UPANISHAD

Nirvan Upanishad 11

Eleventh Discourse from the series of 17 discourses - Nirvan Upanishad by Osho. These discourses were given in MOUNT ABU during SEPT 25 - OCT 02 1971.
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पांडरगगनम्‌ महासिद्धांतः।
शमदमादि दिव्यशक्त्याचरणे क्षेत्र पात्र पटुता।
परात्पर संयोगः तारकोपदेशः।
अद्वैतसदानंदो देवता नियमः।
स्वान्तरिन्द्रिय निग्रहः।

शुद्ध परमात्मा उनका आकाश है। यही महासिद्धांत है।
शम-दम आदि दिव्य शक्तियों के आचरण में क्षेत्र और पात्र का अनुसरण करना ही चतुराई है।
परात्पर से संयोग ही उनका तारक उपदेश है।
अद्वैत सदानंद ही उनका देव है।
अपने अंतर की इंद्रियों का निग्रह ही उनका नियम है।
पांडरगगनम्‌ महासिद्धांतः। परमात्मा ही उनका आकाश है, यही महासिद्धांत है।
एक आकाश, एक स्पेस तो बाहर है, जिसमें हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, जहां भवन निर्मित होते हैं और खंडहर हो जाते हैं, जहां आकाश में पक्षी उड़ते, सूर्य जन्मते, पृथ्वियां विलुप्त होतीं। एक आकाश हमारे बाहर है। यह जो बाहर है हमारे आकाश, यह जो बाहर फैला है हमारे आकाश, यही अकेला आकाश नहीं है। दिस स्पेस इज़ नाट द ओनली स्पेस। एक और आकाश भी है। वह हमारे भीतर है।
और जो आकाश हमारे बाहर फैला है, वह असीम है। वैज्ञानिक कहते हैं, उसकी कोई सीमा का पता नहीं चलता। लेकिन जो आकाश हमारे भीतर फैला है, यह बाहर का आकाश उसके सामने कुछ भी नहीं है। कहें कि वह असीम से भी ज्यादा असीम है। अनंत आयामी उसकी असीमता है--मल्टी डाइमेन्शनल इनफिनिटी है। बाहर के आकाश में चलना, उठना होता है, भीतर के आकाश में जीवन है। बाहर के आकाश में क्रियाएं होती हैं, भीतर के आकाश में चैतन्य है।
तो जो बाहर के आकाश में ही खोजता रहेगा, वह कभी भी जीवन से मुलाकात न कर पाएगा। उसकी चेतना से कभी भेंट न होगी। उसका परमात्मा से कभी मिलन न होगा। ज्यादा से ज्यादा पदार्थ मिल सकता है बाहर, परमात्मा का स्थान तो भीतर का आकाश है, अंतराकाश है, इनर स्पेस है।
ऋषि कहता हैः यही महासिद्धांत है।
और तो सब सिद्धांत हैं, यह महासिद्धांत है कि अगर जीवन के सत्य को पाना हो, तो अंतर-आकाश में उसकी खोज करनी पड़ती है।
लेकिन हमें अंतर-आकाश का कोई भी, कोई भी अनुभव नहीं है। हमने कभी भीतर के आकाश में कोई उड़ान नहीं भरी। हमने भीतर के आकाश में एक चरण भी नहीं रखा है। हम भीतर की तरफ गए ही नहीं। हमारा सब जाना बाहर की तरफ है। हम जब भी जाते हैं, बाहर ही जाते हैं। उसके कुछ कारण हैं।
एक मित्र ने प्रश्न पूछा है इस संबंध में। उन्होंने पूछा है, जब भीतर की, स्वरूप की स्थिति परम आनंद है, तो यह मन कहां से आ जाता है? जब भीतर नित्य आनंद का वास है, तो ये मन के विकार कैसे जन्म जाते हैं? ये कहां से अंकुरित हो जाते हैं?
इस अंतर-आकाश के संबंध में ही उसे भी समझ लेना उपयोगी है। यह प्रश्न सदा ही साधक के मन में उठता है कि जब मेरा स्वभाव ही शुद्ध है, तो यह अशुद्धि कहां से आ जाती है? और जब मैं स्वभाव से ही अमृत हूं, तो यह मृत्यु कैसे घटित होती है? और जब भीतर कोई विकार ही नहीं है, निर्विकार, निराकार का आवास है सदा से, सदैव से, तो ये विकार के बादल कैसे घिर जाते हैं? कहां से इनका जन्म होता है? कहां इनका उदगम है? ये अंकुरित कैसे होते हैं? इसे समझने के लिए थोड़ी सी गहराई में जाना पड़े।
पहली बात तो यह समझनी पड़े कि चेतना, जहां भी चेतना है, वहां चेतना की स्वतंत्रताओं में एक स्वतंत्रता यह भी है कि वह अचेतन हो सके। ध्यान रखें, अचेतन का अर्थ जड़ नहीं होता। अचेतन का अर्थ होता है, चेतन, जो कि सो गया है। चेतन, जो कि छिप गया है। यह चेतना की ही क्षमता है कि वह अचेतन हो सकती है। जड़ की यह क्षमता नहीं है। आप पत्थर से यह नहीं कह सकते हैं कि तू अचेतन है। जो चेतन नहीं हो सकता, वह अचेतन भी नहीं हो सकता। जो जाग नहीं सकता, वह सो भी नहीं सकता। और ध्यान रखें, जो सो भी नहीं सकता, वह जागेगा कैसे!
चेतना की ही क्षमता है एक, अचेतन हो जाना। अचेतन का अर्थ चेतना का नाश नहीं है। अचेतन का अर्थ है, चेतना का प्रसुप्त हो जाना, छिप जाना, अप्रकट हो जाना। चेतना की मालकियत है यह कि चाहे तो प्रकट हो, और चाहे तो अप्रकट हो जाए। यही चेतना का स्वामित्व है। या कहें, यही चेतना की स्वतंत्रता है। अगर चेतना अचेतन होने को स्वतंत्र न हो, तो चेतना परतंत्र हो जाएगी। फिर आत्मा की कोई स्वतंत्रता न होगी।
इसे ऐसा समझें, अगर आपको बुरे होने की स्वतंत्रता ही न हो, तो आपके भले होने का अर्थ क्या होगा? अगर आपको बेईमान होने की स्वतंत्रता ही न हो, तो आपके ईमानदार होने का कोई अर्थ होता है? और जब भी हम किसी व्यक्ति को कहते हैं कि वह ईमानदार है, तो इसमें निहित है, इम्प्लायड है, कि वह चाहता तो बेईमान हो सकता था और नहीं हुआ। अगर हो ही न सकता हो बेईमान, तो ईमानदारी दो कौड़ी की हो जाती है। ईमानदारी का मूल्य बेईमान होने की क्षमता और संभावना में छिपा है। जीवन के शिखर छूने का मूल्य, जीवन की अंधेरी घाटियों में उतरने की भी हमारी क्षमता है, इसमें छिपा है। स्वर्ग पहुंच जाना इसीलिए संभव है कि नर्क की सीढ़ी भी हम पार कर सकते हैं। और प्रकाश इसीलिए पाने की आकांक्षा है कि हम अंधेरे में भी हो सकते हैं।
ध्यान रहे, अगर आत्मा के लिए बुरा होने का उपाय ही न हो, तो आत्मा के भले होने में बिलकुल ही नपुंसकता, इंपोटेंसी हो जाएगी। विपरीत की सुविधा होनी चाहिए, और अगर चेतना को भी विपरीत की सुविधा नहीं है, तो चेतना गुलाम है। और गुलाम चेतना का क्या अर्थ होता है? उससे तो अचेतन होना, जड़ होना बेहतर है।
यह जो हमारे भीतर छिपा हुआ परमात्मा है, यह परम स्वतंत्र है, एब्सोल्यूट फ्रीडम। इसलिए शैतान तक होने का उपाय है और परमात्मा होने की भी सुविधा है। एक छोर से दूसरे छोर तक हम कहीं भी हो सकते हैं। और जहां भी हम हैं, वहां होना हमारी मजबूरी नहीं, हमारा निर्णय है, अवर ओन डिसीजन। अगर मजबूरी है, तो बात खत्म हो गई। अगर मैं पापी हूं और पापी होना मेरी मजबूरी है, पापी मुझे परमात्मा ने बनाया है, या मैं पुण्यात्मा हूं और पुण्यात्मा मुझे परमात्मा ने ही बनाया है, तो मैं पत्थर की तरह हो गया, मुझमें चेतना न रही। मैं एक बनाई हुई चीज हो गया, फिर मेरे कृत्य के कोई दायित्व मेरे ऊपर नहीं हैं।
एक मुसलमान मित्र मुझे मिलने आए थे, कुछ दिन हुए। बहुत समझदार व्यक्ति हैं। वे मुझसे कहने लगे--वृद्ध हैं--वे मुझसे कहने लगे कि मैं बहुत लोगों से मिला हूं, बहुत साधु-संन्यासियों के पास गया हूं, लेकिन कोई हिंदू मुझे यह नहीं समझा सका कि आदमी पाप में क्यों गिरा। हिंदू, जैन या बौद्ध, इस भूमि पर पैदा हुए तीनों धर्म यह मानते हैं कि अपने कर्मों के कारण। उन मुसलमान मित्र का पूछना बिलकुल ठीक था। वे कहने लगे, अगर अपने कर्मों के कारण गिरा, तो पहले जन्म में, जब उसकी शुरुआत ही हुई होगी, तब तो उसके पहले कोई कर्म नहीं थे।
ठीक है, जब पहला ही जन्म हुआ होगा चेतना का, तब तो वह निष्कपट, शुद्ध पैदा हुई होगी। उसके पहले तो कोई कर्म नहीं थे। इस जन्म में हम कहते हैं कि फलां आदमी बुरा है, क्योंकि पिछले जन्म में बुरे कर्म किए। पिछले जन्म में बुरे कर्म किए, क्योंकि और पिछले जन्म में बुरे कर्म किए। लेकिन कोई प्रथम जन्म तो मानना ही पड़ेगा। उस प्रथम जन्म के पहले तो कोई बुरे कर्म नहीं थे, तो बुरे कर्म आ कैसे गए फिर?
