YOG/DHYAN/SADHANA

Neti Neti Shunya Ki Naon 01

First Discourse from the series of 6 discourses - Neti Neti Shunya Ki Naon by Osho. These discourses were given in NARGOL during MAY 2-5 1968.
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मेरे प्रिय आत्मन्‌!
एक छोटी सी कहानी से इस शिविर की पहली चर्चा मैं शुरू करना चाहता हूं।
बहुत पुराने दिनों की बात है। एक सम्राट अपने जीवन के अंतिम दिनों की गिनती कर रहा था और बहुत चिंतित भी था। मृत्यु से नहीं, वरन अपने तीन लड़कों से, जिनके हाथ में उसे राज्य को सौंपना था। वह यह निर्णय करने में असमर्थ था कि किसके हाथ में राज्य की शक्ति दे दे, क्योंकि शक्ति केवल उन हाथों में ही शुभ होती है, जो शांत हों। और यह निर्णय बहुत कठिन था कि उन तीनों में शांत कौन है? कैसे परीक्षा हो? कैसे जाना जा सके कि कौन व्यक्ति उस राज्य के हित में होगा, कौन अहित में?
कुछ चीजें होती हैं, जो बाहर से नापी जा सकती हैं; लेकिन जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसे नापने के लिए न कोई बाट है, न कोई तराजू है।
कुछ चीजें हैं, जो बाहर से पहचानी जा सकती हैं; लेकिन जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उसे बाहर से पहचानने का भी कोई उपाय नहीं है।
कैसे पहचाना जा सके, कैसे जाना जा सके, क्या रास्ता हो?
उस सम्राट ने एक फकीर से पूछा। उस फकीर ने कोई रास्ता बताया। और दूसरे दिन सुबह उसने तीनों अपने बेटों को बुलाया और उन्हें सौ-सौ रुपये दिए और कहा कि तीन जो महल हैं, उन तीनों के नाम--ये सौ-सौ रुपये मैं देता हूं। सौ रुपये में ऐसी चीजें खरीदना कि पूरा महल भर जाए, कुछ जगह खाली न बचे। जो तीनों में सर्वाधिक सफल हो जाएगा, वही सम्राट बनेगा, वही राज्य का अधिकारी हो जाएगा।
कुल सौ रुपये! और महल उन राजकुमारों के बहुत बड़े थे।
पहले राजकुमार ने सोचा, सौ रुपये से क्या महल भरा जा सकेगा? वह गया जुआघर में और सौ रुपये उसने दांव पर लगाए। हो सकता है जुए में जीत सके तो फिर बहुत रुपयों से उस बड़े महल को भर ले; क्योंकि महल बहुत बड़ा था; सौ रुपये में भरा नहीं जा सकता था।
लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, जो बहुत खोजने जुए में जाते हैं, वह भी खोकर लौट आते हैं, जो उनके पास था। वैसे ही वह युवा भी सौ रुपये खोकर घर वापस लौट आया। उसका महल बिलकुल खाली रह गया।
दूसरे राजकुमार ने सोचा कि सौ रुपये बहुत थोड़े हैं। इतना बड़ा महल हीरे-जवाहरातों से तो भरा नहीं जा सकता। एक ही रास्ता है कि गांव का जो कूड़ा-कचरा बाहर फेंका जाता है, उसे खरीद लिया जाए और महल भर दिया जाए। गांव से जो भी कूड़ा-कचरा बाहर जाता, सब उसने खरीदना शुरू कर दिया और महल में कूड़े-करकट के ढेर लगा दिए। सारा महल भर गया, लेकिन साथ ही दुर्गंध भी भर गई। उस रास्ते से निकलना भी मुश्किल हो गया।
तीसरे राजकुमार ने भी महल भरा। किससे भरा? कैसे भरा? वह थोड़ी देर में स्पष्ट हो सकेगा।
तिथि आ गई निर्णय की। परीक्षा के लिए सम्राट आया। पहले राजकुमार का महल खाली था। उस राजकुमार ने कहा: क्षमा करें, सौ रुपये बहुत कम थे। सोचा मैंने जुआ खेलूं, शायद और जीत जाऊं तो फिर महल को भरूं। मैं हार गया, महल खाली है।
दूसरे राजकुमार के महल के पास जाकर तो घबड़ाहट हो गई। इतनी बदबू थी, सारा महल कूड़े-करकट से, गंदगी से भरा था! उस राजकुमार ने कहा: कोई और रास्ता न था। सिर्फ कचरा ही खरीदा जा सकता था। सौ रुपये में और क्या मिल सकता है?
फिर सम्राट तीसरे राजकुमार के महल के पास गया। देख कर दंग रह गए परीक्षार्थी। जो निर्णायक थे, वे देख कर आश्र्चर्य से भर गए--इतनी सुगंध थी उस महल के पास! फिर वे भीतर गए। रात थी अमावस की। सारे महल में दीये जलाए गए थे! राजा ने पूछा: तूने महल किस चीज से भरा है?
उस राजकुमार ने कहा: प्रकाश से, आलोक से।
कोने-कोने में दीये जले थे! सारा महल प्रकाश से भरा था, और सुगंधियां छिड़की गईं थीं, और महल के द्वार-द्वार, खिड़की-खिड़की पर फूल लटकाए गए थे। वह महल सुगंध से और प्रकाश से भरा था।
तीसरा राजकुमार सम्राट हो गया। वह उस राज्य का अधिकारी हो गया।
हममें से, बहुत ही मुश्किल है, कोई जीवन का सम्राट हो सके। क्योंकि या तो हमने जीवन को दांव पर लगा रखा है। और हर दांव इस आशा में कि कुछ मिलेगा तो फिर हम जी लेंगे। और जैसा कि दांव पर होता है, हम हारते ही चले जाते हैं और जीवन का महल अंततः सूना ही रह जाता है। और या फिर हममें से कुछ ने कूड़े-करकट से महल को भरने की ठान ली है। जीवन में जो भी व्यर्थ है, उसी को खरीद कर हम महल में लिए चले आ रहे हैं। जिसका कोई मूल्य नहीं अंतिम, जिसका कोई अंतिम अर्थ नहीं; उस सब कूड़े-करकट को हम घर में इकट्ठा कर रहे हैं! क्योंकि तर्कना हमारी यही है कि इतना छोटा सा जीवन, इतनी छोटी शक्ति, इससे महल कोई हीरे-जवाहरातों से तो भरा नहीं जा सकता। इतनी थोड़ी शक्ति से महल कूड़े से ही भरा जा सकता है, सो हम कूड़े से भर रहे हैं।
लेकिन हमें पता नहीं कि जिस महल को भरने में हम लगे हैं, उसी महल की दुर्गंध हमें ही उस महल के भीतर रहने नहीं देगी। हमारा जीना ही मुश्किल हो जाएगा। और हमारा जीना मुश्किल हो गया है। इतने अशांत हैं, इतने दुखी हैं, इतने चिंतित! क्यों? यह चिंता और अशांति आकाश से नहीं आती, न चांद-तारों से आती है। यह चिंता और पीड़ा कहीं से भी नहीं आती सिवाय उस महल के, जो हमने ही दुर्गंध, कूड़े-करकट से भर रखा है। सारी अशांति, सारी चिंता, सारी पीड़ा वहीं से पैदा होती है। यह हमारे ही श्रम का फल है, यह हमारी ही चेष्टा है, यह हमारा ही प्रयास है, हमारा ही प्रयत्न है।
लेकिन ये दो तरह के राजकुमार तो हमारे भीतर हैं। वह तीसरा राजकुमार हमारे भीतर नहीं है, जो प्रकाश से और सुगंध से अपने महल को भर सके।
यहां इस निर्जन में इस सागर-तट पर इसीलिए आपको बुला भेजा है कि इन तीन दिनों में कुछ बात आपसे करूं कि महल का दीया जल सके, महल में फूल आ सकें, सुगंध आ सके। और शायद परमात्मा के राज्य के आप भी अधिकारी हो सकें। कौन को पता है, किसे पता है कि आपको भी इसलिए नहीं भेजा गया हो? किसको पता है कि जीवन में एक परीक्षा न हो? किसको पता है कि जीवन की इस परीक्षा में कैसे और कौन उत्तीर्ण होगा?
