QUESTION & ANSWER
Panth Prem Ko Atpato 02
Second Discourse from the series of 3 discourses - Panth Prem Ko Atpato by Osho.
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मेरे प्रिय आत्मन्!
सभी महत्वपूर्ण चीजों के संबंध में भ्रांतियां हो जाती हैं। जो भी व्यर्थ है, उसके संबंध में कभी भ्रांति नहीं होती। जो बात जितनी सार्थक है, उतनी भ्रांति पैदा होती है। उसका कारण यह है कि जो जितनी व्यर्थ है, हमारी सबकी समझ के भीतर होती है। और जो जितनी सार्थक है, हमारी समझ इस पार पड़ जाती है, बात आगे निकल जाती है। तो जमीन के संबंध में कोई बात हो, तो भ्रांति नहीं होगी; आकाश के संबंध में बात हुई, तो भ्रांति शुरू हो जाएगी। तो जितनी ऊंची बात है, उतनी मिस-अंडरस्टैंडिंग पैदा होनी अनिवार्य है। क्योंकि हम तो वहीं से पकड़ सकते हैं, जहां हम हैं। और हम वही समझ सकते हैं, जो हम समझ सकते हैं। जो हमारी समझ के पार है, उसको भी हम समझने की कोशिश करते हैं, इसी से भ्रांति पैदा होती है।
अब जैसे यौन तो मनुष्य की समझ के भीतर है, सेक्स तो उसकी समझ के भीतर है; ब्रह्मचर्य उसकी समझ के बिलकुल बाहर है। तो वह जो भी ब्रह्मचर्य का अर्थ लेगा, वह किसी न किसी तरह से सेक्स-सेंटर्ड होगा। जो भी अर्थ लेगा, वह यौन-केंद्रित होगा। और वहीं से भ्रांति शुरू हो जाएगी। ब्रह्मचर्य का कोई संबंध यौन से नहीं है। कोई भी संबंध। हां, ब्रह्मचर्य के परिणाम में जरूर यौन पर प्रभाव पड़ते हैं।
दो बातें समझ लेनी चाहिए। एक तो मनुष्य के मन में--मनुष्य के ही नहीं, समस्त प्राणियों के मन में, शायद प्राणियों के मन में ही नहीं, पौधे, वृक्षों, वनस्पति के मन में भी सुख का जो अनुभव है वह यौन से बंधा हुआ है। और स्वभावतः, जिस चीज से सुख का अनुभव बंधा होगा, उसी से दुख का अनुभव भी बंधेगा। तो सर्वाधिक सुख की कल्पना और कामना भी यौन में केंद्रित है और सर्वाधिक दुख की भी।
तो जब भी कभी और किसी बड़े आनंद की बात की गई है, तो हमारे पास जो तौलने का मापदंड है, वह यौन-सुख है। हम उसी से तौलते हैं। और यह भी हमारे खयाल में आ गया कि जिन लोगों को वह आनंद उपलब्ध होता है, उनके जीवन से यौन एकदम विदा हो जाता है। हमारी जो तौल है परम सुख की, आनंद की, मोक्ष की, कोई भी नाम दें--तो हम यही सोच सकते हैं कि जैसे अनंत-अनंत संभोगों का सुख होगा उसमें। शास्त्र में ऐसी बात भी चलती है। अनंत संभोगों का सुख इसमें है!
तो हम तौल भी सकते हैं। अगर हमसे कोई मोक्ष की और आनंद की और ब्रह्म की बात करे, तो हम तौलें कहां से? हमारे पास मेजरमेंट क्या है? हमने जो सुख जाना है, उसी से हम तौलेंगे। स्वभावतः वैसे ही जैसे कुएं का मेढक, सागर के संबंध में भी बात करो, तो कुएं से ही तौलेगा। वह यह पूछेगा कि तुम्हारा सागर कितना बड़ा है? हमारे कुएं से दो गुना बड़ा, दस गुना बड़ा, पचास गुना बड़ा? और उस मेढक को हम कहें कि नहीं, तुम्हारा कुआं तो मेजरमेंट ही नहीं है सागर का, तो वह फिर वह हम पर अविश्र्वास करेगा। वह कहेगा, ऐसी कोई चीज हो नहीं सकती। कितनी ही बड़ी हो, कुएं से नप जाएगी। क्योंकि बड़ी से बड़ी जो है उसकी दुनिया वह कुएं तक सीमित है। तो हमारे मन के सुख के जो भी छोटे-मोटे झरने का हमें अनुभव हुआ है, वह सेक्स से संबंधित है।
तो जब भी हमसे मोक्ष, ब्रह्म, आनंद इन सबकी बातें की जाती हैं, तो अगर हम अपने मन को टटोलें, तो हम पाएंगे कि हमारे मन में वह जो यौन-सुख है, उसमें ही हम गुणा करते हैं कि और ज्यादा, और ज्यादा होगा; बहुत होगा, कई गुना होगा, अनंत गुना होगा, लेकिन होगा यह। पर यौन के साथ हमारे मन में दुख भी जुड़ा है। क्योंकि सब सुख की प्रतीति के बाद दुख की खाई अनिवार्य है। जैसे पहाड़ों के साथ खाइयां जुड़ी हैं, क्योंकि पहाड़ उठ नहीं सकता बिना खाई बनाए। वह उठेगा, तो पास में गड्ढा बनेगा। तो सब सुखों के साथ अनिवार्य दुख ज़ुडे हैं, जो उनकी खाइयां हैं। सुख जब पीक बनती है, तो उसके साथ एक दुख की खाई बन जाती है तत्काल। और चरम स्थिति में बहुत देर तक नहीं रहा जा सकता; जब आप लौटते हैं, तो खाई में गिर जाते हैं।
तो यौन के साथ सुख भी जुड़ा है, दुख भी जुड़ा है। इसलिए जब हमसे कोई परम आनंद की बात करता है, तो हम उसमें एक तरकीब लगाते हैं, यौन-सुख को अनंत गुना कर लेते हैं और यौन-दुख को बिलकुल काट डालते हैं कि वहां बिलकुल दुख है ही नहीं।
यह हमारी स्वाभाविक क्षमता की बात हो गई है। फिर हमने एक और अनुभव किया है कि कोई बुद्ध हो, कोई महावीर हो, कोई कृष्ण हो, कोई क्राइस्ट हो, जो इस आनंद की बात करते हैं, उनके जीवन से यौन हम एकदम तिरोहित हुआ देखते हैं। वह वहां नहीं है। तो एक दूसरी भी हमारे मन में कल्पना सहज जुड़ जाती है कि अगर यौन तिरोहित हो जाए, तो यह आनंद मिल सकता है। भ्रांति इससे पैदा होनी शुरू होती है। तो हम यौन को दबाने में, काटने में, मिटाने में लग जाते हैं।
तो जो हमारे ब्रह्मचर्य की सारी की सारी भ्रांत स्थिति है, वह यौन-दमन, सेक्स-सप्रेशन उसका अर्थ हो गया है कि दबाओ, मिटाओ, काटो, समाप्त कर डालो। क्योंकि हमने देखा यह है कि जिनके जीवन में वह आनंद घटित हुआ है, उनके जीवन में यौन नहीं था, उसका अभाव है। तो हम अभाव कर दें, तो हमारे जीवन में ब्रह्मचर्य आ जाए। यह गलती तर्क है। असल में वह आनंद अगर उतरे, तो यौन-सुख का अभाव हो जाता है। इसलिए नहीं कि यौन को काटना पड़ता है, बल्कि इसलिए कि इतना परम आनंद मिल जाता है कि अब कुएं की कौन फिकर करे जिसको सागर मिल गया हो। और मेढक अगर सागर में आ गया हो और कुएं में लौटने से इनकार कर दे, तो कोई कुएं का त्याग थोड़े ही कर रहा है, सागर का त्याग नहीं कर पा रहा है इसलिए कुएं में नहीं जाता।
इसको बहुत ठीक से समझ लेना जरूरी है। मगर कुएं के मेढक तो यही कहेंगे कि कुएं का त्याग कर दिया। तो हम भी अगर कुएं का त्याग कर दें, तो हम भी सागर में पहुंच जाएंगे। सागर में पहुंचने से कुएं का त्याग हो सकता है, हो जाता है, क्योंकि कोई अर्थ ही नहीं है वहां लौटने का। लेकिन कुएं के त्याग करने से सागर नहीं मिलता। और कुएं का त्याग करके हो सकता है कुएं की सिल की गर्मी पर ही सिर्फ तड़फना पड़े और कहीं कुछ भी न हो। कुआं भी छूट जाए, सागर भी न मिले! क्योंकि कुएं के बाहर हो जाने का नाम ही सागर नहीं है। कुएं के बाहर हो जाने के बाद कुएं का पानी तो छूटेगा। इसलिए यौन तो हमारे मन में भोग है और ब्रह्मचर्य हमारे मन में त्याग है, जो कि गलत बात है।
मेरे मन में ब्रह्मचर्य परम भोग है। और परम भोग जब आता है, इसलिए भोग हट जाता है। और जो मिस-अंडरस्टैंडिंग जिसको आप कह रहे हैं, गैर-समझी, वह इसलिए पैदा हो गई है कि वह बन गया त्याग। कुआं छोड़ दो। कुआं तो छोड़ कर मेढक आ जाता है कुएं के बाहर, लेकिन वहां तपती दुपहरी है। तपश्र्चर्या होती है, तप होता है और कुएं के लिए प्राण तड़फते हैं, और रोआं-रोआं चिल्लाता है कि कुएं में वापस चलो। लेकिन इस आशा में, इस लोभ में कि जिनको भी सागर पाना है उनको कुआं छोड़ना पड़ता है, वह इस दुख को भी झेलता है। तड़फता भी है कुएं के किनारे बैठ कर, आंख बंद किए चिल्लाता भी रहता है, प्यास में भी मरता है, रोआं-रोआं रोता भी है, लेकिन इस आशा में कि इसके छोड़ने से सागर मिलेगा, वह इस दुख को झेलता है।
तो हमारा जो ब्रह्मचर्य, हमारा जिसको हम ब्रह्मचर्य समझे बैठे हैं, वह केवल यौन-दमन है। वह यौन के कुएं के बाहर जबरदस्ती खड़े हो जाना है। और इसलिए जो व्यक्ति भी यौन-दमन में लग जाएंगे, उनका जीवन सिर्फ सूखता चला जाएगा सब दिशाओं से--रिक्त और खाली और जड़। इसलिए आपके तथाकथित ब्रह्मचारियों ने दुनिया को कुछ कंट्रिब्यूट नहीं किया। उनका कंट्रिब्यूशन इतना ही है कि कुएं के बाहर वे तड़प रहे हैं। और बाकी कुएं के मेढक जो इतना भी नहीं कर सकते, वे हाथ जोड़ कर उनके चरण छू रहे हैं। इनके ये बाकी जो मेढक हाथ जोड़ कर चरण छू रहे हैं, इनकी वजह से वे वापस कुएं में भी नहीं कूद पाए। यह एक अटकाव खड़ा हो गया। आदर है, सम्मान है, संन्यास है, त्याग है, तप है, तपश्र्चर्या है! कुएं में भी नहीं कूद सकते, सागर कहीं दिखाई नहीं पड़ता। उनकी बेचैनी की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं।
जब संन्यासी मुझसे निकट से बात करते हैं, तो उनकी बेचैनी बहुत अधिक है। बस, उनको एक ही चैन है कि आप उनको आदर देते हैं। जिस दिन यह चैन आपने खींच लिया, वे सब कुएं के भीतर दिखाई पड़ेंगे।
तो मेरी दृष्टि में ब्रह्मचर्य कोई निगेटिव, कोई नकारात्मक बात नहीं है कि सेक्स को छोड़ो, यौन को दबाओ, यह नहीं है। मेरे मन में तो ब्रह्मचर्य और बड़े आनंद की तलाश है। और उसके लिए कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है। हां, उसके मिलने पर बहुत कुछ छूटता है। और मैं सदा इसी तरह देख पाता हूं कि अगर आपको बड़ा धन मिल जाए तो छोटा धन छूट जाता है। जगह भी तो खाली करनी पड़ती है! हाथ में कंकड़-पत्थर भरे हुए चले जा रहे हैं और हीरों की खदान मिल गई, तो हाथ भी तो खाली चाहिए न! तो उस क्षण में यह पता भी नहीं चलेगा कब कंकड़-पत्थर छूट गए--हाथ खुलेंगे और हीरे बंध जाएंगे। हीरे के बंधने भर का पता चलेगा कि हाथ हीरे पर बंध गए हैं और कंकड़-पत्थर कब छोड़े इसका पता भी नहीं चलेगा, इसकी रेखा भी नहीं खींचेगी भीतर कि कब छोड़ दिए, किस तारीख में। वह छूटेगा।
इसलिए ब्रह्मचर्य को मैं समाधि की बाइ-प्रॉडक्ट मानता हूं। समाधि की तलाश असली बात है। ध्यान की तलाश असली बात है। जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा वैसे-वैसे सागर में उतरना शुरू हो जाएगा। जैसे-जैसे आप आनंद के सागर में उतरेंगे, वैसे-वैसे सुख की आकांक्षा क्षीण होने लगेगी। वह होती ही दुखी चित्त में है। वह क्षीण होने लगेगी। और एक दिन, जिस दिन आनंद के सागर में आप डूब जाएंगे, उस दिन अगर कोई आपसे कहे कि आपने बड़ा महान कार्य किया कि कुआं छोड़ दिया, तो आप सिर्फ हंसेंगे। आप कहेंगे कि मुझे पता नहीं कुआं कब छूट गया। और महान कार्य तुम कर रहे हो कि तुम कुएं में हो, जब कि सागर बहुत करीब है! महान कार्य मैं नहीं कर रहा हूं। वह आदमी कहेगा, महान कार्य तुम कर रहे हो कि जब सागर करीब है और तुम सागर में हो सकते हो, तब भी तुम कुएं में हो!