मैंने उन मुसलमान मित्र से कहा कि यह बात बिलकुल तर्कयुक्त है। लेकिन क्या इस्लाम और ईसाइयत जो उत्तर देते हैं, उन पर आपने विचार किया? उन्होंने कहा, वह ज्यादा ठीक मालूम पड़ता है कि ईश्वर ने आदमी को बनाया, जैसा चाहा वैसा बनाया। तो मैंने उनसे कहा, यहीं थोड़ी सी बात समझ लें। इस देश में पैदा हुआ कोई भी धर्म जिम्मेवारी ईश्वर पर नहीं डालना चाहता, मनुष्य पर डालना चाहता है। यह मनुष्य की गरिमा की स्वीकृति है। रिस्पांसबिलिटी इज़ ऑन मैन, नाट ऑन गॉड।
ध्यान रहे, गरिमा तभी है, जब दायित्व हो। अगर दायित्व भी नहीं है--अगर मैं बुरा हूं तो परमात्मा ने बनाया, भला हूं तो परमात्मा ने बनाया, जैसा हूं परमात्मा ने बनाया--तो सारी जिम्मेवारी परमात्मा की हो जाती है। और तब और भी उलझन खड़ी होगी कि परमात्मा को बुरा आदमी बनाने में क्या रस हो सकता है? और परमात्मा ही अगर बुरा बनाता है, तो हमारी अच्छे बनने की कोशिश परमात्मा के खिलाफ पड़ती है। तो परमात्मा आदमी को बुरा बनाता है और तथाकथित साधु-संन्यासी आदमी को अच्छा बनाते हैं, यह तो बड़ा मुश्किल है।
गुरजिएफ कहा करता था कि दुनिया के सब महात्मा परमात्मा के खिलाफ मालूम पड़ते हैं, दुश्मन मालूम पड़ते हैं। वह आदमी को बुरा बनाता है या जैसा भी बनाता है, फिर आप कौन हैं सुधारने वाले!
कर्म का सिद्धांत कहता है, व्यक्ति पर जिम्मेवारी है। लेकिन व्यक्ति पर जिम्मेवारी तभी हो सकती है जब व्यक्ति स्वतंत्र हो। स्वतंत्रता के साथ दायित्व है--फ्रीडम इम्प्लाइज रिस्पांसबिलिटी। अगर स्वतंत्रता नहीं है, तो दायित्व बिलकुल नहीं है। अगर स्वतंत्रता है, तो दायित्व है। लेकिन स्वतंत्रता हमेशा द्विमुखी है। दोनों तरफ की स्वतंत्रता ही स्वतंत्रता होती है।
मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा जब बड़ा हो गया, तो मुल्ला ने उससे कहा, बेटा तिजोरी तेरी है, चाभी भर मेरे पास रहेगी। ऐसे तू जितना खर्च करना चाहे, खर्च कर सकता है, लेकिन ताला भर मत खोलना। स्वतंत्रता पूरी दी जा रही मालूम पड़ती है और जरा भी नहीं दी जा रही है।
मैंने एक मजाक सुना है कि जब पहली दफा फोर्ड ने कारें बनाईं, पहली दफा मोटरें बनीं अमरीका में, तो एक ही रंग की बनाई थीं, काले रंग की थीं। और फोर्ड ने अपने दरवाजे पर अपनी फैक्ट्री के एक वचन लिख छोड़ा था--यू कैन चूज़ एनी कलर, प्रोवाइडेड इट इज़ ब्लैक। आप कोई भी रंग चुन सकते हैं, अगर वह काला है। प्रोवाइडेड इट इज़ ब्लैक। काले रंग की कुल गाड़ियां ही थीं, कोई दूसरे रंग की तो गाड़ियां थीं नहीं, लेकिन स्वतंत्रता पूरी थी; आप कोई भी रंग चुन लें। बस, काला होना चाहिए। इतनी शर्त थी पीछे।
अगर आदमी से परमात्मा यह कहे कि यू आर फ्री, प्रोवाइडेड यू आर गुड; आप स्वतंत्र हैं, अगर आप अच्छे होना चाहते हैं तो ही, तो स्वतंत्रता दो कौड़ी की हो गई।
स्वतंत्रता का अर्थ ही यही होता है कि हम बुरे होने के लिए भी स्वतंत्र हैं। और जब स्वतंत्रता है, तभी दायित्व है। तब फिर जिम्मा मेरा है। अगर मैं बुरा हूं, तो मैं जिम्मेवार हूं। और अगर भला हूं, तो मैं जिम्मेवार हो जाता हूं। जिम्मेवारी मुझ पर पड़ जाती है।
फिर भारत यह भी कहता है कि परमात्मा हमसे बाहर नहीं है। वह हमारे भीतर छिपा है। इसलिए हमारी स्वतंत्रता अंततः उसकी ही स्वतंत्रता है। इसे और समझ लेना चाहिए। क्योंकि परमात्मा अगर बाहर बैठा हो हमसे और हमसे कहे कि आई गिव यू फ्रीडम, मैं तुम्हें स्वतंत्रता देता हूं, तो भी वह परतंत्रता हो जाएगी, क्योंकि किसी दूसरे के द्वारा दी गई स्वतंत्रता कभी स्वतंत्रता नहीं हो सकती। क्योंकि वह किसी भी दिन कैंसिल कर सकता है। वह किसी भी दिन कह देगा, अच्छा, बस बंद। अब इरादा बदल दिया। अब स्वतंत्रता नहीं देते हैं। तो हम क्या करेंगे?
नहीं, स्वतंत्रता आत्यंतिक है, अल्टीमेट है, क्योंकि देने वाला और लेने वाला दो नहीं हैं। वह हमारे भीतर ही बैठी हुई चेतना परम स्वतंत्र है, क्योंकि वही परमात्मा है। वह जो अंतरस्थ आकाश है, वही परमात्मा है। और परमात्मा को भी अगर बुरे होने की सुविधा न हो, तो परमात्मा की परतंत्रता के अतिरिक्त और क्या घोषणा होगी। इसलिए मन पैदा हो सकता है। वह हमारा पैदा किया हुआ है। वह परमात्मा का पैदा किया हुआ है।
एक और बात खयाल में ले लेनी जरूरी है कि जीवन के प्रगाढ़ अनुभव के लिए विपरीत में उतर जाना अनिवार्य होता है। प्रौढ़ता के लिए, मैच्योरिटी के लिए विपरीत में उतर जाना अनिवार्य होता है। जिसने दुख नहीं जाना, वह सुख कभी जान नहीं पाता। और जिसने अशांति नहीं जानी, वह शांति भी कभी नहीं जान पाता। और जिसने संसार नहीं जाना, वह स्वयं परमात्मा होते हुए भी परमात्मा को नहीं जान पाता। परमात्मा की पहचान के लिए संसार की यात्रा पर जाना अनिवार्य है। अनिवार्य! उस पर कोई बचाव नहीं है। और जो जितना गहरा संसार में उतर जाता है, उतने ही गहन परमात्मा के स्वरूप को अनुभव कर पाता है। उस उतरने का भी प्रयोजन है।
कोई चीज जो हमारे पास सदा से हो, उसकाहमें तब तक पता नहीं चलता, जब तक वह खो न जाए। खोने पर ही पता चलता है। मेरे पास कुछ था, इसका अनुभव भी खोने पर पता चलता है। खोना भी पाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। खोना भी ठीक से पाने का उपाय है। खोना भी पाने की प्रक्रिया का हिस्सा, अंग, अनिवार्य अंग है। जो हमारे भीतर छिपा है, उसे अगर हमें ठीक-ठीक अनुभव करना हो, तो हमें उसे खोने की यात्रा पर भी जाना पड़ता है।
कहते हैं लोग कि जब तक कोई परदेश नहीं जाता, तब तक अपने देश को नहीं पहचान पाता। वे ठीक कहते हैं। और कहते हैं लोग कि जब तक दूसरों से कोई परिचित नहीं होता, तब तक अपने से परिचित नहीं हो पाता। ईवेन द वे टु वनसेल्फ पासेस थ्रू द अदर। ज्यां पाल सार्त्र का बहुत प्रसिद्ध वचन है कि दूसरे को जाने बिना स्वयं को जानने का कोई उपाय नहीं। दूसरे से गुजरना पड़ता है स्वयं की पहचान के लिए। क्यों?
क्योंकि जब तक विपरीत का अनुभव न हो...जैसे शिक्षक काले ब्लैक बोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है। सफेद दीवार पर भी लिख सकता है, लिखने में कोई अड़चन नहीं है, लेकिन तब दिखाई नहीं पड़ेगा। लिखा भी जाएगा और दिखाई भी नहीं पड़ेगा। लिखा तो जाएगा, पढ़ा नहीं जा सकेगा। और ऐसे लिखने का क्या प्रयोजन, जो पढ़ा न जा सके।
सुना है मैंने कि एक आदमी सुबह-सुबह मुल्ला नसरुद्दीन के द्वार पर आया। गांव में अकेला ही पढ़ा-लिखा आदमी था नसरुद्दीन। और जहां एक ही आदमी पढ़ा-लिखा होता है, समझ लेना चाहिए, पढ़ा-लिखा कितना होगा! उस आदमी ने कहा कि जरा एक चिट्ठी लिख दो मुल्ला। मुल्ला ने कहा, मेरे पैर में बहुत दर्द है, मैं न लिख सकूंगा। उस आदमी ने कहा, हद हो गई। कभी हमने सुना नहीं कि लोग पैर से चिट्ठी लिखते हैं। हाथ से लिखो। पैर में दर्द है, रहने दो। हाथ में क्या अड़चन है? नसरुद्दीन ने कहा कि यह जरा रहस्य की बात है, यह न पूछो तो अच्छा। हम लिख न सकेंगे, चिट्ठी हम न लिखेंगे, पैर में बहुत तकलीफ है। उस आदमी ने कहा, जरा रहस्य ही बता दो। यह बात क्या है, मेरी समझ में नहीं आता। नसरुद्दीन ने कहा, बात यह है कि हमारी लिखी चिट्ठी हमारे सिवाय और कोई नहीं पढ़ पाता। तो दूसरे गांव की यात्रा करने की अभी हमारी हैसियत नहीं है। पैर में तकलीफ बहुत है। लेकिन जो, नसरुद्दीन ने कहा, जो पढ़ा ही न जा सके, उसके लिखने का क्या फायदा। इसलिए हाथ तो फुर्सत में है, लेकिन पढ़ेगा कौन?