लेकिन एक बात सुनिश्र्चित है: जीवन के अंत तक जो प्रकाश जला लेता है अपने जीवन के महल में, जो सुगंध भर लेता है स्वयं को, जो संगीत बन जाता है; अगर कहीं भी कोई परमात्मा है, अगर कहीं भी कोई आनंद है, अगर कहीं भी कोई संपदा है, तो निश्र्चित ही वह उसका अधिकारी हो जाता है।
इस कहानी से इसलिए शुरू करना चाहता हूं; ताकि आपका जीवन गृह खाली न रह जाए, कूड़े-करकट से न भर जाए। प्रकाश से भर सके, संगीत से भर सके, सुगंध से भर सके। यह कैसे हो सकता है? आज की रात तो कुछ थोड़े से प्राथमिक सूत्रों पर आपसे मैं बात करूंगा, जिनके आधार पर तीन दिन हम जीने की कोशिश करेंगे।
यह महल कैसे प्रकाश से भरेगा? वह तो आने वाले तीन दिनों में उसकी दिशा में कुछ सूत्र, कुछ वैज्ञानिक चरण, कुछ सीढ़ियां आपको कहूंगा, लेकिन उसके पहले आज तो कुछ प्राथमिक सूत्र ही समझ लेने जरूरी हैं कि ये तीन दिनों के शिविर में हम कैसे जीएंगे, कैसे रहेंगे?
और इतना स्पष्ट समझ लें कि एक आदमी तीन क्षणों के लिए भी ठीक से जीना सीख जाए तो सारा जीवन ठीक हो सकता है, क्योंकि जो व्यक्ति एक क्षण को भी जीने की ठीक दिशा में कदम उठा ले, जो एक क्षण को भी जीवन के आनंद से संबंधित हो जाए, फिर इस जीवन में दुबारा उस आनंद से अलग हो जाना असंभव है। एक बार भी जो आंख खोल ले और देख ले, फिर इस जीवन में आंख का बंद हो जाना, और अंधेरे में भटक जाना संभव नहीं है।
तीन दिन बहुत हैं और तीन दिन आप निकाल कर यहां आ गए हैं, वह भी स्वागत के योग्य है और धन्यवाद के योग्य भी। क्योंकि आज की दुनिया में कोई तीन दिन भी जीवन को प्रकाश से भरने के लिए निकालने को राजी नहीं है!
एक आदमी, एक बहुत बड़ा सौदागर, जो नौका लेकर दूर-दूर के देशों में करोड़ों रुपये कमाने गया था। उसके मित्रों ने उससे कहा कि तुम नौका में घूमते हो। पुराने जमाने की नौका। तूफान होते हैं, खतरे होते हैं, नावें डूब जाती हैं। तुम कम से कम तैरना तो सीख लो।
उस सौदागर ने कहा: तैरना सीखने के लिए मेरे पास समय कहां है?
लोगों ने कहा: ज्यादा समय की जरूरत नहीं है। गांव में एक कुशल तैराक है। वह कहता है, तीन दिन में ही हम तैरना सिखा देंगे।
लेकिन उसने कहा: वह ठीक कहता है; लेकिन तीन दिन मेरे पास कहां? तीन दिन में तो हजारों का कारोबार कर लेता हूं। तीन दिन में तो लाखों यहां से वहां हो जाते हैं। कभी फुर्सत मिलेगी तो जरूर सीख लूंगा।
फिर भी लोगों ने कहा कि बड़ा खतरनाक है, तुम्हारा नाव पर निरंतर जीवन है, किसी भी दिन खतरा हो और तुम तैरना न जानो!
तो उसने कहा: और कोई सस्ती तरकीब हो तो बता दें, इतना समय तो मेरे पास नहीं है।
तो लोगों ने कहा: कम से कम दो पीपे अपने पास रख लो। कभी जरूरत पड़ जाए तो उन्हें पकड़ कर तुम तैर तो सकोगे।
उसने दो पीपे खाली मुंह बंद करवा कर अपने पास रख लिए। उनको हमेशा अपनी नाव में, जहां सोता, वहीं रखता। और किसी को पता भी न था कि एक दिन वह घड़ी आ गई। तूफान उठा और नाव डूबने लगी। तो वह चिल्लाया कि मेरे पीपे कहां हैं?
तो उसके नाविकों ने समझा कि ठीक है, वह अपने पीपे खोज कर आ जाएगा। वह उसके बिस्तर के नीचे ही रखे रहते हैं। तो बाकी नाविक तो कूद गए, वे तैरना जानते थे। वह अपने पीपों के पास गया। लेकिन, दो खाली पीपे भी वहां थे जो उसने रख छोड़े थे तैरने के लिए और दो स्वर्ण-अशर्फियों से भरे पीपे भी थे, जिन्हें वह लेकर आ रहा था। उसका मन डावांडोल होने लगा कि कौन से पीपे लेकर कूदे--सोने से भरे हुए या खाली? फिर आखिर उसने देखा कि नाव तो डूबने लगी है। खाली पीपे लेकर कूदने से क्या होगा? उसने अपने सोने से भरे पीपे लिए और कूद गया!
जो उसका हुआ होगा, वह आप समझ ही सकते हैं। वह तीन दिन तैरने के लिए नहीं निकाल सका था! आप तीन दिन तैरने के लिए निकाल सके हैं, इससे स्वागत आपका करता हूं। और उसे मौका भी मिल गया था कि वह खाली पीपे लेकर कूद जाता, लेकिन वह भरे पीपे लिए कूद गया! क्योंकि जिनकी जीवन भर भरे होने की आदत होती है, वे एक क्षण में खाली होने को राजी नहीं हो सकते।
इधर तीन दिनों में खाली पीपे कैसे उपलब्ध किए जा सकें, वही मुझे आपसे कहना है। और नदी में तैरना हो तो खाली पीपा सहयोगी होता है। और अगर परमात्मा के सागर में और जीवन के सागर में तैरना हो तो स्वयं का खाली पीपा बन जाना जरूरी होता है। वहां जो व्यक्ति जितना खाली और शून्य हो जाता है, वह उतना ही प्रभु के सागर में तैरने में समर्थ हो जाता है।
लेकिन हम सब अपने को भरने की कोशिश में लगे रहते हैं! कोई सोने से भर लेता है, कोई मिट्टी से; कोई कंकड़ों से भर लेता है, कोई हीरे-जवाहरातों से। लेकिन पीपा सोने से भरा है कि मिट्टी से, कि कंकड़ों से, कि हीरे-जवाहरातों से, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। भरा पीपा डुबाता है, चाहे किसी चीज से भरा हो।
उस दिन सोने से भरे पीपों ने उसे बचाया नहीं। कितना उसने मन में नहीं कहा होगा डूबते क्षणों में कि ‘‘अरे पीपे, मैंने तुझे सोने से भरा है, और तू मुझे बचाता नहीं! मैंने कोई मिट्टी तो भरी नहीं है, जो मैं डूब जाऊं; मैंने सोने से भरा है तुझे, फिर भी तू डुबाता है!’’ लेकिन पीपे ने शायद ही सुना हो, क्योंकि भरे पीपे सिर्फ डूबना जानते हैं, तैरना नहीं जानते। फिर वे किससे भरे हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
हम क्या भर लिए हैं अपने भीतर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमने सिर्फ डूबने की तैयारी की है, तैरने की हमारी कोई तैयारी नहीं है।
धर्म तैरने की कला है।
और हम सब जो कुछ सीखे हैं, वह सब डूबने की तैयारी है। कैसे हम अपने को खाली करेंगे, कैसे हम तैरने में समर्थ हो जाएंगे, कैसे हम जीवन की नाव को अज्ञात के सागर में उस तट तक पहुंचा सकते हैं--जिस तट का नाम परमात्मा है, जिस तट का नाम प्रभु है, जिसका नाम सत्य है? कैसे?
