहीं हो सकते हैं, अगर लड़ाई न चलती हो। तो लड़ाई चलनी ही चाहिए किन्हीं भी तलों पर। हजार-हजार तलों पर लड़ाई चलनी चाहिए। लड़ाई नेता को बड़ा करती है। जनता को आतुर करती है, जनता की आंखों को उठाती है, नेता को देखने के लिए। इसलिए नेता निरंतर नई लड़ाई की चेष्टा में संलग्न है।
और मजा यह है कि रोज मंच पर खड़े होकर कहता है कि शांति चाहिए, एकता चाहिए। मनुष्य इकट्ठे हों, सब एक हों। इधर मंच पर
यह कहेगा। मंच के पीछे सारे उपाय करेगा, जिनसे मनुष्य एक न हो पाए, जिनसे कभी आदमी इकट्ठा न हो पाए, जिससे पृथ्वी कभी इकट्ठी न हो पाए। इसकी पीछे कोशिश चलेगी, लेकिन यह हम समझ सकते हैं।
एक डाक्टर है, वह मरीज का इलाज करता है और मरीज की तरफ, सब तरफ से कोशिश करता है कि मरीज ठीक हो जाए। डाक्टर मरीज को ठीक करने के लिए है। लेकिन पता है कि जब महामारी फैलती है, प्लेग फैलती है, या फ्लू फैलता है, तो डाक्टर आपस में कहते हैं कि सीजन चल रहा है! डाक्टर का सीजन तो तभी आता है, ऋतु तभी आती है धंधे की जब फ्लू फैले, प्लेग फैले, मलेरिया फैले, लोग बड़े पैमाने पर बीमार हों! इधर डाक्टर इलाज कर रहा है मरीज का, उधर प्रार्थना कर रहा है कि बीमार कैसे ब़ढ़ें! और पैसे वाले बीमार का इसलिए ठीक होना बहुत मुश्किल हो जाता है। गरीब बीमार को ज्यादा देर बीमार रखने में डाक्टर का कोई भी हित नहीं है। पैसे वाले बीमार का ठीक होना मुश्किल हो जाता है। अक्सर तो पैसे वाले बीमार ही बने रहते हैं। क्योंकि डाक्टर, जितनी देर पैसे वाला बीमार रहे उतने ही हित में है उसके। अब ऊपर से डाक्टर दिखता है बीमारी से लड़ रहा है, और भीतर से, भीतर से वह बीमारी के लिए प्रार्थना कर रहा है।
इसलिए ऊपर मंचों पर जो चेहरे दिखाई पड़ते हैं, वे मंच के पीछे वही नहीं हैं, यह ध्यान में रखना जरूरी है। मंच पर चेहरे बिलकुल बनावटी हैं। मंच पर वे कुछ और कहते हैं, और सौ में निन्यानबे मौके यह हैं कि मंच पर वे जो कहते हैं, ठीक उससे उलटा मंच की पीछे करते होंगे। जो भी शांति की बातें चलती हैं, उनके पीछे युद्ध का इंतजाम चलता है। इसलिए बड़े आश्र्चर्य की बात है कि दुनिया के सारे युद्ध शांति के लिए होते हैं! सब युद्ध शांति के लिए होते हैं। वे कहते हैं, हम इसलिए लड़ रहे हैं, ताकि दुनिया में शांति हो सके! इसलिए लड़ रहे हैं कि दुनिया में शांति हो सके। लड़ना जरूरी है; शांति की रक्षा के लिए युद्ध जरूरी है। हिटलर भी शांति की रक्षा के लिए लड़ते हैं और चर्चिल भी। और रूजवेल्ट भी और स्टैलिन भी, सभी शांति के लिए लड़ते हैं। हिंदुस्तान भी और पाकिस्तान भी, सभी शांति के लिए लड़ते हैं।
लेकिन राजनीतिज्ञ की जिंदगी अशांति पर निर्भर है। इसलिए राजनीतिज्ञ शांति चाह नहीं सकता। और अगर दुनिया को शांति चाहनी हो, तो राजनीतिज्ञ को विदा देना जरूरी हो गया। वह हट जाना चाहिए, उसकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन आज उसी की जगह है। वही सब-कुछ है। उसे हम सारी ताकत दे रहे हैं। और वह हमारी अशांति का बुनियादी आधार है। हम उसको ही भोजन खिला रहे हैं। हम उसका ही सम्मान कर रहे हैं और फूलमालाएं पहना रहे हैं। क्योंकि वह शांति की बातें करता है। लेकिन शांति की बातों से शांति का कोई भी संबंध नहीं है।
मैंने सुना है, एक रात एक होटल में बड़ी देर तक कुछ मित्र भोजन करते रहे और शराब पीते रहे। जब वे रात विदा होने लगे, कोई एक बज गया था, तो होटल के मैनेजर ने कहा: ऐसे भले लोग अगर रोज आते रहें, तो हमारी जिंदगी के चांद चमक जाएं। विदा होते मेहमानों में से जिसने पैसे चुकाए थे, उसने कहा, भगवान से प्रार्थना करो कि हमारा धंधा ठीक चलता रहे, तो हम रोज आएं। उस मैनेजर ने कहा: भगवान से रोज प्रार्थना करूंगा तुम्हारा धंधा ठीक चले; लेकिन यह तो बता जाओ कि तुम्हारा धंधा क्या है? उसने कहा: यह मत पूछो, अन्यथा प्रार्थना करना जरा मुश्किल पड़ेगा। फिर भी, उसने कहा, अब और मुश्किल में डाल दिया, तुम बता तो जाओ कम से कम तुम्हारा धंधा क्या है, हम प्रार्थना करेंगे। उस आदमी ने कहा: मैं मरघट पर लकड़ियां बेचने का धंधा करता हूं। हमारा धंधा रोज चलता रहे, दस-पांच लोग रोज मरघट पहुंचते रहें, तो हम रोज आते रहें।
किसी का धंधा मरघट पर लकड़ी बेचने का भी है। वह आपकी प्रतीक्षा कर रहा है, वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। वह प्रतीक्षा कर रहा है कि कब हम मरें। उसकी दुकान नहीं चल रही है।
राजनीतिज्ञ का धंधा बिलकुल मरघट पर लकड़ियां बेचने का है। वह प्रतीक्षा कर रहा है कब युद्ध हो, कब लोग मरें, कब हिंसा हो, कब हिंसा हो कि वह आए और लोगों को समझाए कि शांति चाहिए। इधर वह युद्ध भी करवाएगा, दंगे भी करवाएगा, उधर दंगे को मिटाने के लिए अमन-कमेटी, शांति-कमेटी भी बनवाएगा। वही आदमी संघर्ष करवाएगा, वही आदमी शांति के लिए आकर व्यवस्था भी करेगा।
ये दोहरे चेहरे हम कब पहचान पाएंगे? अगर हम नहीं पहचान पाएंगे तो आदमी की हालत रोज बुरी से बुरी होती चली जा रही है। इस बात को समझ लेना बहुत जरूरी है कि जो मुल्ला, जो पंडित झगड़े करवाता है वही फिर अमन-कमेटी का मेंबर होता है। फिर वही मस्जिद में और मंदिरों में प्रार्थनाएं करता है। वह प्रार्थनाएं करता है कि सबमें शांति होनी चाहिए। और कोई पूछे कि आदमी में अशांति कौन करवा रहा है? मंदिर और मस्जिद के अलावा कौन अशांति करवा रहा है। मंदिर और मस्जिद अशांति करवाएंगे। मंदिर का पुजारी समझाएगा कि गऊ माता है, इसलिए गऊ की अगर पूंछ कट जाएगी तो दंगे हो जाएंगे। और फिर मंदिर का पुजारी समझाएगा कि शांति रखो, अधार्मिक आदमी हो गए हो, धार्मिक आदमी सदा शांत रहता है। मस्जिद का आदमी समझाएगा कि यह मोहम्मद साहब का बाल है, यह बाल भी बड़ा कीमती है। यह बाल भी हजरत बाल है, यह कोई साधारण बाल नहीं है। यह बाल अगर चोरी चला जाएगा तो सैकड़ों लोगों की हत्या हो सकती है। लेकिन यह बाल बचाना पड़ेगा। और जब दंगे-फसाद हो जाएंगे, आग लग जाएगी और लाशें बिछ जाएंगी, तो वही मौलवी समझाएगा कि मोहम्मद का तो संदेश है शांति, सब शांति से रहो। इस्लाम का तो मतलब ही शांति है। सबको शांति से रहना चाहिए।
ये दोहरे चेहरे हम कब पहचानेंगे? राजनीतिज्ञ युद्ध करवाएगा और शांति की बातें करता रहेगा। अगर हम ये दोहरे चेहरे नहीं पहचानते, अगर ये डबल रोल हमारे खयाल में नहीं आता, तो आदमी का समाज कभी भी समाज नहीं बनेगा, यह अजायबघर ही बना रहेगा। लेकिन ये चेहरे पहचाने जा सकते हैं। इन चेहरों के भीतर खोज-बीन की जा सकती है।
आखिर राजनीतिज्ञ इतना युद्ध में क्यों उत्सुक है?