तो दो तरह के लोग हैं हमारे पास--कुएं में पड़े हुए लोग, वे भी सागर से वंचित हैं, कुएं में ही डूबे हुए हैं। और दूसरे तरह के वे लोग जो कुएं को छोड़ कर बाहर खड़े हो गए हैं। वे सागर से भी वंचित हैं और कुएं से भी वंचित हैं! और उनकी पीड़ा असह्य है। लेकिन उनकी पीड़ा को हम सहनीय बनाते हैं; आदर, सत्कार, सम्मान--इस सबसे सहनीय बनाते हैं।
तो मेरे लिए... इसलिए मैं ब्रह्मचर्य की अलग से बात ही नहीं करता। और ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द भी कहता है कि उसमें यौन से कोई संबंध नहीं है। उस शब्द का मतलब है: ब्रह्म जैसी चर्या, ईश्र्वर जैसा आचरण। उस शब्द से कोई, कोई यौन का संबंध नहीं है। उस शब्द में कहीं कोई बात ही नहीं है। यानी ऐसे लोगों की चर्या को ब्रह्मचर्य कहा जाता है जो ब्रह्म को उपलब्ध हुए हैं। जिन्होंने उस परम सागर को अनुभव किया और उस परम सागर को अनुभव करने की वजह से बूंद-बूंद की तृषा उनकी छूट गई। एक-एक बूंद का सवाल न रहा, बूंद का हिसाब न रहा।
इन्हें मैं त्यागी नहीं कहता, इन्हें मैं परम भोगी कहता हूं। क्योंकि ब्रह्मचर्य से बड़ा भोग नहीं है। क्योंकि परमात्मा से बड़ा भोगी कोई हो भी नहीं सकता। और उसकी जैसी चर्या का मतलब ही यह है कि जहां आनंद ही आनंद रह गया है। जहां सब कोर-किनारों से, द्वार-दरवाजों से आनंद बरस पड़ा है। अब वह इतना बरस पड़ा है कि अब उसके लिए कहां मांगते फिरते हैं, किससे मांगते फिरते हैं।
और ब्रह्मचर्य का दूसरा मतलब यह है: ऐसा आनंद जो स्वयं से आविर्भूत होता है। अब्रह्मचर्य का मतलब है: ऐसा आनंद या ऐसा सुख जो हम दूसरे में तलाश करते हैं। सेक्स बुनियादी रूप से सुख की दूसरे में तलाश है; अनिवार्य रूप से दूसरे व्यक्ति में सुख की तलाश है। और ब्रह्मचर्य सुख की अपने में तलाश है। और अपने में तलाश का नाम ध्यान है।
इसलिए मैं बात ही नहीं करता ब्रह्मचर्य की। मेरी समझ यह है कि ध्यान बढ़े, गहरा हो, फैले, ब्रह्मचर्य उसके पीछे आएगा। और वह भोग की तरह आएगा, परम भोग की तरह आएगा; त्याग की तरह नहीं। हां, बहुत कुछ उसके आने से छूट जाएगा, मगर वह कचरे की तरह छूटेगा। सूखे पत्ते जैसे वृक्ष से गिरते हैं, ऐसा गिरेगा। क्योंकि नये पत्ते आ गए हैं, बहुत हरे पत्ते आ गए हैं, और सूखे पत्तों को जगह करनी पड़ रही है। लेकिन न वृक्ष को पीड़ा है कि पत्ते गिर रहे हैं, न पत्तों को पता चलता है कि गिर रहे हैं, क्योंकि वे सूख गए हैं। और वृक्ष नये पत्तों के आगमन की खुशी में नाच रहा है। वह सूखे पत्तों का कहां हिसाब रखे! वे गिर रहे हैं, वे गिर जाएंगे चुपचाप हवाओं में, उनका कभी पता नहीं चलेगा।
और अगर हम किसी नये पत्तों से लद गए वृक्ष से पूछें कि तुम बड़े महात्यागी हो, तुमने कितने-कितने पत्ते त्याग कर दिए, सारी हवाओं में सड़कों पर तुम्हारे ही त्याग के पत्ते डोल रहे हैं! तो वह करेगा, कुछ पता नहीं है। क्योंकि मैं यहां रस लिए हूं नये पत्तों के साथ नाचने में। पुराने सूखे पत्तों का कौन हिसाब रखे! हां, सूखे वृक्ष से अगर गिर जाएं पत्ते, जिसमें नये पत्ते न आए हों, तो हिसाब रखेगा। क्योंकि उसके बाद ठूंठ ही रह जाने वाला है।
तो हिसाब रखेगा कि कितने-कितने गिर गए, रोज गिरते चले जा रहे हैं! इतने उपवास आज किए! इतने उपवास पिछले चौमासा में किए थे! रोज पत्ते गिर रहे हैं, नये पत्ते का कुछ पता नहीं है। स्त्री छोड़ दी है, घर छोड़ दिया है, धन छोड़ दिया है, सब छोड़ दिया है। एक-एक पत्ते का हिसाब रखेगा। नया तो कुछ अंकुरित नहीं हो रहा है। ठूंठ बड़ा होता जा रहा है, सूखता चला जा रहा है और पत्ते गिरते चले जा रहे हैं। गिराए चला जा रहा है, तो उनके घाव भी छूट जाते हैं।
तो जिसको हम ब्रह्मचर्य कहते हैं, वह एक तरह की दमित यौन की प्रकिया है। और मेरे लिए ब्रह्मचर्य ईश्र्वर-अनुभूति है; विकसित स्थिति है। और उस अनुभूति के साथ रूपांतरण होता है, वह सब बदलता है। और जब तक हम ब्रह्मचर्य को इस अर्थों में न लें, तब तक जीवन के साथ बहुत अनाचार होता है। क्योंकि वह जो गलत किस्म का ब्रह्मचर्य हमारे मन में है--निषेध, निगेटिव, उसने बहुत कलुष पैदा किया है। क्योंकि जो लोग कुआं छोड़ देंगे और सागर न मिलेगा, तो जैसा मैंने आपसे कहा कि कुएं के मेढक उनको नमस्कार करेंगे, वैसे ही वे कुएं के पाट पर खड़े हुए तड़फते लोग कुएं की निंदा करेंगे, पूरे वक्त। वह अनिवार्य है। वे निंदा आपके लिए नहीं कर रहे हैं; वे निंदा अपने ही मन को समझाने के लिए कर रहे हैं। अगर वे दस मिनट के लिए भी निंदा करने से रुक जाएं, तो कुएं में कूदने का डर है। तो इसको कंडेम करेंगे वे।
तो सुबह-शाम मंदिर और गुरुद्वारा और सब जगह वे समझा रहे हैं लोगों को कि वह कुआं बहुत गंदा है। यह वे दूसरे को कम समझा रहे हैं, यह बार-बार कह कर अपने को समझा रहे हैं, नहीं तो कुएं में कूद जाने का पूरे वक्त डर है। अगर उनको सुनने वाला न मिले, कोई न मिले जो उनसे समझने को राजी हो; वह कहे कि ठीक है, हम सब कुएं में अपने मजे में हैं; तो आपको पता नहीं कि किस क्षण में वे कुएं में वापस कूद जाएं!
तो वह जो ट्रिक है उसके पीछे, वे कुएं की निंदा करते चले जाते हैं। निंदा करने की वजह से खुद के कूदने की सामर्थ्य तोड़ते चले जाते हैं; आप आदर दिए चले जाते हैं, आदर की वजह से अहंकार तृप्त होता है; अहंकार तृप्त होता है, तो कूदना मुश्किल हो जाता है। यह दोनों प्रक्रियाओं से, जिसको आप दमन वाला ब्रह्मचर्य कहें, वह पलता है, पुसता है। अच्छा, वह आदमी तो विकृत हो ही जाता है, लेकिन जिन-जिन से वह बातें करता है, उन सबको भी विकारग्रस्त करता है। क्योंकि वह जब कुएं की निंदा करता है उनके सामने जो कुएं में हैं, तो सागर तो नहीं पहुंचते कुएं में रहने वाले लोग, लेकिन कुआं पायज़नस हो जाता है। तो वहां जितने भले ढंग से, सुसंस्कृत, जितने सहज ढंग से वे जी सकते थे, वह भी मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उनके मन में भी यह निंदा का स्वर, जो कुएं के पाट पर बैठे हुए मेढक समझा रहे हैं, वह उनके मन में भर जाता है। जा भी नहीं सकते, रोक भी नहीं सकते, उनकी कठिनाई भारी हो जाती है!
नीत्शे ने एक बहुत अदभुत बात कही है। उसने कहा है कि तथाकथित धार्मिक लोगों ने लोगों को सेक्स से मुक्त करना चाहा; मुक्त तो नहीं हुए लोग, लेकिन सेक्स पाय़जंड हो गया। कोई मुक्त तो नहीं हुआ उससे, लेकिन जो यौन की सहजता थी, वह विकृत हो गई, वह कुरूप हो गई। अब एक पत्नी भलीभांति जानती है कि पति जो है उसे नरक ले जाने का रास्ता है। अब जो पति नरक ले जाने का रास्ता है या जो पत्नी नरक ले जाने का रास्ता है, इनके बीच प्रेम का फूल कैसे खिल सकता है? असंभव है। क्योंकि जो हमें नरक की तरफ घसीट रहा हो, उसके और हमारे बीच प्रेम का फूल नहीं खिल सकता है। उसके और हमारे बीच जो भी खिलेगा, वह कुरूप होने वाला है।
कोई पत्नी अपने पति को आदर नहीं कर सकती; कितना ही कहे कि परमात्मा है। कोई पति अपनी पत्नी का आदर नहीं कर सकता; कितना ही कहे कि वह उसका आधा हिस्सा है, धर्मपत्नी है। कितनी ही ये सारी बातें करें, क्योंकि सेक्स के संबंध में जो दृष्टि है, वह जो जहरीला भाव है कि पाप है, नरक है, दुख है, यही सब पाप की जड़ है, वह तो बीच में खड़ा है। और उसी का तो संबंध है सारा पति और पत्नी का।
तो दांपत्य पूरा का पूरा कुरूप हो गया। और कुरूप किया है उन लोगों ने जिन्होंने ब्रह्मचर्य की एक नकारात्मक दृष्टि ली, ब्रह्मचर्य को यौन-निंदा बनाया; उन्होंने उसको कुरूप कर दिया। और वे जो पाट पर बैठ गए हैं कुएं के, उनके चित्त में हजार तरह की विकृतियां पैदा हुई हैं, जो स्वाभाविक हैं।
तो मेरी दृष्टि में ब्रह्मचर्य की आमूल व्याख्या बदलने की जरूरत है। मूल व्याख्या वही है उसकी कि वह जीवन के परम आनंद की उपलब्धि है। हम परम आनंद को खोजें, हम छोड़ने की बात न करें। हां, परम आनंद मिलने से जो छूटता जाए, छूटता जाए; छूट जाएगा।
और इसलिए, और भी एक बात, जैसा मैंने कहा कि जो व्यक्ति भी चित्त का दमन करेगा, काम का दमन करेगा, तो एक बहुत समझने जैसी बात है कि हमारे भीतर जो काम की शक्ति है, वही क्रिएटिव फोर्स भी है। हमारे भीतर जो ऊर्जा है काम की, वही सृजनात्मक शक्ति भी है। तो जो कौम सेक्स सप्रेसिव होगी, वह कौम सृजनात्मक नहीं होगी। वह कुछ सृजन नहीं करेगी। क्योंकि जिस शक्ति से सृजन होता है, वह उसी शक्ति कि निंदा में लग गई है। और जिस कौम को एक दफा काम के प्रति दुश्मनी का भाव आ गया, उसकी समस्त नैतिकता काम-केंद्रित हो जाएगी।
अगर मैं आज कहूं कि फलां आदमी चरित्रहीन है, तो किसी को खयाल नहीं आता कि वह झूठ बोलता होगा। यही खयाल आता है कि उसकी कोई यौन-संबंध में गड़बड़ी होगी। किसी को खयाल नहीं आता कि वह समय का पालन न करता होगा, किसी को खयाल नहीं आता कि आश्र्वासन पूरे न करता होगा, किसी को खयाल में नहीं आता कि दूध में पानी मिलाता होगा, किसी को खयाल नहीं आता कि ब्लैक मार्केटिंग करता होगा कि टैक्स न चुकाता होगा। यह खयाल ही नहीं आता। चरित्रहीन, जैसे ही हमने कहा कि फलां आदमी चरित्रहीन है, फौरन खयाल आता है कि कुछ, कुछ सेक्स की कोई गड़बड़ है। चरित्र जैसे समतुल हो गया। और इसलिए भारत में इतनी चरित्रहीनता है। यानी एक आदमी सिर्फ इतना ही साध ले कि दूसरे की स्त्री की तरफ आंख उठा कर न देखे; मन से देखता रहे, चित्त में सोचता रहे, इतना ही पक्का साध ले कि एक ही पत्नी के साथ जिंदगी गुजारे, दूसरे की स्त्री के प्रति कभी कोई भाव न लाए, फिर वह सब-कुछ करे, तो भी वह चरित्रहीन नहीं होता।
इसलिए पश्र्चिम या उन मुल्कों में जहां चरित्र ने व्यापक अर्थ लिया, इतना सीमित अर्थ नहीं लिया, वहां उनके व्यक्तित्व में नैतिकता और रूपों में खिली। तो और छोटी-छोटी बातों को भी खयाल में लेना अनिवार्य हो गया। हमारे लिए एक काम भर काफी है: एक आदमी इतना ही काम करे कि वह किसी तरह सेक्स उसकी जिंदगी से रोक ले, तो हमारे लिए महात्मा हो जाएगा। और कोई काम की जरूरत ही नहीं है। इतना पर्याप्त है कि वह आदमी बैठ जाए एक जगह आंख बंद करके और अपनी जिंदगी बस सेक्स से बचा कर गुजार दे, तो हमारे लिए परम आराध्य हो गया। यह बड़ी अजीब सी बात है! तो यह क्रिएटिव कैसे हो पाएगा मामला, यह क्रिएटिव नहीं हो पाएगा।