प्राथमिक सूत्र स्मरण कर लेने जरूरी हैं।
पहली बात, मुझसे लोग पूछते हैं कि साधना शिविर यानी क्या? कल ही कोई मुझसे रास्ते में पूछ रहा था कि साधना शिविर क्या है और सत्संग क्या है? तो मैंने उन्हें कहा: सत्संग उनके लिए है, जो श्रावक हैं, जो सुनने को उत्सुक हैं। और साधना शिविर उनके लिए है, जो साधक हैं, जो सिर्फ सुनने को नहीं, कुछ करने को आतुर हैं। जो लोग सिर्फ सुनने आ गए हों, वह गलत जगह आ गए हैं। सुनने के लिए तो मैं खुद ही आपके नगरों में आ जाता हूं कि आप सुन सकें, लेकिन कुछ करना हो, इसलिए यहां इस दूरी पर आपको बुला भेजा है, इस अकेलेपन में, ताकि कुछ किया जा सके।
इन तीन दिनों में सुनने की बहुत चिंता मत करना। इन तीन दिनों में कुछ करने का खयाल स्पष्ट होना चाहिए। हम चाहे कितनी ही अच्छी बातें सुन लें, चाहे कितनी ही अच्छी बातें जान लें, उनके जानने और सुन लेने से जीवन में कोई क्रांति और कोई परिवर्तन नहीं हो जाता है, बल्कि इस लिहाज से व्यर्थ की बातें जानना उपयोगी भी है, क्योंकि व्यर्थ की बात जान कर कोई भी यह नहीं सोचता कि मुझे कुछ मिल गया है, लेकिन सार्थक बातें जान कर एक भ्रम पैदा होता है कि शायद हमें कुछ उपलब्ध हो गया, हमें कुछ मिल गया है। अकेले सुनने से कुछ भी मिलने को नहीं है, यह साधक को सबसे प्रथम जान लेना चाहिए। उसे कुछ करना पड़ेगा, उसे कुछ होना पड़ेगा, उसे अपनी जीवन-विधि में कोई परिवर्तन, अपने जीने के ढंग में कोई भेद, अपने होने की व्यवस्था में कोई क्रांति उसे करनी पड़ेगी तो कुछ हो सकता है, अन्यथा कुछ भी नहीं हो सकता।
मात्र सुनने वाले होने से कुछ भी अर्थ नहीं है। सुनना भी एक मनोरंजन है। कोई संगीत सुन कर आनंद अनुभव करता हैं, कोई जीवन के सत्य की बातें सुन कर आनंद अनुभव करता है, लेकिन वह मनोरंजन से ज्यादा नहीं, थोड़ी देर के लिए भुलावा है। हमें कुछ करना पड़े तो हमारा जीवन बदल सकता है।
मैं जो कहूंगा इन तीन दिनों में, वह इसी दृष्टि से कि वह आपके भीतर कोई क्रियात्मक रूपांतरण बने, कोई एक्टिव ट्रांसफार्मेशन बने, आपके भीतर कुछ बदल ले आए। लेकिन वह बदल मैं नहीं ला सकता हूं, वह बदल आपका सहयोग मिले तो निश्र्चित आ सकती है।
पहली बात, साधना शिविर एक क्रियात्मक जीवन-क्रांति के लिए सक्रिय रूप से, रचनात्मक रूप से, सृजनात्मक रूप से स्वयं को बदलने के लिए एक अवसर है। मात्र सुनने के लिए, समझने के लिए; कुछ तर्क, कुछ विचार, कुछ चिंतन के लिए नहीं; बल्कि कुछ स्वयं के जीवन की स्थिति को नया रूप, नया जीवन, नई दिशा देने के लिए।
इस बात को बहुत स्पष्ट रूप से ध्यान में ले लेंगे: तो मैं जो कहूंगा, उस पर आपस में कोई विचार नहीं करना है। मैं जो कहूंगा, उस पर बहुत चिंतन नहीं करना है, उस पर बहुत मनन नहीं करना है। मैं जो कहूंगा, उस पर आपस में विवेचन, विवाद और चर्चा बहुत नहीं करनी है। मैं जो कहूं, उस पर थोड़े प्रयोग करने हैं।
तीन दिन बहुत छोटा समय है। उसे चर्चा में, विचार में खो देना उपयोगी नहीं। उस पर कुछ थोड़े से प्रयोग कर लेने जरूरी हैं। क्योंकि मैं जो कहूंगा, वह प्रयोग करने से ही स्पष्ट होगा और समझ में आएगा कि उसका क्या अर्थ है।
मैं जो कहूंगा, उसे अगर थोड़ा भी, उस दिशा में एक कदम भी उठाएंगे तो वह पूरा का पूरा स्मरण में स्पष्ट हो जाएगा कि क्या कहा है और उसका क्या अर्थ है। उस पर कितना ही सोचें, विचार करें, आपस में विवाद करें, कुछ भी स्पष्ट नहीं होगा, बल्कि थोड़ा स्पष्ट भी हुआ होगा वह भी अस्पष्ट हो जाएगा, वह भी उलझ जाएगा।
जीवन में कुछ चीजें हैं, जो केवल जान कर ही नहीं, करके ही जानी और देखी जा सकती हैं।
एक अंधे आदमी को हम समझाते रहें प्रकाश के संबंध में तो कुछ भी समझ में नहीं आएगा, लेकिन उसका आंख का इलाज हो सके, वह आंख खोल कर देख सके तो प्रकाश के संबंध में बिना समझाए सब-कुछ समझ में आ जाता है। हमारी स्थिति भी कुछ आंख बंद किए लोगों जैसी है। आंख खोलने का उपाय किया जा सकता है, लेकिन प्रकाश को समझने का कोई उपाय नहीं है। यह आंख कैसे खुले? इसकी प्राथमिक तैयारी हमारी क्या होगी?