सभी महत्वाकांक्षी युद्ध में उत्सुक होते हैं। क्योंकि महत्वाकांक्षा गहरे में युद्ध की जन्मभूमि है। एंबीशस सारे लोग, जिनकी महत्वाकांक्षा है, युद्ध के आकांक्षी होंगे। क्योंकि शांति में महत्वाकांक्षा के पौधे को बढ़ने का कोई उपाय नहीं है। वह अशांति में ही बढ़ता है, अशांति उसके लिए खाद का काम करती है। और राजनीतिज्ञ महत्वाकांक्षी अंतिम सीमा का है, एंबीशस पार एक्सीलेंस, उसके आगे फिर और कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। वह महत्वाकांक्षा से मरा जा रहा है। उसे कुछ होना है, उसे समबडी होना है, उसे कुछ होकर दिखाना है। और इस कुछ होने के लिए वह न मालूम कितने जाल रचेगा--सिद्धांत के, आइडियालॉजी के, गरीबों के, समाजवाद के हित के, मंगल के, लोग-कल्याण के, सारी बातें करेगा। और पीछे सिर्फ एक बात है--वह दूसरा चेहरा पहचान लेना जरूरी है, अन्यथा बड़ी मुश्किल है। वह दूसरा चेहरा यह है कि उसे कुछ होना है। वह समाजवाद की सीढ़ियों से कुछ हो, कि साम्यवाद की सीढ़ियों से कुछ हो, कि वह गांधीवाद की सीढ़ियों से कुछ हो, यह सवाल दूसरा है, ये सीढ़ियां बेमानी हैं, उसे कुछ होना है, उसे समबडी होने की मंजिल तक पहुंचना है। और एक दफा वह मंजिल पर पहुंच जाए, तो वह सब सीढ़ियां पीछे गिरा देता है, क्योंकि फिर उन्हीं सीढ़ियों से दूसरे लोग भी आ सकते हैं। एक दफा उसे पहुंच जाने दो, फिर पहला काम वह उन सीढ़ियों को गिराने का करता है जिनसे वह पहुंचा था।
स्टैलिन साम्यवाद के नाम पर शक्ति में पहुंचा। फिर उसने सीढ़ियां गिरानी शुरू कीं। कहा तो यह जाता है कि लेनिन को ही उसने जहर देकर मारा। पक्का नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्टैलिन जैसे लोग जब जहर देते हैं तो पता लगाना बहुत मुश्किल बात है। लेकिन लेनिन के अंतिम वक्तव्य और पत्र यह कहते हैं कि जरूर कुछ गड़बड़ हुई है। लेनिन को अचानक मार डाला गया है। धीरे-धीरे जहर दिया गया है। लेनिन जिसकी सीढ़ियों से स्टैलिन चढ़ा उसे गिरा देना पड़ा।
ट्राटस्की को रूस छोड़ कर भाग जाना पड़ा। ट्राटस्की दूसरी सीढ़ी जिससे क्रांति ऊपर गई। और मैक्सिको में स्टैलिन के आदमी ने हथौड़ा मार कर उसकी खोपड़ी तोड़ दी, उसकी हत्या कर दी। रूस में उसका कुत्ता छूट गया था ट्राटस्की का, तो स्टैलिन के लोगों ने उसके कुत्ते को भी गोली से भून कर और सड़कों पर घसीटा। क्योंकि कुत्ते को भी, ट्राटस्की का कुत्ता, उसको भी नहीं बचने देना चाहिए। कुत्ते पर भी तो कोई चढ़ सकता है, सीढ़ी बन सकता है। ट्राटस्की का कुत्ता! गांधी जी की खड़ाऊं सीढ़ी बन सकती हैं तो ट्राटस्की का कुत्ता क्यों सीढ़ी नहीं बन सकता। चढ़ने के लिए कोई भी चीज काम दे सकती है। उसको भी गोली से भून डाला।
स्टैलिन ने फिर करीब अंदाजन साठ लाख से लेकर एक करोड़ लोगों की हत्या की रूस में। एक करोड़ पूंजीपति रूस में कहां? दुनिया के किसी मुल्क में नहीं हैं। तो एक करोड़ कौन से लोग मारे? इसमें मजदूर भी हैं, इसमें गरीब भी हैं।
अब बड़े मजे की बात है जिन गरीबों के लिए क्रांति हुई उन्हीं गरीबों को गोली से भून दिया गया। फिर सीढ़ियां तोड़ देनी पड़ीं। फिर सब सीढ़ियां तोड़ देनी पड़ीं। स्टैलिन ने एक-एक आदमी का सफाया किया, एक-एक सीढ़ी का पहिया तोड़ा। तोड़ता चला गया।
स्टैलिन के मरने के बाद ख्रुश्र्चेव एक सभा में बोल रहा था, तो सभा में उसने कहा कि स्टैलिन ने इतनी-इतनी हत्याएं कीं, इस-इस तरह से समाजवाद को नुकसान पहुंचाया। एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि आप भी तो स्टैलिन के साथ जिंदगी भर थे, आपने पहले क्यों नहीं कहा? तो ख्रुश्र्चेव न कहा कि महाशय, जरा खड़े हो जाइए, ठीक से मैं चेहरा देख लूं, आपका नाम क्या है? वह आदमी खड़ा नहीं हुआ, फिर दुबारा बोला भी नहीं उस भीड़ में। ख्रुश्र्चेव ने कहा: आप चुप क्यों हो गए? जिस वजह से आप चुप हैं उसी वजह से में भी चुप रहा। क्योंकि यह चेहरा अगर दिखाई पड़ जाए, तो कल फिर बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगा। इसलिए मुझे भी चुप रहना पड़ा। क्योंकि एक दफा बोलता तो हमेशा के लिए...। जब लेनिन और ट्राटस्की न बचते हों, तो बेचारे ख्रुश्र्चेव के बचने की क्या उम्मीद थी; चुप रह कर बच सकता है।
सारी दुनिया में ऐसा चलता है--सीढ़ियां तोड़नी पड़ती हैं; जिन सीढ़ियों से आदमी चढ़ता है। लेकिन यह चढ़ने वाले लोगों की आकांक्षा सिर्फ कुछ होने की है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कौन सी सीढ़ियों का उपयोग करते हैं। वे हमेशा उन सीढ़ियों का उपयोग करते हैं जिनकी पापुलर अपील है, जिन बातों की लोकप्रियता हैं। गरीब के सहारे, गरीब के कंधे पर बहुत लोग चढ़ते हैं। क्योंकि गरीब के मन में बड़ी पीड़ा है। और कोई भी कहे कि हम तुम्हारे लिए खड़े हैं। लेकिन आज तक इस पृथ्वी पर गरीब के लिए कोई भी खड़ा हुआ नहीं है। और गरीब ही अपने लिए जब तक खड़ा नहीं होता तब तक कोई गरीब के लिए खड़ा नहीं हो सकता है। तब तक उसे शोषण के नये जाल मिलेंगे।