तो हमारी सारी नैतिकता जो है, वह ठीक डाइमेन्शंस नहीं ले पाई। इसलिए कोई कठिनाई नहीं है हमें, बाकी सारी अनैतिकता चलती जाती है। उसकी कोई चिंता नहीं पैदा होती।
और भी एक मैं आपसे कहूं, कि जब हम दमन करेंगे अपनी ऊर्जा का, तो उसका हम कहीं भी प्रयोग करने में डरेंगे--कहीं भी डरेंगे। और समस्त सृजन जो है, वह उसी ऊर्जा से होता है। इसलिए आमतौर से होता है कि कोई बड़ा चित्रकार है, बड़ा मूर्तिकार है, संगीतज्ञ है, वैज्ञानिक है, दार्शनिक है, वह अक्सर यौन उसके लिए अनिवार्य नहीं रह जाता। उसके बाहर रह जाता है। अक्सर। बिना कठिनाई के। और उसका कारण कुल इतना है कि उसकी जो भी सृजन की शक्ति है, वह एक दिशा में आयोजित हो जाती है। उसमें कोई कठिनाई नहीं आती। तो दुनिया में जो भी प्रतिभाशाली आदमी है, वह बिना यौन के सहज रह सकता है। अगर उसकी प्रतिभा कहीं नियोजित हो गई, तो उसके पास शक्ति का एक प्रवाह है।
और भी एक मजे की बात है कि अगर आप कुछ भी पैदा कर लें, तो यौन की बहुत गहरी से गहरी तृप्ति उपलब्ध होती है, क्योंकि यौन की तृप्ति मूलतः कुछ पैदा करने की तृप्ति है। इसलिए स्त्रियां दुनिया में कुछ क्रिएट नहीं कर पाईं, क्योंकि बच्चा पैदा करने से उनका काम पूरा हो जाता है। उनको और क्रिएशन का खयाल पैदा नहीं होता।
यह बहुत मजेदार बात है कि सारा क्रिएटिव जो भी काम है, वह पुरुषों का है; स्त्रियों का नहीं है। यहां तक कि पाकशास्त्र में भी जो खोजे हैं, वे पुरुषों की हैं, स्त्रियों की नहीं हैं। कम से कम चौके में उसकी खोज होनी चाहिए, वह वहां भी उसकी खोज नहीं है। और उसका बहुत गहरा कारण इतना है कि उसकी जो सृजन करने की क्षमता है, वह बच्चे पैदा करके पूरी हो जाती है। और पुरुष को...बच्चा पैदा करने मैं पुरुष सिर्फ एक्सिडेंटल है। उसका कोई बहुत अनिवार्य, लंबा कोई हाथ नहीं है। वह तो एक क्षण के बाद बाहर हो जाता है।
हजारों साल तक ऐसी सैकड़ों कौमें थीं जमीन पर, जो यह नहीं मानती थीं कि संभोग से बच्चे पैदा होते हैं। बहुत मुश्किल से यह खयाल आया, क्योंकि बच्चा तो नौ महीने बाद पैदा होता है। नौ महीने के का़ॅज और इफेक्ट को जोड़ना बहुत बाद में खयाल आया। तो पुरुष तो बिलकुल ही बेमानी मालूम होता था; उसका कोई, उसका कहीं कोई बहुत अनिवार्य हिस्सा नहीं है। लेकिन स्त्री तो अनिवार्य है। वह नौ महीने बच्चे को पेट में रखेगी, सम्हालेगी, फिर बड़ा करेगी। और इस सबमें उसका जो सृजन करने का जो चित्त है, वह पूरा हो जाएगा।
तो पुरुष क्या करे? तो एडलर जैसे जो इस संबंध में बहुत समझने वाले लोग हैं, उनका कहना है कि पुरुष ने और चीजें क्रिएट करके सब्स्टीट्यूट बताया कि हम कोई स्त्री से नीचे
नहीं हैं, पीछे नहीं हैं। पुरुष ने इनफिरिआरिटी अनुभव की कि वह कुछ पैदा नहीं कर पाता। स्त्री पैदा करती है, और वह कुछ पैदा नहीं करता! तो उसने मूर्तियां बनाईं, उसने मकान बनाए, उसने ताजमहल बनाए। वह आकाश में चांद पर जाएगा। वह विज्ञान की खोज करेगा। वह शास्त्र लिखेगा। वह स्त्री को जवाब दे रहा है कि हम भी पैदा कर रहे हैं। और जो यह पैदा कर लेगा, उसके भीतर से सेक्स की जो तीव्रता है, वह क्षीण हो जाएगी।
अच्छा, यह भी मजे की बात है कि स्त्री जैसे ही मां बनती है कि उसका सेक्स के प्रति उसकी तीव्रता कम होती चली जाती है। फिर वह बोझ की तरह ढोती है। फिर उसके लिए सेक्स सुखद नहीं रह जाता। मैं तो हजारों स्त्रियों को निकट से उनके व्यक्तिगत मन को जानता हूं। मुझे अब तक ऐसी स्त्री नहीं मिली जो सेक्स में बहुत रस--रसपूर्ण हो। उसका सारा रस मां बनने पर शिथिल होने लगता है। फिर इसके बाद वह बोझ की तरह ढोती है। वह बोझ की तरह ढोती रहती है उसको। क्योंकि उसका क्रिएटिव काम पूरा हो गया। उसने कुछ बना दिया जगत में।
तो जिन लोगों ने ब्रह्मचर्य को निंदा बना ली यौन की, उन लोगों ने सृजन के द्वार भी रोक दिए। और सारी की सारी क्षमता को कांफ्लिक्ट में लगा दिया, अपने ही भीतर लड़ाई में लगा दिया। जो कुछ पैदा हो सके बाहर, वह भीतर लड़-लड़ कर नष्ट होता चला गया। इसलिए हमारे मुल्कों में लाखों संन्यासी हैं, हजारों वर्षों से हैं। ये संन्यासी इतना काम कर सकते थे कि सारी दुनिया हमसे पीछे पड़ जाती। क्योंकि संन्यासी की सारी व्यवस्था हमने कर दी है। उसे न कोई चिंता है, न कोई फिकर है। न मकान बनाना है, न दुकान चलानी है। लाखों लोगों को हमने मुक्त रखा है बिलकुल पूरी तरह से। अगर इन्होंने विज्ञान की खोज की होती, अगर इन्होंने कला की खोज की होती, तो हमारा मुल्क सारी दुनिया में समृद्धतम दान देने वाला मुल्क होता। लेकिन वे कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि उसको एक बड़ा काम पकड़ा दिया है आपने कि वह सेक्स से लड़ता रहा है! वह काम इतना बड़ा है कि वह उसमें उसकी जिंदगी निपट जाती है। बस, वह उसी में लगा रहता है! वह सारा वक्त चौबीस घंटे, संन्यासी जो है, स्त्री से लड़ रहा है। पूरे वक्त उसकी लड़ाई वही जारी है।
तीसरी बात भी खयाल में लेने जैसी है कि जहां भी यौन का विरोध होगा, वहां सौंदर्य के प्रति दुश्मनी पैदा हो जाती है। क्योंकि सौंदर्य का यौन से बहुत निकट संबंध है। तो सौंदर्य का जो बोध है, जो एस्थेटिक बोध है, वह कम हो जाता है। और वह बोध अगर कम हो जाए, तो जिंदगी बड़ी नीरस हो जाएगी। तो ब्रह्मचर्य की इस शिक्षा ने हमारे इस मुल्क में तो जिंदगी को बुरी तरह नीरस बनाया। बल्कि ऐसी स्थिति ला दी कि जो एक आदमी अपनी जिंदगी को जितना नीरस बना ले, उतना पूज्य हो जाए! जितना गंदा और कुरूप बना ले, उतना पूज्य हो जाए! स्नान न करे, दतौन न करे, तो महामुनि हो जाए! पाखाने में बैठ जाए और वहीं बैठ कर खाना खाए, तो परमहंस हो जाए! तो एक सौंदर्य का जो बोध है, वह हमसे छिन लिया।
और यह भी बात ध्यान में लेने जैसी है कि जहां-जहां यौन का विरोध होगा, वहां-वहां वह जो जीवन की अभीप्सा है कि हम जीएं आनंद से, वह क्षीण हो जाएगी और सुसाइडल माइंड पैदा हो जाएगा, आत्मघाती चित्त पैदा हो जाएगा। क्योंकि सेक्स बहुत गहरे में, वह जो अनंत जीवन चारों तरफ व्याप्त है, उसी अनंत जीवन की आगे गति है। तो अगर एक बार यह सेक्स से दुश्मनी शुरू हुई, तो जीवन से दुश्मनी शुरू हो जाएगी, लाइफ निगेशन शुरू हो जाएगा। और तब एक बोझ और आत्मघात जैसी वृत्ति हो जाएगी।
जिसको हम संन्यासी कहते हैं, मेरे हिसाब से वह सिर्फ एक स्लो सुसाइड है, धीमी-धीमी, ग्रेजुअल। इकट्ठा मरने की हिम्मत नहीं जुटाता है वह आदमी। वह थोड़ा-थोड़ा मारता चला जाता है अपने को। फिर बस, वह एक मरा हुआ आदमी रह जाता है। और हम सब भक्त-गण जो उसके चारों तरफ रहते हैं, पूरी तरह जांचते रहते हैं कि कहीं से जिंदगी शेष तो नहीं है! खाने में रस तो नहीं ले रहा है? गया, अगर खाने में कोई रस लिया तो! कपड़ा पहनने में रस तो नहीं ले रहा है? कोई जिंदगी के प्रति प्रेम का लक्षण तो कहीं से प्रकट नहीं हो रहा है इसमें? किसी स्त्री से तो बहुत हंस कर बात नहीं कर रहा है? गया! हम सब तरफ से जांच-परख कर रहे हैं।
तो एक, हमारी कौम पूरी की पूरी इनप्रिजनमेंट हो गई है, जिसमें कुछ कैदी हैं, जिनको हम संन्यासी, महात्मा वगैरह कहते हैं, और हम सब पहरेदार हैं। और जब वह सिद्ध हो जाता है कि जीवन में रस नहीं ले रहा है, तब हम उसके पैर छूते हैं। यह अब पक्का है, आदमी बिलकुल पक्का है!
यह सबका सब बहुत ही रोगग्रस्त है और बहुत ही गहरी बीमारी को पैदा करने वाला है। इधर तो मैं निरंतर यह सोचता हूं कि अगर दुनिया में धर्म को बचना है, तो उसे लाइफ अफरमेटिव होना पड़ेगा, जीवन स्वीकार करने वाला होना पड़ेगा। न केवल स्वीकार करने वाला, बल्कि जीवन में आह्लाद लेने वाला होना पड़ेगा। ऐसा धर्म चाहिए जो हंस सकता हो, नाच सकता हो, प्रेम कर सकता हो, प्रफुल्लित हो सकता हो, तो ही धर्म बचेगा। नहीं तो जिस धर्म ने लोगों की हत्या कर दी, वे सब लोग मिल कर उसकी हत्या कर रहे हैं। अब वह बच नहीं सकता। उसने काफी सता लिया, बहुत टार्चर किया। अच्छी तरह सता लिया।
और इसलिए आप एक बात देख कर बहुत हैरान होंगे कि आमतौर से तपस्वी, त्यागी ईडियट होते हैं। बुद्धि जैसी चीज उनके पास नहीं होती है। आमतौर से बुद्धिहीन होते हैं। वह शर्त है, क्योंकि अगर वे बुद्धिहीन न हों, तो यह जो नासमझी वे कर रहे हैं, यह करना बहुत मुश्किल है। इस पर सवाल उठेंगे उनके मन में कि तुम यह क्या कर रहे हो? यह क्या हो रहा है? अब कोई आदमी मुंह-पट्टी बांधे बैठा हुआ है, कोई कुछ किए बैठा है, कोई कुछ किए हुए बैठा है! इसमें ईडोयोसिटी जरूरी है। इसमें थोड़ी जड़बुद्धि होना जरूरी है। इसलिए अगर हम अपने संन्यासियों का आईक्यू निकलवाएं, तो वह किसी भी दूसरी जमात से कम निकलेगा। और बुद्धि की जरूरत भी नहीं है संन्यासी को, कोई आवश्यकता भी नहीं है उसे। क्योंकि बुद्धि से जो करना है, वह तो उसे करना नहीं है। कोई खोजना है, कुछ बनाना है, कोई निर्माण करना है; वह तो उसे करना नहीं है। उसे तो सिर्फ एक कैदी की तरह जो अपने को चारों तरफ से खुद की जंजीरों से कस कर खड़ा हुआ है, खड़े रहना है। इसलिए इसके लिए बहुत ही न्यूनतम बुद्धि आवश्यक है।
तो यह जो स्थिति है, यह स्थिति बिलकुल ही जल्दी से जल्दी तोड़ देने जैसी है। और इधर मैं निरंतर सोचता हूं, सौभाग्य की बात हो सकती है कि यहां एक नये संन्यासी का वर्ग पूरे मुल्क में पैदा किया जाए--जो नाच भी सकता है, गा भी सकता है, हंस भी सकता है, जो जीवन में सब तरह का रस भी ले सकता है और फिर भी एक परम आनंद की अनुभूति की दिशा पर यात्रा पर है। उस यात्रा में और इस आनंद-भाव में कहीं विरोध नहीं है, कोई दुश्मनी नहीं है।
तो ऐसी कोई ब्रह्मचर्य की धारणा, जो सब स्वीकार करती हो, आनंद की खोज करती हो, मेरी समझ में आती है। निषेध की वृत्ति बिलकुल समझ में नहीं आती।
प्रश्न:
आपने कहा कि परमानंद की प्राप्ति पर सभी आनंद फीका पड़ जाता है...!
फीका क्या पड़ जाता है, आनंद ही नहीं रह जाता। फीका पड़ जाने का मतलब इतना है।
प्रश्न:
उस आनंद के जब हम खयाल में बैठते हैं, तब तक तो आनंद की अनुभूति होती है। लेकिन बाद में जब कार्य-व्यवहार में फिर लग जाते हैं, तो भूल जाते हैं। फिर मन जो है कार्य-व्यवहार में लग जाता है। तो आनंद की अनुभूति सदा बनी रहे, इसके लिए क्या मार्ग हो सकता है?