पहली तैयारी--इसे ध्यान में ले लेना जरूरी है कि हम कुछ करने को यहां इकट्ठे हुए हैं, कुछ सुनने और विचार के लिए नहीं। एक बार यह स्पष्ट हो मन में कि कुछ करने से रास्ता साफ होगा तो फिर मैं जो कहूंगा, आप उसे दूसरे ढंग से सुनेंगे।
एक घर में आग लगी हो और मैं जाकर वहां कहूं कि घर में आग लगी हुई है और उस घर के लोग विचार करने लगें कि मैं क्या कह रहा हूं, मेरे कहने का क्या अर्थ है, क्या प्रयोजन है, तो उस घर की आग को बुझाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन जब मैं कह रहा हूं, घर में आग लगी हुई है, तो मैं कोई उपदेश नहीं दे रहा हूं, न मैं कोई दार्शनिक बात कह रहा हूं। मैं केवल एक सूचना दे रहा हूं कि इस घर से बाहर निकल जाना जरूरी है। घर से बाहर आने के लिए एक सृजनात्मक, एक सक्रिय कदम उठाने के लिए पुकार दे रहा हूं। घर में आग लगी है--यह न कोई सिद्धांत है, न कोई विवाद है, न कोई वाद है, न कोई फिलसफा है। यह केवल एक खबर है। और खबर भी उनके लिए जो घर से दौड़ कर बाहर आ सकते हैं, जो कुछ कर सकते हैं।
तो इधर जो बातें भी तीन दिन में मैं कहने को हूं, वह इसी दृष्टि से कि आपके भीतर कोई सक्रिय कदम पैदा हो सके। यह आपको प्राथमिक रूप से स्मरण रख लेना जरूरी है कि मेरा कहा हुआ, कोई सक्रिय कदम उठाने की दिशा में एक पुकार, एक आवाहन है--सुनने, समझने, तत्व-चिंतन के लिए नहीं, तत्व-साधना के लिए कोई दृष्टि है, यह पहली बात।
दूसरी बात, साधना शिविर में हम इकट्ठे हो जाएं एक जगह एकांत में, इससे कोई भी हल नहीं होता। वहां हम कैसी दृष्टि लेकर इकट्ठे होते हैं, कैसा भाव लेकर इकट्ठे होते हैं--हमारा अंतर्भाव, हमारे अंतर्भाव की धारा क्या है, इस पर निर्भर है। यहां हम इतने मित्र इकट्ठे हुए हैं, इनमें कोई इस अवसर को मूल्यवान भी बना सकता है, कोई व्यर्थ भी खो सकता है।
हमारी जैसी आदतें हैं, वह जीवन को व्यर्थ खोने की आदतें हैं।
इन तीन दिनों को अपनी उन आदत के बाहर निकला लेना। आप जैसे आदमी अपने घर पर थे, इन तीन दिनों में कम से कम वैसे आदमी मत रह जाना। मैकेनिकल, हमारी यांत्रिक आदतें हो जाती हैं। सुबह से उठ कर अखबार पढ़ना है, तो यहां भी सुबह से उठ कर हम अखबार की तलाश में पड़ जाएंगे। फिर मैं आपसे कहे देता हूं: आप यहां नहीं आए; आप वहीं हैं, जहां थे। क्योंकि सुबह से उठ कर आपने अखबार खोजा, उसका मतलब यह है कि आप अपना घर खोज रहे हैं, अपनी रोज की जिंदगी खोज रहे हैं, आप अपने रोज का ढंग खोज रहे हैं। वह जो हैबिच्युअल, वह जो मैकेनिकल, यह जो यांत्रिक आपकी आदत है, वह आपने शुरू कर दी। उसे तोड़ना जरूरी है।
इन तीन दिनों में आपको नये आदमी की तरह जीने की कोशिश करनी चाहिए--खयाल रख कर कि मैं कहीं वही ढर्रा, वही ढांचा, वही पैटर्न तो यहां भी पैदा नहीं कर रहा हूं, जो मेरे घर का है? अगर कर रहा हूं तो मैं अपने घर पर हूं, यहां आना फिजूल हो गया। अच्छा था, मैं घर पर ही रहता। वहां तकलीफ नहीं होती, वहां मेरा ढांचा पूरा जैसा चलता था, वह चलता।
और स्मरण रखिए कि जो व्यक्ति अपनी आदतों के ढांचों में इतना बंध जाता है कि उनके बाहर जरा भी नहीं निकल सकता, उसके जीवन में कोई आत्मिक क्रांति कभी भी नहीं हो सकती है, क्योंकि वह आदमी जिस खोल के भीतर जी रहा है, उसके बाहर झांकने की न हिम्मत करता है, न प्रयास करता है। जैसे कोई बीज के भीतर छिपा हुआ पौधा अपनी खोल को न तोड़ सके तो फिर कभी अंकुर नहीं बनेगा। फिर कभी आकाश की तरफ नहीं उठेगा, फिर कभी उसमें फूल नहीं आएंगे।
हम सब अपनी आदतों के घेरों में और खोल में सख्ती से बंद हैं। साधना शिविर में पहली स्मरणीय बात है कि हम अपने आदत के खोल को थोड़ा तोड़ेंगे। स्मरण रहे कि मनुष्य की छोटी-छोटी आदत का एसोसिएशन है। उसकी छोटी-छोटी आदत का ढांचा है। एक छोटी सी आदत उसकी आत्मा तक को कैद करने का कारण बन सकती है।
मेरे एक परिचित थे, वह एक बहुत बड़े वकील थे। उनको हमेशा आदत थी कि जब वह अदालत में आर्ग्यू करते, विवाद करते और कहीं कोई उलझन से भरा बिंदु आ जाए, कोई ऐसी बात आ जाए, जिसको सोचना जरूरी हो जाए, तो वह अपने कोट की बटन को पकड़ कर घुमाने लगते। और जैसे ही वे कोट की बटन घुमाते, उन्हें लगता कि उनके मस्तिष्क में कोई दरवाजा खुल गया है, कोई विचार दौड़ने लगे हैं। उन्हें किसी भी मुकदमें में हराना बहुत मुश्किल था। लेकिन उनके एक विरोधी वकील ने यह आदत उनकी निरीक्षण कर ली कि जब भी वे उलझते हैं, तब कोट के बटन घुमाने लगते हैं। उसने उनके शोफर को मिला कर एक मुकदमे के वक्त उनके कोट की बटन तुड़वा दी। वह अदालत में जाकर कोट कंधे पर टांग कर खड़े हो गए। फिर उन्होंने कोट पहन लिया और वे विवाद करने लगे। ठीक जगह पर जहां उलझन आकर खड़ी हुई, उनका हाथ कोट की बटन पर गया। बटन वहां नहीं थी। उनके माथे पर एकदम पसीने की बूंदें आ गईं। उनके हाथ-पैर ढीले पड़ गए। वे कुर्सी पर आंख बंद करके बैठ गए। वह पहला मुकदमा हार गए!
उन्होंने पीछे मुझे कहा कि मैं हैरान रह गया कि एक छोटी सी बटन से क्या इतना संबंध हो सकता है? क्या इतना संबंध हो सकता है एक छोटी सी बटन से! क्या मैं इतना गुलाम हो सकता हूं कि बटन नहीं थी तो सब गड़बड़ हो गया?