सफेद दीवार पर लिख तो सकते हैं हम, पढ़ा नहीं जा सकता। और जो पढ़ा नहीं जा सकता, उस लिखने का कोई अर्थ नहीं। इसलिए काले ब्लैक बोर्ड पर लिखना पड़ता है। उस पर दिखाई पड़ता है उभरकर। आकाश पर जब काले बादल होते हैं, तो दिखाई पड़ती है बिजली कौंधती।
भीतर जो छिपा है परमात्मा, उसके अनुभव के लिए पदार्थ की गहनता में उतरना अनिवार्य है। संन्यास को भी जानने के लिए गृहस्थ हुए बिना कोई मार्ग नहीं। सत्य को भी जानने के लिए असत्य के रास्तों से गुजरना पड़ता है। और इसे जब कोई अनिवार्यता समझता है और इस रहस्य को समझ जाता है, तो फिर जिस असत्य से गुजरा, उसके प्रति भी धन्यवाद ही मन में उठता है। क्योंकि उसके बिना सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता था। जिस पाप से गुजरकर पुण्य तक पहुंचे, उस पाप की भी अनुकंपा ही मालूम होती है अंदर, क्योंकि उसके बिना पुण्य तक नहीं पहुंचा जा सकता था।
बोधिधर्म ने कहा है--और बोधिधर्म इस पृथ्वी पर दस-पांच लोगों में एक है, जिन्होंने गहनतम सत्य के अनुभव को जाना--बोधिधर्म ने कहा है मरने के क्षण में, कि संसार, तेरा धन्यवाद, क्योंकि तेरे बिना निर्वाण को जानने का कोई उपाय न था। शरीर, तुझे धन्यवाद, क्योंकि तेरे बिना आत्मा को पहचानने की सुविधा कैसे बनती। सब पापो, तुम्हारी अनुकंपा मुझ पर, क्योंकि तुमसे गुजरकर मैं पुण्य के शिखर तक पहुंचा। तुम सीढ़ियां थे।
तब जीवन विपरीत होकर भी विपरीत नहीं रह जाता। तब जीवन विपरीत होकर भी एकरस हो जाता है और वैपरीत्य में भी एक हार्मनी और एक संगीत उत्पन्न हो जाता है। संगीत पैदा होता है विभिन्न स्वरों से। और अगर संगीत के किसी स्वर को बहुत उभारना हो, तो उसके पहले बहुत धीमे स्वर पैदा करने पड़ते हैं। तब उभरकर संगीत प्रगट होता है।
सब अभिव्यक्ति विपरीत के साथ है, इसलिए चेतना मन को पैदा करती है। चेतना का ही काम है। चेतना ही बाहर जाती है। और बाहर भटक-भटक कर ही उसे पता चलता है कि बाहर कुछ नहीं है। तब चेतना भीतर वापस आती है। और ध्यान रहे, जो चेतना कभी बाहर नहीं गई थी उस चेतना में और जो चेतना बाहर भटककर भीतर आती है, रिचनेस का, समृद्धि का बहुत फर्क है।
इसलिए जब पापी कभी पुण्यात्मा होता है, तो उसके पुण्य की जो गहराई है, वह साधारण आदमी के पुण्य की गहराई नहीं होती, जो कभी पापी नहीं हुआ। क्योंकि पापी बहुत जानकर पुण्य तक पहुंचता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अच्छे आदमी की कोई जिंदगी नहीं होती। अगर आप नाटककारों से पूछें, उपन्यासकारों से पूछें, फिल्म-कथा लिखने वालों से पूछें, तो वे कहेंगे, अच्छे आदमी पर तो कोई कथा ही नहीं लिखी जा सकती। अगर आदमी बिलकुल अच्छा हो, तो कोरा सपाट होता है। रामायण में से राम को छोड़ने में बहुत असुविधा नहीं है, रावण को छोड़ने में सब कथा गड़बड़ हो जाती है। राम के बिना चल सकता है, रावण के बिना नहीं चल सकता है। कोई कितना ही कहे कि राम नायक हैं, जो कथा लिखना जानते हैं, वे कहेंगे, रावण नायक है, क्योंकि सारी कथा उसके इर्द-गिर्द घूमती है। और अगर राम भी प्रखर होकर प्रकट होते हैं, तो रावण के सहारे और रावण के कंधे पर। रावण के बिना राम भी सफेद दीवार पर खींची गई सफेद रेखा हो जाएंगे। वह काला ब्लैक बोर्ड तो रावण है।
लेकिन स्कूल में शिक्षक जब काले ब्लैक बोर्ड पर लिखता है, तो बच्चे ब्लैक बोर्ड का विरोध नहीं करते। वे जानते हैं कि सफेद रेखा उसी पर उभरती है। लेकिन जब रावण के ब्लैक बोर्ड पर राम उभरते हैं, तो हम नासमझ विरोध करते हैं कि रावण नहीं होना चाहिए। रावण दुनिया से मिटा दो। जिस दिन आप रावण को दुनिया से मिटा देंगे, उस दिन राम तिरोहित हो जाएंगे। वह कहीं खोजे से नहीं मिलेंगे।
जीवन विपरीत स्वरों के बीच एक सामंजस्य है। चेतना ही पैदा करती है मन को। चेतना ही विचार को पैदा करती है, ताकि निर्विचार को जान सके। परमात्मा ही संसार को बनाता है, ताकि स्वयं को अनुभव कर सके। यह आत्म-अन्वेषण की यात्रा है। इसमें भटकना जरूरी है।
एक कहानी मैं निरंतर कहता रहा हूं। एक गांव के बाहर एक आदमी उतरा अपने घो़ड़े से, झाड़ के पास बैठे नसरुद्दीन के सामने उसने हाथ में ली झोली पटकी, और कहा कि करोड़ों के हीरे-जवाहरात इस झोली में हैं। इसे मैं लेकर घूम रहा हूं गांव-गांव। मुझे कोई रत्तीभर भी सुख दे दे, तो मैं ये सब हीरे उसे सौंप दूं, लेकिन अब तक मुझे कोई रत्तीभर सुख नहीं दे पाया।
नसरुद्दीन ने कहा, तुम बहुत दुखी हो? उसने कहा, मुझसे ज्यादा दुखी कोई भी नहीं हो सकता। तभी तो मैं रत्तीभर सुख के लिए करोड़ों के हीरे देने को तैयार हूं। नसरुद्दीन ने कहा, तुम ठीक जगह आ गए, बैठो।
वह जब तक बैठा, तब तक नसरुद्दीन उसकी थैली लेकर भाग खड़ा हुआ। वह आदमी स्वभावतः नसरुद्दीन के पीछे भागा कि मैं लुट गया, मैं मर गया। यह आदमी डाकू है, यह लुटेरा है। किसने कहा कि यह फकीर है! किसने कहा कि यह ज्ञानी है! लेकिन गांव के गली-कूचे नसरुद्दीन के परिचित थे। उसने काफी चक्कर खिलाए। पूरा गांव जग गया। सारा गांव दौड़ने लगा। करोड़ों का मामला था। और नसरुद्दीन आगे और वह धनपति छाती पीटता हुआ पीछे जार-जार चिल्ला रहा है कि मेरी जिंदगीभर की कमाई वही है। और मैं सुख खोजने निकला हूं, और यह दुष्ट मुझे और दुख दिए दे रहा है।
भागकर नसरुद्दीन उसी झाड़ के पास पहुंच गया, जहां उसका घोड़ा खड़ा था अमीर का, झोला जाकर घोड़े के पास रखकर वह झाड़ के पीछे खड़ा हो गया। दो क्षण बाद ही अमीर भागा हुआ पहुंचा, पूरा गांव भागा हुआ पहुंचा। अमीर ने झोला पड़ा देखा, उठाकर छाती से लगा लिया और कहा, हे परमात्मा, तेरा बड़ा धन्यवाद। नसरुद्दीन ने झाड़ के पीछे से पूछा, कुछ सुख मिला? पाने के लिए खोना जरूरी है। उस आदमी ने कहा, कुछ? कुछ नहीं, बहुत मिला। इतना सुख मैंने जीवन में जाना ही नहीं। नसरुद्दीन ने कहा, अब तू जा। नहीं तो इससे ज्यादा अगर मैं सुख दूंगा, तो तुम मुसीबत में पड़ सकते हो। अब तू एकदम चला जा।
बहुत बार खोना बहुत जरूरी है। असली सवाल यह नहीं है कि हमने क्यों अपने को खोया। असली सवाल यह है कि या तो हमने पूरा अपने को नहीं खोया, या हम खोने के इतने अभ्यासी हो गए कि लौटने के सब रास्ते टूट गए मालूम पड़ते हैं। असली सवाल यह नहीं है कि क्यों हमने खोया। खोना अनिवार्य है। असली सवाल यह है कि कब तक हम खोए रहेंगे?
इसलिए बुद्ध से अगर कोई पूछता था कि यह आदमी अंधकार में क्यों गिरा? तो बुद्ध कहते, व्यर्थ की बातें मत करो। अगर पूछना हो तो यह पूछो कि अंधकार के बाहर कैसे जाया जा सकता है? यह संगत सवाल है। यह असंगत है। बुद्ध कहते थे, इस बेकार की बातचीत में मुझे मत खींचो कि आदमी अंधकार में क्यों गिरा? वह तुम बाद में खोज लेना। अभी तुम मुझसे यह पूछ लो कि प्रकाश कैसेमिल सकता है?
बुद्ध कहते थे कि तुम उस आदमी जैसे हो, जिसकी छाती में जहरीला तीर घुसा हो और मैं उसकी छाती से तीर खींचने लगूं तो वह आदमी कहे, रुको, पहले यह बताओ कि यह तीर किसने मारा? पहले यह बताओ कि यह तीर पूरब से आया कि पश्चिम से? और पहले यह बताओ कि यह तीर जहर-बुझा है या साधारण है? तो बुद्ध कहते, मैं उस आदमी से कहता, यह सब तुम पीछे पता लगा लेना, अभी मैं तीर को खींचकर बाहर निकाल देता हूं। लेकिन वह आदमी कहता है कि जब तक जानकारी पूरी न हो, तब तक कुछ भी करना क्या उचित है?
