YOG/DHYAN/SADHANA
Neti Neti Shunya Ki Naon 05
Fourth Discourse from the series of 7 discourses - Neti Neti Shunya Ki Naon by Osho. These discourses were given in NARGOL during MAY 2-5 1968.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन-देवता के प्रति समर्पण का भाव, स्वीकार, सम्मान और श्रद्धा की मनःस्थिति के संबंध में सुबह थोड़ी सी बातें मैंने कहीं हैं। उस संबंध में बहुत से प्रश्र्न आए हैं। उन पर अभी बात करनी है।
जीवन सदा से अस्वीकृत रहा है। जीवन की श्रद्धा और सम्मान के लिए न तो कभी कोई पुकार दी गई है, न कभी कोई आह्वान किया गया है। जीवन को छोड़ देने, जीवन से पलायन करने को, जीवन को तोड़ देने और नष्ट कर देने को बहुत-बहुत रूपों में चेष्टाएं जरूर की गई हैं। या तो वे लोग पृथ्वी पर प्रभावी रहे हैं, जिन्होंने दूसरों के जीवन को नष्ट करने की कोशिश की हो--राजनीतिज्ञ, सेनापति, युद्धखोर। या जो लोग दूसरों का जीवन नष्ट करने में नहीं लगे हैं, तो वे दूसरी प्रक्रिया में लग गए, वे अपने ही जीवन को नष्ट करने का प्रयास करते रहे--तथाकथित धार्मिक, तथाकथित साधु-संन्यासी।
दो प्रकार की हिंसा चलती रही है। या तो दूसरे का जीवन नष्ट करो या अपना जीवन नष्ट करो। या तो दूसरों को समाप्त करो या स्वयं को समाप्त करो। जीवन की दोनों ही अर्थों में हत्या होती रही है। जीवन का परिपूर्ण सम्मान आज तक भी मनुष्य के मन में प्रतिष्ठित नहीं हो पाया। स्वभावतः, जब मैं कहूं कि जीवन ही देवता है, जीवन ही प्रभु है, तो अनेक प्रश्र्न उठ आने स्वाभाविक हैं।
एक मित्र ने पूछा है: भगवान, अगर ‘जीवन ही प्रभु है’ तो फिर जीवन से छुटकारा और आवागमन से मुक्ति और मोक्ष इस सबका क्या होगा? जीवन को तो बंधन कहा गया है और मैं जीवन को ही प्रभु कह रहा हूं?
निश्र्चित ही आज तक जीवन को बंधन ही कहा गया है। लेकिन जीवन बंधन नहीं है। जो लोग जीवन को जीने की कला नहीं जानते, उनके लिए जीवन जरूर बंधन हो जाता है।
एक अजनबी देश से कुछ मित्र यात्रा कर रहे थे। वे भूखे थे और फलों की एक दुकान पर रुके। लेकिन जो फल वहां बिक रहे थे, अपरिचित थे। अजनबी देश था, नहीं जानते थे क्या हैं वे फल। नारियल बिकते थे। लेकिन वे लोग जिस देश से आते थे वहां नारियल नहीं होते थे। उन्होंने पूछा: यह क्या है? दुकानदार ने कहा: बहुत, बहुत स्वादिष्ट, बहुत मधुर, बहुत शक्तिवर्धक फल हैं। उन्होंने उन फलों को खरीद लिया। दुकानदार ने प्रशंसा में यह भी कहा कि बड़े-बड़े शहंशाह भी, बड़े-बड़े सम्राट भी मेरी ही दुकान से इन फलों को खरीदते हैं।
फिर वे फलों को लेकर आगे बढ़ गए। गांव के बाहर वे रुके और उन्होंने फलों को खाने की चेष्टा की, लेकिन नारियलों से वे परिचित नहीं थे। वे जिन फलों से परिचित थे, उन पर नारियल जैसी कड़ी खोल नहीं होती थी। उन्होंने नारियल को ऊपर से ही खाना शुरू किया। बहुत परेशान हो गए। तिक्त हो गया मुंह। कहीं कोई स्वाद न दिखाई पड़ा। दांत गपाना भी कठिन था, मुश्किल था। फिर उन्होंने एक-एक करके वे फल फेंक दिए, और कहा: बड़े मूढ़ हैं इस देश के सम्राट और शहंशाह, जो इन फलों को खाते हैं। इन फलों में न कोई स्वाद है, न कोई रस है, न कोई अर्थ प्रतीत होता है। कैसे पागल हैं इस देश के लोग!
उन फलों को फेंक कर वे भूखे ही आगे बढ़ गए और अपने देश में जाकर उन्होंने बहुत प्रचार किया कि हम एक मूर्खों के देश से गुजर कर आ रहे हैं। वहां लोग पत्थरों जैसे फलों को खाते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं!
उन बेचारों को पता भी नहीं था कि फल वे पत्थर जैसे नहीं थे, लेकिन खाने की विधि उन्हें ज्ञात न थी। खाने की विधि अज्ञात थी।
जीवन के फल पर भी जो खाने की विधि से, जीवन को भोगने की विधि से; जीवन के रस के मार्ग से, जीवन के छंद को अनुभव करने के मार्ग से अपरिचित हैं, उन्हें जीवन लोहे की जंजीर प्रतीत होता हो तो आश्र्चर्य नहीं है।
जीवन जंजीर नहीं है और जीवन से भिन्न कोई मोक्ष नहीं है।
जीवन को ही जो उसकी परिपूर्णता में जानने में समर्थ होता है, वह जीवन के मध्य, जीवन के बीच ही मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है।
यह हो भी नहीं सकता है कि जीवन और मोक्ष में कोई विरोध हो। यह हो भी नहीं सकता कि जगत में कोई दो विरोधी सत्ताएं हों। यह हो भी नहीं सकता कि प्रभु और संसार में बुनियादी शत्रुता हो। कोई गहरी मैत्री का सेतु है। कोई एक ही सब संसार में, मोक्ष में प्रकट हो रहा है--देह में, आत्मा में; रूप में, अरूप में।
लेकिन हमारी असफलता, जीवन के फल को चखने की हमारी सीमा हमारे लिए बंधन बनती रही है। जीवन को जीने की कला ही हमने नहीं सीखी। बल्कि कला न जानने से जब जीवन तिक्त और बेस्वाद लगा तो हमने जीवन को ही तोड़ देने की कोशिश की, अपने को बदलने की नहीं। हमने उस पागल की तरह व्यवहार किया है, शायद उस पागल के संबंध में आपने सुना हो। न सुना हो तो मैं कहूं और शायद आप पहचान भी लें कि वह पागल कौन है।
एक पागल आदमी था। वह अपने को बहुत ही सुंदर समझता था। जैसा कि सभी पागल समझते हैं। वैसा वह समझता था कि पृथ्वी पर उस जैसा सुंदर और कोई भी नहीं है। यही पागलपन के लक्षण हैं। लेकिन वह आईने के सामने जाने से डरता था। और जब कभी कोई उसके सामने आईना ले आता तो तत्क्षण आईने को फोड़ देता था। लोग पूछते, क्यों? तो वह कहता कि मैं इतना सुंदर हूं और आईना कुछ ऐसी गड़बड़ करता है कि आईना मुझे कुरूप बना देता है। आईना मुझे कुरूप बनाने की कोशिश करता है। मैं किसी आईने को बर्दाश्त नहीं करूंगा, मैं सब आईने तोड़ दूंगा! मैं सुंदर हूं, और आईने मुझे कुरूप करते हैं! वह कभी आईने में न देखता। लोग आईना ले आते तो तत्क्षण तोड़ देता।
मनुष्य भी उस पागल की तरह व्यवहार करता रहा है। नहीं सोचता कि आईना वही दिखाता है, जो मेरी तस्वीर है। आईना वही बताता है, जो मैं हूं। आईने को कोई प्रयोजन भी नहीं कि मुझे कुरूप करे। आईने को कोई मेरा पता भी नहीं। मैं जैसा हूं, आईना वैसा बता देता है। लेकिन बजाय यह देखने के कि मैं कुरूप हूं, आईने को तोड़ने में लग जाता हूं।
संसार को छोड़ कर भाग जाने वाले लोग आईने को तोड़ने वाले लोग हैं। अगर संसार दुखद मालूम पड़ता है, तो स्मरण रखना कि संसार एक दर्पण से ज्यादा नहीं। वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं।
अगर दुख हमारे जीवन की व्यवस्था है तो संसार में दुख दिखाई पड़ेगा।
अगर चिंता हमारे चित्त की व्यवस्था है तो संसार में चिंता झलकेगी।
अगर कांटे हमने इकट्ठे कर रखे हैं तो संसार में कांटे दिखाई पड़ेंगे।
संसार हमारी प्रतिध्वनि है। जो हमारे भीतर है, वही प्रतिध्वनित हो उठता है, वही री-ईको हो उठता है।
लेकिन नहीं, यह देखने को हम राजी नहीं हैं। हम कहते हैं, संसार बंधन है। हम कहते हैं, संसार दुख है। हम कहते हैं, संसार असार है--छोड़ दें, तोड़ दें, मुक्त हो जाएं, बाहर हो जाएं।
किससे बाहर होंगे? दर्पण को तोड़ कर कोई मुक्त होता है? प्रतिध्वनियों को बंद कर कोई मुक्त होता है?
मुक्त होना है तो स्वयं को बदलना पड़ता है, न कि जीवन को तोड़ना। मुक्त होना हो तो स्वयं को आमूल बदलना पड़ता है। और स्वयं को जो आमूल बदलने को तैयार हो जाता है, वह पाता है कि जीवन एक धन्यता है, एक कृतार्थता है। वह परमात्मा के प्रति धन्यवाद से भर उठता है--इतना सुंदर है जीवन, इतना अदभुत है, इतना रसपूर्ण, इतने छंद से भरा हुआ, इतने गीतों से, इतने संगीत से। लेकिन उस सबको देखने की क्षमता और पात्रता चाहिए। उस सबको देखने की आंखें, सुनने के कान, स्पर्श करने वाले हाथ चाहिए।
और भी कुछ मित्रों ने पूछा है कि मैंने सुबह ‘जीवन की कला’ पर कुछ कहा। मैं और ठीक से कहूं कि ‘जीवन की कला’ से मेरा क्या प्रयोजन है?
‘जीवन की कला’ से मेरा यही प्रयोजन है कि हमारी संवेदनशीलता, हमारी पात्रता, हमारी ग्राहकता, हमारी रिसेप्टिविटी इतनी विकसित हो कि जीवन में जो सुंदर है, जीवन में जो सत्य है, जीवन में जो शिव है, वह सब...वह सब हमारे हृदय तक पहुंच सके। उस सबको हम अनुभव कर सकें।
लेकिन हम जीवन के साथ जो व्यवहार करते हैं, उससे हमारे हृदय का दर्पण न तो निखरता, न निर्मल होता, न साफ होता; और गंदा होता, और धूल से भर जाता है। उसमें प्रतिबिंब पड़ने और भी कठिन हो जाते हैं। जिस भांति जीवन को हम बनाए हैं--सारी शिक्षा, सारी संस्कृति, सारा समाज मनुष्य के व्यक्तित्व को ठीक दिशा में नहीं ले जाता है। बचपन से ही गलत दिशा शुरू हो जाती है। और वह गलत दिशा जीवन भर, जीवन से ही परिचित होने में बाधा डालती रहती है। उस संबंध में दो-चार बातें समझ लेनी उपयोगी होंगी। उस संबंध में ही प्रश्र्न पूछे गए हैं, वे भी हल हो सकेंगे।
पहली बात, जीवन को अनुभव करने के लिए एक प्रामाणिक चित्त, एक ऑथेंटिक माइंड चाहिए। हमारा सारा चित्त औपचारिक है, फार्मल है, प्रामाणिक नहीं है। न तो हम प्रामाणिक रूप से कभी प्रेम किए हैं, न प्रामाणिक रूप से कभी क्रोध किए हैं, न प्रामाणिक रूप से कभी हमने घृणा की है, न प्रामाणिक रूप से हमने कभी क्षमा की है।
हमारे सारे चित्त के आवर्तन, हमारे सारे चित्त के रूप औपचारिक हैं, झूठे हैं, मिथ्या हैं। अब मिथ्या चित्त को लेकर जीवन के सत्य को कोई कैसे जान सकता है? सत्य चित्त को लेकर ही जीवन के सत्य से संबंधित हुआ जा सकता है। हमारा पूरा माइंड, हमारा पूरा चित्त, हमारा पूरा मन मिथ्या और औपचारिक है। इसे समझ लेना उपयोगी है।
सुबह ही आप अपने घर के बाहर आ गए हैं और कोई राह पर दिखाई पड़ गया है और आप नमस्कार कर लिए हैं। और आप कहते हैं उसे मिल कर कि बड़ी खुशी हुई, आपके दर्शन हो गए। लेकिन मन में आप सोचते हैं कि इस दुष्ट का सुबह ही सुबह चेहरा कहां से दिखाई पड़ गया।
यह अनऑथेंटिक माइंड है, यह गैर-प्रामाणिक मन की शुरुआत हुई। चौबीस घंटे हम ऐसे दोहरे ढंग से जीते हैं, तो जीवन से कैसे संबंध होगा? फिर दोष देना जीवन को! बंधन पैदा होता है दोहरेपन से। जीवन में कोई बंधन नहीं है।
बंधन पैदा होता है मनुष्य के दोहरेपन से। हम दोहरे ढंग से जी रहे हैं। भीतर कुछ है, बाहर कुछ है। दोहरा ढंग भी होता तो भी ठीक है। हम हजार ढंग से जी रहे हैं। एक ही साथ हजार बातें हमारे भीतर चल रही हैं। हमारे व्यक्तित्व में कोई प्रामाणिकता, कोई भी सच्चाई नहीं है। सारा व्यक्तित्व झूठ मालूम होता है। सारा व्यक्तित्व ही अभिनय का, एक्ंिटग का मालूम होता है।
किसको धोखा दे रहे हैं लेकिन आप? किसके सामने यह अभिनय चल रहा है? किसी और को धोखा नहीं होगा। इस धोखा देने में स्वयं को ही जानने से वंचित रह जाएंगे, जीवन से संबंधित होने से वंचित रह जाएंगे। सब तरह का धोखा है, जो आदमी दे रहा है। सबसे गहरा धोखा मन के तलों पर है, जहां हमारी कोई भी चीज सच नहीं रह गई है।
कभी आपने सच में ही किसी को प्रेम किया है? समझदार लोग कहते हैं, प्रेम नासमझ करते हैं। समझदार लोग प्रेम की बातें करते हैं, अभिनय करते हैं, प्रेम वगैरह कभी नहीं करते। व्यावहारिक लोग, जो प्रैक्टिकल लोग हैं, वे कभी प्रेम-व्रेम...सिर्फ प्रेम की बातें करते हैं। हमारे सारे भाव बातों तक सीमित हो गए हैं। कभी कोई जीवन की कोई भी अनुभूति ऐसी तीव्रता से हमने नहीं पकड़ ली है, जिसके लिए हम जी जाएं या जिसके लिए हम मर जाएं।
कोई ऑथेंटिक, कोई प्रामाणिक दांव हमारे जीवन में नहीं है। क्रोध भी हम करते हैं तो पोच, इंपोटेंट। उस क्रोध में भी कोई बल नहीं होता, कोई शक्ति नहीं होती। जो क्रोध भी नहीं कर सकता प्रामाणिक रूप से, वह क्षमा कैसे कर सकेगा? क्षमा भी वही कर सकता है, जो क्रोध करने में समर्थ हो। मित्र भी वही हो सकता है, जो शत्रु होने में समर्थ हो।
लेकिन न हम शत्रु हो सकते हैं, न हम मित्र हो सकते हैं। हम बिलकुल बीच में खड़े रह गए हैं। हम बिलकुल त्रिशंकु हो गए। हमारे जीवन की कोई भाव-दशा नहीं रह गई है।
एक...एक ग्रामीण युवक, पुराने दिनों की बात है, क्योंकि अब तो दुनिया में ग्रामीण कोई भी नहीं रह गया है। ग्राम रह गए हैं, ग्रामीण कोई भी नहीं रह गया है। आदमी सब शहरी हैं। एक ग्रामीण युवक ने विवाह किया। यह अमरीका की कोई दो सौ, ढाई सौ वर्ष पहले की किसी गांव की घटना है। वह विवाह किया और अपनी नववधू, पत्नी को लेकर अपनी घोड़ा-गाड़ी में सवार होकर गांव की तरफ वापस लौटा। रास्ते में घोड़ा एक जगह ठिठक गया, रुक गया। उसने बहुत चलाने की कोशिश की, लेकिन नहीं चला। उसने घोड़े से कहा: दिस इ़ज वन्स! यह एक बार हुआ।
उसकी पत्नी कुछ भी न समझी कि घोड़े से क्या बात की जा रही है। फिर घोड़ा थोड़ी दूर चला और फिर ठिठक गया। उस जवान ने कहा: दिस इ़ज ट्वाइस! यह दुबारा हो गई बात।
उसकी पत्नी फिर भी चुप रही।
घोड़ा तीसरी बार ठिठका। उसने कहा: दिस इ़ज थ्राइस! उठा, बंदूक उठा कर घोड़े को गोली मार दी!