असल बात यह है, असल बात यह है कि वह जो ध्यान में थोड़ी देर को आनंद मिलता है और फिर खो जाता है, तो वह आनंद नहीं है, पहली बात। वह सिर्फ दुख का अभाव है। इस बात के फर्क को समझ लेना चाहिए। वह आनंद नहीं है।
असल में एक घंटे आपकी जिंदगी के दुखों का जो जाल है, आप एक विभिन्न दिशा में काम करने की वजह से उस जाल को भूल जाते हैं--व्यस्तताओं की, चिंताओं की, दुकान की, बाजार की, संबंधों की वह जो दुनिया है, वह आप एक घंटे के लिए भूल जाते हैं। उस भूलने के कारण आपको भ्रम पैदा होता है कि आनंद मिल रहा है। आनंद नहीं मिल रहा है। सिर्फ जो दुख मिल रहा था, वह फिलहाल नहीं मिल रहा है। तो उसकी वजह से भ्रांति पैदा होती है।
वह ध्यान का आनंद नहीं है। वह सिर्फ ध्यान का दूसरी दिशा में गतिमान होने के कारण, जिन दिशाओं में वह निरंतर उलझा रहता है, उनको भूल जाना है।
ध्यान का तो आनंद जिस दिन मिलेगा, उस दिन फिर आप यह नहीं कहेंगे कि वह चला गया। वह जाता ही नहीं; उसके जाने का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि ध्यान का जो आनंद है, वह किसी भी बाहर की कंडिशन पर निर्भर नहीं है। असल में चीजें आती हैं, जाती हैं, अगर बाहर की कंडिशन पर निर्भर हों। जैसे सूरज की रोशनी जल रही है, सांझ हो जाएगी, रोशनी चली जाएगी, क्योंकि वह रोशनी हमारी तो थी नहीं, वह सूरज की थी। सूरज जब तक था, वह थी; अब सूरज जब चला गया, अब वह चली गई।
आप आए, आपके आने से मुझे सुख मिला; आप चले गए, तो दुख मिला। आपको कब तक बिठा रखूंगा? और अगर बहुत देर बिठाया, तो बैठने से दुख भी मिलने लगेगा, जैसा सुख मिला था बैठने से। क्योंकि थोड़ी देर में सुख भी उबा देगा। और जब सुख उबाता है, तो दुख बन जाता है। इसलिए सब सुख देने वाले थोड़ी देर में दुख देने वाले बन जाते हैं। इसलिए सुख देने वालों से भी थोड़ा-थोड़ा फासला चाहिए। बीच-बीच में गैप चाहिए। नहीं तो वह भी दुख देने वाले बन जाएंगे। पति-पत्नी इसलिए दुख देने वाले बन जाते हैं, वे गैप छोड़ते ही नहीं। चौबीस घंटे साथ! पूरी जिंदगी की कसम खा ली कि साथ हैं! उसी दिन दुख शुरू हो गया।
तो वह जो, जिस दिन वह मिलेगा, वह चूंकि बाहर की किसी भी परिस्थिति पर वह निर्भर नहीं है, इसलिए बाहर का कोई परिवर्तन उसमें परिवर्तन नहीं लाएगा। आप मंदिर में बैठे हैं कि मस्जिद में, कि दुकान पर बैठे हैं कि दफ्तर में, इसमें से अगर कोई भी कंडिशन उसके लिए अनिवार्य हो, तो फिर गड़बड़ हो जाएगी।
नहीं, उसके लिए कोई कंडिशन नहीं है, वह अनकंडिशनल है। वह आपके भीतर से आ रहा है। उसमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। उसमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। पड़ता ही नहीं फर्क। और फर्क पड़े तो जानना चाहिए कि वह इसीलिए फर्क पड़ा कि जिसे हमने ध्यान का आनंद समझा, वह ध्यान का आनंद नहीं था, जिंदगी के दुख से थोड़ी देर के लिए पलायन था, एक्सेप था। घंटे भर के लिए बाहर हो गए थे।
वह बाहर होना कोई शराब पीकर भी कर लेता है, वह जरा केमिकल ढंग है बाहर होने का। कोई आदमी सिनेमा देख कर कर लेता है, वहा जरा सांसारिक ढंग है बाहर होने का। कोई आदमी भजन-कीर्तन करके कर लेता है, वह जरा धार्मिक ढंग है बाहर होने का। बाकी बस वह थोड़ी देर के लिए बाहर हो गए हैं।
यह बाहर होना कई तरह से हो सकता है। इनमें बहुत उपाय खोजे जा सकते हैं। इसलिए रात की नींद में भी हमको सुख मिलता हैं, क्योंकि वह भी बाहर हो जाने का प्राकृतिक ढंग है। जो प्रकृति ने दिया हुआ है कि आप रात सो गए, खो गई उतनी देर के लिए सारी परेशानी। लेकिन ध्यान का आनंद पाजिटिव स्टेट है। यह सिर्फ निगेशन है।
यह ऐसा है कि सामने एक बंदूक लेकर आदमी खड़ा है, हमने आंख बंद कर ली। अब कोई डर न रहा। क्योंकि अब आंख बंद किया हुआ खड़ा हुआ आदमी अब नहीं है। लेकिन वह खड़ा है अपनी जगह, आप आंख खोलिएगा, वह मिलेगा आपको वहीं। तब आप कहेंगे, जो आनंद मिला था, वह खो गया! वह आनंद मिला नहीं था, वह सिर्फ आप उस आदमी को भूल गए थे और वह बंदूक लेकर फिर भी खड़ा था। वह कह रहा था, आंख खोलिए न!
बाजार में आप लौटेंगे, बाजार की सारी जिंदगी का उलझाव वहां खड़ा है। घर लौटेंगे, पत्नी-बच्चे, वह सारा उलझाव वहां खड़ा है। वह आपको फिर कहेगा कि आ जाइए। कहां भाग गए थे! फिर सब खोने लगा। वह ध्यान से उसका कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए ध्यान को एस्केप मत बनाइए। पलायन नहीं है ध्यान।
और इसको कसौटी समझिए कि ध्यान में जो मिले, उसकी अगर अंतर-धारा बहने लगे चौबीस घंटे--जागते, उठते-बैठते, काम करते, खाली, बाजार में, घर में, सुख में, दुख में, प्रिय के मिलन में, अप्रिय के मिलन में--सबके बीच उसकी धारा बहने लगे सतत, यानी वह श्र्वास जैसी चीज हो जाए कि आप कुछ भी करें, श्र्वास चल ही रही है, तब आप समझना कि ध्यान से आनंद उपलब्ध हुआ है। नहीं तो...
इसलिए संन्यासी भागता है, इसीलिए भागता है सब छोड़-छाड़ कर, क्योंकि उसको लगता है कि जो मुझे ध्यान से मिलता है, वह घर में आता हूं, खराब हो जाता है। और घर को छोड़ कर भाग जाता है। वह परमानेंट एस्केप है, और कुछ भी नहीं है। अगर उसको आप घर में ले आओ, वह अभी फिर दुखी हो जाएगा, चाहे चालीस साल संन्यासी रहा हो, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। उसने एक बात देख ली कि एस्केप से घंटे भर को निकल जाता हूं घर से, तो सुख मिलता है; तो चौबीस घंटे के लिए क्यों न निकल जाऊं! चौबीस घंटे के लिए भी कोई भाग सकता है। लेकिन फिर भी वह ध्यान का आनंद नहीं होगा।
ध्यान का आनंद जो है, उसमें कोई भागने का उपाय ही नहीं है। भागने की कोई जरूरत ही नहीं है। प्रयोजन भी नहीं है। और चूंकि वह निजी और आंतरिक है, इसलिए कोई परिस्थिति उसमें कोई फर्क नहीं डालती।
तो इसको कसौटी मान कर चलना चाहिए और जांचते रहना चाहिए कि जिसको मैं ध्यान का आनंद कह रहा हूं, वह ध्यान का है कि सिर्फ ध्यान-परिवर्तन का है? इसलिए अगर ठीक खयाल बना रहे, तो वह पक्की कसौटी है, वह खोए ही न। यानी आप उसे खोना चाहें, तो भी न खो सकें। आप जाएं और लड़ें किसी से और क्रोध करें और फिर भी आप पाएं कि भीतर उसकी अंतर-धारा बही जा रही है और क्रोध बाहर एक्ंिटग से ज्यादा नहीं मालूम पड़ रहा है, और भीतर तो वह मौजूद ही है। तब आप समझना कि अब कुछ पाजिटिव, कोई विधायक गति भीतर हुई, अन्यथा नहीं हुई।
इसलिए ध्यान का आनंद मिले, तब तो सवाल ही नहीं है कि उसको हम कैसे स्थायी करें। जिसको स्थायी करना पड़े, समझना कि वह ध्यान का नहीं है। जिसको स्थायी करना पड़े, वह ध्यान का नहीं है।
प्रश्न:
ध्यान को प्राप्त कैसे हों? चित्त-वृत्तियों का निरोध कैसे हो?
ध्यान में आइए--एक शिविर में आ जाइए। ऐसा भी नहीं है मामला। असल में डेलिकेट है मामला, बहुत नाजुक है। और वह नाजुकता ठीक से समझ लेनी चाहिए। ये दोनों बातें एक साथ सच हैं कि वह जब आएगा, तब आप पाएंगे कि अपने किए नहीं आया। लेकिन जब तक आपने कुछ नहीं किया है, वह आएगा भी नहीं। ये दोनों ही बातें एक साथ सच हैं। इसलिए मामला बहुत नाजुक है।
प्रश्न:
जैसे कुएं से बाहर निकलने का कोई प्रयास करे।
मैं कह नहीं रहा कि कुएं के बाहर निकलने का प्रयास करें। मैं यह कह नहीं रहा। मैं तो यह कह रहा हूं कि वह जो कुएं में है, वह भी सागर का ही हिस्सा है, वह सागर को पहचान ले। तो कुएं-वुएं के बाहर निकलना नहीं है। ऐसे भी कोई कुआं सागर से अलग नहीं है। जरा नीचे से उसके झरने जुड़े हैं, बस इतनी बात है। कुआं ऊपर से ही कुआं है, नीचे से वह सब सागर ही है।
कुएं से निकलने की बहुत बात नहीं हैं कि कोई कुएं से निकल कर सागर में चला जाएगा। वह तो सागर के खोजने की बात है। सागर खोज में आ जाए, तो कुआं सागर हो जाएगा। कहीं कोई जाने की बात नहीं है। ऐसे भी कुआं सागर है। वह सब नीचे जुड़ा है, सब सागर है।
कुएं की अपनी कोई हस्ती है? कुएं की अपनी कोई हस्ती नहीं है। वह जो ऊपर से गोल घेरा दिखता है, वह आदमी का बनाया हुआ है; वह नहीं जुड़ा है सागर से। बाकी कुआं जो है न, वह जो पानी है कुएं का, वह सागर से जुड़ा है। हजार-हजार रास्तों से जुड़ा है। सागर नीचे से भी उसको दे रहा है, सागर ऊपर से बादलों से भी उसको दे रहा है। वह सब तरफ से सागर से जुड़ा है। उसमें कोई ऐसा नहीं है कि कट ऑफ है।
कहीं से कोई रास्ता बनाना है आपको। पहचान लेना है कि कुआं ही क्या है। अगर कोई पूरे कुएं को ही पहचान ले, तो सागर से जुड़ जाए। इसलिए इन प्रतीकों को ठीक से समझ लेने की जरूरत है। नहीं तो बहुत गड़बड़ होगी।
और यह जो मैं कहता हूं कि आपके प्रयास से नहीं होगा, यह सिर्फ इसलिए कहता हूं कि आपका अहंकार मजबूत न हो, क्योंकि आपका अहंकार बाधा बनेगा। और साथ में यह भी कहता हूं कि आपके प्रयास के बिना न होगा। यह इसलिए कहता हूं कि कहीं आलस्य मजबूत न हो। आलस्य बाधा बनेगा।
अहंकार भी बाधा है, आलस्य भी बाधा है, और दोनों से बचने की बात है। आप करें भी और कर्ता भी न बनें। आप श्रम भी उठाएं और यह भी न मानें कि मेरे श्रम से ही हो जाएगा। और श्रम तो उठाना ही पड़ेगा। नहीं तो हो ही गया होता कभी का। श्रम तो उठा ही नहीं रहे हैं।
अगर अ-श्रम से होता, तो हो ही गया होता। और अ-श्रम से होना है, तो कब होगा, होगा। फिर हमारा कोई संबंध नहीं है; उसकी बात ही करनी व्यर्थ है। न, श्रम तो उठाना ही पड़ेगा। और फिर भी यह जानना पड़ेगा कि मेरे ही श्रम से न हो जाएगा; इसलिए ‘मैं’ मजबूत न होता चला जाए, नहीं तो वह बाधा बनेगा। आप श्रम करेंगे और जब आप पाएंगे तब आप कह सकेंगे कि मेरे श्रम से यह नहीं हुआ है। क्योंकि दो कौड़ी का मेरा श्रम था और जो मिला है उसकी कोई कीमत नहीं है। तो मैं कैसे कहूं कि वह मेरे श्रम से हो गया है! जब कभी ये दोनों चीजें सामने आएंगी, तभी खयाल में आएगा।
इसलिए जिसको मिलेगा, वह कहेगा, ‘प्रभु की कृपा है।’ वह कहेगा, ‘मेरे से कुछ नहीं हुआ। मुझसे क्या हो सकता था!’ लेकिन जिसको नहीं मिला है, अगर उसने समझा कि प्रभु की कृपा से मिलेगा, तो गया। जिसको नहीं मिला है, उसे तो श्रम करना पड़ेगा। असल में उसकी श्रम की ही एक स्थिति उसको प्रभु-कृपा के योग्य बनाती है।
जैसे कि हमने यह दरवाजा खोल दिया है, लेकिन दरवाजा खोलने से ही रोशनी भीतर आ जाएगी, ऐसा नहीं है। सूरज भी उगा हुआ होना चाहिए, तो रोशनी भीतर आएगी। अगर रोशनी भीतर आएगी, तो आप यह न कह सकेंगे कि हम भीतर ले आए। क्योंकि आप तो रातों में भी कई दफा दरवाजा खोल कर बैठे रहे हैं और रोशनी नहीं आई है। सिर्फ दरवाजा खोलने से ही आ गई है, ऐसा भी नहीं है। दरवाजा खुलना सिर्फ एक हिस्सा है। रोशनी का आना बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन दरवाजा बंद रहने से रुक भी जाती है, यह भी पक्का है।
अब यह बड़े मजे की बात है। दरवाजा बंद करके हम रोक सकते हैं, लेकिन दरवाजा खोल कर हम जरूरी रूप से ला नहीं सकते। लेकिन बंद करके जरूरी रूप से रोक सकते हैं। हजार सूरज खड़े रहें बाहर, तो कोई फिकर नहीं है। हमारा दरवाजा बंद है और हमने अपने पर्दे डाल रखे हैं, तो सूरज कोई दरवाजे तोड़ कर भीतर नहीं घुसने वाला है! प्रतीक्षा करेगा बाहर।
इसलिए मैंने कहा, नाजुक है। और दोनों बातें ध्यान में रखनी हैं। दरवाजा खोलना है आपको, लेकिन जिस दिन सूरज की रोशनी भीतर आएगी, आप ऐसा न कह सकेंगे कि मैं ले आया हूं। उस दिन आप यही कहेंगे कि रोशनी आई। हां, अपनी तरफ से काम इतना ही था कि हमने बाधा नहीं डाली, बस। इससे ज्यादा नहीं--इससे ज्यादा नहीं।
सभी महत्वपूर्ण चीजों के संबंध में भ्रांतियां हो जाती हैं। जो भी व्यर्थ है, उसके संबंध में कभी भ्रांति नहीं होती। जो बात जितनी सार्थक है, उतनी भ्रांति पैदा होती है। उसका कारण यह है कि जो जितनी व्यर्थ है, हमारी सबकी समझ के भीतर होती है। और जो जितनी सार्थक है, हमारी समझ इस पार पड़ जाती है, बात आगे निकल जाती है। तो जमीन के संबंध में कोई बात हो, तो भ्रांति नहीं होगी; आकाश के संबंध में बात हुई, तो भ्रांति शुरू हो जाएगी। तो जितनी ऊंची बात है, उतनी मिस-अंडरस्टैंडिंग पैदा होनी अनिवार्य है। क्योंकि हम तो वहीं से पकड़ सकते हैं, जहां हम हैं। और हम वही समझ सकते हैं, जो हम समझ सकते हैं। जो हमारी समझ के पार है, उसको भी हम समझने की कोशिश करते हैं, इसी से भ्रांति पैदा होती है।
अब जैसे यौन तो मनुष्य की समझ के भीतर है, सेक्स तो उसकी समझ के भीतर है; ब्रह्मचर्य उसकी समझ के बिलकुल बाहर है। तो वह जो भी ब्रह्मचर्य का अर्थ लेगा, वह किसी न किसी तरह से सेक्स-सेंटर्ड होगा। जो भी अर्थ लेगा, वह यौन-केंद्रित होगा। और वहीं से भ्रांति शुरू हो जाएगी। ब्रह्मचर्य का कोई संबंध यौन से नहीं है। कोई भी संबंध। हां, ब्रह्मचर्य के परिणाम में जरूर यौन पर प्रभाव पड़ते हैं।
दो बातें समझ लेनी चाहिए। एक तो मनुष्य के मन में--मनुष्य के ही नहीं, समस्त प्राणियों के मन में, शायद प्राणियों के मन में ही नहीं, पौधे, वृक्षों, वनस्पति के मन में भी सुख का जो अनुभव है वह यौन से बंधा हुआ है। और स्वभावतः, जिस चीज से सुख का अनुभव बंधा होगा, उसी से दुख का अनुभव भी बंधेगा। तो सर्वाधिक सुख की कल्पना और कामना भी यौन में केंद्रित है और सर्वाधिक दुख की भी।
तो जब भी कभी और किसी बड़े आनंद की बात की गई है, तो हमारे पास जो तौलने का मापदंड है, वह यौन-सुख है। हम उसी से तौलते हैं। और यह भी हमारे खयाल में आ गया कि जिन लोगों को वह आनंद उपलब्ध होता है, उनके जीवन से यौन एकदम विदा हो जाता है। हमारी जो तौल है परम सुख की, आनंद की, मोक्ष की, कोई भी नाम दें--तो हम यही सोच सकते हैं कि जैसे अनंत-अनंत संभोगों का सुख होगा उसमें। शास्त्र में ऐसी बात भी चलती है। अनंत संभोगों का सुख इसमें है!