तो यह फिक्र मत करें कि मन कैसे पैदा हुआ? यह फिक्र करें कि मन कैसे विसर्जित हो सकता है। और ध्यान रहे, बिना विसर्जन किए आपको कभी पता न चलेगा कि कैसे इसका सर्जन किया था। उसके कारण हैं।
उसके कारण हैं, क्योंकि सर्जन किए अनंत काल बीत गया। उस स्मृति को खोजना आज आपके लिए आसान नहीं होगा। रास्ता है। अगर आप लौटें अपने पीछे जन्मों में। लौटते जाएं, लौटते जाएं। आदमी के जन्म चुक जाएंगे, पशुओं के जन्म होंगे। पशुओं के जन्म चुक जाएंगे, कीड़े-मकोड़ों के जन्म होंगे। कीड़े-मकोड़ों के जन्म चुक जाएंगे, पौधों के जन्म होंगे। पौधों के जन्म चुक जाएंगे, पत्थरों के जन्म होंगे। लौटते जाएं उस जगह जहां पहले दिन आपकी चेतना सक्रिय हुई और मन का निर्माण शुरू हुआ।
लेकिन वह बड़ी लंबी यात्रा है और अति कठिन है। उसमें मत पड़ें कि यह मन कैसे बना। हां, लेकिन एक और सरल उपाय है कि इस मन को विसर्जित करें। और विसर्जन को अभी आप देख सकते हैं। और जब आप विसर्जन को देख लेंगे, तो आप जान जाएंगे कि विसर्जन की जो प्रक्रिया है, उससे उलटी प्रक्रिया सर्जन की है।
बुद्ध एक दिन अपने भिक्षुओं के बीच सुबह जब बोलने गए, तो उनके हाथ में एक रेशम का रूमाल था। बैठकर उन्होंने उस पर पांच गांठें लगाईं। भिक्षु बड़े चिंतित हुए, क्योंकि बुद्ध कभी कुछ हाथ में लेकर आते न थे। रेशम का रूमाल क्यों ले आए? और फिर बोलने की जगह बैठकर उस पर गांठें लगाने लगे! बड़ी उत्सुकता, बड़ी आतुरता हो गई। क्या कोई जादू दिखाने का खयाल है? क्योंकि जादूगर रूमाल वगैरह लेकर आते हैं। बुद्ध को क्या रूमाल लेकर आने की बात थी?
लेकिन बुद्ध शांति से, सन्नाटे में पांच गांठें लगा लिए और फिर उन्होंने कहा, भिक्षुओ, ये रूमाल में गांठें लग गईं। मैं तुमसे दो सवाल पूछना
चाहता हूं। एक तो यह कि जब रूमाल में गांठें नहीं लगीं थीं तब के रूमाल में, और अब जब रूमाल में गांठें लग गई हैं अब के रूमाल में, क्या कोई फर्क है स्वरूपगत?
एक भिक्षु ने कहा, स्वरूपगत तो फर्क बिलकुल नहीं है, रूमाल वही का वही है। जरा भी, इंचभर भी तो रूमाल के स्वरूप में फर्क नहीं है। लेकिन आप हमें फंसाने की कोशिश कर रहे हैं। फर्क हो भी गया, क्योंकि तब रूमाल में गांठें न थीं और अब गांठें हैं। लेकिन फर्क बहुत ऊपरी है, क्योंकि गांठें रूमाल के स्वभाव पर नहीं लगतीं, केवल शरीर पर लगती हैं।
संसार और निर्वाण में इतना ही फर्क है। निर्वाण में भी वही स्वरूप होता है, जो संसार में। सिर्फ संसार में रूमाल पर पांच गांठें होती हैं।
बुद्ध ने कहा, तो भिक्षुओ, यह जो रूमाल है गांठ लगा हुआ, ऐसे ही तुम हो। तुममें और मुझमें बहुत फर्क नहीं। स्वरूप एक जैसा है। सिर्फ तुम पर कुछ गांठें लगी हैं।
बुद्ध ने कहा, इन गांठों को मैं खोलना चाहता हूं। और उस रूमाल को पकड़कर बुद्ध ने खींचा। स्वभावतः, खींचने से गांठें और मजबूत हो गईं। एक भिक्षु ने कहा, आप जो कर रहे हैं, इससे गांठें खुलेंगी नहीं, खुलना मुश्किल हो जाएगा। बुद्ध ने कहा, तो इसका यह अर्थ हुआ कि जब तक गांठों को ठीक से न समझ लिया जाए, तब तक खींचना खतरनाक है। हम सब गांठों को खींच रहे हैं बिना समझे कि गांठ कैसे लगी हैं।
एक भिक्षु से बुद्ध ने कहा, तो मैं क्या करूं? तो उस भिक्षु ने कहा, जानना जरूरी है कि गांठ कैसे लगी, तभी खोला जा सकता है। क्योंकि लगने का जो ढंग है, उससे विपरीत खुलने का ढंग होगा। बुद्ध ने कहा, गांठें अभी लगी हैं, इसलिए तुम्हारे खयाल में है कि कैसे लगीं, लेकिन गांठें अगर बहुत काल पहले लगी होतीं, तो तुम कैसे पता लगाते कि गांठें कैसे लगीं? लग चुकीं। तो फिर उस भिक्षु ने कहा, तब तो हम खोलकर ही पता लगाते। खोलने से पता लग जाएगा। क्योंकि खोलने का जो ढंग है, उसका उलटा ढंग लगने का होगा।
तो आप इस फिक्र में न पड़ें कि यह मन कैसे पैदा हुआ, आप इस फिक्र में पड़ें कि यह मन कैसे चला जाए। और जिस क्षण चला जाएगा, उस दिन आप जान लेंगे उसी क्षण कि यह कैसे पैदा हुआ था। जो विसर्जन करता है, वही सर्जन करने वाला है। और जो विसर्जन कर सकता है, वह सर्जन कर सकता था। विसर्जन की जो प्रक्रिया है, उससे उलटी प्रक्रिया सर्जन की है।
ऋषि कहता हैः शुद्ध परमात्मा ही उनका आकाश है। यही महासिद्धांत है।
यह भीतर का जो आकाश है बादलरहित, मेघरहित, विचाररहित, मनरहित--आकाश का तभी पता चलेगा। जब आकाश में बादल घिर जाते हैं, तो बादलों का पता चलता है, आकाश का पता नहीं चलता। हालांकि आकाश मिट नहीं गया होता, सदा बादलों के पीछे खड़ा रहता है। और बादल भी आकाश में ही होते हैं, आकाश के बिना नहीं हो सकते। लेकिन जब बदलियों से घिरा होता है आकाश, तो बदलियों का पता चलता है, आकाश का पता नहीं चलता। विचारों से, मन से घिरे हुए भीतर के आकाश का भी पता नहीं चलता।
डेविड ह्यूम ने कहा है कि सुनकर ये बातें कि भीतर भी कोई है, मैं बहुत बार खोजने गया, लेकिन जब भी भीतर गया, तो मुझे कोई आत्मा न मिली, कोई परमात्मा न मिला। कभी कोई विचार मिला, कभी कोई वासना मिली, कभी कोई वृत्ति मिली, कभी कोई राग मिला, लेकिन आत्मा कभी भी न मिली। वह ठीक कहता है। अगर आप अपने हवाई जहाज को उड़ाएं, या अपने पंखों को फैलाएं आकाश की तरफ और बदलियां आपको मिलें, और बदलियों की ही खोज करके आप वापस लौट आएं, बदलियों को पार न करें, तो लौटकर आप भी कहेंगे, आकाश कोई भी न मिला। बदलियां ही बदलियां थीं, धुआं ही धुआं था, बादल ही बादल थे, कहीं कोई आकाश न था।
अपने भीतर भी हम सिर्फ बदलियों तक जाकर लौट आते हैं। उनके पार प्रवेश नहीं हो पाता। जब तक उनके पार प्रवेश न हो--जैसे आप कभी हवाई जहाज पर उड़े हों बादलों के ऊपर, और बादल नीचे छूट जाते हैं--वैसे ही ध्यान में भी एक उड़ान होती है, जब विचार नीचे छूट जाते और आप ऊपर हो जाते हैं, तब खुला आकाश मिलता है। तब अंतर का आकाश मिलता है। इसे ऋषि कहता है, महासिद्धांत। क्योंकि इस पर सब कुछ निर्भर है।
कहा है, शम-दम आदि दिव्य शक्तियों के आचरण में क्षेत्र और पात्र का अनुसरण करना ही चतुराई है।
शम-दम आदि दिव्य शक्तियों के आचरण में क्षेत्र और पात्र का अनुसरण करना ही चतुराई है। मनुष्य के पास शक्तियां हैं। मनुष्य के पास शक्तियां तो जरूर हैं, लेकिन समझ सबकी जागी हुई नहीं है। इसलिए शक्तियों का दुरुपयोग हो जाता है। और शक्ति के साथ समझ न हो, तो खतरनाक है। हां, समझ के साथ शक्ति न हो, तो कोई खतरा नहीं है। लेकिन होता ऐसा है कि समझ के साथ अक्सर शक्ति नहीं होती और नासमझ के साथ अक्सर शक्ति होती है। इस दुनिया का दुर्भाग्य यही है कि नासमझों के हाथ में काफी शक्ति होती है। उसका कारण है कि नासमझ शक्ति की ही तलाश करते हैं। समझदार तो शक्ति की तलाश बंद कर देते हैं।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने अपने जीवन का सार-सिद्धांत जिस किताब में लिखा है, उसका नाम है, दि विल टु पावर। शक्ति को खोजने की वासना, आकांक्षा, अभीप्सा, संकल्प। नीत्शे कहता है, इस जगत में पाने योग्य एक ही चीज है, वह है शक्ति, पावर। नीत्शे कहता है, कोई सुख नहीं पाना चाहता। सब लोग शक्ति पाना चाहते हैं। और जब शक्ति मिलती है, तब सुख एक बाय-प्रोडक्ट है। और शक्ति पाने के लिए आदमी कितने दुख उठा लेता है। अनंत दुख उठाने को राजी हो जाता है।
नीत्शे की बात, जहां तक साधारण आदमी का सवाल है, सौ प्रतिशत सही है। आपको जब भी सुख का अनुभव हुआ है, वह वही क्षण है, जब आपको शक्ति का अनुभव हुआ है। अगर चार आदमी की गर्दन आपकी मुट्ठी में है, तो आपको बड़ा सुख मालूम पड़ता है।
राष्ट्रपतियों को या प्रधानमंत्रियों को कौन सा सुख मालूम पड़ता होगा? कितने आदमियों की गर्दन है उनकी मुट्ठी में। प्रधानमंत्री पद से नीचे उतर जाता है, तो ऐसी हालत हो जाती है जैसे क्रीज मिट गई हो उस कपड़े की। लुंज-पुंज हो जाता है। जान निकल जाती है, रीढ़ टूट जाती है, बिना रीढ़ के सरकने वाले पशु की हालत हो जाती है। बिना रीढ़ के, कोई रीढ़ नहीं रह जाती, बैकबोनलेस। ऐसा उठाओ, छोड़ दो, बोरे की तरह नीचे गिर जाता है। यही आदमी राजसिंहासन पर ऐसा रीढ़ वाला मालूम पड़ता था! लेकिन वह रीढ़ इसकी नहीं थी, वह सिंहासन के पीछे की हड्डी थी, वह इसकी अपनी हड्डी न थी।