उसकी पत्नी तो हैरान रह गई! उसने उसे जोर से धक्का मारा और कहा: यह क्या क्रूरता करते हो? यह क्या पागलपन करते हो?
उसने कहा: दिस इ़ज वन्स! उसने कहा: यह पहली बार हुआ।
उसकी पत्नी तो दंग रह गई!
उस जवान ने कहा: दो मौके और बच गए।
उसकी पत्नी ने लिखा है कि मैंने पहली बार उस व्यक्ति की तरफ देखा, जिसका क्रोध इतना ज्वलंत हो सकता है; और मुझे पहली दफा उसके व्यक्तित्व में एक बल और एक शक्ति और एक तेज का दर्शन हुआ।
नहीं आपसे कह रहा हूं कि किसी को गोली मार दें...लेकिन उसकी पत्नी ने कहा कि वह व्यक्ति इतना ही प्रेम भी कर सका।
मनुष्य-जाति को, उसके जीवन को विषाक्त कर देने वाले जो शिक्षक हुए हैं, उन्होंने सब तरफ से इंपोटेंट कर दिया है, सब तरफ से पंगुता सिखाई है, सब तरफ से--जीवन के समस्त तीव्र भावों पर सब तरफ से रोक लगा दी है, सब तरफ से कैद कर दिया आदमी को। तब उसके भीतर कोई भी चीज बलशाली शेष नहीं रह गई है।
अकबर के दरबार में एक सुबह एक घटना घट गई। दो राजपूत युवक आए हैं। नंगी तलवारें उनके हाथों में हैं। और अकबर के सिंहासन के सामने वे खड़े हो गए और उन्होंने कहा कि हम दो राजपूत जवान हैं, हम दोनों जुड़वां भाई हैं और हम दोनों तलाश में निकले हैं, नौकरी चाहिए।
अकबर ने पूछा: तुम्हारी योग्यता क्या है?
तुम्हारी योग्यता क्या है?
उन्होंने कहा: हम दो बहादुर लोग हैं, और कोई हमारी योग्यता नहीं है।
अकबर ने कहा: कोई प्रमाण-पत्र, कोई सर्टिफिकेट लाए हो?
उन दोनों की आंखें ऐसे चमक उठीं जैसे दो अंगारे। उनकी तलवारें म्यानों के बाहर आ गईं और एक-दूसरे की छाती में एक क्षण में प्रविष्ट हो गईं। एक क्षण बाद दो लाशें पड़ी थीं और खून के फव्वारे बह गए थे।
अकबर तो घबड़ाया, उसके तो हाथ-पैर कंप गए। उसने अपने राजपूत सेनापति को बुलाया और कहा कि यह क्या हुआ? मैंने तो छोटी सी बात कही थी कि कोई प्रमाण-पत्र लाए हो बहादुरी का?
वह राजपूत सेनापति बोला: गलत बात कही थी आपने। राजपूत से कहीं ऐसा पूछना होता है--बहादुरी का प्रमाण-पत्र! और बहादुरी के कोई प्रमाण-पत्र होते हैं सिवाय इसके कि कोई जिंदगी दांव पर लगा कर दिखा दे? और क्या प्रमाण-पत्र हो सकता है? कोई कागज के सर्टिफिकेट होते हैं बहादुरी के? उन दोनों ने दिखा दिया कि बहादुरी का क्या मतलब होता है। एक ही मतलब होता है कि आदमी मौत के सामने खड़ा हो सकता है निर्भय। और कोई मतलब नहीं होता है बहादुरी का। और बहादुरी का कोई प्रमाण-पत्र नहीं होता। और जो आदमी बहादुरी का प्रमाण-पत्र लिए फिरता हो, उस आदमी से ज्यादा कायर कोई आदमी नहीं हो सकता है। असल में प्रमाण-पत्र कायर ही ढोते हैं और कोई प्रमाण-पत्र नहीं लिए घूमता है।
अकबर ने अपने संस्मरणों में लिखवाया है कि वह बात मुझे याद रह गई। मैंने दो जिंदा आदमी देखे थे। एक क्षण में, एक तीव्रता में--एक प्रामाणिक जीवन देखा था, एक क्षण में वह चमक देखी थी, जो आदमी की चमक है।
लेकिन हम सबके जीवन से आदमी की चमक विलीन हो गई है। न कभी वहां क्रोध ऐसा चमकता है कि बिजली की लौ पैदा हो जाए, न कभी प्रेम। वहां कोई चमक ही नहीं है। हम बिलकुल बिना चमक के, बिना विद्युत के, बिना बल के, बिना शक्ति के लोग होते चले गए हैं।
जीवन से हमारा संबंध नहीं हो सकता है। जीवन से संबंधित होने के लिए शास्त्रों का अध्ययन नहीं, जीवन से संबंधित होने के लिए मंदिरों की प्रार्थनाएं नहीं, जीवन से संबंधित होने के लिए इंटेंसिटी, तीव्रता का जीवन चाहिए। एक ही प्रार्थना है जीवन-देवता के मंदिर में--वह है इंटेंस लिविंग, वह है तीव्र जीवन, वह है उद्दाम जीवन, वह है बल, शक्तिशाली जीवन, ऊर्जा से भरा जीवन।
हम सब बिना ऊर्जा के जीते चले जाते हैं। चलते नहीं हैं रास्तों पर, जैसे धक्के खाते हैं।
मेरी दृष्टि में जीवन की कला की पहली शिक्षा जो हो सकती है, वह यह है कि हम जीवन को कितनी तीव्रता से ले सकें। एक-एक क्षण को तीव्रता से ले सकें। जैसे एक-एक क्षण ही हमारा जीवन दांव पर लगा हो। कौन जानता है, एक क्षण के बाद जीवन आए न आए, श्र्वास आए न आए? सच्चाई यही है कि एक-एक क्षण जीवन दांव पर लगा हुआ है।
अभी आप यहां बैठे हैं, इतनी सुस्ती से, इतने आराम से। अगर आपको खबर की जाए कि बस घंटा भर और है आपके जीवन के लिए--वह घंटा क्या होगा? या आपको कहा जाए कि बस एक क्षण और है, यह अंतिम क्षण है। उस क्षण में आप कैसे जीएंगे?
सच्चाई भी यही है कि एक आदमी को एक क्षण से ज्यादा जीवन मिला हुआ नहीं है। दूसरे क्षण का कोई भरोसा नहीं है। वह आए और न आए। जो क्षण मेरे हाथ में है, वही मेरे हाथ में है। अगर उस क्षण को मैं अपनी पूरी शक्ति से नहीं जीता हूं, तो मैं जीवन की कला कभी नहीं सीख पाऊंगा। अगर मैं भोजन कर रहा हूं, तो कौन जानता है कि दुबारा भोजन कर सकूंगा कि नहीं? अगर मैं किसी को प्रेम कर रहा हूं, तो कौन जानता है कि दुबारा यह प्रेम का क्षण आएगा या नहीं? अगर मैं आकाश के तारे देख रहा हूं, तो कौन कह सकता है कि दुबारा ये तारे मुझे देखने को मिलेंगे या नहीं?
तो एक ही बात हो सकती है--जीवन की कला की--पहला सूत्र यही हो सकता है कि जो भी मैं कर रहा हूं, जिस क्षण से भी मैं गुजर रहा हूं, जो भी मैं हूं, वह मैं समग्रता से हो जाऊं, वह मैं पूर्णता से हो जाऊं। वह मेरा टोटल, वह मेरे समग्र जीवन का केंद्रित अणु बन जाए, क्योंकि उसके बाहर का कुछ भी पता नहीं है। उसका कुछ भी पता नहीं है!
आज रात जब आप सोएं तो कौन सा पता है कि कल सुबह आप उठेंगे? तो फिर आज रात पूरी तरह सो लें, क्योंकि दुबारा सोना आएगा कि नहीं, नहीं कहा जा सकता। और अगर मित्र को विदा देने गए हैं तो यह विदा इतनी संपूर्ण हो, इतनी परिपूर्ण कि कौन जाने यह मित्र दुबारा मिलेंगे कि नहीं।
लेकिन हम ऐसे ढीले-ढाले जीते हैं कि वहां हमारे जीवन में क्षणों की तीव्रता का कोई बोध ही नहीं है, कोई स्पष्टता ही नहीं है। हम ऐसे जीते हैं, जैसे हमेशा जीने को हैं। हम ऐसे जीते है, जैसे सुस्ती से और आहिस्ता से, जैसे जीवन एक लेजिनेस है, एक आलस्य है, एक प्रमाद है।
जीवन एक तीव्रता है। और जो जितनी तीव्रता से जीता है, वह जीवन के मंदिर में उतना ही गहरा प्रविष्ट हो जाता है।
लेकिन तीव्रता तो सिखाई नहीं जाती। न हम रोते हैं कभी तीव्रता से कि हमारे सारे प्राण आंसू बन जाएं। तब वे आंसू भी अदभुत हो जाते हैं, जो पूरे प्राणों से आते हैं। तब उन आंसुओं का मोल बहुत ज्यादा है। तब वे किन्हीं भी हीरे-जवाहरातों, किन्हीं भी मोतियों से ज्यादा बहुमूल्य हैं। वे आंसू जो पूरे प्राणों की झलक लेकर आते हैं, एक बार भी वैसा आदमी जब रो लेता है, तो रोने के द्वार से ही वह जीवन से संबंधित हो जाता है। या कि जब हम मुस्कुराएं तो वह हमारे पूरे प्राणों की मुस्कुराहट हो। तो वह मुस्कुराहट भी हमें उसी तीव्रता में ले जाती है। जीवन का प्रत्येक अनुभव तीव्रता बने, इंटेंसिटी ले।
लेकिन क्या हमारे जीवन में ऐसी तीव्रता है?
नहीं है तो फिर जीवन एक बंधन मालूम होगा। और वह जीवन का कसूर नहीं है। वह आपके शिथिल, अतीव्र, ढीले-ढाले, सुस्त और प्रमादी जीवन का लक्षण है। वह आप जीना नहीं सीखे, इस बात का सबूत है।
जीना मेरी दृष्टि में, या कभी भी जब जीवन को आप जानेंगे तो आपकी दृष्टि में भी प्रतिपल एक दांव है, एक जुआ है, उस पर सब-कुछ लगा देना है। जो सब-कुछ लगा देता है, वही सब-कुछ को जान भी पाता है। हम कुछ लगाते ही नहीं। हमारा सब झूठा, सब शाब्दिक है। न हमने कभी श्रद्धा की है पूरे प्राणों से, न कभी प्रेम किया है, न कभी हंसे हैं, न कभी रोए हैं।
एक स्मरण मुझे आता है, विजयनगर के राज्य में एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ हुआ। उसकी सत्तरवीं वर्षगांठ राजधानी में मनाई जाती थी, राज-दरबार में मनाई जाती थी। दूर-दूर से उसे प्रेम करने वाले और उसे श्रद्धा करने वाले लोग इकट्ठे हुए थे। वे अनेक-अनेक भेंट लाए थे बहुमूल्य से बहुमूल्य। राजा आए थे, धनपति आए थे, बड़े कुशल संगीतज्ञ आए थे। सब भेंट लाए थे। राजमहल में दरबार भेंटों से भर गया था।
और तभी द्वार पर एक भिखमंगे ने आकर खबर की कि मैं भी कुछ भेंट लाया हूं। मुझे भी भीतर प्रवेश मिल जाए। लेकिन कपड़े उसके फटे थे, दीन-दरिद्र था। द्वारपाल लौटाने लगे। वह रोने लगा और उसने कहा: क्या करते हैं, मैं भी कुछ भेंट लाया हूं, मुझे भीतर तो जाने दें।
लेकिन भिखमंगे को कौन भीतर आने दे? लेकिन उसकी आवाज, उसका रोना, उसका चिल्लाना भीतर तक पहुंच गया। संगीतज्ञ को खबर मिली। उसने कहा कि जरूर आ जाने दें...जो भी वह लाया है--भिखमंगा ही सही। भेंट तो प्रेम की होती है। जरूर कुछ लाया होगा।
वह भिखमंगा ज्यादा उम्र का नहीं था, मुश्किल से चालीस वर्ष उसकी उम्र थी। वह द्वार पर आया, हजारों लोग राज-दरबार में थे। वह भीतर लाया गया। वह संगीतज्ञ के चरणों में झुका और उसने कहा कि हे परमात्मा! मेरी शेष उम्र संगीतज्ञ को दे दो! और उसी क्षण उसके प्राण निकल गए! उसी क्षण उसके प्राण निकल गए!