राजनीतिज्ञ की मौलिक आकांक्षा स्वयं के अहंकार की तृप्ति है। असल में जिस दिन अहंकार की तृप्ति की दौड़ न रह जाएगी, उस दिन राजनीतिज्ञ नहीं बचेगा। अहंकार की गहरी दौड़ है कि मुझे कुछ होना है, और यह दौड़ राजनीतिज्ञ को है ऐसा नहीं, राजनीतिज्ञ हमारे बीच जो सबसे ज्यादा दौड़ से भर जाते हैं वे लोग हैं। और थोड़े लोग दूसरी तरह दूसरी दिशाओं में दौड़ करते रहते हैं। असल में हम पहल
े दिन ही बच्चे को राजनीतिज्ञ होना सिखाते हैं। आपका लड़का पहले दिन स्कूल जाता है और आप कहते हैं, पहले नंबर आना है। आपने राजनीति का जहर बोना शुरू कर दिया। इस बच्चे को पता ही नहीं, न आपको पता है, न इसके शिक्षक को पता है कि राजनीतिज्ञ पैदा होने लगा। पहले नंबर आना है! बच्चे में जहर हमने डालना शुरू कर दिया, पाय़जन बो दिया उसके खून में। अब वह जिंदगी भर कोशिश करेगा पहले नंबर होने की। और अगर बहुत पागल हो गया पहले नंबर में, तो राजनीतिज्ञ हो जाएगा। अगर थोड़ा पागल रहा, तो दूसरी दिशाओं में भी थोड़ी-बहुत तृप्ति मिल सकती है। चित्रकार हो सकता है, मूर्तिकार हो सकता है, धर्मगुरु हो सकता है। लेकिन अगर दौड़ जोर से पकड़ी और चरम हो गई, तो राजनीतिज्ञ के सिवाय और कुछ होने का उपाय नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को नंबर एक होना है।
हम यहां इतने लोग बैठे हैं, अगर हम सारे लोगों को एक गोल घेरा बना दिया जाए और कहा जाए यह रहा राष्ट्रपति का सिंहासन और सबको इस पर पहुंच जाना है, तो यह हॉल अभी पागल हो जाए, अभी हम सब दौड़ने लगें। और उस एक जगह पर जो पहुंच जाए, उसका भी टिकना मुश्किल है, क्योंकि बाकी सारे लोग धक्के दे रहे हैं उसको हटाने के। जो नहीं पहुंच पाया, वह अपनी जगह नहीं टिक सकता, क्योंकि उसे पहुंचना है। जो पहुंच गया, वह भी नहीं टिक सकता, क्योंकि दूसरों को उसे हटाना है। और यह हॉल अगर पागल हो जाए तो आश्र्चर्य है!
आदमी की जिंदगी अजायबघर में खड़ी हो गई है, क्योंकि हम सब नंबर एक होने की पागल दौड़ में लगे हुए हैं। वह धन की दौड़ हो, यश की दौड़ हो, पद की दौड़ हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जब तक हम आदमी को नंबर एक होने की दौड़ से मुक्त नहीं करते हैं तब तक आदमी स्वस्थ नहीं हो सकता है।
इसलिए दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं: सीमाएं टूटनी चाहिए सब भांति की। और मनुष्य की महत्वाकांक्षा के आमूल आधार गिरा दिए जाने चाहिए। महत्वाकांक्षा है तो नये रूपों में प्रकट होती रहेगी। महत्वाकांक्षा बहुत अजीब है। महत्वाकांक्षा यह कहती है कि मुझे कुछ होना है। जब कि मजे कि बात यह है, जो मैं हूं वह मैं हूं, होने का सवाल नहीं है। होने की बात ही गलत है। मैं जो हूं वह हूं। और हर आदमी अलग-अलग है। और जिंदगी बड़ी अनूठी है, यहां एक-एक आदमी अद्वितीय है, बेजोड़ है। मैं मैं हूं, आप आप हैं। और कौन कहता है कि मुझे आप होना है और आपको मुझे होना है। अगर ऐसी बात पैदा होगी, तो हम पागल हो जाएंगे। दुनिया में दो आदमियों के अंगूठे के निशान एक से से नहीं हैं, तो दो आदमियों की आत्माएं कैसे एक सी हो सकती हैं। दुनिया में दो आदमियों के हाथ की रेखाएं समान नहीं हैं, तो दो आदमियों की जिंदगी एक सी कैसे हो सकती है। एक-एक आदमी बेजोड़ है। लेकिन हमारा पुराना पूरी मनुष्य-जाति का इतिहास तुलना करना सिखाता है कि दूसरे से आगे, दूसरे जैसे, दूसरे से ऊपर, और कोई भी नहीं कहता कि अपने जैसे होना। जब तक हम बच्चों को यह न सिखा सकेंगे कि प्रत्येक अपने जैसा हो, कभी दूसरे जैसे होने की दौड़ में न पड़े, तब तक राजनीति से छुटकारा नहीं हो सकता। लेकिन हम किसी बच्चे को स्वीकार नहीं करते जैसा वह है। हम स्वीकार ही नहीं करते। हम तो कहते हैं उसे किसी और जैसे होना है। हम बच्चे को कहते हैं: राम बनो, बुद्ध बनो, कृष्ण बनो, गांधी बनो, रवींद्र बनो, विवेकानंद बनो, कोई बनो, लेकिन भूल कर खुद मत बनना, बस इतना भर छोड़ देना, और कोई भी बनो।
अब बड़े मजे की बात है, उस बच्चे ने क्या कसूर किया है कि विवेकानंद बने? और विवेकानंद किस जैसे बने थे, कोई पूछे? विवेकानंद अपने जैसे बने। और इस बच्चे की कौन सी भूल है कि विवेकानंद जैसा बने? विवेकानंद राम जैसे नहीं बने, और न कृष्ण जैसे बने, और न बुद्ध जैसे बने। और बुद्ध किसी राम की फिकर नहीं किए और किसी कृष्ण की फिकर नहीं किए, वे अपने जैसे बने।