धन पाकर आदमी को क्या मिलता होगा? और उस धन को पाकर जिससे कुछ भी खरीदने को नहीं बचता, क्या मिलता होगा? पावर! धन पोटेंशियल पावर है। एक रुपया मेरे खीसे में पड़ा है, तो बहुत चीजें पड़ी हैं एक साथ। चाहूं तो एक आदमी से रातभर पैर दबवा लूं। चाहूं तो एक आदमी से कहूं कि रातभर कहते रहो, हुजूर, हुजूर, तो वह हुजूर, हुजूर कहता रहेगा। इस एक रुपये में बहुत कुछ, बहुत शक्ति छिपी है। वह बीज में छिपी है। इसलिए रुपया खीसे में होता है, तो भीतर आत्मा मालूम पड़ती है कि मैं भी हूं। क्योंकि अभी कुछ भी करवा लूं। खीसे में रुपया नहीं होता है, तो भीतर से आत्मा सरक जाती है। हालत उलटी होती है, अब जिसके खीसे में रुपया है, वह मुझसे कुछ करवा ले।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन पर, एक अंधेरे रास्ते पर, चार चोरों ने हमला कर दिया। मुल्ला ऐसा लड़ा जैसा कि कोई लड़ सकता था। चारों को पस्त कर दिया। फिर भी चार थे, हड्डी-पसली तोड़ दी चारों की। बामुश्किल वे चार मुल्ला पर कब्जा पा सके। खीसे में हाथ डाला, तो केवल अठन्नी निकली। तो उन्होंने नसरुद्दीन से कहा कि भैया, अगर रुपया तेरे खीसे में होता, तो आज हम जिंदा न बचते। हद कर दी तूने भी। अठन्नी के पीछे ऐसी मार-काट मचाई! और हम इसलिए सहे गए और इसलिए लड़े चले गए कि तेरी मार-पीट से ऐसा लगा कि बहुत माल होगा।
मुल्ला ने कहा, सवाल बहुत माल का नहीं है। आई कैन नाट एक्सपोज माई फाइनेंशियल कंडीशन टु टोटल स्ट्रैंजर्स। अपनी माली हालत मैं बिलकुल अजनबी लोगों के सामने प्रकट नहीं कर सकता। अठन्नी ही है! लेकिन इससे माली हालत तो सब खराब हो गई न! तुम चार आदमियों के सामने पता चल गया कि अठन्नी। सब बात ही खराब हो गई। इसलिए लड़ा। अगर मेरे खीसे में लाख-दो लाख रुपये होते, तो लड़ता ही नहीं। कहता, निकाल लो।
माली हालत पावर सिंबल है। धन चाहते हैं--शक्ति। पद चाहते हैं--शक्ति। लेकिन नीत्शे को पता नहीं है कि कुछ लोग हैं जो शक्ति नहीं चाहते, शांति चाहते हैं। बहुत थोड़े हैं, न्यून हैं। ऐसा कभी कोई ऋषि होता है, जो शांति चाहता है, शक्ति नहीं चाहता। और जो शांति चाहता है, उसे समझ मिलती है। और जो शक्ति चाहता है, वह नासमझ होता चला जाता है।
इसलिए इस दुनिया में शक्तिशाली लोगों से ज्यादा नासमझ और स्टुपिड आदमी खोजना कठिन है। चाहे वह हिटलर हो, चाहे माओ हो और चाहे निक्सन हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। असल में शक्ति की खोज ही मूढ़ता है। उससे कुछ मिलने वाला नहीं। उससे सिर्फ दूसरे को दबाने की सुविधा मिलती है, अपने को पाने की नहीं। और दूसरे को मैं कितना ही दबाऊं, इससे क्या हल होता है? समझदार खोजता है शांति, शक्ति नहीं। और शांति में समझ का फूल खिलता है।
यह दुर्भाग्य है कि जिनके पास समझ होती है, उनके पास शक्ति नहीं होती; और जिनके पास शक्ति होती है, उनके पास समझ नहीं होती। यह इतिहास की दुर्घटना है। इससे हम पीड़ित हैं। क्योंकि समझदार राह के किनारे खड़े रह जाते हैं और बुद्धू राजसिंहासनों पर चढ़ जाते हैं। फिर उपद्रव होने ही वाला है। यह सारा जो उपद्रव है, उसका कारण है। और यह उपद्रव मिट नहीं सकता। क्योंकि शक्ति मिलते ही, जिसके पास बुद्धि नहीं है, वह भी शक्ति की गर्मी में बुद्धिमान मालूम पड़ने लगता है। वह भी बुद्धिमत्ता की बातें करने लगता है।
सुना है मैंने कि नसरुद्दीन एक सम्राट के घर सेवक हो गया था। भोजन के लिए पहले ही दिन बैठा था, तो सम्राट ने कहा कि देखो, यह सब्जी कैसी बनी है? नसरुद्दीन ने कहा, यह सब्जी, यह अमृत है। रसोइए ने सुना, दूसरे दिन भी वही सब्जी बना लाया। सम्राट थोड़ा बेचैन हुआ, लेकिन नसरुद्दीन उसकी तारीफ हांके जा रहा था कि यह बिलकुल अमृत है। इसको जो खाता है, वह कभी मरता ही नहीं। तो सम्राट किसी तरह खा गया। रसोइए ने तारीफ सुनी। तीसरे दिन फिर बना लाया। सम्राट ने कहा, हटाओ इस अमृत को यहां से। यह मरने के पहले ही मुझे मार डालेगा। हाथ मारकर उसने थाली नीचे पटक दी। नसरुद्दीन ने कहा, हुजूर, यह बिलकुल जहर है। इससे सावधान रहना।
सम्राट ने कहा, तू आदमी कैसा है? तू दो दिन तक अमृत कहता रहा, अब जहर कहने लगा? उसने कहा, मैं सब्जी का गुलाम नहीं हूं, आपका गुलाम हूं। यू पे मी, तुम मुझे तनख्वाह देते हो, सब्जी मुझे तनख्वाह नहीं देती। जब तुम खा रहे थे तो अमृत थी, जब तुम फेंक रहे हो तो जहर है। हमें क्या लेना-देना है! न हम खा रहे हैं, न हम फेंक रहे हैं।
तो जिसके हाथ में ताकत है, उसके आसपास ऐसे लोग इकट्ठे हो जाते हैं, जो कहते हैं, आप--आप ईश्वर हैं।
हिटलर ने एक नाटक मंडली में काम करने वाले एक अभिनेता को पकड़वाकर बुलवाया। क्योंकि वह वहां मजाक का काम करता था। नाटक मंडली में मसखरे का काम करता था। और जर्मनी में जब हिटलर ताकत में था, तो हेल हिटलर, हिटलर की जय हो, वह महामंत्र था। गायत्री जर्मनी की वह थी। यह जो अभिनेता था, मसखरा, यह मंच पर आकर कहता था, हेल...। और फिर कहता, क्या नाम है उस नालायक का? इतना ही कहकर रुक जाता। हेल...क्या नाम है उस मूर्ख का? तो सारे लोग समझ तो जाते कि हेल के बाद हिटलर होना चाहिए, इसमें कोई शक तो था नहीं। पूरा हाल हंसता।
हिटलर ने उसको बुलवा लिया। उसने कहा कि तूने मेरा व्यंग्य किया? और उसने कहा, मैंने कभी जिंदगी में आपका नाम ही नहीं लिया। मैं तो सिर्फ इतना ही कहता हूं, हेल...क्या नाम है उस मूर्ख का? इससे ज्यादा मैंने कभी कुछ कहा नहीं। वह तो जेल में डाल दिया गया। वह सड़ा जेल में, मरा, क्योंकि शक्ति के अंधे लोग व्यंग्य भी तो नहीं समझ सकते हैं। हिटलर की जगह कोई बुद्धिमान होता, तो हंसता, प्रसन्न होता, पुरस्कार देता। भारी चोट पड़ गई।
यह जो शक्ति की तलाश है, हिंसक मन की तलाश है।
ऋषि कहता हैः शक्तियों का समुचित उपयोग चतुराई है।
शक्तियां सब दिव्य हैं। जो भी है, सब दिव्य है। अगर आज एटम बम हमारे हाथ में है, तो वह भी दिव्य है। उससे विराट शुभ फलित हो सकता है, मंगल की वर्षा हो सकती है। लेकिन दिव्य शक्तियों का सम्यक उपयोग चतुराई, बुद्धिमत्ता, विजडम है। वह विजडम उस व्यक्ति को ही उपलब्ध होती है वह बुद्धिमत्ता, जो अपनी इंद्रियों, अपनी वासनाओं, अपनी इच्छाओं के पार खड़े होकर देख पाता है, जो अपने मन से दूर होकर देख पाता है। तब बुद्धिमान होता है। बुद्धिमान वही होता है, जो तटस्थ होता है स्वयं से भी। अगर अपने से भी बहुत लगाव है, तो आदमी तटस्थ नहीं हो पाता। तटस्थ होने के लिए अपने मन से भी लगाव नहीं चाहिए।
तो अंतर-आकाश में जो जाता है मन की बदलियों के पार, वही अपनी शक्तियों का सम्यक उपयोग कर पाता है, बुद्धिमानीपूर्वक उपयोग कर पाता है। शक्तियां हम सबके पास हैं समान--बुद्ध हों कि हिटलर, महावीर हों कि स्टैलिन, मोहम्मद हों कि माओ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। शक्तियां सबके पास बराबर हैं। लेकिन बुद्धिमानीपूर्ण उपयोग, वह सबके पास नहीं दिखाई पड़ता। अधिक लोग अपनी ही शक्तियों के दुरुपयोग में दबते हैं और नष्ट होकर मर जाते हैं।
कामवासना शक्ति है, ब्रह्मचर्य बन सकती है, लेकिन व्यभिचार बनकर समाप्त हो जाती है। जो भी हमारे पास है, अगर उसका प्रज्ञापूर्वक उपयोग न हो सके, तो दिव्यशक्ति आत्मघाती हो जाती है। और स्वतंत्र हैं हम उपयोग करने को। कोई कहेगा नहीं कि ऐसा मत करो। हम स्वतंत्र हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक झाड़ पर बैठा है कालिदास के पोज में। काट रहे हैं उसी शाखा को जिस पर बैठे हुए हैं। बिलकुल गिरने के करीब हैं। नीचे से एक आदमी गुजरता है। वह कहता है, देखो महानुभाव, आप गिर जाओगे। तो मुल्ला ने कहा, तुम कोई ज्योतिषी हो? जब हम अभी गिरे नहीं, तो तुम भविष्य बता रहे हो और मुफ्त में बता रहे हो। बिना पूछे बता रहे हो। जाओ अपने रास्ते से, ज्योतिष में मेरा विश्वास नहीं!