यह ऐतिहासिक घटना है, कोई कहानी नहीं। वे हजारों लोग खड़े रह गए दंग। ऐसी भेंट न तो कभी देखी गई थी, न सुनी गई थी। लेकिन पूर्णता के क्षणों में ही...पूर्णता के क्षणों में ही ऐसी संभावना घटित हो सकती है। पूरे प्राण फिर जो भी चाहते हैं, वह अगर घटित हो जाए तो कोई मिरेकल नहीं, कोई चमत्कार नहीं। पूरे प्राणों से उठी प्रार्थना उठने के पहले पूरी हो जाती है, और पूरे प्राणों से उठी आकांक्षा शब्द बनने के पहले सत्य हो जाती है, और पूरे प्राणों से चाहे गए स्वप्न रूप लेने के पहले यथार्थ हो जाते हैं।
लेकिन पूरे प्राणों से न हमने कभी कुछ चाहा है, न पूरे प्राणों से हमने जीने की कला सीखी है। इसलिए जीवन एक बंधन मालूम होता है। पूरे प्राणों से जो जीता है, वह निरंतर स्वतंत्रता में जीता है, वह हमेशा फ्रीडम में जीता है। उसके लिए कोई मोक्ष कहीं नहीं। प्रतिपल वह मोक्ष में जीता है। इसलिए कोई मोक्ष स्वर्ग में नहीं है, कोई मोक्ष आकाश में नहीं है। वह है जीवन की परिपूर्णता से जीने की कला में।
रवींद्रनाथ मरने को थे। एक मित्र ने कहा कि रवींद्रनाथ अब अंतिम क्षण आ गए, जीवन की संध्या आ गई। अब तुम प्रार्थना करो प्रभु से कि जीवन-मरण से छुटकारा दिला दे, आवागमन से मुक्त कर दे।
रवींद्रनाथ ने आंखें खोल लीं, जो बंद थीं। और वे हंसने लगे। और उन्होंने कहा, रवींद्रनाथ ने कहा अपने मित्र को कि परमात्मा ने जो जीवन मुझे दिया था, वह इतना धन्य हुआ, मैं उसे पाकर इतना कृतार्थ हुआ कि मैं किस मुंह से कहूं कि मुझे जीवन से छुटकारा दिला दो? एक ही प्रार्थना अंतिम क्षण में मेरे हृदय में होगी कि अगर मुझमें जरा भी पात्रता हो तो हे प्रभु, मुझे बार-बार अपनी दुनिया में वापस भेज देना। अगर जरा सी भी पात्रता हो मुझमें तो मुझे बार-बार अपनी दुनिया में भेज देना। तेरी दुनिया बहुत सुंदर थी। और अगर कहीं कोई कुरूपता मुझे दिखी होगी तो वह मेरे देखने का दोष रहा होगा, वह मेरी भूल रही होगी। और तेरी दुनिया में बहुत फूल थे और अगर कांटे गड़ गए होंगे तो मेरी कोई गलती रही होगी। अगली बार आऊं तो और समर्थ होकर आऊं, ताकि तेरे जीवन के आनंद को और भी अनुभव कर सकूं।
गांधी ने जीवन के अंतिम दिनों में एक अदभुत प्रयोग किया था। शायद आपके खयाल में न हो, क्योंकि गांधी के शिष्यों ने उसे छिपाने की पूरी कोशिश की। उस प्रयोग की चर्चा पूरे मुल्क में नहीं हो सकी। गांधी ने जीवन के अंतिम दिनों में एक छोटा सा प्रयोग किया था। शायद उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग। वे एक नग्न युवती को लेकर रात सोने लगे थे, ताकि वे यह पूरा का पूरा अनुभव कर सकें कि उनके मन में कहीं अब भी कोई वासना की रूप-रेखा है, कहीं कोई अब भी शरीर का आकर्षण शेष तो नहीं रह गया है। प्राण जब पूरे के पूरे प्रभु की तरफ बहने लगे हों तो शरीर की तरफ बहने को मन में कोई भाव शेष नहीं रह जाता है। इसका परीक्षण कर लें, पहचान कर लें, खोज-बीन कर लें।
लेकिन इसके पहले कि प्रयोग करें, उन्होंने अपने कोई बीस निकटतम मित्रों को पत्र लिखे और उनसे पूछा कि मैं यह प्रयोग करने को हूं। इसके पहले कि मैं प्रयोग करूं, तुमसे पूछ लेना चाहता हूं कि तुम राजी हो, सहमत हो, तुम्हारा कोई एतराज, तुम्हारा कोई, तुम्हारा कोई विरोध तो नहीं। बीस जो पत्र लिखे थे, उन्नीस पत्रों का जो उत्तर आया, उसकी इबारत करीब-करीब ऐसी थी कि आप तो बहुत बड़े महात्मा हैं, आप जो भी करते हैं, ठीक करते हैं, लेकिन इस प्रयोग को न करें तो बड़ी कृपा होगी। इससे बड़ी बदनामी हो जाएगी। इससे यह होगा, इससे वह होगा। सभी का रूप यही था कि आप तो बहुत बड़े महात्मा हैं, लेकिन...वह ‘लेकिन’ सबके पीछे आ जाता था।
गांधी पढ़ते और पत्र को एक तरफ रख देते और कहते, जहां ‘लेकिन’ आ गया, वहां पहले कही गई सारी बात झूठी हो गई, मिथ्या हो गई। आप बड़े महात्मा हैं, लेकिन...अब ‘लेकिन’ की क्या जरूरत है बड़े महात्मा के साथ? अच्छा होता कि कहते कि आप छोटे आदमी हैं इसलिए, वह कम से कम सच होता, ईमानदारी का होता, ऑथेंटिक होता, प्रामाणिक होता।
लेकिन बीस पत्रों में एक पत्र जरूर था। जिसे गांधी हाथ में उठा कर खुशी के आंसुओं से भर गए। वह जे. बी. कृपलानी ने उस पत्र के उत्तर में लिखा था, उस उत्तर में कि आप मुझसे पूछते हैं, तो मैं हैरान हो गया। अगर मैं अपनी आंखों से आपको व्यभिचार करते भी देख लूं तो पहला शक मुझे अपनी आंख पर होगा, आप पर नहीं। पहला शक मुझे अपनी आंखों पर होगा, आप पर नहीं! और आप मुझसे पूछते हैं तो मैं हैरान हो गया हूं। मैं आपसे पूछता तो ठीक था।
ऐसे लोग, जीवन को इस भांति देखने वाले लोग...। लेकिन हम अपनी आंख पर शक नहीं करते, हम पूरे परमात्मा पर ही शक कर लेते हैं। हम कहते हैं, यह जीवन ही बंधन है। हम कहते हैं, यह जीवन ही असार है। हम कहते हैं, यह जीवन ही बुरा है। और एक बार भी खयाल नहीं आता कि कहीं मेरी आंख ही तो कुछ गलत नहीं देखती, कहीं मेरी आंख ही तो बुरी नहीं है।
धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं, जिसे अपनी आंख पर शक आता है, अपने चित्त पर शक आता है, अपने होने के ढंग पर शक आता है, अपने पर संदेह आता है, लेकिन इस विराट जीवन पर नहीं। वह आदमी धार्मिक है। वह आदमी रिलीजस है। और वह आदमी जीवन की कला सीख सकता है। क्योंकि जिसे स्वयं पर संदेह आता है, वह स्वयं को बदलने का कोई उपाय कर सकता है।
और अगर जीवन पर संदेह आता है, तब तो एक ही उपाय है कि पीठ करो जीवन की ओर--और भागो, पलायन करो, छोड़ो, निषेध करो, त्याग करो। धीरे-धीरे ग्रेजुअली मरने का उपाय करो, जीवन से हटो और मृत्यु की तरफ जाओ।
जीवन की कला की इसलिए पहली स्मरणीय बात यह है कि मैं कहीं गलत हूं, अगर जीवन मुझे बंधन मालूम होता है, दुख मालूम होता है, पीड़ा मालूम होती है। मैं कहां गलत हूं? तो मेरे गलत होने की सबसे पहली भूमि है कि मैं औपचारिक हूं, मैं फार्मल हूं; ऑथेंटिक नहीं, प्रामाणिक नहीं। मेरा होना एक झूठ है। मेरे शब्द झूठ हैं, मेरे इशारे झूठ हैं, मेरी आंखें झूठ कहती हैं, मेरा सब-कुछ झूठ है। इस पर चिंतन, इस पर ध्यान बहुत जरूरी है कि मैंने कहीं कोई झूठा व्यक्तित्व, कोई फॉल्स पर्सनैलिटी तो खड़ी नहीं कर ली है?
हम सबने खड़ी कर ली है। बचपन से ही जहर के बीज बोए जाते हैं कि व्यक्तित्व झूठा हो जाता है। लेकिन जब होश आ जाए, तभी व्यक्तित्व को सत्य बनाने की दिशा में कुछ किया जा सकता है। तो मैं आपसे यह कहूंगा कि एक-एक पल को प्रामाणिक रूप से जीने की हिम्मत और साहस और कोशिश--स्मरणपूर्वक, माइंडफुली--एक-एक क्षण को पूरी तीव्रता से जीने का प्रयास साधना का अनिवार्य अंग है। तो अब जब रोएं तो परिपूर्णता से, पूरे प्राणों से। हंसें तो पूरे प्राणों से। मैत्री तो पूरे प्राणों से। भोजन भी तो पूरे प्राणों से। स्मरण भी तो पूरे प्राणों से; सोएं भी, उठें भी तो पूरे प्राणों से।
जैसे प्रतिपल जो आ रहा है, वह दुबारा नहीं आएगा। वह एक ही बार अनुभव से गुजरना है। उस रास्ते से दुबारा गुजरने की कोई संभावना नहीं है। वह पल फिर न आएगा, वह अवसर फिर न आएगा। तो जिसे एक बार गुजरना है, मैं पूरे होश से, पूरा जागा हुआ, पूरे प्राणों से गुजर जाऊं। मेरा टोटल व्यक्तित्व, मेरा समग्र व्यक्तित्व समाहित हो जाए, संलग्न हो जाए, एकतान हो जाए। तो धीरे-धीरे आपको दिखाई पड़ना शुरू होगा कि जीवन के बंधन गिरने लगे। बंधन आपके शिथिल जीने में थे। तीव्रता से जीते ही तत्क्षण गिर जाते हैं।
लेकिन प्रयोग करना पड़े। साधना करनी पड़े। उस दिशा में कुछ कदम उठाने पड़ें, उस दिशा में कुछ स्मरणपूर्वक रोज-रोज, प्रतिपल होश रखना पड़े कि मैं कहीं झूठा जीना तो शुरू नहीं कर रहा हूं।
पति है, वह अपनी पत्नी से रोज कहे जाता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। और जब कहता है, तब उसे पता भी नहीं है कि वह क्या कर रहा है। शब्द ऐसे कह रहा है, जैसे किसी ग्रामोफोन रिकॉर्ड से निकलते हों, जिनमें न कोई प्राण है, न कोई अर्थ है। पत्नी भी जानती है। वह भी जानता है। पत्नी भी कहे जा रही है कि हम तुम्हें प्रेम करते हैं। हम जान लगा देंगे। तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं जी सकते।
और इन शब्दों के पीछे प्राणों की कोई गवाही नहीं है। ये शब्द झूठे हैं। मत कहें। चुप बैठे रहें, वह बेहतर है। लेकिन मत कहें इनको। इनको कह कर आप सारे व्यक्तित्व को जाल में कस रहे हैं अपने हाथ से।
जिनके प्रति हमें कोई श्रद्धा नहीं, वहां हम सिर झुकाए चले जा रहे हैं। जिन मंदिरों में हमें पत्थर दिखाई पड़ते हैं, वहां हम पूजा किए चले जा रहे हैं। जिन शास्त्रों में हमें किसी सत्य का कोई दर्शन नहीं हुआ, उन्हें हम सिर पर लिए बैठे हैं। सारा व्यक्तित्व झूठा है।
तो इस झूठे व्यक्तित्व से जीवन के सत्य की तरफ कैसे कोई मार्ग बने, कैसे कोई द्वार खुले, कैसे कोई कदम उठे? जिस मंदिर में आप हाथ जोड़ कर गए हैं, सच में हाथ आपके जुड़े थे? उस मंदिर में किसी प्रभु का कभी कोई अनुभव हुआ था? फिर क्यों गए उस मंदिर में? फिर किसने कहा था कि उन मूर्तियों के सामने खड़े हो जाएं?
एक फकीर एक रात जापान के एक मंदिर में ठहरा हुआ है। सर्द रात है, बहुत ठंडी रात है। फकीर के पास कपड़े भी नहीं। मंदिर के पुजार
ी ने दया करके उसे भीतर ठहरा लिया। आधी रात पुजारी की नींद खुली तो घबड़ा कर देखा कि मंदिर के बीच आंगन में आग जल रही है, फकीर आंच ताप रहा है। वह भागा हुआ गया कि यह क्या कर रहे हो? वहां जाकर तो पागल हो गया!
भगवान बुद्ध की तीन मूर्तियां थीं लकड़ियों की। उनमें से एक वह जला कर आंच ताप रहा था। उस पुरोहित ने कहा कि पागल, यह क्या कर रहा है? भगवान की मूर्ति जला रहा है? भगवान को जला रहा है?
वह फकीर पास में पड़ा हुआ एक लकड़ी का टुकड़ा उठा कर जल गई मूर्ति की राख में घुमाने लगा, कुरेदने लगा।
उस पुरोहित ने पूछा: आप क्या कर रहे हैं यह?
उसने कहा: मैं भगवान की अस्थियां खोज रहा हूं।
उस पुजारी ने सिर से हाथ ठोक लिया। उसने कहा: मैं पागल को ठहरा कर दिक्कत में पड़ गया। अब लकड़ी की मूर्ति में कहीं अस्थियां होती हैं?
तो वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा: जब लकड़ी की मूर्ति में अस्थियां ही नहीं होतीं तो भगवान कैसे हो सकते होंगे? तुम जाओ, अभी रात बहुत बाकी है, दो मूर्तियां और रखी हैं, वे भी उठा लाओ। तुम भी तापो, मैं भी तापता हूं।
रात ही उस फकीर को मंदिर के बाहर निकाल दिया गया, उस सर्द रात में। क्योंकि लकड़ी की मूर्ति में भगवान दिखाई पड़ते थे और इस जीते-जागते भगवान को सर्दी लगेगी बाहर, इसकी फिकर नहीं की गई। उसे बाहर निकाल दिया गया।
सुबह जब पुजारी उठा, मंदिर के बाहर गया तो देखा कि सड़क के किनारे जो मील का पत्थर लगा है, उसके पास बैठ कर वह फकीर हाथ जोड़े हुए ध्यान कर रहा है। उसे फिर उतनी ही हैरानी हुई, जैसी रात हो गई थी। उसके पास जाकर उसे हिलाया और कहा: पागल, यह क्या कर रहा है? पत्थर को हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहा है?
उस फकीर ने कहा: मुझे सभी जगह भगवान ही दिखाई पड़ते हैं--सभी जगह! रात मैंने इसीलिए मूर्ति जलाई थी कि मैं देखना चाहता था कि तुम्हें भगवान कितने गहरे दिखाई पड़ते हैं। अस्थियों के लिए तुम भी राजी न हो सके। तुम्हारे ही तर्क से पता चला कि भगवान तुम्हें बिलकुल दिखाई नहीं पड़ते थे। वह मूर्ति झूठी थी तुम्हारे लिए। वे जुड़े हुए हाथ झूठे थे। वह की गई पूजा झूठी थी।
रामकृष्ण को दक्षिणेश्र्वर में पुजारी की जगह मिली थी। बीस रुपये महीने की नौकरी थी। लेकिन दो-चार-आठ दिन में ही मुश्किल शुरू हो गई। जो कमेटी थी मंदिर की, वह परेशान हो गई। कमेटी जुड़ी और उसने कहा कि यह आदमी तो गड़बड़ मालूम होता है।
ठीक आदमी हमेशा गड़बड़ मालूम होते हैं। बड़ी शिकायतें आ गई हैं, चार ही दिन में--पूजा बड़ी गड़बड़ चल रही है।
क्या-क्या शिकायतें थीं?
शिकायतें बड़ी साफ थीं और ठीक थीं। खबर आई थी कि रामकृष्ण फूलों को सूंघ कर मूर्ति को चढ़ाते हैं। खबर आई थी कि प्रसाद को पहले चख लेते हैं, फिर भगवान को लगाते हैं। तो कहा, यह सब क्या गड़बड़ हो रहा है? यह कोई पूजा है?
रामकृष्ण को बुलाया--कि सुना गया है कि तुम फूल पहले सूंघ लेते हो फिर मूर्ति को चढ़ाते हो?
रामकृष्ण ने कहा कि मैं वैसे चढ़ा ही नहीं सकता। पता नहीं, फूल में सुगंध हो या न हो।
कहा कि, सुना है कि तुम पहले भोजन चख लेते हो फिर तुम भगवान को लगाते हो?