हम सब भी इतने ही गुलाम हैं। और हम अगर अपने जीवन की दिशा को बदलना चाहते हों तो हमारे आस-पास हमने जो आदतों का एक घेरा बना रखा है, छोटी-छोटी बटनों का ही सही, उस घेरे को तोड़ देना जरूरी है।
इन तीन दिनों में इस बात का सचेतन प्रयास करें। कांशस एफर्ट इस बात का करें। ध्यान रखें कि मैं अपनी आदतों के घेरे में वापस तो नहीं लौटा जा रहा हूं। यहां कोई अखबार पढ़ने की जरूरत नहीं है, न यहां रेडियो सुनने की जरूरत है, न एक-दूसरे से व्यर्थ की बातें करने की जरूरत है। तीन दिन के लिए विश्राम ले लें अपनी सब आदतों से।
यहां अगर पति और पत्नी भी साथ आए हैं तो उन्हें एक-दूसरे को पति और पत्नी मानने की कोई भी जरूरत नहीं है। इन तीन दिन के लिए छुट्टी ले लें पत्नी होने से और पति होने से। इन तीन दिन के लिए वह सारे भाव घर पर छोड़ आएं, जो घर के घेरे में हमको कैद रखते हैं, अन्यथा आप वहां से यहां कभी नहीं आ पाएंगे।
जमीन पर यात्रा कर लेनी बिलकुल आसान है। असली यात्रा मन के तल पर करने की जरूरत है। साधना शिविर नारगोल में नहीं हो रहा है, नारगोल में हो रहा होता तो आप आ चुके वहां। साधना शिविर आपके भीतर होगा और वह यात्रा अगर आप करते हैं सचेतन रूप से, तो ही हो सकती है; अन्यथा रेलगाड़ियां हमें कहीं भी पहुंचा देती हैं, रास्ते हमें कहीं भी पहुंचा देते हैं; सिर्फ एक जगह के बाहर हमें नहीं ले जा पाते, अपने बाहर नहीं ले जा पाते। हम हमेशा अपने साथ मौजूद हो जाते हैं।
साधना शिविर में बहुत जरूरी है कि आप अपने को थोड़ा सा घर छोड़ आते। घर छोड़ आए हों--न छोड़ आए हों तो अभी छोड़ दें। इन तीन दिनों में आप एक नये आदमी की तरह जीएं, जिसका कोई ढांचा नहीं है, कोई आदत नहीं है। और जो-जो आदतें आपकी हैं, और जो-जो आपका ढांचा है, जो मन को जकड़ता है, उससे थोड़े सावधान रहने की कोशिश करें।
हो सकता है आपको विवाद करने की आदत हो। किसी ने कुछ कहा और आप विवाद करने लगे। तो थोड़ा सचेत होकर देखें कि मैं कहीं अपनी विवाद करने की आदत में तो नहीं पड़ रहा हूं। और जैसे ही खयाल आ जाए, फौरन क्षमा मांग लें और कहें, ‘‘कि भूल गया, मैं भूल गया। मेरी आदत वापस लौट आई। मैं क्षमा चाहता हूं और वापस लौटता हूं। इस आदत को यहीं छोड़ देता हूं।’’
दिन भर हमारी बातें करने की आदतें है! कुछ न कुछ हम बात कर रहे हैं! मौन बैठने का तो कोई सवाल नहीं है। और आपको पता ही नहीं कि बात करने वाले लोग कभी भी जीवन के सत्य को नहीं जान सकते हैं। केवल वे ही लोग, जो कभी मौन होना भी जानते हैं, वे ही पहुंच पाते हैं।
मौन हुए बिना कोई स्वयं के सत्य तक न कभी पहुंचा है, न कभी पहुंच सकता है। लेकिन हम चौबीस घंटे बातचीत में तल्लीन हैं। एक घड़ी हमें मौका मिल जाए चुप होने का तो बड़ी बेचैनी और बहुत कठिनाई शुरू हो जाती है। ऐसा लगने लगता है कि कैसे गुजरेगी यह घड़ी!
यहां तीन दिन इसका प्रयोग करें। ज्यादा से ज्यादा मौन रहें। कम से कम बोलें। बहुत जरूरी हो तो बोलें, बिलकुल टेलीग्राफिक, जैसे कि आपको पैसे ठुक रहे हों एक-एक शब्द बोलने के। आदमी तार करता है तो लंबी-लंबी बातें नहीं लिखता। दस शब्द लिख देता है, आठ शब्द लिख देता है; एक-एक काटता जाता है कि यह व्यर्थ है, इसकी कोई जरूरत नहीं है। और आठ शब्दों का तार उतना काम करता है कि जितनी आठ हजार शब्दों की चिट्ठी नहीं करती। क्योंकि शब्द जितने जरूरी रह जाते हैं, जितने महत्वपूर्ण हो जाते हैं, उतने ही कनसनट्रेटेड हो जाते हैं, उतने ही एकाग्र हो जाते हैं, उतनी ही उनमें तीव्रता और बल आ जाता है। जितने बिखर जाते हैं, जितने ज्यादा हो जाते हैं, उतनी तीव्रता कम हो जाती है, उतना बिखराव हो जाता है। जैसे सूरज की किरणों को हम इकट्ठा कर लें किसी कांच से तो आग पैदा हो जाती है और बिखरी हुई किरणें पड़ती रहती हैं तो कोई आग पैदा नहीं होती।
जो लोग मौन होने की कला सीख जाते हैं, उनके शब्दों में प्राण और जादू आ जाता है। उनका एक-एक शब्द आग पैदा करने की कूवत और शक्ति को उपलब्ध कर लेता है। लेकिन हम चौबीस घंटे बोले जा रहे हैं। कुछ भी बोले जा रहे हैं, जिसकी कोई जरूरत न थी। जिसका कोई उपयोग न था, जिससे दुनिया में किसी का हित नहीं हुआ, वह हम बोले चले जा रहे हैं!
इन तीन दिनों में खयाल रखें, ऐसा एक शब्द भी आपके ओंठों से बाहर न आए, जो अनावश्यक था। और आप हैरान हो जाएंगे, आवश्यक शब्द इतने कम हैं, आवश्यक बातें इतनी कम हैं कि आप पाएंगे कि घंटों मौन में बीते जा रहे हैं। कभी कोई एकाध शब्द...।
लाओत्सु का नाम आपने सुना होगा। कोई ढाई हजार वर्ष पहले चीन में हुआ। रोज सुबह घूमने जाता था। एक मित्र भी उसके साथ घूमने जाता था। मित्र आकर उससे करता नमस्कार। आधा घंटे बाद लाओत्सु कहता नमस्कार! आधा घंटा चल लेने के बाद इतनी ही कुल बात होती थी। बस ये नमस्कार होते थे दो। घंटे-दो घंटे घूम कर पहाड़ी से वे वापस लौटते थे।
एक दिन मित्र के साथ एक मेहमान भी आ गया। फिर वे तीनों घूमने गए। रास्ते में उस मेहमान ने इतना ही कहा, कितनी खूबसूरत सुबह है, कितना अच्छा मौसम है। लेकिन वे दोनों चूंकि चुप थे, वह इतना कह कर, वह भी चुप हो गया। फिर वे वापस लौट आए।
घर आकर लाओत्सु ने अपने मित्र के कान में कहा कि अपने मेहमान को कल से मत लाना। बहुत बातूनी मालूम पड़ता है। हमको भी दिखाई पड़ रहा था कि सुबह बहुत सुंदर है, इसे कहने की जरूरत क्या थी? अनावश्यक था। हम भी मौजूद थे, हम भी उस सुबह को देख रहे थे। इसे कहने की क्या जरूरत थी? इस बातूनी मित्र को साथ मत लाना।
आवश्यक-अनावश्यक का ऐसा स्पष्ट भेद मन में होना चाहिए कि मैं क्या कह रहा हूं वह आवश्यक है या अनावश्यक? और अगर बीच में भी खयाल आ जाए कि अनावश्यक बात मैंने कही, आधी हो गई, तो आधी ही छोड़ देना इन तीन दिनों में। वहीं छोड़ देना, वहीं से क्षमा मांग लेना कि गलती हो गई, मैं व्यर्थ की बात कर रहा हूं, आदत के कारण किए चला जा रहा हूं।