अब ज्योतिष का कुछ लेना-देना न था। काट रहे थे, काटते चले गए, क्योंकि ज्योतिष में उनका भरोसा नहीं था। फिर गिरे। जब नीचे गिरे, तो कहा कि मान गए, आदमी ज्योतिषी था। भागे। दूर निकल गया था दो मील आदमी। पकड़ा, पैरों पर गिर पड़े। कहा, जरा हाथ देखकर बता, मेरी मौत कब होगी? उस आदमी ने कहा कि मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं। मुल्ला ने कहा, अब मैं छोडूंगा नहीं। हम समझ गए कि भविष्य तू देख लेता है। बताना ही पड़ेगा। उसने कहा, ज्योतिष से मेरा कोई संबंध नहीं है। साधारण आंखों का, छोटी सी बुद्धि का उपयोग किया है। मुझे कुछ पता नहीं भविष्य-अविष्य का। लेकिन इतना कोई भी कह सकता है कि जिस डाल पर बैठे हो उसको काटोगे, तो मरोगे, गिरोगे।
हम करीब-करीब सभी जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं। सभी कालिदास के पोज में हैं। यह कालिदास बड़ा, कहना चाहिए टाइप, ऐसा आदमी है जो हम सबके भीतर के टाइप की खबर देता है। हम सब उसी डाल को काटते रहते हैं। पर पता नहीं चलता, क्योंकि डालें सूक्ष्म हैं, काटने का ढंग सूक्ष्म है। एक साधारण वृक्ष पर कोई बैठकर काटता है, तो हमको भी दिख जाता है कि गिरेगा। लेकिन हम सब काट रहे हैं। न हमें उन डालों का पता है, जिन पर हम बैठे हैं; न हमें उन हथियारों का पता है, जिनसे हम काट रहे हैं। न हमें नीचे की गहराई का पता है, जहां हम गिरेंगे। और अगर कोई नीचे से कहता हुआ भी निकले कि देखो, गिर जाओगे, तो हम उससे कहते हैं, तुम कोई ज्योतिषी हो? भविष्य बता रहे हो और बिना पूछे बता रहे हो!
क्या कर रहे हैं हम अपनी शक्तियों के साथ? स्युसाइड, आत्मघात कर रहे हैं। तर्क, एक शक्ति है हमारे पास दिव्य, लेकिन हम करते क्या हैं? तर्क हमें परमात्मा तक पहुंचा सकता है, अगर हम उसका ठीक उपयोग कर पाएं। लेकिन तर्क का हम उपयोग करते हैं परमात्मा से दूर रहने के लिए, बचने के लिए। अगर हम तर्क का ठीक उपयोग कर पाएं, जैसा कि सुकरात ने किया...। सुकरात ने तर्क का बहुत उपयोग किया। और आखिर में उसने कहा कि तर्क का उपयोग कर-कर के मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि तर्क दोनों ही बातें सिद्ध कर सकता है, इसलिए उसके सिद्ध करने का कोई अर्थ नहीं है। दोनों ही बातें सिद्ध कर सकता है। कह सकता है ईश्वर है और सिद्ध कर सकता है, और कह सकता है ईश्वर नहीं है और सिद्ध कर सकता है। ऐसा हुआ।
मुल्ला नसरुद्दीन को एक आदमी ने चैलेंज कर दिया, चुनौती दे दी कि विवाद होकर रहेगा। तुम बड़े ज्ञानी बने हो! तुम जो बातें कह रहे हो, उसका खंडन किया जाएगा। दिन तय हो गया, भीड़ इकट्ठी हो गई। नसरुद्दीन आया। नसरुद्दीन ने उस आदमी से कहा कि बोलो मेरे खिलाफ। तुम्हें जो कहना है, वह कहो। उस आदमी ने नसरुद्दीन का खूब खंडन किया। जो-जो नसरुद्दीन के विचार थे, उनको तोड़ा। एक-एक को टुकड़े-टुकड़े कर डाला। फिर गौरव से, जीतकर गौरव से उसने नसरुद्दीन की तरफ देखा। नसरुद्दीन ने कहा, आश्चर्य! कुशल हो, प्रतिभाशाली हो। अब एक काम और करो। अब जितनी चीजें तुमने खंडित की हैं, उनको सिद्ध करके बताओ। तब तुम्हारे तर्क की पूरी कुशलता का पता चले।
वह आदमी तो आ गया था जोश में। गर्मी में था, होश में तो था नहीं। वह नसरुद्दीन की ट्रिक समझ न पाया। उसने नसरुद्दीन सही है, यह सिद्ध करना शुरू कर दिया। घंटे भर में तोड़ा था जमीन पर, घंटे भर में फिर नसरुद्दीन को बनाकर खड़ा कर दिया। नसरुद्दीन ने लोगों से कहा कि देखो, यह आदमी पागल है। इसकी तुम कौन सी बात में भरोसा करते हो--पहली कि दूसरी? उन लोगों ने कहा, इसकी हम अब कभी भी किसी बात में भरोसा न करेंगे। नसरुद्दीन ने कहा कि जाओ, तुम हार गए। नसरुद्दीन ने एक तर्क भी न दिया।
असल में तर्क दोनों ही काम कर सकता है। तर्क दुधारी तलवार है। वह दोनों काम बराबर करता है।
सागर यूनिवर्सिटी के निर्माता डॉक्टर हरिसिंह गौर के संबंध में एक बहुत प्रसिद्ध घटना है कि वह प्रिवी कौंसिल में एक मुकदमा लड़ रहे थे। संभवतः भारत में उन जैसा कानूनविद उस समय नहीं था। हिंदुस्तान के शायद वह अकेले वकील थे, जिनके तीन आफिस थे--एक पेकिंग में और एक लंदन में और एक दिल्ली में। पूरे साल यहां से वहां भटकते रहते थे। करोड़ों रुपये उन्होंने कमाए। वह सब सागर विश्वविद्यालय बना। लेकिन कभी किसी भिखारी को एक पैसा दान नहीं दिया। सागर में ऐसा कहा जाता था कि अगर कोई भिखारी उनके घर की तरफ चला जाए, तो लोग समझ जाते थे कि नया भिखारी है। क्योंकि वे कभी...। नया भिखारी है, अपरिचित है गांव से, क्योंकि हरिसिंह गौर के घर से कभी एक पैसा किसी को नहीं मिला। और लोग सोचते ही नहीं थे, कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि यह आदमी चुकता दान कर देगा।
तो वह एक बड़े मुकदमे में थे। भूल-चूक हो गई कुछ। जल्दी में थे, रात काम में उलझे रहे, फाइल न देख पाए। वह समझते थे कि अ के वकील हैं, थे ब के वकील। दो पार्टी में ब के वकील थे, अ के वकील नहीं थे। भूल-चूक हो गई। तो अदालत में जाकर उन्होंने जो वक्तव्य दिया, उनका जो मुवक्किल था, उसका तो पसीना छूट गया, क्योंकि वह उसके खिलाफ बोल रहे थे। उसकी तो जान निकल गई, वह तो मर गया, क्योंकि अभी दूसरा तो खिलाफ बोलने ही वाला है। जब अपना खिलाफ बोल रहा है, तब तो कोई उपाय न रहा। करोड़ों का मामला था, बड़ा मुकदमा था, किसी स्टेट का मुकदमा था। घबड़ाहट फैल गई। मजिस्ट्रेट भी चकित हुआ। विरोधी वकील भी घबड़ाया कि यह हो क्या रहा है! किसी की समझ में न पड़े। लेकिन डॉक्टर गौर को रोकने की हिम्मत भी किसी में नहीं कि कोई बीच में रोक दे।
जब वह पूरा बोल चुके, तो सदा बोलने के बाद एक गिलास पानी पीते थे, जब वे पानी पी रहे थे, तब उनके असिस्टेंट ने कहा कि जरा भूल हो गई। आप अपने ही आदमी के खिलाफ बोल दिए। उन्होंने कहा, कोई फिक्र न कर। गिलास नीचे रखकर उन्होंने मजिस्ट्रेट से कहा कि अभी मैं वे बातें कह रहा था, जो मेरा विरोधी कहना चाहेगा। अब मैं इनका खंडन करता हूं। नाऊ आई बिगिन द रिफिटेशन। अभी तो मैंने वे दलीलें दीं, जो विरोधी देगा। अब मैं विरोध में खंडन शुरू करता हूं। और वे मुकदमा जीत गए।
तर्क का कोई बहुत मूल्य नहीं है। जो तर्क नहीं जानते, उन्हीं को मूल्य मालूम पड़ता है। जो तर्क जानते हैं, वे समझते हैं, तर्क से फिजूल और कुछ भी नहीं है। लेकिन इतना तर्क को जो समझ लेता है, वह फिर जीवन में अनुभव की दिशा पर बढ़ता है, तर्क को छोड़ देता है। तर्क को जानने वाला बुद्धिमान व्यक्ति तर्क को छोड़ देता है और अतर्क्य अनुभव की तरफ जाता है। जो अभी तर्क ही कर रहा है, वह अभी बचकाना है, जुविनायल है। और अगर ऐसा बुद्धिमान पुरुष कभी तर्क का उपयोग करता है, तो सिर्फ इसीलिए ताकि अतर्क्य की तरफ आपको ले जाया जा सके। अन्यथा उपयोग नहीं करता है।