उन्होंने कहा: मेरी मां भी ऐसा ही करती थी। पहले चख लेती थी, फिर मुझे देती थी। मैं बिना चखे नहीं दे सकता। पता नहीं, भोजन देने लायक बना भी हो या न बना हो।
यह ऑथेंटिक, यह एक प्रामाणिक पूजा हो गई। लेकिन हमारी सारी पूजा झूठी और बकवास और धोखा है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता वहां। हाथ जोड़े खड़े हैं अंधेरे में। शब्द झूठे हैं। प्रार्थना झूठी है। प्रेम झूठा है। और फिर पूछते हैं कि जीवन बंधन है? बंधन जीवन नहीं, मिथ्या व्यक्तित्व बंधन है। वह जो फॉल्स पर्सनैलिटी है, वह जो हमने सब झूठ कर रखा है, वह बंधन है। तोड़ें--औपचारिकता को तोड़ें, छोड़ें।
प्रामाणिकता को, जीवंत अनुभव को तीव्रता से जीएं। उसकी सच्चाई में जीना शुरू करें, फिर आप पाएंगे कि छोटे-छोटे काम पूजा हो गए। उठना-बैठना पूजा हो गई। फिर आप पाएंगे, किसी का हाथ हाथ में लेना पूजा हो गई। फिर आप पाएंगे, किसी की आंख में एक क्षण प्रेम से झांक लेना प्रार्थना हो गई। फिर आपको दिखाई पड़ेगा, वह तो सब तरफ मौजूद होने लगा। उसका मंदिर तो सब तरफ उठने लगा। फिर तो कण-कण में, पत्ते-पत्ते में, फूल-फूल में उसकी झलक आने लगी। फिर तो सब उसी के शब्द हो जाते हैं।
लेकिन जो प्रामाणिक रूप से जीता है, वह प्रामाणिक रूप से जीवन के सत्य से संबंधित हो जाता है।
हम अप्रामाणिक रूप से जीते हैं, इसलिए जीवन से संबंध नहीं होता है।
अभी तो इतना ही। फिर और कुछ दो-चार प्रश्र्न इस संबंध में होंगे, तो कल उनकी बात करेंगे।
एक छोटी बात और, फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
ध्यान के संबंध में भी, इसी संदर्भ में, यह समझ लेना जरूरी है कि वह प्रामाणिक है या अप्रामाणिक। वह हम अपने पूरे प्राणों से बैठ रहे हैं या बस बैठ गए हैं, क्योंकि और सब लोग बैठ गए हैं। अगर इसी भांति आप बैठ गए हैं--चूंकि और सब लोग बैठे हैं, इसलिए हम भी बैठे हैं। चूंकि शिविर में आए हैं, इसलिए बैठे हैं। चूंकि अब आ ही गए हैं, इसलिए बैठ ही जाना चाहिए। अगर इस तरह बैठ रहे हैं तो उस ध्यान में कहीं कोई गति नहीं होगी।
लेकिन पूरे प्राणों से, पूरा दांव लगा कर--कौन जानता है कि ध्यान के बाद आप उठ पाएं या न उठ पाएं। कौन जानता है, यह क्षण अंतिम हो। और कहीं यह क्षण हाथ से खो जाए तो हमेशा के लिए खो जाए। कौन कह सकता है? तो इस भांति कि जैसे हो सकता है, यह अंतिम क्षण हो।
एक...एक युवा संन्यासी अपने गुरु के पास पहुंचा था। उस गुरु के उस आश्रम का नियम था कि जब भी कोई व्यक्ति आए तो पहले तीन परिक्रमा करे गुरु की, फिर सात बार पैर छुए, फिर बैठ कर जिज्ञासा करे। वह युवा पहुंचा। उसने जाकर कंधे पकड़ लिए सीधे और कहा कि मैं कुछ पूछने आया हूं!
उस गुरु ने कहा: कैसे बदतमीज हो! कैसे अशिष्ट हो! तुम्हें पता भी नहीं कि पहले तीन परिक्रमा, सात बार चरण-स्पर्श--फिर बैठो, फिर पूछो। ऐसे उत्तर नहीं दिए जाते।
उस युवक ने कहा कि तीन बार नहीं, मैं तीन सौ परिक्रमाएं करूंगा और सात बार नहीं, सात सौ बार पैर छुऊंगा, लेकिन क्या आप विश्र्वास दिलाते हैं कि मैं तीन चक्कर लगाऊं उसके बाद भी जिंदा बचूंगा? आप विश्र्वास दिलाते हैं, आप जिम्मा लेते हैं मेरे बचने का? मेरा उत्तर पहले है, मेरा प्रश्र्न पहले है। मुझे पहले उत्तर मिल जाए, फिर फुर्सत से आपके चक्कर लगाऊं, पैर छूऊं।
उस गुरु ने अपने और शिष्यों से कहा: यह पहली दफा एक ऑथेंटिक, पहली दफा एक प्रामाणिक प्रश्र्न पूछने वाला आदमी आ गया है। अब इसे उत्तर देने की भी जरूरत नहीं है। इसका प्रश्र्न ही काफी है। उत्तर तक पहुंचा देगा।
तो ध्यान इतनी संपूर्णता से, समग्रता से हो, तो इसी क्षण हो सकता है--अभी और यहीं! इसी क्षण हो सकता है, अगर पूरे प्राण इकट्ठे हो जाएं।
स्वामी रामतीर्थ पढ़ते थे, गणित के विद्यार्थी थे। और हमेशा की एक आदत थी--परीक्षा में अगर बारह प्रश्र्न आते और लिखा होता कि कोई भी सात हल करें तो वे बारह ही हल करते और लिखते कि कोई भी सात जांच लें। वैसी आदत थी। हमेशा की आदत थी। जितने प्रश्र्न परीक्षक पूछता, सारे हल कर देते और ऊपर जैसा नोट परीक्षक देता है कि दस दिए हैं प्रश्र्न, कोई पांच हल करें; वैसा ऊपर नोट लिखते कि दस कर दिए हैं प्रश्र्न, कोई भी पांच जांच लें। उतना विश्र्वास भी था कि वे सभी सही हैं।
एम. ए. की गणित की अंतिम परीक्षा दे रहे थे और सांझ सात बजे से एक प्रश्र्न हल करना शुरू किया। रात के तीन बजे गए और प्रश्र्न का कोई उत्तर नहीं मिल रहा है। साथ जो कमरे में उनका दूसरा सहपाठी है, वह कहने लगा, तुम पागल हो गए हो। सुबह करीब आई जाती है और एक प्रश्र्न पर सारी रात खराब कर रहे हो! कौन कहता है कि यह प्रश्र्न आएगा भी। दूसरों की फिकर भी कर लो।
रामतीर्थ ने कहा: और अगर यह आ गया तो क्या आज पहली दफा अंतिम परीक्षा में मुझे सारे प्रश्र्न हल नहीं करने पड़ेंगे? पांच ही करके आ जाऊंगा? नहीं-नहीं, यह मुझे हल करना ही है। फिर परीक्षा का सवाल नहीं है। जो प्रश्र्न हल नहीं हो रहा है, उसने मेरे पूरे प्राणों को चुनौती दे दी है। उसे तो हल करना ही पड़ेगा।
साढ़े तीन बज गए, चार बज गए, अब तो दो ही घंटे बचे हैं सुबह के। पूरी रात खो गई। वह प्रश्र्न हल नहीं होता। वह मित्र घबड़ा गया है--साथी, और कह रहा है, क्या पागलपन कर रहे हो?
तभी रामतीर्थ उठे हैं और जाकर उन्होंने अपनी पेटी से एक छुरा निकाल लाए। छुरे को टेबल पर रख लिया। घड़ी में पंद्रह मिनट बाद का अलार्म भर दिया और अपने मित्र से कहा कि भाई नमस्कार! अगर पंद्रह मिनट में यह सवाल हल नहीं हो गया, तो छुरा छाती के भीतर हो जाएगा।
मित्र ने कहा: क्या बिलकुल ही पागल हुए जा रहे हो! इस सवाल से ऐसा क्या लेना-देना है?
लेकिन रामतीर्थ सुनने के बाहर हो गए थे। पंद्रह मिनट का अलार्म भर दिया था। घड़ी टिक-टिक आगे बढ़ने लगी है। छुरा सामने गपा हुआ है नंगा और वे सवाल हल करने लग गए। सर्द रात है। ठंडी हवाएं हैं। माथे से तीन मिनट के भीतर पसीना चूने लगा। सारे शरीर से पसीने की धाराएं बहने लगीं। पांच मिनट पूरे नहीं हो पाए हैं कि सवाल हल हो गया है! जो छह-सात घंटे से परेशान किए हुआ था, वह सवाल पांच मिनट के भीतर हल हो गया! माथा पोंछा उन्होंने और अपने मित्र से कहा कि सवाल हल हो गया है।
उसके मित्र ने कहा: यह तो तरकीब बड़ी अच्छी है। अगली बार जब कभी ऐसी दिक्कत मुझे हुई, मैं भी छुरा रख लूंगा, मैं भी अलार्म भर दूंगा। और किसको छुरा मारना है? अलार्म बज भी जाएगा और नहीं भी हुआ तो हर्ज भी क्या है?
तो रामतीर्थ ने कहा: तू समझता है यह कोई तरकीब हुई। यह तरकीब न थी। किसी को धोखा नहीं दिया जा रहा था। यह तो निश्चय था कि पंद्रह मिनट पूरे होते और छुरा छाती के भीतर हो जाता।
जब ऐसी समग्रता से कोई व्यक्ति किसी प्रश्र्न के सामने खड़ा हो जाए तो प्रश्र्न की कोई हस्ती है? कोई हैसियत है? कोई ताकत है? जब इतने प्राणों को पूरा का पूरा कोई दांव पर लगा दे तो किस चीज की ताकत है? कौन सा प्रश्र्न है, जो रुकेगा? कौन सी समस्या है, जो रुकेगी? कौन सी उलझन है, जो रुकेगी? कौन सी अशांति है, जो रुकेगी? जीवन की कौन सी बाधा है, जो रुक सकती है?
समग्रता से जीवन को दांव पर लगाने वाले लोगों के सामने न कभी कुछ आया है, न कभी आ सकता है। सब हट जाता है। सब द्वार खुल जाते हैं। सब ताले टूट जाते हैं। लेकिन हम कभी समग्रता से जीने की कोई, कोई दृष्टि ही हमारे पास नहीं है।
ध्यान भी केवल उनके लिए कुंजी हो सकती है, जो ध्यान को पूरी प्रामाणिकता से, समग्रता से एक दांव बना लेते हैं। सब-कुछ लगा देते हैं--पूरी शक्ति--सब, सारी ऊर्जा!
तो यह बात और मुझे आपसे कहनी है कि ध्यान तो जीवन के समस्त खजानों की कुंजी है। लेकिन वह कुंजी उन्हीं को उपलब्ध होती है, जो उसे पाने के लिए पूरी प्यास को प्रकट करते हैं, पूरी प्रार्थना को, पूरे प्राणों को सामने ले आते हैं। आज ही हो सकता है। इसी वक्त हो सकता है। करने की भी जरूरत नहीं। मेरे कहते-कहते भी हो सकता है।
अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
(यहां लेटना तो संभव नहीं होगा...तिरछा-इरछा रहेगा...हो जाएगा...ऐसा...)
तो अपनी-अपनी जगह बना लें, क्योंकि लेटना पड़ेगा। चुपचाप, बिलकुल आवाज नहीं। जरा भी बात नहीं। अपनी-अपनी जगह ले लें। और आज पूरे प्राणों से, क्योंकि एक रात आज, एक रात कल, फिर विदा हो जाना है।
जरा भी हंसिए नहीं, जरा भी बात मत करिए, क्योंकि वह सब आपके लिए नुकसान की बात होगी।
जगह ऊंची-नीची है तो ऐसे लेटिए कि सिर आपका ऊंचाई की तरफ रहे। कोई किसी को छूता हुआ न हो। थोड़े हट जाएं, थोड़ी जगह...बाहर आ जाएं...हां, बीच में तकलीफ हो तो थोड़ा बाहर निकल आएं। अपनी-अपनी जगह ले लें चुपचाप कहीं भी, कहीं भी चुपचाप लेट जाएं।
ठीक है! मैं मान लेता हूं, आपने अपनी जगह बना ली है। जल्दी अपनी जगह बना लें। चुपचाप लेट जाएं। यहां-वहां न घूमें। बैठ जाएं, लेट जाएं।
सबसे पहले पूरी प्रामाणिकता से--‘मैं ध्यान में जा रहा हूं’--इस भाव को ठीक से अपने चित्त के केंद्र पर ले लें। पूरी शक्ति से, पूरी प्राणों से, पूरी आत्मा से--‘मैं शून्य में प्रवेश कर रहा हूं।’
यह मेरा एक प्रामाणिक संकल्प है। यह कोई औपचारिक बात नहीं कि मैं ध्यान करने बैठ गया हूं। जैसे इस पर ही मेरी पूरी जिंदगी लगी हुई है। मेरी पूरी जिंदगी और मृत्यु का सवाल है। इस भाव को चित्त के केंद्र पर ले लें। फिर आंख बंद कर लें। सारे शरीर को शिथिल छोड़ दें।
आंख बंद कर लें। सारे शरीर को शिथिल छोड़ दें। इतनी अदभुत रात है कि जरूर कुछ हो सकेगा। इतनी आपकी प्यास है कि जरूर कुछ हो सकेगा। कौन रोक सकता है होने से। शरीर को शिथिल छोड़ दें। आंख बंद कर लें।
अब मैं थोड़े से सुझाव देता हूं, मेरे साथ पूरे प्राणों से अनुभव करें, फिर वैसा ही होता चला जाएगा।
सबसे पहले भाव करें, शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है...ढीला छोड़ दें, जैसे शरीर है ही नहीं। ढीला छोड़ दें...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो गया है...।
श्वास भी शांत होती जा रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास को भी बिलकुल शांत छोड़ दें...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...।
मन भी शांत होता जा रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन भी शांत हो गया है...।
शरीर ढीला छूट गया...श्वास ढीली छूट गई...मन भी ढीला छूट गया...अब चुपचाप भीतर होश से भरे हुए कोई भी आवाज सुनाई पड़ती हो चुपचाप सुनते रहें...बस सुनते रहें और कुछ भी न करें...रात का सन्नाटा सुनाई पड़ेगा, हवाओं की आवाज सुनाई पड़ेगी, दूर सागर से आता गर्जन सुनाई पड़ेगा, सब चुपचाप सुनते रहें...बस होश से भरे हुए सुनते रहें...सुनें...दस मिनट के लिए बिलकुल मौन सुनते रहें...रात की आवाजों को सुनते रहें...।
सुनते रहें...रात के सन्नाटे को सुनते रहें...धीरे-धीरे वैसा ही सन्नाटा भीतर भी आ जाएगा...मन शांत होता जाएगा...मन बिलकुल शांत होता जाएगा...सुनें...रात की आवाजें सुनें...छोटी-छोटी आवाज भी सुनाई पड़ेगी...देखें, हवाओं की आवाज...।
परमात्मा बहुत सी आवाजें कर रहा है, चुपचाप सुनें...सुनते ही सुनते मन शांत होता जाता है...मन शांत होता जाता है...मन शांत होता जाता है...।
मन शांत होता जा रहा है...सुनते रहें...रात की आवाजों को सुनते रहें...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...सुनते रहें...सुनते ही सुनते मन शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...।
रात का सन्नाटा सुनते रहें...फिर धीरे हवाएं ही रह जाएंगी, रात की आवाजें रह जाएंगी; आप मिट जाएंगे, आप न हो जाएंगे, आप नहीं हो जाएंगे। जीवन से एक हो जाएं। मन शांत होता जा रहा है...