इस पृथ्वी पर जो थोड़े से नाम हमें सुरभित और सुगंधित मालूम पड़ते हैं, वे वे लोग हैं जो अपने जैसे बने। और बाकी सारी मनुष्यता सौरभ खो देती है, सुगंध खो देती है, क्योंकि दूसरे जैसे बनने की दौड़ में पड़ जाती है। दूसरे जैसे बनने की दौड़, दूसरे के पद पर होने की दौड़, दूसरे के मकान जैसा मकान, दूसरे के कपड़े जैसे कपड़े, दूसरे के पद जैसा पद। इसमें छोटे से चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक सब संलग्न हैं। इस दौड़ से जिंदगी सुगंध को, सौंदर्य को उपलब्ध नहीं हो पाती। और जब कोई आदमी अपने भीतर सुगंध से हीन हो जाता है और अपने भीतर सौंदर्य से हीन हो जाता है और कुरूप हो जाता है, और जब कोई आदमी अपने जिंदगी के फूलों को खिलाने में असमर्थ हो जाता है, तब, तब वह दूसरों के फूल न खिल पाएं इसकी कोशिश में लग जाता है। तब वह इस कोशिश में लग जाता है कि मैं तो कुछ हो नहीं पाया, अब मैं किसी दूसरे को कुछ न होने दूं, इतना भी काफी तृप्ति होगी। जो आदमी भीतर दुखी हो जाता है वह दूसरे के सुख को मिटाने की चेष्टा में संलग्न हो जाता है। जो आदमी भीतर अशांत और बेचैन हो जाता है उसका फिर एक ही सुख रह जाता है कि कोई दूसरा शांत न हो जाए। और तब जिंदगी में हम अपने सुख की यात्रा छोड़ कर दूसरे को दुखी करने की यात्रा में लग जाते हैं। हम सब इस यात्रा में लगे हुए हैं। हम सबके हाथ एक-दूसरे की गर्दन पर हैं।
चैस्टटन एक सुबह एक बगीचे में था। और बर्नार्ड शॉ और वे दोनों घूम रहे थे। तो बर्नार्ड शॉ ने ऐसे ही चैस्टटन से पूछा। चैस्टटन बहुत मोटा आदमी था। बर्नार्ड शॉ तो दुबले-पतले थे। वह अपने दोनों खीसों में हाथ डाले घूम रहा था। बर्नार्ड शॉ ने ऐसे ही पूछा कि क्या यह हो सकता है कि एक आदमी अपने ही खीसों में हाथ डाले जिंदगी गुजार दे? चैस्टटन ने कहा: हो सकता है, हाथ अपने होने चाहिए, खीसे दूसरे के।
यह उसने मजाक में ही कहा था, लेकिन यह सच्चाई है। हाथ हमारे हैं, खीसे सदा दूसरों के हैं।
हम सब दूसरों के खीसों में हाथ डाले हुए हैं। सबके हाथ दूसरों के खीसे में हों, और सबके हाथ दूसरों की गर्दनों पर हों, और सबके हाथ दूसरे का सुख छीनने में लगे हों, तो जिंदगी सुखी हो सकती है? तो जिंदगी दुखी हो जाएगी, कुरूप हो जाएगी, बेमानी हो जाएगी, हत्यारों का एक समूह हो जाएगा, बेईमानों का एक समूह हो जाएगा। और जहां इतनी बेईमानी, इतनी हत्याएं, इतनी चोरी, इतनी घृणा और इतनी हिंसा होगी, और इतना दूसरों को दुख पहुंचाने की आकांक्षा होगी, वहां एकाध आदमी भी कैसे सुखी और शांत हो सकता है। बहुत कठिन हो जाएगी यह बात। उतनी ही कठिन हो गई है। और इसलिए जैसे-जैसे सभ्यता बढ़ती है, सभ्यता यानी दूसरों के खीसों में हाथ बढ़ते हैं, दूसरों की गर्दन पर हमारी अंगुलियां कसती चली जाती हैं। जैसे-जैसे सभ्यता बढ़ती है वैसे-वैसे आदमी पागल होता चला जाता है। यह संभव है कठिन नहीं कि हजार दो हजार वर्ष में ऐसा न हो कि अभी हमको पागलों को कारागृह में बंद करके रखना पड़ता है, फिर अच्छे आदमियों को बंद करके रखना पड़े। क्योंकि पागल इतने ज्यादा हो जाएं कि उनके लिए कारागृह बनाना मुश्किल हो, और अच्छे आदमी इतने कम रह जाएं कि उनको बचाने का सवाल हो जाए। यह हो सकता है। यह बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि धीरे-धीरे बात बिगड़ती ही चली जाती है। लेकिन हम पागलपन को अच्छे-अच्छे नाम देते हैं। हम महत्वाकांक्षा पर अच्छे-अच्छे लेबल लगाते हैं। दोहरा काम हो जाता है, फिर भूल हो जाती है, हम पागलपन को अच्छा नाम देते हैं। अगर मैं आपको छुरा मार दूं तो मैं पागल हूं, लेकिन अगर मैं कहूं कि मैं हिंदू हूं और आप मुसलमान हैं, तो फिर मैं पागल नहीं हूं, यह बड़े मजे की बात है। मैं एक बच्चे को आग में जला दूं तो मैं पागल हूं, लेकिन अगर बच्चा हिंदू है और मैं मुसलमान हूं, तो फिर मैं पागल नहीं हूं। क्या फर्क पड़ेगा बच्चे के आग में जलने से कि वह हिंदू है या मुसलमान है। बच्चा आग पर जलेगा हर हालत में। और बच्चे के प्राणों में वही पीड़ा होगी, मुसलमान होने से कम न होगी, हिंदू होने से ज्यादा न होगी। बच्चा बच्चा है और बूढ़ों के पाप के लिए उसको फल दिया जा रहा है। उस बच्चे को जलने में वही पीड़ा होनी है, और इस जगत में वही कुरूप घटना घट रही जो बच्चे को जला रहा है, वह पत्थर हुआ जा रहा है भीतर, वह हिंदू हो या मुसलमान इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अगर मैं सीधा-सीधा बच्चे को जला दूं, तो मैं पागल समझा जाऊंगा, हत्यारा। लेकिन अगर में मुसलमान के बच्चे को जलाऊं, तो मेरा जुलूस भी निकाला जा सकता है कि यह आदमी बहुत धार्मिक है। हम पागलपनों को नाम देते हैं!