तो हम तौल भी सकते हैं। अगर हमसे कोई मोक्ष की और आनंद की और ब्रह्म की बात करे, तो हम तौलें कहां से? हमारे पास मेजरमेंट क्या है? हमने जो सुख जाना है, उसी से हम तौलेंगे। स्वभावतः वैसे ही जैसे कुएं का मेढक, सागर के संबंध में भी बात करो, तो कुएं से ही तौलेगा। वह यह पूछेगा कि तुम्हारा सागर कितना बड़ा है? हमारे कुएं से दो गुना बड़ा, दस गुना बड़ा, पचास गुना बड़ा? और उस मेढक को हम कहें कि नहीं, तुम्हारा कुआं तो मेजरमेंट ही नहीं है सागर का, तो वह फिर वह हम पर अविश्र्वास करेगा। वह कहेगा, ऐसी कोई चीज हो नहीं सकती। कितनी ही बड़ी हो, कुएं से नप जाएगी। क्योंकि बड़ी से बड़ी जो है उसकी दुनिया वह कुएं तक सीमित है। तो हमारे मन के सुख के जो भी छोटे-मोटे झरने का हमें अनुभव हुआ है, वह सेक्स से संबंधित है।
तो जब भी हमसे मोक्ष, ब्रह्म, आनंद इन सबकी बातें की जाती हैं, तो अगर हम अपने मन को टटोलें, तो हम पाएंगे कि हमारे मन में वह जो यौन-सुख है, उसमें ही हम गुणा करते हैं कि और ज्यादा, और ज्यादा होगा; बहुत होगा, कई गुना होगा, अनंत गुना होगा, लेकिन होगा यह। पर यौन के साथ हमारे मन में दुख भी जुड़ा है। क्योंकि सब सुख की प्रतीति के बाद दुख की खाई अनिवार्य है। जैसे पहाड़ों के साथ खाइयां जुड़ी हैं, क्योंकि पहाड़ उठ नहीं सकता बिना खाई बनाए। वह उठेगा, तो पास में गड्ढा बनेगा। तो सब सुखों के साथ अनिवार्य दुख ज़ुडे हैं, जो उनकी खाइयां हैं। सुख जब पीक बनती है, तो उसके साथ एक दुख की खाई बन जाती है तत्काल। और चरम स्थिति में बहुत देर तक नहीं रहा जा सकता; जब आप लौटते हैं, तो खाई में गिर जाते हैं।
तो यौन के साथ सुख भी जुड़ा है, दुख भी जुड़ा है। इसलिए जब हमसे कोई परम आनंद की बात करता है, तो हम उसमें एक तरकीब लगाते हैं, यौन-सुख को अनंत गुना कर लेते हैं और यौन-दुख को बिलकुल काट डालते हैं कि वहां बिलकुल दुख है ही नहीं।
यह हमारी स्वाभाविक क्षमता की बात हो गई है। फिर हमने एक और अनुभव किया है कि कोई बुद्ध हो, कोई महावीर हो, कोई कृष्ण हो, कोई क्राइस्ट हो, जो इस आनंद की बात करते हैं, उनके जीवन से यौन हम एकदम तिरोहित हुआ देखते हैं। वह वहां नहीं है। तो एक दूसरी भी हमारे मन में कल्पना सहज जुड़ जाती है कि अगर यौन तिरोहित हो जाए, तो यह आनंद मिल सकता है। भ्रांति इससे पैदा होनी शुरू होती है। तो हम यौन को दबाने में, काटने में, मिटाने में लग जाते हैं।
तो जो हमारे ब्रह्मचर्य की सारी की सारी भ्रांत स्थिति है, वह यौन-दमन, सेक्स-सप्रेशन उसका अर्थ हो गया है कि दबाओ, मिटाओ, काटो, समाप्त कर डालो। क्योंकि हमने देखा यह है कि जिनके जीवन में वह आनंद घटित हुआ है, उनके जीवन में यौन नहीं था, उसका अभाव है। तो हम अभाव कर दें, तो हमारे जीवन में ब्रह्मचर्य आ जाए। यह गलती तर्क है। असल में वह आनंद अगर उतरे, तो यौन-सुख का अभाव हो जाता है। इसलिए नहीं कि यौन को काटना पड़ता है, बल्कि इसलिए कि इतना परम आनंद मिल जाता है कि अब कुएं की कौन फिकर करे जिसको सागर मिल गया हो। और मेढक अगर सागर में आ गया हो और कुएं में लौटने से इनकार कर दे, तो कोई कुएं का त्याग थोड़े ही कर रहा है, सागर का त्याग नहीं कर पा रहा है इसलिए कुएं में नहीं जाता।
इसको बहुत ठीक से समझ लेना जरूरी है। मगर कुएं के मेढक तो यही कहेंगे कि कुएं का त्याग कर दिया। तो हम भी अगर कुएं का त्याग कर दें, तो हम भी सागर में पहुंच जाएंगे। सागर में पहुंचने से कुएं का त्याग हो सकता है, हो जाता है, क्योंकि कोई अर्थ ही नहीं है वहां लौटने का। लेकिन कुएं के त्याग करने से सागर नहीं मिलता। और कुएं का त्याग करके हो सकता है कुएं की सिल की गर्मी पर ही सिर्फ तड़फना पड़े और कहीं कुछ भी न हो। कुआं भी छूट जाए, सागर भी न मिले! क्योंकि कुएं के बाहर हो जाने का नाम ही सागर नहीं है। कुएं के बाहर हो जाने के बाद कुएं का पानी तो छूटेगा। इसलिए यौन तो हमारे मन में भोग है और ब्रह्मचर्य हमारे मन में त्याग है, जो कि गलत बात है।
मेरे मन में ब्रह्मचर्य परम भोग है। और परम भोग जब आता है, इसलिए भोग हट जाता है। और जो मिस-अंडरस्टैंडिंग जिसको आप कह रहे हैं, गैर-समझी, वह इसलिए पैदा हो गई है कि वह बन गया त्याग। कुआं छोड़ दो। कुआं तो छोड़ कर मेढक आ जाता है कुएं के बाहर, लेकिन वहां तपती दुपहरी है। तपश्र्चर्या होती है, तप होता है और कुएं के लिए प्राण तड़फते हैं, और रोआं-रोआं चिल्लाता है कि कुएं में वापस चलो। लेकिन इस आशा में, इस लोभ में कि जिनको भी सागर पाना है उनको कुआं छोड़ना पड़ता है, वह इस दुख को भी झेलता है। तड़फता भी है कुएं के किनारे बैठ कर, आंख बंद किए चिल्लाता भी रहता है, प्यास में भी मरता है, रोआं-रोआं रोता भी है, लेकिन इस आशा में कि इसके छोड़ने से सागर मिलेगा, वह इस दुख को झेलता है।
तो हमारा जो ब्रह्मचर्य, हमारा जिसको हम ब्रह्मचर्य समझे बैठे हैं, वह केवल यौन-दमन है। वह यौन के कुएं के बाहर जबरदस्ती खड़े हो जाना है। और इसलिए जो व्यक्ति भी यौन-दमन में लग जाएंगे, उनका जीवन सिर्फ सूखता चला जाएगा सब दिशाओं से--रिक्त और खाली और जड़। इसलिए आपके तथाकथित ब्रह्मचारियों ने दुनिया को कुछ कंट्रिब्यूट नहीं किया। उनका कंट्रिब्यूशन इतना ही है कि कुएं के बाहर वे तड़प रहे हैं। और बाकी कुएं के मेढक जो इतना भी नहीं कर सकते, वे हाथ जोड़ कर उनके चरण छू रहे हैं। इनके ये बाकी जो मेढक हाथ जोड़ कर चरण छू रहे हैं, इनकी वजह से वे वापस कुएं में भी नहीं कूद पाए। यह एक अटकाव खड़ा हो गया। आदर है, सम्मान है, संन्यास है, त्याग है, तप है, तपश्र्चर्या है! कुएं में भी नहीं कूद सकते, सागर कहीं दिखाई नहीं पड़ता। उनकी बेचैनी की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं।
जब संन्यासी मुझसे निकट से बात करते हैं, तो उनकी बेचैनी बहुत अधिक है। बस, उनको एक ही चैन है कि आप उनको आदर देते हैं। जिस दिन यह चैन आपने खींच लिया, वे सब कुएं के भीतर दिखाई पड़ेंगे।
तो मेरी दृष्टि में ब्रह्मचर्य कोई निगेटिव, कोई नकारात्मक बात नहीं है कि सेक्स को छोड़ो, यौन को दबाओ, यह नहीं है। मेरे मन में तो ब्रह्मचर्य और बड़े आनंद की तलाश है। और उसके लिए कुछ छोड़ने की जरूरत नहीं है। हां, उसके मिलने पर बहुत कुछ छूटता है। और मैं सदा इसी तरह देख पाता हूं कि अगर आपको बड़ा धन मिल जाए तो छोटा धन छूट जाता है। जगह भी तो खाली करनी पड़ती है! हाथ में कंकड़-पत्थर भरे हुए चले जा रहे हैं और हीरों की खदान मिल गई, तो हाथ भी तो खाली चाहिए न! तो उस क्षण में यह पता भी नहीं चलेगा कब कंकड़-पत्थर छूट गए--हाथ खुलेंगे और हीरे बंध जाएंगे। हीरे के बंधने भर का पता चलेगा कि हाथ हीरे पर बंध गए हैं और कंकड़-पत्थर कब छोड़े इसका पता भी नहीं चलेगा, इसकी रेखा भी नहीं खींचेगी भीतर कि कब छोड़ दिए, किस तारीख में। वह छूटेगा।
इसलिए ब्रह्मचर्य को मैं समाधि की बाइ-प्रॉडक्ट मानता हूं। समाधि की तलाश असली बात है। ध्यान की तलाश असली बात है। जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा वैसे-वैसे सागर में उतरना शुरू हो जाएगा। जैसे-जैसे आप आनंद के सागर में उतरेंगे, वैसे-वैसे सुख की आकांक्षा क्षीण होने लगेगी। वह होती ही दुखी चित्त में है। वह क्षीण होने लगेगी। और एक दिन, जिस दिन आनंद के सागर में आप डूब जाएंगे, उस दिन अगर कोई आपसे कहे कि आपने बड़ा महान कार्य किया कि कुआं छोड़ दिया, तो आप सिर्फ हंसेंगे। आप कहेंगे कि मुझे पता नहीं कुआं कब छूट गया। और महान कार्य तुम कर रहे हो कि तुम कुएं में हो, जब कि सागर बहुत करीब है! महान कार्य मैं नहीं कर रहा हूं। वह आदमी कहेगा, महान कार्य तुम कर रहे हो कि जब सागर करीब है और तुम सागर में हो सकते हो, तब भी तुम कुएं में हो!