जीवन-देवता के प्रति समर्पण का भाव, स्वीकार, सम्मान और श्रद्धा की मनःस्थिति के संबंध में सुबह थोड़ी सी बातें मैंने कहीं हैं। उस संबंध में बहुत से प्रश्र्न आए हैं। उन पर अभी बात करनी है।
जीवन सदा से अस्वीकृत रहा है। जीवन की श्रद्धा और सम्मान के लिए न तो कभी कोई पुकार दी गई है, न कभी कोई आह्वान किया गया है। जीवन को छोड़ देने, जीवन से पलायन करने को, जीवन को तोड़ देने और नष्ट कर देने को बहुत-बहुत रूपों में चेष्टाएं जरूर की गई हैं। या तो वे लोग पृथ्वी पर प्रभावी रहे हैं, जिन्होंने दूसरों के जीवन को नष्ट करने की कोशिश की हो--राजनीतिज्ञ, सेनापति, युद्धखोर। या जो लोग दूसरों का जीवन नष्ट करने में नहीं लगे हैं, तो वे दूसरी प्रक्रिया में लग गए, वे अपने ही जीवन को नष्ट करने का प्रयास करते रहे--तथाकथित धार्मिक, तथाकथित साधु-संन्यासी।
दो प्रकार की हिंसा चलती रही है। या तो दूसरे का जीवन नष्ट करो या अपना जीवन नष्ट करो। या तो दूसरों को समाप्त करो या स्वयं को समाप्त करो। जीवन की दोनों ही अर्थों में हत्या होती रही है। जीवन का परिपूर्ण सम्मान आज तक भी मनुष्य के मन में प्रतिष्ठित नहीं हो पाया। स्वभावतः, जब मैं कहूं कि जीवन ही देवता है, जीवन ही प्रभु है, तो अनेक प्रश्र्न उठ आने स्वाभाविक हैं।
एक मित्र ने पूछा है: भगवान, अगर ‘जीवन ही प्रभु है’ तो फिर जीवन से छुटकारा और आवागमन से मुक्ति और मोक्ष इस सबका क्या होगा? जीवन को तो बंधन कहा गया है और मैं जीवन को ही प्रभु कह रहा हूं?
निश्र्चित ही आज तक जीवन को बंधन ही कहा गया है। लेकिन जीवन बंधन नहीं है। जो लोग जीवन को जीने की कला नहीं जानते, उनके लिए जीवन जरूर बंधन हो जाता है।
एक अजनबी देश से कुछ मित्र यात्रा कर रहे थे। वे भूखे थे और फलों की एक दुकान पर रुके। लेकिन जो फल वहां बिक रहे थे, अपरिचित थे। अजनबी देश था, नहीं जानते थे क्या हैं वे फल। नारियल बिकते थे। लेकिन वे लोग जिस देश से आते थे वहां नारियल नहीं होते थे। उन्होंने पूछा: यह क्या है? दुकानदार ने कहा: बहुत, बहुत स्वादिष्ट, बहुत मधुर, बहुत शक्तिवर्धक फल हैं। उन्होंने उन फलों को खरीद लिया। दुकानदार ने प्रशंसा में यह भी कहा कि बड़े-बड़े शहंशाह भी, बड़े-बड़े सम्राट भी मेरी ही दुकान से इन फलों को खरीदते हैं।
फिर वे फलों को लेकर आगे बढ़ गए। गांव के बाहर वे रुके और उन्होंने फलों को खाने की चेष्टा की, लेकिन नारियलों से वे परिचित नहीं थे। वे जिन फलों से परिचित थे, उन पर नारियल जैसी कड़ी खोल नहीं होती थी। उन्होंने नारियल को ऊपर से ही खाना शुरू किया। बहुत परेशान हो गए। तिक्त हो गया मुंह। कहीं कोई स्वाद न दिखाई पड़ा। दांत गपाना भी कठिन था, मुश्किल था। फिर उन्होंने एक-एक करके वे फल फेंक दिए, और कहा: बड़े मूढ़ हैं इस देश के सम्राट और शहंशाह, जो इन फलों को खाते हैं। इन फलों में न कोई स्वाद है, न कोई रस है, न कोई अर्थ प्रतीत होता है। कैसे पागल हैं इस देश के लोग!
उन फलों को फेंक कर वे भूखे ही आगे बढ़ गए और अपने देश में जाकर उन्होंने बहुत प्रचार किया कि हम एक मूर्खों के देश से गुजर कर आ रहे हैं। वहां लोग पत्थरों जैसे फलों को खाते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं!
उन बेचारों को पता भी नहीं था कि फल वे पत्थर जैसे नहीं थे, लेकिन खाने की विधि उन्हें ज्ञात न थी। खाने की विधि अज्ञात थी।
जीवन के फल पर भी जो खाने की विधि से, जीवन को भोगने की विधि से; जीवन के रस के मार्ग से, जीवन के छंद को अनुभव करने के मार्ग से अपरिचित हैं, उन्हें जीवन लोहे की जंजीर प्रतीत होता हो तो आश्र्चर्य नहीं है।
जीवन जंजीर नहीं है और जीवन से भिन्न कोई मोक्ष नहीं है।
जीवन को ही जो उसकी परिपूर्णता में जानने में समर्थ होता है, वह जीवन के मध्य, जीवन के बीच ही मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है।
यह हो भी नहीं सकता है कि जीवन और मोक्ष में कोई विरोध हो। यह हो भी नहीं सकता कि जगत में कोई दो विरोधी सत्ताएं हों। यह हो भी नहीं सकता कि प्रभु और संसार में बुनियादी शत्रुता हो। कोई गहरी मैत्री का सेतु है। कोई एक ही सब संसार में, मोक्ष में प्रकट हो रहा है--देह में, आत्मा में; रूप में, अरूप में।
लेकिन हमारी असफलता, जीवन के फल को चखने की हमारी सीमा हमारे लिए बंधन बनती रही है। जीवन को जीने की कला ही हमने नहीं सीखी। बल्कि कला न जानने से जब जीवन तिक्त और बेस्वाद लगा तो हमने जीवन को ही तोड़ देने की कोशिश की, अपने को बदलने की नहीं। हमने उस पागल की तरह व्यवहार किया है, शायद उस पागल के संबंध में आपने सुना हो। न सुना हो तो मैं कहूं और शायद आप पहचान भी लें कि वह पागल कौन है।
एक पागल आदमी था। वह अपने को बहुत ही सुंदर समझता था। जैसा कि सभी पागल समझते हैं। वैसा वह समझता था कि पृथ्वी पर उस जैसा सुंदर और कोई भी नहीं है। यही पागलपन के लक्षण हैं। लेकिन वह आईने के सामने जाने से डरता था। और जब कभी कोई उसके सामने आईना ले आता तो तत्क्षण आईने को फोड़ देता था। लोग पूछते, क्यों? तो वह कहता कि मैं इतना सुंदर हूं और आईना कुछ ऐसी गड़बड़ करता है कि आईना मुझे कुरूप बना देता है। आईना मुझे कुरूप बनाने की कोशिश करता है। मैं किसी आईने को बर्दाश्त नहीं करूंगा, मैं सब आईने तोड़ दूंगा! मैं सुंदर हूं, और आईने मुझे कुरूप करते हैं! वह कभी आईने में न देखता। लोग आईना ले आते तो तत्क्षण तोड़ देता।
मनुष्य भी उस पागल की तरह व्यवहार करता रहा है। नहीं सोचता कि आईना वही दिखाता है, जो मेरी तस्वीर है। आईना वही बताता है, जो मैं हूं। आईने को कोई प्रयोजन भी नहीं कि मुझे कुरूप करे। आईने को कोई मेरा पता भी नहीं। मैं जैसा हूं, आईना वैसा बता देता है। लेकिन बजाय यह देखने के कि मैं कुरूप हूं, आईने को तोड़ने में लग जाता हूं।
संसार को छोड़ कर भाग जाने वाले लोग आईने को तोड़ने वाले लोग हैं। अगर संसार दुखद मालूम पड़ता है, तो स्मरण रखना कि संसार एक दर्पण से ज्यादा नहीं। वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं।
अगर दुख हमारे जीवन की व्यवस्था है तो संसार में दुख दिखाई पड़ेगा।
अगर चिंता हमारे चित्त की व्यवस्था है तो संसार में चिंता झलकेगी।
अगर कांटे हमने इकट्ठे कर रखे हैं तो संसार में कांटे दिखाई पड़ेंगे।
संसार हमारी प्रतिध्वनि है। जो हमारे भीतर है, वही प्रतिध्वनित हो उठता है, वही री-ईको हो उठता है।
लेकिन नहीं, यह देखने को हम राजी नहीं हैं। हम कहते हैं, संसार बंधन है। हम कहते हैं, संसार दुख है। हम कहते हैं, संसार असार है--छोड़ दें, तोड़ दें, मुक्त हो जाएं, बाहर हो जाएं।
किससे बाहर होंगे? दर्पण को तोड़ कर कोई मुक्त होता है? प्रतिध्वनियों को बंद कर कोई मुक्त होता है?
मुक्त होना है तो स्वयं को बदलना पड़ता है, न कि जीवन को तोड़ना। मुक्त होना हो तो स्वयं को आमूल बदलना पड़ता है। और स्वयं को जो आमूल बदलने को तैयार हो जाता है, वह पाता है कि जीवन एक धन्यता है, एक कृतार्थता है। वह परमात्मा के प्रति धन्यवाद से भर उठता है--इतना सुंदर है जीवन, इतना अदभुत है, इतना रसपूर्ण, इतने छंद से भरा हुआ, इतने गीतों से, इतने संगीत से। लेकिन उस सबको देखने की क्षमता और पात्रता चाहिए। उस सबको देखने की आंखें, सुनने के कान, स्पर्श करने वाले हाथ चाहिए।
और भी कुछ मित्रों ने पूछा है कि मैंने सुबह ‘जीवन की कला’ पर कुछ कहा। मैं और ठीक से कहूं कि ‘जीवन की कला’ से मेरा क्या प्रयोजन है?
‘जीवन की कला’ से मेरा यही प्रयोजन है कि हमारी संवेदनशीलता, हमारी पात्रता, हमारी ग्राहकता, हमारी रिसेप्टिविटी इतनी विकसित हो कि जीवन में जो सुंदर है, जीवन में जो सत्य है, जीवन में जो शिव है, वह सब...वह सब हमारे हृदय तक पहुंच सके। उस सबको हम अनुभव कर सकें।
लेकिन हम जीवन के साथ जो व्यवहार करते हैं, उससे हमारे हृदय का दर्पण न तो निखरता, न निर्मल होता, न साफ होता; और गंदा होता, और धूल से भर जाता है। उसमें प्रतिबिंब पड़ने और भी कठिन हो जाते हैं। जिस भांति जीवन को हम बनाए हैं--सारी शिक्षा, सारी संस्कृति, सारा समाज मनुष्य के व्यक्तित्व को ठीक दिशा में नहीं ले जाता है। बचपन से ही गलत दिशा शुरू हो जाती है। और वह गलत दिशा जीवन भर, जीवन से ही परिचित होने में बाधा डालती रहती है। उस संबंध में दो-चार बातें समझ लेनी उपयोगी होंगी। उस संबंध में ही प्रश्र्न पूछे गए हैं, वे भी हल हो सकेंगे।
पहली बात, जीवन को अनुभव करने के लिए एक प्रामाणिक चित्त, एक ऑथेंटिक माइंड चाहिए। हमारा सारा चित्त औपचारिक है, फार्मल है, प्रामाणिक नहीं है। न तो हम प्रामाणिक रूप से कभी प्रेम किए हैं, न प्रामाणिक रूप से कभी क्रोध किए हैं, न प्रामाणिक रूप से कभी हमने घृणा की है, न प्रामाणिक रूप से हमने कभी क्षमा की है।
हमारे सारे चित्त के आवर्तन, हमारे सारे चित्त के रूप औपचारिक हैं, झूठे हैं, मिथ्या हैं। अब मिथ्या चित्त को लेकर जीवन के सत्य को कोई कैसे जान सकता है? सत्य चित्त को लेकर ही जीवन के सत्य से संबंधित हुआ जा सकता है। हमारा पूरा माइंड, हमारा पूरा चित्त, हमारा पूरा मन मिथ्या और औपचारिक है। इसे समझ लेना उपयोगी है।
सुबह ही आप अपने घर के बाहर आ गए हैं और कोई राह पर दिखाई पड़ गया है और आप नमस्कार कर लिए हैं। और आप कहते हैं उसे मिल कर कि बड़ी खुशी हुई, आपके दर्शन हो गए। लेकिन मन में आप सोचते हैं कि इस दुष्ट का सुबह ही सुबह चेहरा कहां से दिखाई पड़ गया।
यह अनऑथेंटिक माइंड है, यह गैर-प्रामाणिक मन की शुरुआत हुई। चौबीस घंटे हम ऐसे दोहरे ढंग से जीते हैं, तो जीवन से कैसे संबंध होगा? फिर दोष देना जीवन को! बंधन पैदा होता है दोहरेपन से। जीवन में कोई बंधन नहीं है।
बंधन पैदा होता है मनुष्य के दोहरेपन से। हम दोहरे ढंग से जी रहे हैं। भीतर कुछ है, बाहर कुछ है। दोहरा ढंग भी होता तो भी ठीक है। हम हजार ढंग से जी रहे हैं। एक ही साथ हजार बातें हमारे भीतर चल रही हैं। हमारे व्यक्तित्व में कोई प्रामाणिकता, कोई भी सच्चाई नहीं है। सारा व्यक्तित्व झूठ मालूम होता है। सारा व्यक्तित्व ही अभिनय का, एक्ंिटग का मालूम होता है।
किसको धोखा दे रहे हैं लेकिन आप? किसके सामने यह अभिनय चल रहा है? किसी और को धोखा नहीं होगा। इस धोखा देने में स्वयं को ही जानने से वंचित रह जाएंगे, जीवन से संबंधित होने से वंचित रह जाएंगे। सब तरह का धोखा है, जो आदमी दे रहा है। सबसे गहरा धोखा मन के तलों पर है, जहां हमारी कोई भी चीज सच नहीं रह गई है।
कभी आपने सच में ही किसी को प्रेम किया है? समझदार लोग कहते हैं, प्रेम नासमझ करते हैं। समझदार लोग प्रेम की बातें करते हैं, अभिनय करते हैं, प्रेम वगैरह कभी नहीं करते। व्यावहारिक लोग, जो प्रैक्टिकल लोग हैं, वे कभी प्रेम-व्रेम...सिर्फ प्रेम की बातें करते हैं। हमारे सारे भाव बातों तक सीमित हो गए हैं। कभी कोई जीवन की कोई भी अनुभूति ऐसी तीव्रता से हमने नहीं पकड़ ली है, जिसके लिए हम जी जाएं या जिसके लिए हम मर जाएं।
कोई ऑथेंटिक, कोई प्रामाणिक दांव हमारे जीवन में नहीं है। क्रोध भी हम करते हैं तो पोच, इंपोटेंट। उस क्रोध में भी कोई बल नहीं होता, कोई शक्ति नहीं होती। जो क्रोध भी नहीं कर सकता प्रामाणिक रूप से, वह क्षमा कैसे कर सकेगा? क्षमा भी वही कर सकता है, जो क्रोध करने में समर्थ हो। मित्र भी वही हो सकता है, जो शत्रु होने में समर्थ हो।
लेकिन न हम शत्रु हो सकते हैं, न हम मित्र हो सकते हैं। हम बिलकुल बीच में खड़े रह गए हैं। हम बिलकुल त्रिशंकु हो गए। हमारे जीवन की कोई भाव-दशा नहीं रह गई है।
एक...एक ग्रामीण युवक, पुराने दिनों की बात है, क्योंकि अब तो दुनिया में ग्रामीण कोई भी नहीं रह गया है। ग्राम रह गए हैं, ग्रामीण कोई भी नहीं रह गया है। आदमी सब शहरी हैं। एक ग्रामीण युवक ने विवाह किया। यह अमरीका की कोई दो सौ, ढाई सौ वर्ष पहले की किसी गांव की घटना है। वह विवाह किया और अपनी नववधू, पत्नी को लेकर अपनी घोड़ा-गाड़ी में सवार होकर गांव की तरफ वापस लौटा। रास्ते में घोड़ा एक जगह ठिठक गया, रुक गया। उसने बहुत चलाने की कोशिश की, लेकिन नहीं चला। उसने घोड़े से कहा: दिस इ़ज वन्स! यह एक बार हुआ।
उसकी पत्नी कुछ भी न समझी कि घोड़े से क्या बात की जा रही है। फिर घोड़ा थोड़ी दूर चला और फिर ठिठक गया। उस जवान ने कहा: दिस इ़ज ट्वाइस! यह दुबारा हो गई बात।
उसकी पत्नी फिर भी चुप रही।
घोड़ा तीसरी बार ठिठका। उसने कहा: दिस इ़ज थ्राइस! उठा, बंदूक उठा कर घोड़े को गोली मार दी!