मेरे पड़ोस में एक आदमी रहते हैं, वे नल पर पानी भरते हैं, तो अगर कोई स्त्री निकल जाए, तो वे फिर से बर्तन को धोते हैं, कोई स्त्री दिख जाए, फिर से बर्तन को धोते हैं। कभी-कभी सौ दफे भी ऐसा करना पड़ता है। क्योंकि सड़क है, किसी स्त्री पर रोक तो लगाई नहीं जा सकती। और गरीब आदमी है वह, तो घर में कोई नल नहीं है, चौरस्ते के नल पर पानी भरना पड़ता है। लेकिन स्त्री दिख जाए तो उनका घड़ा जो है अपवित्र हो जाता है, तो वे उसको धो डालते हैं। लेकिन मोहल्ले के लोग उनको धार्मिक आदमी कहते हैं कि वे बहुत धार्मिक आदमी हैं। कई लोग उनके पैर भी छूते हैं। मैंने एक दिन पूछा कि इनका इतना आदर किसलिए? उन्होंने कहा: आपको पता नहीं, ये बहुत धार्मिक आदमी हैं। अगर स्त्री निकल जाती तो ये घड़े को फिर से धोते हैं। अब यह आदमी पागल होता, इसको पागलखाने में रखना चाहिए, इसका इलाज होना चाहिए। लेकिन यह आदमी धार्मिक हो गया। क्योंकि दस पागल मिल गए हैं जो कह रहे हैं कि यह बहुत अदभुत घटना है यह घड़े को धोना। यह रिचुअल पागल का है। घर में एक आदमी माला फेर रहा है, तो हम कहते हैं, धार्मिक आदमी है। लेकिन सोचें, अगर माला फेरना धार्मिक न होता हमारे खयाल में और अचानक घर में एक आदमी गुरियों पर ऐसा हाथ फेरने लगता आंख बंद करके, तो हम डाक्टर को खबर करते कि इस आदमी को क्या हो गया है? इसको क्या हो गया, यह आंख बंद करके गुरिए सरका रहा है? लेकिन हम नहीं कहेंगे यह डाक्टर को बुला कर क्योंकि हमने यह मान लिया, इस पर हमने एक लेबल लगाया है जो धार्मिकता का है।
तिब्बत में उन्होंने एक प्रेयर-व्हील बनाया हुआ है। वे और होशियार लोग हैं। उन्होंने एक चरखे जैसा एक चाक बना लिया, उसमें एक सौ आठ आरे लगा दिए और प्रत्येक पर मंत्र लिख दिया। एक सौ आठ गुरिए हम फेरते हैं, उन्होंने एक सौ आठ स्पोक वाला व्हील बना लिया, उसको प्रेयर-व्हील, प्रार्थना-चक्र। वे उसको घुमा देते हैं, एक धक्का मार दिया, वह प्रेयर-व्हील दस-पांच चक्कर लगा लेता है, उतने मंत्रों का उनको लाभ मिल जाता है। अब तो बिजली पहुंच गई होगी। अब तो उनको प्लग लगा देना चाहिए, वह दिन भर चक्कर लगाता रहेगा। वह धार्मिक आदमी है। जितने चक्कर लग गए, उतने गुना एक सौ आठ उनको मंत्र का लाभ मिल गया। यह आदमी, कभी भी समझदारी होगी, तो इसका हमें इलाज करना पड़ेगा। यह क्या कर रहा है? यह क्या कर रहा है? लेकिन जब हम लेबल लगा देते हैं, तो पागलपन पहचानना मुश्किल हो जाता है। पूरब के मुल्कों में इसीलिए पागलों की संख्या कम है पश्र्चिम के मुल्कों की बजाय, और कोई कारण नहीं है। कई तरह के पागलों पर यहां दूसरे लेबल लगे हैं, वहां सब तरह के पागल पर पागल का लेबल लग गया है। वहां संख्या ज्यादा मालूम पड़ती है, यहां कम मालूम पड़ती है। संख्या बराबर, संख्या में कोई फर्क नहीं है, लेकिन यहां पागलों में कई तरह के
विभाजन हैं। कुछ धार्मिक पागल हैं, उनको फिर पागल नहीं कहते हैं। कुछ राजनैतिक पागल हैं, उनको हम पागल नहीं कहते। कुछ और तरह के पागल हैं, ढंग-ढंग के पागल हैं, उनको हम पागल नहीं कहते, तो फिर पागल कम बच जाते हैं, क्योंकि कई पागल पागल के लेबल से बच कर दूसरा लेबल लगाए हुए हैं। लेकिन यह हमें पहचानना पड़ेगा।
महत्वाकांक्षा पर भी दूसरे लेबल लग जाते हैं। कोई कहता है, जनता की सेवा करनी है, लेकिन वह तभी तक कहता है जब तक पद पर नहीं होता। पद पर पहुंचते से ही जनता यानी क्या, कोई मतलब ही नहीं रह जाता, जनता की कोई फिकर नहीं रह जाती। जनता की सेवा पूरी हो गई, क्योंकि फलां आदमी पद पर पहुंच गया। पद पर पहुंचना था इसलिए जनता की सेवा भी करनी पड़ती थी। अब वह पद पर पहुंच जाने के बाद जनता विदा हो जाती, उससे कोई मतलब नहीं रह जाता। लेकिन जनता की सेवा का लेबल लगाने से महत्वाकांक्षा को बचाव मिल जाता, फिर महत्वाकांक्षा चल सकती है। इसलिए जनता के सेवकों से अब सावधान होने की जरूरत है। जनता के सेवकों ने मनुष्य का जितना अनहित किया है अब तक, उतना सीधे-सीधे दुष्टों ने नहीं किया, क्योंकि दुष्टों से हम सावधान हो सकते हैं। दुष्ट ऐसा आदमी है जिससे हम सावधान हो सकते हैं, क्योंकि डर है कि वह कोई नुकसान पहुंचा दे। सेवक ऐसा आदमी है जो पैर दबाने से शुरू करता है और आखिर में गर्दन पकड़ लेता है। उसे पहचानना मुश्किल है, क्योंकि पैर दबाने वाला आदमी गर्दन पकड़ेगा इसका खयाल ही नहीं आता। और पैर दबाते-दबाते हमारी नींद लग जाती है और वह गर्दन पर पहुंच जाता है। असल में पैर दबाना गर्दन को पकड़ने की सीढ़ी है, तरकीब है।
ये दोहरे चेहरों से सारी मनुष्यता को सावधान होने की जरूरत है। और लेबल उखाड़ कर भीतर की सचाई क्या है, वह देखने की जरूरत है। तो शायद हम मनुष्य का समाज निर्मित कर पाएं, अन्यथा समाज निर्मित नहीं हो पाएगा।
एकाध-दो बातें इस संबंध में और समझ लेनी जैसी हैं। यह मनुष्यों में इतना रुग्ण-चित्त कैसे है? क्यों है? आदमी सहज और सरल क्यों नहीं है? सारे लोग समझाते हैं सहज होना चाहिए, सरल होना चाहिए, लेकिन आदमी सहज और सरल बिलकुल नहीं है। आदमी बहुत जटिल है। बल्कि जिनको हम सहज और सरल कहते हैं उनकी जटिलता और भी अदभुत है।
मैं एक दिन ट्रेन में चला, मेरे साथ एक संन्यासी सवार हुए। वे संन्यासी टॉट के कपड़े बांधे हुए थे, फट्टियां, उनको बांधे हुए थे। बहुत लोग उन्हें छोड़ने आए थे। मैंने किसी से पूछा, उन्होंने कहा, बड़े सरल आदमी हैं, देखते नहीं कपड़ा भी नहीं पहनते हैं, फट्टियां बांधे हुए हैं, टॉट बांधे हुए हैं, इतने सरल आदमी हैं। मैं सोचने लगा कि टॉट बांधने से सरलता का क्या संबंध हो सकता है? फिर भी, अब वे लोग इतने कहने आए तो ठीक ही कहते होंगे। फिर ट्रेन चल पड़ी, मैं आंख बंद करके लेटा रहा। उन्होंने अपनी टॉटपट्टियां निकाल कर रखीं, एक छोटी सी टोकरी थी, उसमें दो-तीन पट्टियां, टॉटपट्टियां और थीं, वह उनके बाकी कपड़े होंगे। उन्होंने मेरी तरफ देखा कि मैं जागा तो नहीं हूं। मैं तो आंख बंद किए पड़ा था। फट्टियों के नीचे से उन्होंने रुपये निकाले, जल्दी से गिनती की, फट्टियों के नीचे वापस रख दिए। रुपये उनको भेंट में मिले होंगे। फिर भी उनको डर लगा, हालांकि हम दो ही थे उस कमरे में, तो उन्होंने वे रुपये फिर अपने सिर के नीचे रख कर और फट्टियों में दबा कर और सो गए।
सुबह जब वे उठे, तो मैंने देखा, आईने के सामने खड़े हैं और फट्टियां बांध रहे हैं बड़े साज-संवार से। आईने के सामने फट्टियां बांधने का कोई अर्थ समझ में नहीं आता। आईने के सामने कोई रेशम के कपड़े बांधता हो, तो एकदम समझ में आ जाएगा कि श्रृंगार कर रहा है। लेकिन आईने के सामने कोई नंगा फकीर फट्टियां बांधता हो, तो हमारी समझ में न आएगा। वह भी श्रृंगार कर रहा है, वह भी तैयारी कर रहा है अपनी। एक तरह से बांधी है फट्टी, फिर दूसरी तरह से बांधी है, फिर तीसरी तरह से बांध कर तैयार हो गए हैं। आईने में देख कर प्रसन्न हुए हैं। वे समझ रहे हैं कि मैं सो रहा हूं। और मैं यह देख कर हैरान हूं कि आदमी का मन कितना चालाक है। वह टॉटफट्टियों से भी रेशम और मखमल का काम ले सकता है। श्र्ृंगार का भाव वही का वही है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ा है। एक स्त्री जैसे तैयार हो रही हो, ऐसे वे भी तैयार हो रहे हैं। मैं तैयारी को मना नहीं करता हूं, लेकिन फट्टियों के पीछे तैयारी छिपी हो तो हमें लगता है सरलता आ गई। लेकिन धोखा हो जाता है। सादगी के पीछे कठिनाई छिप जाती है तो धोखा हो जाता है। ऊपर से सादगी होती है, भीतर कठिन आदमी होता है। ऊपर सफेद कपड़े होते हैं, भीतर काला आदमी छिप जाता है, तो धोखा हो जाता है।
आदमी को सरल होना चाहिए। क्योंकि सरल हुए बिना आदमी आनंदित नहीं हो सकता। लेकिन सरल आदमी को किसने नहीं होने दिया है? क्या आदमी खादी के कपड़े पहन ले, तो सरल हो जाएगा? फट्टियां पहन ले, तो सरल हो जाएगा? नंगा खड़ा हो जाए, तो सरल हो जाएगा?