तो दो तरह के लोग हैं हमारे पास--कुएं में पड़े हुए लोग, वे भी सागर से वंचित हैं, कुएं में ही डूबे हुए हैं। और दूसरे तरह के वे लोग जो कुएं को छोड़ कर बाहर खड़े हो गए हैं। वे सागर से भी वंचित हैं और कुएं से भी वंचित हैं! और उनकी पीड़ा असह्य है। लेकिन उनकी पीड़ा को हम सहनीय बनाते हैं; आदर, सत्कार, सम्मान--इस सबसे सहनीय बनाते हैं।
तो मेरे लिए... इसलिए मैं ब्रह्मचर्य की अलग से बात ही नहीं करता। और ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द भी कहता है कि उसमें यौन से कोई संबंध नहीं है। उस शब्द का मतलब है: ब्रह्म जैसी चर्या, ईश्र्वर जैसा आचरण। उस शब्द से कोई, कोई यौन का संबंध नहीं है। उस शब्द में कहीं कोई बात ही नहीं है। यानी ऐसे लोगों की चर्या को ब्रह्मचर्य कहा जाता है जो ब्रह्म को उपलब्ध हुए हैं। जिन्होंने उस परम सागर को अनुभव किया और उस परम सागर को अनुभव करने की वजह से बूंद-बूंद की तृषा उनकी छूट गई। एक-एक बूंद का सवाल न रहा, बूंद का हिसाब न रहा।
इन्हें मैं त्यागी नहीं कहता, इन्हें मैं परम भोगी कहता हूं। क्योंकि ब्रह्मचर्य से बड़ा भोग नहीं है। क्योंकि परमात्मा से बड़ा भोगी कोई हो भी नहीं सकता। और उसकी जैसी चर्या का मतलब ही यह है कि जहां आनंद ही आनंद रह गया है। जहां सब कोर-किनारों से, द्वार-दरवाजों से आनंद बरस पड़ा है। अब वह इतना बरस पड़ा है कि अब उसके लिए कहां मांगते फिरते हैं, किससे मांगते फिरते हैं।
और ब्रह्मचर्य का दूसरा मतलब यह है: ऐसा आनंद जो स्वयं से आविर्भूत होता है। अब्रह्मचर्य का मतलब है: ऐसा आनंद या ऐसा सुख जो हम दूसरे में तलाश करते हैं। सेक्स बुनियादी रूप से सुख की दूसरे में तलाश है; अनिवार्य रूप से दूसरे व्यक्ति में सुख की तलाश है। और ब्रह्मचर्य सुख की अपने में तलाश है। और अपने में तलाश का नाम ध्यान है।
इसलिए मैं बात ही नहीं करता ब्रह्मचर्य की। मेरी समझ यह है कि ध्यान बढ़े, गहरा हो, फैले, ब्रह्मचर्य उसके पीछे आएगा। और वह भोग की तरह आएगा, परम भोग की तरह आएगा; त्याग की तरह नहीं। हां, बहुत कुछ उसके आने से छूट जाएगा, मगर वह कचरे की तरह छूटेगा। सूखे पत्ते जैसे वृक्ष से गिरते हैं, ऐसा गिरेगा। क्योंकि नये पत्ते आ गए हैं, बहुत हरे पत्ते आ गए हैं, और सूखे पत्तों को जगह करनी पड़ रही है। लेकिन न वृक्ष को पीड़ा है कि पत्ते गिर रहे हैं, न पत्तों को पता चलता है कि गिर रहे हैं, क्योंकि वे सूख गए हैं। और वृक्ष नये पत्तों के आगमन की खुशी में नाच रहा है। वह सूखे पत्तों का कहां हिसाब रखे! वे गिर रहे हैं, वे गिर जाएंगे चुपचाप हवाओं में, उनका कभी पता नहीं चलेगा।
और अगर हम किसी नये पत्तों से लद गए वृक्ष से पूछें कि तुम बड़े महात्यागी हो, तुमने कितने-कितने पत्ते त्याग कर दिए, सारी हवाओं में सड़कों पर तुम्हारे ही त्याग के पत्ते डोल रहे हैं! तो वह करेगा, कुछ पता नहीं है। क्योंकि मैं यहां रस लिए हूं नये पत्तों के साथ नाचने में। पुराने सूखे पत्तों का कौन हिसाब रखे! हां, सूखे वृक्ष से अगर गिर जाएं पत्ते, जिसमें नये पत्ते न आए हों, तो हिसाब रखेगा। क्योंकि उसके बाद ठूंठ ही रह जाने वाला है।
तो हिसाब रखेगा कि कितने-कितने गिर गए, रोज गिरते चले जा रहे हैं! इतने उपवास आज किए! इतने उपवास पिछले चौमासा में किए थे! रोज पत्ते गिर रहे हैं, नये पत्ते का कुछ पता नहीं है। स्त्री छोड़ दी है, घर छोड़ दिया है, धन छोड़ दिया है, सब छोड़ दिया है। एक-एक पत्ते का हिसाब रखेगा। नया तो कुछ अंकुरित नहीं हो रहा है। ठूंठ बड़ा होता जा रहा है, सूखता चला जा रहा है और पत्ते गिरते चले जा रहे हैं। गिराए चला जा रहा है, तो उनके घाव भी छूट जाते हैं।
तो जिसको हम ब्रह्मचर्य कहते हैं, वह एक तरह की दमित यौन की प्रकिया है। और मेरे लिए ब्रह्मचर्य ईश्र्वर-अनुभूति है; विकसित स्थिति है। और उस अनुभूति के साथ रूपांतरण होता है, वह सब बदलता है। और जब तक हम ब्रह्मचर्य को इस अर्थों में न लें, तब तक जीवन के साथ बहुत अनाचार होता है। क्योंकि वह जो गलत किस्म का ब्रह्मचर्य हमारे मन में है--निषेध, निगेटिव, उसने बहुत कलुष पैदा किया है। क्योंकि जो लोग कुआं छोड़ देंगे और सागर न मिलेगा, तो जैसा मैंने आपसे कहा कि कुएं के मेढक उनको नमस्कार करेंगे, वैसे ही वे कुएं के पाट पर खड़े हुए तड़फते लोग कुएं की निंदा करेंगे, पूरे वक्त। वह अनिवार्य है। वे निंदा आपके लिए नहीं कर रहे हैं; वे निंदा अपने ही मन को समझाने के लिए कर रहे हैं। अगर वे दस मिनट के लिए भी निंदा करने से रुक जाएं, तो कुएं में कूदने का डर है। तो इसको कंडेम करेंगे वे।
तो सुबह-शाम मंदिर और गुरुद्वारा और सब जगह वे समझा रहे हैं लोगों को कि वह कुआं बहुत गंदा है। यह वे दूसरे को कम समझा रहे हैं, यह बार-बार कह कर अपने को समझा रहे हैं, नहीं तो कुएं में कूद जाने का पूरे वक्त डर है। अगर उनको सुनने वाला न मिले, कोई न मिले जो उनसे समझने को राजी हो; वह कहे कि ठीक है, हम सब कुएं में अपने मजे में हैं; तो आपको पता नहीं कि किस क्षण में वे कुएं में वापस कूद जाएं!
तो वह जो ट्रिक है उसके पीछे, वे कुएं की निंदा करते चले जाते हैं। निंदा करने की वजह से खुद के कूदने की सामर्थ्य तोड़ते चले जाते हैं; आप आदर दिए चले जाते हैं, आदर की वजह से अहंकार तृप्त होता है; अहंकार तृप्त होता है, तो कूदना मुश्किल हो जाता है। यह दोनों प्रक्रियाओं से, जिसको आप दमन वाला ब्रह्मचर्य कहें, वह पलता है, पुसता है। अच्छा, वह आदमी तो विकृत हो ही जाता है, लेकिन जिन-जिन से वह बातें करता है, उन सबको भी विकारग्रस्त करता है। क्योंकि वह जब कुएं की निंदा करता है उनके सामने जो कुएं में हैं, तो सागर तो नहीं पहुंचते कुएं में रहने वाले लोग, लेकिन कुआं पायज़नस हो जाता है। तो वहां जितने भले ढंग से, सुसंस्कृत, जितने सहज ढंग से वे जी सकते थे, वह भी मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उनके मन में भी यह निंदा का स्वर, जो कुएं के पाट पर बैठे हुए मेढक समझा रहे हैं, वह उनके मन में भर जाता है। जा भी नहीं सकते, रोक भी नहीं सकते, उनकी कठिनाई भारी हो जाती है!
नीत्शे ने एक बहुत अदभुत बात कही है। उसने कहा है कि तथाकथित धार्मिक लोगों ने लोगों को सेक्स से मुक्त करना चाहा; मुक्त तो नहीं हुए लोग, लेकिन सेक्स पाय़जंड हो गया। कोई मुक्त तो नहीं हुआ उससे, लेकिन जो यौन की सहजता थी, वह विकृत हो गई, वह कुरूप हो गई। अब एक पत्नी भलीभांति जानती है कि पति जो है उसे नरक ले जाने का रास्ता है। अब जो पति नरक ले जाने का रास्ता है या जो पत्नी नरक ले जाने का रास्ता है, इनके बीच प्रेम का फूल कैसे खिल सकता है? असंभव है। क्योंकि जो हमें नरक की तरफ घसीट रहा हो, उसके और हमारे बीच प्रेम का फूल नहीं खिल सकता है। उसके और हमारे बीच जो भी खिलेगा, वह कुरूप होने वाला है।
कोई पत्नी अपने पति को आदर नहीं कर सकती; कितना ही कहे कि परमात्मा है। कोई पति अपनी पत्नी का आदर नहीं कर सकता; कितना ही कहे कि वह उसका आधा हिस्सा है, धर्मपत्नी है। कितनी ही ये सारी बातें करें, क्योंकि सेक्स के संबंध में जो दृष्टि है, वह जो जहरीला भाव है कि पाप है, नरक है, दुख है, यही सब पाप की जड़ है, वह तो बीच में खड़ा है। और उसी का तो संबंध है सारा पति और पत्नी का।
तो दांपत्य पूरा का पूरा कुरूप हो गया। और कुरूप किया है उन लोगों ने जिन्होंने ब्रह्मचर्य की एक नकारात्मक दृष्टि ली, ब्रह्मचर्य को यौन-निंदा बनाया; उन्होंने उसको कुरूप कर दिया। और वे जो पाट पर बैठ गए हैं कुएं के, उनके चित्त में हजार तरह की विकृतियां पैदा हुई हैं, जो स्वाभाविक हैं।
तो मेरी दृष्टि में ब्रह्मचर्य की आमूल व्याख्या बदलने की जरूरत है। मूल व्याख्या वही है उसकी कि वह जीवन के परम आनंद की उपलब्धि है। हम परम आनंद को खोजें, हम छोड़ने की बात न करें। हां, परम आनंद मिलने से जो छूटता जाए, छूटता जाए; छूट जाएगा।
और इसलिए, और भी एक बात, जैसा मैंने कहा कि जो व्यक्ति भी चित्त का दमन करेगा, काम का दमन करेगा, तो एक बहुत समझने जैसी बात है कि हमारे भीतर जो काम की शक्ति है, वही क्रिएटिव फोर्स भी है। हमारे भीतर जो ऊर्जा है काम की, वही सृजनात्मक शक्ति भी है। तो जो कौम सेक्स सप्रेसिव होगी, वह कौम सृजनात्मक नहीं होगी। वह कुछ सृजन नहीं करेगी। क्योंकि जिस शक्ति से सृजन होता है, वह उसी शक्ति कि निंदा में लग गई है। और जिस कौम को एक दफा काम के प्रति दुश्मनी का भाव आ गया, उसकी समस्त नैतिकता काम-केंद्रित हो जाएगी।
अगर मैं आज कहूं कि फलां आदमी चरित्रहीन है, तो किसी को खयाल नहीं आता कि वह झूठ बोलता होगा। यही खयाल आता है कि उसकी कोई यौन-संबंध में गड़बड़ी होगी। किसी को खयाल नहीं आता कि वह समय का पालन न करता होगा, किसी को खयाल नहीं आता कि आश्र्वासन पूरे न करता होगा, किसी को खयाल में नहीं आता कि दूध में पानी मिलाता होगा, किसी को खयाल नहीं आता कि ब्लैक मार्केटिंग करता होगा कि टैक्स न चुकाता होगा। यह खयाल ही नहीं आता। चरित्रहीन, जैसे ही हमने कहा कि फलां आदमी चरित्रहीन है, फौरन खयाल आता है कि कुछ, कुछ सेक्स की कोई गड़बड़ है। चरित्र जैसे समतुल हो गया। और इसलिए भारत में इतनी चरित्रहीनता है। यानी एक आदमी सिर्फ इतना ही साध ले कि दूसरे की स्त्री की तरफ आंख उठा कर न देखे; मन से देखता रहे, चित्त में सोचता रहे, इतना ही पक्का साध ले कि एक ही पत्नी के साथ जिंदगी गुजारे, दूसरे की स्त्री के प्रति कभी कोई भाव न लाए, फिर वह सब-कुछ करे, तो भी वह चरित्रहीन नहीं होता।
इसलिए पश्र्चिम या उन मुल्कों में जहां चरित्र ने व्यापक अर्थ लिया, इतना सीमित अर्थ नहीं लिया, वहां उनके व्यक्तित्व में नैतिकता और रूपों में खिली। तो और छोटी-छोटी बातों को भी खयाल में लेना अनिवार्य हो गया। हमारे लिए एक काम भर काफी है: एक आदमी इतना ही काम करे कि वह किसी तरह सेक्स उसकी जिंदगी से रोक ले, तो हमारे लिए महात्मा हो जाएगा। और कोई काम की जरूरत ही नहीं है। इतना पर्याप्त है कि वह आदमी बैठ जाए एक जगह आंख बंद करके और अपनी जिंदगी बस सेक्स से बचा कर गुजार दे, तो हमारे लिए परम आराध्य हो गया। यह बड़ी अजीब सी बात है! तो यह क्रिएटिव कैसे हो पाएगा मामला, यह क्रिएटिव नहीं हो पाएगा।