उसकी पत्नी तो हैरान रह गई! उसने उसे जोर से धक्का मारा और कहा: यह क्या क्रूरता करते हो? यह क्या पागलपन करते हो?
उसने कहा: दिस इ़ज वन्स! उसने कहा: यह पहली बार हुआ।
उसकी पत्नी तो दंग रह गई!
उस जवान ने कहा: दो मौके और बच गए।
उसकी पत्नी ने लिखा है कि मैंने पहली बार उस व्यक्ति की तरफ देखा, जिसका क्रोध इतना ज्वलंत हो सकता है; और मुझे पहली दफा उसके व्यक्तित्व में एक बल और एक शक्ति और एक तेज का दर्शन हुआ।
नहीं आपसे कह रहा हूं कि किसी को गोली मार दें...लेकिन उसकी पत्नी ने कहा कि वह व्यक्ति इतना ही प्रेम भी कर सका।
मनुष्य-जाति को, उसके जीवन को विषाक्त कर देने वाले जो शिक्षक हुए हैं, उन्होंने सब तरफ से इंपोटेंट कर दिया है, सब तरफ से पंगुता सिखाई है, सब तरफ से--जीवन के समस्त तीव्र भावों पर सब तरफ से रोक लगा दी है, सब तरफ से कैद कर दिया आदमी को। तब उसके भीतर कोई भी चीज बलशाली शेष नहीं रह गई है।
अकबर के दरबार में एक सुबह एक घटना घट गई। दो राजपूत युवक आए हैं। नंगी तलवारें उनके हाथों में हैं। और अकबर के सिंहासन के सामने वे खड़े हो गए और उन्होंने कहा कि हम दो राजपूत जवान हैं, हम दोनों जुड़वां भाई हैं और हम दोनों तलाश में निकले हैं, नौकरी चाहिए।
अकबर ने पूछा: तुम्हारी योग्यता क्या है?
तुम्हारी योग्यता क्या है?
उन्होंने कहा: हम दो बहादुर लोग हैं, और कोई हमारी योग्यता नहीं है।
अकबर ने कहा: कोई प्रमाण-पत्र, कोई सर्टिफिकेट लाए हो?
उन दोनों की आंखें ऐसे चमक उठीं जैसे दो अंगारे। उनकी तलवारें म्यानों के बाहर आ गईं और एक-दूसरे की छाती में एक क्षण में प्रविष्ट हो गईं। एक क्षण बाद दो लाशें पड़ी थीं और खून के फव्वारे बह गए थे।
अकबर तो घबड़ाया, उसके तो हाथ-पैर कंप गए। उसने अपने राजपूत सेनापति को बुलाया और कहा कि यह क्या हुआ? मैंने तो छोटी सी बात कही थी कि कोई प्रमाण-पत्र लाए हो बहादुरी का?
वह राजपूत सेनापति बोला: गलत बात कही थी आपने। राजपूत से कहीं ऐसा पूछना होता है--बहादुरी का प्रमाण-पत्र! और बहादुरी के कोई प्रमाण-पत्र होते हैं सिवाय इसके कि कोई जिंदगी दांव पर लगा कर दिखा दे? और क्या प्रमाण-पत्र हो सकता है? कोई कागज के सर्टिफिकेट होते हैं बहादुरी के? उन दोनों ने दिखा दिया कि बहादुरी का क्या मतलब होता है। एक ही मतलब होता है कि आदमी मौत के सामने खड़ा हो सकता है निर्भय। और कोई मतलब नहीं होता है बहादुरी का। और बहादुरी का कोई प्रमाण-पत्र नहीं होता। और जो आदमी बहादुरी का प्रमाण-पत्र लिए फिरता हो, उस आदमी से ज्यादा कायर कोई आदमी नहीं हो सकता है। असल में प्रमाण-पत्र कायर ही ढोते हैं और कोई प्रमाण-पत्र नहीं लिए घूमता है।
अकबर ने अपने संस्मरणों में लिखवाया है कि वह बात मुझे याद रह गई। मैंने दो जिंदा आदमी देखे थे। एक क्षण में, एक तीव्रता में--एक प्रामाणिक जीवन देखा था, एक क्षण में वह चमक देखी थी, जो आदमी की चमक है।
लेकिन हम सबके जीवन से आदमी की चमक विलीन हो गई है। न कभी वहां क्रोध ऐसा चमकता है कि बिजली की लौ पैदा हो जाए, न कभी प्रेम। वहां कोई चमक ही नहीं है। हम बिलकुल बिना चमक के, बिना विद्युत के, बिना बल के, बिना शक्ति के लोग होते चले गए हैं।
जीवन से हमारा संबंध नहीं हो सकता है। जीवन से संबंधित होने के लिए शास्त्रों का अध्ययन नहीं, जीवन से संबंधित होने के लिए मंदिरों की प्रार्थनाएं नहीं, जीवन से संबंधित होने के लिए इंटेंसिटी, तीव्रता का जीवन चाहिए। एक ही प्रार्थना है जीवन-देवता के मंदिर में--वह है इंटेंस लिविंग, वह है तीव्र जीवन, वह है उद्दाम जीवन, वह है बल, शक्तिशाली जीवन, ऊर्जा से भरा जीवन।
हम सब बिना ऊर्जा के जीते चले जाते हैं। चलते नहीं हैं रास्तों पर, जैसे धक्के खाते हैं।
मेरी दृष्टि में जीवन की कला की पहली शिक्षा जो हो सकती है, वह यह है कि हम जीवन को कितनी तीव्रता से ले सकें। एक-एक क्षण को तीव्रता से ले सकें। जैसे एक-एक क्षण ही हमारा जीवन दांव पर लगा हो। कौन जानता है, एक क्षण के बाद जीवन आए न आए, श्र्वास आए न आए? सच्चाई यही है कि एक-एक क्षण जीवन दांव पर लगा हुआ है।
अभी आप यहां बैठे हैं, इतनी सुस्ती से, इतने आराम से। अगर आपको खबर की जाए कि बस घंटा भर और है आपके जीवन के लिए--वह घंटा क्या होगा? या आपको कहा जाए कि बस एक क्षण और है, यह अंतिम क्षण है। उस क्षण में आप कैसे जीएंगे?
सच्चाई भी यही है कि एक आदमी को एक क्षण से ज्यादा जीवन मिला हुआ नहीं है। दूसरे क्षण का कोई भरोसा नहीं है। वह आए और न आए। जो क्षण मेरे हाथ में है, वही मेरे हाथ में है। अगर उस क्षण को मैं अपनी पूरी शक्ति से नहीं जीता हूं, तो मैं जीवन की कला कभी नहीं सीख पाऊंगा। अगर मैं भोजन कर रहा हूं, तो कौन जानता है कि दुबारा भोजन कर सकूंगा कि नहीं? अगर मैं किसी को प्रेम कर रहा हूं, तो कौन जानता है कि दुबारा यह प्रेम का क्षण आएगा या नहीं? अगर मैं आकाश के तारे देख रहा हूं, तो कौन कह सकता है कि दुबारा ये तारे मुझे देखने को मिलेंगे या नहीं?
तो एक ही बात हो सकती है--जीवन की कला की--पहला सूत्र यही हो सकता है कि जो भी मैं कर रहा हूं, जिस क्षण से भी मैं गुजर रहा हूं, जो भी मैं हूं, वह मैं समग्रता से हो जाऊं, वह मैं पूर्णता से हो जाऊं। वह मेरा टोटल, वह मेरे समग्र जीवन का केंद्रित अणु बन जाए, क्योंकि उसके बाहर का कुछ भी पता नहीं है। उसका कुछ भी पता नहीं है!
आज रात जब आप सोएं तो कौन सा पता है कि कल सुबह आप उठेंगे? तो फिर आज रात पूरी तरह सो लें, क्योंकि दुबारा सोना आएगा कि नहीं, नहीं कहा जा सकता। और अगर मित्र को विदा देने गए हैं तो यह विदा इतनी संपूर्ण हो, इतनी परिपूर्ण कि कौन जाने यह मित्र दुबारा मिलेंगे कि नहीं।
लेकिन हम ऐसे ढीले-ढाले जीते हैं कि वहां हमारे जीवन में क्षणों की तीव्रता का कोई बोध ही नहीं है, कोई स्पष्टता ही नहीं है। हम ऐसे जीते हैं, जैसे हमेशा जीने को हैं। हम ऐसे जीते है, जैसे सुस्ती से और आहिस्ता से, जैसे जीवन एक लेजिनेस है, एक आलस्य है, एक प्रमाद है।
जीवन एक तीव्रता है। और जो जितनी तीव्रता से जीता है, वह जीवन के मंदिर में उतना ही गहरा प्रविष्ट हो जाता है।
लेकिन तीव्रता तो सिखाई नहीं जाती। न हम रोते हैं कभी तीव्रता से कि हमारे सारे प्राण आंसू बन जाएं। तब वे आंसू भी अदभुत हो जाते हैं, जो पूरे प्राणों से आते हैं। तब उन आंसुओं का मोल बहुत ज्यादा है। तब वे किन्हीं भी हीरे-जवाहरातों, किन्हीं भी मोतियों से ज्यादा बहुमूल्य हैं। वे आंसू जो पूरे प्राणों की झलक लेकर आते हैं, एक बार भी वैसा आदमी जब रो लेता है, तो रोने के द्वार से ही वह जीवन से संबंधित हो जाता है। या कि जब हम मुस्कुराएं तो वह हमारे पूरे प्राणों की मुस्कुराहट हो। तो वह मुस्कुराहट भी हमें उसी तीव्रता में ले जाती है। जीवन का प्रत्येक अनुभव तीव्रता बने, इंटेंसिटी ले।
लेकिन क्या हमारे जीवन में ऐसी तीव्रता है?
नहीं है तो फिर जीवन एक बंधन मालूम होगा। और वह जीवन का कसूर नहीं है। वह आपके शिथिल, अतीव्र, ढीले-ढाले, सुस्त और प्रमादी जीवन का लक्षण है। वह आप जीना नहीं सीखे, इस बात का सबूत है।
जीना मेरी दृष्टि में, या कभी भी जब जीवन को आप जानेंगे तो आपकी दृष्टि में भी प्रतिपल एक दांव है, एक जुआ है, उस पर सब-कुछ लगा देना है। जो सब-कुछ लगा देता है, वही सब-कुछ को जान भी पाता है। हम कुछ लगाते ही नहीं। हमारा सब झूठा, सब शाब्दिक है। न हमने कभी श्रद्धा की है पूरे प्राणों से, न कभी प्रेम किया है, न कभी हंसे हैं, न कभी रोए हैं।
एक स्मरण मुझे आता है, विजयनगर के राज्य में एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ हुआ। उसकी सत्तरवीं वर्षगांठ राजधानी में मनाई जाती थी, राज-दरबार में मनाई जाती थी। दूर-दूर से उसे प्रेम करने वाले और उसे श्रद्धा करने वाले लोग इकट्ठे हुए थे। वे अनेक-अनेक भेंट लाए थे बहुमूल्य से बहुमूल्य। राजा आए थे, धनपति आए थे, बड़े कुशल संगीतज्ञ आए थे। सब भेंट लाए थे। राजमहल में दरबार भेंटों से भर गया था।
और तभी द्वार पर एक भिखमंगे ने आकर खबर की कि मैं भी कुछ भेंट लाया हूं। मुझे भी भीतर प्रवेश मिल जाए। लेकिन कपड़े उसके फटे थे, दीन-दरिद्र था। द्वारपाल लौटाने लगे। वह रोने लगा और उसने कहा: क्या करते हैं, मैं भी कुछ भेंट लाया हूं, मुझे भीतर तो जाने दें।
लेकिन भिखमंगे को कौन भीतर आने दे? लेकिन उसकी आवाज, उसका रोना, उसका चिल्लाना भीतर तक पहुंच गया। संगीतज्ञ को खबर मिली। उसने कहा कि जरूर आ जाने दें...जो भी वह लाया है--भिखमंगा ही सही। भेंट तो प्रेम की होती है। जरूर कुछ लाया होगा।
वह भिखमंगा ज्यादा उम्र का नहीं था, मुश्किल से चालीस वर्ष उसकी उम्र थी। वह द्वार पर आया, हजारों लोग राज-दरबार में थे। वह भीतर लाया गया। वह संगीतज्ञ के चरणों में झुका और उसने कहा कि हे परमात्मा! मेरी शेष उम्र संगीतज्ञ को दे दो! और उसी क्षण उसके प्राण निकल गए! उसी क्षण उसके प्राण निकल गए!