ये तीन दिन मौन के दिन बनने चाहिए। इस समुद्र का किनारा इतना अदभुत है, इसके पास अकेले में जाकर बैठना! ये सरू के दरख्त इतने सुंदर हैं, इनके पास बैठना! न अपनी पत्नी से बात करना, न अपने मित्र से। सरू के दरख्तों से कर लेना, समुद्र से कर लेना।
यहां शिविर में आप बिलकुल अकेले हैं, इस भांति के भाव-बोध को...तीसरी बात स्मरण रखना। यहां ये छह सौ लोग नहीं हैं, यहां मैं अकेला हूं। क्योंकि हम जिस दिशा में जाना चाहते हैं, जिस ध्यान की दिशा में, जिस साधना की दिशा में, वहां कोई संगी-साथी नहीं है। वहां हर आदमी अकेला है। परमात्मा के रास्ते पर कोई भीड़-भाड़ नहीं जाती। वहां एक-एक आदमी ही जाता है। तो यहां हम सब अकेले हैं। साधक की हैसियत से कोई भीड़-भाड़ का संबंध नहीं। यहां इतने लोग हैं, लेकिन प्रत्येक को यह अनुभव करना है तीन दिन कि मैं बिलकुल अकेला हूं। मेरे साथ यहां कोई भी नहीं है। मुझे ऐसे ही जीना है तीन दिन, जैसे मैं बिलकुल अकेला हूं। कंपनी मत खोजें। यहां कोई संगी-साथ मत खोजें। यह मत कहें कि मुझे मेरे मित्रों के साथ ठहरा दें। यहां कोई है ही नहीं। यहां आप बिलकुल अकेले हैं।
और यहां तीन दिन बिलकुल अकेले, टोटल लोनलीनेस में जीने का प्रयोग करना है। अकेले जीने में जो समर्थ हो जाता है, उसके लिए वे द्वार खुल जाते हैं, जो भीड़ में रहने वालों के लिए हमेशा बंद हैं। अकेले होने का भाव--अभी रात आप जाकर सोएंगे तो इस भांति जैसे आप बिलकुल अकेले हैं, इस बड़े जगत में कोई भी नहीं है आप बिलकुल अकेले हैं, ऐसा चुपचाप अकेले नींद में डूब जाएं। सुबह जब उठें, तब भी ऐसे कि जैसे बिलकुल अकेले हैं।
और सच है कि आदमी अकेला है। जन्म अकेला है, मौत अकेली है; बीच में बहुत भीड़-भाड़ दिखाई पड़ती है तो हम सोचते हैं, कोई हमारे साथ है! शरीर से शरीर टकरा जाते हैं, तो हम सोचते हैं, कोई हमारे साथ है। शब्द से शब्द बात कर लेते हैं, तो हम सोचते हैं, कोई हमारे साथ है। लेकिन कोई किसी के साथ नहीं है। यात्रा बिलकुल अकेली है। एक-एक आदमी अकेला है। भीड़ के बीच भी एक-एक आदमी अकेला है। कोई किसी के साथ नहीं है।
कम से कम तीन दिन तो इसके स्मरण को गहरा करें कि मैं बिलकुल अकेला हूं। इस स्मरण के परिणाम होंगे। जब आपको खयाल आएगा कि मैं बिलकुल अकेला हूं, तो इसके साथ ही एक अदभुत मौन आपके भीतर पैदा होना शुरू हो जाएगा। क्योंकि बात वहां शुरू होती है, जहां कोई और है। संबंध वहां बनते हैं, जहां कोई और है। झगड़े, मित्रता और शत्रुता वहां खड़ी होती है, जहां कोई और है। जहां मैं अकेला हूं, बिलकुल अकेला, वहां एक कोरा सन्नाटा भीतर पैदा हो जाए तो आश्र्चर्य नहीं।
मौन एकाकीपन की छाया है।
तो अकेले होने का भाव इन तीन दिनों में गहरा से गहरा होना चाहिए। किसी को बाधा न दें, किसी के अकेलेपन को न तोड़ें। कोई अकेला झाड़ों के नीचे बैठा हो तो उसके पास न जाएं, पहुंच जाएं भूल से तो फौरन हट जाएं, जैसे ही खयाल आ जाए। हरेक को अकेला होने दें, अकेला रहने दें, अकेला जीने दें, अकेला अनुभव करने दें।
अगर तीन दिन कोई इंटेंसिटी से, कोई पूरी तीव्रता से अकेलेपन का अनुभव करे, तो तीन दिन में वह क्रांति हो जाएगी, जिसके लिए हम यहां इकट्ठे हुए हैं।
तो तीसरा सूत्र यह स्मरण रखें कि हम बिलकुल अकेले हैं, एकदम अकेले--एकदम अकेले हैं, कोई नहीं साथ।
एक यूनान का फकीर था, गुरजिएफ। एक छोटे से गांव में एक प्रयोग कर रहा था। तीस लोगों को एक बंगले में बंद कर रखा था। और उन तीस लोगों से कहा था कि तुम तीस यहां नहीं हो, एक-एक ही है यहां। हरेक को यही अनुभव करना है कि मैं अकेला हूं। तीन महीने तक यह प्रयोग चलेगा। कोई यह खयाल न करे कि दूसरा यहां मौजूद है। उनतीस लोग यहां नहीं है, अकेले हो तुम। न बोलना है, न किसी की तरफ आंख उठा कर देखना है; क्योंकि आंखों से भी बोला जा सकता है। न स्मरण रखना है कि कोई यहां है--अकेले, बिलकुल अकेले हो। तीन महीने के उस प्रयोग ने उन लोगों को कहां पहुंचा दिया!
तीन महीने के उस प्रयोग में उन्होंने वह अनुभव किया, जो कि आदमी तीन जन्मों भी मेहनत करता तो अनुभव नहीं हो पाता। तीन महीने में वे परिपूर्ण शांत हो गए। क्योंकि जहां दूसरा मौजूद नहीं है, वहां बोलने का उपाय नहीं। जहां दूसरा है ही नहीं, वहां मन में भी बात करने का कोई उपाय नहीं। मन में भी हम तभी बात कर पाते हैं, जब हम दूसरे को कल्पित कर लेते हैं, दूसरे को खड़ा कर लेते हैं, दूसरे की इमेज बना लेते हैं। दूसरे की प्रतिमा खड़ी हो जाती है, तब हम बात कर पाते हैं। जब कोई दूसरा है ही नहीं, मैं बिलकुल अकेला हूं, इसी भाव में वे तीन महीने तक डूबते चले गए, डूबते चले गए, तो सारी वाणी समाप्त हो गई, सारा संवाद बंद हो गया, सारे विचार गिर गए, और निर्विचार मौन में उन्होंने उसे जान लिया, जो उनके भीतर छिपा था।
जब तक हम दूसरे से बोल रहे हैं, तब तक हम उसे नहीं जान सकेंगे, जो हम हैं। जो ‘मैं’ हूं, उसे जानना हो, तो ‘तू’ से छुटकारा चाहिए। वह जो दूसरा है, उससे छुट्टी चाहिए, उससे मुक्ति चाहिए, उससे अवकाश चाहिए। जब तक हम ‘तू’ से बंधे हुए हैं, तब तक ‘मैं’ को नहीं जाना जा सकता कि वह क्या है। क्योंकि हमारी नजर, हमारी दृष्टि, हमारा ध्यान सब दूसरे पर बहा जा रहा है, दूसरे पर बहा जा रहा है। हम चौबीस घंटे दूसरे पर बिखरे जा रहे हैं, चौबीस घंटे दूसरे पर घूम रहे हैं, भटक रहे है और स्वयं पर आना नहीं हो पाता है। यह स्वयं पर आना हो सकता है, लेकिन उसके लिए अकेलेपन का, बिलकुल लोनलीनेस का खयाल, तीव्र भाव चाहिए।
बोधिधर्म एक भिक्षु था। एक सुबह एक युवक उसके पास आया और बोधिधर्म से पूछने लगा कि मैं कौन हूं, मुझे इसका उत्तर चाहिए। बोधिधर्म बड़ा कृपालु, बड़ा दयालु व्यक्ति था। उसकी दया आपको अभी पता चल जाएगी। उसने चांटा--जोर से एक चांटा उस युवक को मारा। वह युवक तो तिलमिला गया, और उसने कहा: यह आप क्या करते हैं? मैं पूछने आया हूं कि मैं कौन हूं, और आप मारते हैं!