तो हमारी सारी नैतिकता जो है, वह ठीक डाइमेन्शंस नहीं ले पाई। इसलिए कोई कठिनाई नहीं है हमें, बाकी सारी अनैतिकता चलती जाती है। उसकी कोई चिंता नहीं पैदा होती।
और भी एक मैं आपसे कहूं, कि जब हम दमन करेंगे अपनी ऊर्जा का, तो उसका हम कहीं भी प्रयोग करने में डरेंगे--कहीं भी डरेंगे। और समस्त सृजन जो है, वह उसी ऊर्जा से होता है। इसलिए आमतौर से होता है कि कोई बड़ा चित्रकार है, बड़ा मूर्तिकार है, संगीतज्ञ है, वैज्ञानिक है, दार्शनिक है, वह अक्सर यौन उसके लिए अनिवार्य नहीं रह जाता। उसके बाहर रह जाता है। अक्सर। बिना कठिनाई के। और उसका कारण कुल इतना है कि उसकी जो भी सृजन की शक्ति है, वह एक दिशा में आयोजित हो जाती है। उसमें कोई कठिनाई नहीं आती। तो दुनिया में जो भी प्रतिभाशाली आदमी है, वह बिना यौन के सहज रह सकता है। अगर उसकी प्रतिभा कहीं नियोजित हो गई, तो उसके पास शक्ति का एक प्रवाह है।
और भी एक मजे की बात है कि अगर आप कुछ भी पैदा कर लें, तो यौन की बहुत गहरी से गहरी तृप्ति उपलब्ध होती है, क्योंकि यौन की तृप्ति मूलतः कुछ पैदा करने की तृप्ति है। इसलिए स्त्रियां दुनिया में कुछ क्रिएट नहीं कर पाईं, क्योंकि बच्चा पैदा करने से उनका काम पूरा हो जाता है। उनको और क्रिएशन का खयाल पैदा नहीं होता।
यह बहुत मजेदार बात है कि सारा क्रिएटिव जो भी काम है, वह पुरुषों का है; स्त्रियों का नहीं है। यहां तक कि पाकशास्त्र में भी जो खोजे हैं, वे पुरुषों की हैं, स्त्रियों की नहीं हैं। कम से कम चौके में उसकी खोज होनी चाहिए, वह वहां भी उसकी खोज नहीं है। और उसका बहुत गहरा कारण इतना है कि उसकी जो सृजन करने की क्षमता है, वह बच्चे पैदा करके पूरी हो जाती है। और पुरुष को...बच्चा पैदा करने मैं पुरुष सिर्फ एक्सिडेंटल है। उसका कोई बहुत अनिवार्य, लंबा कोई हाथ नहीं है। वह तो एक क्षण के बाद बाहर हो जाता है।
हजारों साल तक ऐसी सैकड़ों कौमें थीं जमीन पर, जो यह नहीं मानती थीं कि संभोग से बच्चे पैदा होते हैं। बहुत मुश्किल से यह खयाल आया, क्योंकि बच्चा तो नौ महीने बाद पैदा होता है। नौ महीने के का़ॅज और इफेक्ट को जोड़ना बहुत बाद में खयाल आया। तो पुरुष तो बिलकुल ही बेमानी मालूम होता था; उसका कोई, उसका कहीं कोई बहुत अनिवार्य हिस्सा नहीं है। लेकिन स्त्री तो अनिवार्य है। वह नौ महीने बच्चे को पेट में रखेगी, सम्हालेगी, फिर बड़ा करेगी। और इस सबमें उसका जो सृजन करने का जो चित्त है, वह पूरा हो जाएगा।
तो पुरुष क्या करे? तो एडलर जैसे जो इस संबंध में बहुत समझने वाले लोग हैं, उनका कहना है कि पुरुष ने और चीजें क्रिएट करके सब्स्टीट्यूट बताया कि हम कोई स्त्री से नीचे
नहीं हैं, पीछे नहीं हैं। पुरुष ने इनफिरिआरिटी अनुभव की कि वह कुछ पैदा नहीं कर पाता। स्त्री पैदा करती है, और वह कुछ पैदा नहीं करता! तो उसने मूर्तियां बनाईं, उसने मकान बनाए, उसने ताजमहल बनाए। वह आकाश में चांद पर जाएगा। वह विज्ञान की खोज करेगा। वह शास्त्र लिखेगा। वह स्त्री को जवाब दे रहा है कि हम भी पैदा कर रहे हैं। और जो यह पैदा कर लेगा, उसके भीतर से सेक्स की जो तीव्रता है, वह क्षीण हो जाएगी।
अच्छा, यह भी मजे की बात है कि स्त्री जैसे ही मां बनती है कि उसका सेक्स के प्रति उसकी तीव्रता कम होती चली जाती है। फिर वह बोझ की तरह ढोती है। फिर उसके लिए सेक्स सुखद नहीं रह जाता। मैं तो हजारों स्त्रियों को निकट से उनके व्यक्तिगत मन को जानता हूं। मुझे अब तक ऐसी स्त्री नहीं मिली जो सेक्स में बहुत रस--रसपूर्ण हो। उसका सारा रस मां बनने पर शिथिल होने लगता है। फिर इसके बाद वह बोझ की तरह ढोती है। वह बोझ की तरह ढोती रहती है उसको। क्योंकि उसका क्रिएटिव काम पूरा हो गया। उसने कुछ बना दिया जगत में।
तो जिन लोगों ने ब्रह्मचर्य को निंदा बना ली यौन की, उन लोगों ने सृजन के द्वार भी रोक दिए। और सारी की सारी क्षमता को कांफ्लिक्ट में लगा दिया, अपने ही भीतर लड़ाई में लगा दिया। जो कुछ पैदा हो सके बाहर, वह भीतर लड़-लड़ कर नष्ट होता चला गया। इसलिए हमारे मुल्कों में लाखों संन्यासी हैं, हजारों वर्षों से हैं। ये संन्यासी इतना काम कर सकते थे कि सारी दुनिया हमसे पीछे पड़ जाती। क्योंकि संन्यासी की सारी व्यवस्था हमने कर दी है। उसे न कोई चिंता है, न कोई फिकर है। न मकान बनाना है, न दुकान चलानी है। लाखों लोगों को हमने मुक्त रखा है बिलकुल पूरी तरह से। अगर इन्होंने विज्ञान की खोज की होती, अगर इन्होंने कला की खोज की होती, तो हमारा मुल्क सारी दुनिया में समृद्धतम दान देने वाला मुल्क होता। लेकिन वे कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि उसको एक बड़ा काम पकड़ा दिया है आपने कि वह सेक्स से लड़ता रहा है! वह काम इतना बड़ा है कि वह उसमें उसकी जिंदगी निपट जाती है। बस, वह उसी में लगा रहता है! वह सारा वक्त चौबीस घंटे, संन्यासी जो है, स्त्री से लड़ रहा है। पूरे वक्त उसकी लड़ाई वही जारी है।
तीसरी बात भी खयाल में लेने जैसी है कि जहां भी यौन का विरोध होगा, वहां सौंदर्य के प्रति दुश्मनी पैदा हो जाती है। क्योंकि सौंदर्य का यौन से बहुत निकट संबंध है। तो सौंदर्य का जो बोध है, जो एस्थेटिक बोध है, वह कम हो जाता है। और वह बोध अगर कम हो जाए, तो जिंदगी बड़ी नीरस हो जाएगी। तो ब्रह्मचर्य की इस शिक्षा ने हमारे इस मुल्क में तो जिंदगी को बुरी तरह नीरस बनाया। बल्कि ऐसी स्थिति ला दी कि जो एक आदमी अपनी जिंदगी को जितना नीरस बना ले, उतना पूज्य हो जाए! जितना गंदा और कुरूप बना ले, उतना पूज्य हो जाए! स्नान न करे, दतौन न करे, तो महामुनि हो जाए! पाखाने में बैठ जाए और वहीं बैठ कर खाना खाए, तो परमहंस हो जाए! तो एक सौंदर्य का जो बोध है, वह हमसे छिन लिया।
और यह भी बात ध्यान में लेने जैसी है कि जहां-जहां यौन का विरोध होगा, वहां-वहां वह जो जीवन की अभीप्सा है कि हम जीएं आनंद से, वह क्षीण हो जाएगी और सुसाइडल माइंड पैदा हो जाएगा, आत्मघाती चित्त पैदा हो जाएगा। क्योंकि सेक्स बहुत गहरे में, वह जो अनंत जीवन चारों तरफ व्याप्त है, उसी अनंत जीवन की आगे गति है। तो अगर एक बार यह सेक्स से दुश्मनी शुरू हुई, तो जीवन से दुश्मनी शुरू हो जाएगी, लाइफ निगेशन शुरू हो जाएगा। और तब एक बोझ और आत्मघात जैसी वृत्ति हो जाएगी।
जिसको हम संन्यासी कहते हैं, मेरे हिसाब से वह सिर्फ एक स्लो सुसाइड है, धीमी-धीमी, ग्रेजुअल। इकट्ठा मरने की हिम्मत नहीं जुटाता है वह आदमी। वह थोड़ा-थोड़ा मारता चला जाता है अपने को। फिर बस, वह एक मरा हुआ आदमी रह जाता है। और हम सब भक्त-गण जो उसके चारों तरफ रहते हैं, पूरी तरह जांचते रहते हैं कि कहीं से जिंदगी शेष तो नहीं है! खाने में रस तो नहीं ले रहा है? गया, अगर खाने में कोई रस लिया तो! कपड़ा पहनने में रस तो नहीं ले रहा है? कोई जिंदगी के प्रति प्रेम का लक्षण तो कहीं से प्रकट नहीं हो रहा है इसमें? किसी स्त्री से तो बहुत हंस कर बात नहीं कर रहा है? गया! हम सब तरफ से जांच-परख कर रहे हैं।
तो एक, हमारी कौम पूरी की पूरी इनप्रिजनमेंट हो गई है, जिसमें कुछ कैदी हैं, जिनको हम संन्यासी, महात्मा वगैरह कहते हैं, और हम सब पहरेदार हैं। और जब वह सिद्ध हो जाता है कि जीवन में रस नहीं ले रहा है, तब हम उसके पैर छूते हैं। यह अब पक्का है, आदमी बिलकुल पक्का है!
यह सबका सब बहुत ही रोगग्रस्त है और बहुत ही गहरी बीमारी को पैदा करने वाला है। इधर तो मैं निरंतर यह सोचता हूं कि अगर दुनिया में धर्म को बचना है, तो उसे लाइफ अफरमेटिव होना पड़ेगा, जीवन स्वीकार करने वाला होना पड़ेगा। न केवल स्वीकार करने वाला, बल्कि जीवन में आह्लाद लेने वाला होना पड़ेगा। ऐसा धर्म चाहिए जो हंस सकता हो, नाच सकता हो, प्रेम कर सकता हो, प्रफुल्लित हो सकता हो, तो ही धर्म बचेगा। नहीं तो जिस धर्म ने लोगों की हत्या कर दी, वे सब लोग मिल कर उसकी हत्या कर रहे हैं। अब वह बच नहीं सकता। उसने काफी सता लिया, बहुत टार्चर किया। अच्छी तरह सता लिया।
और इसलिए आप एक बात देख कर बहुत हैरान होंगे कि आमतौर से तपस्वी, त्यागी ईडियट होते हैं। बुद्धि जैसी चीज उनके पास नहीं होती है। आमतौर से बुद्धिहीन होते हैं। वह शर्त है, क्योंकि अगर वे बुद्धिहीन न हों, तो यह जो नासमझी वे कर रहे हैं, यह करना बहुत मुश्किल है। इस पर सवाल उठेंगे उनके मन में कि तुम यह क्या कर रहे हो? यह क्या हो रहा है? अब कोई आदमी मुंह-पट्टी बांधे बैठा हुआ है, कोई कुछ किए बैठा है, कोई कुछ किए हुए बैठा है! इसमें ईडोयोसिटी जरूरी है। इसमें थोड़ी जड़बुद्धि होना जरूरी है। इसलिए अगर हम अपने संन्यासियों का आईक्यू निकलवाएं, तो वह किसी भी दूसरी जमात से कम निकलेगा। और बुद्धि की जरूरत भी नहीं है संन्यासी को, कोई आवश्यकता भी नहीं है उसे। क्योंकि बुद्धि से जो करना है, वह तो उसे करना नहीं है। कोई खोजना है, कुछ बनाना है, कोई निर्माण करना है; वह तो उसे करना नहीं है। उसे तो सिर्फ एक कैदी की तरह जो अपने को चारों तरफ से खुद की जंजीरों से कस कर खड़ा हुआ है, खड़े रहना है। इसलिए इसके लिए बहुत ही न्यूनतम बुद्धि आवश्यक है।
तो यह जो स्थिति है, यह स्थिति बिलकुल ही जल्दी से जल्दी तोड़ देने जैसी है। और इधर मैं निरंतर सोचता हूं, सौभाग्य की बात हो सकती है कि यहां एक नये संन्यासी का वर्ग पूरे मुल्क में पैदा किया जाए--जो नाच भी सकता है, गा भी सकता है, हंस भी सकता है, जो जीवन में सब तरह का रस भी ले सकता है और फिर भी एक परम आनंद की अनुभूति की दिशा पर यात्रा पर है। उस यात्रा में और इस आनंद-भाव में कहीं विरोध नहीं है, कोई दुश्मनी नहीं है।
तो ऐसी कोई ब्रह्मचर्य की धारणा, जो सब स्वीकार करती हो, आनंद की खोज करती हो, मेरी समझ में आती है। निषेध की वृत्ति बिलकुल समझ में नहीं आती।
प्रश्न:
आपने कहा कि परमानंद की प्राप्ति पर सभी आनंद फीका पड़ जाता है...!
फीका क्या पड़ जाता है, आनंद ही नहीं रह जाता। फीका पड़ जाने का मतलब इतना है।
प्रश्न:
उस आनंद के जब हम खयाल में बैठते हैं, तब तक तो आनंद की अनुभूति होती है। लेकिन बाद में जब कार्य-व्यवहार में फिर लग जाते हैं, तो भूल जाते हैं। फिर मन जो है कार्य-व्यवहार में लग जाता है। तो आनंद की अनुभूति सदा बनी रहे, इसके लिए क्या मार्ग हो सकता है?