यह ऐतिहासिक घटना है, कोई कहानी नहीं। वे हजारों लोग खड़े रह गए दंग। ऐसी भेंट न तो कभी देखी गई थी, न सुनी गई थी। लेकिन पूर्णता के क्षणों में ही...पूर्णता के क्षणों में ही ऐसी संभावना घटित हो सकती है। पूरे प्राण फिर जो भी चाहते हैं, वह अगर घटित हो जाए तो कोई मिरेकल नहीं, कोई चमत्कार नहीं। पूरे प्राणों से उठी प्रार्थना उठने के पहले पूरी हो जाती है, और पूरे प्राणों से उठी आकांक्षा शब्द बनने के पहले सत्य हो जाती है, और पूरे प्राणों से चाहे गए स्वप्न रूप लेने के पहले यथार्थ हो जाते हैं।
लेकिन पूरे प्राणों से न हमने कभी कुछ चाहा है, न पूरे प्राणों से हमने जीने की कला सीखी है। इसलिए जीवन एक बंधन मालूम होता है। पूरे प्राणों से जो जीता है, वह निरंतर स्वतंत्रता में जीता है, वह हमेशा फ्रीडम में जीता है। उसके लिए कोई मोक्ष कहीं नहीं। प्रतिपल वह मोक्ष में जीता है। इसलिए कोई मोक्ष स्वर्ग में नहीं है, कोई मोक्ष आकाश में नहीं है। वह है जीवन की परिपूर्णता से जीने की कला में।
रवींद्रनाथ मरने को थे। एक मित्र ने कहा कि रवींद्रनाथ अब अंतिम क्षण आ गए, जीवन की संध्या आ गई। अब तुम प्रार्थना करो प्रभु से कि जीवन-मरण से छुटकारा दिला दे, आवागमन से मुक्त कर दे।
रवींद्रनाथ ने आंखें खोल लीं, जो बंद थीं। और वे हंसने लगे। और उन्होंने कहा, रवींद्रनाथ ने कहा अपने मित्र को कि परमात्मा ने जो जीवन मुझे दिया था, वह इतना धन्य हुआ, मैं उसे पाकर इतना कृतार्थ हुआ कि मैं किस मुंह से कहूं कि मुझे जीवन से छुटकारा दिला दो? एक ही प्रार्थना अंतिम क्षण में मेरे हृदय में होगी कि अगर मुझमें जरा भी पात्रता हो तो हे प्रभु, मुझे बार-बार अपनी दुनिया में वापस भेज देना। अगर जरा सी भी पात्रता हो मुझमें तो मुझे बार-बार अपनी दुनिया में भेज देना। तेरी दुनिया बहुत सुंदर थी। और अगर कहीं कोई कुरूपता मुझे दिखी होगी तो वह मेरे देखने का दोष रहा होगा, वह मेरी भूल रही होगी। और तेरी दुनिया में बहुत फूल थे और अगर कांटे गड़ गए होंगे तो मेरी कोई गलती रही होगी। अगली बार आऊं तो और समर्थ होकर आऊं, ताकि तेरे जीवन के आनंद को और भी अनुभव कर सकूं।
गांधी ने जीवन के अंतिम दिनों में एक अदभुत प्रयोग किया था। शायद आपके खयाल में न हो, क्योंकि गांधी के शिष्यों ने उसे छिपाने की पूरी कोशिश की। उस प्रयोग की चर्चा पूरे मुल्क में नहीं हो सकी। गांधी ने जीवन के अंतिम दिनों में एक छोटा सा प्रयोग किया था। शायद उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग। वे एक नग्न युवती को लेकर रात सोने लगे थे, ताकि वे यह पूरा का पूरा अनुभव कर सकें कि उनके मन में कहीं अब भी कोई वासना की रूप-रेखा है, कहीं कोई अब भी शरीर का आकर्षण शेष तो नहीं रह गया है। प्राण जब पूरे के पूरे प्रभु की तरफ बहने लगे हों तो शरीर की तरफ बहने को मन में कोई भाव शेष नहीं रह जाता है। इसका परीक्षण कर लें, पहचान कर लें, खोज-बीन कर लें।
लेकिन इसके पहले कि प्रयोग करें, उन्होंने अपने कोई बीस निकटतम मित्रों को पत्र लिखे और उनसे पूछा कि मैं यह प्रयोग करने को हूं। इसके पहले कि मैं प्रयोग करूं, तुमसे पूछ लेना चाहता हूं कि तुम राजी हो, सहमत हो, तुम्हारा कोई एतराज, तुम्हारा कोई, तुम्हारा कोई विरोध तो नहीं। बीस जो पत्र लिखे थे, उन्नीस पत्रों का जो उत्तर आया, उसकी इबारत करीब-करीब ऐसी थी कि आप तो बहुत बड़े महात्मा हैं, आप जो भी करते हैं, ठीक करते हैं, लेकिन इस प्रयोग को न करें तो बड़ी कृपा होगी। इससे बड़ी बदनामी हो जाएगी। इससे यह होगा, इससे वह होगा। सभी का रूप यही था कि आप तो बहुत बड़े महात्मा हैं, लेकिन...वह ‘लेकिन’ सबके पीछे आ जाता था।
गांधी पढ़ते और पत्र को एक तरफ रख देते और कहते, जहां ‘लेकिन’ आ गया, वहां पहले कही गई सारी बात झूठी हो गई, मिथ्या हो गई। आप बड़े महात्मा हैं, लेकिन...अब ‘लेकिन’ की क्या जरूरत है बड़े महात्मा के साथ? अच्छा होता कि कहते कि आप छोटे आदमी हैं इसलिए, वह कम से कम सच होता, ईमानदारी का होता, ऑथेंटिक होता, प्रामाणिक होता।
लेकिन बीस पत्रों में एक पत्र जरूर था। जिसे गांधी हाथ में उठा कर खुशी के आंसुओं से भर गए। वह जे. बी. कृपलानी ने उस पत्र के उत्तर में लिखा था, उस उत्तर में कि आप मुझसे पूछते हैं, तो मैं हैरान हो गया। अगर मैं अपनी आंखों से आपको व्यभिचार करते भी देख लूं तो पहला शक मुझे अपनी आंख पर होगा, आप पर नहीं। पहला शक मुझे अपनी आंखों पर होगा, आप पर नहीं! और आप मुझसे पूछते हैं तो मैं हैरान हो गया हूं। मैं आपसे पूछता तो ठीक था।
ऐसे लोग, जीवन को इस भांति देखने वाले लोग...। लेकिन हम अपनी आंख पर शक नहीं करते, हम पूरे परमात्मा पर ही शक कर लेते हैं। हम कहते हैं, यह जीवन ही बंधन है। हम कहते हैं, यह जीवन ही असार है। हम कहते हैं, यह जीवन ही बुरा है। और एक बार भी खयाल नहीं आता कि कहीं मेरी आंख ही तो कुछ गलत नहीं देखती, कहीं मेरी आंख ही तो बुरी नहीं है।
धार्मिक व्यक्ति मैं उसको कहता हूं, जिसे अपनी आंख पर शक आता है, अपने चित्त पर शक आता है, अपने होने के ढंग पर शक आता है, अपने पर संदेह आता है, लेकिन इस विराट जीवन पर नहीं। वह आदमी धार्मिक है। वह आदमी रिलीजस है। और वह आदमी जीवन की कला सीख सकता है। क्योंकि जिसे स्वयं पर संदेह आता है, वह स्वयं को बदलने का कोई उपाय कर सकता है।
और अगर जीवन पर संदेह आता है, तब तो एक ही उपाय है कि पीठ करो जीवन की ओर--और भागो, पलायन करो, छोड़ो, निषेध करो, त्याग करो। धीरे-धीरे ग्रेजुअली मरने का उपाय करो, जीवन से हटो और मृत्यु की तरफ जाओ।
जीवन की कला की इसलिए पहली स्मरणीय बात यह है कि मैं कहीं गलत हूं, अगर जीवन मुझे बंधन मालूम होता है, दुख मालूम होता है, पीड़ा मालूम होती है। मैं कहां गलत हूं? तो मेरे गलत होने की सबसे पहली भूमि है कि मैं औपचारिक हूं, मैं फार्मल हूं; ऑथेंटिक नहीं, प्रामाणिक नहीं। मेरा होना एक झूठ है। मेरे शब्द झूठ हैं, मेरे इशारे झूठ हैं, मेरी आंखें झूठ कहती हैं, मेरा सब-कुछ झूठ है। इस पर चिंतन, इस पर ध्यान बहुत जरूरी है कि मैंने कहीं कोई झूठा व्यक्तित्व, कोई फॉल्स पर्सनैलिटी तो खड़ी नहीं कर ली है?
हम सबने खड़ी कर ली है। बचपन से ही जहर के बीज बोए जाते हैं कि व्यक्तित्व झूठा हो जाता है। लेकिन जब होश आ जाए, तभी व्यक्तित्व को सत्य बनाने की दिशा में कुछ किया जा सकता है। तो मैं आपसे यह कहूंगा कि एक-एक पल को प्रामाणिक रूप से जीने की हिम्मत और साहस और कोशिश--स्मरणपूर्वक, माइंडफुली--एक-एक क्षण को पूरी तीव्रता से जीने का प्रयास साधना का अनिवार्य अंग है। तो अब जब रोएं तो परिपूर्णता से, पूरे प्राणों से। हंसें तो पूरे प्राणों से। मैत्री तो पूरे प्राणों से। भोजन भी तो पूरे प्राणों से। स्मरण भी तो पूरे प्राणों से; सोएं भी, उठें भी तो पूरे प्राणों से।
जैसे प्रतिपल जो आ रहा है, वह दुबारा नहीं आएगा। वह एक ही बार अनुभव से गुजरना है। उस रास्ते से दुबारा गुजरने की कोई संभावना नहीं है। वह पल फिर न आएगा, वह अवसर फिर न आएगा। तो जिसे एक बार गुजरना है, मैं पूरे होश से, पूरा जागा हुआ, पूरे प्राणों से गुजर जाऊं। मेरा टोटल व्यक्तित्व, मेरा समग्र व्यक्तित्व समाहित हो जाए, संलग्न हो जाए, एकतान हो जाए। तो धीरे-धीरे आपको दिखाई पड़ना शुरू होगा कि जीवन के बंधन गिरने लगे। बंधन आपके शिथिल जीने में थे। तीव्रता से जीते ही तत्क्षण गिर जाते हैं।
लेकिन प्रयोग करना पड़े। साधना करनी पड़े। उस दिशा में कुछ कदम उठाने पड़ें, उस दिशा में कुछ स्मरणपूर्वक रोज-रोज, प्रतिपल होश रखना पड़े कि मैं कहीं झूठा जीना तो शुरू नहीं कर रहा हूं।
पति है, वह अपनी पत्नी से रोज कहे जाता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। और जब कहता है, तब उसे पता भी नहीं है कि वह क्या कर रहा है। शब्द ऐसे कह रहा है, जैसे किसी ग्रामोफोन रिकॉर्ड से निकलते हों, जिनमें न कोई प्राण है, न कोई अर्थ है। पत्नी भी जानती है। वह भी जानता है। पत्नी भी कहे जा रही है कि हम तुम्हें प्रेम करते हैं। हम जान लगा देंगे। तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं जी सकते।
और इन शब्दों के पीछे प्राणों की कोई गवाही नहीं है। ये शब्द झूठे हैं। मत कहें। चुप बैठे रहें, वह बेहतर है। लेकिन मत कहें इनको। इनको कह कर आप सारे व्यक्तित्व को जाल में कस रहे हैं अपने हाथ से।
जिनके प्रति हमें कोई श्रद्धा नहीं, वहां हम सिर झुकाए चले जा रहे हैं। जिन मंदिरों में हमें पत्थर दिखाई पड़ते हैं, वहां हम पूजा किए चले जा रहे हैं। जिन शास्त्रों में हमें किसी सत्य का कोई दर्शन नहीं हुआ, उन्हें हम सिर पर लिए बैठे हैं। सारा व्यक्तित्व झूठा है।
तो इस झूठे व्यक्तित्व से जीवन के सत्य की तरफ कैसे कोई मार्ग बने, कैसे कोई द्वार खुले, कैसे कोई कदम उठे? जिस मंदिर में आप हाथ जोड़ कर गए हैं, सच में हाथ आपके जुड़े थे? उस मंदिर में किसी प्रभु का कभी कोई अनुभव हुआ था? फिर क्यों गए उस मंदिर में? फिर किसने कहा था कि उन मूर्तियों के सामने खड़े हो जाएं?
एक फकीर एक रात जापान के एक मंदिर में ठहरा हुआ है। सर्द रात है, बहुत ठंडी रात है। फकीर के पास कपड़े भी नहीं। मंदिर के पुजार
ी ने दया करके उसे भीतर ठहरा लिया। आधी रात पुजारी की नींद खुली तो घबड़ा कर देखा कि मंदिर के बीच आंगन में आग जल रही है, फकीर आंच ताप रहा है। वह भागा हुआ गया कि यह क्या कर रहे हो? वहां जाकर तो पागल हो गया!
भगवान बुद्ध की तीन मूर्तियां थीं लकड़ियों की। उनमें से एक वह जला कर आंच ताप रहा था। उस पुरोहित ने कहा कि पागल, यह क्या कर रहा है? भगवान की मूर्ति जला रहा है? भगवान को जला रहा है?
वह फकीर पास में पड़ा हुआ एक लकड़ी का टुकड़ा उठा कर जल गई मूर्ति की राख में घुमाने लगा, कुरेदने लगा।
उस पुरोहित ने पूछा: आप क्या कर रहे हैं यह?
उसने कहा: मैं भगवान की अस्थियां खोज रहा हूं।
उस पुजारी ने सिर से हाथ ठोक लिया। उसने कहा: मैं पागल को ठहरा कर दिक्कत में पड़ गया। अब लकड़ी की मूर्ति में कहीं अस्थियां होती हैं?
तो वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा: जब लकड़ी की मूर्ति में अस्थियां ही नहीं होतीं तो भगवान कैसे हो सकते होंगे? तुम जाओ, अभी रात बहुत बाकी है, दो मूर्तियां और रखी हैं, वे भी उठा लाओ। तुम भी तापो, मैं भी तापता हूं।
रात ही उस फकीर को मंदिर के बाहर निकाल दिया गया, उस सर्द रात में। क्योंकि लकड़ी की मूर्ति में भगवान दिखाई पड़ते थे और इस जीते-जागते भगवान को सर्दी लगेगी बाहर, इसकी फिकर नहीं की गई। उसे बाहर निकाल दिया गया।
सुबह जब पुजारी उठा, मंदिर के बाहर गया तो देखा कि सड़क के किनारे जो मील का पत्थर लगा है, उसके पास बैठ कर वह फकीर हाथ जोड़े हुए ध्यान कर रहा है। उसे फिर उतनी ही हैरानी हुई, जैसी रात हो गई थी। उसके पास जाकर उसे हिलाया और कहा: पागल, यह क्या कर रहा है? पत्थर को हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहा है?
उस फकीर ने कहा: मुझे सभी जगह भगवान ही दिखाई पड़ते हैं--सभी जगह! रात मैंने इसीलिए मूर्ति जलाई थी कि मैं देखना चाहता था कि तुम्हें भगवान कितने गहरे दिखाई पड़ते हैं। अस्थियों के लिए तुम भी राजी न हो सके। तुम्हारे ही तर्क से पता चला कि भगवान तुम्हें बिलकुल दिखाई नहीं पड़ते थे। वह मूर्ति झूठी थी तुम्हारे लिए। वे जुड़े हुए हाथ झूठे थे। वह की गई पूजा झूठी थी।
रामकृष्ण को दक्षिणेश्र्वर में पुजारी की जगह मिली थी। बीस रुपये महीने की नौकरी थी। लेकिन दो-चार-आठ दिन में ही मुश्किल शुरू हो गई। जो कमेटी थी मंदिर की, वह परेशान हो गई। कमेटी जुड़ी और उसने कहा कि यह आदमी तो गड़बड़ मालूम होता है।
ठीक आदमी हमेशा गड़बड़ मालूम होते हैं। बड़ी शिकायतें आ गई हैं, चार ही दिन में--पूजा बड़ी गड़बड़ चल रही है।
क्या-क्या शिकायतें थीं?
शिकायतें बड़ी साफ थीं और ठीक थीं। खबर आई थी कि रामकृष्ण फूलों को सूंघ कर मूर्ति को चढ़ाते हैं। खबर आई थी कि प्रसाद को पहले चख लेते हैं, फिर भगवान को लगाते हैं। तो कहा, यह सब क्या गड़बड़ हो रहा है? यह कोई पूजा है?
रामकृष्ण को बुलाया--कि सुना गया है कि तुम फूल पहले सूंघ लेते हो फिर मूर्ति को चढ़ाते हो?
रामकृष्ण ने कहा कि मैं वैसे चढ़ा ही नहीं सकता। पता नहीं, फूल में सुगंध हो या न हो।
कहा कि, सुना है कि तुम पहले भोजन चख लेते हो फिर तुम भगवान को लगाते हो?