वह युवक उठा और वापस लौट गया। उसने जाकर एक दूसरे भिक्षु को कहा कि मैं गया था बोधिधर्म से पूछने, मैंने बड़ा नाम सुना था उनका। उन्होंने मुझे चांटा मार दिया है। उस भिक्षु ने कहा: बोधिधर्म बहुत दयालु है। क्या तू मुझसे पूछने आया है? अगर मुझसे पूछने आया है तो ठहर, मैं अपना डंडा उठा लाऊं।
वह तो बहुत हैरान हो गया। लेकिन लौटते समय उसे भी खयाल आया कि बोधिधर्म को क्या प्रयोजन है मुझे मारने से? वह मुझे मारेगा क्यों? अपने हाथ को तकलीफ ही दी और तो कुछ नहीं। जरूर कोई बात होगी। जरूर कोई बात होगी!
वह फिर दूसरे दिन सुबह पहुंच गया और बोधिधर्म के पास जाकर बैठा ही था कि बोधिधर्म ने कहा: फिर आ गए? पूछोगे आज फिर? अगर पूछोगे तो फिर मारूंगा, और अगर आज नहीं भी पूछा तो भी मारूंगा, बोलो क्या करते हो?
वह युवक तो घबड़ाया और नहीं बोल सका। बोधिधर्म हंसने लगा। उसने कहा: पागल, जब तू मुझसे पूछने आ गया कि मैं कौन हूं! दूसरे से पूछता है कि मैं कौन हूं, तो उत्तर तुझे कभी भी नहीं मिलेगा। और जो भी उत्तर मिलेंगे, सब झूठे मिलेंगे; क्योंकि दूसरा यह उत्तर कैसे दे सकता है कि तू कौन है! यह उत्तर तो स्वयं से ही आएगा। इसलिए मैंने तुझे चांटा मारा कि शायद मेरे चांटा मारने से तू मुझसे विरत हो जाए और अपने में लौट जाए। मेरे चांटा मारने से मैंने कोशिश की, ताकि तू अपने में लौट जाए, ताकि तू वापस लौट जाए।
हम अपने में वापस लौट जाएं तो शायद उसका पता चल जाए, जो हम हैं। और उसका पता चल जाना ही सत्य का पता चल जाना है। और उसका पता चल जाना ही प्रभु का पता चल जाना है। और उसका पता चल जाना ही जीवन के घर में रोशनी का जल जाना है, सुगंध का फैल जाना है।
तो मैं तीन दिन पूरी कोशिश करूंगा कि आप अपने पर लौट जाएं। मैं उतना दयालु नहीं हूं कि आपको चांटा मारूं। लेकिन पूरी कोशिश करूंगा कि आप अपने पर वापस लौट जाएं। और इस अपने पर वापस लौटने में आपका जो सहयोग होगा, वह यह कि ‘तू’ को भूल जाइए, यहां कोई दूसरा नहीं है। ‘दि अदर’--वह जो दूसरा है, उसको छोड़िए, उसको भूल ही जाइए कि वह है। इसीलिए दरख्तों के साथ आसानी हो जाती है, समुद्रों के साथ आसानी हो जाती है, पहाड़ों के साथ आसानी हो जाती है। क्यों? क्योंकि दरख्त को ‘तू’ कहने का आपको खयाल नहीं आता, समुद्र को ‘तू’ कहने का ख्याल नहीं आता।
असली कठिनाई ह्यूमन रिलेशनशिप की है। वह आदमी के साथ हमेशा ‘तू’ मौजूद हो जाता है। इसलिए थोड़ी देर को यहां समुद्र के पास जाना। समुद्र आपको अपनी तरफ वापस लौटा देता है, क्योंकि वहां कोई ‘तू’ नहीं है। दरख्तों के पास बैठना। दरख्त आपको अपने पास वापस लौटा देते हैं, क्योंकि वहां कोई ‘तू’ नहीं है। आदमी के पास कठिनाई है अभी, क्योंकि वहां उसकी मौजूदगी तत्क्षण आपके चित्त को उसके आस-पास घुमाने लगती है। आप अपने पर नहीं लौट पाते, उसके पास पहुंच जाते है। एक दिन जरूर ऐसा आ जाता है, जब आदमी के पास भी आप इसी तरह बैठ सकते हैं, जैसे वृक्ष के पास। आदमी के पास भी इसी भांति बैठ सकते हैं, जैसे सागर के पास।
जिस दिन कोई आदमी के पास भी इस तरह बैठ जाता है, उस दिन आदमी के भीतर उसे वह दिखाई पड़ता है, जो न वृक्षों में दिखाई पड़ सकता, न सागरों में दिखाई पड़ सकता है। तब तो उसे आदमी के भीतर, वह सबसे बड़ी जो मिस्ट्री है, जीवन का वह जो रहस्य है, उसके दर्शन हो जाते हैं। लेकिन उसकी तैयारी चाहिए। एक दिन आता है कि आप आदमी के साथ भी ऐसे बैठ सकते हैं, जैसे कोई नहीं है।
लेकिन वह घड़ी धीरे-धीरे आ सकती है। उसके लिए कुछ तैयारी और कुछ भूमिका हो जानी चाहिए। इन तीन दिनों में उसका हम प्रयास करेंगे। इन तीन दिनों में इस बात की कोशिश करेंगे कि हम बिलकुल अकेले हैं। अकेलेपन को खोजें, एकांत में बैठें। और मैंने जो तीन सूत्र कहे, उन पर ध्यान रखें।
अभी जब आप जाकर सोएंगे बिस्तर पर, तो इसी भांति सो जाएं कि जैसे इस बड़े विराट जगत में आप बिलकुल अकेले हैं, जैसे इस पूरी पृथ्वी पर आप बिलकुल अकेले हैं, इन चांद-तारों की दुनिया में आप बिलकुल अकेले हैं। कोई नहीं है, आप बिलकुल अकेले हैं। इस अकेलेपन में चुपचाप डूबते जाएं और सो जाएं। सुबह ही आप एक अनूठा भाव लेकर वापस जाग सकेंगे। वह अकेलेपन का भाव है।
साधक अकेला है। उसका न कोई संगी है, न कोई साथी है, न कोई भीड़ है, न कोई संप्रदाय है। और प्रभु के मंदिर की जो यात्रा है, वह बिलकुल अकेले में पूरी करनी पड़ती है।
इन तीन दिनों में मैं उस अकेलेपन की दिशा में आपको ले जाने की कोशिश करूंगा, लेकिन आपके सहयोग के बिना कुछ भी नहीं हो सकता है। आपका सहयोग आप अपने पूरे मन से दे सकें, तो बात इतनी आसान है जिसका कोई हिसाब नहीं और आपका सहयोग न हो तो बात इतनी कठिन है, इतनी मुश्किल--असंभव। कठिन ही नहीं, असंभव ही है।
एक छोटी सी घटना, और अपनी चर्चा मैं पूरी करूंगा।
फिर आप चुपचाप जाएं और सो जाएं। यहां से जाते समय भी बातचीत न करें। कुछ मत कहें किसी से। चुपचाप चले जाएं। और तीन दिन मैं ध्यान रखूंगा कि आप बातचीत तो नहीं कर रहे हैं। आप व्यर्थ की बातचीत में तो नहीं लगे हैं। चुपचाप जितना चुप हो सकें--तीन दिन ऐसे जैसे शब्द खो गए और आप गूंगे हो गए हैं। आपसे बोला ही नहीं जाता। आपके ओंठ बंद हो गए हैं।
एक सम्राट एक बहुत बड़े संगीतज्ञ के संगीत को सुनने को बहुत आतुर था। चाहता था कि संगीत सुनने मिल जाए। उसने अपने दरबारी भेजे, वजीर भेजे और संगीतज्ञ को कहलवाया कि दरबार में आ जाओ, तुम जो कुछ भी मांगोगे मैं दूंगा, लेकिन मुझे तुम्हारी वीणा सुननी है।
उस संगीतज्ञ ने कहा कि शायद उन्हें पता नहीं कि संगीत कोई ऐसी बात नहीं कि किसी की आज्ञा से पैदा हो जाए। उन्होंने बुलाया, उनका धन्यवाद। उन्होंने आदेश भेजा हो तो मैं आ सकता हूं, वीणा बजाऊंगा भी, लेकिन वह वह वीणा न होगी, जो मैं बजाता हूं। न मैं वह संगीतज्ञ होऊंगा, जिसको वे सुनना चाहते हैं। लेकिन अगर उन्होंने प्रार्थना की हो तो फिर मैं किसी दिन आऊंगा, लेकिन उस दिन की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, आज नहीं। जब मौज में होगा मेरा मन और मेरे पैर उठ जाएंगे दरबार की तरफ तो मैं आ जाऊंगा।
राजा लेकिन बहुत बेचैन हो गया। और भी बेचैन हो गया। उसे पहली दफा पता चला कि आदेश और प्रार्थना में फर्क है।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह प्रार्थना से आता है; जो भी व्यर्थ है, वह आदेश से मिल जाता है।
लेकिन प्रार्थना के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। आदेश अभी, इसी क्षण पूरा भी हो सकता है। लेकिन राजा को यह भी दिखाई पड़ गया है कि आदेश से वह संगीतज्ञ आ जाएगा, तो जिसे मैं सुनना चाहता हूं, नहीं सुन पाऊंगा। बजा देगा!