शक्तियां तटस्थ हैं। सारी शक्तियां दिव्य हैं। उनका कैसा उपयोग, इस पर सब निर्भर करता है। ऋषि कहता है, इन शक्तियों का क्षेत्र और पात्र के हिसाब से अनुसरण करना ही बुद्धिमानी है। समय, स्थान, स्थिति, इन सबको ध्यान में रखकर! नहीं तो कई बार, कई बार शक्ति अपव्यय होती है, कई बार अपने ही विरोध में पड़ जाती है, कई बार घातक हो जाती है। और यह जो कहा है, क्षेत्र और काल, समय और स्थिति, स्थान और परिस्थिति, इनको देखकर। क्योंकि कोई भी नियम इस जगत में एब्सल्यूट नहीं है, निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है। तो कहीं तो जहर भी अमृत हो जाता है--किसी काल और किसी क्षेत्र में। किसी रोग में जहर औषधि बन जाता है और किसी रोग में भोजन जहर हो जाता है।
तो अगर हमने अंधे की तरह अनुसरण किया सिद्धांतों का, तो वह बुद्धिमानी नहीं है। लेकिन हम करते हैं। हम सब अंधों की तरह अनुसरण करते हैं। बिलकुल अंधों की तरह। एक सिद्धांत को पकड़ लेते हैं लकीर के फकीर की तरह और फिर चाहे स्थिति बदले, समय बदले, काल बदले, हम नहीं बदलते। हम तो अपने सिद्धांत पर दृढ़ रहते हैं। यह मूढ़ता का लक्षण है। कोई सिद्धांत ऐसा नहीं है, जो काल और स्थिति के साथ बदल न जाता हो। लेकिन हम कहते हैं, सब बदल जाए, लेकिन हम सिद्धांत नहीं बदलेंगे। सिद्धांत तो हमारा अटल है। ऐसे अटल सिद्धांत बुद्धिमानी का लक्षण नहीं है।
कृष्ण जैसा आदमी सिद्धांतों की तरलता को जानता है। कृष्ण को भी पता है कि अहिंसा बहुमूल्य है, परम सिद्धांत है, भलीभांति पता है। लेकिन अर्जुन को हिंसा के लिए तत्पर करते हैं, क्योंकि काल और क्षेत्र बिलकुल भिन्न हैं। क्योंकि सवाल अहिंसा का नहीं है इस जगत में, इस जगत में कृष्ण के सामने सवाल यह था कि अर्जुन से जो हिंसा होगी, वह हिंसा दुर्योधन से होने वाली हिंसा से बेहतर होगी।
यह सवाल नहीं है। चुनाव अहिंसा और हिंसा के बीच नहीं है, चुनाव सदा कम हिंसा और ज्यादा हिंसा के बीच है। चुनाव अच्छाई और बुराई के बीच नहीं है, चुनाव सदा कम बुराई और ज्यादा बुराई के बीच है। तो लेसर ईविल, वह जो कम से कम बुरा है, उसे चुनना ही पड़ेगा इस जगत में, व्यवहार में--चारों ओर जो फैलाव है
जीवन का उसमें।
इसलिए कृष्ण को अहिंसक मानने वाले लोग सदा बड़ी दुविधा में देखे गए हैं। जैनों ने तो नर्क में डाला है। कंसीडर्डली, काफी सोच-विचारकर ऐसा किया है। गांधीजी को भी बड़ी मुसीबत थी कृष्ण से। गीता को माता कहते थे, लेकिन माता को ऐसे कपड़े पहनाते थे जो बिलकुल उनके अपने थे। उनका गीता से कोई संबंध न था।
गांधीजी को अड़चन होती थी। अहिंसा की बात करनी और गीता को माता कहना बिलकुल इनकंसिस्टेंट, असंगत बातें हैं। अहिंसा को परम धर्म कहना और हिंसा के परम व्याख्याकार कृष्ण, जिन्होंने हिंसा को ऐसा सबल बल दिया, तो कुछ तालमेल नहीं था। पर तालमेल बिठाया जा सकता है। तर्क कुशल है।
गांधी जी कहते थे कि युद्ध कभी हुआ नहीं। यह युद्ध तो सिर्फ मिथ है। ये कौरव और पांडव कभी वास्तविक रूप से लड़े नहीं। कौरव तो बुराई के प्रतीक हैं, पांडव भलाई के प्रतीक हैं। यह तो आदमी के भीतर जो शुभ और अशुभ की वृत्तियां हैं, उनकी लड़ाई है। यह युद्ध कभी हुआ नहीं।
यह ट्रिक उपयोग की गई, तो फिर दिक्कत न रही। बुराई से लड़ने में कोई हर्जा नहीं है। बुराई से लड़ने में हिंसा भी नहीं है। लेकिन यह बात झूठ है। यह युद्ध हुआ है। और कृष्ण बुराई और भलाई के बीच ही लड़ाई नहीं करवा रहे हैं, यह युद्ध बहुत वास्तविक हुआ है।
लेकिन कृष्ण को समझना हो, तो जो बात समझनी पड़ेगी, वह यह ऋषि जो कह रहा है, वह बात है। कृष्ण भी कहते हैं कि अहिंसा परम धर्म है, लेकिन वे कहते हैं कि अहिंसा परम धर्म होते हुए भी जीवन में सीधा चुनाव कभी नहीं आता है हिंसा और अहिंसा का। जीवन में चुनाव सदा आता है कम हिंसा और ज्यादा हिंसा का। तो कम हिंसा को चुनना अहिंसक का लक्षण है। इसलिए वह कम हिंसा को चुनने को राजी हैं। और अहिंसा के नाम से कम हिंसा से भी भाग जाना सिर्फ कायर का लक्षण है।
तो ऋषि कह रहा है कि काल और क्षेत्र, परिस्थिति का पूरा का पूरा हिसाब रखकर जो सिद्धांतों का अनुसरण करता है, वही बुद्धिमान है। और नहीं तो सिद्धांतों का अनुसरण...।
मैंने सुना है, पंचतंत्र में एक बहुत प्रसिद्ध कथा है कि चार बहुत बुद्धिमान पंडित काशी से वापस लौटते हैं। बारह वर्ष काशीवास करके ज्ञानी बनकर वापस लौटते हैं। चारों परम ज्ञानी हैं अपने-अपने शास्त्रों के, स्पेशलिस्ट। और जैसे स्पेशलिस्ट खतरनाक होते हैं, वैसे ही खतरनाक हैं। क्योंकि स्पेशलिस्ट का मतलब ही यह होता है कि वन हू नोज़ मोर एंड मोर अबाउट लेस एंड लेस। मतलब ही यह होता है, कम से कम के संबंध में जो ज्यादा से ज्यादा जानता है। उसका उलटा मतलब यह हो जाता है कि जो ज्यादा से ज्यादा के संबंध में कम से कम जानता है।
स्वभावतः, चारों एक्सपर्ट थे, विशेषज्ञ थे। उसमें जो विशेषज्ञ था वनस्पति-शास्त्र का, तीनों ने कहा, तुम सब्जी खरीद लाओ, जब रास्ते में रुके पड़ाव पर। वनस्पति-शास्त्र का विशेषज्ञ था, सब्जी तो कभी खरीदी नहीं थी। सब्जियों के बाबत जानकारी भारी थी। उसने बैठकर बड़ा चिंतन-मनन किया। अंततः उसने कहा कि नीम की पत्तियों के सिवाय कोई चीज उचित नहीं है। सिद्धांत यही है। सभी चीजों में कोई न कोई खामी, कोई न कोई दोष। कोई वात पैदा करती है, कोई कुछ पैदा करती है, कोई कुछ पैदा करती है। नीम की पत्ती एकदम निर्दोष है। तो वह नीम की पत्तियां तोड़कर बड़ा प्रसन्न वापस लौटा। शास्त्र का पूरा उपयोग हुआ। विशेषज्ञ पूरा था वह।
दूसरा था तर्कशास्त्री, एक लॉजीशियन। नव्य-न्याय पढ़कर लौट रहा था। न्याय की गहराइयों में उतरा था। अब न्यायशास्त्र में उदाहरण में सदा यह आता है कि घृत रखा है पात्र में, तो प्रश्न उठाया जाता है कि पात्र घृत को सम्हालता है कि घृत पात्र को सम्हालता है? कौन किसको सम्हालता है? तो इसको किताब में तो पढ़ा था। तर्कशास्त्री को भेजा गया घी लेने, क्योंकि तर्कशास्त्री से निरंतर उसके मित्रों ने यह बात सुनी थी कि कौन किसको सम्हालता है--पात्र घृत को सम्हालता है कि घृत पात्र को सम्हालता है?