उन्होंने कहा: मेरी मां भी ऐसा ही करती थी। पहले चख लेती थी, फिर मुझे देती थी। मैं बिना चखे नहीं दे सकता। पता नहीं, भोजन देने लायक बना भी हो या न बना हो।
यह ऑथेंटिक, यह एक प्रामाणिक पूजा हो गई। लेकिन हमारी सारी पूजा झूठी और बकवास और धोखा है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता वहां। हाथ जोड़े खड़े हैं अंधेरे में। शब्द झूठे हैं। प्रार्थना झूठी है। प्रेम झूठा है। और फिर पूछते हैं कि जीवन बंधन है? बंधन जीवन नहीं, मिथ्या व्यक्तित्व बंधन है। वह जो फॉल्स पर्सनैलिटी है, वह जो हमने सब झूठ कर रखा है, वह बंधन है। तोड़ें--औपचारिकता को तोड़ें, छोड़ें।
प्रामाणिकता को, जीवंत अनुभव को तीव्रता से जीएं। उसकी सच्चाई में जीना शुरू करें, फिर आप पाएंगे कि छोटे-छोटे काम पूजा हो गए। उठना-बैठना पूजा हो गई। फिर आप पाएंगे, किसी का हाथ हाथ में लेना पूजा हो गई। फिर आप पाएंगे, किसी की आंख में एक क्षण प्रेम से झांक लेना प्रार्थना हो गई। फिर आपको दिखाई पड़ेगा, वह तो सब तरफ मौजूद होने लगा। उसका मंदिर तो सब तरफ उठने लगा। फिर तो कण-कण में, पत्ते-पत्ते में, फूल-फूल में उसकी झलक आने लगी। फिर तो सब उसी के शब्द हो जाते हैं।
लेकिन जो प्रामाणिक रूप से जीता है, वह प्रामाणिक रूप से जीवन के सत्य से संबंधित हो जाता है।
हम अप्रामाणिक रूप से जीते हैं, इसलिए जीवन से संबंध नहीं होता है।
अभी तो इतना ही। फिर और कुछ दो-चार प्रश्र्न इस संबंध में होंगे, तो कल उनकी बात करेंगे।
एक छोटी बात और, फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
ध्यान के संबंध में भी, इसी संदर्भ में, यह समझ लेना जरूरी है कि वह प्रामाणिक है या अप्रामाणिक। वह हम अपने पूरे प्राणों से बैठ रहे हैं या बस बैठ गए हैं, क्योंकि और सब लोग बैठ गए हैं। अगर इसी भांति आप बैठ गए हैं--चूंकि और सब लोग बैठे हैं, इसलिए हम भी बैठे हैं। चूंकि शिविर में आए हैं, इसलिए बैठे हैं। चूंकि अब आ ही गए हैं, इसलिए बैठ ही जाना चाहिए। अगर इस तरह बैठ रहे हैं तो उस ध्यान में कहीं कोई गति नहीं होगी।
लेकिन पूरे प्राणों से, पूरा दांव लगा कर--कौन जानता है कि ध्यान के बाद आप उठ पाएं या न उठ पाएं। कौन जानता है, यह क्षण अंतिम हो। और कहीं यह क्षण हाथ से खो जाए तो हमेशा के लिए खो जाए। कौन कह सकता है? तो इस भांति कि जैसे हो सकता है, यह अंतिम क्षण हो।
एक...एक युवा संन्यासी अपने गुरु के पास पहुंचा था। उस गुरु के उस आश्रम का नियम था कि जब भी कोई व्यक्ति आए तो पहले तीन परिक्रमा करे गुरु की, फिर सात बार पैर छुए, फिर बैठ कर जिज्ञासा करे। वह युवा पहुंचा। उसने जाकर कंधे पकड़ लिए सीधे और कहा कि मैं कुछ पूछने आया हूं!
उस गुरु ने कहा: कैसे बदतमीज हो! कैसे अशिष्ट हो! तुम्हें पता भी नहीं कि पहले तीन परिक्रमा, सात बार चरण-स्पर्श--फिर बैठो, फिर पूछो। ऐसे उत्तर नहीं दिए जाते।
उस युवक ने कहा कि तीन बार नहीं, मैं तीन सौ परिक्रमाएं करूंगा और सात बार नहीं, सात सौ बार पैर छुऊंगा, लेकिन क्या आप विश्र्वास दिलाते हैं कि मैं तीन चक्कर लगाऊं उसके बाद भी जिंदा बचूंगा? आप विश्र्वास दिलाते हैं, आप जिम्मा लेते हैं मेरे बचने का? मेरा उत्तर पहले है, मेरा प्रश्र्न पहले है। मुझे पहले उत्तर मिल जाए, फिर फुर्सत से आपके चक्कर लगाऊं, पैर छूऊं।
उस गुरु ने अपने और शिष्यों से कहा: यह पहली दफा एक ऑथेंटिक, पहली दफा एक प्रामाणिक प्रश्र्न पूछने वाला आदमी आ गया है। अब इसे उत्तर देने की भी जरूरत नहीं है। इसका प्रश्र्न ही काफी है। उत्तर तक पहुंचा देगा।
तो ध्यान इतनी संपूर्णता से, समग्रता से हो, तो इसी क्षण हो सकता है--अभी और यहीं! इसी क्षण हो सकता है, अगर पूरे प्राण इकट्ठे हो जाएं।
स्वामी रामतीर्थ पढ़ते थे, गणित के विद्यार्थी थे। और हमेशा की एक आदत थी--परीक्षा में अगर बारह प्रश्र्न आते और लिखा होता कि कोई भी सात हल करें तो वे बारह ही हल करते और लिखते कि कोई भी सात जांच लें। वैसी आदत थी। हमेशा की आदत थी। जितने प्रश्र्न परीक्षक पूछता, सारे हल कर देते और ऊपर जैसा नोट परीक्षक देता है कि दस दिए हैं प्रश्र्न, कोई पांच हल करें; वैसा ऊपर नोट लिखते कि दस कर दिए हैं प्रश्र्न, कोई भी पांच जांच लें। उतना विश्र्वास भी था कि वे सभी सही हैं।
एम. ए. की गणित की अंतिम परीक्षा दे रहे थे और सांझ सात बजे से एक प्रश्र्न हल करना शुरू किया। रात के तीन बजे गए और प्रश्र्न का कोई उत्तर नहीं मिल रहा है। साथ जो कमरे में उनका दूसरा सहपाठी है, वह कहने लगा, तुम पागल हो गए हो। सुबह करीब आई जाती है और एक प्रश्र्न पर सारी रात खराब कर रहे हो! कौन कहता है कि यह प्रश्र्न आएगा भी। दूसरों की फिकर भी कर लो।
रामतीर्थ ने कहा: और अगर यह आ गया तो क्या आज पहली दफा अंतिम परीक्षा में मुझे सारे प्रश्र्न हल नहीं करने पड़ेंगे? पांच ही करके आ जाऊंगा? नहीं-नहीं, यह मुझे हल करना ही है। फिर परीक्षा का सवाल नहीं है। जो प्रश्र्न हल नहीं हो रहा है, उसने मेरे पूरे प्राणों को चुनौती दे दी है। उसे तो हल करना ही पड़ेगा।
साढ़े तीन बज गए, चार बज गए, अब तो दो ही घंटे बचे हैं सुबह के। पूरी रात खो गई। वह प्रश्र्न हल नहीं होता। वह मित्र घबड़ा गया है--साथी, और कह रहा है, क्या पागलपन कर रहे हो?
तभी रामतीर्थ उठे हैं और जाकर उन्होंने अपनी पेटी से एक छुरा निकाल लाए। छुरे को टेबल पर रख लिया। घड़ी में पंद्रह मिनट बाद का अलार्म भर दिया और अपने मित्र से कहा कि भाई नमस्कार! अगर पंद्रह मिनट में यह सवाल हल नहीं हो गया, तो छुरा छाती के भीतर हो जाएगा।
मित्र ने कहा: क्या बिलकुल ही पागल हुए जा रहे हो! इस सवाल से ऐसा क्या लेना-देना है?
लेकिन रामतीर्थ सुनने के बाहर हो गए थे। पंद्रह मिनट का अलार्म भर दिया था। घड़ी टिक-टिक आगे बढ़ने लगी है। छुरा सामने गपा हुआ है नंगा और वे सवाल हल करने लग गए। सर्द रात है। ठंडी हवाएं हैं। माथे से तीन मिनट के भीतर पसीना चूने लगा। सारे शरीर से पसीने की धाराएं बहने लगीं। पांच मिनट पूरे नहीं हो पाए हैं कि सवाल हल हो गया है! जो छह-सात घंटे से परेशान किए हुआ था, वह सवाल पांच मिनट के भीतर हल हो गया! माथा पोंछा उन्होंने और अपने मित्र से कहा कि सवाल हल हो गया है।
उसके मित्र ने कहा: यह तो तरकीब बड़ी अच्छी है। अगली बार जब कभी ऐसी दिक्कत मुझे हुई, मैं भी छुरा रख लूंगा, मैं भी अलार्म भर दूंगा। और किसको छुरा मारना है? अलार्म बज भी जाएगा और नहीं भी हुआ तो हर्ज भी क्या है?
तो रामतीर्थ ने कहा: तू समझता है यह कोई तरकीब हुई। यह तरकीब न थी। किसी को धोखा नहीं दिया जा रहा था। यह तो निश्चय था कि पंद्रह मिनट पूरे होते और छुरा छाती के भीतर हो जाता।
जब ऐसी समग्रता से कोई व्यक्ति किसी प्रश्र्न के सामने खड़ा हो जाए तो प्रश्र्न की कोई हस्ती है? कोई हैसियत है? कोई ताकत है? जब इतने प्राणों को पूरा का पूरा कोई दांव पर लगा दे तो किस चीज की ताकत है? कौन सा प्रश्र्न है, जो रुकेगा? कौन सी समस्या है, जो रुकेगी? कौन सी उलझन है, जो रुकेगी? कौन सी अशांति है, जो रुकेगी? जीवन की कौन सी बाधा है, जो रुक सकती है?
समग्रता से जीवन को दांव पर लगाने वाले लोगों के सामने न कभी कुछ आया है, न कभी आ सकता है। सब हट जाता है। सब द्वार खुल जाते हैं। सब ताले टूट जाते हैं। लेकिन हम कभी समग्रता से जीने की कोई, कोई दृष्टि ही हमारे पास नहीं है।
ध्यान भी केवल उनके लिए कुंजी हो सकती है, जो ध्यान को पूरी प्रामाणिकता से, समग्रता से एक दांव बना लेते हैं। सब-कुछ लगा देते हैं--पूरी शक्ति--सब, सारी ऊर्जा!
तो यह बात और मुझे आपसे कहनी है कि ध्यान तो जीवन के समस्त खजानों की कुंजी है। लेकिन वह कुंजी उन्हीं को उपलब्ध होती है, जो उसे पाने के लिए पूरी प्यास को प्रकट करते हैं, पूरी प्रार्थना को, पूरे प्राणों को सामने ले आते हैं। आज ही हो सकता है। इसी वक्त हो सकता है। करने की भी जरूरत नहीं। मेरे कहते-कहते भी हो सकता है।
अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
(यहां लेटना तो संभव नहीं होगा...तिरछा-इरछा रहेगा...हो जाएगा...ऐसा...)
तो अपनी-अपनी जगह बना लें, क्योंकि लेटना पड़ेगा। चुपचाप, बिलकुल आवाज नहीं। जरा भी बात नहीं। अपनी-अपनी जगह ले लें। और आज पूरे प्राणों से, क्योंकि एक रात आज, एक रात कल, फिर विदा हो जाना है।
जरा भी हंसिए नहीं, जरा भी बात मत करिए, क्योंकि वह सब आपके लिए नुकसान की बात होगी।
जगह ऊंची-नीची है तो ऐसे लेटिए कि सिर आपका ऊंचाई की तरफ रहे। कोई किसी को छूता हुआ न हो। थोड़े हट जाएं, थोड़ी जगह...बाहर आ जाएं...हां, बीच में तकलीफ हो तो थोड़ा बाहर निकल आएं। अपनी-अपनी जगह ले लें चुपचाप कहीं भी, कहीं भी चुपचाप लेट जाएं।
ठीक है! मैं मान लेता हूं, आपने अपनी जगह बना ली है। जल्दी अपनी जगह बना लें। चुपचाप लेट जाएं। यहां-वहां न घूमें। बैठ जाएं, लेट जाएं।
सबसे पहले पूरी प्रामाणिकता से--‘मैं ध्यान में जा रहा हूं’--इस भाव को ठीक से अपने चित्त के केंद्र पर ले लें। पूरी शक्ति से, पूरी प्राणों से, पूरी आत्मा से--‘मैं शून्य में प्रवेश कर रहा हूं।’
यह मेरा एक प्रामाणिक संकल्प है। यह कोई औपचारिक बात नहीं कि मैं ध्यान करने बैठ गया हूं। जैसे इस पर ही मेरी पूरी जिंदगी लगी हुई है। मेरी पूरी जिंदगी और मृत्यु का सवाल है। इस भाव को चित्त के केंद्र पर ले लें। फिर आंख बंद कर लें। सारे शरीर को शिथिल छोड़ दें।
आंख बंद कर लें। सारे शरीर को शिथिल छोड़ दें। इतनी अदभुत रात है कि जरूर कुछ हो सकेगा। इतनी आपकी प्यास है कि जरूर कुछ हो सकेगा। कौन रोक सकता है होने से। शरीर को शिथिल छोड़ दें। आंख बंद कर लें।
अब मैं थोड़े से सुझाव देता हूं, मेरे साथ पूरे प्राणों से अनुभव करें, फिर वैसा ही होता चला जाएगा।
सबसे पहले भाव करें, शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर बिलकुल शिथिल होता जा रहा है...ढीला छोड़ दें, जैसे शरीर है ही नहीं। ढीला छोड़ दें...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो रहा है...शरीर शिथिल हो गया है...।
श्वास भी शांत होती जा रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...श्वास को भी बिलकुल शांत छोड़ दें...श्वास शांत हो रही है...श्वास शांत हो रही है...।
मन भी शांत होता जा रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन भी शांत हो गया है...।
शरीर ढीला छूट गया...श्वास ढीली छूट गई...मन भी ढीला छूट गया...अब चुपचाप भीतर होश से भरे हुए कोई भी आवाज सुनाई पड़ती हो चुपचाप सुनते रहें...बस सुनते रहें और कुछ भी न करें...रात का सन्नाटा सुनाई पड़ेगा, हवाओं की आवाज सुनाई पड़ेगी, दूर सागर से आता गर्जन सुनाई पड़ेगा, सब चुपचाप सुनते रहें...बस होश से भरे हुए सुनते रहें...सुनें...दस मिनट के लिए बिलकुल मौन सुनते रहें...रात की आवाजों को सुनते रहें...।
सुनते रहें...रात के सन्नाटे को सुनते रहें...धीरे-धीरे वैसा ही सन्नाटा भीतर भी आ जाएगा...मन शांत होता जाएगा...मन बिलकुल शांत होता जाएगा...सुनें...रात की आवाजें सुनें...छोटी-छोटी आवाज भी सुनाई पड़ेगी...देखें, हवाओं की आवाज...।
परमात्मा बहुत सी आवाजें कर रहा है, चुपचाप सुनें...सुनते ही सुनते मन शांत होता जाता है...मन शांत होता जाता है...मन शांत होता जाता है...।
मन शांत होता जा रहा है...सुनते रहें...रात की आवाजों को सुनते रहें...मन बिलकुल शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...सुनते रहें...सुनते ही सुनते मन शांत होता जा रहा है...मन शांत होता जा रहा है...।
रात का सन्नाटा सुनते रहें...फिर धीरे हवाएं ही रह जाएंगी, रात की आवाजें रह जाएंगी; आप मिट जाएंगे, आप न हो जाएंगे, आप नहीं हो जाएंगे। जीवन से एक हो जाएं। मन शांत होता जा रहा है...