लेकिन वह बड़ा आतुर था। उसने अपने दरबार के संगीतज्ञ को कहा कि तुम कोई रास्ता खोज निकालो।
उसने कहा: रास्ता हो सकता है। वह यह नहीं कि संगीतज्ञ दरबार में आए, वह यही हो सकता है कि हम संगीतज्ञ के घर चलें।
राजा ने कहा: इसमें क्या फर्क है, संगीतज्ञ यहां आए या हम उसके घर जाएं?
उस संगीतज्ञ ने कहा: बहुत फर्क है। बहुत फर्क है, वह आदेश और प्रार्थना का ही फर्क है।
जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, उसके पास हमें स्वयं ही जाना पड़ता है। घर बैठ कर उसे बुलाना नहीं पड़ता है। हमें चलने पड़ते हैं कुछ कदम।
राजा राजी हो गया। उस संगीतज्ञ ने, जो एक फकीर था और दरिद्र आदमी था और भिखमंगों के कपड़े पहनता था, उसने राजा से कहा: राजा के वस्त्रों में संगीतज्ञ के घर पहुंचना नहीं होगा। फिर तो वह वही बात होगी। उसमें कोई फर्क न पड़ेगा। आप भी मेरे जैसे वस्त्र पहन लें।
राजा ने कहा: इन वस्त्रों से क्या बाधा पड़ेगी? हम संगीत सुनते चलते हैं, वस्त्र क्या करेंगे?
उस संगीतज्ञ ने कहा कि बहुत कुछ करेंगे। आप वहां भी राजा बने रहे तो फिर संगीत जो हम सुनना चाहते हैं, वह नहीं सुना जा सकेगा।
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह सम्राटों की भांति नहीं, याचकों की भांति उपलब्ध होता है। वहां हाथ फैला कर पहुंचना पड़ता है।
और इन वस्त्रों में आप हाथ न फैला सकेंगे। ये वस्त्र सिंहासनों पर बैठने के आदी हैं। ये धूल में उस गरीब संगीतज्ञ के द्वार पर न बैठ सकेंगे।
राजा राजी हुआ। उसने दरिद्र के वस्त्र पहने और वे दोनों, रात उतरने को थी, सांझ होने को थी, तब उस संगीतज्ञ के द्वार पर पहुंच गए। राजा का संगीतज्ञ अपने साथ अपनी वीणा ले गया था। वे दोनों द्वार पर बैठ गए। उसने वीणा बजानी शुरू कर दी। उसने वीणा पर वही, वही बजाना शुरू कर दिया, जो उस संगीतज्ञ के लिए सबसे ज्यादा प्यारा था, जिसमें उसकी कुशलता थी। लेकिन बीच-बीच में दो-चार भूलें कीं, जान कर कीं। उस संगीतज्ञ ने द्वार खोल दिया और कहा कि कौन...कौन बजा रहा है? और कौन गलत बजा रहा है?
उस संगीतज्ञ ने कहा कि मैं और ज्यादा नहीं जानता हूं। जैसा जानता हूं, बजा रहा हूं। कोई बता दे तो मैं सीखने को हमेशा तैयार हूं।
वह संगीतज्ञ अपनी वीणा उठा लाया भीतर से और उसने बजाना शुरू कर दिया। राजा तो मंत्रमुग्ध हो गया। जब बज चुकी वीणा तो उसने कहा: शायद तुम पहचाने नहीं, मैं सम्राट हूं, जिसने तुम्हें बुलाया था। और आखिर देखो, मैंने सुन लिया न।
उस संगीतज्ञ ने कहा: यह बात और है। तुम एक याचक की भांति आए हो, मुझे बुलाया नहीं गया है। फिर तुमने वह अवसर, वह सिचुएशन, वह परिस्थिति पैदा कर दी कि मेरे भीतर भाव जग गया और मैं बजाने लगा। मुझे आदेश नहीं दिया गया है।
परमात्मा के द्वार पर भी ऐसे ही जाना होता है। ऐसे ही कोई आदेश नहीं देने पड़ते। एक प्रार्थी का भाव लेकर। राजाओं के वेश में नहीं, दीन-हीन, ह्युमिलिटि, विनम्रता से। हाथ फैलाए हुए, सिंहासनों पर बैठे हुए नहीं।
और इतनी दीनता से--क्राइस्ट कहते थे, पुअर इन स्प्रिट, जो इतने भाव में दीन, असहाय, विनम्र, आतुर और याचक होकर उस द्वार पर खड़ा हो जाता है, फिर जो भी उससे बनता है, जैसे भी भूल-चूक भरे शब्दों में प्रार्थना करने लगता है; जैसे भी बनता है, भूल-चूक भरी वीणा बजाने लगता है; तब वे द्वार खुल जाते हैं उस परम संगीतज्ञ के और वह अपनी वीणा उठा कर आ जाता है। लेकिन इतने दूर तक हमें यात्रा करनी पड़ती है। इस यात्रा के लिए हमें तैयार हो जाना जरूरी है।
आज रात से ही उसकी तैयारी शुरू करें, मैंने जो तीन सूत्र कहे। सुबह से उन पर प्रयोग शुरू करें। फिर हम साधना के लिए और क्या जरूरी है, क्या महत्वपूर्ण है, किन-किन कदमों को उठाएंगे, उनकी हम बात करेंगे और प्रयोग करेंगे।

आज की पहली बैठक पूरी हुई।
अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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