सरल होना इतना सरल नहीं है। आदमी सिर्फ एक ही शर्त पर सरल हो सकता है, और वह सरलता आएगी आदमी अपने को स्वीकार कर ले, जैसा है वैसा स्वीकार कर ले। अगर उसे आईने में चेहरे को देख कर आनंद आता है, तो वह छिप कर न देखे, वह कह दे कि मुझे आईने में चेहरे को देख कर आनंद आता है, तो आदमी सरल हो जाएगा। अगर वह छिप कर आईने को देखेगा, तो सरल नहीं होगा, जटिल हो जाएगा। और अगर उसने कहा कि रेशम पहनना मुझे बिलकुल पसंद नहीं, मुझे तो टॉटफट्टियां पसंद हैं, और टॉटफट्टियों को भी आईने में देखेगा, तो वह टॉटफट्टियों के साथ रेशम का व्यवहार करेगा, और भी जटिल हो जाएगा। आदमी जैसा है अपने को स्वीकार कर ले, तो सरलता आ सकती है।
लेकिन पिछले मनुष्य-जाति के इतिहास ने हमें सरल नहीं होने दिया, उसने हमें उलटी बातें सिखाई हैं। आदमी के मन में जो भी है उससे उलटी बातें सिखाई हैं, तो आदमी जटिल हो गया है। जटिल होने से रुग्ण हो गया है। रुग्ण होने से विक्षिप्त हुआ चला जा रहा है।
हर आदमी सुख चाहता है। लेकिन पुरानी संस्कृति कहती है, दुख झेलना त्याग है। हर आदमी सुख चाहता है। और अगर कोई आदमी दुख झेलता होगा तो एक ही कारण से झेल सकता है कि उसे दुख में भी सुख आता हो, और कोई कारण नहीं हो सकता। कुछ ऐसे रुग्ण लोग हैं जिन्हें दुख में भी सुख आता है। कुछ ऐसे रुग्ण लोग हैं जिन्हें दुख में सुख आता है, वे बीमार हैं, क्योंकि दुख में जिसे सुख आता है वह स्वस्थ नहीं है, उसका मन विकृत हो गया।
लेकिन पुरानी सारी मनुष्यता की शिक्षा कहती है कि दुख में सुख लेना चाहिए, ये आदमी को जटिल और पागल करने के उपाय हैं। यह आदमी स्वस्थ नहीं हो सकेगा। आदमी सुख चाहता है। त्याग की बातें, तप की बातें, दुख को वरण करने की बातें आदमी को जटिल कर देंगी। ऊपर से दुख को वरण करेगा, पीछे से सुख के रास्ते खोजेगा। दोहरा चित्त हो जाएगा। पाखंड, हिपोक्रेसी विकसित होगी, और कुछ भी नहीं हो सकता।
आदमी को समझाया गया है भोजन करना, लेकिन स्वाद मत लेना। अब आदमी को पागल करने के सब उपाय किए गए हैं। भोजन करना, लेकिन स्वाद मत लेना, अस्वाद से भोजन करना। अब आदमी स्वाद चाहता है। और सच तो यह है कि आदमी ही अकेला पृथ्वी पर एक ऐसा प्राणी है जो स्वाद का अनुभव कर पाता है। पशु-पक्षी सिर्फ भोजन करते हैं। स्वाद मनुष्य की विशिष्टता है। स्वाद एक बड़ा विकास है। आदमी स्वाद चाहता है। लेकिन सिखाया गया है स्वाद लेना मत। तब एक आदमी आंख बंद करके भोजन करता है और सब कोशिश करता है कि स्वाद न ले ले। नमक से बचता है, शक्कर से बचता है, घी से बचता है, इससे बचता है, उससे बचता है। सिर्फ बेस्वाद आता है, स्वाद से मुक्ति नहीं होती। और बेस्वाद स्वाद का ही रूपांतर है। बेस्वाद भोजन करना स्वाद का ही हिस्सा है। और पूरे वक्त पता चलता है कि सब बेस्वाद है। लेकिन वह बेस्वाद में मजा लेने की कोशिश कर रहा है। अब वह उलटे काम कर रहा है, वह शीर्षासन लगाने की कोशिश में लगा है, जिससे विक्षिप्त हो जाएगा।
मैंने सुना है कि कहीं पृथ्वी के एक कोने पर ऐसा गांव है, जहां के धर्मशास्त्र कहते हैं कि मनुष्य के ठीक-ठीक खड़े होने की व्यवस्था शीर्षासन है। और जो पैर पर खड़ा होता है वह पापी है। तो उस गांव में बच्चे पैदा करने से ही सिर के बल खड़े किए जाते हैं। इसका परिणाम यह तो नहीं होता कि बच्चे सिर के बल खड़े हो जाना सीख जाते हों। एक परिणाम जरूर होता है कि पैर के बल चलना नहीं सीख पाते। सिर के बल तो खड़े होना सीख ही नहीं पाते। लेकिन सिर के बल खड़े करने की चेष्टा में पैर में जो शक्ति आनी थी पैर पर खड़े होने की, जो प्रशिक्षण होना था वह भी नहीं हो पाता। हां, कुछ बच्चे सिर के बल खड़े हो जाते हैं। और सिर के बल केवल वे ही बच्चे खड़े हो जाते हैं जो बच्चों में सबसे ज्यादा मंदबुद्धि के हैं। क्योंकि मंदबुद्धि को कोई फर्क नहीं पड़ता, वह गोबर-गणेश है, उसे कैसा भी खड़ा कर दो। उसे सिर के बल खड़ा कर दो, तो वैसा ही खड़ा हो जाता है। बुद्धिहीनता सिर के बल भी खड़ी हो सकती है, बुद्धिमान तो इनकार करेगा। तो जो बुद्धिहीन हैं उस देश में वे सिर के बल खड़े होने में समर्थ हो जाते हैं। उनके सिर बड़े-बड़े हो जाते हैं, धीरे-धीरे पैर छोटे हो जाते हैं। फिर वे सिर के बल ही खड़े रहते हैं। उनके सिर कद्दू हो जाते हैं, आदमी के सिर नहीं रह जाते। लेकिन लोग उनको महात्मा कहते हैं और नारियल चढ़ाते हैं और हाथ-पैर जोड़ते हैं। और जो लोग पैर के बल चलते हैं वे बेचारे सेल्फ-कंडेम्ड हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि हम पाप कर रहे हैं, क्योंकि पैर के बल चल रहे हैं। और जब पैर के बल दो-चार मील चल कर लौटते हैं, तो पाप के प्रायश्र्चित्त के लिए, कद्दू हो गए किसी सिर को नमस्कार करते हैं कि हे महात्मा, हमसे बड़ी गलती हो गई, माफ कर देना। उस गांव में जो स्वस्थ हैं वे पापी समझे जाते हैं और जो रुग्ण हैं और पागल हो गए हैं और बुद्धि खो दी है वे महात्मा हो गए हैं। मैं बड़ा हैरान हुआ कि यह गांव कहां है? मैं रात सोचता-सोचता सो गया कि यह गांव कहां है? रात सपने में मुझे खयाल आया, यह अपने ही देश की खबर है। सुबह मैं बहुत हैरानी में जगा। मैं तो सोचता था यह गांव कहीं ओर होगा, लेकिन वह यही निकला हमारा ही गांव, हमारा ही देश।