असल बात यह है, असल बात यह है कि वह जो ध्यान में थोड़ी देर को आनंद मिलता है और फिर खो जाता है, तो वह आनंद नहीं है, पहली बात। वह सिर्फ दुख का अभाव है। इस बात के फर्क को समझ लेना चाहिए। वह आनंद नहीं है।
असल में एक घंटे आपकी जिंदगी के दुखों का जो जाल है, आप एक विभिन्न दिशा में काम करने की वजह से उस जाल को भूल जाते हैं--व्यस्तताओं की, चिंताओं की, दुकान की, बाजार की, संबंधों की वह जो दुनिया है, वह आप एक घंटे के लिए भूल जाते हैं। उस भूलने के कारण आपको भ्रम पैदा होता है कि आनंद मिल रहा है। आनंद नहीं मिल रहा है। सिर्फ जो दुख मिल रहा था, वह फिलहाल नहीं मिल रहा है। तो उसकी वजह से भ्रांति पैदा होती है।
वह ध्यान का आनंद नहीं है। वह सिर्फ ध्यान का दूसरी दिशा में गतिमान होने के कारण, जिन दिशाओं में वह निरंतर उलझा रहता है, उनको भूल जाना है।
ध्यान का तो आनंद जिस दिन मिलेगा, उस दिन फिर आप यह नहीं कहेंगे कि वह चला गया। वह जाता ही नहीं; उसके जाने का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि ध्यान का जो आनंद है, वह किसी भी बाहर की कंडिशन पर निर्भर नहीं है। असल में चीजें आती हैं, जाती हैं, अगर बाहर की कंडिशन पर निर्भर हों। जैसे सूरज की रोशनी जल रही है, सांझ हो जाएगी, रोशनी चली जाएगी, क्योंकि वह रोशनी हमारी तो थी नहीं, वह सूरज की थी। सूरज जब तक था, वह थी; अब सूरज जब चला गया, अब वह चली गई।
आप आए, आपके आने से मुझे सुख मिला; आप चले गए, तो दुख मिला। आपको कब तक बिठा रखूंगा? और अगर बहुत देर बिठाया, तो बैठने से दुख भी मिलने लगेगा, जैसा सुख मिला था बैठने से। क्योंकि थोड़ी देर में सुख भी उबा देगा। और जब सुख उबाता है, तो दुख बन जाता है। इसलिए सब सुख देने वाले थोड़ी देर में दुख देने वाले बन जाते हैं। इसलिए सुख देने वालों से भी थोड़ा-थोड़ा फासला चाहिए। बीच-बीच में गैप चाहिए। नहीं तो वह भी दुख देने वाले बन जाएंगे। पति-पत्नी इसलिए दुख देने वाले बन जाते हैं, वे गैप छोड़ते ही नहीं। चौबीस घंटे साथ! पूरी जिंदगी की कसम खा ली कि साथ हैं! उसी दिन दुख शुरू हो गया।
तो वह जो, जिस दिन वह मिलेगा, वह चूंकि बाहर की किसी भी परिस्थिति पर वह निर्भर नहीं है, इसलिए बाहर का कोई परिवर्तन उसमें परिवर्तन नहीं लाएगा। आप मंदिर में बैठे हैं कि मस्जिद में, कि दुकान पर बैठे हैं कि दफ्तर में, इसमें से अगर कोई भी कंडिशन उसके लिए अनिवार्य हो, तो फिर गड़बड़ हो जाएगी।
नहीं, उसके लिए कोई कंडिशन नहीं है, वह अनकंडिशनल है। वह आपके भीतर से आ रहा है। उसमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। उसमें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। पड़ता ही नहीं फर्क। और फर्क पड़े तो जानना चाहिए कि वह इसीलिए फर्क पड़ा कि जिसे हमने ध्यान का आनंद समझा, वह ध्यान का आनंद नहीं था, जिंदगी के दुख से थोड़ी देर के लिए पलायन था, एक्सेप था। घंटे भर के लिए बाहर हो गए थे।
वह बाहर होना कोई शराब पीकर भी कर लेता है, वह जरा केमिकल ढंग है बाहर होने का। कोई आदमी सिनेमा देख कर कर लेता है, वहा जरा सांसारिक ढंग है बाहर होने का। कोई आदमी भजन-कीर्तन करके कर लेता है, वह जरा धार्मिक ढंग है बाहर होने का। बाकी बस वह थोड़ी देर के लिए बाहर हो गए हैं।
यह बाहर होना कई तरह से हो सकता है। इनमें बहुत उपाय खोजे जा सकते हैं। इसलिए रात की नींद में भी हमको सुख मिलता हैं, क्योंकि वह भी बाहर हो जाने का प्राकृतिक ढंग है। जो प्रकृति ने दिया हुआ है कि आप रात सो गए, खो गई उतनी देर के लिए सारी परेशानी। लेकिन ध्यान का आनंद पाजिटिव स्टेट है। यह सिर्फ निगेशन है।
यह ऐसा है कि सामने एक बंदूक लेकर आदमी खड़ा है, हमने आंख बंद कर ली। अब कोई डर न रहा। क्योंकि अब आंख बंद किया हुआ खड़ा हुआ आदमी अब नहीं है। लेकिन वह खड़ा है अपनी जगह, आप आंख खोलिएगा, वह मिलेगा आपको वहीं। तब आप कहेंगे, जो आनंद मिला था, वह खो गया! वह आनंद मिला नहीं था, वह सिर्फ आप उस आदमी को भूल गए थे और वह बंदूक लेकर फिर भी खड़ा था। वह कह रहा था, आंख खोलिए न!
बाजार में आप लौटेंगे, बाजार की सारी जिंदगी का उलझाव वहां खड़ा है। घर लौटेंगे, पत्नी-बच्चे, वह सारा उलझाव वहां खड़ा है। वह आपको फिर कहेगा कि आ जाइए। कहां भाग गए थे! फिर सब खोने लगा। वह ध्यान से उसका कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए ध्यान को एस्केप मत बनाइए। पलायन नहीं है ध्यान।
और इसको कसौटी समझिए कि ध्यान में जो मिले, उसकी अगर अंतर-धारा बहने लगे चौबीस घंटे--जागते, उठते-बैठते, काम करते, खाली, बाजार में, घर में, सुख में, दुख में, प्रिय के मिलन में, अप्रिय के मिलन में--सबके बीच उसकी धारा बहने लगे सतत, यानी वह श्र्वास जैसी चीज हो जाए कि आप कुछ भी करें, श्र्वास चल ही रही है, तब आप समझना कि ध्यान से आनंद उपलब्ध हुआ है। नहीं तो...
इसलिए संन्यासी भागता है, इसीलिए भागता है सब छोड़-छाड़ कर, क्योंकि उसको लगता है कि जो मुझे ध्यान से मिलता है, वह घर में आता हूं, खराब हो जाता है। और घर को छोड़ कर भाग जाता है। वह परमानेंट एस्केप है, और कुछ भी नहीं है। अगर उसको आप घर में ले आओ, वह अभी फिर दुखी हो जाएगा, चाहे चालीस साल संन्यासी रहा हो, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। उसने एक बात देख ली कि एस्केप से घंटे भर को निकल जाता हूं घर से, तो सुख मिलता है; तो चौबीस घंटे के लिए क्यों न निकल जाऊं! चौबीस घंटे के लिए भी कोई भाग सकता है। लेकिन फिर भी वह ध्यान का आनंद नहीं होगा।
ध्यान का आनंद जो है, उसमें कोई भागने का उपाय ही नहीं है। भागने की कोई जरूरत ही नहीं है। प्रयोजन भी नहीं है। और चूंकि वह निजी और आंतरिक है, इसलिए कोई परिस्थिति उसमें कोई फर्क नहीं डालती।
तो इसको कसौटी मान कर चलना चाहिए और जांचते रहना चाहिए कि जिसको मैं ध्यान का आनंद कह रहा हूं, वह ध्यान का है कि सिर्फ ध्यान-परिवर्तन का है? इसलिए अगर ठीक खयाल बना रहे, तो वह पक्की कसौटी है, वह खोए ही न। यानी आप उसे खोना चाहें, तो भी न खो सकें। आप जाएं और लड़ें किसी से और क्रोध करें और फिर भी आप पाएं कि भीतर उसकी अंतर-धारा बही जा रही है और क्रोध बाहर एक्ंिटग से ज्यादा नहीं मालूम पड़ रहा है, और भीतर तो वह मौजूद ही है। तब आप समझना कि अब कुछ पाजिटिव, कोई विधायक गति भीतर हुई, अन्यथा नहीं हुई।
इसलिए ध्यान का आनंद मिले, तब तो सवाल ही नहीं है कि उसको हम कैसे स्थायी करें। जिसको स्थायी करना पड़े, समझना कि वह ध्यान का नहीं है। जिसको स्थायी करना पड़े, वह ध्यान का नहीं है।
प्रश्न:
ध्यान को प्राप्त कैसे हों? चित्त-वृत्तियों का निरोध कैसे हो?
ध्यान में आइए--एक शिविर में आ जाइए। ऐसा भी नहीं है मामला। असल में डेलिकेट है मामला, बहुत नाजुक है। और वह नाजुकता ठीक से समझ लेनी चाहिए। ये दोनों बातें एक साथ सच हैं कि वह जब आएगा, तब आप पाएंगे कि अपने किए नहीं आया। लेकिन जब तक आपने कुछ नहीं किया है, वह आएगा भी नहीं। ये दोनों ही बातें एक साथ सच हैं। इसलिए मामला बहुत नाजुक है।
प्रश्न:
जैसे कुएं से बाहर निकलने का कोई प्रयास करे।
मैं कह नहीं रहा कि कुएं के बाहर निकलने का प्रयास करें। मैं यह कह नहीं रहा। मैं तो यह कह रहा हूं कि वह जो कुएं में है, वह भी सागर का ही हिस्सा है, वह सागर को पहचान ले। तो कुएं-वुएं के बाहर निकलना नहीं है। ऐसे भी कोई कुआं सागर से अलग नहीं है। जरा नीचे से उसके झरने जुड़े हैं, बस इतनी बात है। कुआं ऊपर से ही कुआं है, नीचे से वह सब सागर ही है।
कुएं से निकलने की बहुत बात नहीं हैं कि कोई कुएं से निकल कर सागर में चला जाएगा। वह तो सागर के खोजने की बात है। सागर खोज में आ जाए, तो कुआं सागर हो जाएगा। कहीं कोई जाने की बात नहीं है। ऐसे भी कुआं सागर है। वह सब नीचे जुड़ा है, सब सागर है।
कुएं की अपनी कोई हस्ती है? कुएं की अपनी कोई हस्ती नहीं है। वह जो ऊपर से गोल घेरा दिखता है, वह आदमी का बनाया हुआ है; वह नहीं जुड़ा है सागर से। बाकी कुआं जो है न, वह जो पानी है कुएं का, वह सागर से जुड़ा है। हजार-हजार रास्तों से जुड़ा है। सागर नीचे से भी उसको दे रहा है, सागर ऊपर से बादलों से भी उसको दे रहा है। वह सब तरफ से सागर से जुड़ा है। उसमें कोई ऐसा नहीं है कि कट ऑफ है।
कहीं से कोई रास्ता बनाना है आपको। पहचान लेना है कि कुआं ही क्या है। अगर कोई पूरे कुएं को ही पहचान ले, तो सागर से जुड़ जाए। इसलिए इन प्रतीकों को ठीक से समझ लेने की जरूरत है। नहीं तो बहुत गड़बड़ होगी।
और यह जो मैं कहता हूं कि आपके प्रयास से नहीं होगा, यह सिर्फ इसलिए कहता हूं कि आपका अहंकार मजबूत न हो, क्योंकि आपका अहंकार बाधा बनेगा। और साथ में यह भी कहता हूं कि आपके प्रयास के बिना न होगा। यह इसलिए कहता हूं कि कहीं आलस्य मजबूत न हो। आलस्य बाधा बनेगा।
अहंकार भी बाधा है, आलस्य भी बाधा है, और दोनों से बचने की बात है। आप करें भी और कर्ता भी न बनें। आप श्रम भी उठाएं और यह भी न मानें कि मेरे श्रम से ही हो जाएगा। और श्रम तो उठाना ही पड़ेगा। नहीं तो हो ही गया होता कभी का। श्रम तो उठा ही नहीं रहे हैं।
अगर अ-श्रम से होता, तो हो ही गया होता। और अ-श्रम से होना है, तो कब होगा, होगा। फिर हमारा कोई संबंध नहीं है; उसकी बात ही करनी व्यर्थ है। न, श्रम तो उठाना ही पड़ेगा। और फिर भी यह जानना पड़ेगा कि मेरे ही श्रम से न हो जाएगा; इसलिए ‘मैं’ मजबूत न होता चला जाए, नहीं तो वह बाधा बनेगा। आप श्रम करेंगे और जब आप पाएंगे तब आप कह सकेंगे कि मेरे श्रम से यह नहीं हुआ है। क्योंकि दो कौड़ी का मेरा श्रम था और जो मिला है उसकी कोई कीमत नहीं है। तो मैं कैसे कहूं कि वह मेरे श्रम से हो गया है! जब कभी ये दोनों चीजें सामने आएंगी, तभी खयाल में आएगा।
इसलिए जिसको मिलेगा, वह कहेगा, ‘प्रभु की कृपा है।’ वह कहेगा, ‘मेरे से कुछ नहीं हुआ। मुझसे क्या हो सकता था!’ लेकिन जिसको नहीं मिला है, अगर उसने समझा कि प्रभु की कृपा से मिलेगा, तो गया। जिसको नहीं मिला है, उसे तो श्रम करना पड़ेगा। असल में उसकी श्रम की ही एक स्थिति उसको प्रभु-कृपा के योग्य बनाती है।
जैसे कि हमने यह दरवाजा खोल दिया है, लेकिन दरवाजा खोलने से ही रोशनी भीतर आ जाएगी, ऐसा नहीं है। सूरज भी उगा हुआ होना चाहिए, तो रोशनी भीतर आएगी। अगर रोशनी भीतर आएगी, तो आप यह न कह सकेंगे कि हम भीतर ले आए। क्योंकि आप तो रातों में भी कई दफा दरवाजा खोल कर बैठे रहे हैं और रोशनी नहीं आई है। सिर्फ दरवाजा खोलने से ही आ गई है, ऐसा भी नहीं है। दरवाजा खुलना सिर्फ एक हिस्सा है। रोशनी का आना बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन दरवाजा बंद रहने से रुक भी जाती है, यह भी पक्का है।
अब यह बड़े मजे की बात है। दरवाजा बंद करके हम रोक सकते हैं, लेकिन दरवाजा खोल कर हम जरूरी रूप से ला नहीं सकते। लेकिन बंद करके जरूरी रूप से रोक सकते हैं। हजार सूरज खड़े रहें बाहर, तो कोई फिकर नहीं है। हमारा दरवाजा बंद है और हमने अपने पर्दे डाल रखे हैं, तो सूरज कोई दरवाजे तोड़ कर भीतर नहीं घुसने वाला है! प्रतीक्षा करेगा बाहर।
इसलिए मैंने कहा, नाजुक है। और दोनों बातें ध्यान में रखनी हैं। दरवाजा खोलना है आपको, लेकिन जिस दिन सूरज की रोशनी भीतर आएगी, आप ऐसा न कह सकेंगे कि मैं ले आया हूं। उस दिन आप यही कहेंगे कि रोशनी आई। हां, अपनी तरफ से काम इतना ही था कि हमने बाधा नहीं डाली, बस। इससे ज्यादा नहीं--इससे ज्यादा नहीं।