लेकिन तर्कशास्त्री ने कभी न तो घृत पकड़ा था और न पात्र पकड़ा था हाथ में। बाजार से लौटते वक्त जब घी का पात्र लेकर वह चला, तो उसने कहा, आज अवसर मिला है तो देख ही लूं कि कौन किसको सम्हालता है! उसने उलटा कर देखा। जो होना था, वह हुआ। घृत तो नीचे गिर गया, पात्र खाली रह गया। वह बड़ा प्रसन्न लौटा। उसने कहा, सिद्ध हो गया कि पात्र ही सम्हालता है।
वह जो तीसरा व्यक्ति था, उसको सम्हाला था काम--वह एक व्याकरण का विशेषज्ञ था--उसको कहा था कि तू आग वगैरह जला ले। चूल्हा तैयार रख, पानी चढ़ा देना। सब सामान आया जाता है, तो तब बना लेंगे। आटा बन जाएगा।
चौथे को भेजा था लकड़ियां लेने। क्योंकि वह एक मूर्तिकार था और लकड़ियों पर उसने बड़ी मेहनत की थी और मूर्तियां बनाई थीं। लेकिन उसे यह पता ही नहीं था कि गीली लकड़ियां जलाई नहीं जा सकतीं। वह सौंदर्य का पारखी था, मूर्तिकार था, चित्रकार था। तो वह सुंदरतम लकड़ियां जंगल से छांटकर लाया, लेकिन वे सब गीली थीं। असल में सूखी लकड़ी सुंदर रह भी नहीं जाती। हरी होनी चाहिए--जीवंत, युवापन। तो युवा से युवा, कोमल से कोमल, सुंदर से सुंदर लकड़ियां काटकर वह सांझ होते-होते वापस लौटा। क्योंकि चुनाव करने में बड़ी मुश्किल पड़ी, जंगल बड़ा था। वे कोई लकड़ियां मतलब की न थीं, एक भी जल न सकती थी।
जिसको दिया था अवसर कि वह आग थोड़ी जलाकर तैयार रखे, लकड़ियां आ जाती हैं, थोड़ी-बहुत लकड़ियां वहीं बीनकर वह आग जला ले। लकड़ियां आ जाएंगी, तब तक सामान आ जाता है। उसने आग भी जला ली थोड़ी। पानी रखकर बर्तन चढ़ा दिया। पानी में बुदबुद की आवाज होने लगी। वह था व्याकरण का ज्ञाता। उसने पढ़ा था कि अशब्द को कभी न तो सुनना चाहिए, न सहना चाहिए। अशब्द! तो यह बुदबुद तो कोई शब्द है नहीं। बहुत शास्त्र पढ़ डाले थे उसने, यह बुदबुद क्या बला है! यह निश्चित अशब्द है। शब्द नहीं है, तो अशब्द तो है ही पक्का। उसने कहा, इसको सुनना खतरनाक है। यह तो बिलकुल पाणिनी के खिलाफ जाना है। उठाकर लट्ठ उसने बर्तन में मारा कि अशब्द को बंद करो। वह बर्तन टूट गया, चूल्हा गिर गया, आग बुझ गई।
सांझ को जब वे चारों मिले तो चारों भूखे ही रात सोए, क्योंकि चारों विशेषज्ञ थे। सिद्धांत उनके पक्के थे, गलती किसी ने न की थी। फिर भी गलती हो गई थी।
नहीं, जीवन तरल है, लोचपूर्ण है। सिद्धांत सख्त और मुर्दा होते हैं। जिंदगी सख्त और मुर्दा नहीं होती। तो जो आदमी सिद्धांतों को लोचपूर्ण नहीं बना सकता, वह बुद्धिमान नहीं है। सब शक्तियां, सब सिद्धांत, सब, सब जीवन में जो भी है; वह तरल, जितना तरल हो, जितना लोचपूर्ण हो, जितना परिवर्तित हो सके, प्रवाहमान हो, डायनेमिक हो, गत्यात्मक हो, उतना बुद्धिमानी है।
तो शम की शक्तियां हों या दम की शक्तियां हों, जो भी शक्तियां हैं मनुष्य के पास, वे सब दिव्य हैं और उनका सम्यक उपयोग बुद्धिमानी है, चतुराई है।
परात्पर से संयोग ही उनका तारक उपदेश है।
और उनका सम्यक उपयोग जिस बुद्धिमानी से होता है, उस बुद्धिमानी को ऋषि सदा कहते हैं, परात्पर से संयोग ही हमारा उपदेश है। अगर तुम अपनी सारी शक्तियों का, शम और दम की सारी शक्तियों का चतुराई से उपयोग करो, तो आज नहीं कल तुम्हारा परात्पर परम ब्रह्म से संयोग हो जाएगा।
शक्तियां जब गलत उपयोग की जाती हैं, तो प्रभु से विपरीत बहती हैं। और जब ठीक उपयोग की जाती हैं, तो प्रभु की ओर बहती हैं। शक्तियों का सम्यक उपयोग, शक्तियों का परमात्मा की ओर प्रवाह है। शक्तियों का गलत उपयोग परमात्मा के विपरीत प्रवाह है, उलटा। इसलिए जो शक्तियों का जितना गलत उपयोग करेगा, उतना धीरे-धीरे परमात्मा से रिक्त और खाली होता चला जाएगा।
आज पश्चिम में एक शब्द का बहुत ही बहुत प्रचलन है, वह शब्द है: एम्पटीनेस खालीपन, रिक्तता। आज अगर पश्चिम के जो भी विचारशील लोग हैं--चाहे अल्बर्ट कामू और चाहे ज्यां पाल सार्त्र और चाहे हाइडेगर और चाहे काफ्का--पश्चिम के जो भी विचारशील लोग हैं, जिन्होंने पचास वर्षों में पश्चिम की बुद्धि को थिर किया है, उन सबकी जबान पर एक शब्द जो बहुत चलता है वह है एम्पटीनेस, खालीपन, रिक्तता। क्या बात है? पश्चिम को खालीपन का ऐसा अनुभव क्यों हो रहा है? इतना खालीपन का क्या खयाल है? कहते हैं वे कि भीतर सब खाली है, आदमी के भीतर कुछ भी नहीं।
पूरब के सब मनीषियों को पूर्णता का, फुलफिलमेंट का अनुभव हुआ है। वे कहते हैं, भीतर भरा है। अनंत-अनंत भरा है। और पूरब का मनीषी जब शून्य शब्द का भी उपयोग करता है, तब भी उसका अर्थ एम्पटीनेस नहीं होता। शून्य भी बड़ा भराव है। शून्य का अर्थ रिक्तता नहीं है, शून्य का भी अपना भराव है। उसकी भी अपनी मौजूदगी है। उसकी भी अपनी बीइंग, अपना अस्तित्व, अपनी सत्ता है। इसलिए शून्य का अर्थ एम्पटीनेस नहीं है। शून्य का अर्थ है, द वायड--रिक्त नहीं, खाली नहीं, शून्य। शून्य का अपना अस्तित्व है। रिक्तता तो केवल किसी का अभाव है, ऐब्सेंस है।
पश्चिम में इतने जोर से इस बीसवीं सदी में आकर रिक्तता की ऐसी प्रतीति का कारण इस ऋषि के सूत्र में है। वह ऋषि कहता है, अगर शक्तियों का सम्यक उपयोग न हो, तो आदमी धीरे-धीरे परमात्मा के विपरीत हटता जाता है। और जब परमात्मा से विपरीत हटता है, तो रिक्तता का भाव होता है, खाली होता जाता है। एक दिन लगता है, खाली डब्बा रह गया, भीतर कुछ भी नहीं है। कुछ है ही नहीं। जो परमात्मा की तरफ चलता है, धीरे-धीरे भरता जाता है और एक दिन कहता है कि भीतर इतना भर गया है, इतना भर गया है कि अब कोई जगह न बची जिसे और भरना है। उसे पा लिया, जिसके आगे अब पाने के लिए भी कोई जगह नहीं है, रखने के लिए भी कोई जगह नहीं है। सब मिल गया।
महावीर ने कहा है, एक को पा लेने से सब पा लिया जाता है। इससे उलटा भी होता है। एक को खोने से सब खो दिया जाता है। वह एक है परमात्मा। अगर उसकी तरफ हमारी पीठ है, तो आज नहीं कल हमें एम्पटीनेस घेर लेगी, खाली हम हो जाएंगे। धन कितना ही हो, फिर भरेगा नहीं। और यश कितना ही हो, फिर भरेगा नहीं। और महल कितने ही हों, पद कितने ही हों, ज्ञान कितना ही हो; फिर भरेगा नहीं, खाली ही हम होंगे। और अगर परमात्मा की तरफ मुंह हो, तो न हो ज्ञान, न हो त्याग, न हो पद, न हो धन; तो भी, तो भी सब भर जाता है। तो भी सब भर जाता है। उसकी तरफ नजर उठाते ही सब भर जाता है।
लेकिन उसकी तरफ नजर उनकी ही उठती है, ऋषि कहता है, जो अपनी शक्तियों का सम्यक, ठीक-ठीक बुद्धिमानीपूर्वक उपयोग करते हैं।
अद्वैत सदानंद ही उनका देव है।
और ऋषि जिसकी पूजा के लिए कहते हैं, जिसकी श्रद्धा के लिए कहते हैं, वह है अद्वैत सदानंद, एक सदा ठहरने वाला आनंद।
अपने अंतर की इंद्रियों का निग्रह ही उनका नियम है।
अपने अंतर की इंद्रियों का निग्रह ही उनका नियम है। इसे थोड़ा सा समझ लेना जरूरी है।
इंद्रियों के दो हिस्से हैं। एक तो बहिर-इंद्रिय है, आंख है, बाहर है। आंख को निकाल भी दें, तो भी देखने की वासना नहीं चली जाती। देखने की वासना अंतर-इंद्रिय है। आंख बहिर-इंद्रिय है। देखने की क्षमता बहिर-इंद्रिय है, देखने की वासना अंतर-इंद्रिय है। आंख के कारण आप नहीं देखते हैं, देखने की वासना के कारण आंख पैदा होती है।
अब तो वैज्ञानिक भी इसको स्वीकार कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि अगर अंधा आदमी देखने की वासना से बहुत भर जाए, तो अंगुलियों से भी देख सकता है, पैर के अंगूठों से भी देख सकता है। क्योंकि आंख में जो चमड़ी काम में आई है, वह चमड़ी पूरे शरीर पर वही है। क्वालिटेटिवली कोई फर्क नहीं है, गुणात्मक कोई फर्क नहीं है। आंख में जो चमड़ी है, वह वही है, जो पूरे शरीर पर है। आंख की चमड़ी के पीछे देखने की वासना ने हजारों-हजारों, लाखों-लाखों साल तक काम किया है। और वह चमड़ी पारदर्शी हो गई है, बस।
कान के पीछे सुनने की वासना ने काम किया है और वह चमड़ी सुनने में समर्थ हो गई है। वे हड्डियां सुनने में समर्थ हो गई हैं। उन हड्डियों में कोई क्वालिटेटिव फर्क नहीं है। शरीर की सब हड्डियों जैसी हड्डियां हैं। और अभी तो बहुत प्रयोग हुए हैं, जिनसे यह सिद्ध हो सका है कि आदमी शरीर के और अंगों से भी देख सकता है, और अंगों से भी सुन सकता है, लेकिन तीव्र वासना करके उस अंग की तरफ उस वासना को प्रवाहित करना पड़ेगा। तब ऐसा हो सकता है।
ऋषि कहता हैः अंतर-इंद्रियों का निग्रह। बाहर की इंद्रियों का सवाल नहीं है। भीतर की जो वासना की इंद्रिय है, जो अंतर-इंद्रिय है, जो सूक्ष्म इंद्रिय है, उसका निग्रह ही उनका नियम है। वे ऐसा नहीं कि अंधे हो जाते हैं, आंख फोड़ लेते हैं। नहीं, वे देखने की वासना को शून्य कर लेते हैं। आंख फिर भी देखती है, लेकिन अब देखने की कोई वासना पीछे नहीं होती। इसलिए आंख अब वही देखती है, जो देखना जरूरी है; कान वही सुनता है, जो सुनना जरूरी है; हाथ वही छूता है, जो छूना जरूरी है। गैर-जरूरी गिर जाता है। इंद्रियां मात्र दासियां हो जाती हैं।
आज इतना ही।
फिर कल हम बात करेंगे।
अब हम रात्रि के प्रयोग के लिए तैयार हो जाएं। दो-तीन बातें खयाल में ले लें।
पांच मिनट तक तो तीव्र श्वास लेनी है, ताकि शक्ति जग जाए। मेरे आसपास वे ही लोग खड़े होंगे, जो तीव्रता से कर सकें। फिर उनके बाद कम तीव्रता वाले लोग। फिर उनके पीछे और कम तीव्रता वाले लोग। लेकिन पीछे जो खड़े होते हैं, पीछे खड़े होने से ही उन्हें नहीं करना है, ऐसा नहीं, उन्हें भी पूरी शक्ति लगानी है।
जैसे ही मैं आपको सूचना दूं, तैयार हो जाएं। आंख की पट्टियां आंख से अलग कर लें, सिर पर बांध लें। आंख खुली चाहिए। मेरी तरफ देखते रहना है। मेरी तरफ देखते रहना है, अपलक, आंख की पलक न झपे। मेरी तरफ देखते रहें, उछलते रहें, कूदते रहें। मेरी तरफ देखते रहें, उछलते रहें, कूदते रहें, हू की आवाज करते रहें, हू की चोट करते रहें।
शुरू करें!

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