सारी मनुष्यता ही ऐसे, पूरी पृथ्वी ही सिर के बल खड़े होने की कोशिश करती रही है। उस कोशिश में आदमी जटिल, रुग्ण, बीमार, विक्षिप्त, परवर्ट हो गया है। आदमी जैसा है उसे स्वीकार करना पड़ेगा सीधा। उसके भीतर क्रोध है, तो क्रोध को स्वीकार करना पड़ेगा। उसके भीतर सेक्स है, तो सेक्स को स्वीकार करना पड़ेगा। उसके भीतर प्रेम है, तो प्रेम को स्वीकार करना पड़ेगा। स्वाद है, तो स्वाद। सुख है, तो सुख। उसकी जो आकांक्षाएं हैं, उसकी जो इच्छाएं हैं, वे सब स्वीकार करनी पड़ेंगी। लेकिन पुरानी संस्कृति सबको काट डालने को कहती है। इच्छाओं को काट डालो, तब स्वर्ग मिल सकता है। आकांक्षाओं को जला डालो, तब मुक्त हो सकते हो। आदमी जो है वह न रह जाए, सब नष्ट-भ्रष्ट कर दो, तब कुछ होगा। लेकिन यह बड़ी उलटी बात है। इस उलटी बात का सिर्फ एक ही परिणाम हो सकता है कि हम ऊपर से और हो जाएं, भीतर से और हो जाएं। और जिंदगी दोहरे रास्तों पर दौड़ने लगे। और जिंदगी पाखंड हो जाए। पाखंडी समाज अजायबघर ही बनेगा, समाज नहीं बन सकता।
स्वस्थ समाज बनाने का नियम होगा कि हम म
नुष्य जैसा है प्रकृति से उसे पूरा का पूरा स्वीकार करें। महात्माओं पर थोड़ा कम ध्यान दें और परमात्मा पर थोड़ा ज्यादा ध्यान दें। परमात्मा जो दे रहा है, आदमी को जैसा बना रहा है उसकी तरफ फिकर करें। महात्मा परमात्मा के बड़े पुराने दुश्मन हैं। वे महात्मा परमात्मा के बड़े खिलाफ हैं। वे कहते हैं, परमात्मा ने ऐसा आदमी बनाया यह ठीक नहीं है। हम ऐसा आदमी बनाना चाहते हैं, यह ठीक आदमी होगा। परमात्मा का बनाया हुआ आदमी गलत है। महात्मा एक नया आदमी बनाने की कोशिश में लगे हैं, अब तक सफल नहीं हुए, लेकिन उनकी कोशिश में आदमी को पंगु और क्रिपिल्ड कर दिया। उनके प्रयास अब बंद हो जाने चाहिए। महात्माओं से छुटकारा चाहिए ताकि हम परमात्मा के निकट पहुंच सकें। यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ेगी। क्योंकि हमें तो लगता है महात्मा परमात्मा की तरफ ले जाने वाले गुरु हैं।
महात्मा कभी परमात्मा तक नहीं ले जा सकते। क्योंकि महात्मा परमात्मा ने जो भी निर्मित किया उस सबका विरोध कर रहे हैं। वे कहते हैं, यह पृथ्वी असार, यह जीवन पाप, यह आदमी की इच्छाएं सब अंधकार, नरक। आदमी जैसा है ऐसा नहीं, एक आइडियल है। एक आदर्श आदमी उन्होंने बनाया है जो कहीं भी नहीं है। वे उस आदर्श आदमी की शक्ल में सबको ढाल देना चाहते हैं। उनकी ढालने की कोशिश में एक-एक आदमी मरा जा रहा है, सब तरफ से टूटा जा रहा है। लेकिन उनकी कोशिश जारी है। और वे बड़े मजबूत रहे अब तक। लेकिन अब आगे उनकी मजबूती से छूटना पड़ेगा।
अगर हम चाहते हैं स्वस्थ मनुष्य विकसित हो, तो मनुष्य की प्रकृति को स्वीकार करना पड़ेगा। और प्रकृति की स्वीकृति से परमात्मा तक पहुंचने का द्वार मिल सकता है। क्योंकि प्रकृति परमात्मा का द्वार है। और हम जैसे हैं उसे स्वीकार करना पड़ेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि हमारी स्वीकृति से हम जैसे हैं वैसे ही रह जाएंगे। नहीं, हम जैसे हैं जैसे ही हम स्वीकार करेंगे, हममें ट्रांसफार्मेशन, रूपांतरण शुरू हो...
...तो क्रोध करना मुश्किल हो जाता है। जब तक मैं क्रोध को दबाता हूं तब तक यह होता है कि दिन में दस दफे दबा लेता हूं और एक दफे हो जाता है। दस दफे का इकट्ठा हो जाता फिर एक दफे में बह जाता। इसलिए जो आदमी दिन में क्रोध को दबा रहा हो, उससे जरा सावधान रहना, सांझ होते-होते वह क्रोध करेगा। और जिस आदमी ने दो-चार दिन क्रोध दबाया हो, उससे वीकएंड में मिलना ही मत। और जिस आदमी ने साल-दो साल क्रोध किया, उससे दोस्ती मत करना, वह हत्या भी कर सकता है। साल-दो साल जिसने क्रोध को दबा लिया हो उसके भीतर इतना क्रोध इकट्ठा हो जाता है कि वह हत्या कर सकता है। यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया के हत्यारे वे लोग नहीं होते जो रोज क्रोध कर लेते हैं, दुनिया की हत्याएं वे लोग करते हैं जो बहुत दिन तक क्रोध नहीं करते हैं। तब इतना क्रोध इकट्ठा हो पाता है कि वे हत्या कर सकें। नहीं तो रोज-रोज क्रोध बह जाए, तो आदमी कभी इतना क्रोध इकट्ठा नहीं कर पाता। दुनिया के जघन्य अपराधी वे हैं जो बहुत सप्रेस करते हैं। फिर एकदम से विस्फोट हो जाता है। और उस विस्फोट में बहुत नुकसान हो जाता है। साधारण आदमी रोज-रोज क्रोध कर लेता है, रोज झगड़ लेता है, फिर सब निपटारा हो जाता है, फिर शांत हो जाता है, फिर रोज चलता रहता है।
मैं यह कह रहा हूं कि जब हम क्रोध को पूरा स्वीकार कर लेते हैं और क्रोध को पूरा जानते हैं, पहचानते हैं, तो धीरे-धीरे अचानक हम पाते हैं कि क्रोध करना असंभव हो गया है। क्रोध इसीलिए संभव था कि हम सोचते थे कि क्रोध से दूसरे को चोट पहुंचती है। लेकिन जब हम क्रोध को पूरा जानते हैं, तो पता चलता है क्रोध से तो अपने को ही चोट पहुंच जाती है। और अपने को चोट कोई भी नहीं पहुंचाना चाहता। आदमी स्वार्थी है। और अब तक हम समझा रहे हैं कि परार्थी हो जाओ। परार्थी कोई दुनिया में न होता है, न हो सकता है। जिनको हम बहुत बड़े परार्थी कहते हैं--बुद्ध और महावीर, उनसे परम स्वार्थी व्यक्ति खोजने मुश्किल हैं। परम स्वार्थी इस अर्थों में कि जो भी उनके हित में था वही उन्होंने किया है। जो उनके हित में नहीं था वह उन्होंने कभी किया ही नहीं। अगर उन्होंने आपको गाली नहीं दी, तो आप यह मत सोचना कि आप पर दया की और गाली नहीं दी। नहीं, वे जानते हैं कि गाली देने से अपने को ही चोट पहुंचती है किसी दूसरे को नहीं। अगर उन्होंने क्रोध नहीं किया, तो इसलिए नहीं कि क्रोध करने से किसी का नुकसान न हो जाए, उन्होंने क्रोध इसलिए नहीं किया कि वे जानते हैं क्रोध अपने हाथ से अपने पैरों को काटना है। अगर वे चोरी करने नहीं गए, तो इसलिए नहीं कि आपके धन की उनको बड़ी बचाने की इच्छा है, वे चोरी करने इसलिए नहीं गए कि आपका तो सिर्फ धन खोएगा उनकी आत्मा भी खो जाएगी। वे उसे खोने को राजी नहीं हैं।
आदमी को अगर सहज और सरल बनाना है तो उसे परिपूर्ण उसके स्वार्थ का बोध देना जरूरी है। परार्थ का बिलकुल बोध देने की जरूरत नहीं। एक-एक आदमी को अपना स्वभाव, अपना स्वार्थ, अपनी प्रकृति, अपनी इच्छाओं का पूर्ण बोध हो तो आप अचानक पाएंगे वह आदमी धार्मिक होना शुरू हो गया। उस आदमी की जिंदगी में रूपांतरण आना शुरू हो गया। एक ट्रांसफार्मेशन आया है जहां बदलाहट शुरू हो गई।
एक छोटी कहानी अपनी बात मैं पूरी करूंगा।
बुद्ध एक गांव के पास से गुजरते हैं। कुछ लोगों ने घेर लिया है और बहुत गालियां दी हैं और अपशब्द बोले हैं। बुद्ध ने कहा: तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। उस गांव के लोगों ने कहा: पागल तो नहीं हो गए हैं आप? हम गालियां दे रहे हैं और आप कह रहे हैं बात! बात नहीं है यह, हम गालियां दे रहे हैं। आप पागल तो नहीं हो गए हैं? बुद्ध ने कहा: पागल मैं था तब तुम आते तो मैं भी समझता कि तुम गालियां दे रहे हो। लेकिन मुझे जल्दी जाना है दूसरे गांव, अगर बात पूरी हो गई हो तो जाऊं? और अगर बात पूरी न हो तो लौटते में फिर रुक जाऊंगा, तुम यहीं मिल जाना, फिर तुम अपनी बात पूरी कर लेना। पर उन लोगों ने कहा: यह बात नहीं है, हम सीधे-सीधे अपशब्द बोल रहे हैं, आप जवाब न देंगे? बुद्ध ने कहा: अगर जवाब चाहिए था तो दस साल पहले आना था। तब तुम गालियां देते तो मैं दुगुने वजन की गाली देता। लेकिन अब बड़ी मुश्किल हो गई। उन्होंने कहा: मुश्किल क्या है, देना हो तो दीजिए न, मुश्किल क्या है, आप गालियां दें। नहीं, उन्होंने कहा: तुम्हारे कारण मुश्किल नहीं है, मुश्किल अपने ही कारण हो गई।
पिछले गांव में कुछ लोग मिठाइयां लाए थे, और मेरा पेट भरा था, तो मैंने उनसे कहा, क्षमा करो, धन्यवाद। वे मिठाइयां वापस ले गए। अब तुम गालियां लाए हो, और मैं कहता हूं, क्षमा करो, धन्यवाद, पेट भर गया, अब तुम क्या करोगे? तुम बड़ी मुश्किल में पड़ गए, अब तुम क्या करोगे? क्योंकि गालियां तुम दे सकते हो, लेकिन लेना तो मुझ पर ही निर्भर है, जब तक मैं न लूं तुम्हारे देने का क्या अर्थ? तुमने दीं, ठीक, धन्यवाद, मैं नहीं लेता हूं। और जब तक मैं न लूं तब तक मैं कैसे गाली लौटाऊं? लेना तो जरूरी है लौटाने के लिए, मैं लेता ही नहीं। अब तुम क्या करोगे?
एक आदमी ने कहा: यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। वे तो मिठाइयां ले गए वापस लेकिन गालियां हम कहां ले जाएं?
बुद्ध ने कहा: अब तुम बैठो यहीं और विचार करो, मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। लेकिन दस साल पहले अगर तुम आए होते तो जरूर मैं तुम्हारी गाली ले लेता, क्योंकि मैं इतना नासमझ था कि गालियां भी ले लेता था। अब तो मैं फूल-फूल लेता हूं, कांटे छोड़ देता हूं। अब कांटों में हाथ ही नहीं ले जाता। पहले ऐसा नासमझ था कि फूल मुझे दिखते ही न थे, कांटों को ही पकड़ लेता था, चुभ जाता था, फिर रोता था, खून बहता था, पीड़ा होती थी। अब तुम्हारी गालियां मुझे कांटे जैसी लगती हैं, अब तुम ले जाओ, धन्यवाद, तुमने मेरे लिए बड़ी मेहनत की, इतने दूर आए, धूप में कष्ट उठाया। और दुखी हूं कि तुम्हें कुछ भी वापस नहीं लौटा सक रहा हूं।
अब यह जो आदमी है परम स्वार्थी है। इस आदमी जितने स्वार्थी आप नहीं हैं। आपने दया करके फौरन गाली ले ली होती। और आपने दुगुने वजन का जवाब भी दे दिया होता। और गांव के लोग प्रसन्न लौट गए होते क्योंकि सफल हो गए होते। लेकिन असफल हो गए और बहुत उदास लौटे होंगे। और उस दिन वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए होंगे कि अब क्या करें, क्या न करें। क्योंकि अगर कोई आदमी गाली का जवाब न दे! लेकिन बुद्ध इसलिए गाली का जवाब नहीं दे रहे हैं कि उनकी दया है आपके प्रति। अपने पर दया है इसलिए गाली नहीं ले रहे हैं। और अगर हम जिंदगी को ठीक स्वार्थ के नियमों पर विकसित कर सकें, जो अब तक नहीं हुआ, तो आदमी सरल हो जाए, सीधा और साफ हो जाए, जिंदगी स्पष्ट हो जाए। आदमी को खोलना पड़ेगा, नेकेड, नंगा, पूरा, ताकि वह जैसा है हमें पता चले और हम उसे वैसा स्वीकार कर लें, तो फिर समस्याएं नहीं हैं, तो फिर सरलता है। और जहां सरलता है वहीं मनुष्य का समाज विकसित हो सकता है।
आने वाले इन चार दिनों में मैं इस सरल और सीधे आदमी की खोज करूंगा। और जिनको उत्सुकता हो, वे निमंत्रित हैं। और आपके जो भी प्रश्र्न हों, वे सब लिख कर दे देंगे, ताकि हम उस खोज को ठीक से कर सकें। अगर हम सरल और सीधे आदमी को खोजने में समर्थ हो जाएं, तो परमात्मा बहुत दूर नहीं है, वह मिल सकता है। लेकिन आदमी पागल हो, विक्षिप्त हो, तो परमात्मा को खोजना असंभव है। पागलखाने से परमात्मा के मंदिर के लिए कोई रास्ता नहीं जाता है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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